पाँच शर्तें, जिन्हें परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चलने के लिए पूरा करना आवश्यक है

लोगों के भ्रष्ट स्वभाव में एक आम समस्या होती है, एक ऐसी आम समस्या, सबसे गंभीर समस्या जो हर व्यक्ति की मानवता में होती है। यह आम समस्या उनकी मानवता का सबसे कमजोर और सबसे घातक पहलू है, और उनके प्रकृति सार में इसे खोजना या बदलना सबसे मुश्किल चीज है। यह समस्या क्या है? वह यह है कि मनुष्य हमेशा असाधारण, अतिमानव और पूर्ण व्यक्ति बनना चाहते हैं। लोग स्वयं सृजित प्राणी हैं। क्या सृजित प्राणी सर्वशक्तिमत्ता हासिल कर सकते हैं? क्या वे पूर्णता और निष्कलंकता हासिल कर सकते हैं? क्या वे हर चीज में दक्षता हासिल कर सकते हैं, हर चीज समझ सकते हैं, हर चीज की असलियत देख सकते हैं, और हर चीज में सक्षम हो सकते हैं? वे ऐसा नहीं कर सकते। हालाँकि, मनुष्यों में भ्रष्ट स्वभाव और एक घातक कमजोरी है : जैसे ही लोग किसी कौशल या पेशे को सीख लेते हैं, वे यह महसूस करने लगते हैं कि वे सक्षम हो गये हैं, वे रुतबे वाले और योग्य लोग हैं, और वे पेशेवर हैं। चाहे वे कितने भी साधारण हों, वे सभी अपने-आपको किसी प्रसिद्ध या असाधारण व्यक्ति के आवरण में प्रस्तुत करना चाहते हैं, अपने-आपको किसी छोटी-मोटी मशहूर हस्ती में बदलना चाहते हैं, ताकि लोग उन्हें पूर्ण और निष्कलंक समझें, जिसमें एक भी दोष नहीं है; दूसरों की नजरों में वे प्रसिद्ध, शक्तिशाली, या कोई महान हस्ती बनना चाहते हैं, पराक्रमी, कुछ भी करने में सक्षम और ऐसे व्यक्ति बनना चाहते हैं, जिनके लिए कोई चीज ऐसी नहीं, जिसे वे न कर सकते हों। उन्हें लगता है कि अगर वे दूसरों की मदद माँगते हैं, तो वे असमर्थ, कमजोर और हीन दिखाई देंगे और लोग उन्हें नीची नजरों से देखेंगे। इस कारण से वे हमेशा एक झूठा चेहरा बनाए रखना चाहते हैं। कुछ लोगों से जब कुछ करने के लिए कहा जाता है तो वे कहते हैं कि उन्हें पता है कि इसे कैसे करना है, जबकि वे वास्तव में जानते ही नहीं हैं। बाद में वे चुपके-चुपके इसके बारे में जानने और यह सीखने की कोशिश करते हैं कि इसे कैसे किया जाए, लेकिन कई दिनों तक इसका अध्ययन करने के बाद भी वे नहीं समझ पाते कि इसे कैसे करें। यह पूछे जाने पर कि उनका काम कैसा चल रहा है, वे कहते हैं, “बस होने ही वाला है!” लेकिन अपने दिलों में वे सोच रहे होते हैं, “मैं अभी उस स्तर तक नहीं पहुँचा हूँ, मैं कुछ नहीं जानता, मुझे नहीं पता कि क्या करना है! मुझे अपना भंडा नहीं फूटने देना चाहिए, मुझे दिखावा करते रहना चाहिए, मैं लोगों को अपनी कमियाँ और अज्ञानता देखने नहीं दे सकता, मैं उन्हें अपना अनादर नहीं करने दे सकता!” यह क्या समस्या है? यह हर कीमत पर इज्जत बचाने की कोशिश करने का एक जीवित नरक है। यह किस तरह का स्वभाव है? ऐसे लोगों के अहंकार की कोई सीमा नहीं होती, वे अपनी सारी समझ खो चुके हैं। वे हर किसी की तरह नहीं बनना चाहते, वे आम आदमी या सामान्य लोग नहीं बनना चाहते, बल्कि अतिमानव, असाधारण व्यक्ति या कोई माहिर बनना चाहते हैं। यह बहुत बड़ी समस्या है! जहाँ तक सामान्य मानवता के भीतर की कमजोरियों, कमियों, अज्ञानता, मूर्खता और समझ की कमी की बात है, वे इन सबको छिपा लेते हैं और दूसरे लोगों को देखने नहीं देते, और फिर खुद को छद्म वेश में छिपाए रहते हैं। कुछ ऐसे लोग होते हैं जो कुछ भी साफ तौर पर नहीं देख पाते, फिर भी अपने दिल में सब कुछ जानने का दम भरते हैं। जब तुम उन्हें इसकी व्याख्या करने के लिए कहते हो तो वे कुछ नहीं बता पाते। जब कोई दूसरा उस बात को समझा देता है तो वे दावा करते हैं कि वे यही बात कहने वाले थे, पर समय पर ऐसा नहीं कर पाए। वे एक छद्म रूप धरने और अच्छा दिखने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। तुम लोग क्या कहते हो, क्या ऐसे लोग कल्पना-लोक में नहीं रहते हैं? क्या वे सपने नहीं देख रहे हैं? वे नहीं जानते कि वे स्वयं क्या हैं, न ही वे सामान्य मानवता को जीने का तरीका जानते हैं। उन्होंने एक बार भी व्यावहारिक मनुष्यों की तरह काम नहीं किया है। यदि तुम कल्पना-लोक में रहकर दिन गुजारते हो, लक्ष्यहीन जीवन बिताते हो, यथार्थ में रहकर काम नहीं करते, हमेशा अपनी कल्पना के अनुसार जीते हो तो यह परेशानी वाली बात है। तुम जीवन में जो मार्ग चुनते हो वह सही नहीं है। अगर तुम ऐसा करते हो, तो फिर चाहे तुम जैसे भी परमेश्वर में विश्वास करते हो, तुम सत्य को नहीं समझोगे, न ही तुम सत्य को हासिल करने में सक्षम होगे। सच तो यह है कि तुम सत्य को हासिल नहीं कर सकते, क्योंकि तुम्हारा प्रारंभिक बिंदु ही गलत है। तुम्हें जमीन पर चलने का तरीका सीखना होगा, और तुम्हें स्थिरता से, एक बार में एक कदम उठाकर चलना सीखना होगा। अगर तुम चल सकते हो, तो चलो; दौड़ने का तरीका सीखने की कोशिश मत करो। अगर तुम एक बार में एक ही कदम चल सकते हो, तो एक बार में दो कदम चलने की कोशिश मत करो। तुम्हें जमीन पर मजबूती से पैर टिकाकर आचरण करना चाहिए। अतिमानव, महान या ऊँचा बनने की कोशिश मत करो। शैतानी स्वभाव का वर्चस्व होने के कारण मनुष्य अपने अंदर कुछ महत्वाकांक्षा और इच्छा पालते हैं जो उनके दिलों में छिपी होती है। वे व्यावहारिक होकर नहीं जीना चाहते, बल्कि हमेशा हवा में उड़ना चाहते हैं, बादलों और धुंध के बीच रहना चाहते हैं। क्या वे सपने नहीं देख रहे हैं? क्या लोग बीच हवा में जीते हैं? वह तो शैतान का इलाका है, न कि लोगों के रहने की जगह। परमेश्वर ने मनुष्य को पृथ्वी की धूल से बनाया है; वह उसे धरातल पर जीने, सामान्य ढंग से और नियमों के साथ जीने, स्व-आचरण से संबंधित सामान्य ज्ञान सीखने, अपने आचरण, जीने और परमेश्वर की आराधना करने के तरीके सीखने में सक्षम बनाता है। परमेश्वर ने लोगों को पंख नहीं दिए और वह उन्हें हवा में रहने की अनुमति नहीं देता है। जो हवा में विचरण करते हैं, वे शैतान और तमाम तरह की बुरी आत्माएँ हैं, न कि लोग। अगर लोग हमेशा यही महत्वाकांक्षा पालेंगे, हमेशा अतिमानव बनना चाहेंगे, किसी और चीज में बदलना चाहेंगे तो फिर वे मुसीबत बुला रहे होंगे। ऐसे में पूरी तरह पागल हो जाना बहुत आसान है! पहली बात तो यह है, तुम्हारी यह सोच और यह विचार ही गलत है। यह शैतान से आया है, वास्तविकता से बिल्कुल परे है और परमेश्वर की आवश्यकताओं के कतई अनुरूप नहीं है; यह पूरी तरह परमेश्वर के वचनों से परे जाता है। तो यह सोच क्या है? वह हमेशा अशिष्टता से मुक्त होने, असाधारण होने, बेजोड़ होने, किसी भी तुलना से परे होने, अपने ही झंडे गाड़ने, मशहूर और महान होने और लोगों के दिलों में आदर्श बनने की कामना करना है—क्या ये ऐसे लक्ष्य हैं जिनके पीछे भागना चाहिए? बिल्कुल भी नहीं। परमेश्वर के समस्त वचनों में एक भी ऐसा नहीं है जो लोगों को अतिमानव, शक्तिशाली, प्रसिद्ध या महान व्यक्ति बनने के प्रयास करने को कहता हो। लोगों की कल्पना की इन चीजों में कोई भी वास्तविक नहीं है, इनमें से किसी का वजूद नहीं है। इन चीजों के पीछे भागने का मतलब है खुद अपनी कब्र खोदना—तुम इनके पीछे जितना ज्यादा भागोगे, उतनी जल्दी मरोगे। यह विनाश का रास्ता है।

चूँकि परमेश्वर ने इतने अधिक वचन व्यक्त किए हैं तो क्या तुम लोग जानते हो कि उसकी लोगों से स्व-आचरण की क्या अपेक्षाएँ हैं? (वह चाहता है कि लोग कर्तव्यनिष्ठा से आचरण करें।) (वह चाहता है कि वे यथार्थ में रहकर, परिश्रम-पूर्वक और दूसरों का ध्यान आकर्षित किए बिना आचरण और कार्य करें।) यद्यपि ये कुछ साधारण वचन हैं, फिर भी अधिकतर लोग इन्हें हासिल नहीं कर पाते हैं; केवल ईमानदार लोग ही इसमें सक्षम होते हैं। वस्तुतः तुम लोग इसे चाहे जैसे व्यक्त करो, संक्षेप में कहें तो परमेश्वर लोगों से ईमानदार होने की अपेक्षा रखता है। केवल ईमानदार सचेत और दृढ़ होकर आचरण करने, कार्य करते समय व्यावहारिक बने रहने, ध्यान आकर्षित न करने, परिश्रमी होने में सक्षम होते हैं, इसलिए ईमानदार होना सही है और परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है। परमेश्वर धोखेबाज लोगों से घृणा करता है। जो लोग सचेत और दृढ़ होकर आचरण नहीं करते हैं, जो कार्य करते हुए व्यावहारिक नहीं होते हैं, वे धोखेबाज होते हैं। क्या इस बात को इस तरह कहने पर तुम समझते हो? तो मुझे फिर से बताओ, परमेश्वर लोगों से ईमानदार होने के अलावा और क्या अपेक्षाएँ रखता है? (उन्हें खुद को विनम्र बनाने की जरूरत है।) तुम लोग “विनम्र” कहते हो, लेकिन क्या लोगों का निरूपण करने के लिए इस शब्द का प्रयोग उचित है? (यह अनुचित है।) यह अनुचित क्यों है? शैतान द्वारा भ्रष्ट की जा चुकी मानवता का मूलतः कोई रुतबा नहीं था; लोग मूल रूप से कीड़ों से भी गए-गुजरे थे, तो वे और कितने अधिक विनम्र हो सकते हैं? अगर वे खुद को और नीचे गिराते तो क्या बन जाते? क्या वे दानव या जंगली जानवर नहीं बन जाते? मनुष्य का सृजन परमेश्वर ने किया है और परमेश्वर द्वारा सृजित सभी प्राणियों में मानवीय मूलप्रवृत्तियाँ होती हैं। लोग उन सभी चीजों को प्राप्त करने में सक्षम हैं जो उनके पास होनी चाहिए और जो सब उनके सामान्य व्यवहारों और अभिव्यक्तियों का हिस्सा हैं। पहले हमें सुख-दुख, खुशी-गुस्से जैसी कुछ उन भावनाओं के बारे में बात कर लेनी चाहिए जो लोगों में होती हैं। जब कोई दुखी या उदास होता है, तो रो पड़ना इसकी सबसे आम अभिव्यक्ति है। यह सामान्य मानवता का सहज प्रकटन है। जब तुम दुख या कष्ट में हो, तो रो सकते हो, आँसू बहने दो। ढोंग न करो। कुछ लोग कहते हैं : “मैं रोता नहीं, मैं मजबूत आदमी हूँ, और पुरुष आसानी से आँसू नहीं बहाते!” दूसरे लोग कहते हैं : “यूँ तो मैं औरत हूँ, लेकिन मुझमें संकल्प है। मुझे पुरुष की तरह मजबूत होना ही चाहिए। मैं वीरांगना बनूँगी, न कि एक अबला औरत।” क्या इस तरह की सोच सही है? यह कैसी मानवता है? यह ढोंग है; यह सच नहीं है। जिस चीज का ढोंग किया जाता है वह सामान्य मानवता का प्रकटन नहीं होता है। यह तो सामान्य मानवता को बिल्कुल तोड़-मरोड़कर दूसरों के सामने झूठा वेश धारण करना है। इसलिए जब लोग किसी चीज के लिए दुखी या चिंतित होते हैं, जब वे आह भरते हैं, या जब उनकी भाव-भंगिमा अपेक्षाकृत गंभीर होती है, या जब उनका खाना खाने का मन न करे, तो ये सभी चीजें सामान्य मानवता का प्रकटन होती हैं, जिसे कोई भी छिपा नहीं सकता है। जब किसी के साथ कुछ अच्छा होता है, तो वे मुस्कराते हैं और यह भी सामान्य प्रकटन है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो खुश होने पर जोर से हँसने की हिम्मत नहीं कर पाते हैं। वे अपनी मुस्कराहट छिपाने के लिए हमेशा अपना मुँह ढँक लेते हैं, हमेशा लोगों के हँसी-मजाक से डरते हैं। क्या यह सामान्य है? (यह सामान्य नहीं है।) यह भी ढोंग है। वे सोचते हैं कि महिलाएँ सरेआम बहुत सारे लोगों के सामने बिल्कुल नहीं हँस सकतीं, खासकर वे अपने दाँत नहीं दिखा सकतीं, वरना लोग उन्हें नीची नजर से देखेंगे या उनका तिरस्कार करेंगे, इसलिए उन्हें खुद पर संयम रखना चाहिए और ओछापन नहीं दिखाना चाहिए। यह चीन की पारंपरिक सांस्कृतिक शिक्षा का नतीजा है। जिस व्यक्ति की खुशी, क्रोध, दुख और उल्लास असामान्य हैं, उसकी सामान्य मानवता की अभिव्यक्तियों या आवश्यकताओं को दूसरे लोग नहीं देख सकते हैं। क्या इस प्रकार का व्यक्ति सामान्य है? (वह सामान्य नहीं है।) कहीं उसके विचारों में कुछ ऐसा तो नहीं है जो उस पर हावी रहता हो? लोगों को शैतान बहुत गहराई तक भ्रष्ट कर चुका है। बस यही बात है। वे लोगों से ज्यादा पिशाच की तरह हैं। यह उन लोगों का रंग-रूप है जिन पर राक्षसी प्रकृति हावी रहती है। वे अत्यंत झूठे होते हैं और अत्यधिक ढोंग करते हैं। ऐसा क्यों है कि कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोग भी बिल्कुल नहीं बदले हैं? पहली बात तो यही है कि लोगों के पास एक सामान्य व्यक्ति होने के मार्ग, सिद्धांतों, दिशा और लक्ष्यों के बारे में सही ज्ञान या स्पष्ट दृष्टिकोण नहीं होता है, न उनके पास सत्य के अनुसरण के मार्ग के बारे में कोई स्पष्ट दृष्टिकोण होता है। दूसरी बात, इस प्रकार का व्यक्ति अज्ञानी होता है। ऐसे लोग भले ही चालीस-पचास साल के हो चुके हों, उन्हें इस बारे में कुछ नहीं पता कि ईमानदार व्यक्ति कैसे बनें या सामान्य मानवता के साथ जीने के लिए कौन-सी अपेक्षाएँ पूरी करें। इसका कारण यह है कि लोगों के दिलों में पारंपरिक संस्कृति ने अपनी जड़ें बहुत गहरी जमा ली हैं, और वे हमेशा यही ढोंग करते रहना चाहते हैं कि वे पवित्र और महान लोग हैं, जैसी कि उन्होंने अपने बारे में कल्पना कर रखी है, इसीलिए वे चीजों को पूर्वाग्रही, बेतुके और अजीब तरीकों से समझते हैं। क्या ऐसे लोग तुम्हारे बीच भी मौजूद हैं? कुछ लोगों ने कभी भी अपने दिल की बात दूसरों से नहीं की है, न वे यह जानते हैं कि अपने अंतरतम के विचार कैसे व्यक्त करें। वे ऐसे प्रतीत होते हैं मानो उन्हें कोई कठिनाई नहीं है, मानो वे कभी नकारात्मक या कमजोर न पड़े हों, मानो जीवन प्रवेश को लेकर उन्हें कभी कोई कठिनाई न हुई हो। उन्हें कुछ भी खोजने या दूसरों के साथ संगति करने की जरूरत नहीं है, न उन्हें दूसरों की संगति, प्रावधान, मदद या मार्गदर्शन की जरूरत है। वे ऐसे लगते हैं मानो वे खुद ही सब कुछ समझ जाते हैं, और किसी भी चीज का समाधान कर सकते हैं। जब कोई उनसे पूछता है कि क्या वे पहले कभी नकारात्मक पड़े या नहीं तो वे कहते हैं : “मैं कभी-कभार ही नकारात्मक होता हूँ, लेकिन मैं बस परमेश्वर से प्रार्थना करता हूँ, संकल्प और शपथ लेता हूँ और फिर ठीक हो जाता हूँ।” यह किस प्रकार का व्यक्ति है? बाहर से देखने में ऐसे लोगों की संख्या चाहे ज्यादा न दिखाई दे लेकिन हकीकत में ऐसी दशाओं वाले लोग काफी ज्यादा हैं। आज तक इस तरह का व्यक्ति यह नहीं जानता कि परमेश्वर में विश्वास रखने का अर्थ क्या होता है। वे सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखने का अर्थ सिर्फ परमेश्वर को स्वीकारना और अच्छा इंसान बनना भर है, और वे एक दिन “अमर बनकर मार्ग प्राप्त कर लेंगे” और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर लेंगे, ठीक उसी तरह जैसे बौद्ध मतावलंबी मानवीय इच्छाओं और वासनाओं से मुक्त होने या हृदय से शुद्ध होने और बहुत कम इच्छाएँ रखने के बारे में बात करते हैं। वे इस दिशा में परिश्रम और लगन से लगे रहते हैं, लेकिन क्या यह परमेश्वर में विश्वास रखना है? अभी भी वे न तो यह जानते हैं कि परमेश्वर पर विश्वास रखना क्या होता है, न यह कि उन्हें किस चीज का अनुसरण करना चाहिए या किस प्रकार का मनुष्य बनना चाहिए। वे सत्य पर चाहे जितने भी उपदेश सुनें, न तो उनका वह लक्ष्य बदलता है जिसका वे अनुसरण करते हैं, न ही परमेश्वर में विश्वास के बारे में उनका दृष्टिकोण बदलता है। यह काफी परेशानी की बात है! अगर तुम यह भी नहीं समझते हो कि परमेश्वर में विश्वास रखने का अर्थ क्या है, तो क्या तुम यह जानने में सक्षम हो कि तुम्हारा परमेश्वर कौन है? अगर तुम यह भी नहीं जानते कि परमेश्वर में विश्वास रखने का अर्थ क्या है, तो क्या तुम सत्य का अनुसरण करने में सक्षम हो? जिस व्यक्ति को परमेश्वर में विश्वास रखने के दर्शन का ज्ञान बिल्कुल भी न हो क्या वह सत्य से प्रेम कर सकता है? जो लोग परमेश्वर में विश्वास के दर्शन को नहीं समझते हैं वे ऐसे लोग हैं जो सत्य को प्राप्त करने में असमर्थ हैं। ऐसे व्यक्ति से यह पूछना बेकार है कि क्या वह सत्य से प्रेम करता है या नहीं; वह नहीं समझता कि परमेश्वर में विश्वास रखना या सत्य का अनुसरण करना क्या होता है। ऐसे लोग ये चीजें नहीं समझते हैं। उन्हें परमेश्वर में विश्वास रखे हुए चाहे तीन साल हुए हों या फिर पाँच, आठ साल या दस, उनमें से कोई भी सत्य को नहीं समझता है। वे बस इतना जानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखने का मतलब है अच्छा इंसान होना, अच्छे काम करना और दयालु और परोपकारी होना, और उन्हें लगता है कि यह जीने का सम्मानजनक तरीका है। क्या यह बहुत ही सतही और पुराना नजरिया नहीं है? यह परमेश्वर में विश्वास रखने के सत्यों के अनुरूप नहीं है और इससे पूरी तरह अलग-थलग है। जो व्यक्ति कई सालों से परमेश्वर में विश्वास रखता रहा हो, लेकिन अभी भी परमेश्वर में विश्वास के मामले में गैर-विश्वासियों, बौद्धों और ताओवादियों के नजरियों, विचारों और तरीकों से पेश आता हो, जो परमेश्वर में विश्वास के मार्ग पर चलने के लिए पारंपरिक धारणाओं और कल्पनाओं पर भरोसा करता हो, जो गलती से यह मान ले कि उसकी समझ शुद्ध है, जो सोचता हो कि परमेश्वर में इस तरह से विश्वास रखना ही सत्य के अनुसरण का एकमात्र तरीका है—तो क्या वह खुद से झूठ नहीं बोल रहा है?

चीनी लोगों की पारंपरिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि ताओवाद और बौद्ध मत की है। इस विशाल पारंपरिक सामाजिक पृष्ठभूमि के तहत चीनी लोगों के लिए अपने विचारों को मुक्त कर पाना बहुत मुश्किल है, इसलिए जब वे परमेश्वर में विश्वास का जिक्र करते हैं तो सबसे पहले बौद्ध और ताओवादी दृष्टिकोणों के बारे में सोचते हैं, जैसे : शाकाहारी होना, बुद्ध से प्रार्थना करना, किसी के प्राण न लेना, भिक्षा देना और नेकी करना, परोपकार करना, दूसरों पर हमला न करना या न चीखना, हत्या या आगजनी न करना, अच्छा इंसान होना, आदि। तो फिर इन चीजों से पीछा छुड़ाने और परमेश्वर में विश्वास के सही अर्थ को समझने में किसी व्यक्ति को कितना समय लगता है? इन गलत विचारों और धारणाओं को पूरी तरह बदलने और जड़ समेत खत्म करने के लिए किसी व्यक्ति को कौन-से सत्यों को समझने की जरूरत है? केवल परमेश्वर की अपेक्षाओं को सच्चे ढंग से समझकर और सत्य के सिद्धांतों के अनुसार परमेश्वर में विश्वास रखकर ही कोई व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग पर कदम रख सकता है; सिर्फ उसी समय से उसका परमेश्वर में विश्वास का जीवन विधिवत शुरू होता है। यदि किसी के मन में अभी भी सामंती अंधविश्वास या पारंपरिक धर्म की धारणाएँ, कल्पनाएँ और विनियम हैं तो उसके मन में बैठी यही वो चीजें हैं जिन्हें परमेश्वर सबसे ज्यादा नापसंद करता है और जिनसे घृणा करता है। उसे सत्य खोजना चाहिए, इन चीजों का भेद पहचानना चाहिए और फिर इन्हें पूरी तरह छोड़ देना चाहिए। सिर्फ ऐसे ही लोग सत्य से प्रेम करते हैं, वे ही पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त कर सकते हैं। यह तय है। यदि तुम परमेश्वर में अपने विश्वास को उसके वचनों के सत्य पर आधारित नहीं करते हो तो तुम कभी भी उसका आशीर्वाद नहीं पा सकोगे। एक बार जब कोई परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग पर कदम रख लेता है, एक बार उस देहरी को पार कर लेता है तो उसकी आंतरिक अवस्था में परिवर्तन आ जाता है। पहली बात, उनके विचार और दृष्टिकोण भ्रामक नहीं रहते, बल्कि वास्तविक हो जाते हैं। उनकी अवस्था, उनकी सोच और विचार खोखले नहीं होते, बल्कि वे सत्य के अनुरूप होते हैं और पूरी तरह परमेश्वर के वचनों पर खरे उतरते हैं। वे जिस लक्ष्य और दिशा की ओर बढ़ते हैं, वे न तो धर्मसैद्धांतिक होते हैं, न ही अगम्य या अदृश्य होते हैं, बल्कि वे सकारात्मक और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप होते हैं, और परमेश्वर उन्हें स्वीकृति देता है। उनकी पूरी अवस्था, उनकी सोच और उनके विचार सभी व्यावहारिक और वास्तविक होते हैं। तुम अब परमेश्वर में विश्वास रखते हो तो तुम्हारे विचार कहाँ हैं? अगर वे अभी भी सही दिशा के बिना हवा में तैर रहे हैं, अगर अभी भी कई ऐसे विचार हैं जो वास्तविकता के अनुरूप नहीं हैं, और बहुत-से खोखले और धर्मसैद्धांतिक विचार तमाम मानवीय विचारों, धारणाओं और कल्पनाओं के साथ कायम हैं, तो तुम अभी भी कल्पना लोक में जी रहे हो और यथार्थ की जमीन पर नहीं उतरे हो। यह बहुत खतरनाक है, क्योंकि तुम जो सोचते हो, करते हो, जिन लक्ष्यों का अपने दिल में अनुसरण करते हो, उन सबका परमेश्वर पर विश्वास के सत्य या परमेश्वर की अपेक्षाओं से कोई वास्ता नहीं है—ये तो उन्हें छू भी नहीं पाते हैं। तो फिर तुम किस आधार पर कार्य करते हो? तुम मनुष्य के सारांशित अनुभवों, सांसारिक आचरण के इंसानी फलसफों, और साथ ही उन चीजों के आधार पर कार्य करते हो जो तुम समाज, अपने परिवार और तमाम परिस्थितियों से सीखते हो, और अपनी कल्पना की उन चीजों के आधार पर सीखते हो जिनका सारांश तुम अपने मन में रखते हो। उदाहरण के लिए जब तुम्हारे साथ कुछ घटित होता है तो तुम उस तरह से कार्य करते हो जैसे तुम्हें उचित लगता है, और तुम सोचते हो कि ऐसा करना सत्य के अनुरूप है, और यह भी कि तुम जिसे सही और सकारात्मक मानते हो वही सत्य है। एक दिन जब तुम किसी बड़ी बाधा से टकराओगे या तुम्हारी काट-छाँट होगी, तब तुम्हें एहसास होगा कि तुम्हारे सारे कार्य, सोच और विचार मानवीय कल्पनाएँ और धारणाएँ हैं और ये सत्य सिद्धांतों के साथ मूलतः मेल नहीं खाते हैं। कहने का आशय है कि इससे पहले कि कोई व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में विधिवत प्रवेश करे, उसके द्वारा किए जाने वाले कई कार्यों का सत्य सिद्धांतों से कोई वास्ता नहीं होता है। ये लोगों के मन और कल्पनाओं से या उनकी प्राथमिकताओं, उत्साह, इच्छाशक्ति या उनकी शुभकामनाओं, आशाओं और यहाँ तक कि उनकी इच्छाओं से उपजती हैं। ये सारी चीजें लोगों के कार्यों का प्रारंभिक बिंदु और स्रोत होती हैं।

जहाँ तक यह सवाल है कि परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश करने के लिए किसी व्यक्ति का किन अवस्थाओं में होना जरूरी है, तो इसका मानक यह है कि परमेश्वर के वचनों का अनुभव करते समय उसे सामान्य अवस्था में होना चाहिए। कुछ लोग पहले से इस अवस्था में होते हैं, जबकि दूसरे अभी तक इसमें प्रवेश नहीं कर पाए होते हैं, या वे कभी-कभी तो इस अवस्था में होते हैं लेकिन कुछ समय बाद अपनी पुरानी अवस्था में लौट जाते हैं। यह अवस्था क्या है? ऐसा तब होता है जब कोई व्यक्ति अपने उत्साह, प्राथमिकताओं, धारणाओं और कल्पनाओं के भरोसे कुछ समय बिताता है, फिर उसे अचानक एहसास होता है कि इस तरह विश्वास करना अस्वीकार्य लगता है, कि वह सत्य हासिल नहीं कर सकता, और यह भी कि इस तरह विश्वास रखना खोखला और अवास्तविक है। उसे एहसास होता है कि वह हमेशा एक सृजित प्राणी रहा है, कि उसे एक सच्चा सृजित प्राणी होना चाहिए और अपने पूरे दिल और शक्ति के साथ एक सृजित प्राणी का कर्तव्य सच्चे मन से निभाना चाहिए। फिर वह यथार्थ की जमीन पर पैर टिकाकर काम शुरू करता है और लगन से अपना कर्तव्य निभाता है। चीजें करते हुए वह यह चिंतन-मनन करने और खोजने लगता है कि कैसे सत्य के अनुरूप कार्य करे, कैसे परमेश्वर के इरादे पूरे करे और कैसे परमेश्वर द्वारा स्वीकारा जाए। ऐसे लोग अपनी धारणाओं, कल्पनाओं या प्राथमिकताओं के आधार पर कार्य नहीं करते। केवल इसी मुकाम पर लोगों के मन में परमेश्वर को संतुष्ट करने और उसके प्रेम का प्रतिदान देने की इच्छा जागती है। इसी मुकाम पर वे सत्य खोजना शुरू करते हैं, परमेश्वर के इरादे खोजते हैं और उसकी अपेक्षाओं को पूरा करना शुरू करते हैं। जब तुम्हारे मन में यह इच्छा होती है, जब तुम्हारा दिल सामान्य अवस्था में होता है तो एक अर्थ में तुम अपनी सही जगह पर खड़े हो और सच्चे सृजित प्राणी हो गए हो। इसका दूसरा अर्थ सबसे महत्वपूर्ण है, वो यह कि तुमने दिल की गहराई से स्वीकार लिया है कि परमेश्वर ही तुम्हारा प्रभु और तुम्हारा परमेश्वर है, और तुमने परमेश्वर के सभी वचन स्वीकार लिए हैं, और समझ चुके हो कि वे सत्य हैं। तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करने में भी सक्षम हो, और परमेश्वर के वचनों को अपनी जीवन वास्तविकता बना लेते हो, जिससे तुम सत्य और जीवन प्राप्त कर पाते हो। जब तुममें यह संकल्प और इच्छा होगी, साथ ही ऐसी आवश्यकता भी होगी और तुम परमेश्वर के वचन और खुद से उसकी अपेक्षाओं को स्वीकार करोगे और तुममें परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उसे संतुष्ट करने का संकल्प होगा तो तुम्हारे जीवन की दशा बदलने लगेगी। इस बिंदु से शुरुआत कर तुम परमेश्वर में विश्वास की सही राह पर चलने लगोगे।

मैंने जिन शब्दों में संगति की है, कुल मिलाकर, ये बिल्कुल सरल हैं; अर्थात एक बार जब कोई व्यक्ति यह पहचानने लगता है कि वह एक सृजित प्राणी है, तो उस व्यक्ति में परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए एक सच्चा सृजित प्राणी बनने की आशाओं का संचार होगा। साथ ही, ऐसे लोग परमेश्वर को अपने प्रभु और परमेश्वर के रूप में भी स्वीकार करेंगे, और वे परमेश्वर की सभी अपेक्षाओं को और साथ ही उसकी संप्रभुता के प्रति समर्पण करने की कामना करेंगे। इसलिए वे मनमाने ढंग से व्यवहार करना बंद कर देंगे, परमेश्वर की इच्छाएँ खोजेंगे और वे अपने हर कार्य में सत्य सिद्धांत खोजेंगे। वे अब केवल अपनी मनमानी नहीं करेंगे या चीजों को अपनी ही योजनाओं के अनुसार नहीं करेंगे। अपने व्यक्तिगत ख्यालों पर निर्भर होकर कार्य करने के बजाय, वे अपने विचारों में परमेश्वर को लगातार रखना शुरू कर देंगे, और उनकी व्यक्तिपरक इच्छा सभी पहलुओं में परमेश्वर को संतुष्ट करना, सत्य के अनुरूप होना, और अपने कृत्यों में परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करना होगी। ऐसी अवस्था में रहने वाले लोग निस्संदेह सत्य को खोजना, सत्य का अभ्यास करना, और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना सीखना शुरू कर चुके हैं। यदि तुम इस तरह की दशा में हो और ऐसा संकल्प रखते हो तो तुम बहुत ही स्वाभाविक रूप से परमेश्वर के इरादे खोजने का तरीका सीखने लगोगे और यह भी सीखने लगोगे कि किस तरह परमेश्वर के नाम का अनादर न किया जाए, परमेश्वर को महान मानकर कैसे सम्मान दिया जाए, परमेश्वर का भय कैसे माना जाए और परमेश्वर को कैसे संतुष्ट किया जाए; अपनी स्वार्थी इच्छाओं को या किसी और को संतुष्ट करने की बजाय तुम परमेश्वर को संतुष्ट करने का प्रयास करते हो। जब कोई इस दशा में प्रवेश करता है तो वह परमेश्वर की उपस्थिति में रह रहा होता है और फिर कभी अपने भ्रष्ट स्वभाव के दबदबे में नहीं रहता है। जब तुम इस दशा में प्रवेश करते हो तो तुम अपनी व्यक्तिपरक इच्छाओं में जिन चीजों के बारे में सोचते हो, वे सकारात्मक होती हैं। अगर तुम यदा-कदा कोई भ्रष्ट स्वभाव दिखाते भी हो, तो तुम्हें इसका भान होगा और तुम इसका समाधान करने के लिए आत्मचिंतन करने और सत्य खोजने में सक्षम होगे। इस प्रकार, यद्यपि तुममें अब भी भ्रष्ट स्वभाव है, लेकिन तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव अब तुम्हारी हर चीज को अपने अनुसार नहीं चला सकेगा, तुम्हें नियंत्रित नहीं कर सकेगा। क्या इस समय परमेश्वर के वचनों का सत्य तुम्हारे अंदर संप्रभुता धारण नहीं कर रहा है? क्या तुम परमेश्वर के वचनों के दायरे में नहीं रह रहे हो? क्या तुम सभी लोग अपने दिलों में सत्य को अधिकार चलाने दे पाते हो? यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुममें सत्य का अनुसरण करने का संकल्प है कि नहीं। अगर कोई स्पष्ट रूप से काफी सारे सत्य को समझता है, तो सत्य स्वाभाविक रूप से उसके दिल में अपना अधिकार चलाएगा। अगर लोग सत्य को बहुत अधिक नहीं समझते या उनके भीतर शैतान का बहुत अधिक जहर भरा हुआ है तो वे अपने दिलों में सत्य को अधिकार नहीं चलाने दे सकते हैं। बहुत-से लोग सत्य का अभ्यास करने के इच्छुक होते हैं, लेकिन जब उनके साथ चीजें घटित होती हैं तो वे अनचाहे ही दिखावा करते हैं, शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं, उनमें कोई संयम या नियंत्रण नहीं होता और वे अपने भ्रष्ट स्वभाव को जैसा चाहे वैसा प्रकट होने देते हैं। यह क्या दशा है? ऐसा तब होता है जब कोई व्यक्ति सत्य को बहुत कम समझता है, उसका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा होता है और वह देह पर या शैतान के प्रभाव पर विजय पाने में असमर्थ होता है। इस तरह के व्यक्ति के लिए सत्य को अपने दिल में अधिकार चलाने देना बहुत कठिन होता है। लिहाजा, सत्य का अनुसरण करना कोई आसान चीज नहीं है, और कुछ वर्षों का ही सही, अनुभव लिए बिना तो भ्रष्ट स्वभाव की समस्या हल करना बहुत कठिन है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग बहुत धोखेबाज होते हैं, वे अपने अंतरतम के विचारों को कभी भी मुखर होकर नहीं बताते हैं और एक भी सच्चा शब्द नहीं बोल सकते हैं। वे चाहे जो भी चर्चा करें या जितनी भी ज्यादा बातें बोलें, वे स्पष्ट रूप से नहीं बोलते, हमेशा घुमावदार बातें करते हैं और अपने नियंत्रण में नहीं होते हैं। अपने भ्रष्ट स्वभावों और अपने घिनौने, शैतानी प्रकृति सार के समक्ष लोग खुद को बहुत महत्वहीन, कमजोर, शक्तिहीन और बिल्कुल असहाय दर्शाते हैं, इसलिए वे अक्सर पाप करते हैं, गलतियाँ करते हैं और नकारात्मक होते हैं। यहाँ क्या चल रहा है? (वे परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग पर नहीं चले हैं।) वे परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग पर नहीं चले हैं, इसका अर्थ क्या है? (वे अभी यह नहीं समझते कि वे सृजित प्राणी हैं और वे परमेश्वर के प्रति समर्पण करने या उसे संतुष्ट करने के इच्छुक नहीं होते हैं।) यह सत्य का अनुसरण न करने का परिणाम है। तुम लोग इस स्थिति में हो, तो क्या यह कह सकते हो कि तुमने अभी भी सत्य वास्तविकता में प्रवेश शुरू नहीं किया है? (हाँ।) जिस व्यक्ति ने सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, क्या उसकी गिनती सत्य प्राप्त कर चुके व्यक्ति के रूप में होगी? (नहीं होगी।) जिस व्यक्ति ने सत्य प्राप्त नहीं किया है, क्या उसके दिल में सत्य होगा? (नहीं होगा।) क्या सत्य के बिना लोग अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार कार्य नहीं करते? तो अपना कर्तव्य निभाते समय कुछ सकारात्मक चीजें करने के लिए किसी व्यक्ति के पास क्या-क्या होना जरूरी है? क्या उसे सत्य को नहीं समझना होगा? अगर कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य निभाते हुए सत्य का अभ्यास नहीं कर सकता, इसके बजाय सिर्फ अपनी इच्छानुसार कार्य करना जानता है तो यह कैसा गुण है? क्या यह मजदूरी करना नहीं है? यह तो वैसी ही बात हुई कि परमेश्वर ने किसी गैर-विश्वासी को अपने लिए मजदूरी करने के लिए रख लिया हो। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते या सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं करते हो तो फिर तुम मजदूरी कर रहे हो। क्या तुम लोगों को लगता है कि परमेश्वर यह देखने का इच्छुक है कि वह जिन लोगों को बचाना चाहता है वे उसके लिए सिर्फ मजदूरी करें और उद्धार हासिल करने के लिए उसके वचनों के अनुसार अभ्यास न करें? (वह इस बात का इच्छुक नहीं है।) वह क्यों इच्छुक नहीं है? (उसने मनुष्य को इसलिए सृजित किया कि वह उसे हासिल कर सके।) सही कहा, परमेश्वर ने स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिए मनुष्य का सृजन किया, और उससे भी अधिक मनुष्य को हासिल करने के लिए सृजित किया। जब लोग केवल उसके लिए मजदूरी करते हैं तो परमेश्वर असंतुष्ट क्यों रहता है? (क्योंकि लोगों के कृत्य परमेश्वर के चाहे अनुसार नहीं होते हैं।) तो परमेश्वर क्या चाहता है? (परमेश्वर लोगों की नेकनीयती चाहता है।) क्या परमेश्वर के लिए मजदूरी करना स्वयं में नेकनीयती नहीं है? तुम जो मजदूरी कर रहे हो वह सच्ची और नेकनीयती भरी हो या नहीं, अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते तो सारी उम्र मजदूरी करके भी सत्य प्राप्त नहीं कर पाओगे। अगर तुम सत्य प्राप्त नहीं करते हो, तो इसका मतलब है कि तुम परमेश्वर को प्राप्त नहीं करते हो, और परमेश्वर तुम्हें प्राप्त नहीं करता है, इसलिए तुम्हारी मजदूरी का कोई मूल्य या अर्थ नहीं है। तुम चाहे जितने ज्यादा वर्ष मजदूरी कर लो, अगर सत्य का अनुसरण नहीं करते हो तो परमेश्वर तुम्हें प्राप्त नहीं करेगा, जिसका अर्थ है कि तुम अभी भी परमेश्वर का प्रतिरोध करते हो। यह किसके कारण होता है? इसका कारण लोग स्वयं होते हैं जो सहयोग करने के लिए कठिन परिश्रम नहीं करते, जो खुद सत्य का अनुसरण नहीं करते; यही इसका मूल कारण है। व्यावहारिक पहलू से देखें तो इस बात को कैसे समझाया जा सकता है कि परमेश्वर किसी व्यक्ति को प्राप्त नहीं करता है? वह यह है कि लोग अपना कर्तव्य निभाते समय हमेशा अपने निजी इरादे ओढ़े रखते हैं, वे अपना दिल परमेश्वर को अर्पित नहीं करते हैं, इसलिए उनका दिल न तो उसकी ओर होता है, न ही उसके लिए होता है। वे उसके इरादों का ख्याल तक नहीं रखते, अपना कर्तव्य पूरा कर उसे संतुष्ट करना तो बहुत दूर की बात है। सबसे सरल व्याख्या तो यह है कि ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के प्रति नेकनीयत नहीं होता है, इसलिए उसके लिए बिल्कुल भी उम्मीद नहीं होती है। परमेश्वर यह देखने के लिए लोगों की जाँच-पड़ताल करता है कि क्या वे उस पर नेकनीयती से विश्वास रखते हैं या नहीं; वह उनकी नेकनीयती चाहता है। नेकनीयत होने का क्या अर्थ है? (ऐसा दिल होना जो परमेश्वर की ओर उन्मुख हो, जो परमेश्वर को समर्पण करता हो।) यह सही है। अगर किसी व्यक्ति का दिल परमेश्वर की ओर उन्मुख न हो, उसके प्रति समर्पित न हो, तो क्या उसे अच्छा व्यक्ति कहा जा सकता है? क्या परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को पसंद कर सकता है? जिस व्यक्ति का मन परमेश्वर के साथ एकाकार न हो, क्या वह सत्य को अभ्यास में ला सकता है? क्या तुम लोगों के दिल ऐसे हैं जो परमेश्वर को समर्पण करते हैं? क्या तुम हर चीज में परमेश्वर का साथ दे सकते हो? क्या तुम्हारे दिल परमेश्वर की ओर उन्मुख होते हैं? यह कहना कि तुम लोगों में बिल्कुल भी नेकनीयती नहीं है, तुम्हारे साथ नाइंसाफी होगी, लेकिन यह कहना भी गलत होगा कि तुम लोग शैतान से सचमुच नफरत करते हो, उसके खिलाफ विद्रोह कर पूरी तरह से परमेश्वर की ओर रुख कर सकते हो। इसके लिए यह जरूरी है कि तुम्हारे भीतर परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला दिल हो, तुम सत्य का अनुसरण करो, तथा और अधिक सत्य की समझ प्राप्त करो। परमेश्वर लोगों के पास कैसा दिल होने की अपेक्षा करता है? सबसे पहली बात, यह दिल ईमानदार होना चाहिए और उन्हें कर्तव्यनिष्ठा से और व्यावहारिक रूप से अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम होना चाहिए, कलीसिया के कार्य की रक्षा करने में सक्षम होना चाहिए और उनमें अब आगे से तथाकथित “बड़ी महत्वाकांक्षाएँ” या “ऊँचे लक्ष्य” नहीं होने चाहिए। जब वे सृजित प्राणियों के रूप में परमेश्वर का अनुसरण और उसकी आराधना करते हैं, आचरण करते हैं तो हर कदम एक पदचिह्न छोड़ता है; वे एक असाधारण या महान व्यक्ति बनने का प्रयास अब और नहीं करते, विशेष शक्तियों वाला व्यक्ति बनने का प्रयास तो बिल्कुल भी नहीं करते हैं और वे दूसरे ग्रहों के प्राणियों की आराधना भी नहीं करते हैं। इसके अलावा, इस दिल को सत्य से प्रेम करना चाहिए। सत्य से प्रेम करने का अर्थ मुख्य रूप से क्या है? इसका अर्थ है सकारात्मक चीजों से प्रेम करना, न्याय की भावना रखना, स्वयं को नेकनीयती से परमेश्वर के लिए खपा सकना, उससे सचमुच प्रेम करना, उसके प्रति समर्पित होना और उसकी गवाही देना। बेशक सत्य को समझने के बाद ही तुम ये चीजें कर सकते हो। जिसके पास इस प्रकार का दिल है, वह सामान्य मानवता वाला व्यक्ति है। सामान्य मानवता वाले किसी व्यक्ति के पास कम-से-कम अपना जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए। तुम कैसे बता सकते हो कि किसी व्यक्ति के पास जमीर और विवेक है? यदि किसी की कथनी-करनी मूल रूप से जमीर और विवेक के मानकों के अनुरूप है तो मानवीय दृष्टिकोण से वह अच्छा व्यक्ति है और वह मानक-स्तरीय है। अगर वह सत्य को समझने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में भी सक्षम है तो फिर वह परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा कर रहा है जो जमीर और विवेक के मानक से भी ऊपर हैं। कुछ लोग कहते हैं : “परमेश्वर ने मनुष्य का सृजन किया। परमेश्वर ने हमें जीवन की साँस दी, परमेश्वर ही हमें पालता है, पोषण देता है, और हमें वयस्क बनने की ओर आगे बढ़ाता है। जमीर और विवेक वाले लोग अपने लिए या शैतान के लिए नहीं जी सकते; उन्हें परमेश्वर के लिए जीना चाहिए और अपने कर्तव्य पूरे करने चाहिए।” यह सही है, लेकिन यह केवल एक मोटा और कच्चा खाका है। जहाँ तक परमेश्वर के लिए वास्तविकता में रहने के ब्योरों की बात है, इनका संबंध जमीर और विवेक से होता है। तो परमेश्वर के लिए कैसे जीया जाता है? (सृजित प्राणी को जो कर्तव्य निभाना चाहिए, उसे ठीक से निभाना।) सही कहा। अभी तुम लोग जो कुछ भी कर रहे हो वह सब मनुष्य का कर्तव्य निभाना भर है, लेकिन वास्तव में तुम यह किसके लिए कर रहे हो? (परमेश्वर के लिए।) यह परमेश्वर के लिए है, यह उसके साथ सहयोग है! परमेश्वर ने तुम्हें जो आदेश दिया है वह तुम लोगों का कर्तव्य है। यह परमेश्वर द्वारा नियत, पूर्वनियत और शासित है, या अन्य शब्दों में, परमेश्वर ही तुम्हें यह कार्य सौंपता है और चाहता है कि तुम इसे पूरा करो। तो इसे अच्छी तरह से पूरा करने के लिए अपने जमीर पर कैसे भरोसा कर सकते हो? (हमें अपने सारे जतन करने होंगे।) तुम्हें अपने सारे जतन करने होंगे, जो तुम्हारे जमीर पर भरोसा करने की अभिव्यक्ति है। साथ ही, तुम्हें अपना पूरा दिल लगाना चाहिए और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए—इसे लेकर अनमने मत रहो। परमेश्वर ने हमारे लिए अपने हृदय के रक्त को खपाया है और वह हमारे लिए अपेक्षाएँ रखता है। यह देखते हुए कि चूँकि परमेश्वर ने यह पूर्वनियत किया है कि हम इस जिम्मेदारी को पूरा करें और यह कर्तव्य निभाएँ, इसलिए हमें उसे निराश, हताश या दुखी नहीं करना चाहिए। हमें अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए, और परमेश्वर को पूर्ण और संतोषजनक उत्तर देना चाहिए। हम जो चीज नहीं कर सकते उसके लिए परमेश्वर पर भरोसा करते हैं, हम अपने पेशों के बारे में और अधिक सीखते हैं, और हम सत्य सिद्धांतों को और अधिक खोजते हैं। परमेश्वर हमें जीवन देता है, इसलिए हमें अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना चाहिए; क्योंकि हम जो भी दिन जीते हैं, हमें उस दिन का कर्तव्य निभाना चाहिए। परमेश्वर ने जो कार्य सौंपा है, हमें उसे अपना मुख्य ध्येय बना लेना चाहिए, और कर्तव्य निर्वहन को अपने जीवन की पहली चीज बना लेना चाहिए ताकि इसे अच्छे से पूरा कर सकें। यद्यपि हम पूर्णता का अनुसरण नहीं करते, फिर भी हम सत्य की ओर बढ़ने का प्रयास कर सकते हैं, परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुरूप कार्य कर सकते हैं, ताकि हम परमेश्वर को संतुष्ट और शैतान को शर्मिंदा कर सकें, और हमें कोई पछतावा न रहे। परमेश्वर के विश्वासियों को अपने कर्तव्य के प्रति यही रवैया अपनाना चाहिए। जब तुम चालीस या पचास साल के हो जाओगे—या फिर सत्तर-अस्सी के भी—जब तुम अपनी जवानी और अज्ञानता के दिनों में किए कार्यों पर नजर डालोगे तो तुम देखोगे कि भले ही उस वक्त तुम्हारी उम्र ज्यादा नहीं थी, पर तुमने सब कुछ दिलोजान और दमखम से किया; तुमने हमेशा अपने जमीर के आधार पर कदम उठाए, परमेश्वर को निराश नहीं किया, उसे मायूस या दुखी नहीं किया, और अपने दिल से परमेश्वर की जाँच-पड़ताल और निरीक्षण को स्वीकार किया। जब यह सब पूरा हो जाएगा और तुम परमेश्वर को अपनी पूर्ण परीक्षा दोगे तो वह कहेगा : “यूँ तो तुमने बढ़िया काम नहीं किया और तुम्हारे नतीजे भी औसत थे, फिर भी तुमने अपनी पूरी शक्ति लगाई और अपनी जिम्मेदारी निभाने में नाकाम नहीं रहे।” क्या यह तुम्हारे जमीर के आधार पर कार्य करना नहीं हुआ? इसलिए जब लोग अक्सर भ्रष्ट स्वभाव दिखाते हैं, निजी पसंद-नापसंद, इच्छाएँ और प्राथमिकताएँ रखते हैं, यहाँ तक कि अपने जमीर के मानक का पूरी तरह उल्लंघन तक कर डालते हैं, और अपनी सामान्य मानवता खो बैठते हैं, तो क्या करना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और स्वयं के विरुद्ध विद्रोह करना चाहिए, तुम खुद को उन चीजों से सीमित या अपने जमीर और विवेक को नियंत्रित नहीं होने दे सकते। जब तुम्हारा जमीर तुम्हारे कार्यों, तुम्हारी रोजमर्रा की जिंदगी और तुम्हारे जीवन को निर्देशित करने में सक्षम होगा तो तुम्हारे लिए देह की स्वार्थी इच्छाओं पर विजय प्राप्त करना आसान हो जाएगा, और तुम सत्य का यह पहलू हासिल कर लोगे। यह वह न्यूनतम है जो तुम्हारे पास होना चाहिए। जहाँ तक यह सवाल है कि परमेश्वर किस प्रकार का मानवीय हृदय चाहता है तो मैंने अभी-अभी कितने पहलुओं के बारे में बात की है? (तीन पहलू : ईमानदार दिल, सत्य से प्रेम करने वाला दिल और जमीर और विवेक होना।) ईमानदार दिल और सत्य से प्रेम करने वाले दिल के दायरे में कुछ और ब्योरे हैं, जिन पर तुम्हें विचार करना चाहिए और बाद में इनका सारांश बनाना चाहिए। किसी व्यक्ति के पास अगर कम-से-कम कुछ होना चाहिए तो वह है जमीर और विवेक, जो सामान्य मानवता वाले किसी व्यक्ति के पास होना ही चाहिए। अगर किसी के पास जमीर या विवेक नहीं है, तो वह अपनी सामान्य मानवता खो बैठता है, कुछ भी अच्छा नहीं कर पाता, कुछ भी हासिल नहीं कर पाता, और अंत में वह पूरी तरह से असफल हो जाता है। लेकिन अगर उसके पास सिर्फ जमीर और विवेक ही हो, अगर वह अपने जमीर के अनुसार जिए और कुछ भी बुरा न करे, तो क्या यह परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश करने के बराबर है? क्या ऐसे लोग केवल अपने जमीर और विवेक के आधार पर जीवन जीकर परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हैं? बिल्कुल भी नहीं।

परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश करने के लिए यह भी जरूरी है कि तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल हो। सबसे पहले, जहाँ तक रुतबे की बात है, लोग सृजित प्राणी हैं और अत्यंत तुच्छ हैं; परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, और सर्वोच्च है। जहाँ तक मानवीय विवेक की बात है, परमेश्वर का भय मानने के लिए लोगों को क्या करने की जरूरत है? उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हारे साथ कुछ हो जाता है, और तुम्हें लगता है कि एक तरीके से कार्य करना सत्य के विपरीत है, लेकिन तुम नहीं जानते कि परमेश्वर के इरादे के अनुरूप होने के लिए क्या करना चाहिए। यदि तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, सत्य खोजना चाहिए, सत्य का अभ्यास करने का मार्ग खोजना चाहिए और फिर कार्य करना चाहिए। यदि किसी के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल न हो तो वह कैसा व्यवहार करेगा? ऐसे लोग मनमानी करेंगे और सोचेंगे : “कुछ भी हो, मेरी मंशा नेक है, इसलिए अगर मैं ऐसा करूँ तो भी ठीक है।” दूसरे लोग जो सलाह देते हैं वे वह नहीं करते, न किसी वे और की सुनते हैं; वे अपने लिए जो कुछ भी योजना बनाते हैं, वही करने की ठान लेते हैं और नौ-नौ बैल भी उन्हें पीछे नहीं खींच सकते। क्या यह ऐसा व्यक्ति है जिसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है? (नहीं है।) कुछ लोग ऐसे भी हैं जो जानते हैं कि परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है और यह भी कि वे झूठ नहीं बोल सकते, फिर भी वे सोचते हैं कि अगर किसी मामले में वे सच बोलेंगे तो वे लज्जित हो जाएँगे, वे लाभ से हाथ धो बैठेंगे और शायद उनका रुतबा कायम नहीं रह पाएगा। वे आगा-पीछा सोचते हैं, फिर भी यह सोचकर झूठ बोलते हैं : “एक बार झूठ बोलने से कुछ नहीं होता, और मैं कौन-सा हमेशा झूठ बोलता हूँ। भले ही मैं झूठ बोलूँ, मुझे कुछ भी बिगड़ता नहीं दिखता, इसलिए अगर मैं एक बार और झूठ बोल दूँ तो ठीक ही होगा।” इस तरह हिसाब लगाने के बाद वे इसे करने की ठान लेते हैं, फिर भी उनका दिल धिक्कारता नहीं है, न वे परमेश्वर से प्रार्थना करना चाहते हैं, न ही उसकी जाँच-पड़ताल को स्वीकारना चाहते हैं। क्या यह ऐसा व्यक्ति है जिसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है? (नहीं है।) तो अगर किसी व्यक्ति के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है, तो वह कैसा व्यवहार करेगा? (वह अंधाधुंध या मनमाने ढंग से कार्य नहीं करेगा।) ये दो शब्द बिल्कुल उपयुक्त हैं। तो तुम अंधाधुंध या मनमाने ढंग से कार्य न करने को अभ्यास में कैसे ला सकते हो? (हमारे पास एक खोजी दिल होना चाहिए।) कोई समस्या आने पर, कुछ लोग दूसरों से उत्तर खोजते हैं, लेकिन जब वह व्यक्ति सत्य के अनुसार बोलता है, तो वे उसकी बात को स्वीकार नहीं करते, वे मानने को तैयार नहीं हो पाते और मन ही मन सोचते हैं, “मैं उससे बेहतर हूँ। अगर मैं इस बार उसके सुझाव सुन लेता हूँ, तो क्या ऐसा नहीं लगेगा कि वह मुझसे श्रेष्ठ है? नहीं, मैं इस मामले में उसकी बात नहीं सुन सकता। मैं यह काम सिर्फ अपने तरीके से करूँगा।” फिर वे दूसरे व्यक्ति के दृष्टिकोण को नकारने का कोई कारण और बहाना ढूँढ़ लेते हैं। जब वे किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जो उनसे बेहतर है तो वह उन्हें नीचे गिराने की कोशिश करता है, उनके बारे में निराधार अफवाहें गढ़ता है या उन्हें बदनाम करने और उनकी प्रतिष्ठा कम करने के लिए कुछ घिनौने तरीके इस्तेमाल करता है—यहाँ तक कि उन्हें रौंदता है—ताकि लोगों के मन में अपनी जगह की रक्षा कर सके। यह किस तरह का स्वभाव है? यह केवल अहंकार और दंभ नहीं है, यह शैतान का स्वभाव है, यह दुर्भावनापूर्ण स्वभाव है। यह व्यक्ति अपने से बेहतर और मजबूत लोगों पर हमला कर सकता है और उन्हें अलग-थलग कर सकता है, यह कपटपूर्ण और दुष्ट है। वह लोगों को नीचे गिराने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेगा, यह दिखाता है कि उसके अंदर का दानव काफी बड़ा है! शैतान के स्वभाव के अनुसार जीते हुए वह लोगों को कमतर दिखा सकता है, उन्हें फँसाने की कोशिश कर सकता है और उन्हें सता सकता है। क्या यह कुकृत्य नहीं है? और इस तरह जीते हुए वह अभी भी सोचता है कि वह ठीक है, एक अच्छा इंसान है—फिर भी जब वह अपने से बेहतर किसी व्यक्ति को देखता है तो उसे सता सकता है, उसे पूरी तरह कुचल सकता है। यहाँ मुद्दा क्या है? जो लोग ऐसे बुरे कर्म कर सकते हैं, क्या वे अनैतिक और स्वेच्छाचारी नहीं हैं? ऐसे लोग केवल अपने हितों के बारे में सोचते हैं, वे केवल अपनी भावनाओं का खयाल करते हैं, और वे केवल अपनी इच्छाओं, महत्वाकांक्षाओं और अपने लक्ष्यों को पाना चाहते हैं। वे इस बात की परवाह नहीं करते कि वे कलीसिया के कार्य को कितना नुकसान पहुँचाते हैं, और वे अपनी प्रतिष्ठा और लोगों के मन में अपने रुतबे की रक्षा के लिए परमेश्वर के घर के हितों का बलिदान करना पसंद करेंगे। क्या ऐसे लोग अभिमानी और आत्मतुष्ट, स्वार्थी और नीच नहीं होते? ऐसे लोग अभिमानी और आत्मतुष्ट ही नहीं, बल्कि बेहद स्वार्थी और नीच भी होते हैं। वे परमेश्वर के इरादों को लेकर बिल्कुल विचारशील नहीं हैं। क्या ऐसे लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है? उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल नहीं होता। यही कारण है कि वे मनमाने ढंग से कार्य करते हैं और वही करते हैं जो करना चाहते हैं, उन्हें कोई अपराध-बोध नहीं होता, कोई घबराहट नहीं होती, कोई भी भय या चिंता नहीं होती और वे परिणामों पर भी विचार नहीं करते। यही वे अक्सर करते हैं, और इसी तरह उन्‍होंने हमेशा आचरण किया है। इस तरह के आचरण की प्रकृति क्या है? हल्‍के-फुल्‍के ढंग से कहें, तो इस तरह के लोग बहुत अधिक ईर्ष्‍यालु होते हैं और उनमें अपनी निजी प्रतिष्ठा और रुतबे की बहुत प्रबल आकांक्षा होती है; वे बहुत धोखेबाज और धूर्त होते हैं। और अधिक कठोर ढंग से कहें, तो समस्‍या का सार यह है कि इस तरह के लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल नहीं होता। उन्हें परमेश्वर से नहीं डरते, वे अपने आपको सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हैं और वे अपने हर पहलू को परमेश्वर से भी ऊँचा और सत्य से भी बड़ा मानते हैं। उनके दिलों में परमेश्वर उल्लेख के योग्य नहीं है और महत्वहीन है, उनके दिलों में परमेश्वर का कहीं कोई दर्जा नहीं होता है। जिनके हृदय में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है और जिनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं है क्‍या वे सत्‍य का अभ्यास कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं। इसलिए जब वे सामान्यतः उत्साहित होकर और ढेर सारे प्रयास खपाते हुए खुद को व्‍यस्‍त बनाये रखते हैं, तब वे क्‍या कर रहे होते हैं? ऐसे लोग यह तक दावा करते हैं कि उन्‍होंने परमेश्वर के लिए खपने की खातिर सब कुछ त्‍याग दिया है और बहुत अधिक पीड़ा सही है, लेकिन वास्‍तव में उनके सारे क्रियाकलापों का प्रयोजन, सिद्धांत और उद्देश्य खुद के रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए हैं, अपने सारे हितों की रक्षा करने के लिए है। क्या तुम लोग ऐसे व्यक्ति को बहुत ही भयावह कहोगे कि नहीं कहोगे? किस तरह के लोगों में वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता? क्या वे अहंकारी नहीं हैं? क्या वे शैतान नहीं हैं? और किन चीजों में परमेश्वर का भय मानने वाला दिल सबसे कम होता है? जानवरों के अलावा, बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों में, दानवों और शैतान के जैसों में। वे सत्य को जरा-भी नहीं स्वीकारते; उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल नहीं होता। वे किसी भी बुराई को करने में सक्षम हैं; वे परमेश्वर के शत्रु हैं, और उसके चुने हुए लोगों के भी शत्रु हैं।

अपने दैनिक जीवन में तुम लोगों का दिल किन मामलों में परमेश्वर का भय मानता है? और किन मामलों में नहीं? जब कोई तुम्हें ठेस पहुँचाता है या तुम्हारे हितों का अतिक्रमण करता है तो क्या तुम उससे नफरत कर पाते हो? और जब तुम किसी से नफरत करते हो तो क्या उसे सताने और बदला लेने में सक्षम होते हो? (हाँ।) फिर तो तुम बहुत डरावने हो! अगर तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं है और तुम बुरी चीजें करने में सक्षम हो तो तुम्हारा यह क्रूर स्वभाव कहीं ज्यादा गंभीर है! प्रेम और नफरत ऐसे गुण हैं जो एक सामान्य इंसान में होने चाहिए, लेकिन तुम्हें साफ तौर पर यह भेद पता होना चाहिए कि तुम किन चीजों से प्रेम करते हो और किनसे नफरत। अपने दिल में, तुम्हें परमेश्वर से, सत्य से, सकारात्मक चीजों और अपने भाई-बहनों से प्रेम करना चाहिए, जबकि दानवों और शैतान से, नकारात्मक चीजों से, मसीह-विरोधियों से और बुरे लोगों से नफरत करनी चाहिए। अगर तुम नफरत वश अपने भाई-बहनों को दबाकर उनसे बदला ले सकते हो तो यह बहुत भयावह होगा और यह दुष्ट व्यक्ति का स्वभाव है। कुछ लोगों में केवल घृणित विचार और घृणित, बुरे ख्याल होते हैं, उन्होंने कभी कोई बुराई नहीं की होती है और इसलिए वे बुरे लोग नहीं हैं। ऐसा इसलिए कि जब कुछ घटित होता है तो वे सत्य को खोजने में सक्षम होते हैं और अपने आचरण में और चीजों से निपटने के तरीके में सिद्धांतों का ध्यान रखते हैं! दूसरों से मिलते-जुलते समय वे उन्हें बाध्य नहीं करते हैं; अगर उस व्यक्ति के साथ उनकी पटरी बैठ रही है तो वे मिलना-जुलना जारी रखते हैं; अगर पटरी नहीं बैठती तो मिलना-जुलना जारी नहीं रखते। यह उनके कर्तव्य निर्वहन या उनके जीवन प्रवेश को बिल्कुल भी प्रभावित नहीं करता है। उनके दिल में परमेश्वर है और उनका दिल परमेश्वर का भय मानता है। उनमें परमेश्वर के अपमान की इच्छा नहीं होती और वे ऐसा करने से भी डरते हैं। यूँ तो ऐसे लोग कुछ गलत सोच-विचार पाल सकते हैं, लेकिन वे उनके खिलाफ विद्रोह कर लेते हैं और उन्हें त्याग लेते हैं। वे अपने कार्य-कलापों पर लगाम लगाकर रखते हैं और ऐसी कोई बात नहीं बोलते जो अनुचित हो या परमेश्वर का अपमान करती हो। जो लोग इस तरह से बोलते और पेश आते हैं, वे सिद्धांत वाले होते हैं और सत्य का अभ्यास करते हैं। हो सकता है कि तुम्हारा व्यक्तित्व किसी और से मेल न खाए और तुम उसे पसंद भी न करो, लेकिन जब तुम उसके साथ मिलकर काम करते हो तो तुम निष्पक्ष रहते हो और तुम अपना कर्तव्य निभाने में अपनी भड़ास नहीं निकालोगे या परमेश्वर के परिवार के हितों पर अपना गुस्सा नहीं उतारते; तुम मामलों को सिद्धांतों के अनुसार सँभाल सकते हो। यह कौन-सी अभिव्यक्ति है? यह परमेश्वर का भय मानने वाला बुनियादी दिल होने की अभिव्यक्ति है। इससे बेहतर स्थिति में जब तुम यह देखते हो कि किसी व्यक्ति में कुछ कमियाँ या कमजोरियाँ हैं तो भले ही उन्होंने तुम्हें नाराज किया हो या वे तुम्हारे प्रति पूर्वाग्रह रखते हों, फिर भी तुम उनके साथ सही व्यवहार करते हो और प्रेमपूर्वक उनकी मदद करते हो। इसका मतलब है कि तुममें प्रेम है, तुममें इंसानियत है, तुम दयालु हो और सत्य का अभ्यास करते हो, तुम एक ऐसे ईमानदार व्यक्ति हो जिसमें सत्य वास्तविकताएँ हैं और जिसका दिल परमेश्वर का भय मानता है। यदि तुम्हारा आध्यात्मिक कद छोटा है, लेकिन तुममें संकल्प है और तुम सत्य के लिए प्रयास करने के इच्छुक हो, चीजों को सिद्धांत के अनुसार करने का जतन करते हो और सिद्धांतों के अनुसार आचरण कर सकते हो, चीजों से निपट सकते हो और लोगों के साथ व्यवहार कर सकते हो तो इसे भी थोड़ा-सा परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होना माना जाएगा; यह सर्वाधिक बुनियादी बात है। यदि तुम इसे भी प्राप्त नहीं कर सकते, और अपने-आपको रोक नहीं सकते हो, तो तुम्हें बहुत खतरा है और तुम काफी भयावह हो। यदि तुम्हें कोई पद दिया जाता है तो तुम लोगों को सता सकते हो; फिर तुम किसी भी क्षण मसीह-विरोधी में बदल सकते हो। कोई व्यक्ति चाहे अच्छा हो या बुरा, परमेश्वर में चाहे जैसे विश्वास रखता हो या चाहे जिस रास्ते पर चलता हो, कुछ ही वर्षों में उसका खुलासा हो जाएगा। ऐसे लोगों के साथ तुम्हें सिद्धांत-सम्मत तरीकों से पेश आना चाहिए, उनका परिणाम चाहे जो निकले, उन्हें दंड दिया जाना चाहिए या पुरस्कार—यह परमेश्वर का मामला है। अगर तुम उनमें भेद करने और उनसे सिद्धांतों के अनुसार पेश आने में सक्षम हो, तो यही काफी है। तुम चाहे जिससे भी निपट रहे हो, अगर परमेश्वर ने यह निर्धारित नहीं किया है कि इस तरह के लोगों का परिणाम कैसा होगा, कलीसिया ने उन्हें नहीं निकाला है और परमेश्वर ने उन्हें दंडित नहीं किया है तो वे अभी भी बचाए जाने के चरण में हैं। ऐसे में तुम्हें धैर्यपूर्वक, प्रेम के कारण उनकी मदद करनी चाहिए; तुम्हें ऐसे लोगों का परिणाम निर्धारित नहीं करना चाहिए, न ही उन्हें सताने के लिए मानवीय साधन इस्तेमाल करने चाहिए। अगर उनमें भ्रष्टता का प्रकटन है तो तुम या तो ऐसे लोगों की काट-छाँट कर सकते हो या फिर ईमानदारी से अपना दिल खोल सकते हो और उनकी मदद करने के लिए संगति में शामिल हो सकते हो। लेकिन अगर तुम इन लोगों को सताने, उनका बहिष्कार करने और उन्हें झूठा फँसाने पर विचार करते हो, स्वर्ग के नाम पर गलतियाँ दुरुस्त करने का प्रयास करते हो तो तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। क्या ऐसा करना सत्य के अनुरूप होगा? ऐसे विचार आवेशपूर्ण होने के परिणामस्वरूप आएँगे; ऐसे विचार शैतान से आते हैं और मनुष्य के आक्रोश के साथ ही मानवीय ईर्ष्या और घृणा से उत्पन्न होते हैं। ऐसा आचरण सत्य के अनुरूप नहीं है। यह कुछ ऐसा है जिसके कारण तुम्हें दंड मिल सकता है, और तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। क्या तुम लोगों को सताने के विभिन्न तरीके सोचने में इसलिए सक्षम हो कि वे तुम लोगों की पसंद के अनुरूप नहीं हैं या उनका तुम्हारे साथ तालमेल नहीं बैठता? क्या तुम लोगों ने पहले कभी इस तरह की चीजें की हैं? तुमने इस तरह की कितनी चीजें की हैं? क्या तुमने हमेशा अप्रत्यक्ष रूप से लोगों को नीचा दिखाते हुए, उनको टोकते हुए टिप्पणियां नहीं कीं और उन पर व्यंग्य बाण नहीं चलाए? जब तुम ऐसी चीजें कर रहे थे तो तुम लोग किन दशाओं में थे? उस समय तुम अपनी भड़ास निकाल रहे थे और खुशी महसूस कर रहे थे; तब तुम लाभ की स्थिति में थे। लेकिन बाद में तुमने मन ही मन सोचा, “मैंने बहुत घिनौना काम किया है। मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं है और मैंने उस व्यक्ति के साथ बहुत ही पक्षपातपूर्ण व्यवहार किया है।” अपने अंतरतम में, क्या तुमने खुद को दोषी महसूस किया? (हाँ।) हालाँकि, तुम लोगों का दिल परमेश्वर का भय नहीं मानता है, लेकिन तुम्हारे अंदर अंतरात्मा की कुछ समझ है। तो, क्या तुम अब भी भविष्य में इस तरह की चीजें करने में सक्षम हो? जब तुम लोगों को नापसंद करते हो या जब उनसे तालमेल नहीं बैठा पाते या जब वे तुम्हारी बात नहीं मानते या नहीं सुनते, तो क्या तुम उन पर आक्षेप लगाने और उनसे बदला लेने की सोच सकते हो? जो व्यक्ति ऐसी चीजें करता है, उसके पास किस तरह की मानवता है? अपनी मानवता के मामले में वह एक दुर्भावनापूर्ण व्यक्ति है। सत्य के पैमाने पर देखें तो उसका दिल परमेश्वर का भय नहीं मानता। उसकी कथनी-करनी में कोई सिद्धांत नहीं होता; वह निरंकुश तरीके से काम करता है और जो पसंद हो वही कहता और करता है। क्या ऐसे लोगों के पास सत्य वास्तविकताएँ होती हैं? बेशक नहीं; इसका जवाब शत-प्रतिशत “नहीं” है। जिस व्यक्ति में परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता क्या वह सचमुच परमेश्वर के प्रति समर्पण और उसकी आराधना कर सकता है? बिल्कुल भी नहीं।

कुछ लोग कहते हैं : “जब मैं आपदाएँ आती देखता हूँ तो अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करता हूँ, किसी भी क्षण परमेश्वर को छोड़ने का साहस नहीं करता और परमेश्वर से मार्गदर्शन और सुरक्षा माँगता हूँ। मैं जब रात में सड़क पर अकेला चल रहा होता हूँ या जब मुझ पर खतरा आता है, मैं हमेशा परमेश्वर पर भरोसा करता हूँ, उसे छोड़ने की हिम्मत नहीं करता और उससे मदद माँगता हूँ। जब मैं अपना कर्तव्य निभाता हूँ तो अपने दिल में परमेश्वर से निरंतर प्रार्थना करता हूँ और उससे विनती करता हूँ कि वह बार-बार मुझे अनुशासित करे ताकि मैं अनमना न होऊँ और ताकि वह अपने हाथ में नियंत्रण ले। नहीं तो मैं कुछ भी नहीं कर सकता और मैं कुछ भी नहीं हूँ।” क्या यह ऐसा व्यक्ति है जिसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है? (नहीं।) क्या परमेश्वर पर निर्भर रहना कोई गलती है? क्या परमेश्वर से सुरक्षा माँगना कोई गलती है? ऊपर कहे गए शब्द गलत नहीं हैं, पर इस प्रकार की स्थिति असामान्य है। इसका मतलब तो यह निकला कि तुम परमेश्वर को सिर्फ इसलिए खोजते हो क्योंकि तुम्हारा कोई सहारा नहीं है, तुम कहीं नहीं जा सकते, तुम बाध्य हो और इस मामले में तुम्हारे पास कोई चारा नहीं है, और तुम परमेश्वर को अपने कार्य साधने के लिए इस्तेमाल करना चाहते हो ताकि तुम्हारे लक्ष्य पूरे हो सकें। क्या यह परमेश्वर का भय मानना हुआ? जब कोई समस्या नहीं होगी, तुम पहले ही परमेश्वर को पूरी तरह भुला चुके होगे। जब तुम्हारी खुशी का कोई ठिकाना नहीं होता, जब तुम कामयाबी से दमकते हो, जब तुम्हारा रुतबा बाकी सभी लोगों से इतना बढ़ चुका होता है कि वे तुम्हारी खुशामद करते और स्तुति गाते हैं, तो ऐसा कैसे है कि तब तुम परमेश्वर पर भरोसा नहीं करते? ऐसा कैसे है कि तुम परमेश्वर की जाँच-पड़ताल नहीं स्वीकार करते हो या उसका मार्गदर्शन नहीं खोजते हो? ऐसा कैसे है कि तुम परमेश्वर से नहीं पूछते कि तुम जो कुछ भी करते हो, वह उसके इरादों के अनुरूप है या नहीं? जब तुम कोई बुराई करते हो, स्वयं को ऊँचा उठाते हो और अपनी गवाही देते हो तब तुम कैसे परमेश्वर से नहीं पूछते कि यह उसके इरादों के अनुरूप है कि नहीं? ऐसा कैसे है कि तुम न तो आत्म-चिंतन करते हो, न स्वयं को संयमित करने के लिए परमेश्वर का आसरा लेते हो? यह किस प्रकार की समस्या है? ये सभी स्थितियाँ क्या कहलाती हैं? परमेश्वर का भय मानने वाला दिल न होना। जिस व्यक्ति के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल न हो, क्या वह अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकता है? क्या वह वास्तव में अच्छा इंसान बन सकता है? क्या वह सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकता है? (नहीं, वह प्रवेश नहीं कर सकता।) ऐसे लोग वाकई प्रवेश नहीं कर सकते। परमेश्वर का भय मानने वाले दिल के बगैर वे चाहकर भी अपना कर्तव्य अच्छे से बिल्कुल नहीं निभा सकते, न सत्य को अभ्यास में ला सकते हैं, न परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हैं। परमेश्वर का भय मानने वाले दिल के बिना सत्य का अभ्यास करना आसान नहीं है। अगर वे अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहते हैं तो निश्चित रूप से अनेक कठिनाइयाँ और बाधाएँ आएँगी, और वे सफलतापूर्वक सत्य को अभ्यास में नहीं ला पाएंगे। इस वक्त, तुम लोगों को अपने दिल को शांत करना और एक पल के लिए सोचना चाहिए। तुम्हारे वर्तमान आध्यात्मिक कद के आधार पर तुम लोगों के लिए मानक-स्तरीय तरीके से अपना कर्तव्य निभाना अब भी बहुत कठिन है, क्योंकि तुममें से अधिकतर लोगों को अभी केवल शब्दों, धर्म-सिद्धांतों और विनियमों की पकड़ है, साथ ही तुम्हारी कुछ व्यक्तिगत इच्छाएँ हैं, आकांक्षाएँ हैं और उत्साह है। लेकिन तुम्हारा प्रारंभिक बिंदु और तुम्हारे अभ्यास के मापदंड परमेश्वर के वचनों की नींव पर नहीं टिके हैं। तुम लोगों ने अब भी सत्य वास्तविकता में सचमुच प्रवेश नहीं किया है; तुम केवल विनियमों को मान रहे हो। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते तो भविष्य में यह तुम्हारे लिए बहुत खतरनाक होगा। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो लेकिन सत्य का अभ्यास नहीं करते या परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करते हो तो फिर देर-सवेर हटा दिए जाओगे। कोई व्यक्ति सच्चा विश्वास करता है या झूठा, इसे वर्षों में नहीं आँका जाता; तुम लंबे अरसे से, कई बरसों से परमेश्वर पर विश्वास कर रहे हो, इसका मतलब यह नहीं है कि तुम सच्चा विश्वास करते हो और इसके कारण परमेश्वर तुम्हें मान्यता देगा। अंत में, परमेश्वर सत्य का अभ्यास न करने वाले लोगों को नहीं स्वीकारेगा। वह उनका खुलासा कर उन्हें हटा देगा। तुम लोगों को यह समझना चाहिए।

अभी-अभी हमने उन चार शर्तों पर संगति की है जिन्हें परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चलने के लिए पूरा करना आवश्यक है। लेकिन एक अंतिम शर्त और है जो सबसे महत्वपूर्ण है, और जिसे तुम लोग अक्सर कहते भी हो। क्षण भर सोचो कि यह क्या हो सकती है। (परमेश्वर से प्रेम करना।) फिलहाल हम परमेश्वर से प्यार करने के विषय को नहीं छूएंगे, जिसे लेकर अधिकतर लोगों में बहुत कमी है। चलो हम किसी अधिक व्यावहारिक और वास्तविक चीज पर बात करते हैं जो एक ऐसे सत्य से जुड़ी है जिसे लोग वास्तव में प्रयास करके हासिल कर सकते हैं। (परमेश्वर के प्रति समर्पण करना।) सही कहा। इसका अर्थ है परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला दिल होना। अधिकांश समय जब लोगों के साथ कोई घटना हो जाती है, वे वास्तव में अभ्यास के सही सिद्धांतों को नहीं जानते हैं, उन्हें सही दिशा के रुख या कार्य करने के लिए सही लक्ष्य का ज्ञान भी नहीं होता है। लेकिन यहाँ पर उनके रवैये और उनकी अवस्था के साथ एक मसला है : उनके पास परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला दिल होना चाहिए। इसका होना लोगों के लिए सबसे जरूरी है। उदाहरण के लिए : मान लो तुम्हारे साथ कुछ हो जाता है, तुम्हें नहीं पता कि क्या करना है, न तुमने किसी और से सुना है कि क्या करना चाहिए। मुमकिन है यह मामला न तो तुम्हारी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हो, न ठीक तुम्हारी रुचि के अनुरूप; लिहाजा तुम्हारे दिल में कुछ प्रतिरोध होता है, और तुम कुछ परेशान हो जाते हो। तो तुम्हें क्या करना चाहिए? ऐसे में अभ्यास का एक सबसे सरल रास्ता है, यह कि सबसे पहले समर्पण करो। समर्पण न तो कोई बाहरी क्रिया या उक्ति है, न कोई मौखिक दावा—यह एक आंतरिक अवस्था है। यह तुम लोगों के लिए अनजानी चीज नहीं होनी चाहिए। अपने वास्तविक अनुभवों के आधार पर बताओ कि जब लोग सच्चा समर्पण करते हैं तो वे कैसे बोलते, काम करते और सोचते हैं, और उनकी अवस्था और रवैया कैसा होता है? (वे जिन चीजों को अभी तक नहीं समझते, सबसे पहले उनके बारे में अपनी धारणाओं और कल्पनाओं से किनारा करते हैं। वे सत्य और परमेश्वर के इरादों को खोजते हैं। अगर खोजने के बाद भी वे समझते नहीं हैं तो फिर वे परमेश्वर के उचित समय का इंतजार करना सीखते हैं।) यह इसका एक पहलू है। और क्या है? (जब उनकी काट-छाँट होती है, तो वे अपनी समझ को लेकर बहस नहीं करते या अपना बचाव नहीं करते।) यह इस दशा का दूसरा पहलू है। कुछ लोग भले ही तुम्हारे मुँह पर अपनी समझ को लेकर बहस न करें या अपना बचाव न करें, मगर वे शिकायतों और असंतोष से भरे होते हैं। वे यह तुम्हारे मुँह पर नहीं कहते, मगर तुम्हारी पीठ पीछे अनाप-शनाप ढंग से बात करते हैं और इसे सब जगह फैला देते हैं। क्या यह समर्पण का रवैया है? (नहीं है।) तो फिर समर्पण का रवैया आखिर क्या है? सबसे पहले तो तुम्हारे पास एक सकारात्मक रवैया होना चाहिए : जब तुम्हारी काट-छाँट हो तो सबसे पहले सही-गलत का विश्लेषण करने मत बैठ जाओ—इसे समर्पित मन से स्वीकारो। उदाहरण के लिए, कोई कह सकता है कि तुमने कुछ गलत किया है। यूँ तो तुम अपने दिल में नहीं समझते हो और तुम यह नहीं जानते हो कि तुमने क्या गलत किया है, फिर भी तुम इसे स्वीकारते हो। स्वीकार करना मूल रूप से एक सकारात्मक रवैया है। इसके अलावा ऐसा रवैया भी है जो इससे थोड़ा सा ज्यादा निष्क्रिय है, वह है चुप रहना और कोई प्रतिरोध न करना। इसमें किस तरह का व्यवहार शामिल है? तुम अपनी समझ पर बहस नहीं करते, अपना बचाव नहीं करते, या अपने लिए वस्तुनिष्ठ बहाने नहीं बनाते। अगर तुम हमेशा अपने लिए बहाने बनाते हो और तर्क-वितर्क करते हो, और जिम्मेदारी दूसरे लोगों पर ठेलते हो तो क्या यह प्रतिरोध है? यह विद्रोह का स्वभाव है। तुम्हें अस्वीकार, प्रतिरोध या समझ को लेकर तर्क-वितर्क नहीं करना चाहिए। भले ही तुम्हारा तर्क दुरुस्त है, लेकिन क्या यह सत्य है? यह मनुष्य का वस्तुनिष्ठ बहाना है, सत्य नहीं। तुमसे वस्तुनिष्ठ बहानों के बारे में नहीं पूछा जा रहा है—यह चीज क्यों हुई, या कैसे हुई—बल्कि, तुम्हें यह बताया जा रहा है कि उस कार्यकलाप की प्रकृति सत्य के अनुरूप नहीं थी। यदि तुम्हारे पास इस स्तर का ज्ञान है, तो तुम वास्तव में स्वीकार करने और प्रतिरोध न करने में सक्षम होओगे। सबसे पहले अपने साथ कुछ घटित होने पर समर्पण का रवैया रखना महत्वपूर्ण है। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो काट-छाँट का सामना होने के बाद हमेशा अपने तर्क पर बात करते हैं और अपना बचाव करते हैं : “इसके लिए मैं ही अकेला दोषी नहीं हूँ, तो फिर सारी जिम्मेदारी मेरे मत्थे कैसे डाल दी गई? मेरी ओर से कोई क्यों नहीं बोल रहा है? इसकी सारी जिम्मेदारी अकेले मुझ पर ही क्यों है? यह तो वाकई ‘हर कोई लाभ उठाता है लेकिन केवल एक व्यक्ति दोष लेता है’ जैसी स्थिति हो गई। मेरी तो किस्मत ही खराब है!” यह कैसी भावना है? यह प्रतिरोध है। यद्यपि ऊपरी तौर पर वे सिर हिलाकर अपनी गलती कबूलते हैं, अपने शब्दों के जरिए भी स्वीकारते हैं, लेकिन मन ही मन वे शिकायत करते हैं, “अगर तुम मेरी काट-छाँट करना चाहते हो तो करो, लेकिन इतने कटु शब्द बोलने की जरूरत क्या है? तुम इतने सारे लोगों के सामने मेरी आलोचना कर रहे हो, लेकिन मैं अपना मुँह लेकर कहाँ जाऊँ? तुम मुझसे प्यार से पेश नहीं आ रहे हो! मैंने एक छोटी-सी ही गलती तो की, फिर क्यों लगातार सुनाए जा रहे हो?” वे अपने दिल में इतने प्रतिरोधी और अनाज्ञाकारी होते हैं, हठपूर्वक इसका विरोध करते हैं, और वे अनुचित तरीके से कार्य करते हैं और अपनी समझ को लेकर बहस करते हैं। जो कोई ऐसे विचार और भावनाएँ रखता है वह साफ तौर पर प्रतिरोधी और विरोधी होता है, इसलिए उसके पास सच्चे ढंग का समर्पण का रवैया कैसे होगा? काट-छाँट का सामना होने पर एक स्वीकारात्मक और समर्पण के रवैये में कौन से क्रियाकलाप आते हैं? कम-से-कम तुम्हें समझदार होना चाहिए और तुम्हारे पास विवेक होना चाहिए। तुम्हें पहले समर्पण करना चाहिए, इसका विरोध या इसे अस्वीकार नहीं करना चाहिए और इसके साथ तार्किकता से पेश आना चाहिए। इस तरीके से तुम्हारे पास न्यूनतम आवश्यक विवेक होगा। अगर तुम स्वीकृति और समर्पण हासिल करना चाहते हो तो तुम्हें सत्य को समझना होगा। सत्य को समझना कोई आसान चीज नहीं है। सबसे पहले तुम्हें परमेश्वर से चीजों को स्वीकारना होगा : तुम्हें कम-से-कम यह तो जानना ही चाहिए कि काट-छाँट होना एक ऐसी चीज है जिसे परमेश्वर तुम्हासे साथ होने देता है या यह परमेश्वर से आती है। काट-छाँट चाहे पूरी तरह से उचित हो या नहीं, तुम्हें स्वीकार करने वाला और समर्पण का रवैया रखना चाहिए। यह परमेश्वर के प्रति समर्पण की अभिव्यक्ति है और साथ ही यह परमेश्वर के हाथों जाँच-पड़ताल स्वीकारना भी है। यदि तुम बस अपने तर्क पर बात करते रहते हो और अपना बचाव करते रहते हो, यह सोचते हो कि काट-छाँट परमेश्वर से नहीं बल्कि मनुष्य से आती है तो तुम्हारी समझ विकृत है। एक बात तो यह है कि तुमने परमेश्वर के हाथों जाँच-पड़ताल को स्वीकार नहीं किया है और दूसरी बात परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जो परिवेश तैयार किया है उसमें तुम्हारे पास न तो समर्पण का रवैया है, न ही समर्पण का व्यवहार है। यह एक ऐसा व्यक्ति है जो परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करता है। कुछ लोग काट-छाँट का सामना होने पर न तो सत्य स्वीकारते हैं, न आत्म-चिंतन ही करते हैं; वे बस आँख मूँदकर विनियमों का पालन करते हैं। उनके क्रियाकलाप साफ तौर पर सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं और वे सारा दोष शैतान पर मढ़ते हैं। वे कहते हैं : “उचित फल ही मिला है! किसने इस बूढ़े शैतान को बिना विचारे खुद को दिखाने दिया है, बिना विचारे कार्य करने दिया, बिना विचारे चीजों को गड़बड़ करने दिया और बिना विचारे बाधाएँ पैदा करने दी हैं? शैतान की काट-छाँट होनी चाहिए, इसे शर्मसार कर मुँह दिखाने लायक नहीं छोड़ना चाहिए, और बेइज्जत करना चाहिए! इसकी जिम्मेदारी शैतान को लेनी चाहिए; इसका मुझसे कोई वास्ता नहीं है! सारा दोष शैतान का है!” तब जाकर उनके दिल को खुशी मिलेगी, और उन्हें लगेगा कि उन्होंने शैतान पर विजय प्राप्त कर ली है। क्या यह सोचने का हास्यास्पद तरीका नहीं है? जाहिर है, उन्होंने खुद ही कुछ गलत किया और अब कहते हैं यह शैतान का किया-धरा है। तो क्या यह वास्तव में उन्होंने किया या शैतान ने? (यह खुद उन्होंने किया।) क्या वे सचमुच समझते हैं कि शैतान तो वे खुद हैं? (वे नहीं समझते।) तो क्या वे वाकई शैतान से नफरत करते हैं या खुद से? वे साफ-साफ जवाब नही दे पाते हैं। संक्षेप में, जो अपनी काट-छाँट को नहीं स्वीकारता, वह परमेश्वर के प्रति भी बिल्कुल समर्पित नहीं है। समर्पण सीखना सबके लिए सबसे कठिन सबक है। अधिसंख्य लोगों के साथ जब कुछ ऐसा होता है जो उनकी अपनी धारणाओं, कल्पनाओं और रुचियों के अनुरूप हो तो वे काफी अच्छा महसूस करते हैं, इसलिए वे समर्पण करके मुदित होते हैं, और सब कुछ ठीकठाक रहता है। उनके दिल में सुकून और शांति होती है, और वे खुश और मुदित होते हैं। लेकिन जब उनका सामना किसी ऐसी चीज से होता है जो उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं है, या जो उनके प्रतिकूल है तो वे यह जानते हुए भी कि समर्पण करना चाहिए, ऐसा कर नहीं पाते। वे पीड़ा से गुजरते हैं, इसे चुपचाप सहने के सिवाय उनके पास दूसरा चारा नहीं होता, और अपनी कठिनाइयों के बारे में बात करना उनके लिए मुश्किल हो जाता है। वे उदास महसूस करते हैं और ऐसी शिकायतों से भर जाते हैं जिन्हें व्यक्त नहीं किया जा सकता, इसलिए उनके दिल उबलने लगते हैं : “दूसरे लोग सही हैं। उनके पास मुझसे ऊँचा रुतबा है; मैं उन्हें कैसे नहीं सुन सकता हूँ? मुझे अपनी नियति स्वीकार कर ही लेनी चाहिए। मुझे आगे से और सतर्क रहना चाहिए और साहसी कदम उठाकर जोखिम मोल नहीं लेना चाहिए—जो लोग जोखिम मोल लेते हैं उनकी काट-छाँट की जाती है। समर्पण सरल नहीं है। बहुत कठिन है! मेरे उत्साह की आग को बाल्टी भर ठंडा पानी डालकर बुझा दिया गया है। मैं सरल और साफदिल वाला बनना चाहता था, लेकिन नतीजा यह है कि मैं गलत ढंग से बोलता रहा और मेरी काट-छाँट की जाती रही। भविष्य में मैं चुप ही रहूँगा और खुशामदी इंसान बनूँगा।” यह किस तरह का रवैया है? यह एक अति से दूसरी अति की ओर जाना है। लोगों को समर्पण का पाठ सिखाने का परमेश्वर का अंतिम लक्ष्य क्या है? उस समय तुम्हें चाहे जितना अन्याय और दर्द सहना पड़े, चाहे जितनी शर्मिंदा किया जाए या तुम्हारी छवि, अहं या प्रतिष्ठा को चाहे जितनी चोट पहुँचे, ये सभी गौण हैं। सबसे महत्वपूर्ण है अपनी दशा को पलटना। कैसी दशा? सामान्य परिस्थितियों में लोगों के दिल की गहराइयों में एक प्रकार की अड़ियल और विद्रोही दशा मौजूद होती है—जिसका मुख्य कारण यह है कि उनके दिल में खास तरह के मानवीय तर्क और मानवीय धारणाओं का समुच्चय होता है जो इस प्रकार हैं : “अगर मेरे इरादे सही हैं, तो इससे फर्क नहीं पड़ता कि परिणाम क्या है; तुम्हें मेरी काट-छाँट नहीं करनी चाहिए और यदि तुम ऐसा करते हो तो मुझे आज्ञापालन करने की आवश्यकता नहीं है।” वे इस बात पर विचार नहीं करते कि क्या उनके कार्य सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हैं या परिणाम क्या होंगे। वे हमेशा इन बातों से चिपके रहते हैं, “अगर मेरे इरादे नेक और सही हैं, तो परमेश्वर को मुझे स्वीकार करना चाहिए। भले ही परिणाम अच्छा न हो, तुम्हें मेरी काट-छाँट नहीं करनी चाहिए, मेरी निंदा करने की बात तो बहुत दूर है।” यह मानवीय तर्क है, है न? ये मानवीय धारणाएँ हैं न? मनुष्य हमेशा अपने तर्क पर कायम रहता है—क्या इसमें कोई समर्पण है? तुमने अपने तर्क को सत्य बना लिया है और सत्य को दरकिनार कर दिया है। तुम्हें लगता है, जो तुम्हारे तर्क के अनुरूप है वह सत्य है और जो नहीं है वह सत्य नहीं है। क्या तुमसे ज्यादा बेतुका और कोई है? क्या तुमसे ज्यादा अहंकारी और आत्मतुष्ट कोई है? समर्पण का सबक सीखने के लिए वह कौन-सा मुख्य भ्रष्ट स्वभाव है जिसका समाधान किया जाना चाहिए? यह वास्तव में अहंकार और आत्मतुष्टता का स्वभाव ही है जो लोगों के सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सबसे बड़ी बाधा होता है। अहंकारी और आत्मतुष्ट स्वभाव वाले लोग अपने तर्क पर बात करने और अवज्ञाकारी होने की ओर सबसे अधिक प्रवृत्त होते हैं, वे हमेशा सोचते हैं कि वे सही हैं, इसलिए उनके अहंकारी और आत्मतुष्ट स्वभाव का समाधान करने और उनकी काट-छाँट करने से ज्यादा जरूरी कुछ नहीं है। जब लोग अच्छे व्यवहार वाले हो जाएँगे और अपने लिए तर्क देने बंद कर देंगे तो विद्रोहीपन की समस्या हल हो जाएगी और वे समर्पित बनने में समर्थ हो जाएंगे। अगर लोगों को समर्पित बनने में सक्षम होना है, तो क्या उनमें कुछ हद तक तार्किकता होनी आवश्यक नहीं है? उनमें एक सामान्य व्यक्ति की समझ होनी चाहिए। उदाहरण के लिए, कुछ मामलों में हमने चाहे सही काम किया हो या नहीं, अगर परमेश्वर संतुष्ट नहीं है, तो हमें वही करना चाहिए जैसा परमेश्वर कहता है और उसके वचनों को हर चीज के लिए मानक मानना चाहिए। क्या यह तर्कसंगत है? लोगों में बाकी सब चीजों से पहले ऐसा ही विवेक पाया जाना चाहिए। हम चाहे कितना भी कष्ट उठाएँ, चाहे हमारे इरादे, उद्देश्य और कारण कुछ भी हों, यदि परमेश्वर संतुष्ट नहीं है—यदि उसकी अपेक्षाएँ पूरी नहीं हुई हैं—तो हमारे कार्य निस्संदेह सत्य के अनुरूप नहीं हैं, इसलिए हमें परमेश्वर की बात मानकर उसके प्रति समर्पण करना चाहिए और उसके साथ अपनी समझ पर बहस या तर्क करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। जब तुममें ऐसी तार्किकता होगी, जब तुममें एक सामान्य व्यक्ति का विवेक होगा तो तुम्हारी समस्याएँ हल करना आसान होता है और तुम सच में समर्पणशील होओगे। तुम चाहे किसी भी स्थिति में हो, तुम विद्रोही नहीं होओगे और परमेश्वर की अपेक्षाओं की अवहेलना नहीं करोगे; तुम यह विश्लेषण नहीं करोगे कि परमेश्वर जो चाहता है वह सही है या गलत, अच्छा है या बुरा और तुम आज्ञापालन कर पाओगे—इस तरह तुम खुद को सही ठहराने, अड़ियलपन और विद्रोह की दशा का समाधान हो जाएगा। क्या सबके भीतर ऐसी विद्रोही स्थिति होती है? लोगों में ये दशाएँ अक्सर प्रकट होती हैं और वे मन ही मन सोचते हैं, “अगर मेरा तरीका, प्रस्तावनाएँ और सुझाव विवेकपूर्ण है तो भले ही मैं सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करूँ, मेरी काट-छाँट नहीं की जानी चाहिए क्योंकि मैंने कोई बुराई नहीं की है।” यह लोगों में एक सामान्य अवस्था होती है। उनका यह नजरिया होता है कि अगर उन्होंने कोई दुष्कर्म नहीं किया है, तो उनकी काट-छाँट नहीं की जानी चाहिए; केवल उन्हीं लोगों की काट-छाँट की जानी चाहिए, जिन्होंने दुष्कर्म किया हो। क्या यह नजरिया सही है? निश्चित रूप से नहीं। काट-छाँट के निशाने पर मुख्य रूप से लोगों के भ्रष्ट स्वभाव होते हैं। अगर किसी का स्वभाव भ्रष्ट है तो उसकी काट-छाँट की जानी चाहिए। अगर उसकी काट-छाँट केवल दुष्कर्म करने के बाद ही की जाए, तो बहुत देर हो चुकी होगी, क्योंकि मुसीबत पहले ही खड़ी हो चुकी होगी। अगर परमेश्वर का स्वभाव नाराज हुआ है तो तुम संकट में हो और हो सकता है कि परमेश्वर तुम्हारे भीतर काम करना बंद कर दे—उस स्थिति में तुम्हारी काट-छाँट करने की क्या तुक है? तुम्हारा खुलासा करने और तुम्हें हटाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। लोगों को परमेश्वर के प्रति समर्पण करने से रोकने वाली मुख्य कठिनाई उनका अहंकारी स्वभाव है। अगर लोग वास्तव में न्याय और ताड़ना स्वीकार कर पाएँ, तो वे अपने अहंकारी स्वभाव का प्रभावी ढंग से समाधान कर पाएँगे। उसका समाधान वे चाहे जिस हद तक भी कर पाए हों, यह सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में लाभकारी है। न्याय और ताड़ना स्वीकारना सर्वोपरि है, ताकि अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान कर सकें, ताकि परमेश्वर द्वारा बचाए लिए जाएँ। और अगर लोग वास्तव में परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण प्राप्त करने में सक्षम हों, तो क्या उन्हें अभी भी न्याय और ताड़ना का अनुभव करने की आवश्यकता है? क्या उन्हें अभी भी काट-छाँट का अनुभव करने की आवश्यकता है? नहीं, क्योंकि उनके भ्रष्ट स्वभाव का समाधान पहले ही हो चुका है। परमेश्वर के न्याय, ताड़ना और काट-छाँट का सामना करने पर लोग हमेशा अपने पक्ष में तर्क-वितर्क करना पसंद करते हैं। तुम चाहे अपने तर्क पर कितनी भी बातें कर लो, इनमें कोई भी सत्य नहीं है; यह तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के समाधान करने का विकल्प नहीं है और इसका यह मतलब तो बिल्कुल भी नहीं है कि तुम वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पणशील हो। इसलिए अपने तर्क के बारे में बात की कोई तुक नहीं है; समस्या का समाधान करना ही सबसे महत्वपूर्ण है।

अगर किसी के पास परमेश्वर के प्रति समर्पण वाला दिल नहीं है तो वह संकट में है। कभी-कभी परमेश्वर तुम्हारे लिए ऐसी परिस्थितियाँ खड़ी करता है जिनकी तुमने कल्पना नहीं की थी, इसलिए तुम प्रतिरोध करते हो। उदाहरण के लिए, मान लो तुम सफाई-पसंद हो और लापरवाह और मैले-कुचैले लोगों को पसंद नहीं करते हो; इन लोगों को देखकर तुम्हें लगता है कि ये घिनौने हैं। क्या तुम खुद को काबू में रख पाते हो? तुम्हें क्या करना चाहिए? सबसे पहले तुम्हारा रवैया सही होना चाहिए। कैसा रवैया? (समर्पण वाला रवैया।) तुम कैसे समर्पण करते हो? आज्ञाकारी रवैया कौन-से आंतरिक विचारों से बनता है? समर्पण की वास्तविकता किन क्रियाकलापों से बनती है? जब तुम्हारा सामना ऐसी चीज से होता है तो परस्पर समायोजन होना ही चाहिए। इनमें से कुछ भी समस्या नहीं है। किसी व्यक्ति के जीवनकाल में दस में से नौ चीजें उसके मन मुताबिक नहीं होती हैं। तुम इस या उस चीज को नापसंद कर सकते हो, और तुम्हारे साथ चाहे जो हो, तुम हमेशा अपने तर्क पर बहस करते हो और शिकायत करते हो कि परमेश्वर तुम्हारे प्रति पक्षपातपूर्ण है। वास्तविकता में, यह तुम्हारी अपनी समस्या है, इसलिए बिन बात का बतंगड़ मत बनाओ। जब तुमने बहुत लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास रखा हुआ है और कई नाकामियाँ अनुभव कर चुके हो तो फिर जानते होगे कि तुम कोई बहुत आदरणीय नहीं हो, न किसी दूसरे से बेहतर हो। तुम्हें यह सोचकर बहुत मूर्खता का एहसास होगा कि तुम किस तरह खुद को दूसरों से बेहतर, उच्चतर और ज्यादा सम्माननीय सोचा करते थे! जब कोई व्यक्ति थोड़ा-सा भी सत्य समझ जाता है तो उसमें पहले से ज्यादा विवेक आ जाता है, इसलिए उसके लिए सत्य स्वीकारना आसान हो जाता है, और जब उसके साथ कुछ घटित होता है तो उसके लिए सत्य को खोजना और परमेश्वर के प्रति समर्पण करना आसान हो जाता है। तुम्हें अपने परिवेश से तालमेल बैठाना आना चाहिए। परमेश्वर के विश्वासियों को पहले यह ज्ञान होना चाहिए : कलीसिया में हर जगह के लोग हैं, और हर जगह के अलग रीति-रिवाज और आदतें हैं। ये चीजें व्यक्ति के चरित्र की परिचायक नहीं होती हैं; भले ही किसी व्यक्ति की जीवन की आदतें अच्छी, सामान्य और विनियमित हों और उसका चरित्र बहुत अच्छा हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह सत्य को समझता है। तुम्हें यह समझना चाहिए और तुम्हें इसकी सकारात्मक समझ होनी चाहिए। इसके अलावा तुम्हारे अपने नुक्स ही कई हैं, और तुम बहुत ही नखरेबाज हो। परमेश्वर तुम्हें ऐसा परिवेश देता है जो तुम्हारे लिए अच्छा है, इसलिए तुम्हें इससे तालमेल बैठाना सीखना चाहिए, न कि दूसरे लोगों के नुक्स निकालने चाहिए, और यही नहीं, दूसरों के साथ स्नेहपूर्ण संबंध रखने चाहिए, उनसे करीब जाना चाहिए, उनकी खूबियाँ देखनी-सीखनी चाहिए, और फिर परमेश्वर से प्रार्थना कर अपने नुक्स दूर करने चाहिए। यही आज्ञाकारी रवैया और अभ्यास है। अगर तुम दूसरे लोगों को बहुत ज्यादा नापसंद करते हो और इससे तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन पर असर पड़ता है, तो फिर तुम्हें उनसे कुछ दूरी बना लेनी चाहिए और पंगा नहीं लेना चाहिए। पंगा लेना क्या होता है? यह तब होता है जब तुम कहते हो : “मुझे उनका यह दोष दूर करना होगा—अगर यह दूर नहीं हुआ तो मैं इसे जाने नहीं दूँगा!” अपने आचरण का यह तरीका कैसा है? यह अक्खड़, अहंकारी और अज्ञानी तरीका है। ऐसे इंसान मत बनो। हम सब साधारण लोग हैं; हम कोई खास नहीं हैं। हम सबके पास एक सिर, दो आँखें, एक नाक और एक मुँह है। हम चाहे खा-पी रहे हों, चल-फिर रहे हों या कार्य कर रहे हों, हम सब एक जैसे हैं, हममें कोई फर्क नहीं है; हम दूसरों से बेहतर भी नहीं हैं, इसलिए हमें खुद को आदरणीय या महान नहीं समझना चाहिए। भले ही तुममें कोई छोटा-सा हुनर या प्रतिभा हो तो यह शेखी बघारने की चीज नहीं है। सबसे पहले, तुम्हें अपनी स्थिति ठीक करनी चाहिए और जब तुम्हारे सामने मामले आएँ तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार उन पर गौर करना चाहिए, फिर तुम बिन बात का बतंगड़ नहीं बनाओगे। अगर तुम्हारे साथ कुछ खास घटता है और तुम वाकई समर्पण नहीं कर सकते और इससे तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन पर असर पड़ता है तो फिर इसे हल करने के लिए तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य खोजना चाहिए। हमें जबरदस्ती करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। सारी चीजों में परमेश्वर के अच्छे इरादे होते हैं। वह हर प्रकार की परिस्थिति के जरिए लोगों को प्रशिक्षित करता है, उन्हें तपाता है, समर्पण करना सिखाता है, और आखिरकार इस तरह तपने के फल मिलते हैं : वे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने, परमेश्वर को संतुष्ट करने में सक्षम होते हैं, और फिर उनमें वास्तविक परिवर्तन आता है। सत्य का अनुसरण करने के लिए तुम्हारे अंदर पहले पीड़ासहने का संकल्प होना चाहिए और तुम्हें अपनी परिस्थितियों के प्रति समर्पण करना सीखना चाहिए। अक्सर तुम्हारी परिस्थितियाँ इतनी आसान नहीं होती हैं; तुम तमाम तरह के लोगों के संपर्क में आ सकते हो और तमाम किस्म की विचित्र चीजों का सामना कर सकते हो। तुम्हारे साथ चाहे जो भी हो, अपनी इच्छा या आवेग पर भरोसा मत करो, बल्कि प्रार्थना में परमेश्वर के सामने आओ। ऐसा करने के लिए तुम्हारे पास पहले समर्पणशील रवैया होना चाहिए, जो एक ऐसी मानसिक काबिलियत है जो सभी सामान्य लोगों में होनी चाहिए। इसके अलावा, अगर तुम परमेश्वर से प्रार्थना कर कुछ करने को कहते हो, और वह नहीं करता या तुम्हारे लिए कोई रास्ता नहीं खोलता, तब भी तुम्हें अवश्य समर्पण करना चाहिए। तुम्हें ऐसी परिस्थिति में जीते रहना चाहिए, परमेश्वर को तुम्हारा आयोजन करने देना चाहिए, न कि खुद चीजें थोप कर परमेश्वर के समक्ष चलना चाहिए। अनमोल जीवन जीने का यही एकमात्र तरीका है। परमेश्वर के प्रति समर्पण की वास्तविकता में प्रवेश करना इतना आसान नहीं है, क्योंकि कोई भी शून्य में नहीं रहता है। किसी के जीवन पर नजर डालें तो हर व्यक्ति की अपनी आदतें और अपने व्यक्तिपरक विचार, इच्छाएँ और कामनाएँ होती हैं। वस्तुपरक स्थितियों को देखें तो कोई भी व्यक्ति पूरी तरह तुम्हारी इच्छा के अनुरूप बोल या काम नहीं कर सकता है। इस प्रकार, सबसे जरूरी सबक यह है कि हरेक को यह सीखने दिया जाए कि वह अपनी परिस्थिति के आगे समर्पण कैसे करे, और यह भी कि उसके सामने जो भी जीवन परिस्थितियाँ आएँ, वह उनमें परमेश्वर का इरादा खोजे। तुम्हारी जीने की परिस्थितियाँ चाहे अच्छी हों या खराब, आरामदायक हों या कठोर, सीखने के लिए सबक हैं। जो आराम और सहूलियत के लिए ललचाते हैं उन्हें समर्पण और पीड़ा के सबक सीखने होंगे; उन्हें किसी भी परिस्थिति में जीवित रहने, अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने और अपनी गवाही में मजबूती से खड़े रहने की क्षमता हासिल करनी ही चाहिए। तभी वे परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट कर सकते हैं। क्या परमेश्वर इस प्रकार की जीवन परिस्थिति आयोजित और व्यवस्थित नहीं करता है? हर कोई अच्छे जीवन के लिए लालायित रहता है, लेकिन अगर वह ऐसी परिस्थितियों में रहे जो बहुत आरामदेह और आदर्श हैं, जिनमें कोई भी कष्ट न सहना पड़े, तो क्या वह परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उसकी गवाही देने में सक्षम होगा? जब परमेश्वर तुम्हारे लिए कुछ कठिनाइयाँ और कठोर परिस्थितियों की व्यवस्था करता है तो तुम समर्पणशील होने में सक्षम हो या नहीं, यही सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है। अगर इन परिस्थितियों में सभी लोग परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होने और उसकी अपेक्षाओं के अनुरूप अभ्यास करने में सक्षम हों तो फिर तुम्हें ऐसी सभी चीजें सहनी होंगी जिन्हें तुम देखने के इच्छुक नहीं हो और जिन्हें तुम पसंद नहीं करते हो; यही नहीं, तुम्हें इन चीजों के सामने बाधित नहीं होना है और अपना कर्तव्य सामान्य रूप से निभाने में सक्षम होना है। इस प्रकार अनुभव करने से तुम्हारा जीवन आगे बढ़ेगा। कुछ लोग कहते हैं : “अगर दूसरे लोग सत्य का अभ्यास नहीं करते तो मैं भी सत्य का अभ्यास नहीं करूँगा। अगर वे समर्पण नहीं करते तो फिर मैं क्यों समर्पण करूँ? अगर उनमें कोई सहनशीलता नहीं है तो फिर मुझमें क्यों हो? वे जो चीजें नहीं करते, वे चीजें हमेशा मुझे ही क्यों करनी पड़ती हैं? मुझे ही हमेशा इतनी मेहनत क्यों करनी पड़ती है? मैं भी ऐसा नहीं करने वाला हूँ।” इस रवैये के बारे में क्या कहेंगे? सत्य का तुम्हारा अभ्यास तुम्हारा मामला है; यह तुम्हारे और परमेश्वर के बीच का मामला है, और इसका किसी और से कोई वास्ता नहीं है। तुम्हारे साथ सहयोग करने के लिए किसी और की कोई बाध्यता नहीं है। तुम तुम हो, वे वे हैं। अगर वे सत्य का अभ्यास नहीं करते और सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं करते तो अंत में तुम्हारा नहीं, बल्कि उनका परित्याग किया जाएगा, और तुम हारोगे नहीं। क्या परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाले लोग हारेंगे? वे नहीं हारेंगे। यदि तुम इस बात की थाह नहीं पा सकते, तो फिर तुम बस निपट मूर्ख हो!

जहाँ तक जीवन प्रवेश का मामला है, यूँ तो यह सिर्फ कुछ बातों की संगति है, लेकिन अगर तुम लोग इन्हें नेकनीयती से स्वीकार कर लो, अपने वास्तविक जीवन में इन्हें अभ्यास में ला सको और इन्हें अपनी वास्तविकता बना लो तो फिर मेरा कहा बेकार नहीं जाएगा। इसलिए वास्तविकता का चाहे जो भी पहलू हो, और भले ही यह केवल कुछ शब्दों की बात हो, अगर सत्य तुम्हारे दिल में प्रवेश करता है और तुम सत्य के रूप में इसका अभ्यास करते हो तो यह तुम्हारे अंदर जड़ें जमाएगा और फूलेगा-फलेगा भी। यह तुम्हारा जीवन बन जाएगा, तुम इसे जी पाओगे, और इसे फलीभूत करने में सक्षम रहोगे। यह एक अच्छा परिणाम है। अगर मैं तुम लोगों के साथ रोज संगति करूँ, मगर जितना भी बोलूँ, तुमने इसे गंभीरता से नहीं लिया—अगर कोई भी इसे अपने दिल में न उतरने दे, अब भी जो चाहे वो करता रहे, मनमानी और लापरवाही से काम करता रहे, मैं जो कहूँ उसे न सुने और अपनी इच्छा, कल्पनाओं और धारणाओं के अनुसार जीता रहे—तो क्या मेरा बोलना व्यर्थ नहीं होगा? इस बारे में मैं तुम लोगों के सामने कितनी बातें बोलता हूँ, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता—जो मायने रखता है वह यह कि क्या तुम इन्हें दिल लगाकर सुनते, स्वीकारते और इनका अभ्यास करते हो कि नहीं। सत्य ही सचमुच और सही मायनों में मनुष्य का जीवन है। यह विद्या की कोई शाखा नहीं है, न ही यह ज्ञान है, न कोई लोक-परंपरा है, न ही कोई तर्क—यह मनुष्य का जीवन है। यह तुम्हें शैतान के बंधनों से बचने, अपने भ्रष्ट स्वभाव से मुक्त होने, शक्ति और अधिक सामर्थ्य के साथ जीने, और अधिक पोषण के साथ जीने और एक दिशा और लक्ष्य के साथ जीने दे सकता है। सत्य वास्तव में मनुष्य का जीवन बन सकता है। अगर तुम्हें मुझ पर विश्वास न हो, तो जाओ इसका अनुभव करो, इसे कुछ समय तक अभ्यास में लाओ, देखो कि परिणाम मिलते हैं या नहीं, तभी तुम जानोगे। यदि तुम अक्सर खुद को कमजोर और नकारात्मक महसूस करते हो तो मैं सिर्फ इतना कह सकता हूँ कि तुमने अभी तक सत्य हासिल नहीं किया है। अगर तुमने सत्य हासिल किया होता तो इस वर्तमान दशा में न होते, इतने असहाय, कमजोर और दुर्बल; तुम इतनी जल्दी-जल्दी नकारात्मक न होते, न ही इतनी जल्दी-जल्दी दुविधा में फँसते, इस बात से अनजान न होते कि जाना कहाँ है। यह सौ फीसदी निश्चित है! क्या तुम कुछ समझ पाए हो? (हाँ।)

अभी-अभी हम उन पाँच शर्तों पर संगति समाप्त कर चुके हैं जिन्हें परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर कदम रखने के लिए पूरा करना जरूरी है। वे पाँच शर्तें क्या हैं? (पहली, हमारे पास एक ईमानदार दिल होना चाहिए; दूसरी, हमारे पास ऐसा दिल होना चाहिए जो सत्य से प्रेम करे; तीसरी, हमारे पास अंतरात्मा और विवेक होना चाहिए; चौथी, हमारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होना चाहिए; पाँचवीं, हमारे पास परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला दिल होना चाहिए।) इन पाँच शर्तों को याद रखो, इन पर संगति करो और जब कुछ और न हो रहा हो तो इन्हें प्रार्थनापूर्वक पढ़ो। देखो कि इस दौरान तुम किन सत्य सिद्धांतों को अभ्यास में लाए हो, तुम्हारी कथनी-करनी ईमानदार है कि नहीं, क्या तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है या नहीं, कर्तव्य निर्वहन करते समय तुम्हारे दिल में ईमानदारी है कि नहीं, तुम लापरवाह अवस्था में हो कि नहीं, तुम्हारे मन में आलस्य से भरे, जिम्मेदारी से बचने या धोखा देने के विचार हैं कि नहीं, और तुम परमेश्वर की सभी अपेक्षाओं को खोजकर उनके प्रति समर्पणशील हो कि नहीं। तुम्हें समय-समय पर इसकी जाँच करनी चाहिए। नतीजे हासिल करके ही तुम्हारा जीवन प्रगति करेगा।

15 सितंबर 2015

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