सुसमाचार का प्रचार करना वह कर्तव्य है जिसे अच्छे से निभाना सभी विश्वासियों का दायित्व है

पिछली बैठक में हमने मानक स्तर तक अपने कर्तव्य के निर्वहन के बारे में बात की थी। इस लक्ष्य को हासिल करना परमेश्वर द्वारा मनुष्य को पूर्ण बनाए जाने के लिए आवश्यक चार बुनियादी शर्तों में से पहली और सबसे बुनियादी शर्त है। पिछली बार, हमने कर्तव्य निर्वहन की परिभाषा और सिद्धांतों पर संगति की थी। हमने विभिन्न बाहरी संकेतों पर संगति करते हुए कुछ उदाहरणों पर भी चर्चा की थी जो दर्शाते हैं कि लोग मानक स्तर तक अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं कर रहे हैं, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग साफ तौर पर यह देख सकें कि इन समस्याओं को ठीक किया जाना चाहिए और उस रवैये को समझ सकें जो परमेश्वर इस तरह कर्तव्य निर्वहन करने वाले लोगों के प्रति अपनाता है। इस विषय पर संगति करने के बाद, तुम्हें यह सामान्य समझ मिली होगी कि मानक स्तर तक अपने कर्तव्य का निर्वहन कैसे करें, किन चीजों पर ध्यान दें, तुम क्या चीजें नहीं कर सकते, और कौन-से क्रियाकलाप परमेश्वर के स्वभाव को नाराज कर सकते हैं और तबाही का कारण बन सकते हैं। मानक स्तर तक अपने कर्तव्य का निर्वहन कैसे करें, इस विषय पर संगति में शामिल होकर, क्या तुम लोग इस मामले के कुछ सत्य को वैचारिक रूप से देख और समझ सकते हो? अलग-अलग कर्तव्य निभाते समय, विभिन्न प्रकार के लोगों को किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए और उन्हें किन सत्यों का अभ्यास करना चाहिए? क्या तुम लोगों को ऐसी विशेष बातों की स्पष्ट समझ है? (हमें इसकी स्पष्ट समझ नहीं है।) तो फिर हमें इस पर अधिक विस्तार से चर्चा करनी होगी। हमें अधिक विस्तृत रूप से चीजों को वर्गीकृत करना होगा, ताकि इस बात पर चर्चा हो सके कि मानक स्तर तक अपने कर्तव्य के निर्वहन का क्या अर्थ है।

परमेश्वर के घर का कार्य कई मुख्य श्रेणियों में बँटा है। परमेश्वर के घर के सभी कार्यों में सबसे आगे है सुसमाचार प्रचार का कार्य। इसमें बहुत-से लोग शामिल होते हैं, यह चीजों के एक विशाल दायरे को छूता है और इसमें बहुत सारा काम करना पड़ता है। यह कार्य की पहली श्रेणी है और कलीसिया के सभी कार्यों में सबसे महत्वपूर्ण है। सुसमाचार प्रचार का कार्य परमेश्वर की प्रबंधन योजना में सबसे पहला महत्वपूर्ण कार्य है। इसी कारण से, इसे कार्य की पहली श्रेणी माना जाना चाहिए। तो, यह कर्तव्य निभाने वालों को क्या कहा जाता है? सुसमाचार के कार्यकर्ता। जहाँ तक दूसरी श्रेणी का सवाल है, कलीसिया के अंदरूनी कार्यों में सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य कौन-सा है? (अगुआ और कार्यकर्ताओं का।) सही कहा, यह कलीसिया में सभी स्तरों पर कार्यरत अगुआओं और कार्यकर्ताओं का कर्तव्य है, जिसमें विभिन्न टीमों के पर्यवेक्षक और अगुआ शामिल हैं। यह कर्तव्य अत्यंत महत्वपूर्ण है, और इन लोगों द्वारा किया जाने वाला सारा कार्य महत्वपूर्ण है। यह दूसरी श्रेणी है। जहाँ तक तीसरी श्रेणी के कार्यों का सवाल है, सुसमाचार फैलाने के कार्य में कौन-से कर्तव्य ज्यादा जरूरी हैं? (कुछ विशेष कर्तव्य।) हाँ, तीसरी श्रेणी में वे लोग आते हैं जो कुछ विशेष कर्तव्य निभाते हैं; जैसे कि पाठ-आधारित कार्य, अनुवाद, संगीत, फिल्म निर्माण, कला और बाहरी मामलों से संबंधित काम। चौथी श्रेणी में लोग मुख्य रूप से मेजबानी करने, खाना पकाने और खरीदारी करने जैसे सामान्य काम करते हैं, जिनका संबंध संसाधन जुटाने वाले कार्यों से है। इन कार्यों को विस्तृत श्रेणियों में बाँटना जरूरी नहीं है। पाँचवीं श्रेणी का कार्य उन लोगों के लिए है जो अपनी पारिवारिक स्थितियों, शारीरिक स्थितियों या ऐसे अन्य कारणों से अपने खाली समय में केवल कुछ कर्तव्य ही कर सकते हैं। ये लोग अपनी क्षमताओं का भरसक इस्तेमाल करके अपना कर्तव्य निभाते हैं। यह पाँचवीं श्रेणी है। अन्य लोग जो अपने कर्तव्य नहीं निभाते, उन्हें छठी श्रेणी में रखा गया है। इन लोगों का कर्तव्य निभाने से कोई लेना-देना नहीं है, तो उन्हें भला किसी श्रेणी में रखें ही क्यों? क्योंकि वे कलीसिया के सदस्यों में गिने जाते हैं, इसलिए उन्हें इस आखिरी श्रेणी में रखा गया है। अगर उन्होंने कई उपदेश सुने हैं, वे सत्य समझ सकते हैं और स्वेच्छा से कर्तव्य निभाना चाहते हैं, तो जब तक उनकी आस्था सच्ची है और वे बेहद कम काबिलियत वाले या कुकर्मी नहीं हैं, और बशर्ते वे बाधाएँ खड़ी नहीं करने का वादा करते हैं, हमें उन्हें कर्तव्य निभाने देकर पश्चात्ताप का मौका देना चाहिए। कलीसिया के सभी सदस्य मूल रूप से इन्हीं छह श्रेणियों में आते हैं। इसमें सिर्फ नए विश्वासियों को शामिल नहीं किया गया है। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि वे अपने कर्तव्य नहीं निभाते हैं। बजाय इसके, क्योंकि उनका आध्यात्मिक कद छोटा है और उन्हें सत्य की केवल उथली समझ है, इसलिए वे कुछ नहीं कर सकते। भले ही उनमें से कुछ लोगों में अच्छी काबिलियत हो, पर वे सत्य या सिद्धांतों को नहीं समझते हैं, और इसलिए वे कोई कर्तव्य नहीं निभा सकते। वे दो या तीन सालों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद ही कर्तव्य निभाना शुरू कर सकते हैं। तब, उन्हें हम कर्तव्यों का निर्वहन करने वाले लोगों की विभिन्न श्रेणियों में डाल सकते हैं। कुल मिलाकर हम अब छह श्रेणियाँ स्पष्ट रूप से निर्धारित कर चुके हैं। पहली श्रेणी सुसमाचार कार्यकर्ताओं की है; दूसरी श्रेणी कलीसिया के सभी स्तरों के अगुआओं और कार्यकर्ताओं की है; तीसरी श्रेणी उन लोगों की है जो कुछ विशेष कर्तव्य निभाते हैं; चौथी श्रेणी उन लोगों की है जो सामान्य कर्तव्य निभाते हैं; पाँचवीं श्रेणी उन लोगों की है जो समय मिलने पर कर्तव्य निभाते हैं; और छठी श्रेणी उन लोगों की है जो कोई कर्तव्य नहीं निभाते हैं। कौन-से सिद्धांत इन श्रेणियों का क्रम निर्धारित करने का आधार बनते हैं? इन श्रेणियों को कार्य की प्रकृति, कार्य करने में लगने वाले समय, कार्य-भार और कार्य के महत्व के अनुसार बाँटा गया है। पहले जब हमने कर्तव्य निभाने के बारे में बात की थी, तो हमने मूल रूप से कर्तव्य निर्वहन के बारे में सत्य के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की थी। हमारी संगति में उन सत्य सिद्धांतों के बारे में बात की गई थी जिनका पालन सभी लोगों को अपने कर्तव्य निभाते हुए करना चाहिए। कोई भी श्रेणी हमने खुद नहीं बनाई है और हमने विस्तार से यह चर्चा भी नहीं की है कि इनमें से हर एक प्रकार के लोगों को किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए, न ही हमने उन विशिष्ट सत्यों पर चर्चा की है जिनमें प्रवेश करने पर उन्हें ध्यान देना चाहिए। आगे, हम सत्य के इस पहलू पर पूरी तरह से संगति करेंगे, हर एक श्रेणी पर बारी-बारी से चर्चा करेंगे, ताकि चीजें स्पष्ट हो सकें।

आज की संगति मैं उन सत्यों के साथ शुरू करूँगा जो सुसमाचार कार्यकर्ताओं को समझने चाहिए। वे कौन-से बुनियादी सत्य हैं जिन्हें सुसमाचार कार्यकर्ताओं को समझना चाहिए और जिनसे स्वयं को सुसज्जित करना चाहिए? तुम्हें यह कर्तव्य अच्छी तरह कैसे निभाना चाहिए? तुम्हें दर्शन के कुछ सत्यों को धारण करना होगा जो सुसमाचार प्रचार के लिए जरूरी हैं और सुसमाचार प्रचार के सिद्धांतों में महारत हासिल करनी होगी। जब तुम सुसमाचार प्रचार के सिद्धांतों में माहिर हो जाओगे, तो फिर तुम्हें दूसरों की धारणाओं और समस्याओं को हल करने के लिए और कौन-से अन्य सत्य धारण करने चाहिए? सच्चा मार्ग खोज रहे लोगों के साथ तुम्हें कैसा व्यवहार करना चाहिए? सबसे महत्वपूर्ण है पहचान करना सीखना। तुम किन लोगों के बीच सुसमाचार का प्रचार कर सकते हो और किन लोगों के बीच नहीं : सबसे पहले तुम्हें यह सिद्धांत समझना होगा। अगर तुम ऐसे लोगों के बीच सुसमाचार का प्रचार करते हो जिनके साथ इसका प्रचार नहीं किया जा सकता, तो यह न केवल बेकार कोशिश होगी, बल्कि इससे छिपे हुए खतरे आसानी से सामने आ सकते हैं। तुम्हें यह बात समझनी होगी। इसके अलावा, अगर तुम बस कुछ शब्द कहोगे या कुछ गहन धर्म-सिद्धांतों की बात करोगे, तो जिन लोगों के बीच सुसमाचार का प्रचार किया जा सकता है वे भी इसे स्वीकार नहीं करेंगे। यह इतना आसान नहीं है। मुमकिन है कि तुम इतनी बातें करो कि तुम्हारा गला सूख जाए, तुम्हारी जीभ थक जाए और तुम सारा धैर्य खो दो, और सच्चे मार्ग की पड़ताल करने वालों को छोड़ना चाहो। ऐसी परिस्थितियों में, तुम्हारे पास क्या होना सबसे जरूरी है? (प्रेम और धैर्य।) तुम्हारे पास प्रेम और धैर्य होना चाहिए। अगर तुममें प्रेम की भावना का पूरा अभाव है, तो यकीनन तुममें धैर्य नहीं होगा। दर्शन के सत्य को समझने के अलावा, सुसमाचार प्रचार के लिए बहुत सारा प्रेम और धैर्य भी जरूरी है। सिर्फ इसी तरह से तुम सुसमाचार प्रचार के कर्तव्य का सही तरीके से निर्वहन कर पाओगे। सुसमाचार प्रचार के कर्तव्य को किस प्रकार परिभाषित किया गया है? सुसमाचार प्रचार के कर्तव्य को तुम किस तरह देखते हो? सुसमाचार कार्यकर्ता अन्य कर्तव्य निभाने वालों से किस तरह अलग हैं? वे अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर के आगमन की गवाही देते हैं। कुछ लोग उन्हें सुसमाचार के संदेशवाहक बताते हैं, जिन्हें एक मिशन पर भेजा गया है, और वे स्वर्ग से आए फरिश्ते हैं। क्या उन्हें इस तरह परिभाषित कर सकते हैं? (नहीं कर सकते।) सुसमाचार कार्यकर्ताओं का मिशन क्या है? लोगों के मन में उनकी क्या छवि है? उनकी भूमिका क्या है? (सुसमाचार प्रचारक की।) सुसमाचार प्रचारक, संदेशवाहक, और क्या? (गवाह।) ज्यादातर लोग उन्हें इसी तरह परिभाषित करेंगे। मगर क्या ये परिभाषाएँ वाकई सही हैं? कुछ सामान्य शब्द हैं “सुसमाचार प्रचारक” और “गवाह”—“सुसमाचार के संदेशवाहक” अधिक प्रतिष्ठित उपाधि है। ये तीन शब्द अक्सर सुनने में आते हैं। इस कर्तव्य को निभाने वाले लोगों की उपाधि को लोग चाहे कैसे भी समझें या कैसे भी परिभाषित करें, ये सभी उपाधियाँ “सुसमाचार” शब्द से बेहद करीब से जुड़ी हुई हैं। इन तीन शब्दों में से कौन-सा शब्द सुसमाचार प्रचार के कर्तव्य के लिए अधिक प्रासंगिक और अधिक उपयुक्त है, जो इस उपाधि को अधिक तर्कसंगत बनाता है? (सुसमाचार प्रचारक।) ज्यादातर लोग सुसमाचार प्रचारक की उपाधि को अधिक उपयुक्त मानते हैं। क्या कोई गवाह की उपाधि से सहमत है? (हाँ।) क्या कोई सुसमाचार के संदेशवाहक की उपाधि को उपयुक्त मानता है? (नहीं।) सुसमाचार के संदेशवाहक की उपाधि से लगभग कोई भी सहमत नहीं है। चलो पहले इस बात पर चर्चा करें कि सुसमाचार प्रचारक की उपाधि उपयुक्त है या नहीं। सुसमाचार प्रचारक वह है जो मार्ग का प्रचार करता है। “प्रचार करने” का मतलब है किसी चीज का प्रसार करना, उसे फैलाना, उसे अन्य लोगों तक पहुँचाना और प्रचारित करना। और सुसमाचार प्रचारक किस “मार्ग” का प्रचार करते हैं? (सच्चे मार्ग का।) यह कहने का एक अच्छा तरीका है। “मार्ग” परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर द्वारा मनुष्य के उद्धार का सच्चा मार्ग है। हम सुसमाचार प्रचारक शब्द को इसी तरीके से समझाते और परिभाषित करते हैं। अब, गवाह के बारे में बात करते हैं। गवाह किस चीज की गवाही देता है? (अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य की।) यह कहना गलत नहीं होगा कि गवाह अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य की गवाही देता है। ये दोनों उपाधियाँ अपेक्षाकृत उपयुक्त लगती हैं। सुसमाचार के संदेशवाहक के बारे में क्या कहोगे? “सुसमाचार” का क्या अर्थ है? यह परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर द्वारा मनुष्य के उद्धार और परमेश्वर की वापसी का शुभ समाचार और खुशखबरी है। हम “संदेशवाहक” शब्द को कैसे समझा सकते हैं? “संदेशवाहक” की सही व्याख्या वह व्यक्ति है जिसे परमेश्वर ने भेजा है, जिसे सीधे तौर पर सुसमाचार प्रचार के लिए भेजा गया है या वह खास व्यक्ति जिसे परमेश्वर एक खास समय पर परमेश्वर के वचन बताने या महत्वपूर्ण संदेश देने के लिए भेजता है। वह एक संदेशवाहक है। क्या सुसमाचार का प्रचार करने वाले ऐसी भूमिका निभाते हैं? क्या वे ऐसा काम करते हैं? (नहीं।) तो फिर वे किस तरह का काम करते हैं? (वे अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य की गवाही देते हैं।) क्या उनका अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य की गवाही देना एक मिशन है जो उन्होंने सीधे परमेश्वर से स्वीकार किया है? (नहीं।) तो फिर इस मिशन को कैसे समझाया जा सकता है? (यह सृजित प्राणियों का कर्तव्य है।) यह लोगों का कर्तव्य है। चाहे परमेश्वर ने तुम्हें यह कर्तव्य सौंपा हो या नहीं, तुम्हें बताया हो या नहीं या तुम्हें अपने नए कार्य और सुसमाचार का प्रचार करने का आदेश दिया हो या नहीं, यह तुम्हारी जिम्मेदारी और दायित्व बनता है कि तुम ज्यादा-से-ज्यादा लोगों को सुसमाचार के बारे में बताओ, इसका प्रसार करो और इसे अधिक-से-अधिक लोगों तक पहुँचाओ। यह तुम्हारी जिम्मेदारी और दायित्व है कि तुम ज्यादा-से-ज्यादा लोगों तक यह सुसमाचार पहुँचाओ, ताकि वे परमेश्वर के समक्ष और उसके घर में वापस लौट सकें। यह लोगों का कर्तव्य और जिम्मेदारी है, इसलिए उन्हें परमेश्वर द्वारा रवाना किया गया और भेजा गया नहीं माना जा सकता है। इसलिए, यहाँ “संदेशवाहक” शब्द का इस्तेमाल करना सही नहीं है। इस शब्द की प्रकृति क्या है? यह झूठा, अतिशयोक्तिपूर्ण और खोखला है। “संदेशवाहक” शब्द अतिशयोक्तिपूर्ण है तो उसे उपयुक्त नहीं कह सकते। पुराने नियम के समय से लेकर आज तक, परमेश्वर के प्रबंधन कार्य की शुरुआत से लेकर वर्तमान समय तक, संदेशवाहक की भूमिका मूलतः कभी अस्तित्व में ही नहीं रही। यानी, मानवजाति के उद्धार के लिए परमेश्वर की प्रबंधन योजना के कार्य की पूरी अवधि में ऐसी कोई भूमिका कभी नहीं निभाई गई। “संदेशवाहक” शब्द का जो अर्थ है उसकी जिम्मेदारी सामान्य लोग कैसे उठा सकते हैं? कोई भी ऐसे कार्य की जिम्मेदारी नहीं उठा सकता। इसलिए, यह भूमिका मनुष्यों के लिए नहीं है, और किसी को भी इस शब्द से जोड़ा नहीं जा सकता। जैसा कि लोग समझते हैं, एक संदेशवाहक वह व्यक्ति होता है जिसे परमेश्वर कोई कार्य करने या संदेश देने के लिए भेजता है। ऐसे व्यक्ति का मानवजाति का प्रबंधन करने के परमेश्वर के भव्य और व्यापक कार्य से कोई लेना-देना नहीं है। यानी, परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों में संदेशवाहक की भूमिका का कोई अस्तित्व नहीं है। इसलिए, आगे से इस शब्द का उपयोग मत करना। इस तरह से बोलना नासमझी है। क्या कोई व्यक्ति “सुसमाचार के संदेशवाहक” की उपाधि धारण कर सकता है? नहीं कर सकता। क्योंकि पहली बात, वह देह और रक्त से बना है। इसके अलावा, वह भ्रष्ट मानवजाति का हिस्सा है। एक संदेशवाहक कैसा प्राणी होता है? तुम लोगों को पता है? (हमें नहीं पता।) तुम्हें नहीं पता, फिर भी तुम इस नाम का इस्तेमाल करने की हिम्मत करते हो। यह छद्मवेश धारण करना है। यकीनन यह कहा जा सकता है कि संदेशवाहकों का मानवजाति से कोई सरोकार नहीं है, और मनुष्यों का “संदेशवाहक” शब्द से कोई सरोकार नहीं हो सकता। मानवजाति यह उपाधि धारण नहीं कर सकती। सुसमाचार के संदेशवाहक, ऊपर से संदेशवाहकों का आना, और संदेशवाहकों का कार्य, ये सभी मूल रूप से पुराने नियम में इब्राहीम के समय में ही समाप्त हो गए। यह पहले ही खत्म हो चुका है। जब से परमेश्वर ने औपचारिक रूप से मानवजाति के उद्धार का कार्य किया है, मानवजाति को “संदेशवाहक” शब्द इस्तेमाल करना बंद कर देना चाहिए। अब इस शब्द का इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाना चाहिए? (क्योंकि मनुष्य यह उपाधि धारण नहीं कर सकते।) बात यह नहीं है कि मनुष्य यह उपाधि धारण कर सकते हैं या नहीं, बल्कि यह है कि संदेशवाहकों का भ्रष्ट मानवजाति से कोई लेना-देना नहीं है। भ्रष्ट मानवजाति के बीच ऐसी कोई भूमिका नहीं है, न ही ऐसी कोई उपाधि है। चलो अब “सुसमाचार प्रचारक” शब्द पर वापस चलते हैं। अगर हमें उस “मार्ग” की वस्तुनिष्ठ, सटीक और गहन परिभाषा देनी हो जिसके बारे में वे प्रचार करते हैं, तो हम इसे कैसे परिभाषित करेंगे? (परमेश्वर का वचन।) यह अपेक्षाकृत सामान्य शब्द है। विशेष रूप से, क्या इसका मतलब सिर्फ वर्तमान समय में सुसमाचार और परमेश्वर के कार्य के संदेश से है? (नहीं।) तो फिर सुसमाचार कार्यकर्ता वास्तव में किस चीज का प्रसार करते हैं? सुसमाचार कार्यकर्ताओं का कार्य किस हद तक “मार्ग” से संबंधित है? किस प्रकार के कार्य वास्तव में उनके कर्तव्यों के दायरे में आते हैं? वे संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं को बस कुछ बुनियादी जानकारी देते हैं—जैसे कि परमेश्वर अंत के दिनों में आया है, उसने क्या कार्य किया है, परमेश्वर के वचन और परमेश्वर के इरादे क्या हैं—ताकि लोग इस जानकारी को सुनकर स्वीकार कर सकें और परमेश्वर के समक्ष वापस लौट सकें। लोगों को परमेश्वर के समक्ष लाने के बाद, उनकी सुसमाचार प्रचार की जिम्मेदारी पूरी हो जाती है। वे जो भी जानकारी देते हैं क्या उसमें “मार्ग” का कोई भी अर्थ शामिल होता है? यहाँ, “जानकारी” और “सुसमाचार” शब्द लगभग समतुल्य हैं। तो, क्या उनका “मार्ग” से कोई संबंध है? (नहीं।) ऐसा कोई संबंध क्यों नहीं है? “मार्ग” का असल में क्या अर्थ है? इसे समझाने के लिए सबसे आसान शब्द पथ है। “पथ” शब्द “मार्ग” की परिभाषा संक्षेप में प्रस्तुत करता है, जो अधिक विशिष्ट है। अधिक ठोस रूप से कहें, तो “मार्ग” मानवजाति के उद्धार के लिए, मनुष्यों को उनके भ्रष्ट शैतानी स्वभावों से मुक्त करने के लिए, और उन्हें शैतान के बंधन और अन्धकार की शक्तियों से बचने के लिए परमेश्वर द्वारा दिए गए सभी वचन हैं। क्या यह सटीक और ठोस विवरण है? अब इसे देखें, तो क्या “सुसमाचार प्रचारक” शब्द सुसमाचार प्रचार का कर्तव्य निर्वहन करने वालों के लिए उपयुक्त परिभाषा है? (यह उपयुक्त नहीं है।) एक सुसमाचार प्रचारक का कर्तव्य सुसमाचार का प्रचार करने से कहीं ज्यादा होता है। जो लोग परमेश्वर को जानते हैं और परमेश्वर की गवाही दे सकते हैं, सिर्फ वे ही इस उपाधि को धारण कर सकते हैं। क्या सुसमाचार प्रचार करने वाला कोई सामान्य व्यक्ति सुसमाचार प्रचारक के कार्य की जिम्मेदारी उठा सकता है? बिल्कुल नहीं। सुसमाचार का प्रचार करना, शुभ समाचार का प्रसार करने और महज परमेश्वर के कार्य की गवाही देने से ज्यादा कुछ भी नहीं है। ये लोग सुसमाचार प्रचारकों के कार्य की जिम्मेदारी बिल्कुल नहीं उठा सकते और सुसमाचार प्रचारकों के कर्तव्य का निर्वहन नहीं कर सकते, तो उन्हें सुसमाचार प्रचारक नहीं कहा जा सकता। सुसमाचार प्रचारक की उपाधि बहुत ऊँची है और सुसमाचार का प्रचार करने वाले इस उपाधि के लायक नहीं हैं। यह उपाधि उनके लिए उपयुक्त नहीं है। अब सिर्फ “गवाह” शब्द पर चर्चा करना बाकी है। गवाह किस चीज की गवाही देता है? (अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य की।) क्या यह कहना उपयुक्त है कि वे अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य का प्रसार करते हैं और उसकी गवाही देते हैं? अगर गवाह शब्द को सटीक तौर पर परिभाषित करें, तो इसका मतलब उस व्यक्ति से होगा जो परमेश्वर की गवाही देता है, न कि सुसमाचार की। अगर हम सुसमाचार प्रचार करने वालों को परमेश्वर के गवाह बताएँ तो क्या? क्या वे परमेश्वर की गवाही दे सकते हैं? (नहीं दे सकते।) हम यहाँ प्रयुक्त शब्द “गवाह” को कैसे समझा सकते हैं? बारीकी से जाँचें, तो “गवाह” शब्द भी उपयुक्त नहीं लगता। क्योंकि सुसमाचार का प्रचार करने वाले लोग परमेश्वर के वचनों के लिए तरसने वालों के सामने सिर्फ परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों का प्रसार करते हैं और परमेश्वर के प्रकटन का स्वागत करने वालों को परमेश्वर का वचन बताते हैं, इसलिए यह “गवाह” का वास्तविक अर्थ नहीं दर्शाता है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि गवाही देने का यह अर्थ नहीं है? गवाही देने में वह चीज शामिल है जिसके बारे में व्यक्ति संगति करता है और जिसका वह प्रसार करता है, ताकि लोग परमेश्वर को जान सकें और उन्हें परमेश्वर के समक्ष लाया जा सके। आज के समय में, सुसमाचार का प्रचार करने वाले सिर्फ लोगों को कलीसिया तक, पृथ्वी पर परमेश्वर के कार्यस्थल तक लेकर आते हैं। वे परमेश्वर के स्वभाव, जो परमेश्वर के पास है और जो वह स्वयं है, और उसके कार्य की गवाही नहीं देते हैं। क्या गवाह की उपाधि उनके लिए उपयुक्त है? सटीक तौर पर कहें, तो यह बिल्कुल भी उपयुक्त नहीं है। अब, हमने तीनों शब्दों—सुसमाचार के संदेशवाहक, सुसमाचार प्रचारक और गवाह—की छानबीन कर ली है और उन पर विचार कर लिया है और पाया है कि ये सभी सुसमाचार प्रचारकों के लिए उपयुक्त नहीं हैं। भले ही ये तीन शब्द धर्म से आए हों या परमेश्वर के घर के सदस्यों द्वारा आम तौर पर इस्तेमाल किए जाते हों, ये उपाधियाँ बिल्कुल भी उपयुक्त नहीं हैं। अब सवाल यह बनता है : क्या उपाधियाँ महत्वपूर्ण हैं? (वे महत्वपूर्ण हैं।) क्या वे वाकई महत्वपूर्ण हैं? उदाहरण के लिए, अगर तुम्हारा असली नाम जॉन स्मिथ था, लेकिन अब तुम्हें जेम्स क्लार्क के नाम से जाना जाता है, तो क्या तुम बदल गए हो? क्या अब तुम पहले जैसे नहीं रहे? इसका मतलब है कि तुम जो उपाधि या नाम इस्तेमाल करते हो वह महत्वपूर्ण नहीं है। अगर यह महत्वपूर्ण नहीं है, तो इन शब्दों का गहन-विश्लेषण क्यों करें? मैंने इन शब्दों का गहन-विश्लेषण इसलिए किया ताकि लोग सुसमाचार प्रचार के कर्तव्य को लेकर सटीक दृष्टिकोण पा सकें, सटीक तरीके से परिभाषित कर सकें कि यह कर्तव्य क्या है, और जान सकें कि उन्हें इस कर्तव्य को कैसे सही ढंग से निभाना चाहिए और इसके प्रति कैसा व्यवहार करना चाहिए। तुम्हारे लिए सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि इस कर्तव्य में तुम्हारी स्थिति क्या है। यह बहुत महत्वपूर्ण है। इसलिए, यह उपाधि सटीक होनी चाहिए।

मैंने अभी सुसमाचार प्रचार का कर्तव्य निभाने वालों से संबंधित कई उपाधियों या शब्दों का मोटे तौर पर विश्लेषण किया। गवाह, सुसमाचार प्रचारक और सुसमाचार के संदेशवाहक की सभी उपाधियाँ और परिभाषाएँ सटीक नहीं हैं। वे सटीक क्यों नहीं हैं? क्योंकि जो लोग सिर्फ सुसमाचार का प्रचार करते हैं वे इन उपाधियों को पाने लायक कोई ठोस काम नहीं करते। वे परमेश्वर के कर्मों, उसके कार्य या परमेश्वर के सार की गवाही नहीं दे रहे हैं। वे यह कार्य नहीं करते, और न ही ये कर्तव्य निभाते हैं। इसलिए, उन्हें गवाह की उपाधि नहीं दी जा सकती। सुसमाचार प्रचारक की उपाधि की प्रकृति भी यही है, सुसमाचार के संदेशवाहक की बात तो छोड़ ही दो। इस आखिरी उपाधि का कोई अर्थ नहीं है, इसका कोई आधार नहीं है। यह उस भव्य लगने वाली उपाधि से ज्यादा कुछ नहीं है जो लोग खुद को देते हैं। संदेशवाहक की उपाधि कहाँ से आई? क्या यह मनुष्य के अहंकारी स्वभाव के विस्तार का परिणाम नहीं है? (बिल्कुल है।) क्या यह बस खुद को ऊँची उपाधि देने की चाह है? जब एक व्यक्ति खुद को ऐसी उपाधि से नवाजता है, तो यह व्यवहार समझ के होने की अभिव्यक्ति नहीं है। अन्य उपाधियाँ और भी उपयुक्त और योग्य नहीं हैं, तो हम उन सभी का जिक्र और बारी-बारी से उनका गहन-विश्लेषण नहीं करेंगे। क्योंकि ये उपाधियाँ सही नहीं हैं, तो आओ देखें कि वास्तव में सुसमाचार प्रचार के कर्तव्य का सार क्या है। किसी धर्म में, जब किसी व्यक्ति को सुसमाचार का प्रचार करते हुए जीत लिया जाता है, तो लोग इसे क्या कहते हैं? (फल उत्पन्न करना।) जब सुसमाचार प्रचार करने वाले लोग किसी व्यक्ति को जीत लेते हैं तो वे कहते हैं कि उन्होंने फल उत्पन्न किया है। जब वे मिलते और बातचीत करते हैं तो वे हमेशा यह चर्चा करते हैं कि उन्होंने अमुक-अमुक जगह सुसमाचार का प्रचार कर कितने फल उत्पन्न किए हैं। वे यह देखने के लिए एक-दूसरे से तुलना करते हैं कि किसने ज्यादा फल उत्पन्न किए हैं और ये किस प्रकार के फल हैं। वे ऐसी तुलना क्यों करते हैं? सतही तौर पर अपने फलों की संख्या की तुलना करके वे वास्तव में किस चीज की तुलना कर रहे हैं? वे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने की योग्यताओं और अपने गुणों की तुलना कर रहे हैं। अगर वे आपस में ऐसी तुलना करते हैं, तो क्या वे सुसमाचार प्रचार के कार्य को अपने कर्तव्य के रूप में देखते हैं? वे जो फल उत्पन्न करते हैं उसे इतनी अहमियत क्यों देते हैं? वे मानते हैं कि वे जो फल उत्पन्न करते हैं उनका संबंध किसी न किसी तरह स्वर्ग में जाने, आशीष पाने और पुरस्कार प्राप्त करने से है। अगर इन फलों का उन चीजों से कोई संबंध न हो तो क्या वे जब कभी आपस में मिलने पर ये तुलनाएँ करेंगे? वे अन्य पहलुओं को लेकर अपनी तुलना करेंगे। वे इनाम पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश से संबंधित किसी भी मामले को लेकर अपनी तुलना करेंगे। चूँकि सुसमाचार प्रचार करते हुए लोगों को जीतने और फल उत्पन्न करने का संबंध स्वर्ग जाने और पुरस्कार पाने से है, इसलिए इन चीजों को हासिल करने के लिए लोग यह तुलना करने से कभी नहीं ऊबते कि सुसमाचार प्रचार करते समय किसने अधिक लोगों को जीता और किसे अधिक फल उत्पन्न किए हैं। फिर वे अपने दिलों में अधिक लोगों को जीतने और अधिक फल उत्पन्न करने के तरीकों का हिसाब लगाते हैं ताकि स्वर्ग में प्रवेश करने और पुरस्कार पाने के संबंध में अपनी योग्यताओं और आत्मविश्वास को सुधार सकें। इसमें सुसमाचार प्रचार के संबंध में सभी प्रकार के लोगों का रवैया स्पष्ट हो जाता है। क्या सुसमाचार प्रचार को लेकर उनका रवैया और प्रेरणा सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्यों को पूरा करने की इच्छा है? (नहीं।) यह एक गलत दृष्टिकोण है। उनका लक्ष्य अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाना और परमेश्वर का आदेश पूरा करना नहीं, बल्कि इनाम पाना है। इस तरह लेन-देन के तरीके से अपना कर्तव्य निभाना यकीनन सत्य के अनुरूप नहीं है, बल्कि यह सत्य का उल्लंघन है। यह परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं, बल्कि उसके लिए घृणित है। चाहे इन लोगों ने कितने भी फल उत्पन्न किए हों, इसका उनकी अंतिम मंजिल पर कोई असर नहीं पड़ता है। वे सुसमाचार प्रचार को एक पेशा, आशीष और इनाम पाने का रास्ता या जरिया मानते हैं। अपने कर्तव्य निभाने और इस आदेश को स्वीकारने के पीछे ऐसे लोगों का इरादा परमेश्वर का आदेश पूरा करना या अच्छी तरह अपने कर्तव्य निभाना नहीं, बल्कि सिर्फ आशीष और इनाम पाना है। इसलिए इस तरह के लोग चाहे कितने भी फल उत्पन्न कर लें, वे न तो गवाह होते हैं और न ही सुसमाचार प्रचारक। वे कर्तव्य निभाने के लिए काम नहीं करते, बल्कि सिर्फ आशीष पाने के लिए कड़ी मेहनत और श्रम करते हैं। यहाँ सबसे गंभीर समस्या सिर्फ यह नहीं है कि सुसमाचार प्रचार में उनका मकसद आशीष और इनाम पाना है, बल्कि यह है कि वे सुसमाचार का प्रचार कर लोगों को जीतने के तथ्य का इस्तेमाल परमेश्वर से उसके बदले इनाम और स्वर्ग में प्रवेश करने का आशीष पाने के लिए चिप के रूप में करते हैं। क्या यह बेहद गंभीर समस्या नहीं है? इस समस्या का सार क्या है? वे सुसमाचार को बेच रहे हैं, आशीष पाने के बदले में इसे “बेच” रहे हैं। क्या इसमें थोड़ी-सी परमेश्वर के साथ सौदा करने की कोशिश की प्रकृति नहीं है? उनके इरादों का, अभ्यासों का, और उनके कार्यों की प्रकृति का सार यही है। इनाम पाने के बदले में सुसमाचार का सौदा करना धार्मिक संसार में तथाकथित “सुसमाचार प्रचारकों” के बीच पाई जाने वाली समस्या मालूम पड़ती है। तो फिर, जो लोग अभी परमेश्वर के घर में सुसमाचार प्रचार के कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हैं, क्या उनमें भी यही समस्या है? (बिल्कुल है।) कौन-सी मूल समस्या दोनों में आम है? वह यह है कि वे परमेश्वर की संतुष्टि और स्वीकृति के बदले में सुसमाचार बेच रहे हैं ताकि आशीष पाने और एक खूबसूरत गंतव्य पाने का अपना लक्ष्य हासिल कर सकें। जब इसे इस तरीके से प्रस्तुत किया जाता है, तो मुमकिन है कि तुममें से कुछ लोग इससे सहमत न हों, पर वास्तव में कई लोग इसी तरह का व्यवहार करते हैं।

लोगों को जीतने के बाद, बहुत-से सुसमाचार कार्यकर्ताओं को लगता है कि वे लोगों को बचा सकते हैं और उन्होंने महान सेवा की है, और जिन लोगों ने उनसे सुसमाचार स्वीकारा है उन्हें अक्सर वे कहते हैं : “अगर मैंने तुम्हें सुसमाचार नहीं सुनाया होता, तो तुम कभी परमेश्वर में विश्वास नहीं कर पाते। मेरे स्नेहपूर्ण दिल के कारण ही तुम्हें सुसमाचार पाने का सौभाग्य मिला है।” और जब लोग उनसे सुसमाचार स्वीकार लेते हैं, तो इसी तरह के लोग हमेशा उनसे यह पूछने के बारे में सोचते हैं, “तुम्हें सुसमाचार का प्रचार किसने किया?” वे लोग इस सवाल पर विचार करेंगे और सोचेंगे, “यह सच है कि तुमने ही मुझे सुसमाचार सुनाया, पर यह पवित्र आत्मा का कार्य था—मैं इसका श्रेय तुम्हें नहीं दे सकता।” और वे जवाब नहीं देना चाहेंगे। उनके जवाब न देने पर, सवाल करने वाला गुस्से में आकर उनसे सवाल करना जारी रखेगा। वे लगातार सवाल पूछकर क्या हासिल करना चाहते हैं? वे श्रेय पाना चाहते हैं। सुसमाचार प्रचार करने वालों में से कुछ ऐसे भी लोग हैं जो किसी को सफलतापूर्वक सुसमाचार का प्रचार करेंगे, मगर फिर जब वह व्यक्ति कलीसिया में प्रवेश करने के मानकों पर खरा उतरेगा तो उसे कलीसिया को सौंपने से इनकार कर देंगे। कुछ सुसमाचार कार्यकर्ता ऐसे भी हैं जो सफलतापूर्वक कई लोगों को सुसमाचार का प्रचार करेंगे मगर उन्हें कलीसिया को नहीं सौंपेंगे, और कुछ तो 20-30 लोगों को सफलतापूर्वक सुसमाचार का प्रचार करने के बाद भी—जो एक नई कलीसिया स्थापित करने के लिए काफी हैं—उन्हें कभी कलीसिया को नहीं सौंपेंगे। वे इन लोगों को कलीसिया को क्यों नहीं सौंपते? वे कहते हैं, “इन लोगों की नींव अभी तक ठोस नहीं हुई है। जब तक इनकी नींव ठोस नहीं हो जाती, इनके संदेह खत्म नहीं हो जाते, और इन्हें गुमराह करना वास्तव में कठिन नहीं हो जाता, हम इंतजार कर लेते हैं, फिर मैं इन्हें कलीसिया को सौंप दूँगा।” करीब आधे साल के बाद, इन लोगों के पास थोड़ी नींव होगी और वे कलीसिया में प्रवेश के सिद्धांतों पर खरे उतरेंगे, पर ये सुसमाचार कार्यकर्ता अभी भी उन्हें कलीसिया को नहीं सौंपेंगे। वे इन लोगों की अगुआई खुद करना चाहते हैं। इसके पीछे उनका इरादा क्या है? अगर इससे कोई फायदा नहीं होना होता, तो क्या वे इन लोगों की अगुआई करना चाहते? वे क्या लाभ पाना चाहते हैं? वे इन लोगों से व्यक्तिगत लाभ और फायदे पाना चाहते हैं। अगर वे उन लोगों को कलीसिया को सौंप देंगे, तो उन्हें वो लाभ नहीं मिलेंगे। तो, तुममें इस समस्या का भेद पहचानने की क्षमता होनी चाहिए। यह वैसा ही है जैसे धार्मिक संसार में कितने ही पादरी और एल्डर अच्छी तरह से जानते हैं कि सच्चा मार्ग क्या है, मगर फिर भी वे इसे स्वीकार नहीं करते और न ही विश्वासियों को इसे स्वीकारने देते हैं। दरअसल, वे ऐसा अपनी शोहरत और लाभ के लिए करते हैं। अगर विश्वासी सच्चा मार्ग स्वीकार कर लेते हैं, तो वे पादरी और एल्डर उनकी आस्था का फायदा नहीं उठा पाएँगे। ये सुसमाचार कार्यकर्ता इस बात से डरते हैं कि जब उनसे सुसमाचार पाने वाले कलीसिया से जुड़ जाएँगे, तो वे उन्हें भूल जाएँगे और तब वे उनकी आस्था का फायदा नहीं उठा सकेंगे। इसलिए वे इन लोगों को कलीसिया को नहीं सौंपते। इस तरह के सुसमाचार कार्यकर्ता इन लोगों को कब सौंपेंगे? जब वे सभी लोग उनकी बात सुनने लगेंगे और उनकी आज्ञा मानने लगेंगे, तब जाकर वे उन्हें कलीसिया को सौंपेंगे। कलीसिया में प्रवेश करने के बाद, इन लोगों में से जिनकी मानवता अच्छी है, जिन्हें सच्ची समझ है, और जो सत्य से प्रेम करते हैं, वे अक्सर उपदेश सुनेंगे और कुछ सत्यों को समझेंगे, और फिर वे उन लोगों का भेद पहचान पाएँगे जिन्होंने उन्हें सुसमाचार का प्रचार किया था। फिर वे कहेंगे, “लगता है वह व्यक्ति पौलुस की तरह मसीह-विरोधी है।” अगली बार जब वे मिलेंगे, तो ऐसे सुसमाचार कार्यकर्ताओं पर कोई ध्यान नहीं देंगे। नजरअंदाज किए जाने पर, इन सुसमाचार कार्यकर्ताओं को गुस्सा आएगा और वे कहेंगे, “तुम लोग एहसान-फरामोश हो! अगर मैंने तुम्हें सुसमाचार का प्रचार नहीं किया होता, तो क्या तुम परमेश्वर में विश्वास कर पाते? क्या तुम्हें सच्चा मार्ग मिलता? अब जब तुम्हारे पास अपनी अगुआई करने के लिए कोई और है तो क्या तुम मुझे, जो तुम्हें लाई है, भुला चुके हो?” वे चाहते हैं कि उन्हें ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जाए जिसके वे लोग ऋणी होने चाहिए। क्या इस तरह से बात करने वाले लोगों के पास विवेक होता है? (नहीं।) अगर कोई ऐसी बातें कहने के लिए स्वयं को तैयार कर सकता है, तो यकीनन वह अच्छा व्यक्ति नहीं हो सकता। मैंने ऐसा क्यों कहा? जब वे परमेश्वर के सुसमाचार का प्रचार करते हैं, तो जिन लोगों को वे जीतते हैं वे किसके हैं? (परमेश्वर के।) भले ही वे सुसमाचार प्रचार के लिए कड़ी मेहनत कर सकते हैं, पर जिन लोगों को वे जीतते हैं वे उनके नहीं, बल्कि परमेश्वर के हैं। जो लोग सुसमाचार को स्वीकारते हैं वे परमेश्वर का अनुसरण करना चाहते हैं न कि सुसमाचार सुनाने वालों पर विश्वास करना, पर इस तरह के सुसमाचार कार्यकर्ता उन्हें कलीसिया से जुड़कर परमेश्वर का अनुसरण नहीं करने देते। इसके बजाय, वे इन लोगों को अपनी पकड़ और काबू में रखना चाहते हैं, और उनसे अपना अनुसरण करवाना चाहते हैं। क्या यह सुसमाचार प्रचार के नाम पर राह चलते लूट नहीं है? इस तरह के सुसमाचार कार्यकर्ता दूसरों को परमेश्वर के समक्ष आने से रोकते हैं, वे ऐसा माहौल बनाते हैं जिसमें परमेश्वर के समक्ष आने से पहले उन लोगों को इनके सामने से गुजरना पड़े, और सब कुछ उनके जरिये बताया जाए। क्या वे उनकी आस्था से लाभ उठाने की कोशिश नहीं कर रहे? क्या वे इन लोगों को काबू में नहीं करना चाहते? (बिल्कुल।) यह कैसा व्यवहार है? यह पूरी तरह से शैतान का व्यवहार है! इसका मतलब है कि एक मसीह-विरोधी ने अपना असली रंग दिखा दिया है, और वह कलीसिया और परमेश्वर के चुने लोगों को काबू में रखना चाहता है। ऐसे लोग हर जगह की कलीसिया में पाए जा सकते हैं। गंभीर मामलों में, वे दर्जनों या सैकड़ों लोगों को भी काबू में कर सकते हैं। सामान्य मामलों में, जब वे कुछ लोगों को सफलतापूर्वक सुसमाचार का प्रचार करते हैं, तो लगातार उनसे आभार जताने की उम्मीद करेंगे, जब भी वे मिलेंगे तो इन लोगों पर किए एहसान की बात करेंगे, और हमेशा उस वक्त की बातें करेंगे जब इन लोगों ने पहली बार परमेश्वर में विश्वास किया था। वे हमेशा इन बातों का जिक्र क्यों करते हैं? ऐसा इसलिए है ताकि वे लोग उनकी दयालुता को याद रखें और यह न भूलें कि किसके प्रचार के कारण वे परमेश्वर के घर में प्रवेश कर पाए, और इसका सारा श्रेय किसे जाना चाहिए। ऐसे मामलों को उठाने के पीछे उनका एक मकसद होता है और अगर यह मकसद हासिल नहीं होता, तो वे उन लोगों को फटकारते हैं। वे उन्हें फटकारते हुए सबसे पहली बात क्या कहते हैं? (यह कि वे एहसान-फरामोश हैं।) क्या उनके इन शब्दों में कोई विवेक है? (बिल्कुल नहीं।) तुमने ऐसा क्यों कहा कि इनमें कोई विवेक नहीं है? (क्योंकि ये सुसमाचार कार्यकर्ता अपनी सही जगह पर नहीं खड़े हैं। सुसमाचार का प्रचार करना उनका कर्तव्य है, उन्हें यह काम करना ही चाहिए। और फिर भी, लोगों तक सुसमाचार पहुँचाने के बाद, वे इसे अपना योगदान समझते हैं, अपना कर्तव्य नहीं।) वे हमेशा यही सोचते हैं कि उन्होंने सफलतापूर्वक लोगों को सुसमाचार का प्रचार करके कोई योगदान दिया है। यह गलत है। एक ओर, वे अपनी सही जगह पर नहीं खड़े हैं। लोगों को परमेश्वर बचाता है और लोग इसमें सिर्फ सहयोग ही कर सकते हैं। अगर परमेश्वर कार्य न करे, तो कोई इंसान क्या हासिल कर लेगा? वहीं दूसरी ओर, दूसरे लोगों को सफलतापूर्वक सुसमाचार का प्रचार करना उनका योगदान नहीं है। उन्होंने कोई योगदान नहीं दिया है, यह उनका कर्तव्य है। परमेश्वर लोगों को हासिल करना चाहता है, सुसमाचार कार्यकर्ता बस थोड़ा-सा सहयोग कर रहे हैं। लोगों को बचाना और हासिल करना परमेश्वर का काम है, और इसका सुसमाचार कार्यकर्ताओं से कोई संबंध नहीं है। वे ये काम नहीं कर सकते। सुसमाचार प्रचार में वे बस इसे प्रसारित करने का कार्य कर रहे हैं, वे बस परमेश्वर के अंत के दिनों के सुसमाचार को दूसरों तक पहुँचा रहे हैं। इसे कोई दयालुता नहीं कहा जा सकता जो उन्होंने लोगों पर की है, इसलिए अगर वे लोग उन पर ध्यान नहीं देते, तो वे एहसान-फरामोश नहीं हैं। जब लोग सुसमाचार प्रचार के अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रहे होते हैं, तब क्या ऐसी चीजें अक्सर नहीं होती हैं? क्या तुम लोगों में ऐसी भ्रष्टता प्रकट हुई है? (हुई है।) क्या यह गंभीर प्रकटन था? क्या तुम कभी किसी को फटकारने की हद तक गए हो? क्या तुम किसी से नफरत करने की हद तक गए हो? क्या तुम कभी दूसरों को कोसने या काबू में करने की चाहत रखने की हद तक गए हो? जो भी तुमसे सुसमाचार पाता है तुम उस पर हावी होना और उसे काबू में करना चाहते हो। तुम उन्हें परमेश्वर को सौंपने के बजाय खुद अपने पास रखना चाहते हो। तुम उम्मीद करते हो कि जो भी तुमसे सुसमाचार पाए वह तुम्हारी वफादार संतान बनी रहे। क्या तुम लोगों को भी ऐसे खयाल आते हैं? बहुत-से लोग सुसमाचार का प्रचार करने के प्रति फल उत्पन्न करने जैसा पेश आते हैं। वे सोचते हैं कि जो भी उनसे सुसमाचार प्राप्त करता है वह उनका फल और उनका अनुयायी बन जाता है और उसे आज्ञाकारी बनकर उनका अनुसरण करना चाहिए और उनसे अपने परमेश्वर और स्वामी जैसा पेश आना चाहिए। क्या तुम इसी तरीके से सोचते हो? भले ही तुम इतनी स्पष्ट अति तक नहीं पहुँचे हो, फिर भी तुममें भ्रष्ट स्वभाव का यह पहलू मौजूद है। ऐसा क्यों है? मूल रूप से, इसके पीछे ये दो कारण हैं : एक ओर, लोग अपने उचित स्थान पर खड़े नहीं होते और खुद को नहीं जानते। वहीं दूसरी ओर, वे सुसमाचार प्रचार को अपना कर्तव्य नहीं मानते। अगर तुम सुसमाचार प्रचार को अपना कर्तव्य मानो, तो समझोगे कि चाहे तुम कुछ भी करो, कितने ही लोगों को सुसमाचार सुनाओ या कितने ही लोगों को जीत लो, यह बस एक सृजित प्राणी के कर्तव्य का निर्वहन करना है, यह ऐसी जिम्मेदारी और दायित्व है जो तुम्हें निभाना ही चाहिए, और यह कोई ऐसा बड़ा योगदान नहीं है जिसके बारे में बात की जाए। इस मामले को इस तरह से समझना सत्य के अनुरूप है। मगर ऐसा क्यों है कि सुसमाचार का प्रचार करने वाले कुछ लोग उनसे सुसमाचार पाने वालों को काबू कर पाते हैं और उन्हें अपना मान लेते हैं? क्योंकि वे प्रकृति से बहुत अहंकारी और आत्मतुष्ट हैं, और उनमें जरा-सा भी विवेक नहीं है। इसके अलावा, ऐसा इसलिए भी है क्योंकि वे सत्य नहीं समझते और उन्होंने अपने भ्रष्ट स्वभाव के इस पहलू को हल नहीं किया है। इसलिए वे ऐसी बेवकूफी, अहंकारी और बर्बर चीजें करते हैं जिनसे दूसरों को नफरत और परमेश्वर को घृणा होती है।

जब लोग कुछ करते हैं, जब उनके पास थोड़ी पूँजी होती है या वे कोई योगदान देते हैं, तो वे इसका दिखावा करना चाहते हैं, वे लोगों को काबू में करना चाहते हैं, उन्होंने जो कुछ भी किया है उसके बदले में इनाम या अच्छी मंजिल पाना चाहते हैं। कुछ लोग तो परमेश्वर के सुसमाचार का इस्तेमाल करके सौदेबाजी करने की भी कोशिश करते हैं। वे क्या सौदा करना चाहते हैं? एक उदाहरण देता हूँ। जब ऐसा कोई व्यक्ति सुसमाचार पाने वाले किसी संभावित व्यक्ति के घर में प्रवेश करता है और देखता है कि उसका परिवार गरीब है, तो वह सोचता है कि सुसमाचार प्रचार करके इस व्यक्ति को जीतने से शायद उसका कोई फायदा नहीं होगा। इस वजह से, वह उसमें रुचि नहीं लेता या उसके प्रति भेदभाव भी करता है। जब भी वह उस व्यक्ति को देखता है, तो नाखुश होता है, और अपने अगुआ से कहता है, “वह परमेश्वर में विश्वास नहीं कर पाएगा। और अगर कर भी लिया, तो सत्य हासिल नहीं कर सकेगा।” वह उस व्यक्ति को सुसमाचार का प्रचार नहीं करने के लिए ऐसा बहाना बनाता है। जल्दी ही, जब कोई और उस व्यक्ति को सुसमाचार प्रचार करने जाता है, तो वह इसे स्वीकार लेता है। पहला सुसमाचार कार्यकर्ता इस बात को कैसे समझाएगा? उसने ऐसा कैसे कहा कि वह व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास नहीं करेगा? वह इतनी मनमानी कैसे कर सकता है? अगर उसने उसे सुसमाचार प्रचार किया ही नहीं तो उसे कैसे पता लगा कि वह व्यक्ति विश्वास करेगा या नहीं? उसे पता नहीं लग सकता। वह उस व्यक्ति को क्यों नहीं जीत पाया? क्योंकि उसके मन में उस व्यक्ति के प्रति पूर्वाग्रह था, उसने उसे नीची नजर से देखा और उसके प्रति स्नेहपूर्ण व्यवहार नहीं किया, इसी वजह से वह उस व्यक्ति को नहीं जीत पाया। इस तरह से अपना कर्तव्य निभाकर वह अपनी जिम्मेदारी की उपेक्षा कर रहा था। उसने स्नेहपूर्ण व्यवहार नहीं किया और अपनी जिम्मेदारी निभाने में विफल रहा। परमेश्वर की नजरों में यह एक गुण है या अवगुण? (अवगुण।) यह यकीनन एक अपराध है। यह अपराध क्यों हुआ? क्या ऐसा इसलिए नहीं हुआ क्योंकि वह उस संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता से कोई फायदा नहीं उठा पाया? जब उसने देखा कि उस व्यक्ति को सुसमाचार प्रचार करने से कोई फायदा नहीं होगा, तो उसे उस व्यक्ति से विमुखता हो गई और उसने उसका बदला लिया, वह उसे उद्धार प्राप्त नहीं करने देना चाहता था, और फिर उसने उसे सुसमाचार प्रचार करने से बचने के लिए सभी प्रकार के कारण और बहाने ढूँढ़े। यह जिम्मेदारी की गंभीर उपेक्षा और एक गंभीर अपराध है! जब कोई फायदा न हो रहा हो तो किसी को सुसमाचार प्रचार करने से इनकार करना—यह कैसा रवैया है? क्या यह सुसमाचार का सौदा करने वाले व्यक्ति की विशिष्ट अभिव्यक्ति नहीं है? (बिल्कुल है।) वे किस तरह से सुसमाचार का सौदा कर रहे हैं? मुझे विस्तार से समझाओ और उस प्रक्रिया के बारे में बताओ। (उस व्यक्ति को सुसमाचार प्रचार करने से फायदा होगा या नहीं, इसी आधार पर सुसमाचार कार्यकर्ता ने तय किया कि उसे यह सुनाना चाहिए या नहीं। यह परमेश्वर के सुसमाचार को कोई वस्तु समझने और उसे बेचकर मनमाना फायदा कमाने जैसा है। जब उसने देखा कि यहाँ कोई फायदा नहीं होगा तो उसने सुसमाचार प्रचार करने से इनकार कर दिया।) उसने परमेश्वर के सुसमाचार को अपनी निजी संपत्ति माना। अगर उसे किसी अमीर और शक्तिशाली परिवार का कोई व्यक्ति दिख जाता है, जो अच्छा खाता और अच्छे कपड़े पहनता हो, तो मन-ही-मन सोचता है, “अगर मैंने उसे सुसमाचार प्रचार किया, तो उसके घर में रह सकूँगा, और मेरे पास भी खाने को अच्छा खाना और पहनने के लिए अच्छे कपड़े होंगे,” और फिर वह उस व्यक्ति को सुसमाचार सुनाने का फैसला करता है। यह कैसा बर्ताव है? यह सुसमाचार का सौदा करने वाले व्यक्ति का विशिष्ट उदाहरण है। यह सुसमाचार कार्यकर्ता परमेश्वर के सुसमाचार और परमेश्वर के नए कार्य की खुशखबरी को एक वस्तु और अपनी निजी संपत्ति मानता है, उसका फायदा उठाने और अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए वह हर जगह दूसरों को धोखा देता और चालें चलता है। क्या यही अपने कर्तव्य का निर्वहन करना है? इसे कारोबार करना और सुसमाचार की फेरी लगाकर लाभ कमाना कहते हैं। फेरी लगाने का मतलब है अपनी चीजों को व्यापार के जरिए बेचना और उसके बदले में पैसे पाना या वो चीजें पाना जिनकी उसे चाहत है। तो वह कैसे सुसमाचार की फेरी लगाता है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह सुसमाचार पाने वाले संभावित लोगों से लाभ उठा सकता है या नहीं। इसका मतलब है, “मैं तुम्हें तभी सुसमाचार प्रचार करूँगा जब यह मेरे लिए फायदेमंद होगा। अगर इसमें मेरा कोई फायदा नहीं है, तो मैं तुम्हें सुसमाचार नहीं सुनाने का कोई बहाना ढूँढ़ लूँगा। यह बस एक ऐसा सौदा होगा जो कारगर नहीं हुआ।” यह सौदा कारगर क्यों नहीं हुआ? ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इसमें सुसमाचार कार्यकर्ता के लिए कोई फायदा नहीं था। ऐसे लोगों को हम क्या कहते हैं? उन्हें “घुमंतु ठग” कहा जाता है। उनके पास देने के लिए कुछ भी वास्तविक नहीं होता, पर वे जगह-जगह जाकर दूसरों को धोखा देते और छलते हैं, पैसा कमाने और लाभ पाने के लिए अपने शब्दों पर निर्भर रहते हैं। इस तरह सुसमाचार का प्रचार करके क्या वे अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हैं? वे पूरी तरह से कुकर्म कर रहे हैं। उनके क्रियाकलापों का कर्तव्य निर्वहन से कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि वे सुसमाचार प्रचार को अपना कर्तव्य नहीं मानते, और वे इसे अपनी जिम्मेदारी या दायित्व नहीं समझते या परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपा गया आदेश नहीं मानते। बल्कि, वे इसे एक नौकरी, अपनी जरूरत की चीजों के बदले में किया जाने वाला पेशा मानते हैं, ताकि अपने हितों को पूरा कर सकें और अपनी अपेक्षाएँ पूरी कर सकें। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो सुसमाचार प्रचार करने के लिए अमीर जगहों पर जाने के बाद वहाँ से वापस ही नहीं आना चाहते, क्योंकि वहाँ उन्हें खाने को अच्छा खाना, पहनने को अच्छे कपड़े और रहने को अच्छी जगह मिलती है। वे सुसमाचार पाने वालों के सामने रोते हुए कहते हैं कि वे कितने लाचार हैं, “देखो कैसे तुम लोगों के आस-पास परमेश्वर का अनुग्रह और उसकी आशीषें बरस रही हैं। हर परिवार के पास अपनी कार है, सभी अपने छोटे बंगले में रहते हैं और अच्छे कपड़े पहनते हैं। तुम लोगों को हर दिन माँस खाने को मिलता है। हम जहाँ से आते हैं वहाँ ये मुमकिन ही नहीं है।” यह सुनकर सुसमाचार पाने वाला व्यक्ति कहता है, “क्योंकि जहाँ तुम लोग रहते हो वहाँ काफी गरीबी है, तो अक्सर यहाँ आकर हमारे साथ रहा कीजिए,” फिर, वे इन सुसमाचार कार्यकर्ताओं को कुछ चीजें देते हैं। यह लोगों से धन और चीजें माँगने और पैसे ऐंठने का छद्म तरीका है। वे किस आधार पर पैसे ऐंठते हैं? “हमने तुम लोगों को परमेश्वर का सुसमाचार मुफ्त में सुनाया है। हमने परमेश्वर का आदेश पूरा किया है। तुम लोगों को इतनी महान आशीषें मिली हैं, तो तुम्हें परमेश्वर के प्रेम की कीमत चुकानी चाहिए और हमें थोड़ा दान देना चाहिए। क्या हम इसके लायक भी नहीं हैं?” इस तरह, वे छद्म रूप में, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीकों से लोगों से चीजें माँगते और पैसे ऐंठते हैं। वे सुसमाचार प्रचार को निजी फायदे पाने के अवसर की तरह इस्तेमाल करते हैं। इसकी पहली अभिव्यक्ति सुसमाचार बेचना है, जिसकी प्रकृति सबसे गंभीर है। दूसरी अभिव्यक्ति छद्म तरीके से पैसे ऐंठना है। इसलिए, सुसमाचार प्रचार का कर्तव्य निभाने वाले लोगों की श्रेणी में, कुछ लोगों की जेबें सुसमाचार फैलाते समय अनायास ही भरने लगती हैं, और वे बहुत अमीर बन जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “क्या अमीर होना अच्छा नहीं है? क्या यह परमेश्वर की आशीष नहीं है?” यह कोरी बकवास है! तुम लोगों से चीजें और पैसे ऐंठने और ठगने के लिए अपनी चालों और तरकीबों पर निर्भर रहते हो, और फिर दावा करते हो कि यह परमेश्वर की आशीष है। ऐसे शब्दों की प्रकृति क्या है? वे परमेश्वर की निन्दा हैं। यह परमेश्वर की आशीष नहीं है। परमेश्वर इस तरह लोगों को आशीष नहीं देता। तो फिर किसी के मन में यह विचार क्यों आएगा? यह उनकी महत्वाकांक्षाओं और उनकी लालची, शैतानी प्रकृति का परिणाम है।

सुसमाचार प्रचार करने वाले सभी लोग बहुत कष्ट सहते हैं। कभी-कभी धार्मिक लोग उन्हें सताते हैं और घेर कर पीटते हैं या उन्हें शैतान की सत्ता के हवाले भी कर दिया जाता है। अगर उन्होंने थोड़ी भी असावधानी दिखाई, तो बड़ा लाल अजगर उन्हें गिरफ्तार कर सकता है। हालाँकि, सत्य से प्रेम करने वाले ऐसी चीजों का सही ढंग से सामना कर सकते हैं, जबकि जो सत्य से प्रेम नहीं करते वे अक्सर थोड़ा-सा भी कष्ट होने पर शिकायत करेंगे। कुछ सुसमाचार कार्यकर्ताओं ने ऐसी बातें कही हैं : “मैंने एक व्यक्ति को सुसमाचार सुनाया, और काफी देर तक बात करने के बाद, उसने मुझे एक गिलास पानी तक के लिए नहीं पूछा। मैं उसे सुसमाचार नहीं सुनाना चाहता।” क्या यह कोई समस्या है कि किसी ने उन्हें एक ग्लास पानी के लिए भी नहीं पूछा? इन सुसमाचार कार्यकर्ताओं के शब्दों में एक तरह का स्वभाव छिपा है। इसका अर्थ यह कि सुसमाचार प्रचार करना तभी सार्थक है जब तक यह आनंददायक और लाभकारी हो। अगर इसमें कष्ट उठाना पड़े या कोई उन्हें एक ग्लास पानी के लिए भी न पूछे, तो यह सार्थक नहीं है। इसके पीछे उनका कुछ माँगने या सौदा करने का इरादा है। अगर किसी व्यक्ति के सुसमाचार प्रचार करने के तरीके में हमेशा लेन-देन की प्रकृति होती है, तो क्या वह ईमानदारी से खुद को परमेश्वर के लिए खपा रहा है? अपना कर्तव्य निभाते हुए अगर वे इतना-सा कष्ट भी नहीं सह सकते, और छोटी-सी बात पर नकारात्मक हो जाते हैं, तो क्या वे मानक स्तर तक अपने कर्तव्य का निर्वहन कर सकेंगे? वे यह भी कहेंगे, “न सिर्फ मुझे पानी के लिए नहीं पूछा गया, बल्कि दोपहर के खाने के समय भी मुझे कुछ खाने को नहीं दिया।” अगर किसी ने इन सुसमाचार कार्यकर्ताओं को अपने साथ रहने और खाने के लिए नहीं पूछा, तो क्या यह कोई समस्या है? वे कुछ सालों से सुसमाचार प्रचार कर रहे हैं और वे हमेशा इस बात पर ध्यान देते हैं कि लोग उनकी मेजबानी कैसे करते हैं, वे उन्हें खाने-पीने के लिए क्या देते हैं, और उन्हें क्या तोहफे मिलते हैं—ऐसा क्यों है? क्या वे नहीं जानते कि सच्चे मार्ग की छानबीन कर रहे लोगों के साथ कैसे पेश आना चाहिए? यह उनके चरित्र की समस्या है। क्या उनके दिलों में लोगों के लिए थोड़ा-सा भी स्नेह है? और वे अभी तक यह क्यों नहीं समझ पाए कि सुसमाचार प्रचार करने वाले लोगों को किस तरह के कष्ट उठाने चाहिए और उन्हें किस तरह सत्य का अभ्यास करना चाहिए? उन्होंने इस पर अमल क्यों नहीं किया? जिन लोगों के बीच तुम सुसमाचार का प्रचार करते हो अगर वे तुम्हें पानी पीने या खाना खाने के लिए नहीं पूछते हैं, तो क्या इसमें कोई समस्या है? कोई समस्या नहीं है। लोगों के बीच सुसमाचार प्रचार करना हमारा दायित्व पूरा करना है; यह हमारा कर्तव्य है। इसमें कोई अतिरिक्त शर्तें नहीं हैं। जिन लोगों के बीच तुम प्रचार करते हो, वे तुम्हें खाना खिलाने, तुम्हारी सेवा करने या तुम्हें देखकर मुस्कुराने के लिए बाध्य नहीं हैं। उन्हें तुम्हारी हर बात सुनने और मानने की जरूरत नहीं है। वे ऐसी किसी चीज के लिए बाध्य नहीं हैं। अगर तुम इस तरह से सोच सकते हो, तो यह वस्तुनिष्ठ और तर्कसंगत है। तभी तुम इन चीजों को सही ढंग से निपट पाओगे। तो, जो कोई सच्चे मार्ग की जाँच कर रहा हो, उसके साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए? अगर वह सुसमाचार किसे सुनाया जा सकता है, इसके लिए परमेश्वर के घर के निर्धारित सिद्धांतों के अनुरूप है तो हमारा दायित्व है कि हम उसे सुसमाचार सुनाएँ; भले ही उसका वर्तमान रवैया खराब हो और वह सुसमाचार स्वीकार न करे, तो भी हमें धैर्य से काम लेना चाहिए। हमें कब तक और किस हद तक धैर्य रखना चाहिए? तब तक जब तक वह तुम्हें नकार न दे और तुम्हें अपने घर में न आने दे और तुम उसके साथ चाहे कैसे भी चीजों पर बातचीत करने की कोशिश करो, यह काम न आए, न ही उसे बुलाना या किसी दूसरे को भेजकर उसे आमंत्रित करना काम आए और वह तुम्हें नजरअंदाज करे। इस स्थिति में उसे सुसमाचार सुनाने का कोई तरीका नहीं है। तब तुम अपनी जिम्मेदारी पूरी कर चुके होगे। अपना कर्तव्य निभाने का यही अर्थ है। जब तक थोड़ी-सी भी आशा बची हो, तुम्हें उसे परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाने और उसके कार्य की गवाही देने का हरसंभव उपाय करने के बारे में सोचना चाहिए और भरसक प्रयास करना चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो, तुम दो-तीन साल से किसी के संपर्क में रहे हो। तुमने उसके सामने कई बार सुसमाचार प्रचार करने और परमेश्वर की गवाही देने की कोशिश की है, लेकिन उसका इसे स्वीकार करने का कोई इरादा नहीं है। फिर भी, उसकी समझ बहुत अच्छी है और वह वास्तव में एक ऐसा व्यक्ति है जिसे सुसमाचार सुनाया जा सकता है। ऐसे में तुम्हें क्या करना चाहिए? सबसे पहले, तुम्हें उसकी आस बिल्कुल भी नहीं छोड़नी चाहिए। बल्कि उसके साथ सामान्य मेल-जोल करते रहना चाहिए और उसे परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाना और उसके कार्य की गवाही देना जारी रखना चाहिए। उसकी आस मत छोड़ो; अंत तक धैर्य रखो। किसी मुकाम पर वह जागेगा और सच्चे मार्ग की जाँच करना शुरू कर देगा। इसलिए सुसमाचार सुनाने में धैर्य रखना और अंत तक दृढ़ता से डटे रहना बहुत महत्वपूर्ण है। और ऐसा क्यों करना है? क्योंकि यह सृजित प्राणी का कर्तव्य है। चूँकि तुम उसके संपर्क में हो, इसलिए तुम पर यह दायित्व और जिम्मेदारी है कि तुम उसे परमेश्वर का सुसमाचार सुनाओ। परमेश्वर के वचन और सुसमाचार पहली बार सुनने से लेकर उसके वापिस लौट आने के बीच कई चरण होते हैं और इसमें समय लगता है। यह अवधि तुमसे उस दिन तक धैर्य रखने और प्रतीक्षा करने की माँग करती है, जब तक कि वह खुद को बदल न ले और तब तुम्हें उसे परमेश्वर के सामने लाना चाहिए, वापस परमेश्वर के घर में लाना चाहिए। यह तुम्हारा दायित्व है। दायित्व क्या होता है? यह ऐसी जिम्मेदारी होती है जिससे बचा नहीं जा सकता, जिसके प्रति व्यक्ति कर्तव्यबद्ध होता है। यह ठीक वैसा ही है, जैसे कोई माँ अपने बच्चे के साथ पेश आती है। बच्चा कितना भी अवज्ञाकारी या शरारती हो, या अगर वह बीमार हो और खाना न खा रहा हो, तो माँ का क्या दायित्व है? यह जानते हुए कि यह उसकी संतान है, वह उसे दुलारती है, उससे प्यार करती है, और पूरे मन से उसकी परवाह करती है। चाहे बच्चा उसे अपनी माँ माने या न माने, उसके साथ कैसा भी व्यवहार करे—सब समय उसके साथ रहती है, उसकी रक्षा करती है, वह एक पल के लिए भी उसे नहीं छोड़ती, निरंतर इंतजार करती है कि वह विश्वास करने लगे कि वह उसकी माँ है और उसके आगोश में लौट आए। इस तरह, वह लगातार उस पर नजर रखती है और उसकी परवाह करती है। जिम्मेदारी का यही मतलब है; कर्तव्यबद्ध होने का यही अर्थ है। अगर सुसमाचार कार्यकर्ता इस तरह से, लोगों के प्रति इस तरह का स्नेही दिल रखकर अभ्यास करेंगे, तो वे सुसमाचार प्रचार के सिद्धांत कायम रख पाएँगे और नतीजे हासिल करने में पूरी तरह सक्षम होंगे। अगर वे हमेशा बहाने बनाते और अपनी शर्तों के बारे में बात करते रहेंगे, तो वे सुसमाचार प्रचार में सक्षम नहीं होंगे, और अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं कर पाएँगे। सुसमाचार प्रचार करने वाले कुछ लोग हमेशा सुसमाचार पाने वाले संभावित लोगों को लेकर नुक्ताचीनी करते हैं, उनके पास बहुत सारे सवाल और कठिनाइयाँ होती हैं और उनकी काबिलियत कम होती है, और इस वजह से, वे उन्हें जीतने के लिए कष्ट सहने और कीमत चुकाने को तैयार नहीं होते। लेकिन अगर उनके अपने माँ-बाप और रिश्तेदारों के पास बहुत सारी कठिनाइयाँ और कम काबिलियत हो, तो भी वे उनके साथ स्नेही दिल से व्यवहार कर पाते हैं। क्या इसका मतलब यह नहीं कि वे लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार नहीं कर रहे हैं? क्या इन लोगों के पास स्नेही दिल है? क्या वे परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता दिखाने वाले लोग हैं? बिल्कुल नहीं। सुसमाचार प्रचार करते हुए, वे हमेशा वस्तुनिष्ठ परिस्थितियों के आधार पर लोगों के बीच सुसमाचार का प्रचार न करने के लिए कोई भी कारण या बहाने ढूँढ़ते हैं, या चाहे वे किसी से भी मिलें, वे उन्हें अच्छे नहीं लगते और उनको अपने से कमतर समझते हैं, और उन्हें हमेशा ऐसा लगता है कि कोई भी व्यक्ति सुसमाचार पाने लायक नहीं है—जिस कारण, वे एक भी व्यक्ति को सफलतापूर्वक सुसमाचार प्रचार नहीं कर पाते। क्या इस तरह सुसमाचार प्रचार करने के कोई सिद्धांत हैं? ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के इरादों या उसकी अपेक्षाओं के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचता है। जो कोई भी यह स्वीकार सकता है कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं और जो कोई भी सत्य स्वीकार सकता है उसे सुसमाचार सुनाया जा सकता है, बशर्ते वह स्पष्ट रूप से बुरा व्यक्ति या बेतुका किस्म का इंसान न हो। अगर लोग सचमुच परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता दिखा सकें तो वे सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य निभाएँगे और लोगों के साथ व्यवहार करेंगे। सच्चे मार्ग की छानबीन करने वाले लोगों की चाहे कोई भी समस्या हो या वे अपने भ्रष्ट स्वभावों को चाहे कितना भी ज्यादा उजागर करते हों, अगर वे सत्य को मान और स्वीकार सकते हैं तो तुम्हें अथक रूप से उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाने चाहिए और परमेश्वर के कार्य की गवाही देनी चाहिए। सुसमाचार सुनाने में इसी सिद्धांत का पालन करना आवश्यक है।

मैंने सुना है कि सुसमाचार प्रचार करने वाले कुछ लोगों के दिलों में बिल्कुल भी प्यार नहीं होता। सच्चे मार्ग की छानबीन कर रहे लोगों की धारणाओं और सवालों से निपटते समय ये सुसमाचार कार्यकर्ता बहुत बार संगति करते हैं। मगर जब वे लोग अभी भी नहीं समझ पाते और बार-बार सवाल करते हैं, तो ये सुसमाचार कार्यकर्ता इसे सहन नहीं कर पाते और उन्हें भाषण झाड़ने लगते हैं। “तुम लोग बहुत सवाल करते हो। तुम्हारे साथ चाहे कितनी भी संगति करूँ, तुम सत्य नहीं समझते। तुम लोगों की काबिलियत बहुत निम्न स्तर की है, तुममें समझने की क्षमता नहीं है, और तुम लोग सत्य और जीवन नहीं पा सकते। तुम सब श्रमिक हो।” कुछ लोग ऐसी बातें सुनना सहन नहीं कर पाते और थोड़े समय के लिए नकारात्मक हो जाते हैं। लोग एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। कुछ लोगों को सच्चे मार्ग की छानबीन करते समय यह पता चल जाता है कि परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं। भले ही उनकी कुछ धारणाएँ और समस्याएँ हों, वे परमेश्वर के वचन पढ़ते समय हल हो जाती हैं। ये लोग इतने निर्मल होते हैं कि आसानी से सत्य स्वीकार लेते हैं। वे खुद ही परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, सत्य खोजते हैं और उसकी छानबीन करते हैं, और जब कोई उनके साथ संगति करता है, तो वे अपनी मर्जी से सच्चे मार्ग को स्वीकार कर कलीसिया से जुड़ जाते हैं। लेकिन अन्य लोगों के पास कई सवाल होते हैं। वे तब तक छानबीन करते हैं जब तक कि उन्हें सभी पहलुओं में स्पष्टता न मिल जाए। अगर उनके मन में एक भी सवाल बचा है जिसकी छानबीन उन्होंने नहीं की है, तो वे तब तक सच्चे मार्ग को स्वीकार नहीं करेंगे जब तक वह स्पष्ट नहीं हो जाता। ये लोग अपने हर काम में सचेत और सावधान रहते हैं। कुछ सुसमाचार कार्यकर्ताओं के दिलों में ऐसे लोगों के लिए कोई प्यार नहीं होता। उनका रवैया कैसा होता है? “तुम विश्वास करो या न करो! परमेश्वर के घर को तुमसे न तो कोई बड़ा नुकसान होगा, और न ही कोई बड़ा फायदा। अगर तुम्हें विश्वास नहीं है, तो चले जाओ! तुम्हारे पास इतने सवाल कहाँ से आते हैं? इनके जवाब तुम्हें पहले ही दिए जा चुके हैं।” दरअसल, ये सुसमाचार कार्यकर्ता सुसमाचार के इन संभावित प्राप्तकर्ताओं के सवालों के जवाब स्पष्टता से नहीं देते, वे सत्य पर स्पष्ट रूप से संगति नहीं करते, और वे इनके दिलों में मौजूद संदेह को पूरी तरह से खत्म नहीं कर पाते, मगर चाहते हैं कि वे जल्द-से-जल्द अपनी धारणाएँ त्यागकर सुसमाचार स्वीकार लें। क्या लोगों के न चाहते हुए भी उनसे ऐसा करवाया जा सकता है? अगर कोई ईमानदारी से बताता है कि उसे कुछ समझ नहीं आया, तो तुम्हें उसे उसकी समस्याओं और धारणाओं से संबंधित परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़कर सुनाने चाहिए, और फिर सत्य पर संगति करनी चाहिए ताकि वह सत्य समझ सके। सुसमाचार के कुछ संभावित प्राप्तकर्ता चीजों की जड़ तक जाना पसंद करते हैं। ऐसे लोग हर बात का पता लगाना चाहते हैं। वे तुम्हारे लिए चीजों को कठिन नहीं बना रहे हैं, वे गलतियाँ या कमियाँ नहीं निकाल रहे हैं, बल्कि बस चीजों को गंभीरता से लेते हैं। ऐसे गंभीर लोगों से सामना होने पर, कुछ सुसमाचार कार्यकर्ता उन्हें जवाब नहीं दे पाते और सोचते हैं कि उन्होंने अपना ही मजाक बनवा लिया है। इसलिए, वे ऐसे लोगों के साथ संगति नहीं करना चाहते और कहते हैं, “मैं इतने सालों से सुसमाचार प्रचार कर रहा हूँ, लेकिन मेरे रास्ते में ऐसा काँटा पहले कभी नहीं आया!” ऐसे लोगों को ये सुसमाचार कार्यकर्ता अपने रास्ते का काँटा बताते हैं। दरअसल, इन सुसमाचार कार्यकर्ताओं को सत्य के किसी भी पहलू की सिर्फ आधी-अधूरी समझ होती है, वे कुछ भव्य सिद्धांतों और खोखले शब्दों के बारे में बात करके कोशिश करते हैं कि लोग उन्हें सत्य मानकर स्वीकार लें। क्या इससे दूसरों के लिए चीजें कठिन नहीं हो रही हैं? अगर लोग बात नहीं समझते और विस्तार में सवाल पूछते हैं, तो इन्हें खुशी नहीं होती, और वे कहते हैं, “मैंने तुम्हें परमेश्वर के कार्य के तीन युगों के बारे में समझाया है, और सब कुछ अच्छी तरह से समझाया है। अगर मेरे इतना सब बताने के बाद भी तुम्हें कुछ समझ नहीं आता, तो अपनी धारणाएँ हल करने के लिए तुम्हें परमेश्वर के वचन खुद पढ़ने चाहिए। परमेश्वर का वचन तुम्हारे सामने ही है। अगर पढ़कर तुम्हें समझ आ जाए, तभी विश्वास करना। अगर तुम नहीं समझ पाए, तो विश्वास मत करना!” यह सुनकर संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता सोचता है, “अगर मैंने सवाल करना जारी रखा, तो मैं बचाए जाने का अपना मौका गँवा दूँगा और मुझे आशीषें नहीं मिलेंगी। अब मैं सवाल नहीं करूँगा, बस उसकी बातें सुनकर विश्वास कर लूँगा!” इसके बाद, ये लोग सभाओं में आते रहते हैं और उपदेशों को ध्यान से सुनते हैं, और धीरे-धीरे कुछ सत्य समझने लगते हैं और उनकी धारणाएँ हल होती रहती हैं। वे अपने विश्वास के चाहे किसी भी मुकाम पर हों, पर क्या यह सुसमाचार प्रचार का सही तरीका है? क्या यह कहा जा सकता है कि इन सुसमाचार कार्यकर्ताओं ने अपनी जिम्मेदारी निभाई है? (नहीं।) सुसमाचार सुनाने में तुम्हें पहले अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए। तुम जो सब कर सकते हो और जो तुम्हें करना चाहिए, उसे करने में तुम्हें अपने जमीर और विवेक से काम लेना चाहिए। सच्चे मार्ग की छानबीन करने वाले इंसान की जो भी धारणाएँ हों या वह जो भी प्रश्न उठाए, तुम्हें प्रेमपूर्वक उनका उत्तर देना चाहिए। अगर तुम वाकई उत्तर नहीं दे सकते तो तुम उसे पढ़कर सुनाने के लिए परमेश्वर के वचनों के कुछ प्रासंगिक अंश ढूँढ़ सकते हो या उसे अनुभवजन्य गवाही के प्रासंगिक वीडियो या सुसमाचार की गवाही वाली कुछ प्रासंगिक फिल्में दिखा सकते हो। यह तरीका नतीजे हासिल करने में पूरी तरह सक्षम है; कम से कम तुम अपनी जिम्मेदारी निभा चुके होगे और अपनी अंतरात्मा में अपराधी महसूस नहीं करोगे। लेकिन अगर तुम लापरवाह हो और जैसे-तैसे काम निपटाते हो तो तुम चीजों में देरी कर सकते हो, और तब उस इंसान को जीतना आसान नहीं होगा। दूसरों को सुसमाचार प्रचार करने में इंसान को अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए। “जिम्मेदारी” शब्द को कैसे समझा जाए? इसे ठीक-ठीक कैसे अमल में लाया और लागू किया जाना चाहिए? तो तुम्हें यह समझना चाहिए कि प्रभु का स्वागत और अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर चुकने के बाद तुम्हारा यह दायित्व है कि तुम उसके कार्य की गवाही उन लोगों को दो जो उसके प्रकटन के लिए प्यासे हैं। तो तुम उनमें सुसमाचार प्रचार कैसे करोगे? चाहे ऑनलाइन हो या वास्तविक जीवन में, तुम्हें उस तरीके से प्रचार करना चाहिए जिससे लोगों को जीता जा सके और जो प्रभावी हो। सुसमाचार प्रचार कोई ऐसा काम नहीं है जिसे तुम जब तुम्हारी इच्छा हो तब करो, जब तुम्हारी अच्छी मनोदशा हो तब करो और जब तुम्हारी अच्छी मनोदशा न हो तब न करो। न ही यह तुम्हारी पसंदगियों के अनुसार किया जाने वाला काम है, जहाँ तुम यह तय करो कि किसे प्राथमिकता दी जाए, जो लोग तुम्हें पसंद हैं उन्हें सुसमाचार सुनाओ और जो पसंद नहीं हैं उन्हें सुसमाचार न सुनाओ। सुसमाचार प्रचार परमेश्वर की अपेक्षाओं और उसके घर के सिद्धांतों के अनुसार किया जाना चाहिए। तुम्हें एक सृजित प्राणी की जिम्मेदारी और कर्तव्य निभाने चाहिए, और सच्चे मार्ग की छानबीन करने वालों के सामने जो सत्य तुम समझते हो उनकी, परमेश्वर के वचनों की और परमेश्वर के कार्य की गवाही देने के लिए वह सब करना चाहिए जो तुम कर सकते हो। तुम्हें एक सृजित प्राणी की जिम्मेदारी और कर्तव्य इसी तरह अच्छे से निभाना चाहिए। सुसमाचार सुनाने समय किसी व्यक्ति को क्या करना चाहिए? उसे अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए, वह सब करना चाहिए जो वह कर सकता है और हर कीमत चुकाने के लिए तैयार होना चाहिए। यह मुमकिन है कि तुम्हें सुसमाचार फैलाते हुए केवल थोड़ा सा समय हुआ हो, तुम्हारे पास पर्याप्त अनुभव न हो, तुम बहुत स्पष्ट वक्ता न हो और तुमने उच्च स्तर की शिक्षा न प्राप्त की हो। दरअसल, ये चीजें अत्यावश्यक नहीं हैं। सबसे महत्वपूर्ण चीजें ये हैं कि तुम परमेश्वर के वचनों में से उपयुक्त अंश चुनो, उन सत्यों पर संगति करो जो मर्म पर चोट करें और समस्याएँ हल कर सकें और तुम्हारा रवैया सच्चे दिल वाला हो और लोगों को द्रवित करता हो, ताकि तुम चाहे जो कुछ भी बोलो, सुसमाचार के संभावित प्राप्तकर्ता तुम्हारी बात सुनने के लिए तैयार रहें, खास तौर पर जब तुम अपने वास्तविक अनुभवों के बारे में बात कर रहे हो और दिल से बोल रहे हो। अगर तुम ऐसा कर सको कि संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता तुम्हें पसंद करने लगें और अपनी मर्जी से तुम्हारे साथ जुड़ना चाहें, तुम्हारे साथ संगति करना चाहें और तुम्हारी गवाही सुनना चाहें तो यह एक कामयाबी होगी। जब वे तुम्हारे साथ एक विश्वासपात्र जैसा व्यवहार करेंगे, स्वेच्छा से तुम्हारी हर बात सुनेंगे, सत्य के उन सभी पहलुओं को अच्छा और बहुत व्यावहारिक पाएँगे जिन पर तुम संगति करते हो और फिर उन सबको स्वीकारने में सक्षम होंगे तो तुम आसानी से उन्हें हासिल कर सकते हो। सुसमाचार सुनाने के दौरान तुम्हारे पास ऐसी ही बुद्धि होनी चाहिए। अगर तुम स्नेही बनकर दूसरों की मदद नहीं कर सकते और उनका विश्वासपात्र नहीं बन सकते तो सुसमाचार सुनाते समय लोगों को हासिल करना तुम्हें बहुत कठिन लगेगा। ऐसा क्यों है कि जो लोग सरलता से और खुलकर बोलते हैं, जो सीधे और स्नेही हृदय के होते हैं वे सुसमाचार सुनाने में खासकर प्रभावी होते हैं? ऐसा इसलिए है क्योंकि ऐसे लोग सभी को पसंद आते हैं और वे उनके साथ मेलजोल और दोस्ती करने को तैयार रहते हैं। अगर इस तरह के लोग सत्य को समझते हों और खास व्यावहारिक और स्पष्ट तरीके से सत्य पर संगति करते हों, अगर वे धैर्यपूर्वक दूसरों के साथ सत्य पर संगति कर सकें, उनकी विभिन्न समस्याएँ, कठिनाइयाँ और उलझनें हल कर सकें, उनके दिलों को रोशन कर सकें और उन्हें काफी सुकून दे सकें तो दूसरे उन्हें पसंद करेंगे और दिल से उन पर भरोसा करेंगे, उन्हें अपना विश्वासपात्र मानेंगे और अपनी मर्जी से उनकी हर बात सुनेंगे। अगर लोग हमेशा खुद को आसन पर बिठाकर दूसरों को भाषण देते हैं, उनके साथ बच्चों और छात्रों जैसा व्यवहार करते हैं तो मुमकिन है कि लोग उनसे चिढ़ने लगें और उनके प्रति नापसंदगी महसूस करने लगें। इसलिए सुसमाचार सुनाने के लिए तुम्हारे पास यह बुद्धि होनी चाहिए : दूसरों पर अच्छा प्रभाव जमाने से शुरुआत करो, ऐसी बोली बोलो जो तुम्हारे सुनने वालों को पसंद आए और इसे ऐसा बनाओ कि उन्हें कुछ हासिल हो और तुम्हें सुनने के बाद उन्हें कुछ फायदा मिले। इस तरह से तुम्हारा सुसमाचार सुनाना सुचारु रूप से आगे बढ़ेगा, खूब फूलेगा-फलेगा और नतीजे प्राप्त करेगा। भले ही कुछ लोग सुसमाचार स्वीकार न करें, फिर भी वे देखेंगे कि तुम एक अच्छे व्यक्ति हो और स्वेच्छा से तुमसे जुड़ना चाहेंगे। सुसमाचार सुनाने वालों को यह जानना चाहिए कि लोगों से मेलजोल कैसे करें। बहुत सारे दोस्त बनाना एक अच्छे मार्ग पर चलना है। इसके अलावा, एक और बात सबसे ज्यादा जरूरी है। चाहे तुम किसी को भी सुसमाचार सुनाओ, तुम्हें पहले से बहुत सारी तैयारी करनी होगी। तुम्हें खुद को सत्य से सुसज्जित करना होगा, सिद्धांतों पर महारत हासिल करनी होगी, लोगों का भेद पहचानने की क्षमता रखनी होगी और बुद्धिमानी वाले तरीके अपनाने होंगे। तुम्हें यह तैयारी करते हुए लगातार अभ्यास करते रहना चाहिए। सबसे पहले, छानबीन कर रहे लोगों के साथ अपनी बातचीत में तुम्हें यह समझना और अच्छी तरह जानना होगा कि उनकी पृष्ठभूमियाँ क्या हैं, वे किस संप्रदाय से संबंध रखते हैं, उनकी प्राथमिक धारणाएँ क्या हैं, वे अंतर्मुखी हैं कि बहिर्मुखी, उनकी समझने की क्षमताएँ कैसी हैं और उनके चरित्र कैसे हैं। यह सबसे अहम है। जब तुम्हें सभी पहलुओं में सुसमाचार के संभावित प्राप्तकर्ताओं की गहरी समझ होगी, तो तुम सुसमाचार प्रचार में बहुत ज्यादा प्रभावी हो जाओगे, और तुम्हें पता होगा कि उनकी धारणाओं और समस्याओं को हल करने के लिए सही उपाय क्या है। अगर बुरे लोग, नास्तिक या दानव तुम्हें लालच देने की कोशिश करें, तो तुम्हें उनकी भनक लग जाएगी, और तुम उनका भेद पहचानकर फौरन उन्हें त्याग सकोगे। परमेश्वर के वचन पढ़ने से सभी प्रकार के लोगों के बारे में खुलासा हो सकता है। बुरे लोग और नास्तिक उनकी बातें सुनकर नफरत करेंगे, और दानव तो परमेश्वर के वचन सुनने से भी नफरत करते हैं। जो सत्य के प्यासे हैं सिर्फ वे ही इसमें रुचि लेंगे। वे सत्य खोजेंगे और सवाल करेंगे। इसी तरीके से तुम यह पुष्टि कर सकते हो कि वे संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता हैं। इसकी पुष्टि कर लेने के बाद, हम उन्हें सत्य पर सुव्यवस्थित संगति में शामिल कर सकते हैं। सत्य पर संगति करते समय, हम इन संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं की काबिलियत को पूरी तरह से समझ सकते हैं, और यह जान सकते हैं कि वे सत्य को कितनी अच्छी तरह समझते हैं और उनके चरित्र की दशा कैसी है। इस तरह, हमें पता चल जाएगा कि किन लोगों पर काम करना है और सत्य पर कैसे संगति करनी है। हम जितनी भी कोशिश करेंगे, वह बेकार नहीं जाएगी। सुसमाचार प्रचार की प्रक्रिया में, अगर तुम दूसरे पक्ष की स्थिति नहीं समझ पाते और सही उपाय नहीं बताते, तो लोगों को जीतना आसान नहीं होगा। अगर तुम कुछ लोगों को जीत भी लो, तो यह सिर्फ एक संयोग होगा। जो लोग सत्य समझते हैं और चीजों की तह तक जाते हैं, वे सुसमाचार प्रचार करते समय या तो गलत रास्ते कम अपनाते हैं या फिर उन पर चलते ही नहीं हैं। वे उन लोगों को ही प्रवचन देते हैं जिन्हें प्रवचन देने चाहिए, दूसरों को नहीं देते। वे प्रवचन देने से पहले सटीक आकलन कर लेते हैं और बेकार का कार्य करने से बचते हैं। इस तरह, वे अपना कर्तव्य अधिक दक्षता से और कम मेहनत जाया करके पूरा करते हैं और अच्छे परिणाम पाते हैं। तो, अगर तुम प्रभावी ढंग से सुसमाचार प्रचार करना चाहते हो, तो खुद को सत्य से सुसज्जित करो और पर्याप्त तैयारी करो। अगर किसी ऐसे धार्मिक व्यक्ति से तुम्हारा सामना हो जो बाइबल अच्छी तरह जानता है, पर तुमने बाइबल पढ़ी ही नहीं है तो क्या होगा? तब तुम क्या करोगे? उस समय, तुम्हारे लिए खुद को बाइबल के सत्य से सुसज्जित करने में बहुत देर हो चुकी होगी, तो तुम्हें फौरन उन्हें किसी ऐसे सुसमाचार कार्यकर्ता से मिलवाना चाहिए जो बाइबल समझता हो। इस व्यक्ति को जो भी बाइबल समझता है उसे सौंप दो। यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। अगर तुम फिर भी उसे सुसमाचार सुनाकर बिना सोचे-विचारे दिखावा करने की कोशिश करोगे, तो वह सुसमाचार स्वीकार नहीं करेगा। यह परिणाम तुम्हारी गैर-जिम्मेदारी का नतीजा होगा। इसके अलावा, जब तुम काम नहीं कर रहे हो, तो तुम्हें खुद को बाइबल के कुछ ज्ञान से सुसज्जित करने के लिए समय निकालना होगा। बाइबल के बारे में कुछ जाने बिना सुसमाचार प्रचार करना बहुत व्यावहारिक नहीं है। छानबीन करने वाले लोगों के कई सवालों में बाइबल के शब्द शामिल होते हैं। अगर तुम्हें बाइबल की समझ होगी, तो तुम इन सवालों का समाधान करने के लिए बाइबल के सत्य का उपयोग कर सकोगे। संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं की चाहे कोई भी धारणाएँ हों, तुम उनकी धारणाओं को हल करने के लिए बाइबल में उनसे संबंधित अंश और परमेश्वर के वचन खोज सकोगे। सिर्फ इसी तरह से वांछित परिणाम पाया जा सकता है। इसलिए, सुसमाचार प्रचार के लिए बाइबल का थोड़ा ज्ञान जरूरी है। उदाहरण के लिए, तुम्हें पता होना चाहिए कि पुराने नियम की कौन-सी भविष्यवाणियाँ और नए नियम के कौन-से पद परमेश्वर की वापसी और अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य की गवाही देते हैं। तुम्हें इन वचनों को अधिक पढ़ना चाहिए, उन पर अधिक विचार करना चाहिए, और उन्हें अपने दिल में रखना चाहिए। इसके अलावा, तुम्हें यह भी समझना होगा कि धार्मिक लोग बाइबल के इन अंशों को कैसे समझते हैं, तुम्हें यह विचार करना होगा कि उनके साथ इस तरह से संगति कैसे की जाए ताकि उन्हें इन पदों की सटीक और शुद्ध समझ मिल सके, और फिर बाइबल के इन पदों का उपयोग करके परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को समझने में उनका मार्गदर्शन करना चाहिए। क्या यह तैयारी करना हुआ? तैयारी करने का यही अर्थ है। तुम्हें सच्चे मार्ग की छानबीन कर रहे विभिन्न प्रकार के लोगों की जरूरतों को समझना होगा, और फिर हालात के अनुसार कुछ तैयारी करनी होगी। तभी तुम वह सब कर पाओगे जो तुम कर सकते हो और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर पाओगे। यह तुम्हारी जिम्मेदारी है। कुछ लोग कहेंगे, “मुझे वो सब करने की जरूरत नहीं है। मैं बस एक-दो बार बाइबल पढ़ लूँगा। चाहे मैं किसी को भी सुसमाचार प्रचार करूँ, हमेशा एक जैसी बातें ही कहता हूँ। सुसमाचार प्रचार के लिए मैं जिन शब्दों का उपयोग करता हूँ वे निश्चित हैं और बदलते नहीं हैं। मैं इन्हीं शब्दों का उपयोग करूँगा, वे चाहें तो विश्वास करें या न करें। विश्वास न रखने वाले लोगों को आशीषें नहीं मिलेंगी। इसका जिम्मेदार वे मुझे नहीं ठहरा सकते। आखिरकार, मैंने अपनी जिम्मेदारी अच्छे से निभाई है।” क्या उन्होंने अपनी जिम्मेदारी निभाई है? छानबीन कर रहे व्यक्ति की स्थिति क्या है, उसकी उम्र, शिक्षा का स्तर, वैवाहिक स्थिति, शौक, व्यक्तित्व, मानवता, पारिवारिक स्थिति वगैरह क्या है? तुम्हें कुछ भी पता नहीं है, लेकिन फिर भी तुम उसे सुसमाचार सुनाते हो। तुमने कोई तैयारी नहीं की और कोई कोशिश भी नहीं की। फिर भी तुम अपनी जिम्मेदारी निभाने का दावा करते हो? क्या यह बस लोगों को बेवकूफ बनाना नहीं है? अपने कर्तव्य के साथ इस तरह से पेश आना लापरवाह और गैर-जिम्मेदाराना रवैया दर्शाता है। यह एक लापरवाही भरा रवैया है। तुम ऐसे रवैये के साथ सुसमाचार प्रचार करते हो और जब तुम किसी को जीत नहीं पाते, तो कहते हो, “अगर वह विश्वास नहीं करता है, तो यह सिर्फ उसका दुर्भाग्य है। वैसे भी, उसे आध्यात्मिक समझ नहीं है, तो अगर उसने विश्वास किया, तो भी वह सत्य हासिल नहीं कर पाएगा या बचाया नहीं जा सकेगा!” यह गैर-जिम्मेदाराना है। तुम अपनी जिम्मेदारी से भाग रहे हो। जाहिर है कि तुमने अपनी तैयारी अच्छी तरह से नहीं की है। यह स्पष्ट है कि तुमने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई, तुमने अपना कर्तव्य समर्पित होकर नहीं निभाया। और तुम अभी भी सभी तरह के तर्क देकर बहाने बनाते हो, शब्दों की बाजीगरी दिखाकर अपनी जिम्मेदारी से भागने की कोशिश करते हो। यह कैसा व्यवहार है? यह धोखा देना कहलाता है। अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए, तुम लोगों की आलोचना करते हो और उनके बारे में फैसले देते हो और गैर-जिम्मेदाराना बकवास करते हो। इसे अहंकार और आत्मतुष्टता, कुटिलता और दुर्भावना कहा जाता है। इसे धोखा देना भी कहा जाता है। यह परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश है।

अगर परमेश्वर ने तुम्हें सुसमाचार प्रचार का कर्तव्य सौंपा है, तो तुम्हें परमेश्वर का आदेश सम्मान और समर्पण के साथ स्वीकार करना चाहिए। तुम्हें हर उस इंसान के साथ प्रेम और धैर्य से बरताव करने का प्रयास करना चाहिए, जो सच्चे मार्ग की छानबीन कर रहा है, और तुम्हें कष्ट सहने और परिश्रम करने में सक्षम होना चाहिए। सुसमाचार प्रचार में कर्मठ और जिम्मेदार बनो, सत्य के बारे में स्पष्ट संगति दो, और उस बिंदु तक पहुँचो जहाँ तुम अपने क्रियाकलापों का लेखा-जोखा परमेश्वर को दे सको। अपना कर्तव्य निभाने के प्रति व्यक्ति का यही रवैया होना चाहिए। अगर सच्चे मार्ग की छानबीन करने वाला कोई इंसान तुमसे सत्य तलाशना चाहता है, और तुम उसकी उपेक्षा करते हो, उसके साथ गंभीरता से सत्य के बारे में संगति करने और उसकी समस्या का समाधान करने में असमर्थ रहते हो, यहाँ तक कि यह कहते हुए बहाने बनाते हो, “अभी मेरा मन नहीं है। वह कोई भी हो, सत्य या परमेश्वर के प्रकटन और कार्य का कितना भी अधिक प्यासा हो, यह मेरा काम नहीं है। वह विश्वास कर सकता है या नहीं, इसका दायित्व मुझ पर नहीं है। अगर पवित्र आत्मा कार्य करना शुरू नहीं करता, तो चाहे मैं कितना भी प्रारंभिक कार्य कर लूँ, वह किसी काम का नहीं होगा—इसलिए मैं इसका प्रयास नहीं करूँगा! वैसे भी, मैं वे सब सत्य पहले ही कह चुका हूँ, जिन्हें मैं समझता हूँ। वह सच्चे मार्ग को स्वीकार कर सकता है या नहीं, यह परमेश्वर का मामला है। इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है,” तो यह कैसा रवैया है? यह गैर-जिम्मेदाराना रवैया है, कठोर रवैया है। क्या बहुत-से लोग इसी तरह से सुसमाचार का प्रचार नहीं करते? क्या इस तरह से सुसमाचार प्रचार करना कभी भी मानक स्तर का हो सकता है? क्या यह परमेश्वर का उत्कर्ष कर सकता है और उसकी गवाही दे सकता है? नहीं, जरा भी नहीं। इस तरह से सुसमाचार का प्रचार करना बस थोड़ा श्रम करना है; यह कर्तव्य निर्वहन के आस-पास भी नहीं है। तो, मानक स्तर तक सुसमाचार का प्रचार कैसे किया जा सकता है? सच्चे मार्ग की छानबीन करने वाला कोई भी हो, तुम्हें पहले थोड़ा प्रारंभिक कार्य करके और खुद को सत्य से सुसज्जित करना चाहिए और फिर अपना यह कर्तव्य अच्छी तरह से पूरा करने के लिए प्रेम, धैर्य, सहनशीलता और जिम्मेदारी की भावना पर भरोसा करना चाहिए। तुममें मिलावट न हो और वह सब करो, जो तुम कर सकते हो और जो तुम्हें करना चाहिए। इस तरह से सुसमाचार का प्रचार करना मानक स्तर का है। अगर परिस्थितियाँ तुम्हें सुसमाचार का प्रचार नहीं करने देती हैं या अगर सुसमाचार की छानबीन करने वाला व्यक्ति सुनने से इंकार करता है और छोड़कर चला जाता है, तो यह तुम्हारी गलती नहीं है। तुमने अपना काम पूरा किया है, और तुम्हारी अंतरात्मा तुम्हें दोष नहीं देगी। इसका अर्थ है कि तुमने अपनी जिम्मेदारी निभाई है। कुछ लोग ऐसे व्यक्ति होने के सिद्धांतों पर खरे उतर सकते हैं कि जिन्हें सुसमाचार का प्रचार किया जा सकता है, पर हो सकता है समय सही न हो। अभी तक परमेश्वर का समय नहीं आया है। ऐसे में, सुसमाचार प्रचार का कार्य कुछ समय के लिए रोक देना चाहिए। क्या काम रोकने का मतलब यह है कि तुम उस व्यक्ति को सुसमाचार प्रचार नहीं करोगे? इसका यह मतलब नहीं कि तुम सुसमाचार प्रचार नहीं करोगे, बल्कि यह है कि तुम सिर्फ सही समय का इंतजार करोगे। अन्य किन लोगों को सुसमाचार नहीं सुनाना चाहिए? उदाहरण के लिए, जब कोई व्यक्ति अबूझ भाषा में बोलता है—एक-दो दिन या एक-दो साल के लिए नहीं—बल्कि लंबे समय तक और किसी भी समय और किसी भी जगह इस तरह से बोल सकता है तो वह व्यक्ति एक बुरी आत्मा है और उसे सुसमाचार नहीं सुनाया जा सकता है। ऐसे लोग भी होते हैं जो बाहर से अच्छे इंसान प्रतीत होते हैं, पर पूछताछ करने और आगे समझने पर तुम्हें पता चलता है कि उन्होंने कई लोगों के साथ व्यभिचार किया है। अगर ऐसे लोगों को कलीसिया में लाया जाता है, तो इससे बहुत सारी मुसीबत पैदा होगी। वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए व्यवधान पैदा कर सकते हैं, इसलिए उन्हें सुसमाचार नहीं सुनाना चाहिए। कुछ धार्मिक पादरी ऐसे भी हैं जिन्हें सत्य स्वीकार करने के लिए बहुत अधिक प्रयास की आवश्यकता होती है। भले ही वे इसे स्वीकार करने के इच्छुक हों तो भी उनकी शर्तें होती हैं। वे अगुआ और कार्यकर्ता के रूप में सेवा करके ही संतुष्ट हैं। इस तरह के अधिकतर लोग मसीह-विरोधी होते हैं। सिद्धांतों के अनुसार, उन्हें सुसमाचार प्रचार नहीं करना चाहिए। अगर वे सुसमाचार प्रचार का श्रम करना चाहते हैं और कई अन्य लोगों को लाने में सक्षम हैं, तो ही इस तरह के लोगों को सुसमाचार प्रचार किया जा सकता है। अगर किसी की मानवता बहुत बुरी है, और तुम उसकी शक्ल देखकर ही बता सकते हो कि वह बुरा व्यक्ति है, तो इस प्रकार का व्यक्ति कभी भी सत्य स्वीकार नहीं करेगा और कभी पश्चात्ताप नहीं करेगा। अगर ऐसा व्यक्ति कलीसिया में प्रवेश कर भी ले, तो उसे निष्कासित कर दिया जाएगा, इसलिए उन्हें कभी सुसमाचार प्रचार नहीं करना चाहिए। इस तरह के व्यक्ति को सुसमाचार सुनाना एक शैतान को कलीसिया में लाने, एक दानव को कलीसिया में लाने के समान होगा। एक और स्थिति तब सामने आती है जब कुछ नाबालिग परमेश्वर में विश्वास करना चाहते हैं। हालाँकि, कुछ लोकतांत्रिक देशों में, अगर नाबालिग कलीसियाई जीवन में भाग लेना चाहते हैं और अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना चाहते हैं, तो उन्हें अपने अभिभावकों की सहमति लेनी होगी। इस शर्त को नजरअंदाज मत करो। इसके लिए एक उचित समाधान और बुद्धि की आवश्यकता है। चीन में, जब तक माँ-बाप में से कोई एक ऐसे नाबालिग को परमेश्वर में विश्वास दिलाने में अगुआई करता है, तो कोई दिक्कत नहीं है। अगर कोई युवा, जो अब नाबालिग नहीं है, जो सत्य समझ सकता है और परमेश्वर में विश्वास करना चाहता है, पर उसके माँ-बाप उसका विरोध करते हैं और उसे सीमित करते हैं, तो वह युवा बालिग़ व्यक्ति अपने परिवार का त्याग कर, अपने माँ-बाप के नियंत्रणों और बाधाओं से आजाद होकर परमेश्वर में विश्वास करने और उसका अनुसरण करने के लिए कलीसिया में आ सकता है। यह पूरी तरह से सही है। यह वही स्थिति है जो पतरस की थी जब उसने परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया था। अंत में, हालात चाहे जैसे भी हों, जब तक वस्तुनिष्ठ स्थितियाँ अनुमति देती हैं और कानून का उल्लंघन नहीं होता है, तब तक सुसमाचार का प्रचार करने की अनुमति दी जा सकती है। यह जरूरी है कि इस मामले से सत्य सिद्धांतों और बुद्धि के अनुसार निपटा जाए।

सुसमाचार का प्रचार करते समय, लोग अपने कर्तव्य का मानक स्तर तक निर्वहन कैसे कर सकते हैं? सबसे पहले, उन्हें सुसमाचार प्रचार से संबंधित सत्य को बूझने और समझने में सक्षम होना चाहिए। जब वे सत्य समझेंगे सिर्फ तभी उनके पास सही दृष्टिकोण हो सकते हैं, वे गलत या बेतुके दृष्टिकोणों से निपटना जानेंगे, और समझेंगे कि मामलों को कैसे सँभालना है और सत्य सिद्धांतों के अनुसार समस्याओं से कैसे निपटना है। फिर, वे विभिन्न गलत प्रथाओं और मसीह-विरोधियों की उन प्रथाओं का भेद पहचानने में सक्षम होंगे जो सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं। इस तरह, वे स्वाभाविक रूप से समझ पाएँगे कि सुसमाचार प्रचार के अपने कर्तव्य के निर्वहन के लिए किन सत्य सिद्धांतों में महारत हासिल होनी चाहिए। इस कर्तव्य का निर्वहन करने के लिए पहले किस सत्य को समझना सबसे अहम है? तुम्हें यह समझना चाहिए कि परमेश्वर के कार्य के संदेश का प्रसार करना परमेश्वर के हर एक चुने हुए व्यक्ति की जिम्मेदारी और दायित्व है। परमेश्वर ने यह आदेश सभी को सौंपा है। यही इस कर्तव्य का स्रोत है। कुछ लोग कहते हैं, “मैं सुसमाचार टीम में नहीं हूँ, तो क्या मेरी भी यह जिम्मेदारी और दायित्व है?” उन सभी की यह जिम्मेदारी और दायित्व है। कर्तव्य के इस पहलू से संबंधित सत्य हर किसी के लिए उपयोगी है। मैं नहीं जानता कि तुम लोगों ने कलीसिया में विभिन्न कर्मियों के आवंटन से संबंधित एक विशेष घटना पर ध्यान दिया है या नहीं। कुछ लोग पहले अगुआ हुआ करते थे, मगर फिर उन्हें बर्खास्त कर दिया गया, क्योंकि वे वास्तविक कार्य नहीं कर पाए। बर्खास्त किए जाने के बाद, क्योंकि उनके पास कोई कौशल या विशेषज्ञता नहीं थी, वे विशेष कर्तव्य नहीं निभा पाए। तो आखिर में, उन्हें सुसमाचार का प्रचार करने या नए विश्वासियों का सिंचन करने या कुछ सामान्य कार्य करने के लिए सुसमाचार टीम को सौंप दिया गया। अगर वे इसी तरह कलीसिया में और कोई कर्तव्य नहीं निभा पाए, तो उनके साथ क्या होना चाहिए? ऐसे लोग नकारा हैं और उन्हें निकाल देना चाहिए। तो, अगर तुम्हें अक्षमता के कारण कलीसिया के अगुआ के पद से बर्खास्त कर दिया गया है और तुम्हारे पास कोई विशेष प्रतिभा या कौशल नहीं है, तो तुम्हें सुसमाचार प्रचार के लिए तैयार रहना होगा। अगर तुम सुसमाचार प्रचार कर सकते हो और सुसमाचार टीम का हिस्सा बनकर अपना कर्तव्य निभा सकते हो, तो मानक स्तर तक अपने कर्तव्य के निर्वहन का सत्य तुम्हारे लिए प्रासंगिक है। अगर तुम सुसमाचार प्रचार के अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं कर पाते हो, तो मानक स्तर तक अपने कर्तव्य निर्वहन के सत्य का तुमसे कोई सरोकार नहीं है, और परमेश्वर के घर में, परमेश्वर के कार्य के दौरान, कर्तव्य निभाने के कार्य से तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है। अपने दिल में, तुम्हें स्पष्ट रूप से इसका तात्पर्य पता होना चाहिए। अगर तुम कोई कर्तव्य नहीं निभाते, तो परमेश्वर के कार्य से तुम्हारा क्या संबंध है? इसलिए, चाहे कोई कैसा भी कर्तव्य निभाए, स्वाभाविक रूप से, अंत तक दृढ़ रहकर अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा पाना ही सबसे बेहतर होगा। कुछ लोग कहते हैं, “मैं सुसमाचार प्रचार नहीं करना चाहता क्योंकि इससे मुझे अजनबियों के संपर्क में आना पड़ता है। बाहरी दुनिया में सभी प्रकार के बुरे लोग हैं जो हर तरह के बुरे काम करने में सक्षम हैं। खासकर धार्मिक लोग अंत के दिनों के परमेश्वर के सुसमाचार का प्रसार करने वाले लोगों को अपने दुश्मन मानकर उनसे पेश आते हैं और उन्हें शैतान की सत्ता को सौंप देने में काफी सक्षम हैं। वे गैर-विश्वासियों से भी बदतर हैं। मैं यह पीड़ा नहीं सह पाऊँगा। वे पीट-पीटकर मेरी हत्या कर सकते हैं, मुझे अपंग कर सकते हैं या मुझे बड़े लाल अजगर को सौंप सकते हैं। वे मुझे खत्म कर देंगे।” क्योंकि तुम कठिनाई सहन नहीं कर सकते और तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, इसलिए तुम्हें अपना मौजूदा कार्य अच्छी तरह से करना चाहिए। यह बुद्धिमानी भरा फैसला होगा। बेशक, यह और भी बेहतर होगा अगर तुम सुसमाचार प्रचार के साथ विभिन्न कर्तव्य भी निभा सको। सुसमाचार प्रचार सिर्फ सुसमाचार टीम के सदस्यों की ही जिम्मेदारी नहीं है, यह हर किसी की जिम्मेदारी है। क्योंकि सभी ने परमेश्वर के नए कार्य की खुशखबरी और सुसमाचार सुना है, इसलिए हर किसी की यह जिम्मेदारी और दायित्व बनता है कि वह इस सुसमाचार का प्रसार करे, ताकि ज्यादा-से-ज्यादा लोग सुसमाचार सुनकर परमेश्वर के घर आएं और परमेश्वर के समक्ष आकर उसके उद्धार को स्वीकारें। इससे परमेश्वर का कार्य जल्द-से-जल्द अपने निष्कर्ष तक पहुँच सकेगा। यही परमेश्वर का आदेश है, यही उसका इरादा है।

कुछ सुसमाचार कार्यकर्ता पूरे दिन सुसमाचार प्रचार करने में व्यस्त रहते हैं, पर कई सालों तक प्रचार करने के बाद एक भी व्यक्ति को जीत नहीं पाते। ऐसा क्या हुआ? वे काफी व्यस्त दिखते हैं, मालूम पड़ता है कि वे बड़ी सावधानी से अपना कर्तव्य निभा रहे हैं। फिर वे किसी को भी क्यों नहीं जीत पाए? सुसमाचार प्रचार के कर्तव्य के लिए जिस सत्य को समझना जरूरी है वह वास्तव में उन सत्यों के समान है जिन्हें अन्य कर्तव्यों के लिए समझा जाना चाहिए। अगर कोई सालों प्रवचन देकर भी किसी को भी जीत नहीं पाता, तो इसका मतलब है कि इस व्यक्ति में समस्याएँ हैं। ये कौन-सी समस्याएँ हैं? प्राथमिक समस्या यह है कि वह सुसमाचार प्रचार में दर्शन के सत्य पर स्पष्ट रूप से संगति नहीं करता है। उसकी संगति स्पष्ट क्यों नहीं है? क्योंकि या तो इस कार्य के लिए उसकी काबिलियत बहुत कम है या फिर वह पूरे दिन खुद को बेवजह इतना व्यस्त रखता है कि उसके पास परमेश्वर के वचन पढ़ने या सत्य पर चिंतन-मनन करने का समय ही नहीं होता, वह सत्य के बारे में कुछ भी नहीं समझता है और किसी भी धारणा, पाखंड या भ्रांति का समाधान नहीं कर पाता है। अगर ये दोनों बातें सच हैं, तो क्या यह व्यक्ति सुसमाचार प्रचार का अपना कर्तव्य निभा सकेगा? मुझे डर है कि उसके लिए लोगों को जीतना बहुत मुश्किल होगा। सुसमाचार प्रचार के लिए वह चाहे कितने भी वर्ष काम करे, उसे कोई ठोस परिणाम नहीं दिखेंगे। सुसमाचार प्रचार के लिए, तुम्हें पहले दर्शन का सत्य समझना होगा। लोग चाहे कोई भी सवाल करें, अगर तुम स्पष्ट रूप से सत्य पर संगति कर सकते हो, तो उनके सवालों के जवाब दे सकोगे। अगर तुम दर्शन का सत्य नहीं समझते और चाहे कैसी भी संगति कर लो पर स्पष्ट रूप से नहीं बोल पाते, तो तुम चाहे कैसे भी सुसमाचार प्रचार करो, तुम्हें नतीजे नहीं मिलेंगे। अगर तुम सत्य नहीं समझते, तो तुम्हें सत्य खोजने और सत्य पर संगति करने पर ध्यान देना चाहिए। अगर तुम परमेश्वर के वचन ज्यादा पढ़ोगे, ज्यादा उपदेश सुनोगे, सुसमाचार प्रचार के सत्य पर ज्यादा संगति करोगे, और दर्शन के सत्य पर संगति करने के लिए हमेशा कड़ी मेहनत करोगे ताकि तुम वास्तव में दर्शन का सत्य समझ सको और धार्मिक लोगों की सबसे आम धारणाओं और समस्याओं को हल करने में सक्षम बनो, तब ऐसा नहीं होगा कि तुम्हें कोई परिणाम न मिलें, बल्कि कुछ परिणाम जरूर मिलेंगे। इसलिए, परमेश्वर के कार्य के दर्शन के सत्य को समझने में विफल होना सुसमाचार प्रचार करते समय नतीजे न हासिल कर पाने के कई कारणों में से एक है। इसके अलावा, तुम सच्चे मार्ग की छानबीन करने वालों के सवाल न तो समझ सकते हो और न ही ठीक से पकड़ सकते हो, और तुम उनके दिलों में झाँककर उनकी सबसे बड़ी समस्याओं का पता नहीं लगा सकते और सच्चे मार्ग की उनकी स्वीकृति में बाधक बनने वाली मुख्य समस्याओं को भी नहीं जान सकते। अगर तुम इन समस्याओं के बारे में निश्चित नहीं होगे, तो तुम दूसरों को सुसमाचार का प्रचार नहीं कर सकोगे या परमेश्वर की गवाही नहीं दे सकोगे। अगर तुम बस खोखले सिद्धांतों का उपयोग करके सुसमाचार प्रचार का अभ्यास करते हो, तो इससे कोई फायदा नहीं होगा। जब सत्य की छानबीन कर रहे लोग सवाल करने लगेंगे, तो तुम उनके जवाब नहीं दे पाओगे। तुम सिर्फ कुछ सिद्धांतों के बारे में बात करके उन्हें लापरवाही से टरकाने में सक्षम होगे। क्या इस तरह सुसमाचार प्रचार करके लोगों को जीता जा सकेगा? हरगिज नहीं। कई बार, छानबीन करने वाले लोग सच्चे मार्ग को आसानी से स्वीकार नहीं कर पाते, ऐसा इसलिए होता है क्योंकि तुम उनके सवालों के स्पष्ट जवाब नहीं देते हो। ऐसे में, उन्हें आश्चर्य होगा कि इतने सालों से परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी तुम इन सवालों के स्पष्ट जवाब क्यों नहीं दे पा रहे हो। अपने दिलों में उन्हें संदेह होगा कि यह सच्चा मार्ग है भी या नहीं, तो वे इस पर विश्वास करने या इसे स्वीकारने की हिम्मत नहीं करेंगे। क्या यही सच नहीं है? यह दूसरा कारण है कि लोग सुसमाचार प्रचार करते समय नतीजे क्यों नहीं हासिल कर पाते हैं। अगर तुम सुसमाचार प्रचार करना चाहते हो, मगर वास्तविक समस्याओं को हल नहीं कर सकते, तो तुम्हारे पास लोगों के बीच सुसमाचार प्रचार करने का कोई रास्ता नहीं होगा। अगर तुम सत्य नहीं समझते, तो उनकी समस्याएँ कैसे हल करोगे? इसलिए, अगर तुम सुसमाचार प्रचार में नतीजे हासिल करना चाहते हो, तो तुम्हें सत्य खोजने और इसकी छानबीन कर रहे लोगों के सभी सवाल अच्छी तरह समझने के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी। इस तरह, तुम उनके साथ सत्य पर संगति करके उनके सवालों के जवाब दे सकते हो। कुछ सुसमाचार कार्यकर्ता हमेशा कोई वस्तुनिष्ठ कारण ढूँढ़ते हैं जो बहाने के रूप में काम कर सके, और कहते हैं, “इन लोगों से निपटना बहुत मुश्किल है। हर कोई पहले वाले से अधिक विकृतिशील है, और उनमें से कोई भी सत्य स्वीकार नहीं करता। वे विद्रोही और अड़ियल हैं, और हमेशा धार्मिक धारणाओं से चिपके रहते हैं।” ऐसे सुसमाचार कार्यकर्ता इन लोगों की कठिनाइयों और समस्याओं को हल करने के लिए कड़ी मेहनत नहीं करेंगे, इसलिए जब कभी भी वे सुसमाचार प्रचार करने की कोशिश करेंगे तो नाकाम ही होंगे। उनमें जरा भी प्रेम नहीं है और वे इस कर्तव्य में बहुत लंबे समय तक टिक नहीं सकते हैं। बाहर से, वे बड़े व्यस्त मालूम पड़ते हैं, पर वास्तव में, उन्होंने सच्चे मार्ग की छानबीन कर रहे हर व्यक्ति के लिए पर्याप्त मेहनत नहीं की है। इन लोगों द्वारा पूछे गए सवालों को वे गंभीर और जिम्मेदाराना तरीके से नहीं लेते हैं। वे समाधान खोजने, चरण-दर-चरण इन सवालों को हल करने, और आखिर में उन लोगों को जीतने के लिए सत्य नहीं खोजते हैं। बल्कि, वे जैसे-तैसे काम चलाते हैं। वे चाहे कितने भी लोगों को गँवा बैठे, फिर भी उसी दृष्टिकोण पर कायम रहते हैं। वे कुछ दिन काम करते हैं, फिर कुछ दिनों की छुट्टी ले लेते हैं। वे सुसमाचार प्रचार को क्या मानते हैं? वे इसे एक खेल मानते हैं, एक प्रकार का सामाजिक मेलजोल। वे सोचते हैं, “आज मैं ऐसे लोगों से मिलूँगा और अच्छा समय बिताऊँगा। कल मैं वैसे लोगों से मिलूँगा, और वह कुछ नया और दिलचस्प होगा।” आखिर में, वे किसी को भी नहीं जीत पाएँगे। किसी को भी न जीत पाने के कारण उन्हें किसी प्रकार की ग्लानि या कोई बोझ महसूस नहीं होता है। इस तरह से सुसमाचार प्रचार करके क्या वे अपना कर्तव्य निभा सकते हैं? क्या वे लापरवाह होकर परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश नहीं कर रहे हैं? जिन लोगों ने हमेशा इसी तरह से सुसमाचार प्रचार किया है वे सही मायनों में अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उन्होंने अपनी जिम्मेदारी बिल्कुल भी पूरी नहीं की है। वे हर चीज के प्रति बेपरवाह होते हैं। सुसमाचार प्रचार करते समय लोगों को नहीं जीत पाने के और क्या कारण हैं? बताओ। (सिद्धांतों के अनुसार सुसमाचार का प्रचार नहीं करना।) ऐसा होता है कि सुसमाचार प्रचार करते समय लोग सिर्फ आंकड़ों की परवाह करते हैं। ऐसे लोग सिद्धांतों के अनुसार प्रचार नहीं करते और अक्सर लोगों को जीतने में नाकाम रहते हैं। ऐसा भी होता है कि सुसमाचार टीम के कुछ लोग संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं को लेकर लड़ते रहते हैं, यह सोचकर कि जो ज्यादा लोगों तक सुसमाचार प्रचार करेगा उसे ज्यादा श्रेय मिलेगा। जब संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता उन्हें इस तरह एक-दूसरे से होड़ करते देखते हैं तो वे उन्नत नहीं होंगे। बल्कि, उनके मन में धारणाएँ पैदा होंगी, “परमेश्वर में विश्वास करने वाले तुम लोगों के बीच एकता नहीं है, तुम्हारे बीच ईर्ष्या और कलह है।” फिर वे विश्वास नहीं करना चाहेंगे। यह पाप में गिरने का एक कारण है। क्या यह भी उन कारणों में से एक है जिसकी वजह से वे सुसमाचार प्रचार करते समय लोगों को जीत नहीं पाते हैं? (बिल्कुल।) कुछ संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता लंबे समय से समाज में रह रहे हैं और सभी प्रकार के लोगों से, खासकर अजनबियों से सावधान रहते हैं। अगर परिचय कराने वाला कोई मध्यस्थ नहीं होगा, तो वे किसी से भी पहली बार मिलने पर सावधानी बरतेंगे। उदाहरण के लिए, अगर तुम हाल ही में किसी अजनबी से मिले हो, तो जाहिर है कि तुम उसे यूँ ही अपना नाम, पता और फोन नंबर नहीं बताओगे। जब तुम उससे परिचित हो जाओगे, एक-दूसरे को जान लोगे, और तुम्हें यकीन हो जाएगा कि उसके मन में तुम्हारे प्रति कोई दुर्भावना नहीं है, तब तुम लोग दोस्त बन जाओगे। तभी तुम उसे यह जानकारी दोगे। हालाँकि, कुछ सुसमाचार कार्यकर्ता दूसरों को नहीं समझ पाते हैं और जब लोग उनसे सावधानी बरतते हैं, तो वे इन लोगों को कपटी और दुष्ट कहते हैं। वे उनकी सावधानी बरतने वाली मानसिकता की निंदा करते हैं, और अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर थोप देते हैं। क्या ऐसे सुसमाचार कार्यकर्ता भी अजनबियों से सावधानी नहीं बरतते हैं? वे अपनी निंदा क्यों नहीं करते, बल्कि सावधानी बरतने पर खुद को बुद्धिमान क्यों मानते हैं? लोगों के साथ इस तरह का व्यवहार करना उचित नहीं है। कुछ सुसमाचार कार्यकर्ता संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं से मिलते ही उनकी निजी जानकारी माँगते हैं। अगर कोई उन्हें यह जानकारी नहीं देना चाहता, तो ऐसे सुसमाचार कार्यकर्ता उस व्यक्ति को सुसमाचार प्रचार नहीं करना चाहेंगे। यह कैसा स्वभाव है? यह एक दुर्भावनापूर्ण स्वभाव है। वे गुस्सा हो जाते हैं और सुसमाचार सुनाने से इनकार कर देते हैं, क्योंकि कोई व्यक्ति इतनी छोटी सी बात पर उनकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा है। यह कितना निंदनीय है! तुम दूसरों को सुसमाचार प्रचार क्यों करते हो? क्या यह तुम्हारा कर्तव्य निभाना नहीं है? अगर तुम अपनी मनमानी करते हो, तो क्या तब भी यह कर्तव्य निभाना कहलाएगा? क्या यह सिर्फ श्रम करना नहीं हुआ? तुम्हें परमेश्वर को अपना लेखा-जोखा किस प्रकार देना चाहिए? अगर तुम कभी पश्चात्ताप नहीं करते, तो परमेश्वर तुम्हें दोषी ठहराएगा और निकाल देगा। तुम अपने लिए मुसीबत खड़ी कर रहे हो।

मैंने एक ऐसे मामले के बारे में सुना था जहाँ दो सुसमाचार टीमों के सदस्यों ने एक संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता से मुलाकात की। फिर, वे एक-दूसरे से झगड़ने लगे, दोनों ही यह दावा कर रहे थे कि उसने पहले इस व्यक्ति से संपर्क किया। इसमें लड़ने वाली क्या बात है? क्या यह अज्ञानता का मामला है? यह ऐसा काम है जो नहीं किया जा सकता। तो, सही कदम क्या होना चाहिए? सभी को साथ मिलकर इस मुद्दे पर चर्चा करनी चाहिए। किसने पहले संपर्क किया इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जब तुम्हें पता चले कि तुम दोनों ने एक ही व्यक्ति से संपर्क किया है, तो मिलजुलकर सुसमाचार प्रचार करो, काम को आपस में बाँट लो, और मिलकर सहयोग करो। अगर तुमने पहले यह योजना बनाई थी कि इस व्यक्ति को सफलतापूर्वक सुसमाचार प्रचार करने में दो महीने लग जाएँगे और अब जब तुम्हारे पास ज्यादा लोग हैं तो इस काम को एक महीने में करने की कोशिश करो। फिर, हर किसी को संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं की समस्याओं और कठिनाइयों पर, इन समस्याओं को हल करने के लिए सत्य के किन पहलुओं को खोजना है और दोनों टीमों को कैसे सहयोग करना है, आदि पर संगति करनी चाहिए। ऐसा करने का क्या मकसद है? इसका मकसद इस व्यक्ति को जीतना और अपना कर्तव्य निभाना है। जब सभी के दिल और दिमाग एक होंगे, सभी एक साथ मिलकर संगति करेंगे, और सभी एक ही लक्ष्य के लिए मेहनत करेंगे, तो पवित्र आत्मा उन्हें प्रबुद्ध बनाकर उनकी अगुआई करेगा। जब लोगों के बीच एकता होगी तो वे आसानी से अपना काम पूरा कर सकेंगे, और उन्हें परमेश्वर की आशीषें और उसका मार्गदर्शन मिलेगा। हालाँकि, अगर तुम यह नहीं करते और हमेशा परमेश्वर के घर से असहमत होते हो, हमेशा अपना उद्यम चलाने में लगे रहते हो, हमेशा अपने निजी फायदे और नुकसान के बारे में विचार करते हो और सुसमाचार प्रचार करते समय तुम दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण सहयोग किए बिना केवल इस बात की परवाह करते हो कि तुम अकेले ही लोगों को जीत सकते हो या नहीं, तो क्या तुम सभी लोगों के साथ एक दिल और एक मन से अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम होगे? कभी-कभी लोग अपने कर्तव्य खुद निभा सकते हैं, पर दूसरे मौकों पर कलीसिया का कार्य ठीक से करने के लिए सभी को एक साथ मिलकर सामंजस्यपूर्ण सहयोग करने की आवश्यकता होती है। अगर हर कोई अपने आप कार्य करेगा और सौहार्दपूर्ण तरीके से सहयोग नहीं करेगा, तो इससे कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी होगी। इसका जिम्मेदार कौन होगा? इसके जिम्मेदार सभी लोग होंगे, और बड़ी जिम्मेदारी मुख्य पर्यवेक्षक की होगी। जब तुम कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी करते हो, तो तुम न सिर्फ अपना कर्तव्य ठीक से निभाने में नाकाम होते हो, बल्कि एक बड़ा कुकर्म भी करते हो, जिससे तुम्हें परमेश्वर की घृणा और विमुखता का सामना करना पड़ता है। तब तुम मुसीबत में पड़ जाते हो। अगर परमेश्वर तुम्हें बुरा व्यक्ति या कलीसिया के कार्य में बाधा डालने वाला मसीह-विरोधी बताकर तुम्हारी निंदा करता है, तो यह और भी बुरा होगा। यकीनन तुम्हें बेनकाब किया जाएगा और निकाल दिया जाएगा, और तुम्हें दंड भी भुगतना होगा। अगर तुम अपना कर्तव्य त्याग दोगे तो इसका क्या अर्थ होगा? परमेश्वर के कार्य में तुम्हारा कोई हिस्सा नहीं होगा और तुम्हें परमेश्वर का उद्धार भी नहीं मिलेगा। तुम एक अविश्वासी होगे, और तुम्हारा जीवन निरर्थक हो जाएगा। आज तुम किस चीज के लिए जीते हो? तुम सुसमाचार टीम के लिए क्या अहमियत रखते हो? एक व्यक्ति के रूप में तुम अपनी अहमियत कैसे दर्शाओगे? तुम्हें ईमानदारी और लगन से अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी होंगी, अच्छी तरह अपना कर्तव्य पूरा करना होगा, और परमेश्वर को यह कहते हुए आश्वस्त करने में सक्षम होना होगा कि “मैंने सुसमाचार प्रचार करके कुछ लोगों को जीता है। मैंने अपनी पूरी कोशिश की है। भले ही मेरी काबिलियत कम है और मेरे पास सिर्फ कुछ ही सत्य वास्तविकताएँ हैं, मगर मैंने अपनी पूरी कोशिश की है। मैंने अपना कर्तव्य नहीं त्यागा है, अपने कर्तव्य निर्वहन में मैंने कोई नखरा नहीं किया है या मैं नकारात्मक और सुस्त नहीं हुआ हूँ और न ही मैंने इसे प्रसिद्धि या लाभ प्राप्त करने के साधन के रूप में इस्तेमाल करने की कोशिश की है। बल्कि, मुझे सुसमाचार प्रचार करने में बहुत सारा अपमान भी सहना पड़ा, धार्मिक संसार से अपमान और निष्कासन सहना पड़ा और सड़कों पर सोना पड़ा। भले ही मैंने नकारात्मकता और कमजोरी का अनुभव किया, मगर मैंने अपना कर्तव्य नहीं त्यागा, बल्कि हर समय सुसमाचार प्रचार में डटा रहा। मैं परमेश्वर से मिली सुरक्षा और मार्गदर्शन का आभारी हूँ।” अपनी जिम्मेदारियों को सही मायने में पूरा करने का यही मतलब है। जब सही वक्त आएगा, तो तुम इस तरह निर्मल अंतरात्मा के साथ परमेश्वर के समक्ष आकर अपना हिसाब दे सकोगे। मुमकिन है कि तुम अनेक संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं से मिले हो, पर कई लोगों को जीत नहीं पाए। हालाँकि, अपनी काबिलियत और अपने क्रियाकलापों के आधार पर, अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास देकर तुमसे जितना हो पाया उतने लोगों को तुमने जीता। इस मामले में, परमेश्वर तुम्हारा मूल्यांकन कैसे करेगा? तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन मानक स्तर का रहा है। तुमने अपनी पूरी कोशिश की और इसमें अपना पूरा दिल लगाया है। संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं के बीच सुसमाचार प्रचार करने के लिए, खुद को दर्शन के सत्य से सुसज्जित करने के लिए तुमने कड़ी मेहनत की है, और बाइबल के प्रासंगिक पदों को अच्छी तरह जाना है। तुम्हें जिसे याद करने की जरूरत थी उसे तुमने याद कर लिया और जो तुम नहीं याद कर सके उसे तुमने लिख लिया। सुसमाचार प्रचार करते हुए, चाहे तुम किसी से भी मिले या उन्होंने कैसे भी सवाल पूछे, तुम उन्हें हल करने में सक्षम रहे। इस तरह, तुम्हारा सुसमाचार प्रचार अधिक से अधिक प्रभावी हो गया और तुम ज्यादा लोगों को जीत पाए। सुसमाचार प्रचार करते हुए ज्यादा लोगों को जीतने के लिए, इस कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने और अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए, तुमने अपनी कमियों, कमजोरियों और नकारात्मक भावनाओं सहित अपनी कई कठिनाइयों पर जीत हासिल की। तुमने इन सब पर विजय हासिल की और इस कार्य में काफी समय दिया। क्या अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए ऐसी कठिनाइयों पर विजय पाना जरूरी नहीं है? (बिल्कुल है।) इतना ही नहीं, सच्चे मार्ग की छानबीन कर रहे लोग परमेश्वर की वाणी सुनें, परमेश्वर के कार्य को जानें-समझें और सच्चे मार्ग को स्वीकारें, इसके लिए तुम्हें और अधिक सत्य समझना होगा, ताकि तुम परमेश्वर के कार्य की बेहतर गवाही दे सको। सत्य पर तुम्हारी संगति चाहे कितनी भी गहरी या उथली क्यों न हो, तुममें प्रेम और धैर्य होना चाहिए। मुमकिन है कि तुम्हें सुनने वाले तुम्हारा उपहास करें, तुम्हारा अपमान करें, तुम्हें ठुकराएँ या तुम्हें समझ नहीं पाएँ—इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, अगर तुम इससे सही ढंग से निपट सकते हो और धैर्यपूर्वक उनके साथ सत्य पर संगति कर सकते हो, और तुमने इसके लिए कड़ी मेहनत करके आखिर तक बड़ी कीमत चुकाई है, तो तुमने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं। इस तरह से अपना कर्तव्य निभाना मानक स्तर का है।

जब कुछ सुसमाचार कार्यकर्ता ऐसे संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता से मिलते हैं जो अपनी पारिवारिक संपत्ति और सामाजिक दर्जे के कारण अहंकारी है, तो उसके सामने खड़े होने पर वे हमेशा खुद को हीन और असहज महसूस करते हैं। क्या इस तरह असहज होना तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित करेगा? अगर इसका तुम पर ऐसा प्रभाव पड़ता है जिससे तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभा पाते और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं कर पाते, तो तुम अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे हो। अगर यह सिर्फ तुम्हारी मनोदशा को प्रभावित करता है—तुम्हें दुखी और असहज बनाता है—मगर तुम अपना कर्तव्य नहीं त्यागते या अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को नहीं भूलते, और अंत में, तुम अपना काम अच्छी तरह से पूरा करते हो, तो तुमने सही मायनों में अपना कर्तव्य निभाया है। क्या यह सत्य है? (बिल्कुल है।) यह सत्य है, और सभी को इसे स्वीकारना चाहिए। क्या तुम खुद को इसी स्थिति में पाते हो? उदाहरण के लिए, क्योंकि तुम गाँव-देहात से आते हो तो कुछ संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता तुम्हें नीची दृष्टि से देख सकते हैं। वे तुम्हारा अपमान भी कर सकते हैं। तुम इससे कैसे निपटोगे? तुम कहोगे, “मैं देहात में गरीबी में पैदा हुआ, जबकि तुम शहर में सुख-सुविधाओं के साथ पैदा हुए। यह परमेश्वर ने तय किया था। मगर, चाहे हम जहाँ भी पैदा हुए हों, परमेश्वर सब पर दया दिखाता है। हम इस युग में रहते हैं, और हम सभी धन्य हैं कि हमें अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने का मौका मिला।” ये वचन असली हैं और ये अनुग्रह पाने की कोशिश नहीं हैं। इस पर सुसमाचार सुनने वाले कहेंगे, “तो तुम उतने धन्य नहीं हो जितने हम हैं। हम इस जीवन के आशीषों का और आने वाली दुनिया का आनंद लेते हैं, पर तुम लोग केवल आने वाली दुनिया की आशीषों का आनंद ही ले सकते हो। इसलिए, हम तुम लोगों से ज्यादा आशीषों का आनंद लेते हैं।” तुम कहोगे, “यह सब परमेश्वर का अनुग्रह है।” जब उन्हें परमेश्वर के कार्य के बारे में नहीं पता, तो क्या उनसे बहस करने का कोई मतलब है? अगर तुम इन चीजों को अहमियत नहीं देते हो, तो तुम उनसे बहस नहीं करोगे। अपने दिल में तुम्हें स्पष्ट रूप से समझना चाहिए कि “मेरे दिल में एक कर्तव्य है, मेरे कंधों पर एक जिम्मेदारी है, मेरा एक मिशन है और एक दायित्व है। मैं इस बारे में उनसे बहस नहीं करूँगा। जिस दिन वे विश्वास करेंगे और परमेश्वर के घर लौटेंगे, जब उन्होंने अधिक उपदेश सुने होंगे और सत्य को थोड़ा समझा होगा, तब जाकर वे अपने आज के आचरण और कार्यों को याद करके शर्मिंदा होंगे।” अगर तुम इस बारे में ऐसे सोचोगे, तो तुम्हारा दिल खुल जाएगा। असल में ऐसा ही होता है। अगर तुम वाकई उन्हें जीत लोगे और वे सही मायनों में सत्य का अनुसरण करेंगे, तो फिर तीन या पाँच साल विश्वास करने के बाद, उन्हें एहसास होगा कि जब तुम दोनों पहली बार मिले थे तो जिस तरह वे तुमसे पेश आए थे वह अनुचित था, उसमें मानवता का अभाव था और वह सत्य के अनुरूप नहीं था। फिर अगली बार जब वे तुमसे मिलेंगे तो उन्हें तुमसे माफी माँगनी होगी। सुसमाचार प्रचार की प्रक्रिया में, तुम्हें अक्सर ऐसी परिस्थिति का सामना करना पड़ेगा। जब ऐसा हो, तो मुझे इससे कैसे निपटना चाहिए? मैं ऐसी बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं देता। यह कोई बड़ी बात नहीं है। अगर तुम्हें यह कोई बड़ी बात नहीं लगती तो उनकी बातों से तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा। यह आध्यात्मिक कद होना कहलाता है। अगर तुम सत्य समझते हो और तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है, तो तुम ऐसी कई कहावतों या प्रथाओं की असलियत जान पाओगे जो कथित तौर पर लोगों को नुकसान पहुँचाती हैं। तुम उनका समाधान कर सकोगे। लेकिन अगर तुम इन चीजों की असलियत नहीं जान सकते, तो इन शब्दों और क्रियाकलापों को जीवन भर याद रखोगे और आँख के इशारे से, शब्द से या हाव-भाव से कोई भी तुम्हारे दिल को चोट पहुँचा सकता है। ऐसी चोटें कितनी गंभीर होती हैं? वे तुम्हारे दिल पर निशानी छोड़ जाएँगी। जब तुम अमीर लोगों को, अपने से ऊँचे रुतबे वाले लोगों को या ऐसे लोगों को देखोगे जो कभी तुम्हें नीची दृष्टि से देखते थे और तुम्हें चोट पहुँचाते थे तो तुम भयभीत और कायर हो जाओगे। तुम इस डर से कैसे बच सकते हो? तुम्हें उनके सार की असलियत जाननी होगी। चाहे वे कितने भी बड़े हों, उनका रुतबा या पद कोई भी हो, वे भ्रष्ट लोगों से ज्यादा कुछ नहीं हैं। उनमें कोई खास बात नहीं है। अगर तुम इसे देख पाओगे तो तुम्हारा दिल बाधित नहीं होगा। सुसमाचार प्रचार के कार्य में, तुम्हें यकीनन इन समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। ये सभी सामान्य समस्याएँ हैं। कुछ लोग तुम्हें नहीं समझेंगे या तुम्हारे खिलाफ पूर्वाग्रह से ग्रस्त होंगे या तुम्हारा मजाक उड़ाने के लिए इशारों-इशारों में या घुमा-फिराकर गंदी बातें भी कहेंगे। कुछ लोग कहेंगे कि तुम पैसे कमाने, फायदा पाने या रोमांस ढूँढ़ने के लिए सुसमाचार प्रचार करते हो। तुम ऐसी स्थितियों से कैसे निपटोगे? क्या तुम्हें ऐसे लोगों से बहस करनी चाहिए? खासकर जब कोई संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता धनी परिवार से आता है, तो जब तुम उनके घर में खाना खा रहे हो और तुम्हें उनके चेहरे की तरफ देखना पड़े, तब तुम्हें क्या करना चाहिए? अगर, अपनी गरिमा बनाए रखने के लिए, तुम उनके घर का खाना नहीं खाते, तो क्या खाली पेट सुसमाचार सुनाना जारी रख सकते हो? तुम्हें इस मामले के प्रति यह रवैया अपनाना चाहिए : “आज मैं उनके घर का खाना खाकर उन्हें सुसमाचार प्रचार कर सकता हूँ। उन्हें सुसमाचार प्रचार करने वाले का सत्कार करने का मौका मिलेगा। यह उनका सौभाग्य है।” वास्तव में, चीजें इसी तरह होती हैं। यह उनका सौभाग्य है। उन्हें इसका एहसास नहीं है, पर तुम्हें यह बात अपने दिल में जाननी होगी। सुसमाचार प्रचार करते समय व्यक्ति अक्सर ऐसे उपहास, ताने, तिरस्कार, और बदनामी का सामना करता है, या यहाँ तक कि कुछ लोग खुद को खतरनाक स्थितियों में भी पा सकते हैं। उदाहरण के लिए, दुष्ट लोगों द्वारा कुछ भाई-बहनों की रिपोर्ट की जाती है या उनका अपहरण कर लिया जाता है, और कुछ के लिए पुलिस बुला ली जाती है जिन्हें सरकार को सौंप दिया जाता है। कुछ को गिरफ्तार कर जेल भेजा जा सकता है, जबकि अन्य को पीट-पीटकर मार भी डाला जा सकता है। ये सब चीजें होती हैं। लेकिन अब जबकि हम इन चीजों के बारे में जानते हैं, तो क्या हमें सुसमाचार प्रचार के कार्य के प्रति अपना रवैया बदल देना चाहिए? (नहीं।) सुसमाचार का प्रचार करना हर किसी की जिम्मेदारी और दायित्व है। किसी भी समय, चाहे हम जो कुछ भी सुनें या जो कुछ भी देखें, या चाहे जिस भी प्रकार के व्यवहार का सामना करें, हमें सुसमाचार प्रचार की इस जिम्मेदारी पर हमेशा दृढ़ रहना चाहिए। नकारात्मकता या दुर्बलता के कारण किसी भी परिस्थिति में हम इस कर्तव्य को तिलांजलि नहीं दे सकते। सुसमाचार प्रचार के कर्तव्य का निर्वहन सुचारु और आसान नहीं होता, अपितु खतरों से भरा होता है। जब तुम लोग सुसमाचार का प्रचार करोगे, तब तुम्हारा सामना देवदूतों या दूसरे ग्रहों के प्राणियों या रोबोटों से नहीं होगा। तुम लोगों का सामना केवल दुष्ट और भ्रष्ट मनुष्यों, जीवित दानवों, जानवरों से होगा—वे सब मनुष्य हैं जो इस बुरे स्थान पर, इस बुरे संसार में रहते हैं, जिन्हें शैतान ने गहराई तक भ्रष्ट कर दिया है, और जो परमेश्वर का विरोध करते हैं। इसलिए सुसमाचार के प्रचार की प्रक्रिया में निश्चित रूप से सभी प्रकार के खतरे हैं, क्षुद्र लांछनों, उपहासों और गलतफहमियों की तो बात छोड़ ही दें, जो सामान्य घटनाएँ हैं। यदि तुम सुसमाचार प्रचार को सचमुच अपनी जिम्मेदारी, उत्तरदायित्व और कर्तव्य मानते हो, तो तुम इन चीजों से सही ढंग से पेश आने और इन्हें सही ढंग से सँभालने में सक्षम होगे। तुम अपनी जिम्मेदारी और अपने दायित्व को तिलांजलि नहीं दोगे, और न ही इन चीजों के कारण तुम सुसमाचार का प्रचार करने और परमेश्वर की गवाही देने के अपने मूल मंतव्य से भटकोगे, और तुम कभी इस जिम्मेदारी से हार नहीं मानोगे, क्योंकि यह तुम्हारा कर्तव्य है। इस कर्तव्य को कैसे समझना चाहिए? यह मानव-जीवन का मूल्य और मुख्य दायित्व है। अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य के शुभ समाचार और परमेश्वर के कार्य के सुसमाचार का प्रसार करना मानव-जीवन का मूल्य है।

आज, हम सुसमाचार प्रचार के अपने कर्तव्य निर्वहन के सत्य पर संगति कर रहे हैं। क्या इससे तुम लोगों को कुछ हासिल हुआ? (बिल्कुल हुआ।) पहले, सुसमाचार प्रचार के सत्य पर हमारी संगति दर्शन पर केंद्रित थी, यानी हमने साफ तौर पर दर्शन से संबंधित सत्य पर संगति की थी और कई विस्तृत समस्याओं पर चर्चा नहीं की थी जिस तरह से हम आज करते हैं। चूँकि ज्यादातर लोगों को दर्शन के सत्य की सामान्य रूपरेखा के बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी होती है, पर शायद उन्हें विशेष समस्याओं को लेकर अभ्यास के विस्तृत मार्ग और सिद्धांतों की स्पष्ट समझ नहीं होती है, इसलिए आज की संगति में मैं इन विशेष समस्याओं पर चर्चा करूँगा। कुछ मामलों और लोगों के व्यवहार पर संगति करके—या जब किसी को इन स्थितियों का सामना करना पड़े तो क्या करना सही है और क्या करना गलत, लोगों के दृष्टिकोण क्या हैं, और उन्हें इस जिम्मेदारी, इस दायित्व को कैसे निभाना चाहिए—इन सभी विषयों पर संगति करके, क्या तुम्हें लगता है कि सुसमाचार प्रचार के सत्य को वास्तविक जीवन में लागू करना अधिक ठोस और आसान हो जाता है? मैं मानता हूँ कि सत्य के इस पहलू को सुनकर, तुम लोगों के दिल पहले से ज्यादा उज्ज्वल हो जाएँगे। सुसमाचार प्रचार की प्रक्रिया में जब तुम कुछ विशेष समस्याओं का सामना करोगे, तो तुम्हें इन वचनों से लाभ होगा क्योंकि वे व्यावहारिक हैं और सत्य सिद्धांतों पर आधारित हैं। वे खोखले शब्द नहीं हैं। अपने दैनिक जीवन में, जब तुम लोग सुसमाचार प्रचार से संबंधित ऐसे मामलों का सामना करोगे और कुछ गलत दशाओं में होगे, या जब सुसमाचार प्रचार के अपने कार्य में कुछ समस्याओं का सामना करोगे, तो क्या तुम लोग अपनी समस्याओं को हल करने के लिए इन सत्यों का उपयोग कर सकोगे? अगर तुम ऐसी समस्याओं को हल कर सको, तो आज की बातें व्यर्थ नहीं जाएँगी। अगर तुम अभी भी इन समस्याओं को हल नहीं कर पाते, या अपने तरीके से काम करते हो, अपने फैसले खुद करके उन पर अड़े रहते हो, अपनी मनमर्जी करते हो, और अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों पर ध्यान दिए बिना मनमाने ढंग से और लापरवाही से कार्य करते हो, तो ये सत्य तुम लोगों के लिए बस खोखली बातें हैं और किसी काम के नहीं हैं। ये किसी काम के इसलिए नहीं हैं क्योंकि सत्य तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता, सत्य से तुम्हें कोई फायदा नहीं है, बल्कि ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम्हें सत्य से बिल्कुल भी प्रेम नहीं है और तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते। तुम सुसमाचार प्रचार के कर्तव्य को बस एक शौक या समय गुजारने के एक तरीके की तरह देखते हो। अगर तुम लोग सुसमाचार प्रचार के कर्तव्य के प्रति ऐसा दृष्टिकोण रखोगे, तो क्या होगा? क्या तुम मानक स्तर तक अपने कर्तव्य का निर्वहन कर पाओगे? (नहीं।) अगर मानक स्तर तक अपने कर्तव्य के निर्वहन की बात तुम्हें दूर की कौड़ी लगती है, तो मैं तुम लोगों से एक बात पूछता हूँ : अगर तुम सुसमाचार प्रचार के कर्तव्य के प्रति ऐसा दृष्टिकोण अपनाओगे, तो क्या परमेश्वर के इरादे को पूरा कर सकोगे? (नहीं।) यह बात तुम सभी के दिलों में स्पष्ट होनी चाहिए। जब तुम अपने कर्तव्य के प्रति ऐसा दृष्टिकोण और यह रवैया रखोगे तो तुम्हारा दिल अस्थिर महसूस करेगा। तुम सोचोगे कि तुम्हारा रवैया वैसा नहीं है जैसा परमेश्वर चाहता है। अगर तुम इस तरह से कार्य करोगे, तो भले ही कुछ लोगों को जीत लो और बाहर से ऐसा दिखे कि तुम अच्छे कर्म कर रहे हो, पर अपना कर्तव्य निभाने के पीछे तुम्हारे इरादे और उद्देश्य सत्य सिद्धांतों के विपरीत होंगे। तुम बिल्कुल उन धार्मिक लोगों की तरह हो जो आशीष पाने और परमेश्वर के साथ सौदा करने के लिए सुसमाचार प्रचार करते हैं। ऐसा इरादा और प्रेरणा-स्रोत गलत हैं। लोग अपने कर्तव्य कैसे निभाते हैं, इस पर विचार करते समय परमेश्वर लोगों के इरादों और उद्देश्यों को आँकता है। परमेश्वर उन रवैयों और मनोदशाओं को देखता है जिनके साथ लोग अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं। इस आधार पर, परमेश्वर लोगों को भ्रष्टता से शुद्ध करने और उन्हें बचाने के लिए कार्य करता है, ताकि वे पाप से दूर हो सकें। इसलिए, चाहे तुम किसी भी तरह से सुसमाचार प्रचार करो, तुम्हें परमेश्वर की जाँच-पड़ताल स्वीकारनी चाहिए। तुम चाहे कैसे भी व्यक्ति हो, तुम्हारी काबिलियत कैसी भी हो, तुमने किसी भी तरह का कर्तव्य निभाया हो, और सुसमाचार प्रचार करने वालों की श्रेणी में शामिल होने से पहले तुम चाहे जो भी काम करते थे, तुम्हें सुसमाचार प्रचार के इन सत्य सिद्धांतों का पालन करना चाहिए, सुसमाचार प्रचार को अपना कर्तव्य और जिम्मेदारी माननी चाहिए, और अपने कंधों पर इसका बोझ उठाना चाहिए।

कुछ अगुआ और कार्यकर्ता जो वास्तविक कार्य करने या असली समस्याएँ हल करने में सक्षम नहीं हैं, उन्हें बर्खास्त करके सुसमाचार टीम का हिस्सा बना दिया जाता है और सुसमाचार प्रचार का काम सौंपा जाता है। वे सभी से मिलने पर कह सकते हैं, “मैं अगुआ हुआ करता था। मैंने अच्छी तरह अपना काम नहीं किया तो मुझे सुसमाचार प्रचार के लिए सुसमाचार टीम में भेज दिया गया। शायद परमेश्वर ने कुछ समय के लिए मुझे संयमित करने, सत्य से लैस करने और प्रशिक्षित करने के लिए सुसमाचार प्रचार का काम सौंपा है। यानी मुझे सुसमाचार प्रचार में ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं है। मैं जो भी करूँगा ठीक होगा। आखिर, मैं अगुआ बनने योग्य हूँ। मेरा आध्यात्मिक कद बढ़ने पर मुझे जरूर अगुआ बनाया जाएगा। क्योंकि मेरी काबिलियत इतनी अच्छी है, तो मुझे अगुआ न बनाना प्रतिभा की बर्बादी होगी। अभी कलीसिया में अगुआओं और कार्यकर्ताओं की कमी है!” उनके कहने का मतलब है कि उनको अगुआ बनाए बगैर कलीसिया का काम नहीं चलेगा। उन्हें सिर्फ अभ्यास करने का अवसर देने, सत्य से लैस करने, और उनके विकास और प्रशिक्षण के हिस्से के तौर पर उनसे कुछ जमीनी स्तर पर काम करवाने के लिए ही सुसमाचार प्रचार का काम सौंपा गया है। इसलिए, वे सुसमाचार प्रचार के अपने कर्तव्य को अस्थायी मानते हैं, वे सिर्फ अपने बायोडेटा बेहतर बनाने, अच्छा वक्त बिताने, और अपना दायरा बढ़ाने के लिए ऐसा कर रहे हैं। वे सोचते हैं कि अगर उन्होंने सुसमाचार प्रचार में नतीजे हासिल किए, सत्य को समझा, और वे कुछ काम करने में सक्षम हुए तो उन्हें तरक्की देकर अगुआ या कार्यकर्ता बना दिया जाएगा। अगर उन्होंने सुसमाचार प्रचार के अपने कर्तव्य निर्वहन के प्रति ऐसी मानसिकता अपनाई, तो क्या वे सच्चा पश्चात्ताप हासिल कर सकते हैं? उन्होंने आत्म-चिंतन नहीं किया या खुद को नहीं जाना है। उनमें कोई आत्म-जागरूकता नहीं है। क्या ये लोग मुसीबत में नहीं हैं? वे सुसमाचार प्रचार को सही ढंग से नहीं समझते हैं। वे खुद को बहुत ऊँचा समझते हैं; उनमें वाकई बिल्कुल भी आत्म-जागरूकता नहीं है! उन्हें तो पता ही नहीं कि वास्तव में चल क्या रहा है। दरअसल, ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि ये लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते और उनमें समझने की क्षमता का पूर्णतः अभाव है। सतही तौर पर, वे मुखर वक्ता हैं, उन्हें मामलों को सँभालना अच्छा लगता है, और ऐसा प्रतीत होता कि उनमें कुछ काबिलियत है, लेकिन जब वे अगुआ या कार्यकर्ता का काम करते हैं तो उनका चरित्र और उनकी काबिलियत बिल्कुल भी मानक स्तरीय नहीं होती। वे अगुआ या कार्यकर्ता बनने के मानकों और कसौटी पर खरे नहीं उतर सकते, इसलिए उन्हें हटा दिया जाता है। वे अपना तुच्छ मूल्य नहीं जानते, बल्कि वे बेशर्मी से शेखी बघारते हैं और फूल कर कुप्पे हो जाते हैं। भले ही कुछ लोग कभी नहीं कहेंगे, पर अपने निजी आकलन से वे मानते हैं कि जो लोग कुछ भी करने के लायक नहीं होते उन्हें ही सुसमाचार प्रचार का कार्य सौंपा जाता है। अपने दिलों में, वे परमेश्वर के घर के सभी कर्तव्यों को उच्च, मध्यम और निम्न स्तर के कर्तव्यों में बाँट देते हैं। सुसमाचार प्रचार के कर्तव्य को वे परमेश्वर के घर का सबसे निम्न स्तर का कर्तव्य मानते हैं। जो कोई भी गलती करता है या मानक स्तर तक अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं करता है उसे सुसमाचार प्रचार के लिए भेजा जाता है। ये लोग इस कर्तव्य को ऐसा ही समझते हैं। क्या इस समझ में और सुसमाचार प्रचार को अपनी जिम्मेदारी और अपने जीवन में निभाया जाने वाला दायित्व मानने के बीच कोई अंतर है? अगर कोई इसे इस तरह से समझे, तो क्या वह अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकेगा? (नहीं।) वे कहाँ गलती कर बैठे? वे व्यक्ति की सबसे बड़ी जिम्मेदारी और दायित्व को जो उसे अपने जीवन में पूरा करना चाहिए—यानी सुसमाचार प्रचार के कार्य को—सबसे निम्न कार्य मानते हैं। वे इसे अपनी जिम्मेदारी और दायित्व नहीं मानते, न ही इसे अपना कर्तव्य समझते हैं। भले ही परमेश्वर का घर लगन से अपना कर्तव्य निभाने की आवश्यकता पर कैसे भी संगति करे और कैसे भी यह बताए कि सुसमाचार का प्रचार करना इन कर्तव्यों में से एक है, वे इस तरह से नहीं सोचते। अपने दिल में, वे मानते हैं कि परमेश्वर के घर में विभिन्न स्तरों के अगुआ, कार्यकर्ता और पर्यवेक्षक ही ऊँचे स्थान पर हैं। उनके पास पूर्ण अधिकार है और अंत में उन्हें बड़ा इनाम मिलेगा और परमेश्वर उन्हें पूर्ण बनाएगा। उनके अधीन अनुयायी केवल पैदल सैनिक हैं, खासकर वे सुसमाचार कार्यकर्ता जो हमेशा कलीसिया के बाहर के लोगों से बातचीत करते हैं। सभी कार्यों में, उनका कार्य शायद सबसे मुश्किल और सबसे थकाऊ है। अंत में, तुम यकीन से यह भी नहीं बता सकते कि इन लोगों को पूर्ण बनाया जाएगा या नहीं। क्या यह उनकी गलती नहीं है कि वे सुसमाचार प्रचार के कर्तव्य को इस रूप में मानते हैं? क्या ऐसे लोग भी हैं जो सुसमाचार प्रचार की इस पवित्र जिम्मेदारी और दायित्व को सबसे निम्न काम मानते हैं और इसे सबसे निचली श्रेणी और दर्जे में रखते हैं? वे इस कर्तव्य को और इसे निभाने वालों को नीची दृष्टि से देखते हैं। तो वे किस दृष्टिकोण के साथ यह कर्तव्य निभाते हैं? (वे इसे अस्थायी मानते हैं।) और कुछ? जब वे किसी को जीत लेते हैं तो इसके बारे में ज्यादा नहीं सोचते हैं और जब किसी को नहीं जीत पाते हैं तो उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। वे सुसमाचार प्रचार को अपने काम का हिस्सा नहीं मानते और इस कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने के लिए पूरी कोशिश नहीं करते हैं। अपने दिलों में, वे सुसमाचार प्रचार के कार्य को हेय दृष्टि से देखते हैं, तो उनके सुसमाचार प्रचार के कार्य का क्या नतीजा निकलेगा? क्या वे सुसमाचार प्रचार के अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए खुद को सत्य के सभी पहलुओं से लैस कर सकेंगे? अधिक लोगों को जीतने के लिए, क्या वे परमेश्वर के वचनों और बाइबल के पदों के अंश याद करते हैं और क्या वे सुसमाचार प्रचार करते समय सामने आने वाली विभिन्न समस्याओं को हल करने के लिए विभिन्न अनुभवजन्य गवाहियों से स्वयं को परिचित कराते हैं? (नहीं।) अगर सुसमाचार प्रचार करते समय, विकृत समझ और अनेक धारणाएँ रखने वाले लोगों ने उनसे मुश्किल सवाल पूछे, तो वे उनसे कैसे निपटेंगे? (वे उन्हें छोड़ देंगे।) यह एक तरह का रवैया है। क्या वे यह कहते हुए परमेश्वर के बारे में शिकायत करेंगे, “सुसमाचार प्रचार करते समय मुझे ऐसे बेहूदे व्यक्ति से क्यों मिलना पड़ा जिसे कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है? कैसी खराब किस्मत है!”? उनमें संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं के प्रति कोई प्रेम नहीं होता, और वे उम्मीद करते हैं कि परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को नहीं बचाएगा। ऐसे मामले में, वे परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते, न ही परमेश्वर के इरादे खोजते हैं, फिर परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता दिखाना तो दूर की बात है। वे अपनी दैहिक प्राथमिकताओं के हिसाब से संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं के साथ व्यवहार करना चुनते हैं, और जब उनका सामना बहुत सारी समस्याओं और गंभीर धारणाओं वाले लोगों से होता है, तो वे उन्हें छोड़ देते हैं। वे सिर्फ उन लोगों तक सुसमाचार प्रचार करना चाहते हैं जिनके पास धारणाएँ कम हैं या बिल्कुल भी नहीं हैं, और वे कोई कीमत भी नहीं चुकाना चाहते। जब भी कोई चीज उनके घमंड या अभिमान या उनकी प्रतिष्ठा या रुतबे के लिए हानिकारक होती है, जब भी कोई चीज देह की पसंदगियों के विरुद्ध होती है या दैहिक सुख के आड़े आती है तो वे क्या करना चुनते हैं? वे छोड़ने का चयन करते हैं, भाग जाने का चयन करते हैं, अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाने का चयन करते हैं, बल्कि यह जिम्मेदारी निभाने से इनकार कर देते हैं। साथ ही, वे मन ही मन परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हैं, “मुझे इतनी सारी धारणाओं वाले ऐसे बेहूदे व्यक्ति से क्यों मिलना पड़ा? मुझे यह कष्ट क्यों दिया गया? मेरी छवि बिगड़ गई, मेहनत बर्बाद गई, और मैं किसी को नहीं जीत पाया।” अंदर-ही-अंदर, उनके दिल परमेश्वर के प्रति आक्रोश से भरे हुए हैं। इसलिए, वे सुसमाचार प्रचार का कर्तव्य नहीं स्वीकारना चाहते, और न ही सुसमाचार प्रचार की जिम्मेदारी पूरी करना चाहते हैं; अगर सुसमाचार प्रचार के कर्तव्य के प्रति उनका रवैया ऐसा है, तो वे निकाल दिए जाने से बहुत दूर नहीं हैं।

सुसमाचार प्रचार की प्रक्रिया में, कई सुसमाचार कार्यकर्ता अपने काम के प्रति अनमना और बेपरवाह रवैया रखते हैं। वे कभी नहीं बदलते। वे कभी इस काम पर पूरा ध्यान नहीं देते, इसे विवेकशील ढंग से और परमेश्वर का भय मानने के दृष्टिकोण से नहीं देखते हैं। बल्कि, वे सोचते हैं, “वैसे भी, मेरे पास कोई काम नहीं है, मैं कुछ भी कर सकता हूँ। सुसमाचार टीम मजेदार लगती है, मैं इसमें शामिल हो जाऊँगा।” फिर, वे सबकी तरह सुसमाचार प्रचार करते हैं। दरअसल, वे इस प्रक्रिया में बहुत कम त्याग करते हैं। वे बस थोड़ा समय निकालकर इधर-उधर घूम-फिर लेते हैं, पर कोई वास्तविक कीमत नहीं चुकाते। वे हमेशा अपनी दैहिक प्राथमिकताओं और अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के हिसाब से सुसमाचार प्रचार करते हैं। सत्य सिद्धांतों का तो वे जरा भी पालन नहीं करते। ऐसे बहुत-से लोग हैं जो अमीरों और पैसे वाले लोगों को सुसमाचार सुनाना पसंद करते हैं, लेकिन गरीबों को नहीं। वे खूबसूरत लोगों को सुसमाचार सुनाना पसंद करते हैं, पर सीधे-सादे दिखने वालों को नहीं। वे उन्हें सुसमाचार सुनाना पसंद करते हैं जिनसे उनकी बनती है, पर उन्हें नहीं जिनसे उनकी नहीं बनती। वे बहुत-सी धारणाएँ रखने वालों के बजाय कम धारणाएँ रखने वाले लोगों को सुसमाचार सुनाना पसंद करते हैं। वे ऐसे लोगों को सुसमाचार प्रचार करना पसंद करते हैं जो आसानी से सुसमाचार को स्वीकार सकें, जो ज्यादा बातें सुने बिना सुसमाचार स्वीकार लें। जिन लोगों से बहुत ज्यादा थकाऊ बातें करनी पड़ें उन्हें वे सुसमाचार सुनाना नहीं चाहते। उदाहरण के लिए, मान लो कि सुसमाचार प्रचार कर रही एक महिला किसी ऐसे व्यक्ति से मिलती है जो एक अमीर परिवार से संबंध रखता है, जिसके पास अपना घर और गाड़ी है, जिसके माँ-बाप के पास अच्छी नौकरियाँ हैं, वह उनका इकलौता बेटा है और खूबसूरत भी है। वह सोचती है कि अगर वह उससे शादी कर सके तो संपन्न जीवन जी सकेगी, इसलिए वह उस आदमी को सुसमाचार सुनाना चाहती है, यह सोचकर कि अगर वह इसे स्वीकार ले तो बहुत अच्छा होगा। कुछ लोग उसे रोकने की कोशिश करते हैं, उससे कहते हैं कि यह व्यक्ति सत्य खोजने वालों में से नहीं है, उसे सुसमाचार नहीं सुनाया जाना चाहिए, मगर वह कहती है, “अगर हमने सत्य पर अधिक संगति की, तो मुमकिन है कि वह इसे स्वीकार कर ले। अगर हमने ऐसे अच्छे व्यक्ति को सुसमाचार प्रचार करके उसे नहीं बचाया, तो क्या यह परमेश्वर के इरादों के खिलाफ नहीं होगा?” वास्तव में, उसका अपना मकसद है। वह इस व्यक्ति को परमेश्वर के समक्ष लाने के लिए उसे जीतने की कोशिश नहीं कर रही है, बल्कि अपनी बड़ाई करके उसके हाथों बिक जाना चाहती है। अपनी खूब मार्केटिंग करने के बाद, आखिर में वह जो चाहती है उसे मिल जाता है, और वह अपने स्वार्थ के लिए उसके साथ रिश्ता बनाने में सक्षम होती है। यहाँ समस्या क्या है? वह जो कुछ भी करती है उसमें उसके अपने उद्देश्य हैं, जो सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं। अंत में, वह उस तक “सफलतापूर्वक सुसमाचार प्रचार करने” के लिए कई पैंतरे अपनाती है और यह कहते हुए उससे शादी कर लेती है, “सुसमाचार प्रचार के मेरे काम में सबसे बड़ी उपलब्धि ऐसे आत्मीय व्यक्ति को ढूँढ़ना था। मुझे इसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार लेना चाहिए। शादी परमेश्वर द्वारा निर्धारित है। मेरा इस व्यक्ति से मिलना और शादी करना पूरी तरह से परमेश्वर की व्यवस्था थी। यह परमेश्वर की कृपा और आशीष है।” वह अपना छोटा-सा परिवार बनाती है और एक खुशहाल जीवन जीती है—क्या वह अभी भी सुसमाचार प्रचार करने में सक्षम है? (नहीं।) एक या दो साल बाद, जब वह अच्छा महसूस करती है तो कभी-कभार सुसमाचार प्रचार करने चली जाती है, पर अपना ज्यादातर समय पारिवारिक जीवन में बिताती है, और उसका दिल दिन-ब-दिन खोखला होता जाता है। आखिरकार, उसे एहसास होता है कि पारिवारिक जीवन चूल्हा-चौके, खान-पान, मौज-मस्ती और शोर-गुल के अलावा और कुछ नहीं है। उसे यह सब निरर्थक लगता है। पीछे मुड़कर देखने पर, वह विचार करती और मन ही मन सोचती है, “परमेश्वर में आस्था—अभी भी सार्थक है। मुझे वापस जाकर फिर से आस्था रखनी है और सुसमाचार प्रचार करना जारी रखना है!” अंत में, वह अपने अनुभवों के बारे में बढ़-चढ़कर बातें करती है, कहती है : “मनुष्य को परमेश्वर ने बनाया है, तो वह परमेश्वर को नहीं छोड़ सकता। मनुष्य परमेश्वर के बिना नहीं जी सकता। जैसे मछली पानी के बगैर मर जाती है, वैसे ही अगर मनुष्य परमेश्वर को त्याग देता है, तो यकीनन उसके जीवन में आगे बढ़ने का कोई मार्ग नहीं होगा। इसलिए मैं लौट आई हूँ। क्योंकि मुझे परमेश्वर ने बुलाया है।” कैसी घोर बेशर्मी है! लौटकर आने के बाद, वह अपना कर्तव्य निभाने की माँग करती है, “अगर मैंने अपना कर्तव्य नहीं निभाया तो यह सब बेकार है। सभी को अपना कर्तव्य निभाना चाहिए।” जो लोग सत्य का अभ्यास नहीं करते और सत्य से प्रेम नहीं करते, उनकी बातें सुनने वालों में घृणा पैदा करती हैं। तुम कहती हो तुम परमेश्वर को नहीं त्याग सकती, तो क्यों न परमेश्वर से ही पूछें कि क्या वह तुम्हें चाहता है? तुम्हें अपना कर्तव्य निभाते समय एक जीवनसाथी मिल गया तो तुम अपना कर्तव्य छोड़कर भाग गई। तुमने परमेश्वर से यह पूछने के लिए कि क्या वह इससे सहमत है और उसका रवैया पता लगाने के लिए उससे प्रार्थना क्यों नहीं की? क्या तुमने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की? क्या तुमने परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपा गया कार्य पूरा किया? क्या तुमने परमेश्वर को परमेश्वर माना? क्या तुमने अपने कर्तव्य को अपना कर्तव्य माना? इन सभी सवालों का जवाब “नहीं” है। तुम्हारे लिए परमेश्वर क्या है? वह सिर्फ एक दोस्त है जिससे तुम राह चलते मिली थी। तुम उसका अभिवादन करती हो और तुरंत सोच लेती हो कि तुम दोनों दोस्त हो। अगर तुम्हें फायदा होता है, तो तुम उससे दोस्ती बनाए रखती हो, लेकिन अगर नहीं होता है, तो तुम उसे अलविदा कह देती हो। मगर जब तुम्हें उसकी जरूरत पड़ती है तो दोबारा उसे याद करती हो। परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता ऐसा ही है। अगर तुम परमेश्वर को अपना दोस्त मानोगी जिसे तुम कभी जानती थी, तो परमेश्वर तुम्हारे बारे में क्या सोचेगा? परमेश्वर तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करेगा? तुम उदास हो, तुम्हारे दिन खाली हैं, तो अब तुम्हें परमेश्वर की जरूरत है। तुम वापस आकर अपना कर्तव्य निभाना चाहती हो। क्या परमेश्वर यूँ ही तुम्हें कोई कर्तव्य दे देगा? (वह नहीं देगा।) क्यों नहीं? क्योंकि तुम इसके लायक नहीं हो! भले ही ऐसे लोग परमेश्वर में विश्वास करने के बाद अपने कर्तव्य निभा सकते हैं, पर अपना कर्तव्य पूरा करने से पहले, वे बिना किसी चेतावनी के परमेश्वर को त्याग देंगे, अपने पद को छोड़ देंगे और अपने काम का परित्याग कर देंगे। परमेश्वर इसे कैसे देखता है? इस आचरण की प्रकृति क्या है? (एक विश्वासघात।) विश्वासघात कोई छोटी बात नहीं है। ऐसे लोग भगोड़े होते हैं! भगोड़े लोग अपना कर्तव्य कैसे निभाते हैं? वे अपना कर्तव्य निभाने की आड़ में अपना स्वार्थ देखते हैं। वे अपने कर्तव्य निभाने के मूल उद्देश्य के खिलाफ जाते हुए अपने भविष्य और आजीविका को सुरक्षित करने की योजना बनाते हैं। आखिर में, वे बीच में ही अपना कर्तव्य छोड़कर भाग जाते हैं, जिससे वे भगोड़े कहलाते हैं। ऐसे व्यक्ति सच्चे दिल से खुद को परमेश्वर के लिए नहीं खपाते हैं। बल्कि, उनके अपने निजी इरादे और मकसद होते हैं और वे परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश करते हैं, और आखिर में अपना असली रंग प्रकट कर देते हैं। क्या ये परमेश्वर को धोखा देने वालों में से नहीं हैं? कुछ लोग कहते हैं, “क्या परमेश्वर के घर में आने-जाने की आजादी नहीं है?” यह सच है कि वहाँ आने-जाने की आजादी है, मगर परमेश्वर के घर में प्रवेश करते समय जाँच-पड़ताल से गुजरना पड़ता है। तुम परमेश्वर का घर छोड़ने के लिए आजाद हो, कोई तुम्हें नहीं रोकेगा। लेकिन, परमेश्वर के घर में वापस लौटना आसान नहीं होगा। यह साबित करने के लिए कि तुम्हारा पश्चात्ताप सच्चा है, कलीसिया के अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा सभी स्तरों पर तुम्हारी जाँच और छानबीन की जाएगी। तभी तुम्हें स्वीकार किया जाएगा। यानी, यहाँ से बाहर निकलना तो आसान है, पर वापस अंदर आना मुश्किल है। मैंने सुना है कि कुछ लोगों को सुसमाचार प्रचार करना बेहद कठिन लगा और उन्हें इतना कष्ट सहना पड़ा कि वे अपनी जिम्मेदारी छोड़कर भाग गए। इसमें क्या समस्या है? समस्या यह है कि वे भगोड़े हैं। सुसमाचार कार्य को फैलाने के दौरान सबसे महत्वपूर्ण क्या है? हर सुसमाचार फैलाने कार्यकर्ता की, खासकर महत्वपूर्ण पदों के लिए जिम्मेदार लोगों की, परमेश्वर की नजरों में एक अहम भूमिका है। अगर तुम सुसमाचार कार्य को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हो और परमेश्वर की अनुमति के बिना अपना पद छोड़ देते हो, तो इससे बड़ा कोई अपराध नहीं है। क्या यह परमेश्वर से विश्वासघात नहीं है? (हाँ।) तो, तुम लोगों के विचार में, परमेश्वर को भगोड़ों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? (उन्हें दरकिनार कर दिया जाना चाहिए।) दरकिनार किए जाने का मतलब है अनदेखा किया जाना, उन्हें जैसा वे चाहें वैसा करने के लिए छोड़ दिया जाना। अगर दरकिनार किए गए लोग पश्चात्ताप महसूस करते हैं, तो संभव है कि परमेश्वर देखे कि उनका रवैया पर्याप्त रूप से पश्चात्ताप करने वाला है, और अभी भी उन्हें वापस पाना चाहे। लेकिन जो लोग अपना कर्तव्य छोड़ देते हैं, उनके प्रति—और केवल उन्हीं लोगों के प्रति—परमेश्वर का ऐसा रवैया नहीं होता। परमेश्वर ऐसे लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है? (परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता। परमेश्वर उन्हें ठुकरा देता है।) यह बात एकदम सही है। अधिक विशिष्ट रूप से, जो लोग कोई महत्वपूर्ण कर्तव्य निभाते हैं वे परमेश्वर द्वारा नियुक्त हैं और अगर वे भगोड़े बन जाते हैं तो चाहे उन्होंने पहले कितना भी अच्छा काम किया हो या बाद में कितना भी अच्छा काम कर लें, परमेश्वर की नजर में वे ऐसे लोग हैं जिन्होंने उसके साथ विश्वासघात किया है और उन्हें फिर कभी कर्तव्य निभाने का अवसर नहीं दिया जाएगा। दूसरा अवसर नहीं दिए जाने का क्या मतलब है? अगर तुमने कहा, “मुझे बहुत पछतावा है। मैं परमेश्वर की ऋणी हूँ। मुझे शुरुआत में ऐसा फैसला नहीं करना चाहिए था। उस समय, मैं मोहित हो गई थी और भटक गई थी, अब मुझे इसका पछतावा है। मैं परमेश्वर से विनती करती हूँ कि वह मुझे अपना कर्तव्य निभाने का एक और मौका दे, ताकि मैंने जो किया है उसके लिए मुझे सराहनीय कार्य करके पश्चात्ताप करने का अवसर मिले और मैं अपनी गलतियों की भरपाई कर सकूँ,” परमेश्वर इस मामले से कैसे निपटेगा? जैसा कि परमेश्वर ने बताया कि अब तुम्हारे पास कोई अवसर नहीं है, वह फिर कभी तुम पर ध्यान नहीं देगा। भगोड़े लोगों के प्रति परमेश्वर का यही रवैया है। सामान्य अपराध करने वाले लोगों से निपटते समय, परमेश्वर कह सकता है कि यह एक क्षणिक अपराध था, या ऐसा प्रतिकूल माहौल होने, छोटे आध्यात्मिक कद, सत्य की समझ की कमी या ऐसे किसी अन्य कारण से हुआ था। ऐसे में, परमेश्वर उन्हें पश्चात्ताप का अवसर दे सकता है। हालाँकि, सिर्फ भगोड़े लोगों को, परमेश्वर कोई दूसरा मौका नहीं देता। कुछ लोग कहते हैं, “इसका क्या मतलब है कि परमेश्वर कोई दूसरा मौका नहीं देता? अगर वे अपना कर्तव्य निभाना चाहते हैं, तो क्या परमेश्वर उन्हें ऐसा नहीं करने देगा?” तुम अपना कर्तव्य निभा सकते हो, सुसमाचार प्रचार कर सकते हो, धर्मोपदेश सुन सकते हो और कलीसिया में भी शामिल हो सकते हो। कलीसिया अपनी सूची से तुम्हारा नाम नहीं हटाएगी, पर जहाँ तक परमेश्वर का सवाल है, चाहे तुम कैसे भी अपना कर्तव्य निभाओ और कैसे भी पश्चात्ताप करो, परमेश्वर को न तो तुम्हारी जरूरत है और न ही वह तुम्हारा अनुमोदन करता है, भले ही तुम उसके लिए श्रम कर रहे हो। यही परमेश्वर का रवैया है। यह संभव है कि कुछ लोग इस मामले को समझने में नाकाम रहें और कहें, “इस प्रकार के व्यक्ति से निपटते समय परमेश्वर इतना हृदयहीन और अटल क्यों है?” मनुष्य को यह बात समझने की जरूरत नहीं है। यह परमेश्वर का स्वभाव है। यह परमेश्वर का रवैया है। तुम जो चाहो सोच सकते हो। फैसला करने का सामर्थ्य परमेश्वर के पास है। उसके पास इस तरह से कार्य करने और मामले को इस तरह से सँभालने का सामर्थ्य है। कोई मनुष्य इसमें क्या कर सकता है? क्या लोग विरोध कर सकते हैं? शुरुआत में तुमसे सही मार्ग पर न चलने, परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने और अपना कर्तव्य छोड़कर भगोड़ा बन जाने के लिए किसने कहा था? सुसमाचार फैलाने का कार्य एक अकेला व्यक्ति पूरा नहीं कर सकता, इसके लिए कई लोगों की जरूरत होती है। अगर तुम अपना कर्तव्य नहीं निभा सकते, तो परमेश्वर किसी दूसरे को चुन लेगा जो यह कर्तव्य निभा सकता है। अगर तुम अपनी भूमिका नहीं निभाते हो और अपना कर्तव्य नहीं निभाते हो, तो इससे साबित होता है कि तुम अंधे हो। इससे साबित होता है कि तुम भ्रमित और मूर्ख हो। तुम नहीं जानते कि यह एक आशीष है, तो तुम्हें यह आशीष नहीं मिलेगी। तुम्हें चले ही जाना चाहिए! अगर तुम बाहर जाकर कुछ समय बाद वापस लौट आते हो, तो क्या परमेश्वर फिर भी तुम्हें चाहेगा? नहीं, परमेश्वर को कोई फर्क नहीं पड़ता। भगोड़े और केवल भगोड़े लोगों के प्रति ही परमेश्वर का यह रवैया है। कुछ लोगों ने कहा, “वापस लौटने और अपना कर्तव्य निभाने के बाद, मुझे पवित्र आत्मा ने प्रबुद्ध बनाया है!” जब तुम पहली बार अपना कर्तव्य निभा रहे थे, तो तुम बिना अनुमति के भाग गए, और पवित्र आत्मा ने तुम्हें नहीं रोका। अब जब तुम वापस आ गए हो, तो क्या पवित्र आत्मा अभी भी तुम्हें प्रबुद्ध बना सकता है? अपनी भावनाओं को इतना तूल मत दो। परमेश्वर अपनी इच्छा के विरुद्ध कुछ भी नहीं करेगा, और उसके पास हर किसी से निपटने के लिए सिद्धांत हैं। यहाँ लोगों के लिए क्या चेतावनी दी गई है? तुम्हें अपने कर्तव्य पर अडिग रहना चाहिए, अपने पैर मजबूती से जमाए रखने चाहिए और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए। क्या ऐसे भगोड़ों के प्रति परमेश्वर का रवैया अत्यधिक कठोर है? (ऐसा नहीं है।) तुम ऐसा क्यों कहते हो कि यह अत्यधिक कठोर नहीं है? तुम कैसे जानते हो कि यह अत्यधिक कठोर नहीं है? कोई व्यक्ति चाहे कोई भी कर्तव्य निभाए, मौजूदा अवधि में क्या हर एक व्यक्ति द्वारा किए गए हर कर्तव्य का परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित कर्तव्य से संबंध है? इनमें गहरा संबंध है। इस तरह से देखने पर, अगर तुम अपना कर्तव्य निभा पाते हो, तो क्या इसका मतलब यह है कि परमेश्वर ने बहुत सारा कार्य किया है? संसार की रचना के समय से ही परमेश्वर तुम्हें पूर्वनियत कर चुका है। तुम जिस युग और कालखंड में पैदा हुए हो, जैसे परिवार में पैदा हुए हो, तुम्हारे परिवार का तुम पर जो प्रभाव पड़ा है, परमेश्वर तुमसे जो कर्तव्य निभाने की अपेक्षा करता है और जो चीजें तुम्हें पहले से ही सीखने दी गई हैं, यह सब उसने पूर्वनियत कर रखा है। उदाहरण के लिए, अगर तुमने कोई विदेशी भाषा सीखी है, अब तुम्हारे पास यह काबिलियत, यह प्रतिभा है, जिससे तुम सफलतापूर्वक अपना कर्तव्य निभा सकते हो। परमेश्वर ने तैयारी में बहुत कार्य किया है। परमेश्वर ऐसी तैयारियाँ क्यों करता है? क्या इसलिए कि तुम भीड़ से अलग दिख सको? क्या इसलिए कि तुम संसार का अनुसरण करते हुए शैतान की सेवा कर सको? बिल्कुल नहीं! परमेश्वर चाहता है कि तुम परमेश्वर के घर में, परमेश्वर का सुसमाचार फैलाने में, और परमेश्वर की प्रबंधन योजना में वे सभी चीजें अर्पित करो जो परमेश्वर ने तुम्हें दी हैं। हालाँकि, अगर तुम वह सब अर्पित नहीं कर सकते जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है, बल्कि तुम शैतान की सेवा करते हो, तो परमेश्वर को कैसा महसूस होगा? परमेश्वर इसे कैसे सँभालेगा? परमेश्वर को अपने स्वभाव के अनुरूप इसे कैसे सँभालना चाहिए? परमेश्वर तुम्हें लात मारकर एक ही झटके में अपने से दूर कर देगा। वह तुम्हें नहीं रखेगा। तुम उसकी दयालुता को भूल जाते हो और उसके भरोसे के साथ विश्वासघात करते हो। तुम अपने बनाने वाले को नहीं मानते हो या उसके पास नहीं लौटते हो। परमेश्वर ने तुम्हें जो दिया है वह तुम उसे समर्पित नहीं करते हो, बल्कि शैतान को अर्पित कर देते हो। यह एक गंभीर विश्वासघात है, और परमेश्वर को ऐसा विश्वासघाती नहीं चाहिए!

मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के कार्य में, प्रत्येक व्यक्ति की काबिलियत उसे वह कर्तव्य निभाने में सक्षम बनाती है जो उसे निभाना चाहिए। साथ ही, परमेश्वर में विश्वास करने के बाद उन्हें जो अनुभव और ज्ञान हासिल होता है, और जो सत्य वे समझते हैं, उन सबका इस्तेमाल कर्तव्य निर्वहन के लिए करना चाहिए। केवल इसी तरह से लोग राज्य का सुसमाचार फैलाने के कार्य में अपना विनम्र योगदान दे सकते हैं। यह विनम्र योगदान क्या है? यह वह कर्तव्य है जो व्यक्ति को निभाना चाहिए। परमेश्वर तुम्हें सत्य समझने के साथ ही बुद्धिमत्ता और बुद्धि हासिल करने देता है ताकि तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सको। यही तुम्हारे जीवन का मूल्य और अर्थ है। अगर तुम इस मूल्य और अर्थ को नहीं जीते हो, तो इससे साबित होता है कि तुमने परमेश्वर में अपने विश्वास से कुछ भी हासिल नहीं किया है। तुम परमेश्वर के घर में बस बेकार का कबाड़ बनकर रह गए हो। अगर तुम जो जीते हो वह शैतान और देह है, तो क्या परमेश्वर अभी भी तुम्हें चाहेगा? तुम्हारे जीवन का अब कोई मूल्य और अर्थ नहीं है। परमेश्वर की दृष्टि में, तुम्हें उसके घर से सदा के लिए लुप्त हो जाना चाहिए। वह अब तुम्हें नहीं चाहता। इसके अलावा, परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के विस्तार की अवधि में, परमेश्वर का अनुसरण करने वाला हर व्यक्ति अपना कर्तव्य निभा रहा है, और उन सभी ने बार-बार बड़े लाल अजगर के दमन और क्रूर उत्पीड़न का अनुभव किया है। परमेश्वर के अनुसरण का मार्ग खुरदरा और ऊबड़-खाबड़ है, और यह बेहद कठिन भी है। जिस किसी ने भी दो या तीन साल से ज्यादा समय तक परमेश्वर का अनुसरण किया है, उसने खुद इसका अनुभव किया होगा। हर व्यक्ति द्वारा निभाया गया कर्तव्य, चाहे वह निर्धारित कर्तव्य हो या कोई अस्थायी व्यवस्था, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं से आता है। लोगों को अक्सर गिरफ्तार किया जा सकता है, कलीसिया के कार्य में बाधा पैदा की जा सकती है और उसे खराब किया जा सकता है और कर्तव्य निभाने वालों की स्पष्ट कमी हो सकती है, खासकर अच्छी काबिलियत और पेशेवर विशेषज्ञता वाले लोगों की, जो अल्प संख्या में हैं, मगर परमेश्वर की अगुआई के कारण, उसकी शक्ति और अधिकार की वजह से, परमेश्वर का घर पहले ही सबसे कठिन समय से बाहर निकल चुका है, और इसके सभी कार्य सही रास्ते पर आ गए हैं। मनुष्य के लिए, यह नामुमकिन लगता है, मगर परमेश्वर के लिए कुछ भी हासिल करना मुश्किल नहीं है। परमेश्वर के प्रकट होने और कार्य करना शुरू करने से लेकर आज तक के तीस साल तूफानों और क्लेशों से ग्रस्त रहे हैं। परमेश्वर की अगुआई और उसके वचन जो लोगों को आस्था और शक्ति देते हैं, के बिना कोई भी यहाँ तक नहीं पहुँच पाता। परमेश्वर के चुने हुए सभी लोगों ने व्यक्तिगत रूप से इसका अनुभव किया है। परमेश्वर के घर का कोई भी कार्य आसान नहीं है, यह सब शून्य से शुरू करना होता है, और बड़ी कठिनाई से पूरा किया जाता है, और यह दिक्कतों से घिरा होता है। ऐसा क्यों है? क्योंकि हमें न सिर्फ बड़े लाल अजगर की सत्ता के उन्मादी दमन और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है, बल्कि पूरे धार्मिक संसार और भ्रष्ट मानवजाति से भेदभाव, बदनामी और निंदा का भी सामना करना पड़ता है—यहाँ तक कि पूरा युग हमें त्याग देता है और दबाता है। परमेश्वर के सभी प्रबंधन कार्य ऐसे परिवेश में और ऐसी परिस्थितियों में शुरू और संचालित होते हैं जो शैतान की बुरी प्रवृत्तियों से भरे हुए हैं, और जहाँ शैतान की सत्ता है। यह बिल्कुल भी आसान नहीं है; यह बेहद मुश्किल है। इसलिए, जो कोई भी अपना कर्तव्य निभा सकता है वह परमेश्वर को सुकून देता है, और अपना कर्तव्य निभाना एक दुर्लभ और कीमती चीज है। हर व्यक्ति की ईमानदारी, समर्पण और उसका खुद को खपाना, और साथ ही उसका अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदारी और जिम्मेदारी का, परमेश्वर के आदेश के प्रति समर्पण का और परमेश्वर का भय मानने का रवैया रखना, ये सब वे चीजें हैं जिन्हें परमेश्वर सँजोता है और बहुत महत्वपूर्ण मानता है। वहीं दूसरी ओर, परमेश्वर को उन भगोड़ों से और उनसे जो अपने कर्तव्यों को मजाक समझते हैं, तथा परमेश्वर से विश्वासघात करनेवाले उनके अलग-अलग व्यवहारों, कार्यों और अभिव्यक्तियों से अत्यधिक घृणा है, क्योंकि परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित विभिन्न संदर्भों, लोगों, घटनाओं और वस्तुओं के बीच, ये लोग परमेश्वर के कार्य की प्रगति में बाधा डालने, उसे क्षति पहुँचाने, उसमें देरी करने, उसमें खलल डालने या उसे प्रभावित करने की भूमिका निभाते हैं। और इस कारण से, परमेश्वर भगोड़ों और परमेश्वर से विश्वासघात करने वाले लोगों के प्रति कैसा महसूस करता है और कैसी प्रतिक्रिया करता है? परमेश्वर क्या रवैया अपनाता है? (वह उनसे नफरत करता है।) सिर्फ और सिर्फ घृणा और नफरत। क्या उसे दया आती है? नहीं—उसे दया कभी नहीं आ सकती। कुछ लोग कहते हैं, “क्या परमेश्वर प्रेम नहीं है?” परमेश्वर ऐसे लोगों से प्रेम क्यों नहीं करता? ये लोग प्रेम करने के काबिल नहीं होते। अगर तुम उनसे प्रेम करते हो, तो तुम्हारा प्रेम मूर्खता है, और सिर्फ इसलिए कि तुम उनसे प्रेम करते हो, इसका मतलब यह नहीं कि परमेश्वर भी उनसे प्रेम करता है; तुम उन्हें सँजो सकते हो, लेकिन परमेश्वर नहीं सँजोता, क्योंकि ऐसे लोगों में कुछ भी सँजोने लायक नहीं होता। इसलिए, परमेश्वर ऐसे लोगों को दृढ़ता से त्याग देता है, और उन्हें कोई दूसरा मौका नहीं देता। क्या यह उचित है? यह न केवल उचित है, बल्कि सर्वोपरि यह परमेश्वर के स्वभाव का एक पहलू है, और यह सत्य भी है। सुसमाचार प्रचार की प्रक्रिया में, कुछ लोग सत्य का एक भी पहलू स्वीकार नहीं करते हैं। वे हमेशा अपनी मर्जी से मनमाने ढंग से और लापरवाही से कार्य करते हैं। वे सुसमाचार फैलाने के कार्य में रुकावट और बाधाएँ हैं। वे सुसमाचार के कार्य में बाधा डालकर, गड़बड़ करके, इसे बिगाड़कर और इसके फैलाव में रुकावट बनकर नकारात्मक भूमिका निभाते हैं। इसलिए, इन लोगों के प्रति परमेश्वर का रवैया घृणा और नफरत वाला होता है। उन्हें निकाल देना है। परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव इसी तरह से प्रकट होता है। कुछ लोग कहते हैं, “क्या ऐसे लोगों के साथ इस तरह का व्यवहार करना थोड़ी ज्यादती नहीं है?” इसमें ज्यादती वाली कोई बात नहीं है। ऐसे शैतानों से परमेश्वर सिर्फ घृणा और नफरत ही कर सकता है। परमेश्वर खुद का छलावा नहीं करता। परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक है, और परमेश्वर का स्वभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के दो सबसे महत्वपूर्ण पहलू क्या हैं? (प्रचुर दया और गहन क्रोध।) इसका यहाँ क्या महत्व है? परमेश्वर का उग्र क्रोध कौन सहता है? यह उन लोगों को सहना पड़ता है जो परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं, सत्य को ठुकराते हैं और शैतान का अनुसरण करते हैं। परमेश्वर उन लोगों को नहीं चाहता जो शैतान का अनुसरण करने के लिए दृढ़ हैं, न ही वह गद्दारों और भगोड़ों को चाहता है। कुछ लोग कहते हैं, “कुछ पल के लिए जब मैं कमजोर पड़ गया था, तो मैंने अपना कर्तव्य नहीं निभाने का फैसला किया, मगर मैं सच में परमेश्वर को छोड़ना नहीं चाहता था या संसार और शैतान के पाले में वापस नहीं जाना चाहता था।” चाहे तुम कमजोर पड़ गए थे या संसार में लौटना चाहते थे, परमेश्वर तुम्हारी कमजोरी से निपटते समय परिस्थिति के आधार पर दया और सहनशीलता दिखा सकता है। परमेश्वर बहुत दयालु है। लोग अपने भ्रष्ट स्वभावों के बीच रहते हैं, और कुछ परिस्थितियों में यह अपरिहार्य है कि वे कमजोर, नकारात्मक या सुस्त महसूस करेंगे। परमेश्वर सबकी पड़ताल करता है और वह परिस्थिति के हिसाब से ही उनसे निपटेगा। अगर तुम भगोड़े नहीं हो, तो वह तुम्हारे साथ भगोड़े जैसा व्यवहार नहीं करेगा। अगर तुम कमजोर हो, तो वह बेशक तुम्हारी कमजोरी के अनुसार तुमसे निपटेगा। अगर तुम क्षणिक भ्रष्टता प्रकट करते हो, पल भर के लिए कमजोर पड़ते हो या कुछ समय के लिए अपने मार्ग से भटक जाते हो, तो परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध करेगा, और तुम्हारा मार्गदर्शन करके तुम्हें सहारा देगा। क्योंकि यह समस्या तुम्हारे प्रकृति सार की नहीं है, इसलिए वह तुम्हारे साथ छोटे आध्यात्मिक कद वाले व्यक्ति जैसा व्यवहार करेगा जो सत्य नहीं समझता है। परमेश्वर ऐसे लोगों से निपटने के लिए उन्हें त्याग क्यों नहीं देता है? क्योंकि वे उसे या सत्य को ठुकराना नहीं चाहते हैं, और न ही शैतान का अनुसरण करना चाहते हैं। वे बस पल भर के लिए कमजोर होते हैं और आगे बढ़ना जारी नहीं रख पाते हैं, इसलिए परमेश्वर उन्हें एक और मौका देता है। तो फिर, इन लोगों को कैसे सँभाला जाना चाहिए, जो पल भर के लिए कमजोर पड़ने पर अपने कर्तव्य नहीं निभा पाते हैं, लेकिन बाद में उन्हें निभाने के लिए वापस लौट आते हैं? उन्हें स्वीकार लेना चाहिए। यह मामला भगोड़ों से अलग प्रकृति का है, तो तुम उनसे निपटने के लिए वही नियम लागू नहीं कर सकते या वही तरीका नहीं अपना सकते। कुछ लोग कमजोर नहीं होते हैं; वे वास्तव में भगोड़े होते हैं। अगर तुम उन्हें वापस लाते हो, तो ऐसी ही स्थिति का सामना करने पर वे फिर से भाग जाएँगे। ऐसा व्यक्ति क्षणिक तौर पर कर्तव्य छोड़कर भागने वाला नहीं है; ऐसा व्यक्ति हमेशा भगोड़ा ही रहेगा। यही वजह है कि परमेश्वर ऐसे लोगों को लात मारकर बाहर कर देता है और उन्हें कभी वापस नहीं लेता। यह बिल्कुल भी ज्यादती नहीं है। क्योंकि उन्हें कभी वापस नहीं लिया जाता, तो इसका मतलब यह है कि परमेश्वर चाहे किसी को भी बचाए, वह उन्हें नहीं बचाता है। जब परमेश्वर यह देखता है कि उद्धार पाने वालों की टीम में एक व्यक्ति की कमी है, तो वह किसी और को इसमें शामिल कर सकता है। मगर ऐसे व्यक्ति के लिए कोई जगह नहीं होती। उन्हें हमेशा के लिए हटा दिया जाता है और उनकी कोई जरूरत नहीं है।

कुछ ऐसे लोग भी हैं जो सुसमाचार प्रचार करते समय अक्सर सुसमाचार कार्य में बाधा डालते हैं और उसे बिगाड़ते हैं, मगर उन्होंने कुछ काम भी किया है और कुछ लोगों को जीता भी है। क्या इन्हें उनके अच्छे कर्मों में गिना जा सकता है? फिलहाल, इस सवाल को किनारे रखते हैं कि उन्होंने अच्छे कर्म किए हैं या नहीं। पहले तो इस पर बात करते हैं कि ऐसे लोग सुसमाचार प्रचार करते समय अक्सर सुसमाचार कार्य में बाधा डालते हैं और उसे बिगाड़ते हैं। उदाहरण के लिए, अगर कोई व्यक्ति सुसमाचार कार्य का प्रभारी है और हमेशा रुतबा और सामर्थ्य पाने के लिए दूसरों से होड़ करता है या अक्सर दूसरों से झगड़े करता है, सुसमाचार कार्य में बाधा डालकर उसे खराब करता है, तो परमेश्वर इस मामले को कैसे देखेगा? क्या परमेश्वर ऐसे व्यक्तियों की उपलब्धियों और गलतियों के बीच संतुलन बनाएगा या किसी और तरीके से उनसे निपटेगा? (परमेश्वर उनके नाम पर दोष दर्ज करेगा।) परमेश्वर उनके नाम पर दोष क्यों दर्ज करेगा? भले ही उन्होंने कुछ लोगों को सुसमाचार सुनाया है, कुछ कार्य किया है, और कुछ परिणाम भी हासिल किए हैं, मगर उन्होंने बुरे कर्म करना जारी रखा है। भले ही वे कोई बड़ी गलतियाँ नहीं करते, मगर अक्सर छोटी-मोटी गलतियाँ करते रहते हैं। अक्सर छोटी-मोटी गलतियाँ करते रहने का क्या मतलब है? इसका अर्थ है सत्य का अभ्यास न करना, शोहरत, लाभ और रुतबे के लिए लड़ना, जरा भी धर्मनिष्ठा के भाव से न बोलना, सत्य सिद्धांतों को कभी नहीं खोजना, अक्सर मनमाने ढंग से और बेरोकटोक कार्य करना, कभी कोई बदलाव न करना और अविश्वासियों की तरह रहना, जिसका कलीसियाई जीवन और परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है और यह कुछ नए विश्वासियों के ठोकर खाने का कारण बनता है। क्या ये बुरे कर्म नहीं हैं? (हाँ, बिल्कुल हैं।) अगर लोगों ने ऐसे बुरे कर्म किए हैं, तो भले ही उन्होंने अपने कर्तव्य करने में कड़ी मेहनत की हो, क्या उन्होंने वास्तव में अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं? क्या उन्होंने सचमुच मानक स्तर तक अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया है? परमेश्वर इन लोगों को कैसे देखता है? भले ही उन लोगों ने कुछ काम किया है, फिर भी वे लापरवाही से बुरे कर्म कर सकते हैं, तो क्या वे अपने कर्तव्य निभा रहे हैं? (नहीं।) तो फिर वे इतनी लापरवाही से बुरे कर्म क्यों कर सकते हैं? एक ओर, ऐसा उनके भ्रष्ट स्वभाव के कारण है। वहीं दूसरी ओर, ये लोग तुक्के की मानसिकता अपनाते हैं। वे सोचते हैं, “मैंने सुसमाचार का प्रचार करके बहुत अच्छा काम किया है। इस कलीसिया या उस कलीसिया में, सैंकड़ों लोग सिर्फ इसी कारण से मौजूद हैं क्योंकि मैंने उन तक सुसमाचार प्रचार किया। अगर इन लोगों को बचाया जा सका, तो यह मेरे लिए बहुत बड़ी योग्यता होगी। तो परमेश्वर मुझे कैसे भूल सकता है? जब परमेश्वर इन लोगों पर विचार करेगा, तो वह मेरी निंदा नहीं कर सकता।” क्या वे खुद को ज्यादा आँक रहे हैं? क्या उनके पास परमेश्वर का भय मनाने वाला दिल है? क्या वे ईमानदार दिल से परमेश्वर के लिए खुद को खपाने वाले लोगों में से हैं? पौलुस की तरह, वे बस इनाम और मुकुट पाने का प्रयास करते हैं। उनके दिलों में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है। वे परमेश्वर का स्वभाव नहीं समझते और उसके साथ सौदा करने का दुस्साहस करते हैं। इससे साबित होता है कि उनके पास जरा भी सत्य वास्तविकता नहीं है। एक व्यक्ति कुछ सालों से सुसमाचार प्रचार कर रहा था और उसके पास इसका कुछ अनुभव था। सुसमाचार प्रचार करते हुए उसने बहुत कष्ट सहे, यहाँ तक कि उसे कैद कर लिया गया और बहुत वर्षों के लिए जेल भेज दिया गया। जेल से बाहर आने के बाद उसने सुसमाचार का प्रचार करना जारी रखा और कई सौ लोगों को जीत लिया, जिनमें से कुछ प्रतिभाशाली व्यक्ति साबित हुए; कुछ तो अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में भी चुने गए। नतीजतन, इस व्यक्ति ने खुद को बड़ी प्रशंसा के योग्य माना, और जहाँ भी वह जाता, दिखावा करते हुए और अपनी गवाही देते हुए शेखी बघारने में इसका पूँजी के रूप में इस्तेमाल करता : “मैं आठ साल के लिए जेल गया और अपनी गवाही में अडिग रहा। मैं सुसमाचार प्रचार करते हुए कई लोगों को जीत पाया, जिनमें से कुछ अब अगुआ या कार्यकर्ता हैं। परमेश्वर के घर में मैं श्रेय का पात्र हूँ, मैंने अपना योगदान दिया है।” चाहे वह कहीं भी सुसमाचार प्रचार कर रहा होता, स्थानीय अगुआओं या कार्यकर्ताओं के सामने शेखी जरूर बघारता। वह यह भी कहता, “तुम लोगों को मेरी बात सुननी चाहिए; यहाँ तक कि तुम लोगों के वरिष्ठ अगुआओं को भी मुझसे बात करते समय विनम्र रहना चाहिए। जो ऐसा नहीं करेगा, उसे मैं सबक सिखा दूँगा!” यह व्यक्ति गुंडा है, है न? अगर ऐसे व्यक्ति ने सुसमाचार का प्रचार न किया होता और उन लोगों को न जीत पाता, तो क्या वह इतना आडंबरपूर्ण होने की हिम्मत करता? वह वाकई ऐसा करता। वह इतना दिखावटी और आडंबरपूर्ण हो सकता है, इससे साबित होता है कि यह उसकी प्रकृति में है। यह उसका प्रकृति-सार है। वह इतना अहंकारी बन गया है कि उसमें बिल्कुल भी विवेक नहीं है। सुसमाचार का प्रचार करने और कुछ लोगों को जीत लेने के बाद उसकी अभिमानी प्रकृति काफी बढ़ जाती है, वह और भी अधिक आडंबरपूर्ण हो जाता है। ऐसे लोग जहाँ भी जाते हैं, अपनी पूँजी के बारे में शेखी बघारते हैं, वे जहाँ भी जाते हैं, श्रेय का दावा करने की कोशिश करते हैं, यहाँ तक कि विभिन्न स्तरों के अगुआओं पर दबाव डालते हैं, उनके साथ समान स्तर पर रहने की कोशिश करते हैं, और यहाँ तक सोचते हैं कि उन्हें खुद वरिष्ठ अगुआ होना चाहिए। इस तरह के व्यक्ति के व्यवहार से जो कुछ प्रकट होता है, उसके आधार पर हम सभी को स्पष्ट होना चाहिए कि उसकी प्रकृति कैसी है, और उसका परिणाम क्या होने वाला है। जब कोई बुरा दानव परमेश्वर के घर में घुसपैठ करता है, तो अपना असली रंग दिखाने से पहले वह थोड़ी-सी मेहनत करता है; चाहे कोई भी उसकी काट-छाँट करे, वह नहीं सुनता, और परमेश्वर के घर के विरुद्ध लड़ने में लगा रहता है। उसके कार्यों की प्रकृति क्या होती है? परमेश्वर की दृष्टि में वह मौत को दावत दे रहा होता है, और जब तक वह खुद को मार न डाले, तब तक चैन से नहीं बैठेगा। इसे कहने का यही एकमात्र उपयुक्त तरीका है। “मौत को दावत देने” का एक व्यावहारिक अर्थ है। यह व्यावहारिक अर्थ क्या है? लोगों का अपने कर्तव्य निभाने में सक्षम होना अच्छी बात है। कुछ लोग खास गुणों के साथ पैदा होते हैं, जो एक आशीष है, लेकिन अगर वे सही मार्ग पर नहीं चले, तो मुसीबत में पड़ जाएँगे। उदाहरण के लिए, कुछ लोग वाक्पटुता से बोल पाते हैं। उन्हें विभिन्न लोगों से बात करना आता है और वे किसी से भी आसानी से बात कर सकते हैं। यह भी एक तरह की जन्मजात क्षमता मानी जा सकती है। ऐसा कहने से पहले कि यह अच्छी बात है या बुरी, व्यक्ति की प्रकृति देखना जरूरी है कि वह सही मार्ग पर जा रहा है या बुराई के मार्ग पर। सुसमाचार फैलाने के परमेश्वर के कार्य के दौरान, तुमने अपनी प्रतिभाएँ समर्पित कीं, काफी सोच‑विचार किया, और कई लोगों को जीता। यह अपने आप में कोई बुरी बात नहीं है। तुमने सुसमाचार कार्य में अपने प्रयासों से योगदान दिया है, जो परमेश्वर द्वारा याद रखे जाने लायक है। अगर बिना किसी दिखावे के तुम इस कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाओगे, तो भाई-बहन तुम्हारा काम देखकर तुम्हारा सम्मान करेंगे, और जिन्हें कोई बात समझ नहीं आएगी वे तुमसे इस बारे में मार्गदर्शन माँगेंगे और सलाह लेंगे। अगर तुममें मानवता है और तुम सत्य का अनुसरण करते हो, तो लोग तुम्हें पसंद करेंगे, और परमेश्वर तुम्हें आशीष देगा। हालाँकि, ऐसा हो सकता है कि तुम सही मार्ग पर न चलो। तुम परमेश्वर से मिली इस मामूली सी खूबी को पूँजी मानकर हर जगह लोगों के सामने अपने जेल जाने के बारे में डींगें हाँक सकते हो। दरअसल, जेल जाना कोई बड़ी बात नहीं है। बड़े लाल अजगर के देश में, सुसमाचार का प्रचार करने या कलीसिया का कार्य करने के कारण कई लोगों को गिरफ्तार करके जेल में डाला गया है। इसे पूँजी नहीं समझना चाहिए, बल्कि एक कष्ट की तरह देखना चाहिए जिसे सहना लोगों के लिए उचित है। अगर लोगों के पास अपने कष्ट सहने के दिनों के बाद की कोई गवाही हो, तो वे परमेश्वर के कर्मों की गवाही दे सकते हैं, इस बात की गवाही दे सकते हैं कि कैसे उन्होंने उन पर हुए अत्याचार के समय शैतान पर विजय पाने के लिए परमेश्वर पर भरोसा किया, किस प्रकार की पीड़ा सही, और इससे उन्हें क्या हासिल हुआ। यह सही मार्ग है। हालाँकि, वे जानबूझकर यह सही मार्ग अपनाने के बजाय हर जगह अपने बारे में शेखी बघारते रहते हैं। “मैं इतने सालों तक जेल में रहा और मैंने इतनी अधिक पीड़ा सही, तो तुम लोगों को मेरे साथ इस तरह पेश आना चाहिए। अगर तुम लोग मेरे साथ इस तरह से पेश नहीं आते, तो तुम अंधे, अज्ञानी और निष्ठुर हो।” क्या वे सही मार्ग अपनाने में विफल नहीं हो रहे हैं? शुरुआत में, उनका जेल जाना और बिना गद्दारी किए कष्ट सहना और सज़ा सुनाए जाने के बाद भी अपनी गवाही में अडिग रहना अच्छी बात थी। यह बात परमेश्वर की नजर में याद रखने लायक थी। हालाँकि, उन्होंने जानबूझकर वैसा नहीं किया जैसा उन्हें करना चाहिए था। वे जहाँ भी गए, वहाँ लोगों से सम्मान और सहानुभूति पाने के लिए अपनी उपलब्धियों का बखान किया। यहाँ तक कि उन्होंने कुछ भौतिक चीजों की भी माँग की। यह अपनी उपलब्धियों के लिए इनाम माँगना हुआ। इस तरह लोगों से इनाम माँगने का क्या निहितार्थ है? वे लोगों से इनाम की माँग कर सकते हैं, तो क्या वे परमेश्वर से भी इनाम माँग सकते हैं? वे लोगों के पास जाकर पर्याप्त इनाम माँगते हैं, वे रुतबा, शोहरत, लाभ, प्रतिष्ठा और दैहिक सुखों की माँग करते हैं, और फिर परमेश्वर से भी इनाम माँगते हैं। क्या यह मामला पौलुस जैसा नहीं है? इतना ही नहीं, उन्होंने यह कर्तव्य निभाकर कई लोगों को जीता है। अगर वे सत्य की समझ की नींव पर अपने कर्तव्यों और इस जिम्मेदारी को अच्छी तरह से निभाना जारी रख सकते हैं, तो जहाँ तक परमेश्वर का सवाल है, वह उन्हें सुसमाचार प्रचार का कार्य सौंपता रहेगा। हालाँकि, वे ऐसा नहीं करने का फैसला करते हैं, बल्कि सोचते हैं कि उनके पास पर्याप्त श्रेय और योग्यताएँ हैं जिनका वे सबके सामने बखान कर सकते हैं। इसलिए वे बिल्कुल भी काम नहीं करते, और इनाम माँगने लगते हैं। वे जहाँ भी जाते हैं, शेखी बघारते हैं, अपनी पूँजी पर इतराते हैं, अपनी खूबियों की तुलना करते हैं और दिखावा करते हैं कि उन्होंने कितने सैकड़ों या हजारों लोगों तक सुसमाचार का प्रचार करके उन्हें जीता है। इसमें, वे परमेश्वर को कोई महिमा नहीं देते और कभी भी परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि की गवाही नहीं देते हैं। क्या यह मौत को दावत देना नहीं है? वे परमेश्वर में विश्वास तो करते हैं मगर सही मार्ग पर नहीं चलते। तो, धर्मोपदेश और संगति सुनने के प्रति उनका रवैया क्या रहता है? वे सोचते हैं, “मुझे सुनने की जरूरत नहीं है, मैं जेल में रहा, पर यहूदा नहीं बना, मेरे पास परमेश्वर के लिए गवाही देने के लिए है। इसके अलावा, दूसरों की तुलना में मैंने सबसे ज्यादा लोगों को जीता है, मैंने सबसे अधिक कीमत चुकाई है। मैंने हर कठिनाई को सहा है, झाड़ियों में छिपकर रहा और गुफाओं में सोया हूँ। ऐसी कोई पीड़ा नहीं है जो मैं नहीं सह सकता, और ऐसी कोई जगह नहीं है जहाँ मैं नहीं गया हूँ। तुम लोगों में से कौन मुझसे बराबरी कर सकता है? इसलिए, मैं जो धर्मोपदेश सुनता हूँ, मुझे उन्हें पूरी तरह समझने की कोई जरूरत नहीं है। क्या धर्मोपदेश सुनना सिर्फ अभ्यास के लिए नहीं है? मैं यह सब पहले ही कर चुका हूँ, मैं इसे पहले ही जी चुका हूँ। परमेश्वर के देहधारण के बारे में भी इतना कुछ खास नहीं है।” किस तरह का व्यक्ति ऐसी बातें कहता है? (पौलुस जैसा।) यह व्यक्ति पौलुस ही है जिसे दोबारा जीवित किया गया है। वे यह भी कहते हैं, “तुम लोग मेरे जितने कुशल नहीं हो। अगर होते तो तुम्हें इतने सारे धर्मोपदेश नहीं सुनने पड़ते, और तुम्हें रोज परमेश्वर के वचनों को ध्यान से लिखना, कॉपी करना और याद रखना नहीं पड़ता। मुझे देखो। मैंने सुसमाचार का प्रचार करके इतने लोगों को जीता है। क्या मैंने कभी तुम लोगों की तरह पढ़ाई की है? मुझे ऐसा करने की जरूरत ही नहीं है, जब पवित्र आत्मा अपना कार्य करेगा, तब मेरे पास सब कुछ होगा।” क्या यह बहुत बड़ी बेवकूफी नहीं है? उनके अहंकार की कोई सीमा ही नहीं है। वे परमेश्वर के कार्य की स्वीकृति और उद्धार के अनुसरण को समझते क्या हैं? वे इसे बच्चों का खेल मानते हैं। उन्हें लगता है कि उन्होंने थोड़ा अच्छा व्यवहार करके और थोड़ा-सा कार्य करके अपनी दौड़ पूरी कर ली है, और अपनी लड़ाई लड़ ली है, तो अब बस अपना मुकुट प्राप्त करना बाकी रह गया है। उनके हिसाब से, जो परमेश्वर मुकुट नहीं देता वह परमेश्वर ही नहीं है। इस मामले में उनके विचार धार्मिक लोगों जैसे ही हैं। वे भी यही कहते हैं, “अब मैंने सब कुछ सह लिया है और हर कीमत चुका दी है। मैंने लगभग उतनी ही पीड़ा सही है जितनी परमेश्वर ने सही थी। मुझे परमेश्वर का इनाम मिलना ही चाहिए।” क्या ये लोग पौलुस जैसे नहीं हैं? वे हमेशा लोगों को योग्यता और वरिष्ठता के आधार पर आँकते हैं। उन्होंने लगभग कह दिया कि उनके लिए जीवित रहना मसीह है। अगर वे वाकई मसीह बनना चाहते हैं, तो वे मुसीबत में पड़ जाएँगे। यह दूसरा पौलुस है। जो कोई इस मार्ग पर चल रहा है, क्या उसके पास अब भी लौटने की गुंजाइश है? बिल्कुल नहीं। यह मार्ग मसीह-विरोधियों वाली बंद गली है।

कुछ लोग, जिन्होंने कई सालों से परमेश्वर में विश्वास किया है, वे मसीह-विरोधियों के मार्ग पर क्यों चलते हैं? यह व्यक्ति के प्रकृति सार से निर्धारित होता है। सभी बुरे लोग, वे सभी लोग जिनमें अंतरात्मा और विवेक नहीं है, वे सत्य से प्रेम नहीं करते। यही कारण है कि परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी वे स्वाभाविक रूप से मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलना चुनते हैं। सभी परमेश्वर में विश्वास करते हैं, परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, और धर्मोपदेश सुनते हैं, तो फिर कुछ लोग सत्य का अनुसरण करने का मार्ग क्यों चुनते हैं? अन्य लोग शोहरत, लाभ, रुतबा और आशीष पाने का मार्ग क्यों चुनते हैं? उनके वस्तुनिष्ठ परिवेश एक समान हैं, मगर उनका चरित्र और व्यक्तिगत प्राथमिकताएँ अलग-अलग हैं, इसलिए वे अलग-अलग मार्ग चुनते हैं। परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की वाणी सुनती हैं। परमेश्वर ने अंत के दिनों में बहुत सारे वचन बोले हैं, और परमेश्वर के वचन करीब 30 सालों से व्यक्त किए जा रहे हैं, पर ये लोग उन्हें नहीं समझते। तो, क्या वे परमेश्वर की भेड़ें हैं? (नहीं।) अगर वे परमेश्वर की भेड़ों में से नहीं हैं, तो वे मनुष्य कहलाने के लायक नहीं हैं। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते और सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे किस चीज पर ध्यान देते हैं? वे किस चीज का अनुसरण करते हैं? यह देखना आसान होना चाहिए कि रुतबा और आशीष पाने की उनकी इच्छा विशेष रूप से प्रबल होती है, और चाहे तुम सत्य पर कैसे भी संगति करो, वे इसे नहीं सुनेंगे। वे न सिर्फ सत्य को स्वीकार नहीं सकते, बल्कि अड़ियल बनकर शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागना जारी रखते हैं। उनमें न सिर्फ आत्म-जागरूकता का अभाव है, बल्कि वे हमेशा खूबियों की तुलना करते हैं और हर जगह अपनी इस पूँजी का बखान करते हैं। ऐसे आचरण और अभ्यासों की प्रकृति क्या है? (यह मौत को दावत देना है।) बिल्कुल सही। पौलुस ने भी इसी तरह मौत को दावत दी थी। इतने सालों तक धर्मोपदेश सुनने के बाद भी, लोग बिना पश्चात्ताप किए पौलुस की तरह बनने में सक्षम हैं। उन्हें सत्य की कोई समझ नहीं है और वे सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते हैं। क्या यह मौत को दावत देना नहीं है? सबसे पहले, जब लोग सत्य नहीं समझते हैं, तो वे कुछ ऐसे व्यवहारों और अभ्यासों को प्रदर्शित करते हैं जो मानवीय इच्छा से आते हैं और मिलावटी होते हैं, या वे कुछ सौदेबाजी या व्यक्तिगत इरादों और इच्छाओं का प्रदर्शन भी कर सकते हैं। परमेश्वर इस पर ध्यान नहीं देता, क्योंकि ये लोग सत्य नहीं समझते हैं। जब परमेश्वर के वचन मनुष्य के लिए इतने स्पष्ट नहीं किए गए थे, तब परमेश्वर ने मनुष्य को भ्रष्टता, मिलावट, कमजोरी और सौदेबाजी वाला व्यवहार रखने की अनुमति दी थी। परमेश्वर ने अब बहुत कुछ कहा है और पर्याप्त मात्रा में कहा है, और फिर भी तुम यह मानने पर जोर देते हो कि तुम जिन चीजों पर अड़े हो और जैसा व्यवहार करते हो वे सही हैं। तुम परमेश्वर के इन वचनों को ठुकराते हो, या यहाँ तक कि परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार और उनकी उपेक्षा करते हो, उन्हें देखकर भी अनदेखा करते हो और सुनकर भी अनसुना करते हो। ऐसे लोगों के प्रति परमेश्वर का क्या रवैया है? इन चीजों के प्रति परमेश्वर का क्या दृष्टिकोण है? परमेश्वर कहेगा कि तुम सत्य से प्रेम नहीं करते, तुम सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करते, और तुम एक छद्म-विश्वासी हो। ऐसे लोग यह विश्वास नहीं करते कि सत्य है, वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर ने जो कुछ भी कहा है वही सत्य है और वही मनुष्य के उद्धार का मार्ग है। वे इस तथ्य को नहीं स्वीकारते। भले ही ऐसे लोग परमेश्वर के इन वचनों से इनकार नहीं करते, पर उन्हें स्वीकार भी नहीं करते हैं। उनके व्यवहार और खुलासे से तुम देख सकते हो कि वे सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर नहीं चल रहे हैं। तो वे किस मार्ग पर चल रहे हैं? परमेश्वर से इनाम माँगने के लिए अपनी पूँजी और उपलब्धियों पर निर्भर होकर, वे पौलुस के मार्ग पर चल रहे हैं। चाहे पौलुस का कैसे भी विश्लेषण किया जाए, वे अपने भीतर उन चीजों को नहीं पहचान पाएँगे। पौलुस का चाहे कैसे भी गहन-विश्लेषण किया जाए, वे अपना मार्ग नहीं बदलेंगे, पश्चात्ताप नहीं करेंगे या खुद को नहीं जानेंगे। वे अभी भी यही मानते हैं कि वे जो करते हैं वही सही और सत्य के अनुरूप है। परमेश्वर चाहे कितने भी वचन व्यक्त करे, चाहे वह कैसे भी इस तरह के लोगों का गहन-विश्लेषण और निंदा करे, वे कभी भी आत्म-चिंतन नहीं करेंगे। परमेश्वर पर विश्वास के बारे में उनके विचार, आशीष पाने का उनका इरादा और परमेश्वर के साथ सौदा करने का उनका अभ्यास जारी रहता है, अडिग और अपरिवर्तित। इसका क्या कारण है? वे परमेश्वर की वाणी नहीं समझ पाते और वे परमेश्वर की वाणी नहीं सुनते हैं। परमेश्वर चाहे जो भी कहे, उनके लिए इसका कोई महत्व नहीं है। “तुम्हें जो कहना है कहो, पर मुझे अपने रास्ते जाने दो। तुम तुम हो, और मैं मैं हूँ। तुम्हारा काम या तुम्हारे इरादे चाहे जो भी हो, इससे मुझे क्या मतलब? इसका मेरे जीवन या मरण से कोई लेना-देना नहीं है।” ये कैसे लोग हैं? (छद्म-विश्वासी।) वे किसमें विश्वास करते हैं? वे खुद पर विश्वास करते हैं। क्या ऐसे लोग घिनौने नहीं हैं? (हैं।) वे घिनौने हैं और उन्हें नष्ट हो जाना चाहिए। वे ऐसे लोग नहीं हैं जिन्हें परमेश्वर द्वारा बचाया जाएगा। इसलिए सुसमाचार का प्रचार करने वालों में अगर ऐसे कई लोग हैं जो हमेशा अपनी उपलब्धियों पर भरोसा करते हैं, अपनी वरिष्ठता पर इतराते हैं और पिछली खूबियों के लिए परमेश्वर से इनाम माँगते हैं तो वे मुसीबत में पड़ जाएँगे। उनके आचरण के कारण उनका परिणाम मौत को दावत देने वाला ठहराया जाएगा। तो जब तुम इस तरह के लोगों से मिलते हो तो क्या तुम्हारा उन्हें मौत को दावत न देने के बारे में सचेत करना सही होता है? अगर वे अभी भी सुसमाचार का प्रचार कर सकते हैं तो उनसे ऐसा मत कहो। तुमसे जितना हो सके, उनकी मदद करने के लिए उन्हें याद दिला सकते हो, चेतावनी दे सकते हो और घुमा-फिराकर संकेत देते हुए उनका मार्गदर्शन कर सकते हो। हालाँकि, अगर उनका सार और स्वभाव वास्तव में पौलुस जैसा ही है, तो उनके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? यह जानते हुए भी कि वे मौत को दावत दे रहे हैं, सच न बताकर उन्हें लगातार परमेश्वर के लिए सेवा करने देना और इसके लिए प्रोत्साहित करना : यह शैतानों को अपमानित करना कहलाता है। क्या ऐसा करना सही है? (यह सही है।) सेवा प्रदान करने के लिए शैतान का उपयोग करना परमेश्वर की बुद्धि है। अगर तुम अपने भाई-बहनों के साथ ऐसा व्यवहार करते हो, तो यह एक बुरा कर्म है और परमेश्वर को इससे नफरत है। अगर तुम सेवा प्रदान करने के लिए शैतान का उपयोग करते हो, तो यह शैतानों को अपमानित करना कहलाएगा। इसे बुद्धि कहते हैं। बड़ा लाल अजगर, शैतान और राक्षस परमेश्वर के चुने हुए लोगों की सेवा करते हैं। क्या यह परमेश्वर का कार्य है? (हाँ, बिल्कुल है।) इसके प्रति हमारा क्या दृष्टिकोण होना चाहिए। यह परमेश्वर की बुद्धि है। इस चीज की निंदा नहीं की जा सकती। यह सत्य है। तुम्हें शैतानों—इन चीजों—का इस्तेमाल करना होगा, अगर तुम सेवा प्रदान करने के लिए उनका इस्तेमाल नहीं करते, तो कुछ काम अच्छी तरह से नहीं होंगे और नतीजे हासिल करना आसान नहीं होगा। जो लोग सत्य के अनुसरण और उद्धार के मार्ग पर चलते हैं, उनके पास भी श्रम करने का एक चरण होता है, पर यह स्थायी नहीं होता। परमेश्वर तुमसे सेवा करवाने के लिए बुद्धि का उपयोग नहीं करता, बल्कि तुम्हें खुद इस चरण से गुजरना होगा। क्योंकि तुम सत्य नहीं समझते, तुम कई चीजें सिद्धांतों के अनुसार करने के बजाय अपनी मर्जी से करते हो। अपने सार के संदर्भ में, तुम श्रम नहीं करना चाहते, पर वस्तुनिष्ठ तथ्य के संदर्भ में, तुम श्रम कर रहे हो। जब लोग अच्छी तरह से श्रम करते हैं, धीरे-धीरे परमेश्वर के इरादों और सत्य को समझते हैं, तभी वे कदम-दर-कदम, सत्य के अनुसरण की ओर आगे बढ़ सकते हैं, वास्तव में अपने कर्तव्य निभा सकते हैं, परमेश्वर के समक्ष समर्पण कर सकते हैं, उसके इरादों के अनुरूप चल सकते हैं, और कदम-दर-कदम उद्धार के मार्ग की ओर बढ़ सकते हैं। हालाँकि, यह श्रम सेवा प्रदान करने के लिए शैतानों का उपयोग करने से बिल्कुल अलग चीज है। इसकी प्रकृति अलग है। परमेश्वर सिर्फ सेवा प्रदान करने के लिए शैतान का उपयोग करता है; परमेश्वर शैतानों को बचाता नहीं है। परमेश्वर में विश्वास करने वाले श्रमिक, जिनके पास एक सच्चा दिल है और जो सत्य का अनुसरण कर सकते हैं, वे ही परमेश्वर के उद्धार के प्राप्तकर्ता हैं। कुछ श्रमिकों के मामले में, उनकी सेवाओं का उपयोग तभी किया जाता है जब वे उपयोगी होते हैं, लेकिन अगर वे कलीसिया के कार्य में गड़बड़ करें और बाधा डालें, तो उन्हें कड़ी चेतावनी दी जानी चाहिए। अगर वे पश्चात्ताप नहीं करते तो उन्हें लात मारकर निष्कासित कर दिया जाएगा। उनके साथ यही व्यवहार करना चाहिए। अगर वे सामान्य तरीके से ईमानदारी से श्रम कर सकते हैं और काम में बाधा नहीं डालते, तो उन्हें श्रम करते रहने दो। शायद एक दिन वे सत्य को समझ जाएँ और उन्हें बचाया जा सके। यह एक अच्छी बात है, तो क्यों न इसे अच्छी भावना से किया जाए? तुम समय से पहले किसी की निंदा नहीं कर सकते। फिर कुछ लोगों की निंदा क्यों की जाती है? उनकी निंदा इसलिए की जाती है क्योंकि वे बहुत गंभीर गड़बड़ियाँ पैदा कर देते हैं। चाहे तुम उनके साथ सत्य पर कितनी भी संगति कर लो, वे इसे स्वीकार नहीं पाएँगे और अपने कर्तव्य ठीक से नहीं निभाएँगे। उनका प्रकृति सार पौलुस जैसा ही है। वे अड़ियल बनकर पश्चात्ताप करने से इनकार करते हैं। निस्संदेह, वे मौत को दावत दे रहे हैं। ऐसे लोगों का कलीसिया में मौजूद होना निश्चित है। वे सुसमाचार का प्रचार करने वालों के बीच जरूर होंगे। तुम लोगों को क्या लगता है, क्या ऐसे लोगों को वास्तविक सत्य बताना अच्छी बात है? क्या तुम्हें डर है कि ऐसे लोगों को वास्तविक सत्य का पता चल जाएगा? (हम इससे नहीं डरते।) अगर ऐसे लोग इसमें खुद को पहचानकर पश्चात्ताप कर सकें, तो यह अच्छी बात है। तुम्हें लोगों को एक मौका देना होगा। उन्हें बेकार मत समझो। हालाँकि, अगर वे वास्तविक सत्य जानते हैं, फिर भी अपने तरीके बदलने में विफल रहते हैं और विघ्न‑बाधाएँ डालना जारी रखते हैं, तो यह वाकई मौत को दावत देना है। जब लोग सही मार्ग पर नहीं होते, तो उनके साथ कोई विनम्रता नहीं दिखाई जा सकती है। ऐसे लोगों को हटाकर बाहर निकाल देना चाहिए।

मूल रूप से, ये सुसमाचार के प्रचार के अभ्यास से संबंधित सिद्धांत हैं। सुसमाचार के प्रचार में लोगों को अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए और हर संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता के साथ गंभीरता से पेश आना चाहिए। परमेश्वर यथासंभव मनुष्य को बचाता है, और लोगों को परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना चाहिए, उन्हें ऐसे किसी भी व्यक्ति को लापरवाही से अनदेखा नहीं करना चाहिए जो सच्चे मार्ग की खोज और जाँच-पड़ताल कर रहा हो। इसके अलावा, सुसमाचार के प्रचार में तुम्हें सिद्धांतों में पारंगत होना चाहिए। सच्चे मार्ग की जाँच करने वाले हर व्यक्ति के लिए तुम्हें उसकी धार्मिक पृष्ठभूमि, उसकी काबिलियत अच्छी है या खराब और उसका चरित्र जैसी चीजें अवश्य ही देखनी, समझनी चाहिए और उनमें पारंगत होना चाहिए। अगर तुम्हें कोई ऐसा व्यक्ति मिलता है जो सत्य के लिए प्यासा है, परमेश्वर के वचन समझ सकता है और सत्य स्वीकार सकता है तो वह व्यक्ति परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत किया गया है। तुम्हें पूरी ताकत से यह प्रयास करना चाहिए कि तुम उसके साथ सत्य के बारे में संगति करो और उसे हासिल करो, जब तक कि वह खराब मानवता और नीच चरित्र वाला न हो, उसकी प्यास एक दिखावा न हो और वह अंतहीन बहस न करता हो और अपनी धारणाओं से कसकर न चिपका रहता हो—उस स्थिति में तुम्हें उसे दरकिनार कर देना चाहिए और उस पर प्रयास करना छोड़ देना चाहिए। सच्चे मार्ग की जाँच करने वाले कुछ लोगों में समझने की क्षमता और अच्छी काबिलियत होती है, किंतु वे बहुत ही अहंकारी और आत्मतुष्ट होते हैं और वे धार्मिक धारणाओं से कड़ाई से चिपके रहते हैं। ऐसी परिस्थिति में तुम्हें इन धारणाओं का समाधान करने के लिए उनके साथ सत्य के बारे में प्रेम और धैर्य से संगति करनी चाहिए। तुम्हें केवल तभी हार माननी चाहिए, जब तुम्हारे हर तरह से सत्य पर संगति करने पर भी वे इसे न स्वीकारें—तब तुमने अपना दायित्व पूरा कर लिया है और भरसक दयालुता दिखा दी है। संक्षेप में, किसी ऐसे इंसान को लेकर आसानी से हार न मानो जो सत्य को मान और स्वीकार सकता हो। अगर वह सच्चे मार्ग की जाँच करने के लिए तैयार हो और सत्य खोजने में सक्षम हो तो उसे परमेश्वर के और ज्यादा वचन पढ़कर सुनाने और उसके साथ और ज्यादा सत्य पर संगति करने, परमेश्वर के कार्य की गवाही देने और उसकी धारणाओं और प्रश्नों का समाधान करने का तुम्हें भरसक प्रयास करना चाहिए, ताकि तुम उसे हासिल कर सको और उसे परमेश्वर के सामने ला सको। यह सुसमाचार प्रचार करने के सिद्धांतों के अनुरूप है। तो उन्हें कैसे हासिल किया जा सकता है? अगर उनके साथ बातचीत के दौरान तुम सुनिश्चित कर लेते हो कि यह व्यक्ति अच्छी काबिलियत और अच्छी मानवता वाला है तो अपनी जिम्मेदारी पूरी करने के लिए तुम्हें वह सब जरूर करना चाहिए जो तुम कर सकते हो; तुम्हें एक निश्चित कीमत जरूर चुकानी चाहिए, निश्चित तरीकों और साधनों का उपयोग करना चाहिए और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या तरीके इस्तेमाल करते हो, बशर्ते ये उस व्यक्ति को हासिल करने के लिए हों। संक्षेप में, उसे जीतने के लिए, तुम्हें अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए, प्रेम का उपयोग करना चाहिए और तुम्हारी क्षमता में जो भी संभव है वह सब करना चाहिए। जो भी सत्य तुम समझते हो, उन सभी पर संगति करो और जो भी तुम्हें करना चाहिए वह सब करो। अगर उस व्यक्ति को जीत न भी पाओ, तो भी तुम्हारी अंतरात्मा साफ होगी। तुमने वह सब कर लिया होगा जो तुम कर सकते हो। अगर तुम सत्य पर स्पष्ट संगति नहीं करते और व्यक्ति अपनी धारणाओं से चिपका रहता है, और अगर तुम अपना धैर्य खो देते हो और खुद पहल कर उस व्यक्ति पर प्रयास करना छोड़ देते हो तो यह तुम्हारा अपनी जिम्मेदारी की उपेक्षा करना है और तुम्हारे लिए यह एक अपराध और कलंक होगा। कुछ लोग कहते हैं, “क्या यह कलंक लगने का मतलब यह है कि परमेश्वर ने मेरी निंदा की है?” ऐसे मामले इस बात पर निर्भर करते हैं कि क्या लोग इन चीजों को जानबूझकर और आदतन करते हैं। परमेश्वर कभी-कभार किए गए अपराधों के लिए लोगों को दोषी नहीं ठहराता; उन्हें केवल पश्चात्ताप करना होता है। लेकिन जब वे जानबूझकर गलत काम करते हैं और पश्चात्ताप करने से इनकार कर देते हैं तो उनकी परमेश्वर द्वारा निंदा की जाती है। जब वे स्पष्ट रूप से सच्चे मार्ग को जानते हुए भी जानबूझकर पाप करते हैं तो परमेश्वर उन्हें क्यों न दोषी ठहराए? अगर इन बातों को सत्य सिद्धांतों के अनुसार देखा जाए, तो यह गैर-जिम्मेदार और लापरवाह होना है; और इन लोगों ने अपनी जिम्मेदारी तक पूरी नहीं की है; परमेश्वर उनकी गलतियों का न्याय इसी तरह करता है। अगर वे पश्चात्ताप करने से इनकार करते हैं तो उनकी निंदा की जाएगी। इसलिए, ऐसी गलतियों को कम करने या उनसे बचने के लिए, लोगों को अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने का हर संभव प्रयास करना चाहिए, सच्चे मार्ग की जाँच-पड़ताल कर रहे लोगों के सभी सवालों का सक्रिय रूप से समाधान करने की कोशिश करनी चाहिए और निश्चित रूप से महत्वपूर्ण प्रश्नों को टालना नहीं चाहिए या उनके समाधान में देरी नहीं करनी चाहिए। अगर सच्चे मार्ग की जाँच-पड़ताल करने वाला व्यक्ति बार-बार कोई प्रश्न पूछता है, तो तुम्हें कैसे उत्तर देना चाहिए? तुम्हें उसका उत्तर देने में समय लगने और परेशानी होने का बुरा नहीं मानना चाहिए और उसके प्रश्न के बारे में स्पष्ट रूप से संगति करने का तरीका खोजना चाहिए, जब तक कि वह समझ न जाए और इसे दोबारा न पूछे। तभी तुम्हारा दायित्व पूरा होगा, और तुम्हारा हृदय अपराध-बोध से मुक्त होगा। सबसे महत्वपूर्ण बात, तुम इस मामले में परमेश्वर के प्रति अपराध-बोध से मुक्त होगे, क्योंकि यह कर्तव्य, यह उत्तरदायित्व तुम्हें परमेश्वर ने सौंपा था। तुम जो भी करते हो, जब वह परमेश्वर के समक्ष किया जाता है, परमेश्वर के सामने रहकर किया जाता है, जब सब कुछ परमेश्वर के वचनों के बरक्स रखा जाता है, और सत्य सिद्धांतों के अनुसार किया जाता है, तब तुम्हारा अभ्यास पूरी तरह से सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप होगा। इस तरह, तुम जो कुछ भी करते और कहते हो, वह लोगों के लिए लाभकारी होगा, और वे उसे अनुमोदित कर आसानी से स्वीकार करेंगे। यदि तुम जो बातें कहते हो वे रोशन करने वाली, व्यावहारिक और स्पष्ट हैं तो तुम विवाद और टकराव से बच लोगे, लोगों को सत्य समझने में सक्षम बना लोगे और उन्हें उन्नत कर लोगे। यदि तुम्हारे द्वारा बोले गए शब्द भ्रामक और अस्पष्ट हैं, और सत्य पर तुम्हारी संगति अपारदर्शी है, रोशन नहीं करती और अव्यावहारिक है, तो तुम लोगों की धारणाएँ और समस्याएँ हल नहीं कर पाओगे, और उनके द्वारा तुम्हारी गलतियाँ लपककर तुम्हारी आलोचना और निंदा किए जाने की संभावना होगी। तुम्हारे लिए इन समस्याओं का समाधान करना और भी मुश्किल होगा; तुम्हें परमेश्वर के वचनों के कई और अंशों पर संगति करनी पड़ सकती है, जिसके बाद ही लोग सत्य समझकर उसे स्वीकार सकेंगे। इसलिए सुसमाचार का प्रचार करते समय व्यक्ति को बोलने में बुद्धिमान होना चाहिए और सत्य के बारे में पारदर्शी ढंग से ऐसी संगति करनी चाहिए जो लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं का समाधान कर सके, उनकी प्रशंसा हासिल कर सके और उन्हें दिल से आश्वस्त कर सके। ऐसा करके परिणाम प्राप्त करना आसान होता है; यह लोगों को निर्बाध तरीके से परमेश्वर का कार्य स्वीकारने में सक्षम बनाता है, जो कि सुसमाचार फैलाने में लाभकारी है।

दूसरी ओर, सुसमाचार प्रचार के अभ्यास में अपनाए जाने वाले सिद्धांतों के संबंध में, सुसमाचार का प्रचार करने वालों को अपने आचरण में गरिमापूर्ण और ईमानदार होना चाहिए, संतों की तरह बोलना और व्यवहार करना चाहिए, सुसमाचार का प्रचार करने की प्रक्रिया में अपने सभी कार्यों में उचित संयम रखना चाहिए और अनुशासित तरीके से व्यवहार करना चाहिए। कुछ संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं को यह पसंद नहीं होता कि अजनबी लोग उन्हें परेशान करें, तो उन्हें कैसे उपदेश देना चाहिए? कुछ लोग दिन में तीन बार फोन करके सुसमाचार सुनाते हैं, लोगों के काम से घर आने के बाद उनके घर जाते हैं, और संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं को देखते ही उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाने लगते हैं, फिर चाहे वे कितने भी व्यस्त क्यों न हों। ये लोग कभी भी सही समय नहीं चुनते, तो वे दूसरों की नाराजगी का कारण बन सकते हैं। कुछ लोग इतने बेवकूफ होते हैं कि वे सच्चे मार्ग की जाँच-पड़ताल कर रहे लोगों से भी इसी तरह बात करते हैं : “यह संसार बहुत बुरा है, तो अपनी नौकरी को त्याग दो, काम पर मत जाओ। जानते हो अभी क्या समय चल रहा है? महा विनाश निकट हैं। जल्द-से-जल्द परमेश्वर में विश्वास करो!” क्या इस तरह से सुसमाचार का प्रचार करना सही है? इसके क्या परिणाम होंगे? वे अविश्वासी हैं जिन्होंने अभी तक परमेश्वर के कार्य को स्वीकारा नहीं है। क्या उनसे इस तरह बात करना जरूरी है? इसके अलावा, संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं के निजी जीवन या व्यक्तिगत विचारों में टाँग मत अड़ाओ। उदाहरण के लिए, कुछ लोग संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं से ये बातें कहते हैं, “खुद को देखो, क्या तुम वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करने वाले हो? हम विश्वासी लोग अविश्वासियों के ये कपड़े नहीं पहनते हैं।” “परमेश्वर में विश्वास करने वाले ऐसा खाना नहीं खाते, तुम्हें ऐसा भोजन खाना पड़ेगा।” क्या यह दूसरों के मामलों में अपनी टाँग अड़ाना नहीं है? यह बेवकूफी है। अगर किसी खास पल में तुम्हारी बातें और कार्य उपयुक्त नहीं हैं, तो इनकी वजह से तुमने सुसमाचार का प्रचार करने में जो कीमत चुकाई है वह बर्बाद हो सकती है। इसलिए, तुम्हें हर कदम फूँक-फूँककर रखना चाहिए, अपने आचरण को नियंत्रित और संयमित करना और अनुशासित तरीके से व्यवहार करना चाहिए। हमारे लिए अनुशासन क्या है? इसका मतलब नियमों के अनुसार कार्य करना है, यह सोचना है कि तुम जो कर्तव्य निभा रहे हो उसके लिए कैसे शब्द उपयुक्त होंगे, और संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता किस तरह की बातें सुनना चाहेंगे। ऐसी चीजें मत करो या ऐसी बातें मत कहो जिनसे उन्हें नफरत हो या वे नाराज हो जाएँ, निजी गोपनीयता से जुड़े सवाल मत पूछो और कभी भी उनके निजी मामलों में टाँग मत अड़ाओ। मान लो कि किसी के दो बेटे हैं और तुम उससे कहते हो, “दो बेटे होना अच्छी बात है, पर एक बेटी भी होती तो कितना अच्छा होता?” इससे तुम्हें क्या मतलब? जब किसी संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता को अंग्रेजी आती है, तो तुम कहते हो, “तुम्हारी अंग्रेजी बहुत अच्छी है। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करके परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाने आओ तो बहुत अच्छा रहेगा। परमेश्वर के घर में तुम जैसे लोगों की कमी है।” क्या इस तरह बोलना सही है? दो लोग कहीं भी एक जैसे नहीं होते। विश्वास करने के बाद, ये लोग तुमसे भी ज्यादा सक्रिय और उत्साही हो सकते हैं, पर वे अभी विश्वास नहीं करते और न ही सत्य स्वीकारते हैं, तो सही समय आने से पहले उन पर दबाव मत बनाओ, और न ही दूसरों के जीवन में कभी दखल दो। समझ गए?

एक और परिस्थिति सामने आ सकती है। सुसमाचार का प्रचार करने की प्रक्रिया में, कुछ लोग अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य को स्वीकारते हैं और कुछ सत्य समझते हैं। फिर, वे खुद को औसत दर्जे के, साधारण लोगों से बहुत ऊँचा समझते हैं। वे सभी अविश्वासियों को तुच्छ समझते हैं और यहाँ तक कि सच्चे मार्ग की जाँच-पड़ताल कर रहे हर व्यक्ति को तुच्छ समझते हैं और उसे नीची दृष्टि से देखते हैं। वे सोचते हैं, “अगर तुम लोग अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य को स्वीकार नहीं करते, तो तुम अंधे, बेवकूफ और अज्ञानी हो, तुम्हें तो मर ही जाना चाहिए, तुम किसी लायक नहीं हो। आज, तुम्हें सुसमाचार सुनाना मेरा कर्तव्य है, नहीं तो मैं तुम्हें नजरअंदाज कर देता!” यह कैसा रवैया है? तुमने अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य को स्वीकारने के अलावा और कुछ नहीं किया है। तुम दूसरों से ऊँचे बिल्कुल भी नहीं हो। अगर तुम कोई राजा होते, तो भी क्या तुम भ्रष्ट मानवजाति में से ही एक नहीं होते? तुम किस मामले में दूसरों से श्रेष्ठ हो? सच्चे मार्ग की जाँच-पड़ताल कर रहे लोगों को तुच्छ मत समझो। अगर तुम उन्हें सुसमाचार सुनाते हो, तब भी तुम उनसे बड़े या बेहतर नहीं हो। यह मत भूलो कि तुम भी उनकी तरह ही एक भ्रष्ट मनुष्य हो। यह बात तुम्हारे दिल में स्पष्ट होनी चाहिए। हमेशा दूसरों को ऐसी नजरों से मत देखो जैसे कि तुम संसार के लिए कोई महान सेवा कर रहे हो या सभी सचेतन प्राणियों की मुक्ति के लिए उनका मार्गदर्शन कर रहे हो। तुम हमेशा सोचते हो, “जिन लोगों ने सुसमाचार स्वीकार नहीं किया है, वे दयनीय हैं। मैं हर रोज तुम लोगों की खातिर इतना चिंतित रहता हूँ।” तुम्हें किस बात की चिंता होती है? तुमने अपनी समस्याएँ तो अब तक हल की नहीं हैं, पर तुम दूसरों की समस्याओं को लेकर चिंतित रहते हो। क्या यह पाखंड नहीं है? क्या तुम दूसरों को धोखा नहीं दे रहे हो? सद्गुण के मुखौटे के पीछे मत छिपो। वास्तव में, तुम कुछ भी नहीं हो। भले ही तुमने 20 या 30 साल परमेश्वर का नया कार्य स्वीकार किया है, फिर भी तुम्हारा कोई वजूद नहीं है। भले ही तुम हर दिन परमेश्वर के साथ रहते हो और परमेश्वर से आमने-सामने बात करते हो, फिर भी तुम एक आम इंसान ही हो। तुम्हारा सार नहीं बदला है। दूसरों के बीच सुसमाचार का प्रचार करना अपना कर्तव्य निभाना है। यह तुम्हारा दायित्व है, तुम्हारी जिम्मेदारी है। तुम्हें यह समझना चाहिए कि तुम चाहे कितने भी लोगों को जीत लो, तुम तुम ही रहोगे। तुम कोई और व्यक्ति नहीं बन गए हो, तुम अभी भी वही भ्रष्ट मनुष्य ही हो। भले ही तुमने कई लोगों को जीता है, पर तुम्हें घमंड नहीं करना चाहिए, अहंकार तो बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए। अपनी उपलब्धियों के बारे में यह कहते हुए शेखी मत बघारो, “मैंने कई सालों से सुसमाचार का प्रचार किया है, और मेरे पास बहुत सारा अनुभव और सबक है। जिन्हें भी मैं उपदेश देता हूँ, उनकी एक झलक देखकर बता सकता हूँ कि वे अच्छे इंसान हैं या बुरे और मुझे पता है कि कब मुझे सुसमाचार प्रचार करना चाहिए और कब नहीं करना चाहिए। जब सुसमाचार का प्रचार करना सही होगा, तो मैं जानता हूँ कि यह आसान या संभव होगा कि नहीं। जो लोग सुसमाचार को स्वीकार कर सकते हैं उन लोगों के बीच सफलतापूर्वक सुसमाचार का प्रचार करने के लिए मैं हमेशा कोई न कोई रास्ता ढूँढ़ ही लेता हूँ।” भले ही तुम्हें सुसमाचार का प्रचार करने का अनुभव है, फिर भी तुम्हारा जीवन प्रवेश बहुत उथला है। भले ही तुम्हें जीवन का थोड़ा अनुभव है और तुम थोड़े बदले हो, फिर भी तुम कभी-कभी दिखावा करने के लिए डींगें हाँकते हो। क्या यह समस्या नहीं है? जिन लोगों के पास गुण होते हैं वे सबसे ज्यादा बड़ी-बड़ी और खोखली बातें करते हैं। वे हमेशा खुद को दूसरों से बेहतर मानते हैं, उन्हें संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं पर भाषण झाड़ना पसंद है, और वे हमेशा चाहते हैं कि लोग उनका सम्मान और उनकी आराधना करें। क्या यह स्वभाव की समस्या नहीं है? क्या कोई व्यक्ति अपना स्वभाव बदले बिना सिर्फ अपना व्यवहार बदलकर ही परमेश्वर की गवाही दे सकता है? अगर तुम स्वभाव में बदलाव की कोई गवाही नहीं दे सकते, अगर परमेश्वर की गवाही देने की खातिर तुम सिर्फ सुसमाचार के सत्य के बारे में बात कर सकते हो, तो क्या तुम परमेश्वर के उपयोग के लायक हो? सच्चा मार्ग स्वीकारने के बाद, लोगों के लिए जीवन प्रवेश के सत्य और अभ्यास के सत्य को समझना जरूरी है। अगर तुम्हारे पास व्यावहारिक अनुभव नहीं है, और तुम अपनी अनुभवजन्य गवाही के बारे में बात करना नहीं जानते, तो क्या ये कमियाँ नहीं हैं? अगर तुम हमेशा धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात करने पर ध्यान दोगे ताकि लोग तुम्हारा आदर करें और तुम्हारे बारे में ऊँचा सोचें, और अगर तुम हमेशा ऊँचे पद पर खड़े रहना चाहोगे, तो क्या यह परमेश्वर की गवाही देना कहलाएगा? बिल्कुल नहीं। यह अपनी गवाही देना हुआ। यह भ्रष्ट स्वभाव होना कहलाता है। अगर तुम न्याय और ताड़ना का अनुभव नहीं करते हो, तो फिर अपना स्वभाव कैसे बदलोगे? सुसमाचार का प्रचार करने वालों में से कुछ लोग कुछ अनुभवजन्य गवाहियों की बात करते हैं, और इसे सुनने वालों को इससे काफी फायदा होता है, वे प्रभावित होते हैं, और वे दिल की गहराइयों से इन वक्ताओं की सराहना करते हैं। फिर भी, इन सुसमाचार कार्यकर्ताओं के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है। वे किसी भी संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता को तुच्छ नहीं समझते। वे लोगों से दिल से बात करने, लोगों के साथ घुलने-मिलने और सामान्य तरीके से दोस्त बनाने में सक्षम होते हैं, और उनमें वास्तव में थोड़ी-सी सामान्य मानवता वाली समझ होती है। वे इसे कैसे पूरा कर पाते हैं? इससे साबित होता है कि उन्होंने परमेश्वर में अपने विश्वास से कुछ हासिल किया है। कम से कम, वे कुछ सत्य समझते हैं, उन्हें खुद का थोड़ा ज्ञान है और उनका जीवन स्वभाव भी थोड़ा बदला है, तो वे अब अहंकारी नहीं बनते हैं। जब वे ऐसे लोगों को देखते हैं जिन्होंने सुसमाचार नहीं स्वीकारा है, तो वे सोचते हैं, “मैं भी तो पहले वैसा ही था, मुझे उन्हें छोटा नहीं समझना चाहिए। मैं खुद भी इतना महान नहीं हूँ।” उनकी मानसिकता अब पहले जैसी नहीं है। अपनी प्रकृति पहचान लेने पर लोग जब संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं में थोड़ी अज्ञानता, बेवकूफी या कमजोरी देखेंगे तो वे इसे स्वाभाविक ही समझेंगे। दूसरों का मजाक मत उड़ाओ, और इस भावना या रवैये को अंगीकार मत करो कि बाकी सभी लोग आम, सामान्य लोगों के समूह का हिस्सा हैं। अगर तुम यह रवैया रखोगे, तो यह सुसमाचार का प्रचार करने के तुम्हारे कार्य में बाधा डालेगा और उसे कमजोर करेगा। हालाँकि, कभी-कभी इस प्रकार की भ्रष्ट दशाएँ तुम्हारे दिल में तब उभरेंगी जब तुम कई ऐसे नए विश्वासियों को देखोगे जिन्होंने हाल ही में परमेश्वर में विश्वास किया है। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुमने 20 सालों से अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य को स्वीकार किया है और तुम 10 सालों से सुसमाचार का प्रचार कर रहे हो। जब तुम सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं के बीच होगे, तो वे हमेशा तुम्हें खुद से श्रेष्ठ मानेंगे, वे कहेंगे, “आपने 20 सालों से परमेश्वर में विश्वास किया है, जबकि हमने हाल ही में उसे स्वीकारा है। हमारा आध्यात्मिक कद अभी भी बहुत छोटा है और आपकी तुलना में, हम बेशक आपसे बहुत छोटे हैं। आप वयस्क हैं, और हम तो बस अभी पैदा ही हुए हैं।” जब वे ऐसी तुलना करें तो तुम्हें क्या सोचना चाहिए? “भले ही मैंने परमेश्वर को उनसे पहले स्वीकार किया था और उनसे ज्यादा समय से विश्वास कर रहा हूँ, पर मैं जीवन प्रवेश और सत्य के मामले में अभी भी बहुत पीछे हूँ। मैंने अब तक परमेश्वर के वास्तविक न्याय और ताड़ना को स्वीकार नहीं किया है, और मैं अभी भी बचाए जाने और पूर्ण किए जाने से कोसों दूर हूँ।” तुम्हारा दिल तुम्हारी सच्चाई जानता है। लोग चाहे तुम्हें किसी भी नजर से देखें या तुम्हारा कितना भी आदर करें, तुम खुद कैसा महसूस करते हो? “मैं सिर्फ एक साधारण व्यक्ति हूँ, मेरा आदर मत करो।” तुम्हें इससे घृणा होगी और खुशी बिल्कुल नहीं होगी, क्योंकि तुम्हारा दिल यह स्पष्ट जानता है कि तुम कुछ भी नहीं हो, कि तुम किसी भी सत्य को नहीं समझते, और तुम बस कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों की बात करने में ही सक्षम हो। लोग बेवकूफ होते हैं और दूसरों का आदर करने की ओर प्रवृत्त होते हैं। अगर तुम खुद का आदर किए जाने से खुश होते हो और इसका आनंद लेते हो, तो तुम मुसीबत में हो। अगर तुम इससे परेशान हो चुके हो और इस परिस्थिति से निकलना चाहते हो, अगर तुम्हें अपने साथ दूसरों का इस तरह से पेश आना पसंद नहीं है, तो इससे यह साबित होता है कि तुम्हें खुद का थोड़ा ज्ञान है। यह सही दशा है, और इसमें तुम्हारी गलतियाँ करने या गलत काम करने की संभावना नहीं होगी।

मैं जिन परिस्थितियों के बारे में बात कर रहा हूँ वे मूल रूप से वही हैं जिनका सामना लोग आम तौर पर सुसमाचार का प्रचार करने की प्रक्रिया में करते हैं। नकारात्मक पहलू यह है कि तुम लोगों को बोलने, अभ्यास करने और व्यवहार करने के कुछ अनुपयुक्त तरीकों से बचना होगा और यह ध्यान देना होगा कि तुम्हारा स्वभाव ऐसी अनुपयुक्त चीजों को प्रकट न करे जो सत्य के अनुरूप नहीं हैं। वहीं, सकारात्मक पहलू यह है कि यह कर्तव्य निभाते समय, तुम्हें समर्पण वाला और अंत तक जिम्मेदारी लेने वाला रवैया रखना चाहिए। इस तरह तुम मानक स्तर तक अपने कर्तव्य का निर्वहन कर सकते हो। इस प्रक्रिया में, तुम्हें परमेश्वर के इरादे पूरे करने के लिए धीरे-धीरे सत्य और सिद्धांतों को खोजना चाहिए, अपने हर कर्तव्य के निर्वहन में अंत तक दृढ़ और समर्पित बने रहने की कोशिश करनी चाहिए। चाहे तुम कोई भी कर्तव्य निभाओ, तुम्हें परमेश्वर को संतुष्ट करने के अपने कार्य में पूरा प्रयास करना चाहिए और जिन कार्यों को तुमने सराहनीय ढंग से और मानक स्तर तक पूरा किया है उनके लिए परमेश्वर द्वारा तुम्हें याद रखा जाना चाहिए। सुसमाचार प्रचार की अवधि के दौरान, तुम्हें कोशिश करनी चाहिए कि तुम कम से कम अपराध और कम से कम गलतियाँ करो। अपना कर्तव्य निभाते समय ऐसे मौके कम से कम होने चाहिए जब तुम सौदा करने और इनाम पाने की कोशिश करो या ऐसा करने की तुम्हारी महत्वाकांक्षा और इच्छा हो। इसी के साथ, तुम्हें सक्रियता से अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने का प्रयास करना चाहिए, उन्हें पूरी तरह से पूरा करना चाहिए, और अपने कर्तव्य को अपना दायित्व मानना चाहिए। साथ ही, अपना कर्तव्य निभाने की भरसक कोशिश करो ताकि जब कई साल बाद तुम इस बारे में विचार करो तो तुम्हारी अंतरात्मा साफ हो। कहने का मतलब है कि तुम्हें धीरे-धीरे उन चीजों को कम करना चाहिए जो तुम्हें ऋणी महसूस कराती हैं। तुम बिना कोई बदलाव किए आगे नहीं बढ़ सकते। मान लो कि किसी संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता को सुसमाचार प्रचार करते हुए तुमने अपना कर्तव्य ठीक से नहीं किया, और इससे तुम असहज हो गए, मानो कि तुम पर किसी का ऋण हो, और तुम्हें लगा कि तुमने पर्याप्त तैयारी नहीं की थी। हालाँकि, इसके बाद जब तुमने सुसमाचार प्रचार किया, तब भी तुम्हारी दशा वैसी ही थी और तुमने कोई बदलाव नहीं किया। इसका मतलब है कि तुमने इस दौरान बिल्कुल भी प्रगति नहीं की। कोई प्रगति न होना क्या दर्शाता है? इसका मतलब है कि तुमने सत्य के इस पहलू का अभ्यास नहीं किया या इसे हासिल नहीं किया है; यानी जिन चीजों के बारे में मैं संगति कर रहा हूँ, वे तुम्हारे लिए धर्म-सिद्धांतों से बढ़कर कुछ भी नहीं थे। अगर तुम कम से कम अपराध करते हो, कम से कम गलतियाँ करते हो, कम ऋणी महसूस करते हो और अंतरात्मा की कम पीड़ा महसूस करते हो, तो यह क्या दर्शाता है? इसका मतलब है कि तुम अपना कर्तव्य अधिक से अधिक शुद्धता के साथ निभा रहे हो, और तुममें जिम्मेदारी की भावना प्रबल होती जा रही है। दूसरे शब्दों में, तुम यह कर्तव्य निभाने में ज्यादा से ज्यादा समर्पित होते जा रहे हो। उदाहरण के लिए, अतीत में, सुसमाचार का प्रचार करना सत्य पर संगति करने या बाइबल के पदों की व्याख्या करने के बजाय मानवीय तरीकों पर निर्भर करता था। अब ऐसा लगता है कि यह तरीका सही नहीं है, लगता है कि परमेश्वर का आदेश मानने वाले व्यक्ति को ऐसा नहीं करना चाहिए, और यह एक तरह से परमेश्वर का अपमान है। क्या तुम लोगों ने ऐसा महसूस किया है? शायद तुम लोग अभी ऐसा महसूस न करो, पर एक दिन, खुद को विभिन्न प्रकार के सत्यों से लैस कर लेने और थोड़ा आध्यात्मिक कद पाने के बाद, अपने पिछले अभ्यासों को देखते हुए तुम अधिक सटीक और व्यावहारिक रवैया और परिप्रेक्ष्य अपनाओगे। इससे यह साबित होता है कि तुम्हारी आंतरिक दशा सामान्य हो गई है। अभी, तुम्हें अपने पिछले अभ्यासों को लेकर कुछ भी एहसास नहीं है, तुम उनका तिरस्कार नहीं करते, और तुम्हारे पास उनके बारे में सही दृष्टिकोण या मूल्यांकन नहीं है। बल्कि, तुम उदासीन हो। क्या यह दिक्कत की बात नहीं है? इससे साबित होता है कि तुम्हारे पास इनसे संबंधित कोई भी सत्य नहीं है। जब मनुष्य के बुरे कर्मों और चालों और उसके उन अभ्यासों की बात आती है जो सत्य के अनुरूप नहीं हैं, तो तुम इनके प्रति एक सुन्न रवैया अपना लेते हो, इन्हें स्वीकारने और इनका समर्थन करने का रवैया अपना लेते हो—यहाँ तक कि तुम इन गंदी चीजों के अनुसार चलते हो। तो फिर तुम्हारी आंतरिक दशा क्या है? तुम्हें अधार्मिक चीजों से प्रेम है, तुम पाप से संबंधित चीजों से प्रेम करते हो, और तुम उन चीजों से भी प्रेम करते हो जो सत्य के अनुरूप नहीं बल्कि सत्य के विपरीत हैं। यह बेहद परेशानी की बात है। अगर तुम इन अभ्यासों के अनुसार चलते रहे, तो तुम्हें बहुत गंभीर परिणाम भुगतना पड़ सकता है। यह परिणाम क्या है? तुम लगातार बुरे कर्मों का संचय कर रहे हो और उद्धार के मार्ग से दूर भटकते जा रहे हो। मैंने ऐसा क्यों कहा कि तुम दूर भटकते जा रहे हो? क्योंकि इस कर्तव्य को निभाने की प्रक्रिया में, तुम सत्य खोजने में नाकाम रहते हो और अपने कार्यों में सिद्धांतों का पालन नहीं करते। तुम सिर्फ अपनी इच्छा और प्राथमिकताओं के हिसाब से चलते हो। तो तुम मानक स्तर तक अपने कर्तव्य का निर्वहन कैसे कर सकते हो? अपना कर्तव्य निभाने के पीछे तुम्हारा मकसद सत्य में प्रवेश करना नहीं, बल्कि एक काम पूरा करके अपना हिसाब देना है। तुम परमेश्वर की इच्छा का पालन नहीं करते, और न ही परमेश्वर का आदेश स्वीकारते हो। इन चीजों की प्रकृति अलग-अलग है। इसलिए, जब तुम सुसमाचार का प्रचार करते हो, तब तुम उद्धार के मार्ग पर नहीं चलते, बल्कि श्रम के मार्ग पर, पौलुस के मार्ग पर चलते हो जिसने परमेश्वर के साथ सौदा किया था। देर-सबेर, तुम्हारे कर्मों के आधार पर परमेश्वर तुम्हारे लिए वही परिणाम निर्धारित करेगा जो उसने पौलुस के लिए किया था। यही परिणाम होगा न? बेशक, यही होगा। इसके उलट अगर सुसमाचार का प्रचार करने की प्रक्रिया में तुम्हारे तरीके और साधन सब व्यावहारिक हैं, तुम्हारा प्रस्थान बिंदु और इरादा परमेश्वर को संतुष्ट करने और परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाने का है और तुम जिन सिद्धांतों पर कार्य करते हो और जिस मार्ग पर चलते हो वे परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप और पूरी तरह से सत्य के अनुरूप हैं तो ऐसे अभ्यास से क्या नतीजे हासिल होंगे? सत्य के बारे में तुम्हारी समझ गहरी होती जाएगी, तुम मामलों को ज्यादा से ज्यादा सिद्धांतों के अनुरूप सँभालने लगोगे, तुम्हारा जीवन अधिक विकसित होता जाएगा, और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी आस्था, प्रेम और समर्पण धीरे-धीरे बढ़ता जाएगा। इस तरह तुम उद्धार के मार्ग पर चल पड़ोगे। इसी के साथ, अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में, तुम धीरे-धीरे अपने विद्रोहीपन और भ्रष्टता की जाँच-पड़ताल करोगे और अपने विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों की भी जाँच करोगे। तब, इस कर्तव्य को निभाने की प्रक्रिया में, तुम खुद पर अधिक से अधिक संयम रखने में सक्षम हो जाओगे और तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय और समर्पण होगा। इसके बाद, तुम्हारी जिम्मेदारी की भावना अधिक से अधिक मजबूत होती जाएगी और तुम्हारे समर्पण की शुद्धता अधिक से अधिक बढ़ती जाएगी। परमेश्वर के प्रति तुम्हारा भय भी गहरा होता जाएगा। साथ ही, तुम्हें विभिन्न सत्यों की वास्तविकता के बारे में ज्यादा से ज्यादा अनुभव और ज्ञान मिलेगा। इस तरह, तुम जो भी मार्ग अपनाओगे वह पौलुस द्वारा अपनाए गए मार्ग से एकदम विपरीत होगा। यह सत्य के अनुसरण के लिए पतरस का मार्ग है। यह मार्ग उद्धार का मार्ग है। जहाँ तक अंतिम परिणाम की बात है, तुम खुद उसका अनुभव करोगे। परमेश्वर तुम्हारा अनुमोदन करेगा, और तुम्हारा दिल अधिक से अधिक शांत और आनंदित होगा। परमेश्वर की नजरों में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारे मार्ग में कितने घुमावदार मोड़ आए हैं, तुम कितने चक्कर काट चुके हो या तुम किस-किस नकारात्मकता, कमजोरी या यहाँ तक कि असफलताओं और पतन से गुजरे हो। जब तुम्हारे कर्मों, तुम्हारे खुलासों और तुम्हारी अभिव्यक्तियों को एक साथ देखा जाएगा, तो तुम जिस मार्ग पर चलोगे वह उद्धार का मार्ग होगा। तो फिर, परमेश्वर तुम्हारा परिणाम कैसे निर्धारित करेगा? परमेश्वर तुम्हारा परिणाम निर्धारित करने में जल्दबाजी नहीं करेगा। परमेश्वर विधिपूर्वक और धैर्य के साथ तुम्हारा समर्थन करेगा, तुम्हारी मदद करेगा, और तुम्हें उद्धार के मार्ग पर लेकर जाएगा। वह तुम्हें अपने न्याय और ताड़ना, परीक्षणों और शोधनों को स्वीकारने की अनुमति देगा, और अंत में तुम्हें पूर्ण करेगा। इस तरह, तुम अच्छी तरह से और पूरी तरह से बचा लिए जाओगे। इसलिए, इस परिप्रेक्ष्य से, सुसमाचार प्रचार के कर्तव्य का निर्वहन करके, क्या लोगों के पास उद्धार के मार्ग पर चलने का अवसर और संभावना नहीं होती है? (बिल्कुल होती है।) उनके पास यह अवसर होता है और यह पूरी तरह से मुमकिन है। यह बस इस बात पर निर्भर करता है कि क्या वे सत्य का अनुसरण कर सकते हैं और सत्य के अनुसरण का मार्ग अपना सकते हैं।

आज हमने मुख्य रूप से सुसमाचार प्रचार के कर्तव्य के निर्वहन से संबंधित विभिन्न सत्यों के बारे में संगति की है। चलो अब उस विषय पर वापस आते हैं जहाँ से हमने संगति की शुरुआत की थी। सुसमाचार प्रचार का कर्तव्य निभाने वालों को हमें क्या कहकर बुलाना चाहिए? (सुसमाचार प्रचार का कर्तव्य निभाने वाले लोग।) सही कहा। उन्हें गवाह या सुसमाचार प्रचारक नहीं कहा जा सकता, और सुसमाचार के संदेशवाहक तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता। कुल मिलाकर वे सुसमाचार कार्यकर्ता हैं। खुद को कभी गवाह मत कहना। लोग किसी भी चीज की गवाही नहीं दे सकते, वे परमेश्वर को शर्मिंदा ना करें तो काफी है। खुद को सुसमाचार प्रचारक बुलाना और भी बुरा है। तुम इससे कोसों दूर हो। तुम “मार्ग” का उपदेश नहीं देते और जिनके बारे में तुम उपदेश देते हो वे चीजें “मार्ग” से काफी दूर हैं। इसलिए, अगर हम “सुसमाचार कार्यकर्ता” नाम ठहरा दें, तो सभी के पास इस कर्तव्य की सटीक परिभाषा होगी, जो यह है कि वे सिर्फ इस कर्तव्य को निभाने वाले लोग हैं। वे गवाह या सुसमाचार प्रचारक बिल्कुल नहीं हैं। वे उन चीजों से कोसों दूर हैं। अगर तुम उन्हें गवाह या सुसमाचार प्रचारक कहोगे, तो क्या वे खुद को दूसरों से श्रेष्ठ नहीं समझेंगे? लोगों को दिखावा करने और घमंड से फूल जाने में ज्यादा देर नहीं लगती। इस तरह से दिखावा करना और घमंड से फूल जाना अच्छी बात है या बुरी? (बुरी बात है।) अगर तुम उनकी प्रशंसा और आदर नहीं करोगे, तो वे हमेशा घमंड से फूल जाना चाहेंगे। अगर तुम उनकी प्रशंसा करते हो, उन्हें गवाह, सुसमाचार प्रचारक या सुसमाचार के संदेशवाहक कहते हो, तो क्या तुम्हें कोई अंदाज़ा है कि ऐसी प्रशंसा मिलने के बाद वे कैसे हो जाएँगे? वे अपनी बड़ाई कर-करके खुद को आसमान पर चढ़ा लेंगे। क्या अब तुम्हें सुसमाचार प्रचार के कर्तव्य में शामिल विभिन्न सत्यों की बुनियादी समझ है? (हाँ, है।) सुसमाचार प्रचार का कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए, तुम्हें कई सत्यों से लैस होना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “मैं सुसमाचार का प्रचार नहीं करता, तो क्या मुझे भी खुद को सत्य से लैस करना होगा?” दूसरे लोग कहते हैं, “पता नहीं मैं कब सुसमाचार का प्रचार कर पाऊँगा। मैंने पहले कभी सुसमाचार का प्रचार नहीं किया है और मैं अच्छा वक्ता भी नहीं हूँ, तो मैं सुसमाचार का प्रचार कैसे कर सकता हूँ?” तुम सुसमाचार का प्रचार करना नहीं जानते, मगर क्या तुम खुद को सुसमाचार प्रचार से संबंधित सत्यों से लैस नहीं कर सकते? क्या तुम बोलने और लोगों से मिलने का अभ्यास नहीं कर सकते? अगर तुम्हारे पास एक मिशन और जिम्मेदारी की भावना है, अगर तुम इस कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाना और परमेश्वर का सहयोग करना चाहते हो, तो तुम्हें सुसमाचार प्रचार से संबंधित सत्यों से खुद को लैस करना चाहिए। तुम्हें खुद को दर्शन और अभ्यास के सत्यों से लैस करना होगा। परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए इन दो पहलुओं से संबंधित सत्यों से लैस होना जरूरी है क्योंकि खुद को इन सत्यों से लैस करना कभी बेकार नहीं जाता। वे सिर्फ सुसमाचार प्रचार के लिए ही सत्य नहीं हैं, बल्कि ऐसे सत्य भी हैं जिन्हें मानवजाति को समझना चाहिए। इन सत्यों को समझने से लोगों को क्या फायदा होता है? इससे उन्हें कौन-सी आशीषें मिल सकती हैं? शायद बुनियादी बात तो सभी समझ सकते हैं, पर जैसे-जैसे परमेश्वर का कार्य आगे बढ़ेगा और गहरा होता जाएगा, लोग परमेश्वर के कार्य को अनुभव करते रहेंगे और सत्य के बारे में उनकी समझ उसी तरह विकसित और गहरी होती जाएगी। परमेश्वर के साथ उनका रिश्ता पहले से ज्यादा गहरा होता जाएगा और उनके साथ उनके मेलजोल और भी अधिक होते जाएँगे। लोग, दर्शन और परमेश्वर के कार्य से संबंधित सत्यों की परमेश्वर के कार्यों और हरेक व्यक्ति के प्रति परमेश्वर के रवैये से कदम-दर-कदम तुलना करेंगे। कदम-दर-कदम तुलना करने की यह प्रक्रिया परमेश्वर को जानने की प्रक्रिया है। एक सृजित प्राणी के रूप में, तुमने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास किया है, पर तुम यह नहीं जानते कि परमेश्वर कौन है या वह कैसे प्रकट होकर अपना कार्य करता है। क्या ऐसा विश्वास बहुत उलझा हुआ और भ्रमित करने वाला नहीं है? तुमने इतने सालों तक अपना कर्तव्य निभाया है। लेकिन अगर, अंत में, तुम अभी भी परमेश्वर के बारे में कुछ भी नहीं जानते, तो परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास निरर्थक रहा है। अगर तुम्हें दानवों से परमेश्वर के बारे में कुछ निराधार अफवाहें सुनने को मिलें, तो क्या तुम उन पर विश्वास करोगे? (नहीं करेंगे।) अभी तो तुमने कह दिया कि तुम ऐसी चीजों पर विश्वास नहीं करोगे, पर अगर तुम वाकई परमेश्वर को नहीं समझते, तो जिस दिन तुम ये अफवाहें सुनोगे, तुम्हारे मन में संदेह होगा और तुम इन बातों पर चिंतन-मनन करोगे, सोचोगे, “क्या ये अफवाहें सच हो सकती हैं? क्या परमेश्वर ऐसा कर सकता है?” असहज महसूस करते हुए, तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने की इच्छा नहीं होगी। अफवाहों के प्रभाव में आकर, तुम्हें लगेगा कि आगे का मार्ग निराशाजनक और अंधकारमय है, तो तुम दिशाहीन और भ्रमित हो जाओगे। लोग हमेशा दिशाहीन और भ्रमित रहते हैं, ऐसा क्यों है? क्योंकि वे नहीं जानते कि परमेश्वर कहाँ है, या परमेश्वर है भी या नहीं, इसलिए वे हमेशा दिशाहीन और भ्रमित रहते हैं। यह भ्रम किन परिस्थितियों में उत्पन्न होता है? यह तब उत्पन्न होता है जब कई विरोधाभासी प्रतीत होने वाली चीजें लोगों को इस कदर भ्रमित कर देती हैं कि वे आगे का मार्ग स्पष्ट नहीं देख पाते और नहीं जानते कि जाना किस तरफ है। इसलिए, वे दिशाहीन और भ्रमित हो जाते हैं। क्या तुम लोग अपनी नजरों के सामने मौजूद कई चीजों को स्पष्ट देखकर उनका भेद पहचान सकते हो और सही मार्ग अपना सकते हो? इसमें परमेश्वर के बारे में तुम्हारी समझ, सत्य की समझ, और तुम किस हद तक सत्य से लैस हो, यह सब शामिल है। जब लोग हमेशा दिशाहीन और भ्रमित रहते हैं तो इसका क्या मतलब होता है? क्या वे वाकई आगे का मार्ग नहीं देख पाते? क्या दिशाहीन और भ्रमित लोग सच में अंधे हैं? नहीं, यह उनके दिल का अँधापन है, और सत्य के प्रति, परमेश्वर के प्रति, और सभी लोगों, घटनाओं और चीजों के बारे में निर्णय को लेकर उनका सुन्न होना है। वे सुन्न क्यों हैं? क्योंकि वे सत्य नहीं समझते, परमेश्वर के कर्मों और उसके स्वभाव को नहीं जानते, और उनके पास सभी चीजों के बारे में सही निर्णय लेने के लिए कोई आधार भी नहीं है। इसलिए, उनके पास किसी भी चीज का आकलन और निरूपण करने के लिए कोई मानक नहीं है। वे अस्पष्ट हैं, वे हर चीज को बिना स्पष्टता या समझ के देखते हैं, और निर्णय नहीं ले सकते। न तो वे चीजों को परिभाषित कर सकते हैं और न ही उनकी असलियत जान सकते हैं। यह सुन्न होना कहलाता है। सुन्न होने से अँधापन होता है, और अँधेपन के कारण लोग दिशाहीन और भ्रमित महसूस करते हैं। ऐसा ही होता है। तो ऐसा क्यों है कि जिन लोगों ने इतने सालों से धर्मोपदेश सुने हैं, वे अभी भी चीजों का भेद नहीं पहचान पाते? क्योंकि ये लोग सत्य नहीं समझते हैं। वे किसी भी चीज की असलियत नहीं देख सकते, बल्कि आँखें मूँदकर विनियम लागू करते हैं और फैसले देते हैं। क्या इसे अँधापन कहा जा सकता है? भले ही उन्हें पूरी तरह से अँधा नहीं कहा जा सकता, पर वे कुछ हद तक अँधे जरूर हैं। वास्तव में, अगर तुम सत्य नहीं समझते, तो तुम किसी भी चीज की असलियत नहीं जान सकते। चाहे किसी ने कितने भी समय से परमेश्वर में विश्वास किया हो या कितने भी धर्मोपदेश सुने हों, अगर वे कभी सत्य नहीं समझ पाते, तो इसका मतलब है कि समस्या उनकी काबिलियत है। इसका सीधा संबंध इस बात से है कि उन्हें आध्यात्मिक समझ है या नहीं। ज्यादातर लोग जिन्होंने कई सालों से धर्मोपदेश सुने हैं, उन्हें सत्य के बारे में कुछ समझ होती है, और शायद तुम लोग भी असल में काफी कुछ समझते हो, लेकिन बस तुम्हें सही माहौल नहीं मिला, इसलिए तुमने कुछ सत्यों का उपयोग नहीं किया और तुम्हें अभी भी लगता है कि तुम उन्हें नहीं समझते। जब तुम वास्तव में इसे खुद अनुभव करोगे, जब तुम्हें फैसला करना होगा या चीजों पर गंभीरता से विचार करना होगा, तब शायद सत्य का प्रासंगिक पहलू धीरे-धीरे तुम्हारे सामने खुद स्पष्ट हो जाए। अभी, तुम्हारे विचार कच्ची, खोखली रूपरेखाओं और धर्म-सिद्धांत की बातों से भरे हैं। जैसे-जैसे तुम्हारा अनुभव और उम्र धीरे-धीरे बढ़ेगी, कई सत्य धीरे-धीरे तुम्हें पहले से ज्यादा व्यावहारिक और यथार्थवादी लगने लगेंगे। इससे, तुम सत्य के सार को और अधिक देख पाओगे। इस तरह, तुम वास्तव में सत्य की समझ हासिल कर सकोगे और समस्याओं को संवेदनशीलता के साथ देख सकोगे। जो लोग सत्य नहीं समझते, वे चाहे कितने भी धर्मोपदेश सुन लें, अपनी दोनों आँखें खुली रखकर भी मानवता की अभिव्यक्तियों, भ्रष्ट स्वभावों की अभिव्यक्तियों, विभिन्न मानवीय दशाओं और विभिन्न प्रकार के लोगों की असलियत नहीं जान पाएँगे। वे अँधे हैं। हालाँकि, बाहर से ऐसा प्रतीत होता है कि सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति ध्यान नहीं दे रहा है, पर वह मन-ही-मन दूसरों के व्यवहार और आचरण पर प्रतिक्रिया देगा और अनजाने में इस मामले की छवि अपने मन में बना लेगा। यह छवि, यह भावना कहाँ से आती है? जिन सत्यों को लोग समझते हैं, उनसे उन्हें चीजों का भेद पहचानने की क्षमता मिलती है। इससे इन लोगों को ऐसे व्यवहार, अभ्यास या अभिव्यक्ति के सार की परिभाषा मिलती है। यह परिभाषा कहाँ से आती है? सत्य के कारण ही लोग चीजें समझ पाते हैं, और सत्य के कारण ही लोग भेद पहचान और निर्णय कर पाते हैं। अभी, तुम लोग कुछ सत्य समझते हो और तुम लोगों को कुछ चीजों का भेद पहचानने की थोड़ी क्षमता है। लेकिन तुम्हारा भेद पहचानना बहुत सटीक नहीं है, इसलिए तुम्हें किसी प्रकार का आश्वासन महसूस नहीं होता, और तुम अभी भी आगे बढ़ने के लिए अपना मार्ग खोजने की प्रक्रिया में हो। कुछ लोग कहते हैं, “ऐसे में, तुम्हें हर एक चीज के बारे में हमारे साथ संगति करनी चाहिए।” यह जरूरी नहीं है। मनुष्य के पास मानवीय जिम्मेदारियाँ हैं, और परमेश्वर का अपना कार्य क्षेत्र है। मैंने तुम लोगों को सत्य के हर एक पहलू के बारे में बताया है, अब बस तुम्हें अपने जीवन में सभी प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों का अनुभव करना है। पवित्र आत्मा कार्य करेगा और योजना बनाएगा। लोगों से एक ही अपेक्षा है : वे मानवीय सहयोग और मानवीय अनुसरण में शामिल हों। अगर तुम इस अनुसरण में शामिल नहीं होते, तो चाहे मैं इसे कितना भी स्पष्ट रूप से समझाऊँ, तुम इसे हासिल नहीं करोगे। मैं तुम्हें जबरन शिक्षा नहीं दूँगा, तुम्हें जानने, समझने और प्रवेश पाने के लिए मजबूर नहीं करूँगा। मैं ऐसा नहीं करूँगा और न ही पवित्र आत्मा ऐसा करेगा। सिर्फ अपनी इच्छा से, स्वैच्छिक और सक्रिय अभ्यास करने से और सत्य में प्रवेश करने से ही उस सत्य का फल तुम्हारे भीतर अनजाने में उत्पन्न होगा। जब सत्य का फल मिलेगा, तो तुम्हारा दिल रोशनी से भर जाएगा। इसे सत्य समझना कहते हैं। लेकिन अगर तुम सत्य नहीं समझोगे, तो तुम हर चीज के प्रति सुन्न हो जाओगे, धीमी प्रतिक्रिया दोगे, और किसी भी चीज की तह तक नहीं देख पाओगे। उदाहरण के लिए, जब कोई कुछ करता है, और कोई दूसरा इसे बुरा कर्म और ऐसी-वैसी प्रकृति का बताता है, तो तुम्हें पता नहीं चलेगा और तुम खुद इसका भेद नहीं पहचान पाओगे। जब कोई तुम्हें जवाब दे, तो तुम इसे धर्म-सिद्धांतों के आधार पर स्वीकार सकते हो, लेकिन सार के संदर्भ में, तुम फिर भी अपनी सहमति नहीं दे सकोगे। अगर तुम अपनी सहमति नहीं दे सकते, तो क्या तुमने वाकई कुछ समझा भी है? तुम नहीं समझते, तो जिन चीजों से तुम्हारा सामना होता है उनसे निपटने के लिए बस नियमों का पालन करते हो। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि तुम सत्य नहीं समझते।

सुसमाचार प्रचार का कर्तव्य तुम अच्छी तरह से कैसे निभा सकते हो? सबसे पहले, तुम्हें सुसमाचार प्रचार के कर्तव्य से संबंधित विभिन्न सत्यों को समझना चाहिए। उदाहरण के लिए, सुसमाचार प्रचार के कर्तव्य की परिभाषा और स्थिति को लेकर, और यह कर्तव्य निभाते समय सही रवैया अपनाने, सहने योग्य कष्ट सहने, उचित कीमत चुकाने, उचित सत्य का अभ्यास करने और सत्य में प्रवेश करने के संबंध में, अगर इन सत्यों को समझा जाए, तो सुसमाचार प्रचार का कर्तव्य अच्छे से निभाना आसान होगा। इसके अलावा, इसके नकारात्मक पक्ष को देखें, तो किन गलत अभ्यासों से दूर रहना है, किन अभ्यासों को मनुष्य के अच्छे इरादे माना जाता है, और लोगों के विचार और अभ्यास अंत में सुसमाचार प्रचार के सिद्धांतों के अनुरूप हैं या नहीं, इन सवालों पर चिंतन करना चाहिए। इसका मतलब है कि सुसमाचार प्रचार की प्रक्रिया में हर एक व्यवहार, हर एक अभ्यास, हर एक सिद्धांत और हर एक निष्कर्ष की स्पष्ट रूप से जाँच की जानी चाहिए कि वे अंत में, सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हैं या नहीं। केवल उन्हीं चीजों पर कायम रहो जो सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हों। जो सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं उन्हें त्याग देना चाहिए। सिर्फ इसी तरह से सुसमाचार प्रचार का कर्तव्य पूरा करने से आने वाले नतीजों में निरंतर सुधार होगा। इसके अलावा, तुम्हें सामंजस्यपूर्ण सहयोग का अभ्यास करना चाहिए, जो सुसमाचार कार्य के लिए सबसे ज्यादा लाभकारी है। सामंजस्यपूर्ण सहयोग के बिना, काम को पूरा करना मुश्किल होता है। भाई-बहनों को एक-दूसरे के प्रति सहनशील और धैर्यवान रहना चाहिए और एक-दूसरे का सहयोग करना चाहिए। अपने कर्तव्यों को अच्छे से निभाने के लिए सामंजस्यपूर्ण सहयोग आवश्यक है। जो कोई भी सही बात कहता है, उसकी बात माननी चाहिए। हमेशा इस फैसले पर मत पहुँचो कि बस तुम ही सही हो और दूसरे लोग गलत हैं। तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार फैसले लेने चाहिए। आम सहमति बनाने के लिए, परमेश्वर के घर द्वारा निर्धारित सिद्धांतों के अनुसार सत्य पर संगति करो। इसके अलावा, अपना कर्तव्य निभाने में सहयोग करने की प्रक्रिया में, तुम्हें एक-दूसरे से सीखना चाहिए, एक व्यक्ति की क्षमता को दूसरे व्यक्ति की कमी की भरपाई करने देना चाहिए, और दूसरों के प्रति बेहद कठोर नहीं होना चाहिए। इसके अलावा, जो लोग सच्चे मार्ग की जाँच कर रहे हैं उनके प्रति व्यवहार में तुम्हें सावधानी और विवेक से काम लेना चाहिए और प्रेम पर निर्भर रहना चाहिए। क्योंकि सच्चे मार्ग की जाँच करने वाला प्रत्येक व्यक्ति एक अविश्वासी होता है—यहाँ तक कि उनमें से धार्मिक लोग भी कमोबेश अविश्वासी ही होते हैं—और वे सभी अतिसंवेदनशील होते हैं : यदि कोई बात उनकी धारणाओं के अनुरूप न हो, तो वे उसका प्रतिरोध कर सकते हैं, और अगर किसी की कोई बात उनकी इच्छा के अनुरूप न हो, तो वे बहस कर सकते हैं। इसलिए उनके बीच सुसमाचार का प्रचार करते समय हममें सहिष्णुता और धैर्य होना चाहिए। हमें बहुत ही प्यार से पेश आना चाहिए और विशिष्ट तौर-तरीके अपनाने चाहिए। हालाँकि, यह महत्वपूर्ण है कि उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाए जाएँ, वे सारे सत्य बताए जाएँ जिन्हें परमेश्वर मनुष्य को बचाने के लिए व्यक्त करता है ताकि वे परमेश्वर की वाणी और सृष्टिकर्ता के वचनों को सुनें। इस तरह उन्हें लाभ मिलेगा। सुसमाचार का प्रचार करने का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत है परमेश्वर के प्रकटन के लिए प्यासे और सत्य से प्रेम करने वालों को परमेश्वर के वचन पढ़ने और उसकी वाणी सुनने देना। इसलिए, उनसे मनुष्य के शब्द कम बोलो और परमेश्वर के वचन ज्यादा पढ़कर सुनाओ। पढ़ना समाप्त करने के बाद सत्य पर संगति करो। इस तरीके से वे परमेश्वर की वाणी सुन सकते हैं और कुछ सत्य समझ सकते हैं। फिर उनके परमेश्वर के सामने लौटने की संभावना होगी। सुसमाचार का प्रचार करना सभी की जिम्मेदारी और दायित्व है। यह दायित्व चाहे किसी पर भी आए, उन्हें इससे भागना नहीं चाहिए या इसे अस्वीकार करने के लिए कोई बहाना या कारण नहीं ढूँढ़ना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “मैं बोलने में अच्छा नहीं हूँ, मैं बाइबल नहीं समझता, और मैं बहुत छोटा भी हूँ। अगर प्रलोभन या खतरे से मेरा सामना हो तो मैं क्या करूँ?” ऐसे शब्द गलत हैं। सुसमाचार का प्रचार करने का मतलब यह नहीं कि तुम्हें खतरनाक चीजें करने के लिए कहा गया है। परमेश्वर का घर तुम्हें वहाँ जाने की अनुमति नहीं देगा जहाँ खतरा हो। लोगों को सुसमाचार प्रचार का काम सौंपने के लिए कलीसिया सिद्धांतों का पालन करती है। यह लोगों के जोखिम उठाने के बारे में नहीं, बल्कि व्यक्तिगत स्थितियों, काबिलियतों और क्षमताओं के आधार पर उचित व्यवस्थाएँ करने के बारे में है। भाई-बहन एक दूसरे के साथ सहयोग करेंगे, और काम उन्हें ही दिया जाएगा जो इसे सही ढंग से पूरा कर सकेंगे। यह नहीं कहा जा सकता कि इसमें कोई जोखिम नहीं है। जो भी जीवित है उसे कभी न कभी खतरे का सामना करना ही पड़ता है। अगर परमेश्वर तुम्हें यह कर्तव्य सीधे भेजता है, तो तुम इसे स्वीकारने के लिए कर्तव्यबद्ध हो, फिर चाहे इसके लिए तुम्हें प्रलोभन, कष्ट या खतरे का सामना करना पड़े। तुम इसे स्वीकारने के लिए कर्तव्यबद्ध क्यों हो? (क्योंकि यह लोगों की जिम्मेदारी है।) सही कहा, केवल इसी तरह से तुम वास्तव में सुसमाचार प्रचार को अपनी जिम्मेदारी और कर्तव्य मान सकते हो। व्यक्ति के पास यही उचित रवैया होना चाहिए। यह सत्य है, और सत्य होने के नाते, लोगों को इसे स्वीकारना चाहिए, और वह भी पूरी तरह से, बिना किसी समझौते के। अगर किसी दिन तुम्हारे लिए दूसरे कर्तव्य निभाना उचित नहीं है या अगर सुसमाचार प्रचार के लिए लोगों की जरूरत है, इसलिए तुम्हें सुसमाचार प्रचार में लगाया जाता है तो तुम क्या करोगे? तुम्हें बिना किसी प्रतिरोध की भावनाओं, विश्लेषण या जाँच-पड़ताल के इसे ऐसा मानकर स्वीकारना चाहिए जिसे करने को तुम कर्तव्यबद्ध हो। यह परमेश्वर का आदेश है। यह तुम्हारी जिम्मेदारी है; यह तुम्हारा कर्तव्य है। इसे चुनना और न चुनना तुम्हारे हाथ में नहीं है। क्योंकि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, इसलिए फैसला करना तुम्हारे हाथ में नहीं है। तुम फैसले क्यों नहीं कर सकते? क्योंकि सुसमाचार का प्रचार करना परमेश्वर का आदेश है, और परमेश्वर के सभी चुने हुए लोगों की इस कार्य में हिस्सेदारी है। कुछ लोग कहते हैं, “मेरी उम्र 80 साल से ऊपर है, मैं अपना घर भी नहीं छोड़ सकता। क्या परमेश्वर अभी भी मुझे यह कर्तव्य सौंप सकता है?” दूसरे लोग कहते हैं, “मैं बस 18-19 साल का हूँ, मैंने ज्यादा दुनिया नहीं देखी है, और मुझे लोगों से मिलना-जुलना भी नहीं आता। मैं बहुत डरपोक हूँ और सबके सामने बोलने से डरता हूँ। क्या परमेश्वर अभी भी मुझे यह कर्तव्य दे सकता है?” परमेश्वर इसकी परवाह किए बिना तुम्हें यह आदेश देता है। चाहे तुम्हारी उम्र कितनी भी हो, तुम्हें सुसमाचार प्रचार का कर्तव्य निभाने के लिए अपनी पूरी कोशिश करनी चाहिए। तुमसे जितना हो सके और जितने लोगों तक हो सके, इसका प्रचार करो। अभी तुम चाहे कोई भी कर्तव्य निभा रहे हो, तुम सुसमाचार प्रचार के लिए जो कुछ भी कर सकते हो वह करो। अगर एक दिन तुम्हें किसी के साथ सुसमाचार साझा करने का मौका मिले, तो क्या तुम्हें यह करना चाहिए? (बिल्कुल।) सही कहा। कई लोगों के अपने-अपने कर्तव्य होते हैं, पर वे खाली समय में सुसमाचार का प्रचार कर सकते हैं और कुछ नतीजे हासिल कर सकते हैं। परमेश्वर इसका अनुमोदन करता है। इसलिए, सुसमाचार का प्रचार करने की जिम्मेदारी हर किसी की है। तुम्हें खुद अपने फैसले नहीं लेने चाहिए या इस जिम्मेदारी से बचना नहीं चाहिए, बल्कि सक्रिय होकर और स्वेच्छा से सहयोग करना चाहिए। निष्क्रिय या नकारात्मक रवैया मत अपनाओ, इस कर्तव्य को मत ठुकराओ, और इसे न करने के लिए कोई तर्क या बहाने मत बनाओ। कुछ लोग कहते हैं, “मैं जिस माहौल में हूँ वह बहुत खतरनाक है। क्या मैं सुसमाचार का प्रचार करने से पीछे हट सकता हूँ?” अगर अभी तुम्हारा आध्यात्मिक कद छोटा है, अगर तुम्हारी जगह लेने के लिए कोई और है, और तुम दूसरे कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त हो, तो तुम यह कर्तव्य किसी और से बदल सकते हो। लेकिन अगर यह कर्तव्य तुम्हें ही निभाना है तब तुम्हें क्या करना चाहिए? (मैं इसे स्वीकारने के लिए कर्तव्यबद्ध हूँ।) सही कहा। तुम इसे स्वीकारने और परमेश्वर से स्वीकार करने के लिए कर्तव्यबद्ध हो। यह हर एक सृजित प्राणी की जिम्मेदारी और दायित्व है। कुछ लोग कहते हैं, “मैं शारीरिक रूप से कमजोर हूँ, तो मैं सुसमाचार प्रचार के लिए बाहर जाने की कठिनाई सहन नहीं कर सकता।” अगर तुम इस बड़ी कठिनाई को नहीं सह सकते, तो कम-से-कम छोटी कठिनाइयाँ तो सह सकते हो न? अगर तुम कोई भी कठिनाई नहीं सह सकते, तो क्या तुम्हें दंड की बड़ी कठिनाई नहीं झेलनी चाहिए? जब तक तुम जिंदा हो और साँस ले रहे हो, तुम्हें अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, तुम्हें सुसमाचार का प्रचार करना चाहिए। यह पूरी तरह स्वाभाविक और न्यायोचित है। अगर तुम अपने कर्तव्य को ठुकराते हो, सुसमाचार का प्रचार नहीं करते, और अपनी जिम्मेदारियों से बचना और भागना चुनते हो, तो यह एक इंसान का उचित रवैया नहीं है, और न ही लोगों को प्रतिरोधी और बचाव का रवैया अपनाना चाहिए। लोगों को हर समय और सभी स्थानों पर सुसमाचार का प्रचार करने को अपना दायित्व और कर्तव्य मानने के लिए तैयार रहना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने इतने सालों से परमेश्वर में विश्वास किया, पर कलीसिया ने मुझे कभी भी सुसमाचार प्रचार का काम नहीं सौंपा।” यह अच्छी बात है या बुरी? यह अच्छे या बुरे का सवाल नहीं है। शायद परमेश्वर को अभी तक सुसमाचार प्रचार के लिए तुम्हारी जरूरत नहीं है, लेकिन उसे दूसरे कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हारी जरूरत है। सभी कर्तव्य महत्वपूर्ण हैं, तो तुम्हें उनमें से कैसे चुनना चाहिए? तुम्हें बिना किसी व्यक्तिगत इच्छा के, कलीसिया की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए। जब सुसमाचार का प्रचार करने के लिए परमेश्वर को तुम्हारी जरूरत होती है, तो वह कहता है, “तुम्हारे लिए अपना वर्तमान कर्तव्य निभाना उचित या महत्वपूर्ण नहीं है। सुसमाचार प्रचार का कर्तव्य अधिक महत्वपूर्ण है।” फिर तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें खुद को इसके प्रति कर्तव्यबद्ध समझकर बिना कोई विश्लेषण किए, राय बनाए या पड़ताल किए इसे स्वीकार कर लेना चाहिए, इसका प्रतिरोध करना या इसे ठुकराना तो दूर की बात है। यही सही रवैया है जो एक सृजित प्राणी को सृष्टिकर्ता के प्रति अपनाना चाहिए। जब लोग ऐसा रवैया अपनाते हैं, तो क्या यह कहा जा सकता है कि कुछ अर्थों में, उनके और परमेश्वर के बीच का रिश्ता सामान्य और उचित है? मनुष्य और परमेश्वर के बीच का संबंध किससे अभिव्यक्त होता है? यह इस बात से अभिव्यक्त होता है कि तुम उन चीजों के साथ कैसा व्यवहार करोगे जो परमेश्वर तुमसे कराना चाहता है। अगर परमेश्वर तुम्हें कोई काम करने के लिए सौंपता है और तुम उस पर सोच-विचार और चिंतन करते हो और पूछते हो, “तुम मुझसे यह क्यों कराना चाहते हो? क्या इससे मुझे कोई फायदा होगा?”—अगर तुम इस तरह से सोचते हो, तो परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता असामान्य है, और तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में नाकाम रहे हो। अगर तुम कहते हो, “यह एक महत्वपूर्ण काम है जो परमेश्वर ने मुझे करने के लिए कहा है। परमेश्वर ने मुझे जो काम करने के लिए कहा है, मैं उसके प्रति लापरवाह नहीं हो सकता। मुझे इसे सावधानी से सँभालना होगा। परमेश्वर मुझसे जो भी करने को कहता है, जो भी काम सौंपता है, वही मेरा कर्तव्य है। मैं परमेश्वर की बात सुनूँगा और परमेश्वर जो भी व्यवस्था करेगा मैं वही करूँगा। मैं इनकार नहीं कर सकता। अगर मैं अपने कर्तव्य में दृढ़ नहीं रह सकता, अगर मैं इनकार कर देता हूँ, अगर मैं इसे गंभीरता से नहीं लेता, अगर मैं इसे अच्छी तरह से पूरा नहीं करता, तो यह परमेश्वर को धोखा देना है”—तब तुम्हारे पास एक सृजित प्राणी के लिए उचित विवेक है और तुमने वही उचित रवैया अपनाया है जो कि एक सृजित प्राणी को अपने कर्तव्य के प्रति अपनाना चाहिए। अगर, यह अच्छी तरह से जानते हुए भी कि यह परमेश्वर का आदेश है, तुम इसे ठुकरा देते हो और अपने कर्तव्य से भागने को उचित ठहराते हो, तो इस समस्या की प्रकृति गंभीर है। यह सिर्फ परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह ही नहीं, बल्कि परमेश्वर के प्रति विश्वासघात करना है। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, तो तुम्हें एक सृजित प्राणी का रुख और दर्जा लेकर सृष्टिकर्ता के आदेशों को स्वीकारना और उनके प्रति समर्पित होना चाहिए। यही सही रवैया है। अगर तुम अपने कर्तव्य के प्रति सही रवैया नहीं अपनाते हो, तो इस समस्या की प्रकृति बहुत गंभीर है। अगर, तुमने हाल ही में विश्वास करना शुरू किया है, और तुम सत्य नहीं समझते, तो तुम्हारे साथ गंभीर होने की कोई जरूरत नहीं है। अगर तुम्हें परमेश्वर में विश्वास करते हुए कुछ साल हो गए हैं और तुम कुछ सत्य समझते हो, फिर भी परमेश्वर का आदेश ठुकराने में सक्षम हो, अगर तुम सुसमाचार का प्रचार नहीं करते हो और अपना कर्तव्य निभाते समय अभी भी बेपरवाह रहते हो, तो इस समस्या की प्रकृति क्या है? यह सिर्फ अंतरात्मा और विवेक की कमी ही नहीं दर्शाता, बल्कि सबसे महत्वपूर्ण बात है कि यह परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और प्रतिरोध है, यह परमेश्वर के प्रति विश्वासघात करना है। ऐसा कहना सही होगा कि यह एक बड़ा विश्वासघात है। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। ऐसा व्यक्ति मनुष्य कहलाने के लायक नहीं है और उसे अंत में दंड भुगतना ही पड़ेगा। जैसे कि तुम खुद को एक सृजित प्राणी मानते हो, तो सृजित प्राणियों के लिए उचित विवेक क्या है? सृष्टिकर्ता जो भी तुमसे कहता है वह करना, और सृष्टिकर्ता की सभी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना। यह मनुष्य के लिए उचित अंतरात्मा और विवेक है। जो लोग सत्य समझते हैं उनसे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति पूर्ण समर्पण करने की और भी ज्यादा अपेक्षा की जाती है। उन्हें कभी जरा-सा भी विद्रोह नहीं करना चाहिए।

सुसमाचार प्रचार से संबंधित सत्य अनेक लोगों से संबंधित है। यह हर किसी से संबंधित होना चाहिए। शुरू में, जब कुछ लोगों ने सत्य के इस पहलू पर संगति सुनी, तो उन्हें लगा कि यह उनसे संबंधित नहीं है। लेकिन अभी तक, हर किसी में सुसमाचार प्रचार के कर्तव्य के संबंध में स्वीकृति का रवैया होना चाहिए, और सबको सत्य के इस पहलू के बारे में जागरूकता होनी चाहिए। उनके पास इस कर्तव्य की सटीक परिभाषा भी होनी चाहिए। तो फिर, लोगों ने खुद को किस स्थिति में रखा है? (एक सृजित प्राणी की स्थिति में।) तुम एक सृजित प्राणी हो, तो फिर एक सृजित प्राणी की पहली प्राथमिकता क्या है? (सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पण करना।) सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पित होने की पहली ठोस अभिव्यक्ति क्या है? (सृजित प्राणियों के रूप में अपना कर्तव्य निभाना।) तो फिर, एक सृजित प्राणी को सबसे पहले क्या कर्तव्य निभाना चाहिए? (सुसमाचार का प्रचार करने और परमेश्वर की गवाही देने का।) यह सही है। यही वह उत्तर है जिसकी मुझे तलाश है। सही जवाब तक पहुँचने से पहले तुम लोगों ने बहुत घुमावदार रास्ता चुना। सभी सृजित प्राणियों की पहली प्राथमिकता सुसमाचार का प्रचार करना, परमेश्वर की गवाही देना और पूरे संसार और पृथ्वी के अंतिम छोर तक परमेश्वर के कार्य का प्रसार करना है। यह परमेश्वर के सुसमाचार को स्वीकारने वाले हर एक व्यक्ति की जिम्मेदारी और दायित्व है। वे इसे निभाने के लिए कर्तव्यबद्ध हैं। यह भी हो सकता है कि तुम अभी यह कर्तव्य नहीं निभा रहे हो, या यह कर्तव्य तुमसे बहुत दूर है, या फिर तुमने कभी नहीं सोचा कि तुम्हें यह कर्तव्य अवश्य निभाना चाहिए। लेकिन तुम्हारा दिल इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए : यह कर्तव्य तुमसे जुड़ा है। यह केवल दूसरों की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि यह तुम्हारी भी जिम्मेदारी और तुम्हारा भी कर्तव्य है। सिर्फ इसलिए कि अभी तुम्हें यह कर्तव्य निभाने के लिए नहीं सौंपा गया है, इसका मतलब यह नहीं है कि इस कर्तव्य से तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है, कि तुम्हें यह कर्तव्य निभाना नहीं चाहिए, या कि परमेश्वर ने तुम्हें यह कर्तव्य निभाने के लिए नहीं सौंपा है। अगर तुम्हारी समझ इस स्तर तक बढ़ सकती है, तो क्या इसका मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे हृदय में सुसमाचार प्रचार के कर्तव्य का परिप्रेक्ष्य सत्य और परमेश्वर के इरादे के अनुरूप है? जब तुम्हारी समझ इस स्तर तक बढ़ जाएगी, तब एक दिन, जब तुम सभी लोग अपने सभी काम पूरे कर चुके होगे, तो परमेश्वर तुम लोगों को जगह-जगह फैल जाने का आदेश देगा, यहाँ तक कि ऐसी जगहों पर भी जो तुम्हें सबसे अजनबी, सबसे अप्रिय और सबसे कठिन लगती हैं। तब तुम लोग क्या करोगे? (हम इसे स्वीकारने को कर्तव्यबद्ध होंगे।) यह तो तुम लोग अभी कह रहे हो, लेकिन जब वह दिन आएगा, तो तुम्हारी आँखों में आँसू आ सकते हैं। अभी, तुम लोगों को इस तरह से तैयारी करनी चाहिए : तुममें यह जागरूकता होना चाहिए, “मैं इस युग में पैदा हुआ था। मैं खुशकिस्मत हूँ जो मैंने परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार किया और मैं खुशकिस्मत हूँ कि मुझे परमेश्वर की प्रबंधन योजना के कार्य में हिस्सा लेने का मौका मिला। इसलिए, मेरे जीवन का मूल्य और महत्व मेरे जीवन की सारी ऊर्जा को परमेश्वर के सुसमाचार कार्य को फैलाने के लिए समर्पित करना होना चाहिए। मैं किसी और चीज के बारे में नहीं सोचूँगा।” क्या तुम लोगों में यह संकल्प है? (हाँ।) तुम्हारे भीतर यह संकल्प होना चाहिए और तुम्हें इसकी तैयारी और योजना बनानी चाहिए। केवल इसी तरह से तुम एक सच्चे सृजित प्राणी बन सकते हो, ऐसा सृजित प्राणी जो परमेश्वर को प्रिय है और मानक स्तर का है। कुछ लोग कहते हैं, “मैं तैयार नहीं हूँ, और अगर मुझसे अभी सुसमाचार का प्रचार करने के लिए कहा गया तो मुझे डर लगेगा।” डरो मत, जब तक तुम तैयार नहीं होते, परमेश्वर तुम्हें यह काम करने के लिए मजबूर नहीं करेगा। और अगर तुम कहते हो कि तुम तैयार हो, तो हो सकता है कि परमेश्वर अभी तुम्हारा उपयोग न करे। तो तुम कब काम आओगे? यह परमेश्वर पर निर्भर है, तुम्हें इसके बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं। जब परमेश्वर तुम्हारा उपयोग करना चाहेगा, तब वह सब कुछ तैयार कर लेगा। जब तुम्हारे पास आवश्यक आध्यात्मिक कद और अनुभव होगा और जब तुम अन्य सभी आवश्यक शर्तों को पूरा करोगे, तब वह तुम्हारे लिए विभिन्न स्थानों पर जाकर सुसमाचार का प्रचार करने की व्यवस्था कर सकता है। जब वह समय आएगा, तब क्या तुम्हें सुसमाचार का संदेशवाहक कहा जा सकता है? (नहीं।) यह कर्तव्य निभाने वालों को कभी भी सुसमाचार का संदेशवाहक नहीं कहा जा सकता। यह कभी नहीं बदलेगा। ऐसे लोगों को क्या कहा जाना चाहिए? (सुसमाचार कार्यकर्ता।) यह ज्यादा सटीक है। ऐसे लोगों को चाहे कुछ भी कहो, वे यही कर्तव्य निभाते हैं। यह सत्य है और यह कभी नहीं बदलेगा। अगर लोगों का नाम और पहचान बदल जाए, तो फिर काम का सार ही बदल जाएगा। एक बार सार बदल गया, तो वह सत्य के रास्ते से भटक जाएगा। जैसे ही कार्य सत्य के रास्ते से भटक जाएगा, तो वह धार्मिक व्यवहार बन जाएगा। ऐसे में, लोग उद्धार के मार्ग से अधिक से अधिक दूर भटकते जाएंगे, उत्तर की ओर जाना हो, तो वे दक्षिण की ओर जाएंगे। इसलिए कभी भी गलत रास्ते पर मत चलो। सुसमाचार कार्यकर्ताओं को जब भी विभिन्न स्थानों पर नियुक्त किया जाता है और भेजा जाता है, वे सुसमाचार प्रचार का अपना कर्तव्य निभाने के अलावा और कुछ नहीं करते। वे गवाह नहीं हैं, वे सुसमाचार प्रचारक नहीं हैं, वे सुसमाचार के संदेशवाहक तो बिल्कुल नहीं हैं। यह एक शाश्वत और अपरिवर्तनीय सत्य है।

अब तक मैंने जो कुछ भी कहा है उससे कई लोगों के दिलों में यकीनन रोशनी महसूस हुई होगी और उनमें से बहुत-से लोग बड़ी उत्सुकता से अपने हाथ रगड़ते हुए सोच रहे होंगे, “यह बहुत अच्छी बात है, भविष्य बहुत आशाजनक लग रहा है! परमेश्वर ने हमारे लिए जो मार्ग तैयार किया है वह तेज रोशनी से जगमगा रहा है!” जरूरी नहीं कि ऐसा हो। परमेश्वर के पास उसके प्रत्येक अनुयायी के लिए व्यवस्थाएँ हैं। उनमें से प्रत्येक व्यक्ति के लिए परमेश्वर द्वारा तैयार किया गया एक परिवेश है, जिसमें वह अपना कर्तव्य निभा सकता है, और उसके पास परमेश्वर का अनुग्रह और कृपा है जो उनके आनंद लेने के लिए है। उसके पास विशेष परिस्थितियाँ भी होती हैं, जिन्हें परमेश्वर उसके लिए तैयार करता है, और बहुत सारी पीड़ा होती है जो उसे सहनी होती है—यह वैसा बिल्कुल नहीं होता जैसा लोग निर्विघ्न रूप से आगे बढ़ने की कल्पना करते हैं। इसके अलावा, यदि तुम यह स्वीकारते हो कि तुम सृजित प्राणी हो, तो तुम्हें सुसमाचार का प्रचार करने की अपनी जिम्मेदारी पूरी करने और अपना कर्तव्य समुचित रूप से निभाने की खातिर कष्ट भुगतने और कीमत चुकाने के लिए स्वयं को तैयार करना होगा। यह कीमत शायद कोई शारीरिक बीमारी या कठिनाई या बड़े लाल अजगर के उत्पीड़न या सांसारिक लोगों की गलतफहमियाँ, और साथ ही वे क्लेश सहना हो सकती है जिनसे सुसमाचार का प्रचार करते समय व्यक्ति गुजरता है : जैसे गद्दारी किया जाना, पिटाई और डाँट-फटकार किया जाना, निंदा किया जाना—यहाँ तक कि घेरकर हमला किया जाना और मृत्यु के खतरे में डाल दिया जाना। सुसमाचार का प्रचार करने के दौरान, यह संभव है कि परमेश्वर का कार्य पूरा होने से पहले ही तुम्हारी मृत्यु हो जाए, और तुम परमेश्वर की महिमा का दिन देखने के लिए जीवित न बचो। तुम्हें इसके लिए तैयार रहना चाहिए। इसका उद्देश्य तुम लोगों को भयभीत करना नहीं है; यह सच्चाई है। अब जब मैंने यह स्पष्ट कर दिया है, और तुमने इसे समझ लिया है, यदि अब भी तुम लोगों का यही संकल्प है और तुम सुनिश्चित हो कि यह बदलेगी नहीं और तुम मृत्यु तक वफादार रहोगे, तो यह सिद्ध करता है कि तुम्हारा एक निश्चित आध्यात्मिक कद है। यह मानकर मत चलो कि धार्मिक स्वतंत्रता और मानव अधिकारों वाले इन दूसरे देशों में सुसमाचार का प्रचार करना खतरे से खाली होगा, और तुम जो करोगे वह सब कुछ सुचारू ढंग से होता जाएगा, यह कि इन सभी को परमेश्वर की आशीष मिलेगी और उसके महान सामर्थ्य और अधिकार का साथ मिलेगा। यह मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं की एक बात है। फरीसी भी परमेश्वर में विश्वास करते थे, फिर भी उन्होंने देहधारी परमेश्वर को सलीब पर चढ़ा दिया। तो मौजूदा धार्मिक संसार देहधारी परमेश्वर के साथ कौन-सी बुरी चीजें करने में सक्षम है? उन्होंने बहुत-सी बुरी चीजें की हैं—परमेश्वर की आलोचना करना, परमेश्वर की निंदा करना, परमेश्वर की ईशनिंदा करना—ऐसी कोई भी बुरी चीज नहीं है जो वे करने में सक्षम नहीं हैं। भूलो मत कि जिन्होंने प्रभु यीशु को सलीब पर चढ़ाकर मार डाला, वे परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग थे। केवल उन्हीं के पास इस प्रकार का काम करने का मौका था। अविश्वासी इन चीजों की परवाह नहीं करते थे। ये विश्वासी ही थे जिन्होंने प्रभु यीशु को सलीब पर चढ़ाकर मार डालने के लिए सरकार के साथ साँठ-गाँठ की थी। इतना ही नहीं, प्रभु यीशु के उन शिष्यों की मौत कैसे हुई? उनमें ऐसे अनुयायी थे जिन्हें पत्थरों से मार डाला गया, घोड़े से बाँध कर घसीटा गया, सूली पर उलटा लटका दिया गया, पाँच घोड़ों से खिंचवाकर उनके टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए—हर प्रकार की मौत उन पर टूटी। उनकी मृत्यु का कारण क्या था? क्या उन्हें उनके अपराधों के लिए कानूनी रूप से दंडित किया गया था? नहीं। उन्होंने प्रभु के सुसमाचार का प्रसार किया था, लेकिन दुनिया के लोगों ने उसे स्वीकार नहीं किया, इसके बजाय उनकी भर्त्सना की, पीटा और डाँटा-फटकारा और यहाँ तक कि मार डाला—इस तरह वे शहीद हुए। हम उन शहीदों के अंतिम परिणाम की या उनके कर्मों पर परमेश्वर के फैसले की बात न करें, बल्कि यह पूछें : जब उनका अंत आया, तब जिन तरीकों से उनके जीवन का अंत हुआ, क्या वह मानव धारणाओं के अनुरूप था? (नहीं, यह ऐसा नहीं था।) मानव धारणाओं के परिप्रेक्ष्य से, उन्होंने परमेश्वर के कार्य का प्रसार करने की इतनी बड़ी कीमत चुकाई, लेकिन अंत में इन लोगों को शैतान द्वारा मौत के घाट उतार दिया गया। यह मानव धारणाओं से मेल नहीं खाता, लेकिन उनके साथ ठीक यही हुआ। परमेश्वर ने ऐसा होने दिया। इसमें कौन-सा सत्य खोजा जा सकता है? क्या परमेश्वर द्वारा उन्हें इस प्रकार मरने देना उसका श्राप और दण्डादेश था, या यह उसकी योजना और आशीष थी? यह दोनों ही नहीं थे। यह क्या था? अब लोग गहरे दुख के साथ उनकी मृत्यु पर विचार करते हैं, किन्तु चीजें इसी प्रकार थीं। परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग इसी तरीके से मारे गए, इसे कैसे समझाया जाए? जब हम इस विषय का जिक्र करें, तो तुम लोग स्वयं को उनकी स्थिति में रखो, क्या तब तुम लोगों के हृदय उदास होते हैं, और क्या तुम भीतर ही भीतर पीड़ा का अनुभव करते हो? तुम सोचते हो, “इन लोगों ने परमेश्वर के सुसमाचार का प्रसार करने का अपना कर्तव्य निभाया, इन्हें अच्छा इंसान माना जाना चाहिए, तो फिर उनका अंत, और उनका परिणाम ऐसा कैसे हो सकता है?” वास्तव में, उनके शरीर इसी तरह मृत्यु को प्राप्त हुए और चल बसे; यह मानव संसार से प्रस्थान का उनका अपना माध्यम था, तो भी इसका यह अर्थ नहीं था कि उनका परिणाम भी वैसा ही था। उनकी मृत्यु और प्रस्थान का साधन चाहे जो रहा हो, या यह चाहे जैसे भी हुआ हो, यह वैसा नहीं था जैसे परमेश्वर ने उन जीवनों के, उन सृजित प्राणियों के अंतिम परिणाम को निर्धारित किया था। तुम्हें यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए। इसके विपरीत, उन्होंने इस संसार की घोर निंदा करने और परमेश्वर के कर्मों की गवाही देने के लिए ठीक उन्हीं साधनों का उपयोग किया। इन सृजित प्राणियों ने अपने सर्वाधिक बहुमूल्य जीवन का उपयोग किया—उन्होंने परमेश्वर के कर्मों की गवाही देने के लिए, परमेश्वर के महान सामर्थ्य की गवाही देने के लिए अपने जीवन के अंतिम क्षण का उपयोग किया, और शैतान तथा इस संसार के समक्ष यह घोषित करने के लिए किया कि परमेश्वर के कर्म सही हैं, प्रभु यीशु परमेश्वर है, वह प्रभु है, और परमेश्वर का देहधारी शरीर है। यहाँ तक कि अपने जीवन के बिल्कुल अंतिम क्षण तक उन्होंने प्रभु यीशु का नाम कभी नहीं नकारा। क्या यह इस संसार के ऊपर न्याय का एक रूप नहीं था? उन्होंने अपने जीवन का उपयोग किया, संसार के समक्ष यह घोषित करने के लिए, मानव प्राणियों के समक्ष यह पुष्टि करने के लिए कि प्रभु यीशु प्रभु है, प्रभु यीशु मसीह है, वह परमेश्वर का देहधारी शरीर है, कि उसने समस्त मानवजाति के छुटकारे के लिए जो कार्य किया, उसी के कारण मानवता जीवित रह पाई है—यह सच्चाई कभी बदलने वाली नहीं है। जो लोग प्रभु यीशु के सुसमाचार का प्रसार करने के लिए शहीद हुए, उन्होंने किस सीमा तक अपना कर्तव्य निभाया? क्या यह अंतिम सीमा तक किया गया था? यह अंतिम सीमा कैसे परिलक्षित होती थी? (उन्होंने अपना जीवन अर्पित किया।) यह सही है, उन्होंने अपने जीवन से कीमत चुकाई। परिवार, सम्पदा, और इस जीवन की भौतिक वस्तुएँ, सभी बाहरी चीजें हैं; स्वयं से संबंधित एकमात्र चीज जीवन है। प्रत्येक जीवित व्यक्ति के लिए जीवन सबसे अधिक प्रिय और संजोने योग्य होता है, सबसे बहुमूल्य होता है, और यही कारण है कि ये लोग मानवजाति के प्रति परमेश्वर के प्रेम की पुष्टि और गवाही के रूप में अपनी सबसे बहुमूल्य वस्तु—जीवन—अर्पित कर सके। अपनी मृत्यु के दिन तक उन्होंने परमेश्वर के नाम को नहीं नकारा, न ही परमेश्वर के कार्य को नकारा, और उन्होंने जीवन के अपने अंतिम क्षणों का उपयोग इस तथ्य के अस्तित्व की गवाही देने के लिए किया—क्या यह गवाही का सर्वोच्च रूप नहीं है? यह अपना कर्तव्य निभाने का सर्वश्रेष्ठ तरीक़ा है; अपना उत्तरदायित्व इसी तरह पूरा किया जाता है। जब शैतान ने उन्हें धमकाया और आतंकित किया, और अंत में जब उसने उनसे उनके प्राणों की कीमत भी वसूल ली, तब भी उन्होंने अपना कर्तव्य नहीं छोड़ा। यही अपना कर्तव्य चरम सीमा तक पूरा करना है। इससे मेरा क्या आशय है? क्या मेरा आशय यह है कि तुम लोग भी परमेश्वर की गवाही देने और उसके सुसमाचार का प्रसार करने के लिए इसी तरीके का उपयोग करो? तुम्हें हूबहू ऐसा करने की आवश्यकता नहीं है, किन्तु तुम्हें समझना होगा कि यह तुम्हारा दायित्व है, यदि परमेश्वर ऐसा चाहे, तो तुम्हें इसे कुछ ऐसा मानकर स्वीकार करना चाहिए जिसे करने को तुम कर्तव्यबद्ध हो। आज लोगों के मन में भय और चिंता व्याप्त है, किंतु ये अनुभूतियां किस काम की हैं? यदि परमेश्वर तुमसे ऐसा करने के लिए न कहे, तो इसके बारे में चिंता करने का क्या लाभ है? यदि परमेश्वर को तुमसे ऐसा कराना है, तो तुम्हें इस उत्तरदायित्व से न तो मुँह मोड़ना चाहिए और न ही इसे ठुकराना चाहिए। तुम्हें आगे बढ़कर सहयोग करना और निश्चिंत होकर इसे स्वीकारना चाहिए। मृत्यु चाहे जैसे हो, किंतु उन्हें शैतान के सामने, शैतान के हाथों में नहीं मरना चाहिए। यदि मरना ही है, तो उन्हें परमेश्वर के हाथों में मरना चाहिए। लोग परमेश्वर से आए हैं, और उन्हें परमेश्वर के पास ही लौटना है—यही विवेक और रवैया सृजित प्राणियों में होना चाहिए। यही अंतिम सत्य है, जिसे सुसमाचार का प्रचार करने और अपना कर्तव्य निभाने में हर किसी को समझना चाहिए—देहधारी परमेश्वर के कार्य और मानवजाति के उद्धार के सुसमाचार का प्रसार करने और उसकी गवाही देने के लिए मनुष्य को अपने जीवन की कीमत चुकानी ही होगी। यदि तुम्हारे मन में यह संकल्प है, यदि तुम इस तरह गवाही दे सकते हो, तो बहुत अच्छी बात है। यदि तुम्हारे मन में अभी तक इस प्रकार का संकल्प नहीं है, तो तुम्हें इतना तो करना ही चाहिए कि अपने सामने उपस्थित इस दायित्व और कर्तव्य को अच्छी तरह पूरा करो, और बाकी सब परमेश्वर को सौंप दो। शायद तब, ज्यों-ज्यों महीने और वर्ष बीतेंगे और तुम्हारे अनुभव और आयु में बढ़ोतरी होगी, और सत्य की तुम्हारी समझ गहरी होती जाएगी, तो तुम्हें एहसास होगा कि अपने जीवन के अंतिम पल तक भी, परमेश्वर के सुसमाचार कार्य के लिए अपना जीवन न्योछावर कर देना तुम्हारा दायित्व और जिम्मेदारी है।

अब इन विषयों पर चर्चा शुरू करने का सही समय है क्योंकि राज्य के सुसमाचार का प्रसार शुरू हो चुका है। इससे पहले, व्यवस्था के युग और अनुग्रह के युग में, कुछ प्राचीन पैगंबरों और संतों ने सुसमाचार का प्रचार करने में अपना जीवन न्योछावर कर दिया था, तो अंत के दिनों में पैदा हुए लोग भी इस मकसद के लिए अपना जीवन न्योछावर कर सकते हैं। यह कोई नई या अचानक हुई बात नहीं है, अतिशय माँग तो और भी नहीं है। यही वह काम है जो सृजित प्राणियों को करना चाहिए और यही वह कर्तव्य है जो उन्हें निभाना चाहिए। यह सत्य है; यह सर्वोच्च सत्य है। अगर तुम सिर्फ यह नारा लगाते हो कि तुम परमेश्वर के लिए क्या करना चाहते हो, तुम अपना कर्तव्य कैसे पूरा करना चाहते हो और तुम परमेश्वर के लिए खुद कितना खपना और देना चाहते हो, तो यह बेकार है। जब हकीकत से तुम्हारा सामना होगा, जब तुमसे अपने जीवन का बलिदान करने को कहा जाएगा तो क्या तुम अंतिम क्षण में शिकायत करोगे, क्या तुम इच्छुक होगे और क्या तुम वास्तव में समर्पण करोगे—यही तुम्हारे आध्यात्मिक कद की परीक्षा है। अगर जब तुम्हारा जीवन छीना जा रहा हो, तुम शांतचित्त हो, इच्छुक हो और बिना किसी शिकायत के आत्मसमर्पण करते हो, अगर तुम्हें लगता है कि तुमने अंत तक अपनी ज़िम्मेदारियाँ, दायित्व और अपना कर्तव्य पूरा किया है, अगर तुम्हारा दिल आनंदित और शांत है—अगर तुम्हारी मृत्यु इस तरह होती है, तो परमेश्वर की निगाह में तुम मरे ही नहीं हो। बल्कि, तुम दूसरे लोक में और दूसरे रूप में रह रहे हो। तुमने बस अपने जीने का तरीका बदल लिया है। तुम वास्तव में मरे तो बिल्कुल भी नहीं हो। मनुष्यों की नजर में, “यह व्यक्ति इतनी कम उम्र में चल बसा, कितने दुख की बात है!” मगर परमेश्वर की नजर में तुम न तो मरे हो, न ही दुख भोगने गए हो। इसके बजाय, तुम आशीष का आनंद लेने गए हो और परमेश्वर के करीब आए हो। क्योंकि, एक सृजित प्राणी के रूप में तुम पहले ही परमेश्वर की नजरों में अपना कर्तव्य निभाने में मानक स्तर तक पहुँच चुके हो, अब तुम्हारा कर्तव्य पूरा हो गया है, परमेश्वर को अब सृजित प्राणियों के बीच इस कर्तव्य को निभाने के लिए तुम्हारी आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर के लिए, तुम्हारे “जाने” को “जाना” नहीं कहा जाता, बल्कि इसे “ले जाया जाना,” “वापस ले जाया जाना,” या “अगुआई में ले जाना” कहा जाता है, और यह एक अच्छी बात है। क्या तुम लोग चाहते हो कि परमेश्वर द्वारा तुम्हें ले जाया जाए? (हम इसकी कामना करते हैं।) इसकी कामना मत करो। इस जीवन में ऐसी बहुत सी बातें हैं जिन्हें मनुष्य नहीं समझता। इस चरण पर पहुँचने में जल्दबाजी मत करना। वह दिन आने से पहले तुम्हें और सत्य समझने के लिए कठिन परिश्रम करना होगा और सृष्टिकर्ता के बारे में अधिक जानने की कोशिश करनी चाहिए। अपने पीछे कोई पछतावा मत छोड़ो। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि अपने पीछे कोई पछतावा मत छोड़ो? इस जीवन में लोगों के पास वास्तव में इतना समय नहीं होता कि वे चीज़ों की समझ रखने से आगे बढ़कर सृष्टिकर्ता के साथ संवाद करने के अवसर प्राप्त कर सकें, वह पात्रता और परिस्थितियाँ प्राप्त कर सकें, सृष्टिकर्ता के बारे में सच्ची समझ, ज्ञान और भय प्राप्त कर सकें, और परमेश्वर का भय मानने व बुराई से दूर रहने के मार्ग पर चल सकें। अगर अब तुम चाहते हो कि परमेश्वर जल्दी से तुम्हें अगुआई कर ले जाए तो तुम अपने इस जीवनकाल के प्रति जिम्मेदारी नहीं बरत रहे हो। जिम्मेदार होने के लिए तुम्हें खुद को जल्दी से सत्य से सुसज्जित करना चाहिए, जब तुम्हारे साथ कुछ घटे तो अधिक आत्म-चिंतन करना चाहिए और जल्दी से अपनी कमियाँ पूरी करनी चाहिए। तब तुम्हें सत्य का अभ्यास करने, सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम होना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के बारे में और अधिक जानना चाहिए, परमेश्वर के इरादों को जानने और समझने में सक्षम होना चाहिए और अपना जीवन व्यर्थ नहीं जीना चाहिए; तुम्हें यह जानना चाहिए कि सृष्टिकर्ता कहाँ है, सृष्टिकर्ता के इरादे क्या हैं और सृष्टिकर्ता का आनंद, क्रोध, दुख और खुशी कैसी होती है। भले ही तुम इन चीज़ों का गहरा ज्ञान प्राप्त न कर सको या उन सभी का ज्ञान प्राप्त न कर सको, पर कम से कम तुम्हें परमेश्वर के बारे में बुनियादी समझ तो होनी ही चाहिए, परमेश्वर से कभी विश्वासघात मत करो, परमेश्वर के प्रति बुनियादी अनुरूपता रखो, परमेश्वर के प्रति विचारशील रहो, परमेश्वर को बुनियादी संतोष दो, और वह सब करो जो एक सृजित प्राणी को करना चाहिए और जो वह मूल रूप से हासिल कर सकता हो। ये कोई आसान उपलब्धि नहीं हैं। अपने कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में लोग धीरे-धीरे खुद को और इस तरह परमेश्वर को जान सकते हैं। यह प्रक्रिया दरअसल सृष्टिकर्ता और सृजित प्राणियों के बीच एक मेलजोल है और यह एक ऐसी प्रक्रिया होनी चाहिए जो लोगों के लिए जीवनभर याद रखने लायक हो। यह प्रक्रिया ऐसी होनी चाहिए जिसका लोग वास्तव में आनंद उठा सकें, न कि ऐसी जो कष्टदायक और सहन करने में कठिन हो। इसलिए लोगों को अपने कर्तव्य निभाने में बिताए गए दिनों और रातों, वर्षों और महीनों को सँजोना चाहिए। उन्हें समय की इस अवधि को सँजोना चाहिए और इसे बोझ या बंधन न मानना चाहिए। उन्हें अपने जीवन के इस चरण का धीरे-धीरे रस लेकर अनुभव करना चाहिए, फिर सत्य को समझना चाहिए और कुछ-कुछ मानव-सा जीवन जीना चाहिए, परमेश्वर का भय मानने वाला दिल रखना चाहिए, और बुराई करते-करते उसे कम से कम करना चाहिए। यदि तुम बहुत-सा सत्य समझते हो, तो ऐसे कार्य मत करो जो परमेश्वर को उदास कर दें या जिनसे वह घृणा करने लगे, और जब तुम परमेश्वर के सामने आओ तो तुम्हें यह लगे कि परमेश्वर अब तुमसे घृणा नहीं करता, तो यह अत्यंत अद्भुत बात है! जब कोई यहाँ तक पहुँच जाएगा, तो यहाँ तक कि अगर वह मर भी जाए तो क्या उसे शांति नहीं मिलेगी? तो फिर उन लोगों का क्या मामला है जो अभी मरने की भीख माँग रहे हैं? वे बस बचकर भागना चाहते हैं और कष्ट नहीं सहना चाहते। वे चाहते हैं कि यह जीवन तुरंत खत्म हो जाए, ताकि वे खुद को परमेश्वर के समक्ष प्रस्तुत कर सकें। तुम परमेश्वर के समक्ष प्रस्तुत होना चाहते हो, पर परमेश्वर तुम्हें अभी लेना नहीं चाहता। तुम परमेश्वर के बुलाने से पहले ही उसके पास क्यों जाना चाहोगे? अपना समय आने से पहले उसके पास मत जाओ? यह अच्छी बात नहीं है। अगर तुम एक सार्थक और मूल्यवान जीवन जीते हो और तब परमेश्वर तुम्हें लेकर जाता है, तो यह एक शानदार बात है!

क्या आज की चर्चा तुम लोगों को समझ आई? मैं उम्मीद करता हूँ कि इन बातों से तुम्हारे ऊपर अतिरिक्त बोझ नहीं आया है, और मुझे आशा है कि आज की संगति की सामग्री ने तुम्हें डराया नहीं है। बल्कि, मैं उम्मीद करता हूँ कि इससे तुम लोग कुछ सत्यों को समझ पाए जो तुम्हें समझने चाहिए, ताकि तुम परमेश्वर में आस्था के मामले में बेहतर पकड़ बना सको, और इसके बारे में अधिक स्थिर और स्पष्ट महसूस कर सको। क्या मेरी बातों का यही असर हुआ है? (हुआ है।) मुझसे इसका वर्णन करो। (इससे पहले, मैं असल में सुसमाचार प्रचार को अपना कर्तव्य नहीं मानता था। मैंने अपने दिल में कई भ्रामक विचार पाल रखे थे। मुझे लगता था कि मुझे सुसमाचार प्रचार का कर्तव्य तभी सौंपा जाएगा अगर मैं अपने बाकी कर्तव्यों को ठीक से नहीं निभाऊँगा। मुझे लगता था कि सुसमाचार का प्रचार करना सबसे बुरा कर्तव्य था, और मैं वास्तव में सुसमाचार के प्रचार को परमेश्वर द्वारा मनुष्य को सौंपा गया आदेश नहीं मानता था। आज, परमेश्वर की संगति ने हमें बताया कि सुसमाचार का प्रचार करना और परमेश्वर की गवाही देना मनुष्य की जिम्मेदारी है और लोगों को इस जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए कर्तव्यबद्ध महसूस करना चाहिए। तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि मेरे विचार बेहद बेतुके थे, और उनके कारण मेरी सोच ऐसी हो गई थी कि मैं वास्तव में सुसमाचार प्रचार का कर्तव्य ठीक से निभाना ही नहीं चाहता था। आज परमेश्वर की संगति सुनकर मेरे विचार बदल गए हैं।) बहुत अच्छे। क्या और कोई कुछ बोलना चाहता है? (मैं सोचता था कि मैं बस एक छोटा सा सृजित प्राणी हूँ, और मैंने इस कर्तव्य के निर्वहन को कोई बड़ा मामला नहीं माना। मुझे लगा कि मेरा कर्तव्य महत्वहीन और ध्यान देने लायक नहीं था। लेकिन आज मैंने परमेश्वर को यह कहते सुना कि हर एक व्यक्ति द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्य उसने पूर्वनियत कर रखे हैं और वे सभी उसके द्वारा सावधानी से नियोजित और व्यवस्थित किए हुए हैं। अगर लोग लगन से अपने कर्तव्य नहीं निभाते हैं, तो वे अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों से बच रहे हैं। विशेष रूप से, जब मैंने परमेश्वर की संगति में यह सुना कि सुसमाचार का प्रचार करना और परमेश्वर की गवाही देना एक ऐसा कार्य है जिसे परमेश्वर हर किसी को सौंपता है और यह सृजित प्राणियों की जिम्मेदारी है, तो इसने मुझे परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत मार्ग पर चलने के लिए बहुत आस्था ही और बहुत संकल्प प्रदान किया। मैं अपने जीवन की ज़िम्मेदारी लेना चाहता हूँ, अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहता हूँ, और अपना मिशन पूरा करना चाहता हूँ। तभी मैं परमेश्वर को थोड़ी सांत्वना दे पाऊँगा। परमेश्वर की संगति सुनकर मेरा हृदय बहुत द्रवित हो गया। मुझे लगा कि परमेश्वर ने मुझे जो आदेश दिया है, उसे मैं अब कम करके नहीं आँक सकता।) बढ़िया कहा। सबको यही लगता है, है न? (हाँ।) जैसा कि तुम देख सकते हो, जब लोग सत्य नहीं समझते, तो वे भ्रमित हो जाते हैं और सुसमाचार का प्रचार करने जैसी बड़ी चीज को भी अनदेखा कर सकते हैं। लेकिन, जब सत्य पर स्पष्ट संगति की जाती है, तो लोगों को इस बात का महत्व समझ आता है, वे अपनी स्थिति समझते हैं, और उन्हें अपने जीवन का मूल्य पता चलता है। क्या इसका मतलब यह है कि उन्हें दिशा मिल गई है? (हाँ।) सत्य लोगों के हृदयों को बदल सकता है। सत्य के अलावा, क्या ऐसा कोई सिद्धांत है जो तुम्हारे दिल को छू सकता है और तुम्हारे दृष्टिकोण बदल सकता है? नहीं, केवल सत्य के वचन ही तुम्हारे दृष्टिकोण बदल सकते हैं। ऐसा क्यों है कि ये वचन तुम्हारे दृष्टिकोण बदल सकते हैं? क्योंकि ये सत्य इतने व्यावहारिक हैं कि कोई भी इनका खंडन नहीं कर सकता। ये सत्य मनुष्य के जीवन और मानव जीवन के मिशन से संबंधित हैं। वे मनुष्यों से बहुत करीब से जुड़े हुए हैं; वे उनके लिए निरर्थक नहीं हैं। वे कोई छोटी-मोटी चीजें नहीं, बल्कि मनुष्य के जीवन के मिशन और जीवन जीने के मूल्य और अर्थ से जुड़ी चीजें हैं। इसलिए, जब इन्हें स्पष्टता से कहा जाता है, तो ये वचन लोगों के हृदयों को बदल सकते हैं, ताकि वे इन वचनों को स्वीकार कर अपने विचार बदल सकें। आज की संगति ने अपने कर्तव्यों के प्रति लोगों के रवैये को बदलने में एक निश्चित भूमिका निभाई होगी। अगर ये सत्य लोगों के जीवन, उनके जीने के तरीके, और अपने अनुसरण में चुनी गई उनकी दिशा को बदल सकते हैं, तो यह शानदार होगा। इसका मतलब यह होगा कि आज मेरी कही बातें बेकार नहीं गई हैं। अब जबकि मैंने इन सत्यों पर अपनी संगति पूरी कर ली है, तो तुम्हें धीरे-धीरे उन्हें अपने दैनिक जीवन में लागू करना, उनका अनुभव करना और अंदर तक पचाना चाहिए। जब ये सत्य तुम्हारी वास्तविकता और तुम्हारा जीवन बन जाएँगे, तब परमेश्वर सृजित प्राणी की तुम्हारी उपाधि नहीं मिटाएगा और तुमने वास्तव में कुछ पा लिया होगा। ऐसे समय में, जब परमेश्वर वास्तव में तुमसे अपना जीवन त्यागकर उसका उपयोग उसके कर्मों की गवाही देने और उसके सुसमाचार की गवाही देने के लिए करने को कहेगा, तो तुम चिंतित और भयभीत नहीं होगे, और बेशक तुम इससे इनकार नहीं करोगे। तुम खुशी-खुशी इसे स्वीकार लोगे। चूँकि यह सृष्टिकर्ता द्वारा तुम्हें सौंपा गया आदेश है, तो तुम इसे परमेश्वर से स्वीकार लोगे। इसलिए, उस दिन का इंतज़ार करने और उसका स्वागत करने के लिए, इन सत्यों को समझ पाने के अलावा, लोगों को अब खुद को परमेश्वर के वचनों से सुसज्जित करने के साथ ही परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर के स्वभाव की और अधिक एवं गहरी समझ हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए। यही है जो सबसे महत्वपूर्ण है।

25 दिसंबर 2018

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परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 8) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 9) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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