10. मेरी सतर्कता और गलतफहमी दूर हो गई
2022 में जब मैं कलीसिया अगुआ था, अपने घमंड, आत्मतुष्टता और मनमानी के कारण मैं हर चीज में अंतिम निर्णय लेना चाहता था। नतीजतन मेरे साथ काम करने वाला भाई बेबस हो गया और कलीसिया के कार्य में भी गड़बड़ी हुई। उच्च अगुआ ने मेरे घमंड, आत्मतुष्टता और पूरी तरह से मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलने के कारण मुझे उजागर किया, मेरी काट-छाँट की और मुझे बर्खास्त कर दिया। बर्खास्त होने के बाद मैं बहुत मायूस हो गया। मैंने इस तथ्य पर विचार किया कि मैंने बीस वर्षों से अधिक समय से परमेश्वर में विश्वास रखा है, मेरे घमंड और आत्मतुष्टता के कारण मुझे एक से अधिक बार हटाया जा चुका है और अब भी मैं ज्यादा नहीं बदला हूँ। मुझे लगा कि अब मेरे कर्तव्यों में मेरा व्यवहार अच्छा होना चाहिए और अब मैं इतना घमंडी नहीं हो सकता या अपनी पुरानी गलतियाँ नहीं दोहरा सकता, वरना अब मुझे उद्धार का दूसरा अवसर नहीं मिलेगा। बाद में परमेश्वर के वचनों को पढ़कर और चिंतन करके मैंने जाना कि मैं सच में एकदम घमंडी और आत्मतुष्ट हूँ और अपने भाई के साथ काम करते समय मैं उसे लगातार बेबस करता था, अपनी इच्छाएँ और विचार उस पर थोपता था और चाहता था कि वह मेरी आज्ञा माने। इसका नतीजा यह हुआ कि कार्य में देरी हुई। मेरी बार-बार काट-छाँट की गई लेकिन मैंने कभी आत्मचिंतन नहीं किया। मैं सचमुच मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रहा था। मुझे अपने आप से गहरी घृणा हो गई और मैंने ठान लिया कि आगे से मैं अपने कर्तव्यों को पूरी निष्ठा से निभाऊँगा।
कुछ समय बाद अगुआ ने मुझे लोगों को बाहर निकालने से जुड़ी सामग्रियों को व्यवस्थित करने का कार्य सौंपा और मुझे बहन ली शिन के साथ सहयोग करने के लिए कहा। उन्होंने मुझसे पूछा कि इस आत्मचिंतन की इस अवधि के दौरान मैंने अपने घमंडी और दंभी स्वभाव को कितना समझा है और वे चाहते थे कि मैं कुछ समय तक परीक्षण अवधि में यह कर्तव्य निभाऊँ ताकि देखा जा सके कि कार्य कैसा चल रहा है। अगुआ की यह बात सुनकर मुझे बहुत दुख हुआ, मैंने सोचा, “क्या परीक्षण अवधि केवल अस्थायी नहीं है? मैंने बार-बार अपने घमंडी स्वभाव के अनुसार अपने कर्तव्यों को निभाया है और मैंने केवल कलीसिया के कार्य में गड़बड़ की है और विघ्न डाला है। अगर मैंने फिर से अपनी पुरानी गलतियाँ दोहराईं तो मैं शायद हमेशा के लिए अपने कर्तव्यों को निभाने का अवसर खो दूँगा और परमेश्वर में मेरी आस्था का जीवन पूरी तरह समाप्त हो जाएगा। इस बार मुझे इस अवसर को पकड़ना है, आज्ञाकारी बनना है और जो भी मुझसे कहा जाए वह करना है। मैं पहले की तरह घमंडी, आत्मतुष्ट और आक्रामक बना नहीं रह सकता।” बाद में जब मैं अपने कर्तव्य निभा रहा था तो मैंने देखा कि ली शिन पारिवारिक मामलों से बेबस थी और अपने कर्तव्यों में कोई जिम्मेदारी महसूस नहीं कर रही थी और कुछ सामग्रियाँ जिन्हें व्यवस्थित करने की आवश्यकता थी समय पर व्यवस्थित नहीं हुई थीं तो मैंने सोचा कि मुझे यह बात ली शिन को बतानी चाहिए। लेकिन जैसे ही मैं उससे संगति करने वाला था अगुआ के शब्द फिर से मेरे मन में आ गए और मुझे याद आया कि मुझे पहले मेरे घमंड, आत्मतुष्टता और मनमानी के कारण और हर चीज में अंतिम निर्णय लेने की चाहत के कारण बर्खास्त कर दिया गया था जिसके चलते दूसरे लोग बेबस हो गए थे और कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी हुई थी। मैं अभी भी इस कर्तव्य में परीक्षण अवधि में था और ऊपर से अगुआ ने मुझसे ली शिन के कार्य की जाँच करने को नहीं कहा था। अगर मैंने ली शिन को उसकी समस्याएँ बताईं तो क्या वह सोचेगी कि मैं बहुत घमंडी हूँ और अपनी हदें पार कर रहा हूँ? क्या वह सोचेगी कि कुछ दिनों तक आज्ञाकारी रहने के बाद मैं फिर से अपनी पुरानी आदतों में लौट रहा हूँ? यह सोचकर मैंने अपने मन की बात नहीं की।
बाद में अगुआ बार-बार बताते रहे कि ली शिन द्वारा व्यवस्थित की गई सामग्रियाँ अधूरी थीं, एक छद्म-विश्वासी की सामग्री को पहले के गलत आकलन के कारण फिर से इकट्ठा और व्यवस्थित करने की आवश्यकता थी जिससे प्रगति में देरी हुई। मुझे बहुत अपराध-बोध हुआ। अगर मैंने समय पर संगति की होती और ली शिन को यह बात बताई होती तो ऐसा नहीं होता। अपने अपराध-बोध में मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने और कई असफलताओं और बाधाओं का अनुभव करने के बाद और साथ ही परमेश्वर के प्रकाशन और काट-छाँट का अनुभव करने के बाद, सामान्य परिस्थितियों में, लोगों को इन असफलताओं से सबक लेकर आत्मचिंतन करना और खुद को जानना चाहिए, समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए, परमेश्वर के वचनों में अपनी असफलताओं और चूकों के कारण ढूँढ़ने चाहिए और साथ ही अभ्यास का वह मार्ग खोजना चाहिए जिस पर उन्हें चलना चाहिए। लेकिन मसीह-विरोधी ऐसा नहीं करते। कई बार चूकने और असफल होने के बाद वे अपने व्यवहार को और संगीन बना देते हैं, परमेश्वर के बारे में उनके संदेहों की संख्या बढ़ती जाती है और वे और ज्यादा गंभीर हो जाते हैं, परमेश्वर के बारे में उनकी जाँच-पड़ताल और ज्यादा गहन हो जाती है, परमेश्वर के बारे में उनका संशय और ज्यादा गहरा हो जाता है और इसी तरह उनका दिल परमेश्वर के प्रति सतर्कता से भर जाता है। उनकी सतर्कता शिकायतों, क्रोध, अवज्ञा और क्षोभ से भरी होती है, यहाँ तक कि वे धीरे-धीरे परमेश्वर के प्रति इनकार, आलोचना और निंदा भी पैदा कर लेते हैं। क्या वे बढ़ते हुए खतरे में नहीं हैं?” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण पाँच : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग दो))। “परमेश्वर और उसके द्वारा व्यवस्थित परिवेशों और लोगों, घटनाओं और चीजों और परमेश्वर द्वारा उन्हें प्रकट कर अनुशासित करने इत्यादि के प्रति मसीह-विरोधियों के रवैये से आँकें तो, क्या उनका सत्य खोजने का जरा-सा भी इरादा होता है? क्या उनका परमेश्वर के प्रति समर्पण करने का जरा-सा भी इरादा होता है? क्या उनमें जरा-सी भी आस्था होती है कि यह सब आकस्मिक नहीं, बल्कि परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है? क्या उनमें यह समझ और जागरूकता होती है? जाहिर है, नहीं होती। कहा जा सकता है कि उनकी सतर्कता की जड़ परमेश्वर के बारे में उनके संदेहों से आती है। परमेश्वर के प्रति उनके संशय की जड़ भी परमेश्वर के बारे में उनके संदेहों से आती कही जा सकती है। उनके द्वारा परमेश्वर की जाँच-पड़ताल से उत्पन्न परिणाम उन्हें परमेश्वर के प्रति और ज्यादा संशयग्रस्त और ज्यादा सतर्क बना देते हैं। मसीह-विरोधियों की सोच से उत्पन्न विभिन्न विचारों, दृष्टिकोणों और साथ ही इन विचारों और दृष्टिकोणों के प्रभुत्व के तहत उत्पन्न विभिन्न नजरियों और व्यवहारों से आँकें तो, ये लोग बहुत ही अविवेकी होते हैं; ये सत्य नहीं समझ सकते, परमेश्वर में वास्तविक आस्था विकसित नहीं कर सकते, परमेश्वर के अस्तित्व पर पूरी तरह से विश्वास कर उसे स्वीकार नहीं सकते, यह मान और स्वीकार नहीं सकते कि परमेश्वर समस्त सृष्टि पर संप्रभुता रखता है, वह हर चीज पर संप्रभुता रखता है। यह सब उनके दुष्ट स्वभाव-सार के कारण होता है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण पाँच : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग दो))। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन का सामना करके ऐसा लगा कि मेरा न्याय किया गया है। परमेश्वर ने जो उजागर किया था क्या वही मेरी स्थिति नहीं थी? बर्खास्त किए जाने के बाद से मैं सतर्कता और गलतफहमी की स्थिति में जी रहा था। मेरा मानना था कि मेरे घमंड, आत्मतुष्टता और मनमानी के कारण ही मुझे कई बार बर्खास्त किया गया था। मुझे लगा कि बीस वर्षों से अधिक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी मैं ज्यादा नहीं बदला हूँ और मैं अभी भी अपने घमंडी स्वभाव के अनुसार जी रहा हूँ। अगर मैंने अब भी वास्तविक बदलाव का अनुभव नहीं किया तो मुझे बेनकाब करके हमेशा के लिए निकाल दिया जाएगा और मुझे अपने कर्तव्यों को निभाने का कोई अवसर नहीं मिलेगा। जब मैंने अगुआ को यह कहते सुना कि मुझे परीक्षण अवधि में कर्तव्य निभाने की अनुमति है तो मैं और भी अधिक संदेह और सतर्कता से भर गया और फिर से बेनकाब करके निकाल दिए जाने से बचने के लिए मैंने खुद को पूरी तरह से बंद कर लिया और हर दिन भय और सावधानी में जीता रहा। जब मैंने देखा कि जिस बहन के साथ मैं सहयोग कर रहा था वह अपने कर्तव्यों को लापरवाही से और जिम्मेदारी के किसी भाव के बिना निभा रही थी तो मुझे पता था कि कलीसिया के कार्य की रक्षा करने के लिए मुझे उसकी समस्याएँ बतानी चाहिए लेकिन मुझे डर था कि मेरी बहन सोचेगी कि मैं घमंडी हूँ और कर्तव्य निभाना शुरू करने के कुछ ही दिनों में मैं फिर से अपनी बुरी आदतों में लौट आया हूँ इसलिए मैंने अनदेखी कर दी। इसी वजह से कार्य को नुकसान पहुँचा। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि जब मसीह-विरोधी कई असफलताओं और नाकामियों के बाद बेनकाब किए जाते हैं तो वे न केवल आत्मचिंतन करने में असफल होते हैं बल्कि परमेश्वर के प्रति और भी अधिक सतर्क हो जाते हैं। वे डरते हैं कि जरा सी भी गलती उनके भविष्य और भाग्य को छीन लेगी। इस वजह से वे लगातार परमेश्वर के प्रति सतर्क रहते हैं। मेरे द्वारा प्रकट किए जा रहे स्वभाव और मसीह-विरोधी के स्वभाव में क्या अंतर था? मैंने विचार किया कि मेरे घमंड, आत्मतुष्टता और सत्य को अस्वीकार करने से कलीसिया के कार्य को कितना बड़ा नुकसान पहुँचा। अगुआ का मुझे याद दिलाना कलीसिया के कार्य की खातिर था ताकि मैं अपनी घातक कमजोरियों पर अधिक विचार कर सकूँ, अपनी असफलताओं से सीख सकूँ और अपने घमंडी स्वभाव के अनुसार जीना छोड़ दूँ। यह परमेश्वर का प्रेम था। लेकिन इसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारने के बजाय मैं संदेह और अविश्वास करने लगा। मैंने देखा कि मैं वास्तव में धोखेबाज और दुष्ट हूँ!
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “मसीह-विरोधी कभी परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं का पालन नहीं करते, और वे हमेशा अपने कर्तव्य, प्रसिद्धि, फायदे और रुतबे को अपने आशीषों को प्राप्त करने की आशा और अपने भावी गंतव्य के साथ जोड़ते हैं, मानो अगर उनकी प्रतिष्ठा और हैसियत खो गई, तो उन्हें आशीष और पुरस्कार प्राप्त करने की कोई उम्मीद नहीं रहेगी, और यह उन्हें अपना जीवन खोने जैसा लगता है। वे सोचते हैं, ‘मुझे सावधान रहना है, मुझे लापरवाह नहीं होना चाहिए! परमेश्वर के घर, भाई-बहनों, अगुआओं और कार्यकर्ताओं, यहाँ तक कि परमेश्वर पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। मैं उनमें से किसी पर भरोसा नहीं कर सकता। जिस व्यक्ति पर तुम सबसे ज्यादा भरोसा कर सकते हो और जो सबसे ज्यादा विश्वसनीय है, वह तुम खुद हो। अगर तुम अपने लिए योजनाएँ नहीं बना रहे, तो तुम्हारी परवाह कौन करेगा? तुम्हारे भविष्य पर कौन विचार करेगा? कौन इस पर विचार करेगा कि तुम्हें आशीष मिलेंगे या नहीं? इसलिए, मुझे अपने लिए सावधानीपूर्वक योजनाएँ बनानी होंगी और गणनाएँ करनी होंगी। मैं गलती नहीं कर सकता या थोड़ा भी लापरवाह नहीं हो सकता, वरना अगर कोई मेरा फायदा उठाने की कोशिश करेगा तो मैं क्या करूँगा?’ इसलिए, वे परमेश्वर के घर के अगुआओं और कार्यकर्ताओं से सतर्क रहते हैं, और डरते हैं कि कोई उन्हें पहचान लेगा या उनकी असलियत जान लेगा, और फिर उन्हें बरखास्त कर दिया जाएगा और आशीष पाने का उनका सपना नष्ट हो जाएगा। वे सोचते हैं कि आशीष प्राप्त करने की आशा रखने के लिए उन्हें अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बरकरार रखना चाहिए। मसीह-विरोधी आशीष प्राप्ति को स्वर्ग से भी अधिक बड़ा, जीवन से भी बड़ा, सत्य के अनुसरण, स्वभावगत परिवर्तन या व्यक्तिगत उद्धार से भी अधिक महत्वपूर्ण, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने और मानक के अनुरूप सृजित प्राणी होने से अधिक महत्वपूर्ण मानता है। वह सोचता है कि मानक के अनुरूप एक सृजित प्राणी होना, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना और बचाया जाना सब तुच्छ चीजें हैं, जो मुश्किल से ही उल्लेखनीय हैं या टिप्पणी के योग्य हैं, जबकि आशीष प्राप्त करना उनके पूरे जीवन में एकमात्र ऐसी चीज होती है, जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। उनके सामने चाहे जो भी आए, चाहे वह कितना भी बड़ा या छोटा क्यों न हो, वे इसे आशीष प्राप्ति होने से जोड़ते हैं और अत्यधिक सतर्क और चौकस होते हैं, और वे हमेशा अपने बच निकलने का मार्ग रखते हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में मैंने देखा कि जो स्वभाव मैंने प्रकट किया था वह वैसा ही था जिसे परमेश्वर ने मसीह-विरोधी के स्वभाव के रूप में उजागर किया था। चाहे मैं कोई भी कर्तव्य निभाता मैं हमेशा उसे आशीष प्राप्त करने से जोड़ता था और आशीष पाने को जीवन जितना ही महत्वपूर्ण मानता था। हर परिस्थिति में मैं पहले अपने ही परिणाम और मंजिल पर विचार करता था। जब मुझे बर्खास्त और बेनकाब किया गया तो मैं आत्मचिंतन करके खुद को जानने के लिए परमेश्वर के सामने नहीं आया बल्कि परमेश्वर के प्रति सतर्क रहने लगा और उसे गलत समझने लगा, बस अपने ही भविष्य और मंजिल के बारे में सोचता रहा। जब मैंने दोबारा अपने कर्तव्यों को निभाना शुरू किया तो मेरे विचार और भी उलझन भरे हो गए और मैं हर स्थिति को अपने मन में जटिल बना देता था, डर लगता था कि किसी गलत कदम के चलते मैं बेनकाब हो जाऊँगा और मेरा परिणाम और मंजिल बुरी होगी। जब मैंने देखा कि बहन ली शिन अपनी बुरी स्थिति के कारण नकारात्मकता में थी और अपने कर्तव्यों में देरी कर रही थी तो मैं जानता था कि मुझे उसकी समस्याएँ बताकर कलीसिया के कार्य की रक्षा करनी है और अच्छे से काम करने में उसकी सहायता करनी है लेकिन मुझे डर था कि ली शिन सोचेगी कि मैं घमंडी और आत्मतुष्ट हूँ और अब तक नहीं बदला हूँ इसलिए मैंने कलीसिया के कार्य की उपेक्षा की। मैं “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” के शैतानी जहर के अनुसार जी रहा था, अपने कर्तव्य केवल आशीष और लाभ पाने के लिए कर रहा था और अपने भविष्य और मंजिल को सबसे अधिक महत्वपूर्ण मानता था। मैंने परमेश्वर के इरादों या कलीसिया के कार्य पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। मैं वही करना चाहता था जो मेरे लिए लाभकारी होता लेकिन अगर कोई चीज मेरे लिए लाभकारी नहीं थी तो मैं उसे नजरअंदाज कर देता था, भले ही उससे कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचता हो। मैं सचमुच स्वार्थी और घृणित था! मुझे पौलुस के दमिश्क जाने के समय की याद आई। प्रभु यीशु ने जब एक तेज प्रकाश से उसे गिरा दिया, तब भले ही उसने स्वीकार किया कि प्रभु यीशु को मुख्य रूप से उसने सताया था, मगर उसने सच्चे मन से पश्चात्ताप नहीं किया। उसने परमेश्वर का प्रतिरोध करने में अपने प्रकृति सार पर जरा भी चिंतन नहीं किया या उसे नहीं समझा भले ही ऊपर से उसने सुसमाचार का प्रचार करने के लिए कड़ी मेहनत की और दूर-दूर तक यात्रा की लेकिन उसका इरादा परमेश्वर से मुकुट और इनाम पाने के लिए सौदा करने की थी। क्या मेरा अनुसरण और जिस मार्ग पर मैं चल रहा था वह पौलुस जैसा ही नहीं था? मैं परमेश्वर को इस्तेमाल करने और धोखा देने की कोशिश कर रहा था। मैंने देखा कि मैं कितना मानवता रहित था। मैं परमेश्वर के घर में घुसपैठ करने वाले एक अवसरवादी और छद्म-विश्वासी जैसा था और अगर मैंने अनुसरण को लेकर अपने विचार नहीं बदले तो न केवल मैं परमेश्वर की स्वीकृति से वंचित रहूँगा बल्कि अंततः मुझे उसके दंड का सामना भी करना पड़ेगा।
इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “कभी-कभी, परमेश्वर तुम्हें प्रकट करने या तुम्हें अनुशासित करने के लिए किसी निश्चित मामले का उपयोग करता है। क्या इसका मतलब यह है कि तुम्हें हटा दिया गया है? क्या इसका मतलब यह है कि तुम्हारा अंत आ गया है? नहीं। ... दरअसल, कई मामलों में लोगों की चिंता अपने स्वार्थ से ही उपजती है। आम तौर पर, यह भय होता है कि उनके पास कोई परिणाम नहीं होगा। वे हमेशा सोचते हैं, ‘अगर परमेश्वर मुझे प्रकट कर देता है, हटा देता है और नकार देता है, तो क्या होगा?’ यह तुम्हारे द्वारा परमेश्वर को गलत समझना है; यह सिर्फ तुम्हारी एक-तरफा अटकलबाजी है। तुम्हें पता लगाना होगा कि परमेश्वर का इरादा क्या है। जब वह लोगों को प्रकट करता है, तो यह उन्हें हटाने के लिए नहीं होता। लोगों को इसलिए प्रकट किया जाता है ताकि उन्हें अपनी कमियों का, गलतियों का और अपने प्रकृति सारों का पता चले, ताकि वे खुद को जानकर सच्चा पश्चात्ताप करने में समर्थ बन सकें; इस कारण, लोगों को प्रकट इसलिए किया जाता है ताकि उनका जीवन विकसित हो सके। शुद्ध समझ के बिना, लोग परमेश्वर की गलत व्याख्या करके नकारात्मक और कमजोर हो सकते हैं। वे बुरी तरह निराश भी हो सकते हैं। वास्तव में, परमेश्वर द्वारा प्रकट किए जाने का अर्थ आवश्यक रूप से यह नहीं है कि तुम्हें हटा ही दिया जाएगा। यह इसलिए है ताकि तुम अपनी भ्रष्टता जान सको और यह तुमसे पश्चात्ताप करवाने के लिए है। अक्सर, चूँकि लोग विद्रोही हो जाते हैं, और भ्रष्टता प्रकट करने पर वे सत्य में समाधान नहीं ढूँढ़ते, इसलिए परमेश्वर को उन्हें अनुशासित करना पड़ता है। और इसलिए, कभी-कभी, वह लोगों को प्रकट कर उनकी कुरूपता और दयनीयता को प्रकट कर देता है, जिससे वे खुद जान जाते हैं, इससे उनके जीवन को विकसित होने में मदद मिलती है। लोगों को प्रकट करने के दो अलग-अलग निहितार्थ हैं : बुरे लोगों के लिए, प्रकट किए जाने का अर्थ है उन्हें हटाया जाना। जो लोग सत्य स्वीकार कर सकते हैं, उनके लिए यह एक अनुस्मारक और एक चेतावनी है; उनसे आत्मचिंतन कराया जाता है और उन्हें उनकी वास्तविक दशा दिखाई जाती है और उन्हें पथभ्रष्ट और लापरवाह होने से रोका जाता है, क्योंकि अगर ऐसा ही चलता रहा, तो यह खतरनाक होगा। इस तरह से लोगों को प्रकट करना उन्हें चेताना है, अन्यथा वे अपने कर्तव्य निर्वहन में वे भ्रमित और लापरवाह हो जाते हैं, चीजों को गंभीरता से लेने में असफल हो जाते हैं, थोड़े-से परिणाम पाकर ही संतुष्ट हो जाते हैं, और सोचते हैं कि उन्होंने अपना काम एक स्वीकार्य मानक तक पूरा कर लिया है जबकि सच्चाई यह है कि परमेश्वर की माँगों के अनुसार मापने पर वे मानक से बहुत दूर होते हैं, और फिर भी वे खुद से संतुष्ट रहते हैं और मानते हैं कि वे ठीक-ठाक कर रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में, परमेश्वर लोगों को अनुशासित करता है, उन्हें सावधान कर याद दिलाता है। कभी-कभी, परमेश्वर उनकी कुरूपता प्रकट करता है—जो कि स्पष्ट रूप से उन्हें याद दिलाने के लिए है। ऐसे में तुम्हें आत्मचिंतन करना चाहिए : इस तरह से अपने कर्तव्य का पालन करना ठीक नहीं है, तुममें विद्रोह शामिल है, तुममें बहुत अधिक नकारात्मक तत्व हैं, जो कुछ भी तुम करते हो वह अनमना होता है, और यदि तुम अब भी पश्चात्ताप नहीं करते हो, तो न्यायसंगत रूप से तुम्हें दंडित किया जाना चाहिए। यदा-कदा, परमेश्वर जब तुम्हें अनुशासित करता है या प्रकट करता है, तो इसका मतलब आवश्यक रूप से यह नहीं होता कि तुम्हें हटा दिया जाएगा। इस बात को सही ढंग से समझा जाना चाहिए। यहाँ तक कि अगर तुम्हें हटा भी दिया जाए, तो तुम्हें इसे स्वीकारना चाहिए और इसके प्रति समर्पित होना चाहिए, और जल्दी से चिंतन और पश्चात्ताप करना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य का अभ्यास और परमेश्वर को समर्पण करके ही व्यक्ति अपने स्वभाव में बदलाव हासिल कर सकता है)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे बहुत शर्मिंदगी और अपराध-बोध हुआ। मैंने पहले भी कई बार परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ा था अक्सर परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के बारे में बात की थी और कहा था कि परमेश्वर लोगों को बेनकाब करता है ताकि वह उन्हें बचा सके जिससे वे बेहतर ढंग से आत्मचिंतन कर सकें और खुद को समझ सकें लेकिन जब मुझे बेनकाब करके बर्खास्त किया गया तो मुझे शक हुआ कि परमेश्वर मुझे हटाना चाहता है और मैं परमेश्वर के प्रेम या उद्धार की कोई झलक नहीं देख पाया। भले ही मैं अपने कर्तव्य निभाता हुआ दिखाई देता था मगर मेरे दिल का दरवाजा परमेश्वर के लिए बंद ही रहा। मैंने अपनी आस्था के वर्षों पर विचार किया। अपनी घमंडी प्रकृति के कारण मुझे कई बार बेनकाब किया गया और बर्खास्त किया गया, फिर भी परमेश्वर ने मेरे अपराधों के कारण मुझे नहीं हटाया बल्कि उसने मेरे भाई-बहनों के प्रकाशन और सहायता, साथ ही अपने वचनों की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन के जरिये आत्मचिंतन, पश्चात्ताप और बदलाव करने में मेरी मदद की। जब मुझमें कुछ समझ और बदलाव आया तो परमेश्वर ने मुझे फिर से अपने कर्तव्य निभाने का अवसर दिया। अगर परमेश्वर सच में लोगों द्वारा प्रकट की गई भ्रष्टता के आधार पर उनके परिणाम तय करता तो मुझे बहुत पहले ही दंडित कर दिया जाता और मैं आज जीवित नहीं होता। जैसे कि हाल ही में मेरी बर्खास्तगी पूरी तरह से सत्य का अनुसरण करने में मेरी विफलता और मेरे मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलने के कारण थी जिसने कार्य में गंभीर बाधा और विघ्न डाला। यह सिद्धांतों के अनुसार किया गया था और परमेश्वर की धार्मिकता को पूरी तरह से प्रकट करता था। अगर मुझे समय पर बर्खास्त नहीं किया गया होता तो अपने घमंडी स्वभाव के कारण मैं कई बुरे काम कर बैठता और परमेश्वर के दंड का सामना करता। इस प्रकार की बर्खास्तगी वास्तव में परमेश्वर का उद्धार और सुरक्षा थी क्योंकि इसके बिना मैं कभी सच्चे मन से आत्मचिंतन नहीं करता या खुद को नहीं समझता और न ही मैं उस गलत मार्ग पर विचार करता जो मैंने चुना था। इसलिए मैंने घुटने टेककर परमेश्वर के सामने प्रार्थना की, “हे परमेश्वर मैं अब सतर्कता और गलतफहमी की स्थिति में नहीं जीना चाहता, मैं पश्चात्ताप करने और अपने कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए तैयार हूँ और मैं केवल यही चाहता हूँ कि तू मेरा मार्गदर्शन और मेरी अगुआई करे।”
प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “तुम्हारे निजी विचार और राय जो भी हों, अगर तुम आँख बंद करके तय मान लोगे कि ये सही हैं, और चीजें इसी ढंग से की जानी चाहिए, तो यह अहंकार और दंभ है। अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारे कुछ विचार या राय सही हैं, मगर तुम्हें खुद पर पूरा विश्वास नहीं है, और साधना और संगति से तुम इनकी पुष्टि कर सकते हो, तो यह है दंभी न होना। काम करने का वाजिब तरीका काम से पहले सबका साथ और स्वीकृति पाने की प्रतीक्षा करना है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है)। “यदि तुम आश्वस्त हो कि तुम्हें समस्या पता चल गई है, और तुम अपने दिल में समझते हो कि उसका समाधान होना चाहिए, अन्यथा इससे काम में देरी होगी, फिर भी तुम सिद्धांतों का पालन करने में सक्षम नहीं हो, और तुम दूसरे लोगों को नाराज करने से डरते हो, तो यह समस्या क्या है? तुम सिद्धांतों का पालन करने से क्यों डरोगे? यह एक गंभीर प्रकृति का मुद्दा है, जो यह बताता है कि क्या तुम सत्य से प्रेम करते हो और क्या तुममें न्याय की भावना है। तुम्हें अपनी राय बतानी चाहिए, भले ही तुम न जानते हो कि वह सही है या नहीं। अगर तुम्हारी कोई राय या विचार है, तो तुम्हें उसे कह देना चाहिए और दूसरों को उसका आकलन करने देना चाहिए। ऐसा करने से तुम्हें लाभ होगा और यह समस्या हल करने में मददगार होगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, वह वास्तव में क्या है, जिस पर लोग जीने के लिए निर्भर हैं?)। परमेश्वर के वचनों पर ध्यानपूर्वक विचार करने के बाद मैंने समझा कि दूसरों को बेबस करना और घमंडी स्वभाव के कारण अपने पद का रौब जमाना परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा के लिए सत्य का अभ्यास करने से बिल्कुल अलग है। घमंड और आत्मतुष्टता में शामिल है सत्य सिद्धांतों को खोजे बिना कार्य करना, हमेशा अपने ही दृष्टिकोण पर अड़े रहना और दूसरों के सुझावों को स्वीकार न करना, यह जानते हुए भी कि अपने कार्य सत्य के अनुरूप नहीं हैं फिर भी दूसरों को अपनी बात मानने के लिए मजबूर करना, अपने विचारों और राय के अनुसार ही सब कुछ करना और परमेश्वर के घर के हितों पर जरा भी विचार न करना। यह घमंड, आत्मतुष्टता और अपना रौब जमाने का इरादा है। उदाहरण के लिए, जब मैं अगुआ था तो मैं हर काम में आगे रहता था। मैं कभी भी दूसरों के साथ सहयोग या चर्चा नहीं करता था और न ही उन्हें हस्तक्षेप करने देता था मैं हमेशा यही चाहता था कि दूसरे लोग मेरे विचारों और इरादों पर अमल करें और मैं अपने भाई-बहनों के उचित सुझावों को कभी स्वीकार नहीं करता था। यह घमंड और आत्मतुष्टता थी। अगर मैं किसी को कोई ऐसा कार्य करते हुए देखता जिससे सिद्धांतों का उल्लंघन होता है और कलीसिया के कार्य में बाधा आती है तो चाहे वह कार्य मेरी जिम्मेदारी हो या नहीं या वह व्यक्ति मेरी निगरानी में हो या नहीं, मुझे उसे उजागर करना और उसकी मदद करनी चाहिए। यह परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना और न्याय की भावना को दर्शाना है। यह घमंड या आत्मतुष्टता नहीं है। परमेश्वर व्यक्ति के कार्यों के पीछे के इरादों को देखता है और चाहे अगुआओं ने कोई व्यवस्था की हो या नहीं जब तक कोई चीज कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों से जुड़ी है हर किसी की जिम्मेदारी है कि वह इन चीजों की रक्षा करे। ऐसा व्यक्ति ही वास्तव में परमेश्वर के घर का हिस्सा है। इसका एहसास होने पर मैं ली शिन के पास गया ताकि उसके साथ संगति करूँ, उसे उसकी समस्याएँ बताऊँ और उसके कर्तव्यों में आ रही कठिनाइयों को समझ सकूँ। हमारी संगति के बाद उसकी स्थिति में कुछ सुधार हुआ। एक बार मैंने देखा कि ली शिन ने एक छद्म-विश्वासी को बाहर निकालने से जुड़ी कुछ सामग्रियों को गलत श्रेणी में डाल दिया था तो मैंने परमेश्वर के संबंधित वचनों और सिद्धांतों को सामने रखते हुए उससे संगति की। हमारी संगति के बाद वह कुछ सिद्धांतों को समझ पाई। मेरी समझ और मुझमें जो भी बदलाव हुए हैं वे सब परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन और अगुआई के कारण हैं। परमेश्वर का धन्यवाद!