कर्तव्य निभाने के बारे में वचन
अंश 30
कर्तव्य क्या होता है? परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दिया गया आदेश वह कर्तव्य है जिसे मनुष्य को निभाना चाहिए। वह तुम्हें जो कुछ भी सौंपे वही वह कर्तव्य है जिसे तुम्हें निभाना चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हें अपने दोनों पैर जमीन पर रखना सीखना होगा और उस चीज तक पहुँचने की कोशिश नहीं करनी चाहिए जो तुम्हारी पहुँच से बाहर हो। हमेशा यह न सोचो कि दूसरों की रोटी चुपड़ी है और वह काम करने पर अड़े न रहो जो तुम्हारे लिए उपयुक्त न हो। कुछ लोग मेजबानी के लिए उपयुक्त होते हैं, फिर भी वे अगुआ बनने पर जोर देते हैं; कुछ दूसरे लोग अभिनेता बनने लायक होते हैं, लेकिन वे निर्देशक बनना चाहते हैं। हमेशा उच्च पदों के लिए प्रयासरत होना अच्छा नहीं है। व्यक्ति को अपनी भूमिका और स्थान ढूंढ़ना और निर्धारित करना चाहिए—सूझ-बूझ वाला व्यक्ति यही करता है। फिर उसे परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाने और उसे संतुष्ट करने के लिए एक अत्यंत व्यावहारिक रवैये के साथ अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए। यदि अपना कर्तव्य निभाते समय व्यक्ति का रवैया ऐसा होगा, तो उसका हृदय स्थिर और शांत रहेगा, वह अपने कर्तव्य में सत्य को स्वीकारने में सक्षम हो पाएगा, और धीरे-धीरे परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य निभाने लगेगा। वह अपने भ्रष्ट स्वभाव त्यागने, परमेश्वर की सभी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने और अपने कर्तव्य का इस ढंग से निर्वहन करने में समर्थ हो पाएगा जो मानक स्तर का है। परमेश्वर की स्वीकृति पाने का यही तरीका है। यदि तुम स्वयं को परमेश्वर के लिए सचमुच खपा सकते हो और सही मानसिकता, उसे प्यार करने और संतुष्ट करने की मानसिकता के साथ अपना कर्तव्य निभा सकते हो, तो तुम्हें पवित्र आत्मा के कार्य से नेतृत्व एवं मार्गदर्शन मिलेगा, तुम सत्य का अभ्यास करने और अपना कर्तव्य निभाते समय सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के लिए तैयार हो जाओगे और ऐसे व्यक्ति बन जाओगे जो परमेश्वर का भय मानता है और बुराई से दूर रहता है। इस तरह तुम पूरी तरह सच्चे मानव के समान जियोगे। अपने कर्तव्यों के निर्वहन के साथ-साथ लोगों का जीवन धीरे-धीरे उन्नत होता जाता है। जो अपना कर्तव्य नहीं निभाते, वे चाहे जितने भी वर्षों तक विश्वास रख लें, सत्य और जीवन नहीं प्राप्त कर सकते क्योंकि उन्हें परमेश्वर का आशीष नहीं मिला होता। परमेश्वर केवल उन्हीं को आशीष देता है जो खुद को उसके लिए सचमुच खपा देते हैं और अपनी पूरी क्षमता से कर्तव्य निभाते हैं। तुम जो भी कर्तव्य निभाओ, तुम जो भी कर सकते हो, उसे अपनी जिम्मेदारी और अपना कर्तव्य समझो, उसे स्वीकारो और अच्छे ढंग से करो। तुम इसे अच्छे से कैसे करते हो? ठीक उसी तरह से करके जैसे कि परमेश्वर चाहता है—अपने पूरे दिलो-दिमाग और अपनी पूरी ताकत से। तुम्हें इन शब्दों पर गहन चिंतन करना चाहिए और यह विचारना चाहिए कि तुम अपना कर्तव्य दिल लगा कर कैसे निभा सकते हो। उदाहरण के लिए, यदि तुम किसी को बिना सिद्धांतों के, लापरवाही से और अपनी मनमर्जी से कर्तव्य निभाते देखते हो और मन में सोचते हो कि, “मुझे क्या परवाह, यह मेरी जिम्मेदारी नहीं है,” तो क्या यह अपना कर्तव्य पूरे मन से निभाना है? नहीं, यह गैर-जिम्मेदार होना है। अगर तुम एक जिम्मेदार व्यक्ति हो तो तुम अपने सामने ऐसी स्थिति आने पर कहोगे, “यह ठीक नहीं है। यह काम भले ही मेरी निगरानी के दायरे में न हो, लेकिन मैं अगुआ को इस मसले की रिपोर्ट कर सकता हूँ और उसे यह मामला सिद्धांतों के अनुसार निपटाने दे सकता हूँ।” ऐसा करने के बाद सभी लोग समझ लेंगे कि यह उचित था, तुम्हारे हृदय को सुकून मिलेगा, और तुम अपनी जिम्मेदारी पूरी कर चुके होगे। फिर तुम अपना कर्तव्य पूरी लगन से निभा चुके होगे। कोई भी कर्तव्य निभाते समय यदि तुम हमेशा ध्यान नहीं देते हो और कहते हो, “अगर मैं यह काम आसान और सतही तरीके से निपटा दूँ, तो मैं इसे जैसे-तैसे करके भी काम चला सकता हूँ। आखिर, कोई इसकी जाँच तो करेगा नहीं। अपनी सीमित काबिलियत और पेशेवर कौशल के साथ मैंने उस काम में अपना सर्वश्रेष्ठ किया है। काम चलाने के लिए यह काफी है। इसके अलावा, कोई भी न तो इसके बारे में पूछेगा, न ही इसे लेकर मेरे प्रति गंभीर होगा—यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है।” क्या ऐसी मंशा और ऐसी मानसिकता रखना तुम्हारा अपना कर्तव्य पूरे मन से निभाना है? नहीं, यह अनमना होना है, और यह तुम्हारे शैतानी तथा भ्रष्ट स्वभाव का प्रकटन है। क्या तुम अपने शैतानी स्वभाव पर भरोसा करते हुए पूरी लगन से अपना कर्तव्य निभा सकते हो? नहीं, ऐसा संभव नहीं होगा। तो, अपना कर्तव्य पूरी लगन से करने का क्या मतलब है? तुम कहोगे : “भले ही ऊपरवाले ने इस कार्य के बारे में पूछताछ नहीं की है और यह परमेश्वर के घर के समस्त कार्य में बहुत अधिक महत्वपूर्ण नहीं लगता, फिर भी मैं इसे अच्छी तरह से करूँगा—यह मेरा कर्तव्य है। कोई कार्य महत्वपूर्ण है कि नहीं, यह एक बात है; मैं इसे अच्छी तरह से कर सकता हूँ कि नहीं, यह दूसरी बात है।” महत्वपूर्ण क्या है? तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह और पूरी लगन से निभा सकते हो या नहीं, और तुम सिद्धांतों का पालन कर सत्य के अनुरूप अभ्यास कर सकते हो या नहीं। यही महत्वपूर्ण है। यदि तुम सत्य का अभ्यास कर सकते हो और सिद्धांतों के अनुसार काम कर सकते हो, तो तुम वास्तव में पूरे मन से अपना कर्तव्य निभा रहे हो। यदि तुमने एक प्रकार का कर्तव्य अच्छी तरह से निभाया है, लेकिन तुम अभी संतुष्ट नहीं हो और उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण प्रकार का कोई कर्तव्य निभाना चाहते हो, और तुम उसे अच्छी तरह से करने में सक्षम हो, तो यह अपने कर्तव्य को उससे भी आगे की सीमा तक पूरी लगन से निभाना है। यदि तुम अपना कर्तव्य पूरे मन से करने में सक्षम हो, तो इसका क्या अर्थ निकलता है? एक तरह से, इसका मतलब है कि तुम अपना कर्तव्य परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों के अनुसार निभा रहे हो। दूसरे संदर्भ में, इसका मतलब है कि तुमने परमेश्वर की जाँच-पड़ताल को स्वीकार कर लिया है और तुम्हारे हृदय में परमेश्वर है; इसका मतलब यह है कि तुम अपना कर्तव्य दिखावे के लिए या मनमाने तरीके से या अपनी पसंदगियों के अनुसार नहीं कर रहे हो, बल्कि तुम इसे परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपा गया एक आदेश मान रहे हो और तुम इसे उस जिम्मेदारी और दिल से कर रहे हो, मनमाने ढंग से नहीं बल्कि पूरी तरह से परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कर रहे हो। तुम अपने कर्तव्य निर्वहन में पूरा मन लगा रहे हो—यह पूरे हृदय से अपना कर्तव्य निभाना है। कुछ लोग कर्तव्य निभाने के सत्यों को नहीं समझते। जब उन पर कोई मुश्किल आती है, तो वे शिकायत करते हैं और वे हमेशा अपने व्यक्तिगत हितों, लाभों और हानियों को लेकर बखेड़ा खड़ा करते हैं। वे सोचते हैं, “अगर मैं अगुआ द्वारा मुझे दिया गया काम अच्छी तरह से करूँगा, तो इससे उन्हें सम्मान और गौरव मिलेगा, पर मुझे कौन याद रखेगा? किसी को पता भी नहीं चलेगा कि वह काम मैंने किया था और इसका सारा श्रेय अगुआ को मिलेगा। क्या इस तरह से अपना कर्तव्य निभाना दूसरों की सेवा करना नहीं है?” यह किस प्रकार का स्वभाव है? यह विद्रोहशीलता है—ये अजीब किस्म के लोग हैं। ये परमेश्वर के आदेश को सही ढंग से नहीं समझते हैं। ये हमेशा अधिकार वाले पदों पर बने रहना चाहते हैं, श्रेय लेना और इनाम पाना चाहते हैं, वे खुद को अच्छा दिखाना चाहते हैं। वे हमेशा प्रसिद्धि और लाभ पर ध्यान क्यों देते हैं? इससे पता चलता है कि प्रसिद्धि और लाभ की उनकी इच्छा बहुत प्रबल है, और वे यह नहीं समझते कि कर्तव्य निर्वहन परमेश्वर को संतुष्ट करने के बारे में है, या यह कि परमेश्वर हर व्यक्ति के दिल की गहराई की पड़ताल करता है। इन लोगों में परमेश्वर के प्रति असली आस्था नहीं होती, इसलिए वे उन तथ्यों के आधार पर फैसले करते हैं जिन्हें वे अपनी आँखों से देख पाते हैं, जिसके कारण उनमें गलत दृष्टिकोण विकसित होते हैं। परिणामस्वरूप, वे नकारात्मक और सुस्त हो जाते हैं और उनके काम में कमी होती है और अपने कर्तव्यों को पूरे मन और पूरी ताकत से करने में असमर्थ हो जाते हैं। चूँकि उनमें असली आस्था नहीं है और वे नहीं जानते कि परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराई की जाँच-पड़ताल करता है, इसलिए वे अपना ध्यान दूसरों को दिखाने के लिए कर्तव्य-निर्वाह करने, खुद के उठाए कष्टों और कठिनाइयों को दूसरों को बताने और अगुआओं तथा कार्यकर्ताओं से प्रशंसा और अनुमोदन पाने पर केंद्रित करते हैं। वे सोचते हैं कि कोई कर्तव्य निभाना केवल तभी सार्थक है जब वे उसे इस तरीके से करें, और वह तभी गौरवशाली होता है, जब हर कोई उन्हें ऐसा करते हुए देखे। क्या यह नीचतापूर्ण नहीं है? वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन वे न केवल आस्थाहीन हैं, बल्कि वे सत्य को जरा भी स्वीकारते या समझते नहीं हैं। ऐसे लोग अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से कैसे निभा सकते हैं? क्या उनके स्वभाव में कोई समस्या नहीं है? यदि तुम उनके साथ सत्य के बारे में संगति करने का प्रयास करो और वे फिर भी इसे स्वीकार न करें, तो वे दुष्ट स्वभाव वाले हैं। वे अपनी उचित जिम्मेदारियाँ निभाने में विफल रहते हैं और अपने कर्तव्य में बने नहीं रहते। देर-सवेर, उन्हें हटा दिया जाना चाहिए। जो लोग कर्तव्य निभाते हैं, उन्हें सामान्य मानवता वाला होना चाहिए। उन्हें विवेकशील होना चाहिए और उन्हें परमेश्वर की सभी व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पित होने योग्य होना चाहिए। परमेश्वर विभिन्न लोगों को विभिन्न काबिलियतें और गुण प्रदान करता है और विभिन्न लोग अलग-अलग कर्तव्य निभाने के लिए सुयोग्य होते हैं। तुमको नकचढ़ा नहीं होना चाहिए और अपनी पसंद के आधार पर केवल आरामदेह तथा अपनी इच्छाओं के अनुरूप आसान कर्तव्य नहीं चुनने चाहिए। ऐसा करना गलत है। यह पूरा दिल लगाकर कर्तव्य निभाना नहीं है और यह कोई कर्तव्य निभाना भी नहीं है। किसी कर्तव्य का निर्वाह करने के लिए जो सबसे पहली चीज तुम्हें करनी चाहिए वह है उसमें अपना पूरा दिल लगा देना। अगली बात यह है कि तुम चाहे जो कुछ भी कर रहे हो, चाहे वह बड़ा काम हो या छोटा, गंदा हो या थकाऊ, दूसरों के सामने किया जाने वाला काम हो या दूसरों की नजरों से दूर किया जाने वाला काम, महत्वपूर्ण हो या महत्वहीन, तुम्हें उन सभी को अपना कर्तव्य मानना चाहिए और उन्हें अपने पूरे दिलो-दिमाग और अपनी पूरी ताकत से करने के सिद्धांत का पालन करना चाहिए। यदि अपना कर्तव्य निभाने के बाद तुम्हें अनुभव होता है कि तुम्हारे किए गए कुछ कामों के बारे में तुम्हारी अंतरात्मा पूरी तरह से साफ नहीं है, और भले ही तुमने अपना पूरा दिल लगाकर काम किया हो, फिर भी तुम्हारा कुछ काम अच्छी तरह से न हुआ हो और तुम्हारे प्रयासों के परिणाम बहुत अच्छे न हों, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? कुछ लोग सोचते हैं, “ठीक है, मैंने अपने कर्तव्य में पूरा मन लगाया है, लेकिन परिणाम बहुत अच्छे नहीं थे। यह मेरी समस्या नहीं है। यह अब परमेश्वर के हाथ में है।” यह कैसा दृष्टिकोण है? क्या यह सही दृष्टिकोण है? वे वास्तव में स्वयं को परमेश्वर के लिए सचमुच खपा नहीं रहे हैं क्योंकि वे समस्याओं को हल करने के लिए सत्य की खोज करने के इच्छुक नहीं हैं; वे परमेश्वर को संतुष्ट करने के इच्छुक नहीं हैं और अब भी अपने कर्तव्य के प्रति उनका परिप्रेक्ष्य अनमना है। ऐसा लगता है कि इस प्रकार के लोगों के पास हृदय ही नहीं होता। जब हम अपना पूरा दिल लगाकर कर्तव्य निभाने की बात करते हैं तो इसका मतलब है अपने पूरे दिल का उपयोग करना—तुम अपना कर्तव्य आधे-अधूरे दिल से नहीं कर सकते, तुम्हें एकाग्रचित्त होना चाहिए, अपना कर्तव्य ध्यान से निभाना चाहिए और निष्ठावान होना चाहिए एक जिम्मेदार रवैया अपनाना चाहिए ताकि काम अच्छी तरह से होना सुनिश्चित हो और वे परिणाम प्राप्त हों जो तुम्हें प्राप्त करने चाहिए। केवल तभी इसे पूरी लगन से कर्तव्य निर्वहन कहा जा सकता है। यदि तुम देखते हो कि तुम्हारे काम के परिणाम बहुत अच्छे नहीं हैं, पर तुम मन में सोचते हो कि “मैंने अपनी ओर से सर्वोत्तम किया है। मैंने नींद का त्याग किया है, भोजन छोड़ा है, और देर तक जागा रहा हूँ, कभी-कभी तब भी रुका रहा हूँ जब दूसरे लोग आराम करने या टहलने के लिए बाहर चले गए हों। मैंने कठिनाइयाँ सहन की हैं और मैं दैहिक सुख-सुविधाओं में लिप्त नहीं रहा हूँ। इसका मतलब है कि मैंने अपना कर्तव्य पूरे दिल से निभाया है।” क्या यह दृष्टिकोण सही है? तुमने अपना समय लगाया है और प्रयास किया है। ऊपर से देखने पर ऐसा लगता है कि तुम इन सभी औपचारिकताओं से गुजरे हो, लेकिन जो परिणाम तुमको मिले हैं वे अच्छे नहीं हैं और तुम इसकी जिम्मेदारी नहीं लेते, साथ ही तुम्हें इसकी परवाह नहीं है। क्या यह पूरे मन से अपना कर्तव्य निभाना है? (नहीं।) यह पूरे मन से अपना कर्तव्य निभाना नहीं है। जब परमेश्वर यह निर्धारित कर रहा होता है कि कोई व्यक्ति अपने पूरे मन से कुछ कर रहा है या नहीं, तो वह क्या देखता है? एक लिहाज से वह यह देखता है कि क्या तुम उस चीज से गंभीर और जिम्मेदाराना रवैये से निपटते हो। दूसरे लिहाज से वह यह देखता है कि वह काम करते समय तुम क्या सोच रहे हो, तुम उस कर्तव्य को वैसे ही ध्यान से निभा रहे हो जैसे तुम्हें निभाना चाहिए या नहीं, क्या तुम उसे लगातार सत्य सिद्धांतों के अनुसार कर रहे हो और जब तुम पर कोई कठिनाई आती है तो तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकने की खातिर समस्याएँ हल करने के लिए एकाग्रता से सत्य की तलाश करते हो या नहीं। मनुष्य जब कार्य करता है, तो परमेश्वर देखता और पड़ताल करता है। वह पूरे समय उनके दिलों को देख रहा होता है। यूँ तो लोगों को यह पता नहीं होता, फिर भी वे कभी-कभी उसकी जाँच-पड़ताल को भाँप सकते हैं। कुछ लोग अपने कर्तव्यों के प्रति हमेशा अनमने होते हैं और अंततः परमेश्वर उन्हें बेनकाब करने वाले परिवेश की व्यवस्था करता है। उस मुकाम पर उन्हें परमेश्वर द्वारा त्याग दिए जाने का भान होता है, और सभी लोग समझ जाते हैं कि वे विश्वासियों जैसे नहीं हैं—कि वे अविश्वासियों, दानवों और शैतानों जैसे हैं। ऐसे लोगों को उनके कर्तव्य निर्वहन के दौरान ही हटा दिया जाता है। कुछ लोग कर्तव्य निर्वहन करते हुए अक्सर आत्मचिंतन करते हैं। कभी-कभी, उन्हें मिलने वाले परिणाम अच्छे नहीं होते, या कोई समस्या उत्पन्न हो जाती है, वे उसे अपने मन में महसूस कर लेते हैं, और सोचते हैं, “क्या मैं फिर से अनमना हो रहा हूँ?” वे भर्त्सना महसूस करते हैं। ऐसा कैसे होता है? यह परमेश्वर द्वारा किया गया होता है, यह पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता है। तो, परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध क्यों बना रहा है? वह किस आधार पर तुम्हें प्रबुद्ध कर रहा है? वह किस सन्दर्भ में तुम्हारी भर्त्सना कर रहा है? तुम्हें सही मानसिकता रखते हुए कहना चाहिए, “मुझे अपना कर्तव्य पूरा दिल लगाकर करना चाहिए और इसका मतलब है उसे सत्य के अनुसार करना। क्या मैंने सचमुच पूरे दिल से अपना कर्तव्य निभाया है?” यदि तुम हमेशा इस पर विचार करते हो, तो परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध करेगा और तुम्हारे भीतर समझ पैदा करेगा कि “मैंने वह कार्य पूरे दिल से नहीं किया था। मैं सोचता था कि मैं काफी अच्छा काम कर रहा हूँ, मैंने खुद को 100 में से 99 अंक दिए होते। लेकिन अब मुझे लगता है कि वास्तव में ऐसा नहीं है—मैं वास्तव में बमुश्किल उत्तीर्ण हुआ।” केवल तभी तुम्हें परमेश्वर के असंतोष का पता चलेगा। यह परमेश्वर द्वारा तुम्हें प्रबुद्ध किया जाना और तुम्हें यह समझने की अनुमति देना है कि तुम वास्तव में अपना कर्तव्य कितना ढंग से निभाते हो और तुम अभी भी उसकी अपेक्षाओं से कितनी दूर हो। यदि कोई अपने कर्तव्य निर्वहन में न्यूनतम मानकों से बहुत नीचे गिर जाए, तो भी क्या परमेश्वर उसे भी प्रबुद्ध करेगा? शायद नहीं। परमेश्वर किसे प्रबुद्ध करता है? सबसे पहले, उन लोगों को जो सत्य से प्रेम करते हैं; दूसरे, समर्पण का रवैया रखने वालों को; तीसरे, सत्य के लिए लालायित लोगों को; और चौथे उनको जो सभी प्रकार से आत्मनिरीक्षण और आत्मचिंतन करते हैं। ये उस प्रकार के लोग हैं जिन्हें परमेश्वर की प्रबुद्धता मिल सकती है। इस तरह से अभ्यास और अनुभव करने से तुम्हारा अपने पूरे दिल से कर्तव्य निभाने का व्यक्तिगत अनुभव—सत्य के अभ्यास का यह पहलू और वास्तविकता का यह पहलू—अधिकाधिक बढ़ता जाएगा। धीरे-धीरे, तुम्हारे मन में यह स्पष्ट हो जाएगा कि कौन से लोग अपने कर्तव्यों को पूरे मन से निभाते हैं और कौन नहीं, इसके अलावा कर्तव्य निर्वहन के प्रति विभिन्न व्यक्तियों के रवैये और व्यवहार कैसे हैं। जब तुम स्वयं को जान लोगे तो तुम दूसरों का भेद पहचानने में सक्षम हो जाओगे और अपने कर्तव्य में अधिकाधिक बारीकी से काम करने वाले बन जाओगे। अनमने होने की मामूली-सी घटना भी तुम्हारी निगाह से नहीं बच पाएगी, और तुम उसे हल करने के लिए सत्य की तलाश कर पाओगे। तुम अपना कर्तव्य निभाते समय सिद्धांतों के अनुसार चीजों को सँभालने में सक्षम होगे, तुम सत्य का अधिक-से-अधिक अभ्यास करोगे, और तुम्हारा मन स्थिर और शांत रहेगा। यदि किसी दिन तुम्हारे दिल को लगे कि तुमने अपना कोई कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभाया है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें इस पर चिंतन करना चाहिए, जानकारी हासिल करनी चाहिए और दूसरों से सलाह लेनी चाहिए, फिर तुम्हें पता भी नहीं चलेगा और मामले की समझ हासिल हो जाएगी। क्या इससे तुम्हें अपने कर्तव्य निर्वहन में सहायता नहीं मिलेगी? (हाँ।) इससे मदद मिलेगी। तुम चाहे जो कर्तव्य निभा रहे होगे, यही स्थिति रहेगी। अगर लोग अपने कर्तव्य पूरे मन से निभाते हैं, सत्य सिद्धांतों की खोज करते हैं और अपने प्रयासों में लगे रहते हैं, तो अंततः उन्हें परिणाम प्राप्त हो जाएँगे।
अंश 31
चूँकि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, इसलिए वे अपने कर्तव्य निभाते समय अक्सर अनमने रहते हैं। यह सबसे गंभीर समस्याओं में से एक है। अगर लोगों को अपने कर्तव्य ठीक से निभाने हैं, तो उन्हें सबसे पहले अनमनेपन की यह समस्या सुलझानी चाहिए। अगर उनका रवैया अनमना होगा, तो वे अपने कर्तव्य उचित ढंग से नहीं निभा पाएँगे, जिसका अर्थ है कि अनमनेपन की समस्या हल करना बेहद जरूरी है। तो उन्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? पहले, उन्हें अपनी मनोदशा की समस्या का समाधान करना चाहिए; उन्हें अपने कर्तव्यों को सही तरह से लेना चाहिए, और चीजों को गंभीरता और जिम्मेदारी की भावना के साथ करना चाहिए। उन्हें धोखेबाजी या अनमनेपन का इरादा नहीं रखना चाहिए। कर्तव्य परमेश्वर के लिए निभाया जाता है, किसी व्यक्ति के लिए नहीं; यदि लोग परमेश्वर की जाँच-पड़ताल स्वीकारने में सक्षम होते हैं, तो उनकी मनोदशा सही होगी। इसके अलावा, कोई कार्य करने के बाद, लोगों को उसे जाँचना चाहिए, और उस पर चिंतन करना चाहिए, और अगर उन्हें दिल में थोड़ी बेचैनी महसूस हो, और विस्तृत निरीक्षण के बाद उन्हें पता चले कि वास्तव में कोई समस्या है, तो उन्हें बदलाव करने चाहिए; ये बदलाव होने के बाद उन्हें अपने दिल में चैन का एहसास होगा। जब लोगों को बेचैनी महसूस होती है, तो यह साबित करता है कि कोई समस्या है, और उन्हें, विशेष रूप से महत्वपूर्ण चरणों पर, जो कुछ भी उन्होंने किया है, उसकी पूरी लगन से जाँच करनी चाहिए। यह अपने कर्तव्य निभाने के प्रति एक जिम्मेदार रवैया है। जब व्यक्ति गंभीर हो सकता है, जिम्मेदारी ले सकता है, और अपना पूरा दिल और पूरी ताकत लगा सकता है, तो काम सही तरीके से पूरा किया जाएगा। कभी-कभी तुम्हारी मनःस्थिति सही नहीं होती, और साफ-साफ नजर आने वाली गलती भी ढूँढ़ या पकड़ नहीं पाते। अगर तुम्हारी मनोदशा ठीक होती, तो पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन से तुम वह समस्या पहचानने में सक्षम होते। अगर पवित्र आत्मा तुम्हारा मार्गदर्शन करे और तुम्हें जागरूकता दे, दिल में स्पष्टता महसूस करने दे और जानने दे कि गलती कहाँ है, तो तब तुम भटकाव दूर करने और सत्य सिद्धांतों के लिए प्रयास करने में सक्षम होगे। अगर तुम्हारी मनोदशा सही न हो पाए, और तुम अन्यमनस्क और लापरवाह रहो, तो क्या तुम गलती देख पाओगे? तुम नहीं देख पाओगे। इससे क्या पता चलता है? यह दिखाता है कि अपने कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि लोग अपनी भूमिका निभाएँ; उनकी मानसिकता बहुत महत्वपूर्ण है और वे अपनी सोच और विचारों को कहाँ लगाते हैं वह भी बहुत महत्वपूर्ण है। परमेश्वर इसकी पड़ताल करता है और यह देख सकता है कि लोग अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय किस मनोदशा में होते हैं और आतंरिक रूप से कितना प्रयास करते हैं। यह महत्वपूर्ण है कि अपने कार्य करते समय लोग उसमें अपने पूरे दिल और पूरी शक्ति का प्रयोग करें। उनका अपनी भूमिका निभाना काफी महत्वपूर्ण घटक होता है। यदि लोग प्रयास करें कि वे जिन कर्तव्यों का निर्वहन कर चुके हैं और जो चीजें कर चुके हैं, उन्हें लेकर उनमें कोई अफसोस न रहे और वे परमेश्वर के प्रति कर्जदार न रहें, केवल तभी वे अपने पूरे दिल और पूरी शक्ति से कार्य कर पाएँगे। यदि तुम अपना कर्तव्य निभाने में अपना पूरा दिल और शक्ति लगाने में लगातार असफल होते हो, यदि तुम हमेशा ही अनमने रहते हो, काम को जबरदस्त नुकसान पहुंचाते हो और परमेश्वर द्वारा अपेक्षित प्रभावों से बहुत पीछे रहते हो, तो तुम्हारे साथ केवल एक ही चीज हो सकती है : तुम्हें निकाल दिया जाएगा। तो क्या तब भी पछतावे का समय होगा? नहीं होगा। ऐसे कार्यकलाप शाश्वत पछतावा, एक दाग बन जाएँगे! सदा अनमना रहना एक दाग है, यह एक गंभीर अपराध है—हाँ या न? (हाँ।) तुम्हें अपने दायित्वों को और तुम्हें जो कुछ भी करना है, उसे पूरे मनोयोग से करने का प्रयास करना चाहिए, तुम्हें अनमना नहीं होना चाहिए, या कोई पछतावा नहीं रहना चाहिए। यदि तुम ऐसा कर सको तो तुम जो कर्तव्य निभाओगे, उसे परमेश्वर याद रखेगा। जिन चीजों को परमेश्वर द्वारा याद रखा जाता है वे अच्छे कर्म होते हैं। तो फिर ऐसी कौन-सी चीजें हैं जिन्हें परमेश्वर द्वारा याद नहीं रखा जाता? (वे अपराध और बुरे कर्म होते हैं।) ऐसा हो सकता है कि इस समय उन कार्यों का जिक्र करने पर तुम यह स्वीकार न करो कि वे बुरे कर्म हैं, लेकिन अगर ऐसा दिन आता है जब इन चीजों के गंभीर परिणाम सामने आते हैं, और वे चीजें नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न करती हैं, तब तुम्हें समझ आ जाएगा कि ये चीजें मात्र व्यवहार संबंधी अपराध नहीं हैं, बल्कि बुरे कर्म हैं। जब तुम्हें इसका एहसास होगा, तुम पछताओगे और सोचोगे : “मुझे थोड़ी-बहुत रोकथाम करनी चाहिए थी! अगर मैंने शुरू में इस पर थोड़ा और विचार और प्रयास कर लिया होता, तो इस परिणाम से बचा जा सकता था।” कोई भी चीज तुम्हारे हृदय पर हमेशा के लिए लगे इस धब्बे को मिटा नहीं सकेगी और अगर यह तुम पर एक स्थायी ऋण बन गई, तो तुम परेशानी में पड़ जाओगे। इसलिए आज तुम्हें परमेश्वर द्वारा दिए गए आदेश को पूरे दिल और पूरी शक्ति से निभाने का प्रयास करना चाहिए, हर कर्तव्य को स्पष्ट विवेक के साथ, बिना किसी पछतावे के इस तरह से करना चाहिए जिसे परमेश्वर याद रखे। तुम जो भी करो, अनमने मत बनो। अगर तुम आवेश में आकर कोई गलती करते हो और यह गंभीर अपराध है, तो यह कभी नहीं मिटने वाला दाग बन जाएगा। जब तुम्हें पछतावा होगा, तुम उनकी भरपाई नहीं कर पाओगे, और तुम्हें हमेशा के लिए उनका पछतावा रहेगा। इन दोनों मार्गों को स्पष्टता के साथ देखना चाहिए। परमेश्वर की स्वीकृति पाने के लिए तुम्हें कौन-सा मार्ग चुनना चाहिए? बिना किसी पछतावे के, अपने पूरे दिल और ताकत के साथ अपना कर्तव्य निभाना, और अच्छे कर्मों की तैयारी करना और उन्हें जमा करना। तुम जो भी करो, ऐसा बुरा काम मत करो जो दूसरों के अपना कर्तव्य निभाने में बाधा डाले, ऐसा कुछ मत करो जो सत्य के खिलाफ जाता हो और परमेश्वर का प्रतिरोध करता हो, और जिससे जीवन भर पछताना पड़े। क्या होता है जब कोई व्यक्ति बहुत सारे अपराध कर देता है? वह परमेश्वर की उपस्थिति में ही अपने प्रति उसके क्रोध को धीरे-धीरे जमा कर रहा है! अगर तुम और ज्यादा अपराध करते हो, और तुम्हारे प्रति परमेश्वर का क्रोध और ज्यादा बढ़ जाता है, तो अंततः, तुम्हें दंड मिलेगा।
सतही तौर पर कुछ लोगों में अपने कर्तव्यों के निष्पादन की पूरी अवधि के दौरान कोई गंभीर समस्या प्रतीत नहीं होती। वे खुलेआम कोई बुराई नहीं करते; वे विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न नहीं करते, या मसीह-विरोधियों के मार्ग पर नहीं चलते। अपने कर्तव्यों के निर्वहन में उनके सामने कोई बड़ी त्रुटि या सिद्धांत की समस्याएँ भी नहीं आतीं, फिर भी, उन्हें एहसास भी नहीं होता और कुछ ही वर्षों में वे सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार न करने वाले के रूप में, एक छद्म-विश्वासी के रूप में बेनकाब हो जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? दूसरों को कोई समस्या नहीं दिखती, लेकिन परमेश्वर इन लोगों के अंतरतम हृदय की पड़ताल करके समस्या देख लेता है। वे अपने कर्तव्यों के प्रदर्शन में हमेशा लापरवाह रहते हैं और प्रायश्चित्त नहीं करते। जैसे-जैसे समय बीतता है, वे स्वाभाविक रूप से बेनकाब हो जाते हैं। प्रायश्चित्त न करने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि हालाँकि उन्होंने पूरी अवधि में अपने कर्तव्य निभाए हैं, लेकिन उनके प्रति उनका रवैया हमेशा गलत होता है, अनमना होता है, चीजों को हल्के में लेने वाला रवैया होता है, वे कर्तव्यनिष्ठ भी नहीं होते, पूरे दिल से अपने कर्तव्य निभाने की तो बात ही छोड़ दो। वे शायद थोड़ा-बहुत प्रयास करते हों, लेकिन वे केवल औपचारिकता निभाते हैं। वे पूरी ताकत से अपना कर्तव्य नहीं करते और उनके अपराधों का कोई अंत नहीं होता। परमेश्वर की दृष्टि में, उन्होंने कभी प्रायश्चित्त नहीं किया; वे हमेशा अनमने रहे हैं, और उनमें कभी कोई बदलाव नहीं आया है—अर्थात, वे अपने हाथों की बुराई को छोड़कर परमेश्वर के आगे पश्चात्ताप नहीं करते। परमेश्वर उनमें पश्चात्ताप की मनोवृत्ति नहीं देखता और वह उनकी मनोवृत्ति में कोई बदलाव भी नहीं देखता। वे इसी मनोवृत्ति और पद्धति से अपने कर्तव्यों और परमेश्वर के आदेशों के संबंध में अड़ियल बने रहते हैं। उनके इस जिद्दी और दुराग्रही स्वभाव में कभी कोई बदलाव नहीं आता। इससे भी बढ़कर, वे कभी भी परमेश्वर के प्रति ऋणी महसूस नहीं करते, उन्हें कभी नहीं लगता कि उनका अनमनापन एक अपराध और दुष्टता है। उनके मन में न तो कोई ऋणी होने का भाव होता है, न वे खुद को दोषी महसूस करते हैं, न उनमें आत्म-भर्त्सना का भाव आता है, आत्म-निंदा करने की तो बात ही छोड़ दो। जैसे-जैसे समय बीतता है, परमेश्वर देखता है कि इस तरह का व्यक्ति लाइलाज है। परमेश्वर चाहे जो भी कहे, और वह जितने भी उपदेश सुन ले या उसे सत्य की कितनी भी समझ हो, उसका दिल प्रेरित नहीं होता और उसके रवैये में न कोई बदलाव आता है, न ही यह पूरी तरह परिवर्तित होता है। परमेश्वर इसे देखता है और कहता है : “इस व्यक्ति से अब कोई आशा नहीं है। मेरी कोई भी बात उसके दिल को छूती नहीं है, मेरी किसी भी बात से उसके अंदर बदलाव नहीं आता है। उसे बदलने का कोई उपाय नहीं है। यह व्यक्ति अपना कर्तव्य निभाने के लिए अयोग्य है और मेरे घर में मजदूरी करने योग्य नहीं है।” और परमेश्वर ऐसा क्यों कहता है? ऐसा इसलिए है क्योंकि जब वे अपना कर्तव्य निभाते हैं और काम करते हैं, तो वे लगातार अनमने रहते हैं। चाहे उनकी कितनी भी काट-छाँट की जाए, और चाहे उनके प्रति कितनी भी सहनशीलता और धैर्य दिखाया जाए, इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता और यह उन्हें वास्तव में पश्चात्ताप करने या बदलने के लिए प्रेरित नहीं कर सकता। यह उन्हें अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने में सक्षम नहीं बना सकता, और न ही उन्हें सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलने की शुरुआत करने दे सकता है। ऐसा व्यक्ति लाइलाज होता है। जब परमेश्वर यह निर्धारित कर लेता है कि कोई व्यक्ति लाइलाज है, तो क्या वह तब भी उस व्यक्ति को मजबूती से पकड़े रहेगा? नहीं, वह ऐसा नहीं करता। परमेश्वर उसे जाने देगा। कुछ लोग हमेशा याचना करते हैं, “परमेश्वर, मेरे साथ सख्ती मत करो, मुझे पीड़ा मत पहुँचाओ, मुझे अनुशासित मत करो। मुझे थोड़ी आजादी दो! मुझे चीजों को थोड़े अनमने ढंग से करने दो! मुझे थोड़ा स्वच्छंद होने दो! मुझे स्वयं का मालिक बनने दो!” वे नियंत्रित नहीं होना चाहते। परमेश्वर कहता है, “चूँकि तुम सही रास्ते पर नहीं चलना चाहते, तो मैं तुम्हें जाने दूँगा। मैं तुम्हें पूरी आजादी दूँगा। जाओ और वही करो जो करना चाहते हो। मैं तुम्हें नहीं बचाऊँगा, क्योंकि तुम लाइलाज हो।” जो लोग लाइलाज होते हैं, क्या उनमें कोई अंतरात्मा होती है? क्या उनमें ऋणी होने की कोई भावना होती है? क्या उनमें अपने आपको दोषी महसूस करने का कोई भाव होता है? क्या वे परमेश्वर की भर्त्सना, अनुशासन, प्रहार और न्याय को समझ पाते हैं? नहीं, वे इसे महसूस नहीं कर पाते। वे इन तमाम चीजों से अनभिज्ञ होते हैं; ये बातें उनके दिलों में या तो बहुत धुँधली होती हैं या मौजूद ही नहीं होतीं। जब कोई व्यक्ति इस अवस्था में आ जाता है कि उसके हृदय में परमेश्वर का वास ही नहीं होता, तो क्या वह उद्धार प्राप्त कर सकता है? कहना कठिन है। जब किसी की आस्था ऐसी स्थिति में आ जाती है, तो वह खतरे में पड़ जाता है। क्या तुम लोग जानते हो कि तुम्हें कैसे अनुसरण करना चाहिए, कैसे अभ्यास करना चाहिए और कौन-सा मार्ग चुनना चाहिए ताकि इस परिणाम से बचते हुए यह सुनिश्चित किया जा सके कि ऐसी स्थिति उत्पन्न न हो? पहले, सबसे महत्वपूर्ण है सही रास्ता चुनना, और फिर उस कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने पर ध्यान देना जो तुम्हें वर्तमान में करना चाहिए। यह न्यूनतम मानक है, सबसे बुनियादी मानक। यही वह आधार है जिस पर तुम्हें सत्य खोजना चाहिए और अपने कर्तव्य निर्वहन के मानक के लिए इस तरीके सेप्रयास करना चाहिए जो मानक स्तर का हो। ऐसा इसलिए है क्योंकि जो चीज परमेश्वर के साथ तुम्हारे बंधन को सबसे स्पष्ट रूप से दिखाती है, वह यह है कि तुम उन मामलों और कर्तव्यों से कैसे बर्ताव करते हो, जिन्हें परमेश्वर तुम्हें सौंपता और निभाने को देता है, और तुम्हारा रवैया कैसा है। यही मुद्दा है जो सबसे ज्यादा दिखाई देने वाला और सबसे ज्यादा व्यावहारिक है। परमेश्वर इंतजार कर रहा है; वह तुम्हारा रवैया देखना चाहता है। इस अहम पड़ाव पर तुम्हें जल्दी करनी चाहिए और परमेश्वर को अपनी स्थिति से अवगत कराना चाहिए, उसका आदेश स्वीकारना और अपना कर्तव्य ठीक से निभाना चाहिए। इस महत्वपूर्ण बिंदु को पकड़ लेने और परमेश्वर द्वारा सौंपे आदेश को पूरा कर लेने के बाद परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य हो जाएगा। जब परमेश्वर तुम्हें कोई कार्य सौंपता है या तुमसे कोई कर्तव्य निभाने को कहता है, तब अगर तुम्हारा रवैया सतही और उदासीन होता है और तुम इसे गंभीरता से नहीं लेते, तो क्या यह अपना पूरा मन और ताकत लगाने के बिल्कुल विपरीत नहीं है? क्या तुम इस तरह से अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकते हो? निश्चित रूप से नहीं। तुम अपना कर्तव्य उस बिंदु तक नहीं निभाओगे जो मानक स्तर का हो। इसलिए अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हारा रवैया अत्यंत महत्व का है तो साथ ही जो तरीका और मार्ग तुम चुनते हो वह भी अत्यंत महत्व का है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि लोगों ने कितने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया है, जो लोग अपने कर्तव्य अच्छे से नहीं निभा पाएँगे, उन्हें निकाल दिया जाएगा।
अंश 32
बहुत-से लोग अपने कर्तव्य अनमने ढंग से निभाते हैं, इन्हें कभी गंभीरता से नहीं लेते, मानो वे अविश्वासियों के लिए काम कर रहे हों। वे चीजों को फूहड़, सतही, उदासीन और लापरवाह ढंग से करते हैं, मानो मजाक चल रहा हो। ऐसा क्यों है? वे श्रम करने वाले अविश्वासी हैं; कर्तव्य निभा रहे छद्म-विश्वासी हैं। ये लोग अत्यधिक दुष्ट हैं; ये लम्पट और बेलगाम हैं, और ये अविश्वासियों से अलग नहीं हैं। अपने लिए कुछ करते समय वे बिल्कुल भी अनमने नहीं होते, तो फिर जब अपने कर्तव्य निभाने की बात आती है तो वे थोड़े-से भी ईमानदार या लगनशील क्यों नहीं होते? वे जो कुछ भी करते हैं, जो भी कर्तव्य निभाते हैं, उसमें चंचलता और शरारत का गुण रहता है। ये लोग हमेशा अनमने होते हैं और इनमें धोखा देने की प्रवृत्ति होती है। क्या ऐसे लोगों में मानवता होती है? उनमें निश्चित रूप से मानवता नहीं होती; न ही उनमें थोड़ा-सा भी जमीर और विवेक होता है। जंगली गधों या जंगली घोड़ों की तरह उन्हें लगातार साधने और उन पर नजर रखने की जरूरत होती है। वे परमेश्वर के घर के साथ धोखेबाजी और चालबाजी करते हैं। क्या इसका मतलब उन्हें परमेश्वर पर कोई सच्चा विश्वास है? क्या वे खुद को उसके लिए खपा रहे हैं? वे निश्चित रूप से उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते हैं और उनका श्रम मानक स्तर का नहीं है। यदि ऐसे लोगों को कोई और काम पर रखता तो उन्हें कुछ ही दिनों में निकाल देता। परमेश्वर के घर में यह कहना पूरी तरह से सही है कि वे श्रमिक और काम पर रखे गए मजदूर हैं, और उन्हें केवल हटाया ही जा सकता है। बहुत-से लोग अपने कर्तव्य निभाते समय अक्सर अनमने होते हैं। काट-छाँट का सामना करने पर भी वे सत्य स्वीकारने से इनकार कर देते हैं, अपनी बात पर अड़कर बहस करते हैं, और यहाँ तक शिकायत करते हैं कि परमेश्वर का घर उनके साथ अन्याय करता है, उसमें दया और सहनशीलता की कमी है। क्या यह विवेकरहित होना नहीं है? अधिक निष्पक्ष ढंग से कहें तो यह अहंकारी स्वभाव है, और उनमें लेशमात्र भी जमीर और विवेक नहीं है। जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं उन्हें कम-से-कम इतना सक्षम तो होना ही चाहिए कि वे सत्य स्वीकार सकें और जमीर और विवेक की मर्यादा तोड़े बिना काम कर सकें। जो लोग काट-छाँट को स्वीकारने या समर्पण करने में असमर्थ हैं, वे अत्यधिक अहंकारी, आत्मतुष्ट और बिल्कुल विवेकरहित हैं। उन्हें जानवर कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि वे अपने हर काम के प्रति पूरी तरह उदासीन रहते हैं। वे चीजें बिल्कुल मन-मुताबिक करते हैं और परिणामों की परवाह नहीं करते; यदि समस्याएँ आती हैं तो उन्हें परवाह नहीं होती। ऐसे लोगों का श्रम मानक स्तर का नहीं है। चूँकि वे अपने कर्तव्य इस तरह निभाते हैं, इसलिए दूसरे लोग उन्हें देखना बर्दाश्त नहीं करते और उन पर विश्वास नहीं करते। तो क्या परमेश्वर उन पर भरोसा रख सकता है? इस न्यूनतम मानक को भी पूरा न करने के कारण उनका श्रम मानक स्तर का नहीं है और उन्हें सिर्फ हटाया ही जा सकता है। कुछ लोग कितने अहंकारी और आत्मतुष्ट हो जाते हैं? वे हमेशा यही सोचते हैं कि वे कुछ भी कर सकते हैं; उनके लिए क्या व्यवस्था की गई है, इसकी परवाह किए बिना वे कहते हैं, “यह आसान है; यह कोई बड़ी बात नहीं है। मैं इसे सँभाल सकता हूँ। मुझे सत्य सिद्धांतों के बारे में किसी से संगति कराने की जरूरत नहीं है; मैं खुद इसकी जाँच कर सकता हूँ।” हमेशा इस प्रकार का रवैया अपनाने के कारण, अगुआ और कार्यकर्ता दोनों ही ऐसे लोगों को देखना बर्दाश्त नहीं करते और वे इनके कार्य पर विश्वास नहीं कर पाते। क्या ये अहंकारी और आत्मतुष्ट लोग नहीं हैं? यदि कोई अत्यधिक अहंकारी और आत्मतुष्ट है तो यह शर्मनाक व्यवहार है, और यदि उनमें कोई परिवर्तन नहीं होता तो वे अपने कर्तव्य कभी भी ऐसे ढंग से नहीं निभाएँगे जो मानक स्तर का हो। अपने कर्तव्य निभाने के प्रति व्यक्ति का रवैया कैसा होना चाहिए? उसमें कम-से-कम जिम्मेदारी का रवैया तो होना ही चाहिए। किसी के सामने चाहे कितनी ही कठिनाइयाँ और समस्याएँ आएँ, उसे सत्य सिद्धांत खोजने चाहिए, परमेश्वर के घर के अपेक्षित मानकों को समझना चाहिए, और यह जानना चाहिए कि उसे अपने कर्तव्य निभाकर कौन-से नतीजे हासिल करने चाहिए। अगर कोई इन तीन चीजों पर महारत हासिल कर सकता है तो वह आसानी से अपने कर्तव्य मानक स्तर तक निभा सकता है। कोई चाहे कोई भी कर्तव्य निभाए, अगर वह सबसे पहले सिद्धांत समझ लेता है, परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं को समझता है और जानता है कि उसे क्या नतीजे प्राप्त करने चाहिए तो क्या उसके पास अपने कर्तव्य निभाने का मार्ग नहीं होता? इसलिए कर्तव्य निभाने के प्रति व्यक्ति का रवैया बहुत महत्वपूर्ण होता है। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे अपने कर्तव्य अनमने ढंग से निभाते हैं—उनके पास सही रवैया नहीं होता, वे कभी भी सत्य सिद्धांत नहीं खोजते और वे परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं के बारे में नहीं सोचते हैं और यह नहीं सोचते कि उन्हें क्या परिणाम हासिल करने चाहिए। वे अपने कर्तव्य कैसे इस तरीके से निभा सकते हैं जो मानक स्तर का हो? यदि तुम वह हो जो ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करता है, तो अनमने होने पर तुम्हें उससे प्रार्थना करनी चाहिए और आत्म-चिंतन कर खुद को जानना चाहिए; तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभावों के खिलाफ विद्रोह करना होगा, सत्य सिद्धांतों पर कड़ी मेहनत करनी होगी और उसके अपेक्षित मानकों को पूरा करने का प्रयास करना होगा। इस तरह से अपना कर्तव्य निभाकर तुम धीरे-धीरे परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं को पूरा कर लोगे। सच तो यह है कि अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना बहुत कठिन नहीं है। यह सिर्फ जमीर और विवेक होने, ईमानदार और मेहनती होने की बात है। ऐसे कई अविश्वासी हैं, जो ईमानदारी से काम करते हैं और नतीजतन सफल हो जाते हैं। वे सत्य सिद्धांतों के बारे में कुछ नहीं जानते, तो वे इतना अच्छा कैसे कर लेते हैं? वह इसलिए, क्योंकि वे लगन से काम करते और मेहनती होते हैं, इसलिए वे गंभीरता से काम कर सकते हैं, और पूर्णतया तथ्यों का पालन कर सकते हैं और इस तरह से, वे चीजें आसानी से करवा सकते हैं। परमेश्वर के घर का कोई भी कर्तव्य बहुत कठिन नहीं है। अगर तुम अपना पूरा दिल उसमें लगाओ और भरसक प्रयास करो, तो तुम अच्छा काम कर सकते हो। अगर तुम ईमानदार नहीं हो, और जो कुछ भी तुम करते हो उसमें मेहनती नहीं हो, अगर तुम हमेशा खुद को परेशानी से बचाने की कोशिश करते हो, अगर तुम हमेशा अनमने रहते हो और हर चीज में गड़बड़ी करते हो और नतीजतन तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभाते और तुम चीजें बिगाड़ देते हो और परमेश्वर के घर को हानि पहुँचाते हो, तो इसका मतलब है कि तुम बुराई कर रहे हो, और यह एक ऐसा अपराध बन जाएगा जो परमेश्वर द्वारा घृणित है। सुसमाचार फैलाने के महत्वपूर्ण क्षणों के दौरान, अगर तुम अपने कर्तव्य में अच्छे परिणाम प्राप्त नहीं करते और सकारात्मक भूमिका नहीं निभाते, या अगर तुम व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करते हो, तो स्वाभाविक रूप से परमेश्वर तुमसे घृणा करेगा और तुम हटा दिए जाओगे और उद्धार का अपना मौका खो दोगे। इसे लेकर तुम्हें अनंत पश्चात्ताप होगा! परमेश्वर द्वारा तुम्हें अपना कर्तव्य करने के लिए उन्नत करना उद्धार का तुम्हारा एकमात्र अवसर है। अगर तुम गैर-जिम्मेदार रहते हो, उसे हल्के में लेते हो और अनमने हो, तो यही वह रवैया है जिसके साथ तुम सत्य और परमेश्वर के साथ पेश आते हो। अगर तुम जरा भी ईमानदार या समर्पण करने वाले नहीं हो, तो तुम परमेश्वर का उद्धार कैसे प्राप्त कर सकते हो? अभी समय बहुत कीमती है; हर दिन और हर मिनट महत्वपूर्ण है। अगर तुम सत्य की खोज नहीं करते, अगर तुम जीवन-प्रवेश पर ध्यान केंद्रित नहीं करते, और अगर तुम अनमने हो और अपने कर्तव्य में परमेश्वर को धोखा देते हो, तो यह वास्तव में विवेकहीन और अत्यधिक खतरनाक है! जैसे ही परमेश्वर तुमसे घृणा करता है और तुम्हें हटा देता है, तो पवित्र आत्मा तुममें कार्य नहीं करता, और इसका कोई इलाज नहीं है। कभी-कभी इंसान का एक मिनट का काम उसकी जिंदगी बर्बाद कर सकता है। कभी-कभी परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचाने वाले अकेले शब्द के कारण व्यक्ति को बेनकाब करके हटा दिया जाता है—क्या यह ऐसी बात नहीं है जो चंद मिनटों में घट सकती है? यह बिल्कुल वैसी ही बात है कि कुछ लोग अपने कर्तव्य निभाने के बावजूद लगातार गैर-जिम्मेदाराना ढंग से कार्य करते हैं, लापरवाही से पेश आते हैं और संयम नहीं बरतते हैं। वे मूलतः अविश्वासी और छद्म-विश्वासी हैं, और वे जो कुछ भी करें, काम बिगाड़ देते हैं। लिहाजा ऐसे लोग परमेश्वर के घर को नुकसान तो पहुँचाते ही हैं, अपने उद्धार का अवसर भी गँवा देते हैं। इस प्रकार वे कर्तव्य निभाने की अपनी योग्यता समाप्त करा बैठते हैं। इसका मतलब है कि उन्हें बेनकाब करके हटा दिया गया है, जो एक दुखद मामला है। उनमें से कुछ पश्चात्ताप करना चाहते हैं, लेकिन क्या तुम लोगों को लगता है कि उन्हें मौका मिलेगा? एक बार हटा दिए जाने के बाद वे अपना मौका खो चुके होंगे। और एक बार परमेश्वर द्वारा त्याग दिए जाने के बाद उनके लिए अपना उद्धार करना लगभग असंभव हो जाएगा।
परमेश्वर किस तरह के व्यक्ति को बचाता है? तुम कह सकते हो कि उन सभी में जमीर और विवेक होता है और वे सत्य स्वीकार सकते हैं, क्योंकि सिर्फ जमीर और विवेक से युक्त लोग ही सत्य स्वीकार कर उसे संजो पाते हैं, और अगर वे सत्य समझते हैं तो उसका अभ्यास कर सकते हैं। जमीर और विवेक से रहित लोग वे होते हैं, जिनमें मानवता का अभाव होता है; बोलचाल की भाषा में हम कहते हैं कि वे गुणरहित हैं। गुणरहित होने की प्रकृति क्या होती है? वह मानवता से रहित प्रकृति होती है, और ऐसी प्रकृति वाला व्यक्ति मानव कहलाने के योग्य नहीं होता। जैसी कि कहावत है, एक व्यक्ति के पास सद्गुणों के अलावा किसी भी चीज़ की कमी हो सकती है, वे अब मनुष्य नहीं हैं, बल्कि मनुष्य के रूप में जानवर हैं। उन दानवों और दानव-राजाओं को देखो, जो परमेश्वर का विरोध करने और उसके चुने हुए लोगों को सिर्फ नुकसान पहुँचाने का ही काम करते हैं। क्या वे गुणरहित नहीं हैं? हैं; उनमें वास्तव में गुण नहीं है। जो लोग बहुत-से ऐसे काम करते हैं जिनमें सद्गुणों की कमी है, उन्हें निःसंदेह प्रतिशोध का सामना करना पड़ेगा। जिनमें सद्गुणों का अभाव है वे मानवता से रहित हैं; वे अपने कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे निभा सकते हैं? वे कर्तव्य निभाने योग्य नहीं हैं क्योंकि वे जानवर हैं। जिन लोगों में सद्गुणों की कमी होती है वे कोई भी कर्तव्य अच्छे से नहीं निभाते। ऐसे लोग इंसान कहलाने लायक नहीं हैं। वे जानवर हैं, इंसान के रूप में जानवर। केवल विवेक और अंतरात्मा वाले लोग ही मानवीय मामलों को सँभाल सकते हैं, अपनी बात के प्रति सच्चे, भरोसेमंद और “ईमानदार सज्जन” कहलाने योग्य हो सकते हैं। “ईमानदार सज्जन” शब्द का प्रयोग परमेश्वर के घर में नहीं किया जाता है। इसके बजाय परमेश्वर का घर लोगों से ईमानदार होने की अपेक्षा करता है, क्योंकि यही सत्य है। केवल ईमानदार लोग ही भरोसेमंद होते हैं, उनके पास विवेक और अंतरात्मा होती है और वे इंसान कहलाने योग्य होते हैं। यदि कोई अपने कर्तव्य निभाते हुए सत्य स्वीकार सकता है और सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकता है, अपने कर्तव्य मानक स्तर पर निभा सकता है तो यह व्यक्ति सचमुच ईमानदार और भरोसेमंद है। और जो लोग परमेश्वर से उद्धार प्राप्त कर सकते हैं वे ईमानदार लोग हैं। एक ईमानदार और भरोसेमंद व्यक्ति होने का संबंध तुम्हारी क्षमताओं या चेहरे-मोहरे से नहीं है, तुम्हारी काबिलियत, योग्यता या प्रतिभा से तो और भी कम है। अगर तुम सत्य स्वीकारते हो, जिम्मेदारी से कार्य करते हो, तुम्हारे पास अंतरात्मा और विवेक है और तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हो, तो यह पर्याप्त है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसी व्यक्ति के पास कितनी क्षमताएँ हैं, असली चिंता यह है कि उसमें सद्गुण की कमी है कि नहीं। एक बार जब कोई सद्गुण रहित हो जाता है, तो वह मनुष्य नहीं बल्कि जानवर माना जाएगा। परमेश्वर के घर से लोग इसलिए हटा दिए जाते हैं क्योंकि उनमें मानवता और सद्गुण भी नहीं होते। इसलिए, जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं उन्हें सत्य स्वीकारने में सक्षम होना चाहिए, ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए, उनके पास कम-से-कम अंतरात्मा और विवेक होना चाहिए, उन्हें अपने कर्तव्य अच्छी तरह निभाने और परमेश्वर का आदेश पूरा करने में सक्षम होना चाहिए। केवल यही लोग परमेश्वर का उद्धार प्राप्त कर सकते हैं; ये लोग ही उस पर ईमानदारी से विश्वास करते हैं और ईमानदारी से खुद को उसके लिए खपाते हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर बचाता है।
क्या तुम लोग काम करते समय और अपने कर्तव्य निभाते समय अपने व्यवहार और इरादों की बार-बार जाँच करते हो? (शायद ही कभी।) यदि तुम शायद ही कभी अपनी जाँच करते हो, तो क्या तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव पहचान सकते हो? क्या तुम अपनी वास्तविक स्थिति को समझ सकते हो? यदि तुम सचमुच भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हो, तो इसके दुष्परिणाम क्या होंगे? तुम्हें इन सभी चीजों के बारे में बहुत स्पष्ट होना चाहिए। यदि कोई अपनी जाँच नहीं करता, लगातार अनमने ढंग से और रत्तीभर सिद्धांत के बिना काम करता है, तो इसके परिणामस्वरूप वह कई बुराइयाँ करेगा और बेनकाब करके हटा दिया जाएगा। क्या यह गंभीर परिणाम नहीं है? आत्म-परीक्षण ही इस समस्या को हल करने का तरीका है। मुझे बताओ, चूँकि मानव भ्रष्टाचार बहुत गहरे तक व्याप्त है तो क्या यह स्वीकार्य है कि हम अक्सर आत्म-चिंतन न करें? क्या कोई अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करने के लिए सत्य खोजे बिना अपने कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकता है? यदि भ्रष्ट स्वभाव न सुलझाए गए तो गलत काम करना, सिद्धांतों का उल्लंघन करना और यहाँ तक कि बुराई करना भी आसान है। यदि तुम कभी भी आत्म-परीक्षण नहीं करते तो यह परेशानी भरा है—तुम किसी अविश्वासी से अलग नहीं हो। क्या बहुत-से लोगों को सिर्फ इसी कारण से हटा नहीं दिया जाता? सत्य का अनुसरण करते समय इसे हासिल करने के लिए व्यक्ति को किस प्रकार अभ्यास करना चाहिए? महत्वपूर्ण बात यह है कि अपना कर्तव्य निभाते समय बार-बार अपनी जाँच करो, यह चिंतन करो कि क्या किसी ने सिद्धांतों का उल्लंघन कर भ्रष्टता प्रकट की है, और क्या उसके इरादे गलत हैं। यदि तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार आत्म-चिंतन करो और देखो कि वे तुम पर कैसे लागू होते हैं तो खुद को जानना आसान हो जाएगा। यदि तुम इस तरह से आत्म-चिंतन करते हो तो धीरे-धीरे तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव दूर होते जाएँगे और तुम्हारे दुष्ट विचार और बुरे इरादे और प्रेरणाएँ भी आसानी से हल हो जाएँगी। अगर तुम कुछ गड़बड़ी होने, कोई गलती करने या कोई बुराई करने के बाद ही जाँच करते हो, तो थोड़ी देर हो चुकी होगी। परिणाम पहले ही घटित हो चुके हैं, और यह एक अपराध है। यदि तुम बहुत अधिक बुराई करने और हटा दिए जाने के बाद ही अपनी जाँच करते हो, तो बहुत देर हो जाएगी और तुम रोने-धोने और दाँत पीसने के सिवाय और कुछ नहीं कर पाओगे। जो लोग सचमुच परमेश्वर में विश्वास करते हैं वे अपने कर्तव्य निभा सकते हैं—यह परमेश्वर का उत्कर्ष और आशीष है, और यह एक अवसर है जिसे तुम्हें सँजोना चाहिए। इसलिए तुम्हें अपने कर्तव्यों का पालन करते समय और भी निरंतर आत्म-चिंतन करना चाहिए। तुम्हें अक्सर जाँच करनी चाहिए, सभी मामलों में जाँच करनी चाहिए। तुम्हें अपने इरादों और अपनी दशा की जाँच करनी चाहिए, यह देखना चाहिए कि क्या तुम परमेश्वर के सामने रहते हो, क्या तुम्हारे कार्यों के पीछे के इरादे उचित हैं और क्या तुम्हारे कार्यों के उद्देश्य और स्रोत दोनों परमेश्वर के निरीक्षण में टिक सकते हैं और क्या इन्हें परमेश्वर की पड़ताल के अधीन लाया गया है। कभी-कभी लोगों को लगता है कि अपने कर्तव्य निभाते हुए कठिनाइयाँ पेश आने पर सत्य खोजना बोझिल हो जाता है। वे सोचते हैं, “यह चलेगा। यह लगभग वैसा ही है।” यह चीजों को लेकर व्यक्ति का रवैया और अपने कर्तव्य के प्रति मानसिकता दर्शाता है। यह मानसिकता एक प्रकार की दशा है। यह दशा क्या है? क्या यह दायित्व बोध के बिना कर्तव्य निभाना नहीं हुआ, एक प्रकार का अनमना रवैया नहीं हुआ? (बिल्कुल।) इतनी गंभीर समस्या होने के बावजूद अपनी जाँच न करना बहुत खतरनाक है। कुछ लोग इस दशा के प्रति उदासीन रहते हैं। उन्हें लगता है, “थोड़ा अनमना होना सामान्य बात है, लोग ऐसे ही होते हैं। इसमें समस्या क्या है?” क्या ये उलझे हुए लोग नहीं हैं? क्या चीजों को इस तरह से देखना व्यक्ति के लिए बहुत खतरनाक नहीं है? उन लोगों को देखो जिन्हें हटा दिया गया है। क्या वे अपने कर्तव्य हमेशा अनमने ढंग से नहीं निभाते हैं? जब कोई अनमना होता है तो यही होता है। जो लोग आसानी से अनमने हो जाते हैं वे देर-सवेर खुद को बर्बाद करके रहेंगे और वे जब तक अपनी कब्र नहीं देख लेते तब तक एक आँसू नहीं गिराते हैं। अनमने तरीके से कर्तव्य निभाना गंभीर समस्या है, और यदि तुम अपने बारे में अच्छी तरह आत्म-चिंतन कर समस्याएँ हल करने के लिए सत्य नहीं खोज सकते तो यह वास्तव में बेहद खतरनाक है—तुम्हें किसी भी समय हटाया जा सकता है। यदि कोई ऐसी गंभीर समस्या मौजूद है और फिर भी तुम खुद की जाँच नहीं करते और उसका समाधान करने के लिए सत्य की खोज नहीं करते, तो तुम खुद को नुकसान पहुँचाकर बर्बाद कर दोगे, और जब तुम्हें हटाए जाने का दिन आएगा और तुम रोना-धोना और दाँत पीसना शुरू कर दोगे और तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।
अंश 33
कुछ लोग नहीं जानते कि परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे करें और नहीं जानते कि उसके वचनों को अपने कर्तव्यों के निर्वहन में या वास्तविक जीवन में कैसे लाएँ। वे सत्य हासिल करने तथा जीवन में विकास करने के लिए हमेशा कई सभाओं में जाने पर ही भरोसा करते हैं। लेकिन, यह अवास्तविक है और ऐसा तर्क है जिसमें कोई दम नहीं है। जीवन परमेश्वर के वचनों का अनुभव करने से और न्याय तथा ताड़ना का अनुभव करने से मिलता है। जो लोग उसके कार्य का अनुभव करना जानते हैं, वे चाहे कोई भी कर्तव्य निभाएँ, अपने कर्तव्य निभाते हुए वे सत्य को समझने तथा व्यवहार में लाने में, काट-छाँट को स्वीकारने में, सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में, अपने स्वभाव में बदलाव कर पाने में और परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जा सकने में सक्षम होते हैं। जो आलसी और आराम खोजने वाले लोग होते हैं, वे कर्तव्यों का निर्वहन करना नहीं चाहते और अपने कर्तव्य करते समय परमेश्वर के कार्यों का अनुभव नहीं करते, बल्कि लगातार ये माँग करते रहते हैं कि परमेश्वर के घर से उन्हें सभाएँ, धर्मोपदेश और सत्य के बारे में संगति प्रदान की जाएँ। इसके कारण, दस या बीस वर्ष तक विश्वास करते रहने और अनगिनत धर्मोपदेश सुनने के बाद भी वे सत्य नहीं समझ पाते या सत्य हासिल नहीं कर पाते हैं। वे नहीं जानते हैं कि परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे किया जाए, नहीं समझते कि परमेश्वर पर विश्वास करना क्या होता है और नहीं जानते कि स्वयं को जानने के लिए और सत्य तथा जीवन को पाने के लिए परमेश्वर के वचनों का अनुभव कैसे किया जाए। वे आरामतलब और अपने कर्तव्य से जी चुराने वाले लोग होते हैं; इसलिए वे जिस तरह अपना कर्तव्य निभाते हैं उसके कारण उन्हें बेनकाब करके हटा दिया जाता है। अब जो अपने कर्तव्य पूरे करने से संतुष्ट होते हैं, और जो सत्य के अनुसरण को महत्व देते हैं, उन सभी के पास अपने कर्तव्य निभाते हुए कुछ जीवन प्रवेश होता है, जब वे भ्रष्टता दिखाते हैं तो वे खुद को जानने के लिए चिंतन करते हैं, और जब अपने कर्तव्य निभाते हुए उनका मुश्किलों से सामना होता है वे समस्याओं का समाधान पाने के लिए सत्य खोजते और सत्य पर संगति करते हैं। अनजाने में ही, कई वर्षों तक अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए, वे स्पष्ट पुरस्कार भी पाते हैं, वे कुछ अनुभवजन्य गवाही की बात कर सकते हैं, परमेश्वर के कार्य और उसके स्वभाव का कुछ ज्ञान रखते हैं और इस तरह अपने जीवन स्वभाव में बदलाव लाते हैं। वर्तमान में, हर जगह की कलीसिया बुरे लोगों से और उन लोगों से खुद को स्वच्छ कर रही है, जो विघ्न डालते हैं और बाधाएँ उत्पन्न करते हैं। जो लोग बचे हैं, वे आमतौर पर ऐसे लोग हैं जो अपने कर्तव्य पूरे करने में लगे रहने में समर्थ हैं, उनमें एक स्तर की लगन है और वे समस्याओं के समाधान के लिए सत्य खोजने को महत्व देते हैं। वे ऐसे लोग होते हैं जो अपनी गवाही में अडिग रह सकते हैं। तुम लोगों को यह सीखना चाहिए कि तुम परमेश्वर के वचनों को वास्तविक जीवन में और अपने उन कर्तव्यों में उतारो जिन्हें तुम निभाते हो, उनका अभ्यास करो और उन्हें उपयोग में लाओ और जब समस्याएँ और मुश्किलें आएँ तो उनके समाधान के लिए सत्य खोजो। इसके अतिरिक्त, तुम्हें अपने कर्तव्य पूरे करते समय परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना भी सीखना चाहिए और सत्य को अभ्यास में लाने तथा हर मामले में चीजों को सिद्धांतों के अनुसार संचालित करने में प्रशिक्षण लेना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर से प्रेम करना सीखना चाहिए और परमेश्वर-प्रेमी हृदय रखते हुए उसके बोझ के प्रति विचारशील होना चाहिए और उस बिंदु तक पहुँचना चाहिए जहाँ तुम उसे संतुष्ट कर सकते हो। केवल यही वह व्यक्ति है जो परमेश्वर से सच्चा प्यार करता है। इस तरह कार्य करके भले ही तुम सत्य को पूरी तरह न समझो, फिर भी तुम इस ढंग से अपने कर्तव्य को निभाने में समर्थ होते हो जो मानक स्तर का हो और तुम न केवल अपने अनमनेपन का समाधान कर सकते हो, बल्कि अपने कर्तव्य करते समय परमेश्वर से प्रेम करना, उसके प्रति समर्पण करना और उसे संतुष्ट करना भी सीख सकते हो—यही जीवन प्रवेश का पाठ है। अगर तुम सत्य का अभ्यास कर सकते हो और हर मामले में इस तरह से सिद्धांतों के अनुरूप काम कर सकते हो तो तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर रहे हो और तुम्हारे पास जीवन प्रवेश होगा। भले ही तुम अपने कर्तव्य पूरे करने में कितने भी व्यस्त रहो, लेकिन जब तुम्हें जीवन प्रवेश का फल मिलेगा, जीवन का विकास होगा और परमेश्वर के आयोजन तथा व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर सकोगे, तब तुम्हें अपने कर्तव्य निभाते हुए आनंद प्राप्त होगा। चाहे तुम कितने भी व्यस्त रहो, तुम्हें थकान महसूस नहीं होगी। तुम्हारे दिल में हमेशा शांति और खुशी रहेगी और तुम्हें खास तौर से समृद्धि और स्थिरता महसूस होगी। चाहे जितनी भी मुश्किलें आएँ, जब तुम सत्य खोजोगे, तब पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध कर तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा। तब तुम्हें परमेश्वर का आशीष प्राप्त होगा। इसके बाद, अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय चाहे तुम व्यस्त रहो या नहीं, अवसर के उपयुक्त कसरत तथा विवेकपूर्ण दुरुस्ती गतिविधियों में शामिल होना महत्वपूर्ण है। इससे परिसंचरण बढ़ेगा, उच्च ऊर्जा स्तर बनाए रखने में मदद मिलेगी और यह पेशे से जुड़े कुछ रोगों से बचाव में असरदार साबित हो सकता है। यह तुम्हारे कर्तव्यों के अच्छी तरह निर्वहन के लिए भी बहुत फायदेमंद है। इसलिए, अपने कर्तव्य करते समय, अगर तुम कई चीजों को सीख सकते हो, कई सत्यों की समझ हासिल कर सकते हो, परमेश्वर को सच में जानते हो और अंततः परमेश्वर का भय मानते तथा बुराई से दूर रहते हो तो तुम पूरी तरह उसके इरादों के अनुरूप चलोगे। अगर तुम परमेश्वर से प्रेम कर सकते हो, उसके लिए गवाही दे सकते हो और दिल तथा दिमाग से उसके साथ एक हो सकते हो तो तुम उसके द्वारा पूर्ण बनाए जाने के पथ पर चल रहे हो। ऐसे ही व्यक्ति को परमेश्वर का आशीष प्राप्त होता है और यह बहुत बड़ा वरदान है! अगर तुम परमेश्वर के लिए खुद को ईमानदारी से खपाते हो तो तुम्हें निश्चय ही उससे खूब सारा आशीष प्राप्त होगा। जो खुद को परमेश्वर के लिए नहीं खपाते और अपने कर्तव्य पूरे नहीं करते, क्या वे सत्य को हासिल कर सकते हैं? क्या उनका उद्धार हो सकता है? यह कहना कठिन है। सभी आशीष अपने कर्तव्य का निर्वहन करने और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने से ही प्राप्त हो सकते हैं। अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने के क्रम में ही व्यक्ति जान पाता है कि परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे करें और न्याय तथा ताड़ना, परीक्षण और शोधन, और काट-छाँट का अनुभव कैसे करें। ये चीजें आशीष पाने के सबसे योग्य हैं। तो अगर लोग सत्य से प्रेम करेंगे और इसका अनुसरण करेंगे, वे अंततः इसे प्राप्त कर लेंगे, अपने जीवन स्वभाव में बदलाव कर पाएँगे, परमेश्वर की मंजूरी पा लेंगे और वह व्यक्ति बन जाएँगे, जिसे परमेश्वर आशीष देता है।
कुछ लोग अपने कर्तव्य पूरे करते समय कोई बात होने पर सत्य की तलाश नहीं करते, हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार जीते हैं, अपनी व्यक्तिगत पसंद के अनुसार काम करते हैं और आँखें मूँदे सिर्फ अपनी इच्छानुसार काम करते हैं। इसके कारण वे कई गलतियाँ कर जाते हैं और कलीसिया के काम में देरी करते हैं। जब उनकी काट-छाँट की जाती है, तब भी वे सत्य को स्वीकार नहीं करते और अपना मनमाना तथा लापरवाही भरा व्यवहार जारी रखते हैं। इसके परिणामस्वरूप, वे पवित्र आत्मा के कार्य को गँवा देते हैं और परमेश्वर में उनका विश्वास भ्रमित हो जाता है और उसे अंधकार घेर लेता है। कुछ लोग प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भागना पसंद करते हैं, खुद को इन चीजों में व्यस्त रखते हैं और परमेश्वर के इरादों पर विचार नहीं करते या सत्य पर किसी भी संगति को स्वीकार नहीं करते। अंततः उन्हें बेनकाब करके हटा दिया जाता है और वे अंधेरे में गिर जाते हैं। परमेश्वर में विश्वास करने वाले कुछ लोग परमेश्वर के देहधारण को स्वीकार करते हैं, फिर भी दिल से वे केवल स्वर्ग में रहने वाले परमेश्वर और परमेश्वर के आत्मा में विश्वास करते हैं। व्यावहारिक परमेश्वर के बारे में उनकी धारणाएँ लगातार बनी रहती हैं और दिल से उनके प्रति सतर्क रहते हैं, वे डरते रहते हैं कि उसे उनकी सच्चाई पता चल जाएगी। वे हर मोड़ पर परमेश्वर से बचते हैं और जब वे उसे देखते हैं तो इस तरह देखते हैं मानो वह कोई अजनबी हो। इसके कारण कई वर्षों के विश्वास के बाद भी, उन्हें कुछ नहीं मिलता और उनमें उसके प्रति थोड़ी-सी भी आस्था नहीं होती। उनमें और छद्म-विश्वासियों में कोई अंतर नहीं होता। ऐसा पूरी तरह इसलिए होता है, क्योंकि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते। कुछ लोग लगातार व्यावहारिक परमेश्वर को देखना चाहते हैं। वे परमेश्वर को प्रसन्न करने को लालायित होते हैं और चाहते हैं कि वह उनके रुतबे को बढ़ा दे, ताकि कलीसिया में वे अपना रौब झाड़ सकें। परिणामस्वरूप, उनकी बेईमानी, स्पष्टवादिता की कमी, परमेश्वर के चेहरे का लगातार अवलोकन करते रहने और उसके अभिप्राय को लेकर अटकलें लगाते रहने के कारण, वे उसके द्वारा ठुकरा दिए जाते हैं। परमेश्वर ऐसे लोगों को और देखना नहीं चाहता। इन लोगों के परमेश्वर में विश्वास करने का उद्देश्य क्या है? परमेश्वर इतना अधिक सत्य बता रहा है, फिर भी वे उसकी जाँच क्यों कर रहे हैं? यदि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे सत्य का अनुसरण क्यों नहीं करते? वे लगातार इतने महत्वाकांक्षी और इतने अभिलाषी क्यों होते हैं, प्रसिद्धि, धन, रुतबे, लाभ और फायदे के पीछे क्यों भागते रहते हैं? परमेश्वर में विश्वास करने का उनका प्रयोजन दुर्भावनापूर्ण होता है और लोगों को वे गूढ़ लगते हैं। ये सभी छद्म-विश्वासियों के व्यवहार हैं। सच कहें तो, जो भी व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास करता है लेकिन सत्य स्वीकार नहीं कर सकता, वह छद्म-विश्वासी ही है। केवल सत्य का अनुसरण करने, अपने कर्तव्यों का अच्छी तरह पालन करने का प्रयास करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने की चाह रखने वाले लोग ही परमेश्वर में सच्चा विश्वास रखते हैं और उसकी स्वीकृति प्राप्त करने में समर्थ होते हैं।
अब, तुम लोगों के जीवन का हर दिन और हर वर्ष मूल्यवान है। यह मूल्य कहाँ है? जब कोई व्यक्ति सृष्टिकर्ता के समक्ष आता है, सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाता है और सृष्टिकर्ता से सत्य प्राप्त करता है, तो वह परमेश्वर की नजरों में उपयोगी बन जाता है। क्या परमेश्वर की प्रबंधन योजना में तुम्हारे विनीत प्रयासों का योगदान ही वह चीज नहीं है, जो तुम्हारे जीवन के प्रत्येक दिन को मूल्यवान बनाती है? (हाँ, है।) यह जीवन के प्रत्येक दिन का मूल्य है और यह मूल्यवान है! यदि तुम्हारे जीवन का प्रत्येक दिन का इतना मूल्य है, तो अपने कर्तव्यों का पालन करते समय थोड़ी-सी पीड़ा या बीमारी से क्या फर्क पड़ता है? लोगों को इसकी शिकायत नहीं करनी चाहिए। लोगों ने परमेश्वर की उपस्थिति में होने से बहुत कुछ हासिल किया है; वे ऐसे अनुग्रह और आशीष व सुरक्षा का आनंद लेते हैं, जो दिखाई नहीं देती और उनकी कल्पना व देखने की क्षमता से परे होती है। लोगों को इतना कुछ मिला है—कोई छोटी-मोटी बीमारी क्या मायने रखती है? क्या यह वह सबक नहीं है, जो लोगों को सीखना चाहिए? यदि बीमारी के चलते कोई सत्य समझ सकता है, परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकता है और उसे संतुष्ट कर सकता है, तो क्या यह उससे मिला एक और आशीष नहीं है? संसार में जीवनयापन करने वालों में से किसे शारीरिक पीड़ा नहीं होती? अगर उन्हें कोई बीमारी है तो इसकी परवाह कौन करता है? किसी को परवाह नहीं होती, कोई नहीं पूछता और उन्हें आश्वासन देने वाला कोई नहीं होता। क्या परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य पूरे करने वाले तुम लोगों के पास आश्वासन है? (हाँ।) जो लोग परमेश्वर के लिए खुद को ईमानदारी से खपाते हैं, वे सभी आश्वस्त होते हैं और उन्हें उसके आशीष मिलते हैं। तुम लोग किस प्रकार के आश्वासन को देखते और पहचानते हो? (मैं अब दुनिया की बुरी प्रवृत्तियों से प्रभावित या विषाक्त नहीं होता हूँ; मैं अविश्वासियों के डराने-धमकाने और नुकसान पहुँचाने से दूर हो गया हूँ और मुझे सभी चीजों में परमेश्वर की सुरक्षा और आशीष प्राप्त हैं। मुझे अब बड़ा लाल अजगर पकड़ नहीं सकता, न उत्पीड़न कर सकता है। मैं परमेश्वर के घर में रहूँगा, अन्य भाइयों और बहनों से बातचीत करूँगा, और मेरे दिल में शांति, आनंद और स्थिरता रहेगी। मैं हर दिन, परमेश्वर के वचन खाऊँगा-पीऊँगा और सत्य पर संगति करता रहूँगा और मेरा दिल उज्जवल होता चला जाएगा। सत्य समझने के बाद, मेरा दिल विशेष रूप से आनंद से भर गया है, मेरी आत्मा को स्वतंत्रता और मुक्ति मिल गई है और मुझे अब बुरे तथा धोखेबाज लोग धोखा नहीं दे पाते या नुकसान नहीं पहुँचा पाते। इसके अलावा, परमेश्वर की सुरक्षा और आशीष देखने के बाद, अब मैं विपदा आने पर डरता नहीं; मेरे दिल में स्थिरता और शांति बनी रहती है। मैंने इस तरह की चिंताएँ छोड़ दी हैं कि भविष्य में मेरी बुनियादी जरूरतें पूरी होंगी या नहीं और जब मैं बूढ़ा हो जाऊँगा तो कोई मेरा भरण-पोषण करेगा या नहीं। परमेश्वर की उपस्थिति में जीना वास्तव में एक आशीष और आनंद है!) तुम लोग अभी सीमित बातें महसूस कर पा रहे हो, लेकिन महाविनाशों के बाद तुम लोग बहुत-सी बातों को स्पष्ट रूप से समझ और देख सकोगे। यह सब परमेश्वर की सुरक्षा और उसका आशीष है। वर्तमान में, तुम लोगों को भले ही काट-छाँट का कभी-कभी अनुभव होता है और तुम्हें परीक्षण और शोधन से गुजरना पड़ता है और कभी-कभी परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव होता है और उसके वचनों से पीड़ा होती है, लेकिन यह पीड़ा उद्धार पाने और पूर्ण बनाए जाने के लिए है—यह अविश्वासियों को होने वाली पीड़ा जैसी नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्यों का पालन करके, तुम एक उपयोगी सृजित प्राणी बन जाते हो और मूल्यवान व सार्थक जीवन जीते हो—देह के लिए और शैतान के लिए जीने के बजाय, तुम सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए जीते हो। अपने कर्तव्यों को निभाने के दौरान, तुम्हें कई सत्यों और परमेश्वर के इरादों की समझ हासिल हो जाती है। यह सबसे मूल्यवान चीज है। जब तुम सत्य समझ जाते हो, सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर जाते हो और सत्य को जीवन के रूप में प्राप्त कर लेते हो, तो तुम परमेश्वर की उपस्थिति में रह रहे होगे और रोशनी में जी रहे होगे। अब तुम प्रतिदिन अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे हो और तुम्हारे जीवन का हर दिन फलदायी और मूल्यवान है। तुमने सत्य को भी पा लिया है और परमेश्वर की उपस्थिति में जीते हो। क्या यह आश्वासन का होना है? (हाँ।) यह आश्वासन क्या है? (शैतान के कब्जे में न आना।) शैतान के कब्जे में न आने के अलावा, इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात क्या है? परमेश्वर ने तुम्हें मनुष्य बनाया और अब तुम अपना कर्तव्य निभा पा रहे हो, उसके इरादों को समझते हो, तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है, उसके मार्ग का अनुसरण करते हो और उसके इरादों के अनुसार जीवन जीते हो। परमेश्वर ने तुम्हें स्वीकार किया है और यह तुम्हारा आश्वासन और गारंटी है कि परमेश्वर तुम्हें नष्ट नहीं करेगा। क्या यह तुम्हारे जीवन की पूँजी नहीं है? इन चीजों के बिना, क्या तुम जीवित रहने की योग्यता रखते हो? (नहीं।) कोई यह योग्यता कैसे अर्जित करता है? क्या यह एक सृजित प्राणी के कर्तव्यों का निर्वहन करने, परमेश्वर के इरादे पूरे करने और उसके मार्ग का अनुसरण करने, साथ ही सत्य वास्तविकता को प्राप्त करने, और परमेश्वर के वचन को अपना जीवन मानने के द्वारा अर्जित नहीं होता है? (हाँ।) इन चीजों के कारण तुम उसकी आराधना करने में समर्थ हो और उसकी नजर में तुम एक मानक स्तर के सृजित प्राणी हो। वह तुमसे कैसे प्रसन्न नहीं हो सकता? वे लोग कौन हैं, जिन्हें परमेश्वर नष्ट करना चाहता है? वे किस प्रकार के सृजित प्राणी हैं? (कुकर्मी।) जो कोई भी कुकर्म करता है, वह परमेश्वर का विरोध करता है और उससे शत्रुता रखता है—ऐसे लोग परमेश्वर के शत्रु हैं और वे सबसे पहले नष्ट होंगे। मसीह-विरोधी, जो रुतबे के लिए परमेश्वर से प्रतिस्पर्धा करते हैं, छद्म-विश्वासी; वे लोग, जो सत्य से विमुख हो चुके हैं, जो परमेश्वर से शत्रुता रखते हैं, सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं और अंत तक उसका विरोध करते हैं और जो सृजित प्राणियों के रूप में किसी भी स्तर पर अपना कर्तव्य नहीं निभा सकते—ये सभी वे लोग हैं, जिन्हें परमेश्वर नष्ट करना चाहता है। कुछ लोग, जो अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते हैं, छद्म-विश्वासी होते हैं। दूसरे लोग भले ही अपने कर्तव्यों का पालन करते भी हैं, तो भी लगातार अनमने बने रहते हैं, वे बुराई करने और बाधा उत्पन्न करने में सक्षम होते हैं और परमेश्वर का विरोध और प्रतिरोध करते हैं। क्या ऐसे लोग परमेश्वर की दृष्टि में मानक स्तर के सृजित प्राणी माने जा सकते हैं? (नहीं, वे नहीं माने जा सकते।) जिन्हें मानक स्तर का सृजित प्राणी नहीं माना जाता है, अंततः उनका नतीजा क्या होगा? (परमेश्वर उन्हें हटा देगा और नष्ट कर देगा।) क्या ऐसे सृजित प्राणियों के जीवन का कोई मूल्य है जो मानक स्तर के नहीं माने जाते हैं? (नहीं।) हो सकता है कि उन्हें लगे, “मेरा जीवन मूल्यवान है। मैं जीना चाहता हूँ। मैं अपने जीवन में अच्छे काम कर सकता हूँ!” लेकिन परमेश्वर की नजर में वे सृजित प्राणी के रूप में अपना बुनियादी कर्तव्य तक नहीं निभा सकते। यदि वे अपना कर्तव्य एक ऐसे ढंग से नहीं निभा सकते जो मानक स्तर का हो तो क्या उनका जीवन जीने लायक है? क्या उनके अस्तित्व का कोई मूल्य है? यदि उनके अस्तित्व का कोई मूल्य नहीं है तो क्या परमेश्वर अभी भी उन्हें चाहेगा? (नहीं।) परमेश्वर क्या करेगा? वह उन्हें हटा देगा। हल्के मामलों को अलग कर दिया जाएगा और अशुद्ध दानवों और बुरी आत्माओं को सौंप दिया जाएगा, जबकि गंभीर मामले वालों को दंड मिलेगा और इससे भी अधिक गंभीर मामले वालों को नष्ट कर दिया जाएगा।
अंश 34
अपने कर्तव्य के निर्वहन में, कुछ लोग कोई कष्ट सहने को तैयार नहीं रहते, और कोई भी समस्या सामने आने पर, वे शिकायत करते हैं कि यह कठिन है और कीमत चुकाने से इनकार कर देते हैं। यह कैसा रवैया है? यह अनमना रवैया है। अगर तुम अपना कर्तव्य अनमने होकर निभाओगे, इसे अनादर के भाव से देखोगे तो इसका क्या नतीजा मिलेगा? तुम एक ऐसे कर्तव्य में भी एक अच्छा कार्य करने में असफल रहोगे जिसे तुम अच्छे से निभाने के काबिल हो—तुम्हारा प्रदर्शन मानक-स्तरीय नहीं होगा और कर्तव्य के प्रति तुम्हारे रवैये से परमेश्वर बहुत असंतुष्ट होगा। अगर तुमने परमेश्वर से प्रार्थना की होती, सत्य खोजा होता, इसमें अपना पूरा दिल और दिमाग लगाया होता, अगर तुमने इस तरीके से सहयोग किया होता तो फिर परमेश्वर पहले ही तुम्हारे लिए हर चीज तैयार करके रखता ताकि जब तुम मामलों को सँभालने लगो तो हर चीज दुरुस्त रहे और तुम्हें अच्छे नतीजे प्राप्त हों। तुम्हें बहुत ज्यादा ताकत झोंकने की जरूरत न पड़ती; तुम हर संभव सहयोग करते तो परमेश्वर तुम्हारे लिए पहले ही हर चीज की व्यवस्था करके रखता। अगर तुम धूर्त और सुस्त हो, अगर तुम अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाते और हमेशा गलत रास्ते पर चलते हो तो फिर परमेश्वर तुम में कार्य नहीं करेगा; तुम यह अवसर खो बैठोगे और परमेश्वर कहेगा, “तुम किसी काम के नहीं हो; मैं तुम्हारा उपयोग नहीं कर सकता। जाकर एक तरफ खड़े हो जाओ। तुम्हें चालाक बनना और सुस्ती बरतना पसंद है, है न? तुम्हें आलसी होना और आराम में लिप्त होना पसंद है, है न? तो फिर ठीक है, हमेशा आराम में ही लिप्त रहो!” परमेश्वर यह अनुग्रह और अवसर किसी और को देगा। तुम लोग क्या कहते हो : यह हानि है या लाभ? (हानि।) यह बहुत बड़ी हानि है!
जो लोग परमेश्वर से सच्चा प्रेम करते हैं और जो सत्य का अनुसरण करते हैं, परमेश्वर उन सभी लोगों को विभिन्न प्रकार के परिवेशों में पूर्ण बनाता है। वह लोगों को इस लायक बनाता है कि वे विभिन्न परिवेशों या परीक्षणों के जरिये उसके वचनों का अनुभव कर सकें, इससे सत्य की समझ और परमेश्वर का सच्चा ज्ञान हासिल कर सकें, और अंततः सत्य हासिल कर सकें। अगर तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव इस ढंग से कर लो तो तुम्हारा जीवन स्वभाव बदल जाएगा, और तुम सत्य और जीवन हासिल कर लोगे। इन वर्षों के अनुभव से तुम लोगों ने बहुत कुछ हासिल किया है? (हाँ।) तो क्या अपना कर्तव्य करते हुए थोड़ा-सा कष्ट सहना और थोड़ी-सी कीमत चुकाना सार्थक नहीं है? तुम्हें बदले में क्या हासिल हुआ है? तुम बहुत सारा सत्य समझ चुके हो। यह अनमोल खजाना है! परमेश्वर पर विश्वास करके लोग क्या पाना चाहते हैं? क्या इसका उद्देश्य सत्य और जीवन हासिल करना नहीं है? क्या तुम्हें लगता है कि इन परिवेशों का अनुभव किए बिना तुम सत्य हासिल कर लोगे? बिल्कुल भी नहीं कर सकते। मान लो, जब तुम्हारे साथ कुछ खास कठिनाइयाँ आती हैं या तुम कुछ खास परिवेशों का सामना करते हो, तुम्हारा रवैया हमेशा एक जैसा होता है—तुम उनसे बचने या भागने की कोशिश करते हो, उन्हें नकारने और उनसे छुटकारा पाने की हताशपूर्ण कोशिश करते हो—तुम खुद को परमेश्वर के आयोजनों की दया पर नहीं छोड़ना चाहते, उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण के लिए अनिच्छुक रहते हो, सत्य को अपना स्वामी बनने देना नहीं चाहते हो, हमेशा खुद आखिरी फैसले लेना चाहते हो और अपने शैतानी स्वभाव पर भरोसा कर खुद से जुड़ी हर चीज को नियंत्रित करना चाहते हो। अगर बात ऐसी है तो इसके परिणाम यह होंगे कि परमेश्वर तुम्हें यकीनन दरकिनार कर देगा या शैतान को सौंप देगा और यह होना बस समय की बात है। अगर लोग यह बात समझ जाएँ तो उन्हें तुरंत पीछे मुड़ जाना चाहिए और परमेश्वर की अपेक्षा वाले सही मार्ग के अनुसार अपने जीवन की राह पर चलना चाहिए—यही रास्ता सही है और जब रास्ता सही होता है तो इसका मतलब है कि दिशा भी सही है। इस दौरान उनका सामना असफलताओं और कठिनाइयों से हो सकता है और वे लड़खड़ा सकते हैं या कभी-कभी वे कई दिनों तक थोड़ा तुनकमिजाज और नकारात्मक हो सकते हैं। जब तक वे अपना कर्तव्य निभाते रहते हैं और चीजों को लटकाते नहीं हैं तो ये सारी मामूली दिक्कतें होंगी। हालाँकि उन्हें फौरन आत्म-चिंतन कर इन समस्याओं को हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए, उन्हें बिल्कुल भी टालमटोल नहीं करनी चाहिए, न अपना काम छोड़ना चाहिए, न अपने कर्तव्य त्यागने चाहिए—यह सबसे महत्वपूर्ण है। अगर तुम मन-ही-मन यह सोचते हो, “नकारात्मक और कमजोर पड़ना कोई बड़ी बात नहीं है; यह आंतरिक मामला है। परमेश्वर को इसका पता नहीं चलता। और यह देखते हुए कि मैंने अतीत में कितने कष्ट भोगे और कितनी कीमत चुकाई, वह निश्चित रूप से मुझे क्षमा कर देगा,” और अगर यह कमजोरी और नकारात्मकता जारी रहती है, तुम सत्य नहीं खोजते या परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जो परिवेश बनाए हैं उनसे सबक नहीं लेते, तो फिर तुम बारम्बार मौके गँवाते रहोगे और नतीजतन तुम ऐसे सभी अवसर खो बैठोगे या इन्हें नाकाम और नष्ट कर दोगे जिनमें परमेश्वर तुम्हें पूर्ण बनाना चाहता है। इसका परिणाम क्या होगा? तुम्हें अपने दिल में अंधकार की भावना बढ़ने का एहसास होगा, तुम्हें अपनी प्रार्थनाओं तक में अब और परमेश्वर की अनुभूति नहीं होगी और तुम इस हद तक नकारात्मक हो जाओगे कि तुम्हारे विचार बुराई और विश्वासघात से ओतप्रोत हो जाएँगे। फिर तुम अत्यंत कष्टों में फँस जाओगे और खुद को नितांत अशक्त और परेशान पाओगे। तुम्हें लगेगा कि तुम्हारे पास न कोई मार्ग या दिशा है, न तुम कोई रोशनी देख पा रहे हो, न उम्मीद खोज पा रहे हो। क्या इस तरह के इंसान का जीवन थकान-भरा नहीं होता है? (हाँ, होता है।) अगर लोग सत्य के अनुसरण के उजले मार्ग पर नहीं चलते हैं तो वे सदा शैतान की सत्ता के अधीन रहेंगे और निरंतर पाप और अंधकार में जिएँगे, उनके लिए कोई उम्मीद नहीं बचेगी। क्या तुम लोग समझ सकते हो कि इससे मेरा क्या अर्थ है? (हमें सत्य का अनुसरण कर अपना कर्तव्य पूरे दिल और दिमाग से करना चाहिए।) जब तुम्हारे सामने कोई कर्तव्य आता है और यह तुम्हें सौंप दिया जाता है तो कठिनाइयों का सामना करने से बचने की मत सोचो; इसे इसलिए एक तरफ न रखो और अनदेखा करो क्योंकि तुम्हें इसे सँभालना कठिन लगता है। तुम्हें इसका आमना-सामना करना चाहिए। तुम्हें हर समय यह याद रखना चाहिए कि परमेश्वर लोगों के साथ है, अगर उन्हें कोई कठिनाई हो रही है तो उन्हें सिर्फ परमेश्वर से प्रार्थना करने और खोजने की जरूरत है और परमेश्वर के लिए कुछ भी पूरा करना कठिन नहीं है। तुममें यह आस्था होनी चाहिए। चूँकि तुम मानते हो कि परमेश्वर सभी चीजों का संप्रभु है तो फिर अपने साथ कोई चीज घटित होने पर तुम्हें अभी भी डर क्यों महसूस होता है और यह क्यों महसूस होता है कि तुम्हारे पास कोई सहारा नहीं है? इससे साबित होता है कि तुम परमेश्वर पर निर्भर नहीं रहते हो। अगर तुम उसे अपना सहारा और अपना परमेश्वर नहीं मानोगे तो फिर वह तुम्हारा परमेश्वर नहीं है। वास्तविक जीवन में तुम चाहे जिन स्थितियों का सामना करो, तुम्हें निरंतर प्रार्थना करने और सत्य खोजने के लिए परमेश्वर के समक्ष आना चाहिए। भले ही तुम हर दिन केवल एक मामले के माध्यम से सत्य समझो और कुछ लाभ प्राप्त करो तो भी दिन व्यर्थ नहीं होगा! अभी तुम लोग एक दिन में कितने समय के लिए परमेश्वर के समक्ष आ पा रहे हो? एक दिन में कितनी बार परमेश्वर के समक्ष आते हो? क्या तुम्हें कोई नतीजा मिला है? अगर कोई व्यक्ति शायद ही कभी परमेश्वर के पास आता है तो उसकी आत्मा मुरझाई महसूस होगी और बहुत अंधकारमय हो चुकी होगी। जब सब कुछ सही चल रहा होता है तो लोग परमेश्वर से दूर भागकर उसकी अनदेखी करते हैं, और उसे तभी खोजते हैं जब मुसीबतें आती हैं। क्या इसे परमेश्वर पर विश्वास करना कहेंगे? क्या इसे परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना कहेंगे? छद्म-विश्वासियों की यही अभिव्यक्तियाँ हैं। परमेश्वर पर इस तरह का विश्वास रखकर सत्य और जीवन हासिल करना असंभव है।
लोग सत्य नहीं समझते या इसका अभ्यास नहीं करते हैं, और वे अक्सर शैतान के भ्रष्ट स्वभावों के बीच जीते हैं और तमाम शैतानी जंजालों के बीच जीते हैं, अपने भविष्य, गौरव, रुतबे और अन्य हितों के बारे में सोचते हैं, और इन चीजों को लेकर माथापच्ची करते रहते हैं। लेकिन अगर तुम यही रवैया अपने कर्तव्य में अपनाओ, सत्य खोजने और इसका अनुसरण करने में अपनाओ, तो तुम सत्य हासिल कर सकते हो। उदाहरण के लिए, तुम तुच्छ-से व्यक्तिगत फायदे के लिए अपना दिमाग मथ डालते हो, तुम इसके बारे में हर तरह से और परिश्रम से सोचते हो, हर चीज की योजना पूर्ण रूप से बनाते हो और इसमें बहुत ज्यादा सोच-विचार और प्रयास झोंकते हो। अगर तुम इतनी ही ताकत अपना कर्तव्य निभाने और समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोजने में लगाओ, फिर देखो कि तुम्हारे प्रति परमेश्वर का रवैया कैसा है। यह बिल्कुल अलग होगा। लोग परमेश्वर के बारे में लगातार शिकायत करते रहते हैं : “वह दूसरे लोगों के प्रति अच्छा है तो मेरे प्रति क्यों नहीं है? वह मुझे कभी प्रबुद्ध क्यों नहीं करता? मैं हमेशा कमजोर क्यों हूँ? मैं उनके जितना अच्छा क्यों नहीं हूँ?” ऐसा क्यों होता है? परमेश्वर पक्षपात नहीं करता है। अगर तुम परमेश्वर के समक्ष नहीं आते और अपने सामने आने वाली चीजों को सदा अपने आप दूर करना चाहते हो तो वह तुम्हें प्रबुद्ध नहीं करेगा। वह तब तक प्रतीक्षा करेगा जब तक तुम उसके पास जाकर प्रार्थना और निवेदन नहीं कर लेते और फिर वह तुम्हें यह प्रदान कर देगा। परमेश्वर किस प्रकार के लोगों को पसंद करता है? परमेश्वर ऐसी किस चीज के इंतजार में है जो लोग उससे माँगें? क्या वह चाहता है कि बेशर्म लोगों की तरह वे उससे पैसा, सुख-सुविधा, प्रसिद्धि, लाभ, और खुशी माँगें? परमेश्वर यह पसंद नहीं करता कि लोग उससे ऐसी चीजें माँगें। जो सभी परमेश्वर से ऐसी चीजों की माँग करते फिरते हैं, वे बेशर्म हैं, सबसे निकृष्ट हैं और परमेश्वर उन्हें नहीं चाहता है। वह ऐसे लोगों को चाहता है जो पाप को लेकर जाग्रत हो सकें और उससे सत्य खोजें और सत्य को स्वीकार करें—इस तरह के लोग वे हैं जिन्हें वह स्वीकार्य पाता है। तुम्हें इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए : “हे परमेश्वर, शैतान मुझे बहुत गहराई तक भ्रष्ट कर चुका है, मैं अक्सर अपने भ्रष्ट स्वभावों के साथ जीता हूँ। मैं प्रतिष्ठा और रुतबे और विभिन्न अन्य प्रलोभनों से पार नहीं पा रहा हूँ, मैं नहीं जानता कि इनसे कैसे निपटूँ। मैं सत्य सिद्धांतों को नहीं समझता। तुमसे विनती करता हूँ कि तुम मुझे प्रबुद्ध करो और मार्गदर्शन दो” और “मैं अपना कर्तव्य करने का इच्छुक हूँ, लेकिन मुझे लगता है कि मैं अपर्याप्त हूँ—एक तो मेरा आध्यात्मिक कद बहुत-ही छोटा है और दूसरी बात, मुझमें पेशेवर ज्ञान की कमी है। मुझे डर है कि मैं इसे अच्छे से नहीं कर पाऊँगा। मैं तुमसे मदद और मार्गदर्शन की विनती करता हूँ।” परमेश्वर तुम्हारे आने और सत्य खोजने का इंतजार कर रहा है। जब तुम सच्चे दिल के साथ सत्य खोजते हुए परमेश्वर के पास आते हो तो वह तुम्हें प्रबुद्ध और रोशन करेगा, तब तुम्हारे पास एक रास्ता होगा और तुम जान लोगे कि अपना कर्तव्य कैसे करना है। अगर तुम सत्य के प्रति हमेशा मेहनत करते रहते हो और अपनी सच्ची दशा लेकर परमेश्वर के सामने प्रार्थना के लिए आते हो, उसका मार्गदर्शन और अनुग्रह माँगते हो तो फिर इस तरह तुम धीरे-धीरे सत्य को समझकर इसका अभ्यास करने लगोगे, और तुम जो कुछ जियोगे उसमें मानव की समानता, सामान्य मानवता और सत्य वास्तविकता होगी। अगर तुम परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील नहीं रहते, सत्य का अनुसरण नहीं करते, और अक्सर अपने तमाम हित साधने के लिए सोच-विचार करते रहते हो, इन्हीं में मगन रहकर कड़ी मेहनत करते हो और यहाँ तक कि अपने विभिन्न हितों के लिए अपना जीवन अर्पित कर देते हो, इनके लिए जो भी जरूरी हो वह सब करते हो, तो फिर तुम शायद लोगों का मान-सम्मान और विभिन्न फायदे और गौरव पा सकते हो—लेकिन ये चीजें ज्यादा महत्वपूर्ण हैं या सत्य? (सत्य।) लोग इसे जानते हैं, फिर भी सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे सिर्फ अपने ही हितों और रुतबे को अहमियत देते हैं। तो क्या वे सचमुच इसे समझते हैं या फिर यह झूठी समझ है? (यह झूठी समझ है।) दरअसल, वे मूर्ख हैं। वे इस मामले को स्पष्ट रूप से नहीं समझते हैं। जब वे इसे स्पष्ट रूप से समझने लायक होंगे, तो उन्हें थोड़ा-सा आध्यात्मिक कद हासिल हो चुका होगा। इसके लिए उन्हें सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर के वचनों के लिए प्रयास करने की जरूरत है; वे लापरवाह और भ्रमित नहीं हो सकते। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते और तब जब वह दिन आएगा जब परमेश्वर कहता है, “परमेश्वर अपने वचन बोलना बंद कर चुका है, वह इस मानवजाति से और कुछ नहीं कहना चाहता, और कुछ नहीं करना चाहता, और अब मनुष्य के कार्य का जायजा लेने का समय आ चुका है” फिर तुम्हें निकाला जाना तय है। चाहे तुम्हारे समर्थक जितने बड़े हों, तुममें कितनी ही खूबियाँ और प्रतिभाएँ हों, तुम कितने ही पढ़े-लिखे या प्रतिष्ठित हो या इस संसार में तुम्हारा पद कितना ही बड़ा हो, इनमें से कोई भी चीज किसी काम की नहीं होगी। उस समय तुम्हें यह एहसास होगा कि सत्य कितना अनमोल और महत्वपूर्ण है, तुम समझ लोगे कि अगर तुमने सत्य हासिल नहीं किया है तो तुम्हारा परमेश्वर से कोई वास्ता नहीं है, और तुम जान लोगे कि सत्य हासिल किए बिना परमेश्वर पर विश्वास करना कितना दयनीय और त्रासद है। आजकल कई लोगों के दिलों को इसका हल्का-सा एहसास है, लेकिन दिल की इस भावना के कारण अभी तक उनमें सत्य के अनुसरण का कोई संकल्प पैदा नहीं हुआ है। अपने अंतरतम में उन्होंने सत्य की अनमोलता और अहमियत महसूस नहीं की है। थोड़ी-सी जागरूकता काफी नहीं है; तुम्हें इस मामले का सार सचमुच स्पष्ट रूप से समझना चाहिए। जब तुम ऐसा कर लोगे तो यह जान लोगे कि इस समस्या को हल करने के लिए सत्य के किस पहलू का उपयोग करना चाहिए। सत्य ही है जो लोगों के सामने पेश आने वाली तमाम कठिनाइयाँ दूर कर सकता है, और उनके तमाम विकृत विचार, संकीर्ण सोच, दूषित स्वभाव के साथ ही उनकी भ्रष्टता की विभिन्न समस्याएँ भी हल कर सकता है। तुम्हें बस सत्य का अनुसरण करना चाहिए और समस्याएँ हल करने के लिए लगातार सत्य का उपयोग करना चाहिए; इस प्रकार तुम अपने भ्रष्ट स्वभावों को त्याग सकोगे और परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकोगे। तुम्हारे सामने जो भी समस्याएँ आती हैं, उनके समाधान के लिए अगर तुम सिर्फ मानवीय तौर-तरीकों और मानवीय संयम पर निर्भर रहते हो तो तुम इन कठिनाइयों और भ्रष्ट स्वभावों को कभी भी हल नहीं कर सकोगे। कुछ लोग कहते हैं, “अगर मैं परमेश्वर के वचन और अधिक पढ़ूँ, इन्हें पढ़ने में रोज कई घंटे लगाऊँ तो क्या मैं यकीनन स्वभावगत बदलाव हासिल कर सकूँगा?” यह इस पर निर्भर करता है कि तुम परमेश्वर के वचन किस तरह पढ़ते हो और क्या तुम सत्य को समझकर इसे अमल में ला सकते हो या नहीं। अगर तुम उसके वचन महज आधे-अधूरे मन से पढ़ते हो और सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो फिर तुम सत्य हासिल नहीं कर सकोगे और अगर तुम सत्य हासिल नहीं कर पाते तो तुम्हारा जीवन स्वभाव बिल्कुल नहीं बदलेगा। संक्षेप में, व्यक्ति को निश्चित रूप से सत्य का अनुसरण करना चाहिए, स्वभावगत बदलाव हासिल करने के लिए सत्य का अनुसरण और इसका अभ्यास जरूर करना चाहिए। सत्य का अभ्यास किए बिना परमेश्वर के वचन पढ़ने भर से कभी भी बात नहीं बनेगी। फरीसियों की तरह परमेश्वर के वचनों का प्रचार करने और इन पर अमल करने का तरीका बताने में महारत हासिल करना, लेकिन खुद ऐसा न करना, गलत रास्ता है। परमेश्वर यह अपेक्षा रखता है कि लोग उसके वचन ज्यादा पढ़ें ताकि वे सत्य को समझ सकें, सत्य का अभ्यास कर सकें और सत्य वास्तविकता को जी सकें। परमेश्वर का लोगों से यह कहना कि वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश करें, उसके मार्ग पर चलें, और जीवन में सत्य के अनुसरण के सही मार्ग पर चलें, इसका सीधा संबंध उसकी इस अपेक्षा से है कि लोग अपने कर्तव्य निभाते समय अपना पूरा मन और ताकत लगाने का अभ्यास करें। परमेश्वर का अनुसरण करने में लोगों को अपने कर्तव्य निभाते हुए उसके कार्य का अनुभव करना चाहिए ताकि वे उद्धार पा सकें और पूर्ण बनाए जा सकें।
अंश 35
अब, अगर तुम्हारे साथ कुछ ऐसी चीजें होती हैं जो तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप नहीं हैं, क्या वे तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित कर सकती हैं? उदाहरण के लिए, कभी-कभी काम ज्यादा हो जाता है और लोगों को अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए कुछ कठिनाई सहनी पड़ती है और थोड़ी कीमत चुकानी पड़ती है; तब कुछ लोग अपने मन में धारणाएँ बना लेते हैं और उनमें प्रतिरोध पैदा हो जाता है, और वे नकारात्मक होकर अपने काम में ढीले पड़ सकते हैं। कभी-कभी, काम ज्यादा नहीं होता और कर्तव्यों का निर्वाह करना आसान हो जाता है, तब कुछ लोग ख़ुशी महसूस करते हैं और सोचते हैं, “कितना अच्छा होता अगर मेरे लिए कर्तव्य का निर्वाह करना हमेशा इतना आसान होता।” वे किस तरह के लोग हैं? वे आलसी व्यक्ति हैं जो देह की सुख-सुविधाओं के लिए ललचाते हैं। क्या ऐसे लोग अपने कर्तव्य निर्वहन में समर्पित होते हैं? (नहीं।) ऐसे लोग परमेश्वर के प्रति समर्पण करने के इच्छुक होने का दावा करते हैं, लेकिन उनके समर्पण में शर्तें होती हैं—वे समर्पण करें इसके लिए चीजें उनकी अपनी धारणाओं के मुताबिक होनी चाहिए और इनके कारण उन्हें कोई भी कठिनाई न सहनी पड़े। यदि उनका क्लेश से सामना हो और कठिनाई सहन करनी पड़े तो वे बहुत शिकायत करते हैं और यहाँ तक कि परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह और उसका विरोध भी करते हैं। वे किस तरह के लोग हैं? वे ऐसे लोग हैं जो सत्य से प्रेम नहीं करते। वे तभी समर्पण करने में सक्षम होते हैं जब परमेश्वर के कार्य उनकी अपनी धारणाओं और इच्छाओं के अनुरूप हों और उन्हें कोई कठिनाई न सहनी पड़े या कोई कीमत न चुकानी पड़े। लेकिन अगर परमेश्वर का कार्य उनकी धारणाओं या प्राथमिकताओं से मेल न खाता हो और इसके लिए उन्हें कठिनाई सहने और कीमत चुकाने की आवश्यकता हो तो वे समर्पण करने में सक्षम नहीं होते। वे भले ही इसका खुलकर विरोध न करें लेकिन वे अपने मन में प्रतिरोधी और नाराज होते हैं। वे खुद को बहुत बड़ी कठिनाई सहने वाला समझते हैं और अपने हृदय में शिकायतें पालते हैं। यह किस तरह की समस्या है? इससे पता चलता है कि उन्हें सत्य से प्रेम नहीं है। क्या प्रार्थना, प्रतिज्ञा या संकल्प इस समस्या का समाधान कर सकते हैं? (नहीं, वे नहीं कर सकते।) तब इस समस्या का समाधान कैसे किया जाना चाहिए? सबसे पहले तुम्हें परमेश्वर के इरादों और उसकी अपेक्षाओं को समझना चाहिए और समझना चाहिए कि सच्चा समर्पण क्या है। तुम्हें जानना चाहिए कि विद्रोह और विरोध क्या हैं, तुम्हें आत्ममंथन करना चाहिए कि कौन से भ्रष्ट स्वभाव परमेश्वर के प्रति तुम्हारे समर्पण में बाधा डाल रहे हैं और इन मामलों को तुम्हें साफ-साफ देखना चाहिए। यदि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य से प्रेम करता है तो तुम देह के विरुद्ध, विशेष रूप से अपनी दैहिक प्राथमिकताओं के विरुद्ध विद्रोह करने में सक्षम होगे और तब परमेश्वर के प्रति समर्पण का अभ्यास करोगे, और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करोगे। इस तरह तुम अपनी भ्रष्टता और विद्रोहशीलता का समाधान करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम हो सकोगे। यदि तुम सत्य को नहीं समझते तो तुम इन मामलों को समझने में असमर्थ रहोगे, अपनी आंतरिक दशाओं को समझने में असमर्थ रहोगे, और यह साफ-साफ देखने में असमर्थ रहोगे कि कौन-सी चीजें परमेश्वर के प्रति तुम्हारे समर्पण में बाधा डाल रही हैं। परिणामस्वरूप, तुम्हारे लिए देह के विरुद्ध विद्रोह करना और परमेश्वर के प्रति समर्पण का अभ्यास करना असंभव होगा। यदि कोई व्यक्ति अपनी दैहिक प्राथमिकताओं के विरुद्ध विद्रोह नहीं कर सकता है तो उसके लिए अपने कर्तव्य निर्वहन में समर्पित होना बहुत कठिन होगा। क्या ऐसे लोगों को परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला माना जा सकता है? लगन के बिना क्या लोग अपने कर्तव्य एक ऐसे तरीके से निभा सकते हैं जो मानक स्तर का हो? क्या वे परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरे उतर सकते हैं? हरगिज नहीं। यदि कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य को एक ऐसे तरीके से निभाना चाहता है जो मानक स्तर का हो तो उसे कम से कम सत्य का अभ्यास करने और ईमानदारी से परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम होना चाहिए। यदि कोई अपनी दैहिक प्राथमिकताओं के विरुद्ध विद्रोह नहीं कर सकता तो वह सत्य का अभ्यास नहीं कर सकता। यदि तुम हमेशा अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करते हो तो तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो परमेश्वर के प्रति समर्पित हो। कभी-कभार तुम उसके प्रति समर्पण करते भी हो तो यह सशर्त होता है; तुम केवल तभी समर्पण कर सकते हो जब चीजें तुम्हारी अपनी धारणाओं के अनुरूप हों और जब तुम्हारा मिजाज अच्छा हो। यदि परमेश्वर के क्रियाकलाप तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप न हों, यदि परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए निर्धारित कर्तव्य और तुम्हारे लिए बनाए गए परिवेश तुम्हारे लिए भारी कठिनाई, शर्मिंदगी या असंतोष की तीव्र भावना लेकर आएँ तो क्या तुम तब भी समर्पण कर सकोगे? तुम्हारे लिए समर्पण करना कठिन होगा; तुम्हें परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करने और उसका विरोध करने के कई कारण मिल जाएँगे। बाद में आत्म-चिंतन करने पर भी, तुम्हारे लिए देह के विरुद्ध विद्रोह करना आसान नहीं होगा, क्योंकि देह के विरुद्ध विद्रोह करना कोई साधारण बात नहीं है। कोई देह के विरुद्ध विद्रोह कैसे करता है? स्वाभाविक रूप से व्यक्ति को सत्य की खोज करनी चाहिए। व्यक्ति को अपने भ्रष्ट सार और भ्रष्ट कुरूपता को भी पहचानना चाहिए, और स्वयं से घृणा करने तथा अपनी दैहिक प्राथमिकताओं और देह के सार से घृणा करने की स्थिति तक पहुँचना चाहिए। केवल तभी वह देह के विरुद्ध विद्रोह करने की इच्छा रखेगा। कोई यदि सत्य नहीं समझता तो वह दैहिक चीजों से घृणा नहीं कर पाएगा और घृणा के बिना देह के विरुद्ध विद्रोह करना असंभव है। इसीलिए, अनुसरण का मार्ग पाने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करना और उस पर भरोसा करना जरूरी है। सत्य के बिना लोगों में कोई ताकत नहीं होती और वे चाहते हुए भी सत्य को व्यवहार में नहीं ला सकते। व्यक्ति को निश्चित रूप से परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उस पर भरोसा करना चाहिए।
कुछ लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं; वे केवल देह की सुख-सुविधाओं के लिए ललचाते हैं और वे सत्य प्राप्त करने के लिए कठिनाई सहने को तैयार नहीं होते हैं। जब कभी उन्हें जरा-सी भी कठिनाई का सामना करना पड़ता है तो वे परमेश्वर के बारे में कुड़कुड़ाते और शिकायत करते हैं और इसे हल करने के लिए वे सत्य नहीं खोजते हैं। वे परमेश्वर से यह कहते हुए प्रार्थना भी करते हैं कि “हे परमेश्वर, तुम्हारी पहचान और तुम्हारा सार बहुत महान हैं। मैं तुमसे प्रेम करने के लायक नहीं हूँ लेकिन मैं तुम्हारे सामने समर्पण करने का इच्छुक हूँ। जो भी परिस्थिति हो, मैं तुम्हारे सामने समर्पण करने को तैयार हूँ। मेरा मार्गदर्शन करो, मुझे रोशन करो और मेरा प्रबोधन करो। यदि मैं वास्तव में तुमसे प्रेम नहीं कर सकता और तुम्हारे सामने समर्पण नहीं कर सकता तो कृपया मेरी पड़ताल करो और मुझे दंड दो। अपना न्याय मुझ पर पड़ने दो।” इस तरह से प्रार्थना करने के बाद उन्हें इसके बारे में काफी अच्छा महसूस होता है लेकिन क्या यह सिर्फ खोखले शब्दों की ढेरी नहीं है? क्या लगातार खोखले शब्दों से प्रार्थना करने और कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का पाठ करने से समस्याएँ हल हो सकती हैं? (नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।) जब कोई व्यक्ति खोखले शब्दों से प्रार्थना करता है तो यह किस प्रकार की समस्या है? क्या इसमें थोड़ी-सी धोखा देने वाली प्रकृति नहीं है? क्या परमेश्वर के सामने इस तरह प्रार्थना करना उपयोगी है? आलसी होना और कष्ट सहने में असमर्थ होना, देह की सुख-सुविधाओं के लिए ललचाना, सत्य को जानना लेकिन उसके प्रति समर्पण न कर पाना, अपने कर्तव्य को जानना मगर उसका पालन करने में असफल रहना और यह जानते हुए भी कि उसने अपना पूरा मन और ताकत नहीं झोंका है, इस बारे में बात करना कि वह परमेश्वर से प्रेम की कितनी इच्छा रखता है—क्या यह परमेश्वर को धोखा देना नहीं है? ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे परमेश्वर धार्मिक समारोहों में की जाने वाली प्रार्थनाओं से ज्यादा घृणा करता हो। परमेश्वर प्रार्थना तभी स्वीकार करता है जब वे सच्ची हों। यदि तुम्हारे पास ईमानदारी से कहने के लिए कुछ नहीं है तो चुप रहो; परमेश्वर के सामने हमेशा झूठ बोलते हुए या उसे धोखा देने के लिए आँख मूँदकर कसमें खाते हुए मत आओ। इस बारे में बात मत करो कि तुम उससे कितना प्रेम करते हो या तुम उसके प्रति कितने वफादार रहना चाहते हो। यदि तुम अपनी इच्छाएँ पूरी करने में असमर्थ हो, यदि तुममें इस संकल्प और आध्यात्मिक कद की कमी है तो तुम्हें परमेश्वर के सामने बिल्कुल नहीं आना चाहिए और इस तरीके से प्रार्थना नहीं करनी चाहिए। यह परमेश्वर का उपहास करना है। उपहास करने का क्या मतलब है? उपहास करने का अर्थ है किसी का मज़ाक उड़ाना, उसके साथ खिलवाड़ करना। जब इस प्रकार के स्वभाव के साथ लोग प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आते हैं तो यह और कुछ नहीं बल्कि धोखा ही है। यदि तुम ऐसा अक्सर करते हो तो सबसे खराब स्थिति में, इसका मतलब है कि तुम बहुत नीच चरित्र के व्यक्ति हो। यदि परमेश्वर को तुम्हारी निंदा करनी हो तो वह इसे ईश-निंदा कहेगा! लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाले दिल नहीं हैं, वे नहीं जानते कि परमेश्वर का भय कैसे मानना चाहिए, या उससे प्रेम कैसे करना चाहिए और उसे संतुष्ट कैसे करना चाहिए। यदि उन्हें सत्य का स्पष्ट ज्ञान नहीं है या उनका स्वभाव भ्रष्ट है तो परमेश्वर इस बात पर ध्यान नहीं देगा। लेकिन वे अपने भ्रष्ट स्वभावों के बीच रहते हुए परमेश्वर के सामने आते हैं और दूसरों को धोखा देने के अविश्वासियों के तरीकों का उपयोग परमेश्वर पर करते हैं, और परमेश्वर को धोखा देने के लिए इन शब्दों का उपयोग करते हुए प्रार्थना में उसके सामने “गंभीरता से” झुकते हैं। प्रार्थना पूरी करने के बाद उन्हें न केवल किसी तरह की आत्म-ग्लानि नहीं होती, बल्कि उन्हें अपने क्रियाकलापों की गंभीरता का ज्ञान भी नहीं होता। ऐसे मामलों में, क्या परमेश्वर उनके साथ है? परमेश्वर उनके साथ नहीं है। क्या ऐसे लोग जो परमेश्वर की उपस्थिति से सर्वथा रहित हैं, उसका प्रबोधन और प्रकाश हासिल कर सकते हैं? क्या उन्हें सत्य के संबंध में प्रकाश प्राप्त हो सकता है? (नहीं, नहीं हो सकता।) तब, वे मुसीबत में हैं। क्या तुम लोगों ने कई बार इस तरह से प्रार्थना की है? क्या तुम लोग ऐसा अक्सर नहीं करते हो? (हाँ, करते हैं।) जब लोग सांसारिक जीवन में बहुत लंबा समय बिता लेते हैं तो उनसे समाज की दुर्गंध आने लगती है, उनकी घटिया प्रकृति बहुत गंभीर हो जाती है और वे शैतानी जहर और फलसफों से भर जाते हैं; उनके मुँह से सिर्फ झूठ और धोखे के शब्द निकलते हैं, और उनकी प्रार्थनाएँ खोखले और धर्म-सैद्धांतिक शब्दों से भरी होती हैं जिनमें हृदय से आने वाली कोई आवाज या उनकी वास्तविक कठिनाइयों के बारे में कोई बात नहीं होती। वे परमेश्वर से हमेशा अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के बारे में प्रार्थना करते हैं और उससे आशीष चाहते हैं, लेकिन बहुत ही कम मौकों पर उनके पास सत्य की खोज करने वाला हृदय होता है और वे परमेश्वर के सामने समर्पण करने वाले हृदय से प्रार्थना नहीं करते हैं। ऐसी प्रार्थनाएँ केवल धोखा और झूठ प्रकट करती हैं। इन लोगों का स्वभाव गंभीर रूप से भ्रष्ट होता है, वे तो जीवित दानव बन चुके होते हैं। परमेश्वर के सामने प्रार्थना करते समय वे मानवीय शब्दों या दिल से निकले शब्दों का उपयोग नहीं करते। इसके बजाय, वे शैतान के धोखे और झूठ को परमेश्वर के सामने लाते हैं। क्या इससे परमेश्वर के स्वभाव को ठेस नहीं पहुँचती? क्या परमेश्वर ऐसी प्रार्थनाओं पर ध्यान दे सकता है? परमेश्वर ऐसे व्यक्तियों के प्रति विमुख महसूस करता है और निश्चित रूप से उन्हें पसंद नहीं करता। ऐसी प्रार्थनाओं को परमेश्वर को धोखा देने और मूर्ख बनाने का प्रयास कहा जा सकता है। ये लोग जरा भी सत्य की खोज नहीं कर रहे होते हैं, न ही वे दिल से बोलते हैं और न ही परमेश्वर पर भरोसा रख रहे होते हैं। उनकी प्रार्थनाएँ परमेश्वर के इरादों और उसकी अपेक्षाओं के साथ मेल नहीं खातीं। मूलतः, यह सब मानवीय प्रकृति के कारण होता है, और यह भ्रष्टाचार का क्षणिक खुलासा नहीं है। ये लोग सोचते हैं, “मैं परमेश्वर को देख या महसूस नहीं कर सकता, और मुझे नहीं पता कि वह कहाँ है। मैं तो बस परमेश्वर से जो कुछ भी मन में आए कहूँगा, कौन जाने वह सुन भी रहा है या नहीं।” वे संदेह की भावना और परमेश्वर को परखने की मानसिकता के साथ उससे प्रार्थना करते हैं—इस तरह से प्रार्थना करने के बाद उन्हें किस प्रकार की अनुभूति होगी? क्या यह अब भी खालीपन नहीं है? क्या बिल्कुल अनुभूतिशून्य होना कष्टकारी नहीं है? प्रार्थना विश्वास की नींव पर निर्मित होती है। इसका अर्थ है अपने हृदय के भीतर परमेश्वर से प्रार्थना करना, परमेश्वर से हृदय से बात करना, उसके सामने अपना हृदय खोल देना और उससे सत्य की खोज करना। जब कोई इस तरह से प्रार्थना करता है तो उसे अपने भीतर शांति और परमेश्वर की उपस्थिति का बोध होगा। यह परमेश्वर का गुप्त रूप से उसकी बात सुनना है। जब भी कोई परमेश्वर से इस तरह से हृदय से प्रार्थना करेगा तो उसे ऐसा लगेगा मानो उसका परमेश्वर से साक्षात्कार हो गया हो। उसकी आस्था मजबूत होगी, परमेश्वर के साथ उसका रिश्ता और अधिक करीब हो जाएगा और वह उसके एक कदम और निकट पहुँच जाएगा। वह तृप्ति का अनुभव करेगा और अपने हृदय में विशेष रूप से दृढ़ हो जाएगा। ये वे असली भावनाएँ हैं जो प्रार्थना के बाद उत्पन्न होती हैं। धार्मिक प्रार्थनाओं का जाप करते हुए लोग केवल बेपरवाही करते रहते हैं, हर दिन उन्हीं कुछ वाक्यांशों को वे इस हद तक दोहराते हैं कि उनमें उन शब्दों को कहने की इच्छा भी नहीं बचती। ऐसी प्रार्थनाओं के बाद, उन्हें कुछ भी महसूस नहीं होता और कोई परिणाम प्राप्त नहीं होता। क्या ऐसे लोगों में सच्ची आस्था हो सकती है? यह असंभव है।
कुछ लोग अपने कर्तव्य निभाने में समर्पित नहीं होते हैं। वे हमेशा अनमने होते हैं या महसूस करते हैं कि उनके कर्तव्य बहुत कठिन और थकाऊ हैं। वे समर्पण नहीं करना चाहते, वे लगातार इनसे भागने और इन्हें नकारने की इच्छा रखते हैं और हमेशा ऐसे कर्तव्य करना चाहते हैं जो आसान हों और जिनमें उन्हें धूप-बरसात या दूसरी प्राकृतिक चुनौतियों का सामना न करना पड़े, जिनमें किसी तरह का खतरा न हो और जिनमें उन्हें दैहिक सुख-सुविधाएँ मिलें। अपने हृदय में वे जानते हैं कि वे आलसी हैं, देह की सुख-सुविधाओं के लिए ललचाते हैं और कठिनाइयां सहने में असमर्थ हैं। परंतु वे अपने सच्चे विचार कभी किसी के सामने व्यक्त नहीं करते, वे डरते हैं कि लोग उन पर हँसेंगे। शाब्दिक रूप से वे कहते हैं, “मुझे अवश्य ही अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहिए और परमेश्वर के प्रति समर्पित होना चाहिए,” और जब वे कोई काम अच्छी तरह से पूरा करने में असफल रहते हैं तो वे सबसे कहते हैं कि “मुझमें कोई मानवता नहीं है और अपने कर्तव्य निर्वहन में लगन नहीं है।” किंतु, वास्तविकता में वे जरा भी विचार नहीं करते। जब कोई व्यक्ति ऐसी स्थिति में हो, तो वह तर्कपूर्ण तरीके से प्रार्थना कैसे कर सकता है? प्रभु यीशु ने परमेश्वर की आराधना हृदय से और ईमानदारी के साथ करने को कहा था। जब तुम परमेश्वर के सामने आओ, तो तुम्हारा हृदय ईमानदारी से भरा हो और उसमें कोई झूठ न हो। अपने मन में अलग तरीके से सोचते हुए दूसरों के सामने कोई अन्य बात न करो। यदि तुम परमेश्वर के सामने कोई मुखौटा लगा कर आते हो, ऐसे अच्छे और सुखद शब्द बोलते हो मानो कोई निबंध लिखने का प्रयास कर रहे हो तो क्या ऐसा करना परमेश्वर को धोखा देना नहीं है? इसके परिणामस्वरूप परमेश्वर देख लेगा कि तुम वह नहीं हो जो उसकी आराधना हृदय से और ईमानदारी से करता हो। वह देख लेगा कि तुम्हारा हृदय ईमानदार नहीं है, कि वह बहुत अशुभ और दुष्ट है और कि तुमने बुरी नीयत पाल रखी है। वह तुम्हें त्याग देगा। तो, लोगों को अपने साथ बार-बार घटित होने वाली चीजों और दैनिक जीवन में प्रायः सामने आने वाली समस्याओं के बारे में कैसे प्रार्थना करनी चाहिए? उन्हें परमेश्वर से हृदय से बात करना सीखना चाहिए। तुम कहते हो, “हे परमेश्वर, मुझे यह कर्तव्य बहुत थकाऊ लग रहा है। मैं एक ऐसा व्यक्ति हूँ जो देह की सुख-सुविधाओं के लिए ललचाता है, आलसी है और कड़ी मेहनत से विमुख रहता है। तुमने मुझे जो कर्तव्य सौंपा है उसमें मैं लगन नहीं दिखा सकता और मैं इसे अपनी पूरी ताकत से निभा भी नहीं सकता। मैं हमेशा इससे बचना और मना करना चाहता हूँ, और मैं हमेशा अनमना रहता हूँ। कृपा करके मुझे अनुशासित करो।” क्या ये सच्चे शब्द नहीं हैं? (हाँ, हैं।) क्या तुम इस तरह बोलने का साहस करते हो? तुम डरते हो कि यदि ऐसा कहने के बाद परमेश्वर किसी दिन वास्तव में तुम्हें अनुशासित करने लगे तो क्या होगा और तुम भयग्रस्त, चिंतित और वहमी हो जाते हो। लोग जब अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, तो वे हमेशा कठिनाई से बचना चाहते हैं। वे शारीरिक सुख-सुविधाओं के लिए ललचाते हैं और थोड़ी सी भी कठिनाई का सामना करना पड़े या कुछ प्रयास करने की जरूरत हो या थोड़ी सी भी थकान का अनुभव हो तो वे पीछे हटना चाहते हैं। वे लगातार अपनी पसंद की चीज उठाते और चुनते हैं और जब उन्हें भी थोड़ी कठिनाई का अनुभव होता है तो वे सोचते हैं, “क्या परमेश्वर जानता है? क्या उसे याद रहेगा? इतनी कठिनाई सहने के बाद क्या मुझे भविष्य में कोई पुरस्कार मिलेगा?” वे हमेशा एक परिणाम की तलाश में रहते हैं। इन सभी समस्याओं को हल करने की आवश्यकता है। अतीत में मैंने किसी को एक संदेश आगे पहुंचाने का काम सौंपा था और जब वह मुझे इसके बारे में बताने के लिए वापस आया, तो उसने सबसे पहले अपनी महान उपलब्धियों के बारे में बात की। उसने बताया कि उसने समस्या को कैसे हल किया, उसने बताया कि इस बारे में वह कितना चिंतित था और उसे कितनी बात करनी पड़ी, जिस व्यक्ति से वह मिला उसे सँभालना कितना मुश्किल था, और कि उसने कितने अच्छे-अच्छे शब्दों का इस्तेमाल करते हुए अंततः कार्य पूरा किया। वह लगातार इसका श्रेय लेता रहा और इसके बारे में बात करता रहा। इतनी सारी बातों का निहितार्थ क्या है? “तुम्हें मेरी प्रशंसा करनी चाहिए, मुझसे वादा करना चाहिए और मुझे बताना चाहिए कि भविष्य में मुझे क्या पुरस्कार मिलेगा।” वह खुलेआम इनाम माँग रहा था। मुझे बताओ कि क्या यह छोटा सा काम करना भी तारीफ के काबिल है? यदि कोई अपना कर्तव्य का छोटा सा हिस्सा निभाने के लिए भी हमेशा प्रशंसा चाहता है, तो उसका स्वभाव कैसा है? क्या यह शैतान की प्रकृति नहीं है? उसे इतने छोटे से काम के लिए भी प्रशंसा और पुरस्कार की उम्मीद थी—क्या इसका मतलब यह नहीं है कि अगर वह कोई महत्वपूर्ण कार्य करे या कोई बड़ा काम पूरा कर ले, तो उसका व्यवहार और भी बुरा होता? यदि उसे परमेश्वर की स्वीकृति और आशीष प्राप्त नहीं हुआ, तो क्या वह विद्रोह करेगा? क्या वह तीसरे स्वर्ग तक जाएगा और परमेश्वर से बहस करेगा? तो फिर वह परमेश्वर में विश्वास में किस रास्ते पर चल रहा है? (मसीह-विरोधियों के मार्ग पर।) बिल्कुल पौलुस की तरह मसीह-विरोधी मार्ग पर। पौलुस परमेश्वर से हमेशा पुरस्कार और रुतबे की माँग करता था। यदि परमेश्वर ने इसकी अनुमति नहीं दी, तो वह निराश हो जाएगा और अपने काम में ढिलाई बरतेगा, प्रभु का विरोध करेगा और उसे धोखा देगा। मुझे बताओ, किस प्रकार का व्यक्ति अपने कर्तव्य में थोड़ी सी कठिनाई सहने के बाद पुरस्कार चाहता है? (कोई दुष्ट व्यक्ति।) उनकी मानवता बहुत बुरी होती है। क्या सामान्य लोगों के भीतर ये स्थितियाँ होती हैं? प्रत्येक व्यक्ति में ये स्थितियाँ होती हैं। प्रकृति सार हर व्यक्ति में एक जैसा है, बात बस इतनी सी है कि कुछ लोग इसे उतनी प्रबलता से प्रदर्शित नहीं करते हैं। वे तर्कसंगत लोग हैं और जानते हैं कि ऐसे काम और विचार गलत हैं, और कि वे परमेश्वर से पुरस्कार की माँग नहीं कर सकते। लेकिन ऐसी स्थिति के बारे में किसी को क्या करना चाहिए? इसके समाधान के लिए सत्य की खोज करनी चाहिए। सत्य का कौन सा पहलू इस स्थिति का समाधान कर सकता है? किसी व्यक्ति के लिए यह जानना महत्वपूर्ण है कि वह कौन है, उसे किस पद पर खड़ा होना चाहिए, उसे किस रास्ते पर चलना चाहिए और उसे किस तरह का व्यक्ति होना चाहिए। ये वे न्यूनतम चीजें हैं जो किसी को पता होनी चाहिए। यदि कोई व्यक्ति इन चीजों को भी नहीं जानता, तो वह सत्य को समझने, सत्य का अभ्यास करने या मुक्ति पाने के प्रयास से बहुत दूर है।
कुछ विशेष कर्तव्यों या अधिक कठिन और थका देने वाले कर्तव्यों को निभाने की बात आती है, तो एक लिहाज से लोगों को हमेशा इस बात पर विचार करना चाहिए कि उन कर्तव्यों को कैसे निभाया जाए, उन्हें कौन-सी कठिनाइयाँ सहनी चाहिए, और कैसे उन्हें अपने कर्तव्यों पर दृढ़ रहना चाहिए और आज्ञाकारी बनना चाहिए। एक दूसरे लिहाज से, लोगों को यह भी जाँचना चाहिए कि उनके इरादों में क्या अपमिश्रण है और वे अपमिश्रण उनके कर्तव्यों के पालन में कैसे बाधा डालते हैं। लोगों में जन्म से ही कठिनाई सहने के प्रति अरुचि होती है—किसी भी व्यक्ति को ज्यादा कठिनाई सहने से ज्यादा उत्साह या ज्यादा खुशी नहीं मिलती। ऐसे लोग होते ही नहीं। मानव देह का स्वभाव ही ऐसा है कि जैसे ही शरीर को कठिनाइयां सहनी पड़ती हैं लोग चिंतित और व्यथित महसूस करने लगते हैं। लेकिन, तुम लोगों को अपने कर्तव्य निर्वहन में कितनी कठिनाई सहनी पड़ती है? तुम्हें केवल अपनी देह में थोड़ी थकान महसूस करनी होगी और थोड़ी मेहनत करनी होगी। यदि तुम इतनी थोड़ी कठिनाई भी सहन नहीं कर सकते, तो क्या तुम्हें संकल्पवान माना जा सकता है? क्या तुम्हें परमेश्वर में ईमानदारी से विश्वास करने वाला माना जा सकता है? (नहीं।) इससे काम नहीं चलेगा। जब तुम परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते हो, तो कोई भी व्यक्ति तुम्हारे काम की निगरानी नहीं करता। यह पूरी तरह से तुम्हारी अपनी पहल पर निर्भर होता है। परमेश्वर के घर में, कार्य व्यवस्थाएँ और प्रणालियाँ हैं, और यह लोगों पर निर्भर है कि वे अपनी आस्था तथा अंतश्चेतना और तर्क पर भरोसा करें। केवल परमेश्वर ही इसकी पड़ताल करता है कि तुम अपना कर्तव्य निर्वाह अच्छी तरह से कर रहे हो या नहीं। अपने कर्तव्यों का पालन करते समय या अपने आस-पास के लोगों, घटनाओं और चीजों के सम्पर्क में आते समय लोग चाहे जो भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हों, यदि वे हमेशा उससे अनभिज्ञ रहते हों और कोई धिक्कार न महसूस करते हों, तो क्या यह अच्छी बात है या बुरी बात है? (यह बुरी बात है।) इसे बुरा क्यों माना जाता है? मनुष्य की अंतश्चेतना और तर्क का एक न्यूनतम मानक होता है। यदि तुम्हारी अंतश्चेतना में जागरूकता का अभाव है और वह तुम्हें बुरे काम करने से रोक नहीं सकती, या तुम्हारे व्यवहार को नियंत्रित नहीं कर सकती, यदि तुम ऐसा कार्य करते हो जो प्रशासनिक आदेशों और सिद्धांतों का उल्लंघन करता हो, और तुम्हारे काम में मानवता का अभाव हो, फिर भी तुम्हारे हृदय में इसके लिए तिरस्कार का भाव न हो, तो क्या यह नैतिक आधार रेखा का न होना नहीं है? क्या यह अंतश्चेतना में जागरूकता न होना नहीं है? (है।) क्या तुम लोग जब कुछ गलत करते हो, या सिद्धांतों का उल्लंघन करते हो, या जब तुम लंबे समय तक अपने कर्तव्य के निर्वहन में समर्पित नहीं होते तो क्या आमतौर पर इसके बारे में तुम्हें पता होता है? (हाँ।) तो, क्या तुम्हारी अंतरात्मा तुम्हें रोक पाती है और तुम्हें तुम्हारी अंतश्चेतना और तर्क के अनुसार तथा सत्य सिद्धांतों के अनुरूप काम करवा सकती है? यदि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य को समझता है, तो क्या तुम अपनी अंतरात्मा के आधार पर कार्य करने से ऊपर उठ कर सत्य सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करने की ओर बढ़ सकते हो? यदि तुम ऐसा कर सकते हो, तो तुम्हें बचाया जा सकता है। अपना कर्तव्य निर्वाह करते हुए कठिनाई सहने योग्य होना कोई आसान काम नहीं है। किसी खास तरह के काम को अच्छी तरह से कर पाना भी आसान नहीं होता। यह निश्चित है कि ये काम कर सकने वालों के भीतर परमेश्वर के वचनों का सत्य काम कर रहा है। ऐसा नहीं है कि जन्म से ही उनमें कठिनाई और थकान का डर नहीं था। ऐसा व्यक्ति कहाँ मिलेगा? इन सभी लोगों के पास कुछ प्रेरणा है, और उनकी नींव के रूप में थोड़ा सा परमेश्वर के वचनों का सत्य है। वे जब अपने कर्तव्य ग्रहण करते हैं, तो उनका दृष्टिकोण और रवैया बदल जाता है—उनके लिए अपने कर्तव्यों का निर्वहन आसान हो जाता है और थोड़ा सा शारीरिक कष्ट और थकान सहना उन्हें महत्वहीन लगने लगता है। जो लोग सत्य को नहीं समझते और चीजों के बारे में जिनके विचार नहीं बदले हैं वे मानवीय विचारों, धारणाओं, स्वार्थपूर्ण इच्छाओं और व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के अनुसार जीते हैं, इसलिए वे अपने कर्तव्य निभाने के प्रति निरुत्साही और अनिच्छुक होते हैं। उदाहरण के लिए, जब गंदा और थका देने वाला काम करने की बात आती है, तो कुछ लोग कहते हैं, “मैं परमेश्वर के घर की व्यवस्था का पालन करूँगा। कलीसिया मेरे लिए जिस भी काम की व्यवस्था करेगी, मैं उसे करूँगा, चाहे वह गंदा या थका देने वाला काम हो, या फिर वह प्रभावशाली हो या अनुल्लेखनीय काम हो। मेरी कोई माँग नहीं है और मैं इसे अपना कर्तव्य मानकर स्वीकार करूँगा। यह परमेश्वर का मुझे दिया आदेश है, और थोड़ी-सी गंदगी और थकान वे कठिनाइयाँ हैं जिन्हें मुझे सहन करना चाहिए।” इसके परिणामस्वरूप, जब वे अपने काम में लगे होते हैं, तो उन्हें किसी कठिनाई का बिल्कुल अनुभव नहीं होता। दूसरों को यह गंदा और थका देने वाला लग सकता है, लेकिन उन्हें यह आसान लगता है, क्योंकि उनके हृदय शांत और सुव्यवस्थित हैं। वे यह काम परमेश्वर के लिए कर रहे होते हैं, इसलिए उन्हें नहीं लगता कि यह मुश्किल है। कुछ लोग गंदा, थका देने वाला या साधारण काम करने को अपने रुतबे और चरित्र का अपमान मानते हैं। वे इसे ऐसा समझते हैं जैसे दूसरे उनका सम्मान न करते हों, उनके साथ धींगा-मुश्ती करते हों, या उन्हें नीची निगाह से देखते हों। परिणामस्वरूप, वही काम और कार्यभार मिलने पर भी उन्हें यह कठिन लगता है। वे जो भी करते हैं, उसमें उनके हृदय में क्षोभ का भाव होता है और उन्हें लगता है कि चीजें वैसी नहीं हैं जैसी वे चाहते हैं या वे असंतोषजनक हैं। अंदर से वे नकारात्मकता और प्रतिरोध से भरे होते हैं। वे नकारात्मक और प्रतिरोधी क्यों हैं? इसकी जड़ क्या है? ज्यादातर, ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने पर उन्हें वेतन नहीं मिलता है; उन्हें लगता है जैसे वे मुफ्त में काम कर रहे हैं। इसका यदि कोई पुरस्कार होता तो शायद यह उनके लिए स्वीकार्य होता, लेकिन वे नहीं जानते कि उन्हें पुरस्कार मिलेंगे या नहीं। इसलिए, लोगों को लगता है कि कर्तव्य-निर्वाह का कोई महत्व नहीं है, वे इसे बिना किसी परिणाम के काम करने के बराबर मानते हैं, इसलिए जब कर्तव्यों के निर्वाह की बात आती है तो वे अक्सर नकारात्मक और प्रतिरोधी हो जाते हैं। क्या ऐसा नहीं है? साफ कहें तो ये लोग कर्तव्य निर्वहन के अनिच्छुक होते हैं। चूँकि उन पर कोई दबाव नहीं डालता, तब भी वे अपने कर्तव्य निभाने क्यों आते हैं? ऐसा इसलिए है क्योंकि वे खुद पर दबाव डालते हैं—क्योंकि आशीष पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने की उनकी इच्छा के कारण उनके पास अपने कर्तव्यों के निर्वहन के अलावा कोई विकल्प नहीं है। यह इस बात का प्रमाण है कि वे कितनी विकल्पहीनता में फंसे हुए हैं। परमेश्वर के साथ सौदा करने की कोशिश के पीछे उनकी यही मानसिकता है। कुछ लोग पूछते हैं कि ऐसे लोग अपने हृदय में नकारात्मकता और प्रतिरोध की समस्या का समाधान कैसे कर सकते हैं। इस समस्या का समाधान केवल सत्य पर संगति करके ही किया जा सकता है। यदि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, तो चाहे उनके साथ सत्य पर कितनी भी संगति की जाए, वे इसे स्वीकार करने में असमर्थ होंगे। उस स्थिति में, वे छद्म-विश्वासी हैं, और बेनकाब हो चुके हैं। क्योंकि वे सौदे करना चाहते हैं और तब तक कुछ नहीं करना चाहते जब तक इससे उन्हें फायदा न हो, तो अगर परमेश्वर उन्हें प्रतिफल देने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश देने का वादा करे, और उन्हें लिखित गारंटी दे, तो वे निश्चित रूप से अपने कर्तव्यों का उत्साहपूर्वक निर्वहन करेंगे। वास्तव में, परमेश्वर का वादा सबके लिए है, और जो सत्य का अनुसरण करते हैं वे इसे हासिल कर सकते हैं। हालाँकि, जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे इसे प्राप्त करने में अक्षम हैं। ऐसा नहीं है कि वे परमेश्वर के वादे से अनजान हैं; बात बस इतनी है कि अपने हृदय में उन्हें यह अमूर्त और अनिश्चित लगता है। उनके लिए, परमेश्वर का वादा एक रबर चेक जैसा है—वे इस पर विश्वास करने में सक्षम नहीं हैं, और उनकी इसमें सच्ची आस्था नहीं है, और इस बारे में कुछ भी नहीं किया जा सकता। वे मूर्त चीजों की इच्छा रखते हैं, और यदि तुम उन्हें वेतन दोगे, तो उनमें निश्चित रूप से ऊर्जा आ जाएगी। परंतु, जिनमें अंतश्चेतना और तर्क नहीं है, जरूरी नहीं कि वे ऊर्जावान हो जाएं; वे बहुत घटिया हैं। यदि उन्हें धर्मनिरपेक्ष दुनिया में सेवायोजित किया जाता, तो भी वे लगन से काम नहीं करते, अस्थिर और ढीले होते, और उन्हें निश्चित रूप से काम से निकाल दिया जाता। सीधे-सीधे यह उनकी प्रकृति संबंधी समस्या है। जो लोग अपने कर्तव्य-निर्वाह में लगातार लापरवाह और बेपरवाह होते हैं, उनके लिए एकमात्र समाधान उन्हें निकालना और हटाना ही है। सत्य को स्वीकार न करने वालों के लिए कोई दूसरा रास्ता नहीं है। उनके सभी बहाने और सफाइयाँ अनुचित हैं और उनके चरित्र पर चर्चा करना आवश्यक नहीं है।
आजकल अधिकतर लोग कर्तव्य पालन करने लगे हैं। क्या तुम लोग समझते हो कि कर्तव्य क्या हैं, वे कैसे उत्पन्न होते हैं और उन्हें कौन देता है? (कर्तव्य परमेश्वर द्वारा लोगों को दिए गए आदेश हैं।) यह सही है। यदि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो और उसके घर आते हो, यदि तुम परमेश्वर के आदेश को स्वीकार कर पाते हो, तो तुम उसके घर के सदस्य हो। परमेश्वर का घर तुम्हारे लिए जिस कार्य की व्यवस्था करता है, परमेश्वर तुम्हें जिस रास्ते पर चलने को कहता है, और परमेश्वर ने तुम्हें जो आदेश दिए हों, वे तुम्हारे कर्तव्य हैं और ये वही हैं जो परमेश्वर ने तुम्हें दिए हैं। जब तुम परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते हो, उसके इरादों को समझते हो, और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं को सुनते और समझते हो, जब तुम अपने हृदय में जानते हो कि तुम्हें कौन से कर्तव्य का निर्वाह करना चाहिए और तुम कौन-सी जिम्मेदारियाँ पूरी करने में सक्षम हो, और जब तुम परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करते हो और अपना कर्तव्य निभाना शुरू करते हो, तो तुम परमेश्वर के घर के सदस्य बन जाते हो और सुसमाचार फैलाने का हिस्सा बन जाते हो। परमेश्वर तुम्हें अपने घर का सदस्य और अपने कार्यों को फैलाने का एक भाग मानता है। इस बिंदु पर, तुम्हारे पास वह कर्तव्य है जिसका तुम्हें निर्वाह करना चाहिए। तुम जो कुछ भी करने में सक्षम हो, जो कुछ भी हासिल करने में सक्षम हो, वे तुम्हारी जिम्मेदारियाँ और तुम्हारा कर्तव्य हैं। कहा जा सकता है कि वे परमेश्वर का आदेश हैं, तुम्हारा मिशन हैं और तुम्हारे निर्दिष्ट कर्तव्य हैं। कर्तव्य परमेश्वर से आते हैं; ये वे ज़िम्मेदारियाँ और आदेश हैं जिन्हें परमेश्वर मनुष्य को सौंपता है। तो फिर, मनुष्य को उन्हें कैसे समझना चाहिए? “चूँकि यह मेरा कर्तव्य और परमेश्वर द्वारा मुझे दिया गया आदेश है, इसलिए यह मेरा दायित्व और जिम्मेदारी है। यह उचित ही है कि मैं इसे अपना परम कर्तव्य समझूं। मैं इसे मना या अस्वीकार नहीं कर सकता; मैं इसमें चुनाव नहीं कर सकता। जो मुझे सौंपा गया है, निश्चित रूप से मुझे वही करना चाहिए। ऐसा नहीं है कि मैं चयन का हकदार नहीं हूँ—पर यह ऐसा है कि मुझे चयन नहीं करना चाहिए। यही वह भाव है जो किसी सृजित प्राणी में होना चाहिए।” यह समर्पण का रवैया है। कुछ लोग परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं को स्वीकार करने में असमर्थ रहते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करने में लगातार सबसे अच्छी चीजों का चयन करते रहते हैं और हमेशा ऐसा काम करना चाहते हैं जो आसान हो और जिसमें उन्हें आनंद आए। इससे पता चलता है कि उनका कद बहुत छोटा है, और उनके पास सामान्य मानवीय तर्कबुद्धि नहीं है। यदि ऐसा करने वाला कोई युवा हो जिसे घर पर बहुत लाड़-प्यार देकर बिगाड़ा गया हो कि उसका कभी किसी कठिनाई से सामना ही न हुआ हो, तो उसका थोड़ा जिद्दी होना समझ में आता है। जब तक वह सत्य को स्वीकार कर सकेगा, यह सब धीरे-धीरे बदल जाएगा। परंतु यदि 30 या 40 वर्ष का कोई वयस्क इस तरह का विद्रोही व्यवहार करे, तो यह आलस्य की समस्या है। आलस्य की बीमारी जन्मजात होती है और इसका इलाज सबसे कठिन होता है। यह लोगों की प्रकृति संबंधी समस्या है, और विशेष वातावरण या स्थितियों में कोई अन्य विकल्प न छोड़े जाने की स्थिति में ही ऐसे लोग थोड़ी कठिनाई और थकान को सहन करने में सक्षम होते हैं। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे कुछ भिखारी अच्छी तरह से जानते हैं कि भिखारी होने के कारण दूसरे लोग उन्हे हेय समझते हैं और भेदभाव करते हैं, लेकिन अपनी काहिली और काम करने की अनिच्छा के कारण उनके पास भीख माँगने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता। अन्यथा, वे भूखे मर जाएंगे। संक्षेप में, यदि कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य कर्तव्यनिष्ठा और जिम्मेदारी से नहीं निभा सकता, तो देर-सबेर उसे हटा दिया जाएगा। सबसे बड़ा अपराध परमेश्वर पर विश्वास करना किंतु उसके प्रति समर्पित न होना है। यदि तुम अपना कर्तव्य निभाने से इनकार करते हो या लगातार कठिनाइयों से बचते रहते हो और थकने से डरते हो, तो तुम अंतश्चेतनाहीन और तर्कहीन व्यक्ति हो। तुम कर्तव्यों का पालन करने के लिए अनुपयुक्त हो, और तुम जा सकते हो। एक दिन, जब तुम्हें अनुभव होगा कि अपना कर्तव्य नहीं निभाना सृष्टि के प्रभु द्वारा तुम्हें दिए गए आदेश को अस्वीकार करने के समान है, और तुम ऐसे व्यक्ति हो जो अंतश्चेतना और तर्क के बिना, परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह कर रहे हो, जब तुम्हें अनुभव होगा कि परमेश्वर में विश्वास करने वालों को अपने कर्तव्यों का अच्छी तरह से निर्वाह करना चाहिए और कि यह आवश्यक है, तो तुम्हें अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहिए। यह समर्पण है। यदि कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य में विद्रोही या नकारात्मक है, अर्थात, यदि वह परमेश्वर के प्रति समर्पण का पूर्ण अभाव दिखाता है, तो ऐसा व्यक्ति ईमानदारी से उसके लिए स्वयं को खपा नहीं रहा है। स्वेच्छा से अपने कर्तव्य का अच्छी तरह से निर्वाह करना परमेश्वर के प्रति समर्पण की न्यूनतम अभिव्यक्ति है। तो, कर्तव्य कैसे उत्पन्न होते हैं? (कर्तव्य परमेश्वर से आते हैं; वे परमेश्वर द्वारा लोगों को दी गई जिम्मेदारियाँ हैं।) कर्तव्य परमेश्वर द्वारा लोगों को दी गई जिम्मेदारियाँ हैं, तो क्या अविश्वासियों के भी कर्तव्य हैं? (नहीं, उनके कर्तव्य नहीं हैं।) तुम ऐसा क्यों कहते हो कि उनके कर्तव्य नहीं हैं? (वे परमेश्वर के घर के लोग नहीं हैं।) यह सही है, अविश्वासी केवल अपने भौतिक जीवन के लिए खुद को व्यस्त रखते हैं, और उनके कार्य कर्तव्य कहलाने के योग्य नहीं हैं। अविश्वासी लोग संसार के हैं और शैतान के हैं। परमेश्वर केवल उनके जीवन की नियति की व्यवस्था करता है—उनके जन्म का समय, जिस परिवार में वे पैदा होते हैं, बड़े होने पर वे जो कार्य करते हैं, और उनकी मृत्यु का समय—वह उन्हें नहीं चुनता, न ही वह उन्हें बचाता है। जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं वे अलग किस्म के होते हैं। छोटे पैमाने पर, परमेश्वर के घर में वे जो भी कार्य करते हैं वे ऐसे कर्तव्य हैं जिन्हें उन्हें निभाना चाहिए। व्यापक पैमाने पर, परमेश्वर की संपूर्ण प्रबंधन योजना के अंतर्गत प्रत्येक सृजित प्राणी द्वारा निभाया गया कर्तव्य परमेश्वर के कार्य में सहयोग करना है। सीधे शब्दों में कहें तो, वे परमेश्वर की प्रबंधन योजना को सेवा प्रदान कर रहे हैं। तुम चाहे लगन के साथ सेवा प्रदान करो या न करो, तुम परमेश्वर की इच्छानुसार काम करने वाला व्यक्ति बनने से बहुत दूर हो। वास्तव में किसी व्यक्ति को केवल तभी परमेश्वर के लोगों में से एक और एक मानक स्तर का सृजित प्राणी माना जा सकता है जब वह वास्तव में अपना कर्तव्य निभा सकता हो, परमेश्वर के लिए गवाही देने का परिणाम प्राप्त कर सकता हो और उसकी स्वीकृति प्राप्त कर सकता हो। यदि तुम परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपे गए प्रत्येक कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाते हो और इसे इस ढंग से निभाते हो जो मानक स्तर का हो तो तुम परमेश्वर के घर के सदस्य हो और ऐसे व्यक्ति हो जिसे परमेश्वर अपने घर के व्यक्ति के रूप में पहचानता है।
अंश 36
इस गीत के बोल “एक ईमानदार व्यक्ति होना बहुत खुशी की बात है” काफी व्यावहारिक हैं, और मैंने संगति के लिए कुछ पँक्तियाँ चुनी हैं। आइए सबसे पहले इस पँक्ति पर संगति करें, “मैं पूरे हृदय और मस्तिष्क से अपना कर्तव्य पालन करता हूँ, और मुझे देह की कोई चिंता नहीं है।” यह कौन-सी दशा है? ये कैसे व्यक्ति हैं जो पूरे हृदय और मस्तिष्क से अपना कर्तव्य पालन कर सकते हैं? क्या उनके पास अंतरात्मा है? क्या उन्होंने एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी जिम्मेदारी पूरी की है? क्या उन्होंने किसी भी तरह से परमेश्वर को प्रतिदान दिया है? (हाँ।) अपना कर्तव्य पालन पूरे हृदय और मस्तिष्क से कर पाने का मतलब यह है कि वे इसे गंभीरता से, जिम्मेदारी से, बिना अनमने हुए, बिना चालाकी किए या ढिलाई बरते और जिम्मेदारी से भागे बिना पूरा करते हैं। उनका रवैया उचित है और उनकी दशा एवं मानसिकता सामान्य है। उनके पास विवेक और अंतरात्मा है, वे परमेश्वर के प्रति विचारशील हैं, और वे अपने कर्तव्य के प्रति वफादार और समर्पित हैं। “देह की कोई चिंता नहीं है” का क्या अर्थ है? यहाँ भी कुछ दशाएँ काम कर रही हैं। इसका मुख्य अर्थ यह है कि वे अपने देह के भविष्य के बारे में चिंतित नहीं हैं और वे आगे आने वाली चीजों की योजना नहीं बनाते हैं। यानी वे यह नहीं सोचते कि बूढ़े होने पर वे क्या करेंगे, उनकी देखभाल कौन करेगा, या तब वे कैसे रहेंगे। वे इन चीजों पर विचार नहीं करते हैं, और इसके बजाय सभी चीजों में परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करते हैं। अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से पूरा करना उनका पहला और सबसे महत्वपूर्ण कार्य है—अपने कर्तव्य पर कायम रहना और परमेश्वर के आदेश को कायम रखना सबसे महत्वपूर्ण चीजें हैं। जब लोग सृजित प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभा सकते हैं तो क्या उनमें कुछ मानव की समानता नहीं है? इसमें मानव की समानता है। लोगों को कम से कम अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए, समर्पित होना चाहिए और अपना पूरा हृदय और मस्तिष्क उसमें लगाना चाहिए। “अपने कर्तव्य पर कायम रहने” का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि लोगों को चाहे जितनी भी कठिनाइयों का सामना करना पड़े, वे अपना कार्य नहीं त्यागते, भगोड़े नहीं बनते या अपनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हटते। वे वो सब करते हैं जो वे कर सकते हैं। अपने कर्तव्य पर कायम रहने का यही मतलब है। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हारे लिए किसी कार्य की व्यवस्था की गई है, और तुम पर नजर रखने, तुम्हारी निगरानी करने या तुमसे आग्रह करने के लिए कोई नहीं है। तुम्हारा कर्तव्य पर कायम रहना कैसा दिखेगा? (परमेश्वर की जाँच स्वीकारना और उसकी उपस्थिति में रहना।) परमेश्वर की जाँच स्वीकारना पहला कदम है; वह इसका एक हिस्सा है। दूसरा हिस्सा है पूरे हृदय और मस्तिष्क से अपना कर्तव्य पूरा करना। इसे पूरे हृदय और मस्तिष्क से पूरा करने में सक्षम होने के लिए तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें सत्य स्वीकारना चाहिए और उसे अभ्यास में लाना चाहिए; अर्थात्, परमेश्वर जो भी माँग करे, तुम्हें उसे स्वीकारना चाहिए और उस माँग के प्रति समर्पण करना चाहिए; तुम्हें अपना कर्तव्य वैसे ही सँभालना चाहिए जैसे तुम अपने निजी मामलों को सँभालते हो, किसी और को तुम पर निगाह रखने, तुम्हारी निगरानी करने, जाँच करने की जरूरत नहीं है, और यह सुनिश्चित करने के लिए कि तुम इसे सही कर रहे हो, तुम पर नजर रखने, तुम जो कर रहे हो उसका पर्यवेक्षण करने, या यहाँ तक कि काट-छाँट करने की भी जरूरत नहीं है। तुम्हें मन ही मन सोचना चाहिए, “यह कर्तव्य निभाना मेरी जिम्मेदारी है। यह मेरा हिस्सा है, और चूँकि यह मुझे करने के लिए दिया गया है, और मुझे इसके सिद्धांत बताए गए हैं और मैंने उन्हें समझ लिया है, मैं इसे एकाग्रचित्त होकर करता रहूँगा। मैं इसे अच्छी तरह संपन्न होते देखने के लिए हर संभव प्रयास करूँगा।” तुम्हें इस कर्तव्य को निभाने में दृढ़ रहना चाहिए, और किसी भी व्यक्ति, घटना या चीज के कारण बाध्य नहीं होना चाहिए। अपने पूरे हृदय और मस्तिष्क से अपने कर्तव्य पर कायम रहने का यही मतलब है, और लोगों में यही सदृशता होनी चाहिए। तो, लोगों को पूरे हृदय और मस्तिष्क से अपने कर्तव्य पर कायम रहने के लिए किस चीज से लैस होना चाहिए? सबसे पहले उनके पास वह अंतरात्मा होनी चाहिए, जो सृजित प्राणियों के पास होनी जरूरी है। यह न्यूनतम शर्त है। इसके अलावा उन्हें समर्पित भी होना चाहिए। एक मनुष्य के तौर पर परमेश्वर का आदेश स्वीकारने के लिए व्यक्ति को समर्पित होना चाहिए। उसे पूरी तरह सिर्फ परमेश्वर के प्रति समर्पित होना चाहिए और वह अनमना या जिम्मेदारी लेने में विफल नहीं हो सकता; अपनी रुचि या मनोदशा के आधार पर काम करना गलत है, यह समर्पित होना नहीं है। समर्पित होने से क्या आशय है? इसका आशय यह है कि अपने कर्तव्य निभाते समय, तुम अपनी मनोदशा, वातावरण, लोगों, घटनाओं और चीजों से प्रभावित और विवश नहीं होते हो। तुम्हें मन में सोचना चाहिए, “मैंने यह आदेश परमेश्वर से स्वीकारा है; उसने यह मुझे सौंपा है। यही तो मुझे करना चाहिए, अतः मैं इसे अपना ही मामला मानकर जिस भी तरीके से अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं उस तरह इस काम को करूँगा, परमेश्वर को संतुष्ट करने पर जोर दूँगा।” जब तुम इस दशा में होते हो तो न केवल तुम्हारी अंतरात्मा नियंत्रण में होती है, बल्कि तुममें लगन भी मौजूद होती है। यदि तुम काम में दक्षता या परिणाम पाने की आशा किए बिना इसे बस यों ही पूरा कर देने में संतुष्ट हो और ऐसा महसूस करते हो कि कुछ प्रयास कर लेना ही पर्याप्त है, तो यह केवल लोगों के अंतरात्मा का मानक पूरा करना है और इसे लगन नहीं माना जा सकता है। परमेश्वर के प्रति समर्पित होना अंतरात्मा के मानक से उच्चतर अपेक्षित मानक है। यह केवल अपने सारे प्रयास झोंकना नहीं होता; तुम्हें इसमें अपना सम्पूर्ण हृदय भी लगाना चाहिए। तुम्हें दिल से अपने कर्तव्य को हमेशा अपना काम मानना चाहिए, इस काम के लिए भार उठाना चाहिए, कोई छोटी-सी गलती करने पर या असावधान होने की दशा में फटकार सहनी चाहिए, ऐसा महसूस करना चाहिए कि तुम ऐसा आचरण नहीं कर सकते क्योंकि इससे तुम परमेश्वर के बहुत बड़े ऋणी बन जाते हो। जिन लोगों के पास सच्चे अर्थों में अंतरात्मा और विवेक होता है, वे अपने कर्तव्य इस तरह निभाते हैं मानो वे उनके अपने ही काम हों, और इस बात की परवाह नहीं करते कि कोई उनकी चौकसी या निगरानी कर रहा है या नहीं। परमेश्वर उनसे प्रसन्न हो या नहीं या वो उनके साथ चाहे जैसा भी व्यवहार करे, वे अपने कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के सौंपे हुए आदेश पूरा करने की खुद से कठोर अपेक्षा करते हैं। इसे लगन कहते हैं। क्या यह अंतरात्मा के मानक स्तर से अधिक ऊँचा मानक नहीं है? अंतरात्मा के मानक के अनुसार कार्य करते समय लोग अक्सर बाहरी चीजों से प्रभावित होते हैं, या सोचते हैं कि अपने कर्तव्य के लिए सारे प्रयास लगा देना ही पर्याप्त है; शुद्धता का स्तर उतना ऊँचा नहीं है। लेकिन जब लगन की और अपने कर्तव्य को समर्पित होकर कायम रहने में सक्षम होने की बात की जाए तो शुद्धता का स्तर अधिक होता है। यह मतलब केवल प्रयास करना भर नहीं है; इसके लिए तुम्हें अपना पूरा हृदय, मस्तिष्क और शरीर अपने कर्तव्य के लिए लगाना होगा। अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए, तुम्हें कभी-कभी थोड़ी शारीरिक कठिनाई भी सहनी पड़ेगी। तुम्हें कीमत चुकानी ही होगी, और अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपने सारे विचार समर्पित करने होंगे। चाहे तुम किसी भी परिस्थिति का सामना करो, उनके कारण तुम्हारे कर्तव्य पर असर नहीं पड़ेगा या तुम्हारा कर्तव्य निभाने में देर नहीं होगी, और तुम परमेश्वर को संतुष्ट करने में सक्षम रहोगे। ऐसा करने के लिए, तुम्हें कीमत चुकाने में सक्षम होना चाहिए। तुम्हें अपना दैहिक परिवार, व्यक्तिगत मामले और स्वार्थ छोड़ देना चाहिए। तुम्हें घमंड, अभिमान, भावनाओं, भौतिक सुखों और यहाँ तक कि अपने यौवन के सर्वोत्तम वर्षों, अपनी शादी, अपने भविष्य और भाग्य जैसी चीजों को भी त्याग और छोड़ देना चाहिए और तुम्हें स्वेच्छा से अपना कर्तव्य बखूबी निभाना चाहिए। तब तुम्हें लगन हासिल कर चुके होगे और इस तरह जीवन जीने से तुममें मानव की समानता होगी। इस तरह के लोगों के पास न केवल अंतरात्मा होती है, बल्कि वे अंतरात्मा के मानक का उपयोग एक नींव के रूप में करते हैं जिससे वे अपने आप से उस लगन की माँग कर सकें जिसकी माँग परमेश्वर मनुष्य से करता है और इस लगन का उपयोग अपने मूल्यांकन के साधन के रूप में करते हैं। वे इस लक्ष्य के लिए लगन से प्रयास करते हैं। ऐसे लोग पृथ्वी पर दुर्लभ हैं। परमेश्वर के चुने हुए एक हजार या दस हजार लोगों में ऐसा केवल एक ही होता है। क्या ऐसे लोग मूल्यवान जीवन जीते हैं? क्या ये वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर संजोता है? निःसंदेह वे मूल्यवान जीवन जीते हैं और ये वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर संजोता है।
इस गीत की अगली पँक्ति कहती है, “भले ही मेरी योग्यता कम है, लेकिन मेरे पास एक ईमानदार दिल है।” ये शब्द बहुत वास्तविक लगते हैं, और उस अपेक्षा के बारे में बताते हैं जो परमेश्वर लोगों से चाहता है। कैसी अपेक्षा? यही कि यदि लोगों में योग्यता की कमी है, तो यह दुनिया का अंत नहीं है, लेकिन उनके पास ईमानदार हृदय होना चाहिए, और यदि उनके पास यह है, तो वे परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने में सक्षम होंगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारी स्थिति या पृष्ठभूमि क्या है, तुम्हें एक ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए, ईमानदारी से बोलना चाहिए, ईमानदारी से कार्य करना चाहिए, पूरे हृदय और मस्तिष्क से अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम होना चाहिए, अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित होना चाहिए, चालाकी करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, धूर्त या कपटी व्यक्ति मत बनो, झूठ मत बोलो, धोखा मत दो, और घुमा-फिरा कर बात मत करो। तुम्हें सत्य के अनुसार कार्य करना चाहिए और ऐसा व्यक्ति बनना चाहिए जो सत्य का अनुसरण करे। बहुत-से लोगों को लगता है कि उनमें कम योग्यता है और वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से या मानक के अनुरूप नहीं निभाते हैं। वे जो करते हैं उसमें अपना सर्वश्रेष्ठ देते हैं, लेकिन वे सिद्धांतों को कभी भी समझ नहीं पाते हैं, और अभी बहुत अच्छे परिणाम नहीं दे पाते हैं। अंततः वे केवल यह शिकायत कर पाते हैं कि उनकी योग्यता बहुत कम है, और वे नकारात्मक हो जाते हैं। तो, क्या जब किसी व्यक्ति की योग्यता कम हो तो आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं है? कम योग्यता होना कोई घातक बीमारी नहीं है, और परमेश्वर ने कभी नहीं कहा कि वह कम योग्यता वाले लोगों को नहीं बचाता। जैसा कि परमेश्वर ने पहले कहा था, वह उन लोगों से दुखी होता है जो ईमानदार लेकिन अज्ञानी हैं। अज्ञानी होने का क्या मतलब है? कई मामलों में अज्ञानता कम योग्यता के कारण आती है। जब लोगों में योग्यता कम होती है तो उन्हें सत्य की सतही समझ होती है। यह विशिष्ट या पर्याप्त व्यावहारिक नहीं होती, और अक्सर सतही स्तर या शाब्दिक समझ तक ही सीमित होती है—यह धर्म-सिद्धांतों और विनियमों तक ही सीमित होती है। इसीलिए वे कई समस्याओं को स्पष्ट रूप से देख नहीं पाते हैं, और अपना कर्तव्य निभाते समय कभी भी सिद्धांतों को नहीं समझ पाते हैं, या अपना कर्तव्य अच्छी तरह नहीं निभा पाते हैं। तो क्या परमेश्वर कम योग्यता वाले लोगों को नहीं चाहता? (वह चाहता है।) परमेश्वर लोगों को कैसा मार्ग और दिशा दिखाता है? (एक ईमानदार व्यक्ति बनने का।) क्या ऐसा कहने मात्र से तुम एक ईमानदार व्यक्ति बन सकते हो? (नहीं, तुममें एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यक्तियाँ होनी चाहिए।) एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? सबसे पहले, परमेश्वर के वचनों के बारे में कोई संदेह नहीं होना। यह ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यक्तियों में से एक है। इसके अलावा, सबसे महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है सभी मामलों में सत्य की खोज और उसका अभ्यास करना—यह सबसे महत्वपूर्ण है। तुम कहते हो कि तुम ईमानदार हो, लेकिन तुम हमेशा परमेश्वर के वचनों को अपने मस्तिष्क के कोने में धकेल देते हो और वही करते हो जो तुम चाहते हो। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यक्ति है? तुम कहते हो, “भले ही मेरी योग्यता कम है, लेकिन मेरे पास एक ईमानदार दिल है।” फिर भी, जब तुम्हें कोई कर्तव्य मिलता है, तो तुम इस बात से डरते हो कि अगर तुमने इसे अच्छी तरह से नहीं किया तो तुम्हें पीड़ा सहनी और इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी, इसलिए तुम अपने कर्तव्य से बचने के लिए बहाने बनाते हो या फिर सुझाते हो कि इसे कोई और करे। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यक्ति है? स्पष्ट रूप से, नहीं है। तो फिर, एक ईमानदार व्यक्ति को कैसे व्यवहार करना चाहिए? उसे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए, जो कर्तव्य उसे निभाना है उसके प्रति समर्पित होना चाहिए और परमेश्वर के इरादों को पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। यह कई तरीकों से व्यक्त होता है : एक तरीका है अपने कर्तव्य को ईमानदार हृदय के साथ स्वीकार करना, अपने दैहिक हितों के बारे में न सोचना, और इसके प्रति अधूरे मन का न होना या अपने लाभ के लिए साजिश न करना। ये ईमानदारी की अभिव्यक्तियाँ हैं। दूसरा है अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए अपना तन-मन झोंक देना, चीजों को ठीक से करना, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य में अपना हृदय और प्रेम लगा देना। अपना कर्तव्य निभाते हुए एक ईमानदार व्यक्ति की ये अभिव्यक्तियाँ होनी चाहिए। अगर तुम जानते और समझते हो कि क्या करना है, लेकिन तुम इसे करते नहीं हो, तो तुम अपने कर्तव्य में अपना पूरा दिल और अपनी सारी शक्ति नहीं लगा रहे हो। बल्कि तुम धूर्त और काहिल हो। क्या इस तरह से अपना कर्तव्य निभाने वाले लोग ईमानदार होते हैं? बिल्कुल नहीं। परमेश्वर के पास ऐसे धूर्त और धोखेबाज लोगों का कोई उपयोग नहीं है; उन्हें निकाल देना चाहिए। परमेश्वर कर्तव्य निभाने के लिए सिर्फ ईमानदार लोगों का उपयोग करता है। यहाँ तक कि निष्ठावान मजदूर भी ईमानदार होने चाहिए। जो लोग हमेशा अनमने और धूर्त होते हैं और ढिलाई के तरीके तलाशते रहते हैं—वे सभी लोग धोखेबाज हैं, वे सभी राक्षस हैं। उनमें से कोई भी वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास नहीं करता और वे सभी निकाल दिए जाएँगे। कुछ लोग सोचते हैं, “ईमानदार व्यक्ति होने का मतलब बस सच बोलना और झूठ न बोलना है। ईमानदार व्यक्ति बनना तो वास्तव में आसान है।” तुम इस भावना के बारे में क्या सोचते हो? क्या ईमानदार व्यक्ति होने का दायरा इतना सीमित है? बिल्कुल नहीं। तुम्हें अपना हृदय प्रकट करना होगा और इसे परमेश्वर को सौंपना होगा, यही वह रवैया है जो एक ईमानदार व्यक्ति में होना चाहिए। इसलिए एक ईमानदार हृदय अनमोल है। इसका तात्पर्य क्या है? इसका तात्पर्य है कि एक ईमानदार हृदय तुम्हारे व्यवहार को नियंत्रित कर सकता है और तुम्हारी दशा बदल सकता है। यह तुम्हें सही विकल्प चुनने, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उसकी स्वीकृति प्राप्त करने के लिए प्रेरित कर सकता है। ऐसा हृदय सचमुच अनमोल है। यदि तुम्हारे पास इस तरह का ईमानदार हृदय है, तो तुम्हें इसी स्थिति में रहना चाहिए, तुम्हें इसी तरह व्यवहार करना चाहिए, और इसी तरह तुम्हें खुद को समर्पित करना चाहिए। तुम्हें इन गीतों पर गहन चिंतन करना चाहिए। कोई भी वाक्य अपने शाब्दिक अर्थ जितना सरल नहीं है, और यदि तुम वास्तव में इस पर विचार करने के बाद इसे समझते हो तो तुम्हें अवश्य कुछ हासिल होगा।
आइए गीत की एक और पँक्ति देखें : “परमेश्वर के इरादों को पूरा करने के लिए सभी चीजों में समर्पित रहो।” इन शब्दों में अभ्यास का मार्ग है। कुछ लोग अपना कर्तव्य करते समय जब कठिनाइयों का सामना करते हैं तो वे नकारात्मक हो जाते हैं, और इससे वे अपना कर्तव्य पालन करने के अनिच्छुक हो जाते हैं। इन लोगों के साथ कुछ गड़बड़ है। क्या वे ईमानदारी से स्वयं को परमेश्वर के लिए खपा भी रहे हैं? उन्हें इस बात पर विचार करना चाहिए कि कठिनाइयों का सामना करने पर वे नकारात्मक क्यों हो जाते हैं, और वे समस्याओं को हल करने के लिए सत्य की तलाश क्यों नहीं कर पाते हैं। यदि वे आत्म-चिंतन कर सत्य खोज सकें, तो वे अपनी समस्याओं को समझ लेंगे। दरअसल, लोगों के लिए सबसे बड़ी कठिनाई मुख्य रूप से भ्रष्ट स्वभाव की समस्या है। यदि तुम सत्य की खोज कर सकते हो, तो तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करना आसान होगा। जैसे ही तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक कर लोगे, तुम परमेश्वर के इरादे पूरे करने के लिए सभी चीजों में समर्पित होने में सक्षम हो जाओगे। “सभी चीजों” का अर्थ है कि चाहे वह कुछ भी हो, चाहे वह कुछ ऐसा हो जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया हो, कुछ ऐसा हो जिसकी व्यवस्था किसी अगुआ या कार्यकर्ता ने तुम्हारे लिए की हो, या कुछ ऐसा हो जिसका सामना तुम्हें संयोगवश करना पड़ा हो, जब तक कि यह वही है जो तुम्हारे करने के लिए है और तुम अपनी जिम्मेदारी पूरी कर सकते हो, तुम इसे पूरी लगन से करते हो, और जो जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य तुम्हें निभाने चाहिए उन्हें पूरा करते हो, और परमेश्वर के इरादों को पूरा करना ही अपना सिद्धांत मानते हो। यह सिद्धांत थोड़ा भव्य लगता है और लोगों को इसका पालन करना थोड़ा कठिन लगता है। अधिक व्यावहारिक शब्दों में कहें तो इसका अर्थ है अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना। अपने कर्तव्य पर कायम रहना और उसे अच्छी तरह से पूरा करना आसान काम नहीं है। चाहे तुम अगुआ हो या कार्यकर्ता, या कोई अन्य कर्तव्य निभा रहे हो, तुम्हें कुछ सत्य समझ लेने चाहिए। क्या तुम सत्य को समझे बिना अपना कर्तव्य अच्छी तरह से पूरा कर सकते हो? क्या तुम सत्य सिद्धांतों का पालन किए बिना इसे अच्छी तरह से पूरा कर सकते हो? यदि तुम सत्य के सभी पहलुओं को समझते हो और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास कर सकते हो, तो तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से पूरा कर लोगे, अपने कर्तव्य पर कायम रहोगे, सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लोगे और परमेश्वर के इरादे पूरे कर सकोगे। यही अभ्यास का मार्ग है। क्या यह करना आसान है? तुम जो कर्तव्य निभाते हो, अगर तुम उसमें कुशल हो और इसे पसंद करते हो, तो तुम्हें लगता है कि यह तुम्हारी जिम्मेदारी और दायित्व है, और इसे करना पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायोचित है। तुम हर्ष, उल्लास, और सहज महसूस करते हो। यह ऐसी चीज है जिसे करने के लिए तुम इच्छुक हो और ऐसी चीज है जिसके प्रति तुम समर्पित हो सकते हो और तुम्हें महसूस होता है कि तुम परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हो। लेकिन जब एक दिन तुम्हें किसी ऐसे कर्तव्य का सामना करना पड़ता है जो तुम्हें पसंद नहीं है या जिसे तुमने पहले कभी नहीं किया है तो क्या तुम उसके प्रति समर्पित हो पाओगे? इससे यह परीक्षा हो जाएगी कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो या नहीं। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा कर्तव्य भजन मंडली में है, तुम्हें गाना आता है और इसमें तुम्हें आनंद भी आता है, तो तुम यह कर्तव्य निभाने के लिए तैयार रहोगे। यदि तुम्हें कोई अन्य कर्तव्य दिया जाए जिसमें तुम्हें सुसमाचार प्रचार के लिए कहा जाए और काम थोड़ा कठिन हो तो क्या तुम आज्ञा मान सकोगे? तुम इस पर विचार करते हो और कहते हो, “मुझे गाना पसंद है।” इसका अर्थ क्या है? इसका मतलब है कि तुम सुसमाचार प्रचार करना नहीं चाहते। इसका साफ-साफ मतलब यही है। तुम बस यही कहते रहते हो कि “मुझे गाना पसंद है।” यदि कोई अगुआ या कार्यकर्ता तुम्हें समझाने की कोशिश करता है, “तुम सुसमाचार प्रचार का प्रशिक्षण क्यों नहीं लेते और खुद को और अधिक सत्यों से सुसज्जित क्यों नहीं करते? यह जीवन में तुम्हारे विकास के लिए अधिक फायदेमंद होगा,” तुम अभी भी अपनी ही बात पर अड़े हो और कहते हो “मुझे गाना पसंद है और मुझे नृत्य पसंद है।” चाहे वे कुछ भी कहें, तुम सुसमाचार का प्रचार करने नहीं जाना चाहते। तुम जाना क्यों नहीं चाहते? (रुचि की कमी के कारण।) तुम्हारी रुचि नहीं है इसलिए तुम जाना नहीं चाहते—यहाँ समस्या क्या है? समस्या यह है कि तुम अपनी प्राथमिकताओं और व्यक्तिगत रुचि के अनुसार अपना कर्तव्य चुनते हो और समर्पण नहीं करते हो। तुममें समर्पण नहीं है, और यही समस्या है। यदि तुम इस समस्या को हल करने के लिए सत्य की खोज नहीं करते हो, तो तुम वास्तव में सच्चा समर्पण नहीं दिखा रहे हो। इस स्थिति में सच्चा समर्पण दिखाने के लिए तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम परमेश्वर के इरादे पूरे करने के लिए क्या कर सकते हो? यही वह समय है जब तुम्हें सत्य के इस पहलू पर चिंतन और संगति करने की आवश्यकता है। यदि तुम परमेश्वर के इरादे पूरे करने के लिए सभी चीजों में समर्पित होना चाहते हो, तो तुम इसे केवल एक कर्तव्य निभाकर नहीं कर सकते हो; तुम्हें परमेश्वर द्वारा दिए गए हर आदेश को स्वीकार करना चाहिए। चाहे वह तुम्हारी पसंद के अनुसार हो और तुम्हारी रुचियों से मेल खाता हो, या कुछ ऐसा हो जो तुम्हें पसंद नहीं है, पहले कभी नहीं किया हो, या कठिन हो, फिर भी तुम्हें इसे स्वीकार करना चाहिए और समर्पण करना चाहिए। तुम्हें न केवल इसे स्वीकार करना चाहिए, बल्कि तुम्हें सक्रिय रूप से सहयोग भी करना चाहिए, और अनुभव और प्रवेश करते समय इसके बारे में सीखना चाहिए। भले ही तुम्हें कष्ट झेलना पड़े, भले ही तुम थके-माँदे हो, अपमानित हो, या बहिष्कृत कर दिए गए हो, फिर भी तुम्हें इसे लगन से करना चाहिए। केवल इस तरह से अभ्यास करके ही तुम सभी चीजों में समर्पित हो पाओगे और परमेश्वर के इरादे पूरे कर पाओगे। तुम्हें इसे अपना व्यक्तिगत कामकाज नहीं, बल्कि कर्तव्य मानना चाहिए जिसे निभाना ही है। लोगों को कर्तव्यों को कैसे समझना चाहिए? उन्हें इसे सृष्टिकर्ता—परमेश्वर—द्वारा किसी व्यक्ति को करने के लिए दी गई चीज समझना चाहिए; लोगों के कर्तव्य ऐसे ही आरंभ होते हैं। परमेश्वर जो आदेश तुम्हें देता है, वह तुम्हारा कर्तव्य होता है, और यह पूरी तरह स्वाभाविक और उचित है कि तुम परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार अपना कर्तव्य निभाओ। अगर तुम्हें यह स्पष्ट है कि यह कर्तव्य परमेश्वर का आदेश है, कि यह तुम पर परमेश्वर के प्रेम और आशीष की वर्षा है, तो तुम परमेश्वर से प्रेम करने वाले हृदय के साथ अपना कर्तव्य स्वीकार कर सकोगे, और तुम अपना कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहोगे और तुम परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सभी मुश्किलों से उबरने में सफल रहोगे। जो लोग खुद को सचमुच परमेश्वर के लिए खपाते हैं, वे परमेश्वर के आदेश को कभी नहीं ठुकराते, वे कभी कोई कर्तव्य नहीं ठुकरा सकते। परमेश्वर तुम्हें चाहे जो भी कर्तव्य सौंपे, उसमें चाहे कितनी भी मुश्किलें क्यों न हों, तुम्हें मना करने के बजाय उसे स्वीकार करना चाहिए। अभ्यास का मार्ग यही है, यानी परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सभी चीजों में सत्य का अभ्यास करना और समर्पित रहना। यहाँ केंद्र बिंदु कहाँ है? यह “सभी चीजों में” है। “सभी चीजों” का मतलब जरूरी नहीं कि वे चीजें हों जो तुम्हें पसंद हों या जिनमें तुम अच्छे हो, ये वे चीजें तो बिल्कुल भी नहीं हैं जिनसे तुम वाकिफ हो। कभी-कभी वे ऐसी चीजें होंगी जिनमें तुम कुशल नहीं हो, ऐसी चीजें होंगी जिन्हें तुम्हें सीखने की जरूरत है, ऐसी चीजें जो कठिन हैं, या ऐसी चीजें होंगी जिनमें तुम्हें कष्ट सहना होगा। लेकिन चाहे कोई भी चीज हो, जब तक परमेश्वर ने यह तुम्हें सौंपी है, तुम्हें उससे यह स्वीकारनी चाहिए; तुम्हें इसे स्वीकार कर अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए, लगन के साथ करना चाहिए और परमेश्वर के इरादे पूरे करने चाहिए। यही अभ्यास का मार्ग है। चाहे जो हो जाए, तुम्हें हमेशा सत्य खोजना चाहिए और एक बार जब तुम निश्चित हो जाते हो कि किस प्रकार का अभ्यास परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है तो तुम्हें इसी प्रकार अभ्यास करना चाहिए। केवल ऐसा करके ही तुम सत्य का अभ्यास कर रहे होते हो, और केवल इसी तरह से तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो।
गीत की एक और पंक्ति इस प्रकार है, “मैं खुले दिल वाला और खरा हूँ, निष्कपट हूँ, प्रकाश में रहता हूँ।” मनुष्य को यह मार्ग कौन देता है? (परमेश्वर।) यदि कोई खुले दिल वाला और खरा है, तो वह एक ईमानदार व्यक्ति है। उसने अपना दिल और आत्मा पूरी तरह से परमेश्वर के लिए खोल दिए हैं, उसके पास छिपाने के लिए कुछ नहीं है, न किसी चीज से छिपने की जरूरत है। वह अपना दिल परमेश्वर को सौंप चुका है, उसे दिखा चुका है, यानी उसने अपना सर्वस्व उसे दे दिया है। तो क्या वह अब भी परमेश्वर से दूर रह सकता है? नहीं, वह नहीं रह सकता, और इसलिए उसके लिए परमेश्वर के प्रति समर्पण करना आसान हो जाता है। यदि परमेश्वर कहता है कि वह कपटी है, तो वह मान लेता है। यदि परमेश्वर कहता है कि वह अहंकारी और आत्मतुष्ट है, तो वह इसे भी मान लेता है, और वह बस इन चीजों को मानकर यहीं पर नहीं छोड़ देता—बल्कि वह पश्चात्ताप कर सकता है, और यह एहसास होने पर कि वह गलत है तो सत्य सिद्धांत हासिल करने का प्रयास कर अपनी त्रुटियों को दूर कर सकता है। उसे पता भी नहीं चलेगा कि उसने अपने कई गलत तौर-तरीके कब सुधार लिए, उसका छल-कपट, और अनमनापन कम होते चले जाएँगे। वह इस तरह जितने लंबे समय तक जीवन जिएगा, उतना ही खुलता जाएगा, सम्माननीय होता जाएगा और एक ईमानदार व्यक्ति बनने के लक्ष्य के उतने ही करीब पहुँच जाएगा। प्रकाश में रहने का यही अर्थ है। यह सारी महिमा परमेश्वर की है! अगर लोग प्रकाश में रहते हैं तो यह परमेश्वर का कार्य है—यह उनके शेखी बघारने का विषय नहीं है। जब लोग प्रकाश में रहते हैं, तो वे हर सत्य समझने लगते हैं, उनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है, उनके सामने जो भी मसला आता है, वे उसमें सत्य खोजना और उसका अभ्यास करना जानते हैं, वह अंतरात्मा और विवेक के साथ जीते हैं। भले ही उन्हें धार्मिक व्यक्ति नहीं कहा जा सकता, फिर भी परमेश्वर की दृष्टि में उनमें थोड़ी-बहुत मानव की समानता होती है, कम से कम वे अपनी कथनी-करनी में परमेश्वर से होड़ नहीं लेते, जब चीजें घटित होती हैं तो वे सत्य खोजते हैं और उनके पास परमेश्वर के प्रति समर्पण वाला दिल होता है। इसलिए वे अपेक्षाकृत सुरक्षित होते हैं और अब उनका परमेश्वर से विश्वासघात करना संभव नहीं होता। भले ही उनमें सत्य की बहुत गहरी समझ नहीं होती, फिर भी वे परमेश्वर का आज्ञापालन करने और उसके आगे समर्पण करने में सक्षम होते हैं, उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है और वे बुराई से दूर रह सकते हैं। जब उन्हें कोई कार्य या कर्तव्य सौंपा जाता है, तो वे उसका निर्वहन पूरे मन-मस्तिष्क और अपनी पूरी क्षमता से करते हैं। ऐसे व्यक्ति भरोसे के काबिल होते हैं और परमेश्वर को उन पर विश्वास होता है—ऐसे लोग रोशनी में जीते हैं। क्या प्रकाश में रहने वाले लोग परमेश्वर की जाँच स्वीकार कर पाते हैं? क्या वे अब भी परमेश्वर से अपना हृदय छिपाते हैं? क्या उनके पास अभी भी ऐसे राज होते हैं जिन्हें वे परमेश्वर को नहीं बता सकते? क्या उनमें अभी भी कोई छल-कपट, चालाकियाँ होती हैं? नहीं होतीं। वे पूरी तरह से परमेश्वर के लिए अपना हृदय खोल चुके होते हैं और ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे वे छिपाते हों या नजर से चुराकर रखते हों। वे खुलकर परमेश्वर को अपने दिल के राज बता सकते हैं, किसी भी चीज पर उसके साथ संगति कर सकते हैं, वह जो कुछ भी जानना चाहे, उसे बता सकते हैं। ऐसा कुछ भी नहीं होता जो वे परमेश्वर को नहीं बता सकते या नहीं दिखा सकते। जब लोग इस मानक को हासिल कर लेते हैं, तो उनका जीवन सहज, स्वतंत्र और मुक्त हो जाता है।
अंश 37
वे कौन से प्राथमिक सिद्धांत हैं जिन पर किसी व्यक्ति का कर्तव्य पालन आधारित होता है? व्यक्ति को परमेश्वर के घर के मानकों, सिद्धांतों और माँगों के अनुसार कार्य करना चाहिए, सत्य के अनुसार अभ्यास करना चाहिए और परमेश्वर के वचनों, सत्य का उपयोग करके और परमेश्वर के घर के कार्य और उसके हितों की रक्षा को सिद्धांत मानकर पूरा करते हुए अपने पूरे दिल और पूरी ताकत से अपने कर्तव्यों का अच्छे से पालन करना चाहिए। तो फिर आम तौर पर कोई अपने लिए कैसे कार्य करता है? वे जो चाहे करते हैं, अपने कार्य-कलापों में अपने हितों को प्राथमिकता देते हैं और उन्हें बाकी सब से ऊपर रखते हैं। वे वही करते हैं, जिसमें उनका अपना हित हो, पूरी तरह से अपनी स्वार्थी दैहिक इच्छाओं को पूरा करने के लिए कार्य करते हैं और न्याय, अंतरात्मा और विवेक पर जरा भी विचार नहीं करते; ऐसी बातें उनके दिल में नहीं आतीं। वे केवल शैतानी स्वभाव का पालन करते हैं और मनुष्य की प्राथमिकताओं के अनुसार कार्य करते हैं, इधर-उधर की योजनाएँ बनाते हैं और शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हैं। यह जीने का कैसा तरीका है? यह शैतान के जीने का तरीका है। परमेश्वर का अनुसरण करते समय और अपने कर्तव्यों का पालन करते समय व्यक्ति को सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए, और कम से कम उसके पास विवेक और तर्क होना चाहिए—यह न्यूनतम अपेक्षा है। कुछ लोग कहते हैं : “आज मेरा मूड खराब है, इसलिए मैं इस मामले में सतही रहना चाहता हूँ।” क्या यह काम करने का जमीर वाला तरीका है? (ऐसा नहीं है।) जब तुम लापरवाही से काम करना चाहते हो, तो क्या तुम इसके प्रति अपने जमीर से सचेत होते हो? (हाँ, हम होते हैं।) क्या कभी ऐसा भी होता है जब तुम इसके प्रति सचेत नहीं होते? (हाँ, होता है।) तो क्या तुम अपनी जाँच करने और इस तथ्य का पता लगाने में सक्षम होते हो? (कुछ हद तक होते हैं।) यह पता चलने के बाद कि तुम बेपरवाह थे, अगली बार जब तुम्हारे मन में अनमने होने के समान विचार आते हैं, तो क्या तुम उनके खिलाफ विद्रोह करने और उनका समाधान करने में सक्षम होते हो? (जब मुझे ऐसे विचारों के बारे में पता चलता है, तो मैं कुछ हद तक उनके खिलाफ विद्रोह कर सकता हूँ।) अपने विचारों और इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह करते समय हर बार मन में एक संघर्ष होगा, और यदि इस संघर्ष के अंत में तुम्हारी स्वार्थी इच्छाएँ प्रबल होती हैं, तो तुमने जानबूझकर परमेश्वर का विरोध किया है और खतरे में हो। मान लो कि तुम 10 वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते आए हो, और पहले तीन वर्षों तक तुम उलझन में रहते हो और कुछ हद तक उत्साही रहते हो, लेकिन तीन साल बाद तुम्हें एहसास होता है कि परमेश्वर में विश्वास करते समय व्यक्ति को सत्य का अभ्यास करना चाहिए, सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए, और अपनी दैहिक इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह करना चाहिए। फिर धीरे-धीरे तुम खुद अपनी भ्रष्टता और दुर्भावनाओं तथा अपनी दुष्ट और अहंकारी प्रकृति को पहचानना शुरू कर देते हो, और तब तुम वास्तव में खुद को जानने लगते हो—तुम अपने भ्रष्ट सार को जान जाते हो। तुम्हें महसूस होता है कि सत्य को स्वीकार करना अत्यंत आवश्यक है और यह तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों के समाधान के लिए महत्वपूर्ण है, और केवल इसी समय तुम्हें महसूस होता है कि सत्य-वास्तविकता का न होना काफी दयनीय है। यूँ तो हर बार जब भी तुम कोई भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हो, तुम्हारे हृदय में एक लड़ाई लड़ी जाती है, फिर भी तुम अपनी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते हो और अभी भी अपनी पसंदगियों के अनुसार कार्य करते हो। वस्तुतः तुम बखूबी जानते हो कि तुम्हारे दिल में अभी भी शैतान का स्वभाव शासन कर रहा है और इसलिए तुम्हारे लिए सत्य को अभ्यास में लाना कठिन है। यह साबित करता है कि तुममें कोई सत्य वास्तविकता बिल्कुल नहीं है और यह कहना कठिन है कि तुम उद्धार हासिल कर सकते हो कि नहीं। यदि तुम में वास्तव में संकल्प है तो तुम्हें उन सत्यों को अभ्यास में लाना चाहिए जिन्हें तुम समझते हो, और जब तुम इन सत्यों का अभ्यास करते हो तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन से भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें रोकते हैं, तुम्हें हमेशा परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उस पर भरोसा करना चाहिए, भ्रष्ट स्वभावों के समाधान के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए, भ्रष्ट स्वभावों के विरुद्ध लड़ने का साहस और अपनी दैहिक इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह करने का साहस रखना चाहिए। यदि तुम्हारी आस्था ऐसी है, तो तुम सत्य का अभ्यास कर सकते हो। हालाँकि कभी-कभार ऐसे समय भी आएँगे जब तुम असफल हो जाओगे, फिर भी तुम हतोत्साहित नहीं होगे और फिर भी शैतान पर विजय पाने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना कर सकोगे और उस पर भरोसा रख सकोगे। कई वर्षों तक इस तरह से लड़ते हुए, तुम्हारे अपनी दैहिक इच्छाओं पर विजय प्राप्त करने और सत्य का अभ्यास करने की घटनाएँ बढ़ जाएँगी और तुम्हारे असफल होने की घटनाएँ धीरे-धीरे कम हो जाएँगी और यदि तुम कभी-कभार असफल होते भी हो तो तुम निराश नहीं होगे और तब तक प्रार्थना करना और परमेश्वर का आदर करना जारी रखोगे जब तक सत्य को अभ्यास में लाने में सक्षम नहीं हो जाते। इसका मतलब यह होगा कि तुम्हारे लिए आशा बाकी है, कि बादल छँट गए हैं और तुम नीला आकाश देख सकते हो। जब तक ऐसे समय होंगे जब तुम सत्य का अभ्यास करते हुए सफल होते हो तो इससे यह साबित होता है कि तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जिसके पास संकल्प है और जिसके पास उद्धार प्राप्त करने में सक्षम होने की आशा है। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं वे अंततः इसका अभ्यास करते समय कई असफलताओं से गुजरने के बाद ही सत्य वास्तविकता में प्रवेश करते हैं। चाहे कोई कितनी भी बार असफल हो और चाहे वह कितना भी निराश क्यों न हो, जब तक वह परमेश्वर पर भरोसा कर सकता है और उसकी ओर देख सकता है, तब तक उसके पास हमेशा ऐसा समय आएगा जब वह सफल होगा। चाहे वे बार-बार असफल होते हों, जब तक वे हार नहीं मानते तब तक उनके लिए आशा बनी रहेगी। जब वह दिन आएगा जब उन्हें वास्तव में पता चलेगा कि वे सत्य का अभ्यास कर सकते हैं, सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकते हैं, प्रमुख मामलों में शैतान के साथ समझौता नहीं करते-विशेष रूप से अपने कर्तव्यों के पालन के मामले में-और अपनी गवाही पर दृढ़ता से बने रहते हुए भी अपने कर्तव्यों को नहीं छोड़ते, तब उनके बचाए जाने की पूरी आशा है।
हर बार जब तुम सत्य का अभ्यास करोगे, तो तुम एक अंदरूनी संघर्ष से गुजरोगे। क्या तुम लोगों में से किसी ने सत्य के अभ्यास में किसी संघर्ष का अनुभव नहीं किया है? बिल्कुल भी नहीं। जब कोई व्यक्ति सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर चुका हो और मुश्किल से ही कोई भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता हो, केवल तभी उसके लिए मूल रूप से बड़े संघर्ष नहीं होंगे। हालाँकि विशेष परिस्थितियों और कुछ संदर्भों में वह अभी भी थोड़ा संघर्ष करेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि जितना अधिक कोई व्यक्ति सत्य को समझता है, उतना ही कम वह संघर्ष करता है, और कोई व्यक्ति सत्य को जितना कम समझता है, उतने ही अधिक उसे संघर्ष करने पड़ते हैं। विशेष रूप से नए विश्वासियों के साथ, हर बार जब वे सत्य का अभ्यास करते हैं, तो उनके दिलों में होने वाले संघर्ष अत्यंत भयंकर होंगे। वे भयंकर क्यों होते हैं? क्योंकि लोगों को भ्रष्ट स्वभाव पीछे धकेलते रहते हैं, इसके अलावा न केवल उनकी प्राथमिकताएँ और दैहिक पसंद होती हैं, बल्कि उन्हें वास्तविक कठिनाइयाँ भी होती हैं। सत्य के एक पहलू को समझने के लिए तुम्हें इन चार पहलुओं के विरुद्ध संघर्ष करना होगा जो तुम्हें बाधित कर रहे हैं, जिसका अर्थ है कि सत्य को अभ्यास में लाने से पहले तुम्हें कम से कम इन तीन या चार अवरोधक बाधाओं से गुजरना होगा। क्या तुम लोगों को अपने भ्रष्ट स्वभावों के विरुद्ध निरंतर संघर्ष करने का यह अनुभव है? जब तुम्हें सत्य का अभ्यास करना होता है और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करनी होती है, तो क्या तुम लोग अपने भ्रष्ट स्वभावों की बाधा को दूर करने और सत्य के पक्ष में खड़े होने में सक्षम होते हो? उदाहरण के लिए, कलीसिया को शुद्ध करने का कार्य अंजाम देने के लिए तुम किसी के साथ सहयोग करते हो, लेकिन वे हमेशा भाई-बहनों से यह संगति करते हैं कि परमेश्वर लोगों को यथासंभव अधिकतम सीमा तक बचाता है और हमें लोगों के साथ प्रेम से पेश आना चाहिए और उन्हें पश्चात्ताप करने के अवसर प्रदान करने चाहिए। तुम्हें पता चलता है कि उनकी संगति में कुछ गड़बड़ है, और हालाँकि वे जो शब्द बोलते हैं वे बिल्कुल सही लगते हैं, लेकिन विस्तृत विश्लेषण करने पर तुम्हें पता चलता है कि वे इरादे और लक्ष्य पाल रहे हैं, किसी को नाराज नहीं करना चाहते, और कार्य व्यवस्थाओं को पूरा नहीं करना चाहते। जब वे इस तरह से संगति करते हैं, तो छोटे आध्यात्मिक कद वाले और विवेकहीन लोग उनसे बाधित हो जाएँगे, वे बेपरवाही से सिद्धांतहीन तरीके से प्रेम दिखाएँगे, दूसरों के प्रति विवेकशील होने की तरफ ध्यान नहीं देंगे, और मसीह-विरोधियों, कुकर्मियों और छद्म-विश्वासियों को उजागर नहीं करेंगे या उनकी सूचना नहीं देंगे। यह कलीसिया को शुद्ध करने के कार्य में बाधा है। यदि मसीह-विरोधियों, कुकर्मियों और छद्म-विश्वासियों को समय रहते निकाला नहीं जा सका तो यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के उसके वचनों को सामान्य रूप से खाने-पीने और उनके कर्तव्यों के सामान्य निर्वहन को प्रभावित करेगा और विशेष रूप से परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाते हुए कलीसिया के काम में गड़बड़ी और बाधा पैदा करेगा। ऐसे समय में तुम्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? जब तुम्हें समस्या का पता चले, तो तुम्हें सामने आकर इस व्यक्ति को उजागर करना चाहिए; तुम्हें उन्हें रोकना चाहिए और कलीसिया के कार्य की रक्षा करनी चाहिए। तुम सोच सकते हो : “हम सहकर्मी हैं। अगर मैंने उन्हें सीधे उजागर किया और उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया, तो क्या हमारे बीच मनमुटाव नहीं होगा? नहीं, मैं बस यूँ ही नहीं बोल सकता, मुझे थोड़ा और व्यवहार-कुशल होना पड़ेगा।” इसलिए तुम उन्हें एक सरल सा अनुस्मारक देते हुए उन्हें कुछ उपदेश देते हो। तुम्हारी बात सुनने के बाद वे इसे स्वीकार नहीं करते, और तुम्हें गलत ठहराने के लिए कई कारण गिना देते हैं। यदि वे इसे स्वीकार नहीं करते तो परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान पहुँचेगा। तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम परमेश्वर से प्रार्थना करोगे, कहोगे : “परमेश्वर, कृपया इसे व्यवस्थित करो और इसकी योजना बनाओ। उन्हें अनुशासित करो—मैं कुछ नहीं कर सकता।” तुम सोचते हो कि तुम उन्हें रोक नहीं सकते और इसलिए तुम उन्हें बिना रोक-टोक के जाने देते हो। क्या यह जिम्मेदाराना व्यवहार है? क्या तुम सत्य का अभ्यास करते हो? यदि तुम उन्हें रोक नहीं सकते, तो तुम अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इसकी सूचना क्यों नहीं देते? तुम इस मामले को किसी सभा में क्यों नहीं उठाते ताकि सभी इस पर संगति और चर्चा कर सकें? यदि तुम ऐसा नहीं करते, तो क्या तुम बाद में वास्तव में खुद को दोषी नहीं ठहराओगे? यदि तुम कहते हो, “मैं इसे प्रबंधित नहीं कर सकता, इसलिए मैं इसे अनदेखा कर दूँगा। मेरी अंतरात्मा साफ है,” तो फिर तुम्हारे पास किस प्रकार का दिल है? क्या यह दिल वास्तव में प्यार करने वाला है या दूसरों को नुकसान पहुँचाने वाला है? तुम्हारा दिल बहुत ही दुष्ट है, क्योंकि जब तुम्हारे साथ कुछ होता है, तो तुम लोगों को नाराज करने से डरते हो और सिद्धांतों का पालन नहीं करते। दरअसल तुम अच्छी तरह जानते हो कि इस व्यक्ति का इस तरह से काम करने का अपना उद्देश्य है और तुम इस मामले में उसकी बात नहीं सुन सकते। हालाँकि तुम सिद्धांतों का पालन करने और उन्हें दूसरों को गुमराह करने से रोकने में असमर्थ हो, और यह अंततः परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाता है। क्या तुम इसके बाद खुद को दोषी ठहराओगे? (मैं ऐसा करूँगा।) क्या खुद को दोषी ठहराने से तुम नुकसान को वापस ला पाओगे? उसकी भरपाई नहीं हो सकती। इसके बाद तुम फिर से विचार करते हो : “मैंने वैसे भी अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर ली हैं, और परमेश्वर यह जानता है। परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराई तक पड़ताल करता है।” ये किस तरह के शब्द हैं? ये छल-कपट वाले, शैतानी शब्द हैं जो मनुष्य और परमेश्वर दोनों को धोखा देते हैं। तुमने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं की हैं, और फिर भी उनसे बचने के लिए कारण और बहाने ढूँढ़ते हो। यह धोखेबाजी और अड़ियलपन है। क्या इस तरह के व्यक्ति में परमेश्वर के प्रति कोई ईमानदारी होती है? क्या उसमें न्याय की भावना होती है? (उसमें नहीं होती।) यह ऐसा व्यक्ति है जो जरा-भी सत्य स्वीकार नहीं करता, यह शैतान की किस्म का व्यक्ति है। जब तुम्हारे साथ कुछ घटित होता है, तो तुम सांसारिक आचरण के फलसफों के अनुसार जीते हो और सत्य का अभ्यास नहीं करते। तुम हमेशा दूसरों को नाराज करने से डरते हो, लेकिन परमेश्वर को नाराज करने से नहीं डरते, यहाँ तक कि अपने पारस्परिक संबंधों की रक्षा के लिए परमेश्वर के घर के हित भी त्याग दोगे। इस तरह कार्य करने के क्या दुष्परिणाम होते हैं? तुम अपने पारस्परिक संबंध तो अच्छी तरह से सुरक्षित कर लोगे, लेकिन परमेश्वर को नाराज कर दोगे, और वह तुम्हें ठुकरा देगा, और तुमसे गुस्सा हो जाएगा। संतुलन के लिहाज से इनमें से कौन-सी चीज बेहतर है? अगर तुम नहीं बता सकते, तो तुम पूरी तरह से भ्रमित हो; यह साबित करता है कि तुम्हें सत्य की थोड़ी-सी भी समझ नहीं है। अगर तुम इसी तरह चलते रहे और कभी समस्या को लेकर जागरूक नहीं हुए, तो वास्तव में खतरा बहुत बड़ा है और अगर अंत में तुम सत्य प्राप्त करने में असमर्थ रहे, तो नुकसान तुम्हारा ही होगा। अगर तुम इस मामले में सत्य की खोज नहीं करते और असफल हो जाते हो तो क्या तुम भविष्य में सत्य खोज पाओगे? अगर तुम अभी भी ऐसा नहीं कर सकते, तो यह अब नुकसान उठाने का मुद्दा नहीं रहेगा—अंततः तुम्हें हटा दिया जाएगा। अगर तुम्हारे पास एक चापलूस का इरादा और दृष्टिकोण है तो तब तुम सभी मामलों में सत्य का अभ्यास नहीं करोगे या सिद्धांतों को कायम नहीं रखोगे और तुम हमेशा असफल होओगे और नीचे गिरोगे। यदि तुम जागरूक नहीं होते और कभी सत्य नहीं खोजते तो तुम छद्म-विश्वासी हो और तुम कभी सत्य और जीवन हासिल नहीं करोगे। तब तुम्हें क्या करना चाहिए? इस तरह की चीजों से सामना होने पर तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी ही चाहिए और उसे पुकारना चाहिए, उससे उद्धार के लिए विनती करनी चाहिए और यह माँगना चाहिए कि वह तुम्हें आस्था और शक्ति दे और सिद्धांतों को कायम रखने में तुम्हें समर्थ बनाए, वो करो जो तुम्हें करना चाहिए, चीजों को सिद्धांतों के अनुसार सँभालो, उस स्थिति में मजबूती से खड़े रहो जहाँ तुम्हें होना चाहिए, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करो और परमेश्वर के घर के कार्य को होने वाले किसी भी नुकसान को रोको। अगर तुम अपने स्वार्थों, अपने अभिमान और एक चापलूस होने के अपने दृष्टिकोण के खिलाफ विद्रोह करने में सक्षम हो और अगर तुम एक ईमानदार, अविभाजित हृदय के साथ वह करते हो जो तुम्हें करना चाहिए तो तुम शैतान को हरा चुके होगे और सत्य के इस पहलू को प्राप्त कर चुके होगे। यदि तुम हमेशा शैतान के फलसफे के अनुसार जीने, दूसरों के साथ अपने संबंध सुरक्षित रखने, कभी भी सत्य का अभ्यास न करने, और सिद्धांतों का पालन न करने की हिम्मत करने पर अड़े रहते हो, तो क्या तुम अन्य मामलों में सत्य का अभ्यास कर पाओगे? तुम्हारे पास अभी भी आस्था या शक्ति नहीं होगी। यदि तुम सत्य नहीं खोजते या स्वीकार नहीं करते, तो क्या परमेश्वर में ऐसी आस्था से तुम सत्य प्राप्त कर पाओगे? (नहीं।) और यदि तुम सत्य प्राप्त नहीं कर सकते, तो क्या तुम बचाए जा सकते हो? नहीं बचाए जा सकते। यदि तुम हमेशा शैतान के फलसफे के अनुसार जीते हो, सत्य वास्तविकता से पूरी तरह वंचित रहते हो, तो तुम कभी भी नहीं बचाए जा सकते। यह बात तुम्हें स्पष्ट होनी चाहिए कि उद्धार के लिए सत्य प्राप्त करना एक आवश्यक शर्त है। तो फिर, तुम सत्य कैसे प्राप्त कर सकते हो? यदि तुम सत्य का अभ्यास कर सकते हो, सत्य के अनुसार जी सकते हो और सत्य तुम्हारे जीवन का आधार बन जाता है, तो तुम सत्य प्राप्त कर जीवन पा लोगे, तब तुम बचाए जाने वाले लोगों में से एक होगे।
अंश 38
क्या चल रहा होता है, जब कुछ लोगों में अपने कर्तव्य निभाने के लिए पेशेवर ज्ञान की बेहद कमी होती है, और उनके लिए कुछ भी सीखना बहुत मुश्किल होता है? ऐसा इसलिए क्योंकि उनमें काबिलियत कम होती है। सत्य बेहद कम काबिलियत वाले लोगों की पहुँच से परे होता है और वे लोग आसानी से नहीं सीखते। उनमें से ज़्यादातर में घातक कमियाँ होती हैं; न केवल उनमें अंतरात्मा या विवेक नहीं होता बल्कि उनके दिलों में परमेश्वर के लिए भी जगह नहीं होती। उनकी आँखें बेजान और संवेदनाशून्य होती हैं और वे ठीक जानवरों की तरह अचेतनता में होते हैं। वे केवल खाना, पीना और मौज-मस्ती करना जानते हैं, और वे अध्ययन नहीं करते या उनमें कोई कौशल नहीं होता। वे चीजों को केवल सतही तौर पर सीखते हैं, और सोचते हैं कि उन्हें समझ आ गया है, जबकि उन्होंने केवल ऊपरी स्तर पर ही कुछ जाना होता है। जब दूसरे लोग कुछ ज्यादा समझाने की कोशिश करते हैं, तो वे यह मानकर सुनने से मना कर देते हैं कि इसकी जरूरत नहीं है। दूसरे लोग जो कुछ भी कहते हैं, वे उनकी कोई बात सुनते या स्वीकारते नहीं हैं, और नतीजा यह होता है कि वे कुछ भी हासिल नहीं कर पाते और मूल रूप से बेकार होते हैं। खराब काबिलियत होना घातक होता है। यदि किसी का स्वभाव भी खराब है, उसमें नैतिकता की कमी है, सलाह नहीं सुनता, सकारात्मक चीजें स्वीकार नहीं कर पाता, और नई चीजें सीखने और अपनाने की इच्छा नहीं रखता है, तो ऐसा व्यक्ति बेकार ही होता है! जो लोग अपने कर्तव्य निभाते हैं, उनमें अंतरात्मा और विवेक होना चाहिए, उन्हें अपनी सामर्थ्य और अपनी कमियाँ पता होनी चाहिए और समझना चाहिए कि उनमें क्या नहीं है और उन्हें क्या सुधारने की जरूरत है। उन्हें हमेशा यही लगेगा कि उनमें बहुत कमी है, और अगर वे अध्ययन नहीं करते और नई चीजें नहीं स्वीकारते, तो उन्हें निकाला जा सकता है। यदि उनके दिल में आने वाले संकट की समझ है, तो इससे उन्हें प्रेरणा मिलती है और चीजें सीखने की इच्छा होती है। एक ओर, व्यक्ति को खुद को सत्य से सुसज्जित करना चाहिए, और दूसरी ओर, उसे अपने कर्तव्य निभाने से जुड़ा पेशेवर ज्ञान हासिल करना चाहिए। इस तरह अभ्यास करके वे प्रगति कर सकते हैं और अपने कर्तव्यों का पालन करने से उन्हें अच्छे नतीजे मिलेंगे। केवल अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने और मानव के समान जीने से ही जीवन मूल्यवान हो सकता है, इसलिए अपने कर्तव्यों का पालन करना सबसे सार्थक चीज है। कुछ लोगों का स्वभाव खराब होता है और वे न केवल अज्ञानी होते हैं बल्कि घमंडी भी होते हैं। वे हमेशा सोचते हैं कि सभी चीजों के संबंध में सत्य खोजने और हमेशा दूसरों की सुनने से दूसरे लोग उन्हें नीचा समझेंगे, और वे दूसरों की नजर में गिर जाएंगे और इस तरह से आचरण करने में गरिमा नहीं होती है। वास्तव में होता उल्टा है। अहंकारी और आत्म-तुष्ट होना, कुछ भी न सीखना, हर चीज में पीछे रहना और पुराने ढंग का होना, और ज्ञान, अंतर्दृष्टि और विचारों की कमी होना असल में शर्मनाक है, और यह तब होता है जब कोई इंसान ईमानदारी और गरिमा खो देता है। कुछ लोग कुछ भी ठीक से नहीं कर पाते, वे जो कुछ सीखते हैं उसकी आधी-अधूरी समझ रखते हैं, केवल कुछ धर्म-सिद्धांत समझकर ही संतुष्ट हो जाते हैं और सोचते हैं कि वे सक्षम हैं। मगर वे अभी भी कुछ हासिल नहीं कर पाते, और उनको कोई ठोस परिणाम नहीं मिलते। यदि तुम उन्हें बताते हो कि उन्हें कोई समझ नहीं है और उन्होंने कुछ भी हासिल नहीं किया है, तो वे इससे आश्वस्त नहीं होते और लगातार अपनी बात पर बहस करते रहते हैं। लेकिन जब वे कोई काम करते हैं, तो वे उसे खराब ढंग से करते हैं, और वे आधे-अधूरे होते हैं। अगर कोई किसी काम को ठीक से नहीं सँभाल सकता तो क्या वह बेकार नहीं है? क्या वह निकम्मा नहीं है? बहुत ही कम काबिलियत वाले लोग सबसे आसान काम भी नहीं सँभाल पाते। वे निकम्मे होते हैं और उनके जीवन का कोई मूल्य नहीं होता। कुछ कहते हैं, “मैं छोटे कस्बों में पला-बढ़ा हूँ, मुझे शिक्षा या ज्ञान नहीं मिला है और मेरी काबिलियत कम है, तुम लोगों के उलट जो शहर में रहते हैं, शिक्षित और जानकार हैं, इसलिए तुम हर चीज में उत्कृष्टता प्राप्त कर सकते हो।” क्या यह कथन सही है? (नहीं।) इसमें गलत क्या है? (कोई व्यक्ति कुछ हासिल कर पाएगा या नहीं, इसका उसके परिवेश से कोई लेना-देना नहीं होता; यह मुख्य रूप से इस पर निर्भर करता है कि कोई व्यक्ति सीखने और खुद को बेहतर बनाने की कोशिश करता भी है या नहीं।) परमेश्वर लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है, यह इस बात से तय नहीं होता कि वे कितने पढ़े-लिखे हैं या वे किस तरह के परिवेश में पैदा हुए या कितने प्रतिभाशाली हैं। इसके बजाय, वह सत्य के प्रति लोगों के नजरिए के आधार पर उनके साथ व्यवहार करता है। यह रवैया किस बात से जुड़ा है? यह उनकी मानवता से जुड़ा है और उनके स्वभाव से भी। यदि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो तो तुमको सत्य को सही तरीके से सँभालने लायक होना चाहिए। यदि तुम्हारा रवैया विनम्रता और सत्य को स्वीकार करने का है, तो भले ही तुम्हारी काबिलियत कुछ कम हो, परमेश्वर फिर भी तुम्हें प्रबुद्ध करेगा और तुमको कुछ हासिल करने देगा। अगर तुम्हारी काबिलियत अच्छी है, लेकिन हमेशा अहंकारी और आत्मतुष्ट बने रहते हो, लगातार सोचा करते हो कि तुम जो कुछ भी कहते हो वह सही है और दूसरे जो कुछ भी कहते हैं वह गलत है, दूसरे जो भी सुझाव दें उसे अस्वीकार कर देते हो, यहाँ तक कि सत्य को भी नकार देते हो, चाहे उसके बारे में जैसी भी संगति की जाए और हमेशा उसका विरोध करते हो, तो क्या तुम जैसा व्यक्ति परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकता है? क्या पवित्र आत्मा तुम जैसे व्यक्ति पर कार्य करेगा? वह नहीं करेगा। परमेश्वर कहेगा कि तुम्हारा स्वभाव बुरा है और तुम उसकी प्रबुद्धता प्राप्त करने के योग्य नहीं हो, और अगर तुम पश्चात्ताप नहीं करते, तो वह उसे भी वापस ले लेगा जो कभी तुम्हारे पास था। यही बेनकाब होना है। ऐसे लोग दयनीय जीवन जीते हैं। साफ तौर पर वे शून्य होते हैं, हर काम में अनाड़ी होते हैं, फिर भी उन्हें लगता है कि वे बहुत कुशल हैं, और हर मामले में दूसरों से बेहतर हैं। वे कभी भी दूसरों के सामने अपने दोषों या अपनी कमियों की चर्चा नहीं करते, न ही अपनी कमजोरियों और नकारात्मकता की। वे हमेशा अपनी योग्यता का दिखावा करते हैं और दूसरों पर झूठी छाप छोड़ते हैं, जिससे दूसरों को लगता है कि वे हर चीज में निपुण हैं, उनमें कोई कमजोरी नहीं है, उन्हें किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं है, उन्हें दूसरों की राय सुनने की कोई आवश्यकता नहीं है, अपनी कमजोरियों को दूर करने के लिए दूसरों की क्षमता से सीखने की आवश्यकता नहीं है, और वे हमेशा हर किसी से बेहतर ही रहेंगे। यह किस तरह का स्वभाव है? (अहंकारी स्वभाव।) इतना अहंकार। ऐसे लोग दयनीय जीवन जीते हैं! क्या वे सचमुच सक्षम हैं? क्या वे सचमुच चीजें हासिल कर सकते हैं? अतीत में उन्होंने कई चीजों में गड़बड़ की है, और इसके बावजूद ऐसे लोग अभी भी सोचते हैं कि वे कुछ भी कर सकते हैं। क्या यह पूरी तरह अनुचित नहीं है? जब लोगों में इस हद तक विवेक की कमी होती है, तो वे भ्रमित हो जाते हैं। ऐसे लोग नई चीजें नहीं सीखते या नई चीजें स्वीकार नहीं करते। अंदर से वे रूखे, संकीर्ण सोच वाले और दरिद्र होते हैं, और चाहे जैसे भी हालात हों, वे सिद्धांतों को जानने और समझने या परमेश्वर के इरादे समझने में नाकाम रहते हैं, और केवल विनियमों पर टिके रहना, शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को बोलना और दूसरों के सामने दिखावा करना जानते हैं। नतीजा यह होता है कि उन्हें किसी सत्य की कोई समझ नहीं होती और उनमें सत्य-वास्तविकता का थोड़ा भी अंश नहीं होता, फिर भी वे इतने अहंकारी बने रहते हैं। वे बस भ्रमित लोग होते हैं, जो तर्क से पूरी तरह अप्रभावित होते हैं, और जिन्हें केवल निकाला जा सकता है।
जब तुम लोग अपने कर्तव्य निभाने के लिए दूसरों के साथ सहयोग करते हो, तो क्या तुम अलग-अलग राय स्वीकार करने के लिए तैयार रहते हो? क्या तुम दूसरों को बोलने देते हो? (हाँ, पहले मैं अक्सर भाई-बहनों के सुझाव नहीं सुनता था और इसी बात पर जोर देता था कि काम मेरे ही तरीके से किए जाएँ। लेकिन फिर जब तथ्यों से साबित हुआ कि मैं गलत हूँ, तब मुझे एहसास हुआ कि उनके अधिकाँश सुझाव सही थे, कि यह वह प्रस्ताव था जिस पर सब लोगों ने चर्चा की थी और जो दरअसल उपयुक्त था, और यह कि अपने विचारों पर भरोसा करने के कारण मैं चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देख पा रहा था और यह मुझमें कमी थी। इस अनुभव के बाद, मुझे एहसास हुआ कि सामंजस्यपूर्ण सहयोग कितना अहम होता है।) तो इससे तुम्हें क्या सीख मिलती है? इसका अनुभव करने पर, क्या तुम्हें कोई लाभ हुआ और क्या सत्य समझ में आया? क्या तुम लोगों को लगता है कि कोई भी पूर्ण है? लोग चाहे जितने शक्तिशाली हों, या चाहे जितने सक्षम और प्रतिभाशाली हों, फिर भी वे पूर्ण नहीं हैं। लोगों को यह मानना चाहिए, यह तथ्य है, और यह वह दृष्टिकोण है जो उन्हें अपनी योग्यताओं और क्षमताओं या दोषों के प्रति रखना चाहिए; यह वह तार्किकता है जो लोगों के पास होनी चाहिए। ऐसी तार्किकता के साथ तुम अपनी शक्तियों और कमज़ोरियों के साथ-साथ दूसरों की शक्तियों और कमज़ोरियों से भी उचित ढंग से निपट सकते हो और यह तुम्हें उनके साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग करने में सक्षम बनाएगा। यदि तुम सत्य के इस पहलू को समझ गए हो और सत्य वास्तविकता के इस पहलू में प्रवेश कर सकते हो, तो तुम अपने भाइयों और बहनों के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से रह सकते हो, उनकी खूबियों का लाभ उठाकर अपनी किसी भी कमज़ोरी की भरपाई कर सकते हो। इस प्रकार, तुम चाहे जिस कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हो या चाहे जो कार्य कर रहे हो, तुम सदैव उसमें श्रेष्ठतर होते जाओगे और परमेश्वर का आशीष प्राप्त करोगे। यदि तुम हमेशा सोचते हो कि तुम बहुत कुशल हो और दूसरे तुम्हारी तुलना में बदतर हैं, यदि तुम हमेशा अपनी राय को अंतिम राय मनवाना चाहते हो, तो इससे परेशानी होगी। यह स्वभावगत समस्या है। क्या ऐसे लोग अहंकारी और आत्मतुष्ट नहीं हैं? जरा सोचो कि कोई तुमको अच्छी सलाह देता है, और तुम सोचते हो कि अगर तुमने इसे स्वीकार लिया तो वे तुमको नीची नजर से देखने लगेंगे और सोचेंगे कि तुम उन जितने अच्छे नहीं हो। तो तुम बस उनकी बात न सुनने का फैसला ले लेते हो। इसके बजाय, तुम उन पर बड़े-बड़े और शानदार शब्दों से छा जाने की कोशिश करते हो ताकि वे तुम्हारा आदर करें। यदि तुम हमेशा लोगों से इसी तरह बातचीत करते हो, तो क्या तुम उनसे सामंजस्य के साथ सहयोग कर पाओगे? तुम न केवल सामंजस्यपूर्ण सहयोग करने में नाकाम रहोगे, बल्कि इसके परिणाम भी नकारात्मक होंगे। समय के साथ, हर व्यक्ति तुमको बेहद कपटी और धूर्त समझने लगेगा, ऐसा व्यक्ति जिसकी वे थाह नहीं ले सकते। तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते और तुम ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, तो अन्य लोग तुमसे विमुख हो जाते हैं। यदि हर कोई तुमसे विमुख हो जाता है, तो क्या इसका मतलब यह नहीं कि तुमको ठुकरा दिया गया है? मुझे बताओ, परमेश्वर उस व्यक्ति से कैसा व्यवहार करेगा जिसे हर कोई ठुकरा देता है? ऐसे व्यक्ति से परमेश्वर भी घृणा करेगा। परमेश्वर ऐसे लोगों से घृणा क्यों करता है? हालाँकि, अपना कर्तव्य पूरा करने के उनके इरादे सच्चे होते हैं, पर उनके तरीकों से परमेश्वर को घृणा होती है। वे जो भी स्वभाव प्रकट करते हैं और उनकी हर सोच, विचार और इरादे परमेश्वर की नजर में दुष्ट होते हैं, और ये ऐसी चीजें हैं जिनसे परमेश्वर को घृणा है और जो उसे अरुचिकर लगती हैं। जब लोग दूसरों की नजरों में खुद को ऊँचा दिखाने के मकसद से हमेशा अपनी कथनी और करनी में घिनौनी चालें अपनाते हैं, तो इस व्यवहार से परमेश्वर को घृणा होती है।
जब लोग परमेश्वर के सामने अपना कर्तव्य या कोई कार्य करते हैं, तो उनका दिल शुद्ध होना चाहिए : ताजे पानी के कटोरे की तरह—एकदम साफ, अशुद्धियों से अछूता। तो किस तरह का रवैया सही है? चाहे तुम कुछ भी कर रहे हो, चाहे तुम्हारे दिल में जो हो या जो भी तुम्हारे विचार हों, तुम उस पर दूसरों के साथ संगति कर पाते हो। अगर कोई कहता है कि चीजें करने का तुम्हारा तरीका नहीं चलेगा और वह कोई और विचार रखता है, और अगर तुमको लगता है कि यह बहुत बढ़िया विचार है, तो तुम अपना तरीका छोड़ देते हो, और उसकी सोच के अनुसार काम करने लगते हो। ऐसा करने से हर कोई देखता है कि तुम दूसरों के सुझाव स्वीकार कर सकते हो, सही रास्ता चुन सकते हो, सिद्धांतों के अनुसार और पारदर्शिता और स्पष्टता के साथ कार्य कर सकते हो। तुम्हारे मन में कोई दुर्भावना नहीं रहती और तुम ईमानदारी के रवैये पर भरोसा करके सच्चाई से काम करते और बोलते हो। तुम बिना लाग-लपेट के बोलते हो। यह है, तो है; नहीं है, तो नहीं है। कोई चालाकी नहीं, कोई राज नहीं, बस एक बहुत पारदर्शी व्यक्ति। क्या यह एक प्रकार का रवैया नहीं है? यह लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति एक रवैया है, और यह एक व्यक्ति के स्वभाव का द्योतक है। दूसरी ओर, कुछ लोग ऐसे भी हो सकते हैं जो दूसरों के साथ कभी न खुलें और वह न जताएँ जो वे सोचते हैं। और जो कुछ भी वे करते हैं, उसमें कभी दूसरों के साथ परामर्श नहीं करते, इसके बजाय वे अपने दिल की बात दूसरों को पता नहीं चलने देते, हर मोड़ पर लगातार दूसरों के प्रति सतर्क रहते प्रतीत होते हैं। वे खुद को जितना हो सकता है, उतना ज्यादा ढककर रखते हैं। क्या यह कपटी इंसान नहीं है? उदाहरण के लिए, उनके पास एक विचार है जो उन्हें शानदार लगता है, और वे सोचते हैं, “मैं अभी इसे अपने तक ही रखूँगा। अगर मैं इसे साझा करूँगा, तो तुम लोग इसका इस्तेमाल कर सकते हो और मेरी सफलता हथिया सकते हो। ऐसा कतई नहीं होगा। मैं इसे गुप्त रखूँगा।” या अगर कुछ ऐसा हुआ, जिसे वे पूरी तरह से नहीं समझते, तो वे सोचेंगे : “मैं अभी नहीं बोलूँगा। अगर मैं बोलता हूँ और किसी ने कोई और ऊँची बात कह दी तो क्या होगा, क्या मैं मूर्ख जैसा नहीं दिखूँगा? हर कोई मेरी असलियत जान लेगा, इसमें मेरी कमजोरी देखेगा। मुझे कुछ नहीं कहना चाहिए।” इसलिए चाहे जो भी सोच-विचार हों, चाहे जो भी अंतर्निहित उद्देश्य हो, वे डरते हैं कि हर कोई उनकी वास्तविकता जान जाएगा। वे अपने कर्तव्य और लोगों, घटनाओं और चीजों को हमेशा इस तरह के परिप्रेक्ष्य और रवैये के साथ देखते हैं। यह किस तरह का स्वभाव है? कुटिल, कपटी और दुष्ट स्वभाव। सतह पर ऐसा लगता है कि उन्होंने दूसरों से वह सब कह दिया है, जो उन्हें लगता है कि वे कह सकते हैं, लेकिन सतह के नीचे वे कुछ चीजें रोके रखते हैं। वे क्या रोककर रखते हैं? वे कभी ऐसी बातें नहीं कहते जिनमें उनकी प्रतिष्ठा और हितों की चर्चा हो—उन्हें लगता है कि ये बातें निजी हैं और वे कभी भी उनके बारे में किसी से बात नहीं करते, यहाँ तक कि अपने माता-पिता से भी नहीं। वे ये बातें कभी नहीं कहते। यही मुसीबत है! तुम सोचते हो कि अगर तुम ये बातें नहीं कहोगे तो परमेश्वर को इनका पता नहीं चलेगा? लोग कहते हैं कि परमेश्वर जानता है, पर क्या वे अपने हृदय में आश्वस्त हो सकते हैं कि परमेश्वर को पता होता है? लोगों को कभी यह एहसास नहीं होता कि “परमेश्वर को सब कुछ पता है; कि जो कुछ मैं अपने दिल में सोचता हूँ, भले ही मैंने उसे प्रकट न किया हो, परमेश्वर गुप्त रूप से पड़ताल करता है, परमेश्वर बिल्कुल जानता है। मैं परमेश्वर से कुछ नहीं छिपा सकता, इसलिए मुझे इसे साफ तौर पर बोलना ही होगा, अपने भाई-बहनों के साथ खुलकर संगति करनी होगी। चाहे मेरी सोच और विचार अच्छे हों या बुरे, मुझे उन्हें सत्यता से बताना होगा। मैं कुटिल, धोखेबाज, स्वार्थी या नीच नहीं हो सकता—मुझे एक ईमानदार व्यक्ति होना पड़ेगा।” अगर लोग इस तरह सोच पाएं, तो यही सही रवैया है। सत्य की खोज करने के बजाय, अधिकतर लोगों के अपने तुच्छ एजेंडे होते हैं। अपने हित, इज्जत और दूसरे लोगों के मन में जो स्थान या प्रतिष्ठा वे रखते हैं, उनके लिए बहुत महत्व रखते हैं। वे केवल इन्हीं चीजों को सँजोते हैं। वे इन चीजों पर मजबूत पकड़ बनाए रखते हैं और इन्हें ही बस अपना जीवन मानते हैं। और परमेश्वर उन्हें कैसे देखता या उनसे कैसे पेश आता है, इसका महत्व उनके लिए गौण होता है; फिलहाल वे उसे नजरअंदाज कर देते हैं; फिलहाल वे केवल इस बात पर विचार करते हैं कि क्या वे समूह के मुखिया हैं, क्या दूसरे लोग उनकी प्रशंसा करते हैं और क्या उनकी बात में वजन है। उनकी पहली चिंता उस पद पर कब्जा जमाना है। जब वे किसी समूह में होते हैं, तो प्रायः सभी लोग इसी प्रकार की प्रतिष्ठा, इसी प्रकार के अवसर तलाशते हैं। अगर वे अत्यधिक प्रतिभाशाली होते हैं, तब तो शीर्षस्थ होना चाहते ही हैं, लेकिन अगर वे औसत क्षमता के भी होते हैं, तो भी वे समूह में उच्च पद पर कब्जा रखना चाहते हैं; और अगर वे औसत क्षमता और योग्यताओं के होने के कारण समूह में निम्न पद धारण करते हैं, तो भी वे यह चाहते हैं कि दूसरे उनका आदर करें, वे नहीं चाहते कि दूसरे उन्हें नीची निगाह से देखें। इन लोगों की इज्जत और गरिमा ही होती है, जहाँ वे सीमा-रेखा खींचते हैं : उन्हें इन चीजों को कसकर पकड़ना होता है। भले ही उनमें कोई सत्यनिष्ठा न हो, और न ही परमेश्वर की मान्यता या अनुमोदन हो, मगर वे उस आदर, रुतबे और सम्मान को बिल्कुल नहीं खो सकते जिसके लिए उन्होंने दूसरों के बीच कोशिश की है—जो शैतान का स्वभाव है। मगर लोग इसके प्रति जागरूक नहीं होते। उनका विश्वास है कि उन्हें इस इज्जत की रद्दी से अंत तक चिपके रहना चाहिए। वे नहीं जानते कि ये बेकार और सतही चीजें पूरी तरह से त्यागकर और एक तरफ रखकर ही वे असली इंसान बन पाएंगे। यदि कोई व्यक्ति जीवन समझकर इन त्यागे जाने योग्य चीजों को बचाता है तो उसका जीवन बर्बाद हो जाता है। वे नहीं जानते कि दाँव पर क्या लगा है। इसीलिए, जब वे कार्य करते हैं तो हमेशा कुछ छिपा लेते हैं, वे हमेशा अपनी इज्जत और रुतबे को बचाने की कोशिश करते हैं, वे इन्हें पहले रखते हैं, वे केवल अपने झूठे बचाव के लिए, अपने उद्देश्यों के लिए बोलते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं, अपने लिए करते हैं। वे हर चमकने वाली चीज के पीछे भागते हैं, जिससे सभी को पता चल जाता है कि वे उसका हिस्सा थे। इसका वास्तव में उनसे कोई लेना-देना नहीं होता, लेकिन वे कभी पृष्ठभूमि में नहीं रहना चाहते, वे हमेशा अन्य लोगों द्वारा नीची निगाह से देखे जाने से डरते हैं, वे हमेशा दूसरे लोगों द्वारा यह कहे जाने से डरते हैं कि वे कुछ नहीं हैं, कि वे कुछ भी करने में असमर्थ हैं, कि उनके पास कोई कौशल नहीं है। क्या यह सब उनके शैतानी स्वभावों द्वारा निर्देशित नहीं है? जब तुम इज्जत और रुतबे जैसी चीजें छोड़ने में सक्षम हो जाते हो, तो तुम अपने भीतर अधिक निश्चिंत और अधिक मुक्त हो पाते हो; तुम ईमानदार होने की राह पर कदम रख देते हो। लेकिन कई लोगों के लिए इसे हासिल करना आसान नहीं होता। मिसाल के लिए, जब कैमरा दिखता है, तो लोग आगे आने के लिए धक्कामुक्की करने लगते हैं; वे कैमरे में दिखना पसंद करते हैं, जितनी ज्यादा कवरेज, उतनी बेहतर; वे पर्याप्त कवरेज न मिलने से डरते हैं और उसे प्राप्त करने का अवसर पाने के लिए हर कीमत चुकाते हैं। क्या यह सब उनके शैतानी स्वभावों द्वारा निर्देशित नहीं है? ये उनके शैतानी स्वभाव हैं। तो तुम्हें कवरेज मिल जाती है—फिर क्या? लोग तुम्हारे बारे में अच्छी राय रखते हैं—तो क्या? वे तुम्हारी आराधना करते हैं—तो क्या? क्या इनमें से कोई भी चीज साबित करती है कि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है? इसमें से किसी भी चीज का कोई मूल्य नहीं है। जब तुम इन चीजों पर काबू पा लेते हो—जब तुम इनके प्रति उदासीन हो जाते हो और इन्हें महत्वपूर्ण नहीं समझते, जब इज्जत, अभिमान, रुतबा और लोगों की सराहना तुम्हारे विचारों और व्यवहार को अब नियंत्रित नहीं कर पाते, तुम्हारे कर्तव्य निभाने के तरीके को तो बिल्कुल भी नियंत्रित नहीं करते—तब तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन और भी प्रभावी हो जाता है, और भी शुद्ध हो जाता है।
अंश 39
जब अपने कर्तव्यों की बात आती है तो कुछ लोग कभी भी उचित व्यवहार नहीं करते हैं। इसके बजाय वे खुद को अलग दिखाने के लिए लगातार नई-नई चीजें खोजते रहते हैं और बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। क्या यह अच्छी बात है? क्या ऐसे लोग दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण सहयोग कर सकते हैं? (नहीं कर सकते।) यदि कोई बड़ी-बड़ी बातें करता है, तो यह किस प्रकार का स्वभाव हुआ? (अहंकार और दंभ का स्वभाव।) यह अहंकार और दंभ है। ऐसे लोगों के कार्यों की प्रकृति कैसी होती है? (वे अपनी स्वायत्तता प्राप्त करना चाहते हैं, सबसे अलग होना चाहते हैं और अपना गुट बनाना चाहते हैं।) अपना गुट बनाने का मतलब है दूसरे लोगों को अपनी बात मानने के लिए मजबूर करना और मामलों को सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य न करना। उनका इरादा और लक्ष्य अपनी स्वायत्तता प्राप्त करना है, सबसे अलग होना चाहते हैं, इसलिए ऐसे लोगों के कामों में चीज़ों के क्रम को बिगाड़ने की एक भावना होती है। चीज़ों का क्रम बिगाड़ने का मतलब क्या है? इसका अर्थ है विनाश करना और इसमें चीजों में विघ्न और बाधा पैदा करने का स्वभाव होता है। आमतौर पर, अधिकांश समस्याओं को सामूहिक संगति और आपसी चर्चा के जरिये हल किया जा सकता है, जिसमें अधिकांश निर्णय सत्य सिद्धांतों का पालन करते हुए लिए जाते हैं, जो उचित और सही होते हैं। हालाँकि कुछ लोग इस तरह की आम सहमति का लगातार विरोध करते हैं; वे न केवल सत्य खोजने से बचते हैं, बल्कि परमेश्वर के घर के हितों को भी अनदेखा करते हैं। वे औरों से अलग दिखने और दूसरों का सम्मान पाने के लिए अजीबोगरीब सिद्धांतों की बात करते हैं। वे लिए गए सभी सही निर्णयों का खंडन और दूसरों के चुनावों का विरोध करना चाहते हैं। इसी को चीजों के क्रम को बिगाड़ना और विनाश, व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करना कहते हैं। ऊँची-ऊँची बातें करने का सार यही है। अब सवाल यह उठता है कि इस तरह के व्यवहार में समस्या क्या है? पहली बात यह है कि ऐसे लोग भ्रष्ट स्वभाव और समर्पण की पूरी तरह से कमी को दर्शाते हैं। इसके अलावा ये स्वेच्छाचारी लोग हमेशा औरों से अलग दिखना चाहते हैं और दूसरों से सम्मान पाना चाहते हैं, नतीजतन वे कलीसिया के काम में बाधा डालते हैं और परेशान करते हैं। बिना सत्य के वे चीजों की सच्चाई को नहीं भांप पाते, लेकिन फिर भी, वे दिखावा करने के लिए बड़ी-बड़ी बातें करने में लगे रहते हैं, और जरा भी सत्य नहीं तलाशते। क्या यह मनमाना बर्ताव और लापरवाही नहीं है? अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाने के लिए दूसरों के साथ सहयोग करना सीखना जरूरी होता है। दो लोगों के बीच की चर्चा हमेशा ही एक व्यक्ति के दृष्टिकोण के मुकाबले अधिक व्यापक और सटीक परिप्रेक्ष्य पैदा करती है। अगर कोई व्यक्ति दूसरों से अपना अनुसरण कराने के लिए हमेशा दूसरों से अलग दिखना चाहता है और आदतन बड़ी-बड़ी बातें करना चाहता है, तो यह एक खतरनाक बात है, यह अपनी ही लीक पर चलना है। व्यक्ति को अपने हर काम पर दूसरों के साथ चर्चा करनी चाहिए। उचित यह है कि पहले सुन लिया जाए कि औरों का इस बारे में क्या कहना है। यदि बहुमत का दृष्टिकोण सही और सत्य के अनुरूप हो, तो तुम्हें उसे स्वीकार करना और उसका पालन करना चाहिए। चाहे तुम जो भी करो, लेकिन बड़ी-बड़ी बातें न करो। किसी भी समूह में ऐसा करना कभी भी अच्छी बात नहीं होती है। जब तुम किसी ऐसे विचार का उपदेश देते हो जो सुनने में उच्च लगता है तो अगर यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हो और इसे बहुमत की स्वीकृति प्राप्त हो, तो इसे स्वीकार्य माना जा सकता है। लेकिन यदि यह सत्य सिद्धांतों के विपरीत है और कलीसिया के कार्य के लिए हानिकारक है, तो तुम्हें इसकी जिम्मेदारी लेनी ही चाहिए और अपने किए के नतीजे भुगतने चाहिए। इसके अतिरिक्त, सुनने में ऊँचे लगने वाले विचार व्यक्त करना एक स्वभावगत मुद्दा है। इससे साबित होता है कि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता नहीं है और इसके बजाय तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव के आधार पर जी रहे हो। जब तुम सुनने में ऊँचे लगने वाले विचार व्यक्त करते हो, तो तुम दूसरों की अगुआई करने और उनकी कमान सँभालने की कोशिश कर रहे होते हो, और तुम अपनी कामयाबी पाने और अपना खुद का अधिकार क्षेत्र स्थापित करने की कोशिश भी कर रहे होते हो; तुम चाहते हो कि परमेश्वर के चुने हुए सभी लोग तुम्हारी बात सुनें, तुम्हारे पीछे चलें और तुम्हारी आज्ञा मानें। यह एक मसीह विरोधी के मार्ग पर चलना है। क्या तुम्हें यकीन है कि तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों का मार्गदर्शन कर उन्हें सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करा सकते हो? क्या तुम उन्हें परमेश्वर के राज्य तक ले जा सकते हो? तुम्हारे पास तो खुद सत्य की कमी है और तुम परमेश्वर का विरोध करने और उसे धोखा देने में सक्षम हो—यदि तुम अभी भी परमेश्वर के चुने हुए लोगों को इस मार्ग पर ले जाना चाहते हो, तो क्या तुम एक प्रमुख पापी नहीं बन गए हो? पौलुस एक प्रमुख पापी बन गया था और अभी भी परमेश्वर से दण्ड पा रहा है। यदि तुम एक मसीह विरोधी के मार्ग पर चलते हो, तो तुम पौलुस के मार्ग पर चल रहे हो, और तुम्हारा अंतिम परिणाम और अंत भी उससे अलग नहीं होगा। इसलिए जो लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं और उसका अनुसरण करते हैं, उन्हें सुनने में ऊँचे लगने वाले विचार व्यक्त नहीं करने चाहिए। बल्कि, उन्हें सत्य की खोज करना, उसे स्वीकार करना और सत्य और परमेश्वर दोनों के प्रति समर्पित होना सीखना चाहिए। केवल ऐसा करने से ही वे यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि वे अपने ही रास्ते पर न चलें और वे किसी अन्य दिशा में भटके बिना परमेश्वर का अनुसरण करें। परमेश्वर का घर लोगों से अपेक्षा करता है कि वे अपने कर्तव्यों को निभाने में एक दूसरे के साथ सद्भाव से सहयोग करें। यह सार्थक है और अभ्यास का सही रास्ता भी है। कलीसिया में यह संभव है कि पवित्रात्मा की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन उन लोगों में से किसी को भी मिल सकता है जो सत्य समझते हैं और जिनमें समझने की क्षमता है। तुम्हें पवित्रात्मा की प्रबुद्धता और रोशनी को थाम लेना चाहिए और करीब से इसका अनुसरण करना चाहिए और इस पर गहनता से काम करना चाहिए। ऐसा करने से तुम सबसे ज्यादा सही रास्ते पर चल रहे होगे; यह पवित्र आत्मा द्वारा निर्देशित मार्ग है। इस बात पर विशेष ध्यान दो कि पवित्र आत्मा जिन पर कार्य करता है, उनमें वह किस प्रकार कार्य करता है और कैसे उनका मार्गदर्शन करता है। तुम्हें अक्सर दूसरों के साथ संगति करनी चाहिए, अपने सुझाव देने चाहिए और अपने विचार व्यक्त करने चाहिए—यह तुम्हारा कर्तव्य भी है और तुम्हारी स्वतंत्रता भी है। लेकिन अंत में, जब कोई निर्णय लेने का समय आए और तुम अकेले ही अंतिम निर्णय लेते हो, सब को तुम्हारा कहा मानने को और तुम्हारी मर्जी के अनुसार चलने को मजबूर करते हो तो फिर तुम सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहे हो। तुम्हें इस आधार पर सही चुनाव करना चाहिए कि अधिकांश लोग क्या सोचते हैं और फिर निर्णय लेना चाहिए। यदि अधिकांश लोगों के सुझाव सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं, तो तुम्हें सत्य को कायम रखना चाहिए। केवल यही सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। यदि तुम हमेशा सुनने में ऊँचे लगने वाले विचार व्यक्त करते हो, दूसरों को प्रभावित करने के लिए कुछ गहन सिद्धांतों को समझाने की कोशिश करते हो और वास्तव में तुम्हें दिल में एहसास होता है कि तुम गलत कर रहे हो, तो खुद को जबरदस्ती लोकप्रिय बनाने की कोशिश न करो। क्या यह तुम्हारा कर्तव्य है जिसे तुम्हें निभाना चाहिए? तुम्हारा कर्तव्य क्या है? (मुझे जो कर्तव्य दिया गया है उसे निभाने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा देना और केवल वही बात करना जिसे मैं समझता हूँ। यदि मेरी अपनी कोई राय नहीं है, तो मुझे दूसरों के सुझावों को और अधिक सुनना और समझदारी से पहचानना सीखना चाहिए और मुझे उस मुकाम पर पहुँचना चाहिए जहाँ मैं सबके साथ मिलजुलकर सहयोग कर सकूँ।) यदि तुम्हें कुछ भी स्पष्ट नहीं है और तुम्हारी अपनी कोई राय नहीं है, तो सुनना और पालन करना और सत्य की तलाश करना सीखो। यह वह कर्तव्य है जिसे तुम्हें निभाना चाहिए; यह एक ईमानदार रवैया है। यदि तुम्हारी अपनी कोई राय नहीं है और तुम्हें हमेशा इस बात का डर होता है कि तुम मूर्ख दिखोगे और खुद को दूसरों से अलग साबित नहीं कर सकोगे और तुम्हें अपमानित होना पड़ेगा—यदि तुम्हें दूसरों के द्वारा तिरस्कृत किए जाने और उनके दिलों में अपने लिए कोई जगह न होने का डर है और इसलिए तुम हमेशा खुद को सुर्खियों में रखने की कोशिश करते हो और हमेशा सुनने में ऊँचे लगने वाले विचार व्यक्त करना चाहते हो, ऐसे बेतुके दावे करते हो जिनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता और तुम चाहते हो कि दूसरे उन्हें स्वीकार करें—तो क्या तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो? (नहीं।) यह तुम क्या कर रहे हो? तुम विनाशकारी बन रहे हो। जब तुम लोग किसी को लगातार इस तरह का व्यवहार करते हुए देखो तो तुम लोगों को उसकी सीमाएँ निर्धारित करनी चाहिए। और यह सीमाएँ कैसे निर्धारित की जानी चाहिए? तुम्हें उन्हें पूरी तरह से चुप कराने और उन्हें बोलने का अवसर न देने की आवश्यकता नहीं है। तुम उन्हें संगति करने दे सकते हो और उन्हें अलग नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन उनके आस-पास सभी को विवेक का प्रयोग करना चाहिए। यही सिद्धांत है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति एक गलत दृष्टिकोण व्यक्त करता है जो पूरी तरह से मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप है और अधिकांश लोग उस व्यक्ति का समर्थन करते हैं और उससे सहमत होते हैं, लेकिन कुछ लोग जिनके पास अभी भी थोड़ी सी भेद पहचानने की क्षमता है, उन्हें पता चल जाता है कि उसके इस दृष्टिकोण में उसकी मर्जी, उसकी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं की मिलावट है, तो फिर इन लोगों को उस व्यक्ति को बेनकाब करना चाहिए और उन्हें आत्मचिंतन करने और खुद को जानने के लिए प्रेरित करना चाहिए। यह सही तरीका है। यदि कोई भी अपने भेद पहचानने की क्षमता का प्रयोग नहीं करेगा या अपनी राय व्यक्त नहीं करेगा और हर कोई केवल लोगों को खुश करने वालों की तरह व्यवहार करेगा तो निश्चित रूप से ऐसे लोग भी होंगे जो उस व्यक्ति के तलवे चाटेंगे, उसका समर्थन करेंगे और उसकी मदद करेंगे और इस प्रकार उस व्यक्ति की महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को बढ़ावा मिलेगा। फिर वह व्यक्ति कलीसिया के भीतर शक्तिशाली होने लगेगा। जब ऐसा होता है तो स्थिति खतरनाक बन जाती है क्योंकि वह उन लोगों के साथ गठजोड़ कर सकता है जो उसका समर्थन करते हैं और अपनी अलग सेना बना सकता है और बुराई करके कलीसिया के कार्य में बाधा डाल सकता है। इस तरह वह मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चल पड़ेगा। जैसे ही वह कलीसिया पर नियंत्रण पा लेगा तो वह मसीह-विरोधी बन जाएगा और अपना स्वयं का स्वतंत्र राज्य स्थापित करना शुरू कर देगा।
अंश 40
जब कुछ होता है तो सभी को एक साथ और अधिक प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय रखना चाहिए। लोगों को मनमाने ढंग से कार्य करने के लिए अपने विचारों पर बिल्कुल भरोसा नहीं करना चाहिए। जब तक लोग एक दिल और एक दिमाग होकर परमेश्वर से प्रार्थना और सत्य की खोज करते हैं, तब तक वे पवित्र आत्मा के कार्य की प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त करने में सक्षम होंगे, और वे परमेश्वर के आशीष प्राप्त कर पाएँगे। प्रभु यीशु ने क्या कहा था? (“यदि तुम में से दो जन पृथ्वी पर किसी बात के लिए एक मन होकर उसे माँगें, तो वह मेरे पिता की ओर से जो स्वर्ग में है, उनके लिए हो जाएगी। क्योंकि जहाँ दो या तीन मेरे नाम पर इकट्ठा होते हैं, वहाँ मैं उनके बीच में होता हूँ” (मत्ती 18:19-20)।) यह किस समस्या को दर्शाता है? यह दर्शाता है कि मनुष्य परमेश्वर से अलग नहीं हो सकता, कि मनुष्य को परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए, कि मनुष्य अकेले कुछ नहीं कर सकता, और उसका अपने रास्ते पर जाना स्वीकार्य नहीं है। यह कहने का क्या मतलब है कि मनुष्य अकेले कुछ नहीं कर सकता? इसका मतलब है कि लोगों को सामंजस्यपूर्वक सहयोग करना चाहिए, एक दिल और एक दिमाग से काम करना चाहिए और एक सामान्य लक्ष्य रखना चाहिए। बोलचाल की भाषा में कहा जा सकता है कि “गट्ठर में बँधी लकड़ियाँ तोड़ी नहीं जा सकतीं।” तो तुम लकड़ियों के गट्ठर की तरह कैसे बन सकते हो? तुम्हें सामंजस्यपूर्वक सहयोग करना चाहिए, एकमत होना चाहिए, तब पवित्र आत्मा कार्य करेगा। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने रहस्यों को छिपा रहा है, अपने हितों के बारे में सोच रहा है, और कोई भी कलीसिया के कार्य की जिम्मेदारी नहीं ले रहा है, हर कोई इससे अपने हाथ धोना चाहता है, कोई भी इसकी अगुआई नहीं करना चाहता, मेहनत नहीं करना चाहता या इसके लिए कष्ट नहीं उठाना चाहता और कीमत नहीं चुकाना चाहता, तो क्या पवित्र आत्मा अपना कार्य करेगा? (नहीं।) क्यों नहीं? जब लोग गलत स्थिति में रहते हैं और परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते या सत्य नहीं खोजते, तो पवित्र आत्मा उन्हें त्याग देगा और परमेश्वर मौजूद नहीं रहेगा। जो लोग सत्य नहीं खोजते, वे पवित्र आत्मा का कार्य कैसे प्राप्त कर सकते हैं? परमेश्वर उनसे घृणा करता है, इसलिए उसका चेहरा उनसे छिपा रहता है, और पवित्र आत्मा भी उनसे छिपा रहता है। जब परमेश्वर काम पर नहीं रहता, तो तुम जैसा चाहो वैसा कर सकते हो। जब वह तुम्हें एक तरफ कर देता है, तो क्या तुम खत्म नहीं हो जाते? तुम कुछ भी हासिल नहीं कर सकोगे। अविश्वासियों को काम करने में इतनी कठिनाई क्यों होती है? क्या ऐसा नहीं है कि उनमें से हरेक अपनी बात अपने तक ही सीमित रखता है? वे अपनी बात अपने तक ही सीमित रखते हैं और कुछ भी हासिल करने में असमर्थ होते हैं—हर चीज अत्यधिक दुष्कर होती है, यहाँ तक कि सरलतम मामले भी। यह शैतान की शक्ति के अधीन रहने वाला जीवन है। अगर तुम लोग अविश्वासियों की तरह ही काम करते हो, तो तुम उनसे भिन्न कैसे हो? किसी भी प्रकार का कोई अंतर नहीं है। अगर कलीसिया में शक्ति उन लोगों के हाथ में है जिनके पास सत्य नहीं है, अगर यह उन लोगों के हाथ में है जो शैतानी स्वभाव से भरे हुए हैं, तो क्या वास्तव में शैतान ही इस शक्ति का उपयोग नहीं कर रहा होता है? यदि कलीसिया में जिन लोगों के हाथ में शक्ति है उनके सभी कार्य सत्य के विपरीत हैं तो पवित्र आत्मा का कार्य रुक जाता है, और परमेश्वर उसे शैतान को सौंप देता है। शैतान के हाथों में आने पर लोगों के बीच सभी प्रकार की कुरूपता—उदाहरण के लिए ईर्ष्या और विवाद—उभर आते हैं। इन घटनाओं से क्या प्रदर्शित होता है? यही कि पवित्र आत्मा का कार्य समाप्त हो गया है, उसने उनका त्याग कर दिया है, और परमेश्वर अब कार्य नहीं कर रहा है। परमेश्वर के कार्य के बिना मनुष्य द्वारा समझे जाने वाले शब्द और धर्म-सिद्धांत किस काम के हैं? किसी काम के नहीं। जब किसी व्यक्ति के पास पवित्र आत्मा का कार्य नहीं रह जाता, तो वह अंदर से खाली हो जाता है, उसे कुछ भी महसूस नहीं होता, वह मृत समान हो जाता है और अब तक, वह स्तब्ध हो चुका होता है। मानवजाति में सारी प्रेरणा, ज्ञान, बुद्धि, अंतर्दृष्टि और प्रबुद्धता परमेश्वर से आती है; यह सब परमेश्वर का कार्य है। जब कोई व्यक्ति किसी मामले में सत्य खोजता है, और अचानक उसे कुछ समझ आता है और एक रास्ता मिल जाता है, तो यह रोशनी कहाँ से आती है? यह सब परमेश्वर से आती है। जैसे जब लोग सत्य के बारे में संगति करते हैं तो शुरू में उन्हें कोई समझ नहीं होती, लेकिन जैसे ही वे संगति कर रहे होते हैं, वे रोशन कर दिए जाते हैं और फिर कुछ समझ के बारे में बोलने में सक्षम हो जाते हैं। यह पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और कार्य है। पवित्र आत्मा ज्यादातर कब काम करता है? तब करता है जब परमेश्वर के चुने हुए लोग सत्य के बारे में संगति करते हैं, जब लोग परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, और जब लोग एक दिल और एक दिमाग से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हैं। ऐसे समय पर परमेश्वर का दिल सबसे अधिक संतुष्ट होता है। तो तुम लोगों में से कई लोग एक-साथ अपना कर्तव्य निभा रहे हों या कुछ लोग, चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी हों, और चाहे जो भी समय हो, यह एक बात मत भूलना—सर्वसम्मति रखना। इस अवस्था में रहने से तुम्हारे पास पवित्र आत्मा का कार्य होगा।
अंश 41
परमेश्वर के घर में, सत्य का अनुसरण करने वाले सभी लोग परमेश्वर के सामने एकजुट रहते हैं, न कि विभाजित। वे सभी एक ही साझा लक्ष्य के लिए कार्य करते हैं : अपने कर्तव्य को निभाना, खुद को मिला हुआ कार्य करना, सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना, परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार कार्य करना और उसके इरादों को पूरा करना। यदि तुम्हारा लक्ष्य इसके लिए नहीं है बल्कि तुम्हारे अपने लिए है, अपनी स्वार्थी इच्छाओं को पूरा करने के लिए है, तो यह एक भ्रष्ट शैतानी स्वभाव का खुलासा है। परमेश्वर के घर में लोग सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य निभाते हैं, जबकि अविश्वासियों के कार्य उनके शैतानी स्वभावों द्वारा नियंत्रित होते हैं। ये दो बहुत अलग रास्ते हैं। अविश्वासी अपने षड्यंत्र मन में पाले रहते हैं, उनमें से हर एक के अपने लक्ष्य और योजनाएँ होती हैं और हर कोई अपने हितों के लिए जीता है। यही कारण है कि वे सभी अपने लाभ के लिए छीना-झपटी करते रहते हैं और जो भी उन्हें मिलता है उसका एक इंच भी छोड़ने को तैयार नहीं होते। वे विभाजित होते हैं, एकजुट नहीं होते, क्योंकि उनका एक सामान्य लक्ष्य नहीं होता। वे जो करते हैं उसके पीछे का इरादा और प्रकृति एक ही होता है। वे सभी केवल अपने लिए ही प्रयास करते हैं। उसमें सत्य का शासन नहीं होता, बल्कि उसमें भ्रष्ट शैतानी प्रकृति का शासन होता है और वही उसे नियंत्रित करती है। वे अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभाव के नियंत्रण में रहते हैं और अपनी सहायता नहीं कर सकते और इसलिए वे पाप में गहरे से गहरे धंसते चले जाते हैं। परमेश्वर के घर में, यदि तुम लोगों के कार्यों के सिद्धांत, तरीके, प्रेरणा और प्रारंभ बिंदु अविश्वासियों से अलग नहीं होंगे, यदि तुम भी भ्रष्ट शैतानी प्रकृति के खेल की वस्तु बनोगे, उसके नियंत्रण में रहोगे और बहकाए तथा हेरा-फेरी किए जाओगे, और यदि तुम्हारे कार्यों का प्रारंभ बिंदु तुम्हारे अपने हित, प्रतिष्ठा, गर्व और रुतबा होगा, तो फिर तुम लोग अपना कर्तव्य उसी तरह निभाओगे जैसे अविश्वासी लोग कार्य करते हैं। यदि तुम लोग सत्य का अनुसरण करते हो तो तुम लोगों को अपने कार्य करने के तरीके को बदलना चाहिए। तुम्हें अपने हितों और अपने व्यक्तिगत इरादों और इच्छाओं को त्याग देना चाहिए। जब तुम लोग कार्य करते हो तो तुम्हें सबसे पहले सत्य पर एक साथ संगति करनी चाहिए और आपस में कार्य विभाजित करने से पहले परमेश्वर के इरादों और अपेक्षाओं को समझना चाहिए और साथ ही इस बात पर भी नजर रखनी चाहिए कि कौन किसमें अच्छा है और कौन बुरा। तुम्हें उन कार्यों को लेना चाहिए जिन्हें तुम करने में सक्षम हो और अपने कर्तव्य को दृढ़ता से निभाना चाहिए। चीजों के लिए लड़ो या छीना-झपटी मत करो। तुम्हें समझौता करना और सहनशील होना सीखना चाहिए। यदि किसी ने अभी-अभी कोई कर्तव्य निभाना शुरू किया है या किसी कार्य क्षेत्र के लिए कोई कौशल बस सीखा ही है, लेकिन वह कुछ कार्य करने में सक्षम नहीं है, तो तुम्हें उन्हें मजबूर नहीं करना चाहिए। तुम्हें उन्हें ऐसे कार्य सौंपने चाहिए जो थोड़े आसान हों। इससे उनके लिए अपने कर्तव्य निर्वहन में परिणाम प्राप्त करना आसान हो जाता है। सहनशील, धैर्यवान और सैद्धांतिक होने का यही मतलब है। यही वो चीज है जो सामान्य मानवता में होनी चाहिए; परमेश्वर भी लोगों से इसी की अपेक्षा करता है और लोगों को भी इसी का अभ्यास करना चाहिए। यदि तुम किसी कार्य क्षेत्र में काफी कुशल हो और अधिकांश से लंबे समय से उस क्षेत्र में कार्य कर रहे हो, तो फिर तुम्हें अधिक कठिन कार्य सौंपा जाना चाहिए। तुम्हें इसे परमेश्वर से स्वीकार करना चाहिए और समर्पण करना चाहिए। चुनने-छाँटने मत लगो और यह कहते हुए शिकायत न करो, “मुझे परेशान क्यों किया जा रहा है? वे अन्य लोगों को आसान कार्य देते हैं और मुझे कठिन कार्य देते हैं। क्या वे मेरे जीवन को कठिन बनाने की कोशिश कर रहे हैं?” तुम्हारे लिए “जीवन को कठिन बनाने की कोशिश कर रहे हैं” से तुम्हारा क्या अर्थ है? कार्य व्यवस्थाएँ प्रत्येक व्यक्ति के अनुरूप तैयार की जाती हैं; जो लोग सक्षम होते हैं वे अधिक कार्य करते हैं। यदि तुमने बहुत कुछ सीखा है और परमेश्वर द्वारा तुम्हें बहुत कुछ दिया गया है, तो तुम्हारे कंधों पर अधिक भारी बोझ डाला जाना चाहिए—इसलिए नहीं कि तुम्हारा जीवन कठिन बने, बल्कि इसलिए कि यह तुम्हारे लिए बिल्कुल उपयुक्त है। यह तुम्हारा कर्तव्य है, इसलिए अपनी मर्जी से चुनने या ना कहने या इससे अपनी जान छुड़ाने की कोशिश न करो। तुम्हें क्यों लगता है कि यह कठिन है? असल बात तो यह है कि यदि तुम इसे थोड़ा दिल लगा कर करोगे तो तुम यह कार्य पूरा कर सकते हो। तुम्हारा यह सोचना कि यह कठिन है, कि यह पक्षपातपूर्ण व्यवहार है और तुम्हें जानबूझकर परेशान किया जा रहा है—यह एक भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा है। यह अपने कर्तव्य को निभाने से इनकार करना है, परमेश्वर से स्वीकार करना नहीं है। यह सत्य का अभ्यास करना नहीं है। जब तुम अपनी मर्जी से अपने कर्तव्य चुनते हो और जो भी कार्य हल्के और आसान हों केवल उन्हें ही करते हो, केवल वही करते हो जिससे तुम अच्छे दिखो, तो यह एक भ्रष्ट शैतानी स्वभाव है। तुम्हारा अपने कर्तव्य को स्वीकार न कर पाना या समर्पण न कर पाना यह साबित करता है कि तुम अभी भी परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोही हो, कि तुम उसका विरोध कर रहे हो और उसे ठुकरा रहे हो और उसकी व्यवस्थाओं और अपेक्षाओं से बच रहे हो। यह एक भ्रष्ट स्वभाव है। जब तुम्हें पता चले कि यह एक भ्रष्ट स्वभाव है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? यदि तुम्हें लगता है कि दूसरों को दिए गए कार्य आसानी से पूरे किए जा सकते हैं जबकि तुम्हें दिए गए कार्य तुम्हें लंबे समय तक व्यस्त रखते हैं और उनके लिए तुम्हें काफी शोध करने की आवश्यकता होती है और तुम इसके कारण दुखी हो, तो क्या तुम्हारा यह दुखी महसूस करना सही है? बिल्कुल नहीं। तो, जब तुम्हें लगे कि यह सही नहीं है तो तुम्हें क्या करना चाहिए? यदि तुम प्रतिरोधी हो और कहते हो, “जब भी वे लोगों में कार्य बाँटते हैं तो वे मुझे सबसे कठिन, गंदे और कड़ी मेहनत वाले कार्य देते हैं और दूसरों को ऐसे कार्य देते हैं जो हल्के, आसान और प्रतिष्ठित होते हैं। क्या उन्हें लगता है कि वे मुझे जहाँ चाहे वहाँ धकेल सकते हैं? यह कार्यों को वितरित करने का एक उचित तरीका नहीं है!”—अगर तुम्हारी यह सोच है तो यह गलत है। चाहे कार्यों के वितरण में कोई भटकाव हो या न हो और चाहे उन्हें उचित रूप से वितरित किया जाए या नहीं, परमेश्वर किस चीज की पड़ताल करता है? वह एक व्यक्ति के दिल की पड़ताल करता है। वह देखता है कि क्या उसके दिल में समर्पण है, क्या वह परमेश्वर के कोई बोझ उठा सकता है और क्या वह परमेश्वर से प्रेम करता है। परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार तुम्हारे यह सारे बहाने अमान्य हैं, तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन मानक के अनुरूप नहीं है और तुममें सत्य वास्तविकता का अभाव है। तुम्हारे अंदर बिल्कुल भी समर्पण नहीं है और जब तुम कोई ऐसा कार्य करते हो जिसमें बहुत मेहनत लगती है या जो गंदा होता है, तो तुम शिकायत करने लगते हो। आखिर यहाँ समस्या क्या है? सबसे पहले तो तुम्हारी मानसिकता ही गलत है। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया गलत है। यदि तुम हमेशा अपने अभिमान और हितों के बारे में सोचते रहते हो और परमेश्वर के इरादों की परवाह नहीं करते और तुम्हारे अंदर बिल्कुल भी समर्पण नहीं है, तो यह वह सही रवैया नहीं है जो तुम्हें अपने कर्तव्य के प्रति रखना चाहिए। यदि तुम निष्ठापूर्वक परमेश्वर के लिए खुद को खपाते और तुम्हारे पास परमेश्वर-प्रेमी दिल होता, तो तुम उन कार्यों को कैसे करते जो गंदे, मेहनत वाले या कठिन हैं? तुम्हारी मानसिकता अलग होती : तुम कठिन कार्य करना पसंद करते और अपने कंधे पर भारी बोझ उठाने की कोशिश करते। तुम उन कार्यों को अपने हाथों में ले लेते जिन्हें अन्य लोग करना नहीं चाहते और तुम इन्हें केवल परमेश्वर के प्रेम के लिए और उसे संतुष्ट करने के लिए करते। तुम बिना कोई शिकायत किए खुशी से यह कार्य करते। गंदे, कड़ी मेहनत वाले और कठिन कार्य लोगों की असलियत दिखा देते हैं। तुम उन लोगों से कैसे अलग हो जो केवल आसान और चर्चित कार्य ही लेते हैं? तुम उनसे कोई बेहतर नहीं हो। क्या बात ऐसी ही नहीं है? तुम्हें इन चीजों को इसी तरह से देखना चाहिए। तो फिर, जो चीज सबसे ज्यादा लोगों की असलियत का खुलासा करती है वह उनके द्वारा अपने कर्तव्य का पालन करना है। कुछ लोग हर समय बड़ी-बड़ी बातें करते हैं और दावा करते हैं कि वे परमेश्वर से प्रेम करने और उसके प्रति समर्पण करने के लिए तैयार हैं, लेकिन जब उन्हें अपने कर्तव्य निभाने में कोई कठिनाई आती है, तो वे सभी प्रकार की शिकायतों और नकारात्मक शब्दों का उपयोग करना शुरू कर देते हैं। यह स्पष्ट है कि वे लोग पाखंडी हैं। यदि कोई सत्य का प्रेमी है, तो जब उसे अपने कर्तव्य को करने में किसी कठिनाई का सामना करना पड़ेगा, तो वह परमेश्वर से प्रार्थना करेगा और अपने कर्तव्य को निष्ठापूर्वक निभाते हुए सत्य की तलाश करेगा, भले ही इसकी उचित व्यवस्था न की गई हो। भले ही उसका सामना भारी, गंदे या कठिन कार्यों से क्यों न हो जाए, वह शिकायत नहीं करेगा, और वह परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाले हृदय के साथ अपने कार्यों को अच्छी तरह से करने और अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने में सक्षम हो सकता है। उसे ऐसा करने में बहुत आनंद मिलता है और परमेश्वर को यह देखकर सुकून मिलता है। इस तरह के व्यक्ति को परमेश्वर की स्वीकृति मिलती है। जैसे ही किसी को गंदे, कठिन या मेहनत वाले कार्यों का सामना करना पड़े और वह चिड़चिड़ा और क्रोधित हो जाता है और किसी को भी अपनी आलोचना नहीं करने देता, तो वह ऐसा व्यक्ति नहीं है जो खुद को निष्ठापूर्वक परमेश्वर के लिए खपाता है। उन्हें केवल बेनकाब कर निकाला जा सकता है। आमतौर पर जब तुम लोग इन अवस्थाओं में होते हो, तो क्या तुम इस समस्या की गंभीरता को समझ पाते हो? (कुछ हद तक।) यदि तुम इसे थोड़ा बहुत समझ भी लेते हो, तो क्या तुम इसे अपनी ताकत, अपनी आस्था और अपने आध्यात्मिक कद के दम पर बदल सकते हो? तुम्हें इस रवैये को बदलने की जरूरत है। तुम्हें सबसे पहले यह सोचने की जरूरत है, “यह रवैया गलत है। क्या मैं अपने कर्तव्य निर्वहन में अपनी मर्जी से चुनाव नहीं कर रहा? यह तो समर्पण नहीं है। अपना कर्तव्य निभाना तो एक खुशी की बात होनी चाहिए और यह स्वेच्छा और खुशी से किया जाना चाहिए। तो फिर मैं खुश क्यों नहीं हूँ और मैं परेशान क्यों हूँ? मैं अच्छी तरह से जानता हूँ कि मेरा कर्तव्य क्या है और मुझे यही करना चाहिए—तो फिर मैं समर्पण क्यों नहीं कर पा रहा? मुझे परमेश्वर के सामने आना चाहिए और प्रार्थना करनी चाहिए और अपने दिल की गहराई में इन भ्रष्ट स्वभावों के खुलासे को जानना चाहिए।” फिर, जब तुम ऐसा करो, तो तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए : “परमेश्वर, मुझे अपनी मर्जी चलाने की आदत हो गई है—मैं किसी की नहीं सुनता। मेरा रवैया गलत है, और मेरे अंदर कोई समर्पण नहीं है। कृपया मुझे अनुशासित कर मुझे समर्पण करने लायक बना। मैं परेशान नहीं होना चाहता। मैं अब तेरे खिलाफ विद्रोह नहीं करना चाहता। कृपया मेरे हृदय को छू ले और मुझे इस कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने में सक्षम बना। मैं शैतान के लिए जीना नहीं चाहता; मैं सत्य के लिए जीना और इसका पालन करना चाहता हूँ।” जब तुम इस तरह से प्रार्थना करोगे, तो तुम्हारे भीतर की स्थिति सुधर जाएगी, और जब वह अवस्था सुधर जाएगी, तो तुम समर्पण करने में सक्षम हो जाओगे। तुम सोचोगे, “सच में यह कोई बड़ी बात नहीं है। बस सिर्फ इतना ही करना है कि मुझे दूसरों की तुलना में अधिक कार्य करना है, जब वे मजे करें तो मुझे नहीं करना या जब वे बेकार गपबाजी करें तो मुझे नहीं करना है। परमेश्वर ने मुझे अतिरिक्त और भारी बोझ दिया है; वह मेरे बारे में ऊँची राय रखता है, यह उसका मुझ पर किया गया अनुग्रह है और यह साबित करता है कि मैं इस भारी बोझ को अपने कंधे पर ले सकता हूँ। परमेश्वर मेरे प्रति बहुत अच्छा है और मुझे समर्पित होना चाहिए।” और तुम्हारा रवैया बदल जाएगा और तुम्हें इसका एहसास भी नहीं होगा। जब तुमने पहली बार अपना कर्तव्य स्वीकार किया था तो तुम्हारा रवैया काफी बुरा था। तुम समर्पण करने में असमर्थ थे, परन्तु तुम इसे तुरंत बदलने और तुरंत परमेश्वर की जाँच और अनुशासन को स्वीकार करने में सक्षम हो गए हो। तुम एक आज्ञाकारी रवैये के साथ, सत्य को स्वीकार करने और उसका अभ्यास करने वाले रवैये के साथ फौरन परमेश्वर के पास आने में सक्षम हो गए हो, और तुम परमेश्वर से अपने कर्तव्य को उसकी संपूर्णता में स्वीकारने और उसे पूरे दिल से निभाने में सक्षम हो गए हो। इसके पीछे संघर्ष की एक प्रक्रिया है। संघर्ष की यह प्रक्रिया तुम्हारे परिवर्तन की प्रक्रिया है, तुम्हारे द्वारा सत्य को स्वीकार करने की प्रक्रिया है। क्योंकि लोगों के लिए बिना कोई व्यक्तिगत गणना किए, जो कुछ भी उनके रास्ते में आता है, उसके प्रति खुशी से और समर्पण के साथ तैयार होना असंभव होता है। अगर लोग ऐसा कर सकते, तो इसका मतलब होता कि उनमें कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं है और उन्हें बचाने के लिए परमेश्वर द्वारा सत्य व्यक्त करने की कोई आवश्यकता नहीं होती। लोगों के पास विचार होते हैं; उनका रवैया गलत होता है; उनकी गलत और नकारात्मक अवस्थाएँ होती हैं। ये सभी वास्तविक समस्याएँ हैं—जो मौजूद हैं। लेकिन जब ये नकारात्मक दशाएँ, नकारात्मक भावनाएँ और भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारे व्यवहार, तुम्हारे विचारों और तुम्हारे रवैये पर हावी हो जाते हैं और उन्हें नियंत्रित करते हैं, तो तुम क्या करते हो, तुम कैसे अभ्यास करते हो और तुम किस रास्ते को चुनते हो, यह सत्य के प्रति तुम्हारे रवैये पर निर्भर करेगा। तुम्हारी अपनी भावनाएँ हो सकती हैं या तुम नकारात्मक या विद्रोही दशा में हो सकते हो, लेकिन जब ये चीजें तुम्हारे कर्तव्य को निभाने के दौरान प्रकट होती हैं, तो उन्हें आसानी से बदल दिया जाएगा, क्योंकि तुम परमेश्वर के सामने आते हो, क्योंकि तुम सत्य समझते हो, क्योंकि तुम परमेश्वर की तलाश करते हो और क्योंकि तुम्हारा रवैया समर्पण करने और सत्य को स्वीकारने का रवैया है। फिर तुम्हें अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने में कोई परेशानी नहीं होगी और तुम उस बाधा और नियंत्रण पर विजय प्राप्त करने में सक्षम हो जाओगे जो भ्रष्ट शैतानी स्वभाव का तुम्हारे ऊपर है। अंत में, तुम अपने कर्तव्य को निभाने में सफल हो जाओगे और तुम परमेश्वर के आदेश को पूरा करोगे और सत्य तथा जीवन को प्राप्त करोगे। लोगों के कर्तव्य निभाने और सत्य प्राप्त करने की प्रक्रिया अपने स्वभाव में बदलाव लाने की प्रक्रिया भी है। लोग अपने कर्तव्यों को निभाने के दौरान ही पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त करते हैं, सत्य समझते हैं और वास्तविकता में प्रवेश करते हैं। जब अपने कर्तव्यों को निभाने में कठिनाइयाँ आती हैं तो वे उन्हें हल करने के लिए प्रार्थना करने, खोजने और परमेश्वर के इरादों को समझने के लिए बार-बार परमेश्वर के पास आते हैं, ताकि वे अपने कर्तव्यों को सामान्य रूप से निभा सकें। लोग अपने कर्तव्यों को निभाने के दौरान ही परमेश्वर द्वारा अनुशासित होते हैं और पवित्र आत्मा के निर्देशन में अपना जीवन बिताते हैं, धीरे-धीरे सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना सीखते हैं और अपना कर्तव्य ऐसे तरीके से निभाते हैं जो मानक स्तर तक पहुँच जाता है। यह है सत्य का तुम्हारे दिल में नियंत्रण और शासन करना।
कुछ लोग अपने कर्तव्य निभाते समय चाहे किसी भी मसले का सामना कर रहे हों, वे सत्य नहीं खोजते और हमेशा अपने विचारों, अपनी धारणाओं, कल्पनाओं और इच्छाओं के अनुसार कार्य करते हैं। शुरू से अंत तक वे अपनी इच्छाओं को संतुष्ट करते हैं और उनके भ्रष्ट स्वभाव उनके क्रियाकलापों पर नियंत्रण करते हैं। हो सकता है वे हमेशा अपने कर्तव्य निभाते प्रतीत हों, पर क्योंकि उन्होंने सत्य को कभी स्वीकार नहीं किया है और वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार चीजें करने में विफल रहे हैं, इसलिए वे आखिरकार सत्य और जीवन हासिल नहीं करते और वे मजदूरों के नाम के ही लायक बन जाते हैं। तो ऐसे लोग अपने कर्तव्यों को करते समय किस पर निर्भर करते हैं? ऐसे व्यक्ति न तो सत्य पर निर्भर करते हैं, न ही परमेश्वर पर। जिस थोड़े से सत्य को वे समझते हैं, उसने उनके हृदयों में संप्रभुत्व हासिल नहीं किया है; वे इन कर्तव्यों को निभाने के लिए अपनी खुद की योग्यताओं और प्रतिभाओं पर, उस ज्ञान पर जो उन्होंने प्राप्त किया है, और साथ ही अपनी इच्छाशक्ति या नेक इरादों पर भरोसा कर रहे हैं। अगर बात ऐसी है, तो क्या वे अपने कर्तव्यों को मानक स्तर तक निभाने में सक्षम होंगे? जब लोग अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए अपनी स्वाभाविकता, धारणाओं, कल्पनाओं, विशेषज्ञता और शिक्षा पर निर्भर करते हैं, तो भले ही ऐसा प्रतीत हो कि वे अपने कर्तव्य निभा रहे हैं और कोई दुष्टता नहीं कर रहे हैं, पर वे सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे होते, और कुछ भी ऐसा नहीं करते जिससे परमेश्वर संतुष्ट हो। साथ ही एक दूसरी समस्या भी है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता : अपने कर्तव्य को निभाने की प्रक्रिया के दौरान, यदि तुम्हारी अवधारणाएँ, कल्पनाएँ और तुम्हारी इच्छा कभी नहीं बदलतीं और कभी भी सत्य से प्रतिस्थापित नहीं होतीं, और यदि तुम्हारे कार्य और कर्म कभी भी सत्य सिद्धांतों के अनुसार नहीं किए जाते, तो अंतिम परिणाम क्या होगा? तुम्हें जीवन प्रवेश नहीं मिलेगा, तुम एक मजदूर बन जाओगे और इस प्रकार बाइबल में लिखे गए प्रभु यीशु के ये वचन पूरे करोगे : “उस दिन बहुत-से लोग मुझ से कहेंगे, ‘हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत-से आश्चर्यकर्म नहीं किए?’ तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, ‘मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ’” (मत्ती 7:22-23)। परमेश्वर कोशिश करने वालों और मजदूरी करने वाले इन लोगों को कुकर्मी क्यों कहता है? एक बात को लेकर हम निश्चित हो सकते हैं और वह यह कि ये लोग चाहे कोई भी कर्तव्य निभाएँ या कोई भी काम करें, इन लोगों की अभिप्रेरणाएँ, प्रेरक शक्तियाँ, इरादे और विचार पूरी तरह से उनकी अपनी इच्छाओं से पैदा होते हैं। ये पूरी तरह से अपने ही हितों और संभावनाओं की रक्षा के लिए होते हैं, अपने सम्मान और रुतबे को सुरक्षित रखने के लिए भी होते हैं और अपने मिथ्याभिमान को संतुष्ट करने के लिए होते हैं। उनकी विचारशीलता और हिसाब-किताब इन्हीं चीजों के आसपास केंद्रित होता है, उनके दिलों में कोई सत्य नहीं होता और उनके पास ऐसा दिल नहीं होता जो परमेश्वर का भय मानता हो और उसके प्रति समर्पण करता हो। समस्या की जड़ यही है। आज, तुम लोगों के लिए अपना अनुसरण किस तरह करना बहुत जरूरी है? सभी मामलों में, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर के इरादों और उसकी माँग के अनुसार अपना कर्तव्य ठीक से निभाना चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे तो तुम परमेश्वर की स्वीकृति पाओगे। तो परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार अपना कर्तव्य निभाने में खासतौर से क्या शामिल है? तुम जो कुछ भी करो, उसमें परमेश्वर से प्रार्थना करना सीखो, तुम्हें चिंतन करना चाहिए कि तुम्हारी मंशाएँ क्या हैं, तुम्हारे विचार क्या हैं, कि क्या ये मंशाएँ और विचार सत्य के अनुरूप हैं; अगर नहीं हैं तो उन्हें एक तरफ कर देना चाहिए, जिसके बाद तुम्हें सत्य सिद्धांतों के अनुसार चलना चाहिए, और परमेश्वर की जाँच-पड़ताल को स्वीकार करना चाहिए। इससे यह सुनिश्चित होगा कि तुम सत्य को अभ्यास में लाओ। अगर तुम्हारे अपने इरादे और लक्ष्य हैं, और तुम्हें अच्छी तरह पता है कि वे सत्य का उल्लंघन करते हैं और परमेश्वर के इरादों के उलट हैं, फिर भी तुम प्रार्थना नहीं करते और समाधान के लिए सत्य नहीं खोजते, तो यह बहुत खतरनाक है, और तुम्हारे लिए बुराई करना और परमेश्वर का विरोध करने वाले काम करना आसान हो जाएगा। अगर तुम एक-दो बार कोई बुरा काम करके प्रायश्चित कर लेते हो, तो तुम्हारे उद्धार की अब भी उम्मीद है। अगर तुम बुराई करते रहते हो, तो तुम हर तरह की बुराई के काम करने वाले व्यक्ति हो। अगर तुम इस बिंदु पर भी प्रायश्चित नहीं कर सकते, तो तुम संकट में हो : परमेश्वर तुम्हें दरकिनार कर देगा या त्याग देगा, जिसका मतलब है कि तुम्हें निकाले जाने का खतरा है; जो लोग तमाम तरह के बुरे कर्म करते हैं, उन्हें निश्चित ही दंडित कर निकाल दिया जाएगा।