सत्य का अनुसरण कैसे करें (17)

पिछली बार हमने मनुष्यों से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों की अभिव्यक्तियों और विशेषताओं पर संगति की थी—अर्थात उनमें जमीर और विवेक होता है और वे सही-गलत का भेद पहचान सकते हैं और जानते हैं कि क्या सही है और क्या गलत। आज हम पिछली बार के विषय पर संगति जारी रखेंगे। आओ, उससे पहले मैं तुम्हें एक कहानी सुनाऊँ। कुछ साल पहले मैंने एक घटना के बारे में सुना था। एक सुंदर युवती स्क्रीन टेस्ट दे रही थी और किसी ने यूँ ही कह दिया, “तुम्हारी टाँगें काफी मोटी हैं!” उस युवती ने मन ही मन सोचा, “यह कहकर कि मेरी टाँगें मोटी हैं, क्या तुम यह नहीं कह रहे कि मैं मोटी हूँ? अगर मैं मोटी हूँ, तो क्या मैं कैमरे पर अच्छी दिखूँगी? क्या यह लज्जास्पद नहीं होगा?” तो वह विचार करने लगी कि कैसे वह अपनी टाँगों का मोटापा कम कर सकती है ताकि वह कैमरे पर छरहरी और सुंदर दिखाई दे। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए उसने हर तरह की जानकारी जुटाने में खुद को झोंक दिया और वजन कम करने के कई तरीके आजमाए, जैसे कि पूरे भोजन के बजाय सिर्फ डाइट फूड खाना या रोजाना सिर्फ फल और सब्जियाँ खाना—संक्षेप में, उसने वही खाया जो वजन कम करने में मदद कर सकता था। उसने सुना कि कॉफी पीना वजन कम करने का एक तेज और कारगर उपाय है, इसलिए कभी-कभी वह सिर्फ कॉफी पीती। कुछ लोगों ने कहा कि कम सोने से वजन जल्दी कम होता है, इसलिए वह रोज सिर्फ दो-तीन घंटे ही सोती। काफी जद्दोजहद और कोशिशों के बाद उसे वाकई नतीजे दिखे। उसका वजन कम हो गया, वह छरहरी हो गई और उसके पैर पतले हो गए। वह देखने में तो अच्छी और आकर्षक लगने लगी, लेकिन शारीरिक रूप से उसमें कुछ बुरी प्रतिक्रियाएँ होने लगीं। कौन-सी बुरी प्रतिक्रियाएँ? उसे अक्सर चक्कर आ जाते और सिर भारी रहता और दिन में अपना कर्तव्य निभाते हुए वह हमेशा सुस्त रहती। खड़े होने पर वह लड़खड़ा जाती और बैठे रहने पर पूरे शरीर में कमजोरी महसूस करती। उसे दिन गुजारना भारी हो जाता और बहुत ज्यादा शारीरिक पीड़ा होती। क्या ज्यादातर लोग इस युवती की वर्तमान स्थिति के बारे में जानने के इच्छुक हैं और क्या वह अभी भी जिंदा और स्वस्थ है? क्या तुम लोग वजन कम करने के बारे में उसके अनुभव और विचार सुनना चाहते हो? (नहीं।) इस दुनिया में रहते हुए लोग नहीं जानते कि सही तरह से और नियमितता के साथ कैसे जिएँ, जिन विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों से उनका सामना होता है उनके साथ कैसे पेश आएँ। जब वे कोई टिप्पणी सुनते हैं या किसी घटना का अनुभव करते हैं तो वे नहीं जानते कि उसके साथ कैसे पेश आना उचित है और उन्हें नुकसान से कैसे बचा सकता है ताकि वे वास्तव में सही और गरिमापूर्ण तरीके से जिएँ। गैर-विश्वासियों की तो बात ही छोड़ दो, ज्यादातर विश्वासी भी इन चीजों से अनजान हैं। बाहरी दुनिया से आने वाली सूचनाओं और समाचारों, और साथ ही विभिन्न विचारों, दृष्टिकोणों, पाखंडों और भ्रांतियों का सामना करने पर लोगों में उनका भेद पहचानने की कोई क्षमता नहीं होती और न ही उनसे बचने की कोई क्षमता होती है। बेशक, उनमें सही विचार और दृष्टिकोण भी नहीं होते, उनके साथ सकारात्मक परिप्रेक्ष्य से पेश आने का सही तरीका अपनाना तो दूर की बात है। इसलिए लोग बहुत दयनीय ढंग से जीते हैं। उस युवती को ही लो जिसका मैंने अभी जिक्र किया। मुझे बताओ, क्या उसका जीवन थकाऊ है? क्या वह दयनीय है? (वह दयनीय है।) वह दयनीय क्यों है? ऐसा करके उसने कहाँ गलती की? क्या सभी लोग सुंदर होने और आकर्षक ढंग से जीने का प्रयास नहीं करते? क्या यह चाहना गलत है कि दूसरे तुम्हें पसंद करें और मिलने पर तुम्हारी प्रशंसा और सराहना करें? तुम लोग इस मामले को कैसे देखते हो? (बाहरी सुंदरता और प्रशंसा पाने के लिए उसने जो किया वह अपने शरीर को नुकसान पहुँचाना था। चूँकि उसने परमेश्वर द्वारा स्थापित नियमों का पालन नहीं किया, इसलिए अंततः उसके सभी शारीरिक प्रकार्य बिगड़ गए। उसे चक्कर आना और सिर भारी होना ऐसे नतीजे थे जो उसने खुद पैदा किए थे। मुझे लगता है कि यह स्त्री भ्रमित है।) क्या यही मामला है? (हाँ।) लोग अपनी थोड़ी-सी इंसानी बुद्धिमत्ता, चतुराई और विचारों के साथ पैदा होते हैं। फिर वे कुछ ज्ञान अर्जित करते हैं, कुछ कौशल प्राप्त करते हैं और एक अच्छे व्यक्ति जैसा दिखने के बारे में थोड़ा-बहुत सीखते हैं। क्या ये चीजें बाहरी दुनिया से आने वाले विभिन्न विचारों, दृष्टिकोणों, पाखंडों और भ्रांतियों, और विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों से निपटने के लिए पर्याप्त हैं? क्या ये तुम्हें इन चीजों का सही ढंग से सामना करने में सक्षम बना सकती हैं? (नहीं।) बिल्कुल नहीं। जब लोग सत्य नहीं समझते तो ऐसे ही दयनीय और त्रासद हो जाते हैं; अंततः इसके कई भयानक परिणाम होते हैं। वे बाहरी दुनिया के किसी भी पाखंड और भ्रांति या विचार और दृष्टिकोण का भेद नहीं पहचानते, न ही अपने सामने आने वाले लोगों, घटनाओं और चीजों की बात आने पर वे सही विचार और दृष्टिकोण रखते हैं। जब उनके साथ चीजें घटित होती हैं तो वे भ्रमित हो जाते हैं और उनकी मूर्खता अनगिनत रूपों में प्रकट होती है। जब उनके साथ कुछ नहीं घटता तो वे कुछ धर्म-सिद्धांत समझते प्रतीत होते हैं और कुछ मनुष्य जैसे लगते हैं, लेकिन जब उनके साथ चीजें घटित होती हैं तो कहानी अलग होती है—उनके दिलों के विकृत, कुरूप, बेतुके विचार और दृष्टिकोण प्रकट हो जाते हैं। जब बात सचमुच आचरण की, जीवित रहने की या जीवन में किसी खास विचार या दृष्टिकोण की भी आती है तो लोग बहुत अज्ञानी और मूढ़ होते हैं और उनके रवैये और दृष्टिकोण बहुत बेतुके होते हैं। तो, बहुत-से लोग कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते हैं, कई वर्षों से धर्मोपदेश सुन रहे हैं और अपने कर्तव्य भी निभा रहे हैं और उन्होंने कभी जानबूझकर ऐसा कुछ नहीं किया है जिससे गड़बड़ियाँ या विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न होती हों, न ही उन्होंने जानबूझकर ऐसे शब्द कहे हैं जो परमेश्वर का विरोध या ईशनिंदा करते हों—बाहरी तौर पर उनमें कोई दोष नहीं पाया जा सकता, लेकिन जब बाहरी दुनिया के विभिन्न गलत विचारों और दृष्टिकोणों, विशेष रूप से कुछ अपेक्षाकृत लोकप्रिय विचारों और दृष्टिकोणों से उनका सामना होता है तो अपने दिलों की गहराई में वे उनसे घृणा नहीं करते, न ही वे उनका प्रतिरोध करते हैं या उन्हें अस्वीकार करते हैं बल्कि उनके प्रति अनुराग और अनुमोदन महसूस करते हैं और जैसे ही कोई उपयुक्त परिवेश या अवसर आता है, वे अनजाने ही इन चीजों को स्वीकार लेते हैं और उन्हें अपने जीवन में लागू कर लेते हैं। क्या वह युवती जिसका पहले जिक्र किया गया है, इसका एक बहुत ही स्पष्ट उदाहरण नहीं है? (हाँ।) क्या यह बुरी प्रवृत्तियों का अनुगमन करने का एक तरीका है? (हाँ।) उसने सिर्फ उनका अनुगमन ही नहीं किया—उसने उन्हें पूरी तरह से लागू किया। क्या दुनिया आज सेक्सी, आकर्षक, छरहरी और सुंदर देहयष्टि वाली होने की वकालत नहीं करती? ये विचार हर उद्योग में, लोगों के हर समूह में, यहाँ तक कि आस्था रखने वाले लोगों में भी लोकप्रिय हैं। कुछ वृद्ध महिलाएँ थीं जो प्रभु में विश्वास करती थीं और औसतन 60 से ज्यादा उम्र की होने के बावजूद वे इस बात के लिए एक-दूसरे से होड़ करती थीं कि कौन ज्यादा अच्छी लग रही है। उन्होंने अपनी बगल में बैठी एक युवती से पूछा, “तुम्हारी राय में हममें से कौन इस पोशाक में सबसे अच्छी लगती है?” लड़की ने जवाब दिया, “तुम सभी लड़कियाँ इसमें सुंदर लग रही हो!” हालाँकि वे साठ से ज्यादा उम्र की थीं, फिर भी उन्हें “लड़कियाँ” कहा जाना जरूरी था; वे “महिलाएँ” कहलाने को तैयार नहीं थीं और इससे खुश भी नहीं थीं। उनके पीठ पीछे वह लड़की दूसरों से कहती थी, “वे साठ से ज्यादा उम्र की हैं; वे अब भी कितनी अच्छी दिख सकती हैं?” लेकिन वृद्ध महिलाओं का यह समूह अभी भी इसमें आनंद ले रहा था। क्या उन्हें जरा भी शर्म थी? (नहीं।) वे इतने सालों से प्रभु में विश्वास कर रही थीं, फिर भी उन चीजों पर ध्यान केंद्रित करती थीं। क्या उनकी मानवता असामान्य नहीं है? जब लोगों में जमीर और विवेक नहीं होता, तब वे कई बेतुकी चीजें कर सकते हैं, कई ऐसी चीजें जो लोगों को अवमाननाप्रद और घिनौनी लगती हैं, और कई ऐसी चीजें जो उनका नीच चरित्र प्रकट करती हैं। ऐसा क्यों है कि बहुत-से लोग बुरी प्रवृत्तियों का भेद नहीं पहचानते और उनमें उनसे बचने की कोई क्षमता नहीं होती, और नतीजतन वे उनसे गुमराह और प्रभावित होकर उनके साथ बह जाते हैं? ऐसा इसलिए है क्योंकि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते और लेश मात्र भी सत्य नहीं समझते। चाहे उनके साथ कुछ भी घटित हो, वे उसकी असलियत नहीं जान सकते, और जैसे ही वे किसी प्रलोभन का सामना करते हैं, वैसे ही वे बेनकाब हो जाते हैं और उस प्रलोभन में फँस जाते हैं। देखो, आज समाज के सभी वर्गों में क्या पढ़ाया जा रहा है और क्या लोकप्रिय है। एक रेडियो रिपोर्टर ने एक छोटे बच्चे का साक्षात्कार लिया और उससे पूछा, “तुम्हारा पसंदीदा बाल-गीत कौन-सा है?” लड़के ने अपना सिर खुजाया और कहा, “‘चाँद मेरा दिल।’” जिन लोगों ने यह सुना, उन्हें समझ नहीं आया कि हँसें या रोएँ। उन्हें क्यों समझ नहीं आया कि हँसें या रोएँ? क्या यह एक बाल-गीत है? (नहीं, यह एक प्रेम-गीत है।) यह एक प्रेम-गीत है, लेकिन बच्चे ने गलती से इसे बाल-गीत समझ लिया। इस घटना से हम समझ सकते हैं कि समाज में क्या लोकप्रिय है। यह समाज में व्याप्त बुरी प्रवृत्तियों की परिघटनाओं में से एक है और बुजुर्गों और बच्चों दोनों को ही इन प्रवृत्तियों से गहरा नुकसान पहुँचता है और वे इनमें गहरे धँस जाते हैं। परमेश्वर का अनुगमन करने वालों में आश्चर्यजनक रूप से ऐसे बहुत-से लोग हैं जो इन प्रवृत्तियों का अनुगमन करते हैं और इन प्रवृत्तियों द्वारा समर्थित विचार खुद पर लागू भी करते हैं। और अंत में क्या होता है? इसके अच्छे नतीजे निकलते हैं या बुरे? (बुरे।) इसके बुरे नतीजे निकलते हैं—बुरी प्रवृत्तियों का अनुगमन करने से यही होता है। लोग अपने देह की यौन इच्छाओं में, दैहिक भावनाओं में और खाने-पीने और मौज-मस्ती में फँस जाते हैं, भोग-विलास की धुंध में जीते हैं। उनके पास कोई सही विचार या दृष्टिकोण नहीं होता और अस्तित्व के प्रति कोई सही रवैया नहीं होता जिससे वे जीवन का सामना कर सकें। वे बिना किसी जागरूकता के इसी अवस्था में जीते हैं और इसका प्रतिरोध करने में अशक्त होते हैं। अंत में, वे गहरे और गहरे धँसते जाते हैं और इससे खुद को बाहर निकालने में असमर्थ रहते हैं। और अंतिम परिणाम क्या होता है? वे शैतान द्वारा पूरी तरह से निगल लिए जाते हैं, उसका भोजन बन जाते हैं।

मानवजाति के बीच रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए, अगर तुम यह भेद नहीं पहचानते कि सकारात्मक चीजें क्या हैं और नकारात्मक चीजें क्या हैं तो इस अराजक दुनिया में, इस जटिल इंसानी दुनिया में तुम्हारे लिए जीवन के सही विचारों और दृष्टिकोणों पर कायम रहना बहुत कठिन होगा और जीवन में उस सही मार्ग पर कायम रहना बहुत कठिन होगा जिसके लिए तुम लालायित रहते हो; तुम्हें कभी पता नहीं चलेगा कि कब तुम कोई खास शब्द सुनकर या किसी खास घटना का सामना करके अनायास ही बुरी प्रवृत्तियों के साथ बह जाओगे। अगर लोगों में सही-गलत का भेद पहचानने की क्षमता न हो तो वे अपने जीवन का प्रबंधन भी ठीक से नहीं कर सकते, जीवित रहने के मार्ग पर आने वाले सही-गलत के विभिन्न प्रमुख मुद्दों की तो बात ही छोड़ दो जिनसे निपटना उनके लिए और भी कठिन होता है। अगर लोग यह नहीं समझते कि सकारात्मक चीजें क्या हैं और नकारात्मक चीजें क्या हैं तो वे नहीं जान पाएँगे कि अपने जीवन का प्रबंधन कैसे करें और उनके पास जीवन का सही मार्ग नहीं होगा। अगर वे स्वस्थ जीवन के बारे में विभिन्न प्रकार की जानकारी देखते हैं तो वे यह नहीं जान पाएँगे कि उनका भेद कैसे पहचाना जाए या किसे स्वीकार किया जाए और किसे अस्वीकार किया जाए, सही, सकारात्मक कथन कैसे आत्मसात किए जाएँ या गलत कथन कैसे अस्वीकार किए जाएँ। यह तक कहा जा सकता है कि ऐसे लोग अपने शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा भी नहीं कर सकते। कुछ लोग एक अति से दूसरी अति पर चले जाते हैं, जबकि कुछ लोग लगातार एक ही अति पर जीते रहते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग सुनते हैं : “खूब सारे फल खाना स्वास्थ्यवर्धक होता है। इससे विटामिन मिलते हैं और तुम्हारी त्वचा नम और मुलायम बनती है, जिससे तुम सभी के प्रिय बन जाते हो।” तो वे इस पर यकीन कर लेते हैं और जितने भी फल मिल जाएँ, खाना शुरू कर देते हैं और खान-पान की असामान्य आदतें अपना लेते हैं। कुछ समय बाद वे लगातार अस्वस्थ महसूस करते हैं और अस्पताल में जाँच से पता चलता है कि उनके रक्त में शर्करा बढ़ गई है। वे हैरान हो जाते हैं : “मैं आम तौर पर काफी स्वस्थ भोजन करता हूँ, फिर मेरे रक्त में शर्करा बढ़ क्यों गई? दूसरों ने कहा था कि ढेर सारे फल खाने से विटामिन मिलते हैं, फिर मैं इस कथन का पालन करके और ढेर सारे फल खाकर गलत कैसे हो सकता हूँ?” डॉक्टर कहता है, “फलों में विटामिन तो होते हैं, लेकिन उनमें चीनी की मात्रा ज्यादा होती है। वे मुख्य खाद्य पदार्थों की जगह नहीं ले सकते और उन्हें पूरे भोजन की तरह नहीं खाया जा सकता। तुम उन्हें कम मात्रा में या किफायत से ही खा सकते हो। अगर तुम उन्हें बिल्कुल न खाओ तो भी तुममें पोषक तत्त्वों की कमी नहीं होगी, क्योंकि अनाज और सब्जियों में ये सभी पोषक तत्त्व पहले से मौजूद रहते हैं।” डॉक्टर का कथन उचित है। क्या इससे यह संकेत नहीं मिलता कि उनकी जीवनशैली समस्याग्रस्त है? (हाँ।) यह ठीक उसी प्रकार की गलती है जिसे कुछ लोग करते हैं। क्या तुम्हें लगता है कि यह गलती उन्हें करनी चाहिए? (नहीं।) कुछ लोग कहते हैं, “मैंने परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं की, फिर भी मेरे रक्त में शर्करा बढ़ गई है।” तुम इस कथन के बारे में क्या सोचते हो? क्या यह तर्कहीन नहीं है? क्या तुम्हारे रक्त में शर्करा बढ़ने का परमेश्वर से कोई लेना-देना है? क्या इसके जिम्मेदार तुम खुद नहीं हो? तुम लापरवाही से और बिना सिद्धांतों के खाते हो। तुम्हें लगता है कि फल स्वादिष्ट होते हैं इसलिए तुम उन्हें खाना बंद नहीं कर सकते, या तुम्हें मांस स्वादिष्ट लगता है इसलिए तुम कोई सब्जी नहीं खाते, बिल्कुल भी संयम नहीं दिखाते, और नतीजतन तुम्हें बीमारियाँ हो जाती हैं। क्या इसकी वजह तुम खुद नहीं हो? क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर के बारे में शिकायत न करने से, ऐसा प्रतीत होता है कि तुम नेक हो, परमेश्वर से प्रेम करते हो, शुद्ध हो? दरअसल, कुछ बीमारियाँ तुम्हारी अपनी वजह से होती हैं और उनका परमेश्वर से कोई लेना-देना नहीं होता और वे तुम्हारी अपनी मूर्खता और अज्ञानता के कारण होती हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कहते हैं, “अंडे, मांस और डेरी-उत्पाद पौष्टिक होते हैं और तुम्हारे प्रोटीन-सेवन की पूर्ति कर सकते हैं। चावल और आटे में पोषक तत्त्व कम होते हैं, इसलिए व्यक्ति को ज्यादा मांस, अंडे और डेरी-उत्पाद खाने चाहिए।” यह सुनकर कुछ लोग कहते हैं, “मुझे मांस खाना बहुत पसंद है। चूँकि ऐसा कहा जाता है कि मांस पौष्टिक होता है, इसलिए मैं इसे ज्यादा खाऊँगा। दूसरे लोग दिन में 4 औंस खाते हैं, लेकिन मैं कम से कम दो बार के भोजन में प्रति भोजन आधा पाउंड खाऊँगा!” वे इस तरह असंयमित होकर खाते हैं, ज्यादा और ज्यादा खाते हैं, रोज दूसरों से दो-तीन गुना ज्यादा खाते हैं और देर रात के नाश्ते के साथ भी खाते हैं। समय के साथ उनके पेट की क्षमता बढ़ने लगती है और पेट की क्षमता जितनी ज्यादा होती है, भूख भी उतनी ही ज्यादा लगती है। अंत में क्या होता है? वे बीमार होने की हद तक खाते हैं, उनका वजन बढ़ जाता है और उन्हें हमेशा नींद आती रहती है और वे सुस्त महसूस करते हैं। उनके पास जाँच के लिए अस्पताल जाने के अलावा कोई चारा नहीं रहता और जाँच के नतीजे बताते हैं कि उन्हें उच्च रक्तचाप, उच्च रक्त-शर्करा और उच्च रक्त-वसा है। वे विचार करते हैं, “क्या बात सिर्फ इतनी नहीं है कि मैं रोजाना मांस के कुछ निवाले ज्यादा खाता था? क्या लोगों ने यह नहीं कहा था कि ज्यादा मांस खाना शरीर के लिए अच्छा है और इससे व्यक्ति कुपोषण से बच सकता है? तो फिर मुझसे कहाँ गलती हुई? मेरा रक्तचाप उच्च क्यों है? मेरे इस बूढ़े शरीर का ध्यान रखना कितना मुश्किल है! मैं मांस के कुछ अतिरिक्त निवाले भी नहीं खा सकता!” तुम हर भोजन में आधा पाउंड मांस खाते हो—क्या यह वाकई कुछ और निवाले मात्र है? और तुम आम तौर पर बहुत देर तक बैठते हो और व्यायाम नहीं करते, फिर भी तुम इतना खाते हो। अंत में तुम्हें स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ हो जाती हैं और तुम अपने दिल में बेचैनी महसूस करने लगते हो। वे यहाँ तक सोचते हैं, “यह परमेश्वर द्वारा मेरा शोधन करना है। यह कुछ नहीं है, मैं समय के साथ ठीक हो जाऊँगा। मैं परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं करूँगा!” तुम्हें परमेश्वर के बारे में शिकायत करने का क्या अधिकार है? क्या तुम्हारी बीमारी परमेश्वर द्वारा तुम्हारा शोधन करने का तरीका है या इसकी वजह तुम खुद हो? तुम मांस खाने से मोटे और बीमार हो जाते हो और सोचते हो कि यह परमेश्वर द्वारा तुम्हारा शोधन करना है और परमेश्वर तुम्हारी आस्था की परीक्षा ले रहा है। क्या परमेश्वर इस तरह तुम्हारा शोधन करेगा? (नहीं।) तो इस नतीजे की वजह क्या थी? (इसकी वजह इंसानी मूर्खता थी।) खुद लोगों में भेद पहचानने की क्षमता नहीं है, वे नहीं जानते कि अपने जीवन का प्रबंधन कैसे करें, वे नहीं समझते कि सकारात्मक चीजें क्या हैं और नकारात्मक चीजें क्या हैं, वे नहीं जानते कि अपने भौतिक जीवन के साथ सही तरीके से कैसे पेश आएँ, वे नहीं जानते कि परमेश्वर द्वारा मनुष्यों के लिए स्थापित जीवित रहने के नियमों का पालन कैसे करें और वे नहीं जानते कि विभिन्न जन्मजात शारीरिक स्थितियों के नियमों का पालन कैसे करें। वे हमेशा मूर्खतापूर्ण और बेतुके अभ्यासों में लगे रहते हैं, परमेश्वर के बारे में हमेशा धारणाओं और कल्पनाओं से भरे रहते हैं और उनमें असंयमित इच्छाओं की कोई कमी नहीं होती। अंत में क्या होता है? वे हमेशा रास्ता भटक जाते हैं, हमेशा गलतियाँ करते हैं और परमेश्वर को लगातार गलत समझते हैं। क्या यह बहुत ही तकलीफदेह मामला है? (हाँ, है।)

देह और भौतिक संसार में रहते हुए लोग बहुत सारी जानकारी, बहुत सारे विचारों और दृष्टिकोणों, और साथ ही बहुत सारे विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों के संपर्क में आएँगे। अगर वे यह भेद पहचानना नहीं जानते कि विभिन्न लोग, घटनाएँ और चीजें सकारात्मक हैं या नकारात्मक, यह नहीं जानते कि क्या स्वीकारें और क्या नकारें, सकारात्मक चीजों पर कायम रहना नहीं जानते और नहीं जानते कि वे सही क्यों हैं, और नकारात्मक चीजों को अस्वीकार करना नहीं जानते—इन चीजों के नकारात्मक लक्षणों से वाकिफ होना तो दूर की बात है—क्या इस तरह जीना बहुत खतरनाक नहीं है? (है।) यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उन्हें किसी भी समय अपनी जान गँवाने का खतरा है। लोग अपने भौतिक जीवन और स्वास्थ्य जैसे साधारण मामलों का भी ठीक से प्रबंधन नहीं कर सकते; अपनी चिंता करने के लिए उन्हें दूसरों की जरूरत पड़ती है, अपनी सुरक्षा और निगरानी के लिए उन्हें परमेश्वर की जरूरत पड़ती है, वरना वे गलतियाँ करते रहेंगे, या तो एक दिशा में बहुत दूर तक चले जाएँगे या दूसरी दिशा में बहुत दूर तक चले जाएँगे। समाज की बुरी प्रवृत्तियाँ स्वीकार कर कुछ महिलाएँ नतीजों की परवाह किए बिना, खुद को सुंदर बनाने के उपाय खोजने में सिर खपाती हैं। कुछ अंधाधुंध तरीके से परंपरागत चीनी दवाएँ लेती हैं, कुछ अंधाधुंध तरीके से पश्चिमी दवाएँ लेती हैं, कुछ लापरवाही से टॉनिक लेती हैं और कुछ लापरवाही से एक खास तरह का खाना खाती हैं। नतीजतन, उन्हें पेट की समस्याएँ हो जाती हैं और वे आहें भरते हुए और बीमार और कमजोर दिखते हुए दिन बिताती हैं। वे न सिर्फ खुद को सुंदर बनाने में नाकाम रहती हैं, बल्कि देखने में घिनौनी भी लगती हैं। कुछ लोगों की त्वचा काफी अच्छी होती है, लेकिन फिर भी वे संतुष्ट नहीं होते और खुद पर तमाम तरह के सौंदर्य-प्रसाधन पोतने पर जोर देते हैं। एक समय ऐसा आता है जब वे घटिया सौंदर्य-प्रसाधन इस्तेमाल करते हैं और कुरूप होकर रह जाते हैं, उनके पूरे चेहरे पर दाग-धब्बे पड़ जाते हैं और पूरा चेहरा बदरंग हो जाता है और देखने में डरावना लगता है। कुछ लोग सौंदर्य-उपचार और प्लास्टिक-सर्जरी दोनों करवाते हैं—उनमें से कुछ अपनी नाक की हड्डी ऊँची करवाने की कोशिश करते हैं, लेकिन न सिर्फ उसे ऊँची करवाने में विफल रहते हैं, बल्कि उसे विकृत बना डालते हैं, और कुछ लोग ठुड्डी में फिलर लगवाते हैं जो गलत हो जाता है और जब भी वे मुस्कुराते या जम्हाई लेते हैं तो हास्यास्पद लगते हैं, जिससे उन्हें कभी इनमें से कुछ भी करने से डर लगता है—यह बहुत दुखद है, यह जीने का कितना थकाऊ तरीका है! क्या वे ऐसा करके अपने लिए मुसीबत खड़ी नहीं कर रहे हैं? अपने कद से असंतुष्ट कुछ महिलाएँ अपने पैरों का निचला हिस्सा तुड़वा लेती हैं और फिर उन्हें जोड़कर लंबा करवाती हैं, लेकिन प्रक्रिया गलत हो जाती है जिससे उनके पैर, जो पहले बिल्कुल ठीक थे, अपंग हो जाते हैं। क्या यह त्रासद नहीं है? (है।) तमाम तरह के खराब नतीजे निकले हैं—ऐसे लोग कभी अच्छे नहीं बनते। दुष्ट प्रवृत्तियों द्वारा समर्थित कोई भी विचार या दृष्टिकोण भ्रामक और दुष्ट होता है, यह वाकई बेहद हानिकारक है। जिस स्वादिष्ट भोजन और सौंदर्य अभ्यासों का वे समर्थन करती हैं, वे वास्तव में अच्छे नहीं होते; वे सब दुष्ट होते हैं और अंततः लोगों को नुकसान पहुँचाते और फँसाते हैं। ये अज्ञानी महिलाएँ यह नुकसान सहने को तैयार रहती हैं और उनमें इन दुष्ट विचारों और दृष्टिकोणों से बचने की कोई क्षमता नहीं होती। वे वही खाती हैं जो उनसे खाने को कहा जाता है और वही करती हैं जो उनसे करने को कहा जाता है, जरा भी चीजों का भेद नहीं पहचानतीं, बस आँख मूँदकर पीछे चलती हैं। वे कितनी आज्ञाकारी हैं! और आखिर में क्या होता है? उनमें से शायद ही किसी को अच्छा नतीजा मिलता है। अगर उन्हें बीच रास्ते में ही अपनी गलती का एहसास नहीं होता और वे अपना नुकसान कम करने के लिए बीती घटनाओं पर विचार नहीं करतीं, अगर वे इन दुष्ट प्रवृत्तियों का अनुगमन करती रहती हैं और इन दुष्ट विचारों और दृष्टिकोणों को स्वीकारती रहती हैं, तो अंततः वे उत्तरोत्तर विकृत होती जाएँगी, अच्छे और बुरे में भेद करने में उत्तरोत्तर असमर्थ होती जाएँगी और रूप-रंग में उत्तरोत्तर शैतानों जैसी होती जाएँगी, इंसानों जैसी नहीं रह जाएँगी। यह कहा जा सकता है कि निन्यानबे प्रतिशत लोग सकारात्मक और नकारात्मक चीजों का भेद नहीं पहचानते और स्वेच्छा से बुरी प्रवृत्तियाँ स्वीकार लेते हैं। जब महिलाएँ साथ मिलकर कपड़े खरीद रही होती हैं तो देखो वे क्या कहती हैं। कुछ महिलाएँ कहती हैं, “यह तुम पर अच्छा नहीं लगता; यह तुम्हारे चेहरे को गोरा नहीं दिखाता और न ही तुम्हारी देहयष्टि का दिखावा करता है। यह किसी का ध्यान नहीं खींचेगा। मेरे खयाल से वह आकर्षक दिखता है और लोगों का ध्यान खींचेगा!” दूसरी महिलाएँ कहती हैं, “यह मोहक नहीं है। तुम्हें अपनी त्वचा थोड़ी उभारने की जरूरत है, तुम्हें सेक्सी और नयनाभिराम बनने की जरूरत है—सिर्फ यही काम करेगा। अगर तुम हमेशा इतनी लकीर की फकीर बनी रहोगी तो कोई तुम्हें पसंद नहीं करेगा।” कुछ माँएँ तो इस बात पर भी जोर देती हैं कि उनकी बेटियाँ अभिनेत्री बनें। बेटी कहती है, “मनोरंजन उद्योग बहुत गड़बड़ है! मैं अभिनेत्री नहीं बनना चाहती।” तब उसकी माँ उसे डाँटती है : “क्या तुममें कोई महत्वाकांक्षा नहीं है? अपने कद, रूप और त्वचा के साथ तुम्हारे पास बहुत अच्छी प्राकृतिक स्थितियाँ हैं! अगर तुम अभिनेत्री बनकर पैसे नहीं कमाओगी, तो हम अपनी बुनियादी जरूरतें कैसे पूरी करेंगे? अगर तुम मशहूर हो सकती हो और पैसा कमा सकती हो, तो किसी के साथ सोना भी ठीक है। वरना तुम अपने अच्छे नैन-नक्श बर्बाद कर लोगी! हमने तुम्हें इस उम्र तक पाला है और तुम्हारे पिताजी और मैं तुम्हारी सफलता का आनंद लेने का इंतजार करते रहे हैं! अगर हमें इतना भी नहीं दिया गया, तो हमने तुम्हें किस लिए पाला था?” क्या माता-पिता का अपने बच्चों को इस तरह शिक्षित करना सही है? (नहीं।) बच्चों को इस तरह शिक्षित करने के क्या नतीजे होते हैं? (बच्चों को नुकसान होता है।) एक दिन जब ऐसा बच्चा चीजें समझ जाता है और वह इतने ज्यादा दुख और दर्द से गुजर चुका होता है तो वह यह कहते हुए अपनी माँ से अनिवार्यतः नफरत करने लगता है और नाराज होने लगता है : “यह सब तुम्हारा दोष है! तुमने मेरा मार्गदर्शन कर मुझे सही रास्ते पर नहीं चलाया! मैंने कहा था कि मैं अभिनय नहीं करना चाहती, लेकिन तुम जिद पर अड़ी रही। अब देखो मुझे—मैं लगभग चालीस की हो गई हूँ, मैं अभी भी पति नहीं ढूँढ़ सकती और कोई मुझे नहीं चाहता। जो लोग मेरे पीछे पड़े थे, वे बस खिलवाड़ कर रहे थे और कभी मुझसे शादी करने का इरादा नहीं रखते थे। क्या मेरी पूरी जिंदगी बर्बाद नहीं हो गई?” बच्चे बहुत तकलीफ झेलते हैं और माता-पिता दोषी और समस्या की जड़ होते हैं। वे अपने बच्चों को नुकसान पहुँचाते हैं।

अगर परमेश्वर में विश्वास करने वाले भी गैर-विश्वासियों की ही तरह बुरी प्रवृत्तियों से खुद को छुड़ाने में असमर्थ रहते हैं, तो यह एक समस्या की ओर संकेत करता है। अगर तुम किसी भी बुरी प्रवृत्ति, किसी भी दुष्ट, नकारात्मक कथन या ऐसे विभिन्न अभ्यासों का जिनमें लोग संलग्न रहते हैं, भेद नहीं पहचानते, चाहे वे कुछ भी हों, और भले ही तुम उनका अनुगमन करते हो और जानबूझकर उन्हें खुद पर आजमाते हो, तो भी परमेश्वर की नजर में ये सब शर्मिंदगी के प्रतीक हैं। परमेश्वर क्या कहेगा? वह कहेगा कि एक व्यक्ति के रूप में तुममें सही और गलत में अंतर करने की क्षमता नहीं है, तुममें सकारात्मक चीजें स्वीकारने की वास्तविकता नहीं है, और इतना ही नहीं, तुम नकारात्मक चीजों को अस्वीकार करने के क्रियाकलापों और अभ्यासों में संलग्न नहीं हुए हो। वह कहेगा कि तुम इंसान नहीं हो और तुम इंसानी जमीर और विवेक रखने की बुनियादी शर्त पूरी नहीं करते। वह कहेगा कि तुम इंसान नहीं हो और राज्य तुम्हें स्वीकार नहीं करेगा। अगर तुम इंसान नहीं हो तो तुम्हारे लिए सत्य स्वीकारना असंभव है, क्योंकि अपने दिल में तुम व्यक्तिपरक ढंग से जिन्हें स्वीकारने के इच्छुक हो, वे सब शैतान की दुष्ट चीजें हैं, और तुम्हारा दिल सकारात्मक चीजों का पूर्णतः प्रतिरोध करता है, उनका विरोध करता है और उन्हें अस्वीकार करता है; तुम्हारा उनके प्रति कभी स्वीकृति का रवैया नहीं रहा। इसलिए परमेश्वर कहता है कि तुम मानव नहीं हो, तुममें मानवता नहीं है। परमेश्वर मानवता रहित लोगों को नहीं चाहता। यह मत सोचना, “अगर परमेश्वर मुझे स्वीकार नहीं करता, तो मैं परमेश्वर को प्रभावित करने और अपने प्रति उसका रवैया बदलने के लिए थोड़ा और कष्ट सह लूँगा और थोड़ी और कीमत चुका दूँगा।” परमेश्वर चीजें करने का कोई निश्चित तरीका नहीं चाहता; परमेश्वर चाहता है कि तुममें अपने दिल की गहराई से सत्य स्वीकारने का रवैया हो और साथ ही सत्य स्वीकारने की वास्तविकता और सत्य का अभ्यास करने का प्रमाण हो। तुम्हें ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जिसमें वास्तव में मानवता हो—यह मानवता कोई दिखावटी चीज नहीं है। अगर तुममें वाकई सामान्य मानवता के कुछ चिह्न हैं, यानी अगर तुममें सही-गलत में फर्क करने की कई अभिव्यक्तियाँ हैं, अगर तथ्य दर्शाते हैं कि तुम सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हो, और अगर इस बात के उदाहरण हैं कि तुमने सकारात्मक चीजों को स्वीकार किया है और नकारात्मक चीजों को अस्वीकार किया है, और यह देखा जा सकता है कि तुममें सत्य को जीने की अभिव्यक्ति है, तो परमेश्वर कहेगा कि तुममें मानवता है और वह तुम्हें मानव कहेगा। अगर तुम कहते हो, “मुझमें भी मानवता है, मैं सकारात्मक और नकारात्मक चीजों का भेद पहचान सकता हूँ,” लेकिन तुममें सत्य वास्तविकता को जीने की अभिव्यक्ति नहीं है और तुम्हारे शब्दों का कोई प्रमाण नहीं है, तो यह तकलीफदेह है। धर्म-सिद्धांत के तौर पर तुम स्वीकार करते हो कि, “परमेश्वर जो कहता और करता है वे सब सकारात्मक चीजें और सत्य हैं और शैतान जो कहता और करता है वे सब दुष्टतापूर्ण, नकारात्मक चीजें हैं; परमेश्वर से जो कुछ आता है वह सब सकारात्मक चीजें हैं, शैतान से जो कुछ आता है वह सब नकारात्मक चीजें हैं और समाज के लोगों से जो कुछ आता है वह सब दुष्टतापूर्ण, नकारात्मक चीजें हैं”—अर्थात धर्म-सिद्धांत के तौर पर तुम बिना किसी समस्या के सही बोलते हो, और तुम जो बोलते हो उसमें कोई दोष नहीं पाया जा सकता—लेकिन जब तुम्हारा वास्तविक परिस्थितियों से सामना होता है, तब तुम कभी सकारात्मक चीजों को स्वीकार नहीं करते, कभी सकारात्मक चीजों पर कायम नहीं रहते और सकारात्मक चीजों के नियमों और कानूनों का पालन नहीं करते। यह साबित करता है कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सही और गलत का भेद नहीं पहचानता। लोग अपने दिल में स्पष्ट होते हैं कि उनमें ये अभिव्यक्तियाँ हैं या नहीं। जब तुम कोई दुष्टतापूर्ण, नकारात्मक विचार या दृष्टिकोण सुनते हो या किसी दुष्ट प्रवृत्ति के बारे में जानकारी सुनते हो तो तुम्हारा क्या रवैया होता है? तुम्हारे विचार और दृष्टिकोण क्या होते हैं? तुम्हारा झुकाव किस ओर होता है? तुम उससे सहमत होते हो या उससे विकर्षित होते हो? तुम उसे अपने दिल में सँजोकर रखने और आवश्यकता पड़ने पर उसका प्रयोग करने की योजना बनाते हो या तुम उससे विमुख होते हो और अपने दिल में उसकी निंदा करते हो और उसे स्वीकार करने से पूरी तरह इनकार करते हो? अपने दिल में तुम्हें यह जानना चाहिए कि तुम्हारा रवैया वास्तव में क्या है। अगर कोई कहता है कि वह नहीं जानता, तो क्या उसके पास दिल है? अपने रवैये के बारे में भी स्पष्ट न होना—क्या यह कोई सामान्य व्यक्ति है? अगर तुम अपने दिल में जानते हो कि तुम बेकार हो, और तुम जानते हो कि तुम्हारी विभिन्न बुरी प्रवृत्तियों और दुष्ट कथनों में बहुत रुचि है और तुम हमेशा उनका अनुगमन करना और उनमें भाग लेना चाहते हो, लेकिन खुद को थोड़ा पीछे हटने के लिए मजबूर महसूस करते हो क्योंकि तुम परमेश्वर के घर के विभिन्न सत्य सिद्धांतों से और परमेश्वर में अपने विश्वास के कारण मिले अपने गौरव से बेबस होते हो, जबकि वास्तव में तुम अपने दिल की गहराइयों में सकारात्मक चीजों से विकर्षित होते हो और उन्हें अस्वीकार करते हो, तो भले ही तुम दावा करो कि तुम्हें सकारात्मक चीजें पसंद हैं और बुरी प्रवृत्तियाँ नापसंद हैं, यह तुम्हारी वास्तविक भावनाओं के खिलाफ जाता है। एक उदाहरण पेश है। कुछ लोग कहते हैं, “बहुत अधिक मांस खाना अच्छा नहीं है, यह अस्वास्थ्यकर है। तुम्हें कम मात्रा में मांस खाना चाहिए और चावल, गेहूँ से बने खाद्य पदार्थ और सब्जियाँ अधिक खानी चाहिए।” कुछ लोग इसे स्वीकार सकते हैं। उन्हें नहीं लगता कि कम मांस खाना उनकी इच्छा के विरुद्ध होने वाला है; इससे वे परेशान या वास्तव में दुःखी महसूस नहीं करते। इसके बजाय वे सोचते हैं, “यही करना सही है। कुछ समय तक इसका अनुभव करने के बाद मुझे लगता है कि यह मेरे शरीर के लिए अच्छा है। मेरी समग्र मानसिक अवस्था सुधरी है और मैं शारीरिक रूप से पहले से ज्यादा स्वस्थ हूँ। इस तरह खाना बहुत अच्छा है!” लेकिन कुछ लोगों की स्वीकृति उनकी इच्छा के विरुद्ध होती है। उन्होंने बहुत पहले ही मन बना लिया होता है : “बहुत सारा मांस खाने में क्या अस्वास्थ्यकर है? ज्यादा सब्जियाँ खाना तुम्हें अनिवार्यतः स्वस्थ नहीं बनाता। तुम इसे किसी भी तरह से देखो, मांस ज्यादा स्वादिष्ट और मजेदार होता है! अगर मांस न हो तो कुछ सब्जियाँ खाना ठीक है—यह भूखे मरने से बेहतर है—लेकिन अगर मांस है तो तुम्हें खूब मांस खाना चाहिए। तुम सब मूर्ख हो, तुम सब दिखावा कर रहे हो। अकेला मैं हूँ जो दिखावा नहीं कर रहा। तुम लोगों में से कोई भी मेरे जितना सच्चा नहीं है। मैं वही कहता हूँ जो मैं सोचता हूँ। मांस वाकई स्वादिष्ट होता है!” हर भोजन में वे सब्जियाँ बहुत कम खाते हैं, लेकिन मांस काफी ज्यादा खाते हैं। बताओ, क्या वे सकारात्मक चीजों को दिल से स्वीकारते हैं? (नहीं।) वे उन्हें नहीं स्वीकारते, न ही उनका अभ्यास करने में सक्षम होते हैं। वे अपने दिलों में उनसे पूरी तरह से विकर्षित होते हैं। वे कहते हैं, “ये कथन सकारात्मक कैसे हो सकते हैं? मुझे क्यों नहीं लगता कि ये सकारात्मक हैं? इनमें क्या अच्छाई है? मेरे ज्यादा मांस खाने में क्या बुराई है? मैं मर नहीं गया और तुम लोगों में से कोई भी मुझसे बेहतर नहीं जी रहा!” वे तथ्य नहीं स्वीकारते और यह भी नहीं मानते कि ज्यादा मांस खाना उनके स्वास्थ्य के लिए खराब है। वे सही कथनों तक को नहीं स्वीकार सकते, तो फिर वे तथ्यों को कैसे स्वीकारेंगे? ऐसा होने की संभावना और भी कम होगी। ऐसे लोगों के लिए सकारात्मक चीजों को स्वीकारना उनकी इच्छा के बिल्कुल विपरीत होता है। उन्हें ऐसा करना बहुत कष्टदायक और कठिन लगता है। यह दर्शाता है कि उनकी मानवता में कोई समस्या है और वे अपने दिलों में सत्य से प्रेम नहीं करते। कुछ लोग सही शब्द सुनकर, जो कि सकारात्मक चीजें होती हैं, उन्हें यह कहते हुए सहजता से स्वीकार सकते हैं, “मैं इसी बात को लेकर चिंतित था और नहीं जानता था कि इससे किस तरीके से पेश आया जाए, मेरे पास अभ्यास का कोई मार्ग नहीं था। सौभाग्य से तुमने इस पर प्रकाश डाल दिया। तुम्हारी बात सुनते ही मुझे लगा कि चीजों के बारे में यह नजरिया सही है, यह दृष्टिकोण शुद्ध, वस्तुनिष्ठ और व्यावहारिक है और यह मानवता के अनुरूप है।” यह सुनने के बाद वे तुरंत इसे अभ्यास में ला सकते हैं। हालाँकि वे कभी-कभी आत्म-तुष्ट और स्वेच्छाचारी हो सकते हैं, लेकिन वे जल्दी से सही रास्ते पर लौट आते हैं। वे बिना इस बात की जरूरत महसूस किए कि दूसरे उनकी निगरानी करें या उन पर नियंत्रण रखें, सकारात्मक चीजें करते हैं और उन्हें ऐसा नहीं लगता कि ऐसा करना उनकी इच्छा के विरुद्ध है, न ही इससे उन्हें कोई परेशानी महसूस होती है। यह वैसा ही है जैसे भेड़ों को घास खाना पसंद होता है। अगर तुम भेड़ों को मांस दोगे तो वे उसे नहीं खाएँगी, लेकिन अगर तुम उन्हें घास दोगे तो वे उसे बड़े चाव से खाएँगी, क्योंकि वे शाकाहारी होती हैं और उन्हें आंतरिक रूप से घास की आवश्यकता होती है। लेकिन भेड़िये अलग होते हैं। वे खाने के लिए खास तौर से मांस खोजते हैं; वे घास नहीं खाते और उन्हें लगता है कि मांस जितना स्वादिष्ट कुछ भी नहीं है। ये उनकी प्रकृति के प्राकृतिक प्रकाशन हैं, जिन्हें कोई नहीं बदल सकता। यह कोई ऐसी चीज नहीं है जो वे बाद में अर्जित करते हों, न ही यह कोई ऐसी चीज है जो उन्हें सिखाई जाती हो। भेड़ें जन्म से घास खाती हैं और भेड़िये जन्म से मांस खाते हैं। कोई भी भेड़ को मांसाहारी जानवर बनना या भेड़िये को घास खाने वाला जानवर बनना नहीं सिखा सकता। यह उनके सार की अभिव्यक्ति है। तुम्हें क्या चाहिए और तुम किस चीज से प्रेम करते हो, यह तुम्हारी मानवता द्वारा निर्धारित होता है। अगर तुम्हारी मानवता को सकारात्मक चीजें नहीं चाहिए तो तुम सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करोगे। अगर तुम्हें नकारात्मक चीजें पसंद हैं तो इसका मतलब है कि तुम्हारे दिल को नकारात्मक चीजें चाहिए। यह तुम्हारे प्रकृति सार से तय होता है, इसे दूसरों को तुम्हारे भीतर डालने की जरूरत नहीं होती। अगर कोई तुम्हें सकारात्मक दिशा में मोड़ने में तुम्हारी मदद करना चाहता है और तुम्हारे साथ कुछ सत्य सिद्धांतों पर संगति करता है, तो तुम अपनी इज्जत का खयाल करके या शर्मिंदगी से बचने के लिए इसे अस्थायी रूप से स्वीकार सकते हो और मौखिक रूप से अपनी सहमति व्यक्त कर सकते हो, लेकिन पर्दे के पीछे तुम कैसे सोचते हो और कैसे अभ्यास करते हो, यह पूरी तरह से तुम्हारी प्रकृति से निर्धारित होता है। तुम इसका दिखावा नहीं कर सकते और तुम्हारे माता-पिता भी तुम्हें नहीं बदल सकते। तुम्हारी मानवता में सकारात्मक चीजों से प्रेम करना और नकारात्मक चीजों से घृणा करना शामिल है या नहीं, यह कोई तय नहीं कर सकता; सिर्फ तुम्हारा सार ही इसे तय करता है। क्या यह बात अब स्पष्ट है? (हाँ।) इसलिए, कोई सही-गलत का भेद पहचान सकता है या नहीं, यह उसकी मानवता के बारे में बहुत-कुछ कहता है। अगर तुम्हारा सही-गलत का भेद पहचानना एक प्राकृतिक प्रकाशन है, तो तुम जन्म से कुछ सकारात्मक चीजों में विशेष रुचि रखते हो। जब कोई व्यक्ति कोई सही चीज कहता है तो तुम उसे सुनने के लिए बहुत इच्छुक रहते हो और तुम बस यही चाहते हो कि वे और ज्यादा कहें ताकि तुम ज्यादा सुनो और ज्यादा लाभ उठाओ, और तुम कम भटकते हो या बिल्कुल नहीं भटकते। और जब तुम्हारा सामना कुछ दुष्टतापूर्ण, नकारात्मक चीजों से होता है तो तुम अपने दिल में उनसे विकर्षित होते हो और उनसे बचते हो और उनमें शामिल होने के अनिच्छुक होते हो—यहाँ तक कि उनके बारे में सुनना भी नहीं चाहते। तुम इसके कारण नहीं जानते; तुम बस नकारात्मक चीजें पसंद कर ही नहीं सकते, लेकिन जब कोई सही बात कहता है तो तुम उसे सुनने के बहुत इच्छुक होते हो और अगर कोई तुम्हारा उपहास करता है तो भी तुम परवाह नहीं करते—तुम नहीं जानते कि यह प्रेरणा कहाँ से आती है। कुछ लोग तुम्हारी इस सच्ची प्रेरणा को देखकर तुम्हारा तिरस्कार करते हैं और तुम्हारा मजाक उड़ाते हैं, तुम्हें मूर्ख समझते हैं, लेकिन तुम असहमत होते हो। तुम सोचते हो, “अगर कोई सही कहता है तो मैं उसे स्वीकारता हूँ। इसमें इतनी मुश्किल क्या है?” यह मानवता का एक प्राकृतिक प्रकाशन है। तुम्हारी मानवता में सकारात्मक चीजों से प्रेम करने और नकारात्मक चीजों से विमुख होने की यह प्राकृतिक भावना होना सामान्य मानवता की एक विशेषता और अभिव्यक्ति है। जब तुममें यह भावना और ऐसी मानवता होती है, तभी तुम ईमानदार और दयालु हो सकते हो और सही ठवन और रुतबे से वह कह सकते हो जो कहना चाहिए और वह कर सकते हो जो करना चाहिए। जब तुममें मानवता का सही-गलत का भेद पहचानने वाला पहलू होता है, तो तुममें सत्य स्वीकारने और परमेश्वर के विभिन्न स्पष्ट कथन, जिनमें सत्य सिद्धांत शामिल होते हैं, स्वीकारने की मूलभूत स्थिति होती है। अगर तुममें मानवता का सही-गलत का भेद पहचानने वाला पहलू नहीं होता, तो तुम्हारी मानवता में जमीर और विवेक अनुपस्थित होते हैं और तुममें सत्य स्वीकारने, परमेश्वर के वचन स्वीकारने और परमेश्वर से तमाम सकारात्मक मार्गदर्शन और सही मार्ग स्वीकारने की मूलभूत स्थिति नहीं होती। यहाँ तक कि तुममें सत्य स्वीकारने और सकारात्मक चीजें स्वीकारने की मूलभूत स्थिति भी नहीं होती, इसलिए तुम्हारे समर्पण करने में सक्षम होने का कोई भी जिक्र सिर्फ बेतुका, कोरी कल्पना होता है।

अगर कोई यह नहीं जानता कि सकारात्मक चीजें क्या होती हैं और नकारात्मक चीजें क्या होती हैं और फिर भी कहता है, “मेरे पास जमीर है और मैं बहुत ईमानदार और दयालु हूँ,” तो क्या यह आत्म-जागरूकता की अनुपस्थिति नहीं दर्शाता? तुम्हारी ईमानदारी कहाँ से आती है? तुम्हारा मन नकारात्मक चीजों से ही भरा है—तुम किस चीज के इस्तेमाल से साबित कर सकते हो कि तुम ईमानदार हो? तुम्हारा सबूत कहाँ है? तुम किस आधार पर कहते हो कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो? और तुम अपनी तथाकथित दयालुता को अभ्यास में कैसे ला सकते हो? तुम्हारे अंदर दुष्टता, नकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों के सिवा कुछ नहीं है। क्या तुम दयालु हो सकते हो? तुम लोगों को फँसाते नहीं या उन्हें नुकसान नहीं पहुँचाते, यही अच्छा करते हो। कुछ लोग यह साबित करने के लिए कि उनमें मानवता है और वे ईमानदार और दयालु हैं, अपने झेंग वांग, झेंग झांग, झेंग झोउ, झेंग गैंग जैसे नाम रख लेते हैं[क]—हालाँकि ये नाम निश्चित रूप से “ईमानदार” होना ध्वनित करते हैं, फिर भी क्या इनका मतलब यह है कि व्यक्ति वास्तव में ईमानदार है? सच्ची ईमानदारी कहाँ से आती है? वह मानवता से आती है। जब व्यक्ति की मानवता में सही-गलत का भेद पहचानने की क्षमता या बुनियादी स्थितियाँ होती हैं, तभी वह ईमानदार हो सकता है। अगर तुम यह भी नहीं जानते कि सकारात्मक चीजें क्या होती हैं या तुम सकारात्मक चीजें बस पसंद ही नहीं करते और तुमने कभी एक भी सकारात्मक चीज या सकारात्मक विचार और दृष्टिकोण स्वीकार नहीं किया है, फिर भी तुम ईमानदार होने का दावा करते हो तो क्या यह बेशर्मी नहीं है? किस आधार पर तुम ईमानदार होने का दावा करते हो? कुछ लोग कहते हैं, “मेरी विश्वदृष्टि, जीवन-मूल्य और जीवन के प्रति दृष्टिकोण सब सही हैं।” क्या इसका सत्य से कोई लेना-देना है? क्या सही विश्वदृष्टि, जीवन-मूल्य और जीवन के प्रति दृष्टिकोण होने का यह मतलब है कि व्यक्ति के पास सत्य है? दूसरे लोग कहते हैं, “मुझमें ‘सकारात्मक ऊर्जा’ है। मैं जो कहता और करता हूँ, वह व्यावहारिक होता है और लोगों का आत्मिक उन्नयन करता है। मैं कभी लोगों को तबाह करने वाली चीजें नहीं कहता, मैं कभी कोई निराशाजनक बात नहीं कहता और मैं ऐसी चीजें नहीं कहता जिनसे लोगों को शर्मिंदगी हो या वे नकारात्मक और कमजोर महसूस करें या जो उन्हें हतोत्साहित करें। मैं जो कुछ भी कहता हूँ, वह लोगों को प्रोत्साहित, प्रेरित या उत्प्रेरित करता है। क्या इसे ‘सकारात्मक ऊर्जा’ माना जाता है? ‘सकारात्मक ऊर्जा’ शब्द आजकल समाज में बहुत प्रचलित है। ‘सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर होना’ कितना शानदार, फैशनेबल और उत्तम विचार है!” अन्य लोग कहते हैं, “देखो, मैं कैसे धार्मिकता की भावना से भरा हुआ हूँ। जब मैं वहाँ खड़ा होता हूँ तो एक सैनिक जैसा दिखता हूँ—मेरी आँखें चमकीली और निगाह पैनी है, मैं छिछोरा नहीं हूँ। वे स्थानीय गुंडे, नीच खलनायक और बुरे लोग मेरे नजदीक आने की हिम्मत नहीं करते। जब वे मेरे सामने होते हैं तो उनका असली रूप सामने आ जाता है, वे अपनी कायरता दिखाते हैं और नीच दिखाई देते हैं। जब आम आदमी मेरे आसपास होता है, तो उसे सही तरह से पेश आना पड़ता है और वह लापरवाही से क्रियाकलाप करने की हिम्मत नहीं करता। देखो, मेरी यह धार्मिक भावना दुष्टता का दमन कर सकती है!” क्या यह ईमानदार होना है? (नहीं।) समाज में गरीबों की मदद करने के लिए अमीरों को लूटना, न्यायोचित कार्य के लिए बहादुरी से क्रियाकलाप करना, दयालु और दानशील होना और संकटग्रस्त युवतियों को बचाकर नायक बनना लोकप्रिय है। कुछ लोग ये काम करके खुद को नायक समझते हैं और कई अन्य लोग इन नायकों के आगे नतमस्तक होते हैं। दूसरे लोग कहते हैं, “मैं कभी लोगों का फायदा नहीं उठाता, मैं धार्मिकता की भावना से भरा हुआ हूँ, मैं दृढ़तापूर्वक ईमानदार और निष्पक्ष हूँ और मैं सही-गलत में अंतर कर सकता हूँ। जब दो लोग लड़ रहे होते हैं और मुझसे विवाद में मध्यस्थता करने के लिए कहते हैं तो मैं दोनों पक्षों को बराबर सजा देता हूँ और कोई पक्षपात नहीं करता। देखो, मैं किस धार्मिक भावना से भरा हुआ हूँ, हर कोई मेरी प्रशंसा करता है!” क्या इसे ईमानदार होना माना जाता है? (नहीं।) जहाँ पहले उल्लिखित “सही विश्वदृष्टि, जीवन-मूल्य और जीवन के प्रति दृष्टिकोण” और “सकारात्मक ऊर्जा” के विचार लोकप्रिय चीनी कहावतें हैं, वहीं यह आखिरी कहावत—दयालु और दानशील होना, पुण्य संचित करना और अच्छे काम करना और न्यायपूर्ण उद्देश्य के लिए बहादुरी से काम करना—संभवतः सभी देशों और सभी लोगों में सार्वभौमिक रूप से सम्मानित है। इसलिए लोग इसे धार्मिकता की भावना, ईमानदारी मानते हैं। यहाँ तक कि परमेश्वर में विश्वास करने वाले ज्यादातर लोग भी सोचते हैं कि यह बहुत ईमानदार है और कहते हैं, “हमारे राष्ट्रीय नायक, फलाँ-फलाँ को देखो। उसने राष्ट्र के धार्मिक और महान उद्देश्य के लिए अपना जीवन न्योछावर कर दिया, राष्ट्र की रक्षा के लिए एक बंकर को उड़ाने के लिए खुद को बलिदान कर दिया। वह धार्मिकता की भावना से ओतप्रोत था। आखिर मानवता होने का यही तो अर्थ है!” अब इस पर गौर करें, तो क्या यह दृष्टिकोण सही है? (नहीं।) यह गलत कैसे है? ऐसी ईमानदारी, जिसे लोग ईमानदारी मानते हैं या जिसका लोग आदर करते हैं, का मूल्यांकन उन मानकों के आधार पर किया जाता है जो अच्छी और अपेक्षाकृत सकारात्मक चीजों के लिए इंसानी लालसा पर आधारित होते हैं। लोगों की दैहिक धारणाओं और कल्पनाओं के कारण, और चूँकि वे नहीं समझते कि सकारात्मक चीजें क्या होती हैं, इसलिए वे उन लोगों को अच्छे लोग मानते हैं जो दूसरों के लिए अपने हितों का त्याग कर सकते हैं और अच्छे व्यवहारों में संलग्न रहते हैं—या जो सक्रिय रूप से दूसरों को नहीं फँसाते या नुकसान नहीं पहुँचाते, दूसरों के लिए कोई खतरा पैदा नहीं करते और जो कोई बुरे नतीजे नहीं लाए हैं—और वे उनका आदर करते हैं और उन्हें ईमानदार निरूपित करते हैं। “ईमानदार” की यह परिभाषा लोगों की ईमानदारी की धारणाओं पर और साथ ही बुरी प्रवृत्तियों और दुष्ट मानवजाति के प्रति उनकी घृणा और अद्भुत चीजों के लिए उनकी लालसा पर आधारित है। चूँकि मानवजाति में ज्यादातर लोग दूसरों को दबाते, धमकाते, फँसाते और नुकसान पहुँचाते हैं और चूँकि यह दुनिया बहुत बुरी, अंधकारमय है और इसमें निष्पक्षता या धार्मिकता का नामोनिशान नहीं पाया जाता, इसलिए जब ऐसे नायक या तथाकथित अच्छे सामरी और अच्छे कर्म करने वाले प्रकट होते हैं, तो लोग उनका सम्मान करते हैं, उन्हें सर्वोत्तम संभव शब्दों से परिभाषित करते हैं। क्या इस परिभाषा के सिद्धांत सटीक हैं? (वे सटीक नहीं हैं।) परिभाषा के सिद्धांत और आधार ही अपने आप में गलत हैं। उदाहरण के लिए, एक समूह में कोई ऐसा व्यक्ति है जिसे ज्यादातर दूसरे लोग धमकाते हैं, लेकिन एक खास व्यक्ति है जो उसे नहीं धमकाता। जिस व्यक्ति को धमकाया जा रहा है, वह कहता है, “वह जो मुझे नहीं धमकाता, एक अच्छा व्यक्ति है।” क्या यह कथन सटीक है? (नहीं।) क्या यह तर्कसंगत है? (यह तर्कसंगत नहीं है।) बताओ, इसमें क्या गलत है? (शायद जो व्यक्ति उसे नहीं धमकाता वह उसे प्रतिकूल नहीं पाता या वह उसे इसलिए नहीं धमकाता क्योंकि वस्तुनिष्ठ स्थिति और परिस्थितियाँ उपयुक्त नहीं हैं। इसका यह मतलब नहीं कि वह एक अच्छा व्यक्ति है।) उसके दृष्टिकोण में तार्किक त्रुटि है। यह विचार कि जो लोग तुम्हें धमकाते हैं वे बुरे लोग हैं, इसलिए जो लोग तुम्हें नहीं धमकाते वे अच्छे लोग ही होंगे, एक तार्किक त्रुटि है, है ना? (हाँ।) दूसरों को धमकाने वाले ज्यादातर लोग अच्छे लोग नहीं होते, लेकिन दूसरों को धमकाने का क्या मतलब है इसे परिभाषित करने का तुम्हारा मानक जरूरी नहीं कि सटीक हो, इसलिए तुम्हारी इस परिभाषा का सटीक होना भी जरूरी नहीं कि जो लोग तुम्हें धमकाते हैं वे बुरे लोग होते हैं और यह कहना भी सटीक नहीं कि जो लोग तुम्हें नहीं धमकाते वे अच्छे लोग ही होंगे। ऐसे कई परिदृश्य हो सकते हैं जिनमें कोई तुम्हें न धमकाए। हो सकता है वह तुम पर कोई ध्यान नहीं देना चाहता, इसलिए वह तुम्हें धमकाने की जहमत नहीं उठा सकता। शायद वह तुम्हें जानता ही न हो, इसलिए तुम्हें धमका नहीं सकता। शायद उसे लगता हो कि तुम उससे ज्यादा ताकतवर हो, इसलिए वह तुम्हें धमकाने की हिम्मत नहीं करता। ऐसे कई संभावित परिदृश्य हैं। उसे एक अच्छे इंसान के रूप में परिभाषित करने का तुम्हारा आधार इस नींव पर निर्मित है कि उसने तुम्हें धमकाया नहीं, इसलिए इस परिभाषा का आधार ही गलत है। किसी को एक अच्छे इंसान के रूप में परिभाषित करने का असली आधार क्या होता है? अगर यह व्यक्ति सकारात्मक चीजों से प्रेम करता है, दूसरों के साथ निष्पक्षता से और सिद्धांतों के साथ पेश आता है और अपने काम करने के तरीके में भी सिद्धांत रखता है, तो भले ही वह कभी-कभी तुम्हारे साथ रुखाई से, कठोर लहजे में बात करता हो या तुम्हारी आलोचना करता हो, वह तुम्हें धमका नहीं रहा होता। वह सिद्धांतों के अनुसार काम कर रहा होता है और मामलों का आकलन तथ्यों के आधार पर कर रहा होता है। इस तरह वह वास्तव में एक अच्छा इंसान होता है और वह लोगों के साथ सिद्धांतों के अनुसार पेश आने में सक्षम होता है। लेकिन कुछ लोग ऐसे नहीं होते। जब वे देखते हैं कि तुम्हारे पास रुतबा है और तुम दुर्जेय हो, तो वे तुम्हारी चापलूसी करते हैं। जब वे देखते हैं कि तुम्हारे पास कोई रुतबा नहीं है और तुम वंचित हो, तो वे तुम्हें धमकाते हैं, कुचलते हैं और बोलते समय हमेशा तुम्हें ठेस पहुँचाते हैं। अगर तुम कुछ सही करते हो तो वे तुमसे ईर्ष्या करते हैं। अगर तुम कुछ गलत करते हो तो वे तुम्हारा मजाक उड़ाते हैं और तुम्हें नीचा दिखाते हैं। ऐसे लोग बुरे लोग होते हैं। अगर तुम अच्छे-बुरे का मापन सकारात्मक चीजों और सत्य सिद्धांतों के आधार पर करते हो तो चीजों को मापने के तुम्हारे मापदंड और तुम्हारे मापन के नतीजे सही होंगे। दुनिया और समाज में सकारात्मक और नकारात्मक चीजों का मूल्यांकन या परिभाषा अपने आप में उलटी है। समाज में ज्यादातर लोग अपने प्रिय नेताओं, मशहूर लोगों या सितारों को अपना आदर्श मानते हैं। ये मशहूर लोग, सितारे और नेता चाहे कुछ भी कहें, उन्हें लगता है कि वह सही है और कोई उसे उजागर नहीं करता या उसका विरोध नहीं करता। चाहे वे लोग आम लोगों पर कितना भी रोब जमाएँ और कितनी भी सीनाजोरी करें, गरीबों के साथ भेदभाव करें या उनसे पैसे ऐंठें, या बेवजह इंसानी जिंदगियाँ इस तरह नष्ट करें जैसे वे बेकार हों, कोई उनका विरोध करने या उनके खिलाफ प्रदर्शन करने के लिए खड़ा नहीं होता। अगर वे राजनीतिक बढ़त हासिल करने के लिए कुछ अच्छी चीजें करते हैं तो बहुत लोग उनकी प्रशंसा और बड़ाई करेंगे। अगर न्याय के लिए लड़ने वाला कोई व्यक्ति आकर शैतानी शासन को या प्रसिद्ध लोगों और महान हस्तियों को उजागर करता है, तो जनता सामूहिक रूप से उस पर हमला करेगी, हताशापूर्वक उन्हें हटाने और गायब करने की आशा करेगी। यह क्या दर्शाता है? यह कि समाज हर चीज अन्यायपूर्ण और विकृत तरीके से करता है; वह सही और गलत को उलट देता है। भ्रष्ट मानवजाति जिन मानकों से अच्छे और बुरे, और सकारात्मक और नकारात्मक को परिभाषित करती है, वे सब गलत होते हैं, इसलिए उनके द्वारा निकाले गए निष्कर्ष भी अनुचित होते हैं।

आओ, एक उदाहरण देखते हैं। कुछ लोग घरों में घुसकर लूटपाट करते हैं—गरीबों की मदद के लिए अमीरों को लूटते हैं। अमीरों की संपत्ति लूटने के बाद वे आम लोगों की मदद करते हैं। जब आम लोग इससे लाभान्वित होते हैं और इसका फायदा उठाते हैं तो वे खुश होते हैं और इन लोगों की प्रशंसा नायकों और सदाचारी ईमानदार लोगों के रूप में करते हैं। लेकिन अगर तुम इन तथाकथित सदाचारी ईमानदार लोगों द्वारा किए गए कार्यों का विश्लेषण करो, तो क्या वे वास्तव में ईमानदार होते हैं? कुछ अमीर लोगों ने अपनी संपत्ति परिश्रमपूर्वक प्रबंधन और प्रयास से अर्जित की होती है और कुछ तो ऐसे भी होते हैं जिन्होंने कई पीढ़ियों के प्रबंधन और प्रयास से ही अपनी संपत्ति संचित की होती है। तुम किस अधिकार से उनकी चीजें लूटते हो? तुमने उनकी निजी संपत्ति लूटी है—यह गलत है। अगर तुम सक्षम हो तो जाकर खुद पैसा कमाओ। अपने कमाए हुए पैसे का इस्तेमाल गरीबों की सहायता के लिए करना—इसे दानशील होना माना जा सकता है। लेकिन तुम अमीरों की संपत्तियाँ लूटते हो, दूसरों की संपत्ति अपनी बना लेते हो और फिर गरीबों की मदद करते हो। गरीबों की नजर में इसे ईमानदार माना जाता है। क्या यह बिल्कुल बेतुका नजरिया नहीं है? गरीब और आम लोग ऐसे लोगों का नायकों के रूप में सम्मान करते हैं और ये “नायक” इस उपाधि और इस सम्मान का ऐसे आनंद लेते हैं मानो यह उनका हक हो। क्या यह बेशर्मी नहीं है? क्या यह बिल्कुल बेतुका नहीं है? (है।) खुद उनके पास वह नहीं होता जो पैसा कमाने के लिए जरूरी है और वे अमीरों के प्रति द्वेष रखते हैं, इसलिए वे हिंसा का इस्तेमाल करके अमीरों का धन लूटते हैं और उसे आम लोगों में बाँट देते हैं, ताकि आम लोग उनकी तारीफ करें। दरअसल, वे जो चीजें लेते हैं, वे उनकी अपनी मेहनत से कमाई हुई बिल्कुल नहीं होतीं और गरीब लोग जिन चीजों का आनंद लेते हैं, वे इन लुटेरों की नहीं, बल्कि अमीरों की होती हैं। तो फिर ऐसा क्यों होना चाहिए कि चूँकि ये चीजें उनके हाथों से गुजरी होती हैं, सिर्फ इसलिए आम लोग और गरीब उनके प्रति पूर्णतया आभारी हों? और क्या आम लोगों का इन चीजों का शांत जमीर के साथ आनंद लेना सही है? क्या ये वे चीजें हैं जिनके तुम हकदार हो? क्या तुमने इन्हें अपनी मेहनत से कमाया है? तुम उन लूटी हुई चीजों का, जो तुमने नहीं कमाई हैं, शांत जमीर के साथ आनंद लेते हो और तुम्हें यह भी लगता है कि अमीरों को लूटा जाना चाहिए और तुम्हें लूटी हुई चीजों का आनंद लेना चाहिए। तुम्हें ये चीजें मुफ्त में और बिना कोई कीमत चुकाए मिलती हैं और तुम शांत जमीर के साथ इनका आनंद लेते हो। क्या यह बेशर्मी नहीं है? (हाँ।) ये तथाकथित नायक लोगों की इस प्रशंसा और इस सम्मान का आनंद लेते हैं। ये चीजें वे अपने अहंकार को संतुष्ट करने के लिए करते हैं। लोग जितनी ज्यादा उनकी प्रशंसा और पूजा करते हैं, वे उतने ही उन्मत्त हो जाते हैं, और वे महलों तक को लूट लेते हैं, उनके अंदर का खजाना चुरा लेते हैं, उसे बेच देते हैं और फिर गरीबों के आँगन में पैसा बिखेर देते हैं। वे गरीबों की मदद अमीरों को लूटकर करते हैं। क्या यह पूरी तरह से बेतुका नहीं है? (है।) इस बारे में तो कुछ भी कहना ही क्या कि दूसरों की संपत्ति लूटना कानून का उल्लंघन है या नहीं, नैतिकता और मानवता की दृष्टि से भी यह अस्वीकार्य है और यह तथाकथित ईमानदारी नहीं है। जिन चीजों को उन्होंने लूटा, वे बिल्कुल भी ऐसी चीजें नहीं हैं जिन पर उनका कोई हक होना चाहिए। वे नीच, घटिया, संदिग्ध, गैरकानूनी और अपरंपरागत तरीकों से हासिल की गई चीजें हैं। वे उनके बदले कुछ पैसे लेते हैं और उन लोगों की मदद करते हैं जिन्हें प्रथमतः मदद की जरूरत ही नहीं है या उनके विचार से जिनकी मदद की जानी चाहिए, और फिर इन लोगों से प्रशंसा पाते हैं और इस सम्मान का आनंद लेते हैं। क्या यह बेशर्मी नहीं है? फिर भी उन्हें खुद पर बहुत गर्व होता है और वे खुद को ऐसे नायक कहते हैं जो गरीबों की मदद के लिए अमीरों को लूटते हैं। ऐसे लोग समाज में खासे लोकप्रिय होते हैं। प्राचीन काल में ऐसे कुछ तथाकथित “नायक” होते थे और उनकी कहानियाँ आज भी प्रचलित हैं। क्या यह बेतुका नहीं है? (है।) पूरी मानवजाति में बहुत कम लोग हैं जो वास्तव में समझते हैं कि सकारात्मक चीजें क्या हैं और नकारात्मक चीजें क्या हैं। लोग इन चीजों का भेद नहीं पहचान सकते। “नायकों” द्वारा लूटी गई चीजों का आम लोग कितने दिन आनंद ले सकते हैं? क्या तुम इनके हकदार हो? क्या इन्हें तुमने कमाया है? न तो तुमने इन्हें कमाया है और न ही तुम इनके हकदार हो—इसे नाहक लाभ स्वीकारना कहते हैं। क्या इन चीजों का आनंद लेना तुम्हारे लिए सम्मानजनक है? तुम गरीब इसलिए हो क्योंकि तुम आलसी हो या तुममें क्षमता की कमी है। जमीर और विवेक से युक्त व्यक्ति को भोजन और वस्त्र पाकर संतुष्ट रहना चाहिए और उसे उसी का आनंद लेना चाहिए जो वह कमा सकता है। परमेश्वर तुम्हें गुजारा करने का साधन देता है, इसलिए तुम्हें संतुष्ट रहना चाहिए। अगर तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जो अमीर है, जिसके पास बहुत-सी चीजें हैं, जो धनी है और तुम हमेशा जो कुछ उसके पास है उसमें बराबर का हिस्सा चाहते हो, तो क्या यह उचित है? यह विचार अपने आप में तर्कसंगत नहीं है। शैतान समाज को नियंत्रित करता है और समाज की सत्ता उसके पास है, इसलिए बेशक निष्पक्षता नहीं है। समाज में गरीब बहुत हैं जबकि अमीर कम हैं—चाहे इसका कारण कुछ भी हो, तथ्य यह है कि कुछ लोग अमीर हैं और कुछ लोग गरीब। समाज ऐसा ही है—हो सकता है तुम सक्षम होने के बावजूद अमीर न बन पाओ और हो सकता है तुम सक्षम न होने के बावजूद एक अमीर आदमी की जिंदगी जी पाओ। कोई भी इन चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं समझा सकता, लेकिन चाहे जो भी हो, इसमें भी परमेश्वर का विधान है। दूसरों से लूटी गई चीजें तुम्हारी नहीं हैं और अगर तुम उन्हें पा लो, तो भी वे तुम्हारी नहीं हैं और देर-सवेर तुम उन्हें खो दोगे। उन लोगों को देखो जो बहादुरी और न्याय का ढोंग रचकर घरों में घुसकर लूटपाट करते हैं और गरीबों की मदद करने के लिए अमीरों को लूटते हैं। वे पर्दे के पीछे हर तरह की खराब चीजें करते हैं, जैसे खाना, पीना, वेश्यावृत्ति, जुआ खेलना और नशीले पदार्थों का सेवन करना, यहाँ तक कि कुछ तो हत्या या बलात्कार तक कर बैठते हैं। फिर, गरीबों की मदद करने के लिए अमीरों को लूटने के कुछ कारनामे करने मात्र से ही आम लोग उनकी नायकों की तरह पूजा करने लगते हैं। क्या यह नीच चरित्रों के फलने-फूलने का मामला नहीं है? आम लोग—घृणित किस्म के लोग, नीच लोग और भीड़—जब भी थोड़ा लाभ प्राप्त करते हैं तब खुश होते हैं और जो भी उन्हें लाभ पहुँचाता है, उसकी प्रशंसा करते हैं। और उन “नायकों” का क्या? आम लोग उन्हें कुछ सम्मान देते हैं, पुरस्कृत करते हैं और नायक मानते हैं, इसलिए उन्हें लगता है कि यह तारीफों का मुकुट है, वे सचमुच नायक हैं और उनका कोई सानी नहीं है। इसलिए वे लूटपाट करते रहते हैं और नतीजतन, जब वे किसी राजमहल को लूटते हैं तब अंततः एक ही गोली में मारे जाते हैं। वे सचमुच सोचते थे कि उनमें महान क्षमताएँ हैं और वे अलौकिक हैं, वे असाधारण हैं और आम लोगों से श्रेष्ठ हैं, लेकिन असल में उनमें एक गोली से बचने तक की क्षमता नहीं थी और वे अपनी जान गँवा बैठे। क्या वे इसी के हकदार नहीं थे? (हाँ।) लूटपाट का कृत्य अपने आप में सम्माननीय नहीं है। यह नीचता है। आम लोगों की प्रशंसा पाने, अच्छी प्रतिष्ठा पाने, थोड़ा सम्मान पाने के लिए डकैती पर निर्भर रहना—यह कितनी घृणित चीज है। अंत में, वे अपनी प्रशंसा तक करते हैं : “आम लोग गुजारा नहीं कर सकते और लोग मुश्किल हालात में हैं, यह सब अधिकारियों की वजह से है। देखो, मुझमें कितनी ज्यादा धार्मिकता की भावना है; मुझमें निम्न-वर्ग के आम लोगों के लिए दया है!” क्या ऐसे लोग ईमानदार होते हैं? (नहीं।) आम लोग भी कुटिलता से बोलते हैं और थोड़ा-सा लाभ मिलने पर मुस्कुरा देते हैं। अगर उन्हें तुमसे किसी भी तरह का लाभ नहीं मिलता तो तुम चाहे कितनी भी मुश्किल में हो, वे तुम पर ध्यान नहीं देंगे। लेकिन अगर तुम उन पर उपकार करते हो, उन्हें कुछ ठोस लाभ दिलाते हो, तो वे खुश हो जाएँगे और कहेंगे, “तुम कितने अच्छे इंसान हो! बहुत दानशील व्यक्ति हो!” वे बहुत अच्छी लगने वाली चीजें कहते हैं, लेकिन उनका कहा एक भी शब्द सच नहीं होता। यहाँ तक कि वे सही शब्द भी नहीं बोल पाते। भला वे ईमानदार कैसे हैं? असल में उनकी हर बात कपटपूर्ण होती है।

कुछ लोग खुद को धार्मिकता की भावना से ओतप्रोत, जमीर और मानवता वाले लोग मानते हैं। लेकिन क्या उनकी यह धार्मिकता जिक्र करने लायक भी है? इसके अलावा, यह धार्मिकता की भावना बिल्कुल नहीं है; यह एक प्रकार की ईमानदारी है जिसकी उन्होंने विलक्षण रूप से अपने लिए कल्पना कर ली है, जिसका परमेश्वर द्वारा कही गई सकारात्मक चीजों से या किसी भी सत्य सिद्धांत से कोई लेना-देना नहीं है। यह ईमानदारी नहीं है; यह विकृत तर्क, पाखंड और भ्रांतियाँ हैं। यह कहा जा सकता है कि जिन बातों का वे प्रचार करते हैं, जैसे सकारात्मक ऊर्जा, सही विश्वदृष्टि, जीवन-मूल्य और जीवन के प्रति दृष्टिकोण और अद्वितीय, तीक्ष्ण अंतर्दृष्टि, वे ईमानदार और सही प्रतीत तो होती हैं, लेकिन वास्तव में ऐसी नहीं होतीं। संक्षेप में कहें तो, ये सभी हानिकारक प्रवृत्तियाँ और बुरे प्रभाव, विकृत तर्क और पाखंड हैं; ये सभी नकारात्मक चीजें हैं और ये सभी पाखंड और भ्रांतियाँ हैं जो सकारात्मक चीजों के बिल्कुल विपरीत हैं। इसलिए, अगर तुम गैर-विश्वासियों की इन बातों से सहमत हो और अपने दिल में हमेशा इन दृष्टिकोणों से चिपके रहते हो, तो यह साबित होता है कि गैर-विश्वासियों की ही तरह तुम भी एक ईमानदार इंसान नहीं हो और तुम्हारी मानवता में कोई ईमानदारी नहीं है। तुम खुद को एक ईमानदार इंसान के रूप में पेश करना चाहते हो, ठीक वैसे ही जैसे शैतान खुद को प्रकाश के दूत के रूप में पेश करने की कोशिश करता है। शैतान कुछ अच्छी लगने वाली बातें कहता है, खुद को परमेश्वर, एक ईमानदार सदाचारी इंसान और किसी सकारात्मक चीज के रूप में पेश करना चाहता है। तुम भी खुद को कुछ ऐसा ही पेश कर रहे हो जो तुम नहीं हो; तुम हमेशा कहते हो कि तुममें एक सही विश्वदृष्टि, जीवन-मूल्य, और जीवन के प्रति दृष्टिकोण है, कि तुममें सकारात्मक ऊर्जा और धार्मिक भावना है, कि तुम एक नायक हो, एक तीक्ष्ण और अद्वितीय अंतर्दृष्टि वाले व्यक्ति हो, या तुम ईमानदार हो और तुम्हें किसी चीज का डर नहीं है, कि तुम जहाँ भी जाते हो, लोगों से बोलते और व्यवहार करते समय अपने साथ एक धार्मिक भावना रखते हो—तुम हमेशा खुद को इसी तरह पेश करते हो। खैर, मैं कहता हूँ कि तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जिसमें ज्यादा जमीर बिल्कुल नहीं है, ऐसा व्यक्ति जो खुद को धार्मिकता की भावना रखने वाला, ईमानदार और मानवता से युक्त दिखाना चाहता है। चूँकि तुम इन चीजों का दिखावा कर रहे हो, इसका मतलब है कि तुममें ये चीजें नहीं हैं—वरना क्या तुम्हें इनका दिखावा करने की जरूरत होती? अगर तुममें सचमुच मानवता होती, तो तुम्हें उसका दिखावा करने की जरूरत न होती और न ही तुम तथाकथित “सही विश्वदृष्टि, जीवन-मूल्य और जीवन के प्रति दृष्टिकोण”, “सकारात्मक ऊर्जा”, “धार्मिकता की भावना होना” और “वीरतापूर्ण भावना होना” जैसी बातें स्वीकार कर पाते; तुम इन नकारात्मक चीजों को स्वीकार न करते—कहने की जरूरत नहीं कि आज तक इतने सारे उपदेश सुनने के बाद तुम्हें इन चीजों का भेद पहचानना आना चाहिए था। अगर तुममें मानवता होती, तो तुम बहुत पहले ही इन नकारात्मक चीजों को नकार चुके होते। अगर कोई सचमुच इन बातों और तर्कों को सामने रखे, तो भले ही तुम इनका भेद न पहचानते, लेकिन तुम इन्हें अपने दिल की गहराइयों से स्वीकार न करते। तुम सोचते कि ये चीजें बहुत झूठी हैं, तथाकथित समाजशास्त्रियों, शिक्षाविदों और विचारकों, तथाकथित प्रसिद्ध लोगों और महान हस्तियों, और दुनिया के उन राक्षसों और दानव राजाओं द्वारा समर्थित चीजें, ये सब ऐसी चीजें हैं जो लोगों को दिखावा करने के लिए कहती हैं। यह समाज में प्रचलित एक कहावत की तरह है, “अगर सभी थोड़ा-सा प्रेम दें, तो दुनिया एक अद्भुत जगह बन जाएगी।” देखो, दुष्ट दानव कहते हैं कि सभी को थोड़ा-सा प्रेम देना चाहिए, दूसरे शब्दों में, सभी आम लोगों को प्रेम देना चाहिए, सभी को दुष्ट दानवों से प्रेम करना चाहिए, सभी को आज्ञाकारी ढंग से उनकी पार्टी की बात सुननी और माननी चाहिए, और देश और उनकी पार्टी के लिए कोई बखेड़ा खड़ा नहीं करना चाहिए या परेशानी पैदा नहीं करनी चाहिए, और तब दुनिया में शांति होगी। दरअसल, आम लोग कब बखेड़ा खड़ा करते हैं? स्पष्ट रूप से, ये शैतान ही हैं जो अशांति भड़काते हैं और सत्ता और लाभ के लिए होड़ करते हैं। मानवजाति शैतान द्वारा गुमराह और भ्रष्ट कर दी गई है; वे सब दानवों और शैतान का अनुगमन करते हैं और वे सभी परमेश्वर से दूर रहते हैं और उसका विरोध करते हैं। तो, क्या यह समाज शांति का अनुभव कर सकता है? मुझे बताओ, क्या यह कहावत “अगर सभी थोड़ा-सा प्रेम दें, तो दुनिया एक अद्भुत जगह बन जाएगी” सही है? ये सब बच्चों को धोखा देने के लिए कहे गए शब्द हैं। अगर तुम इन शब्दों का भेद नहीं पहचानते और यह मानते हो, “दुनिया के लिए अभी भी आशा है, इस मानवजाति में अभी भी बुरे लोगों से ज्यादा अच्छे लोग हैं, भविष्य में दुनिया एक अद्भुत जगह बन जाएगी और यह मानवजाति एक सुंदर भविष्य की ओर बढ़ेगी,” तो तुम्हारे विचार और दृष्टिकोण आम जनता से अलग नहीं हैं और तुम बस एक अमानव हो। अमानवों की एक विशेषता यह है कि वे खास तौर से खुद को छिपाना पसंद करते हैं, अपने रूप को छिपाने के लिए सुखद लगने वाली, अलंकृत, पाखंडी बातों का उपयोग करते हैं, जबकि उनके दिलों की गहराइयाँ विशेष रूप से गंदी और अंधकारमय होती हैं और उनकी घृणित, घटिया चालें एक के बाद एक चलती रहती हैं। उन्हें न्याय और धार्मिकता से जरा भी प्रेम नहीं होता; उन्हें बस चालें चलना पसंद होता है। वे सुनने में बहुत मधुर लगने वाली चीजें कहते हैं; अपनी मुस्कुराहट के पीछे खंजर छिपाए रहते हैं और हर संभव दुष्कर्म करते हैं। ऐसे लोग मानवता से रहित होते हैं। ये ठीक उन्हीं लोगों के प्रकाशन हैं जिनमें मानवता नहीं होती। क्या यह ईमानदारी की अभिव्यक्ति है? (नहीं।) चूँकि ये लोग ईमानदार नहीं होते, इसलिए क्या तुम्हें लगता है कि ये दयालु हो सकते हैं? (नहीं।) दयालु होना तो भूल जाओ, अगर ये एक भी बुरा काम कम कर दें, तो यह जश्न मनाने का कारण होगा, धरती पर सभी के लिए एक आशीष होगा। और फिर भी ये खुद को ईमानदार कहते हैं! यह बस उनका अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना है! ये तो यह भी नहीं जानते कि सकारात्मक चीजें क्या होती हैं और सकारात्मक चीजों के बारे में सुनने के बाद भी ये अपने दिलों में उन्हें पसंद नहीं करते, यहाँ तक कि उनसे विकर्षित होते हैं और घृणा करते हैं। और फिर भी वे कहते हैं कि वे ईमानदार और दयालु हैं। उन्हें क्या लगता है कि वे किसे बेवकूफ बना रहे हैं? मानवजाति की तथाकथित ईमानदारी, दयालुता और विवेक सकारात्मक चीजों पर आधारित नहीं हैं, न ही ये सत्य के मानदंडों पर आधारित हैं। इस प्रकार, मानवजाति द्वारा परिभाषित लोगों की ईमानदारी, दयालुता, तार्किकता और लोगों का जमीर और विवेक सब गलत हैं, उनका सत्य में कोई आधार नहीं है और वे सब विकृत तर्क और पाखंड हैं।

अगर व्यक्ति में जमीर और विवेक है, तो प्रथमतः, वह सही और गलत का भेद पहचान सकता है। दूसरे, वह जानता है कि क्या सही है और क्या गलत। आओ, पहले सही और गलत का भेद पहचानने के बारे में बात करते हैं। अपना आकलन करो और फिर अपने माता-पिता और अपने भाई-बहनों का आकलन करो—क्या तुम लोगों में से कोई सही और गलत का भेद पहचान सकता है? क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो? अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सही और गलत का भेद पहचान सकता है, तो भविष्य में तुम्हारा सत्य स्वीकारना और उसके प्रति समर्पण करना स्वाभाविक होगा। थोड़ा प्रयास करके, थोड़ा कष्ट सहकर और थोड़ी कीमत चुकाकर तुम इसे हासिल कर पाओगे—तब तुम्हारे उद्धार की आशा है। अगर तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो सही और गलत का भेद पहचान सकता है और अतीत में तुम सत्य से विमुख थे, उसे स्वीकार नहीं सकते थे और उसका अभ्यास करने को तैयार नहीं थे और सत्य स्वीकारने और उसका अभ्यास करने का जिक्र आते ही तुम पूरी तरह से चिढ़ जाते थे और ऐसा महसूस करते थे जैसे तुम्हारा सिर किसी शिकंजे में फँस गया हो, तुम व्यथित थे और स्वतंत्रता से वंचित थे, तो भविष्य में भी सत्य स्वीकारने और उसका अभ्यास करने के बारे में तुम्हारी यही भावना रहेगी; तुम सत्य नहीं स्वीकारोगे। सत्य स्वीकारने में तुम्हारी असमर्थता और उससे तुम्हारी विमुखता का कारण यह नहीं है कि तुमने परमेश्वर में थोड़े समय से ही विश्वास किया है, न ही यह कारण है कि परमेश्वर ने तुम्हें अनुशासित नहीं किया है या तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं ली है। ये असली मूल कारण नहीं हैं। असली मूल कारण क्या है? तुममें सही और गलत का भेद पहचानने की क्षमता नहीं है, यह बुनियादी स्थिति असली मूल कारण है, इसलिए भविष्य में भी तुम सत्य नहीं स्वीकार पाओगे और सत्य के प्रति समर्पण हासिल नहीं कर पाओगे। कुछ लोग कहते हैं, “अगर मैं सत्य नहीं स्वीकार सकता या उसके प्रति समर्पण नहीं कर सकता, तो क्या मैं तब भी उद्धार पा सकता हूँ?” और तुम लोग क्या कहते हो—क्या वे पा सकते हैं? (नहीं।) मेरा उत्तर है, “यह कहना बहुत कठिन है।” यह कहना बहुत कठिन क्यों है? अब जबकि मैंने इतना कुछ कह दिया है और इतनी सारी अभिव्यक्तियाँ सूचीबद्ध कर दी हैं, तो यह निश्चित नहीं है कि तुम स्वयं का उनसे मिलान कर सकोगे या उन्हें अपने भीतर पहचान सकोगे। इसके अलावा, यह भी निश्चित नहीं है कि जिन मामलों और सत्य के जिन पहलुओं के बारे में मैंने बोला है उन्हें तुम समझ सकते हो या नहीं। इसलिए, अगर मैं तुम्हें यह नहीं बताता कि तुम बचाए जा सकते हो या नहीं, तो भी तुममें से प्रत्येक व्यक्ति सत्य और सकारात्मक चीजों के प्रति अपने रवैये के आधार पर इसका पता लगा सकता है। मुझे तुम्हें इतनी स्पष्टता से और खुलकर बताने की कोई आवश्यकता नहीं है; तुम लोग अपने-अपने दिल में पहले से ही जानते हो।

अब जबकि हमने सही और गलत का भेद पहचानने के बारे में संगति पूरी कर ली है, इसलिए अब हमें यह जानने के बारे में बात करनी चाहिए कि क्या सही है और क्या गलत, है ना? (हाँ।) यह जानना कि क्या सही है और क्या गलत, निश्चित रूप से सही और गलत का भेद पहचानने से अलग है; वरना इन पर अलग-अलग चर्चा करने की कोई आवश्यकता न होती। यह जानने का कि क्या सही है और क्या गलत, अर्थ यह है कि मानवता के परिप्रेक्ष्य से व्यक्ति को यह जानना चाहिए कि कौन-से दृष्टिकोण और कौन-से शब्द सही हैं और कौन-से गलत। जो सही हैं उन्हें बरकरार रखना चाहिए और जो गलत हैं उसे छोड़ देना चाहिए। सामान्य लोगों के मन में, क्या सही है और क्या गलत, इसका भेद पहचानने के लिए कुछ विचार, दृष्टिकोण और आधार होते हैं। वे जो सही है उस पर दृढ रहेंगे और जो गलत है उसका विरोध करेंगे या उसे अस्वीकार तक कर देंगे। अगर कोई यह भी नहीं कर सकता, तो यह दर्शाता है कि उसकी मानवता में कुछ कमी है; यह भी निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि ऐसे लोग मानवता से रहित होते हैं। एक व्यक्ति के रूप में अगर तुम कहते हो कि तुममें मानवता है, लेकिन तुम यह तक नहीं जानते कि क्या सही है और क्या गलत, तो तुम आचरण कैसे कर सकते हो? तुम सही ढंग से आचरण कैसे कर सकते हो? तुम हर शब्द मानवता के भीतर कैसे बोल सकते हो और हर क्रियाकलाप मानवता के भीतर कैसे कर सकते हो? अगर तुम नहीं जानते कि क्या सही है और क्या गलत, तो तुम्हारा हर शब्द और हर क्रियाकलाप मानवता के भीतर बोला और किया नहीं जाता। मानवता के भीतर न बोलने या क्रियाकलाप न करने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि तुम ये शब्द और ये क्रियाकलाप उन सही विचारों और दृष्टिकोणों के आधार पर तर्कसंगत ढंग से नहीं बोलते और नहीं करते, जो मानवता में होने चाहिए—अपनी मानवता के भीतर न बोलने या क्रियाकलाप न करने का यही अर्थ है। कुछ लोग कहते हैं, “अगर कोई अपनी मानवता के भीतर नहीं बोलता या क्रियाकलाप नहीं करता, तो वह किस आधार पर बोलता और क्रियाकलाप करता है?” मोटे तौर पर कहें तो इसके दो आधार हैं। एक है राक्षसी प्रकृति के भीतर बोलना और क्रियाकलाप करना, औऱ शैतानी स्वभाव के अनुसार जीना। जो लोग सत्य समझते हैं, वे देख सकते हैं कि इन लोगों के विचार, दृष्टिकोण और रवैये उनके शब्दों और क्रियाकलापों में वैसे ही होते हैं जैसे शैतानों के होते हैं और ये चीजें लोगों को गुमराह करती हैं, नुकसान पहुँचाती हैं, लुभाती और बहकाती हैं, और सकारात्मक नहीं होतीं। यह एक आधार है : अपनी राक्षसी प्रकृति के भीतर बोलना और क्रियाकलाप करना। दूसरा है दरिंदे की तरह बोलना और क्रियाकलाप करना, और दरिंदे मानवता से और भी अधिक रहित होते हैं। मानवता से रहित होने का अर्थ है जमीर या विवेक के बिना बोलना और क्रियाकलाप करना; सीधी-सी बात है। दरिंदे जो शब्द बोलते हैं, वे भ्रमित, मूर्खतापूर्ण, विकृत शब्दों का ढेर होते हैं; वे जो कहते हैं वे बस कुछ विकृत धर्म-सिद्धांत होते हैं। देखो, वे जो शब्द बोलते हैं, वे जानवरों के विचारों और दृष्टिकोणों के समान होते हैं—वे विकृत और मूर्खतापूर्ण, बेवकूफी भरे और भ्रमित होते हैं। उनकी बातें सुनने के बाद तुम्हें समझ नहीं आता कि हँसें या रोएँ, और तुम कहते हो, “वह ऐसा कैसे कह सकता है? मानो वह कोई तीन से पाँच साल तक का बच्चा हो, बेतुका और कुछ भी न जानने वाला। ये वे शब्द नहीं हैं जो एक वयस्क को कहने चाहिए! उसके शब्दों में दम नहीं होता, वे हास्यास्पद होते हैं—वे इतने शर्मनाक होते हैं कि लोगों के सामने नहीं कहे जा सकते!” यह एक जानवर, एक दरिंदा बोल रहा है। वह दरिंदे की प्रकृति के भीतर बोल और क्रियाकलाप कर रहा है, बिना किसी बोलने के शऊर या तर्कसंगतता के, जमीर और विवेक तो दूर की बात है। यानी उसकी वाणी बेहद तर्कहीन होती है, उसके पीछे कोई तर्क नहीं होता। तुम नहीं जानते कि वे जो चीजें कहते हैं, वे कहाँ से आती हैं, और उन्हें सुनने के बाद तुम पूरी तरह से भ्रमित और किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हो। जितना ज्यादा तुम उनके शब्द और उनके द्वारा चीजों का वर्णन सुनते हो, उतना ही ज्यादा तुम्हें वह अराजक लगता है और तुम्हारे पास उसे समझने का कोई तरीका नहीं होता। जब वे बोलते हैं तो हमेशा बेकार की बातों में समय नष्ट करते हैं, चीजों को गड्डमड्ड कर देते हैं, खुद को दोहराते रहते हैं और एक ही चीज पर लगातार प्रलाप करते रहते हैं और फिर भी नहीं जानते कि अंत में उसे कैसे समेटें। यह एक दरिंदा, एक जानवर बोल रहा है। ऐसे लोगों की एक विशेषता होती है जो यह है कि चाहे वे कुछ भी करें, कुछ भी कहें, उनके पास चाहे कोई भी विचार या दृष्टिकोण हो या वे चाहे कोई भी विचार या दृष्टिकोण आत्मसात करें, यहाँ तक कि वे खुद नहीं जानते कि वह सही है या गलत। यह उनकी मानवता की एक विशेषता है। उनकी मानवता की विशेषता अंततः यही निर्धारित होती है कि ऐसे लोगों में कोई मानवता नहीं होती, यानी उनमें कोई जमीर और विवेक नहीं होता। वे यह तक नहीं जानते कि क्या सही है और क्या गलत, तो क्या तुम्हें लगता है कि वे जमीर के साथ बोल सकते हैं और क्रियाकलाप कर सकते हैं? अगर वे नहीं जानते कि क्या सही है और क्या गलत, तो क्या उनमें एक सामान्य व्यक्ति का जमीर और विवेक हो सकता है? अगर वे इसका भेद नहीं पहचान सकते कि क्या सही है और क्या गलत, तो क्या उनमें एक सामान्य व्यक्ति की सोच हो सकती है? उनमें वह कभी नहीं होगी। सामान्य लोग ऐसे व्यक्ति से संवाद नहीं कर सकते। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्या इसलिए कि तुम प्रेमरहित हो? नहीं, ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम्हारे बीच कोई समानता नहीं है, तुम उसके साथ कोई विचार या दृष्टिकोण साझा नहीं करते। उसके साथ संवाद करना किसी जानवर, किसी दानव के साथ संवाद करने जैसा है; यह असंभव है। मुझे बताओ, अगर तुम दानवों और शैतानों के साथ सत्य के बारे में बात करते हो, तो क्या तुम उन्हें समझा सकते हो? अगर तुम दानवों और शैतानों से कहते हो, “तुम्हें परमेश्वर में विश्वास करना चाहिए। मानवजाति परमेश्वर ने सृजित की है। सृजित प्राणियों के रूप में यह सही और उचित है कि लोग परमेश्वर की आराधना करें,” तो वे क्या कहेंगे? “परमेश्वर की आराधना? मैं तो चाहता हूँ कि लोग मेरी आराधना करें! परमेश्वर की आराधना करने के लिए मुझे कितने पैसे मिलेंगे? अगर मुझे पैसे मिलेंगे तो मैं उसकी आराधना करूँगा।” ये कैसे शब्द हैं? क्या तुम दानवों से संवाद कर सकते हो? (नहीं।) जानवरों के बारे में क्या खयाल है, क्या तुम उनसे संवाद कर सकते हो? (हम उनसे भी संवाद नहीं कर सकते।) देखो, कुछ जानवर खाते समय अपने खाने के प्रति बेहद रक्षात्मक रहते हैं। अपना खाना समाप्त करने के बाद वे दूसरे जानवरों का खाना छीनने की भी कोशिश करते हैं। अगर तुम उनसे कहो, “खाने के लिए लड़ाई मत करो, सिर्फ अपना खाना खाओ,” तो क्या वे इसे समझ सकते हैं? (नहीं।) खाते समय वे फिर भी एक-दूसरे से खाना छीनेंगे और एक-दूसरे से लड़ना और एक-दूसरे को काटना तक शुरू कर देंगे। तुम उनसे संवाद कर ही नहीं सकते। उन्हें बचाने और खाने के लिए लड़ने से रोकने के लिए तुम्हें उपाय करने होंगे और उनका सख्ती से प्रबंधन करना होगा, खाने के समय उन्हें अलग-अलग खाना खिलाना होगा। उनका प्रबंधन करने का यही सही तरीका है। क्यों? क्योंकि वे जानवर हैं, उनमें कोई तर्क-शक्ति नहीं है और आत्म-संयम तो बिल्कुल भी नहीं है और वे यह आकलन नहीं कर सकते कि वे जो कर रहे हैं वह सही है या गलत, इसलिए तुम जो कहते हो वह कितना भी सही हो और उसमें कितना भी दम हो और चाहे वह उनके लिए कितना भी लाभदायक हो, वे उसे नहीं समझेंगे। जानवरों से पुनर्जन्म लिए हुए लोग भी ऐसे ही होते हैं। सत्य की चाहे कितनी भी स्पष्टता से संगति की जाए, वे उसे नहीं समझते, इसलिए वे कभी भी सही सिद्धांतों के अनुसार क्रियाकलाप नहीं करते। अगर वे कुछ गलत करते हैं तो भी उन्हें वह गलत नहीं लगता और वे उस पर अड़े रहते हैं और जीवन भर ऐसा करते रहते हैं। क्या वे जानवर नहीं हैं? जो लोग इंसानी भाषा नहीं समझ सकते, वे बिल्कुल जानवरों जैसे ही होते हैं—शायद ही उनसे कुछ बेहतर होते हों, अगर होते भी हों तो।

आओ, अब हम पाशविक और राक्षसी प्रकृति के बारे में बात नहीं करते, बल्कि मानवता के यह जानने के पहलू पर ध्यान केंद्रित करते हैं कि क्या सही है और क्या गलत। यह जानना कि क्या सही है और क्या गलत, एक ऐसी अभिव्यक्ति है जो मानवता से युक्त व्यक्ति में होनी चाहिए, लेकिन वास्तव में अनेक लोगों में इसका अभाव होता है। लोग अक्सर विकृत तर्क व्यक्त करते हैं, विकृत शब्द कहते हैं और भ्रामक क्रियाकलाप तक करते हैं और उन्हें एक खास दृढ़ता के साथ करते हैं, यहाँ तक कि वे अपना विकृत तर्क दूसरों तक भी फैला सकते हैं, उन तक पहुँचा सकते हैं। उनके द्वारा व्यक्त किया गया तर्क गंभीर रूप से विकृत होता है और फिर भी वे उसे दूसरों तक पहुँचाते हैं, न सिर्फ खुद को बल्कि दूसरों को भी नुकसान पहुँचाते हैं। उदाहरण के लिए, अगर वे चावल खाना पसंद नहीं करते तो वे कहेंगे, “चावल पौष्टिक नहीं होता। हमें नूडल्स, उबले हुए बन और ब्रेड खानी चाहिए।” वे कहते हैं कि चावल पौष्टिक नहीं होता। क्या यह कथन सही है? (नहीं।) क्या तुम पोषणविद् हो? क्या तुमने इसका परीक्षण किया है? चावल पौष्टिक नहीं है, यह कहने का तुम्हारा आधार क्या है? उदाहरण के लिए, कुछ जगहें ऐसी हैं जहाँ सिर्फ चावल उगाया जाता है, गेहूँ नहीं और वहाँ के लोग जीवन भर चावल खाते हैं और अच्छी तरह जीते हैं, कई लोग तो परिपक्व वृद्धावस्था तक पहुँचते हैं। लेकिन अपनी पसंद के आधार पर विकृत तर्क व्यक्त करने वाले लोग कह सकते हैं कि “चावल पौष्टिक नहीं होता”, यहाँ तक कि वे इसे इस तरह भी कह सकते हैं मानो यह ठोस तर्क हो। क्या यह वाकई ठोस तर्क है? (नहीं।) आओ, इसकी चर्चा नहीं करते कि यह कथन सत्य के अनुरूप है या नहीं—यह तो ठोस तर्क भी नहीं है। वे ऐसा विकृत तर्क कैसे दे सकते हैं? क्या वे इंसान हैं? (नहीं।) यह कथन स्पष्ट रूप से गलत है; यह स्पष्ट रूप से स्वार्थपूर्ण इच्छाओं और पूर्वाग्रह के कारण बोला गया कथन है, एक ऐसे व्यक्ति का कथन है जो विकृत तरीके से बोलता है। वह खुद नहीं जानता कि यह सही है या नहीं, फिर भी वह इसे बहुत खुलेआम घोषित करता है, हर जगह इसका ढिंढोरा पीटता है। कुछ लोग चावल खाना पसंद करते हैं और गेहूँ से बने खाद्य पदार्थ नापसंद करते हैं। जब वे किसी को गेहूँ से बने खाद्य पदार्थ खाते देखते हैं तो कहते हैं, “गेहूँ से बने खाद्य पदार्थ पौष्टिक नहीं होते, चावल पौष्टिक होता है। गेहूँ से बने खाद्य पदार्थ खाने वाले लोग निकम्मे होते हैं, जबकि चावल खाने वाले लोग कुलीन होते हैं!” वे इस सिद्धांत का इस्तेमाल हर तरह के लोगों को मापने के लिए करते हैं। अगर तुम्हें गेहूँ से बने खाद्य पदार्थ पसंद हैं तो वे तुम्हें तुच्छ समझते हैं और अपने जितना कुलीन नहीं समझते। यह कथन इतना स्पष्ट रूप से गलत है, फिर भी वे किसी तरह इसका भेद नहीं पहचान सकते, यहाँ तक कि इसे हर जगह बोलते भी हैं। बताओ, क्या ऐसे लोगों में मानवता होती है? (नहीं।) जब उन्हें चावल खाना अब और पसंद नहीं रहता और गेहूँ से बने खाद्य पदार्थ पसंद आने लगते हैं, तो वे कहते हैं, “चावल पौष्टिक नहीं होता, गेहूँ से बने खाद्य पदार्थ पौष्टिक होते हैं। देखो, गेहूँ से बने खाद्य पदार्थ खाने वाले लोग कितने तगड़े होते हैं; हमें ज्यादा नूडल्स और स्टीम्ड बन्स खाने चाहिए! चावल एक ठंडा खाद्य पदार्थ है, यह शरीर के लिए अच्छा नहीं है!” क्या यह कथन सही है? (नहीं।) क्या यह पूर्वाग्रह नहीं है? (हाँ, है।) यह एक पूर्वाग्रह है; यह तथ्य नहीं है। वे ऐसा किस आधार पर कहते हैं? अपनी प्राथमिकताओं और पूर्वाग्रहों के आधार पर, अपने भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों के आधार पर। लेकिन वे नहीं जानते कि यह गलत है, और यहाँ तक कि वे इसे इस तरह कहते और इसका ढिंढोरा पीटते हैं मानो यह सही हो। अगर कोई भिन्न मत व्यक्त करता है, तो वे बहस करेंगे और अभी भी अपने भ्रामक दृष्टिकोण पर अड़े रहेंगे। क्या यह इस बारे में अज्ञानता नहीं है कि क्या सही है और क्या गलत? (हाँ।) ऐसे साधारण मामले में भी वे नहीं जानते कि क्या सही है और क्या गलत—मुझे बताओ, क्या उनका जमीर काम करने में समर्थ है? क्या वे ईमानदार हो सकते हैं? एक ईमानदार व्यक्ति को न्याय और सिद्धांत कायम रखने में समर्थ होने के लिए यह अवश्य जानना चाहिए कि क्या सही है और क्या गलत; केवल तभी वह जो कायम रखता है वह सही होता है। अगर व्यक्ति यह नहीं जानता कि क्या सही है और क्या गलत और लगातार किसी गलत कथन या किसी गलत विचार और दृष्टिकोण से चिपका रहता है, तो क्या उसकी तथाकथित ईमानदारी सच्ची ईमानदारी है? यह ईमानदारी नहीं है; यह विकृति, बेतुकापन और विकृत तर्क है। तो मुझे बताओ, क्या ऐसे लोगों का जमीर होता है? (नहीं।) उनमें कहने लायक कोई जमीर नहीं होता। कुछ लोगों पर जब कोई चीज आ पड़ती है और उनके भीतर स्वार्थपूर्ण इच्छाएँ जाग उठती हैं, तो वे अपने दिल में उसे महसूस कर सकते हैं और अपनी तर्क-शक्ति से नियंत्रित हो सकते हैं। वे जानते हैं कि स्वार्थपूर्ण इच्छाएँ गलत हैं, इसलिए वे देह के विरुद्ध विद्रोह कर सकते हैं और उन्हें त्याग सकते हैं। लेकिन कुछ लोग अलग होते हैं; खासकर जो लोग नहीं जानते कि क्या सही है और क्या गलत और जो विकृत तर्क व्यक्त करने की प्रवृत्ति रखते हैं, वे मूर्खतापूर्वक और हठपूर्वक गलत दृष्टिकोण अपनाए रहेंगे। उदाहरण के लिए, कुछ लोग नृत्य करने में अच्छे नहीं होते; जब वे नृत्य करते हैं तो उनका समन्वय बिगड़ जाता है, उनमें संतुलन की कोई भावना नहीं रहती और वे ताल पर नहीं टिक पाते, हमेशा खुद का मजाक बनाते रहते हैं। इसलिए वे कहते हैं, “जिन लोगों को नृत्य करना पसंद नहीं है, वे स्थिर व्यक्ति होते हैं। जिन लोगों को नृत्य करना पसंद है, वे सब अस्थिर होते हैं, उनका व्यक्तित्व खराब होता है और वे लंपट होते हैं। अगर तुम ऐसे व्यक्ति से विवाह करते हो, तो तुम्हारा जीवन निश्चित रूप से अस्थिर होगा।” क्या यह कथन सही है? (नहीं।) यह गलत क्यों है? (नृत्य करने का स्थिर होने या न होने से कोई संबंध नहीं है।) इस बात पर विचार किए बिना कि क्या वे यह स्वार्थवश, ईर्ष्यावश या बदनामी करने का प्रयास करने के लिए कहते हैं, चाहे उनका इरादा कुछ भी हो, क्या उनके शब्द वस्तुनिष्ठ तथ्यों के अनुरूप हैं? जो लोग नाच सकते हैं और जो नाचने में अच्छे हैं, क्या वे अनिवार्य रूप से अस्थिर होते हैं? क्या ऐसे शब्द इन लोगों की मानवता के सार पर आधारित होते हैं? क्या यह तथ्य है कि वे अस्थिर होते हैं? (नहीं।) इसके अलावा, स्थिर होने का क्या अर्थ है? क्या स्थिर होने का अर्थ यह है कि व्यक्ति अच्छा इंसान है? क्या स्थिर होना ईमानदार और दयालु होने, मानवता से युक्त होने की अभिव्यक्ति है? ज्यादा से ज्यादा, यह व्यक्ति की मानवता का एक गुण या एक मजबूत बिंदु है; यह ये संकेत नहीं दे सकता कि व्यक्ति में सामान्य मानवता है। वे अपना दृष्टिकोण ऐसे बताते हैं मानो वह ठोस तर्क हो, मानो वह एक सही कथन हो। क्या यह विकृत तर्क व्यक्त करना नहीं है? (हाँ।) यह तथ्य कि वे ऐसे शब्द कह सकते हैं, यह साबित करता है कि वे नहीं जानते कि वे जो कह रहे हैं वह सही है या नहीं। बताओ, क्या ऐसे लोगों में मानवता होती है? (नहीं।) क्या वे बहुत परेशान करने वाले नहीं हैं? (हाँ।) अगर यह कोई सामान्य मानवता वाला व्यक्ति होता, तो भले ही उसे किसी अच्छे नाचने वाले से जलन होती, फिर भी वह ज्यादा से ज्यादा यही कहता, “देखो, नाचते समय इसके हाथ-पैर कितनी फुर्ती से चलते हैं। मैं भी नाचना चाहता हूँ, लेकिन मुझमें यह हुनर, यह खूबी नहीं है; मैं नाचने में अच्छा नहीं हूँ। मुझे सच में जलन हो रही है कि यह अच्छा नाच पाता है! काश, मेरे पास भी इसके जैसे हाथ-पैर होते!” इस तरह कहना फिर भी किसी तरह स्वीकार्य है; इसे बेलाग-लपेट सच बोलना कहते हैं। ज्यादा से ज्यादा, इसमें थोड़ा भ्रष्ट स्वभाव है, लेकिन यह अस्वस्थ मानवता की अभिव्यक्ति नहीं है। लेकिन विकृत तर्क व्यक्त करने की समस्या गंभीर है। वे कहते हैं, “जो लोग नाचते हैं वे सब अस्थिर और छिछोरे होते हैं। तुम एक ही नजर में बता सकते हो कि वे ऐसे लोग नहीं हैं जो महान चीजें कर सकते हैं।” यह तथ्य कि वे ये शब्द कह सकते हैं, यह उजागर करता है कि उनकी मानवता में एक बड़ी समस्या है। कौन-सी बड़ी समस्या? उनकी मानवता में यह जानने की बुनियादी स्थिति नहीं होती कि क्या सही है और क्या गलत। वे गलत चीजें, विकृत चीजें और टेढ़ी-मेढ़ी चीजें इस तरह कह सकते हैं मानो वे युक्तिसंगत तर्क और सही शब्द हों। यह ये दिखाने के लिए पर्याप्त है कि उनमें मानवता नहीं है। वे अपने जमीर से नियंत्रित हुए बिना जो चाहें कहते हैं। यहाँ तक कि वे इतने खुले तरीके से, इतने औचित्य की भावना के साथ विकृत तर्क व्यक्त करने में समर्थ होते हैं, जबकि उन्हें इन शब्दों की प्रकृति या यह तक पता नहीं होता कि उनके कहने के नतीजे क्या होंगे। यह मानवता न होने की अभिव्यक्ति है। जिन लोगों में मानवता नहीं होती, वे अक्सर खुलेआम ऐसी गलत और बेतुकी चीजें कहते हैं। यह उनका प्राकृतिक प्रकाशन है। वे सिर्फ एक-दो मामलों में ही ये चीजें नहीं कहते—वे सभी मामलों में इसी तरह बोलते हैं, किसी न किसी तरह के भ्रामक विचार और दृष्टिकोण व्यक्त करते हैं और अपने दिलों में यह मानते हैं कि वे ऐसे ही हैं। वे कभी भी सही या सकारात्मक कथन स्वीकार नहीं करते, न ही वे कभी सही या सकारात्मक कथन खोजते हैं, बल्कि इसी तरह बोलने और इसी तरह आचरण करने पर अड़े रहते हैं। इसलिए ऐसे व्यक्ति निश्चित रूप से मानवता से रहित लोग होते हैं। वे इसी तरह बोलने पर जोर देते हैं, जो पूरी तरह से एक समस्या, एक तथ्य को उजागर करता है : वे नहीं जानते कि क्या सही है और क्या गलत, और वे सोचते हैं कि तमाम पाखंड और भ्रांतियाँ सही हैं। अगर तुम उनसे पूछो, “गलत क्या है?” तो वे कहेंगे, “जो कुछ भी इन कथनों के विपरीत है वह संभवतः गलत है।” और अगर तुम उनसे आगे पूछो, “उन शब्दों के बारे में क्या खयाल है जो सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हैं, जो वस्तुनिष्ठ तथ्यों के अनुरूप हैं? क्या वे सही हैं?” तो वे कहेंगे, “मेरी बला से! कौन जाने वे सही हैं या नहीं? खैर, जो शब्द मैं कहता हूँ वे सही हैं!” यह न जानना कि क्या सही है और क्या गलत—क्या यह ऐसी अभिव्यक्ति है जो ऐसे व्यक्ति में होनी चाहिए जिसमें वास्तव में जमीर और विवेक है? (नहीं।) उत्तर बहुत स्पष्ट है : यह निश्चित रूप से ऐसी अभिव्यक्ति नहीं है।

एक व्यक्ति, जो व्यापार करना पसंद करता था, गैर-विश्वासियों से छूट पर कुछ कपड़े खरीदा करता और उन्हें भाई-बहनों को बेच देता और इसमें कुछ मुनाफा कमा लेता। बाद में किसी और ने गर्मियों के वस्त्रों के लिए रेयान, गॉज और ऐसे ही दूसरे कपड़े खरीदे और उन्हें गोदाम में रख दिया। मैंने कहा, “उन्हें वहाँ रखना ठीक नहीं है। अगर उन्हें वहाँ ज्यादा देर तक रखा गया, तो उन्हें चूहे कुतर सकते हैं या उमस भरे मौसम में उनमें फफूँद लग सकती है, जो बहुत ही शर्मनाक बात होगी। अगर हम उनसे भाई-बहनों के पहनने के लिए परिधान बना दें तो हमें इसकी चिंता नहीं करनी पड़ेगी, है ना?” बाद में, मैंने इसे व्यवस्थित करना शुरू किया। जब हम यह कर रहे थे, तो कपड़े बेचने वाला व्यक्ति खड़ा होकर आपत्ति करने लगा : “नहीं, हम ऐसा नहीं कर सकते! काला कपड़ा गर्मी सोख लेता है। भाई-बहन अक्सर धूप में काम करते हैं; अगर वे काले कपड़े पहनेंगे तो उन्हें बहुत गर्मी लगेगी। अगर भाई-बहन गर्मी की वजह से बीमार पड़ गए या उन्हें लू लग गई, तो इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा?” क्या यह सही लगता है? तुम लोग नहीं जानते, है ना? यहाँ एक वस्तुनिष्ठ तथ्य है : ये कपड़े बहुत पतले और हवादार थे, वे पहनने में बहुत ठंडे थे। भले ही काला कपड़ा पहनने में थोड़ा ज्यादा गर्म हो, लेकिन अगर परिधान थोड़े ढीले बनाए जाएँ, तो इससे लोग गर्मी से बीमार नहीं पड़ेंगे, जैसा कि कुछ लोग दावा करते हैं। इसके अलावा, ये सारे कपड़े काले नहीं थे; कुछ हलके रंगों के भी थे। दरअसल, जिस व्यक्ति ने यह कहा, उसके कुछ गुप्त इरादे थे। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? अगर तुम्हें संदर्भ पता न हो, तो तुम वाकई सोच सकते हो कि वह भाई-बहनों के प्रति विचारशील था। लेकिन अगर तुम्हें संदर्भ पता हो, तो तुम जान जाओगे कि ऐसा कहने के पीछे उसका एक एजेंडा था। अगर भाई-बहन रेयान के बने वे ठंडे कपड़े पहनते, तो वह अपने खरीदे हुए कपड़े न बेच पाता; भाई-बहन उन्हें न खरीदते। उसने जो कपड़े खरीदे थे, वे सब गली की दुकानों और क्लीयरेंस सेल से खरीदे गए थे और घटिया क्वालिटी के थे; उन्हें पहनकर तुम भिखारी जैसे दिखते। सबसे महत्वपूर्ण बात, उसके दाम सस्ते नहीं थे। अब जबकि तुम संदर्भ जानते हो, तो क्या तुम लोग समझ सकते हो कि उसने जो कहा वह सही था या नहीं? (हाँ।) उसने ऐसा क्यों कहा? (उसे डर था कि उसका सामान नहीं बिकेगा।) उसने यह नहीं कहा कि उसके स्वार्थपूर्ण इरादे हैं; उसने भाई-बहनों का ध्यान रखने का और यह चिंता करने का दिखावा किया कि वे गर्मी के कारण बीमार पड़ जाएँगे, ताकि उन परिधानों को बनाने में बाधा डाली जा सके, इस काम में बाधा डाली जा सके। एक और वस्तुनिष्ठ तथ्य यह है कि उसने खुद गर्मी में काली जींस और काले कपड़े पहने थे और कभी यह नहीं कहा कि उसे गर्मी लग रही है। क्या चल रहा था? उसने जो कहा, वह तथ्यों से मेल नहीं खाता था! हम रेयान कपड़े से भाई-बहनों के लिए कुछ वस्त्र बनाना चाहते थे और उसने कहा, “नहीं, काला कपड़ा बहुत गर्म होता है, इससे भाई-बहन गर्मी से बीमार पड़ जाएँगे।” उसने जो काली जींस पहनी थी वह रेयान से कहीं ज्यादा मोटी थी, तो उसे गर्मी कैसे नहीं लगी? तो क्या उसका यह कहना कि काले कपड़े बहुत गर्म होते हैं और इससे भाई-बहन गर्मी से बीमार पड़ जाएँगे, सही था? क्या यह कहते हुए वह ईमानदार था? वह ईमानदार नहीं था; वह वास्तव में जैसा महसूस कर रहा था उसके विपरीत जा रहा था। तो उसने जो कहा वह सही था या नहीं? क्या वह तथ्यों के अनुरूप था? (वह तथ्यों के अनुरूप नहीं था।) तो फिर उसने ऐसा क्यों कहा? ठीक इसलिए क्योंकि यह मामला उसके व्यावसायिक हितों से टकरा रहा था। वह अंदर से चिंतित था, लेकिन स्पष्ट नहीं कह पा रहा था, इसलिए वह मामले को बिगाड़ने, अपने हितों की रक्षा करने का अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए इन शब्दों का ही इस्तेमाल कर सका। मैंने ही इसका आयोजन किया था और उसने इस तरह खुलेआम इसमें गड़बड़ी की। अगर उसे मेरे आयोजन पर आपत्तियाँ थीं, तो वह उन्हें सीधे मेरे सामने ला सकता था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। बाहर से उसने बड़ा दिखावा किया, ऐसा लग रहा था कि उसे कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन पर्दे के पीछे उसने काम खराब कर दिया, बिल्कुल भी पीछे नहीं हटा। उसने क्या कहा? “सभी भाई-बहनों के पास पहनने के लिए कपड़े हैं और वे काफी अच्छे कपड़े पहने हैं। क्या ये परिधान बनाने के लिए इतने सारे लोगों का इस्तेमाल करना और इतनी मेहनत करना जरूरी है?” उसने मेरे सामने एक शब्द भी नहीं कहा; उसने पर्दे के पीछे इस तरह काम खराब किया। जब उसने ये शब्द कहे, तो क्या वह अपने दिल में जानता था कि ये सही हैं या नहीं? अगर उसने किसी साधारण व्यक्ति के साथ ऐसा किया होता और वह अपने दिल में जानता होता कि यह सही है या नहीं, और सिर्फ इसलिए किया होता क्योंकि वह लालच में अंधा हो गया था और निजी मनसूबों और लक्ष्यों से प्रेरित था, तो यह सिर्फ उसके चरित्र के साथ एक समस्या होती। लेकिन वह इस कृत्य से मुझे निशाना बना रहा था और काम खराब करने के लिए ये चीजें कहने के बाद वह नहीं जानता था कि ये सही हैं या नहीं, उसके दिल में इसका कोई भान नहीं था, न ही उसे कोई आत्म-ग्लानि हुई और वह अपने कृत्यों की प्रकृति नहीं जानता था। यह कैसा व्यक्ति है? क्या इसमें मानवता है? (नहीं।) उसने इतना गंभीर कृत्य किया, फिर भी दिल में कुछ महसूस नहीं किया। मुझे बताओ, क्या उसमें जमीर था? (नहीं।) उसमें जमीर नहीं था, यह साफ दिखाई देता है। भले ही वह कोई साधारण व्यक्ति हो जो उचित मामले निपटा रहा हो, परमेश्वर के घर में भाई-बहनों के लिए कुछ लाभदायक चीज कर रहा हो, तुम्हें उसका समर्थन करना चाहिए, उसे खराब नहीं करना चाहिए—उसे पूरा करने में सभी को सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग करना चाहिए। इस कार्य की तो बात ही छोड़ो जिसे मैंने आरंभ किया था; फिर भी उसने पर्दे के पीछे से उसे खराब करने का साहस किया और अपने राक्षसी पंजे फैलाने की हिम्मत की। इसकी प्रकृति बहुत गंभीर है! कार्य को नुकसान पहुँचाने के बाद भी वह एक अच्छा इंसान होने का दिखावा करता रहा, मानो कुछ भी न हुआ हो। मुझे बताओ, क्या उसमें लेशमात्र भी जमीर था? उसने फिर भी दावा किया कि वह परमेश्वर में विश्वास भी करता है। क्या परमेश्वर में विश्वास करने वाले को इसी के समान होना चाहिए? क्या परमेश्वर में विश्वास करने वाले में ऐसा ही जमीर और मानवता होनी चाहिए? वह तो यह भी नहीं जानता था कि वह किसमें विश्वास करता है और वह सही-गलत का भेद नहीं पहचान सकता था। वह कौन-सा कर्तव्य निभा सकता था? ऐसा व्यक्ति अभी भी आशीष पाने की आशा कर रहा है—क्या यह मजाक नहीं है? अगर उसने मेरे बारे में टिप्पणियाँ करके मुझे व्यक्तिगत रूप से निशाना बनाया होता और मैंने देखा होता कि वह जानबूझकर कलीसिया के कार्य में गड़बड़ नहीं कर रहा और बाधा नहीं डाल रहा और अपने कर्तव्य का उसका निर्वहन स्वीकार्य है, तो मैं इसे कुछ समय के लिए बर्दाश्त कर लेता और उस पर नजर रखता रहता। लेकिन मैं कुछ ऐसा कर रहा था जो परमेश्वर के घर और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए किया जाना जरूरी था, कुछ ऐसा जो सभी के लिए फायदेमंद था, और वह उसे बाधित करने और नुकसान पहुँचाने के लिए आ गया, मुझे काम करने से रोकने लगा। बताओ, क्या मुझे उसके साथ नरमी बरतनी चाहिए? अगर वह कोई छोटे आध्यात्मिक कद का व्यक्ति होता जो ज्यादा कुछ न जानता, लेकिन उसका कर्तव्य-निर्वहन आम तौर पर सफल रहता, तो मैं इसे बर्दाश्त कर सकता था और उसे पश्चात्ताप करने का एक मौका दे सकता था। अगर वह पश्चात्ताप करने का इच्छुक होता और परमेश्वर के घर के लिए सेवा करने का इच्छुक होता, तो मैं उसे छोड़ सकता था और उससे निपटता नहीं। अगर वह नहीं जानता कि उसके लिए क्या अच्छा है और वह पाखंड और भ्रांतियाँ फैलाता रहा और चीजों को बाधित करता रहा और नुकसान पहुँचाता रहा, तो मैं उसके साथ कोई शिष्टाचार नहीं दिखाऊँगा और सिद्धांतों के अनुसार उससे निपटूँगा। बुरे लोगों के साथ यही किया जा सकता है कि उनसे सिद्धांतों के अनुसार निपटा जाए। जब ​​कलीसिया को बाधा पहुँचाने वाले तमाम तरह के कीड़े-मकोड़े दूर कर दिए जाएँगे, तो कलीसिया कहीं अधिक शांतिपूर्ण होगी। जब इन गैर-मानवों से निपटा जाएगा, तो यह कितना शांतिपूर्ण होगा! सूअर, गाय-भैंस, घोड़े जैसे पशुओं को घर के अंदर रखना ठीक नहीं। अगर रखे जाएँगे, तो क्या नतीजा होगा? निश्चित रूप से इससे घर एक गंदा स्थान, एक अराजकता का स्थान बन जाएगा। अगर तुम कहते हो कि तुम इसे बर्दाश्त कर सकते हो, तो मैं देखना चाहूँगा कि तुम कितने दिन ऐसा कर सकते हो। जो चीजें घर के अंदर रखने लायक नहीं हैं, उन्हें बाहर निकाल देना चाहिए। उन्हें उसी जगह रहना चाहिए जो उनके लिए उपयुक्त हो और इस तरह समस्या हल हो जाती है। बर्दाश्त करना कोई समाधान नहीं है; सिर्फ समस्या हल करना ही समाधान है, है ना? (हाँ।) चाहे तुम इन गैर-मानवों के साथ कितने भी स्पष्ट रूप से संगति करो, वे उसमें से कुछ भी अभ्यास में नहीं लाएँगे। हालाँकि उन्होंने दस-बीस वर्ष परमेश्वर में विश्वास अवश्य किया होगा, लेकिन जब चीजें उन पर पड़ती हैं तो वे फिर भी गैर-विश्वासियों जैसे ही होते हैं; वे सत्य बिल्कुल नहीं स्वीकारते या उसका बिल्कुल भी अभ्यास नहीं करते, उनमें जीवन प्रवेश नहीं होता और जब चीजें उन पर पड़ती हैं तो वे बस चीजों में बाधा डालते हैं और उन्हें बिगाड़ते हैं। जब ऐसे लोगों ने अपना असली रूप नहीं दिखाया होता है, तब वे अनिच्छा से कुछ सेवा करते हैं। लेकिन एक बार जब उनका असली रूप प्रकट हो जाता है, तो उन्हें तुरंत दूर कर देना चाहिए—उनके प्रति कोई शिष्टाचार मत दिखाओ। अगर दिखाते हो, तो तुम उन लोगों के प्रति क्रूर होते हो जिनमें वास्तव में मानवता है, जो सत्य का अनुसरण करते हैं और अपना कर्तव्य निभाने के प्रति समर्पित हैं।

मानवता से रहित लोगों की एक स्पष्ट विशेषता यह होती है कि जब वे क्रियाकलाप करते हैं और बोलते हैं तो वे यह नहीं जानते कि क्या सही है और क्या गलत; वे हमेशा विकृत तर्क प्रस्तुत करते हैं। हम कहते हैं कि वे यह नहीं जानते कि क्या सही है और क्या गलत, फिर भी वे कभी सही चीज नहीं कहते या नहीं करते। वे सिर्फ गलत चीजें ही कहते हैं; वे कुछ भी कह सकते हैं, चाहे वह कितना भी गलत हो। उदाहरण के लिए, एक बार एक व्यक्ति ने एक परिधान खरीदा जो उसे फिट नहीं आया और उसने देखा कि औरों के परिधान उन्हें फिट आते हैं, तो वह क्रोधित हो गया और बोला, “यह मुझे फिट नहीं आ रहा—तुम्हारे कपड़े तुम पर इतने फिट कैसे आ रहे हैं?” हताशा में उसने चाहा कि औरों को भी उनके कपड़े फिट न आएँ—तब वह खुश होगा। यहाँ तक कि वह ऐसी चीजें कहने में सक्षम भी था—क्या यह विकृत तर्क नहीं है? (हाँ।) अगर वह रात को सो नहीं पाए और देखे कि तुम गहरी नींद सो रहे हो, तो वह दुखी हो जाएगा और कहेगा, “मैं सो नहीं सकता, तो तुम कैसे सो सकते हो? यह ठीक नहीं है! तुम इतनी गहरी नींद सो रहे हो, क्या इसकी वजह यह है कि तुममें अपना कर्तव्य निभाने में बोझ की कोई भावना नहीं है? मुझे कलीसिया के अगुआ को, ऊपर वाले को इसकी रिपोर्ट करनी होगी!” क्या यह विकृत तर्क नहीं है? (हाँ, है।) मैं मजाक नहीं कर रहा, वे लोग जिनमें मानवता नहीं होती और जो नहीं जानते कि क्या सही है और क्या गलत, ठीक इसी तरह बोलते हैं। मैं क्यों कहता हूँ कि वह नहीं जानता था कि क्या सही है और क्या गलत? उसने मुझे इसकी रिपोर्ट की थी। जब मैंने उसकी बात सुनी, तब मैंने सोचा, “इस व्यक्ति की बात में कुछ गड़बड़ है; यह युक्तिसंगत तर्क नहीं है! यह वह चीज नहीं है जो किसी मानवता वाले व्यक्ति को कहनी चाहिए। वह बिल्कुल बच्चा नहीं है और दस साल से ज्यादा समय से परमेश्वर में विश्वास कर रहा है, फिर भी वह यह तक नहीं जानता कि वह जो कह रहा है, वह सही है या नहीं; यहाँ तक कि वह उस व्यक्ति की रिपोर्ट करने के लिए इसे युक्तिसंगत तर्क मानता है। यह व्यक्ति न सिर्फ सही-गलत का भेद पहचानने में असमर्थ है—बल्कि वह यह तक नहीं जानता कि क्या सही है और क्या गलत। वह किसी काम का नहीं है।” अगर उसने यह मामला तुम लोगों को बताया होता, तो हो सकता है तुम लोग वाकई इसका भेद न पहचान पाते और तुममें से कुछ लोग उसकी बातों में आकर उसका तर्क सही मान लेते। अब जबकि मैंने इसे इस तरह से बताया है, तो क्या तुम लोग बता सकते हो कि यह सही है या नहीं? (हाँ।) क्या ऐसे लोग विकृत और बेतुके नहीं होते? (हाँ।) वे नहीं जानते कि वे जो कह रहे हैं वह सही है या नहीं, फिर भी वे उसे कहते हैं। वे स्पष्ट रूप से गलत कथनों, विचारों और दृष्टिकोणों को सकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों के रूप में व्यक्त और संप्रेषित कर रहे हैं। यह ये जानना कि क्या सही है और क्या गलत, नहीं है। वे अज्ञानता का ढोंग नहीं कर रहे हैं, न ही वे इन शब्दों का इस्तेमाल लोगों को गुमराह करने, बच्चों को मूर्ख बनाने के लिए कर रहे हैं—यह स्पष्ट है कि वे नहीं जानते कि क्या सही है और क्या गलत। इसलिए मैं कहता हूँ कि उनमें कोई मानवता नहीं है। वे इतने बुनियादी मामले में भी सही और गलत में अंतर नहीं कर सकते—क्या उनके पास सच्चा विवेक है? क्या वे अभी भी ईमानदार लोग हो सकते हैं? वे गलत चीजें ऐसे कहते हैं मानो वे सही हों, जो कि काले को सफेद कहने के बराबर है। क्या वे अभी भी अपने कार्यों में ईमानदार हो सकते हैं? क्या वे लोगों के साथ सही ढंग से पेश आ सकते हैं? वे लोगों के साथ सही ढंग से पेश नहीं आ सकते, तो क्या वे लोगों को नुकसान नहीं पहुँचा रहे हैं? (हाँ।) क्या यह दयालु होना है? (नहीं।) शायद वे बुरे लोग नहीं बनना चाहते और दूसरों के साथ मित्रतापूर्ण भी होना चाहते हैं, लेकिन वे यह तक नहीं जानते कि क्या सही है और क्या गलत, वे काले और सफेद में अंतर भी नहीं कर सकते, तो वे दूसरों के साथ मित्रतापूर्ण कैसे हो सकते हैं? यह उनके वश से परे है। जब व्यक्ति का जमीर और विवेक मजबूत होता है और उसमें भेद पहचानने की क्षमता होती है और वह अभ्यास के सही सिद्धांत चुन सकता है, तभी वह दयालु हो सकता है। अगर तुम कहते हो कि तुम ईमानदार और दयालु हो, तो इसकी अभिव्यक्तियाँ कहाँ हैं? अगर तुम यह भी नहीं जानते कि क्या सही है और क्या गलत, तो तुम ईमानदार और दयालु कैसे हो सकते हो? खुद को धोखा मत दो! ठीक है? इसे खुद को और दूसरों को धोखा देना कहते हैं। ऐसे लोग यह सोचकर खुद को विशेष रूप से सराहते भी हैं कि उनका चरित्र ईमानदार है, वे दयालु हैं और सत्ता से नहीं डरते, और जब भी वे किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जिसने कुछ गलत किया होता है, तो वे तुरंत उसकी आलोचना कर सकते हैं। ऐसी आलोचना का तुम्हारा आधार क्या है? अगर तुम अपने गलत विचारों और दृष्टिकोणों के आधार पर उनकी आलोचना करते हो, तो तुम अंततः अच्छे लोगों को सताओगे, और परमेश्वर के घर के सत्य सिद्धांतों को विकृत कर डालोगे। क्या यह लोगों को गुमराह करना नहीं है? अगर ऐसा व्यक्ति कलीसिया में सत्ता में रहता है, तो इसका मतलब है कि शैतान सत्ता में है। अगर शैतान सत्ता में रहता है तो ज्यादातर लोगों को फायदा होता है या तकलीफ? (उन्हें तकलीफ होती है।) ज्यादातर लोगों को गंभीर नुकसान होगा और उनके पास जीने का कोई रास्ता नहीं होगा।

जिन विषयों पर हम चर्चा कर रहे हैं, वे सब लोगों के दैनिक जीवन की कुछ सामान्य अभिव्यक्तियों से संबंधित हैं। इन विषयों पर चर्चा सुनने के बाद तुम लोग कैसा महसूस करते हो? क्या इन विषयों का सत्य से कोई संबंध है? क्या तुम लोग सुनने के इच्छुक हो? (हाँ।) क्या यह सिर्फ गपशप है? क्या यह लोगों के पीठ पीछे उनकी बुराई करना है? (नहीं, यह हमें यह सीखने में मदद करने के लिए है कि लोगों का भेद कैसे पहचानें।) अब जबकि तुमने ये संगतियाँ सुन ली हैं, तो क्या तुम लोगों का भेद पहचानने में समर्थ हो? (मुझे लगता है कि मैं लोगों का भेद पहचानने में पहले की तुलना में थोड़ा ज्यादा समर्थ हूँ।) अब तुम्हें कुछ हद तक लोगों का भेद पहचानने में समर्थ होना चाहिए। अब जबकि मैंने सत्य पर संगति की है और इस तरह उदाहरणों पर चर्चा की है, अगर तुम अभी भी लोगों का भेद नहीं पहचान सकते तो तुम्हारी काबिलियत बहुत खराब है और सत्य तुम्हारी पहुँच से बाहर है। बेशक, ऐसे लोग निश्चित रूप से होते हैं। वे चाहे जैसे भी सुनें, उन्हें यह समझ नहीं आता और वे यह तक सोचते हैं, “तुम जिनके बारे में कह रहे हो, वे सब रोजमर्रा के मामले हैं—मैं नहीं सुनूँगा! मैं तीसरे स्वर्ग के गहन सत्य सुनना चाहता हूँ। तुम जो संगति कर रहे हो, वह सत्य नहीं है, यह सब सिर्फ गपशप है। मैं नहीं सुनूँगा!” अगर तुम वाकई नहीं सुनना चाहते, तो तुम्हें सुनने की जरूरत नहीं है। लेकिन जिन विषयों पर हम चर्चा कर रहे हैं, वे सब जरूरी हैं। जो भी व्यक्ति उनके भीतर का सत्य समझ सकता है, वह लोगों का भेद पहचानने में समर्थ होगा। अगर तुम वाकई समझ सकते हो, तो तुम एक धन्य व्यक्ति हो। तुम जैसे भी सुनो, अगर नहीं समझ सकते और जितना ज्यादा सुनते हो, उतने ही ज्यादा भ्रमित हो जाते हो और उतना ही ज्यादा तुम्हें इससे सिरदर्द होता है, तो यह अभिव्यक्ति तुम्हारे लिए कोई शुभ संकेत या शुभ सगुन नहीं है।

अभी-अभी हमने मानवता में क्या सही है और क्या गलत, यह जानने की विशेषता के बारे में बात की। लोगों के क्या सही है और क्या गलत नहीं जानने की कई विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। अगर लोग जानते कि क्या सही है और क्या गलत, तो अच्छा होता और हमें इस विषय पर बात करने की जरूरत ही न पड़ती। लेकिन कई लोग नहीं जानते कि क्या सही है और क्या गलत, इसलिए कुछ उदाहरण देना जरूरी है ताकि यह भेद पहचाना जा सके कि ऐसा व्यक्ति क्यों नहीं जानता कि क्या सही है और क्या गलत, वह उन चीजों का भेद क्यों नहीं पहचानता जो इतने स्पष्ट रूप से सही या गलत हैं। ऐसा व्यक्ति वास्तव में ऐसे बेतुके शब्द बोलने और ऐसी हास्यास्पद चीजें करने में समर्थ होता है—असल में यहाँ क्या हो रहा है? यह संगति करने और भेद पहचानने लायक है। यह जानना कि क्या सही है और क्या गलत, एक ऐसी स्थिति है जो व्यक्ति की मानवता में होनी चाहिए। यह न जानना कि क्या सही है और क्या गलत, ऐसी चीज है जो व्यक्ति में नहीं होनी चाहिए। अगर व्यक्ति वास्तव में नहीं जानता कि क्या सही है और क्या गलत, तो यह बहुत दुख की बात है; इसका मतलब है कि वह उन स्थितियों से रहित है जो व्यक्ति में होनी चाहिए। हमने अभी कुछ विशिष्ट उदाहरणों और अभिव्यक्तियों के बारे में बात की, और कुछ लोगों के मामले में वास्तव में ऐसा होता है कि वे स्पष्ट रूप से नहीं जानते कि क्या सही है और क्या गलत। अगर कोई लोगों से कुछ अनुचित, उकसाऊ चीजें या कुछ भ्रामक बातें कह रहा है या लोगों के सामने कुछ विकृत तर्क व्यक्त कर रहा है, तो इसके बारे में विशेष रूप से संगति करने और समझने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वे अभिव्यक्तियाँ सामान्य भ्रष्ट मनुष्यों की ओर निर्देशित होती हैं। लेकिन क्या सही है और क्या गलत नहीं जानने की कुछ लोगों की अभिव्यक्ति, परमेश्वर, सत्य और सकारात्मक चीजों की ओर निर्देशित होती है। ऐसे व्यक्ति के लिए, जो नहीं जानता कि क्या सही है और क्या गलत, अगर मैं संगति करने के लिए कुछ उदाहरण पेश नहीं करता, तो हो सकता है हर कोई उसका भेद न पहचान पाए, और वह ऐसी समस्या के सार और गंभीरता की असलियत नहीं जान पाएगा। इसलिए मेरे लिए इसके बारे में बात करना जरूरी है। बहुत-सी चीजें घटित हुई हैं—अगर उनमें सत्य शामिल है तो मुझे इसे यथावत बताना चाहिए, और सत्य समझने और भेद पहचानने में लोगों की मदद करने के लिए इन नकारात्मक उदाहरणों का हवाला देना चाहिए और हर किसी को उनसे सबक भी सीखने देना चाहिए। अगर किसी मामले में कुछ खास व्यक्ति शामिल हैं तो उन शामिल लोगों को शर्मिंदा नहीं होना चाहिए। अगर तुम अभी शर्मिंदा महसूस करते हो तो तुम्हें उस समय वे चीजें नहीं करनी चाहिए थी। कुछ लोग किस गंभीर सीमा तक नहीं जानते कि क्या सही है और क्या गलत? जो चीजें वे करते हैं—जो क्या सही है और क्या गलत नहीं जानने के कारण होती हैं और जो बहुत गंभीर प्रकृति की होती हैं—वे किसी व्यक्ति की ओर नहीं, बल्कि मेरी ओर निर्देशित होती हैं। मैं कलीसिया के ज्यादातर लोगों से परिचित नहीं हूँ और उन्हें नहीं जानता, और कुछ ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता हैं जिनसे मैं एक-दो बार ही मिला हूँ, लेकिन मेरी लोगों से आमने-सामने, सीधे, दिली बातें कभी-कभार ही होती हैं, क्योंकि मेरे पास इतना खाली समय नहीं होता। इन लोगों में से कुछ के साथ तो मेरी अच्छी बनती है, लेकिन कुछ के साथ बातचीत करना असंभव है। ऐसा क्यों है? आओ, अब कुछ उदाहरण देखते हैं।

एक बार पतझड़ में, एक खेत में उगाए गए आलू खोदकर निकाले जा रहे थे और खाना बनाने का काम करने वाला व्यक्ति खेत में गया और एक टोकरी आलू लेकर आया। ऊपर रखे आलू लगभग मुट्ठी के आकार के दिख रहे थे, जो देखने में ठीक लग रहे थे। लेकिन उनके नीचे वाले आलू छोटे थे और कुछ सड़े हुए भी थे। मैं हैरान रह गया। “वे हमें ऐसे आलू कैसे दे सकते हैं? क्या ऐसे आलू जानवरों के चारे के रूप में इस्तेमाल नहीं किए जाने चाहिए? क्या खेत वाले ने इन्हें गलती से पैक कर दिया?” अगर यह वाकई गलती थी तो ऊपर वाले आलू अच्छे और सामान्य क्यों थे, जबकि नीचे वाले छोटे थे या सड़े हुए थे? इस घटना ने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला। बाहरी तौर पर, आलू पैक करने वाला व्यक्ति भेंगा नहीं था और उसका रूप-रंग साधारण था। मैंने उसे एक-दो बार देखा था और उससे दो-चार बातें भी की थीं, लेकिन हमारे बीच कोई वास्तविक बातचीत नहीं हुई थी। मैं लगभग कह सकता हूँ कि मैं उसे नहीं जानता था, इसलिए आलोचना, फटकार या काट-छाँट का कोई सवाल ही नहीं था। तो फिर यह व्यक्ति मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों करेगा, मुझे ऐसे छोटे और सड़े हुए आलू क्यों देगा? अगर उसे पता नहीं था कि वे मेरे लिए हैं, तो उसने अच्छे आलू ऊपर और सड़े हुए आलू नीचे क्यों रखे? उसे स्पष्ट रूप से पता था। तो यह जानते हुए भी कि वे मेरे लिए हैं, उसने सड़े हुए आलू क्यों रखे? क्या उस समय वह किसी भ्रम में था? या किसी शैतान ने उसके हाथों पर नियंत्रण कर लिया था? या वह किसी दुष्ट आत्मा के कब्जे में था? इसकी संभावना बहुत कम है। अगर वह वाकई किसी दुष्ट आत्मा के कब्जे में होता, तो वह मानसिक रूप से विक्षिप्त हो जाता और मेरे लिए आलू लाता ही नहीं। तो अगर वह किसी दुष्ट आत्मा के कब्जे में नहीं था, तो यह व्यक्ति जो बिल्कुल सामान्य दिखता था, ऐसा काम क्यों करेगा? क्या उसे पता नहीं था कि ऐसा करना छल है? अगर उसके दिल में मेरे लिए नफरत थी तो उसे यहाँ अपना कर्तव्य निभाने के बजाय परमेश्वर का घर छोड़ देना चाहिए था। इसके अलावा, अगर वह मेरे लिए नफरत रखता भी था तो उसकी वजह क्या थी? मुझसे नफरत करने का क्या कारण था? अगर हम इसे मानवता के संदर्भ में देखें, तो पहली बात, मैंने उसे बस एक-दो बार ही देखा था; मैं नहीं जानता था कि वह कैसा है। और दूसरी बात, मेरा उससे कभी कोई वास्तविक संपर्क या लेन-देन नहीं रहा था। मैं सिर्फ इतना जानता था कि वह फसलें उगाने का काम करता है। तो फिर उसने मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया? एक ही संभावना है : वह ऐसा तभी कर सकता था जब वह मेरे बारे में बहुत प्रबल धारणाएँ और मेरे विरुद्ध बहुत ज्यादा पूर्वाग्रह रखता हो या किसी ने उसे उकसाया हो। यह व्यक्ति ऐसा कर सकता है, यह ऐसा करने की हिम्मत जुटा सकता है—क्या यह तुम लोगों को अकल्पनीय नहीं लगता? अगर तुम किसी साधारण व्यक्ति के साथ भी व्यवहार कर रहे होते तो भी क्या तुम ऐसा करने की हिम्मत जुटा सकते थे? यहाँ तक कि अगर तुम सुपरमार्केट चला रहे होते, तो भी तुम लोगों को धोखा और झाँसा नहीं दे सकते थे; अपने ग्राहक बनाए रखने और और अपना ही रास्ता खराब नहीं करने के लिए तुम्हें भरोसेमंद होना पड़ता। इसके अलावा, अब तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो और ऐसा काम करना, खासकर मेरे साथ—बताओ, क्या यह उचित है? (नहीं।) तो ऐसे व्यक्ति की प्रकृति क्या है? क्या ऐसा करते समय वह जानता था कि क्या सही है और क्या गलत? उसमें जरा भी जागरूकता नहीं थी। अगर उसमें वाकई जागरूकता होती, तो जब वह सड़े हुए आलू उठाने वाला था तब उसने सोचा होता, “नहीं, मैं सड़े हुए आलू नहीं ले सकता, मुझे कुछ अच्छे आलू लेने हैं। क्या सबको अच्छा खाना नहीं खाना चाहिए?” और यह तो कहना ही क्या कि वे मेरे खाने के लिए थे—सड़े हुए आलू लेने का खयाल भी उसके मन में नहीं आना चाहिए था, उस पर अमल करने की तो बात ही छोड़ दो। अब, क्या जवाब बिल्कुल स्पष्ट नहीं है? वह ऐसा क्यों कर पाया? ऐसा इसलिए है क्योंकि ऐसे लोगों ने चाहे दानवों से पुनर्जन्म लिया हो या जानवरों से, अपनी मानवता में वे नहीं समझ पाते कि क्या सही है और क्या गलत। उनकी मानवता में ऐसा कुछ भी नहीं है जो यह भेद कर सके या जाँच सके कि सही क्रियाकलाप और विचार क्या हैं और गलत क्रियाकलाप और विचार क्या हैं। अगर उन्होंने जानवरों या दानवों से पुनर्जन्म नहीं लिया, तो वे चलती-फिरती लाशें हैं। तो फिर ऐसे व्यक्तियों का परमेश्वर में विश्वास करने का क्या मतलब है? वे कहते हैं, “यह परमेश्वर है जिसमें मैं विश्वास करता हूँ। तुम महज एक इंसान हो, तुम मेरा क्या बिगाड़ सकते हो?” क्या इन शब्दों में कोई तार्किकता है? क्या यह परमेश्वर में सच्चा विश्वास है? क्या परमेश्वर के साथ इस तरह पेश आना परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है? परमेश्वर इस तरह का विश्वास नहीं चाहता। शायद वे यह भी कहें, “परमेश्वर मुझे चाहता है या नहीं, यह तुम्हारे कहने की बात नहीं है!” मैं कहता हूँ, “तुम जो कह रहे हो वह सही नहीं है। जो वचन मैं बोलता हूँ अगर वे परमेश्वर के वचन हैं, तो तुम्हारा मेरे साथ इस तरह पेश आना—इसमें समस्या है। तुम्हारा परिणाम परमेश्वर के वचनों से तय होता है।” वे कहते हैं, “मैं तीसरे स्वर्ग जाऊँगा और तुम्हारी रिपोर्ट करूँगा!” मैं कहता हूँ, “अगर तुम वाकई तीसरे स्वर्ग जा सकते हो, तो जल्दी करो और जाओ।” बताओ, क्या ऐसे लोग भयानक नहीं होते? अब भी ऐसे व्यक्ति के साथ जुड़ने को कौन तैयार होगा? चलो, अभी इस बात पर नहीं जाते कि वह किसे निशाना बना रहा था। अगर वह मुझे नहीं, बल्कि किसी व्यक्ति को निशाना बना रहा होता, तो क्या उसके क्रियाकलाप जमीर के मानक के अनुरूप होते? (नहीं।) वह मेरे साथ ऐसा करने में सक्षम था, यह किस प्रकार की समस्या है? चूँकि वह मेरे साथ ऐसा करने में सक्षम था, तो क्या वह किसी साधारण व्यक्ति के साथ भी ऐसा कर सकता था? इस मामले का आकलन कैसे किया जाए? मैं बहुत हैरान था कि यह व्यक्ति ऐसा कर सकता है। वह ऐसा क्यों कर सका? अगर वह किसी साधारण व्यक्ति के साथ ऐसा करता, तो मेरे पास भी उसका एक चरित्र-चित्रण होता। उसका ऐसा करना गलत था। ऐसा नहीं है कि दूसरों के साथ ऐसा करना सही है जबकि मेरे साथ ऐसा करना गलत है—ऐसा कथन उचित और सच नहीं है। अगर वह मेरे साथ ऐसा कर सकता है तो वह दूसरों के साथ, किसी के भी साथ ऐसा कर सकता है। इसका क्या कारण है? यह गहराई से विचार करने योग्य है। उसने कहा कि वह परमेश्वर में विश्वास करता है और वह परमेश्वर के घर का सदस्य है, फिर भी वह मेरे साथ इस तरह पेश कैसे आ सका? वह ऐसा नीच काम कैसे कर सका? वह ऐसा समझ से बाहर काम कैसे कर सका? वह खुद को बहुत दयालु समझता था, तो वह दूसरों को सड़े हुए आलू खाने के लिए कैसे दे सका? उसने उन्हें खुद क्यों नहीं खाया? वे सड़े हुए आलू, छोटे आलू और अल्पविकसित आलू जानवरों को खिलाने के लिए होते हैं, तो उसने उन्हें लोगों को खाने के लिए क्यों दिया? अगर मैं उसे सत्य से न मापूँ, तो भी नैतिक दृष्टिकोण से उसके कृत्य स्वीकार्य नहीं थे, इसलिए मैं कहता हूँ कि वह अमानव है। क्या यह चरित्र-चित्रण सटीक है? क्या यह उचित है? (यह सटीक और उचित है।) उसने इतना स्पष्ट रूप से गलत काम किया और फिर भी वह इसे नहीं जानता था और वह सहज भी था और उसके दिल में जरा भी आत्म-ग्लानि नहीं थी। ऐसा क्यों? उसमें जमीर नहीं था, यहाँ तक कि उसमें आत्मा भी नहीं थी; किसी दानव या जानवर की तरह, उसमें जागरूकता नहीं थी। वह मानव नहीं था, इसलिए उसमें जमीर नहीं था। वह नहीं जानता था कि क्या सही है और क्या गलत और चाहे उसने कितना भी गंभीर अपराध किया हो, उसे हमेशा लगता था कि उसके कृत्य पूरी तरह से उचित हैं और उसने कभी अपनी गलतियाँ नहीं मानीं और उसी तरह कृत्य करते रहने पर अड़ा रहा। जब दूसरे लोग उसका चरित्र-चित्रण यह कहते हुए करते थे कि उसने जो किया वह गलत था, तब भी वह सोचता था कि वह पूरी तरह से सही था और उसे लगता था कि उसके साथ अन्याय हुआ है। मैं कहता हूँ कि यह तुम्हारे साथ अन्याय करना बिल्कुल नहीं है। यह बिना तथ्यों को जाने तुम्हारी निंदा करना या तुम्हारा मानवताविहीन व्यक्ति के रूप में चरित्र-चित्रण करना नहीं है। बल्कि, सबको दिखने वाले इतने गंभीर तथ्य सामने हैं, तो फिर कौन कह सकता है कि तुममें मानवता थी? प्रमाण के रूप में इन तथ्यों के होने पर कोई भी इससे इनकार नहीं कर सकता। मैं यह कहना पसंद करता कि तुममें मानवता थी, तुम दयालु और ईमानदार थे, लेकिन तुमने जो किया उसकी प्रकृति बहुत ही घृणित है; यह शैतान द्वारा परमेश्वर का उपहास करने जैसी प्रकृति का है, यह काले और सफेद को वैसे ही उलट-पुलट करना है, जैसे शैतान ने परमेश्वर को संसार की संपत्ति और वैभव दिखाकर कहा था, “यदि तू गिरकर मुझे प्रणाम करे, तो मैं यह सब कुछ तुझे दे दूँगा।” संसार की हर चीज और सभी वस्तुएँ परमेश्वर द्वारा बनाई गई हैं। जो कुछ भी है वह सब और हर चीज परमेश्वर ने बनाई है; परमेश्वर को इन सबका आनंद लेना चाहिए, तुम्हें नहीं, तुम ऐसा करने के योग्य नहीं हो। तुम जिसका आनंद लेते हो, वह वही है जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है। तुम्हें परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए, न कि परमेश्वर से अपनी आराधना करवानी चाहिए। इस आदमी को इतनी स्पष्ट और सरल अवधारणा भी समझ नहीं आई और उसने यह तक सोचा कि मुझे बस कुछ आलू पाने के लिए उसका मूड भाँपना होगा और देखना होगा कि वह खुश है या नहीं। अगर उसका मूड खराब होगा तो वह मुझे कुछ सड़े हुए आलू दे देगा, मानो किसी भिखारी के साथ पेश आ रहा हो। मुझे उसका दुर्व्यवहार सहना था—क्या यह संभव है? क्या मैं यह बर्दाश्त कर सकता हूँ? (नहीं।) ऐसे व्यक्ति से कैसे निपटा जाना चाहिए? (उसे तुरंत दूर कर दिया जाना चाहिए।) ऐसे व्यक्ति से प्रशासनिक आदेश द्वारा निपटा जाना चाहिए। और बेशक यह अपनी तरह की अकेली घटना नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “क्या इससे भी ज्यादा गंभीर घटनाएँ हैं?” बेशक हैं, वरना मैं क्यों कहता कि लोग एक-दूसरे से अलग हैं? अगर परमेश्वर में विश्वास करने वाला हर व्यक्ति परमेश्वर की आराधना कर सके, तो हर किसी को उसके प्रकार के अनुसार छाँटने की कोई जरूरत नहीं होती। ऐसा इसलिए है क्योंकि बहुत-से लोग ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास नहीं करते और ऐसे बुरे लोग और भ्रमित लोग हैं जो कलीसिया के कार्य में बाधा डालते हैं, कोई भी दुष्कर्म करने में सक्षम हैं, इसलिए जैसे-जैसे कलीसिया का कार्य समाप्त हो रहा है, वैसे-वैसे हर कोई बेनकाब किया जा रहा है और उसके प्रकार के अनुसार छाँटा जा रहा है।

आओ, एक और उदाहरण के बारे में बात करते हैं। एक खेत में मक्का की फसल पक चुकी थी और कोई मेरे लिए कुछ भुट्टे लाने वाला था। पास खड़े एक व्यक्ति ने उससे कहा, “इन भुट्टों के ऊपर से चूहे दौड़ गए हैं, इन्हें मत लो!” उसने इस पर सोचा और कहा, “अगर इनके ऊपर से चूहे दौड़ गए हैं तो क्या हुआ? क्या ये अभी भी खाने लायक नहीं हैं? अगर मैं इन्हें लेता हूँ तो यह ठीक ही है!” वह स्पष्ट रूप से जानता था कि उन भुट्टों के ऊपर से चूहे दौड़ गए हैं और वे लोगों के खाने लायक नहीं हैं, फिर भी वह उन्हें मेरे पास लाने पर अड़ा रहा। इसकी प्रकृति क्या है? क्या ऐसे व्यक्ति में मानवता है? (नहीं।) तो यह कैसा व्यक्ति है? (यह मानव नहीं, बल्कि शैतान है।) मुझे बताओ, क्या वह जिन भुट्टों के ऊपर से चूहे दौड़ गए हैं उन्हें अपने माता-पिता या बच्चे को खाने के लिए देने को राजी होता? (नहीं।) क्यों नहीं? (वह जानता था कि वे शुद्ध नहीं हैं, उन्हें खाना उनके स्वास्थ्य के लिए खराब होगा। वह इन्हें अपने परिवार को खाने देने के लिए राजी नहीं होगा।) वह जानता था कि वह इन्हें अपने परिवार को नहीं दे सकता, फिर भी उसने इन्हें मेरे पास लाने की जिद की और दूसरे उसे रोक नहीं सके। तो क्या वह जानता था कि यह सही है या गलत? (वह नहीं जानता था।) असल में, वह अपने दिल में जानता था कि यह गलत है। तो फिर भी वह मेरे पास वे भुट्टे क्यों लाना चाहता था? क्या मैं उसका दुश्मन हूँ? क्या मैंने उसे सताया या नुकसान पहुँचाया था? नहीं, मैंने इनमें से कुछ नहीं किया था। मैं उसे जानता नहीं था, फिर भी उसने मेरे लिए ऐसे भुट्टे लाने पर जोर दिया जिनके ऊपर से चूहे दौड़ गए थे। मुझे बताओ, इसकी प्रकृति क्या है? यह वास्तव में ऐसी चीज थी जो ऐसे व्यक्ति द्वारा की गई थी जो परमेश्वर में विश्वास करता था। यह असल में तुम्हारी आँखें खोलता है और तुम्हारा दृष्टिकोण व्यापक बनाता है, इससे वास्तव में तुम्हें भेद पहचानना आता है और तुम यह देख पाते हो कि इस विशाल दुनिया में विचित्रता का वास्तव में कोई अंत नहीं है। मुझे बताओ, जब उसने मेरे लिए वे भुट्टे तैयार किए, तो क्या उसके दिल में कोई जागरूकता थी? क्या वह जानता था कि वह जो कर रहा है वह गलत है, कि उसे कुछ अच्छे भुट्टे लाने चाहिए थे, कम से कम ऐसे भुट्टे जिनके ऊपर से चूहे न दौड़े हों? क्या वह इस तरह सोचता था? (उसमें कोई जागरूकता नहीं थी।) जब ऐसी चीजों की बात आती थी तो उसमें कोई जागरूकता नहीं होती थी। अगर ऐसे दूषित भुट्टे उसकी माँ या उसके बच्चे के लिए लाए जाते, तो उसमें जागरूकता होती। उसमें जमीर की जागरूकता नहीं थी जो मानवता में होनी चाहिए, तो क्या उसमें मानवता थी? वह किस तरह का प्राणी था? (वह मानव नहीं था।) देखो, परमेश्वर में अपने विश्वास में उसने अपना कर्तव्य निभाया, उसने कष्ट सहे और कीमत चुकाई, वह शारीरिक श्रम कर सकता था और वह सभाओं में भी जाता था और परमेश्वर के वचन पढ़ता था, लेकिन वह मेरे प्रति इतना अमैत्रीपूर्ण क्यों था? वह मुझसे इतना विकर्षित क्यों था? मैंने उसके साथ कभी दो-चार शब्दों से ज्यादा बातचीत नहीं की थी, तो मैंने उसे किस तरह से नाराज कर दिया था? जिन लोगों से मेरा संपर्क रहा है, उनमें से कुछ काफी अच्छे हैं और वे मेरे प्रति काफी मैत्रीपूर्ण हैं। हर व्यक्ति उसके जैसा नहीं है। लेकिन मैंने उसे नाराज नहीं किया था, न ही मैंने उसे कोई नुकसान पहुँचाया था, तो फिर वह मुझसे इतनी नफरत क्यों करता था? इसका जवाब तुम लोगों के दिलों में है। उसने सिर्फ मुझसे ही नफरत नहीं की; वह सबके साथ इसी तरह पेश आता है। वह बिल्कुल इसी तरह का प्राणी है। अगर वह व्यापार करता, तो वह निश्चित रूप से धोखा और ठगी करता और हर तरह के दुष्कर्म करता। लोगों के साथ अपने मेलजोल में उसमें जमीर की कोई सीमा और कोई सिद्धांत नहीं है; उसका दिल इन अँधेरी चीजों से भरा हुआ है। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि लोगों के साथ व्यवहार करते समय यही उसका स्थायी तरीका और सिद्धांत था; चीजों को सँभालने का उसका यही उपाय और ढंग था। कुछ लोग कहते हैं, “वह ऐसा कर सका, इस तथ्य का मतलब यह है कि उसने परमेश्वर को परमेश्वर नहीं समझा।” क्या यह कथन सही है? (नहीं।) यह गलत क्यों है? अगर तुम मेरे साथ एक साधारण व्यक्ति की तरह व्यवहार कर रहे होते, तो भी तुम्हें मेरे साथ ऐसा नहीं करना चाहिए था। अगर तुम सिर्फ नैतिकता का पालन कर रहे होते, तो भी तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। अगर भोजन के ऊपर से वाकई चूहे दौड़ गए हों या भोजन को किसी जानवर ने कुतर दिया हो और उसमें बैक्टीरिया हो गए हों, तो उसे सुपरमार्केट में भी नहीं बेचा जा सकता। अगर कोई उसे खा ले और उसे कुछ हो जाए तो क्या होगा? चाहे दूसरे जानें या न जानें, यह तुम्हारे जमीर को ठीक नहीं लगेगा। चूँकि तुम जानते हो, इसलिए तुम्हें उसे दूसरों को नहीं खाने देना चाहिए। इसमें व्यक्ति की प्रकृति शामिल है और इसमें आचरण के सिद्धांत शामिल हैं। तुममें आचरण के सबसे बुनियादी नैतिक मानदंड भी नहीं हैं, फिर भी तुम सोचते हो कि तुम मानव हो। तुम मानव बिल्कुल नहीं हो। यहाँ तक कि एक जानवर भी जानता है कि उसे उस व्यक्ति की रक्षा करनी चाहिए जो उसे खिलाता और पालता है। उदाहरण के लिए कुत्ते को ही लो—अगर तुम उसे हमेशा खाना खिलाते रहोगे, तो वह तुम्हारे लिए अच्छा रहेगा। अगर कोई अजनबी घर में आकर कुछ लेना चाहे, तो वह उसे रोकेगा और हर मोड़ पर तुम्हारी रक्षा करेगा। एक कुत्ता तक अपने मालिक के प्रति वफादार हो सकता है और उसकी रक्षा कर सकता है, तो वह व्यक्ति इस स्तर तक पहुँचने में कैसे विफल रहा? क्या वह कुत्ते से भी बदतर नहीं है? (हाँ, है।) अगर तुम कहते हो कि वह दानव है, तो हो सकता है वह सचमुच इसे मानने से इनकार कर दे। तो आओ, अब इसे निष्पक्ष रूप से कहते हैं : ऐसे व्यक्ति में कोई मानवता नहीं होती, क्योंकि उसने ऐसी बेतुकी चीज की है, ऐसा नैतिक रूप से भ्रष्ट काम किया है और फिर भी उसमें जमीर की कोई जागरूकता नहीं है और उसे कभी इसका पछतावा भी नहीं होता और वह इसके बारे में व्यथित भी महसूस नहीं करता। अगर कोई किसी साधारण व्यक्ति के साथ भी ऐसा व्यवहार करता है तो उसमें जमीर की जागरूकता होनी चाहिए, उसे अंदर से व्यथित महसूस करना चाहिए और उसे यह जानना चाहिए कि वह जो कर रहा था वह गलत था और उसे रुक जाना चाहिए। यह बात तब और भी ज्यादा लागू होती है जब बात मेरे साथ उसके इस तरह के व्यवहार की आती है, जो और भी ज्यादा अनुचित है। बेशक, मैं इस बात से आहत नहीं हुआ कि वह मेरे साथ इस तरह पेश आया। मेरा दिल इतनी आसानी से आहत नहीं होता। बात बस यह थी कि मैंने देखा कि जिस सिद्धांत से उसने चीजों को सँभाला, वह बहुत घृणित था। न सिर्फ वह जमीर के मानक पर खरा नहीं उतरता था, बल्कि वह बहुत नीच और घिनौना भी था। इस व्यक्ति में बिल्कुल भी मानवता नहीं थी! उसने इतने आत्म-औचित्यपूर्ण, खुले ढंग से ऐसा गलत काम किया और कोई उसे रोक नहीं सका। मेरा यह कहना कि उसमें मानवता नहीं है, उसके साथ अन्याय करना बिल्कुल नहीं है, क्योंकि यह ठीक उसी तरह का कृत्य है—मानवता से रहित कृत्य—जो मानवताविहीन लोग करते हैं। यह सब उसके सार और उसकी पहचान के भी अनुरूप है। अगर कोई व्यक्ति उचित तरीके से काम करता है और उसमें मानवता और जमीर है तो यह कहना कि उसमें मानवता नहीं है, उसके साथ अन्याय करना है। लेकिन अगर वह सचमुच ऐसे कृत्य करता है जो मानवता से रहित हैं तो यह कहना कि उसमें मानवता नहीं है, उसके सार से बहुत मेल खाता है। ऐसा कहना उसके साथ अन्याय करना नहीं है, है ना? (हाँ।) कुछ लोग जब मुझे ये शब्द कहते हुए सुनते हैं, तो उनके मन में कुछ विचार आते हैं और वे कहते हैं, “तुम हमेशा इन चीजों के बारे में बोलते हो और इससे हमारा अपमान होता है। कौन गलतियाँ नहीं करता?” क्या इस तरह सोचना सही है? (नहीं।) हर व्यक्ति गलतियाँ करता है, लेकिन गलतियों की प्रकृति वास्तव में भिन्न होती है। कई गलतियों में मानवता की समस्याएँ शामिल होती हैं और कई गलतियों में व्यक्ति का प्रकृति सार शामिल होता है। कुछ गलतियाँ व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभाव का प्रकाशन मात्र होती हैं और इसका मतलब यह नहीं होता कि उस व्यक्ति के सार में कोई समस्या है।

आओ, एक और उदाहरण के बारे में बात करते हैं। एक दिन मैं एक खेत पर गया और संयोग कुछ ऐसा हुआ कि वहाँ लोग नाशपातियाँ तोड़ रहे थे। कोई मेरे लिए कुछ नाशपातियाँ लाया। एक नजर में मैंने देखा कि वे नाशपातियाँ काफी हरी थीं और ज्यादा पकी नहीं थीं, लेकिन मैंने देखा कि नाशपातियाँ तोड़ने वाला व्यक्ति एक चटक पीले रंग की नाशपाती पकड़े हुए था और उसे खा रहा था, और खाते हुए कह रहा था, “कितनी मीठी है, यह नाशपाती बहुत स्वादिष्ट है!” उसने पकी हुई नाशपातियाँ अपने खाने के लिए रख ली थीं और जो उसने मेरे लिए तोड़ीं, वे लगभग सभी कच्ची थीं। इस मामले को अलग रखते हुए कि नाशपातियाँ पकी थीं या नहीं, नाशपातियाँ तोड़ने वाला व्यक्ति मूर्ख नहीं था। वह दिन-रात नाशपाती के उन पेड़ों के पास बिताता था और उसे पता था कि कौन-सी नाशपातियाँ पकी हैं और कौन-सी नहीं। संयोग से मैं वहाँ गया और उसने पेड़ से कच्ची नाशपातियाँ तोड़कर मुझे दे दीं। दरअसल, मुझे कच्चे फल या ठंडी प्रकृति वाले फल खाना पसंद नहीं है और मैं कच्चे फल तो खास तौर से नहीं खा सकता, क्योंकि इससे मेरा पेट खराब हो जाता है। लेकिन उसने मुझे कच्ची नाशपातियाँ दीं, जबकि उसने पकी हुई नाशपाती तोड़कर खाई। इस घटना ने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला। मैं जानता था कि वह कच्ची और पकी नाशपाती में अंतर कर सकता था। उसने समझा कि दूसरे लोग मूर्ख हैं और अंतर नहीं कर सकते, और सोचा, “मेरा तुम्हें कच्ची नाशपाती देना ही पर्याप्त है। यहाँ तक कि मैं तुम्हें कई नाशपातियाँ दे रहा हूँ। तुम नहीं जानते कि नाशपातियाँ पकी हैं या नहीं, तुम्हें यह ज्ञान नहीं है! भले ही तुम स्पष्ट और तार्किक रूप से सत्य पर उपदेश दे सकते हो, लेकिन तुम निश्चित रूप से अब भी सोचते हो कि मैं अच्छा हूँ और तुम्हारे लिए इतनी सारी कच्ची नाशपातियाँ तोड़कर मैं तुम्हारे साथ अच्छी तरह पेश आ रहा हूँ।” ऐसा करने वाले व्यक्ति ने सोचा कि दूसरे मूर्ख हैं और खास तौर से मैं मूर्ख हूँ। जब उसने यह मूर्खतापूर्ण चीज की तो क्या उसके दिल में कोई जागरूकता थी? (नहीं।) उसमें कोई जागरूकता नहीं थी। उसने सोचा कि उसने दूसरों को मूर्ख बना दिया है और वह बहुत चतुर है। क्या वह चतुर था? (नहीं।) अगर वह सचमुच चतुर होता, तो वह ऐसी अत्यंत मूर्खतापूर्ण चीज कैसे कर सकता था और फिर भी उसमें कोई जागरूकता नहीं थी? इससे साबित हुआ कि वह चतुर नहीं था, बल्कि तुच्छ मानसिकता वाला था। उसने कच्ची नाशपातियाँ तोड़कर मुझे खाने को दीं, जबकि उसने खुद एक पकी हुई नाशपाती लेकर खाई। क्या यह क्रियाकलाप हास्यास्पद नहीं लगेगा? मैंने इसे अनदेखा कर दिया, लेकिन उसने जो किया, उसने मुझ पर गहरी छाप छोड़ी। यह तथ्य कि यह व्यक्ति मेरे साथ ऐसा कर सकता है—क्या इसकी प्रकृति बहुत गंभीर नहीं है? उसके दृष्टिकोण, चीजों को सँभालने के सिद्धांत और इस मामले में उसके नजरिये के संदर्भ में, उसकी मानवता कैसी थी? क्या वह जानता था कि उसने जो किया वह गलत था, कि लोगों के साथ ऐसा व्यवहार करना गलत है? (वह यह नहीं जानता था।) वह सोचता था कि वह बहुत चतुर है। “देखो मैं कितना होशियार हूँ, मैंने तुम्हें कच्ची नाशपातियाँ दीं और तुम पहचान भी नहीं पाए! मैंने सारी पकी नाशपातियाँ अपने लिए रख लीं और तुम्हें एक भी पकी नाशपाती खाने को नहीं मिलेगी! अगर तुम दोबारा आए, तो भी मैं तुम्हारे लिए पकी नाशपातियाँ नहीं तोडूँगा, मैं तुम्हें कच्ची नाशपातियाँ ही दूँगा!” सिर्फ नाशपातियाँ तोड़ने की बात ने ही उसे बेनकाब कर दिया। क्या यह इंसान बेकार नहीं है? (है।) वह बेकार है और नहीं जानता कि क्या सही है और क्या गलत। बताओ, यह कैसी मानवता है? मेरी नजर में वह एक जानवर है और उसका सिर्फ रूप-रंग ही मानव का है, जबकि असल में वह मानव कहलाने लायक नहीं है। उसने जो किया और यह जो गलती उसने की, ये बेहद घिनौनी हरकतें थीं, कोई जानवर जो करता उससे जरा भी बेहतर नहीं थीं। लोग हमेशा कहते हैं कि मानव उच्चतर जानवर हैं, लेकिन मेरी नजर में कई लोग जानवरों से भी बदतर हैं! जो उसने किया उससे, उसके क्रियाकलापों के सिद्धांतों से और उन क्रियाकलापों से पेश आने के तरीकों से यह स्पष्ट है कि उसमें कोई मानवता होना तो दूर, वह अपने मालिक के प्रति एक पहरेदार कुत्ते जितना भी वफादार नहीं है। हमारे घर में एक कुत्ता है। एक बार वह सुअर का कान खा रहा था और मैंने उसे यह कहते हुए चिढ़ाया, “तुम्हें सच में मजा आ रहा है, है ना? एक निवाला मुझे क्यों नहीं देता?” उसने सुअर का कान नीचे रखा और मेरी ओर बढ़ा दिया, मानो कह रहा हो, “यह लो।” मांस और हड्डियाँ कुत्ते के लिए सबसे स्वादिष्ट चीजें होती हैं। अगर उसका पिल्ला भी माँगे, तो वह उसे सुअर का कान नहीं देगा, लेकिन मैंने कहा कि मैं इसे खाना चाहता हूँ और उसने तुरंत वह मुझे दे दिया। देखो, जब तुम किसी कुत्ते के मालिक होते हो, तो तुम देख सकते हो कि वह क्या चीज है जो कुत्तों को प्यारा बनाती है। तुम उसकी देखभाल करते हो और उसके साथ अच्छी तरह पेश आते हो, और उसके लिए तुम उसका परिवार हो। अगर तुम उससे उसके पास जो सबसे अच्छी चीज है वह माँगो, तो वह तुम्हें दे देगा। वह तुमसे स्नेह करता है। लोग ऐसा करने में असमर्थ हैं—तो वे उच्चतर जानवर कैसे हैं? दानव कहते हैं कि मानव उच्चतर जानवर हैं। यह शुद्ध भ्रांति है, यह विकृत तर्क और पाखंड है। अगर व्यक्ति में मानवता नहीं है, तो इस शैतानी दुनिया में रहते हुए वह कोई भी दुष्कर्म कर सकता है—वह जितना बुरा हो सकता है उतना बुरा हो सकता है, जितना नीच हो सकता है उतना नीच हो सकता है, जितना कुरूप हो सकता है उतना कुरूप हो सकता है और जितना घृणित हो सकता है उतना घृणित हो सकता है। अगर उसमें जमीर का कार्य नहीं है और वह नहीं जानता कि क्या सही है और क्या गलत, तो वह कोई भी दुष्कर्म कर सकता है और अपने मुँह से कोई भी गलत शब्द, विकृत तर्क और पाखंड निकाल सकता है। मानव जानवरों से ज्यादा भयावह होते हैं। जानवर वास्तव में भयावह नहीं होते; वे बहुत सरल, बहुत शुद्ध और बहुत सीधे होते हैं। मेरा जो छोटा कुत्ता है, जब वह छोटा था और सूअर का कान खाता था, तब वह मुझे देखकर इतना खुश हो जाता था कि अपना सिर और पूँछ हिलाने लगता था। वह मुझे खुश करना जानता था। लेकिन अगर मैं उसे छेड़ता और उससे खाना माँगता तो वह मुझे नहीं देता था और जल्दी से छिप जाता था और खाना खा लेने के बाद ही बाहर आता था। दो-तीन साल का होने के बाद से उसका व्यवहार अलग हो गया है, अब वह समझदार हो गया है। जब मैं उससे उसकी पसंद की कोई चीज माँगता हूँ तो वह मुझे दे देता है। जब वह उसे मुझे देता है तो वह सच्चा होता है, मुझसे कोई माँग नहीं करता या मेरे प्रति कोई गुप्त इरादे नहीं रखता। और जब वह उसे मुझे नहीं देता, तब भी वह सच्चा होता है, मेरे प्रति कोई द्वेष नहीं रखता। चाहे वह मुझे दे या न दे, वह सच्चा होता है। ये उसके जन्मजात गुण और सहज प्रवृत्तियाँ हैं। जानवरों में भ्रष्ट स्वभाव नहीं होते। उनमें ऐसी कोई चीज नहीं होती जो शैतान द्वारा संसाधित की गई हो और उनके सभी प्रकाशन प्राकृतिक और बहुत सीधे और सरल होते हैं। तुम्हें उनके इरादों का अंदाजा लगाने की जरूरत नहीं होती और तुम्हें उनसे सावधान रहने की भी जरूरत नहीं होती। अगर कोई जानवर तुम्हें कुछ देता है तो वह तुम्हें दे रहा है और अगर नहीं देता तो नहीं दे रहा। अगर वह खुश है तो खुश है और अगर नहीं है तो नहीं है। वह अपनी भावनाओं से नियंत्रित नहीं होगा और तुम्हारे प्रति बुरे इरादे नहीं रखेगा। लोगों की बात अलग है। लोग भयावह होते हैं। अगर वे इंसानी खाल पहने हुए भी जमीर या विवेक नहीं रखते, तो वे संभवतः जानवरों से बेहतर नहीं हो सकते, बल्कि जितना बुरा हो सकता है, उतने बुरे हो सकते हैं। वे कितने बुरे हो सकते हैं? इतने बुरे कि तुम्हें लगेगा कि तुमने कोई जिंदा राक्षस देख लिया है जिससे तुम महसूस करोगे कि यह अकल्पनीय है, वह तुम्हारे जमीर को झकझोर देगा, तुम्हारे दिल की गहराइयों पर चोट करेगा और उसे पीड़ा पहुँचाएगा। जब मैं ये चीजें महसूस करता हूँ तो मैं मन ही मन आह भरता हूँ, और सोचता हूँ : “क्या यह ऐसी चीज है जो मानव को करनी चाहिए? लोग इतने बुरे कैसे हो सकते हैं? वह परमेश्वर में विश्वास करता है, फिर भी वह ये चीजें कैसे कर सकता है?” एक बार जब कोई व्यक्ति अपना जमीर और विवेक खो देता है, तो वह जितना बुरा हो सकता है उतना बुरा हो सकता है। वह सिर्फ उतना ही बुरा नहीं हो सकता है जितना वह अभी है, बल्कि वह और भी बदतर हो सकता है और उसका पतन जारी रह सकता है। लोगों का यह नहीं जानना कि क्या सही है और क्या गलत, मानवजाति के पतन की शुरुआत है, मानवजाति की गिरावट की शुरुआत है।

अगर व्यक्ति नहीं जानता कि क्या सही है और क्या गलत, तो उसमें जमीर या विवेक नहीं होता है और इस तरह उसमें कोई मानवता नहीं होती, और संभव है कि वह राक्षसी प्रकृति का हो। चाहे वह बाद में कुछ भी प्रकट करे या अपने जीवनकाल में कुछ भी जिए, संक्षेप में, उसे छुटकारा नहीं मिलेगा, उसे कभी छुटकारा नहीं मिलेगा। अगर किसी व्यक्ति में जमीर नहीं है और न ही विवेक है—सटीक रूप से कहें तो, अगर उसमें मानवता नहीं है—तो वह सुधर नहीं सकता और उसे छुटकारा नहीं मिल सकता। वास्तव में ऐसा ही है। अगर वह यह भी नहीं जानता कि क्या सही है और क्या गलत, तो वह जमीर और विवेक के अनुरूप कोई काम कैसे कर सकता है? ऐसा कहना बेतुका होगा। कुछ लोग ईर्ष्या और झगड़ा करने की ओर प्रवृत्त होते हैं। अगर वे दूसरे लोगों के साथ झगड़ा करते हैं तो तुम सोच सकते हो कि इसकी प्रकृति बहुत गंभीर नहीं है, लेकिन कुछ लोग मेरे साथ झगड़ा करते हैं। तो फिर ये “परमेश्वर में विश्वास करने वाले” वास्तव में किसमें विश्वास करते हैं? यह तथ्य कि वे मेरे साथ झगड़ा कर सकते हैं, इस समस्या को गंभीर बनाता है। जब मैं कुछ लोगों की कोई समस्या बताता हूँ तो वे इसे कभी नहीं भूलते और बाद में वे चिंतन करते हैं कि वे कौन-सा तरीका इस्तेमाल कर सकते हैं ताकि फायदा उठा सकें और बदला ले सकें। उदाहरण के लिए, मैंने एक बार ऐसे ही एक व्यक्ति से कहा, “तुम हमेशा इतना ज्यादा खाना बनाते हो, बस जितना चाहिए उतना ही क्यों नहीं बनाते?” इस पर उसने सोचा : “तुम कहते हो कि खाना कितनी मात्रा में बनाना चाहिए, मुझे इसका सही अंदाजा नहीं है। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि मैं कुशाग्रबुद्धि नहीं हूँ, यानी मैं किसी काम का नहीं हूँ? तो फिर तुम ही एक बार खाना बनाकर दिखाओ!” जब मैंने खाना बनाया और थोड़ा-सा बच भी गया, तो उसने मुँह से तो कुछ नहीं कहा, लेकिन मन ही मन सोचा, “तुम भी बिल्कुल सही मात्रा में खाना नहीं बना सकते, है ना? मुझे तुमसे बदला लेने का मौका मिल गया है। तुमने मेरी समस्या उजागर की, तो मैं भी तुम्हें उजागर कर दूँगा!” वह हमेशा मुझे निशाना बनाने के तरीके ढूँढ़ने की कोशिश करता रहता था। कुछ लोग कहते हैं, “क्या ऐसा है कि तुम उन लोगों से द्वेष रखते हो जो तुम्हें निशाना बनाते हैं? तो दूसरों को निशाना बनाया जाना ठीक है, लेकिन तुम्हें नहीं?” क्या उनका यह कहना सही है? (नहीं।) एक अन्य अवसर पर मैंने किसी से मेज साफ करने के लिए कहा और वह बोला, “इसे मैंने गंदा नहीं किया!” मैंने कहा, “भले ही तुमने इसे गंदा नहीं किया, फिर भी तुम इसे साफ तो कर सकते हो।” वह बोला, “भले ही मैं इसे साफ कर दूँ, फिर भी मुझे यह स्पष्ट करना होगा कि मैंने इसे गंदा नहीं किया।” मैंने उससे अलमारी में रखी चीजें व्यवस्थित करने के लिए कहा और वह बोला, “उसमें रखी चीजें मैंने नहीं खरीदीं!” मैंने कहा, “तुमने उन्हें नहीं खरीदा, लेकिन क्या तुम उन्हें व्यवस्थित नहीं कर सकते? ऐसा क्यों है कि जब मैं कुछ कहता हूँ, तो तुम उसे इतनी कम तवज्जो देते हो? तुम्हें बस यह पता लगाना है कि उन्हें किसने खरीदा था, तभी तुम उन्हें व्यवस्थित कर सकते हो?” क्या वह जानता था कि वह जो कह रहा है वह सही है या गलत? वह विकृत तर्क व्यक्त कर रहा था, है ना? (हाँ।) मैंने कहा कि वह विकृत तर्क व्यक्त कर रहा है, लेकिन वह दिल में आश्वस्त नहीं हुआ, और उसने सोचा कि मेरे विशेष दर्जे का मतलब है कि दूसरों को मेरी कही हर बात माननी पड़ेगी, मानो मैं अपने दर्जे का बेजा इस्तेमाल कर रहा हूँ। क्या उसकी सोच सही थी? (नहीं।) बाद में मैंने देखा कि उसने सत्य बिल्कुल स्वीकार नहीं किया था और मैं चाहे कुछ भी कहता, वह उसे अपने दिल में स्वीकार नहीं करता, इसलिए फिर उससे बात करने में मैंने अपनी ऊर्जा और समय बर्बाद नहीं किया—वह जो चाहे करे, और मैं उसे माफ कर देता और सहन कर लेता। हालाँकि मेरी यह पहचान और दर्जा है, फिर भी बहुत-से लोग हैं जो मेरी बात नहीं सुनते और मेरा विरोध करते हैं। मैंने व्यक्तिगत रूप से कई भाई-बहनों को देखा है जो मेरे प्रति अशिष्ट हैं। ऐसे बहुत-से लोग हैं जो मेरे प्रति अवज्ञाकारी हैं और मुझसे नाराज हैं, ऐसे बहुत-से लोग हैं जो मुझसे ईर्ष्या करते हैं और अपने दिलों में मुझसे नफरत करते हैं, ऐसे बहुत-से लोग हैं जो मुझे नीची नजर से देखते हैं और मुझे तुच्छ समझते हैं, ऐसे बहुत-से लोग हैं जो मेरे पीठ पीछे मेरी आलोचना करते हैं और ऐसे बहुत-से लोग हैं जो खुलेआम मेरा उपहास करते हैं और मजाक उड़ाते हैं। मैंने उनके साथ कैसा व्यवहार किया है? अपने लगभग तीस साल के कार्य में मैंने एक भी व्यक्ति से प्रतिशोध नहीं लिया है। मैंने किसी से नफरत नहीं की है, न ही मैंने अपना दर्जा ग्रहण करने के बाद उन्हें इसलिए सताया है क्योंकि जब मेरी पहचान खुले तौर पर प्रकट नहीं हुई थी तब वे मेरे प्रति अशिष्ट थे। मैंने एक बार भी ऐसा कुछ नहीं किया है। इसके अलावा, इन लोगों ने मेरे साथ कुछ अभद्र या आहत करने वाली चीजें की हैं और मैंने उन्हें कभी जवाबदेह नहीं ठहराया। लेकिन, मुझे ऐसी समस्याओं को सत्य से जोड़कर उन पर संगति अवश्य करनी है ताकि हर व्यक्ति को भेद पहचानने की क्षमता हासिल करने में मदद मिल सके—यह हर व्यक्ति के लिए लाभदायक है। लेकिन बहुत-से लोगों में इन लोगों द्वारा की गई चीजों का भेद पहचानने की क्षमता नहीं है। वे ऐसी चीजों को गंभीरता से नहीं लेते, मानो वे जिक्र करने लायक ही न हों। क्या यह एक समस्या नहीं है? इसलिए, ऐसे मामलों पर संगति करना बेहद जरूरी है ताकि सभी को भेद पहचानने की क्षमता हासिल करने में मदद मिल सके। चूँकि तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, इसलिए मैं तुम्हें एक विश्वासी समझता हूँ। मैं तुम्हारे द्वारा किए जा रहे कर्तव्य के आधार पर तुमसे अपेक्षाएँ करता हूँ, तो क्या तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए? क्या तुम्हें समर्पण नहीं करना चाहिए? (हाँ।) मेरी यह पहचान है और मैं इस पहचान और दर्जे के साथ तुमसे अपेक्षाएँ कर रहा हूँ, इसलिए मैं जो कहता हूँ तुम्हें उसे एक सृजित प्राणी के रवैये से लेना चाहिए। तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो; तुम्हें कोई और टिप्पणी नहीं करनी चाहिए, तुम्हें विकृत तर्क नहीं बोलना चाहिए और तुम्हें मेरा विरोध नहीं करना चाहिए। यह मानवता की न्यूनतम तार्किकता और अभिव्यक्ति है जो एक सृजित प्राणी के रूप में तुममें होनी चाहिए। लेकिन इस व्यक्ति में न सिर्फ ऐसा रवैया नहीं था, बल्कि उसने विकृत तर्क भी इस्तेमाल किया। क्या वह जानता था कि क्या सही है और क्या गलत? वह नहीं जानता था। जो लोग नहीं जानते कि क्या सही है और क्या गलत, वे मानवता से रहित होते हैं, है ना? (हाँ।) यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उनमें कोई मानवता नहीं है। अगर कोई साधारण व्यक्ति तुमसे मेज साफ करने और अलमारी व्यवस्थित करने के लिए कहता है और तुम ऐसा नहीं करना चाहते या तुम्हें लगता है कि दूसरा व्यक्ति एक साधारण व्यक्ति है और उसे तुमसे ऐसा करने के लिए कहने का कोई अधिकार नहीं है, तो तुम ऐसा नहीं करना चुन सकते हो। लेकिन तुमने जो दो चीजें कहीं, “मैंने इसे गंदा नहीं किया!” और “अलमारी में रखी चीजें मैंने नहीं खरीदीं!”—क्या कोई जमीर और विवेक वाला व्यक्ति यही कहेगा? क्या यह हद से ज्यादा अनुचित नहीं है? (हाँ।) जब कोई साधारण व्यक्ति तुमसे इस तरह बात करता है, तो तुम अवज्ञाकारी व्यवहार करते हो, लेकिन अब मैं तुमसे बात कर रहा हूँ और तुम अभी भी मेरे सामने विकृत तर्क का इस्तेमाल करने और सत्याभासी तर्क से अपना बचाव करने का साहस कर रहे हो। तुम इस तरह विकृत तर्क का इस्तेमाल कर सकते हो, यह तुम्हारे चरित्र के बारे में क्या कहता है? तुम ने कहा, “मैंने इसे गंदा नहीं किया,” जिसका अर्थ है, “जिसने भी इसे गंदा किया है, उसे ही इसे साफ करना चाहिए; कुछ भी हो, मैं इसे साफ नहीं करूँगा!” तुमने वह काम करने से इनकार कर दिया जो तुम्हें करना चाहिए था और यहाँ तक कि तुमने विकृत तर्क का भी इस्तेमाल किया। क्या सामान्य मानवता वाले व्यक्ति को चीजें इसी तरह से सँभालनी चाहिए? अगर यह वह काम है जो तुम्हें करना चाहिए, तो क्या तुम्हें नहीं चाहिए कि तुम ऐसा न कहो? तुम ऐसा कहने में समर्थ हो, क्या इसका मतलब यह नहीं है कि तुम नहीं जानते कि क्या सही है और क्या गलत? मना करने और यह काम न करने के लिए तुमने यह कहते हुए अपना निजी गुस्सा भी निकाला कि तुमने इसे गंदा नहीं किया, न ही तुमने चीजें खरीदीं, इसलिए तुम उसे साफ नहीं करोगे। ऐसा करने से बचने के लिए तुम बहाने बनाने लगे और विकृत तर्क का इस्तेमाल करने लगे। क्या तुम्हारा तर्क बहुत विकृत नहीं है? तुम ऐसा विकृत तर्क अपने मुँह से निकाल सके, और तुमने ऐसा निर्लज्ज आत्म-निश्चितता से, यहाँ तक कि दबंगई से भी किया। ऐसा व्यक्ति नहीं जानता कि क्या सही है और क्या गलत, है ना? उसमें मानवता नहीं होती, है ना? (हाँ।) ऐसा नहीं है कि मेरी यह पहचान और दर्जा है और तुमने मुझे निशाना बनाया, इसलिए मैंने तुम्हारा इस तरह चरित्र-चित्रण किया है। अगर किसी और ने तुमसे ऐसा करने के लिए कहा होता और तुमने मना कर दिया होता और बहस करने की कोशिश की होती तो भी, एक दर्शक के रूप में, मैं तब भी इसी तरह से तुम्हारा मूल्यांकन करता, क्योंकि तुमने जो कहा वह मानवता के अनुरूप नहीं है, वह गलत है, वह विकृत तर्क है, वह पाखंड और भ्रांति है। तुमने नहीं सोचा कि यह गलत है, यहाँ तक कि तुमने उसे ठोस तर्क माना; यह ये दिखाने के लिए पर्याप्त है कि तुम्हारी मानवता के अंदर क्या है। तुम उस समय इसे रोक नहीं सके और बोल पड़े। यह एक प्राकृतिक प्रकाशन है और प्राकृतिक प्रकाशन व्यक्ति की मानवता और सार दर्शाता है। मैं क्यों कहता हूँ कि यह व्यक्ति का सार दर्शाता है? तुम्हारा ऐसे विचार और दृष्टिकोण रखना कोई अस्थायी चीज नहीं है और वे मेरे द्वारा कही गई किसी चीज से उत्प्रेरित नहीं हुए थे; बल्कि ये वे विचार और दृष्टिकोण हैं जिन्हें तुम लंबे समय से, कई दिनों और महीनों से सोचते आ रहे हो—इसके अलावा, चूँकि कुछ चीजें तुम्हें पसंद नहीं आईं, इसलिए तुमने धारणाएँ विकसित कर लीं, तुम्हारा दिल असंतोष और अवज्ञा से भर गया। एक पल के लिए तुम्हारा नियंत्रण छूट गया और तुम्हारे दिल में जो था वह उजागर हो गया। क्या उजागर हुआ? यही कि तुममें जमीर और विवेक नहीं है और तुम्हारी मानवता बहुत बुरी, बहुत भयावह है। अगर तुम उपर्युक्त व्यक्ति से सत्य स्वीकारने के लिए कहते, तो वह ऐसा न कर सकता। अगर तुम उससे उसके भ्रष्ट स्वभाव जानने के लिए कहते, तो उसके लिए यह और भी कम संभव होता। जिस व्यक्ति में मानवता नहीं होती, वह जानवर के समान स्तर का होता है। ऐसा नहीं है कि उसने अनजाने में मेरे साथ कुछ गलत किया या मुझसे कुछ भ्रांतिपूर्ण कहा, इसलिए मैंने उसका इस तरह चरित्र-चित्रण किया है; मैंने ऐसा इसलिए किया है क्योंकि उसने जो किया, उसकी प्रकृति ऐसी ही है। उसका इस तरह चरित्र-चित्रण करना अनुचित या अन्यायपूर्ण नहीं है। अगर उसने इन शब्दों से किसी और को निशाना बनाया होता, तो भी अगर मैं देखता, तो उसे इसी तरह आँकता। यह एक वस्तुनिष्ठ, निष्पक्ष कथन है। वह ऐसी बेतुकी चीजें कह सका, ऐसा हास्यास्पद तर्क बोल सका, और उसका ऐसा करना एक प्राकृतिक प्रकाशन था। मुझे बताओ, क्या यह उसके प्रकृति सार का उजागर होना नहीं है? क्या यह उसकी सच्ची मानवता का उजागर होना नहीं है? इसने उसे बेनकाब कर दिया है। इसने क्या प्रकट किया है? इसने प्रकट किया है कि उसमें कोई मानवता नहीं है। मानवता से रहित लोग नहीं जानते कि क्या सही है और क्या गलत, और वे किसी भी विकृत तर्क और पाखंड का सहारा ले सकते हैं, ये चीजें इतनी निर्लज्ज आत्म-निश्चितता के साथ कह सकते हैं। बोलने के बाद वे कभी नहीं जानते कि उनके शब्द गलत हैं और वे कभी स्वीकार नहीं करते कि उनके शब्दों में क्या गलत था। वे कभी आत्म-चिंतन नहीं करते या काट-छाँट स्वीकार नहीं करते, और अंत में, वे क्या कहते हैं? “मैंने यह जानबूझकर नहीं कहा। क्या यह बस ऐसा नहीं था कि क्रोध के क्षण में यह बात मेरे मुँह से निकल गई?” क्या यह जानबूझकर कहा जाना जरूरी भी है? तुम पहले ही इसे प्राकृतिक रूप से प्रकट कर चुके हो और तुम्हारी मानवता कैसी है यह पहले ही उजागर हो चुका है। यह तथ्य कि तुम बिना सोचे-विचारे इसे कह सकते हो, यह साबित करता है कि ये शब्द तुम्हारे दिल में लंबे समय से घर किए हुए हैं और जब तुम इस तरह के परिवेश का सामना करते हो, तब ये प्राकृतिक रूप से प्रकट हो जाते हैं। यह तुम्हारे चरित्र को पूरी तरह से दर्शा सकता है। अगर तुमने इसे कहने से पहले इसके बारे में सोचा होता, तो जरूरी नहीं कि यह सच हो और यह एक दिखावा भी हो सकता है, जबकि यह तुम्हारे चरित्र को और ज्यादा उजागर करता है। जिन लोगों में मानवता नहीं होती, वे नहीं जानते कि क्या सही है और क्या गलत और वे सही और गलत को उलट-पुलट भी देते हैं और विकृत तर्क को इस तरह व्यक्त करते हैं मानो वह ठोस तर्क हो। चाहे तुम उनके सामने तथ्य और तर्क कैसे भी पेश करो, वे स्वीकार ही नहीं करेंगे कि उन्होंने कोई गलती की है। “मैं गलत कैसे हो सकता हूँ? तुम लोग ही गलत हो! तुम लोग मुझे तुच्छ समझते हो, तुम देखते हो कि मैं दब्बू हूँ, मुझमें कोई गुण नहीं है और समाज में मेरा कोई प्रभाव या रुतबा नहीं है, और तुम मुझे धौंस देते हो!” वे ढेरों विकृत तर्क और पाखंड उगलते हैं, लेकिन कभी अपने द्वारा की गई चीजों और अपने द्वारा बोले गए विकृत तर्क की प्रकृति नहीं बताते। चाहे वे कितनी भी गलत चीजें करें, वे उन्हें स्वीकार नहीं करते। क्या सामान्य मानवता वाले व्यक्ति में इस तरह की अभिव्यक्ति होगी? हमें उन लोगों का जिक्र तक करने की जरूरत नहीं है जिनका जमीर और विवेक बहुत मजबूत होता है—थोड़े-से भी जमीर और विवेक वाला व्यक्ति निश्चित रूप से यह समझेगा कि लोग अपने जीवनकाल में कई गलतियाँ करते हैं। खास तौर पर, कुछ लोग कुछ ऐसी चीजें कह या कर देते हैं जो उन्हें कहनी या करनी नहीं चाहिए और फिर जीवन भर पछताते रहते हैं और व्यथित महसूस करते हैं, अपने जमीर में अपने आप को दोष देते हैं और आत्म-ग्लानि महसूस करते हैं। जैसे-जैसे वे अधिक संवेदनशीलता और परिपक्वता की उम्र की ओर बढ़ते हैं, वे यह अधिकाधिक जानने लगते हैं कि कौन-से शब्द कहने चाहिए और कौन-सी चीजें करनी चाहिए, और कौन-से शब्द नहीं कहने चाहिए और कौन-सी चीजें नहीं करनी चाहिए। उनका जमीर और विवेक उनके व्यवहार और विचारों को निरंतर नियमित करते रहेंगे। विशेषकर अगर कोई व्यक्ति सत्य स्वीकार सकता है तो उसके द्वारा कुछ सत्य स्वीकारने के बाद उसका जमीर और विवेक सकारात्मक दिशा में विकसित होंगे और उसके द्वारा कभी कहे गए गलत शब्द, उसके द्वारा कभी व्यक्त किए गए भ्रामक दृष्टिकोण और उसके द्वारा कभी की गई गलत चीजें धीरे-धीरे उसके मन में आती रहेंगी। वह निरंतर उन पर चिंतन, सोच-विचार और मनन करेगा और फिर परमेश्वर के वचन खोजेगा और परमेश्वर के वचनों से अपनी तुलना करेगा और उसे उत्तरोत्तर यह महसूस होगा कि वह बस एक साधारण व्यक्ति है, उसने कई गलतियाँ की हैं और कई गलत शब्द कहे हैं, वह कई भ्रामक विचार और दृष्टिकोण रखता है और उसने अतीत में कई मूर्खतापूर्ण, अज्ञानतापूर्ण और बेवकूफी भरी चीजें और ऐसी चीजें की हैं जो लोगों को घृणित लगती हैं। परमेश्वर के वचनों और सत्य के स्तर से देखे बिना और सिर्फ उस समझ से देखते हुए जो व्यक्ति ने कई वर्षों के अनुभव से प्राप्त की है, वह अपनी मानवता में इन समस्याओं, इन गलतियों और अपराधों को लगातार सारांशित भी कर सकता है। यह सामान्य है और ये वे अनुभव और लाभ हैं जो मानवता वाले ऐसे व्यक्ति में, जो यह जानता है कि क्या सही है और क्या गलत, एक निश्चित आयु तक पहुँचने और कुछ सत्य स्वीकारने के बाद अंततः होने चाहिए। लेकिन जो लोग नहीं जानते कि क्या सही है और क्या गलत, अगर वे साठ-सत्तर साल तक भी जीवित रहें, तो भी ऐसे ही मूर्ख, अज्ञानी और जिद्दी रहते हैं और वे नहीं बदलेंगे। अगर तुम ऐसे लोगों से बदलने की उम्मीद करते हो, तो तुम किसी सुअर के उड़ने की उम्मीद भी करते होगे। ऐसा कभी नहीं होगा। ऐसे लोग कभी नहीं बदलेंगे, क्योंकि वे यह तक नहीं जानते कि क्या सही है और क्या गलत। अगर तुम किसी ऐसे व्यक्ति से, जो नहीं जानता कि क्या सही है और क्या गलत, सत्य स्वीकारने के लिए कहो, तो यह उसके लिए चीजें मुश्किल करना हो जाएगा, क्योंकि यह उसके वश से एकदम परे है, और वह नहीं जानता कि सत्य क्या है। उसके लिए सत्य स्वीकारना असंभव है। यह किसी वर्णांध व्यक्ति से चित्र बनाने के लिए कहने जैसा होगा। क्या वह सामान्य रंगों से चित्र बना पाएगा? (नहीं।) अगर तुम किसी तान-बधिर व्यक्ति से गाने के लिए कहो, तो वह हमेशा सुर से बाहर ही रहेगा। चाहे वह कैसे भी गाए, वह सुर में नहीं गा सकता, फिर भी उसे लगता है कि उसका गायन सुर में है और दूसरे सुर से बाहर हैं। उसके माप का मानक सही नहीं है, इसलिए वह कभी नहीं जान पाएगा कि क्या सही है और क्या गलत। क्या अब तुम समझते हो? (हाँ।)

यह विषयवस्तु, जिस पर संगति की गई है, लोगों को क्या तथ्य बताती है? यह उन्हें बताती है कि मानवता से रहित लोगों में जमीर और विवेक जैसी मूलभूत स्थिति नहीं होती, इसलिए उनके पास अपनी मानवता मापने और नियमित करने का कोई बुनियादी मानक नहीं होता। नतीजतन, उनकी अभिव्यक्तियाँ उन लोगों को बहुत अजीब लगती हैं जिनमें जमीर और विवेक होता है। वे हमेशा विकृत तर्क और पाखंड व्यक्त करते रहते हैं और निराधार विचार व्यक्त करते रहते हैं। तुम समझ नहीं पाते कि आखिर हो क्या रहा है। अब तुम्हें उत्तर मिल गया है, है ना? (हाँ।) अगर ऐसा व्यक्ति उस बिंदु तक पहुँच जाता है जहाँ उसके साथ निभाना असंभव हो जाता है, तो फिर तुम्हें उसके साथ नहीं जुड़ना चाहिए। अगर वह अभी इस बिंदु तक नहीं पहुँचा है और तुम अभी भी उसके साथ ठीक-ठाक निभा सकते हो, तो उससे जितना कम हो सके, बोलने और बातचीत करने का प्रयास करो, ताकि तुम झुँझलाहट से बच सको। अभी तमाम कार्यक्षेत्रों में काम का भारी बोझ है और कई कार्य ऐसे हैं जिनमें ऊर्जा की जरूरत होती है। कुछ लोगों को लगता है कि वे बहुत व्यस्त हैं और उनके पास इन पाखंडों और भ्रांतियों पर ध्यान देने का समय नहीं है। यह दृष्टिकोण भी गलत है, क्योंकि यह भेद पहचानने की क्षमता की प्राप्ति में सहायक नहीं है। जब तुम कोई पाखंड या भ्रांति सुनते हो और महसूस करते हो कि उसमें कुछ गड़बड़ है, तो तुम्हें उस पर ध्यान देना चाहिए। उसके बाद सत्य खोजो ताकि तुम उसका भेद स्पष्ट रूप से पहचान सको और जान सको कि इस भ्रांति में क्या गलत है। अगर तुम इस प्रकार प्रशिक्षण और अभ्यास करते हो, तो तुम्हें भेद पहचानना आ जाएगा। लेकिन ऐसे व्यक्ति के दृष्टिकोण सही करने के लिए उसके साथ सत्य पर संगति करने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि वह इसे समझ ही नहीं सकता। यह उस व्यक्ति के समान है जो पेड़ से अंडा गिरता हुआ देखता है और फिर कहता है कि अंडे पेड़ों पर उगते हैं। असल में पेड़ पर एक मुर्गी बैठी अंडा दे रही थी। उसने मुर्गी को नहीं, सिर्फ अंडे को गिरते हुए देखा, इसलिए वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा। तुम उससे चाहे जो भी कहो, वह समझ नहीं पाता और जिद करता है कि अंडे पेड़ों पर उगते हैं। क्या यह मूर्खतापूर्ण नहीं है? (हाँ।) क्या तुम ऐसे व्यक्ति को समझा सकते हो? (नहीं।) अगर तुम उसे नहीं समझा सकते, तो फिर कुछ मत कहो। अपना समय बर्बाद मत करो। इन वर्षों में मैंने बहुत-से बेतुके लोग देखे हैं। इनमें से ज्यादातर लोग काफी उत्साही होते हैं; वे कुछ कर्तव्य निभा सकते हैं और बहुत ज्यादा विश्वासघाती या बुरे नहीं होते। इसलिए मैं उनसे यूँ ही कुछ कह देता हूँ और परिणाम क्या होता है? अगर मैं सत्य के कुछ शब्द कहता हूँ तो वे उनकी समझ से परे होते हैं। अगर मैं बाहरी मामलों के बारे में बात करता हूँ, तो वे सुनना बर्दाश्त नहीं कर सकते। इसलिए मैं अब इन लोगों से कुछ नहीं कहना चाहता, क्योंकि इनसे बात करना बहुत थका देने वाला है और मेरे पास करने को बहुत काम है, चर्चा करने के लिए बहुत सारे उपयुक्त विषय हैं। मैं तमाम उपयुक्त विषयों पर भी नहीं बोल पाता, तो मैं इन लोगों के साथ माथापच्ची कैसे कर सकता हूँ? अब जबकि सत्य पर इस हद तक संगति हो चुकी है, तो बहुत-सी चीजें स्पष्ट हो गई हैं, असली तथ्य सामने आ गए हैं और विभिन्न प्रकार के लोगों को सचमुच उनके प्रकार के अनुसार छाँटा जाएगा। जहाँ तक ऐसे बेतुके व्यक्ति का संबंध है, उसे बस छाँट दिया जाए और बस इतना ही काफी है। हमारे पास उससे बहस करने या उसके भ्रामक दृष्टिकोण सही करने का समय नहीं है, है ना? (हाँ।) तो चलो, आज के लिए अपनी संगति यहीं समाप्त करते हैं। अलविदा!

16 मार्च 2024

फुटनोट :

क. मूल चीनी पाठ में “झेंग” नाम में नैतिक ईमानदारी का संकेतार्थ है।

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परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 8) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 9) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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