79. अगुआ बनने को अनिच्छुक—मैं किस बात को लेकर इतनी चिंतित थी?

जिएशिन, चीन

2023 के कलीसिया चुनाव के दौरान मैंने सुना कि कुछ भाई-बहन मुझे वोट देना चाहते हैं, लेकिन मेरी दिली इच्छा नहीं थी कि मैं अगुआ बनूँ। मुझे याद आया कि कुछ समय पहले एक अगुआ ने कुछ भाई-बहनों के लिए चढ़ावा स्थानांतरित करने की व्यवस्था की थी, लेकिन गलत लोगों को चुनने के कारण बड़े लाल अजगर ने चढ़ावा जब्त कर कई भाई-बहनों को गिरफ्तार कर लिया गया। कलीसिया विशिष्ट कारणों की जाँच कर रही थी। हालाँकि इस अगुआ को बरखास्त नहीं किया गया है फिर भी यह एक बड़ा अपराध है। मैंने एक बहन के बारे में भी सोचा जिसे मैं पहले से जानती थी जो एक अगुआ होने के बावजूद अपनी मर्जी से काम करती थी और काम में देरी होती थी, अंत में वह एक नकली अगुआ बन गई और उसे पद से हटा दिया गया। जब मैंने इन बातों के बारे में सोचा तो मैं डर गई, मुझे लगा कि अगुआ होने की जिम्मेदारी महत्वपूर्ण है और अगर कोई अगुआ अपने कार्यों में सिद्धांतों का उल्लंघन करता है तो उसे किसी भी समय बरखास्त किया जा सकता है। मैंने सोचा, “अब परमेश्वर का कार्य अपने अंतिम चरण पर पहुँच गया है और यही वह समय भी है जब परमेश्वर हर व्यक्ति का परिणाम निर्धारित करता है। अगर इस महत्वपूर्ण समय में मैं न केवल अच्छे कर्म तैयार करने में विफल रहती हूँ बल्कि कुकर्म भी करती हूँ और मेरी निंदा की जाती है तो मैं अच्छा परिणाम कैसे प्राप्त कर सकती हूँ? बेहतर होगा कि मैं बिना जोखिम उठाए कोई एक ही कार्य ले लूँ।” इस बात को ध्यान में रखते हुए मैं अगुआ की भूमिका निभाने को तैयार नहीं थी। कुछ दिनों बाद कलीसिया के चुनाव के दौरान मुझे अगुआ चुन लिया गया। यह परिणाम देखकर मुझे खुशी नहीं हुई; बल्कि मैं खुद को दबाव और पीड़ा में महसूस करने लगी और सोचने लगी, “इसे स्वीकार न करना समर्पण की कमी दर्शाएगा। अगर मैं इसे स्वीकार कर लूँ तो न केवल मुझे दूसरों की तुलना में अधिक मेहनत करनी पड़ेगी और अधिक कष्ट सहना पड़ेगा बल्कि अगर मैं काम में गड़बड़ी करती हूँ तो यह कोई छोटी समस्या नहीं होगी। अगर मैंने परमेश्वर के स्वभाव का अपमान किया तो परमेश्वर पर विश्वास करने की मेरी यात्रा समाप्त हो जाएगी और इतने बरस मैंने परमेश्वर पर जो विश्वास किया है क्या वह व्यर्थ नहीं चला जाएगा? बेहतर होगा कि मैं अपना वर्तमान कर्तव्य अच्छे से और व्यावहारिक तरीके से निभाऊँ।” जब मैंने इस तरह सोचा तो मेरे मन ने मुझे धिक्कारा, लेकिन जब मैंने एक अगुआ होने की बड़ी जिम्मेदारी पर विचार किया तो लगा अगर मुझसे कोई भूल हो गई तो तुरंत उसका खुलासा हो जाएगा और मुझे हटा दिया जाएगा, मैं अभी भी अगुआ की भूमिका नहीं निभाना चाहती थी। मेरे मन में लगातार एक द्वंद्व चल रहा था जैसे कोई रस्साकशी हो रही हो। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मेरी अगुआई और मेरा मार्गदर्शन करे।

एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और मैं बहुत प्रभावित हुई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अगर तुम्हें लगता है कि तुम किसी कार्य-विशेष को कर सकते हो, लेकिन तुम गलती करने और निकाल दिए जाने से डरते भी हो, इसलिए तुम दब्बू और काहिल हो और प्रगति नहीं कर सकते, तो क्या यह आज्ञाकारी रवैया है? उदाहरण के लिए, यदि भाई-बहन तुम्हें अपना अगुआ चुन लेते हैं, तो तुम अपने चुने जाने के कारण उस काम को करने के लिए अनुगृहीत तो महसूस करते हो, लेकिन तुम उस काम को सक्रिय रवैये से स्वीकार नहीं करते। तुम सक्रिय क्यों नहीं होते? क्योंकि उसके बारे में तुम्हारे कुछ विचार होते हैं, तुम्हें लगता है, ‘अगुआ होना बिल्कुल अच्छी बात नहीं है। यह तलवार की धार पर चलने या बर्फ की पतली तह पर चलने जैसा है। अच्छा काम करने पर मुझे कोई इनाम तो मिलने से रहा, लेकिन खराब काम करने पर मुझसे निपटा जाएगा और मेरी काट-छाँट की जाएगी। निपटा जाना फिर भी इतना बुरा नहीं है। लेकिन अगर मुझे हटा ही दिया गया या निकाल दिया गया, तो क्या होगा? अगर ऐसा हुआ, तो क्या मेरा खेल खत्म नहीं हो जाएगा?’ ऐसी स्थिति में तुम दुविधाग्रस्त हो जाते हो। यह कैसा रवैया है? यह सतर्कता और गलतफहमी है। अपने कर्तव्य के प्रति लोगों का रवैया ऐसा नहीं होना चाहिए। यह एक हताशा से भरा और नकारात्मक रवैया है। तो सकारात्मक रवैया कैसा होना चाहिए? (हमें खुले दिल वाला और स्पष्टवादी होना चाहिए, और दायित्व उठाने का साहस रखना चाहिए।) यह आज्ञाकारिता और सक्रिय सहयोग वाला रवैया होना चाहिए। तुम लोग जो कहते हो वह थोड़ा-सा खोखला है। जब तुम इस तरह इतने डरे हुए हो, तो खुले दिल वाले और स्पष्टवादी कैसे हो सकते हो? और दायित्व उठाने का साहस रखने का क्या अर्थ है? कौन-सी मानसिकता तुम्हें दायित्व उठाने का साहस देगी? यदि तुम हमेशा डरते रहते हो कि कुछ गलत हो जाएगा और मैं इसे संभाल नहीं पाऊँगा, और तुम्हारे पास कई अंदरूनी बाधाएँ हैं, तो तुममें दायित्व उठाने के साहस की मौलिक रूप से कमी होगी। तुम जिस ‘खुले दिल वाले और स्पष्टवादी होने,’ ‘दायित्व उठाने का साहस रखने,’ या ‘मौत के सामने भी कभी पीछे नहीं हटने’ की बात करते हो, वह कुछ हद तक आक्रोश से भरे युवाओं की नारेबाजी जैसा लगता है। क्या ये नारे व्यावहारिक समस्याओं का समाधान कर सकते हैं? अब जरूरत है सही रवैये की। सही रवैया रखने के लिए तुम्हें सत्य के इस पहलू को समझना होगा। तुम्हारी अंदरूनी कठिनाइयाँ हल करने का एकमात्र तरीका यही है, और यह तुम्हें इस आदेश, इस कर्तव्य को आसानी से स्वीकार करने देता है। यह अभ्यास का मार्ग है, और केवल यही सत्य है। यदि तुम अपना डर भगाने के लिए ‘खुले दिल वाले और स्पष्टवादी होने’ और ‘दायित्व उठाने का साहस रखने’ जैसे शब्दों का उपयोग करोगे, तो क्या यह प्रभावी होगा? (नहीं।) इससे जाहिर होता है कि ये बातें सत्य नहीं हैं, न ही ये अभ्यास का मार्ग हैं। तुम कह सकते हो, ‘मैं खुले दिल वाला, स्पष्टवादी और अदम्य आध्यात्मिक कद का व्यक्ति हूँ, मेरे मन में कोई अन्य विचार या दूषित तत्त्व नहीं हैं और मुझमें दायित्व उठाने का साहस है।’ बाहरी तौर पर तो तुम अपने कर्तव्य स्वीकारते हो, लेकिन बाद में, कुछ देर विचार करने पर तुम्हें अभी भी लगता है कि तुम इस दायित्व को नहीं उठा सकते। तुम्हें अभी भी डर लग सकता है। इसके अलावा, तुम दूसरों से अपनी काट-छाँट होते देखकर और भी डर जाते हो, जैसे कोड़े खाया हुआ कुत्ता पट्टे से भी डरता है। तुम्हें लगातार लगता है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, और यह काम एक विशाल, अगाध खाई की तरह है, और अंततः तुम अभी भी इस दायित्व को नहीं उठा पाओगे। इसलिए नारेबाजी करने से व्यावहारिक समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। तो तुम वास्तव में इस समस्या को कैसे हल कर सकते हो? तुम्हें सक्रियता से सत्य खोजना चाहिए और आज्ञाकारिता और सहयोग का रवैया अपनाना चाहिए। इससे समस्या पूरी तरह हल हो सकती है। दब्बूपन, डर और चिंता फिजूल हैं। तुम्हें उजागर कर निकाल दिया जाएगा या नहीं, क्या इसका तुम्हारे अगुआ होने से कोई संबंध है? अगर तुम एक अगुआ नहीं हो तो क्या तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव लुप्त हो जाएगा? देर-सवेर, तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या को हल करना होगा। साथ ही, अगर तुम एक अगुआ नहीं हो, तो तुम्हें अभ्यास के लिए ज्यादा अवसर नहीं मिलेंगे और तुम जीवन में धीमी प्रगति करोगे, और तुम्हारे पास पूर्ण बनाए जाने की संभावनाएं कम होंगी। हालाँकि एक अगुआ या कार्यकर्ता होने पर थोड़ा ज्यादा कष्ट उठाना पड़ता है, पर इससे कई लाभ भी मिलते हैं, और अगर तुम सत्य के अनुसरण के रास्ते पर चल सकते हो, तो तुम पूर्ण बनाए जा सकते हो। यह कितना बड़ा आशीष है! इसलिए तुम्हें समर्पित होना चाहिए और सक्रिय रूप से सहयोग करना चाहिए। यह तुम्हारा कर्तव्य और जिम्मेदारी है। आगे का मार्ग कैसा भी हो, तुम्हारा दिल आज्ञापालन करने वाला होना चाहिए। इसी रवैये के साथ तुम्हें अपने कर्तव्य का निर्वाहन करना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे मन के विचारों को इतनी अच्छी तरह से उजागर कर दिया कि मुझे शर्मिंदगी और घबराहट होने लगी। मैंने विचार किया कि मैं अगुआ बनने से इतना डरती क्यों हूँ। इसकी वजह यह है कि मैं देख चुकी थी कि कैसे एक अगुआ ने चढ़ावे को स्थानांतरित करने की व्यवस्था करते समय गलत लोगों को चुन लिया था जिसके परिणामस्वरूप बड़े लाल अजगर ने चढ़ावा जब्त कर कई भाई-बहनों को गिरफ्तार कर लिया और कैसे परमेश्वर का घर मामले की जाँच कर रहा था और उसे संभाल रहा था। इसलिए मुझे चिंता थी कि अगर मैं अगुआ बन गई और कार्य में कोई बड़ी गलती कर दी तो इससे न केवल कलीसिया को नुकसान होगा बल्कि भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में भी देरी होगी। यह एक बहुत बड़ा अपराध होगा और मुझे तुरंत बेनकाब कर हटा दिया जाएगा। इसलिए यही ज्यादा सुरक्षित होगा कि इसके बजाय कोई एक कार्य हाथ में ले लिया जाए। मैं लगातार अपने हितों के बारे में ही सोच रही थी और अगुआ होने का कर्तव्य स्वीकार करने का साहस नहीं जुटा पा रही थी। मैंने देखा कि मैं बहुत स्वार्थी हो गई हूँ, मुझमें समर्पण का कोई लक्षण नहीं है। हालाँकि अगुआ के पद में अधिक कार्य शामिल होता है, इसमें प्रशिक्षण के अधिक अवसर होते हैं, सत्य प्राप्त करने के अधिक मौके मिलते हैं और जीवन विकास तेजी से होता है। इसके पीछे परमेश्वर के सच्चे इरादे थे, लेकिन मैंने परमेश्वर के इरादों को नहीं समझा और मैंने अपने हृदय में परमेश्वर के प्रति सतर्कता और गलतफहमियाँ पाल लीं। क्या यह बात परमेश्‍वर को बहुत दुख पहुँचाने वाली नहीं थी? मुझे समर्पित होकर सक्रिय रूप से सहयोग करना चाहिए, परमेश्वर के प्रति अपनी सतर्कता और गलतफहमियों को दूर करने के लिए सत्य खोजना चाहिए।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “भले ही वह अपना पूरा अस्तित्व अपने कर्तव्य में झोंक दें, अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दे और अपना परिवार त्याग दे, अगर वह परमेश्वर को अपना हृदय नहीं देता और परमेश्वर से सावधान रहता है, तो क्या यह एक अच्छी अवस्था है? क्या यह सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने की सामान्य अवस्था है? क्या इस अवस्था का भावी विकास भयावह नहीं है? अगर व्यक्ति इस अवस्था में बना रहे, तो क्या वह सत्य प्राप्त कर सकेगा? क्या वह जीवन प्राप्त कर सकेगा? क्या वह सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकेगा? (नहीं।) क्या तुम लोग जानते हो कि तुम्हारी भी यही अवस्था है? यह जान लेने पर भी क्या तुम अपने मन में सोचते हो : ‘मैं हमेशा परमेश्वर से सावधान क्यों रहता हूँ? मैं हमेशा इसी तरह क्यों सोचता हूँ? इस तरह सोचना अत्यंत भयावह है! यह परमेश्वर का विरोध करना और सत्य को ठुकराना है। क्या परमेश्वर से सावधान रहना उसका विरोध करने के समान है’? परमेश्वर से सावधान रहने की अवस्था बिल्कुल एक चोर होने के समान है—तुम प्रकाश में जीने की हिम्मत नहीं करते, तुम अपने शैतानी चेहरे उजागर करने से डरते हो, और साथ ही, तुम इस बात से भयभीत हो : ‘परमेश्वर के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। वह कभी भी और कहीं भी लोगों का न्याय और ताड़ना कर सकता है। अगर तुम परमेश्वर को क्रोधित करते हो, तो हल्के मामलों में वह तुम्हारी काट-छाँट करेगा और गंभीर मामलों में वह तुम्हें दंड देगा, तुम्हें बीमार करेगा या तुम्हें पीड़ित करेगा। लोग ये चीजें सहन नहीं कर सकते हैं!’ क्या लोगों के मन में ये गलतफहमियाँ नहीं हैं? क्या यह परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है? (नहीं।) क्या इस प्रकार की अवस्था भयावह नहीं है? जब व्यक्ति इस अवस्था में होता है, जब वह परमेश्वर से सावधान रहता है और हमेशा ऐसे विचार रखता है, जब वह हमेशा परमेश्वर के प्रति इसी तरह का रवैया रखता है, तो क्या वह परमेश्वर को परमेश्वर मान रहा है? क्या यह परमेश्वर में विश्वास है? जब व्यक्ति परमेश्वर में इस तरह से विश्वास रखता है, जब वह परमेश्वर को परमेश्वर नहीं मानता, तो क्या यह एक समस्या नहीं है? कम-से-कम, लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को नहीं स्वीकारते, न ही वे उसके कार्य का तथ्य स्वीकारते हैं। वे सोचते हैं : ‘यह सच है कि परमेश्वर कृपालु और प्रेममय है, लेकिन वह क्रोधी भी है। जब परमेश्वर का क्रोध किसी पर पड़ता है, तो वह विनाशकारी होता है। वह लोगों को किसी भी समय कष्ट के साथ मृत्यु दे सकता है, जिसे चाहे नष्ट कर सकता है। परमेश्वर का क्रोध मत भड़काओ। यह सच है कि उसका प्रताप और क्रोध किसी अपमान की अनुमति नहीं देता। उससे दूरी बनाए रखो!’ अगर व्यक्ति का इस तरह का रवैया और ऐसे विचार हैं, तो क्या वह पूरी तरह से और ईमानदारी से परमेश्वर के सामने आ सकता है? नहीं आ सकता(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य का अभ्यास करके ही व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव की बेड़ियाँ तोड़ सकता है)। जब मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया और अपने बारे में सोचा तो मुझे एहसास हुआ कि भले ही मैं कई वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास करती रही हूँ, भले ही मैंने अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपने परिवार और करियर को त्यागने का दिखावा किया हो, लेकिन वास्तव में मैंने कभी भी अपना दिल परमेश्वर को नहीं दिया था। मैं जीवित रहने के लिए हमेशा शैतान के ऐसे नियमों से चिपकी रही थी, “जो जितना बड़ा होता है, उतनी ही जोर से गिरता है” और “ऊँचाई पर तुम अकेले ही होगे,” मैं इन्हें सूत्रवाक्य और बुद्धिमत्तापूर्ण शब्द मानती रही। मैं शैतान के जीवित रहने के नियमों के अनुसार जी रही थी, परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव पर विश्वास नहीं करती थी। मैं परमेश्वर के घर को भी संसार के समान ही देखती थी जहाँ निष्पक्षता और धार्मिकता का अभाव होता है और मैंने परमेश्वर की कल्पना भी भ्रष्ट लोगों की तरह ही की थी, यह मानती थी कि एक छोटी सी, अनजाने में की गई गलती भी निंदा और हटाए जाने का कारण बन सकती है। इसलिए जब मैंने दूसरों की काट-छाँट या बरखास्तगी देखी तो मैं मन ही मन परमेश्वर के प्रति और भी अधिक सतर्क हो गई थी। मुझे चिंता थी कि अगर मैं अगुआ बन गई और कार्य ठीक से नहीं किया तो मुझे बरखास्त कर हटा दिया जाएगा, इसलिए यही ज्यादा सुरक्षित होगा कि बस कोई एक कार्य किया जाए। इन भ्रामक विचारों के कारण मैं परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित नहीं हो सकी। असल में किसी व्यक्ति का खुलासा होगा या नहीं और उसे हटाया जाएगा या नहीं, इसका उसके रुतबे से कोई संबंध नहीं है। यह उसके द्वारा अपनाए गए मार्ग से निर्धारित होता है। अगर कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण नहीं करता है तो भले ही वह बिना किसी रुतबे के हो फिर भी उसे बेनकाब कर हटा दिया जाएगा। कुछ अगुआओं और कार्यकर्ताओं के काम में विचलन या विफलताएँ हो सकती हैं, लेकिन वे सत्य की खोज कर सकते हैं और उसके बाद आत्मचिंतन कर सकते हैं, सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने का हर संभव प्रयास कर सकते हैं और जितना अधिक वे अपना कर्तव्य निभाते हैं उतनी ही अधिक उन्हें सत्य की गहरी समझ प्राप्त होती है। ऐसे लोगों के लिए अगुआ की भूमिका निभाना एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा वे पूर्ण बन सकते हैं। जिस अगुआ को मैं पहले से जानती थी उसे इसलिए बरखास्त कर दिया गया क्योंकि उसने सत्य सिद्धांतों में समय और ऊर्जा नहीं लगाई थी, कार्य में बाधा उत्पन्न की और गड़बड़ की और हठपूर्वक खुद को जानने से इनकार किया। यहाँ तक कि जब उसके मुद्दे उजागर हुए और उस पर संगति हुई तब भी उसने पश्चात्ताप करने के बजाय बहस की और अपना बचाव किया। इसके कारण उसे बरखास्त कर दिया गया। इसके अलावा परमेश्वर के घर से निष्कासित किए गए मसीह-विरोधी रुतबे से तबाह नहीं हुए थे या किसी एक अपराध के कारण नहीं हटाए गए थे। इसका कारण यह था कि अगुआ के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने लापरवाही और निरंकुशता से काम किया था और स्वतंत्र राज्यों की स्थापना के लिए गुट बना लिए थे जिससे कलीसिया का कार्य बुरी तरह बाधित हुआ। काट-छाँट करने और चेतावनी दिए जाने के बाद भी उन्होंने हठपूर्वक पश्चात्ताप करने से इनकार कर दिया था। उन्हें निष्कासित कर दिया गया और हटा दिया गया क्योंकि वे उन लोगों की श्रेणी में आते हैं जो सत्य से विमुख होते हैं और उससे घृणा करते हैं। उनकी असफलता उनके प्रकृति सार और उनके द्वारा अपनाए गए मार्ग से निर्धारित हुई। परमेश्वर के घर में किसी को बरखास्त करने या हटाने का निर्णय किसी व्यक्ति के क्षणिक व्यवहार या उसकी किसी एक गलती पर आधारित नहीं होता बल्कि उसके प्रकृति सार और निरंतर व्यवहार पर आधारित होता है। इसके अलावा परमेश्‍वर प्रत्येक व्यक्ति को पश्चात्ताप के लिए अनेक अवसर प्रदान करता है। ऐसा नहीं है कि अगर कोई गलती करता हुआ पाया गया तो उसे निष्कासित कर दिया जाएगा या हटा दिया जाएगा। ठीक वैसे ही जैसे हमारी कलीसिया अगुआ के साथ हुआ, हालाँकि चढ़ावे को स्थानांतरित करने की व्यवस्था में एक बड़ी समस्या थी फिर भी बाद में उसने सत्य की खोज की, आत्मचिंतन किया और पश्चात्ताप करने की इच्छा जाहिर की। परिणामस्वरूप अभी तक भी उसे बरखास्त नहीं किया गया है। मैंने देखा कि “जो जितना बड़ा होता है, उतनी ही जोर से गिरता है” में मेरा विश्वास मूलतः सत्य के अनुरूप नहीं था और मुझे एहसास हुआ कि मेरा दृष्टिकोण कितना विकृत है! मैं लगातार अपने भविष्य और नियति को लेकर चिंतित रहती थी, मुझे डर रहता था कि अगर मैं अगुआ बन गई और कार्य में गड़बड़ी की तो मुझे अच्छा परिणाम और मंजिल नहीं मिलेगी। अगर सत्य खोजकर इन गलत लक्ष्यों और दृष्टिकोणों का समाधान नहीं किया गया तो फिर भले ही मैं अगुआ न बनूँ, लेकिन चूँकि परमेश्वर का प्रतिरोध करने की मेरी प्रकृति गहरी जड़ें जमाए हुए है, अंत में मुझे हटा ही दिया जाएगा। उस समय मुझे लगा कि शैतान के फलसफे के अनुसार जीना सचमुच खतरनाक है क्योंकि यह मुझे किसी भी समय या स्थान पर परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोही बनाकर उससे दूर कर सकता है।

इसके बाद मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “मसीह-विरोधी कभी परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं का पालन नहीं करते, और वे हमेशा अपने कर्तव्य, प्रसिद्धि, फायदे और रुतबे को अपने आशीषों को प्राप्त करने की आशा और अपने भावी गंतव्य के साथ जोड़ते हैं, मानो अगर उनकी प्रतिष्ठा और हैसियत खो गई, तो उन्हें आशीष और पुरस्कार प्राप्त करने की कोई उम्मीद नहीं रहेगी, और यह उन्हें अपना जीवन खोने जैसा लगता है। वे सोचते हैं, ‘मुझे सावधान रहना है, मुझे लापरवाह नहीं होना चाहिए! परमेश्वर के घर, भाई-बहनों, अगुआओं और कार्यकर्ताओं, यहाँ तक कि परमेश्वर पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। मैं उनमें से किसी पर भरोसा नहीं कर सकता। जिस व्यक्ति पर तुम सबसे ज्यादा भरोसा कर सकते हो और जो सबसे ज्यादा विश्वसनीय है, वह तुम खुद हो। अगर तुम अपने लिए योजनाएँ नहीं बना रहे, तो तुम्हारी परवाह कौन करेगा? तुम्हारे भविष्य पर कौन विचार करेगा? कौन इस पर विचार करेगा कि तुम्हें आशीष मिलेंगे या नहीं? इसलिए, मुझे अपने लिए सावधानीपूर्वक योजनाएँ बनानी होंगी और गणनाएँ करनी होंगी। मैं गलती नहीं कर सकता या थोड़ा भी लापरवाह नहीं हो सकता, वरना अगर कोई मेरा फायदा उठाने की कोशिश करेगा तो मैं क्या करूँगा?’ इसलिए, वे परमेश्वर के घर के अगुआओं और कार्यकर्ताओं से सतर्क रहते हैं, और डरते हैं कि कोई उन्हें पहचान लेगा या उनकी असलियत जान लेगा, और फिर उन्हें बरखास्त कर दिया जाएगा और आशीष पाने का उनका सपना नष्ट हो जाएगा। वे सोचते हैं कि आशीष प्राप्त करने की आशा रखने के लिए उन्हें अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बरकरार रखना चाहिए। मसीह-विरोधी आशीष प्राप्ति को स्वर्ग से भी अधिक बड़ा, जीवन से भी बड़ा, सत्य के अनुसरण, स्वभावगत परिवर्तन या व्यक्तिगत उद्धार से भी अधिक महत्वपूर्ण, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने और मानक के अनुरूप सृजित प्राणी होने से अधिक महत्वपूर्ण मानता है। वह सोचता है कि मानक के अनुरूप एक सृजित प्राणी होना, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना और बचाया जाना सब तुच्छ चीजें हैं, जो मुश्किल से ही उल्लेखनीय हैं या टिप्पणी के योग्य हैं, जबकि आशीष प्राप्त करना उनके पूरे जीवन में एकमात्र ऐसी चीज होती है, जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। उनके सामने चाहे जो भी आए, चाहे वह कितना भी बड़ा या छोटा क्यों न हो, वे इसे आशीष प्राप्ति होने से जोड़ते हैं और अत्यधिक सतर्क और चौकस होते हैं, और वे हमेशा अपने बच निकलने का मार्ग रखते हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि चाहे मसीह-विरोधियों को किसी भी परिस्थिति का सामना करना पड़े वे पहले यह विचार करते हैं कि उन्हें आशीष मिलेगा या नहीं। अगर कोई काम आशीष पाने के लिए लाभदायक है तो वे उसे करेंगे और अगर लाभदायक नहीं है तो वे उसे नहीं करेंगे। वे कभी अपनी जिम्मेदारियों, कर्तव्यों या परमेश्वर के घर के हितों के बारे में नहीं सोचते। अपने व्यवहार पर विचार करने पर मुझे एहसास हुआ कि मैंने भी तो ऐसा ही व्यवहार किया था। भाई-बहनों ने मुझे अगुआ चुना था—यह परमेश्वर द्वारा एक उत्कर्ष और मेरे लिए प्रशिक्षण का एक अवसर था। मुझे सक्रिय रूप से सहयोग करना चाहिए था लेकिन मैंने पहले अपने भविष्य और नियति पर विचार करते हुए आशीष प्राप्त करने को बहुत अधिक महत्व दे दिया था। जैसे ही मैंने एक अगुआ होने की बड़ी जिम्मेदारियों के बारे में सोचा और यह सोचा कि अगर मैंने कोई अपराध किया तो उसका मेरे भविष्य और गंतव्य पर संभावित नकारात्मक प्रभाव होगा तो मैं यह भूमिका निभाने को तैयार नहीं हुई। मैंने आशीष प्राप्त करने को अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों से अधिक महत्वपूर्ण समझा था। मैं सचमुच स्वार्थी और मानवता से रहित बन गई थी! यह एहसास होने पर मैंने परमेश्वर से पश्चात्ताप की प्रार्थना की और सक्रिय रूप से अगुआ होने का कर्तव्य संभाला।

कुछ ही समय बाद मुझे चढ़ावा स्थानांतरित करने का काम सौंप दिया गया। मेरे दिल में अभी भी कुछ डर था, इस बात की चिंता बनी हुई थी कि मेरी अनुचित व्यवस्थाओं के कारण कहीं कोई त्रुटि न हो जाए, इसलिए मैं पीछे हट जाना चाहती थी। उस समय मुझे एहसास हुआ कि यह दशा सही नहीं है, इसलिए मैं प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आई, “हे परमेश्वर, मैं देख रही हूँ कि मैं बहुत स्वार्थी हूँ और फिर से अपने भविष्य और नियति पर ही ध्यान केन्द्रित कर रही हूँ। आज जो यह कर्तव्य मुझे मिला है वह तुम्हारे द्वारा मेरी परीक्षा है। मुझे भय में नहीं जीना चाहिए और अपने हितों का विचार नहीं करना चाहिए। मुझे तुम पर भरोसा करके सिद्धांतों के अनुसार सहयोग करना चाहिए और इस दायित्व को सक्रिय रूप से वहन करना चाहिए और अब व्यक्तिगत लाभ या हानि पर विचार नहीं करना चाहिए।” प्रार्थना के बाद मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “किस तरह का व्यक्ति जिम्मेदारी उठाने की हिम्मत करता है? किस प्रकार के इंसान में भारी बोझ वहन करने का साहस है? जो व्यक्ति अगुआई करते हुए परमेश्वर के घर के काम के सबसे महत्वपूर्ण पलों में बहादुरी से आगे बढ़ता है, जो अहम और अति महत्वपूर्ण कार्य देखकर बड़ी जिम्मेदारी उठाने और मुश्किलें सहने से नहीं डरता। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के प्रति वफादार होता है, मसीह का अच्छा सैनिक होता है। क्या बात ऐसी है कि लोग कर्तव्य की जिम्मेदारी लेने से इसलिए डरते हैं, क्योंकि उन्हें सत्य की समझ नहीं होती? नहीं; समस्या उनकी मानवता में होती है। उनमें न्याय या जिम्मेदारी की भावना नहीं होती, वे स्वार्थी और नीच लोग होते हैं, वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी नहीं होते, और वे सत्य जरा भी नहीं स्वीकारते। इन कारणों से उन्हें बचाया नहीं जा सकता(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। जब मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया तो समझ आया कि जो लोग ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और जिनमें अच्छी मानवता होती है वे जिम्मेदारी की भावना के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हैं, वे निजी लाभ या हानि के बारे में सोचे बिना परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करते हैं। विशेषकर महत्वपूर्ण कार्यों में वे डटकर कठिनाइयों का सामना करते हैं और भारी बोझ उठाने और परमेश्वर के इरादों पर विचार करने में सक्षम होते हैं। चाहे जोखिम कितना भी बड़ा क्यों न हो, वे पीछे नहीं हटते बल्कि चीजों का अनुभव करने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करने में सक्षम होते हैं। ऐसे लोगों में वाकई जमीर और विवेक होता है। वे कलीसिया के स्तंभ होते हैं और परमेश्वर उनसे प्रसन्न होता है। लेकिन जो लोग अपने कर्तव्यों को करते हुए हमेशा अपने लाभ-हानि के बारे में सोचते रहते हैं और जो परमेश्वर के घर के हितों की किसी भी तरह से रक्षा नहीं करते, उनमें मानवता का अभाव होता है, वे स्वार्थी और नीच होते हैं। परमेश्वर की नजर में वे छद्म-विश्वासी और अविश्वासी होते हैं। यह सब सोचते हुए मैं व्यथित हो गई और आत्म-ग्लानि महसूस करने लगी और मैं इस जिम्मेदारी को लेने के लिए तैयार हो गई और जल्द से जल्द चढ़ावे को सुरक्षित स्थान पर स्थानांतरित करने के लिए सक्रिय रूप से सहयोग करने लगी। इस तरह से अभ्यास करने पर मेरे दिल को शांति मिली और आश्वस्त महसूस किया।

अगर परमेश्वर ने मुझे बेनकाब करने के लिए वातावरण की व्यवस्था न की होती तो मुझे अपने स्वार्थी और घृणित भ्रष्ट स्वभाव का और किसका अनुसरण करना है, इस बारे में गलत दृष्टिकोण का पता न चलता, न ही मैं लोगों को बचाने में परमेश्वर के श्रमसाध्य प्रयासों को समझ पाती। मैं परमेश्वर की आभारी हूँ कि उसने इन वातावरणों की व्यवस्था की, अपने वचनों से मेरा प्रबोधन और मार्गदर्शन किया जिससे मुझे यह ज्ञान मिला और मुझमें बदलाव आया।

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23. गंभीर खतरे में होना

जांगहुई, चीन2005 में, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार करने के कुछ ही दिनों बाद, मैंने अपनी पुरानी कलीसिया के एक...

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 8) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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