37. अपने कर्तव्य में जिम्मेदारी से डरने की समस्या क्या है?

चेन ना, चीन

जुलाई 2014 में मुझे प्रचारक चुना गया था। उस समय मुझमें भेद पहचानने की कमी थी और मैंने जिला अगुआ की रिपोर्ट करने में अपनी साथी बहन का साथ दिया, जिससे काम में अव्यवस्था फैल गई। बाद में जाँच के बाद यह स्पष्ट हो गया कि जिला अगुआ कुछ वास्तविक कार्य करने में सक्षम था और मेरी साथी बहन ने जान-बूझकर जिला अगुआ पर हमला करने और कलीसिया के काम को बाधित करने के लिए दोष निकालने की कोशिश की थी। तब मुझे एहसास हुआ कि मुझे गुमराह किया गया था और मुझे लगा कि मैंने बहुत बड़ी बुराई और गंभीर अपराध किया है। हालाँकि कलीसिया ने मुझे पश्चात्ताप करने का अवसर दिया, मुझे डर था कि मैं और अधिक अपराध करूँगी और मुझे निकाल दिया जाएगा। इस डर ने मुझे लगातार सतर्कता की दशा में रहने को मजबूर किया, जिससे मैं अपना रास्ता नहीं बदल सकी। नतीजतन, मुझे अपने कर्तव्यों में प्रभावशीलता की कमी के चलते बरखास्त कर दिया गया। उस समय मुझे लगा कि सत्य के बारे में मेरी समझ उथली है और भविष्य में अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में सेवा न करना बेहतर होगा, क्योंकि अगर मैंने गंभीर अपराध किए और मुझे निष्कासित कर दिया गया तो मुझे बचाए जाने का मौका खत्म हो जाएगा। मुझे लगा कि साधारण कर्तव्य निभाते रहना थोड़ा सुरक्षित है, जहाँ किसी भी मुद्दे की जिम्मेदारी कलीसिया के अगुआ और कार्यकर्ता लेते हों और मेरा उद्धार खतरे में न पड़े। मैंने उस समय इस समस्या को सुलझाने के लिए सत्य की तलाश नहीं की।

अक्टूबर 2023 में मुझे जिला अगुआ चुना गया। मुझे यह सोचकर कुछ चिंता हुई, “मैं कई कलीसियाओं के काम की देखरेख करूँगी। अगर कुछ गंभीर रूप से गलत हो गया तो क्या होगा? मैं जिम्मेदारी कैसे उठाऊँगी? अगर मेरे और अपराध इकट्ठे हो गए तो क्या इससे मेरे उद्धार की आशा नष्ट नहीं हो जाएगी?” लेकिन मेरी अंतरात्मा ने मुझे बताया कि संकट के समय में जब कई अगुआओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया है, कलीसिया के सदस्य के रूप में मैं इतनी स्वार्थी नहीं हो सकती और सिर्फ अपने हित बचाने के लिए अपने कर्तव्य में टाल-मटोल नहीं कर सकती। इसलिए मैंने कुछ समय के लिए सहयोग करने का फैसला किया और उम्मीद रखी कि बाद में एक अधिक उपयुक्त व्यक्ति चुना जाएगा, जिससे मुझे इस भूमिका से हटने का मौका मिलेगा। इसके तुरंत बाद मेरे साथ काम कर चुकी बहन ली युन को एक यहूदा ने धोखा दे दिया और अब वह अपने कर्तव्य निभाने के लिए नहीं आ सकती थी। इसलिए कई कार्य मुझे खुद ही सँभालने पड़े। मुझे चिंता थी कि खराब काम करने से कलीसिया के कार्य को नुकसान होगा और मैं अपराध कर दूँगी। उस समय एक रिपोर्ट पत्र को सँभालने की जरूरत थी, लेकिन मैं गलतियाँ करने और संभावित जिम्मेदारी उठाने से डरती थी, मुझे डर था कि इससे मेरी संभावनाओं और गंतव्य पर असर पड़ सकता है। इसलिए मैंने ली युन से कहा कि मुझे नहीं पता कि इसे कैसे सँभालना है और उससे इससे निपटने के लिए एक पत्र लिखने के लिए कहा। भले ही उसने मुझे इस तरह के काम को खुद सँभालने के लिए प्रशिक्षित होने के लिए प्रोत्साहित किया, फिर भी ऐसा करने की मेरी हिम्मत नहीं हुई और मैंने इसे उसके हवाले कर दिया। ली युन के साथ आगे सहयोग के दौरान मैं बस वही काम करती थी जिनके बारे में मुझे भरोसा था, अधिक अहम और चुनौतीपूर्ण काम मैं उसे सौंप देती थी। इससे वह दबाव में रहती थी और उसके काम के अच्छे नतीजे नहीं आते थे। नवंबर 2023 में कलीसिया को दो नए अगुआओं का चुनाव करने की आवश्यकता थी और मुझे चुनाव की मेजबानी करने के लिए कहा गया। मैंने सोचा कि लोगों को चुनने और उनका उपयोग करने में उनका भेद पहचानना शामिल है। अगर मैं उनकी असलियत नहीं जान पाई और गलत लोगों को चुन लिया, तो क्या होगा? पहले जब मैं प्रचारक थी तो मैंने एक गलत कलीसिया अगुआ को चुना था, जिससे भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में देरी हुई थी। मैं पहले ही एक अपराध कर चुकी थी और वाकई चिंतित थी कि मैं फिर से गलत लोगों को चुनूँगी। मैंने सोचा, “मैं अच्छे कर्म करने के लिए अपना कर्तव्य करती हूँ। मेरा लेखा-जोखा अपराधों से भरा नहीं हो सकता।” यह सब सोचने मात्र से ही मैं बहुत दबाव में आ गई और रात को सो नहीं पाई। मैंने सोचा, “मैं ली युन से पूछ सकती हूँ कि वह भेष बदल कर चुनाव की मेजबानी कर ले। इस तरह अगर कुछ गलत होता है तो यह उसकी जिम्मेदारी होगी और यह मुझ पर नहीं आएगा।” लेकिन मुझे पता था कि ली युन की सुरक्षा खतरे में है। अगर वह सामने आई तो गिरफ्तार हो सकती है, जिसके और भी बुरे परिणाम होंगे। मुझे एहसास हुआ कि मैं ऐसा नहीं कर सकती, इसलिए मुझे खुद ही चुनाव की मेजबानी करनी होगी।

बाद में मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा ठीक नहीं है और मैंने आत्म-चिंतन करना शुरू किया। मैं जिम्मेदारी लेने से इतनी क्यों डरती थी? मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे अपनी समस्याएँ समझने के लिए मुझे प्रबुद्ध करने के लिए कहा। बाद में मुझे परमेश्वर के ये वचन मिले : “कुछ लोग अपना कर्तव्य निभाते हुए जिम्मेदारी लेने से डरते हैं। यदि कलीसिया उन्हें कोई काम देती है, तो वे पहले इस बात पर विचार करेंगे कि इस कार्य के लिए उन्हें कहीं उत्तरदायित्व तो नहीं लेना पड़ेगा, और यदि लेना पड़ेगा, तो वे उस कार्य को स्वीकार नहीं करेंगे। किसी काम को करने के लिए उनकी शर्तें होती हैं, जैसे सबसे पहले, वह काम ऐसा होना चाहिए जिसमें मेहनत न हो; दूसरा, वह व्यस्त रखने या थका देने वाला न हो; और तीसरा, चाहे वे कुछ भी करें, वे कोई जिम्मेदारी नहीं लेंगे। इन शर्तों के साथ वे कोई काम हाथ में लेते हैं। ऐसा व्यक्ति किस प्रकार का होता है? क्या ऐसा व्यक्ति धूर्त और कपटी नहीं होता? वह छोटी से छोटी जिम्मेदारी भी नहीं उठाना चाहता। उन्हें यहाँ तक डर लगता है कि पेड़ों से झड़ते हुए पत्ते कहीं उनकी खोपड़ी न तोड़ दें। ऐसा व्यक्ति क्या कर्तव्य कर सकता है? परमेश्वर के घर में उनका क्या उपयोग हो सकता है? परमेश्वर के घर का कार्य शैतान से युद्ध करने के कार्य के साथ-साथ राज्य के सुसमाचार फैलाने से भी जुड़ा होता है। ऐसा कौन-सा काम है जिसमें उत्तरदायित्व न हो? क्या तुम लोग कहोगे कि अगुआ होना जिम्मेदारी का काम है? क्या उनकी जिम्मेदारियाँ भी बड़ी नहीं होतीं, और क्या उन्हें और ज्यादा जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए? चाहे तुम सुसमाचार फैलाते हो, गवाही देते हो, वीडियो बनाते हो, या कुछ और करते हो—इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या करते हो—जब तक इसका संबंध सत्य सिद्धांतों से है, तब तक उसमें उत्तरदायित्व होंगे। यदि तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में कोई सिद्धांत नहीं हैं, तो उसका असर परमेश्वर के घर के कार्य पर पड़ेगा, और यदि तुम जिम्मेदारी लेने से डरते हो, तो तुम कोई काम नहीं कर सकते। अगर किसी को कर्तव्य निर्वहन में जिम्मेदारी लेने से डर लगता है तो क्या वह कायर है या उसके स्वभाव में कोई समस्या है? तुम्हें अंतर बताने में समर्थ होना चाहिए। दरअसल, यह कायरता का मुद्दा नहीं है। यदि वह व्यक्ति धन के पीछे भाग रहा है, या वह अपने हित में कुछ कर रहा है, तो वह इतना बहादुर कैसे हो सकता है? वह कोई भी जोखिम उठा लेगा। लेकिन जब वह कलीसिया के लिए, परमेश्वर के घर के लिए काम करता है, तो वह कोई जोखिम नहीं उठाता। ऐसे लोग स्वार्थी, नीच और बेहद कपटी होते हैं। कर्तव्य निर्वहन में जिम्मेदारी न उठाने वाला व्यक्ति परमेश्वर के प्रति जरा भी ईमानदार नहीं होता, उसकी वफादारी की क्या बात करना। किस तरह का व्यक्ति जिम्मेदारी उठाने की हिम्मत करता है? किस प्रकार के इंसान में भारी बोझ वहन करने का साहस है? जो व्यक्ति अगुआई करते हुए परमेश्वर के घर के काम के सबसे महत्वपूर्ण पलों में बहादुरी से आगे बढ़ता है, जो अहम और अति महत्वपूर्ण कार्य देखकर बड़ी जिम्मेदारी उठाने और मुश्किलें सहने से नहीं डरता। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के प्रति वफादार होता है, मसीह का अच्छा सैनिक होता है। क्या बात ऐसी है कि लोग कर्तव्य की जिम्मेदारी लेने से इसलिए डरते हैं, क्योंकि उन्हें सत्य की समझ नहीं होती? नहीं; समस्या उनकी मानवता में होती है। उनमें न्याय या जिम्मेदारी की भावना नहीं होती, वे स्वार्थी और नीच लोग होते हैं, वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी नहीं होते, और वे सत्य जरा भी नहीं स्वीकारते। इन कारणों से उन्हें बचाया नहीं जा सकता। परमेश्वर के विश्वासियों को सत्य हासिल करने के लिए बहुत भारी कीमत चुकानी ही होगी, उसे अभ्यास में लाने के लिए उन्हें बहुत-सी कठिनाइयों से गुजरना होगा। उन्हें बहुत-सी चीजों का त्याग करना होगा, दैहिक-सुखों को छोड़ना होगा और कष्ट उठाने पड़ेंगे। तब जाकर वे सत्य का अभ्यास करने योग्य बन पाएंगे। तो, क्या जिम्मेदारी लेने से डरने वाला इंसान सत्य का अभ्यास कर सकता है? यकीनन वह सत्य का अभ्यास नहीं कर सकता, सत्य हासिल करना तो दूर की बात है। वह सत्य का अभ्यास करने और अपने हितों को होने वाले नुकसान से डरता है; उसे अपमानित और उपेक्षित होने का डर होता है, उसे आलोचना का डर होता है, और वह सत्य का अभ्यास करने की हिम्मत नहीं करता। नतीजतन, वह उसे हासिल नहीं कर सकता। परमेश्वर में उसका विश्वास चाहे जितना पुराना हो, वह उसका उद्धार प्राप्त नहीं कर सकता(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। जब मैंने परमेश्वर के वचनों में “स्वार्थी,” “विश्वासघाती” और “यह उनकी मानवता में समस्या है” को पढ़ा तो मैं बहुत संतप्त और परेशान हो गई। मुझे एहसास हुआ कि मुझमें वाकई ये लक्षण हैं। भले ही मैं अगुआ की भूमिका में थी, लेकिन मेरे पास कोई सच्ची जिम्मेदारी नहीं थी। मुझे हमेशा चीजों को अच्छी तरह से करने और जिम्मेदारी उठाने में नाकाम होने की चिंता रहती थी, मुझे डर था कि अगर मैंने अपराध किए तो मैं उद्धार का मौका गँवा दूँगी। इसलिए मैंने ऐसे कार्य करना पसंद किया जिसमें जिम्मेदारी उठाना शामिल नहीं था और कठिन काम ली युन पर थोप दिए। रिपोर्ट पत्रों को सँभालना प्राथमिक रूप से मेरी जिम्मेदारी थी। भले ही मैं सिद्धांतों से परिचित नहीं थी, मैं ली युन के मार्गदर्शन और मदद से कुछ कार्यों में सहयोग करने में सक्षम थी। लेकिन मुझे प्रक्रिया में किसी भी संभावित गलती की जिम्मेदारी लेने का डर बना रहता था। इसलिए मैंने अपनी समझ की कमी का इस्तेमाल ली युन पर काम थोपने के बहाने के रूप में किया। खास तौर पर कलीसिया के चुनाव के दौरान जब ली युन सुरक्षा जोखिमों के कारण व्यक्तिगत रूप से इसकी मेजबानी नहीं कर पाई, मुझे गलत लोगों को चुनने, अपराध करने और अपनी संभावनाओं को खतरे में डालने का डर था। इसलिए मैं चाहती थी कि वह चुनाव की मेजबानी करे, मैंने उसकी सुरक्षा और कलीसिया के पूरे कार्य पर विचार नहीं किया। जब भी ऐसे मामलों की बात आती जिसमें जिम्मेदारी उठाने की बात होती थी तो मैं इसे दूसरों पर थोप देती थी, डरती थी कि अगर मैंने इसे खराब तरीके से सँभाला तो इसका नतीजा ऐसे अपराध होंगे जो मेरी संभावनाओं और मंजिल को प्रभावित कर सकते हैं। मेरे अंदर परमेश्वर के प्रति वफादारी और अपने कर्तव्यों के प्रति जिम्मेदारी की कमी थी। मैं कितनी स्वार्थी और नीच थी! जैसा कि परमेश्वर उजागर करता है : “वह छोटी से छोटी जिम्मेदारी भी नहीं उठाना चाहता। उन्हें यहाँ तक डर लगता है कि पेड़ों से झड़ते हुए पत्ते कहीं उनकी खोपड़ी न तोड़ दें। ऐसा व्यक्ति क्या कर्तव्य कर सकता है?” बिल्कुल, मैं वाकई उसी तरह की व्यक्ति थी। कोई भी व्यक्ति जो परमेश्वर के प्रति वफादार है और जिसमें मानवता है, जब वह देखता है कि कलीसिया के कार्य को लोगों का सहयोग चाहिए तो वह जिम्मेदारी उठाने के लिए बाध्य होता है और अपने कर्तव्य पूरे करने के लिए सत्य सिद्धांतों की तलाश करता है। लेकिन परमेश्वर के घर के सदस्य के रूप में मैं अपने कर्तव्य में परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील नहीं थी। इसके बजाय मैंने पहले सोचा था कि मैं जो जिम्मेदारी ले रही हूँ वह कितनी गंभीर है और मैं अत्यधिक सतर्क और चौकस रही। खुद को बचाने के लिए मैंने कई काम ली युन पर थोप दिए थे। मैं वाकई स्वार्थी और नीच थी! अगर मैं नहीं बदली तो मैं कोई भी कर्तव्य ठीक से नहीं कर पाऊँगी और किसी काम की नहीं रहूँगी। मैंने मन ही मन कहा कि मैं अपने कर्तव्यों से अब और नहीं बच सकती। चाहे मैं समझूँ या नहीं, मुझे पहले इसे स्वीकारना चाहिए, सिद्धांत खोजने चाहिए और इसके क्रियान्वयन की पूरी कोशिश करनी चाहिए।

दिसंबर 2023 के अंत में कलीसिया को सुसमाचार और सिंचन कार्य के लिए जिम्मेदार पर्यवेक्षकों का चुनाव करना था। मैं फिर से चिंतित हो गई, सोचने लगी, “सुसमाचार का प्रचार करना और नवांगतुकों का सिंचन दोनों ही कलीसिया के महत्वपूर्ण कार्य हैं। मैं यहाँ के कलीसिया के सदस्यों से बहुत परिचित नहीं हूँ। अगर मैंने अनुपयुक्त लोग चुन लिए और काम में देरी हुई तो क्या होगा? मैं यह जिम्मेदारी कैसे उठा सकती हूँ?” मुझे एहसास हुआ कि मैं एक बार फिर सतर्कता और गलतफहमी की दशा में जी रही हूँ। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे अपनी समस्याएँ समझने में मेरा मार्गदर्शन करने के लिए कहा। एक सुबह मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “मसीह-विरोधी अपने मन में ऐसी चीजें पाले रहते हैं, जिनमें से सब परमेश्वर के विरुद्ध गलतफहमियाँ, विरोध, आलोचना और प्रतिरोध होता है। जो भी हो उन्हें परमेश्वर के कार्य का कोई ज्ञान नहीं है। परमेश्वर के वचनों की खोजबीन करते हुए परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार की खोजबीन करते हुए वे ऐसे निष्कर्षों पर पहुँचते हैं। मसीह-विरोधी इन बातों को दिल में दबाकर खुद को चेताते हैं : ‘सावधानी ही सुरक्षा की जननी है; अपने को छिपाकर चलना ही सबसे अच्छा है; जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है; और ऊँचाई पर तुम अकेले ही होगे! चाहे जब भी हो, कभी भी अपना सिर बाहर निकालने वाले पक्षी की तरह मत बनो, कभी भी बहुत ऊपर मत चढ़ो; जितना अधिक ऊपर चढ़ोगे, उतनी ही जोर से गिरोगे।’ वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, न वे ये मानते हैं कि उसका स्वभाव धार्मिक और पवित्र है। वे इन सबको मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं से देखते हैं; और परमेश्वर के कार्य को मानवीय दृष्टिकोणों, मानवीय विचारों और मानवीय छल-कपट से देखते हैं, परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार को निरूपित करने के लिए शैतान के तर्क और सोच का उपयोग करते हैं। जाहिर है, मसीह-विरोधी न केवल परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार को स्वीकार नहीं करते या नहीं मानते; बल्कि इसके उलट वे परमेश्वर के प्रति धारणाओं, विरोध और विद्रोहीपन से भरे होते हैं और उसके बारे में उनके पास लेशमात्र भी वास्तविक ज्ञान नहीं होता। परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के स्वभाव और परमेश्वर के प्रेम की मसीह-विरोधियों की परिभाषा एक प्रश्नचिह्न है—संदिग्धता है, और वे उसके प्रति संदेह, इनकार और दोषारोपण की भावनाओं से भरे होते हैं; तो फिर परमेश्वर की पहचान का क्या? परमेश्वर का स्वभाव उसकी पहचान दर्शाता है; परमेश्वर के स्वभाव के प्रति उनके जैसा रुख, परमेश्वर की पहचान के बारे में उनका नजरिया स्वतः स्पष्ट है—प्रत्यक्ष इनकार। मसीह-विरोधियों का यही सार है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग छह))। “कुछ लोग यह नहीं मानते कि परमेश्वर का घर लोगों के साथ उचित व्यवहार कर सकता है। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर के घर में परमेश्वर का और सत्य का शासन चलता है। उनका मानना है कि व्यक्ति चाहे कोई भी कर्तव्य निभाए, अगर उसमें कोई समस्या उत्पन्न होती है, तो परमेश्वर का घर तुरंत उस व्यक्ति से निपटेगा, उससे उस कर्तव्य को निभाने का अधिकार छीनकर उसे दूर भेज देगा या फिर उसे कलीसिया से ही निकाल देगा। क्या वाकई इस ढंग से काम होता है? निश्चित रूप से नहीं। परमेश्वर का घर हर व्यक्ति के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करता है। परमेश्वर सभी के साथ धार्मिकता से व्यवहार करता है। वह केवल यह नहीं देखता कि व्यक्ति ने किसी परिस्थिति-विशेष में कैसा व्यवहार किया है; वह उस व्यक्ति की प्रकृति सार, उसके इरादे, उसका रवैया देखता है, खास तौर से वह यह देखता है कि क्या वह व्यक्ति गलती करने पर आत्मचिंतन कर सकता है, क्या वह पश्चात्ताप करता है और क्या वह उसके वचनों के आधार पर समस्या के सार को समझ सकता है ताकि वह सत्य समझ ले और अपने आपसे घृणा करने लगे और सच में पश्चात्ताप करे। यदि किसी में इस सही रवैये का अभाव है, और उसमें पूरी तरह से व्यक्तिगत इरादों की मिलावट है, यदि वह चालाकी भरी योजनाओं और भ्रष्ट स्वभावों के प्रकाशनों से भरा है, और जब समस्याएँ आती हैं, तो वह दिखावे, कुतर्क और खुद को सही ठहराने का सहारा लेता है, और हठपूर्वक अपने कार्यों को स्वीकार करने से इनकार कर देता है, तो ऐसे व्यक्ति को बचाया नहीं जा सकता। वह सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता और पूरी तरह से प्रकट हो चुका है। जो लोग सही नहीं हैं, और जो सत्य को जरा भी स्वीकार नहीं कर सकते, वे मूलतः छद्म-विश्वासी होते हैं और उन्हें केवल हटाया जा सकता है। ... अगर तुम हमेशा हटाए जाने से डरते रहोगे, बहानेबाजी करते रहोगे, खुद को सही ठहराते रहोगे, तो फिर समस्या पैदा होगी। अगर तुम लोगों को यह दिखाओगे कि तुम जरा भी सत्य नहीं स्वीकारते, और यह कि तर्क का तुम पर कोई असर नहीं होता, तो तुम मुसीबत में हो। कलीसिया तुमसे निपटने को बाध्य हो जाएगी। अगर तुम अपने कर्तव्य पालन में थोड़ा भी सत्य नहीं स्वीकारते, हमेशा प्रकट किए और हटाए जाने के भय में रहते हो, तो तुम्हारा यह भय मानवीय इरादे, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव, संदेह, सतर्कता और गलतफहमी से दूषित है। व्यक्ति में इनमें से कोई भी रवैया नहीं होना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि मसीह-विरोधी परमेश्वर की धार्मिकता या इस तथ्य में विश्वास नहीं करते कि परमेश्वर का घर सत्य द्वारा शासित है। वे मानते हैं कि वे जितनी बड़ी जिम्मेदारी लेंगे, उतने ही अधिक अपराध करेंगे और उनके पास उद्धार की उतनी ही कम उम्मीद होगी। इसलिए वे लगातार परमेश्वर को गलत समझते हैं और उससे सतर्क रहते हैं, कभी अपने कर्तव्यों में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन नहीं करते। वे सांसारिक आचरण के फलसफों का इस्तेमाल करके खुद को बचाते हैं और बेहद स्वार्थी और धोखेबाज होते हैं। मुझे एहसास हुआ कि मेरे अंदर भी मसीह-विरोधी का स्वभाव है। मेरा मानना था कि “जितनी ऊँची चढ़ाई होगी, गिरना उतना ही कष्टकारी होगा” और “सावधानी ही सुरक्षा की जननी है।” हर बार जब मुझे अगुआ चुना गया, तो मैंने अस्वीकार करना चाहा। मेरा मानना था कि अगर मैं अगुआ नहीं हुई तो मैं बड़ी बुराइयाँ नहीं करूँगी या आसानी से बेनकाब होकर नहीं निकाली जाऊँगी। अभी भी अगुआ बनने के बाद मैं अपने कर्तव्य सतर्कता से और अत्यंत सावधानी से निभा रही थी, डरती थी कि मेरे द्वारा किए गए किसी भी अपराध का मेरे परिणाम और गंतव्य पर असर पड़ेगा। मैं अपने कर्तव्य अच्छे से पूरे करने के बारे में नहीं सोच रही थी, बल्कि मेरा मन कुटिल विचारों से भरा हुआ था। जब भी कार्यों में जिम्मेदारी शामिल होती थी तो मैं उन्हें ली युन पर थोप देती थी। मैंने अपने कर्तव्यों में कभी भी सचमुच अपना दिल परमेश्वर को नहीं दिया, परमेश्वर को अपने दिल में गहरी खाई के दूसरी तरफ रखा और लगातार उसके खिलाफ सतर्क रही। मुझे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की कोई समझ नहीं थी। असल में परमेश्वर हर व्यक्ति के साथ निष्पक्ष व्यवहार करता है। परमेश्वर का घर सभी को सिद्धांतों के आधार पर सँभालता है। किसी को भी क्षणिक अपराध के लिए बरखास्त किया या हटाया नहीं जाता। परमेश्वर किसी व्यक्ति का सार, कार्यों के पीछे उसके इरादे और सत्य के प्रति उसका रवैया देखता है। अगर कोई व्यक्ति सिद्धांतों के खिलाफ कार्य करके गड़बड़ी या बाधा डालता है और अन्य लोगों के साथ संगति करने पर भी वह सत्य स्वीकारने से इनकार करता है और बार-बार परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान पहुँचाता है तो उसे अवश्य ही बरखास्त कर दिया जाना चाहिए। मैंने कुछ मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों के बारे में सोचा जिन्हें कलीसिया ने निष्कासित कर दिया था। अपने कर्तव्यों का पालन करते समय वे हमेशा प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भागते थे, कार्य व्यवस्थाओं का उल्लंघन और मनमर्जी से काम करते थे। उन्होंने लोगों के लिए परमेश्वर के साथ प्रतिस्पर्धा करने और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नियंत्रित करने की भी कोशिश की थी। अन्य लोगों के संगति करने और उजागर करने पर उन्होंने पश्चात्ताप नहीं किया था। आखिरकार कलीसिया ने सिद्धांतों के आधार पर उन्हें निष्कासित कर दिया था—यह परमेश्वर की धार्मिकता थी। अगर कोई व्यक्ति समझ न पाने या अपने भ्रष्ट स्वभाव के कारण अपने कर्तव्य निभाते समय कुछ अपराध कर देता है, लेकिन वह सत्य स्वीकार करने में सक्षम है और दूसरों के साथ संगति करने के बाद आत्म-चिंतन कर सकता है और खुद को जान सकता है तो परमेश्वर का घर उसे पश्चात्ताप करने का मौका देगा। उदाहरण के लिए जब मैं पहले प्रचारक थी, मैंने सत्य की समझ की कमी के कारण एक अन्य व्यक्ति के साथ मिलकर एक बुरा कर्म किया था। अन्य बहनों की संगति और मदद के माध्यम से मैंने अपनी गलतियाँ पहचानी थीं। बाद में मुझे अपने कार्यकलापों पर गहरा पछतावा हुआ और मैं पश्चात्ताप करने के लिए तैयार थी। कलीसिया ने मुझे निष्कासित नहीं किया था और यहाँ तक कि मुझे अपना कर्तव्य भी करने दिया था, जिससे मुझे पता चला कि परमेश्वर का घर सत्य और धार्मिकता द्वारा शासित है। लेकिन मैंने गलती से परमेश्वर को सांसारिक राजा मान लिया था जो अनुचित और अधर्मी है और जब लोग कुछ गलत करते हुए पकड़े जाते हैं तो वह उनकी निंदा करता है और दंड देता है। मैंने लगातार परमेश्वर के बारे में अटकलें लगाईं और उससे सतर्क बने रही जो परमेश्वर के खिलाफ ईशनिंदा है। मेरा स्वभाव वाकई दुष्ट था!

मुझे ईमानदार लोगों के बारे में सत्य याद आया जिसके बारे में परमेश्वर ने हमारे साथ संगति की थी। इसलिए मैंने पढ़ने के लिए परमेश्वर के प्रासंगिक वचनों को खोजा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “मैं उन लोगों में प्रसन्नता अनुभव करता हूँ जो दूसरों पर शक नहीं करते, और मैं उन लोगों को पसंद करता हूँ जो सच को तत्परता से स्वीकार कर लेते हैं; इन दो प्रकार के लोगों की मैं बहुत परवाह करता हूँ, क्योंकि मेरी नज़र में ये ईमानदार लोग हैं। यदि तुम धोखेबाज हो, तो तुम सभी लोगों और मामलों के प्रति सतर्क और शंकित रहोगे, और इस प्रकार मुझमें तुम्हारा विश्वास संदेह की नींव पर निर्मित होगा। मैं इस तरह के विश्वास को कभी स्वीकार नहीं कर सकता(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पृथ्वी के परमेश्वर को कैसे जानें)। “मनुष्य द्वारा अपना कर्तव्य निभाना वास्तव में उस सबकी सिद्धि है, जो मनुष्य के भीतर अंतर्निहित है, अर्थात् जो मनुष्य के लिए संभव है। इसके बाद उसका कर्तव्य पूरा हो जाता है। मनुष्य की सेवा के दौरान उसके दोष उसके क्रमिक अनुभव और न्याय से गुज़रने की प्रक्रिया के माध्यम से धीरे-धीरे कम होते जाते हैं; वे मनुष्य के कर्तव्य में बाधा या विपरीत प्रभाव नहीं डालते। वे लोग, जो इस डर से सेवा करना बंद कर देते हैं या हार मानकर पीछे हट जाते हैं कि उनकी सेवा में कमियाँ हो सकती हैं, वे सबसे ज्यादा कायर होते हैं। ... मनुष्य के कर्तव्य और उसे आशीष का प्राप्त होना या दुर्भाग्य सहना, इन दोनों के बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। आशीष प्राप्त होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। दुर्भाग्य सहना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें आशीष प्राप्त होते हैं या दुर्भाग्य सहना पड़ता है, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल आशीष प्राप्त करने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें दुर्भाग्य सहने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। परमेश्वर के इन वचनों से मैं गहरी सोच में डूब गई। हाँ, परमेश्वर बार-बार कहता है कि उसे ईमानदार लोग पसंद हैं जो सत्य स्वीकार सकते हैं और वह धोखेबाज लोगों से घृणा करता है। परमेश्वर ने नूह को हमारे लिए अनुकरणीय उदाहरण के रूप में पेश किया। जब परमेश्वर ने नूह को जहाज बनाने का आदेश दिया तो उसे निश्चित रूप से उस समय मुश्किलों का सामना करना पड़ा, क्योंकि उसने पहले कभी जहाज नहीं बनाया था। लेकिन वह इन चुनौतियों से बेबस नहीं था और न ही उसने इस बात की चिंता की कि अगर उसने अच्छा काम नहीं किया तो उसे सजा मिल सकती है। उसने बस परमेश्वर का आदेश स्वीकार कर लिया, खुद जाकर सामग्री तलाशी और जब भी उसका मुश्किलों से सामना हुआ, उसने परमेश्वर से प्रार्थना की। अगर कोई हिस्सा गलत तरीके से बनाया गया होता तो वह उसे तोड़कर फिर से बना देता था। उसने जहाज को एकदम परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार बनाया। परमेश्वर के प्रति अपनी सच्ची आस्था और समर्पण के कारण उसे आखिरकार परमेश्वर का आशीष मिला। अपने बारे में सोचते हुए, मुझे एहसास हुआ कि मैं बहुत धोखेबाज थी। अपने कर्तव्य करते हुए मैं हमेशा जिम्मेदारी लेने से डरती थी, अपराध करने और उद्धार की आशा गँवाने के बारे में चिंतित रहती थी। मेरे पास एक ईमानदार रवैया नहीं था। दरअसल इसके बारे में सोचने पर अपने भ्रष्ट स्वभावों और सत्य की समझ की कमी को देखूँ तो मेरे कर्तव्यों में विचलन अपरिहार्य थे। मुझे इसे सही ढंग से सीखना जानना चाहिए, आकलन करना चाहिए कि मैंने कहाँ गलती की, आत्म-चिंतन करना चाहिए और अपने भ्रष्ट स्वभाव को समझना चाहिए। अगर मैंने ऐसा किया तो मैं निरंतर प्रगति करूँगी और मेरे कर्तव्यों में भी सुधार होगा। जब अपने कर्तव्यों में ऐसी चीजों का सामना करना पड़ता है जिन्हें मैं स्पष्ट नहीं देख सकती तो मुझे प्रार्थना करनी चाहिए और अधिक खोज करनी चाहिए, अपनी साथी बहन के साथ चर्चा करनी चाहिए या उच्च अगुआओं से पूछना चाहिए। मुझे अपने कर्तव्य अनमने ढंग से नहीं करने चाहिए या जिम्मेदारी उठाने के डर से उनसे बचना और उन्हें टालना नहीं चाहिए। उदाहरण के लिए लोगों को चुनने और उनका उपयोग करने में अगर मैंने शुरुआत में सिद्धांतों के अनुसार किसी को चुना और वह आखिरकार गलत व्यक्ति साबित हुआ तो इसका संबंध उसके द्वारा अपनाए गए मार्ग से था और परमेश्वर का घर मुझे जवाबदेह नहीं ठहराएगा।

बाद में मुझे एहसास हुआ कि मेरा एक और गलत दृष्टिकोण था। मैं माना करती थी कि एक अगुआ के रूप में मेरी जितनी बड़ी जिम्मेदारी होगी, उतने ही अधिक मेरे अपराध इकट्ठे होंगे और अंत में मेरे उद्धार का मौका बरबाद हो जाएगा। मुझे लगा कि एक साधारण विश्वासी होना ज्यादा सुरक्षित होगा। लेकिन असल में चाहे कोई व्यक्ति अगुआ हो या न हो, अगर वह सत्य का अनुसरण नहीं करता है और उसके भ्रष्ट स्वभाव अपरिवर्तित रहते हैं तो वह आखिकरकार नष्ट होने के लिए शापित है। जैसा कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य)। कलीसिया से निकाले गए लोगों में से कई साधारण विश्वासी थे। उनमें से कुछ बुरे लोगों या मसीह-विरोधियों के रूप में बेनकाब किए गए, जबकि अन्य छद्म-विश्वासियों के रूप में बेनकाब हुए। भले ही वे उच्च पदों पर नहीं थे, क्या उन्हें कलीसिया के काम में गड़बड़ी करने और बाधा डालने के लिए ही नहीं हटाया गया? ये तथ्य बताते हैं कि बेनकाब होने और निकाले जाने का किसी व्यक्ति द्वारा किए जाने वाले कर्तव्य से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन यह इस बात से संबंधित है कि क्या वे सत्य का अनुसरण करते हैं और अपने स्वभाव में बदलाव का अनुभव करते हैं। इसका एहसास होने पर मैं अपने गलत दृष्टिकोण को सुधारने और अगुआ के रूप में अपना कर्तव्य अच्छी तरह करने के लिए सही मानसिकता अपनाने को तैयार थी। बाद में मैंने सुसमाचार और सिंचन कार्य की देखरेख करने के लिए लोगों को चुनना शुरू किया। कुछ व्यक्तियों की असलियत मैं नहीं जान पाई, मैंने ली युन और ऊपरी अगुआओं से पूछा। आखिरकार हमने उपयुक्त लोगों को चुना। जब मैंने अपनी सतर्कता छोड़ी, परमेश्वर पर भरोसा किया और सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य किया तो मुझे बहुत राहत मिली।

इस अनुभव के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि शैतानी फलसफे जैसे “जितनी ऊँची चढ़ाई होगी, गिरना उतना ही कष्टकारी होगा” और “सावधानी ही सुरक्षा की जननी है” भ्रांतियाँ और पाखंड हैं जो लोगों को भ्रष्ट करते हैं। ऐसी मान्यताओं के अनुसार जीने से मैं और अधिक स्वार्थी और धोखेबाज बन गई थी, लगातार परमेश्वर के खिलाफ सतर्क रहने लगी और अपने कर्तव्य सहजता से निभाने में असमर्थ हो गई थी। इससे न केवल आध्यात्मिक दमन और पीड़ा हुई, बल्कि इसके कारण मुझे सत्य पाने के अवसर भी गँवाने पड़े। ये परमेश्वर के वचन हैं जिन्होंने मुझे अपना भ्रष्ट स्वभाव समझने के लिए प्रबोधन और मार्गदर्शन दिया है और मुझे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की कुछ वास्तविक समझ दी है। मुझे एहसास हुआ है कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है, वह हमारे उद्धार के लिए करता है।

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