मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ विश्वासघात तक कर देते हैं (भाग एक)

परिशिष्ट : सत्य क्या है

आज हम पिछली बार की संगति की विषय-वस्तु पर चर्चा जारी रखेंगे। पिछली बार हमने किस विषय पर संगति की थी? (“अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना” सत्य नहीं है।) तो क्या तुम सोचते थे कि यह सत्य है? लोग अवचेतन रूप से सोचते थे कि यह सत्य है या कम से कम यह काफी सकारात्मक, प्रेरणादायक है और संभवतः लोगों को सक्रिय और उन्नतिशील बनने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है। इस स्तर से इसका अर्थ देखें तो लोगों को यह सत्य और सकारात्मक चीजों के काफी करीब लगा। इसलिए कई लोगों ने अवचेतन रूप से मान लिया कि यह कहावत “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना” काफी सकारात्मक अभिव्यक्ति है या कम से कम इसका नकारात्मक के बजाय सकारात्मक अर्थ है, और लोगों के जीवन और स्व-आचरण में सहायता करने में इसकी भूमिका है। मगर इस पर संगति करने के बाद हमने देखा कि ऐसा कुछ भी नहीं है, बल्कि इसमें बड़ी समस्याएँ हैं। क्या तुम लोगों ने उन अभिव्यक्तियों की खोज और उनका गहन-विश्लेषण किया है जो इस अभिव्यक्ति के समान या इससे संबंधित हैं या जिनकी भूमिका एक समान है या जिनके बारे में लोग अवचेतन रूप से सोचते हैं कि वे काफी हद तक सकारात्मक या अच्छी हैं? (नहीं।) मुझे बताओ, क्या “एक उदाहरण से अनेक निष्कर्ष निकालना” अभिव्यक्ति यहाँ उपयुक्त है? (हाँ।) यह कहा जाना चाहिए कि जब सत्य खोजने और इसका अभ्यास करने की बात आती है तो इस अभिव्यक्ति के व्यावहारिक अनुप्रयोग होते हैं। पिछली बार हमने “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना” के बारे में संगति की थी। इसके जैसी और कौन-सी अभिव्यक्तियाँ हैं? कौन-सी अन्य अभिव्यक्तियाँ लगभग समान अर्थ रखती हैं या समान भूमिका निभा सकती हैं? मेरे दिखाए मार्ग के अनुसार “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना” जैसी अभिव्यक्तियों का गहन-विश्लेषण करने, इनके बारे में एक-दूसरे के साथ संगति करने और कुछ नई समझ हासिल करने में तुम लोगों का कोई नुकसान नहीं है। जब तुम उनकी भ्रांतियों को ठीक से समझ पाओगे तो तुम ऐसी अभिव्यक्तियों को त्याग दोगे और फिर पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों पर आधारित होकर सत्य का अभ्यास करने और सत्य की खोज करने का मार्ग अपनाओगे।

पिछली दो बार हमने जिस विषय पर संगति की थी, आओ आज उसी पर संगति जारी रखें। वह विषय क्या था? (सत्य क्या है।) सही कहा, सत्य क्या है। तो आखिर क्या है सत्य? (सत्य इंसान के स्व-आचरण, क्रियाकलापों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी है।) ऐसा लगता है तुम लोगों ने इस वाक्य के सिद्धांत और परिभाषा को याद कर लिया है। तो हमारी पिछली दो संगतियों के बाद क्या पहले की तुलना में अब तुम्हारे दिल की गहराई में सत्य की परिभाषा, ज्ञान और समझ में कोई अंतर आया है? (हाँ, आया है।) आखिर क्या अंतर आया है? भले ही कम समय में तुम्हें व्यावहारिक अनुभव का ज्ञान नहीं हो सकता, फिर भी कम से कम तुम्हें कुछ अवधारणात्मक ज्ञान तो होगा ही। तुम मुझे अपने खुद के अनुभव, ज्ञान और समझ के आधार पर बताओ। (पहले मैं यह जानता था कि जब भी मेरे सामने मामले आते हैं तो मुझे परमेश्वर के वचनों के सत्य के अनुसार अभ्यास करना चाहिए पर मैं कभी इसे अभ्यास में नहीं ला सका। यह ऐसा है जैसे कि मुझमें आम तौर पर उतावलापन दिखाने की प्रवृत्ति है, और भले ही परमेश्वर के वचनों से मैं जानता हूँ कि उतावलापन दिखाना गलत है और मैं लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाओं को जानता हूँ फिर भी मैं ऐसा करता हूँ, और अब तक इसका मूल कारण नहीं ढूँढ़ पाया हूँ। पिछली बार परमेश्वर की संगति सुनने के बाद ही मुझे एहसास हुआ कि अक्सर लोग भ्रष्टता इसलिए दिखाते हैं कि वे शैतानी विचारों के काबू में होते हैं और मैं उतावलापन इसलिए दिखाता हूँ क्योंकि मेरे अंदर यह शैतानी तर्क है कि “मैं तब तक हमला नहीं करूँगा जब तक मुझ पर हमला नहीं किया जाता; यदि मुझ पर हमला किया जाता है तो मैं निश्चित रूप से जवाबी हमला करूँगा।” मुझे लगता है कि यह कहावत सही है और मैं आत्म-रक्षा के उपाय के रूप में ऐसा बर्ताव करता हूँ। इस शैतानी सोच और दृष्टिकोण से प्रभावित होकर मैं सत्य का अभ्यास करने में असक्षम हूँ। लेकिन दरअसल, भले ही ये शैतानी बातें बाहरी तौर पर सही लगती हैं, वास्तव में वे जो अर्थ व्यक्त करती हैं वह परमेश्वर के वचनों की अपेक्षा के बिल्कुल विपरीत है और वे गलत हैं। केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं और परमेश्वर के वचनों के अनुसार व्यवहार करना ही पूरी तरह से सही है।) बहुत बढ़िया। और कोई कुछ कहना चाहेगा? (मैं इसमें कुछ और जोड़ना चाहूँगा। पहले मैं भी जानता था कि मामलों से सामना होने पर मुझे सत्य खोजना और इसका अभ्यास करना चाहिए, फिर भी मैं इसके अभ्यास करने के तरीके को लेकर थोड़ी उलझन में था। परमेश्वर की संगति सुनकर मुझे लगता है कि सत्य बहुत वास्तविक है और इसका संबंध जीवन के हर पहलू से है। परमेश्वर के ही बताए कुछ उदाहरण ले लो। चीनी लोग भी पश्चिमी देशों में आने के बाद कॉफी पीना सीख जाते हैं। यह किसी के व्यवहार की समस्या नहीं बल्कि लोगों के विचारों और दृष्टिकोण की समस्या है और इसका संबंध सत्य से है। और फिर, लोगों द्वारा सही माने जाने वाली कुछ सामान्य कहावतों और मुहावरों के बारे में परमेश्वर के गहन-विश्लेषण के बाद मैं सोचने लगा हूँ कि मुझे अपने सही लगने वाले व्यवहारों और अभ्यासों पर, और इन व्यवहारों के पीछे के इरादों, विचारों और दृष्टिकोणों पर विचार करना चाहिए और इस पर भी विचार करना चाहिए कि इन चीजों पर भरोसा करके मैं वास्तव में कैसा जीवन जी रहा हूँ। अब मैं इस बारे में अधिक स्पष्ट हो गया हूँ कि जब भी मेरे सामने कोई मामला आए तो मुझे सत्य की खोज और उसका अभ्यास कैसे करना चाहिए, और अब यह उतना गूढ़ नहीं रह गया है।) ऐसा लगता है कि इन दो संगतियों से ज्यादातर लोगों को सत्य क्या है इसकी और सत्य से संबंधित कुछ विषयों के बारे में बुनियादी समझ हासिल हो गई है और साथ ही, अपने दिल की गहराई से उन्होंने पहले से ही इस बात पर विचार करना शुरू कर दिया है कि क्या उनका आचरण और कार्यकलाप सत्य से संबंधित हैं; साथ ही वे यह विचार भी करने लगे हैं कि वे परमेश्वर में अपने विश्वास में जिन बातों का पालन करते और सुनते हैं उनमें से वास्तव में कौन-सी बातें सत्य हैं और कौन-सी बातें सत्य नहीं हैं, क्या उन्हें जो चीजें सही लगती हैं वे वास्तव में सत्य हैं और ऐसी चीजों का सत्य से क्या संबंध है। विचार करने के बाद लोग यह निर्धारित कर सकते हैं कि वास्तव में सत्य क्या है; साथ ही यह भी कि वास्तव में कौन-सी बातें सत्य हैं और वास्तव में कौन-सी बातें सत्य नहीं हैं। इतने सालों तक धर्मोपदेश सुनने और परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने के बाद ज्यादातर लोगों ने कुछ चीजें हासिल की हैं और वे एक तथ्य स्पष्ट देख सकते हैं : परमेश्वर के वचन वास्तव में सत्य हैं, परमेश्वर की अपेक्षाएँ सत्य हैं और परमेश्वर से आने वाली हर चीज सत्य है। जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्होंने पहले ही इस तथ्य को दिल से मान और स्वीकार लिया है मगर वास्तविक जीवन में वे अक्सर अनजाने में ऐसी बातें कह सकते हैं जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता या जो सत्य के विपरीत होती हैं। कुछ लोग तो उन चीजों को भी सत्य मान लेते हैं जिन्हें लोग सही और अच्छा समझते हैं और वे खास तौर पर शैतान से आने वाली उन दिखावटी भ्रांतियों और दानवी शब्दों का भेद नहीं पहचान पाए हैं जिन्हें उन्होंने न केवल बहुत समय से अपने दिल में स्वीकार लिया है, बल्कि उन्हें सकारात्मक चीजें भी मानते हैं। उदाहरण के लिए, कई शैतानी फलसफों जैसे कि “दाँत के बदले दाँत, आँख के बदले आँख,” “दूसरों को उनकी अपनी ही दवा का स्वाद चखाओ,” “समझदार लोग आत्म-रक्षा में अच्छे होते हैं, वे बस गलतियाँ करने से बचते हैं” और “मैं तब तक हमला नहीं करूँगा जब तक मुझ पर हमला नहीं किया जाता” इत्यादि को लोग सत्य और अपने जीवन के आदर्श वाक्य मानते हैं, और यहाँ तक कि लोग इन शैतानी फलसफों को कायम रखने के लिए आत्ममुग्ध होते हैं और फिर परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद ही उन्हें एहसास होता है कि शैतान से आयी ये बातें वास्तव में सत्य नहीं हैं, बल्कि दिखावटी पाखंड और भ्रांतियाँ हैं जो लोगों को गुमराह करती हैं। ये चीजें कहाँ से आती हैं? कुछ स्कूली शिक्षा और पाठ्य पुस्तकों से आती हैं, कुछ पारिवारिक शिक्षा से, तो कुछ सामाजिक अनुकूलन से आती हैं। संक्षेप में कहें तो, वे सभी परंपरागत संस्कृति से आती हैं और शैतान की शिक्षा से उत्पन्न होती हैं। क्या इन चीजों का सत्य से कोई लेना-देना है? इनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। मगर लोग इन चीजों की असलियत पहचान नहीं पाते और अभी भी उन्हें सत्य मानते हैं। क्या यह समस्या बहुत अधिक गंभीर हो गई है? शैतान से आयी इन बातों को सत्य मानने के क्या दुष्परिणाम हैं? क्या लोग इन बातों का पालन करके अपने भ्रष्ट स्वभावों को त्याग सकते हैं? क्या लोग इनका पालन करके सामान्य मानवता का जीवन जी सकते हैं? क्या लोग इनका पालन करके अंतरात्मा और विवेक के अनुसार जी सकते हैं? क्या लोग इनका पालन करके अंतरात्मा और विवेक के मानदंडों तक ऊपर उठ सकते हैं? क्या लोग इनका पालन करके परमेश्वर की स्वीकृति पा सकते हैं? वे ऐसा कुछ भी नहीं कर सकते। चूँकि वे इनमें से कुछ भी नहीं कर सकते तो लोग जिन चीजों का पालन करते हैं क्या वे सत्य हैं? क्या वे किसी व्यक्ति के जीवन के रूप में काम आ सकती हैं? उन लोगों को क्या दुष्परिणाम भुगतने होते हैं जो इन नकारात्मक बातों को सत्य मानते और इनका पालन करते हैं; जैसे कि वे चीजें जिन्हें वे सांसारिक आचरण के सही और अच्छे फलसफे, अस्तित्व की रणनीतियाँ, जीवित रहने के नियम और यहाँ तक कि परंपरागत संस्कृति मानते हैं? मानवजाति हजारों सालों से इन बातों का पालन करती आई है। क्या उसमें कोई बदलाव आया है? क्या मानवजाति की मौजूदा परिस्थिति में कोई भी बदलाव आया है? क्या भ्रष्ट मानवजाति पहले से भी ज्यादा दुष्ट और परमेश्वर के प्रति अधिक प्रतिरोधी नहीं होती जा रही है? परमेश्वर हर बार अपना कार्य करते समय अनेक सत्य व्यक्त करता है और लोग देख सकते हैं कि इन सत्यों में अधिकार और सामर्थ्य है, तो फिर ऐसा कैसे है कि मनुष्य अभी भी परमेश्वर को ठुकराने और उसका विरोध करने में सक्षम है? वे अभी भी परमेश्वर को स्वीकार और उसके प्रति समर्पण क्यों नहीं कर सकते? इतना सब यह दिखाने के लिए काफी है कि मानवजाति को शैतान ने बहुत गहराई तक भ्रष्ट कर दिया है, कि भ्रष्ट मानवजाति शैतानी स्वभावों से भरी हुई है, सत्य से विमुख हो चुकी है, इससे नफरत करती है और इसे बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करती है। इस समस्या की जड़ यह है कि मनुष्यों ने बहुत सारे शैतानी फलसफों और बहुत अधिक शैतानी ज्ञान को स्वीकार लिया है। अपने दिलों की गहराई में लोग सभी तरह के शैतानी विचारों और दृष्टिकोणों से भर चुके हैं और इसलिए उनमें सत्य से विमुख होने और सत्य से नफरत करने का स्वभाव विकसित हो गया है। हम परमेश्वर में विश्वास करने वाले बहुत से लोगों को देख सकते हैं कि भले ही वे यह मानते हैं कि परमेश्वर के वचनों में अधिकार और सामर्थ्य है, मगर वे सत्य नहीं स्वीकारते। यानी जब लोग परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते हैं, वे भले ही अपने मुँह से स्वीकारते हों कि “परमेश्वर के वचन सत्य हैं, सत्य से ऊपर कुछ भी नहीं है, सत्य हमारे दिलों में है और हम सत्य का अनुसरण करना ही अपने अस्तित्व का लक्ष्य मानते हैं,” मगर वास्तविक जीवन में वे अभी भी मशहूर शैतानी कहावतों और शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हैं और परमेश्वर के वचनों और सत्य को एक तरफ रखकर इंसानी धर्मशास्त्रीय ज्ञान और आध्यात्मिक धर्म-सिद्धांत जैसी चीजों का इस तरह पालन और अभ्यास करते हैं जैसे कि वे सत्य हों। क्या परमेश्वर में विश्वास करने वाले ज्यादातर लोगों की यही वास्तविक दशा है? (हाँ।) अगर तुम लोग इसी तरह पालन करते रहोगे और शैतानी परंपरागत संस्कृति से आई व गहरी जड़ें जमा चुकी इन चीजों का परमेश्वर के वचनों के आधार पर गहन-विश्लेषण नहीं करोगे और इन्हें समझोगे नहीं, और अगर तुम इनका भेद जड़ से नहीं पहचान पाओगे या इनकी पूरी समझ हासिल नहीं कर पाओगे या इन्हें त्याग नहीं पाओगे, तो क्या नतीजा होगा? एक नतीजा तो निश्चित है, जो यह है कि लोग कई सालों तक परमेश्वर में विश्वास करते हैं और फिर भी यह नहीं जानते कि सत्य क्या है या कौन-सा मार्ग अपनाना है और आखिर में वे कुछ आध्यात्मिक धर्म-सिद्धांत और धर्मशास्त्रीय सिद्धांत कंठस्थ कर लेते हैं, और उनकी कही हर बात अच्छी लगती है और ये सभी ऐसे धर्म-सिद्धांत हैं जो सत्य के अनुरूप होते हैं। मगर वास्तव में ये लोग अपने अभ्यास और जीवन जीने के मामले में पाखंडी फरीसियों के आदर्श प्रतिरूप हैं। इसके क्या अंजाम होते हैं? यकीनन, परमेश्वर उनकी निंदा करता है और उन्हें शाप देता है। जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं मगर सत्य स्वीकार नहीं करते वे फरीसी हैं और उन्हें कभी परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिल सकती।

उदाहरण के लिए, बच्चों को पढ़ाने के मुद्दे पर, कुछ पिता अपने बच्चों को आज्ञा नहीं मानते और अपने उचित कर्तव्यों का पालन नहीं करते देखकर कहते हैं : “पुराने लोग सही कहते थे कि ‘बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है।’” ऐसे पिता इस मामले को परमेश्वर के वचनों के आधार पर नहीं देखते हैं। उनके दिलों में परमेश्वर के वचनों के बजाय केवल लोगों के शब्द होते हैं। तो क्या उनके पास सत्य वास्तविकता होती है? नहीं, उनके पास यह नहीं होती है। हालाँकि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, कुछ सत्य समझते हैं और जानते होंगे कि उन्हें माता-पिता की अपनी जिम्मेदारी पूरी करने के लिए अपने बच्चों को शिक्षित करने के लिए सत्य का उपयोग करना चाहिए, पर वे इस तरह से अभ्यास नहीं करते। जब वे अपने बच्चों को गलत मार्ग पर चलते हुए देखते हैं तो आहें भरते हुए कहते हैं, “बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है।” यह कैसी अभिव्यक्ति है? यह किसकी जानी-मानी अभिव्यक्ति है? (शैतान की जानी-मानी अभिव्यक्ति।) क्या परमेश्वर ने कभी यह अभिव्यक्ति कही है? (नहीं।) तो फिर यह अभिव्यक्ति कहाँ से आती है? (शैतान से।) यह शैतान से आती है, इस संसार से आती है। लोग सत्य का इतना अधिक “अनुसरण” करते हैं, सत्य से इतना अधिक “प्रेम” करते हैं और सत्य का इतना अधिक “गुणगान” करते हैं तो फिर अपने सामने ऐसे मामले आने पर वे इस तरह की शैतानी अभिव्यक्तियाँ क्यों कहते हैं? उन्हें तो यह भी लगता है कि ऐसा कहना सही और गरिमा वाली बात है। वे कहते हैं, “देखो, सत्य और परमेश्वर के प्रति मेरे मन में कितनी श्रद्धा और सम्मान है। यह कहना मेरे लिए स्वाभाविक है कि ‘बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है’—यह कितना महान सत्य है! अगर मैं परमेश्वर में विश्वास न करता तो क्या मैं यह अभिव्यक्ति कह सकता था?” क्या यह इसे सत्य के रूप में प्रस्तुत करना नहीं है? (है।) तो क्या यह अभिव्यक्ति सत्य है? (नहीं।) “बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है,” यह किस प्रकार की अभिव्यक्ति है? यह किस तरह से गलत है? इस अभिव्यक्ति का मतलब यह है कि अगर बच्चे अवज्ञाकारी या अपरिपक्व हैं तो इसके लिए पिता जिम्मेदार है, यानी माता-पिता ने उन्हें अच्छी शिक्षा नहीं दी। मगर क्या ऐसा कहना सही है? (नहीं।) कुछ माता-पिता सही ढंग से आचरण करते हैं, फिर भी उनके बेटे गुंडे-बदमाश और उनकी बेटियाँ वेश्याएँ होती हैं। पिता की भूमिका निभाने वाला व्यक्ति बहुत गुस्से में कहता है : “बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है। मैंने उन्हें बिगाड़ दिया है!” यह कहना सही है या नहीं? (नहीं, यह गलत है।) यह किस तरह से गलत है? अगर तुम समझ सकते हो कि इस अभिव्यक्ति में क्या गलत है तो इससे साबित होता है कि तुम सत्य समझते हो और तुम यह भी समझते हो कि इस अभिव्यक्ति में निहित समस्या के बारे में क्या गलत है। अगर तुम इस मामले में सत्य नहीं समझते हो तो तुम इस मामले को स्पष्ट रूप से नहीं समझा सकते। अब जब तुम लोगों ने सत्य की व्याख्या और परिभाषा सुन ली है तो तुम महसूस कर सकते हो और कह सकते हो कि “यह अभिव्यक्ति गलत है, यह एक सांसारिक अभिव्यक्ति है। परमेश्वर में विश्वास करने वाले हम जैसे लोग ऐसी बातें नहीं कहते हैं।” तुमने इस मामले पर बात करने का बस तरीका बदल दिया है। इसका मतलब यह नहीं है कि तुम सत्य समझते हो—वास्तव में तुम नहीं जानते कि “बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है,” इस अभिव्यक्ति में क्या गलत है। जब इस तरह के मामलों का सामना करना पड़े तो तुम्हें ऐसा क्या कहना चाहिए जो सत्य के अनुरूप हो? तुम्हें सत्य सिद्धांतों के अनुसार कैसे कार्य करना चाहिए? आओ पहले इस बारे में बात करें कि ऐसे मामलों को सही तरीके से कैसे समझा और समझाया जाए। परमेश्वर इस बारे में क्या कहता है? क्या परमेश्वर के वचनों में ऐसे मामलों के बारे में कहने के लिए कुछ विशिष्ट है? परमेश्वर ने बहुत सारे सत्य व्यक्त किए हैं, ताकि लोग उन वचनों को स्वीकारें और उन्हें अपना जीवन बना लें। तो क्या अपने बच्चों को शिक्षित करते समय लोगों को उन्हें सिखाने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग नहीं करना चाहिए? परमेश्वर के वचन पूरी मानवजाति के लिए बोले जाते हैं। तुम चाहे वयस्क हो या बच्चे, पुरुष हो या महिला, बूढ़े हो या जवान, सभी को परमेश्वर के वचन स्वीकारने चाहिए। केवल परमेश्वर के वचन सत्य हैं और लोगों का जीवन बन सकते हैं। केवल परमेश्वर के वचन लोगों को जीवन में सही मार्ग पर ले जा सकते हैं। परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोगों को इस मामले की पूरी समझ हासिल करने में सक्षम होना चाहिए। “बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है,” इस अभिव्यक्ति की व्याख्या तुम कैसे करते हो? (व्यक्ति जो मार्ग अपनाता है वह उसके प्रकृति सार द्वारा निर्धारित होता है। इसके अलावा, इस जीवन में उसे जो दंड दिया जाएगा या जो आशीष इस जीवन में उसे प्राप्त होंगे, वे उसके पिछले जीवन से जुड़े हुए हैं। इसलिए यह कथन कि “यदि बच्चे सही मार्ग का अनुसरण नहीं करते हैं तो यह इसलिए है क्योंकि उनके माता-पिता ने उन्हें अच्छी शिक्षा नहीं दी” जाँच में खरा नहीं उतरता और इस तथ्य को पूरी तरह से नकारता है कि परमेश्वर मानवजाति के भाग्य पर संप्रभुता रखता है।) तुम्हारी बातों के हिसाब से, क्या बच्चों के सही मार्ग पर नहीं चलने का परमेश्वर की संप्रभुता से कोई लेना-देना है? परमेश्वर लोगों को अपने फैसले खुद लेने और सही मार्ग चुनने की अनुमति देता है। लेकिन लोगों में शैतानी प्रकृति होती है और सब अपने फैसले खुद लेते हैं, अपने हिसाब से अपना मार्ग चुनते हैं और परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति समर्पण करने के लिए तैयार नहीं होते। अगर तुम जो कहते हो वह सत्य के अनुरूप है तो तुम्हें यह स्पष्ट रूप से समझाना चाहिए ताकि लोग इसके बारे में आश्वस्त हो सकें।

अब हम “बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है” अभिव्यक्ति पर संगति करेंगे। पहली बात जो स्पष्ट करनी है वह यह है कि “बच्चों का सही मार्ग पर न चलने का संबंध उनके माता-पिता से है,” यह कहना गलत है। चाहे कोई भी हो, अगर वह किसी निश्चित तरह का व्यक्ति है तो वह एक निश्चित मार्ग पर चलेगा। क्या यह तय नहीं है? (है।) व्यक्ति जिस मार्ग को अपनाता है उससे निर्धारित होता है कि वह क्या है। वह जिस मार्ग को अपनाता है और जिस तरह का व्यक्ति बनता है, यह स्वयं पर निर्भर करता है। ये ऐसी चीजें हैं जो पूर्व-नियत, जन्मजात हैं और जिनका संबंध व्यक्ति की प्रकृति से है। तो माता-पिता द्वारा दी गई शिक्षा की क्या उपयोगिता है? क्या यह किसी व्यक्ति की प्रकृति को नियंत्रित कर सकती है? (नहीं।) माता-पिता द्वारा दी गई शिक्षा मानव प्रकृति को नियंत्रित नहीं कर सकती और न ही इस समस्या को हल कर सकती है कि व्यक्ति किस मार्ग पर जाएगा। वह एकमात्र शिक्षा क्या है जो माता-पिता दे सकते हैं? अपने बच्चों के दैनिक जीवन में कुछ सरल व्यवहार, कुछ एकदम सतही विचार और स्व-आचरण के नियम—ये ऐसी चीजें हैं जिनका माता-पिता से कुछ लेना-देना है। बच्चों के बालिग होने से पहले माता-पिता को अपनी उचित जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए, यानी अपने बच्चों को यह सिखाना चाहिए कि वे सही मार्ग पर चलें, कड़ी मेहनत से पढ़ाई करें और बड़े होने पर बाकी लोगों से ऊपर उठने में सक्षम होने का प्रयास करें, बुरे काम न करें या बुरे इंसान न बनें। माता-पिता को अपने बच्चों के व्यवहार को भी नियंत्रित करना चाहिए, उन्हें विनम्र होना और अपने से बड़ों से मिलने पर उनका अभिवादन करना सिखाना चाहिए, और उन्हें व्यवहार से संबंधित अन्य बातें सिखानी चाहिए—यही वह जिम्मेदारी है जो माता-पिता को पूरी करनी चाहिए। अपने बच्चे के जीवन का ख्याल रखना और उसे स्व-आचरण के कुछ बुनियादी नियमों की शिक्षा देना—माता-पिता का प्रभाव इतना ही है। जहाँ तक उनके बच्चे के व्यक्तित्व का सवाल है, माता-पिता यह नहीं सिखा सकते। कुछ माता-पिता शांत स्वभाव के होते हैं और हर काम आराम से करते हैं, जबकि उनके बच्चे बहुत अधीर होते हैं और थोड़ी देर के लिए भी शांत नहीं रह पाते। वे 14-15 साल की उम्र में अपने से ही जीविकोपार्जन करने के लिए निकल पड़ते हैं, वे हर चीज में अपने फैसले खुद लेते हैं, उन्हें अपने माता-पिता की जरूरत नहीं होती और वे बहुत स्वतंत्र होते हैं। क्या यह उन्हें उनके माता-पिता सिखाते हैं? नहीं। इसलिए किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व, स्वभाव और यहाँ तक कि उसके सार, और साथ ही भविष्य में वह जो मार्ग चुनता है, इन सबका उसके माता-पिता से कोई लेना-देना नहीं है। कुछ लोग यह कहकर इसका खंडन करते हैं, “इसका उनसे कोई लेना-देना कैसे नहीं हो सकता? कुछ लोग विद्वान परिवार से या किसी खास पेशे में पीढ़ियों से विशेषज्ञता रखने वाले परिवार से आते हैं। उदाहरण के लिए, एक पीढ़ी चित्रकला सीखती है, अगली पीढ़ी भी चित्रकला सीखती है और उसके बाद की पीढ़ी भी ऐसा ही करती है। इससे ‘बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है’ अभिव्यक्ति की सत्यता साबित होती है।” ऐसा कहना सही है या गलत? (गलत है।) इस समस्या को स्पष्ट करने के लिए इस उदाहरण का उपयोग करना गलत और अनुपयुक्त है क्योंकि वे दो अलग-अलग चीजें हैं। पीढ़ियों से विशेषज्ञता प्राप्त परिवार का प्रभाव विशेषज्ञता के एक पहलू तक ही सीमित रहता है और हो सकता है कि इस पारिवारिक वातावरण के कारण हर कोई एक जैसी चीज सीखता हो। ऊपरी तौर पर बच्चा भी यही चीज चुनता है, मगर इसके मूल में यह सब परमेश्वर का पूर्वनिर्धारण है। व्यक्ति का पुनर्जन्म इस परिवार में कैसे हुआ? क्या यह भी कुछ ऐसा नहीं है जिस पर परमेश्वर की संप्रभुता है? माता-पिता अपने बच्चों को केवल उनके बालिग होने तक पालने के लिए जिम्मेदार हैं। बच्चे अपने माता-पिता के केवल बाहरी व्यवहार और जीवनशैली की आदतों से प्रभावित होते हैं। मगर बड़े होने के बाद जीवन में उनके लक्ष्य और भाग्य का उनके माता-पिता से कोई लेना-देना नहीं होता। कुछ माता-पिता केवल साधारण किसान होते हैं जो अपनी स्थिति के अनुसार जीवन जीते हैं, मगर उनके बच्चे अधिकारी बनकर बड़े काम करने में सक्षम होते हैं। फिर ऐसे बच्चे भी हैं जिनके माता-पिता वकील और डॉक्टर होते हैं, उनमें से हरेक व्यक्ति योग्य होता है, और फिर भी बच्चे निकम्मे होते हैं जो कहीं भी जाने पर नौकरी नहीं पा सकते। क्या उनके माता-पिता ने उन्हें यही सिखाया है? जब पिता वकील हो तो क्या यह संभावना है कि वह अपने बच्चों को शिक्षित करने और उन पर प्रभाव डालने में कोई कसर छोड़ेगा? बिल्कुल नहीं। कोई भी पिता यह नहीं कहता, “मैं अपने जीवन में बहुत संपन्न रहा हूँ, मुझे उम्मीद है कि मेरे बच्चे भविष्य में मेरी तरह संपन्न नहीं होंगे, यह बहुत थकाऊ होगा। भविष्य में वे गवाले ही बन जाएँ तो काफी है।” वह यकीनन अपने बच्चों को उससे सीखने और भविष्य में उसके जैसा बनने के लिए शिक्षित करेगा। जब वह अपने बच्चों को शिक्षित कर लेगा, तब बच्चों का क्या होगा? बच्चे वही बनेंगे जो उन्हें बनना है और उनका भाग्य वही होगा जो होना चाहिए, कोई भी इसे बदल नहीं सकता। तुम इसमें क्या तथ्य देखते हो? बच्चा जो भी मार्ग चुनता है उसका उसके माता-पिता से कोई लेना-देना नहीं है। कुछ माता-पिता परमेश्वर में विश्वास करते हैं और अपने बच्चों को भी परमेश्वर में विश्वास करना सिखाते हैं, मगर चाहे वे जो भी कहते हैं उस पर उनके बच्चे विश्वास नहीं करते, और माता-पिता इसके बारे में कुछ नहीं कर सकते। कुछ माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं करते जबकि उनके बच्चे परमेश्वर में विश्वास करते हैं। एक बार जब उनके बच्चे परमेश्वर में विश्वास करना शुरू कर देते हैं तो वे परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, उसके लिए खुद को खपाते हैं, सत्य स्वीकारने में सक्षम होते हैं और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करते हैं, और इस प्रकार उनका भाग्य बदल जाता है। क्या यह माता-पिता द्वारा दी गई शिक्षा का नतीजा है? बिल्कुल नहीं, यह परमेश्वर की पूर्व-नियति और चयन से संबंधित है। “बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है,” इस अभिव्यक्ति में एक समस्या है। भले ही अपने बच्चों को शिक्षित करने की जिम्मेदारी माता-पिता की होती है मगर एक बच्चे का भाग्य उसके माता-पिता द्वारा नहीं बल्कि बच्चे की प्रकृति से निर्धारित होता है। क्या शिक्षा बच्चे की प्रकृति की समस्या हल कर सकती है? यह इसे बिल्कुल भी हल नहीं कर सकती। कोई व्यक्ति जीवन में जो मार्ग अपनाता है, वह उसके माता-पिता द्वारा निर्धारित नहीं होता, बल्कि परमेश्वर द्वारा पहले से निर्धारित होता है। ऐसा कहा जाता है कि “मनुष्य का भाग्य स्वर्ग द्वारा तय होता है,” और यह कहावत मानवीय अनुभव से निकली है। व्यक्ति के बालिग होने से पहले तुम यह नहीं बता सकते कि वह कौन-सा मार्ग अपनाएगा। जब वह बालिग हो जाएगा, और उसके पास विचार होंगे और वह समस्याओं पर चिंतन कर सकेगा तब वह चुनेगा कि इस विस्तृत समुदाय में उसे क्या करना है। कुछ लोग कहते हैं कि वे वरिष्ठ अधिकारी बनना चाहते हैं, दूसरे कहते हैं कि वे वकील बनना चाहते हैं और फिर कुछ और कहते हैं कि वे लेखक बनना चाहते हैं। हर किसी की अपनी पसंद और अपने विचार होते हैं। कोई भी यह नहीं कहता, “मैं बस अपने माता-पिता द्वारा मेरी शिक्षा पूरी किए जाने का इंतजार करूँगा। मैं वही बनूँगा जो मेरे माता-पिता मुझे बनने के लिए शिक्षित करेंगे।” कोई भी व्यक्ति इतना बेवकूफ नहीं है। बालिग होने के बाद लोगों के विचार उमड़ने और धीरे-धीरे परिपक्व होने लगते हैं, और इस तरह उनके आगे का मार्ग और लक्ष्य अधिक स्पष्ट होने लगते हैं। इस समय धीरे-धीरे यह जाहिर और स्पष्ट हो जाता है कि वह किस प्रकार का व्यक्ति है और किस समूह का हिस्सा है। यहाँ से हरेक इंसान का व्यक्तित्व, साथ ही उसका स्वभाव और वह किस मार्ग का अनुसरण कर रहा है, जीवन में उसकी दिशा और वह किस समूह से संबंधित है, सब धीरे-धीरे स्पष्ट परिभाषित होने लगता है। यह सब किस पर आधारित है? आखिरकार, यह उसी चीज पर आधारित है जो परमेश्वर ने पहले से निर्धारित किया है—इसका व्यक्ति के माता-पिता से कोई लेना-देना नहीं है। क्या अब तुम इसे स्पष्ट रूप से देख रहे हो? तो किन चीजों का माता-पिता से कोई लेना-देना है? व्यक्ति का रूप-रंग, कद, गुणसूत्र और कुछ पारिवारिक बीमारियों का उसके माता-पिता से थोड़ा-बहुत संबंध है। मैं थोड़ा-बहुत क्यों कह रहा हूँ? क्योंकि 100% मामलों में ऐसा नहीं होता। कुछ परिवारों में हर पीढ़ी किसी बीमारी से पीड़ित होती है मगर फिर एक बच्चा इस बीमारी के बिना पैदा होता है। ऐसा कैसे हो सकता है? कुछ लोग कहते हैं : “ऐसा इसलिए है क्योंकि इस बच्चे का व्यक्तित्व अच्छा है।” यह लोगों की राय है, मगर यह मामला कहाँ से शुरू होता है? (परमेश्वर के पूर्व-निर्धारण से।) बिल्कुल ऐसा ही है। तो क्या यह कहावत “बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है” वास्तव में सही है या गलत? (यह गलत है।) अब तुम इसके बारे में स्पष्ट हो, है ना? अगर तुम भेद पहचानना नहीं जानते तो काम नहीं चलेगा। सत्य के बिना तुम किसी भी मामले को स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते।

दैनिक जीवन में शैतान के इन सत्याभासी विचारों में से कुछ विचार हर व्यक्ति के मन में होते हैं। वे अंदर ही अंदर जमा और संगृहीत रहते हैं और जब भी कुछ होता है तो प्रकट हो जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं : “एक नेक पुरुष महिलाओं से नहीं लड़ता। देखो मैं कितना कुलीन हूँ। मैं एक मर्दाना, साहसी पुरुष हूँ, जबकि तुम तो छुईमुई हो, इसलिए मैं तुमसे नहीं लड़ूँगा।” वे इस अभिव्यक्ति को क्या मानते हैं? (सत्य।) वे इसे सत्य और सत्य का अभ्यास करने का सिद्धांत मानते हैं। ऐसे लोग भी हैं जो किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जिसके नैन-नक्श बहुत सुंदर हैं और जो किसी इज्जतदार सज्जन जैसा दिखता है, मगर वह चालाक है और हमेशा खुद को छिपाने की कोशिश करता है, और जो दूसरों के साथ बातचीत करते समय विशेष रूप से धोखेबाज और कपटी है, और कई लोग उसे पहचान नहीं पाते हैं तो वे कहते हैं : “मैं परमेश्वर में बस इसलिए विश्वास करता हूँ ताकि मैं एक ईमानदार और दयालु व्यक्ति के रूप में आचरण कर सकूँ और दूसरों के प्रति शत्रुता रखने के बजाय मित्रता रख सकूँ। जैसी कि यह कहावत है, ‘नकली सज्जन की तुलना में सच्चा खलनायक बनना बेहतर है।’ परमेश्वर के कुछ वचनों का भी यही अर्थ है।” इन लोगों की बातों के बारे में तुम्हारा क्या खयाल है? “नकली सज्जन की तुलना में सच्चा खलनायक बनना बेहतर है।” तुमने देखा, जैसे ही लोगों के साथ कुछ होता है, उनके अंदर की ये सभी सामान्य कहावतें, लोकोक्तियाँ और मुहावरे एक साथ बाहर निकल आते हैं और उनमें सत्य का एक शब्द भी नहीं होता। आखिर में वे लोग यहाँ तक कहते हैं, “मुझे प्रबुद्ध बनाने के लिए परमेश्वर का धन्यवाद।” यह कहावत कि “नकली सज्जन की तुलना में सच्चा खलनायक बनना बेहतर है,” सही है या गलत? (यह गलत है।) तुम सभी जानते हो कि यह गलत है, मगर इसमें गलत क्या है? नकली सज्जनों के साथ समस्या यह है कि वे नकली हैं। कोई भी नकली सज्जन नहीं बनना चाहता, वे एक सच्चा खलनायक बनना चाहते हैं। सच्चे खलनायकों में ऐसा क्या है जो लोगों को पसंद आता है? भले ही वे खलनायक हों, पर वे सच्चे होते हैं, इसलिए सभी की स्वीकृति पाते हैं। तो तुम लोग क्या बनना चाहते हो, एक सच्चा खलनायक या नकली सज्जन? (दोनों में से कोई भी नहीं।) तुम ये दो तरह के लोग क्यों नहीं बनते? (इनमें से कोई भी सत्य के अनुरूप नहीं है, परमेश्वर के वचनों में इस बारे में कुछ नहीं कहा गया है।) क्या तुम यह दावा करने के लिए प्रासंगिक आधार ढूँढ़ सकते हो कि परमेश्वर ने लोगों को नकली सज्जन या सच्चा खलनायक बनने के लिए नहीं कहा है? (परमेश्वर चाहता है कि लोग ईमानदार बनें।) परमेश्वर चाहता है कि लोग ईमानदार हों। तो फिर ईमानदार लोगों और सच्चे खलनायकों के बीच क्या अंतर है? “खलनायक” शब्द अच्छा नहीं है, मगर वे काफी सच्चे होते हैं। सच्चे खलनायक अच्छे क्यों नहीं होते? क्या तुम स्पष्ट रूप से समझा सकते हो? यह दावा करने का आधार क्या है कि न तो सच्चे खलनायक और न ही नकली सज्जन अच्छे लोग होते हैं? खलनायक क्या हैं? खलनायकों के साथ आम तौर पर कौन-सा शब्द जुड़ा होता है? (घृणित।) सही कहा। परमेश्वर के वचनों में “घृणित” शब्द को कैसे वर्णित और परिभाषित किया गया है? परमेश्वर के वचनों में “घृणित” को एक अच्छा शब्द कहा गया है या खराब? (खराब शब्द।) खराब शब्द, जिसकी परमेश्वर निंदा करता है। घृणित क्रियाकलापों और घृणित विचारों वाले लोग खलनायक होते हैं। खलनायक के स्वभाव और सार को और किस तरह से परिभाषित किया जा सकता है? स्वार्थी, है ना? (हाँ।) इस तरह का व्यक्ति स्वार्थी और घृणित होता है। भले ही वह जो प्रकट करता है वह वास्तविक है और उसका असली स्वभाव है, फिर भी वह बहुत हद तक खलनायक है। एक नकली सज्जन धोखेबाज और दुष्ट होता है और हमेशा खुद को छिपाते हुए दूसरों पर अपनी झूठी छाप छोड़ता है ताकि दूसरों को अपना उज्ज्वल, चमकदार और दोस्ताना पहलू दिखा सके। वह अपने असली स्वभाव, राय और विचारों को छिपाकर रखता है ताकि कोई भी उन्हें देख या समझ न सके। ऐसे लोगों का स्वभाव कैसा होता है? (धोखेबाज और दुष्ट।) वे बस दुष्ट लोग हैं। इस प्रकार न तो सज्जन और न ही खलनायक अच्छे लोग हैं। एक अंदर से बुरा है तो दूसरा बाहर से। उनके स्वभाव वास्तव में एक जैसे हैं—वे दोनों ही बेहद दुष्ट, स्वार्थी और धोखेबाज हैं। क्या ये दो प्रकार के बेहद दुष्ट और धोखेबाज लोग ईमानदार बनना चाहते हैं? (नहीं।) इसलिए तुम इन दो प्रकार के लोगों में से चाहे कैसे भी बनो, तुम वह अच्छे या ईमानदार व्यक्ति नहीं हो जिसकी परमेश्वर अपेक्षा करता है। तुम ऐसे व्यक्ति हो जिससे परमेश्वर घृणा करता है और तुम वह व्यक्ति नहीं हो जैसा बनने की अपेक्षा परमेश्वर तुमसे करता है। तो मुझे बताओ, क्या यह अभिव्यक्ति कि “नकली सज्जन की तुलना में सच्चा खलनायक बनना बेहतर है” सत्य है? (नहीं।) इस दृष्टिकोण से देखें तो यह अभिव्यक्ति सत्य नहीं है। बहुत से लोग खुद को अच्छे लोगों के रूप में पेश करने के लिए नकली सज्जनों पर हमला करने और उनकी निंदा करने के उद्देश्य से कहते हैं कि “नकली सज्जन की तुलना में सच्चा खलनायक बनना बेहतर है,” मानो इन खलनायकों की “खलनायकी” उन्हें विशेष रूप से न्यायपूर्ण और सच्चा बनाती हो, जैसे कि वे न्याय की कोई शक्ति हों। एक खलनायक होकर तुम न्यायपूर्ण होने का दावा कैसे कर सकते हो? तुम तो निंदा के पात्र हो।

हर किसी के मन में इस प्रकार की कई अभिव्यक्तियाँ और बातें होती हैं और बहुत से लोग इस तरह का नजरिया रखते हैं। चाहे वह परंपरागत संस्कृति हो, लोकोक्तियाँ हों, पारिवारिक आदर्श वाक्य हों, पारिवारिक नियम हों या किसी देश की कानूनी व्यवस्था हो, लोग अक्सर इन चीजों का इस्तेमाल करते हैं जो समाज में लंबे समय से और व्यापक रूप से प्रचलित हैं और जिन्हें लंबे समय से समाज और मानवजाति के बीच सकारात्मक चीजों के रूप में घोषित और प्रचारित किया गया है, ताकि लोगों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी शिक्षा दी जा सके। कुछ अभिव्यक्तियाँ लोगों के दिलों में अभ्यास के सिद्धांतों और मानव अस्तित्व के सिद्धांतों के रूप में गहराई तक बसी हैं। कुछ अभिव्यक्तियाँ ऐसी हैं जो किसी दृष्टिकोण को व्यक्त करती हैं जिससे लोग केवल सहमत होते हैं, मगर जरूरी नहीं कि वे उसे लागू करना चाहें। चाहे तुम उन्हें लागू करना चाहो या नहीं, वास्तव में तुम अपने दिल की गहराई में इन अभिव्यक्तियों को अपने स्व-आचरण के लिए अभ्यास के सिद्धांत मानते हो। संक्षेप में कहूँ तो ये चीजें परमेश्वर में लोगों के विश्वास और सत्य के अनुसरण में एक बड़ी बाधा हैं। वे लोगों को लाभ पहुँचाने के बजाय केवल नुकसान पहुँचाती हैं। उदाहरण के लिए, आधुनिक लोग अक्सर इस बात की चर्चा करते हैं कि “जीवन अनमोल है, प्रेम उससे भी अधिक अनमोल है। मगर स्वतंत्रता की खातिर मैं दोनों ही त्याग दूँगा।” यह अभिव्यक्ति एक मशहूर कहावत है जिसका समर्थन और सम्मान पूरब और पश्चिम के वे लोग करते हैं जिनके पास ऊँचे आदर्श हैं और जो स्वतंत्र होकर पारंपरिक सामंती व्यवस्था से छुटकारा पाना चाहते हैं। यहाँ लोगों के अनुसरण का केन्द्र बिन्दु क्या है? क्या यह जीवन है? या प्रेम है? (नहीं, यह स्वतंत्रता है।) सही कहा, यह स्वतंत्रता है। तो क्या यह अभिव्यक्ति सत्य है? इस अभिव्यक्ति का अर्थ यह है कि स्वतंत्रता पाने के लिए जीवन को त्यागा जा सकता है और प्रेम को भी त्यागा जा सकता है—यानी जिस व्यक्ति से तुम प्रेम करते हो उसे भी त्यागा जा सकता है—ताकि उस खूबसूरत स्वतंत्रता की ओर दौड़ा जा सके। सांसारिक लोगों को यह स्वतंत्रता कैसी लगती है? इस चीज को कैसे समझाया जाए जिसे वे स्वतंत्रता समझते हैं? परंपरा को तोड़ना एक तरह की स्वतंत्रता है, पुराने रीति-रिवाजों को तोड़ना एक तरह की स्वतंत्रता है, और सामंती राजशाही को तोड़ना भी एक तरह की स्वतंत्रता है। और क्या? (किसी राजनीतिक व्यवस्था के काबू में न होना।) दूसरा है सत्ता या राजनीति के काबू में न होना। वे इस तरह की स्वतंत्रता पाना चाहते हैं। तो वे जिस स्वतंत्रता की बात करते हैं, क्या वह सच्ची स्वतंत्रता है? (नहीं।) क्या यह उस स्वतंत्रता के समान है जिसके बारे में परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग बात करते हैं? (नहीं।) परमेश्वर में विश्वास करने वाले कुछ लोगों के दिलों में यह दृष्टिकोण भी हो सकता है : “परमेश्वर में विश्वास करना अद्भुत है, यह तुम्हें मुक्त और आजाद करता है। तुम्हें किसी भी रीति-रिवाज या पारंपरिक औपचारिकताओं का पालन करने की जरूरत नहीं है, तुम्हें शादियों और अंतिम संस्कारों का आयोजन करने या उनमें शामिल होने की चिंता करने की जरूरत नहीं है, तुम सभी सांसारिक चीजों को त्याग देते हो। तुम वाकई इतने स्वतंत्र होते हो!” क्या ऐसा ही है? (नहीं।) तो वास्तव में स्वतंत्रता क्या है? क्या तुम लोग अभी स्वतंत्र हो? (थोड़े-बहुत।) तुम लोगों को यह थोड़ी-बहुत स्वतंत्रता कैसे मिली? इस स्वतंत्रता का क्या अर्थ है? (सत्य को समझना और शैतान के अंधकारमय प्रभाव से बाहर निकलना।) शैतान के अंधकारमय प्रभाव से निकलने के बाद तुम थोड़ी सी मुक्ति और कुछ हद तक स्वतंत्रता महसूस करते हो। लेकिन, अगर मैं इसका गहन-विश्लेषण नहीं करता तो तुम सभी सोचते कि तुम वास्तव में स्वतंत्र हो, जबकि वास्तव में तुम स्वतंत्र नहीं हो। सच्ची स्वतंत्रता स्थानिक और भौतिक दृष्टि से शरीर की उस तरह की स्वतंत्रता और मुक्ति नहीं है जैसा लोग सोचते हैं। बल्कि, वास्तव में जब लोग सत्य समझ जाते हैं तो उनके पास विभिन्न लोगों, घटनाओं, चीजों और संसार के बारे में सही विचार होंगे और वे जीवन में सही लक्ष्यों और दिशा का अनुसरण कर सकेंगे, और जब लोग शैतान के प्रभाव और शैतानी विचारों और दृष्टिकोणों की बाधाओं के अधीन नहीं होते तो उनका हृदय मुक्त हो जाता है—यही सच्ची स्वतंत्रता है।

एक अविश्वासी युवक है जो सोचता है कि उसे स्वतंत्रता पसंद है, वह किसी पक्षी की तरह हर जगह उड़ना और उन्मुक्त जीवन जीना चाहता है, इसलिए वह अपने परिवार के घटिया नियमों और कहावतों से नफरत करता है। वह अक्सर अपने दोस्तों से कहता है : “भले ही मैं एक बहुत पारंपरिक, बहुत बड़े परिवार में पैदा हुआ जिसमें बहुत सारे नियम और परंपराएँ हैं और जहाँ अभी भी एक पैतृक मंदिर है जिसमें हरेक पीढ़ी की स्मारक पट्टिकाएँ व्यवस्थित तरीके से रखी हुई हैं, मैंने खुद इन परंपराओं को तोड़ दिया है और इन पारिवारिक नियमों, पारिवारिक परंपराओं और सामान्य रीति-रिवाजों से प्रभावित नहीं हूँ। क्या तुम्हें लगता नहीं कि मैं एकदम अपारंपरिक व्यक्ति हूँ?” उसके दोस्त कहते हैं : “हमने देखा है कि तुम बहुत ही अपारंपरिक हो।” उन्होंने यह कैसे देखा? उसकी जीभ में छल्ला है, नाक में नथ है, दोनों कानों में चार-पाँच छल्ले हैं, नाभि में छल्ला है और उसकी बाँह पर साँप का टैटू बना है। चीनी लोग साँप को अशुभ मानते हैं मगर उसने अपने शरीर पर साँप का टैटू बनवाया और लोग इसे देखकर डर जाते हैं। यह अपारंपरिक है, है ना? (हाँ।) यह बेहद अपारंपरिक है और इससे भी अधिक, वह आधुनिक सोच रखने वाले व्यक्ति की तरह बोलता है। उसे देखने वाला हर कोई कहता है, “यह आदमी कमाल का है! वह अपारंपरिक है, पक्का अपारंपरिक!” उसका मानना है कि वह सिर्फ इन्हीं तरीकों से अपना अपारंपरिक होना व्यक्त नहीं कर सकता, बल्कि इसे थोड़ा और मूर्त बनाना होगा जिससे लोग इस बात के संकेत देख सकें कि वह कितना अपारंपरिक है। वह देखता है कि आम तौर पर दूसरों की महिला मित्र पीली चमड़ी वाली, चीनी लड़कियाँ होती हैं और वह जानबूझकर अपने लिए एक विदेशी, गोरी महिला मित्र बना लेता है ताकि हर कोई यह यकीन कर सके कि उसकी सोच वाकई अपारंपरिक है। इसके बाद वह हर परिस्थिति में अपनी महिला मित्र की नकल करता है, वह वही करता है जो कुछ उसकी महिला मित्र कहती है, वह वैसा ही करता है जैसा वह उसे करने के लिए कहती है। जब उसका जन्मदिन नजदीक आता है तो उसकी महिला मित्र उसके लिए एक बड़े डिब्बे में पैक किया हुआ एक रहस्यमय तोहफा खरीदती है और वह खुशी-खुशी अपना तोहफा खोलने लगता है। पैकेज की सभी परतों को हटाने के बाद, उसे अंदर एक हरे रंग की टोपी दिखाई देती है। सभी चीनी लोग “हरी टोपी” के संकेत को जानते हैं, है ना? यह यकीनन एक बहुत ही पारंपरिक चीज है। जैसे ही वह इसे देखता है, गुस्से में आकर कहता है, “यह कैसा तोहफा है? तुमने यह तोहफा किसके लिए खरीदा है?” उसकी महिला मित्र ने सोचा था कि वह खुश होगा—फिर वह इतने गुस्से में क्यों है? उसे कोई कारण समझ नहीं आता, इसलिए वह कहती है : “इस हरी टोपी को ढूँढ़ना आसान नहीं था। मेरी मानो, यह तुम पर अच्छी लगेगी।” वह कहता है, “जानती हो यह टोपी क्या दर्शाती है?” प्रेमिका कहती है : “क्या यह सिर्फ एक टोपी नहीं है? हरी टोपियाँ तो अच्छी लगती हैं।” और वह उससे इसे पहनने की जिद करती है। लेकिन चाहे कुछ भी हो जाए, वह इसे नहीं पहनेगा। क्या पश्चिमी लोग “हरी टोपियों” के संकेत को जानते हैं? (नहीं, वे नहीं जानते।) तो क्या इस मामले को स्पष्ट रूप से समझाया और बताया नहीं जाना चाहिए? तुममें से कोई भी इसका जवाब नहीं दे सकता—तुम इसे स्पष्ट रूप से समझाने की हिम्मत क्यों नहीं करते? यह कोई बड़ी बात तो नहीं है, निश्चित रूप से? तुम लोग बिल्कुल इसी आदमी की तरह हो—सत्य और स्वतंत्रता खोजने के लिए अपारंपरिक होने और परंपरा को छोड़ देने और शैतानी पारंपरिक संस्कृति की धारणाओं को त्यागने का झंडा लहराते हो, मगर फिर भी इस हरी टोपी पर आकर एकदम अटक जाते हो। उस युवक की महिला मित्र उससे इसे पहनने के लिए कहती है और वह इसे किसी भी कीमत पर नहीं पहनता, और आखिर में कहता है : “तुम मुझे इसे पहनने के लिए मजबूर कर रही हो। अगर मैं इसे पहनता हूँ तो मुझे दूसरों से अपमान सहना पड़ेगा!” यही इस मुद्दे का सार है और समस्या यहीं पर है—यह परंपरा है। यह परंपरा इस बारे में नहीं है कि कोई चीज किस रंग की है या किस तरह की है, बल्कि यह उस संकेत और दृष्टिकोण के बारे में है जो यह चीज लोगों में जगाती है। यह—हरी टोपी—वास्तव में क्या संकेत देती है? यह क्या दर्शाती है? लोग इस रंग की टोपियों को बुरा मानते हैं, इसलिए वे इस रंग की टोपियों को ठुकरा देते हैं। लोग उन्हें क्यों ठुकरा देते हैं? वे ऐसी चीज को क्यों नहीं स्वीकार सकते? क्योंकि उनके भीतर एक प्रकार की पारंपरिक सोच है। यह पारंपरिक सोच अपने आप में सत्य नहीं है; यह एक भौतिक चीज की तरह है, मगर इस समाज और इस मानवजाति ने अनजाने में इसे कुछ नकारात्मक अर्थ में बदल दिया है। उदाहरण के लिए, लोग सफेद को पवित्रता के प्रतीक में, काले को अंधकार और दुष्टता के प्रतीक में और लाल को उत्सव, रक्तपात और जुनून के प्रतीक में बदल देते हैं। अतीत में चीनी लोग लाल को उत्सव का रंग मानकर शादी में लाल कपड़े पहनते थे। जब पश्चिमी लोग शादी करते हैं तो वे सुंदर और स्वच्छ सफेद कपड़े पहनते हैं जो पवित्रता के प्रतीक हैं। शादी के बारे में दोनों संस्कृतियों की समझ अलग-अलग है। एक में इसे लाल रंग से दर्शाया गया है तो दूसरे में इसे सफेद रंग से दर्शाया गया है। ये दोनों रंग शादी के प्रति आशीष का रवैया दर्शाते हैं। विभिन्न जातीय समूहों और जातियों के लोग अलग-अलग उद्देश्यों के लिए एक ही चीज का इस्तेमाल करते हैं और इस तरह उनकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि अस्तित्व में आती है। इन सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों के उभरने के बाद उनके साथ सांस्कृतिक परंपराएँ उत्पन्न होती हैं। इस तरह विभिन्न समाज और विभिन्न जातियाँ अलग-अलग रीति-रिवाज बनाते हैं और ऐसे रीति-रिवाज संबंधित जातियों के लोगों को प्रभावित करते हैं। इस प्रकार चीनी लोग हरी टोपी के इस संकेत से प्रभावित हैं। उनके मन में यह बात बिठाने से किस तरह का नतीजा निकलता है? पुरुष हरी टोपी नहीं पहन सकते और महिलाएँ भी इन्हें नहीं पहनतीं। क्या तुमने किसी महिला को हरी टोपी पहने देखा है? वास्तव में यह सांस्कृतिक परंपरा सिर्फ पुरुषों के लिए है, यानी पुरुषों का हरी टोपी पहनना एक खराब संकेत है और इसका महिलाओं से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन एक बार जब यह सांस्कृतिक परंपरा अस्तित्व में आ जाती है, चाहे वह किसी भी संदर्भ में उत्पन्न हो, यह इस जाति के प्रत्येक व्यक्ति द्वारा इस चीज के प्रति एक तरह का भेदभाव पैदा करती है। इस तरह का भेदभाव होने के बाद यह चीज अनजाने में एक बहुत ही निर्दोष, भौतिक चीज से नकारात्मक चीज में बदल जाती है। वास्तव में यह चीज निर्दोष है और इसमें कोई सकारात्मक या नकारात्मक विशेषताएँ नहीं हैं। यह सिर्फ एक भौतिक चीज है, जिसका एक रंग और एक आकार है। लेकिन पारंपरिक संस्कृति द्वारा इस तरह से व्याख्या करने और प्रभावित होने के बाद अंतिम नतीजा क्या होता है? (नकारात्मक।) यह नकारात्मक बन जाता है। इसके नकारात्मक बन जाने के बाद लोग इस चीज के प्रति ठीक से व्यवहार या इसका ठीक से इस्तेमाल नहीं कर सकते। जरा सोचो—चीनी बाजार में विभिन्न रंग की टोपियाँ मिलती हैं, जैसे कि लाल, गुलाबी, पीली वगैरह, मगर एक भी हरी टोपी नहीं मिलती। लोग इस पारंपरिक सोच से बेबस और प्रभावित हैं। पारंपरिक संस्कृति के किसी एक विशेष मामले का लोगों पर यही प्रभाव पड़ता है।

भले ही कुछ लोग विदेश आकर यूरोप और अन्य एशियाई देशों की कुछ संस्कृतियों, परंपराओं, नियमों और जीवन की बुनियादी जरूरतों जैसी भौतिक चीजों के संपर्क में आते हैं और दूसरे देशों के कुछ कानूनों और सामान्य ज्ञान से परिचित हो जाते हैं, मगर उनके लिए अपने देश की उन परंपराओं से पीछा छुड़ाना मुश्किल होता है। भले ही तुमने अपनी जन्मभूमि छोड़कर दूसरे देश में जीवन के रोजमर्रा के पहलुओं और यहाँ तक कि उसके कानूनों और व्यवस्थाओं को भी स्वीकार लिया है, मगर तुम यह नहीं जानते कि तुम्हारे मन में रोज क्या चलता है या जब तुम्हारे साथ कुछ घटता है तो तुम किस तरह से मसलों का सामना करते हो या तुम कौन-सा दृष्टिकोण और परिप्रेक्ष्य अपनाते हो। कुछ लोग सोचते हैं, “मैं पश्चिम में हूँ तो क्या मैं एक पश्चिमी हूँ?” या फिर “मैं जापान में हूँ तो क्या मैं जापानी हूँ?” क्या यही होता है? (नहीं।) जापानी लोग कहते हैं : “हमें सूशी और उडोन नूडल्स खाना सबसे ज्यादा पसंद है। क्या यह हमें कुलीन नहीं बनाता है?” दक्षिण कोरियाई कहते हैं : “हमें चावल और किमची खाना पसंद है। क्या हमारा महान दक्षिण कोरियाई राष्ट्र कुलीन नहीं है? तुम चीनी लोग कहते हो कि तुम्हारी संस्कृति प्राचीन है और हमसे हजारों साल पुरानी है, मगर क्या तुम लोग अपने बड़ों के प्रति वैसी ही संतानोचित निष्ठा दिखाते हो जैसी हम दिखाते हैं? क्या तुम उतने ही पारंपरिक हो जितने हम हैं? क्या तुम्हारे पास हमारे जितने नियम हैं? तुम लोग आजकल इन चीजों के बारे में बात नहीं करते, तुम लोग पीछे रह गए हो; हम सच्चे पारंपरिक लोग हैं और हमारी संस्कृति सच्ची संस्कृति है!” उन्हें लगता है कि उनकी पारंपरिक संस्कृति उन्नत है और वे बहुत सी चीजों को विश्व धरोहर घोषित करने के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं। यह सब प्रतिस्पर्धा क्यों? हर देश, हर जाति और यहाँ तक कि हर छोटा जातीय समूह यह मानता है कि उनके पूर्वजों द्वारा छोड़ी गई चीजें, नियम, परंपराएँ और रीति-रिवाज अच्छे और सकारात्मक हैं और मानवजाति इनका प्रचार-प्रसार कर सकती है। क्या उनके इस विचार और दृष्टिकोण का यह अर्थ नहीं है कि ये सत्य हैं, ये अच्छी और सकारात्मक चीजें हैं और उन्हें इस मानवजाति द्वारा आगे बढ़ाया जाना चाहिए? तो क्या ये चीजें जो आगे बढ़ाई जाती हैं, स्वतंत्रता के साथ टकराती हैं? मैंने अभी-अभी एक ऐसे युवक का उदाहरण दिया जो अपने परिवार की बेड़ियों से आजाद हो गया है, उसने अपने पूरे शरीर पर छल्ले, बालियाँ और टैटू पहने हैं और उसकी एक विदेशी महिला मित्र भी है। उसके बाहरी रूप और शरीर की बात करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि वह पारिवारिक नियमों का पालन नहीं करता है और उसने परंपरा को त्याग दिया है। औपचारिकताओं के संदर्भ में और अपने व्यवहार में, और यहाँ तक कि अपनी व्यक्तिपरक इच्छा के संदर्भ में भी उसने परिवार, परंपरा और रीति-रिवाज जैसी चीजों को त्याग दिया है। मगर एक जन्मदिन का तोहफा उसे उजागर कर देता है, उसके इस विश्वास की निंदा करता है और उसे खारिज करता है कि वह “बेहद अपारंपरिक” है। तो यह व्यक्ति वास्तव में पारंपरिक है या नहीं? (वह पारंपरिक है।) पारंपरिक होना अच्छी बात है या खराब? (खराब।) इसीलिए चाहे तुम खुद को पारंपरिक मानो या अपारंपरिक और चाहे तुम्हारी जाति कोई भी हो—चाहे वह तथाकथित कुलीन जाति हो या साधारण जाति—तुम्हारे आंतरिक विचार सीमित हैं। तुम स्वतंत्रता का चाहे कितना भी अनुसरण और सम्मान करो, परंपरा की ताकतों और पारंपरिक पारिवारिक रूढ़ियों से आजाद होने के लिए तुम्हारा संकल्प, इच्छा और महत्वाकांक्षा चाहे कितनी भी बड़ी हो या तुम्हारे वास्तविक क्रियाकलाप चाहे कितने भी प्रेरक और शक्तिशाली हों, अगर तुम सत्य को नहीं समझते तो तुम केवल शैतान द्वारा अपने अंदर भरी गई शिक्षाओं और भ्रांतियों के बीच उलझे रह सकते हो, उनसे उभर नहीं सकते। कुछ लोग पारंपरिक संस्कृति से प्रभावित होते हैं, तो कुछ वैचारिक शिक्षा से, अन्य लोग पद और रुतबे से प्रभावित होते हैं और कुछ लोग किसी तरह की वैचारिक प्रणाली से प्रभावित होते हैं। उदाहरण के लिए, राजनीति में संलग्न लोगों को ही ले लो, जैसे कि साम्यवाद की वकालत करने वाले लोगों का गिरोह। उन्होंने सर्वहारा लोगों के एक समूह के रूप में शुरुआत की, साम्यवादी घोषणापत्र और सिद्धांतों को स्वीकारा, परंपरा से नाता तोड़ा, सामंती राजशाही से नाता तोड़ा और फिर कुछ पुराने रीति-रिवाजों से नाता तोड़कर मार्क्सवाद-लेनिनवाद और साम्यवाद को स्वीकार लिया। इन चीजों को स्वीकारने के बाद क्या वे लोग आजाद हो गए या हमेशा प्रतिबंधित ही रहे? (वे हमेशा प्रतिबंधित ही रहे।) उन्होंने सोचा था कि पुरानी चीज को छोड़कर नई चीज अपनाने से वे आजाद हो जाएँगे। क्या यह विचार गलत नहीं है? (हाँ, यह गलत है।) यह गलत है। लोग पुरानी चीज छोड़कर किसी भी नई चीज को अपना सकते हैं, लेकिन अगर यह सत्य नहीं है तो वे हमेशा के लिए शैतान के जाल में फँसे रहेंगे—यह सच्ची स्वतंत्रता नहीं है। कुछ लोग खुद को साम्यवाद या किसी खास मकसद के लिए समर्पित करते हैं, कुछ लोग खुद को किसी शपथ के लिए समर्पित करते हैं, जबकि अन्य लोग खुद को किसी सिद्धांत के लिए समर्पित कर देते हैं और फिर कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इन कहावतों का पालन करते हैं, जैसे कि “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा,” या “वफादार प्रजा दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकती,” या “जब राष्ट्र पर कोई मुसीबत आए, तो हर किसी को अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए।” क्या इनका संबंध पारंपरिक संस्कृति से है? (हाँ।) बाहर से ये चीजें मानवजाति के बीच कुछ बहुत ही सकारात्मक, बहुत उचित और खास तौर पर ऊँची और कुलीन चीजों जैसी लग सकती हैं, मगर वास्तव में दूसरे परिप्रेक्ष्य से और अलग अर्थ में देखें तो वे लोगों की आत्माओं को बाँधती हैं, लोगों को प्रतिबंधित करती हैं और उन्हें सच्ची स्वतंत्रता पाने से रोकती हैं। लेकिन इससे पहले कि मनुष्य सत्य को समझे, वे केवल स्वयं को खोया हुआ महसूस कर सकते हैं और इस प्रकार इन चीजों को, जिन्हें मानवजाति के बीच अपेक्षाकृत सकारात्मक माना जाता है, अपने जीवन जीने के तरीके के रूप में स्वीकार लेते हैं। इसलिए ये तथाकथित पारंपरिक संस्कृतियाँ—ये चीजें जो मनुष्य को संसार में काफी अच्छी लगती हैं—लोगों द्वारा स्वाभाविक रूप से स्वीकार ली जाती हैं। उन्हें स्वीकारने के बाद लोगों को लगता है कि वे पूँजी, आत्मविश्वास और प्रेरणा के साथ जी रहे हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों ने ज्ञान और प्रमाण पत्रों के संबंध में इस समाज और मानवजाति के बारे में एक रुख स्वीकार लिया है। यह रुख क्या है? (ज्ञान तुम्हारा भाग्य बदल सकता है।) (अन्य अनुसरण छोटे हैं, किताबें उन सबसे श्रेष्ठ हैं।) अपने दिल की गहराई में लोग इन बातों से सहमत होते हैं, इन्हें स्वीकारते हैं और इनका समर्थन भी करते हैं। इन्हें स्वीकारने और इनका समर्थन करने के साथ-साथ लोग जितना ज्यादा इस समाज में प्रतिकूल परिस्थितियों के विरुद्ध संघर्ष करते हैं, उतना ही ज्यादा वे इन चीजों को सँजोते हैं। ऐसा क्यों है? क्योंकि सभी लोग जीवन में ज्ञान पर भरोसा करते हैं। ज्ञान और इन प्रमाण पत्रों के बिना, तुम समाज में अपने पाँव जमाने में असमर्थ महसूस करते हो। दूसरे लोग तुम्हें धमकाएँगे और तुम्हारे साथ भेदभाव करेंगे और इसलिए तुम इन चीजों के पीछे बेतहाशा भागते हो। तुम्हारे प्रमाण पत्र जितने ऊँचे होंगे, समाज में या तुम्हारी जाति या समुदाय में तुम्हारा सामाजिक दर्जा उतना ही ऊँचा होगा और तुम्हारे बारे में लोगों की प्रशंसा और तुम्हारे साथ उनका व्यवहार, और कई अन्य चीजें उन्नत और बेहतर होंगी। एक तरह से किसी व्यक्ति के प्रमाण पत्र ही उसका सामाजिक दर्जा निर्धारित करते हैं।

अतीत में विश्वविद्यालय के सात-आठ प्रोफेसरों का एक समूह आगे की पढ़ाई के लिए बीजिंग गया था। उन दिनों पिकअप या ड्राइवर की सेवाएँ शायद उपलब्ध नहीं थीं, इसलिए उन्हें बीजिंग पहुँचने के बाद बस लेनी पड़ी। वास्तव में उनके जैसे प्रोफेसर बीजिंग में हर जगह पाए जाते थे। उन्हें कुछ खास नहीं माना जाता था, वे बस साधारण लोग माने जाते थे। मगर वे खुद यह बात नहीं जानते थे और इसी में समस्या की गंभीरता थी—इस मामले का आधार यह समस्या थी। असल में हुआ क्या था? प्रोफेसरों का यह समूह बस स्टॉप पर बस का इंतजार कर रहा था। वे इंतजार करते रहे, ज्यादा से ज्यादा लोग इकट्ठा होने लगे और जैसे-जैसे भीड़ बढ़ती गई, सभी लोग बेचैन हो गए। फिर जब बस आई तो वे सभी लोग यात्रियों के उतरने का इंतजार किए बिना ही बस में चढ़ गए, एक-दूसरे को धक्का-मुक्की करते हुए खूब हंगामा मचाने लगे। काफी अफरातफरी मच गई। इन प्रोफेसरों ने इस बारे में सोचा और कहा : “जाहिर है कि बीजिंग में हमारे साथी नागरिकों के लिए हर दिन काम से आने-जाने के लिए बस से सफर करना आसान नहीं है। विश्वविद्यालय के प्रोफेसर होने के नाते हमें लोगों की परिस्थितियों के प्रति विचारशील होना चाहिए। उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी होने के नाते हम आम लोगों से होड़ नहीं ले सकते। हमें लेई फेंग की तरह निस्वार्थी होकर उन्हें पहले इस बस में चढ़ने देना चाहिए, इसलिए धक्का-मुक्की करके नहीं घुसते हैं।” वे सभी इस पर सहमत हो गए और अगली बस का इंतजार करने का फैसला किया। मगर हुआ यूँ कि जब अगली बस आई तब भी उतने ही लोग थे और एक बार फिर वे भेड़-बकरियों की तरह उसमें चढ़ गए। प्रोफेसर भौचक्के रह गए। उन्होंने बस को भरते और जाते हुए देखा और एक बार फिर वे उसमें चढ़ने में नाकामयाब रहे। उन्होंने दोबारा आपस में चर्चा की और कहा, “हमें कोई जल्दी नहीं है। आखिरकार हम उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी हैं, हम बसों में चढ़ने के लिए आम लोगों से नहीं लड़-भिड़ सकते। चलो थोड़ा और रुकते हैं, शायद अगली बस के लिए इंतजार करने वाले इतने सारे लोग न हों।” तीसरी बस का इंतजार करते हुए ये प्रोफेसर थोड़े बेचैन हो रहे थे। उनमें से कुछ ने अपनी मुट्ठियाँ भींचते हुए कहा, “अगर इस बस में चढ़ने वाले उतने ही लोग हुए तो क्या हमें धक्का-मुक्की करके बस में घुस जाना चाहिए? अगर हम ऐसे नहीं घुसे तो मेरे खयाल से हम पाँचवीं या छठी बस में भी नहीं चढ़ पाएँगे, इसलिए हमें घुस ही जाना चाहिए!” दूसरों ने कहा : “क्या उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी धक्का-मुक्की करके बसों में घुस सकते हैं? इससे हमारी छवि खराब हो जाएगी! अगर किसी दिन लोगों को पता चला कि हम उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी भी बसों में धक्का-मुक्की करके घुस जाते हैं तो कितनी शर्म की बात होगी!” उन सबकी राय अलग-अलग थी। जब वे चर्चा कर रहे थे तो बस का इंतजार करने वाले लोगों की एक और भीड़ इकट्ठी हो गई। तब तक प्रोफेसर बहुत घबरा गए थे और उन्होंने चर्चा करना बंद कर दिया था। जब बस आई, जैसे ही दरवाजे खुले तो सभी के उतरने से पहले ही प्रोफेसरों ने पिछली भीड़ की नकल करते हुए अपनी पूरी ताकत लगाकर बस में घुसने की कोशिश की। उनमें से कुछ धक्का-मुक्की करके बस में घुस पाए, जबकि कुछ परिष्कृत बुद्धिजीवी—परिष्कृत विद्वान—अंदर धक्का-मुक्की करके घुसने में नाकामयाब रहे, क्योंकि उनमें वह जोश और जुझारूपन नहीं था। चलो इस मामले को यहीं छोड़ते हैं। मुझे बताओ, क्या यह तथ्य नहीं है? (है।) बसों में भीड़-भाड़ होना बहुत आम बात है और ये बुद्धिजीवी मुखौटा लगाने में पूरी तरह सक्षम थे! मुझे बताओ, यहाँ क्या समस्या थी? आओ, सबसे पहले उन बुद्धिजीवियों के बारे में बात करें, जिन्होंने उच्च स्तर की शिक्षा प्राप्त की और लोगों को पढ़ाने और शिक्षित करने वाले प्रोफेसर बने और उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी बने। यानी उन्होंने जो शिक्षा प्राप्त की और जो ज्ञान उनके पास था, वह आम लोगों की शिक्षा के स्तर से अधिक था और उनका ज्ञान लोगों के शिक्षक और प्रशिक्षक बनने, लोगों को शिक्षित करने और उन्हें ज्ञान देने के लिए पर्याप्त था—इसलिए उन्हें उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी कहा जाता है। क्या इन उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवियों के विचारों और दृष्टिकोणों में कोई समस्या थी? यकीनन कुछ समस्याएँ थीं। उनकी समस्याएँ कहाँ थी? आओ इस मामले का विश्लेषण करें। इतना सारा ज्ञान और इतनी उच्च स्तर की शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी क्या उनकी सोच कठोर थी या स्वतंत्र? (कठोर।) तुम लोगों को कैसे पता कि यह कठोर थी? उनकी समस्याएँ कहाँ निहित थीं? सबसे पहले, उन्होंने खुद को उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी घोषित किया। क्या इस दावे में कोई गड़बड़ थी? (हाँ।) इस दावे में समस्या थी। इसके बाद उन्होंने कहा, “जब हम उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी बस में चढ़ते हैं तो हमें इसमें चढ़ने के लिए दूसरे लोगों से लड़ना-भिड़ना और धक्का-मुक्की नहीं करनी चाहिए।” क्या इस बात में कोई समस्या थी? (हाँ।) यह दूसरी समस्या थी। तीसरी समस्या तब थी जब उन्होंने कहा कि “हम उच्च-स्तर के बुद्धिजीवी अगली बस का इंतजार कर सकते हैं”—क्या इस बात में कोई समस्या थी? (हाँ।) इन सभी बातों में कोई-न-कोई समस्या थी। चलो अब इसमें समस्याओं का पता लगाने के लिए आगे बढ़कर इन तीन बातों के जरिए मामले का गहन-विश्लेषण करो। अगर तुम सभी ने इन समस्याओं की पूरी समझ हासिल कर ली तो पहली बात, तुम उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवियों को अपना आदर्श नहीं मानोगे, और दूसरी बात, तुम खुद उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी नहीं बनना चाहोगे।

पहली बात क्या थी? यह कि उन्होंने खुद को उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी घोषित किया। क्या इस दावे में कोई समस्या थी? (हाँ।) “स्व-घोषणा” शब्द में कुछ भी गलत नहीं है, जिसका इस मामले में अर्थ है स्वयं को एक उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी के रूप में प्रस्तुत करना। तो क्या “एक उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी के रूप में” वाक्यांश में कोई समस्या है? तथ्य यह है कि विश्वविद्यालय के प्रोफेसर समाज में उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी होते हैं। चूँकि यह एक तथ्य है तो उनके इस वाक्यांश में कोई समस्या क्यों थी? (उन्हें लगा कि ज्ञान पाकर वे दूसरों से ऊँचे हो गए हैं।) दूसरों से ऊँचे होना—इसके पीछे यकीनन एक स्वभाव था। (उन्होंने सोचा कि चूँकि उन्होंने ज्यादा ज्ञान प्राप्त किया है, इसलिए वे दूसरों से ऊँचे हैं। वास्तव में, ये चीजें किसी व्यक्ति का स्वभाव नहीं बदल सकतीं।) यह कुछ हद तक सही है, मगर इसे स्पष्ट रूप से नहीं समझाता। कोई और कुछ कह सकता है? (परमेश्वर, क्या वे अहंकारी और आत्मतुष्ट नहीं थे?) तुमने सही कहा है, मगर सार को अच्छी तरह से नहीं समझाया, जरा और विस्तार से समझाओ। (जब उन्होंने थोड़ा ज्ञान प्राप्त कर लिया तो उन्हें लगा कि वे दूसरों की तुलना में ज्यादा ऊँचे और ज्यादा कुलीन हैं, इसलिए वे खुद को सामान्य लोग नहीं मान सकते थे। इस समाज में रहने वाले सामान्य लोगों के लिए बसों की भीड़-भाड़ में धक्का-मुक्की करके जाना उनके वास्तविक जीवन के परिवेश से तय होता है और यह एक सामान्य बात है। लेकिन जब ये बुद्धिजीवी खुद को बहुत ऊँचे और कुलीन मानने लगे तो वे अब सामान्य लोगों की तरह व्यवहार नहीं कर सकते थे और सोचते थे कि सामान्य लोगों वाली हरकतें उनकी पहचान के लिए हानिकारक थीं, इसलिए मुझे लगता है कि वे असामान्य थे।) वे असामान्य थे। खुद को उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी घोषित करने में निहित अर्थ असामान्य था। यानी उनकी मानवता में कुछ विकृति थी। उन्हें लगता था कि वे दूसरों से ज्यादा ऊँचे और कीमती हैं। इस दावे का आधार क्या था? यह कि उन्होंने बहुत अधिक शिक्षा प्राप्त की थी और उनके पास ज्ञान का भंडार था और वे जिनसे भी मिलते, उनके पास कभी भी बातों की कमी नहीं होती थी और वे उनको भी कुछ सिखा सकते थे। वे ज्ञान को क्या मानते थे? वे इसे व्यक्ति के स्व-आचरण और क्रियाकलापों के साथ-साथ उसकी नैतिकता की कसौटी मानते थे। उनका मानना था कि अब जबकि उनके पास ज्ञान है तो उनकी ईमानदारी, चरित्र और पहचान कुलीन, कीमती और मूल्यवान है, जिसका अर्थ यह है कि उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी संत होते हैं। क्या यही बात नहीं है? (हाँ।) उनके लिए उच्च-स्तरीय कहलाना यही था, इसलिए जब उन्हें बस में धक्का-मुक्की करके चढ़ना था तो वे नहीं चढ़े। वे सबके साथ बस में क्यों नहीं घुसे? उन्हें कौन-सी चीज रोक रही थी? उनकी क्या मजबूरी और बाध्यताएँ थीं? उन्हें लगता था कि बस में धक्का-मुक्की करके घुसने से उनकी पहचान और छवि को नुकसान पहुँचेगा। उन्हें लगता था कि उनकी पहचान और छवि उन्हें ज्ञान से मिली है, इसलिए वे खुद को उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी बताते थे। इस विश्लेषण के आधार पर उन्होंने जो कहा क्या वह घिनौना है? यह बहुत घिनौना है। फिर भी वे यह शेखी बघारते फिरते थे कि “हम उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी हैं।” वास्तव में, दूसरों को लगता था कि वे बस बुद्धिजीवी हैं, उनके दरिद्र और पांडित्यपूर्ण तरीके को लोग नीची नजर से देखते थे, मगर वे फिर भी खुद को विशेष रूप से कुलीन समझते थे। क्या यह समस्या नहीं थी? उनका मानना था कि वे बहुत कुलीन और ऊँची पहचान वाले हैं, यहाँ तक कि वे खुद को संत के रूप में प्रस्तुत करना चाहते थे। क्या यह दृष्टिकोण किसी तरह से उनके लिए एक बाधा बन गया था? ज्ञान के संबंध में उनका स्थान क्या था? यह कि जैसे ही लोगों को ज्ञान प्राप्त होता है, वे अधिक ईमानदार, प्रतिष्ठित और कुलीन बन जाते हैं और उनका सम्मान किया जाना चाहिए। इसलिए वे आम लोगों के कुछ अपेक्षाकृत सामान्य क्रियाकलापों से नफरत और इनकी निंदा करते हैं। उदाहरण के लिए, जब बुद्धिजीवी छींकते हैं तो वे अपने आस-पास के लोगों को देखकर जल्दी से माफी माँग लेते हैं, जबकि जब आम लोग छींकते हैं तो वे इसके बारे में ज्यादा कुछ नहीं सोचते। वास्तव में, डकार लेना और छींकना जीवन में सामान्य बातें हैं, मगर उन बुद्धिजीवियों की नजर में ये अशिष्ट और असभ्य व्यवहार हैं, इसलिए वे उनसे घृणा करते हैं और उन्हें घृणा की दृष्टि से देखते हैं और कहते हैं, “इन असभ्य लोगों को देखो, इनका छींकने, बैठने, और खड़े होने का तरीका बहुत ही अशोभनीय है, और जब बसें आती हैं तो वे उन पर धक्का-मुक्की करते हुए चढ़ते हैं, उन्हें विनम्रता से दूसरों को रास्ता देने के बारे में कुछ नहीं पता!” जब ज्ञान की बात आती है तो उनका रुख यह होता है : ज्ञान पहचान का प्रतीक है और ज्ञान लोगों के भाग्य के साथ-साथ उनकी पहचान और मूल्य को भी बदल सकता है।

दूसरी बात क्या थी? (यह कि उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी बसों में चढ़ने के लिए दूसरों के साथ धक्का-मुक्की नहीं कर सकते।) वे बसों में चढ़ने के लिए दूसरों के साथ धक्का-मुक्की नहीं कर सकते। बस में धक्का-मुक्की करके चढ़ना उनके जीवन की एक छोटी-सी घटना थी। यह बात क्या दर्शाती है? विशेष रूप से, उनका मानना था कि जिन लोगों के पास एक निश्चित मात्रा में ज्ञान है, उनके बात करने का तरीका और आचरण सुसभ्य होना चाहिए और उनकी पहचान से मेल खाना चाहिए। उदाहरण के लिए, उन्हें धीरे-धीरे चलना चाहिए और लोगों से मिलते समय यह महसूस कराना चाहिए कि वे स्नेही, मिलनसार और सम्मान के लायक हैं, और उनका बात करने का तरीका और आचरण परिष्कृत होना चाहिए। वे आम लोगों के समान नहीं हो सकते, उन्हें लोगों को अपने और आम लोगों के बीच का अंतर महसूस कराना चाहिए—केवल इसी तरह वे दिखा सकते थे कि उनकी पहचान बाकी लोगों से अलग और विशिष्ट है। अपने दिल की गहराई में इन प्रोफेसरों का मानना था कि बसों में धक्का-मुक्की करके घुसने जैसी चीजें समाज के निचले तबके के लोग और ऐसे लोग करते हैं जिन्होंने उच्च स्तर की शिक्षा प्राप्त नहीं की है और फिर ये ऐसी चीजें हैं जो उन लोगों द्वारा की जाती हैं जिनके पास उन्नत ज्ञान या किसी उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी जैसी कोई पहचान नहीं है। तो फिर ये उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी क्या काम करते हैं? वे मंच पर खड़े होकर सिद्धांतों का प्रचार करते, ज्ञान देते और लोगों की शंकाओं का समाधान करते हैं—ये उनके कर्तव्य हैं, जो उनकी पहचान, छवि और उनके पेशे को दर्शाते हैं। वे बस यही काम कर सकते हैं। आम लोगों के रोजमर्रा के कामों और दिनचर्या से उनका कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे इन “अशिष्ट, क्षुद्र रुचियों” से अलग लोगों का एक वर्ग हैं। उन्होंने साधारण लोगों के रोजमर्रा के कामों और दिनचर्या को, यहाँ तक कि बसों में धक्का-मुक्की करके घुसने जैसी हरकतों को कैसे निरूपित किया? (अशिष्ट।) सही कहा, अशिष्ट और असभ्य। यह अपने से निचले स्तर के आम, साधारण लोगों के लिए उनके दिल की गहराई से निकली परिभाषा थी।

आओ तीसरी बात पर चर्चा करें—“हम उच्च-स्तर के बुद्धिजीवी अगली बस का इंतजार कर सकते हैं”—यह किस प्रकार की भावना है? क्या यह कोंग रोंग का बड़ी नाशपातियों को त्याग देने की भावना नहीं है जिसके बारे में पारंपरिक संस्कृति में बताया गया है? बुद्धिजीवियों पर पारंपरिक संस्कृति का प्रभाव विशेष रूप से गहरा होता है। वे न केवल पारंपरिक संस्कृति को स्वीकारते हैं, बल्कि पारंपरिक संस्कृति के कई विचारों और दृष्टिकोणों को भी अपने दिल में स्वीकारते हैं और उन्हें सकारात्मक चीजें मानते हैं, इस हद तक कि उन्होंने कुछ मशहूर कहावतों को अपने आदर्श वाक्य बना लिए हैं, और इस तरह वे जीवन में गलत मार्ग पर चल पड़ते हैं। कन्फ्यूशियस का धर्म-सिद्धांत पारंपरिक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है। कन्फ्यूशियस के धर्म-सिद्धांत में अनेक वैचारिक सिद्धांत हैं, यह मुख्य रूप से पारंपरिक नैतिक संस्कृति को बढ़ावा देता है और इसे पूरे इतिहास में राजवंशों के शासक वर्गों द्वारा सम्मान दिया जाता था, जो कन्फ्यूशियस और मेन्सियस को संत मानकर पूजते थे। कन्फ्यूशियस का धर्म-सिद्धांत कहता है कि व्यक्ति को परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता के मूल्यों को कायम रखना चाहिए, सबसे पहले कुछ घटित होने पर शांत रहना, संयमित रहना और सहनशील होना सीखना चाहिए, शांत रहकर चीजों के बारे में बातचीत करनी चाहिए, उनके लिए लड़ाई या छीना-झपटी नहीं करनी चाहिए, विनम्र और मिलनसार होना सीखना चाहिए और सभी का सम्मान पाना चाहिए—यह शिष्टाचार के साथ आचरण करना है। ये बुद्धिजीवी लोग खुद को आम लोगों से ऊँचा स्थान देते हैं और उनकी नजरों में सभी लोग उनके संयम और सहनशीलता की वस्तु हैं। ज्ञान के “उपयोग” बहुत बढ़िया हैं! ये लोग बहुत हद तक नकली सज्जनों की तरह दिखते हैं, है ना? जो लोग बहुत ज्यादा ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं वे नकली सज्जन बन जाते हैं। अगर परिष्कृत विद्वानों के इस समूह को किसी एक वाक्यांश में परिभाषित किया जाए तो यह वाक्यांश होगा परिष्कृत विद्वतापूर्ण लालित्य। ये परिष्कृत विद्वान किन सिद्धांतों के आधार पर एक-दूसरे से बातचीत करते हैं? सांसारिक आचरण के प्रति उनका क्या नजरिया है? उदाहरण के लिए, जिन लोगों का उपनाम “ली” है उन लोगों को आम लोग “लाओ ली” या “शाओ ली”[क] कहकर पुकारते हैं। क्या बुद्धिजीवी उन्हें इस तरह से पुकारेंगे? (नहीं।) वे उन्हें किस तरह से पुकारेंगे? (श्रीमान ली।) अगर उन्होंने किसी महिला को देखा तो वे उसे श्रीमती फलानी या सुश्री फलानी कहकर पुकारेंगे और सज्जन की तरह बहुत सम्मान और शिष्टता से पेश आएँगे। वे सज्जनों जैसी सभ्यता और शिष्टता को सीखने और उसकी नकल करने में माहिर हैं। वे किस लहजे और तरीके से आपस में बातचीत और चीजों पर चर्चा करते हैं? उनके चेहरे के भाव खास तौर पर कोमल होते हैं और वे विनम्रता और संयम से बात करते हैं। वे सिर्फ अपने विचार व्यक्त करते हैं और भले ही उन्हें पता हो कि दूसरों के विचार गलत हैं, फिर भी वे कुछ नहीं कहते। कोई भी किसी की भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचाता और उनके शब्द बेहद कोमल होते हैं, जैसे कि रुई में लिपटे हों, ताकि उनसे किसी को ठेस न पहुँचे या वे चिढ़ न जाएँ, जिसे सुनते ही व्यक्ति को उबकाई, बेचैनी या गुस्सा आ सकता है। सच तो यह है कि किसी के विचार एकदम स्पष्ट नहीं होते और कोई भी किसी के सामने झुकता नहीं। इस तरह के लोग खुद को छिपाने में माहिर होते हैं। छोटी-छोटी बातों में भी वे खुद को छिपाएँगे और मुखौटा ओढ़ेंगे और उनमें से कोई भी स्पष्ट तरीके से नहीं बोलेगा। आम लोगों के सामने वे कैसी मुद्रा अपनाना चाहते हैं और किस तरह की छवि बनाना चाहते हैं? ऐसी जिससे आम लोगों को यह दिखे कि वे विनम्र सज्जन हैं। सज्जन दूसरों से बेहतर होते हैं और लोगों के सम्मान के पात्र होते हैं। लोग सोचते हैं कि उनके पास औसत लोगों की तुलना में गहरी अंतर्दृष्टि है और उन्हें चीजों की बेहतर समझ है, इसलिए जब भी किसी को कोई समस्या होती है तो हर कोई उनसे सलाह लेता है। ये बुद्धिजीवी यही परिणाम देखना चाहते हैं, वे सभी संतों जैसा सम्मान पाने की उम्मीद करते हैं।

हमने अभी जिन तीन बातों का गहन-विश्लेषण किया है उनके हिसाब से देखें तो जब इन प्रोफेसरों को “उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी” की उपाधि मिली, तब क्या उनके विचार पहले से ज्यादा मुक्त हुए या सीमित हो गए? (सीमित हो गए।) ये जरूर सीमित हुए होंगे। किस चीज से सीमित हुए? (ज्ञान से।) ज्ञान उनके पेशे के भीतर की चीज है। दरअसल, ज्ञान ने उन्हें सीमित नहीं किया। उन्हें किस चीज ने सीमित किया? ज्ञान के प्रति उनके रवैये ने, और उनकी सोच पर पड़ने वाले ज्ञान के प्रभाव ने, और साथ ही उन विचारों ने जो ज्ञान ने उनमें डाले—यही समस्या है। इसलिए जितना ज्यादा ज्ञान उन्होंने हासिल किया, उतना ही उन्हें लगा कि उनकी पहचान और रुतबा बाकियों से अलग है, और जितना ज्यादा उन्हें लगा कि वे कुलीन और बड़े हैं, उनकी सोच उतनी ही सीमित होती गई। इस नजरिये से देखें तो क्या ज्यादा ज्ञान हासिल करने वाले लोगों ने स्वतंत्रता हासिल की है या स्वतंत्रता खो दी है? (स्वतंत्रता खो दी है।) दरअसल उन्होंने स्वतंत्रता खो दी है। ज्ञान लोगों की सोच और समाज में उनके रुतबे को प्रभावित करता है और लोगों पर इसका जो प्रभाव पड़ता है वह सकारात्मक नहीं होता। ऐसा कभी नहीं होता कि जितना ज्यादा ज्ञान तुम हासिल करोगे, उतना ही बेहतर उन सिद्धांतों, दिशा और लक्ष्यों को समझ पाओगे जो तुम्हारे स्व-आचरण के संबंध में तुम्हारे पास होने चाहिए। इसके उलट जितना ज्यादा तुम ज्ञान के पीछे भागोगे और जितना ज्यादा गहरा ज्ञान तुम हासिल करोगे, उतना ही उन विचारों और दृष्टिकोणों से दूर होते जाओगे जो सामान्य मानवता वाले लोगों के पास होने चाहिए। यह बुद्धिजीवियों के उस समूह की तरह ही है जिन्होंने बहुत सारा ज्ञान और शिक्षा प्राप्त की थी, पर जो सामान्य समझ की छोटी-सी बात भी नहीं समझे। यह कैसी सामान्य समझ है? जब बहुत सारे लोग होते हैं तो तुम्हें बस में चढ़ने के लिए भीड़ में घुसना पड़ता है। अगर तुम भीड़ में नहीं घुसोगे तो बस में कभी नहीं चढ़ पाओगे—उन्हें यह सबसे सरल नियम भी नहीं पता था। जरा बताओ, वे होशियार बन गए थे या बेवकूफ? (वे बेवकूफ बन गए थे।) वास्तव में वे सब-के-सब बेवकूफ थे। साधारण लोगों को ऐसा उन्नत ज्ञान या ऊँचे स्तर की शिक्षा प्राप्त नहीं हुई है और उनके पास यह रुतबा भी नहीं है, मगर वे इस बात को समझते हैं और कहते हैं, “बस में चढ़ते समय अगर बहुत सारे लोग हों तो तुम्हें अंदर घुसना पड़ता है, अपनी पूरी ताकत लगानी पड़ती है, क्योंकि अगर तुम जरा भी ढीले पड़े और तुमने फैसला लेने में जरा भी देरी की तो तुम भीड़ में पीछे छूट सकते हो और तुम्हें अगली बस लेनी पड़ सकती है।” यह जीवन में सामान्य सूझ-बूझ की बुनियादी बात है, जिससे साधारण लोग तो परिचित होते हैं, पर ये बुद्धिजीवी समझ नहीं पाए, इसलिए उन्होंने एक के बाद एक बस का इंतजार किया। वे किस चीज से मजबूर थे? वे इस दावे से मजबूती से बँधे हुए थे कि “हम उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी हैं।” यह ऐसा ही था। उन्हें यह भी नहीं पता था कि वास्तविक जीवन की ऐसी मामूली-सी समस्या का सामना कैसे करना है या उससे कैसे निपटना है। वह एक मूर्ख-मंडली थी! ज्ञान से उन्हें क्या हासिल हुआ? यही कि इसने उन्हें बाकी आबादी से अलग कर दिया, उन्हें नहीं पता था कि कैसे जीना है और वास्तविक जीवन में होने वाली चीजों से कैसे निपटना है। उन्होंने आम लोगों के वास्तविक जीवन में आने वाली सबसे आम समस्याओं में से एक से निपटने के लिए कुछ ऊँचे सिद्धांतों का इस्तेमाल किया और उन्हें यह भी नहीं पता था कि इस तरह से निपटने के क्या अंजाम होंगे—शायद वे आज भी इसे नहीं समझ पाए हैं। शायद वे बुढ़ापे में ही इस बात को भली-भाँति समझ पाएँ। तब उनके पास कोई ख्याति नहीं होगी और वे अपने पूरे जीवनकाल में एक उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवी की सम्मानजनक प्रतिष्ठा का आनंद ले चुके होंगे। एक दिन, उन्हें याद आ सकता है कि उस समय बस में न चढ़कर उन्होंने कितनी बुरी छाप छोड़ी थी और उन्हें अचानक एहसास होगा कि वे अब उतने महान और उतने ऊँचे नहीं हैं और उन्हें अचानक यह एहसास होगा, “क्या मेरी विद्वानों वाली सुसभ्यता मेरी थाली में रोटी रख पाएगी? क्या मुझे भी आम लोगों की तरह दिन में तीन बार भोजन की जरूरत नहीं है? मैं दूसरे लोगों से कोई अलग नहीं हूँ। क्या मैं भी बुढ़ापे में झुककर नहीं चलता? और क्या मैं भी खतरे का सामना होने पर डर से काँपता और डरता नहीं हूँ? और जब किसी प्रियजन की मौत की खबर या कोई खुशखबरी होती है तो क्या मैं भी दुखी या खुश नहीं होता, जैसा कि होना चाहिए? क्या मैं बस आम लोगों की तरह नहीं जी रहा हूँ? मैं बाकी लोगों से अलग नहीं हूँ!” तब तक उन्हें यह बात समझने में बहुत देर हो चुकी होगी। ये उन लोगों द्वारा दिखाई जाने वाली विभिन्न प्रकार की कुरूपताएँ हैं जो सत्य न समझ पाने पर भी कुछ तथाकथित सकारात्मक कहावतों और विचारों को स्वीकार लेते हैं। जब लोगों को यह नहीं पता होता कि ये विचार सही हैं या नहीं तो वे अक्सर इन विचारों और कहावतों को पालन और लागू करने योग्य सत्य मान लेते हैं और जब वे उन्हें लागू कर डालते हैं तो उन्हें तमाम तरह के दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं और उनके साथ तमाम तरह की अजीबोगरीब स्थितियाँ होती हैं। लोगों के लिए इसके क्या दुष्परिणाम होते हैं? जब लोग लगातार स्वतंत्रता के पीछे भाग रहे होते हैं तो वे लगातार एक भँवर से दूसरे भँवर में और एक तरह के बंधन से दूसरे तरह के बंधन में फँसते जाते हैं। क्या यह सच नहीं है? इसलिए जब तुम सत्य को नहीं समझते—तब तुम जिस चीज को दृढ़ता से मानते हो वह चाहे कोई दृष्टिकोण हो, कोई पारंपरिक संस्कृति हो या किसी तरह का नियम, व्यवस्था या सिद्धांत हो, और चाहे ये चीजें समाज में अपेक्षाकृत पुरानी हों या काफी आधुनिक और चलन में हों—ये चीजें कभी भी सत्य की जगह नहीं ले सकतीं, क्योंकि वे सत्य नहीं हैं। तुम चाहे उनका कितनी भी अच्छी तरह से पालन करो या उन्हें कितनी भी अच्छी तरह से लागू करो, आखिर में वे तुम्हें सत्य हासिल कराने के बजाय सत्य से भटका देंगी। तुम जितना ज्यादा इन चीजों का पालन करोगे, उतना ही तुम सत्य से, परमेश्वर के मार्ग से और सत्य के मार्ग से भटक जाओगे। वहीं दूसरी ओर, अगर तुम इन तथाकथित सकारात्मक चीजों, सिद्धांतों और झूठे सत्यों को सक्रियता से आगे बढ़कर त्याग सकते हो तो तुम बहुत जल्दी सत्य में प्रवेश कर सकोगे। इस तरह लोग अपने दैनिक जीवन में सत्य और परमेश्वर के वचनों की जगह इन तथाकथित पारंपरिक संस्कृतियों और इन झूठे सत्यों का अभ्यास के सिद्धांतों के रूप में इस्तेमाल नहीं करेंगे, और यह अजीबोगरीब स्थिति धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी और धीरे-धीरे इसका समाधान हो जाएगा।

कुछ लोग सोचते हैं कि उन्होंने परिवार और देश की पारंपरिक संस्कृति को त्याग कर और दूसरे देश से विदेशी पारंपरिक संस्कृति को स्वीकार कर सत्य हासिल कर लिया है; कुछ लोग सोचते हैं कि उन्होंने एक पुरानी, पारंपरिक संस्कृति और पुराने विचारों और दृष्टिकोणों को त्याग कर और थोड़े-से ज्यादा उन्नत और आधुनिक विचारों को अपना कर सत्य हासिल कर लिया है। अब इस पर गौर करें तो क्या ये लोग सही हैं या गलत? (गलत।) वे सब गलत हैं। लोग सोचते हैं कि बस पुरानी चीजें त्याग कर उन्हें स्वतंत्रता मिल जाएगी। स्वतंत्रता मिलने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि व्यक्ति ने सत्य और जीवन जीने का सच्चा मार्ग प्राप्त कर लिया है जो उसके पास होना चाहिए। लोग सोचते हैं कि सच्चा मार्ग इस तरह से पाया जाता है। क्या यह वाकई सच है? क्या यह सही है? नहीं। मानवजाति चाहे किसी भी आधुनिक और उन्नत संस्कृति को स्वीकार ले, आखिर में यह भी पारंपरिक संस्कृति होती है और इसका सार नहीं बदलता। पारंपरिक संस्कृति अभी भी हमेशा पारंपरिक संस्कृति ही रहेगी। चाहे वह समय की कसौटी पर खरी उतरे या तथ्यों की कसौटी पर, या फिर मानवजाति उसका सम्मान करे या न करे, आखिर में वह भी पारंपरिक संस्कृति ही होती है। ये पारंपरिक संस्कृतियाँ सत्य क्यों नहीं हैं? इन सबका मूल कारण यह है कि ये चीजें ऐसे विचार हैं जो शैतान द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट किए जाने के बाद आए थे। वे परमेश्वर से नहीं आते हैं। इनमें लोगों की कुछ कल्पनाओं और धारणाओं की मिलावट है, और इसके अलावा वे शैतान द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट करने के दुष्परिणाम हैं। लोगों की सोच को बाँधने और भ्रष्ट करने के लिए शैतान भ्रष्ट मानवजाति के विचारों, दृष्टिकोणों और तमाम तरह की कहावतों और तर्कों का फायदा उठाता है। अगर शैतान लोगों को गुमराह करने के लिए कुछ ऐसी चीजों का इस्तेमाल करता जो साफ तौर पर बेतुकी, हास्यास्पद और गलत हैं तो लोगों को इनके भेद की पहचान होती; वे सही-गलत में फर्क करने में सक्षम होते, और उन चीजों को ठुकराने और उनकी निंदा करने के लिए भेद की इस पहचान का उपयोग करते। इस तरह ये शिक्षाएँ जाँच-पड़ताल में टिक नहीं पातीं। लेकिन जब शैतान लोगों पर शिक्षा के प्रभाव डालने, प्रभावित करने और उनके मन में चीजें डालने के लिए कुछ ऐसे विचारों और सिद्धांतों का इस्तेमाल करता है जो लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप होते हैं और जिनके बारे में उसे लगता है कि जोर देकर बोलने पर जाँच-पड़ताल में टिक पाएँगे तो मानवजाति आसानी से गुमराह हो जाती है और लोग इन कहावतों को आसानी से स्वीकार कर इन्हें फैलाने लगते हैं; इस तरह ये कहावतें पीढ़ी-दर-पीढ़ी आज तक चली आ रही हैं। उदाहरण के लिए, चीनी नायकों के बारे में कही गई कुछ कहानियों को ले लो, जैसे कि यू फेई, यांग परिवार के सेनापतियों और वेन तियानशियांग के बारे में देशभक्ति की कहानियाँ। ये विचार आज तक कैसे चले आ रहे हैं? अगर हम इसे लोगों के पहलू से देखें तो हर युग में एक ऐसा व्यक्ति या ऐसा शासक होता है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोगों को शिक्षा देने के लिए लगातार इन उदाहरणों और इन व्यक्तियों के विचारों और भावनाओं का इस्तेमाल करता है, ताकि आने वाली हर पीढ़ी आज्ञाकारी होकर और दब्बू बनकर उनके शासन को स्वीकारे, ताकि वह आसानी से पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोगों पर शासन कर सके और अपने शासन को ज्यादा स्थिर बना सके। यू फेई और यांग परिवार के सेनापतियों की मूर्खतापूर्ण भक्ति के साथ ही वेन तियानशियांग और कू युआन की देशभक्ति की भावना के बारे में बात करके वे अपने लोगों को शिक्षित करते हैं और उन्हें एक नियम बताते हैं, जो यह है कि व्यक्ति को वफादारी के साथ आचरण करना चाहिए—एक उत्कृष्ट नैतिक चरित्र वाले व्यक्ति में यह वफादारी होनी ही चाहिए। वफादारी किस हद तक होनी चाहिए? इस हद तक कि “जब सम्राट अपने अधिकारियों को मरने का आदेश देता है, तो उनके पास मरने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता” और “वफादार प्रजा दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकती”—यह भी एक ऐसी कहावत है जिसका वे सम्मान करते हैं। वे अपने देश से प्यार करने वालों का भी सम्मान करते हैं। अपने देश से प्यार करने का मतलब किसी चीज से प्यार करना है या किसी व्यक्ति से? क्या यह देशभूमि से प्यार करना है? क्या यह इसके लोगों से प्यार करना है? और देश क्या है? (शासक।) शासक देश के प्रतिनिधि हैं। अगर तुम कहते हो, “मेरे देश के लिए मेरा प्यार वास्तव में मेरे गृहनगर और मेरे माता-पिता के लिए प्यार है। मैं तुम शासकों से प्यार नहीं करता!” तो वे नाराज हो जाएँगे। अगर तुम कहते हो, “मेरे देश के लिए मेरा प्यार मेरे दिल की अंतरतम गहराई से उसके शासकों के लिए प्यार है,” तो वे इसे स्वीकारेंगे और ऐसे प्यार को स्वीकृति देंगे; अगर तुम उन्हें समझाना और स्पष्ट करना चाहो कि तुम उनसे प्यार नहीं करते तो वे इसे स्वीकृति नहीं देंगे। युगों-युगों से शासक किसका प्रतिनिधित्व करते आए हैं? (शैतान का।) वे शैतान का प्रतिनिधित्व करते हैं, वे शैतान के गिरोह के सदस्य हैं और सबके सब राक्षस हैं। वे लोगों को परमेश्वर की आराधना, सृष्टिकर्ता की आराधना करना बिल्कुल नहीं सिखा सकते। वे ऐसा बिल्कुल नहीं कर सकते। बल्कि वे लोगों को यह बताते हैं कि शासक स्वर्ग का पुत्र होता है। “स्वर्ग का पुत्र” का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि स्वर्ग किसी व्यक्ति को शक्ति देता है, फिर यह व्यक्ति “स्वर्ग का पुत्र” कहलाने लगता है और उसके पास स्वर्ग के अधीन सभी लोगों पर शासन करने की शक्ति होती है। क्या यह एक ऐसा विचार है जिसे शासक लोगों के मन में भरते हैं? (हाँ।) जब कोई व्यक्ति स्वर्ग का पुत्र बनता है तो यह स्वर्ग द्वारा निर्धारित होता है और स्वर्ग की इच्छा उसके साथ होती है, इसलिए लोगों को उस व्यक्ति के शासन को बिना शर्त स्वीकार करना चाहिए, फिर चाहे वह किसी भी प्रकार का शासन हो। वे लोगों में इसी विचार को भरते हैं जो तुमसे उस व्यक्ति को स्वर्ग का पुत्र स्वीकार करवाता है, जो इस पर आधारित है कि तुम स्वर्ग के अस्तित्व को मानते हो। तुमसे उस व्यक्ति को स्वर्ग का पुत्र स्वीकार करवाने का क्या उद्देश्य है? इसका उद्देश्य तुमसे यह स्वीकार करवाना नहीं है कि स्वर्ग है या कोई परमेश्वर या कोई सृष्टिकर्ता है, बल्कि तुमसे यह तथ्य स्वीकार करवाना है कि यह व्यक्ति स्वर्ग का पुत्र है और चूँकि वह स्वर्ग का पुत्र है जो स्वर्ग की इच्छा से आया है इसलिए लोगों को उसके शासन को स्वीकारना चाहिए—वे लोगों में इसी तरह के विचार भरते हैं। मानवजाति की शुरुआत से लेकर आज तक विकसित हुए इन सभी विचारों के पीछे—हम जिनका गहन-विश्लेषण कर रहे हैं चाहे वे वाक्यांश या मुहावरे हों जिनमें किसी प्रसंग का हवाला होता है, या चाहे लोकोक्तियाँ या आम कहावतें हों जिनमें किसी प्रसंग का हवाला नहीं होता है—शैतान के बंधन और मानवजाति को गुमराह करने के साथ-साथ ही इन विचारों के लिए भ्रष्ट मानवजाति की भ्रामक परिभाषा भी छिपी हुई है। बाद के समय में इस भ्रामक परिभाषा का लोगों पर क्या प्रभाव होता है? क्या यह अच्छा, सकारात्मक प्रभाव होता है या फिर नकारात्मक प्रभाव होता है? (नकारात्मक।) यह मूल रूप से नकारात्मक है। उदाहरण के लिए, “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना,” “अपना प्रकाश छिपाओ और अँधेरे में शक्ति जुटाओ,” “अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना,” “कभी हार न मानना” और साथ ही “एक काम करते हुए दूसरा काम करने का दिखावा करना”—बाद के समय में लोगों पर इन कहावतों का क्या प्रभाव पड़ता है? यानी एक बार जब लोग पारंपरिक संस्कृति के इन विचारों को स्वीकार लेते हैं तो लोगों की आने वाली हरेक पीढ़ी परमेश्वर से, परमेश्वर के सृजन और लोगों के उद्धार से और उसकी प्रबंधन योजना के कार्य से दूर और दूर भटकती चली जाती है। जब लोग पारंपरिक संस्कृति के इन गलत विचारों को स्वीकार लेते हैं तो उन्हें तेजी से लगने लगता है कि मनुष्य का भाग्य उनके अपने हाथ में होना चाहिए, खुशी उनके अपने हाथों से बनाई जानी चाहिए और अवसर सिर्फ उन्हीं लोगों के लिए आरक्षित हैं जो इसके लिए तैयार हैं, जो मानवजाति को अधिकाधिक परमेश्वर को नकारने, परमेश्वर की संप्रभुता को नकारने और शैतान की ताकत के अधीन रहने की ओर ले जाता है। अगर तुम तुलना करो कि आधुनिक युग में लोग किस बारे में बात करना पसंद करते हैं और दो हजार साल पहले लोग किस बारे में बात करना पसंद करते थे, तो इन बातों के पीछे की सोच का मतलब वास्तव में एक ही है। अंतर बस इतना है कि आजकल लोग उनके बारे में ज्यादा विशिष्ट रूप से और खुलकर बात करते हैं। न सिर्फ वे परमेश्वर के अस्तित्व और संप्रभुता को नकारते हैं, बल्कि अधिकाधिक गंभीर पैमाने पर परमेश्वर का प्रतिरोध और उसकी निंदा भी करते हैं।

उदाहरण के लिए, प्राचीन समय में लोग कहते थे कि “जब राष्ट्र पर कोई मुसीबत आए, तो हर किसी को अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए,” यह ऐसी कहावत है जो आज तक कायम है। लोग इस कहावत को सँजोते हैं, खासकर देशभक्त जो इसे अपना आदर्श वाक्य मानते हैं। अब जब तुम लोग विदेश में आ गए हो और अगर कोई कहता है कि चीन में कोई घटना घटी है तो क्या इसका तुम सबसे कोई लेना-देना होगा? (नहीं।) तुम ऐसा क्यों कहते हो कि इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है? कुछ लोग कहते हैं, “मुझे उस देश से नफरत है। अभी वह बुरी राजनीतिक पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में है। कम्युनिस्ट पार्टी दानव शैतान है, यह एकदलीय शासन व्यवस्था है, और इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं। यह हमें सताती है और परमेश्वर में विश्वास करने से रोकती है। मुझे इससे नफरत है।” मान लो कि एक दिन वह देश नष्ट होने वाला है—तो हो सकता है कि तुम्हारे दिल को कुछ भी महसूस न हो मगर जब तुम सुनोगे कि तुम मूल रूप से जिस प्रांत से आए थे, उस पर विदेशी समूहों ने हमला करके कब्जा कर लिया है तो तुम्हें लगेगा कि तुम एक शरणार्थी हो, एक खानाबदोश हो जिसके पास कोई घर नहीं है, और तुम दुखी होगे और महसूस करोगे कि गिरते हुए पत्तों की तरह तुम अपनी जड़ों की ओर वापस नहीं लौट सकते। गिरते हुए पत्तों की तरह अपनी जड़ों की ओर वापस लौटना—यह भी एक दूसरा पारंपरिक विचार है। और मान लो कि उसके बाद एक दिन अचानक तुम्हें सुनने को मिलता है कि तुम्हारे गृहनगर पर—जिस भूमि पर तुम पैदा हुए और पले-बढ़े—विदेशी समूहों ने हमला करके कब्जा कर लिया है, जिस रास्ते से तुम रोज स्कूल जाते थे उस पर विदेशियों का कब्जा हो गया है, और तुम्हारे घर और तुम्हारे परिवार की जमीन को भी विदेशियों ने हथिया लिया है। जो कभी तुम्हारा हुआ करता था अब तुम्हारा नहीं रहा—जमीन का वह छोटा-सा टुकड़ा जो आज भी तुम्हारे मन की गहराई में अंकित है, जिसका तुम्हारे साथ बेहद करीबी संबंध है वह अब नहीं रहा, और तुम्हारे सभी रिश्तेदार भी अब वहाँ नहीं रहे। उस समय तुम सोचोगे, “अगर मेरा देश ही नहीं रहा तो मेरा घर कैसे होगा? अब मैं वाकई एक शरणार्थी बन गया हूँ, मैं सचमुच बेघर हो गया हूँ, मैं खानाबदोश बन गया हूँ। लगता है कि यह कहावत ‘जब राष्ट्र पर कोई मुसीबत आए, तो हर किसी को अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए’ सही है!” जब वह समय आएगा तो तुम बदल जाओगे। तो तुम्हें अभी यह कहावत सही क्यों नहीं लगती है? इसके पीछे एक पृष्ठभूमि और एक आधार है, जो यह है कि वह राष्ट्र तुम्हें सताता और बहुत अधिक पीड़ा देता है, साथ ही वह तुम्हें स्वीकार नहीं करता और तुम उससे नफरत करते हो। सच तो यह है कि तुम वास्तव में जिससे नफरत करते हो वह वो भूमि नहीं है। तुम उस शैतानी शासन से नफरत करते हो जो तुम्हें सताता है। तुम इसे अपना देश नहीं मानते, इसलिए इस समय जब दूसरे लोग तुमसे कहते हैं, “जब राष्ट्र पर कोई मुसीबत आए, तो हर किसी को अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए,” तो तुम कहते हो, “इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है।” मगर जिस भूमि पर तुम पैदा हुए और पले-बढ़े, जब वह एक दिन तुम्हारी नहीं रहेगी और जब तुम्हारे पास अपना गृहनगर भी नहीं रहेगा तो तुम महसूस करोगे कि तुम एक खानाबदोश और एक ऐसे व्यक्ति हो जिसकी कोई राष्ट्रीयता नहीं है और तुमने सच में अपना देश खो दिया है। तब तुम्हारे दिल में दर्द उठेगा। किस बात का दर्द उठेगा? ऐसा हो सकता है कि अभी तुम इसे गहराई से महसूस न करो, मगर एक दिन यह तुम पर गहरा असर डालेगा। किन परिस्थितियों में यह तुम पर गहरा असर डालेगा? अगर तुम्हारा देश खत्म हो जाए और तुम किसी विजित देश के सदस्य बन जाओ तो वह डरावना नहीं है। डरावना क्या है? जब तुम किसी विजित देश के सदस्य बन जाओ और तुम्हें धमकाया जाए, अपमानित किया जाए, तुम्हारे साथ भेदभाव किया जाए, तुम्हें कुचला जाए और तुम्हारे पास शांति से रहने के लिए कोई जगह नहीं हो, उस समय तुम सोचोगे, “अपना एक देश होना बहुत कीमती है। देश के बिना लोगों के पास कोई असली घर नहीं होता है। देश के आधार पर ही लोगों का घर होता है, इसलिए यह कहावत सही बैठती है—‘जब राष्ट्र पर कोई मुसीबत आए, तो हर किसी को अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए।’” “हर किसी को अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए” इस वाक्यांश में यह “जिम्मेदारी” किस चीज की है? अपने घर में शांति बनाए रखने और उसकी रक्षा करने की। जब तुम इस बारे में सोचोगे, जब विदेशी लोगों द्वारा या विदेशी राष्ट्र में तुम्हारे साथ भेदभाव किया जाएगा, जब तुम्हें अपने लिए एक जगह की जरूरत होगी और जब तुम्हें अपने पीछे एक देश के सहारे की जरूरत होगी जो तुम्हारी गरिमा, प्रतिष्ठा, पहचान और रुतबे को कायम रखे तो तुम कैसा महसूस करोगे? तुम सोचोगे, “यदि किसी विदेशी देश में किसी व्यक्ति के पीछे शक्तिशाली समर्थन है तो वह समर्थन निश्चित रूप से महान मातृभूमि का ही होगा!” अभी की तुलना में, क्या तब तुम्हारी मनोदशा अलग होगी? (हाँ।) अभी तुम गुस्से में हो, इसलिए ऐसा कहते हो कि तुम्हारे देश में जो कुछ भी होता हो, उससे तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है। अगर वह समय आने पर भी तुम ऐसी बातें कह सकते हो तो तुम्हारा आध्यात्मिक कद कैसा होगा? इस संसार का एक सच जो शायद हर कोई जानता है, वह यह है कि अगर तुम्हारे पास शक्तिशाली मातृभूमि का समर्थन नहीं है तो यकीनन विदेशी राष्ट्रों में तुम्हारे साथ भेदभाव होगा और तुम्हें डराया-धमकाया जाएगा। जब तुम्हारे लिए वास्तव में ऐसा अनुभव करने का समय आएगा तो तुम सबसे पहले क्या माँगोगे? कुछ लोग कहेंगे : “अगर मैं यहूदी या जापानी होता तो बहुत अच्छा होता। तब कोई मुझे धमकाने की कोशिश नहीं करता। जिस किसी देश में मैं जाता वहाँ मेरा बहुत सम्मान होता। मैं चीन में कैसे पैदा हो गया? वह देश नाकारा है और चीनी लोग जहाँ भी जाते हैं उन्हें धमकाया जाता है।” जब ऐसा कुछ होता है तो तुम लोगों के मन में पहला विचार क्या आएगा? (हम परमेश्वर में आस्था रखते हैं और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करते हैं।) यह सही है। मगर ऐसी बात कह पाने और उसे अपने आध्यात्मिक कद में ढालने के लिए व्यक्ति को कितने सत्यों की समझ होनी चाहिए, उसे क्या अनुभव होना चाहिए और उसके पास कितनी अनुभवजन्य समझ होनी चाहिए? जब ऐसी कोई घटना होती है तो तुम्हारे पास कैसे विचार, समझ और व्यावहारिक अनुभव होने चाहिए ताकि तुम कमजोर न पड़ो? और ताकि तुम दुखी न हो, फिर चाहे कोई तुम पर थूक भी दे और तुम्हें एक जीते हुए देश का नागरिक बोले? तुम्हारे पास कैसा आध्यात्मिक कद होना चाहिए जिससे तुम न तो दुखी होओ और न ही इन बाधाओं से पीड़ित होओ। क्या अभी तुम लोगों के पास ऐसा आध्यात्मिक कद है? (नहीं।) अभी यह तुम्हारे पास नहीं है, मगर क्या एक दिन तुम्हारे पास यह होगा? तुम्हें किन सत्यों से लैस होना होगा? तुम्हें कौन-से सत्य समझने होंगे? आजकल जैसे ही कुछ लोगों को यह सुनने में आता है कि मुख्यभूमि चीन में उनके परिवार के सदस्यों को परमेश्वर में विश्वास करने के कारण गिरफ्तार कर लिया गया है तो जो बात उनके दिल को समझ आती है—कि सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है—वह उनके लिए धर्म-सिद्धांत बन जाती है, और वे इस तथ्य से बेबस हो जाते हैं कि उनके परिवार के सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया गया है और वे अपने कर्तव्य निभाने का रुझान खो देते हैं। अगर उन्होंने किसी रिश्तेदार की मौत की खबर सुनी तो वे शायद वहीं बेहोश हो जाएँगे। अगर वह देश नष्ट हो जाता है और वहाँ के सभी लोग मर जाते हैं तो तुम लोग कैसा महसूस करोगे? पारंपरिक चीजें—जैसे कि देश, घर, गृहनगर और मातृभूमि—साथ ही इन शब्दों से जुड़े कुछ पारंपरिक विचार और संस्कृति, तुम लोगों के दिलों में कितना गहरा स्थान रखती हैं? तुम्हारे जीवन में, क्या वे अभी भी तुम्हारे सभी क्रियाकलापों, सभी विचारों और व्यवहारों पर हावी हैं? अगर तुम्हारा दिल अभी भी उन सभी पारंपरिक चीजों से भरा हुआ है जिनसे तुम्हारा संबंध है, जैसे कि देश, जाति, राष्ट्र, परिवार, गृहनगर, भूमि वगैरह—यानी ये चीजें अभी भी तुम्हारे दिल में पारंपरिक संस्कृति का एक निश्चित निहितार्थ रखती हैं—तो तुम जो धर्मोपदेश सुनते हो और जिन सत्यों को समझते हो, वे सभी तुम्हारे लिए सिर्फ धर्म-सिद्धांत हैं। अगर तुमने बहुत सारे धर्मोपदेश सुने हैं, मगर उन सबसे बुनियादी चीजों को भी नहीं त्याग पा रहे हो जिन्हें लोगों को त्याग देना और जिनसे खुद को अलग कर लेना चाहिए, और तुम उनके साथ सही ढंग से पेश नहीं आ रहे हो तो जिन सत्यों को तुम समझते हो वे वास्तव में किन समस्याओं का समाधान करते हैं?

पश्चिम देशों में आने के बाद बहुत से चीनी लोग अपनी पारंपरिक संस्कृति और उन चीजों को पश्चिमी लोगों में डालना चाहते हैं जो उन्हें सही और अच्छी लगती हैं। इसी तरह पश्चिमी लोग भी पीछे नहीं रहते हैं और उनका मानना है कि उनकी पारंपरिक संस्कृतियाँ भी बहुत पुरानी हैं। उदाहरण के लिए, प्राचीन रोम, प्राचीन मिस्र और प्राचीन यूनान, इन सभी में “प्राचीन” शब्द शामिल है और उनकी संस्कृतियाँ तीन हजार साल से भी ज्यादा पुरानी हैं। इस संख्या के आधार पर देखें तो यहाँ एक खास सांस्कृतिक विरासत है और मानवजाति इस सांस्कृतिक विरासत से उत्पन्न चीजों को समस्त मानव जीवन का सर्वोत्कृष्ट सार मानती है, और मानवजाति के जीवन, अस्तित्व और स्व-आचरण से निकलने वाली सबसे महत्वपूर्ण चीजों का सारांश मानती है। मानवजाति द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे सौंपी गई सबसे महत्वपूर्ण चीजों को क्या कहा जाता है? पारंपरिक संस्कृति। पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोगों ने इस पारंपरिक संस्कृति को आगे बढ़ाया है और हर कोई अपने दिल में यही मानता है कि यह सबसे अच्छी चीज है। लोग चाहे इसका पालन कर पाएँ या नहीं, आम तौर पर सभी जातियों के लोग इसे बाकी सबसे ऊपर और सत्य मानते हैं। इसलिए हर जाति के लोगों के पास कुछ पारंपरिक चीजें होती हैं जो जाँच-पड़ताल में टिक पाती हैं और जिनका उन पर विशेष रूप से गहरा प्रभाव होता है और वे इन चीजों का इस्तेमाल एक-दूसरे से मुकाबला और तुलना करने के लिए करते हैं, और यहाँ तक कि एक दूसरे को परखने और एक दूसरे से आगे निकलने के लिए भी करते हैं। उदाहरण के लिए, चीनी लोग कहते हैं : “हमारी चीनी बाईजीउ शराब अच्छी है, इसमें अल्कोहल की मात्रा वाकई बहुत ज्यादा है!” पश्चिमी लोग कहते हैं : “तुम लोगों की शराब में ऐसा क्या खास है? इसमें अल्कोहल की मात्रा इतनी ज्यादा है कि इसे पीकर तुम मदहोश हो जाते हो और इसके अलावा यह जिगर के लिए बहुत खराब है। हम पश्चिमी लोग जो रेड वाइन पीते हैं, उसमें अल्कोहल की मात्रा कम होती है, यह जिगर को कम नुकसान पहुँचाती है और रक्त संचार भी बढ़ाती है।” चीनी लोग कहते हैं : “हमारी बाईजीउ शराब भी रक्त संचार बढ़ाती है और बड़े अच्छे से अपना काम करती है। इसे पीते ही यह तुम्हारे सिर चढ़ जाती है और तुम्हारा चेहरा चमक उठता है। तुम लोगों की रेड वाइन से इतना असर नहीं होता, चाहे इसे कितना भी पी लो, तुम्हें नशा नहीं चढ़ेगा। देखो, हमारे यहाँ शराब पीने के लिए शराब संस्कृति है और चाय पीने के लिए चाय संस्कृति है।” पश्चिमी लोग कहते हैं : “हमारे यहाँ भी चाय पीने के लिए चाय संस्कृति, कॉफी पीने के लिए कॉफी संस्कृति और शराब पीने के लिए शराब संस्कृति है और आजकल तो हमारे यहाँ फास्ट-फूड संस्कृति भी चल रही है।” एक-दूसरे से तुलना करते समय कोई किसी से हार नहीं मानता और न ही कोई किसी से कुछ स्वीकारता है। वे सभी अपनी-अपनी चीजों को सत्य मानते हैं, जबकि उनमें से कोई भी चीज सत्य नहीं है। अविश्वासियों की बात छोड़ दें तो सबसे दुखद बात यह है कि जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं—और इससे भी बदतर, जिन लोगों ने 20-30 वर्षों से कार्य के इस चरण को स्वीकार किया हुआ है—उन्हें भी यह एहसास नहीं है कि ये चीजें बिल्कुल भी सत्य नहीं हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कहते हैं, “क्या यह कहना ठीक है कि ये सत्य से संबंधित हैं?” यह कहना ठीक नहीं है कि ये सत्य से संबंधित हैं। यह सत्य नहीं है, इनका सत्य से कोई लेना-देना या संबंध नहीं है, वे दोनों एक जैसे नहीं हैं और वे एक ही चीज भी नहीं हैं। जैसे कि ताँबे पर सोने की कितनी भी अच्छी परत चढ़ाई गई हो या उसे कितना भी पॉलिश किया गया हो वह ताँबा ही रहता है, जबकि सोना पॉलिश किया हुआ, चमकाया गया या भड़कीला न होने पर भी सोना ही रहता है—वे दोनों एक ही चीजें नहीं हैं।

कुछ लोग हैं जो पूछते हैं : “क्या उन लोगों के लिए सत्य को स्वीकारना आसान है जिन्होंने काफी अच्छी पारंपरिक सांस्कृतिक शिक्षा और संस्कार प्राप्त किए हैं?” नहीं, ये दो अलग-अलग मसले हैं। सिर्फ उनकी जीवन-शैलियाँ कुछ हद तक अलग हैं, मगर सत्य को स्वीकारने के प्रति लोगों का रवैया, उनके विभिन्न विचार और दृष्टिकोण और पूरी मानवजाति की भ्रष्टता की सीमा एक ही है। जब परमेश्वर ने अपने कार्य के इस चरण यानी अंत के दिनों में बोलना शुरू किया तो वह चीनी लोगों के संदर्भ में बात कर रहा था और अपने वचनों से उन्हें संबोधित कर रहा था। तीस साल बीत गए और जब ये वचन एशिया के अन्य भागों में और यूरोप और अमेरिका जैसी जगहों पर तमाम विभिन्न जातियों में प्रसारित होते हैं तो चाहे वे लोग काले, गोरे, भूरे या पीले हों, उन्हें पढ़ने के बाद सभी लोग कहते हैं, “ये वचन हमारे बारे में बात कर रहे हैं।” परमेश्वर के वचन सभी मनुष्यों के भ्रष्ट स्वभावों को उजागर करते हैं। इने-गिने लोग कहते हैं, “ये सभी वचन तुम चीनी लोगों को संबोधित हैं। वे तुम चीनी लोगों के भ्रष्ट स्वभावों के बारे में बात कर रहे हैं, जो हमारे पास नहीं हैं।” सिर्फ कुछ ही लोग जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है, ऐसी बातें कहेंगे। अतीत में दक्षिण कोरियाई लोगों में इस तरह की गलतफहमी थी। उनका मानना था कि दक्षिण कोरियाई लोग एक लोकतांत्रिक और स्वतंत्र सामाजिक व्यवस्था के तहत रहते हैं और वे ईसाई संस्कृति के साथ-साथ हजारों वर्षों की कोरियाई संस्कृति से प्रभावित हैं, इसलिए उनकी नस्ल चीनी लोगों की तुलना में ज्यादा प्रतिष्ठित और ज्यादा उत्कृष्ट है। उन्होंने ऐसा क्यों सोचा? क्योंकि जब बहुत से चीनी लोग दक्षिण कोरिया आ गए तो वे जहाँ भी जाते थे उन जगहों को गंदा और शोरगुल वाला बना देते थे, चोरी और अपराध बढ़ गए थे और इसका सामाजिक माहौल पर कुछ प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। इसलिए दक्षिण कोरिया में भाई-बहनों का मानना था कि “चीनी लोग बड़े लाल अजगर की संतान और मोआब के वंशज हैं। हम दक्षिण कोरियाई लोग बड़े लाल अजगर द्वारा भ्रष्ट नहीं हुए हैं।” ऐसा कहकर वे क्या दर्शाना चाहते थे? यह कि “हम बड़े लाल अजगर द्वारा भ्रष्ट नहीं हुए हैं, इसलिए हम चीनी लोगों की तरह भ्रष्ट नहीं हैं। चीनी लोग हमसे ज्यादा भ्रष्ट हैं। हम चीनी लोगों से बेहतर हैं।” “बेहतर” से उनका क्या मतलब था? (बेहतर व्यवहार।) एक ओर, इसका संबंध व्यवहार से है। दूसरी ओर, वे अपने दिल की गहराइयों में यह मानते थे कि दक्षिण कोरियाई राष्ट्र ने इतिहास के आरंभ से ही जिस पारंपरिक संस्कृति का निर्माण किया और स्वीकारा, वह चीनी राष्ट्र की संस्कृति और परंपराओं से कहीं ज्यादा उत्कृष्ट है और इस प्रकार की पारंपरिक संस्कृति की शिक्षा से प्रभावित लोग और नस्लें चीनी पारंपरिक संस्कृति की शिक्षा से प्रभावित लोगों और नस्लों की तुलना में ज्यादा उत्कृष्ट हैं। इसलिए जब उन्होंने परमेश्वर के वचन पढ़े और परमेश्वर को यह कहते हुए देखा, “तुम लोग एकदम कचरा हो” तो उन्हें लगा कि वह चीनी लोगों के बारे में बात कर रहा है। चीनी भाई-बहनों ने कहा : “परमेश्वर जिन ‘तुम लोगों’ की बात करता है उसका मतलब पूरी मानवजाति है।” दक्षिण कोरियाई लोगों ने कहा, “यह सही नहीं है, परमेश्वर ‘तुम लोगों’ के बारे में बात कर रहा है, हमारे बारे में नहीं। परमेश्वर जो कह रहा है, उसके अर्थ में दक्षिण कोरियाई लोग शामिल नहीं हैं।” उन्होंने यही सोचा था। यानी उन्होंने चाहे किसी भी पहलू से चीजों को देखा, उनके दृष्टिकोण और परिप्रेक्ष्य सत्य के परिप्रेक्ष्य से नहीं आए थे और वे वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष परिप्रेक्ष्य से तो बिल्कुल नहीं आए थे। बल्कि उन्होंने तो चीजों को एक नस्ल और एक पारंपरिक संस्कृति के संदर्भ से देखा। इसलिए चीजों के प्रति उनका नजरिया कुछ भी रहा हो, उसके बाद के नतीजे सत्य के विपरीत थे। क्योंकि चाहे उन्होंने चीजों को कैसे भी देखा, उनकी शुरुआत हमेशा यहीं से होती थी, “हमारे महान दक्षिण कोरियाई राष्ट्र में सब कुछ सही है, इसकी हर चीज मानक है और इससे जुड़ी हर चीज उचित है।” उन्होंने हर चीज को गलत परिप्रेक्ष्य और शुरुआती बिंदु से देखा और मापा तो क्या उन्होंने जो नतीजे देखे वे सही थे या गलत? (गलत।) वे यकीनन गलत थे। तो हर चीज को मापने के लिए मानक क्या होना चाहिए? (सत्य।) यह सत्य होना चाहिए—यही मानक है। उनका मानक अपने आप में गलत था। उन्होंने सभी चीजों और सभी घटनाओं को गलत परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण से मापा, इसलिए मापे गए नतीजे निश्चित रूप से गलत थे, निष्पक्ष नहीं थे, सही नहीं थे और वस्तुनिष्ठ तो बिल्कुल भी नहीं थे। इसलिए उनके लिए कुछ विदेशी चीजों को स्वीकारना मुश्किल था और फिर उनकी सोच बहुत अतिवादी, सीमित, संकीर्ण और उतावलेपन से भरी थी। उनका यह उतावलापन कहाँ से आया? यहीं से कि उनकी हर बात में “हमारा महान दक्षिण कोरियाई राष्ट्र” का जिक्र होना ही था और वे “महान” शब्द पर अधिक जोर देते थे। “महान” का क्या मतलब है? क्या यह “महान” शब्द अहंकार को नहीं दर्शाता है? अगर तुम दुनिया भर में घूमो या कोई नक्शा देखो तो दक्षिण कोरिया कितना बड़ा है? अगर यह वाकई दूसरे देशों से बड़ा होता और इसे महान कहा जा सकता था तो फिर ठीक है, इसे “महान” कहो। मगर धरती के दूसरे देशों की तुलना में दक्षिण कोरिया कोई बड़ा देश नहीं है तो फिर वे इसे “महान” कहने पर जोर क्यों देते हैं? इसके अलावा चाहे कोई देश बड़ा हो या छोटा, वह जो पारंपरिक संस्कृति और नियम बनाता है वे परमेश्वर से नहीं आते, और वे सत्य से तो बिल्कुल भी नहीं आते। ऐसा इसलिए है क्योंकि सत्य और परमेश्वर के उद्धार को स्वीकारने से पहले व्यक्ति जितने भी विचारों को स्वीकारता है वे सभी शैतान से आते हैं। शैतान द्वारा उत्पन्न सभी विचार, दृष्टिकोण और पारंपरिक संस्कृति लोगों के साथ क्या करती है? ये सब लोगों को गुमराह करते हैं, भ्रष्ट करते हैं, बाँधते हैं और प्रतिबंधित करते हैं, जिसके कारण भ्रष्ट मानवजाति के विचार संकीर्ण और अतिवादी हो जाते हैं और चीजों के बारे में उनके विचार एकतरफा और पक्षपाती होते हैं, यहाँ तक कि वे हास्यास्पद और बेतुके भी होते हैं—ये शैतान द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट करने के दुष्परिणाम हैं। जब कई देशों और कुछ नस्लों के लोग ये शब्द सुनते हैं, “परमेश्वर चीन में देहधारी हुआ है” तो उनकी पहली प्रतिक्रिया क्या होती है? बस एक शब्द—नामुमकिन! उनके हिसाब से यह जगह कहाँ होनी चाहिए थी? (इस्राएल।) सही कहा, इस्राएल। लोग विनियमों का पालन करना और धारणाओं से चिपके रहना सबसे ज्यादा पसंद करते हैं। वे सोचते हैं कि परमेश्वर ने इस्राएल में अपना कार्य किया है और इसलिए परमेश्वर को इस्राएल में या किसी ऐसे शक्तिशाली साम्राज्य में प्रकट होना चाहिए जिसका वे सम्मान करते हैं, या फिर वे सोचते हैं कि परमेश्वर को किसी ऐसे देश में प्रकट होना चाहिए जहाँ उनकी धारणाओं और कल्पनाओं में कभी प्राचीन सभ्यता होती थी। चीन ऐसा देश बिल्कुल नहीं है, इसलिए उनके लिए यह गवाही स्वीकारना मुश्किल है कि परमेश्वर चीन में देहधारी हुआ, और उन्हें बचाए जाने के इस अवसर को खोने के लिए इतना ही पर्याप्त है। ऐसा किसने किया? (उन्होंने खुद किया।) क्योंकि वे इस तरह की धारणा पालते हैं और विद्रोही बन गए हैं और वे समस्या का समाधान करने के लिए सत्य बिल्कुल नहीं खोजते, उन्होंने खुद को बहुत नुकसान पहुँचाया है और उद्धार पाने के इस एकमात्र अवसर को भी बर्बाद कर दिया है।

जब लोग सत्य नहीं समझते हैं तो उनके मन में जितनी भी कल्पनाएँ और धारणाएँ होती हैं, और यहाँ तक कि कुछ ऐसी चीजें जिनकी लोग आराधना करते हैं, वे बहुत ही हास्यास्पद और बेतुकी होती हैं। एक दक्षिण कोरियाई महिला जो सँयुक्त राज्य अमेरिका में है और उसे यह देश पसंद है, उसकी अमेरिकियों से बातचीत होती है और उनमें से एक उससे पूछता है : “वसंत महोत्सव बस आने ही वाला है। वसंत महोत्सव के दौरान चीनी लोग क्या खाते हैं?” वह कहती है : “मैं चीन से नहीं, दक्षिण कोरिया से हूँ।” अमेरिकी जवाब देता है, “तो क्या दक्षिण कोरियाई लोग भी वसंत महोत्सव नहीं मनाते?” जिस पर वह कहती है, “हम दक्षिण कोरियाई वसंत महोत्सव नहीं मनाते हैं।” अमेरिकी कहता है : “मुझे लगा था कि चीनियों की तरह दक्षिण कोरियाई लोग भी वसंत महोत्सव मनाते हैं।” वह बड़े रूखेपन के साथ जवाब देती है : “हम चीनी लोगों जैसे नहीं हैं! क्या तुम्हारा यह सोचना सही है कि हम वसंत महोत्सव मनाते हैं? यह हम दक्षिण कोरियाई लोगों की गरिमा का भारी अपमान है!” क्या दक्षिण कोरियाई लोग वास्तव में वसंत महोत्सव नहीं मनाते हैं? (वे इसे मनाते हैं।) वास्तव में, दक्षिण कोरियाई लोग भी वसंत महोत्सव मनाते हैं। तो, उसने ऐसा क्यों कहा कि दक्षिण कोरियाई लोग इसे नहीं मनाते? आओ इस मुद्दे पर चर्चा करें। क्या वसंत महोत्सव मनाना सही है या नहीं? क्या तुम लोग इस मुद्दे को स्पष्टता से समझा सकते हो? विदेशियों के लिए वसंत महोत्सव मनाना अपने आप में कोई शर्मनाक बात नहीं है। यह एक विशेष रिवाज है जो लोगों के जीवन में एक महत्वपूर्ण दिन की याद दिलाता है। पारंपरिक संस्कृति वाले इस संसार में रहने वाले मनुष्यों के लिए वसंत महोत्सव मनाना कोई गलत या शर्मनाक बात नहीं है, तो फिर यह महिला वसंत महोत्सव मनाने की बात क्यों नहीं स्वीकारती? क्योंकि जैसे ही वह वसंत महोत्सव मनाने की बात स्वीकारती है, वह अब पश्चिमी महिला नहीं रह जाती, और उसे एक बहुत ही पारंपरिक पूर्वी एशियाई व्यक्ति की तरह देखा जाएगा, और वह नहीं चाहती कि लोग उसे एक पारंपरिक पूर्वी एशियाई महिला समझें। वह चाहती है कि लोग सोचें कि उसके पास कोई पूर्वी एशियाई परंपरा नहीं है और वह पूर्वी एशियाई परंपराओं को नहीं समझती है या वह उनके बारे में कुछ भी नहीं जानती। वह लोगों को यह भी दिखाना चाहती है कि वह फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती है, अपने बालों को सुनहरे रंग में रंगती है, नीले कॉन्टैक्ट लेंस लगाती है और पश्चिमी लोगों जैसे कपड़े पहनती है और पश्चिमी महिलाओं की तरह ही निर्भीक, उन्मुक्त, मुक्त, स्वतंत्र और समझदार है—वह चाहती है कि लोग उसे इस तरह देखें। इसलिए इस सोच के प्रभाव में, जब भी उसके साथ कुछ घटित होता है तो वह जैसा भी व्यवहार करेगी, वह इस सोच के अनुरूप ही होगा। जब भी कोई उससे पूछता है कि क्या दक्षिण कोरियाई लोग वसंत महोत्सव मनाते हैं तो वह जवाब देती है, “हम दक्षिण कोरियाई लोग वसंत महोत्सव नहीं मनाते।” अगर उसके करीबी लोग कहते हैं, “हम तो वसंत महोत्सव मनाते ही हैं, फिर तुम ऐसा क्यों कहती हो कि हम इसे नहीं मनाते?” तो उसका क्या जवाब होगा? “तुम बेवकूफ हो। अगर मैं कहूँ कि हम वसंत महोत्सव मनाते हैं तो क्या उन्हें यह पता नहीं चलेगा कि मैं एक पारंपरिक दक्षिण कोरियाई हूँ?” वह लोगों को दिखाना चाहती है कि वह सँयुक्त राज्य अमेरिका में ही पैदा हुई और पली-बढ़ी है। अगर तुमने उससे पूछा, “तुम यहाँ पैदा हुई थी, मगर तुम्हारा परिवार कितनी पीढ़ियों से यहाँ है?” तो वह कहेगी : “हमारे पूर्वज यहाँ पले-बढ़े थे।” वह सोचती है कि यह पहचान और रुतबे का प्रतीक है, इसलिए वह सरासर झूठ बोलने पर उतर आती है और दूसरों के सामने झूठ पकड़े जाने से नहीं डरती। यह किस तरह की सोच है? क्या यह मामला झूठ बोलने लायक है? क्या यह जोखिम उठाने लायक है? नहीं, ऐसा नहीं है। इतनी छोटी-सी बात भी किसी व्यक्ति के विचारों और दृष्टिकोण को उजागर कर सकती है। किस तरह के विचार और दृष्टिकोण उजागर किए जाते हैं? कुछ चीनी लड़कियाँ वाकई बहुत सुंदर होती हैं, मगर वे अपने बालों को सुनहरे रंग में रंगने, उन्हें घुँघराला बनाने, अपनी आँखों का रंग बदलने के लिए अलग-अलग रंग के कॉन्टैक्ट लेंस पहनने और खुद को विदेशी दिखाने पर जोर देती हैं—यह देखना वाकई अजीब है। वे इस तरह की इंसान बनने पर क्यों जोर देती हैं? क्या उनके इस तरह से कपड़े पहनने के बाद उनका वंश बदल गया? भले ही उनका वंश बदल गया हो और अगले जन्म में वे एक गोरे व्यक्ति के रूप में जन्म लें या किसी ऐसी जाति के व्यक्ति के रूप में जन्म लें जिसे वे बहुत ऊँचा मानती हों—फिर क्या होगा? क्या तुम सब इस मुद्दे को स्पष्ट देख सकते हो? अगर कोई व्यक्ति एक खास शैली और एक खास स्वभाव के साथ आचरण करने की कोशिश करता है और खुद को उस राष्ट्र या नस्ल का सदस्य बताता है जिसका वह सम्मान करता है तो इसका क्या कारण है? क्या इसके पीछे कोई सोच छिपी है जो इसे नियंत्रित करती है? वह कौन-सी सोच है जो इसे नियंत्रित करती है? यह उस दक्षिण कोरियाई महिला की तरह ही है; जब अमेरिकी उससे पूछते हैं कि क्या वह टेबल टेनिस खेल सकती है तो वह कहती है, “टेबल टेनिस क्या है? सिर्फ चीनी लोग इसे खेलते हैं। हम टेनिस और गोल्फ खेलते हैं।” यह किस प्रकार की इंसान है जो इस तरह से आचरण कर सकती है औरबोल सकती है? क्या यह कुछ हद तक नकली नहीं है? वह जो कुछ भी करती है वह सब कुछ नकली है, इससे उसका जीवन बहुत थकाऊ हो जाता है! क्या तुम लोग इस तरह से आचरण करोगे? कुछ चीनी लोग जो दशकों से पश्चिमी देशों में रहे हैं वे जब अपने गृहनगर जाते हैं तो चीनी भाषा नहीं बोल पाते। क्या यह बुरी बात है? (हाँ।) कुछ लोग कहते हैं : “हमें अपनी जड़ें नहीं भूलनी चाहिए। परमेश्वर भी कहता है कि हमें अपनी जड़ें नहीं भूलनी चाहिए। परमेश्वर लोगों की जड़ है। लोगों का सृजन परमेश्वर ने किया है और लोगों से जुड़ी हर चीज परमेश्वर से आती है, इसलिए सृजित प्राणी होने के नाते लोगों को परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए—अपनी जड़ें नहीं भूलने का यही मतलब है।” ऐसा ही है ना? हर स्थिति में सत्य खोजना चाहिए, मगर लोग सत्य नहीं खोजते हैं और वे पूरी तरह से पारंपरिक संस्कृति से चिपके रहते हैं। ऐसा क्यों है? कुछ लोग कहते हैं : “हम अपनी जड़ों को कभी नहीं भूलते। हम जहाँ भी जाते हैं, यह स्वीकारते हैं कि हम चीनी हैं और मानते हैं कि हमारा देश गरीब और पिछड़ा हुआ है। हम अपनी जड़ों को कभी नहीं भूलेंगे।” क्या यह सही है? ये सभी समस्याएँ एक तरह से मानवजाति पर इन तथाकथित पारंपरिक संस्कृतियों के अत्यधिक गहरे प्रभाव और शिक्षा के कारण हैं। दूसरा पहलू यह है कि इतने सालों तक धर्मोपदेश सुनने के बाद भी लोग ध्यान से विचार नहीं करते और यह नहीं खोजते कि सत्य क्या है। बल्कि वे अक्सर पारंपरिक संस्कृति और पतनशील चीजों का उपयोग करते हैं जो उनके पास पहले से ही मौजूद हैं, जिन्हें उन्होंने पहले ही सीख लिया है और जो दृढ़ता से जड़ें जमाए हैं और वे उन्हें सत्य के रूप में सामने रखते हैं। यह दूसरा पहलू है। तीसरा, धर्मोपदेश सुनने के बाद लोग परमेश्वर के वचनों में सत्य नहीं खोजते। बल्कि वे परमेश्वर के वचनों को आँकने के लिए पारंपरिक परिप्रेक्ष्य और मानवीय धारणाओं के ज्ञान और शिक्षाओं का उपयोग करते हैं, जो उन्हें पहले से पता है। इसलिए अब तक भले ही लोगों ने अनेक धर्मोपदेश सुने हैं, फिर भी व्यवहार के तथाकथित सिद्धांत और अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर की सेवा करने के तथाकथित सिद्धांत, जो लोग मौखिक रूप से दूसरों तक पहुँचाते हैं, अक्सर कुछ ऐसे ज्ञान, मुहावरों और आम कहावतों पर आधारित होते हैं जिन्हें वे सही मानते हैं। उदाहरण के लिए, अगर कोई व्यक्ति कुछ गलत करता है और कलीसिया के अगुआ या भाई-बहन उसकी काट-छाँट करते हैं तो वे सोचते हैं : “हम्म्, यह उन कहावतों जैसा है, ‘मारने से कोई फायदा नहीं होता’ और ‘मुस्कुराते हुए चेहरे को देखकर हाथ मत उठाओ।’ मैंने अपनी इस छोटी-सी कमी को धैर्यपूर्वक मुस्कुराहट के साथ स्वीकार कर लिया है—फिर तुम मुझे इसके लिए क्यों उजागर करते रहते हो?” बाहर से वे आज्ञाकारी बनकर सुनते और समर्पण करते हैं, मगर वास्तव में अपने दिलों की गहराई में वे वितर्क और प्रतिरोध करने के लिए पारंपरिक धारणाओं का इस्तेमाल कर रहे हैं। उनके प्रतिरोध करने का क्या कारण है? उन्हें लगता है कि “मारने से कोई फायदा नहीं होता” और “मुस्कुराते हुए चेहरे को देखकर हाथ मत उठाओ” जैसी कहावतें असली सत्य और सही हैं, और किसी के लिए भी बिना किसी भावना के लगातार उनकी काट-छाँट करना और उन्हें उजागर करना गलत है, और यह सत्य नहीं है।

हमने अभी जिस विषय पर संगति की क्या उससे तुम लोगों को सत्य की गहरी समझ मिल चुकी है? (हाँ।) कुछ लोग कह सकते हैं : “अब जब तुम हमें यह बता चुके हो तो हम नहीं जानते कि अभ्यास करने में हमें किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। इन पारंपरिक संस्कृतियों और इन धारणाओं और ज्ञान के बिना हमें कैसे जीना चाहिए? हमें कैसे कार्य करना चाहिए? हमें नियंत्रित करने वाली इन चीजों के बिना हम कैसे अपना मुँह खोल सकते हैं और परमेश्वर के वचनों का प्रचार कर सकते हैं? इन चीजों के बिना क्या हमारे लिए परमेश्वर के वचनों का प्रचार करने का आधार ही खत्म नहीं हो गया? तो फिर हमारे पास और बचा क्या है?” खैर, मैं उन लोगों से यही कहता हूँ कि अगर तुम्हारे पास वाकई ये चीजें नहीं हैं तो सत्य खोजना ज्यादा आसान होगा और सत्य स्वीकारना और परमेश्वर के पास लौटना ज्यादा आसान होगा। पहले जब तुम अपना मुँह खोलते थे तो तुम्हारे मुँह से बस शैतानी फलसफे और पारंपरिक ज्ञान निकलता था, जैसे कि “बुद्धिमान इंसान हालात के अनुसार अपना रुख बदलता है,” “मुस्कुराते हुए चेहरे को देखकर हाथ मत उठाओ,” “मारने से कोई फायदा नहीं होता,” वगैरह। अब तुम यह विचार करते और सोचते हो, “मैं ऐसा नहीं कह सकता, ये सभी कहावतें गलत हैं, इनका खंडन और निंदा की जा चुकी है, इसलिए मुझे क्या कहना चाहिए? विनम्रता से और उचित ढंग से परमेश्वर के वचन पढ़ो और परमेश्वर के वचनों से आधार खोजो।” लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं और परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, पर जब भी वे अपने मुँह खोलते हैं, तो उनके मुँह से बस यही मुहावरे, कहावतें और कुछ ऐसी चीजें और विचार ही निकलते हैं जो उन्हें पारंपरिक संस्कृति से मिलते हैं। जब भी किसी व्यक्ति के साथ कुछ घटित होता है तो कोई भी परमेश्वर का पूरी तरह से उन्नयन नहीं कर सकता या उसकी गवाही नहीं दे सकता और यह नहीं कह सकता कि, “परमेश्वर ऐसा कहता है” या “परमेश्वर वैसा कहता है।” कोई भी ऐसा नहीं बोलता, कोई भी अपना मुँह खोलते ही परमेश्वर के वचन नहीं दोहराता। तुम परमेश्वर के वचन नहीं दोहरा सकते, मगर उन सामान्य कहावतों को दोहरा सकते हो, तो असल में तुम्हारा दिल किस चीज से भरा है? उन सभी चीजों से जो शैतान से आती हैं। कुछ लोग टीम अगुआ द्वारा अपने काम की जाँच किए जाने पर कहते हैं : “आप किस चीज की जाँच कर रहे हो? न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम इस्तेमाल करते हो, न ही उन लोगों को इस्तेमाल करो जिन पर तुम संदेह करते हो। अगर आपको हमेशा मुझ पर संदेह होता है तो फिर मुझसे काम क्यों कराते हो? किसी और से करवा लो।” वे सोचते हैं कि कार्य करने का यही सही तरीका है और वे दूसरों को अपनी निगरानी और आलोचना नहीं करने देते। ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने अपने कर्तव्य करते हुए बहुत कष्ट सहे हैं, मगर चूँकि उन्होंने सिद्धांतों की खोज नहीं की और कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी और बाधा पैदा की, इसलिए आखिर में उन्हें बर्खास्त कर दिया जाता है और ऊपर से उनकी काट-छाँट भी की जाती है। कुछ निंदा भरी टिप्पणियाँ सुनकर वे उद्दंड हो जाते हैं और सोचते हैं, “एक कहावत है, ‘भले ही मैंने कोई उपलब्धि हासिल न की हो, मगर मैंने कठिनाई झेली है; अगर कठिनाई नहीं तो थकान ही सही।’ मुझसे बस यह छोटी सी गलती हो गई, इससे क्या फर्क पड़ता है?” क्योंकि उन्होंने इस आम कहावत को पहले सीखा था और इसलिए यह उनमें दृढ़ता से रची-बसी हुई है, उनके विचारों को नियंत्रित और प्रभावित करती है, इससे वे—इस परिवेश में और ऐसी स्थिति उत्पन्न होने के बाद—परमेश्वर के घर द्वारा उनके साथ किए गए व्यवहार का प्रतिरोध करने और उसके प्रति समर्पण न करने के आधार के रूप में इस कहावत का उपयोग करने के लिए प्रेरित होते हैं। ऐसा होने पर क्या वे अभी भी समर्पण कर सकते हैं? क्या उनके लिए अभी भी सत्य को स्वीकारना आसान है? भले ही वे बाहरी तौर पर समर्पण करते हों, मगर ऐसा बस इसलिए है क्योंकि उनके पास कोई चारा नहीं है और यह आखिरी सहारा है। भले ही बाहरी तौर पर वे पलटवार नहीं करते, फिर भी उनके दिलों में प्रतिरोध होता है। क्या यह सच्चा समर्पण है? (नहीं।) यह आधे-अधूरे मन से काम करना है, यह सच्चा समर्पण नहीं है। इसमें कोई समर्पण नहीं है, सिर्फ तर्क-वितर्क, नकारात्मकता और विरोध है। यह तर्क-वितर्क, नकारात्मकता और विरोध कहाँ से उत्पन्न हुआ? ये इस कहावत से उत्पन्न हुए “भले ही मैंने कोई उपलब्धि हासिल न की हो, मगर मैंने कठिनाई झेली है; अगर कठिनाई नहीं तो थकान ही सही।” इस कहावत के कारण इन लोगों में किस तरह का स्वभाव उत्पन्न हुआ? अवज्ञा, हठ, विरोध और तर्क-वितर्क का। इस संगति से क्या तुम लोगों को सत्य के बारे में और समझ मिली है? एक बार जब तुम इन नकारात्मक चीजों का स्पष्ट रूप से गहन-विश्लेषण और इनके भेद की पहचान करके इन्हें अपने दिल से निकाल फेंकोगे तो अपने ऊपर चीजें आने पर तुम सत्य खोजने और उसका अभ्यास करने में सक्षम होगे, क्योंकि पुरानी चीजों को त्याग दिया गया है और अब वे तुम्हें अपने कर्तव्य निभाने में, परमेश्वर की सेवा करने और उसका अनुसरण करने में उन चीजों पर भरोसा करने के लिए प्रेरित नहीं कर सकती हैं। वे चीजें अब तुम्हारे स्व-आचरण के सिद्धांत नहीं हैं, वे अब ऐसे सिद्धांत नहीं हैं जिनका तुम्हें अपने कर्तव्य निभाते समय पालन करना चाहिए और उनकी पहले ही आलोचना और निंदा की जा चुकी है। अगर तुम उन्हें फिर से लेते और इस्तेमाल करते हो तो तुम्हारे दिल की गहराई में क्या होगा? क्या तुम तब भी इतने ही खुश रहोगे? क्या तुम तब भी इतने आश्वस्त होगे कि तुम सही हो? जाहिर है कि ऐसा होने की संभावना कम है। अगर तुम्हारे अंदर की ये चीजें वास्तव में दूर हो गई हैं तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों में यह खोजना चाहिए कि वास्तव में सच्चे सिद्धांत क्या हैं और परमेश्वर की अपेक्षाएँ वास्तव में क्या हैं। कुछ लोग अक्सर कहते हैं, “जैसा तुम्हारा मालिक आज्ञा दे, वैसा करो, वरना तुम्हें अपने सबसे श्रमसाध्य प्रयासों से भी कुछ हासिल नहीं होगा।” यह कहावत सही है या गलत? निश्चित रूप से गलत है। यह गलत कैसे है? “जैसा तुम्हारा मालिक आज्ञा दे, वैसा करो,” इस वाक्यांश में “मालिक” कौन है? तुम्हें नौकरी देने वाला, तुम्हारा बॉस, तुम्हारा वरिष्ठ। यह “मालिक” शब्द अपने आप में ही गलत है। परमेश्वर तुम्हें नौकरी देने वाला या तुम्हारा बॉस या तुम्हारा मैनेजर नहीं है। परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर है। मैनेजर, बॉस, वरिष्ठ सभी समान किस्म के और समान स्तर के लोग हैं। मूल रूप से वे एक जैसे हैं; वे सभी भ्रष्ट इंसान हैं। तुम उनकी बात सुनते हो, उनसे पगार लेते हो और वे जो भी करने को कहते हैं, तुम वही करते हो। तुम जितना काम करते हो, वे तुम्हें उतने पैसे दे देते हैं, उससे ज्यादा कुछ नहीं। “वरना तुम्हें अपने सबसे श्रमसाध्य प्रयासों से भी कुछ हासिल नहीं होगा,” इस वाक्यांश में “हासिल” का क्या मतलब है? (श्रेय।) श्रेय और पारिश्रमिक। तुम्हारे क्रियाकलापों की प्रेरणा पैसा कमाना है। इसके लिए वफादारी या आज्ञाकारिता की जरूरत नहीं है, न ही सत्य खोजने और आराधना करने की जरूरत है—इनमें से किसी की जरूरत नहीं है, यह सिर्फ एक लेन-देन है। यह वास्तव में कुछ ऐसी चीज है जिसकी परमेश्वर में विश्वास करने, अपना कर्तव्य करने और सत्य का अनुसरण करने के दौरान निंदा और आलोचना की जाती है। अगर तुम “जैसा तुम्हारा मालिक आज्ञा दे, वैसा करो, वरना तुम्हें अपने सबसे श्रमसाध्य प्रयासों से भी कुछ हासिल नहीं होगा,” कहावत को सत्य मानते हो, तो यह बहुत बड़ी गलती है। जब तुम कुछ लोगों को सत्य समझाने की कोशिश करोगे तो उनकी प्रतिक्रियाएँ धीमी और सुस्त होंगी और वे परमेश्वर के वचनों को कितना भी खाएँ-पिएँ, वे एक या दो सत्य भी नहीं समझ पाएँगे, न ही वे परमेश्वर के वचनों के एक या दो वाक्यांश भी याद रख पाएँगे। मगर जब बात उन जुमलों, मुहावरों और आम कहावतों की आती है जो अक्सर लोगों के बीच फैली होती हैं और उन चीजों की आती है जो आम लोग अक्सर कहते हैं तो वे उन्हें बहुत ही जल्दी स्वीकार लेते हैं। चाहे कोई कितना भी बेवकूफ क्यों न हो, वह भी इन बातों को बहुत ही जल्दी स्वीकार लेता है। ऐसा कैसे मुमकिन है? तुम चाहे किसी भी नस्ल या रंग के हो, अंतिम विश्लेषण में तुम सब मनुष्य हो और सब एक ही किस्म के हो। केवल परमेश्वर ही मनुष्य से अलग किस्म का है। मनुष्य हमेशा दूसरे मनुष्यों की श्रेणी के ही होंगे। इसलिए जब भी परमेश्वर कुछ करता है, सभी मनुष्यों के लिए इसे स्वीकारना आसान नहीं होता, वहीं जब भी मनुष्यों में से कोई कुछ करता है, चाहे वह व्यक्ति कोई भी हो या कितना भी नीच क्यों न हो, अगर कोई बात सभी की धारणाओं के अनुरूप है तो हर कोई इसे तुरंत स्वीकार लेगा, क्योंकि लोगों के विचार, दृष्टिकोण, सोचने के तरीके और समझ के स्तर और मार्ग, मूल रूप से एक जैसे ही होते हैं, उनमें बस थोड़ा-सा ही अंतर होता है। इसलिए अगर कोई व्यक्ति कुछ ऐसी बात कहता है जिसमें धारणाओं वाली विशेषता है और सत्य के अनुरूप नहीं है तो कुछ लोग इसे तुरंत स्वीकार लेंगे और यह ऐसा ही होता है।

क्या तुम कमोबेश यह समझ गए हो कि सत्य क्या है और कौन-सी चीजें सत्य नहीं हैं मगर सत्य होने का दावा करती हैं? ऐसी और कौन-सी चीजें तुम लोगों के दिमाग में हैं? इसे तुम लोग अभी तुरंत दिमाग से याद करके नहीं बता सकते, क्योंकि उन्हें ज्ञान नहीं माना जाता, वे किसी किताब की सामग्री की तरह नहीं हैं जिसे तुम बस पन्ने पलटकर पढ़ सकते हो। बल्कि वे ऐसी चीजें हैं जिन्हें जब तुम्हारे साथ कोई घटना घटती है तब जोर-जोर से कहने से खुद को नहीं रोक सकते, एक बेहद स्वाभाविक तरीके से जिसे तुम नियंत्रित नहीं कर सकते। इससे साबित होता है कि वे चीजें तुम लोगों की जिंदगी बन गई हैं और तुम लोगों के शरीर में गहरी जड़ें जमा चुकी हैं। जब तुम लोगों से उन्हें याद करने के लिए कहा जाता है तो तुम उन्हें याद नहीं कर पाते हो, मगर साथ ही जब तुमसे कहा जाता है कि उनके बारे में मत कहो तो तुम लोग उनके बारे में कहने से खुद को रोक भी नहीं पाते हो। जब भी कुछ घटित होगा, वे विकृत दृष्टिकोण सामने आ जाएँगे—यह एक तथ्य है। इत्मीनान से अनुभव करो। अभी से तुम लोगों को उन चीजों पर ध्यान देना चाहिए जो लोग अक्सर कहते हैं और जिन्हें वे सही मानते हैं। हमने पहले सांसारिक आचरण के लिए बड़े लाल अजगर के कुछ विषों और शैतानी फलसफों का जिक्र किया था। उन चीजों के शाब्दिक अर्थ के परिप्रेक्ष्य से उनका भेद पहचानना आसान हो सकता है, यानी लोग एक बार में समझ सकते हैं कि वे निश्चित रूप से सत्य नहीं हैं और वे साफ तौर पर बता सकते हैं कि वे बड़े लाल अजगर के विष हैं और उनके पीछे कपटी साजिशें छिपी हैं। उन चीजों का भेद पहचानना आसान है और मुझे लगता है कि जब तुम लोगों से उनका गहन-विश्लेषण करने के लिए कहा जाएगा तो तुम कमोबेश उन्हें अलग-अलग कर सकोगे। तुम सबने उन चीजों को त्याग दिया है जो स्पष्ट रूप से शैतानी हैं, मगर तुम सभी के दिलों में अभी भी कई कहावतें बसी हैं, जैसे कि “अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना,” “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना,” “मुस्कुराते हुए चेहरे को देखकर हाथ मत उठाओ,” “एक उचित कार्य को भरपूर सहयोग मिलता है जबकि अनुचित कार्य को कोई सहयोग नहीं मिलता,” और “एक सज्जन खैरात की चीजें नहीं लेता।” अपने दिल की गहराई में तुम लोग अभी भी इन कहावतों के आगे सही का निशान लगाकर सोच सकते हो, “ये अनमोल हैं। इस जीवन में मुझे कैसे आचरण करना चाहिए, इस बारे में सभी अच्छी बातें इन कहावतों में हैं” और ये बातें अभी भी खोजी नहीं गई हैं। जब वे पूरी तरह से खोज ली जाएँगी और तुम्हें उनके भेद की पहचान हो जाएगी तो भविष्य में जब ये पारंपरिक संस्कृति की चीजें सामने आएँगी, फिर चाहे वह स्वाभाविक प्रतिक्रिया हो या वस्तुगत परिस्थितियों का प्रतिबिंब हो, तुम्हें तुरंत महसूस होगा कि ये चीजें गलत हैं और सत्य तो बिल्कुल भी नहीं हैं। उस समय सत्य के संज्ञान और पहचान का तुम्हारा स्तर अभी से ऊँचा होगा। “अभी से ऊँचा” से मेरा क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि तुम एक निश्चित आध्यात्मिक कद तक पहुँच चुके होगे, तुम्हारी भेद पहचानने की क्षमता में सुधार हुआ होगा, सत्य के बारे में तुम्हारा अनुभव और समझ अभी से ज्यादा गहरी होगी और तुम महसूस करोगे कि वास्तव में सत्य क्या है। अभी तुम सोच सकते हो, “शैतान से आई और इस संसार के सभी जातीय समूहों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से विकसित हुई सभी पारंपरिक संस्कृतियाँ गलत हैं।” यह इसे कहने का सामान्य तरीका है, मगर तुम शायद अभी तक यह नहीं जानते होगे कि इनमें से कौन-सी चीजें गलत हैं और वे कैसे गलत हैं। इसलिए तुम्हें बारी-बारी से हरेक का गहन-विश्लेषण करना और इन्हें समझना होगा और फिर उस बिंदु पर पहुँचना होगा जहाँ तुम इन्हें त्याग सको, इनकी निंदा कर सको और खुद को इनसे पूरी तरह से अलग करके, इनके अनुसार जीवन जीने के बजाय परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीवन जी सको। अभी तुम बस अपनी व्यक्तिपरक इच्छा के संदर्भ में ही जानते होगे कि वे मुहावरे, सामान्य कहावतें, प्रसिद्ध सूक्तियाँ और वे जुमले जो अक्सर इधर-उधर उछाले जाते हैं, उनका परमेश्वर के वचनों से कोई लेना-देना नहीं है और वे सत्य नहीं हैं, मगर जब भी कुछ घटित होता है, तुम अनजाने में इन शब्दों का इस्तेमाल दूसरों की निंदा करने, खुद को संयम में रखने और अपने व्यवहार का मार्गदर्शन करने के लिए करते हो। वे तुम्हारे विचारों और दृष्टिकोणों को सीमित करते हैं और उनमें हेर-फेर करते हैं, जो परेशानी का कारण बन सकता है और सत्य में तुम्हारे प्रवेश को प्रभावित करेगा। भले ही शैतान से आई ये चीजें अभी भी किसी दिन तुम्हारे दिल में प्रकट हो सकती हैं, फिर भी अगर तुम उनका भेद पहचानने में सक्षम होते हो, उन पर भरोसा किए बिना जीते हो और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करते हो तो तुम्हारे पास वास्तव में आध्यात्मिक कद होगा। क्या तुम्हारे पास अभी यह आध्यात्मिक कद है? अभी तक तो नहीं। अगर ऐसी कोई कहावत है जिसे तुम लोग सही मानते हो और अगर शायद इस जैसे कथन परमेश्वर के वचनों में मिल सकते हैं—भले ही वे बिल्कुल उसी तरह से व्यक्त नहीं किए गए हों—तुम गलती से यह मान सकते हो कि यह कहावत भी सत्य है और यह परमेश्वर के वचनों के समान ही है। अगर तुम अभी भी इन मामलों को स्पष्टता से नहीं देख सकते, अभी भी मनुष्य के शब्दों से चिपके हुए हो और उन्हें त्यागने के लिए तैयार नहीं हो तो यह कहावत तुम्हारे सत्य में प्रवेश को प्रभावित करेगी, क्योंकि यह परमेश्वर के वचन नहीं है और यह सत्य का स्थान नहीं ले सकती है।

आजकल मैं लगातार इस बारे में संगति कर रहा हूँ कि सत्य क्या है। इसका मतलब है कि मैं तुम लोगों के प्रति गंभीर हूँ। तुम लोग सत्य को समझ सको, इसके लिए हमें लोगों के विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों, उनके अच्छे कर्मों और नेक इरादों और कुछ सही कहावतों और व्यावहारिक प्रथाओं को लेना होगा जिन पर लोग जीने के लिए भरोसा करते हैं, साथ ही पारंपरिक संस्कृति के कुछ विचारों और दृष्टिकोणों को भी लेकर उन सभी का गहन-विश्लेषण करना और भेद पहचानना होगा, ताकि यह देखा जा सके कि क्या वे वास्तव में सत्य के अनुरूप हैं और क्या उनका वास्तव में सत्य से कोई लेना-देना है। अगर तुम उन्हें सत्य मानते हो तो तुम्हारे इस दावे का आधार क्या है? अगर तुम शैतानी सिद्धांतों और शिक्षाओं के आधार पर उन्हें सत्य के रूप में निरूपित करते हो तो तुम शैतान के हो। अगर ये चीजें सत्य के अनुरूप नहीं हैं तो वे शैतान से आती हैं, इसलिए तुम्हें यह गहन-विश्लेषण करना होगा कि वास्तव में उनका सार क्या है। खास तौर पर व्यक्ति को पारंपरिक संस्कृति की उन कहावतों और विचारों के प्रति सही समझ और सही रवैया रखना चाहिए जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक मौखिक रूप से प्रचारित होते आए हैं। सिर्फ इसी तरह लोग वास्तव में यह समझ और जान सकेंगे कि सत्य वास्तव में क्या है और यह भी समझ सकेंगे कि वास्तव में परमेश्वर लोगों से क्या अपेक्षा रखता है और “परमेश्वर जो कुछ भी कहता है वह सत्य है” वाक्यांश का वास्तव में क्या अर्थ है। साथ ही—यह देखते हुए कि मनुष्यों के पास ये विचार और कहावतें हैं जो कथित रूप से नैतिक आचरण, मानवता और मानवीय संबंधों की सांसारिक परंपराओं के अनुरूप हैं और उनके पास वे सभी विचार, दृष्टिकोण और कहावतें हैं जिन पर वे भरोसा करते हैं—इससे लोग यह भी जान सकेंगे कि परमेश्वर लोगों को बचाने के लिए अभी भी सत्य क्यों व्यक्त करता है और फिर, परमेश्वर ऐसा क्यों कहता है कि सत्य ही लोगों को बचा सकता है और सत्य ही उन्हें बदल सकता है। जाहिर है कि यहाँ सत्य खोजना जरूरी है। कम से कम, एक बात तो यह है कि जीवन में लोग जिन विचारों, दृष्टिकोणों और कहावतों पर भरोसा करते हैं, वे सब भ्रष्ट मानवजाति से आते हैं, भ्रष्ट मानवजाति ही इन्हें जोड़-गाँठ कर तैयार करती है और ये लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। इसके अलावा ये चीजें मूल रूप से सत्य से टकराती हैं और उसके प्रतिकूल हैं। वे सत्य की जगह नहीं ले सकतीं, वे निश्चित रूप से सत्य नहीं हैं और न ही वे कभी सत्य होंगी। परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से, इन चीजों को गलत और निंदनीय बताया गया है, और वे सत्य बिल्कुल भी नहीं हैं। परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर जो सत्य व्यक्त करता है उनका इन चीजों से कोई लेना-देना नहीं है। यानी परमेश्वर जो सत्य व्यक्त करता है उसका लेशमात्र भी संबंध भ्रष्ट मानवजाति की मानवीय संबंधों की सांसारिक परंपराओं से या लोगों की पारंपरिक संस्कृति, उनके विचारों, दृष्टिकोणों और अच्छे कर्मों से या नैतिकता, गरिमा और सकारात्मक चीजों की उनकी परिभाषा से नहीं है। सत्य की अपनी अभिव्यक्ति में परमेश्वर अपने स्वभाव और सार को व्यक्त करता है; सत्य की उसकी अभिव्यक्ति लोगों द्वारा विश्वास की जाने वाली उन विभिन्न सकारात्मक चीजों और वक्तव्यों पर आधारित नहीं है जिनका निचोड़ मानवजाति तैयार करती है। परमेश्वर के वचन परमेश्वर के वचन हैं; परमेश्वर के वचन सत्य हैं। वे एकमात्र वह नींव और विधान हैं जिनसे मानवजाति का अस्तित्व है और इंसान से उत्पन्न होने वाली सभी तथाकथित मान्यताएँ गलत, बेतुकी और परमेश्वर द्वारा निंदनीय हैं। उन्हें परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिलती और वे उसके कथनों का मूल या आधार तो और भी नहीं हैं। परमेश्वर अपने वचनों के माध्यम से अपने स्वभाव और अपने सार को व्यक्त करता है। परमेश्वर द्वारा व्यक्त सभी वचन सत्य हैं, क्योंकि परमेश्वर में परमेश्वर का सार है और वह सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है। यह भ्रष्ट मानवजाति परमेश्वर के वचनों को चाहे कैसे भी प्रस्तुत या परिभाषित करे या उन्हें कैसे भी देखे या समझे, परमेश्वर के वचन शाश्वत रूप से सत्य हैं और यह एक ऐसा तथ्य है जो कभी नहीं बदलता। परमेश्वर ने चाहे कितने भी वचन क्यों न बोले हों और यह भ्रष्ट, दुष्ट मानवजाति चाहे उनकी कितनी भी निंदा क्यों न करे, उन्हें कितना भी अस्वीकार क्यों न करे, एक तथ्य ऐसा है जो हमेशा अपरिवर्तनीय रहता है : परमेश्वर के वचन सदा सत्य होंगे और मनुष्य इसे कभी बदल नहीं सकता। आखिर में मनुष्य को यह मानना होगा कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं और मानवजाति की महिमामयी परंपरागत संस्कृति और वैज्ञानिक जानकारी कभी भी सकारात्मक चीजें नहीं बन सकतीं और वे कभी भी सत्य नहीं बन सकतीं। यह अटल है। मानवजाति की पारंपरिक संस्कृति और अपना अस्तित्व बचाने की रणनीतियाँ परिवर्तनों या समय बीतने के कारण सत्य नहीं बन जाएँगी, न ही परमेश्वर के वचन मानवजाति की निंदा या विस्मृति के कारण मनुष्य के शब्द बन जाएँगे। सत्य हमेशा सत्य होता है; यह सार कभी नहीं बदलेगा। यहाँ कौन-सा तथ्य मौजूद है? यह कि मानवजाति द्वारा जोड़-गाँठ कर तैयार की गईं इन सामान्य कहावतों का स्रोत शैतान और मानवीय कल्पनाएँ और धारणाएँ हैं, वे मनुष्य के फितूर और उसके भ्रष्ट स्वभाव से उत्पन्न होती हैं और उनका सकारात्मक चीजों से कोई लेना-देना नहीं है। दूसरी ओर, परमेश्वर के वचन परमेश्वर के सार और पहचान की अभिव्यक्ति हैं। वह इन वचनों को किस कारण से व्यक्त करता है? मैं क्यों कहता हूँ कि वे सत्य हैं? इसका कारण यह है कि परमेश्वर सभी विधानों, नियमों, जड़ों, सार-तत्वों, वास्तविकताओं और सभी चीजों के रहस्यों पर संप्रभु है। वे सब उसके हाथ में हैं। इसलिए सिर्फ परमेश्वर ही सभी चीजों के नियमों, वास्तविकताओं, तथ्यों और रहस्यों को जानता है। परमेश्वर सभी चीजों के मूल को जानता है और परमेश्वर जानता है कि वास्तव में सभी चीजों की जड़ क्या है। सिर्फ परमेश्वर के वचनों में दी गई सभी चीजों की परिभाषाएँ ही सबसे सटीक हैं और सिर्फ परमेश्वर के वचन ही मनुष्यों के जीवन के लिए मानक और सिद्धांत हैं और ये वे सत्य और मानदंड हैं जिनके अनुसार मनुष्य जी सकते हैं, जबकि मनुष्य ने शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद से जीने के लिए जिन शैतानी विधानों और सिद्धांतों पर भरोसा किया है, वे सभी सीधे तौर पर इस तथ्य के विपरीत हैं कि परमेश्वर सभी चीजों पर और सभी चीजों के विधानों और नियमों पर संप्रभुता रखता है। मनुष्य के सभी शैतानी सिद्धांत मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं से उत्पन्न होते हैं और वे शैतान से आते हैं। शैतान किस तरह की भूमिका निभाता है? सबसे पहले, वह खुद को सत्य के रूप में प्रस्तुत करता है; इसके बाद, वह परमेश्वर द्वारा बनाई गई सभी चीजों के सभी विधानों और नियमों में बाधा डालता है, उन्हें नष्ट करता और रौंदता है। इसलिए जो शैतान से आता है वह शैतान के सार से बहुत अच्छी तरह मेल खाता है और यह शैतान के दुष्ट उद्देश्य, जालसाजी और दिखावे से भरा हुआ है और शैतान की ऐसी महत्वाकांक्षा से भरा हुआ है जो कभी नहीं बदलेगी। भ्रष्ट मनुष्य शैतान के इन फलसफों और सिद्धांतों को चाहे पहचान पाएँ या नहीं, चाहे कितने ही लोग इन चीजों का प्रचार, प्रसार और अनुसरण करें और चाहे कितने ही वर्षों और युगों से भ्रष्ट मानवजाति ने उनकी प्रशंसा की हो, उनकी आराधना की हो और उनके बारे में प्रचार किया हो, वे सत्य नहीं बनेंगी। क्योंकि उनका सार, मूल और स्रोत शैतान है जो परमेश्वर और सत्य के प्रति शत्रुवत है, इसलिए ये चीजें कभी भी सत्य नहीं बनेंगी—वे हमेशा नकारात्मक चीजें ही रहेंगी। जब तुलना करने के लिए कोई सत्य नहीं होता तो उन्हें अच्छी और सकारात्मक चीजों के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, मगर जब सत्य का उपयोग उन्हें उजागर करने और उनका गहन-विश्लेषण करने के लिए किया जाता है तो वे त्रुटिहीन नहीं हैं, वे जाँच-पड़ताल में टिक नहीं पातीं और वे ऐसी चीजें हैं जिनकी तुरंत निंदा करके ठुकरा दिया जाता है। परमेश्वर द्वारा व्यक्त किया गया सत्य परमेश्वर द्वारा सृजित मानवजाति की सामान्य मानवता की जरूरतों के साथ एकदम मेल खाता है, जबकि शैतान लोगों में जो चीजें डालता है, वे मानवजाति की सामान्य मानवता की जरूरतों के बिल्कुल विपरीत हैं। वे एक सामान्य व्यक्ति को असामान्य बना देती हैं और उसे अतिवादी, संकीर्ण सोच वाला, अहंकारी, मूर्ख, दुष्ट, अड़ियल, क्रूर और यहाँ तक कि हद से ज्यादा अभिमानी बना देती हैं। एक समय ऐसा आता है जब यह मामला इतना गंभीर हो जाता है कि लोग विक्षिप्त हो जाते हैं और उन्हें यह भी पता नहीं होता कि वे कौन हैं। वे सामान्य या साधारण व्यक्ति नहीं बनना चाहते, बल्कि वे अतिमानव, विशेष शक्तियों वाले लोग या ऊँचे स्तर के मनुष्य बनना चाहते हैं—इन चीजों ने लोगों की मानवता को विकृत कर दिया है और उनकी सहज प्रवृत्ति को विकृत कर दिया है। सत्य लोगों को सामान्य मानवता के नियमों और विधानों और साथ ही परमेश्वर द्वारा स्थापित इन सभी नियमों के अनुसार अधिक सहजता से जीने में सक्षम बनाता है, जबकि ये तथाकथित सामान्य लोकोक्तियाँ और भ्रामक कहावतें लोगों को मानवीय सहज प्रवृत्ति के विरुद्ध कर देती हैं और परमेश्वर द्वारा निर्धारित और तैयार किए गए विधानों से बच निकलने में उनकी मदद करती हैं, यहाँ तक कि लोगों को सामान्य मानवता के मार्ग से भटका देती हैं और कुछ ऐसी चरम चीजें करने के लिए मजबूर करती हैं जो सामान्य लोगों को नहीं करनी चाहिए और जिनके बारे में उन्हें नहीं सोचना चाहिए। ये शैतानी विधान न सिर्फ लोगों की मानवता को विकृत करते हैं, बल्कि इनके कारण लोग अपनी सामान्य मानवता को और सामान्य मानवीय सहज प्रवृत्ति को भी खो देते हैं। उदाहरण के लिए, शैतानी विधान कहते हैं, “किसी व्यक्ति की नियति उसी के हाथ में होती है” और “खुशहाली अपने दोनों हाथों से लाई जाती है।” यह परमेश्वर की संप्रभुता और मानवीय सहज प्रवृत्ति के विपरीत है। जब लोगों का शरीर और सहज प्रवृत्ति एक सीमा पर पहुँच जाती है या जब उनका भाग्य एक महत्वपूर्ण मोड़ पर होता है तो शैतान के इन विधानों पर भरोसा करने वाले लोग इसे सहन नहीं कर पाते। ज्यादातर लोगों को लगता है कि दबाव उनकी सीमा और उनके दिमाग की सहनशक्ति से परे चला गया है और अंत में कुछ लोग मनोविभ्रम की बीमारी से ग्रस्त हो जाते हैं। अभी कॉलेज में दाखिला लेने के लिए परीक्षा देने वाले लोगों पर उन परीक्षाओं से पैदा होने वाला बहुत ज्यादा दबाव है। लोगों की शारीरिक स्थिति और मानसिक खूबियाँ अलग-अलग होती हैं; कुछ लोग अपने को ऐसी व्यवस्था में ढाल सकते हैं जबकि अन्य नहीं। अंत में कुछ लोग अवसादग्रस्त हो जाते हैं, जबकि अन्य मनोविभ्रम से ग्रस्त हो जाते हैं और यहाँ तक कि इमारतों से कूदकर आत्महत्या भी कर लेते हैं—सभी तरह की घटनाएँ होती हैं। इन दुष्परिणामों का क्या कारण है? इसका कारण यह है कि शैतान लोगों को शोहरत और लाभ के पीछे भागने के लिए गुमराह कर देता है, जिससे लोगों को नुकसान होता है। अगर लोग स्वाभाविक रूप से परमेश्वर द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार और लोगों के लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित तरीके से जी सकें, परमेश्वर के वचन पढ़ सकें और परमेश्वर के समक्ष रह सकें तो क्या वे विक्षिप्त होंगे? क्या उन्हें इतना दबाव सहना पड़ेगा? बिल्कुल भी नहीं। परमेश्वर अपना कार्य इसलिए करता है ताकि लोग सत्य समझें, अपने भ्रष्ट स्वभाव त्याग दें और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करें। इस तरह लोग बिना किसी दबाव के परमेश्वर के समक्ष जी सकते हैं और सिर्फ स्वतंत्रता और मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। मानवजाति की रचना परमेश्वर ने की थी और सिर्फ परमेश्वर ही मानवीय सहज प्रवृत्ति और लोगों के बारे में सब कुछ जानता है। परमेश्वर लोगों का मार्गदर्शन करने और उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए अपने बनाए नियमों का उपयोग करता है, जबकि शैतान ऐसा बिल्कुल नहीं करता। वह लोगों से इन सभी नियमों का उल्लंघन करवाता है और उन्हें अतिमानव और कामयाब बनने के लिए मजबूर करता है। क्या यह लोगों के साथ छल करना नहीं है? लोग वास्तव में सामान्य और साधारण होते हैं—वे अतिमानव या विशेष शक्तियों वाले व्यक्ति कैसे बन सकते हैं? क्या यह लोगों को बर्बाद करना नहीं है? तुम चाहे कितना भी संघर्ष करो, तुम्हारी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ चाहे कितनी भी बड़ी हों, तुम अतिमानव या विशेष शक्तियों वाले व्यक्ति नहीं बन सकते। भले ही तुम खुद को इस हद तक बर्बाद कर लो कि तुम मानवता की सारी झलक खो दो, तब भी तुम अतिमानव या विशेष शक्तियों वाले व्यक्ति नहीं बन सकते। जीवन में किसी व्यक्ति को जो भी आजीविका अपनानी है, वह परमेश्वर द्वारा पहले से निर्धारित है। अगर तुम परमेश्वर द्वारा बनाए गए विधानों और नियमों के अनुसार नहीं जीते, बल्कि शैतान के गुमराह करने वाले और दानवी शब्दों को चुनते हो और अतिमानव या विशेष शक्तियों वाला व्यक्ति बनने की कोशिश करते हो तो तुम्हें पीड़ा सहनी होगी और मरना पड़ेगा। यानी अगर तुम शैतान द्वारा बर्बाद होने, कुचले जाने और भ्रष्ट होने को स्वीकारना चुनते हो तो तुम जो कुछ भी सहते हो, वह तुम्हारे अपने क्रियाकलापों का अंजाम है, तुम इसी के हकदार हो और यह तुम्हारी अपनी इच्छा से है। कुछ लोग कॉलेज में दाखिला लेने के लिए परीक्षा देते हैं, दो-तीन बार इसमें असफल हो जाते हैं और फिर कभी उत्तीर्ण न होने के कारण पागल हो जाते हैं। क्या यह कुछ ऐसा है जो उन्होंने खुद पर लादा है? तुम कॉलेज प्रवेश परीक्षा क्यों देना चाहते हो? क्या यह सिर्फ दूसरों से आगे निकलने और अपने पूर्वजों के लिए सम्मान अर्जित करने के लिए नहीं है? अगर तुम दूसरों से आगे निकलने और अपने पूर्वजों के लिए सम्मान अर्जित करने के इन दो लक्ष्यों को छोड़ दो और इन चीजों के पीछे न भागो, बल्कि इसके बजाय एक सही लक्ष्य पर ध्यान दो तो क्या दबाव गायब नहीं हो जाएगा? अगर तुम शैतान की भ्रष्टता स्वीकारते हो और अगर तुम इन सभी विचारों और दृष्टिकोणों को स्वीकारते हो तो तुम्हारे शरीर को हर तरह की पीड़ा सहनी पड़ेगी और यह उससे कम नहीं होगा जिसके तुम हकदार हो! यह अंजाम तुम्हीं ने चुना है और यह तुम्हारा ही करा-धरा है। यह परमेश्वर द्वारा पहले से निर्धारित नहीं है। परमेश्वर तुम्हें इस तरह जीने के लिए मजबूर नहीं करता। परमेश्वर के वचनों ने पहले ही चीजों को बहुत स्पष्ट कर दिया है, मगर तुम ही हो जो परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास नहीं करते। किसी व्यक्ति के शरीर, इच्छाशक्ति और मानसिक गुणों की एक सीमा होती है, मगर लोग खुद इसका एहसास नहीं करते और अन्यथा सोचते हैं, यहाँ तक कहते हैं कि उनका भाग्य उनके अपने ही हाथों में है, फिर भी अंत में वे अपने भाग्य पर नियंत्रण पाने में सफल नहीं हो पाते और एक दयनीय और दुखद मौत मरते हैं। यह अपने भाग्य पर नियंत्रण रखना कैसे हुआ? शैतान इसी तरह लोगों को भ्रष्ट करने के लिए सभी प्रकार के भ्रामक विचारों और सभी प्रकार के पाखंडों और भ्रांतियों का इस्तेमाल करता है। लोग खुद भी यह नहीं जानते और उन्हें यह सोचकर अच्छा भी लगता है, “समाज लगातार प्रगति कर रहा है, हमें समय के साथ तालमेल बनाकर रखना चाहिए और उस सारी सकारात्मक ऊर्जा को स्वीकारना चाहिए।” ये पूरी तरह से शैतानी शब्द हैं। एक दानवी अविश्वासी संसार में कोई सकारात्मक ऊर्जा कैसे हो सकती है? यह सब नकारात्मक ऊर्जा है, यह सब कैंसर है और यह सब सिर्फ एक विस्फोटक स्थिति है। अगर तुम इन चीजों को स्वीकारते हो तो तुम्हें इनके प्रतिकूल अंजाम भुगतने होंगे और तुम्हें शैतान की यातना और अत्याचार भी सहना होगा। सत्य का अनुसरण नहीं करने से यही होता है। शैतान का अनुसरण करने से तुम्हारा अंत कैसे अच्छा होगा? शैतान तुम्हें जहर देने और तुम्हारे अंदर जहर भरने के लिए हर मुमकिन कोशिश करेगा। परमेश्वर तुम्हें बचाता है; शैतान तुम्हें नुकसान पहुँचाता है। परमेश्वर तुम्हारी बीमारियों को ठीक करता है; शैतान तुम्हें बीमार करने के लिए तुम्हारे अंदर जहर भरता है। तुम शैतान से जितना ज्यादा जहर स्वीकारते हो, तुम्हारे लिए सत्य को स्वीकारना उतना ही कठिन बन जाता है। यही सच है। सत्य क्या है, इस विषय पर हमारी संगति यहीं समाप्त होती है। इसके बाद हम एक दूसरे विषय पर संगति करेंगे।

मसीह-विरोधियों द्वारा अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हित और महत्वाकांक्षाएँ पूरी करने के लिए निभाने, परमेश्वर के घर के हितों की कभी न सोचने और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ विश्वासघात तक करने का गहन-विश्लेषण

I. परमेश्वर के हित क्या हैं और लोगों के हित क्या हैं

इस बार हम मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों की नौवीं मद पर संगति करेंगे—वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ विश्वासघात तक कर देते हैं। अपने दैनिक जीवन में हम अक्सर परमेश्वर और उसके घर के हितों पर जोर देते हैं। लेकिन कुछ लोगों में अक्सर परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करने के बजाय सभी चीजों में अपने ही हितों को सबसे ऊपर रखने की प्रवृत्ति होती है। ये लोग विशेष रूप से स्वार्थी होते हैं। इसके अलावा, मामलों को सँभालने में वे अपने हितों की रक्षा अक्सर परमेश्वर के घर के हितों को इस हद तक नुकसान पहुँचाकर करते हैं कि वे अपनी इच्छाएँ पूरी करने के लिए परमेश्वर के घर से परोक्ष अनुरोध भी करते हैं। यहाँ मुख्य शब्द क्या है? मुख्य रूप से किसके बारे में बात की जा रही है? (हितों के बारे में।) “हितों” का क्या अर्थ है? इस शब्द के दायरे में क्या आता है? किन चीजों को लोगों का हित माना जाता है? लोगों के हितों में क्या शामिल है? रुतबे, प्रतिष्ठा और भौतिक हितों से संबंधित चीजें। उदाहरण के लिए, जब कोई व्यक्ति अपनी प्रशंसा और आराधना करवाने के लिए दूसरों को गुमराह करता है तो वह अपने मनोवैज्ञानिक हितों का अनुसरण करता है; भौतिक हित भी होते हैं, जिनका अनुसरण लोग दूसरों का फायदा उठाकर, अपने लिए लाभ बटोरकर या परमेश्वर के घर की संपत्ति चुराकर करते हैं, ये कुछ उदाहरण हैं। मसीह-विरोधी हमेशा लाभ के सिवाय और कुछ नहीं खोजते हैं। मसीह-विरोधी चाहे मनोवैज्ञानिक हितों का अनुसरण कर रहे हों या भौतिक हितों का, वे लालची होते हैं, उन्हें तृप्त नहीं किया जा सकता और वे अपने लिए ये सभी चीजें लेने की कोशिश करते हैं। व्यक्ति के हितों से संबंधित मामले उसे सबसे ज्यादा बेनकाब करते हैं। हित प्रत्येक व्यक्ति के जीवन से घनिष्ठ रूप से जुड़े होते हैं और व्यक्ति रोजाना जिस भी चीज के संपर्क में आता है वह उसके हित से जुड़ी होती है। उदाहरण के लिए, जब तुम कुछ कहते हो या किसी मामले के बारे में बात करते हो तो इसमें कौन-से हित शामिल होते हैं? जब दो लोग किसी मुद्दे पर चर्चा करते हैं तो यह इस बात का मामला होता है कि कौन स्पष्ट बोलता है और कौन नहीं, दूसरे लोग किसका बहुत सम्मान करते हैं और किसको नीची नजर से देखते हैं, और यह उनके बोलने के अलग-अलग तरीकों के अलग-अलग परिणामों का भी मामला होता है। क्या यह हितों का मामला नहीं है? जब इस तरह के मुद्दे लोगों के सामने आते हैं तो वे क्या करते हैं? लोग दिखावा करने की पूरी कोशिश करते हैं, बहुत सोच-समझकर अपने शब्दों को व्यवस्थित करते हैं ताकि मामले को स्पष्ट रूप से समझाया जा सके, और ताकि शब्दों को अधिक सुंदर ढंग से व्यक्त किया जा सके, वे अधिक स्वीकार्य लगें और उनमें संरचना का भाव भी हो और वे लोगों पर स्थायी छाप छोड़ें। लोगों की सहृदयता पाने और उन पर गहरी छाप छोड़ने के लिए इस दृष्टिकोण का उपयोग करना और अपनी वाक्पटुता का उपयोग करना, अपने दिमाग और ज्ञान का उपयोग करना—यह एक तरह का हित है। लोग जिन हितों का अनुसरण करते हैं उनमें और कौन-से पहलू शामिल होते हैं? अपने कामकाज के दौरान लोग लगातार चीजों को तौलते, हिसाब लगाते और मन में विचार करते हैं, यह सोचने के लिए दिमाग लड़ाते हैं कि कौन-से क्रियाकलाप उनके हित में हैं, कौन-से उनके हित में नहीं हैं, कौन-से क्रियाकलाप उनके हितों को आगे बढ़ा सकते हैं, कौन-से क्रियाकलाप कम से कम उनके हितों को नुकसान नहीं पहुँचाते और कौन-से क्रियाकलाप उन्हें सबसे ज्यादा प्रसिद्धि और सबसे बड़ा भौतिक लाभ दिला सकते हैं और उन्हें सबसे बड़ा लाभार्थी बना सकते हैं। जब भी लोगों पर कोई चीजें आती हैं, वे इन्हीं दो हितों के लिए लड़ते हैं। लोग जिन हितों का अनुसरण करते हैं, वे केवल इन दो पहलुओं पर आधारित होते हैं : एक ओर, भौतिक लाभ प्राप्त करना या कम से कम कुछ न खोना, और दूसरों का फायदा उठाना; इसके अलावा, मनोवैज्ञानिक स्तर पर, लोगों से अपना सम्मान और अपनी प्रशंसा करवाना, और लोगों के दिल जीतना। कभी-कभी सत्ता और रुतबा हासिल करने के लिए, लोग भौतिक हितों को भी त्याग सकते हैं—यानी वे बाद में दूसरों से ज्यादा फायदा पाने के लिए थोड़ा नुकसान उठा लेंगे। संक्षेप में कहें तो लोगों की प्रतिष्ठा, रुतबा, प्रसिद्धि और भौतिक चीजों से जुड़ी ये सभी चीजें लोगों के हितों की श्रेणी में आती हैं और ये सभी ऐसे हित हैं जिनका लोग अनुसरण करते हैं।

लोगों द्वारा इन हितों का अनुसरण करने की प्रकृति क्या है? लोग इन चीजों का अनुसरण क्यों करते हैं? क्या इनका अनुसरण करना जायज है? क्या यह विवेकपूर्ण है? क्या यह लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप है? क्या यही वह मानक है जिसकी अपेक्षा परमेश्वर सृजित प्राणियों से करता है? परमेश्वर के वचनों में क्या वह इस बात का जिक्र करता है कि “तुम लोगों को अपने हितों का अनुसरण करना और अपने हितों को बढ़ाना चाहिए। अपने हितों का त्याग सिर्फ इसलिए मत करो कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो और कोई कर्तव्य निभाते हो। तुम्हें अपने रुतबे, प्रतिष्ठा और सामर्थ्य को सँजोकर रखना चाहिए और इन चीजों की हर कीमत पर रक्षा करनी चाहिए। अगर परमेश्वर तुम्हें रुतबा देता है तो तुम्हें इसे सँजोकर रखना चाहिए और इसे अपनी शर्मिंदगी के बजाय अपनी प्रसिद्धि में बदलना चाहिए। यह तुम्हारे लिए परमेश्वर का आदेश है”—क्या परमेश्वर ने कभी ऐसा कहा है? (नहीं।) जब परमेश्वर के वचनों में ऐसा कुछ भी नहीं है तो फिर परमेश्वर अपने दिल में सृजित प्राणियों से क्या अपेक्षा रखता है? परमेश्वर लोगों से हितों को किस तरह देखने की अपेक्षा करता है? एक ओर, परमेश्वर चाहता है कि लोग अपने हितों का त्याग करें—यह इसे सामान्य शब्दों में कहना है; इसके अलावा, परमेश्वर लोगों को और भी कई पहलुओं में अभ्यास के उचित मार्ग देता है, लोगों को बताता है कि उन्हें कैसे पेश आना चाहिए ताकि वे उस मार्ग पर चल सकें जिस पर उन्हें चलना चाहिए, एक सृजित प्राणी की तरह कैसे अभ्यास करना चाहिए, लोगों को भौतिक चीजों, प्रसिद्धि और लाभ के प्रति क्या दृष्टिकोण और रवैया रखना चाहिए और उन्हें कैसे चुनना चाहिए। जाहिर है कि भले ही परमेश्वर के वचन लोगों को सीधे तौर पर यह नहीं बताते कि हितों को कैसे देखना चाहिए, निहितार्थ रूप में उसके वचन यह भी व्यक्त करते हैं कि वास्तव में भ्रष्ट मानवजाति के हितों पर परमेश्वर के विचार क्या हैं और यह बिल्कुल स्पष्ट कर देते हैं कि लोगों को अपने विचारों को अलग रखना चाहिए, सत्य सिद्धांतों के अनुसार चीजें करनी चाहिए, सृजित प्राणियों के रूप में अपने स्थान के अनुसार पेश आना चाहिए और अपने स्थान पर बने रहना चाहिए। क्या परमेश्वर अपने दिल में लोगों से इस प्रकार का व्यवहार करने की अपेक्षा करके जानबूझकर उन्हें उनके हितों से वंचित कर रहा है? बिल्कुल नहीं। कुछ लोग कहते हैं, “कलीसिया में हमेशा परमेश्वर के घर के हितों और कलीसिया के हितों की बात चलती है, मगर कोई हम लोगों के हितों के बारे में बात क्यों नहीं करता? हमारे हितों का ख्याल कौन रख रहा है? क्या हमारे भी कुछ मानवाधिकार नहीं होने चाहिए? हमें भी कुछ छोटे-मोटे लाभ मिलने चाहिए। हमें थोड़ा भी कुछ क्यों नहीं दिया जाता? सभी हित परमेश्वर के कैसे हो सकते हैं? क्या परमेश्वर भी स्वार्थी नहीं है?” ऐसा कहना बेहद विद्रोही और विश्वासघाती है। ऐसा कहना एकदम गलत बात है। जिस व्यक्ति के पास मानवता है वह ऐसा कभी नहीं कह सकता, सिर्फ शैतान ही सभी तरह की विद्रोही बातें कहने का दुस्साहस करते हैं। दूसरे लोग कहते हैं : “परमेश्वर हमेशा लोगों से अपने व्यक्तिगत हितों के बारे में नहीं सोचने को कहता है। वह हमेशा कहता है कि अपनी खातिर साजिश न रचो। लोग कुछ ऐसा करके या कुछ ऐसा हासिल करके दूसरों से अलग दिखना चाहते हैं जिससे हर कोई उनकी आराधना करे। परमेश्वर इसे एक महत्वाकांक्षा बताता है। लोग अपने हितों के लिए लड़ना चाहते हैं, अच्छा खाना खाना चाहते हैं, जीवन का आनंद लेना चाहते हैं, दैहिक सुख-सुविधाओं में लिप्त रहना और मानवजाति के बीच सम्मानपूर्वक जीना चाहते हैं। परमेश्वर कहता है कि लोग इस तरह सिर्फ अपने हितों को पोस रहे हैं और उन्हें इनसे किनारा करना चाहिए। अगर हम इन सभी हितों से किनारा कर लें तो हम बेहतर जीवन कैसे जी सकते हैं?” अगर लोग परमेश्वर के इरादों को नहीं समझेंगे तो वे हमेशा परमेश्वर की अपेक्षाओं का प्रतिरोध करते रहेंगे और वे हमेशा इन मामलों पर परमेश्वर के साथ विवाद करते रहेंगे। यह कुछ ऐसे माता-पिता की तरह है जिन्होंने अपने बच्चों को पालने के लिए आधी जिंदगी कड़ी मेहनत की है और वे इतने थक गए हैं कि अब उन्हें तमाम तरह की बीमारियाँ हो गई हैं। माता-पिता इस चिंता में हैं कि अब उनका शरीर साथ नहीं देगा और फिर उनके बच्चों को सहारा देने वाला कोई नहीं होगा, इसलिए वे कुछ स्वास्थ्यवर्धक उत्पाद खरीद लेते हैं। बच्चों को कुछ पता नहीं होता और इन उत्पादों को देखकर वे कहते हैं : “मैंने कई सालों से कोई नया कपड़ा तक नहीं खरीदा है, फिर भी आप स्वास्थ्यवर्धक उत्पाद कैसे खरीद सकते हैं? आपको वह पैसा मुझे कॉलेज भेजने के लिए बचाना चाहिए।” क्या इस टिप्पणी से माता-पिता की भावनाओं को ठेस पहुँचती है? माता-पिता यह सब अपने हितों के लिए नहीं करते, न ही इसलिए करते हैं कि दैहिक सुखों में लिप्त रहें या कि वे थोड़ा लंबा और आरामदायक जीवन जी सकें और भविष्य में अपने बच्चों की धन-दौलत में हिस्सा पा सकें। वे ऐसा इन कारणों से नहीं करते। वे ऐसा किस लिए कर रहे हैं? वे ऐसा अपने बच्चों की खातिर कर रहे हैं। बच्चे यह नहीं समझते और अपने माता-पिता को दोषी तक ठहरा देते हैं—क्या यह विश्वासघाती होना नहीं है? (है।) अगर बच्चे अपने माता-पिता के इरादों को नहीं समझेंगे तो उनका उनसे टकराव हो सकता है, यहाँ तक कि वे उनसे वाद-विवाद भी कर सकते हैं और उनकी भावनाओं को ठेस भी पहुँचा सकते हैं। तो क्या तुम लोग परमेश्वर के दिल को समझते हो? यह मामला सत्य को समझने का है। लोगों द्वारा अपने हित और महत्वाकांक्षाएँ पूरी करने के अभ्यासों की परमेश्वर निंदा क्यों करता है? क्या इसलिए कि परमेश्वर स्वार्थी है? क्या परमेश्वर लोगों को व्यक्तिगत हितों का अनुसरण करने से मना इसलिए करता है ताकि वे गरीब और दयनीय बनें? (नहीं।) ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। परमेश्वर चाहता है लोग अच्छे बनें और वह मानवजाति पर आशीष बरसाने और उसे एक सुंदर मंजिल देने के लिए लोगों को बचाने का अपना कार्य करने आता है। परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसका उद्देश्य यह होता है कि लोग सत्य और जीवन प्राप्त करें, ताकि वे परमेश्वर के वादे और आशीष पाने के योग्य बन सकें। लेकिन लोग शैतान द्वारा गहराई तक भ्रष्ट किए जा चुके हैं और उनमें भ्रष्ट स्वभाव हैं, इसलिए सत्य और जीवन प्राप्त करने के लिए उन्हें बहुत कष्ट सहना होगा। अगर हर कोई व्यक्तिगत हितों का अनुसरण करता है और अत्यधिक दैहिक इच्छाओं को संतुष्ट करने के लिए अच्छा जीवन जीना चाहता है, मगर सत्य का अनुसरण करने की कोशिश नहीं करता तो इसके क्या परिणाम होंगे? वे सत्य प्राप्त नहीं कर पाएँगे और शुद्ध होने और बचाए जाने में असमर्थ होंगे। उनके बचाए न जाने के क्या परिणाम होंगे? उन सबको आपदाओं में मरना होगा। क्या यह दैहिक सुखों में लिप्त होने का समय है? नहीं। जो कोई भी सत्य प्राप्त नहीं करता उसे मरना होगा। इसलिए परमेश्वर यह अपेक्षा करता है कि लोग अपने दैहिक हितों को त्याग दें और सत्य का अनुसरण करें। यह लोगों की खातिर, उनके जीवन की खातिर और उनके उद्धार की खातिर है। जैसे ही लोग सत्य प्राप्त कर लेंगे और बचा लिए जाएँगे, परमेश्वर का वादा और उसके आशीष किसी भी समय आ जाएँगें। परमेश्वर लोगों पर जो आशीष बरसाता है, कौन जाने वे लोगों की कल्पना में मिलने वाले दैहिक सुखों से कितने सैकड़ों या हजारों गुना ज्यादा हैं। लोग उन्हें क्यों नहीं देख पाते? क्या उनके प्रति सारे लोग अँधे हैं? तो फिर परमेश्वर हमेशा यह अपेक्षा क्यों करता है कि लोग अपने हितों को किनारे रखकर परमेश्वर के हितों और उसके घर के हितों की रक्षा करें? इस मामले को कौन समझा सकता है? (परमेश्वर लोगों से अपने व्यक्तिगत हितों को त्यागने की अपेक्षा इसलिए करता है क्योंकि लोग शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जा चुके हैं और उनके हित सत्य के अनुरूप नहीं हैं। लोगों से परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने की अपेक्षा करते हुए परमेश्वर लोगों को यह सिखा रहा है कि वे कैसे आचरण करें। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि परमेश्वर जो भी कार्य करता है वह सारा लोगों को बचाने के लिए है और अगर कोई परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना नहीं जानता तो वह मनुष्य कहलाने लायक नहीं है।) तुम्हारी बात में कुछ व्यावहारिक चीजें हैं। (मैं कुछ और जोड़ना चाहूँगा। मैं शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे पागल था। मुझे लगता था कि मेरे पास कुछ खूबियाँ हैं, इसलिए मुझे तरक्की देकर पर्यवेक्षक बना दिया जाना चाहिए। लेकिन जब भी चुनाव आता था तो मैं हर बार हार जाता था और अपने दिल में परमेश्वर के बारे में शिकायत करता था—परमेश्वर ने मेरी यह छोटी सी इच्छा क्यों नहीं पूरी की? बाद में कुछ नाकामियों का अनुभव करने के बाद मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े और आत्म-चिंतन किया, मैंने देखा कि मैं शोहरत, लाभ और रुतबा पाने के चक्कर में अक्सर ईर्ष्या और कलह में लिप्त रहता था और भाई-बहनों के साथ मिल-जुलकर सहयोग नहीं करता था। मैंने न केवल अपने जीवन में कोई प्रगति नहीं की थी, बल्कि परमेश्वर के घर के कार्य को भी कुछ नुकसान पहुँचाए थे। मुझे एहसास हुआ कि शोहरत, लाभ और व्यक्तिगत हितों का अनुसरण करना जीवन के प्रति सही दृष्टिकोण नहीं है या सही लक्ष्य नहीं है, यह एक ऐसा गलत दृष्टिकोण है जिसे शैतान लोगों को गुमराह करने के लिए उनके मन में डालता है और ऐसा अनुसरण बहुत खतरनाक है। परमेश्वर लोगों को शोहरत, लाभ और रुतबे का अनुसरण करने से मना इसलिए नहीं करता कि वह उनके लिए परेशानी खड़ी करना चाहता है, न ही इसलिए कि वह उनके प्रति सख्त होना चाहता है, बल्कि इसलिए मना करता है कि यह बहुत खतरनाक रास्ता है और ऐसे अनुसरण व्यक्ति को अंत में सिर्फ खाली हाथ छोड़ सकते हैं।) तुम लोगों को क्या लगता है, “खाली हाथ” और “बहुत खतरनाक” से वह किस खतरे की बात कर रहा है? क्या यह वाकई अंत में सिर्फ खाली हाथ रह जाने का मामला है और कुछ भी नहीं? यह किस प्रकार का मार्ग है? (विनाश का मार्ग।) यह अनुसरण परमेश्वर का प्रतिरोध करने का मार्ग है। यह सत्य का अनुसरण करना नहीं, बल्कि रुतबे और प्रतिष्ठा के पीछे भागना है। यह मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलना है। तुम्हें अपनी इच्छाएँ और आकांक्षाएँ चाहे कितनी भी जायज लगें, परमेश्वर जो चाहता है वह यह नहीं है, वह इस तरह का अनुसरण नहीं चाहता है। परमेश्वर नहीं चाहता कि तुम इस मार्ग का अनुसरण करो। अगर तुम अपने रास्ते पर अड़े रहने पर जोर देते हो तो तुम्हारा अंतिम परिणाम न केवल यह होगा कि तुम खाली हाथ रह जाओगे, बल्कि तुम परमेश्वर का प्रतिरोध करने के मार्ग पर चल पड़ोगे। इसमें खतरा क्या है? तुम परमेश्वर का प्रतिरोध करोगे, परमेश्वर पर चिल्लाओगे और उसका विरोध करोगे, उसके खिलाफ खड़े होओगे और इसका परिणाम विनाश होगा। क्या कुछ और कहना है? (परमेश्वर, मैं कुछ और कहना चाहता हूँ। अभी-अभी परमेश्वर ने पूछा, परमेश्वर ऐसा क्यों चाहता है कि लोग अपने हितों की रक्षा करने के बजाय परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करें? जैसा कि मैंने समझा है, परमेश्वर ने हर चीज की रचना की है और सब कुछ परमेश्वर से आता है। परमेश्वर की बनाई हरेक चीज लोगों के लिए है। परमेश्वर जो कुछ भी करता है—इसमें यह सब कार्य करने के लिए उसका दो बार देहधारी होना और अब कलीसिया की स्थापना का यह सारा कार्य करना शामिल है—यह सब वास्तव में लोगों को बचाने के लिए होता है। जब लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, कलीसियाई जीवन जीने लगते हैं और अपने कर्तव्य निभा सकते हैं तो उनके पास उद्धार का मार्ग होता है। इसलिए परमेश्वर का हमें अपने व्यक्तिगत हितों को दरकिनार करने के लिए कहना कोई नुकसान नहीं है, क्योंकि परमेश्वर के हितों और उसके घर के हितों की रक्षा करके अंत में हमारा ही लाभ होगा।) बहुत बढ़िया। तुम लोगों ने जो संगति की है उसका सामान्य अर्थ मूल रूप से सही है। कुछ लोग अपने व्यक्तिगत अनुभवों के बारे में बात करते हैं और दूसरे इसके बारे में सैद्धांतिक दृष्टिकोण से बात करते हैं। मूल रूप से तुम जो समझते हो वह इस बात के अनुरूप है कि परमेश्वर के हित जायज होते हैं जबकि लोगों के हित जायज नहीं होते हैं। परमेश्वर के हितों को ही हित कहा जा सकता है जबकि लोगों के हितों का कोई अस्तित्व नहीं होना चाहिए। विशेष रूप से “लोगों के हित”—यह वाक्यांश, यह अभिव्यक्ति, यह तथ्य—ऐसी चीज नहीं है जिसका लोगों को आनंद लेना चाहिए। परमेश्वर के हित बाकी हर चीज से पहले आते हैं और उनकी रक्षा की जानी चाहिए। मूल रूप से तुम यही समझते हो। यानी परमेश्वर के हितों की रक्षा करने की जिम्मेदारी लोगों की होनी चाहिए और उन्हें परमेश्वर के हितों को सही तरीके से देखना चाहिए जबकि लोगों के हितों को तिरस्कार के साथ देखा जाना चाहिए और छीन लिया जाना चाहिए, क्योंकि लोगों के हित इतने गौरवशाली नहीं हैं। मानवीय दृष्टिकोण से—क्योंकि मूल रूप से लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं और अंदर से वे भ्रष्ट स्वभावों की मिलावट से भरे होते हैं—लोगों के सभी हित, चाहे तुम उन्हें जिस भी तरह से देखो और चाहे वे गोचर हों या अगोचर, नाजायज की श्रेणी में ही आते हैं। इसलिए चाहे लोग इन्हें दरकिनार कर सकें या नहीं, उन्हें पहले ही यह एहसास हो चुका है कि लोगों के हितों को दरकिनार करना चाहिए और ये परमेश्वर के हित ही हैं जिनके लिए लड़ना चाहिए और जिनकी रक्षा करनी चाहिए। इस बात पर सभी सहमत हैं। अब जबकि हम आम सहमति पर पहुँच गए हैं तो आओ इस बात पर संगति करें कि वास्तव में परमेश्वर के हित क्या हैं।

वास्तव में परमेश्वर के हित क्या हैं? क्या परमेश्वर के हित, परमेश्वर के घर के हित और कलीसिया के हित सब समान हो सकते हैं? यह कहा जा सकता है कि “परमेश्वर” एक नाम है और परमेश्वर के सार का पर्यायवाची भी है। “परमेश्वर के घर” और “कलीसिया” के बारे में क्या कहोगे? परमेश्वर के घर का दायरा बहुत बड़ा है जबकि कलीसिया अधिक विशिष्ट है। क्या परमेश्वर के हित, परमेश्वर के घर के हित और कलीसिया के हित समान हो सकते हैं? (नहीं, वे समान नहीं हो सकते।) कुछ लोग कहते हैं कि वे समान नहीं हो सकते, मगर क्या वे वास्तव में समान हो सकते हैं? क्या परमेश्वर के घर के प्रशासनिक आदेश, कलीसिया के प्रशासनिक आदेश और परमेश्वर द्वारा घोषित प्रशासनिक आदेश एक ही चीज हैं? (हाँ।) वे एक ही चीज हैं। इस परिप्रेक्ष्य से कहें तो तीनों के हित एक समान हो सकते हैं। परमेश्वर का घर केवल परमेश्वर और परमेश्वर के चुने हुए लोगों से बनता है तो कलीसिया केवल परमेश्वर के घर के इन चुने हुए लोगों से बनती है। कलीसिया परमेश्वर के घर की एक अधिक विशिष्ट “अधीनस्थ इकाई” है। परमेश्वर का घर एक व्यापक शब्द है जबकि कलीसिया अधिक विशिष्ट है। क्या परमेश्वर के हित, परमेश्वर के घर के हित और कलीसिया के हित समान हो सकते हैं? क्या तुम लोगों को लगता है कि उन्हें समान माना जाना चाहिए? तुम लोग नहीं जानते? तो आओ पहले उनका विश्लेषण करने के लिए उन्हें समान मानने की कोशिश करें। उदाहरण के लिए, परमेश्वर की महिमा परमेश्वर का हित है। क्या यह कहना ठीक होगा कि यह परमेश्वर के घर की महिमा है? (नहीं।) यह ठीक नहीं होगा। परमेश्वर का घर एक नाम है, यह परमेश्वर के सार का प्रतिनिधित्व नहीं करता। क्या यह कहना ठीक होगा कि परमेश्वर की महिमा कलीसिया की महिमा है? (नहीं।) जाहिर है कि यह भी ठीक नहीं होगा। कलीसिया की महिमा सभी भाई-बहनों की महिमा है। इसे परमेश्वर की महिमा के समान कहना बेहद अपमानजनक होगा। लोग इस महिमा का दायित्व स्वीकार नहीं कर सकते और न परमेश्वर का घर और न ही कलीसिया ऐसा कर सकती है। इस परिप्रेक्ष्य से कहें तो क्या परमेश्वर के हितों, परमेश्वर के घर के हितों और कलीसिया के हितों को समान माना जा सकता है? (नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।) नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। एक दूसरे परिप्रेक्ष्य से क्या परमेश्वर के कार्य का एक हिस्सा, परमेश्वर के घर के कार्य का एक हिस्सा और कलीसिया के कार्य का एक हिस्सा समान हो सकता है? उदाहरण के लिए, परमेश्वर लोगों को सुसमाचार प्रचार करने और परमेश्वर के वचनों का प्रसार करने को कहता है। यह परमेश्वर का इरादा है और वह लोगों को यही आदेश भी देता है। जब यह आदेश परमेश्वर के घर को दिया जाता है तो क्या इसे परमेश्वर के कार्य की योजना के समान माना जा सकता है? परमेश्वर जो आदेश देता है वह भी उसके कार्य का एक हिस्सा है और इस विशिष्ट भाग को उस कार्य के बराबर माना जा सकता है जिसे परमेश्वर करने की योजना बनाता है। जब यह आदेश कलीसिया को दिया जाता है तो क्या इसे परमेश्वर के कार्य के समान माना जा सकता है? (हाँ।) हाँ, माना जा सकता है। इन दो में से एक उदाहरण में परमेश्वर के सार से संबंधित कुछ शामिल है, जिस मामले में परमेश्वर, परमेश्वर के घर और कलीसिया को एक समान नहीं माना जा सकता। दूसरे उदाहरण में परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले कार्य, परमेश्वर के आदेश और विशेष रूप से सभी से परमेश्वर की अपेक्षाएँ शामिल हैं—इन चीजों को एक समान माना जा सकता है। जब परमेश्वर की महिमा, परमेश्वर की पहचान, परमेश्वर के सार और परमेश्वर की गवाही से जुड़ी चीजों की बात आती है तो क्या परमेश्वर, परमेश्वर के घर और कलीसिया को समान माना जा सकता है? (नहीं।) परमेश्वर के घर और कलीसिया में यह गवाही और महिमा नहीं हो सकती और उन्हें परमेश्वर के समान नहीं माना जा सकता, मगर जब बात किसी विशेष कार्य या किसी निश्चित आदेश की हो तो उन्हें समान माना जा सकता है। हमने पहले परमेश्वर के घर के और कलीसिया के हितों के बारे में संगति की थी, जिसमें हमने बहुत सारी बातें की। आज हम इस बारे में संगति करने पर ध्यान देंगे कि परमेश्वर के हित वास्तव में क्या हैं और वास्तव में वे कौन-सी चीजें हैं जो लोगों के लिए अज्ञात हैं, जिनके बारे में लोगों ने कभी सोचा नहीं है और जो परमेश्वर के साथ निकटता से जुड़ी हुई हैं और जो परमेश्वर के हित कहलाती हैं। चाहे वह कोई संज्ञा हो, कोई कहावत हो या परमेश्वर के सार और पहचान से जुड़ी कोई चीज हो, कौन-सी चीजें परमेश्वर के हित हैं? (परमेश्वर की महिमा।) बेशक परमेश्वर की महिमा, वह गवाही जो लोगों से परमेश्वर को मिलती है। और क्या है? परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर की प्रबंधन योजना, परमेश्वर का नाम, परमेश्वर की गवाही, परमेश्वर की पहचान और परमेश्वर का दर्जा—ये सभी उसके हित हैं। जहाँ तक परमेश्वर की बात है, वह सबसे कीमती चीज क्या है जिसे वह सुरक्षित रखना चाहता है? क्या यह परमेश्वर का नाम है, परमेश्वर की महिमा है, परमेश्वर की गवाही है या परमेश्वर की पहचान और परमेश्वर का दर्जा है? आखिर यह है क्या? मानवजाति को बचाने की परमेश्वर की प्रबंधन योजना वह सबसे कीमती चीज है जिसे परमेश्वर सुरक्षित रखना चाहता है। परमेश्वर की 6,000-वर्षीय प्रबंधन योजना में वह सभी कार्य हैं जिन्हें परमेश्वर इस 6,000 वर्ष की अवधि में पूरा करना चाहता है। परमेश्वर के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण चीज है। कहा जा सकता है कि यह परमेश्वर का हित होना चाहिए जो सृजित प्राणियों की नजरों में देख सकते हैं। परमेश्वर के हितों के बारे में लोग कमोबेश क्या समझ सकते हैं और लोगों को क्या समझना चाहिए, यह विषय मूलतः यहीं खत्म हो सकता है। आओ अब परमेश्वर के घर के हितों के बारे में बात करें। जब परमेश्वर के घर के हितों की बात आती है तो परमेश्वर का नाम, परमेश्वर की महिमा और परमेश्वर की गवाही की रक्षा करने के अलावा परमेश्वर ने मानवजाति को और किस चीज की रक्षा करने का आदेश दिया है? (परमेश्वर की प्रबंधन योजना की।) सही कहा, मानवजाति के लिए परमेश्वर का सबसे बड़ा आदेश परमेश्वर के घर का सबसे बड़ा हित है। तो यह कौन सा हित है? यह परमेश्वर की 6,000 वर्षीय प्रबंधन योजना को मानवजाति के बीच पूरा करने के बारे में है और इसमें बेशक तमाम तरह के पहलू शामिल हैं। तो इसमें क्या-क्या शामिल है? इसमें कलीसिया की स्थापना और गठन करना और कलीसिया के सभी स्तरों पर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को तैयार करना शामिल है, ताकि कलीसिया के कार्य की विभिन्न मदें और परमेश्वर का सुसमाचार फैलाने का कार्य बिना किसी बाधा के आगे बढ़ सके—इन सबमें कलीसिया के हित शामिल हैं। ये परमेश्वर, परमेश्वर के घर और कलीसिया के हित में सबसे महत्वपूर्ण चीजें हैं जिनके बारे में हम अक्सर बात करते हैं। परमेश्वर के कार्य का फैलना, परमेश्वर की प्रबंधन योजना का बिना किसी बाधा के आगे बढ़ना, परमेश्वर के इरादे और परमेश्वर की इच्छा का मानवजाति के बीच बिना किसी बाधा के पूरा होना और परमेश्वर के वचनों का लोगों के बीच अधिक व्यापक रूप से फैलना, प्रचारित और प्रसारित होना, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग परमेश्वर के समक्ष आ सकें—ये परमेश्वर के समस्त कार्य के उद्देश्य और मूल हैं। इस प्रकार जो कुछ भी परमेश्वर के घर और कलीसिया के हितों से संबंधित है उसमें परमेश्वर की इच्छा और परमेश्वर की प्रबंधन योजना निश्चित रूप से शामिल होगी। विशेष रूप से, यह इस बात का मामला है कि क्या हर युग में और हर चरण में परमेश्वर का कार्य बिना किसी बाधा के आगे बढ़ने और फैलने में सक्षम है, और क्या यह मानवजाति के बीच सुचारु रूप से किया जा रहा है और सुचारु रूप से आगे बढ़ रहा है। अगर यह सब सामान्य रूप से आगे बढ़ रहा है तो परमेश्वर के घर और कलीसिया के हितों की रक्षा होगी और परमेश्वर की महिमा और परमेश्वर की गवाही की रक्षा होगी। अगर परमेश्वर के घर और कलीसिया में परमेश्वर के कार्य में रुकावट आती है और वह बिना किसी बाधा के आगे नहीं बढ़ सकता, और परमेश्वर के इरादे और परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले कार्य में बाधा उत्पन्न होती है तो परमेश्वर के घर और कलीसिया के हितों को यकीनन बहुत नुकसान पहुँचेगा—ये चीजें आपस में जुड़ी हुई हैं। यानी जब परमेश्वर के घर के और कलीसिया के हितों को बहुत नुकसान पहुँचता है या उनमें बाधा आती है तो परमेश्वर की प्रबंधन योजना का बहुत गंभीर रूप से विफल होना तय है और परमेश्वर के हितों को भी बहुत नुकसान पहुँचेगा।

परमेश्वर के हित क्या हैं, इस बारे में हमारी संगति पूरी होने के बाद आओ अब बात करें कि लोगों के हित क्या हैं। हमने अभी लोगों के हितों के बारे में थोड़ी बात की, आओ अब हम लोगों के हितों की परिभाषा के संदर्भ में इनकी प्रकृति के बारे में बात करें और उनका निरूपण करें। परमेश्वर लोगों से अपने हितों को दरकिनार करने की अपेक्षा क्यों करता है? क्या लोगों के पास यह अधिकार नहीं है? क्या परमेश्वर लोगों को यह अधिकार नहीं देता है? क्या लोग ऐसे अधिकार के हकदार नहीं हैं? क्या ऐसा नहीं है? अगर इसको लोगों के हितों के उन विभिन्न पहलुओं से देखें जिनके बारे में हमने अभी बात की तो लोग किसके लिए हितों का अनुसरण करते हैं? (अपने लिए।) “अपने लिए” एक सामान्य शब्द है। “अपने लिए” कौन है? (शैतान।) अगर लोग सत्य को समझें और सत्य के अनुसार जी पाएँ और वे अपना स्वभाव बदल लें और बचा लिए जाएँ और उसी चीज का अनुसरण करें जिसे वे चाहते हैं तो क्या यह अनुसरण परमेश्वर के अनुरूप नहीं होगा? मगर बदलने और बचाए जाने से पहले लोग केवल शोहरत और लाभ का अनुसरण करते हैं, जो देह से संबंधित अनगिनत पहलू हैं; ये सत्य के एकदम विरुद्ध और प्रतिकूल हैं, सत्य का बहुत बड़ा उल्लंघन हैं और सत्य के बिल्कुल उलट हैं। यदि कोई कहता है कि उसे सत्य से प्रेम है और वह सत्य का अनुसरण करता है, लेकिन सार में जो लक्ष्य वह हासिल करना चाहता है वह अपनी अलग पहचान बनाना, दिखावा करना, लोगों का सम्मान प्राप्त करना और अपने हित साधना है और उसके लिए अपने कर्तव्य का पालन करने का अर्थ परमेश्वर के प्रति समर्पण करना या उसे संतुष्ट करना नहीं बल्कि शोहरत, लाभ और रुतबा प्राप्त करना है तो फिर उसका अनुसरण अनुचित है। ऐसा होने पर जब कलीसिया के कार्य की बात आती है तो उसके कार्यकलाप एक बाधा होते हैं या आगे बढ़ने में मददगार होते हैं? वे स्पष्ट रूप से बाधा होते हैं; वे उन्हें आगे नहीं बढ़ाते। कुछ लोग कलीसिया का कार्य करने का झंडा लहराते फिरते हैं, लेकिन अपनी व्यक्तिगत शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं, अपने ही उद्यम में रत रहते हैं, अपना एक छोटा-सा समूह, अपना एक छोटा-सा साम्राज्य बना लेते हैं—क्या इस प्रकार का व्यक्ति अपना कर्तव्य कर रहा है? वे जो भी कार्य करते हैं वह अनिवार्य रूप से कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी और बाधा पहुँचाता है और इसे खराब करता है। उनके शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागने का क्या परिणाम होता है? पहला, यह इस बात को प्रभावित करता है कि परमेश्वर के चुने हुए लोग सामान्य रूप से परमेश्वर के वचनों को कैसे खाते-पीते हैं और सत्य को कैसे समझते हैं, यह उनके जीवन प्रवेश में बाधा डालता है, उन्हें परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश करने से रोकता है और उन्हें गलत मार्ग पर ले जाता है—जो चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाता है और उन्हें बरबाद कर देता है। और यह अंततः कलीसिया के कार्य के साथ क्या करता है? बाधा, हानि और विघटन। लोगों के शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागने का यही परिणाम है। जब वे इस तरह से अपना कर्तव्य करते हैं तो क्या इसे मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलना नहीं कहा जा सकता? जब परमेश्वर कहता है कि लोग शोहरत, लाभ और रुतबे को अलग रखें तो ऐसा नहीं है कि वह लोगों को चुनने के अधिकार से वंचित कर रहा है; बल्कि यह इस कारण कहता है कि शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हुए लोग कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश में गड़बड़ी और बाधा पहुँचाते हैं, यहाँ तक कि वे और ज्यादा लोगों के द्वारा परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने, सत्य को समझने और इस प्रकार परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने पर भी प्रभाव डाल सकते हैं। यह एक निर्विवाद तथ्य है। जब लोग अपनी शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं तो यह निश्चित है कि वे सत्य का अनुसरण नहीं करेंगे और निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य पूरा नहीं करेंगे। वे सिर्फ शोहरत, लाभ और रुतबे की खातिर ही बोलेंगे और कार्य करेंगे और वे जो भी काम करते हैं, वह बिना किसी अपवाद के इन्हीं चीजों की खातिर होता है। इस तरह से व्यवहार और कार्य करना निस्संदेह मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलना है; यह परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ी और बाधा डालना है और इसके सभी विभिन्न परिणाम राज्य के सुसमाचार को फैलाने और कलीसिया के भीतर परमेश्वर की इच्छा पूरी करने में बाधा डालना है। इसलिए यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागने वालों द्वारा अपनाया जाने वाला मार्ग परमेश्वर के प्रतिरोध का मार्ग है। यह परमेश्वर का जानबूझकर किया जाने वाला प्रतिरोध है, उसे नकारना है—यह परमेश्वर का प्रतिरोध करने और उसके विरोध में खड़े होने में शैतान के साथ सहयोग करना है। लोगों की शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागने की यही प्रकृति है। लोगों के अपने हितों के पीछे भागने में गलती यह होती है कि वे जिन लक्ष्यों का अनुसरण करते हैं वे शैतान के लक्ष्य हैं—और वे दुष्टतापूर्ण और अन्यायपूर्ण लक्ष्य हैं। जब लोग शोहरत, लाभ और रुतबे जैसे व्यक्तिगत हितों के पीछे भागते हैं तो वे अनजाने ही शैतान का औजार बन जाते हैं, वे शैतान के लिए एक साधन बन जाते हैं, और तो और वे शैतान का मूर्त रूप बन जाते हैं। वे कलीसिया में एक नकारात्मक भूमिका निभाते हैं; कलीसिया के कार्य पर, सामान्य कलीसियाई जीवन और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सामान्य अनुसरण पर उनका प्रभाव बाधा डालने और हानि पहुँचाने वाला होता है; उनका प्रतिकूल और नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जब कोई सत्य का अनुसरण करता है तो वह परमेश्वर के इरादों और उसके बोझ के प्रति विचारशील होने में सक्षम होता है। जब वह अपना कर्तव्य करता है तो हर तरह से कलीसिया के कार्य को कायम रखता है। वह परमेश्वर को ऊँचा उठाने में और उसकी गवाही देने में सक्षम होता है, वह भाई-बहनों को लाभ पहुँचाता है, उन्हें सहारा देता है और उन्हें पोसता है, और परमेश्वर महिमा और गवाही प्राप्त करता है जो शैतान को लज्जित करता है। उसके अनुसरण के परिणामस्वरूप परमेश्वर एक ऐसे सृजित प्राणी को प्राप्त करता है जो वास्तव में परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम होता है, जो परमेश्वर की आराधना करने में सक्षम होता है। उसके अनुसरण के परिणामस्वरूप ही परमेश्वर की इच्छा कार्यान्वित हो जाती है और परमेश्वर का कार्य प्रगति कर पाता है। परमेश्वर की दृष्टि में ऐसा अनुसरण सकारात्मक है, निष्कपट है। ऐसा अनुसरण परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए बहुत फायदेमंद होता है, और साथ ही कलीसिया के कार्य के लिए पूरी तरह से लाभदायक होने के कारण यह चीजें आगे बढ़ाने में मदद करता है और परमेश्वर इसे स्वीकृति देता है।

इसके बाद हम परमेश्वर के हितों, परमेश्वर के घर के हितों और कलीसिया के हितों के बारे में संगति करेंगे। अभी हम इस बारे में बात नहीं करेंगे कि क्या इन तीन हितों के बीच कोई समानता हो सकती है, यानी एक हित के बारे में बात करते समय दूसरे हितों से उसकी बराबरी की जा सकती है या नहीं। आओ सबसे पहले परमेश्वर के हितों के बारे में बात करें। मैंने अभी-अभी बताया कि परमेश्वर के हितों में परमेश्वर की महिमा, परमेश्वर की गवाही, परमेश्वर का नाम, और सबसे जरूरी बात, परमेश्वर की प्रबंधन योजना और परमेश्वर के कार्य का प्रसार शामिल है; जहाँ तक परमेश्वर का संबंध है, ये चीजें सबसे बड़ी और सबसे महत्वपूर्ण चीजें हैं। अभी हम परमेश्वर की महिमा, परमेश्वर के नाम और परमेश्वर की गवाही का जिक्र नहीं करेंगे, जो लोगों से काफी दूर की बातें हैं। आओ सबसे पहले हम परमेश्वर के कार्य की बात करें। परमेश्वर वास्तव में क्या कार्य कर रहा है? परमेश्वर के कार्य की विषयवस्तु क्या है? परमेश्वर के कार्य की प्रकृति क्या है? परमेश्वर के कार्य से मानवजाति को क्या हासिल होता है? मानवजाति पर आखिर इसका क्या प्रभाव पड़ता है? आओ सबसे पहले इन चीजों के बारे में बात करें। तो वास्तव में परमेश्वर का कार्य क्या है? (मानवजाति को बचाना।) यह विषय नहीं बदल सकता, इस कार्य का उद्देश्य नहीं बदल सकता, यानी उस मानवजाति को बचाना जो शैतान की सत्ता के अधीन है और शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट की जा चुकी है। यह कार्य है लोगों के उस एक समूह को बचाना जिसे शैतान ने इतना भ्रष्ट बना दिया है कि उनमें जरा-सी भी मानवीय झलक नहीं बची है, ऐसे लोगों का समूह जो शैतान के भ्रष्ट स्वभावों से भरे हुए हैं और ऐसे स्वभावों से भरे हुए हैं जो परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं; इस कार्य का उद्देश्य उन्हें बदलना है ताकि वे मनुष्य जैसा बन सकें, सत्य समझ सकें और यह समझ-बूझ सकें कि उचित क्या है और अनुचित क्या है और नकारात्मक चीजें क्या हैं और सकारात्मक चीजें क्या हैं; और यह भी कि सच्चे लोगों की तरह जीने के लिए उन्हें किस तरह से जीना चाहिए और उन्हें किस स्थिति में खड़ा होना चाहिए ताकि वे उस स्थिति में आ सकें जो परमेश्वर ने लोगों के लिए पहले से निर्धारित की है। ये परमेश्वर के कार्य की मूल बातें हैं और तुम सभी लोग इन्हें सैद्धांतिक स्तर पर जानते हो। अगर तुम वाकई परमेश्वर का इरादा समझते हो तो तुम्हें यह पता होना चाहिए कि क्या परमेश्वर लोगों का न्याय उनकी निंदा करने और उन्हें नष्ट करने के लिए करता है या फिर उन्हें शुद्ध करने और पूर्ण बनाने के लिए करता है; और क्या परमेश्वर लोगों को आग के कुंड में धकेलने के लिए उनका न्याय करता है और उन्हें ताड़ना देता है या फिर उन्हें बचाकर रोशनी में लाने के लिए ऐसा करता है। हम सभी यह देख सकते हैं कि परमेश्वर बहुत सारे सत्य व्यक्त करता है, लोगों की विभिन्न भ्रष्ट दशाओं को उजागर करता है, आस्था के बारे में लोगों के भटकावों और धारणाओं को दुरुस्त करता है, सत्य समझने और परमेश्वर के वचनों के अनुरूप जीने और साथ ही सच्चे मनुष्य की तरह जीने के लिए लोगों की अगुआई करता है और परमेश्वर के चुने हुए लोगों में कुछ नतीजे पहले ही हासिल किए जा चुके हैं। परमेश्वर लोगों के अहंकारी स्वभावों को उजागर करता है और उन्हें अतिमानव या महान व्यक्ति बनने से रोकता है, ताकि वे सच्चे सृजित प्राणी बन सकें, अंतरात्मा और विवेक वाले लोग बन सकें; परमेश्वर फरीसियों के पाखंडी सार को उजागर करता है, लोगों को फरीसियों के पाखंडी चेहरे देखने देता है और उन्हें परमेश्वर के वचनों की सत्य वास्तविकता में लाता है; परमेश्वर पारंपरिक संस्कृति के बेतुकेपन और लोगों पर पड़ी इसकी बेड़ियों और इससे होने वाले नुकसान को उजागर करता है, ताकि लोग पारंपरिक संस्कृति की बेड़ियों से आजाद हो सकें और सत्य को स्वीकारने और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने में सक्षम बनें...। इन सबको इस प्रकार सारांशित किया जा सकता है : लोगों को बचाने का परमेश्वर का कार्य लोगों को दुष्ट दुनिया की प्रवृत्तियों से वापस परमेश्वर के घर में लाना और फिर उन्हें लगन से सिखाना और सत्य और जीवन प्रदान करना है, ताकि वे समझ और जान सकें कि स्व-आचरण के सच्चे सिद्धांत क्या हैं और लोगों को कैसे आचरण करना चाहिए, ताकि वे शैतान की दुष्ट प्रवृत्तियों और विभिन्न शैतानी फलसफों और शैतानी विषों से लोगों को होने वाले नुकसान से बच सकें। शुरुआत से लेकर आज तक परमेश्वर ने व्यवस्था के युग के अपने कार्य से लेकर अनुग्रह के युग के कार्य तक और अब अंत के दिनों में किए जा रहे न्याय के कार्य तक सभी तरह के कार्य किए हैं। अब जब तुम लोग परमेश्वर के कार्य के इन तीन चरणों के बारे में स्पष्ट हो चुके हो तो बताओ कि परमेश्वर की 6,000-वर्षीय प्रबंधन योजना में उसके कार्य की प्रकृति वास्तव में क्या है? इसे कैसे निरूपित किया जाना चाहिए? (मानवजाति के बीच यह सबसे न्यायोचित ध्येय है।) सही कहा। मानवजाति का प्रबंधन करने और बचाने का परमेश्वर का कार्य 6,000 वर्षों से चला आ रहा है और इन 6,000 वर्षों के दौरान परमेश्वर ने अथक रूप से सहा, प्रतीक्षा की और बोला और अब तक मानवजाति की अगुआई की है। परमेश्वर ने हार नहीं मानी है और परमेश्वर द्वारा किया जाने वाला यह कार्य मानवजाति के बीच सबसे न्यायोचित महान कार्य है। इसे परमेश्वर के कार्य की प्रकृति के हिसाब से देखें तो क्या परमेश्वर के हित सबसे न्यायोचित और सबसे जायज हैं? (हाँ।) अगर परमेश्वर के हितों की रक्षा की जाती है तो मानवजाति का क्या होगा? मानवजाति अच्छी तरह से जीते रह सकती है, मनुष्यों जैसा जीवन जी सकती है, परमेश्वर द्वारा बनाई गई सभी चीजों की व्यवस्थाओं के भीतर जी सकती है और परमेश्वर द्वारा मानवजाति को दी गई हर चीज का आनंद ले सकती है और इस प्रकार मनुष्य सभी चीजों के सच्चे मालिक बन जाएँगे। तुम लोगों को यह देखना चाहिए कि परमेश्वर का प्रबंधन कार्य आखिरकार लोगों के सबसे बड़े हितों में है। तो फिर क्या मानवजाति को बचाने का परमेश्वर का कार्य मानवजाति के बीच सबसे न्यायोचित ध्येय नहीं है? इसे नकारा नहीं जा सकता और इसमें कोई संदेह नहीं है—यह सबसे न्यायोचित ध्येय है। इसलिए अगर कोई अपने हितों के लिए परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाने और परमेश्वर का कार्य फैलने में बाधा डालने की हद तक चला जाता है तो यह कैसा व्यक्ति है? यह यकीनन एक दुष्ट व्यक्ति और दानव है। परमेश्वर ही बदले में बिना कुछ माँगे मानवजाति को पोसता है। जब परमेश्वर मानवजाति के लिए सबसे ज्यादा लाभकारी और सबसे न्यायोचित ध्येय का कार्य कर रहा है, तब भी लोग न केवल परमेश्वर को सराहते नहीं हैं या धन्यवाद नहीं देते हैं और परमेश्वर को बदले में कुछ देने के बारे में नहीं सोचते हैं, बल्कि वे परमेश्वर के कार्य में बाधा डालते और गड़बड़ी पैदा करते हैं, उसे बिगाड़ते हैं और अपने व्यक्तिगत हितों का अनुसरण करते हैं। ऐसे लोगों के पास कोई अंतरात्मा या विवेक नहीं होता है। क्या वे अभी भी मनुष्य कहलाने के लायक हैं? ये एकदम राक्षस और शैतान हैं! अगर इतना सब करने के बाद भी परमेश्वर लोगों को प्रेरित न कर सके तो क्या उनके पास अभी भी दिल है? नहीं, उनके पास दिल नहीं है। दिल न होने का मतलब है अंतरात्मा न होना। ऐसे लोगों में अंतरात्मा की कोई भावना नहीं होती है। जब किसी की मानवता में अंतरात्मा की कमी हो तो वह अब मनुष्य नहीं रह जाता है, बल्कि एक जानवर, एक राक्षस और शैतान होता है। यह बहुत स्पष्ट है। लोगों को बचाने के लिए परमेश्वर कोई भी कीमत चुकाने के लिए दृढ़ है और वह अथक कार्य करता है। लोगों को चाहे कैसी भी गलतफहमी या संदेह हो, परमेश्वर हमेशा धैर्यवान रहा है और लोगों को पोसना जारी रखता है, उन्हें बार-बार सत्य के विभिन्न पहलुओं के बारे में बताता है, थोड़ा-थोड़ा करके समझाता है, उनसे चिंतन और जाँच करवाता है और उन्हें परमेश्वर के दिल को समझने-बूझने में सक्षम बनाता है। और जब लोग परमेश्वर के इन वचनों को सुनते हैं तो वे द्रवित होकर थोड़े आँसू बहाते हैं। मगर जब वे पीछे मुड़ते हैं तो न केवल वे परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील नहीं होते, बल्कि अभी भी अपने हितों के पीछे भागते हैं और आशीषों का अनुसरण करते हैं। मुझे बताओ, क्या ऐसे लोगों में कोई अंतरात्मा और विवेक नहीं होता है? ऐसे लोगों में सबसे ज्यादा किस चीज की कमी है? उनमें सबसे ज्यादा कमी अंतरात्मा और विवेक की है, उनमें सबसे ज्यादा कमी मानवता की है। परमेश्वर कार्य करने और लोगों को बचाने के लिए अत्यधिक धैर्य के साथ सभी तरह की पीड़ा झेलता है, फिर भी लोग उसे गलत समझते हैं, लगातार उसके खिलाफ खड़े होते हैं, परमेश्वर के घर के हितों की कोई चिंता किए बिना लगातार अपने हितों की रक्षा करते हैं और हमेशा एक आलीशान जीवन जीना चाहते हैं, मगर परमेश्वर की महिमा में योगदान नहीं करना चाहते—क्या इस सब में नाममात्र की भी कोई मानवता है? भले ही लोग ऊँचे स्वर में परमेश्वर की गवाही की घोषणा करते हैं, मगर अपने दिल में वे कहते हैं : “यह कार्य मैंने किया है, जिससे नतीजे प्राप्त हुए हैं। मैंने भी मेहनत की है, मैंने भी कीमत चुकाई है। मेरी गवाही क्यों नहीं दी जाती?” वे हमेशा परमेश्वर की महिमा और गवाही में अपना हिस्सा लेना चाहते हैं। क्या लोग इन चीजों के लायक हैं? “महिमा” शब्द का सरोकार मनुष्यों से नहीं है। महिमा केवल परमेश्वर को मिल सकती है, सृष्टिकर्ता को मिल सकती है और इसका सृजित मनुष्यों से कोई लेना-देना नहीं है। भले ही लोग कड़ी मेहनत और सहयोग करें, फिर भी वे पवित्र आत्मा के कार्य की अगुआई के अधीन होते हैं। अगर पवित्र आत्मा का कोई कार्य न हो तो लोग क्या कर सकते हैं? “गवाही” शब्द का सरोकार भी मनुष्यों से नहीं है। चाहे वह संज्ञा “गवाही” हो या क्रिया “गवाही देना,” इन दोनों शब्दों का सृजित मनुष्यों से कोई लेना-देना नहीं है। केवल सृष्टिकर्ता ही गवाही दिए जाने और लोगों की गवाही के योग्य है। यह परमेश्वर की पहचान, दर्जे और सार से निर्धारित होता है और यह इसलिए भी है क्योंकि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह परमेश्वर के प्रयासों से आता है और परमेश्वर इसे पाने के योग्य है। लोग जो कर सकते हैं वह निश्चित रूप से सीमित है और यह सब पवित्र आत्मा के प्रबोधन, अगुआई और मार्गदर्शन का नतीजा है। जहाँ तक मानव प्रकृति की बात है, लोग कुछ सत्य समझने और थोड़ा-सा काम कर सकने के बाद ही अहंकारी हो जाते हैं। अगर उन्हें परमेश्वर की ओर से न्याय और ताड़ना का कोई साथ न मिले तो कोई भी परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर पाएगा और न ही उसकी गवाही दे सकेगा। परमेश्वर के पूर्वनिर्धारण के कारण हो सकता है कि लोगों के पास कुछ खूबियाँ या विशेष प्रतिभाएँ हों, उन्होंने कुछ पेशे या कौशल सीख लिए हों या उनमें थोड़ी चतुराई हो और इसलिए वे बहुत ज्यादा अहंकारी बन जाते हैं और लगातार चाहते हैं कि परमेश्वर अपनी महिमा और अपनी गवाही उनके साथ साझा करे। क्या यह अविवेकपूर्ण नहीं है? यह बेहद अविवेकपूर्ण है। यह दर्शाता है कि वे गलत स्थिति में खड़े हैं। वे खुद को मनुष्य नहीं, बल्कि एक अलग नस्ल मानते हैं, अतिमानव मानते हैं। जो लोग यह नहीं जानते कि अपनी पहचान, सार क्या है और उन्हें किस स्थिति में खड़ा होना चाहिए, उनमें कोई आत्म-जागरूकता नहीं होती है। लोगों में विनम्रता जैसी चीज अपमान से नहीं आती है—लोग शुरू से ही विनम्र और निम्न-स्तर के होते हैं। परमेश्वर की विनम्रता ऐसी चीज है जो अपमान से आती है। लोगों को विनम्र कहना उन्हें ऊँचा उठाना है—वास्तव में वे नीच होते हैं। लोग हमेशा शोहरत, लाभ और रुतबे के लिए होड़ करना चाहते हैं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए परमेश्वर से स्पर्धा करना चाहते हैं। इस तरह से वे शैतान की भूमिका निभाते हैं और यही शैतान की प्रकृति है। वे वास्तव में शैतान के वंशज हैं, उनमें जरा-सा भी अंतर नहीं है। मान लो कि परमेश्वर लोगों को थोड़ा-सा अधिकार और सामर्थ्य देता है और मान लो वे संकेत और चमत्कार दिखा सकते हैं और कुछ असाधारण चीजें कर सकते हैं, और चलो मान लेते हैं कि वे सब कुछ परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार करते हैं और एकदम ठीक तरह से करते हैं। मगर क्या वे परमेश्वर से आगे निकल सकते हैं? नहीं, कभी नहीं। क्या शैतान स्वर्गदूत की योग्यताएँ मनुष्यों की योग्यताओं से अधिक नहीं हैं? वह हमेशा परमेश्वर से आगे निकलना चाहता है, मगर अंतिम नतीजा क्या होता है? अंत में उसे अथाह कुंड में गिरना ही होगा। परमेश्वर हमेशा न्याय का प्रतिरूप रहेगा, जबकि दुष्ट स्वर्गदूत शैतान हमेशा दुष्टता की मूरत ही रहेगा और दुष्टता की शक्तियों का प्रतिनिधि होगा। परमेश्वर हमेशा न्यायशील रहेगा और इस तथ्य को बदला नहीं जा सकता। यह परमेश्वर का अनोखा और असाधारण पक्ष है। भले ही मनुष्य परमेश्वर से उसके सभी सत्य प्राप्त कर लें, वे केवल तुच्छ सृजित प्राणी हैं और परमेश्वर से आगे नहीं निकल सकते। यही मनुष्य और परमेश्वर के बीच का अंतर है। लोग परमेश्वर द्वारा बनाए गए सभी नियमों और व्यवस्थाओं के भीतर व्यवस्थित तरीके से सिर्फ जी सकते हैं और परमेश्वर ने जो कुछ भी बनाया है उस सबका इन नियमों और व्यवस्थाओं के भीतर सिर्फ प्रबंध कर सकते हैं। लोग किसी भी सजीव चीज की रचना नहीं कर सकते, न ही वे मानवजाति का भाग्य बदल सकते हैं—यह एक तथ्य है। यह तथ्य क्या दर्शाता है? यही कि परमेश्वर मानवजाति को चाहे कितना भी अधिकार और योग्यता दे, अंत में कोई भी परमेश्वर के अधिकार से परे नहीं हो सकता। चाहे कितने भी साल बीत जाएँ या कितनी भी पीढ़ियाँ गुजर जाएँ या चाहे जितने भी मनुष्य हों, मनुष्य हमेशा केवल परमेश्वर के अधिकार और संप्रभुता के अधीन अस्तित्व में रह सकते हैं। यह तथ्य हमेशा अडिग रहेगा, यह कभी नहीं बदलेगा, कभी नहीं!

ये चीजें सुनकर तुम लोगों को कैसा महसूस होता है? कुछ लोग कहते हैं : “मैं अपनी चेतना में इन चीजों के बारे में सोचता था, मगर अनजाने में मुझे लगा कि मेरी योग्यताएँ बढ़ रही हैं। जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ, मेरे विचार भी परिपक्व हुए और मैं बहुत से मुद्दों के बारे में ज्यादा समग्रता से सोच सकता था और जैसे-जैसे मैंने परमेश्वर के ज्यादा वचन सुने, मैं उसके कुछ इरादों को समझ पाया, इसलिए मुझे लगा कि मैं मजबूत हूँ और मुझे अपने ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता की जरूरत नहीं है। अनजाने में मुझे लगा कि मैं सक्षम हूँ और मैंने परमेश्वर को प्राप्त कर लिया है।” क्या यह अच्छी अनुभूति है? (नहीं।) यह अच्छी कैसे नहीं है? यह एक अच्छा संकेत नहीं है। तो एक अच्छा संकेत क्या है? लोग जितने लंबे समय तक जीते हैं, उतना ही उन्हें लगता है, “मनुष्य धूल की तरह है और चींटियों से भी कमतर है। लोग कितने भी मजबूत या गरिमावान हों या वे कितने भी धर्म-सिद्धांत समझते हों या उनके विचार कितने भी परिपक्व हों, वे परमेश्वर की संप्रभुता से परे नहीं जा सकते।” लोग जितने लंबे समय तक जीते हैं, उतना ही उन्हें परमेश्वर के अधिकार की महानता और परमेश्वर के अधिकार की सर्वशक्तिमत्ता का एहसास होता है। लोग जितने लंबे समय तक जीते हैं, उतना ही उन्हें लोगों की तुच्छता का एहसास होता है। वे जितने लंबे समय तक जीते हैं, उतना ही उन्हें परमेश्वर की अथाह गहराई का एहसास होता है। ऐसी मनोदशा सामान्य है। क्या तुम लोगों की भी ऐसी मनोदशा है? अभी तक तो नहीं, है ना? तुम अभी भी अक्सर संघर्षरत रहते हो, हितों की कगार पर डगमगाते रहते हो और कभी-कभी यह कहकर कुछ छोटे-मोटे संकेत भी भेजते हो, “परमेश्वर अपने हितों का थोड़ा-बहुत हिस्सा मुझे क्यों नहीं देता है? परमेश्वर मेरी तारीफ क्यों नहीं करता? परमेश्वर मेरे आस-पास के लोगों को मेरे बारे में अच्छा क्यों नहीं सोचने देता? परमेश्वर लोगों को मेरे लिए गवाही क्यों नहीं देने देता? मैंने कीमत चुकाई है और योगदान दिया है। परमेश्वर मुझे किस तरह ईनाम देगा?” तुम अभी भी अक्सर एक दंभी, आत्मसंतुष्ट मानसिकता में डूबे रहते हो। तुम अक्सर यह भी नहीं जानते कि तुम कौन हो और सोचते हो कि तुम काबिल हो। यह स्थिति असामान्य है। यह जीवन में प्रगति नहीं है। इसे क्या कहते हैं? भ्रष्ट स्वभावों का फिर से उभरना। कुछ लोग थोड़े ज्यादा विनम्र और शांत होते हैं, जब उन्होंने कोई योगदान नहीं दिया होता है। जब वे कोई जरूरी काम करते हैं और कुछ योगदान देते हैं और उन्हें लगता है कि उनके पास पूँजी है तो अपने आस-पास के लोगों को देखकर वे सोचते हैं : “तुम लोग मेरे योगदानों के बारे में रिपोर्ट क्यों नहीं करते? तुम सब परमेश्वर के नाम और परमेश्वर के सार की गवाही देते हो तो फिर मेरे लिए कोई प्रस्तुति क्यों नहीं देते? भले ही तुम मेरी गवाही न दो, मगर मेरे बारे में एक प्रस्तुति तो दे ही सकते हो। मैं, फलाँ फलाँ बहन, 25 सालों से परमेश्वर में विश्वास करती आ रही हूँ। अब मैं 45 साल की हूँ, अभी तक अविवाहित और अकेली हूँ और मैंने आज तक श्रद्धा और उत्साह के साथ अनुसरण किया है। क्योंकि मैं कलीसिया की आधारशिला हूँ, इसलिए कई बार मुझे चीनी कम्युनिस्ट सरकार की वांछित सूची में डाला गया, मेरा पीछा किया गया और मैं तमाम तरह की जगहों पर छिपती रही, विदेश जाने से पहले दस से ज्यादा प्रांतों में भटकती रही। इस सबके बाद भी मैंने परमेश्वर के घर के महत्वपूर्ण कार्य के पर्यवेक्षक के रूप में काम करना जारी रखा है, जिस दौरान मैंने परमेश्वर के घर के कुछ कार्यों के लिए बहुत से रचनात्मक सुझाव, विचार और अवधारणाएँ सामने रखीं, कलीसिया के कार्य को आगे बढ़ाने और परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार फैलाने में अमिट योगदान दिया है। तुम मुझे इस तरह क्यों नहीं पेश करते? परमेश्वर मुझे अपनी प्रतिभा दिखाने के लिए कुछ परिवेश और अवसर क्यों नहीं देता ताकि हर कोई मेरे बारे में जान सके और मुझे पहचान सके? परमेश्वर हमेशा हमें दबाता क्यों है? परमेश्वर के घर में हम उतने स्वतंत्र नहीं हैं, न ही हम उतने शांत, मुक्त या खुश हैं!” वह शांत, मुक्त और खुश भी रहना चाहती है। हम तुम्हें शांत, मुक्त और खुश कैसे बना सकते हैं? तुम्हें सबसे ऊँचे पद पर रखकर? फिर तुम्हें सबसे ऊँचे पद पर रखने के बाद तुम्हारे बारे में एक प्रस्तुति देकर : बाहरी दुनिया में यह एक मशहूर डॉक्टर थी, जिसने देश के मशहूर डॉक्टरों का पहला पुरस्कार जीता था और बाद में उसका नाम “विश्व-प्रसिद्ध डॉक्टरों के विश्वकोश” में शामिल किया गया था। उसने कई शोधपत्र लिखे हैं, परमेश्वर के घर में आने के बाद वह एक आधारशिला और प्रतिभाशाली व्यक्ति बनी रही है और वह अब एक वरिष्ठ अगुआ बन गई है। तब क्या वह खुश नहीं होगी? वह सोचेगी, “मैं एक प्रतिभाशाली व्यक्ति हूँ। मैं पहले भी एक मशहूर हस्ती थी और परमेश्वर के घर में आने के बाद भी मैं मशहूर हस्ती हूँ। मैं सोने जैसी हूँ जिसे जहाँ भी रख दो चमकता है और कोई भी इसकी चमक को रोक नहीं सकता। मेरी ये योग्यताएँ सभी को दिखाई देती हैं! भले ही परमेश्वर गवाही नहीं देता, मगर ये तथ्य मेरे लिए ऊँचे स्वर में गवाही देते हैं।” इस मत के बारे में तुम क्या सोचते हो? अगर तुम एक दिन के लिए भी शोहरत और लाभ के पीछे भागना नहीं छोड़ सकते तो तुम अभी भी शोहरत, लाभ और रुतबे से बँधे हुए हो और तुम वास्तव में शांत और खुश नहीं हो सकते। जब तक तुम शोहरत और लाभ की बेड़ियों से बँधे, सीमित और जुड़े रहोगे, तुम अपने सत्य के अनुसरण में आगे नहीं बढ़ोगे, बल्कि जहाँ हो वहीं अटके रहोगे। कुछ लोग पूछ सकते हैं : “क्या मैं पीछे चला जाऊँगा?” सच तो यह है कि जब तक तुम आगे नहीं बढ़ोगे, तुम वहीं अटके रहोगे या पीछे चले जाओगे। यह दर्शाता है कि तुम्हारा प्रकृति सार यही है और चाहे तुम कितने ही वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करो, कभी कोई प्रगति नहीं कर पाओगे और अंत तक भी तुम बहुत सारे बुरे कर्म कर सकते हो। यह पूरे यकीन के साथ कहा जा सकता है कि तुम बेनकाब कर दिए जाओगे। एक बार ऐसे व्यक्ति को सही परिवेश मिल जाए और रुतबा प्राप्त हो जाए तो उसकी महत्वाकांक्षा उजागर हो जाएगी। वास्तव में इस परिवेश और रुतबे के बिना क्या उसकी कोई महत्वाकांक्षा नहीं होगी? जरूर होगी। उसमें बस यही चीज और यही सार है और उसकी महत्वाकांक्षा को रोका नहीं जा सकता। एक बार उन्हें सही परिवेश मिल जाए तो वे अचानक “फट पड़ेंगे” और कोई भी बाधा उन्हें रोक नहीं पाएगी, वे बुरे कर्म करने लगेंगे और उनका बदसूरत राक्षसी चेहरा पूरी तरह उजागर हो जाएगा। यह बेनकाब किए जाने का मामला है। तुम्हें “बेनकाब” शब्द को इस तरह समझना चाहिए : परमेश्वर का इरादा तुम्हें बेनकाब करने का नहीं था, परमेश्वर तुम्हें अभ्यास करने का अवसर देना चाहता था। मगर जब तुम्हें अवसर दिखा तो तुम उसका महत्व पहचान नहीं पाए और तुमने अच्छा-खासा बखेड़ा भी खड़ा कर दिया। क्या तुम बेनकाब होने के ही लायक नहीं हो? तुमने यह खुद चुना है। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर जानबूझकर तुम्हें बेनकाब करना और हटा देना चाहता था। तुम सिर्फ अपनी मंशाओं और महत्वाकांक्षाओं के कारण बेनकाब हुए हो। तुम और किसे दोषी ठहरा सकते हो?

क्या लोगों के हितों और परमेश्वर के हितों के संदर्भ में हमने इससे संबंधित सत्य के बारे में कमोबेश पर्याप्त संगति कर ली है? लोगों के व्यक्तिगत हित क्या हैं? वे ऐसी चीजें हैं जिनका लोग अनुसरण करते हैं, जिनमें शोहरत, लाभ और रुतबा, आशीष पाने की महत्वाकांक्षा और इच्छा, और साथ ही लोगों का झूठा अभिमान और आत्मसम्मान, परिवार, रिश्तेदार, भौतिक हित वगैरह शामिल होते हैं। लोगों के हितों का सार स्वार्थी, नीच, दुष्ट और शैतानी है, यह सत्य के विपरीत है और यह परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा और गड़बड़ी पैदा करता है, उसे नष्ट करता है, जबकि परमेश्वर के हित मानवजाति को बचाने का सबसे न्यायोचित ध्येय है और ये परमेश्वर के प्रेम, परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर की पवित्रता और धार्मिकता का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए परमेश्वर का अपने हितों की रक्षा करना न्यायोचित है। वह एक न्यायोचित ध्येय की रक्षा कर रहा है। ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि परमेश्वर स्वार्थी है और अपनी गरिमा की रक्षा करना चाहता है। यह न्यायोचित और जायज है और इससे उस मानवजाति को असीम लाभ होगा जिसे परमेश्वर बचाता है। जब परमेश्वर अपने हितों की रक्षा करेगा तभी मानवजाति को बचाया जा सकता है और तभी उसे अधिक लाभ, सत्य, मार्ग और जीवन मिल सकता है और केवल तभी लोग अंत में सच्चे सृजित प्राणी बन सकते हैं, परमेश्वर द्वारा बनाए गए सारे नियमों और व्यवस्थाओं के अधीन रह सकते हैं, परमेश्वर द्वारा लोगों के लिए बनाई गई सभी चीजों के बीच रह सकते हैं और केवल तभी मानवजाति को आनंद और वास्तव में सुंदर जीवन मिल सकता है। परमेश्वर यह जो कुछ करता है क्या यह एक न्यायोचित ध्येय है? यह अत्यंत न्यायोचित है! परमेश्वर का यह कार्य और प्रबंधन और साथ ही कलीसिया के सभी काम जिनका संबंध मानवजाति के लिए परमेश्वर के उद्धार से है—जैसे कि सुसमाचार प्रचार करना, फिल्में बनाना, गवाही लेख लिखना, वीडियो बनाना, परमेश्वर के वचनों का अनुवाद करना और कलीसियाई जीवन का सामान्य क्रम बनाए रखना—ये सभी काम महत्वपूर्ण हैं और इनकी गारंटी देनी होगी। परमेश्वर के चुने हुए उन सभी लोगों के जीवन की गारंटी देने का पहलू भी है जो अपने कर्तव्य निभाते हैं। भले ही यह सहायक सेवाओं की तरह सबसे बुनियादी काम है और ऐसा नहीं लगता है कि इसका परमेश्वर के घर के मुख्य काम से ज्यादा कुछ लेना-देना है, फिर भी यह बहुत महत्वपूर्ण है और इसका यहाँ उल्लेख करना जरूरी है। भोजन, कपड़े, आवास और परिवहन जैसी सामान्य चीजें—परमेश्वर लोगों को यही सब उपलब्ध कराता है और ये सबसे जायज भौतिक जरूरतें भी हैं जो सामान्य मानवता वाले लोगों के पास होनी चाहिए। परमेश्वर लोगों को इन जरूरतों से वंचित नहीं करेगा, बल्कि वह इनकी रक्षा करेगा। अगर तुम हमेशा उन चीजों में गड़बड़ी और बाधा पैदा करते हो और उन चीजों को कमजोर करते हो जिनकी परमेश्वर रक्षा करना चाहता है, अगर तुम हमेशा ऐसी चीजों को तिरस्कार से देखते हो और हमेशा उनके बारे में धारणाएँ और राय रखते हो तो तुम परमेश्वर को नकार रहे हो और उसके खिलाफ खड़े हो रहे हो। अगर तुम परमेश्वर के घर के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों को महत्वपूर्ण नहीं मानते और हमेशा उन्हें कमजोर करना चाहते हो, और हमेशा चीजों को तबाह करना चाहते हो या हमेशा उनसे लाभ कमाना, धोखा देना या गबन करना चाहते हो तो क्या परमेश्वर तुमसे गुस्सा होगा? (होगा।) परमेश्वर के गुस्से के क्या परिणाम हैं? (हमें दंडित किया जाएगा।) यह निश्चित है। परमेश्वर तुम्हें माफ नहीं करेगा, बिल्कुल भी नहीं! क्योंकि तुम जो कर रहे हो उसके कारण कलीसिया का कार्य बिखर रहा है और नष्ट हो रहा है, और यह परमेश्वर के घर के कार्य और हितों के विपरीत है। यह बहुत बड़ी बुराई है, यह परमेश्वर के साथ दुश्मनी मोल लेना है और यह परमेश्वर के स्वभाव को सीधे तौर पर नाराज करता है। परमेश्वर तुमसे गुस्सा कैसे नहीं होगा? अगर कुछ लोग खराब काबिलियत के कारण अपने काम करने में सक्षम नहीं हैं और अनजाने में बाधा और गड़बड़ी पैदा करने वाले काम करते हैं तो इसे माफ किया जा सकता है। लेकिन अगर अपने व्यक्तिगत हितों के कारण तुम ईर्ष्या और झगड़े में लिप्त होते हो और जानबूझकर ऐसे काम करते हो जो परमेश्वर के घर के कार्य में गड़बड़ी और बाधा पैदा करता है और उसे नष्ट करता है तो यह जानबूझकर किया गया उल्लंघन है, और यह परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करने का मामला है। क्या परमेश्वर तुम्हें माफ करेगा? परमेश्वर अपनी 6,000-वर्षीय प्रबंधन योजना का कार्य कर रहा है और इसमें उसके हृदय का सारा रक्त लगता है। अगर कोई परमेश्वर का विरोध करता है, जानबूझकर परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाता है और परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाने की कीमत पर जानबूझकर अपने व्यक्तिगत हितों और अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण करता है और कलीसिया के कार्य को बिगाड़ने में कोई संकोच नहीं करता है, जिससे परमेश्वर के घर का कार्य बाधित और नष्ट हो जाता है और यहाँ तक कि परमेश्वर के घर को भारी भौतिक और वित्तीय नुकसान भी होता है तो क्या तुम लोगों को लगता है कि ऐसे लोगों को माफ किया जाना चाहिए? (नहीं, उन्हें माफ नहीं करना चाहिए।) तुम सब कहते हो कि उन्हें माफ नहीं किया जा सकता तो क्या परमेश्वर ऐसे लोगों से गुस्सा है? बेशक, वह गुस्सा है। परमेश्वर ने सत्य व्यक्त करने और लोगों को बचाने का इतना बड़ा कार्य किया है और इसमें अपने हृदय का सारा रक्त लगाया है। परमेश्वर इस सबसे न्यायोचित ध्येय को इतनी गंभीरता से लेता है; उसके हृदय का सारा रक्त इन लोगों के लिए खप चुका है जिन्हें वह बचाना चाहता है, उसकी सारी अपेक्षाएँ भी इन्हीं लोगों पर टिकी हैं और अपनी 6,000-वर्षीय प्रबंधन योजना से जो अंतिम नतीजे और महिमा वह प्राप्त करना चाहता है, वह सब इन्हीं लोगों पर साकार होगा। अगर कोई परमेश्वर से दुश्मनी मोल लेता है, इस ध्येय के नतीजे का विरोध करता है, इसे बाधित या नष्ट करता है तो क्या परमेश्वर उसे माफ करेगा? (नहीं।) क्या यह परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करता है? अगर तुम यह कहते रहो कि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, उद्धार का अनुसरण करते हो, परमेश्वर की पड़ताल और मार्गदर्शन को स्वीकारते हो और परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार कर उसके प्रति समर्पण करते हो, मगर यह सब कहते हुए भी तुम कलीसिया के विभिन्न कार्यों में बाधा डाल रहे हो, उनमें गड़बड़ी पैदा कर रहे हो और उन्हें नष्ट कर रहे हो, और तुम्हारी इस बाधा, गड़बड़ी और तबाही के कारण, तुम्हारी लापरवाही या कर्तव्यहीनता के कारण या तुम्हारी स्वार्थी इच्छाओं और अपने व्यक्तिगत हितों के अनुसरण के कारण, परमेश्वर के घर के हितों, कलीसिया के हितों और अन्य अनेक पहलुओं को नुकसान हुआ है, यहाँ तक कि परमेश्वर के घर के कार्य में बहुत बड़ी गड़बड़ी हुई और वह तबाह हो गया है तो फिर परमेश्वर को तुम्हारे जीवन की किताब में क्या परिणाम लिखना चाहिए? तुम्हें किस रूप में चित्रित किया जाना चाहिए? पूरी तरह निष्पक्ष होकर कहें तो तुम्हें दंड मिलना चाहिए। इसे ही अपनी करनी का उचित फल मिलना कहते हैं। अब तुम लोग क्या समझते हो? लोगों के हित क्या हैं? (वे दुष्ट हैं।) लोगों के हित वास्तव में उनकी सारी असंयमित इच्छाएँ हैं। साफ-साफ कहें तो वे सभी प्रलोभन, झूठ और शैतान द्वारा लोगों को लुभाने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला चारा हैं। शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागना और अपने व्यक्तिगत हितों का अनुसरण करना—यह बुराई करने में शैतान का सहयोग करना, और परमेश्वर का विरोध करना है। परमेश्वर के कार्य में बाधा डालने के लिए शैतान लोगों को लुभाने, परेशान और गुमराह करने, उन्हें परमेश्वर का अनुसरण करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकने से रोकने के लिए विभिन्न माहौल बनाता है। इसके बजाय लोग शैतान के साथ सहयोग करते हैं और उसका अनुसरण करते हैं, जानबूझकर परमेश्वर के कार्य को बाधित करने और नष्ट करने के लिए आगे बढ़ते हैं। परमेश्वर सत्य पर चाहे कितनी भी संगति क्यों न करे, वे फिर भी होश में नहीं आते। चाहे परमेश्वर का घर उनकी कितनी भी काट-छाँट करे, फिर भी वे सत्य को स्वीकार नहीं करते। वे परमेश्वर के प्रति बिल्कुल भी समर्पण नहीं करते, बल्कि चीजों को अपने तरीके से करने और अपनी मनमर्जी करने पर अड़े रहते हैं। नतीजतन, वे कलीसिया के कार्य में बाधा डालते हैं और उसे नष्ट कर देते हैं, कलीसिया के विभिन्न कार्यों की प्रगति को गंभीर रूप से प्रभावित करते हैं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को बहुत अधिक नुकसान पहुँचाते हैं। यह बहुत बड़ा पाप है और ऐसे लोगों को परमेश्वर निश्चित रूप से दंड देगा।

तुम लोगों के हिसाब से, अभी कलीसिया में कौन-से कार्य सबसे महत्वपूर्ण हैं, जिनमें परमेश्वर की प्रबंधन योजना का विस्तार शामिल है? (सुसमाचार प्रचार।) सुसमाचार कार्य एक बड़ा कार्य है। परमेश्वर का कार्य परमेश्वर की नजर में एक कार्य है, मगर लोगों के लिए यह उनका कर्तव्य है। सुसमाचार कार्य के अलावा, फिल्म बनाने का कार्य, अनुवाद का कार्य, भजन संबंधी कार्य और पाठ्य-सामग्री आधारित अनेक कार्य भी हैं। आजकल ज्यादातर लोग जो पूरे समय अपना कर्तव्य निभाते हैं, वे इन कार्यों से संबंधित गतिविधियों में ही लगे होते हैं। मुझे बताओ, इनमें से किस काम को छोड़ा जा सकता है? कुछ लोग कहते हैं, “संगीत सिर्फ कुछ सुरों का मामला है जो मुझे महत्वपूर्ण नहीं लगते। परमेश्वर के वचन उन सभी धुनों के बिना भी हूबहू प्रसारित किए और फैलाए जा सकते हैं और वे लोगों को उसी तरह परमेश्वर के समक्ष ला सकते हैं।” क्या ऐसा कहना सही है? (नहीं, यह गलत है।) यह गलत क्यों है? अगर बिना संगीत के विभिन्न तरह के वीडियो बनाएँगे तो क्या यह अच्छा लगेगा? (नहीं।) कलीसिया में भजन गाने के अलावा सभी फिल्में, संगीत वीडियो, समूह गान, नाटक और साथ ही परमेश्वर के वचनों के पाठ वाले वीडियो वगैरह बनाने में भी संगीत की जरूरत होती है। भले ही पहली नजर में संगीत वास्तव में सिर्फ कुछ सुरों का मामला है, मगर जब लोग इस संगीत को सुनते हैं तो यह परमेश्वर के वचनों को प्रसारित करने में अधिक प्रभावी साबित होता है और सुसमाचार के फैलाव को आगे बढ़ाने में भूमिका निभा सकता है, इसलिए यह बहुत जरूरी है। भले ही तुम बस यूँ ही इधर-उधर की बातें कर रहे हो और पृष्ठभूमि में संगीत बज रहा हो, तो इसका प्रभाव अलग होगा, है ना? इसलिए यह कर्तव्य बहुत महत्वपूर्ण है। कुछ लोग कहते हैं : “तो क्या हमारा वीडियो का कार्य महत्वपूर्ण है?” तुम मुझे बताओ, क्या वीडियो का कार्य महत्वपूर्ण है? (हाँ।) उदाहरण के लिए, स्पेशल इफेक्ट तकनीक का इस्तेमाल करके जो बहुत सारी तस्वीरें बनाई जाती हैं उन्हें किसी कच्चे वीडियो फुटेज से बदला नहीं जा सकता है, न ही उन्हें फिल्माया जा सकता है—यह आधुनिक कला है। कुछ ऐसे भी हैं जो कहते हैं : “परमेश्वर का घर आधुनिक कला की बात भी करता है। क्या यह समय के साथ चलना नहीं है?” यह समय के साथ चलना कैसे है? इसे सेवा करने के लिए शैतान का फायदा उठाना कहते हैं। बेशक, यह भाई-बहनों का फायदा उठाकर सेवा करना नहीं है। मेरा मतलब है, अगर तुम कुछ तकनीकी और कलात्मक पेशे सीखकर इस पेशेवर ज्ञान का इस्तेमाल सुसमाचार फैलाने और परमेश्वर के वचनों को प्रसारित करने में कर सकते हो तो तुमने जो सीखा है वह उपयोगी है। अगर तुम इसे सीख सकते हो तो यह परमेश्वर का अनुग्रह है और फिर तुम इससे संबंधित कर्तव्य निभा सकोगे और तुम्हें आशीष मिलेगा। क्या यह तुम्हारे लिए एक आशीष नहीं है? (है।) तो इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या सीखते हो, फर्क इससे पड़ता है कि क्या तुम इसका इस्तेमाल अपना कर्तव्य निभाने में करते हो। दूसरे लोग कहते हैं : “हम पाठ-आधारित काम करते हैं, मगर कभी किसी को हमारे बारे में पता नहीं चलता, कोई हमारा जिक्र नहीं करता और बहुत सारे लोग तो हमें देख भी नहीं पाते। हम अनावश्यक हो गए हैं।” यह मामले को स्पष्टता से देखना नहीं है। लोग तुम्हें नहीं देख सकते, मगर परमेश्वर तुम्हें देख सकता है, परमेश्वर तुम्हारी पड़ताल कर रहा है, परमेश्वर तुम्हारा मार्गदर्शन कर रहा है, परमेश्वर तुम्हें आशीष दे रहा है, तुम इसे महसूस क्यों नहीं कर सकते? क्या इससे फर्क पड़ता है कि लोग तुम्हें देखते हैं या तुम लोगों का जिक्र करते हैं या नहीं? कौन-सा सत्य तुम लोगों को नहीं बताया गया है? किन धर्मोपदेशों और संगतियों से तुम लोग वंचित रह गए हो? वास्तव में, पाठ-आधारित कार्य की तकनीकी सामग्री बहुत ज्यादा नहीं है और पेशेवर पहलुओं को इतना मजबूत करने की जरूरत नहीं है। लेकिन एक बात बहुत जरूरी है। तुम्हें सत्य को समझना होगा। अगर तुम सत्य को नहीं समझते तो कुछ भी नहीं लिख पाओगे। तुम्हारे पास लिखने का ज्ञान है, तुम भाषा को मानकीकृत कर सकते हो, भाषा को व्यवस्थित कर सकते हो और किसी लेख के लिए ढाँचा और विचार निर्धारित कर सकते हो। लेकिन ढाँचा अपने आप में लेख नहीं है। इसे विषय-वस्तु से भरा होना चाहिए। विषय-वस्तु के रूप में क्या लिखा जाना चाहिए और परमेश्वर की गवाही देने का नतीजा प्राप्त करने के लिए इसे वास्तव में कैसे लिखा जाना चाहिए—यही वह चीज है जिसमें तुम लोगों को प्रवेश करना चाहिए। अगर तुम केवल परमेश्वर के वचनों की गवाही देने और परमेश्वर के कार्य के इस चरण का प्रसार करने के इसी आधार पर टिके रहते हो, तो तुम लोगों का आध्यात्मिक कद कभी नहीं बढ़ेगा। अगर तुम लोग परमेश्वर के नए कार्य की गवाही देने, लोगों की धारणाओं का खंडन करने और दर्शनों के कुछ सत्यों के बारे में संगति करने के अलावा जीवन प्रवेश के बारे में कुछ सत्यों पर भी संगति कर सको और लोगों के दिलों की गहराई में स्थित विभिन्न दशाओं को व्यक्त करने के लिए कुछ तथ्यों, कहानियों और कुछ बारीकी से बताए गए विवरणों का उपयोग कर सको, ताकि लोग अपनी भ्रष्टता को पहचान सकें और यह समझ सकें कि मानवजाति से परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं और परमेश्वर के इरादे क्या हैं, और इसके अलावा सबसे अहम मुद्दों को पहचान सकें—वास्तव में सत्य क्या है, वह कौन-सा मार्ग है जिस पर लोगों को चलना चाहिए, लोग अभी जो गलत मार्ग अपना रहे हैं उनमें दोष कहाँ है, परमेश्वर मनुष्यों से किस प्रकार के लोग बनने की अपेक्षा करता है और वह कौन-सा मार्ग है जिस पर परमेश्वर लोगों से चलने की अपेक्षा करता है—अगर तुम इस ओर कदम-दर-कदम आगे बढ़ सको तो तुम लोग जो कर्तव्य निभाओगे वह बेहद मूल्यवान होगा। मगर यही तो मुश्किल है, यही सबसे कठिन चीज है। लोगों का जीवन प्रवेश एक या दो दिनों में नहीं होता है। बहुत से मामलों में पहली बार इन बातों का जिक्र होने के बाद लोगों को उनके बारे में सचेतन होने में एक या दो साल लग जाते हैं। अस्पष्ट चेतना से स्पष्ट चेतना तक आने में दो से तीन साल या तीन से पाँच साल लग जाते हैं, चेतना के स्पष्ट होने से लेकर इस मामले की प्रकृति को समझने में दो या तीन साल लग जाते हैं और फिर इस समस्या की गंभीरता को जानने में दो या तीन साल और लग जाते हैं। जो लोग सुन्न हैं और जिनकी काबिलियत कम है, वे बस यहीं तक पहुँच सकते हैं। जो लोग बेहतर काबिलियत और तीव्र भावना वाले हैं, वे सक्रिय रूप से सत्य खोजना जानते हैं, जिसमें दो-तीन साल और लग जाते हैं...। इससे पहले कि उन्हें पता चले, उनका पूरा जीवन बीत चुका होता है। इतना धीमा होता है जीवन प्रवेश! लोगों की सत्य समझने और याद रखने की गति उस गति से कहीं अधिक है जिससे लोग सत्य का अनुभव करते हैं और उसे गहराई से समझते हैं। मेरा यह कहने का क्या मतलब है? मेरा मतलब है कि अनुभव करने और गहराई से समझने की प्रक्रिया हमेशा धीमी होती है, क्योंकि यह जीवन है, जबकि समझने और याद रखने के लिए सिर्फ दिमाग की जरूरत होती है। अच्छी याददाश्त, समझने की मजबूत क्षमता, थोड़ी काबिलियत रखने वाले और कुछ पढ़े-लिखे लोग इन चीजों को जल्दी हासिल कर सकते हैं। मगर समझने के बाद क्या किसी के पास ज्ञान हो जाता है? नहीं। समझने के बाद व्यक्ति इतने पर ही रुक जाता है कि मामला क्या है और आगे कुछ नहीं, मगर कार्रवाई का समय आने पर यह काम नहीं आएगा। क्यों नहीं काम आएगा? अक्सर, तुम जिस धर्म-सिद्धांत को समझते हो उसे तुम्हारे सामने आने वाली चीजों पर लागू नहीं किया जा सकता या उनसे जोड़ा नहीं जा सकता। नतीजतन, कई बार असफल होने, काफी नुकसान उठाने, काफी चक्कर लगाने और बहुत बार न्याय, ताड़ना और काट-छाँट झेलने के बाद ही तुम आखिरकार सत्य को समझ पाते हो और अपने सामने आने वाली सभी विभिन्न चीजों में परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करने में सक्षम होते हो। तब तक इतने साल बीत चुके होंगे कि तुम्हारा चेहरा झुर्रियों से भर गया होगा—क्या यह बहुत धीमा नहीं है? लोगों का जीवन बहुत धीरे-धीरे आगे बढ़ता है, क्योंकि लोग जो सत्य समझते हैं, उसमें लोगों का प्रकृति सार, लोगों का अस्तित्व और वे चीजें शामिल होती हैं जिनके अनुसार लोग जीवन जीते हैं, और इसमें व्यक्ति के स्वभाव में बदलाव के साथ-साथ उसके जीवन में होने वाले बदलाव भी शामिल हैं। तुम्हारे जीवन का किसी दूसरे जीवन में बदलना इतना आसान कैसे हो सकता है? एक ओर इसके लिए परमेश्वर के कार्य की जरूरत होती है और साथ ही इसमें लोगों के सक्रिय सहयोग की भी जरूरत होती है; इसके अलावा, बाहरी परिवेश के परीक्षण और साथ ही तुम्हारा अपना अनुसरण भी होता है; इसके अलावा, तुममें पर्याप्त काबिलियत और समझदारी होनी चाहिए, तब परमेश्वर तुम्हें अतिरिक्त ज्ञान और मार्गदर्शन देगा; इतना ही नहीं, परमेश्वर तुम्हें कुछ ताड़नाएँ देगा, तुम्हारा न्याय और काट-छाँट करेगा, और तुम्हारे भाई-बहन तुम्हारी आलोचना करेंगे, मगर फिर भी तुम्हें ऊपर की ओर बढ़ते रहना होगा, ताकि जो चीजें शैतान की हैं, उन्हें हटाया जा सके—केवल तभी सत्य की सकारात्मक चीजें धीरे-धीरे प्रवेश कर सकती हैं। कुछ लोग कहते हैं, “जब लोग सत्य को समझते हैं तो उनका जीवन बदल जाता है।” ऐसा कहना गलत है या सही? (यह गलत है।) यह गलत कैसे है? सत्य समझने का मतलब यह नहीं कि तुम्हारे पास सत्य है और न ही इसे समझने के बाद यह तुम्हारा जीवन बनता है। सत्य को सुनने, जानने और समझने के बाद यह कितने समय तक तुम्हारे दिल में रह सकता है? ऐसा हो सकता है कि वे शब्द जो तुम्हें उस समय सबसे महत्वपूर्ण लगे थे, एक महीने बाद तुम उन्हें पूरी तरह से भूल गए हो और जब तुम उन्हें दोबारा सुनते हो तो तुम्हें ऐसा लगता है जैसे तुमने उन्हें पहले कभी नहीं सुना। हालाँकि, अगर तुम्हारे जीवन का आध्यात्मिक कद ऐसा है तो तुम्हें उन्हें बार-बार नहीं सुनना होगा। अगर ऐसा आध्यात्मिक कद तुम्हारे पास नहीं है तो तुम्हें इन्हें सुनते रहना चाहिए और अगर तुम नहीं सुनोगे तो तुम जो कुछ भी समझते हो वह तब तक धीरे-धीरे कम और गायब हो जाएगा, जब तक कि तुम अविश्वासियों जैसे नहीं हो जाते। इसलिए परमेश्वर के वचनों और सत्य को लगातार सुनना और पढ़ना चाहिए। उन्हें बहुत कम पढ़ना या सुनना ठीक नहीं होगा। तुम सबको इस बात का गहरा एहसास है, है ना? (हाँ।) कभी-कभी दो-तीन दिन भजन न गाने या परमेश्वर से प्रार्थना न करने के बाद तुम अपने दिल में खालीपन महसूस करते हो और परमेश्वर को समझ नहीं पाते, इसलिए तुम सोचते हो कि आराम करने के लिए टहलने कहाँ जाएँ। इस तरह तुम जितना ज्यादा आराम करते हो, उतने ही ज्यादा अनुशासनहीन हो जाते हो और जब तुम अपने भाई-बहनों के साथ सत्य के बारे में संगति करने कलीसिया जाते हो तो तुम्हें लगता है कि तुम इसके अभ्यस्त नहीं हो और जैसे ही कलीसिया के कार्य का जिक्र किया जाता है, तुम कुछ अजीब-सा महसूस करते हो। दो या तीन दिन के अंदर ही तुम बदलकर एक अलग व्यक्ति बन जाते हो, इतना कि तुम्हें लगता है कि तुम अब खुद को भी नहीं पहचानते। यह कैसे हो सकता है? ऐसा मत सोचो कि तुमने बहुत सारे धर्मोपदेश सुने हैं तो सत्य तुम्हारा जीवन बन गया है और तुमने सत्य प्राप्त कर लिया है। तुम अभी भी उससे बहुत दूर हो! यह मत सोचो कि सिर्फ इसलिए कि तुमने एक गवाही लेख लिखा है या उस तरह का अनुभव किया है तो तुम पहले ही बचा लिए गए हो। तुम अभी वहाँ नहीं पहुँचे हो! यह तुम्हारे लंबे जीवन अनुभव का एक छोटा सा हिस्सा है। यह हिस्सा सिर्फ एक क्षणिक मनोदशा, क्षणिक भावना, क्षणिक इच्छा या महत्वाकांक्षा हो सकती है, और कुछ नहीं। जब एक दिन तुम कमजोर होगे और पीछे मुड़कर देखोगे और उन गवाहियों को सुनोगे जो तुमने कभी दी थी, जो शपथ तुमने कभी ली थी और जिन चीजों को तुम कभी समझते थे तो वे तुम्हें अपरिचित लगेंगी और तुम कहोगे, “क्या वह मैं था? क्या मेरे पास इतना बड़ा आध्यात्मिक कद था? मुझे कैसे नहीं पता? वह मैं नहीं था, पक्का?” तब तुम्हें एहसास होगा कि तुम्हारा जीवन अभी भी नहीं बदला है। अगर तुम्हारा जीवन नहीं बदला है तो यह क्या दर्शाता है? यह दर्शाता है कि तुम्हारा स्वभाव अभी भी नहीं बदला है। गवाहियाँ देने और उस समय यह सोच होने के बाद भी कि तुम्हारे पास पहले से ही बड़ा आध्यात्मिक कद है, जब तुम्हें पता चलेगा कि तुम फिर भी इतने नकारात्मक हो सकते हो जितने अभी हो तो तुम्हें कैसा लगेगा? क्या तुम्हें यह नहीं लगेगा कि किसी के स्वभाव को बदलना बहुत मुश्किल है? सत्य कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे लोगों में रातों-रात ढाला जा सके। अगर लोग वास्तव में सत्य को अपने जीवन के रूप में प्राप्त करते हैं तो वे धन्य हो जाएँगे और उनका जीवन अलग होगा। वे जैसे अब हैं, और जैसे कि अक्सर भ्रष्ट स्वभाव दिखाते हैं, वैसे नहीं रहेंगे, बल्कि पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पण कर पाएँगे, निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य निभा पाएँगे और पूरी तरह से बदल जाएँगे।

क्योंकि मानवजाति इतनी भ्रष्ट है, इसलिए सत्य स्वीकारना कोई आसान बात नहीं है और क्योंकि सत्य इतना अनमोल है, परमेश्वर के लिए लोगों में सत्य को ढालना और भी कम आसान होता है। सत्य का मूल्य और अर्थ और साथ ही सत्य के सभी विविध पहलू मनुष्य के लिए बहुत मूल्यवान और सार्थक हैं। मगर क्योंकि मनुष्यों को शैतान ने बहुत गहराई से भ्रष्ट कर दिया है और उनके भीतर ऐसी बहुत सी चीजें हैं जो शैतान की हैं, इसलिए लोगों में सत्य को इस तरह से ढालना उतना आसान नहीं है कि वह उनका जीवन बन जाए। तो क्या इसका मतलब यह है कि सत्य को लोगों में नहीं ढाला जा सकता? नहीं, ऐसा नहीं है। इसे उनमें ढाला जा सकता है, मगर लोगों में सही रवैया और दृष्टिकोण होना चाहिए और उन्हें सही मार्ग पर चलना चाहिए। ऐसा करने में मुश्किल होने का मतलब यह नहीं है कि इसे नहीं किया जा सकता, ठीक वैसे ही जैसे परमेश्वर के कार्य के पहले दो चरणों में जब परमेश्वर ने पूर्णता का कार्य नहीं किया, न ही उसने इन सत्यों को व्यक्त किया या इन वचनों को कहा, मगर कुछ लोगों को पूर्ण बनाया गया और कुछ ने फिर भी परमेश्वर को जान लिया। इस तथ्य से देखें तो लोगों में सत्य को ढाला जा सकता है और यह नामुमकिन नहीं है, यह बस इस बात पर निर्भर करता है कि लोग सत्य का अनुसरण करते हैं या नहीं। तो किसी को कैसे अनुसरण करना चाहिए? सबसे सरल तरीका है परमेश्वर के वचन रोज पढ़ो, परमेश्वर के आवश्यक वचन याद करो, हर दिन परमेश्वर के वचनों के एक अंश पर विचार करो, उन वचनों का प्रार्थना-पाठ करो और बार-बार उन पर संगति करो। परमेश्वर के वचन तुम्हें जो सिखाना चाहते हैं, जब तुम उन विचारों और कथनों के साथ ही विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति रवैयों का प्रार्थना-पाठ कर लोगे, ताकि तुम उन्हें समझ सको और वे तुम्हारे दिल में प्रवेश कर गए हों तो जब भी विभिन्न चीजें सामने आएँगी, तुम्हें पता लगने से पहले ही सकारात्मक विचार और दृष्टिकोण और अभ्यास के सिद्धांत तुम्हारे भीतर आत्मसात किए जाएँगे। तुम लोग अब तक इस स्तर पर नहीं पहुँचे हो। क्या तुमने पढ़ा कि अय्यूब ने क्या किया था? जब उसके बच्चे मौज-मस्ती कर रहे थे, तब अय्यूब क्या कर रहा था? वह अपने बच्चों के लिए प्रार्थना करने और बलिदान देने के लिए परमेश्वर के समक्ष आया। वह कभी परमेश्वर से भटककर दूर नहीं गया। कहने का आशय यह है कि ऐसी हर चीज से दूर रहो जो तुम्हारे दिल को परमेश्वर से दूर कर सकती है; ऐसा कुछ मत कहो जिससे तुम्हारा दिल परमेश्वर से दूर हो सकता हो; ऐसी चीजों को देखने से बचो जो तुम्हें परमेश्वर से दूर कर सकती हैं या उसके बारे में धारणाएँ या संदेह पैदा कर सकती हैं; ऐसे लोगों के संपर्क में मत आओ जो तुम्हें नकारात्मक, पतित और असंयमित बना सकते हैं या जो तुमसे परमेश्वर पर संदेह, उसका प्रतिरोध या उससे दूर करा सकते हैं, बल्कि ऐसे लोगों से जानबूझकर दूर रहो; जिनसे भी तुम शिक्षा, सहायता और पोषण पा सकते हो, उनके करीब रहो; और ऐसा कुछ भी मत करो जो तुम्हें सत्य को ठुकराने, उसे नापसंद करने या उससे घृणा करने पर मजबूर करे। तुम्हारे मन में इन चीजों के बारे में कुछ न कुछ विचार जरूर होना चाहिए। जीवन में यह सोचते हुए बेपरवाही मत करो कि “मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं कितने समय तक जिऊँगा या मेरा जीवन कैसा होगा, मैं सब कुछ कुदरत और परमेश्वर के आयोजनों पर छोड़ दूँगा।” परमेश्वर ने तुम्हारे लिए परिवेश बनाए हैं और तुम्हें फैसला लेने की स्वतंत्र इच्छा दी है, लेकिन अगर तुम सहयोग नहीं करते और जानबूझकर लगातार उन लोगों के संपर्क में आते हो जो सांसारिक चीजों के शौकीन हैं, जो हमेशा देह-सुख में लिप्त रहते हैं, जो अपने कर्तव्यों के प्रति समर्पित नहीं हैं और जो गैर-जिम्मेदार हैं, और अगर तुम लगातार उन लोगों के साथ मिलते-जुलते हो तो अंतिम नतीजा और परिणाम क्या होगा? जब उन लोगों के पास करने को कुछ नहीं होता तो वे खाने-पीने और मौज-मस्ती करने की बातें करते हैं और अक्सर चुगलियाँ और गपशप करते हैं। अगर ऐसे प्रलोभनों से तुम्हारा सामना होता है और तुम उनसे दूर नहीं रहते और यहाँ तक कि इन चीजों के पीछे पागल हो जाते हो और जानबूझकर ऐसे लोगों के साथ घूमते-फिरते हो तो तुम खतरे में हो, क्योंकि प्रलोभन तुम्हारे चारों ओर है! जब बुद्धिमान लोग ऐसे प्रलोभन देखते हैं तो वे इनसे दूर ही रहते हैं। उनके दिल में यह बात स्पष्ट होती है, “मेरे पास वह आध्यात्मिक कद नहीं है, मैं नहीं सुनूँगा और न ही मैं उन पर कोई ध्यान देना चाहता हूँ। ये लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते या सत्य से प्रेम नहीं करते। मैं इनसे दूर ही रहूँगा और अकेले ही परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए एक शांत जगह खोजूँगा, अपने दिल को शांत करूँगा और कुछ देर चिंतन करूँगा और परमेश्वर के समक्ष आऊँगा।” ये सारे सिद्धांत और उद्देश्य हैं : पहला, परमेश्वर के वचनों से मत भटको; और दूसरा, अपने दिल में परमेश्वर से मत भटको। इस तरह तुम सत्य क्या है, इस समझ की नींव पर लगातार परमेश्वर के समक्ष रह सकते हो। एक ओर परमेश्वर तुम्हें प्रलोभन में पड़ने से बचाएगा। तो दूसरी ओर परमेश्वर तुम्हारे साथ बेहद अनुग्रहपूर्ण व्यवहार करेगा, जिससे तुम यह समझ पाओगे कि सत्य का अभ्यास करने के लिए तुम्हें क्या करना चाहिए और तुम सभी विभिन्न सत्यों के बारे में रोशन और प्रबुद्ध हो पाओगे। जब तुम्हारे कर्तव्य की बात आएगी तो परमेश्वर तुम्हारा यह मार्गदर्शन करेगा कि तुम गलतियाँ न करने, हमेशा सही काम करने और सिद्धांतों को जानने की कोशिश करो। इस तरह क्या तुम सुरक्षित नहीं रहोगे? बेशक यह सबसे बड़ा और अंतिम लक्ष्य नहीं है। तो अंतिम लक्ष्य क्या है? यही कि तुम विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों से सबक सीख सको, परमेश्वर के इरादों को समझ सको, परमेश्वर के कार्य को जान सको और परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास कर सको। इस तरह तुम्हारा जीवन और आध्यात्मिक कद स्थिर होने के बजाय आगे बढ़ता रहेगा। अगर तुम हमेशा मामलों को निपटाने में व्यस्त रहते हो और अपने कर्तव्य निभाने और जीवन प्रवेश की कठिनाइयों को हल करने में सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान नहीं देते तो तुम अपने जीवन में प्रगति नहीं कर पाओगे। जीवन प्रवेश अपना कर्तव्य निभाने से प्राप्त होता है। अगर कोई अपना कर्तव्य निभाने से और परमेश्वर के वचनों से दूर हो जाता है तो जीवन में कोई प्रगति नहीं होगी। कुछ लोग दूसरों को बेकार की बातें करते देखते हैं तो खुद भी इसमें शामिल हो जाते हैं और अपनी नाक घुसा देते हैं, लगातार दूसरों के मामलों में अपनी टाँग अड़ाते रहते हैं और गपशप करने के शौकीन होते हैं—परमेश्वर ऐसे लोगों को पसंद नहीं करता। परमेश्वर किस तरह के लोगों को पसंद करता है? ऐसे लोगों को जो अपने दिलों को शांत कर सकते हैं। खुद को किस लिए शांत करें? क्या एक ऐसी कठपुतली बनने के लिए, जो कुछ भी नहीं सोचती हो? नहीं, इस हद तक कि परमेश्वर के सामने शांत होकर प्रार्थना करना, परमेश्वर के इरादों को खोजना, परमेश्वर से अपनी रक्षा करने की विनती करना और परमेश्वर से यह विनती करना कि वह तुम्हें प्रबुद्ध करे। साथ ही, सत्य के ऐसे किसी पहलू के बारे में प्रबुद्ध और रोशन होने की कोशिश करना जिसे तुम नहीं समझते हो, ताकि सत्य के इस पहलू के बारे में समझ और स्पष्टता प्राप्त हो सके या अपने काम के जिस पहलू में समस्याएँ हैं उसे हल करने की कोशिश करना और परमेश्वर का मार्गदर्शन पाना। जब कोई व्यक्ति परमेश्वर के सामने शांतचित्त होता है तो उसे बहुत से कार्य और बहुत सी चीजें करनी होती हैं। यह कोई ऐसा मामला नहीं है कि जब तुम्हारे पास खाली समय हो तब तुम परमेश्वर के पास आओ और यह कहो, “परमेश्वर, मैं आ गया हूँ, तुम मेरे दिल में हो, मेरे साथ रहो, मुझे प्रलोभन में मत डूबने दो!” अगर तुम ऐसी खानापूर्ति करते हो और परमेश्वर के साथ बेरुखी से पेश आते हो तो तुम सच्चे विश्वासी नहीं हो और परमेश्वर ऐसे लोगों को सत्य प्रदान नहीं करेगा। अगर लोग परमेश्वर से सत्य पाना चाहते हैं तो सबसे पहले उनके पास क्या होना चाहिए? उनके पास ऐसा दिल होना चाहिए जो धार्मिकता के लिए भूखा और प्यासा हो, यानी एक ईमानदार दिल। तुम्हारे दिल में ईमानदारी क्या दर्शाती है? यही कि तुम वास्तव में सत्य से प्रेम करते हो। अगर तुम हमेशा परमेश्वर के साथ बेपरवाह रहते हो और बिल्कुल भी ईमानदार नहीं हो, हमेशा हर चीज पर अपने फैसले खुद लेना चाहते हो और हमेशा परमेश्वर के सामने आकर हाजिरी देना, नमस्ते करना और फिर फैसले लेना और खुद ही सब कुछ करना चाहते हो तो भले ही परमेश्वर ने तुम्हें अपना कार्य सौंपा है, तुम्हारा परमेश्वर या सत्य से कोई लेना-देना नहीं रह जाता। इसे क्या कहते हैं? इसे परमेश्वर का प्रतिरोध करना और अपने ही उद्यम में जुटे रहना कहते हैं। क्या परमेश्वर तुम्हें इस तरह से प्रबुद्ध कर सकता है? नहीं। क्या तुम सभी ने सत्य का अनुसरण करने और सत्य को समझने का तरीका जान लिया है? तुम्हें अक्सर परमेश्वर के सामने आना होगा, सत्य खोजने और परमेश्वर से प्रार्थना करने के लिए अपने दिल को शांत करना होगा, और खुद को भी शांत करना सीखना होगा। खुद को शांत करने का मतलब खाली दिमाग होना नहीं है, बल्कि अपने दिल में निवेदन, विचार और बोझ रखना है, परमेश्वर के सामने ईमानदार और तड़पते हुए दिल के साथ आना है, सत्य और परमेश्वर के इरादों के लिए तड़प रखना है और जो कर्तव्य तुम निभाते हो और जो कार्य तुम करते हो उसका बोझ उठाना है—जब तुम परमेश्वर के सामने आते हो और खुद को शांत करते हो तो तुम्हारे मन में यही होना चाहिए।

मैंने अभी-अभी संगति की कि कलीसिया का सारा काम परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार फैलाने के कार्य से सीधे तौर पर संबंधित है। विशेष रूप से सुसमाचार प्रचार के कार्य और पेशों से संबंधित सभी कामों का सुसमाचार फैलाने के कार्य के साथ एक महत्वपूर्ण और अटूट संबंध है। इसलिए सुसमाचार फैलाने के कार्य में जो कुछ भी शामिल है उसमें परमेश्वर के हित और परमेश्वर के घर के हित शामिल हैं। अगर लोग सुसमाचार फैलाने के कार्य को सही ढंग से समझ सकें तो उन्हें अपने द्वारा किए जाने वाले कर्तव्यों और दूसरों द्वारा किए जाने वाले कर्तव्यों के प्रति सही रवैया अपनाना चाहिए। उनके प्रति सही रवैया अपनाने का तरीका क्या है? अपनी पूरी कोशिश करो और उन्हें परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार करो। कम से कम ऐसे व्यवहारों और अभ्यासों में मत जुटो जो जानबूझकर नुकसान या बाधा पहुँचाते हैं और जानबूझकर ऐसी चीजें मत करो जो तुम्हें पता है कि गलत हैं। अगर कोई व्यक्ति जानते हुए भी कुछ ऐसा करने पर जोर देता है जो कलीसिया के कार्य में बाधा और गड़बड़ी पैदा करेगा और कोई भी उसे ऐसा करने से नहीं रोक पाता तो वह बुराई कर रहा है, मौत को बुलावा दे रहा है और शैतान के रूप में अपना असली रंग दिखा रहा है। भाई-बहनों को उसका असली चेहरा पहचानने में फौरन मदद करो और फिर उस बुरे व्यक्ति को कलीसिया से बाहर निकाल दो। अगर कोई कुकर्मी क्षणिक मूर्खता कर बैठा है और जानबूझकर बुराई नहीं कर रहा है तो ऐसे मामले को कैसे निपटाया जाना चाहिए? क्या उस व्यक्ति को शिक्षित करके उसकी मदद की जानी चाहिए? अगर वह शिक्षित हो और फिर भी बात न सुने तो क्या होगा? भाई-बहन मिलकर उसकी आलोचना करेंगे। अगर वह व्यक्ति अपने काम में सक्षम है, फिर भी इसे करने में अपनी पूरी कोशिश नहीं करता है, मगर फिलहाल उसकी जगह लेने वाला कोई नहीं है और हर कोई अभी भी चाहता है कि वह व्यक्ति यह काम करे तो क्या? सभी मिलकर उस व्यक्ति की काट-छाँट करेंगे और उसे चेतावनी देंगे, “परमेश्वर ने तुम्हारा उन्नयन किया है और तुमसे यह कर्तव्य निभाने को कहा है। अगर तुम इसे करने की पूरी कोशिश नहीं करते, लगातार बाधा डालते हो और फिर से अपना कार्य त्याग देते हो तो तुममें साफ तौर पर कोई अंतरात्मा नहीं है और तुम अपना कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त नहीं हो।” यह तरीका अच्छा है या नहीं? अगर कोई उसकी जगह ले सकता है तो उसे जाने दो। क्या तुम लोग ऐसा करने की हिम्मत करोगे? ज्यादातर लोग हिम्मत नहीं करेंगे। जब कलीसिया के कार्य की रक्षा करने की बात आती है तो बहुत से लोग खड़े होने और न्याय को कायम रखने की हिम्मत नहीं करते। क्या यह सत्य का पालन करने की हिम्मत न करने का मामला नहीं है? कुछ लोग कलीसिया के कार्य में गड़बड़ करते और बाधा डालते देखकर मुँह छिपा लेते हैं और उदासीन हो जाते हैं, जैसे कि इससे उनका कोई लेना-देना ही नहीं है और उनका रवैया इस तरफ अपनी आँखें मूँद लेने का होता है। लेकिन अगर कोई यह कहकर उनकी आलोचना करता है कि उन्हें ऐसा नहीं होना चाहिए या उनसे घृणा करता है या उन्हें नीची नजर से देखता है तो वे चिढ़ जाते हैं और मन-ही-मन सोचते हैं : “तुम अपने आप को समझते क्या हो? तुम होते कौन हो मेरी आलोचना करने वाले? तुम होते कौन हो मुझे नीची नजर से देखने वाले? हमें इस मामले पर हर पहलू से चर्चा करनी होगी।” वे इस मामले को दिल से लगाकर इसे बड़ी गंभीरता से लेते हैं और कुछ कहे बिना और अपनी स्थिति स्पष्ट किए बिना नहीं रह सकते। जब कलीसिया के कार्य में बाधा आई, गड़बड़ी पैदा हुई और उसे नुकसान पहुँचा तो उन्हें कुछ भी महसूस नहीं हुआ, बल्कि उन्होंने इसे नजरअंदाज किया। ये किस तरह के लोग हैं? (स्वार्थी और नीच लोग।) क्या यह केवल स्वार्थ और नीचता है? यह समस्या इतनी गंभीर है कि इसे सिर्फ एक वाक्य में नहीं बताया जा सकता। सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि ऐसे लोगों में कोई मानवता नहीं है और वे बिल्कुल भी अच्छे लोग नहीं हैं। वास्तव में यही तो मसीह-विरोधी करते हैं और बेशक, नकली अगुआ भी कुछ अलग नहीं हैं। मसीह-विरोधी नहीं जानते कि परमेश्वर के घर के हित क्या हैं। जब कलीसिया के कार्य में बाधा आती है तो वे इसे नहीं देख पाते। कुछ लोग कलीसिया के कार्य में बाधा पैदा करके सब कुछ अस्त-व्यस्त कर देते हैं, मगर जब मसीह-विरोधी इसे देखते हैं तो वे इसे गंभीरता से नहीं लेते। वे इसे समुचित अहमियत नहीं देते हैं और अपराधी को कुछ छोटी-मोटी टिप्पणियों के साथ फटकारते हैं, उन्हें थोड़ी-सी नसीहत दे देते हैं और इससे ज्यादा कुछ नहीं करते, वे गुस्सा भी नहीं होते। क्या ऐसे लोगों में न्याय की भावना होती है? ये किस तरह के लोग होते हैं? ऐसे लोग उसी हाथ को काट खाते हैं जो उन्हें खिलाता है, वे विश्वासघाती हैं! वे घटिया हैं!

मैंने अभी-अभी यह सामान्य जानकारी दी है कि लोगों के हित क्या होते हैं, लोगों के हितों का सार क्या होता है, लोग व्यक्तिगत हितों का अनुसरण क्यों करते हैं, लोगों के व्यक्तिगत हितों के अनुसरण की प्रकृति क्या होती है और साथ ही परमेश्वर के हितों की प्रकृति क्या है और उन्हें कैसे परिभाषित किया जाता है। परमेश्वर के हित सबसे न्यायोचित महान कार्य होते हैं और उन्हें ऐसा ही माना जाना चाहिए। परमेश्वर का अपने हितों की रक्षा करना बिल्कुल भी स्वार्थमय नहीं है, न ही यह केवल परमेश्वर की गरिमा और महिमा की रक्षा के लिए है। बल्कि वह तो अपने कार्य की प्रगति और नतीजों की रक्षा करना चाहता है और एक न्यायोचित महान कार्य की रक्षा करना चाहता है। यह सबसे न्यायोचित और जायज व्यवहार और क्रियामार्ग है और यह परमेश्वर का कार्य है। सृजित मनुष्यों को परमेश्वर के इस कार्य के बारे में कोई धारणा नहीं पालनी चाहिए, कोई आरोप लगाना या आलोचना करना तो और भी दूर की बात है। क्या हम यह कह सकते हैं कि परमेश्वर के हित सर्वोपरि होते हैं? (हाँ।) क्या यह कहना स्वार्थमय है? (नहीं।) लोग सत्य के इस पहलू को समझते हैं और इस आधार पर यह कथन सही है। यह जानबूझकर पक्षपातपूर्ण नहीं है, यह निष्पक्ष और जायज है। “वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ विश्वासघात तक कर देते हैं”—यह मसीह-विरोधियों का सार है। हितों के प्रति उनका रवैया और दृष्टिकोण इसी प्रकृति का है और वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार कभी नहीं करते। “कभी नहीं” का क्या मतलब है? यही कि वे परमेश्वर के हितों के बारे में बिल्कुल नहीं सोचते और न ही उनके पास ऐसी कोई अवधारणा है, वे सिर्फ अपने हितों के बारे में विचार करते हैं—इसका यही मतलब है। यह कितना गंभीर है? परमेश्वर के घर के हितों के साथ विश्वासघात करना, व्यक्तिगत यश और व्यक्तिगत हितों के बदले उनका व्यापार करना। उनके हित सबसे पहले आते हैं और वे परमेश्वर के हितों की जगह ले सकते हैं। वे अपने हितों के लिए लड़ेंगे, चाहे ये हित कितने भी दुष्ट, नाजायज या नकारात्मक क्यों न हों और वे अपने हितों को हथियाने और उनकी खातिर लड़ने के लिए किसी भी कीमत पर किसी की भी बलि चढ़ाने तक जा सकते हैं। यह कैसा व्यवहार है? (मसीह-विरोधियों जैसा।) मसीह-विरोधियों का व्यवहार—शैतान यही करता है। शैतान इस मानवजाति पर प्रभुत्व जमाता है, एक देश पर प्रभुत्व जमाता है, एक जाति पर प्रभुत्व जमाता है और अपने प्रभुत्व की स्थिरता के बदले में कितनी भी संख्या में जिंदगियों का बलिदान देने की हद तक जा सकता है। शैतान के हित क्या हैं? सत्ता और प्रभुत्व वाला पद। तो शैतान प्रभुत्व वाला पद कैसे पाता है और इस प्रभुत्व की स्थिरता कैसे कायम रखता है? (हर कीमत पर।) हर कीमत पर। यानी उसे इस बात की परवाह नहीं है कि उसके तौर-तरीके आम जनता को जायज लगते हैं या नहीं, और वह नर-संहार और दमन से लेकर नरम और कठोर युक्तियाँ, जबरदस्ती और प्रलोभन तक सब कुछ इस्तेमाल करता है और अपने पद की स्थिरता और अपनी सत्ता के बदले में वह किसी के भी जीवन या किसी भी संख्या में जिंदगियों का बलिदान देने की हद तक जा सकता है—यही शैतान का व्यवहार है। मसीह-विरोधी भी इसी तरीके से काम करते हैं।

क्या आज की संगति के ये वचन तुम लोगों की रुचि के हिसाब से हैं? (आज की संगति सुनने के बाद मैंने बहुत कुछ हासिल किया और खासकर ज्ञान और बुद्धिजीवियों के गहन-विश्लेषण से मैं बहुत प्रभावित हुआ। इससे पहले मैं इस विचार से पूरी तरह सहमत नहीं था कि बुद्धिजीवियों में आध्यात्मिक समझ की कमी होती है, मगर इस बार परमेश्वर द्वारा ज्ञान के गहन-विश्लेषण से मैं धीरे-धीरे तुलना करने और यह देखने में सक्षम हो गया हूँ कि कई बार मैं खुद भी परमेश्वर के वचनों को अच्छे से नहीं समझ पाता हूँ, जब मैं उन्हें सुनता हूँ तो समझ नहीं पाता हूँ और मैं जब लोगों और घटनाओं को देखता हूँ तो बौद्धिक दृष्टिकोण से उन्हें देखता हूँ और उनका विश्लेषण करता हूँ, जिससे समझ विकृत हो जाती है—यह आध्यात्मिक समझ की कमी है। अब मैं बुद्धिजीवियों के सार को अधिक स्पष्टता से देख सकता हूँ।) आज बुद्धिजीवियों के बारे में बात करते हुए मेरा इशारा किसी एक व्यक्ति की ओर बिल्कुल नहीं है, लेकिन अगर तुम लोग मेरे वचनों की कसौटी पर खुद को कस सकते हो तो यह अच्छी बात है और आशा है कि तुम चीजों को पूरी तरह बदलकर उनमें प्रवेश कर सकोगे। तुम लोगों को सत्य न समझने या बूझने के बिंदु से धीरे-धीरे उस बिंदु तक पहुँचने के लिए लगन के साथ अनुसरण करना चाहिए जहाँ तुम एक-एक करके कुछ सरल, एकल और कम गहरे सत्यों को समझ सको, ताकि तुम जो समझते हो वह शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बजाय सिर्फ सत्य हो। इस तरह धीरे-धीरे तुममें आध्यात्मिक समझ आ जाएगी। अगर तुम सत्य और वास्तविकता पर ध्यान देते हुए चीजों का पता लगाते हो तो धीरे-धीरे सत्य समझ जाओगे; अगर तुम लगातार धर्म-सिद्धांतों पर ध्यान देते हुए, तर्क का इस्तेमाल करके और अपने दिमाग का इस्तेमाल करके चीजों का विश्लेषण करते हो तो तुम सिर्फ धर्म-सिद्धांत या सिद्धांत समझ पाओगे, जो कभी भी सत्य नहीं बनेंगे और तुम कभी भी धर्म-सिद्धांत की नींव से आगे नहीं बढ़ोगे। यही बात है ना? (हाँ।) कुछ लोग कहते हैं, “मैं परमेश्वर के जो वचन पढ़ता हूँ उनमें से कुछ को समझ क्यों नहीं पाता? ऐसा क्यों है कि व्याकरण का इस्तेमाल करके और निबंध की संरचना के हिसाब से मापने पर लोगों के लिए उन्हें समझना और स्वीकारना इतना आसान नहीं होता है?” तुम लोग इस समस्या को कैसे समझाते हो? क्या अब तुम इसे समझ सकते हो? मैं तुम लोगों को समझाता हूँ। परमेश्वर तब से मनुष्यों से बात कर रहा है जब से मानवजाति अस्तित्व में आई है और वह जो कुछ भी कहता है उसका हरेक वचन और अनुच्छेद केवल एक भाषा है, कोई निबंध नहीं। आज जब मैं यहाँ बोल रहा हूँ तो क्या मैं कोई निबंध प्रस्तुत कर रहा हूँ, कोई रिपोर्ट दे रहा हूँ या सिर्फ बातचीत कर रहा हूँ? (बातचीत कर रहे हो।) मैं तुम लोगों से बातचीत कर रहा हूँ, सत्य बता रहा हूँ और उन विषयों पर बात कर रहा हूँ जिनकी तुम लोगों को जरूरत है। मैं बोल रहा हूँ, कोई निबंध प्रस्तुत नहीं कर रहा। इसलिए तुम लोगों को यह समझना होगा कि निबंध क्या होता है और बोलना क्या होता है—दोनों में अंतर हैं। निबंधों के लिए जरूरी कई तत्व ज्ञान के वो पहलू होते हैं जो मानवजाति से आते हैं और परमेश्वर को बोलते समय इस ज्ञान का पालन करने की कोई जरूरत नहीं है। उसे केवल उन सत्यों को सरल तरीके से और स्पष्टता से बोलना है जिनके बारे में वह बोलना चाहता है और अगर लोग जिन सत्यों को सुनते हैं उन्हें समझ सकते हैं तो यह काफी है और यहाँ तक कि विराम चिह्नों का इस्तेमाल करने की भी जरूरत नहीं है। मानवजाति ने विराम चिह्नों और निबंधों का आविष्कार किया और उसी ने व्याकरण का और निबंधों के लिए जरूरी तत्वों का भी आविष्कार किया। ये सभी चीजें ज्ञान की श्रेणी में आती हैं और परमेश्वर को उनका पालन करने की कोई जरूरत नहीं है। साथ ही, भाषा परमेश्वर से आती है और यह एक सकारात्मक चीज है। इसलिए चाहे परमेश्वर कुछ भी कहे, वह सही है। तुम्हें व्याकरण से जुड़ी समस्याओं के लिए इसकी जाँच करने या व्याकरण से जुड़ी समस्याओं की तुलना या गहन-विश्लेषण करने की कोई जरूरत नहीं है। किसी भी दिए गए लेख में, अनुच्छेद में और वाक्य में तुम्हें बस इतना समझना है कि परमेश्वर का इरादा क्या है, सत्य क्या है, परमेश्वर लोगों में किन सत्य सिद्धांतों के होने की अपेक्षा करता है और वह लोगों को अभ्यास का कौन-सा मार्ग बताता है, और इतना काफी है। यही वह विवेक है जो सृजित प्राणियों यानी लोगों के पास होना चाहिए। परमेश्वर के वचनों और क्रियाकलापों को लोगों की बनाई इन सभी परंपराओं और ढाँचों का पालन करने की जरूरत नहीं है और साथ ही ज्ञान में निहित इन विनियमों और विशुद्ध बौद्धिक चीजों का भी पालन करने की कोई जरूरत नहीं है। परमेश्वर ने बहुत सी बातें कही हैं और चाहे वह कुछ भी कहे, वह सत्य है। आध्यात्मिक समझ वाले लोग और अनुभवी लोग परमेश्वर के वचनों को जितना ज्यादा पढ़ते हैं, उतना ही ज्यादा उन्हें लगता है कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। इन वचनों में जो सत्य है, वह कुछ ऐसा है जिसे लोगों को जानना, खोजना और अनुभव करना जरूरी है। परमेश्वर मानवजाति से बात करता है—याद रखो कि परमेश्वर का कार्य बोलना है, और “बोलने” को आम बोलचाल की भाषा में गपशप या चीजों के बारे में बात करना कहते हैं। परमेश्वर यहाँ जो कहना चाहता है, उसमें क्या सार निहित है? ये परमेश्वर के इरादे, सत्य और लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ होती हैं—यही विषय-वस्तु है। बोलने की प्रकृति गपशप करने के ढंग से, दिल से दिल तक और आमने-सामने आकर सरल तरीके से और स्पष्टता से बात करने की है, कभी कुछ बोलचाल की भाषा और बोली का इस्तेमाल करके, तो कभी कुछ साहित्यिक शब्दों का इस्तेमाल करके। एक निबंध लिखने के लिए तुम्हारे पास पहले अनुच्छेद में एक भूमिका होनी चाहिए, फिर बीच में तुम्हें विषय का विस्तार और उसकी व्याख्या करनी होगी और फिर विषय के चरम पर पहुँचकर अंत में निबंध का उपसंहार करना होगा। इसे निबंध माने जाने के लिए बिल्कुल इसी प्रारूप के अनुसार लिखना होगा और तभी शिक्षक इसे पढ़कर औसत, अच्छा या उत्कृष्ट ग्रेड दे सकता है। क्या तुम इस तरह से परमेश्वर के वचनों को ग्रेड दे सकते हो? मान लो कि तुमने कहा, “यह लेख अच्छा है, इसमें अच्छा व्याकरण है, यह दिव्य भाषा में बोला गया है और पूरी तरह से एक निबंध की संरचना के अनुरूप है; वह लेख इतना अच्छा नहीं है, यह थोड़ा अव्यवस्थित है और संरचना भी इतनी अच्छी नहीं है। कुछ शब्द व्याकरण के हिसाब से सही नहीं हैं और कुछ शब्द तो ऐसे भी हैं जिनका सही जगहों पर इस्तेमाल नहीं हुआ है।” क्या परमेश्वर के वचनों को इस तरह से पढ़ना ठीक है? (नहीं।) उन्हें इस तरह से पढ़ना विकृत तरीका होगा और तुम कभी भी सत्य प्राप्त नहीं कर पाओगे। तुम्हें परमेश्वर के वचनों में छिपे अर्थ को समझना होगा ताकि तुम देख सको कि परमेश्वर तुमसे क्या चाहता है और इन वचनों में क्या सत्य समाया हुआ है—यही सबसे समझदारी वाली बात है। तुम तो यह भी नहीं जानते कि इन चीजों को कैसे देखना है और दिन भर यही कहते रहते हो : “परमेश्वर के वचन निबंध में क्यों नहीं हैं? परमेश्वर के वचन भाषणों की तरह होने चाहिए और परमेश्वर को परिष्कृत भाषा में बोलना चाहिए।” मैं तो ऐसा नहीं करता। यह बहुत थकाऊ होगा और तुम लोग सुनते-सुनते थक जाओगे और बोलने वाला व्यक्ति भी थक जाएगा। परमेश्वर के स्वर्ग में बोलने, अय्यूब से बात करने, पतरस से बात करने, मूसा और योना से बात करने के बारे में सोचो—क्या परमेश्वर के वचन सरल और स्पष्ट नहीं थे? तुम बिल्कुल भी नहीं देख सकते कि वे कितने असाधारण, गूढ़ या महान हैं या उनका शब्द चयन कितना सुदृढ़ हैं। जब शैतान ने अय्यूब को लुभाया तो परमेश्वर ने शैतान से कहा, “क्या तू ने मेरे दास अय्यूब पर ध्यान दिया है? क्योंकि उसके तुल्य खरा और सीधा और मेरा भय माननेवाला और बुराई से दूर रहनेवाला मनुष्य और कोई नहीं है” (अय्यूब 1:8), और “वह तेरे हाथ में है, केवल उसका प्राण छोड़ देना” (अय्यूब 2:6)। परमेश्वर के वचन सरल भी थे और संक्षिप्त भी थे और उसने मामले को बहुत स्पष्टता से समझाया। यह परमेश्वर का स्वभाव और परमेश्वर का सार है। परमेश्वर जानबूझकर रहस्यमयी दोहरी बातें नहीं करता है और उसकी महानता, असाधारणता, सम्माननीयता, अधिकार और सामर्थ्य नकली नहीं हैं। मैं क्यों कहता हूँ कि वे नकली नहीं हैं? जब वह किसी व्यक्ति से बात करता है तो वह कोई मुखौटा नहीं लगाता, खुद को किसी भव्य छवि में नहीं छुपाता या ऐसी बातें नहीं कहता जो लोग समझ नहीं सकते—यह सब शैतान करता है, परमेश्वर ऐसा नहीं करता—और क्योंकि परमेश्वर यह कह रहा है, इसलिए वह तुम्हें इसे समझाएगा। अगर तुम बच्चे हो, तो वह तुमसे बच्चों की समझ में आने वाले शब्दों में बात करेगा। अगर तुम बुजुर्ग हो तो वह तुमसे बुजुर्गों की भाषा में बात करेगा। अगर तुम पुरुष हो तो वह तुमसे उस भाषा में बात करेगा जिसमें पुरुषों को बात करने की आदत है। अगर तुम एक भ्रष्ट इंसान हो तो वह तुमसे एक ऐसे तरीके से और अपनी भाषा की एक ऐसी संरचना के साथ बात करेगा जिसे भ्रष्ट इंसान समझ सकते हैं। परमेश्वर कई तरीकों से बात करता है। कभी वह चुटकुले सुनाता है, कभी वह व्यंग्यात्मक टिप्पणियाँ करता है, कभी वह ताने मारता है, कभी गहन-विश्लेषण करता है, कभी वह कठोर हो जाता है, कभी कोमल होता है, कभी-कभी वह तुम्हें भावुक कर देता है तो कभी वह तुम्हारी काट-छाँट कर तुम्हें सांत्वना देता है...। परमेश्वर द्वारा किया जाने वाला यह सारा कार्य और उसके द्वारा व्यक्त किए जाने वाले ये सत्य कठोर नहीं, बल्कि कोमल हैं। परमेश्वर सजीव जल का झरना है, और सत्य का स्रोत भी परमेश्वर है। परमेश्वर जो भी कहता है वह ठीक है, इसमें सत्य होता है और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह इसे किस तरीके से कहता है। अगर किसी के मन में हमेशा परमेश्वर के बोलने के तरीके, उसकी भाषा की संरचना, वगैरह के बारे में धारणाएँ रहती हैं, वह लगातार उनकी पड़ताल और उन पर संदेह करता है और हमेशा इन चीजों को लेकर परेशान रहता और यह सोचता है, “मैं जिस परमेश्वर में विश्वास करता हूँ, वह वास्तव में परमेश्वर जैसा नहीं लगता, वह ऐसा क्यों है? मैं उसे स्वीकार नहीं करना चाहता, मेरे लिए उसे स्वीकारना बहुत शर्मनाक होगा, मैं किसी और में विश्वास कर लूँगा” तो यह किस तरह का व्यक्ति है? (एक छद्म-विश्वासी।) यह एक छद्म-विश्वासी है। ज्यादातर छद्म-विश्वासी किस तरह के लोग हैं? ऐसे लोग जिनमें आध्यात्मिक समझ की कमी है। जब आध्यात्मिक समझ की कमी वाले लोग परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं तो वे उनकी गंभीरता से पड़ताल करते हैं, मगर अभी भी उन्हें पूरी तरह से समझ नहीं पाते, इसलिए वे सोचते हैं, “चूँकि यह सच्चा मार्ग है तो क्या इस मार्ग पर विश्वास करके वास्तव में आशीष पाए जा सकते हैं? इतने सारे लोग विश्वास करते हैं। अगर मैं विश्वास नहीं करूँगा तो क्या मैं नरक में नहीं जाऊँगा?” वे तुच्छ षड्यंत्र भी रचते हैं। वे यह नहीं सोचते, “लोग कहते हैं कि परमेश्वर के वचनों में सत्य है तो सत्य क्या है? मैंने इसे क्यों नहीं देखा? मुझे पढ़ना और सुनना चाहिए!” एक दिन आखिरकार वे “जो सुनते हैं उसे समझते हैं” और यह सोचते हैं, “ये वचन वास्तविक स्थिति का खुलासा करते हैं, ये सत्य हैं। मगर भाषा बहुत ही साधारण और आम बोलचाल वाली है, यह बहुत ही सामान्य है और बुद्धिजीवी वर्ग इसका मजाक उड़ा सकता है और इससे भेदभाव कर सकता है, इसे कोई बेहद साधारण बातचीत माना जा सकता है, कुछ वचनों के मामले में तो इसे नीरस भी माना जा सकता है, और कुछ शब्द जिन्हें ज्ञान के क्षेत्र में ऊँचे स्तर के बुद्धिजीवी भी इस्तेमाल करने को तैयार नहीं होंगे वास्तव में परमेश्वर के मुख से बोले गए हैं—यह बहुत अकल्पनीय है और ऐसा नहीं होना चाहिए, है ना?” इस निरंतर पड़ताल के दुष्परिणाम क्या होंगे? तुम्हें लगेगा कि तुम परमेश्वर से बेहतर हो और परमेश्वर को तुममें विश्वास करना चाहिए और तुम्हारा उन्नयन करना चाहिए। क्या यह समस्या वाली बात नहीं है? ये वे लोग हैं जिनमें आध्यात्मिक समझ की कमी है। परमेश्वर के प्रति उनका रवैया हमेशा परमेश्वर के खिलाफ खड़ा होने वाला और उसकी पड़ताल करने वाला होता है। परमेश्वर की पड़ताल करते समय ही वे उसका प्रतिरोध भी कर रहे होते हैं और उसका प्रतिरोध करते समय ही वे यह सोच रहे होते हैं, “यह बेहतर है कि तुम परमेश्वर नहीं हो, क्योंकि तुम बहुत ही तुच्छ हो, तुम परमेश्वर जैसे नहीं हो। अगर तुम वाकई परमेश्वर होते तो मैं सहज महसूस नहीं करता। अगर मैं तुम्हें तुच्छ समझता हूँ और तुम्हारी पड़ताल करता हूँ, तुम्हारा इस हद तक विश्लेषण करता हूँ कि तुम अब परमेश्वर नहीं रह जाते और कोई भी तुम पर विश्वास नहीं करता तो मुझे खुशी होगी, और अगर मैं विश्वास करने के लिए किसी महान परमेश्वर को खोजता हूँ तो मुझे शांति महसूस होगी।” ऐसे लोग छद्म-विश्वासी होते हैं। ज्यादातर छद्म-विश्वासियों में आध्यात्मिक समझ की कमी होती है। वे परमेश्वर के इन सबसे साधारण कथनों से भी कभी सत्य को नहीं समझेंगे या उसे प्राप्त नहीं करेंगे। वे बस बार-बार उनकी पड़ताल करते हैं, न केवल सत्य को पाने में असफल होते हैं, बल्कि अपने उद्धार के महत्वपूर्ण मामले को भी बर्बाद कर देते हैं और साथ ही खुद को बेनकाब कर देते हैं और खुद को हटा देते हैं। चलो आज की संगति यहीं समाप्त करते हैं। (परमेश्वर का धन्यवाद!) फिर मिलेंगे!

17 जनवरी 2020

फुटनोट :

क. “लाओ” और “शाओ” चीनी भाषा में उपनामों से पहले जोड़े जाने वाले उपसर्ग हैं, जो वक्ता और श्रोता के बीच अपनेपन या सहजता की भावना को व्यक्त करते हैं।

पिछला:  प्रकरण एक : सत्य क्या है

अगला:  मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ विश्वासघात तक कर देते हैं (भाग दो)

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 8) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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