सत्‍य का अभ्‍यास करना क्‍या है?

बहुत-से लोग अनेक वर्षों तक धर्मोपदेश सुनते हैं, मगर समझ नहीं पाते कि सत्य क्या है, या उन्हें सत्य के किस पहलू पर गहराई से ध्यान देना चाहिए। वे सिर्फ सुन लेते हैं, बस इतना ही, वे बिना दिल वाले, निर्विचार इंसानों की तरह हमेशा लापरवाह होते हैं। कोई अचरज नहीं कि अनेक वर्ष परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी वे अनुभवजन्य गवाही से रिक्त होते हैं। सत्य का सचमुच अनुसरण करने वाले व्यक्ति को आत्मचिंतन करना चाहिए : क्या मेरी कथनी और करनी सत्य के अनुरूप है? मुझमें किस चीज का अभाव है? किन कमियों को मुझे पूरा करना चाहिए? मैं अपना कर्तव्य कितने अच्छे ढंग से निभा रहा हूँ? क्या मैं सिद्धांतों के अनुसार काम कर पा रहा हूँ? अगर तुम्हारे मन में इन चीजों के बारे में स्पष्टता नहीं है, तो तुम सत्य का अनुसरण करने वालों में से नहीं हो। अगर तुम सत्य का अनुसरण कर उसे पाना चाहते हो, तो तुम्हें अक्सर परमेश्वर के वचन पढ़कर उनके बारे में चिंतन-मनन करना चाहिए। तुम जो भी कर्तव्य निभाते हो, तुम्हें चिंतन-मनन करके वे सत्य मालूम करने चाहिए जो तुम्हें समझने की जरूरत है, और तुम जितने भी सत्य समझ सको, उनका अभ्यास और अनुभव करना चाहिए। तुम्हें हमेशा विचार करना चाहिए, “क्या मैंने इस सत्य का अभ्यास कर उसमें प्रवेश किया है? यह सत्य जीवन के किन पहलुओं का संदर्भ देता है? किन परिवेशों का? किन परिस्थितियों का?” तुम्हारे मन में ये सवाल स्थायी रूप से बसे रहने चाहिए, और तुम्हें अपने खाली समय में इन्हें समझने की कोशिश करनी चाहिए। अगर तुम इस बारे में सोचकर भी न समझ सको, तो तुम्हें प्रार्थना करके पढ़ना चाहिए, परमेश्वर के सामने आकर अपना दिल खोल देना चाहिए। ज्यादातर लोग परमेश्वर में अपने विश्वास में सत्य पर अपना दिल नहीं लगाते। उनके दिल कहाँ होते हैं? उनके दिल हमेशा बाहरी मामलों में, दिखावे और अभिमान के मामलों में, और सही क्या और गलत क्या लेकर बुरी तरह चिंतित रहते हैं। वे नहीं जानते कि कौन-सी चीजें सत्य से संबंधित हैं और कौन-सी नहीं, वे सोचते हैं, “अगर मैं परमेश्वर के घर में कुछ कर रहा हूँ, अपना कर्तव्य निभाने के लिए भाग-दौड़कर कष्ट सह रहा हूँ, तो मैं सत्य का अभ्यास कर रहा हूँ।” यह गलत है। परमेश्वर के घर के लिए काम करके, भाग-दौड़कर और कष्ट सहकर क्या कोई सत्य का अभ्यास कर रहा है? क्या ऐसा कहने का कोई आधार है? काम करते हुए कष्ट सहना और सत्य का अभ्यास करना, दो अलग-अलग चीजें हैं। अगर तुम नहीं जानते कि सत्य क्या है, तो उसका अभ्यास कैसे करोगे? क्या यह बेतुका नहीं है? तुम इंसानी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार काम कर रहे हो, तुम उलझन की स्थिति में हो, अपने ही विचारों के अनुसार काम कर रहे हो। तुम्हारा दिल उलझन में है, तुम्हारे सामने कोई लक्ष्य, दिशा या सिद्धांत नहीं हैं। तुम बस काम किए जा रहे हो, और ऐसा करते हुए कष्ट सह रहे हो—इसका सत्य के अभ्यास से क्या संबंध है? अगर लोग सत्य को नहीं समझते, तो चाहे जो करें, जो भी कष्ट सहें, वे सत्य का अभ्यास करने से बहुत दूर हैं। लोग हमेशा अपनी इच्छा के अनुसार और सिर्फ काम पूरा करने के लिए कुछ करते हैं; वे बिल्कुल नहीं सोचते कि उनके कार्यकलाप सत्य सिद्धांतों के अनुसार हैं या नहीं। अगर तुम नहीं जानते कि तुम जो कर रहे हो वह सत्य के अनुरूप है या नहीं, तो यकीनन तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे हो। कुछ लोग कह सकते हैं, “मैं कलीसिया के लिए काम कर रहा हूँ। क्या यह सत्य का अभ्यास करना नहीं है?” यह सरासर गलत है। क्या कलीसिया के लिए काम करने का अर्थ सत्य का अभ्यास करना है? जरूरी नहीं—इसे सिर्फ यह देखकर ही तय किया जा सकता है कि उस व्यक्ति के कार्यकलापों के पीछे सिद्धांत हैं या नहीं। अगर किसी व्यक्ति के काम के पीछे सिद्धांत नहीं हैं, तो वह चाहे किसी के लिए भी काम करे, सत्य का अभ्यास नहीं कर रहा है। अगर वह कुछ अच्छा कर रहा है, तो भी सत्य का अभ्यास माने जाने के लिए जरूरी है कि वह सत्य सिद्धांतों के अनुसार किया जाए। अगर वह सिद्धांतों का उल्लंघन करता है, तो उसका किया कोई भी नेक काम सिर्फ अच्छा व्यवहार है, और यह सत्य का अभ्यास करने के मानक तक नहीं पहुँचता। फिलहाल बहुत-से ऐसे लोग हैं, जो अपना कर्तव्य निभाते समय सत्य सिद्धांतों को प्राप्त करने का प्रयास नहीं करते, यानी वे सिर्फ श्रम कर रहे हैं। अगर कोई व्यक्ति सत्य के प्रति कभी प्रयासरत नहीं होता तो वह अपना कर्तव्य इस ढंग से नहीं निभा सकता जो मानक स्तर का हो; ऐसा इंसान निश्चित रूप से परमेश्वर के लोगों में से एक नहीं हो सकता, ऐसे लोगों को सिर्फ श्रमिक कहा जा सकता है। अगर वे अंत तक श्रम करने में जुटे रहे, तो उन्हें वफादार श्रमिक माना जा सकता है और उन्हें बने रहने दिया जा सकता है। लेकिन अगर श्रम करने के दौरान वे कोई बुरा काम करते हैं, तो उन्हें इस दौरान हटा दिया जाएगा, जो कि एक किराए के मजदूर की तरह बर्खास्त किए जाने जैसा है। ज्यादातर श्रमिक इसी तरह हटा दिए जाते हैं। उनका श्रम मानक स्तर का नहीं है, इसलिए वे यकीनन अडिग नहीं रह पाते हैं।

सत्य का अभ्यास करना क्या है? कोई कार्य करते या कर्तव्य निभाते समय, कोई व्यक्ति सत्य का अभ्यास कैसे करता है या कैसे नहीं करता है? सत्य का अभ्यास न करने का अर्थ है कि किसी व्यक्ति द्वारा किया जा रहा काम सत्य से संबंधित नहीं है। वह व्यक्ति कोई कर्तव्य निभा रहा होगा, मगर उसके ऐसा करने का सत्य से बहुत कम संबंध है। यह सिर्फ एक अच्छे व्यवहार जैसा है, और इसे एक अच्छा कर्म माना जा सकता है, लेकिन यह सत्य का अभ्यास करने से बहुत दूर है—इन चीजों के बीच अंतर है। यह अंतर क्या है? कोई काम करते समय तुम सिर्फ एक कार्य-सीमा या विनियमों का पालन करते हो। तुम परमेश्वर के घर के हितों को कोई हानि नहीं होने देते, तुम थोड़ी ज्यादा भाग-दौड़ करते हो, थोड़ा ज्यादा कष्ट सहते हो, तुमने ये चीजें हासिल कर ली हैं और अगर तुमसे की गयी अपेक्षाएँ खास ऊँची नहीं हैं तो तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन मानक स्तर का हो सकता है। लेकिन एक और चीज पर भी विचार करना चाहिए : क्या तुमने वह काम करते समय, अपने भीतर के भ्रष्ट स्वभाव, विचारों और उन बातों को खंगालकर बाहर निकाला है जो परमेश्वर को अप्रसन्न करते हैं? क्या तुमने यह काम करके और अपना कर्तव्य निभाकर सच्चा आत्मज्ञान प्राप्त किया है? क्या तुम्हें अभ्यास कर प्रवेश करने के लिए सत्य मिल पाया है? (कभी-कभार—कभी-कभी मैं खुद को परमेश्वर के वचनों के आईने में परख लेता हूँ, खुद को थोड़ा जान लेता हूँ, बस इतना ही।) फिर ज्यादातर तुम्हें अपने बारे में सैद्धांतिक और फार्मूला वाला ज्ञान ही होता है, व्यावहारिक ज्ञान नहीं। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो फिर भले ही तुमने बड़ी गलतियाँ न की हों, बड़े सिद्धांतों का उल्लंघन न किया हो, और तुमने जानबूझकर बुरे काम न किए हों, और थोड़ी मानवता वाले नेक इंसान लगते हो, फिर भी तुमने सत्य का अभ्यास नहीं किया है या उसे हासिल नहीं किया है और तुममें त्रुटियों का न होना, और मानवता वाला तुम्हारा रूप सत्य के अनुरूप होने या उसका अभ्यास करने के समान नहीं है। ये चीजें सत्य का अभ्यास करने से बहुत दूर और साफ तौर पर अलग हैं। कुछ वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, बहुत-से लोगों को पता चलता है कि वे ठेठ श्रमिक हैं। उन्हें अचरज होता है कि वे श्रमिक कैसे बन गए, मगर बहुत सोच-विचार के बाद भी उन्हें उत्तर नहीं मिलता। परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करते ही लोग श्रमिक बनने का इरादा नहीं रखते। वे अच्छे विश्वासी बनना चाहते हैं, सत्य की समझ हासिल करना चाहते हैं, और आखिरकार बचाए जाकर स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना चाहते हैं—या कम-से-कम जीवित रहने लायक होना चाहते हैं। वे यह भी सोचते हैं कि विश्वासियों के रूप में उन्हें परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहना और उसके प्रति समर्पित होना चाहिए। बिना किसी एहसास के वे श्रमिक कैसे बन जाते हैं? ऐसा इसलिए क्योंकि तुम अपने कर्तव्य में और परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए बनाए गए परिवेशों में कभी भी सत्य का अभ्यास या सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाते हो—तुम अपना कर्तव्य निभाने के बजाय हमेशा प्रयास करते रहते हो। कारण यही है। तो, कुछ समय तक अपना कर्तव्य निभाने के बाद जब तुम शांतचित्त होकर सोचते हो, “इस दौरान मैंने क्या पाया? एक बार जब मैं बाहर गया, तो लगभग खतरे में पड़ गया, मगर परमेश्वर ने मेरी रक्षा की,” क्या यह देखना कि परमेश्वर ने तुम्हारी रक्षा की, उसको जानना माना जा सकता है? ये चीजें तुम्हें परमेश्वर में अपनी आस्था बढ़ाने को प्रेरित नहीं कर सकतीं, न ही तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव और प्रकृति सार की सच्ची समझ पाने लायक बना सकती हैं। इस दौरान तुमने अपना कर्तव्य कैसे निभाया, इस बारे में पीछे मुड़कर सोचो, तो क्या तुमने अपने जीवन प्रवेश में कोई तरक्की की है? अगर तुमने अपना कर्तव्य निभाते समय सत्य को अभ्यास में लाया है, और सिद्धांतों के अनुसार काम किया है, तो तुम जरूर तरक्की करोगे। अगर तुम कहते हो, “अगर चीजों का सकारात्मक पहलू देखें, तो परमेश्वर को जानने का सत्य गूढ़ है; अब तक मैंने इससे ज्यादा कुछ सीखा या पाया नहीं है। लेकिन चीजों का नकारात्मक पहलू देखें, तो मुझे मालूम है कि जिन भ्रष्ट स्वभावों को पहचानना सबसे कठिन है वे परमेश्वर द्वारा उजागर किए गए लोगों के भ्रष्ट स्वभाव हैं : उनका सार जो परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण और उसका प्रतिरोध करने वाला है, उनकी दुष्ट प्रकृति और धूर्तता है, साथ ही परमेश्वर द्वारा उजागर किया गया लोगों के दिलों में गहरे छिपा भ्रष्ट स्वभाव है। पहले मैं इसे खुद से जोड़ नहीं पाया था, मगर अब इसे समझ सका हूँ, वह संबंध जोड़ सका हूँ, और मेरे दिल को इसका थोड़ा आभास है।” यह तरक्की है। तुम्हारे मन में ये भावनाएँ हैं, और जब तुम शांतचित्त होकर इस बारे में ध्यान से सोचने की कोशिश करोगे, तो पाओगे कि परमेश्वर में अनेक वर्ष से विश्वास का तुम्हारा अनुभव बेहद उथला है, और देख पाओगे कि तुममें बहुत-सी चीजों की कमी है। तुम्हें अपनी भ्रष्टता के सत्य की थोड़ी समझ है, मगर तुमने अभी-अभी प्रायश्चित्त करना शुरू किया है। तुम कम पाप करते हो, और व्यवहार में थोड़े-से बदलाव दिखाते हो, मगर यह जीवन स्वभाव में बदलाव से बहुत दूर की बात है। कुछ वर्षों का और अनुभव होने, अपने भ्रष्ट स्वभाव की गहरी समझ आने, और अपने जीवन स्वभाव में कुछ बदलाव आने के बाद, तुम्हें अंततः महसूस होगा कि तुम्हें परमेश्वर से महान उद्धार मिला है, और फिर तुम कहोगे, “मनुष्य को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन सत्य हैं, और मैं परमेश्वर के वचनों के लिए आमीन कहता हूँ। उसके वचन सत्य हैं, और वे कितने सत्य हैं!” जब लोग खुद को नहीं जानते, तो वे सब कहते हैं, “दूसरे लोग परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं, मगर मैं कभी धोखा नहीं दूँगा। दूसरे लोग परमेश्वर को त्याग सकते हैं, मगर मैं कभी उसका त्याग नहीं करूँगा।” क्या ये खोखली बातें नहीं हैं? तथ्यों के खुलासे से, लोगों को आभास हो सकेगा कि वे खुद बेहद गैर-भरोसेमंद हैं, उन्हें अपनी देखभाल और रक्षा के लिए परमेश्वर की जरूरत है, वे परमेश्वर की देखभाल को सच में छोड़ नहीं सकते, परमेश्वर के अनुग्रह और दया के जरिए ही लोग आज इस स्थिति तक पहुँच सके हैं, और उनके पास डींग हाँकने के लिए कुछ भी नहीं है। अगर तुम्हारी यह भावना है, तो यह तुम्हारे अनुभव से आती है, इसलिए नहीं कि दूसरों ने तुम्हारे मन में इसे बिठाया है। तुम्हारे निजी अनुभवों और गुजरे हालात से ऐसी भावना आती है। ये चीजें बहुत व्यावहारिक और गूढ़ हैं, लोगों द्वारा अक्सर बोले गए बड़े-बड़े खोखले शब्दों से कहीं ज्यादा व्यावहारिक। जब तुम्हें ऐसा अनुभव हो, और तुम्हारे दिल में ऐसी भावना हो, तो वह परमेश्वर और उसके वचनों का और सत्य का प्यासा होगा। तुम्हें परमेश्वर के वचन संजोने की प्रेरणा मिलेगी, उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव करने की प्रेरणा मिलेगी, और तुम परमेश्वर के साथ अपने संबंध में एक कदम करीब आ जाओगे। यह इस बात का सबूत है कि तुम परमेश्वर में आस्था के सही रास्ते पर हो, और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना शुरू कर चुके हो। वे लोग जो हमेशा सिर्फ शब्दों, धर्म-सिद्धांतों और खोखले सिद्धांतों का प्रचार करते हैं, वे और भी दूर फेंक दिए जाते हैं, और परमेश्वर के घर में और भी अधिक अलग-थलग और शर्मसार कर दिए जाते हैं। उन्हें आत्मचिंतन करना चाहिए, और अब उनके लिए जागरूक होने का समय आ गया है।

ये मापने के मानदंड क्या हैं कि किसी व्यक्ति के पास सत्य वास्तविकता है या नहीं? यह फैसला करने का क्या मापदंड है कि कोई व्यक्ति सत्य का अभ्यास कर रहा है या नहीं? तुम्हें यह देखना चाहिए कि उसके साथ कुछ घटने पर परमेश्वर के प्रति उसका रवैया क्या होता है, क्या वह सत्य को खोज सकता है, क्या उसे सच्चा आत्मज्ञान है, और क्या वह परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रह सकता है। इन चीजों को स्पष्टता से देखकर ही तुम तय कर सकते हो कि वह सत्य का अभ्यास कर रहा है या नहीं, या उसके पास सत्य वास्तविकता है या नहीं। अगर कोई व्यक्ति हमेशा शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करता है और किसी भी घटना या स्थिति आने पर बड़ी-बड़ी बातें करता है, तो यह स्पष्ट है कि उसके पास सत्य वास्तविकता नहीं है। जिन लोगों के पास सत्य वास्तविकता नहीं है, उन पर किसी भी घटना या स्थिति आने पर, क्या वे सत्य को अभ्यास में ला सकते हैं? वे ऐसा बिल्कुल भी नहीं कर सकते। वे कह सकते हैं, “मेरे साथ ऐसा हो गया है, मैं परमेश्वर के प्रति समर्पण करता हूँ!” तुम परमेश्वर को समर्पण क्यों करना चाहते हो? सिद्धांत सही है, मगर तुम अपनी भावनाओं के आधार पर ऐसा कर रहे होगे, ऐसे तरीके से जिसे तुमने नापा-तौला है, और खुद इसका फैसला लिया है। तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण करने की बात कहते हो, मगर दिल से तुम परमेश्वर के हर कार्य पर शक करते हो। तुम नहीं समझते कि परमेश्वर अपने तरीके से कार्य क्यों करता है, फिर भी खुद से कहते रहते हो कि तुम्हें उसके आगे समर्पण करना चाहिए, जबकि दरअसल तुम्हारी कोई मंशा नहीं है। तुम सिर्फ बाहर से गैर-प्रतिरोधी लगते हो, शिकायत न करने वाले और बात मानने वाले लगते हो। लगता है तुमने समर्पण कर दिया है, मगर ऐसा समर्पण सिर्फ शब्दों का है, केवल दिखावे के लिए, और सिर्फ विनियमों का पालन है। तुम समर्पण का अभ्यास नहीं कर रहे हो। तुम्हें उस भ्रष्ट स्वभाव को बाहर खींचकर उसका गहन-विश्लेषण करना चाहिए, जो तुम्हें समर्पण करने से रोकता है, और इसे परमेश्वर के वचनों से तुलना का आईना दिखाना चाहिए। अगर तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव का सच्चा ज्ञान पा सको, परमेश्वर को सही मायनों में समझ सको, और यह जान सको कि वह अपने तरीके से कोई कार्य क्यों करता है, अगर तुम यह पूरी तरह से समझ सको, तब तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हो। तुम कहोगे, “कष्ट कितना भी ज्यादा क्यों न हो, मुझे कितनी भी कमजोरी या दुख महसूस क्यों न हो, मैं नकारात्मक नहीं बनूँगा, और परमेश्वर के प्रति समर्पण करूँगा, क्योंकि मैं जानता हूँ कि परमेश्वर जो कुछ करता है अच्छा ही करता है, और उसका किया हर काम सही होता है। वह कोई भी गलत काम नहीं करता।” यह समझ हासिल कर लेने पर तुम्हारी समस्या पूरी तरह से सुलझ जाएगी। कुछ लोग इस तरह सत्य नहीं खोजते और इस तरह समस्याओं का समाधान भी नहीं करते। वे सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करते हैं, और ऐसा लगता है मानो वे हर चीज समझते हैं, लेकिन जब उन पर कोई असली मुसीबत टूटती है, तो वे चाहकर भी सत्य पर अमल नहीं कर सकते। उनके दिलों में शिकायतें और गलतफहमियाँ बनी रहती हैं—फिर भी वे समस्या सुलझाने के लिए सत्य नहीं खोजते। ये शिकायतें और गलतफहमियाँ लोगों के भीतर छुपी होती हैं। दरअसल वे कैंसर हैं, और सही परिस्थितियों में फूट पड़ेंगे। ऐसा होने से पहले, लोग उन्हें महसूस नहीं कर पाते, और सोचते हैं कि वे संपूर्ण सत्य समझते हैं, और उन्हें कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन बाद में जब कोई घटना या स्थिति उन पर आती है, तो वे सत्य को अभ्यास में नहीं ला पाते। इससे साबित होता है कि तुममें परमेश्वर के प्रति सच्ची आस्था नहीं है, और तुम वास्तव में सत्य को नहीं समझते। इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि तुम कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार कर सकते हो, और सिर्फ कुछ विनियमों का पालन कर लेते हो। हालाँकि कभी-कभी तुम समर्पण करने में समर्थ हो जाते होगे, यह विनियमों के पालन का समर्पण है, और बहुत ही सीमित समर्पण है। अगर तुम पर तुम्हारी धारणाओं से मेल न खाने वाली कोई घटना या स्थिति आती है, तो तुम समर्पण नहीं कर पाओगे। यह दर्शाता है कि तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण नहीं कर सकता और तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव अनसुलझा है, बदला नहीं है। तुम्हें अपने ऊपर आने वाली किसी भी चीज के प्रकाश में अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानना चाहिए, परमेश्वर के सभी कार्यों को जानना, समझना और उनके प्रति विचारशील होना चाहिए। इसके बाद, तुम्हें दिल से और सच्चा समर्पण करना चाहिए, और चाहे तुम पर जो भी आए, और यह जितनी भी तुम्हारी धारणाओं से मेल न खाए, तुम्हें समर्पण करने में समर्थ होना चाहिए। परमेश्वर को सच्चा समर्पण करने वाला और सचमुच बदला हुआ व्यक्ति बनने के लिए इस स्तर तक पहुँचना अनिवार्य है।

ज्यादातर लोग जिन्होंने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, नहीं जानते कि परमेश्वर के प्रति समर्पण करना क्या होता है। वे सिर्फ शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलना जानते हैं, यह नहीं कि सत्य का अभ्यास करना क्या होता है, या परमेश्वर के प्रति समर्पण करने के लिए कैसे सत्य का अभ्यास करें। ऐसा क्यों है? कुछ लोग अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं, और जब परमेश्वर का कहा कुछ उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होता, तो वे समर्पण नहीं कर पाते। फिर उनके मन में परमेश्वर को लेकर धारणाएँ और गलतफहमियाँ पैदा हो जाती हैं, और वे सत्य को नहीं खोजते। अगर वे सच में परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाले लोग होते, तो परमेश्वर के वचन मानवीय धारणाओं के अनुरूप होने या न होने पर भी समर्पण कर पाते, क्योंकि परमेश्वर के प्रति मनुष्य का समर्पण पूरी तरह स्वाभाविक और न्यायोचित है। अगर कोई इस प्रकार से अभ्यास करता है, तो वह परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है, और इस अभ्यास से अगर कोई व्यक्ति सत्य को समझ पाता है, तो फिर उसमें परमेश्वर के प्रति समर्पण की वास्तविकता है। जब ज्यादातर लोग सत्य का अभ्यास करने की कोशिश करते हैं, तो वे सिर्फ परमेश्वर के वचनों के शाब्दिक सिद्धांत का अभ्यास करते हैं, और सोचते हैं कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं। सच तो यह है कि ऐसा करना सत्य के अभ्यास के मानक तक नहीं पहुँचता। सत्य के अभ्यास के कुछ सिद्धांत अवश्य होंगे। अगर कोई व्यक्ति अभ्यास के सिद्धांत नहीं ढूँढ़ पाता, तो वह सिर्फ विनियमों का पालन कर रहा है, और इस अभ्यास में सिद्धांतों के अनुसार काम करने के लिए आवश्यक बारीकियों का अभाव होता है। बहुत-से लोग सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के विनियमों से चिपके रहते हैं और उनके अभ्यास के कोई सिद्धांत नहीं होते हैं। यह सत्य का अभ्यास करने के मानकों पर खरा नहीं उतरता। धर्म में सभी लोग अपनी ही धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार कार्य करते हैं और सोचते हैं कि यही सत्य का अभ्यास करना है। उदाहरण के लिए, वे प्रेम के बारे में या विनम्रता के बारे में प्रचार कर सकते हैं, मगर वे सिर्फ कर्णप्रिय शब्द दोहराने के सिवाय कुछ नहीं करते हैं। उनके अभ्यास के कोई सिद्धांत नहीं होते, और वे बेहद बुनियादी चीजों को पकड़ने में सक्षम नहीं होते। ऐसा अभ्यास करके वे सत्य वास्तविकता में कैसे प्रवेश कर सकते हैं? सत्य ही परमेश्वर का वचन है; इसकी वास्तविकता को मनुष्य जीता है। जब तक कोई व्यक्ति सत्य का अभ्यास करके परमेश्वर के वचनों का जीवन नहीं जीता, तब तक उसके पास सत्य वास्तविकता नहीं हो सकती। परमेश्वर के वचनों के अभ्यास और अनुभव के जरिए लोग पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और परमेश्वर के वचनों का सच्चा ज्ञान हासिल कर पाते हैं। तभी वे सत्य को समझते हैं। सत्य को सच में समझने वाले लोग ही अभ्यास के सिद्धांत तय कर पाते हैं। जब तुम अभ्यास के सिद्धांतों को पूरी तरह समझ जाते हो, तब तुम्हारी कथनी और करनी में सिद्धांत होंगे, और तुम्हारा कर्तव्य-निर्वाह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होगा। यही सत्य का अभ्यास करना है; यही सत्य वास्तविकता प्राप्त करना है। सत्य वास्तविकता का जीवन जीने के बाद ही तुम सत्य का अभ्यास कर रहे होगे, और अगर तुम सत्य वास्तविकता का जीवन नहीं जीते, तो तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे हो। सत्य का अभ्यास करना सिर्फ विनियमों के पालन का मामला नहीं है, जैसा कि लोग सोचते हैं, और किसी को अपनी इच्छानुसार अभ्यास नहीं करना चाहिए। अभ्यास करने और उसके वचनों का अनुभव करने के दौरान परमेश्वर देखता है कि क्या तुम सच में सत्य को समझते हो, और क्या तुम्हारी कथनी और करनी में सत्य सिद्धांत हैं। अगर तुम सत्य को समझकर उसे अमल में ला सकते हो, तो तुम्हारे पास जीवन प्रवेश है। परमेश्वर के वचनों का तुम्हें जो भी अनुभव और ज्ञान है, जो भी अंतः अनुभूति तुम्हें हुई है, इन सबका तुम्हारे जीवन प्रवेश से सीधा संबंध है। अगर तुमने बहुत-सी चीजों का अनुभव किया है, तुम बहुत बार विफल हुए हो, वास्तविक सबक सीख चुके हो और तुमने व्यावहारिक अनुभव हासिल किए हैं तो तुम्हें लग सकता है कि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है। क्या यह सटीक है? नहीं। क्या ऐसी भावना भरोसेमंद है? यह भरोसेमंद भी नहीं है। जिन लोगों को सत्य वास्तविकता प्राप्त है, वे परमेश्वर के प्रति समर्पण कर उसकी गवाही दे सकते हैं, और उनकी गवाही सुनना दूसरों के लिए बहुत शिक्षाप्रद होता है। ऐसे लोग ही सत्य वास्तविकता प्राप्त माने जा सकते हैं। जो व्यक्ति सत्य को समझने वाले लोगों की स्वीकृति और अनुमोदन पा सकता है, सिर्फ उसी के पास सत्य वास्तविकता होती है। तुम्हें सत्य वास्तविकता प्राप्त है या नहीं, यह मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि क्या तुम सत्य को समझ सकते हो और परमेश्वर के वचनों के अभ्यास और अनुभव में परमेश्वर को जान सकते हो। अगर तुम्हारा अभ्यास और अनुभव परमेश्वर के वचनों और सत्य से संबद्ध नहीं है, तो तुम्हें जीवन का सच्चा अनुभव नहीं है। इससे यह भी साबित होता है कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध असामान्य है। मैं क्यों कहता हूँ कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध असामान्य है? क्योंकि तुम्हें उसके वचनों का अभ्यास या अनुभव नहीं है, और तुमने सत्य की समझ हासिल नहीं की है। यह दर्शाता है कि तुम ऐसा व्यक्ति नहीं हो जो परमेश्वर के कार्य का अनुभव करता हो, और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला तो और भी नहीं। अगर तुमने अनेक वर्ष तक परमेश्वर में विश्वास रखा है, अगर तुम अनेक परीक्षणों और क्लेशों से गुजर चुके हो, परमेश्वर के प्रति तुम्हारी आस्था और प्रेम में बढ़त हुई है, और तुम अपनी गवाही में अडिग रहे हो, तभी तुम परमेश्वर में सच्ची आस्था प्रदर्शित करोगे। अपनी गवाही में अडिग रहकर ही तुम ऐसी सच्ची आस्था का सबूत दे सकते हो; तुम ऐसा कर सकते हो या नहीं, यह बहुत अहम है। यह परीक्षा तय करती है कि क्या तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो या नहीं, और यह खुलासा करती है कि तुम्हारी आस्था सच्ची है या नहीं। उदाहरण के लिए, तुम्हारा रवैया तब कैसा होगा जब परमेश्वर कोई स्थिति खड़ी कर दे और तुम देखो कि उसकी मंशा तुम्हारे बेहद प्रिय और करीबी व्यक्ति या तुम्हारी सबसे पसंदीदा चीज को तुमसे छीन लेने की है? यह आसानी से यूँ ही कह देना नहीं है, “हे परमेश्वर, तुम्हारा हर कार्य नेक होता है। मैं तुम्हारा धन्यवाद और गुणगान करता हूँ।” यानी तुम परीक्षा में उत्तीर्ण हो सकते हो। जब तुम अपने सबसे प्रिय व्यक्ति को अंतिम साँसें लेते हुए देखते हो, तो तुम्हारा दिल भयानक पीड़ा और कष्ट सह रहा होगा, और तुम कहते हो, “अगर इसकी मृत्यु हो गयी, तो मैं जी नहीं पाऊँगा। मैं भी इसके साथ ही मर जाऊँगा, मैं इसके बिना नहीं जी सकता! अगर इसकी मृत्यु हो गयी, तो मैं अब परमेश्वर में विश्वास नहीं रखूँगा।” इस मामले में तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता नहीं है, और तुम्हारा पूरी तरह खुलासा हो चुका है। क्या तुम्हारी आस्था सच्ची है? तुम्हारा प्रिय साथी मर गया और तुम जी नहीं सकते; तुम्हें परमेश्वर भी नहीं चाहिए। तुम्हारा प्रिय साथी मर गया और तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण भी नहीं करते। इससे साबित होता है कि तुम जिससे प्रेम करते हो, जिसके प्रति समर्पण करते हो, वह मनुष्य है। क्या इससे तुम्हारा खुलासा नहीं हो गया है? तुम बुनियादी तौर पर ऐसे व्यक्ति हो, जो परमेश्वर से प्रेम करना तो दूर, उसके प्रति समर्पण भी नहीं करता है। दूसरों के साथ तुम्हारी सामान्य संगति में व्यावहारिक, मर्मस्पर्शी बातें नहीं होंगी, बल्कि खोखले बोल और धर्म-सिद्धांत भरे होंगे। क्या तुम्हारे बोले गए धर्म-सिद्धांत और जोर से कहे जाने वाले नारे तुम्हारी आस्था से उपजे हैं, क्या वे तुम्हारी सच्ची समझ को दर्शाते हैं—ये चीजें तुम्हें पूरी तरह प्रकट कर देंगी। यह स्पष्ट हो गया है कि तुम एक झूठे विश्वासी हो, बहुरूपिये हो और एक छद्म-विश्वासी हो। तुम सिर्फ अपने परमेश्वर में विश्वास के बारे में दिखावटी बातें करते हो; उसके वचनों ने तुम्हारे दिल में जड़ें नहीं जमाई हैं। परमेश्वर में विश्वास का सबसे भयावह रूप तब सामने आता है जब कोई व्यक्ति सभी धर्म-सिद्धांत समझ लेता है, मगर उसे परमेश्वर में जरा भी सच्ची आस्था नहीं होती। सच्ची आस्था की पुष्टि कैसे की जा सकती है? मुख्य रूप से यह देखकर कि क्या उसके साथ कुछ घटित होने पर भी व्यक्ति सत्य को स्वीकार कर उसे अभ्यास में ला सकता है। अगर उसने सत्य को कभी स्वीकार नहीं किया, न ही उसे अभ्यास में लाया तो वह पहले ही बेनकाब हो चुका है और उसके प्रकट होने के लिए परीक्षण की प्रतीक्षा करने की कोई जरूरत नहीं है। अगर रोजमर्रा के जीवन में किसी के साथ कुछ घटता है, तो तुम साफ तौर पर देख सकते हो कि क्या उसमें सत्य वास्तविकता है। ऐसे बहुत-से लोग हैं जो आमतौर पर सत्य का अनुसरण नहीं करते, और उनके साथ कुछ घट जाने पर सत्य को अभ्यास में नहीं लाते। क्या ऐसे लोगों को खुलासा होने के लिए परीक्षण की प्रतीक्षा करनी चाहिए? बिल्कुल नहीं। कुछ समय बाद, अगर वे नहीं बदले, तो इसका अर्थ है कि उनका पहले ही खुलासा हो चुका है। अगर उनकी काट-छाँट हो गई हो, फिर भी वे सत्य को स्वीकार नहीं करते और दृढ़ता से प्रायश्चित्त करने से इनकार करते हैं, तो उनका और अधिक खुलासा हो चुका है, और उन्हें बाहर निकाल देना चाहिए। जो लोग आमतौर पर सत्य को स्वीकार करने पर ध्यान नहीं देते, या उसे अभ्यास में लाने पर ध्यान नहीं देते, वे सभी छद्म-विश्वासी हैं, और उन्हें कोई भी काम नहीं सौंपा जाना चाहिए, या कोई भी जिम्मेदारी नहीं दी जानी चाहिए। क्या सत्य के बिना कोई व्यक्ति दृढ़ रह सकता है? क्या सत्य को अभ्यास में लाना महत्वपूर्ण है? जरा ऐसे लोगों को देखो जिन्होंने कभी भी सत्य का अभ्यास नहीं किया—उन सबका खुलासा होने में अधिक वर्ष नहीं लगेंगे। उनके पास जरा भी अनुभवजन्य गवाही नहीं है। ये लोग कितने गरीब और दयनीय हैं, और इन्हें कितनी शर्मिंदगी महसूस होनी चाहिए!

किसी व्यक्ति के मन में परमेश्वर के प्रति सच्ची आस्था कैसे पैदा होती है? अनुभव से। अनुभव से यह कैसे पैदा होती है? अगर तुम हर व्यक्ति, हर घटना, और हर चीज का सामना करते हुए परमेश्वर के इरादे खोजकर उस पर चिंतन-मनन कर सको, और इसके जरिए परमेश्वर को समझ सको, तो लंबे अनुभव के बाद, तुम धीरे-धीरे परमेश्वर की सच्ची समझ पा सकोगे—यह केवल शब्दों में समझ नहीं, बल्कि तुम्हारे भीतर की गहरी अंतर्दृष्टि होगी। जिस परमेश्वर में तुम्हारा दिल विश्वास रखता है और जिसे तुम्हारा मुख स्वीकार करता है, वह तुम्हारे दिल में रहता है, और कोई भी उसे तुमसे छीन नहीं सकता। यह ठीक अय्यूब की तरह है, जब उसे परीक्षणों से गुजारा गया तो उसके दोस्तों ने कहा, “तुमने पाप किया है, परमेश्वर का अपमान किया है। शीघ्र यहोवा परमेश्वर से क्षमा माँगो!” अय्यूब ने ऐसा नहीं सोचा, लेकिन क्यों? इस वजह से कि दशकों के जीवन के बाद, परमेश्वर के बारे में उसकी समझ अनुभव पर आधारित नहीं थी; उसने नहीं कहा : “परमेश्वर आशीष देता है, वह मनुष्य के प्रति दयालु है, और कभी उन्हें वंचित नहीं रखता।” उसने जो अनुभव किया वह यह था कि परमेश्वर मनुष्य को देता है, मगर छीन भी लेता है। जब वह मनुष्य को चीजें देता है तो कभी-कभी वह ताड़ना भी देता है, अनुशासित करता भी है और दंड भी देता है। परमेश्वर लोगों के साथ जो करता है वह इंसानों के मन, सोच या कल्पना से तय नहीं होता है। इसलिए अय्यूब के दशकों के जीवन-अनुभव ने उससे यह निष्कर्ष निकलवाया कि “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” (अय्यूब 1:21)। यानी परमेश्वर का हर कार्य, भले ही इंसान की नजरों में उसे अच्छा माना जाए या बुरा, उसके आयोजनों का अंश है। अगर बुरी घटनाएँ होनी हैं, तो भी शैतान परमेश्वर की अनुमति के बिना इंसान के खिलाफ कुछ करने की हिम्मत नहीं करता। मानवजाति परमेश्वर के हाथों में है, और उसकी संप्रभुता में उसे किसी भी बात का डर नहीं। अगर तुम शैतान के हाथों में पड़ भी गए, तो ऐसा परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन ही होगा, और परमेश्वर की अनुमति के बिना शैतान तुम्हें छूने की हिम्मत भी नहीं कर सकता। अय्यूब को इस स्तर की समझ थी, और इसलिए परमेश्वर के कुछ भी करने पर उसने शिकायत नहीं की। उसने साफ तौर पर देखा कि यहोवा परमेश्वर ही सच्चा परमेश्वर है जो सभी पर संप्रभु है, और वे तमाम देवदूत, दुष्ट आत्माएँ और दानव परमेश्वर नहीं हैं। सभी चीजों पर कौन संप्रभु है? मानवजाति और जो कुछ भी है, उस पर कौन संप्रभु है? परमेश्वर ही है। सामान्य शब्दों में कहें तो परमेश्वर महानतम है। किसी व्यक्ति का परिवार, उसकी जमा-पूँजी, वे अपने दिन आराम से या पीड़ा में गुजारते हैं, और उनका जीवनकाल—ये सब परमेश्वर के हाथ में हैं। अय्यूब को इस विषय का गूढ़ अनुभव था, और उसके जीवन में सिर्फ एक या दो बार का नहीं। जब भी कुछ घटा और वह समझ पाया कि यह परमेश्वर की संप्रभुता में हुआ है, तो यह उसकी स्मृति में गहरे अंकित हो गया। इससे उसे एक गूढ़ भावना और समझ मिली कि ये चीजें संयोग से या मनुष्य या शैतान की इच्छा से नहीं हुईं, बल्कि यह परमेश्वर का कार्य था, और वह इस बारे में शिकायत नहीं कर सका। ऐसे विकराल परीक्षणों से गुजरने पर अय्यूब ने निजी तौर पर क्या अनुभव किया? यह कि परमेश्वर सर्वोच्च है, परमेश्वर बुद्धिमान है। परमेश्वर चाहे जो भी करे, वह हमेशा उसकी प्रशंसा कर सकता है। अगर तुम्हारे साथ ऐसी चीजें घटती हैं मगर तुम इन्हें समझ नहीं पाते तो राय मत बनाओ या फैसला मत सुनाओ। अगर तुम नहीं जानते कि परमेश्वर का अच्छा इरादा क्या है तो इसे खोजो, प्रतीक्षा करो और फिर इसके प्रति समर्पण करो। अभ्यास करने का यही सबसे अच्छा तरीका है, सबसे अच्छा मार्ग है, वरना तुम अपमानित और शर्मिंदा होओगे। अय्यूब को इन चीजों की बहुत गहरी अनुभवजन्य समझ थी। अगर तुम हमेशा परमेश्वर को गलत समझते हो तो तुम कभी भी सत्य हासिल नहीं कर पाओगे और परमेश्वर के आशीष जब्त करा बैठोगे। बहुत-सी तकलीफें सहकर भी तुम कुछ हासिल नहीं कर पाओगे, क्योंकि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध असामान्य है, तुम परमेश्वर से परमेश्वर की तरह पेश नहीं आते, तुम उसके कार्य को नहीं समझते, और तुम सच में उसके प्रति समर्पण नहीं करते। इस कारण से तुम परमेश्वर का सच्चा ज्ञान हासिल नहीं कर पाओगे। परमेश्वर बोलता और कार्य करता है, तुम्हारे लिए वह चाहे कैसे भी अपने दिल का खून क्यों न खपाए, तुम्हारे लिए चाहे कैसा भी परिवेश बनाए, यह सब अंततः इसलिए है ताकि तुम परमेश्वर को जान सको। परमेश्वर को जान लेने के बाद उसके साथ तुम्हारा संबंध करीबी और ज्यादा सामान्य हो जाएगा। परमेश्वर किसी के उकता जाने से उसके साथ खिलवाड़ करना तो दूर, बिना किसी कारण के कुछ भी नहीं करता, और अगर लोग उसके कार्य का तरीका न समझ पाएँ तो यह सामान्य बात है। लेकिन उन्हें सत्य खोजना चाहिए और कम से कम परमेश्वर के बारे में फैसला नहीं सुनाना चाहिए—यही है एक विवेकशील व्यक्ति होने का अर्थ। जैसा कि पतरस ने कहा था, चाहे परमेश्वर लोगों के साथ खिलौनों जैसा बर्ताव करे या वह उनके साथ जैसे चाहे वैसा बर्ताव करे, वह हमेशा सही होता है। “अगर परमेश्वर मुझसे एक खिलौने जैसा बर्ताव करता, तो मैं तैयार और इच्छुक क्यों नहीं होता?” किस कारण से पतरस ने यह बात कही? (पतरस के अनुभव के कारण ये शब्द निकले। उसे एहसास हुआ कि परमेश्वर कुछ भी करे, उसके इरादे हमेशा नेक होते हैं।) कभी-कभी तुम परमेश्वर के इरादे नहीं समझ सकोगे, फिर तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें प्रतीक्षा करने, उसे खोजने और पहचानने की कोशिश करनी चाहिए। हालाँकि अय्यूब और पतरस ने दो अलग समय में जीवन जिया, उनकी पृष्ठभूमि भिन्न थी, उन्होंने अलग-अलग चीजों का अनुभव किया, अलग-अलग वचन बोले, फिर भी अभ्यास के उनके तरीके और मार्ग एक ही थे, और घटनाएँ घटने पर परमेश्वर के प्रति उनका रवैया एक समान था। बस इतना ही अंतर था कि उन्होंने इस विचार को व्यक्त करने के लिए अलग भाषा का प्रयोग किया। लेकिन इससे लोग क्या समझते हैं? यह कि परमेश्वर क्या चाहता है यह खोजते और इसकी प्रतीक्षा करते समय, तुम्हें समर्पण का अभ्यास करना चाहिए। बेचैन न हो। सबसे पहले यह रवैया रखना ठीक है। चीजें घटने पर अगर तुम ज्यादा ही बेचैन हो जाते हो और सत्य खोजना न जानकर, परमेश्वर के बारे में शिकायत करते रहते हो, तो दिक्कत आएगी ही। कुछ लोग कहते हैं, “मुझे समझ नहीं आता! परमेश्वर हमसे इस तरह पेश क्यों आता है? अगर हमें दानव और शैतान समझा जाएगा तो मैं समर्पण नहीं कर सकता। यह अविवेकपूर्ण और अन्यायपूर्ण है!” जब तुम्हारा इंसानी मन, धारणाएँ, कल्पनाएँ, विद्रोहीपन और अवज्ञा काबू में न हों तो क्या तुम तब भी परमेश्वर का मार्गदर्शन पाने के योग्य हो? समर्पण इतना आसान नहीं है कि तुम कह दो कि मैं समर्पण करता हूँ या किसी धर्म-सिद्धांत का प्रचार कर दो या छोटा-सा संकल्प व्यक्त कर दो और थोड़ा-सा आत्म-संयम रख लो। यह इतना आसान नहीं है। अगर तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हो तो तुम्हारा अंतिम पुरस्कार उसके बारे में जानना, वह तुम्हारे लिए जो परिवेश खड़े करता है उन्हें समझना और वास्तविक समझ रखना है। यानी तुम परमेश्वर के हृदय और उसके श्रमसाध्य इरादों को समझोगे और यह समझोगे कि वह इस्पात न बनने वाले खराब लोहे से निराश हो जाता है। परमेश्वर नहीं चाहता कि तुम भ्रष्ट स्वभावों के साथ जियो, बल्कि यह चाहता है कि तुम उनसे बच निकलो। इसलिए उसे ऐसे तरीके इस्तेमाल करने होते हैं, जैसे कि न्याय करना, ताड़ना देना, काट-छाँट करना, फटकारना और अनुशासित करना, और वह भी ऐसे कि लगता है परमेश्वर तुम्हारी भावनाओं के प्रति असंवेदनशील है, मानो वह तुम्हें निंदित और दंडित कर रहा है, या तुम्हारे साथ खिलवाड़ कर रहा है। फिर तुम क्या करते हो? अगर तुम परमेश्वर के इस तरह कार्य करने पर भी उसके श्रमसाध्य इरादों की थाह ले सकते हो तो यही काफी है—तुम सचमुच समर्पण कर पाओगे। परीक्षण के दौरान अय्यूब ने कहा था, “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है।” इस मामले में उसकी समझ क्या थी? “मेरी हर चीज यहोवा परमेश्वर की दी हुई है, और अगर वह चाहे तो इसे छीन सकता है, क्योंकि वह परमेश्वर है और उसके पास यह सामर्थ्य है। मुझे इनकार करने का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि मेरे पास जो कुछ भी है उसी से मिला है।” अय्यूब ने यही समझा और अनुभव किया। उस समय उसका संकल्प क्या था? “मुझे परमेश्वर को समझना होगा, सूझ-बूझ वाली चीजें करनी होंगी, और एक विवेकशील इंसान बनना होगा। ये सब मुझे परमेश्वर ने दिया था, और वह कभी भी इन्हें छीन सकता है। मैं इस बारे में परमेश्वर से बहस करने की कोशिश नहीं कर सकता; ऐसा करना उसके खिलाफ विद्रोह करना होगा। परमेश्वर के कार्यों को ठुकराने से उसका दिल दुखेगा, और ऐसा करने पर मैं सच्चा नेक इंसान या सच्चा सृजित प्राणी नहीं रह पाऊँगा।” उस समय उसने ऐसे ही अभ्यास किया था, और इस अभ्यास के क्या परिणाम उसे मिले? दरअसल असली परिणाम यह नहीं था कि वह पहले से ज्यादा धनवान हो गया, या उसके पास पहले से ज्यादा मवेशी और भेड़ हो गए, या उसके पहले से ज्यादा सुंदर बच्चे हो गए। ये तो बस वे चीजें थीं जो उसे परमेश्वर के अनुग्रह के अतिरिक्त मिली थीं। इस अनुभव से, परमेश्वर ने वास्तव में जो उसे दिया, वह थी उसके बारे में उसकी बेहतर समझ, समर्पण, उसके साथ करीबी संबंध, और उसके दिल की समीपता। अय्यूब परमेश्वर के हर कार्य को समझ पा रहा था, और अब वह बेतुके या धृष्टतापूर्ण बातें नहीं कहता था, न ही ऐसी बातें कहता था, जो परमेश्वर का दिल दुखाते हों। क्या अपने भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा पाने का यह अर्थ नहीं है? शैतान अब तुम पर काबू नहीं कर सकता; तुम अब उसके नहीं, बल्कि परमेश्वर के नियंत्रण में हो। परमेश्वर जो भी करे, तुम समर्पण कर सकते हो, और तुम उसके बन चुके हो। उस समय अय्यूब की दशा ऐसी ही थी, उसका रवैया ऐसा ही था। इसके अलावा, उसने ऐसा करके वास्तविकता में प्रवेश किया, इस कारण से आखिरकार परमेश्वर उसके समक्ष प्रकट हुआ। क्या परमेश्वर के प्रकटन ने, चाहे वह किसी भी रूप में रहा हो, परमेश्वर के बारे में उसकी समझ को गहराई दी? (बिल्कुल दी।) हाँ, इससे यकीनन उसकी समझ को गहराई मिली। मूल रूप से, दंतकथाओं में परमेश्वर के बारे में सुनने से लेकर, उसके अस्तित्व की पुष्टि करने और उसे देखने तक—इनमें से तुम परमेश्वर द्वारा दिए जाने वाले अनुग्रह की तुलना में, मानवजाति के लिए बड़े आशीष किसे मानोगे? (परमेश्वर को देखना बड़ा आशीष है।) यकीनन। जब लोग परमेश्वर में विश्वास तो रखते हैं, मगर सत्य को नहीं समझते, तो वे हमेशा चाहते हैं कि परमेश्वर उनकी रक्षा करे, उन पर अनुग्रह बरसाए, उन्हें दूसरों से ऊपर उठाए और उनके पूरे परिवार को सुरक्षा और खुशहाली का आशीष दे। वे जहाँ भी जाते हैं, प्रचार करने में सक्षम होना चाहते हैं और चाहते हैं कि दूसरे उनने ईर्ष्या करें और उनकी सराहना करें। लोग बस यही चाहते हैं, लेकिन उन्हें उस महानतम आशीष का ज्ञान नहीं है जो परमेश्वर देना चाहता है। वे सिर्फ बाहरी भौतिक अनुग्रह पाना चाहते हैं, मगर उनके सारे अनुरोध उन्हें परमेश्वर के हृदय से बहुत दूर ले जाते हैं। वे सबसे महान सौभाग्य गँवा देते हैं, और परमेश्वर के आशीष खो देते हैं। अगर तुम परमेश्वर को नहीं जान सकते, और सत्य प्राप्त नहीं कर सकते, तो क्या तुम उसकी मौजूदगी में जी सकने में समर्थ हो? क्या तुम सच में परमेश्वर की सभी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर सकते हो? यह बिल्कुल नामुमकिन है।

सत्य को अभ्यास में लाने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने की प्रक्रिया, वास्तव में खुद को समझने और अपने भ्रष्ट स्वभाव का त्याग करने की प्रक्रिया है। यह परमेश्वर से आमने-सामने सहभागिता करने और उसे जान पाने की भी प्रक्रिया है। तुम कहते हो कि तुमने सत्य को अभ्यास में लाया है, मगर फिर तुम परमेश्वर को कैसे नहीं जानते? परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंध में समीपता क्यों नहीं आई है? तुम कहते हो कि तुम हर दिन प्रार्थना कर उसके सामने अपना दिल खोल देते हो, तो क्या समय की इस अवस्था में तुम खुद को उसके करीब महसूस करते हो? क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर में तुम्हारी आस्था बढ़ी है? इस दौरान, क्या तुम्हें लगता है कि तुमने परमेश्वर की ज्यादा समझ हासिल की है, उसके बारे में तुम्हारी शिकायतें कम हुई हैं, और तुम उसे पहले से कम गलत समझते हो और उसके खिलाफ कम विद्रोह करते हो? अगर तुम्हें खुद में ऐसा कुछ भी नजर नहीं आता, और तुम पहले जैसे ही हो, तो तुमने सत्य को अभ्यास में नहीं लाया है, समय बरबाद किया है, सिर्फ प्रयास किया है। कोई भी तुम्हें श्रम करने या प्रयास करने को मजबूर नहीं कर रहा है, और इसी तरह कोई भी तुम्हें सत्य का अभ्यास करने से रोक नहीं रहा है। इसे तुमने खुद चुना है और तुम ही श्रम करने के मार्ग पर चल रहे हो। अगर लोग सत्य को अभ्यास में नहीं लाते या सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो वे श्रमिक बनने से नहीं बच सकते। सत्य को अभ्यास में लाना लोगों के लिए बेहद मुश्किल है। वे नहीं जानते कि परमेश्वर के प्रति आत्मसमर्पण कैसे करें, और हमेशा कड़ी मेहनत करके संतुष्ट हो जाते हैं। आखिरकार किसी तरह कुछ धर्म-सिद्धांतों को समझ लेने के बाद, वे नहीं जान पाते कि सत्य को अभ्यास में कैसे लाएँ। इसके बजाय, वे दोबारा श्रम करने में लग जाते हैं, मगर उन्हें इसका एहसास तक नहीं होता। इसलिए, तुम्हें समय-समय पर आत्म-चिंतन करने, खुद को जाँचने, और इस दौरान हुई प्राप्तियों पर भाई-बहनों के साथ संगति करने में समय लगाना चाहिए। तुम कहते हो, “मेरे मन में अभी भी परमेश्वर को लेकर बहुत-सी गलतफहमियाँ हैं, और मैं अभी तक उनमें से बहुत-सी गलतफहमियों को सुलझा नहीं पाया हूँ।” कोई दूसरा व्यक्ति कहता है, “इन दिनों मुझे लगता है कि मुझे परमेश्वर के हृदय की थोड़ी समझ हासिल हुई है। मानवजाति को दुख सहने देना परमेश्वर के लिए अच्छी बात है। मैं कष्ट सहने से डरता था, और दुख-दर्द आने पर छुप जाना या भाग जाना चाहता था। अब मुझे लगता है कि लोग केवल थोड़ा दुख-दर्द सहने के बाद ही परमेश्वर के समक्ष शांतचित्त होकर बैठ सकते हैं, और अपना ध्यान बाहरी मामलों में भटकने से रोक सकते हैं। पीड़ा सहना अच्छा है, इसलिए लोगों का परीक्षण और शोधन करने के लिए परमेश्वर हमेशा कठिन परिवेश खड़े करता है। मुझे लगता है कि मैं परमेश्वर का थोड़ा-बहुत प्रयोजन और श्रमसाध्य इरादे को समझता और महसूस करता हूँ। परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह अच्छा होता है!” तुम्हें इसी तरह संगति करनी चाहिए। तुम संगति करके बहुत लाभ पाओगे। अगर कुछ लोग अपने खाली समय में गपशप करने, दूसरों पर राय बनाने या बहस छेड़ने वाली अन्य बातें कहने के लिए इकट्ठा हो जाएँ, तो भले ही ऐसा लग सकता है कि वे परमेश्वर में अपनी आस्था या जीवन अनुभवों के बारे में बातें कर रहे हैं, लेकिन अगर उनके दिलों में सुकून नहीं है, तो उन्हें यह अभ्यास करना चाहिए कि सत्य को कैसे खोजें और कैसे उसके लिए प्रयास करें, और कैसे परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने के प्रयास करें। अगर तुम हमेशा सत्य का इस तरह अनुसरण करोगे, तो पवित्र आत्मा तुम्हारे भीतर कार्य कर तुम्हें प्रबुद्ध करेगा। तुम्हारे अंदर जिन सत्यों की कमी है, उन्हें अनुसरण के लायक बोझ मानो, अभ्यास और अनुभव करो, और सत्य प्राप्त करने का प्रयास करो। तुम्हें इसे कैसे अभ्यास में लाना चाहिए? तुम्हें उस व्यक्ति की तलाश करनी चाहिए और उससे मार्गदर्शन माँगना चाहिए, जिसे उन बातों के बारे में सत्य की समझ हो जिन्हें तुम नहीं समझ पाते या पकड़ नहीं पाते। अगर तुम हमेशा इस तरह अभ्यास करोगे, तो तुम सत्य को और अधिक समझ पाओगे और बहुत लाभान्वित होगे। ज्यादातर समय तुम लोग सत्य पर संगति करने का तरीका नहीं जानते, सिर्फ काम पर चर्चा करने पर ध्यान देते हो, और हमेशा सिद्धांतों की नहीं, तरीकों की चर्चा करते हो। यह विषयांतर है, जबकि दरअसल तुम्हें काम के बारे में चर्चा करते समय, सत्य सिद्धांतों से जुड़े मामलों पर संगति करनी चाहिए; इससे तुम्हारे खुद के जीवन प्रवेश को लाभ पहुँचेगा। जब तुम सत्य सिद्धांतों से जुड़े मामलों पर स्पष्ट संगति कर चुके होगे, तो तुम्हें जीवन प्रवेश का मार्ग मिलेगा। यह काम करने और कर्तव्य निभाने के लिए ही नहीं, तुम्हारे खुद के जीवन प्रवेश के लिए भी लाभकारी है। क्या यह दोनों हाथों में लड्डू होना नहीं है? तुम्हें परमेश्वर में अपने विश्वास के अनुभव के बारे में शुद्ध और खुले तौर पर संगति करनी चाहिए, ताकि तुम्हें परिणाम मिलें और जीवन प्रवेश हासिल हो। हमेशा गपशप करने या राय बनाने का जीवन प्रवेश में कोई फायदा नहीं है, और इससे व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास रखकर उद्धार पाने का अपना मौका खो देता है। परमेश्वर में विश्वास रखने का अर्थ है कि व्यक्ति को हमेशा सत्य को अभ्यास में लाने पर ध्यान देना चाहिए। तुम जितना इसे अभ्यास में लाओगे, तुम्हारे लिए उद्धार के अवसर उतने ही अधिक होंगे। अगर तुम सत्य को बहुत कम समझते हो, तो तुम्हें इसे और ज्यादा खोजना चाहिए। सत्य की समझ हासिल करके और इसे अभ्यास में लाकर ही, तुम वास्तविक बदलाव का अनुभव कर सकते हो, और उद्धार की अधिक और सुनिश्चित आशा पा सकते हो।

16 जुलाई 2017

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