86. बीमारी का सामना करना परमेश्वर का अनुग्रह है

शिजी, चीन

बचपन से ही मेरा स्वास्थ्य खराब रहा है। जब मैं किशोरावस्था में थी तो मुझे पैर में दर्द रहता था। डॉक्टर ने कहा कि मुझे संधिवात गठिया है और इलाज की जरूरत है। उस समय मेरा परिवार गरीब था और इलाज का खर्च नहीं उठा सकता था। जब दर्द बहुत बढ़ जाता तो मैं कुछ दर्दनिवारक दवाएँ ले लेती। दर्द से राहत पाने के लिए मैं अतिरिक्त कपड़े पहनती या गर्म ईंट के बिस्तर पर बैठती थी। बीस वर्ष की उम्र में मेरी हालत खराब हो गई और मुझे लकवा मार गया। उपचार की एक अवधि के बाद हालाँकि मैं चल सकती थी, लेकिन एक समस्या बनी हुई थी; अगर मैं ज्यादा चलती तो मेरे पैरों में दर्द होने लगता। बाद में मैं प्रभु यीशु पर विश्वास करने लगी। मुझे आश्चर्य हुआ कि करीब महीने भर बाद मेरे पैर चमत्कारिक ढंग से ठीक हो गये और मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। प्रभु को उसके अनुग्रह के लिए धन्यवाद देने के लिए मैं सक्रिय रूप से गवाहियाँ देने लगी और कलीसिया द्वारा आयोजित सुसमाचार का प्रचार करने लगी। मुझे लगा कि प्रभु के लिए गवाही देने और सुसमाचार का प्रचार करने से परमेश्वर मुझ पर लगातार नजर रखेगा, मेरी रक्षा करेगा, शायद मुझे और भी अधिक अनुग्रह प्राप्त होगा। तब से मैं अपनी आस्था से जीवन रेखा की तरह चिपकी रही और परमेश्वर पर विश्वास करने का मेरा उत्साह बहुत बढ़ गया।

अक्टूबर 2006 में मैंने परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार कर लिया। मैं प्रभु यीशु की वापसी का स्वागत करने के लिए बेहद उत्साहित थी, सोचती थी, “परमेश्वर उद्धार का कार्य करने के लिए अंत के दिनों में सत्य व्यक्त करता है। मुझे इस अवसर का लाभ उठाकर अधिक कर्तव्य निभाने चाहिए और अच्छे कर्म तैयार करने चाहिए। अगर मैं ईमानदारी से परमेश्वर पर विश्वास करती रहूँ और निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करती हूँ तो परमेश्वर मुझे जीवन भर सुरक्षित और स्वस्थ रखेगा। जब परमेश्वर का कार्य पूरा हो जाएगा तो मैं भी राज्य में प्रवेश करूँगी और महान आशीषों का आनंद उठाऊँगी। यह एक बहुत बड़ा आशीष है!” परमेश्वर पर विश्वास करने के कुछ समय बाद ही मैंने अपने कर्तव्यों का पालन करने का प्रशिक्षण लेना शुरू कर दिया। कलीसिया ने जो भी कर्तव्य निर्धारित किये उनका मैंने पालन किया। 2012 में मैंने घर छोड़ दिया और मेजबानी करने के लिए शहर में एक जगह किराये पर ले ली। हालाँकि यह कठिन और थकाऊ था, फिर भी मेरे दिल में कोई शिकायत नहीं थी। देखते-देखते कई साल बीत गए और अगुआओं ने मुझे कई सभा समूहों का प्रभारी बना दिया। मैं साइकिल चलाना नहीं जानती थी इसलिए चाहे कितनी भी दूर जाना हो, मैं पैदल ही चलती थी। कभी-कभी अगर मैं दोपहर के भोजन के लिए घर जाती और फिर सभाओं के लिए निकलती तो मुझे देर हो जाती, इसलिए मैं दोपहर का भोजन छोड़ देती। बहुत अधिक चलने से पैरों में दर्द होने के बावजूद मैं कोई परवाह न करती। मुझे लगता वर्षों की कठिनाइयों के बावजूद अगर मैं अपने कर्तव्यों का पालन करती रहूँगी तो परमेश्वर मेरे हर काम पर गौर करेगा और अपने कर्तव्यों के प्रति मेरी निष्ठा को देखते हुए निश्चित रूप से मेरी रक्षा करेगा और मुझे आशीष देगा।

2019 में मेरे पैर का दर्द फिर लौट आया। कभी-कभी बहुत अधिक चलने से मेरे घुटने में इतनी बुरी तरह दर्द होता कि मैं घुटना मोड़ न पाती। रात को सोते समय मैं अपना पैर पूरी तरह से फैला न पाती और कभी-कभी तो दर्द के कारण मेरी नींद ही खुल जाती। मैं जाँच के लिए अस्पताल गई और डॉक्टर ने बताया कि मेरे दाहिने घुटने के जोड़ को बदलने के लिए सर्जरी की जरूरत है। उस समय मेरे परिवार के पास इलाज के लिए पैसे नहीं थे और मैं अपना कर्तव्य निभा रही थी। मैंने सोचा, “अगर मैं अपना कर्तव्य ठीक से निभाऊँ तो शायद एक दिन परमेश्वर मेरी बीमारी दूर कर देगा।” इसलिए मैंने सर्जरी नहीं करवाई और दर्द को नियंत्रित करने के लिए दर्दनिवारक दवाएँ लेने लगी और प्लास्टर चढ़वा लिया। उस दौरान कभी-कभी दर्द के कारण मैं रात को सो नहीं पाती थी। दिन में अगर मैं बहुत देर तक बैठी रहती तो खड़े होकर चल नहीं पाती थी और मुझे थोड़ा चलने से पहले धीरे-धीरे अपने पैर की मालिश करनी पड़ती थी।

अगस्त 2023 में मेरे पैर में बहुत तेज दर्द होता देख मेरा बेटा मुझे एक्स-रे के लिए अस्पताल ले गया। डॉक्टर ने एक्स-रे देखकर कहा, “आपने इलाज के लिए स्थिति इतनी गंभीर होने तक इंतजार क्यों किया? आपके दाहिने घुटने का जोड़ तो पहले से ही खराब हालत में है और अब दोनों टखनों के जोड़ भी गल चुके हैं। दवा और एक्यूपंक्चर से अब कोई फायदा नहीं होगा। सर्वोत्तम उपचार यही होगा कि आपके दोनों टखनों और घुटनों के जोड़ बदल दिए जाएँ। हर तीन महीने में एक जोड़ बदलेंगे तो एक साल में यह काम पूरा हो जाएगा। वरना तो आप लकवाग्रस्त हो सकती हैं।” डॉक्टर का निदान सुनकर मैं बेहोश होते-होते बची। हालाँकि पिछले कुछ वर्षों से मेरे पैर का दर्द बढ़ता जा रहा था और मैं कुछ हद तक मानसिक रूप से तैयार भी थी, लेकिन मुझे यह उम्मीद नहीं थी कि स्थिति इतनी गंभीर होगी। अगर मैं लकवाग्रस्त हो गई तो जिऊँगी कैसे? मेरा दिल बैठ गया और मैंने किसी तरह अपने आँसू रोके। घर लौटकर मैं कटे पेड़ की तरह बिस्तर पर जा पड़ी, जैसे शरीर में जान ही न हो और मेरे आँसुओं का सैलाब बह निकला। परमेश्वर के प्रति मेरी सारी शिकायतें और गलतफहमियाँ बाहर आ गईं, “जब मैं दर्द सहते हुए पहाड़ पर हेजलनट चुनने जाती ताकि उन्हें बेचकर मेजबानी कर सकूँ मैंने कभी शिकायत नहीं की, चाहे उसमें कितनी भी कठिनाई आई हो। बाद में जब मैं समूह सभाओं की प्रभारी बनी तो मैंने आँधी-तूफान और बारिश का सामना किया, कभी अपने कर्तव्यों में देरी नहीं की और न ही मैंने अपने पैर के दर्द को लेकर शिकायत की। परमेश्वर ने मेरी रक्षा क्यों नहीं की? अब मुझे अपने घुटने का जोड़ बदलवाना है और मेरे परिवार के पास इतना पैसा नहीं है! लेकिन अगर मेरी सर्जरी नहीं हुई तो मुझे लकवा मार जाएगा।” उन दिनों जब भी मैं उस दर्द और पीड़ा के बारे में सोचती जो मैं लकवाग्रस्त होकर सहन कर रही थी तो मेरा दिल कांप उठता और झर-झर मेरे आँसू बहने लगते। भाई-बहनों को अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए भागते-दौड़ते देखकर मुझे वाकई उनसे ईर्ष्या होती! बाकी लोगों की तरह मेरे भी दो स्वस्थ पैर क्यों नहीं हैं? मुझे लगता था कि परमेश्वर पर विश्वास करूँगी तो वह हमेशा मेरी रक्षा करेगा लेकिन मुझे कभी उम्मीद नहीं थी कि ऐसा होगा। जब अगुआ को मेरी स्थिति के बारे में पता चला तो उसने मेरे साथ संगति की, “जब हम बीमार पड़ते हैं तो उसके पीछे परमेश्वर के इरादे होते हैं; परमेश्वर को गलत मत समझो! जब हम बीमार पड़ते हैं तो हमें अपने द्वारा प्रकट की गई भ्रष्टताओं, गलत इरादों और दृष्टिकोणों पर चिंतन कर उनसे सबक सीखना चाहिए।” अगुआ ने मुझे परमेश्वर के वचनों के उन विशिष्ट अध्यायों को बार-बार पढ़ने की सलाह भी दी जो सीधे मेरी दशा से जुड़े थे। उसके जाने के बाद मैंने तुरंत परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “जब परमेश्वर किसी को छोटी या बड़ी बीमारी देने की व्यवस्था करता है, तो ऐसा करने के पीछे उसका उद्देश्य तुम्हें बीमार होने के पूरे विवरण, बीमारी से तुम्हें होने वाली हानि, बीमारी से तुम्हें होने वाली असुविधाओं और मुश्किलों और तुम्हारे मन में उठने वाली विभिन्न भावनाओं को समझने देना नहीं है—उसका प्रयोजन यह नहीं है कि तुम बीमार होकर बीमारी को समझो। इसके बजाय उसका प्रयोजन यह है कि बीमारी से तुम सबक सीखो, सीखो कि परमेश्वर के इरादों को कैसे पकड़ें, अपने द्वारा प्रदर्शित भ्रष्ट स्वभावों और बीमार होने पर परमेश्वर के प्रति अपनाए गए अपने गलत रवैयों को जानो, और सीखो कि परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति कैसे समर्पित हों, ताकि तुम परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण प्राप्त कर सको, और अपनी गवाही में डटे रह सको—यह बिल्कुल अहम है। परमेश्वर बीमारी के जरिए तुम्हें बचाना और स्वच्छ करना चाहता है। वह तुम्हारी किस चीज को स्वच्छ करना चाहता है? वह परमेश्वर से तुम्हारी तमाम अत्यधिक आकांक्षाओं और माँगों, और यहाँ तक कि हर कीमत पर जीवित रहने और जीने की तुम्हारे अलग-अलग हिसाबों, फैसलों और योजनाओं को स्वच्छ करना चाहता है। परमेश्वर तुमसे नहीं कहता कि योजनाएँ बनाओ, वह तुमसे नहीं कहता कि न्याय करो, और उससे अत्यधिक आकांक्षाएँ रखो; उसकी बस इतनी अपेक्षा होती है कि तुम उसके प्रति समर्पित रहो, और समर्पण करने के अपने अभ्यास और अनुभव में, तुम बीमारी के प्रति अपने रवैये को जान लो, और उसके द्वारा तुम्हें दी गई शारीरिक स्थितियों के प्रति अपने रवैये को और साथ ही अपनी निजी कामनाओं को जान लो। जब तुम इन चीजों को जान लेते हो, तब तुम समझ सकते हो कि तुम्हारे लिए यह कितना फायदेमंद है कि परमेश्वर ने तुम्हारे लिए बीमारी की परिस्थितियों की व्यवस्था की है, या उसने तुम्हें ये शारीरिक दशाएँ दी हैं; और तुम समझ सकते हो कि तुम्हारा स्वभाव बदलने, तुम्हारे उद्धार हासिल करने, और तुम्हारे जीवन-प्रवेश में ये कितनी मददगार हैं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। जब मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया तो मैंने रोशन महसूस किया, “जब मुझ पर यह बीमारी आती है तो इसके पीछे परमेश्वर का इरादा होता है। परमेश्वर मुझे हटाने या बीमारी से होने वाले दर्द और असंख्य भावनाओं को समझने के लिए मुझे मजबूर नहीं कर रहा है बल्कि वर्षों से मेरी आस्था में जो अशुद्धियाँ आ गई थीं उन्हें शुद्ध कर रहा है।” तब मैंने मन ही मन सोचा, “परमेश्वर मुझमें क्या शुद्ध करना चाहता है?” मुझे यह एहसास हुआ कि इस पूरी अवधि में परमेश्वर में मेरा विश्वास मुख्यतः अच्छे स्वास्थ्य और शांतिपूर्ण जीवन के लिए अनुग्रह और आशा प्राप्त करने के लिए था। पहले जब परमेश्वर ने मुझे अनुग्रह प्रदान किया था तो मैं बहुत खुश थी और परमेश्वर पर विश्वास करने में खुद को खपाने की खातिर जोश से भरी हुई थी। लेकिन अब गंभीर संधिवात गठिया और लकवे की संभावना के चलते मैंने परमेश्वर से बहस की और शिकायत की कि उसने मेरी रक्षा क्यों नहीं की। मैंने देखा कि मेरी आस्था, जो लोग धर्म में थे, उनसे अलग नहीं थी—मैं परमेश्वर पर ईमानदारी से विश्वास और सत्य का अनुसरण किए बिना केवल अनुग्रह और आशीष माँग रही थी। यह एहसास होने पर मुझे अपराध-बोध और आत्मग्लानि हुई। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, तुम पर विश्वास करते हुए इन वर्षों में मैंने गलत विचारों का अनुसरण किया है और गलत मार्ग अपनाया है। तुमने मुझ पर बीमारी आने दी है और इसके पीछे तुम्हारा नेक इरादा है। मैं सत्य खोजने और गहन आत्मचिंतन करने को तैयार हूँ।”

अपनी खोज में मुझे परमेश्वर के वचनों के दो अंश मिले और मुझे अपनी दशा के बारे में कुछ समझ प्राप्त हुई। परमेश्वर कहता है : “बहुत-से लोग केवल इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनको चंगा कर सकता हूँ। बहुत-से लोग सिर्फ इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनके शरीर से अशुद्ध आत्माओं को निकालने के लिए अपनी शक्ति का इस्तेमाल करूँगा, और बहुत-से लोग मुझसे बस शांति और आनंद प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ और अधिक भौतिक संपदा माँगने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ इस जीवन को शांति से गुजारने और आने वाले संसार में सुरक्षित और स्वस्थ रहने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल नरक की पीड़ा से बचने के लिए और स्वर्ग के आशीष प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल अस्थायी आराम के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं और आने वाले संसार में कुछ हासिल करने की कोशिश नहीं करते। जब मैं लोगों पर अपना क्रोध उतारता हूँ और कभी उनके पास रही सारी सुख-शांति छीन लेता हूँ, तो मनुष्य शंकालु हो जाता है। जब मैं मनुष्य को नरक का कष्ट देता हूँ और स्वर्ग के आशीष वापस ले लेता हूँ, वे क्रोध से भर जाते हैं। जब लोग मुझसे खुद को चंगा करने के लिए कहते हैं, और मैं उस पर ध्यान नहीं देता और उनके प्रति गहरी घृणा महसूस करता हूँ; तो लोग मुझे छोड़कर चले जाते हैं और बुरी दवाइयों तथा जादू-टोने का मार्ग खोजने लगते हैं। जब मैं मनुष्य द्वारा मुझसे माँगी गई सारी चीजें वापस ले लेता हूँ, तो वे बिना कोई निशान छोड़े गायब हो जाते हैं। इसलिए मैं कहता हूँ कि लोग मुझ पर इसलिए विश्वास करते हैं, क्योंकि मेरा अनुग्रह अत्यंत विपुल है, और क्योंकि बहुत अधिक लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम आस्था के बारे में क्या जानते हो?)। “मनुष्य का परमेश्वर के साथ संबंध केवल एक नग्न स्वार्थ है। यह आशीष लेने वाले और देने वाले के मध्य का संबंध है। स्पष्ट रूप से कहें तो, यह एक कर्मचारी और एक नियोक्ता के मध्य का संबंध है। कर्मचारी केवल नियोक्ता द्वारा दिए जाने वाले प्रतिफल प्राप्त करने के लिए कठिन परिश्रम करता है। इस प्रकार के हित-आधारित संबंध में कोई स्नेह नहीं होता, केवल एक लेन-देन होता है। प्रेम करने या प्रेम पाने जैसी कोई बात नहीं होती, केवल दान और दया होती है। कोई समझ नहीं होती, केवल असहाय दबा हुआ आक्रोश और धोखा होता है। कोई अंतरंगता नहीं होती, केवल एक अगम खाई होती है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 3: मनुष्य को केवल परमेश्वर के प्रबंधन के बीच ही बचाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे लगा कि उन्होंने मेरे दिल को छेद दिया है और मुझे पीड़ा हुई मानो परमेश्वर रूबरू मेरा न्याय कर रहा हो, मेरी दशा को स्पष्ट रूप से उजागर कर रहा हो। मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर में मेरा विश्वास करने और अपने कर्तव्यों का पालन करने के पीछे मेरी मंशा यह थी कि परमेश्वर मुझे सुरक्षित रखे, मुझे शांतिपूर्ण जीवन और अच्छा स्वास्थ्य प्रदान करे। बिल्कुल इसी चीज को परमेश्वर ने उजागर कर दिया : “बहुत-से लोग केवल इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनको चंगा कर सकता हूँ(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम आस्था के बारे में क्या जानते हो?)। पीछे मुड़कर देखती हूँ जब प्रभु यीशु पर विश्वास करने के बाद मैं अपनी बीमारी से ठीक हो गई थी तो मैं उससे जीवन रेखा की तरह चिपक गई थी और दृढ़ता से विश्वास करने लगी थी कि परमेश्वर ही वह परमेश्वर है जो लोगों को आशीष देता है। मुझे लगा अगर मैं वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करती हूँ, अधिक कष्ट उठाती हूँ, अधिक खपती हूँ तो परमेश्वर मुझे सेहतमंद रखेगा और मुझे बीमारी और आपदा से मुक्त शांतिपूर्ण जीवन प्रदान करेगा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार करने के बाद मैं और जोश से खुद को खपाने लगी थी। अपना कर्तव्य निभाने की खातिर मैंने भाई-बहनों की मेजबानी करने के लिए घर से दूर एक जगह किराये पर ले ली थी। बाद में जब समूह सभाओं का जिम्मा मुझ पर था तो मैं हर तरह का मौसम झेलते हुए दूर-दूर तक जाती थी, मुझे विश्वास था कि परमेश्वर मेरे कर्तव्यों के पालन में मेरी जिम्मेदारी और निष्ठा को देखेगा और निश्चित रूप से मुझे जीवन भर सुरक्षित रखेगा। लेकिन इस बार गंभीर बीमारी और लकवे की संभावना का सामना करते हुए मैं परमेश्वर के खिलाफ हो गई, गुस्से से उसके खिलाफ शिकायत करने लगी, अपने त्याग और खपने का उपयोग उसके साथ बहस करने और हिसाब बराबर करने के लिए करने लगी, जैसा कि परमेश्वर के वचनों ने उजागर किया है : “जो लोग मानवता से रहित हैं, वे सच में परमेश्वर से प्रेम करने में अक्षम हैं। जब परिवेश सही-सलामत और सुरक्षित होता है, या जब लाभ कमाया जा सकता है, तब वे परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से आज्ञाकारी रहते हैं, किंतु जब जो वे चाहते हैं, उसमें कमी-बेशी की जाती है या अंततः उसके लिए मना कर दिया जाता है, तो वे तुरंत बगावत कर देते हैं। यहाँ तक कि एक ही रात के अंतराल में वे एक मुस्कुराते, ‘उदार-हृदय’ व्यक्ति से एक कुरूप और जघन्य हत्यारे में बदल जाते हैं(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का अभ्यास)। जब परमेश्वर ने मुझे अनुग्रह प्रदान किया तो मैं पूरी तरह से उसके प्रति समर्पित हो गई थी। लेकिन जब उसने एक क्षण के लिए भी मुझे संतुष्ट नहीं किया तो मैंने उसके बारे में शिकायत की। क्या मुझमें जमीर का पूरी तरह अभाव नहीं था? इस प्रकार विश्वास करते हुए भी परमेश्वर से आशीष और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश पाने की आशा करना, मैं सचमुच बेशर्म थी! इस बीमारी ने मुझे पूरी तरह से उजागर कर दिया। मैंने देखा कि परमेश्वर में मेरा विश्वास और वर्षों से मेरा कर्तव्य-पालन बिलकुल भी सच्चा नहीं था। मैंने यह प्रयास इसलिए किया था ताकि परमेश्वर मुझे चंगा करे और मुझे आशीष दे। मैं अपने त्याग और खपने का उपयोग परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने के लिए कर रही थी। देखने में ऐसा लग रहा था जैसे मैं परमेश्वर के नए कार्य के साथ तालमेल बनाए हुए हूँ, लेकिन किस चीज का अनुसरण करना है इस बारे में मेरा दृष्टिकोण नहीं बदला था। मैं अभी भी अनुग्रह के युग की तरह अनुग्रह और आशीष के पीछे भाग रही थी, महज उदरपूर्ति के लिए विश्वास कर रही थी। पहले मैंने यह कहते हुए भाई-बहनों के साथ संगति की थी कि परमेश्वर अब अनुग्रह के युग का कार्य नहीं कर रहा है, अंत के दिनों में परमेश्वर न्याय और लोगों को शुद्ध करने का कार्य कर रहा है, केवल सत्य का अनुसरण करके और जीवन स्वभाव में परिवर्तन लाकर ही हम बचाए जा सकते हैं और राज्य में प्रवेश कर सकते हैं। लेकिन मैं न तो सत्य खोज रही थी और न ही अपने स्वभाव में बदलाव ला रही थी; इसके बजाय मैं पूरी तरह से अनुग्रह और आशीष प्राप्त करने पर ध्यान दे रही थी। इस प्रकार परमेश्वर पर विश्वास करने से मुझे क्या हासिल हो सकता था? अंत में अगर मैं सत्य नहीं समझ सकी और अपने भ्रष्ट स्वभाव को न बदल सकी तो क्या उसके बावजूद मैं नष्ट नहीं हो जाऊँगी? फिर मैंने पौलुस के बारे में सोचा। वह व्यक्तिगत उद्देश्यों और अशुद्धियों के साथ परमेश्वर में विश्वास करता था, अपने खपने, प्रयास और कड़ी मेहनत का उपयोग करके परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की कोशिश करता था, खुलेआम परमेश्वर को धमकाता था और उससे धार्मिकता का मुकुट माँगता था, इस तरह परमेश्वर के स्वभाव को भड़काकर वह धार्मिक दंड का भागी बना। क्या मेरे अनुसरण की प्रकृति पौलुस के समान नहीं थी? परमेश्वर के लिए दौड़-भाग करने और खुद को खपाने के बाद मैंने चाहा कि परमेश्वर मुझे चंगा करे और स्वस्थ रखे। जब परमेश्वर ने मेरी इच्छा के अनुसार कार्य नहीं किया तो मैंने उससे बहस की और उसके विरुद्ध शोर मचाया। यह परमेश्वर का प्रतिरोध करना था। यह सब सोचकर मुझे गहरा दुख हुआ और मैं पश्चात्ताप के आँसू बहाने लगी। मुझे याद आया कि जब मैं बीस साल की थी तो दो महीने से अधिक समय तक लकवाग्रस्त रही थी; डॉक्टरों ने कहा कि मेरी बीमारी लाइलाज है, फिर भी मैं खड़ी होकर चलने में सक्षम हो गई। परमेश्वर ही निरंतर मेरी रक्षा कर रहा था। हालाँकि मेरे पैर में दर्द बना हुआ था, लेकिन बीमारी के कारण ही मैं परमेश्वर के सामने आई थी और प्रभु यीशु पर विश्वास किया था। बाद में परमेश्वर ने भाई-बहनों के जरिए मुझे सुसमाचार का उपदेश देने का कार्य किया और मैं खुशकिस्मत थी कि मैंने फिर से परमेश्वर के अंत के दिनों के सुसमाचार को स्वीकारा, परमेश्वर के वचनों के सिंचन और प्रावधान का आनंद लिया। परमेश्वर ने मुझ पर बहुत प्रेम दर्शाया है! लेकिन अब चूँकि परमेश्वर ने मुझे वैसे ठीक नहीं किया जैसा मैं चाहती थी तो मैंने उसके विरुद्ध विद्रोह किया और उसके बारे में शिकायत की। मुझमें जमीर बिल्कुल नहीं था! मैंने मन ही मन प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, तुम्हारे वचनों ने मेरे सुन्न हृदय को जगा दिया है। अब मुझे एहसास हुआ है कि मैं अपने विश्वास में तुम्हारे साथ सौदेबाजी करने का प्रयास कर रही थी। मैंने तुम्हारे वचनों के सिंचन और प्रावधान का भरपूर आनंद लिया है फिर भी मैंने तुम्हारे प्रेम का प्रतिदान देने की नहीं सोची; बल्कि मैंने तुम्हें गलत समझा और तुम्हारे बारे में शिकायत की। मैं सचमुच मानवता से रहित हूँ! हे परमेश्वर, मैं पश्चात्ताप करने और खुद में बदलाव लाने को तैयार हूँ।”

इसके बाद मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “अय्यूब ने परमेश्वर से किन्हीं लेन-देनों की बात नहीं की, और परमेश्वर से कोई याचनाएँ या माँगें नहीं कीं। उसका परमेश्वर के नाम की स्तुति करना भी सभी चीज़ों पर शासन करने की परमेश्वर की महान सामर्थ्य और अधिकार के कारण था, और वह इस पर निर्भर नहीं था कि उसे आशीषें प्राप्त हुईं या उस पर आपदा टूटी। वह मानता था कि परमेश्वर लोगों को चाहे आशीष दे या उन पर आपदा लाए, परमेश्वर की सामर्थ्य और उसका अधिकार नहीं बदलेगा, और इस प्रकार, व्यक्ति की परिस्थितियाँ चाहे जो हों, परमेश्वर के नाम की स्तुति की जानी चाहिए। मनुष्य को धन्य किया जाता है तो परमेश्वर की संप्रभुता के कारण किया जाता है, और इसलिए जब मनुष्य पर आपदा टूटती है, तो वह भी परमेश्वर की संप्रभुता के कारण ही टूटती है। परमेश्वर की सामर्थ्य और अधिकार मनुष्य से संबंधित सब कुछ पर शासन करते हैं और उसे व्यवस्थित करते हैं; मनुष्य के भाग्य के उतार-चढ़ाव परमेश्वर की सामर्थ्य और उसके अधिकार की अभिव्यंजना हैं, और तुम इसे चाहे जिस दृष्टिकोण से देखो, परमेश्वर के नाम की स्तुति की जानी चाहिए। यही वह है जो अय्यूब ने अपने जीवन के वर्षों के दौरान अनुभव किया था और जानने लगा था। अय्यूब के सभी विचार और कार्यकलाप परमेश्वर के कानों तक पहुँचे थे, और परमेश्वर के सामने आए थे, और परमेश्वर द्वारा महत्वपूर्ण माने गए थे। परमेश्वर ने अय्यूब के इस ज्ञान को सँजोया, और ऐसा हृदय होने के लिए अय्यूब को सँजोया। यह हृदय सदैव, और सर्वत्र, परमेश्वर के आदेश की प्रतीक्षा करता था, और समय या स्थान चाहे जो हो, उस पर जो कुछ भी टूटता उसका स्वागत करता था। अय्यूब ने परमेश्वर से कोई माँगें नहीं कीं। उसने स्वयं अपने से जो माँगा वह यह था कि परमेश्वर से आई सभी व्यवस्थाओं की प्रतीक्षा करे, इन्हें स्वीकार करे, इनका सामना करे और इनके प्रति समर्पण करे; अय्यूब इसे अपना कर्तव्य मानता था, और यह ठीक वही था जो परमेश्वर चाहता था(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई; मन हुआ कि बस गायब हो जाऊँ। अय्यूब ने बिना किसी व्यक्तिगत उद्देश्य या अशुद्धता के परमेश्वर पर विश्वास किया, उसने इस बात पर विचार नहीं किया कि उसे आशीष मिलेगा या दुर्भाग्य का सामना करना पड़ेगा। चाहे परमेश्वर ने दिया हो या छीना हो उसे कोई शिकायत नहीं थी। अय्यूब एक ऐसे सृजित प्राणी के रूप में खड़ा था जो परमेश्वर के प्रति समर्पित था और उसकी आराधना कर रहा था। परीक्षणों के दौरान अय्यूब ने अपनी सारी सम्पत्ति, अपने बच्चे गँवा दिए, यहाँ तक कि उसके सारे शरीर पर दर्दनाक फोड़े हो गए। उसकी पीड़ा की कोई सीमा नहीं थी! यहाँ तक कि राख में बैठकर मिट्टी के बर्तन से अपने घावों को कुरेदते हुए भी अय्यूब ने परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं की, न ही उसने परमेश्‍वर से अपने दुख कम करने को कहा। वह अब भी परमेश्‍वर के नाम की स्तुति कर रहा था और परमेश्‍वर के लिए अपनी गवाही में अडिग था। अय्यूब की मानवता और विवेक के बारे में सोचकर मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई। वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास करते हुए, जब मुझे परमेश्वर का आशीष मिला तो मैंने अपने हृदय में आनन्दपूर्वक परमेश्वर को धन्यवाद दिया। लेकिन जब मेरे पैर की हालत खराब हो गई तो मैंने परमेश्वर के बारे में शिकायत की, उससे बहस कर हिसाब बराबर करना चाहा। अपने व्यवहार के बारे में सोचकर मुझे खुद से नफरत हुई और मैं परमेश्वर के प्रति बहुत आभारी महसूस करने लगी! हालाँकि मैं अय्यूब से बहुत अलग हूँ, उस जैसी मानवता और अटूट आस्था मुझमें नहीं है फिर भी मैं अय्यूब के उदाहरण का अनुसरण करने को तैयार थी। चाहे मेरे शरीर को कुछ भी हो जाए, भले ही मैं लकवाग्रस्त हो जाऊँ या मर जाऊँ, मैं परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं करूँगी; मैं परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाने के लिए अपना कर्तव्य पूरा करूँगी।

बाद में मेरा बेटा मुझे चेकअप के लिए बीजिंग ले जाना चाहता था। जाने से पहले मैंने परमेश्वर से समर्पण की प्रार्थना की, “सर्वशक्तिमान परमेश्वर, मैं तुम्हें धन्यवाद देती हूँ! तुम्हारी दया के कारण ही मैं आज तक जीवित हूँ। अगर तुम्हारी सुरक्षा न होती तो मैं बहुत पहले ही मर गई होती। लेकिन मुझमें जमीर नहीं है; मैं कृतज्ञ होना या तुम्हारे प्रेम का प्रतिदान देना नहीं जानती। इन वर्षों में मैं लगातार तुम्हारे साथ सौदेबाजी करने का प्रयास करती रही हूँ, तुम्हारे विरुद्ध विद्रोह करती रही हूँ और तुम्हारा प्रतिरोध करती रही हूँ। हे परमेश्वर, तुमने मेरे अपराधों के अनुसार मेरे साथ व्यवहार नहीं किया बल्कि मुझे पश्चात्ताप करने का अवसर दिया है। मैं सचमुच पश्चात्ताप करने को तैयार हूँ। बीजिंग में मुझे चाहे जो भी निदान मिले मैं तुम्हारे आयोजनों और व्यवस्थाओं को समर्पित हो जाऊँगी। अगर मैं लकवाग्रस्त हो जाऊँ या मर ही जाऊँ, वह भी तुम्हारी धार्मिकता है; तुम जो भी व्यवस्था करोगे वह अच्छी होगी।” प्रार्थना के बाद मुझे बहुत सहजता और राहत महसूस हुई। जब मैं बीजिंग पहुँची तो डॉक्टर ने कहा कि मेरी हालत बहुत गंभीर है, मेरे दाहिने घुटने के अंदर की हड्डी का एक हिस्सा पहले से ही काला पड़ चुका है और गल गया है, अगर इसकी स्थिति बदतर हुई तो यह हड्डी का कैंसर भी बन सकता है और अगर मैं जल्दी ही सर्जरी नहीं कराती तो फिर मेरे पास कोई अवसर नहीं बचेगा। यह सुनकर मुझे पहले जितना डर नहीं लगा। मैंने बस परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने के बारे में सोचा। चूँकि सर्जरी के दुष्प्रभाव बहुत गंभीर थे और यह बहुत दर्दनाक होने वाली थी तो मैंने सर्जरी नहीं करवाई और घर लौटने से पहले बस कुछ दवाइयाँ लीं। जिस रात मैं बीजिंग से वापस आई मैं बिस्तर पर बैठकर अपने पैरों की मालिश कर रही थी और मन ही मन सोच रही थी, “देखती हूँ क्या मैं अपना पैर सीधा कर सकती हूँ।” मैंने धीरे-धीरे पैर फैलाने की कोशिश की और यह देखकर मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि पैर वाकई सीधा हो गया! मैंने धीरे से उसे मोड़ा और फिर से फैलाने की कोशिश की और वह फिर से सीधा हो गया! मैं बहुत खुश थी!

अगले कुछ दिनों में मेरे पैर में दर्द होना धीरे-धीरे बंद हो गया और मैं पहले से अधिक आसानी से चलने लगी। भाई-बहनों ने कहा कि मेरी मुद्रा सीधी हो गई है और मैं स्वस्थ दिख रही हूँ। हालाँकि मेरा पैर अभी भी ज्यादातर लोगों जितना अच्छा नहीं है फिर भी मैं बहुत संतुष्ट हूँ और मैं परमेश्वर की बहुत आभारी हूँ। मैंने देखा कि परमेश्वर ने इस बीमारी के जरिए मेरे विश्वास की अशुद्धियों को शुद्ध कर दिया। मैं बहुत दुराग्रही थी। इतने बरसों तक मैं धार्मिक दृष्टिकोण को मानते हुए परमेश्वर में विश्वास करती रही, सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान देने के बजाय आशीष और अनुग्रह के पीछे भागती रही। इतने बरसों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी मेरे भ्रष्ट स्वभाव में बहुत अधिक परिवर्तन नहीं आया है और मैंने एक दशक से भी अधिक समय बर्बाद कर दिया है। अब से मुझे ईमानदारी से सत्य का अनुसरण करना चाहिए और परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। अब कलीसिया ने मुझे फिर से एक छोटे समूह की सभा का पर्यवेक्षण करने का काम सौंप दिया है और इसके लिए मैं परमेश्वर की बहुत आभारी हूँ। मैं सोचती हूँ कि कैसे मैं अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभाऊँ और यथासंभव प्रयास करूँ, कोई ऋणग्रस्तता या पछतावे की भावना पैदा न होने दूँ।

इस अनुभव के बाद मुझे एहसास हुआ कि यह बीमारी मेरे लिए परमेश्वर का अनुग्रह और आशीष है। इस बीमारी के जरिए मैं परमेश्वर के सामने आई और इसने विश्वास के जरिए आशीष पाने के मेरे गलत दृष्टिकोण को प्रकट किया। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मुझे यह समझने में मदद मिली कि अपने विश्वास में मैं केवल पेटभर रोटियाँ खाने की कोशिश कर रही थी और मेरा प्रयास और खपना परमेश्वर के साथ सौदेबाजी की कोशिश थी, न कि सच्चा विश्वास। परमेश्वर के वचनों के कारण ही उस पर विश्वास करने के मेरे गलत दृष्टिकोण में कुछ परिवर्तन आया है। परमेश्वर का धन्यवाद!

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