परमेश्वर की संप्रभुता को कैसे जानें

परमेश्वर की संप्रभुता को जानना एक अत्यंत गहरी सीख है। हर चीज पर परमेश्वर की संप्रभुता को देखने के लिए व्यक्ति को आध्यात्मिक समझ होनी चाहिए, और बहुत-से सत्य भी हमें समझ आने चाहिए। जब परमेश्वर को समझने की बात आती है, लोगों की सोच अक्सर संकीर्ण होती है, और वे केवल वही देखते हैं जो उनके सामने है। वे हमेशा सही-गलत, सत्य-असत्य, और काले-सफेद के अपने विचारों के हिसाब से या मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर परमेश्वर का मूल्यांकन करते हैं, और कहते हैं कि परमेश्वर का ऐसा करना गलत था, वैसा करना गलत था। तो फिर सही क्या है? जो कुछ भी परमेश्वर ने किया है, वह सही है। तो क्या लोगों का विनाश करना परमेश्वर के लिए सही है? (हाँ, सही है।) परमेश्वर ने एक जाति का उत्थान किया है और उसे समृद्ध बनाया है, लेकिन तुम्हें लगता है कि यह जाति समृद्ध नहीं होनी चाहिए। फिर यह समृद्ध कैसे हो गई? यहूदियों ने परमेश्वर का विरोध किया, इसलिए लोगों की दृष्टि में जब परमेश्वर को एक बार गुस्सा आया और उसने उन्हें शाप दे दिया, तो उसे उन्हें मटियामेट कर देना चाहिए था। परन्तु यह सिर्फ मनुष्य की धारणा और कल्पना है। परमेश्वर ने यहूदियों को शाप देने और दंड देने के बाद जीवित रहने दिया, और उसने उनसे वादा किया कि उनका वंश बना रहेगा, कि वे दुनिया भर के अन्य देशों में बिखर जाएँगे, और अंततः वे फिर से अपना स्वयं का राष्ट्र खड़ा करेंगे। परमेश्वर के वादे बदले नहीं जा सकते, और परमेश्वर ने दंड के जो वचन कहे थे, उन्हें भी पूरा होना होगा। परमेश्वर की संप्रभुता अति अद्भुत है। यदि तुम परमेश्वर के कार्य का मूल्यांकन और लोगों के साथ घटने वाली घटनाओं को उचित-अनुचित, और सही-गलत के तराजू पर तोलने का प्रयास करते हो, तो तुम उन्हें ठुकरा दोगे। तुम सोचोगे कि वे कार्य परमेश्वर के किए हुए जैसे नहीं लगते और चूँकि वे तुम्हारी धारणाओं और कल्पनाओं से मेल नहीं खाते, तो तुम उन्हें ठुकरा दोगे। और यदि तुम उन्हें ठुकरा देते हो, तो तुम उन्हें सत्य के रूप में कैसे समर्पण कर सकते हो? यह असंभव होगा। लोग उन्हें क्यों ठुकराते हैं? ऐसा मानवीय धारणाओं की वजह से होता है, जिसका मतलब है कि जो कुछ मानव मस्तिष्क पहचान सकता है और जो कुछ परमेश्वर के कर्मों में लोग देख सकते हैं, उसकी सीमाएँ हैं, और उन सत्यों की भी सीमाएँ हैं जिन्हें लोग समझ सकते हैं। सच में परमेश्वर को जानने के लिए तुम इन सीमाओं को कैसे लाँघ सकते हो? तुम्हें परमेश्वर से आनेवाली बातों को स्वीकार करना चाहिए, और जिन बातों को तुम समझ नहीं पाते, उन्हें हल्के ढंग से परिभाषित नहीं करना चाहिए, और यदि तुम कोई समस्या हल नहीं पाते तो इस बारे में आँख बंद करके फैसला नहीं सुनाना चाहिए। यही वह विवेक है जो लोगों के पास सबसे अधिक होना चाहिए। यदि तुम कहते हो, “परमेश्वर ऐसा नहीं करता है, परमेश्वर ऐसा कभी नहीं करेगा!” तो तुम में विवेक की कमी है। तुम वास्तव में क्या समझ सकते हो? यदि तुम परमेश्वर की तरफ से फैसला सुनाने की हिम्मत रखते हो, तो सच में ही तुम में विवेक की कमी है। जैसा तुम सोचते हो या जो तुम्हारी कल्पनाओं के दायरे में है, परमेश्वर ठीक वैसा ही करेगा, यह जरूरी नहीं है। परमेश्वर अति महान है, अति अथाह है, अति गहरा है, अति अद्भुत है, और अति बुद्धिमान है! मैंने “अति” शब्द क्यों जोड़ा है? क्योंकि मनुष्य परमेश्वर की थाह नहीं पा सकता। तुम एक सृजित प्राणी हो, इसलिए परमेश्वर की थाह लेने की कोशिश मत करो। जब तुम्हारे मन में यह विचार नहीं रहेगा, तो तुम्हारे पास थोड़ा सा विवेक होगा। परमेश्वर पर फैसले देने की कोशिश मत करो, और यदि तुम ऐसा करने से बच सकते हो, तो तुम्हारे पास विवेक होगा। ऐसे बहुत लोग हैं जो हमेशा परमेश्वर पर फैसले देते रहते हैं, और कहते हैं कि परमेश्वर को एक निश्चित तरीके से कार्य करना चाहिए, कि परमेश्वर इसे कतई इस तरह से करेगा या परमेश्वर इसे कतई उस तरह से नहीं करेगा, कि यह कतई परमेश्वर का कार्य है, और कोई अन्य कार्य कतई परमेश्वर का कार्य नहीं है। और, यहाँ “कतई” शब्द जोड़ने के बारे में क्या ख्याल है? (इसमें विवेक का अभाव है।) तुम कहते हो कि परमेश्वर अति अद्भुत और अति बुद्धिमान है, लेकिन फिर तुम कहते हो कि परमेश्वर कभी भी एक खास ढंग से कार्य नहीं करेगा। क्या यह विरोधाभास नहीं है? वह परमेश्वर का सच्चा ज्ञान नहीं है। हमेशा अपने ही विचारों पर अड़े रहना और हमेशा परमेश्वर पर फैसले देना दर्शाता है कि विवेक की सर्वथा कमी है।

परमेश्वर कार्य के अंतिम चरण का काम कर रहा है, और किसी ने भी नहीं सोचा था कि वह चीन में प्रकट होकर यह कार्य कर सकता है। क्या यह तथ्य कि तुम इसकी कल्पना नहीं कर सकते, तुम्हारे हृदय में पहले से मौजूद धारणाओं और कल्पनाओं और तुम्हारी सोच की सीमाओं की वजह से नहीं है? तुम अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम या इस्राएल के बारे में सोच सकते हो कि वहाँ सब कुछ संभव है, लेकिन तुम यह कल्पना बिल्कुल नहीं कर सकते कि परमेश्वर चीन में काम करेगा। यह तुम्हारे लिए अकल्पनीय है। यह लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं से परे है, लेकिन परमेश्वर ने अभी-अभी चीन में अपना कार्य शुरू किया है, जो उसके अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण कार्य को कार्यान्वित करना है। यह मानवीय धारणाओं से बहुत भिन्न है। तो तुम ने इससे क्या सीखा? (कि परमेश्वर का कार्य मानवीय धारणाओं से मेल नहीं खाता, और अद्भुत और अथाह है।) परमेश्वर का कार्य मानवीय कल्पनाओं से बहुत परे, अद्भुत, अथाह, बुद्धिमतापूर्ण, गहरा है—ये सब मानवीय शब्द हैं जिनका उपयोग, जो परमेश्वर के पास है और जो वह स्वयं है, उसके स्वभाव और सार का वर्णन करने के लिए किया जाता है, और इसे तर्कसंगत माना जाता है। लोग जिन्हें इन शब्दों में सारांशित करते हैं वे परमेश्वर के माध्यम से किए जा रहे ऐसे कार्य हैं, जो मानवीय धारणाओं के विपरीत हैं—परमेश्वर का कार्य अद्भुत और अथाह है, यह मानवीय धारणाओं के विपरीत है। लोग इससे और क्या सीख सकते हैं? मानवजाति की सारी पुरानी धारणाएँ और कल्पनाएँ पलट दी गई हैं। तो ये धारणाएँ आई कहाँ से हैं? तुम जो देख रहे हो, उससे पता चलता है कि चीन गरीब और पिछड़ा हुआ देश है, सत्ता कम्युनिस्ट पार्टी के हाथों में है, ईसाइयों पर अत्याचार किया जाता है, कोई स्वतंत्रता नहीं है, कोई मानवाधिकार नहीं है, और चीनी लोग कम पढ़े-लिखे हैं, विश्व मंच पर उनका रुतबा कम है, और वे पूर्वी एशिया के दयनीय रुग्ण लोगों के रूप में नजर आते हैं। अपना कार्य करने के लिए परमेश्वर चीन में कैसे देहधारण कर सकता है? क्या यह एक धारणा नहीं है? अब देखते हैं कि यह धारणा सही है कि गलत? (यह पूर्ण रूप से गलत है।) सबसे पहले, हम इस बारे में बात न करें कि परमेश्वर इस तरह से काम क्यों करेगा, क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि वह विनम्र और छिपा हुआ रहना चाहता है, या फिर इस तरह से काम करने का अत्यधिक महत्व और मूल्य है। हम इस स्तर पर चर्चा न करके इस बारे में बात करें कि क्या परमेश्वर का इस तरह से कार्य करना मानवीय धारणाओं से बहुत अधिक टकराता है। बहुत ही ज्यादा! लोग सोच भी नहीं सकते। यह स्वर्ग का रहस्य है, और इसे कोई नहीं जानता। यदि खगोलशास्त्रियों, भूगोलवेत्ताओं, इतिहासकारों और पैगंबरों को भी बुलाया जाए, तो क्या कोई इस रहस्य का पता लगा पाएगा? ऐसा कोई भी नहीं कर पाएगा, चाहे सभी जीवित या मृत सक्षम लोगों को इस तथ्य का विश्लेषण और जाँच करने, खगोलीय दूरबीनों की सहायता से निरीक्षण और अध्ययन करने के लिए बुलाया जाए—कोई फायदा नहीं होगा। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि परमेश्वर के मामलों की थाह लेने के लिए मानवजाति बहुत तुच्छ है, बहुत अज्ञानी है और उसमें अंतर्दृष्टि का बहुत अभाव है। यदि तुम थाह नहीं ले सकते तो परेशान मत हो। अगर तुमने प्रयास किया भी, तो अंतिम परिणाम क्या होगा? तुम्हारी धारणाएँ सत्य के समतुल्य नहीं हैं, और वास्तव में उससे बहुत दूर हैं जो परमेश्वर करना चाहता है। वे कतई एक ही चीज नहीं हैं। मनुष्य के पास जो थोड़ा सा ज्ञान है वह बेकार है, वह कुछ भी पता लगाने या किसी भी समस्या का समाधान करने में समर्थ नहीं है। अब जब तुम लोग परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हो, और धर्म-उपदेश और संगति सुनते हो, तो क्या तुम्हारे हृदयों में थोड़ी ज्यादा समझ आती है? क्या तुम्हें परमेश्वर के बारे में कुछ ज्ञान है? कोई कह सकता है : “परमेश्वर हमारे साथ जो करता है, उसके बारे में चर्चा नहीं करता, काश वह हमें एक दिव्य संकेत ही दे देता, ताकि हम समझ पाते कि उसका क्या करने का इरादा है, या किसी पैगंबर को भविष्यवाणी करने के लिए ही प्रेरित कर देता।” तुम इसे किसी दिव्य संकेत से भी नहीं समझ पाओगे, न ही कोई पैगंबर इसे देख पाएगा। आध्यात्मिक जगत में परमेश्वर जो कुछ करता है वह अतीत से लेकर अब तक रहस्य बना हुआ है, और यह इतना ज्यादा गुप्त है कि कोई भी मनुष्य नहीं जान सकता। कोई भी पैगंबर, खगोलशास्त्री, विद्वान, विशेषज्ञ, या किसी भी विषय के वैज्ञानिक चाहे कितने भी प्रतिभाशाली क्यों न हों, वे चाहे कितना भी अध्ययन कर लें, लेकिन परमेश्वर के मामलों को कभी भी नहीं समझ पाएँगे। लोग परमेश्वर के पिछले कार्य का अध्ययन कर सकते हैं, और कुछ रहस्य या अर्थ पता करने में सक्षम भी हो सकते हैं, जिनका संबंध इस बात से हो सकता है कि परमेश्वर ने ऐसा क्यों किया, लेकिन कोई नहीं जान सकता कि भविष्य में परमेश्वर क्या करेगा, या उसके इरादे क्या हैं। इसलिए लोगों को परमेश्वर की थाह लेने के बारे में नहीं सोचना चाहिए, या अंततः बहुत लगन और कड़ी मेहनत से, अवलोकन और अध्ययन करके, लंबी जाँच और अनुभव से या बहुमुखी विश्लेषण से इस बात की थाह लगाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि परमेश्वर कैसे काम करता है। यह पता लगाना असंभव है, और फिजूल है। तो फिर यदि लोग परमेश्वर की थाह नहीं पा सकते, तो उन्हें करना क्या चाहिए? (उन्हें समर्पण करना चाहिए।) लोगों के लिए सबसे अधिक विवेकपूर्ण यही है कि वे समर्पण करें, और यह परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है; समर्पण ही आधार है। इसका उद्देश्य क्या है? इसका उद्देश्य है परमेश्वर के कार्य के अनुभव के आधार पर, उसे और अधिक जानने, सत्य प्राप्त करने और जीवन प्राप्त करने में सक्षम होना। यही वह चीज है जो तुम्हें हासिल करनी चाहिए, और यही वह खजाना है जिसकी तुम्हें इच्छा करनी चाहिए। प्रमुख बाहरी घटनाओं जैसे अंतर्राष्ट्रीय मामलों के संबंध में परमेश्वर कैसे काम करता है, और वह इस मानवजाति का नेतृत्व कैसे करता है-यदि तुम इन्हें समझ पाओ, तो यह और भी बेहतर है। यह भी ठीक है यदि तुम कहते हो : “मैं इन चीजों की कोई परवाह नहीं करता। मेरे पास ऐसी काबिलियत या दिमाग नहीं है; मुझे सिर्फ इस बात की परवाह है कि परमेश्वर मुझे सत्य कैसे प्रदान करता है और मेरे स्वभाव को कैसे बदलता है।” जब तक तुम्हारे पास एक समर्पित और परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है, तुम परमेश्वर से अंततः सत्य के साथ-साथ बुद्धि भी प्राप्त कर ही लोगे। सत्य लोगों का स्वभाव बदल देता है; यही वह जीवन है जिसे हासिल करने का प्रयास लोगों को करना चाहिए, और यही वह मार्ग है जिस पर उन्हें चलना चाहिए। तो, वह कौन-सी बुद्धिमत्ता है जो लोगों को मिलती है? इसे जाने बिना भी तुम यह जान पाओगे कि परमेश्वर बहुत सी चीजें कैसे करता है, वह उन्हें क्यों करता है, उसके इरादे और लक्ष्य क्या हैं, और कुछ निश्चित चीजें करने में उसके सिद्धांत क्या होते हैं। परमेश्वर के वचनों की सत्यता अनुभव करने की प्रक्रिया में इसे तुम अनजाने ही समझ पाओगे। शायद ये वचन और मामले बहुत गहरे हैं, और तुम इसे शब्दों में व्यक्त न कर पाओ, लेकिन इसे अपने हृदय में महसूस करोगे, तुम्हें पता भी नहीं चलेगा और तुम्हें इसकी वास्तविक समझ हो जाएगी।

चलो अब्राहम की कहानी से शुरुआत करते हैं। जब वह 85 वर्ष का हो गया, परन्तु फिर भी उसका कोई पुत्र नहीं था, तब परमेश्वर ने उसे एक पुत्र देने का वचन दिया। उसकी पत्नी सारा की क्या प्रतिक्रिया थी? उसने मन में सोचा : “मैं पहले से ही बूढ़ी और बाँझ हूँ। मैं पुत्र को कैसे जन्म दूँगी?” क्या यह मानवीय धारणा नहीं है? उसने परमेश्वर के कार्य को मापने के लिए मानवीय धारणाओं का उपयोग किया, और इसलिए वह संदेह कर सकी और सोच सकी कि ऐसा असंभव है। तब उसने क्या किया? उसने अब्राहम को अपनी दासी हाजिरा उपपत्नी के रूप में दे दी। तो मुझे बताओ, क्या परमेश्वर ने यह देखा था कि उसने क्या किया? परमेश्वर जानता था। अगले वर्ष हाजिरा ने इश्माएल नाम के एक पुत्र को जन्म दिया। जब अब्राहम 99 वर्ष का था, तब यहोवा परमेश्वर प्रकट हुए और उससे वादा किया कि अगले वर्ष लगभग इसी समय सारा से उसको एक पुत्र होगा, और कनान की सारी भूमि उसे और उसके वंशजों को कभी खत्म न होने वाली संपत्ति के रूप में दे दी जाएगी। अगले वर्ष सारा ने इसहाक नाम के पुत्र को जन्म दिया। प्रधान पत्नी से जन्मे बेटे के रूप में इसहाक अब्राहम का उत्तराधिकारी बना, जबकि उपपत्नी से पैदा हुए इश्माएल को विरासत नहीं मिल सकी। बाद में हाजिरा और इश्माएल को घर से निकाल दिया गया, और हाजिरा उसे रेगिस्तान में ले आई, जहाँ न तो भोजन था और न ही पानी। मौत का सामना करते हुए हाजिरा ने यहोवा परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा : “कोई उपाय नहीं बचा है। मेरे पास एक बच्चा है, और मैं जीना चाहती हूँ।” उन्हें पानी पिलाने के लिए यहोवा परमेश्वर ने एक स्वर्गदूत भेजा, और वे बच गए। बाद में रेगिस्तान उनका घर बन गया, और वे वहीं बस गए और उनके कई वंशज हुए—अरब जैसे आधुनिक लोग जो मध्य पूर्व में रहते हैं। तुमने देखा, ऐसा होने देने के भीतर परमेश्वर के नेक इरादे निहित हैं। यह एक प्रमुख बाहरी घटना है, जिसका कोई अध्ययन नहीं करता, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि परमेश्वर के कर्म उसमें मौजूद नहीं हैं—वे हैं। ऐसा नहीं है कि किसी ने चुपके से कुछ कर दिया और परमेश्वर ने इसे नहीं देखा, ऐसा कतई नहीं हुआ है। इसमें परमेश्वर के नेक इरादे निहित हैं। परमेश्वर ने इश्माएल की जनजाति को जीवित रहने दिया, और यह भी वचन दिया कि उसकी संतानें जीवित रहेंगी ताकि दुनिया संतुलित रहे और जरूरत पड़ने पर काम आ सके। वे हमेशा इलाके के लिए, गाजा पट्टी और यरूशलेम के लिए इस्राएलियों के साथ लड़ते रहे हैं। तुम्हें इसमें परमेश्वर का कार्य अवश्य देखना चाहिए। परमेश्वर ने कुछ ऐसा किया जिसे लोग बुरा मानते हैं, और वे सोचते हैं कि शायद उसने गलत आकलन किया, या उसने ध्यान से नहीं देखा, और लोगों ने खामियों का फायदा उठाया। औसत व्यक्ति का दिमाग यहीं तक पहुँचने और कल्पना करने में सक्षम है। लोग सोचते हैं कि परमेश्वर को झपकी आ गई होगी और उसने चीजों पर नजर नहीं रखी, जिसके परिणामस्वरूप हाजिरा ने इश्माएल को जन्म दिया, और परमेश्वर ने उन पर दया की और उन्हें जीवित रहने दिया, और उनके लिए रेगिस्तान में रहने का बंदोबस्त किया। क्या यही बात है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) परमेश्वर की अपनी योजना है, और मानव की विभिन्न जातियों का—यानी विभिन्न नस्लों और वर्णों का जन्म और अस्तित्व—संपूर्ण मानवजाति का संतुलन बनाए रखने में भूमिका निभाते हैं, और तुम विश्व की वर्तमान अवस्था देखकर सटीक रूप से जान सकते हो कि वे क्या भूमिका निभाते हैं। क्या यह परमेश्वर का कार्य है? यह परमेश्वर नियंत्रित करता है कि कोई जाति कितनी तेजी से प्रजनन करती है, उसकी वैश्विक जनसंख्या कितनी है, उसकी पृथ्वी पर और संपूर्ण मानवजाति में क्या भूमिका है, और उस जाति के लोग क्या करते हैं, अच्छी और बुरी दोनों चीजें। बुरी चीजों की बात करें तो लोगों का मानना है कि ऐसी चीजें संभवतः परमेश्वर की ओर से नहीं आ सकतीं, और ये सब शैतान का काम है। परन्तु क्या शैतान भी परमेश्वर के नियंत्रण में नहीं है? कुछ लोग कहते हैं, “शैतान जैसा चाहता है वैसा ही करता है, और उस पर परमेश्वर का कोई नियंत्रण नहीं है।” क्या यही स्पष्टीकरण है? इस मामले को तार्किक ढंग से नहीं समझाया जा सकता और ऐसा करना गलत है। बाहर से कुछ चीजें बुरी दिखाई देती हैं और कुछ अच्छी, लेकिन सभी चीजें परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन हैं। तुम यह नहीं कह सकते कि परमेश्वर केवल अच्छे का ही संप्रभु है, बुरे का नहीं, क्योंकि दोनों ही परमेश्वर के नियंत्रण में हैं, उसी के द्वारा योजना बनाई गई और नियंत्रित हैं, और हर चीज के पीछे उसी के नेक इरादे हैं। यह सत्य है, और यदि तुम इसे साफ-साफ देख सकते हो तो तुम सत्य समझ सकते हो। यह फैसला देना कि चीजें खराब हैं, और केवल उसी चश्मे से देखते रहना तुम्हारे लिए गलत है, क्योंकि परमेश्वर को ठीक से न समझना और उसका विरोध करना आसान है। परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसमें उसके नेक इरादे होते हैं। तो परमेश्वर के नेक इरादे क्या हैं? लोग केवल उन बुरी चीजों को ही देखते हैं जो उनकी आँखों के ठीक सामने घटित होती हैं, और वे यह कभी नहीं देख पाते कि इस घटना के दस-बीस साल बाद क्या परिणाम हो सकते हैं। एक या दो हजार साल बाद क्या होगा, इसका क्या स्थान होगा, और यह दुनिया और पूरी मानवजाति की अवस्था को आकार देने में क्या महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी—लोग इसे नहीं देख सकते, लेकिन यह परमेश्वर की संप्रभुता है। क्या समस्त मानवजाति और विश्व की अवस्था का विकास एक साधारण बात है? जहाँ भी कुछ होता है, जहाँ भी कोई बड़ी घटना घटती है, या कोई प्लेग या भूकंप आता है, सब परमेश्वर के नियंत्रण में होता है! कुछ बेतुके लोगों को, जिन्हें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है, आश्चर्य हो सकता है : “यदि परमेश्वर ही सब कुछ नियंत्रित करता है, तो क्या दानवों द्वारा परमेश्वर के चुने हुए लोगों का दमन, वध और क्रूर उत्पीड़न करना भी उसके नियंत्रण में है? क्या परमेश्वर ने इसे व्यवस्थित किया?” क्या इसे इस तरह से देखना सही है? क्या यह तर्क टिक पाएगा? यह परमेश्वर को नकारात्मक स्थिति में दिखाता है, और गलत है। तो तुम्हें इस मामले को कैसे देखना चाहिए? परमेश्वर सभी चीजों को कुशलता से संचालित करता है, और “सभी चीजों” में क्या शामिल है? इसमें सब कुछ शामिल है : जो कुछ भी नग्न आँखों से देखा जा सकता है, जैसे पहाड़, नदियाँ, पेड़, पौधे, लोग, इत्यादि। इसमें नग्न आँखों के लिए अदृश्य सूक्ष्मजीव, और दानव, शैतान, तथा आध्यात्मिक जगत की सभी प्रकार की आत्माएँ और भूत भी शामिल हैं। ये सभी परमेश्वर के नियंत्रण में हैं। ये वही करते हैं जो परमेश्वर उनसे करवाना चाहता है। जब भी उसे जरूरत होती है वह उन्हें बाहर जाने देता है, और वे वही करते हैं जो उन्हें करना चाहिए। यही परमेश्वर की संप्रभुता है। परमेश्वर चाहे जैसे शासन और व्यवस्था करे, अंत में तुम परमेश्वर की इच्छा को कार्यान्वित होते देख सकते हो, और परमेश्वर का हर एक वचन पूरा होगा।

मुमकिन है कि परमेश्वर द्वारा किए गए किसी कार्य का प्रभाव लोग अभी न देख पाएँ, या उसका उद्देश्य न जान पाएँ कि परमेश्वर ऐसा क्यों करता है, उसका इरादा क्या है। दो सौ वर्षों के बाद भी यह प्रभाव अदृश्य रह सकता है, और मानवजाति फिर भी नहीं जान पाएगी, लेकिन एक हजार वर्ष बाद आश्वस्त हो जाएगी : “परमेश्वर के लिए ऐसा करना बहुत सही और अद्भुत था! परमेश्वर वास्तव में परमेश्वर है!” मानवजाति जान जाएगी कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सत्य है, और कुछ भी गलत नहीं है। उदाहरण के लिए, अनुग्रह के युग में प्रभु यीशु के सलीब पर चढ़ने और उसकी मृत्यु को लोगों ने उस समय कार्य के उस चरण की विफलता के रूप में देखा था। उन्होंने सोचा, “प्रभु यीशु ने जन्म, बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु के नश्वर भाग्य का पालन नहीं किया, फिर भी ज्यादा कार्य कर पाने से पहले उसको यहूदा ने धोखा दे दिया, सैनिकों ने गिरफ्तार किया, कोड़े मारे, उसे काँटों का ताज पहनवाया, मजाक उड़ाया और अंततः सलीब पर चढ़ा दिया। क्या यह विफलता नहीं है?” क्या सलीब पर चढ़ना विफलता है? यहूदा ने प्रभु यीशु के साथ सरकार के सामने विश्वासघात किया, लेकिन सरकार किसका प्रतिनिधित्व करती है? यह शैतानी शक्तियों का प्रतिनिधित्व करती है। यह अच्छा है या बुरा कि मसीह को शैतान के हवाले कर दिया गया? (यह सतह पर बुरा दिखता है।) लोगों ने सोचा, “ओह, नहीं! दानव ने परमेश्वर के कार्य में विघ्न डाल दिया। यह अच्छा नहीं है, यह एक बुरा संकेत है, क्योंकि परमेश्वर नजर नहीं रख रहा था, और वह इतना शक्तिशाली नहीं है! तब भी देहधारी मसीह के साथ विश्वासघात कैसे किया जा सकता है और उसे शासकों के हवाले कैसे किया जा सकता है? क्या यह स्पष्ट रूप से शैतान की दया पर छोड़ देना नहीं हुआ? प्रभु यीशु को शीघ्र ही बचने का रास्ता खोजना होगा, अन्यथा क्या यह कार्य खत्म नहीं हो जाएगा? मसीह की एक सेवकाई अभी भी बची है।” क्या लोग ऐसा नहीं सोचेंगे? तो पतरस ने कहा, “हे प्रभु, परमेश्वर न करे! तेरे साथ ऐसा कभी न होगा” (मत्ती 16:22), और मानवीय धारणाएँ सामने आईं। उन्होंने सोचा, “परमेश्वर को शासकों के हवाले किया ही नहीं जा सकता था, इसलिए यदि वह किया गया, तो वह परमेश्वर नहीं है।” क्या यह मानवीय धारणा नहीं है? यह सिर्फ इसलिए क्योंकि उनकी इस तरह की धारणा थी कि लोग ऐसी बातें कह सकते हैं, इस तरह का कार्य या व्यवहार कर सकते हैं, और परमेश्वर की इच्छा कार्यान्वित होने से रोक सकते हैं। यीशु ने पतरस से क्या कहा? “शैतान, मेरे सामने से दूर हो!” (मत्ती 16:23)। प्रभु यीशु ने पतरस को शैतान समझ लिया। अंततः प्रभु यीशु को शैतान के हवाले कर दिया गया, और वे लोग प्रभु यीशु के सलीब पर चढ़ाए जाने के कार्य को पूरा करने के लिए सेवा करने वाले बन गए। प्रभु यीशु को शैतान के हवाले करना अच्छी बात थी या बुरी बात? (यह एक अच्छी बात थी।) इसे इस तरह से देखने पर यह बुरी बात नहीं, अच्छी बात है, क्योंकि परमेश्वर का कार्य इस माध्यम से ही पूरा हुआ था। क्या यहूदा के विश्वासघात से लेकर प्रभु यीशु के सलीब पर चढ़ने तक परमेश्वर ने कुछ किया? क्या उसने बचने की कोई योजना बनाई, या क्या उसे कोई बचाने आया? (नहीं।) क्या परमेश्वर ने कोई चमत्कार दिखाने का तरीका सोचा था, जैसे कि प्रभु यीशु को सीधे स्वर्ग में उठा लिया जाए और उसे बादलों के पीछे छिपा दिया जाए जहाँ कोई उसे देख न सके? कितना शानदार, कितना भव्य आरोहण! परन्तु ये चीजें किसी ने नहीं देखीं, क्योंकि परमेश्वर ने ऐसा किया ही नहीं। क्या परमेश्वर का ऐसा न करना यह सिद्ध करता है कि वह ऐसा नहीं कर सकता? क्या परमेश्वर ऐसा कर सकता था? (हाँ, वह कर सकता था।) तो, उसने ऐसा क्यों नहीं किया? (परमेश्वर का नेक इरादा था, और उसकी एक योजना थी।) परमेश्वर की योजना क्या थी? यह योजना थी स्वयं को शैतान के हवाले करना, और फिर मानवजाति के छुटकारे के लिए सलीब पर उन पापियों की जगह स्वयं बलि हो जाना। परमेश्वर यही करना चाहता था; वह वे चीजें नहीं करता जिनकी कल्पना लोग अपनी धारणाओं में करते हैं। बहुत-से लोग सोचते हैं, “परमेश्वर को उन सभी बुरे लोगों को मारने के लिए और बिजलियाँ गिरानी चाहिए, जिन्होंने उसका विरोध किया था, और उन्हें मारने के बाद प्रभु यीशु स्वर्ग में आरोहित होते। यह कितना महिमामय और विस्मयकारी होता, और कैसे वह परमेश्वर के अधिकार को प्रकट करता! इन दानवों और शैतानों और इन मनुष्यों, सभी को परमेश्वर को सलीब पर चढ़ाने के परिणाम देखने दो, फिर वे भविष्य में ऐसा करने का दुस्साहस नहीं करेंगे, है न?” लोग विरोध करने का साहस नहीं करेंगे, लेकिन यदि परमेश्वर का कार्य पूरा नहीं होता तो क्या यह बाधा नहीं है? मानवीय धारणाएँ हमेशा परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ करती हैं, इसलिए वह वैसे कार्य नहीं करता है। कुछ लोग वास्तव में प्रभु यीशु में विश्वास करते हैं क्योंकि उसे छुटकारे का कार्य करने के लिए सलीब पर चढ़ाया गया था, लेकिन साथ ही वे अपने नेक इरादों के साथ कहेंगे, “प्रभु यीशु को सलीब पर नहीं चढ़ाया जाना चाहिए था। देहधारी होना आसान नहीं था, और उसे विनम्रता से, गुप्त रहकर काम करना पड़ा, लोगों ने उसे त्याग दियाऔर उन शास्त्रियों और फरीसियों ने उसकी निंदा की। यह बहुत ही दयनीय है। उसे सलीब पर चढ़ने से बचना चाहिए था, स्वयं को उस स्तर तक नहीं गिराना चाहिए था, इसकी कोई आवश्यकता नहीं है।” क्या लोगों का इसे इस तरह से देखना सही है? (नहीं, यह सही नहीं है।) अब दो हजार साल बाद इसे देखें तो सोचने का यह तरीका गलत है। क्या मानव मन में सच्चाई है? (नहीं, सच्चाई नहीं है।) तो लोगों के मन में क्या है? यह सभी मानवीय कल्पनाएँ और धारणाएँ हैं, साथ ही नेक इरादे, भावनाएँ, करुणा और स्वार्थ भी हैं। क्या ये चीजें परमेश्वर का कार्य पूरा कर सकती हैं? क्या वे उसकी इच्छा कार्यान्वित कर सकती हैं? वे ऐसा नहीं कर सकतीं, इसलिए प्रभु यीशु के शब्द हैं, “शैतान, मेरे सामने से दूर हो!” परमेश्वर स्वयं व्यक्तिगत रूप से अपने आपको शैतान के हवाले करना चाहता था, शैतान द्वारा मसीह को सलीब पर चढ़ाने देना चाहता था, और इस प्रकार मसीह को सलीब पर चढ़ाने के माध्यम से छुटकारे का कार्य पूरा करना चाहता था। परमेश्वर ने कोई चमत्कार नहीं दिखाए। परमेश्वर ने कई बार कहा है, “परमेश्वर चुप रहता है।” इसका क्या मतलब है? क्या इसका मतलब यह है कि परमेश्वर देखता नहीं है, स्वयं की चिंता नहीं करता, ध्यान नहीं देता, एक शब्द भी नहीं बोलता और पूरी तरह से मौन रहता है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) तो “चुप रहता है” का क्या अर्थ है? इसमें परमेश्वर का इरादा, बुद्धि और स्वभाव शामिल है। परमेश्वर के चुप रहने से उसका कौन-सा स्वभाव प्रकट होता है? इसी में परमेश्वर की बुद्धि है। वह अपना प्रबंधन कार्य पूरा करना चाहता है। चाहे लोगों के पास जितनी भी धारणाएँ या कल्पनाएँ हों, वह बिना कोई स्पष्टीकरण दिए सबसे पहले इनसे बचता है, लेकिन चुपचाप और व्यावहारिक रूप से काम करता रहता है जब तक कि वह दिन न आ जाए, जब उसके चुने हुए लोगों को सत्य समझ आए और वे उसके प्रति समर्पण कर सकें, उसकी इच्छा कार्यान्वित हो और उनके प्रति उसका कार्य पूर्ण हो जाए, और उसने शैतान को पूरी तरह से परास्त कर महिमा प्राप्त कर ली हो। वह इन तथ्यों और परिणामों को समस्त मानवजाति के देखने के लिए प्रमाण के रूप में उपयोग करता है, शैतान के देखने के लिए प्रमाण के रूप में उपयोग करता है—परमेश्वर का यही स्वभाव और इरादा उसके चुप रहने से प्रकट होता है। यह परमेश्वर का कौन-सा स्वभाव है? क्या यह परमेश्वर का धैर्य दर्शाता है? (हाँ, यह दर्शाता है।) इस समय परमेश्वर धैर्यवान क्यों था? वह चुप क्यों रहा? यहाँ परमेश्वर की बुद्धि है। कुछ चीजें रहस्य हैं जिन्हें किसी भी सृजित प्राणी, गैर-सृजित प्राणी या देवदूत को समझने या बूझने की अनुमति नहीं है। यह परमेश्वर की बुद्धि है। परमेश्वर समय से पहले नहीं बोल सकता, और उसके एक और वचन बोलने से क्या कोई फायदा है? इससे कोई लाभ नहीं है, क्योंकि वे समझेंगे नहीं। यदि वह किसी से बात करता, तो क्या वे समझते? (वे नहीं समझते।) उस स्थिति में बोलने का कोई फायदा नहीं है। अगर दो हजार साल पहले परमेश्वर ने मानवजाति से कहा होता, “मैं सलीब पर चढ़ना चाहता हूँ, पापी देह की छवि में मानवजाति के छुटकारे के लिए अपना कीमती रक्त अर्पित करना चाहता हूँ,” तो क्या लोग समझ पाते? (वे नहीं समझ पाते।) परमेश्वर के एकमात्र वचन क्या थे? उसने कहा, “मन फिराओ क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आया है,” और लोगों को धैर्य और सहनशीलता का अभ्यास कराया। क्या परमेश्वर ने मनुष्य से और कुछ कहा? (नहीं, उसने नहीं कहा।) उसने क्यों नहीं कहा? (मनुष्य समझ नहीं पाता।) ऐसा कोई उपाय नहीं कि मानवजाति समझ पाती। यही कारण है कि परमेश्वर को अपना स्वभाव और विचार प्रकट करने के लिए चुप रहना पड़ा। यदि परमेश्वर किसी सृजित या गैर-सृजित प्राणी से बात करता, तो भी वे नहीं समझ पाते। इसलिए मानवजाति के सामने साबित करने और अपनी इच्छा कार्यान्वित करने के लिए वह केवल अपने कर्मों और तथ्यों का ही उपयोग कर सकता था। अब जाकर, दो हजार साल बाद, जब परमेश्वर अंत के दिनों में न्याय का कार्य करता है, तब उसने इन बातों को उजागर किया है; लोग दो सहस्राब्दी पहले की घटनाओं पर नजर डालते हैं और अब ही प्रभु यीशु को सलीब पर चढ़ाए जाने के महत्व को समझ पाते हैं। परमेश्वर के सलीब पर चढ़ने, शैतान के हवाले करने, उन परिस्थितियों में यहूदा का विश्वासघात और विश्वासघात के बाद प्रभु यीशु ने जो इतना कष्ट सहा, परमेश्वर की इच्छा कार्यान्वित करने के लिए खून की आखिरी बूंद भी बहा दी, तो परमेश्वर के ऐसा करने का कारण और इसकी अहमियत—परमेश्वर इस बारे में केवल तभी बात करता है जब वह अंत के दिनों में प्रकट होकर कार्य करते हुए देहधारण की गवाही देता है, और इसके अलावा परमेश्वर की इच्छा और प्रबंधन जैसे कई रहस्यों का खुलासा करता है। अब जब लोगों ने कार्य के तीन चरणों के बीच संबंध देख लिया है, तो वे अंततः परमेश्वर की प्रबंधन योजना का दर्शन जानते हैं, और इन सत्यों और परमेश्वर के श्रमसाध्य इरादों को समझते हैं। यदि परमेश्वर ने मानवजाति को एक हजार साल पहले यह बताया होता, तो क्या लोग समझ पाते? (वे नहीं समझ पाते।) तो परमेश्वर अक्सर चुप रहकर ही सब कुछ करता है। इस चुप्पी का कारण क्या है? ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर जो कार्य करता है वह अति बुद्धिमतापूर्ण, अति अद्भुत और अति गहरा है—यदि परमेश्वर ने पहले बोला होता, चाहे जो भी बताया होता, तो लोग उसे समझने या बूझने में सक्षम नहीं होते। इसलिए परमेश्वर केवल चुपचाप आगे बढ़ता रहता है, हमेशा बोलकर अपना कार्य करता है और मानवजाति की अगुवाई करता है। इंसानों के लिए परमेश्वर का अनुसरण करना सही है, और इस रास्ते पर जितना आगे बढ़ो, रास्ता उतना ही उज्ज्वल होता जाएगा। परमेश्वर तुम्हें गुमराह नहीं करेगा, और भले ही वह तुम्हें शैतान के हवाले कर दे, अंत तक परमेश्वर ही इसकी जिम्मेदारी निभाता है। तुम में यह आस्था होनी चाहिए, और परमेश्वर को लेकर सृजित प्राणियों का यही रवैया होना चाहिए। यदि तुम कह सको, “भले ही परमेश्वर मुझे खिलौने की तरह शैतान को सौंप दे, फिर भी वह परमेश्वर है, और मैं अपना हृदय नहीं बदल सकता जो उसका अनुसरण करता है, मैं उसके प्रति अपनी आस्था नहीं बदल सकता,” तो यह परमेश्वर में सच्चा विश्वास है।

प्रभु यीशु को सलीब पर चढ़ाए हुए दो हजार वर्ष बीत चुके हैं, और अब जो लोग अंतिम दिनों में परमेश्वर के कार्य को स्वीकारते हैं, वे उसकी आवाज सुनते हैं, और हर दिन सत्य के बारे में उपदेश सुनते और संगति करते हैं। वे परमेश्वर के कार्य के तीनों चरणों को समझते हैं, और उसकी प्रबंधन योजना के रहस्य जानते हैं। क्या धर्म के भीतर प्रभु पर विश्वास करने वाले लोग समझते हैं? अब भी वे नहीं समझते, और अभी भी अपनी धारणाओं से चिपके हैं। जब कोई कहता है, “प्रभु यीशु एक निर्धन सुतार का पुत्र था। देखो तुम लोग कैसे प्रभु पर विश्वास करते हो,” तो उसका खंडन करने की शक्ति उनमें नहीं होती और वे परमेश्वर की गवाही देने में असमर्थ होते हैं। लोग कितने तिरस्करणीय होते हैं! परमेश्वर ने मानवजाति के लिए बहुत-से सत्य व्यक्त किए हैं और इतनी बड़ी चीजें की हैं, लेकिन यदि वह व्यक्तिगत रूप से लोगों को इन चीजों का महत्व, मूल्य और सत्य नहीं बताता, तो एक भी व्यक्ति परमेश्वर के पक्ष में बोलने और उसकी गवाही देने के लिए खड़े होने में सक्षम नहीं होता। परमेश्वर के पक्ष में बोलने से क्या अभिप्राय है? यह परमेश्वर के कर्मों और संप्रभुता की गवाही देना है, उस कीमत की गवाही देना है जो उसने इस मानवजाति के छुटकारे के लिए चुकाई है, और उसके विचारों और जो कुछ भी उसने किया है उसके अर्थ की गवाही देना है। इससे तुम लोग क्या समझ सकते हो? (मानवजाति परमेश्वर के कार्य की कल्पना नहीं कर सकती।) मानवजाति परमेश्वर के कार्य की कल्पना नहीं कर सकती, न ही उसकी थाह पा सकती है। इसलिए मनुष्य के पास परमेश्वर का कार्य, मानवजाति के लिए उसका मार्गदर्शन और उसकी इच्छा को देखने या व्यवहार करने के लिए सही परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण होना चाहिए। मनुष्य का रुख सही होना चाहिए। यह महत्वपूर्ण है। तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम कौन हो और परमेश्वर कौन है, तुम्हारे पास क्या-क्या चीजें होनी चाहिए ताकि तुम परमेश्वर के वचनों और कार्य को समझने में सक्षम हो सको, तुम्हें पता होना चाहिए कि वह क्या है जिसे तुम मूलतः स्पष्ट रूप से समझने या जिसकी थाह पाने में असमर्थ हो, और तुम्हारा रवैया कैसा होना चाहिए। यही विवेक है जो तुम्हारे पास होना चाहिए। इस तरह परमेश्वर से तुम्हारा रिश्ता काफी सामान्य और सौहार्दपूर्ण हो जाएगा। यदि तुम परमेश्वर के बारे में अध्ययन करने और अटकलें लगाने में या उसके द्वारा किए जाने वाले हर काम की जाँच करने में हमेशा प्रतीक्षा करके पता लगाने, अटकलें लगाने, संदेह करने का या प्रतिरोधी रवैया अपनाते हो, तो परेशानी होगी। यह अकादमिक अनुसरण में, शोध में लिप्त होना है, यह एक छद्म-विश्वासी होना है। तुम्हें परमेश्वर की संप्रभुता के साथ समर्पण, खोज और भय का दृष्टिकोण और रवैया अपनाना चाहिए; केवल इसी से सच्चा ज्ञान और परमेश्वर की समझ पैदा होगी। यदि तुम परमेश्वर को समझते हो तो तुम उसका विरोध नहीं करोगे, या कम से कम तुम उसे गलत तो नहीं समझोगे। तुम समर्पण करने में सक्षम होगे और कहोगे, “यद्यपि मैं परमेश्वर के ऐसा करने का मतलब नहीं जानता, लेकिन मैं समझता हूँ कि वह जो कुछ भी करता है वह सही होता है।” यह समझ क्या है? यह समझ है कि तुम्हारा हृदय पूरी तरह से आश्वस्त है कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसका मतलब है, और लोगों को समर्पण करना चाहिए। प्रभु यीशु मसीह ने स्वयं को शैतान के हाथों में सौंप दिया था और शैतान ने उसे सलीब पर चढ़ा दिया—लोगों की नजर में यह अच्छी बात नहीं थी, लेकिन उसने परमेश्वर की इच्छा पूरी की और मानवजाति को छुटकारा दिलाने का कार्य पूरा किया। यह एक महान चीज है, जो संपूर्ण मानवजाति के लिए अति महत्वपूर्ण और मूल्यवान है, लेकिन क्या मानवजाति ने इसे स्पष्ट रूप से देखा? (नहीं देखा।) मानवजाति ने इसे स्पष्ट रूप से नहीं देखा। मानवजाति ने इसमें परमेश्वर का इरादा नहीं देखा, न ही परमेश्वर द्वारा इसे करने का अर्थ और मूल्य समझा; यानी लोगों को इसमें मानवजाति के लिए असीम लाभ नहीं दिखाई दिया। उन्होंने केवल यह देखा कि सलीब पर चढ़ाए जाने के तीन दिन बाद प्रभु यीशु पुनर्जीवित हुआ, लोगों के बीच आया और उनसे मिला, बातें कीं, यादें ताजा कीं और लौट गया; परंतु परमेश्वर की इच्छा पूरी हुई। क्या यह अति महत्वपूर्ण नहीं है? (यह है।) क्या लोगों ने इसकी थाह ली? नहीं ली। इस मामले से लोगों को अपना सही मूल्यांकन करना चाहिए, और परमेश्वर के प्रति सही रवैया रखना चाहिए। परमेश्वर जो कुछ भी करता है, चाहे लोग उसे समझें या न समझें, उन्हें अपना मुँह अवश्य बंद रखना चाहिए। यही सही है। हर चीज का अध्ययन करने के बारे में मत सोचो, यह ठीक नहीं है। क्यों नहीं है? ऐसा कोई नियम नहीं है जो तुम्हें ऐसा करने की अनुमति देने से मना करे, लेकिन ऐसा करते-करते तुम दीवार से टकरा जाओगे और खतरे में पड़ जाओगे। तुम इसे नहीं समझ सकते, और इसे समझने में अब भी सक्षम नहीं हो, लेकिन तुम हमेशा अध्ययन करना चाहते हो, हमेशा परमेश्वर के विरोध में खड़े रहते हो। यदि तुम अध्ययन करके इसे हल नहीं कर सकते, साथ ही सत्य की खोज भी नहीं करते, तो कौन-सी समस्याएँ हैं जो आसानी से आ सकती हैं? परमेश्वर को गलत समझना तुम्हारे लिए आसान होगा। शुरुआत में तुम गलत समझोगे और यदि तुम चीजों को ठीक से नहीं समझ सकते और यह गलतफहमी बनी रहती है, तो तुम नकारात्मक और कमजोर हो जाओगे, और यह तुम्हारे कर्तव्य पालन और जीवन प्रवेश को प्रभावित करेगा—ये सभी चीजें आपस में संबंधित हैं। कई चीजें एक-दो वर्षों में ठीक से समझ में नहीं आ पातीं और सत्य बहुत गहरा होता है। भले ही परमेश्वर ने तुम्हें अभी-अभी प्रबुद्ध किया हो, क्या तुम अपने छोटे आध्यात्मिक कद से ये सब समझ सकते हो? तुम थोड़ा बहुत समझ भी लोगे, तो भी क्या तुम सत्य को पूरी तरह समझ पाओगे? तुम कहोगे, “मैं गुरुत्वाकर्षण जानता हूँ। ऐसा क्यों है कि चीजें पृथ्वी पर ऊपर जाने की बजाय नीचे गिरती हैं, लेकिन यदि तुम वायुमंडल छोड़ कर अंतरिक्ष में चले गए तो तुम तैरने लगोगे? क्योंकि तुम पृथ्वी के गुरुत्वीय खिंचाव से बाहर निकल चुके होगे। मैं यह समझता हूँ, तो क्या मैंने पहले ही परमेश्वर के कर्मों की थाह नहीं पा ली है?” तुम नहीं जानते कि परमेश्वर गुरुत्वाकर्षण पर ठीक कैसे संप्रभु है, और तुमने इसकी अभिव्यक्ति मात्र को ही समझा है। इसका मतलब यह नहीं है कि तुमने इसकी थाह ले ली है कि परमेश्वर इस पर कैसे संप्रभु है, और यदि तुम जान भी पाते हो, तो क्या तुम इस पर संप्रभु हो पाने में सक्षम हो पाओगे? यदि लोग वायुमंडल से बाहर चले गए तो उन्हें परेशानी होगी, वे गुरुत्वाकर्षण के बिना हर जगह बस तैरते और उड़ते रहेंगे। इससे क्या समझा जा सकता है? (कि ऐसी बहुत सी चीजें हैं जिनकी लोग थाह नहीं पा सकते।) लोग थाह नहीं पा सकते, फिर भी वे हमेशा परमेश्वर का अध्ययन करने और उसे देखने के लिए उसके विरोध में खड़े रहते हैं, उनके मन में संदेह होता है और वे कहते हैं, “यदि मैं इस मामले की थाह नहीं पा सकता, तो फिर तुम परमेश्वर नहीं हो।” इस राय के बारे में क्या कहना है? यह राय और रुख गलत हैं, वे परमेश्वर के खिलाफ खड़े हैं, और हमेशा अध्ययन करते रहना भी गलत है। तुम्हें परमेश्वर को समझना चाहिए और कहना चाहिए, “मैं इसे नहीं समझ सकता, यह बहुत गहरा है और यदि परमेश्वर मुझे प्रबुद्ध भी कर दे तो भी मैं इसे पूरी तरह से नहीं समझ पाऊँगा। इसलिए मैं समर्पित हृदय से कुछ वर्षों तक खोज करूँगा, और यदि परमेश्वर मुझे उत्तर नहीं देता तो मैं अभी के लिए उसे दरकिनार कर दूँगा। मेरे और परमेश्वर के बीच कोई आड़ या गलतफहमी नहीं है। अगर मुझे परमेश्वर के बारे में गलतफहमी नहीं है या मैं उसके बारे में शिकायत नहीं करता तो मैं उसका विरोध नहीं करूँगा। यदि मैं उसका विरोध नहीं करता, तो मैं उसके विरुद्ध विद्रोह नहीं करूँगा, और यदि मैं उसके विरुद्ध विद्रोह नहीं करता, तो मैं उसे नहीं ठुकराऊँगा या उससे दूर नहीं जाऊँगा। मैं सदैव परमेश्वर का अनुयायी हूँ।” “सदैव परमेश्वर का अनुयायी” बने रहने का आधार क्या है? इसका आधार है कि “इस बात की परवाह किए बिना कि परमेश्वर जो करता है वह मेरी धारणाओं से मेल खाता है या नहीं, मैं हमेशा उसके प्रति समर्पण करूँगा और उसका अनुसरण करूँगा। परमेश्वर अभी भी मेरा परमेश्वर है और मैं एक सृजित प्राणी हूँ, मैं एक इंसान हूँ। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर मेरे साथ कैसा व्यवहार करता है, वह चाहे मुझे नरक में फेंके, चाहे आग की झील में या शैतान के सामने या दानवों के आगे फेंके, मैं बिना किसी शिकायत के सदैव उसके आगे समर्पण करूँगा। परमेश्वर का दर्जा नहीं बदल सकता, न ही एक सृजित प्राणी के रूप में मेरी पहचान बदल सकती है। जब तक यह तथ्य अपरिवर्तित रहता है, मुझे परमेश्वर का अनुसरण करना चाहिए, और वह सदैव मेरा परमेश्वर है।” एक बार जब परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास मजबूती से जड़ पकड़ लेता है, तो तुम उससे मुँह नहीं मोड़ोगे। यह एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हारी पहचान और परमेश्वर के बीच का संबंध है। एक बार जब तुम स्पष्ट रूप से अपने हृदय में परमेश्वर की पहचान और स्थिति देख लेते हो, और एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी पहचान और स्थिति देख लेते हो जिनका तुम्हें पालन करना चाहिए, और एक बार तुम्हारे हृदय में इनकी जड़ें जम गईं, तो तुम परमेश्वर से दूर नहीं जाऊँगा। फिर जब तुम कमजोर, नकारात्मक या दुखी होते हो, या कुछ ऐसा होता है जो तुम्हारी धारणाओं से मेल नहीं खाता और तुम उसकी थाह नहीं ले पाते या उसे समझ नहीं पाते, तो क्या यह परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंध को प्रभावित कर सकता है? (यह ऐसा नहीं कर सकता।) जब तक तुम दर्शन के सत्य के बारे में स्पष्ट हो, तुमने नींव रख दी है, और तुमने कई वातावरणों का अनुभव कर लिया है और अनुभव से यह समझ लिया है कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसका अर्थ होता है, तब तुम परमेश्वर के कार्य को जान लोगे और धारणाओं का फिर से उभरना मुश्किल होगा। कुछ लोग केवल एक हिस्सा ही समझ पाते हैं। उदाहरण के लिए, न्याय और ताड़ना के संबंध में लोग स्वीकार करते हैं कि परमेश्वर जो करता है वह सार्थक है, लेकिन जब काट-छाँट की बात आती है तो उनके मन में धारणाएँ होती हैं। चाहे उनके साथ कोई भी काट-छाँट करे, वे इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते और वे यह नहीं मानते कि यह मामला परमेश्वर से आया है। वे सोचते हैं कि यह मनुष्य ने किया है, और शैतान से आया है। क्या यह एक और गलती नहीं है? दूसरी समस्या सामने आती है, और उन्हें सत्य की खोज जारी रखनी होगी। यदि तुम इसे पास नहीं कर सकते, तो क्या तुम पूरी तरह से परमेश्वर के कार्य के लिए समर्पण कर सकते हो? तुम केवल उसी को समर्पण कर सकते हो जो तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप है, और उस को समर्पण नहीं कर सकते जो तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप नहीं है। इस तरह का व्यक्ति बहुत आसानी से परमेश्वर का विरोध कर सकता है, और वह व्यक्ति होता है जिसका स्वभाव नहीं बदला है।

लोगों के बीच कई सोच, विचार और स्थितियाँ होती हैं जो अक्सर उनकी कुछेक राय, परिप्रेक्ष्यों और रुख को प्रभावित करती हैं। यदि तुम सत्य की खोज के माध्यम से इन सोच, विचारों और स्थितियों को एक-एक करके हल कर सकते हो, तो वे परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंध को प्रभावित नहीं करेंगी। अभी तुम्हारा आध्यात्मिक कद छोटा हो सकता है, तुम्हारी सत्य की समझ भी सतही हो सकती है, और क्योंकि तुमने केवल कुछ समय के लिए ही परमेश्वर में विश्वास किया है या कई अन्य कारणों से तुम बहुत-से सत्य नहीं समझते हो—लेकिन तुम्हें एक सिद्धांत ठीक से समझ लेना चाहिए : मुझे परमेश्वर की हर बात के लिए समर्पण करना चाहिए, बाहर से चाहे वह अच्छी दिखे या बुरी, सही हो या गलत, मानवीय धारणाओं के अनुरूप हो या विपरीत। यह सही है या गलत इसकी आलोचना, मूल्यांकन, विश्लेषण या अध्ययन करने का मुझे कोई अधिकार नहीं है। मुझे जो करना चाहिए वह यह कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य पूरा करूँ और फिर उन सत्यों का अभ्यास करूँ जिन्हें मैं समझ सकता हूँ, ताकि परमेश्वर को संतुष्ट कर सकूँ और सच्चे मार्ग से विचलित न होऊँ। परमेश्वर मुझे जितना समझने देगा मैं उतना अभ्यास करूँगा और जो मुझे अभ्यास करना चाहिए उसकी तलाश करूँगा, भले ही परमेश्वर ने मुझे प्रबुद्ध न किया हो; यदि परमेश्वर ने मुझे किसी ऐसी चीज के बारे में प्रबुद्ध नहीं किया है जिसे समझने की आवश्यकता मुझे नहीं है तो मैं समर्पण करूँगा और प्रतीक्षा करूँगा, और शायद एक दिन परमेश्वर मुझे समझने देगा। ठीक प्रभु यीशु के सलीब पर चढ़ने की तरह, दो हजार वर्ष बाद वे लोग जो अंत के दिनों में परमेश्वर का कार्य स्वीकार करते हैं वे मूलतः समझते हैं और यहाँ तक कि जो लोग अपने अनुसरण को लेकर बहुत उत्सुक नहीं हैं वे भी समझते हैं कि यह सब क्या था। हो सकता है कि अभी तुम परमेश्वर की प्रबंधन योजना से संबंधित कुछ महान कार्यों को न समझ पाओ, लेकिन चूँकि तुम सत्य को नहीं समझते, तो तुम परमेश्वर को गलत समझते हो और उसके अस्तित्व से इनकार करते हो, जो परमेश्वर और तुम्हारे बीच के सामान्य संबंध को तोड़ देता है। यह एक भयंकर गलती है। तुम्हारा एक रवैया, परिप्रेक्ष्य और रुख होना चाहिए जहाँ तुम कहो : “जो चीजें मुझे समझ में नहीं आती हैं मैं उनकी बस प्रतीक्षा करूँगा। एक दिन जब परमेश्वर मानवजाति को प्रबुद्ध करेगा, तो शायद मैं भी उन सब चीजों को समझ पाऊँगा।” प्रभु यीशु ने जाते समय कहा, “मुझे तुम से और भी बहुत सी बातें कहनी हैं, परन्तु अभी तुम उन्हें सह नहीं सकते” (यूहन्ना 16:12)। वे उन्हें क्यों नहीं सह सकते थे? ऐसा इसलिए था क्योंकि लोगों का आध्यात्मिक कद काफी अपरिपक्व था, और वे समझ नहीं सकते थे। यह तीन या पाँच साल के बच्चे को पैसे कमाने या परिवार का भरण-पोषण करने के बारे में बताने जैसा है; वह इसे सुनेगा, लेकिन उसे लगेगा कि यह उसकी समझ से बहुत दूर है और यह उसकी पहुँच से बाहर है। लोगों के समझने के लिए ऐसा बहुत कुछ है जो कि परमेश्वर मानवजाति को बताना चाहता है, लेकिन मानवजाति के अपरिपक्व आध्यात्मिक कद के कारण, या चूँकि परमेश्वर के कार्य की प्रक्रियाएँ अभी भी मनुष्य के सामने पूरी तरह से प्रकट नहीं हुई हैं और लोगों ने उनका अनुभव नहीं किया है, यदि ये बातें बहुत पहले ही पता चल जाएँ तो वे इन्हें समझ नहीं पाएँगे। अगर उन्होंने सुन भी लिया तो वे इसे धर्म-सिद्धांत के रूप में लेंगे और इसका शाब्दिक रूप ही समझेंगे, लेकिन वास्तव में नहीं जान पाएँगे कि परमेश्वर क्या कह रहा है। इसलिए परमेश्वर बोलता नहीं है। क्या परमेश्वर का न बोलना उचित है? क्या इसमें मनुष्य का कोई हित है? (हाँ है।) क्या इससे लोगों के जीवन के विकास में देरी होगी? निश्चित रूप से इसमें कोई देरी नहीं होगी, कतई देरी नहीं होगी, तुम्हारी दिनचर्या या तुम्हारे सामान्य अनुसरण पर कोई असर नहीं होगा। तो तुम बस अपने हृदय को आराम दो और सत्य का अनुसरण करते रहो, क्योंकि यही सबसे महत्वपूर्ण बात है; अंततः यह सब सत्य की खोज पर आकर टिक जाता है। यदि तुम सत्य का अनुसरण करते हो तो परमेश्वर द्वारा कि गई कुछ चीजों में जो रहस्य हैं, उसकी बुद्धि, अद्भुतता और सभी कार्यों में उसका स्वभाव, और वे सारी चीजें जिन्हें मानवजाति को समझना चाहिए, परमेश्वर का अनुसरण करने की प्रक्रिया के माध्यम से धीरे-धीरे स्पष्ट हो जाएँगी। परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करने में कई पहलू शामिल हैं, और परमेश्वर के साथ अपनी बातचीत, जुड़ाव और संपर्क की प्रक्रिया में तुम्हें उसके वचन अनुभव करने चाहिए, और उसके कार्य का निजी अनुभव प्राप्त करना चाहिए, साथ ही उसके द्वारा तुम्हारे प्रबोधन व मार्गदर्शन का भी आनंद लेना चाहिए। इस प्रक्रिया में तुम अनजाने में ही परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त कर लोगे; अर्थात् अपने ऊपर उसकी संप्रभुता और व्यवस्था का अनुभव करने की प्रक्रिया के माध्यम से धीरे-धीरे तुम्हें परमेश्वर की समझ आने लगेगी। यदि तुम इन प्रक्रियाओं से नहीं गुजरते हो, लेकिन परमेश्वर का कार्य देखने के लिए अपनी कल्पना पर भरोसा करते हुए रोज आँखें फाड़कर आकाश को घूरते हो, तो तुम परमेश्वर का कार्य कभी नहीं देख पाओगे। आखिरकार तुम संदेह करने लगोगे और कहोगे, “कहाँ है परमेश्वर? क्या चाँद उसने बनाया? सूरज सुबह उगता है और रात को डूब जाता है—क्या इसी तरह से परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभु है?” इस प्रकार की समझ खोखली है, और तुम्हारा दृढ़ विश्वास खोखले शब्द बनकर रह जाएगा। यदि कोई तुमसे पूछेगा कि क्या तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, तो तुम कहोगे : “मैं परमेश्वर में विश्वास करता हूँ, मुझे दृढ़ विश्वास है, मैं एक ईसाई हूँ।” यदि वे फिर पूछते हैं : “तुम बौद्ध क्यों नहीं हो?” तुम कहोगे : “बौद्ध धर्म सच्चा मार्ग नहीं है, ईसाई धर्म सच्चा मार्ग है।” तुम सिर्फ यही कह सकते हो इससे साबित होता है कि तुम्हारे पास कोई अनुभव नहीं है और तुमने कुछ भी हासिल नहीं किया है। परमेश्वर के बारे में सब कुछ, वह सब जो उसके पास है और जो वह स्वयं है, उसका स्वभाव, मानवजाति और सभी चीजों के लिए उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाएँ, उसके वचनों की वास्तविकता तथा सटीकता और मानवजाति के लिए उन वचनों की महत्ता, आत्मिक निर्माण और मूल्य, साथ ही साथ मनुष्य के लिए परीक्षण, अनुशासन, प्रबोधन और रोशनी, सांत्वना और प्रोत्साहन, और कुछ खास मार्गदर्शन आदि के माध्यम से काम करने के उसके कुछ तरीके—यदि इन सबका तुमने अनुभव नहीं किया, तो क्या परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य हो सकता है? क्या तुम सचमुच उसके प्रति समर्पण कर सकते हो? परमेश्वर के बारे में तुम्हारी समझ हमेशा एक प्रश्नचिह्न रहेगी, प्रश्नचिह्नों की एक श्रृंखला रहेगी, जिसमें कोई वास्तविक समझ नहीं होगी। तो क्या परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है? क्या यह वास्तव में सृजित प्राणी और सृष्टिकर्ता के बीच का संबंध है? यह प्रश्नचिह्न वास्तव में क्या दर्शाता है? परमेश्वर हमेशा तुम्हारे लिए अजनबी रहेगा, चाहे यह उसकी पहचान की बात हो, उसकी स्थिति की बात हो या उसके सार की बात हो। वह तुम्हारा परिवार नहीं है, तुम्हारा रिश्तेदार नहीं है, वह हमेशा एक अजनबी परग्रही आगंतुक की तरह लगता है जिसे तुमने कभी नहीं जाना—इसलिए यह समझाना आसान नहीं है कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध वास्तव में क्या है, लेकिन यह निश्चित रूप से सृजित प्राणी और सृष्टिकर्ता के बीच के संबंध के स्तर तक नहीं पहुँचता।

परमेश्वर पर विश्वास करने के महत्वपूर्ण बिंदु क्या हैं? परमेश्वर पर आस्था को उस वास्तविकता में कैसे बदला जाए जो लोगों के जीवन में होनी चाहिए? समर्पण कैसे हासिल करें और परमेश्वर को कैसे प्राप्त करें? इससे पहले कि तुम परमेश्वर के प्रति समर्पित हो और उसे प्राप्त करो, तुम्हें उसके वचनों को अनुभव करने पर भरोसा होना चाहिए, और सबसे महत्वपूर्ण यह कि उसके न्याय और ताड़ना पर भरोसा होना चाहिए। यद्यपि बहुत-से लोग अपना कर्तव्य निभाना चाहते हैं, लेकिन उन्हें समझ नहीं आता कि परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे किया जाए। ऐसा करने के लिए तुम्हें उसके न्याय और ताड़ना, उसकी काट-छाँट, परीक्षणों और शोधन का अनुभव करना चाहिए। परमेश्वर की सभी आवश्यकताओं का अभ्यास करना चाहिए, उनके भीतर प्रवेश कर उन्हें हासिल करना चाहिए। इसी को परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना कहते हैं। इसे अनुभव करने के लिए तुम्हें परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध स्थापित करना होगा, हमेशा समर्पित हृदय से परमेश्वर से प्रार्थना करनी होगी और उससे खोज करनी होगी। चाहे कुछ भी हो, तुम कितनी भी कठिनाइयों का सामना करो, तुम्हें परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए और उसकी ओर देखना चाहिए, उसके वचनों में उत्तर और रास्ता खोजना चाहिए, और हमेशा उसके साथ प्रार्थना और संगति करनी चाहिए। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने का मतलब है उसके संपर्क में रहना और उसके वचनों और कार्य के लिए समर्पित होना, समस्या या कठिनाई आने पर प्रार्थना करना और उससे मार्गदर्शन खोजना। जब तुम्हें इस तरह का काफी अनुभव हो जाएगा, और तुम सत्य को समझ लोगे, तो तुम सीख चुके होगे कि घटित होने वाली चीजों पर परमेश्वर के वचनों को कैसे लागू किया जाए। परमेश्वर के वचन लागू करने के कई तरीके हैं, उदाहरण के लिए जब चीजें होती हैं तो प्रार्थना करना और खोज करना, और इस प्रकार से देखना कि कैसे परमेश्वर के वचन साफ-साफ बताते हैं कि लोगों को कैसे कार्य करना चाहिए, सिद्धांत क्या हैं, और लोगों के लिए परमेश्वर के इरादे और अपेक्षाएँ क्या हैं। जब तुम यह सब जानते हो, और परमेश्वर की इच्छाओं को समझते हो, तो तुम्हारे पास परमेश्वर के बारे में कुछ ज्ञान और परमेश्वर की कुछ समझ होगी। परीक्षणों का सामना करना पड़े तो तुम्हें यह खोजना चाहिए, “इतने बड़े परीक्षण के बारे में परमेश्वर का वचन क्या कहता है? परमेश्वर द्वारा लोगों का परीक्षण करने का क्या अर्थ है? वह लोगों का परीक्षण क्यों करना चाहता है?” परमेश्वर के वचन कहते हैं कि तुम भ्रष्ट हो, हमेशा विद्रोही और अवज्ञाकारी हो, और तुम उसके प्रति समर्पण नहीं करते हो, बल्कि हमेशा कल्पनाएँ और धारणाएँ रखते हो, और परमेश्वर तुम्हें परीक्षणों के माध्यम से शुद्ध करना चाहता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या अनुभव करते हो, उत्पीड़न और परीक्षण या काट-छाँट, अनुशासित और दंडित किया जाना, और चाहे परमेश्वर तुम्हारे लिए कैसे भी वातावरण का इंतजाम करे या कोई भी तरीका इस्तेमाल करे, तुम्हें हमेशा परमेश्वर के वचनों में उत्तर और आधार की तलाश करनी चाहिए, और उसके इरादों और तुमसे अपेक्षाओं का पता लगाना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि चाहे कुछ भी हो, तुम्हें पहले यह सोचना चाहिए कि परमेश्वर ने क्या कहा है, वह लोगों से कैसे अभ्यास करवाना चाहता है, लोगों से उसकी अपेक्षाएँ क्या हैं और उसके इरादे क्या हैं। इन बातों को समझो और तुम जान जाओगे कि परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे किया जाए। यदि तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं है और तुम सत्य से प्रेम नहीं करते, लेकिन हमेशा यह सोचते हो कि जब ऐसा होता है तब इसके बारे में पुस्तकें, आम लोग या प्रसिद्ध और महान लोग क्या कहते हैं, या तब अविश्वासी लोग क्या करते हैं, तो यदि तुम इस तरह से खोज और अभ्यास करते हो तो फिर तुम छद्म-विश्वासी हो, क्योंकि तुम्हारी सोच और तुम्हारा मार्ग अविश्वासियों के समान हैं। यदि तुम वह हो जिसका परमेश्वर में विश्वास है, लेकिन तुम्हारी सोच अविश्वासियों के समान है और तुम अविश्वासियों के मार्ग पर चलते हो, तो यह गलत रास्ता है और आगे कहीं नहीं पहुँचता; यह वह नहीं है जो परमेश्वर में विश्वास रखने वाले किसी व्यक्ति को करना चाहिए, या यह वह मार्ग नहीं है जिस पर उन्हें चलना चाहिए। कलीसिया के भीतर भी ऐसे लोग होते हैं, और वे कलीसिया में छिपे छद्म-विश्वासी, अविश्वासी हैं।

मनुष्य और परमेश्वर कैसे जुड़े हैं? तुम परमेश्वर को कैसे जान सकते हो? वह मनुष्य पर कैसे कार्य करता है? अपने वचनों का उपयोग करके, उनके माध्यम से वह अपने इरादे प्रकट करता है, तुम्हें उस मार्ग पर ले जाता है जिस पर तुम्हें चलना चाहिए, तुम्हारा परीक्षण करता है, और तुमसे उसकी सभी अपेक्षाओं और तुम्हारे लिए निर्धारित मानक बताता है। इसका एहसास किए बिना ही लोग परमेश्वर के वचनों में सत्य के सभी पहलुओं को समझ लेते हैं : जैसे लोगों के साथ कैसे व्यवहार करें और मामलों को कैसे सँभालें, इनके पीछे के सिद्धांत क्या हैं, अपने भाई-बहनों के साथ कैसे व्यवहार करें, कलीसिया के काम और उनके कर्तव्य, परीक्षणों का अनुभव कैसे करें, परमेश्वर के प्रति वफादार कैसे रहें, चीजों को कैसे छोड़ें, अविश्वासी दुनिया को कैसे देखें, इत्यादि। यह सब परमेश्वर के वचनों में है, और उसने मानवजाति को बताया है। लेकिन अंततः मनुष्य इसे किस सीमा तक अनुभव करता है? लोग परमेश्वर को उसके वचनों में देख सकते हैं, और उससे रूबरू हो सकते हैं। कोई पूछ सकता है : “वह परमेश्वर कहाँ है जिस पर तुम्हारा विश्वास है?” जिन लोगों ने इसका अनुभव नहीं किया है, वे यह नहीं समझ सकते : “हाँ, परमेश्वर कहाँ है? वह मुझे कभी दिखाई नहीं दिया। उसके बारे में हमेशा कहा जाता है कि वह तीसरे स्वर्ग में रहता है, लेकिन मैंने उसे कभी नहीं देखा। मैं नहीं जानता कि परमेश्वर वास्तव में कितना बड़ा या कितना लंबा है, या कितना सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है।” जिनके पास अनुभव है वे कहेंगे : “वे चीजें महत्वपूर्ण नहीं हैं। मैंने जिस दिन उस पर विश्वास किया उसी दिन मेरा परमेश्वर के वचनों से सामना हुआ। अब मैं बीस-तीस वर्षों से उस पर विश्वास करता हूँ, और उसके वचनों में मैं उसका स्वभाव और सार देखता हूँ, और मुझे उसके बारे में थोड़ी समझ और थोड़ा ज्ञान है। इतने वर्षों से उसके वचनों का अनुभव करने के बाद अगर एक दिन परमेश्वर मेरे पास आए और मेरे साथ बातचीत करे, जुड़े, तो बेशक मैं पुष्टि कर पाऊँगा कि यह वही परमेश्वर है जिसने उन वचनों को व्यक्त किया था, यह वही है जिस पर मैं विश्वास करता हूँ! इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह दिखता कैसा है, जब तक इनका और उसके वचनों का स्रोत एक ही है, तो वह वही परमेश्वर है जिस पर मैं विश्वास करता हूँ, वह स्वर्ग का परमेश्वर है, मेरी किस्मत और सभी चीजों पर जिसकी संप्रभुता है। यह वही है।” अब क्या परमेश्वर को फिर भी स्वर्ग से तुम से बात करने की जरूरत है? (कोई जरूरत नहीं है।) परमेश्वर चाहे कोई भी रूप या आकार ले, तुम्हें उसे देखने की आवश्यकता नहीं है। कोई आवश्यकता नहीं है। तुममें वह जिज्ञासा नहीं होगी। लेकिन क्यों? इतने वर्षों के अनुभव, परमेश्वर के साथ संपर्क के बाद यूँ तो तुम यह नहीं कह सकते कि तुम उसे जानते हो या उससे बहुत परिचित हो, फिर भी कम से कम उसके वचनों के माध्यम से और उन वचनों और उसके कार्य के अनुभव के जरिए वह अब तुम्हें अजनबी नहीं लगता। वह तुम्हारे साथ है, तुम्हारे जीवन का मार्गदर्शन कर रहा है, तुम्हारे हर दिन और तुम्हारी किस्मत पर संप्रभुता रखता है। वह तुम्हारे आनंद, दुख, क्रोध और खुशी को अच्छी तरह से समझता है, और तुम उसके आनंद, दुख, क्रोध और खुशी को जानते हो। तुम अब उसे गलत नहीं समझते या उसके बारे में शिकायत नहीं करते हो, और तुम्हारे हृदय में उसका स्थान ऐसा है कि तुम कह सकते हो कि वह वहाँ सिंहासन पर बैठा हुआ है, और तुम्हारे संपूर्ण अस्तित्व पर नियंत्रण करने में सक्षम राजा की तरह शासन करता है। “राजा की तरह शासन करने” का क्या तात्पर्य है? इसका तात्पर्य है कि जो कुछ भी होता है उसे हल करने के लिए तुम परमेश्वर के वचन इस्तेमाल करते हो, और उसके वचन तुम्हारे हृदय के स्वामी हैं। अब तुम स्वामी नहीं हो। तुम्हारा ज्ञान और सीख, तुम्हारे द्वारा पढ़ी गई पुस्तकें, तुम्हारे जीवन के अनुभव—ये सभी तुम्हारी अगुआई नहीं कर सकते। परमेश्वर के वचन ही हर चीज़ में तुम्हारा मार्गदर्शन करेंगे, वे तुम्हारे जीवन की मार्गदर्शक पुस्तिका बन जाएँगे, तुम्हारे वास्तविक जीवन में वे हर रोज प्रकट होंगे और जिए जाएँगे। यही वह तरीका है जिससे तुम्हें सत्य वास्तविकताएँ प्राप्त होंगी। उस समय यदि कोई तुमसे फिर पूछे, “चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, तो क्या तुम उसे जानते हो?” तुम कहोगे : “मैं परमेश्वर को थोड़ा सा जानता हूँ। वह कितना शक्तिशाली और बुद्धिमान है यह बताने के लिए शब्दों का इस्तेमाल करने का साहस मैं नहीं कर सकता, न ही उसे परिभाषित करने का साहस कर सकता हूँ, लेकिन मैं इतना जरूर जानता हूँ कि परमेश्वर अथाह है, बहुत ही बुद्धिमान और अद्भुत है, और मानवजाति से बहुत प्रेम करता है। परमेश्वर का प्रेम बेहद महान, बेहद सच्चा और उसका स्वभाव बेहद धार्मिक है!” क्या यह थोड़ा सा ज्ञान लोगों की भ्रामक और कल्पनाशील धारणाओं और कल्पनाओं से अधिक मूल्यवान नहीं है? (हाँ, यह है।) तो ये मूल्यवान चीजें कहाँ से आती हैं? वे परमेश्वर के वचनों का अनुभव करने से आती हैं। यानी इतने वर्षों तक परमेश्वर के वचन प्रदान किए जाने के बाद वे तुम में जड़ें जमा लेते हैं और अंकुरित होते हैं, खिलते हैं और फल लगते हैं, और तुम उसके वचनों की वास्तविकता को जी लेते हो। परमेश्वर के वचनों को जीते हुए तुम इस प्रभाव को कैसे हासिल करते हो? (परमेश्वर द्वारा इंतजाम किए गए लोगों, घटनाओं और चीजों का थोड़ा-थोड़ा अनुभव करके।) यह अनुभव से आता है, खासकर इस अवधि के दौरान परमेश्वर के वचनों की लगातार पुष्टि करना, यह पुष्टि करना कि परमेश्वर का प्रत्येक वाक्य सत्य है, और तुम्हें जीवन में क्या चाहिए। उस समय यदि कोई कहता है, “जिस परमेश्वर पर तुम विश्वास करते हो वह परमेश्वर नहीं है, उसका अस्तित्व नहीं है, उसे देखा नहीं जा सकता,” तुम कहोगे : “परमेश्वर के अस्तित्व और संप्रभुता के बारे में निर्णय लेना किसी एक व्यक्ति का काम नहीं है। परमेश्वर यह निर्णय लेता है, परमेश्वर के अस्तित्व और सभी चीजों पर संप्रभु होने का तथ्य यह निर्णय लेता है, इन वर्षों में परमेश्वर के कार्य का मेरा वास्तविक अनुभव यह निर्णय लेता है, परमेश्वर के कार्य के अनुभव की सभी गवाहियाँ यह निर्णय लेती हैं। यही प्रमाण है।” यह परमेश्वर की गवाही देना है। यदि कोई फिर पूछे, “परमेश्वर कहाँ है?” तुम क्या उत्तर दोगे? (प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में जो उस पर विश्वास करता है।) परमेश्वर पहले से ही लोगों के हृदय में रहता है, लेकिन वह हमारे चारों ओर, सभी चीजों के भीतर और चारों तरफ भी है। यह परमेश्वर का अस्तित्व है। तुम इससे इनकार नहीं कर सकते, और तुम जो अनुभव करते हो वह तुम जो देखते हो उससे अधिक वास्तविक है। यदि तुमने परमेश्वर को देख भी लिया, तो क्या तुम उसे पहचान पाओगे? (नहीं, मैं नहीं पहचान पाऊँगा।) अगर परमेश्वर का आध्यात्मिक शरीर लोगों के बीच उतरे और कहे, “मैं परमेश्वर हूँ,” तो तुम चौंक जाओगे और कहोगे, “तुम परमेश्वर हो? मैं तुम्हें कैसे नहीं पहचानता? मैं तुम जैसे परमेश्वर को नहीं स्वीकारता!” दरअसल तुम डर जाओगे। तुम्हारी ऐसी प्रतिक्रिया क्यों होगी? चूँकि तुम परमेश्वर को नहीं जानते हो, इसलिए तुम्हारा उसके प्रति ऐसा रवैया और व्यवहार होता है।

परमेश्वर में विश्वास करते समय ध्यान देने योग्य सबसे महत्वपूर्ण बात क्या होती है? तुम कह सकते हो कि उसके वचन अनुभव करना सबसे महत्वपूर्ण है। परमेश्वर के वचन अनुभव करने की प्रक्रिया में, चाहे लोगों की गलत स्थितियाँ हों या परमेश्वर के विरुद्ध विरोध की स्थितियाँ हों या विद्रोहीपन की स्थितियाँ हों, या कोई भी भ्रामक विचार हों, उन्हें बदलना होगा और सत्य से इन सब का समाधान करना होगा। इस तरह धीरे-धीरे तुम्हारी आंतरिक अवस्था सुधर जाएगी, परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य होता चला जाएगा, और तुम परमेश्वर के अस्तित्व को महसूस करोगे। यदि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य नहीं है, तो तुम परमेश्वर के अस्तित्व को महसूस नहीं करोगे। क्या इन सब में सत्य नहीं है? इस सब में सत्य है। यदि लोग परमेश्वर में ऐसे विश्वास करते हैं मानो वे शून्य में रह रहे हों, किसी भी चीज के संपर्क में न हों, कुछ भी नहीं देख रहे हों, कुछ भी न जानते हों, बाहरी दुनिया से बेखबर उन ताओवादी भिक्षुओं और ननों की तरह जो तप और साधना करते हैं, तो यह सही तरीका नहीं है। यदि लोग ध्यान से देखें, समझें और अनुभव करें तो वे कई चीजों में परमेश्वर के कार्य देख पाएँगे। लेकिन कुछ ऐसे मामले वर्तमान में हैं जो बहुत गहरे हैं और अधिकतर लोगों की समझ से बाहर हैं, इसलिए दूर की चीजों की तलाश में तुम्हें उसे नहीं छोड़ देना चाहिए जो पास में है। बस परमेश्वर के वचनों पर ध्यान दो और सीखो कि उन वचनों के आधार पर स्वयं का मूल्यांकन कैसे करें। वचनों के आधार पर स्वयं का मूल्यांकन करने का क्या मतलब है? यह इस बात का पता लगाना है कि परमेश्वर के वचनों में उजागर विभिन्न अवस्थाओं में से क्या तुम्हारे पास कोई अवस्था है, तुम किस अवस्था में हो, परमेश्वर के वचन किसकी ओर संकेत करते हैं, और वह किन मानवीय अवस्थाओं के बारे में बात कर रहा है। इन सभी की जाँच कर इन्हें स्पष्ट रूप से समझा जाना चाहिए। कभी-कभी लोग परमेश्वर के वचन एक बार सुनते हैं, लेकिन वे इन्हें एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते हैं और सोचते हैं, “परमेश्वर के वचन मेरे लिए नहीं हैं। मेरे पास यह अवस्था नहीं है। वह औरों के बारे में बात कर रहा है।” यह परमेश्वर के वचन समझने का गलत तरीका है, और यह दर्शाता है कि तुम अभी भी उसके वचन नहीं समझते, उनका तुम पर अभी भी कोई असर नहीं हुआ है, और तुम उन्हें हजम नहीं कर पाए हो। उस दिन तक अनुभव लेते रहो जब तक कि तुम लोगों को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन न सुन लो और तुम कहोगे, “परमेश्वर मेरे बारे में बोल रहा है।” यह परमेश्वर के वचनों के आधार पर स्वयं का मूल्यांकन करना है। लेकिन यह तो मात्र शुरुआत है, यह परमेश्वर के वचनों में प्रवेश करने की केवल शुरुआत है—तुम्हें नहीं पता होगा कि जिस अवस्था के बारे में वह बात करता है वह वास्तव में क्या है। इसलिए तुम्हें उस दौर से गुजरना होगा जहाँ तुम यह खोज सको कि परमेश्वर जो कहता है उसमें सत्य क्या है, उसकी अपेक्षाएँ क्या हैं, और वह कौन-सा मार्ग है जो वह मानवजाति को बताता है। इसमें सूक्ष्म विवरण शामिल हैं; ऐसा नहीं है कि केवल बाहरी अवस्था की जाँच और गहन-विश्लेषण करके तुम कह सको कि काम हो गया। लोगों की अवस्था का गहन-विश्लेषण करने और उनसे इसकी जाँच करवाने में परमेश्वर का उद्देश्य क्या है? यह उन्हें सुधारने के लिए है। परमेश्वर कहता है कि यह एक गलत अवस्था है, और यदि तुम ऐसी अवस्था में रह रहे हो, या ऐसा दृष्टिकोण रखते हो, तो तुम परमेश्वर का विरोध कर सकते हो। यह विद्रोहीपन है, यह परमेश्वर को नाराज करता है, और यह एक भ्रष्ट स्वभाव है जो शैतान का है और सत्य से मेल नहीं खाता; तुम्हें अपना रास्ता बदलना होगा। रास्ता बदलते समय तुम्हें यह समझना चाहिए कि परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं, कि इन अपेक्षाओं में सच्चाई है, और तुम्हें परमेश्वर का इरादा जानना होगा और विचार करना होगा, “इस मामले में परमेश्वर की क्या अपेक्षा है? मैं अपना रास्ता कैसे बदलूँ, खुद को ऐसी अवस्था से अलग कैसे करूँ और कैसे इसका समाधान करूँ?” इसमें सत्य की खोज शामिल है। परमेश्वर के वचनों के अनुरूप स्वयं का मूल्यांकन करना ही काफी नहीं है—इसके साथ-साथ, अभी भी तुम्हें सत्य को समझने और स्वयं को जानने में सक्षम होने की जरूरत है। तब तुम्हें लगेगा कि मानवजाति के लिए परमेश्वर की आवश्यकताएँ कितनी अद्भुत हैं, और तुम अपने हृदय से उसकी प्रशंसा करने में सक्षम होगे : “परमेश्वर बहुत बुद्धिमान है, वह मनुष्य के अंतरतम हृदय की पड़ताल करता है! परमेश्वर ने मेरी अवस्था उजागर की जिसके बारे में मुझे पता तक नहीं था, लेकिन परमेश्वर सब कुछ जानता है!” क्या यही बात है? यह कतई काफी नहीं है, और यह वह नहीं है जिसकी परमेश्वर को अपेक्षा है। वह तुमसे अपेक्षा करता है कि तुम उन नकारात्मक, गलत अवस्थाओं को त्याग दो, जो भ्रष्ट स्वभावों से उपजती हैं और एक बार जब तुमने उनका समाधान कर लिया, तो सत्य के अनुसार अभ्यास करो। जैसे-जैसे सत्य के बारे में तुम्हारी समझ धीरे-धीरे गहरी होती जाएगी, तुम्हारी आंतरिक अवस्था पूरी तरह से बदलती जाएगी और तुम चीजों के बारे में अपने पुराने दृष्टिकोण त्याग दोगे, तुम देख पाओगे कि यह भ्रामक है, जान पाओगे कि गलती कहाँ है और इसका सार क्या है, और तब इसे हल करने में सक्षम हो पाओगे। जब तुम पूरी तरह से सांसारिक चीजों और शैतानी दृष्टिकोणों को छोड़ सकते हो, तो भले ही तुम अंदर से पूरी तरह खाली कर दिए गए महसूस कर रहे हो, जो सत्य तुमने समझे हैं वह तुम्हारे हृदय में स्थान लेना शुरू कर देंगे। परमेश्वर तुम्हारे पास कौन सा सही दृष्टिकोण चाहता है, वह तुम्हारे पास क्या चाहता है, कौन से विचार रखना सही है और कौन से गलत हैं—इन चीजों को समझने की एक प्रक्रिया होती है जिसके लिए तुम्हें लगातार सत्य की खोज करनी होगी और उसमें गहराई तक उतरने की आवश्यकता होगी, और जब तुम वास्तव में सत्य समझ लोगे, तो तुम्हारा हृदय पूरी तरह से परिपूर्ण और आश्वस्त हो जाएगा। सत्य पर विश्वास करना और सत्य को स्वीकारना आसान नहीं है। सभी लोगों के पास सक्रिय विचार होते हैं, उन सभी के पास अपनी सोच, विचार और भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, और जब उनके पास करने के लिए कुछ नहीं होता वे हमेशा अध्ययन और विश्लेषण करेंगे कि परमेश्वर के वचन सही हैं या गलत। यदि वे किसी ऐसे व्यक्ति से मिलें जो सत्य समझता है और अपनी अनुभवजन्य गवाही साझा करता है, तो उन्हें कुछ लाभ और आध्यात्मिक शिक्षा मिलेगी; लेकिन यदि उनका सामना किसी ऐसे व्यक्ति से हो जो बेतुकी बातें करता हो और बेतुके दृष्टिकोण रखता हो, तो वे उनसे डगमगा जाएँगे। यह एक सामान्य अवस्था है। लेकिन पर्याप्त अनुभव होने के बाद एक दिन वे पूरी तरह से स्वीकारेंगे कि परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं और उन्हें एहसास होगा कि उनसे कहाँ गलती हुई। लेकिन क्या इसका एहसास होने का मतलब यह है कि वे सत्य को अभ्यास में लाने में सक्षम हैं? (नहीं, वे नहीं हैं।) वे अभी भी राज़ी नहीं हैं और मन ही मन सोचते हैं, “बस इस तरह स्वयं को मना कर दूँ?” वे अभी भी पड़ताल करना जारी रखना चाहते हैं, और चाहे वे अपने हृदय में कुछ भी सोचें, उनका विद्रोहीपन और भ्रष्ट स्वभाव हमेशा बना रहता है। उनके लिए सत्य स्वीकारना इतना आसान नहीं होता; वे इतनी सरलता से या सहजता से सीधे तौर पर इसे सत्य नहीं मान पाते। भले ही वे स्पष्ट रूप से जानते हों कि यह सत्य है, फिर भी वे इसे तुरंत और पूर्ण रूप से अभ्यास में नहीं ला पाते। यह इस तथ्य की पुष्टि करता है कि मनुष्य के अंदर भ्रष्ट स्वभाव और शैतानी सार होता है। परमेश्वर के कार्य और सत्य की अभिव्यक्ति का उद्देश्य मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करना, भ्रष्टता बाहर निकालना, उसका समाधान करना और धीरे-धीरे उसे शुद्ध करना है। व्यक्ति के दृष्टिकोण धीरे-धीरे परमेश्वर के अनुरूप हो जाएँगे, और वे जो करेंगे वह भी सत्य के अनुरूप हो जाएगा। तुम जिस भी पहलू में परमेश्वर के अनुरूप होते हो, उस पहलू में तुम उसे गलत नहीं समझोगे। परमेश्वर के बारे में तुम्हें जो भी गलतफहमियाँ हैं, तुम्हें उनका सत्य खोजना चाहिए, और उस गलतफ़हमी को दूर करने के लिए इस सत्य का इस्तेमाल करना चाहिए। तुम्हें हमेशा अपने दृष्टिकोण पर यह सोचकर नहीं अड़े रहना चाहिए कि तुम्हारी गलतफहमी ही सही और युक्तिसंगत है, इसे जहाँ कहीं भी लागू किया जाता है, यह कायम रहती है और समझ में आती है। यह हास्यास्पद है। लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं—उनका थोड़ा अहंकारी होना सामान्य बात है; लेकिन जब तक वे सत्य स्वीकारते हैं, वे बदल सकते हैं। लेकिन अगर वे बेतुके हैं और चीजों के बारे में गलत विचार रखते हैं तो यह खतरनाक है, और उनके लिए सत्य स्वीकारना आसान नहीं होगा, और वे अक्सर इसे गलत समझेंगे। ऐसे लोगों में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखने और परमेश्वर का विरोध करने की संभावना सर्वाधिक होती है; वे शैतान के किस्म के हैं। परमेश्वर को गलत समझने की बात करें तो यदि कोई सत्य की खोज नहीं करता तो वह सोचेगा कि परमेश्वर जो करता है वह गलत है। यदि वे हमेशा ऐसे ही परमेश्वर को “कटघरे में खड़ा करते” रहे, उससे प्रतिस्पर्धा करते रहे और लड़ते रहे, तो अंततः इसका परिणाम विफलता है, और वे पूरी तरह से अपमानित होंगे। सत्य और परमेश्वर सदैव विजयी होंगे। यदि तुम एक समर्पित हृदय बनाए रख सकते हो, और परमेश्वर के साथ अपने विवाद और लड़ाई में सत्य खोजते और स्वीकारते हो, केवल तभी तुम्हारे हृदय को बदला जा सकता है, और अंततः तुम्हें परमेश्वर के वचन के समक्ष समर्पण करना ही पड़ेगा। इस प्रक्रिया का अनुभव करना परमेश्वर द्वारा मनुष्य को बचाने और प्राप्त करने की प्रक्रिया है, और जो लोग सत्य स्वीकारने के बजाय मरना पसंद करेंगे, वे बेनकाब होंगे और निकाल दिए जाएँगे। यदि तुम सत्य स्वीकार सकते हो और परमेश्वर के सामने समर्पण कर सकते हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर को समर्पित है, उसके अनुरूप हो सकता है, और फिर कभी उसके खिलाफ विद्रोहीपन या उसका विरोध नहीं करेगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसी ने कितने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया है, जब तक वे सत्य स्वीकार सकते हैं और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने में सफल हो सकते हैं, वे सभी अंततः अपने जीवन स्वभाव में परिवर्तन ला सकते हैं। मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूँ। मान लो कि तुम वानस्पतिकी या कृषि-विज्ञान का अध्ययन करते हो और तुम फलों के पेड़ों के दस बीज बोते हो। तुमने जो सीखा है, उससे तुम जानते हो कि इन दस बीजों से दस वृक्ष उग सकते हैं। यह वैज्ञानिक आधार और सिद्धांतों पर आधारित निष्कर्ष है, और तुम इस निष्कर्ष पर अड़े रहते हो। इसलिए जब परमेश्वर कहता है कि दस बीजों से ग्यारह वृक्ष उग सकते हैं, तो तुम इस पर विश्वास नहीं करोगे : “क्या यह संभव है? दस बीजों से ग्यारह वृक्ष कैसे उग सकते हैं?” हकीकत में वहाँ एक बीज छिपा हुआ है जिसे तुमने नहीं देखा। अपने दृष्टिकोण पर अड़े रहने का तुम्हारा आधार क्या है? यह वह वैज्ञानिक प्रमाण और ज्ञान है जो तुमने सीखा है—ये चीजें तुम्हारी सोच पर हावी हैं और तुम उस दायरे से परे नहीं देख पाते। यदि तुम इसे अपना मानक मान लेते हो, तो तुम परमेश्वर के वचनों को अपना मानक नहीं मान रहे हो—और यह मनुष्य का विद्रोहीपन है। तुम सोचोगे, “मेरे पास एक आधार है, तो तुम कैसे कह सकते हो कि मेरा निष्कर्ष सत्य नहीं है? तुमने जो कहा वह निराधार है, तो तुम कैसे कह सकते हो कि तुम्हारे वचन सत्य हैं? वे पूरी तरह से आधारहीन हैं! कितने लोगों ने इसे सिद्ध किया? किसने इसे सिद्ध किया? किसने इसे देखा? तथ्य कहाँ हैं?” तथ्य देखने से पहले ही तुम परमेश्वर के वचन नकार देते हो, हमेशा उसके वचनों पर प्रश्न खड़े करते हो, हमेशा उसे नकारते हो, हमेशा महसूस करते हो, “परमेश्वर का कहा गलत है; मेरा निष्कर्ष ही सही है क्योंकि यह सिद्ध हो चुका है। मैं इस क्षेत्र का विद्वान हूँ, एक पेशेवर हूँ, इसलिए मेरे निष्कर्ष को ही सही माना जाना चाहिए।” तुम दस बीजों को दस वृक्ष उगाने के बराबर मानते हो, इसलिए जब परमेश्वर कहता है कि ग्यारह वृक्ष उगेंगे, तुम उस पर विश्वास नहीं करते हो। लेकिन अगर अंतिम परिणाम और तथ्य यह है कि ग्यारह वृक्ष उगते हैं, तो क्या तुम मान लोगे? (हाँ, मैं मान लूँगा।) क्या तुम पूरी तरह से आश्वस्त हो जाओगे? ऐसा कैसे? (क्योंकि मैंने तथ्य देखे हैं।) जब तुम तथ्य देखोगे, तो तुम अपने से अर्जित ज्ञान और निष्कर्ष को नकारना शुरू कर दोगे और संभवतः तुम्हारे हृदय में एक संघर्ष होगा : “मैं गलत कैसे हो सकता हूँ? क्या सचमुच में विज्ञान गलत हो सकता है?” इस प्रक्रिया में लोग अध्ययन और विश्लेषण करेंगे कि परमेश्वर के वचन सही हैं या गलत और उनकी तुलना करेंगे : “सही कौन है, परमेश्वर के वचन या वैज्ञानिक तर्क? किसके सही होने की संभावना ज्यादा है?” तथ्य वहीं पर हैं, फिर भी लोग उन्हें पूरी तरह स्वीकार नहीं पाते, और परमेश्वर ने जो किया है उससे पूरी तरह मान लेने और वास्तव में उसे स्वीकारने में उन्हें कई साल और लग जाएँगे। परमेश्वर बिना आधार के नहीं बोलता, न ही कार्य करता है; जब तक कि तुम यह नहीं देख लेते कि परिणाम क्या हैं तब तक उसके कार्यों की प्रक्रिया तुम्हें खुद अनुभव करने देती है। इस प्रक्रिया से तुम्हें क्या लाभ मिलता है? यह तुम्हें परमेश्वर के कार्यों का सच्चा स्वीकार करने देती है। परमेश्वर तुम्हें बिना आधार के यह कहने की अनुमति नहीं देता, “तुम परमेश्वर हो, तुम महान और कुलीन, बुद्धिमान और अद्भुत हो।” वह तुम्हें इस तरह से अपनी गवाही नहीं देने देता; इसके बजाय वह तुम्हें स्वयं अनुभव करने और देखने के लिए इन तथ्यों का इस्तेमाल करता है। परमेश्वर तुम्हें यह नहीं बताएगा कि यह गलत है कि दस बीजों से दस वृक्ष उगेंगे। वह तुम्हारी बात का खंडन या तुमसे बहस नहीं करेगा, बल्कि अपनी बात साबित करने के लिए तथ्यों का इस्तेमाल करेगा, और तुम्हें स्वयं इसे देखने देगा। हो सकता है कि परमेश्वर ने तुम्हें यह तब बताया हो जब तुम बीस वर्ष के थे, लेकिन उसने यह नहीं कहा कि “मैं सत्य हूँ, और तुम्हें मेरी बात माननी चाहिए।” परमेश्वर ने ऐसा कुछ नहीं कहा; उसने बस कार्य किया, और उसके परिणाम तुम्हें तब दिखे जब तुम तीस वर्ष के थे। इसमें इतना समय लग गया। क्या इस दौरान परमेश्वर ने तुमसे बहस की? (नहीं, उसने बहस नहीं की।) तो बहस कौन कर रहा था? लोग हैं जो परमेश्वर से बहस करते हैं और हमेशा सोचते हैं, “परमेश्वर गलत है। वह जो कहता है और करता है वह अवैज्ञानिक और अतार्किक है।” लोगों को परमेश्वर के साथ बहस करना अच्छा लगता है, लेकिन वह बस चुप रहता है और कार्य करता रहता है। दस साल बाद तुम्हें कोई तथ्य पता चलेगा और तुम डर जाओगे : “ओह, अब पता चला कि मेरा ही दृष्टिकोण गलत था!” जब तक तुम यह स्वीकारते हो कि तुम गलत थे, तब तक तो उस मामले का निष्कर्ष तैयार हो चुका होता है, लेकिन क्या तुम इसे स्वीकार पाते हो? तुम केवल एक परिघटना को स्वीकार रहे हो, लेकिन अपने हृदय में अभी भी सचमुच नहीं जानते कि हो क्या रहा है। तुम्हें और कितने वर्षों का अनुभव चाहिए? इससे पहले कि तुम इस बात की पुष्टि कर सको कि इस मामले में परमेश्वर ने जो किया उसका निष्कर्ष सही था, और परमेश्वर ही सत्य है और सही है, जबकि तुम गलत हो, इसे स्वयं अनुभव करने में एक दशक का समय और लग सकता है। जब तुम चालीस वर्ष के होगे तब तुम पूरी तरह मान लोगे, और कहोगे, “परमेश्वर ही सत्य है, वही वास्तव में परमेश्वर है, और वह जो करता है वह बहुत अद्भुत और वास्तविक है! परमेश्वर बहुत बुद्धिमान है!” तुम स्वयं को नकारते हो। देखो कितने वर्षों का अनुभव लगा? (बीस वर्ष का।) और इन बीस वर्षों में परमेश्वर ने क्या किया? उसने तुम्हें बताने के लिए सूत्रों का उपयोग नहीं किया, जैसा कि न्यूटन के नियम समझाने के लिए किया जाता है—उसने तुम्हें कुछ दिखाने के लिए तथ्यों का उपयोग किया, और उन्हें समझाने के लिए तुम्हारे आसपास हो रहे प्रकटन और परिघटनाओं के माध्यम से तुम्हें प्रबुद्ध किया और तुम्हारा मार्गदर्शन किया। तुम तीन या पाँच वर्षों के बाद थोड़ी समझ हासिल करोगे और कहोगे, “मैं गलत था, लेकिन क्या मैं पूरी तरह से गलत था?” ज्यादा अनुभव प्राप्त करो और परमेश्वर तुम्हारे सामने कुछ तथ्य प्रस्तुत करेगा, और एक और दशक के बाद जब तुम चालीस वर्ष के हो जाओगे तो तुम स्वीकारोगे कि तुम गलत थे। परमेश्वर ऐसे ही कार्य करता है, वह यही चीजें करता है। तुम किस प्रक्रिया के माध्यम से पहचान सकते हो कि तुम गलत हो, और परमेश्वर सही है? तथ्यों का सामना करने की प्रक्रिया से, और परमेश्वर से मिली प्रबुद्धता और उसके मार्गदर्शन से तुम्हें यह एहसास होगा। यह एक ऐसी ही प्रक्रिया है; परमेश्वर तुम्हें केवल निष्कर्ष पकड़ाकर बिना किसी आधार के उस पर विश्वास करने को नहीं कहता। यदि परमेश्वर ने तुम्हें इसे समझने के लिए बाध्य किया तो क्या यह ठीक होगा? यदि परमेश्वर तुम्हें इसे समझाने के लिए जबरन नियंत्रित करता है, तो तुम समझोगे, और तुम्हें वैसे भी पता चल ही जाएगा कि परमेश्वर सही था। लेकिन परमेश्वर का इरादा लोगों को रोबोट बनाना नहीं है। यह वह नहीं है जो वह चाहता है। वह चाहता है कि लोग सत्य समझें, अपना चयन खुद करें और उसके प्रति समर्पण करने में सक्षम हों। लेकिन इस परिणाम तक पहुँचने में समय लगता है।

क्या अब तक तुम लोगों ने अनुभव किया है कि परमेश्वर का कार्य व्यावहारिक है? (हाँ, मैं अनुभव कर चुका हूँ।) यह काफी व्यावहारिक है। परमेश्वर के कार्य की व्यावहारिकता मनुष्य के काल्पनिक, धुँधले विचारों के विपरीत है, इसलिए तुम्हें अपने अंदर की उन चीजों पर विचार करने की आवश्यकता है जो काल्पनिक हैं, या खाली और अव्यावहारिक हैं, या परमेश्वर के वचन में जिनका कोई आधार नहीं है। तुम्हारे लिए इन सबको नकारना ही उचित है। यह निश्चित तौर पर सही है और तुम्हें इस तरह से इसे अनुभव करना होगा। सभी चीजों के सृष्टिकर्ता परमेश्वर ने कितनी चीजें बनाई हैं? वह कितना बुद्धिमान होगा? तुम अगर सोचते हो तुम तीन या पाँच वर्षों में इसका पूरी तरह से अनुभव कर लोगे और थाह पा लोगे, तो यह असंभव है। जीवन भर के अनुभव के बाद भी तुम इसकी थाह नहीं ले पाओगे। इसलिए जब तुम परमेश्वर के वचनों का अनुभव करते हो तो तुम्हें व्यावहारिक होना चाहिए; विवरण से शुरू करके छोटी शुरूआत करो, और सत्य सिद्धांतों की तलाश करो। जब किसी ऐसी चीज का सामना हो जिसकी तुम थाह नहीं ले सकते, तो परमेश्वर के सामने खुद शांत रहना सीखो और चिंतित या अधीर हुए बिना सत्य तलाश करो। कोई परमेश्वर के सामने शांत कैसे रह सकता है? तुम्हारे हृदय को परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उसके साथ संगति करनी चाहिए और यदि तुम शांत नहीं हो सकते तो तुम परमेश्वर के वचनों को पढ़ सकते हो और उन पर विचार कर सकते हो या परमेश्वर के वचनों के भजन गा सकते हो। यह सब परमेश्वर के सामने शांत रहने के परिणाम तक पहुँचने में मदद करेगा। जब किसी व्यक्ति का हृदय परमेश्वर के पास लौटेगा तो वह शांत हो जाएगा; उसे ऐसा महसूस होगा कि बाहर काम करना या भागना व्यर्थ है, इससे कुछ हासिल नहीं होने वाला। जब तक वह परमेश्वर के सामने शांत है—चाहे उसके वचनों को पढ़ रहा हो, सत्य पर संगति कर रहा हो, या परमेश्वर की स्तुति के भजन गा रहा हो—तब तक उसकी आत्मा कुछ न कुछ जरूर हासिल करेगी और प्रबुद्ध होगी, और उनका हृदय पोषित और पूर्ण महसूस करेगा। धीरे-धीरे तुम परमेश्वर के कार्य को स्पष्ट रूप से देखोगे, उसके प्रति समर्पित होने में सक्षम होगे, और सत्य और जीवन प्राप्त करोगे। यदि लोग सत्य प्राप्त करना चाहते हैं, परमेश्वर को प्राप्त करना चाहते हैं, तो उन्हें बलिदान देना होगा, बहुत कष्ट सहना होगा, और कई वर्षों तक परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के लिए समय और ऊर्जा खर्च करनी होगी। केवल तभी वे सत्य और जीवन और परमेश्वर का संपूर्ण उद्धार प्राप्त कर सकते हैं।

11 अक्टूबर 2017

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परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 8) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 9) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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