41. अब मुझे बीमारी की परवाह या चिंता नहीं है
2010 में एक चिकित्सा जाँच के दौरान मुझे पॉजिटिव एंटीजन के साथ क्रोनिक हेपेटाइटिस बी होने का पता चला। उस समय मैं घबरा गई थी, मुझे डर था कि किसी दिन मेरी हालत बिगड़ेगी और मुझे लिवर कैंसर हो जाएगा। जब भी मैं किसी के लिवर कैंसर से मरने की खबर सुनती तो मेरी धड़कन थम जाती। लेकिन चूँकि मेरा परिवार गरीब था और इलाज का खर्च नहीं उठा सकता था, मुझे लगा कि मेरी किस्मत खराब है और मैं एक-एक दिन गिनते हुए जीने लगी। 2020 में मुझे अंत के दिनों के परमेश्वर का कार्य स्वीकारने का सौभाग्य मिला। मुझे पता चला कि एक बहन को गर्भाशय ग्रीवा कैंसर हुआ था लेकिन जब वह परमेश्वर में विश्वास करने लगी और सक्रियता से अपना कर्तव्य करने लगी तो उसे पता भी नहीं चला और उसकी बीमारी ठीक हो गई। इससे मुझमें अपनी हालत के लिए उम्मीद जगी। मैंने मन ही मन सोचा, “परमेश्वर में विश्वास करना वाकई अद्भुत है। जब तक मैं अपने कर्तव्य अच्छे से करती हूँ और उत्साह से खुद को खपाती हूँ, परमेश्वर निश्चित ही मेरी बीमारी भी ठीक कर देगा।” इसलिए बाद में मैंने सक्रियता से अपने कर्तव्य किए और प्रचारक बन गई। हालाँकि मैं कलीसिया के कार्य में व्यस्त रहती थी और कभी-कभी थकान या शारीरिक रूप से अस्वस्थ महसूस करती थी, जब भी मुझे लगता था कि जब तक मैं अपने कर्तव्य अच्छे से करती हूँ, परमेश्वर मेरी बीमारी ठीक कर देगा, तब मेरे दिल को सुकून मिलता था और मुझे अपने कर्तव्यों में मजबूती मिलती थी।
फरवरी 2023 में मैं मेडिकल जाँच के लिए अस्पताल गई। डॉक्टर ने पाया कि मेरे हेपेटाइटिस बी वायरस का डीएनए स्तर बहुत ऊँचा है और वायरस तेजी से बढ़ रहा है। मुझे तुरंत लिवर की बीमारियों के विशेषज्ञ संक्रामक रोग विभाग में भेजा गया, और डॉक्टर ने गंभीरता से कहा, “तुम्हें इसे नियंत्रित करने के लिए अभी इलाज शुरू करना पड़ेगा। अगर इसे नियंत्रित नहीं किया जाता तो यह सिरोसिस या लिवर कैंसर में विकसित हो सकता है।” यह सुनकर मानो मुझ पर वज्रपात हो गया और मैं बेहद चिंतित और भयभीत हो गई, सोचने लगी, “अगर यह वाकई सिरोसिस या लिवर कैंसर में बदल गया और मैं मर गई तो क्या होगा?” उन दिनों मैं पूरे दिन संकट, बेचैनी और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में जीती थी। मैंने मन ही मन सोचा, “जब से मैंने परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया है, तब से मैं अपने कर्तव्य कर रही हूँ। जब मेरे परिवार ने मुझे सताया, तब भी मैंने अपने कर्तव्यों का पालन करना नहीं छोड़ा। लेकिन मेरी बीमारी में सुधार क्यों नहीं हुआ? इसके बजाय यह और भी गंभीर हो गई है। अब जबकि परमेश्वर का कार्य समाप्त होने वाला है, अगर मैं अभी मर गई तो क्या मेरे उद्धार की आशा खत्म नहीं हो जाएगी? क्या पिछले दो वर्षों में सहे गए सभी कष्ट और खपना बेकार नहीं हो जाएगा?” ये विचार दिल दहला देने वाले और परेशान करने वाले थे। मुझे डॉक्टर की सलाह भी याद आई कि मुझे भरपूर आराम करना चाहिए और खुद को ज्यादा थकाना नहीं चाहिए। मैंने सोचा, “चूँकि परमेश्वर ने मुझे ठीक नहीं किया है, इसलिए मुझे ही अपने शरीर की बेहतर देखभाल करनी होगी। अब से मैं अपने कर्तव्य करने में बहुत ज्यादा मेहनत नहीं कर सकती। अगर मेरी हालत वाकई खराब हुई और मुझे लिवर कैंसर हो गया और यह लाइलाज रहा तो मैं वाकई मर सकती हूँ।” उस समय मेरी जिम्मेदारी वाली कलीसियाओं के सुसमाचार कार्य में कुछ मुश्किलें आ रही थीं। लेकिन मैं इसके बारे में चिंता नहीं करना चाहती थी और मैंने समय रहते वे मुद्दे नहीं सुलझाए जिसके परिणामस्वरूप सुसमाचार कार्य ठप हो गया। सभाओं के दौरान मेरा मन लगातार भटकता रहता था और मैं हमेशा अपनी बीमारी के बारे में सोचती रहती थी। मैंने सभाओं के दौरान जितना संभव हो सके, उतना कम बोलने की कोशिश की, मुझे चिंता थी कि बहुत ज्यादा बात करने से मैं थक जाऊँगी। दैनिक कार्य पत्राचार सँभालने में भी मेरा मन नहीं लगता था और मैं अपने कर्तव्यों में आलसी हो गई। मैंने उस काम का जायजा नहीं लिया जिसे सुलझाने की जरूरत थी और चाहे कितना भी जरूरी काम हो, मैं हर रात जल्दी सो जाती थी, डरती थी कि मुझे ज्यादा थकान न हो जाए। यहाँ तक कि मैंने प्रचारक का ओहदा छोड़ने और कम मेहनत वाला कर्तव्य करने के बारे में भी सोचा। धीरे-धीरे मेरा दिल परमेश्वर से बहुत ज्यादा दूर होता चला गया। मैं अब परमेश्वर के वचन पढ़ना या प्रार्थना करना नहीं चाहती थी और मुझे हर दिन अपनी बीमारी की फिक्र लगी रहती थी।
बाद में अगुआ ने दो अतिरिक्त कलीसियाओं के कार्य की जिम्मेदारी लेने की संभावना के बारे में मेरे साथ संगति की। मैं जानती थी कि मुझे इसे स्वीकारना चाहिए, लेकिन फिर मैंने सोचा कि जिन कलीसियाओं की मैं जिम्मेदारी लूँगी, उनकी बढ़ती संख्या मुझे और अधिक चिंता में डाल देगी। अगर ज्यादा काम के कारण मेरी हालत बिगड़ गई तो क्या होगा? मुझे दूर के एक रिश्तेदार की भी याद आई जिसे लिवर कैंसर हुआ था और इलाज शुरू करने के कुछ समय बाद ही उसकी मृत्यु हो गई थी। इन बातों के बारे में सोचते हुए मैंने इनकार कर दिया। बाद में अगुआ ने मुझसे मेरी दशा के बारे में संगति की और मुझे परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़कर सुनाए : “फिर ऐसे लोग होते हैं जिनकी सेहत ठीक नहीं है, जिनका शारीरिक गठन कमजोर और ऊर्जाहीन है, जिन्हें अक्सर छोटी-बड़ी बीमारियाँ पकड़ लेती हैं, जो दैनिक जीवन में जरूरी बुनियादी काम भी नहीं कर पाते, और जो न सामान्य लोगों की तरह जी पाते हैं, न तरह-तरह के काम कर पाते हैं। ऐसे लोग अपने कर्तव्य निभाते समय अक्सर बेआराम और बीमार महसूस करते हैं; कुछ लोग शारीरिक रूप से कमजोर होते हैं, कुछ को वास्तविक बीमारियाँ होती हैं, और बेशक कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें किसी-न-किसी प्रकार के ज्ञात और संभाव्य रोग हैं। ऐसी व्यावहारिक शारीरिक मुश्किलों के कारण ऐसे लोग अक्सर संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में डूब जाते हैं। वे किस बात को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव करते हैं? उन्हें चिंता होती है कि अगर वे अपना कर्तव्य इसी तरह निभाते रहे, परमेश्वर के लिए खुद को इसी तरह खपाते रहे, भाग-दौड़ करते रहे, हमेशा थका हुआ महसूस करते रहे, तो कहीं उनकी सेहत और ज्यादा न बिगड़ जाए? 40 या 50 के होने पर क्या वे बिस्तर से लग जाएँगे? क्या ये चिंताएँ सही हैं? क्या कोई इससे निपटने का ठोस तरीका बताएगा? इसकी जिम्मेदारी कौन उठाएगा? जवाबदेह कौन होगा? कमजोर सेहत वाले और शारीरिक तौर पर अयोग्य लोग ऐसी बातों को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव करते हैं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। “हालाँकि जन्म, बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु मानवजाति के लिए शाश्वत हैं और जीवन में इनसे बचा नहीं जा सकता, फिर भी एक विशेष शारीरिक गठन या खास बीमारी वाले कुछ लोग होते हैं, जो अपना कर्तव्य निभाएँ या नहीं, देह की मुश्किलों और बीमारियों को लेकर संताप, व्याकुलता और चिंता में डूब जाते हैं; वे अपनी बीमारियों के बारे में चिंता करते हैं, उन तमाम मुश्किलों के बारे में चिंता करते हैं जो उनकी बीमारी उन्हें दे सकती है, कहीं उनकी बीमारी गंभीर न हो जाए, गंभीर हो गई तो उसके दुष्परिणाम क्या होंगे, और क्या इससे उनकी मृत्यु हो जाएगी। खास हालात और कुछ संदर्भों में सवालों के इस सिलसिले से वे संताप, व्याकुलता और चिंता में घिर जाते हैं और खुद को बाहर नहीं निकाल पाते; कुछ लोग तो पहले से जानते हुए कि उन्हें यह गंभीर बीमारी है या ऐसी छिपी हुई बीमारी है जिससे बचने के लिए वे कुछ नहीं कर सकते, संताप, व्याकुलता और चिंता की दशा में ही जीते हैं, और वे इन नकारात्मक भावनाओं से प्रभावित होते हैं, चोट खाते हैं और नियंत्रित होते हैं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मैं इस समय के दौरान अपनी बीमारी को लेकर संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में जी रही थी। जब डॉक्टर ने जाँच के दौरान कहा था कि मेरे हेपेटाइटिस बी वायरस की वृद्धि दर बहुत अधिक है और इसे नियंत्रित करने के लिए इलाज की जरूरत है, वरना यह सिरोसिस या लिवर कैंसर बन सकता है तो मुझे अपनी हालत के बारे में चिंता होने लगी थी। मुझे डर था कि अधिक काम करने से मेरी बीमारी बिगड़ हो सकती है, जिससे सिरोसिस या लिवर कैंसर हो सकता है और मैं मर जाऊँगी। फिर मेरे पास उद्धार पाने का कोई मौका नहीं होगा। इसके बारे में सोचकर मैं बहुत हताश हो गई थी। मेरा मन इस बात में उलझा रहता था कि मैं अपने शरीर की अच्छी देखभाल कैसे करूँ और अपनी हालत और बिगड़ने से कैसे रोकूँ। मुझे अपने कर्तव्य करने में जिम्मेदारी का जरा भी एहसास नहीं था। एक कलीसिया में सुसमाचार कार्य में मुश्किलें आ गई थीं और मैं उन्हें समय पर सुलझाने में नाकाम रही थी, नतीजतन सुसमाचार कार्य ठप हो गया था। कभी-कभी रात को मुझे नींद नहीं आती थी और मुझे कुछ जरूरी पत्र निपटाने होते थे, फिर भी जब मैं देखती कि देर हो चुकी है तो मैं पत्रों का तुरंत जवाब दिए बिना जल्दी से सोने चली जाती थी। मैंने कम मेहनत वाला काम करने के बारे में भी सोचा था, ताकि मुझे ज्यादा चिंता या मेहनत न करनी पड़े, जिससे मेरी हालत और खराब न हो। मैं पूरे दिन लगातार नकारात्मक भावनाओं से घिरी रहती थी और मेरा दिल अपने कर्तव्य सही तरह से निभाने में नहीं लगता था। मैं अपने सामने मौजूद कर्तव्य लेने से भी इनकार कर देती थी। मैंने देखा कि मैं पूरे दिन अपनी बीमारी के कारण संताप में रहती थी, अपनी वे जिम्मेदारियाँ पूरी करने में असमर्थ थी जो मुझे करनी चाहिए थीं और अपने कर्तव्य करने में कोई निष्ठा नहीं दिखा रही थी। परमेश्वर ने मुझे ऊपर उठाया और प्रचारक बनने का प्रशिक्षण दिया, अपने कर्तव्य करने और सत्य प्राप्त करने का अवसर दिया। यह परमेश्वर का अनुग्रह था। फिर भी मैं हर दिन संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में जीती थी। मैंने अपने कर्तव्य अनमने ढंग और आलस से किए, कलीसिया के कार्य में विभिन्न मुश्किलों और मसलों को समय पर सुलझाने में नाकाम रही, जिससे काम को नुकसान हुआ। मेरे पास किस तरह से जिम्मेदारी की भावना या कोई अंतरात्मा और विवेक था? मैं वाकई परमेश्वर के उद्धार के लायक नहीं थी! इस बारे में सोचते हुए मुझे पछतावा और अपराध बोध हुआ। मुझे गहरा एहसास हुआ कि नकारात्मक भावनाओं में जीना बहुत दमनकारी और दर्दनाक है। इससे न सिर्फ मेरे कर्तव्यों का प्रदर्शन प्रभावित हुआ, बल्कि मैंने सत्य का अनुसरण करने और उद्धार पाने का अपना संकल्प भी गँवा दिया। इस बारे में सोचते हुए मुझे डर लगा और मैं व्याकुल हो गई। मैं इस तरह की उलझन और भ्रम की दशा में जीती नहीं रह सकती थी। मुझे संताप और व्याकुलता की नकारात्मक भावनाओं को छोड़ने और ईमानदारी से सत्य का अनुसरण और अपने कर्तव्य पूरे करने की जरूरत थी, ताकि कोई पछतावा न रहे।
बाद में मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “बहुत-से लोग केवल इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनको चंगा कर सकता हूँ। बहुत-से लोग सिर्फ इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनके शरीर से अशुद्ध आत्माओं को निकालने के लिए अपनी शक्ति का इस्तेमाल करूँगा, और बहुत-से लोग मुझसे बस शांति और आनंद प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ और अधिक भौतिक संपदा माँगने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ इस जीवन को शांति से गुजारने और आने वाले संसार में सुरक्षित और स्वस्थ रहने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल नरक की पीड़ा से बचने के लिए और स्वर्ग के आशीष प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल अस्थायी आराम के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं और आने वाले संसार में कुछ हासिल करने की कोशिश नहीं करते। जब मैं लोगों पर अपना क्रोध उतारता हूँ और कभी उनके पास रही सारी सुख-शांति छीन लेता हूँ, तो मनुष्य शंकालु हो जाता है। जब मैं मनुष्य को नरक का कष्ट देता हूँ और स्वर्ग के आशीष वापस ले लेता हूँ, वे क्रोध से भर जाते हैं। जब लोग मुझसे खुद को चंगा करने के लिए कहते हैं, और मैं उस पर ध्यान नहीं देता और उनके प्रति गहरी घृणा महसूस करता हूँ; तो लोग मुझे छोड़कर चले जाते हैं और बुरी दवाइयों तथा जादू-टोने का मार्ग खोजने लगते हैं। जब मैं मनुष्य द्वारा मुझसे माँगी गई सारी चीजें वापस ले लेता हूँ, तो वे बिना कोई निशान छोड़े गायब हो जाते हैं। इसलिए मैं कहता हूँ कि लोग मुझ पर इसलिए विश्वास करते हैं, क्योंकि मेरा अनुग्रह अत्यंत विपुल है, और क्योंकि बहुत अधिक लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम आस्था के बारे में क्या जानते हो?)। परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन चुभने और परेशान करने वाला था। ऐसा लगा मानो परमेश्वर रूबरू मेरा न्याय कर रहा हो। परमेश्वर में मेरी आस्था सिर्फ उसका अनुग्रह और आशीष माँगने, परमेश्वर से सौदेबाजी करने और उसे सिर्फ अपनी माँगों की वस्तु के रूप में देखने को लेकर थी। जब मैंने पहली बार परमेश्वर में विश्वास किया, तब के बारे में सोचते हुए मैंने देखा कि असाध्य बीमारियों से पीड़ित कुछ भाई-बहन परमेश्वर में विश्वास करने के बाद ठीक हो गए थे, इसलिए मुझे उम्मीद थी कि मैं भी परमेश्वर में विश्वास करने के बाद ठीक हो जाऊँगी। आशीष पाने के इस इरादे को पालते हुए मैंने चीजों को त्याग कर खुद को खपाया था, अपने कर्तव्य निभाने में बहुत सक्रिय रही थी और कष्ट सहने और कीमत चुकाने के लिए भी तैयार थी। जब मैंने हाल ही में जाँच कराई और पाया कि मेरी हालत में सुधार तो हुआ ही नहीं है, बल्कि यह और भी खराब हो गई है और यहाँ तक कि मरने का भी जोखिम है तो मैं समर्पण करने में असमर्थ हो गई थी और मैं परमेश्वर के बारे में शिकायत करने और उसे गलत समझने लगी थी। मुझे परमेश्वर के लिए खुद को त्यागने और खपाने का पछतावा भी हुआ था और अब मैं अपने कर्तव्य नहीं करना चाहती थी। परमेश्वर में विश्वास करने का मेरा मकसद सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य पूरे करना, सत्य का परिश्रमपूर्वक अनुसरण करना और सामान्य मानवता को जीना नहीं था, बल्कि परमेश्वर से आशीष माँगना था। यह परमेश्वर से खुद को चंगा कराने के लिए कष्ट सहने और अपने कर्तव्यों में कीमत चुकाने के लिए था। यह किस तरह से अपने कर्तव्य करना था? मैं परमेश्वर के साथ सौदेबाजी कर रही थी, उसका इस्तेमाल कर रही थी और उसे धोखा दे रही थी! मैं हर चीज में अपने हितों की रक्षा कर रही थी। मैं प्रकृति से बहुत स्वार्थी थी, मुझमें कोई अंतरात्मा और विवेक भी नहीं था! मैंने पौलुस के बारे में सोचा कि उसने कितना काम किया, चीजें त्यागीं और खुद को खपाया, मुश्किलें झेलीं और कीमत चुकाई, सुसमाचार का प्रचार करने और बहुत से लोगों को प्राप्त करने के लिए भूमि और समुद्र पार यात्रा की। लेकिन उसका परिश्रम और कार्य अपना कर्तव्य निभाने या परमेश्वर के इरादों के लिए विचारशील होने के लिए नहीं था, बल्कि स्वर्ग के राज्य का आशीष पाने के लिए था—वह परमेश्वर के साथ सौदेबाजी कर रहा था। अंत में न सिर्फ उसे परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिली, बल्कि उसने उसकी निंदा भी की। परमेश्वर में विश्वास के अनुसरण करने के मेरे विचार पौलुस की तरह ही थे, जिनका लक्ष्य आशीष और लाभ थे। अगर मैंने तुरंत खुद को नहीं बदला तो मेरा परिणाम पौलुस की तरह होगा—परमेश्वर द्वारा निंदा और दंडित किया जाना। अगर परमेश्वर का प्रकाशन नहीं होता तो मैं आत्म-चिंतन नहीं करती या खुद को नहीं जानती और इस गलत रास्ते पर चलती रहती, जिससे आखिरकार बचाए जाने का मौका खो जाता। इसका एहसास होने पर मुझे बहुत पछतावा हुआ। मैं समझ गई कि जिस बीमारी का मैंने सामना किया, वह मेरे लिए परमेश्वर का प्रेम और उद्धार था। इसलिए मैंने उससे पश्चात्ताप की प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, चाहे मेरी बीमारी ठीक हो या न हो, मैं अपने गलत इरादे छोड़ने और तुम्हें संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य पूरा करने को तैयार हूँ।” बाद में मैंने अगुआ से कहा कि मैं दो और कलीसियाओं के काम की जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार हूँ।
उसके बाद मैंने अपने कर्तव्य सामान्य रूप से किए। लेकिन जैसे-जैसे काम का बोझ बढ़ता गया और हर दिन कई काम सँभालने पड़े, मुझे फिर से चिंता होने लगी, “क्या इस तरह से अपना कर्तव्य निभाने से मेरा शरीर थक जाएगा? लंबे समय तक चिंता और थकान होने पर क्या मेरी हालत खराब हो जाएगी और मुझे सिरोसिस या लिवर कैंसर हो जाएगा?” मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से संताप, चिंता और व्याकुलता की नकारात्मक भावनाओं में जी रही थी। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मुझे अपनी बीमारी से बाहर निकालने और आस्था देने के लिए कहा। बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “चाहे तुम बीमार हो या पीड़ा में, जब तक तुम्हारी एक भी साँस बाकी है, जब तक तुम जिंदा हो, जब तक तुम चल-फिर और बोल सकते हो, तब तक तुममें अपना कर्तव्य निभाने की ऊर्जा है, और तुम्हें विवेकशील होकर अपने कर्तव्य-निर्वाह में सुव्यवहार दिखाना चाहिए। तुम्हें एक सृजित प्राणी के कर्तव्य, या सृष्टिकर्ता द्वारा तुम्हें दी गई जिम्मेदारी का परित्याग नहीं करना चाहिए। जब तक तुम अभी मरे नहीं हो, तुम्हें अपना कर्तव्य पूर्ण करना चाहिए, और इसे अच्छे से निभाना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, ‘तुम्हारी ये बातें बहुत अधिक विचारशील नहीं हैं। मैं बीमार हूँ और मेरे लिए बर्दाश्त करना मुश्किल है!’ जब तुम्हारे लिए यह मुश्किल हो, तब तुम आराम कर सकते हो, अपनी देखभाल कर सकते हो, और इलाज करवा सकते हो। अगर तुम अभी भी अपना कर्तव्य निभाना चाहते हो, तो तुम अपने काम का बोझ घटाकर कोई उपयुक्त कर्तव्य निभा सकते हो, जो तुम्हारे स्वास्थ्य-लाभ को प्रभावित न करे। इससे साबित होगा कि तुमने अपने दिल से अपने कर्तव्य का परित्याग नहीं किया है, कि तुम्हारा दिल परमेश्वर से नहीं भटका है, कि तुमने अपने दिल से परमेश्वर के नाम को नहीं नकारा है, और तुमने अपने दिल से एक उचित सृजित प्राणी बनने की आकांक्षा का परित्याग नहीं किया है। कुछ लोग कहते हैं, ‘मैंने यह सब किया है, तो क्या परमेश्वर मेरी यह बीमारी मुझसे ले लेगा?’ क्या वह लेगा? (जरूरी नहीं।) परमेश्वर तुमसे वह बीमारी ले या न ले, परमेश्वर तुम्हें ठीक करे या न करे, तुम्हें वही करना चाहिए जो एक सृजित प्राणी को करना चाहिए। तुम अपना कर्तव्य निभाने के लिए शारीरिक रूप से सक्षम हो या नहीं, तुम कोई काम सँभाल सको या नहीं, तुम्हारी सेहत तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने दे या नहीं, तुम्हारे दिल को परमेश्वर से दूर नहीं भटकना चाहिए, और तुम्हें अपने दिल से अपने कर्तव्य का परित्याग नहीं करना चाहिए। इस प्रकार तुम अपनी जिम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और अपना कर्तव्य निभा सकोगे—तुम्हें यह वफादारी कायम रखनी होगी। सिर्फ इसलिए कि तुम अपने हाथों से काम नहीं कर सकते, और अब बोल नहीं सकते, या अब तुम्हारी आँखें देख नहीं सकतीं, या अब तुम चल-फिर नहीं सकते, तुम्हें यह नहीं सोचना चाहिए कि परमेश्वर को तुम्हें ठीक करना ही होगा, और अगर वह तुम्हें चंगा नहीं करता, तो तुम अपने अंतरतम में उसे नकारना चाहते हो, अपने कर्तव्य का परित्याग करना चाहते हो, और परमेश्वर को पीछे छोड़ देना चाहते हो। ऐसे कर्म की प्रकृति क्या है? (यह परमेश्वर के साथ विश्वासघात है।) यह विश्वासघात है!” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे अभ्यास करने का एक तरीका मिल गया। कर्तव्य मनुष्य के लिए परमेश्वर का आदेश हैं और एक सृजित प्राणी की जिम्मेदारी और दायित्व हैं। चाहे व्यक्ति किसी भी बीमारी या शारीरिक पीड़ा का सामना करे, उसे सृजित प्राणी का कर्तव्य नहीं छोड़ना चाहिए। लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ अधिक नहीं हैं। वह केवल यह अपेक्षा करता है कि शारीरिक सहन शक्ति की सीमाओं के भीतर रहते हुए किसी को अपना कर्तव्य पूरे दिल और ताकत से पूरा करना चाहिए और इतना उसके लिए संतोषजनक होगा। अगर शारीरिक पीड़ा है तो कोई ठीक से आराम कर सकता है, दवा ले सकता है और इलाज करा सकता है। वह और नियमित कसरत भी कर सकता है और अपने काम और आराम को उचित ढंग से व्यवस्थित कर सकता है। इस तरह इससे उनके कर्तव्यों पर असर नहीं पडे़गा।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों से समझा कि मृत्यु को कैसे देखना है। परमेश्वर कहता है : “सभी को इस जीवन में मृत्यु का सामना करना होगा, यानी अपनी जीवनयात्रा के अंत में सबको मृत्यु का सामना करना होगा। लेकिन मृत्यु की बहुत-सी तरह-तरह की खासियतें हैं। उनमें से एक यह है कि परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित समय पर तुम अपना उद्देश्य पूरा कर लेते हो, परमेश्वर तुम्हारे दैहिक जीवन के नीचे एक लकीर खींच देता है, और तुम्हारा दैहिक जीवन समाप्त हो जाता है, हालाँकि इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हारा जीवन खत्म हो गया है। जब कोई व्यक्ति बिना शरीर का हो, तो उसका जीवन समाप्त हो जाता है—क्या बात ऐसी ही है? (नहीं।) मृत्यु के बाद जिस रूप में तुम्हारे जीवन का अस्तित्व होता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि जीवित रहते समय, तुमने परमेश्वर के कार्य और वचनों के साथ कैसा बर्ताव किया—यह बहुत महत्वपूर्ण है। मृत्यु के बाद तुम्हारा अस्तित्व जिस रूप में होता है, या तुम्हारा अस्तित्व होगा भी या नहीं, यह जीवित रहते समय परमेश्वर और सत्य के प्रति तुम्हारे रवैये पर निर्भर करेगा। ... एक और भी बात ध्यान देने की है, और वह यह है कि मृत्यु के विषय की प्रकृति वही है जो दूसरे विषयों की होती है। इसका चयन लोग खुद नहीं कर सकते, और इसे मनुष्य की इच्छा से बदलना तो दूर की बात है। मृत्यु भी जीवन की किसी दूसरी महत्वपूर्ण घटना जैसी ही है : यह पूरी तरह से सृष्टिकर्ता के पूर्वनिर्धारण और संप्रभुता के अधीन है। अगर कोई मृत्यु की भीख माँगे, तो जरूरी नहीं कि वह मर जाए; अगर कोई जीने की भीख माँगे, तो जरूरी नहीं कि वह जीवित रहे। ये सब परमेश्वर की संप्रभुता और पूर्वनिर्धारण के अधीन हैं, और परमेश्वर के अधिकार, उसके धार्मिक स्वभाव और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं से ही इसे बदला जा सकता है। इसलिए, मान लो कि तुम्हें कोई गंभीर रोग, संभावित घातक गंभीर रोग हो जाता है, तो जरूरी नहीं कि तुम्हारी मृत्यु हो जाए—तुम मरोगे या नहीं इसका फैसला कौन करता है? (परमेश्वर।) परमेश्वर फैसला लेता है। और चूँकि परमेश्वर निर्णय लेता है, और लोग ऐसी चीज का फैसला नहीं कर सकते, तो लोग किस बात को लेकर व्याकुल और संतप्त हैं? यह ऐसा ही है, जैसे तुम्हारे माता-पिता कौन हैं, तुम कब और कहाँ पैदा होते हो—ये चीजें भी तुम नहीं चुन सकते। इन मामलों में सबसे बुद्धिमान यह चुनाव है कि चीजों को कुदरती ढंग से होने दिया जाए, समर्पण किया जाए, चुना न जाए, इस विषय पर कोई विचार न किया जाए या ऊर्जा न खपाई जाए, और इसे लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित न हुआ जाए। चूँकि लोग खुद नहीं चुन सकते, इसलिए इस विषय पर इतनी ऊर्जा और विचार खपाना बेवकूफी और अविवेकपूर्ण है। ... चूँकि यह नहीं मालूम कि तुम्हारी मृत्यु होगी या नहीं, और यह भी नहीं मालूम कि परमेश्वर तुम्हें मरने देगा या नहीं—ये चीजें अज्ञात हैं। खास तौर से यह मालूम नहीं है कि तुम कब मरोगे, कहाँ मरोगे, किस वक्त मरोगे और मरते समय तुम्हारे शरीर को क्या अनुभव होगा। जो चीजें तुम नहीं जानते, उनके बारे में सोचकर और चिंतन कर अपने दिमाग को झकझोरने और उनके बारे में व्याकुल और चिंतित होना क्या मूर्खता नहीं है? चूँकि ऐसा करके तुम मूर्ख बन जाते हो, इसलिए तुम्हें इन चीजों पर अत्यधिक नहीं सोचना चाहिए” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (4))। “लोग चाहे किसी भी मामले से निपट रहे हों, उन्हें इसे हमेशा सक्रिय और सकारात्मक रवैये के साथ देखना चाहिए, बात अगर मृत्यु की हो तो यह और भी ज्यादा सच है। सक्रिय, सकारात्मक रवैया होने का अर्थ मृत्यु के साथ जाना, मृत्यु की प्रतीक्षा करना या सकारात्मक और सक्रिय तरीके से मृत्यु का अनुसरण करने की कोशिश करना नहीं है। अगर इसका अर्थ मृत्यु का अनुसरण करना, मृत्यु के साथ जाना या मृत्यु की प्रतीक्षा करना नहीं है, तो फिर क्या है? (समर्पित होना।) समर्पण मृत्यु के विषय के प्रति एक तरह का रवैया है, और इससे निपटने का सबसे अच्छा तरीका मृत्यु को त्याग देना और उसके बारे में न सोचना है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (4))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे समझ आया कि हर व्यक्ति का जीवन और मृत्यु परमेश्वर के हाथों में है। परमेश्वर इसकी योजना और व्यवस्था पहले ही कर लेता है कि हम इस जीवनकाल में कब और कैसे मरेंगे और इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि हम बीमार पड़ते हैं या नहीं। भले ही मैं बीमार न भी पड़ूँ, लेकिन जब परमेश्वर द्वारा मेरे मरने का पूर्वनिर्धारित समय आएगा तो मैं बच नहीं सकती। भले ही मुझे बहुत गंभीर बीमारी हो जाए, अगर मेरा मिशन पूरा नहीं हुआ है तो परमेश्वर यूँ ही मेरा जीवन नहीं लेगा। किसी व्यक्ति का जीवन और मृत्यु परमेश्वर के हाथों में होता है और यह मानवीय संरक्षण से तय नहीं होता। लेकिन मैं जीवन और मृत्यु के मामले को समझ नहीं पाई थी, और संताप, चिंता और व्याकुलता की नकारात्मक भावनाओं में जी रही थी। मुझे हमेशा यही चिंता रहती थी कि मेरी हालत और खराब हो जाएगी और मुझे लिवर कैंसर हो जाएगा और मैं मर जाऊँगी, इसलिए मैं हमेशा अपने कर्तव्यों से पीछे हट जाती थी, उतना भी नहीं करती थी जो मैं कर सकती थी और अपना समय और ऊर्जा अपने स्वास्थ्य के संरक्षण में लगाती थी। मैं वाकई अज्ञानी और मूर्ख थी! अब मुझे एहसास हुआ कि भले ही मैं अपने स्वास्थ्य का अच्छे से ख्याल रखूँ, अगर मैंने अपना कर्तव्य पूरा नहीं किया तो मुझे परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिलेगी और मेरा हर दिन खाली होगा, जिसका कोई मूल्य या अर्थ नहीं होगा। अंत में जब आपदा आएगी, तब भी मुझे मरना होगा। जब मुझे पहली बार अपनी हालत बिगड़ने के बारे में पता चला, तब के बारे में सोचूँ तो मैं परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ना चाहती थी और मेरे पास प्रार्थना में कुछ भी कहने के लिए नहीं था, मैं हर दिन जल्दी सो जाती थी। बाहरी तौर पर मेरा शरीर सहज और ठीक से संरक्षित लगता था, लेकिन मुझे परमेश्वर से कोई मार्गदर्शन नहीं मिल रहा था और मैं हर दिन बेमतलब जी रही थी। मुझे दिल में बहुत खालीपन और तकलीफ महसूस होती थी। अब भले ही मेरा कर्तव्य थोड़ा कठिन और थकाऊ है, लेकिन मेरे दिल में शांति और सहजता की भावना की जगह कोई और चीज नहीं ले सकती। मैंने वाकई अनुभव किया था कि केवल सत्य का ईमानदारी से अनुसरण करने और अपने कर्तव्य पूरे करने से ही जीवन मूल्यवान और अर्थपूर्ण हो सकता है और मुझे शांति और सहजता मिल सकती है। एक महीने बाद मैं फिर से जाँच के लिए अस्पताल गई, डॉक्टर ने कहा कि मेरी हालत में सुधार हुआ है और यह हेपेटाइटिस बी का हल्का सा मामला है और मुझे केवल कुछ एंटीवायरल इलाज की जरूरत है। यह सुनकर मुझे यकीन ही नहीं हुआ। यह देखकर कि सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है, मैं परमेश्वर के प्रति बहुत आभारी थी।
इस बीमारी का अनुभव करने के बाद मैं परमेश्वर में विश्वास के माध्यम से आशीष के पीछे भागने के अपने घृणित इरादे स्पष्ट देखती हूँ और मुझे अपनी नकारात्मक भावनाओं के कारण होने वाले नुकसान का एहसास होता है। मुझे यह भी एहसास है कि परमेश्वर ने मुझे बीमारी होने दी ताकि वह मेरी असाधारण इच्छाओं और अनुचित माँगों को शुद्ध कर सके, जिससे मैं शैतान द्वारा अपनी भ्रष्टता की भद्दी सच्चाई स्पष्ट देख सकूँ, ताकि मैं ईमानदारी से सत्य का अनुसरण कर सकूँ, अपने भ्रष्ट स्वभाव उतार फेंकूँ और परमेश्वर का उद्धार पा सकूँ। यह परमेश्वर का प्रेम और उद्धार है! मैं अपने हृदय से परमेश्वर की बहुत आभारी हूँ!