69. जब मुझे पता चला मेरी पत्नी को बहिष्कृत किया जाना है
मार्च 2021 में मुझे कलीसिया के अगुआओं से एक पत्र मिला, जिसमें मुझसे अपनी पत्नी के छद्म-विश्वासी के बतौर व्यवहार का ब्योरा देने को कहा गया था। मुझे पता था कि मेरी पत्नी वास्तव में छद्म-विश्वासी थी और परमेश्वर के घर से बाहर निकाले जाने के मानदंड पूरे करती थी। उसने कई वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास किया था, लेकिन कभी सत्य का अनुसरण नहीं किया, वह हमेशा सांसारिक प्रवृत्तियों और धन के पीछे भागती रही और सुख खोजती रही। न केवल वह कलीसिया की सभाओं में जाने को तैयार नहीं होती थी, बल्कि उसने कभी प्रार्थना नहीं की या परमेश्वर के वचन नहीं खाए-पिए और कर्तव्य करने में भी अनिच्छुक थी। जब मैंने और भाई-बहनों ने उसके साथ सत्य का अनुसरण करने और कर्तव्य निभाने के महत्व को लेकर संगति की तो उसने इसे बिल्कुल भी दिल से नहीं लिया। वह न केवल खुद सत्य का अनुसरण नहीं करती थी, बल्कि मुझसे भी हमेशा यह कहती थी, “तुम्हें इतनी लगन से सत्य का अनुसरण करने की जरूरत नहीं है—बस साथ चलना ही काफी है।” जब मैं उसकी बात नहीं सुनता था, तो वह अक्सर मुझ पर नाराज हो जाती, जिससे मैं काफी बेबस महसूस करता था। मुझे पता था कि मुझे अपनी पत्नी के व्यवहार को सच-सच लिखना चाहिए, लेकिन जब कागज पर लिखने का समय आया तो मैं झिझक गया, सोचने लगा, “हमारी शादी को लगभग दस साल हो चुके हैं। भले ही मेरी पत्नी सत्य का अनुसरण नहीं करती है लेकिन मेरे साथ और मेरे माता-पिता के साथ उसका व्यवहार काफी अच्छा है। वह अपने लिए बढ़िया कपड़े खरीदते समय मितव्ययी बनी रहती है, पर मेरे और मेरे माता-पिता के लिए खरीदारी करते समय उदार होती है। अब जब उसे बाहर निकाला जाने वाला है, तो न केवल मैं उसकी मदद के लिए कुछ नहीं कर सकता, बल्कि मुझे खुद भी उसे उजागर करना होगा। यह दिल दहला देने वाला लगता है। इसके अलावा अगर मेरी पत्नी को पता चला कि मैंने ही उसके व्यवहार को उजागर किया है, तो वह निश्चित रूप से इतना हृदयहीन होने पर मुझ पर नाराज होगी। मैं भविष्य में उसका सामना कैसे करूँगा?” फिर मैंने यह भी सोचा, “भले ही मेरी पत्नी सत्य का अनुसरण न करे, लेकिन उसने कभी कोई बुरा काम नहीं किया है, इसलिए उसे कलीसिया में रखने से कोई नुकसान नहीं होगा। अगर वह कलीसिया में रहती है, तो मैं उसे पत्र लिखना और उसकी मदद करना जारी रख सकता हूँ और वह दुनिया के पीछे भागने के लिए पूरी तरह से परमेश्वर को नहीं छोड़ेगी। शायद अभी भी उसके बचे रहने की थोड़ी सी संभावना है। लेकिन अगर उसे पता है कि उसे बाहर निकाला जाना है, तो वह खुद निराशा में डूब सकती है, पूरी तरह से परमेश्वर को छोड़ सकती है और सांसारिक प्रवृत्तियों का अनुसरण कर सकती है।” यह सोचकर मैंने खुद को दुविधा में फँसा हुआ पाया—एक तरफ पारिवारिक स्नेह था और दूसरी तरफ कलीसिया के हित। मुझे क्या चुनना चाहिए? उन दिनों मैं बस इस पूरे मसले से बचना चाहता था, इसलिए मैंने खुद को अपने काम में डुबो दिया। लेकिन जब भी मैं काम खत्म करके शांत होता तो मैं यह सोचता, “अगर अगुआ देखते हैं कि मैंने अभी तक मूल्यांकन नहीं लिखा है तो क्या उन्हें लगेगा कि मैं बहुत ही भावुक हो गया हूँ? इसके अलावा कलीसिया के सफाई कार्य पर किसी का निजी दृष्टिकोण और रुख महत्वपूर्ण होता है। सिद्धांतों के मुताबिक चलने और कलीसिया के कार्य की रक्षा करने में विफल होना शैतान का पक्ष लेना है।” इन विचारों को ध्यान में रखकर मैंने अपनी पत्नी का मूल्यांकन लिखना शुरू किया। लेकिन जैसे-जैसे मैं लिखता गया, मेरा स्नेह फिर से जाग उठा और मैंने सोचा, “अगर मैंने अपनी पत्नी के छद्म-विश्वासी व्यवहार के सभी विवरण लिखे तो वह निश्चित रूप से बाहर कर दी जाएगी। मुझे इसे बस संक्षिप्त ही रखना चाहिए।” मूल्यांकन लिखने के बाद मैं थोड़ा सा असहज हो गया। “ऐसा करके क्या मैं जानबूझकर चीजों को छिपा नहीं रहा हूँ?” लेकिन फिर मैंने सोचा, “कुछ भी हो, मैंने मूल्यांकन लिख दिया है। चूँकि अगुआओं को पहले ही उसके व्यवहार के बारे में कुछ पता है, इसलिए बहुत अधिक विवरण न देना ठीक रहेगा।” इसलिए मैंने अपना मूल्यांकन अगुआओं को सौंप दिया। कुछ समय बाद अगुआओं ने जवाब में लिखा कि मैं अपने मूल्यांकन में अपनी पत्नी के व्यवहार के बारे में बहुत अस्पष्ट था और उन्होंने मुझे इसे फिर से लिखने को कहा। मुझे थोड़ा अपराध-बोध महसूस हुआ। मुझे डर था कि बहुत अधिक विवरण लिखने से मेरी पत्नी को बाहर कर दिया जाएगा, इसलिए मैं अपना मूल्यांकन संक्षिप्त और अस्पष्ट रखना चाहता था ताकि काम चल जाए। लेकिन परमेश्वर हर चीज की पड़ताल करता है। क्या मैं ऐसा करके खुद को और दूसरों को धोखा देने की कोशिश नहीं कर रहा था? इसलिए मैं प्रार्थना और आत्म-चिंतन करने परमेश्वर के सामने आया।
आत्म-चिंतन के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “तुम सभी कहते हो कि तुम परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील हो और कलीसिया की गवाही की रक्षा करोगे, लेकिन वास्तव में तुम में से कौन परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील रहा है? अपने आप से पूछो : क्या तुम उसके बोझ के प्रति विचारशील रहे हो? क्या तुम उसके लिए धार्मिकता का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुम मेरे लिए खड़े होकर बोल सकते हो? क्या तुम दृढ़ता से सत्य का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुममें शैतान के सभी दुष्कर्मों के विरुद्ध लड़ने का साहस है? क्या तुम अपनी भावनाओं को किनारे रखकर मेरे सत्य की खातिर शैतान का पर्दाफाश कर सकोगे? क्या तुम मेरे इरादों को स्वयं में संतुष्ट होने दोगे? सबसे महत्वपूर्ण क्षणों में क्या तुमने अपने दिल को समर्पित किया है? क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो मेरी इच्छा पर चलता है?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 13)। परमेश्वर के हर सवाल ने मुझे बहुत शर्मिंदा किया। मैंने परमेश्वर के वचनों के सिंचन और आपूर्ति का बहुत आनंद लिया है और मुझे सत्य का अभ्यास करना और छद्म-विश्वासियों को उजागर करना चाहिए था। लेकिन जब अपनी पत्नी को उजागर करने की बात आई तो मैं ऐसा करने के लिए खुद को तैयार नहीं कर पाया और मैंने अगुआओं को धोखा देने के लिए छल का सहारा तक लिया। मैंने सत्य का अभ्यास करने के बजाय कलीसिया में एक छद्म-विश्वासी को रखना पसंद किया। मैं बहुत स्वार्थी था, परमेश्वर के प्रति वफादार नहीं था। मैं ऐसा व्यक्ति नहीं था जो बिल्कुल भी सत्य का अभ्यास करता हो। यह सोचकर मुझे बहुत पछतावा हुआ। इसलिए मैं परमेश्वर के समक्ष आया, मैंने अपना अपराध स्वीकारा और पश्चात्ताप किया, अपने स्नेह को अलग रखने और सत्य का अभ्यास करने की इच्छा जताई। फिर मैंने कलीसिया को अपनी पत्नी के व्यवहार के बारे में विस्तृत जानकारी दी। 2023 में मुझे पता चला कि मेरी पत्नी को कलीसिया से बाहर निकाल दिया गया है।
बाद में मैंने छद्म-विश्वासियों के भेद की पहचान करने के बारे में परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े और इससे एक छद्म-विश्वासी के रूप में अपनी पत्नी के सार का भेद पहचानने में मुझे मदद मिली। मुझे एहसास हुआ कि वह कभी भी वास्तव में परमेश्वर में विश्वास नहीं करती थी। यहाँ तक कि जब वह प्रभु यीशु में विश्वास करती थी, तब भी अनुसरण नहीं करती थी। परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार करने के बाद उसकी माँ ने उसे सुसमाचार सुनाने की बहुत बार कोशिश की, लेकिन वह इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी। वह केवल हमारी शादी और परमेश्वर में मेरे विश्वास के कारण मेरे साथ कलीसिया में शामिल हुई। लेकिन वह अक्सर मुझसे कहती थी कि परमेश्वर में विश्वास करते हुए बस साथ चलना ठीक है, कि हमें बहुत अधिक अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं है और पैसा कमाना प्राथमिकता होनी चाहिए। यही कारण है कि उसने परमेश्वर को पाने के बाद अपने कर्तव्यों में बहुत कुछ नहीं किया। जब मैं अक्सर उसके साथ अपने कर्तव्य करने के महत्व के बारे में संगति करता था, तो वह भाई-बहनों की मेजबानी करने के लिए अनिच्छा से सहमत हो जाती थी, पर वह उन्हें सुरक्षित रखने के लिए घर पर रुकने देने को तैयार नहीं थी। इसके अलावा वह अक्सर शिकायत करती थी कि मैं उसे बेहतर भौतिक जीवन प्रदान नहीं कर पा रहा हूँ। वैसे तो हमारे परिवार की रहन-सहन की स्थितियाँ काफी अच्छी थीं, जिनमें भोजन या जरूरी चीजों की कोई कमी नहीं थी, फिर भी वह असंतुष्ट थी और एक बेहतर घर में रहना चाहती थी। यह देखकर कि मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ और उसकी माँगें पूरी नहीं कर सकता, उसने कई बार कहा कि वह अपनी आस्था अब और जारी नहीं रखना चाहती। मगर जब भी कोई दुर्भाग्यपूर्ण घटना होती तो वह तुरंत जोश में आ जाती, प्रार्थना करती और चढ़ावे चढ़ाती। जब परेशानियाँ दूर हो जातीं, तो वह अपने पुराने ढर्रे पर लौट आती। साफ था कि उसका विश्वास पूरी तरह से आशीष पाने के लिए था। उसके पास परमेश्वर के बारे में भी बहुत सारी धारणाएँ थीं और वह उन्हें अक्सर मेरे सामने फैला देती, मुझे बताती कि मैं अपनी आस्था का बहुत लगन से अनुसरण न करूँ और अपने कर्तव्य निभाने के लिए घर से बाहर न जाऊँ। जब मैं उसे सलाह देता था कि चीजों का सामना करने पर वह सत्य खोजे तो वह इसे बस खारिज कर देती थी, यह दावा करती थी कि वह सब कुछ समझती है, बस उसे अभ्यास में नहीं ला पाती। यह देखकर मुझे एहसास होता था कि वह वास्तव में छद्म-विश्वासी है जो सत्य से विमुख है। अपनी पत्नी का थोड़ा सा भेद पहचानने के बाद ही मुझे समझ आया कि मैं इतने वर्षों से मोह में जी रहा था। इसी कारण मैं उसे सहारा देने और उसकी मदद करने की कोशिश करता रहा, उसे कलीसिया में रहने देने की उम्मीद लगाए रहा। यह सब मेरे अत्यधिक स्नेह के कारण था।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “कुछ लोग भावनाओं के बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं, वे अपने साथ होने वाली हर चीज के बारे में अपनी भावनाओं के आधार पर ही प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं; अपने दिलों में वे अच्छी तरह जानते हैं कि यह गलत है, फिर भी वे वस्तुनिष्ठ होने में असमर्थ रहते हैं, सिद्धांत के अनुसार कार्य करना तो दूर की बात है। जब लोग हमेशा भावनाओं से बेबस रहते हैं तो क्या वे सत्य का अभ्यास कर पाते हैं? यह अत्यंत कठिन है। सत्य का अभ्यास करने में बहुत-से लोगों की असमर्थता भावनाओं के कारण होती है; वे भावनाओं को विशेष रूप से महत्वपूर्ण मानते हैं, वे उन्हें सबसे आगे रखते हैं। क्या वे सत्य से प्रेम करने वाले लोग हैं? हरगिज नहीं। सार में, भावनाएँ क्या होती हैं? वे एक तरह का भ्रष्ट स्वभाव हैं। भावनाओं की अभिव्यक्तियों को कई शब्दों का उपयोग करते हुए बताया जा सकता है : भेदभाव, सिद्धांतहीन तरीके से दूसरों की रक्षा करने की प्रवृत्ति, भौतिक संबंध बनाए रखना, और पक्षपात; ये ही भावनाएँ हैं। लोगों में भावनाएँ होने और उन्हीं भावनाओं के अनुसार जीवन जीने के क्या संभावित दुष्परिणाम हो सकते हैं? परमेश्वर लोगों की भावनाओं से सर्वाधिक घृणा क्यों करता है? कुछ लोग हमेशा अपनी भावनाओं से विवश रहते हैं और सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते, और यद्यपि वे परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहते हैं किंतु ऐसा नहीं कर पाते, इसलिए वे अपनी भावनाओं से त्रस्त महसूस करते हैं। ऐसे बहुत से लोग हैं जो सत्य को समझते हैं लेकिन उसे अभ्यास में नहीं ला सकते; ऐसा भी इसलिए है कि वे भावनाओं से विवश हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य वास्तविकता क्या है?)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी सटीक दशा उजागर कर दी। छद्म-विश्वासी के रूप में अपनी पत्नी के व्यवहार के बारे में जानकारी देते समय मुझे स्पष्ट रूप से पता था कि वह लगातार सत्य का अनुसरण नहीं करती थी, वह सभाओं में जाने से इनकार कर देती थी, कभी प्रार्थना नहीं करती थी या परमेश्वर के वचनों को नहीं खाती-पीती थी और वह कोई भी कर्तव्य करने को तैयार नहीं थी। इसके बजाय वह केवल धन और सांसारिक सुखों के पीछे भागती थी। इसके अलावा उसकी मानवता अच्छी नहीं थी और अगर कोई उसे अपमानित करता था तो वह उसे सबसे घिनौनी भाषा में कोसती, बिल्कुल अविश्वासी की तरह व्यवहार करती। मुझे पता था कि मुझे अपनी पत्नी का व्यवहार उजागर करना चाहिए, लेकिन मैं पूरी तरह से अपने स्नेह में डूबा हुआ था। मैंने सोचा कि अगर उसे बाहर न निकाला गया तो वह कलीसिया में एक सेवाकर्मी के रूप में रह सकती है। अन्यथा वह बचाए जाने का मौका पूरी तरह से गँवा देगी। इसलिए मूल्यांकन लिखते समय मैंने अगुआओं को झांसा देने के प्रयास में उसके व्यवहार के बारे में जानबूझकर संक्षिप्त और अस्पष्ट जानकारी दी। अपने कार्यकलापों पर विचार करते हुए मुझे एहसास हुआ कि मैं कितना स्वार्थी और नीच था। अगर अगुआओं ने मेरी समस्या का पता न लगाया होता और समय रहते उसे इंगित न किया होता तो मैं अपने स्नेह में डूबा रहता और अपनी पत्नी को बचाता रहता। अगर वह कलीसिया में रहती तो वह परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाएँ फैलाती रहती, दूसरों को बाधित करती और अगर भाई-बहन उसका भेद न पहचान पाते तो वे इस बात की संभावना थी कि वे उसकी भ्रांतियों से गुमराह हो सकते हैं। इसके अलावा वह भले ही सभाओं के लिए भाई-बहनों की मेजबानी करती थी, लेकिन वह उन्हें हमारे घर में शरण नहीं देती थी, जिससे उनके लिए सभाओं में खुद को शांत रखना मुश्किल हो जाता था। अब मुझे आखिरकार समझ आया कि भावनात्मक रूप से अपनी पत्नी को बचाकर और उसकी रक्षा करके मैं एक छद्म-विश्वासी को कलीसिया में गड़बड़ी और बाधा पैदा करने दे रहा था। इससे पता चलता है कि मैं शैतान के सेवकों में से एक के बतौर काम कर रहा था और बुरे कर्म कर रहा था!
बाद में मैंने और आत्म-चिंतन किया, खुद से पूछा, “अगर मैं अपनी पत्नी को अच्छे इरादों से कलीसिया में रखता तो क्या मैं वास्तव में उद्धार पाने और बच पाने में उसकी मदद कर पाता? क्या इस तरह से काम करना परमेश्वर के इरादे के अनुरूप होता?” तभी मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला : “जो अपने सर्वथा अविश्वासी बच्चों और रिश्तेदारों को खींचकर कलीसिया में लाते हैं, वे बेहद स्वार्थी हैं और सिर्फ़ अपनी दयालुता का प्रदर्शन कर रहे हैं। ये लोग इसकी परवाह किए बिना कि उनका विश्वास है भी या नहीं और यह परमेश्वर का इरादा है या नहीं, केवल प्रेमपूर्ण बने रहने पर ध्यान देते हैं। कुछ लोग अपनी पत्नी को परमेश्वर के सामने लाते हैं या अपने माता-पिता को परमेश्वर के सामने खींचकर लाते हैं और इसकी परवाह किए बिना कि क्या पवित्र आत्मा सहमत है या उनमें कार्य कर रहा है, वे आँखें बंद कर परमेश्वर के लिए ‘प्रतिभाशाली लोगों को अपनाते रहते हैं।’ इन गैर-विश्वासियों के प्रति दयालुता दिखाने से आखिर क्या लाभ मिल सकता है? यहाँ तक कि ये छद्म-विश्वासी, जिनमें पवित्र आत्मा उपस्थित नहीं है, अनिच्छापूर्वक परमेश्वर का अनुसरण करें भी, तब भी उन्हें बचाया नहीं जा सकता। जो लोग उद्धार प्राप्त कर सकते हैं, उनके लिए वास्तव में इसे प्राप्त करना उतना आसान नहीं है। जो लोग पवित्र आत्मा के कार्य और परीक्षणों से नहीं गुज़रे हैं और देहधारी परमेश्वर के द्वारा पूर्ण नहीं बनाए गए हैं, वे पूर्ण बनाए जाने में सर्वथा असमर्थ हैं। इसलिए जिस क्षण से वे नाममात्र के लिए परमेश्वर का अनुसरण आरंभ करते हैं, उन लोगों में पवित्र आत्मा मौजूद नहीं होता। उनकी स्थिति और वास्तविक अवस्थाओं के प्रकाश में, उन्हें पूर्ण बनाया ही नहीं जा सकता। इसलिए, पवित्र आत्मा उन पर अधिक ऊर्जा व्यय न करने का निर्णय लेता है, न ही वह उन्हें किसी प्रकार का प्रबोधन प्रदान करता है, न उनका मार्गदर्शन करता है; वह उन्हें केवल साथ चलने की अनुमति देता है और अंततः उनके परिणाम प्रकट करेगा—यही पर्याप्त है। मानवता का उत्साह और इच्छाएँ शैतान से आते हैं और किसी भी तरह ये चीज़ें पवित्र आत्मा का कार्य पूर्ण नहीं कर सकतीं। चाहे लोग किसी भी प्रकार के हों, उनमें पवित्र आत्मा का कार्य अवश्य होना चाहिए। क्या मनुष्य दूसरे मनुष्यों को पूरा कर सकते हैं? पति अपनी पत्नी से क्यों प्रेम करता है? पत्नी अपने पति से क्यों प्रेम करती है? बच्चे क्यों माता-पिता के प्रति कर्तव्यशील रहते हैं? और माता-पिता क्यों अपने बच्चों से अतिशय स्नेह करते हैं? लोग वास्तव में किस प्रकार की इच्छाएँ पालते हैं? क्या उनकी मंशा उनकी खुद की योजनाओं और स्वार्थी आकांक्षाओं को पूरा करने की नहीं है? क्या उनका इरादा वास्तव में परमेश्वर की प्रबंधन योजना के लिए कार्य करने का है? क्या वे परमेश्वर के कार्य के लिए कार्य कर रहे हैं? क्या उनकी मंशा सृजित प्राणी के कर्तव्यों को अच्छे से पूरा करने की है? वे जो परमेश्वर पर विश्वास करना शुरू करने के समय से पवित्र आत्मा की उपस्थिति को नहीं पा सके हैं, वे कभी भी पवित्र आत्मा के कार्य को नहीं पा सकते; ये लोग निश्चित रूप से नष्ट की जाने वाली वस्तुएँ हैं। इससे फ़र्क नहीं पड़ता कि कोई उनसे कितना प्रेम करता है, यह पवित्र आत्मा के कार्य का स्थान नहीं ले सकता। लोगों का उत्साह और प्रेम, मानवीय इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करता है, पर परमेश्वर की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता और न ही वे परमेश्वर के कार्य का स्थान ले सकते हैं। यहाँ तक कि अगर कोई उन लोगों के प्रति अत्यधिक प्रेम या दया दिखा भी दे, जो नाममात्र के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उसके अनुसरण का दिखावा करते हैं, बिना यह जाने कि वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करने का क्या मतलब है, फिर भी वे परमेश्वर की सहानुभूति प्राप्त नहीं करेंगे, न ही वे पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करेंगे। भले ही जो लोग ईमानदारी से परमेश्वर का अनुसरण करते हैं कमज़ोर काबिलियत वाले हों, और बहुत सी सच्चाइयाँ न समझते हों, वे तब भी कभी-कभी पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर सकते हैं; लेकिन जो काफी अच्छी काबिलियत वाले हैं, मगर ईमानदारी से विश्वास नहीं करते, वे पवित्र आत्मा की उपस्थिति प्राप्त कर ही नहीं सकते। ऐसे लोगों के उद्धार की कोई संभावना नहीं है। यदि वे परमेश्वर के वचनों को पढ़ें या कभी-कभी उपदेश सुनें, या परमेश्वर की स्तुति गाएं, तब भी वे अंततः विश्राम के समय तक बच नहीं पाएंगे” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। परमेश्वर के वचनों के माध्यम से मुझे समझ में आया कि कोई व्यक्ति सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चल सकता है और अंततः बचाया जा सकता है और जीवित रह सकता है या नहीं, यह दूसरों की मदद या समर्थन पर निर्भर नहीं करता। यह केवल कलीसिया में रहने और उसे छोड़े बिना जीवित रहने की बात नहीं है जो किसी को जीवित रहने की उम्मीद दे। बल्कि यह परमेश्वर और सत्य के प्रति व्यक्ति के रवैये पर निर्भर है, साथ ही इस बात पर भी निर्भर है कि वह अपने निजी अनुसरण में पवित्र आत्मा का कार्य और पूर्णता प्राप्त कर सकता है या नहीं। शुरू से ही मेरी पत्नी ने कभी भी ईमानदारी से परमेश्वर पर विश्वास नहीं किया। उसने कभी भी परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य पूरे करने का इरादा नहीं रखा और उसने कभी भी कलीसिया की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण नहीं किया। यहाँ तक कि जब उसने सभाओं के लिए भाई-बहनों की अनिच्छा से मेजबानी की तो भी उसने कोई जिम्मेदारी नहीं उठाई। चाहे कलीसिया के अगुआओं ने उसके साथ कितनी भी संगति की हो, उसने कभी भी अपने तौर-तरीके नहीं बदले। उसने कई बार यह भी कहा कि वह अब परमेश्वर पर विश्वास नहीं करना चाहती। सत्य के प्रति इतनी गहरी घृणा के रहते अगर मैं उसे कलीसिया में रहने को मजबूर कर देता तो भी पवित्र आत्मा उसमें कार्य न करता। अगर ऐसा होता तो क्या मेरे सारे प्रयास व्यर्थ न हो जाते? अपनी पत्नी को कलीसिया में रखने की मेरी इच्छा मेरे व्यक्तिगत स्नेह और स्वार्थ से प्रेरित थी। ऐसे कार्यकलाप न केवल अप्रभावी होते, बल्कि वे मेरे स्नेह के कारण परमेश्वर के स्वभाव को ठेस भी पहुँचा सकते थे। मुझे याद आया कि राज्य के युग के दस प्रशासनिक आदेशों में से एक में कहा गया है : “जो सगे-संबंधी विश्वास नहीं रखते (तुम्हारे बच्चे, तुम्हारे पति या पत्नी, तुम्हारी बहनें या तुम्हारे माता-पिता इत्यादि) उन्हें कलीसिया में आने को बाध्य नहीं करना चाहिए। परमेश्वर के घर में सदस्यों की कमी नहीं है और ऐसे लोगों से इसकी संख्या बढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं, जिनका कोई उपयोग नहीं है। वे सभी जो खुशी-खुशी विश्वास नहीं करते, उन्हें कलीसिया में बिल्कुल नहीं ले जाना चाहिए। यह आदेश सब लोगों पर निर्देशित है। इस मामले में तुम लोगों को एक दूसरे की जाँच, निगरानी करनी चाहिए और याद दिलाना चाहिए; कोई भी इसका उल्लंघन नहीं कर सकता। यहाँ तक कि जब ऐसे सगे-संबंधी जो विश्वास नहीं करते, अनिच्छा से कलीसिया में प्रवेश करते हैं, उन्हें किताबें जारी नहीं की जानी चाहिए या नया नाम नहीं देना चाहिए; ऐसे लोग परमेश्वर के घर के नहीं हैं और कलीसिया में उनके प्रवेश पर जैसे भी ज़रूरी हो, रोक लगाई जानी चाहिए। यदि दुष्टात्माओं के आक्रमण के कारण कलीसिया पर समस्या आती है, तो तुम निर्वासित कर दिए जाओगे या तुम पर प्रतिबंध लगा दिये जाएँगे। संक्षेप में, इस मामले में हरेक का उत्तरदायित्व है, हालाँकि तुम्हें असावधान नहीं होना चाहिए, न ही इसका इस्तेमाल निजी बदला लेने के लिए करना चाहिए” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, दस प्रशासनिक आदेश जो राज्य के युग में परमेश्वर के चुने लोगों द्वारा पालन किए जाने चाहिए)। प्रशासनिक आदेश में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि गैर-विश्वासी परिवार के सदस्यों को हमें कलीसिया में आने के लिए मजबूर नहीं करना चाहिए। भले ही ऐसे लोग कलीसिया में प्रवेश कर लें, परमेश्वर उन्हें स्वीकार नहीं करता। यह एक ऐसा आदेश है जिसका पालन हर विश्वासी को करना चाहिए। लेकिन मैंने परमेश्वर के प्रशासनिक आदेश की अनदेखी की और स्नेहवश अपनी पत्नी को कलीसिया में रखने की कोशिश की। कलीसिया एक ऐसी जगह है जहाँ भाई-बहन परमेश्वर की आराधना करते हैं और अपने कर्तव्य करते हैं; यह छद्म-विश्वासियों, मसीह-विरोधियों या बुरे लोगों को बाधा पहुँचाने की अनुमति नहीं देती। चूँकि मेरी पत्नी सत्य से विमुख है और मूल रूप से एक छद्म-विश्वासी है, इसलिए उसका कलीसिया में रहना निस्संदेह कलीसिया के कार्य और कलीसिया के जीवन दोनों में ही गड़बड़ी और बाधा पैदा करता। निजी स्नेह के आधार पर एक छद्म-विश्वासी को कलीसिया में रखने का मेरा प्रयास—भला यह परमेश्वर के इरादे के अनुरूप कैसे हो सकता है?
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और मामलों के प्रति अपने भावुक दृष्टिकोण की जड़ को कुछ हद तक समझा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अगर कोई व्यक्ति ऐसा है, जो परमेश्वर को नकारता और उसका विरोध करता है, जो परमेश्वर द्वारा शापित है, लेकिन वह तुम्हारी माता या पिता या कोई संबंधी है, और जहाँ तक तुम जानते हो वह कोई दुष्ट व्यक्ति प्रतीत नहीं होता है और तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार करता है, तो संभवतः तुम उस व्यक्ति से घृणा न कर पाओ, यहाँ तक कि उसके निकट संपर्क में बने रहो, तुम्हारे संबंध अपरिवर्तित रहें। यह सुनना कि परमेश्वर ऐसे लोगों से नफरत करता है, तुम्हें परेशान करेगा, और तुम परमेश्वर के पक्ष में खड़े नहीं हो पाओगे और उन लोगों को निर्ममता से नकार नहीं पाओगे। तुम हमेशा भावनाओं से बेबस रहते हो, और तुम उन्हें पूरी तरह छोड़ नहीं सकते। इसका क्या कारण है? ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि तुम्हारी भावनाएँ बहुत तीव्र हैं और ये तुम्हें सत्य का अभ्यास करने से रोकती हैं। वह व्यक्ति तुम्हारे लिए अच्छा है, इसलिए तुम उससे नफरत नहीं कर पाते। तुम उससे तभी नफरत कर पाते हो, जब उसने तुम्हें चोट पहुँचाई हो। क्या यह नफरत सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होगी? साथ ही, तुम परंपरागत धारणाओं से भी बँधे हो, तुम सोचते हो कि वे माता-पिता या रिश्तेदार हैं, इसलिए अगर तुम उनसे नफरत करोगे, तो समाज तुम्हारा तिरस्कार करेगा और जनमत तुम्हें धिक्कारेगा, कपूत, अंतरात्मा से विहीन, यहाँ तक कि अमानुष कहकर तुम्हारी निंदा करेगा। तुम्हें लगता है कि तुम्हें इसके लिए दैवीय निंदा और दंड भुगतना होगा। भले ही तुम उनसे नफरत करना चाहो, लेकिन तुम्हारी अंतरात्मा तुम्हें ऐसा नहीं करने देगी। तुम्हारी अंतरात्मा इस तरह काम क्यों करती है? इसका कारण यह है कि अपनी पारिवारिक विरासत, माता-पिता द्वारा दी गई शिक्षा और परंपरागत संस्कृति की समझ के जरिए तुम्हारे मन में बचपन से ही सोचने का एक ढर्रा बैठा दिया गया है। सोचने का यह ढर्रा तुम्हारे मन में बहुत गहरे पैठा हुआ है, और इसके कारण तुम गलती से यह विश्वास करते हो कि संतानोचित निष्ठा पूरी तरह स्वाभाविक और उचित है, और अपने पुरखों से विरासत में मिली हर चीज हमेशा अच्छी होती है। पहले तुमने इसे सीखा और फिर यह तुम पर हावी हो जाता है, तुम्हारी आस्था में और सत्य स्वीकारने में आड़े आकर व्यवधान डालता है, और तुम्हें इस लायक नहीं छोड़ता कि तुम परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में ला सको, तुम उससे प्रेम कर सको जिससे परमेश्वर प्रेम करता है और उससे घृणा कर सको जिससे परमेश्वर घृणा करता है। ... शैतान इस तरह की परंपरागत संस्कृति और नैतिकता की धारणाओं का इस्तेमाल तुम्हारे दिल, दिमाग और विचारों को बाँधने के लिए करता है, और तुम्हें परमेश्वर के वचन स्वीकार करने लायक नहीं छोड़ता; तुम शैतान की इन चीजों के वश में आ चुके हो और परमेश्वर के वचन स्वीकार करने लायक नहीं रहे। जब तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना चाहते हो तो ये चीजें तुम्हारे मन में खलल पैदा करती हैं, इनके कारण तुम सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं का विरोध करने लगते हो, और तुममें इतनी शक्ति नहीं रहती कि अपने कंधे से परंपरागत संस्कृति का जुआ उतारकर फेंक सको। कुछ देर संघर्ष करने के बाद तुम समझौता कर लेते हो : तुम यह विश्वास करना पसंद करते हो कि नैतिकता की परंपरागत धारणाएँ सही हैं और सत्य के अनुरूप भी हैं, और इसलिए तुम परमेश्वर के वचन ठुकरा या त्याग देते हो। तुम परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानते और तुम बचाए जाने को महत्वपूर्ण नहीं समझते, तुम्हें लगता है कि तुम अभी भी इस संसार में जी रहे हो और इन्हीं चीजों पर निर्भर रहकर जीवित रह सकते हो। समाज के आरोप-प्रत्यारोप झेलने में असमर्थ होकर तुम सत्य और परमेश्वर के वचन तज देना पसंद करते हो, खुद को नैतिकता की परंपरागत धारणाओं और शैतान के प्रभाव के हवाले छोड़ देते हो, और परमेश्वर को नाराज करना और सत्य का अभ्यास न करना बेहतर समझते हो। मुझे बताओ, क्या इंसान दीन-हीन नहीं है? क्या उन्हें परमेश्वर से उद्धार पाने की जरूरत नहीं है?” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे भावुक तरीके से कार्य करने की जड़ को उजागर कर दिया। जब मेरी पत्नी के एक छद्म-विश्वासी के रूप में व्यवहार के बारे में विवरण देने की बात आई तो मैंने उसके सार या परमेश्वर और सत्य के प्रति उसके दृष्टिकोण के आधार पर उसका भेद नहीं पहचाना या उसे उजागर नहीं किया। इसके बजाय मैंने केवल इस तथ्य पर ध्यान केंद्रित किया कि वह आमतौर पर मेरे साथ अच्छी थी और मेरे माता-पिता की देखभाल करती थी। नतीजतन मैं अपने स्नेह में डूबा रहा और उसकी रक्षा करने और बचाने की कोशिश की। यूँ तो मैं जानता था कि मेरी पत्नी छद्म-विश्वासी है और उसका मामला उन सिद्धांतों के अनुरूप है जो उसे कलीसिया से निकाले जाने को उचित ठहराते हैं, फिर भी सिद्धांतों पर टिके रहना और उसे उजागर करना, यहाँ तक कि उसे कलीसिया से निकाल दिया जाना देखने से मैं असहज महसूस कर रहा था, मानो मेरी अंतरात्मा मुझे इसकी अनुमति नहीं दे रही थी। मुझे यह भी लगा कि अगर मैंने अपनी पत्नी को उजागर किया तो यह उसे निराश करना होगा और मुझे डर था कि अगर उसे पता चल गया कि उसे उजागर करने वाला मैं ही हूँ तो वह रूखे और हृदयहीन होने के कारण मुझसे नाराज हो जाएगी। मैंने आचरण के सिद्धांतों के रूप में “खून के रिश्ते सबसे मजबूत होते हैं” और “मनुष्य निर्जीव नहीं है; वह भावनाओं से मुक्त कैसे हो सकता है?” जैसे शैतानी फलसफे अपना लिए थे। इन विचारों से बँधे हुए मुझे एक अदृश्य दबाव महसूस हुआ। मुझे इसकी परवाह नहीं थी कि यह व्यक्ति छद्म-विश्वासी है या नहीं या यह व्यक्ति अगर कलीसिया में रहा तो कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों को कितना नुकसान पहुँचाएगा। मैंने बस यही सोचा कि जब तक यह व्यक्ति मेरा रिश्तेदार है, मैं उसे उजागर नहीं कर सकता। मुझे अपनी अंतरात्मा के विरुद्ध जाकर उसे बचाने को भी मजबूर होना पड़ा और मुझे चिंता थी कि अगर मैंने ऐसा न किया, तो लोग मुझे हृदयहीन कहेंगे। आखिरकार मैंने देखा कि “खून के रिश्ते सबसे मजबूत होते हैं” और “मनुष्य निर्जीव नहीं है; वह भावनाओं से मुक्त कैसे हो सकता है?” जैसे कथन आचरण के सिद्धांत बिल्कुल नहीं थे और इन शैतानी जहरों के आधार पर आचरण करने से मैं केवल स्नेह में डूबा रहूँगा और सही-गलत के भेद की पहचान करने में असमर्थ रहूँगा।
जुलाई 2023 में मुझे अपनी सास से एक पत्र मिला, जिसमें लिखा था कि मेरी पत्नी तलाक के लिए अदालत में अर्जी देना चाहती है। मैं वास्तव में अपना वैवाहिक रिश्ता बचाने के लिए घर जाना चाहता था, लेकिन खास तौर से अपनी दशा से जुड़े परमेश्वर के कुछ वचन पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मेरी पत्नी और मैं अलग-अलग तरह के व्यक्ति हैं और एक रास्ते पर नहीं हैं। अगर हम साथ रहते हैं, तो इसका एकमात्र परिणाम अंतहीन कष्ट होगा। इसके अलावा पिछले कुछ सालों में घर से दूर अपने कर्तव्य करते हुए मैंने परमेश्वर के मार्गदर्शन और आशीष का अनुभव किया है। मैंने जान लिया कि सत्य का अनुसरण करना ही जीवन में सही मार्ग है। इसलिए मैंने घर लौटने का विचार त्यागने का फैसला किया। मुझे अपना स्नेह त्यागने में मार्गदर्शन देने के लिए परमेश्वर का धन्यवाद!