75. अपने झूठ से मैं क्या छिपा रही थी?

मार्सेला, फिलीपींस

मैं कलीसिया में सिंचन टीम की अगुआ हूँ। चूँकि हर दिन कलीसिया में नवागंतुक शामिल होते हैं, इसलिए पर्यवेक्षक ने हमसे समय पर बताने को कहा कि कैसे नवागंतुक समय पर सभा में इकट्ठे हो रहे हैं। एक दिन रिपोर्ट लिखते समय मैंने पाया कि कुछ नवागंतुकों के लिए किसी भी सभा की व्यवस्था नहीं की गई थी। मैं चौंक गई और सोचने लगी, “मुझसे यह चूक कैसे हो गई?” मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि मैंने इतनी बुनियादी गलती कर दी थी। मैं हर दिन बहुत सावधानी से अपने कर्तव्य निभाती थी, तो ऐसी समस्या कैसे पैदा हो सकती है? पहले पर्यवेक्षक ने मूल्यांकन किया था कि मैं जिम्मेदार थी और मुझमें अपने कर्तव्य के प्रति बोझ का एहसास था और मैं बारीकियों पर ध्यान देकर अपना काम करती थी। फिर भी इस बार मैंने इतनी बुनियादी गलती कर दी थी। मैंने सोचा, “अगर मैं इस बारे में सच्चाई से लिखूँगी, तो क्या पर्यवेक्षक मुझे कम समझेगा? और तो और मैं टीम की अगुआ हूँ और मैं हर दिन अपने भाई-बहनों को अपने कर्तव्यों में सावधान रहने की याद दिलाती हूँ, लेकिन आज मैं ही हूँ जो लापरवाह हो गई हूँ। क्या वे सोचेंगे कि मैं सिर्फ नारे लगाती हूँ और शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को तोते की तरह रटती हूँ?” यह सोचकर मेरे मन में उथल-पुथल मच गई, मेरे दिमाग में ये विचार घूमने लगे कि मुझे क्या करना चाहिए। कुछ देर सोचने के बाद मैंने तय किया कि मैं उन्हें इस बारे में बिल्कुल नहीं बता सकती। इसलिए पर्यवेक्षक को दी अपनी रिपोर्ट में मैंने कहा कि मैंने इन नवागंतुकों को सूचित कर दिया था, लेकिन उन्होंने कहा कि उनका नेटवर्क कनेक्शन खराब था और वे उस दिन सभा में शामिल नहीं हो सकीं। यह लिखने के बाद मैंने मन ही मन सोचा, “मैं पर्यवेक्षक से तो निपट ली हूँ, लेकिन अगर इन नवागंतुकों की सिंचनकर्मी बहन ने नवागंतुकों से सभा में शामिल न होने का असली कारण पूछ लिया और फिर उसने पर्यवेक्षक को सच्चाई बता दी तो क्या होगा? क्या इससे मेरा झूठ उजागर नहीं हो जाएगा? अगर पर्यवेक्षक को पता चल गया कि मैंने झूठ बोला और उसे धोखा देने की कोशिश की, तो वह मेरे बारे में क्या सोचेगा? मेरे भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे सोचेंगे कि मैं इतनी घिनौनी और शर्मनाक काम करने के लिए पूरी तरह से धोखेबाज हूँ? अगर ऐसा हुआ तो मेरी इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी। बिना कोई कसर छोड़े मैं इस मामले को कैसे सँभाल सकती हूँ? जब तक इन नवागंतुकों की सिंचनकर्मी बहन पर्यवेक्षक से बात नहीं करती, तब तक यह मामला उजागर नहीं होगा।” इसलिए मैंने जल्दी से उस बहन को खोजा और उसे सच्चाई से अवगत करा दिया और उसने कहा कि अगले दिन व्यवस्था करना ठीक रहेगा। यह सुनकर रात भर की व्यस्तता भरे काम के बाद मैंने आखिरकार राहत की साँस ली। लेकिन बाद में मैं यह सोचकर बहुत बेचैन हो गई, “साफ तौर पर मैंने व्यवस्था नहीं की थी और इसके बजाय कह दिया कि नवागंतुक सभा में शामिल नहीं हुए। क्या ऐसा करके मैं साफ तौर पर दूसरों को धोखा देने की कोशिश नहीं कर रही थी? लेकिन अगर मैं पर्यवेक्षक के सामने अपनी गलती मान लेती हूँ, तो उसके मन में मेरी जो अच्छी छवि है, वह खत्म हो जाएगी।” एक पल के लिए मैं भावनाओं के बवंडर में फँस गई और समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूँ। मैंने जल्दी से परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं इस समय बहुत बुरा महसूस कर रही हूँ। मैं जानती हूँ कि मैंने जो किया है, वह तुम्हें और पर्यवेक्षक को धोखा देने का एक प्रयास था, लेकिन मुझमें सचमुच पर्यवेक्षक के सामने अपनी गलती मानने की हिम्मत नहीं है, क्योंकि मुझे डर है कि अगर मैंने ऐसा किया, तो उनके मन में मेरी अच्छी छवि खराब हो जाएगी। परमेश्वर, मेरा मार्गदर्शन करो, ताकि मैं इससे सबक सीख सकूँ और सत्य का अभ्यास कर सकूँ।”

प्रार्थना करने के बाद मैंने अपनी दशा के अनुसार परमेश्वर के वचनों के प्रासंगिक अंशों को खोजा। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “अपने रोजमर्रा के जीवन में लोग अक्सर बेकार बातें करते हैं, झूठ बोलते हैं, और ऐसी बातें कहते हैं जो अज्ञानतापूर्ण, मूर्खतापूर्ण और रक्षात्मक होती हैं। इनमें से ज्यादातर बातें अभिमान और शान के लिए, अपने अहंकार की तुष्टि के लिए कही जाती हैं। ऐसे झूठ बोलने से उनके भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होते हैं। अगर तुम इन भ्रष्ट तत्वों का समाधान कर लो, तो तुम्हारा हृदय शुद्ध हो जाएगा, और तुम धीरे-धीरे ज्यादा शुद्ध और अधिक ईमानदार हो जाओगे। वास्तव में सभी लोग जानते हैं कि वे झूठ क्यों बोलते हैं। व्यक्तिगत लाभ और गौरव के लिए, या अभिमान और रुतबे के लिए, वे दूसरों के साथ प्रतिस्पर्धा करने और खुद को वैसा दिखाने की कोशिश करते हैं, जो वे नहीं होते। हालाँकि दूसरे लोग अंततः उनके झूठ उजागर और प्रकट कर देते हैं, और वे अपनी इज्जत और साथ ही अपनी गरिमा और चरित्र भी खो बैठते हैं। यह सब अत्यधिक मात्रा में झूठ बोलने के कारण होता है। तुम्हारे झूठ बहुत ज्यादा हो गए हैं। तुम्हारे द्वारा कहा गया प्रत्येक शब्द मिलावटी और झूठा होता है, और एक भी शब्द सच्चा या ईमानदार नहीं माना जा सकता। भले ही तुम्हें यह न लगे कि झूठ बोलने पर तुम्हारी बेइज्जती हुई है, लेकिन अंदर ही अंदर तुम अपमानित महसूस करते हो। तुम्हारा जमीर तुम्हें दोष देता है, और तुम अपने बारे में नीची राय रखते हुए सोचते हो, ‘मैं ऐसा दयनीय जीवन क्यों जी रहा हूँ? क्या सच बोलना इतना कठिन है? क्या मुझे अपनी शान की खातिर झूठ का सहारा लेना चाहिए? मेरा जीवन इतना थका देने वाला क्यों है?’ तुम्हें थका देने वाला जीवन जीने की जरूरत नहीं है। अगर तुम एक ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास कर सको, तो तुम एक निश्चिंत, स्वतंत्र और मुक्त जीवन जीने में सक्षम होगे। हालाँकि तुमने झूठ बोलकर अपनी शान और अभिमान को बरकरार रखना चुना है। नतीजतन, तुम एक थकाऊ और दयनीय जीवन जीते हो, जो तुम्हारा खुद का थोपा हुआ है। झूठ बोलकर व्यक्ति को शान की अनुभूति हो सकती है, लेकिन वह शान की अनुभूति क्या है? यह महज एक खोखली चीज है, और यह पूरी तरह से बेकार है। झूठ बोलने का मतलब है अपना चरित्र और गरिमा बेच देना। इससे व्यक्ति की गरिमा और उसका चरित्र छिन जाता है; इससे परमेश्वर नाखुश होता है और इससे वह घृणा करता है। क्या यह लाभप्रद है? नहीं, यह लाभप्रद नहीं है। क्या यह सही मार्ग है? नहीं, यह सही मार्ग नहीं है। जो लोग अक्सर झूठ बोलते हैं, वे अपने शैतानी स्वभावों के अनुसार जीते हैं; वे शैतान की शक्ति के अधीन रहते हैं। वे प्रकाश में नहीं रहते, न ही वे परमेश्वर की उपस्थिति में रहते हैं। तुम लगातार इस बारे में सोचते रहते हो कि झूठ कैसे बोला जाए, और फिर झूठ बोलने के बाद तुम्हें यह सोचना पड़ता है कि उस झूठ को कैसे छिपाया जाए। और जब तुम झूठ अच्छी तरह से नहीं छिपाते और वह उजागर हो जाता है, तो तुम्हें विरोधाभास दूर कर उसे स्वीकार्य बनाने के लिए अपने दिमाग पर जोर देना पड़ता है। क्या इस तरह जीना थका देने वाला नहीं है? निढाल कर देने वाला। क्या यह इस लायक है? नहीं, यह इस लायक नहीं है। झूठ बोलने और फिर उसे छिपाने के लिए अपना दिमाग लगाना, सब शान, अभिमान और रुतबे की खातिर, क्या मायने रखता है? अंत में तुम चिंतन करते हुए मन ही मन सोचो, ‘क्या मायने हैं? झूठ बोलना और उसे छिपाना बहुत थका देने वाला होता है। इस तरीके से आचरण करने से काम नहीं चलेगा; अगर मैं एक ईमानदार व्यक्ति बन जाऊँ, तो ज्यादा आसानी होगी।’ तुम एक ईमानदार व्यक्ति बनने की इच्छा रखते हो, लेकिन तुम अपनी शान, अभिमान और व्यक्तिगत हित नहीं छोड़ पाते। इसलिए तुम इन चीजों को बनाए रखने के लिए सिर्फ झूठ बोलने का ही सहारा ले सकते हो। अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसे सत्य से प्रेम है, तो सत्य का अभ्यास करने के लिए तुम विभिन्न कठिनाइयाँ सहन करोगे। अगर इसका मतलब अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत का बलिदान और दूसरों से उपहास और अपमान सहना भी हो, तो भी तुम बुरा नहीं मानोगे—अगर तुम सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने में सक्षम हो, तो यह पर्याप्त है। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, वे इसका अभ्यास करना और ईमानदार रहना चुनते हैं। यही सही मार्ग है, और इस पर परमेश्वर का आशीष है। अगर व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करता, तो वह क्या चुनता है? वह अपनी प्रतिष्ठा, हैसियत, गरिमा और चरित्र बनाए रखने के लिए झूठ का उपयोग करना चुनता है। वह धोखेबाज होगा और परमेश्वर उससे घृणा कर उसे ठुकरा देगा। ऐसे लोग सत्य को नकारते हैं और परमेश्वर को भी नकारते हैं। वे अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत चुनते हैं; वे धोखेबाज होना चाहते हैं। वे इस बात की परवाह नहीं करते कि परमेश्वर प्रसन्न होता है या नहीं, या वह उन्हें बचाएगा या नहीं। क्या परमेश्वर अभी भी ऐसे लोगों को बचा सकता है? निश्चित रूप से नहीं, क्योंकि उन्होंने गलत मार्ग चुना है। वे सिर्फ झूठ बोलकर और धोखा देकर ही जीवित रह सकते हैं; वे रोजाना सिर्फ झूठ बोलकर उसे छिपाने और अपना बचाव करने में अपना दिमाग लगाने का दर्दनाक जीवन ही जी सकते हैं। अगर तुम सोचते हो कि झूठ वह प्रतिष्ठा, रुतबा, अभिमान और शान बरकरार रख सकता है जो तुम चाहते हो, तो तुम पूरी तरह से गलत हो। वास्तव में झूठ बोलकर तुम न सिर्फ अपना अभिमान और शान, और अपनी गरिमा और चरित्र बनाए रखने में विफल रहते हो, बल्कि इससे भी ज्यादा शोचनीय बात यह है कि तुम सत्य का अभ्यास करने और एक ईमानदार व्यक्ति बनने का अवसर चूक जाते हो। अगर तुम उस पल अपनी प्रतिष्ठा, रुतबा, अभिमान और शान बचाने में सफल हो भी जाते हो, तो भी तुमने सत्य का बलिदान करके परमेश्वर को धोखा तो दे ही दिया है। इसका मतलब है कि तुमने उसके द्वारा बचाए और पूर्ण किए जाने का मौका पूरी तरह से खो दिया है, जो सबसे बड़ा नुकसान और जीवन भर का अफसोस है। जो लोग धोखेबाज हैं, वे इसे कभी नहीं समझेंगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि धोखेबाज लोग अपने अभिमान, आत्म-सम्मान और हितों की रक्षा के लिए बोलते और काम करते हैं। वे अच्छी तरह जानते हैं कि परमेश्वर इसे नापसंद करता है, लेकिन वे फिर भी झूठ बोलने, खुद को बचाने और धोखा देने के लिए अपना दिमाग खपाते हैं। वे भले ही अपने आत्म-सम्मान और अभिमान की रक्षा करते दिखें, लेकिन वे सत्य का अभ्यास करने का अवसर खो देते हैं, और अगर वे पश्चात्ताप नहीं करते, तो अंततः परमेश्वर उन्हें हटा देगा और वे परमेश्वर द्वारा बचाए जाने का अवसर पूरी तरह से गँवा देंगे। जब मुझे इसका एहसास हुआ, तो मैं दंग रह गई। मेरा व्यवहार ठीक वैसा था, जैसी दशाएँ परमेश्वर उजागर करता है! जैसे ही मैंने पाया कि कई नवागंतुकों के लिए सभाओं की व्यवस्था नहीं की गई थी, मुझे चिंता हुई कि अगर पर्यवेक्षक को पता चल गया तो वह मेरे बारे में क्या सोचेगा, और क्या वह मेरे बारे में कमतर राय रखेगा। मुझे यह भी चिंता थी कि भाई-बहनों को पता चलने के बाद वे इस बात को उठाएँगे कि मैं उन्हें अपने कर्तव्यों में अधिक मेहनती होने की याद दिलाती रहती थी, लेकिन मैंने अपने ही कर्तव्य में इतनी बुनियादी गलती कर दी थी। मुझे डर था कि वे सोचेंगे कि मैं बिना वास्तविकताओं वाली इंसान हूँ जो बस शब्द और धर्म-सिद्धांतों को तोते की तरह दोहराती है। लोगों के मन में अपनी अच्छी छवि बचाने के लिए मैंने झूठ बोला और कहा कि नवागंतुक खराब इंटरनेट के कारण सभा में शामिल नहीं हुए। लेकिन मुझे यह भी चिंता थी कि नवागंतुकों की सिंचनकर्मी बहन को वास्तविक स्थिति के बारे में पता चल जाएगा और फिर वह पर्यवेक्षक को इसकी सूचना दे देगी, जिससे मेरी कही बात में विसंगति उजागर हो जाएगी। इस वजह से मैं जल्दी से सिंचनकर्मी बहन के पास स्थिति को सक्रिय रूप से समझाने के लिए गई। अपने अभिमान और आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए मैंने झूठ बोलने में दिमाग लगाया और अपना झूठ छिपाने का प्रयास किया। मैं अच्छी तरह जानती थी कि यह परमेश्वर के इरादे के खिलाफ है और मुझे अपराध-बोध हुआ, लेकिन मैंने फिर भी सत्य का अभ्यास नहीं किया। मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव से बँधी हुई थी और मुझे पीड़ा और थकावट दोनों महसूस हो रहे थे। मैंने अपनी मानवीय गरिमा और सत्यनिष्ठा खो दी। मैंने सोचा कि जो मैंने किया, उसमें मैंने कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन असल में परमेश्वर हर चीज की पड़ताल करता है। मैं एक जोकर की तरह कार्य-कलाप कर रही थी। जितना मैंने विचार किया, उतना ही मुझे लगा कि मैंने जो किया है वह घिनौना, नीच और घटिया था, और मेरे कार्य-कलापों के कारण परमेश्वर मुझसे घृणा करने लगा था। साथ ही मुझे एक अजीब सी चिंता और डर महसूस हुआ मानो मैं सचमुच खतरे में हूँ। जैसा कि परमेश्वर कहता है : “अगर तुम सोचते हो कि झूठ वह प्रतिष्ठा, रुतबा, अभिमान और शान बरकरार रख सकता है जो तुम चाहते हो, तो तुम पूरी तरह से गलत हो। वास्तव में झूठ बोलकर तुम न सिर्फ अपना अभिमान और शान, और अपनी गरिमा और चरित्र बनाए रखने में विफल रहते हो, बल्कि इससे भी ज्यादा शोचनीय बात यह है कि तुम सत्य का अभ्यास करने और एक ईमानदार व्यक्ति बनने का अवसर चूक जाते हो। अगर तुम उस पल अपनी प्रतिष्ठा, रुतबा, अभिमान और शान बचाने में सफल हो भी जाते हो, तो भी तुमने सत्य का बलिदान करके परमेश्वर को धोखा तो दे ही दिया है। इसका मतलब है कि तुमने उसके द्वारा बचाए और पूर्ण किए जाने का मौका पूरी तरह से खो दिया है, जो सबसे बड़ा नुकसान और जीवन भर का अफसोस है।” हालाँकि झूठ बोलकर मैं दूसरों के सामने अपना अभिमान और आत्म-सम्मान बचा पाई और लोगों के मन में अपनी अच्छी छवि बनाए रख सकी, लेकिन मैंने सत्य का अभ्यास करने और एक ईमानदार इंसान बनने का अवसर गँवा दिया और परमेश्वर के सामने एक ऐसा अपराध कर बैठी जो कभी मिट नहीं सकता। बाद में मैंने सोचा, “मैं क्यों हमेशा न चाहते हुए भी झूठ बोलने से नहीं बच पाती? इसका मूल कारण क्या है?”

एक दिन अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “इस समाज में, संसार से निपटने के लोगों के सिद्धांत, जीवन जीने और अस्तित्व बनाए रखने के तरीके, यहाँ तक कि धर्म और आस्था के प्रति उनके रवैये और धारणाएँ, और लोगों व चीजों के प्रति उनके विभिन्न दृष्टिकोण और विचार—ये सभी चीजें निस्संदेह परिवार की शिक्षा के प्रभाव के तहत आकार लेती हैं। ... जब परिवार के बुजुर्ग अक्सर तुमसे कहते हैं कि ‘जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,’ तो यह इसलिए होता है ताकि तुम अच्छी प्रतिष्ठा रखने और गौरवपूर्ण जीवन जीने को अहमियत दो और ऐसे काम मत करो जिनसे तुम्हारी बदनामी हो। तो यह कहावत लोगों को सकारात्मक दिशा की ओर लेकर जाती है या नकारात्मक? क्या यह तुम्हें सत्य की ओर ले जा सकती है? क्या यह तुम्हें सत्य समझने की ओर ले जा सकती है? (नहीं, बिल्कुल नहीं।) तुम यकीन से कह सकते हो, ‘नहीं, नहीं ले जा सकती!’ जरा सोचो, परमेश्वर कहता है कि लोगों को ईमानदार लोगों की तरह आचरण करना चाहिए। अगर तुमने कोई अपराध किया है या कुछ गलत किया है या कुछ ऐसा किया है जो परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह है या सत्य के विरुद्ध जाता है, तो तुम्हें अपनी गलती स्वीकारनी होगी, खुद को समझना होगा, और सच्चा पश्चात्ताप करने के लिए खुद का गहन-विश्लेषण करते रहना होगा और फिर परमेश्वर के वचनों के अनुसार व्यवहार करना होगा। अगर लोग ईमानदार व्यक्ति की तरह आचरण करें, तो क्या यह इस कहावत के विरुद्ध नहीं होगा कि ‘जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है’? (हाँ।) यह इसके विरुद्ध कैसे होगा? ‘जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,’ इस कहावत का उद्देश्य यह है कि लोग अपने उज्ज्वल और आकर्षक पक्ष को जीने को महत्व दें और ऐसे काम अधिक करें जिनसे उनकी छवि निखरे—न कि वे बुरे या अपमानजनक काम करें या अपने स्वभाव के कुरूप पक्ष को उजागर करें—और ताकि वे आत्मसम्मान और गरिमा के साथ जीवन जी सकें। अपनी प्रतिष्ठा की खातिर, अपने गौरव और सम्मान की खातिर, व्यक्ति अपने आप को पूरी तरह तुच्छ नहीं ठहरा सकता, और दूसरों को अपने अंधेरे पक्ष और शर्मनाक पहलुओं के बारे में तो कतई नहीं बता सकता, क्योंकि व्यक्ति को आत्मसम्मान और गरिमा के साथ जीना चाहिए। गरिमावान होने के लिए अच्छी प्रतिष्ठा होना जरूरी है, और अच्छी प्रतिष्ठा पाने के लिए व्यक्ति को मुखौटा लगाना और अच्छे कपड़े पहनकर दिखाना होता है। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करने के विरुद्ध नहीं है? (हाँ।) जब तुम एक ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करते हो, तो तुम्हारा यह आचरण उस कहावत के एकदम विरोध में होता है, ‘जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है।’ अगर तुम ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करना चाहते हो, तो आत्मसम्मान को अहमियत मत दो; व्यक्ति के आत्मसम्मान की कीमत दो कौड़ी की भी नहीं है। सत्य से सामना होने पर, व्यक्ति को मुखौटा लगाने या झूठी छवि बनाए रखने के बजाय, खुद को उजागर कर देना चाहिए। व्यक्ति को अपने सच्चे विचारों, अपनी गलतियों, सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाले पहलुओं वगैरह को परमेश्वर के सामने प्रकट कर देना चाहिए, और अपने भाई-बहनों के सामने भी इनका खुलासा करना चाहिए। यह अपनी प्रतिष्ठा की खातिर जीने का मामला नहीं, बल्कि एक ईमानदार व्यक्ति की तरह आचरण करने, सत्य का अनुसरण करने, एक सच्चा सृजित प्राणी बनने और परमेश्वर को संतुष्ट करने और बचाए जाने की खातिर जीने का मामला है। लेकिन जब तुम इस सत्य और परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझते, तब तुम्हारे परिवार के शिक्षा के प्रभावों से उपजी बातें तुम पर हावी हो जाती हैं। इसलिए, जब तुम कुछ गलत करते हो, तो उस पर पर्दा डालकर यह सोचते हुए दिखावा करते हो, ‘मैं इस बारे में कुछ नहीं कहूँगा, और अगर कोई इस बारे में जानता है मैं उसे भी कुछ नहीं कहने दूँगा। अगर तुममें से किसी ने कुछ भी कहा, तो मैं तुम्हें आसानी से नहीं छोडूँगा। मेरी प्रतिष्ठा सबसे ज्यादा जरूरी है। जीने का मतलब तभी है जब हम अपनी प्रतिष्ठा की खातिर जिएँ, क्योंकि यह किसी भी चीज से ज्यादा जरूरी है। यदि कोई व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा खो देता है, तो वह अपनी सारी गरिमा खो देता है। तो तुम जैसी स्थिति है वैसी नहीं बता सकते, तुम्हें दिखावा करना होगा, चीजों को छुपाना होगा, वरना तुम अपनी प्रतिष्ठा और गरिमा खो बैठोगे, और तुम्हारा जीवन निरर्थक हो जाएगा। अगर कोई तुम्हारा सम्मान नहीं करता है, तो तुम एकदम बेकार हो, सिर्फ रास्ते का कचरा हो।’ क्या इस तरह अभ्यास करके ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करना मुमकिन है? क्या पूरी तरह खुलकर बोलना और अपना गहन-विश्लेषण करना मुमकिन है? (नहीं, मुमकिन नहीं है।) बेशक, ऐसा करके तुम इस कहावत का पालन कर रहे हो : ‘जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,’ जो तुम्हारे परिवार के शिक्षा के प्रभाव से तुम्हारे भीतर बैठा दी गई है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (12))। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के माध्यम से मुझे आखिरकार एहसास हुआ कि मैं “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है” जैसे शैतानी जहर के अनुसार जी रही थी। यह मेरे काम करने और आचरण का दिशानिर्देश बन गया था। बचपन से ही मेरे परिवार ने मुझे हमेशा सिखाया था, “इस जीवन में तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा पर ध्यान देने की जरूरत है ताकि दूसरे तुम्हारे बारे में ऊँचा सोचें और उन पर तुम्हारी अच्छी छाप पड़े। अगर तुम दूर-दूर तक बदनाम हो गई, तो तुम्हारे माता-पिता किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रहेंगे।” स्कूल शुरू करने के बाद शिक्षक अक्सर हमें सिखाते थे, “एक सार्थक जीवन जीने के लिए तुम्हें दूसरों की प्रशंसा हासिल करनी होगी।” इन भ्रांतिपूर्ण विचारों के प्रभाव में मैं जो कुछ भी करती थी, उसमें इस बात पर खास ध्यान देती थी कि दूसरे मुझे कैसे देखते हैं। परमेश्वर को पाने और कलीसिया में अपना कर्तव्य सँभालने के बाद मैं अब भी दूसरों की नजरों में अपनी छवि पर बहुत ध्यान देती थी और मैं हर दिन सावधानी से अपना कर्तव्य निभाती थी, इस चिंता में रहती थी कि अगर मैं एक पल के लिए भी चूक गई, तो मैं समस्याएँ पैदा कर दूँगी और अपने भाई-बहनों के दिलों में बनी अपनी अच्छी छवि को नुकसान पहुँचाऊँगी। छोटी सी भी समस्या होने पर मेरे हाथ-पाँव फूल जाते थे और मेरा दिल भयानक चिंता से भर जाता था। अपनी अच्छी छवि बचाए रखने के लिए मैंने पर्यवेक्षक के सामने अपनी गलतियाँ मानने की हिम्मत नहीं जुटा पाई, इसलिए मैंने चालबाजी और धोखे का सहारा लिया और नवागंतुकों की सभाओं की स्थिति के बारे में झूठी रिपोर्ट दी। इन शैतानी जहरों के अनुसार जीते हुए मैं सचमुच कुटिल और धोखेबाज बन गई और अपने आत्म-सम्मान और रुतबे को बनाए रखने के लिए मैंने इंसान होने के बुनियादी सिद्धांत गँवा दिए। मैंने कितना नीच और बेकार जीवन जिया! एक ईमानदार इंसान बनने की कोशिश में जब यह “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है” के शैतानी नियम से टकराया, तो मैंने खुद को सत्य का अभ्यास करने या सत्य के पक्ष में खड़े होने में असमर्थ पाया। अगर मैं इसी तरह चलती रहती तो मुझे कैसे बचाया जा सकता था? शैतानी जहरों के अनुसार जीने के गंभीर परिणामों का एहसास करके मुझे सत्य का अभ्यास न करने का गहरा अफसोस हुआ, इसलिए मैंने परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का मार्ग खोजा।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “ईमानदार होने के लिए तुम्हें पहले अपना दिल खोल कर रखना चाहिए ताकि सभी उसके भीतर झाँक सकें, तुम्हारी सोच और तुम्हारा असली चेहरा देख सकें। तुम्हें भेस बदलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, या खुद को छिपाना नहीं चाहिए। तभी दूसरे तुम पर भरोसा करेंगे, और तुम्हें ईमानदार व्यक्ति मानेंगे। यह सबसे बुनियादी अभ्यास है, और ईमानदार व्यक्ति बनने की पहली शर्त है। अगर तुम हमेशा दिखावा करते हो, हमेशा पवित्रता, कुलीनता, महानता और उच्च चरित्र का स्वांग करते हो; अगर तुम लोगों को अपनी भ्रष्टता और खामियाँ नहीं देखने देते; अगर तुम लोगों को अपनी नकली छवि दिखाते हो, ताकि वे तुम्हारी ईमानदारी पर यकीन करें, यह मानें कि तुम महान, आत्मत्यागी, न्यायप्रिय, और निस्वार्थ हो—तो क्या यह धोखेबाजी और झूठ नहीं है? क्या समय के साथ लोग तुम्हारी असलियत नहीं देख पाएँगे? तो लबादा मत ओढ़ो, खुद को मत छिपाओ। इसके बजाय दूसरों के देखने के लिए खुद को और अपने दिल को उजागर कर दो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास)। “कोई भी समस्या पैदा होने पर, चाहे वह कैसी भी हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें किसी भी तरीके से छद्म व्यवहार नहीं करना चाहिए या दूसरों के सामने नकली चेहरा नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारी कमियाँ हों, खामियाँ हों, गलतियाँ हों, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हों—तुम्हें उनके बारे में कुछ छिपाना नहीं चाहिए और उन सभी के बारे में संगति करनी चाहिए। उन्हें अपने अंदर न रखो। अपनी बात खुलकर कैसे रखें, यह सीखना जीवन प्रवेश करने की दिशा में सबसे पहला कदम है और यही वह पहली बाधा है जिसे पार करना सबसे मुश्किल है। एक बार तुमने इसे पार कर लिया तो सत्य में प्रवेश करना आसान हो जाता है। यह कदम उठाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम अपना हृदय खोल रहे हो और वह सब कुछ दिखा रहे हो जो तुम्हारे पास है, अच्छा या बुरा, सकारात्मक या नकारात्मक; दूसरों और परमेश्वर के देखने के लिए खुद को खोलना; परमेश्वर से कुछ न छिपाना, कुछ गुप्त न रखना, कोई स्वांग न करना, धोखे और चालबाजी से मुक्त रहना, और इसी तरह दूसरे लोगों के साथ खुला और ईमानदार रहना। इस तरह, तुम प्रकाश में रहते हो, और न सिर्फ परमेश्वर तुम्हारी जाँच करेगा बल्कि अन्य लोग यह देख पाएँगे कि तुम सिद्धांत से और एक हद तक पारदर्शिता से काम करते हो। तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा, छवि और हैसियत की रक्षा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, न ही तुम्हें अपनी गलतियाँ ढकने या छिपाने की आवश्यकता है। तुम्हें इन बेकार के प्रयासों में लगने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम इन चीजों को छोड़ पाओ, तो तुम बहुत आराम से रहोगे, तुम बिना बाधाओं या पीड़ा के जियोगे, और पूरी तरह से प्रकाश में जियोगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि धोखेबाज या कपटी होने से बचने के लिए मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार एक ईमानदार इंसान होने का अभ्यास करने की जरूरत है और मुझे अपना दिल खोलने और अपने भाई-बहनों के साथ संगति करने का अभ्यास करने की जरूरत है, ताकि मैं वह कह सकूँ जो सचमुच मेरे मन में है। भले ही मुझमें भ्रष्ट स्वभाव हों, मैं अपने कर्तव्य में गलतियाँ करूँ या मुझमें त्रुटियाँ या कमियाँ हों, मुझे खुद को खोलकर सबके सामने रखना सीखना चाहिए, ताकि मेरे भाई-बहन देख सकें कि उनकी तरह मुझमें भी कई भ्रष्ट स्वभाव हैं और मैं उनसे बेहतर नहीं हूँ। केवल खुले और स्पष्टवादी होने से ही मेरा दिल शांत और सहज महसूस कर सकता है। यह ध्यान में रखते हुए मैं अपनी दशा के बारे में अपने भाई-बहनों से खुलकर बात करना चाहती थी। लेकिन जब मैंने सत्य बोलने के बारे में सोचा, तो मैं बहुत व्याकुल हो गई। मुझे डर था कि पर्यवेक्षक मेरी काट-छाँट करेगा और मेरे भाई-बहन मुझे नीची नजरों से देखेंगे। इसलिए मैंने अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना की, परमेश्वर से कहा कि वह मुझे अपने वचनों के अनुसार अभ्यास करने और एक ईमानदार इंसान बनने के लिए मार्गदर्शन दे। प्रार्थना करने के बाद मैंने प्रेरित महसूस किया और मैंने पर्यवेक्षक को संदेश भेजने का साहस जुटाया, उसे बताया कि मैंने नवागंतुकों की सभाओं के बारे में रिपोर्ट करते समय सत्य नहीं कहा था। मेरा संदेश पढ़ने के बाद पर्यवेक्षक ने बस मुझसे पूछा कि मैंने ऐसा क्यों किया और ज्यादा कुछ नहीं कहा। बाद में एक सभा के दौरान मैंने एक ईमानदार इंसान होने के बारे में परमेश्वर के वचनों का सहारा लेते हुए अपने भाई-बहनों के साथ भी खुलकर संगति की। मैंने इस बारे में बात की कि मैंने अपनी गलतियों को छिपाने के लिए कैसे झूठ बोला और धोखा दिया, मैंने इस मामले पर अपने चिंतन और समझ को साझा किया, ताकि वे मेरे अनुभव को सचेतक की तरह ले सकें। साझा करने के बाद मेरे दिल से आखिरकार भारी बोझ उतर गया और मेरे दिल को तुरंत सुकून महसूस हुआ।

इस अनुभव के बाद मैं सोचने लगी, “ऐसा क्यों है कि जब दूसरे अपने कर्तव्यों में समस्याओं या विचलनों का सामना करते हैं, तो वे उनसे ठीक से निपट सकते हैं, लेकिन जब मैं समस्याओं का सामना करती हूँ, तो मेरा दिल परेशानियों से भर जाता है? मेरा दिल बेचैन क्यों रहता है? दूसरों की नजरों में एक अच्छी छवि की परवाह के अलावा और क्या समस्या हो सकती है?” एक दिन अपनी भक्ति के दौरान मुझे संयोग से एक अनुभवजन्य गवाही वीडियो की प्रतिलिपि मिली जिसका शीर्षक था अपनी गलतियाँ स्वीकारना इतना मुश्किल क्यों है? इसमें परमेश्वर के वचनों का एक अंश उद्धृत किया गया था जो मेरे लिए बहुत मददगार था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “एक साधारण और सामान्य इंसान बनने के लिए तुम्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? यह कैसे किया जा सकता है? ... पहली बात, खुद को यह कहते हुए कोई उपाधि देकर उससे बँधे मत रहो, ‘मैं अगुआ हूँ, मैं टीम का मुखिया हूँ, मैं निरीक्षक हूँ, इस काम को मुझसे बेहतर कोई नहीं जानता, मुझसे ज्यादा इन कौशलों को कोई नहीं समझता।’ अपनी स्व-प्रदत्त उपाधि के फेर में मत पड़ो। जैसे ही तुम ऐसा करते हो, वह तुम्हारे हाथ-पैर बाँध देगी, और तुम जो कहते और करते हो, वह प्रभावित होगा। तुम्हारी सामान्य सोच और निर्णय भी प्रभावित होंगे। तुम्हें इस रुतबे की बेबसी से खुद को आजाद करना होगा। पहली बात, खुद को इस आधिकारिक उपाधि और पद से नीचे ले आओ और एक आम इंसान की जगह खड़े हो जाओ। अगर तुम ऐसा करते हो, तो तुम्हारी मानसिकता कुछ हद तक सामान्य हो जाएगी। तुम्हें यह भी स्वीकार करना और कहना चाहिए, ‘मुझे नहीं पता कि यह कैसे करना है, और मुझे वह भी समझ नहीं आया—मुझे कुछ शोध और अध्ययन करना होगा,’ या ‘मैंने कभी इसका अनुभव नहीं किया है, इसलिए मुझे नहीं पता कि क्या करना है।’ जब तुम वास्तव में जो सोचते हो, उसे कहने और ईमानदारी से बोलने में सक्षम होते हो, तो तुम सामान्य विवेक से युक्त हो जाओगे। दूसरों को तुम्हारा वास्तविक स्वरूप पता चल जाएगा, और इस प्रकार वे तुम्हारे बारे में एक सामान्य दृष्टिकोण रखेंगे, और तुम्हें कोई दिखावा नहीं करना पड़ेगा, न ही तुम पर कोई बड़ा दबाव होगा, इसलिए तुम लोगों के साथ सामान्य रूप से संवाद कर पाओगे। इस तरह जीना निर्बाध और आसान है; जिसे भी जीवन थका देने वाला लगता है, उसने उसे ऐसा खुद बनाया है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के माध्यम से मैंने अपनी समस्याओं को स्पष्ट रूप से देखा। शुरुआत में जब मुझे टीम अगुआ का कर्तव्य दिया गया, तो मैंने खुद को सही स्थापित नहीं किया, और मैंने टीम अगुआ का पदनाम खुद पर लाद लिया। मैंने पाया कि मैं जो कुछ भी कहती या करती थी, वह इसी पदनाम से जुड़ा होता था। मैंने सोचा कि चूँकि मैं टीम अगुआ बन गई हूँ, तो मेरे पेशेवर कौशल और कार्य क्षमताएँ दूसरे भाई-बहनों से बेहतर होनी चाहिए, और मेरा सामान्य व्यवहार भी उनसे बेहतर होना चाहिए। ये भ्रांतिपूर्ण दृष्टिकोण अपना लेने के बाद मैं अपने कर्तव्य में खुद को गलतियाँ या विचलन नहीं करने देती थी क्योंकि मुझे डर था कि दूसरे मेरे बारे में बुरा सोचेंगे। मैं अपने कर्तव्य में इतना भारी बोझ ढो रही थी और इस तरह जीना बहुत थकाऊ और पीड़ादायक था। यह सब इसलिए था क्योंकि मैं सत्य को नहीं समझती थी और परमेश्वर के वचनों के अनुसार चीजों को नहीं देखती थी। असल में कलीसिया द्वारा मेरे लिए टीम अगुआ का कर्तव्य निभाने की व्यवस्था परमेश्वर का एक अनुग्रह था और अपनी त्रुटियाँ दूर करने के लिए प्रशिक्षण का एक अवसर था। हालाँकि मैं टीम की अगुआ थी, लेकिन कभी-कभी मेरे भाई-बहनों के सिंचन के नतीजे मुझसे भी बेहतर होते थे। लेकिन मैं फिर भी हमेशा सोचती थी कि टीम अगुआ के रूप में मुझे दूसरों से बेहतर होना चाहिए और मुझसे कोई गलती नहीं हो सकती। यह सचमुच घमंडी और विवेकहीन था! मैं सिर्फ एक भ्रष्ट इंसान हूँ, इसलिए विचलन होना या अपने कर्तव्य में भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करना सामान्य बात थी। मुझे इसे सही ढंग से लेना चाहिए और अपने भाई-बहनों के सामने खुद को खोलकर रखना चाहिए, मुझे अपने विचलनों और गलतियों से समस्याओं का सार निकालना चाहिए और विचार करना चाहिए। केवल तभी मैं अपना कर्तव्य बेहतर ढंग से निभा सकती थी।

कुछ दिन बाद पर्यवेक्षक ने मुझे एक संदेश भेजा। संदेश में कहा गया था कि एक नवागंतुक सभा में आया था, लेकिन मैंने रिपोर्ट दी थी कि वह नहीं आया था और उसने मुझसे नवागंतुकों की सभाओं का जायजा लेते समय अधिक सावधान रहने और अपनी रिपोर्टों की सावधानीपूर्वक जाँच करने को कहा। संदेश पढ़ने के बाद मेरा दिल धक से रह गया और मैंने सोचा, “मैंने रिपोर्ट की जाँच पहले ही कर ली थी, मैं ऐसी गलती कैसे कर सकती हूँ?” मैंने जल्दी से दस्तावेज खोला। उसी पल मुझे याद आया कि चूँकि मेरे पास करने के लिए अन्य जरूरी काम थे, मैंने केवल उस पर सरसरी नजर डाली थी और वास्तव में जानकारी की सावधानीपूर्वक जाँच नहीं की थी, नतीजतन मैंने नवागंतुक की सभा की स्थिति की रिपोर्ट करने में गलती कर दी थी। शाम की सभा के दौरान मैं अपनी गलती अपने भाई-बहनों के साथ साझा करना चाहती थी ताकि वे इससे सीख सकें। लेकिन मैं यह सोचकर दुविधा में पड़ गई, “अगर भाई-बहनों को पता चल गया कि मैंने एक और गलती की है, तो क्या वे सोचेंगे कि मैं अपने कर्तव्य में बस लापरवाही बरत रही हूँ? वे सोचेंगे कि इसे हाल ही में क्या हो गया है, जो ताज्जुब करेंगे कि यह लगातार गलतियाँ करती रहती है? वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे सोचेंगे कि मुझमें कोई गड़बड़ है?” एक पल के लिए मेरा दिल पूरी तरह से उलझन में था। उसी पल मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा में कुछ गड़बड़ है, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे सत्य का अभ्यास करने और एक ईमानदार इंसान बनने के लिए मेरा मार्गदर्शन करने को कहा। फिर मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “अगर तुम ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करना चाहते हो, तो आत्मसम्मान को अहमियत मत दो; व्यक्ति के आत्मसम्मान की कीमत दो कौड़ी की भी नहीं है। सत्य से सामना होने पर, व्यक्ति को मुखौटा लगाने या झूठी छवि बनाए रखने के बजाय, खुद को उजागर कर देना चाहिए। व्यक्ति को अपने सच्चे विचारों, अपनी गलतियों, सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाले पहलुओं वगैरह को परमेश्वर के सामने प्रकट कर देना चाहिए, और अपने भाई-बहनों के सामने भी इनका खुलासा करना चाहिए। यह अपनी प्रतिष्ठा की खातिर जीने का मामला नहीं, बल्कि एक ईमानदार व्यक्ति की तरह आचरण करने, सत्य का अनुसरण करने, एक सच्चा सृजित प्राणी बनने और परमेश्वर को संतुष्ट करने और बचाए जाने की खातिर जीने का मामला है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (12))। परमेश्वर के वचनों से मेरा मन अचानक साफ हो गया और मुझे सत्य का अभ्यास करने और एक ईमानदार इंसान बनने की प्रेरणा मिली। मैं अपने भाई-बहनों के सामने अपनी गलतियाँ मानना चाहती थी और हालाँकि ऐसा करने में थोड़ी शर्मिंदगी हो सकती थी, लेकिन मैं परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार एक ईमानदार इंसान होने का अभ्यास करती और मनुष्य के समान जीती, और आत्मिक तौर पर मुझे मुक्ति और आजादी महसूस होती। इसका एहसास होने पर मैंने अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना की और उससे अपने वचनों के अनुसार अभ्यास करने के लिए मेरा मार्गदर्शन करने को कहा, यह संकल्प लिया कि चाहे दूसरे मुझे कैसे भी देखें, मैं सिर्फ परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहती हूँ। शाम की सभा के दौरान मैंने अपने भाई-बहनों को अपनी लापरवाही के कारण अपने कर्तव्य में हुई गलतियों के बारे में बताया और उनसे मेरी जैसी बुनियादी गलतियाँ न करने का आग्रह किया। यह सब कहने के बाद मुझे सुकून और मुक्ति का एहसास हुआ।

इस अनुभव के माध्यम से आगे अपना कर्तव्य निभाते हुए मैं अब पहले की तरह इस बात की चिंता नहीं करती थी कि दूसरे मेरे बारे में क्या सोचते हैं और मैं अपनी गलतियों का अधिक शांति से सामना कर सकती थी। हर दिन मैं वह करने की पूरी कोशिश करती हूँ जो मुझे करना चाहिए और चीजों को गंभीरता से लेती हूँ, जब मेरे कर्तव्य में समस्याएँ आती हैं और अगर वे मेरे भ्रष्ट स्वभाव के कारण होती हैं, तो मैं विचार करने के लिए परमेश्वर के सामने आती हूँ और अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने के लिए सत्य खोजती हूँ। अगर गलती किसी खास वजह से होती है, तो मैं अपने कर्तव्य में हुई गलतियों का इस्तेमाल उस विचलन का सारांश बनाने और अगली बार उसे सुधारने के लिए करती हूँ। परमेश्वर के मार्गदर्शन के लिए उसका धन्यवाद! इस तरह अभ्यास करके मैंने सत्य का अभ्यास करने और एक ईमानदार इंसान बनने के आनंद का स्वाद चखा है।

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