वह वास्तव में क्या है, जिस पर लोग जीने के लिए निर्भर हैं?

तुम लोग आज सत्य का कौन-सा पहलू सबसे अधिक सुनना चाहते हो? मैं तुम लोगों को चुनने के लिए कुछ विषय दूँगा, और तुम लोग जिस भी विषय पर चाहो, हम उस पर संगति कर सकते हैं। पहला प्रश्न है : तुम स्वयं को कैसे जानते हो? स्वयं को जानने का तरीका क्या है? तुम्हें स्वयं को क्यों जानना चाहिए? दूसरा प्रश्न है : परमेश्वर में विश्वास के अपने वर्षों के दौरान लोग किसके सहारे जिए हैं? क्या तुम परमेश्वर के वचन और सत्य के अनुसार जिए हो, या तुम शैतानी स्वभावों और फलसफों के अनुसार जिए हो? कौन-सा व्यवहार दर्शाता है कि तुम परमेश्वर के वचन और सत्य के अनुसार जीते हो? यदि तुम शैतानी स्वभावों और फलसफों के अनुसार जीते हो, तो तुम्हारी भ्रष्टता कैसे अभिव्यक्त और प्रकट होगी? तीसरा प्रश्न है : भ्रष्ट स्वभाव क्या होता है? हमने पहले भ्रष्ट स्वभाव के छह पहलुओं पर चर्चा की थी, इसलिए मैं इस बारे में बात करूँगा कि कौन-सी दशाएँ इन भ्रष्ट स्वभावों की विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ होती हैं। अब यह तुम लोगों को चुनना है। तुम लोग कौन-सा प्रश्न सबसे कम समझते हो, लेकिन सबसे अधिक समझना चाहते हो, और समझने में सबसे कठिन पाते हो? (हम दूसरा प्रश्न चुनते हैं।) तो हम इस विषय पर संगति करेंगे। एक पल के लिए मनन करो। परमेश्वर में विश्वास के अपने वर्षों के दौरान लोग किसके सहारे जिए हैं, और इस विषय में कौन-सी चीजें शामिल हैं? इस वाक्य का मुख्य बिंदु “किसके” शब्द है। इस “किसके” के दायरे में क्या शामिल है? तुम लोग इसमें से क्या समझ सकते हो? जो चीजें तुम लोग सोचते हो कि सबसे महत्वपूर्ण हैं, परमेश्वर में विश्वास रखते समय जिन चीजों का अभ्यास किया जाना चाहिए, और जो चीजें मनुष्यों के पास होनी चाहिए, वे इस शब्द “किसके” के दायरे में आती हैं। तुम लोग अपने दैनिक जीवन में जिन चीजों के संपर्क में आते हो, तुम्हारी काबिलियत और बोध क्षमता जिन चीजों को समझने की तुम्हें अनुमति देती है, जिन चीजों को तुम लोग सकारात्मक मानते हो, जिन चीजों के बारे में तुम सोचते हो कि सत्य के करीब हैं और उससे मेल खाती हैं, जो भी चीजें तुम सोचते हो कि सकारात्मक चीजों की वास्तविकता हैं, और जो भी चीजें तुम सोचते हो कि परमेश्वर के इरादों के अनुरूप हैं, ये सब वो चीजें हैं जिनके सहारे तुम लोग इन वर्षों में परमेश्वर का अनुसरण करते हुए और अपना कर्तव्य निभाते हुए जी रहे हो, इसलिए हम उन्हें सामने लाकर उन पर संगति कर सकते हैं। वे कौन-सी चीजें हैं जिनके बारे में तुम लोग सोच सकते हो? (मुझे लगता है कि परमेश्वर में अपने विश्वास में, मुझे परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने के लिए बस कष्ट सहना होगा, कीमत चुकानी होगी और अपने कर्तव्य के परिणाम प्राप्त करने होंगे।) इस दृष्टिकोण को तुम सकारात्मक दृष्टिकोण मानते हो। तो फिर इस दृष्टिकोण और पौलुस के दृष्टिकोण में क्या अंतर है? क्या सार वही नहीं है? (वही है।) सार एक ही है। क्या इस दृष्टिकोण का सार, मात्र एक कल्पना नहीं है? (हाँ, है।) वर्षों से तुम इस कल्पना और जो तुम सोचते हो वही सही है, के सहारे जी रहे हो। परमेश्वर में विश्वास करने, अपना कर्तव्य निभाने और कलीसियाई जीवन जीने के लिए भी तुमने इसी पर भरोसा किया है। यह एक स्थिति है। सबसे पहले तुम्हें यह पुष्टि करने की आवश्यकता है कि क्या तुम्हारे विचार और दृष्टिकोण सही हैं और क्या परमेश्वर के वचन में उनका कोई आधार है। यदि तुम सोचते हो कि वे सही हैं, कि उनका कोई आधार है, और तुम जो करते हो वह सत्य का अभ्यास करना है, लेकिन तुम वास्तव में गलत हो, तो आज हम अपनी संगति में इसी पर चर्चा करेंगे।

लोग ठीक जिसके अनुसार जिए हैं उसके सत्य का पहलू पर संगति करने का सबसे सरल तरीका एक ऐसे विषय से शुरू करना है जिसे हर कोई समझ सकता है, जैसे पौलुस का मामला, और फिर तुम लोग इसका अपनी दशा से मिलान करो। पौलुस के बारे में बात क्यों करें? ज्यादातर लोग पौलुस की कहानी जानते हैं। बाइबल में पौलुस के बारे में कौन-सी कहानियाँ या प्रकरण हैं? उदाहरण के लिए पौलुस के प्रसिद्ध कथन कौन-से हैं, या उसकी विशेषताएँ, व्यक्तित्व और क्षमताएँ क्या हैं? मुझे बताओ। (पौलुस को गम्लीएल ने शिक्षित किया था जो कानून का प्रखर विद्वान था और पौलुस के लिए यह एक अच्छा ब्रांड था, यह एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बराबर था।) आधुनिक शब्दों में कहें तो, पौलुस धर्मशास्त्र का छात्र था जिसने धर्मशास्त्र के एक प्रतिष्ठित स्कूल से स्नातक की उपाधि प्राप्त की थी। यह पौलुस के बारे में पहला अपेक्षाकृत प्रतिनिधिक विषय है, जो उसकी पृष्ठभूमि, शिक्षा के स्तर और सामाजिक स्थिति के संबंध में है। जहाँ तक दूसरे विषय की बात है, पौलुस का सबसे प्रसिद्ध कथन क्या है? (“मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)।) उसकी भागदौड़ की प्रेरणा यही है। आधुनिक शब्दों में कहें तो, पौलुस ने कष्ट उठाया और कीमत चुकाई, काम किया और सुसमाचार का प्रचार किया, लेकिन उसकी प्रेरणा मुकुट हासिल करने की थी। यह दूसरा विषय है। तुम जारी रख सकते हो। (पौलुस ने कहा, “मेरे लिये जीवित रहना मसीह है, और मर जाना लाभ है” (फिलिप्पियों 1:21)।) यह भी पौलुस के अति चिरप्रतिष्ठित कथनों में से एक है। यह तीसरा विषय है। हमने अभी तीन विषयों का उल्लेख किया। पहला यह था कि पौलुस कानून के प्रखर विद्वान गम्लीएल का छात्र था, जो वर्तमान सेमिनेरी स्कूल से स्नातक करने के समकक्ष है। सामान्य लोगों की तुलना में वह निश्चित रूप से बाइबल का अधिक ज्ञाता था। ऐसे स्कूल से स्नातक होने के कारण पौलुस को पुराने नियम का ज्ञान था। यह पौलुस की शैक्षणिक पृष्ठभूमि थी। इसने उसके भविष्य के प्रचार और कलीसियाओं के प्रावधान को कैसे प्रभावित किया? हो सकता है कि इससे कुछ फायदा हुआ हो—लेकिन क्या इससे कोई नुकसान हुआ? (हाँ, हुआ।) क्या धार्मिक शिक्षा सत्य से मेल खाती है? (नहीं, मेल नहीं खाती।) धार्मिक शिक्षा पूरी तरह से सत्याभासी चीज है, पूरी तरह से खोखला सिद्धांत है। यह व्यावहारिक नहीं है। दूसरा विषय क्या था? (पौलुस ने कहा, “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है।”) पौलुस इन वचनों के अनुसार जिया; उसने उनके अनुसार अनुसरण किया। तो फिर क्या हम कह सकते हैं कि पौलुस के कष्ट सहने, कीमत चुकाने के पीछे ये ही इरादे और उद्देश्य थे? (हाँ।) स्पष्ट रूप से कहें तो उसका इरादा पुरस्कार प्राप्त करना था, जिसका अर्थ है कि उसने अपनी दौड़ पूरी की, अपनी कीमत चुकाई, और अच्छी कुश्ती लड़ी ताकि इन चीजों के बदले में धार्मिकता के मुकुट का सौदा कर सके। इससे पता चलता है कि पौलुस के अनुसरण के वर्ष पुरस्कार प्राप्त करने और धार्मिकता का मुकुट हासिल करने से जुड़े थे। यदि उसका इरादा और उद्देश्य यह नहीं होता, तो क्या वह ऐसा कष्ट सहने और इतनी कीमत चुकाने में सक्षम होता? क्या वह अपनी नैतिक गुणवत्ता, महत्वाकांक्षा और इच्छाओं के आधार पर वह काम कर पाता जो उसने किया और जो कीमत उसने चुकाई, वह चुका पाता? (नहीं।) मान लो कि प्रभु यीशु ने उससे पहले ही कह दिया होता, “जब मैंने पृथ्वी पर काम किया, तो तुमने मुझे सताया। तुम जैसे लोगों को दंडित और शापित किया जाता है। चाहे तुम कुछ भी करो, तुम ऐसी गलतियों की भरपाई नहीं कर सकते; चाहे तुम कितना भी पश्चात्ताप करो, मैं तुम्हें नहीं बचाऊँगा।” तो, पौलुस का रवैया किस प्रकार का होता? (उसने परमेश्वर को त्याग दिया होता और उसमें विश्वास करना बंद कर दिया होता।) न केवल उसने परमेश्वर पर विश्वास नहीं किया होता, बल्कि उसने परमेश्वर को नकार भी दिया होता, इस बात से इनकार कर दिया होता कि प्रभु यीशु मसीह था, और स्वर्ग में परमेश्वर के अस्तित्व को भी नकार दिया होता। तो पौलुस किसके अनुसार जिया? उसने परमेश्वर से ईमानदारी से प्रेम नहीं किया, और वह ऐसा व्यक्ति नहीं था जो उसके प्रति समर्पण करता था, तो फिर वह इतने सारे क्लेशों के बावजूद सुसमाचार का प्रचार करने में सक्षम क्यों रहा? यह कहना उचित है कि उसका मुख्य सहारा आशीष की इच्छा थी; इसी से उसे ताकत मिली। इसके अलावा जब पौलुस ने अतीत में दमिश्क की सड़क पर परमेश्वर की महान रोशनी देखी थी, तो वह अंधा हो गया था। वह जमीन पर औंधे मुँह गिर पड़ा था और काँपने लगा था। उसने परमेश्वर की महानता और श्रद्धा-मिश्रित भय को महसूस किया था, और उसे डर था कि परमेश्वर उस पर प्रहार करेगा, इसलिए उसने परमेश्वर का आदेश नकारने का साहस नहीं किया। चाहे कठिनाइयाँ कितनी भी बड़ी हों, उसे सुसमाचार का प्रचार करते रहना था। वह ढिलाई बरतने का जोखिम नहीं उठा सकता था। वह इसका हिस्सा था। हालाँकि इसका सबसे बड़ा हिस्सा आशीष पाने की उसकी तीव्र इच्छा थी। उसने जो काम किए, क्या वह आशीष पाने की इच्छा, उस आशा की किरण के बिना भी उन्हें करता? हरगिज नहीं। तीसरा विषय यह था कि पौलुस ने गवाही दी कि उसके लिए जीवित रहना ही मसीह है। आओ सबसे पहले पौलुस के किए गए कार्य पर एक नजर डालें। पौलुस के पास धर्म का प्रचुर ज्ञान था; उसकी अच्छी खासी प्रतिष्ठा और काफी विशिष्ट शैक्षणिक पृष्ठभूमि थी। तुम कह सकते हो कि वह आम लोगों से अधिक विद्वान था। तो उसने अपना काम करने के लिए किस पर भरोसा किया? (अपने गुणों और क्षमताओं पर और बाइबल के अपने ज्ञान पर।) देखने में तो वह सुसमाचार का प्रचार कर रहा होगा और प्रभु यीशु की गवाही दे रहा होगा, लेकिन उसने केवल प्रभु यीशु के नाम की गवाही दी; उसने वास्तव में इस बात की गवाही नहीं दी थी कि प्रभु यीशु प्रत्यक्ष परमेश्वर था और कार्य कर रहा था, कि प्रभु यीशु स्वयं परमेश्वर था। तो फिर पौलुस वास्तव में किसकी गवाही दे रहा था? (उसने स्वयं की गवाही दी। उसने कहा, “मेरे लिये जीवित रहना मसीह है, और मर जाना लाभ है।”) उसके शब्दों का क्या अर्थ है? यही कि प्रभु यीशु स्वयं मसीह, प्रभु और परमेश्वर नहीं था बल्कि वह था। पौलुस अपने इरादों और महत्वाकांक्षाओं के कारण इस तरह भाग-दौड़कर प्रचार कर पाया। उसकी महत्वाकांक्षा क्या थी? जिन लोगों को उसने उपदेश दिया था या जिन्होंने उसके बारे में सुना था उन सबसे यह पुष्टि करवाना कि वह मसीह और परमेश्वर के रूप में जिया। यह एक पहलू है, वह अपनी इच्छाओं के अनुसार जिया। साथ ही, पौलुस का कार्य उसके बाइबल के ज्ञान पर आधारित था। उसके उपदेश और शब्दों से यह प्रदर्शित होता था कि उसे बाइबल का ज्ञान था। उसने पवित्र आत्मा के कार्य और प्रबुद्धता या सत्य वास्तविकताओं के बारे में बात नहीं की। ये विषय उसके पत्रों में कहीं नहीं मिलते और निश्चित रूप से उसे इस प्रकार का अनुभव नहीं था। पौलुस ने अपने काम में कहीं भी प्रभु यीशु द्वारा कहे गए वचनों की गवाही नहीं दी। उदाहरण के लिए, लोगों को पाप-स्वीकार और पश्चात्ताप का अभ्यास कैसे करना चाहिए इसके लिए प्रभु यीशु ने जो शिक्षा दी या शिक्षाओं के कई वचन जो प्रभु यीशु ने लोगों से कहे—पौलुस ने कभी उनका प्रचार नहीं किया। पौलुस द्वारा किए गए किसी भी कार्य का प्रभु यीशु के वचनों से कोई लेना-देना नहीं था, और उसने जो कुछ भी प्रचार किया वह उस धार्मिक शिक्षा और सिद्धांत से संबंधित चीज थी जिसका उसने अध्ययन किया था। धार्मिक शिक्षा और सिद्धांत की उन चीजों में क्या शामिल है? मानवीय धारणाएँ, कल्पनाएँ, फलसफे और निष्कर्ष, अनुभव और सबक, जिनका लोग सारांश निकालते हैं, इत्यादि। संक्षेप में, वे सभी चीजें मानवीय सोच से उत्पन्न होती हैं और मानवीय विचारों और दृष्टिकोणों को प्रतिबिंबित करती हैं; इनमें से कोई भी सत्य नहीं है, सत्य के अनुरूप तो बिल्कुल भी नहीं है। यह सब सत्य के बिल्कुल विपरीत है।

पौलुस का उदाहरण सुनने के बाद उससे अपनी तुलना करें। जिस विषय पर हम आज बात कर रहे हैं, “परमेश्वर में विश्वास के अपने वर्षों के दौरान लोग किसके सहारे जिए हैं” उसके संबंध में क्या तुम लोगों को अपनी कुछ दशाओं और व्यवहारों की याद आती है? (यह मुझे यह सोचने पर मजबूर करता है कि अगर मेरे पास कभी परिवार न हो, अगर मैं कभी भी परमेश्वर के आदेश के साथ विश्वासघात न करूँ, बड़ी परीक्षाएँ आने पर अगर मैं परमेश्वर से कोई शिकायत न करूँ, तो अंत में परमेश्वर मुझे मरने नहीं देगा, ऐसा मेरा मानना है।) यह खयाली पुलाव पकाना है, जो आज की संगति के विषय के करीब है और वास्तविक स्थिति को छूता है। यह वास्तविक जीवन में व्यावहारिक काम-काज को लेकर एक दृष्टिकोण है। और कुछ? (मेरा एक दृष्टिकोण है : मुझे लगता है कि जब तक मैं अपनी आस्था में अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करता हूँ, मुझे अवश्य ही आशीष मिलेगा और एक अद्भुत परिणाम और गंतव्य प्राप्त होगा।) बहुत-से लोगों का ऐसा दृष्टिकोण है, क्या ऐसा नहीं है? यह मूल रूप से एक ऐसा दृष्टिकोण है जिस पर हर कोई सहमत हो सकता है। क्या किसी का दृष्टिकोण अलग है? चलो इसके बारे में जानते हैं। मैं तुम लोगों को कुछ बताना चाहता हूँ : कुछ लोग कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, और अपने व्यक्तिगत अनुभवों, कल्पनाओं, या आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़ने से उन्होंने जो किसी तरह के अनुभव और जो कुछ उदाहरण प्राप्त किए हैं, उनके आधार पर वे अभ्यास से संबंधित कुछ तरीके संक्षेप में बताते हैं, जैसे परमेश्वर में विश्वास करने वालों को आध्यात्मिक बनने के लिए कैसे कार्य करना चाहिए, सत्य का अभ्यास करने के लिए उन्हें कैसे कार्य करना चाहिए, इत्यादि। वे सोचते हैं कि वे जो करते हैं वह सत्य का अभ्यास करना है, और ऐसा करके वे परमेश्वर के इरादे पूरे कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, जब कुछ लोग बीमार होते हैं, तो इस मामले में परमेश्वर के इरादे और सत्य की तलाश करने की आवश्यकता होती है। यह उन सबसे बुनियादी बातों में से एक है, जिन्हें परमेश्वर में विश्वास करने वालों को जानना चाहिए। लेकिन वे अभ्यास कैसे करते हैं? वे कहते हैं, “यह बीमारी परमेश्वर का आयोजन है, और मुझे आस्था के सहारे जीना है, तो मैं दवा नहीं लूँगा, इंजेक्शन नहीं लगवाऊँगा, या अस्पताल नहीं जाऊँगा। तुम मेरी आस्था के बारे में क्या सोचते हो? मजबूत है, है न?” क्या इस प्रकार का व्यक्ति आस्था रखता है? (हाँ।) तुम लोग इस दृष्टिकोण से सहमत हो, और तुम लोग भी इसी प्रकार अभ्यास करते हो। तुम सोचते हो कि यदि तुम बीमार हो, तो इंजेक्शन न लगवाना, दवा न लेना, या डॉक्टर के पास न जाना परमेश्वर के इरादे पूरे करने के लिए सत्य का अभ्यास करने के बराबर है। तो तुम लोग किस आधार पर कहते हो कि यह सत्य का अभ्यास है? क्या इस तरह से अभ्यास करना सही है? इसका आधार क्या है? क्या तुमने इसे सत्यापित होते हुए देखा है? तुम लोग निश्चित नहीं हो। चूँकि तुम लोग नहीं जानते कि यह सत्य के अनुरूप है या नहीं, तो इस तरह से अभ्यास करने पर जोर क्यों देते हो? यदि तुम बीमार हो, तुम केवल परमेश्वर से प्रार्थना करते रहते हो, इंजेक्शन नहीं लगवाते, दवा नहीं लेते, डॉक्टर के पास नहीं जाते, और तुम बस मन ही मन परमेश्वर पर भरोसा करते हो और प्रार्थना करते हो, परमेश्वर से इस बीमारी से छुटकारा पाने के लिए प्रार्थना करते हो या अपने आप को उसके आयोजन की दया पर छोड़ देते हो—क्या इस प्रकार अभ्यास करना सही है? (नहीं।) क्या तुम लोग केवल यही सोचते हो कि यह अब गलत है, या क्या तुम्हें एहसास हुआ था कि यह पहले भी गलत था? (अतीत में जब मैं बीमार हुआ, तो मुझे लगा कि डॉक्टर को दिखाना या दवा लेना एक बाहरी तरीका था, और यह अविश्वास की अभिव्यक्ति थी, इसलिए मैं मामला सँभालने के लिए प्रार्थना या दूसरे तरीकों पर भरोसा कर रहा था।) क्या इसका अर्थ यह है कि यदि परमेश्वर ने तुम्हें कोई बीमारी दी है और तुमने उसे ठीक करा लिया है, तो क्या तुम परमेश्वर को धोखा दे रहे हो और तुम्हारे लिए परमेश्वर द्वारा की गई व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण नहीं कर रहे हो? (वह मेरा दृष्टिकोण था।) तो तुम्हें क्या लगता है कि यह दृष्टिकोण सही है या गलत? या, क्या तुम अभी भी भ्रमित हो और नहीं जानते कि यह सही है या गलत, और सोचते हो कि आखिरकार तुमने हमेशा इसी तरह व्यवहार किया है, और किसी और ने नहीं कहा कि यह गलत है, और तुम इसके बारे में दोषी महसूस नहीं करते, तो तुम बस इसी तरह अभ्यास करते रहते हो? (मैंने हमेशा इसी तरह से अभ्यास किया है, और मुझे कुछ भी विशेष महसूस नहीं हुआ।) तो क्या तुम लोग ऐसा करने में थोड़ा भ्रमित महसूस करते हो? चलो इसे छोड़ देते हैं कि तुम सही हो या गलत, लेकिन हम कम से कम एक बात के बारे में आश्वस्त हो सकते हैं, वह यह है कि इस तरह अभ्यास करना सत्य के अनुरूप नहीं है। क्योंकि, यदि यह सत्य के अनुरूप होता, तो तुम्हें कम से कम यह पता होता कि तुम किस सिद्धांत का पालन कर रहे हो, और ऐसा अभ्यास किस सिद्धांत के दायरे में आता है। लेकिन अब जब हम इस पर गौर करते हैं, तो देखते हैं कि लोग अपनी कल्पनाओं के आधार पर इस तरह से कार्य करते हैं। यह एक अंकुश है जो उन्होंने स्वयं पर लगाया है। इसके अलावा, लोग यह सोचते हुए कि जब वे बीमार हों तो उन्हें ऐसा करना चाहिए, अपनी कल्पनाओं के आधार पर इसे अपने लिए एक मानक के रूप में निर्धारित कर लेते हैं, फिर भी वे ठीक से नहीं जानते कि परमेश्वर की अपेक्षा या मंशा क्या है। वे बस एक तरीके के अनुसार कार्य करते हैं जिसकी कल्पना और निर्धारण वे स्वयं ही करते हैं, बिना यह जाने कि इस तरह से कार्य करने से क्या परिणाम मिलेगा। लोग जब इस अवस्था में होते हैं तो वे किसके सहारे जीते हैं? (अपनी-अपनी कल्पनाओं के सहारे जीते हैं।) क्या इन कल्पनाओं के भीतर कोई धारणा होती है? उनकी धारणा क्या होती है? (कि वे इस तरह से अभ्यास करके परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हैं।) यह एक धारणा है। क्या यह मामले की सही समझ है? (नहीं।) इसकी एक परिभाषा और एक परिणाम है : जब तुम ऐसी धारणा और ऐसी कल्पनाओं के साथ जीते हो, तो तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे होते हो।

इस बिंदु तक तुम लोगों ने “वह वास्तव में क्या है, जिस पर लोग जीने के लिए निर्भर हैं,” इस विषय पर काफी हद तक विचार कर लिया होगा, और तुम कमोबेश जानते हो कि इस विषय पर किस बारे में संगति की जाएगी। तो चलो स्थितियों के कुछ प्रकारों के बारे में बात करते हैं। तुम लोग ध्यान से सुनो और सुनते समय मनन करो। इस मनन का उद्देश्य क्या है? इस मनन का उद्देश्य है मैं जिन स्थितियों के बारे में बात कर रहा हूँ, उनकी तुलना अपनी स्थितियों से करना, उन्हें समझना, और जानना कि तुम्हारे पास उस प्रकार की स्थितियाँ और समस्याएँ हैं, और फिर, सत्य से पूर्णतः असंबंधित विभिन्न चीजों के अनुसार जीने के बजाय सत्य के अनुसार जीने का प्रयास करते हुए, उन स्थितियों और समस्याओं को हल करने के लिए सत्य की तलाश करना। “वह वास्तव में क्या है, जिस पर लोग जीने के लिए निर्भर हैं” यह ऐसा विषय है जो बहुत-सी चीजों को छूता है, तो चलो गुणों से शुरुआत करते हैं। कुछ लोग स्पष्ट और वाक्पटुता से बोल सकते हैं। वे लोगों से चिकनी-चुपड़ी, मीठी जुबान में बात करते हैं और वे विशेषकर जल्दी सोचने वाले होते हैं। वे हर स्थिति में ठीक-ठीक जानते हैं कि क्या कहना है। परमेश्वर के घर में वे अपनी मीठी जुबान और त्वरित बुद्धि के साथ अपने कर्तव्यों का पालन भी करते हैं। उनकी झूठी, मीठी बातें सामान्य समस्याओं को गैर-मुद्दों में बदल देती हैं। वे बहुत-सी समस्याओं का समाधान करने में सक्षम प्रतीत होते हैं। अपने तेज दिमाग, समाज में अपने अनुभव और अपनी अंतर्दृष्टि से वे देख सकते हैं कि उनके साथ होने वाली किसी भी सामान्य चीज के साथ क्या चल रहा है; समस्या हल करने के लिए उन्हें बस कुछ शब्द बोलने की जरूरत होती है। दूसरे लोग उनकी प्रशंसा करते हैं, सोचते हैं, “वे चीजों से इतनी आसानी से निपट सकते हैं। मैं क्यों नहीं निपट सकता?” वे भी अपने आप से बहुत मुदित महसूस करते हैं, और सोचते हैं, “देखो, परमेश्वर ने मुझे यह वाक्पटुता और मीठी जुबान, यह चतुर दिमाग, यह अंतर्दृष्टि और तुरंत प्रतिक्रिया देने की क्षमता दी है, इसलिए ऐसा कुछ नहीं है जिसे मैं नहीं सँभाल सकता!” और यहीं से समस्या उत्पन्न होती है। चिकनी-चुपड़ी बातें करने वाला तेज-तर्रार व्यक्ति कुछ कर्तव्य निभाने के लिए अपनी क्षमताओं और योग्यताओं का उपयोग कर सकता है, और अपने कर्तव्य को पूरा करने के दौरान वह कुछ समस्याओं का समाधान करता है या परमेश्वर के घर के लिए कुछ चीजें कर देता है, लेकिन अगर तुम उसके हर काम की विस्तार से जाँच करो तो, तुम केवल एक सवाल ही लेकर लौटोगे कि क्या वह जो कुछ भी करता है वह सत्य के अनुरूप है, क्या यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है, और क्या यह परमेश्वर के इरादे पूरे करता है। ऐसे लोग अक्सर सत्य नहीं समझते या यह नहीं समझते कि सत्य के अनुसार कैसे कार्य करना है, फिर भी वे अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं। लेकिन चाहे वे अपने कर्तव्यों को कितनी भी अच्छी तरह निभाएँ, ऐसा क्या है जिस पर वे भरोसा करते हैं? उनके कर्तव्यों के पालन का मूल बिंदु क्या होता है? उनकी सोच, अंतर्दृष्टि, और उनकी मीठी जुबान। क्या तुम लोगों के बीच भी कोई ऐसा है? (हाँ।) वह व्यक्ति जो अपने दिमाग, उच्च आईक्यू, या मीठी जुबान के आधार पर जीता है, क्या वह जानता है कि वह जो करता है वह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं? (नहीं।) जब तुम लोग कार्य करते हो तो क्या तुम्हारे पास सिद्धांत होते हैं? या इसे दूसरे तरीके से कहें तो जब तुम लोग कार्य करते हो, तो क्या तुम ऐसा शैतानी फलसफों से, अपने चातुर्य से, अपनी बुद्धिमत्ता और प्रज्ञा से ऐसा करते हो—या तुम ऐसा परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार करते हो? यदि तुम लोग हमेशा शैतानी फलसफों के अनुसार, अपनी प्राथमिकताओं और विचारों के अनुसार कार्य कर रहे हो, तो तुम्हारे कार्यों में कोई सिद्धांत नहीं हैं। लेकिन यदि तुम सत्य की खोज करने में सक्षम हो, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हो—तो यह सिद्धांतों के साथ कार्य करना है। क्या अब तुम लोगों के बोलने और कार्य करने के तरीके में कुछ ऐसा है जो सत्य के विरुद्ध है? क्या तुम सिद्धांतों के विरुद्ध जाते हो? जब तुम ऐसा करते हो, तो क्या तुम इसे जानते हो? (कभी-कभी जानते हैं।) तुम उस समय क्या करते हो? (हम परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, पश्चात्ताप करने के अपने संकल्प को मजबूत करते हैं, और परमेश्वर की कसम खाते हैं कि हम फिर कभी इस तरह कार्य नहीं करेंगे।) और अगली बार जब तुम्हारे साथ कुछ ऐसा ही होता है, तो क्या तुम फिर से उसी तरह से कार्य करते हो, और अपने संकल्प को फिर से मजबूत करते हो? (हाँ।) जब भी तुम्हारे साथ कुछ घटित होता है तो तुम हमेशा अपने संकल्प को मजबूत करने का सहारा लेते हो—ठीक है, एक बार जब तुम्हारा संकल्प मजबूत हो जाता है, तो क्या तुम वास्तव में सत्य अभ्यास में लाते हो? क्या तुम वास्तव में सिद्धांतों के मुताबिक कार्य करते हो? क्या यह तुम लोगों को स्पष्ट है? बहुत-से लोग जब उनके साथ कुछ घटित होता है तब सत्य नहीं खोजते, बल्कि वे अपनी क्षुद्र युक्तियों, अपने गुणों के आधार पर जीते रहते हैं। क्या तेज दिमाग और मीठी जुबान होना ही गुण का एकमात्र प्रकार है? गुणों के सहारे जीना और कैसे अभिव्यक्त होता है? उदाहरण के लिए कुछ लोगों को गाना गाना बहुत पसंद होता है और वे दो-तीन बार सुनने के बाद पूरा गाना गा सकते हैं। इसलिए इस क्षेत्र में उनके कर्तव्य होते हैं, और वे सोचते हैं कि यह कर्तव्य उन्हें परमेश्वर ने दिया है। यह भावना सही और सटीक है। वर्षों के दौरान वे कई भजन सीख जाते हैं, और जितना अधिक वे गाते हैं, उतना ही बेहतर होते जाते हैं। हालाँकि एक समस्या है जिसके बारे में उन्हें जानकारी नहीं होती है। यह क्या है? उनका गायन उत्तरोत्तर बेहतर होता जाता है और वे इस गुण को अपना जीवन मानने लगते हैं। क्या यह गलत नहीं है? वे हर दिन अपने गुण के सहारे जीते हैं, और जब वे हर दिन भजन गाते हैं, तो वे मानने लगते हैं कि उन्होंने जीवन प्राप्त कर लिया है, लेकिन क्या यह सिर्फ एक भ्रम नहीं है? यदि तुम गायन से प्रभावित हो भी जाओ, दूसरे इसका आनंद भी लें और इससे दूसरों को लाभ भी हो, तब भी क्या इससे यह साबित हो सकता है कि तुमने जीवन प्राप्त कर लिया है? कहना मुश्किल है। यह इस पर निर्भर है कि तुम सत्य को कितना समझते हो, क्या तुम सत्य का अभ्यास कर सकते हो, क्या तुम्हारे कार्यों और कर्तव्य में सिद्धांत होते हैं, और क्या तुम्हारे पास वास्तविक अनुभवात्मक गवाही है। केवल इन पहलुओं से ही तुम निर्णय ले सकते हो कि लोगों के पास सत्य वास्तविकताएँ हैं या नहीं। यदि उनके पास सत्य वास्तविकताएँ हैं, तो वे ऐसे लोग हैं जिनके पास जीवन है, विशेष रूप से वे लोग जो परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रह सकते हैं, और वे लोग जो वास्तव में परमेश्वर से प्रेम कर उसको समर्पित हो पाते हैं। यदि किसी व्यक्ति के पास गुण और क्षमताएँ हैं, और उन्हें अपने कर्तव्य में अच्छे परिणाम भी मिलते हैं, लेकिन वे सत्य का अनुसरण नहीं करते और केवल अपने गुणों के आधार पर जीते हैं, अपनी योग्यताओं का दिखावा करते हैं और कभी किसी का आज्ञापालन नहीं करते, तो क्या ऐसे व्यक्ति में जीवन हो सकता है? किसी के पास जीवन है या नहीं, इसकी कुंजी यह है कि क्या उनके पास सत्य वास्तविकताएँ हैं। क्षमतावान और गुणी लोग सत्य कैसे प्राप्त कर सकते हैं? वे गुणों पर भरोसा किए बिना कैसे रह सकते हैं? वे इस तरह जीने से कैसे बच सकते हैं? उन्हें सत्य की खोज करनी चाहिए। सबसे पहले उन्हें स्पष्ट रूप से पता होना चाहिए कि गुण क्या होते हैं और जीवन क्या होता है। जब किसी व्यक्ति के पास गुण होता है या कोई क्षमता होती है, तो इसका मतलब है कि वह किसी चीज में स्वाभाविक रूप से बेहतर है या दूसरों की तुलना में किसी न किसी तरह से उत्कृष्ट है। उदाहरण के लिए, हो सकता है तुम दूसरों की तुलना में थोड़ी तेजी से प्रतिक्रिया देते हो, हो सकता है तुम चीजों को दूसरों की तुलना में थोड़ा तेजी से समझते हो, हो सकता है तुमने किसी पेशेवर कौशल में महारत हासिल कर ली हो, या तुम एक शानदार वक्ता हो, इत्यादि। ये ऐसे गुण और क्षमताएँ हैं जो किसी व्यक्ति के पास हो सकती हैं। यदि तुममें कुछ क्षमताएँ और खूबियाँ हैं, तो तुम इन गुणों और क्षमताओं को कैसे समझते हो और कैसे सँभालते हो, यह बहुत महत्वपूर्ण होता है। यदि तुम सोचते हो कि तुम्हारी जगह कोई नहीं ले सकता क्योंकि तुम्हारे जैसे गुण और क्षमताएँ किसी और के पास नहीं हैं, और यदि तुम अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपने गुणों और क्षमताओं का उपयोग करते हो तो तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो, तो यह दृष्टिकोण सही है या गलत? (गलत है।) तुम क्यों कहते हो कि यह गलत है? क्षमताएँ और गुण वास्तव में क्या होते हैं? तुम्हें उन्हें कैसे समझना चाहिए, कैसे उनका उपयोग करना चाहिए और कैसे उनसे निपटना चाहिए? सच तो यह है कि तुम्हारे पास चाहे जो भी गुण या क्षमता हो, इसका मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे पास सत्य और जीवन है। यदि लोगों के पास कुछ निश्चित गुण और क्षमताएँ हैं, तो उनके लिए ऐसा कर्तव्य निभाना उचित होता है जिसमें इन गुणों और क्षमताओं का उपयोग होता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं, न ही इसका मतलब यह है कि वे सिद्धांतों के अनुसार काम कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, यदि तुम गायन का गुण लेकर पैदा हुए हो, तो क्या तुम्हारी गायन क्षमता सत्य के अभ्यास का प्रतिनिधित्व करती है? क्या इसका मतलब यह है कि तुम सिद्धांतों के अनुसार गाते हो? ऐसा नहीं है। उदाहरण के लिए, मान लें कि तुम में शब्दों के प्रति स्वाभाविक प्रतिभा है और तुम लिखने में अच्छे हो। यदि तुम सत्य नहीं समझते, तो क्या तुम्हारा लेखन सत्य के अनुरूप हो सकता है? क्या यह जरूरी है कि इसका मतलब यही हो कि तुम्हारे पास अनुभवात्मक गवाही है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) इसलिए गुण और क्षमताएँ सत्य से भिन्न हैं और उनकी तुलना सत्य से नहीं की जा सकती। चाहे तुम्हारे पास जो भी गुण हो, यदि तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभाओगे। कुछ लोग अक्सर अपने गुणों का दिखावा करते हैं और आमतौर पर महसूस करते हैं कि वे दूसरों से बेहतर हैं, इसलिए वे अन्य लोगों को तुच्छ समझते हैं और अपने कर्तव्यों का पालन करते समय दूसरों के साथ सहयोग करने को तैयार नहीं होते। वे हमेशा प्रभारी बने रहना चाहते हैं, और परिणामस्वरूप वे अपने कर्तव्यों का पालन करते समय अक्सर सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं, और उनकी कार्यकुशलता भी बहुत कम होती है। गुणों ने उन्हें अहंकारी और आत्म-तुष्ट बना दिया है, दूसरों को नीचा दिखाने पर मजबूर किया है, और उन्हें हमेशा यह महसूस कराया है कि वे अन्य लोगों से बेहतर हैं और कोई भी उनके जितना अच्छा नहीं है, और इस वजह से वे आत्मसंतुष्ट हो गए हैं। क्या ये लोग अपने गुणों के कारण बर्बाद नहीं हुए हैं? वास्तव में बर्बाद हुए हैं। जिन लोगों में गुण होते हैं और क्षमताएँ होती हैं, उनके अहंकारी और आत्म-तुष्ट होने की संभावना सबसे अधिक होती है। यदि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते और हमेशा अपने गुणों के सहारे जीते हैं, तो यह बहुत खतरनाक बात होती है। चाहे कोई व्यक्ति परमेश्वर के घर में कोई भी कर्तव्य निभाए, चाहे उसके पास किसी भी प्रकार की क्षमता हो, यदि वह सत्य का अनुसरण नहीं करता तो वह निश्चित रूप से अपना कर्तव्य पूरा करने में विफल रहेगा। व्यक्ति के पास जो भी गुण और क्षमताएँ हैं, उसे उसी से संबंधित कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए। यदि वह सत्य भी समझ सकता है और सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकता है, तो उसके गुणों और क्षमताओं की उस कर्तव्य के प्रदर्शन में भूमिका होगी। जो लोग सत्य स्वीकार नहीं करते, और सत्य सिद्धांतों की खोज नहीं करते, और चीजों को करने के लिए केवल अपने गुणों पर भरोसा करते हैं, वे अपने कर्तव्य पूरा करके कोई परिणाम प्राप्त नहीं करेंगे, और उनके हटा दिए जाने का जोखिम बना रहेगा। यहाँ एक उदाहरण दिया गया है : कुछ लोग लिखने में प्रतिभाशाली होते हैं, लेकिन सत्य नहीं समझते, और जो वे लिखते हैं उसमें बिल्कुल भी सत्य वास्तविकता नहीं होती। इससे दूसरों को कैसे शिक्षा मिलेगी? इसका प्रभाव उस व्यक्ति की तुलना में कम होता है जो अशिक्षित है लेकिन अपनी गवाही के बारे में बात करते हुए सत्य समझता है। बहुत-से लोग गुणों के बीच रहते हैं और सोचते हैं कि वे परमेश्वर के घर में उपयोगी व्यक्ति हैं। लेकिन मुझे बताओ, अगर वे कभी सत्य का अनुसरण नहीं कर पाते, तो क्या वे अभी भी मूल्यवान हैं? यदि किसी के पास गुण और क्षमताएँ हैं लेकिन सत्य सिद्धांतों का अभाव है, तो क्या वह अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकता है? जो कोई भी वास्तव में इस मुद्दे की असलियत देखेगा और इसे समझेगा, उसे पता चल जाएगा कि गुणों और क्षमताओं के साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए। यदि तुम्हारी दशा ऐसी है जिसमें तुम हमेशा अपने गुणों के बारे में शेखी बघारते हो और सोचते हो कि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है, कि तुम दूसरों से बेहतर हो, जबकि निजी तौर पर उन्हें तुच्छ समझते हो, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए; तुम्हें गुणों की शेखी बघारने के सार की असलियत जाननी होगी। क्या गुणों पर घमंड करना मूर्खता और अज्ञानता की पराकाष्ठा नहीं है? यदि कोई चिकनी-चुपड़ी बातें करने में सक्षम है, तो क्या इसका मतलब यह है कि उसके पास सत्य वास्तविकता है? क्या गुण होने का मतलब यह है कि उसके पास सत्य और जीवन है? क्या ऐसा व्यक्ति जो बिल्कुल भी वास्तविकता न होने के बावजूद अपने गुणों का दिखावा करता है, बेशर्म नहीं है? यदि वे इन चीजों की असलियत जान जाएँ तो वे डींगें नहीं हाँकेंगे। यहाँ एक और सवाल है : इन कुछ हद तक गुणी और क्षमतावान लोगों के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या होती है? क्या तुम लोगों के पास ऐसी किसी चीज का अनुभव है? (उनकी सबसे बड़ी चुनौती यह होती है कि वे हमेशा सोचते हैं कि वे दूसरों से बेहतर हैं, कि वे हर तरह से अच्छे हैं। वे बहुत अहंकारी और दंभी होते हैं; वे हर किसी को तुच्छ समझते हैं। ऐसे लोगों के लिए सत्य स्वीकारना और सत्य का अभ्यास करना आसान नहीं होता।) वह इसका हिस्सा है। और कुछ? (उनके लिए अपने गुणों और क्षमताओं को छोड़ना कठिन होता है। वे हमेशा सोचते हैं कि वे अपने गुणों और क्षमताओं का उपयोग करके बहुत सारी समस्याओं का समाधान कर सकते हैं। वे बस इतना नहीं जानते कि चीजों को सत्य के अनुसार कैसे देखा जाए।) (गुणी लोग हमेशा सोचते हैं कि वे चीजों को स्वयं सँभाल सकते हैं, इसलिए जब उनके साथ कुछ होता है, तो उनके लिए परमेश्वर पर भरोसा करना कठिन होता है, और वे सत्य खोजने के लिए तैयार नहीं होते।) तुम लोग जो कह रहे हो वे तथ्य हैं, और तथ्यों के अलावा कुछ नहीं हैं। जो लोग गुणी और क्षमतावान होते हैं, वे खुद को बहुत चतुर समझते हैं, उन्हें लगता है कि वे सब कुछ समझते हैं—लेकिन उन्हें यह नहीं पता होता कि गुण और क्षमताएँ सत्य का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं, इन चीजों का सत्य से कोई संबंध नहीं होता। जब लोग अपने कार्यों में गुणों और कल्पनाओं पर भरोसा करते हैं, तो उनके विचार और राय अक्सर सत्य के विपरीत चलते हैं—लेकिन उन्हें यह दिखता ही नहीं, वे फिर भी सोचते हैं, “देखो मैं कितना होशियार हूँ; मैंने इतने चतुराई भरे विकल्प चुने! इतने बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय लिए! तुम लोगों में से कोई भी मेरी बराबरी नहीं कर सकता।” वे सदैव आत्म-मुग्धता और आत्म-प्रशंसा की मनःस्थिति में रहते हैं। उनके लिए अपने हृदय को शांत कर पाना और यह सोच पाना कठिन होता है कि परमेश्वर उनसे क्या चाहता है, सत्य क्या है और सत्य सिद्धांत क्या हैं। इसलिए उनके लिए सत्य समझना कठिन होता है, भले ही वे कर्तव्य निभाते हैं, पर वे सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते, और इसलिए उनका सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाना भी बहुत मुश्किल होता है। संक्षेप में, यदि कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण नहीं कर सकता और सत्य स्वीकार नहीं कर सकता, तो चाहे कितना भी गुणी या क्षमतावान हो, वह अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभा पाएगा—इसमें लेश मात्र भी संदेह नहीं हो सकता।

गुणों और क्षमताओं को एक ही तरह की चीज माना जा सकता है। क्षमताएँ कौन-सी होती हैं? कुछ लोग खास किस्म की टेक्नोलॉजी में विशेष रूप से दक्ष होते हैं। उदाहरण के लिए कुछ पुरुषों को गैजेट्स के साथ छेड़छाड़ करना पसंद होता है और कुछ लोग ऐसे होते हैं जो इलेक्ट्रॉनिक्स में काफी कुशल होते हैं, जो अंदरूनी कंप्यूटर कोड या सॉफ्टवेयर प्रोग्राम के इस्तेमाल में काफी निपुण होते हैं। वे इन चीजों में महारत हासिल कर सकते हैं और उन्हें बहुत जल्दी याद कर सकते हैं—यानी इन चीजों को समझने और याद रखने की उनकी क्षमता असाधारण होती है। यह एक क्षमता है। कुछ लोग भाषाएँ सीखने में अच्छे होते हैं। चाहे वे कोई भी भाषा सीखें, वे बहुत तेजी से सीखते हैं और उनकी याददाश्त सामान्य लोगों से अधिक होती है। कुछ लोग गायन, नृत्य या कला में अच्छे होते हैं, कुछ मेकअप और अभिनय में अच्छे होते हैं, कुछ निर्देशक हो सकते हैं, इत्यादि। चाहे कोई भी क्षमता हो, अगर कोई व्यक्ति किसी प्रकार के काम में संलग्न रहता है, तो यह “वह वास्तव में क्या है, जिस पर लोग जीने के लिए निर्भर हैं,” विषय से जुड़ा है। हमें मानवीय गुणों और क्षमताओं का विश्लेषण करने की आवश्यकता क्यों पड़ती है? क्योंकि लोगों को अपने गुणों और क्षमताओं के अनुसार जीने में आनंद आता है, और लोग उन्हें पूँजी के रूप में, अपनी आजीविका के स्रोत, जीवन, और अपने जीवन के मूल्य, अनुसरण के लक्ष्य और महत्व के रूप में मानते हैं। लोगों को लगता है कि उनका जीने के लिए इन चीजों पर भरोसा करना स्वाभाविक है, और वे उन्हें मानव जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा मानते हैं। आज लगभग हर कोई अपने गुणों और क्षमताओं के सहारे जीता है। तुम लोगों में से प्रत्येक किस प्रकार के गुणों के सहारे जीता है? (मुझे लगता है कि मुझे भाषा का गुण मिला है। इसलिए मैं उस गुण के साथ सुसमाचार का प्रचार करता हूँ—जब मैं किसी ऐसे व्यक्ति से बात कर रहा होता हूँ जो सच्चे मार्ग की जाँच कर रहा है, तो मैं उन्हें करीब ला सकता हूँ और जो मैं कहता हूँ, उसे वे सुनना चाहते हैं।) अच्छा, क्या यह अच्छा है या नहीं कि तुम्हारे पास यह गुण है? (अब जब मैंने परमेश्वर की संगति के बारे में सुना है, तो मुझे लगता है कि यह गुण मेरे सत्य सिद्धांतों की खोज में बाधा बनेगा।) तुम कह रहे हो कि भाषा का गुण होना अच्छा नहीं है, और तुम इस गुण का उपयोग अब और नहीं करना चाहोगे, क्या यह सही है? (नहीं।) तो फिर तुम क्या कह रहे हो? अब तुम लोगों को यह समझने की जरूरत है कि आज की चर्चा का केंद्र बिंदु क्या है, यह तुम लोगों की किस समस्या का समाधान करेगी, इन गुणों के सहारे जीने में क्या गलत है और इसमें क्या सही है। तुम्हें इन चीजों पर स्पष्ट होना चाहिए। यदि तुम इन बातों को नहीं समझते, और यदि अंत में इतनी बातचीत के बाद, तुम्हें लगता है कि सही चीजें गलत हैं, और गलत चीजें भी गलत हैं, और तुम जो कुछ भी करते हो वह गलत है, तो क्या तुम अपने गुणों के सहारे जीने की समस्या का समाधान कर सकते हो? (नहीं। सुसमाचार का प्रचार करने के लिए भाषा के अपने गुण पर भरोसा करके मुझे लगता है कि मेरा इरादा परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना नहीं है, इसके बजाय दिखावा करना, खुद की प्रशंसा करना और अपने बारे में अच्छा महसूस करना है।) तुमने अभी-अभी कारण बताया है कि अपने गुणों के आधार पर जीना गलत क्यों होता है। तुम सोचते हो कि यह गुण तुम्हारी पूँजी है, तुम्हारे आत्म-मूल्य का बोध है और ये विचार और उद्गम बिंदु गलत हैं। तुम इस समस्या को कैसे हल कर सकते हो? (मुझे यह जानना चाहिए कि मेरा गुण केवल मेरा कर्तव्य निभाने का एक साधन है। मेरे गुण का उपयोग करने का उद्देश्य अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना और परमेश्वर के आदेश को पूरा करना है।) इस तरह सोचने के बाद क्या तुम अचानक सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होगे? (नहीं।) तो तुम इन गुणों के सहारे न जीकर सत्य का अभ्यास कैसे करते रह सकते हो? जब तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो, तब यदि तुम अपने गुणों का उपयोग अपने व्यक्तिगत कौशल और क्षमताओं को दिखाने के लिए कर रहे हो, तो तुम अपने गुणों के सहारे जी रहे हो। हालाँकि यदि तुम अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने और समर्पित होने के लिए अपने गुणों और ज्ञान का उपयोग करते हो, और तब तुम परमेश्वर के इरादे पूरे करने और उन परिणामों को प्राप्त करने में सक्षम होते हो जिनकी परमेश्वर को अपेक्षा है, और यदि तुम इस बात पर विचार करते हो कि कैसे बोलो और क्या कहो कि बेहतर ढंग से परमेश्वर की गवाही दे सको, और लोगों को यह समझने और स्पष्ट होने में बेहतर ढंग से मदद कर सको कि परमेश्वर क्या कार्य कर रहा है, और अंततः परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने में लोगों की मदद कर पाओ, तो फिर तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो। क्या यहाँ कोई अंतर है? (हाँ।) क्या तुम लोग कभी अपने गुणों, क्षमताओं या योग्यताओं का प्रदर्शन करते समय बहक जाते हो और भूल जाते हो कि तुम अपना कर्तव्य निभा रहे थे, और इसके बजाय तुमने एक गैर-विश्वासी की ही तरह दूसरों के सामने दिखावा किया? क्या तुम्हारे साथ कभी ऐसा हुआ है? (हाँ।) तो इन स्थितियों में किसी व्यक्ति की आंतरिक स्थिति कैसी होती है? यह भोग की स्थिति है, जहाँ उनमें परमेश्वर से डरने वाला हृदय, संयम या अपराध-बोध नहीं होता, जहाँ कुछ करते समय उनके दिमाग में कोई लक्ष्य या सिद्धांत नहीं होते, और जहाँ वे पहले ही वो बुनियादी गरिमा और शालीनता खो चुके होते हैं जो एक ईसाई में होनी चाहिए। यह क्या बन जाता है? यह उनके लिए अपने कौशल का दिखावा और अपनी सत्यनिष्ठा से समझौता बन जाता है। अपना कर्तव्य निभाने के दौरान क्या तुम अक्सर ऐसी स्थिति का अनुभव करते हो, जहाँ तुम केवल अपनी क्षमताओं और गुणों का प्रदर्शन करने की परवाह करते हो, और जहाँ तुम सत्य की खोज नहीं करते? जब तुम ऐसी स्थिति में होते हो, तो क्या तुम स्वयं इसका एहसास कर पाते हो? क्या तुम अपना रास्ता बदल पाते हो? यदि तुम इसे महसूस कर सकते हो और अपना रास्ता बदल सकते हो, तो तुम सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होगे। लेकिन यदि तुम हमेशा ऐसे ही रहते हो, और लंबे समय तक बार-बार इस स्थिति का अनुभव करते हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो पूरी तरह से अपने गुणों के सहारे जीता है और जो बिल्कुल भी सत्य का अभ्यास नहीं करता। तुम लोगों को क्या लगता है कि तुम्हारा संयम कहाँ से आता है? तुम्हारे संयम की शक्ति किससे तय होती है? यह इस बात से निर्धारित होती है कि तुम सत्य से कितना प्रेम करते हो और तुम बुरी या नकारात्मक चीजों से कितनी घृणा करते हो। जब तुम सत्य को समझ लोगे तो तुम बुरा नहीं करना चाहोगे, और जब तुम नकारात्मक चीजों से नफरत करोगे तो भी तुम बुरा नहीं करना चाहोगे—और ठीक इसी तरह संयम की भावना आती है। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते उनके लिए बुरी चीजों से घृणा करना असंभव होता है। इसीलिए उनमें संयम की कोई भावना नहीं होती और इसके बिना वे बेरोक-टोक अनैतिकता के लिए उत्तरदायी होते हैं। वे मनमाने और लापरवाह होते हैं और उन्हें इसकी जरा भी परवाह नहीं होती कि वे कितनी बुराई करते हैं।

एक और स्थिति होती है जिसका अनुभव अपने गुणों पर भरोसा करके जीने वाले लोग करते हैं। चाहे लोगों के पास जो भी क्षमताएँ, गुण या कौशल हों, अगर वे केवल काम करते हैं और मेहनत करते हैं, और उन्होंने कभी भी सत्य की खोज नहीं की है, न ही परमेश्वर के इरादे समझने की कोशिश की है, मानो सत्य के अभ्यास करने की अवधारणा उनके दिमाग में मौजूद ही न हो, और उनका एकमात्र प्रोत्साहन काम खत्म करके इसे पूरा करना हो, तो क्या यह पूरी तरह से अपने गुणों और क्षमताओं, और उनकी अपनी क्षमताओं और कौशल के सहारे जीना नहीं है? परमेश्वर में अपने विश्वास में वे बस मेहनत करना चाहते हैं ताकि वे आशीष प्राप्त कर सकें, और परमेश्वर के आशीष के लिए अपने स्वयं के गुणों और कौशलों से लेन-देन कर सकें। अधिकांश लोग इसी स्थिति में होते हैं। अधिकांश लोग इस दृष्टिकोण को अपनाते हैं, विशेषकर तब जब परमेश्वर का घर उन्हें किसी प्रकार का नियमित कार्य सौंपता है—वे केवल मेहनत करते हैं। दूसरे शब्दों में वे अपने लक्ष्यों को पूरा करने के लिए मेहनत पर निर्भर रहना चाहते हैं। कभी-कभी वे बात करते या किसी चीज पर नजर डालते हुए ऐसा करते हैं; कभी-कभी अपने हाथों से काम करते या इधर-उधर दौड़ते हुए ऐसा करते हैं। उन्हें लगता है कि ऐसा करके उन्होंने बहुत बड़ा योगदान दिया है। किसी का अपने गुण पर भरोसा करके जीने का यही मतलब होता है। हम ऐसा क्यों कहते हैं कि अपने गुणों और क्षमताओं के सहारे जीना अपना कर्तव्य निभाने के बजाय मेहनत करना होता है, सत्य का अभ्यास करने की तो बात ही दूर है? एक अंतर है। उदाहरण के लिए मान लो कि परमेश्वर का घर तुम्हें एक कार्य देता है, और जब तुम इसे ले लेते हो, तुम सोचते हो कि कार्य को जल्द से जल्द कैसे पूरा किया जाए, ताकि तुम अपने अगुआ को रिपोर्ट कर सको और उनकी प्रशंसा प्राप्त कर सको। हो सकता है कि तुम्हारा रवैया काफी कर्तव्यनिष्ठ हो और तुम चरण-दर-चरण योजना बनाओ, पर तुम केवल कार्य पूरा करने और दूसरों को दिखाने के लिए इसे करने पर ध्यान केंद्रित करते हो। या तुम इसे करते समय अपने लिए एक मानक निर्धारित कर सकते हो, यह सोचकर कि कार्य को इस तरीके से कैसे किया जाए जो तुम्हें संतुष्ट और खुश करे और जो तुम्हारे अपनाए गए पूर्णता के मानक को पूरा करता हो। चाहे तुम जैसे भी मानक निर्धारित करो, यदि तुम जो करते हो उसका सत्य से कोई संबंध नहीं है, यदि यह सत्य की खोज करने, और परमेश्वर की अपेक्षाओं को समझने और पुष्टि करने के बाद नहीं किया जाता, और यदि इसके बजाय यह आँख बंद करके किया जाता है और उलझे हुए मन से किया जाता है, तो यह मेहनत करना है। यह खयाली पुलाव की मानसिकता बनाए रखते हुए अपने दिमाग, गुणों, क्षमताओं और कौशल पर भरोसा करके काम करना है। इस तरह से काम करने का परिणाम क्या होता है? हो सकता है कि तुम कार्य पूरा कर लो, और कोई समस्या न बताए। तुम बहुत खुश होते हो, लेकिन कार्य करने की प्रक्रिया में पहले तो तुम परमेश्वर का इरादा नहीं समझ पाए। दूसरा, तुमने इसे अपने पूरे हृदय, मन और शक्ति से नहीं किया; तुम्हारे हृदय ने सत्य की खोज नहीं की। यदि तुमने सत्य सिद्धांतों की खोज की होती और परमेश्वर के इरादे को तलाशा होता, तो कार्य का तुम्हारा प्रदर्शन मानक के अनुरूप होता। तुम भी सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने में सक्षम हो गए होते, और सटीक रूप से यह समझने में सक्षम हो गए होते कि तुमने जो किया वह परमेश्वर के इरादे के अनुरूप था। हालाँकि यदि तुम इसमें अपना मन नहीं लगाते, और काम को उलझे हुए मन से करते हो, तो भले ही यह पूरा हो जाए और काम खत्म हो जाए, तुम अपने मन में यह नहीं जान पाओगे कि तुमने इसे कितना अच्छा किया, तुम्हारे पास कोई मानक नहीं होगा, और तुम नहीं जान पाओगे कि कार्य परमेश्वर के इरादे के अनुरूप किया गया था या सत्य के अनुरूप। उस स्थिति में तुम अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे होते, तुम श्रम कर रहे होते हो।

हर कोई जो परमेश्वर में विश्वास करता है उसे उसके इरादे समझने चाहिए। केवल वे ही जो अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाते हैं, परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं, और केवल परमेश्वर के आदेश को पूरा करके ही किसी का कर्तव्य-निर्वहन मानक स्तर का हो सकता है। परमेश्वर के आदेश की पूर्ति के लिए एक मानक होता है। प्रभु यीशु ने कहा था : “तू प्रभु अपने परमेश्वर से अपने सारे मन से, और अपने सारे प्राण से, और अपनी सारी बुद्धि से, और अपनी सारी शक्‍ति से प्रेम रखना।” “परमेश्वर से प्रेम करना” उसका एक पहलू है जो परमेश्वर लोगों से अपेक्षा रखता है। यह अपेक्षा स्वयं कहाँ अभिव्यक्त होनी चाहिए? उसमें तुम्हें परमेश्वर का आदेश पूरा करना होगा। व्यावहारिक दृष्टि से यह एक इंसान के तौर पर अपना कर्तव्य बखूबी निभाना है। तो अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने का मानक क्या है? यह परमेश्वर की अपेक्षा है कि एक सृजित प्राणी के रूप में तुम अपना कर्तव्य अपने पूरे मन, प्राण, बुद्धि और शक्ति से अच्छे से निभाओ। यह आसानी से समझ आना चाहिए। परमेश्वर की अपेक्षा को पूरा करने के लिए तुम्हें मुख्य रूप से अपना मन अपने कर्तव्य में लगाने की आवश्यकता होती है। यदि तुम इसमें अपना मन लगा सकते हो, तो तुम्हारे लिए अपना पूरा प्राण, पूरी बुद्धि और अपनी पूरी शक्ति से कार्य करना आसान हो जाएगा। यदि तुम केवल अपने मन की कल्पनाओं पर भरोसा करके, और अपने गुणों पर भरोसा करके अपना कर्तव्य निभाते हो, तो क्या तुम परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी कर सकते हो? बिल्कुल नहीं। तो वह कौन-सा मानक है जिस पर परमेश्वर का आदेश पूरा करने के लिए और अपना कर्तव्य समर्पित रूप से और अच्छी तरह से निभाने के लिए खरा उतरना चाहिए? यह अपने पूरे मन से, अपने पूरे प्राण से, अपनी पूरी बुद्धि से और अपनी पूरी शक्ति से अपना कर्तव्य निभाना है। यदि तुम परमेश्वर-प्रेमी हृदय के बिना अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करने का प्रयास करते हो, तो यह काम नहीं करेगा। यदि तुम्हारा परमेश्वर-प्रेमी हृदय निरंतर मजबूत और अधिक सच्चा होता जाता है, तो तुम स्वाभाविक रूप से अपने कर्तव्य को अपने पूरे मन से, अपने पूरे प्राण से, अपनी पूरी बुद्धि से और अपनी पूरी शक्ति से अच्छे ढंग से करने में सक्षम होगे। तुम्हारा सारा मन, तुम्हारा सारा प्राण, तुम्हारी सारी बुद्धि, तुम्हारी सारी शक्ति—जो सबसे अंत में आती है वह है “तुम्हारी सारी शक्ति”; “तुम्हारा सारा मन” पहले आता है। यदि तुम अपना कर्तव्य पूरे मन से नहीं कर रहे हो, तो तुम इसे अपनी पूरी शक्ति से कैसे कर सकते हो? इसीलिए केवल अपनी पूरी शक्ति से अपना कर्तव्य निभाने का प्रयास करने से कोई परिणाम प्राप्त नहीं हो सकता—न ही सिद्धांतों पर खरा उतरा जा सकता है। परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सबसे महत्वपूर्ण चीज क्या है? (पूरे मन से।) चाहे परमेश्वर तुम्हें कोई भी कर्तव्य या चीज सौंपे, यदि तुम केवल मेहनत करते हो, इधर-उधर भागते हो और जोर लगाकर प्रयास करते हो, तो क्या तुम सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हो सकते हो? क्या तुम परमेश्वर के इरादों के अनुसार कार्य कर सकते हो? (नहीं।) तो फिर तुम परमेश्वर के इरादों के अनुरूप कैसे हो सकते हो? (अपने पूरे मन से।) “पूरे मन से” शब्द कहना आसान है और लोग अक्सर इसे कहते हैं, तो तुम इसे पूरे मन से कैसे कर सकते हो? कुछ लोग कहते हैं, “यह तब होता है जब तुम चीजों को थोड़े अधिक प्रयास और ईमानदारी से करते हो, अधिक सोचते हो, किसी और चीज को अपने दिमाग पर हावी नहीं होने देते, और केवल इस पर ध्यान केंद्रित करते हो कि हाथ में जो काम है उसे कैसे करना है, है न?” क्या यह इतना आसान है? (नहीं।) तो आओ अभ्यास के कुछ बुनियादी सिद्धांतों के बारे में बात करते हैं। उन सिद्धांतों के अनुसार जिनका तुम लोग आमतौर पर अभ्यास करते हो या पालन करते हो, पूरे मन से काम करने के लिए तुम्हें सबसे पहले क्या करना चाहिए? तुम्हें अपनी पूरी बुद्धि का उपयोग करना चाहिए, अपनी ऊर्जा का उपयोग करना चाहिए, और चीजों को करने में अपना मन लगाना चाहिए, और अनमना नहीं होना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति किसी काम को पूरे दिल से नहीं कर पाता है, तो उसका दिल खो गया है, जो कि अपनी आत्मा खो देने के समान है। बोलते समय उनके विचार भटकते रहेंगे, वे कभी भी काम करने में अपना मन नहीं लगाएँगे और चाहे वे कुछ भी करें, उसमें सोचेंगे नहीं। नतीजतन, वे चीजों को अच्छी तरह से सँभाल नहीं पाएँगे। यदि तुम अपना कर्तव्य पूरे मन से नहीं निभाते और अपना पूरा मन उसमें नहीं लगाते, तो तुम अपना कर्तव्य बुरे ढंग से निभाओगे। भले ही तुम कई वर्षों से अपना कर्तव्य निभा रहे हो, तो भी तुम इसे मानक स्तर के ढंग से नहीं कर पाओगे। यदि तुम उसमें अपना मन नहीं लगाते तो तुम कुछ भी अच्छा नहीं कर सकते। कुछ लोग मेहनती कर्मचारी नहीं होते, वे हमेशा अस्थिर और मनमौजी होते हैं, उनका लक्ष्य बहुत ऊँचा होता है, और वे नहीं जानते कि उन्होंने अपना मन कहाँ रख छोड़ा है। क्या ऐसे लोगों के पास मन होता है? तुम लोग कैसे बता सकते हो कि किसी व्यक्ति के पास मन है या नहीं? यदि कोई व्यक्ति जो परमेश्वर में विश्वास रखता है वह शायद ही कभी परमेश्वर के वचन पढ़ता है, तो क्या उसके पास मन होता है? चाहे कुछ भी हो जाए, यदि वे कभी भी परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते, तो क्या उनके पास मन है? चाहे उन्हें जितनी भी कठिनाइयों का सामना करना पड़े, यदि वे कभी भी सत्य की खोज नहीं करते, तो क्या उनके पास मन है? कुछ लोग बिना कोई स्पष्ट परिणाम प्राप्त किए वर्षों तक अपने कर्तव्य निभाते हैं, क्या उनके पास मन होता है? (नहीं।) क्या जिन लोगों के पास मन नहीं होता, वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हैं? लोग अपने कर्तव्यों को पूरे मन से कैसे निभा सकते हैं? सबसे पहले तुम्हें जिम्मेदारी के बारे में सोचना चाहिए। “यह मेरी जिम्मेदारी है, मुझे इसे अपने कंधे लेना होगा। अब जब मेरी सबसे ज्यादा जरूरत है तो मैं भाग नहीं सकता। मुझे अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना है और इसका हिसाब परमेश्वर को देना है।” इसका मतलब है कि तुम्हारे पास एक सैद्धांतिक आधार है। लेकिन क्या केवल सैद्धांतिक आधार होने का मतलब यह होता है कि तुम अपना कर्तव्य पूरे मन से कर रहे हो? (नहीं।) तुम अभी भी परमेश्वर की उन अपेक्षाओं को पूरा करने से दूर हो, जो सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने और पूरे हृदय से कर्तव्य निभाने की हैं। तो अपना कर्तव्य पूरे मन से करने का क्या मतलब होता है? लोग अपने कर्तव्यों को पूरे मन से कैसे निभा सकते हैं? सबसे पहले तुम्हें यह सोचना होगा, “मैं यह कर्तव्य किसके लिए निभा रहा हूँ? क्या मैं यह परमेश्वर, या कलीसिया, या किसी व्यक्ति के लिए कर रहा हूँ?” इसे स्पष्ट रूप से समझ लिया जाना चाहिए। साथ ही : “मुझे यह कर्तव्य किसने सौंपा? क्या यह परमेश्वर था, या यह कोई अगुआ या कलीसिया थी?” इसे भी साफ करना होगा। यह छोटी-सी बात लग सकती है, लेकिन फिर भी इसे सुलझाने के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए। मुझे बताओ, क्या यह कोई अगुआ या कार्यकर्ता था, या कोई कलीसिया थी, जिसने तुम लोगों को तुम्हारा कर्तव्य सौंपा था? (नहीं।) अगर तुम इसके बारे में दिल से आश्वस्त हो, तो यह ठीक है। तुम्हें पुष्टि करनी होगी कि यह परमेश्वर ही था जिसने तुम्हें तुम्हारा कर्तव्य सौंपा है। ऐसा प्रतीत हो सकता है कि यह किसी कलीसिया के अगुआ द्वारा दिया गया है, लेकिन वास्तव में यह सब परमेश्वर की व्यवस्था से आता है। ऐसे समय हो सकते हैं जब यह स्पष्ट रूप से मानवीय इच्छा से आया हो, लेकिन फिर भी तुम्हें पहले इसे परमेश्वर से स्वीकार करना होगा। इसे अनुभव करने का यही सही तरीका है। यदि तुम इसे परमेश्वर से स्वीकार करते हो, और जानबूझकर उसकी व्यवस्था के प्रति समर्पित होते हो, और उसके आदेश को स्वीकार करने के लिए आगे बढ़ते हो—यदि तुम इसे इस तरह से अनुभव करते हो, तो तुम्हें परमेश्वर का मार्गदर्शन और कार्य मिलेगा। यदि तुम लगातार विश्वास करते हो कि सब कुछ मनुष्य द्वारा किया जाता है और मनुष्य से आता है, यदि तुम इस तरह से चीजों का अनुभव करते हो, तो तुम्हें परमेश्वर का आशीष या उसका कार्य नहीं मिलेगा, क्योंकि तुम बहुत अधिक तिकड़मी हो, तुममें आध्यात्मिक समझ की भारी कमी है। तुम्हारी मानसिकता सही नहीं है। यदि तुम सभी मामलों के साथ मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार पेश आते हो, तो तुम्हारे पास पवित्र आत्मा का कार्य नहीं होगा, क्योंकि यह परमेश्वर है जो सभी मामलों पर शासन करता है। किसी के लिए परमेश्वर का घर चाहे जिस भी प्रकार के कार्य करने की व्यवस्था करे, यह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था से आता है, और इसमें परमेश्वर के नेक इरादे हैं। तुम्हें पहले यह जानना होगा। इसे स्पष्ट रूप से देखना बहुत महत्वपूर्ण है; केवल धर्म-सिद्धांत समझने से काम नहीं चलेगा। तुम्हें अपने हृदय में पुष्टि करनी होगी, “यह कर्तव्य मुझे परमेश्वर द्वारा सौंपा गया था। मैं अपना कर्तव्य परमेश्वर के लिए निभा रहा हूँ, अपने लिए नहीं, किसी और के लिए नहीं। एक सृजित प्राणी के नाते यह मेरा कर्तव्य है, और यह परमेश्वर ने मुझे सौंपा है।” चूँकि यह कर्तव्य परमेश्वर ने तुम्हें सौंपा था, तो परमेश्वर ने इसे तुम्हें कैसे सौंपा? क्या इसमें पूरे मन से काम करना शामिल है? क्या सत्य की खोज करना आवश्यक है? तुम्हें सत्य, परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपे गए कर्तव्य की अपेक्षाओं, मानकों और सिद्धांतों की खोज करनी चाहिए, और खोजना चाहिए कि परमेश्वर का वचन क्या कहता है। यदि उसके वचनों को बिल्कुल स्पष्ट रूप से रखा गया है, तो तुम्हारे लिए यह विचार करने का समय है कि उनका अभ्यास कैसे करें और उन्हें वास्तविक कैसे बनाएँ। तुम्हें उन लोगों के साथ भी संगति करनी चाहिए जो सत्य समझते हैं, और फिर परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करना चाहिए। इसका यही मतलब है, इसे पूरे मन से करना। इसके अलावा मान लो कि अपना कर्तव्य निभाने से पहले तुम परमेश्वर का इरादा खोजते हो, सत्य समझ जाते हो, और जान जाते हो कि क्या करना है, लेकिन जब कार्य करने का समय आता है, तो तुम्हारे अपने विचारों और सत्य सिद्धांतों के बीच विसंगतियाँ और विरोधाभास आ जाते हैं। जब ऐसा हो तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें अपना कर्तव्य करने के सिद्धांत पर पूरे मन से कायम रहना चाहिए, और बिना किसी व्यक्तिगत मिलावट और निश्चित रूप से अपनी इच्छा के मुताबिक काम किए बिना, अपना पूरा मन परमेश्वर के प्रति समर्पित होने और उसे संतुष्ट करने में लगाना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “मुझे उन चीजों की परवाह नहीं है। आखिरकार यह कर्तव्य मुझे सौंपा गया था, इसलिए अंतिम निर्णय मेरा ही होना चाहिए। मुझे अपने हिसाब से कार्य करने का अधिकार है, मैं वही करूँगा जो मुझे लगता है कि किया जाना चाहिए। मैं अभी भी पूरे मन से अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ, तो तुम्हारी नजर में यहाँ क्या दोष हैं?” और फिर वे यह पता लगाने में कुछ प्रयास करते हैं कि क्या करना है। यद्यपि अंत में कार्य हो ही जाता है, क्या अभ्यास का यह तरीका और यह अवस्था सही है? क्या यह अपने कर्तव्य पूरे मन से निभाना है? (नहीं।) यहाँ समस्या क्या है? यह अहंकार है, स्वयं में कानून बन जाना, मनमाना और लापरवाह हो जाना है। क्या यह अपना कर्तव्य निभाना है? (नहीं।) यह अपने कर्तव्यों का पालन न करके व्यक्तिगत उद्यम में संलग्न होना है। यह केवल अपनी इच्छा के आधार पर वही करना है जिससे उन्हें संतुष्टि मिलती है और जो उन्हें पसंद आता है, यह पूरे मन से अपने कर्तव्यों को निभाना नहीं है।

अभी मैंने मुख्य रूप से क्षमताओं और गुणों के बारे में बात की। क्या इन क्षमताओं और गुणों में ज्ञान भी शामिल है? क्या ज्ञान और क्षमताओं में कोई अंतर है? क्षमता का तात्पर्य कौशल से है। यह ऐसा क्षेत्र हो सकता है जहाँ कोई व्यक्ति दूसरों की तुलना में अधिक उत्कृष्ट है, उनकी काबिलियत का एक हिस्सा जो अधिक प्रमुख है, जिसमें वे सर्वश्रेष्ठ हैं, या वह कौशल जिसमें वे अपेक्षाकृत सक्षम और अच्छी तरह वाकिफ हैं। ये सभी क्षमताएँ और गुण कहलाते हैं। ज्ञान क्या है? ज्ञान वास्तव में किसको संदर्भित करता है? यदि किसी बुद्धिजीवी ने कई वर्षों तक अध्ययन किया है, कई क्लासिक्स पढ़े हैं, एक निश्चित पेशे या ज्ञान के क्षेत्र का बहुत गहराई से अध्ययन किया है, परिणाम प्राप्त किए हैं, और वह विशिष्ट और गहन निपुणता रखता है, तो क्या इसका क्षमताओं और गुणों से कोई लेना-देना है? क्या ज्ञान को क्षमताओं की श्रेणी में शामिल किया जा सकता है? (नहीं।) यदि कोई व्यक्ति अपना काम करने के लिए क्षमताओं का उपयोग करता है, तो संभव है कि वह एक असंस्कृत और ग्रामीण व्यक्ति हो, कि उसके पास उन्नत शिक्षा का अभाव हो, उसने कोई प्रसिद्ध किताबें न पढ़ीं हों, या बाइबल भी न समझ पाए, लेकिन उनमें अभी भी थोड़ी काबिलियत हो सकती है और वे वाक्पटुता से बोलने में सक्षम हो सकते हैं। क्या यह कोई क्षमता है? (हाँ।) इस व्यक्ति के पास ऐसी क्षमता है। क्या इसका मतलब यह है कि उनके पास ज्ञान है? (नहीं।) तो ज्ञान का क्या अर्थ होता है? इसे कैसे परिभाषित किया जाता है? आओ इसे इस तरह से रखते हैं, उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति ने शिक्षा का अध्ययन किया है, तो क्या उसे इस पेशे का ज्ञान होता है? लोगों को कैसे शिक्षित किया जाए, दूसरों को ज्ञान कैसे प्रदान किया जाए, कौन-सा ज्ञान प्रदान किया जाए, इत्यादि जैसी चीजें? उन्हें इस क्षेत्र का ज्ञान है, तो क्या वे इस क्षेत्र के बुद्धिजीवी हैं? क्या उन्हें इस क्षेत्र में ज्ञान रखने वाला प्रतिभाशाली व्यक्ति कहा जा सकता है? (हाँ।) आओ इसे एक उदाहरण के रूप में उपयोग करते हैं, यदि कोई व्यक्ति शिक्षा में लगा हुआ बुद्धिजीवी है, तो ऐसा व्यक्ति काम करते हुए और कलीसिया की अगुआई करते समय आमतौर पर क्या करेगा? उनके सामान्य अभ्यास क्या हैं? क्या वे हर किसी से वैसे ही बात करते हैं जैसे एक शिक्षक छात्र से करता है? उनके बोलने का लहजा मायने नहीं रखता, मायने यह रखता है कि वे दूसरों के मन में क्या बिठाते हैं और दूसरों को क्या सिखाते हैं। वे वर्षों से इस ज्ञान के साथ जिए हैं, और यह ज्ञान मूल रूप से उनके जीवन का एक हिस्सा बन गया है, इस हद तक कि उनके आचरण और संसार से निपटने के तरीके में या जीवन के हर पहलू में तुम देख सकते हो कि उनके पास यह ज्ञान है और जो ज्ञान उन्होंने अर्जित किया है, उसे वे जी रहे हैं। ये देखना बहुत ही सामान्य बात है। तो ऐसे लोग अक्सर अपना काम करने के लिए किस पर भरोसा करते हैं? उन्होंने जो ज्ञान अर्जित किया है उस पर। उदाहरण के लिए मान लो कि वे किसी को यह कहते हुए सुनते हैं, “मैं परमेश्वर के वचनों को नहीं पढ़ सकता। मैं उन्हें वहीं रखता हूँ, लेकिन मैं बस यह नहीं जानता कि उन्हें कैसे पढ़ा जाए। यदि मैं परमेश्वर के वचनों को नहीं पढ़ सकता, तो मुझे कैसे पता चलेगा कि सत्य क्या है? यदि मैं उसके वचनों को नहीं पढ़ सकता, तो मैं उसके इरादे कैसे समझ पाऊँगा?” वे कहते हैं, “मुझे पता है कि कैसे मेरे पास ज्ञान है, तो मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूँ। यह अध्याय चार अनुच्छेदों में विभाजित है। आमतौर पर यदि लेख एक कथा होती है, तो इसमें छह तत्व होते हैं : समय, स्थान, पात्र, घटना का कारण, विकास प्रक्रिया और निष्कर्ष। जिस समय परमेश्वर के वचन का यह अध्याय अक्टूबर 2011 के अंत में प्रकाशित हुआ था। यह पहला तत्व है। जहाँ तक पात्रों की बात है, परमेश्वर के वचन के इस अध्याय में ‘मैं’ का उल्लेख है, इसलिए पहला व्यक्ति परमेश्वर है, और फिर परमेश्वर ने ‘तुम लोगों’ का उल्लेख किया है, जो हमारे बारे में है। फिर यह कुछ लोगों की स्थितियों का विश्लेषण करता है; कुछ अवस्थाएँ विद्रोही और अहंकारी होती हैं, जिसका तात्पर्य उन लोगों से है जो अहंकारी और विद्रोही हैं, जो वास्तविक कार्य नहीं करते, जो शरारत करते हैं, भ्रष्ट और बुरे लोग हैं। चीजों का क्रम यह है कि लोग बुरे काम करते हैं। कुछ अन्य चीजें भी हैं जो विभिन्न पहलुओं से संबंधित हैं।” इस कार्य पद्धति के बारे में तुम क्या सोचते हो? यह अच्छी बात है कि वे इतने प्यार से लोगों की मदद करते हैं, पर उनके कार्यों का आधार क्या है? (ज्ञान।) मैं यह उदाहरण क्यों बता रहा हूँ? लोगों को अधिक स्पष्ट रूप से समझने में मदद करने के लिए कि ज्ञान क्या होता है। कुछ लोग परमेश्वर के वचन पढ़ना नहीं जानते, लेकिन उन्होंने शिक्षा प्राप्त की है और शायद स्कूल में मानविकी विषयों में अच्छा प्रदर्शन भी किया हो, इसलिए वे परमेश्वर के वचन का एक पृष्ठ खोल सकते हैं, पढ़कर कह सकते हैं, “परमेश्वर के वचन का यह अध्याय बहुत अच्छी तरह से व्यक्त किया गया है! पहले खंड में परमेश्वर सीधे बोलता है, और फिर दूसरे खंड में स्वर में थोड़ा प्रताप और क्रोध दिखता है। तीसरे खंड में सब कुछ विशिष्ट और स्पष्ट रूप से उजागर किया गया है। परमेश्वर का वचन ऐसा ही होना चाहिए। चौथा खंड सामान्य सारांश है, जो लोगों को अभ्यास का मार्ग देता है। परमेश्वर का वचन उत्तम है!” क्या उनका निष्कर्ष और परमेश्वर के वचन का सारांश ज्ञान से आता है? (हाँ।) हालाँकि हो सकता है कि यह उदाहरण बहुत उपयुक्त न हो, फिर भी ऐसा क्या है जो इसे कहकर मैं चाहता हूँ कि तुम लोग समझो? मैं चाहता हूँ कि तुम लोग परमेश्वर के वचन को सँभालने के लिए ज्ञान का उपयोग करने की कुरूपता को स्पष्ट रूप से देखो। यह घृणित है। ऐसे लोग परमेश्वर के वचन को पढ़ने के लिए ज्ञान पर भरोसा करते हैं, तो क्या वे काम करने के लिए सत्य पर भरोसा कर सकते हैं? (नहीं।) बिल्कुल नहीं।

जो लोग ज्ञान के आधार पर जीते हैं वे चीजें जैसे करते हैं, उसकी क्या विशेषताएँ होती हैं? सबसे पहले, उन्हें क्या लगता है कि उनके पास क्या श्रेष्ठताएँ हैं? उनका ज्ञान और सीख, यह तथ्य कि वे बुद्धिजीवी हैं, और यह तथ्य कि उन्होंने ज्ञान-आधारित उद्योगों में काम किया है। जब बुद्धिजीवी कोई काम करते हैं तो उनके पास बुद्धिजीवियों की शैली, विशेषताएँ और ढाँचे होते हैं, इसलिए वे जो काम करते हैं उसमें एक प्रकार की बौद्धिकता आ ही जाती है, जिससे अन्य लोग उनकी प्रशंसा करते हैं। बुद्धिजीवी इसी तरह काम करते हैं; वे हमेशा उस बौद्धिकता के भाव पर ध्यान केंद्रित करते हैं। भले ही वे बाहर से कितने भी कमजोर और शांत क्यों न दिखाई दें, उनके अंदर की चीजें निश्चित रूप से कमजोर या शांत नहीं होतीं, और हर चीज पर उनका हमेशा अपना दृष्टिकोण होता है। हर चीज में वे हमेशा दिखावा करना चाहते हैं, अपनी क्षुद्र तिकड़मों का उपयोग करना चाहते हैं, और ज्ञान के दृष्टिकोणों, रवैयों और विचार के ढाँचों के आधार पर चीजों का विश्लेषण और प्रबंधन करना चाहते हैं। सत्य उनके लिए कुछ पराया होता है, और कुछ ऐसा होता है जिसे स्वीकार करना उनके लिए बहुत कठिन होता है। इसलिए ऐसे व्यक्ति का सत्य के प्रति पहला रवैया उसका विश्लेषण करने का होता है। उनके विश्लेषण का आधार क्या होता है? ज्ञान। मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूँ। क्या निर्देशन की पढ़ाई कर चुके लोगों को निर्देशन का ज्ञान होता है? भले ही तुमने किताबों में व्यवस्थित रूप से निर्देशन का अध्ययन किया हो, या व्यावहारिक रूप से इसका अध्ययन किया हो और उस तरह का काम किया हो, संक्षेप में इस क्षेत्र में ज्ञान पर तुम्हारी पकड़ होती है। चाहे तुमने निर्देशन का गहराई से अध्ययन किया हो या केवल सतही तौर पर किया हो, यदि तुम गैर-विश्वासी दुनिया में निर्देशन के काम में लगे हुए थे, तो इस क्षेत्र में तुमने जो ज्ञान अर्जित किया है या निर्देशन के संबंध में तुम्हारा अनुभव बहुत उपयोगी और मूल्यवान होगा। हालाँकि, क्या इस प्रकार का ज्ञान रखने का मतलब यह है कि तुम निश्चित रूप से परमेश्वर के घर के फिल्म निर्माण कार्य में अच्छा प्रदर्शन करने में सक्षम होगे? क्या तुमने जो ज्ञान अर्जित किया है वह वास्तव में तुम्हें परमेश्वर की गवाही देने के लिए फिल्मों का उपयोग करने में मदद कर सकता है? जरूरी नहीं है। यदि पाठ्यपुस्तकों ने तुम्हें जो सिखाया है, और उद्योग के ज्ञान के नियम और अपेक्षाओं पर ही जोर देते रहते हो, तो क्या तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हो? (नहीं।) क्या यहाँ विवाद या संघर्ष का कोई मुद्दा नहीं है? जब सत्य सिद्धांत ज्ञान के इस पहलू से टकराते हैं, तो तुम इसे कैसे हल करते हो? क्या तुम अपने ज्ञान को अपना मार्गदर्शक मानते हो, या सत्य के सिद्धांतों को? क्या तुम लोग गारंटी दे सकते हो कि तुम्हारे द्वारा फिल्माए गए प्रत्येक शॉट, प्रत्येक दृश्य और प्रत्येक फिल्म में कोई मिलावट नहीं है या इसमें तुम लोगों के ज्ञान की बहुत कम मिलावट है और यह पूरी तरह से परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं के मानकों और सिद्धांतों के अनुरूप है? यदि यह संभव नहीं है, तो तुम्हारे द्वारा अर्जित कोई भी ज्ञान परमेश्वर के घर में काम नहीं आएगा। इस पर विचार करो कि ज्ञान का क्या उपयोग है? कौन-सा ज्ञान उपयोगी है? किस प्रकार का ज्ञान सत्य का खंडन करता है? ज्ञान लोगों के लिए क्या लाता है? जब लोग अधिक ज्ञान प्राप्त करते हैं, तो क्या वे अधिक धर्मपरायण हो जाते हैं और उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय अधिक होता है, या क्या वे अधिक अहंकारी और आत्म-तुष्ट हो जाते हैं? बहुत सारा ज्ञान प्राप्त करने के बाद लोग जटिल, हठधर्मी और अहंकारी हो जाते हैं। कुछ और भी घातक होता है जिसका शायद उन्हें एहसास नहीं है : जब लोग बहुत अधिक ज्ञान हासिल कर लेते हैं, तो वे अंदर से अराजक हो जाते हैं और सिद्धांतों से रहित हो जाते हैं और जितना अधिक वे ज्ञान हासिल करते हैं, उतने ही अधिक अराजक होते जाते हैं। क्या ज्ञान में इन सवालों के जवाब पाए जा सकते हैं कि लोग क्यों जीते हैं और मानव अस्तित्व का मूल्य और अर्थ क्या है? क्या यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि लोग कहाँ से आते हैं और कहाँ जाते हैं? क्या ज्ञान तुम्हें बता सकता है कि तुम परमेश्वर से आए हो और परमेश्वर द्वारा बनाए गए हो? (नहीं।) तो वास्तव में वह क्या है जो ज्ञान के अध्ययन-क्षेत्र में आता है या जिसे ज्ञान लोगों के मन में बिठाता है? भौतिक चीजें, नास्तिक चीजें, जिन चीजों को लोग देख सकते हैं और मन की चीजें जिन्हें वे पहचान सकते हैं, जिनमें से कई लोगों की कल्पनाओं से उत्पन्न होती हैं और बिल्कुल व्यावहारिक नहीं हैं। ज्ञान लोगों के मन में फलसफे, विचारधाराएँ, सिद्धांत, प्राकृतिक नियम इत्यादि भी बिठाता है, फिर भी ऐसी कई चीजें हैं जिन्हें वह स्पष्ट रूप से नहीं समझा सकता। उदाहरण के लिए, गर्जना और बिजली कैसे बनती है या मौसम क्यों बदलते हैं। क्या ज्ञान तुम्हें उनके सच्चे उत्तर दे सकता है? वर्तमान में क्यों जलवायु बदल रही है और असामान्य होती जा रही है? क्या ज्ञान इसे स्पष्ट रूप से समझा सकता है? क्या यह इस समस्या का समाधान कर सकता है? (नहीं।) यह तुम्हें सभी चीजों के स्रोत से संबंधित मुद्दों के बारे में नहीं बता सकता, इसलिए यह उन समस्याओं का समाधान नहीं कर सकता। ऐसे लोग भी हैं जो पूछते हैं, “कुछ लोग मरने के बाद फिर से जीवित क्यों हो जाते हैं?” क्या ज्ञान ने तुम्हें इसका उत्तर दिया है? (नहीं।) तो फिर वह ज्ञान तुम्हें क्या बताता है? यह लोगों को कई रीति-रिवाजों और विनियमों के बारे में बताता है। उदाहरण के लिए, यह विचार कि लोगों को बच्चों का पालन-पोषण करना चाहिए और अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखानी चाहिए, मानव जीवन के बारे में एक प्रकार का ज्ञान है। यह ज्ञान कहाँ से आता है? यह पारंपरिक संस्कृति द्वारा सिखाया जाता है। तो फिर यह सारा ज्ञान लोगों के लिए क्या लेकर आता है? ज्ञान का सार क्या है? इस दुनिया में ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने क्लासिक्स पढ़े हैं, उच्च स्तर की शिक्षा प्राप्त की है, जो जानकार हैं, या जिन्होंने ज्ञान के एक विशेष क्षेत्र में महारत हासिल की है। तो क्या जीवन पथ पर ऐसे लोगों के पास सही दिशा और लक्ष्य होते हैं? क्या उनके पास स्व-आचरण के लिए कोई आधार रेखा और सिद्धांत हैं? इसके अलावा क्या वे परमेश्वर की आराधना करना जानते हैं? (वे नहीं जानते।) एक कदम आगे जाएँ, तो क्या वे सत्य के किसी तत्व को समझते हैं? (वे नहीं समझते।) तो ज्ञान क्या है? ज्ञान लोगों को क्या देता है? लोगों को शायद इसका थोड़ा बहुत अनुभव है। अतीत में जब उनके पास ज्ञान नहीं था, लोगों के आपसी संबंध सरल होते थे—क्या वे अब भी सरल हैं जब लोगों ने ज्ञान प्राप्त कर लिया है? ज्ञान लोगों को और अधिक जटिल बना देता है और वे शुद्ध नहीं रह जाते। ज्ञान के कारण लोगों में सामान्य मानवता की अधिक कमी हो जाती है और यह उन्हें जीवन के लक्ष्यों से वंचित कर देता है। लोग जितना अधिक ज्ञान अर्जित करते हैं, वे परमेश्वर से उतना ही दूर हो जाते हैं। जितना अधिक वे ज्ञान अर्जित करते हैं, उतना ही अधिक वे सत्य और परमेश्वर के वचन से इनकार करते हैं। लोगों के पास जितना अधिक ज्ञान होता है, वे उतने ही अधिक अतिवादी, जिद्दी और बेतुके हो जाते हैं। और परिणाम क्या होता है? दुनिया उत्तरोत्तर अंधकारमय और अधिकाधिक बुरी होती जाती है।

हमने अभी जिक्र किया है कि ज्ञान के अनुप्रयोग और सत्य सिद्धांतों के बीच संघर्ष या टकराव उत्पन्न होने पर उन्हें कैसे हल करना है। जब भी तुम लोग ऐसी स्थिति में होते हो तो तुम क्या करते हो? तुममें से कुछ धर्म-सिद्धांत प्रस्तुत करेंगे : “सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने में क्या कठिनाई आती है? ऐसा क्या है जिसे छोड़ा नहीं जा सकता?” लेकिन जब तुम्हारे साथ कुछ घटित होता है, तो तुम पहले की तरह अपनी इच्छा, अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के सहारे आगे बढ़ते हो, और हालाँकि ऐसे समय भी आ सकते हैं जब तुम सत्य का अभ्यास करना और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहते हो, लेकिन चाहे कुछ भी हो जाए, तुम ऐसा कर नहीं पाते। हर कोई जानता है कि धर्म-सिद्धांत की नजर से सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना सही है; वे जानते हैं कि ज्ञान निश्चित रूप से सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं होगा और जब दोनों में संघर्ष या भीषण अंदरूनी लड़ाई होती है, तो उन्हें सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना शुरू करना होगा और अपने ज्ञान को छोड़ना पड़ेगा। लेकिन क्या यह इतना सरल, तथ्यात्मक मामला है? (नहीं।) नहीं, यह इतना आसान नहीं है। तो अभ्यास करते समय क्या कठिनाइयाँ आती हैं? सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के लिए किसी को कैसे अभ्यास करना चाहिए? ये व्यावहारिक समस्याएँ हैं, है न? उनका समाधान कैसे किया जाना चाहिए? सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण बात, व्यक्ति को समर्पण करना चाहिए। लेकिन लोगों का स्वभाव भ्रष्ट होता है, और कभी-कभी वे खुद को समर्पण के लिए तैयार नहीं कर पाते। वे कहते हैं, “‘आप घोड़े को पानी तक ले जा सकते हैं, लेकिन आप उसे पानी पिला नहीं सकते’—मुझसे समर्पण करवाने की कोशिश करना ऐसा ही एक मामला है, है न? ज्ञान के बलबूते काम करने में क्या बुराई है? यदि तुम इस बात पर जोर देते हो कि मैं सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करूँ, तो मैं समर्पण नहीं करूँगा।” जब एक विद्रोही स्वभाव परेशानी पैदा करने वाला होता है, तो ऐसे समय में तुम क्या करते हो? (प्रार्थना करते हैं।) कभी-कभी प्रार्थना समस्या का समाधान नहीं कर सकती। प्रार्थना करने के बाद तुम्हारा रवैया और मानसिकता थोड़ी बेहतर हो सकती है, और तुम अपनी अवस्था का कुछ हिस्सा बदल सकते हो, लेकिन यदि तुम संबंधित सत्य सिद्धांतों को नहीं समझते या उनके बारे में तुममें स्पष्टता की कमी है, तो हो सकता है कि तुम्हारा समर्पण महज औपचारिकता से अधिक कुछ न रहे। ऐसे समय में तुम्हें सत्य समझने, संबंधित सत्य तलाशने और यह जानने में सक्षम होने का प्रयास करना चाहिए कि तुम जो कर रहे हो वह परमेश्वर के घर के काम, उसकी गवाही और उसके वचनों के प्रसार को कैसे लाभ पहुँचाता है। तुम्हें इन चीजों के बारे में दिल से स्पष्ट होना चाहिए। तुम्हारा कर्तव्य जो भी हो, तुम जो भी कर रहे हो, तुम्हें परमेश्वर के घर के काम और हितों, परमेश्वर के वचनों का प्रसार करने या कर्तव्य को पूरा करने से क्या सिद्ध होना है, इसके बारे में सोचकर शुरुआत करनी चाहिए। वह पहले आता है। इसके बारे में कभी अस्पष्टता और समझौते की गुंजाइश नहीं होती। यदि तुम ऐसे समय में समझौता करते हो, तो तुम अपना कर्तव्य ईमानदारी से नहीं निभा रहे हो, और तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे हो—और इससे भी बुरी बात, यह कहना उचित है कि तुम अपने ही उद्यम में लगे हुए हो। तुम एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने के बजाय अपने लिए काम कर रहे हो। यदि कोई परमेश्वर के आदेश को पूरा करने वाला हो और मनुष्य के कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने वाला हो, तो उसे सबसे पहले जिस सत्य को समझना और अभ्यास करना चाहिए वह यह है कि उसे परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करना होगा। तुम्हारे पास यह दर्शन होना चाहिए। कर्तव्य पालन का मतलब अपने लिए कुछ करना या अपने उद्यम में लगना नहीं होता, खुद की गवाही देना और खुद को बढ़ावा देना तो बिल्कुल भी नहीं होता, न ही यह तुम्हारी शोहरत, फायदे और रुतबे के बारे में होता है। यह तुम्हारा लक्ष्य नहीं है। इसके बजाय यह अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने और परमेश्वर की गवाही देने के बारे में होता है; यह अपनी जिम्मेदारी लेने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के बारे में होता है; यह सामान्य मानवता की अंतरात्मा और विवेक को जीने, एक इंसान की अनुरूपता के साथ जीने और परमेश्वर के समक्ष जीने के बारे में होता है। इस प्रकार की सही मानसिकता के साथ कोई भी व्यक्ति अपने ज्ञान के आधार पर जीवन जीने की बाधाओं पर आसानी से काबू पा सकता है। यदि कुछ चुनौतियाँ बनी भी रहती हैं, तो वे धीरे-धीरे इस पूरी प्रक्रिया में रूपांतरित हो जाएँगी और परिस्थितियाँ बेहतरी के लिए बदल जाएँगी। तो वर्तमान में तुम लोगों का अनुभव कैसा है? क्या यह बेहतर हो रहा है, या यह स्थिर है? यदि तुम लोग हमेशा ज्ञान और अपने मस्तिष्क से कार्य करते हो, और कभी भी सत्य सिद्धांतों की खोज नहीं करते, तो क्या तुम जीवन में विकास कर पाओगे? क्या तुम लोग इस बारे में किसी निष्कर्ष पर पहुँचे हो? ऐसा लगता है कि तुम सभी लोग अभी भी जीवन प्रवेश के मामले में काफी भ्रमित हो और तुम्हारे पास इसके लिए विशिष्ट सिद्धांत नहीं हैं, जिसका अर्थ यह है कि तुम्हारे पास सत्य के अभ्यास के सिद्धांतों और मार्ग का गहरा या अधिक सच्चा अनुभव नहीं है। कुछ लोग हमेशा अपने ज्ञान से काम लेते हैं, चाहे उनके साथ कुछ भी हो जाए। वे साधारण मामलों में केवल कुछ सत्य सिद्धांतों को सतही तौर पर कायम रखते हैं, अपने ज्ञान को हर समय आगे रहने देते हैं, जबकि सत्य सिद्धांतों को उनके नीचे रखते हैं। वे इस प्रकार के बीच के समझौतावादी तरीके से अभ्यास करते हैं; वे स्वयं से कड़ाई के साथ पूर्ण समर्पण करने या पूरी तरह से सत्य सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करने की अपेक्षा नहीं करते। क्या उनका यह करना सही है, या नहीं? इस तरह के अभ्यास में खतरा क्या है? क्या इसमें मार्ग से भटकने की संभावना नहीं है? परमेश्वर का विरोध और उसके स्वभाव को नाराज करने की संभावना नहीं है? यही वह चीज है जिसका लोगों को सबसे अधिक पता लगाना चाहिए। क्या अब तुम लोगों को यह स्पष्ट हो गया है कि परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाने और नौकरी पाकर संसार में जैसे-तैसे जीवन जीने के बीच क्या अंतर होता है? क्या तुम्हारे हृदय में इसके बारे में स्पष्ट जागरूकता है? तुम लोगों को इस मुद्दे पर बार-बार सोचना और विचार करना चाहिए। दोनों के बीच सबसे बड़ा अंतर क्या है? क्या तुम जानते हो? (परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाना सत्य को प्राप्त करने और हमारे भ्रष्ट स्वभाव में बदलाव लाने के बारे में होता है; दुनिया में नौकरी प्राप्त करना देह के जीवन के बारे में होता है।) काफी हद तक सही है, लेकिन एक बात है जिसका तुमने उल्लेख नहीं किया है : परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाना सत्य के अनुसार जीना होता है। सत्य के अनुसार जीने की क्या अहमियत होती है? लोगों के लिए इसकी अहमियत यह है कि उनका स्वभाव बदल सकता है, और अंत में उन्हें बचाया जा सकता है; परमेश्वर के लिए यह है कि वह तुम्हें, एक सृजित प्राणी को प्राप्त कर सकता है, और स्वीकार कर सकता है कि तुम उसकी सृष्टि हो। तो जब लोगों को दुनिया में नौकरी मिल जाती है तो वे किस आधार पर जीते हैं? (शैतान के फलसफों से।) शैतान के फलसफों से जीते हैं—सामूहिक रूप से इसका मतलब यह होता है कि वे शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीते हैं। यह वही बात है, चाहे तुम शोहरत, लाभ, और रुतबे के पीछे भागो, या दौलत के पीछे, या दिन गुजारते हुए जीवित रहने का प्रयास कर रहे हो—तुम भ्रष्ट स्वभावों के साथ जी रहे हो। जब तुम्हें दुनिया में कोई काम मिलता है, तो तुम्हें पैसा कमाने के लिए जी-तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। शोहरत, लाभ और रुतबे की सीढ़ी पर चढ़ने के लिए, तुम्हें पूरी तरह से प्रतिस्पर्धा, लड़ाई, संघर्ष, निर्दयता, द्वेष और हत्या जैसी चीजों पर निर्भर रहना होता है—अपने पैरों पर खड़े रहने का यही एकमात्र तरीका होता है। परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना पड़ेगा और सत्य समझना होगा। नकारात्मक चीजें जो शैतानी हैं वे बस बेकार ही नहीं हैं—उन्हें त्याग भी देना चाहिए। एक भी शैतानी चीज तर्कसंगत नहीं है। यदि कोई शैतानी चीजों के अनुसार जीता है, तो उसका न्याय करके उसे ताड़ना दी जाएगी; यदि कोई शैतानी चीजों के अनुसार जीता है और पछतावा न करने पर अड़ा है, तो उसे हटा दिया जाएगा और ठुकरा दिया जाएगा। परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाने और दुनिया में काम पाने के बीच यही सबसे बड़ा अंतर है।

जब लोग अपने ज्ञान से जीते हैं, तो वे किस प्रकार की स्थिति में रह रहे होते हैं? ऐसा क्या है जिसे वे सबसे अधिक गहराई से अनुभव करते हैं? जैसे ही तुम किसी क्षेत्र में कुछ सीखते हो, तुम्हें लगता है कि तुम सक्षम हो, कि तुम जबरदस्त हो—और परिणामस्वरूप फिर तुम अपने ही ज्ञान से बँध जाते हो। तुमने ज्ञान को अपने जीवन के रूप में ले लिया है, और जब तुम्हारे साथ कुछ होता है, तो तुम्हारा वह ज्ञान उभरकर सामने आ जाता है, जो निर्देश देता है कि ऐसा-ऐसा करो। तुम इसे छोड़ना चाहते हो, लेकिन ऐसा कर नहीं पाते, क्योंकि यह तुम्हारे दिल में बस गया है और कोई भी चीज इसकी जगह नहीं ले सकती। “पहला प्रभाव ही अंतिम प्रभाव होता है” का यही अर्थ है। ज्ञान के कुछ निकाय ऐसे होते हैं जिनका अध्ययन न ही किया जाए तो बेहतर होगा। उन्हें सीखना एक बोझ, और एक सिरदर्द होता है। ज्ञान में कई क्षेत्र शामिल हैं : शिक्षा, कानून, साहित्य, गणित, चिकित्सा, जीव विज्ञान इत्यादि, जो सभी लोगों के व्यावहारिक अनुभव से प्राप्त होते हैं। ये व्यावहारिक ज्ञान के रूप हैं; लोग उनके बिना नहीं रह सकते, और उन्हें उनका अध्ययन करना चाहिए। लेकिन ज्ञान के कुछ रूप ऐसे हैं जो मानवजाति के लिए जहरीले हैं—वे शैतानी जहर हैं, वे शैतान की ओर से आते हैं। उदाहरण के लिए सामाजिक विज्ञान को ले लो, जिसकी शिक्षाओं में नास्तिकता, भौतिकवाद और विकासवाद, साथ ही कन्फ्यूशीवाद, साम्यवाद और सामंती अंधविश्वास जैसी चीजें शामिल हैं : ये सभी ज्ञान के नकारात्मक रूप हैं जो शैतान की ओर से आते हैं और वे जो मुख्य उद्देश्य पूरा करते हैं वह मानव विचारों को संक्रमित करने, क्षरण करने और विकृत करने, लोगों की सोच को बाँधने और नियंत्रित करने, लोगों को भ्रष्ट करने, नुकसान पहुँचाने और नष्ट करने के लिए होता है। उदाहरण के लिए परिवार के नाम को आगे बढ़ाना, और मातृ-पितृ भक्ति, और अपने परिवार का महिमामंडन करना, और यह सूत्र जो चलता है, “स्वयं को विकसित करो, अपने परिवार को व्यवस्थित करो, राष्ट्र पर शासन करो, और दुनिया में शांति लाओ”—ये सभी पारंपरिक संस्कृति की शिक्षाएँ हैं। और इनसे परे नागरिक समाज में प्रचलित बौद्ध धर्म, ताओवाद और आधुनिक धर्म के विभिन्न धार्मिक सिद्धांत हैं। ये भी ज्ञान के दायरे में आते हैं। उदाहरण के लिए कुछ लोगों ने पादरी या प्रचारक के रूप में कार्य किया है, या उन्होंने धर्मशास्त्र का अध्ययन किया है। ऐसा ज्ञान प्राप्त करने से क्या होता है? क्या यह आशीष है या अभिशाप? (एक अभिशाप।) यह अभिशाप कैसे बनता है? यदि ऐसे लोग बात नहीं करते तब तक ठीक रहता है—लेकिन जब वे अपना मुँह खोलते हैं, तो धार्मिक सिद्धांत ही बाहर आते हैं। वे सदैव आध्यात्मिक सिद्धांत का प्रचार करने का प्रयास करते हैं; वे लोगों को सत्य समझने देने के बजाय उनके मन में फरीसियों के पाखंडी तरीके बिठाते रहते हैं। धर्मशास्त्रीय ज्ञान मुख्य रूप से धर्मशास्त्रीय सिद्धांत के बारे में होता है। धर्मशास्त्रीय सिद्धांत की सबसे उल्लेखनीय विशेषता क्या होती है? यह लोगों के मन में ऐसी चीजें बिठाता है जिन्हें वे आध्यात्मिक मानते हैं, और एक बार जब लोग ऐसी छद्म-आध्यात्मिक चीजों को अपना लेते हैं, तो यह उनके मन में पहली और आखिरी छाप होती है। भले ही तुमने परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए वचन सुने हों, तुम उन्हें उस पल समझ नहीं पाओगे, और तुम फरीसियों के ज्ञान और सिद्धांतों से बाधित रहोगे। यह बहुत खतरनाक बात है। क्या ऐसे व्यक्ति के लिए सत्य को स्वीकार करना कठिन नहीं होगा? सार रूप में, यदि तुम सिद्धांत और ज्ञान के अनुसार जीते हो, और यदि तुम अपना कर्तव्य निभाते हो और अपने गुणों पर भरोसा करते हुए कार्य करते हो, तो तुम दूसरों की नजरों में कुछ अच्छे काम करने में सक्षम हो सकते हो। लेकिन जब तुम उस स्थिति में रह रहे होते हो, तो क्या तुम इसे जानते हो? क्या तुम पहचान सकते हो कि तुम अपने ज्ञान से जी रहे हो? क्या तुम महसूस कर सकते हो कि ज्ञान के द्वारा जीने के क्या परिणाम हो सकते हैं? क्या तुम्हारे हृदय में एक खोखली भावना, यह भावना घर नहीं कर लेती कि ऐसे जीवन का कोई महत्व नहीं है? और आखिर ऐसा क्यों है? इन सवालों का समाधान होना चाहिए। ज्ञान के मुद्दे पर हम यहीं हैं।

हमने अभी ज्ञान और गुणों के मुद्दों पर चर्चा की है। एक और मुद्दा है : बहुत-से लोग परमेश्वर में अपने प्रारंभिक विश्वास से लेकर आज तक बिना यह जाने ही आ गए हैं कि सत्य क्या है, या वे इसका अभ्यास और अनुसरण कैसे करें। वे इस पूरे समय एक दृढ़ विश्वास, या मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर जी रहे होते हैं। सीधे शब्दों में कहें, तो वे उन चीजों के अनुसार जीते हैं जिन्हें वे सही मानते हैं। वे जुनूनी ढंग से इन चीजों से चिपके रहते हैं और यहाँ तक कि उन्हें सत्य भी मान लेते हैं। वे सोचते हैं कि अगर वे अंत तक अपने अभ्यास में बने रहेंगे, वे विजेता होंगे, और वे आगे भी बचे रहेंगे। ऐसी धारणा के आधार पर वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं। वे कष्ट सह सकते हैं, और अपने परिवार और करियर को छोड़ सकते हैं, और उन चीजों को छोड़ सकते हैं जिनसे उन्हें प्यार है—और वे चीजों को सार रूप में कुछ विनियमों में प्रस्तुत कर देते हैं, जिनका वे इस तरह अभ्यास करते हैं जैसे वे सत्य हों। उदाहरण के लिए जब वे देखते हैं कि किसी व्यक्ति का कठिन समय चल रहा है, या किसी का परिवार कठिन दौर से गुजर रहा है, तो वे आगे बढ़कर उनकी मदद करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लेते हैं। वे उनका हालचाल पूछते हैं, उनका खयाल रखते हैं और उनकी देखभाल करते हैं। जहाँ गंदा या कठिन काम करना होता है, वे सक्रिय रूप से जाएँगे और उसे करेंगे। गंदगी और माँगों से उन्हें कोई परेशानी नहीं होती। वे मीन-मेख नहीं निकालते। वे दूसरों से पेश आते हुए बहस नहीं करते, और वे हर किसी के साथ सौहार्दपूर्ण समझौते तक पहुँचने की पूरी कोशिश करते हैं। वे दूसरों के साथ झगड़ा नहीं करते, और लोगों के प्रति परोपकारी और सहनशील होना सीखते हैं, इस तरह कि जो कोई उनके साथ समय बिताता है वह कहेगा कि वे अच्छे इंसान और सच्चे विश्वासी हैं। जब परमेश्वर की बात आती है, तो वे वही करते हैं जो वह उनसे करवाता है और जहाँ भी वह उन्हें जाने के लिए कहता है वे चले जाते हैं। वे विरोध नहीं करते। वे किस आधार पर जी रहे हैं? (उत्साह।) यह केवल उत्साह का सरल रूप नहीं है—वे ऐसे विश्वास के साथ जी रहे हैं जिसे वे सही समझते हैं। ऐसे लोग वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी सत्य नहीं समझेंगे, न ही यह जानेंगे कि सत्य का अभ्यास करना क्या होता है, या परमेश्वर के प्रति समर्पण क्या होता है, या परमेश्वर को संतुष्ट करना क्या होता है, या सत्य की खोज करना क्या होता है, या सत्य सिद्धांत क्या हैं। वे ये बातें नहीं जानेंगे। उन्हें यह भी पता नहीं होगा कि एक ईमानदार व्यक्ति क्या होता है या ईमानदार व्यक्ति कैसे बनें। उनका मानना होता है, “मुझे बस इसी तरह जीना है और अनुसरण करते रहना है। परमेश्वर का घर चाहे जो भी धर्मोपदेश दे, मैं काम करने के अपने तरीकों पर दृढ़ता से कायम रहूँगा; परमेश्वर मेरे साथ कैसा भी व्यवहार करे, मैं उसमें अपना विश्वास नहीं छोड़ूँगा या उसे नहीं छोड़ूँगा। मुझसे जो भी कर्तव्य कहा जाए, मैं उसे निभा सकता हूँ।” उनकी यह धारणा होती है कि इस तरह अभ्यास करने से उन्हें बचाया जा सकता है। हालाँकि कितने अफसोस की बात है कि उनके रवैये में कोई बड़ी समस्या न होने के बावजूद, इतने सालों तक धर्मोपदेश सुनने के बाद भी वे कोई भी सत्य नहीं समझते। वे समर्पण का सत्य नहीं समझते या यह नहीं जानते कि इसका अभ्यास कैसे किया जाए, वे एक ईमानदार व्यक्ति होने का सत्य नहीं समझते या समर्पित रूप से अपने कर्तव्य निभाने का सत्य नहीं समझते या नहीं जानते कि अनमना होने का क्या मतलब होता है। वे नहीं जानते कि वे झूठ बोलते हैं या धोखेबाज व्यक्ति हैं। क्या ऐसे लोग दया के पात्र नहीं हैं? (वे हैं।) वे किस आधार पर जीते हैं? क्या यह कहा जा सकता है कि वे अपने खुले, बच्चों जैसे हृदय से जी रहे हैं? ऐसा क्यों कहा जा सकता है? क्योंकि जैसा कि वे मानते हैं, “मेरा हृदय खुला है ताकि ब्रह्मांड इसे देख सके। लोग इसे समझ नहीं पाते; वे इसे नहीं देख सकते—लेकिन स्वर्ग इसे जानता है।” उनका हृदय इतना “सच्चा” है : इसे कोई नहीं समझ सकता, और यह सभी की पहुँच से बाहर है। इसे खुला, बच्चों जैसा हृदय क्यों कहें? क्योंकि उनके पास एक प्रकार की मनोदशा, एक भाव होता है, और वे अपने उस व्यक्तिगत भाव या मनचाही सोच का उपयोग यह व्याख्या करने के लिए करते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने वाले को क्या करना चाहिए और कर्तव्य क्या होता है। वे परमेश्वर की अपेक्षाओं पर भी ऐसे भाव लागू करते हैं। उनका मानना होता है, “परमेश्वर वास्तव में यह अपेक्षा नहीं रखता कि लोग कुछ करें, न ही यह कि उनके पास अधिक कौशल हो या वे अधिक सत्य समझें। किसी के लिए खुला, बच्चों जैसा हृदय होना ही काफी है। परमेश्वर में विश्वास करना बहुत सरल है—तुम्हें बस खुले, बच्चों जैसे हृदय की क्षमता के मुताबिक कार्य करते रहना है।” फिर भी न उनका झूठ रुकता है, न उनका प्रतिरोध, न उनका विद्रोहीपन, न उनकी धारणाएँ, न उनका विश्वासघात। वे जो कुछ भी करते हैं, उन्हें नहीं लगता कि यह मायने रखता है, बल्कि सोचते हैं, “मेरा हृदय परमेश्वर-प्रेमी है। कोई भी परमेश्वर के साथ मेरे रिश्ते को नहीं तोड़ सकता, कोई भी परमेश्वर के प्रति मेरे प्रेम को दबा नहीं सकता और कोई भी परमेश्वर के प्रति मेरी निष्ठा पर हावी नहीं हो सकता।” यह कैसी मानसिकता है? बेतुकी, है ना? यह बेतुकी है और यह दया के योग्य है। ऐसे व्यक्ति की आत्मा की एक अवस्था होती है—प्यासी, दरिद्र और दयनीय। “प्यासी” क्यों? क्योंकि जब उनका सामना किसी साधारण-सी चीज से होता है—उन्होंने झूठ बोला होता है, मान लो—वे इसे नहीं जानते या उन्हें इसका एहसास नहीं होता। उन्हें कोई आत्मग्लानि महसूस नहीं होती; उनमें किसी भी प्रकार की कोई भावना नहीं होती। वे अब तक अपने किसी भी काम में माप के लिए कठोर मानदंडों के बिना परमेश्वर का अनुसरण करते रहे हैं। वे नहीं जानते कि वे किस प्रकार के व्यक्ति हैं, न ही वे जानते हैं कि वे धोखेबाज व्यक्ति हैं या क्या वे वास्तव में एक ईमानदार व्यक्ति बनने में सक्षम हैं, या क्या वे परमेश्वर की अपेक्षाओं के प्रति समर्पण करने में सक्षम हैं। वे इनमें से कुछ भी नहीं जानते। वे उतने ही दयनीय हैं, और उनकी आत्मा प्यासी है। ऐसा क्यों कहते हैं कि उनकी आत्मा प्यासी है? क्योंकि वे नहीं जानते कि परमेश्वर उनसे क्या अपेक्षा रखता है, या वे परमेश्वर में विश्वास क्यों करते हैं, या उन्हें किस प्रकार का व्यक्ति बनने का प्रयास करना चाहिए। वे नहीं जानते कि कौन-से कार्यों में समझ का अभाव है, या कौन-से कार्य सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं। वे नहीं जानते कि बुरे लोगों के साथ क्या रवैया अपनाना है और अच्छे लोगों के साथ क्या रवैया अपनाना है; वे नहीं जानते कि उन्हें किसके साथ बातचीत करनी चाहिए या किसके करीब आना चाहिए। जब वे नकारात्मक होते हैं, तो उन्हें यह भी पता नहीं चलता कि वे किस दशा में पड़ गए हैं। आत्मा से प्यासा होना यही होता है। क्या तुम लोग ऐसे ही हो? (हाँ।) तुम लोगों को यह कहते हुए सुनना मुझे पसंद नहीं है, लेकिन तुम लोग इसी तरह की दशा में हो। तुम हमेशा भावुक रहते हो, और कोई नहीं जानता कि यह कब बदलेगा।

भावुक होना क्या होता है? हम एक उदाहरण से देखेंगे। कुछ लोगों को लगता है कि वे परमेश्वर से बहुत प्यार करते हैं। विशेष रूप से वे अंत के दिनों में जन्म लेने, परमेश्वर के कार्य के इस चरण को स्वीकार करने, और उसके वचनों को अपने कानों से सुनने और व्यक्तिगत रूप से उसके कार्य का अनुभव करने में सक्षम होने के कारण बहुत सम्मानित और दोगुना धन्य महसूस करते हैं। परिणामस्वरूप वे सोचते हैं कि उन्हें अपने खुले, बच्चों जैसे हृदय को व्यक्त करने का कोई तरीका खोजना चाहिए। और वे ऐसा कैसे करते हैं? उनकी भावनाएँ सतह पर आ जाती हैं, उनका उत्साह फूटने को होता है, वे थोड़े तर्कहीन हो जाते हैं और उनकी भावनाएँ असामान्य हो जाती हैं। और इससे कुरूपता उत्पन्न होती है। मुख्य भूमि चीन में वे परमेश्वर में विश्वास के लिहाज से घृणित वातावरण में थे, और वे उत्पीड़न का जीवन जीते थे। तब उनमें उत्साह था और वे चिल्लाना चाहते थे, “सर्वशक्तिमान परमेश्वर, मैं तुमसे प्यार करता हूँ!” लेकिन ऐसा करने की कोई जगह नहीं थी—गिरफ्तार होने के डर से वे ऐसा नहीं कर सकते थे। अब वे विदेश में हैं और विश्वास करने के लिए स्वतंत्र हैं; आखिरकार उन्हें अपने खुले, बच्चों जैसे हृदय को अभिव्यक्त करने के लिए जगह मिल गई है। उन्हें यह व्यक्त करना है कि वे परमेश्वर से कितना प्रेम करते हैं। इसलिए वे सड़कों पर निकल जाते हैं और एक ऐसी जगह ढूँढ़ते हैं, जहाँ आसपास ज्यादा लोग न हों, जहाँ वे अपनी इच्छानुसार चिल्ला सकें। हालाँकि ऐसा करने से पहले उन्हें लगता है मानो उनमें आगे बढ़ने का आत्मविश्वास नहीं है। वे अपने आसपास के दृश्य को देखते हैं और उनके गले से चीख नहीं निकलती। उनके दिमाग में क्या चल रहा होता है? “यह नहीं चलेगा। केवल खुला, बच्चों जैसा हृदय होना ही पर्याप्त नहीं है। मेरे पास अभी तक परमेश्वर-प्रेमी हृदय नहीं है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि मेरे पास चिल्लाकर बोलने के लिए कुछ नहीं है।” और इसलिए दुख और दर्द में वे घर जाते हैं और आँसुओं के साथ परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, “हे परमेश्वर, जब मैं एक ऐसे हालात में था जहाँ इसकी अनुमति नहीं थी, तब मैंने ‘मैं तुमसे प्यार करता हूँ’ चिल्लाने की हिम्मत नहीं की थी। अब मैं ऐसे हालात में हूँ जहाँ इसकी अनुमति है, लेकिन मुझमें अभी भी आत्मविश्वास नहीं है। मैं चिल्ला नहीं पा रहा। ऐसा लगता है कि मेरा आध्यात्मिक कद और आत्मविश्वास बहुत ही तुच्छ है। मेरे पास जीवन नहीं है।” तब से वे इस मुद्दे के बारे में प्रार्थना करते हैं, और तैयारी करते हैं, और स्वयं को इसमें लगाते हैं। वे अक्सर परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हैं और द्रवित होकर उनके आँसू बहने लगते हैं और उनकी भावनाएँ और उत्साह उनके हृदय में पनपते और जमा होते रहते हैं। यह तब तक चलता रहता है जब तक कि एक दिन वे इतनी भावनाओं से नहीं भर जाते कि हजारों लोगों की क्षमता वाले सार्वजनिक चौराहे पर जाकर भीड़ के सामने चिल्लाकर कह सकें “मैं तुमसे प्यार करता हूँ सर्वशक्तिमान परमेश्वर”—फिर भी जब वे सार्वजनिक स्थल पर जाते हैं और वहाँ सभी लोगों को देखते हैं, उनकी आवाज नहीं निकलती। हो सकता है कि उन्होंने अभी भी इसे चिल्लाकर नहीं कहा हो। लेकिन वे चिल्ला पाए हों या न चिल्ला पाए हों, इसका क्या मतलब होगा? क्या इस तरह चिल्लाना सत्य का अभ्यास है? क्या यह परमेश्वर की गवाही है? (नहीं।) तो वे इस तरह चिल्लाने पर आमादा क्यों हैं? उनका मानना है कि उनकी वह चिल्लाहट परमेश्वर के वचनों का प्रसार करने और परमेश्वर की गवाही देने के किसी भी अन्य तरीके से अधिक मजबूत और प्रभावी होगी। खुले, बच्चों जैसे हृदय वाला व्यक्ति होने का यही अर्थ होता है। क्या किसी व्यक्ति में ऐसी भावनाएँ होना अच्छी बात है या बुरी? क्या यह सामान्य है या असामान्य? क्या इसे सामान्य मानवता के दायरे में रखा जा सकता है? (नहीं।) क्यों नहीं? लोगों से कर्तव्य पालन करवाने और सत्य को समझने और उसका अभ्यास कराने में परमेश्वर का लक्ष्य क्या होता है? क्या यह लोगों के मन में उसके प्रति प्रेम की भावना को बढ़ाने के लिए होता है या अपना कर्तव्य निभाने में उनकी भावना बढ़ाने के लिए होता है? (नहीं।) क्या तुम लोगों में कभी-कभी या शायद अक्सर ऐसी भावनाएँ आती हैं? (हाँ।) जब ऐसा होता है, तो क्या तुम्हें लगता है कि वे अचानक और असामान्य रूप से आती हैं, या उन्हें दबाना मुश्किल होता है? तुम्हें उन पर लगाम लगानी होगी, उन्हें दबाना चाहे जितना कठिन हो। बाकी सब छोड़ो, ये महज भावनाएँ ही हैं, न कि वे उपलब्धियाँ, जो लोगों द्वारा सत्य को समझने और उसका अभ्यास करने के बाद या परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने के बाद आती हैं। वे असामान्य दशा हैं। तो क्या इस असामान्य स्थिति को जुनूनी जिद के तहत रखा जा सकता है? यह मामले के अनुसार भिन्न-भिन्न होता है। अलग-अलग स्तर होते हैं; कुछ को कट्टरपंथी हठ के तहत वर्गीकृत किया जा सकता है, और कुछ बेतुकेपन के स्तर तक चले जाते हैं। व्यक्ति का कभी-कभार इस मनोदशा को प्रकट करना सामान्य बात है। तो फिर इसकी कौन-सी अभिव्यक्तियाँ असामान्य होती हैं? अदम्य भावना से कुछ करना। जब कोई अपना हर दिन जीते हुए उस चीज के लिए इधर-उधर चक्कर लगाता है, परमेश्वर के वचन पढ़ता है और उसी के लिए सुसमाचार का प्रसार करता है, और हर कर्तव्य उसी के लिए निभाता है—जब सब कुछ उस चीज के ही इर्द-गिर्द घूमता है, और यही उसके अस्तित्व और जीवन का मूल्य और अर्थ बन जाता है—तो यह परेशानी की बात है। उस व्यक्ति का लक्ष्य और दिशा विकृत हो जाते हैं। उन लोगों के लिए यह एक कुरूपता है जो अपने खुले, बच्चों जैसे हृदय के साथ जीते हैं। उनमें कुछ जिद्दीपन होता है और उनमें असामान्य भावनाएँ होती हैं। यदि कोई इन चीजों के अनुसार जीता है और अक्सर ऐसी स्थिति में रहता है, तो क्या वह सत्य समझ सकता है? (नहीं।) यदि वह सत्य नहीं समझ सकता, तो धर्मोपदेश सुनते समय उसकी मानसिकता क्या होती है? परमेश्वर के वचनों को पढ़ने में उसका क्या इरादा होता है? क्या कोई व्यक्ति जो हमेशा खुले, बच्चों जैसे हृदय और धार्मिक समारोह के साथ परमेश्वर में विश्वास करता है, वह सत्य समझ सकता है और उसे प्राप्त कर सकता है? (नहीं।) क्यों नहीं? वह जो कुछ भी करता है वह सत्य पर आधारित नहीं होता, बल्कि धार्मिक सिद्धांत, धारणाओं और कल्पनाओं पर आधारित होता है। यह सत्य का अनुसरण करने और उसका अभ्यास करने के बारे में भी नहीं है। उसे इसकी बिल्कुल भी परवाह नहीं कि वास्तव में सत्य क्या है या परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं। उसे इसकी कोई परवाह नहीं होती, जैसे परमेश्वर में विश्वास करने के लिए सभी को बस एक खुला, बच्चों जैसा हृदय चाहिए, जैसे उसे बस चीजों को सँभालना है और कलीसिया में प्रयास करते रहना है। यह उसके लिए इतना आसान होता है। उसे यह नहीं पता कि सत्य समझना और उसका अभ्यास करना क्या होता है, न ही यह कि बचाए जाने के लिए वह किसका अनुसरण करे। ऐसे लोग कभी-कभी इन चीजों के बारे में सोच पाते हैं, लेकिन वे उन्हें हल नहीं कर पाते। पूरे समय वे यही सोचते रहते हैं, “अगर मुझमें उत्साह हो, मैं भावनाओं के ऊँचे स्तर तक पहुँच जाऊँ और अंत तक डटा रहूँ, तो शायद मैं बचा लिया जाऊँ,” और परिणामस्वरूप अपनी उफनती हुई भावनाओं में बहकर वे मूर्खतापूर्ण बातों के अलावा कुछ नहीं करते, ऐसी चीजें करते हैं जो सत्य सिद्धांतों के विरुद्ध जाती हैं। अंत में उनका खुलासा हो जाता है और वे हटा दिए जाते हैं। ऐसा लगता है कि आखिरकार उफनती हुई भावनाएँ इतनी अच्छी चीज नहीं हैं।

खुले, बच्चों जैसे हृदय से जीने में एक और बहुत ही गंभीर स्थिति पैदा होती है, और वह यह है कि कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास करने के लिए हमेशा उत्साह पर भरोसा करते हैं। उनके दिलों की आग कभी नहीं बुझती; वे सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने के लिए उन्हें केवल बस एक खुला, बच्चों जैसा हृदय चाहिए। “मुझे सत्य समझने की आवश्यकता नहीं है, मुझे खुद की जाँच करने की जरूरत नहीं है, और मुझे अपने पाप स्वीकार करने और पश्चात्ताप करने के लिए परमेश्वर के सामने आने की आवश्यकता नहीं है—और मुझे निश्चित रूप से किसी भी न्याय, ताड़ना, काट-छाँट को स्वीकार करने या किसी की निंदा और आलोचना की आवश्यकता नहीं है,” वे सोचते हैं, “मुझे उन चीजों की जरूरत नहीं है। मुझे बस एक खुला, बच्चों जैसा हृदय चाहिए।” यह परमेश्वर में उनके विश्वास का सिद्धांत होता है। वे सोचते हैं, “मुझे न्याय और ताड़ना स्वीकार करने की जरूरत नहीं है। मेरे लिए सिर्फ अपने बारे में अच्छा महसूस करना ही काफी है। मेरा मानना है कि मेरे ऐसा करने से परमेश्वर निश्चित रूप से खुश होगा। अगर मैं खुश हूँ, तो परमेश्वर खुश है—बस इतनी-सी ही बात है। अगर मैं परमेश्वर पर इसी तरह विश्वास करूँ तो मैं बचा लिया जाऊँगा।” क्या यह सोचने का बेहद भोला-भाला तरीका नहीं है? तुम लोग भी ऐसी ही स्थिति में हुआ करते थे, है न? (हाँ।) यदि तुम लोग अंत तक ऐसी ही स्थिति में रहते हो, कोई रूपांतरण करने में असमर्थ रहते हो, तो यह कहना उचित होगा कि तुम सत्य का थोड़ा-सा भी अंश नहीं समझते। सत्य से तुम लोगों का कोई लेना-देना नहीं होता। तुम लोग परमेश्वर द्वारा मनुष्य के उद्धार के लक्ष्य या महत्व को नहीं जानते, और तुम यह नहीं समझते कि परमेश्वर में विश्वास क्या है। परमेश्वर में आस्था और धर्म में विश्वास के बीच क्या अंतर है? हर कोई धर्म में विश्वास करने की कल्पना इसलिए करता है क्योंकि उस व्यक्ति के पास आजीविका का अभाव होता है, कि उन्हें घर में कठिनाइयाँ हो सकती हैं। अन्यथा ऐसा होता है कि वे आध्यात्मिक अवलंबन पाने के लिए किसी चीज का सहारा लेना चाहते हैं। धर्म में विश्वास अक्सर लोगों को अच्छा, परोपकारी, दूसरों की मदद करने, दूसरों के साथ दयालु रहने, पुण्य संचय करने के लिए अधिक अच्छी चीजें करने, हत्या या आगजनी न करने, कानून तोड़ने या अपराध न करने, बुरे काम न करने, लोगों को न मारने या उन्हें बुरा-भला न कहने, चोरी-डकैती न करने, और धोखा या ठगी न करने के अलावा कुछ नहीं है। यह “धर्म में विश्वास” की अवधारणा है जो हर किसी के मन में होती है। तुम लोगों के दिलों में धर्म में विश्वास की कितनी अवधारणा मौजूद है? क्या वे बातें जो धर्म में विश्वास से जुड़ी हैं, सत्य के अनुरूप होती हैं? आखिर वे आती कहाँ से हैं? क्या तुम लोग जानते हो? यदि तुम धर्म में विश्वास रखने वाले हृदय से परमेश्वर में विश्वास रखते हो, तो परिणाम क्या होगा? क्या यह परमेश्वर में विश्वास रखने का सही तरीका है? क्या धर्म में विश्वास रखने की अवस्था और परमेश्वर में आस्था रखने की अवस्था में कोई अंतर है? धर्म में विश्वास और परमेश्वर में आस्था में क्या अंतर है? जब तुमने पहली बार परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू किया, तो हो सकता है तुम्हें लगा हो कि धर्म में विश्वास रखना और परमेश्वर में आस्था रखना एक ही बात है। लेकिन आज कई साल तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद तुम्हें क्या लगता है कि वास्तव में आस्था रखना क्या होता है? क्या यह धर्म में विश्वास रखने से अलग है? धर्म में विश्वास रखने का अर्थ है किसी की आत्मा को प्रसन्नता और सुख देने के लिए कुछ विशेष प्रकार के धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करना। यह इन प्रश्नों से संबंधित नहीं है कि लोग किस मार्ग पर चलें, या वे जीवन कैसे जिएँ। तुम्हारे आंतरिक जगत में कोई बदलाव नहीं आता; तुम तुम ही रहते हो, और तुम्हारा प्रकृति सार वही रहता है। तुमने परमेश्वर से आने वाले सत्यों को स्वीकार कर उन्हें अपना जीवन नहीं बनाया है, बल्कि तुमने मात्र कुछ अच्छी चीजें की हैं या रस्मों और विनियमों का पालन किया है। तुम मात्र धर्म में विश्वास से संबंधित कुछ गतिविधियों में लिप्त रहे हो—बस, इतना ही किया है। तो परमेश्वर में आस्था रखने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम जैसे जीते हो उसमें बदलाव आना, इसका मतलब है कि तुम्हारे अस्तित्व के मूल्य और जीवन के लक्ष्यों में पहले से ही बदलाव आ चुका है। तुम पहले अपने पूर्वजों का सम्मान करने, भीड़ से अलग दिखने, अच्छा जीवन जीने, प्रसिद्धि और लाभ के लिए प्रयास करने जैसी चीजों के लिए जीते थे। आज तुमने उन चीजों को छोड़ दिया है। अब तुम शैतान का अनुसरण नहीं करते, बल्कि तुम इसका त्याग करना चाहते हो, इस दुष्ट प्रवृत्ति का त्याग करना चाहते हो। तुम परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हो, तुम सत्य स्वीकार करते हो, तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हो। तुम्हारे जीवन की दिशा पूरी तरह से बदल चुकी है। परमेश्वर में विश्वास के बाद तुम्हारा जीवन के लिए रवैया अलग है, तुम्हारी अलग तरह की जीवन-शैली है, सृष्टिकर्ता का अनुसरण करना है, सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकार करना और उनके प्रति समर्पित होना है, सृष्टिकर्ता के उद्धार को स्वीकार करना है, और अंततः एक सच्चा सृजित प्राणी बनना है। क्या यह तुम्हारी जीवन-शैली को बदलना नहीं है? यह तुम्हारे पिछले अनुसरण, जीवन-शैली और तुम्हारे सभी कामों के पीछे की प्रेरणाओं और महत्व के बिल्कुल विपरीत है—ये पूरी तरह से उनसे अलग है, यहाँ तक कि उनके आस-पास भी नहीं है। हम परमेश्वर में विश्वास और धर्म में विश्वास के बीच अंतर पर अपनी बात यहीं समाप्त करेंगे। क्या तुम लोग अपने आप में उस “खुले, बच्चों जैसे हृदय” की स्थिति देख पाते हो जिसके बारे में हम बात कर रहे हैं? (हाँ।) तो क्या तुम लोग अधिकांश समय खुले, बच्चों जैसे हृदय के साथ जी रहे हो, या कभी-कभार ही तुम्हारी ऐसी स्थिति होती है? यदि यह कभी-कभार होता है, तो इससे साबित होता है कि तुमने पहले ही उस स्थिति को त्याग दिया है और सत्य का अनुसरण करना शुरू कर दिया है, कि तुम उस स्थिति से उबरना शुरू कर चुके हो; यदि तुम अभी भी अधिकांश समय खुले, बच्चों जैसे हृदय के साथ जी रहे हो और यह नहीं जानते कि परमेश्वर के वचनों के अनुसार कैसे जीना है, सत्य के अनुसार कैसे जीना है, न ही खुले, बच्चों जैसे हृदय के बंधनों को कैसे छोड़ना है और उस स्थिति से कैसे बाहर निकलना है, तो यह साबित करता है कि तुम परमेश्वर के सामने नहीं जी रहे हो, कि तुम अभी तक नहीं जानते कि सत्य क्या है या इसे कैसे खोजना है। क्या यह बड़ा अंतर है? (हाँ।) यदि तुम सत्य जरा भी समझे बिना इसी तरह जीवन जीते रहते हो, तो तुम खतरे में हो—देर-सबेर तुम्हें हटा दिया जाएगा। वह खुला, बच्चों जैसा हृदय कैसे अस्तित्व में आता है, इसके लिए तुम्हें सत्य खोजना होगा, स्थिति का गहन-विश्लेषण करना होगा और उस स्थिति को बदलना होगा। किसी के पास वह खुला, बच्चों जैसा हृदय क्यों होगा; परमेश्वर में विश्वास करने के उत्साह पर निर्भर रहने के क्या परिणाम होंगे; क्या तुम इस प्रकार परमेश्वर पर विश्वास करके सत्य प्राप्त कर सकते हो; क्या यह परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास को मजबूत करेगा—तुम्हें इन सवालों पर दिल में स्पष्ट होना चाहिए। इसके लिए तुम्हें स्वयं को तुलना व आत्म-चिंतन करने और समाधान तलाशने के लिए तैयार रखना होगा।

एक प्रकार के लोग परमेश्वर में अपने विश्वास को लेकर हृदय से उत्साही होते हैं। उनके लिए कोई भी कर्तव्य ठीक होता है, और थोड़ी कठिनाई भी चलती है, लेकिन उनका स्वभाव अस्थिर होता है—वे भावुक और मनमौजी, असंगत होते हैं। वे केवल अपनी मनोदशा के अनुसार कार्य करते हैं। जब वे खुश होते हैं, तो उन्हें जो काम सौंपा जाता है उसे अच्छी तरह से करते हैं, और वे जिनके साथ सहयोग करते हैं और जिनके साथ जुड़ते हैं, उनके साथ उनकी अच्छी पटती है। वे और भी अधिक कर्तव्य निभाने को तैयार होते हैं—वे जो भी कर्तव्य निभा रहे होते हैं, उसके प्रति उनमें जिम्मेदारी की भावना होती है। जब वे अच्छी स्थिति में होते हैं, तो वे इसी तरह व्यवहार करते हैं। कारण यह हो सकता है कि वे अच्छी स्थिति में हैं : हो सकता है कि अपने कर्तव्य को अच्छी तरह करने के कारण उनकी प्रशंसा की गई हो, और उन्हें समूह का सम्मान और अनुमोदन मिला हो। या हो सकता है कि बहुत-से लोग उनके किए गए काम की सराहना करते हों, इसलिए वे गुब्बारे की तरह फूल जाते हैं जो प्रशंसा की हर फूँक के साथ और भी फूलता जाता है। और इसलिए वे हर दिन एक ही कर्तव्य निभाते जाते हैं, फिर भी वे कभी भी परमेश्वर के इरादे नहीं समझते या सत्य सिद्धांतों की खोज नहीं करते। वे सदैव अपने अनुभव के बल पर कार्य करते रहते हैं। क्या अनुभव सत्य होता है? क्या अनुभव के आधार पर कार्य करना विश्वसनीय है? क्या यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है? अनुभव के आधार पर कार्य करना सिद्धांतों के अनुरूप नहीं होता; ऐसा समय अवश्य आएगा जब वह नाकाम हो जाएगा। तो एक दिन ऐसा आता है जब वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह नहीं निभाते। कई चीजें गलत हो जाती हैं, और उनकी काट-छाँट की जाती है। समूह उनसे असंतुष्ट हो जाता है। तब वे निराश हो जाते हैं : “मैं अब यह कर्तव्य नहीं निभाऊँगा। मैं इसे बुरी तरह से करता हूँ। तुम सभी लोग मुझसे बेहतर हो। मैं ही अच्छा नहीं कर पाता। जो कोई भी इसे करने को इच्छुक है, कर ले!” कोई उनके साथ सत्य के बारे में संगति करता है, परंतु वह उनके दिमाग में नहीं घुसती, और वे नहीं समझते, कहते हैं : “इसमें संगति करने की क्या बात है? मुझे इसकी परवाह नहीं है कि यह सत्य है या नहीं—मैं अपना कर्तव्य तब निभाऊँगा जब मैं खुश हूँ और जब मैं खुश नहीं होऊँगा तो नहीं निभाऊँगा। इसे इतना जटिल क्यों बनाते हो? मैं इसे अभी नहीं कर रहा हूँ; मैं उस दिन का इंतजार करूँगा जब मैं खुश होऊँगा।” वे लगातार ऐसे ही बने रहते हैं। चाहे अपना कर्तव्य निभा रहे हों; परमेश्वर के वचनों को पढ़ रहे हों, या धर्मोपदेश सुनते और सभाओं में भाग लेते हों; या दूसरों के साथ बातचीत कर रहे हों—हर उस चीज में जो उनके जीवन के किसी भी पहलू को प्रभावित करती है, वे जो कुछ भी प्रकट करते हैं वह पल में तोला और पल में माशा, एक पल में खुश तो अगले ही पल निराश, एक पल में ठंडे और अगले ही पल में गर्म, एक पल में नकारात्मक तो अगले पल में सकारात्मक हो जाते हैं। संक्षेप में, उनकी स्थिति अच्छी हो या बुरी, हमेशा साफ पता चलती है। तुम इसे एक नजर में देख सकते हो। वे जो कुछ भी करते हैं उसमें असंगत रहते हैं, बस स्वयं को अपने मिजाज के अधीन कर देते हैं। जब वे खुश होते हैं, तो बेहतर काम करते हैं, और जब खुश नहीं होते हैं, तो घटिया काम करते हैं—वे काम करना बंद भी कर सकते हैं और उसे छोड़ भी सकते हैं। वे जो भी कर रहे हैं, उन्हें उसे अपनी मनोदशा, वातावरण और अपनी माँगों के अनुसार करना होगा। उनमें मुश्किलें सहने का बिल्कुल भी संकल्प नहीं होता; वे लाड़-प्यार वाले और बिगड़ैल होते हैं, उन्मादी होते हैं, उन पर तर्क का कोई असर नहीं होता, और वे इसे रोकने के लिए कुछ नहीं करते। किसी को भी उन्हें नाराज करने की अनुमति नहीं होती; जो ऐसा करता है, वह उनके गुस्से का निशाना बनता है, जो तूफान की तरह आता है—और उसके गुजर जाने के तुरंत बाद वे निराश और भावनात्मक रूप से खिन्न हो जाते हैं। इसके अलावा वे हर काम अपनी पसंद के आधार पर करते हैं। “अगर मुझे यह काम पसंद है, तो मैं इसे करूँगा; यदि मुझे पसंद नहीं, तो मैं नहीं करूँगा और कभी नहीं करूँगा। तुम लोगों में से जो इच्छुक हो वह कर सकता है। उसका मुझसे कुछ लेना-देना नहीं है।” यह कैसा व्यक्ति है? जब वे खुश होते हैं और उनकी स्थिति अच्छी होती है, तो वे दिल से भावुक हो जाते हैं और कहते हैं कि वे परमेश्वर से प्रेम करना चाहते हैं। वे इतने उत्तेजित होते हैं कि वे रोने लगते हैं, उनके चेहरे पर गर्म आँसू बहने लगते हैं, वे जोर-जोर से सिसकते हैं। क्या उनका हृदय वास्तव में परमेश्वर से प्रेम करता है? हृदय से परमेश्वर को प्रेम करने की स्थिति सामान्य होती है, लेकिन उनके स्वभाव, व्यवहार और जो वे प्रकट करते हैं, उसे देखकर तुम सोचने लगोगे कि वे लगभग दस साल के बच्चे हैं। उनका यह स्वभाव, उनका रहन-सहन, मनमौजीपन होता है। वे जो भी करते हैं उसमें असंगत, गैर-समर्पित, गैर-जिम्मेदार और कर्तव्य बोध से रहित होते हैं। वे कभी भी कठिनाई से नहीं गुजरते और जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होते। जब वे खुश होते हैं, तो उन्हें कुछ भी करने में कोई दिक्कत नहीं होती; थोड़ी कठिनाई भी चल जाती है, और यदि उनके हितों को चोट लगती है, तो वह भी चल जाती है। लेकिन अगर वे नाखुश हैं, तो वे कुछ नहीं करते। वे किस प्रकार के व्यक्ति हैं? क्या ऐसी स्थिति सामान्य है? (नहीं।) यह मुद्दा एक असामान्य स्थिति से भी आगे निकल जाता है—यह अत्यधिक मनमौजीपन, अत्यधिक मूर्खता और अज्ञानता, अत्यधिक बचकानेपन की अभिव्यक्ति होता है। मनमौजीपन से क्या समस्या है? कुछ लोग कहेंगे, “यह मनोभाव का अस्थिर होना है। वे बहुत कम उम्र के हैं और उन्होंने बहुत कम कठिनाइयाँ झेली हैं और उनका व्यक्तित्व अभी तक नहीं बना है, इसलिए उनके व्यवहार में अक्सर मनमौजीपन होता है।” सच तो यह है कि मनमौजीपन उम्र की परवाह नहीं करता : चालीस साल के लोग और सत्तर साल के लोग भी कभी-कभी मनमौजी होते हैं। इसे कैसे समझाया जाए? मनमौजीपन वास्तव में व्यक्ति के स्वभाव की समस्या है और यह अत्यंत गंभीर समस्या है! यदि वे कोई महत्वपूर्ण कर्तव्य निभा रहे हैं, तो इससे उस कर्तव्य और कार्य की प्रगति में देरी हो सकती है, जिससे परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँच सकता है; और सामान्य कर्तव्यों के मामले में भी यह कभी-कभी उन कर्तव्यों को प्रभावित करता है, और चीजों में बाधा डालता है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं होता जिससे दूसरों को, स्वयं को या कलीसिया के काम को फायदा पहुँचता हो। वे जो छोटे-छोटे काम करते हैं और जो कीमत चुकाते हैं, उससे उन्हें शुद्ध घाटा होता है। विशेष रूप से मनमौजी लोग परमेश्वर के घर में कर्तव्यों का पालन करने के लिए अयोग्य होते हैं, और ऐसे कई लोग हैं। मनमौजीपन भ्रष्ट स्वभावों में सबसे आम अभिव्यक्ति होती है। व्यावहारिक रूप से हर व्यक्ति का स्वभाव ऐसा ही होता है। और वह स्वभाव क्या होता है? स्वाभाविक रूप से प्रत्येक भ्रष्ट स्वभाव शैतान के स्वभावों की एक किस्म होती है, और मनमौजीपन एक भ्रष्ट स्वभाव है। हल्के शब्दों में कहें तो यह सत्य से प्रेम करना या उसे स्वीकार करना नहीं है; गंभीर शब्दों में कहें तो यह सत्य से विमुख होना और उससे नफरत करना है। क्या मनमौजी लोग परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हैं? हरगिज नहीं। जब वे खुश होते हैं और लाभ कमा रहे होते हैं, तो क्षणिक रूप से ऐसा कर सकते हैं, लेकिन जब वे दुखी होते हैं और लाभ नहीं कमा पाते, तो वे तैश में आकर परमेश्वर का विरोध करने और उसे धोखा देने का साहस करते हैं। वे खुद से कहेंगे, “मुझे इसकी परवाह नहीं कि यह सत्य है या नहीं—महत्वपूर्ण बात यह है कि मैं खुश हूँ, कि मैं संतुष्ट हूँ। अगर मैं नाखुश हूँ, तो किसी के कुछ भी कहने का कोई फायदा नहीं! सत्य का क्या महत्व है? परमेश्वर का क्या महत्व है? मैं मालिक हूँ!” यह किस प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव है? (सत्य से नफरत करने का।) यह एक ऐसा स्वभाव है जो सत्य से नफरत करता है, ऐसा स्वभाव है जो सत्य से विमुख है। क्या इसमें अहंकार और दंभ का कोई तत्व मौजूद है? हठधर्मिता का कोई तत्व है? (हाँ।) यहाँ एक और बेहद खराब स्थिति है। जब वे अच्छी मनोदशा में होते हैं, तो वे सभी के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं और अपना कर्तव्य निभाने में जिम्मेदार होते हैं; लोग सोचते हैं कि वे अच्छे, समर्पण करने वाले व्यक्ति हैं, जो कीमत चुकाने को तैयार हैं, जो वास्तव में सत्य से प्रेम करते हैं। लेकिन जैसे ही वे नकारात्मक होते हैं, वे कर्तव्य त्याग देते हैं, शिकायत करने लगते हैं और यहाँ तक कि तर्क का भी उन पर असर नहीं होता। यहाँ उनका क्रूर पक्ष सामने आता है। किसी को भी उन पर दोषारोपण करने की अनुमति नहीं होती। वे यहाँ तक कहेंगे, “मैं सारे सत्य समझता हूँ, बस इसका अभ्यास नहीं करता। मेरे लिए बस इतना ही काफी है कि मैं स्वयं के साथ सहज रहूँ!” यह कौन-सा स्वभाव है? (क्रूरता।) ये बुरे लोग अपनी काट-छाँट करने वाले व्यक्ति से सिर्फ लड़ने का ही साहस नहीं करते, बल्कि वे दुष्ट राक्षस की तरह उन्हें चोट और नुकसान भी पहुँचा सकते हैं। कोई भी उनको परेशान करने की हिम्मत नहीं करेगा। क्या यह उनका अत्यधिक मनमौजी और क्रूर होना नहीं है? क्या यह युवावस्था से जुड़ी समस्या है? यदि वे अधिक उम्र के होते तो क्या वे मनमौजी नहीं होते? यदि वे अधिक उम्र के होते तो क्या वे अधिक विचारशील और विवेकपूर्ण होते? नहीं, यह उनके व्यक्तित्व या उनकी उम्र का मामला नहीं है। उनके भीतर भ्रष्ट स्वभाव गहरी जड़ें जमाए हुए छिपा है। भ्रष्ट स्वभाव उन्हें चलाता है, और भ्रष्ट स्वभाव से ही वे जीते हैं। क्या भ्रष्ट स्वभाव में रहने वाले किसी व्यक्ति में समर्पण होता है? क्या वे सत्य की तलाश कर सकते हैं? क्या उनमें से कोई ऐसा हिस्सा है जो सत्य से प्रेम करता है? (नहीं।) नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं है। क्या तुम सभी लोगों की दशा मनमौजी रही है? (हाँ।) अगर हम इस बारे में संगति नहीं करते, तो क्या तुम लोगों को लगता कि यह समस्या है? (हमें नहीं लगता।) अब इसके बारे में संगति करने के बाद क्या तुम लोगों को लगता है कि यह काफी गंभीर समस्या है? (हाँ।) कभी-कभार कुछ मनमौजीपन वस्तुनिष्ठ कारणों से पैदा होता है। यह कोई स्वभावगत समस्या नहीं होती। सभी स्वभाव संबंधी समस्याओं, और किसी के कार्यों में भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा होने से नकारात्मक परिणाम ही मिलता है। वस्तुनिष्ठ कारण का एक उदाहरण यह है : मान लो कि आज किसी के पेट में भयानक दर्द है। वह इतने दर्द में है कि उसमें बोलने की भी ताकत नहीं है। वह बस थोड़ी देर लेट जाना चाहता है। तभी कोई आता है और उससे कुछ बातें करने लगता है, और जवाब देते हुए उसका लहजा थोड़ा कठोर हो जाता है। क्या यह उसके स्वभाव की समस्या है? नहीं, ऐसा नहीं है। वह ऐसा केवल इसलिए है क्योंकि वह बीमार है और दर्द में है। यदि वह सामान्य समय में भी उस तरह का व्यक्ति होता, उसी तरह से बोलता, तो यह स्वभावगत समस्या होती। इस मामले में उसके स्वर बिगड़ जाते हैं क्योंकि उसका दर्द एक हद से ऊपर जा चुका होता है। ऐसा होना एक सामान्य बात है। यदि कोई वस्तुनिष्ठ कारण है, और हर कोई मानता है कि परिस्थितियाँ देखते हुए इस तरह बोलना या कार्य करना क्षमा योग्य और उचित है, और यह सिर्फ इंसानी प्रकृति है, तो यह सामान्य मानवता का व्यवहार और खुलासा है। किसी ऐसे व्यक्ति का उदाहरण ले लो जिसने अपने किसी रिश्तेदार को खोया है और वह दुख में रोने लगता है। यह बिल्कुल सामान्य है। फिर भी ऐसे लोग हैं, जो उसकी आलोचना करते हुए कहेंगे, “यह व्यक्ति भावुक है। वह इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखता रहा है लेकिन फिर भी अपने परिवार के प्रति अपना स्नेह नहीं छोड़ पाया। वह अपने किसी रिश्तेदार के मरने पर भी रोता है। कितनी बेवकूफी है!” फिर ऐसा होता है कि यह सब बोलने वाले की माँ की मृत्यु हो जाती है, तो वे सबसे अधिक जोर से रोते हैं। इसे कैसे देखना चाहिए? तुम आँख मूँदकर विनियम लागू नहीं कर सकते या इसका सामान्यीकरण नहीं कर सकते—कुछ चीजों के वस्तुनिष्ठ कारण होते हैं, और वे सामान्य मानवता के व्यवहार और खुलासे हैं। सामान्य मानवता के व्यवहार और खुलासे क्या होते हैं और क्या नहीं होते—यह परिस्थितियों के साथ बदलता है। व्यक्ति किस प्रकार जीवन जीता है, यहाँ क्या कहा जा रहा है, इस बारे में जो भी जिक्र किया जाता है वह एक तरह से लोगों के स्वभावों की समस्याओं से जुड़ा है और दूसरी तरह से यह लोगों के दृष्टिकोण, उनके अनुसरण के तरीकों और उनके अनुसरण के मार्गों में समस्याओं के बारे में होता है। यह बिल्कुल भी उनके मिजाज या व्यक्तित्व या काम करने के उनके बाहरी तरीकों से जुड़ा नहीं होता।

एक अन्य प्रकार की स्थिति होती है, और वह है सांसारिक आचरण के फलसफों के अनुसार जीना। अधिकांश लोग सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित किए बिना, परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में शोहरत, लाभ और ओहदे के पीछे भागना पसंद करते हैं। अगर किसी के पास थोड़ी काबिलियत और कुछ विचार होते हैं, तो उसके पास जीवन जीने के लिए शैतान के फलसफे और नियमों का एक सेट होता है। उनमें से प्रत्येक के पास इसे लेकर अपनी-अपनी “गुप्त तरकीबें” होती हैं कि खुशी से कैसे जिएँ, कैसे इस तरह जिएँ कि वे दूसरों से अलग दिखें और उनके परिवार का नाम रौशन हो, और हर किसी की प्रशंसा हासिल हो। वो कौन-सी तरकीबें होती हैं? वे सांसारिक आचरण के “सर्वोच्च” फलसफे होते हैं। कुछ लोगों को यह सुनना हास्यास्पद लग सकता है : “सर्वोच्च” और “सांसारिक आचरण के फलसफे” एक साथ नहीं होने चाहिए। उनकी जोड़ी अजीब है। तो यहाँ “सर्वोच्च” शब्द का उपयोग क्यों किया गया है? सामान्य तौर पर सांसारिक आचरण के फलसफे वाले किसी व्यक्ति का मानना होता है कि जीने के लिए उन्हें अस्तित्व के कुछ नियमों, यानी जीवित रहने के कुछ रहस्यों से लैस होना चाहिए। उन्हें लगता है कि जीवन में अपने लक्ष्य हासिल करने का यही एकमात्र तरीका है। वे अस्तित्व के इन नियमों को, जो सांसारिक आचरण के फलसफे हैं, अपने उच्चतम सिद्धांतों के रूप में रखते हैं, बिल्कुल उन आदर्श वाक्यों की तरह जिन्हें लोग अक्सर कहते रहते हैं। वे सांसारिक आचरण के अपने फलसफों पर बने रहते हैं और उस पर कायम रहते हैं मानो वह सत्य हो, यहाँ तक कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों को भी नहीं छोड़ते और उनसे भी ऐसे ही पेश आते हैं। वे सोचते हैं, “कोई मनुष्य खुद को सांसारिक मामलों से अलग नहीं कर सकता। तुम लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हो, है न? तुम लोग सिद्धांतों का पालन करते हो, है न? तुम लोग सत्य समझते हो, है न? तो ठीक है, मेरे पास तुम लोगों से निपटने के लिए सांसारिक आचरण का एक फलसफा है। तुम लोग अतिसावधानी बरतते हो, है न? तुम सत्य सिद्धांतों पर चलते हो, है न? ठीक है, मैं सत्य सिद्धांतों को नहीं समझता, फिर भी मैं तुम लोगों को अपने प्रति तैयार कर सकता हूँ और अपने आगे-पीछे घुमाता रह सकता हूँ। मैं तुम सभी लोगों को अपने दायरे में अपने काबू में रखूँगा; तुम कहोगे कि मैं एक अच्छा इंसान हूँ और पीठ पीछे मेरे बारे में कुछ भी बुरा नहीं कहोगे। जब तुम लोग आसपास नहीं होगे, तब मैं तुम्हारे बारे में राय भी दूँगा, और तुम लोगों के साथ बुरा करूँगा, और तुम लोगों को धोखा दूँगा—फिर भी तुम लोग कुछ नहीं समझ पाओगे।” यह ऐसा व्यक्ति है जो सांसारिक आचरण के फलसफों के अनुसार जीता है। सांसारिक आचरण के इन फलसफों के अंदर क्या होता है? छल, धोखा और तरकीबें, साथ ही दृष्टिकोण और तरीके। उदाहरण के लिए, जब वे किसी रुतबे वाले व्यक्ति को देखते हैं, किसी ऐसे को देखते हैं जो काम आ सकता है, तो वे बहुत विनम्र हो जाते हैं, पूरी तरह बिछ जाते हैं, झुककर अभिवादन करते हैं और उनकी प्रशंसा करने लगते हैं। जिनके बारे में उन्हें लगता है कि उनके पास देने के लिए बहुत कम है, और वे उनके जितने अच्छे नहीं हैं, वे हमेशा उन्हें नीचा दिखाते हुए बात करते हैं और उन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं, जिससे उन लोगों को लगता है कि वे श्रेष्ठ हैं और उन्हें हमेशा आदर की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। अपनी अंदरूनी दुनिया में उनके पास लोगों से खिलवाड़ करने और उनको अपने हाथों में नचाने की एक प्रणाली होती है और प्रत्येक प्रकार के व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, इसका एक तरीका होता है। जब उनका किसी से सामना होता है, तो वे एक नजर में जान जाते हैं कि वह किस प्रकार का व्यक्ति है, और उन्हें उनके साथ कैसे व्यवहार करना चाहिए और उनके साथ कैसे जुड़ना चाहिए। उनके मन में तुरंत एक रणनीति आ जाती है। वे इस मामले में परिष्कृत और कुशल होते हैं। उन्हें सांसारिक आचरण के इन फलसफों को लागू करने के बारे में सोचने की जरूरत नहीं होती—उन्हें प्रारंभिक रेखाचित्रों या किसी के निर्देश की जरूरत नहीं होती। उनके अपने तरीके होते हैं। उनमें से कुछ के बारे में उन्होंने स्वयं सोचा होता है; कुछ उन्होंने दूसरों से सीखा या दूसरों में देखा होता है, या दूसरों के प्रभाव से प्राप्त किया होता है। हो सकता है कि किसी ने उन्हें उन तरीकों के बारे में न बताया हो, लेकिन वे उनके बारे में सब जान सकते हैं और इसलिए वे सांसारिक आचरण के अपने फलसफों, तकनीकों, दृष्टिकोण और विधियों, योजनाओं और गणनाओं को सीख लेते हैं। क्या जो लोग इन चीजों के अनुसार जीते हैं, उनके पास सत्य होता है? क्या वे सत्य के साथ जी सकते हैं? (नहीं।) वे नहीं जी सकते। तो उनका अन्य लोगों पर क्या प्रभाव पड़ता है? दूसरों को अक्सर उनसे धोखा मिलता है और वे उनकी आँखों में धूल झोंकते हैं, दूसरों को वे इस्तेमाल करते हैं और उनके साथ खिलवाड़ करते हैं, इत्यादि। सांसारिक आचरण के ये फलसफे जरूरी नहीं कि केवल बुद्धिजीवियों, या कुछ लोगों के समूह तक सीमित हों—तथ्य यह है कि वे हर किसी में मौजूद होते हैं।

शैतानी फलसफे किन दूसरे तरीकों से जाहिर होते हैं? कुछ लोग बहुत अच्छा बोलते हैं। वे मीठी बातें करके लोगों से खुशी और संतुष्टि का एहसास कराते हैं, जो उनकी बातें सुनकर संतुष्ट होते हैं, लेकिन वे कोई असल काम नहीं करते। यह किस प्रकार का व्यक्ति होता है? वह जो सुंदर शब्दों से लोगों को बहकाता है। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता कुछ देर काम करते हैं, फिर मन में सोचते हैं, “क्या ऊपरवाला मुझे समझता है? क्या परमेश्वर मेरे बारे में जानता है? मुझे कुछ समस्याएँ रिपोर्ट करनी चाहिए ताकि ऊपरवाले को पता चले कि मैं काम कर रहा हूँ। यदि ऊपरवाला देखता है कि जिन समस्याओं के बारे में मैं बताता हूँ वे बहुत वास्तविक और ठोस हैं, कि वे प्रमुख मुद्दे हैं, तो ऊपरवाला यह देखकर शायद मुझे सम्मान देगा कि मैं असल कार्य कर सकता हूँ।” और इसलिए वे समस्याओं का उल्लेख करने का मौका तलाश लेते हैं। उनका समस्याओं का उल्लेख करना उचित है, यह व्यावहारिक बुद्धि है और कार्य को इसकी आवश्यकता है। लेकिन यह उनके निजी इरादे से कलंकित नहीं होना चाहिए। क्या तुम लोग देख सकते हो कि इन मुद्दों की रिपोर्ट करने में इस व्यक्ति का इरादा क्या है? वास्तव में उनके इस इरादे में समस्या क्या है? यह प्रश्न विचार और विवेक की माँग करता है। यदि वे अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने और परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए मुद्दों का उल्लेख कर रहे थे, तो यह उचित होता; इसका मतलब यह होता कि वे जिम्मेदार व्यक्ति हैं, असल कार्य करते हैं। फिर भी वर्तमान में कुछ ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता हैं जो असल कार्य नहीं करते, बल्कि अवसरवादी हैं और तिकड़में भिड़ाते हैं, जो अपने वरिष्ठों से झूठ बोलते हैं और अपने नीचे वालों से बातें छिपाते हैं। फिर भी वे मृदु और चालाक बनना चाहते हैं, और सभी को संतुष्ट करना चाहते हैं। इस तरह अभ्यास करके क्या वे शैतानी फलसफों के अनुसार नहीं जी रहे हैं? यदि हाँ, तो समस्या का समाधान कैसे किया जाना चाहिए? किन सत्यों की खोज की जाए, उन्हें कैसे जाना जाए और उनका भेद कैसे पहचाना जाए—उनके भ्रष्ट इरादे की समस्या का समाधान होने से पहले इन चीजों को स्पष्ट किया जाना चाहिए। एक अन्य उदाहरण है। दो लोग एक कर्तव्य में सहयोग करते हैं। किसी समस्या से निपटने के लिए उन्हें दूसरे क्षेत्र की एक कलीसिया में जाना है। वहाँ रहने की स्थितियाँ अपेक्षाकृत खराब हैं, सार्वजनिक सुरक्षा अच्छी नहीं है, और यह थोड़ी जोखिम भरी जगह है। उनमें से एक कहता है, “उस कलीसिया के लोग मुझे पसंद नहीं करते। अगर मैं गया भी, तो इसकी कोई गारंटी नहीं कि मैं वहाँ समस्या का समाधान कर पाऊँगा। वैसे वे सभी तुम्हें पसंद करते हैं। समस्या का समाधान करने के लिए तुम्हारा जाना लाभदायक होगा।” दूसरे को यह बात सच्ची लगती है और वह चला जाता है। बाकी सब छोड़ दें तो क्या उस व्यक्ति के साथ समस्या नहीं है जिसने न जाने के कारण और बहाने ढूँढ़ लिए हैं? चाहे उसके बहाने और कारण जायज हों या नहीं, क्या वह इसमें सत्य का अभ्यास कर रहा है? क्या वह अपने भाई-बहनों के बारे में सोच रहा है? नहीं; वह झूठ बोल रहा है। वह अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए सुंदर शब्दों का प्रयोग कर रहा है। क्या ये कोई तकनीक नहीं है? यदि तुम इस तरह सोचते और कार्य करते हो, तो तुमने देह के खिलाफ विद्रोह नहीं किया है। तुम अभी भी शैतानी फलसफों के अनुसार जी रहे हो। लेकिन क्या होगा यदि तुम स्वयं के खिलाफ विद्रोह करो और शैतानी फलसफों के अनुसार न जियो? तुम शुरू में उस कलीसिया की समस्याओं को सँभालने के लिए वहाँ नहीं जाना चाहोगे, लेकिन तुम इस पर विचार करोगे : “यह सही नहीं है। चूँकि मैं ऐसा सोचता हूँ तो इसका मतलब है कि मैं एक बुरा व्यक्ति हूँ, कि मैं अनैतिक हूँ। मैंने जो कहा है उसे जल्दी से जल्दी वापस लेना होगा। मुझे उनसे माफी माँगनी होगी और अपने द्वारा उजागर की गई भ्रष्टता के बारे में खुलकर बात करनी होगी। मुझे आज उस जगह जाना ही होगा, भले ही इसका मतलब यह हो कि मैं वहाँ मर जाऊँ।” यह वास्तव में जरूरी नहीं है कि तुम वहाँ मर जाओगे। मौत इतनी आसानी से कब आती है? जीवन और मृत्यु परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित हैं। कुल मिलाकर ऐसे मामले में तुममें संकल्प और खुद के खिलाफ विद्रोह करने की क्षमता होनी चाहिए। केवल तभी तुम सत्य के साथ जी पाओगे। मैं तुम्हें एक और उदाहरण देता हूँ। दो लोग एक कर्तव्य में सहयोग करते हैं। दोनों इसकी जिम्मेदारी लेने से डरते हैं, इसलिए दोनों एक दूसरे से बुद्धि से जीतना चाहते हैं। एक कहता है, “तुम जाओ इसे देखो।” दूसरा कहता है, “इसे सँभालना तुम्हारे लिए बेहतर होगा। मेरी काबिलियत तुमसे कम है।” वे वास्तव में जो सोच रहे हैं, वह है : “इस काम को अच्छी तरह से करने का कोई इनाम नहीं मिलने वाला, और अगर यह खराब तरीके से हुआ, तो मेरी काट-छाँट की जाएगी। मैं नहीं जाने वाला—मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ! मैं जानता हूँ कि तुम क्या चाहते हो। मुझे जाने के लिए मजबूर करने की कोशिश करना छोड़ दो।” उनके इस ठेलम-ठेल का अंत क्या होता है? उनमें से कोई नहीं जाता और परिणामस्वरूप काम लटक जाता है। क्या यह अनैतिक नहीं है? (बिल्कुल है।) क्या कार्य में देरी एक गंभीर परिणाम नहीं है? यह एक बुरा नतीजा है। तो ऐसा क्या है जिसके सहारे ये दोनों जी रहे हैं? दोनों शैतानी फलसफों के अनुसार जी रहे हैं; वे शैतानी फलसफों और अपनी चालबाजी से बेबस हैं और उसी से बँधे हैं। वे सत्य का अभ्यास करने में विफल रहे हैं, और इस प्रकार उनके कर्तव्य का प्रदर्शन मानक के अनुरूप नहीं है। यह अनमना होना है, और इसमें बिल्कुल भी कोई गवाही नहीं है। मान लो कि दो लोग एक कर्तव्य में सहयोग करते हैं। उनमें से एक हर चीज में प्रमुख स्थान लेने की कोशिश करता है और हमेशा अपनी मनमानी करना चाहता है और दूसरा सोच सकता है, “वे काफी जिद्दी हैं; उन्हें अगुआई करना पसंद है। खैर वे हर चीज में अगुआई कर सकते हैं और जब कुछ गलत होगा, तो उन्हीं की काट-छाँट होगी। ‘जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है’! फिर मैं आगे नहीं रहूँगा। वैसे भी मेरी काबिलियत खराब है और मुझे चीजों से परेशान होना पसंद नहीं है। उन्हें अगुआई करना पसंद है, है न? खैर अगर कुछ करना होगा तो मैं इसे उन पर छोड़ दूँगा!” जो व्यक्ति ऐसी बातें कहता है वह खुशामदी होना और पीछे-पीछे चलना पसंद करता है। तुम उनके कर्तव्य पालन के तरीके से क्या समझते हो? वे किसके सहारे जी रहे हैं? (सांसारिक आचरण के फलसफों के सहारे।) वे कुछ और भी सोच रहे हैं। “अगर मैंने उनकी चमक चुरा ली तो क्या वे मुझ पर गुस्सा नहीं होंगे? क्या आगे चलकर हम सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग करने में असमर्थ नहीं होंगे? यदि इसका असर हमारे रिश्ते पर पड़ा, तो हमारे लिए साथ निभाना मुश्किल हो जाएगा। बेहतर होगा कि मैं उन्हें उनके मन की करने दूँ।” क्या यह सांसारिक आचरण का फलसफा नहीं है? उनके जीने के तरीके के कारण वे परेशानी से बच जाते हैं। यह उन्हें जिम्मेदारी लेने से बचने में समर्थ बनाता है। उन्हें जो कुछ भी करने को कहा गया है उसे वे चुपचाप करेंगे, उन्हें न आगे आना होगा, न ही गरदन आगे करनी होगी, और किसी भी समस्या के बारे में नहीं सोचना होगा। सब कुछ किसी और के द्वारा किया जा रहा है, इसलिए वे खुद को नहीं थकाएँगे। अनुयायी बनने की उनकी इच्छा यह साबित करती है कि उनमें जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं है। वे सांसारिक आचरण के फलसफों के अनुसार जी रहे हैं। वे सत्य को स्वीकार नहीं करते या सिद्धांतों पर कायम नहीं रहते। यह सामंजस्यपूर्ण सहयोग नहीं है, यह एक अनुयायी बनना है, खुशामदी होना है। यह सहयोग क्यों नहीं है? क्योंकि वे किसी भी चीज में अपनी जिम्मेदारी पर खरे नहीं उतरते। वे अपने पूरे दिल या पूरे दिमाग से कार्य नहीं करते, और यह भी हो सकता है कि वे अपनी पूरी ताकत से कार्य नहीं करते। इसीलिए मैं कहता हूँ कि वे सत्य के बजाय सांसारिक आचरण के फलसफों के अनुसार जी रहे हैं। एक और उदाहरण लो : कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य निभाते समय कोई बुरा काम करता है, जिससे परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचता है। तुम इसे देखते हो, लेकिन मन ही मन सोचते हो, “इससे मेरा कोई लेना-देना नहीं है। इससे मेरे हितों को कोई ठेस नहीं पहुँची। इसके अलावा मैं इसके लिए जिम्मेदार भी नहीं हूँ। मैं दूसरों के फटे में टाँग क्यों अड़ाऊँ? जिसे मन हो वह जाकर इसे सँभाले। मुझे बस अपने काम की ही जिम्मेदारी लेनी है। अगर दूसरे बुरे काम करते हैं तो इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। अगर मैं इसे देखता हूँ तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता; अगर वे भटक गए हैं तो मुझे क्या लेना; और अगर कलीसिया के काम को कोई नुकसान होता है, तो इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है।” क्या यह सांसारिक आचरण का फलसफा नहीं है? (हाँ है।) क्या इस व्यक्ति के इरादे अच्छे हैं? (नहीं।) वे शैतानी फलसफों के अनुसार जी रहे हैं। कुछ लोग कभी-कभी किसी मामले में ऐसा कर देते हैं; अन्य लोग सत्य की खोज किए बिना या स्वयं पर विचार किए बिना और अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान किए बिना अक्सर ऐसा करते हैं। ये दोनों प्रकार के लोग अलग-अलग स्थितियों में हैं। चाहे यह अलग-अलग मामलों में किया गया हो या सभी मामलों में, यह भ्रष्ट स्वभाव की समस्या को छूता है। यह किसी के तौर-तरीकों से जुड़ा कोई साधारण मुद्दा नहीं है—यह शैतानी फलसफों के अनुसार अपना जीवन जीना है। आमतौर पर सांसारिक आचरण के कौन-से दूसरे फलसफे दिखाई देते हैं जिनके संपर्क में लोग आते हैं? (दूसरों को छोटे-मोटे एहसानों की रिश्वत देना, दूसरों की प्राथमिकताओं को पूरा करना, लोगों की प्रशंसा करना और उनकी खुशामद करना।) दूसरों की प्राथमिकताओं को पूरा करना एक तकनीक, सांसारिक आचरण का एक प्रकार का फलसफा है। और इसके अलावा क्या? (किसी को सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाला कार्य करते देखने के बाद उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचाने के डर से सीधे नहीं बोलना।) बातचीत में सीधे न बोलना, हमेशा मुद्दे को घुमाते रहना, हमेशा सुखद शब्द चुनना जिसमें सिद्धांत या आवश्यक समस्या शामिल न हो—यह सांसारिक आचरण का दूसरे प्रकार का फलसफा है। और कोई? (किसी रुतबे वाले व्यक्ति की चापलूसी और खुशामद करना।) यह चापलूसी करना है, और यह सांसारिक आचरण का एक प्रकार का फलसफा भी है। ऐसे लोग होते हैं जिनकी प्रकृति हमेशा दूसरों से काम निकालने के लिए तिकड़में भिड़ाने और उनका फायदा उठाने की होती है। वे विशेष रूप से कपटी होते हैं। ऐसे लोग होते हैं जो जहाँ जाएँ, चिकने-चुपड़े बने रहते हैं। वे क्या कहते हैं यह इस पर निर्भर करता है कि वे इसे किससे कह रहे हैं। उनका दिमाग तेजी से प्रतिक्रिया देता है : पहली बार नजर मिलाते ही वे जान जाते हैं कि किसी व्यक्ति को कैसे सँभालना है। ऐसे लोग बहुत धूर्त होते हैं; वे सत्य के अनुसार नहीं जी सकते। सांसारिक आचरण के फलसफे किन अन्य तरीकों से जाहिर होते हैं? (किसी समस्या को देखने के बाद इस डर से बोलने की हिम्मत न करना कि अगर इसमें गलती हुई तो दोष अपने सिर लेना होगा, यह देखना कि दूसरे क्या कह और कर रहे हैं, और तब तक कोई विचार व्यक्त न करना जब तक ज्यादातर पहले बोल न दें।) लोग यह सोचकर धारा के साथ बहते रहते हैं कि जब हर कोई अपराधी हो तो कानून लागू नहीं किया जा सकता। यह किस प्रकार की समस्या है? किस प्रकार का स्वभाव? क्या यह कपटी स्वभाव नहीं है? सत्य सिद्धांतों को बनाए रखने की हिम्मत नहीं क्योंकि तुम हमेशा खुशामदी बने रहना चाहते हो और नाराज करने से डरते हो, साथ ही इससे भी डरते हो कि सत्य का अभ्यास न करने के कारण तुम्हारा खुलासा कर तुम्हें हटा दिया जाएगा—यह काफी बड़ी दुविधा है! यह खुशामदी करने वालों की दयनीय दुर्दशा है। जब लोग सत्य का अभ्यास नहीं करते, तो वे ऐसी कुरूप परिस्थितियों को जीते हैं; वे सभी शैतान की राक्षसी छवि धारण कर लेते हैं। इनमें से कुछ लोग धूर्त होते हैं, कुछ विश्वासघाती होते हैं, कुछ घृणित होते हैं, कुछ अधम होते हैं, कुछ नीच और बाकी दयनीय हैं। क्या तुम लोग शैतानी फलसफों के अनुसार जी रहे हो? जो अगुआ है उसकी चापलूसी करना, जबकि उन अगुआओं की अनदेखी करना, जिन्हें बर्खास्त कर दिया गया है और हटा दिया गया है; अगुआ के रूप में चुने गए किसी भी व्यक्ति के प्रति खुशामदी बनना, चाहे वे कोई भी हों; सभी प्रकार की घिनौनी बातें कहना, “ओह, तुम सुंदर हो और तुम्हारी कद-काठी बहुत अच्छी है—तुम सुंदरता की प्रतिमूर्ति हो। तुम्हारी आवाज समाचार पढ़ने वाले जैसी और कोयल की तरह सुरीली है,” उनकी स्वीकृति पाने के तरीके तलाशना; जब मौका मिले उनकी चापलूसी करना; छोटे-मोटे एहसान की रिश्वत देना; वे क्या करते और कहते हैं इस पर नजर रखना, और जब तुम देखते हो कि उन्हें कोई चीज पसंद है तो उन्हें संतुष्ट करने के तरीकों के बारे में सोचना। क्या तुम लोगों के पास ये युक्तियाँ हैं? (हाँ। कभी-कभी मैं देखता हूँ कि किसी अगुआ या कार्यकर्ता में कुछ समस्याएँ या कमियाँ हैं, फिर भी मैं कुछ कहने की हिम्मत नहीं करता, इस डर से कि वे मुझे ही दोष देंगे और मेरे प्रति नकारात्मक रवैया अपना लेंगे।) यह सिद्धांतों की कमी होना है। तो क्या तुम जानते हो कि तुमने उन समस्याओं की सही पहचान की है और क्या उनके बारे में बोलने से कलीसिया के काम को फायदा होगा? (थोड़ा-सा।) तुम थोड़ा जानते हो—तो सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होने के लिए तुम्हें क्या करना चाहिए? यदि तुम आश्वस्त हो कि तुम्हें समस्या पता चल गई है, और तुम अपने दिल में समझते हो कि उसका समाधान होना चाहिए, अन्यथा इससे काम में देरी होगी, फिर भी तुम सिद्धांतों का पालन करने में सक्षम नहीं हो, और तुम दूसरे लोगों को नाराज करने से डरते हो, तो यह समस्या क्या है? तुम सिद्धांतों का पालन करने से क्यों डरोगे? यह एक गंभीर प्रकृति का मुद्दा है, जो यह बताता है कि क्या तुम सत्य से प्रेम करते हो और क्या तुममें न्याय की भावना है। तुम्हें अपनी राय बतानी चाहिए, भले ही तुम न जानते हो कि वह सही है या नहीं। अगर तुम्हारी कोई राय या विचार है, तो तुम्हें उसे कह देना चाहिए और दूसरों को उसका आकलन करने देना चाहिए। ऐसा करने से तुम्हें लाभ होगा और यह समस्या हल करने में मददगार होगा। अगर तुम अपने मन में सोचते हो, “मैं इसमें नहीं पड़ूँगा। अगर मैंने सही कहा, तो मुझे श्रेय नहीं मिलेगा और अगर गलत कहा, तो मेरी काट-छाँट की जाएगी। यह इस लायक नहीं है,” तो क्या यह स्वार्थी और घृणित होना नहीं है? लोग हमेशा अपने हितों पर विचार करते हैं और सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ रहते हैं। लोगों के बारे में यही सबसे कठिन बात है। क्या तुम सभी लोगों के भीतर सांसारिक आचरण से जुड़े ऐसे कई फलसफे और साजिशें नहीं हैं? प्रत्येक व्यक्ति में शैतान के फलसफों की काफी चीजें हैं और वे लंबे समय से उनसे प्रभावित हैं। तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि लोग सत्य समझे बिना वर्षों तक प्रवचन सुनते हैं, और सत्य वास्तविकता में उनका प्रवेश धीमा है, और उनका आध्यात्मिक कद हमेशा बहुत छोटा रहता है। कारण यह है कि ऐसी भ्रष्ट चीजें उन्हें बाधित और परेशान करती हैं। जब लोगों के लिए सत्य का अभ्यास करना जरूरी होता है, तो वे किसके अनुसार जीते हैं? वह इन भ्रष्ट स्वभावों, धारणाओं, कल्पनाओं, सांसारिक आचरण के फलसफों और गुणों के अनुसार जीते हैं। इन चीजों के अनुसार जीते हुए लोगों के लिए परमेश्वर के सामने आना बहुत कठिन है। ऐसा क्यों होता है? उनका भार बहुत अधिक और जुआ बहुत भारी होता है। मनुष्य का इन चीजों के अनुसार जीना सत्य से बहुत अलग है। ये चीजें तुम्हें सत्य समझने और उसका अभ्यास करने से रोकती हैं। अगर तुम सत्य नहीं समझते, तो क्या परमेश्वर में तुम्हारी आस्था बढ़ेगी? (नहीं।) परमेश्वर में तुम्हारी आस्था निश्चित ही नहीं बढ़ेगी। उसके बारे में तुम्हारा ज्ञान बढ़ने की तो बात ही छोड़ दो। यह बहुत ही शोचनीय और भयानक बात है।

लोग जिसके अनुसार जीते हैं उसका संबंध चीजों के बारे में उनके विचारों के साथ-साथ उनके स्वभावों से होता है। कुछ लोग हमेशा अपने सपने और इच्छाएँ पूरी करने के लिए प्रयासरत रहते हैं। वे सपने देखने वाले लोग हैं। कुछ हमेशा अपनी इच्छाओं से जीते हैं। उनकी इच्छाओं में क्या शामिल होता है? उनमें काम करके खुद को जताने की इच्छा होती है और खुद का दिखावा करने की इच्छा होती है। मिसाल के तौर पर ऐसे लोग हैं जिन्हें रुतबा पसंद होता है। बिना रुतबे के वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करेंगे; बिना रुतबे के उनका कुछ भी करने का मन नहीं होता और परमेश्वर में विश्वास करना भी उनके लिए उबाऊ होता है। वे रुतबा हासिल करने की अपनी इच्छा के अनुसार जीते हैं, और रोजाना अपने दिन इसी इच्छा के वशीभूत होकर गुजारते हैं। उनका रुतबा चाहे जो भी हो, वह उनके लिए काफी मूल्यवान होता है। वे जो कुछ करते हैं वह रुतबे के अलावा किसी और चीज के लिए नहीं होता : अपना रुतबा बनाए रखना, अपने रुतबे को मजबूत करना, अपना अधिकार क्षेत्र बढ़ाना—वे जो कुछ करते हैं, हर तरह से अपनी इसी इच्छा के लिए करते हैं। वे इच्छा के अनुसार जी रहे हैं। संसार में ऐसे भी लोग हैं जो दयनीय जीवन जीते हैं। वे निष्कपट लोग हैं जिन्हें हमेशा सताया जाता है, जो बुरे घरों से आते हैं, गरीब सामाजिक परिवेश से आते हैं, जिनके पास निर्भर करने को कोई नहीं है। वे तब तक अकेले और उपेक्षित होते हैं, जब तक परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, उस बिंदु पर आकर उन्हें लगता है कि आखिर उन्हें एक सहारा मिल गया है। उनमें एक आकांक्षा होती है, और वे परमेश्वर में अपने विश्वास से प्रेरित होते हैं। उनकी आकांक्षा कभी नहीं बदली है, यहाँ तक कि आज तक भी नहीं। वे सोचते हैं, “परमेश्वर में विश्वास करके मैं गरिमा और चरित्र की ताकत के साथ जीता हूँ; परमेश्वर में विश्वास करके मैं दूसरों से ऊपर उठ सकता हूँ और ऐसा जीवन जी सकता हूँ जो दूसरों से बेहतर हो। जब मैं स्वर्ग जाऊँगा, तो तुम सभी लोगों को मेरा सम्मान करना होगा। फिर मुझे कोई भी हेय दृष्टि से नहीं देखेगा।” उनकी यह इच्छा, यह आशा बहुत खोखली और अस्पष्ट होती है। उन्हें लगता है कि वे अपने परिवार की परिस्थितियों या किसी अन्य कारण से दुनिया में इतना दयनीय जीवन जी रहे थे। परमेश्वर के घर में रहते हुए उनके पास भरोसा करने के लिए कुछ है। भाई-बहन उन पर धौंस नहीं जमाते। वे अब दयनीय नहीं रहे; उनके पास एक आधार-स्तंभ है। इसके अलावा उनकी सबसे बड़ी आशा यह होती है कि मरने के बाद या इस जीवन में उन्हें अपने लिए एक अद्भुत मंजिल मिल सकती है, जहाँ वे अपना सिर ऊँचा रख पाएँगे। यही उनका लक्ष्य होता है। वे इसी आकांक्षा के साथ जीते हैं, और हर जगह सभी चीजों में वे इसी विचार, इसी इच्छा को अपनी प्रेरणा के रूप में उपयोग करते हैं। उनके लिए सत्य के अनुसार जीना काफी कठिन होता है। ऐसे लोग दयनीय जीवन जीते हैं। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिन्हें दिखावा करने या अपनी पहचान बनाने की इच्छा होती है। इस वजह से वे एक समूह के भीतर रहना और विभिन्न काम करना बहुत पसंद करते हैं, ताकि समूह के दूसरे लोग उनके बारे में ऊँचा सोचें, जिससे उनका घमंड संतुष्ट होता है। वे मानते हैं, “भले ही मैं अगुआ न होऊँ, लेकिन अगर मैं समूह के लिए अपनी खूबियाँ प्रदर्शित कर सकूँ और आकर्षण से चमकता हुआ लगूँ, मेरे चारों ओर प्रभामंडल हो तो मेरे लिए परमेश्वर में विश्वास करना उचित है। मैं इसी के लिए जीता हूँ; कम से कम यह दुनिया में रहने से कहीं अच्छा है।” तो तब से वे इसी के लिए जीते हैं। वे अपने मूल इरादे को बदले बिना अपने सभी दिन और वर्ष ऐसे ही गुजारते हैं। क्या यह सत्य के अनुसार जीना है? हरगिज नहीं। वे गैर-विश्वासियों की तरह ही सपनों और इच्छाओं के सहारे जी रहे हैं। यह ऐसी समस्या है जिसका संबंध व्यक्ति के चीजों को देखने के साथ-साथ भ्रष्ट स्वभावों से भी होता है। यदि यह समस्या अनसुलझी रह जाती है, तो सत्य को समझने या उसका अभ्यास करने का कोई रास्ता नहीं बचता, और तब सत्य के साथ जीना काफी कठिन हो जाता है।

कुछ ऐसी महिलाएँ भी होती हैं जो अपनी शक्ल-सूरत के सहारे जीती हैं, जो हमेशा खुद को सुंदर समझती हैं, सोचती हैं कि वे जहाँ भी जाती हैं, हर कोई उन्हें पसंद करता है, उनका बहुत सम्मान करता है और उनका अनुमोदन करता है। वे जहाँ भी जाती हैं, वे लोगों से अपने लिए प्रशंसा की भाषा सुनती हैं और लोगों के मुस्कराते चेहरों को अपनी ओर देखती हैं। वे इस तरह जीते हुए खुद से काफी खुश और आश्वस्त रहती हैं। इसलिए उनका मानना होता है कि जिस तरह वे जीती हैं, वैसे जीने से उन्हें एक पूँजी मिल जाती है, उनके जीने का बहुत महत्व है—कम से कम बहुत-से लोग उनकी सराहना तो करते ही हैं। क्या ऐसे पुरुष भी नहीं हैं जो अपनी शक्ल-सूरत के आधार पर जीने में लगे हैं? मान लो कि तुम सुंदर हो और अपनी बहनों के साथ बातचीत में हाजिर-जवाब, आकर्षक और रूमानी हो। तुम अपने आप से काफी खुश हो, क्योंकि हर कोई तुम्हारे बारे में बहुत अच्छा सोचता और तुम्हारे इर्द-गिर्द नाचता है। “ऐसा नहीं है कि मैं किसी को डेट करने की कोशिश कर रहा हूँ। मैं बस ऐसे ही जी रहा हूँ, और यह प्यारी चीज है! सत्य का अभ्यास—कितना नीरस है!” कुछ अन्य लोग भी हैं जो किसी प्रकार की पूँजी के सहारे जीवन जीते हैं, और यह पूँजी होने के लिए उनके पास निश्चित रूप से कोई वास्तविक चीज होनी चाहिए। वे कौन-सी वास्तविक चीजें हो सकती हैं? उदाहरण के लिए, कुछ लोगों को लगता है कि वे गर्भ से ही परमेश्वर में विश्वास करते हुए आए हैं। वे पचास वर्षों या उससे अधिक समय से परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और यही उनकी पूँजी है। जब वे किसी भाई या बहन को देखते हैं, तो वे पूछते हैं, “तुम्हारा परमेश्वर में कितने वर्षों से विश्वास है?” वह कहता है “पाँच साल।” उन्होंने इस व्यक्ति की तुलना में दस गुना अधिक समय तक परमेश्वर में विश्वास किया है, और यह देखकर वे मन में सोचते हैं, “क्या तुम लोगों का मेरे जितने वर्षों तक ही परमेश्वर में विश्वास है? तुम्हारी उम्र बहुत कम है। बेहतर होगा कि तुम कायदे में रहो—तुम्हें अभी बहुत लंबा रास्ता तय करना है!” यह वे हैं जो अपनी पूँजी के सहारे जी रहे हैं। पूँजी के अन्य प्रकार क्या होते हैं? कुछ लोगों ने सभी स्तरों पर अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में कार्य किया है। वे लंबे समय से कार्यशील रहे हैं, काम करते रहे हैं, इधर-उधर भाग-दौड़ करते और कलीसियाओं में जाते रहे हैं, और उनके पास बहुत अनुभव है। वे ऊपरवाले की कार्य व्यवस्थाओं के साथ-साथ कलीसिया में विभिन्न प्रकार के लोगों और कार्य के क्षेत्रों से अच्छी तरह परिचित हैं। इसलिए उनका मानना होता है, “मैं खासी पूँजी वाला अनुभवी अगुआ हूँ। मैं लंबे समय से काम कर रहा हूँ और मेरे पास अनुभव है। तुम लोग क्या जानते हो? तुम बच्चे हो। तुमने कितने दिन काम किया है? तुम लोग बहुत कच्चे हो। तुम्हें कुछ भी पता नहीं। हाँ, तुम लोग मेरी बात सुनो, यही सही है!” और इसलिए वे पूरे दिन उपदेश देते रहते हैं, इसमें कुछ भी व्यावहारिक नहीं है—ये सभी वचन और धर्म-सिद्धांत होते हैं। यद्यपि वे बहाने बनाएँगे : “आज मेरा मूड खराब है। वहाँ एक मसीह-विरोधी है जो गड़बड़ी और बाधा पैदा कर रहा है, और इससे मैं परेशान हो गया हूँ। मैं अगली बार ठीक से उपदेश दूँगा।” इससे उनके असली रंग दिख जाते हैं, है न? वे अपने अनुभव की पूँजी पर जी रहे हैं और बेहद आत्म-संतुष्ट हैं। सचमुच कितना घृणित, कितना कुत्सित है यह! यह एक प्रकार की पूँजी है। ऐसे कुछ अन्य लोग हैं जिन्हें परमेश्वर में विश्वास के कारण जेल में डाल दिया गया था, या जिनके पास कोई अन्य असाधारण अनुभव है, या जिन्होंने असाधारण कर्तव्य निभाए हैं। उन्होंने कष्ट सहा है, और वह भी उनके लिए एक प्रकार की पूँजी के रूप में कार्य करता है। लोग हमेशा अपनी पूँजी पर ही क्यों जीवन बिता रहे हैं? इसमें एक समस्या है : उनका मानना है कि यह पूँजी ही उनका जीवन है। जब तक वे अपनी पूँजी पर जी रहे होते हैं, वे अक्सर स्वयं की प्रशंसा करते और मस्त रहते हैं, और उस पूँजी का उपयोग दूसरों को निर्देश देने और प्रभावित करने के लिए करते हैं, जो उनकी प्रशंसा जीतने में उपयोगी होती है। उनका मानना होता है कि अपनी पूँजी को नींव के रूप में रखकर अगर वे थोड़े सत्य का अनुसरण करते हैं, या अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाते हैं और उनके पास कुछ अच्छे कर्म हैं, तो हो सकता है कि पौलुस की तरह उनके लिए धार्मिकता का ताज सुरक्षित हो। निश्चित रूप से वे जीवित रहेंगे; निश्चित रूप से वे एक अच्छी मंजिल पर पहुँचेंगे। अपनी पूँजी के सहारे जीते हुए वे अक्सर आत्ममुग्ध, बेहद आत्म-संतुष्ट, संतोषपूर्वक बेपरवाह स्थिति में रहते हैं। उन्हें लगता है कि परमेश्वर उनकी पूँजी को स्वीकारता है, कि वह उनसे प्रसन्न है, कि वह उन्हें अंत तक बने रहने देगा। क्या यह पूँजी पर निर्भर रहकर जीना नहीं है? वे हर मोड़ पर ऐसी मानसिकता उजागर करते हैं। जो चीजें वे उजागर करते हैं, जिन चीजों के सहारे वे रहते हैं, और जिन चीजों का वे हर मौके पर दूसरों को उपदेश देते हैं, उनमें उनके दिमाग में जो कुछ है वह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। ऐसे लोग भी होते हैं जिन्हें परमेश्वर से विशेष अनुग्रह या देखभाल मिली है, जो किसी और को नहीं—केवल उन्हें मिली है। तो वे सोचते हैं कि वे विशेष हैं, कि वे बाकियों से अलग हैं। वे कहते हैं, “परमेश्वर में तुम लोगों का विश्वास मुझसे अलग है। परमेश्वर तुम लोगों को ढेर सारी कृपा देकर तुम्हारा मार्गदर्शन करने से शुरुआत करता है। फिर एक बार जब तुम लोग धीरे-धीरे कुछ सत्य समझने लगते हो, तो परमेश्वर तुम्हारी काट-छाँट करता है, तुम्हारा न्याय करता है और तुम्हें ताड़ना देता है। तुम सभी लोगों के लिए ऐसा ही है। यह मेरे लिए अलग है : परमेश्वर की मुझ पर विशेष कृपा रहती है। वह मेरे साथ खास अनुग्रह से पेश आता है, और वह खास अनुग्रह मेरी पूँजी है—यह राज्य के लिए मेरी सनद और टिकट है।” जब तुम उन्हें ये बातें कहते हुए सुनते हो तो तुम्हें कैसा महसूस होता है? क्या उन्हें परमेश्वर के कार्य का ज्ञान है? क्या उन्हें अपने बारे में ज्ञान है? बिल्कुल भी नहीं। यह कहना उचित है कि वे सत्य नहीं समझते, और उनका मानना है कि सत्य का अनुसरण किए बिना या सत्य की खोज किए बिना या न्याय और ताड़ना स्वीकार किए बिना उन्हें बचाया जा सकता है। वे कौन-से लोग हैं जिनकी ऐसी दशाएँ हैं? वे कुछ लोग हैं जिन्होंने कुछ दर्शन देखे हैं, जिन्हें कुछ विशेष सुरक्षा मिली है और वे विपत्ति से बच गए हैं। या वे मरकर जीवित हो गए हैं, और उनके पास कुछ विशेष गवाही या अनुभव है। वे इन चीजों को अपने जीवन के रूप में, अपने जीवनयापन के आधार के रूप में लेते हैं, और सत्य का अभ्यास करने के विकल्प के रूप में उनका उपयोग करते हैं। इसके अलावा वे इन चीजों को उद्धार के संकेत और मानक मानते हैं। यह होती है पूँजी। क्या तुम लोगों के पास ऐसी चीजें हैं? हो सकता है कि तुम लोगों के पास इस प्रकार का विशेष अनुभव न हो, लेकिन यदि तुम लोगों ने लंबे समय तक कोई विशेष कर्तव्य निभाया है और परिणाम प्राप्त किए हैं, तो तुम मान लोगे कि तुम्हारे पास पूँजी है। मान लो कि तुमने लंबे समय तक निर्देशक का कर्तव्य निभाया है, और कई अच्छे काम अंजाम दिए हैं। वह तुम्हारे लिए पूँजी का आकार ले लेता है। हो सकता है कि तुम्हारे पास अभी तक यह न हो क्योंकि तुमने कोई ऐसा काम नहीं किया है। या हो सकता है कि तुमने दो ऐसी फिल्में बनाई हों जो तुम्हें ठीक-ठाक लगती हैं, फिर भी तुम उन्हें अपनी पूँजी मानने की हिम्मत नहीं कर पाते। तुम्हें उन पर विश्वास नहीं है; तुम्हें लगता है कि तुम्हारे पास अभी तक पर्याप्त अनुभव या पूँजी नहीं है, तो तुम सतर्क, संकोची और शांत बने रहते हो। तुम कामचोरी करने की हिम्मत नहीं करते हो, अहंकारी होने और दिखावा करने की तो बात ही दूर है। फिर भी तुम अपने आप से अत्यधिक प्रसन्न रहते हो और हर समय अपनी प्रशंसा करते रहते हो, और यही वो चीजें हैं जिनके अनुसार तुम जीते हो। क्या यह भ्रष्ट मानवजाति की दयनीय दुर्दशा नहीं है?

कुछ लोग देखने में बेहद क्रूर लगते हैं। वे बड़े, हृष्ट-पुष्ट और मजबूत होते हैं, वे हमेशा दूसरों पर धौंस जमाने की फिराक में रहते हैं। बोल-चाल में वे काफी दबंग और अभिमानी होते हैं; वे किसी के आगे नहीं झुकते, चाहे वे कोई भी हों। इसलिए लोग उन्हें देखकर थोड़ा डर जाते हैं, और उनके साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार करते हैं, उनकी खुशामद करने की कोशिश करते हैं। इससे उन्हें बेहद गर्व महसूस होता है। उन्हें लगता है कि जीवन आसान है, और मानते हैं कि यह सब उनकी प्रतिभा है—वे सोचते हैं कि जैसे वे रहते हैं, उसके चलते कोई उन्हें सताने की हिम्मत नहीं करेगा। यदि तुम भीड़ में मजबूती से खड़े रहना चाहते हो, तो तुम्हें आत्मनिर्भर, आत्म-सशक्त, और मजबूत और कठोर बनना होगा—यही उनके जीवन का सिद्धांत होता है। दूसरों के बीच मजबूती से खड़े रहने के लिए, ताकि कोई उन्हें सताने या उनसे खिलवाड़ करने की हिम्मत न करे, न ही उन्हें धोखा देने और उनका शोषण करने की हिम्मत करे, वे चीजों को इस सिद्धांत तक सीमित कर देते हैं : “अगर मैं अच्छी तरह जीना चाहता हूँ तो मुझे मजबूत और सख्त होना होगा—मैं जितना उग्र होऊँगा, उतना अच्छा है। इस तरह कहीं भी कोई मुझ पर धौंस जमाने की सोचेगा भी नहीं।” इसलिए वे कुछ वर्षों तक ऐसे ही रहते हैं, और वास्तव में वैसा होता है, कोई उन्हें सताने की हिम्मत नहीं करता। आखिर उन्होंने अपना लक्ष्य पूरा कर लिया है। चाहे वे किसी भी समूह में हों, वे एक गंभीर अभिव्यक्ति, भावविहीन चेहरा, अपनी गंभीरता दिखाते हुए और अवमानना के तेवर बनाए रखते हैं। कोई भी उनके आसपास बोलने की हिम्मत नहीं करता; बच्चे उन्हें देखकर रोने लगते हैं। पुनर्जीवित राक्षस—यही हैं वे! घूँसा तानकर जीना—यह कौन-सा स्वभाव है? यह क्रूरता का स्वभाव है। वे जहाँ भी जाते हैं, सबसे पहली चीज जो वे करते हैं, वह यह सीखते हैं कि लोगों के साथ चालबाजी और उनका शोषण कैसे किया जाए। वे लोगों को नियंत्रित कर उन्हें अपने वश में भी करना चाहते हैं। वे ऐसे तरीकों के बारे में सोचते हैं कि उनका अनादर करने वाले से उसका बदला कैसे लिया जाए, और वे ऐसे मौके तलाशते हैं कि जो कोई भी उनसे अभद्रता से बात करे, उसे चुभते हुए शब्दों से सताया जाए। क्या इन चीजों के सहारे जीना दुर्भावनापूर्ण नहीं है? जैसे वे घूँसे के सहारे चीजों को सँभालते हैं, वैसा करने के कुछ प्रभाव होते हैं : बहुत-से लोग उनसे डरने लगते हैं, जिससे उनके लिए रास्ता साफ हो जाता है। लेकिन क्या ऐसे लोग सत्य स्वीकार कर सकते हैं, यह देखते हुए कि वे क्रोधी और दुर्भावनापूर्ण स्वभाव से जीते हैं? क्या वे सचमुच पश्चात्ताप कर सकते हैं? यह असंभव होगा क्योंकि वे शैतानी फलसफों और बल प्रयोग के समर्थक हैं। वे केवल शैतानी फलसफों और बल के प्रयोग से जीते हैं; वे हर किसी से अपनी बात मनवाते हैं और उन्हें डराते हैं, ताकि वे स्वेच्छा से उन्मत्त होकर जो चाहे कर सकें। उन्हें खराब प्रतिष्ठा की चिंता नहीं होती, बल्कि इसकी चिंता होती है कि उनकी प्रतिष्ठा दुष्टतापूर्ण नहीं है। यही उनका सिद्धांत है। एक बार जब वे इस तरह अपना लक्ष्य पूरा कर लेते हैं, तो वे सोचते हैं, “मैं परमेश्वर के घर में और इन समूहों के बीच मजबूती से खड़ा रहने में कामयाब रहा हूँ। सब मुझसे डरते हैं; कोई मेरे साथ उलझने की हिम्मत नहीं करेगा। वे सभी मेरे प्रति आदर भाव रखते हैं।” उनका मानना होता है कि वे जीत गए हैं। क्या सचमुच ऐसा है कि कोई भी उनके साथ उलझने की हिम्मत नहीं करेगा? उनसे उलझने की हिम्मत न करना बाहरी बात है। हर कोई अपने हृदय की गहराई से ऐसे लोगों को कैसे देखता है? इसमें कोई संदेह नहीं है : वे उनसे तंग आ चुके होते हैं, घृणा करते हैं, नफरत करते हैं, उनसे दूर छिटकते और बचकर रहते हैं। क्या तुम लोग ऐसे व्यक्ति के साथ कोई संबंध रखने के इच्छुक होगे? (नहीं।) क्यों नहीं? वे हमेशा तुम्हें पीड़ा देने के तरीकों के बारे में सोचते रहेंगे। क्या तुम इसे बर्दाश्त कर पाओगे? कभी-कभी बलपूर्वक धमकी देने के बजाय वे तुम्हें भ्रमित करने के लिए कुछ तरकीबें इस्तेमाल करेंगे और फिर धमकाएँगे। कुछ लोग धमकी का सामना नहीं कर पाते, इसलिए वे दया की भीख माँगते हैं और शैतान के सामने आत्मसमर्पण कर देते हैं। दुष्ट लोग जिस तरह से ठीक लगे वैसे बोलते और कार्य करते हैं। डरपोक और भयभीत लोग उनके सामने आत्मसमर्पण कर देते हैं, फिर वाणी और कार्य में उनका अनुसरण करते हैं। वे बुरे व्यक्ति के जुर्म में साथी हैं, है न? जब तुम लोग ऐसे बुरे व्यक्ति को देखोगे तो क्या करोगे? सबसे पहले, डरो मत। तुम्हें उनसे निपटने और उन्हें बेनकाब करने का तरीका खोजना होगा। तुम उन भाई-बहनों के साथ भी टीम बना सकते हो जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उस व्यक्ति की रिपोर्ट कर सकते हो। डर बेकार है—जितना अधिक तुम उनसे डरोगे, उतना अधिक वे तुम्हें प्रताड़ित और परेशान करेंगे। बुरे व्यक्ति की रिपोर्ट करने के लिए टीम बनाना ही उन्हें भयभीत और शर्मिंदा करने का एकमात्र तरीका है। यदि तुम बहुत डरपोक हो और तुम्हारे पास बुद्धि की कमी है, तो तुम निश्चित रूप से उस बुरे व्यक्ति की निर्दयता का शिकार होगे। लोगों की आस्था कितनी छोटी होती है—कितनी दयनीय होती है! वास्तव में बुरे लोग चाहे जितने बुरे हो जाएँ तो भी वे लोगों के साथ क्या कर सकते हैं? क्या वह यूँ मुक्का घुमाकर किसी को पीटकर जान से मारने का साहस कर पाएगा? अब हम कानून वाले समाज में रहते हैं। वह ऐसी हिमाकत नहीं करेगा। इसके अलावा शैतानी रूप से क्रूर लोगों का वर्ग छोटा, अलग-थलग अल्पसंख्यक है। यदि किसी में लोगों पर दबंगई करने और कलीसिया पर अत्याचार करने का दुस्साहस है, तो बस उसे रिपोर्ट करने और उसका खुलासा करने के लिए दो-तीन लोगों की टीम बनानी होगी। इससे उसका मामला निपट जाएगा। क्या ऐसा नहीं है? यदि परमेश्वर के चुने हुए बस कुछ ही लोग एक मन और हृदय के हों, तो वे आसानी से एक बुरे व्यक्ति से निपट सकते हैं। तुम्हें विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर एक धार्मिक, सर्वशक्तिमान परमेश्वर है, कि वह बुरे लोगों से अत्यधिक घृणा करता है, और वह अपने चुने हुए लोगों का सहारा बनेगा। अगर किसी में आस्था है, तो उसे किसी बुरे व्यक्ति से डरना नहीं चाहिए—और थोड़ी बुद्धि और रणनीति के साथ यदि वे दूसरों के साथ मिलकर काम कर सकें, तो बुरा व्यक्ति स्वाभाविक रूप से नरम पड़ जाएगा। यदि तुम वास्तव में परमेश्वर में आस्था नहीं रखते, लेकिन बुरे लोगों से डरते हो और मानते हो कि वे तुम्हें अपने चंगुल में ले सकते हैं और तुम्हारा भाग्य तय कर सकते हैं, तो तुम्हारा काम तो हो गया। तुम्हारे पास कोई गवाही नहीं होगी, देने के लिए कुछ भी नहीं होगा, और तुम एक कायर, घटिया जीवन जियोगे। ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए? कुछ लोग हमेशा अपनी तुच्छ चालाकी से जीते हैं, और सोचते हैं, “मुझे नहीं पता कि परमेश्वर कहाँ है, और मैं यकीन से नहीं कह सकता कि ऊपर वाले को इस मामले के बारे में पता भी है या नहीं। यदि मैं रिपोर्ट करूँ और बुरे व्यक्ति को पता चल गया, तो क्या वह इसके लिए मुझे और अधिक नहीं सताएगा?” जितना अधिक वे इसके बारे में सोचते हैं, उतना ही अधिक डर जाते हैं, और मेज के नीचे छिप जाना चाहते हैं। क्या ऐसा करने वाला कोई व्यक्ति अभी भी सत्य का अभ्यास कर सकता है और सिद्धांतों को कायम रख सकता है? (नहीं।) वे छोटे कायर लोग हैं, क्या ऐसा नहीं है? तुम लोगों में से अधिकांश लोग ऐसे ही हैं। कुछ समय पहले एक मसीह-विरोधी ने कुछ लोगों को सताया। उन लोगों की कायरता ही उनके कष्ट का कारण थी। क्या सताया जाना अच्छी बात है या बुरी? मनुष्य के दृष्टिकोण से यह बुरी बात है : इसका अर्थ है अन्याय सहना, पीड़ा पहुँचाया जाना। लेकिन कोई इससे सबक ले सकता है और इससे लाभ उठा सकता है, और यह कोई बुरी बात नहीं है—यह अच्छी बात है। हालाँकि कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनमें बुद्धि की कमी होती है और वे रीढ़विहीन होते हैं। जब कोई उन्हें परेशान करता है और सताता है, तो वे विरोध नहीं करते, भले ही वे सही हों। वे जानते हैं कि वह व्यक्ति एक झूठा अगुआ, मसीह-विरोधी है, लेकिन वे उसकी रिपोर्ट नहीं करते, न ही वे उसका खंडन कर उसे उजागर करने का साहस करते हैं। डरपोक कचरे! अगर कोई ऐसी चीजों के कारण बाधित होता है, तो इससे पता चलता है कि उसका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और वह आस्था में दयनीय है : वह परमेश्वर पर भरोसा करना नहीं जानता, न ही वह कलीसिया के काम को संरक्षित करने के बारे में सोचता है। वह परमेश्वर के इरादे नहीं समझता। परमेश्वर के चुने हुए लोगों को बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों के विरुद्ध खड़े होने का अधिकार है। ऐसा करना परमेश्वर द्वारा स्वीकृत है और इसे उसका आशीष मिलता है। क्या यह दयनीय नहीं है कि तुम शैतान के खिलाफ युद्ध नहीं छेड़ते और उस पर विजय नहीं पाते? वह व्यक्ति स्पष्टतः एक कुकर्मी है, एक नकारात्मक शक्ति है; वह शैतान है, एक दानव है, गंदी, बुरी आत्मा है—फिर भी तुम उसके द्वारा पीड़ा पा रहे हो। और यह सिर्फ तुम नहीं हो—ऐसे कई अन्य लोग भी हैं जिन्हें पीड़ा झेलनी पड़ रही है। क्या यह कायरता नहीं है? तुम लोग उसके खिलाफ लड़ाई में हाथ क्यों नहीं मिला सकते? तुममें बुद्धि और विवेक की कितनी कमी है। उस व्यक्ति के व्यवहार का गहन-विश्लेषण करने के लिए कुछ समझदार लोगों को खोजो जो सत्य समझते हों। ऐसा करो, और परमेश्वर के अधिकांश चुने हुए लोग चीजों को वैसे ही देख पाएँगे जैसे वे हैं और ऊपर उठ सकेंगे। क्या तब समस्या का समाधान आसान नहीं होगा? जब अगली बार तुम लोगों का सामना ऐसी किसी चीज से होगा, तो क्या तुम उठ पाओगे और मसीह-विरोधियों से युद्ध कर पाओगे? (हाँ।) मैं देखना चाहता हूँ कि तुम कितने मसीह-विरोधियों से निपटने और उनका ध्यान रखने में सक्षम हो। यह विजेताओं की गवाही है। तुम लोग कहते हो कि तुम अब सक्षम हो, लेकिन क्या तुम लोग सिद्धांतों का पालन करने में सक्षम होगे, जब यह वास्तव में होगा? तुम फिर से इतने डर सकते हो कि तुम्हें मेज के नीचे छिपना पड़ेगा। वे लोग जो अपने ऊपर मुसीबत आने पर सत्य नहीं समझते, उनकी जैसी दयनीय, शोचनीय छवि बनती है—उसे देखना दर्दनाक है! यह बहुत दयनीय होता है! जब उन्हें पीड़ा दी जाती है तो वे कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं करते, और बाद में उनमें डर बैठा रहता है। वे बुरी तरह डरे हुए हैं। कितने छोटे आध्यात्मिक कद का इंसान होगा जो किसी बुरे इंसान को देखकर पहचान भी नहीं सकता। वे सत्य बिल्कुल नहीं समझते। क्या वे दयनीय नहीं हैं? बुरे लोग घूँसों के सहारे जीते हैं; वे लोगों पर अत्याचार करके, अच्छे लोगों को सताकर और दूसरों की कीमत पर लाभ उठाकर जीते हैं; वे अपनी द्वेषपूर्ण प्रकृति और दुष्ट स्वभावों के अनुसार जीते हैं, दूसरे उनसे भयभीत रहते हैं, उनकी चापलूसी करते हैं और उन्हें भेंट देते हैं। उन्हें लगता है कि इस तरह जीना बहुत अच्छी बात है। क्या वे गुंडों के सरदार नहीं हैं? क्या वे लुटेरे और डाकू नहीं हैं? तुम लोग बुरे लोग नहीं हो, लेकिन क्या तुम लोगों की ऐसी स्थितियाँ होती हैं? क्या तुम भी ऐसी चीजों के अनुसार नहीं जीते? जब तुममें से कुछ लोग किसी के साथ सहयोग करते हैं और देखते हैं कि वे युवा हैं, तो तुम सोचते हो, “तुम कुछ नहीं समझते। मैं तुम्हें सता सकता हूँ, और तुम इसके बारे में कुछ नहीं कर सकते। मैं तुमसे अधिक मजबूत हूँ और फायदे में हूँ; मैं तुमसे बड़ा हूँ और मेरे मुक्के में ताकत है—इसलिए मैं तुम्हें सता सकता हूँ।” वह किस सहारे जी रहा है? यह मुक्के के सहारे जीना है; यह एक दुष्ट स्वभाव द्वारा जीना और कार्य करना है। जब वे किसी निष्कपट मनुष्य को देखते हैं, तो उस पर धौंस जमाते हैं, और जब किसी ताकतवर व्यक्ति को देखते हैं, तो छिप जाते हैं। वे कमजोरों को शिकार बनाते हैं और ताकतवरों से डरते हैं। कुछ बुरे लोग जब देखते हैं कि लोग उनसे दूर जा रहे हैं तो उन्हें अकेलेपन का डर सताता है, इसलिए वे कुछ भोले-भाले, डरपोक लोगों को अपने साथ जुड़ने और दोस्ती करने के लिए चुन लेते हैं। इस प्रकार वे अपनी शक्ति बढ़ाते हैं, फिर उन भोले-भाले, डरपोक लोगों का उपयोग अच्छे लोगों को पीड़ा देने, सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों पर हमला करने और उन सभी को पीड़ा देने के लिए करते हैं जो उनसे असंतुष्ट हैं या उनकी नहीं सुनते। इससे यह स्पष्ट है कि एक बुरे व्यक्ति की मंशा और उद्देश्य कुछ निष्कपट लोगों से मित्रता करना होता है। संक्षेप में, यदि तुम सत्य स्वीकार नहीं कर सकते या अपने व्यवहार और कार्यों में इस पर विचार नहीं कर सकते कि तुम बुरा कर रहे हो या अच्छा कर रहे हो, तो भले ही तुम एक अच्छे व्यक्ति हो या बुरे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, और भले ही तुमने कितने ही वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया है, तुम सच्चा पश्चात्ताप करने में सक्षम नहीं होगे। शायद तुम क्रूर स्वभाव वाले व्यक्ति नहीं हो—तुम केवल शैतानी फलसफों के अनुसार जी रहे हो। हो सकता है कि तुमने कोई बुराई न की हो, या शायद तुम्हारे कुछ कर्म अच्छे हों, लेकिन फिर भी तुम सत्य के अनुसार नहीं जी रहे हो। तुम उन चीजों के सहारे जी रहे हो जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। संक्षेप में, जब तक तुममें भ्रष्ट शैतानी स्वभाव है, तब तक भले ही तुमने कितने भी वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया हो, तुम उन चीजों के सहारे जी रहे होगे जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। ये चीजें मूर्त हो सकती हैं, या वे अमूर्त हो सकती हैं; हो सकता है कि तुम उनके बारे में जानते हो, या हो सकता है कि तुम उनके बारे में बिल्कुल भी नहीं जानते हो; वे बाहर से आ सकती हैं, या वे ऐसी चीजें हो सकती हैं जिनकी तुम्हारे स्वभाव में गहरी, ठोस जड़ें हों—किसी भी स्थिति में, इनमें से कोई भी चीज सत्य नहीं है। वे सभी भ्रष्ट मानवजाति से ही उत्पन्न होती हैं—या सटीक रूप से कहें तो उनकी उत्पत्ति शैतान से होती है। तो जब लोग इन शैतानी चीजों के अनुसार जीते हैं, तो वे वास्तव में किस प्रकार की राह पर होते हैं? क्या वे परमेश्वर के मार्ग पर चल रहे हैं? हरगिज नहीं। यदि कोई अपने कार्यों और व्यवहारों में सत्य का अभ्यास नहीं कर रहा है, तो साफ कहें तो वह एक सृजित प्राणी का कर्तव्य नहीं निभा रहा है। हो सकता है कि वे बाहर से कोई कर्तव्य निभा रहे हों, लेकिन कर्तव्य निभाने के मानक और उसके बीच कुछ दूरी होती है, मुख्य रूप से इसमें उनकी मंशाओं और लेन-देन की मिलावट होती है। हो सकता है कि वे कर्तव्य निभा रहे हों, लेकिन वे समर्पित या सिद्धांतवादी नहीं हैं, और उनके ऐसा करने से निश्चित रूप से व्यावहारिक परिणाम नहीं मिल रहे हैं। इससे यह साबित होता है कि अपने कर्तव्य-निर्वहन में वे वास्तव में बहुत-सी ऐसी चीजें कर रहे हैं, जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। इनमें से कोई भी चीज सत्य सिद्धांतों को नहीं छूती; वे सभी चीजें उस व्यक्ति की अपनी कल्पनाओं और प्राथमिकताओं के अनुसार की जाती हैं। इस तरह कर्तव्य निभाने से परमेश्वर की स्वीकृति कैसे मिल सकती है?

हम इन स्थितियों पर उनके सभी पहलुओं में सहभागिता करते रहे हैं। क्या अब तुम लोग माप सकते हो कि तुम किसके अनुसार जी रहे हो? चाहे अपना कर्तव्य निभाते हुए या अपने दैनिक जीवन में, क्या तुम लोग अधिकांश समय सत्य के अनुसार जीते हो? (नहीं।) मैं हमेशा हमारी संगति में तुम लोगों को तुम्हारे मूल तक उजागर कर रहा हूँ, और तुम्हें महसूस हो रहा है कि तुम लज्जाजनक जीवन जी रहे हो। तुमने अपना आत्मविश्वास खो दिया है; अब तुम इतने आकर्षक नहीं रहे। और ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जिनके बारे में बात करने में तुम्हें शर्मिंदगी होती है—अब तुम्हें आशीष पाना या भविष्य में किसी अच्छे गंतव्य पर जाना उतना न्यायसंगत महसूस नहीं होता। उसके बारे में क्या किया जाना चाहिए? क्या तुम जैसे हो वैसे तुम्हें बेनकाब करना अच्छी बात है? (हाँ।) तो फिर तुम्हें मूल तक उजागर करने का उद्देश्य क्या है? लोगों को इस बात का स्पष्ट ज्ञान होना चाहिए कि वे किस प्रकार की दशाओं में जी रहे हैं, वे किन दशाओं में जी रहे हैं; उन्हें इस बात का स्पष्ट ज्ञान होना चाहिए कि वे किस रास्ते पर चल रहे हैं, उनके जीवन जीने का तरीका क्या है, उनके कौन-से व्यवहार असामान्य हैं, वे कौन-से अनुचित काम करते हैं, क्या उसी तरह जीते हुए वे सत्य प्राप्त कर सकते हैं और परमेश्वर के सामने आ सकते हैं। ये सबसे महत्वपूर्ण बातें हैं। तुम कह सकते हो, “मैं कैसे जी रहा हूँ, इसके बारे में मेरी अंतरात्मा स्पष्ट है। मैंने इसके बारे में कभी भी अशांत या दुखी महसूस नहीं किया है, और मैंने कभी खोखला महसूस नहीं किया है।” पर इसका क्या परिणाम होता है? परमेश्वर की नाराजगी। तुम उसके मार्ग का अनुसरण नहीं कर रहे हो। तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह मानव जीवन का सच्चा मार्ग नहीं है, वह मार्ग जिसे परमेश्वर ने तुम्हारे लिए इंगित किया है—इसके बजाय तुम अपने खयाली पुलाव में उस मार्ग पर चल रहे हो जिसे तुमने अपनी कल्पनाओं में पाया है। यूँ तो तुम बहुत खुशी में मस्त हो और काफी भाग-दौड़ करते आ रहे हो, लेकिन अंत में तुम्हारा परिणाम क्या होगा? तुम्हारी मंशाएँ और इच्छाएँ और जिस मार्ग पर तुम चल रहे हो, वही तुम्हें नुकसान पहुँचाएँगे और तुम्हें बर्बादी की ओर ले जाएँगे—परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास विफल होने के लिए अभिशप्त है। परमेश्वर में किसी का विश्वास विफल होने का क्या अर्थ होता है? (कि उनका कोई परिणाम नहीं होगा।) इसे अभी देखें तो यह तुम्हारे द्वारा सत्य प्राप्त न कर पाने का परिणाम होगा। तुमने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया होगा, लेकिन सत्य प्राप्त करने पर ध्यान लगाए बिना किया होगा, और इसलिए वह दिन आएगा जब किसी न किसी कारण से तुम्हें प्रकट कर हटा दिया जाएगा। और फिर पछतावे के लिए बहुत देर हो चुकी होगी। तुम कहते हो, “यह मेरे लिए जीने का उचित तरीका है! मुझे इसी तरह जीने में आत्मविश्वास महसूस होता है और मैं परिपूर्ण और दिल से समृद्ध हूँ।” तो क्या इससे मदद मिलेगी? तुम परमेश्वर में विश्वास के मार्ग पर जिस तरीके से चलते हो और जिस तरीके से जीते हो, उसका औचित्य और तुम जिन चीजों के अनुसार जीते हो वे सही हैं या नहीं, यह परिणामों पर निर्भर करता है। यानी, वे इस बात पर निर्भर करती हैं कि तुम अंत में सत्य प्राप्त करते हो या नहीं, क्या तुम्हारे पास सच्ची गवाही है, क्या तुम्हारा जीवन स्वभाव बदल जाता है, और क्या तुमने मूल्यों वाला जीवन जिया है। यदि तुमने ये सभी परिणाम प्राप्त कर लिए हैं, तो तुम्हें परमेश्वर की स्वीकृति और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की सराहना मिलेगी, जो साबित करता है कि तुम सही रास्ते पर हो। यदि तुमने ये सकारात्मक परिणाम प्राप्त नहीं किए हैं, और तुम्हारे पास न कोई सच्ची अनुभवात्मक गवाही है और न तुम्हारे जीवन स्वभाव में कोई सच्चा परिवर्तन है, तो इससे साबित होता है कि तुम सही रास्ते पर नहीं हो। ऐसे कहें तो क्या इसे समझना आसान है? संक्षेप में, तुम चाहे जैसे भी जियो, तुम जीवन में कितने भी आराम से रहो और चाहे तुम दूसरों से जो भी अनुमोदन प्राप्त करो, यह मामले की जड़ नहीं है। तुम कहते हो, “मैं जिस तरह रहता और अभ्यास करता हूँ उसमें आनंद लेने के लिए कितना कुछ है। मैं बहुत अच्छा, और सम्मानित महसूस करता हूँ, और इसकी पुष्टि भी होती है।” क्या तुम स्वयं को मूर्ख नहीं बना रहे हो? मान लो कोई तुमसे पूछता है, “क्या तुमने एक ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास किया है? उस अभ्यास में तुम्हारे लिए क्या चुनौतीपूर्ण रहा है? कौन-सी परिस्थितियाँ तुम्हें ईमानदार व्यक्ति बनना कठिन बनाती हैं? यदि तुम्हारे पास इसका अनुभव है तो इसके बारे में थोड़ी बात करो। क्या तुम्हारे पास परमेश्वर से प्रेम की गवाही है? क्या तुम्हारे पास परमेश्वर से प्रेम करने और उसके प्रति समर्पित होने का अनुभव है? क्या तुम्हें न्याय, ताड़ना, काट-छाँट स्वीकार करने के बाद अपने स्वभाव में बदलाव का अनुभव है? जीवन में विकास के पथ पर तुमने किन खास चीजों का अनुभव किया है, जिससे तुम्हारा जीवन लगातार बदलता रहा है, और परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जो लक्ष्य निर्धारित किया है, उसके करीब बढ़ता रहा है, जिसे वह तुमसे पाने की अपेक्षा रखता है?” यदि तुम्हारे पास इन चीजों का कोई स्पष्ट उत्तर नहीं है, यदि तुम नहीं जानते, तो इससे यह साबित होता है कि तुम सही रास्ते पर नहीं हो। वह दिन के समान स्पष्ट है।

उपरोक्त संगति के वचन केवल साधारण कथन हैं। कुछ छोटे बिंदु हैं, जिन पर विस्तृत विवरण की आवश्यकता नहीं है। उदाहरण के लिए, लोग अपनी दृढ़ता से, या अपने दिल की अच्छाई से या कष्ट सहने के अपने संकल्प से या अपनी धारणाओं और कल्पनाओं इत्यादि से कार्य करते हैं—तो इनमें से कुछ भी सत्य के अनुसार जीना नहीं है। ये सभी उदाहरण अपने खयाली पुलाव, अपने भ्रष्ट स्वभावों, अपनी मानवीय अच्छाई और शैतान के फलसफे के अनुसार जीने वाले लोगों के हैं। ये सभी चीजें मनुष्य के मस्तिष्क से आती हैं, और भी आगे ले जाएँ तो शैतान से आती हैं। इन चीजों के अनुसार जीना परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर सकता। वह उन्हें नहीं चाहता, चाहे वे कितनी भी अच्छी क्यों न हों, क्योंकि यह सत्य का अभ्यास नहीं है। इन चीजों के अनुसार जीना शैतान के फलसफों और भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जीना है। यह परमेश्वर का निरादर करना है। यह सच्ची गवाही नहीं है। यदि तुम कहते हो कि “मुझे पता है कि ये कार्य केवल दयालुता हैं, जो सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं; मुझे इस तरह अभ्यास नहीं करना चाहिए” और साथ ही तुम्हारे दिल में इसकी सही समझ हो, यह भावना हो कि इस तरह कार्य करना गलत है तो तुम्हें ज्ञान होगा। तुम्हारा परिप्रेक्ष्य बदल जाएगा। परमेश्वर यही परिणाम चाहता है। तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम्हारी विकृतियाँ कहाँ हैं। अपना परिप्रेक्ष्य बदलो और अपनी धारणाओं को त्याग दो, और सत्य और परमेश्वर के इरादों को समझो। एक बार जब तुम ऐसा कर लेते हो, तो उस दिशा में धीरे-धीरे अभ्यास करते रहो, और सही रास्ते पर आ जाओ। परमेश्वर ने तुमको जो लक्ष्य दिया है उसे प्राप्त करने की यही तुम्हारी एकमात्र आशा है। यदि तुम अभ्यास नहीं करते और परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मार्ग पर प्रवेश नहीं करते, लेकिन कहते हो, “मैं यही करूँगा। ऐसा नहीं है कि मैं खाली बैठा हूँ : मैं अपना कर्तव्य निभाता रहा हूँ। मुझे यकीन है कि मैं एक सृजित प्राणी हूँ, और मैंने अपने सृष्टिकर्ता को स्वीकार कर लिया है,” क्या यह मददगार होगा? नहीं, मददगार नहीं होगा। अड़ियल व्यक्ति, तुम परमेश्वर का प्रतिरोध कर रहे हो! अब जीवन में मार्ग चुनने का समय आ गया है। महत्वपूर्ण बात यह है कि उस मार्ग का अनुसरण करने के लिए तुम्हें क्या करना है जिस पर चलने की अपेक्षा परमेश्वर तुमसे करता है। सबसे पहले, मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं से काम न लो; दूसरा, मानवीय आकांक्षा से काम मत लो; तीसरा, मानवीय प्राथमिकताओं से काम न लो; और चौथा, मानवीय भावनात्मकता से काम न लो। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि भ्रष्ट स्वभाव से काम न लो। तुम्हें बिना समय गँवाए इन चीजों को त्याग देना चाहिए। परमेश्वर के लिए तुम्हारे पास जो भी पूँजी है, वह सारी की सारी बेकार सामान है, सस्ता कबाड़ है, वास्तविकता के बिल्कुल भी करीब तक नहीं है। तुम्हें उन चीजों को एक-एक करके फेंक देना चाहिए और उन सभी से छुटकारा पा लेना चाहिए और तुम अधिक से अधिक यह समझ सकोगे कि केवल वही चीज मूल्यवान है जो सत्य के अभ्यास पर भरोसा करके हासिल की जाती है और जो मनुष्य से परमेश्वर की माँगों के मानक के अनुरूप होती है। मनुष्य से जो कुछ भी आता है वह मूल्यहीन है—अंत में बेकार हो जाता है, चाहे तुम इसे जितना भी सीख लो। यह सब सस्ता कबाड़, कचरा है; केवल वह सत्य जो परमेश्वर मनुष्य को प्रदान करता है, वही खजाना और जीवन है। उसका मूल्य शाश्वत है। तुम हमेशा अपनी चीजों को थामे हुए सोचते हो, “मुझे अपना हुनर हासिल करने के लिए वर्षों कठिन अध्ययन करना पड़ा। मेरे माता-पिता ने मेरी ओर से ऐसे प्रयास किए, इतना पैसा खर्च किया और अपने हृदय के इतने अधिक रक्त को खपाया—मैं ऐसे ही उसका गहन-विश्लेषण और उसकी निंदा कैसे कर सकता हूँ? यह बहुत बड़ी बात है, जीवन और मृत्यु का मामला है! मैं उन चीजों के बिना किसके सहारे जियूँगा?” तुम कितने मूर्ख हो। उन चीजों के अनुसार जियोगे तो तुम्हारा नरक जाना तय है। तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना चाहिए। अपने जीने का तरीका बदलो; परमेश्वर के वचनों को अंदर आने दो और अपनी उन पुरानी चीजों को हटा दो। तुम्हें उनका गहन-विश्लेषण करके उन्हें जानना चाहिए, सभी को दिखाने के लिए उन्हें खोलना चाहिए, ताकि समूह भेद की पहचान कर सके। अनजाने ही तुम उन चीजों से घृणा करने लगोगे, उन चीजों से जिन्हें तुम कभी पसंद करते थे, उन चीजों से जिन पर तुम कभी जीवित रहने के लिए निर्भर थे, उन चीजों से जिन्हें तुम कभी अपना जीवन मानते थे, उन चीजों से जिन्हें तुमने सबसे अधिक सँजो कर रखा था। यह उन चीजों को अपने आप से पूरी तरह से अलग करने और काटने का तरीका है, सत्य की सच्ची समझ का मार्ग है, और सत्य का अभ्यास करने का मार्ग है। बेशक यह एक जटिल और कठिन प्रक्रिया है, और दर्दनाक भी है। लेकिन यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे मनुष्य को गुजरना ही होगा। न गुजरने से काम नहीं चलेगा। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना ऐसा है मानो किसी बीमारी का इलाज किया जा रहा हो : यदि तुम्हें ट्यूमर है, तो इससे निपटने का एकमात्र तरीका ऑपरेटिंग टेबल पर है। यदि तुम उस मेज पर नहीं जाते और उस चाकू के सामने समर्पण नहीं करते जो ट्यूमर का गहन-विश्लेषण करता है और उसे दूर करता है, तो तुम्हारी बीमारी ठीक नहीं होगी और तुम बेहतर नहीं होगे।

बहुत-से लोग ईमानदार लोगों को मूर्ख समझते हैं, सोचते हैं, “परमेश्वर जो भी कहता है वे उसका पालन करते हैं। वह कहता है कि ईमानदार व्यक्ति बनो, और वे वास्तव में ऐसा करते हैं; वे एक भी झूठा शब्द बोले बिना सच बोलते हैं। वे मूर्ख हैं, है न? तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो सकते हो, पर केवल तभी तक जब तक इससे तुम्हें कोई नुकसान या क्षति न हो। तुम सब कुछ यूँ ही नहीं कह सकते! सब कुछ जाहिर कर देना—यह मूर्खता है, है न?” वे सोचते हैं कि ईमानदार व्यक्ति होना मूर्खता है। क्या ऐसा है? ऐसा व्यक्ति सबसे चतुर होता है, क्योंकि उसका मानना है, “परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं, और ईमानदार व्यक्ति होना सत्य है, इसलिए परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने के लिए, लोगों को ईमानदार होना चाहिए। इसलिए जो कुछ परमेश्वर कहता है, मैं करता हूँ; जहाँ तक वह मुझे जाने देगा, मैं वहाँ तक जाऊँगा। परमेश्वर चाहता है कि मैं समर्पण करूँ, इसलिए मैं समर्पण करता हूँ, और मैं हमेशा समर्पण करता रहूँगा। अगर कोई कहता है कि मैं मूर्ख हूँ तो मुझे इसकी परवाह नहीं है—परमेश्वर की अनुमति ही मेरे लिए काफी है।” क्या ऐसा व्यक्ति सबसे चतुर नहीं है? उन्होंने सटीक रूप से देख लिया है कि क्या महत्वपूर्ण है और क्या नहीं। कुछ छिपे हुए एजेंडा वाले लोग होते हैं, जो सोचते हैं, “हर चीज के लिए समर्पण करना मूर्खता होगी, है न? ऐसा करना स्वायत्तता की कमी है, है न? जो खुद का न हो क्या उसके पास गरिमा होगी? निश्चित रूप से हमें अपने लिए थोड़ी गरिमा बनाए रखने की इजाजत मिलती है, है न? हम पूरी तरह से समर्पण नहीं कर सकते, है ना?” और इसलिए वे बहुत ही कम स्तरों पर समर्पण का अभ्यास करते हैं। क्या वह सत्य का अभ्यास करने के मानकों पर खरा उतर सकता है? नहीं—वह उससे कोसों दूर होता है! यदि तुम सिद्धांतों के अनुसार सत्य का अभ्यास नहीं करते, हमेशा समझौते के रास्ते चुनते हो, जो न तो सत्य की ओर जाते हैं और न शैतान की ओर, बल्कि बीच के रास्ते पर चलते हैं, तो क्या तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो? यह शैतान का फलसफा है, वह चीज जिससे परमेश्वर सबसे अधिक घृणा करता है। परमेश्वर सत्य के प्रति मनुष्य के इस रवैये से घृणा करता है; वह इस बात से घृणा करता है कि लोगों को सत्य और उसके वचनों के बारे में हमेशा संदेह रहता है, कि वे हमेशा उसके वचनों के प्रति अविश्वास रखते हैं, या हमेशा भेदभावपूर्ण, तिरस्कारपूर्ण, अशिष्ट रवैया अपनाते हैं। जैसे ही तुम परमेश्वर के प्रति यह रवैया अपनाते हो, उस पर संदेह करते हो, अविश्वास करते हो, सवाल करते हो, विश्लेषण करते हो और उसे गलत समझते हो, हमेशा उसका अध्ययन करते हो और उसे अपने दिमाग से तौलने की कोशिश करते हो, तब परमेश्वर तुमसे छिपा रहेगा। और अगर परमेश्वर तुमसे छिपा रहे तो क्या तुम तब भी सत्य हासिल कर सकते हो? तुम कहते हो, “मैं हासिल कर सकता हूँ! मैं हर दिन परमेश्वर के वचन पढ़ता हूँ, हर समय सभाओं में रहता हूँ और हर हफ्ते धर्मोपदेश सुनता हूँ, उन पर चिंतन-मनन करता हूँ और उसके बाद हर दिन नोट्स लेता हूँ। मैं भजन गाता हूँ और प्रार्थना भी करता हूँ। मुझे लगता है कि पवित्र आत्मा मुझमें कार्य कर रहा है।” क्या यह चलेगा? परमेश्वर में विश्वास करने के वो तरीके ठीक हैं, लेकिन वे महत्वपूर्ण नहीं हैं; महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम एक सही प्रकार के व्यक्ति हो और तुम्हारा दिल सही है—केवल तभी परमेश्वर तुमसे अपना चेहरा नहीं छिपाएगा। परमेश्वर अपना चेहरा तुमसे न छिपाकर हर समय तुम्हें प्रबुद्ध कर मार्गदर्शन दे रहा है, और तुम्हें अपने इरादों और सभी चीजों में सत्य को समझने दे रहा है, ताकि तुम अंततः सत्य प्राप्त कर सको, और तुम्हें बड़े आशीष मिलें। लेकिन अगर तुम्हारा दिल सही नहीं है, और तुम हमेशा परमेश्वर पर संदेह करते हो, उसके खिलाफ रक्षात्मक होते हो, उसकी परीक्षा लेते हो, और अपनी तुच्छ चतुराई और राय, या अपनी सीख और शैतानी फलसफों से उसे गलत समझते हो, तो तुम मुसीबत में हो। कुछ लोग रक्षात्मकता, परीक्षण, संदेह और परमेश्वर के लिए गलतफहमी से भी आगे जाकर उसके खिलाफ प्रतिरोध और उसके साथ प्रतिद्वंद्विता तक पहुँच जाते हैं। वे शैतान बन गए हैं; वे बदतर मुसीबत में हैं। तुम केवल वचनों के शाब्दिक अर्थ और सरल धर्म-सिद्धांत को समझकर सत्य नहीं समझ पाओगे। सत्य को समझना कोई साधारण बात नहीं है। अधिकांश लोग इसी गलतफहमी के तहत श्रम करते हैं और बार-बार इस पर जोर देने के बाद भी वे इससे उबर नहीं पाते। वे सोचते हैं, “हर दिन मैं परमेश्वर के वचन पढ़ता हूँ और धर्मोपदेश और संगति सुनता हूँ, और मैं साल-दर-साल अपना कर्तव्य निभाता हूँ। मैं खेत में बीज की तरह हूँ—भले ही तुम इसे पानी या खाद न दो, यह बारिश के साथ धीरे-धीरे अपने आप बढ़ेगा, और शरद ऋतु में फल देगा।” यह ऐसे काम नहीं करता। किसी व्यक्ति का सहयोग करने वाला घटक, उनके सहयोग करने का तरीका, उनका हृदय और सत्य और परमेश्वर के प्रति उनका रवैया अहम होते हैं। यही चीजें अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। क्या ये चीजें इस बात से भी संबंधित नहीं हैं कि एक व्यक्ति किसके अनुसार जीता है? (वे संबंधित हैं।) यदि तुम हमेशा मानवीय प्राथमिकताओं और शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हो, हमेशा खुद को परमेश्वर से बचाते हो और उसके वचनों को सत्य के रूप में नहीं लेते, तो परमेश्वर अब तुम्हें लेकर परेशान नहीं होगा। और तब तुम क्या हासिल कर पाओगे, जब परमेश्वर को तुम्हारी चिंता नहीं होगी? यदि सृष्टिकर्ता तुम्हारी उपेक्षा करता है, तो तुम अब उसके सृजित प्राणी नहीं हो। यदि वह तुम्हें दानव और शैतान मानता है, तो क्या तुम तब भी परमेश्वर के सामने आने में सक्षम होगे? क्या तुम तब भी उसके उद्धार का पात्र होगे? क्या तुम्हारे पास अब भी बचाए जाने की आशा होगी? यह असंभव होगा। इसलिए कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारा घरेलू जीवन कैसा है, या तुम्हारे पास किस प्रकार की काबिलियत है, या तुम्हारे गुण कितने महान हैं, न ही इससे फर्क पड़ता है कि तुम कलीसिया में क्या काम करते हो, क्या कर्तव्य निभाते हो, या तुम्हारी भूमिका क्या है। चाहे तुमने अतीत में किसी भी प्रकार के अपराध किए हों, या तुम वर्तमान में किसी भी प्रकार की स्थिति में हो, या तुम जीवन में किसी भी हद तक विकसित हुए हो, या तुम्हारा आध्यात्मिक कद कितना भी ऊँचा हो। इनमें से कोई भी सबसे महत्वपूर्ण नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता कैसा है, क्या तुम लगातार उस पर संदेह कर रहे हो और उसे गलत समझ रहे हो या हमेशा उसके बारे में अध्ययन कर रहे हो, क्या तुम्हारा हृदय सही है। ये बातें अहम हैं। लोग इन महत्वपूर्ण चीजों के बारे में कैसे जान सकते हैं? ऐसा करने के लिए उन्हें हमेशा खुद की जाँच करनी चाहिए, उन्हें गैर-विश्वासियों की तरह भ्रम में नहीं रहना चाहिए, और अविश्वासी दुनिया के वीडियो देखना, खेलना और जब करने को कुछ न हो तो फालतू के काम नहीं करने चाहिए। यदि किसी का हृदय परमेश्वर के सामने नहीं आ सकता तो वह अपना कर्तव्य कैसे निभाएगा? यदि तुम परमेश्वर के सामने आने का प्रयास नहीं करते, तो वह तुम्हें मजबूर नहीं करेगा क्योंकि परमेश्वर लोगों को काम करने के लिए मजबूर नहीं करता। परमेश्वर सत्य व्यक्त करता है ताकि लोग उसे समझ सकें और स्वीकार कर सकें। यदि लोग परमेश्वर के समक्ष नहीं आते, तो वे सत्य को कैसे स्वीकार करेंगे? यदि लोग हमेशा निष्क्रिय रहते हैं, यदि वे परमेश्वर को नहीं खोजते या उनके हृदय में उसकी आवश्यकता नहीं है, तो पवित्र आत्मा उनमें कैसे कार्य करेगा? तो यह देखते हुए कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, क्या यह अहम नहीं है कि तुम्हें सक्रिय रूप से उसे खोजना चाहिए और उसके साथ सहयोग करना चाहिए? यह तुम्हारा काम है! यदि परमेश्वर में विश्वास तुम्हारे लिए केवल एक अतिरिक्त काम है, गैर-जरूरी शौक है, तो तुम मुसीबत में हो! ऐसे लोग हैं जो अब भी विश्वासी बने हुए हैं और उन्होंने बहुत सारे धर्मोपदेश सुने हैं, फिर भी सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करना धर्म में विश्वास करना है, कि यह उनके खाली समय का शौक है। वे परमेश्वर में आस्था को कितना तुच्छ मानते हैं! अब इस स्तर पर वे अभी भी यही दृष्टिकोण रखते हैं। परमेश्वर में अपने विश्वास में, वे बस उसके साथ सामान्य संबंध स्थापित करने में ही असफल नहीं हुए हैं—उनका उसके साथ कोई रिश्ता भी नहीं है। यदि परमेश्वर तुम्हें अपने अनुयायी के रूप में नहीं मानता, तो क्या तुम्हारे पास अभी भी बचाए जाने की आशा है? नहीं है। इसीलिए परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित करना महत्वपूर्ण है! तो फिर वह सामान्य संबंध किस आधार पर स्थापित होता है? लोगों को सहयोग करना होगा। तो लोगों को किस प्रकार का रुख या दृष्टिकोण अपनाना चाहिए? उनकी मनोदशा क्या होनी चाहिए? उनके पास किस प्रकार का संकल्प होना चाहिए? तुम हृदय में सत्य के साथ कैसा व्यवहार करते हो? संदेह के साथ? अध्ययन के साथ? अविश्वास के साथ? अस्वीकृति के साथ? यदि तुम्हारे पास ये चीजें हैं तो क्या तुम दिल से सही हो? (नहीं।) यदि तुम दिल से सही होना चाहते हो, तो तुम्हारा रवैया किस प्रकार का होना चाहिए? तुम्हारे पास समर्पण वाला हृदय होना चाहिए। परमेश्वर जो भी कहता है, वह जो भी अपेक्षा रखता है, तुम्हें बिना किसी संदेह और बिना किसी औचित्य के, उसके प्रति समर्पण का इरादा रखना चाहिए। यही सही रवैया है। तुम्हें बिना किसी रियायत के विश्वास करना, स्वीकार करना और समर्पण करना चाहिए। क्या छूट न लेना तुरंत संभव नहीं है? नहीं—लेकिन तुम्हें इसमें प्रवेश करने का प्रयास करना चाहिए। कल्पना करो यदि परमेश्वर तुमसे कहे, “तुम बीमार हो,” और तुम कहो, “नहीं, मैं बीमार नहीं हूँ।” वह कोई समस्या नहीं होगी; शायद तुम इस पर विश्वास न करो। लेकिन फिर परमेश्वर कहता है, “तुम काफी बीमार हो। कुछ दवाएँ ले लो,” और तुम कहते हो, “मैं बीमार नहीं हूँ, लेकिन तुम कह रहे हो तो मैं कुछ दवाएँ ले ही लेता हूँ। कुछ भी हो मुझे इससे कोई नुकसान नहीं होगा और अगर मैं बीमार हूँ, तो यह शायद बेहतरी के लिए ही होगा। मैं कुछ दवा ले लूँगा।” तुम इसे लेते हो, और तुम शारीरिक रूप से अलग महसूस करते हो; तुम इसे निर्धारित खुराक में लेते रहते हो, और थोड़ी देर बाद तुम खुद को शारीरिक रूप से बेहतर से बेहतर महसूस करते हो। फिर तुम्हें विश्वास होता है कि परमेश्वर ने जिस बीमारी के बारे में बात की थी वह असल में वास्तविक थी। इस प्रकार के अभ्यास से क्या परिणाम मिलता है? तुम्हारी बीमारी ठीक हो जाती है क्योंकि तुमने विश्वास किया और परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण किया। हालाँकि पहली बार तुमने उतनी दवाएँ नहीं लीं जितनी परमेश्वर ने तुमसे लेने को कहा था, बल्कि इसके बजाय तुमने अपने लिए कुछ छूट ले ली, और थोड़ा अविश्वास किया था, और थोड़े अनिच्छुक और विमुख थे, अंत में जैसा परमेश्वर ने तुमसे कहा था तुमने दवा ले ली, और बाद में इसके लाभों को महसूस किया। तो तुम इसे लेते गए, और जितना अधिक तुमने इसे लिया, तुम्हारी आस्था उतनी ही बढ़ती गई, और तुम्हें यह और भी महसूस होने लगा कि परमेश्वर के वचन सही थे और तुम गलत थे, और तुम्हें उसके वचनों पर संदेह नहीं करना चाहिए। और अंत में जब तुमने वे सभी दवाएँ ले लीं जो परमेश्वर ने तुमसे लेने की अपेक्षा की थी, तो तुम्हारी सेहत ठीक हो गई। उस समय क्या परमेश्वर में तुम्हारी आस्था और भी अधिक सच्ची नहीं हो जाएगी? तुम जान लोगे कि परमेश्वर के वचन सही हैं, कि तुम्हें बिना कोई छूट लिए उसके प्रति समर्पण करना चाहिए और बिना छूट के उसके वचनों का अभ्यास करना चाहिए। इस उदाहरण का क्या मतलब है? इसमें तुम्हारी बीमारी का अर्थ मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव है, और दवा लेना परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करने को दर्शाता है। इसका मुख्य संदेश यह है कि यदि लोग परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार कर सकते हैं, तो उनकी भ्रष्टता शुद्ध हो सकती है और वे उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने से यही हासिल होता है। क्या तुम असफल होने से डरते हो? तुम कह सकते हो, “मुझे पूर्णता की खोज करनी है। परमेश्वर ने कहा कि मुझे बिना किसी छूट के पूर्ण समर्पण करना होगा। इसलिए पहली बार उनका अभ्यास करते हुए मुझे उसके वचनों के आगे पूर्ण समर्पण करना है। यदि मैं इस बार इसे हासिल नहीं कर पाया, तो मैं अगले अवसर की प्रतीक्षा करूँगा, और मैं इस बार समर्पण का अभ्यास नहीं करूँगा।” क्या यह अच्छा तरीका है? (नहीं।) परमेश्वर के लिहाज से लोगों द्वारा सत्य का अभ्यास करने की एक प्रक्रिया होती है। वह लोगों को मौके देता है। जब किसी की स्थिति भ्रष्ट होती है, तो परमेश्वर उसे उजागर करेगा और कहेगा, “तुमने छूट ली हैं, तुम समर्पित नहीं हो, तुम विद्रोही हो।” तो इसे उजागर करने में परमेश्वर का लक्ष्य क्या होता है? इसका मतलब यह है कि तुम कम से कम छूट लो, और अधिक से अधिक समर्पण का अभ्यास करो, और अपनी समझ को अधिक शुद्ध करो और सत्य के करीब लाओ, ताकि तुम सचमुच परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सको। जब परमेश्वर तुम्हें उजागर कर रहा था तो क्या उसने तुम्हें दंडित किया था? जब वह तुम्हारी काट-छाँट करता है और तुम्हें परीक्षणों से गुजारता है, तो वह तुम्हें बस अनुशासित कर रहा होता है और ताड़ना दे रहा होता है। तुम थोड़े उजागर किए जाते हो, तुम्हारी थोड़ी भर्त्सना की जाती है और थोड़ा दर्द महसूस कराया जाता है—लेकिन क्या परमेश्वर ने तुमसे तुम्हारा जीवन छीना? (नहीं।) उसने तुम्हारी जान नहीं ली, और उसने तुम्हें शैतान को नहीं सौंपा। इसमें उसका इरादा देखा जा सकता है। और उसका इरादा क्या है? वह तुम्हें बचाएगा। कभी-कभी थोड़ी कठिनाई के बाद लोग अनिच्छुक हो जाते हैं और सोचते हैं, “परमेश्वर मुझे पसंद नहीं करता। मेरे लिए कोई उम्मीद नहीं है।” यदि तुम हमेशा इसी तरह परमेश्वर को गलत समझते रहते हो तो तुम मुसीबत में हो। यह जीवन के तुम्हारे विकास में देरी है। तो चाहे जो भी समय हो, चाहे तुम कमजोर हो या मजबूत, चाहे तुम्हारी स्थिति अच्छी हो या खराब, जीवन में तुम्हारे विकास की सीमा कुछ भी हो—अब इन चीजों के बारे में चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। केवल उन वचनों का अभ्यास करने की चिंता करो जो परमेश्वर ने कहे हैं, भले ही तुम उनका अभ्यास करने का केवल प्रयास कर रहे हो। वह भी ठीक है। सहयोग करने का भरपूर प्रयास करो और वह करो जो तुम करने में सक्षम हो; परमेश्वर के वचनों में बताई गई स्थिति में प्रवेश करो; देखो कि परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों का अभ्यास करना तुम्हारे लिए कैसा है, और क्या तुम्हें इससे फायदा हुआ है, और क्या तुम्हारे पास जीवन प्रवेश है। तुम्हें सत्य की ओर प्रयास करना सीखना चाहिए। लोग जीवन में विकास की प्रक्रिया नहीं समझते। वे हमेशा एक दिन में ताजमहल खड़ा करने की उम्मीद करते हैं, सोचते हैं, “अगर मैं पूर्ण समर्पण हासिल नहीं कर सकता, तो मैं समर्पण ही नहीं करूँगा। मैं केवल तभी समर्पण करूँगा जब मैं इसे पूरी तरह से कर पाऊँगा। मैं इसके बारे में बेशर्म नहीं बनूँगा। इससे पता चलता है कि मुझमें कितनी दृढ़ता, सत्यनिष्ठा और गरिमा है!” यह किस प्रकार की “दृढ़ता” है? यह विद्रोहीपन और दुराग्रह है!

अभी हमने जो संगति की है उस पर अच्छी तरह सोचो। हमने इस प्रश्न के चार उप-शीर्षकों पर अपनी संगति समाप्त की है कि “परमेश्वर में विश्वास के अपने वर्षों के दौरान लोग किसके सहारे जिए हैं?” वे जीने के लिए अपने गुणों पर भरोसा करते हैं; अपने ज्ञान पर; अपने खुले, बच्चों जैसे हृदयों पर; और शैतान के फलसफों पर। तुम लोगों ने इन चार स्थितियों के बारे में जो सुना है, क्या उसे समझते हो? क्या तुम देख सकते हो कि उनका क्या-क्या तुम्हारे भीतर है? क्या तुम इसे समझने में सक्षम हो? क्या हमने पहले इन चीजों के बारे में संगति की है? हो सकता है कि तुम्हारी कुछ स्थितियों पर पकड़ हो और तुम उनके बारे में कुछ जानते हो, लेकिन उस तरह से नहीं जो सत्य का अभ्यास करने या आज हमारी संगति के विषय से संबंधित हो। आज हमने “परमेश्वर में विश्वास के अपने वर्षों के दौरान लोग किसके सहारे जिए हैं?” के विषय और दृष्टिकोण से इन स्थितियों के बारे में संगति की है। यह सत्य का अभ्यास करने और उसके अनुसार जीने के थोड़ा करीब है। मेरा एक और सवाल है। इसे नोट कर लो। यह है : वे कौन-सी चीजें हैं जो तुम्हें सबसे अधिक पसंद हैं? जिन चीजों से तुम सबसे ज्यादा प्रेम करते हो, उनके प्रति परमेश्वर का रवैया क्या है? हम भविष्य में इस प्रश्न पर संगति के लिए समय निकालेंगे। आज हमने मुख्य रूप से कई नकारात्मक स्थितियों को उजागर किया है जिनका स्रोत यह है कि लोग किन चीजों के सहारे जीते हैं; हमने उन नकारात्मक स्थितियों के खास संदर्भ में सत्य का अभ्यास कैसे करें, इस पर संगति नहीं की। इस बारे में सहभागिता न करने के बावजूद क्या तुम लोग जानते हो कि इन स्थितियों में त्रुटियाँ कहाँ हैं? समस्याएँ कहाँ से उत्पन्न होती हैं? वे किस स्वभाव का हिस्सा हैं? सत्य का अभ्यास कैसे करना चाहिए? जब ऐसी चीजें सामने आती हैं, जब तुम्हारी ऐसी स्थितियाँ और तुम्हारे ऐसे तरीके होते हैं, तो क्या तुम जानते हो कि तुम्हें उन्हें प्रतिस्थापित करने के लिए सत्य का उपयोग कैसे करना चाहिए? तुम्हें किन सत्यों का अभ्यास करना चाहिए? अब तुम्हें जो अहम, शुरुआती कार्य करना चाहिए वह इन स्थितियों को समझने और स्वयं का विश्लेषण करने से शुरू करना है। जब तुम इन स्थितियों में रहते हो, तो तुम्हें कम से कम अपने दिल में यह जानना चाहिए कि वे गलत हैं। यह जानने के बाद कि वे गलत हैं, अगला कदम उन्हें उलटना होता है। यदि तुम नहीं जानते कि वे सही हैं या गलत, न ही यह कि उनकी त्रुटियाँ कहाँ हैं, तो तुम उन्हें कैसे बदल सकते हो? तो सबसे पहला कदम तुम्हारे लिए यह भेद पहचानने में सक्षम होना है कि ये स्थितियाँ सही हैं या गलत। उसके बाद ही तुम जान सकते हो कि अगले कदम का अभ्यास कैसे किया जाए। हम आज मनुष्य की विभिन्न भ्रष्ट स्थितियों में से कुछ के मुद्दे पर ही संगति कर रहे हैं और कहने के लिए बहुत कुछ है। तो जहाँ तक उन विशिष्टताओं की बात है कि वास्तव में तुम लोग सत्य के अनुसार कैसे जी सकते हो, तो इस मुद्दे पर तुम लोग खुद और विचार करो। तुम परिणाम हासिल करने में सक्षम होगे।

5 सितंबर 2017

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परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 8) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 9) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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