66. हीन भावना से बाहर निकलना
2022 में मैं कलीसिया में नवागंतुकों का सिंचन कर रही थी और मुझे पता था कि यह परमेश्वर का उत्कर्ष है, इसलिए मैंने इस प्रशिक्षण अवसर को सँजोने और राज्य का सुसमाचार फैलाने में अपना योगदान देने का संकल्प लिया। बाद में मैंने बहन झांग शिन के साथ सहयोग किया। मैंने पाया कि वह सत्य पर बहुत स्पष्ट रूप से संगति करती है, नवागंतुकों का सिंचन उनकी जरूरत के अनुसार करती है और उनके विशिष्ट मसले हल करती है। कभी-कभी मैं कुछ मामलों की असलियत नहीं जान पाती थी, लेकिन वह आसानी से उन पर संगति करके उन्हें हल कर पाती थी। इस तरह मुझे लगा कि वह सत्य समझती है और उसके पास वास्तविकता है और मैं उसकी तुलना में फीकी हूँ। मैं उसकी प्रशंसक भी थी और उससे जलती भी थी। मैंने सोचा, “झांग शिन बहुत कुछ समझती है! मैं जो चीजें जानती हूँ, वे उनकी तुलना में महत्वहीन हैं। अगर हम एक साथ सभा में संगति करते हैं, तो क्या वह यह नहीं सोचेगी कि मेरा स्तर बहुत निम्न है और जान जाएगी कि मैं वास्तव में क्या हूँ?” इसलिए जब हम एक साथ मुद्दों पर चर्चा करते थे, तो मैं बस उसकी संगति को एक रेडियो की तरह सुनती थी और बहुत कम बोलती थी ताकि वह मेरी उथली संगति के लिए मेरी हँसी न उड़ाए। बाद में मैंने देखा कि वह अक्सर सभाओं में दिखावा करती है, ऐसी बातें करती है कि कैसे एक बहन विशेष द्वारा सिंचित नवागंतुकों की दशा खराब है, कैसे उसने आने के बाद उन्हें वापस पटरी पर लाने में मदद की, कैसे जब उसने देखा कि कुछ भाई-बहन निराश हो गए हैं, तो उसने उन्हें उनकी नकारात्मकता और गलतफहमियों से बाहर निकालने के लिए सत्य की संगति की और कैसे उसने तब मदद की जब कलीसिया के अगुआ कलीसिया के कार्य से अभिभूत थे। मैं झांग शिन को यह बताना चाहती थी, लेकिन फिर मैंने सोचा, “उसके पास वाकई वास्तविक अनुभव हैं और उसकी संगति समस्याओं को प्रभावी ढंग से हल करती है। अगर मैंने गलत तरीके से उसके मसले बताए तो वह मेरे बारे में क्या सोचेगी?” इसलिए मैंने उसकी समस्याएँ नहीं बताईं।
बाद में जब एक पर्यवेक्षक ने झांग शिन की भावनाओं पर विचार किए बिना कुछ कहा, तो झांग शिन ने उसके खिलाफ पूर्वाग्रह बना लिया कि वह लोगों और चीजों में बहुत अधिक मीन-मेख निकाल रहा है। मैं उसके साथ संगति कर उसकी समस्याएँ बताना चाहती थी, लेकिन फिर मैंने सोचा, “झांग शिन मुझसे बेहतर सत्य समझती है, क्या उसे अभी भी मेरे मार्गदर्शन की जरूरत है? क्या मैं एक विशेषज्ञ के सामने दिखावा नहीं कर रही हूँ? मैं खुद चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाती और सत्य के बारे में मेरी समझ बहुत उथली है। अगर मेरी संगति अस्पष्ट हुई तो क्या वह मेरी असलियत नहीं जान जाएगी?” मैंने इस मामले के बारे में बार-बार सोचा, लेकिन आखिर में अपनी बात को दबा लिया। दोपहर के आसपास मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जो उसकी दशा के लिए काफी प्रासंगिक था। मैं उसके साथ संगति करने ही वाली थी कि एक विचार मेरे मन में आया : “झांग शिन की परमेश्वर के वचनों की समझ मुझसे कहीं बेहतर है, क्या उसे मेरी संगति की जरूरत है जबकि वह पहले से ही सब कुछ जानती है? बेहतर होगा कि उसे परमेश्वर के वचन खुद ही पढ़ने दिए जाएँ, इससे उसे मदद मिलेगी और मेरी कमियाँ उजागर नहीं होंगी।” इसे ध्यान में रखकर मैंने उससे कहा, “परमेश्वर के वचनों का यह अंश वाकई अच्छा है, इसे पढ़ना।” मुझे उम्मीद थी कि वह अंश पढ़ने के बाद अपनी गलत दशा पहचान जाएगी, लेकिन मुझे आश्चर्य हुआ कि उसने इसे पढ़ने के बाद कुछ भी नहीं कहा। मैं थोड़ी निराश हो गई और उसके साथ संगति करना चाहती थी, लेकिन फिर मैंने सोचा, “परमेश्वर के वचनों के बारे में मेरी समझ काफी सतही है और मैं कुछ भी व्यावहारिक संगति नहीं कर पाऊँगी। मुझे बस थोड़ा आत्म-ज्ञान होना चाहिए।” इस बात के मद्देनजर मैंने तुरंत झांग शिन के साथ संगति करने का विचार त्याग दिया और सोचा कि भले ही वह भ्रष्ट स्वभाव में जी रही है, लेकिन वह धीरे-धीरे अपनी समस्याएँ पहचान जाएगी और खुद ही उन्हें हल कर लेगी क्योंकि वह बहुत कुछ समझती है। लेकिन जैसा मैंने सोचा था वैसा कुछ नहीं हुआ। झांग शिन अक्सर इस मामले का जिक्र करती थी, लेकिन वह खुद को पहचान नहीं पा रही थी और इसके बजाय उसकी संगति ने लोगों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि समस्या पर्यवेक्षक के साथ है और उसकी भ्रष्टता के खुलासे किसी वजह से हैं। कभी-कभी सभाओं के दौरान वह इस मामले का जिक्र भी करती थी जिससे विघ्न-बाधाएँ पैदा हो जाती थीं। मैं वास्तव में उसके साथ इन मसलों पर संगति करना चाहती थी, लेकिन जब भी मैं बोलने की कोशिश करती तो लगता जैसे मेरे गले में कुछ अटक गया है और मुझे हमेशा लगता कि झांग शिन मुझसे कहीं अधिक समझती है और उसके साथ संगति करना अपनी दादी को चलना सिखाने जैसा होगा। मैंने आखिरकार संगति न करने का फैसला किया और मामला ऐसे ही निकल गया। बाद में जब एक अगुआ हमारी सभा में आया तो उसने संगति की और झांग शिन के मसले उजागर किए और झांग शिन ने इसे स्वीकार कर लिया। तब जाकर मैंने आत्म-चिंतन करना शुरू किया।
कुछ दिन बाद मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े और अपनी दशा के बारे में कुछ समझ प्राप्त की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब कायर लोगों के सामने कोई कठिनाई आती है, तो उन्हें कुछ भी हो जाए, वे पीछे हट जाते हैं। वे ऐसा क्यों करते हैं? एक तो यह उनकी हीनभावना के कारण होता है। हीनभावना से ग्रस्त होने के कारण वे लोगों के सामने जाने की हिम्मत नहीं करते, वो दायित्व और जिम्मेदारियाँ भी नहीं ले सकते जो उन्हें लेनी चाहिए, न ही वे वो चीजें हासिल कर पाते हैं जो वे अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार और अपनी मानवता के अनुभव के दायरे के भीतर प्राप्त करने में सक्षम हैं। यह हीनभावना उनकी मानवता के हर पहलू को प्रभावित करती है और स्पष्ट रूप से उनके चरित्र को भी प्रभावित करती है। दूसरे लोगों के साथ होने पर, वे विरले ही अपने विचार व्यक्त करते हैं, और उन्हें शायद ही कभी अपने दृष्टिकोण या राय के बारे में स्पष्टीकरण देते हुए देखा जा सकता है। जब किसी मसले से उनका सामना होता है, तो वे बोलने की हिम्मत नहीं करते, बल्कि इसके बजाय निरंतर पीछे हट जाते हैं। थोड़े-से लोगों के बीच तो वे बैठने का साहस दिखाते हैं, लेकिन जब ज्यादा लोग होते हैं, तो वे अंधेरे कोने में दुबक जाते हैं, दूसरे लोगों के बीच आने की हिम्मत नहीं करते। जब कभी वे यह दिखाने के लिए कि उनकी सोच सही है, सकारात्मक और सक्रिय रूप से कुछ कहना और अपने विचार और राय व्यक्त करना चाहते हैं, तब उनमें ऐसा करने की भी हिम्मत नहीं होती। जब कभी उनके मन में ऐसे विचार आते हैं, उनकी हीनभावना एक ही बार में उफन पड़ती है, उन पर नियंत्रण कर उन्हें दबा देती है और कहती है, ‘कुछ मत कहो, तुम किसी काम के नहीं हो। अपने विचार व्यक्त मत करो, अपने तक ही रखो। अगर तुम सचमुच अपने दिल की कोई बात कहना चाहते हो, तो कंप्यूटर पर लिखकर उस बारे में खुद ही मनन करो। तुम्हें इस बारे में किसी और को जानने नहीं देना चाहिए। तुमने कुछ गलत कह दिया तो क्या होगा? यह बड़ी शर्मिंदगी की बात होगी!’ यह आवाज तुमसे कहती रहती है, यह मत करो, वह मत करो, यह मत बोलो, वह मत बोलो, जिस वजह से तुम्हें अपनी हर बात निगलनी पड़ती है। जब तुम ऐसी कोई बात कहना चाहते हो जिस पर तुमने मन-ही-मन बहुत मनन किया है, तब तुम पीछे हट जाते हो, कहने की हिम्मत नहीं करते या कहने में शर्मिंदा महसूस करते हो, यह सोचते हो कि तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए, और अगर ऐसा कर देते हो, तो तुम्हें लगता है कि तुमने कोई नियम तोड़ा है या कानून का उल्लंघन किया है। और जब किसी दिन तुम सक्रिय होकर अपने विचार व्यक्त कर देते हो, तो भीतर गहराई में बेहद बेचैन और विचलित हो जाते हो। हालाँकि अत्यधिक बेचैनी की यह भावना धीरे-धीरे धूमिल हो जाती है, फिर भी तुम्हारी हीनभावना धीरे-धीरे बोलने, विचारों को व्यक्त करने, एक सामान्य व्यक्ति बनने और बाकी सभी की तरह बनने की तुम्हारी इच्छा, विचारों, इरादों और योजनाओं को दबा देती है। जो लोग तुम्हें नहीं समझते उन्हें लगता है कि तुम कम बोलने वाले, शांत, संकोची, भीड़ में अलग न दिखने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति हो। जब तुम बहुत-से दूसरे लोगों के सामने बोलते हो, तो तुम्हें शर्मिंदगी महसूस होती है, और तुम्हारा चेहरा लाल हो जाता है; तुम थोड़े अंतर्मुखी हो, वास्तव में सिर्फ तुम्हीं जानते हो कि तुम हीनभावना से ग्रस्त हो। ... कुछ लोग कहते हैं, ‘मुझे नहीं लगता कि मैं हीन हूँ, और मैं किसी प्रकार की बाध्यता के अधीन नहीं हूँ। किसी ने भी मुझे उकसाया नहीं है, न नीचा दिखाया है, और न ही किसी ने मुझे दबाया है। मैं बड़ी आजादी के साथ जीता हूँ, तो क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि मुझमें यह हीनभावना नहीं है?’ क्या यह सही है? (नहीं, कभी-कभी हममें तब भी हीनभावना होती है।) तुममें कमोबेश यह अब भी हो सकती है। शायद यह तुम्हारे अंतरतम पर हावी न हो, लेकिन कुछ स्थितियों में यह पल भर में पैदा हो सकती है। उदाहरण के लिए, तुम जिसे आदर्श मानते हो, जो तुमसे बहुत अधिक प्रतिभाशाली हो, जिसमें तुमसे अधिक विशेष कौशल और गुण हों, जो तुमसे ज्यादा दबंग हो, तुमसे ज्यादा रोबदार हो, तुमसे ज्यादा बुरा हो, तुमसे ज्यादा लंबा और तुमसे ज्यादा आकर्षक हो, जिसकी समाज में हैसियत हो, अमीर हो, तुमसे अधिक पढ़ा-लिखा, और रुतबे वाला हो, जो तुमसे बड़ा हो और जिसने तुमसे ज्यादा लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, जिसमें परमेश्वर की आस्था का ज्यादा अनुभव और वास्तविकता हो, ऐसा कोई व्यक्ति तुम्हारे सामने आ जाए, तो तुम अपनी हीनभावना को सिर उठाने से नहीं रोक सकते। जब यह भावना पैदा होती है, तो तुम्हारा ‘बड़ी आजादी के साथ जीना’ गायब हो जाता है, तुम दब्बू हो जाते हो, घबराने लगते हो, तुम सोचने लगते हो कि अपनी बात कैसे कहूँ, तुम्हारे चेहरे के हावभाव अस्वाभाविक हो जाते हैं, तुम अपने बोल और चाल-ढाल में बाधित महसूस करते हो, और खुद को वैसा दिखाने की कोशिश करने लगते हो जैसे तुम नहीं हो। ये और दूसरी अभिव्यक्तियाँ तुममें हीनभावना पैदा होने के कारण होती हैं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मैंने देखा कि हीन भावना वाले लोग हमेशा महसूस करते हैं कि वे दूसरों की तरह अच्छे नहीं हैं और इसलिए अपनी राय जताने की हिम्मत नहीं करते। खास तौर पर जब वे ऐसे लोगों से मिलते हैं जो उनसे अधिक योग्य और प्रतिभाशाली होते हैं तो वे और ज्यादा डरपोक बन जाते हैं और हिम्मत हार जाते हैं और यदि वे दूसरे व्यक्ति में समस्याएँ देखते भी हैं, तो बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। वे बहुत ज्यादा सतर्क और आशंकित रहते हैं और इसीलिए वे कलीसिया के हितों की रक्षा करने में असमर्थ होते हैं। झांग शिन के साथ अपने सहयोग पर आत्म-चिंतन करते हुए जब मैंने देखा कि वह ज्यादा समझदार है और अच्छी तरह से संगति करती है और विशेष रूप से वह नवागंतुकों की उठाई गई सभी समस्याएँ हल कर सकती है और उसकी संगति में एक स्पष्ट मार्ग है, तो मुझे लगा कि उसके पास सत्य वास्तविकताएँ हैं और उसकी तुलना में मैं बहुत पीछे हूँ। जो मैं जानती थी वह उसकी समझ की तुलना में बिल्कुल महत्वहीन लगा और संगति में चीजें सामने लाने में भी मुझे शर्म आती थी। उसके सामने मैं खुद को एक प्राथमिक छात्र की तरह पाती थी जिसे बस उसकी बात ध्यान से सुननी चाहिए, इस कारण मैं हीनता की दशा में रहने लगी। जब हम समस्याओं पर चर्चा करते तो अपनी हीन भावनाओं के कारण मैं ऐसे जताती मानो मैं कोई रेडियो हूँ, अधिकतर मैं सिर्फ उसकी बात सुनती थी और अपने विचार व्यक्त नहीं करती थी। मैं झांग शिन को अक्सर दिखावा करते देखती थी, लेकिन उसे यह बताने या मदद करने से गुरेज करती थी, मैं सोचती थी कि उसके पास सत्य वास्तविकताएँ हैं और वह अपने कर्तव्य में नतीजे प्राप्त कर रही है और उसके लिए थोड़ा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करना सामान्य बात है। झांग शिन लोगों और चीजों को लेकर बहुत सोच-विचार करती थी और उसने पर्यवेक्षक के खिलाफ पूर्वाग्रह पैदा कर लिए थे और मुझे पता था कि मुझे उसके साथ संगति करनी चाहिए ताकि उसे इस पर आत्म-चिंतन करने और इससे सबक सीखने में मदद मिल सके, लेकिन मुझे लगा कि वह चीजों की असलियत मुझसे बेहतर ढंग से जान पाती है और यह कि मेरा ज्ञान और समझ सिर्फ औसत दर्जे के हैं और मैं उसके स्तर की नहीं हूँ, इसलिए मुझे लगता कि मैं उसके साथ संगति करने योग्य नहीं हूँ। अपनी हीन भावना के कारण मैंने उसकी समस्याएँ देखने पर भी बोलने की हिम्मत नहीं की, मैं डरपोक बन गई और उसके सामने साहस खो बैठी और मैंने अपनी कुछ राय के बारे में संगति करने के विचार भी छोड़ दिए। वास्तव में एक सामान्य तर्कसंगत व्यक्ति के रूप में चाहे हम जितनी भी अच्छी संगति क्यों न करें, अगर हमें कोई समस्या दिखती है तो हमें अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए और जितना हो सके उस पर संगति करनी चाहिए। यह भी सत्य के एक पहलू का अभ्यास करना है। लेकिन अपनी हीन भावनाओं के कारण मैं झांग शिन की समस्याओं के बारे में कुछ भी कहने या उन्हें बताने का साहस नहीं कर पाई और जो मैं कर सकती थी वह भी करने में नाकाम रही। यह एहसास होने पर मुझे काफी पछतावा हुआ और मैंने अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना की, और संकल्प लिया कि चाहे कोई भी हो, अगर उस व्यक्ति में मुझे समस्याएँ नजर आएँगी तो मैं संगति करूँगी और उसकी मदद करूँगी और हीन भावनाओं से बँधी नहीं रहूँगी।
बाद में मैंने अपने हृदय में प्रार्थना कर यह भी पता लगाया कि मैं अपने से बेहतर लोगों के सामने इतनी हीन क्यों महसूस करती हूँ। एक सभा के दौरान मैंने अपनी दशा के बारे में संगति की। एक बहन ने मेरे मसले बताते हुए कहा कहा कि मैं अपने घमंड और रुतबे को बहुत अधिक महत्व देती हूँ और मुझे बोलने के परिणामस्वरूप अपमानित होने और अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा गँवाने का डर रहता है। बहन का मार्गदर्शन सुनने के बाद मैंने सचेत रूप से इस संबंध में परमेश्वर के वचन खाने और पीने पर ध्यान केंद्रित किया। एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “सत्य की खोज करने के बजाय, अधिकतर लोगों के अपने तुच्छ एजेंडे होते हैं। अपने हित, इज्जत और दूसरे लोगों के मन में जो स्थान या प्रतिष्ठा वे रखते हैं, उनके लिए बहुत महत्व रखते हैं। वे केवल इन्हीं चीजों को सँजोते हैं। वे इन चीजों पर मजबूत पकड़ बनाए रखते हैं और इन्हें ही बस अपना जीवन मानते हैं। और परमेश्वर उन्हें कैसे देखता या उनसे कैसे पेश आता है, इसका महत्व उनके लिए गौण होता है; फिलहाल वे उसे नजरअंदाज कर देते हैं; फिलहाल वे केवल इस बात पर विचार करते हैं कि क्या वे समूह के मुखिया हैं, क्या दूसरे लोग उनकी प्रशंसा करते हैं और क्या उनकी बात में वजन है। उनकी पहली चिंता उस पद पर कब्जा जमाना है। जब वे किसी समूह में होते हैं, तो प्रायः सभी लोग इसी प्रकार की प्रतिष्ठा, इसी प्रकार के अवसर तलाशते हैं। अगर वे अत्यधिक प्रतिभाशाली होते हैं, तब तो शीर्षस्थ होना चाहते ही हैं, लेकिन अगर वे औसत क्षमता के भी होते हैं, तो भी वे समूह में उच्च पद पर कब्जा रखना चाहते हैं; और अगर वे औसत क्षमता और योग्यताओं के होने के कारण समूह में निम्न पद धारण करते हैं, तो भी वे यह चाहते हैं कि दूसरे उनका आदर करें, वे नहीं चाहते कि दूसरे उन्हें नीची निगाह से देखें। इन लोगों की इज्जत और गरिमा ही होती है, जहाँ वे सीमा-रेखा खींचते हैं : उन्हें इन चीजों को कसकर पकड़ना होता है। भले ही उनमें कोई सत्यनिष्ठा न हो, और न ही परमेश्वर की स्वीकृति या अनुमोदन हो, मगर वे उस आदर, हैसियत और सम्मान को बिल्कुल नहीं खो सकते जिसके लिए उन्होंने दूसरों के बीच कोशिश की है—जो शैतान का स्वभाव है। मगर लोग इसके प्रति जागरूक नहीं होते। उनका विश्वास है कि उन्हें इस इज्जत की रद्दी से अंत तक चिपके रहना चाहिए। वे नहीं जानते कि ये बेकार और सतही चीजें पूरी तरह से त्यागकर और एक तरफ रखकर ही वे असली इंसान बन पाएंगे। यदि कोई व्यक्ति जीवन समझकर इन त्यागे जाने योग्य चीजों को बचाता है तो उसका जीवन बर्बाद हो जाता है। वे नहीं जानते कि दाँव पर क्या लगा है। इसीलिए, जब वे कार्य करते हैं तो हमेशा कुछ छिपा लेते हैं, वे हमेशा अपनी इज्जत और हैसियत बचाने की कोशिश करते हैं, वे इन्हें पहले रखते हैं, वे केवल अपने झूठे बचाव के लिए, अपने उद्देश्यों के लिए बोलते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं, अपने लिए करते हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि भ्रष्ट मानवता को अपने अहंकार और रुतबे से बेहद लगाव होता है वह लोगों के दिलों में अच्छी छवि बनाना चाहती है, जिनके पास कौशल और मजबूत कार्य क्षमताएँ होती हैं, वे दूसरों के बीच ऊँचा रुतबा और ऊँचा सम्मान चाहते हैं। यहाँ तक कि औसत कार्य क्षमता वाले लोग भी दूसरों के अधीन होने या दूसरों द्वारा नीची नजर से देखे जाने के लिए तैयार नहीं होते और भले ही इसका मतलब कलीसिया के हितों का बलिदान करना हो, फिर भी वे अपना अहंकार और रुतबा बनाए रखना चाहते हैं। मैं इसी तरह की मनोदशा में थी। हालाँकि मुझे पता था कि मेरे पास बहुत कम कार्य क्षमताएँ हैं, लेकिन जब भी हालात से सामना होता था, तो मैं सबसे पहले अपने अहंकार और रुतबे के बारे में सोचती थी और भले ही मैं दूसरों की प्रशंसा प्राप्त न कर पाऊँ, कम से कम मैं नीची नजर से नहीं देखे जाना चाहती थी। मुझे लगता था कि यह गरिमा और ईमानदारी के साथ जीना है। मैं शैतान के जीवित रहने के नियमों के अनुसार जी रही थी जैसे “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,” और “एक व्यक्ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है,” मैं अपने अहंकार और रुतबे को काफी महत्व देती थी और हर समय अपने अहंकार और रुतबे को बनाए रखना चाहती थी। भले ही मैं दूसरों जितनी अच्छी न भी होऊँ, फिर भी मैं लोगों पर अपने बारे में अच्छी छाप छोड़ना चाहती थी। मैं हमेशा अपने बारे में दूसरों की राय को लेकर बहुत चिंतित रहती थी। जब मैं ऐसे लोगों से मिलती थी जो मुझ जितने अच्छे नहीं होते थे, तो मुझे कोई आशंका नहीं होती थी और मैं अपनी राय खुलकर व्यक्त कर पाती थी, लेकिन जब भी मैं ऐसे लोगों को देखती जो विभिन्न तरीकों में मुझसे बेहतर थे, तो मैं बचने की रणनीति अपना लेती थी, बोलने से बचने की पूरी कोशिश करती थी, अपनी कमियाँ और कमजोरियाँ छिपाती थी और दूसरों को अपने नकारात्मक पहलू नहीं देखने देती थी ताकि कम से कम जब मेरा जिक्र हो तो मेरा अच्छा मूल्यांकन हो, अन्यथा मैं वास्तव में अपना सम्मान खो देती! मुझे वह समय याद आया जब एक मेजबान बहन नकारात्मक दशा में जी रही थी और मैं उसके साथ परमेश्वर के वचनों की संगति करने में सक्षम थी। मैंने बिना किसी आशंका के जितना संभव हुआ, उतनी संगति की और मेरी संगति के बाद बहन की दशा में सुधार हुआ। लेकिन जब झांग शिन की बात आई, तो मैंने देखा कि वह हर तरह से मुझसे बेहतर थी और इसलिए मुझे डर हुआ कि वह मुझे नीची नजर से देखेगी। यहाँ तक कि जब मैंने कुछ मसले देखे, तब भी मैंने उन्हें बताने की हिम्मत नहीं कर पाई। ऐसा लगा जैसे मेरे मुँह पर ताला जड़ दिया गया हो। इससे न केवल झांग शिन के जीवन प्रवेश को कोई फायदा नहीं हुआ, बल्कि कलीसिया के कार्य पर भी असर पड़ा। मैंने अपने अहंकार और रुतबे को बहुत अधिक महत्व दे दिया था! इसका एहसास होने पर मुझे वाकई बहुत पछतावा हुआ और मैं प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आई, “परमेश्वर, मैं इस तरह से आगे नहीं बढ़ना चाहती, मैं पश्चात्ताप करने को तैयार हूँ और अपने मसले हल करने में तुम्हारा मार्गदर्शन चाहती हूँ।”
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “सत्य के सामने हर कोई बराबर है और परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाने वालों के लिए उम्र या नीचता और कुलीनता का कोई भेद नहीं है। अपने कर्तव्य के सामने हर कोई बराबर है, वे बस अलग-अलग काम करते हैं। वरिष्ठता के आधार पर उनके बीच कोई भेद नहीं है। सत्य के सामने सबको विनम्र, आज्ञाकारी और स्वीकारने वाला दिल रखना चाहिए। लोगों में यही सूझ-बूझ और रवैया होना चाहिए” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग आठ))। परमेश्वर के वचन हमें बताते हैं कि सत्य के सामने हर कोई बराबर है, ऊँचे या नीचे रुतबे जैसी कोई चीज नहीं होती, न ही योग्यता में कोई भेद होता है। जब भाई-बहन कर्तव्यों में सहयोग करते हैं, तो सभी को भाग लेना चाहिए और हालात का सामना करने पर सक्रिय रूप से अपने विचार व्यक्त करने चाहिए। भले ही उनकी संगति उथली हो, फिर भी उन्हें उतना योगदान तो देना ही चाहिए जितना दे सकते हैं; समस्याओं का पता चलने पर उन्हें समय रहते कलीसिया के कार्य की रक्षा के लिए उठाना चाहिए, न कि मूकदर्शक बने रहना चाहिए। परमेश्वर के हर विश्वासी को यही रवैया अपनाना चाहिए। जैसे झांग शिन के साथ मेरे सहयोग में हालाँकि उसने मुझसे ज्यादा स्पष्ट रूप से सत्य की संगति की, पर उसमें भी कमियाँ थीं और उसने भ्रष्टता का खुलासा किया था। जब मैंने उसे भ्रष्टता का खुलासा करते या कलीसिया के कार्य के लिए हानिकारक तरीके से बोलते और काम करते देखा, तो मुझे चुपचाप नहीं रहना चाहिए था, बल्कि मैंने जो देखा और समझा, उस पर मुझे संगति करनी चाहिए थी और अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए थी। लेकिन मैंने लोगों और चीजों को सांसारिक परिप्रेक्ष्य में देखा, लोगों के बीच ऊँचे और नीचे रुतबे, योग्यता और ताकत और कमजोरियों के भेद पर यकीन किया, जहाँ कमजोर को हमेशा मजबूत के खिलाफ आपत्ति उठाने लायक नहीं माना जाता और जब वे ऐसा करते हैं, तो इसे अपनी औकात न जानने की तरह देखा जाता है और इससे बहिष्कार भी हो सकता है। मेरा दृष्टिकोण वास्तव में बेतुका था! वास्तव में भले ही कोई अपनी संगति में रोशन हो और उसे सत्य की कुछ समझ हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह पूर्ण है। चूँकि हर किसी के पास भ्रष्ट स्वभाव होते हैं और वह अक्सर भ्रष्टता का खुलासा करता है, अभिमानी और दंभी होने और मनमर्जी से कार्य करने के कारण आपसी सुधार और सहायता की जरूरत होती है। यह न्याय का कार्य है जो परमेश्वर के घर के हितों को बनाए रखता है और लोगों के जीवन को लाभ पहुँचाता है।
आगे से अपना कर्तव्य निभाते हुए मैं अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करने लगी और अब अपने अहंकार या रुतबे में लाभ-हानि की चिंता नहीं करती थी। भाई-बहनों के साथ बातचीत करते समय चाहे दूसरा व्यक्ति मुझसे श्रेष्ठ ही क्यों न हो, मैं उसके साथ सही ढंग से पेश आती थी और जब भी मैं देखती थी कि कुछ ऐसा किया जा रहा है जो सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, तो मैं उन्हें बताती, सभी के साथ खोज करती और संगति करती थी। जब मैं इस तरह से अभ्यास करती थी, तो मैं विशेष रूप से राहत और मुक्ति महसूस करती थी। बाद में मेरी मुलाकात बहन लियू हुई से हुई, जिसने कई साल पहले मेरा सिंचन किया था। वह लंबे समय से अपने कर्तव्य निभा रही थी और अच्छी तरह से संगति कर सकती थी और उस समय मैं उससे ईर्ष्या करती थी। इस बार जब मैंने लियू हुई के साथ फिर से बातचीत की, तो उसकी संगति स्पष्ट और व्यवस्थित थी और उसकी तुलना में मुझे अभी भी खुद में कमी महसूस हुई। एक बहन ऐसी थी कि काट-छाँट होने पर वह हमेशा बहस करती थी और लियू हुई ने इस तरह से आगे बढ़ने के परिणामों के बारे में संगति की और यह सुनकर बहन काफी डर गई। हालाँकि मुझे लगा कि समस्या हल करने के लिए लियू हुई का तरीका कोई मार्ग नहीं दिखाता और उसने परमेश्वर के वचन लागू करने या परमेश्वर के वचनों की गवाही देने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया था, इसलिए इससे परमेश्वर की गवाही देने का प्रभाव प्राप्त नहीं हुआ। मैं उसे यह बताना चाहती थी, लेकिन फिर मैंने सोचा, “भले ही मैं अगुआई का कर्तव्य करती हूँ, फिर भी हमारे बीच काफी अंतर है और लियू हुई ने शायद पहले ही सोच लिया होगा कि मैं क्या कहना चाहती हूँ। बेहतर है कि मैं कुछ न कहूँ।” उस पल मुझे एहसास हुआ कि मैं एक बार फिर हीन भावनाओं से बेबस हो रही हूँ। हीन भावनाओं के कारण अपने कर्तव्य पूरे करने में मेरी नाकामी के दृश्य मेरी आँखों के सामने घूम गए और मैंने सोचा, “मैं अब इस हीनता में नहीं रह सकती और मुझे अपने अहंकार और रुतबे को छोड़ना होगा। चाहे लियू हुई मुझे कैसे भी देखे, मुझे जो समझ में आता है, उस पर संगति करनी चाहिए, अपनी बहन के साथ प्रवेश करना चाहिए और कोई पछतावा नहीं छोड़ना चाहिए।” इसलिए मैंने उन मसलों की ओर इशारा किया जो मैंने देखे थे। सुनने के बाद लियू हुई ने कहा कि मैंने जो कहा वह सही है और इस तरह से एक-दूसरे की ताकत का पूरक बनाना और सामंजस्यपूर्ण सहयोग बहुत अच्छा है और यह उसके जीवन प्रवेश के लिए फायदेमंद है। मैं हीन भावना की इस दशा से उबरने और अपना अहंकार और रुतबा छोड़ने में सक्षम हो पाई— यह परिवर्तन परमेश्वर के कार्य का नतीजा था। परमेश्वर का धन्यवाद!