91. हीन भावना को अलविदा कहना

केके, चीन

बचपन से ही मैं काफी अंतर्मुखी रही हूँ। मुझे बात करना पसंद नहीं था और मुझे लोगों का अभिवादन करने में भी कोई रुचि नहीं थी। जब कभी मैं बाहर जाना चाहती और अपने पड़ोसियों को बातें करते देखती तो मुझे बहुत घबराहट होती थी, इसलिए जब तक बहुत जरूरी न हो मैं बाहर जाने से बचती थी। स्कूल के दिनों में कुछ पूछने के लिए अगर टीचर को फोन करना होता तो मुझे समझ न आता कि शुरुआत कैसे करूँ, इसलिए पिताजी से कहती कि मेरी तरफ से वह बात कर लें। पिताजी काफी नाराज हो जाते और शिकायत करते कि मुझमें बाकी बच्चों की तरह आत्मविश्वास नहीं है। मेरी चाची अक्सर मुझसे कहतीं, “लगता है तुम्हारे मुँह पर पट्टी बँधी हुई है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो तुम कुछ नहीं कर पाओगी ...” उनकी टिप्पणियाँ अक्सर मेरे दिमाग में गूँजती रहती थीं और कभी-कभी रोती थी कि मैं ऐसी क्यों हूँ, मैं खुद से नफरत करती कि मैं बोल नहीं पाती या बड़ों को खुश नहीं कर पाती। मैं अक्सर उन लोगों से ईर्ष्या करती जो बातचीत में अच्छे होते थे और माहौल में जान डाल देते थे। कॉलेज में मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार कर लिया और परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए भाई-बहनों के साथ सभाओं में शामिल होने लगी। मैंने देखती कि हर कोई खुलकर बोलता है और अपनी अनुभवजन्य समझ पर संगति करता है, कोई किसी की मजाक नहीं उड़ाता और मैं भी बिना बेबस हुए खुलकर बोलती और संगति करती। भाई-बहनों के साथ होना बहुत राहत और मुक्ति देने वाला अनुभव था।

जनवरी 2024 में मैं कलीसिया में नवागतों का सिंचन और बहन वांग लू के साथ सहयोग कर रही थी। बातचीत के दौरान मैंने देखा कि इस बहन में अच्छी काबिलियत, अभिव्यक्ति की जबरदस्त क्षमता है और अच्छे से सत्य समझती है। सभाओं के दौरान वह अपनी संगति में नवागतों की मनोदशा पर बातचीत कर सकती है और नवागत उसकी बात सुनते समय अक्सर सहमति में सिर हिलाते हैं। यह देखकर मैं सहज ही अपना सिर झुका लेती और सोचती, “यह बहन वाकई कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखती आ रही है, इसके बोलने का तरीका तो सच में कमाल है! जबकि मेरी हालत यह है कि संगति में नवागतों के प्रश्नों का उत्तर देने से पहले काफी देर तक सोचना पड़ता है और जो बोलती हूँ वह भी वांग लू जितना धाराप्रवाह या विस्तृत नहीं होता। मुझमें इतनी कमी क्यों है? उसके बाद अगर मुझे संगति करनी हो तो नवागत पक्का जान जाएँगे कि मैं उसके जितना अच्छा नहीं बोलती। जाने दो, कुछ न ही बोलूँ तो अच्छा है; इस तरह तुलना में ऐसा तो नहीं लगेगा कि मैं कुछ नहीं हूँ।” उसके बाद मुझे वांग लू के साथ सभाओं में बोलने में डर लगने लगा, मुझे चिंता रहती कि अगर मैंने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया तो वह मुझे नीची नजर से देखेगी। एक बार एक नवागत को सुसमाचार का प्रचार करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और वांग लू ने समस्या के समाधान के लिए महज बातचीत करके तरीका बता दिया। मैं उसमें कुछ जोड़ना चाहती थी क्योंकि मुझे उस क्षेत्र में अनुभव था, लेकिन फिर मैंने सोचा, “वांग लू की मौजूदगी में अगर मैं अपने विचार ठीक से व्यक्त नहीं कर पाई तो कहीं वह यह तो नहीं सोचेगी कि संगति की इच्छा से मैं अपने आप को कुछ ज्यादा ही आँक रही हूँ?” भले ही शब्द मेरी जबान पर आ गए थे, पर मुझमें बोलने का साहस नहीं हुआ और मैंने संगति करने से पहले वांग लू के जाने का इंतजार किया। एक बार मैं वांग लू और बहन ली हुआ के साथ नवागतों के संग एक सभा में थी। मैंने संक्षेप में नवागतों की मनोदशा के बारे में पूछताछ की और एक नवागत ने अपनी कठिनाइयाँ साझा कीं। मैं उस नवागत से संगति कर मार्गदर्शन देने ही वाली थी कि इस मनोदशा में सबक कैसे सीखा जाए, लेकिन यह सोचकर कि दोनों बहनें वहाँ मौजूद हैं, उनमें अच्छी काबिलियत और अभिव्यक्ति की क्षमताएँ हैं, मैं चिंतित हो गई, “मैं बातचीत में अच्छी नहीं हूँ, अगर कुछ भी उल्टा-सीधा बोलने लगी तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगी?” यह देखकर कि मैंने काफी देर से कुछ नहीं कहा है, ली हुआ ने जल्दी से संगति संभाल ली, भले ही यह नवागतों से उसकी पहली मुलाकात थी, मगर वह उनके साथ स्वाभाविक रूप से बातचीत कर पा रही थी। वांग लू और ली हुआ को आगे-पीछे संगति करते देख मुझे बहुत ईर्ष्या हुई, मैं सोचने लगी, “सिंचनकर्ता को इन बहनों की तरह काबिल, बातचीत में कुशल और बहिर्मुखी व्यक्तित्व का होना चाहिए।” मैंने फिर अपने बारे में सोचा; मैंने पूरी सभा के दौरान मुश्किल से ही कुछ बोला होगा, मुझे लगा जैसे मैं कोई बाहरी व्यक्ति हूँ। मैं निराश होकर सोचने लगी कि मैं दूसरों की तरह खुलकर संगति क्यों नहीं कर पाती। कहीं ऐसा तो नहीं है कि मैं ऐसे कर्तव्य के उपयुक्त नहीं हूँ जहाँ मुझे अक्सर बोलना पड़े? जब भी मैं ऐसे भाई-बहनों के साथ सभाओं में जाती जो अच्छी काबिलियत वाले और बातचीत में कुशल होते तो मुझे बहुत घबराहट होने लगती, डर लगा रहता कि अगर मैंने खराब संगति की तो लोग मुझे नीची नजर से देखेंगे और मेरे पास रोशनी होते हुए भी मैं उसे साझा करने की हिम्मत न कर पाती। मैं आवश्यकता के अनुसार अपना कर्तव्य न निभा पाती, इसलिए मैं परमेश्वर से प्रार्थना करती, कोई रास्ता खोजती ताकि इस मनोदशा का समाधान कर मैं सामान्य रूप से अपना कर्तव्य निर्वहन कर सकूँ।

एक दिन मुझे परमेश्वर के वचनों के दो अंश याद आए जो मेरी मनोदशा से मेल खाते थे, मैंने उन्हें खोजा और पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ लोग ऐसे होते हैं जो बचपन में देखने में साधारण थे, ठीक से बात नहीं कर पाते थे, और हाजिर-जवाब नहीं थे, जिससे उनके परिवार और सामाजिक परिवेश के लोगों ने उनके बारे में प्रतिकूल राय बना ली, और ऐसी बातें कहीं : ‘यह बच्चा मंद-बुद्धि, धीमा और बोलचाल में फूहड़ है। दूसरे लोगों के बच्चों को देखो, जो इतना बढ़िया बोलते हैं कि वे लोगों को अपनी कानी उंगली पर घुमा सकते हैं। और यह बच्चा है जो दिन भर यूँ ही मुँह बनाए रहता है। उसे नहीं मालूम कि लोगों से मिलने पर क्या कहना चाहिए, उसे कोई गलत काम कर देने के बाद सफाई देना या खुद को सही ठहराना नहीं आता, और वह लोगों का मन नहीं बहला सकता। यह बच्चा बेवकूफ है।’ माता-पिता, रिश्तेदार और मित्र, सभी यह कहते हैं, और उनके शिक्षक भी यही कहते हैं। यह माहौल ऐसे व्यक्तियों पर एक खास अदृश्य दबाव डालता है। ऐसे माहौल का अनुभव करने के जरिए वे अनजाने ही एक खास किस्म की मानसिकता बना लेते हैं। किस प्रकार की मानसिकता? उन्हें लगता है कि वे देखने में अच्छे नहीं हैं, ज्यादा आकर्षक नहीं हैं, और दूसरे उन्हें देखकर कभी खुश नहीं होते। वे मान लेते हैं कि वे पढ़ाई-लिखाई में अच्छे नहीं हैं, धीमे हैं, और दूसरों के सामने अपना मुँह खोलने में और बोलने में हमेशा शर्मिंदगी महसूस करते हैं। जब लोग उन्हें कुछ देते हैं तो वे धन्यवाद कहने में भी लजाते हैं, मन में सोचते हैं, ‘मैं कभी बोल क्यों नहीं पाता? बाकी लोग इतनी चिकनी-चुपड़ी बातें कैसे कर लेते हैं? मैं निरा बेवकूफ हूँ!’ अवचेतन रूप से वे सोचते हैं कि वे बेकार हैं, फिर भी यह स्वीकार करने को तैयार नहीं होते कि वे इतने बेकार हैं, इतने बेवकूफ हैं। मन-ही-मन वे खुद से हमेशा पूछते हैं, ‘क्या मैं इतना बेवकूफ हूँ? क्या मैं सचमुच इतना अप्रिय हूँ?’ उनके माता-पिता उन्हें पसंद नहीं करते, न ही उनके भाई-बहन, न शिक्षक और सहपाठी। और कभी-कभी उनके परिवारजन, उनके रिश्तेदार और मित्र उनके बारे में कहते हैं, ‘वह नाटा है, उसकी आँखें और नाक छोटी हैं, ऐसे रंग-रूप के साथ बड़ा होकर वह सफल नहीं हो पाएगा।’ इसलिए जब वे आईना देखते हैं, तो देखते हैं कि उनकी आँखें सचमुच छोटी हैं। ऐसी स्थिति में, उनके दिल की गहराइयों में पैठा प्रतिरोध, असंतोष, अनिच्छा और अस्वीकृति धीरे-धीरे उनकी अपनी कमियों, खामियों, और समस्याओं को स्वीकार कर मान लेने में बदल जाती है। हालाँकि वे इस वास्तविकता को स्वीकार कर लेते हैं, मगर उनके दिलों की गहराइयों में एक स्थाई भावना सिर उठा लेती है। इस भावना को क्या कहा जाता है? यह है हीनभावना(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। “सतह पर तो हीनभावना एक भावना है जो लोगों में अभिव्यक्त होती है; लेकिन दरअसल इसका मूल कारण समाज, मानवजाति और वह माहौल है जिसमें लोग जीते हैं। यह लोगों के अपने वस्तुनिष्ठ कारणों से भी पैदा होती है। कहने की जरूरत नहीं कि समाज और मानवजाति शैतान से आते हैं, क्योंकि पूरी मानवजाति उस दुष्ट की सत्ता के अधीन है, शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट है और संभवतः कोई भी व्यक्ति अगली पीढ़ी को सत्य या परमेश्वर की शिक्षाओं के अनुसार शिक्षा नहीं दे सकता, बल्कि वह शैतान से आई चीजों के अनुसार शिक्षा देता है। इसलिए, लोगों के स्वभाव और सार को भ्रष्ट करने के अलावा अगली पीढ़ी और मानवजाति को शैतान की चीजों की शिक्षा देने का परिणाम यह है कि इससे लोगों में नकारात्मक भावनाएँ पैदा होती हैं। यदि पैदा हुई नकारात्मक भावनाएँ अस्थाई हों, तो उनका व्यक्ति के जीवन पर अत्यधिक असर नहीं होगा। लेकिन यदि नकारात्मक भावना व्यक्ति के अंतरतम और अंतरात्मा में गहरे पैठ जाए और अमिट रूप से चिपक जाए, यदि वह इसे भुलाने या इससे मुक्त होने में पूरी तरह असमर्थ हो जाए, तो यह उसके हर फैसले, हर प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों से पेश आने के तरीके, सिद्धांत के प्रमुख मामलों से सामना होने पर विकल्प चुनने और जीवन में उसके द्वारा अपनाए जाने वाले मार्ग को अनिवार्य रूप से प्रभावित करेगी—यह है वह प्रभाव जो प्रत्येक व्यक्ति पर वास्तविक मानव समाज डालता है। दूसरा पहलू है लोगों के अपने वस्तुनिष्ठ कारण। यानी, बड़े होते समय लोगों द्वारा प्राप्त शिक्षा और सीख, उनकी हर सोच और विचार के साथ-साथ वे आचरण के जो तरीके स्वीकारते हैं, और साथ ही विभिन्न इंसानी कहावतें, सब-कुछ शैतान से ही आते हैं, इस हद तक कि लोगों का जिन मसलों से सामना होता है, उनको सही परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण से संभालने और दूर करने की क्षमता उनमें नहीं होती(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। परमेश्वर के वचन पढ़कर अंततः मुझे समझ आ गया। मुझे एहसास हुआ कि भाई-बहनों के साथ सभाओं के दौरान मैं इसलिए बेबस हो जाती थी क्योंकि मुझमें हीनभावनाएँ बहुत प्रबल थीं। बचपन से ही मेरे परिवार वाले हमेशा कहते थे कि मैं बात नहीं कर सकती, न ही बड़ों को खुश कर सकती हूँ, लोगों से बात करते समय शर्माती और झिझकती हूँ और मैं अन्य लोगों के बच्चों से अलग हूँ जो स्पष्ट और आत्मविश्वास से बोलते हैं। ऐसी बातों के प्रभाव में मैं सतर्क रहती थी कि मेरे जैसे बच्चे जो ठीक से बोल नहीं सकते उन्हें कोई पसंद नहीं करता और केवल वे ही लोग दूसरों को पसंद आते हैं जो बोलने में अच्छे और मिलनसार होते हैं। नतीजतन मैं अक्सर खुद को हीन महसूस करती थी और अन्य लोगों से दूर एक कोने में छिपना पसंद करती थी। अब जबकि मैं कलीसिया में अपना कर्तव्य निभा रही थी, मुझमें अभी भी हीनभावनाएँ थीं। जब मैं अच्छी काबिलियत और बातचीत का जबरदस्त कौशल रखने वाले लोगों के साथ सभाओं में शामिल होती तो मैं खुद को हीन महसूस करती और अक्सर अपने आपको नकारती थी। यहाँ तक कि जब मुझे कुछ मसले समझ में आते तब भी मैं संगति करने की हिम्मत नहीं करती थी और मुझे बहनों के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग करने के लिए संघर्ष करना पड़ता था। इन हीनभावनाओं के साथ जीने से वाकई मेरी कर्तव्य-क्षमता पर असर पड़ा था!

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े और मुझे इन हीनभावनाओं का समाधान न करने के परिणामों की कुछ समझ प्राप्त हुई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब तुममें यह भावना पैदा होती है तो तुम्हें लगता है कि तुम्हारे पास अब कोई रास्ता नहीं रहा। जब किसी ऐसे मसले से तुम्हारा सामना होता है जिस पर तुम्हें एक विचार व्यक्त करना होता है, तो तुम अपने अंतरतम में न जाने कितनी बार विचार करोगे कि तुम्हें क्या कहना है और कौन-से विचार व्यक्त करने हैं, फिर भी तुम इसे जोर से बोलने के लिए तैयार नहीं हो पाओगे। जब दूसरा कोई तुम्हारे ही विचार व्यक्त कर देता है तो भीतर यह पुष्टि महसूस करोगे कि तुम सही थे, दूसरों की अपेक्षा तुम बुरे नहीं हो। लेकिन जब वही स्थिति दोबारा आती है, तो भी तुम खुद से कहते हो, ‘मैं यूँ ही नहीं बोल सकता, लापरवाही नहीं कर सकता, या खुद का मजाक नहीं बनने दे सकता। मैं अच्छा नहीं हूँ, बेवकूफ हूँ, मूर्ख हूँ, जड़बुद्धि हूँ। मुझे सीखने की जरूरत है कि कैसे छुपकर रहूँ और बस सुनूँ, बोलूँ नहीं।’ इससे हम देख सकते हैं कि हीनभावना के पैदा होने से लेकर उसके व्यक्ति के अंतरतम में गहराई से पैठने तक, क्या व्यक्ति अपनी स्वतंत्र इच्छा और उसे परमेश्वर द्वारा प्रदत्त न्यायसंगत अधिकारों से वंचित नहीं है? (बिल्कुल।) वह इन चीजों से वंचित है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। “हीनभावना से ग्रस्त होने के कारण वे लोगों के सामने जाने की हिम्मत नहीं करते, वो दायित्व और जिम्मेदारियाँ भी नहीं ले सकते जो उन्हें लेनी चाहिए, न ही वे वो चीजें हासिल कर पाते हैं जो वे अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार और अपनी मानवता के अनुभव के दायरे के भीतर प्राप्त करने में सक्षम हैं। यह हीनभावना का एहसास उनकी मानवता के हर पहलू को प्रभावित करता है, यह उनकी सत्यनिष्ठा को प्रभावित करता है और यकीनन यह उनके व्यक्तित्व को भी प्रभावित करता है। दूसरे लोगों के साथ होने पर, वे विरले ही अपने विचार व्यक्त करते हैं, और उन्हें शायद ही कभी अपने दृष्टिकोण या राय के बारे में स्पष्टीकरण देते हुए देखा जा सकता है। जब किसी मसले से उनका सामना होता है, तो वे बोलने की हिम्मत नहीं करते, बल्कि इसके बजाय निरंतर पीछे हट जाते हैं। थोड़े-से लोगों के बीच तो वे बैठने का साहस दिखाते हैं, लेकिन जब ज्यादा लोग होते हैं, तो वे अंधेरे कोने में दुबक जाते हैं, दूसरे लोगों के बीच आने की हिम्मत नहीं करते। जब कभी वे यह दिखाने के लिए कि उनकी सोच सही है, सकारात्मक और सक्रिय रूप से कुछ कहना और अपने विचार और राय व्यक्त करना चाहते हैं, तब उनमें ऐसा करने की भी हिम्मत नहीं होती। जब कभी उनके मन में ऐसे विचार आते हैं, उनकी हीनभावना एक ही बार में उफन पड़ती है, उन पर नियंत्रण कर उन्हें दबा देती है और कहती है, ‘कुछ मत कहो, तुम किसी काम के नहीं हो। अपने विचार व्यक्त मत करो, अपने तक ही रखो। अगर तुम सचमुच अपने दिल की कोई बात कहना चाहते हो, तो कंप्यूटर पर लिखकर उस बारे में खुद ही मनन करो। तुम्हें इस बारे में किसी और को जानने नहीं देना चाहिए। तुमने कुछ गलत कह दिया तो क्या होगा? यह बड़ी शर्मिंदगी की बात होगी!’ यह आवाज तुमसे कहती रहती है, यह मत करो, वह मत करो, यह मत बोलो, वह मत बोलो, जिस वजह से तुम्हें अपनी हर बात निगलनी पड़ती है। जब तुम ऐसी कोई बात कहना चाहते हो जिस पर तुमने मन-ही-मन बहुत मनन किया है, तब तुम पीछे हट जाते हो, कहने की हिम्मत नहीं करते या कहने में शर्मिंदा महसूस करते हो, यह सोचते हो कि तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए, और अगर ऐसा कर देते हो, तो तुम्हें लगता है कि तुमने कोई नियम तोड़ा है या कानून का उल्लंघन किया है। और जब किसी दिन तुम सक्रिय होकर अपने विचार व्यक्त कर देते हो, तो भीतर गहराई में बेहद बेचैन और विचलित हो जाते हो। हालाँकि अत्यधिक बेचैनी की यह भावना धीरे-धीरे धूमिल हो जाती है, फिर भी तुम्हारी हीनभावना धीरे-धीरे बोलने, विचारों को व्यक्त करने, एक सामान्य व्यक्ति बनने और बाकी सभी की तरह बनने की तुम्हारी इच्छा, विचारों, इरादों और योजनाओं को दबा देती है। जो लोग तुम्हें नहीं समझते उन्हें लगता है कि तुम कम बोलने वाले, शांत, संकोची व्यक्तित्व वाले, भीड़ में अलग न दिखने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति हो। जब तुम बहुत-से दूसरे लोगों के सामने बोलते हो, तो तुम्हें शर्मिंदगी महसूस होती है, और तुम्हारा चेहरा लाल हो जाता है; तुम थोड़े अंतर्मुखी हो, वास्तव में सिर्फ तुम्हीं जानते हो कि तुम हीनभावना से ग्रस्त हो। तुम्हारा दिल हीनभावना से सराबोर है, यह भावना बड़े लंबे समय से रही है, यह कोई अस्थाई भावना नहीं है। इसके बजाय यह तुम्हारी अंतरात्मा के विचारों पर सख्ती से नियंत्रण करती है, यह तुम्हारे होंठों को कसकर बंद कर देती है, और इसलिए तुम चीजों को कितने भी सही ढंग से समझो या लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति तुम्हारे विचार और राय जो भी हों, तुममें सिर्फ अपने मन में ही सोचकर चीजों पर बारंबार विचार करने की हिम्मत होती है, कभी जोर से बोलने की हिम्मत नहीं होती। चाहे दूसरे लोग तुम्हारी बात स्वीकार करें, या उसमें सुधार कर तुम्हारी आलोचना करें, तुममें ऐसा परिणाम देखने या उसका सामना करने की हिम्मत नहीं होती। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम्हारी हीनभावना तुम्हारे भीतर है, तुम्हें बता रही है, ‘यह मत करो, तुम इस लायक नहीं हो। तुममें ऐसी योग्यता नहीं है, तुममें ऐसी वास्तविकता नहीं है, तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए, तुम ऐसे बिल्कुल भी नहीं हो। अभी कुछ करो या सोचो मत। हीनभावना में जीकर ही तुम असल रहोगे। तुम इस योग्य नहीं हो कि सत्य का अनुसरण करो, या अपना दिल खोलकर जो मन में हो वह कहो और दूसरे लोगों की तरह बाकी सबसे जुड़ो। ऐसा इसलिए क्योंकि तुम किसी काम के नहीं हो, तुम उनके जितने अच्छे नहीं हो।’ लोगों के दिमाग में उनकी सोच को यह हीनभावना ही निर्देशित करती है; सामान्य व्यक्ति को जो दायित्व निभाने चाहिए, उन्हें निभाने और जो सामान्य मानवता का जीवन उन्हें जीना चाहिए, उसे जीने से यह रोकती है, साथ ही यह लोगों और चीजों के प्रति उनके दृष्टिकोण, उनके आचरण और कार्य के तरीकों और साधनों और दिशा और लक्ष्यों का निर्देशन भी करती है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। जब मैंने परमेश्वर के घर में आने के बाद बीते समय पर नजर डाली तो मैंने पाया कि जब मैं भाई-बहनों को खुलकर सभा और संगति करते देखती हूँ तो मुझे मुक्ति का एहसास होता है। जब नवागतों का सिंचन करती तो मैं अपनी समझ पर संगति कर सकती थी और इससे नये लोगों को लाभ होता था। लेकिन जब मेरी मुलाकात ऐसे लोगों से होती जो मिलनसार होते, जिनमें अच्छी काबिलियत और बातचीत का जबरदस्त कौशल होता तो मेरी हीनभावनाएँ उभर आतीं। उदाहरण के लिए जब मैं वांग लू के साथ सभाओं में गई, जब मैंने देखा कि उसमें अभिव्यक्ति की अच्छी क्षमता है और वह मुझसे अधिक स्पष्टता से सत्य की संगति करती है तो मैं अपने आप को उससे कमतर महसूस करने लगी। यहाँ तक कि जब मैंने देखा कि उसकी संगति में कमियाँ हैं और मैं कुछ जोड़ना चाहती थी तो भी मैं बोलने का साहस नहीं जुटा पाई, मुझे डर था कि अगर मैंने खराब ढंग से बात की तो लोग मुझ पर हँसेंगे, इसलिए मैं पीछे हट गई। जब मैं ली हुआ और वांग लू के साथ एक सभा में गई तब भी यही हालत हुई। मैं पूरी सभा में एक मूक और बाहरी व्यक्ति की तरह महसूस कर रही थी और जब मुझे संगति करनी चाहिए थी तब मैं बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। भले ही मेरा मुँह मेरे शरीर का ही अंग है, मगर महत्वपूर्ण क्षणों में इसने मेरा साथ नहीं दिया। कलीसिया ने मुझे नवागतों के सिंचन का अभ्यास करने का अवसर दिया था ताकि मैं बहनों के साथ मिलकर परमेश्वर के वचनों पर संगति कर सकूँ और नवागतों की मनोदशाओं और कठिनाइयों का समाधान कर सकूँ। लेकिन मैं अपनी हीनभावना से बँधी हुई थी और मैं जो संगति करना चाहती थी वह नहीं कर पाई। मैं अपना कर्तव्य तक नहीं निभा सकी। क्या मैं एकदम बेकार नहीं थी? यह एहसास होने पर मुझे समझ आया कि अगर मैं इन नकारात्मक भावनाओं के साथ जीती रही तो इसका असर मेरे कर्तव्य पर पड़ेगा और यह मेरे जीवन प्रवेश के लिए बहुत बड़ी क्षति होगी। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं इन हीनभावनाओं के साथ जीते हुए बहुत दबी हुई महसूस करती हूँ। मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मैं इन नकारात्मक भावनाओं को दूर कर अपनी भूमिका निभा सकूँ।”

बाद में मैंने खुद से पूछा, “जब भी मैं अच्छी काबिलियत वाली बहनों के बीच होती हूँ तो मुझमें संगति करने का साहस क्यों नहीं आ पाता?” एक दिन मैंने अपनी मनोदशा के बारे में एक बहन को खुलकर बताया और उसने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश भेजा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब परिवार के बुजुर्ग अक्सर तुमसे कहते हैं कि ‘जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,’ तो यह इसलिए होता है ताकि तुम अच्छी प्रतिष्ठा रखने और गौरवपूर्ण जीवन जीने को अहमियत दो और ऐसे काम मत करो जिनसे तुम्हारी बदनामी हो। तो यह कहावत लोगों को सकारात्मक दिशा की ओर लेकर जाती है या नकारात्मक? क्या यह तुम्हें सत्य की ओर ले जा सकती है? क्या यह तुम्हें सत्य समझने की ओर ले जा सकती है? (नहीं, बिल्कुल नहीं।) तुम यकीन से कह सकते हो, ‘नहीं, नहीं ले जा सकती!’ जरा सोचो, परमेश्वर कहता है कि लोगों को ईमानदार लोगों की तरह आचरण करना चाहिए। अगर तुमने कोई अपराध किया है या कुछ गलत किया है या कुछ ऐसा किया है जो परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह है या सत्य के विरुद्ध जाता है, तो तुम्हें अपनी गलती स्वीकारनी होगी, खुद को समझना होगा, और सच्चा पश्चात्ताप करने के लिए खुद का विश्लेषण करते रहना होगा और फिर परमेश्वर के वचनों के अनुसार व्यवहार करना होगा। अगर लोग ईमानदार व्यक्ति की तरह आचरण करें, तो क्या यह इस कहावत के विरुद्ध नहीं होगा कि ‘जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है’? (हाँ।) यह इसके विरुद्ध कैसे होगा? ‘जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,’ इस कहावत का उद्देश्य यह है कि लोग उज्ज्वल और रंगीन जीवन जिएँ और ऐसे काम ज्यादा करें जिनसे उनकी छवि बेहतर होती है—उन्हें बुरे या अपमानजनक काम या ऐसे काम नहीं करने चाहिए जिनसे उनका कुरूप चेहरा उजागर हो—और वे आत्मसम्मान या गरिमा के साथ न जी पाएँ। अपनी प्रतिष्ठा की खातिर, अपने गौरव और सम्मान की खातिर, व्यक्ति को अपने बारे में सब कुछ नहीं बताना चाहिए, और दूसरों को अपने अँधेरे पक्ष और शर्मनाक पहलुओं के बारे में तो कतई नहीं बताना चाहिए, क्योंकि व्यक्ति को आत्मसम्मान और गरिमा के साथ जीना चाहिए। गरिमावान होने के लिए अच्छी प्रतिष्ठा होना जरूरी है, और अच्छी प्रतिष्ठा पाने के लिए व्यक्ति को मुखौटा लगाना और अच्छे कपड़े पहनकर दिखाना होता है। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करने के विरुद्ध नहीं है? (हाँ।) जब तुम ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करते हो, तो तुम जो भी करते हो वह इस कहावत से बिल्कुल अलग होता है, ‘जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है।’ अगर तुम ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करना चाहते हो, तो आत्मसम्मान को अहमियत मत दो; व्यक्ति के आत्मसम्मान की कीमत दो कौड़ी की भी नहीं है। सत्य से सामना होने पर, व्यक्ति को मुखौटा लगाने या झूठी छवि बनाए रखने के बजाय, खुद को उजागर कर देना चाहिए। व्यक्ति को अपने सच्चे विचारों, अपनी गलतियों, सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाले पहलुओं वगैरह को परमेश्वर के सामने प्रकट कर देना चाहिए, और अपने भाई-बहनों के सामने भी इनका खुलासा करना चाहिए। यह अपनी प्रतिष्ठा की खातिर जीने का मामला नहीं, बल्कि एक ईमानदार व्यक्ति की तरह आचरण करने, सत्य का अनुसरण करने, एक सच्चा सृजित प्राणी बनने और परमेश्वर को संतुष्ट करने और बचाए जाने की खातिर जीने का मामला है। लेकिन जब तुम यह सत्य और परमेश्वर के इरादे नहीं समझते हो, तो तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हें सिखाई गई चीजें तुम पर हावी हो जाती हैं। इसलिए, जब तुम कुछ गलत करते हो, तो उस पर पर्दा डालकर यह सोचते हुए दिखावा करते हो, ‘मैं इस बारे में कुछ नहीं कहूँगा, और अगर कोई इस बारे में जानता है मैं उसे भी कुछ नहीं कहने दूँगा। अगर तुममें से किसी ने कुछ भी कहा, तो मैं तुम्हें आसानी से नहीं छोडूँगा। मेरी प्रतिष्ठा सबसे ज्यादा जरूरी है। जीने का मतलब तभी है जब हम अपनी प्रतिष्ठा की खातिर जिएँ, क्योंकि यह किसी भी चीज से ज्यादा जरूरी है। यदि कोई व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा खो देता है, तो वह अपनी सारी गरिमा खो देता है। तो तुम जो सच है वह नहीं बता सकते, तुम्हें झूठ का सहारा लेना होगा और चीजों को छुपाना होगा, वरना तुम अपनी प्रतिष्ठा और गरिमा खो बैठोगे, और तुम्हारा जीवन निरर्थक हो जाएगा। अगर कोई तुम्हारा सम्मान नहीं करता है, तो तुम एकदम बेकार हो, सिर्फ रास्ते का कचरा हो।’ क्या इस तरह अभ्यास करके ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करना मुमकिन है? क्या पूरी तरह खुलकर बोलना और अपना विश्लेषण करना मुमकिन है? (नहीं, मुमकिन नहीं है।) बेशक, ऐसा करके तुम इस कहावत का पालन कर रहे हो, ‘जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,’ जैसा तुम्हारे परिवार ने तुम्हें सिखाया है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (12))। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि मैं बचपन से ही “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,” और “एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है” जैसे शैतानी जहर से प्रभावित थी। इन कहावतों ने मुझे घमंड और आत्म-सम्मान को बहुत अधिक महत्व देना सिखा दिया था और बचपन से ही मैंने ऐसी किसी भी चीज से परहेज किया था जो मेरे आत्म-सम्मान को ठेस पहुँचा सकती थी। मेरे अंतर्मुखी व्यक्तित्व और अच्छा बोलने की कमी के बारे में सोचकर, जब भी हमारे घर मेहमान आते तो मैं भागकर छिप जाती थी क्योंकि मुझे अपना अटपटापन दिखाने से डर लगता था। अब जब मैं वांग लू के साथ सभाओं में शामिल होने लगी तो मैंने देखा कि वह अपने आपको कितने अच्छे से व्यक्त करती है, जबकि मैं शब्दों को ठीक से बोल भी नहीं पाती, मुझे डर लगा रहता कि अगर मैंने संगति की तो बहनें सोचेंगी कि मैं अपनी बात कहने में अच्छी नहीं हूँ और मुझे शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी, इसलिए मैं बोलने की हिम्मत नहीं कर पाती थी। परमेश्वर हमसे ईमानदार और अपने कर्तव्यों के प्रति वफादार रहने को कहता है, लेकिन जब मैं समस्याएँ देखती तो मुझमें संगति करने का साहस न होता क्योंकि मैं अपने आत्म-सम्मान की रक्षा करना चाहती थी। मैं जो कर्तव्य निभा सकती थी उनका भी निर्वहन नहीं कर पाती थी, मैंने देखा कि मैं अपने आत्म-सम्मान को बहुत अधिक महत्व दे रही हूँ। शैतान की यातनाओं के कारण मेरी सारी ईमानदारी और गरिमा खत्म हो गई थी। मैंने मन ही मन यह संकल्प लिया कि जब भी मैं फिर से ऐसी परिस्थितियों का सामना करूँगी तो अपने इरादे सही रखूँगी और अपने आपको छिपाऊँगी नहीं या पर्दा नहीं डालूँगी, मैं एक ईमानदार व्यक्ति बनने का प्रयास करूँगी और अपने कर्तव्य पूरे करूँगी!

बाद में मैं अपनी हीनभावना को दूर करने का तरीका ढूँढ़ती रही। मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “कुछ लोग बचपन से ही काफी अंतर्मुखी होते हैं; वे बात करना पसंद नहीं करते हैं और दूसरों से मेलजोल रखने में उन्हें दिक्कतें आती हैं। यहाँ तक कि तीस या चालीस वर्ष के वयस्क हो जाने के बाद भी वे इस व्यक्तित्व से उबर नहीं पाते हैं : वे न तो बात करने में कुशल होते हैं, न ही उन्हें भाषा का प्रभावी ढंग से उपयोग करना आता है और न ही वे दूसरों के साथ मेलजोल रखने में अच्छे होते हैं। चूँकि उनके व्यक्तित्व का यह गुण उनके कार्य को कुछ हद तक सीमित और बाधित करता है, अगुआ बनने के बाद उन्हें अक्सर इसके कारण तनाव और हताशा होती है जिससे वे बहुत बेबस महसूस करते हैं। अंतर्मुखी होना और बात करना पसंद नहीं करना सामान्य मानवता की अभिव्यक्तियाँ हैं। चूँकि ये सामान्य मानवता की अभिव्यक्तियाँ हैं, तो क्या उन्हें परमेश्वर के प्रति अपराध माना जाता है? नहीं, ये अपराध नहीं हैं और परमेश्वर उनके साथ सही तरह से व्यवहार करेगा। चाहे तुम्हारी समस्याएँ, दोष या खामियाँ कुछ भी हों, इनमें से कोई भी चीज परमेश्वर की नजर में मुद्दा नहीं है। परमेश्वर देखता है कि तुम किस तरह से सत्य की तलाश करते हो, किस तरह से सत्य का अभ्यास करते हो, किस तरह से सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हो और सामान्य मानवता की अंतर्निहित स्थितियों के तहत परमेश्वर के मार्ग पर चलते हो—परमेश्वर इन्हीं चीजों को देखता है। इसलिए, सत्य सिद्धांतों का जिक्र करने वाले मामलों में काबिलियत, सहज-ज्ञान, व्यक्तित्व, आदतें और सामान्य मानवता के जीवन जीने के तरीके जैसी बुनियादी स्थितियों को अपने आप पर प्रतिबंध मत लगाने दो। यकीनन, इन बुनियादी स्थितियों पर काबू पाने का प्रयास करने में अपनी ताकत और समय भी मत लगाओ और न ही इन्हें बदलने का प्रयास करो। मिसाल के तौर पर, अगर तुम्हारा व्यक्तित्व अंतर्मुखी है और तुम्हें बात करना पसंद नहीं है, तुम्हें भाषा का प्रभावी ढंग से उपयोग करना नहीं आता है और तुम लोगों के साथ मेलजोल रखने और बातचीत करने में कुशल नहीं हो, तो इनमें से कोई भी चीज समस्या नहीं है। हालाँकि बहिर्मुखी लोग बात करना पसंद करते हैं लेकिन ऐसा नहीं है कि वे जो कुछ भी कहते हैं वह उपयोगी या सत्य के अनुरूप होता है, इसलिए अंतर्मुखी होना कोई समस्या नहीं है और तुम्हें इसे बदलने का प्रयास करने की जरूरत नहीं है। ... तुम्हारा मूल व्यक्तित्व जो भी रहा है, वही तुम्हारा व्यक्तित्व बना रहता है। उद्धार प्राप्त करने के लिए अपने व्यक्तित्व को बदलने का प्रयास मत करो; यह एक भ्रामक विचार है—तुम्हारा जो भी व्यक्तित्व है, वह एक वस्तुनिष्ठ तथ्य है जिसे तुम नहीं बदल सकते। इसके वस्तुनिष्ठ कारणों के लिहाज से, परमेश्वर अपने कार्य में जो परिणाम प्राप्त करना चाहता है उसका तुम्हारे व्यक्तित्व से कोई लेना-देना नहीं है। तुम उद्धार प्राप्त कर सकते हो या नहीं, यह भी तुम्हारे व्यक्तित्व से संबंधित नहीं है। इसके अलावा, तुम सत्य का अभ्यास करने वाले व्यक्ति हो या नहीं और तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है या नहीं, इसका भी तुम्हारे व्यक्तित्व से कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए, इस कारण से अपने व्यक्तित्व को बदलने का प्रयास मत करो कि तुम कुछ विशेष कर्तव्य कर रहे हो या कार्य की किसी विशेष मद के पर्यवेक्षक के रूप में सेवा कर रहे हो—यह एक गलत विचार है। तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हारा व्यक्तित्व या जन्मजात स्थितियाँ चाहे कुछ भी हों, तुम्हें सत्य सिद्धांतों का पालन करना चाहिए और उनका अभ्यास करना चाहिए। अंत में, परमेश्वर यह आकलन नहीं करता है कि तुम उसके मार्ग पर चलते हो या नहीं या तुम अपने व्यक्तित्व के आधार पर उद्धार प्राप्त कर सकते हो या नहीं, वह इस आधार पर भी आकलन नहीं करता है कि तुम्हारे पास कौन-सी जन्मजात काबिलियत, कौशल, क्षमताएँ, गुण या प्रतिभाएँ हैं और यकीनन वह यह भी नहीं देखता है कि तुमने अपनी दैहिक सहज प्रवृत्तियों और जरूरतों को कितना सीमित किया है। इसके बजाय परमेश्वर यह देखता है कि उसका अनुसरण करते हुए और अपना कर्तव्य निर्वहन करते हुए क्या तुम उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव कर रहे हो, क्या तुममें सत्य का अनुसरण करने की इच्छा और संकल्प है और अंत में, क्या तुम सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के मार्ग पर चलने में सफल हुए हो। परमेश्वर यही देखता है। क्या तुम इसे समझते हो? (हाँ, मैं समझता हूँ।)” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि अंतर्मुखी होना लोगों में एक अंतर्निहित स्थिति होती है और परमेश्वर की दृष्टि में यह कोई समस्या नहीं है। परमेश्वर का कार्य लोगों के भ्रष्ट स्वभाव को बदलना है, न कि उनकी काबिलियत या व्यक्तित्व को बदलना। लोगों को सत्य का अभ्यास करना चाहिए और अपनी अंतर्निहित स्थितियों के आधार पर सर्वोत्तम क्षमता के अनुसार अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना चाहिए और जब अनुचित इरादों का सामना करना पड़े तो उन्हें उन इरादों के खिलाफ विद्रोह करना चाहिए और परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए। परमेश्वर ऐसे ही लोगों से प्रेम करता है। मुझे यह भी समझ आया कि मुझे अपने कर्तव्यों का निर्वहन परमेश्वर के समक्ष करना चाहिए और अपने कर्तव्यों का पालन करते समय लगातार इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिए कि दूसरे लोग क्या सोचते हैं। परमेश्‍वर की स्वीकृति पाना ही सबसे महत्वपूर्ण बात है। भले ही मैं अंतर्मुखी हूँ और बोलने में अच्छी नहीं हूँ, लेकिन फिर भी कुछ नवागतों की मनोदशाओं और समस्याओं को हल करने में मदद कर सकती थी, जब मैंने परमेश्वर के वचनों पर संगति की तो नवागत समझने और कुछ लाभ प्राप्त करने में सक्षम हो पाए। मेरे व्यक्तित्व के दोषों ने मुझे अपने कर्तव्य निर्वहन से नहीं रोका। इसके अतिरिक्त मुझे परमेश्वर में विश्वास रखते हुए कुछ ही समय हुआ था, इसलिए मेरे कर्तव्यों में कमियाँ होना सामान्य बात थी। मुझे इस पर सही तरीके से विचार करना था, अपनी समझ के अनुसार ही संगति करनी थी, मुझे अपनी कमियाँ छिपानी नहीं चाहिए थीं और अपनी कमियों को पूरा करने के लिए साथी बहनों से सीखना चाहिए था। इस तरह मैं अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने के साथ-साथ अपनी कमियों की भरपाई भी कर सकती हूँ। इस बात को समझ लेने पर लगा मुझ पर दबाव कम हो गया है और मैं अपनी गलत मनोदशा को बदलने, साथी बहनों के साथ मिलकर एक दिल और एक दिमाग से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने के लिए सामंजस्यपूर्ण ढंग से कार्य करने को तैयार हो गई।

कुछ ही समय बाद मुझे कलीसिया अगुआ चुन लिया गया और मैं बहन ली हुई के साथ सहयोग करने लगी। ली हुई धर्मोपदेशक थी, उसके पास अच्छी काबिलियत और कार्यक्षमताएँ थीं। पहली बार जब मैंने उसके साथ सभा की, एक बहन की मनोदशा बहुत खराब थी, ली हुई ने उसके साथ परमेश्वर के वचनों पर संगति की, लेकिन बहन को ज्यादा समझ नहीं थी। मैंने सोचा कि कैसे मैं भी उसकी जैसी ही मनोदशा से गुजर चुकी हूँ, इसलिए मैं कुछ जोड़ना चाहती थी। लेकिन जैसे ही मैंने बोलने के लिए अपना मुँह खोला, मेरा दिल तेजी से धड़कने लगा और मैं लगातार सोचती रही कि मैं जो कहना चाहती हूँ उसे किन शब्दों में व्यक्त करूँ। मुझे इस बात की चिंता थी कि अगर मैंने अच्छी तरह से संगति नहीं की तो ली हुई मेरे बारे में क्या सोचेगी और मैंने सोचा, “जाने दो, मैं बस उसकी संगति सुनूँगी। अगर उसकी संगति बहन की समस्याओं का समाधान नहीं कर सकती तो मेरी संगति कैसे बेहतर हो सकती है?” इन विचारों के साथ मुझे कोई दायित्व-बोध नहीं हुआ और मुझे थोड़ी नींद भी आने लगी। मुझे एहसास हुआ कि मेरी मनोदशा ठीक नहीं है, बहन की मनोदशा का समाधान करने में मदद करना मेरा भी कर्तव्य है और जो कुछ मैंने समझा है उसकी संगति करने की मुझे पूरी कोशिश करनी चाहिए। इसलिए मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मुझे डर है अगर मैंने अच्छे से संगति नहीं की तो बहन मुझे नीची नजर से देखेगी और मैं फिर से सिर्फ एक अनुयायी बनकर रह गई। हे परमेश्वर, मैं इस तरह से आगे नहीं बढ़ते रहना चाहती। मुझे वह आस्था और साहस दो जिसकी मुझे अपनी देह के खिलाफ विद्रोह करने और सत्य का अभ्यास करने के लिए आवश्यकता है।” प्रार्थना करने के बाद मुझे बहुत शांति महसूस हुई और मैंने सोचा, “मैं अभी नई हूँ, इसलिए मेरी संगति में निश्चित रूप से कमियाँ तो होंगी, लेकिन भले ही बहन मुझ पर हँसे, परमेश्वर के समक्ष मेरी जो समझ है मैं अब भी उसकी संगति करूँगी।” अंततः मैंने संगति में बोलने का साहस जुटाया। मुझे आश्चर्य हुआ कि मेरी संगति के जरिए बहन अपनी समस्याओं को पहचान पाई और मुझे बहुत राहत मिली, सहजता और आनंद का एहसास हुआ जिसे मैं शब्दों में बयाँ नहीं कर सकती। यह कदम उठाने का मार्गदर्शन देने के लिए मैंने परमेश्वर को सच्चे मन से धन्यवाद दिया। बाद में जब मैं उन बहनों के साथ सभाओं में गई जो बोलने में अच्छी थीं तो फिर मुझे अपने आत्म-सम्मान को लेकर चिंताएं नहीं हुईं जैसी कि पहले हुआ करती थीं और मैं उतनी ही संगति करती जितना मैं समझती। इस तरह से अभ्यास करना कितना अच्छा लगता है! परमेश्वर का धन्यवाद!

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