21. पर्यवेक्षण या अनुवर्ती कार्रवाई में मेरी नाकामी के पीछे क्या था

मार्टिन, म्यांमार

नवंबर 2023 में मुझे प्रचारक चुना गया। चूँकि मैं अक्सर कलीसिया अगुआ अन्ना के कार्य का अनुवर्तन करता था और उसका मार्गदर्शन करता था, तो मुझे पता था कि वह अपने कर्तव्य निभाने में प्रगति कर रही थी, पहले की तुलना में कार्य को लागू करने में अधिक कुशल थी और अपने काम में बेहतर नतीजे हासिल कर रही थी। मुझे लगा कि इस बहन ने अपने कर्तव्य निभाने में बोझ उठाया था और काफी ठोस काम किया था और इसलिए मैं उसे लेकर काफी निश्चिंत था। उसके बाद मैंने केवल अन्य कलीसिया अगुआओं के कार्य के अनुवर्तन और पर्यवेक्षण करने पर ध्यान केंद्रित किया और अन्ना के कार्य का पर्यवेक्षण और अनुवर्ती कार्रवाई करनी बंद कर दी। कुछ समय बाद जिन कलीसियाओं के लिए मैं जिम्मेदार था, उनमें सुसमाचार कार्य के नतीजे गिरने शुरू हो गए। मैंने कलीसिया अगुआओं से मुलाकात की ताकि पता लगाया जा सके कि उन्होंने समस्याओं का समाधान कैसे किया था और जब मुझे समस्याएँ मिलीं तो मैंने उनके साथ संगति की, उन्हें खास चीजें बताईं और मदद दी। लेकिन चूँकि मुझे अन्ना पर भरोसा था, इसलिए मैंने उसके काम के बारे में पता नहीं लगाया और उसे केवल सुसमाचार कार्य में विचलन और समस्याओं का सारांश तैयार करने के लिए एक सरल सा अनुस्मारक दिया। अन्ना उस समय सहमत हो गई। अन्ना जिस काम के लिए जिम्मेदार थी, उससे पहले तो नतीजे मिले थे, लेकिन इस बार उसके नतीजे कम हो गए थे, इसलिए जब उच्च अगुआओं को पता चला कि मैं अन्ना के काम के अनुवर्तन पर ध्यान नहीं दे रहा था, तो उन्होंने मुझे जल्द से जल्द उसके काम की वास्तविक जाँच करने के लिए एक विशेष अनुस्मारक भेजा। मैंने मन में सोचा, “मैंने उसे दूसरे दिन ही याद दिला दिया था। अगर मैं अब उसके काम की जाँच करने जाऊँ, तो क्या वह सोचेगी कि मुझे उस पर भरोसा नहीं है?” जब मैंने यह सोचा, तो मैं उसके काम की जाँच करने के लिए नहीं गया। नतीजतन, कुछ समय बाद अन्ना जिस सुसमाचार कार्य के लिए जिम्मेदार थी, उसके नतीजे लगातार कम होते चले गए। जब मुझे वास्तव में उसके काम के बारे में पता चला, तभी मैंने जाना कि अन्ना केवल दूसरों को आदेश देकर काम करा रही थी और वह बस वास्तविक समस्याएँ हल नहीं कर रही थी और सुसमाचार का प्रचार करने में भाई-बहनों के सामने आने वाली समस्याएँ और कठिनाइयाँ हल नहीं हो पा रही थीं। इससे सुसमाचार कार्य प्रभावित हुआ। केवल इस समय जाकर मुझे एहसास हुआ कि मैं कोई वास्तविक कार्य कर ही नहीं रहा था और मेरे दिल ने मुझे थोड़ा धिक्कारा। मैं संगति करने के लिए अन्ना से मिला और उसकी समस्याएँ बताईं। बाद में मैंने देखा कि अन्ना चीजों को बदल रही थी और उसने कुछ ठोस काम किया था, इसलिए मैंने अपनी समस्याओं का सारांश तैयार नहीं किया और उन पर विचार नहीं किया।

अप्रैल 2024 में ऊपरी अगुआओं ने मुझे दो और कलीसियाओं के सुसमाचार कार्य की जिम्मेदारी देने की व्यवस्था कर दी। कुछ समय तक अनुवर्ती कार्रवाई करने के बाद मैंने पाया कि एक कलीसिया की अगुआ मार्था की काबिलियत अपेक्षाकृत अच्छी थी, समय पर जरूरी कार्य लागू कर सकती थी और अपने काम का सारांश देते समय समस्याओं का पता लगा सकती थी। नतीजतन, उसके बारे में मेरी अच्छी राय थी और मुझे लगता था कि वह अन्य कलीसिया अगुआओं की तुलना में वास्तविक कार्य करने में अधिक सक्षम थी। जब मैंने देखा कि मार्था की जिम्मेदारी के भीतर सुसमाचार कार्य के नतीजे बहुत अच्छे थे, तो मैं उस पर और भी अधिक भरोसा करने लगा और उसके काम के बारे में विस्तार से बहुत ही कम पूछता था। जिस कलीसिया के लिए मार्था जिम्मेदार थी, उसमें जून में सुसमाचार प्रचार के नतीजों में कुछ गिरावट आई। उस समय मैंने स्थिति के बारे में जानने के लिए उससे मुलाकात की और पाया कि वह कठिनाइयों में रह रही थी क्योंकि जब वह कार्य लागू करने की कोशिश करती थी तो इंटरनेट में समस्याएँ आती थीं और अब वह अपने कर्तव्य निभाने में बोझ नहीं उठा रही थी। मैंने उसकी समस्याओं की ओर ध्यान दिलाया और इस तरह की कठिनाई का सामना करने पर अपने कर्तव्य निभाने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करने के तरीके के बारे में उसके साथ संगति की; वह कार्य में देरी नहीं कर सकती थी। एक सप्ताह बाद मेरे साथ भागीदार बहन विल्मा ने मुझे याद दिलाया कि मुझे मार्था के काम की स्थिति का अनुवर्तन कर उसका पता लगाना चाहिए। मैंने मन में सोचा, “मैंने कुछ दिन पहले ही उसके साथ संगति की थी—वह शायद इस दौरान चीजें बदल ही रही है। उसके पास कुछ कार्य क्षमता है, इसलिए कोई बड़ी समस्याएँ नहीं होंगी” और इसलिए मैं उससे नहीं मिला। कुछ ही दिन बाद जब विल्मा ने मुझे फिर से याद दिलाया, तो मैंने मार्था से मिलने की कोशिश और व्यवस्था की और उसके काम के बारे में पता लगाने की कोशिश की। लेकिन मैं मुलाकात की व्यवस्था नहीं कर पाया। वह कहती रही कि इंटरनेट में समस्याएँ हैं या वह अभी भी व्यस्त है। उस समय मैंने इस पर बहुत ज्यादा विचार नहीं किया। मैंने सोचा कि जब तक वह काम कर रही है, तब तक सब ठीक है। मुझे उम्मीद नहीं थी कि दो हफ्ते बाद मार्था जिस कलीसिया के लिए जिम्मेदार थी, उसमें सुसमाचार कार्य के नतीजे बिल्कुल ही गिर जाएँगे। तब जाकर मैं इसका कारण जानने के लिए व्याकुल हुआ और मैंने पाया कि सुसमाचार उपयाजक और कई सुसमाचार कार्यकर्ता केवल निजी मामलों में व्यस्त थे और सुसमाचार का प्रचार नहीं कर रहे थे। इस वजह से मार्था नकारात्मकता में जी रही थी और समय पर समस्याएँ हल करने के लिए संगति नहीं कर रही थी। इसका मतलब यह था कि सुसमाचार कार्यकर्ता कम से कम दायित्व उठा रहे थे और वे वास्तव में अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे थे। मैं अपनी बहन की जिम्मेदारी के क्षेत्र में ऐसी गंभीर समस्याओं को देखकर भौचक्का था। इन समस्याओं के उपजने के लिए अनिवार्य रूप से मैं जिम्मेदार था : ये सब मेरी बहन के काम का समय पर अनुवर्तन न करने के कारण हुआ था। मुझे बहुत दुख हुआ और मैंने आँसू बहाते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की, “प्रिय परमेश्वर, मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहता हूँ, लेकिन देखो मैंने इसे कितना खराब कर दिया है। मुझे लगता है कि मैं सचमुच यह कर्तव्य निभाने के लायक नहीं हूँ। तुम मुझे इस मामले में सबक सीखने के लिए मार्गदर्शन करो, ताकि मैं जानूँ कि यह कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए मुझे आगे क्या करना चाहिए।”

एक बार उच्च अगुआ हमारे साथ एक सभा करने आए और हमने विशेष रूप से मेरी दशा के बारे में परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “नकली अगुआ उन पर्यवेक्षकों के बारे में कभी पूछताछ नहीं करते जो वास्तविक कार्य नहीं कर रहे होते हैं या जो अपने उचित कार्यों पर ध्यान नहीं दे रहे होते हैं। उन्हें लगता है कि उन्हें बस एक पर्यवेक्षक चुनना है और मामला खत्म; और कि बाद में पर्यवेक्षक सभी कार्य-संबंधी मामलों को अपने आप सँभाल सकता है। इसलिए नकली अगुआ जब-तब बस सभाएँ आयोजित करता है लेकिन काम का पर्यवेक्षण नहीं करता, न ही पूछता है कि काम कैसा चल रहा है और किसी काम को हाथ न लगाने वाले उच्चाधिकारियों की तरह व्यवहार करता है। अगर कोई पर्यवेक्षक से जुड़ी समस्या लेकर आता है तो नकली अगुआ कहेगा, ‘यह तो मामूली-सी समस्या है, कोई बड़ी बात नहीं है। इसे तो तुम लोग खुद ही सँभाल सकते हो। मुझसे मत पूछो।’ समस्या की रिपोर्ट करने वाला व्यक्ति कहता है, ‘वह पर्यवेक्षक आलसी पेटू है। वह केवल खाने और मनोरंजन पर ध्यान केंद्रित रखता है, एकदम निकम्मा है। वह अपने काम में थोड़ा-सा भी कष्ट नहीं उठाना चाहता, काम और जिम्मेदारियों से बचने के लिए हमेशा छलपूर्वक ढिलाई बरतता है और बहाने बनाता है। वह पर्यवेक्षक बनने लायक नहीं है।’ नकली अगुआ जवाब देगा, ‘जब उसे पर्यवेक्षक चुना गया था, तब तो वह बहुत अच्छा था। तुम जो कह रहे हो, वह सच नहीं है और अगर सच है भी तो यह सिर्फ एक अस्थायी अभिव्यक्ति है।’ नकली अगुआ पर्यवेक्षक की स्थिति के बारे में अधिक जानने की कोशिश नहीं करेगा, बल्कि उस पर्यवेक्षक के बारे में अपनी पिछली धारणाओं के आधार पर ही इस मामले में राय बनाएगा और फैसला सुनाएगा। चाहे कोई भी पर्यवेक्षक से जुड़ी समस्याओं की रिपोर्ट करे, नकली अगुआ उसे अनदेखा करेगा। पर्यवेक्षक वास्तविक काम नहीं कर रहा है और कलीसिया का काम लगभग ठप हो गया है, लेकिन नकली अगुआ को कोई परवाह नहीं होती, ऐसा लगता है कि उसका इससे मतलब ही नहीं है। यह वैसे भी बुरी बात है कि जब कोई व्यक्ति पर्यवेक्षक के मुद्दों की रिपोर्ट करता है तो अगुआ आँख मूँद लेता है। लेकिन सबसे घृणा करने योग्य क्या होता है? जब लोग उसे पर्यवेक्षक के गंभीर मुद्दों के बारे में बताते हैं तो वह उन्हें सुलझाने की कोशिश नहीं करेगा और दुनियाभर के बहाने बनाएगा : ‘मैं इस पर्यवेक्षक को जानता हूँ, वह सच में परमेश्वर में विश्वास करता है, उसे कभी कोई समस्या नहीं होगी। यदि कोई छोटी-मोटी समस्या हुई भी तो परमेश्वर उसकी रक्षा करेगा और उसे अनुशासित करेगा। अगर उससे कोई गलती हो भी जाती है तो वह उसके और परमेश्वर के बीच का मामला है—हमें इससे चिंतित होने की जरूरत नहीं है।’ नकली अगुआ इसी तरह अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार काम करते हैं। ... नकली अगुआओं में यह घातक कमी होती है : वे अपनी कल्पनाओं के आधार पर लोगों पर जल्दी भरोसा कर लेते हैं। और यह सत्य को न समझने के कारण होता है, है न? परमेश्वर के वचन भ्रष्ट लोगों के सार का खुलासा कैसे करते हैं? जब परमेश्वर ही लोगों पर भरोसा नहीं करता तो वे क्यों करें? नकली अगुआ बहुत घमंडी और आत्मतुष्ट होते हैं, है न? वे यह सोचते हैं, ‘मैं इस व्यक्ति को परखने में गलत नहीं हो सकता, जिस व्यक्ति को मैंने उपयुक्त समझा है उसके साथ कोई समस्या नहीं होनी चाहिए; वह निश्चित रूप से ऐसा नहीं है जो खाने, पीने और मस्ती करने में रमा रहे, आराम पसंद करे और मेहनत से नफरत करे। वह पूरी तरह से भरोसेमंद और विश्वसनीय है। वह बदलेगा नहीं; अगर वह बदला तो इसका मतलब होगा कि मैं उसके बारे में गलत था, है न?’ यह कैसा तर्क है? क्या तुम कोई विशेषज्ञ हो? क्या तुम्हारे पास एक्सरे जैसी दृष्टि है? क्या तुममें विशेष कौशल है? तुम किसी व्यक्ति के साथ एक-दो साल तक रह सकते हो, लेकिन क्या तुम उसके प्रकृति सार को पूरी तरह से उजागर करने वाले किसी उपयुक्त वातावरण के बिना यह देख पाओगे कि वह वास्तव में कौन है? अगर परमेश्वर ऐसे लोगों को उजागर न करे तो तुम्हें तीन या पाँच वर्षों तक उनके साथ रहने के बाद भी यह जानने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा कि उनका प्रकृति सार किस तरह का है। और जब तुम उनसे शायद ही कभी मिलते हो, शायद ही कभी उनके साथ होते हो तो यह भी कितना सच होगा? किसी की अस्थायी छवि या किसी के द्वारा उनके सकारात्मक मूल्यांकन के आधार पर नकली अगुआ प्रसन्नतापूर्वक उन पर भरोसा कर लेते हैं और ऐसे व्यक्ति को कलीसिया का काम सौंप देते हैं। इसमें क्या वे अत्यधिक अंधे नहीं हो जाते हैं? क्या वे उतावली से काम नहीं ले रहे हैं? और जब नकली अगुआ इस तरह से काम करते हैं तो क्या वे बेहद गैर-जिम्मेदार नहीं होते?(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (3))। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के सामने मैं दिल से बेहद असहज महसूस कर रहा था। परमेश्वर ने उजागर किया कि एक नकली अगुआ धारणाओं और कल्पनाओं पर भरोसा करके काम करता है और आसानी से लोगों पर भरोसा कर लेता है। जब वे देखते हैं कि कोई व्यक्ति कुछ समय के लिए अच्छा प्रदर्शन करता है, तो वे तुरंत सोच लेते हैं कि उस व्यक्ति का सब कुछ अच्छा है और हमेशा अच्छा ही रहेगा। भले ही दूसरे कहें कि इस व्यक्ति में कोई समस्या है, वे अपने दिल में इसे नकार देंगे और इस व्यक्ति के काम का गंभीरता से पर्यवेक्षण और उसकी जाँच नहीं करेंगे। मैंने सोचा कि उस अवधि के दौरान मैं अपना कर्तव्य करते हुए लोगों पर आँख मूँदकर ठीक इसी तरह भरोसा करता था। मैंने देखा कि अन्ना कुछ वास्तविक काम कर सकती है और काफी बढ़िया काम करती है और इसीलिए मैंने उसके काम का अनुवर्तन नहीं किया या जाँच नहीं की और यहाँ तक कि जब उच्च अगुआओं ने मुझे याद दिलाया, तब भी मैंने इसे गंभीरता से नहीं लिया। मुझे अभी भी अपने दिल में अन्ना पर भरोसा था, मैं सोचता था कि वह काम करेगी। इसलिए मैंने उसे केवल सुसमाचार कार्य में समस्याओं का सारांश देने के लिए संक्षेप में याद दिलाया, उसके काम का विशेष रूप से अनुवर्तन नहीं किया। मुझे उम्मीद नहीं थी कि जब अन्ना काम करती थी, तो वह केवल बातें ही करती थी और वास्तविक समस्याएँ हल नहीं करती थी। इसका मतलब यह था कि सुसमाचार कार्य के नतीजे कम हो गए। यह सब अन्ना पर आँख मूँदकर भरोसा करने और उसके काम का अनुवर्तन न करने का परिणाम था। बाद में मार्था के काम का अनुवर्तन करते समय भी मैंने यही किया। मुझे लगा कि उसके पास कुछ कार्य क्षमता है और वह कुछ वास्तविक कार्य कर सकती है, इसलिए मैंने उस पर बहुत भरोसा किया। मैंने शायद ही कभी इस बात का ब्योरा लिया कि वह अपना कर्तव्य कैसे निभाती है और उसके काम की जाँच या उसका पर्यवेक्षण नहीं किया। जब मेरी साथी बहन ने मुझे याद दिलाया तो मैंने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया और मार्था के काम का अनुवर्तन नहीं किया। नतीजतन, उसके भाई-बहनों की समस्याओं का तुरंत समाधान नहीं हो सका और वह नकारात्मकता में रहने लगी, जिससे काम प्रभावित हुआ। परमेश्वर ने कहा कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं को अक्सर काम का अनुवर्तन करना चाहिए, अपने भाई-बहनों की दशाओं और कठिनाइयों के बारे में पता लगाना चाहिए, हर किसी के कर्तव्य में मौजूद समस्याओं और विचलनों पर पकड़ बनानी चाहिए और काम के बारे में पता लगाने और मार्गदर्शन करने के लिए निजी रूप से भी जाना चाहिए, जब समस्याएँ मिलें तो उनका तुरंत समाधान करना चाहिए। यह वह जिम्मेदारी है जिसे अगुआओं और कार्यकर्ताओं को पूरा करना चाहिए : केवल इसी तरह से कर्तव्य करना ही परमेश्वर के इरादे के अनुरूप होता है। मगर मैं लगातार अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर निर्भर रहता था, लोगों पर आँख मूँदकर भरोसा करता था। मुझे विश्वास था कि अन्ना और मार्था कुछ वास्तविक कार्य कर सकती हैं और उन्हें पर्यवेक्षण और जाँच की आवश्यकता नहीं है और इसलिए मैंने शायद ही कभी खासतौर पर उनके कार्य का अनुवर्तन किया हो। क्या मेरा व्यवहार एक नकली अगुआ जैसा नहीं था? मैं लोगों के सार की असलियत नहीं जान पाया, फिर भी मैंने लोगों पर लगातार भरोसा किया, उनके काम का अनुवर्तन नहीं किया। मैं वास्तव में इतना अंधा था! इतना घमंडी था! जब मुझे यह समझ आया, तो मैं दिल से इतना असहज हो गया कि लगा जैसे इसमें छुरा घोंपा जा रहा हो। मैंने अपने कर्तव्य को गैर-जिम्मेदाराना तरीके से निभाया था, लेकिन परमेश्वर ने मुझे नहीं हटाया, इसके बजाय मुझे पश्चात्ताप करने का मौका दिया। मुझे आत्म-चिंतन करना और खुद को समझते रहना था।

एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और अपनी समस्याओं के बारे में एक स्पष्ट दृष्टिकोण प्राप्त किया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अधिकांश लोग ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो’ मुहावरे को सच मानते हैं, और वे इससे गुमराह होकर बंध जाते हैं। लोगों को चुनते या उपयोग करते समय वे इससे परेशान और प्रभावित हो जाते हैं, यहाँ तक कि वे इससे उनके कार्यों को भी निर्देशित होने देते हैं। परिणामस्वरूप, बहुत से अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कलीसिया के काम की जाँच करते समय, लोगों को तरक्की देते और उपयोग करते समय हमेशा मुश्किलें आती हैं और आशंका होने लगती है। अंत में, वे बस इन शब्दों से खुद को तसल्ली दे पाते हैं, ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।’ काम का निरीक्षण या पूछताछ करते समय, वे सोचते हैं, ‘“न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।” मुझे अपने भाई-बहनों पर भरोसा करना चाहिए, आखिरकार, पवित्र आत्मा लोगों की जाँच-पड़ताल करता है, इसलिए मुझे हमेशा दूसरों पर संदेह और उनकी निगरानी नहीं करनी चाहिए।’ वे इस मुहावरे से प्रभावित हो गए हैं, है न? इस मुहावरे के प्रभाव से क्या परिणाम सामने आते हैं? सबसे पहले, अगर कोई व्यक्ति इस विचार को मानता है कि ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो,’ तो क्या वह दूसरों के कार्य का निरीक्षण करेगा और उसे निर्देश देगा? क्या वह लोगों के काम की निगरानी करेगा और उसकी खोज-खबर लेगा? अगर यह व्यक्ति हर उस व्यक्ति पर भरोसा करता है जिसका वह उपयोग करता है और कभी भी उसके काम में उसका निरीक्षण नहीं करता है या उसे निर्देश नहीं देता है, और कभी भी उसकी निगरानी नहीं करता है, तो क्या वह अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभा रहा है? क्या वह कलीसिया का कार्य सक्षम तरीके से कर सकता है और परमेश्वर के आदेश को पूरा कर सकता है? क्या वह परमेश्वर के आदेश के प्रति निष्ठावान है? दूसरा, यह परमेश्वर के वचनों और कर्तव्यों का पालन करने में तुम्हारी विफलता मात्र नहीं है, बल्कि यह शैतान की साजिशों और सांसारिक आचरण के उसके फलसफों को सत्य मानना है, उनका अनुसरण और अभ्यास करना है। तुम शैतान की आज्ञा का पालन कर रहे हो और शैतानी फलसफे के अनुसार जी रहे हो, है न? तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाले व्यक्ति नहीं हो, तुम परमेश्वर के वचनों का पालन करने वाले व्यक्ति तो बिल्कुल नहीं हो। तुम पूरे बदमाश हो। परमेश्वर के वचनों को दर-किनार कर, शैतानी मुहावरे को अपनाना और सत्य के रूप में उसका अभ्यास करना, सत्य और परमेश्वर के साथ विश्वासघात करना है! तुम परमेश्वर के घर में काम करते हो, फिर भी शैतानी तर्क और सांसारिक आचरण के उसके फलसफे ही तुम्हारे क्रियाकलापों के सिद्धांत हैं; तुम किस तरह के व्यक्ति हो? यह एक ऐसा व्यक्ति है जो परमेश्वर से विश्वासघात करता है और जो परमेश्वर का बुरी तरह अपमान करता है। इस हरकत का सार क्या है? खुले तौर पर परमेश्वर की निंदा करना और सत्य को नकारना। क्या यही इसका सार नहीं है? (यही है।) तुम परमेश्वर की इच्छा का पालन करने के बजाय, शैतान की एक दानवी कहावत और सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफों को कलीसिया में निरंकुशता करने दे रहे हो। ऐसा करके, तुम खुद शैतान के सहयोगी बन जाते हो और कलीसिया में शैतान की गतिविधियों को अंजाम देने में उसकी सहायता करते हो और कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधाएँ डालते हो। इस समस्या का सार गंभीर है, है ना?(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण एक : सत्य क्या है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करने के बाद मुझे समझ आया कि इन दोनों बहनों के काम की जाँच न करने का कारण यह था कि मैं “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” के शैतानी फलसफे से प्रभावित था। पहले जब मैंने काम का अनुवर्तन किया था, तो मैंने देखा था कि वे कुछ वास्तविक समस्याएँ हल कर सकते हैं और उनमें एक निश्चित सीमा तक कार्य क्षमता है और इसलिए मैं उन पर बहुत भरोसा करता था। मैंने सोचा कि मुझे लगातार उनके काम का अनुवर्तन करने या जाँच करने की जरूरत नहीं है, बस कभी-कभार उनकी दशाओं और कठिनाइयों के बारे में संक्षेप में पूछने की जरूरत है और इतना ठीक रहेगा। चूँकि मैंने उनके काम का पर्यवेक्षण या उसकी जाँच नहीं की और उनकी वास्तविक कठिनाइयों को तुरंत खोज कर उन्हें हल नहीं कर सका, इसलिए काम की प्रगति प्रभावित हुई। मैं अच्छी तरह से जानता था कि काम का अनुवर्तन करना और जाँच करना मेरी जिम्मेदारी थी और मुझे काम में आने वाली कठिनाइयाँ और समस्याएँ तुरंत खोजनी और हल करनी थीं। केवल इसी तरह से काम आगे बढ़ता रह सकता था। मगर मैंने अपने आचरण और कार्य-कलापों में “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” के विचार और दृष्टिकोण पर भरोसा किया। मैंने अपने कर्तव्य का बहुत ही अनादर किया, लापरवाही बरती और मुझे जिम्मेदारी का कोई एहसास नहीं था। मैंने उस काम का अनुवर्तन नहीं किया या उसकी जाँच नहीं की जिसका मुझे अनुवर्तन या जाँच करनी चाहिए थी, जिससे सुसमाचार कार्य की प्रगति प्रभावित हुई। दरअसल, कभी-कभी जब मैं सुसमाचार कार्य के नतीजों में गिरावट देखता या भाई-बहनों को अपने कर्तव्य निभाने में बहुत सक्रिय नहीं देखता था, तो मुझे एहसास होता था कि मुझे उनके काम का अनुवर्तन और उसकी जाँच करनी चाहिए। हालाँकि मेरी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर मैं सोचता था कि वे इसे कर लेंगे और मुझे उनके काम का अनुवर्तन करने की जरूरत नहीं है और इसलिए मैं उन पर बहुत भरोसा रखता था। “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” मैं इस दृष्टिकोण को सत्य मानता था और सत्य के रूप में इसका अभ्यास और पालन करता था; मैंने सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य नहीं निभाया और अनजाने ही कार्य में देरी कर दी। मैं लगातार सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफे के भरोसे रहता था कि “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो,” और सोचता था कि अगर मैं उनके काम का अनुवर्तन करता हूँ, तो मैं उन पर अविश्वास करूँगा। मैंने परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास नहीं किया। इसकी प्रकृति सत्य को नकारना है। यह परमेश्वर का प्रतिरोध करना है! अगर मैं इन विचारों और दृष्टिकोणों के अनुसार जीता रहा, तो मैं अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभा पाऊँगा और अंततः महज बेनकाब करके हटा दिया जाऊँगा। जब मैंने यह सोचा तो मुझे पछतावा और आत्म-ग्लानि महसूस हुई और लगातार मेरे आँसू बहने लगे। मैं परमेश्वर के सामने प्रार्थना करने आया, “प्रिय परमेश्वर, मैंने लापरवाही से लोगों पर भरोसा किया और अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया, और मुझसे अपराध हो गए। मैं तुम्हारे सामने पश्चात्ताप करने का इच्छुक हूँ।” प्रार्थना करने के बाद मेरा दिल बहुत शांत हो गया। बाद में मैंने लगातार उनके काम का अनुवर्तन किया और जाँच की, धीरे-धीरे समस्याओं को हल किया। मेरे भाई-बहन भी पहले की तुलना में अपने कर्तव्य में अधिक सक्रिय थे।

एक सुबह भक्ति के दौरान मैंने एक अनुभवजन्य गवाही लेख पढ़ा। इसमें परमेश्वर के वचनों का एक उद्धरण उद्धृत किया गया था, जिसने चीजों के प्रति मेरा दृष्टिकोण बदल दिया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “क्या तुम लोग मानते हो कि ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो’ वाला दृष्टिकोण सही है? क्या यह मुहावरा सत्य है? परमेश्वर के घर के काम करने में और अपना कर्तव्य करने में वह इस मुहावरे का उपयोग क्यों करेगा? यहाँ क्या समस्या है? ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो’ यह मुहावरा साफ तौर से अविश्वासियों के शब्द हैं, शैतान के मुँह से निकले हुए शब्द हैं—तो वह उनके साथ ऐसे क्यों पेश आता है जैसे कि वे सत्य हों? वह क्यों नहीं बता पाता कि ये शब्द सही हैं या गलत? ये स्पष्ट रूप से मनुष्य के शब्द हैं, भ्रष्ट इंसान के शब्द हैं, ये बिल्कुल सत्य नहीं हैं, ये परमेश्वर के वचनों के अनुरूप बिल्कुल नहीं हैं, इन्हें लोगों के कार्यों, स्व-आचरण और परमेश्वर की आराधना के लिए मानदंड नहीं मानना चाहिए। तो इस मुहावरे के साथ कैसे पेश आना चाहिए? यदि तुम वास्तव में पहचानने में सक्षम हो, तो अभ्यास के अपने सिद्धांत के रूप में तुम्हें इसकी जगह किस प्रकार के सत्य सिद्धांत का उपयोग करना चाहिए? सत्य सिद्धांत यह होना चाहिए कि ‘तुम पूरे दिल, आत्मा और मन से अपने कर्तव्य का अच्छी तरह से निर्वहन करो।’ अपने पूरे दिल, पूरी आत्मा और पूरे मन से कार्य करना किसी के द्वारा बाधित नहीं किया जाना है; यह एक दिलो-दिमाग से होना चाहिए, न कि आधे-अधूरे मन से। यह तुम्हारी जिम्मेदारी और कर्तव्य है और तुम्हें इसे अच्छी तरह से निभाना चाहिए, क्योंकि ऐसा करना पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायसंगत है। तुम्हारे सामने जो भी समस्याएँ आएँ, तुम्हें सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। उनसे तुम वैसे ही निपटो, जैसा जरूरी हो; यदि काट-छाँट की आवश्यकता है, तो वैसे ही करो और यदि बर्खास्तगी अनिवार्य है, तो वही सही। संक्षेप में कहूँ तो, परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर कार्य करो। क्या यही सिद्धांत नहीं है? क्या यह इस वाक्यांश के ठीक विपरीत नहीं है ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो’? यह कहने का क्या अर्थ है कि न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो? इसका अर्थ यह है कि यदि तुमने किसी व्यक्ति को नौकरी पर रखा है तो तुम्हें उस पर शक नहीं करना चाहिए, तुम्हें बागडोर ढीली छोड़ देनी चाहिए, उसकी देखरेख नहीं करनी चाहिए और वह जैसा चाहे उसे वैसा करने देना चाहिए; यदि तुम उस पर संदेह करते हो, तो तुम्हें उसे काम पर नहीं रखना चाहिए। क्या यही इसका मतलब नहीं है? यह तो एकदम गलत है। शैतान ने इंसान को बुरी तरह से भ्रष्ट कर दिया है। हर व्यक्ति में एक शैतानी स्वभाव होता है, वह परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर उसका विरोध कर सकता है। तुम कह सकते हो कि भरोसे लायक तो कोई भी नहीं होता। यहां तक कि अगर कोई व्यक्ति दुनियाभर की कसम खा ले, तो भी कोई फायदा नहीं, क्योंकि लोग अपने भ्रष्ट स्वभाव से बाधित हैं और अपने आप को नियंत्रित नहीं कर सकते। अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने से पहले और परमेश्वर का विरोध और उससे विश्वासघात करने की समस्या को पूरी तरह से दूर करने से पहले—लोगों के पापों की जड़ को समूल नष्ट करने से पहले—उन्हें परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर के न्याय और शुद्धिकरण से नहीं गुजरे हैं और उद्धार प्राप्त नहीं कर पाए हैं, वे भरोसे लायक नहीं हैं। वे विश्वासपात्र नहीं हैं। इसलिए, जब तुम किसी को उपयोग करो, तो उसकी निगरानी और उसे निर्देशित करो। तुम उसकी काट-छाँट भी करो और अक्सर सत्य पर संगति करो, और तभी तुम समझ पाओगे कि उस व्यक्ति को उपयोग में लेते रहना चाहिए या नहीं। अगर कुछ लोग सत्य स्वीकार कर लेते हैं, काट-छाँट स्वीकार कर लेते हैं, निष्ठापूर्वक अपना कार्य करते हैं और जीवन में निरंतर प्रगति कर रहे हैं, तभी सही मायनों में ये लोग उपयोग के लायक होते हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण एक : सत्य क्या है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करने के बाद मुझे समझ आया कि चाहे किसी व्यक्ति की कार्य क्षमता कैसी भी हो, उसकी काबिलियत कैसी भी हो, चाहे वह कार्य करना जानता हो या नहीं या वह चाहे जितना सत्य समझता हो, उसके कार्य का हमेशा अनुवर्तन किया जाना चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि सभी लोग शैतान द्वारा बहुत गहराई से भ्रष्ट किए जा चुके हैं और सबके भ्रष्ट स्वभावों के भरोसे रहकर कार्य करने की संभावना है। कोई भी व्यक्ति चाहे वह कोई भी हो, सत्य प्राप्त करने और उद्धार प्राप्त करने से पहले विश्वसनीय या भरोसेमंद नहीं होता। अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में हमें तुरंत कार्य का पर्यवेक्षण और उसकी जाँच करनी चाहिए, कार्य की प्रगति के बारे में पता लगाना चाहिए, मुद्दों के बारे में बताना चाहिए और समस्याएँ मिलने पर जरूरत के मुताबिक मदद करनी चाहिए, गंभीर समस्याओं के मामले में लोगों की काट-छाँट करनी चाहिए और समस्याओं का तुरंत पता लगाना चाहिए और उनका समाधान करना चाहिए। केवल यही वास्तविक कार्य करना है। इसके बाद मैंने असल में भाई-बहनों के कार्य का अनुवर्तन, पर्यवेक्षण और जाँच की।

एक बार मैं मार्था के कार्य का अनुवर्तन कर रहा था और उसके बारे में पता लगा रहा था, मैंने पाया कि एक सुसमाचार उपयाजक वास्तविक कार्य नहीं कर रहा था और उसे बरखास्त करने की जरूरत थी। इसलिए मार्था और मैंने उपयाजक को बरखास्त कर दिया। बरखास्तगी के बाद हमें उपयाजक पद के लिए उपचुनाव कराना था और मैंने मार्था को अध्यक्षता करने के लिए कहा, उसके साथ संगति की कि आगे का काम कैसे करना है। मैंने मन में सोचा, “उसने पहले भी ये काम किए हैं। मैंने भी अब उसके साथ इनके बारे में संगति कर ली है, इसलिए वह निश्चित रूप से इन्हें अच्छे से कर लेगी। मुझे अब उसका पर्यवेक्षण करने की जरूरत नहीं है।” इस समय मुझे एहसास हुआ कि मेरे विचार गलत थे। मैंने सोचा कि जब मैंने लोगों पर आँख मूँदकर भरोसा किया था और उनके काम की जाँच या उसका अनुवर्तन नहीं किया था, नतीजतन काम बुरी तरह प्रभावित हुआ था। मैं अपनी पुरानी समस्या को फिर से सिर उठाने नहीं दे सकता था। मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश के बारे में सोचा, जो मैंने पहले पढ़ा था : “जब लोगों को सत्य की प्राप्ति नहीं होती, तो वे भरोसेमंद और विश्वास योग्य नहीं होते। उनके भरोसेमंद न होने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि जब उन्हें कठिनाइयों या असफलताओं का सामना करना पड़ता है, तो बहुत संभव है कि वे गिर पड़ें, और नकारात्मक और कमजोर हो जाएँ। जो व्यक्ति अक्सर नकारात्मक और कमजोर हो जाता है, क्या वह भरोसेमंद होता है? बिल्कुल नहीं। लेकिन जो लोग सत्य समझते हैं, वे अलग ही होते हैं। जो लोग वास्तव में सत्य की समझ रखते हैं, उनके अंदर परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय, परमेश्वर के प्रति समर्पण वाला हृदय होता है, और जिन लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है, केवल वही लोग भरोसेमंद होते हैं; जिनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता, वे लोग भरोसेमंद नहीं होते। जिनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता, उनके प्रति कैसा रवैया अपनाया जाना चाहिए? उन्हें प्रेमपूर्वक सहायता और सहारा देना चाहिए। जब वे कर्तव्य कर रहे हों, तो उनका अधिक अनुवर्तन करना चाहिए, और उन्हें अधिक मदद और निर्देश दिए जाने चाहिए; तभी वे अपना कार्य प्रभावी ढंग से कर पाएँगे। और ऐसा करने का उद्देश्य क्या है? मुख्य उद्देश्य परमेश्वर के घर के काम को बनाए रखना है। दूसरा मकसद है समस्याओं की तुरंत पहचान करना, तुरंत उनका पोषण करना, उन्हें सहारा देना, या उनकी काट-छाँट करना, भटकने पर उन्हें सही मार्ग पर लाना, उनके दोषों और कमियों को दूर करना। यह लोगों के लिए फायदेमंद है; इसमें दुर्भावनापूर्ण कुछ भी नहीं है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (7))। जब मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया तो मैं अब खुद पर और भरोसा करने की हिम्मत नहीं कर पाया। मैं जल्दी से मार्था से मिला और उपयाजक उपचुनाव की स्थिति के बारे में पता लगाने को कहा। नतीजतन, मुझे पता चला कि वह दूसरे काम में व्यस्त थी और उसने उपचुनाव रोक दिया था। बाद में मैंने अपने कर्तव्य में जिम्मेदारी न उठाने और काम में देरी करने के लिए उसे उजागर किया और वह जल्दी से उपचुनाव कराने चली गई। बाद में मैंने वास्तव में उन अन्य कार्यों के बारे में जाना जिनके लिए मार्था जिम्मेदार थी और उनमें भी कुछ समस्याएँ पाईं। मैंने इन समस्याओं को हल करने के लिए तुरंत संगति की और कुछ समय बाद कलीसिया का कार्य कुछ प्रगति दिखाने लगा। जब मैंने इस तरह से अभ्यास किया, तो मेरा दिल बहुत अधिक सहज महसूस करने लगा।

अनुभव की इस अवधि के दौरान मैंने स्पष्ट रूप से देखा कि शैतान द्वारा लोगों में रोपा गया यह विचार कि “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” गलत और बेतुका है। इसके अतिरिक्त यह सत्य के प्रति शत्रुतापूर्ण है। मैंने यह भी समझा कि सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य का पर्यवेक्षण और उसका अनुवर्तन कैसे किया जाए। परमेश्वर का धन्यवाद!

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