12. छद्मवेश हटाना और एक ईमानदार व्यक्ति बनना
2022 में मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया। मुझे लगा कि मैं शायद सभी पहलुओं में काफी अच्छा हूँ, अन्यथा मेरे भाई-बहनों ने मुझे नहीं चुना होता। एक बार एक सभा में सुसमाचार उपयाजक बहन ली यू ऐसी दशा में थी, जहाँ उसने खुद को खराब काबिलियत वाली के रूप में सीमित कर लिया था। वह काफी निराश थी और छोड़ना चाहती थी। मुझे पता था कि ली यू की काबिलियत इतनी भी खराब नहीं थी। वह मुख्य रूप से भ्रष्ट स्वभाव की समस्या के कारण छोड़ना चाहती थी। मैंने मन में सोचा, “मैं अभी-अभी कलीसिया अगुआ बना हूँ और जब मैं इस तरह की समस्याओं से दो-चार होता हूँ, तो मुझे उन पर संगति करके उन्हें जल्दी से हल करना चाहिए। इससे मैं अपने काम में सक्षम दिखूँगा और ली यू भी मुझे स्वीकार करेगी।” यह सोचते हुए कि मैं भी कभी ली यू जैसी ही दशा में था, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला जिसे मैं उस समय पढ़ रहा था और परमेश्वर के इन वचनों के प्रकाश में अपनी समझ साझा की। जब मैंने देखा कि वह सहमत है, तो मुझे अपने दिल में खुशी हुई। फिर ली यू ने मुझसे पूछा, “फिर तुमने उसके बाद कैसे अभ्यास और प्रवेश किया?” मैं तुरंत घबरा गया क्योंकि उस समय मेरे पास केवल थोड़ी सी समझ थी और मैंने अभ्यास और प्रवेश नहीं किया था। मैंने मन में सोचा, “मैंने अपनी समझ की बहुत अच्छी तरह से संगति की, लेकिन जैसे ही अभ्यास और प्रवेश का जिक्र छिड़ा, मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं था। ली यू मेरे बारे में क्या सोचेगी? यह नहीं चलेगा। मुझे आगे संगति करने के लिए कोई रास्ता खोजना होगा।” इसे हल करने का तरीका खोजने की कोशिश में मेरे दिमाग के घोड़े दौड़ने लगे, चुपचाप मैं अपने अनुभव के छूटे हुए हिस्सों को छुपाता रहा। फिर मैंने बस परमेश्वर के उन वचनों के बारे में बात की जो मैंने उस समय पढ़े थे और जो मैंने समझा था। जब मैं उन अंशों पर पहुँचा जिनका मैंने बिल्कुल भी अनुभव नहीं किया था, तो मैंने उन्हें बस छोड़ दिया और फिर परमेश्वर के वचनों की अपनी हाल की समझ के बारे में बात की। आखिरकार इस तरह से चीजें जोड़कर मैं अपनी संगति के अंत तक पहुँच गया। जब मैंने ली यू में प्रतिक्रिया की कमी देखी, तो दिल में यह सोचकर बहुत निराशा हुई, “मेरा असली स्तर उजागर हो गया है और अब ली यू मुझे नीची नजर से देखेगी।” बाद में जब हमने सुसमाचार कार्य के बारे में बात की, तो ली यू ने कुछ और सवाल पूछे। हालाँकि मैं अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए कुछ समाधान सुझाना चाहता था, लेकिन लंबे समय तक सोचने के बाद भी मैं कोई सार्थक सुझाव नहीं दे पाया। फिर मैंने सोचा कि मैं अब कलीसिया का अगुआ हूँ और चाहे कुछ भी हो, मुझे आगे का रास्ता बताना ही होगा। इसलिए मैंने ली यू से कहा, “वास्तव में इन समस्याओं से सामना होने पर परमेश्वर हमारे कर्तव्य के प्रति हमारे रवैये को देखता है। जब तक हम अधिक सोच-विचार करते और अधिक कीमत चुकाते हैं, परमेश्वर निश्चित रूप से हमारा मार्गदर्शन करेगा।” मैंने संगति करते समय ली यू के हाव-भाव देखे। मेरी संगति के दौरान ली यू की कोई प्रतिक्रिया नहीं थी। यह देखकर कि मैंने इतना कुछ कहा पर इसके कोई नतीजे नहीं निकले, मुझे लगा कि मैंने पूरी तरह से अपनी प्रतिष्ठा गँवा दी है। मेरे पास केवल कलीसिया अगुआ की उपाधि थी पर मैं समस्याओं का समाधान नहीं कर सकता था। ली यू मेरे बारे में क्या सोचेगी? घर लौटते समय मैं वास्तव में निराश महसूस कर रहा था और बहुत मायूस था। मैंने मन ही मन सोचा, “मैंने अभी-अभी अगुआ का काम करना शुरू किया है और पहले ही बहुत सारी कमियाँ दिखा दी हैं। मुझे नहीं पता कि मुझे भविष्य में कितनी सभाओं में भाग लेना होगा और कितनी समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। अगर हर बार आज जैसा ही हुआ तो मैं क्या करूँगा? अगर हर कोई मेरी कमियाँ देख लेगा तो मैं भविष्य में इस कलीसिया में कैसे रह पाऊँगा?” मुझे लगा कि दबाव कई गुना बढ़ गया है और मेरा दिल भारी हो गया है, जैसे उसे किसी चट्टान से कुचला जा रहा हो।
घर पहुँचकर मैंने अनुभवजन्य गवाही वीडियो देखा-मैंने छद्मवेश और छल से खुद को नुकसान पहुँचाया। उन दृश्यों को सोचते हुए जब ली यू के सामने मैं समझने का नाटक कर रहा था, मुझे आखिरकार एहसास हुआ कि मैं छद्मवेश की दशा में जी रहा था। मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया और मैंने उसे पढ़ने के लिए खोजा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ अगुआ और कार्यकर्ता कलीसिया के भीतर की व्यावहारिक समस्याओं को नहीं देख पाते। किसी सभा में होने पर, उन्हें लगता है कि उनके पास कहने के लिए कुछ भी सार्थक नहीं है, इसलिए वे बस कुछ वचन और धर्म-सिद्धांत देने के लिए खुद पर जोर डालते हैं। वे अच्छी तरह से जानते हैं कि वे जो बोल रहे हैं वे महज धर्म-सिद्धांत हैं, फिर भी वे उन्हें बोलते हैं। अंत में, यहाँ तक कि उन्हें भी लगता है कि उनकी बातें नीरस थीं, और उनके भाइयों और बहनों को भी वह शिक्षाप्रद नहीं लगा। यदि तुम इस समस्या से अनजान हो, लेकिन अड़ियल होकर ऐसी बातें कहते रहते हो, तो पवित्र आत्मा काम नहीं कर रहा है, और लोगों को कोई लाभ नहीं होता। यदि तुमने सत्य का अनुभव नहीं किया है, फिर भी इसके बारे में बोलना चाहते हो, तो तुम जो चाहे कहो, तुम सत्य को नहीं वेध सकोगे; इसके आगे तुम जो कुछ भी कहोगे वह सब केवल वचन और धर्म-सिद्धांत होंगे। तुम सोच सकते हो कि वे कुछ प्रबुद्ध हुए हैं, लेकिन वे सिर्फ धर्म-सिद्धांत हैं, वे सत्य वास्तविकता नहीं हैं। वे कितनी भी कोशिश कर लें, उन्हें सुनने वाला कोई भी उनसे कुछ भी वास्तविक ग्रहण करने में सक्षम नहीं हो सकेगा। सुनने के दौरान, उन्हें लग सकता है कि तुम जो कह रहे हो वह बिल्कुल सही है, लेकिन बाद में, वे उसे पूरी तरह से भूल जाएंगे। यदि तुम अपनी वास्तविक दशाओं के बारे में बात नहीं करते, तो तुम लोगों के हृदयों को छूने में सक्षम नहीं हो सकोगे, और लोग तुम्हारी बात सुनने के बाद उसे याद नहीं रखेंगे। उसमें देने के लिए कुछ भी रचनात्मक नहीं है। जब तुम ऐसी स्थिति का सामना करो, तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम जो कह रहे हो वह व्यावहारिक नहीं है; यदि तुम इसी तरह से बोलते रहे तो यह किसी के लिए अच्छा नहीं होगा, और तब तो और भी अजीब स्थिति होगी जब कोई ऐसा प्रश्न उठा दे जिसका उत्तर तुम न दे सको। तुम्हें तुरंत रुक जाना चाहिए और अन्य लोगों को संगति करने देना चाहिए—यही बुद्धिमानी भरा विकल्प होगा। जब तुम किसी सभा में हो और किसी विशेष मुद्दे के बारे में कुछ जानते हो, तो उसके बारे में कुछ व्यावहारिक चीजें रख सकते हो। वह बात थोड़ा सतही हो सकती है, लेकिन हर कोई उसे समझ जाएगा। यदि तुम हमेशा लोगों को प्रभावित करने के लिए गहराई से बोलना चाहते हो और तुमसे ऐसा न हो पा रहा हो, तो तुम्हें वह छोड़ देना चाहिए। क्योंकि वहाँ से आगे तुम जो कुछ भी कहोगे वह खोखला धर्म-सिद्धांत होगा; तुम्हें चाहिए कि अपनी संगति जारी रखने से पहले किसी और को यह करने दो। यदि तुम्हें लगता है कि तुम जो समझते हो वह धर्म-सिद्धांत है और उसे बोलना रचनात्मक नहीं होगा और ऐसी स्थिति में भी तुम बोलोगे तो पवित्र आत्मा काम नहीं करेगा। यदि तुम खुद पर बोलने का दबाव डालोगे, तो तुम्हारी बातों में बेतुकापन और विचलन पैदा हो सकता है, और तुम लोगों को भटका सकते हो। अधिकांश लोगों की इतनी खराब बुनियाद और बुरी क्षमता होती है कि वे कम समय में गहरी बातों को ग्रहण नहीं कर पाते या उन्हें आसानी से याद नहीं रख पाते। दूसरी ओर, जो चीजें विकृत, नियामक और धर्म-सैद्धांतिक होती हैं, उन्हें वे बहुत तेजी से ग्रहण कर लेते हैं। यह उनकी दुष्टता है, है ना? इसलिए, जब तुम सत्य पर संगति करते हो तो तुम्हें सिद्धांतों पर कायम रहना चाहिए और जो कुछ भी तुम समझते हो उसी पर बोलना चाहिए। लोगों के हृदयों में दिखावा होता है, और कभी-कभी, जब उनका नकलीपन हावी हो जाता है, तो वे यह जानते हुए भी बोलने पर ज़ोर देते हैं कि वे जो कह रहे हैं वह धर्म-सिद्धांत है। वे सोचते हैं, ‘मेरे भाई और बहनें शायद बताने में सक्षम नहीं होंगे। अपनी प्रतिष्ठा के लिए मैं इन सभी बातों को नजरअंदाज कर दूँगा। अभी दिखावे को बरकरार रखना ही महत्वपूर्ण है।’ क्या यह लोगों को मूर्ख बनाने का प्रयास नहीं है? यह परमेश्वर के प्रति बेवफाई है! यदि कोई जरा सा भी समझदार होगा, तो उसे पछतावा होगा और वह बोलना बंद कर देगा। उसे लगेगा कि उसे विषय बदल देना चाहिए और उस चीज़ पर संगति करनी चाहिए जिसका उसे अनुभव है, या शायद सत्य की समझ और ज्ञान है। किसी को भी उतना ही बोलना चाहिए, जितना वह समझे। कोई कितनी ही बातें क्यों न करता हो, व्यावहारिक बातें करने की एक सीमा होती है। अनुभव के बिना तुम्हारी कल्पनाएँ और तुम्हारी सोच महज़ धर्म-सिद्धांत, या मानवीय धारणाओं की बातें भर होती हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर कहता है कि सभाओं में संगति करते समय लोगों को केवल उतना ही बोलना चाहिए जितना वे समझते हैं। उनके पास यही विवेक होना चाहिए। यदि लोग उन्हें उन चीजों के बारे में बोलने को मजबूर करते हैं जिन्हें उन्होंने अनुभव नहीं किया है या स्पष्ट रूप से नहीं देखा है और वे तब भी ऐसा करते हैं जब उन्हें अच्छी तरह पता होता है कि वे सिद्धांत बोल रहे हैं, तो वे केवल अपने अहंकार को संतुष्ट कर रहे हैं और लोगों को मूर्ख बना रहे होते हैं। सभा में मैं यही कर रहा था। जब मैंने सुसमाचार उपयाजक को विभिन्न मुद्दों पर बात करते सुना, तो मैं बस उसके लिए जल्दी से समस्याएँ हल कर देना चाहता था, ताकि यह प्रदर्शित कर सकूँ कि मैं कलीसिया अगुआ के रूप में एक निश्चित स्तर पर था। लेकिन जब मैंने संगति की, तो मुझे एहसास हुआ कि अपनी थोड़ी सी समझ पर चर्चा करने के बाद मेरे पास कहने के लिए और कुछ नहीं था। अपनी छवि बनाए रखने के लिए मैंने सिद्धांत बोलकर खुद को बोलते रहने के लिए मजबूर किया, एक अनुभवी व्यक्ति का छद्मवेश रखने की कोशिश की। नतीजतन, ली यू की समस्या अभी भी अनसुलझी ही थी। मैं इस बारे में सोच रहा था कि पूरी प्रक्रिया के दौरान अपना सम्मान गँवाने से कैसे बचा जाए। मैंने इस बारे में बिल्कुल नहीं सोचा कि वास्तव में समस्याओं को कैसे हल किया जाए। सुसमाचार उपयाजक की स्थिति अच्छी नहीं थी और सुसमाचार के कार्य में वास्तविक कठिनाइयाँ थीं, लेकिन मैं इस बारे में व्याकुल महसूस नहीं करता था और यहाँ तक कि मैंने इस बात पर भी नहीं सोचा कि मैंने अपना सम्मान खोया है या पाया है। मैं बहुत स्वार्थी और नीच था! मैंने सिद्धांत बोलकर ली यू को मूर्ख बनाया था, लेकिन परमेश्वर हमारे दिल की गहराई की जाँच-पड़ताल करता है। इस तरह से अपना कर्तव्य निभाना, वास्तविक कार्य न करना या वास्तविक समस्याएँ हल न करना एक नकली अगुआ का व्यवहार था।
भाई-बहनों को मेरी दशा का पता चलने के बाद उन्होंने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश ढूँढ़कर दिया। इसने मुझे अपनी समस्याएँ और अधिक स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम बनाया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “लोग स्वयं भी सृजित प्राणी हैं। क्या सृजित प्राणी सर्वशक्तिमान हो सकते हैं? क्या वे पूर्णता और निष्कलंकता हासिल कर सकते हैं? क्या वे हर चीज में दक्षता हासिल कर सकते हैं, हर चीज समझ सकते हैं, हर चीज की असलियत देख सकते हैं, और हर चीज में सक्षम हो सकते हैं? वे ऐसा नहीं कर सकते। हालाँकि, मनुष्यों में भ्रष्ट स्वभाव और एक घातक कमजोरी है : जैसे ही लोग किसी कौशल या पेशे को सीख लेते हैं, वे यह महसूस करने लगते हैं कि वे सक्षम हो गये हैं, वे रुतबे वाले और योग्य लोग हैं, और वे पेशेवर हैं। चाहे वे कितने भी साधारण हों, वे सभी अपने-आपको किसी प्रसिद्ध या असाधारण व्यक्ति के रूप में पेश करना चाहते हैं, अपने-आपको किसी छोटी-मोटी मशहूर हस्ती में बदलना चाहते हैं, ताकि लोग उन्हें पूर्ण और निष्कलंक समझें, जिसमें एक भी दोष नहीं है; दूसरों की नजरों में वे प्रसिद्ध, शक्तिशाली, या कोई महान हस्ती बनना चाहते हैं, पराक्रमी, कुछ भी करने में सक्षम और ऐसे व्यक्ति बनना चाहते हैं, जिनके लिए कोई चीज ऐसी नहीं, जिसे वे न कर सकते हों। उन्हें लगता है कि अगर वे दूसरों की मदद माँगते हैं, तो वे असमर्थ, कमजोर और हीन दिखाई देंगे और लोग उन्हें नीची नजरों से देखेंगे। इस कारण से, वे हमेशा एक झूठा चेहरा बनाए रखना चाहते हैं। ... यह किस तरह का स्वभाव है? ऐसे लोगों के अहंकार की कोई सीमा नहीं होती, वे अपनी सारी समझ खो चुके हैं। वे हर किसी की तरह नहीं बनना चाहते, वे आम आदमी या सामान्य लोग नहीं बनना चाहते, बल्कि अतिमानव, असाधारण व्यक्ति या कोई दिग्गज बनना चाहते हैं। यह बहुत बड़ी समस्या है! जहाँ तक सामान्य मानवता के भीतर की कमजोरियों, कमियों, अज्ञानता, मूर्खता और समझ की कमी की बात है, वे इन सबको छिपा लेते हैं और दूसरे लोगों को देखने नहीं देते, और फिर खुद को छद्म वेश में छिपाए रहते हैं। कुछ ऐसे लोग होते हैं जो कुछ भी साफ तौर पर नहीं देख पाते, फिर भी अपने दिल में सब कुछ जानने का दम भरते हैं। जब तुम उन्हें इसकी व्याख्या करने के लिए कहते हो तो वे कुछ नहीं बता पाते। जब कोई दूसरा उस बात को समझा देता है तो वे दावा करते है कि वे यही बात कहने वाले थे, पर समय पर ऐसा नहीं कर पाए। वे एक छद्म रूप धरने और अच्छा दिखने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। तुम लोग क्या कहते हो, क्या ऐसे लोग कल्पना-लोक में नहीं रहते हैं? क्या वे सपने नहीं देख रहे हैं? वे नहीं जानते कि वे स्वयं क्या हैं, न ही वे सामान्य मानवता को जीने का तरीका जानते हैं। उन्होंने एक बार भी व्यावहारिक मनुष्यों की तरह काम नहीं किया है। यदि तुम कल्पना-लोक में रहकर दिन गुजारते हो, जैसे-तैसे काम करते रहते हो, यथार्थ में रहकर काम नहीं करते, हमेशा अपनी कल्पना के अनुसार जीते हो, तो यह परेशानी वाली बात है। तुम जीवन में जो मार्ग चुनते हो वह सही नहीं है। अगर तुम ऐसा करते हो, तो फिर चाहे तुम जैसे भी परमेश्वर में विश्वास करते हो, तुम सत्य को नहीं समझोगे, न ही तुम सत्य को हासिल करने में सक्षम होगे। सच तो यह है कि तुम सत्य को हासिल नहीं कर सकते, क्योंकि तुम्हारा प्रारंभिक बिंदु ही गलत है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पाँच शर्तें, जिन्हें परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चलने के लिए पूरा करना आवश्यक है)। परमेश्वर ने उजागर किया कि लोगों में अभिमानी स्वभाव होता है और वे साधारण व्यक्ति के रूप में अपनी जगह पर नहीं रहना चाहते और वे हमेशा यह दिखावा करना चाहते हैं कि वे सब कुछ कर सकते हैं और सब कुछ समझ सकते हैं, दूसरों को इस गलतफहमी में डालने की कोशिश करते हैं कि वे उच्च स्तर पर हैं और औसत व्यक्ति नहीं हैं। मैं इसी तरह से व्यवहार कर रहा था। एक कलीसिया अगुआ चुने जाने के बाद मुझे लगा था कि मैं सभी मामलों में बहुत अच्छा था। मैं दूसरों को दिखाना चाहता था कि मैं इस बोझ को उठा सकता हूँ और मुझे लगा कि चाहे मेरे सामने कोई भी समस्या आए, उन्हें हल करने में मैं अपने भाई-बहनों की मदद कर पाऊँगा और केवल यही मेरी वर्तमान पहचान के अनुरूप था। लेकिन जब मैं दूसरों की समस्याएँ हल करने की कोशिश करते समय अभ्यास का मार्ग प्रदान नहीं कर सका, तो मैंने बस उनके साथ संगति करने के लिए कुछ चीजें जमा कर लीं और दिखावा बनाए रखने के लिए खुद को कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलने के लिए मजबूर किया। मैंने हमेशा वे चीजें छिपाईं जिनकी मुझमें कमी थी, जो मुझे समझ नहीं आती थीं और जो मैं नहीं कर सकता था। मैं दूसरों के सामने दिखावा करना चाहता था कि कोई भी समस्या मुझे पराजित नहीं कर सकती। क्या मैं एक महामानव का छद्मवेश धारण करने की कोशिश नहीं कर रहा था? मैं पहले कभी कलीसिया का अगुआ नहीं रहा था और मैं इसमें शामिल कई मुद्दों से परिचित नहीं था। यह सामान्य बात थी कि मैं ली यू की समस्याएँ तुरंत हल नहीं कर सका था। और फिर भी अपनी एक अच्छी छवि गढ़ने के लिए मैंने वे चीजें छिपाईं जो मैंने स्पष्ट रूप से नहीं देखीं या समझी थीं। मैं एक साधारण व्यक्ति के रूप में उचित स्थान पर रहने के लिए तैयार नहीं था। मेरी प्रकृति बहुत अहंकारी थी, मुझमें विवेक की बहुत कमी थी!
उसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया, जो हमेशा छद्मवेश रखने वालों को उजागर करते हैं और मुझे अपने बारे में कुछ और समझ मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब लोग हमेशा मुखौटा लगाए रहते हैं, हमेशा खुद को अच्छा दिखाते हैं, हमेशा खास होने का ढोंग करते हैं जिससे दूसरे उनके बारे में अच्छी राय रखें, और अपने दोष या कमियाँ नहीं देख पाते, जब वे लोगों के सामने हमेशा अपना सर्वोत्तम पक्ष प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं, तो यह किस प्रकार का स्वभाव है? यह अहंकार है, कपट है, पाखंड है, यह शैतान का स्वभाव है, यह एक दुष्ट स्वभाव है। शैतानी शासन के सदस्यों को लें : वे अंधेरे में कितना भी लड़ें-झगड़ें या हत्या तक कर दें, किसी को भी उनकी शिकायत करने या उन्हें उजागर करने की अनुमति नहीं होती। वे डरते हैं कि लोग उनका राक्षसी चेहरा देख लेंगे, और वे इसे छिपाने का हर संभव प्रयास करते हैं। सार्वजनिक रूप से वे यह कहते हुए खुद को पाक-साफ दिखाने की पूरी कोशिश करते हैं कि वे लोगों से कितना प्यार करते हैं, वे कितने महान, गौरवशाली और अमोघ हैं। यह शैतान की प्रकृति है। शैतान की प्रकृति की सबसे प्रमुख विशेषता धोखाधड़ी और छल है। और इस धोखाधड़ी और छल का उद्देश्य क्या होता है? लोगों की आँखों में धूल झोंकना, लोगों को अपना सार और असली रंग न देखने देना, और इस तरह अपने शासन को दीर्घकालिक बनाने का उद्देश्य हासिल करना। साधारण लोगों में ऐसी शक्ति और हैसियत की कमी हो सकती है, लेकिन वे भी चाहते हैं कि लोग उनके पक्ष में राय रखें और उन्हें खूब सम्मान की दृष्टि से देखें और अपने दिल में उन्हें ऊँचे स्थान पर रखें। यह भ्रष्ट स्वभाव होता है, और अगर लोग सत्य नहीं समझते, तो वे इसे पहचानने में असमर्थ रहते हैं। भ्रष्ट स्वभावों को पहचानना सबसे कठिन है : स्वयं के दोषों और कमियों को पहचानना आसान है, लेकिन अपने भ्रष्ट स्वभाव को पहचानना आसान नहीं है। जो लोग स्वयं को नहीं जानते वे कभी भी अपनी भ्रष्ट दशाओं के बारे में बात नहीं करते—वे हमेशा सोचते हैं कि वे ठीक हैं। और यह एहसास किए बिना, वे दिखावा करना शुरू कर देते हैं : ‘अपनी आस्था के इतने वर्षों के दौरान, मैंने बहुत उत्पीड़न सहा है और बहुत कठिनाई झेली है। क्या तुम लोग जानते हो कि मैंने इन सब पर जीत कैसे पाई?’ क्या यह अहंकारी स्वभाव है? स्वयं को प्रदर्शित करने के पीछे क्या प्रेरणा है? (ताकि लोग उनके बारे में ऊँची राय रखें।) लोग उनके बारे में ऊँची राय रखें, इसके पीछे उनका मकसद क्या है? (ऐसे लोगों के मन में रुतबा पाना।) जब तुम्हें किसी और के मन में रुतबा मिलता है, तब वे तुम्हारे साथ होने पर तुम्हारे प्रति सम्मान दिखाते हैं, और तुमसे बात करते समय विशेष रूप से विनम्र रहते हैं। वे हमेशा प्रेरणा के लिए तुम्हारी ओर देखते हैं, वे हमेशा हर चीज पहले तुम्हें करने देते हैं, वे तुम्हें रास्ता देते हैं, तुम्हारी चापलूसी करते हैं और तुम्हारी बात मानते हैं। सभी चीजों में वे तुम्हारी राय चाहते हैं और तुम्हें निर्णय लेने देते हैं। और तुम्हें इससे आनंद की अनुभूति होती है—तुम्हें लगता है कि तुम किसी और से अधिक ताकतवर और बेहतर हो। यह एहसास हर किसी को पसंद आता है। ... तुम्हारी कथनी और करनी रुतबा चाहने और उसे पाने से प्रेरित होती है और इसके लिए तुम दूसरों से संघर्ष, छीना-झपटी और प्रतिस्पर्धा करते हो। तुम्हारा लक्ष्य एक पद हासिल करना, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को अपनी बात सुनाना, उनसे समर्थन पाना और अपनी आराधना करवाना है। एक बार जब तुम उस पद पर आसीन हो जाते हो, तो फिर तुम्हें सत्ता मिल जाती है और तुम रुतबे के फायदों, दूसरों की प्रशंसा और उस पद के साथ आने वाले अन्य सभी लाभों का मजा ले सकते हो। लोग हमेशा अपना भेष बदलते रहते हैं, दूसरों के सामने दिखावा करते हैं, मुखौटे ओढ़ते हैं, ढोंग करते रहते हैं और खुद को सजाते हैं ताकि दूसरों को लगे कि वे पूर्ण हैं। इसमें उनका उद्देश्य रुतबा हासिल करना होता है ताकि वे रुतबे के फायदों का आनंद उठा सकें। यदि तुम्हें विश्वास न हो तो इस पर ध्यान से सोचो : तुम हमेशा यह क्यों चाहते हो कि लोग तुम्हारे बारे में अच्छा सोचें? तुम चाहते हो कि वे तुम्हारी आराधना करें और तुम्हें आदर और सराहना की नजर से देखें ताकि अंततः तुम सत्ता हासिल कर सको और रुतबे के फायदों का आनंद उठा सको। तुम जिस रुतबे के पीछे इतनी बेसब्री से पड़े हो, वह तुम्हें कई फायदे दिलाएगा और यही वो फायदे हैं जिनसे दूसरे लोग ईर्ष्या करते हैं और जिन्हें चाहते भी हैं। जब लोगों को रुतबे से मिलने वाले अनेक लाभों का स्वाद मिलता है, तो उन पर इसका नशा छा जाता है और वे उस विलासितापूर्ण जीवन में डूब जाते हैं। लोगों को लगता है कि यही एक जीवन है जो बर्बाद नहीं हुआ है। भ्रष्ट मानवता इन चीजों में लिप्त होकर प्रसन्न होती है। इसलिए, एक बार जब कोई व्यक्ति एक निश्चित पद प्राप्त कर लेता है और इससे मिलने वाले विभिन्न फायदे उठाने लगता है, तो वह लगातार इन पापपूर्ण सुखों के लिए ललचाएगा, इस हद तक कि वह इन्हें कभी नहीं छोड़ता। संक्षेप में, प्रसिद्धि और रुतबे की चाहत एक खास पद से मिलने वाले फायदे उठाने, एक राजा के रूप में शासन करने, परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर नियंत्रण स्थापित करने, हर चीज पर प्रभुत्व रखने और एक स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की इच्छा से प्रेरित होती है जहाँ वे अपने रुतबे के फायदों का आनंद उठा सकते हैं और पापपूर्ण सुखों में डूब सकते हैं। शैतान लोगों को भ्रांत करके उन्हें धोखा देने, ठगने और मूर्ख बनाने के लिए हर तरह के तरीके इस्तेमाल करता है, ताकि अपनी झूठी छवि बना सके। लोग उसकी प्रशंसा करें और उससे डरें, इसके लिए वह उन्हें डराता-धमकाता तक है, जिसका अंतिम लक्ष्य उनसे शैतान के आगे समर्पण करवाकर उसकी आराधना करवाना है। यही चीज है, जो शैतान को प्रसन्न करती है; यह लोगों को जीतने के लिए परमेश्वर के साथ प्रतिस्पर्धा करने में उसका लक्ष्य भी है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर ने उजागर किया कि जो लोग हमेशा दिखावा करना चाहते हैं और छद्मवेश रखना चाहते हैं, वे पाखंडी हैं, वे प्रकृति से अहंकारी और दिखावटी होते हैं और वे अपनी समस्याएँ छिपाते हैं और दूसरों से उच्च प्रशंसा और विशेष व्यवहार का आनंद लेने के लिए नकली दिखावे से लोगों को धोखा देते हैं। कलीसिया अगुआ चुने जाने के बाद जब मैंने ली यू की समस्या हल करने की कोशिश की, तो मैंने समझने का और अनुभव होने का दिखावा किया, जबकि ऐसा कुछ भी नहीं था और दूसरों को धोखा देने के लिए मनगढ़ंत शब्द इस्तेमाल किए। मेरा उद्देश्य अपनी अच्छी छवि बनाए रखना था। मैं चाहता था कि दूसरे मेरी प्रशंसा करें, मेरा आदर करें, मेरे इर्द-गिर्द घूमें और मुझ पर ही केंद्रित रहें। आखिर में मैंने दूसरों की प्रशंसा से मिलने वाली श्रेष्ठता की भावना का आनंद लेने के लिए भी ऐसा किया। मेरा आंतरिक हृदय बहुत दुष्ट था! कलीसिया अगुआ चुने जाने से पहले जब मैं भाई-बहनों को सवाल पूछते सुनता था, तो मैं हमेशा उनसे अपने अनुभवों के बारे में बात करना चाहता था क्योंकि मुझे लगता था कि हर कोई अनुभव वाले लोगों का सम्मान करेगा। इसलिए भले ही मेरे पास बहुत अधिक अनुभवजन्य समझ न हो, फिर भी मैं ज्यादा से ज्यादा बात करने की कोशिश करता था। कलीसिया अगुआ चुने जाने के बाद मैं अभी भी सभाओं में संगति के माध्यम से खुद को स्थापित करना चाहता था। भले ही मैंने खुद को स्थापित किया हो या नहीं, जहाँ तक मेरे इरादों का सवाल है, मैं लोगों से अपना सम्मान कराने और उनसे आदर पाने की कोशिश करता था। यह मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलना था। जैसे ही मैं कलीसिया अगुआ बना, मैंने सोचना शुरू कर दिया कि कैसे लोगों से अपना सम्मान और आदर कराया जाए। मैंने अपने भाई-बहनों को धोखा देने और रुतबे का लाभ उठाने के लिए छद्मवेश रखने और चालबाजी का भी इस्तेमाल किया। मुझमें विवेक की बहुत कमी थी! मैंने जिसका अनुसरण किया वह परमेश्वर की अपेक्षाओं के बिल्कुल विपरीत था। अगर यह चलता रहता, तो यह मेरे भाई-बहनों के जीवन में प्रवेश और कलीसिया के कार्य में रुकावट डालता। देर-सबेर मैंने परमेश्वर को नाराज कर दिया होता! जब मुझे यह समझ में आया, तो मैंने ली यू को लिखा और उस दिन अपनी दशा और अपनी समझ के बारे में खुलकर बात की और उसकी मदद करने के लिए परमेश्वर के कुछ और वचन पाए। ली यू ने भी मुझे लिखा और अपनी समझ के बारे में कुछ संगति की। अपने सच्चे व्यक्तित्व को उजागर करके मुझे लगा कि मुझे अपना उचित स्थान मिल गया है और मैं बहुत अधिक सहज महसूस कर रहा था।
जब मुझे एहसास हुआ कि दिखावा करने और छद्मवेश धारण करने का मेरा मुद्दा बहुत गंभीर था, तो मैंने प्रवेश करने के लिए अभ्यास का मार्ग तलाशा। खोज के दौरान मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “कोई भी समस्या पैदा होने पर, चाहे वह कैसी भी हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें किसी भी तरीके से छद्म व्यवहार नहीं करना चाहिए या दूसरों के सामने नकली चेहरा नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारी कमियाँ हों, खामियाँ हों, गलतियाँ हों, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हों—तुम्हें उनके बारे में कुछ छिपाना नहीं चाहिए और उन सभी के बारे में संगति करनी चाहिए। उन्हें अपने अंदर न रखो। अपनी बात खुलकर कैसे रखें, यह सीखना जीवन-प्रवेश करने की दिशा में सबसे पहला कदम है और यही वह पहली बाधा है जिसे पार करना सबसे मुश्किल है। एक बार तुमने इसे पार कर लिया तो सत्य में प्रवेश करना आसान हो जाता है। यह कदम उठाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम अपना हृदय खोल रहे हो और वह सब कुछ दिखा रहे हो जो तुम्हारे पास है, अच्छा या बुरा, सकारात्मक या नकारात्मक; दूसरों और परमेश्वर के देखने के लिए खुद को खोलना; परमेश्वर से कुछ न छिपाना, कुछ गुप्त न रखना, कोई स्वांग न करना, धोखे और चालबाजी से मुक्त रहना, और इसी तरह दूसरे लोगों के साथ खुला और ईमानदार रहना। इस तरह, तुम प्रकाश में रहते हो, और न सिर्फ परमेश्वर तुम्हारी जाँच करेगा बल्कि अन्य लोग यह देख पाएँगे कि तुम सिद्धांत से और एक हद तक पारदर्शिता से काम करते हो। तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा, छवि और हैसियत की रक्षा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, न ही तुम्हें अपनी गलतियाँ ढकने या छिपाने की आवश्यकता है। तुम्हें इन बेकार के प्रयासों में लगने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम इन चीजों को छोड़ पाओ, तो तुम बहुत आराम से रहोगे, तुम बिना बाधाओं या पीड़ा के जियोगे, और पूरी तरह से प्रकाश में जियोगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “एक साधारण और सामान्य इंसान बनने के लिए तुम्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? यह कैसे किया जा सकता है? ... पहली बात, खुद को यह कहते हुए कोई उपाधि देकर उससे बँधे मत रहो, ‘मैं अगुआ हूँ, मैं टीम का मुखिया हूँ, मैं निरीक्षक हूँ, इस काम को मुझसे बेहतर कोई नहीं जानता, मुझसे ज्यादा इन कौशलों को कोई नहीं समझता।’ अपनी स्व-प्रदत्त उपाधि के फेर में मत पड़ो। जैसे ही तुम ऐसा करते हो, वह तुम्हारे हाथ-पैर बाँध देगी, और तुम जो कहते और करते हो, वह प्रभावित होगा। तुम्हारी सामान्य सोच और निर्णय भी प्रभावित होंगे। तुम्हें इस रुतबे की बेबसी से खुद को आजाद करना होगा। पहली बात, खुद को इस आधिकारिक उपाधि और पद से नीचे ले आओ और एक आम इंसान की जगह खड़े हो जाओ। अगर तुम ऐसा करते हो, तो तुम्हारी मानसिकता कुछ हद तक सामान्य हो जाएगी। तुम्हें यह भी स्वीकार करना और कहना चाहिए, ‘मुझे नहीं पता कि यह कैसे करना है, और मुझे वह भी समझ नहीं आया—मुझे कुछ शोध और अध्ययन करना होगा,’ या ‘मैंने कभी इसका अनुभव नहीं किया है, इसलिए मुझे नहीं पता कि क्या करना है।’ जब तुम वास्तव में जो सोचते हो, उसे कहने और ईमानदारी से बोलने में सक्षम होते हो, तो तुम सामान्य विवेक से युक्त हो जाओगे। दूसरों को तुम्हारा वास्तविक स्वरूप पता चल जाएगा, और इस प्रकार वे तुम्हारे बारे में एक सामान्य दृष्टिकोण रखेंगे, और तुम्हें कोई दिखावा नहीं करना पड़ेगा, न ही तुम पर कोई बड़ा दबाव होगा, इसलिए तुम लोगों के साथ सामान्य रूप से संवाद कर पाओगे। इस तरह जीना निर्बाध और आसान है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गया कि दिखावा करने और छद्मवेश धारण करने की समस्या हल करने के लिए हमें दूसरों को अपना सबसे सच्चा पक्ष दिखाना होगा, उन सभी चीजों के बारे में पूरी तरह से खुलकर बात करनी होगी जो हम नहीं कर पाते और जिन्हें हम नहीं समझते और लोगों को इन चीजों के बारे में देखने और जानने देना होगा। केवल इसी तरह से हम धीरे-धीरे प्रतिष्ठा और रुतबे की विवशताओं से छुटकारा पा सकते हैं। वास्तव में अपने आध्यात्मिक कद के साथ उस समय की तो बात ही छोड़ देते हैं, जब मैंने अगुआ का कर्तव्य निभाने के लिए प्रशिक्षण लेना शुरू किया था, भले ही मैं लंबे समय से प्रशिक्षण ले रहा होता तो भी मैं हर एक समस्या की असलियत जानकर उसे हल न कर पाता। मुझे बस इतना करना है कि मैं खुल जाऊँ, दिखावा न करूँ या छद्मवेश न रखूँ। अपने कर्तव्य निभाते हुए समस्याओं का समाधान करते समय मुझे केवल वही संगति करनी चाहिए जिसे मैं समझता हूँ, दूसरों के साथ ईमानदार होना चाहिए कि मैं क्या नहीं समझता या मैंने क्या अनुभव नहीं किया है और फिर अपने भाई-बहनों के साथ सत्य सिद्धांतों की तलाश करना चाहिए या अन्य भाई-बहनों से परामर्श कर उनसे सीखना चाहिए। इसी में मुझे प्रवेश करना चाहिए।
बाद में एक बहन के याद दिलाने के जरिए मुझे पता चला कि मेरा दृष्टिकोण गलत था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब कोई व्यक्ति भाई-बहनों द्वारा अगुआ के रूप में चुना जाता है या परमेश्वर के घर द्वारा कोई निश्चित कार्य करने या कोई निश्चित कर्तव्य निभाने के लिए पदोन्नत किया जाता है, तो इसका यह मतलब नहीं कि उसका कोई विशेष रुतबा या पद है या वह जिन सत्यों को समझता है, वे अन्य लोगों की तुलना में अधिक गहरे और संख्या में अधिक हैं—तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि यह व्यक्ति परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम है और उसे धोखा नहीं देगा। निश्चय ही, इसका यह मतलब भी नहीं है कि ऐसे लोग परमेश्वर को जानते हैं और परमेश्वर का भय मानते हैं। वास्तव में उन्होंने इसमें से कुछ भी हासिल नहीं किया है। पदोन्नयन और संवर्धन सीधे मायने में केवल पदोन्नयन और संवर्धन ही है, और यह भाग्य में लिखे होने या परमेश्वर की अभिस्वीकृति पाने के समतुल्य नहीं है। उनकी पदोन्नति और विकास का सीधा-सा अर्थ है कि उन्हें उन्नत किया गया है, और वे विकसित किए जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। और इस विकसित किए जाने का अंतिम परिणाम इस बात पर निर्भर करता है कि क्या यह व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है और क्या वह सत्य के अनुसरण का रास्ता चुनने में सक्षम है। इस प्रकार, जब कलीसिया में किसी को अगुआ बनने के लिए पदोन्नत और विकसित किया जाता है, तो उसे सीधे अर्थ में पदोन्नत और विकसित किया जाता है; इसका यह मतलब नहीं कि वह पहले से ही अगुआ के रूप में मानक स्तर का है, या सक्षम अगुआ है, कि वह पहले से ही अगुआई का काम करने में सक्षम है, और वास्तविक कार्य कर सकता है—ऐसा नहीं है। ... तो किसी को पदोन्नत और विकसित करने का क्या उद्देश्य और मायने हैं? वह यह है कि इस व्यक्ति को, एक व्यक्ति के रूप में पदोन्नत किया गया है, ताकि वह अभ्यास कर सके, और वह विशेष रूप से सिंचित और प्रशिक्षित हो सके, जिससे वह इस योग्य हो जाए कि सत्य सिद्धांतों, और विभिन्न कामों को करने के सिद्धांतों, और विभिन्न कार्य करने और विभिन्न समस्याओं को हल करने के सिद्धांतों, साधनों और तरीकों को समझ सके, साथ ही यह भी कि जब वह विभिन्न प्रकार के परिवेशों और लोगों का सामना करे, तो परमेश्वर के इरादों के अनुसार और उस रूप में, जिससे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा हो सके, उन्हें सँभालने और उनके साथ निपटने का तरीका सीख सके। इन बिंदुओं के आधार पर परखें, तो क्या परमेश्वर के घर द्वारा पदोन्नत और विकसित किए गए प्रतिभाशाली लोग, पदोन्नत और विकसित किए जाने की अवधि के दौरान या पदोन्नत और विकसित किए जाने से पहले अपना कार्य और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करने में पर्याप्त सक्षम हैं? बेशक नहीं। इस प्रकार, यह अपरिहार्य है कि विकसित किए जाने की अवधि के दौरान ये लोग काट-छाँट और न्याय किए जाने और ताड़ना दिए जाने, उजागर किए जाने, यहाँ तक कि बर्खास्तगी का भी अनुभव करेंगे; यह सामान्य बात है, यही है प्रशिक्षण और विकसित किया जाना” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (5))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैंने समझा कि परमेश्वर के घर द्वारा किसी व्यक्ति की पदोन्नति और विकसित करने का मतलब यह नहीं है कि वह व्यक्ति सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर चुका है। इसका मतलब यह नहीं है कि यह व्यक्ति सब कुछ कर सकता है और सब कुछ समझ सकता है। परमेश्वर का घर लोगों को प्रशिक्षित करने के लिए उन्हें विकसित करता है, ताकि उन्हें सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना सीखने के अधिक अवसर मिलें और वे सत्य वास्तविकताओं में तेजी से प्रवेश कर सकें। यह वैसा ही था जब मेरे भाई-बहनों ने मुझे कलीसिया का अगुआ चुना; यह पूरी तरह से मेरी एक खास काबिलियत और समझने की क्षमता की वजह से ही था। लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि मैं पहले से ही सत्य सिद्धांतों को समझ गया था और काम करने में सक्षम था। एक अगुआ के कर्तव्य की जिम्मेदारी लेने के लिए व्यक्ति को अन्वेषण, सीखने और प्रशिक्षण की अवधि से गुजरना पड़ता है और काफी सत्य सिद्धांत भी खोजने पड़ते हैं। अब मैं सिर्फ अगुआ के रूप में प्रशिक्षण ले रहा था। यह सीखने का बहुत ही कीमती अवसर था। अगर मैं खुद का सही आकलन नहीं कर पाता और हमेशा इतना ही अहंकारी रहता, रुतबे के लिए अपनी समस्याएँ छिपाने को समझने का दिखावा करता, तो चाहे परमेश्वर मुझे कितने भी अवसर दे दे और चाहे मैं कितना भी अध्ययन कर लूँ, मैं सत्य में ज्यादा प्रवेश नहीं कर पाता। इसके विपरीत मैं रुतबे के अनुसरण के कारण मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चल रहा होता, जो परमेश्वर के इरादे के विपरीत होता।
बाद में मुझे जिला अगुआ चुना गया। एक बार हमने सुसमाचार टीमों के अगुआओं के साथ सभा की। जब मैंने टीम अगुआओं के साथ अपनी सहयोगी बहन की संगति सुनी, तो मैंने पाया कि बहुत सारे काम ऐसे थे जिनसे मैं अपरिचित था। कुछ समय तो मुझे पता ही नहीं चला कि मैं क्या कहूँ या कहाँ से शुरू करूँ। उस पल मैंने मन में सोचा, “अगर मैं हर समय चुप रहता हूँ, तो क्या टीम अगुआ यह सोचेंगे कि मैं यानी कि जिला अगुआ सिर्फ एक खोखला मुखौटा हूँ? मैं उनसे पहली बार मिल रहा हूँ और अगर उन्हें लगता है कि मैं कुछ नहीं समझता, तो क्या भविष्य में मेरे सुसमाचार कार्य का अनुवर्तन करते समय वे मुझे नीचा नहीं समझेंगे?” इस बारे में सोचने पर मैं जल्दी से कुछ कहना चाहता था ताकि टीम अगुआ मुझे स्वीकार कर लें। लेकिन मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा गलत थी और मैंने जल्दी से अपना ध्यान फिर से केंद्रित किया। मैंने परमेश्वर के वचनों में बताए गए मार्ग के बारे में सोचा। परमेश्वर कहता है : “जब तुम खुद को एक अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में सोचना बंद कर देते हो, और जब तुम यह सोचना बंद कर देते हो कि तुम अन्य लोगों से बेहतर हो और महसूस करते हो कि तुम अन्य सभी के समान एक आम इंसान हो, और कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें तुम दूसरों से कमतर हो—जब तुम इस रवैये के साथ सत्य और काम से संबंधित मामलों में संगति करते हो, तो प्रभाव अलग होता है, और परिवेश भी अलग होता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मुझे एहसास हुआ कि अगर मैं खुद को एक साधारण व्यक्ति की स्थिति में रखूँगा, तो ही इस सभा का परिवेश शांत और स्वाभाविक रहेगा और तभी ये नतीजे प्राप्त करेगा। मुझे एक जिला अगुआ के रूप में अपनी पहचान छोड़ देनी चाहिए, बिना किसी हिचकिचाहट के अपने भाई-बहनों से उन सभी चीजों के बारे में पूछना चाहिए जो मुझे नहीं पता हैं और सभी को अपना असली पक्ष दिखाना चाहिए। इस बारे में सोचने पर मैं सुसमाचार कार्य के बारे में सभी की संगति सुनता गया। मैंने उन सभी चीजों के बारे में पूछा जो मुझे समझ में नहीं आईं या जिन्हें मैं स्पष्ट रूप से नहीं देख पाया और जब मुझे कोई समस्या मिली, तो मैंने अपने विचार और सुझाव भी व्यक्त किए। इस तरह हम एक दिन के लिए एकत्र हुए और भले ही मैंने कई सार्थक सुझाव नहीं दिए, पर अपने भाई-बहनों के साथ आपसी चर्चा और संगति के माध्यम से हमने सुसमाचार कार्य के लिए कुछ विचार तय किए और मुझे आगे अपना कर्तव्य करने की कुछ दिशा मिली। मुझे बहुत सुकून महसूस हुआ और आनंद मिला। उसके बाद अपना कर्तव्य पूरा करने के दौरान मैं कभी-कभी वे चीजें छिपाना चाहता था जिन्हें मैं नहीं समझता था और नहीं कर सकता था। जब भी मुझे लगता था कि मैं फिर से छद्मवेश रखने की कोशिश कर रहा हूँ, तो मैं सचेत रूप से परमेश्वर से प्रार्थना करता था कि वह मेरी दशा ठीक करे। फिर मैं अपने भाई-बहनों के सामने अपनी दशा का खुलासा करता था और सबको अपनी असली स्थिति बताता था। इसे अभ्यास में लाने के बाद न केवल मेरे भाई-बहनों ने मुझे नीची नजर से नहीं देखा, बल्कि वास्तव में मेरे साथ सहयोग करने के लिए अधिक इच्छुक हो गए और हम अपने कर्तव्य पूरे करते समय एक मन होने में बेहतर ढंग से सक्षम थे। मैं इन लाभों के लिए परमेश्वर का बहुत आभारी हूँ!