धर्म में आस्था रखने या धार्मिक समारोह में शामिल होने मात्र से किसी को नहीं बचाया जा सकता
तुममें से अधिकांश लोग धर्म से पीछा छुड़ाकर परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार चुके हैं। तुम हर रोज परमेश्वर के वर्तमान वचनों को खाते और पीते हो, मेमने की विवाह की दावत में शामिल होते हो, और सच्चे मार्ग में अपनी एक नींव डाल चुके हो। तुम परमेश्वर के लिए खुद को ईमानदारी से खपाते हो और उसकी स्वीकृति पा चुके हो। तो अब, परमेश्वर में आस्था की अवधारणा को लेकर तुम लोगों के पास क्या ज्ञान और अनुभूति है? यह धर्म के दायरे में रहते हुए परमेश्वर में आस्था की तुम लोगों की समझ से कितनी अलग है? क्या अब तुम लोग सचमुच समझ गए हो कि धर्म में विश्वास और परमेश्वर में आस्था का क्या अर्थ है? क्या धर्म में विश्वास और परमेश्वर में आस्था में कोई अंतर है? यह अंतर कहाँ है? क्या तुम इन सवालों की जड़ तक पहुँच गए हो? धर्म में विश्वास करने वाले आम तौर पर कैसे लोग होते हैं? उनके ध्यान का केंद्र क्या होता है? धर्म में विश्वास को कैसे परिभाषित किया जा सकता है? धर्म में विश्वास करना यह स्वीकार करना है कि एक परमेश्वर है, और धर्म में विश्वास करने वाले अपने व्यवहार में कुछ बदलाव करते हैं : वे लोगों को मारते-पीटते या उनके साथ गाली-गलौज नहीं करते, वे लोगों को नुकसान पहुँचाने वाले बुरे काम नहीं करते, और वे विभिन्न अपराध नहीं करते या कानून नहीं तोड़ते। रविवार को, वे कलीसिया में जाते हैं। ये धर्म में विश्वास करने वाले लोग होते हैं। इसका मतलब है कि अच्छा व्यवहार करना और अक्सर सभा में भाग लेना इस बात का प्रमाण है कि इंसान धर्म में विश्वास करता है। जब कोई धर्म में विश्वास करता है, तो वह स्वीकार करता है कि एक परमेश्वर है, और उसे लगता है कि परमेश्वर में विश्वास करना एक अच्छा इंसान होना है; अगर वह पाप या बुरे काम नहीं करता, तो मरने के बाद वह स्वर्ग में जा सकेगा, उसका एक अच्छा परिणाम होगा। उसकी आस्था उसे आध्यात्मिक स्तर पर पोषण देती है। इसलिए, धर्म में विश्वास को इस तरह भी परिभाषित किया जा सकता है : धर्म में विश्वास करना, अपने दिल में यह स्वीकार करना है कि एक परमेश्वर है, और यह विश्वास करना है कि मरने के बाद तुम स्वर्ग में जा सकोगे, इसका मतलब है दिल में एक आध्यात्मिक संबल होना, अपने व्यवहार को थोड़ा बदलना, और एक अच्छा व्यक्ति होना। बस इतना ही। जहां तक इस बात का संबंध है कि वे जिस परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वह मौजूद है या नहीं, क्या वह सत्य व्यक्त कर सकता है, वह उनसे क्या माँगता है—उन्हें कुछ भी नहीं पता होता। वे बाइबल की शिक्षा के आधार पर यह सब अनुमान लगाते हैं और कल्पना करते हैं। यह धर्म में विश्वास है। धर्म में विश्वास मुख्य रूप से व्यवहारगत परिवर्तन और आध्यात्मिक पोषण की खोज है। लेकिन जिस मार्ग पर ये लोग चलते हैं—आशीषों के पीछे दौड़ने का मार्ग—वह नहीं बदला है। परमेश्वर में आस्था के बारे में उनके गलत विचारों, धारणाओं और कल्पनाओं में कोई बदलाव नहीं आया है। उनके अस्तित्व की नींव और अपने जीवन में वे जिन लक्ष्यों और दिशा का अनुसरण करते हैं, वे परंपरागत संस्कृति के विचारों और मतों पर आधारित हैं और बिल्कुल नहीं बदले हैं। धर्म में विश्वास करने वाले हर व्यक्ति की यही अवस्था होती है। तो परमेश्वर में आस्था क्या है? परमेश्वर में आस्था की परमेश्वर की परिभाषा क्या है? (परमेश्वर की संप्रभुता पर विश्वास।) यह परमेश्वर के अस्तित्व और उसकी संप्रभुता में विश्वास होना—यह सबसे बुनियादी है। परमेश्वर में विश्वास करना परमेश्वर के वचनों का पालन करना, उनके अनुसार जीना, अपना कर्तव्य निभाना और सामान्य मानवता की सभी गतिविधियों में संलग्न होना है। निहितार्थ यह है कि परमेश्वर में विश्वास करना परमेश्वर का अनुसरण करना है, वह करना है जो परमेश्वर कहता है, उस तरह जीना है जिस तरह परमेश्वर कहता है; परमेश्वर में विश्वास करना परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करना है। क्या परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोगों के जीवन के लक्ष्य और दिशा धर्म में विश्वास करने वाले लोगों से बिल्कुल अलग नहीं हैं? परमेश्वर में आस्था में क्या शामिल है? इसमें यह शामिल है कि लोग परमेश्वर के वचनों को सुनने, सत्य को स्वीकारने, भ्रष्ट स्वभाव त्यागने, परमेश्वर के अनुसरण के लिए सब कुछ त्यागने और अपने कर्तव्यों में समर्पित होने में सक्षम हैं कि नहीं। इन चीजों का इस बात से सीधा संबंध है कि उन्हें बचाया जा सकता है या नहीं। अब तुम परमेश्वर में आस्था की परिभाषा जानते हो; तो फिर, परमेश्वर में आस्था का अभ्यास कैसे किया जाना चाहिए? परमेश्वर अपने विश्वासियों से क्या अपेक्षा रखता है? (कि वे ईमानदार लोग हों, और वे सत्य का अनुसरण करें, अपने स्वभाव में बदलाव के लिए प्रयास करें, और परमेश्वर का ज्ञान अर्जित करने का प्रयत्न करें।) लोगों के बाहरी व्यवहार के लिए परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ हैं? (वह अपेक्षा करता है कि लोग धर्मनिष्ठ हों, स्वच्छंद न हों, और वे सामान्य मानवता के साथ जीवन जिएं।) लोगों में एक संत जैसा बुनियादी शिष्टाचार होना चाहिए और उन्हें सामान्य मानवता का जीवन जीना चाहिए। तो फिर, सामान्य मानवता के लिए मनुष्य के पास क्या होना चाहिए? इसका संबंध उन बहुत-से सत्यों से है जिनका एक विश्वासी के रूप में अभ्यास किया जाना चाहिए। ये सभी सत्य वास्तविकताएं रखने वाला ही सामान्य मानवता रख सकता है। अगर कोई सत्य का अभ्यास नहीं करता तो क्या वह परमेश्वर में विश्वास रखता है? सत्य का अभ्यास न करने के क्या परिणाम होते हैं? लोगों को उद्धार प्राप्त करने के लिए और परमेश्वर के प्रति समर्पण और उसकी आराधना के लिए, परमेश्वर में किस तरह विश्वास करना चाहिए? इन सब चीजों का संबंध परमेश्वर के वचनों और बहुत-से सत्यों के अभ्यास से है। इसलिए, मनुष्य को परमेश्वर के वचनों और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार उसमें विश्वास करना चाहिए, और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करना चाहिए; सिर्फ यही परमेश्वर में सच्ची आस्था रखना है। इस मामले का यही मूल है। सत्य का अभ्यास करना, परमेश्वर के वचनों का अनुसरण करना, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना : यही मानव-जीवन का सही मार्ग है; परमेश्वर में आस्था मानव-जीवन के मार्ग से संबंधित है। परमेश्वर में आस्था बहुत सारे सत्यों से संबंधित है, और परमेश्वर के अनुयायियों को ये सत्य समझने चाहिए। अगर वे सत्य को नहीं समझते और उसे स्वीकार नहीं करते, तो वे परमेश्वर का अनुसरण कैसे कर सकते हैं? जो लोग धर्म में विश्वास करते हैं, वे यह स्वीकार करते हैं कि एक परमेश्वर है, और यह भरोसा करते हैं कि एक परमेश्वर है—लेकिन वे इन सत्यों को नहीं समझते, न ही वे इन्हें स्वीकार करते हैं, इसलिए जो लोग धर्म में विश्वास करते हैं, वे परमेश्वर के अनुयायी नहीं हैं। धर्म में विश्वास करने के लिए महज बाहरी तौर पर अच्छा आचरण करना, खुद को संयमित रखना, विनियमों का पालन करना, और आध्यात्मिक पोषण होना भर काफी है। अगर लोग अच्छा आचरण करते हैं और अपनी आत्मा के लिए उनके पास एक संबल और पोषण है, तो क्या उनके जीवन का मार्ग बदल जाता है? (नहीं।) कुछ लोग कहते हैं कि धर्म में विश्वास करना और परमेश्वर में आस्था रखना एक ही बात है। तो क्या ये लोग परमेश्वर का अनुसरण करते हैं? क्या वे परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप उसमें विश्वास करते हैं? क्या उन्होंने सत्य को स्वीकार किया है? अगर कोई इनमें से कुछ भी नहीं करता तो वह परमेश्वर में विश्वास रखने वाला या उसका अनुसरण करने वाला नहीं है। किसी व्यक्ति में धर्म में विश्वास अभिव्यक्त होने का सबसे स्पष्ट तरीका यह है कि उसमें परमेश्वर के वर्तमान कार्य और उसके द्वारा व्यक्त सत्य को स्वीकार करने की कमी होती है। यह वह गुण है जो धर्म में विश्वास रखने वालों का निरूपण करता है; वे परमेश्वर के अनुयायी कतई नहीं हैं। धर्म में विश्वास केवल व्यवहारगत बदलाव और आध्यात्मिक पोषण का अनुसरण है; इसका किसी सत्य से कोई संबंध नहीं है। इसलिए धर्म में विश्वास रखने वालों के जीवन स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आएगा; न तो वे सत्य का अभ्यास करेंगे, न ही परमेश्वर के वचनों को सुनने और उसके प्रति समर्पण करने में सक्षम होंगे। इससे यह तय हो जाता है कि उन्हें परमेश्वर का कोई सच्चा ज्ञान भी प्राप्त नहीं होगा। जब कोई व्यक्ति धर्म में विश्वास करता है, तो उसका व्यवहार कितना ही अच्छा क्यों न हो, परमेश्वर के लिए उसकी स्वीकृति कितनी ही ठोस क्यों न हो, और परमेश्वर में उसकी आस्था का सिद्धांत कितना ही उन्नत क्यों न हो, वह परमेश्वर का अनुयायी नहीं हो सकता। तो फिर वे किसका अनुसरण करते हैं? वे अभी भी शैतान का अनुसरण करते हैं। वे अपने जीवन में जो जीते हैं, जो अनुसरण और कामनाएँ रखते हैं, और जो अभ्यास करते हैं, उनका आधार क्या होता है? उनका अस्तित्व किस चीज पर निर्भर होता है? ये निश्चित ही परमेश्वर के वचनों में निहित सत्य नहीं होते। वे शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के साथ जीते रहते हैं, और शैतान के तर्क और फलसफे के अनुसार आचरण करते और संसार से व्यवहार करते हैं। वे जो कुछ भी कहते हैं वह कोरा झूठ होता है, जिसमें लेशमात्र भी सत्य नहीं होता। उनके शैतानी स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आता और वे बस शैतान का ही अनुसरण करते रहते हैं। जीवन, मूल्यों, दुनिया के साथ व्यवहार के तौर-तरीकों को लेकर उनका नजरिया और उनके आचरण के सिद्धांत शैतान की प्रकृति के खुलासे ही हैं। सिर्फ उनके बाहरी व्यवहार में थोड़ा बदलाव आता है, पर उनके जीवन पथ, जीने के तरीके, और चीजों को लेकर उनके नजरिए में कोई बदलाव नहीं आता। अगर कोई परमेश्वर में सच्चा विश्वास रखता है, तो कुछ ही वर्षों में उसमें क्या बदलाव आ सकता है? (जीवन और मूल्यों को लेकर उसका नजरिया बदल जाएगा।) उस व्यक्ति के अस्तित्व की आधारशिला ही बदल जाएगी। अगर उसके जीवन की आधारशिला ही बदल जाती है तो उसके जीवन की बुनियाद क्या होगी? (उसका जीवन परमेश्वर के वचनों और सत्य पर आधारित होगा।) तो, क्या तुम लोग अब अपनी कथनी और करनी में हर रोज परमेश्वर के वचनों के अनुसार जी रहे हो? उदाहरण के लिए, तुम अब झूठ नहीं बोलते : ऐसा क्यों है? इसके पीछे तुम्हारा आधार क्या है? (परमेश्वर की यह अपेक्षा कि तुम्हें एक ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए।) जब तुम झूठ बोलना और छल करना छोड़ देते हो, तो यह परमेश्वर के वचनों पर, एक ईमानदार व्यक्ति होने की अपेक्षा पर, और सत्य पर आधारित होता है। तो क्या तब तुम जीवन में जिस रास्ते पर चल रहे होते हो वह एक अलग रास्ता नहीं होता?
अब सार-संक्षेप में कहा जाए तो : धर्म में विश्वास क्या है? परमेश्वर में आस्था क्या है? दोनों में मुख्य अंतर क्या हैं? धर्म में विश्वास करना धर्म में दृढ़ विश्वास रखना, इसके विनियमों का पालन करना, दूसरे लोगों और शैतान का अनुसरण करना, और शैतान की सत्ता में रहना है। परमेश्वर में आस्था रखना उसके वचनों को स्वीकार करना, सत्य को स्वीकार करना, परमेश्वर के कार्य के आगे समर्पण करना, और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाना है। परमेश्वर का अनुसरण करने का यही अर्थ है। धर्म में विश्वास और परमेश्वर में आस्था के बीच यही मुख्य अंतर हैं। जब तुम लोग परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हो, तो तुममें से कुछ लोग सत्य को स्वीकार कर थोड़े बदल जाते हैं, जबकि अन्य लोग सत्य को स्वीकार नहीं करते और बदल नहीं पाते। तो, क्या तुम लोग इन दो तरह के लोगों में अंतर कर सकते हो, वे जो धर्म में विश्वास करते हैं, और वे जो परमेश्वर में आस्था रखते हैं? मूल पहचान यह है कि क्या व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है, और वह कौनसा रास्ता चुनता है। अगर तुम अच्छे व्यवहार, आध्यात्मिक पोषण और विनियमों के पालन के चक्कर में रहते हो, और निजी लाभ की धुन में रहते हो, और सत्य का जरा भी अनुसरण किए बिना सिर्फ थोड़े अच्छे व्यवहार जैसे सदाचार के ऊपरी लक्षणों पर ही ध्यान देते हो, और सत्य वास्तविकता पर नहीं—तो ऐसा व्यक्ति सचमुच कितना अच्छा इंसान हो सकता है? ऐसे व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभाव और प्रकृति सार में जरा भी बदलाव नहीं आया है। हो सकता है वे बड़ा मीठा बोलते हों, पर जब परीक्षणों से सामना होता है तो वे अडिग नहीं रह पाते। वे परमेश्वर की शिकायत और उसके साथ विश्वासघात तक कर सकते हैं। ये लोग धर्म में विश्वास करने वाले होते हैं। परमेश्वर में आस्था रखने वाले लोग उसके द्वारा व्यक्त सभी सत्यों को स्वीकार सकते हैं। वे आत्म-चिंतन करके सत्य के अनुसार खुद को जान सकते हैं, सच्चा पश्चात्ताप कर सकते हैं और आखिर में सत्य का अभ्यास कर सकते हैं, परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हैं और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जी सकते हैं। परीक्षणों और क्लेशों का सामना होने पर वे अडिग खड़े रह सकते हैं, शानदार गवाही दे सकते हैं, और आखिर तक परमेश्वर का अनुसरण करते हुए निष्ठावान रह सकते हैं। ये परमेश्वर में सच्चा विश्वास रखने वाले लोग होते हैं। धर्म में विश्वास करने वालों और परमेश्वर में आस्था रखने वालों में यही अंतर होता है।
क्या तुम लोगों में कोई ऐसा है जो अपने दिल में केवल स्वर्ग का अज्ञात परमेश्वर मानता है, पर देहधारी परमेश्वर को लेकर हमेशा धारणाओं में घिरा रहता है? अगर सचमुच ऐसे लोग हैं तो वे धर्म में विश्वास रखने वाले लोग हैं। धर्म में विश्वास रखने वाले अपने दिलों में देहधारी परमेश्वर को स्वीकार नहीं करते, और अगर करते भी हैं तो वे परमेश्वर को लेकर हमेशा धारणाओं में घिरे रहते हैं, और उसके सम्मुख कभी भी समर्पण नहीं कर पाते। क्या ऐसा ही नहीं है? दो टूक कहा जाए, तो ऐसे लोग परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते। भले ही वे परमेश्वर में विश्वास करने का दावा करते हों, पर हकीकत में वे धर्म में विश्वास करने वालों से ज्यादा अलग नहीं होते। अपने दिलों में, वे सिर्फ अज्ञात परमेश्वर में विश्वास रखते हैं; वे धार्मिक धारणाओं और विनियमों के अनुसार चलने वाले लोग होते हैं। इसलिए, जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, जो केवल अच्छे व्यवहार और विनियमों के अनुपालन पर ही ध्यान देते हैं, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं, और जिनके स्वभाव में ज़रा-सा भी परिवर्तन नहीं आता है, वे सब धर्म में विश्वास करते हैं। धर्म में विश्वास करने वालों में क्या विशिष्टता होती है? (वे केवल बाहरी आचरण और अच्छा व्यवहार करते हुए दिखने की परवाह करते हैं।) उनके कृत्यों के सिद्धांत और आधार क्या होते हैं? (सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफों के अनुसार जीना।) सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफे और शैतानी भ्रष्ट स्वभाव क्या होते हैं? चालबाजी और धूर्तता; खुद को ही कानून मानना; अहंकार और दंभ; हर मामले में हमेशा अपनी चलाना, कभी सत्य की खोज न करना और न ही कभी भाई-बहनों के साथ संगति करना; कोई भी कदम उठाते समय, हमेशा अपने स्वार्थ, स्वाभिमान, और प्रतिष्ठा के बारे में सोचना—यह सब शैतानी स्वभाव के अनुसार चलना है। यह शैतान का अनुसरण करना है। यदि कोई परमेश्वर में विश्वास तो करता है लेकिन उसके वचनों का पालन नहीं करता, सत्य को स्वीकार नहीं करता, या उसकी व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पण नहीं करता; यदि वह केवल कुछ अच्छे व्यवहारों का प्रदर्शन करता है, लेकिन देह के खिलाफ विद्रोह करने में असमर्थ है, और अपने अभिमान या स्वार्थ को बिल्कुल भी नहीं त्यागता है; यदि, दिखावे भर के लिए वह अपना कर्तव्य तो निभाता है, पर फिर भी अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार ही जीता है, और उसने शैतान के फलसफे और जीने के तौर-तरीकों को जरा-भी नहीं छोड़ा या बदला है, तो वह परमेश्वर में कैसे विश्वास कर सकता है? यह धर्म में विश्वास रखना है। इस तरह के लोग सतही रूप से चीजों को त्यागते हैं और अपने आपको खपाते हैं, लेकिन जिस मार्ग पर वे चलते हैं और जो कुछ वे करते हैं, उसका उद्भव और प्रारंभिक बिंदु परमेश्वर के वचनों या सत्य पर आधारित नहीं होते; इसके बजाय, वे निरंतर अपनी ही धारणाओं, कल्पनाओं, और व्यक्तिपरक मान्यताओं के अनुसार, और अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के अनुसार कार्य करते रहते हैं। शैतान के फलसफे और स्वभाव अभी भी उनके अस्तित्व और कृत्यों के आधार बने रहते हैं। उन मामलों में जिनका सत्य वे नहीं समझते, वे उसकी तलाश भी नहीं करते; उन मामलों में जिनकी सच्चाई वे समझते हैं, वे उसका अभ्यास नहीं करते, न तो वे परमेश्वर को महान मानकर उसका सम्मान करते हैं, न ही सत्य को सँजोते हैं। भले ही वे नाम के लिए और कहने के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उसे स्वीकारते हैं, और भले ही वे अपना कर्तव्य निभाते हुए और परमेश्वर का अनुसरण करते हुए भी दिख सकते हैं, पर वे अपनी कथनी और करनी में अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार ही जीते हैं। वे जो कहते और करते हैं उसमें भ्रष्ट स्वभाव के खुलासे ही होते हैं। तुम उन्हें परमेश्वर के वचनों का अभ्यास या अनुभव करते नहीं देखते, सभी चीजों में सत्य की खोज करना और उसके प्रति समर्पित होना तो दूर की बात है। अपने कृत्यों में, वे पहले अपना हित देखते हैं, और पहले अपनी इच्छाएँ और इरादे पूरे करते हैं। क्या ये लोग परमेश्वर का अनुसरण करने वाले लोग हैं? (नहीं।) क्या जो लोग परमेश्वर का अनुसरण नहीं करते, वे अपने स्वभाव में बदलाव ला सकते हैं? (नहीं।) और अगर वे अपने स्वभाव में बदलाव नहीं ला सकते, तो क्या वे दयनीय नहीं हैं? उन्होंने परमेश्वर के वचन सुन और समझ रखे होते हैं, पर जब वे कुछ करते हैं तो उनकी अपनी इच्छाएँ बहुत प्रबल हो जाती हैं; वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार और सत्य के अनुसार अभ्यास करने में सक्षम नहीं हो पाते, सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना तो दूर की बात है। परमेश्वर में बरसों विश्वास करने के बाद, वे ज्यादा आज्ञाकारी और शिष्ट प्रतीत होने लगते हैं। उनका आचरण काफी अच्छा होता है, और उनका आध्यात्मिक जीवन काफी सामान्य प्रतीत होता है। दूसरों के साथ घुलने-मिलने में उन्हें कोई बड़ी समस्या नहीं आती, और वे अपने कुछ कर्तव्य भी थोड़े-बहुत असरदार तरीके से निभा लेते हैं—पर उनके साथ एक समस्या होती है, और यह सबसे गंभीर समस्या है। यह समस्या कहाँ होती है? उनके मन में। उन्होंने कितने ही बरस परमेश्वर में विश्वास क्यों न किया हो, वे परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध नहीं बना पाते; वे चाहे कुछ भी करें या उनके साथ कुछ भी घटे, वे सबसे पहले यह सोचते हैं : “मैं क्या करना चाहता हूँ? मेरे हित में क्या होगा और क्या नहीं होगा? अगर मैंने फलाँ-फलाँ चीज की तो क्या होसकता है?” ये वे चीजें हैं जो वे सबसे पहले सोचते हैं। वे इस पर कोई विचार नहीं करते कि किस तरह का अभ्यास परमेश्वर को महिमा देने और उसकी गवाही देने का काम करेगा, या परमेश्वर के इरादों को पूरा करेगा; न ही वे यह खोजने के लिए प्रार्थना करते हैं कि परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं और उसके वचन क्या कहते हैं। वे कभी भी परमेश्वर के इरादे या अपेक्षाएँ जानने पर या परमेश्वर को संतुष्ट करने वाला अभ्यास का तरीका जानने पर ध्यान नहीं देते। भले ही वे कभी-कभी परमेश्वर के सम्मुख प्रार्थना करें और उसके साथ संगति करें, पर वे मात्र खुद से बात कर रहे होते हैं, न कि ईमानदारी से सत्य की खोज करते हैं। जब वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और उसके वचन पढ़ते हैं, तो वे इन्हें अपने वास्तविक जीवन के मामलों से जोड़कर नहीं देखते। तो, परमेश्वर द्वारा खड़े किए गए परिवेश में वे उसकी संप्रभुता, व्यवस्थाओं और आयोजनों को किस तरह लेते हैं? जब वे ऐसी चीजों का सामना करते हैं जो उनकी अपनी इच्छाओं को संतुष्ट नहीं करतीं, तो वे उनसे बचते हैं और दिल-ही दिल में उनका प्रतिरोध करते हैं। जब वे ऐसी चीजों का सामना करते हैं जो उनके हितों को नुकसान पहुँचाती हैं या उनके हितों को संतुष्ट नहीं करतीं, तो वे बचकर निकलने का हर साधन अपनाते हैं, और खुद को ज्यादा से ज्यादा फायदा पहुँचाते हैं और किसी भी तरह का नुकसान न झेलने के लिए पूरा जोर लगा देते हैं। वे परमेश्वर के इरादों को पूरा करने के बजाय अपनी ही इच्छाओं की तृप्ति में लगे रहते हैं। क्या यह परमेश्वर में आस्था रखना हुआ? क्या ऐसे लोगों का परमेश्वर के साथ कोई नाता होता है? नहीं, नहीं होता। वे एक नीच, कुत्सित, अड़ियल और कुरूप तरीके से जीते हैं। न सिर्फ उनका परमेश्वर के साथ कोई नाता नहीं होता है, बल्कि वे हर मौके पर परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के खिलाफ जाते हैं। वे अक्सर कहते हैं, “परमेश्वर मेरी जिंदगी की हर चीज पर संप्रभुता रखे और नियंत्रण करे। मैं परमेश्वर को सिंहासन पर बिठाने और उसे अपने दिल पर राज और हुकूमत करने देने के लिए तैयार हूँ। मैं परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों के आगे समर्पण के लिए तैयार हूँ।” हालाँकि, जब वे ऐसी चीजों का सामना करते हैं जो उनके हितों को नुकसान पहुँचा सकती हैं, तो वे समर्पण नहीं कर पाते। परमेश्वर द्वारा खड़े किए गए परिवेश में सत्य खोजने के बजाय वे उस परिवेश को पलटने और उससे दूर होने की कोशिश करते हैं। वे परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों के आगे समर्पण करना नहीं चाहते, बल्कि अपनी ही इच्छा के अनुसार चलना चाहते हैं, बस उनके हितों पर कोई आंच नहीं आनी चाहिए। वे परमेश्वर के इरादों को पूरी तरह नजरअंदाज देते हैं, और सिर्फ खुद के हितों और खुद के हालात के बारे में और अपनी मनोदशा और भावनाओं के बारे में सोचते हैं। क्या यह परमेश्वर में विश्वास रखना हुआ? (नहीं।) उनके दिलों में, परमेश्वर उनके लिए क्या है? क्या वह एक तरह की किंवदंती नहीं है? क्या वह एक तरह का आध्यात्मिक पोषण नहीं है? उनके लिए परमेश्वर एक बाहर का व्यक्ति और अजनबी है। जब सब कुछ ठीक-ठाक होता है, तो परमेश्वर उनका संप्रभु, उनका सब कुछ होता है। लेकिन अगर परमेश्वर जो कुछ करता है वह उनके लिए लाभदायक नहीं होता, या उनके हितों या उनके मान को नुकसान पहुंचाता है, उनकी काट-छाँट का कारण बनता है, या उन्हें परीक्षणों और कष्टों में धकेल देता है, तो उनकी क्या प्रतिक्रिया होती है? वे दूर भागेंगे, प्रतिरोध करेंगे, इनकार करेंगे, और शिकायत तक करेंगे। कुछ लोग शायद मुंह से यह सब न कहें, पर अपने दिलों में वे पीड़ा, बेचैनी और नकारात्मकता महसूस करेंगे। नकारात्मक होने का क्या अर्थ होता है? इसका अर्थ है कि वे अपने दिलों में सत्य को स्वीकार नहीं करते और परमेश्वर के खिलाफ हमेशा प्रतिरोधी और विद्रोही रुख अपनाए रहते हैं। कुछ लोग यह सोचकर कि परमेश्वर का ऐसा करना सही नहीं है, परीक्षणों और शोधन को स्वीकार नहीं करते। जब वे बड़े लाल अजगर द्वारा गिरफ्तारी और उत्पीड़न से जुड़े किसी कष्ट का सामना करते हैं, तो कुछ लोग शिकायत करते हैं कि परमेश्वर ने उनके साथ न्याय नहीं किया। तुम ऐसी मानसिकता के बारे में क्या सोचते हो? परमेश्वर द्वारा किसी कष्ट में डाले जाने से अगर वे खुलेआम उसकी शिकायत करने लगते हैं, तो क्या वह तब भी वही परमेश्वर हो सकता है जिसमें वे विश्वास करते हैं? अगर वे समर्पण नहीं कर पाते हैं, तो वह उनका परमेश्वर नहीं होता, इसलिए वे उसका प्रतिरोध करने का दुस्साहस करने लगते हैं। वे चाहते हैं कि काश उसके अलावा कोई दूसरा परमेश्वर होता, और सोचते हैं, “मैं जो कुछ भी सोचता और करता हूं, अगर वह बिल्कुल मेरी प्राथमिकताओं के अनुसार उन्हें साकार कर देता—तभी वह परमेश्वर होगा; सिर्फ वही उसकी व्यवस्था और उसका आयोजन होगा। अगर परमेश्वर मेरी इच्छा के हिसाब से नहीं चलता और हमेशा मेरी पसंद और कल्पनाओं के उलट काम करता रहता है, तो मैं उसके प्रति समर्पण नहीं कर सकता और वह मेरा परमेश्वर नहीं हो सकता। अगर वह परमेश्वर है तो उसे लोगों को संतुष्ट करना चाहिए। क्योंकि लोग परमेश्वर की आंखों के तारे हैं, इसलिए उसे उनकी रक्षा के लिए सब कुछ करना चाहिए, और उन्हें सहेजकर रखना चाहिए। वह कैसे उन्हें कठिनाइयां, परीक्षण और झटके झेलने दे सकता है?” क्या ज्यादातर लोगों के दिलों में परमेश्वर के प्रति यही रवैया नहीं होता? दरअसल, यही बात है। ज्यादातर लोगों के पास जब कोई समस्या नहीं होती है, जब उनके साथ सब कुछ सुचारु रूप से चल रहा होता है, तो उन्हें लगता है कि परमेश्वर शक्तिशाली और धार्मिक है, और मनोहर है। जब परमेश्वर उनका परीक्षण करता है, उनकी काट-छाँट करता है, उन्हें ताड़ना देता है, और अनुशासित करता है; जब वह उन्हें अपने स्वार्थों को एक तरफ रखने के लिए, देह के खिलाफ विद्रोह करने और सत्य का अभ्यास करने के लिए कहता है; जब परमेश्वर उन पर कार्य करता है, और उनके भाग्य और जीवन की योजना बनाता और उन्हें शासित करता है, तो उनका विद्रोह प्रकट होने लगता है, और उनके और परमेश्वर के बीच विभाजन होने लगता है; नतीजतन उनके और परमेश्वर के बीच एक टकराव और एक खाई पैदा होने लगती है। ऐसे समय में, उनके दिलों में परमेश्वर जरा भी प्रिय नहीं होता; वह बिल्कुल भी शक्तिशाली नहीं होता, क्योंकि वह जो कुछ करता है, उससे उनकी इच्छाओं की पूर्ति नहीं होती। परमेश्वर उन्हें दुखी करता है; वह उन्हें परेशान करता है; वह उनके लिए कष्ट और पीड़ा लाता है; वह उन्हें बेचैन महसूस कराता है। इसलिए वे परमेश्वर के आगे बिल्कुल भी समर्पण नहीं करते; इसके बजाय, वे उसके खिलाफ विद्रोह करते हैं और उससे दूर रहते हैं। ऐसा करके क्या वे सत्य का अभ्यास कर रहे होते हैं? क्या वे परमेश्वर के मार्ग पर चल रहे होते हैं? क्या वे परमेश्वर का अनुसरण कर रहे होते हैं? नहीं। इसलिए, चाहे परमेश्वर के कार्य के बारे में तुम्हारी कितनी भी धारणाएँ और कल्पनाएँ क्यों न हों और चाहे तुमने पहले अपनी मर्जी के मुताबिक जैसे भी काम किया हो और परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह किया हो, अगर तुम वास्तव में सत्य का अनुसरण करते हो, परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करते हो और परमेश्वर के वचनों द्वारा काट-छाँट को स्वीकार करते हो; अगर परमेश्वर द्वारा आयोजित हर चीज में, तुम परमेश्वर के मार्ग पर चलने में सक्षम होते हो, परमेश्वर के वचनों को सुनते हो, उसके इरादों को आत्मसात करना सीखते हो, उसके वचनों और उसकी इच्छाओं के अनुसार अभ्यास करते हो, खोज के माध्यम से समर्पण करने में सक्षम होते हो, अपनी समस्त इच्छाओं, अभिलाषाओं, योजनाओं, इरादों को छोड़ सकते हो और परमेश्वर का विरोध नहीं करते हो, केवल तभी तुम परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हो! तुम कह सकते हो कि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, लेकिन तुम जो भी करते हो, वह सब अपनी मर्जी के मुताबिक करते हो। तुम्हारे हर क्रियाकलाप में, तुम्हारे अपने उद्देश्य, तुम्हारी अपनी योजनाएँ होती हैं; तुम इसे परमेश्वर पर नहीं छोड़ते। तो क्या परमेश्वर तब भी तुम्हारा परमेश्वर है? नहीं, वह तुम्हारा परमेश्वर नहीं है। यदि परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर नहीं है, तो जब तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, तब क्या ये खोखले शब्द नहीं होते हैं? क्या ऐसे शब्द लोगों को बेवकूफ़ बनाने की कोशिश नहीं हैं? तुम कह सकते हो कि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, लेकिन तुम्हारे सारे कार्य और कर्म, जीवन और मूल्यों को लेकर तुम्हारा दृष्टिकोण, और विभिन्न मामलों से निपटने के लिए तुम्हारा रवैया और सिद्धांत, सभी शैतान से आते हैं—तुम इन सबसे पूरी तरह से शैतान के नियमों और तर्कों के अनुसार निपटते हो। क्या तब तुम परमेश्वर के अनुयायी होते हो? (नहीं।) तुम देखते हो कि जब प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को सूचित किया कि उस पर बहुत-सी मुसीबतें आएँगी, वह मारा जाएगा, और तीसरे दिन फिर जी उठेगा, तो पतरस ने प्रभु यीशु से कहा, “हे प्रभु, परमेश्वर न करे! तेरे साथ ऐसा कभी न होगा” (मत्ती 16:22)। प्रभु यीशु ने पतरस को क्या जवाब दिया? (“शैतान, मेरे सामने से दूर हो!” (मत्ती 16:23)।) पतरस ने उस समय जो किया उसकी प्रभु यीशु ने क्या परिभाषा दी? (शैतान का काम।) उसने क्यों कहा कि यह शैतान का काम है? क्या पतरस शैतान है? पतरस प्रभु यीशु के कृत्यों के महत्व को नहीं समझता था, न ही वह प्रभु की पहचान करता था। इसलिए वह शैतान का प्रवक्ता बन गया था, उसी की ओर से बोल रहा था, और प्रभु यीशु को परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण करने से रोकना चाहता था। परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से पतरस शैतान का प्रवक्ता बन गया था। अगर कोई व्यक्ति सिर्फ ऊपरी तौर पर सब कुछ त्यागकर अपना कर्तव्य निभाता हुआ प्रतीत हो, परमेश्वर का अनुसरण करता हुआ प्रतीत हो, पर उसकी पूरी सोच और सारे कर्म शैतान के तर्क और फलसफे के अनुरूप हों, तो क्या वह सचमुच परमेश्वर का अनुयायी हो सकता है? (नहीं।) वह नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसे लोग परमेश्वर के खिलाफ निरंतर विद्रोह करते रहते हैं; वे सत्य का अभ्यास नहीं करते, और न ही परमेश्वर के आगे समर्पण करते हैं। तो फिर वे परमेश्वर में विश्वास ही क्यों करते हैं? वे सच में क्या हासिल करना चाहते हैं? इसे समझ पाना असंभव है। क्या वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हैं? नहीं; थोड़े अच्छे तरीके से कहा जाए, तो वे धर्म में विश्वास रखते हैं। भले ही वे परमेश्वर में आस्था रखने का दावा करें, पर परमेश्वर उन्हें स्वीकार नहीं करता। परमेश्वर उन्हें कुकर्मियों में गिनेगा, और वह ऐसे लोगों को नहीं बचाएगा।
इस बुरी और भ्रष्ट मानवता में, धर्म में विश्वास करने वाले वे लोग हैं जो परमेश्वर के अस्तित्व को स्वीकारते हैं, जो अच्छे इंसान होना चाहते हैं, अच्छा व्यवहार करना चाहते हैं, और बुरी चीजें करने से बचना चाहते हैं। उन्हें यह भय होता है कि अगर वे बहुत ज्यादा गलत करनी में लिप्त रहे तो उन्हें प्रतिफल मिलेगा और यह भी कि वे नरक में जाएंगे, दंड पाएँगे और अनंत निंदा सहेंगे। उन्हें लगता है कि अच्छा व्यक्ति होने से इंसान सुख-शांति से जीता है, जैसी कि अविश्वासियों में कहावत है : “अच्छे लोगों का जीवन शांतिपूर्ण होता है।” इस तरह के विचारों के प्रभाव के कारण और इन विचारों की लहरों से संक्रमित होकर, वे धर्म में अपने विश्वास को एक अच्छी चीज मानते हैं; वे खुद को ऐसे लोगों से बेहतर समझते हैं जो धर्म में विश्वास नहीं करते, जिनके पास कोई आध्यात्मिक पोषण नहीं होता, जीवन में आत्म-नियंत्रण होना तो दूर की बात है। जो विश्वास नहीं करते, वे जो मन में आता है करते हैं, और अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए हर बुरा कर्म कर सकते हैं। ऐसे लोगों की कोई मंजिल नहीं होती, मृत्यु के बाद वे सीधे नरक में जाते हैं। धर्म में विश्वास करने वाले यह भी सोचते हैं, “अविश्वासी जीवन-मरण के चक्र में या बुराई का दंड मिलने में विश्वास नहीं करते, वे यह विश्वास नहीं करते कि बुराई करने वाले नरक में जाएंगे और दंडित किए जाएंगे। वे यह विश्वास नहीं करते कि हर चीज पर परमेश्वर की संप्रभुता है। मगर हम धर्म में विश्वास करने वालों को परमेश्वर आशीषें देता है और मृत्यु के बाद हमें अनंत जीवन मिलेगा।” वे खुद को नेक इंसान मानते हैं, और खुद को बाकी मानवता से अलग पवित्र लोगों के रूप में देखते हैं। भले ही उनके व्यवहार और सोचने के तरीके में कुछ बदलाव आ जाए, पर वे सत्य को कतई स्वीकार नहीं करते। धर्म में विश्वास करने का यही अर्थ होता है। कोई व्यक्ति धर्म में विश्वास से परमेश्वर में विश्वास की तरफ कैसे बढ़ सकता है? यह कोई आसान काम नहीं है। जो लोग अभी-अभी परमेश्वर में आस्था रखने लगे हैं वे सत्य को नहीं समझते। उन्हें सिर्फ यह पता है कि धर्म में आस्था रखना अच्छी बात है, कि इसका मतलब अच्छा इंसान होना है। वे लोग धर्म में विश्वास और परमेश्वर में विश्वास में कोई अंतर ही नहीं कर पाते। इसलिए, धर्म में विश्वास से परमेश्वर में विश्वास की तरफ बढ़ने के लिए एक चरण से गुजरना पड़ता है और कुछ सत्यों को समझना पड़ता है, जिनसे हम चीजों का भेद पहचानना सीखते हैं। अगर परमेश्वर में विश्वास रखने के पाँच-छह वर्ष बाद, या सात-आठ वर्ष बाद भी, तुम अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार ही जीते रहते हो, अब भी शैतान का ही अनुसरण करते हो, और सत्य को जरा-भी स्वीकार नहीं करते हो, और जिस सत्य को तुम समझते हो उसका भी अभ्यास नहीं करते हो, परमेश्वर के कार्य को ठुकराते हो, और उसकी काट-छाँट, उसके न्याय और ताड़ना को स्वीकार नहीं करते हो, और न ही उसकी संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाओं को स्वीकार करते हो, तो परमेश्वर में तुम्हारी आस्था अपना अर्थ और मूल्य खो चुकी है। परमेश्वर में आस्था की व्याख्या का सबसे सरल तरीका है इस भरोसे का होना कि एक परमेश्वर है, और इस आधार पर, उसका अनुसरण करना, उसके प्रति समर्पण करना, उसकी संप्रभुता, आयोजनों और व्यवस्थाओं को स्वीकारना, उसके वचनों को सुनना, उसके वचनों के अनुसार जीवन जीना, हर चीज को उसके वचनों के अनुसार करना, एक सच्चा सृजित प्राणी बनना, और परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना; केवल यही परमेश्वर में सच्ची आस्था होना है। परमेश्वर के अनुसरण का यही अर्थ होता है। तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, लेकिन, अपने हृदय में, तुम परमेश्वर के वचनों को स्वीकार नहीं करते, और उनके प्रति एक शंकालु रवैया रखते हो, और तुम उसकी संप्रभुता, आयोजनों और व्यवस्थाओं को स्वीकार नहीं करते हो। यदि परमेश्वर जो करता है उसके बारे में तुम हमेशा धारणाएँ रखते हो, और गलतफहमियों के शिकार रहते हो, और इसके बारे में शिकायत करते हो, हमेशा असंतुष्ट रहते हो, और वह जो भी करे उसे तुम हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं का उपयोग करके मापते और देखते हो; अगर तुम्हारे पास हमेशा अपने खुद के विचार और समझ होती है—तो यह परेशानी का कारण बनेगा। यह परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना नहीं हुआ, और यह उसका सच्चा अनुसरण करने का तरीका नहीं है। यह परमेश्वर में आस्था रखना नहीं है।
असल में, परमेश्वर में आस्था होना क्या होता है? क्या धर्म में विश्वास परमेश्वर में आस्था के बराबर है? जब लोग धर्म को मानते हैं, तो वे शैतान का अनुसरण करते हैं। जब वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तभी वे परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, और केवल वे लोग जो मसीह का अनुसरण करते हैं, वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं। जो व्यक्ति परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में जरा-भी स्वीकार नहीं करता, वह परमेश्वर में सच्चा विश्वास करने वाला व्यक्ति नहीं है। वह छद्म-अविश्वासी है, चाहे वह कितने ही वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करता रहा हो, यह किसी काम का नहीं है। अगर परमेश्वर का कोई विश्वासी सिर्फ धार्मिक रस्मों में लगा रहता है, लेकिन सत्य का अभ्यास नहीं करता है, तो वह परमेश्वर में विश्वास करने वाला व्यक्ति नहीं है, और परमेश्वर उसे स्वीकार नहीं करता है। तुम्हारे पास ऐसा क्या होना चाहिए कि परमेश्वर तुम्हें अपना अनुयायी स्वीकार करे? क्या तुम्हें उन मापदंडों का पता है जिनके अनुसार परमेश्वर किसी व्यक्ति को मापता है? परमेश्वर यह मूल्यांकन करता है कि क्या तुम सब कुछ उसकी अपेक्षाओं के अनुसार करते हो, और क्या तुम उसके वचनों पर आधारित सत्यों के आगे समर्पण और उनका अभ्यास करते हो। परमेश्वर इसी मापदंड पर किसी व्यक्ति को परखता है। परमेश्वर की परख इस बात पर आधारित नहीं है कि तुम कितने बरसों से उसमें विश्वास करते रहे हो, तुम कहां तक पहुंचे हो, तुम्हारे अच्छे व्यवहार कितने हैं, या तुम कितने शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को समझते हो। उसका पैमाना इस बात पर आधारित है कि क्या तुम सत्य का अनुसरण करते हो और तुम कौनसा रास्ता चुनते हो। बहुत-से लोग मौखिक तौर पर परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उसका गुणगान करते हैं, पर अपने दिलों में वे परमेश्वर के वचनों से प्रेम नहीं करते। वे सत्य में दिलचस्पी नहीं रखते। वे हमेशा यही मानते हैं कि आम लोग शैतान के फलसफों या विभिन्न सांसारिक नियमों के अनुसार ही चलते हैं, और इसी तरह कोई खुद को बचाए रख सकता है, और दुनिया में मूल्य के साथ इसी तरह जिया जा सकता है। क्या ये लोग परमेश्वर में विश्वास रखने और उसका अनुसरण करने वाले लोग हैं? नहीं, वे बिल्कुल भी नहीं हैं। महान और प्रसिद्ध लोगों के शब्द खास तौर से ज्ञान से भरे प्रतीत होते हैं और लोगों को आसानी से गुमराह कर सकते हैं। तुम उनके शब्दों को सत्य मानकर उन्हें अपना जीवन-मंत्र बना लेते हो। लेकिन जब परमेश्वर के वचनों की बात आती है, और लोगों से उसकी सामान्य अपेक्षा की बात आती है, जैसे कि एक ईमानदार व्यक्ति होना या आज्ञाकारी बनकर और चीजों पर बारीकी से ध्यान देकर अपना स्थान बनाए रखना, एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को निभाना और व्यावहारिक ढंग से आचरण करना तुम इन वचनों को अभ्यास में नहीं ला सकते हो और इन्हें सत्य नहीं देखते तो फिर तुम परमेश्वर के अनुयायी नहीं हो। तुम सत्य के अभ्यास का दावा करते हो, पर अगर परमेश्वर तुमसे पूछे, “क्या तुम जिन ‘सत्यों’ का अभ्यास कर रहे हो, वे परमेश्वर के वचन हैं? तुम जिन सिद्धांतों पर अमल करते हो क्या वे परमेश्वर के वचनों पर आधारित हैं?”—तो तुम क्या जवाब दोगे? अगर तुम्हारा आधार परमेश्वर के वचन नहीं हैं, तो वे शैतान के शब्द हैं। तुम शैतान के शब्दों को जी रहे हो, और फिर भी तुम सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने का दावा करते हो। क्या यह परमेश्वर के खिलाफ ईशनिंदा का मामला नहीं है? मिसाल के तौर पर, परमेश्वर लोगों से ईमानदार बनने के लिए कहता है, फिर भी लोग यह सोचते तक नहीं कि वास्तव में ईमानदार होने का क्या मतलब है, एक ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास कैसे किया जाता है, वे ऐसी कौनसी चीजें जीते और प्रकट करते हैं, जो बेईमानी है, और ऐसी कौनसी चीजें जीते और प्रकट करते हैं जो ईमानदारी है। परमेश्वर के वचनों के सत्य के सार पर चिंतन-मनन करने के बजाय वे अविश्वासियों की किताबें पढ़ते हैं। वे सोचते हैं, “अविश्वासियों की कहावतें भी काफी अच्छी होती हैं—वे भी लोगों से अच्छा बनने के लिए कहती हैं! मिसाल के तौर पर, ‘अच्छे लोगों का जीवन शांतिपूर्ण होता है,’ ‘निष्कपट लोग हमेशा बचे रह पाते हैं,’ ‘दूसरों को क्षमा करना मूर्खता नहीं है, इसका बाद में अच्छा फल मिलता है।’ ये सभी कथन भी सही हैं, और सत्य से मेल खाते हैं!” इसलिए वे इन शब्दों से चिपके रहते हैं। अविश्वासियों की इन कहावतों पर अमल करके वे किस तरह के व्यक्ति की तरह जीते हैं? क्या वे सत्य वास्तविकता को जी सकते हैं? (नहीं, वे नहीं जी सकते।) क्या ऐसे बहुत-से लोग नहीं हैं? वे कुछ ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, कुछ किताबें पढ़ लेते हैं, और कुछ प्रसिद्ध कृतियों का अध्ययन कर लेते हैं, उन्हें थोड़ा परिप्रेक्ष्य मिल जाता है, और वे कुछ मशहूर कहावतें और लोकोक्तियाँ सुन लेते हैं, और इन्हें सत्य मान लेते हैं, और इन्हीं शब्दों के अनुसार चलते हुए वे अपना कर्तव्य निभाते रहते हैं, और इन्हें परमेश्वर के विश्वासी के रूप में अपने जीवन पर लागू करते रहते हैं, और यह सोचते रहते हैं कि वे परमेश्वर के दिल को संतुष्ट कर रहे हैं। क्या यह झूठ को सत्य की जगह देना नहीं है? क्या यह छल नहीं है? परमेश्वर की नजर में यह ईशनिंदा है! ये चीजें हर व्यक्ति में झलकती हैं, और थोड़ी-बहुत मात्रा में नहीं। एक ऐसा व्यक्ति जो लोगों द्वारा कहे गए लुभावने शब्दों और सही धर्म-सिद्धांतों को सत्य मानकर सीने से लगाए रखता है, जबकि परमेश्वर के वचनों को एक तरफ रखकर उन्हें नजरअंदाज कर देता है और बार-बार पढ़ने के बाद भी उन्हें आत्मसात नहीं कर पाता या परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानता, तो क्या वह परमेश्वर में विश्वास करने वाला व्यक्ति है? क्या वह परमेश्वर का अनुयायी है? (नहीं।) ऐसे लोग धर्म में विश्वास करते हैं, वे अब भी शैतान का अनुसरण करते हैं! उनका मानना है कि शैतान द्वारा कहे गए शब्द दार्शनिक हैं, वे गहरे और विशिष्ट हैं। वे उन्हें परम सत्य के प्रसिद्ध कथन मानते हैं। वे चाहे कुछ भी छोड़ दें, पर इन शब्दों को नहीं छोड़ पाते। इन शब्दों को त्यागना उनके लिए जीवन की आधारशिला को खो देने की तरह है, जैसे कि अपने दिल को उलीचकर खाली कर देना। ये किस तरह के लोग हैं? ये शैतान के अनुयायी हैं, और यही कारण है कि वे शैतान के प्रसिद्ध कथनों को सत्य मानते हैं। क्या तुम लोग अलग-अलग संदर्भों में अपनी विभिन्न मनोदशाओं का विश्लेषण करके उन्हें पहचान सकते हो? उदाहरण के लिए, कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं और अक्सर उसके वचन पढ़ते हैं, पर जब उन पर कुछ बीतती है तो वे हमेशा कहते हैं, “मेरी माँ कहती थी,” “मेरे दादा कहते थे,” “फलाँ-फलाँ मशहूर आदमी ने एक बार कहा था,” या “फलाँ-फलाँ किताब में कहा गया है।” वे कभी नहीं कहते कि “परमेश्वर के वचनों में ऐसा कहा गया है,” “परमेश्वर की हमसे इस तरह की अपेक्षाएँ हैं,” “परमेश्वर ने यह कहा है।” वे ऐसे शब्द कभी नहीं कहते। क्या वे परमेश्वर के अनुयायी हैं? (नहीं, वे नहीं हैं।) क्या इन मनोदशाओं का पता लगाना लोगों के लिए आसान है? नहीं, यह आसान नहीं है। लोगों में इन मनोदशाओं की मौजूदगी ही बहुत हानिकारक है। हो सकता है तुम तीन, पाँच, आठ या दस बरस से परमेश्वर में विश्वास कर रहे हो, पर तुम्हें अभी भी नहीं पता कि परमेश्वर के प्रति समर्पण कैसे करें या उसके वचनों का अभ्यास कैसे करें। तुम पर कुछ भी क्यों न बीते, तुम शैतानी शब्दों को ही अपना आधार मानते हो; तुम पारंपरिक संस्कृति में ही अपना आधार खोजते हो। क्या यह परमेश्वर में आस्था रखना है? क्या तुम शैतान का अनुसरण नहीं कर रहे हो? तुम शैतानी शब्दों के अनुसार जीते हो, और शैतानी स्वभाव के अनुसार जीते हो, तो क्या तुम परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं कर रहे हो? क्योंकि तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार न तो अभ्यास कर रहे हो और न जी रहे हो, परमेश्वर के पदचिन्हों पर नहीं चल रहे हो, उसकी कही बातें नहीं सुनते हो, और परमेश्वर चाहे जो भी आयोजन या अपेक्षा करे तुम उसके प्रति समर्पण नहीं कर पाते हो, तो तुम परमेश्वर का अनुसरण नहीं कर रहे हो। तुम अब भी शैतान का अनुसरण कर रहे हो। शैतान कहाँ है? शैतान लोगों के दिलों में है। शैतान के फलसफों, तर्कों और नियम-कायदों ने, उसके विभिन्न शैतानी शब्दों ने बहुत अरसे से लोगों के दिलों में जड़ें जमा रखी हैं। यह सबसे गंभीर समस्या है। अगर तुम परमेश्वर में अपनी आस्था में इस समस्या को हल नहीं कर सकते, तो तुम्हें परमेश्वर द्वारा बचाया नहीं जा सकेगा। इसलिए तुम लोगों को अक्सर अपने सारे कार्यों को, अपने विचारों और दृष्टिकोणों को और चीजें करने के अपने आधार को परमेश्वर के वचनों की कसौटी पर कसना चाहिए और अपने विचारों में चीजों का गहन-विश्लेषण करना चाहिए। तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम्हारे भीतर कौनसी चीजें सांसारिक आचरण के फलसफे हैं, कौनसी चीजें लोकप्रिय कहावतें हैं, कौनसी पारंपरिक संस्कृति हैं, और कौनसी चीजें बौद्धिक ज्ञान से आई हैं। तुम्हें पता होना चाहिए कि इनमें से किन चीजों को तुम हमेशा सही और सत्य के अनुरूप मानते हो, किन चीजों का तुम ऐसे पालन करते हो मानो वे सत्य हों, और किन चीजों को तुम सत्य का स्थान लेने देते हो। इन चीजों का तुम लोगों को विश्लेषण करना चाहिए। विशेष रूप से जिन चीजों को तुम सही और मूल्यवान मानकर सत्य की तरह देखते हो, उनकी असलियत जान पाना आसान नहीं है। लेकिन जब तुम उनकी असलियत जान लेते हो, तो तुम एक बड़ी बाधा पार कर लेते हो। ये चीजें लोगों को सत्य का अभ्यास करने, परमेश्वर के वचनों को समझने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने से रोकने वाली बाधाओं की तरह हैं। यदि तुम सारा दिन भ्रमित और निरुद्देश्य रहते हो, और इन चीजों को लेकर जरा-भी विचार नहीं करते हो, और इन समस्याओं को सुलझाने पर कोई ध्यान नहीं देते हो, तो यही तुम्हारी परेशानी की जड़ है, यही तुम्हारे दिल में भरा हुआ जहर है। अगर इन्हें हटाया नहीं जाता, तो तुम परमेश्वर का सच्चा अनुसरण करने में असमर्थ रहोगे, और सत्य का अभ्यास या परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर पाओगे, और तुम्हारे लिए उद्धार प्राप्त करने का कोई रास्ता नहीं होगा।
अब जब हम इन चीजों पर संगति कर चुके हैं, तो क्या तुम लोगों ने अपने भीतर की उन मनोदशाओं, विचारों और अड़ियल दृष्टिकोणों पर विचार किया है, जो परमेश्वर की इच्छाओं, अपेक्षाओं और सत्य के उलट हैं, पर जिन्हें तुम लोग सत्य समझते रहे हो, और उन्हें सत्य मानकर उनका अभ्यास करते रहे हो? (मेरा यह नजरिया था कि आचरण करने में हमें एक अच्छा इंसान होने का जतन करना चाहिए, एक ऐसा इंसान जिसे सभी पसंद करें और जिससे सभी जुड़ना चाहें। जब मैं सत्य को नहीं समझता था तो मुझे लगता था कि ऐसा अनुसरण उचित और सही है। पर अब इसे सत्य से मापते हुए, मुझे यह एहसास हुआ है कि ऐसा व्यक्ति खुशामदी होता है। खास तौर से धूर्त लोगों के बारे में परमेश्वर के खुलासों को पढ़ने के बाद, मैंने यह भेद पहचाना कि ऐसा करने के पीछे मेरे धूर्त इरादे थे; मैं हर मामले में दूसरों को खुश करके, और उनके दिलों में अपनी एक झूठी छाप छोड़कर और उन्हें गुमराह करके अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को बचाए रखना चाहता था। कभी-कभी तो मैं परमेश्वर के घर के हितों को भी ताक पर रखकर दूसरों को खुश करने में लगा रहता था। मैं अच्छा व्यक्ति बिल्कुल भी नहीं था, न ही मुझमें एक असली मनुष्य जैसा कुछ था। जब मुझे इन बातों का पता चला, तो मेरी इच्छा हुई कि मैं सत्य खोजूँ और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप एक ईमानदार व्यक्ति बनूँ, न कि सबको खुश रखने वाला एक खुशामदी व्यक्ति। मैं ऐसा व्यक्ति बनना चाहता था जो तथ्यों और सत्य के अनुसार बोलता है, जो हर मामले में तथ्यों के अनुसार बात करता है, क्योंकि यह परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है।) (इस अवधि में मैंने देखा कि मैं सिर्फ अपने ऊपरी व्यवहार में बदलाव लाने पर ध्यान दे रहा था। मिसाल के तौर पर, जब कुछ भाई-बहनों ने मुझे बताया कि मैं अहंकारी हूँ और मेरे साथ सहयोग करना आसान नहीं है, तो मैंने लचीलापन दिखाते हुए उनके साथ नरमी से और दोस्ताना अंदाज में बात की। मैंने वही किया जो उन्होंने मुझसे कहा, और जब मैं किसी को अपना कर्तव्य निभाने के दौरान कोई गलती करते देखता था, तो मैं उस पर उंगली उठाने के बजाय शांति और समरसता बनाए रखता था। अभी-अभी परमेश्वर की संगति सुनते हुए, मैंने देखा है कि मैं परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं चल रहा था। मैं सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफों के अनुसार जी रहा था। मैं ऊपरी तौर पर अपने अच्छे व्यवहार से दूसरों को गुमराह कर रहा था, जबकि असल में, मैंने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागा नहीं था। मैं सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति नहीं था, और मैं अपना बहुत सारा समय बर्बाद कर चुका था।) तुम लोग अब अतीत के कुछ गलत नजरियों और अभ्यासों को पहचानकर उनका बोध तो कर लेते हो, पर सत्य का अभ्यास करना तुम्हारे लिए बहुत दुष्कर है। इन मनोदशाओं को पहचानने और इनका बोध करने के बाद भ्रष्ट मानवजाति की दशा को लेकर तुम लोगों के क्या विचार और भावनाएं हैं? क्या तुम यह भाँप पाए हो कि भ्रष्ट मानवजाति बड़ी सख्ती और मजबूती से शैतान के नियंत्रण में है? क्या तुम्हें इसका बोध हो चुका है? (हाँ।) तुम्हें यह बोध कब हुआ? (जब मैं सत्य का अभ्यास करना चाहता था, तो शैतान की प्रकृति ने मुझे भीतर से नियंत्रित करके अपने चुंगल में ले लिया। मेरा दिल संघर्ष करता रहा, पर सत्य का अभ्यास न कर सका, मानो मैं किन्हीं जंजीरों में जकड़ा हुआ हूँ। यह बहुत यंत्रणा भरा था।) क्या तब तुम्हें यह महसूस हुआ कि शैतान अत्यंत घृणित है? या क्या तुम समय के साथ भावशून्य हो गए और अब घृणा भी महसूस नहीं कर पाते हो? (मैं यह महसूस कर सकता था कि शैतान घृणित है।) क्या तुम्हें यह एहसास हुआ है कि मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर का कार्य अत्यंत आवश्यक है? क्या तुम यह बोध कर सकते हो कि परमेश्वर द्वारा व्यक्त वचन और सत्य, जिनमें मानवजाति को उजागर करने वाले वचन भी शामिल हैं, सभी वास्तविकताएं हैं, कि एक भी ऐसा वाक्यांश नहीं है जो वास्तविक न हो, और ये सभी पूरी तरह से तथ्यों से मेल खाते हैं, और ये ऐसे वचन हैं जो सत्य प्राप्त करने और बचाए जाने के लिहाज से मानवजाति के लिए सबसे ज्यादा जरूरी हैं? मानवजाति को परमेश्वर के उद्धार की नितांत आवश्यकता है! अगर परमेश्वर देहधारण करके अपना कार्य करने न आता, अगर परमेश्वर ने इतने सारे सत्य न व्यक्त किए होते, तो मानवजाति को उद्धार का रास्ता कहाँ से मिलता? संकेतों और चमत्कारों के लिए शैतान और दुष्ट आत्माओं पर पूरी निर्भरता बर्बादी की तरफ ले जाती है। शैतान के फलसफों, तर्कों और नियमों के अनुसार जीने वाले लोग तबाही के शिकार होते हैं। क्या अब तुम लोगों को इसकी जानकारी है? अगर तुम्हें सिर्फ इसकी जानकारी है, तो यह काफी नहीं है। यह परमेश्वर के उद्धार के लिए एक दिल की तड़प मात्र है। लेकिन क्या तुम सत्य को स्वीकार सकते हो, और न्याय और ताड़ना को स्वीकार सकते हो, और अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्याग सकते हो—ये सब अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न हैं। परमेश्वर में विश्वास करने वालों को सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रेम होना चाहिए, और उन्हें बुराई से और शैतान से आने वाली हर चीज से घृणा होनी चाहिए। उन्हें अपना ध्यान आत्म-चिंतन और खुद को समझने, और अपने भ्रष्ट स्वभाव के खुलासों का भेद पहचानने पर केंद्रित रखना चाहिए। उन्हें यह साफ-साफ देखना चाहिए कि उनका प्रकृति सार कुरूप और दुष्टतापूर्ण है, परमेश्वर के खिलाफ है, और परमेश्वर की घृणा का पात्र है; और उन्हें दिल की गहराइयों से खुद से वितृष्णा महसूस करने और खुद से घृणा करने में सक्षम होना चाहिए। सिर्फ तभी उनमें शैतान की प्रकृति के बंधन और जकड़ से मुक्त होने का संकल्प और शक्ति आ सकती हैं और वे सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हैं। इस संकल्प के बिना तुम्हारे लिए सत्य का अभ्यास करना बहुत कठिन होगा, भले ही कोई तुम्हें ऐसा करने के लिए कहे। लोगों को बंधन, खिलवाड़, यातना, कुचले जाने और अपने भ्रष्ट स्वभाव के दुरुपयोग जैसी मनोदशाओं के बीच अत्यधिक पीड़ा सहते हुए संघर्ष करते रहना चाहिए। इस संघर्ष की पीड़ा को झेलने के बाद ही वे शैतान से घृणा कर सकते हैं, और इन सबको बदलने का संकल्प और दृढ़ निश्चय कर सकते हैं। पर्याप्त कष्ट झेलने के बाद ही वे संकल्प विकसित कर सकते हैं और उनमें सत्य का अनुसरण करने और इन सबसे मुक्त होने की प्रेरणा हो सकती है। अगर तुम्हें कोई पीड़ा महसूस किए बिना या शैतान द्वारा लोगों को बर्बर बनाए जाने के बोध के बिना ऐसा लगता है कि शैतान की चीजें बहुत बढ़िया हैं, कि वे तुम्हारी देह को तृप्त कर सकती हैं, और लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं, उनकी अतिवादी इच्छाओं और उनकी बहुत-सी प्राथमिकताओं को संतुष्ट कर सकती हैं, तो क्या तुम इन सबसे मुक्त होना चाहते हो? (नहीं।) मान लो किसी धोखेबाज व्यक्ति को पता हो कि वह धूर्त है, झूठ बोलने का शौकीन है और वह सच बोलना पसंद नहीं करता है, और यह कि दूसरों के साथ कामकाज में वह हमेशा कुछ-न-कुछ छिपाने की कोशिश करता है, लेकिन फिर भी वह इस बारे में सोचते हुए मन-ही-मन खुश होता रहता है और सोचता है, “इस तरह जीना बहुत अच्छा है। मैं दूसरों की आँखों में धूल झोंकता रहता हूँ, लेकिन वे मेरे साथ ऐसा नहीं कर पाते। जहाँ तक मेरे अपने हितों, गर्व, रुतबे और अभिमान की बात है, तो मैं लगभग हमेशा संतुष्ट रहता हूँ। चीजें मेरी योजनाओं के अनुसार, त्रुटिहीन ढंग से, निर्बाध रूप से चलती हैं, और कोई उनकी असलियत नहीं देख सकता।” क्या इस तरह का व्यक्ति ईमानदार बनने को तैयार है? नहीं। ऐसा व्यक्ति धोखेबाजी और कुटिलता को बुद्धिमत्ता और ज्ञान समझता है, सकारात्मक चीजें मानता है। वह इन चीजों को सँजोता है और इनके बिना बिल्कुल भी काम नहीं कर सकता। वह सोचता है, “यह आचरण करने का सही तरीका और जीने का एकमात्र पोषक ढंग है। केवल यही जीने का मूल्यवान तरीका है और केवल इसी तरीके से दूसरे मुझसे ईर्ष्या करेंगे और मेरा आदर करेंगे। शैतानी फलसफों के अनुसार न जीना मेरे लिए मूर्खता और बेवकूफी होगी। मैं हमेशा नुकसान उठाऊँगा—मुझे धौंस दी जाएगी, मेरे साथ भेदभाव और एक नौकर की तरह व्यवहार किया जाएगा। इस तरह जीने का कोई मूल्य नहीं है। मैं कभी ईमानदार व्यक्ति नहीं बनूँगा!” क्या इस तरह का व्यक्ति अपना कपटपूर्ण स्वभाव त्याग देगा और ईमानदार होने का अभ्यास करेगा? बिल्कुल नहीं। ऐसे लोगों ने चाहे कितने समय तक भी परमेश्वर में विश्वास किया हो, चाहे कितने भी प्रवचन सुने हों, और चाहे कितने ही सत्यों को समझा हो, वे कभी भी परमेश्वर का सच्चा अनुसरण नहीं करेंगे। वे कभी भी खुशी-खुशी परमेश्वर का अनुसरण नहीं करेंगे, क्योंकि उन्हें लगता है कि ऐसा करने के लिए उन्हें बहुत-कुछ त्यागना होगा, बहुत कुछ छोड़ना होगा, और कष्ट और नुकसान उठाने होंगे। वे यह सब स्वीकार नहीं करेंगे। वे सोचते हैं, “परमेश्वर में विश्वास रखने का अर्थ है केवल धर्म में विश्वास करना, केवल नाम का विश्वासी होना, कुछ अच्छे व्यवहार करना, और उनके पास कोई ऐसी चीज होना जो उन्हें आध्यात्मिक पोषण दे सके, बस इतना ही। मानो कि उन्हें कोई कीमत चुकाने, कष्ट उठाने और किसी भी चीज का त्याग करने की जरूरत ही नहीं है। अगर उनके दिलों में विश्वास है और वे परमेश्वर को स्वीकारते हैं, तो परमेश्वर में इस तरह की आस्था उन्हें बचाए जाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने देगी! इस तरह की आस्था बहुत लाभकारी है!” क्या ऐसे लोग अंत में सत्य हासिल कर पाएँगे? (नहीं।) क्या कारण है कि वे सत्य हासिल नहीं कर पाएंगे? उन्हें सकारात्मक चीजों से कोई प्रेम नहीं है, वे प्रकाश की लालसा नहीं करते, और वे परमेश्वर के मार्ग से या सत्य से प्रेम नहीं करते। वे सांसारिक प्रवृत्तियों का अनुसरण पसंद करते हैं, वे शोहरत, लाभ और रुतबे के प्रति आसक्त हैं, वे भीड़ से अलग दिखना पसंद करते हैं, वे शोहरत, लाभ और रुतबे की पूजा करते हैं, वे महान और प्रसिद्ध लोगों की वंदना करते हैं, लेकिन असल में वे दानवों और शैतानों की पूजा करते हैं। अपने दिलों में वे सत्य या सकारात्मक चीजों का अनुसरण नहीं करते, बल्कि ज्ञानार्जन की पूजा करते हैं। वे अपने दिलों में उन लोगों को स्वीकार नहीं करते, जो सत्य का अनुसरण करते हैं और परमेश्वर की गवाही देते हैं; इसके बजाय, वे ऐसे लोगों को स्वीकारते हैं और उनका आदर करते हैं, जिनमें विशेष प्रतिभाएँ और गुण होते हैं। परमेश्वर में अपनी आस्था में वे सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर नहीं चलते, बल्कि शोहरत, लाभ, रुतबे और सत्ता के पीछे भागते हैं, वे बहुत चालाक व्यक्ति बनने का प्रयास करते हैं, जो अप्रत्याशित तरीके से जीतने की धुन में रहते हैं; वे एक महान और प्रसिद्ध हस्ती बनने के लिए खुद को समाज के ऊपरी तबकों से जोड़ने का प्रयास करते हैं। वे चाहते हैं कि सभी अवसरों पर और जहाँ भी वे उपस्थित हों, उनका भक्ति भाव के साथ स्वागत-सत्कार किया जाए; वे लोगों के आदर्श बनना चाहते हैं। वे इसी तरह का व्यक्ति बनना चाहते हैं। यह किस तरह का मार्ग है? यह राक्षसों का मार्ग है, बुराई का मार्ग है। यह परमेश्वर के किसी विश्वासी द्वारा अपनाया जाने वाला मार्ग नहीं है। वे हर परिवेश में शैतान के फलसफों, उसके तर्कों, उसकी हर चाल और हर फरेब का इस्तेमाल करते हैं, ताकि लोगों को उनके व्यक्तिगत भरोसे के कारण ठगा जा सके और उनसे अपनी आराधना और अनुसरण करवाया जा सके। यह वह मार्ग नहीं है, जिस पर परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोगों को चलना चाहिए; न केवल ऐसे लोग बचाए नहीं जाएँगे, बल्कि उन्हें परमेश्वर का दंड भी मिलेगा—इसमें जरा भी संदेह नहीं हो सकता। इसका क्या आधार है कि किसी व्यक्ति को बचाया जा सकता है या नहीं? यह इस बात पर आधारित है कि क्या वे सत्य को स्वीकार सकते हैं, परमेश्वर के कार्य के आगे समर्पण कर सकते हैं, और सत्य के अनुसरण के रास्ते पर चल सकते हैं। यह इन्हीं कारकों से निर्धारित होता है। वह कौनसा मार्ग है, जिस पर चलकर कोई व्यक्ति अपनी आस्था में परमेश्वर का उद्धार प्राप्त कर सकता है? उन्हें परमेश्वर का अनुसरण करना चाहिए, उसके वचनों को सुनना चाहिए, उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए और उसकी अपेक्षाओं और सत्य के अनुसार जीना चाहिए। यही एकमात्र मार्ग है, जिस पर चलकर कोई व्यक्ति उद्धार प्राप्त कर सकता है।
4 जनवरी 2018