2. कर्तव्य में फेरबदल के बाद मैंने सबक सीखे
2018 के अंत में, कलीसिया ने मुझे ग्राफिक डिजाइन के काम के लिए जिम्मेदार बनाया। जब भी मैं तस्वीरों की समीक्षा करती और भाई-बहनों को सुधार के सुझाव देती, तो वे धैर्य से सुनते थे और समय-समय पर लोग कहते थे, “मेरा सौंदर्य बोध सचमुच बहुत खराब है। मैं इन समस्याओं पर ध्यान भी नहीं दे पाती। अब जब तुमने बताया है, तो मुझे समझ आया।” कभी-कभी, अलग-अलग रायों के कारण गतिरोध पैदा हो जाता था, लेकिन जैसे ही मैं अपनी राय बताती, वे सब मुझसे सहमत हो जाते थे। यह सब देखकर, मुझे बहुत खुशी हुई, “लगता है मेरी काबिलियत काफी अच्छी है, नहीं तो, मैं इतना महत्वपूर्ण कर्तव्य कैसे कर रही होती? वरना भाई-बहन इस तरह मुझसे सहमत क्यों होते?” कभी-कभी खास कारणों से मैं काम की चर्चाओं में भाग नहीं ले पाती थी और टीम अगुआ सिर्फ इसलिए समय बदल देते थे ताकि मैं शामिल हो सकूँ। यह देखकर कि वे मुझे कितना महत्व देते हैं, मैं खुद से और भी ज्यादा खुश हो गई, सोचने लगी, “यह कर्तव्य सचमुच मुझे अच्छा दिखाता है। अगर मैं और अधिक अध्ययन करने और अपने कौशल को बेहतर बनाने के लिए कड़ी मेहनत करूँ, तो क्या मैं और भी ज्यादा भाई-बहनों की प्रशंसा नहीं पा सकूँगी?” उसके बाद, मैं अपने कर्तव्य करने के लिए और भी ज्यादा प्रेरित हो गई। भले ही कर्तव्य तनावपूर्ण था, लेकिन चाहे मुझे कितना भी कष्ट क्यों न हो या चीजें कितनी भी कठिन क्यों न हों, मैं कभी पीछे नहीं हटी।
2022 में, फिलीपींस में जैसे-जैसे अधिक नए विश्वासियों ने सच्चा मार्ग स्वीकार किया और अधिक सिंचनकर्ताओं की तत्काल आवश्यकता पड़ी और अगुआओं ने फैसला किया कि चूँकि कला टीम में काम का बोझ कम हो गया था, इसलिए दो पर्यवेक्षकों की कोई आवश्यकता नहीं थी, इसलिए उन्होंने मेरे लिए ऑनलाइन नए विश्वासियों को सींचने की व्यवस्था की। मैं जानती थी कि यह व्यवस्था उचित है, लेकिन मुझे कुछ चिंताएँ थीं, मैं सोचने लगी, “मैंने कई सालों से किसी नए विश्वासी को नहीं सींचा है। अगर सिंचन के अच्छे नतीजे नहीं मिले, तो क्या भाई-बहन अब भी मेरे बारे में ऊँचा सोचेंगे?” इन विचारों ने मुझे थोड़ा हताश कर दिया। लेकिन फिर मैंने मन ही मन सोचा, “मेरी काबिलियत इतनी खराब नहीं है। जब तक मैं सत्य से खुद को लैस करने के लिए और अधिक प्रयास करती हूँ, मुझे यकीन है कि मैं इस कर्तव्य में भी सबसे अलग दिख सकती हूँ।” यह सोचने के बाद, मुझे थोड़ा बेहतर महसूस हुआ। कुछ ही समय बाद, सिंचन कार्य के पर्यवेक्षक ने मुझसे मेरे काम के बारे में बात की, यह कहते हुए कि मैंने नए विश्वासियों की समस्याओं को समय पर नहीं पहचाना और उन्हें हल नहीं किया और मैं नए विश्वासियों के साथ संवाद करने और उनकी कठिनाइयों में उनकी सहायता करने में पीछे रह गई थी। फिर, पर्यवेक्षक ने मुझे कुछ प्रासंगिक सिद्धांत पढ़कर सुनाए और मुझे एहसास हुआ कि पर्यवेक्षक ने जिन समस्याओं के बारे में बताया था, वे सचमुच मौजूद थीं। पहले तो मैं इसे स्वीकार कर सकी, लेकिन जैसे-जैसे और अधिक समस्याएँ बताई गईं, मुझे अंदर से थोड़ी पीड़ा महसूस होने लगी। पर्यवेक्षक की संगति और मार्गदर्शन सुनते समय, मैं एक कला पर्यवेक्षक के रूप में अपने अतीत के बारे में सोचती रही। मैं हमेशा दूसरों के काम का मार्गदर्शन करती थी और उनके कर्तव्यों में समस्याएँ बताया करती थी और भाई-बहन हमेशा मेरे बारे में ऊँचा सोचते थे और मेरा समर्थन करते थे। लेकिन अब, मेरे कर्तव्य में मेरी इतनी सारी समस्याएँ उजागर हो गई थीं, मुझसे संगति करने और मेरा मार्गदर्शन करने के लिए मुझे दूसरों की भी जरूरत थी। मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई! यह जानने के बाद कि मेरे कर्तव्यों में कितनी समस्याएँ हैं, पर्यवेक्षक मेरे बारे में क्या सोचेगा? मेरे भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे सोचेंगे कि मेरी काबिलियत खराब है और मैंने अपने कर्तव्यों में अपना दिल नहीं लगाया? मुझे लगा कि मैं सचमुच अर्श से फर्श पर आ गई थी। लेकिन बाद में, मैंने अपनी दशा की जाँच नहीं की। इसके बजाय, मैंने बस खुद को यह सोचकर दिलासा दी, “यह तो बस एक अस्थायी विफलता है। जब तक मैं कड़ी मेहनत करने को तैयार हूँ, इन समस्याओं को हल किया जा सकता है।”
कुछ दिनों बाद, हमने एक साथ संगति की और पर्यवेक्षक ने मुझसे इस मुद्दे को हल करने के बारे में साझा करने के लिए कहा कि नए विश्वासी काम में बहुत व्यस्त होने के कारण सभाओं में शामिल नहीं हो पाते। मेरे बात पूरी होने के बाद, कुछ भाई-बहनों ने कहा कि मैंने नए विश्वासियों से उनकी कठिनाइयों के बारे में गंभीरता से नहीं पूछा था, यह नहीं पूछा था कि क्या उन्हें अपने जीवन में वास्तविक कठिनाइयाँ हो रही हैं या उनके दृष्टिकोण गलत हैं। कुछ ने कहा कि मैंने स्पष्ट पूछताछ किए बिना सीधे संगति शुरू कर दी थी, और इससे नए विश्वासियों की समस्याएँ वास्तव में हल नहीं होंगी। भाई-बहनों की सलाह सुनने के बाद, मुझे शर्म से अपना चेहरा जलता हुआ महसूस हुआ और मैं चाहती थी कि धरती फट जाए और मैं उसमें समा जाऊँ। मुझे लगा कि यह कर्तव्य वास्तव में शर्मनाक है। मैं पहले कला टीम के काम के लिए जिम्मेदार थी और भाई-बहन मेरे चारों ओर भीड़ लगाते थे, अक्सर मेरी प्रशंसा करते थे। लेकिन अब जब मैं नए विश्वासियों को सींच रही हूँ, तो मुझे लगातार सुधारा जा रहा है और मेरी आलोचना की जा रही है। यह सचमुच निराशाजनक है! मैंने अगुआ से बात करने और ग्राफिक डिजाइन में अपना पिछला कर्तव्य जारी रखने के लिए कहने के बारे में सोचा। मुझे लगा कि नए विश्वासियों को सींचना मेरा मजबूत पक्ष नहीं है और अगर मैंने यह कर्तव्य किया, तो मैं बस खुद को शर्मिंदा करती रहूँगी। अगर मैं अपने मूल कर्तव्य पर लौट सकती, तो मैं अपने भाई-बहनों की प्रशंसा और समर्थन का आनंद लेना जारी रख सकती थी। लेकिन मुझे यह भी चिंता थी कि अगर मैंने कर्तव्य में फेरबदल का अनुरोध किया, तो भाई-बहन सोचेंगे कि मैं बहुत नाजुक हूँ, यह कि कुछ समस्याएँ बताए जाने के बाद मैं कर्तव्य बदलना चाहती हूँ और इसलिए मेरा आध्यात्मिक कद वास्तव में छोटा है। इसलिए मैंने बस खुद को इसे सहने के लिए मजबूर किया। मैंने अपने दिल में खुद को दिलासा दी, यह सोचते हुए, “अगर मैं और अधिक प्रयास करूँ और अपने प्रशिक्षण में तेजी लाऊँ, तो शायद कुछ समय बाद चीजें बेहतर हो जाएँगी।”
बाद में, मैंने अपने कर्तव्य में और भी कड़ी मेहनत की, नए विश्वासियों की समस्याओं के आधार पर प्रतिदिन खुद को सत्य से लैस करती, कभी-कभी तो सुबह 3 बजे तक जागती रहती। मैं बस इस स्थिति को जल्द से जल्द बदलने के बारे में सोचती थी। लेकिन जब महीने के अंत में सारांश तैयार करने का समय आया, तो मेरे कर्तव्य के नतीजे अभी भी टीम में सबसे खराब थे। उस पल, मुझे लगा जैसे मेरी एकमात्र उम्मीद टूट गई है। उस रात, मैं बिस्तर पर करवटें बदलती रही, सो नहीं पाई। मेरा मन बार-बार एक कला पर्यवेक्षक के रूप में मेरे समय पर वापस जा रहा था, यह सोचते हुए कि वह कितना शानदार था। लेकिन अब, नए विश्वासियों को सींचने में, मैं टीम में सबसे नीचे आ गई थी। मुझे लगा कि मेरा यह कर्तव्य करना सचमुच शर्मनाक है! मैंने इस बारे में जितना अधिक सोचा, उतना ही अधिक दुखी महसूस किया और मैं खुद को रोने से नहीं रोक सकी। मैंने अगले दिन अपने कर्तव्यों को बदलने के बारे में अगुआ से बात करने पर विचार किया। लेकिन जब मैंने कर्तव्य बदलने के बारे में सोचा, तो मुझे अपने दिल में एक अवर्णनीय अपराध-बोध और व्यथा महसूस हुई। मैंने पहले परमेश्वर से प्रार्थना की थी, अपने कर्तव्य पर बने रहने का वादा किया था। अब, कर्तव्य बदलना—क्या यह अपना पद छोड़ना नहीं था? क्या मैं सचमुच इस तरह हार मानने वाली थी? लेकिन अगर मैं यह कर्तव्य करती रही, तो मुझे नहीं पता था कि मैं इसका सामना कैसे कर सकती हूँ। अपनी पीड़ा में, मैं बार-बार परमेश्वर से पुकार उठी, “परमेश्वर, मैं बहुत कमजोर महसूस कर रही हूँ, मुझे नहीं पता कि आगे कैसे बढ़ना है, कृपया मेरा मार्गदर्शन करो।” फिर मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया और मैंने उसे पढ़ने के लिए खोजा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “तुम जो कर्तव्य निभाते हो, अगर तुम उसमें कुशल हो और इसे पसंद करते हो, तो तुम्हें लगता है कि यह तुम्हारी जिम्मेदारी और दायित्व है, और इसे करना पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है। तुम हर्ष, उल्लास, और सहज महसूस करते हो। यह ऐसी चीज है जिसे करने के लिए तुम तैयार हो, और ऐसी चीज है जिसके प्रति तुम निष्ठावान हो सकते हो, और तुम्हें लगता है कि तुम परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हो। लेकिन जब एक दिन तुम्हें किसी ऐसे कर्तव्य का सामना करना पड़ता है जो तुम्हें पसंद नहीं है या जिसे तुमने पहले कभी नहीं किया है, तो क्या तुम उसके प्रति निष्ठावान हो पाओगे? इससे यह परीक्षा हो जाएगी कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो या नहीं। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा कर्तव्य भजन मंडलीमें है, और तुम्हें गाना आता है और इसमें तुम्हें आनंद भी आता है, तो तुम यह कर्तव्य निभाने के लिए तैयार रहोगे। यदि तुम्हें कोई अन्य कर्तव्य दिया जाए जिसमें तुम्हें सुसमाचार प्रचार के लिए कहा जाए और काम थोड़ा कठिन हो तो क्या तुम आज्ञा मान सकोगे? तुम इस पर विचार करते हो और कहते हो, ‘मुझे गाना पसंद है।’ इसका अर्थ क्या है? इसका मतलब है कि तुम सुसमाचार प्रचार करना नहीं चाहते। इसका साफ-साफ मतलब यही है। तुम बस यही कहते रहते हो कि ‘मुझे गाना पसंद है।’ यदि कोई अगुआ या कार्यकर्ता तुम्हें समझाने की कोशिश करता है, ‘तुम सुसमाचार प्रचार का प्रशिक्षण क्यों नहीं लेते और खुद को और अधिक सत्यों से सुसज्जित क्यों नहीं करते? यह जीवन में तुम्हारे विकास के लिए अधिक फायदेमंद होगा,’ तुम अभी भी अपनी ही बात पर अड़े हो और कहते हो ‘मुझे गाना पसंद है और मुझे नृत्य पसंद है।’ चाहे वे कुछ भी कहें, तुम सुसमाचार का प्रचार करने नहीं जाना चाहते। तुम जाना क्यों नहीं चाहते? (रुचि की कमी के कारण।) तुम्हारी रुचि नहीं है इसलिए तुम जाना नहीं चाहते—यहाँ समस्या क्या है? समस्या यह है कि तुम अपनी प्राथमिकताओं और व्यक्तिगत रुचि के अनुसार अपना कर्तव्य चुनते हो और समर्पण नहीं करते हो। तुममें समर्पण नहीं है, और यही समस्या है। यदि तुम इस समस्या को हल करने के लिए सत्य की खोज नहीं करते हो, तो तुम वास्तव में सच्चा समर्पण नहीं दिखा रहे हो। इस स्थिति में सच्चा समर्पण दिखाने के लिए तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम परमेश्वर के इरादे पूरे करने के लिए क्या कर सकते हो? यही वह समय है जब तुम्हें सत्य के इस पहलू पर चिंतन और संगति करने की आवश्यकता है। यदि तुम परमेश्वर के इरादे पूरे करने के लिए सभी चीजों में निष्ठावान होना चाहते हो, तो तुम इसे केवल एक कर्तव्य निभाकर नहीं कर सकते हो; तुम्हें परमेश्वर द्वारा दिए गए हर आदेश को स्वीकार करना चाहिए। चाहे वह तुम्हारी पसंद के अनुसार हो और तुम्हारी रुचियों से मेल खाता हो, या कुछ ऐसा हो जो तुम्हें पसंद नहीं है, पहले कभी नहीं किया हो, या कठिन हो, फिर भी तुम्हें इसे स्वीकार करना चाहिए और समर्पण करना चाहिए। तुम्हें न केवल इसे स्वीकार करना चाहिए, बल्कि तुम्हें सक्रिय रूप से सहयोग भी करना चाहिए, और अनुभव और प्रवेश करते समय इसके बारे में सीखना चाहिए। भले ही तुम्हें कष्ट झेलना पड़े, भले ही तुम थके-माँदे हो, अपमानित हो, या बहिष्कृत कर दिए गए हो, फिर भी तुम्हें इसे निष्ठा से करना चाहिए। केवल इस तरह से अभ्यास करके ही तुम सभी चीजों में निष्ठावान हो पाओगे और परमेश्वर के इरादे पूरे कर पाओगे। तुम्हें इसे अपना व्यक्तिगत कामकाज नहीं, बल्कि कर्तव्य मानना चाहिए जिसे निभाना ही है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से, मैं समझ गई कि कलीसिया मेरे लिए चाहे जो भी कर्तव्य करने की व्यवस्था करे, चाहे वह ऐसा कुछ हो जिसमें मैं अच्छी हूँ और जो मुझे सबसे अलग दिखाता है या ऐसा कुछ जिसमें मैं अच्छी नहीं हूँ और जिसमें मैं चमक नहीं सकती, यह सब परमेश्वर की संप्रभुता और विधान का हिस्सा है। मुझे हमेशा अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए, क्योंकि यही परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण है। जब मैं कला टीम के काम के लिए जिम्मेदार थी और भाई-बहन मेरा बहुत सम्मान करते थे, तो मेरे कर्तव्य के लिए मुझमें अंतहीन प्रेरणा थी, और चाहे मुझे कितना भी कष्ट क्यों न हो या चीजें कितनी भी कठिन क्यों न हों, मैंने कभी हार नहीं मानी। अब जब मुझे सिंचन का कर्तव्य करना पड़ा, तो मेरे कर्तव्य में कई समस्याएँ आईं, जिससे मेरी कई कमियाँ और खामियाँ उजागर हुईं, इसलिए भाई-बहन अब मेरा बहुत सम्मान नहीं करते या मेरी पूजा नहीं करते और इस वजह से मैं अक्सर व्यथित महसूस करती हूँ, भले ही कलीसिया के कार्य को इसी की जरूरत थी, मैंने कई बार अपना कर्तव्य छोड़ने के बारे में सोचा, हमेशा अपने मूल कर्तव्य पर वापस जाने और दूसरों का सम्मान पाने की इच्छा रखी। मुझमें परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण किस तरह से था?
अपनी भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “किसी भी व्यक्ति को स्वयं को पूर्ण, प्रतिष्ठित, कुलीन या दूसरों से भिन्न नहीं समझना चाहिए; यह सब मनुष्य के अभिमानी स्वभाव और अज्ञानता से उत्पन्न होता है। हमेशा अपने आप को दूसरों से अलग समझना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी भी अपनी कमियाँ स्वीकार न कर पाना और कभी भी अपनी भूलों और असफलताओं का सामना न कर पाना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी भी दूसरों को अपने से ऊँचा नहीं होने देना या अपने से बेहतर नहीं होने देना—ऐसा अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; दूसरों की खूबियों को कभी खुद से श्रेष्ठ या बेहतर न होने देना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी दूसरों को अपने से बेहतर विचार, सुझाव और दृष्टिकोण न रखने देना और दूसरे लोगों के बेहतर होने का पता चलने पर खुद नकारात्मक हो जाना, बोलने की इच्छा न रखना, व्यथित और निराश महसूस करना और परेशान हो जाना—ये सभी चीजें अभिमानी स्वभाव के ही कारण होती हैं। अभिमानी स्वभाव तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा के प्रति रक्षात्मक, दूसरों के सुधारों को स्वीकार करने में असमर्थ, अपनी कमियों का सामना करने तथा अपनी असफलताओं और गलतियों को स्वीकार करने में असमर्थ बना सकता है। इसके अतिरिक्त, जब कोई व्यक्ति तुमसे बेहतर होता है, तो यह तुम्हारे दिल में घृणा और जलन पैदा कर सकता है, और तुम स्वयं को बेबस महसूस कर सकते हो, कुछ इस तरह कि अब तुम अपना कर्तव्य निभाना नहीं चाहते और इसे निभाने में अनमने हो जाते हो। अभिमानी स्वभाव के कारण तुम्हारे अंदर ये व्यवहार और आदतें प्रकट हो जाती हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के स्व-आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए, मुझे सचमुच शर्मिंदगी महसूस हुई। इन वर्षों को पीछे मुड़कर देखती हूँ तो मैं कला के कार्य के लिए जिम्मेदार थी, मैंने कुछ अनुभव भी इकट्ठा कर लिया था और मैंने अपने कर्तव्यों में कुछ नतीजे देखे थे, इसलिए मैंने खुद को बहुत ऊँचा समझना शुरू कर दिया और अपने दिल में, मुझे लगा कि मैं आम लोगों से अलग हूँ। मुझे लगा कि मेरी काबिलियत दूसरों से बेहतर है, इसलिए मैं जहाँ भी जाती, मैं सबसे आगे रहना चाहती थी, ताकि दूसरे मेरे इर्द-गिर्द रहें और मेरे चारों ओर भीड़ लगाएँ और मुझे लगा कि दूसरों के सम्मान का आनंद उठाना मेरा अधिकार है। जब मैंने पहली बार नए विश्वासियों को सींचा, तो नतीजे दूसरों जितने अच्छे नहीं थे और पर्यवेक्षक अक्सर मेरी समस्याएँ बताया करते थे। यह वास्तव में एक बिल्कुल सामान्य बात थी और एक सचमुच विवेकशील व्यक्ति इसे सही ढंग से सँभाल पाता। वह न केवल इसे शांति से स्वीकार करता, बल्कि व्यावहारिक तरीके से अपनी कमियों को पूरा करने के लिए खुद को सत्य से लैस भी करता और अपने कर्तव्य के नतीजों में सुधार करता। लेकिन मुझमें अंतरात्मा और विवेक की पूरी तरह से कमी थी और जब पर्यवेक्षक और भाई-बहनों ने मेरे कर्तव्य में समस्याएँ बताईं, तो मैं उनका सामना करने को तैयार नहीं थी, अपनी कमियों को सारांशित करना तो दूर की बात थी और इसके बजाय, मैं अपने दिल में चुपके से प्रतिस्पर्धा करती थी, अपने प्रयासों से जल्दी नतीजे हासिल करना चाहती थी, ताकि भाई-बहन देख सकें कि मेरी काबिलियत अच्छी है। क्योंकि मेरा मार्ग और मेरे अनुसरण के पीछे के मेरे परिप्रेक्ष्य गलत थे, परमेश्वर ने मुझसे अपना चेहरा छिपा लिया था, मैंने लंबे समय तक अपने कर्तव्य में कोई प्रगति नहीं की और मेरे नतीजों में कोई सुधार नहीं हुआ। लेकिन मैंने न केवल आत्म-चिंतन नहीं किया, बल्कि मैं नकारात्मक हो गई, ढीली पड़ गई, अब नए विश्वासियों को सींचना नहीं चाहती थी और मैंने कर्तव्य बदलने के बारे में भी सोचा। मैं सचमुच घमंडी और दंभी थी और मुझमें सचमुच विवेक की कमी थी!
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “साधारण लोगों में ऐसी शक्ति और रुतबे की कमी हो सकती है, लेकिन वे भी चाहते हैं कि लोग उनके बारे में सकारात्मक दृष्टि रखें, उन्हें उच्च मूल्यांकन दें और अपने दिल में उन्हें ऊँचे स्थान पर रखें। यह भ्रष्ट स्वभाव होता है, और अगर लोग सत्य नहीं समझते, तो वे इसे पहचानने में असमर्थ रहते हैं। ... लोग उनके बारे में ऊँची राय रखें, इसके पीछे उनका मकसद क्या है? (ऐसे लोगों के मन में रुतबा पाना।) जब तुम्हें किसी और के मन में रुतबा मिलता है, तब वे तुम्हारे साथ होने पर तुम्हारे प्रति सम्मान दिखाते हैं, और तुमसे बात करते समय विशेष रूप से विनम्र रहते हैं। वे हमेशा तुम्हारा आदर करते हैं, वे हमेशा हर चीज पहले तुम्हें करने देते हैं, वे तुम्हें रास्ता देते हैं, तुम्हारी चापलूसी करते हैं और तुम्हारी बात मानते हैं। सभी चीजों में वे तुम्हारी राय चाहते हैं और तुम्हें निर्णय लेने देते हैं। और तुम्हें इससे आनंद की अनुभूति होती है—तुम्हें लगता है कि तुम किसी और से अधिक ताकतवर और बेहतर हो। यह एहसास हर किसी को पसंद आता है। यह किसी के दिल में अपना रुतबा होने का एहसास है; लोग इसका आनंद लेना चाहते हैं। यही कारण है कि लोग रुतबे के लिए होड़ करते हैं, और सभी चाहते हैं कि उन्हें दूसरों के दिलों में रुतबा मिले, दूसरे उनका सम्मान करें और उन्हें पूजें। यदि वे इससे ऐसा आनंद प्राप्त नहीं कर पाते, तो वे रुतबे के पीछे नहीं भागते। उदाहरण के लिए, यदि किसी के मन में तुम्हारा रुतबा नहीं है, तो वह तुम्हारे साथ समान स्तर पर जुड़ेगा, तुम्हें अपने बराबर मानेगा। वह जरूरत पड़ने पर तुम्हारी बात काटेगा, तुम्हारे प्रति विनम्र नहीं रहेगा या तुम्हें आदर नहीं देगा और तुम्हारी बात खत्म होने से पहले ही उठकर जा भी सकता है। क्या तुम्हें बुरा लगेगा? जब लोग तुम्हारे साथ ऐसा व्यवहार करते हैं तो तुम्हें अच्छा नहीं लगता; तुम्हें अच्छा तब लगता है जब वे तुम्हारी चापलूसी करते हैं, तुम्हारा आदर करते हैं और हर पल तुम्हें पूजते हैं। तुम्हें तब अच्छा लगता है जब तुम हर चीज के केंद्र में होते हो, हर चीज तुम्हारे इर्द-गिर्द घूमती है, हर कोई तुम्हारी बात सुनता है, तुम्हारा आदर करता है और तुम्हारे निर्देशों का पालन करता है। क्या यह एक राजा के रूप में शासन करने, सत्ता पाने की इच्छा नहीं है? तुम्हारी कथनी और करनी रुतबा चाहने और उसे पाने से प्रेरित होती है और इसके लिए तुम दूसरों से संघर्ष, छीना-झपटी और प्रतिस्पर्धा करते हो। तुम्हारा लक्ष्य एक पद हासिल करना, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को अपनी बात सुनाना, उनसे समर्थन पाना और अपनी आराधना करवाना है। एक बार जब तुम उस पद पर आसीन हो जाते हो, तो फिर तुम्हें सत्ता मिल जाती है और तुम रुतबे के फायदों, दूसरों की प्रशंसा और उस पद के साथ आने वाले अन्य सभी लाभों का मजा ले सकते हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के स्व-आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर के वचन मेरी दशा का वर्णन कर रहे थे। मैं हमेशा सिंचन के कर्तव्य का प्रतिरोध करती थी और अपने पिछले कर्तव्य के लिए तरसती थी। ऐसा इसलिए था क्योंकि मैं अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को बहुत अधिक महत्व देती थी और मैं रुतबे के फायदों का लालच करती थी। मैं अक्सर उस समय को याद करती थी जब मैं एक पर्यवेक्षक थी। उस समय, भाई-बहन मेरा बहुत सम्मान करते थे, जब उन्हें कठिनाइयाँ होती थीं तो वे अक्सर मुझसे सलाह माँगते थे और मैं दूसरों का मार्गदर्शन कर सकती थी। इसलिए मुझे ऐसा लगता था जैसे लोग मेरे चारों ओर भीड़ लगाते हैं, हर कोई मेरी प्रशंसा करता है और मेरी बात सुनता है। मुझे यह एहसास सचमुच बहुत पसंद था। लेकिन सिंचन कर्तव्य में स्थानांतरित होने के बाद, मैंने खुद को दूसरों की तुलना में हर तरह से कम पाया। अब कोई मेरी राय नहीं पूछता था और मुझे अक्सर दूसरों से सलाह मिलती थी। मैंने हीन और शर्मिंदा महसूस किया। अपने गौरव और रुतबे को बचाने के लिए, मैं देर रात तक काम करती, चुपके से प्रयास करती, इस उम्मीद में कि एक दिन मैं टीम में सबसे अलग दिख सकूँगी। लेकिन कुछ समय के प्रयास के बाद, मैंने देखा कि मेरे कर्तव्य के नतीजे अभी भी सबसे खराब थे और मुझे लगा कि इस कर्तव्य में मेरे लिए सबसे अलग दिखना मुश्किल है। मैंने अपने दिल में असहज और प्रतिरोधी महसूस किया और कई बार मैंने अगुआ से कर्तव्य में फेरबदल का अनुरोध करने पर विचार किया, क्योंकि मैं अपने मूल कर्तव्य पर वापस लौटना चाहती थी और रुतबे के फायदों का आनंद लेना जारी रखना चाहती थी। तभी मुझे एहसास हुआ कि मेरे कर्तव्य में मेरे इरादे परमेश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए नहीं थे, बल्कि अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए, दूसरों की प्रशंसा पाने के लिए थे, ताकि मैं दूसरों के दिलों में जगह बना सकूँ और ताकि दूसरे मेरे इर्द-गिर्द रहें। मैं जिस रास्ते पर चल रही थी, क्या वह ठीक एक मसीह-विरोधी का रास्ता नहीं था? पहले, मैंने सिंचन का कर्तव्य नहीं किया था और मैं दर्शनों के सत्य को ज्यादा नहीं समझती थी, लेकिन अब कलीसिया ने मेरे लिए यह कर्तव्य करने की व्यवस्था की थी, मुझे खुद को सत्य से लैस करने और अपनी कमियों को पूरा करने का अवसर दिया था। यह परमेश्वर का प्रेम था! लेकिन मैंने परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने के बारे में नहीं सोचा, भले ही मैं जानती थी कि चूँकि बहुत सारे नए विश्वासी थे, इसलिए और अधिक सिंचनकर्ताओं की जरूरत थी, मैं अपना सिंचन कर्तव्य छोड़ना चाहती थी। मैंने अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को प्रभावित होते देखने के बजाय काम को नुकसान होने देना पसंद किया और मैंने अपने कर्तव्य से ज्यादा अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को महत्व दिया। मैं सचमुच परमेश्वर के सामने जीने के लायक नहीं थी! उन दिनों, मैं अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करती थी, उससे मुझे अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागने की जड़ को समझने के लिए प्रबुद्ध करने को कहती थी।
एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “मनुष्य, जो ऐसी गंदी भूमि में जन्मा, समाज द्वारा गंभीर हद तक संक्रमित हो गया है, वह सामंती नैतिकता से अनुकूलित कर दिया गया है और उसने ‘उच्चतर शिक्षा संस्थानों’ की शिक्षा प्राप्त की है। पिछड़ी सोच, भ्रष्ट नैतिकता, अवमूल्यित जीवन दृष्टिकोण, सांसारिक आचरण के घृणित फलसफे, बिल्कुल मूल्यहीन अस्तित्व, नीच रिवाज और दैनिक जीवन—ये सभी चीजें मनुष्य के हृदय में गंभीर घुसपैठ करती रही हैं, उसकी अंतरात्मा को गंभीरता से नष्ट और उसकी अंतरात्मा पर गंभीर प्रहार करती रही हैं। फलस्वरूप, मनुष्य परमेश्वर से अधिक से अधिक दूर हो रहा है और परमेश्वर का अधिक से अधिक विरोधी हो गया है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है)। “शैतान मनुष्य को मजबूती से अपने नियंत्रण में रखने के लिए किसका उपयोग करता है? (प्रसिद्धि और लाभ का।) तो, शैतान मनुष्य के विचारों को नियंत्रित करने के लिए प्रसिद्धि और लाभ का उपयोग करता है ताकि लोग और कुछ नहीं बस इन दो ही चीजों के बारे में सोचें। वे प्रसिद्धि और लाभ के लिए संघर्ष करते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए कष्ट उठाते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए अपमान सहते और भारी बोझ उठाते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर देते हैं, और प्रसिद्धि और लाभ के लिए कोई भी फैसला या निर्णय ले लेते हैं। इस तरह शैतान लोगों पर अदृश्य बेड़ियाँ डाल देता है और इन बेड़ियों में बंधे रहकर, उनमें उन्हें तोड़ देने की न तो ताकत होती है, न साहस। वे अनजाने ही ये बेड़ियाँ ढोते रहते हैं और बड़ी ही कठिनाई से घिसटते हुए आगे बढ़ते हैं। इस प्रसिद्धि और लाभ की खातिर मानवजाति भटककर परमेश्वर से दूर हो जाती है, उसके साथ विश्वासघात करती है और अधिकाधिक दुष्ट होती जाती है। इस तरह, एक के बाद एक पीढ़ी शैतान की प्रसिद्धि और लाभ के बीच नष्ट होती जाती है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। परमेश्वर के वचनों से, मैं समझ गई कि मैं लगातार प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे इसलिए भाग रही थी क्योंकि मैं शैतान के जहर से नियंत्रित थी। बचपन से ही, मेरे माता-पिता और शिक्षकों ने मुझे सिखाया कि “सबसे महान इंसान बनने के लिए व्यक्ति को सबसे बड़ी कठिनाइयाँ सहनी होंगी,” “छोटी पोखर में बड़ी मछली बनना बेहतर है,” और “लोगों को हमेशा अपने समकालीनों से बेहतर होने का प्रयत्न करना चाहिए।” मैंने इन शैतानी फलसफों और नियमों को खुद के आचरण के लिए मापदंड बना लिया था। मेरा मानना था कि केवल प्रतिष्ठा और रुतबा पाकर और दूसरों द्वारा प्रशंसा और पूजा किए जाने से ही कोई सम्मान और मूल्य के साथ जी सकता है और अगर कोई आम इंसान है जिसकी कोई प्रशंसा या पूजा नहीं करता, तो उसका जीवन गरिमाहीन, दयनीय और अर्थहीन है। मैंने अपने स्कूल के दिनों के बारे में सोचा। जिन विषयों में मैं उत्कृष्ट थी, जिनमें मेरा स्थान ऊँचा रहता था, जिनमें मेरे शिक्षक और सहपाठी मेरा आदर करते थे, मैं उन विषयों में प्रयास करने और कड़ी मेहनत से पढ़ाई करने को तैयार थी। लेकिन जब उन विषयों की बात आई जिनमें मैं अच्छी नहीं थी और कोई मेरी प्रशंसा नहीं करता था, तो मैं अध्ययन में प्रयास करने को तैयार नहीं थी। मैं जो कुछ भी करती थी, वह इस बात पर आधारित होता था कि इससे मेरे गौरव और रुतबे को फायदा होगा या नहीं। परमेश्वर को पाने के बाद भी, मैं इसी दृष्टिकोण पर कायम रही। जब मैंने कला टीम के पर्यवेक्षक के रूप में अपना कर्तव्य किया, क्योंकि मेरे पास ग्राफिक डिजाइन के कुछ बुनियादी कौशल थे और मैं भाई-बहनों को उनके कर्तव्यों में मार्गदर्शन कर सकती थी, वे सभी मेरी प्रशंसा करते थे और मैं सचमुच इस एहसास का आनंद उठाती थी। मैं अपने कर्तव्य में प्रेरणा से भरी थी, चाहे मुझे कितना भी कष्ट क्यों न हो और चीजें कितनी भी कठिन क्यों न हों, मैं कभी पीछे नहीं हटी। लेकिन नए विश्वासियों को सींचने का कर्तव्य शुरू करने के बाद, मेरी कई समस्याएँ और कमियाँ उजागर हो गईं और मेरे भाई-बहनों ने अब मेरी प्रशंसा नहीं की, इसके बजाय वे मेरी समस्याएँ बताते रहे। मेरे कर्तव्य के नतीजे टीम में सबसे खराब हो गए और इस भारी गिरावट ने मुझे शर्मिंदा महसूस कराया, मेरे दिल को पीड़ा और व्यथा से भर दिया। मैंने अपना कर्तव्य करने की प्रेरणा खो दी और मैंने इसे छोड़ने पर भी विचार किया। मैंने प्रतिष्ठा और रुतबे को जीवन जितना ही महत्वपूर्ण माना और मैं उन्हें खोने के बारे में लगातार चिंतित रहती थी, जैसे कि प्रशंसा के बिना जीना अर्थहीन होगा। मैं सचमुच शैतान द्वारा बहुत गहराई से भ्रष्ट की जा चुकी थी! परमेश्वर ने मुझ पर अनुग्रह किया था, मुझे अपना कर्तव्य करने का अवसर दिया, इस उम्मीद में कि मैं अपने कर्तव्य में स्वभावगत बदलाव का अनुसरण करूँगी और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करूँगी, मैं समस्याओं को हल करने के लिए सत्य खोजने और सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य करने में सक्षम होऊँगी। लेकिन मैं लगातार प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागती रही और बहुत लंबे समय तक नए विश्वासियों को सींचने के बाद भी मैं अभी भी यह नहीं जानती थी कि उनकी समस्याओं और कठिनाइयों को हल करने के लिए सत्य की संगति कैसे की जाए और मैं दर्शनों के सत्य पर स्पष्ट रूप से संगति भी नहीं कर सकती थी। अगर मैं अपनी गलतियों पर अड़ी रही, लगातार प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागती रही, तो मैं न केवल अपना कर्तव्य पूरा करने में असफल होऊँगी, बल्कि मैं कोई भी सत्य प्राप्त करने में भी असफल होऊँगी और मैं अंततः बचाए जाने का अपना मौका बर्बाद कर दूँगी। मैंने लेस्टर नाम के एक बुरे व्यक्ति के बारे में सोचा जिसे मैं कभी जानती थी, जो पूरे दिल से प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागता था। क्योंकि वह एक अगुआ या कार्यकर्ता नहीं बन सका, उसने शिकायत की और प्रतिरोध किया, वह अपना कर्तव्य ठीक से करने में असफल रहा। वह अक्सर भाई-बहनों के सामने अगुआओं और कार्यकर्ताओं की आलोचना करता था और कलीसिया में गुट बनाने की कोशिश करता था, जिससे कलीसियाई जीवन में गंभीर गड़बड़ी और बाधाएँ पैदा होती थीं। भाई-बहनों द्वारा बार-बार संगति और मदद की पेशकश के बावजूद, उसने कभी खुद को नहीं बदला और अंततः, उसे कलीसिया से बाहर निकाल दिया गया। भले ही मैंने उसके जैसे बुरे कर्म नहीं किए, मैं अभी भी उसी की तरह थी, पूरे दिल से प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भाग रही थी, अगर मैं पश्चात्ताप नहीं करती, तो अंततः मुझे भी परमेश्वर द्वारा एक बुरे व्यक्ति की तरह बेनकाब करके हटा दिया जाता! अतीत में, मुझे लगता था कि दूसरों की प्रशंसा पाने के पीछे भागना आकांक्षा और महत्वाकांक्षा को दर्शाता है, इसका मतलब है कि व्यक्ति आगे बढ़ने के लिए उत्सुक है और ऐसा अनुसरण सकारात्मक है, लेकिन अब मुझे एहसास हुआ कि प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागना सही मार्ग नहीं है। प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागने से मैं बहुत नाजुक हो गई और छोटी से छोटी विफलता या झटके को भी सहन करने में असमर्थ हो गई। इसने मुझे परमेश्वर से और दूर कर दिया, परमेश्वर से विश्वासघात करवाया, मैंने अंतरात्मा और विवेक की भावना को खो दिया, अंततः परमेश्वर मुझे ठुकरा देता और हटा देता। शुक्र है, परमेश्वर के वचनों ने मुझे जगा दिया, तब से मैंने फैसला किया कि मैं अब प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए नहीं जी सकती और मुझे अपने जीने का तरीका बदलना होगा।
कुछ दिनों बाद, पर्यवेक्षक ने फिलीपींस के नए विश्वासियों का एक अभिवादन वीडियो चलाया। कई नए विश्वासियों ने चीन के भाई-बहनों के प्रति आभार व्यक्त किया और उन्होंने फिलीपींस में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के राज्य के सुसमाचार का प्रचार करने के लिए भाई-बहनों को धन्यवाद दिया। कई नए विश्वासियों ने सुसमाचार का प्रचार करने के लिए कड़ी मेहनत करने और अपने कर्तव्यों में वफादार रहने का संकल्प लिया था। खासकर जब मैंने एक नए विश्वासी को यह कहते हुए सुना कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन उसके जीवन में प्रकाश थे, तो मैं बहुत प्रभावित हुई और खुद को रोने से नहीं रोक सकी। मैंने सोचा कि कैसे अभी भी कितने लोग उद्धारकर्ता की वापसी के लिए तरस रहे हैं, प्रकाश खोजना चाहते हैं, परमेश्वर को खोजना चाहते हैं, लेकिन विभिन्न कारणों से, वे परमेश्वर के सामने नहीं आए हैं। मेरे लिए नए विश्वासियों को सींचने का कर्तव्य कर पाना, अधिक लोगों को परमेश्वर के सामने लाना और सच्चे मार्ग पर नींव रखने में उनकी मदद करना कितना बड़ा सम्मान था! लेकिन क्योंकि यह कर्तव्य मेरा मजबूत पक्ष नहीं था और इसने मुझे सबसे अलग दिखने का मौका नहीं दिया, मैं बस इससे बचना चाहती थी। मुझमें कोई मानवता किस तरह से थी? मैं परमेश्वर के प्रेम का आनंद लेने के लिए पूरी तरह से अयोग्य थी! मैंने सोचा कि कैसे इनमें से कुछ नए विश्वासियों ने केवल एक साल या कुछ महीनों के लिए परमेश्वर में विश्वास किया था। उन्हें सुसमाचार का प्रचार करने में इतनी सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन उनके दिल शुद्ध थे और उन्होंने चाहे कुछ भी हो, अपने कर्तव्यों को छोड़ने से इनकार कर दिया। मैंने तो दस साल तक परमेश्वर में विश्वास रखा था और मैंने परमेश्वर से बहुत कुछ प्राप्त किया था, लेकिन मैं अभी भी परमेश्वर के इरादों पर विचार करने में असमर्थ थी। मैं सचमुच इंसान कहलाने के लायक नहीं थी! उस पल, पछतावे और अपराध-बोध ने मुझे अभिभूत कर दिया। अपने दिल में, मैंने परमेश्वर से कहा, “परमेश्वर, मैं बहुत विद्रोही रही हूँ! अब से, मैं तेरे आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने को तैयार हूँ, चाहे दूसरे मुझे कैसे भी देखें, मैं पूरे दिल से अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करने को तैयार हूँ।” उस क्षण से, जब पर्यवेक्षक और भाई-बहनों ने मेरी समस्याएँ बताईं, तो मुझे पहले की तरह इतना व्यथित महसूस नहीं हुआ, न ही मैं भागना चाहती थी। इसके बजाय, मैं इन बातों को अपने दिल से स्वीकार करने और मानने में सक्षम थी, बाद में मैं अपनी कमियों को दूर करने के लिए खुद को सत्य और सिद्धांतों से लैस करने में सक्षम थी। कुछ समय बाद, मेरे द्वारा सींचे गए अधिक से अधिक नए विश्वासी नियमित रूप से सभाओं में शामिल होने में सक्षम हो गए और कुछ ने तो सक्रिय रूप से सुसमाचार का प्रचार करना भी शुरू कर दिया, वे और भी अधिक लोगों को परमेश्वर के सामने लेकर आए। पर्यवेक्षक ने यह भी कहा कि मैंने बहुत प्रगति की है। मैं परमेश्वर के मार्गदर्शन के लिए सच्चे दिल से आभारी थी।
2024 में, कार्य की जरूरतों के अनुसार, कलीसिया ने मुझे कला टीम में लौटने के लिए कहा। टीम अगुआ ने मुझे तस्वीरें बनाते समय वीडियो बनाना सीखने के लिए कहा। चूँकि मैंने पहले कभी वीडियो नहीं बनाए थे, इसलिए मेरी वीडियो बनाने की गति बहुत धीमी थी। जितने समय में दूसरे तीन वीडियो बनाते थे, मैं केवल एक ही बना पाती थी। मैंने इसे करना सीखने के लिए एक महीने से अधिक समय तक कड़ी मेहनत की, लेकिन मेरी गति अभी भी दूसरे भाई-बहनों के बराबर नहीं हो सकी और अंतिम संपादन में कलात्मकता की कमी थी और वे आवश्यक मानकों को पूरा नहीं करते थे। टीम अगुआ ने मुझे दूसरे भाई-बहनों द्वारा बनाए गए वीडियो दिखाए और मुझे उनसे सीखने का आग्रह किया। मुझे सचमुच बहुत व्यथा हुई। मैंने इतनी मेहनत की थी, लेकिन मैं अभी भी इस कर्तव्य में सबसे नीचे थी। मुझे लगा कि इस तरह से खुद को शर्मिंदा करने के बजाय, अगुआ से बात करना और अपने सिंचन कर्तव्य पर लौटने के लिए कहना बेहतर होगा। मैं एक साल से अधिक समय से सिंचन टीम में थी और धीरे-धीरे, मैं इससे परिचित हो रही थी। मुझे लगा कि अगर मैं सिंचन कर्तव्य पर लौट सकूँ, तो इतनी शर्मिंदगी नहीं उठानी होगी। उस पल, मुझे अचानक एहसास हुआ कि मेरी दशा गलत थी। मैं इस तरह कैसे सोच सकती थी? मेरे पास ग्राफिक डिजाइन में कुछ बुनियादी कौशल थे, इसलिए जब तक मैं व्यावहारिक तरीके से अध्ययन करती, मैं धीरे-धीरे इसे समझ सकती थी। अगर मैं इस समय अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर कला टीम छोड़ देती, तो क्या मैं अपना कर्तव्य नहीं छोड़ रही होती? इसमें, मैं सचमुच परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर रही होती!
बाद में, मैंने अपनी दशा को ठीक करने के लिए सत्य की खोज की। अपनी भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “चूँकि तुम परमेश्वर के घर में एक सदस्य के रूप में संतोषपूर्वक रहना चाहते हो, इसलिए तुम्हें सबसे पहले सभी चीजों में सत्य खोजना सीखना चाहिए, अपनी योग्यता के अनुसार भरसक अच्छे से अपने कर्तव्य निभाने चाहिए और सत्य को समझने और इसका अभ्यास करने में सक्षम होना चाहिए—इस तरीके से परमेश्वर के घर के अंदर तुम नाम और वास्तविकता दोनों में एक सृजित प्राणी होओगे। मनुष्यजाति की पहचान सृजित प्राणियों की पहचान है; परमेश्वर की नजरों में लोग यही हैं। तो तुम एक सृजित प्राणी के रूप में मानक स्तर के कैसे हो सकते हो? इसके लिए तुम्हें परमेश्वर के वचन सुनना अवश्य सीखना चाहिए और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार आचरण करना चाहिए। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर तुम्हें एक बार यह उपाधि दे देता है तो मामले की इतिश्री हो जाती है; बल्कि चूँकि तुम एक सृजित प्राणी हो, इसलिए तुम्हें एक सृजित प्राणी के कर्तव्य अच्छे से निभाने चाहिए और चूँकि तुम एक सृजित प्राणी हो, इसलिए तुम्हें एक सृजित प्राणी की जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए। तो एक सृजित प्राणी के कर्तव्य और जिम्मेदारियाँ क्या हैं? परमेश्वर का वचन सृजित प्राणियों के कर्तव्यों, दायित्वों और जिम्मेदारियों को स्पष्ट रूप से बताता है, है न? तुमने एक सृजित प्राणी का कर्तव्य स्वीकार किया है। तो फिर आज से तुम परमेश्वर के घर के वास्तविक सदस्य हो; इसका मतलब है कि तुम खुद को परमेश्वर के सृजित किए प्राणियों में से एक के रूप में स्वीकारते हो। आज से तुम्हें अपने जीवन की योजनाओं को फिर से तैयार करना चाहिए—तुम्हें उन आकांक्षाओं, इच्छाओं और लक्ष्यों का अनुसरण नहीं करना चाहिए जो तुमने अपने जीवन के लिए पहले निर्धारित किए थे। इसके बजाय, तुम्हें अपनी पहचान और परिप्रेक्ष्य बदलना चाहिए और उन जीवन लक्ष्यों और दिशा की योजना बनानी चाहिए जो एक सृजित प्राणी के पास होने चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हारे लक्ष्य और दिशा एक अगुआ बनना या किसी उद्योग में अगुआई करना या उत्कृष्टता प्राप्त करना या ऐसा प्रसिद्ध व्यक्ति बनना नहीं होना चाहिए जो किसी अमुक काम में जुटा हो या जिसे किसी विशेष पेशेवर कौशल में महारत हासिल हो। इसके बजाय तुम्हें अपना कर्तव्य परमेश्वर से स्वीकार करना चाहिए, यानी यह जानना चाहिए कि इस समय तुम्हें क्या कार्य करना चाहिए और कौन-सा कर्तव्य निभाने की जरूरत है। तुम्हें अवश्य ही परमेश्वर के इरादे खोजने चाहिए। परमेश्वर तुमसे जो भी करने की अपेक्षा करे और उसके घर में तुम्हारे लिए जिस भी कर्तव्य की व्यवस्था की गई हो, तुम्हें उस कर्तव्य को अच्छे से निभाने के लिए जिन सत्यों को समझना चाहिए और जिन सिद्धांतों का अनुसरण करना और जिन सिद्धांतों में सिद्धहस्त होना चाहिए उनका पता लगाना चाहिए और उनके बारे में स्पष्ट होना चाहिए। यदि तुम उन्हें याद नहीं रख सकते तो तुम उन्हें लिख सकते हो और जब तुम्हारे पास समय हो, तुम उन्हें और अधिक देख सकते हो और उन पर और अधिक चिंतन कर सकते हो। परमेश्वर के सृजित प्राणियों में से एक के रूप में तुम्हारा प्राथमिक जीवन लक्ष्य एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना और एक मानक-स्तरीय सृजित प्राणी बनना होना चाहिए। यह वह सबसे मौलिक जीवन लक्ष्य है जो तुम्हारे पास होना चाहिए। दूसरा और अधिक विशिष्ट लक्ष्य यह होना चाहिए कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य कैसे अच्छे से निभाएँ और एक मानक-स्तरीय सृजित प्राणी कैसे बनें—यह सबसे महत्वपूर्ण है। जहाँ तक प्रतिष्ठा, रुतबे, मिथ्याभिमान और व्यक्तिगत संभावनाओं से जुड़ी दिशा या लक्ष्यों की बात है—वो सारी चीजें जिनका अनुसरण भ्रष्ट मानवता करती है—ये वो चीजें हैं जो तुम्हें त्याग देनी चाहिए” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (7))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिया और अनुसरण करने के लिए सही लक्ष्य खोजने में मेरी मदद की। पहले, जब मैं सिंचन का कर्तव्य कर रही थी, तो यह परमेश्वर की अनुमति और संप्रभुता के अधीन था और अब, कला टीम में लौटना और यह कर्तव्य करना भी परमेश्वर का आयोजन और व्यवस्था थी और यह परमेश्वर के घर के कार्य की जरूरतों के लिए था। परमेश्वर इस बात को महत्व नहीं देता कि मेरी उपलब्धियाँ कितनी महान हैं या कितने लोग मेरी प्रशंसा और पूजा करते हैं। इसके बजाय, परमेश्वर जिसे महत्व देता है वह है मेरा दिल, मेरे कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया, क्या मैं सचमुच मेहनती और जिम्मेदार हूँ, क्या मैं सचमुच वफादारी से अपना कर्तव्य करती हूँ और क्या मैं उसके प्रति समर्पण करती हूँ। मैं केवल वही करने की कोशिश नहीं कर सकती जिसमें मैं अच्छी हूँ, न ही मैं दूसरों की प्रशंसा पाने के लिए जी सकती हूँ। मुझे एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करने, परमेश्वर की इच्छा पूरी करने और उसके प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए जीना चाहिए। मुझे अपने कर्तव्य के प्रति अपना रवैया सुधारना चाहिए। इस समय, मेरे वीडियो उत्पादन की गुणवत्ता और दक्षता दूसरों जितनी अच्छी नहीं है, इसलिए मुझे अपने विचलनों और समस्याओं पर और अधिक गौर करना चाहिए, अपनी कमियों को पूरा करने के लिए सीखने पर और अधिक ध्यान केंद्रित करना चाहिए और व्यावहारिक तरीके से अपना वर्तमान कर्तव्य पूरा करना चाहिए। यही परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होगा। इन बातों का एहसास होने पर, मैंने अब अपने वर्तमान कर्तव्य से बचने के बारे में नहीं सोचा। इसके बजाय, मैंने व्यावहारिक तरीके से तकनीक सीखने पर ध्यान केंद्रित किया और जब मुझे कुछ समझ नहीं आता, तो मैं सक्रिय रूप से अपने भाई-बहनों से मदद माँगती। पता ही नहीं चला और आधा साल बीत गया, मैं धीरे-धीरे अपने कर्तव्य के लिए आवश्यक तकनीकी कौशल से परिचित हो गई और मेरे कर्तव्य के नतीजे पहले से कहीं बेहतर हो गए।
इस यात्रा पर पीछे मुड़कर देखती हूँ तो भले ही मैंने अलग-अलग कर्तव्यों में फेरबदल के मामले में बहुत भ्रष्टता प्रकट की, मैंने अलग-अलग कर्तव्य करके अपनी कई कमियों को पूरा किया। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि मैं अपने अनुसरण के पीछे के अपने गलत परिप्रेक्ष्यों को स्पष्ट रूप से देख पाई। अगर परमेश्वर ने मेरे भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट करने के लिए परिस्थितियाँ व्यवस्थित न की होतीं, तो मैं अभी भी प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भाग रही होती और मैं अभी भी नहीं जान पाती कि अपने कर्तव्य से सही ढंग से कैसे पेश आया जाए। अब, मैं समझती हूँ कि अनुसरण करने के लिए सबसे मूल्यवान क्या है और परमेश्वर के प्रति कैसे समर्पण करना है और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे पूरा करना है, मुझे यह भी महसूस होता है कि परमेश्वर जो परिस्थितियाँ व्यवस्थित करता है, वे सब मुझे बचाने के लिए हैं। परमेश्वर का धन्यवाद!