71. लापरवाही करने से कर्तव्य बरबाद होते हैं
अगस्त 2023 में मैंने हमारे पाठ-आधारित कर्तव्यों में लिन म्यू के साथ सहयोग करना शुरू किया। लिन म्यू लंबे समय से यह कर्तव्य निभा रही थी, उसकी काबिलियत अच्छी थी और वह सिद्धांतों से अच्छी तरह वाकिफ थी। चूँकि मैं इस भूमिका में नई थी और सिद्धांतों और पेशेवर कौशलों से अपरिचित थी, मैंने सोचा कि मुझे जल्दी से सिद्धांत समझने और अपने हिस्से की जिम्मेदारी लेने के लिए लिन म्यू से और अधिक सीखना चाहिए। सबसे पहले मैंने पेशेवर कौशल और सिद्धांत सीखने की कोशिश की। जब मेरे द्वारा व्यवस्थित सामग्री में कमी होती, तो मैं लिन म्यू से उन्हें सुधारने में मदद माँगती। वह जल्दी से उन समस्याओं और कमियों को पूरा कर देती जो मुझे कुछ हद तक जटिल लगती थीं। मुझे थोड़ी ईर्ष्या होती थी, लेकिन यह सोचकर कुछ हद तक राहत मिलती थी कि अगर भविष्य में मुझे कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, तो वह उन्हें हल करने में मदद कर सकती है। इस तरह मुझे सामग्री या सिद्धांतों की तलाश में समय नहीं बरबाद करना पड़ेगा—इससे समय और प्रयासों की बचत होगी, जिससे मेरे लिए चीजें आसान हो जाएँगी। धीरे-धीरे जब मुझे मुश्किल समस्याओं का सामना करना पड़ता, जिसमें अधिक समय लगता और सावधानीपूर्वक विचार करना होता था, तो मैं उन्हें हल करने के लिए लिन म्यू की तरफ देखती। समस्याएँ सुलझाने का यह मेरा तरीका बन गया। लिन म्यू ने कई बार मुझे इस बारे में बताया, कहा कि हर बार जब वह मेरे द्वारा व्यवस्थित सामग्रियों की समीक्षा करती है, तो उसे बहुत समय लगता है, क्योंकि कुछ चीजें स्पष्ट रूप से नहीं बताई गई होती हैं और मुझे ज्यादा विचारपूर्वक ढंग से लिखना चाहिए। मुझे थोड़ा अपराध-बोध हुआ, लेकिन फिर मैंने सोचा, “लिन म्यू में मुझसे बेहतर काबिलियत है और वह सिद्धांतों को बेहतर समझती है। वह ये समस्याएँ जल्दी से ठीक कर सकती है। बस सक्षम लोगों को अधिक काम करने दो।” इसलिए मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया।
एक दिन लिन म्यू व्यस्त थी और मेरे द्वारा लिखे गए कार्य संवाद पत्र की समीक्षा करने के लिए उसके पास समय नहीं था। उसने मुझे खुद ही इसे ध्यान से जाँचने के लिए कहा। मैंने पाया कि दो भाग ऐसे थे जहाँ मैंने चीजें स्पष्ट रूप से नहीं समझाई थीं। मुझे याद आया कि जब मैं लिख रही थी, तब मुझे इसका एहसास हुआ था, लेकिन कुछ समय तक विचार करने के बाद मुझे बेहतर विचार नहीं आए, इसलिए मैंने इसे लिन म्यू के लिए बाद में संशोधित करने और सुधारने के लिए छोड़ दिया। अब मैं इस बारे में सोच रही थी, यदि लिन म्यू के पास समीक्षा करने का समय न हुआ और सीधे एक समस्या वाला पत्र भेज दिया तो क्या होगा? क्या यह भाई-बहनों के लिए गैर-शिक्षाप्रद नहीं होगा? गंभीर मामलों में तो यह बाधा और गड़बड़ी भी पैदा कर सकता है। मैं थोड़ी डरी हुई थी और मैंने सोचा, “अगर भविष्य में मुझे कुछ ऐसा मिला जिसे मैं स्पष्ट रूप से नहीं देख पाई, तो मुझे लिन म्यू के साथ इस पर चर्चा करनी चाहिए और इसे समझने के बाद ही आगे बढ़ना चाहिए। मैं बस आसान रास्ता नहीं अपना सकती और समस्याओं को दूसरों के लिए नहीं छोड़ सकती।” इसके बाद मैंने आत्म-चिंतन करना शुरू किया कि मैं हमेशा दूसरों पर समस्याएँ क्यों थोपना चाहती थी। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जो वास्तव में मेरी दशा से जुड़ा था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कर्तव्य करते समय, लोग हमेशा हल्का काम चुनते हैं, ऐसा काम जो थकाए नहीं और जिसमें बाहर जाकर चीजों का सामना करना शामिल न हो। इसे आसान काम चुनना और कठिन कामों से भागना कहा जाता है, और यह दैहिक सुखों के लालच की अभिव्यक्ति है। और क्या? (अगर कर्तव्य थोड़ा कठिन, थोड़ा थका देने वाला हो, अगर उसमें कीमत चुकानी पड़े, तो हमेशा शिकायत करना।) (भोजन और वस्त्रों की चिंता और दैहिक आनंदों में लिप्त रहना।) ये सभी दैहिक सुखों के लालच की अभिव्यक्तियाँ हैं। जब ऐसे लोग देखते हैं कि कोई कार्य बहुत श्रमसाध्य या जोखिम भरा है, तो वे उसे किसी और पर थोप देते हैं; खुद वे सिर्फ आसान काम करते हैं, और यह कहते हुए बहाने बनाते हैं कि उनकी काबिलियत कम है, कि उनमें उस कार्य को करने की क्षमता नहीं है और वे उस कार्य का बीड़ा नहीं उठा सकते—जबकि वास्तव में, इसका कारण यह होता है कि वे दैहिक सुखों का लालच करते हैं। वे कोई भी काम करें या कोई भी कर्तव्य निभाएँ, वे कष्ट नहीं उठाना चाहते। ... कलीसिया का काम या उनके कर्तव्य कितने भी व्यस्ततापूर्ण क्यों न हों, उनके जीवन की दिनचर्या और सामान्य स्थिति कभी बाधित नहीं होती। वे दैहिक जीवन की छोटी से छोटी बात को लेकर भी कभी लापरवाह नहीं होतीं और बहुत सख्त और गंभीर होते हुए उन्हें पूरी तरह से नियंत्रित करती हैं। लेकिन, परमेश्वर के घर का काम करते समय, मामला चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो और भले ही उसमें भाई-बहनों की सुरक्षा शामिल हो, वे उससे लापरवाही से निपटती हैं। यहाँ तक कि वे उन चीजों की भी परवाह नहीं करती, जिनमें परमेश्वर का आदेश या वह कर्तव्य शामिल होता है, जिसे उन्हें करना चाहिए। वे कोई जिम्मेदारी नहीं लेतीं। यह देह-सुखों के भोग में लिप्त होना है, है न? क्या दैहिक सुखों के भोग में लिप्त लोग कोई कर्तव्य करने के लिए उपयुक्त होते हैं? जैसे ही कोई उनसे कर्तव्य करने या कीमत चुकाने और कष्ट सहने की बात करता है, तो वे इनकार में सिर हिलाते रहते हैं। उन्हें बहुत सारी समस्याएँ होती हैं, वे शिकायतों से भरे होते हैं, और वे नकारात्मकता से भरे होते हैं। ऐसे लोग निकम्मे होते हैं, वे अपना कर्तव्य करने की योग्यता नहीं रखते, और उन्हें हटा दिया जाना चाहिए” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (2))। परमेश्वर के वचनों ने जो उजागर किया वह ठीक मेरी ही दशा थी। कर्तव्य करते समय मुझे ऐसे कार्य करना पसंद था जो आसान और अधिक सुविधाजनक हों और हमेशा अधिक कठिन समस्याओं को दूसरों के लिए छोड़ देती थी। यह देह सुख की चाह की अभिव्यक्ति थी। पत्र लिखते समय मैं जवाब देने के लिए सरल मुद्दे चुनना पसंद करती थी और यदि कोई मुद्दा अधिक जटिल होता, तो मैं इसे बहुत अधिक परेशानी वाला मानती और जवाब नहीं देना चाहती थी। भले ही मैंने ऐसे किसी मुद्दे पर जवाब दिया हो, मैंने यह सोचने का प्रयास नहीं किया कि समस्या पर स्पष्ट रूप से संगति कैसे की जाए। मैं हमेशा मुश्किल मुद्दे लिन म्यू को निपटाने के लिए छोड़ देती थी, बहाने बनाती थी कि मैं ऐसी बातें स्पष्ट रूप से नहीं बता सकती, जबकि वास्तव में मैं अपने कर्तव्य में अधिक प्रयास नहीं करना चाहती थी या अधिक कठिनाई नहीं सहना चाहती थी और मैं देह सुखों का लालच कर रही होती थी। अपनी दशा के बारे में कुछ ज्ञान पाने के बाद मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, खुद के खिलाफ विद्रोह करने और परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करने की अपनी इच्छा जताई।
बाद में मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला जिसने मेरे दिल को गहराई से भेद दिया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ लोग चाहे जो भी काम करें या कोई भी कर्तव्य निभाएँ, वे उसमें अयोग्य होते हैं, वे उसका भार नहीं उठा सकते, और वे किसी भी उस दायित्व या जिम्मेदारी को निभाने में असमर्थ होते हैं, जो एक व्यक्ति को निभानी चाहिए। क्या वे कचरा नहीं हैं? क्या वे अभी भी इंसान कहलाने लायक हैं? कमअक्ल लोगों, मानसिक रूप से अयोग्य, और जो शारीरिक अक्षमताओं से ग्रस्त हैं, उन्हें छोड़कर, क्या कोई ऐसा जीवित व्यक्ति है जिसे अपने कर्तव्यों को नहीं करना चाहिए और अपनी जिम्मेदारियों को पूरा नहीं करना चाहिए? लेकिन इस तरह के लोग कामचोर और सुस्त होते हैं और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं करना चाहते; निहितार्थ यह है कि वे एक उचित मनुष्य नहीं बनना चाहते हैं। परमेश्वर ने उन्हें इंसान बनने का अवसर दिया, और उसने उन्हें काबिलियत और विशेष गुण दिए, फिर भी वे अपना कर्तव्य करने में इनका इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं। वे कुछ नहीं करते, लेकिन हर मोड़ पर चीजों का आनंद लेना चाहते हैं। क्या ऐसा व्यक्ति मनुष्य कहलाने लायक भी है? उन्हें कोई भी काम दे दिया जाए—चाहे वह महत्वपूर्ण हो या सामान्य, कठिन हो या सरल—वे हमेशा लापरवाह और शातिर होते हैं और कामचोरी करते हैं। समस्याएँ आने पर अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर थोपने की कोशिश करते हैं; कोई जिम्मेदारी नहीं लेते हैं, और वे अपना परजीवी जीवन जीते रहना चाहते हैं। क्या वे बेकार कचरा नहीं हैं? समाज में, किसे रोजी-रोटी कमाने के लिए खुद पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है? एक बार जब व्यक्ति व्यस्क हो जाता है, तो उसे अपना भरण-पोषण खुद करना चाहिए। उसके माता-पिता ने अपनी जिम्मेदारी निभा दी है। भले ही उसके माता-पिता उसकी मदद करने के लिए तैयार हों, वह इससे असहज होगा। उन्हें यह समझने में समर्थ होना चाहिए कि उनके माता-पिता ने उनकी परवरिश करने का अपना लक्ष्य पूरा कर दिया है, और कि वे हृष्ट-पुष्ट वयस्क हैं, और उन्हें स्वतंत्र रूप से जीवन जीने में समर्थ होना चाहिए। क्या एक वयस्क में यह न्यूनतम सूझ-बूझ नहीं होनी चाहिए? अगर किसी व्यक्ति में सही मायने में सूझ-बूझ है, तो उसके लिए अपने माता-पिता के पैसों पर जीवनयापन करते रहना बिल्कुल असंभव होगा; वह दूसरों की हँसी का पात्र बनने से, अपनी नाक कटने से डरेगा। तो क्या किसी सुविधाभोगी और काम से घृणा करने वाले व्यक्ति में कोई विवेक होता है? (नहीं।) वे बिना काम किए कुछ हासिल करना चाहते हैं; वे कभी जिम्मेदारी पूरी नहीं करना चाहते हैं, वे चाहते हैं कि मिठाइयाँ आसमान से सीधे उनके मुँह में टपकें; उन्हें हमेशा दिन में तीन बार अच्छा भोजन चाहिए होता है, वे चाहते हैं कि कोई उनके लिए पलकें बिछाए रहे और वे थोड़ा सा भी कार्य किए बिना बढ़िया खाने-पीने की चीजों का आनंद लेते रहें। क्या यह एक परजीवी की मानसिकता नहीं है? क्या परजीवियों में जमीर और विवेक होते हैं? क्या उनमें ईमानदारी और गरिमा होती है? बिल्कुल नहीं। वे सभी मुफ्तखोर निकम्मे होते हैं, जमीर या विवेक से रहित जानवर। उनमें से कोई भी परमेश्वर के घर में बने रहने के योग्य नहीं है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8))। परमेश्वर इस तथ्य को उजागर करता है कि जो लोग अपने कर्तव्यों में गैर-जिम्मेदार, धूर्त होते हैं और ढिलाई बरतते हैं, उनमें कोई ईमानदारी या गरिमा नहीं होती। ऐसे लोग परमेश्वर के घर में परजीवी हैं और जगह की बरबादी हैं। वे कोई योगदान नहीं देते और ऐसे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर हटा देता है। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मैं थोड़ी परेशान हो गई। कठिनाइयों का सामना करते हुए मैं उन पर सोचने का प्रयास नहीं करना चाहती था और हमेशा लिन म्यू पर निर्भर रहती थी और समस्याओं का जवाब देते समय भले ही मुझे पता होता था कि कुछ बातें मुझे स्पष्ट नहीं हैं, मैंने उन पर सोचने के लिए समय नहीं निकाला और इसके बजाय मैंने उनके सुधार का जिम्मा लिन म्यू पर छोड़ दिया। जब उसने मुझे ये समस्याएँ बताईं, तब भी मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया। इसके बजाय मैंने उस पर भरोसा करना जारी रखा, यह सोचकर इसे उचित ठहराया कि उसके पास बेहतर काबिलियत है और जो लोग अधिक सक्षम हैं उन्हें अधिक काम करना चाहिए। मुझे एहसास हुआ कि मैं अपने कर्तव्य में धूर्त हूँ और ढीली रही हूँ, हमेशा बिना कुछ किए कुछ चाहती हूँ। मैं अपना काम पूरा करने के लिए दूसरों पर निर्भर थी और मैं कोई भी जिम्मेदारी उठाने में विफल रही। इतने साल तक परमेश्वर के वचनों के सिंचन और पोषण का आनंद लेने के बाद मैं अभी भी अपने कर्तव्यों में लापरवाह थी और ढिलाई बरत रही थी और उन जिम्मेदारियों को उठाने में असमर्थ थी जो मुझे उठानी चाहिए थीं। क्या मैं पूरी तरह से बेकार नहीं थी और मुझमें ईमानदारी और गरिमा का नामोनिशान तक नहीं था? यह उन माता-पिता की तरह है जो बच्चे को वयस्क होने तक पालने में कड़ी मेहनत करते हैं, लेकिन जब बच्चे को स्वतंत्र होना चाहिए, तो वे बहाने के तौर पर अलग-अलग मुश्किलों का हवाला देते हैं, खुद का भरण-पोषण करने के लिए काम करने को तैयार नहीं होते और अपने माता-पिता पर निर्भर बने रहते हैं। इससे इन माता-पिता को कैसा महसूस होता है? पाठ-आधारित कर्तव्य सौंपे जाने के बाद मुझे इस अवसर को सँजोना चाहिए था, पेशेवर कौशल और सिद्धांत सीखने के लिए अधिक प्रयास करने चाहिए थे और उन चीजों पर लिन म्यू से मार्गदर्शन माँगना चाहिए था जो मुझे समझ नहीं आती थीं ताकि मैं सिद्धांतों को जल्दी समझ सकूँ और अपने हिस्से की जिम्मेदारियाँ उठा सकूँ। लेकिन मैंने हमेशा मानसिक प्रयास करने से इनकार कर दिया, इसके बजाय दूसरों पर निर्भर रहने का चुनाव किया। अपने कर्तव्यों के प्रति मेरा यह रवैया परमेश्वर के लिए घृणित और नफरत भरा था और अगर मैं अपने तौर-तरीके न बदलती, तो मैं पूरी तरह से बेकार हो जाती।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “कुछ लोग कर्तव्य निभाने के दौरान कष्ट सहने को तैयार नहीं रहते, कोई भी समस्या सामने आने पर हमेशा शिकायत करते हैं और कीमत चुकाने से इनकार कर देते हैं। यह कैसा रवैया है? यह अनमना रवैया है। अगर तुम अपना कर्तव्य अनमने होकर निभाओगे, इसे अनादर के भाव से देखोगे तो इसका क्या नतीजा मिलेगा? तुम अपना कार्य खराब ढंग से करोगे, भले ही तुम इस काबिल हो कि इसे अच्छे से कर सको—तुम्हारा प्रदर्शन मानक पर खरा नहीं उतरेगा और कर्तव्य के प्रति तुम्हारे रवैये से परमेश्वर बहुत नाराज रहेगा। अगर तुमने परमेश्वर से प्रार्थना की होती, सत्य खोजा होता, इसमें अपना पूरा दिल और दिमाग लगाया होता, अगर तुमने इस तरीके से सहयोग किया होता तो फिर परमेश्वर पहले ही तुम्हारे लिए हर चीज तैयार करके रखता ताकि जब तुम मामलों को सँभालने लगो तो हर चीज दुरुस्त रहे और तुम्हें अच्छे नतीजे मिलें। तुम्हें बहुत ज्यादा ताकत झोंकने की जरूरत न पड़ती; तुम हर संभव सहयोग करते तो परमेश्वर तुम्हारे लिए पहले ही हर चीज की व्यवस्था करके रखता। अगर तुम धूर्त या काहिल हो, अगर तुम अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाते, और हमेशा गलत रास्ते पर चलते हो तो फिर परमेश्वर तुम पर कार्य नहीं करेगा; तुम यह अवसर खो बैठोगे और परमेश्वर कहेगा, ‘तुम किसी काम के नहीं हो; मैं तुम्हारा उपयोग नहीं कर सकता। जाकर एक तरफ खड़े हो जाओ। तुम्हें चालाक बनना और सुस्ती बरतना पसंद है, है न? तुम आलसी और आरामपरस्त हो, है न? तो ठीक है, आराम ही करते रहो!’ परमेश्वर यह अवसर और अनुग्रह किसी और को देगा। तुम लोग क्या कहते हो : यह हानि है या लाभ? (हानि।) यह प्रचंड हानि है!” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मुझे एहसास हुआ कि जब हम अपने कर्तव्यों में कठिनाइयों से जूझते हैं, अगर हम अपना पूरा दिल और मन अपने कर्तव्यों में लगाते हैं, कीमत चुकाने के लिए तैयार रहते हैं और सत्य खोजते हैं, तो परमेश्वर हमें प्रबुद्ध करके हमारा मार्गदर्शन करेगा। जितना अधिक हम इस दृष्टिकोण को लागू करते हैं, आगे का रास्ता उतना ही स्पष्ट होता जाता है और हमारे विचार अधिक सुस्पष्ट होते जाते हैं। लेकिन अगर हम कठिनाइयों से जूझते हुए सत्य सिद्धांत खोजने का प्रयास नहीं करते और इसके बजाय हमेशा ढिलाई बरतते हैं, तो अंत में हमें कुछ भी हासिल नहीं होगा और हम कोई भी कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं कर पाएँगे और अंततः हम ढिलाई बरतने के कारण बेनकाब करके हटा दिए जाएँगे और अपने कर्तव्य करने का अवसर गँवा देंगे। पीछे मुड़कर देखें तो जब मैंने पहली बार यह कर्तव्य करना शुरू किया था, तो मैंने बहुत सोचा था और प्रयास किया था, लेकिन बाद में जब मैंने देखा कि लिन म्यू ने कुछ सिद्धांतों में महारत हासिल कर ली है और उसका काम अधिक कुशल है, तो मैंने मुश्किल काम उसके ऊपर छोड़ने शुरू कर दिए, ताकि मैं सब कुछ आसानी से कर सकूँ। वास्तव में भले ही लापरवाही करने से मैं पीड़ा और थकावट से बच गई थी, मैंने पेशेवर कौशल और सिद्धांतों को समझने में बिल्कुल भी प्रगति नहीं की थी और मैं दूसरों पर बोझ भी बन गई थी। अगर मैं इसी तरह चलती रहती, तो बस परमेश्वर द्वारा घृणा करके हटाए जाने का पात्र बन जाती। इसने मुझे प्रभु यीशु के वचनों की याद दिला दी : “जिसके पास है, उसे दिया जाएगा, और उसके पास बहुत हो जाएगा; पर जिसके पास कुछ नहीं है, उससे जो कुछ उसके पास है, वह भी ले लिया जाएगा” (मत्ती 13:12)। परमेश्वर धार्मिक है। जब तक कोई व्यक्ति प्रयास करने, सत्य की खोज करने और अपने कर्तव्यों में कीमत चुकाने के लिए तैयार है, तब तक उसे परमेश्वर का प्रबोधन और मार्गदर्शन प्राप्त होगा। जितना अधिक वह ऐसा करेगा, उसका मार्ग उतना ही साफ होगा और उसका मन उतना ही स्पष्ट होगा। लेकिन मैं धूर्त थी और अपने कर्तव्यों में ढिलाई बरत रही थी, कीमत चुकाने को तैयार नहीं थी और हमेशा दूसरों पर काम थोपती थी, यह मानती थी कि दूसरों पर निर्भर रहना समय बचाने वाला और सरल तरीका है, जिससे मैं बिना अधिक मेहनत के काम पूरा कर सकती हूँ। मुझे लगा कि ऐसा करके मैं चतुर बन रही हूँ, लेकिन अंत में मुझे कोई सत्य नहीं मिला और मैं किसी भी मुद्दे को हल नहीं कर सकी। यह खुद को धोखा देना था और मुझे इसके लिए बहुत नुकसान उठाना पड़ा। मैं कितनी मूर्ख थी! यह सब महसूस करने से मुझे डर लगा और मैं परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करने और सच्चे दिल से और पूरी लगन से अपना कर्तव्य निभाने के लिए तैयार थी।
फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “मान लो कि कलीसिया तुम्हारे लिए किसी नियत कार्य की व्यवस्था करती है, और तुम कहते हो, ‘चाहे इस नियत कार्य से मुझे ध्यान आकर्षित करने का मौका मिले या ना मिले—चूँकि यह मुझे दिया गया है, इसलिए मैं इसे अच्छी तरह से करूँगा और यह जिम्मेदारी स्वीकार करूँगा। अगर मुझे मेजबानी करने के लिए व्यवस्थित किया जाता है, तो मैं इसे अच्छी तरह से करने के लिए जी-जान लगा दूँगा; मैं भाई-बहनों की अच्छी तरह से देखभाल करूँगा, और सभी की सुरक्षा सुनिश्चित करने का पूरा प्रयास करूँगा। अगर मुझे सुसमाचार का प्रचार करने के लिए व्यवस्थित किया जाता है, तो मैं खुद को सत्य से सुसज्जित करूँगा और प्रेम भाव से सुसमाचार का प्रचार अच्छी तरह से करूँगा और अपना कर्तव्य पूरा करूँगा। अगर मुझे कोई विदेशी भाषा सीखने के लिए व्यवस्थित किया जाता है, तो मैं पूरे दिल से उसका अध्ययन करूँगा और उस पर कड़ी मेहनत करूँगा, और जितनी जल्दी हो सके, एक या दो वर्ष में उसमें माहिर होने का प्रयास करूँगा, ताकि मैं विदेशियों को परमेश्वर की गवाही दे सकूँ। अगर मुझे गवाही लेख लिखने के लिए कहा जाता है, तो मैं इसे करने के लिए खुद को कर्तव्यनिष्ठ ढंग से प्रशिक्षित करूँगा और सत्य सिद्धांतों के अनुसार चीजें देखूँगा; और भाषा के बारे में सीखूँगा। भले ही मैं सुंदर गद्य वाले लेख लिखने में सक्षम न हो सकूँ, मैं कम से कम अपनी अनुभवात्मक गवाही स्पष्ट रूप से संप्रेषित कर पाऊँगा, सत्य के बारे में सुगम तरीके से संगति कर सकूँगा और परमेश्वर के लिए सच्ची गवाही दे सकूँगा, ताकि मेरे लेख पढ़कर लोग शिक्षित और लाभान्वित हों। कलीसिया मुझे जो भी काम सौंपेगी, मैं उसे पूरे दिल और ताकत से करूँगा। अगर कुछ ऐसा हुआ जो मुझे समझ न आए, या अगर कोई समस्या सामने आई, तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना करूँगा, सत्य की तलाश करूँगा, सत्य सिद्धांतों के अनुसार समस्याओं का समाधान करूँगा, और नियत कार्य अच्छी तरह से करूँगा। मेरा जो भी कर्तव्य हो, मैं उसे अच्छी तरह से करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना सब-कुछ इस्तेमाल करूँगा। मैं जो कुछ भी हासिल कर सकता हूँ, उसके लिए मैं वह जिम्मेदारी उठाने का भरसक प्रयास करूँगा जो मुझे उठानी चाहिए, और कम से कम, मैं अपने जमीर और विवेक के खिलाफ नहीं जाऊँगा, लापरवाह नहीं होऊँगा, शातिर नहीं बनूँगा और कामचोरी नहीं करूँगा, और ना ही दूसरों की मेहनत के फलों में लिप्त होऊँगा। मैं जो कुछ भी करूँगा, वह जमीर के मानक से नीचे नहीं होगा।’ यह स्व-आचरण का न्यूनतम मानक है, और जो व्यक्ति इस तरह से अपना कर्तव्य करता है, वह जमीर और सूझ-बूझ वाला व्यक्ति माना जा सकता है। अपना कर्तव्य करते समय तुम्हें कम से कम साफ जमीर वाला व्यक्ति होना चाहिए, और तुम्हें कम से कम दिन में तीन बार भोजन करने के लायक होना चाहिए और मुफ्तखोर नहीं होना चाहिए। इसे जिम्मेदारी की भावना होना कहते हैं। चाहे तुम्हारी क्षमता ज्यादा हो या कम, और चाहे तुम सत्य समझते हो या नहीं, जो भी हो, तुम्हारा यह रवैया होना चाहिए : ‘चूँकि यह कार्य मुझे करने के लिए दिया गया था, इसलिए मुझे इसे गंभीरता से लेना चाहिए; मुझे इसे अपनी जिम्मेदारी बनानी चाहिए, और मुझे इसे अच्छी तरह से करने के लिए अपना पूरा दिल और ताकत लगा देनी चाहिए। रही यह बात कि मैं इसे पूर्णतया अच्छी तरह से कर सकता हूँ या नहीं, तो मैं कोई गारंटी देने की कल्पना तो नहीं कर सकता, लेकिन मेरा रवैया यह है कि मैं इसे अच्छी तरह से करने के लिए अपना भरसक प्रयास करूँगा, और मैं यकीनन इसके बारे में लापरवाह नहीं होऊँगा। अगर काम में कोई समस्या आती है, तो मुझे जिम्मेदारी लेनी चाहिए, और सुनिश्चित करना चाहिए कि मैं इससे सबक सीखूँ और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करूँ।’ यह सही रवैया है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि चाहे हम अपने कर्तव्यों में कितनी भी कठिनाइयों या समस्याओं का सामना करें, हमें ईमानदारी से प्रार्थना करनी चाहिए, परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए और सिद्धांत खोजने चाहिए। हमें वह सब करने की जरूरत है जो हम कर सकते हैं और करना चाहिए, कार्यों को प्रभावी ढंग से पूरा करने के लिए अपनी पूरी ताकत लगानी चाहिए। हमें लापरवाह, धूर्त या सुस्त नहीं होना चाहिए। अपने कर्तव्यों के प्रति ऐसा रवैया रखने से परमेश्वर संतुष्ट होगा। आत्म-चिंतन करने से मुझे एहसास हुआ कि जब मुझे अपने कर्तव्य में कठिनाइयों या समस्याओं का सामना करना पड़ा, तो परमेश्वर पर भरोसा करने और सत्य सिद्धांत तलाशने के बजाय मैंने अक्सर लिन म्यू पर भरोसा किया, उसके श्रम का फल भोगा। मैं वह करने में भी विफल रही जो कम से कम मुझे करना चाहिए था, अपने पूरा दिल लगाने और ताकत झोंकने की तो बात ही छोड़ दो। यह परमेश्वर के घर में मुफ्तखोर होने जैसा था। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और पश्चात्ताप किया, अधिक सिद्धांत खोजने की अपनी इच्छा जताई और कठिनाइयों या उन चीजों पर विचार करने के लिए अधिक प्रयास किए जो मुझे समझ नहीं आईं और यह निर्णय लिया कि मैं केवल तभी लिन म्यू से मदद माँगूंगी जब मैं वास्तव में उन्हें हल नहीं कर पाऊँगी। इसके बाद के काम में मैंने अपने कर्तव्य के प्रति अपने रवैये की बार-बार जाँच की। जब मुश्किल कामों से जूझने के दौरान मैं बचना चाहती थी, तो मैंने सचेत रूप से खुद के खिलाफ विद्रोह किया, अपने दिल को शांत किया, परमेश्वर से प्रार्थना की और उन पर पूरी लगन से विचार किया। अब मैं उन्हें दूसरों पर थोपने के बारे में नहीं सोचती थी। एक बार लिन म्यू और मैंने एक दस्तावेज की समीक्षा की जिसमें कई समस्याएँ थीं। हमें संबंधित सिद्धांत देखने, हर चीज पर पूरी तरह से विचार करने और सभी मुद्दे उजागर करने की जरूरत थी। मैं चाहती थी कि लिन म्यू इसे सँभाले। लेकिन आश्चर्य यह कि उसने सुझाव दिया कि मैं ही इसे करूँ। बिना सोचे-समझे मैंने जवाब दिया, “तुम चाहती हो कि इसे मैं ही करूँ?” यह कहते ही मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से काम में ढिलाई बरतने की कोशिश कर रही थी। मैंने तुरंत परमेश्वर से खुद के खिलाफ विद्रोह करने की प्रार्थना की, दूसरों पर यह काम थोपने के बजाय पूरे दिल से सहयोग करने और अपनी जिम्मेदारी निभाने की इच्छा व्यक्त की। फिर मैं इसे करने के लिए सहमत हो गई। कार्य पर जुटते समय मैंने प्रार्थना की और परमेश्वर पर भरोसा किया और सिद्धांतों पर विचार करने पर ध्यान केंद्रित किया। भले ही इसमें अधिक समय लगा, लेकिन मुझे आगे बढ़ने का रास्ता मिल गया। जब मैंने अपनी पूरी ताकत लगाई और अपने कर्तव्य को पूरा करने में अपनी जिम्मेदारी निभाई, तो मुझे सुकून मिला।
इस अनुभव के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि लिन म्यू के साथ काम करने की व्यवस्था करने में परमेश्वर की सद्भावना थी। इस मायने में कि उसकी काबिलियत मुझसे बेहतर थी और कुछ सिद्धांत समझती थी और अगर मुझे कुछ ऐसा मिलता जो मुझे समझ में नहीं आता, तो मैं उससे पूछ सकती थी और उससे सीख सकती थी, यानी वह मुझे सिद्धांतों को बेहतर ढंग से समझने में मदद कर सकती थी, जिससे मेरी कमजोरियाँ दूर हो जातीं। अगर मैं हमेशा दैहिक सुख तलाशती और बस सारी समस्याओं को उस पर थोप देती, तो मैं कुछ नहीं सीख पाती या कोई प्रगति नहीं कर पाती। अब जब मैं समस्याओं का सामना करती हूँ, तो मैं उन्हें तुरंत लिन म्यू पर नहीं थोपती। इसके बजाय मैं उन्हें अपने दिल से हल करती हूँ, सत्य सिद्धांतों की खोज पर ध्यान केंद्रित करती हूँ और केवल तभी उसके साथ चर्चा करती हूँ जब मैं वास्तव में कुछ समझ नहीं पाती। इस तरह से अपना कर्तव्य निभाने से मुझे बहुत अधिक मानसिक शांति मिलती है।