पतरस के मार्ग पर कैसे चलें

सटीक रूप से, अपने विश्वास में पतरस के मार्ग को अपनाने का अर्थ है, सत्य को खोजने के मार्ग पर चलना, जो वास्तव में स्वयं को जानने और अपने स्वभाव को बदलने का मार्ग भी है। केवल पतरस के मार्ग पर चलने के द्वारा ही कोई परमेश्वर के द्वारा पूर्ण बनाए जाने के मार्ग पर होगा। किसी को भी इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए कि वास्तव में कैसे पतरस के मार्ग पर चलना है साथ ही कैसे इसे अभ्यास में लाना है। पहले तो, किसी को भी अपने स्वयं के इरादों, अनुचित प्रयासों, और यहाँ तक कि अपने परिवार और अपनी स्वयं की देह की सभी चीजों को एक ओर रखना होगा। एक व्यक्ति को पूर्ण हृदय से समर्पित अवश्य होना चाहिए, अर्थात्, स्वयं को पूरी तरह से परमेश्वर के वचन के प्रति समर्पित करना चाहिए, परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, परमेश्वर के वचनों में सत्य और उसकी आकांक्षाओं की खोज पर अवश्य ध्यान केंद्रित करना चाहिए, और हर चीज में परमेश्वर के इरादों को समझने का प्रयास करना चाहिए। यह अभ्यास की सबसे बुनियादी और प्राणाधार पद्धति है। यह वही था जो पतरस ने यीशु को देखने के बाद किया था, और केवल इस तरह से अभ्यास करने से ही कोई सबसे अच्छा परिणाम प्राप्त कर सकता है। परमेश्वर के वचन के प्रति हार्दिक समर्पण में मुख्यतः परमेश्वर के वचनों में सत्य और उसके आकांक्षाओं की खोज करना, परमेश्वर के इरादों को समझने पर ध्यान केंद्रित करना, और परमेश्वर के वचनों से सत्य को समझना व और अधिक प्राप्त करना शामिल है। परमेश्वर के वचनों को पढ़ते समय, पतरस ने सिद्धांतों को समझने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया था और धार्मिक ज्ञान प्राप्त करने पर तो उसका ध्यान और भी केंद्रित नहीं था। इसके बजाय, उसने सत्य को समझने और परमेश्वर के इरादों को समझने पर, साथ ही परमेश्वर के स्वभाव और सुंदरता की समझ को प्राप्त करने पर ध्यान लगाया था। पतरस ने परमेश्वर के वचनों से मनुष्य की विभिन्न भ्रष्ट अवस्थाओं के साथ ही मनुष्य के प्रकृति सार तथा मनुष्य की वास्तविक कमियों को समझने का भी प्रयास किया, और इस प्रकार परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए आसानी से, उसकी अपेक्षाएँ पूरी कीं। पतरस के पास ऐसे बहुत-से सही अभ्यास थे जो परमेश्वर के वचनों के अनुरूप थे। यह परमेश्वर के इरादों के सर्वाधिक अनुकूल था, और यह वो सर्वोत्तम तरीका था जिससे कोई व्यक्ति परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हुए सहयोग कर सकता है। परमेश्वर के भेजे हुए सैकड़ों परीक्षणों का अनुभव करते समय पतरस परमेश्वर के न्याय और उजागर करने के हर वचन और मनुष्य से उसकी माँगों के हर वचन से सख्ती से अपना मिलान करता था, स्वयं को जाँचता था और परमेश्वर के वचनों का अर्थ ठीक-ठीक जानने का प्रयास करता था। यीशु उससे जो कुछ कहता था, उस पर वह गंभीरता से मनन करता था, हर वचन को मन में दृढ़ता से धारण करता था—और इस तरीके से बहुत अच्छे परिणाम मिलते थे। इस तरीके से अभ्यास कर उसने परमेश्वर के वचनों के जरिए स्वयं को जान लिया और वह न केवल मनुष्य की विभिन्न भ्रष्ट दशाओं और कमियों को जान गया, बल्कि वह मनुष्य के सार और प्रकृति को भी जान गया। यह दर्शाता है कि पतरस सच में स्वयं को जानता था। परमेश्वर के वचनों से पतरस ने एक ओर अपने बारे में सच्चा ज्ञान हासिल किया और दूसरी ओर उसने देखा परमेश्वर द्वारा व्यक्त धार्मिक स्वभाव, जो परमेश्वर के पास है और जो वह स्वयं है, परमेश्वर के अपने कार्य के लिए इरादे और मानवजाति से परमेश्वर की माँगें। इन वचनों से उसने परमेश्वर को सच में जाना, उसका स्वभाव और उसका सार उसे पता चला; परमेश्वर के पास जो है, जो वह स्वयं है, वे बातें उसने जानीं और समझीं, साथ ही परमेश्वर की मनोहरता और मनुष्य से परमेश्वर की माँगें भी जानीं। भले ही परमेश्वर ने उस समय उतना नहीं बोला, जितना आज वह बोलता है, किन्तु पतरस में इन पहलुओं में परिणाम उत्पन्न हुआ था। यह एक दुर्लभ और बहुमूल्य चीज थी। पतरस सैकड़ों परीक्षणों से गुजरा; उसका कष्ट सहना व्यर्थ नहीं गया। न केवल उसने परमेश्वर के वचनों और कार्यों से स्‍वयं को जाना बल्कि उसने परमेश्वर को भी जान लिया। इसके साथ ही, परमेश्वर के वचनों में पतरस ने विशेष रूप से मनुष्य से परमेश्वर की माँगों पर और उन पहलुओं पर ध्यान दिया जिनमें मनुष्य को परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहिए ताकि वह परमेश्वर के इरादे के अनुरूप हो सके, और वह इन बातों में अत्यधिक प्रयास लगाने में समर्थ रहा और उनमें उसे पूरी स्पष्टता प्राप्त हुई। उसके जीवन प्रवेश के लिए यह अत्‍यंत लाभकारी था। परमेश्वर के वचनों का चाहे कोई भी पहलू हो जब तक वे वचन जीवन के रूप में कार्य करने योग्य थे और सत्य थे, तो पतरस ने उन्हें अपने हृदय में उकेर लिया, जहाँ वह अक्सर उन पर विचार करता और उन्हें समझता था। यीशु के वचनों को सुनकर, वह उन्‍हें अपने हृदय में उतार सका, जिससे पता चलता है कि उसका ध्‍यान विशेष रूप से परमेश्वर के वचनों पर ही था, और अंत में उसने वास्‍तव में परिणाम प्राप्‍त कर लिए। अर्थात्, वह परमेश्वर के वचनों को कुशलतापूर्वक अभ्यास में ला सका, वह सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के इरादों के अनुसार कार्य सही ढंग से कर सका, वह पूरी तरह परमेश्वर की इच्छाओं के अनुसार कार्य कर सका और अपने निजी मतों और कल्पनाओं का त्याग कर सका। इस तरीके से पतरस ने परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश किया। पतरस की सेवा परमेश्वर के इरादों के अनुसार मुख्‍य रूप से इसीलिए हो पाई क्‍योंकि उसने ऐसा किया था।

यदि कोई अपना कर्तव्य करते हुए परमेश्वर को संतुष्ट कर सकता है, और अपने शब्दों और क्रियाकलापों में सैद्धांतिक है और सत्य के समस्त पहलुओं की वास्तविकता में प्रवेश कर सकता है, तो वह ऐसा व्यक्ति है जो परमेश्वर द्वारा पूर्ण किया गया है। यह कहा जा सकता है कि परमेश्वर के कार्य और उसके वचनों ने उन पर पूरी तरह से प्रभाव प्राप्त कर लिया है, कि परमेश्वर के वचन उनका जीवन बन गए हैं, उन्होंने सच्चाई को प्राप्त कर लिया है, और वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने में समर्थ हैं। इसके बाद, उनके देह की प्रकृति—अर्थात, उनके मूल अस्तित्व की नींव—हिलकर अलग हो जाएगी और ढह जाएगी। जब लोग परमेश्वर के वचन को अपने जीवन के रूप में धारण कर लेंगे, केवल तभी वे नए लोग बनेंगे। अगर परमेश्वर के वचन लोगों का जीवन बन जाते हैं; परमेश्वर के कार्य का दर्शन, उसका प्रकाशन और मानवता से उसकी अपेक्षाएँ, और मानव जीवन के वे मानक जो परमेश्वर अपेक्षा करता है कि वे प्राप्त करें, लोगों का जीवन बन जाते हैं, अगर लोग इन वचनों और सच्चाइयों के अनुसार जीते हैं, और वे परमेश्वर के वचनों द्वारा पूर्ण बनाए जाते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के वचनों के माध्यम से पुनर्जन्म लेते हैं और नए लोग बन गए हैं। यह वह मार्ग है जिसके द्वारा पतरस ने सत्य का अनुसरण किया। यह पूर्ण बनाए जाने का मार्ग है। पतरस परमेश्वर के वचनों से पूर्ण बना, उसने परमेश्वर के वचनों से जीवन प्राप्त किया, परमेश्वर द्वारा व्यक्त किया गया सत्य उसका जीवन बन गया, और वह एक ऐसा व्यक्ति बना जिसने सत्य को प्राप्त किया। हम सब जानते हैं कि यीशु के आरोहण के समय के आसपास पतरस में बहुत-सी धारणाएँ, विद्रोह और दुर्बलताएँ थीं। बाद में ये चीजें पूरी तरह से बदल क्यों गईं? इसका सीधा संबंध सत्य के उसके अनुसरण से है। जीवन के अनुसरण में, व्यक्ति को सत्य के अभ्यास पर ध्यान लगाना चाहिए। सिर्फ धर्म-सिद्धांत समझने का कोई लाभ नहीं है, यह भी व्यर्थ है कि व्यक्ति कितने धर्म-सिद्धांतों पर बात कर सकता है। ये चीजें व्यक्ति के जीवन स्वभाव में परिवर्तन नहीं ला सकतीं। परमेश्वर के वचनों का सिर्फ शाब्दिक अर्थ समझ लेना सत्य को समझने के बराबर नहीं है। ये परमेश्वर के वचनों में समझाए गए सार और सिद्धांत के वे मामले हैं, जो सत्य हैं। उसके कथनों की हर पंक्ति में सत्य है, हालाँकि यह जरूरी नहीं कि लोग उसे समझ लें। उदाहरण के लिए, जब परमेश्वर कहता है, “तुम्हें ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए” तो इस कथन में सत्य है। यह और भी ज्यादा सच है कि उसके कथनों, जैसे कि, “तुम लोगों को ऐसे व्यक्ति बनना चाहिए, जो परमेश्वर के सम्मुख समर्पित हों, जो परमेश्वर से प्रेम करते हों, और जो परमेश्वर की आराधना करते हों। तुम लोगों को मनुष्यों की तरह अपने कर्तव्यों का उचित ढंग से पालन करना चाहिए,” में सत्य निहित है। परमेश्वर के वचनों की हर पंक्ति सत्य के एक पहलू को प्रतिपादित करती है, और इनमें से प्रत्येक सत्य अन्य सत्यों से करीब से संबंधित होता है। इसलिए परमेश्वर जो भी कहता है उसमें सत्य व्यक्त करता है और परमेश्वर प्रत्येक सत्य के बारे में बहुत विस्तृत रूप से बोलता है। इसका उद्देश्य लोगों को सत्य का सार समझाना है। जो लोग इस हद तक परमेश्वर का वचन समझते हैं, उन्हें ही परमेश्वर का वचन समझने वाला कहा जा सकता है। अगर तुम परमेश्वर के वचनों को सिर्फ उनके शाब्दिक अर्थ के अनुसार ही समझते और समझाते हो और खोखले शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते हो, तो तुम्हें सत्य की समझ नहीं है। तुम सिर्फ दिखावा कर रहे हो, काम नहीं सिर्फ बातें करते हो, बस धर्म-सिद्धांत लेकर खेल रहे हो।

जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को समझ नहीं लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। उस प्रकृति में विशिष्ट रूप से क्या शामिल होता है? उदाहरण के लिए, तुम स्वार्थी क्यों हो? तुम अपने पद की रक्षा क्यों करते हो? तुम्हारी भावनाएँ इतनी प्रबल क्यों हैं? तुम उन अधार्मिक चीजों से प्यार क्यों करते हो? ऐसी बुरी चीजें तुम्हें अच्छी क्यों लगती हैं? ऐसी चीजों को पसंद करने का आधार क्या है? ये चीजें कहाँ से आती हैं? तुम इन्हें स्वीकार कर इतने खुश क्यों हो? अब तक, तुम सब लोगों ने समझ लिया है कि इन सभी चीजों के पीछे मुख्य कारण यह है कि मनुष्य के भीतर शैतान का जहर है। तो शैतान का जहर क्या है? इसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, यदि तुम पूछते हो, “लोगों को कैसे जीना चाहिए? लोगों को किसके लिए जीना चाहिए?” तो लोग जवाब देंगे, “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।” यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का फलसफा और तर्क लोगों का जीवन बन गए हैं। लोग चाहे जिसका भी अनुसरण करें, वे ऐसा बस अपने लिए करते हैं, और इसलिए वे केवल अपने लिए जीते हैं। “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए”—यही मनुष्य का जीवन-दर्शन है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। ये शब्द पहले ही भ्रष्ट इंसान की प्रकृति बन गए हैं, और वे भ्रष्ट इंसान की शैतानी प्रकृति की सच्ची तस्वीर हैं। यह शैतानी प्रकृति पहले ही भ्रष्ट इंसान के अस्तित्व का आधार बन चुकी है। कई हजार सालों से वर्तमान दिन तक भ्रष्ट मानवजाति ने शैतान के इस जहर के अनुसार जीवन जीया है। शैतान का हर काम अपनी आकांक्षाओं, महत्वाकांक्षाओं और उद्देश्यों के लिए होता है। वह परमेश्वर से आगे जाना चाहता है, परमेश्वर से मुक्त होना चाहता है, और परमेश्वर द्वारा रची गई सभी चीजों पर नियंत्रण पाना चाहता है। आज लोग शैतान द्वारा इस हद तक भ्रष्ट कर दिए गए हैं : उन सभी की प्रकृति शैतानी है, वे सभी परमेश्वर को नकारने और उसका विरोध करने की कोशिश करते हैं, और वे अपने भाग्य पर अपना नियंत्रण चाहते हैं और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं का विरोध करने की कोशिश करते हैं। उनकी महत्वाकांक्षाएँ और आकांक्षाएँ बिल्कुल शैतान की महत्वाकांक्षाओं और आकांक्षाओं जैसी हैं। इसलिए, मनुष्यों की प्रकृति शैतान की प्रकृति है। वास्तव में, बहुत-से लोगों के नीति-वाक्य और सूक्तियाँ मानव प्रकृति को दर्शाती और इंसानी भ्रष्टता के सार को प्रतिबिंबित करती हैं। लोग जो कुछ भी चुनते हैं, वह उनकी अपनी पसंद होती है और वह लोगों के स्वभाव और प्रयासों का प्रतिनिधित्व करता है। इंसान जो कुछ कहता और करता है, उसका भेष कितना भी बदला हुआ क्यों न हो, वह उसकी प्रकृति नहीं छिपा सकता। जैसे, फरीसी आमतौर पर बहुत अच्छा उपदेश देते थे, लेकिन जब उन्होंने यीशु द्वारा व्यक्त उपदेश और सत्य सुने, तो उन्हें स्वीकारने के बजाय उनकी निंदा करने लगे। इसने फरीसियों की सत्य से विमुख होने और घृणा करने वाले प्रकृति सार को उजागर कर दिया। कुछ लोग बहुत अच्छा बोलते हैं और खुद को बहुत अच्छे से छिपा लेते हैं, लेकिन जब अन्य लोग कुछ समय के लिए उनसे जुड़ते हैं, तो वे जान जाते हैं कि उस व्यक्ति की प्रकृति बेहद धोखेबाज और कपटपूर्ण है। लंबे समय तक उनके साथ जुड़ने के बाद, सभी को उनके प्रकृति सार का पता चल जाता है। अंत में, अन्य लोग यह निष्कर्ष निकालते हैं : वे कभी एक शब्द भी सच नहीं बोलते और वे धोखेबाज हैं। यह कथन उन लोगों की प्रकृति को दर्शाता है और यह उनके प्रकृति सार का सर्वोत्तम चित्रण और सबूत है। सांसारिक आचरण का उनका फलसफा है किसी को सच न बताना, और साथ ही किसी पर विश्वास न करना। मनुष्य की शैतानी प्रकृति बड़ी मात्रा में शैतानी फलसफों और विषों से युक्त है। कभी-कभी तुम स्वयं ही उनके बारे में अवगत नहीं होते और उन्हें नहीं समझते; फिर भी तुम्हारे जीवन का हर पल इन चीजों पर आधारित है। इसके अलावा तुम्हें लगता है कि ये चीजें बहुत सही और तर्कसम्मत हैं, और बिल्कुल भी गलत नहीं हैं। यह, यह दिखाने के लिए पर्याप्त है कि शैतान के फलसफे लोगों की प्रकृति बन गए हैं और वे पूरी तरह से उनके अनुसार जी रहे हैं, इस तरह से जीने को अच्छा मानते हैं और उनमें जरा-सा भी पश्चात्ताप का भाव नहीं होता। इसलिए, वे लगातार अपनी शैतानी प्रकृति प्रकट कर रहे हैं और वे निरंतर शैतानी फलसफे के अनुसार जीवन जी रहे हैं। शैतान की प्रकृति मनुष्य का जीवन है, और वह मनुष्य का प्रकृति सार है। प्रकृति क्या है, इसे मौखिक सारांश के माध्यम से पूरी तरह व्यक्त किया जा सकता है। मनुष्य की प्रकृति में, अहंकार, दंभ और उत्कृष्ट होने की इच्छा होती है। इसमें स्वार्थ का लालच भी शामिल है जो लाभ को हर चीज से ऊपर रखता है और जीवन का कोई सम्मान नहीं करता। उसमें कपट, कुटिलता, और हर मोड़ पर लोगों को धोखा देने की प्रवृत्ति के साथ-साथ असहनीय दुष्टता और गंदगी भी है। यह मनुष्य की प्रकृति का सारांश है। यदि तुम अपनी प्रकृति के भीतर प्रकट होने वाले तमाम पहलुओं में अंतर पहचान सकते हो तो तुम्हें इसकी समझ हासिल हो चुकी है। लेकिन, यदि तुम्हें अपनी प्रकृति के भीतर प्रकट होने वाली किसी भी चीज की कोई समझ नहीं है तो फिर तुम अपनी ही प्रकृति को बिल्कुल नहीं समझते हो। पतरस ने स्वयं को जानने का और यह जाँचने का प्रयत्न किया था कि परमेश्वर के वचनों के शुद्धिकरण से और परमेश्वर द्वारा उसके लिए उपलब्ध कराए गए विभिन्न परीक्षणों के भीतर उसमें क्या प्रकट हुआ था। जब वह वास्तव में खुद को समझने लगा, तो पतरस को एहसास हुआ कि मनुष्य कितनी गहराई तक भ्रष्ट हैं, वे परमेश्वर की सेवा करने की दृष्टि से कितने बेकार और अयोग्य हैं, और कि वे परमेश्वर के समक्ष जीने के लायक नहीं हैं। पतरस तब परमेश्वर के सामने दंडवत हो गया। इतना कुछ अनुभव करने के बाद, अंततः पतरस को लगा, “परमेश्वर को जानना सबसे मूल्यवान है! अगर मैं परमेश्वर को जानने से पहले मर गया, तो यह बहुत अफसोसजनक होगा; परमेश्वर को जानना सबसे महत्त्वपूर्ण, सबसे अर्थपूर्ण बात है। यदि मनुष्य परमेश्वर को नहीं जानता, तो वह जीने का हकदार नहीं है, वह पशु के समान ही है और उसके पास कोई जीवन नहीं है।” जब तक पतरस का अनुभव इस बिंदु तक पहुँचा, तब तक वह अपनी प्रकृति को जान गया था और उसने उसकी अपेक्षाकृत अच्छी समझ हासिल कर ली थी। हालाँकि वह शायद इसे उतनी अच्छी तरह नहीं समझा पाता जितनी स्पष्टता के साथ आजकल लोग समझाने में सक्षम होंगे, लेकिन वह निस्संदेह इस स्थिति में पहुँच गया था। इसलिए, सत्य की खोज के मार्ग पर चलने और परमेश्वर से पूर्णता प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के वचनों के भीतर से अपनी प्रकृति को जानने, और साथ ही अपनी प्रकृति के विभिन्न पहलुओं को समझने और शब्दों में उसका सटीक रूप से वर्णन करने, स्पष्ट और सादे ढंग से बोलने की जरूरत है। सही मायने में खुद को जानना यही है और केवल इसी तरीके से तुम परमेश्वर द्वारा अपेक्षित परिणाम प्राप्त कर पाओगे। यदि तुम्हारा ज्ञान इस बिंदु तक नहीं पहुँचा है, फिर भी तुम खुद को समझने का दावा करते हो और कहते हो कि तुमने जीवन प्राप्त कर लिया है, तो क्या तुम केवल डींग नहीं मार रहे हो? तुम खुद को नहीं जानते, और न ही तुम यह जानते हो कि तुम परमेश्वर के सामने क्या हो, तुमने वास्तव में एक इंसान होने के मानक पूरे कर लिए हैं या नहीं, या तुम्हारे भीतर अभी भी कितने शैतानी तत्त्व हैं। तुम अभी भी इस बारे में अस्पष्ट हो कि तुम किससे संबंधित हो और तुम्हारे पास कोई आत्म-जागरूकता तक नहीं है—फिर परमेश्वर के सामने तुम्हारे पास विवेक कैसे हो सकता है? जब पतरस जीवन की खोज कर रहा था, तो उसने खुद को समझने और अपने परीक्षणों के दौरान अपने स्वभाव को बदलने पर ध्यान केंद्रित किया, और उसने परमेश्वर को जानने का प्रयास किया। अंत में उसने सोचा, “लोगों को जीवन में परमेश्वर की समझ का अनुसरण करने की कोशिश करनी चाहिए; उसे जानना सबसे महत्त्वपूर्ण बात है। अगर मैं परमेश्वर को नहीं जानता, तो मरने पर मुझे शांति नहीं मिलेगी। परमेश्वर को जान लेने के बाद, अगर वह मुझे मरने देता है, तो मैं सर्वाधिक कृतज्ञ महसूस करूँगा। मैं जरा भी शिकायत नहीं करूँगा, और मेरे जीवन में संतुष्टि होगी।” पतरस समझ का यह स्तर हासिल करने या इस बिंदु पर पहुँचने में परमेश्वर पर विश्वास करना शुरू करने के तुरंत बाद ही सक्षम नहीं हो गया था; बल्कि वह बहुत परीक्षणों से गुज़रा। परमेश्वर को जानने का मूल्य समझ सकने से पहले उसके अनुभव को एक निश्चित मील-पत्थर तक पहुँचना पड़ा था, और उसे खुद को पूरी तरह से समझना पड़ा था। इसलिए, पतरस ने जो मार्ग अपनाया, वह सत्य का अनुसरण करने, जीवन प्राप्त करने और पूर्ण किए जाने का मार्ग था। उसका विशिष्ट अभ्यास मुख्य रूप से इसी पहलू पर केंद्रित था।

परमेश्वर में अपनी आस्था में, अब तुम लोग किस मार्ग पर चल रहे हो? अगर तुम पतरस की तरह जीवन, अपने बारे में समझ और परमेश्वर संबंधी ज्ञान की खोज नहीं करते, तो तुम पतरस के मार्ग पर नहीं चल रहे हो। इन दिनों, अधिकांश लोग इस तरह की स्थिति में हैं : आशीष प्राप्त करने के लिए मुझे परमेश्वर के लिए खुद को खपाना होगा और परमेश्वर के लिए कीमत चुकानी होगी। आशीष पाने के लिए मुझे परमेश्वर के लिए सबकुछ त्याग देना चाहिए; मुझे उसके द्वारा सौंपा गया काम पूरा करना चाहिए, और मुझे अपना कर्तव्य अच्छे से अवश्य निभाना चाहिए। इस दशा पर आशीष प्राप्त करने का इरादा हावी है, जो पूरी तरह से परमेश्वर से पुरस्कार पाने और मुकुट हासिल करने के उद्देश्य से अपने आपको उसके लिए खपाने का उदाहरण है। ऐसे लोगों के दिल में सत्य नहीं होता, और यह निश्चित है कि उनकी समझ केवल कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों से युक्त है, जिसका वे जहाँ भी जाते हैं, वहीं दिखावा करते हैं। उनका रास्ता पौलुस का रास्ता है। ऐसे लोगों का विश्वास निरंतर कठिन परिश्रम का कार्य है, और गहराई में उन्हें लगता है कि वे जितना अधिक करेंगे, परमेश्वर के प्रति उनकी निष्ठा उतनी ही अधिक सिद्ध होगी; वे जितना अधिक करेंगे, वह उनसे उतना ही अधिक संतुष्ट होगा; और जितना अधिक वे करेंगे, वे परमेश्वर के सामने मुकुट पाने के लिए उतने ही अधिक योग्य साबित होंगे, और उन्हें मिलने वाले आशीष उतने ही बड़े होंगे। वे सोचते हैं कि यदि वे पीड़ा सह सकें, उपदेश दे सकें और मसीह के लिए मर सकें, यदि वे अपने जीवन का त्याग कर सकें, और परमेश्वर द्वारा सौंपे गए सभी कर्तव्य पूरे कर सकें, तो वे वो होंगे जिन्हें सबसे बड़े आशीष मिलते हैं, और उन्हें मुकुट प्राप्त होने निश्चित हैं। पौलुस ने भी यही कल्पना की थी और इसी का अनुसरण किया था। यही वह मार्ग है जिस पर वह चला था, और ऐसे ही विचार लेकर उसने परमेश्वर की सेवा करने का काम किया था। क्या इन विचारों और इरादों की उत्पत्ति शैतानी प्रकृति से नहीं होती? यह सांसारिक मनुष्यों की तरह है, जो मानते हैं कि पृथ्वी पर रहते हुए उन्हें ज्ञान की खोज करनी चाहिए, और उसे प्राप्त करने के बाद वे भीड़ से अलग दिखाई दे सकते हैं, पदाधिकारी बनकर हैसियत प्राप्त कर सकते हैं। वे सोचते हैं कि जब उनके पास हैसियत हो जाएगी, तो वे अपनी महत्वाकांक्षाएँ पूरी कर सकते हैं और अपने व्यवसाय और पारिवारिक पेशे को समृद्धि के एक निश्चित स्तर पर ले जा सकते हैं। क्या सभी गैर-विश्वासी इसी मार्ग पर नहीं चलते? जिन लोगों पर इस शैतानी प्रकृति का वर्चस्व है, वे अपने विश्वास में केवल पौलुस की तरह हो सकते हैं। वे सोचते हैं : “मुझे परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की खातिर सब कुछ त्याग देना चाहिए। मुझे परमेश्वर के समक्ष समर्पित होना चाहिए, और अंततः मुझे बड़े पुरस्कार और बड़े मुकुट मिलेंगे।” यह वही रवैया है, जो उन सांसारिक लोगों का होता है, जो सांसारिक चीजें पाने की कोशिश करते हैं। वे बिल्कुल भी अलग नहीं हैं, और वे उसी प्रकृति के अधीन हैं। जब लोगों की शैतानी प्रकृति इस प्रकार की होगी, तो दुनिया में वे ज्ञान, शिक्षा, हैसियत प्राप्त करने और भीड़ से अलग दिखने की कोशिश करेंगे। यदि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे बड़े मुकुट और बड़े आशीष प्राप्त करने की कोशिश करेंगे। यदि परमेश्वर में विश्वास करते हुए लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो उनका इस मार्ग पर चलना निश्चित है। यह एक अडिग तथ्य है, यह एक प्राकृतिक नियम है। सत्य का अनुसरण न करने वाले लोग जो मार्ग अपनाते हैं, वह पतरस के मार्ग से एकदम विपरीत होता है। तुम लोग फिलहाल किस मार्ग पर हो? हालाँकि तुमने पौलुस के मार्ग पर चलने की योजना नहीं बनाई होगी, लेकिन तुम्हारी प्रकृति ने यह तय कर दिया है कि तुम उसी मार्ग पर चल रहे हो, और न चाहते हुए भी तुम उसी दिशा में जा रहे हो। हालाँकि तुम पतरस के मार्ग पर चलना चाहते हो, लेकिन अगर तुम्हें यह स्पष्ट नहीं है कि यह कैसे करना है, तो तुम अनजाने में ही पौलुस के मार्ग पर चल दोगे : स्थिति की यही वास्तविकता है। इन दिनों वास्तव में पतरस के मार्ग पर कैसे चलना चाहिए? अगर तुम पतरस और पौलुस के मार्गों में अंतर न कर पाओ, या तुम उनसे बिल्कुल परिचित नहीं हो, तो तुम पतरस के मार्ग पर चलने का चाहे कितना भी दावा करो, तुम्हारे वे शब्द बस खोखले ही हैं। पहले तो, तुम्हें इस बात का स्पष्ट पता होना चाहिए कि पतरस का मार्ग क्या है और पौलुस का मार्ग क्या है। जब तुम सचमुच समझ जाते हो कि पतरस का मार्ग ही जीवन के अनुसरण का मार्ग है, और वही पूर्णता का एकमात्र मार्ग है, तो तुम पतरस के मार्ग पर चल पाओगे, उसकी तरह अनुसरण कर पाओगे और उन सिद्धांतों का अभ्यास कर पाओगे जिनका अभ्यास उसने किया था। यदि तुम पतरस के मार्ग को नहीं समझते, तो तुम्हारे द्वारा लिए गए मार्ग का पौलुस का मार्ग होना निश्चित है, क्योंकि तुम्हारे लिए कोई दूसरा मार्ग नहीं होगा; तुम्हारे पास इस मामले में कोई विकल्प नहीं होगा। जो लोग सत्य नहीं समझते और जो उसका अनुसरण नहीं कर पाते, तो संकल्प के बावजूद, उन्हें पतरस के मार्ग पर चलना मुश्किल लगेगा। यह कहा जा सकता है कि यह परमेश्वर का अनुग्रह और उन्नयन है कि उसने अब तुम्हारे लिए उद्धार और पूर्णता का मार्ग प्रकट किया है। वही है जो पतरस के मार्ग पर तुम्हारा मार्गदर्शन कर रहा है। परमेश्वर के मार्गदर्शन और प्रबुद्धता के बिना कोई भी पतरस के मार्ग पर नहीं चल पाएगा, और तबाही की तरफ पौलुस के नक्शेकदमों पर चलते हुए पौलुस के मार्ग पर आगे बढ़ना ही एकमात्र विकल्प होगा। उस समय पौलुस को यह नहीं लगा कि उस मार्ग पर चलना गलत है; वह पूरी तरह से मानता था कि यह सही है। उसने सत्य प्राप्त नहीं किया था, और उसके स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया था। वह खुद पर बहुत अधिक विश्वास करता था, और सोचता था कि उस तरह विश्वास करने में कोई समस्या नहीं है। आत्मविश्वास से भरकर और पूरी तरह से आश्वस्त होकर वह आगे बढ़ता रहा। उसे अंत तक होश नहीं आया। फिर भी वो यही सोचता रहा कि उसके लिए जीना ही मसीह है। इस प्रकार, पौलुस अंत तक उसी मार्ग पर चलता रहा, और अंततः जब उसे दंडित किया गया, तब तक उसके लिए सब कुछ खत्म हो चुका था। पौलुस का मार्ग खुद को जानने का मार्ग नहीं था, स्वभाव में बदलाव का अनुसरण करने का मार्ग तो वह और भी कम था। उसने कभी अपनी प्रकृति का गहन-विश्लेषण नहीं किया, न ही उसने इसका कोई ज्ञान प्राप्त किया कि वह क्या है। वह बस इतना जानता था कि वह यीशु के उत्पीड़न में मुख्य अपराधी है। लेकिन उसे अपनी प्रकृति की थोड़ी-सी भी समझ नहीं थी, और अपना काम खत्म करने के बाद पौलुस को लगा कि वह मसीह की तरह जी रहा है और उसे पुरस्कृत किया जाना चाहिए। पौलुस ने जो काम किया, वह केवल परमेश्वर के लिए प्रदान की गई सेवा थी। हालाँकि पौलुस को पवित्र आत्मा से कुछ प्रकाशन मिले थे, फिर भी व्यक्तिगत रूप से उसने सत्य या जीवन प्राप्त नहीं किया था। इसलिए उसे परमेश्वर द्वारा बचाया नहीं गया। बल्कि उसे परमेश्वर द्वारा दंडित किया गया। ऐसा क्यों कहा जाता है कि पतरस का मार्ग पूर्णता का मार्ग है? वह इसलिए, क्योंकि अपने अभ्यास में पतरस ने जीवन पर, परमेश्वर को जानने का प्रयास करने पर और खुद को जानने पर विशेष बल दिया। परमेश्वर के कार्य के अपने अनुभव से उसने खुद को जाना, मनुष्य की भ्रष्ट अवस्थाओं की समझ हासिल की, अपनी कमियों को जाना, और उस सबसे मूल्यवान चीज की खोज की, जिसका लोगों को अनुसरण करना चाहिए। वह परमेश्वर से ईमानदारी से प्रेम कर पाया, उसने जाना कि परमेश्वर का ऋण कैसे चुकाया जाए, उसने कुछ सत्य हासिल किया, उसमें वह वास्तविकता थी जिसकी परमेश्वर अपेक्षा करता है। अपने परीक्षणों के दौरान पतरस ने जो कुछ कहा, उन सबसे यह देखा जा सकता है कि वह निस्संदेह परमेश्वर की सबसे अधिक समझ रखने वाला व्यक्ति था। चूँकि उसे परमेश्वर के वचनों से इतना अधिक सत्य समझ में आ गया था, इसलिए उसका मार्ग और अधिक उज्ज्वल और परमेश्वर के इरादों के और अधिक अनुरूप होता गया। यदि पतरस में यह सत्य न होता, तो उसने जो मार्ग अपनाया, वह इतना सही नहीं हो पाता।

अभी एक प्रश्न बाकी है : यदि तुम जानते हो कि पतरस का मार्ग क्या है, तो क्या तुम उस पर चल सकते हो? यह एक यथार्थवादी प्रश्न है। तुम्हें स्पष्ट रूप से यह भेद कर पाना चाहिए कि किस प्रकार का व्यक्ति पतरस के मार्ग पर चल सकता है और किस प्रकार का व्यक्ति नहीं चल सकता। जो लोग पतरस के मार्ग पर चलते हैं, वे सही लोग होने चाहिए। अगर तुम सही व्यक्ति हो तभी तुम्हें पूर्ण बनाया जा सकता है। जो सही लोग नहीं हैं, उन्हें पूर्ण नहीं बनाया जा सकता। जो पौलुस के समान हैं वे पतरस के रास्ते पर नहीं चल सकते। एक खास तरह का व्यक्ति एक खास तरह के रास्ते पर चलेगा। यह पूरी तरह से उनकी प्रकृति से निर्धारित होता है। तुम शैतान को पतरस का मार्ग चाहे कितनी भी स्पष्टता से क्यों न समझाओ, वह उस पर नहीं चल सकता। अगर वह चलना चाहता तो भी वह उस पर न चल पाता। उसकी प्रकृति ने निर्धारित किया है कि वह पतरस का मार्ग नहीं अपना सकता। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं केवल वे ही पतरस के मार्ग पर चलने में समर्थ हैं। “कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं होती,” यह सच है। यदि तुम्हारी प्रकृति में सत्य के लिए प्रेम के तत्व नहीं हैं, तो तुम पतरस के मार्ग पर नहीं चल सकते। यदि तुम सत्य से प्रेम करने वाले व्यक्ति हो, यदि तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव के बावजूद सत्य स्वीकारने में सक्षम हो, और तुम पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर सकते हो और परमेश्वर के इरादों को समझ सकते हो, तो इस तरह तुम देह-सुख के खिलाफ विद्रोह करने में और परमेश्वर की योजना के प्रति समर्पित होने में सक्षम हो सकोगे। कुछ परीक्षणों से गुजरने के बाद अगर तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन आते हैं, तो इसका मतलब है कि तुम धीरे-धीरे पतरस के पूर्ण किए जाने के मार्ग पर कदम बढ़ा रहे हो।

शीत ऋतु 1998

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