असफलता, पतन, परीक्षण और शोधन झेलने के तरीकों के बारे में वचन

अंश 59

परमेश्वर पर विश्वास करते हुए लोग भविष्य के लिए आशीष पाने में लगे रहते हैं; यही उनके विश्वास का लक्ष्‍य होता है। सभी लोगों की यही मंशा और आशा होती है, लेकिन उनकी प्रकृति की भ्रष्टता परीक्षणों और शोधन के माध्यम से जरूर दूर की जानी चाहिए। लोग जिन-जिन पहलुओं में शुद्ध नहीं होते और भ्रष्टता दिखाते हैं उन पहलुओं में उन्हें परिष्कृत किया जाना चाहिए—यह परमेश्वर की व्यवस्था है। परमेश्वर तुम्हारे लिए एक परिवेश बनाता है, तुम्हें उसमें परिष्कृत होने के लिए बाध्य करता है जिससे तुम अपनी भ्रष्टता को जान जाओ। अंततः तुम उस मुकाम पर पहुँच जाते हो जहाँ तुम अपने मंसूबों और इच्छाओं को छोड़ने और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के प्रति समर्पण करना चाहते हो, भले ही इसका मतलब मृत्यु हो। इसलिए अगर लोग कई वर्षों के शोधन से न गुजरें, अगर वे एक हद तक पीड़ा न सहें, तो वे अपनी सोच और हृदय में देह की भ्रष्टता की बाध्यताएँ तोड़ने में सक्षम नहीं होंगे। जिन किन्हीं पहलुओं में लोग अभी भी अपनी शैतानी प्रकृति की बाध्यताओं में जकड़े हैं और जिन भी पहलुओं में उनकी अपनी इच्छाएँ और माँगें बची हैं, उन्हीं पहलुओं में उन्हें कष्ट उठाना चाहिए। केवल दुख भोगकर ही सबक सीखे जा सकते हैं, जिसका अर्थ है सत्य पाने और परमेश्वर के इरादे समझने में समर्थ होना। वास्तव में, कई सत्य कष्ट और परीक्षणों से गुजरकर समझ में आते हैं। कोई भी व्यक्ति आरामदायक और सहज परिवेश या अनुकूल परिस्थिति में परमेश्वर के इरादों को नहीं समझ सकता है, परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि को नहीं पहचान सकता है, परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की सराहना नहीं कर सकता है। यह असंभव होगा!

अंश 60

कुछ लोगों ने अतीत में कुछ असफलताओं का अनुभव किया है, जैसे कि एक अगुआ होने के नाते कोई भी वास्तविक काम न करने या रुतबे के फायदों में लिप्त होने पर बर्खास्त किया जाना। कई बार बर्खास्त होने के बाद इनमें से कुछ लोगों में थोड़ा-बहुत सच्चा बदलाव आ जाता है, तो क्या बर्खास्त होना लोगों के लिए अच्छी चीज है या बुरी? (यह एक अच्छी चीज है।) जब लोग पहली बार बर्खास्त किए जाते हैं तो उन्हें लगता है कि उन पर मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा है। मानो किसी ने उनका दिल ही तोड़ दिया हो। वे खुद को सँभाल भी नहीं पाते और उन्हें पता ही नहीं होता कि उन्हें किस दिशा में जाना है। लेकिन इस अनुभव के बाद वे सोचते हैं, “यह कोई इतनी बड़ी बात भी नहीं थी। मेरा आध्यात्मिक कद पहले इतना छोटा क्यों था? आखिर मैं इतना अपरिपक्व कैसे हो सकता था?” इससे साबित होता है कि उन्होंने अपने जीवन में कुछ तरक्की कर ली है और यह भी कि वे परमेश्वर के इरादों, सत्य और परमेश्वर द्वारा मनुष्य के उद्धार के उद्देश्य को थोड़ा-बहुत समझ गए हैं। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने की यही प्रक्रिया है। तुम्हें इन तरीकों को मान और स्वीकार लेना चाहिए जिन्हें परमेश्वर अपने कार्य में उपयोग करता है, अर्थात्, लगातार तुम्हारी काट-छाँट करना या तुम्हारा चरित्र चित्रण करना, यह कहना कि तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता, तुम बचाए नहीं जाओगे और यहाँ तक कि तुम्हारी निंदा करना और तुम्हें शापित करना। हो सकता है कि तुम्हें नकारात्मक लगे लेकिन फिर सत्य खोजकर और आत्म-चिंतन करके और खुद को जानकर तुम जल्द ही इससे उबर लोगे, और परमेश्वर का अनुसरण कर अपने कर्तव्य सामान्य रूप से निभाने लगोगे। इसी को जीवन में संवृद्धि करना कहते हैं। तो, क्या अधिक बार बर्खास्त होना अच्छा है या बुरा? क्या परमेश्वर के कार्य का यह तरीका सही है? (बिल्कुल सही है।) लेकिन, कभी-कभी लोग इसे नहीं पहचानते और इसे स्वीकार नहीं कर पाते। विशेष रूप से पहली बार बर्खास्त होने का अनुभव करने पर उन्हें लगता है कि जैसे उनके साथ अन्याय किया जा रहा है, वे हमेशा परमेश्वर के बारे में शिकायतें करते हैं और परमेश्वर से बहस करने की कोशिश करते हैं और वे इस बाधा को पार नहीं कर पाते। वे इसे पार क्यों नहीं कर पाते? क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि वे परमेश्वर और सत्य के साथ समस्या खोज रहे हैं? इसका कारण यह है कि लोग सत्य को नहीं समझते, वे आत्म-चिंतन करना नहीं जानते, और वे अपने भीतर की समस्याओं की तलाश नहीं करते हैं। वे हमेशा दिल से आज्ञा मानने से इनकार करते हैं और जब उन्हें बर्खास्त किया जाता है तो वे परमेश्वर को चुनौती देना शुरू कर देते हैं। वे अपनी बर्खास्तगी को स्वीकार नहीं पाते और आक्रोश से भर जाते हैं। इस समय उनके भ्रष्ट स्वभाव बहुत तीव्र होते हैं, लेकिन जब वे बाद में इस मामले पर दुबारा नजर डालेंगे तो वे समझ लेंगे कि बर्खास्त होना उनके लिए सही था—यह उनके लिए एक अच्छी बात साबित हुई जिसने उन्हें जीवन में कुछ प्रगति करने में मदद की। जब उन्हें भविष्य में फिर से बर्खास्त किया जाएगा तो क्या वे तब भी इसे इसी तरह से चुनौती देंगे? (हर बार पहले से कम चुनौती देते जाएँगे।) इसमें धीरे-धीरे सुधार होना सामान्य बात है। लेकिन यदि कुछ भी नहीं बदलता तो इससे यह साबित हो जाएगा कि वे सत्य को बिल्कुल नहीं स्वीकारते और वे छद्म-विश्वासी हैं। फिर वे पूरी तरह बेनकाब कर हटा दिए जाते हैं और उनके पास उद्धार प्राप्त करने का कोई तरीका नहीं होता।

उद्धार पाने और पूर्ण बनाए जाने की प्रक्रिया के दौरान सभी लोगों को असफलताएँ, ठोकरें और बर्खास्तगी झेलनी होंगी, इसलिए इन पर बखेड़ा खड़ा मत करो। बर्खास्त लोगों की पीड़ा और निराशा देखकर उनका मजाक मत उड़ाओ, क्योंकि किसी दिन तुम्हें भी बर्खास्त किया जा सकता है और तुम्हारी हालत उनसे भी बदतर हो सकती है। यदि किसी दिन तुम लोगों को बर्खास्तगी का सामना करना पड़ता है तो क्या तुम नकारात्मक बनकर फूट-फूटकर रोने लगोगे? क्या तुम शिकायत करोगे? क्या तुम अपनी आस्था छोड़ना चाहोगे? यह इस पर निर्भर करता है कि क्या तुमने परमेश्वर में विश्वास करते समय सत्य को स्वीकार किया है या नहीं, तुमने वास्तव में कितने सत्य समझे हैं और जो सत्य तुम समझते हो, क्या वे तुम्हारी वास्तविकता हैं। यदि ये सत्य तुम्हारी वास्तविकता बन गए हैं तो तुम्हारे पास इस परीक्षण और शोधन को पार करने का आध्यात्मिक कद होगा। यदि तुममें सत्य वास्तविकता नहीं होगी तो यह बर्खास्तगी तुम्हारे लिए एक आपदा बन जाएगी, और यदि इसका हश्र बुरा हुआ तो तुम ऐसे धराशायी होगे कि फिर से उठ भी नहीं पाओगे। कुछ लोगों में थोड़ा-सा जमीर होता है और वे कहते हैं, “मैंने परमेश्वर के इतने अनुग्रह का आनंद लिया है, मैंने इतने वर्षों तक धर्मोपदेश सुने हैं और परमेश्वर ने मुझे बहुत स्नेह दिया है। मैं इसे भूल नहीं सकता। कम से कम मुझे परमेश्वर के प्रेम का बदला तो चुकाना ही चाहिए।” फिर वे अपने कर्तव्य नकारात्मक और निष्क्रिय रूप से निभाते हैं, वे सत्य खोजने के प्रयास नहीं करते और बिल्कुल भी जीवन प्रवेश नहीं करते। अगर तुम अपने कर्तव्य पर दृढ़ता से स्थिर रह सकते हो, तो तुम्हें जमीर रखने वाला माना जा सकता है। तुम्हें कम-से-कम इतना तो करना ही चाहिए। लेकिन यदि तुम अपने कर्तव्यों में हमेशा अनमने रहते हो, सिद्धांतों का पालन और जीवन प्रवेश नहीं करते और तुम्हें अपने कर्तव्य में कोई परिणाम नहीं मिल रहे हैं तो क्या इसे अपना कर्तव्य निभाना कहेंगे? यदि तुम हमेशा अनमने ढंग से अपना कर्तव्य निभा रहे हो तो क्या तुम आपदाओं में डटे रह पाओगे? क्या तुम यह गारंटी दे सकते हो कि परमेश्वर से विश्वासघात नहीं करोगे? इसलिए अपना कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हारे पास कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए; केवल अपने जमीर और विवेक के अनुसार सच्चे ढंग से अपना कर्तव्य निभाकर वास्तविक नतीजे हासिल किए जा सकते हैं। यह न्यूनतम मानक है। यदि तुम इस मानक को भी पूरा नहीं कर सकते तो तुम अनमने हो, तुम परमेश्वर को धोखा देने और उसके साथ विश्वासघात करने में सक्षम हो और तुम्हारी मजदूरी मानक स्तर तक की नहीं है। भले ही तुम परमेश्वर के घर को न छोड़ो, परमेश्वर तुम्हें बहुत पहले ही हटा चुका होगा। ऐसा व्यक्ति बचाने योग्य नहीं है। इसका कारण है जमीर और विवेक की कमी और लगातार अपने कर्तव्य अनमने ढंग से निभाना। तुम्हारे पैरों के छाले उस रास्ते के कारण पड़े हैं जिस पर तुम चले हो और इसके लिए दूसरों को दोष नहीं दिया जा सकता। यदि अंततः तुम्हें बचाया नहीं जाता, बल्कि श्राप दिया जाता है और तुम्हारा अंत पौलुस की तरह होता है, तो तुम इसके लिए किसी और को दोष नहीं दे सकते। यह तुम्हारा अपना रास्ता है और इसे तुमने खुद चुना है। इसलिए लोगों को बचाया जा सकता है या नहीं, इसकी आधाररेखा यह है कि उनमें जमीर और विवेक है या नहीं। अगर लोग इस बात पर स्थिर रह सकते हैं, तो इसका अर्थ है कि उनमें जमीर और विवेक है। ऐसे लोगों के उद्धार की आशा होती है। अगर वे इस रेखा को लांघते हैं या इस रेखा से पीछे रह जाते हैं तो वे उद्धार के मानक पर खरे नहीं उतरेंगे और स्वाभाविक रूप से हटा दिए जाएँगे। तुम लोगों की लाल रेखा कौन-सी है? तुम कहते हो, “भले ही परमेश्वर मुझे पीटे, डांटे, मुझे ठुकरा दे और न बचाए, मुझे कोई शिकायत नहीं होगी। मैं बैल या घोड़े की तरह हो जाऊँगा : मैं बिल्कुल अंत तक मजदूरी करता रहूँगा और परमेश्वर के प्रेम का प्रतिफल चुकाता रहूँगा।” यह सब सुनने में बड़ा अच्छा लगता है, लेकिन क्या तुम वाकई ऐसा कर सकते हो? अगर सच में तुम्हारा चरित्र और संकल्प ऐसा है तो मैं तुम्हें स्पष्टता से कहता हूँ : तुम्हारे उद्धार पाने की आशा है। अगर तुम्हारा चरित्र ऐसा नहीं है, तुममें जमीर और विवेक नहीं है, ऐसे में अगर तुम मजदूरी करना भी चाहो तो अंत तक टिक नहीं पाओगे। जानते हो परमेश्वर तुम्हारे साथ कैसे पेश आएगा? तुम नहीं जानते। जानते हो परमेश्वर तुम्हारा परीक्षण कैसे करेगा? तुम यह भी नहीं जानते। अगर अपना आचरण करने के लिए तुम्हारे पास जमीर और विवेक की कोई आधाररेखा नहीं है, तुम्हारे पास अनुसरण का उचित तरीका नहीं है, और जीवन के प्रति तुम्हारे विचार और मूल्य सत्य के अनुरूप नहीं हैं, तो जब तुम्हारा सामना असफलताओं और शिकस्तों या परीक्षणों और शोधनों से होगा तो तुम दृढ़ नहीं रह पाओगे—तब तुम खतरे में होगे। जमीर और विवेक की क्या भूमिका होती है? अगर तुम कहते हो, “मैं इतने सारे उपदेश सुन चुका हूँ और मुझे वास्तव में सत्य की कुछ समझ भी है। लेकिन मैं इन्हें अभ्यास में नहीं लाया, मैंने परमेश्वर को संतुष्ट नहीं किया है, परमेश्वर मुझे नहीं पहचानता—अगर अंततः परमेश्वर मुझे त्याग देता है और मुझे नहीं चाहता है, तो यह परमेश्वर की धार्मिकता होगी। भले ही परमेश्वर मुझे दंड दे, शापित करे, मैं परमेश्वर को नहीं त्यागूँगा। मैं कहीं भी जाऊँ, लेकिन परमेश्वर का सृजित प्राणी ही रहूँगा, हमेशा परमेश्वर में विश्वास रखूँगा और भले ही मुझे बैल या घोड़े की तरह काम करना पड़े, मैं परमेश्वर का अनुसरण करना नहीं छोड़ूँगा, और अपने परिणाम की परवाह नहीं करूँगा”—अगर वास्तव में तुम्हारे पास ऐसा संकल्प, जमीर और विवेक है, तो तुम दृढ़ रह पाओगे। लेकिन अगर तुम लोगों में इस संकल्प की कमी है और इन चीजों के बारे में कभी सोचा नहीं है, तो निस्संदेह तुम लोगों के चरित्र में, तुम्हारे जमीर और विवेक में समस्या है। क्योंकि तुम लोगों ने कभी भी परमेश्वर के प्रति अपना कर्तव्य दिल से नहीं पूरा करना चाहा। तुम हमेशा बस परमेश्वर से आशीष माँगते रहे हो। तुम मन ही मन यह हिसाब लगाते रहे हो कि परमेश्वर के घर में प्रयास करने या कष्ट उठाने से तुम्हें क्या आशीष मिलेगा। अगर तुम इन्हीं चीजों का हिसाब लगाते रहते हो, तो तुम्हारे लिए दृढ़ रहना बहुत मुश्किल होगा। तुम्हें बचाया जा सकता है या नहीं यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुममें जमीर और विवेक है या नहीं। अगर तुममें जमीर और विवेक नहीं है, तो तुम बचाए जाने के योग्य नहीं हो, क्योंकि परमेश्वर राक्षसों और जानवरों को नहीं बचाता। अगर तुम सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलने का मन बनाते हो, पतरस के मार्ग पर चलते हो, तो पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध करेगा, सत्य समझने में तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा और तुम्हारे लिए ऐसी स्थितियाँ खड़ी करेगा जो तुम्हें पूर्ण बनाने के लिए अनेक परीक्षणों और शोधनों का अनुभव कराती हैं। यदि तुम सत्य के अनुसरण के मार्ग को नहीं चुनते, बल्कि मसीह-विरोधी पौलुस के मार्ग पर चलते हो, तो क्षमा करना—परमेश्वर फिर भी तुम्हारा परीक्षण करेगा और जाँच करेगा। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि तुम परमेश्वर की जाँच में टिक नहीं पाओगे; अगर तुम्हारे साथ कुछ होता है, तो तुम परमेश्वर के बारे में शिकायत करोगे और जब तुम परीक्षणों का सामना करोगे, तो तुम परमेश्वर को त्याग दोगे। उस समय तुम्हारा जमीर और विवेक किसी काम नहीं आएँगे और तुम हटा दिए जाओगे। जिनमें जमीर या विवेक नहीं होता, परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता; यह न्यूनतम मानक है।

तुम्हें कम से कम जमीर और विवेक के मानक पर खरा उतरना चाहिए। अर्थात्, यदि परमेश्वर अब तुम्हें नहीं चाहता तो तुम्हें उसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? तुम्हें कहना चाहिए, “परमेश्वर ने मुझे यह साँसें दी हैं। परमेश्वर ने मुझे चुना है। आज मैंने सृष्टिकर्ता को जाना और बहुत सारे सत्यों को समझा, लेकिन मैंने उन्हें अभ्यास में नहीं लाया है। सत्य को नापसंद करना मेरी प्रकृति में है और मुझमें जमीर नहीं है। लेकिन भले ही मैं भविष्य में सत्य का अभ्यास कर पाऊँ या न कर पाऊँ और मैं बचाया जाऊँ या नहीं, मैं हमेशा परमेश्वर को स्वीकारूँगा और यह भी स्वीकारूँगा कि सृष्टिकर्ता धार्मिक है। इस तथ्य को बदला नहीं जा सकता। मनुष्य को केवल इस कारण परमेश्वर और सृष्टिकर्ता को स्वीकारना बंद नहीं करना चाहिए कि उसके उद्धार की कोई आशा नहीं है या उसके लिए कोई परिणाम या कोई मंजिल नहीं है। यह एक विद्रोही विचार होगा। अगर मैं ऐसा सोचूँ तो मुझे शापित किया जाना चाहिए। परमेश्वर चाहे कुछ भी करे, मनुष्य को समर्पण करना चाहिए; इसी को विवेक कहते हैं। मेरा आध्यात्मिक कद इतना छोटा है कि मैं समर्पण नहीं कर सकता और यदि मैं परमेश्वर से विद्रोह या विश्वासघात करता हूँ तो मुझे दण्डित किया जाना चाहिए। लेकिन परमेश्वर मेरे साथ चाहे कैसा भी व्यवहार करे, परमेश्वर का अनुसरण करने का मेरा दृढ़ संकल्प नहीं बदलेगा। मैं हमेशा परमेश्वर का सृजित प्राणी रहूंगा। चाहे परमेश्वर मुझे स्वीकार करे या न करे, मैं परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन एक मोहरा, सेवाकर्ता और विषमता बनने को तैयार हूँ। मुझमें यह संकल्प होना चाहिए।” चाहे अभी तुम्हारे मन में यह विचार हो या न हो, चाहे तुमने पहले कभी इस तरह से सोचा हो या न सोचा हो या ऐसा संकल्प लिया हो या न लिया हो, फिर भी तुममें यह विवेक तो होना ही चाहिए। यदि तुम्हारे पास यह विवेक या इस प्रकार की मानवता नहीं है तो फिर तुम्हारे लिए उद्धार केवल खोखली बात है। क्या यह एक तथ्य नहीं है? यह बिल्कुल ऐसा ही है। तुम्हें न्यूनतम मानक बता दिया गया है। जब तुम्हें समस्याओं का सामना करना पड़े तो तुम्हें इस पहलू के बारे में अधिक सोचना चाहिए। यह तुम्हारे लिए अच्छा है और तुम्हारे लिए अपनी रक्षा करने का एक तरीका है। यदि तुम्हारे अंदर सच में मानवता का यह पहलू नहीं है तो तुम बहुत खतरे में हो। तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, “हे परमेश्वर! मैंने कभी भी तुम्हें परमेश्वर मानकर व्यवहार नहीं किया। मैंने तुम्हें हवा मानकर ही व्यवहार किया है, मानो कोई अस्पष्ट और अदृश्य चीज हो। आज इस समस्या का सामना करते हुए मुझे लगता है कि मुझे हटा दिया गया है और मेरी कोई अच्छी मंजिल नहीं है। तुम मेरा चाहे जो परिणाम तय करो, मैं तुम्हारे प्रति समर्पण करने के लिए तैयार हूँ। मुझे तुम्हारा अनुसरण करना चाहिए और मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकता। जो लोग तुम्हें छोड़ देते हैं और शैतान की सत्ता के अधीन रहते हैं वे इंसान नहीं हैं। वे दानव हैं। मैं दानव नहीं बनना चाहता। मैं इंसान बनना चाहता हूँ। मैं परमेश्वर के पीछे चलना चाहता हूँ, शैतान के नहीं।” यदि तुम हर दिन इस बात के लिए प्रार्थना कर सको और ऊपर बढ़ सको तो तुम्हारा दिल अधिक से अधिक उज्ज्वल होता जाएगा और तुम्हारे पास अभ्यास का मार्ग होगा। कठिनाइयों का सामना करते समय यदि किसी व्यक्ति का विद्रोही स्वभाव होता है, तो उसका दिल अड़ियल बन जाता है और फिर वे सत्य के लिए प्रयास करने को तैयार नहीं होते। भले ही वे कोई गलती करें, वे इसकी परवाह नहीं करते। वे जो जी में आए वही करते हैं। वे मनमाने और स्वच्छंद बनने लगते हैं और अब प्रार्थना नहीं करना चाहते। ऐसी घड़ी में क्या करना चाहिए? एक सबसे बुनियादी सिद्धांत है जो तुम्हारी रक्षा कर सकता है। वह यह है कि जब तुम सबसे अधिक नकारात्मक और कमजोर होते हो, तब अगर यदि तुम्हारे दिल में ऐसे शब्द होते हैं जो परमेश्वर से विद्रोह, उसका प्रतिरोध, उसकी ईशनिंदा करते हैं और उसके बारे में राय बनाते हैं तो उन्हें जोर से मत कहो, न ही कुछ ऐसा करो जो दूसरों को परमेश्वर का प्रतिरोध करने के लिए उकसाए। अगर तुम इन सीमाओं का दृढ़ता से पालन करते हो तो जब तुम परमेश्वर से प्रार्थना करोगे, तुम उसकी सुरक्षा प्राप्त करोगे और तुम्हारे पास कठिनाइयों से उबरने की उम्मीद होगी। ये सबसे महत्वपूर्ण वचन हैं जिनका लोगों को दृढ़ता से पालन करना चाहिए। जब तुम्हारे पास सामान्य तार्किकता होती है, जब तुम नकारात्मक, पतित, असंयमी या प्रतिरोधी दशाओं से बाहर आते हो तो तुम मन ही मन सोच सकते हो, “खुशकिस्मती से मैंने शुरू में यह नहीं किया। यदि मैंने ऐसा किया होता तो मैं एक ऐसा पापी हो जाता जिसे युगों-युगों तक धिक्कारा जाता और जो अक्षम्य दुष्टता का दोषी होता।” यह रास्ता कैसा है? (यह अच्छा रास्ता है।) इसमें क्या अच्छाई है? (यह रास्ता लोगों को परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करने से रोक सकता है।) परमेश्वर के स्वभाव को नाराज मत करो। एक बार तुमने परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करने वाली कोई बात जोर से कह दी तो क्या उसे वापस ले सकते हो? एक बार शब्द बोल दिया जाए, तो फिर यह एक तय तथ्य बन जाता है। परमेश्वर इसकी निंदा करता है। एक बार परमेश्वर तुम्हारी निंदा कर दे तो तुम मुश्किल में पड़ जाते हो। जब कोई व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास करता है, तो वह चाहे कितना भी कष्ट सह ले, खुद को कितना भी खपा ले या परमेश्वर में कैसे भी विश्वास रखे, उद्देश्य यह नहीं है कि परमेश्वर उसे शापित करे या उसकी निंदा करे, बल्कि सृष्टिकर्ता से यह सुनना है, “परमेश्वर तुम्हें स्वीकृति देता है। तुम जीवित रह सकते हो और परमेश्वर के उद्धार का लक्ष्य हो।” यह हासिल कर सकना मुश्किल है। यह आसान नहीं है, इसलिए लोगों को सहयोग करना चाहिए। कभी भी कोई ऐसी बात न कहो जो तुम्हारे उद्धार के लिए हानिकारक हो। तुम्हें अहम मौकों पर खुद पर संयम रखना चाहिए और ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जिससे तुम्हें परेशानी हो। मैं तुम्हें बता दूँ कि जैसे ही तुम परेशानियाँ खड़ी करते हो और परमेश्वर तुम्हारी निंदा करता है, यदि तुम परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करते हो तो तुम इसे कभी उलट नहीं पाओगे। चीजों को बिना सोचे-समझे मत करो या कहो। तुम्हें खुद पर नियंत्रण रखना चाहिए और असंयमी नहीं होना चाहिए। अगर तुमने खुद पर संयम रख लिया तो इससे साबित होता है कि तुम्हारी एक आधाररेखा है। यदि तुम खुद पर संयम रखते हो, परमेश्वर के अस्तित्व को मानते हो, परमेश्वर की संप्रभुता पर विश्वास करते हो और अंत तक अपने दिल में परमेश्वर का भय मानते हो तो परमेश्वर इसे देखेगा। तुमने ऐसा कुछ नहीं कहा जिससे परमेश्वर नाराज हुआ हो, न ही कोई पापपूर्ण चीज की है। परमेश्वर तुम्हारे दिल के विचारों की पड़ताल कर सकता है। चूँकि तुम्हारे पास कुछ-कुछ परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है, भले ही तुम्हारे बेतुके विचार भी हैं, फिर भी तुमने किसी के सामने इन्हें जोर से नहीं कहा है, न ही परमेश्वर का प्रतिरोध करने के लिए कुछ किया है। परमेश्वर तुम्हारे इस व्यवहार को स्वीकार करने योग्य मानेगा। परमेश्वर तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करेगा? परमेश्वर ऐसे संकटों से बाहर निकलने के लिए तुम्हारा मार्गदर्शन करता रहेगा। तो क्या तुम्हारे पास अभी भी उद्धार की उम्मीद है? यह उम्मीद होना बहुत ही दुर्लभ बात है। समस्याओं का सामना करते समय क्या करना चाहिए? खुद को नियंत्रण में रखो और कभी भी असंयमी मत बनो। जब तुम असंयमी होते हो तो यह आवेगपूर्ण भावनाओं का नतीजा होता है। तुम्हारी अहंकारी प्रकृति फूटने की कगार पर है और तुम्हें लगता है कि तुम शिकायतों और बहानों से भरे हो। तुम बहुत ही आक्रोश में आ जाते हो और खुलकर बोलने के लिए मजबूर महसूस करते हो। इस समय खुद पर नियंत्रण रखना असंभव होता है। नतीजे में तुम्हारे शैतानी स्वभाव का कुरूप पक्ष बेनकाब हो जाता है और इस समय परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करना सबसे आसान हो जाता है। संयम का उद्देश्य क्या है? इसका उद्देश्य अपने शब्दों, कर्मों और कदमों के प्रति सतर्क रहना है ताकि अपनी रक्षा की जा सके, परमेश्वर के स्वभाव को नाराज न किया जाए और अपने पास उद्धार के लिए आशा की अंतिम किरण रख छोड़ी जाए। इसलिए, खुद पर संयम रखना बहुत आवश्यक है। चाहे तुम्हें अपने साथ कितना ही अन्याय होता लगे, चाहे तुम्हारा दिल कितना ही पीड़ित और उदास हो, तुम्हें खुद पर संयम रखना चाहिए। यह सबसे सार्थक प्रयास है! खुद पर संयम रखने के बाद तुम्हें पछतावा हो ही नहीं सकता। इस तरीके से अभ्यास करना लोगों के लिए कुल मिलाकर फायदेमंद होता है, चाहे यह परमेश्वर में विश्वास करने के साधन के रूप में किया जाए या खुद की रक्षा के राज़ के रूप में किया जाए। भ्रष्ट स्वभाव वाले लोग कभी-कभी एक निश्चित स्तर का पागलपन प्रकट करते हैं और उनके क्रियाकलापों में तार्किकता और सिद्धांत नहीं होते हैं। तुम्हें तो यह भी नहीं पता कि तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव कब भड़क उठेगा। जब तुम फूट कर कुछ ऐसा कह डालते हो जो परमेश्वर को नकारता हो और उसकी निंदा होती है, तो बहुत देर हो चुकी होती है और इस पर पछताने से कोई फायदा नहीं होता। इसके परिणाम अकल्पनीय होते हैं। तुम्हें निकाला जा सकता है और पवित्रात्मा तुम पर कार्य नहीं करेगा। क्या इसका यह मतलब नहीं है कि सब कुछ खत्म हो गया है? तुम्हारे पास उद्धार की कोई आशा नहीं होगी।

अंश 61

प्रत्येक व्यक्ति ने कम या ज्यादा, कुछ न कुछ अपराध तो किए हैं। अगर तुम नहीं जानते कि कोई चीज अपराध है या नहीं, तो तुम इस बारे में अस्पष्ट मनःस्थिति में रहोगे और शायद अपनी राय, अभ्यासों और चीजों को समझने के अपने तरीकों को छोड़ोगे नहीं। लेकिन, एक दिन, चाहे परमेश्वर के वचनों को पढ़कर या फिर अपने भाई-बहनों की संगति से, या परमेश्वर के खुलासों के माध्यम से, तुम जान जाओगे कि यह एक अपराध है और परमेश्वर का अपमान करने वाली बात है। तब तुम्हारा रवैया क्या होगा? क्या तुम्हें वास्तव में आत्मग्लानि होगी या तुम यह मानकर औचित्य साबित और बहस कर रहे होगे और अपने ही विचारों से चिपके रहोगे कि तुमने जो किया वह भले ही सत्य के अनुरूप नहीं है, परंतु यह बहुत बड़ी समस्या भी नहीं है? इस बात का संबंध परमेश्वर के प्रति तुम्हारे रवैये से है। अपने अपराध के प्रति दाऊद का क्या रवैया था? (आत्मग्लानि।) आत्मग्लानि—जिसका मतलब है कि वह दिल ही दिल में अपने आप से नफरत करता था और किसी भी हाल में उस अपराध को फिर कभी नहीं करेगा। तो, उसने क्या किया? वह परमेश्वर से खुद को दंड देने की प्रार्थना करने लगा और बोला : “यदि मैं दोबारा यह गलती करूं, तो परमेश्वर मुझे दंड दे और मेरी जान ले ले!” उसका संकल्प ऐसा था; यह सच्ची आत्मग्लानि थी। क्या साधारण लोग ऐसा कर सकते हैं? साधारण लोग अगर बहस करने की कोशिश न करें या चुपचाप अपनी गलती स्वीकार लें तो उनके लिए यही काफी अच्छा है। क्या सम्मान जाने के डर से किसी मुद्दे को दोबारा उठाने के लिए अनिच्छुक होना सच्ची आत्मग्लानि है? यह आत्मग्लानि नहीं, अपना सम्मान खोने के डर से व्यथित और परेशान होना है। सच्ची आत्मग्लानि का अर्थ है कोई बुरा कर्म करने पर खुद से नफरत करना, बुरा कर्म करने लायक होने से कष्ट और असहजता महसूस करना, आत्म-निंदा करना और यहाँ तक कि खुद को कोसना। इसका मतलब है दोबारा ऐसा बुरा काम न करने की शपथ लेने में सक्षम होना और दोबारा कभी वह बुरा काम करने पर परमेश्वर की दी हुई सजा को स्वीकारने और दयनीय मौत मरने के लिए तैयार रहना। यह सच्ची आत्मग्लानि है। यदि कोई अपने मन में हमेशा महसूस करता है कि उसने कोई बुरा कर्म नहीं किया है और उसके क्रियाकलाप केवल सिद्धांतों के अनुरूप नहीं थे या बुद्धिमानी की कमी के कारण हुए थे और उसका मानना है कि यदि वह गुप्त रूप से काम करेगा तो कुछ भी गलत नहीं होगा, तो क्या वह ऐसा सोचते हुए सच्ची आत्मग्लानि का अनुभव कर सकता है? बिल्कुल नहीं, क्योंकि उसे अपने बुरे कर्म के सार का ही पता नहीं है। ऐसे लोग भले ही खुद से थोड़ी-बहुत नफरत भी करते हों, लेकिन वे केवल अपनी नासमझी और स्थितियों को अच्छी तरह से न सँभालने के लिए खुद से नफरत करते हैं। वे वास्तव में इस बात का एहसास नहीं कर पाते कि बुरा कर्म करने में सक्षम होने का कारण उनके प्रकृति-सार में समस्या होना है, कि यह उनमें मानवता की कमी, उनके बुरे स्वभाव और अनैतिकता के कारण है। ऐसे लोगों को कभी सच्ची आत्मग्लानि नहीं होती। जब किसी ने कुछ गलत किया हो या अपराध किया हो तो उसे परमेश्वर के सामने आत्मचिंतन करने की जरूरत क्यों पड़ती है? ऐसा इसलिए है क्योंकि खुद अपने प्रकृति-सार को जानना आसान नहीं है। किसी का यह स्वीकार करना कि उसने गलती की है और यह जानना कि गलती कहाँ हुई है, आसान है। परंतु यह जानना आसान नहीं है कि अपनी गलतियों का स्रोत क्या है और वास्तव में इससे किस प्रकार का स्वभाव प्रकट हुआ है। इसीलिए, कोई गलती करने पर अधिकांश लोग केवल यह स्वीकारते हैं कि वे गलत थे, लेकिन उनके मन में इसके लिए कोई आत्मग्लानि नहीं होती, न ही वे खुद से नफरत करते हैं। इस तरह, वे सच्चे पश्चात्ताप के मानक से दूर रह जाते हैं। सच्चा पश्चात्ताप करने के लिए, व्यक्ति को उस बुराई को त्यागना होगा जो उसने की है और उसे यह गारंटी देने में सक्षम होना चाहिए कि वह दोबारा कभी वैसा काम नहीं करेगा। तभी सच्चा पश्चात्ताप किया जा सकता है। यदि तुम हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर मामलों पर विचार करते हो, कभी आत्मचिंतन करने या खुद को जानने का प्रयास नहीं करते और सारे काम आधे-अधूरे ढंग से अनमने होकर करते हो तो तुमने वास्तव में पश्चात्ताप नहीं किया है और तुम बिल्कुल भी नहीं बदले हो। यदि परमेश्वर तुम्हारा खुलासा करना चाहता है, तो तुम्हें इस स्थिति से कैसे पेश आना चाहिए? तुम्हारा रवैया क्या होगा? (मैं परमेश्वर की दी हुई सजा को स्वीकार करूँगा।) परमेश्वर की दी हुई सजा को स्वीकारना ही तुम्हारा रवैया होना चाहिए। इसी के साथ, तुम्हें परमेश्वर की ओर से होने वाली जाँच-पड़ताल को स्वीकारना होगा। वास्तव में स्वयं को जान सकने और सच्चा पश्चात्ताप करने के लिए यही तरीका बेहतर है। यदि किसी व्यक्ति में सच्ची आत्मग्लानि नहीं है, तो उसके लिए बुरे कर्मों को बंद करना असंभव होगा। किसी भी वक्त और कहीं भी, वह अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार जीने के पुराने तौर-तरीकों पर लौटने और यहाँ तक कि बार-बार वही गलतियाँ करने में सक्षम होगा। इस प्रकार, वह ऐसा इंसान नहीं है जिसने वास्तव में पश्चात्ताप किया हो। इस तरीके से उसे पूरी तरह उजागर कर दिया जाता है। तो लोग खुद को अपराधों से पूरी तरह मुक्त करने के लिए क्या कर सकते हैं? समस्याएँ हल करने के लिए उन्हें सत्य की तलाश करनी चाहिए और उन्हें सत्य का अभ्यास करने में भी सक्षम होना चाहिए। सत्य के प्रति लोगों का यही सही रवैया होना चाहिए। तो फिर लोगों को सत्य का अभ्यास कैसे करना चाहिए? चाहे कितने ही प्रलोभनों या परीक्षणों का सामना करना पड़े, तुम्हें वास्तव में अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पित होना चाहिए। कुछ परीक्षण प्रलोभन के रूप में भी होते हैं—परमेश्वर तुम्हें ऐसी चीजों का सामना क्यों करने देता है? ऐसा न तो आकस्मिक रूप से होता है और न ही संयोगवश कि परमेश्वर तुम्हारे साथ ऐसी चीजें घटित होने दे। यह तो परमेश्वर का तुम्हारी परीक्षा लेना है और तुम्हारी जाँच करना है। यदि तुम इस जाँच को स्वीकार नहीं करते, यदि तुम इस मामले पर ध्यान नहीं देते तो क्या इससे परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया प्रकट नहीं होता? परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया क्या है? परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जो परिवेश तैयार किए हैं और वह तुम्हें जो परीक्षण देता है, अगर उनके प्रति तुम्हारा रवैया उदासीन और अवमाननापूर्ण है और इससे गुजरते हुए तुम न तो प्रार्थना करते हो, न सत्य खोजते हो और न ही अभ्यास का कोई रास्ता ढूँढ़ते हो तो इससे पता चलता है कि परमेश्वर के प्रति तुम्हारा समर्पित रवैया नहीं है। ऐसे व्यक्ति को परमेश्वर कैसे बचा सकता है? क्या यह संभव है कि परमेश्वर ऐसे लोगों को पूर्ण बनाए? कदापि नहीं। इसका कारण यह है कि परमेश्वर के प्रति तुम्हारा समर्पित रवैया नहीं है और भले ही परमेश्वर तुम्हारे लिए कोई परिवेश तैयार करे तो भी तुम इसका अनुभव नहीं करोगे और तुम अपने हिस्से की भूमिका नहीं निभाओगे। यह परमेश्वर के प्रति तुम्हारी अवमानना दिखाता है कि तुम परमेश्वर के कार्य को गंभीरता से नहीं लेते और तुम परमेश्वर के वचनों और सत्यों को भी दरकिनार करने में सक्षम हो, जिसका अर्थ है कि तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर रहे हो। उस स्थिति में, तुम्हें उद्धार कैसे मिल सकता है? जिन्हें सत्य से प्रेम नहीं है, वे परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर सकते। परमेश्वर में इस तरह का विश्वास करते हुए उद्धार प्राप्त करने का कोई उपाय नहीं है। इसका मतलब यह है कि परमेश्वर और सत्य के प्रति व्यक्ति का रवैया बहुत महत्वपूर्ण है और इसका सीधा संबंध इस बात से है कि क्या उसे बचाया जा सकता है। जो लोग इस पर ध्यान नहीं देते वे मूर्ख और अज्ञानी हैं।

अंश 62

यह कहा गया है कि “वह जो अंत तक अनुसरण करता है, उसे निश्चित ही बचाया जाएगा,” लेकिन क्या इसे अभ्यास में लाना आसान है? यह आसान नहीं है, और बड़ा लाल अजगर जिन कई लोगों का पीछा कर सताता है, वे बहुत डरपोक बन जाते हैं परमेश्वर का अनुसरण करने से डरते हैं। उनका पतन क्यों हुआ? क्योंकि उनमें सच्ची आस्था नहीं थी। कुछ लोग सत्य स्वीकार सकते हैं, परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं, उस पर निर्भर रह सकते हैं, परीक्षणों और क्लेशों में अडिग रह सकते हैं, कुछ लोग अंत तक अनुसरण नहीं कर पाते। परीक्षणों और क्लेशों के दौरान वे किसी एक मुकाम पर आकर गिर पड़ते हैं, अपनी गवाही गँवा देते हैं और फिर से उठकर चल नहीं पाते। प्रतिदिन होने वाली सभी चीजें, चाहे वे बड़ी हों या छोटी, जो तुम्हारे संकल्प को डगमगा सकती हैं, तुम्हारे दिल पर कब्जा कर सकती हैं या तुम्हें अपने कर्तव्य में बाधित कर सकती हैं और तुम्हें आगे की प्रगति में बाधित कर सकती हैं, उनसे गंभीरता से निपटना जरूरी है और तुम्हें उनकी सावधानीपूर्वक जाँच करनी चाहिए और सत्य खोजना चाहिए। ये सारी वो चीजें हैं जिनका जैसे-जैसे तुम अनुभव करते हो, समाधान किया ही जाना चाहिए। कुछ लोग नकारात्मक हो जाते हैं, शिकायत करते हैं और मुश्किलें आने पर अपने कर्तव्य छोड़ देते हैं और प्रत्येक नाकामयाबी के बाद वे रेंगकर वापस अपने पैरों पर उठ खड़े होने में असमर्थ होते हैं। ये सभी लोग मूर्ख हैं जो सत्य से प्रेम नहीं करते और वे जीवन भर की आस्था के बाद भी सत्य को हासिल नहीं करेंगे। ऐसे मूर्ख अंत तक अनुसरण कैसे कर सकते थे? यदि तुम्हारे साथ एक ही बात दस बार होती है, लेकिन तुम उससे कुछ हासिल नहीं करते, तो तुम एक औसत दर्जे के, निकम्मे व्यक्ति हो। तीक्ष्ण और सच्ची काबिलियत वाले जिन लोगों के पास आध्यात्मिक समझ होती है, वे सत्य के खोजी होते हैं; यदि उनके साथ कुछ दस बार घटित होता है, तो शायद उनमें से आठ मामलों में वे कुछ प्रबोधन प्राप्त करने, कुछ सबक सीखने, कुछ सत्य समझने और कुछ प्रगति कर पाने में समर्थ होंगे। जब चीजें दस बार किसी मूर्ख पर पड़ती हैं—किसी ऐसे पर जिसे आध्यात्मिक समझ नहीं होती है—तो इससे एक बार भी उनके जीवन को लाभ नहीं होगा, एक बार भी यह उन्हें नहीं बदलेगा, और न ही एक बार भी यह उनके बदसूरत चेहरे को जानने का कारण बनेगा, और ऐसे में यही उनके लिए अंत है। हर बार जब उनके साथ कुछ घटित होता है, तो वे गिर पड़ते हैं, और हर बार जब वे गिर पड़ते हैं, तो उन्हें समर्थन और दिलासा देने के लिए किसी और की जरूरत होती है; बिना सहारे और दिलासे के वे उठ नहीं सकते, और हर बार जब कुछ होता है, तो उन्हें गिरने और पतित होने का खतरा होता है। तो क्या उनके लिए यही अंत नहीं है? क्या ऐसे निकम्मे लोगों के बचाए जाने का कोई और आधार बचा है? परमेश्वर द्वारा मानवजाति का उद्धार उन लोगों का उद्धार है, जो सत्य से प्रेम करते हैं, उनके उस हिस्से का उद्धार है, जिसमें इच्छा-शक्ति और संकल्प हैं, और उनके उस हिस्से का उद्धार है, जो उनके दिल में सत्य और न्याय के लिए लालायित है। किसी व्यक्ति का संकल्प उसके दिल का वह हिस्सा है, जो न्याय, अच्छाई और सत्य के लिए तरसता है और जमीर से युक्त होता है। परमेश्वर लोगों के इस हिस्से को बचाता है, और इसके माध्यम से, वह उनके भ्रष्ट स्वभाव को बदलता है, ताकि वे सत्य को समझ सकें और हासिल कर सकें, ताकि उनकी भ्रष्टता शुद्ध हो सके, और उनका जीवन स्वभाव रूपांतरित किया जा सके। यदि तुम्हारे भीतर ये चीजें नहीं हैं, तो तुमको बचाया नहीं जा सकता। यदि तुम्हारे भीतर सत्य के लिए कोई प्रेम या न्याय और प्रकाश के लिए कोई आकांक्षा नहीं है; यदि, जब भी तुम बुरी चीजों का सामना करते हो, तब तुम्हारे पास न तो उन्हें दूर फेंकने की इच्छा-शक्ति होती है और न ही कष्ट सहने का संकल्प; यदि, इसके अलावा, तुम्हारा जमीर सुन्न है; यदि सत्य को प्राप्त करने की तुम्हारी क्षमता भी सुन्न है, और तुम सत्य या होने वाली घटनाओं को महसूस करने में सक्षम नहीं हो; और यदि तुम सभी मामलों में विवेकहीन हो, और कोई भी मुसीबत आने पर समस्या का हल ढूँढ़ने के लिए सत्य नहीं खोज पाते हो और लगातार नकारात्मक हो रहे हो, तो तुम्हें बचाए जाने का कोई रास्ता नहीं है। ऐसे व्यक्ति के पास कोई ऐसा गुण नहीं होता जिसके आधार पर उसकी सिफारिश की जाए, जिस पर परमेश्वर काम कर सके। उनका जमीर सुन्न होता है, उनका मन मैला होता है, और वे सत्य से प्रेम नहीं करते, न ही अपने दिल की गहराई में वे न्याय के लिए तरसते हैं, और परमेश्वर चाहे कितने ही स्पष्ट या पारदर्शी रूप से सत्य की बात करे, वे जरा-सी भी प्रतिक्रिया नहीं देते, मानो पहले से ही उनका हृदय मृत हो। क्या उनके लिए खेल खत्म नहीं हो गया है? किसी ऐसे व्यक्ति को, जिसकी साँस बाक़ी हो, कृत्रिम श्वसन द्वारा बचाया जा सकता है, लेकिन अगर वह पहले से ही मर चुका हो और उसकी आत्मा उसे छोड़कर जा चुकी है, तो कृत्रिम श्वसन कुछ नहीं कर पाएगा। यदि, समस्याओं और कठिनाइयों का सामना करने पर, कोई व्यक्ति पीछे हट जाता है और उनसे बचता है, तो वह सत्य नहीं खोजता, और अपने काम में नकारात्मक और सुस्त होने का चुनाव करता है, फिर उसकी असलियत उजागर कर दी जाती है। ऐसे लोगों के पास कोई अनुभवजन्य गवाही नहीं होती। वे मुफ्तखोर और व्यर्थ का बोझ होते हैं, परमेश्वर के घर में बेकार होते हैं और वे पूरी तरह बर्बाद हो चुके होते हैं। जो लोग समस्याओं के हल के लिए सत्य खोजते हैं, उन्हीं के पास आध्यात्मिक कद होता है और वही लोग दृढ़ता से गवाही दे सकते हैं। जब समस्याएँ और कठिनाइयाँ सामने आएँ तो तुम्हें उनका सामना अवश्य ही ठंडे दिमाग से करना चाहिए और उनसे सही से पेश आना चाहिए और कोई एक विकल्प चुनना चाहिए। तुम्हें समस्याओं के हल के लिए सत्य का उपयोग करना सीखना चाहिए। जिन सत्यों को तुम आमतौर पर समझते हो, वे चाहे गहन हों या उथले, तुम्हें उनका उपयोग करना चाहिए। सत्य केवल वे शब्द नहीं हैं जो तुम्हारे मुंह से उस समय निकलते हैं जब तुम्हारे साथ कुछ हो जाता है, न ही वे खास तौर पर दूसरों की समस्याओं को हल करने के लिए उपयोग किए जाते हैं; इसके बजाय, उनका उपयोग तुम्हारी समस्याओं और कठिनाइयों को हल करने के लिए किया जाना चाहिए। यही सबसे महत्वपूर्ण है। जब तुम अपनी समस्याएँ हल करोगे तभी तुम दूसरों की समस्याएँ भी हल कर पाओगे। पतरस को फल क्यों कहा जाता है? क्योंकि उसमें मूल्यवान चीजें हैं, जो पूर्ण करने के लायक हैं। उसने सभी बातों में सत्य की खोज की, उसमें संकल्प था और दृढ़ इच्छाशक्ति थी; उसमें विवेक था, वह कठिनाई सहने के लिए तैयार था और दिल से सत्य से प्रेम करता था; जब उस पर चीजें आईं तो उसने उन्हें बेकार नहीं जाने दिया और हर चीज से सबक सीख सका। ये सभी बड़ी खूबियाँ हैं। यदि तुम्हारे पास इनमें से कोई भी बड़ी खूबी नहीं है, तो यह परेशानी की बात है। तुम्हारे लिए सत्य प्राप्त करना और बचाया जाना आसान नहीं होगा। यदि तुम्हें नहीं पता कि अनुभव कैसे करना है या तुम्हें कोई अनुभव नहीं है, तो तुम अन्य लोगों की कठिनाइयों को हल करने में सक्षम नहीं होगे। चूँकि तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करने में असमर्थ हो, इसलिए तुम नहीं जानते कि अगर कुछ हो जाए तो क्या करना है, जब तुम समस्याओं का सामना करते हो तो तुम परेशान हो जाते हो और आंसू बहाने लगते हो, तुम नकारात्मक हो जाते हो और छोटी-मोटी असफलता पर भाग खड़े होते हो और तुम उनसे सही से पेश आने में असमर्थ होते हो। इस कारण तुम्हारे लिए जीवन प्रवेश पाना असंभव है। तुम जीवन प्रवेश के बिना दूसरों को पोषण कैसे दे सकते हो? लोगों के जीवन को पोषण देने के लिए तुम्हें सत्य की स्पष्ट रूप से संगति करनी चाहिए और समस्याओं को हल करने के लिए अभ्यास के सिद्धांतों की स्पष्ट संगति करना आना चाहिए। जिसमें दिल और आत्मा है, उसे ज्यादा बताने की जरूरत नहीं है, वह थोड़ी बातों से ही समझ जाएगा। लेकिन केवल सत्य की थोड़ी सी समझ से काम नहीं चलेगा। उनके पास अभ्यास के मार्ग और सिद्धांत भी होने चाहिए। इसी से उन्हें सत्य का अभ्यास करने में मदद मिलेगी। भले ही लोगों में आध्यात्मिक समझ हो और थोड़ा-सा ही बोलने पर वे समझ जाते हों, पर यदि वे सत्य का अभ्यास नहीं करते तो जीवन प्रवेश नहीं होगा। यदि वे सत्य नहीं स्वीकार पाते, तो उनके लिए सब खत्म है और वे कभी भी सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश नहीं कर पाएँगे। तुम कुछ लोगों का हाथ पकड़कर उन्हें सिखा सकते हो, उस समय तो लगेगा कि वे समझ रहे हैं, लेकिन जैसे ही तुम उनका हाथ छोड़ते हो, वे फिर से भ्रमित हो जाते हैं। यह ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसमें आध्यात्मिक समझ हो। चाहे कोई भी समस्या सामने हो, अगर तुम नकारात्मक और कमजोर होते हो, तुम्हारे पास कोई गवाही नहीं होती और जब उन चीजों की बात आती है जो चीजें लोगों को करनी चाहिए और जो चीजें लोगों को अपने हिस्से की भूमिका के रूप निभानी चाहिए तब अगर तुम अपने हिस्से की भूमिका नहीं निभाते तो इससे साबित होता है कि तुम्हारे दिल में परमेश्वर नहीं है, तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो सत्य से प्रेम करता है। पवित्र आत्मा का कार्य लोगों को चाहे जैसे प्रेरित करे, कई वर्षों तक परमेश्वर के कार्य का अनुभव करके, इतने सारे सत्य सुनकर, थोड़ा जमीर रखकर और आत्म-संयम पर भरोसा करके ही, लोगों को कम से कम न्यूनतम मानक पूरा करने में सक्षम होना चाहिए—अपने जमीर से फटकार नहीं खानी चाहिए। लोगों को उतना सुस्त और कमजोर नहीं होना चाहिए जितना वे अब हैं, उनका ऐसी स्थिति में होना अकल्पनीय है। शायद तुम लोगों के पिछले कुछ वर्ष संभ्रम की अवस्था में, सत्य का अनुसरण और कोई प्रगति न करते हुए गुजरे हैं। यदि ऐसा नहीं है, तो तुम अभी भी इतने सुन्न और मंदबुद्धि कैसे हो सकते हो? तुम्हारा इस तरह होना, पूरी तरह से तुम्हारी मूर्खता और अज्ञानता के कारण है, इसके लिए तुम किसी और को दोष नहीं दे सकते। सत्य दूसरों के मुकाबले कुछ खास लोगों के प्रति पक्षपातपूर्ण नहीं होता। यदि तुम सत्य नहीं स्वीकारते और समस्याओं को हल करने के लिए सत्य नहीं खोजते, तो तुम कैसे बदल सकते हो? कुछ लोगों को लगता है कि उनमें बहुत कम काबिलियत है और उनमें समझने की क्षमता नहीं है, इसलिए वे अपने बारे में फैसला सुना देते हैं, उन्हें लगता है कि वे चाहे कितना भी सत्य का अनुसरण कर लें, परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर सकते। वे सोचते हैं कि चाहे वे कितनी भी कोशिश कर लें, सब बेकार है, और इसमें बस इतना ही है, इसलिए वे हमेशा नकारात्मक होते हैं, परिणामस्वरूप, बरसों परमेश्वर में विश्वास रखकर भी, उन्हें सत्य प्राप्त नहीं होता। सत्य का अनुसरण करने के लिए कड़ी मेहनत किए बिना, तुम कहते हो कि तुम्हारी काबिलियत बहुत खराब है, तुम हार मान लेते हो और हमेशा एक नकारात्मक स्थिति में रहते हो। नतीजतन उस सत्य को नहीं समझते जिसे तुम्हें समझना चाहिए या जिस सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो, उसका अभ्यास नहीं करते—क्या तुम अपने लिए बाधा नहीं बन रहे हो? यदि तुम हमेशा यही कहते रहो कि तुममें पर्याप्त काबिलियत नहीं है, क्या यह अपनी जिम्मेदारी से बचना और जी चुराना नहीं है? यदि तुम कष्ट उठा सकते हो, कीमत चुका सकते हो और पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर सकते हो, तो तुम निश्चित ही कुछ सत्य समझकर कुछ वास्तविकताओं में प्रवेश कर पाओगे। यदि तुम परमेश्वर की ओर नहीं देखते, उस पर निर्भर नहीं रहते और बिना कोई प्रयास किए या कीमत चुकाए बस हार मान लेते हो और समर्पण कर देते हो, तो तुम किसी काम के नहीं हो, तुममें अंतरात्मा और विवेक का जरा-सा भी अंश नहीं है। चाहे तुम्हारी काबिलियत खराब हो या अत्युत्तम हो, यदि तुम्हारे पास थोड़ा-सा भी जमीर और विवेक है, तो तुम्हें वह ठीक से पूरा करना चाहिए, जो तुम्हें करना है और जो तुम्हारा मिशन है; कर्तव्य छोड़कर भागना एक भयानक बात है और परमेश्वर के साथ विश्वासघात है। इसे सही नहीं किया जा सकता। सत्य का अनुसरण करने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है, और जो लोग बहुत अधिक नकारात्मक या कमजोर होते हैं, वे कुछ भी संपन्न नहीं करेंगे। वे अंत तक परमेश्वर में विश्वास नहीं कर पाएँगे, और, यदि वे सत्य को प्राप्त करना चाहते हैं और स्वभावगत बदलाव हासिल करना चाहते हैं, तो उनके लिए अभी भी उम्मीद कम है। केवल वे, जो दृढ़-संकल्प वाले हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं, ही उसे प्राप्त कर सकते हैं और परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जा सकते हैं।

अंश 63

बहुत-से लोग अक्सर बीमार पड़ जाते हैं और चाहे वे परमेश्वर से कितनी भी प्रार्थना करें, फिर भी वे ठीक नहीं होते। चाहे वे अपनी बीमारी से कितना भी छुटकारा पाना चाहें, लेकिन नहीं पा सकते। कभी-कभी, उन्हें जानलेवा परिस्थितियों का भी सामना करना पड़ सकता है और उन्हें इन परिस्थितियों का सीधे सामना करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। दरअसल, यदि किसी के हृदय में वास्तव में परमेश्वर पर आस्था है, तो उसे सबसे पहले यह जान लेना चाहिए कि व्यक्ति का जीवनकाल परमेश्वर के हाथों में है। व्यक्ति के जन्म और मृत्यु का समय परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत है। जब परमेश्वर लोगों को बीमारी देता है तो उसके पीछे कोई कारण होता है—उसका महत्व होता है। वे जो महसूस कर सकते हैं वह बीमारी है, लेकिन असल में उन्हें जो दिया गया है वह अनुग्रह है, बीमारी नहीं। लोगों को पहले इस तथ्य को पहचानना चाहिए और इसके बारे में सुनिश्चित होना चाहिए, और इसे गंभीरता से लेना चाहिए। जब लोग बीमारी से पीड़ित होते हैं, तो वे अक्सर परमेश्वर के सामने आ सकते हैं, और विवेक और सावधानी के साथ, वह करना सुनिश्चित कर सकते हैं जो उन्हें करना चाहिए, और दूसरों की तुलना में अपने कर्तव्य से अधिक सावधानी और परिश्रम के साथ पेश आते हैं। जहाँ तक लोगों का सवाल है, यह एक सुरक्षा है, बंधन नहीं। यह निष्क्रिय दृष्टिकोण है। इसके अलावा, हर व्यक्ति का जीवन-काल परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत किया गया है। चिकित्सीय दृष्टिकोण से कोई बीमारी प्राणांतक हो सकती है, लेकिन परमेश्वर के नजरिये से अगर तुम्हारा जीवन अभी जारी रहना चाहिए और तुम्हारा समय अभी नहीं आया है तो तुम चाहकर भी नहीं मर सकते। अगर तुम्हारे पास परमेश्वर का कोई आदेश है और तुम्हारा मिशन अभी तक पूरा नहीं हुआ है तो तुम नहीं मरोगे, फिर भले ही तुम्हें ऐसी कोई बीमारी क्यों न लग जाए जिसे प्राणघातक माना जाता है—परमेश्वर अभी तुम्हें नहीं ले जाएगा। भले ही तुम प्रार्थना न करो, सत्य न खोजो और अपनी बीमारी का इलाज न कराओ या भले ही तुम अपने इलाज में देरी कर दो—फिर भी तुम मरोगे नहीं। यह खास तौर से उन लोगों के लिए सच है जिनके पास परमेश्वर का एक महत्वपूर्ण आदेश है : जब उनका मिशन अभी पूरा होना बाकी है तो उन्हें चाहे कोई भी बीमारी हो जाए, वे तुरंत नहीं मरेंगे; वे अपने मिशन के पूरा होने के अंतिम क्षण तक जिएँगे। क्या तुम्हारे पास यह आस्था है? यदि तुम्हारे पास यह आस्था नहीं है तो तुम परमेश्वर से केवल कुछ दिखावटी प्रार्थनाएँ करोगे और कहोगे, “परमेश्वर, मुझे तुम्हारा दिया हुआ आदेश पूरा करना है। मैं अपने अंतिम दिन तुम्हारे प्रति समर्पित होकर बिताना चाहता हूँ, ताकि मुझे कोई पछतावा न रहे। तुम्हें मेरी रक्षा करनी होगी!” यद्यपि तुम इस तरह से प्रार्थना करते हो, लेकिन यदि तुम सत्य तलाशने की पहल नहीं करते हो तो तुम्हारे पास समर्पित होने का संकल्प और ताकत नहीं होगी। चूँकि वास्तविक कीमत चुकाने की तुम्हारी इच्छा नहीं है, इसलिए तुम अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करने और उसके साथ मोलभाव करने के लिए इस तरह के बहाने और तरीके आजमाते हो—क्या यह व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है? यदि तुम्हारी बीमारी ठीक हो जाए, तो क्या तुम वास्तव में अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा पाओगे? जरूरी नहीं। सच तो यह है कि चाहे तुम्हारी सौदेबाजी अपनी बीमारी ठीक करने और खुद को मरने से बचाने के लिए हो, या इसमें तुम्हारी कोई और मंशा या लक्ष्य हो, परमेश्वर के नजरिये से, जब तक तुम अपना कर्तव्य निभा सकते हो अभी भी काम के हो और जब तक उसने तुम्हारा इस्तेमाल करने का फैसला किया है तो इसका मतलब है कि तुम्हें नहीं मरना चाहिए। अगर तुम मरना भी चाहो तो नहीं मर सकते। लेकिन अगर तुम बिना सोचे-समझे कोई परेशानी खड़ी करते हो, तमाम तरह के बुरे कर्म करते हो और परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करते हो तो तुम और जल्दी मर जाओगे; तुम्हारा जीवन छोटा हो जाएगा। दुनिया को बनाने से पहले ही परमेश्वर ने हर व्यक्ति का जीवनकाल पूर्वनियत कर दिया था। यदि लोग परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों के आगे समर्पण कर पाते हैं तो फिर चाहे बीमारी आए या न आए, उनका स्वास्थ्य अच्छा हो या खराब हो, वे उतने वर्ष तो जिएँगे ही जितने परमेश्वर ने पूर्वनियत किए हैं। क्या तुम में यह आस्था है? यदि तुम इसे केवल धर्म-सिद्धांत के मायने में स्वीकार करते हो तो तुममें सच्ची आस्था नहीं है, और कानों को अच्छे लगने वाले शब्द कहना बेकार है; यदि तुम अपने हृदय की गहराई से पुष्टि करते हो कि परमेश्वर ऐसा करेगा, तो तुम्हारा पेश आने का तरीका और अभ्यास करने का तरीका स्वाभाविक रूप से बदल जाएगा। बेशक, भले ही लोग बीमार हों या नहीं, उन्हें अपने जीवनकाल में अपने स्वास्थ्य को बनाए रखने के बारे में कुछ सामान्य समझ होनी चाहिए। यह वह सहज प्रवृत्ति है जो परमेश्वर ने मनुष्य को दी है। यही वह विवेक और सामान्य समझ है जो उस स्वतंत्र इच्छा के अंतर्गत व्यक्ति के पास होनी चाहिए जो परमेश्वर ने उसे दी है। जब तुम बीमार पड़ जाते हो, तो इस बीमारी से निपटने के लिए देखभाल और उपचार के बारे में कुछ सामान्य समझ तुममें होनी चाहिए—तुम्हें यही करना चाहिए। परंतु, इस तरह से बीमारी का इलाज करने का मतलब परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए पूर्वनियत जीवनकाल को चुनौती देना नहीं है, न ही इसका मतलब इस बात की गारंटी लेना है कि तुम उस जीवनकाल को पूरा जी सकते हो जो उसने तुम्हारे लिए पूर्वनियत किया है। इसका अर्थ क्या है? इसे इस तरह से समझाया जा सकता है : निष्क्रिय दृष्टि से, भले ही तुम अपनी बीमारी को गंभीरता से नहीं लेते हो, फिर भी तुम अपना कर्तव्य जिस तरह से भी निभाना चाहिए वैसा निभाते हो और अपने कर्तव्य में विलंब किए बिना दूसरों की तुलना में थोड़ा अधिक आराम करते हो तो तब तुम्हारी बीमारी और नहीं बिगड़ेगी और यह तुम्हें मारेगी नहीं। सब कुछ इस पर निर्भर करता है कि परमेश्वर क्या करता है। दूसरे शब्दों में, यदि परमेश्वर की दृष्टि में तुम्हारा पूर्वनियत जीवनकाल अभी तक पूरा नहीं हुआ है, तो भले ही तुम बीमार पड़ जाओ, वह तुम्हें मरने नहीं देगा। यदि तुम्हारी बीमारी लाइलाज नहीं है लेकिन तुम्हारा समय आ गया है, तो परमेश्वर जब चाहे तुम्हें ले जाएगा। क्या यह पूरी तरह से परमेश्वर के विचार पर निर्भर नहीं है? यह उसकी पूर्वनियति पर ही निर्भर है! तुम्हें इस मामले को इसी तरह से देखना चाहिए। तुम डॉक्टर के पास जाने, कुछ दवाएँ लेने, अपने स्वास्थ्य की देखभाल करने और व्यायाम करने में सहयोग कर सकते हो, लेकिन तुम्हें गहराई से यह समझने की जरूरत है कि व्यक्ति का जीवन परमेश्वर के हाथों में है, व्यक्ति का जीवनकाल परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत है और परमेश्वर ने जो पूर्वनियत कर दिया है उससे आगे कोई नहीं जा सकता। यदि तुम्हारे पास इतनी-सी भी समझ नहीं है, तो तुम्हें सच्ची आस्था नहीं है, और तुम वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते हो।

जब लोग बीमार पड़ते हैं, अपनी बीमारियों के इलाज के लिए भिन्न-भिन्न तरीके आजमाने के लिए वे माथापच्ची करते हैं, लेकिन चाहे कोई भी उपचार किया जाए, उन्हें ठीक नहीं किया जा सकता है। जितना अधिक उनका इलाज किया जाता है, बीमारी उतनी ही गंभीर होती जाती है। बीमारी के साथ वास्तव में क्या हो रहा है इसका पता लगाने और मूल कारण की तलाश करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करने के बजाय, वे मामले को अपने हाथों में लेते हैं। वे बहुत सारे तरीके अपनाते हैं और काफी पैसा भी खर्च करते हैं, लेकिन फिर भी उनकी बीमारी ठीक नहीं होती है। और फिर, जब उन्होंने इलाज करना छोड़ दिया, तो कुछ समय बाद बीमारी अप्रत्याशित रूप से अपने आप ठीक हो जाती है, और उन्हें पता भी नहीं चलता कि यह कैसे हुआ। कुछ लोगों को कोई मामूली-सी बीमारी हो जाती है और वे इसकी ज्यादा चिंता नहीं करते, लेकिन एक दिन उनकी हालत बिगड़ जाती है और वे अचानक मर जाते हैं। यह क्या हो रहा है? लोग इसकी थाह पाने में असमर्थ हैं; वास्तव में, परमेश्वर के दृष्टिकोण से, ऐसा इसलिए है क्योंकि इस दुनिया में उस व्यक्ति का मिशन पूरा हो गया था, इसलिए परमेश्वर उसे ले गया। लोग अक्सर कहते हैं, “यदि लोग बीमार नहीं हैं तो वे मरते नहीं हैं।” क्या वास्तव में ऐसा ही है? ऐसे लोग भी हैं जिन्हें अस्पताल में जाँच के बाद पता चला कि उन्हें कोई बीमारी नहीं है। वे अत्यंत स्वस्थ थे लेकिन कुछ ही दिनों में उनकी मृत्यु हो गई। इसे कहते हैं बिना बीमारी के मरना। ऐसे बहुत-से लोग हैं। इसका मतलब यह है कि व्यक्ति अपने जीवनकाल के अंत तक पहुँच चुका है, और उसे आध्यात्मिक जगत में वापस ले जाया जा चुका है। कुछ लोग कैंसर और तपेदिक से बच गए हैं और सत्तर या अस्सी की उम्र में अभी भी जीवित हैं। ऐसे बहुत-से लोग हैं। यह सब परमेश्वर के विधान पर निर्भर है। इस समझ का होना ही परमेश्वर में सच्चा विश्वास है। यदि तुम शारीरिक रूप से बीमार हो और तुम्हें अपनी स्थिति को ठीक करने के लिए कुछ दवा लेने की आवश्यकता है तो फिर तुम्हें नियमित रूप से दवा लेनी चाहिए या व्यायाम करना चाहिए और परेशान नहीं होना चाहिए और इसका शांत भाव से सामना करना चाहिए। यह कैसा दृष्टिकोण है? यह परमेश्वर में सच्चे विश्वास का दृष्टिकोण है। मान लो कि तुम दवा नहीं लेते, टीके नहीं लगवाते, व्यायाम नहीं करते, अपने स्वास्थ्य का ध्यान नहीं रखते, और फिर भी तुम मृत्यु को लेकर चिंतित रहते हो, हर समय प्रार्थना करते हो : “हे परमेश्वर, मुझे अपने कर्तव्य ठीक से निभाने हैं, मेरा मिशन पूरा नहीं हुआ है, मैं मरने के लिए तैयार नहीं हूँ। मैं अपने कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहता हूँ और तुम्हारा आदेश पूरा करना चाहता हूँ। अगर मैं मर गया तो तुम्हारा आदेश पूरा नहीं कर पाऊँगा। मैं अपने पीछे कोई पछतावा नहीं छोड़ना चाहता। परमेश्वर, कृपया मेरी प्रार्थना सुनो; मुझे जीवित रहने दो ताकि मैं अपने कर्तव्य अच्छे से निभा सकूँ और तुम्हारा आदेश पूरा कर सकूँ। मैं सदैव तुम्हारी प्रशंसा करना चाहता हूँ और यथाशीघ्र तुम्हारी महिमा का दिन देखना चाहता हूँ।” बाहर से देखने में, तुम दवा नहीं लेते या कोई टीका नहीं लगवाते, और तुम बहुत मजबूत और परमेश्वर में विश्वास से भरे लगते हो। वास्तव में, तुम्हारी आस्था राई के दाने से भी छोटी है। तुम इतने डरे हुए हो जैसे कोई मौत से डरता है और तुम्हें परमेश्वर में कोई आस्था नहीं है। ऐसा कैसे है कि तुम्हें कतई आस्था नहीं है? यह कैसे हुआ? मानव सृष्टिकर्ता के रवैये, सिद्धांतों और उसके सृजित प्राणियों के साथ व्यवहार करने के तरीकों को समझते ही नहीं, इसलिए वे अपने सीमित परिप्रेक्ष्य, धारणाओं और कल्पनाओं के सहारे यह अटकल लगाते हैं कि परमेश्वर क्या करेगा। क्या परमेश्वर उन्हें ठीक कर लंबा जीवन जीने देगा या नहीं, यह देखने के लिए वे उसके साथ बाजी लगाना चाहते हैं। क्या यह मूर्खता नहीं है? यदि परमेश्वर तुम्हें जीवित रहने की अनुमति देता है, तो चाहे तुम कितने भी बीमार पड़ जाओ, तुम नहीं मरोगे। यदि परमेश्वर तुम्हें जीवित रहने की अनुमति नहीं देता है, तो भले ही तुम बीमार न हो, फिर भी अगर मरना बदा है तो तुम मरोगे। तुम्हारा जीवनकाल परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत है। अगर तुम इस मामले को स्पष्टता से देख सकते हो तो यह दिखाता है कि तुम सत्य को समझते हो और तुममें सच्ची आस्था है। तो क्या परमेश्वर संयोग से लोगों को बीमार कर देता है? यह संयोग से नहीं है; यह उनकी आस्था को परिष्कृत करने का एक तरीका है। यह ऐसी पीड़ा है जो लोगों को सहनी ही चाहिए। यदि वह तुम्हें बीमार करता है तो इससे बचने की कोशिश न करो; यदि वह तुम्हें बीमार नहीं करता है तो इसके लिए अनुरोध न करो। सब कुछ सृष्टिकर्ता के हाथों में है और लोगों को यह सीखना चाहिए कि प्रकृति को उसकी राह पर चलने दें। प्रकृति क्या है? प्रकृति में कुछ भी संयोग से नहीं होता; यह सब परमेश्वर से आता है। यह सत्य है। एक ही बीमारी से पीड़ित लोगों में से कुछ मर जाते हैं और अन्य जीवित रहते हैं; यह सब परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत कर दिया गया था। यदि तुम जीवित रह सकते हो, तो यह साबित करता है कि तुमने अभी तक वह मिशन पूरा नहीं किया है जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया था। तुम्हें उसे पूरा करने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए और इस समय को सँजोना चाहिए; इसे बरबाद मत करो। बात इतनी ही है। यदि तुम बीमार हो, तो इससे बचने की कोशिश न करो, और यदि तुम बीमार नहीं हो, तो इसके लिए अनुरोध न करो। किसी भी मामले में, तुम केवल अनुरोध करके वह प्राप्त नहीं कर सकते, जो तुम चाहते हो, और न ही तुम किसी बात से इसलिए बच सकते हो कि तुम बचना चाहते हो। परमेश्वर ने जो करने का निश्चय किया है, उसे कोई नहीं बदल सकता।

सलीब पर चढ़ाए जाने से पहले प्रभु यीशु ने एक प्रार्थना की थी। उसके ठीक-ठीक शब्द क्या थे? (“हो सके तो इस कटोरे को मेरे पास से गुजर जाने दो : फिर भी, मेरी इच्छा नहीं बल्कि तुम्हारी इच्छा पूरी हो” (मत्ती 26:39)।) सृजित मानवजाति के सदस्यों के रूप में, लोगों को इस तरह की तलाश की प्रक्रिया से गुजरना चाहिए, क्योंकि वे परमेश्वर के इरादों को नहीं समझते। यह एक सामान्य प्रक्रिया है। हालाँकि, चाहे तुम कैसे भी तलाश करो, और चाहे तलाश की यह प्रक्रिया कितनी भी लंबी, कष्टप्रद या कठिन क्यों न हो, परमेश्वर ने शुरुआत से ही जो कुछ भी करने की ठान ली है, वह कभी भी नहीं बदला है और न ही उसने कभी उसे बदलने का फैसला किया है। लोग तलाश और प्रतीक्षा कर सकते हैं, और परमेश्वर उन्हें उस प्रक्रिया की अनुमति देता है, जिसके द्वारा इस बात की समझ, ज्ञान और स्पष्टता प्राप्त की जा सकती है कि वास्तव में क्या सच है, लेकिन वह कभी एक भी निर्णय को नहीं बदलेगा। इसलिए, तुम्हें यह महसूस नहीं करना चाहिए कि तुम्हारे साथ चीजें संयोग से घटित होती हैं या यह कि जब तुम किसी तरह आपदा और निश्चित मौत से बच निकलते हो, तो यह मात्र भाग्य और संयोग से होता है। ऐसा नहीं है। सबसे बड़े से लेकर सबसे छोटे तक, भीमकाय ग्रहों और ब्रह्मांड से लेकर सृजित मानवजाति और यहाँ तक कि सूक्ष्मजीवियों तक—परमेश्वर के पास हर सृजित प्राणी के लिए एक पूर्वनियत योजना और व्यवस्थाएँ हैं। यही परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता है। बीमार पड़ने वाले कुछ लोग कहते हैं कि उनकी बीमारी किसी गतिविधि की थकान से या भूलवश कोई गलत चीज खाने से हुई थी। ऐसे कारणों की तलाश मत करो; वे सभी नकारात्मक और प्रतिरोधी दृष्टिकोण हैं। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जिन परिवेशों, लोगों, घटनाओं और चीजों का इंतजाम किया है उनका सामना तुम्हें सकारात्मकता के साथ करना चाहिए। वस्तुगत कारण मत खोजो; इसके बजाय, तुम्हें खोजना और समझना चाहिए कि तुम्हें इस स्थिति में डालने के पीछे वास्तव में परमेश्वर का इरादा और रवैया क्या है, और इससे निपटते समय तुम्हें एक सृजित प्राणी होने के नाते कैसा रवैया अपनाना चाहिए; यही मार्ग है जिसकी तुम्हें तलाश करनी चाहिए। जब कोई व्यक्ति बच जाता है तो यह कभी भी संयोग से नहीं होता, न ही यह अपरिहार्य होता है; इसमें हमेशा सृष्टिकर्ता की व्यवस्थाएँ, इच्छाएँ और संप्रभुता होती हैं। कुछ भी खोखला नहीं है। क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर के वचन, उसके इरादे और सत्य सब खोखले हैं? वे खोखले नहीं हैं! जब लोग परमेश्वर के इरादों को गहराई से नहीं समझते हैं, तो वे कुछ धारणाओं और कल्पनाओं की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं, और उन्हें लगता है कि ये धारणाएँ और कल्पनाएँ बिल्कुल सही हैं, और ये परमेश्वर की इच्छाओं के अनुरूप हैं। लोग नहीं जानते कि परमेश्वर की इच्छाएँ क्या हैं, इसलिए उन्हें लगता है, “मेरा इस तरह सोचना सही है। मुझमें सच्ची आस्था है। मैं परमेश्वर का भय मानता हूँ और उसके प्रति समर्पण करता हूँ, मैं परमेश्वर से प्रेम करने वाला व्यक्ति हूँ।” वास्तव में, परमेश्वर तुम्हारी धारणाओं और कल्पनाओं से बहुत ज्यादा नफरत करता है। तुम सोच रहे हो कि तुम कितने सही हो, लेकिन वास्तव में तुम सत्य को बिल्कुल भी नहीं समझते हो, और न ही तुमने सत्य को पाया है। जब एक दिन तुम इन सभी मामलों को स्पष्ट रूप से समझ लेते हो और महसूस करते हो कि ये सभी चीजें अंततः सृष्टिकर्ता द्वारा शासित, व्यवस्थित और नियत हैं, तो तुम उन सभी लोगों, घटनाओं और चीजों से जिनका तुमने सामना किया है, अपना सबक सीख चुके होगे, और तुमने वे परिणाम प्राप्त कर लिए होंगे जो कि तुम्हें मिलने चाहिए। केवल तभी तुम सचमुच परमेश्वर के इरादों को समझोगे और यह एहसास करोगे कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है लोगों को बचाने के लिए करता है और इसमें परमेश्वर के अच्छे इरादे और श्रमसाद्ध्य इरादे निहित होते हैं। जब तुम्हारे पास यह समझ है, तो तुम्हें परमेश्वर को धन्यवाद देना चाहिए और उसकी प्रशंसा करनी चाहिए, कभी ऐसा महसूस नहीं करना चाहिए : “परमेश्वर ने मुझे यह कर्तव्य निभाने के लिए नियुक्त किया है, इसलिए मैं परमेश्वर के हृदय में बहुत महत्वपूर्ण हूँ। परमेश्वर मुझे नहीं छोड़ सकता और वह मुझे मरने नहीं देगा।” यह गलत है। परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसके पास उसकी एक विधि होती है। इसका क्या मतलब है? परमेश्वर निर्धारित करता है कि कोई व्यक्ति कब जन्म लेगा, कब मरेगा, और इस जीवन में उसके कितने मिशन होंगे। परमेश्वर ने तुम्हारा जीवनकाल निर्धारित किया हुआ है। इस जीवन में तुम्हारे खराब प्रदर्शन के कारण वह तुम्हारा जीवनकाल जल्दी समाप्त नहीं करेगा, न ही इस जीवन में अच्छे प्रदर्शन के कारण वह तुम्हारे जीवनकाल को कई वर्षों तक बढ़ा देगा। इसी को कहते हैं विधि का होना। जो लोग दुनिया में हर तरह के बुरे काम करते हैं, दुनिया को बहुत नुकसान पहुँचाते हैं, जिन्होंने एक निश्चित अवधि में कई हानिकारक काम करके दूसरों को खतरे में डाला है, उन बुरे लोगों के बारे में कुछ लोग कहते हैं : “परमेश्वर अंधा है। वह ऐसे लोगों को नष्ट क्यों नहीं कर देता?” क्या तुम जानते हो कि इसका कारण क्या है? इसके पीछे मूल कारण क्या है? मूल कारण यह है : नायक चरित्र के व्यक्ति सकारात्मक भूमिका निभाते हैं, और खलनायक चरित्र के व्यक्ति नकारात्मक भूमिका निभाते हैं। हर किसी का एक मिशन है, हर किसी की एक भूमिका है, हर किसी का जीवन और मृत्यु बहुत पहले ही पूर्वनियत है; परमेश्वर इसमें कभी भी गड़बड़ नहीं करेगा। जब तुम्हारा जन्म हुआ, तो तुम नियत समय पर इस दुनिया में आए, न कि एक मिनट या एक सेकंड आगे-पीछे; जब तुम मरोगे और तुम्हारी आत्मा कूच कर जाएगी, तो वह भी नियत समय से एक मिनट या एक सेकंड भी आगे-पीछे नहीं होगा। परमेश्वर किसी व्यक्ति के उस जीवनकाल को नहीं बदलेगा जो मूल रूप से उसके लिए पूर्वनियत किया गया था, ताकि मानवजाति के प्रति उसके महान योगदान के कारण उसे बीस-तीस साल अधिक जीने को मिल सके। परमेश्वर ने ऐसा कभी नहीं किया है और न ही भविष्य में कभी ऐसा करेगा। वह किसी व्यक्ति को समय से पहले मारने का निमित्त सिर्फ इसलिए नहीं बन जाएगा कि वह व्यक्ति मानवजाति के लिए विशेष रूप से हानिकारक है। परमेश्वर ऐसा कभी नहीं करेगा। यह स्वर्ग का नियम और कानून है, और परमेश्वर कभी इसका उल्लंघन नहीं करेगा। तुम लोगों ने इस मामले में क्या देखा है? (परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत चीजों को कोई नहीं बदल सकता।) परमेश्वर स्वयं उन चीजों में जिन्हें उसने पूर्वनियत या योजनाबद्ध किया है कभी गड़बड़ नहीं करेगा और न ही उन्हें बदलेगा। यह सच है; इसके अलावा, इस मामले से हम परमेश्वर की शक्ति और बुद्धि देखते हैं। परमेश्वर ने सभी सृजित प्राणियों की उत्पत्ति, प्रकटन, जीवनकाल और परिणाम के साथ ही उनके जीवन के मिशन और मानवजाति में उनकी भूमिका की पूरी योजना पहले से ही बना रखी है। इन चीजों को कोई नहीं बदल सकता; यह सृष्टिकर्ता का अधिकार है। प्रत्येक सृजित प्राणी का प्रकटन, उसके जीवन का मिशन, और उसका जीवनकाल कब समाप्त होगा—ये सभी नियम परमेश्वर द्वारा बहुत पहले ही निर्धारित किए गए हैं, जैसे परमेश्वर ने प्रत्येक खगोलीय पिंड की कक्षा निर्धारित की; ये खगोलीय पिंड किस कक्षा में चलेंगे, ये कितने वर्षों तक और कैसे परिक्रमा करेंगे, किन नियमों का पालन करेंगे—यह सब परमेश्वर ने बहुत पहले ही निर्धारित किया था, जो हजारों-लाखों वर्षों से अपरिवर्तित है। यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित है, और यह उसका अधिकार है। तो फिर, इस तुच्छ सृजित प्राणी मनुष्य के बारे में कहना ही क्या? आइए इंसानों की बात छोड़कर पहले कुत्तों के बारे में बात करते हैं। परमेश्वर ने निर्धारित किया है कि वे लगभग दस वर्ष तक जीवित रहेंगे, और उस आयु तक पहुँचने पर उन्हें मरना होगा। क्या इस समय-सीमा को बदला जा सकता है? (नहीं।) हम विशेष मामलों में नहीं पड़ेंगे। एक छोटे से जानवर का जीवनकाल, जिसे मनुष्य बदल भी नहीं सकता, परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत है—तो फिर मनुष्य के लिए ऐसा कैसे नहीं होगा? इसलिए लोग चाहे जो माँगें, अपने जीवनकाल बढ़ाने की माँग करना आखिरी चीज होनी चाहिए। किसी व्यक्ति के जीवन में आशीष, दुर्भाग्य और मृत्यु—ये चीजें परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत हैं। इन्हें कोई नहीं बदल सकता, और कोई चाहे कितनी भी याचना कर ले उससे कोई असर नहीं पड़ेगा। कुछ चीजों के बारे में तुम परमेश्वर से प्रबोधन माँग सकते हो, जैसे कि तुम किसी परिवेश में क्या अनुभव करते हो, क्या पहचानते हो और क्या हासिल कर सकते हो। कहने का तात्पर्य यह है कि तुम सत्य खोज सकते हो और जीवन प्रवेश करने और अपने जीवन स्वभाव में बदलाव के लिए परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हो। यदि तुम परमेश्वर को अपनी ईमानदारी से द्रवित कर सकते हो, तो तुम पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर लोगे। परमेश्वर ऐसा करने को तैयार है। लेकिन तुम्हें विवेकवान होना चाहिए। तुम परमेश्वर से दीर्घायु या अमरत्व नहीं माँग सकते, क्योंकि तुम्हारा जीवनकाल परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत है। इसे लोग नहीं बदल सकते और कितनी भी याचना करने से इस पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। जब तक यह परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत है, परमेश्वर इसे नहीं बदलेगा। यदि तुम स्वीकार करते हो कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, कि परमेश्वर तुम्हारा संप्रभु है, तुम्हारा परमेश्वर और तुम्हारा प्रभु है, तो तुम्हें ये चीजें कभी नहीं माँगनी चाहिए। परमेश्वर लोगों से क्या माँगने को कहता है? प्रभु की प्रार्थना क्या कहती है? “तेरा राज्य आए। तेरी इच्छा जैसी स्वर्ग में पूरी होती है, वैसे पृथ्वी पर भी हो” (मत्ती 6:10)। तुम्हें और क्या माँगना चाहिए? क्या तुम जानते हो? तुम्हें परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के तहत सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर द्वारा दिए गए आदेशों को पूरा करना चाहिए, अपने मिशन को ठीक से पूरा करना चाहिए, अपने मिशन को विफल होने से बचाना चाहिए, परमेश्वर द्वारा दिए गए जीवन और अस्तित्व के योग्य बनना चाहिए, और इस जीवन को बर्बाद या व्यर्थ नहीं होने देना चाहिए। इस जीवन में तुम्हें सृष्टिकर्ता को जानना चाहिए, एक सृजित प्राणी के अनुरूप जीवन जीना चाहिए, और सृष्टिकर्ता की इच्छाओं को संतुष्ट करना चाहिए—ये वे चीजें हैं जो तुम्हें माँगनी चाहिए। क्या माँगना है और क्या नहीं माँगना है, कौन-सी चीजें माँगना परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है और कौन-सी चीजें नहीं, क्या तुम जो माँगना चाहते हो वह प्रदान किया जा सकता है—ये बातें पहले तुम्हारे हृदय में स्पष्ट होनी चाहिए। मूर्खतापूर्ण कार्य मत करो। यदि तुम जो माँग रहे हो वह पहले से ही परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत किया जा चुका है, तो तुम्हारी प्रार्थनाएँ व्यर्थ हैं। तो इसके लिए प्रार्थना करना क्या मूर्खता नहीं है? क्या यह परमेश्वर से टकराव नहीं है? परमेश्वर चाहता है कि तुम अस्सी वर्ष तक जीवित रहो, परन्तु तुम सौ वर्ष तक जीवित रहना चाहते हो; परमेश्वर चाहता है कि तुम तीस वर्ष तक जीवित रहो, लेकिन तुम साठ वर्ष तक जीवित रहना चाहते हो। क्या यह विद्रोहीपन नहीं है? क्या यह परमेश्वर का विरोध नहीं है? लोगों को विवेकवान होना चाहिए और मूर्खतापूर्ण काम नहीं करना चाहिए।

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परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 8) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 9) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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