84. अब मैं अपनी छवि अच्छी बनाए रखने के चक्कर में नहीं रहती

याओ योंगशिन, चीन

मेरे पैदा होने से पहले ही बीमारी के चलते मेरे पिता की मौत हो गई, मेरी माँ को अकेले ही पाँच बच्चों की परवरिश करनी पड़ी और उसके लिए गुजारा चलाना मुश्किल हो गया। गाँव में कोई भी हमारी इज्जत नहीं करता था। जब से मुझे याद है मेरी माँ ने हमें हमेशा सिखाया, “एक व्यक्ति में गरिमा होनी चाहिए। भले ही हम गरीब हों, लेकिन हमें अपना हौसला नहीं खोना चाहिए।” “‘एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है।’ तुम्हें अपने जीवनकाल में अच्छा नाम कमाना चाहिए। अगर तुम्हारी अच्छी प्रतिष्ठा नहीं है तो तुम्हारे जीने का क्या मतलब है? तुम जहाँ भी जाओ, तुम्हें लोगों पर अच्छी छाप छोड़नी चाहिए। तुम जो भी करो, लोग तुम्हारे बारे में बुरा न बोलें। बल्कि सुनिश्चित करो कि लोग तुम्हारी अच्छाई याद रखें।” अपनी माँ के दीर्घकालिक, गंभीर मार्गदर्शन से यह कहावत “एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है” मेरे दिल में गहराई तक समा गई। यह मेरे आचरण और व्यवहार की दिशा बन गई और मैं अपने हर काम में दूसरों की नजरों में अपनी छवि के बारे में बहुत चिंतित रहने लगी। मुझे याद है जब मैं किशोरी थी, मैंने अपनी भाभी को शिकायत करते हुए सुना कि मेरी माँ और बड़ी बहन उसके बच्चों की देखभाल करने में मदद नहीं करती हैं। मैंने सोचा कि मैं उसे पीठ पीछे अपने बारे में बुरा बोलने नहीं दे सकती, इसलिए मैं सक्रियता से उसके बच्चों की देखभाल करने लगी, मैं उनके कपड़े धोती थी और उन्हें खाना खिलाती थी। बाद में मेरी भाभी अक्सर दूसरों के सामने मेरी तारीफ करने लगी, कहने लगी कि मैं अपने परिवार में सबसे अच्छी हूँ। गाँव के लोग भी मेरी तारीफ करने लगे। यह सब सुनकर मुझे बहुत खुशी होती थी। मेरी शादी के बाद मेरी सास बिस्तर पर पड़ गई और कुछ समय तक उसकी देखभाल करने के बाद मेरा शरीर व्याकुल हो गया। जब मैं अपनी माँ से मिलने गई तो मैंने उससे शिकायत की। उसने मुझे सलाह दी, “तुम्हें अपनी सास के साथ अच्छे से रहना चाहिए; तुम अपना नाम खराब नहीं कर सकती।” अपनी माँ की बातों पर विचार करते हुए मैं उससे सहमत हो गई। जीवन भर जीने का मतलब वास्तव में अच्छा नाम कमाना और बदनामी से बचना है। मैं और मेरी दो भाभियाँ बारी-बारी से हमारी सास की देखभाल करने के लिए तैयार थीं। लेकिन गाँव में अच्छी प्रतिष्ठा बनाने के लिए मैंने दस साल तक अकेले ही उसकी देखभाल करने का बीड़ा उठाया, जब तक कि वह चल नहीं बसी। और गाँव वालों से मुझे वो तारीफ और अच्छी प्रतिष्ठा मिली, जिसकी मैं कामना करती थी।

परमेश्वर में आस्था रखना शुरू करने के बाद मैं अपनी माँ से मिली सीखें याद करती रही। मुझे कलीसिया के भाई-बहनों द्वारा अपने बारे में किए जाने वाले मूल्यांकन की बहुत परवाह थी, डरती थी कि मेरी कोई गलती उन पर बुरी छाप छोड़ सकती है। उस समय मैंने अपनी आस्था का उत्साहपूर्वक अनुसरण किया, परमेश्वर के वचन लगन से पढ़े और सभाओं के दौरान संगति में सक्रियता से भाग लिया। मैं जल्द ही कलीसिया अगुआ के रूप में अपना कर्तव्य करने लगी। भाई-बहनों के दिलों में अच्छी छवि बनाए रखने के लिए मैंने परमेश्वर के वचन खाने और पीने पर और भी अधिक ध्यान केंद्रित किया, ताकि वे मुझे ऐसी इंसान के रूप में देखें जो सत्य की संगति कर सकती है और सक्षम अगुआ है। मैंने अपने सहकर्मियों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने के लिए भी कड़ी मेहनत की। जब भी उन्होंने मुझसे मदद माँगी, मैंने उनकी सहायता करने की पूरी कोशिश की। कभी-कभी वे व्यक्तिगत मामलों के लिए समूह की बैठकें छोड़ देते थे या अनसुलझे मुद्दे लेकर मेरे पास आते थे और खुद उन्हें सुलझाने के बजाय मुझसे समस्याएँ सुलझाने के लिए संगति करने को कहते थे। मैंने ये कार्य भी अच्छे से किए। बढ़ते कार्यभार के कारण मैं हर दिन जल्दी घर से निकल जाती थी और देर से लौटती थी। असल में मैं हर दिन इतनी व्यस्त नहीं रहना चाहती थी। इसके अलावा मेरा पति मुझे अपने कर्तव्य करने से रोकता था और घर आने के बाद अक्सर मुझे डाँटता था। कड़वाहट और थकावट के बावजूद मैंने हमेशा अपने सहकर्मियों की मदद करने का वादा किया, चाहे यह कितना भी मुश्किल क्यों न हो, ताकि मेरे बारे में उनकी अच्छी राय बनी रहे। जब भी भाई-बहनों के जीवन में शिकायतें होती थीं या उनके कर्तव्यों में मुश्किलें होती थीं, वे मेरे पास आते और मैं उन्हें सांत्वना देती और उनके साथ संगति करने के लिए परमेश्वर के कुछ वचन ढूँढ़ती। कलीसिया में मैंने एकमत से सभी भाई-बहनों से प्रशंसा अर्जित की।

एक बार जब मैं बहन झेंग लू से अपनी मनोदशा के बारे में बात कर रही थी, उसने बताया कि कई भाई-बहनों ने कहा था कि मैं घमंडी हूँ और मैं कठोर लहजे में बोलती हूँ। मैं दंग रह गई और अनुमान लगाने की कोशिश करने लगी कि मेरे बारे में ऐसी राय किसकी है। भाई-बहनों के साथ हुई हर बातचीत पर विचार करते हुए मुझे याद आया कि हाल ही में एक रिपोर्ट पत्र पर काम करते समय बारीकियों की पुष्टि किए बिना ही मैंने जल्दबाजी में अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर एक निश्चित चरित्र-चित्रण बना लिया था और दूसरों को भी उसे मानने के लिए मजबूर कर दिया था। मैं वाकई अभिमानी और दंभी थी। लेकिन यह एहसास कि भाई-बहनों की मेरे बारे में ऐसी राय है, स्वीकारना थोड़ा कठिन था और मैं बहुत निराश हो गई, सोचने लगी, “मैंने हमेशा सोचा था कि भाई-बहनों के दिलों में मेरी अच्छी छवि है। लेकिन यह बहुत भयानक निकली। यह वाकई शर्मिंदगी भरा है! मैं भविष्य में उनका सामना कैसे करूँगी?” एक पल में मेरा मूड बहुत खराब हो गया और मैं बहुत निराश हो गई, मेरा मन अपने बारे में उनकी नकारात्मक राय के विचारों से भर गया। उस रात मैं बिस्तर पर करवटें बदलती रही, सो नहीं पाई और चुपचाप रोती रही। मैंने अपना कर्तव्य छोड़ने के बारे में भी सोचा। मैं पूरी तरह से टूट गई थी, जैसे मेरा सारा उत्साह ही खत्म हो गया हो। भाई-बहनों के दिलों में अपनी छवि को बहाल करने के लिए, फिर से सभाओं में जाने पर मैं अपने लहजे और हाव-भाव पर विशेष ध्यान देती थी। उनसे बात करते समय मैं नरम और कोमल लहजे का इस्तेमाल करने की कोशिश करती थी। जब मैं उनके कर्तव्य में कोई समस्या देखती तो उनके बारे में बताने या उन्हें सीधे तौर पर उजागर करने से परहेज करती। इसके बजाय मैं उन्हें काम पूरा करने के लिए राजी करती, इस उम्मीद में कि उन्हें लगेगा मैं घमंडी और दंभी होने के बजाय मिलनसार हूँ। एक बार काम करवाने से जुड़ी एक सभा के दौरान एक समूह अगुआ घरेलू मामलों के कारण बहुत देर से आई, जिससे सभा में देरी हुई। कुछ भाई-बहनों ने बताया था कि उसमें अपने कर्तव्य के प्रति जिम्मेदारी की भावना की कमी है और वह आम तौर पर सभाओं में देर से आती है। मैं इस बात को बताकर उसकी काट-छाँट करना चाहती थी, लेकिन फिर मैंने सोचा, “अगर मैं उसकी काट-छाँट करूँगी तो क्या वह भाई-बहनों के सामने मेरे बारे में बुरा-भला कहेगी कि मैं कितनी कठोर हूँ और मैंने कैसे उसकी काट-छाँट की? अगर ऐसा हुआ तो क्या इससे ज्यादा भाई-बहनों के दिलों में मेरी छवि खराब नहीं होगी?” अपना आत्मसम्मान और रुतबा बनाए रखने के लिए मैंने खुद को रोका और समूह अगुआ से विनम्रतापूर्वक कहा, “कृपया अगली बार देर मत करना, नहीं तो काम में देरी होगी।” यह कहने के बाद मुझे एहसास हुआ कि अगर मैंने इसी तरह उसके मसले नहीं बताए तो इससे कलीसियाई जीवन पर असर पड़ सकता है। लेकिन मुझे डर था कि वह मेरे बारे में गलत धारणा बनाएगी, इसलिए मैंने उनके बारे में नहीं बताया। सभा के बाद मुझे इस तरह का दिखावा करने से थकावट महसूस हुई। वह समूह अगुआ उसके बाद भी नहीं बदली। जिम्मेदारी की भावना के अभाव में वह अपना कर्तव्य निभाने से पीछे हटती रही। मैं दमित और व्यथित हो गई, यहाँ तक सोचने लगी कि मैं यह कर्तव्य जारी नहीं रख सकती क्योंकि यह बहुत थकाऊ है।

एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “परिवार लोगों को बस एक या दो कहावतों से नहीं, बल्कि बहुत सारे मशहूर उद्धरणों और सूक्तियों से सिखाता है। उदाहरण के लिए, क्या तुम्हारे परिवार के बुजुर्ग और माँ-बाप अक्सर इस कहावत का उल्लेख करते हैं, ‘एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवज करता जाता है’? (हाँ।) इससे उनका मतलब होता है : ‘लोगों को अपनी प्रतिष्ठा की खातिर जीना चाहिए। लोग अपने जीवनकाल में दूसरों के बीच अच्छी प्रतिष्ठा कायम करने और अच्छा प्रभाव डालने के अलावा और कुछ नहीं चाहते हैं। तुम जहाँ भी जाओ, वहाँ अधिक उदारता के साथ सबका अभिवादन करो, खुशियाँ बाँटो, तारीफें करो, और कई अच्छी-अच्छी बातें कहो। लोगों को नाराज मत करो, बल्कि अधिक अच्छे और परोपकारी कर्म करो।’ परिवार द्वारा दी गई इस विशेष शिक्षा के प्रभाव का लोगों के व्यवहार या आचरण के सिद्धांतों पर विशेष प्रभाव पड़ता है, जिसका नतीजा यह होता है कि वे शोहरत और लाभ को ज्यादा अहमियत देते हैं। यानी, वे अपनी प्रतिष्ठा, साख, लोगों के मन में बनाई अपनी छवि, और वे जो कुछ भी करते हैं और जो भी राय व्यक्त करते हैं उसके बारे में दूसरों के अनुमान को बहुत महत्व देते हैं। शोहरत और लाभ को ज्यादा अहमियत देकर, तुम अनजाने में इस बात को कम महत्व देते हो कि तुम जो कर्तव्य निभा रहे हो वह सत्य और सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं, क्या तुम परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हो, और क्या तुम पर्याप्त मात्रा में अपना कर्तव्य निभा रहे हो। तुम इन चीजों को कम महत्वपूर्ण और कम प्राथमिकता वाली चीजें मानते हो, जबकि तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हें सिखाई इस कहावत को कि ‘एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवज करता जाता है,’ तुम बहुत महत्वपूर्ण मान लेते हो। यह कहावत तुम्हें दूसरों के मन में अपने बारे में हर एक बारीक चीज पर ध्यान देने को मजबूर करती है। खास तौर पर, कुछ लोग इस पर विशेष ध्यान देते हैं कि दूसरे लोग उनकी पीठ पीछे उनके बारे में असल में क्या सोचते हैं, यहाँ तक कि वे दीवारों पर कान लगाकर और आधे-खुले दरवाजों से दूसरों की बातें सुनते हैं, और दूसरे लोग उनके बारे में क्या लिख रहे हैं उस पर नजर भी रखते हैं। जैसे ही कोई उनके नाम का जिक्र करता है, वे सोचते हैं, ‘मुझे जल्दी से सुनना होगा कि वे मेरे बारे में क्या कह रहे हैं, और वे मेरे बारे में अच्छी राय रखते हैं या नहीं। अरे नहीं, उनका कहना है कि मैं आलसी हूँ और मुझे अच्छा खाना पसंद है। अब मुझे बदलना होगा, मैं अब से आलसी नहीं हो सकता, मुझे मेहनती बनना होगा।’ कुछ समय तक मेहनत करने के बाद, वे मन ही मन सोचते हैं, ‘मैं कई दिनों से कान लगाकर सुन रहा था कि लोग मुझे आलसी कहते हैं या नहीं, पर हाल के दिनों में मैंने किसी से ऐसा नहीं सुना है।’ मगर फिर भी उन्हें बेचैनी होती है, तो वे अपने आस-पास के लोगों से चर्चा करते समय यूँ ही कह देते हैं : ‘मैं थोड़ा आलसी तो हूँ।’ तो दूसरे जवाब देते हैं : ‘तुम आलसी नहीं हो, बल्कि अब पहले से काफी मेहनती बन गए हो।’ यह सुनकर वे तुरंत आश्वस्त, खुश और सुकून महसूस करते हैं। ‘देखा, मेरे बारे में सबकी राय बदल गई है। ऐसा लगता है कि सभी ने मेरे व्यवहार में सुधार देखा है।’ तुम जो कुछ भी करते हो वह सत्य का अभ्यास करने की खातिर नहीं है, न ही यह परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए है, बल्कि यह सब तुम्हारी प्रतिष्ठा की खातिर है। इस तरह, तुमने जो कुछ भी किया वह प्रभावी रूप से क्या बन जाता है? यह प्रभावी रूप से एक धार्मिक कार्य बन जाता है। तुम्हारे सार को क्या होता है? तुम बिल्कुल फरीसियों जैसे बन गए हो। तुम्हारे मार्ग को क्या होता है? यह मसीह-विरोधियों का मार्ग बन गया है। परमेश्वर इसी तरह इसे परिभाषित करता है। तो, तुम जो भी करते हो उसका सार दूषित हो गया है, यह अब पहले जैसा नहीं रहा; तुम सत्य का अभ्यास या उसका अनुसरण नहीं कर रहे, बल्कि तुम शोहरत और लाभ के पीछे भाग रहे हो। जहाँ तक परमेश्वर का संबंध है, तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन—एक शब्द में—अपर्याप्त है। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए क्योंकि तुम परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपे गए कार्य या एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित होने के बजाय बस अपनी प्रतिष्ठा के प्रति समर्पित हो। जब परमेश्वर तुम्हारे सामने ऐसी परिभाषा रखता है तो तुम अपने दिल में क्या महसूस करते हो? यह कि परमेश्वर में तुम्हारे इतने वर्षों का विश्वास व्यर्थ रहा। तो क्या इसका मतलब यह है कि तुम बिल्कुल भी सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे थे?(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (12))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि लोग इस कहावत से प्रभावित हुए हैं कि “एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है।” उन्हें खासकर इस बात की चिंता होती है कि दूसरे उनका मूल्यांकन कैसे करते हैं। वे दूसरों के दिलों में अपने रुतबे और छवि पर ध्यान केंद्रित करते हैं, हमेशा अपनी कथनी और करनी से दूसरों पर अच्छी छाप छोड़ने और सकारात्मक प्रतिष्ठा हासिल करने का प्रयास करते हैं। मैं न चाहते हुए भी लगातार दूसरों के दिलों में अच्छी छवि बनाने के पीछे पड़ी रही, मुझे एहसास हुआ कि यह इसी तरह के विचार और दृष्टिकोण से प्रभावित है। बचपन में मैंने अपनी भाभी को अपनी माँ और बड़ी बहन के बारे में बुरा-भला कहते हुए सुना था। अपनी भाभी को मेरे बारे में बुरी बातें कहने से रोकने के लिए मैंने उसके बच्चों के कपड़े धोने और उन्हें खाना खिलाने की पहल की। शादी के बाद लोगों के बीच अच्छी प्रतिष्ठा बनाने के लिए मैंने बिस्तर पर पड़ी अपनी सास की स्वेच्छा से दस साल तक देखभाल की। भले ही मैं थकी हुई और अनिच्छुक थी, फिर भी मैंने कष्ट सहे, चाहे वे कितने भी मुश्किल क्यों न हों। जब मैं परमेश्वर में विश्वास रखने लगी तो भाई-बहनों पर अच्छी छाप छोड़ने के लिए मैंने उत्सुकता से अपनी आस्था का अनुसरण किया और सक्रियता से अपना कर्तव्य निभाया। जब मेरी सहकर्मियों ने व्यक्तिगत मामलों के चलते अपने कर्तव्य में देरी की तो मैंने इनके बारे में उन्हें बताने के बजाय काम पूरा करने में उनकी मदद की। दूसरों से तारीफ सुनकर मैं बहुत खुश होती थी और मुझे अपना कर्तव्य निभाने के लिए प्रेरणा मिलती थी, कोई भी मुश्किल सहने के लिए तैयार रहती थी। जब भाई-बहनों से नकारात्मक मूल्यांकन सुने तो मैं इतनी परेशान हो गई कि मैं अपना कर्तव्य भी छोड़ना चाहती थी। मैं उनके दिलों में अपनी छवि को बहाल करने पर ध्यान केंद्रित करने लगी। जब भाई-बहनों से मिलती तो मैं उनसे सावधानी से बात करती, अपना लहजा यथासंभव कोमल बनाने की कोशिश करती और मुस्कुराहट के साथ उनका अभिवादन करती ताकि वे मुझे मिलनसार समझें। जब मैंने देखा कि समूह अगुआ अक्सर सभाओं में देरी से आती है और गैर-जिम्मेदार है तो मुझे उसकी समस्याओं को बताना और उसे उजागर करना चाहिए था। लेकिन मैं डरती रही कि उसकी काट-छाँट करने से दूसरों के दिलों में मेरे बारे में नकारात्मक छवि बनेगी। इसलिए मैंने आँखें मूंद लीं, इस बात को हल्के में लेते हुए सौम्य और नरम तरीके से पेश किया, ताकि सभी की मेरे बारे में अच्छी छवि बने। एक कलीसिया अगुआ के रूप में भाई-बहनों को कर्तव्य में लापरवाह होते और काम में देरी करते हुए देखकर मुझे उनकी मदद करने के लिए संगति करनी चाहिए थी, उनकी समस्याएँ बतानी चाहिए थी और उनकी काट-छाँट करनी चाहिए थी, उनके मसले जानने और उन्हें सुलझाने में तुरंत उनकी मदद करनी चाहिए थी। लेकिन हर किसी के मन में अपने बारे में अच्छी राय बनाने और अच्छी प्रतिष्ठा कायम रखने के लिए मैंने उनके आगे झुकने और उन्हें नजरअंदाज करने के लिए परमेश्वर की अपेक्षाओं का उल्लंघन करने में संकोच नहीं किया। मैंने कलीसिया के कार्य पर बिल्कुल भी विचार नहीं किया। इस तरह से अपना कर्तव्य निभाना परमेश्वर के इरादों के अनुरूप कैसे हो सकता है? अपने कार्यकलापों पर विचार करते हुए मुझे लगा कि वे वाकई घृणित थे!

मैंने परमेश्वर के वचनों को पढ़ना जारी रखा और अपने व्यवहार की गहरी समझ हासिल की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “तुम सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे थे, बल्कि अपनी प्रतिष्ठा पर विशेष ध्यान दे रहे थे, और इन सबकी जड़ में तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हें दी गई शिक्षा का प्रभाव है। वह कौन-सी सबसे प्रभावशाली कहावत है जिससे तुम्हें शिक्षित किया गया है? यह कहावत कि ‘एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवज करता जाता है,’ तुम्हारे दिल में जड़ें जमा चुकी है और तुम्हारा आदर्श वाक्य बन गई है। बचपन से ही तुम इस कहावत से प्रभावित और शिक्षित किए गए हो, और बड़े होने के बाद भी तुम अपने परिवार की अगली पीढ़ी और अपने आस-पास के लोगों को प्रभावित करने के लिए अक्सर इस कहावत को दोहराते रहते हो। बेशक, इससे भी अधिक गंभीर बात यह है कि तुमने इसे अपने आचरण और चीजों के साथ निपटने के लिए अपने तरीके और सिद्धांत के रूप में अपनाया है, और यहाँ तक कि अपने जीवन का लक्ष्य और दिशा मान लिया है। तुम्हारा लक्ष्य और दिशा गलत है, तो फिर तुम्हारा अंतिम परिणाम भी यकीनन नकारात्मक ही होगा। क्योंकि तुम जो कुछ भी करते हो उसका सार केवल तुम्हारी प्रतिष्ठा की खातिर और सिर्फ इस कहावत को अभ्यास में लाने के लिए होता है कि ‘एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवज करता जाता है।’ तुम सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे हो, और तुम्हें खुद ही यह पता नहीं है। तुम्हें लगता है कि इस कहावत में कुछ भी गलत नहीं है; क्या लोगों को अपनी प्रतिष्ठा के लिए नहीं जीना चाहिए? जैसी कि आम कहावत है, ‘एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवज करता जाता है।’ यह कहावत बहुत सकारात्मक और उचित लगती है, तो तुम अनजाने में इसकी सीख के प्रभाव को स्वीकार लेते हो और इसे एक सकारात्मक चीज मानते हो। इस कहावत को एक सकारात्मक चीज मानने के बाद, तुम अनजाने में इसका अनुसरण और अभ्यास करते हो। इसी के साथ, तुम अनजाने में और भ्रमित होकर इसे सत्य और सत्य की कसौटी मान लेते हो। इसे सत्य की कसौटी मानने के बाद, तुम परमेश्वर की नहीं सुनते, और न ही उसकी बातों को समझते हो। तुम आँख बंद करके इस आदर्श वाक्य को अभ्यास में लाते हो कि ‘एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवज करता जाता है,’ और इसके अनुसार कार्य करते हो, जिससे अंत में तुम अच्छी प्रतिष्ठा पा लेते हो। तुम जो चाहते थे अब वह तुम्हें मिल गया है, पर ऐसा करके तुमने सत्य का उल्लंघन और सत्य का त्याग किया है, और बचाए जाने का अवसर भी गँवा दिया है। यह देखते हुए कि यही इसका अंतिम परिणाम है, तुम्हें अपने परिवार द्वारा सिखाए गए इस विचार को त्याग देना चाहिए कि ‘एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवज करता जाता है।’ तुम्हें इस कहावत पर टिके नहीं रहना चाहिए, और न ही इस कहावत या विचार को अभ्यास में लाने के लिए अपनी जीवनभर की कोशिश और ऊर्जा लगानी चाहिए। यह विचार और दृष्टिकोण जो तुममें डाला और सिखाया गया है, सरासर गलत है, तो तुम्हें इसे त्याग देना चाहिए। इसे त्यागने का कारण सिर्फ यही नहीं है कि यह सत्य नहीं है, बल्कि असल में यह तुम्हें भटका देगा और तुम्हारे विनाश की ओर ले जाएगा, यानी इसके परिणाम बहुत गंभीर हैं। तुम्हारे लिए, यह बस कोई मामूली कहावत नहीं, बल्कि कैंसर है—लोगों को भ्रष्ट करने का साधन और तरीका है। क्योंकि परमेश्वर के वचनों में, लोगों से उसकी सभी अपेक्षाओं में, परमेश्वर ने लोगों से कभी भी अच्छी प्रतिष्ठा या प्रसिद्धि पाने या लोगों पर अच्छी छाप छोड़ने या लोगों की स्वीकृति प्राप्त करने, या लोगों की प्रशंसा पाने के लिए नहीं कहा है, और न ही उसने कभी लोगों को शोहरत पाने की खातिर जीने या अपने पीछे अच्छी प्रतिष्ठा छोड़ने के लिए मजबूर किया है। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि लोग अच्छी तरह अपने कर्तव्य निभाएँ, उसके प्रति और सत्य के प्रति समर्पण करें। इसलिए, जहाँ तक तुम्हारा सवाल है, यह कहावत तुम्हारे परिवार से मिली एक तरह की शिक्षा है जिसे तुम्हें त्याग देना चाहिए(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (12))। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मैं बहुत प्रभावित हुई। यह कहावत “एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है” वाकई लोगों को बहुत नुकसान पहुँचाती है। मैंने विचार किया कि कैसे मैंने बचपन से ही अपनी माँ की शिक्षाओं को आत्मसात कर लिया था, नतीजतन मैंने “एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है” का अनुसरण किया। लोगों के बीच अच्छी प्रतिष्ठा बनाने के लिए मैंने अपने सामने आने वाली उन चीजों से भी समझौता करने का फैसला किया और उन्हें किया जिन्हें मैं स्पष्ट रूप से करने के लिए इच्छुक नहीं थी या जो मुझे नहीं करनी चाहिए थी। परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद भी मैंने इस कहावत को बुद्धिमानी भरी बात माना, हमेशा अपने कर्तव्यों से ज्यादा दूसरों के दिलों में अपनी छवि को प्राथमिकता दी। जब बहन ने मेरे अहंकारी स्वभाव और कठोर लहजे के बारे में बताया तो उसका इरादा मुझे आत्म-चिंतन और सत्य का अभ्यास करके अपना भ्रष्ट स्वभाव उतार फेंकने में मदद करना था। लेकिन आत्म-चिंतन करने के बजाय मैंने खुद को छिपाया और दिखावा किया, अपने झूठे बाहरी दिखावे से भाई-बहनों को गुमराह किया। जब मैंने देखा कि कुछ भाई-बहन अपना कर्तव्य निभाने में गैर-जिम्मेदार हैं और कलीसिया के काम में देरी कर रहे हैं, मैंने उन्हें इस बारे में नहीं बताया और न ही उनकी मदद की, बल्कि उन्हें मनाती रही, भाई-बहनों से उच्च सम्मान पाने के लिए ऐसा जताती रही मानो मैं प्रेमपूर्ण और धैर्यवान हूँ। असल में मेरे सभी कार्यकलाप सतही नियंत्रण और दिखावा थे, वे पाखंड से भरे थे। मैं भाई-बहनों को गुमराह कर रही थी और सबसे महत्वपूर्ण बात, मैं परमेश्वर को धोखा दे रही थी। इससे मुझे फरीसियों की याद आ गई जो बाहरी तौर पर निष्ठावान, विनम्र और प्रेमपूर्ण दिखते थे। वे जानबूझकर चौराहों पर प्रार्थना करते और हर दिन मंदिरों में धर्मग्रंथ पढ़ाते ताकि वे अपनी परमेश्वर-भक्ति और परमेश्वर के प्रति वफादारी दिखा सकें, जिससे हर कोई उनका समर्थन करे। लेकिन उन्होंने जो किया वह परमेश्वर के वचनों का अनुसरण करना नहीं था, बल्कि खुद का दिखावा करना, बाहरी अच्छे व्यवहार से दूसरों को धोखा देना और गुमराह करना था। मुझे एहसास हुआ कि मेरा व्यवहार फरीसियों जैसा ही था। अगर मैं स्वभाव में बदलाव लाने और अपने कर्तव्यों में सत्य का अभ्यास करने में नाकाम रही, चाहे मैं खुद को कितना भी अच्छा क्यों न बना लूँ या दूसरों से मुझे कितनी भी प्रशंसा क्यों न मिले, मेरा परिणाम फरीसियों जैसा ही होगा—परमेश्वर मुझे शापित और दंडित करेगा। परमेश्वर ने अगुआ के रूप में प्रशिक्षित होने का अवसर देकर मुझ पर अनुग्रह दिखाया, जिसका उद्देश्य मुझे अपने कर्तव्य अच्छी तरह से करने और कलीसिया के कार्य को कायम रखने में मदद करना था। जब मैंने भाई-बहनों के कर्तव्यों में समस्याएँ देखीं तो मुझे उन्हें बताना चाहिए था, उन मुद्दों को सुलझाने के लिए उनके साथ संगति करनी चाहिए थी। यह मेरी जिम्मेदारी है और मुझसे परमेश्वर की अपेक्षा है। लेकिन मैं सिर्फ अपनी प्रसिद्धि और लाभ के पीछे भाग रही थी, बिना किसी ईमानदारी और गरिमा के जी रही थी। मैं अब शैतान के झांसे में नहीं आना चाहती थी। मुझे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना था।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जिसने मुझे अभ्यास का मार्ग प्रदान किया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर के चुने हुए लोगों में जमीर और विवेक तो कम से कम होना ही चाहिए और उन्हें दूसरों के साथ परमेश्वर द्वारा लोगों से अपेक्षित सिद्धांतों और मानकों के अनुसार बातचीत करना, जुड़ना और मिलकर काम करना चाहिए। यह सबसे अच्छा नजरिया है। यह परमेश्वर को संतुष्ट करने में सक्षम है। तो परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सत्य सिद्धांत क्या हैं? यह कि जब दूसरे कमजोर और नकारात्मक हों तो लोग उन्हें समझें, उनके दर्द और कठिनाइयों के प्रति विचारशील हों, और इन चीजों के बारे में पूछताछ करें, सहायता और सहारे की पेशकश करें, उनकी समस्याएँ हल करने में उनकी मदद करने के लिए उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाएँ, उन्हें परमेश्वर के इरादे समझने और कमजोर न बने रहने में समर्थ बनाएँ और उन्हें परमेश्वर के सामने लाएँ। क्या अभ्यास का यह तरीका सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है? इस प्रकार अभ्यास करना सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। स्वाभाविक रूप से, इस प्रकार के संबंध और भी सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होते हैं। जब लोग जानबूझकर बाधा डालते हैं और गड़बड़ी पैदा करते हैं, या जानबूझकर अपना कर्तव्य अनमने ढंग से निभाते हैं, अगर तुम यह देखते हो और सिद्धांतों के अनुसार उन्हें इन चीजों के बारे में बताने, फटकारने, और उनकी मदद करने में सक्षम हो, तो यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। अगर तुम आँखें मूँद लेते हो, या उनके व्यवहार की अनदेखी करते हो और उनके दोष ढकते हो, यहाँ तक कि उनसे अच्छी-अच्छी बातें कहते, उनकी प्रशंसा और वाहवाही करते हो, लोगों के साथ बातचीत करने, मुद्दों से निपटने और समस्याएँ सँभालने के ऐसे तरीके स्पष्ट रूप से सत्य सिद्धांतों के विपरीत हैं, और उनका परमेश्वर के वचनों में कोई आधार नहीं है। तो, लोगों के साथ बातचीत करने और मुद्दों से निपटने के ये तरीके स्पष्ट रूप से अनुचित हैं, और अगर परमेश्वर के वचनों के अनुसार उनका गहन विश्लेषण और पहचान न की जाए, तो वास्तव में इसका पता लगाना आसान नहीं है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (14))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि परमेश्वर चाहता है कि लोग सत्य सिद्धांतों के अनुसार एक दूसरे के साथ बातचीत करें। जब भाई-बहनों को नकारात्मकता, कमजोरी या कमियों से जूझता देखें तो हमें उनकी मदद करने के लिए प्रेमपूर्वक संगति करनी चाहिए, ताकि वे परमेश्वर के इरादे समझ सकें, अपने मुद्दों पर चिंतन कर सकें और जान सकें और जीवन प्रवेश में प्रगति कर सकें। अगर किसी का अपने कर्तव्यों के प्रति समस्याग्रस्त रवैया है, जो काम में बाधा, गड़बड़ी या देरी का कारण बनता है, हमें सिद्धांतों के अनुसार उन्हें उजागर करना चाहिए और उनकी काट-छाँट करनी चाहिए। हम अपने आत्मसम्मान और रुतबे को बनाए रखने के लिए आँखें मूंद नहीं सकते। उदाहरण के लिए, जब समूह अगुआ अक्सर सभाओं में देर से आती थी और कलीसियाई जीवन पर प्रभाव डालती थी, मुझे उसकी काट-छाँटकर उसे उजागर करना और उसका गहन-विश्लेषण करना चाहिए था। इसके अलावा जब भाई-बहनों ने मेरी समस्याएँ बताईं तो मुझे उन्हें स्वीकारना चाहिए था, अपने अहंकारी स्वभाव पर गंभीरता से चिंतन करना चाहिए था और अपनी भ्रष्टता उतार फेंकने के लिए सत्य का अभ्यास करना चाहिए था, न कि उनके दिलों में अच्छी छवि बनाए रखने के लिए खुद को छिपाने की कोशिश करनी थी। अभ्यास के इन सिद्धांतों को समझने के बाद मुझे राहत और सुकून मिला।

बाद में जब मैं सुसमाचार कार्य आगे बढ़ाने के लिए दूसरी कलीसिया में गई तो मुझे पता चला कि सुसमाचार उपयाजक गैर-जिम्मेदार है और उसे अपने कर्तव्य में जिम्मेदारी का एहसास नहीं है। जब कलीसिया अगुआओं ने उसके काम का पर्यवेक्षण किया और जायजा लिया तो वह प्रतिरोधी थी। इस स्थिति को देखते हुए मुझे उसकी मदद करने, उसे उजागर करने और उसकी काट-छाँट करने के लिए इन मसलों के बारे में बताना चाहिए था। लेकिन मैंने सोचा कि मैं वहाँ पहली बार सभा में शामिल हो रही हूँ। अगर मैं आते ही उसकी समस्याओं को उजागर कर दूँगी तो हर कोई मेरे बारे में क्या सोचेगा? अगर पहली मुलाकात में मेरे बारे में उनके मन में अच्छी छवि नहीं बनेगी तो मैं भविष्य में उनके साथ कैसे सहयोग कर पाऊँगी? जब मेरे मन में ये विचार आए तो मुझे एहसास हुआ कि मैं एक बार फिर अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के बारे में चिंतित हूँ। मुझे परमेश्वर के वचन याद आए : “तुम्‍हें पहले परमेश्वर के घर के हितों के बारे में सोचना चाहिए, परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना चाहिए, और कलीसिया के कार्य का ध्यान रखना चाहिए। इन चीजों को पहले स्थान पर रखना चाहिए; उसके बाद ही तुम अपनी हैसियत की स्थिरता या दूसरे लोग तुम्‍हारे बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता कर सकते हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मैंने समझा कि परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी हों, मुझे कलीसिया के हितों को प्राथमिकता देनी चाहिए। सुसमाचार उपयाजक अपने कर्तव्य में गैर-जिम्मेदार है और उसने सुसमाचार कार्य की प्रगति धीमी कर दी। इसके अलावा उसने पर्यवेक्षण स्वीकारने से इनकार किया है। अगर मैं उसके मसले नहीं बताऊँगी तो इससे सुसमाचार कार्य में देरी होगी और उसके अपने जीवन प्रवेश को कोई लाभ नहीं होगा। मैं अब दूसरों के दिलों में अपनी छवि और रुतबे को बनाए रखना जारी नहीं रख सकती थी। चाहे बहन मुझे कैसे भी देखे मुझे सत्य का अभ्यास करना था और कलीसिया के हितों की रक्षा करनी थी। मैंने बाद में बहन के कर्तव्य में मसले बताए और कार्य का पर्यवेक्षण करने और उसका जायजा लेने वाले अगुआओं और कार्यकर्ताओं की अहमियत, सुसमाचार उपयाजक की जिम्मेदारियों और जिम्मेदारी से कर्तव्य पूरा करने के तरीके के बारे में संगति की। मेरी संगति के बाद बहन ने माना कि वह अपना कर्तव्य करने में लापरवाह थी। उसने अपनी मनोदशा के बारे में खुलकर बताया और खुद को बदलने की इच्छा व्यक्त की। बाद में वह अपने कर्तव्य में और अधिक सक्रिय हो गई और सुसमाचार का कार्य प्रगति करने लगा।

इन अनुभवों के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि सत्य का अभ्यास करना और सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य करना बहुत महत्वपूर्ण है। अगर मैं हमेशा अपने निजी हितों की रक्षा करती हूँ और अपने कर्तव्य करने में अपना आत्म-सम्मान और रुतबा कायम रखती हूँ, मैं न सिर्फ कलीसिया के काम को हानि पहुँचाऊँगी, बल्कि भाई-बहनों और खुद को भी नुकसान पहुँचाऊँगी। परमेश्वर के वचनों ने ही मुझे यह एहसास दिलाने और परिवर्तन लाने में मदद की है। परमेश्वर का धन्यवाद!

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