सत्य का अनुसरण कैसे करें (1)
हमारी पिछली सभा में हमने किस विषय पर संगति की थी? (मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए।) संगति पूरी करने के बाद मैंने तुम सबको होमवर्क के तौर पर एक विषय दिया था—वह क्या था? (सत्य का अनुसरण कैसे करें।) क्या तुम सबने इस विषय पर चिंतन किया? (हे परमेश्वर, मैंने इस बारे में थोड़ा-बहुत चिंतन किया है। जब यह बात आती है कि सत्य का अनुसरण कैसे करना है तो इसका आशय प्रतिदिन हमारे सामने आने वाले लोगों, घटनाओं और चीजों में स्वयं की भ्रष्टताओं और भ्रष्ट स्वभावों के खुलासों की जाँच करना है और फिर इन मसलों को सुलझाने के लिए सत्य खोजना है। साथ ही, कर्तव्य-निर्वाह कुछ विशेष सिद्धांतों को स्पर्श करता है, इसलिए हमें विभिन्न कर्तव्य हाथ में लेते समय, इन सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने का तरीका समझने के लिए संगत सत्य खोजने चाहिए—यह एक और तरीका है जिससे सत्य के अनुसरण का अभ्यास किया जाता है।) तो एक बात हुई, रोजमर्रा के जीवन में सत्य खोजना, और दूसरी हुई, अपना कर्तव्य करते समय सत्य सिद्धांत खोजना। क्या इस अनुसरण के कोई दूसरे पहलू भी हैं? यह कोई कठिन विषय नहीं होना चाहिए, है न? क्या तुम सबने “सत्य का अनुसरण कैसे करें” विषय पर चिंतन किया है? तुमने चिंतन कैसे किया? इस विषय पर चिंतन करने में कुछ समय इस बारे में सोचने में बिताना चाहिए, और फिर कुछ समय उस चिंतन से प्राप्त ज्ञान का विवरण लिखने में लगाना चाहिए। यदि तुम इस पर सिर्फ सरसरी नजर डालकर इस बारे में थोड़ा-सा सोचते हो, मगर इसमें समय नहीं देते या मेहनत नहीं करते, या इस पर सावधानी से नहीं सोचते, तो यह चिंतन नहीं है। चिंतन का अर्थ है कि तुम उस विषय पर गंभीरता से सोचो, इस पर चिंतन करने का वास्तविक प्रयास करो, थोड़ा ठोस ज्ञान प्राप्त करो, तुम्हें प्रबुद्धता और प्रकाश प्राप्त हो, और तुम्हें कुछ ठोस फल मिलें—चिंतन से ये परिणाम प्राप्त होते हैं। अब बोलो, क्या तुम सबने इस विषय पर वास्तव में चिंतन किया था? तुममें से किसी ने भी इस पर वास्तव में चिंतन नहीं किया, है न? पिछली बार, मैंने तुम लोगों को एक होमवर्क दिया था, एक विषय, ताकि तुम लोग तैयारी करो, लेकिन तुममें से किसी ने भी उस विषय पर चिंतन नहीं किया, और तुमने उसे गंभीरता से नहीं लिया। क्या तुम आशा कर रहे थे कि मैं तुम्हें तैयार करके दे दूँगा और तुम्हें कुछ नहीं करना पड़ेगा? या तुमने सोचा, “यह विषय बहुत आसान है, इसमें कोई गहराई नहीं है। हम इसे पहले ही बूझ चुके हैं, इसलिए हमें चिंतन करने की जरूरत नहीं है—हम इसे पहले ही समझते हैं”? या बात ऐसी है कि तुम्हें सत्य के अनुसरण से जुड़े प्रश्नों और विषयों में रुचि नहीं है? आखिर समस्या क्या है? ऐसा तो नहीं हो सकता कि तुम कामों में बहुत ज्यादा व्यस्त हो, है ना? बोलो, वास्तव में क्या कारण है? (परमेश्वर के प्रश्न सुनने और आत्मचिंतन करने के बाद, मेरे विचार से मुख्य कारण यह है कि मैं सत्य से प्रेम नहीं करता। मैंने परमेश्वर के वचनों को गंभीरता से नहीं लिया, गंभीरता से सत्य पर चिंतन नहीं किया। मुझे यह भी आशा थी कि बिना मेरे प्रयास किए मुझे इसका उत्तर दे दिया जाएगा। मुझे आशा थी कि जब परमेश्वर इस पर संगति पूरी कर लेगा, तब मैं इसे समझने में सक्षम हो जाऊंगा। मैंने यह रवैया अपना रखा था।) क्या ज्यादातर लोग ऐसे होते हैं? ऐसा लगता है कि तुम लोगों को पकी-पकाई चीजें पाने की आदत है। सत्य की बात पर तुम लोग न तो गंभीरता से ध्यान देते हो, और न ही पूरी मेहनत करते हो। तुम लोगों को विशेष रूप से काम करना और आँखें बंद करके यहाँ-वहाँ दौड़ना पसंद है। तुम सिर्फ अपना समय जाया करते हो; सत्य के साथ अपने व्यवहार में तुम लापरवाह हो, और तुम उसे गंभीरता से नहीं लेते। यह है तुम सबकी सच्ची दशा।
सत्य का अनुसरण कैसे करें उन विषयों में से एक है, जिन पर परमेश्वर के घर में सबसे अधिक संगति होती है। ज्यादातर लोग सत्य का अनुसरण कैसे करें के बारे में कुछ धर्म-सिद्धांत समझते हैं, और वे उसके अभ्यास के कुछ मार्ग और तरीके जानते हैं। कुछ ऐसे लोग हैं जिन्होंने परमेश्वर में लंबे समय से विश्वास रखा है, जिन्हें कुछ वास्तविक अनुभव हैं, जिन्होंने विफलताओं और पतन का भी अनुभव किया है, और जो निराशा और कमजोरी की अवस्थाओं से भी गुजरे हैं। सत्य के अनुसरण की प्रक्रिया में, उन्होंने अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं, और उन्होंने कुछ अनुभव प्राप्त किए हैं और कुछ फल भी पाए हैं। स्वाभाविक है, उन्होंने बहुत-सी मुश्किलों और बाधाओं, और साथ ही अपने जीवन या परिवेश में विभिन्न वास्तविक समस्याओं का भी सामना किया है। संक्षेप में, ज्यादातर लोगों को सत्य के अनुसरण के बारे में किसी न किसी स्तर की प्रत्यक्ष समझ होती है, या तो सिर्फ इसके स्वरूप की या कुछ व्यावहारिक समस्याओं के जरिए, और उन्हें इसका थोड़ा धर्म-सैद्धांतिक ज्ञान भी होता है। एक बार जब लोग परमेश्वर में विश्वास रखने लगते हैं या सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलने लगते हैं, तो चाहे उन्होंने उस मार्ग पर सचमुच कोई कीमत चुकाई हो, या फिर सत्य के अनुसरण में अपने व्यवहार और तौर-तरीकों में थोड़ी ही मेहनत की हो, उनमें से लगभग सभी को इसकी थोड़ी-बहुत प्रत्यक्ष समझ अवश्य होती है। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, उनके लिए यह समझ सच्ची और अनमोल प्राप्तियाँ हैं, लेकिन जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनके पास न तो कोई अनुभव होता है और न ही कोई प्राप्ति। सारांश में, अधिकतर लोग सत्य का अनुसरण करते समय संकोच के साथ आगे बढ़ रहे हैं, और “प्रतीक्षा करो और देखो” का रवैया अपना रहे हैं, और साथ ही इसके अनुसरण से कैसा लगता है, इसका थोड़ा-सा अनुभव कर रहे हैं। ज्यादातर लोगों की सोच, विचारों या चेतना में, सत्य का अनुसरण एक सकारात्मक कार्य है और सर्वोच्च महत्व रखता है। वे इसे जीवन के एक लक्ष्य के रूप में मानते हैं, जिसका लोगों को अनुसरण करना चाहिए, और इससे भी बढ़कर, उस सही मार्ग के रूप में देखते हैं, जिसका उन्हें जीवन में अनुसरण करना चाहिए। सैद्धांतिक स्तर पर हो, या उनके वास्तविक अनुभवों और ज्ञान के आधार पर, अधिकांश लोग सत्य के अनुसरण को एक अच्छी और सबसे सकारात्मक बात मानते हैं। मानवजाति द्वारा अपनाया जाने वाला ऐसा कोई अनुसरण या मार्ग नहीं है, जिसकी तुलना सत्य के अनुसरण या इस अनुसरण के मार्ग से की जा सके। सत्य का अनुसरण ही एकमात्र सही मार्ग है, जिस पर मनुष्य को चलना चाहिए। मानवजाति के एक सदस्य के रूप में, सत्य का अनुसरण प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य होना चाहिए, और उन्हें इसे लोगों के चलने हेतु सही मार्ग के रूप में देखना चाहिए। तो, किसी व्यक्ति को सत्य का अनुसरण कैसे करना चाहिए? अभी-अभी तुम लोगों ने कुछ सरल, सैद्धांतिक विचार प्रस्तुत किए हैं, जिनसे अधिकतर लोग शायद सहमत होंगे। सभी लोग सोचते हैं कि इस किस्म के अनुसरण और अभ्यास सत्य के अनुसरण से संबंधित हैं। उनका मानना है कि सत्य के अनुसरण से विशेष रूप से संबंधित चीजें सिर्फ ये हैं : आत्मज्ञान पाना, पाप स्वीकार कर पश्चात्ताप करना, फिर परमेश्वर के वचनों में से अभ्यास करने के लिए सत्य सिद्धांत खोज निकालना, और आखिरकार, अपने रोजमर्रा के जीवन में उसके वचनों के अनुरूप जीना, और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना। सत्य का अनुसरण कैसे करें, इस बारे में ज्यादातर लोगों की आम समझ और बोध यही है। जिन तरीकों को तुम पहचान और समझ सकते हो, उनके अलावा मैंने सत्य का अनुसरण करने के अभ्यास के कुछ और विशेष मार्गों और तरीकों का सारांश तैयार किया है। आज हम सत्य का अनुसरण कैसे करें, पर और अधिक विस्तार से संगति करेंगे।
सत्य का अनुसरण करने के लिए अभ्यास के दो मार्ग : जाने देना और समर्पित करना
तुम लोगों द्वारा बताए गए कुछ तरीकों के अलावा, मैंने और अधिक विस्तार में जाकर सत्य का अनुसरण करने के दो और तरीकों को सार रूप में प्रस्तुत किया है। एक तरीका है “जाने देना।” क्या यह आसान है? (हाँ, आसान है।) यह न अस्पष्ट है न पेचीदा। इसे याद रखना और समझना भी आसान है। बेशक, इसके अभ्यास में थोड़ी कठिनाई हो सकती है। देखो, यह तरीका तुम्हारे द्वारा प्रस्तुत तरीकों से काफी आसान है। तुम्हारी बातें बस सिद्धांतों का पुलिंदा थीं। ये ऊँचे, गहरे लगते हैं, निस्संदेह उनका एक ठोस पक्ष भी है, लेकिन वे मेरे अभी बताए तरीकों से बहुत ज्यादा जटिल हैं। पहला तरीका है “जाने देना,” और दूसरा है “समर्पित करना।” बस सिर्फ ये दो तरीके, कुल मिलाकर चार शब्द। लोग इन्हें देखते ही समझ सकते हैं, और लोग इनके बारे में संगति किए बिना भी इनके अभ्यास का तरीका जानते हैं—इन्हें याद रखना भी आसान है। पहला तरीका क्या है? (जाने देना।) और दूसरा? (समर्पित करना।) देखा तुमने? क्या ये सरल नहीं हैं? (ये सरल हैं।) ये तुम्हारे बताए तरीकों से कहीं ज्यादा संक्षिप्त हैं। इसे क्या कहा जाता है? इसे सारगर्भित होना कहा जाता है। क्या थोड़े शब्दों का प्रयोग करने का अर्थ है कि कोई चीज अनिवार्यतः सारगर्भित है? (ऐसा नहीं है।) कोई चीज सारगर्भित है या नहीं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। अहम यह होता है कि मुख्य बात कही जा रही है या नहीं और क्या यह लोगों द्वारा अमल में लाए जाते समय कार्यात्मक होती है। इसके अलावा, यह देखना महत्वपूर्ण है कि इसके अभ्यास से कौन-से परिणाम प्राप्त होते हैं; क्या यह लोगों की व्यावहारिक कठिनाइयों को हल कर सकता है; क्या यह लोगों को सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलने में मदद करता है; क्या यह भ्रष्ट स्वभाव की समस्या को उसके स्रोत पर जाकर सुलझाने में सहायक है; और क्या इसका अभ्यास लोगों को परमेश्वर के समक्ष आने, उसके वचनों और सत्य को स्वीकार करने में मदद करता है, ताकि वे वे परिणाम और लक्ष्य प्राप्त कर सकें जो सत्य के अनुसरण से मिलने चाहिए। क्या यह सही है? (बिल्कुल।) तुम लोगों ने अभी “जाने देना” और “समर्पित करना” इन दो तरीकों को सुना और तुम इन्हें जानते हो। इन दो तरीकों और सत्य के अनुसरण के बीच क्या संबंध हैं? क्या ये तुम्हारे बताए तरीकों से जुड़े हुए हैं या उनसे टकराव में हैं? यह अब भी बहुत स्पष्ट नहीं है, है न? (हाँ, यह अभी भी बहुत स्पष्ट नहीं है।) सामान्य रूप से कहा जाए, तो सत्य का अनुसरण करने के वही दो विशेष तरीके हैं जिनकी मैंने अभी-अभी चर्चा की। इन दो तरीकों में, पहले तरीके : जाने देना की विशेष विषयवस्तु क्या है? जब तुम “जाने देना” शब्द सुनते हो, तो वह सबसे सरल और सीधी चीज क्या है जो तुम्हारे मन में कौंधती है? इस तरीके को कैसे अमल में लाया जा सकता है? इसके विशेष भाग और विषयवस्तु क्या हैं? (अपने भ्रष्ट स्वभाव को जाने देना।) अपने भ्रष्ट स्वभाव के अलावा और क्या? (धारणाएँ और कल्पनाएँ।) धारणाएँ और कल्पनाएँ, भावनाएँ, अपनी इच्छा और अपनी पसंद। इसके अलावा? (सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफे, जीवन को लेकर गलत मूल्य और नजरिये।) (व्यक्ति के इरादे और कामनाएं।) संक्षेप में, जब लोग उन चीजों के बारे में सोचने की कोशिश करते हैं, जिन्हें उन्हें जाने देना चाहिए, तो भ्रष्ट स्वभाव से जुड़े विविध व्यवहार के अलावा, वे उन चीजों के बारे में भी सोचते हैं, जिनसे मिलकर लोगों की सोच और विचार बनते हैं। तो, दो प्रमुख अंश हैं : एक भ्रष्ट स्वभावों से संबंधित है और दूसरा लोगों की सोच और विचारों से। इन दोनों के अलावा, तुम लोग और क्या सोच सकते हो? तुम सब उलझन में हो, है न? इसका कारण क्या है? कारण यह है कि जो चीजें फौरन तुम्हारे दिमाग में आती हैं, वे परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद से, रोजमर्रा जीवन की वे बातें हैं जिनसे तुम्हारा अक्सर सामना होता है और जिनके बारे में लोग अक्सर बात करते हैं। लेकिन जब उन समस्याओं की बात आती है, जिनका कोई जिक्र नहीं करता मगर जो लोगों में होती हैं, तुम सब उन्हें नहीं जानते, तुम उनसे अवगत नहीं हो, वे तुम्हारे मन में कभी आई ही नहीं, और तुमने उन्हें कभी भी चिंतन के लायक समस्या के रूप में नहीं देखा। इसी कारण से तुम उलझन में हो। मैं तुम लोगों से इसकी चर्चा इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि मैं चाहता हूँ कि तुम हमारी अगली संगति के मुद्दे के बारे में सोचो और सावधानी से विचार करो, ताकि तुम पर इसकी गहरी छाप पड़े।
सत्य का अनुसरण करने का पहला अभ्यास : जाने देना
I. विभिन्न नकारात्मक भावनाएँ जाने देना
अब सत्य का अनुसरण कैसे करना चाहिए, विषय से संबंधित दो मुख्य चीजों पर हम संगति करेंगे : पहला है जाने देना, और दूसरा समर्पित करना। आओ पहली चीज—जाने देना पर संगति से शुरू करें। यह सिर्फ भावनाओं, सांसारिक आचरण के फलसफों, स्वेच्छाचारिता, आशीष की कामना और ऐसी ही अन्य सामान्य व्याख्याओं को छोड़ देना नहीं है। ‘जाने देना’ का अभ्यास, जिस पर आज मैं संगति करूँगा, उसका एक अधिक विशिष्ट अर्थ भी है, और यह ज़रूरी है कि लोग इस पर आत्मचिंतन करें और इसे अपने रोज़मर्रा के जीवन में अमल में लाएँ। जाने देने को लेकर सबसे पहले किसका जिक्र होना चाहिए? सबसे पहली चीज जिसे लोगों को अपने सत्य के अनुसरण में जाने देना है, वे हैं विविध मानवीय भावनाएँ। जब मैं इन विविध भावनाओं का जिक्र करता हूँ तो तुम लोग क्या सोचते हो? इन भावनाओं में क्या शामिल हैं? (उग्र स्वभाव, मनमानी और नकारात्मकता।) क्या उग्र स्वभाव एक भावना है? (मैं भावनाओं का यह अर्थ समझता हूँ कि लोग अपना कर्तव्य निभाते समय जैसा महसूस करते हैं वैसा करते हैं। लोग अच्छा महसूस करने या न करने के आधार पर अलग-अलग रवैये अपनाते हैं।) क्या मैं इन्हीं भावनाओं की बात करता रहा हूँ? क्या भावनाओं को इस तरह समझाना चाहिए? (हे परमेश्वर, भावनाओं के बारे में मेरी समझ यह है कि इनमें ज्यादातर चिड़चिड़ापन, खीझ, आनंद, गुस्से, दुख, और उल्लास शामिल होते हैं।) यह एक उपयुक्त सामान्यीकरण है। तो लोग जो महसूस करते हैं, उसके अनुसार काम करने के बारे में अभी जो जिक्र किया गया था, क्या वह एक भावना है? (वह बस एक अभिव्यक्ति है।) यह भावना की अभिव्यक्ति का एक प्रकार है। बुरा लगना, चिड़चिड़ा और मायूस महसूस करना—ये सब भावना की अभिव्यक्तियाँ हैं, लेकिन ये भावना की परिभाषा हैं ही नहीं। तो लोगों को उस पहली चीज को जिसे सत्य के अनुसरण में उन्हें जाने देना चाहिए, अर्थात विविध भावनाओं को कैसे समझना चाहिए? जब लोग विविध भावनाओं को जाने देते हैं तो वे क्या जाने देते हैं? यह उन मनोदशाओं, विचारों, और भावनाओं को जाने देना है जो विभिन्न हालात और संदर्भों में, साथ ही विभिन्न लोगों, घटनाओं, और चीजों के साथ पैदा होती हैं। इनमें से कुछ भावनाएँ व्यक्ति की स्वेच्छा बन जाती हैं। और हालाँकि इनमें से कुछ व्यक्ति का हठ नहीं बनतीं, फिर भी ये उसके कार्य में उसके रवैये को प्रभावित कर सकती हैं। तो फिर इन भावनाओं में क्या शामिल हैं? उदाहरण के लिए, इनमें शामिल हैं उदासी, नफरत, गुस्सा, चिड़चिड़ापन, बेचैनी, साथ ही दमन, हीनभावना, और खुशी के आँसू रोना—इन सबको भावनाएँ माना जा सकता है। क्या ये भावनाओं की ठोस अभिव्यक्तियाँ हैं? (हाँ।) यह कहने के बाद, क्या तुम जानते हो कि भावना क्या है? क्या इन अभिव्यक्तियों का तुम्हारी बताई गई नकारात्मकता और उग्र स्वभाव से कोई लेना-देना है? (नहीं।) इनका कोई संबंध नहीं है। तो वे चीजें क्या हैं जिनका तुम सबने जिक्र किया? (भ्रष्ट स्वभाव।) वे भ्रष्ट स्वभावों की एक प्रकार की अभिव्यक्ति हैं। अभी मैंने जिन भावनाओं को सूचीबद्ध किया, दमन, उदासी, हीनभावना, इत्यादि, उनका भ्रष्ट स्वभावों से कोई लेना-देना है? (जिन भावनाओं का परमेश्वर ने अभी जिक्र किया, वे भ्रष्ट स्वभावों से असंबद्ध हैं, वे भ्रष्ट स्वभाव का हिस्सा नहीं हैं, या फिर वे अभी तक भ्रष्ट स्वभाव के स्तर तक नहीं पहुँची हैं।) तो फिर वे क्या हैं? वे हैं आनंद, गुस्से, दुख, और सामान्य मानवता का उल्लास, और वे लोगों के कुछ विशेष स्थितियों का सामना करने पर उठने वाली भावनाएँ हैं और उनके द्वारा दिखाई जाने वाली अभिव्यक्तियाँ हैं। इनमें से कुछ शायद भ्रष्ट स्वभाव से पैदा होती हैं, जबकि दूसरी अभी उस स्तर पर नहीं पहुँची हैं, और भ्रष्ट स्वभावों से उतनी अधिक जुड़ी हुई नहीं हैं, फिर भी ये चीजें लोगों की सोच में अवश्य मौजूद होती हैं। ऐसी परिस्थितियों में, लोग किसी भी स्थिति का सामना करें, या जो भी संदर्भ हो, ये भावनाएँ स्वाभाविक रूप से अक्सर कुछ हद तक उनकी परख और विचारों को प्रभावित करेंगी, और उस रुख और मार्ग को भी प्रभावित करेंगी, जिसे लोगों को अपनाना और जिस पर उन्हें चलना चाहिए। हमने अभी जिन विविध भावनाओं की बात की, ये ज्यादातर नकारात्मक-सी हैं। क्या ऐसी भी कुछ हैं जो थोड़ी तटस्थ हैं, न बहुत नकारात्मक, न सकारात्मक? नहीं, ऐसी एक भी भावना नहीं है जो थोड़ी सकारात्मक हो। मायूसी, उदासी, नफरत, गुस्सा, हीनभावना, चिड़चिड़ापन, बेचैनी और दमन—ये सभी बहुत नकारात्मक भावनाएँ हैं। क्या इनमें से कोई भी भावना लोगों को इस योग्य बना सकती है कि वे जीवन, मानव अस्तित्व, और जीवन में सामने आने वाली स्थितियों को सकारात्मक रूप से झेल सकें? क्या एक भी ऐसी नहीं है जो सकारात्मक हो? (नहीं।) ये सब अपेक्षाकृत नकारात्मक भावनाएँ हैं। तो कौन-सी भावनाएँ थोड़ी बेहतर हैं? लालायित होना और याद करना कैसा है? (वे थोड़े तटस्थ हैं।) हाँ, ये तटस्थ हो सकते हैं। और कौन-सी? स्मृतियाँ, लालायित होना और संजोना। हम जिन भावनाओं की बात कर रहे हैं, उनका संदर्भ किससे है? ये ऐसी चीजें हैं जो अक्सर इंसानी दिल और आत्मा की गहराई में छिपी होती हैं; ये अक्सर लोगों के दिलों और सोच पर हावी हो सकती हैं और लोगों की मनोदशाओं, और काम करने के प्रति उनके विचारों और रवैयों को प्रभावित कर सकती हैं। इसलिए ये भावनाएँ लोगों के असल जीवन में मिलें, या परमेश्वर में उनकी आस्था या सत्य के अनुसरण में, ये थोड़ा-बहुत लोगों के रोजमर्रा के जीवन में दखल देंगी या उसे प्रभावित करेंगी और अपने कर्तव्य के प्रति उनके रवैये पर असर डालेंगी। स्पष्ट है कि ये सत्य का अनुसरण करते समय लोगों की परख और उनके रुख पर भी असर डालेंगी, और विशेष रूप से ये काफी नकारात्मक भावनाएँ लोगों पर जबरदस्त प्रभाव डालेंगी। जब लोग स्मृतियाँ बना लेते हैं, उन्हें अपनी विविध भावनाओं का आभास होने लगता है, या उनमें एक जागरूकता आने लगती है जिससे वे घटनाओं और चीजों, माहौल, और दूसरे लोगों को पहचानने लगते हैं, तो उनकी विविध भावनाएँ धीरे-धीरे उठकर आकार लेने लगती हैं। एक बार जब ये आकार ले लेती हैं, तो जैसे-जैसे लोगों की उम्र बढ़ती है और वे अधिक सांसारिक मामलों का अनुभव करते हैं, ये भावनाएँ धीरे-धीरे उनके भीतर, उनके दिलों की गहराइयों में गहरे पैठने लगती हैं, और उनकी निजी मानवता की प्रभावी विशेषता बन जाती हैं। ये धीरे-धीरे उनके निजी व्यक्तित्व, उनके आनंद, गुस्से, दुख और उल्लास, उनकी रुचियों और साथ ही जीवन में उनके लक्ष्यों और दिशाओं इत्यादि को निर्देशित करने लगती हैं। इसीलिए, ये भावनाएँ प्रत्येक व्यक्ति के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि जब एक बार लोगों को अपने इर्द-गिर्द के माहौल की व्यक्तिपरक जागरूकता होने लगती है, तो ये भावनाएँ उनके आनंद, गुस्से, दुख, और उल्लास को प्रभावित करने लगती हैं, लोगों, घटनाओं और चीजों की उनकी परख और संज्ञान को, और उनके व्यक्तित्व को प्रभावित करने लगती हैं। जाहिर है, ये लोगों, घटनाओं और इर्द-गिर्द की चीजों का सामना करने को लेकर लोगों के रवैयों, और दृष्टिकोणों को भी प्रभावित करेंगी। ससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि ये नकारात्मक भावनाएँ न केवल लोगों के आचरण के तरीकों और उनके जीवन-जीने के सिद्धांतों को प्रभावित करती हैं, बल्कि उनके लक्ष्यों और स्व-आचरण की मूलभूत आधारशिला को भी प्रभावित करती हैं। शायद तुम लोगों को लगे कि मेरी यह बात समझना आसान नहीं है, और यह थोड़ी सैद्धांतिक या विचारात्मक है। मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूँ, फिर तुम लोग थोड़ा बेहतर समझ सकोगे।
क. हीनता का एहसास
कुछ लोग ऐसे होते हैं जो बचपन से ही मंदबुद्धि वाले, अल्पभाषी और साधारण रूप-रंग वाले होते हैं, इसलिए उनके परिवारों और समाज में अन्य लोग उनके बारे में कुछ नकारात्मक टिप्पणियाँ करते हैं। उदाहरण के लिए, लोग कहते हैं : “यह बच्चा उल्लू का पट्ठा है, वह चीजों पर धीमी प्रतिक्रिया करता है और वह एक अनाड़ी वक्ता है। देखो उस व्यक्ति की बच्ची को, उसकी मीठी बातें सचमुच लोगों को मोहित कर लेती हैं। जब यह बच्चा लोगों से मिलता है, तो उसे नहीं पता कि क्या कहना है या लोगों को कैसे प्रसन्न करना है, और जब वह कुछ गलत करता है, तो उसे नहीं पता कि कैसे समझाए या अपने आपको सही कैसे ठहराए। यह बच्चा मूर्ख है।” यह उसके माता-पिता कहते हैं और उसके रिश्तेदार, दोस्त और शिक्षक भी कहते हैं। यह परिवेश अप्रत्यक्ष रूप से ऐसे व्यक्तियों पर एक प्रकार का दबाव डालता है, जिससे वे अनजाने में एक विशेष प्रकार की मानसिकता विकसित कर लेते हैं। कैसी मानसिकता? उन्हें लगता है कि वे आकर्षक नहीं हैं और किसी को उनका रूप पसंद नहीं है, और वे अपनी पढ़ाई में अच्छे अंक नहीं लाते और धीमी प्रतिक्रिया करते हैं; वे हमेशा दूसरों को देखकर मुँह खोलकर बोलने में शर्मिंदगी महसूस करते हैं, और जब लोग उन्हें चीजें देते हैं, तो धन्यवाद कहने में भी बहुत शर्मिंदगी महसूस करते हैं। वे मन में सोचते हैं, “मैं ऐसा भद्दा वक्ता क्यों हूँ? अन्य लोग इतने वाक्पटु क्यों हैं? मैं निरा बेवकूफ हूँ!” अवचेतन रूप से वे सोचते हैं कि वे बेहद बेकार हैं, फिर भी यह स्वीकार करने को तैयार नहीं होते कि वे इतने बेकार हैं, इतने बेवकूफ हैं। मन-ही-मन वे खुद से अक्सर पूछते हैं, “क्या मैं इतना बेवकूफ हूँ? क्या मैं सचमुच इतना अप्रिय हूँ?” उनके माता-पिता उन्हें पसंद नहीं करते, न ही उनके भाई-बहन, न शिक्षक और सहपाठी। और वक्त-वक्त पर उनके परिवारजन, उनके रिश्तेदार और मित्र उनके बारे में कहते हैं, “वह नाटा है, उसकी आँखें और नाक छोटी हैं, ऐसे रंग-रूप के साथ बड़ा होकर कुछ खास नहीं कर पाएगा।” ऐसे परिवेश में, वे अपने हृदय में प्रारंभ में प्रतिरोध महसूस करने से लेकर धीरे-धीरे अपनी ही अपर्याप्तताओं और कमियों को स्वीकारने और मानने लगते हैं, लेकिन उसी समय उनके हृदय की गहराइयों में एक नकारात्मक भावना उत्पन्न होती है। इस भावना को क्या कहते हैं? हीनता। जो लोग हीन महसूस करते हैं, वे केवल अपनी कमियों को देखते हैं, अपनी खूबियों को नहीं; वे हमेशा महसूस करते हैं कि वे आकर्षक नहीं हैं और अप्रिय हैं, कि उनकी बुद्धि तेज नहीं है और उनकी प्रतिक्रियाएँ धीमी हैं और वे लोगों को समझ पाने में असमर्थ हैं। संक्षेप में, वे पूरी तरह से अपर्याप्त महसूस करते हैं। हीनता की यह मानसिकता धीरे-धीरे तुम्हारे हृदय के भीतर हावी होने लगती है, और यह एक अडिग भावना बन जाती है जो तुम्हारे हृदय को जकड़ लेती है। बड़े होकर जब तुम संसार में निकल जाते हो, या विवाह कर लेते हो और अपना करियर स्थापित कर चुके होते हो, तुम्हारी सामाजिक पहचान और रुतबा चाहे जो भी हो, यह हीनता की भावना, जो तुम्हारे बचपन से ही तुम्हारे पालन-पोषण में बोई गई थी, अब भी तुम्हें प्रभावित और नियंत्रित करती है, जिससे तुम महसूस करते हो कि तुम हर दृष्टि से अन्य लोगों से बदतर हो। यहाँ तक कि जब तुम परमेश्वर पर विश्वास करना शुरू कर देते हो और कलीसिया में प्रवेश करते हो, तब भी तुम सोचते हो कि तुम वाक्पटु नहीं हो, तुम्हारी काबिलियत खराब है और रूप-रंग सामान्य है और तुम कोई महत्वपूर्ण कर्तव्य नहीं कर सकते। तुम सोचते हो, “मैं बस वही करूँगा जो मैं कर सकता हूँ। मुझे अगुआ बनने का अनुसरण करने की जरूरत नहीं, मुझे गहन सत्यों की समझ पाने का अनुसरण करने की जरूरत नहीं, मैं तो बस सबसे मामूली व्यक्ति बनने को तैयार हूँ और अन्य लोग मुझसे जैसे चाहें वैसे व्यवहार कर सकते हैं।” जब नकली अगुआ या मसीह-विरोधी प्रकट होते हैं, तुम उन्हें उजागर करने की हिम्मत नहीं करते; तुम महसूस करते हो कि तुम्हारी काबिलियत खराब है और तुम उनके जितने अच्छे नहीं हो, और तुम उनका भेद पहचानने या उजागर करने में असमर्थ हो। तुम सोचते हो कि जब तक तुम स्वयं नकली अगुआ या मसीह-विरोधी नहीं हो और गड़बड़ी और बाधा पैदा नहीं करते, तो इतना काफी है। अपने हृदय की गहराइयों में, तुम महसूस करते हो कि तुम अच्छे नहीं हो और अन्य लोगों से तुलना नहीं कर सकते, कि शायद हर कोई उद्धार की वस्तु है और तुम अधिकतम एक सेवाकर्मी हो और इसलिए तुम सोचते हो कि सत्य का अनुसरण तुमसे परे है। तुम चाहे कितने ही सत्य समझ पाने में सक्षम हो, तुम फिर भी महसूस करते हो कि क्योंकि परमेश्वर ने यह पूर्वनियत किया है कि तुम्हारी काबिलियत उसी प्रकार की होगी जैसी की है और तुम वैसे ही दिखोगे जैसे कि तुम दिखते हो, तो शायद उसने यह पूर्वनियत किया है कि तुम महज एक सेवाकर्मी होगे और तुम्हारा सत्य का अनुसरण करने, बचाए जाने, या अगुआ या पर्यवेक्षक के रूप में सेवा करने से कोई लेना-देना नहीं है। और इसलिए, तुम सबसे मामूली सेवाकर्मी बने रहने से सब्र कर लेते हो। तुम शायद इस हीनता के भाव के साथ पैदा नहीं हुए थे, लेकिन एक अन्य स्तर पर, क्योंकि तुम्हारे परिवारिक परिवेश और पालन-पोषण ने तुम्हें कुछ आघात पहुँचाए या तुम्हें लेकर अनुचित निर्णय दे दिए, इसने तुम्हारे भीतर हीनता के भाव को उत्पन्न किया। यह भावना तुम्हारे सत्य के अनुसरण करने को प्रभावित करती है और सृजित प्राणी के कर्तव्य को निभाने को भी प्रभावित करती है और यह तुम्हारे उद्धार प्राप्त करने को भी प्रभावित करेगी। एक बार जब तुम्हारा सत्य का अनुसरण करने का संकल्प दब जाता है, तुम्हारे सत्य का अनुसरण करने और सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने के लिए प्रयास करने की प्रेरणा भी दब जाएगी। यह दमन तुम्हारे इर्द-गिर्द के माहौल या किसी व्यक्ति के कारण नहीं होता, और निस्संदेह परमेश्वर ने यह निर्धारित नहीं किया है कि तुम्हें यह सहना चाहिए, बल्कि यह तुम्हारे दिल की गहराई में जमी एक सशक्त नकारात्मक भावना के कारण होता है। क्या यही बात नहीं है? (यही है।)
सतह पर तो हीनभावना एक भावना है जो लोगों में अभिव्यक्त होती है; लेकिन दरअसल इसका मूल कारण शैतान की भ्रष्टता, लोगों के जीवन का परिवेश, और लोगों के अपने वस्तुनिष्ठ कारण हैं। पूरी मानवजाति उस बुरे की शक्ति के अधीन है, शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट की जा चुकी है, और कोई भी अगली पीढ़ी को सत्य के अनुसार, परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं सिखाता; इसके बजाय वे शैतान से आई चीजों के अनुसार सिखाते हैं। इसलिए, लोगों के स्वभाव और सार को भ्रष्ट करने के अलावा अगली पीढ़ी और मानवजाति को शैतान की चीजों की शिक्षा देने का परिणाम यह है कि इससे लोगों में नकारात्मक भावनाएँ पैदा होती हैं। यदि पैदा हुई नकारात्मक भावनाएँ अस्थाई हों, तो उनका व्यक्ति के जीवन पर अत्यधिक असर नहीं होगा। लेकिन यदि नकारात्मक भावना व्यक्ति के अंतरतम और अंतरात्मा में गहरे पैठ जाए और अमिट रूप से चिपक जाए, यदि वह इसे भुलाने या इससे मुक्त होने में पूरी तरह असमर्थ हो जाए, तो यह उसके हर फैसले, हर प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों से पेश आने के तरीके, सिद्धांत के प्रमुख मामलों से सामना होने पर विकल्प चुनने और जीवन में उसके द्वारा अपनाए जाने वाले मार्ग को अनिवार्य रूप से प्रभावित करेगी—यह है वह प्रभाव जो प्रत्येक व्यक्ति पर वास्तविक मानव समाज डालता है। दूसरा पहलू है लोगों के अपने वस्तुनिष्ठ कारण। यानी, बड़े होते समय लोगों द्वारा प्राप्त शिक्षा और सीख, उनकी हर सोच और विचार के साथ-साथ वे आचरण के जो तरीके स्वीकारते हैं, और साथ ही विभिन्न इंसानी कहावतें, सब-कुछ शैतान से ही आते हैं, इस हद तक कि लोगों का जिन मसलों से सामना होता है, उनको सही परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण से संभालने और दूर करने की क्षमता उनमें नहीं होती। इसलिए अनजाने में ही इस अप्रिय माहौल के प्रभाव में, और इससे उत्पीड़ित और नियंत्रित होते हुए मनुष्य सिवा इसके कुछ और नहीं कर सकता कि वह विभिन्न नकारात्मक भावनाएँ विकसित कर ले और इनका इस्तेमाल उन समस्याओं का प्रतिरोध करने की कोशिश में करे जिन्हें हल करने, बदलने या दूर करने कोई भी क्षमता उसमें नहीं है। उदाहरण के रूप में हीनभावना के भाव को ही लेते हैं। तुम्हारे माता-पिता, शिक्षकों, तुम्हारे बड़े-बुजुर्गों और तुम्हारे आसपास के दूसरे लोगों के पास तुम्हारी काबिलियत, मानवता और सत्यनिष्ठा का एक अवास्तविक आकलन होता है, और अंततः यह तुम्हारे साथ जो करता है वह है तुम पर हमला, तुम्हारा उत्पीड़न, तुम्हारा दम घोटना, तुम्हें जंजीर में जकड़ना और तुम्हें बाँधना। आखिर जब तुममें और अधिक प्रतिरोध करने की शक्ति नहीं होती है तो तुम्हारे पास एक ऐसा जीवन चुनने के सिवा कोई और विकल्प नहीं बचता कि तुम खामोशी से अपमान और निरादर स्वीकारते रहो, अपनी समझ के विरुद्ध जाकर खामोशी से इस प्रकार की अनुचित और अन्यायपूर्ण वास्तविकता को स्वीकारते रहो। जब तुम इस वास्तविकता को स्वीकार करते हो तो आखिरकार तुममें जो भावनाएँ पैदा होती हैं, वे सुखद, संतुष्टिप्रद, सकारात्मक या प्रगतिशील नहीं होतीं; तुम मानव जीवन के सटीक और सही लक्ष्यों का अनुसरण करना तो दूर रहा, तुम और अधिक अभिप्रेरणा और दिशा सहित भी नहीं जीते, बल्कि तुम्हारे भीतर एक गहन हीनभावना का भाव पैदा हो जाता है। जब तुममें यह भावना पैदा होती है तो तुम्हें लगता है कि तुम्हारे पास अब कोई रास्ता नहीं रहा। जब तुम्हारा सामना किसी ऐसे मसले से होता है जिस पर तुमसे दृष्टिकोण व्यक्त करने की अपेक्षा की जाती है तो तुम अपने अंतरतम में न जाने कितनी बार विचार करोगे कि तुम क्या कहना चाहते हो और कौन-सा दृष्टिकोण व्यक्त करना चाहते हो, फिर भी तुम इसे पुरजोर ढंग से कह डालने का साहस नहीं जुटा पाते हो। जब कोई ठीक वही दृष्टिकोण व्यक्त कर देता है जो तुम्हारा है तो तुम अपने भीतर इस बात की पुष्टि महसूस होने दोगे कि तुम दूसरे लोगों से बदतर नहीं हो। लेकिन जब वही स्थिति दोबारा आती है तो तुम अभी भी खुद से कहते हो, “मैं हल्केपन में नहीं बोल सकता, कुछ भी उतावलेपन में नहीं कर सकता या खुद को हँसी का पात्र नहीं बना सकता। मैं अच्छा नहीं हूँ, बेवकूफ हूँ, मूर्ख हूँ, जड़बुद्धि हूँ। मुझे सीखने की जरूरत है कि कैसे छुपकर रहूँ और बस सुनूँ, बोलूँ नहीं।” इससे हम देख सकते हैं कि हीनभावना का भाव पैदा होने के बिंदु से लेकर उसके व्यक्ति के अंतरतम में गहराई से पैठने तक क्या व्यक्ति को अपनी स्वतंत्र इच्छा और परमेश्वर के दिए वैध अधिकारों से वंचित नहीं किया गया है? (हाँ।) उसे इन चीजों से वंचित कर दिया गया है। उसे इन चीजों से वास्तव में किसने वंचित किया है? तुम निश्चित रूप से नहीं कह सकते, है न? तुममें से कोई भी निश्चित रूप से नहीं कह सकता। ऐसा इसलिए है क्योंकि इस पूरी प्रक्रिया में तुम पीड़ित ही नहीं उत्पीड़क भी हो—तुम दूसरे लोगों से पीड़ित हो और अपने से भी पीड़ित हो। ऐसा क्यों है? मैंने अभी-अभी कहा कि तुममें पैदा होने वाली हीनभावना का एक कारण तुम्हारे अपने वस्तुपरक कारणों से आता है। जब से तुम्हें स्वायत्तता का बोध होने लगा था, घटनाओं और चीजों के बारे में राय बनाने के तुम्हारे आधार का स्रोत शैतान की भ्रष्टता में था और तुममें ये दृष्टिकोण समाज और मानवजाति ने बिठाए हैं, ये तुम्हें परमेश्वर ने नहीं सिखाए हैं। इसलिए तुम्हारी हीनभावना का भाव चाहे जब और जिस संदर्भ में पैदा हुआ हो, तुम्हारी हीनभावना का भाव चाहे जिस हद तक विकसित हुआ हो, तुम असहाय ढंग से इस भाव से बंधे हुए और नियंत्रित हो, और तुम लोगों, घटनाओं और अपने आसपास की चीजों से पेश आने में इन तरीकों का इस्तेमाल करते हो जो तुममें शैतान ने बिठाए हैं। जब हीनभावना का भाव तुम्हारे दिल में गहराई बिठा दिया जाता है, तो इसका असर सिर्फ तुम्हारे ऊपर ही नहीं पड़ता, बल्कि यह लोगों और चीजों के प्रति तुम्हारे विचारों, और तुम्हारे स्व-आचरण और कार्यों पर भी हावी हो जाता है। तो जिन लोगों पर हीनभावना का भाव हावी होता है, वे लोगों और चीजों को कैसे देखते हैं? वे दूसरों को खुद से बेहतर मानते हैं, यहाँ तक कि मसीह-विरोधियों को भी खुद से बेहतर समझते हैं। उनका मानना है कि भले ही मसीह-विरोधियों का बुरा स्वभाव और नीच मानवता होती है, फिर भी वे अनुकरणीय हैं और सीखने के लिए आदर्श हैं। वे अपने आपसे यह भी कहते हैं, “यूँ तो मसीह-विरोधी बुरे स्वभावों और नीच मानवता वाले हैं, फिर भी वे गुणवान हैं और उनमें मुझसे बेहतर कार्य क्षमता है। वे शर्माए या दिल की धड़कन बढ़ाए बिना इतने सारे लोगों के सामने बोल सकते हैं, और पूरी सहजता और आत्मविश्वास के साथ अपने विचार व्यक्त करते हैं। उनमें सचमुच बहुत हिम्मत है। मेरे पास ऐसा साहस नहीं है।” ऐसा किस कारण से हुआ? यह कहना होगा कि इसका एक कारण यह है कि तुम्हारी हीनभावना के भाव ने लोगों के सार की तुम्हारी परख, और साथ ही दूसरे लोगों को देखने के तुम्हारे परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण को प्रभावित कर दिया है। क्या यही बात नहीं है? (यही है।) तो हीनभावना का भाव तुम्हारे स्व-आचरण को कैसे प्रभावित करता है? तुम कहते हो : “मैं पूरी तरह से मूर्ख पैदा हुआ था, बिना गुणों या खूबियों के, और मैं हर चीज सीखने में धीमा हूँ। इसको और उसको देखो : भले ही वह कभी-कभी गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा करता है, मनमानी और उतावलेपन से कार्य करता है, फिर भी वह कम-से-कम गुणवान और खूबियों वाला तो है।वे वाक्पटु हैं और जहाँ भी जाते हैं, वहाँ उनका अच्छा स्वागत होता है, लेकिन मैं बेकार हूँ, मैं सुवक्ता नहीं हूँ।” चाहे कुछ भी हो जाए, तुम सबसे पहले खुद पर यह निर्णय सुना देते हो कि तुम बेकार हो और खुद को बंद कर लेते हो। मामला चाहे जो भी हो, तुम पीछे हट जाते हो और पहल करने से बचते हो, यह डरते हुए कि तुमसे कुछ काम का बीड़ा लेने को कहा जाएगा। “मैं मूर्ख पैदा हुआ। चाहे मैं कहीं भी जाता हूँ, लोग मुझे नीची नजरों से देखते हैं। मुझे अलग दिखने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। मेरे पास जो थोड़ी-बहुत व्यावसायिक क्षमताएँ हैं, मुझे उन्हें नहीं दिखाना चाहिए। यदि कोई इस काम के लिए मेरा नाम सुझाता है, तो यह सिद्ध करता है कि मैं ठीक हूँ। लेकिन यदि कोई मेरा नाम नहीं सुझाता, तो मुझे पहल करके यह नहीं कहना चाहिए कि मैं यह काम ले सकता हूँ। मुझे अनायास वे बातें नहीं कहनी चाहिए जिन्हें लेकर मुझे आत्मविश्वास नहीं है—क्या होगा यदि मैं काम खराब कर दूँ? और यदि मेरी काट-छाँट की गई, तो मैं बहुत शर्मिंदा हो जाऊँगा! क्या वह एक भयानक अपमान नहीं होगा? मैं बिल्कुल उस प्रकार का व्यक्ति नहीं हो सकता।” देखो, क्या इसने तुम्हारे आचरण को प्रभावित नहीं किया है? एक सीमा तक, तुम्हारे रवैये का कारण हीनता के भाव का प्रभाव और नियंत्रण है। यह कहा जा सकता है कि यह हीनता के भाव द्वारा लाया गया परिणाम है।
इस हीनभावना के प्रभाव में विभिन्न किस्म के लोगों के प्रति तुम्हारे दृष्टिकोण पर कैसा असर पड़ता है, चाहे वे मानवता वाले लोग हों, मामूली मानवता वाले हों, बिना किसी मानवता के हों या बुराई की मानवता वाले हों? लोगों पर तुम्हारे कोई भी विचार सत्य या परमेश्वर के वचनों के अनुरूप नहीं होते, परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करना तो दूर की बात है। साथ-ही-साथ इस हीनभावना के प्रभाव में तुम सावधान, सतर्क और दबकर रहते हुए व्यवहार करने का विकल्प चुनते हो और ज्यादातर समय तुम निष्क्रिय और मायूस रहते हो। तुममें सक्रिय होने और आगे बढ़ने का कोई संकल्प या अभिप्रेरणा नहीं होती, और जब तुममें कुछ सकारात्मक और सक्रिय रुझान होता है, और तुम थोड़ा सा काम हाथ में लेना चाहते हो, तब तुम सोचते हो, “क्या मैं अहंकारी नहीं हो रहा हूँ? क्या मैं खुद को आगे नहीं बढ़ा रहा हूँ? क्या मैं अपनी शान नहीं दिखा रहा हूँ? क्या मैं दिखावा नहीं कर रहा हूँ? क्या यह मेरी रुतबे की कामना नहीं है?” तुम नहीं समझ सकते कि तुम्हारे क्रियाकलापों की असल प्रकृति वास्तव में क्या है। मानवता की न्यायसंगत जरूरतें, इच्छा, संकल्प और अभिलाषाएँ और साथ ही जो तुम हासिल कर सकते हो, जो उचित है और जो तुम्हें करना चाहिए, तुम इन पर बहुत बार सोचोगे और मन-ही-मन इन पर बहुत बार चिंतन करोगे। रात को नींद न आने पर तुम इस पर बार-बार चिंतन करोगे, “क्या मुझे यह कार्य हाथ में लेना चाहिए? ओह, लेकिन मैं उतना अच्छा नहीं हूँ, मुझमें इसे करने की हिम्मत नहीं है। मैं बेवकूफ और मंदबुद्धि हूँ। मुझमें वो गुण नहीं हैं जो उस व्यक्ति में हैं, न मुझमें काबिलियत है।” भोजन करते समय तुम सोचते हो, “ये लोग दिन में तीन बार आहार लेते हैं और अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाते हैं, उनके जीवन का मूल्य है। मैं दिन में तीन आहार तो लेता हूँ, मगर अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से नहीं निभाता, और मेरे जीवन का कोई मूल्य नहीं है। मैं परमेश्वर और अपने भाई-बहनों का ऋणी हूँ! मैं एक प्लेट भोजन का भी हकदार नहीं हूँ, न मुझे इसे खाना चाहिए।” जब कोई व्यक्ति बहुत कायर होता है तो वह बेकार होता है, वह कुछ भी हासिल करने में समर्थ नहीं होता। कायर लोगों के साथ चाहे जो भी हो जाए, जब किसी कठिनाई से उनका सामना होता है, वे पीछे हट जाते हैं। वे ऐसा क्यों करते हैं? एक तो यह उनकी हीनभावना के कारण होता है। चूँकि वे हीन महसूस करते हैं, इसलिए वे लोगों के सामने जाने की हिम्मत नहीं करते, वो दायित्व और जिम्मेदारियाँ भी नहीं उठा सकते जो उन्हें उठानी चाहिए, न ही वो काम अपने कंधों पर ले सकते हैं जो वे वास्तव में अपनी क्षमता और काबिलियत के दायरे में और अपनी मानवता के अनुभव के दायरे में संपन्न करने में सक्षम हैं। यह हीनभावना उनकी मानवता के हर पहलू को प्रभावित करती है, यह उनकी सत्यनिष्ठा को प्रभावित करती है और यकीनन यह उनके व्यक्तित्व को भी प्रभावित करती है। जब वे दूसरे लोगों के आसपास होते हैं, वे विरले ही अपने विचार व्यक्त करते हैं और तुम शायद ही कभी उन्हें अपने दृष्टिकोण या राय को स्पष्ट करते सुनते हो। जब उनका सामना किसी मसले से होता है तो वे बोलने की हिम्मत नहीं करते, बल्कि खुद को सिकोड़ लेते हैं और पीछे हट जाते हैं। थोड़े-से लोगों के बीच तो वे बैठने का साहस दिखाते हैं, लेकिन जब ज्यादा लोग होते हैं, तो वे अंधेरे कोने में दुबक जाते हैं, दूसरे लोगों के बीच आने की हिम्मत नहीं करते। जब कभी वे यह दिखाने के लिए कि उनकी सोच सही है, सकारात्मक और सक्रिय रूप से कुछ कहना और अपने विचार और राय व्यक्त करना चाहते हैं, तब उनमें ऐसा करने की भी हिम्मत नहीं होती। जब कभी उनके मन में ऐसे विचार आते हैं, उनकी हीनभावना एक ही बार में उफन पड़ती है, उन पर नियंत्रण कर उन्हें दबा देती है और कहती है, “कुछ मत कहो, तुम किसी काम के नहीं हो। अपने विचार व्यक्त मत करो, अपने तक ही रखो। अगर तुम सचमुच अपने दिल की कोई बात कहना चाहते हो, तो कंप्यूटर पर लिखकर उस बारे में खुद ही मनन करो। तुम्हें इस बारे में किसी और को जानने नहीं देना चाहिए। तुमने कुछ गलत कह दिया तो क्या होगा? यह बड़ी शर्मिंदगी की बात होगी!” यह आवाज तुमसे कहती रहती है, यह मत करो, वह मत करो, यह मत बोलो, वह मत बोलो, जिस वजह से तुम्हें अपनी हर बात निगलनी पड़ती है। जब तुम ऐसी कोई बात कहना चाहते हो जिस पर तुमने मन-ही-मन बहुत मनन किया है, तब तुम पीछे हट जाते हो, कहने की हिम्मत नहीं करते या कहने में शर्मिंदा महसूस करते हो, यह सोचते हो कि तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए, और अगर ऐसा कर देते हो, तो तुम्हें लगता है कि तुमने कोई नियम तोड़ा है या कानून का उल्लंघन किया है। और जब किसी दिन तुम सक्रिय होकर अपने विचार व्यक्त कर देते हो, तो भीतर गहराई में बेहद बेचैन और विचलित हो जाते हो। भले ही अत्यधिक बेचैनी की यह भावना धीरे-धीरे धूमिल हो जाती है, फिर भी तुम्हारी हीनभावना तुम्हारे उन विचारों, इरादों और योजनाओं का धीरे-धीरे गला घोंट देती है जो तुम अपने विचार व्यक्त करना चाहने, एक सामान्य व्यक्ति बनना चाहने और हर किसी की तरह बनना चाहने के लिए रखते हो। जो लोग तुम्हें नहीं समझते उन्हें लगता है कि तुम कम बोलने वाले, शांत, संकोची व्यक्तित्व वाले, भीड़ में अलग न दिखने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति हो। जब तुम बहुत-से दूसरे लोगों के सामने बोलते हो, तो तुम्हें शर्मिंदगी महसूस होती है, और तुम्हारा चेहरा लाल हो जाता है; तुम थोड़े अंतर्मुखी हो, वास्तव में सिर्फ तुम्हीं जानते हो कि तुम हीनभावना से ग्रस्त हो। तुम्हारा दिल हीनभावना से सराबोर है और यह भावना बड़े लंबे समय से रही है, यह कोई अस्थायी मनोदशा नहीं है। बल्कि यह तुम्हारी आत्मा के अंतरतम से तुम्हारे विचारों पर सख्ती से नियंत्रण करती है, यह तुम्हारे होंठों को कसकर बंद कर देती है, और इसलिए तुम चीजों को चाहे कितने ही सही ढंग से समझो या लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति तुम्हारे विचार और राय जो भी हों, तुम सिर्फ अपने मन में सोचने और चीजों पर चिंतन करते रहने की हिम्मत करते हो, तुम कभी भी जोर से बोलने की हिम्मत नहीं करते हो। चाहे दूसरे लोग तुम्हारी कही बातों का अनुमोदन कर सकते हों या तुम्हें दुरुस्त या तुम्हारी आलोचना कर सकते हों, तुम ऐसे परिणाम का सामना करने या उसे देखने की हिम्मत नहीं करोगे। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम्हारी हीनभावना तुम्हारे भीतर है, तुम्हें बता रही है, “यह मत करो, तुम इस लायक नहीं हो। तुममें ऐसी योग्यता नहीं है, तुममें ऐसी वास्तविकता नहीं है, तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए, तुम ऐसे बिल्कुल भी नहीं हो। अभी कुछ करो या सोचो मत। हीनभावना में जीकर ही तुम असल रहोगे। तुम इस योग्य नहीं हो कि सत्य का अनुसरण करो, या अपना दिल खोलकर जो मन में हो वह कहो और दूसरे लोगों की तरह बाकी सबसे जुड़ो। ऐसा इसलिए क्योंकि तुम किसी काम के नहीं हो, तुम उनके जितने अच्छे नहीं हो।” लोगों के दिमाग में उनकी सोच को यह हीनभावना निर्देशित करती है; सामान्य व्यक्ति को जो दायित्व निभाने चाहिए उन्हें निभाने से और जो सामान्य मानवता का जीवन उन्हें जीना चाहिए उसे जीने से यह रोकती है, साथ ही यह लोगों और चीजों के प्रति उनके दृष्टिकोण, उनके आचरण और कार्य के तरीकों और साधनों और दिशा और लक्ष्यों का निर्देशन भी करती है। भले ही उन्हें यकीन हो कि उन्हें एक ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए और एक ईमानदार व्यक्ति होना उन्हें अच्छा लगता है, फिर भी वे एक ईमानदार व्यक्ति होने के जीवन में प्रवेश करने के लिए कभी भी अपनी कथनी और करनी में ऐसा बनने की अपनी इच्छा व्यक्त करने की हिम्मत नहीं करते। अपनी हीनभावना के कारण वे एक ईमानदार व्यक्ति बनने की हिम्मत भी नहीं करते—उनमें बिल्कुल साहस नहीं होता। जब वे ईमानदारी से कोई बात कहते भी हैं, तो फौरन अपने आसपास के लोगों को देखते हैं, और सोचते हैं, “क्या कोई मेरे बारे में कोई राय बना रहा है? क्या वे सोचेंगे, ‘क्या तुम ईमानदार व्यक्ति बनने की कोशिश कर रहे हो? क्या तुम ईमानदार व्यक्ति बस इसलिए बनना नहीं चाहते कि तुम बचाए जा सको? क्या यह बस आशीष पाने की इच्छा नहीं है?’ अरे नहीं, मैं कुछ भी कहने का साहस नहीं करता। वे सब ईमानदारी से बोल सकते हैं, सिर्फ मैं ही हूँ जो नहीं बोल सकता। मैं उनकी तरह योग्य नहीं हूँ, मैं सबसे निचले पाएदान पर हूँ।” इन विशिष्ट अभिव्यक्तियों और खुलासों से हम देख सकते हैं कि जब एक बार यह एक नकारात्मक भावना—हीनभावना—प्रभाव डालने लगती है और लोगों के अंतरतम में जड़ें जमा लेती है तो जब तक वे सत्य का अनुसरण न करें, उनके लिए इसे निर्मूल करना और इसकी बाध्यता से निकलना बहुत कठिन होगा, वे अपने हर काम में इससे बाध्य होंगे। यूँ तो इस भावना को भ्रष्ट स्वभाव नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह पहले ही बहुत गंभीर नकारात्मक प्रभाव डाल चुकी है; यह उनकी मानवता को गंभीर नुकसान पहुँचाती है, उनकी विविध भावनाओं, और उनकी सामान्य मानवता की बातों और कार्यों पर बहुत नकारात्मक प्रभाव डालती है जिसके अत्यंत गंभीर परिणाम होते हैं। इसका गौण प्रभाव है उनके व्यक्तित्व, उनकी अभिरुचियों और उनकी महत्वाकांक्षाओं को प्रभावित करना; इसका प्रमुख प्रभाव है जीवन के उनके उद्देश्यों और दिशा को प्रभावित करना। इस हीनभावना को तुम चाहे इसके कारणों, इसकी प्रक्रिया और व्यक्ति पर होने वाले इसके परिणामों में से जिस भी पहलू से देख लो, क्या यह ऐसी चीज नहीं है जिसे लोगों को त्याग देना चाहिए? (हाँ।) कुछ लोग कहते हैं, “मुझे नहीं लगता कि मैं हीन हूँ और मैं किसी प्रकार की बाध्यता के अधीन नहीं हूँ। किसी ने भी मुझे उकसाया नहीं है, न नीचा दिखाया है, और न ही किसी ने मुझे दबाया है। मैं बड़ी आजादी के साथ जीता हूँ तो क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि मुझमें यह हीनभावना नहीं है?” क्या यह सही है? (नहीं, कभी-कभी हममें तब भी यह हीनभावना होती है।) तुममें कमोबेश यह अब भी हो सकती है। शायद यह तुम्हारे अंतरतम पर हावी न हो, लेकिन कुछ स्थितियों में यह पल भर में पैदा हो सकती है। उदाहरण के लिए, तुम जिसे आदर्श मानते हो, जो तुमसे बहुत अधिक प्रतिभाशाली हो, जिसमें तुमसे अधिक विशेष कौशल और गुण हों, जो तुमसे ज्यादा दबंग हो, तुमसे ज्यादा रोबदार हो, तुमसे ज्यादा बुराई वाला हो, तुमसे ज्यादा लंबा और तुमसे ज्यादा आकर्षक हो, जिसकी समाज में हैसियत हो, अमीर हो, तुमसे अधिक पढ़ा-लिखा, और रुतबे वाला हो, जो तुमसे बड़ा हो और जिसने तुमसे ज्यादा लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, जिसमें परमेश्वर की आस्था का ज्यादा अनुभव और वास्तविकता हो, ऐसा कोई व्यक्ति तुम्हारे सामने आ जाए तो तुम अपनी हीनभावना को सिर उठाने से नहीं रोक सकते। जब यह भावना पैदा होती है तो तुम्हारा “बड़ी आजादी के साथ जीना” गायब हो जाता है, तुम दब्बू हो जाते हो, घबराने लगते हो, तुम सोचने लगते हो कि अपनी बात कैसे कहूँ, तुम्हारे चेहरे के हावभाव अस्वाभाविक हो जाते हैं, तुम अपने शब्दों और चाल-ढाल में संकोची महसूस करते हो, और खुद को वैसा दिखाने की कोशिश करने लगते हो जैसे तुम नहीं हो। ये और दूसरी अभिव्यक्तियाँ तुममें हीनभावना पैदा होने के कारण होती हैं। बेशक, यह हीनभावना क्षणिक है और जब यह भावना पैदा होती है तो तुम्हें बस खुद को जाँचना है, विवेकशील होना है और इससे बाधित नहीं होना है।
ख. घृणा और क्रोध की भावनाएँ
वे विभिन्न भावनाएँ जिन्हें त्यागने की जरूरत है, जिन पर आज हम चर्चा कर रहे हैं, वे लोगों की आत्मा में गहराई से पैठी हुई हैं। इन चीजों का तुम पर पड़ने वाला प्रभाव अस्थायी नहीं होता, बल्कि उनका प्रभाव दूरगामी और गहन होता है। जब आधी रात को तुम सो न पाओ, जब तुम बिल्कुल अकेले हो, तब वे लोग, घटनाएँ और चीजें जिनके कारण तुममें नकारात्मक भावनाएँ पैदा हुईं और जो तुम्हारी स्मृति में गहरी जड़ें जमाई हुई हैं, वे थोड़ा-थोड़ा कर तुम्हारे मन की सतह पर आने लगती हैं। कोई शब्द, ध्वनि, यहाँ तक कि कोई श्राप, पिटाई, या दृश्य, कोई चीज, लोगों का समूह, या आरंभ से अंत तक कोई घटनाक्रम—तुम्हारी स्मृति में गहरे पैठे ये सभी लोग, घटनाएँ, और चीजें जिन्होंने तुम्हारे भीतर हर प्रकार की नकारात्मक भावनाएँ पैदा कीं, तुम्हारे दिमाग में एक फिल्म की तरह चलने लगती हैं। ये निरंतर बार-बार तब तक चलती रहती हैं, जब तक कि तुम अनजाने में ही अपनी आत्मा में गहरे पैठी इन नकारात्मक भावनाओं में, और उस पल में वापस नहीं चले जाते जिसने तुम्हारी भावनाओं, मानवता, व्यक्तित्व और भावी जीवन पर प्रभाव डाला। जब तुम बिल्कुल अकेले होते हो, जब तुम मुश्किलों से घिरे होते हो, जब तुम्हें कोई फैसला करना होता है और जब तुम मायूस होते हो तो तब तुम खुद को एक गोले की तरह सिमटने और हर किसी से बचने के सिवाय कुछ नहीं कर पाते, अपने अंतरतम की शरण में चले जाते हो, उस स्थिति, उस घटना और लोगों के उस समूह में चले जाते हो जो तुम्हारी पीड़ा का कारण बना है। हालाँकि इन लोगों, घटनाओं और चीजों ने तुम्हें आक्रांत महसूस कराया, तुम्हारा दिल दुखाया और तुम्हारे भीतर हर तरह की नकारात्मक भावनाएँ भर दीं, फिर भी जब तुम उदास और मायूस होते हो, जब तुम विफलता का सामना करते हो, यहाँ तक कि जब तुम्हारी काट-छाँट हो रही हो या तुम्हें भाई-बहनों ने ठुकरा दिया हो, तब तुम उस नकारात्मक भावना में लौटे बिना नहीं रह पाते जो तुम्हारे जीवन पर प्रभाव डालती है, चाहे वह उदासी, नफरत, क्रोध हो या हीनता हो। हालाँकि इन भावनाओं ने तुम्हें हर प्रकार की पीड़ा दी, या तुम्हें बेचैन किया, तुम्हें रुलाया या चिड़चिड़ा बनाया, फिर भी तुम उस पल महसूस की हुई नकारात्मक भावना में हमेशा वापस लौटने से खुद को नहीं रोक पाते। जब तुम उस पल में वापस लौटते हो, तो तुम पर उस नकारात्मक भावना का प्रभाव फिर एक बार तीव्र हो जाता है। जब यह नकारात्मक भावना तुम्हें प्रभावित करती है, तुम्हें याद दिलाती और बार-बार सतर्क करती है तो यह अदृश्य रूप से तुम्हारे परमेश्वर के वचन सुनने को और सत्य सिद्धांत समझने को भंग करती है। जब ये नकारात्मक भावनाएँ एक बार फिर तुम्हारे अंतरतम में उठती हैं, जब ये तुम्हारे विचारों पर हावी होती हैं तो सत्य में तुम्हारी रुचि कमजोर होती जाएगी, यहाँ तक कि यह वितृष्णा में बदलने लगेगी या हो सकता है कि प्रतिरोध की भावना पैदा होने लगे। अतीत में तुम्हें मिली पीड़ा और अनुचित व्यवहार के कारण हो सकता है कि तुम मानवजाति और समाज को अधिक बैर दृष्टि से देखने लगो, और जो कुछ हो चुका है, उसके साथ ही जो भविष्य में होने वाला है, उससे नफरत करो। ये भावनाएँ तुम्हारे दिल में निरंतर अभिव्यक्त होती हैं, और बारंबार तुम्हारी भावनाओं, दशा और हालत को प्रभावित करती हैं। वे कर्तव्य निर्वाह के समय की तुम्हारी भावना, साथ ही कर्तव्य-निर्वहन में तुम्हारे रवैये और दृष्टिकोण और सत्य का अनुसरण करने की तुम्हारी अभिप्रेरणा और संकल्प को भी बारंबार प्रभावित करती हैं। कभी-कभी तुमने अभी-अभी यह संकल्प लिया होता है कि तुम सत्य का अनुसरण करोगे और फिर कभी मायूस नहीं होओगे, कभी यह नहीं मानोगे कि तुम पर्याप्त रूप से अच्छे नहीं हो और कभी पीछे नहीं हटोगे; लेकिन जब कोई क्षणिक नकारात्मक भावना तुम्हारे दिल में उमड़ती है तो सत्य का अनुसरण करने की तुम्हारी अभिप्रेरणा पूरी तरह गायब हो सकती है, बिना कोई चिह्न छोड़े पल भर में मिट सकती है। जब ऐसी स्थिति में सत्य का अनुसरण करने की तुम्हारी अभिप्रेरणा बिना किसी चिह्न के गायब हो जाती है, तब तुम्हें लगता है कि सत्य का अनुसरण अरुचिकर है, और परमेश्वर में विश्वास रखने और बचाए जाने का तुम्हारे लिए कोई अर्थ नहीं रह जाता है। इस प्रकार की भावना और दशा के पैदा होने के कारण, तुम्हारे मन में परमेश्वर के वचनों को अमल में लाने और सत्य का अनुसरण करने का संकल्प या आकांक्षा होना तो दूर, फिर से परमेश्वर के समक्ष आने, और परमेश्वर के वचनों का प्रार्थना-पाठ करने या परमेश्वर के वचन सुनने की भी इच्छा नहीं होती। यह है वो जबरदस्त व्यवधान और प्रभाव, जो इन विभिन्न नकारात्मक भावनाओं का सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलने वाले लोगों पर पड़ता है। अधिक सटीक ढंग से कहें, तो ये लोगों को बाधित करती और हानि पहुँचाती हैं और समय-समय पर, जो थोड़ा-सा आत्मविश्वास तुमने अर्जित किया है, और स्व-आचरण के थोड़े-से सिद्धांत जो तुमने अभी-अभी समझे हैं, उन्हें वे तुमसे छीनकर शून्य में बदल देती हैं। पल भर में, ये तुम्हें अपने अंतरतम में परमेश्वर के अस्तित्व, उसके आशीष, उसकी संप्रभुता और तुम्हारे लिए उसके पोषण को समझ पाने में असमर्थ बना देती हैं, और उसी क्षण इनमें से कोई भी एक नकारात्मक भावना तुम्हारे अंदर भर जाती है। इन नकारात्मक भावनाओं के भर जाने पर, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें फौरन भीतर से काबू कर लेंगे। भ्रष्ट स्वभावों के नियंत्रण में आ जाने के बाद तुम तुरंत एक अलग व्यक्ति बन जाते हो, और अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों को एक अलग चेहरा दिखाते हो। पहले वाला तुम्हारा प्रेम, तुम्हारा धैर्य जा चुका होता है, कष्ट सहने, कीमत चुकाने, कठिनाइयाँ सहने और कड़ी मेहनत करने की शक्ति जा चुकी होती है, अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने के लिए एक समय का खाना न खाने और थोड़ा कम सोने की अभिप्रेरणा जा चुकी होती है, और इसका स्थान प्रत्येक व्यक्ति के प्रति शत्रुता ले लेती है। सबके प्रति शत्रुता की तुम्हारी इस भावना का पहला स्रोत क्या है? यह तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव से आती है, मगर साथ ही उन स्थितियों, लोगों, घटनाओं और चीजों से भी आती है जिनका तुमने अतीत में अनुभव किया है और जिन्होंने तुम्हारे भीतर नकारात्मक भावनाएँ पैदा की हैं। तुम कहते हो, “मैं दूसरों को बरदाश्त करता हूँ, मगर मुझे कौन बरदाश्त करता है? मैं दूसरों को समझता हूँ, पर मुझे कौन समझता है? मेरे माता-पिता और भाई-बहन भी मुझे नहीं समझते! दूसरे तमाम लोग गलतियाँ करते हैं, मैं भी तो कर सकता हूँ! दूसरे लोग काट-छाँट होने पर नकारात्मकता की भड़ास निकालते हैं, तो मैं क्यों नहीं? दूसरे लोग प्रभावशाली बनने और पद के लिए होड़ लगाते हैं, तो मैं क्यों नहीं? अगर तुम कर सकते हो, तो मैं भी कर सकता हूँ। दूसरे लोग धोखा देते हैं, और अपना कर्तव्य निभाते समय अपनी जिम्मेदारियों से जी चुराने की कोशिश करते हैं, तो मैं भी करूँगा। दूसरे लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो मैं भी नहीं करूँगा। दूसरे लोग सिद्धांतों के बिना कार्य करते हैं, तो मैं भी करूँगा। दूसरे लोग परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, तो मैं भी नहीं करूँगा। मैं उसी राह चलूँगा जिस पर सब चलते हैं। इसमें गलत क्या है?” यह किस प्रकार की अभिव्यक्ति है? हम इसे तुम्हारी सोच या जो स्वभाव तुम दर्शाते हो उसके आधार पर देखें, तो यह तुम्हारे पूरी तरह पलट जाने से कुछ कम नहीं है, मानो तुम कोई और ही इंसान बन गए हो। यहाँ क्या हो रहा है? इसका मूल कारण यह है कि तुम भीतर से बदल गए हो। तुम ऊपर से पहले जैसे दिख सकते हो, तुम्हारे रोजमर्रा के कामों में कोई बदलाव नहीं आया है, तुम्हारे बोलने का लहजा नहीं बदला है, तुम्हारा रंग-रूप नहीं बदला है, और कोई भी तुम्हें भटका नहीं रहा है, न पीछे से उकसा रहा है, तो फिर एकाएक भावनाओं का यह उफान क्यों? एक कारण यह है कि यह तुम्हारे दिल में गहरे पैठी नकारात्मक भावनाओं की वजह से हुआ है। जो व्यक्ति, अपने भीतर नफरत और गुस्से की नकारात्मक भावनाएँ बसाए हुए है, वह अच्छी दशा होने पर अक्सर परमेश्वर के समक्ष आकर प्रार्थना करेगा, परमेश्वर के वचन पढ़ेगा, और यह सुनिश्चित करेगा कि सत्य का अनुसरण करते समय और अपना कर्तव्य निभाते समय सब-कुछ सामान्य ढंग से हो। अगर किसी ऐसी चीज से उसका सामना हो जिसे वह पसंद नहीं करता, या काम या जीवन में उसके सामने कोई अवरोध, विफलता या शर्मिंदगी आती है, या उसकी नाक कट जाती है या उसके हितों को हानि होती है, तो उसके भीतर की नकारात्मक भावनाओं से उपजी नफरत और गुस्से के कारण वह गुस्से से पागल होकर उन्मत्त हो जाता है। शायद पहले उसने कुछ असामान्य घटनाओं का सामना किया था, जैसे कि अपने साथ दुर्व्यवहार होना, बुरे लोगों द्वारा यूँ ही पीटे जाना, उसकी संपत्ति को जब्त कर लिया जाना या बुरे लोगों द्वारा धौंसियाना या यहाँ तक कि अपमानित किया जाना; हो सकता है कुछ लोगों के ऐसे सहयोगी और वरिष्ठ रहे हों जिन्होंने काम में उनके लिए मुश्किलें खड़ी की हों, कुछ लोगों ने अपने कमजोर शैक्षणिक प्रदर्शन के कारण या घर के कमजोर हालात के कारण या अपने माता-पिता के किसान होने या समाज के निचले तबके से होने के कारण स्कूल में सहपाठियों और शिक्षकों से भेदभाव और अनुचित व्यवहार झेला हो, इत्यादि। जब कोई व्यक्ति समाज में हर प्रकार का अनुचित व्यवहार सहता है, उसके मानव अधिकार छीन लिए जाते हैं, या उसके हितों को हर लिया जाता है या उससे उनकी संपत्ति जब्त कर ली जाती है, तो उसके दिल की गहराई में स्वाभाविक रूप से नफरत के बीजों की बुआई हो जाती है, और स्वभावतः इस नफरत को वह समाज, मानवजाति और अपने परिवार, मित्रों और रिश्तेदारों के प्रति अपने नजरिये में भी ले आता है। जिन लोगों के दिलों में इस नफरत के बीज बोये होते हैं, उनके दृष्टिकोण पर इस नफरत का असर होता है और स्वाभाविक रूप से उनकी भावनाएँ भी इस रंग में रंग जाती हैं।
जब नफरत ने किसी व्यक्ति के दिल में गहरी जड़ें जमा ली हों, तो स्वाभाविक रूप से यह एक भावना बन जाती है, और जब कोई नफरत की इस भावना में जीता है, तो मानवजाति और किसी भी मामले के बारे में उसका परिप्रेक्ष्य उचित नहीं रह जाता। लोगों और चीजों के बारे में उसके विचार, अपने सामान्य रूप से बदलकर विकृत और विपरीत हो जाते हैं। वह किसी भी सामान्य और उचित व्यक्ति, घटना या चीज का सही बोध कर पाने में सक्षम नहीं रह जाता, और उनकी आलोचना और निंदा भी करता है। वह हमेशा अपनी शिकायतों और नफरत की भड़ास निकालने का मौका ढूँढ़ता है। उसे आशा होती है कि एक दिन उसके पास शक्ति होगी, प्रभाव होगा और वह इन सभी शिकायतों का समाधान कर सकेगा और उन लोगों से बदला ले सकेगा जिन्होंने अतीत में उसे धौंस दी है और उसे आहत किया है। वैसे फिलहाल उनके पास ये हासिल करने के कोई उपयुक्त साधन न होने के कारण इनमें से कुछ लोग आखिर परमेश्वर में विश्वास रखने लगेंगे। परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद वे सोचते हैं, “ओह, अब मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, अब मैं सिर उठाकर चल सकता हूँ। मैं अपने लिए परमेश्वर को चीजें तय करने दूँगा ताकि इन बुरे लोगों को इनकी करनी का उचित फल मिल सके। क्या बात है!” तो, अब परमेश्वर में विश्वास रखने के कारण वे नफरत और गुस्से को अपने भीतर गहराई में दबा देते हैं, खुद को खपाने में कड़ी मेहनत करते हैं, कीमत चुकाते हैं, कष्ट सहते हैं, परमेश्वर के घर में यहाँ-वहाँ दौड़-भागकर काम करते हैं, इस आशा में कि एक दिन उनकी मेहनत उनका भाग्य संवारेगी और चीजें पलट जाएँगी, और वह दिन आने पर जब वे कमजोर न रहकर शक्तिशाली बन जाएँगे, तो वे यह सुनिश्चित करेंगे कि जिन लोगों ने उन्हें डराया-धमकाया है, उनका तिरस्कार किया है, उन्हें दंड मिले। ये सब करने के पीछे उनका उद्देश्य है अपनी आँखों से उन लोगों को मिलनेवाला दंड और प्रतिकार देखना जिन्होंने उन्हें ऐसी अंतहीन पीड़ा दी और अपमान किया था। वे अपनी इस भावना को परमेश्वर में अपनी आस्था, कीमत चुकाने, और खुद को खपाने में भी ले जाते हैं। ऊपर से लगता है मानो वे कभी शिकायत नहीं करते, न ही उनकी कोई इच्छा या अपेक्षा है, जैसे वे पूरी लगन से परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने में जुटे हुए हैं, और जितने भी कष्ट सहने पड़ें, उनके लिए ज्यादा नहीं हैं। मगर वास्तविकता में, उनके दिल में गहरे पैठी नफरत और गुस्से की वे भावनाएँ अनसुलझी रह जाती हैं, और उन्होंने उन्हें जाने नहीं दिया है। जैसे ही उन्हें कोई अपनी राय देता है, उनके भ्रष्ट स्वभाव को उजागर करता है तो वे फौरन अवचेतन रूप में नफरत और गुस्से की अपनी भावनाओं में वापस लौट जाते हैं ताकि वे इस समस्या का सामना कर उसे सुलझा सकें। वे सोचते हैं, “क्या तुम मुझे नीचा दिखा रहे हो? क्या तुम मुझे निष्कपट समझकर धौंस देने की कोशिश कर रहे हो। बहुत सारे लोग मुझे धौंस देते हैं, मगर तुम जरा रुको और देखो उनका क्या हश्र होनेवाला है!” कोई जब इस तरह बोलता है कि वह निशाना बन जाता है तो यह उसे आहत कर सकता है, भले ही बात अनजाने में कही गई हो। लेकिन अगर वह व्यक्ति किसी दुखती रग पर हाथ रख देता है, तो नफरत और गुस्से की उनकी भावनाएँ सिर उठा लेती हैं, जिससे वे अनजाने ही सभी चीजों के बारे में नफरत करने की भावना में दुबक जाते हैं। स्पष्ट है कि इस दृष्टिकोण, इस भावना ने लोगों और चीजों के प्रति उनके परिप्रेक्ष्य और रवैये, और उनके आचरण और कार्य करने के तरीकों और साधनों को प्रभावित कर दिया है। चाहे कोई भी व्यक्ति उन्हें न्यायसंगत राय और सुझाव दे, वे हमेशा सोचते हैं, “यह मुझे नीची नजरों से देख रहा है और मुझे धौंस देना चाहता है। क्या उसे लगता है कि मुझे आसानी से धौंस दी जा सकती है?” वे स्थिति से निपटने के लिए इस दृष्टिकोण और काम के इस तरीके का प्रयोग करते हैं, और ऐसा करते समय नफरत और गुस्से की भावनाएँ उनके दिल में और गहरे पैठ जाती हैं। एक बार जब नफरत और गुस्से की भावनाएँ उनके अंतरतम में गहराई से बैठ जाती हैं, तो वे निरंतर बढ़ती रहती हैं और व्यक्ति हर प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों का सामना करने के लिए इनका प्रयोग करता रहता है, और ये उन्हें निरंतर याद दिलाती रहती हैं कि उन्हें सभी से नफरत करनी है, और कोई भी उनके साथ अच्छा नहीं है। भले ही पल भर के लिए वे मान लें कि कोई व्यक्ति उनके साथ अच्छा है, तो भी बहुत जल्द अनायास वे अवचेतन रूप से खुद से कहेंगे, “ऐसा मत सोच। सचमुच नेक सिर्फ परमेश्वर है, और कोई भी नहीं। सभी लोग तेरे दुर्भाग्य पर खुश होते हैं, और कोई तेरा भला नहीं सोचता। उन्हें लगता है तू निष्कपट है, इसीलिए वे तुझे धौंस देते हैं, और जब वे तुझे किसी काम में सफल होते देखते हैं तो बस तेरी खुशामद करते हैं और तेरा अनुग्रह पाने की कोशिश करते हैं। इसलिए किसी पर विश्वास मत कर, किसी को भी दयालुता से मत देख। तुझे दूसरे लोगों के प्रति सतर्क और शक्की होना चाहिए।” जब भी कोई उनसे कोई बात कहता है तो वे यह सोचकर उसका विश्लेषण करते हैं, “क्या वह मुझे निशाना तो नहीं बना रहा है? उसने ऐसा क्यों कहा? क्या वह मुझ पर हमला करना चाहता है और किसी चीज के लिए मुझसे बदला लेना चाहता है? क्या वह मुझे धौंस देना चाहता है?” संदेह, नफरत और गुस्से की ये भावनाएँ उसे बार-बार याद दिलाती हैं और हर प्रकार के लोगों, घटनाओं, और चीजों को देखने और उनसे निपटने के लिए अवचेतन रूप से इन भावनाओं का प्रयोग करवाती हैं, और फिर भी वह स्वयं अवगत नहीं होता कि ये सभी नकारात्मक भावना के प्रकार हैं। ये नकारात्मक भावनाएँ उसकी परख पर सख्त नियंत्रण करती हैं और उसकी सोच को कसकर बाँध लेती हैं, और ये किसी भी व्यक्ति, घटना या चीज को सही परिप्रेक्ष्य या दृष्टिकोण से देखने से रोकती हैं। जब व्यक्ति इन नकारात्मक भावनाओं के फेर में जीने लगता है, तो उनके नियंत्रण से बच पाना बहुत मुश्किल हो जाता है। इन नकारात्मक भावनाओं को त्यागने से पहले व्यक्ति अनजाने ही इनके अधीन जीता रहता है, उन्हीं के द्वारा लोगों, घटनाओं और चीजों को देखता है, और नकारात्मक भावनाओं से पैदा हुए गलत विचारों के नजरिये से लोगों, घटनाओं और चीजों को देखता है। अव्वल तो इससे अनिवार्य रूप से अति, संदेह, शक और गर्ममिजाजी पनपेगी और वह दूसरों को बैर-भाव से भी देखेगा और उन पर हमला भी करेगा। ये नकारात्मक भावनाएँ व्यक्ति के दिल के भीतर की सोच, उसके विचारों, और उसके प्रत्येक शब्द और कार्य को निर्देशित करती हैं। इसीलिए इन नकारात्मक भावनाओं में फँस जाने पर, यदि वह व्यक्ति सत्य का अनुसरण करनेवाला हुआ, तो ये नकारात्मक भावनाएँ उसके दिल में व्यवधान पैदा करती हैं और उसके दिलो-दिमाग पर असर डालती हैं, जिस कारण उसका सत्य पर अमल बहुत कम हो जाता है। इन नकारात्मक भावनाओं से होनेवाली मिलावट, व्यवधान और नुकसान के कारण जिस सत्य पर वह अमल कर पाता है वह सीमित हो जाता है, फिर जब किसी स्थिति से उसका सामना होता है तो वह हमेशा अपनी भावनाओं से प्रभावित हो जाता है। बेशक, इसका सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव यह है कि वह इन विभिन्न नकारात्मक भावनाओं के प्रभाव में आ जाता है, और इसलिए सत्य का अनुसरण करना उसके लिए थकाऊ हो जाता है। वह न तो सामान्य मानवता के जमीर और विवेक का उपयोग कर पाता है, न परमेश्वर द्वारा सृजित स्वतंत्र इच्छा और सहजप्रवृत्ति का, न ही उन सत्य सिद्धांतों का जिनका अभ्यास और पालन व्यक्ति को अपने आसपास के लोगों और चीजों से पेश आने में और उनके प्रति राय बनाने में करना चाहिए।
नकारात्मक भावनाएँ हल करने का मार्ग
जिन चीजों पर मैंने अब तक बात की है, उनके आधार पर तुम चाहे जैसे देखो, यह स्पष्ट है कि विभिन्न नकारात्मक भावनाएँ प्रत्येक व्यक्ति के मन को कमोबेश घेरे रहती हैं। उनके लोगों के मन में बैठे होने के कारण, सत्य पर अमल करते समय उन्हें थोड़ी मुश्किल तो होगी ही। इसीलिए, जब वे सत्य के अनुसरण की प्रक्रिया से गुजरते हैं, तब लोगों को निरंतर उन लोगों, घटनाओं और चीजों को जाने देना चाहिए, जो उनमें नकारात्मक भावनाएँ पैदा करती हैं। उदाहरण के लिए, हीनता की नकारात्मक भावना, जिसकी चर्चा हमने पहले की थी। तुममें हीनभावना का भाव किसी भी स्थिति के कारण, या किसी भी व्यक्ति या घटना के कारण पैदा हुआ हो, तुम्हें अपनी काबिलियत, खूबियों, प्रतिभाओं और अपने चरित्र की सही समझ होनी चाहिए। हीन महसूस करना सही नहीं है, न ही श्रेष्ठ महसूस करना सही है—ये दोनों ही नकारात्मक भावनाएँ हैं। हीनभावना तुम्हारे कार्यों, तुम्हारी सोच को बाँध सकती है, तुम्हारे विचारों और दृष्टिकोण को प्रभावित कर सकती है। इसी तरह, ऊँचे होने की भावना का भी यही नकारात्मक प्रभाव होता है। इसलिए, हीनता हो या कोई और नकारात्मक भावना, तुम्हें उन व्याख्याओं के प्रति सही समझ रखनी चाहिए जिनके कारण यह भावना पैदा होती है। अव्वल तो तुम्हें समझ लेना चाहिए कि ये व्याख्याएँ गलत हैं, और चाहे ये तुम्हारी काबिलियत, प्रतिभा या तुम्हारे चरित्र के बारे में हों, तुम्हारे बारे में किए गए उनके आकलन और निष्कर्ष हमेशा गलत होते हैं। तो फिर तुम स्वयं का सही आकलन कर स्वयं को कैसे जान सकते हो, और हीनभावना के भाव से कैसे दूर हो सकते हो? तुम्हें स्वयं के बारे में ज्ञान प्राप्त करने, अपनी मानवता, योग्यता, प्रतिभा और खूबियों के बारे में जानने के लिए परमेश्वर के वचनों को आधार बनाना चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हें गाना पसंद था और तुम अच्छा गाते थे, मगर कुछ लोग यह कहकर तुम्हारी आलोचना करते और तुम्हें नीचा दिखाते थे कि तुम तान-बधिर हो, और तुम्हारा गायन सुर में नहीं है, इसलिए अब तुम्हें लगने लगा है कि तुम अच्छा नहीं गा सकते और फिर तुम दूसरों के सामने गाने की हिम्मत नहीं करते। उन सांसारिक लोगों, उन भ्रमित लोगों और औसत दर्जे के लोगों ने तुम्हारे बारे में गलत आकलन कर तुम्हारी आलोचना की, इसलिए तुम्हारी मानवता को जो अधिकार मिलने चाहिए थे, उनका हनन किया गया और तुम्हारी प्रतिभा दबा दी गई। नतीजा यह हुआ कि तुम गाना गाने की हिम्मत नहीं करते, और सिर्फ तब ही खुलकर गाने और मन बहलाने की हिम्मत करते हो जब तुम अकेले होते हो। चूँकि तुम साधारण तौर पर बहुत अधिक दबा हुआ महसूस करते हो, इसलिए अकेले न होने पर गाना गाने की हिम्मत नहीं कर पाते; तुम अकेले होने पर ही गाने की हिम्मत कर पाते हो, उस समय का आनंद लेते हो जब तुम खुलकर साफ-साफ गा सकते हो, यह समय कितना अद्भुत और मुक्ति देनेवाला होता है! क्या ऐसा नहीं है? लोगों ने तुम्हें जो हानि पहुँचाई है, उस कारण से तुम नहीं जानते या साफ तौर पर नहीं देख सकते कि तुम वास्तव में क्या कर सकते हो, तुम किस काम में अच्छे हो, और किसमें अच्छे नहीं हो। ऐसी स्थिति में, तुम्हें सही आकलन करना चाहिए, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार खुद को सही मापना चाहिए। तुमने जो सीखा है और जिसमें तुम्हारी खूबियाँ हैं, उसे तय करना चाहिए, और जाकर वह काम करना चाहिए जो तुम कर सकते हो; वे काम जो तुम नहीं कर सकते, तुम्हारी जो कमियाँ और खामियाँ हैं, उनके बारे में आत्म-चिंतन कर उन्हें जानना चाहिए, और सही आकलन कर जानना चाहिए कि तुम्हारी योग्यता क्या है, यह अच्छी है या नहीं। अगर तुम अपनी समस्याओं को नहीं समझ सकते या उनका स्पष्ट ज्ञान नहीं पा सकते हो तो फिर अपने आसपास के उन लोगों से पूछो जिनमें तुम्हारा आकलन करने की समझ है। उनकी बातें सही हों या न हों, उनसे कम-से-कम तुम्हें एक संदर्भ मिल जाएगा जो तुम्हें इस योग्य बनाएगा कि स्वयं की बुनियादी परख या निरूपण कर सको। फिर तुम हीनभावना के नकारात्मक भाव की बुनियादी समस्या को सुलझा सकते हो और धीरे-धीरे इससे उबर सकते हो। हीनभावनाओं का भाव सुलझाना आसान है अगर कोई इसका भेद पहचान ले, इसके प्रति जागरूक हो जाए और सत्य खोजे।
जिन लोगों के साथ समाज में, उनके विविध व्यवसायों और विभिन्न परिवेशों में बराबरी का बर्ताव नहीं किया गया, बुरा व्यवहार और भेदभाव किया गया है, क्या उनमें पैदा होने वाली नफरत और गुस्से की भावनाओं को आसानी से दूर किया जा सकता है? (हाँ।) इन्हें कैसे दूर किया जाता है? (उन्हें चाहिए कि सभी लोगों, घटनाओं और चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार मानें, नफरत और गुस्से की इन नकारात्मक भावनाओं को जाने दें, और अतीत में जिन लोगों, घटनाओं और चीजों ने उन्हें आहत किया, उन्हें जाने दें।) “जाने देना” तो बस शब्द हैं—तुम कैसे जाने दोगे? उदाहरण के लिए एक महिला एक पुरुष को डेट करती है और आखिर वह पुरुष चालबाजी से उसके साथ शारीरिक संबंध बना लेता है और उसे धोखे से पैसे देने को मजबूर करता है; जब भी वह इस बारे में सोचती है, उसके मन में एकाएक गुस्सा उफनता है, और यह गुस्सा पैदा होने पर वह अपनी मुट्ठियाँ भींच लेती है और उसका अंतरतम नफरत से भर जाता है। वह उस आदमी के चेहरे, उसकी कही हर बात और उसके हर उस काम के बारे में सोचती है जिससे वह आहत हुई; वह इन चीजों के बारे में जितना सोचती है उतनी ही ज्यादा क्रोधित और आगबबूला हो जाती है, गुस्से की आग में जलने लगती है, और उसकी नफरत उतनी ही ज्यादा बढ़ जाती है। वह इस बारे में सोचती रहती है, अब अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहती, बेहद बुरा महसूस करती है, खुद से कहती रहती है कि आराम मत कर, बस दूसरे लोगों के साथ काम कर, बात करती रह, और रात को नींद न आए, तो सोने के लिए नींद की गोलियों का सहारा ले। वह अकेले रहने या मन को शांत रखने की हिम्मत नहीं कर पाती। जैसे ही वह खुद को अकेला पाती है, जैसे ही आराम करती है, वैसे ही उसमें यह नफरत उफनती है, वह बदला लेना चाहती है, जिसने उसका दिल दुखाया, उसे मार डालना चाहती है, और उसकी मौत जितनी दुखदाई हो उतनी ही बेहतर। जब किसी दिन वह वास्तव में यह खबर सुन लेती है कि उस आदमी की बहुत दुखदाई मौत हुई है, तभी वह अपनी नफरत और गुस्से की भावनाओं को जाने दे पाती है। इस बारे में सोचो : अगर वह सच में मर गया, उसे उसकी करतूतों का फल मिल गया और उसे दंडित कर दिया गया, फिर भी क्या तुम उस घटना को, जिसके कारण नफरत और गुस्सा पैदा हुआ और उस याद को जो तुम्हारे अंतरतम में कहीं गहरे दबी हुई है, मिटा सकते हो? क्या तुम सचमुच उस घटना की नफरत को जाने देने में समर्थ हो सकते हो? क्या वह सचमुच गायब हो सकती है? (नहीं।) तो, क्या तुम्हें आहत करनेवाले उस व्यक्ति का गायब हो जाना, दंड पाना, बेहद बुरी मौत मरना, प्रतिकार सहना या बुरे अंजाम तक पहुँचना, नफरत और गुस्से को खत्म करने का तरीका है? क्या यह नफरत और गुस्से को जाने देने का तरीका है? (नहीं।) और इसलिए कुछ लोग कहते हैं, “जब तुम पाते हो कि तुमने नफरत और गुस्से की ये भावनाएँ पाल रखी हैं, तो तुम्हें उन्हें जाने देना चाहिए।” क्या यह अभ्यास का मार्ग है? (नहीं।) तो जब कोई कहता है, “तुम्हें इन्हें जाने देना चाहिए,” तो यह क्या है? (यह धर्म-सिद्धांत है।) सही है, यह धर्म-सिद्धांत है, अभ्यास का मार्ग नहीं। मैंने तुम लोगों को अभी-अभी बताया कि हीनभावना को कैसे दूर किया जाए, और हीनभावना को जाने देने का यह एक तरीका है। क्या अब तुम लोगों के पास अभ्यास का मार्ग है? (हाँ।) तो तुम नफरत और गुस्से को कैसे जाने दे सकते हो? क्या उनके बारे में न सोचना अभ्यास का मार्ग है? (नहीं।) कुछ लोग कहते हैं कि इन्हें अपनी यादों से मिटा दो—क्या यह समस्या को सुलझाने का एक तरीका है? क्या इसका अर्थ यह होगा कि तुमने इन चीजों को जाने दिया है? (नहीं, यह अर्थ नहीं होगा।) सिर हिला देना, आँखें बंद कर लेना और किसी भी चीज के बारे में न सोचना, या खुद को व्यस्त रखना इस समस्या को सुलझाने का तरीका नहीं है, और यह इन नकारात्मक भावनाओं को जाने देने के अभ्यास का सही मार्ग नहीं है। तो फिर विशिष्ट रूप से अभ्यास का मार्ग क्या है? तुम इन चीजों को कैसे जाने दे सकते हो? तुम इस मामले को कैसे सुलझा सकते हो? क्या तुम लोगों के पास यह करने का कोई अच्छा तरीका है? इन चीजों को जाने देने के लिए तुम्हें उनका सामना करना चाहिए, उनसे छुपना या भागना नहीं चाहिए। क्या तुम्हें अकेले रहने से डर नहीं लगता? क्या तुम्हें इस घटना के याद आने का डर नहीं लगता? क्या तुम्हें डर नहीं लगता कि कोई तुम्हारा घाव फिर से कुरेद देगा? तो इसका सामना करो, और उन सभी लोगों, घटनाओं और चीजों को लो जिन्होंने अतीत में तुम्हें घाव दिए, तुममें नफरत और गुस्सा पैदा किया, और उन सभी लोगों को लो जिन्होंने तुम पर गहरी छाप छोड़ी और जिन्हें तुम याद कर सकते हो, और उन सबके बारे में लिखो, परमेश्वर के वचनों के अनुसार एक-एक कर उनकी मानवता का भेद पहचानो, उनके स्वभावों को जानो, उनके सार का गहन-विश्लेषण करो, उसे उजागर करो और जानो, और देखो कि वे लोग वास्तव में क्या हैं। तुम्हारा अंतिम निष्कर्ष—एकमात्र निष्कर्ष जो तुम निकाल सकते हो—यह होगा कि वे सभी लोग दुष्ट हैं, दानव हैं, इंसान नहीं! वे तुम्हें आहत करने, फँसाने या नुकसान पहुँचाने का कोई भी तरीका प्रयोग करते हों, उनका सार दानवों का है, इंसानों का नहीं, और वे बिल्कुल भी परमेश्वर द्वारा चुने हुए नहीं हैं। उन लोगों में से एक भी परमेश्वर के घर में आने योग्य नहीं है, जबकि तुम परमेश्वर के चुने हुए हो। अब तुम परमेश्वर के घर में धर्मसंदेश सुन सकते हो, उसके घर में अपना कर्तव्य निभा सकते हो, और तुम परमेश्वर के समक्ष आ सकते हो—यह परमेश्वर द्वारा तुम्हें ऊपर उठाना है, तुम्हारे प्रति दयालुता दिखाना है। दूसरी ओर, परमेश्वर ने कभी भी इन लोगों को इंसान के रूप में नहीं देखा है। इसलिए एक बार परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद, तुम्हें उन लोगों से दूरी बना लेनी चाहिए। अगर तुम अब भी उनके साथ जुड़े रहना चाहते हो तो तुम यकीनन उनसे जीत नहीं पाओगे, और वे तुम्हारा उत्पीड़न करेंगे और तुम्हें सताएँगे, तुमसे भेदभाव कर तुम्हें अपमानित करेंगे, नुकसान पहुँचाएँगे, और तुम्हारे साथ दुर्व्यवहार भी करेंगे। उनका हर काम वही दर्शाता है जो दानव करते हैं, और शैतान करता है। अगर तुम्हें उनके साथ जुड़ने और उनसे लड़ने में आनंद आता है, तो तुम भी इंसान नहीं हो। तुम भी उन जैसे हो, और उन जैसे ही काम करने में सक्षम हो। ऐसा इसलिए कि दानव न सिर्फ लोगों को फँसाते हैं, बल्कि एक-दूसरे को भी नुकसान पहुँचाते हैं—यह दानव की प्रकृति है। यह देखते हुए कि तुम परमेश्वर द्वारा चुने गए हो और एक ऐसे मनुष्य हो जिसे परमेश्वर ने बनाया है, दानव तुम्हें कैसे नहीं तंग करेंगे? वे तुम्हें नुकसान पहुँचाए बिना और फँसाए बिना कैसे रह सकते हैं? वे सभी को हानि पहुँचाते हैं। वे एक-दूसरे को नुकसान पहुँचाते हैं तो यह तो होगा ही कि वे लोगों को अकेले नहीं छोड़ेंगे! यह दर्शाता है कि यह दुनिया और मानवजाति दानवों की है और शैतान के कृत्यों से कूट-कूट कर पटी हुई है। एक नेक इंसान बनना बेहद मुश्किल है, और एक ऐसा साधारण इंसान बनना भी बेहद मुश्किल है, जो किसी से भी धौंस नहीं खाना चाहता। तुम बचने की कोशिश करोगे, तो भी बच नहीं सकते। दुनिया ऐसी ही है। जब से इतनी समझ आ जाती है कि व्यक्ति स्कूल जाना शुरू कर सके, तब से लेकर समाज में प्रवेश कर काम शुरू करने, और अंत में मृत्यु आने तक ऐसा कौन होगा जिसने कभी भी अपने जीवनकाल में धौंस न खाई हो, धोखा न खाया हो या सताया न गया हो? ऐसा बिल्कुल कोई भी नहीं है। तुम चाहे जितने भी कुशल या सक्षम क्यों न हो, हमेशा तुमसे ज्यादा सशक्त कोई ऐसा जरूर होगा जो तुम्हें धौंस देगा। लेकिन फर्क यह है कि सबके जीने के फलसफे अलग होते हैं। कुछ लोग विषमताओं के आगे घुटने टेककर सहन करते हैं, मगर, कुछ लोग अलग होते हैं। कई बार धोखा खाने और बरदाश्त के बाहर हो जाने की हद तक सताए जाने और अत्यंत गंभीर कष्ट सहने के अनुभव के बाद, उनमें नफरत और गुस्से जैसी भावनाएँ पैदा होती हैं, और वे मानवजाति और समाज दोनों से नफरत करने लगते हैं। एक बार जब तुम्हें नुकसान पहुँचाने वाले लोगों के सार और प्रकृति को तुम साफ तौर पर देख लेते हो, और यह समझ लेते हो कि उनका सार दानवों का है, तो जो नफरत और गुस्सा तुम महसूस करते हो, उसका निशाना अब लोग नहीं, बल्कि दानव होते हैं, तब क्या तुम्हारी नफरत थोड़ी कम नहीं हो जाती? (जरूर।) तुम्हारी नफरत थोड़ी कम हो जाती है। और इसके थोड़ा कम होने का क्या फायदा है? वो यह है कि जब तुम वैसी स्थिति का दोबारा सामना करोगे, तो फिर से भावुक नहीं होगे, और उस स्थिति को गर्म-मिजाज होकर नहीं देखोगे। इसके बजाय, तुम इसे सही ढंग से लोगे, परमेश्वर के वचनों और सत्य का प्रयोग कर इसका भेद पहचानोगे और इससे पेश आओगे, जो तुम्हें फिर से नुकसान पहुँचाएँगे उन्हें तुम मानवता के जमीर और विवेक के नजरिये से देखोगे और उनसे पेश आने के तरीके में तुम परमेश्वर द्वारा सिखाए गए मार्ग, परमेश्वर द्वारा सिखाए तरीके और सिद्धांतों का प्रयोग करोगे। जब तुम परमेश्वर द्वारा बताए गए तरीके का प्रयोग कर उनसे पेश आओगे, तो तुममें फिर से नफरत और गुस्सा पैदा नहीं होगा, बल्कि इसके बजाय तुम मानवजाति की भ्रष्टता और दानवों के चेहरे को जानोगे, और पुष्टि कर सत्यापित करोगे कि परमेश्वर के वचन अत्यंत गूढ़ और प्रगतिशील रूप से सत्य हैं। जब तुम ऐसे मामलों को देखने के लिए परमेश्वर के वचनों और उसके बताए और सिखाए तरीके का प्रयोग करोगे, तो फिर यह मामला न सिर्फ तुम्हें दोबारा नुकसान नहीं पहुँचाएगा, न सिर्फ यह तुम्हारी नफरत और गुस्से को गहराने नहीं देगा, बल्कि यह तुम्हारे अंतरतम की नफरत और गुस्से को धीरे-धीरे कम कर देगा, और जैसे-जैसे तुम्हें ऐसे मामले का बार-बार अनुभव होगा, तुम्हारा आध्यात्मिक कद बढ़ेगा, और तुम्हारा स्वभाव बदल जाएगा।
जहाँ तक उस पुरानी नफरत और गुस्से को जाने देने के तरीके का प्रश्न है जिसकी हम चर्चा करते रहे हैं, तो एक पहलू इन तथाकथित गैर-मानवों को स्पष्ट रूप से देखना है, स्पष्ट रूप से देखना है कि उनकी प्रकृति और सार राक्षसों और शैतान के हैं, उनका सार लोगों के लिए हानिकारक है, उनका सार दानव शैतान के समान है और इसका उद्गम भी वही है जो दानव शैतान और बड़े लाल अजगर का है, वे तुम्हें फँसाते हैं, तुम्हें नुकसान पहुँचाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे शैतान मानवजाति को भ्रष्ट करता है। एक बार यह बात समझ लेने पर क्या तुम कुछ हद तक अपनी नफरत और गुस्से की भावनाओं को जाने नहीं देते? (बिल्कुल।) कुछ लोग कहते हैं, “इन चीजों को समझ लेना ही काफी नहीं है। कभी-कभी मैं बस इस बारे में सोचकर ही दुखी हो जाता हूँ!” दुखी होने पर तुम्हें क्या करना चाहिए। क्या तुम बिल्कुल बिना किसी दुख के रह सकते हो? दाग हमेशा अपनी निशानी छोड़ देते हैं, लेकिन जरूरी नहीं कि ऐसी निशानियाँ होना बुरी बात है। समाज में अन्याय की ये परिघटनाएँ, और तुममें नफरत और गुस्सा पैदा करनेवाले ये लोग, घटनाएँ और चीजें ही तुम्हें समाज के अन्याय और मानवजाति के द्वेष, क्रूरता और बुराई का आभास होने देती हैं, और जो तुम्हें संसार के अन्याय और सूनेपन का आभास करवाती हैं, जिसके कारण तुममें प्रकाश की लालसा और उद्धारकर्ता द्वारा तुम्हें इन सब कष्टों से बचाने की ललक जागती है। तो, क्या इस आकांक्षा का कोई संदर्भ है? (हाँ।) क्या यह आकांक्षा आसानी से जाग जाती है? (नहीं।) अगर मानवजाति के बीच या समाज में तुम्हें कभी नुकसान नहीं पहुँचाया गया, तो तुम सोचोगे कि इर्द-गिर्द बहुत-से नेक लोग हैं। अगर तुम बाहर जाओ, लड़खड़ा कर गिर जाओ, और कोई तुम्हारी मदद को आ जाए, या तुम खरीदारी करने जाओ और पैसे कम पड़ जाएँ तो तुम्हारे पास खड़ा व्यक्ति तुम्हारी मदद कर दे, या तुम्हारा बटुआ खो जाए और कोई उसे ढूंढ़कर तुम्हें लौटा दे, तो तुम सोचोगे कि इर्द-गिर्द बहुत-से अच्छे लोग हैं। ऐसी मनःस्थिति में और समाज के बारे में अपनी ऐसी समझ के साथ, तुम परमेश्वर द्वारा मानवजाति के उद्धार या परमेश्वर द्वारा उद्धार का कार्य करने की आवश्यकता के प्रति कितनी समझ रखोगे? उद्धारकर्ता के आने और दुख के महासागर से तुम्हें बचाने की तुम्हारी आकांक्षा कितनी प्रबल होगी? तुम्हारी चाह बहुत बलवती नहीं होगी, है न? यह बस एक कामना-जैसी होगी, एक किस्म की कपोल-कल्पना। कोई व्यक्ति दुनिया में जितनी ज्यादा तकलीफें और दुख सहता है, हर तरह का अनुचित व्यवहार झेलता है, या दूसरे शब्दों में कहें, तो कोई व्यक्ति समाज में और लोगों के बीच जितने लंबे समय तक जिया है, जिसमें मानवजाति और समाज के प्रति भयंकर नफरत और गुस्सा पैदा हो चुका है, उतना ही अधिक वह चाहेगा कि परमेश्वर जितनी जल्दी हो सके इस बुरे युग का अंत कर दे, जितनी जल्दी हो सके इस दुष्ट मानवजाति को नष्ट कर दे, जितनी जल्दी हो सके उन्हें दुख के महासागर से बचा ले, दुष्ट लोगों से बदला ले और नेक लोगों की रक्षा करे—क्या ऐसा नहीं है? (ऐसा ही है।) तो अब, इस मुकाम पर, तुम सोचने लगते हो, “ओह, मुझे सचमुच उन दानवों का धन्यवाद करना चाहिए। मुझसे अनुचित व्यवहार और भेदभाव करने, मेरा अपमान और दमन करने के लिए मुझे उनका धन्यवाद करना चाहिए। उनकी बुरी करतूतों और मुझे पहुँचाए नुकसान ने ही मुझे परमेश्वर के समक्ष आने पर मजबूर किया है, इन्हीं के कारण मैं अब संसार या इन लोगों के बीच जीवन की चाहत नहीं रखता हूँ, और अब परमेश्वर के घर में आने, परमेश्वर के समक्ष आने, अपनी इच्छा से परमेश्वर के लिए खपने, अपना पूरा जीवन समर्पित करने, सार्थक जीवन जीने, और दुष्ट लोगों से संबंध न रखने को तैयार हो गया हूँ। वरना, मैं अभी भी बस उन जैसा ही रहता, सांसारिक प्रवृत्तियों के पीछे भागता, शोहरत, लाभ, बढ़िया जीवन, देह-सुख और एक अद्भुत भविष्य के पीछे भागता। अब मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, इसलिए अब उस टेढ़े-मेढ़े मार्ग पर चलने की कोई जरूरत नहीं है। अब मैं उन लोगों को बैर-भाव से नहीं देखता। मैं स्पष्ट रूप से देखता हूँ कि वे हमेशा से कौन थे। वे सेवा करने के लिए हैं और परमेश्वर के कार्य के लिए विषमता हैं। उनके बिना मैं यह देख नहीं पाता कि इस संसार और मानवजाति का सार वास्तव में क्या है, और अब भी सोचता रहता कि यह संसार और यह मानवजाति बहुत अधिक अद्भुत हैं। अब चूँकि मैंने ये कष्ट झेल लिए हैं, मैं इस संसार से या किसी महान व्यक्ति के हाथों में अपनी इच्छाएँ और आशाएँ नहीं रखूँगा। इसके बजाय, मैं परमेश्वर के राज्य के आने, और परमेश्वर की निष्पक्षता और धार्मिकता के सत्ता हाथ में लेने की आशा करता हूँ।” इस प्रकार चिंतन करके, क्या नफरत और गुस्से की तुम्हारी भावनाएँ धीरे-धीरे कम नहीं हो जातीं? (कम हो जाती हैं।) वे कम हो जाती हैं। और क्या तुम्हारे दिल में लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति तुम्हारे परिप्रेक्ष्य और विचारों में बदलाव नहीं आया है? क्या इसका तात्पर्य यह नहीं है कि भविष्य में तुम जिस मार्ग पर चलोगे, और तुम्हारे चुनाव, तुम्हारे उद्देश्य धीरे-धीरे बदल रहे हैं, और तुम धीरे-धीरे सही लक्ष्यों और दिशा का अनुसरण करने की ओर बढ़ रहे हो? (बिल्कुल।) तुम अतीत की उन बातों के बारे में सोचते हो जिनसे तुम्हारा दिल टूटा, और जिनके कारण तुम संसार से नफरत करने लगे, और एक बार जब तुम उनके अर्थ और सार को स्पष्ट रूप से समझ लेते हो, तो तुम्हारा हृदय परमेश्वर के प्रति आभार से ओतप्रोत हो जाता है। जब तुम आभार से सराबोर हो जाते हो, तब क्या तुम स्वयं को इसके आनंद में नहीं डुबो लेते? तब क्या तुम नहीं सोचते, “जो अविश्वासी परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, वे अभी भी शैतान, दानवों के राजा से गुमराह हो रहे हैं, नुकसान उठा रहे हैं और निगले जा रहे हैं। यह कितना दयनीय है! यदि मैंने परमेश्वर में विश्वास नहीं रखा होता, और परमेश्वर के समक्ष नहीं आया होता, तो मैं उन जैसा ही रहता, संसार के पीछे चलता, शोहरत, लाभ, और रुतबा हासिल करने के पीछे भागता रहता, बहुत-से कष्ट सहता रहता, और रास्ता बदलने की बात मन में कभी आती ही नहीं। मैं उन पापों में डूबा रहता जिनसे बच निकलना असंभव है—कितने दुख की बात होती! अब चूँकि मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, इसलिए सत्य समझता हूँ, और इस बात की असलियत देख सकता हूँ। लोगों को जिस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए वह सत्य के अनुसरण का है—यह सर्वाधिक मूल्यवान है, सबसे सार्थक है। अब चूँकि परमेश्वर ने मुझे ऐसी दया दिखाई है कि मुझे अब कभी उस पीड़ा से नहीं गुजरना होगा तो मैं यह संकल्प लूँगा कि अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करूँ, उसके वचन सुनूँ, उसके वचनों के अनुसार जियूँ, और पहले की तरह न जियूँ, जब मैं मनुष्य की तरह बिल्कुल नहीं जी रहा था।” देख रहे हो न, यह अच्छी इच्छा जाग चुकी है, है न? क्या लोगों की सोच और जागृति में सही लक्ष्यों और जीवन दिशा ने धीरे-धीरे आकार नहीं ले लिया है? और क्या वे अब जीवन में सही मार्ग पर कदम रखने में समर्थ नहीं हो गए हैं? (हो गए हैं।) तो, इन सकारात्मक भावनाओं और इच्छाओं के पैदा हो जाने पर भी क्या उन नकारात्मक भावनाओं के बारे में सोचना जरूरी है? थोड़ी देर तक उनके बारे में अच्छे से सोचने, या उन्हें समझने तक बारंबार उनके बारे में सोचने के बाद, जब ये मामले तुम्हें परेशान नहीं करते, या उस मार्ग को नियंत्रित नहीं करते जिस पर तुम चलते हो, तो अनजाने ही, तुम नफरत और गुस्से की इन भावनाओं को जाने देते हो, वे अब तुम्हारे दिल पर हावी नहीं होतीं, और समय के साथ तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या को दूर कर लेते हो। क्या तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने की बात सत्य के अनुसरण से जुड़ी हुई है? (हाँ।) और क्या इसका अर्थ यह है कि तुम जीवन में सही मार्ग पर कदम रख चुके हो? सही मार्ग पर चल पड़ना कठिन नहीं है; पहले तो तुम्हें संसार, अपनी मानवता, और मानवजाति के बारे में अपने उन विविध विचारों को जाने देना होगा, जो तथ्यों के अनुरूप नहीं हैं। तुम उन विचारों को स्पष्टता से कैसे देख सकते हो जो तथ्यों के अनुरूप नहीं हैं? उन्हें कैसे सुलझा सकते हो? जो विचार तथ्यों के अनुरूप नहीं हैं, वे तुम्हारे दिल की भावनाओं के भीतर छिपे होते हैं, और तुम्हारी मानवता की परख और सोच को, और साथ ही तुम्हारे व्यक्तित्व, तुम्हारी वाणी और कार्यों, और अनिवार्य रूप से तुम्हारे जमीर और विवेक को ये भावनाएँ निर्देशित करती हैं। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण रूप से, वे जीवन में तुम्हारे उद्देश्यों और तुम्हारे चलने के मार्ग को निर्देशित और प्रभावित करते हैं। इसलिए, सभी नकारात्मक भावनाओं को जाने दो, और उन सभी भावनाओं को जाने दो, जो तुम्हें नियंत्रित करती हैं—यह पहला चरण है जिसका तुम्हें सत्य के अनुसरण में अभ्यास करना चाहिए। पहले विभिन्न नकारात्मक भावनाओं का मसला सुलझाओ, जैसे-जैसे देखो, सुलझाते जाओ, कोई मुसीबत पीछे न छोड़ो। इन मसलों के सुलझ जाने पर, तुम जंजीरों में जकड़े नहीं रहोगे, सत्य के अनुसरण में तुम नकारात्मक भावनाओं को ढोते नहीं रहोगे, और जब तुम भ्रष्ट स्वभाव दर्शाओगे, तो सत्य खोज कर उसे दूर कर पाओगे। क्या इसे हासिल करना आसान है? यह दरअसल उतना आसान नहीं है।
इन नकारात्मक भावनाओं पर मेरी संगति और विश्लेषण के दौरान क्या तुम लोग मेरी बातों को खुद पर लागू करते रहे हो? कुछ लोग कहते हैं, “मैं छोटा हूँ, मुझे जीवन का अधिक अनुभव नहीं है। मैं रुकावटों, विफलताओं या सदमों से होकर कभी नहीं गुजरा हूँ। क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि मुझमें कोई नकारात्मक भावनाएँ नहीं हैं?” ये सभी में होती हैं; सभी लोगों का अनेक कठिनाइयों से सामना होता है जिनके कारण उनमें नकारात्मक भावनाएँ पैदा होने की संभावना होती हैं। उदाहरण के लिए, इस युग में समाज की बुरी प्रवृत्तियों की पृष्ठभूमि के कारण, बहुत-से बच्चे केवल माँ या केवल पिता के घर में बड़े हो रहे हैं, कुछ माँ के प्रेम से वंचित, और कुछ पिता के प्रेम से। यदि कोई माता या पिता के प्रेम से वंचित होता है, तो माना जा सकता है कि उसे किसी चीज की कमी है। किसी भी उम्र में तुम अपनी माता या अपने पिता का प्रेम खो दो, सामान्य मानवता के परिप्रेक्ष्य में यह कमोबेश तुम्हें प्रभावित करेगा। कुछ लोग खुद को सबसे अलग कर लेंगे, कुछ हीन महसूस करेंगे, कुछ चिड़चिड़े हो जाएँगे, कुछ बेचैन और असुरक्षित महसूस करेंगे, और कुछ लोग विपरीत लिंग से भेदभाव कर उनसे दूर रहेंगे। किसी भी स्थिति में, जो लोग इस खास परिवेश में बड़े होते हैं, उनकी सामान्य मानवता में कमोबेश कुछ असामान्यताएँ विकसित होती हैं। आधुनिक बोलचाल में, वे थोड़े विकृत हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, जो लड़कियाँ पिता के प्रेम के बिना बड़ी होती हैं, वे पुरुषों के मामले में थोड़ी कम अनुभवी होती हैं। उन्हें छोटी आयु से ही अपनी खुद की बुनियादी जरूरतों का ख्याल रखना सीखना पड़ता है, और अपनी माँ की तरह, परिवार की आर्थिक जरूरतों और दूसरे कामों का भारी बोझ भी उठाना पड़ता है, इससे वे अनजाने ही चीजों की फिक्र और देखभाल करना, और अपनी, अपनी माँ और अपने परिवार की रक्षा करना जल्दी ही सीख लेती हैं। वे खुद की सुरक्षा को लेकर बहुत जागरूक होती हैं, और उनमें हीनभावना भी गहरे जड़ें जमाए होती है। इस खास परिवेश में बड़े होने पर, वे अनजाने ही अपने अंतरतम में गैर-इरादतन महसूस करती हैं मानो उनमें कोई कमी है, और इस भावना ने अतीत में उनके फैसले या निर्णयों को चाहे कभी भी गंभीरता से प्रभावित किया हो या न किया हो, फिर भी यह भावना उनमें होती है। संक्षेप में, एक बार व्यक्ति पूरा बड़ा हो जाए, तो उसके विचारों को निर्देशित करनेवाली ऐसी कुछ नकारात्मक भावनाएँ होंगी जो लंबे समय से मौजूद रही हैं और उनके मौजूद होने का हमेशा कोई कारण होगा। उदाहरण के लिए, यदि कुछ लड़के पिता के बिना, सिर्फ अकेली माता वाले घर में बड़े होते हैं, तो वे छोटी उम्र से ही अपनी माँ के साथ रोजमर्रा के घरेलू कामकाज सँभालना सीख लेते हैं, और उनके व्यक्तित्व थोड़े से माँ-सदृश हो जाते हैं। उन्हें लड़कियों की देखभाल करने में आनंद आता है, वे लड़कियों से सहानुभूति रखते हैं, उनके प्रति समावेशी महसूस करते हैं, उनकी रक्षा करना उन्हें अच्छा लगता है, और वे पुरुषों के प्रति अपेक्षाकृत पूर्वाग्रही होते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं जिनमें भीतर गहराई से पुरुषों के प्रति अरुचि और विरक्ति होती है, और यह मानकर कि सारे पुरुष लापरवाह और गैरजिम्मेदार होते हैं, सही और उचित काम नहीं करते, वे उनके साथ भेदभाव करते हैं। निस्संदेह, इन लोगों में कुछ ऐसे भी होते हैं, जो काफी सामान्य होते हैं। हालाँकि, यह अपरिहार्य है कि कुछ लोग ऐसे भी हों जिनमें पुरुषों या स्त्रियों के बारे में कुछ खास, अवास्तविक, और अनुपयुक्त विचार हों, और इन सबकी मानवता में कुछ न कुछ कमियाँ या खामियाँ होती हैं। यदि किसी को पता चल जाए कि तुममें ऐसी कोई समस्या है, और वे तुम्हारा ध्यान इस ओर खींचें, या आत्म-परीक्षा से तुम्हें स्वयं पता चले और तुम जान लो कि तुम्हारे अंदर ऐसी गंभीर नकारात्मक भावना है, और यह लोगों और चीजों के प्रति तुम्हारे दृष्टिकोण, तुम्हारे आचरण और कार्य के तरीके को लेकर तुम्हारे चुनावों और अभ्यास को पहले ही प्रभावित कर रही हैं, तो तुम्हें आत्मचिंतन कर स्वयं को जानना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में इस नकारात्मक भावना को पहचान कर उसे दूर करना चाहिए, इस नकारात्मक भावना के बंधनों, नियंत्रण और प्रभाव को दूर करने का प्रयास करना चाहिए, अपनी मानवता के सुख, गुस्से, दुख, उल्लास, सोच, परख, जमीर और समझ को विकृत होने, उग्र रूप धरने या हद पार करने से रोकना चाहिए। इसके अलावा और कुछ? एक बार जब तुम इन चीजों को होने से रोकने का प्रयास कर चुके होगे, तो तुम परमेश्वर द्वारा मनुष्य को प्रदत्त सामान्य मानवता के सहज-ज्ञान और स्वतंत्र इच्छा के साथ सामान्य मानवता के जमीर और समझ वाला सामान्य जीवन जीने में सक्षम हो जाओगे। यानी, तुम अपने विचारों, सहज-ज्ञान, स्वतंत्र इच्छा, फैसले की क्षमता और अपने जमीर और समझ को परमेश्वर द्वारा निर्धारित सामान्य मानवता के दायरे में रखने का प्रयास करोगे। इसलिए, तुम जिस नकारात्मक भावना के काबू में हो, तुम्हारी सामान्य मानवता के उस पहलू के साथ समस्या है। तुम इसे समझते हो, है न? (बिल्कुल।)
लोग सामान्य मानवता के सामान्य जमीर, समझ, सहज-ज्ञान और स्वतंत्र इच्छा तथा विभिन्न प्रकार की सामान्य मानवीय भावनाओं के आधार पर सत्य का अनुसरण कर पाते हैं। देखो, परमेश्वर द्वारा मनुष्य को प्रदत्त सामान्य मानवता के दायरे में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो अति, अत्यधिक और विकृत हो, और व्यक्तित्व का कोई विखंडन या विकार भी नहीं है। अत्यधिक होने की अभिव्यक्ति कैसे होती है? हमेशा सोचते रहना कि तुम किसी काम के नहीं हो, तुच्छ हो—क्या यह अत्यधिक नहीं है? क्या यह अवास्तविक नहीं है? (अवश्य है।) आँख बंद कर पुरुषों को ऊँचा मानना, मान लेना कि पुरुष नेक होते हैं, वे महिलाओं से अधिक सक्षम होते हैं, महिलाएँ अयोग्य होती हैं, किसी काम की नहीं होतीं, वे पुरुषों जितनी काबिल नहीं होतीं, और कुल मिलाकर वे पुरुषों जितनी अच्छी नहीं होतीं—क्या यह अत्यधिक नहीं है? (जरूर है।) चीजों को अति तक ले जाने की अभिव्यक्ति कैसे होती है? तुम सहज-ज्ञान से जो प्राप्त कर सकते हो, यह हमेशा उससे आगे जाने और हमेशा अपनी सीमाओं को आगे बढ़ाने की चाह है। कुछ लोग देखते हैं कि दूसरे रात में सिर्फ पाँच घंटे सोकर भी दिन भर सामान्य रूप से काम करने में समर्थ हैं, तो सोचते हैं कि स्वयं उन्हें रात में चार घंटे सोकर देखना चाहिए कि वे कितने दिन खींच सकते हैं। कुछ लोग दूसरों को दिन में दो बार आहार लेकर भी ताकत से भरपूर, दिन भर काम करते हुए देखते हैं, तो सोचते हैं कि स्वयं उन्हें दिन में एक आहार लेना चाहिए—क्या यह शारीरिक रूप से हानिकारक नहीं है? हमेशा अपनी क्षमता से ज्यादा काबिल दिखने की कोशिश करने का क्या अर्थ है? तुम अपने ही शरीर के साथ होड़ क्यों लगा रहे हो? पचास वर्ष की उम्र के कुछ लोगों के दांत ढीले होते हैं, और वे हड्डियाँ या गन्ना भी नहीं चबा सकते। वे कहते हैं, “फिक्र मत करो, दो-चार दांत गिर जाएँ, तो भी कोई बात नहीं, मैं चबाता रहूँगा! मुझे इस मुश्किल को काबू में करना है। अगर मैंने इस पर काबू करने की कोशिश नहीं की, तो फिर मैं कमजोर और बेकार हूँ!” क्या यह अति करना नहीं है? (हाँ, जरूर है।) तुम्हें लगता है कि जो तुम नहीं पा सकते, जो तुम्हारी मानवता सहज-ज्ञान से प्राप्त नहीं कर सकती, वह तुम्हें पाना ही है। तुम उन्हें अपनी प्रतिभा, बुद्धिमत्ता, आध्यात्मिक कद, सीखी हुई चीजों, या अपनी उम्र और लिंग से हासिल नहीं कर सकते, लेकिन हासिल करने में असमर्थ होने के बावजूद भी तुम्हें लगता है कि तुम्हें इसे हासिल करना चाहिए। कुछ महिलाएँ यह कहकर अपनी खूबियाँ बढ़ा-चढ़ा कर बताती हैं, “हम महिलाएँ वो सारे काम कर सकती हैं जो पुरुष कर सकते हैं। पुरुष इमारतें खड़ी कर सकते हैं, हम भी कर सकती हैं; पुरुष विमान उड़ा सकते हैं, हम भी उड़ा सकती हैं; पुरुष मुक्केबाजी कर सकते हैं, हम भी कर सकती हैं; पुरुष एक बोरी में दो सौ पौंड वजन ढो सकते हैं, हम भी ढो सकती हैं।” लेकिन अंत में, वे इससे इतनी कुचल जाती हैं कि उनके मुँह से खून निकलने लगता है। क्या वे अभी भी जितनी सक्षम हैं, उससे अधिक दिखने की कोशिश कर रही हैं? क्या यह अति नहीं है? क्या यह अत्यधिक नहीं है? ये सभी अभिव्यक्तियाँ अति और अत्यधिक हैं। बेतुके लोग अक्सर समस्याओं पर इसी तरह विचार करते हैं और लोगों, घटनाओं और चीजों को इसी दृष्टि से देखते हैं, और वे समस्याओं से भी इसी तरह पेश आकर सुलझाने की कोशिश करते हैं। इसलिए, यदि लोग इन अत्यधिक अभिव्यक्तियों का समाधान करना चाहते हैं, तो सबसे पहले उन्हें इन अति वाली चीजों को खत्म कर उन्हें जाने देना चाहिए। इनमें से सबसे गंभीर हैं उनके अंतरतम की अति वाली विविध भावनाएँ। कुछ विशिष्ट हालात में, इन भावनाओं के कारण वे अक्सर अतिवादी विचार रखते हैं और अतिवादी तरीकों का प्रयोग करते हैं, जिससे वे भटक जाते हैं। इन अति वाली भावनाओं के कारण लोग न सिर्फ मूर्ख, अज्ञानी, और बेवकूफ दिखाई देते हैं, बल्कि वे रास्ता भटक कर नुकसान उठाते हैं। परमेश्वर को चाहिए सत्य का अनुसरण करनेवाला एक सामान्य व्यक्ति, वह सत्य का अनुसरण करने के लिए एक बेतुका, अत्यधिक और अति करनेवाला व्यक्ति नहीं चाहता। ऐसा क्यों है? जो लोग बेतुके और अति करने वाले होते हैं, वे चीजों को सही ढंग से समझने में भी सक्षम नहीं होते, सत्य को शुद्धता के साथ समझना तो दूर की बात है। जो लोग अति करनेवाले और विकृतियों की ओर प्रवृत्त होते हैं, वे सत्य को समझने, उससे पेश आने और उसे अमल में लाने के लिए भी चरम विधियों का प्रयोग करते हैं—यह उनके लिए अत्यंत खतरनाक और परेशानी खड़ी करने वाला होता है। उन्हें बहुत नुकसान होता है और इससे परमेश्वर का भी गंभीर अनादर होता है। परमेश्वर को जरूरत नहीं है कि तुम अपनी सीमाओं के परे जाओ, या सत्य पर अमल करने के लिए अति और अतिवादी विधियों का प्रयोग करो। इसके बजाय, वह चाहता है कि जिन परिस्थितियों में तुम्हारी मानवता हर दृष्टि से सामान्य हो और मानवता के उस दायरे में जिसे तुम समझकर हासिल कर सकते हो, उनमें तुम परमेश्वर के वचनों को अमल में लाओ, सत्य पर अमल करो, और उसकी अपेक्षाएँ पूरी करो। अंतिम लक्ष्य है तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव में बदलाव करना, धीरे-धीरे तुम्हारे सभी विचारों और नजरियों में सुधार लाना, मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों की तुम्हारी समझ और परमेश्वर के बारे में तुम्हारे ज्ञान में गहराई लाना, और इस तरह परमेश्वर के प्रति तुम्हारे समर्पण को और अधिक ठोस और व्यवहारिक बनाना—इसी तरीके से तुम उद्धार पा सकोगे।
क्या मेरे लिए इस विषय पर संगति करना अर्थपूर्ण है कि विविध नकारात्मक भावनाओं को कैसे जाने दें? (बिल्कुल।) ऐसा करने के पीछे मेरा प्रयोजन क्या है? वह यह है कि भले ही ये विविध नकारात्मक भावनाएँ बहुत लंबे समय पहले पैदा हुई हों, या ये अभी वर्तमान में पैदा हो रही हों, तुम उनसे सही ढंग से पेश आने में सक्षम हो पाओ, उन्हें सही ढंग से दूर कर सुलझा सको, इन गलत नकारात्मक भावनाओं को पीछे छोड़ दो, और धीरे-धीरे ऐसे मुकाम पर पहुँचो जहाँ चाहे जो भी हो, तुम इन नकारात्मक भावनाओं में न फँसो। जब विविध नकारात्मक भावनाएँ फिर से पैदा होंगी, तो तुममें जागरूकता और विवेक होगा, तुम उनसे स्वयं को होनेवाली हानि जानोगे और निस्संदेह तुम्हें धीरे-धीरे उन्हें जाने भी देना चाहिए। जब ये भावनाएँ पैदा होंगी, तब तुम आत्म-नियंत्रण का अभ्यास कर सकोगे, बुद्धि का प्रयोग कर सकोगे, और तुम उन्हें जाने दे सकोगे, या उन्हें सुलझा कर संभालने के लिए सत्य खोज सकोगे। किसी भी स्थिति में, इनका इस बात पर असर नहीं पड़ना चाहिए कि तुम लोगों और चीजों को देखनेऔर आचरण और कार्य के प्रति सही तरीके, सही रवैया और सही दृष्टिकोण अपनाओ। इस प्रकार, सत्य के अनुसरण के तुम्हारे मार्ग की रुकावटें और बाधाएँ और भी कम हो जाएँगी, तुम परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सामान्य मानवता के दायरे में बाधारहित या कम बाधाओं के साथ सत्य का अनुसरण करने में सक्षम हो सकोगे, और हर प्रकार की स्थितियों में अपने द्वारा प्रकट भ्रष्ट स्वभावों को दूर कर पाओगे। क्या अब विविध नकारात्मक भावनाओं को दूर करने के तरीके के बारे में तुम्हें आगे का रास्ता मिल गया है? सबसे पहले, स्वयं द्वारा प्रकट भ्रष्टता के बारे में आत्म-परीक्षण करो और देखो कि क्या ये नकारात्मक भावनाएँ तुम्हें भीतर से प्रभावित कर रही हैं और क्या तुम लोगों और चीजों के प्रति अपने दृष्टिकोण और अपने आचरण और कार्य के तरीके पर इन नकारात्मक भावनाओं का प्रभाव पड़ने दे रहे हो। इसके अतिरिक्त, तुम अपने अंतरतम के भीतर स्मृति की गहराई में पैठी हुई बातों को जाँचो और देखो कि क्या तुम्हारे साथ घटी इन चीजों ने कुछ दाग या निशानियाँ छोड़ी हैं, और क्या ये तुम्हारे लोगों और चीजों को देखने और तुम्हारे आचरण और कार्य की सही विधियों और तरीकों के प्रयोग को निरंतर नियंत्रित कर रही हैं। इस प्रकार, अतीत में तुम्हारे आहत होने पर पैदा हुई विविध नकारात्मक भावनाओं के उभर आने के बाद तुम्हें यह करना चाहिए कि सत्य के अनुसार एक-एक कर उनका विश्लेषण करो, परखो, और सुलझाओ। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों को कई बार अगुआ बनने के लिए पदोन्नत किया गया, लेकिन फिर कई बार उन्हें बरखास्त कर दिया गया या उन्हें दूसरा काम सौंप दिया गया जिससे उनमें एक अत्यधिक नकारात्मक भावना पैदा हो गई। पदोन्नत होने और फिर बार-बार बरखास्त होने और कोई दूसरा काम सौंप दिए जाने की इस पूरी प्रक्रिया के दौरान वे कभी नहीं समझ पाते कि ऐसा आखिर क्यों हो रहा है, और इसलिए वे कभी नहीं जान पाते कि उनकी कमियाँ और खामियाँ, उनकी स्वयं की भ्रष्टता या उनके उल्लंघनों की जड़ में क्या है। वे कभी भी इन समस्याओं को दूर नहीं करते, उनके भीतर गहरे कहीं एक छाप पड़ जाती है और वे सोचते हैं, “परमेश्वर का घर इस तरह लोगों का उपयोग करता है। काम होने पर तुम ऊपर उठाए जाते हो, और काम न होने पर हटा दिए जाते हो।” ऐसी भावना वाले लोगों का इस समाज में स्थान हो सकता है जहाँ वे अपनी भड़ास निकाल सकते हैं, लेकिन परमेश्वर के घर में उन्हें लगता है कि भड़ास निकालने का कोई स्थान नहीं है, कोई तरीका नहीं है, कोई माहौल नहीं है, और इसलिए बस उसे निगल सकते हैं। यह निगल जाना असल में जाने देना नहीं है, बल्कि यह उनका इसे भीतर गहराई में दफन कर देना है। कुछ ऐसे लोग हैं जो सोचते हैं कि एक दिन वे अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाएँगे, और अगर उनके भाई-बहन यह देखेंगे तो वे उन्हें फिर से अगुआ चुन लेंगे; कुछ ऐसे लोग भी हैं जो शांति से अपना कर्तव्य निभाते रहना चाहते हैं, और दोबारा अगुआ नहीं बनना चाहते, वे कहते हैं, “कोई भी मेरी पदोन्नति करे, मैं अगुआ नहीं बनूँगा। मैं नाक नहीं कटा सकता, और वह दर्द नहीं सह सकता। कोई अगुआ बने, कोई बरखास्त हो, मेरी बला से। मैं दोबारा अगुआ नहीं बनूँगा, ताकि मुझे बरखास्त कर दिए जाने के साथ आने वाली पीड़ा और कटु आलोचना का एहसास न सहना पड़े। मैं बस अपना काम ठीक ढंग से करूँगा और यह जिम्मेदारी उठाऊँगा, और जहाँ तक यह बात है कि कौन-सी मंजिल और परिणाम मेरा इंतजार कर रहे हैं, यह मैं परमेश्वर के हाथों में सौंप दूँगा—यह परमेश्वर पर निर्भर है।” यह किस प्रकार की भावना है? यह कहना पूरी तरह से सही नहीं कि यह हीनभावना है; मेरे ख्याल से इसे मायूसी कहना उचित होगा—मायूसी, उदासी, अलग-थलग और दबा-कुचला महसूस करना। वे सोचते हैं, “परमेश्वर का घर ऐसा स्थान है जहाँ न्याय कायम होता है, फिर भी मुझे अक्सर पदोन्नत और फिर बरखास्त कर दिया जाता है। मुझे लगता है कि मेरे साथ बहुत गलत हुआ है, लेकिन इसके विरुद्ध मैं बहस नहीं कर सकता, इसलिए मैं बस समर्पण कर दूँगा! यह परमेश्वर का घर है, मैं अपने मामले की पैरवी करने के लिए और कहाँ जाऊँ? मैं इस तरह रहने का आदी हूँ। दुनिया में कोई भी मुझे कुछ नहीं मानता और परमेश्वर के घर में भी वैसा ही है। भविष्य में क्या होगा, इसके बारे में मैं सोचूंगा ही नहीं।” वे दिन भर उदास रहते हैं, किसी भी चीज में रुचि नहीं ले पाते, वे जो भी करते हैं उसे बस यूँ ही निपटाते हैं, जो उनकी क्षमता में है, उसमें से थोड़ा-सा ही करते हैं और कुछ नहीं; वे अध्ययन नहीं करते, कोई प्रयास नहीं करते, वे किसी भी विषय पर गहराई से नहीं सोचते, और वे कीमत चुकाने को तैयार नहीं होते। अंत में, वे तेजी से शक्तिहीन हो जाते हैं, उनका शुरुआती उत्साह ठंडा पड़ जाता है, वे सोचते हैं कि उनका किसी भी चीज से लेना-देना नहीं, और वे पहले जो थे, वह खत्म हो गया। क्या यह उदासी नहीं है? (हाँ, है।) कोई उनसे पूछता है, “तुम्हें बरखास्त होने पर कैसा लगता है?” वे उत्तर देते हैं, “हाँ, मेरी काबिलियत कम है। मुझे कैसा लगना चाहिए? मुझे नहीं पता।” और एक दूसरा व्यक्ति उनसे पूछता है, “अगर तुम्हें फिर से अगुआ चुना जाना हो तो क्या तुम बनना चाहोगे?” और वे उत्तर देते हैं, “मैं ऐसा किस लिए करना चाहूँगा? यह व्यावहारिक नहीं है! मेरी काबिलियत कम है और मैं परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट नहीं कर सकता।” यह कहना कि वे मायूस हैं और उन्होंने हार मान ली है, पूरी तरह से वास्तविक नहीं है। वे बस हमेशा निराशा, मायूस अलग-थलग और उदासी महसूस करते हैं। वे अपने मन की बात किसी से भी नहीं कहना चाहते, खुलना नहीं चाहते, और अपनी समस्याओं, दिक्कतों, भ्रष्ट दशाओं और भ्रष्ट स्वभावों को दूर नहीं करना चाहते—वे बस एक साहसी चेहरा दिखाते हैं। यह कौन-सी भावना है? (मायूसी।) वे एक विचार से भी चिपके रहते हैं : “मैं वो करूँगा जो परमेश्वर मुझसे कहेगा, और कलीसिया मेरे लिए जिस भी काम की व्यवस्था करेगी, उसे कड़ी मेहनत से करूँगा। अगर मैं काम पूरा न कर सका, तो मुझे दोष मत देना क्योंकि मैंने खुद ही स्वयं को कम क्षमता वाला नहीं बनाया!” ऐसे व्यक्ति दरअसल परमेश्वर में सच में विश्वास रखते हैं, और उनमें संकल्प होता है। वे कभी भी परमेश्वर को नहीं छोड़ेंगे, कभी भी अपना कर्तव्य नहीं छोड़ेंगे, और हमेशा परमेश्वर का अनुसरण करेंगे। बात बस इतनी है कि वे जीवन-प्रवेश या आत्मचिंतन, या अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने पर ध्यान नहीं देते। यह किस प्रकार की समस्या है? क्या इस तरह विश्वास रखकर वे सत्य प्राप्त कर सकते हैं? क्या यह उनके लिए परेशानी खड़ी करने वाली बात नहीं है? (हाँ, जरूर है।) अगर उन्हें इतना मारा जाए कि वे मर भी जाएँ तो भी उनके लिए यह कहना संभव नहीं है कि वे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते। लेकिन, कुछ खास हालात, कुछ विशेष स्थितियों और परिदृश्यों का अनुभव करने के कारण और चूँकि कुछ खास लोगों ने उनसे कुछ बातें कह दी हैं, वे ऐसे गिर पड़े हैं और मुरझा गए हैं कि वे दोबारा खड़े नहीं हो पा रहे हैं, और कोई शक्ति नहीं जुटा पा रहे हैं। क्या यह नहीं दर्शाता कि उनमें नकारात्मक भावनाएँ हैं? (हाँ।) नकारात्मक भावनाएँ होना साबित करता है कि उनके साथ कोई समस्या है। और जब कोई समस्या हो तो तुम्हें उसे सुलझाना चाहिए। जिन समस्याओं को सुलझाया जाना चाहिए, उन्हें सुलझाने की हमेशा एक विधि और एक मार्ग होता है—ऐसा नहीं है कि उन्हें सुलझाना असंभव है। यह बस इस पर निर्भर करता है कि क्या तुम समस्या का सामना कर सकते हो, और तुम उसे सुलझाना चाहते हो या नहीं। अगर तुम चाहते हो, तो फिर इतनी कठिन कोई भी समस्या नहीं है जिसे सुलझाया नहीं जा सकता। तुम परमेश्वर के समक्ष आओ, उसके वचनों में सत्य खोजो, और तुम हर कठिनाई को दूर कर सकते हो। लेकिन तुम्हारी खिन्नता, मायूसी, उदासी और दमन तुम्हारी समस्याएँ सुलझाने में तुम्हारी मदद तो करते नहीं, बल्कि इसके विपरीत ये तुम्हारी समस्याओं को और अधिक गंभीर और बद से बदतर बना सकते हैं। क्या तुम लोग यह मानते हो? (हाँ।) इसलिए, फिलहाल तुम जिन भी भावनाओं से चिपके हुए हो, या जिन भी भावनाओं में अब डूबे हो, मैं आशा करता हूँ कि तुम इन गलत भावनाओं को पीछे छोड़ पाओगे। तुम्हारे कोई भी कारण या बहाने हों, जैसे ही तुम एक असामान्य भावना में डूबते हो, वैसे ही तुम एक अति भावना में डूब जाते हो। जब तुम इस अति भावना में डूब जाते हो तो यह यकीनन तुम्हारे अनुसरण, तुम्हारे संकल्प, तुम्हारी कामनाओं को और साथ ही निस्संदेह, तुम जीवन में जिन लक्ष्यों का अनुसरण करते हो उन्हें नियंत्रित करेगी, और इसके परिणाम बहुत गंभीर हैं।
अंततः जो मैं तुम लोगों से कहना चाहता हूँ, वह यह है : किसी अस्थायी भाव को तुम्हारे जीवनभर के सत्य के अनुसरण को प्रभावित न करने दो और तुम्हारी उद्धार की आशा को नष्ट न करने दो। क्या तुम समझते हो? (हाँ।) तुम्हारी यह भाव सिर्फ सकारात्मक ही नहीं है, और सही बात यह है कि यह वास्तव में परमेश्वर और सत्य के विरोध में है। तुम सोच सकते हो कि यह तुम्हारी सामान्य मानवता के भीतर की एक भावना है, लेकिन परमेश्वर की दृष्टि में, यह बस भावना की एक मामूली बात नहीं है, बल्कि परमेश्वर के विरोध की पद्धति है। लोग इन नकारात्मक भावनाओं का उपयोग परमेश्वर, परमेश्वर के वचनों और सत्य का प्रतिरोध करने के तरीके के रूप में करते हैं। इसलिए चूँकि तुम सत्य का अनुसरण करने के लिए तैयार हो, तुम्हें खुद को सावधानी से जाँचना चाहिए कि क्या नकारात्मक भावनाएँ तुम्हारे हृदय पर अधिकार जमाए हुए हैं, जिससे तुम जिद्दीपन से, मूर्खतापूर्वक सत्य का विरोध करते रहो और परमेश्वर के साथ प्रतिस्पर्धा करते रहो। यदि आत्म-परीक्षण के माध्यम से तुमने वास्तव में यह महसूस किया है कि तुम्हारा हृदय अब भी नकारात्मक भावनाओं से बेबस है तो मैं तुमसे पहले उन्हें छोड़ देने के लिए कहता हूँ। उन्हें पकड़े रहने के लिए अब और बहाने मत बनाओ और इससे भी अधिक, उन्हें सामान्य मानसिक अवस्था मत मानो, अन्यथा वे तुम्हारे भविष्य और गंतव्य को नष्ट कर देंगी और वे तुम्हारे सत्य का अनुसरण करने और उद्धार प्राप्त करने के अवसर और आशा को नष्ट कर देंगी। इसी स्थान पर आज मैं इस संगति का समापन करूँगा।
24 सितंबर 2022