81. कर्तव्य से बचने के पीछे

युचेन, चीन

मार्च 2023 में मैं कलीसिया में एक प्रचारक का अपना कर्तव्य निभा रही थी। चूँकि मैंने अपने कर्तव्यों में कुछ नतीजे हासिल किए थे, इसलिए मुझे लगने लगा था कि मेरे पास अच्छी कार्य क्षमताएँ और अच्छी काबिलियत है। अपने कर्तव्य करते समय मैंने सत्य सिद्धांतों की खोज किए बिना एक अभिमानी स्वभाव के साथ काम किया। इससे काम में गड़बड़ और बाधा आई और मुझे बरखास्त कर दिया गया। बरखास्त होने के बाद मुझे वाकई नकारात्मकता महसूस होने लगी और मैंने सोचा कि मैंने कलीसिया के कार्य में गड़बड़ की है और बाधा डाली है और मुझे यकीन था कि अब मेरे पास बचाए जाने का मौका नहीं है। मैं हर दिन पीड़ा में रहती थी। दस दिनों से अधिक समय तक चिंतन करने के बाद कलीसिया ने मेरे लिए पाठ-आधारित कर्तव्यों की व्यवस्था की। मैं फिर से बेनकाब किए जाने और बरखास्त होने से भयभीत थी, इसलिए मैं लगातार सावधान रहती थी, मैं सुनिश्चित करती थी कि सिद्धांतों के अनुसार मेरे कर्तव्य पूरे हों और अपने अभिमानी स्वभाव से कार्य करने से बचूँ।

तीन महीने बाद मुझे कलीसिया में अगुआ चुन लिया गया। उच्च अगुआओं ने मुझसे पूछा कि मैं इस बारे में कैसा महसूस करती हूँ, मुझे पता था कि यह कर्तव्य परमेश्वर की ओर से है और मैं मना नहीं कर सकती, पर मैंने बहुत प्रतिरोध महसूस किया। मैंने मन में सोचा, “मैं वास्तव में कलीसिया अगुआ नहीं हो सकती। एक अगुआ समग्र कार्य के लिए जिम्मेदार होता है और उसे कार्य के सभी पहलुओं को समझना, प्रोत्साहित करना और उनका अनुवर्तन करना चाहिए और जैसे-जैसे उसके पास जिम्मेदारियाँ बढ़ती जाती हैं, वे अपनी भ्रष्टता को अधिक प्रकट करते हैं और अधिक तेजी से बेनकाब होते हैं। अगर मैं अगुआ बनी और फिर अपने पुराने तरीकों पर लौट आई और मैं अपने अभिमानी स्वभाव के कारण फिर से काम में गड़बड़ करती हूँ, उसे बाधित करती हूँ और मुझे बेनकाब करके बरखास्त किया जाता है तो यह गंभीर समस्या होगी और मुझे बाहर निकालकर हटाया भी जा सकता है। फिर मेरे पास फिर से अपने कर्तव्य करने का कोई मौका नहीं होगा और फिर मैं कैसे बचाई जा सकूँगी?” इस पर विचार करने के बाद मुझे लगा कि पाठ-आधारित कर्तव्य करना अपेक्षाकृत सुरक्षित है, इसलिए मैंने यह कहते हुए मना कर दिया, “मुझे स्वास्थ्य संबंधी मसले हैं और एक अगुआ होने के नाते बहुत सारी जिम्मेदारियाँ होती हैं। अगर मैं अपने दिन इतनी व्यस्तता में बिताती हूँ तो मेरा शरीर इसे नहीं सँभाल पाएगा। आप किसी और को ढूँढ़ लें।” अंत में अगुआओं ने मुझसे इस पर विचार करने और बाद में जवाब देने के लिए कहा।

उस शाम घर लौटने के बाद मुझे बुखार और दस्त हो गए और मुझे एहसास हुआ कि इन चीजों के पीछे परमेश्वर के इरादे हैं। मैंने सोचा, “इतने बरसों से परमेश्वर में विश्वास रखने के दौरान मैंने कलीसिया द्वारा मेरे लिए व्यवस्थित सभी कर्तव्य स्वीकारे हैं और उनका पालन किया है। और यद्यपि मुझे स्वास्थ्य संबंधी मसले हैं, लेकिन वे कर्तव्य करने की मेरी क्षमता को प्रभावित नहीं करते। फिर जब उन्होंने मुझे अगुआ के रूप में चुना तो मैं इस बार समर्पण करने के लिए तैयार क्यों नहीं थी?” इसलिए मैंने प्रार्थना की और परमेश्वर से जानना चाहा। प्रार्थना के बाद मैंने जल्दी से पढ़ने के लिए परमेश्वर के प्रासंगिक वचन खोजे। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “परिवार अपनी शिक्षा से एक और प्रकार का प्रभाव डालता है। उदाहरण के लिए, तुम्हारे परिवार के लोग हमेशा तुमसे कहते हैं : ‘भीड़ से बहुत ज्यादा अलग मत दिखो, खुद पर लगाम लगाओ और अपनी कथनी और करनी के साथ-साथ अपनी व्यक्तिगत प्रतिभाओं, क्षमताओं, बुद्धि वगैरह पर थोड़ा संयम रखो। सबसे अलग दिखने वाला व्यक्ति मत बनो। जैसी कि कहावत है, “जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है” और “शहतीर का जो हिस्सा बाहर निकला होता है वह सबसे पहले सड़ता है।” अगर तुम अपना बचाव करना चाहते हो और अपने समूह में दीर्घकालिक और स्थायी जगह पाना चाहते हो, तो वह पक्षी मत बनो जो अपनी गर्दन बाहर निकाले रखता है, तुम्हें खुद पर लगाम लगानी चाहिए और सबसे ऊपर उठने की महत्वाकांक्षा नहीं पालनी चाहिए। जरा उस बिजली के खंभे के बारे में सोचो, तूफान आने पर सबसे पहले चोट उसी पर पड़ती है, क्योंकि आसमानी बिजली सबसे ऊँची चीज पर गिरती है; और जब तूफानी हवा चलती है, तो खतरा सबसे ऊँचे पेड़ को ही होता है और वह जड़ से उखड़ जाता है; और सर्दियों में, सबसे ऊँचा पहाड़ ही पहले जमता है। लोगों के साथ भी ऐसा ही है—अगर तुम हमेशा दूसरों से अलग दिखोगे और सबका ध्यान खींचोगे, तो किसी न किसी की नजर तुम पर पड़ेगी, और वह तुम्हें दंडित करने के लिए गंभीरता से सोचेगा। ऐसा पक्षी मत बनो जो अपनी गर्दन बाहर निकाले रखती है, अकेले मत उड़ो। तुम्हें झुंड में ही रहना चाहिए। वरना, अगर तुम्हारे आस-पास कोई सामाजिक विरोध वाला आंदोलन खड़ा होता है, तो सबसे पहले तुम ही दंडित किए जाओगे, क्योंकि तुम सबसे अलग दिखने वाला पक्षी हो। कलीसिया में अगुआ या समूह के प्रमुख मत बनो। वरना, परमेश्वर के घर में कार्य-संबंधी कोई भी नुकसान या समस्या होने पर, अगुआ या सुपरवाइजर होने के नाते, सबसे पहले उँगली तुम पर ही उठेगी। तो, वह पक्षी मत बनो जो अपनी गर्दन उठाए रखता है, क्योंकि जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है। तुम्हें कछुए की तरह अपना सिर छुपाकर पीछे हटना सीखना होगा।’ तुम अपने माँ-बाप की इन बातों को याद रखते हो, और जब अगुआ चुनने का समय आता है, तो तुम यह कहकर उस ओहदे को ठुकरा देते हो, ‘ओह, यह मुझसे नहीं होगा! मेरा परिवार और बच्चे हैं, मैं उनके साथ एकदम बंधा हुआ हूँ। मैं अगुआ नहीं बन सकता। तुम लोगों को ही अगुआ बनना चाहिए, मुझे मत चुनो।’ मान लो कि फिर भी तुम्हें अगुआ बना दिया जाता है, पर तुम इस ओहदे को स्वीकारना नहीं चाहते। तुम कहते हो, ‘मुझे यह ओहदा छोड़ना होगा। तुम लोग ही अगुआ बनो। मैं यह मौका तुम सबको दे रहा हूँ। तुम यह ओहदा ले सकते हो, मैं इसे छोड़ रहा हूँ।’ तुम मन में सोचते हो, ‘हुंह! जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है। तुम जितनी ऊँचाई पर चढ़ोगे, उतनी ही जोर से गिरोगे, और ऊँचाई पर तुम अकेले ही होगे। मैं तुम्हें अगुआ बनने दूँगा, और अगुआ बनने के बाद एक दिन ऐसा आएगा जब तुम अपना तमाशा बना लोगे। मैं कभी अगुआ नहीं बनना चाहता, मैं कामयाबी की सीढ़ी नहीं चढ़ना चाहता, यानी मैं ऊँचाई से गिरूँगा भी नहीं। जरा सोचो, क्या फलाँ व्यक्ति को अगुआ के ओहदे से बर्खास्त नहीं किया गया था? बर्खास्त किए जाने के बाद उसे निकाल दिया गया—उसे एक साधारण विश्वासी बनने का भी मौका नहीं मिला। यह उन कहावतों का एक आदर्श उदाहरण है, “जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है” और “शहतीर का जो हिस्सा बाहर निकला होता है वह सबसे पहले सड़ता है।” सही कहा न मैंने? क्या उसे दंडित नहीं किया गया था? लोगों को अपना बचाव करना सीखना चाहिए, वरना उनकी बुद्धि किस काम की? अगर तुम्हारे पास दिमाग है, तो खुद को बचाने के लिए उसका इस्तेमाल करो। कुछ लोग इस मुद्दे को स्पष्टता से नहीं समझ पाते, लेकिन समाज में और लोगों के किसी भी समूह में ऐसा ही होता है—“जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है।” जब तुम अपनी गर्दन उठाओगे, तो तुम्हारा बहुत सम्मान होगा, जब तक कि तुम्हें गोली नहीं मार दी जाती। तब तुम्हें एहसास होगा कि जो लोग खुद को सबसे सामने रखते हैं उन्हें इसका योग्य फल देर-सबेर मिल ही जाता है।’ ये तुम्हारे माँ-बाप और परिवार की गंभीर शिक्षाएँ और अनुभव हैं, और उनके जीवनकाल का परिष्कृत ज्ञान भी है, जिसे वे बिना किसी हिचकिचाहट के तुम्हारे कानों में फुसफुसाते हैं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (12))। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि लोग शैतान के बताए फलसफों के अनुसार जीते हैं, जैसे, “जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है,” “शहतीर का जो हिस्सा बाहर निकला होता है वह सबसे पहले सड़ता है,” “तुम जितनी ऊँचाई पर चढ़ोगे, उतनी ही जोर से गिरोगे,” और “ऊँचाई पर तुम अकेले ही होगे।” वे मानते हैं कि किसी व्यक्ति को भीड़ में अलग नहीं दिखना चाहिए या साहसपूर्वक कार्य नहीं करना चाहिए और यह एक ऐसा तरीका है जिससे व्यक्ति खुद को बचा सकता है। मैं इन दृष्टिकोणों के अनुसार जी रही थी और मानती थी कि अगुआ होने से और अधिक जिम्मेदारियाँ लेने से मैं अधिक भ्रष्टता प्रकट करूँगी और जितना ऊँचा चढ़ूँगी, उतनी ही जोर से गिरूँगी। इसे ध्यान में रखकर मैं खुद को बचाना चाहती थी और एक साधारण विश्वासी बनना चाहती थी, सोचती थी कि यही सबसे सुरक्षित विकल्प है। साथ ही चूँकि मुझे पहले भी एक बार बरखास्त किया जा चुका था, अगर मुझे फिर से बरखास्त किया गया, तो शायद मेरे पास एक साधारण विश्वासी होने का मौका भी न बचे। इन मूर्खतापूर्ण और बेतुके विचारों के कारण जब मुझे अगुआ चुना गया, तो मेरा पहला विचार यह था कि अगर मैंने यह कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया, तो मुझे बेनकाब करके हटाया जा सकता है, जिसका अर्थ होगा कि मैं बचाई नहीं जा सकूँगी और मेरे पास कोई अच्छा परिणाम या गंतव्य नहीं होगा। इसलिए मैंने मना करने के बहाने ढूँढ़े। मैंने सोचा कि कैसे गैर-विश्वासी एक स्थिर जीवन जीने, खुद को बचाने और समूह में पैर जमाने के लिए कम बोलने और कम बाहर निकलने के सिद्धांत पर काम करते हैं और मुझे एहसास हुआ कि मेरा दृष्टिकोण गैर-विश्वासियों के समान ही था। जब मेरा किसी कर्तव्य से सामना होता था, तो मैं इन शैतानी फलसफों के अनुसार उसके बारे में राय बनाती थी, उस कर्तव्य को अस्वीकारने के दौरान परमेश्वर के विरुद्ध गलतफहमी और सतर्कता में रहती थी। मैं सचमुच स्वार्थी और धोखेबाज थी!

अपनी खोज के दौरान मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े जो कहते हैं : “कुछ लोग सोचते हैं, ‘जो भी अगुआई करता है वह मूर्ख और अज्ञानी है और खुद अपने आप को बर्बाद कर रहा है, क्योंकि एक अगुआ के रूप में कार्य करने से लोग अनिवार्य रूप से परमेश्वर के सामने भ्रष्टता प्रकट करने को मजबूर हो जाते हैं। अगर वे यह काम नहीं करते तो क्या इतनी बड़ी भ्रष्टता सामने आती?’ कितना बेतुका विचार है! यदि तुम एक अगुआ के रूप में कार्य नहीं करते, तो क्या तुम भ्रष्टता का खुलासा नहीं करोगे? क्या अगुआ न होने का मतलब यह है कि भले ही तुम कम भ्रष्टता दिखाओ, तुम्हें उद्धार प्राप्त हो गया है? इस तर्क के अनुसार तो क्या वे सभी जो अगुआओं के रूप में सेवा नहीं करते, जीवित रह सकते हैं और बचाए जा सकते हैं? क्या यह कथन बहुत हास्यास्पद नहीं लगता? जो लोग अगुआओं के रूप में सेवा करते हैं वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को परमेश्वर के वचन खाने-पीने और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने का मार्गदर्शन देते हैं। यह अपेक्षा और मानक उच्च है, इसलिए यह अपरिहार्य है कि जब अगुआ पहली बार प्रशिक्षण शुरू करेंगे तो कुछ भ्रष्ट दशाएँ प्रकट करेंगे। यह सामान्य है और परमेश्वर इसकी निंदा नहीं करता। इसकी निंदा करना तो दूर रहा, परमेश्वर इन लोगों को प्रबुद्ध और रोशन कर उनका मार्गदर्शन भी करता है, और उन पर अतिरिक्त बोझ डालता है। अगर वे परमेश्वर के मार्गदर्शन और कार्य के प्रति समर्पण कर सकते हैं तो वे सामान्य लोगों की तुलना में जीवन में तेजी से प्रगति करेंगे। यदि वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हैं तो वे परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के मार्ग पर चल सकते हैं। यही वह चीज है जिस पर परमेश्वर का सबसे अधिक आशीष होता है। कुछ लोग इसे समझ नहीं पाते और तथ्यों को तोड़-मरोड़ देते हैं। मानवीय समझ के अनुसार चाहे कोई अगुआ कितना भी बदल जाए, परमेश्वर परवाह नहीं करेगा; वह केवल यह देखेगा कि अगुआ और कार्यकर्ता कितनी भ्रष्टता प्रकट करते हैं और इसके आधार पर ही उनकी निंदा करेगा। और जो लोग अगुआ और कार्यकर्ता नहीं हैं वे चूँकि भ्रष्टता प्रकट नहीं करते, इसलिए चाहे वे खुद को न भी बदलें तो भी परमेश्वर उनकी निंदा नहीं करेगा। क्या यह बेतुकी बात नहीं है? क्या यह परमेश्वर की ईशनिंदा नहीं है? यदि तुम अपने हृदय में इतनी गहराई से परमेश्वर का विरोध करते हो, तो क्या तुम्हें बचाया जा सकता है? तुम्हें नहीं बचाया जा सकता। परमेश्वर लोगों के परिणाम मुख्य रूप से इस आधार पर निर्धारित करता है कि उनके पास सत्य और सच्ची गवाही है या नहीं, और यह मुख्य रूप से इस पर निर्भर करता है कि क्या वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हैं या नहीं हैं। यदि वे सत्य का अनुसरण करते हैं, अपने अपराध के लिए न्याय और ताड़ना दिए जाने के बाद वे सच में पश्चात्ताप कर पाते हैं, तो जब तक वे ऐसे शब्द नहीं कहते या ऐसी चीजें नहीं करते हैं जिनसे परमेश्वर की ईशनिंदा हो, वे निश्चित रूप से उद्धार प्राप्त करने में सक्षम होंगे। तुम लोगों की कल्पनाओं के अनुसार सभी सामान्य विश्वासी जो अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, उद्धार प्राप्त कर सकते हैं, और जो अगुआ के रूप में सेवा करते हैं, उन सभी को हटा दिया जाना चाहिए। यदि तुम लोगों से अगुआ बनने के लिए कहा जाए, तो तुम सोचोगे कि ऐसा न करना ठीक नहीं रहेगा, लेकिन अगुआ के रूप में काम करना पड़ा तो अनजाने में ही भ्रष्टता प्रकट होगी और यह बिल्कुल अपनी गर्दन कटाने जैसी बात है। क्या यह सब सोचने का कारण परमेश्वर के बारे में तुम लोगों की गलतफहमियाँ नहीं है? यदि लोगों के परिणाम उनके द्वारा प्रकट भ्रष्टता के आधार पर निर्धारित किए जाते, तो किसी को भी नहीं बचाया जा सकता। उस स्थिति में परमेश्वर द्वारा उद्धार का कार्य करने का क्या मतलब होगा? यदि सचमुच ऐसा ही हो तो परमेश्वर की धार्मिकता कहाँ दिखेगी? मानवजाति परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को देखने में असमर्थ रहेगी। इसलिए तुम सब लोगों ने परमेश्वर के इरादों को गलत समझा है, जो दर्शाता है कि तुम लोगों को परमेश्वर का सच्चा ज्ञान नहीं है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “कभी-कभी, परमेश्वर तुम्हें प्रकट करने या तुम्हें अनुशासित करने के लिए किसी निश्चित मामले का उपयोग करता है। क्या इसका मतलब यह है कि तुम्हें हटा दिया गया है? क्या इसका मतलब यह है कि तुम्हारा अंत आ गया है? नहीं। ... दरअसल, कई मामलों में लोगों की चिंता अपने स्वार्थ से ही उपजती है। आम तौर पर, यह भय होता है कि उनके पास कोई परिणाम नहीं होगा। वे हमेशा सोचते हैं, ‘अगर परमेश्वर मुझे प्रकट कर देता है, हटा देता है और नकार देता है, तो क्या होगा?’ यह तुम्हारे द्वारा परमेश्वर को गलत समझना है; यह सिर्फ तुम्हारी एक-तरफा अटकलबाजी है। तुम्हें पता लगाना होगा कि परमेश्वर का इरादा क्या है। जब वह लोगों को प्रकट करता है, तो यह उन्हें हटाने के लिए नहीं होता। लोगों को इसलिए प्रकट किया जाता है ताकि उन्हें अपनी कमियों का, गलतियों का और अपने प्रकृति सारों का पता चले, ताकि वे खुद को जानकर सच्चा पश्चात्ताप करने में समर्थ बन सकें; इस कारण, लोगों को प्रकट इसलिए किया जाता है ताकि उनका जीवन विकसित हो सके। शुद्ध समझ के बिना, लोग परमेश्वर की गलत व्याख्या करके नकारात्मक और कमजोर हो सकते हैं। वे बुरी तरह निराश भी हो सकते हैं। वास्तव में, परमेश्वर द्वारा प्रकट किए जाने का अर्थ आवश्यक रूप से यह नहीं है कि तुम्हें हटा ही दिया जाएगा। यह इसलिए है ताकि तुम अपनी भ्रष्टता जान सको और यह तुमसे पश्चात्ताप करवाने के लिए है। अक्सर, चूँकि लोग विद्रोही हो जाते हैं, और भ्रष्टता प्रकट करने पर वे सत्य में समाधान नहीं ढूँढ़ते, इसलिए परमेश्वर को उन्हें अनुशासित करना पड़ता है। और इसलिए, कभी-कभी, वह लोगों को प्रकट कर उनकी कुरूपता और दयनीयता को प्रकट कर देता है, जिससे वे खुद जान जाते हैं, इससे उनके जीवन को विकसित होने में मदद मिलती है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य का अभ्यास और परमेश्वर को समर्पण करके ही व्यक्ति अपने स्वभाव में बदलाव हासिल कर सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि अगुआ और कार्यकर्ता के रूप में चाहे वे कितने भी भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करें या उन्होंने अतीत में कितने भी अपराध किए हों, अगर वे सत्य का अनुसरण करते हैं, आत्म-चिंतन कर खुद को जान सकते हैं और सच्चा पश्चात्ताप कर खुद को बदल सकते हैं तो वे उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। जो लोग अगुआ नहीं हैं, भले ही उनमें प्रकट होने वाली भ्रष्टता न्यूनतम हो, अगर वे सत्य का अनुसरण नहीं करते या खुद के बारे में कोई सच्ची समझ नहीं रखते, तो अंततः उनका स्वभाव नहीं बदलेगा और उनके लिए तब बचाया जाना भी संभव नहीं होगा। वास्तव में हम बचाए जाते हैं या हटाए जाते हैं, इसका हमारे कर्तव्यों या हमारे रुतबे के ऊँचा या नीचा होने से कोई लेना-देना नहीं है। अहम बात है हमारा निजी अनुसरण, यानी हम सत्य का अनुसरण और सत्य से प्रेम करते हैं या नहीं। परमेश्वर का घर लोगों को उनके क्षणिक कार्यों या व्यवहार के आधार पर नहीं हटाता, बल्कि इन चीजों का फैसला किसी व्यक्ति के निरंतर व्यवहार और प्रकृति सार के आधार पर करता है। ठीक वैसे ही जैसे बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को निकाला जाता है या निष्कासित कर दिया जाता है, वे सत्य से विमुख होते हैं और घृणा करते हैं और वे अक्सर अपने कर्तव्यों में सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं और कई बुराइयाँ करते हैं। वे कई बार संगति के बावजूद पश्चात्ताप करने से इनकार कर देते हैं और इसीलिए परमेश्वर का घर उन्हें निकाल कर हटा देता है। मेरी पिछली बरखास्तगी मेरे अत्यधिक अहंकारी स्वभाव, अपने कर्तव्यों में सिद्धांतों का पालन करने में मेरी विफलता और कलीसिया के काम में गड़बड़ करने और बाधा डालने के कारण हुई थी। लेकिन मेरी बरखास्तगी का उद्देश्य मुझे हटाना नहीं था, बल्कि मुझे आत्म-चिंतन करने और उस अनुभव के माध्यम से वास्तव में पश्चात्ताप करने का मौका देना था और जब मुझे अपने बारे में कुछ समझ आ गई, तो कलीसिया ने मेरे लिए पाठ आधारित कर्तव्य करने की व्यवस्था की। मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर द्वारा मुझे इस तरह बेनकाब करना मुझे बदलने और शुद्ध करने के लिए था, मुझे हटाने के लिए नहीं। जब मैंने सत्य की खोज किए बिना परिस्थितियों का सामना किया, तो मैं लोगों के प्रति परमेश्वर के रवैये और उसके श्रमसाध्य विचारों को समझने में विफल रही। मैंने बेतुके ढंग से सोचा कि चूँकि मुझे एक बार निकाला गया था, अगर मैंने एक और गलती की, तो मुझे निकाल कर हटा दिया जाएगा। क्या मैं परमेश्वर के इरादों को गलत नहीं समझ रही थी?

बाद में मैंने परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़े और मुझे अपने प्रकृति सार की कुछ समझ प्राप्त हुई। परमेश्वर कहता है : “मसीह-विरोधी यह नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, न वे ये मानते हैं कि उसका स्वभाव धार्मिक और पवित्र है। वे इन सबको मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं से देखते हैं; परमेश्वर के कार्य को मानवीय दृष्टिकोणों, मानवीय विचारों और मानवीय छल-कपट से देखते हैं, परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार को निरूपित करने के लिए शैतान के तर्क और सोच का उपयोग करते हैं। जाहिर है, मसीह-विरोधी न केवल परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार को स्वीकार नहीं करते या नहीं मानते; बल्कि इसके उलट वे परमेश्वर के प्रति धारणाओं, विरोध और विद्रोहीपन से भरे होते हैं और उसके बारे में उनके पास लेशमात्र भी वास्तविक ज्ञान नहीं होता। परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के स्वभाव और परमेश्वर के प्रेम की मसीह-विरोधियों की परिभाषा एक प्रश्नचिह्न है—संदिग्धता है और वे उसके प्रति संदेह, इनकार और दोषारोपण की भावनाओं से भरे होते हैं; तो फिर परमेश्वर की पहचान का क्या? परमेश्वर का स्वभाव उसकी पहचान दर्शाता है; परमेश्वर के स्वभाव के प्रति उनके जैसा रुख, परमेश्वर की पहचान के बारे में उनका नजरिया स्वतः स्पष्ट है—प्रत्यक्ष इनकार। मसीह-विरोधियों का यही सार है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग छह))। “मैं उन लोगों में प्रसन्नता अनुभव करता हूँ जो दूसरों पर शक नहीं करते, और मैं उन लोगों को पसंद करता हूँ जो सच को तत्परता से स्वीकार कर लेते हैं; इन दो प्रकार के लोगों की मैं बहुत परवाह करता हूँ, क्योंकि मेरी नज़र में ये ईमानदार लोग हैं। यदि तुम धोखेबाज हो, तो तुम सभी लोगों और मामलों के प्रति सतर्क और शंकित रहोगे, और इस प्रकार मुझमें तुम्हारा विश्वास संदेह की नींव पर निर्मित होगा। मैं इस तरह के विश्वास को कभी स्वीकार नहीं कर सकता। सच्चे विश्वास के अभाव में तुम सच्चे प्यार से और भी अधिक वंचित हो। और यदि तुम परमेश्वर पर इच्छानुसार संदेह करने और उसके बारे में अनुमान लगाने के आदी हो, तो तुम यकीनन सभी लोगों में सबसे अधिक धोखेबाज हो(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पृथ्वी के परमेश्वर को कैसे जानें)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि मसीह-विरोधी परमेश्वर की पहचान और सार पर संदेह करते हैं और उसे नकारते हैं। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, न ही वे उसके धार्मिक और पवित्र स्वभाव पर विश्वास करते हैं। इसके बजाय वे मानवीय दृष्टिकोण और तर्क के जरिए परमेश्वर के कार्य का अध्ययन करते हैं और वे परमेश्वर के प्रति धारणाओं, शक, इनकार और संदेहों से भरे होते हैं। मैंने देखा कि मेरा व्यवहार मसीह-विरोधी जैसा ही था। मुझे हमेशा परमेश्वर पर शक रहता था। प्रचारक के रूप में बरखास्त किए जाने के बाद मैंने उन तरीकों को समझने की कोशिश नहीं की जिनसे मैंने परमेश्वर का प्रतिरोध और उसके खिलाफ विद्रोह किया था, न ही मैंने इस बात पर आत्म-चिंतन किया कि मैंने कलीसिया के कार्य में कैसे गड़बड़ की और बाधा डाली। मुझे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की बिल्कुल भी समझ नहीं थी और इसके बजाय मैंने परमेश्वर को एक शासक की तरह देखा, यह सोचा कि एक बार जब कोई व्यक्ति अपराध करता है, तो वह उसे पश्चात्ताप करने का मौका नहीं देगा और वह उसे निकाल कर हटा देगा। मैंने सोचा कि इस बरखास्तगी के दौरान परमेश्वर का इरादा मुझे आत्म-चिंतन करने, खुद को जानने और सबक सीखने के लिए प्रेरित करना था। मेरा अगुआ के रूप में चुना जाना परमेश्वर द्वारा मुझे प्रशिक्षित करने का एक और अवसर देना था और यह उसका अनुग्रह और उन्नयन भी था। लेकिन परमेश्वर के प्रेम और उद्धार के लिए आभारी होने के बजाय मैंने परमेश्वर पर शक किया, उससे धोखा किया और अपने कर्तव्य से इनकार किया, अपना कर्तव्य करने और सत्य प्राप्त करने के इस अवसर को मुझे बेनकाब करने और हटाने की किसी चाल के रूप में देखा। क्या मैं काले को सफेद नहीं कह रही थी और तथ्यों को तोड़-मरोड़ नहीं रही थी? मुझमें सचमुच कोई मानवता नहीं थी! अगर मैं इन शैतानी भ्रांतियों के साथ जीना जारी रखती कि “ऊँचाई पर तुम अकेले ही होगे,” और “तुम जितनी ऊँचाई पर चढ़ोगे, उतनी ही जोर से गिरोगे,” और अपने कर्तव्यों में सत्य सिद्धांत खोजने की उपेक्षा करती, परमेश्वर के विरुद्ध लगातार सतर्क रहती और उसे गलत समझती, तो मैं बस परमेश्वर द्वारा घृणित और बेनकाब कर हटाए जाने की पात्र बन जाती। मैंने परमेश्वर से पश्चात्ताप कर प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, मैं बहुत धोखेबाज और दुष्ट रही हूँ, हमेशा तुम पर शक करती रही हूँ और तुमसे सतर्क रही हूँ। फिर भी तुम अपने वचनों का उपयोग मुझे प्रबुद्ध करने और अपने इरादे समझने में मार्गदर्शन करने के लिए करते हो। मैं वास्तव में तुम्हारे उद्धार के योग्य नहीं हूँ! हे परमेश्वर, मैं पश्चात्ताप करने, तुम्हारे आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने को तैयार हूँ, अब तुम्हारे खिलाफ विद्रोह नहीं करूँगी और तुम्हारे दिल को चोट नहीं पहुँचाऊँगी।”

इसके बाद मैंने परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़े और मुझे अभ्यास का मार्ग प्राप्त हुआ। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “दरअसल, अधिकांश लोगों के लिए, चाहे वे अपने कर्तव्यों का पालन करते समय किसी भी भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट करें, जब तक वे उन्हें हल करने के लिए सत्य की तलाश करते हैं, वे धीरे-धीरे भ्रष्टाचार के उजागर होने की संख्या को कम कर सकते हैं और अंततः अपने कर्तव्यों को पर्याप्त रूप से निभा सकते हैं। यह परमेश्वर का कार्य अनुभव करने की प्रक्रिया है। जैसे ही तुम कोई भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हो, तुम्हें इसे हल करने के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए और अपने शैतानी स्वभाव को समझना और उसका विश्लेषण करना चाहिए। यह तुम्हारे शैतानी स्वभाव से लड़ने की प्रक्रिया है और यह तुम्हारे जीवन के अनुभव के लिए आवश्यक है। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हुए और अपने स्वभाव को बदलते हुए, तुम उन सत्यों को आजमाते हो जिन्हें अपने शैतानी स्वभाव के खिलाफ प्रतिस्पर्धा करने के लिए तुम समझते हो, अंततः अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करते हुए और शैतान पर विजय प्राप्त करते हुए, तुम स्वभाव में परिवर्तन प्राप्त करते हो। व्यक्ति के स्वभाव को बदलने की प्रक्रिया सत्य को खोजना और स्वीकारना है ताकि मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं, शब्दों और धर्म-सिद्धांतों और शैतान से आने वाले विभिन्न पाखंडों और भ्रांतियों और सांसारिक आचरण के फलसफों को हटाकर इन चीजों को धीरे-धीरे परमेश्वर के वचनों और सत्य से बदला जा सके। सत्य को प्राप्त करने और व्यक्ति के स्वभाव को बदलने की यही प्रक्रिया है। यदि तुम यह जानना चाहते हो कि तुम्हारा स्वभाव कितना बदल गया है, तो तुम्हें यह स्पष्ट रूप से देखना होगा कि तुम कितने सत्यों को समझते हो, तुम कितने सत्यों को व्यवहार में लाए हो और तुम कितने सत्यों को जीने में सक्षम हो। तुम्हें स्पष्ट रूप से देखना चाहिए कि तुम्हारे कितने भ्रष्ट स्वभावों को उन सत्यों से प्रतिस्थापित किया गया है जिन्हें तुमने समझा और प्राप्त किया है और वे किस हद तक तुम्हारे भीतर के भ्रष्ट स्वभावों को नियंत्रित करने में सक्षम हैं, अर्थात्, तुम जिन सत्यों को समझते हो वे किस हद तक तुम्हारे विचारों और इरादों और तुम्हारे दैनिक जीवन और अभ्यास में मार्गदर्शन करने में सक्षम हैं। तुम्हें स्पष्ट रूप से देखना चाहिए कि क्या, जब चीजें तुम्हारे ऊपर आती हैं, तो तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों का ही बोलबाला होता है, या जिन सत्यों को तुम समझते हो, वे प्रबल होते हैं और तुम्हारा मार्गदर्शन करते हैं। यह वह मानक है जिसके द्वारा तुम्हारे आध्यात्मिक कद और जीवन प्रवेश को मापा जाता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “अभी बस सत्य के लिए प्रयास करो, जीवन-प्रवेश पर ध्यान केंद्रित करो और अपने कर्तव्य के अच्छे प्रदर्शन का अनुसरण करो। इसमें कोई गलती नहीं है! चाहे परमेश्वर अंत में तुम्हें कैसे भी सँभाले, उसके धार्मिक होने की गारंटी है; तुम्हें इस पर संदेह नहीं करना चाहिए, और तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है। ... अगर तुम कभी-कभी अनजाने ही स्वच्छंद हो जाते हो, और परमेश्वर तुम्हें इसका संकेत देता है और तुम्हारी काट-छाँट करता है और तुम बदलकर बेहतर हो जाते हो, तो परमेश्वर इसकी वजह से तुम्हारे प्रति द्वेष नहीं रखेगा। यह स्वभाव-परिवर्तन की सामान्य प्रक्रिया है, और उद्धार के कार्य का वास्तविक महत्व इस प्रक्रिया में प्रकट होता है। यह कुंजी है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैं उसके इरादों को समझ पाई। परमेश्वर का कार्य हमारे भ्रष्ट स्वभावों को बदलना और स्वच्छ करना है। चूँकि हम शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट किए गए हैं, हम अपने कर्तव्यों में लगातार भ्रष्टता प्रकट करते हैं। इसलिए हमें इसके समाधान के लिए सचेत रहते हुए सत्य खोजना चाहिए, सच्चा पश्चात्ताप करना चाहिए और अपने जीवन में धीरे-धीरे प्रगति करनी चाहिए। ऐसा करके ही हम अंततः उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। वास्तव में उद्धार में सबसे बड़ी बाधा व्यक्ति का अपना भ्रष्ट स्वभाव है, जिसका उसके कर्तव्यों के निर्वहन से कोई लेना-देना नहीं होता। भले ही मैं एक अगुआ का कर्तव्य न निभाऊँ, अगर मेरे भ्रष्ट स्वभाव का समाधान नहीं होता, तो भी मैं बेनकाब होकर हटा दी जाऊँगी। एक सृजित प्राणी के रूप में मुझे परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाएँ स्वीकार करना और उनके प्रति समर्पित होना था और मुझे अपने कर्तव्यों में अपना सब कुछ देना था और अब परमेश्वर को गलत नहीं समझना था या उससे सतर्क नहीं रहना था! परमेश्वर के इरादे समझने के बाद अब मुझे एक अगुआ के रूप में बेनकाब होने या हटाए जाने का डर नहीं था, इसलिए मैंने इस कर्तव्य को स्वीकार करने के लिए उच्च अगुआओं को लिखा।

इस अनुभव से मुझे परमेश्वर पर शक करने और उससे सतर्क रहने के अपने धोखेबाज स्वभाव की कुछ समझ मिली है और मुझे अपने भ्रामक दृष्टिकोणों के बारे में भी कुछ अंतर्दृष्टि मिली है। मुझे एहसास हुआ कि जब परमेश्वर लोगों को बेनकाब करता है, तो यह उन्हें हटाने के लिए नहीं होता, बल्कि उन्हें शुद्ध करने और बचाने के लिए होता है, भले ही वह कैसे भी पेश आए। परमेश्वर का धन्यवाद!

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