63. बुढ़ापे में भी सत्य का अनुसरण करते रहो
साठ साल की उम्र में मैंने अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकार किया। सभाओं में भाग लेने और परमेश्वर के वचन खाने-पीने के जरिए मुझे समझ आया कि मनुष्य को परमेश्वर ने बनाया है, यह परमेश्वर ही है जिसने आज तक मनुष्य का मार्गदर्शन किया है, उसके लिए प्रावधान किया है और उसका पोषण किया है और यह कि अंत के दिनों में परमेश्वर मनुष्य को पाप से बचाने और लोगों को एक सुंदर मंजिल तक ले जाने के लिए फिर से आया है। मैं खुशी से भर गई और मुझे लगा कि बुढ़ापे में भी परमेश्वर के घर में आ पाना और उससे इतना बड़ा उद्धार प्राप्त करने में सक्षम होना वास्तव में एक बहुत बड़ा आशीष है! इसलिए मैं अपने अनुसरण में जुनूनी बनी रही और जल्द ही मुझे समूह अगुआ और फिर कलीसिया अगुआ चुन लिया गया। चाहे मुझे कितनी भी बाधाओं और असफलताओं का सामना करना पड़ा हो, मैंने इन भूमिकाओं में अपने कर्तव्य करना कभी नहीं छोड़ा। मुझे विश्वास था कि ऐसा करने से मुझे परमेश्वर की स्वीकृति मिलेगी।
2022 में मैं छिहत्तर साल की हो गई। जैसे-जैसे मेरी उम्र बढ़ी, मेरी याददाश्त कम होती गई और मेरी प्रतिक्रियाएँ धीमी हो गईं। एक दिन मैं अपने कर्तव्य पर जाने के लिए इलेक्ट्रिक बाइक चला रही थी। मैं बहुत तेजी से गाड़ी चला रही थी और मैं उसे धीरे करना चाहती थी, लेकिन चूँकि मैं घबरा गई थी और मेरा दिमाग एक पल के लिए प्रतिक्रिया नहीं दे सका, मैंने दोनों ब्रेक दबा दिए, मैं और बाइक दोनों लगभग तीन-चार मीटर ऊँचे एक छोटे से पुल से पलटकर नीचे गिर गए। सौभाग्य से मुझे चोट नहीं आई। मेरे दिल में यह साफ था कि यह परमेश्वर की सुरक्षा थी। अगले दिन मैं एक मेजबान के घर के लिए निकली जहाँ मैं अक्सर सभा के लिए जाती थी, लेकिन अचानक मेरा दिमाग भ्रमित हो गया और मुझे याद नहीं आया कि वहाँ कैसे पहुँचना है। नतीजतन मैं सभा से चूक गई। कलीसिया अगुआ ने मेरी उम्र और सुरक्षा के बारे में सोचकर मेरे घर पर सभाओं के लिए भाई-बहनों की मेजबानी करने और जब मेरे पास समय हो तो आसपास के कुछ नवागंतुकों का सिंचन करने की व्यवस्था कर दी। जब नवागंतुकों के लिए सभाओं की मेजबानी करने का समय आया, तो अगुआ ने मुझे साथ ले जाने के लिए एक बहन की व्यवस्था कर दी। मैं यह सोचकर थोड़ी निराश महसूस कर रही थी, “जब मैं पहले स्वस्थ थी, तो मैं किसी भी समय बाहर जाकर अपना कर्तव्य कर पाती थी। अब मुझे सभाओं में भाग लेने जाने के लिए भी किसी की जरूरत पड़ती है। क्या मैं कलीसिया के लिए बोझ नहीं बन गई हूँ? मैं अब केवल थोड़ा सा ही कर्तव्य कर रही हूँ और सोचती हूँ कि क्या परमेश्वर इसे याद रखेगा और क्या मैं अब भी बचाई जा सकूँगी। जैसे-जैसे मैं हर साल बूढ़ी हो रही हूँ, मेरा दिमाग और भी भ्रमित होता जा रहा है। क्या मैं अभी भी अपना कर्तव्य कर पाऊँगी? अगर मैं अपना कर्तव्य न कर पाई, तो मैं कैसे बचाई जाऊँगी?” खासकर जब मैं बाद में नवागंतुकों के साथ सभा में गई और मैंने देखा कि वे कितने युवा हैं, कितनी तेजी से सत्य समझते हैं और उनकी प्रतिक्रियाएँ कितनी तेज हैं, जबकि कभी-कभी परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं अचानक संगति करने की कोशिश करते समय अटक जाती थी और मुझे याद नहीं रहता था कि मैं क्या संगति करना चाहती थी। मुझे यह सोचकर अपने दिल में चुभन महसूस होती थी, “मैं वास्तव में बूढ़ी हो गई हूँ और ऐसे कई क्षेत्र हैं जिनमें मैं आगे नहीं बढ़ सकती।” कुछ ही समय बाद, जिन दो नवागंतुकों का मैं सिंचन कर रही थी, वे सुरक्षा संबंधी समस्याओं से जूझ रहे थे और सभाओं में शामिल नहीं हो पा रहे थे और कुछ कारणों से मेरा घर भी अब भाई-बहनों की सभाओं में मेजबानी नहीं कर पा रहा था। अपने कर्तव्यों को धीरे-धीरे एक-एक करके खत्म होते देख मैं सचमुच निराश हो गई, “अब मैं कोई भी कर्तव्य नहीं कर सकती। मैं बहुत बूढ़ी और बेकार हो गई हूँ। मुझे अब उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है!” मैं इतनी नकारात्मक हो गई कि मैं पूरी तरह से थकी हुई महसूस करने लगी। इसके तुरंत बाद ही मैं बीमार पड़ गई और मुझे लगातार खांसी आ रही थी और साँस लेने में कठिनाई हो रही थी। भले ही मैंने डॉक्टर को दिखाया और मेरी हालत में कुछ सुधार हुआ, मगर मैंने सोचा कि कैसे मैं बूढ़ी होती जा रही हूँ, कैसे मेरी सेहत बिगड़ती जा रही है और मुझे चिंता हुई कि मैं अभी भी अपने कर्तव्य कैसे कर सकती हूँ। जितना मैंने इस बारे में सोचा, उतनी ही परेशान हो गई, पूरी तरह से पंगु महसूस करने लगी। उसके बाद मेरी प्रार्थनाएँ अनियमित हो गईं और मैं अब परमेश्वर के वचनों को खाना-पीना नहीं चाहती थी। अपने खाली समय में मैंने टीवी नाटक भी देखने शुरू कर दिए। तभी मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा गलत थी और मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर! अब जब मैं बूढ़ी हो गई हूँ और मेरा स्वास्थ्य खराब है, तो मुझे लगता है कि मैं कोई भी कर्तव्य नहीं कर सकती और मुझे उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है। मैं इतनी नकारात्मक महसूस करती हूँ कि मैंने जीने की इच्छा भी खो दी है। हे परमेश्वर! इस गलत दशा से बाहर निकलने में मेरा मार्गदर्शन करो।”
एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जो मेरी दशा के लिए बहुत प्रासंगिक था। परमेश्वर कहता है : “भाई-बहनों के बीच 60 से लेकर 80 या 90 वर्ष तक की उम्र के बड़े-बूढ़े भी हैं, जो अपनी बढ़ी हुई उम्र के कारण भी कुछ मुश्किलों का अनुभव करते हैं। ज्यादा उम्र होने पर भी जरूरी नहीं कि उनकी सोच सही या तार्किक ही हो, और उनके विचार और नजरिये सत्य के अनुरूप हों। इन बड़े-बूढ़ों को भी वही समस्याएँ होती हैं, और वे हमेशा चिंता करते हैं, ‘अब मेरी सेहत उतनी अच्छी नहीं रही, और मैं कौन-से कर्तव्य निभा पाऊँगा वे भी सीमित हो गए हैं। अगर मैं बस यह छोटा-सा कर्तव्य निभाऊँगा तो क्या परमेश्वर मुझे याद रखेगा? कभी-कभी मैं बीमार पड़ जाता हूँ, और मुझे अपनी देखभाल के लिए किसी की जरूरत पड़ती है। जब मेरी देखभाल के लिए कोई नहीं होता, तो मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाता, तो मैं क्या कर सकता हूँ? मैं बूढ़ा हूँ, परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे याद नहीं रहते, और सत्य को समझना मेरे लिए कठिन होता है। सत्य पर संगति करते समय मैं उलझे हुए और अतार्किक ढंग से बोलता हूँ, और मेरे पास साझा करने लायक कोई अनुभव नहीं होते। मैं बूढ़ा हूँ, मुझमें पर्याप्त ऊर्जा नहीं है, मेरी दृष्टि बहुत स्पष्ट नहीं है, और मैं अब शक्तिशाली नहीं हूँ। मेरे लिए सब कुछ मुश्किल होता है। न सिर्फ मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाता, बल्कि मैं आसानी से चीजें भूल जाता हूँ, गलत समझ लेता हूँ। कभी-कभी मैं भ्रमित हो जाता हूँ, और कलीसिया और अपने भाई-बहनों के लिए समस्याएँ खड़ी कर देता हूँ। मैं उद्धार प्राप्त करना चाहता हूँ, सत्य का अनुसरण करना चाहता हूँ, मगर यह बहुत कठिन है। मैं क्या कर सकता हूँ?’ जब वे इन चीजों के बारे में सोचते हैं, तो यह सोचकर झुँझलाने लगते हैं, ‘मैंने आखिर इतनी बड़ी उम्र में ही परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू क्यों किया? मैं उन लोगों जैसा क्यों नहीं हूँ, जो 20-30 वर्ष के हैं, या जो 40-50 वर्ष के हैं? इतना बूढ़ा हो जाने के बाद ही क्यों मुझे परमेश्वर के कार्य का पता चला? ऐसा नहीं है कि मेरा भाग्य खराब है; कम-से-कम अब तो परमेश्वर के कार्य से मेरा सामना हो चुका है। मेरा भाग्य अच्छा है, और परमेश्वर मेरे प्रति दयालु है! बस सिर्फ एक चीज है जिसे लेकर मैं खुश नहीं हूँ, और वह यह है कि मैं बहुत बूढ़ा हूँ। मेरी याददाश्त बहुत अच्छी नहीं है, और मेरी सेहत उतनी बढ़िया नहीं है, मगर मैं अंदर से बहुत शक्तिशाली हूँ। बात बस इतनी है कि मेरा शरीर मेरी आज्ञा नहीं मानता, और सभाओं में थोड़ी देर सुनने के बाद मेरी आँख लग जाती है। कभी-कभी मैं प्रार्थना के लिए आँखें बंद कर लेता हूँ और सो जाता हूँ, और परमेश्वर के वचन पढ़ते समय मेरा मन भटकता है। थोड़ी देर पढ़ने के बाद मैं उनींदा हो जाता हूँ और सो जाता हूँ, और वचन मेरे दिमाग में नहीं उतरते। मैं क्या करूँ? ऐसी व्यावहारिक दिक्कतों के साथ भी क्या मैं सत्य का अनुसरण कर उसे समझने में समर्थ हूँ? अगर नहीं, और अगर मैं सत्य-सिद्धांतों के अनुरूप अभ्यास न कर पाऊँ, तो कहीं मेरी पूरी आस्था बेकार न हो जाए? कहीं मैं उद्धार प्राप्त करने में विफल न हो जाऊँ? मैं क्या कर सकता हूँ? मैं बहुत चिंतित हूँ! इस उम्र में अब और कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है। अब चूँकि मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, मुझे कोई चिंता नहीं रही या मैं किसी चीज को लेकर व्याकुल नहीं हूँ, मेरे बच्चे बड़े हो चुके हैं और उनकी देखभाल के लिए या उन्हें बड़ा करने के लिए मेरी जरूरत नहीं है, इसलिए जीवन में मेरी सबसे बड़ी कामना सत्य का अनुसरण करने की है, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने की है और अपनी बची-खुची उम्र में उद्धार प्राप्त करने की है। हालाँकि मेरी असली स्थिति, उम्र से धुंधला गई आँखों की रोशनी, मन की उलझनों, खराब सेहत, अपना कर्तव्य अच्छी तरह न निभा पाने, और यथासंभव कार्य करने पर भी कभी-कभी समस्याएँ खड़ी होते देखकर लगता है कि उद्धार प्राप्त करना मेरे लिए आसान नहीं होगा।’ वे इन चीजों के बारे में बार-बार सोचकर व्याकुल हो जाते हैं, और फिर सोचते हैं, ‘लगता है कि अच्छी चीजें सिर्फ युवाओं के साथ ही होती हैं, बूढ़ों के साथ नहीं। लगता है चीजें जितनी भी अच्छी हों, मैं अब उनका आनंद नहीं ले पाऊँगा।’ वे इन चीजों के बारे में जितना ज्यादा सोचते हैं, जितना झुँझलाते हैं, उतने ही व्याकुल हो जाते हैं। वे अपने बारे में सिर्फ चिंता ही नहीं करते, बल्कि आहत भी होते हैं। अगर वे रोते हैं तो उन्हें लगता है कि यह बात सचमुच रोने लायक नहीं है, और अगर नहीं रोते, तो वह पीड़ा, वह चोट हमेशा उनके साथ बनी रहती है। तो फिर उन्हें क्या करना चाहिए? खास तौर से कुछ ऐसे बड़े-बूढ़े हैं, जो अपना सारा वक्त परमेश्वर के लिए खपने और अपना कर्तव्य निभाने में बिताना चाहते हैं, मगर वे शारीरिक रूप से बीमार हैं। कुछ को उच्च रक्तचाप है, कुछ को मधुमेह है, कुछ को पेट की बीमारियाँ हैं, और उन लोगों की शारीरिक ताकत उनके कर्तव्य की अपेक्षाओं की बराबरी नहीं कर पाती, और इसलिए वे झुँझलाते हैं। वे युवाओं को खाने-पीने, दौड़ने-कूदने में समर्थ देखते हैं, और उनसे ईर्ष्या करते हैं। वे युवाओं को ऐसे काम करते हुए जितना ज्यादा देखते हैं, यह सोचकर उतना ही संतप्त अनुभव करते हैं, ‘मैं अपना कर्तव्य अच्छे ढँग से निभाना चाहता हूँ, सत्य का अनुसरण कर उसे समझना चाहता हूँ, सत्य का अभ्यास भी करना चाहता हूँ, तो फिर यह इतना कठिन क्यों है? मैं बहुत बूढ़ा और बेकार हूँ! क्या परमेश्वर को बूढ़े लोग नहीं चाहिए? क्या बूढ़े लोग सचमुच बेकार होते हैं? क्या हम उद्धार प्राप्त नहीं कर सकेंगे?’ चाहे वे जैसे सोचें वे दुखी रहते हैं, उन्हें खुशी नहीं मिलती। वे ऐसा अद्भुत समय और ऐसा बढ़िया मौका नहीं चूकना चाहते, फिर भी वे युवाओं की तरह तन-मन से खुद को खपाकर अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा नहीं पाते। ये बूढ़े लोग अपनी उम्र के कारण संताप, व्याकुलता और चिंता में डूब जाते हैं। हर बार जब वे किसी दिक्कत, रुकावट, कठिनाई या बाधा का सामना करते हैं, वे अपनी उम्र को दोष देते हैं, यहाँ तक कि खुद से घृणा करते हैं और खुद को पसंद नहीं करते। लेकिन किसी भी स्थिति में इसका कोई फायदा नहीं होता, कोई समाधान नहीं मिलता, और उन्हें आगे का रास्ता नहीं मिलता” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर हमें बहुत अच्छी तरह समझता है। मेरी दशा और हालत ठीक वैसी ही थी जैसी परमेश्वर ने उजागर की थी : मुझे चिंता थी कि जैसे-जैसे मेरी उम्र बढ़ेगी और जैसे-जैसे मेरी सेहत और याददाश्त कम होगी, मैं अपने कर्तव्य पूरे नहीं कर पाऊँगी और इसलिए बचाई नहीं जाऊँगी और भले ही मैं अपने कर्तव्यों को यथासंभव अच्छे से पूरा कर भी लूँ, मुझे डर था कि परमेश्वर मुझे याद नहीं रखेगा क्योंकि मैंने बहुत कम काम किया है, इसलिए मैं व्यथा की दशा में घिर गई। अगुआ ने मेरी उम्र और सुरक्षा के मद्देनजर मेरे लिए घर पर भाई-बहनों की मेजबानी करने का कर्तव्य करने की व्यवस्था की, साथ ही कुछ नवागंतुकों के सिंचन का भी काम दिया। मैं थोड़ी निराश महसूस कर रही थी और मुझे चिंता थी कि परमेश्वर मेरे इन सीमित कर्तव्यों को स्वीकार नहीं करेगा। मैंने देखा कि मैं युवा लोगों की तरह जवाबदेह नहीं थी और मुझे चिंता थी कि जैसे-जैसे मेरी उम्र बढ़ेगी, मैं हर तरह से पिछड़ती जाऊँगी और मेरे किए जा सकने वाले कर्तव्य घटते जाएँगे। बाद में विशेष रूप से जब मैंने एक-एक करके अपने कर्तव्यों को गँवा दिया और बीमार पड़ गई, तो मैं और भी निराश और परेशान महसूस करने लगी, मेरा मानना था कि अपने कर्तव्य पूरे किए बिना उद्धार की मेरी आशा और भी दूर थी। इसलिए मैं चिंता और व्यथा की दशा में आ गई, प्रार्थना करने और परमेश्वर के वचन पढ़ने की मेरी प्रेरणा खत्म हो गई और इसके बजाय मैं अपना समय टीवी नाटक देखने में बिताने लगी। क्या मैं सिर्फ हताशा की दशा में जीते हुए परमेश्वर का विरोध नहीं कर रही थी? मैंने जल्दी से परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं हताशा की इस दशा से बाहर आना चाहती हूँ। मुझे प्रबुद्ध करो और मेरा मार्गदर्शन करो।”
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और अपनी आस्था में अशुद्धियों के बारे में कुछ समझ हासिल की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “लोग आशीष पाने, पुरस्कृत होने, ताज पहनने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। क्या यह सबके दिलों में नहीं है? यह एक तथ्य है कि यह सबके दिलों में है। हालाँकि लोग अक्सर इसके बारे में बात नहीं करते, यहाँ तक कि वे आशीष प्राप्त करने का अपना मकसद और इच्छा छिपाते हैं, फिर भी यह इच्छा और मकसद लोगों के दिलों की गहराई में हमेशा अडिग रहा है। लोग चाहे कितना भी आध्यात्मिक सिद्धांत समझते हों, उनके पास जो भी अनुभवात्मक ज्ञान हो, वे जो भी कर्तव्य निभा सकते हों, कितना भी कष्ट सहते हों, या कितनी भी कीमत चुकाते हों, वे अपने दिलों में गहरी छिपी आशीष पाने की प्रेरणा कभी नहीं छोड़ते, और हमेशा चुपचाप उसके लिए मेहनत करते हैं। क्या यह लोगों के दिल के अंदर सबसे गहरी दबी बात नहीं है? आशीष प्राप्त करने की इस प्रेरणा के बिना तुम लोग कैसा महसूस करोगे? तुम किस रवैये के साथ अपना कर्तव्य निभाओगे और परमेश्वर का अनुसरण करोगे? अगर लोगों के दिलों में छिपी आशीष प्राप्त करने की यह प्रेरणा खत्म हो जाए तो ऐसे लोगों का क्या होगा? संभव है कि बहुत-से लोग नकारात्मक हो जाएँगे, जबकि कुछ अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन हो जाएँगे। वे परमेश्वर में अपने विश्वास में रुचि खो देंगे, मानो उनकी आत्मा गायब हो गई हो। वे ऐसे प्रतीत होंगे, मानो उनका हृदय छीन लिया गया हो। इसीलिए मैं कहता हूँ कि आशीष पाने की प्रेरणा ऐसी चीज है जो लोगों के दिल में गहरी छिपी है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन संवृद्धि के छह संकेतक)। परमेश्वर ने अपने प्रकाशन में लोगों की आस्था में मौजूद इरादों और अशुद्धियों को पूरी तरह से स्पष्ट कर दिया। लोग आशीष पाने की उम्मीद में परमेश्वर के लिए खुद को खपाते हैं, मेहनत करते हैं, कष्ट उठाते हैं और कीमत चुकाते हैं। अगर उन्हें परमेश्वर के आशीष या वायदे नहीं दिखते, तो वे फूटे हुए गुब्बारे की तरह पिचक जाते हैं और अपने कर्तव्य करने की प्रेरणा भी गँवा देते हैं। मैं भी ठीक इसी तरह की दशा में थी। जब मैंने पहली बार परमेश्वर का कार्य स्वीकार किया था, तब के बारे में सोचा तो मैंने देखा कि अपनी आस्था में कर्तव्य करने से उद्धार मिल सकता है और जीवित रहा जा सकता है, इसलिए मैं अपने अनुसरण में जुनूनी थी और चाहे तूफान हो या बारिश या सीसीपी के उत्पीड़न के खतरों की परवाह किए बिना मैं अपने कर्तव्यों में पीछे नहीं हटी या देरी नहीं की। मेरा मानना था कि जब तक मैं अपना सर्वश्रेष्ठ करती रहूँगी, परमेश्वर इसे याद रखेगा और मुझे उसकी स्वीकृति प्राप्त होगी। जैसे-जैसे मैं बूढ़ी होती गई, मेरी याददाश्त और शारीरिक क्षमता कम होती गई और मेरे द्वारा किए जा सकने वाले कर्तव्य कम होते गए। यहाँ तक कि नवागंतुकों को सिंचित करने और सभाओं के लिए भाई-बहनों की मेजबानी करने जैसे कुछ बचे हुए कर्तव्य जिन्हें करने में मैं सक्षम थी, उनमें भी मेरे लिए सहयोग करना असंभव हो गया, मुझे यकीन होने लगा कि मैं बचाई नहीं जा सकूँगी या राज्य में प्रवेश नहीं कर पाऊँगी और मैंने खुद पर भरोसा करना छोड़ दिया। मुझे एहसास हुआ कि मेरे कर्तव्यों में पहले जैसी तीव्र प्रेरणा आशीषों की छिपी हुई इच्छा से प्रेरित थी और जब मैं आशीष प्राप्त नहीं कर सकती थी, तो मैं प्रार्थना करने या परमेश्वर के वचन पढ़ने को लेकर अनिच्छुक हो गई। इस तरह से अपने कर्तव्य निभाने से मेरे पास परमेश्वर के प्रति कोई ईमानदारी कहाँ थी? मैं तो बस परमेश्वर से फायदे माँग रही थी और अपने कर्तव्य निर्वहन के बदले भविष्य में आशीष पाने की कोशिश कर रही थी। क्या मैं परमेश्वर के साथ सिर्फ सौदेबाजी नहीं कर रही थी? ऐसा करके मैं परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश कर रही थी। जितना मैंने इस बारे में सोचा, उतना ही मुझे लगा कि मुझमें अंतरात्मा और विवेक की कमी है और मैं वास्तव में परमेश्वर की ऋणी हूँ! दरअसल पीछे मुड़कर देखने पर मैंने पाया कि इन वर्षों में परमेश्वर में विश्वास रखने के दौरान मैंने उसके वचनों के बहुत-सारे सिंचन और प्रावधान का आनंद लिया था और मुझे उसका बहुत अनुग्रह प्राप्त हुआ था। जब मेरे जीवनसाथी का निधन हो गया और मेरा दिल टूट गया और मैं इस परीक्षा से गुजरने के लिए संघर्ष कर रही थी, तो यह परमेश्वर के वचन ही थे जिन्होंने मेरे दिल को खोला और मुझे इस स्थिति का सही तरीके से सामना करने दिया। साथ ही जब मैं अपनी इलेक्ट्रिक बाइक चलाते हुए इतने ऊँचे पुल से गिरी, तो मैं और बाइक दोनों सुरक्षित रहे। यह सब परमेश्वर की सुरक्षा थी। मेरी इस पूरी यात्रा के दौरान परमेश्वर ने अनगिनत बार मुझ पर अनुग्रह किया था, लेकिन जब मैंने सोचा कि आशीष पहुँच से बाहर हैं, तो मैंने खुद को गलतफहमियों और शिकायतों से भरा पाया और परमेश्वर से दूर हो गई। मुझमें मानवता का इतना अभाव कैसे हो सकता था? जब कलीसिया ने मुझे दूसरा काम सौंपा, तो ऐसा इसलिए था क्योंकि मेरी उम्र देखते हुए मेरे लिए अपने कर्तव्य पूरा करने के लिए बाहर जाना असुरक्षित था और इससे कलीसिया के काम में देरी होती। मुझे दूसरा काम सौंपना मेरे और कलीसिया के कार्य दोनों के लिए फायदेमंद था और मुझे इसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारना चाहिए था। अगर मुझे दूसरा कर्तव्य नहीं सौंपा जाता, तो मुझे परमेश्वर में मेरी वर्षों की आस्था के पीछे छिपे घृणित इरादों के बारे में पता ही नहीं चलता। मैंने अनुग्रह के युग में पौलुस के बारे में सोचा। उसने सुसमाचार का प्रचार करने के लिए यूरोप के अधिकांश हिस्सों की यात्रा की, बड़ी कीमत चुकाई और बहुत पीड़ा सहन की, फिर भी उसका इरादा एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य पूरा करने के बजाय परमेश्वर से मुकुट और आशीष प्राप्त करना था और अंत में परमेश्वर ने उसे दंडित किया। मैं भी आशीष पाने के लिए अपना कर्तव्य निभा रही थी और अगर मैं अपना स्वभाव बदलने की कोशिश न करती, तो परमेश्वर मुझे भी पौलुस की तरह अंततः दंडित करता। मैं पौलुस की असफलता के मार्ग पर नहीं चलते रहना चाहती थी। मुझे पश्चात्ताप करना था और परमेश्वर के सामने पाप स्वीकार करना था और मेरे पास जो समय बचा था, उसमें मुझे सत्य का अनुसरण करना था और अब आशीष नहीं खोजने थे।
अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “प्रत्येक व्यक्ति के लिए परमेश्वर की इच्छा है कि उसे पूर्ण बनाया जाए, अंततः उसके द्वारा उसे प्राप्त किया जाए, उसके द्वारा उसे पूरी तरह से शुद्ध किया जाए, और वह ऐसा इंसान बने जिससे वह प्रेम करता है। चाहे मैं तुम लोगों को पिछड़ा हुआ कहता हूँ या निम्न क्षमता वाला—यह सब तथ्य है। मेरा ऐसा कहना यह प्रमाणित नहीं करता कि मेरा तुम्हें छोड़ने का इरादा है, कि मैंने तुम लोगों में आशा खो दी है, और यह तो बिल्कुल नहीं कि मैं तुम लोगों को बचाना नहीं चाहता। आज मैं तुम लोगों के उद्धार का कार्य करने के लिए आया हूँ, जिसका तात्पर्य है कि जो कार्य मैं करता हूँ, वह उद्धार के कार्य की निरंतरता है। प्रत्येक व्यक्ति के पास पूर्ण बनाए जाने का एक अवसर है : बशर्ते तुम तैयार हो, बशर्ते तुम खोज करते हो, अंत में तुम इस परिणाम को प्राप्त करने में समर्थ होगे, और तुममें से किसी एक को भी त्यागा नहीं जाएगा। यदि तुम निम्न क्षमता वाले हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी निम्न क्षमता के अनुसार होंगी; यदि तुम उच्च क्षमता वाले हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी उच्च क्षमता के अनुसार होंगी; यदि तुम अज्ञानी और निरक्षर हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी निरक्षरता के अनुसार होंगी; यदि तुम साक्षर हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ इस तथ्य के अनुसार होंगी कि तुम साक्षर हो; यदि तुम बुज़ुर्ग हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी उम्र के अनुसार होंगी; यदि तुम आतिथ्य प्रदान करने में सक्षम हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ इस क्षमता के अनुसार होंगी; यदि तुम कहते हो कि तुम आतिथ्य प्रदान नहीं कर सकते और केवल कुछ निश्चित कार्य ही कर सकते हो, चाहे वह सुसमाचार फैलाने का कार्य हो या कलीसिया की देखरेख करने का कार्य या अन्य सामान्य मामलों में शामिल होने का कार्य, तो मेरे द्वारा तुम्हारी पूर्णता भी उस कार्य के अनुसार होगी, जो तुम करते हो। वफादार होना, बिल्कुल अंत तक समर्पण करना, और परमेश्वर के प्रति सर्वोच्च प्रेम रखने की कोशिश करना—यह तुम्हें अवश्य करना चाहिए, और इन तीन चीजों से बेहतर कोई अभ्यास नहीं है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के सामान्य जीवन को बहाल करना और उसे एक अद्भुत मंजिल पर ले जाना)। “मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंजिल उसकी आयु, वरिष्ठता और उसके द्वारा सही गई पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता और सबसे कम इस आधार पर तय नहीं करता कि वह किस हद तक दया का पात्र है, बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। तुम लोगों को यह समझना चाहिए कि जो लोग परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण नहीं करते, वे सब दंडित भी किए जाएँगे। यह एक ऐसा तथ्य है जिसे कोई व्यक्ति नहीं बदल सकता” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि परमेश्वर आशा करता है कि जो लोग उसका अनुसरण करते हैं, वे उसके द्वारा पूर्ण होकर प्राप्त किए जा सकें। परमेश्वर किसी व्यक्ति की काबिलियत, आयु या उसके किए कर्तव्यों के प्रकार या संख्या को यह तय करने के लिए नहीं देखता कि उसे बचाया जा सकता है या नहीं। अगर कोई व्यक्ति ईमानदारी से अनुसरण करता है, परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो सकता है और अपने कर्तव्य निष्ठापूर्वक करता है, तो ऐसा व्यक्ति परमेश्वर द्वारा बचाया जाएगा। मैं अपनी ही धारणाओं में जी रही थी, यह सोचकर कि चूँकि मैं बूढ़ी हो रही थी, मुझे स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ थीं और मैं कई कर्तव्य नहीं कर पाती थी, इसलिए परमेश्वर मुझे स्वीकार नहीं करेगा और मुझे उद्धार की कोई उम्मीद नहीं होगी। मैं इतनी नकारात्मक हो गई कि मैंने अपनी सारी प्रेरणा खो दी। मैंने सत्य की खोज नहीं की और परमेश्वर को लौकिक संसार के किसी मालिक की तरह देखा, जो कर्मचारियों को तब रखता है जब वे योगदान देते हैं, लेकिन बुजुर्गों को निकाल देता है जब वे उपयोगी नहीं रह जाते। मैंने परमेश्वर को आँकने के लिए शैतान के परिप्रेक्ष्य का उपयोग किया और इसमें मैं गलत समझ रही थी और परमेश्वर के विरुद्ध ईशनिंदा कर रही थी! अब मैं समझ गई कि परमेश्वर उन लोगों को चाहता है जो सत्य का अनुसरण करते हैं, अपने स्वभाव में बदलाव चाहते हैं और जो उसके द्वारा प्राप्त किए जाते हैं। मैंने देखा कि जब तक मैं सत्य का अनुसरण करूँगी, परमेश्वर के वचनों पर ध्यान दूँगी और अपने कर्तव्य लगन से करूँगी, परमेश्वर मेरा त्याग नहीं करेगा। ठीक वैसे ही जैसे अब भले ही मैं समूह अगुआ या कलीसिया अगुआ न बन पाऊँ और दूसरे क्षेत्रों में अपने कर्तव्य न निभा सकूँ, फिर भी मैं सुसमाचार का प्रचार करने और उन भाई-बहनों का सहयोग करने की पूरी कोशिश कर सकती हूँ जो नकारात्मक और कमजोर महसूस कर रहे हैं। चाहे मैं कोई भी कर्तव्य करूँ, जब तक मैं अपना दिल सहयोग करने में लगाऊँगी, सत्य की खोज और अपने कर्तव्यों में सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने पर ध्यान केंद्रित करूँगी और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित रहूँगी, तो यह परमेश्वर के इरादे के अनुरूप होगा।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और मेरा दिल और भी उज्ज्वल हो गया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “ऐसा नहीं है कि बड़े-बूढ़ों के पास करने को कुछ नहीं है, न ही वे अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ हैं, उनके सत्य का अनुसरण करने में असमर्थ होने की तो बात ही नहीं उठती—उनके लिए करने को बहुत कुछ है। अपने जीवन में जो विविध मतांतर और भ्रांतियाँ तुमने पाल रखी हैं, साथ ही जो विविध पारंपरिक विचार और धारणाएँ, अज्ञानी, जिद्दी, दकियानूसी, अतार्किक और विकृत चीजें तुमने इकट्ठा कर रखी हैं, वे सब तुम्हारे दिल में जमा हो गई हैं, और तुम्हें युवाओं से भी ज्यादा वक्त इन चीजों को खोद निकालने, विश्लेषित करने और पहचानने में लगाना चाहिए। ऐसी बात नहीं है कि तुम्हारे पास कुछ करने को नहीं है, या कोई काम न होने पर तुम्हें संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव करना चाहिए—यह न तो तुम्हारा कार्य है न ही तुम्हारी जिम्मेदारी। अव्वल तो बड़े-बूढ़ों की मनःस्थिति सही होनी चाहिए। भले ही तुम्हारी उम्र बढ़ रही हो और शारीरिक रूप से तुम अपेक्षाकृत बूढ़े हो, फिर भी तुम्हें युवा मनःस्थिति रखनी चाहिए। भले ही तुम बूढ़े हो रहे हो, तुम्हारी सोचने की शक्ति धीमी हो गई है, तुम्हारी याददाश्त कमजोर है, फिर भी अगर तुम खुद को जान पाते हो, मेरी बातें समझ सकते हो, और सत्य को समझ सकते हो, तो इससे साबित होता है कि तुम बूढ़े नहीं हो, और तुम्हारी काबिलियत कम नहीं है। अगर कोई 70 की उम्र में होकर भी सत्य को नहीं समझ पाता, तो यह दिखाता है कि उसका आध्यात्मिक कद बहुत ही छोटा है, और कामकाज के लायक नहीं है। इसलिए सत्य की बात आने पर उम्र असंगत होती है और यही नहीं, भ्रष्ट स्वभावों के मामले में भी उम्र असंगत होती है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझाया कि भले ही लोगों की उम्र बढ़ने के साथ उनके शारीरिक क्रिया-कलाप कम हो जाएँ और वे कम कर्तव्य कर पाएँ, इसका मतलब यह नहीं है कि वे अब सत्य का अनुसरण नहीं कर सकते। युवा लोगों की तरह बुजुर्गों में भी कई भ्रष्ट स्वभाव होते हैं और उनमें कई तरह के शैतानी जहर इकट्ठे हो जाते हैं। उन्हें इन मुद्दों की गहराई से जाँच करने और उनका गहन-विश्लेषण करने में अधिक समय बिताना चाहिए। मैंने दशकों तक अहंकारी और धोखेबाज दोनों ही तरह का जीवन जिया है। मेरे भीतर कई तरह की पारंपरिक धारणाएँ और सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफे इकट्ठे हो गए हैं। इन सभी को सत्य की खोज करके हल करने की जरूरत है। कलीसिया की तरह ही एक बहन थी जो अक्सर सभाओं के दौरान बातें करती और विषय से भटक जाती थी, जिससे कलीसियाई जीवन में बाधा आती थी। मैं उसे इस बारे में बताना चाहती थी लेकिन उसे नाराज करने से डरती थी। मैं “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है” के शैतानी फलसफे के अनुसार जीती थी और इसलिए मैंने उसे यह कभी नहीं बताया। सभाओं के दौरान जब मैंने देखा कि कुछ भाई-बहन यह नहीं जानते कि अपनी दशाओं से संबंधित संगति कैसे करें, तो मुझे लगा कि मैं उनसे बेहतर संगति कर सकती हूँ और मैंने एक अहंकारी स्वभाव दिखाया, उनका तिरस्कार किया। इस बार भी यह देखते हुए कि मैं बूढ़ी हो रही थी, मुझे डर था कि मैं अपने कर्तव्य पूरे करने और बचाए जाने में सक्षम नहीं हो पाऊँगी, मैं इतनी नकारात्मक हो गई कि मैं अपने पैरों पर वापस भी नहीं खड़ी हो पाई। मुझे एहसास हुआ कि आशीष पाने की मेरी इच्छा बहुत तीव्र थी। इन सभी मुद्दों को सत्य की खोज करके हल करने की जरूरत थी। यह महसूस करते हुए मुझे अभ्यास का एक मार्ग मिल गया। भले ही मैं बूढ़ी हो रही हूँ, इसका मतलब यह नहीं है कि मेरे पास कोई कर्तव्य या करने को कुछ नहीं है। मुझे अपने दैनिक मामलों में अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानने और उसे ठीक करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। यह सब एक कर्तव्य है जो मुझे करना चाहिए। मैं लेख भी लिख सकती हूँ, भजन सीख सकती हूँ, नृत्य सीख सकती हूँ और सुसमाचार का प्रचार कर सकती हूँ। ऐसे कई कर्तव्य हैं जो मैं कर सकती हूँ! इसके बाद मैंने अपने दैनिक मामलों में अपनी भ्रष्टता को जानने पर ध्यान केंद्रित किया। शाम को मैं इसे लिखती और इसे हल करने के लिए परमेश्वर के वचनों को ढूँढ़ती और फिर अपनी अनुभवजन्य समझ को लिखती। कुछ ही समय बाद जब मेरा स्वास्थ्य ठीक हो गया, तो मैंने अपना मेजबानी का कर्तव्य फिर से शुरू कर दिया। मैंने सोचा कि इस मेजबानी घर की अच्छी तरह से सुरक्षा कैसे की जाए ताकि भाई-बहन बिना किसी चिंता के इकट्ठे हो सकें। जब तक मैं जीवित हूँ, मैं अपना कर्तव्य निभाती रहूँगी। भले ही मैं भविष्य में अपने कर्तव्य न कर सकूँ, मैं अपनी भ्रष्टता दूर करने और परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने के लिए परमेश्वर के वचनों को खाना-पीना जारी रखूँगी।