सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (10)
उन चीजों का गहन-विश्लेषण जिन्हें लोग अपनी धारणाओं में सही और अच्छी समझते हैं
II. परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण के बारे में कहावतें
नैतिक आचरण संबंधी कहावतों के सार का गहन-विश्लेषण (I)
पिछली सभा में हमने नैतिक आचरण की इस कहावत पर संगति की थी और इसका गहन-विश्लेषण किया था, “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो।” क्या अब तुम लोगों के पास परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की विभिन्न कहावतों की वास्तविक समझ है? नैतिक आचरण की ये कहावतें सत्य से किस प्रकार भिन्न हैं? क्या अब तुम यकीन से कह सकते हो कि नैतिक आचरण की ये कहावतें मूल रूप से सत्य नहीं हैं, और ये सत्य का स्थान तो बिल्कुल भी नहीं ले सकती हैं? (हाँ।) तुम्हारे इस यकीन से क्या पता चलता है? (यह कि मेरे पास परंपरागत संस्कृति की इन कहावतों की वास्तविकता का भेद पहचानने की थोड़ी काबिलियत है। पहले, मुझे नहीं पता था कि मेरे हृदय में ये चीजें मौजूद थीं। परमेश्वर की इन कुछ संगतियों और गहन-विश्लेषणों के बाद ही मुझे एहसास हुआ है कि मैं अब तक इन चीजों के प्रभाव में था, और मैंने हमेशा लोगों और चीजों को परंपरागत संस्कृति के आधार पर देखा है। मुझे यह भी एहसास है कि परंपरागत संस्कृति की ये कहावतें सत्य के बिल्कुल विपरीत हैं, और ये चीजें लोगों को भ्रष्ट बनाती हैं।) इसका यकीन होने पर, सबसे पहले तुम्हें परंपरागत संस्कृति से जुड़ी इन चीजों के भेद की थोड़ी पहचान होती है। तुम्हारे पास सिर्फ बोधात्मक ज्ञान ही नहीं होता, बल्कि तुम सैद्धांतिक दृष्टिकोण से इन चीजों के सार को भी पहचान सकते हो। दूसरी बात, तुम अब परंपरागत संस्कृति की चीजों से प्रभावित नहीं होते हो, और अपने दिलो-दिमाग से इन चीजों के प्रभाव, बाध्यता और बंधन हटा सकते हो। खास तौर पर विभिन्न चीजों को देखते हुए या विभिन्न समस्याओं से निपटते हुए तुम इन विचारों और दृष्टिकोणों से अब और प्रभावित और बाधित नहीं होते हो। सामान्य तौर पर, संगति करने से, तुम्हें परंपरागत संस्कृति के इन विचारों और दृष्टिकोणों के भेद की थोड़ी पहचान हो गयी है। सत्य समझने का यही परिणाम है। परंपरागत संस्कृति की ये चीजें खोखली, शैतानी फलसफों से भरी कर्णप्रिय कहावतें हैं, खासकर नैतिक आचरण की ये कहावतें, “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,” “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो,” और “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो।” ये अपने विचारों से इंसानों को लगातार प्रभावित, बाधित और बाध्य करती हैं, और लोगों के नैतिक आचरण में सक्रिय और सकारात्मक भूमिका नहीं निभाती हैं। भले ही अब तुम लोगों को चीजों के भेद की थोड़ी पहचान है, पर इन चीजों के प्रभाव को अपने दिल की गहराइयों से पूरी तरह मिटाना मुश्किल है। तुम्हें कुछ समय तक अपने आप को सत्य से परिपूर्ण करके परमेश्वर के वचनों के अनुसार अनुभव करना चाहिए। तभी तुम साफ तौर पर और पूरी तरह से यह देख पाओगे कि ये पाखंडी बातें कितनी ज्यादा हानिकारक, गलत और बेतुकी हैं, और केवल तभी समस्या को जड़ से हल किया जा सकता है। यदि तुम इन गलत विचारों और नजरियों को त्यागना चाहते हो और केवल कुछ धर्म-सिद्धांतों को समझकर अपने आप को उनके प्रभाव, बाध्यता और बंधन से मुक्त करना चाहते हो, तो ऐसा करना बहुत मुश्किल होगा। अब जब तुम लोग नैतिक आचरण की इन कहावतों की वास्तविकता का भेद कुछ हद तक पहचान पाने में सक्षम हो, तो कम-से-कम तुम्हारे पास कुछ समझ है और तुमने अपनी सोच में थोड़ी प्रगति की है। बाकी इस बात पर निर्भर करता है कि कोई सत्य की खोज कैसे करता है और इस बात पर भी निर्भर करता है कि वह परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को कैसे देखता है, और भविष्य में उसे कैसा अनुभव होता है।
परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की इन कहावतों पर इन संगतियों और गहन-विश्लेषणों के बाद, क्या तुम लोग इन कहावतों के सार को स्पष्ट रूप से देख सकते हो? यदि तुम वास्तव में स्पष्ट रूप से देख सकते हो, तो फिर तुम लोग यह निर्धारित कर सकते हो कि परंपरागत संस्कृति की ये कहावतें सत्य नहीं हैं, न ही ये सत्य का स्थान ले सकती हैं। इतना तो निश्चित है ही, और संगति के जरिए ज्यादातर लोगों ने पहले ही मन ही मन में इसकी पुष्टि कर ली है। तो किसी व्यक्ति को नैतिक आचरण की सभी कहावतों के सार को कैसे समझना चाहिए? यदि कोई इस समस्या का सामना परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार नहीं करता है, तो इसका भेद पहचानने और इसे समझने का कोई और तरीका नहीं है। परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की ये कहावतें कागज पर चाहे कितनी भी अच्छी और सकारात्मक लगें, क्या ये वास्तव में लोगों के क्रियाकलापों और व्यवहार के मापदंड या स्व-आचरण के सिद्धांत हैं? (नहीं।) ये कहावतें स्व-आचरण के सिद्धांत या मानदंड नहीं हैं। तो वास्तव में ये क्या हैं? नैतिक आचरण की हर कहावत के सार का गहन-विश्लेषण करके क्या तुम लोग यह निष्कर्ष निकाल सकते हो कि नैतिक आचरण के बारे में लोगों के बीच फैली इन कहावतों का सत्य और सार क्या है? क्या तुम लोगों के मन में कभी यह सवाल नहीं उठा? शासक वर्गों की चापलूसी करने वाले, उनका पक्ष लेने वाले और केवल उनकी सेवा करके बेहद प्रसन्न होने वाले उन तथाकथित विचारकों और नैतिकतावादियों के उद्देश्यों को छोड़कर, आओ हम सामान्य मानवता के दृष्टिकोण से इसका विश्लेषण करें। क्योंकि नैतिक आचरण की ये कहावतें सत्य नहीं हैं, न ही वे सत्य का स्थान ले सकती हैं, ये दिखावटी होनी चाहिए। ये निश्चित रूप से सकारात्मक चीजें नहीं हैं—इतना तो तय है। यदि इस तरह से तुम लोग इनकी वास्तविकता को पहचान सकते हो, तो इससे साबित होता है कि तुमने अपने दिल में सत्य की कुछ हद तक समझ प्राप्त कर ली है और तुम्हें इनके भेद की थोड़ी पहचान हो चुकी है। नैतिक आचरण की ये कहावतें सकारात्मक बातें नहीं हैं, न ही ये लोगों के कार्यों और व्यवहार की मानदंड हैं, और ये लोगों के स्व-आचरण के लिए सिद्धांत तो बिल्कुल नहीं हैं, जिनका पालन करना चाहिए, इसलिए इनमें कुछ तो गड़बड़ है। क्या इसकी तह तक जाना सही है? (हाँ।) यदि तुम केवल “नैतिक आचरण” पर विचार करते हो और सोचते हो कि ये कहावतें सही विचार और सकारात्मक बातें हैं, तो तुम गलत हो और तुम इनके झांसे में आकर बहक जाओगे। जो पाखंड है वह कभी भी सकारात्मक चीज नहीं हो सकता। जहाँ तक नैतिक आचरण के विभिन्न प्रदर्शनों और कार्यों का सवाल है, व्यक्ति को यह भेद करना चाहिए कि वे ईमानदारी से और दिल से किए गए हैं या नहीं। यदि वे अनिच्छा से, दिखावे के लिए या किसी खास लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए किए जाते हैं, तो ऐसे कार्यों और प्रदर्शनों में समस्या होती है। क्या तुम लोग नैतिक आचरण की इन कहावतों की वास्तविकता का भेद पहचान सकते हो? कौन बता सकता है? (लोगों को गुमराह और भ्रष्ट करने के लिए शैतान नैतिक आचरण से जुड़ी कहावतों का इस्तेमाल करता है, और उन्हें इन कहावतों का पालन करने और इन पर अमल करने के लिए मजबूर करता है, ताकि शैतान अपनी पूजा और अपना अनुसरण करवाने और उन्हें परमेश्वर से दूर रखने के लक्ष्यों को हासिल कर सके। यह लोगों को भ्रष्ट करने के लिए शैतान की तकनीकों और तरीकों में से एक है।) यह नैतिक आचरण की कहावतों का सार नहीं है। यह वह लक्ष्य है जिसे शैतान लोगों को ऐसी कहावतों के सहारे गुमराह करने के लिए हासिल करता है। सबसे पहले, तुम लोगों को स्पष्ट रूप से पता होना चाहिए कि नैतिक आचरण के बारे में किसी भी प्रकार की कहावत सत्य नहीं है, वह सत्य का स्थान तो बिल्कुल नहीं ले सकती। वे सकारात्मक चीजें भी नहीं हैं। तो वे वास्तव में क्या हैं? यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि नैतिक आचरण के बारे में ये कहावतें विधर्मी भ्रांतियाँ हैं, जिनसे शैतान लोगों को गुमराह करता है। वे अपने आप में ऐसी सत्य वास्तविकता नहीं हैं जो लोगों में होनी चाहिए, न ही वे सकारात्मक चीजें हैं जिन्हें सामान्य मानवता को जीना चाहिए। नैतिक आचरण के बारे में ये कहावतें जालसाजी, ढोंग, झूठ-फरेब और चालबाजियाँ हैं—ये कृत्रिम व्यवहार हैं, और मनुष्य के जमीर और विवेक या उसकी सामान्य सोच से बिल्कुल भी उत्पन्न नहीं होते। इसलिए नैतिक आचरण के संबंध में परंपरागत संस्कृति की तमाम कहावतें बेहूदा, बेतुके पाखंड और भ्रांतियाँ हैं। इन कुछ संगतियों से, नैतिक आचरण के बारे में शैतान जिन कहावतों को सामने रखता है उनकी आज पूरी तरह से घोर निंदा की जाती है। अगर वे सकारात्मक चीजें तक नहीं हैं, तो लोग उन्हें कैसे स्वीकार सकते हैं? लोग इन विचारों और मतों को कैसे जी सकते हैं? कारण यह है कि नैतिक आचरण के बारे में ये कहावतें लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं से बहुत अच्छी तरह मेल खाती हैं। वे प्रशंसा और स्वीकृति दिलाती हैं, इसलिए लोग नैतिक आचरण के बारे में इन कहावतों को दिल से स्वीकारते हैं, और हालाँकि वे इन्हें अमल में नहीं ला सकते, फिर भी वे आंतरिक रूप से इन्हें गले लगाकर उत्साहपूर्वक इनकी आराधना करते हैं। और इस प्रकार, शैतान लोगों को गुमराह करने, उनके दिलों और व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए नैतिक आचरण के बारे में विभिन्न कहावतों का उपयोग करता है, क्योंकि अपने दिलों में लोग नैतिक आचरण के बारे में सभी प्रकार की कहावतों पर आँखें मूंदकर विश्वास रखते हैं और उनकी आराधना करते हैं, और अत्यधिक गरिमा, महानता और दयालुता का दिखावा करके अत्यधिक सम्मान और प्रशंसा पाने का अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए वे सभी इन कथनों का उपयोग करना चाहते हैं। संक्षेप में, नैतिक आचरण के बारे में सभी प्रकार की कहावतें यह अपेक्षा करती हैं कि किसी खास तरह का काम करते हुए लोगों को नैतिक आचरण के क्षेत्र में किसी प्रकार का व्यवहार या चरित्र प्रदर्शित करना चाहिए। ये व्यवहार और चरित्र के प्रकार काफी नेक लगते हैं और श्रद्धेय होते हैं, इसलिए सभी लोग अपने दिलों में इन्हें पाना चाहते हैं। लेकिन उन्होंने इस बात पर विचार नहीं किया होता कि नैतिक आचरण के बारे में ये कहावतें व्यवहार के वे सिद्धांत बिल्कुल नहीं हैं, जिनका सामान्य इंसान को पालन करना चाहिए; इसके बजाय, वे विभिन्न प्रकार के पाखंडी व्यवहार हैं जिनका व्यक्ति स्वाँग कर सकता है। वे जमीर और विवेक के मानकों से अलग जाते हैं, सामान्य मानवता की इच्छा के विरुद्ध जाते हैं। शैतान नैतिक आचरण की झूठी और बनावटी कहावतों का उपयोग लोगों को गुमराह करने, उनसे अपनी और उन पाखंडी तथाकथित संतों की आराधना करवाने के लिए करता है, जिससे लोग सामान्य मानवता और स्व-आचरण के मानदंडों को साधारण, सरल, यहाँ तक कि तुच्छ चीजें समझें। लोग इन चीजों का तिरस्कार करते हैं और इन्हें पूरी तरह से बेकार समझते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि शैतान द्वारा समर्थित नैतिक आचरण की कहावतें आँखों को बहुत भाती हैं और मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं से बहुत मेल खाती हैं। हालाँकि, तथ्य यह है कि नैतिक आचरण की चाहे कोई भी कहावत हो वह कोई ऐसा सिद्धांत नहीं है जिसका लोगों को अपने स्व-आचरण या दुनिया में अपने व्यवहार और आचरण में पालन करना चाहिए। सोचो—क्या ऐसा नहीं है? सार में, नैतिक आचरण की कहावतें लोगों से सिर्फ सतही रूप से ज्यादा सम्मानजनक, नेक जीवन जीने के लिए कहती हैं, जिससे दूसरे उनकी आराधना या प्रशंसा करें, उन्हें नीचा न दिखाएँ। इन कहावतों का सार दर्शाता है कि ये सिर्फ लोगों से बस यह माँग करती हैं कि वे अच्छे व्यवहार के जरिये अच्छा नैतिक आचरण प्रदर्शित करें, जिससे भ्रष्ट मानवजाति की महत्वाकांक्षाएँ और असंयमित इच्छाएँ छिपाई और नियंत्रित की जा सकें, मनुष्य के बुरे और घिनौने प्रकृति सार के साथ-साथ विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों के खुलासों पर पर्दा डाला जा सके। ये सतही रूप से अच्छे व्यवहार और अभ्यासों के जरिये व्यक्ति की सत्यनिष्ठा उभारने के लिए हैं, दूसरों के मन में उनकी छवि निखारने और उनके बारे में व्यापक दुनिया का अनुमान सँवारने के लिए हैं। ये बिंदु दर्शाते हैं कि नैतिक आचरण की कहावतों का उद्देश्य मनुष्य के आंतरिक विचारों, नजरियों, लक्ष्यों और इरादों, उसके घृणित चेहरे और उसके प्रकृति सार को सतही व्यवहार और अभ्यासों से छिपाना है। क्या ये चीजें सफलतापूर्वक छिपाई जा सकती हैं? क्या इन्हें छिपाने की कोशिश करने से ये और ज्यादा स्पष्ट नहीं हो जातीं? लेकिन शैतान इसकी परवाह नहीं करता। उसका उद्देश्य भ्रष्ट मनुष्य का घिनौना चेहरा ढकना, मनुष्य की भ्रष्टता का सत्य छिपाना है। इसलिए, शैतान लोगों को खुद को छिपाने के लिए नैतिक आचरण की व्यवहारजन्य अभिव्यक्तियाँ अपनाने के लिए प्रेरित करता है, जिसका अर्थ है कि वह नैतिक आचरण के विनियमों और व्यवहारों का उपयोग मनुष्य के रूप-रंग का साफ-सुथरा पुलिंदा बनाने लिए करता है, मनुष्य के चरित्र और सत्यनिष्ठा को उभारता है, ताकि वे दूसरों से सम्मान और प्रशंसा पा सकें। मूल रूप से, नैतिक आचरण के बारे में ये कहावतें व्यक्ति की व्यवहारजन्य अभिव्यक्तियों और नैतिक मानकों के आधार पर निर्धारित करती हैं कि वह नेक है या नीच। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति परोपकारी है या नहीं, यह इस बात को दिखाने पर निर्भर करता है कि वह दूसरों की खातिर अपने हित त्याग सकता है या नहीं। यदि वह इसे अच्छी तरह से प्रदर्शित करता है, खुद को अच्छी तरह से छिपाता है और खुद को विशेष रूप से सराहनीय दिखाता है, तो ऐसे व्यक्ति को निष्ठावान, गरिमापूर्ण और दूसरों की नजर में विशेष रूप से उच्च नैतिक मानकों वाला व्यक्ति माना जाएगा, और राज्य उसे नैतिकता की मिसाल होने के लिए इनाम के तौर पर एक तमगा प्रदान करेगा, ताकि दूसरे लोग उससे सीखें, उसकी पूजा करें, और उसकी बराबरी करें। तो, यह कैसे आँका जाना चाहिए कि कोई महिला अच्छी है या दुष्ट? ऐसा इस बात पर गौर करके किया जा सकता है कि उस महिला के अपने समुदाय के भीतर प्रदर्शित विभिन्न व्यवहार इस कहावत के अनुरूप हैं या नहीं “महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए।” यदि वह सच्चरित्र, दयालु और विनम्र होकर, हर मामले में इनका अनुपालन करती है, बुजुर्गों के प्रति अत्यधिक सम्मान दिखाती है, जन-हित के लिए तत्परता से समझौता कर सकती है, बेहद धैर्यवान बनकर और छोटी-छोटी बातों पर बखेड़ा खड़ा किए बिना या दूसरों से बहस किए बिना, कठिनाइयों को सहन करने में सक्षम है, और अपने सास-ससुर का सम्मान करती है, अपने पति और बच्चों की अच्छी देखभाल करती है, कभी अपने बारे में नहीं सोचती, बदले में कभी कुछ नहीं मांगती, न ही दैहिक सुखों का आनंद लेती है वगैरह, तो वह वास्तव में एक सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त महिला है। लोग महिलाओं के नैतिक आचरण को आँकने के लिए इन बाहरी व्यवहारों का उपयोग करते हैं। किसी व्यक्ति के सतही तौर-तरीकों और व्यवहार के जरिये उसकी अहमियत, अच्छाई और बुराई को मापना गलत और अव्यावहारिक है। इस तरह का फैसला सुनाना भी नकली, भ्रामक और बेतुका है। यह नैतिक आचरण की कहावतों की मूल समस्या है जो लोगों में उजागर होती है।
ऊपर दिए गए विभिन्न पहलुओं की रोशनी में क्या परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की ये कहावतें वास्तव में आचरण संबंधी सिद्धांत हैं? (नहीं।) ये सामान्य मानवता की जरूरतों को बिल्कुल भी पूरा नहीं करती हैं, बल्कि इसके बिल्कुल विपरीत हैं। ये मानवजाति को न तो आचरण के सिद्धांत देती हैं, न ही लोगों के कार्यों और व्यवहार के सिद्धांत देती हैं। बल्कि ये लोगों को खुद को छिपाने, खुद पर पर्दा डालने, और दूसरों के सामने खास तरीके से आचरण और व्यवहार करने को कहती हैं, ताकि उन्हें अत्यधिक सम्मान और प्रशंसा मिले; इनका मकसद लोगों को सही आचरण या सही व्यवहार करने का तरीका सिखाना नहीं है, बल्कि उन्हें दूसरों की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार जीना और उनकी प्रशंसा और मान्यता प्राप्त करना सिखाना है। यह परमेश्वर की अपेक्षा के अनुरूप बिल्कुल नहीं है, वह चाहता है कि लोग दूसरों की सोच की परवाह किए बिना सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार और कार्य करें, और केवल परमेश्वर की स्वीकृति पाने पर ध्यान केंद्रित करें। नैतिक आचरण की कहावतें लोगों के विचारों और नजरियों से संबंधित समस्याओं को हल करने या उनके मानवीय प्रकृति सार के बारे में नहीं हैं, बल्कि लोगों से उनके व्यवहार, अभ्यास और दिखने में सभ्य और कुलीन होने की अपेक्षा के बारे में अधिक हैं—भले ही यह छद्म रूप हो। दूसरे शब्दों में, परंपरागत संस्कृति की नैतिक आचरण की कहावतें लोगों से जो अपेक्षाएँ करती हैं, वे लोगों के सार पर आधारित नहीं होती हैं, और वे अंतरात्मा और विवेक की हासिल करने योग्य सीमाओं पर तो और भी कम विचार करती हैं। साथ ही, ये इस वस्तुगत तथ्य के उलट भी हैं कि लोगों के भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, वे सभी स्वार्थी और घृणित होते हैं, और ये लोगों को उनके व्यवहार और तौर-तरीकों के संदर्भ में यह-या-वह चीज करने के लिए मजबूर करती हैं। इसलिए ये चाहे किसी भी दृष्टिकोण से लोगों से अपेक्षाएं रखें, ये मूल रूप से लोगों को भ्रष्ट स्वभावों के बंधन और बाधा से मुक्त नहीं कर सकती हैं, न ही ये लोगों के सार की समस्या का समाधान कर सकती हैं; दूसरे शब्दों में, ये लोगों के भ्रष्ट स्वभावों की समस्याओं का समाधान नहीं कर सकती हैं। इस वजह से, ये लोगों के आचरण के सिद्धांतों और दिशा को नहीं बदल सकती हैं, न ही ये लोगों को यह समझा सकती हैं कि कैसा आचरण करना है, दूसरों के साथ कैसे पेश आना है या पारस्परिक संबंधों में सकारात्मक पहलू से कैसे निपटना है। दूसरे नजरिये से कहें, तो नैतिक आचरण की कहावतें लोगों को सौंपा गया एक प्रकार का नियम और व्यवहार संबंधी बाधा हैं। हालाँकि ये चीजें सभी रूपों में बहुत अच्छी लगती हैं, लेकिन ये अनजाने में लोगों की सोच और विचारों को प्रभावित करती हैं, उन्हें बाधित और बाध्य करती हैं, जिसके परिणाम स्वरूप लोग आचरण और व्यवहार के सही सिद्धांत और मार्ग नहीं खोज पाते हैं। इस संदर्भ में, लोगों के पास परंपरागत संस्कृति के विचारों और नजरिये के प्रभाव को अनिच्छापूर्वक स्वीकारने के अलावा और कोई चारा नहीं होता, और इन भ्रामक विचारों और नजरिये के प्रभाव में वे अनजाने में आचरण के सिद्धांत, लक्ष्य और दिशा खो देते हैं। इससे भ्रष्ट इंसान अंधकार में गिर जाते हैं, रोशनी खो देते हैं, और वे झूठ, दिखावे और चालबाजी पर निर्भर होकर केवल शोहरत और व्यक्तिगत लाभ के पीछे भागते रहते हैं। उदाहरण के लिए, जब तुम देखते हो कि किसी व्यक्ति को मदद की जरूरत है, तो तुरंत सोचते हो, “उचित आचरण का अर्थ है दूसरों की मदद करने में खुशी पाना। यह लोगों के आचरण का बुनियादी सिद्धांत और नैतिक मानक है,” और इसलिए तुम सहज रूप से उस व्यक्ति की मदद करोगे। उसकी मदद करने के बाद तुम्हें लगता है कि इस तरह आचरण करके तुम नेक इंसान बन गए हो और तुम्हारे पास थोड़ी मानवता है, और तुम अनायास ही खुद को नेक इंसान, श्रेष्ठ चरित्र वाला व्यक्ति, गरिमामय और चरित्रवान व्यक्ति, और सहज ही सम्मान पाने लायक व्यक्ति मानकर अपनी प्रशंसा भी करते हो। यदि तुम उसकी मदद नहीं करते हो तो सोचते हो, “ओह, मैं एक अच्छा इंसान नहीं हूँ। जब भी मैं किसी ऐसे व्यक्ति से मिलता हूँ जिसे मदद की जरूरत होती है और मैं मदद करने के बारे में सोचता हूँ, तो मैं हमेशा अपने हितों के बारे में सोचने लगता हूँ। मैं कितना स्वार्थी इंसान हूँ!” तुम अनजाने में खुद को आँकने, खुद को नियंत्रित करने और सही-गलत का मूल्यांकन करने के लिए “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ” के वैचारिक दृष्टिकोण का इस्तेमाल करोगे। जब तुम इस कहावत पर अमल नहीं कर पाओगे, तो खुद से घृणा करोगे या खुद को हीन भावना से देखोगे और कुछ हद तक असहज महसूस करोगे। तुम उन लोगों को प्रशंसा और सराहना की नजरों से देखोगे जो दूसरों की मदद करने में खुशी पाते हैं, तुम्हें लगेगा कि वे तुमसे ज्यादा नेक, तुमसे ज्यादा गरिमामय और तुमसे ज्यादा चरित्रवान हैं। हालाँकि, ऐसे मामलों में परमेश्वर की अपेक्षाएँ भिन्न होती हैं। परमेश्वर की अपेक्षाएँ ये हैं कि तुम उसके वचनों और सत्य सिद्धांतों का पालन करो। नैतिक आचरण के संबंध में लोगों को किस प्रकार अभ्यास करना चाहिए? परंपरागत नैतिक और सांस्कृतिक नजरियों का पालन करके या परमेश्वर के वचनों का पालन करके? सबको इस विकल्प का सामना करना पड़ता है। क्या तुम अब उन सत्य सिद्धांतों को साफ तौर पर जान चुके हो जो परमेश्वर लोगों को सिखाता है? क्या तुम उन्हें समझते हो? तुम उनका कितनी अच्छी तरह पालन करते हो? उनका पालन करते समय, तुम किन विचारों और नजरिये से प्रभावित और बाधित होते हो, और कौन से भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होते हैं? तुम्हें इस तरह से आत्म-चिंतन करना चाहिए। परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की कहावतों का कितना सार तुम अपने दिल में स्पष्ट रूप से देख सकते हो? क्या तुम्हारे दिल में परंपरागत संस्कृति का अभी भी कोई स्थान है? ये सभी समस्याएं हैं जिन्हें लोगों को हल करना चाहिए। जब तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों का समाधान हो जाता है, और तुम बिना कोई समझौता किए पूरी तरह से सत्य के प्रति समर्पण करने और परमेश्वर के वचनों का पालन करने में सक्षम हो जाते हो, तो तुम जो अभ्यास करते हो वह पूरी तरह से सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होता है। तुम फिर कभी भ्रष्ट स्वभावों के सामने बाधित नहीं रहोगे या परंपरागत संस्कृति के नैतिक विचारों और नजरिये से बंधे नहीं रहोगे, और परमेश्वर के वचनों को सटीक रूप से अभ्यास में लाने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में सक्षम रहोगे। यही वे सिद्धांत हैं जिनसे विश्वासियों के आचरण और क्रियाकलाप निर्देशित होने चाहिए। जब तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने, परमेश्वर के वचनों का पालन करने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने में सक्षम होगे, तो तुम न केवल अच्छे नैतिक आचरण वाले व्यक्ति होगे, बल्कि एक ऐसे व्यक्ति भी होगे जो परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण कर सकता है। जब तुम आचरण के सिद्धांतों और आचरण के सत्य का अभ्यास करते हो तो तुम्हारे पास न केवल नैतिक आचरण के मानक होते हैं, बल्कि तुम्हारे आचरण में सत्य सिद्धांत भी होते हैं। क्या सत्य सिद्धांतों का पालन करने और नैतिक आचरण के मानदंडों का पालन करने में कोई अंतर है? (हाँ।) उनमें क्या अंतर है? नैतिक आचरण की अपेक्षाओं का पालन करना केवल व्यावहारिक अभ्यास और अभिव्यक्ति है, जबकि सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना भी बाहर से भले ही एक अभ्यास लगे लेकिन यह अभ्यास सत्य सिद्धांतों का पालन करता है। इस दृष्टिकोण से, सत्य सिद्धांतों का पालन करने का संबंध उस आचरण और उस मार्ग से है जिस पर लोग चलते हैं। इसका मतलब यह है कि यदि तुम सत्य का अभ्यास करते हो और परमेश्वर के वचनों में मौजूद सत्य सिद्धांतों का पालन करते हो, तो यह सही मार्ग पर चलना है, जबकि परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की अपेक्षाओं का पालन करना केवल व्यवहार का प्रदर्शन है, बिल्कुल नियमों के पालन की तरह। इसका संबंध सत्य सिद्धांतों से नहीं है, न ही यह उस मार्ग से संबंधित है जिस पर लोग चलते हैं। क्या तुम मेरी बात समझ पा रहे हो? (हाँ।) एक उदाहरण देता हूँ। जैसे, नैतिक आचरण की यह कहावत है, “दूसरों की खातिर अपने हित त्याग दो,” इसमें किसी भी समय और कैसी भी स्थिति में लोगों से यह अपेक्षा की जाती है कि “छोटे हितों को त्याग दो और बड़े हित हासिल करो”। अविश्वासियों के बीच, यह एक ऐसी शैली है जिसे नेक चरित्र और पक्के ईमान का होना कहा जाता है। “छोटे हितों को त्याग दो और बड़े हित हासिल करो”—कितनी बड़ी लफ्फाजी है! दयनीय बात है कि नेक चरित्र और दृढ़ निष्ठा का होना केवल एक शैली जैसा लगता है, लेकिन यह कोई ऐसा सत्य सिद्धांत नहीं है जिसका लोगों को अपने आचरण में पालन करना चाहिए। सच तो यह है कि “छोटे हितों को त्याग दो और बड़े हित हासिल करो” और लोगों को दूसरों की खातिर अपने हित त्याग देने के लिए प्रेरित करने की कहावतों का अंतिम लक्ष्य वास्तव में यह पक्का करना है कि दूसरे उनकी सेवा करें। लोगों के लक्ष्यों और इरादों के दृष्टिकोण से, इस कहावत से शैतानी फलसफों की बू आती है और इसमें लेन-देन का गुण निहित है। इससे क्या तुम यह निर्धारित कर सकते हो कि “छोटे हितों को त्याग दो और बड़े हित हासिल करो” की कहावत में सत्य सिद्धांत मौजूद हैं या नहीं? इसमें बिल्कुल भी नहीं हैं! यह आचरण का सिद्धांत कतई नहीं है, यह पूरी तरह से शैतानी फलसफा है, क्योंकि लोगों का अपने छोटे हितों को त्यागने का मकसद अपने बड़े हित को हासिल करना है। चाहे ऐसा अभ्यास नेक हो या अभद्र, यह सिर्फ एक नियम है जो लोगों को बांधता है। यह उचित प्रतीत होता है, लेकिन यह मूलतः निरर्थक और बेतुका है। इसमें यह अपेक्षा की जाती है कि चाहे कैसी भी परिस्थिति सामने आए, तुम्हें दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने होंगे। चाहे तुम इसे करना चाहते हो या नहीं, या चाहे तुम ऐसा कर सकते हो या नहीं, और माहौल कैसा भी हो, तुम्हें बस दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने होंगे। यदि तुम “छोटे हितों का त्याग करने” में सक्षम नहीं होते हो, तो “बड़े हित हासिल करो” का वाक्यांश तुम्हें लुभाने के लिए है, ताकि भले ही तुम दूसरों की खातिर अपने हित त्याग न सको, फिर भी तुम इसे त्यागना नहीं चाहते हो। “बड़े हित हासिल करो” के विचार से लोगों को बहकाया जाता है। ऐसी परिस्थितियों में कोई फैसला लेना मुश्किल होता है। तो क्या दूसरों की खातिर अपने हित त्यागना आचरण का सिद्धांत है? क्या इससे सकारात्मक परिणाम प्राप्त हो सकते हैं? हरेक व्यक्ति खुद पर बहुत अच्छी तरह से पर्दा डालता है, और अत्यधिक बड़प्पन, गरिमा और चरित्र का प्रदर्शन करता है, लेकिन अंत में परिणाम क्या होता है? केवल इतना ही कहा जा सकता है कि इससे कुछ नहीं होगा, क्योंकि ऐसा करने से दूसरे लोगों की सराहना तो मिल सकती है, लेकिन सृष्टिकर्ता की स्वीकृति नहीं मिल सकती। ऐसा कैसे होता है? क्या यह हरेक व्यक्ति द्वारा परंपरागत संस्कृति की नैतिक आचरण संबंधी कहावतों का पालन करने और शैतानी फलसफों का अनुसरण करने का परिणाम है? यदि हर कोई परमेश्वर के वचनों को स्वीकारे, सही विचारों और नजरिये को स्वीकारे, सत्य सिद्धांतों पर कायम रहे और जीवन में उस दिशा की ओर चले जिसका मार्गदर्शन परमेश्वर करता है, तो लोगों के लिए जीवन में सही मार्ग पर चलना आसान हो जाएगा। क्या दूसरों की खातिर अपने हितों का त्याग करने की तुलना में इस तरह से अभ्यास करना बेहतर है? इस तरह से अभ्यास करने का मतलब सत्य सिद्धांतों का पालन करना और पाखंड के रास्ते पर शैतान का अनुसरण करने के बजाय परमेश्वर के वचनों के अनुसार रोशनी में रहना है। शैतानी फलसफों और परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की कहावतों से मिले विभिन्न विचारों को त्यागकर, और सत्य को स्वीकार कर परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीवन जीने से ही कोई व्यक्ति वास्तविक मनुष्य जैसा जीवन जी सकता है और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकता है।
ऊपर की गई संगति के आधार पर क्या तुम लोग नैतिक आचरण की कहावतों के सार के बारे में किसी नतीजे पर पहुँचे हो? नैतिक आचरण के बारे में ये विभिन्न कहावतें केवल विनियम और परंपराएं हैं जो लोगों के विचारों, नजरिये और बाहरी व्यवहार को सीमित करती हैं। ये आचरण के सिद्धांत या मानदंड तो बिल्कुल नहीं हैं, और ये ऐसे सिद्धांत भी नहीं हैं कि तमाम तरह के लोगों, मामलों और चीजों का सामना करते हुए इनका पालन किया जाए। तो फिर लोगों को किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए? क्यों न हम इस विषय पर संगति करें? कुछ लोग कहते हैं : “जिन सत्य सिद्धांतों का लोगों को पालन करना चाहिए उनके और नैतिक आचरण की कहावतों के विनियमों-परंपराओं के बीच क्या अंतर है?” तुम्हीं बताओ, क्या कोई अंतर है? (बिल्कुल है।) वे किस मामले में अलग हैं? नैतिक आचरण की कहावतें केवल नियम और परंपराएं हैं जो लोगों के विचारों, नजरिये और व्यवहार पर अंकुश लगाती हैं। लोगों के सामने आने वाले विभिन्न मामलों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने लोगों पर ऐसी अपेक्षाएं थोप दी हैं जो उनके व्यवहार को सीमित कर उनके हाथ-पैर बाँध देती हैं, और उन्हें विभिन्न लोगों, मामलों और चीजों से निपटने के लिए सही सिद्धांत और सही रास्ते खोजने देने के बजाय उनसे ऐसे-वैसे काम कराती हैं। वहीं, सत्य सिद्धांत इससे अलग हैं। परमेश्वर के वचन लोगों से जो बहुआयामी अपेक्षाएँ रखते हैं, वे नियम-विनियम या परंपराएँ नहीं हैं, और ये ऐसी कहावतें तो बिल्कुल नहीं हैं जो लोगों के विचार और व्यवहार पर अंकुश लगाएं। बल्कि, ये वचन लोगों को ऐसे सत्य सिद्धांत बताते हैं जो उन्हें समझने चाहिए और जिनका उन्हें हर तरह के माहौल में और अपने साथ कुछ भी घटित होते समय पालन करना चाहिए। तो, ये सिद्धांत आखिर हैं क्या? मैं यह क्यों कहता हूँ कि परमेश्वर के वचन ही सत्य या सत्य सिद्धांत हैं? क्योंकि परमेश्वर के वचन लोगों से जो विभिन्न अपेक्षाएँ रखते हैं उन्हें सामान्य मानवता से पूरा किया जा सकता है, वे इस हद तक लोगों से अपेक्षा करते हैं कि जब भी उनके साथ कुछ घटित हो, वे भावनाओं, इच्छाओं, महत्वाकांक्षाओं और अपने भ्रष्ट स्वभावों से प्रभावित और बाधित न हों, बल्कि परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करें, जो एक ऐसा सिद्धांत है जिसका पालन करने में लोग सक्षम हैं। परमेश्वर के वचनों के सत्य सिद्धांत सही दिशा और लक्ष्य बताते हैं जिसका लोगों को पालन करना चाहिए, और वे वह मार्ग भी हैं जिस पर लोगों को चलना चाहिए। परमेश्वर के वचनों के सिद्धांत न केवल लोगों की अंतरात्मा और विवेक को सामान्य रूप से कार्य करने देते हैं, बल्कि वे स्वाभाविक रूप से सत्य के सिद्धांतों को नींव से यानी लोगों की अंतरात्मा और विवेक से जोड़ते हैं। ये सत्य के ऐसे मानक हैं जिन पर अंतरात्मा और विवेक वाले लोग चल सकते हैं और उन्हें पूरा कर सकते हैं। जब लोग परमेश्वर के वचनों के इन सिद्धांतों का पालन करते हैं तो वे जो हासिल करते हैं वह उनकी नैतिकता और सत्यनिष्ठा में वृद्धि नहीं है, न ही यह उनकी मानवीय गरिमा की रक्षा है। बल्कि वे जीवन में सही मार्ग पर चल पड़ते हैं। जब कोई व्यक्ति परमेश्वर के वचनों के इन सत्य सिद्धांतों का पालन करता है, तो उसके पास न केवल एक सामान्य व्यक्ति की अंतरात्मा और विवेक होता है, बल्कि अंतरात्मा और विवेक रखने की नींव पर, वह अपने आचरण के संबंध में और अधिक सत्य सिद्धांतों को समझने लगता है। सरल शब्दों में कहें, तो वे आचरण के सिद्धांतों को समझ जाते हैं, यह जान लेते हैं कि लोगों और चीजों को देखते समय और अपने आचरण और कार्य में किन सत्य सिद्धांतों का उपयोग करना है, और अब वे अपनी भावनाओं, इच्छाओं, महत्वाकांक्षाओं और भ्रष्ट स्वभावों से नियंत्रित और प्रभावित नहीं होते हैं। इस तरह वे पूरी तरह एक सामान्य व्यक्ति की समानता को जीते हैं। परमेश्वर द्वारा बताए गए ये सत्य सिद्धांत मूल रूप से लोगों को नियंत्रित करने वाले और उन्हें पाप मुक्त होने से रोकने वाले भ्रष्ट स्वभाव की समस्या को हल करते हैं, ताकि लोग अब और भावनाओं, इच्छाओं, महत्वाकांक्षाओं और भ्रष्ट स्वभावों द्वारा नियंत्रित होकर अपना पुराना जीवन जीते न रहें। और इनकी जगह कौन लेता है? परमेश्वर के वचनों का मानक और सत्य सिद्धांत व्यक्ति का जीवन बन जाते हैं। आम तौर पर, एक बार जब लोग उन सत्य सिद्धांतों का पालन करना शुरू कर देते हैं जिनका मानवजाति को पालन करना चाहिए, तो वे देह की विभिन्न परेशानियों में नहीं जीते। और सटीक ढंग से कहें तो लोग अब शैतान के भ्रामक तरीकों, छल-कपट और नियंत्रण में नहीं जीते हैं। विशेष रूप से वे अब जीवन जीने के उन असंख्य विचारों, दृष्टिकोणों और सांसारिक आचरण के फलसफों के बंधन और नियंत्रण में नहीं रहते हैं जो शैतान लोगों के मन में बैठाता है। इसके बजाय वे न केवल गरिमा और सत्यनिष्ठा के साथ जीते हैं, बल्कि स्वतंत्र रूप से और सामान्य लोगों के सदृश भी जीते हैं, जो कि सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व में सृजित प्राणियों की सच्ची समानता है। यही परमेश्वर के वचनों और सत्य और परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की कहावतों के बीच मूलभूत अंतर है।
आज की संगति का विषय कुछ हद तक गहरा है। इसे सुनने के बाद तुम लोगों को कुछ देर तक इस पर चिंतन-मनन करना चाहिए, इसे अपने अंदर समाहित होने देना चाहिए और देखना चाहिए कि जो कहा गया है वह तुम्हारी समझ में आता है या नहीं। इस संगति के आधार पर क्या तुम लोग नैतिक आचरण की कहावतों और सत्य के बीच का अंतर पूरी तरह समझ गए हो? मुझे एकदम सरल भाषा में बताओ : आखिकार, नैतिक आचरण की कहावतों का सार क्या है? (नैतिक आचरण की कहावतें केवल नियम और परंपराएँ हैं जो लोगों के विचारों और व्यवहारों पर अंकुश लगाती हैं, वे स्व-आचरण के सिद्धांत और मानक नहीं हैं।) बिल्कुल सही। पारंपरिक संस्कृति की पाठ्यपुस्तकों में कोंग रोंग का बड़ी नाशपातियों को त्याग देने की एक कहानी है।[क] मुझे बताओ, जो लोग इस तरह से पेश आ सकते हैं क्या वे जरूरी रूप से अच्छे लोग हैं? और जो लोग इस तरह पेश नहीं आ सकते वे जरूरी रूप से बुरे लोग हैं? (नहीं।) पहले लोग सोचते थे कि कोंग रोंग का बड़ी नाशपातियों को त्याग देना महान चरित्र और दृढ़ ईमानदारी का कार्य था, दूसरों की खातिर अपने हित त्यागना था और जो लोग ऐसा कर सकते थे वे अच्छे लोग थे। इस ऐतिहासिक कहानी में कोंग रोंग बाद की पीढ़ियों के लिए एक आदर्श बन गया। क्या यह व्यक्तित्व कोंग रोंग बहुत सारे लोगों के दिलों में कोई निश्चित स्थान रखता है? (हाँ।) उसके विचार और अभ्यास, उसकी नैतिकता और व्यवहार लोगों के दिलों में जगह रखते हैं। लोग ऐसी प्रथाओं का बहुत सम्मान करते हैं और उनका अनुमोदन करते हैं, और वे आंतरिक रूप से कोंग रोंग के नैतिक आचरण की प्रशंसा करते हैं। इसलिए, अगर तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखो जो दूसरों की खातिर अपने हित त्याग नहीं सकता है, जो कोंग रोंग की तरह बड़ी नाशपातियाँ नहीं दे सकता है, तो तुम अंदर-ही-अंदर उससे चिढ़ जाओगे और उसके बारे में नीची राय रखोगे। तो क्या तुम्हारी चिढ़ और उसके बारे में नीची राय रखना सही है? इनका जरूर कोई आधार होगा। सबसे पहले, तुम सोचते हो : “कोंग रोंग इतना छोटा होकर भी बड़ी नाशपातियाँ त्याग देने में सक्षम था, वहीं इतने बड़े होकर भी तुम इतने स्वार्थी हो,” और अंदर-ही-अंदर तुम उसके बारे में नीचा सोचते हो। तो क्या तुम्हारी नीची सोच और चिढ़ कोंग रोंग की बड़ी नाशपातियाँ त्याग देने की कहानी पर आधारित हैं? (हाँ।) क्या लोगों को इस आधार पर देखना सही है? (नहीं।) यह क्यों सही नहीं है? क्योंकि जिस आधार से तुम लोगों और चीजों को देखते हो, उसका मूल और प्रारंभिक बिंदु ही गलत है। लोगों और चीजों को आँकने के मानक के तौर पर तुम्हारा प्रारंभिक बिंदु, कोंग रोंग द्वारा बड़ी नाशपातियों के त्याग को लेना है, लेकिन यह दृष्टिकोण और आँकने का तरीका गलत है। वे किस प्रकार गलत हैं? वे इस मायने में गलत हैं क्योंकि तुम मानते हो कि कोंग रोंग की कहानी के पीछे का विचार सही है, और तुम इसे लोगों और चीजों को आँकने के लिए एक सकारात्मक वैचारिक दृष्टिकोण के रूप में लेते हो। जब तुम इस तरह से आँकते हो, तो अंत में तुम्हें यह परिणाम मिलता है कि अधिकांश लोग अच्छे नहीं हैं। क्या इस तरह आँकने के परिणाम सटीक हैं? (नहीं, वे सटीक नहीं हैं।) वे सटीक क्यों नहीं हैं? क्यों तुम्हारे आँकने के मानदंड गलत हैं। यदि कोई परमेश्वर के दिए तरीकों और सिद्धांतों का इस्तेमाल करे, तो उसे ऐसे व्यक्ति को कैसे आँकना चाहिए? इस बात पर विचार करके कि क्या वह व्यक्ति परमेश्वर के घर के हितों को कायम रखता है, क्या वह परमेश्वर के पक्ष में हैं, क्या उसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है, और क्या वह अपने हर काम में सत्य सिद्धांत खोजता है : केवल इन पहलुओं के आधार पर आँकना ही सबसे सटीक है। अगर यह व्यक्ति अपने साथ कुछ घटित होने पर प्रार्थना करता है, खोजता है और सबके साथ इस बारे में चर्चा करता है और—भले ही कभी-कभी वह परोपकारी होने में सक्षम नहीं हो और थोड़ा-बहुत स्वार्थी हो—अगर वह जो करता है वह परमेश्वर द्वारा अपेक्षित पहलुओं से तुलना करते हुए मापने पर मानक स्तर का है तो वह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य स्वीकार सकता है, एक ऐसा व्यक्ति जो सही प्रकार का है। तो यह निष्कर्ष किस बात पर आधारित है? (यह परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं पर आधारित है।) तो क्या यह निष्कर्ष सटीक है? यह निष्कर्ष तुम्हारे उस मापन से कहीं अधिक सटीक है जो मापन तुम कोंग रोंग के बड़ी नाशपातियाँ त्यागने के वैचारिक दृष्टिकोण का उपयोग कर करते। कोंग रोंग की कहानी का वैचारिक नजरिया लोगों के अस्थायी व्यवहार और तौर-तरीकों को आँकता है, लेकिन परमेश्वर लोगों से इस व्यक्ति के सार के साथ-साथ सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं के प्रति उसके दृष्टिकोण को आँकने की अपेक्षा करता है। तुम नैतिक आचरण की कहावतों का उपयोग किसी एक घटना में व्यक्ति के अस्थायी व्यवहार या उसके कर्मों या उसके अस्थायी खुलासों को आँकने के लिए करते हो। यदि तुम उनका उपयोग किसी व्यक्ति के आंतरिक गुणों को आँकने के लिए करते हो तो यह सटीक नहीं होगा, क्योंकि नैतिक आचरण की कहावतों का उपयोग कर किसी व्यक्ति के आंतरिक गुणों को आँकना उन्हें गलत सिद्धांतों का उपयोग कर आँकना है और तुम जिस नतीजे पर पहुँचते हो वह सटीक नहीं होगा। अंतर व्यक्ति के बाहरी व्यवहार में नहीं, बल्कि उसके प्रकृति सार में निहित है। इसलिए, नैतिक आचरण की कहावतों का उपयोग करके लोगों को आँकना मूल रूप से गलत है। केवल सत्य सिद्धांतों का उपयोग करके लोगों को आँकना ही सटीक है। क्या तुम्हें मेरी बात समझ आई?
नैतिक आचरण की कहावतों का सार यह है कि ये ऐसे विनियम और परंपराएं हैं जो लोगों के व्यवहार और विचारों को सीमित करती हैं। कुछ हद तक ये लोगों की सोच को सीमित और नियंत्रित करती हैं, और सामान्य मानवता की सोच की कुछ सही अभिव्यक्तियों और सामान्य अपेक्षाओं पर अंकुश लगाती हैं। बेशक यह भी कहा जा सकता है कि कुछ हद तक ये सामान्य मानवता के बचे रहने के कुछ नियमों का उल्लंघन करती हैं, और सामान्य लोगों को उनकी मानवीय आवश्यकताओं और अधिकारों से भी वंचित करती हैं। उदाहरण के लिए, यह ठेठ कहावत “महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए” महिलाओं के मानव अधिकारों में जबरन दखल देती है और उन्हें नष्ट करती है। इससे संपूर्ण मानव समाज में महिलाओं की क्या भूमिका रह जाती है? वे गुलाम बनाए जाने की भूमिका निभाती हैं। यही बात है न? (हाँ।) इस दृष्टिकोण से नैतिक आचरण की इन कहावतों के नियमों और परंपराओं ने मानवीय विचारों को नष्ट कर दिया है, सामान्य मानवता की विभिन्न आवश्यकताओं को छीन लिया है, और साथ ही सामान्य मानवता के विभिन्न विचारों की मानव अभिव्यक्ति को संकुचित कर दिया है। नैतिक आचरण की ये कहावतें मूल रूप से सामान्य लोगों की जरूरतों के आधार पर नहीं बनाई गई हैं, न ही ये उन मानकों पर आधारित हैं जिन्हें सामान्य लोग पूरा कर सकते हैं, बल्कि ये सभी कहावतें लोगों की कल्पनाओं और महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के आधार पर बनाई गई हैं। नैतिक आचरण की ये कहावतें न केवल लोगों के विचारों को बाधित और सीमित करती हैं और उनके व्यवहार पर अंकुश लगाती हैं, बल्कि वे लोगों को झूठी और काल्पनिक चीजों की पूजा करने और उनके पीछे भागने के लिए भी प्रेरित करती हैं। लेकिन लोग उन्हें हासिल नहीं कर सकते, इसलिए वे केवल दिखावा करके खुद को छिपाने और खुद पर पर्दा डालने की कोशिश करते हैं, ताकि वे एक सुसभ्य, आदर्श जीवन जी सकें, ऐसा जीवन जो बहुत सम्मानजनक लगता है। लेकिन सच तो यह है कि नैतिक आचरण के इन विचारों और नजरिये के प्रभाव के अधीन जीने का मतलब है कि मानवता के विचार विकृत और सीमित हो गए हैं, और लोग इन भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों के नियंत्रण में रहकर असामान्य और पथभ्रष्ट रूप से जीते हैं, क्या ऐसा नहीं है? (हाँ।) लोग इस तरह जीना नहीं चाहते हैं, और वे ऐसा करना भी नहीं चाहते, लेकिन वे इन वैचारिक जंजीरों की बाधाओं से मुक्त नहीं हो सकते। वे बस यही कर सकते हैं कि इन विचारों और दृष्टिकोणों के प्रभाव और बंधन के अधीन अनिच्छा से और अनैच्छिक रूप से जीते रहें। साथ ही, जनमत के दबाव और अपने हृदय में बसे इन विचारों और नजरिये के कारण उनके पास एक के ऊपर एक पाखंड के मुखौटे पहनकर इस दुनिया में एक घृणित जीवन को घिसटते हुए जीने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। मानवजाति के लिए नैतिक आचरण की कहावतों का यही दुष्परिणाम है। क्या तुम लोगों को समझ आया? (बिल्कुल।) नैतिक आचरण की इन कहावतों पर हम जितनी अधिक संगति और इनका गहन-विश्लेषण करेंगे, उतना ही अधिक स्पष्ट रूप से लोग उनकी असलियत देख सकेंगे और उतना ही अधिक उन्हें महसूस होगा कि परंपरागत संस्कृति की ये विभिन्न कहावतें सकारात्मक चीजें नहीं हैं। इन्होंने हजारों वर्षों से मनुष्यों को गुमराह किया है और उन्हें इस हद तक नुकसान पहुँचाया है कि परमेश्वर के वचनों को सुनने और सत्य को समझने के बाद भी वे अभी तक परंपरागत संस्कृति के इन विचारों और नजरिये के प्रभाव से खुद को मुक्त नहीं कर पाए हैं, और यहाँ तक कि इनके लिए ऐसी आकांक्षा रखते हैं मानो ये कोई सकारात्मक चीजें हों। बहुत-से लोग इन्हें सत्य के विकल्प के तौर पर भी उपयोग करते हैं, और सत्य के रूप में इनका अभ्यास करते हैं। आज की संगति से क्या तुम लोगों को परंपरागत पारंपरिक संस्कृति में मौजूद नैतिक आचरण की इन कहावतों की ज्यादा अच्छी और सटीक समझ प्राप्त हुई? (हाँ।) अब जब तुम्हें उनकी कुछ समझ हो गई है, तो आओ हम नैतिक आचरण की अन्य कहावतों पर संगति जारी रखें।
ट. “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए” का गहन-विश्लेषण
आगे हम नैतिक आचरण की इस कहावत “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए” पर संगति करेंगे। जैसा कि तुम सब बता सकते हो, नैतिक आचरण के बारे में इनमें से हरेक कहावत इतनी अतिशयोक्तिपूर्ण और जबरदस्त है, मानो ये सभी एक प्रकार से नायक की भावना और महान लोगों के गुणों से ओत-प्रोत हों और किसी साधारण या सामान्य व्यक्ति के लिए इन्हें हासिल करना नामुमकिन हो। “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए”—इसके लिए कितनी ज्यादा खुली मानसिकता की आवश्यकता होगी! ऐसा करने के लिए तुम्हें कितनी दयालु, परोपकारी और महान हस्ती होने की जरूरत है! “एक बूँद पानी” “झरने” के समरूप है लेकिन साथ ही यह समरूपता यह आभास भी देती है कि दोनों के बीच एक अथाह खाई और विशाल अंतर है। इसका मतलब है कि तुम्हें पानी की एक बूँद की दयालुता का भी बदला चुकाना होगा, लेकिन किस चीज से? इसका बदला बहुत ही विशाल संख्या में क्रियाकलापों या व्यवहारों समेत या बहुत ही अधिक ईमानदारी और बहुत ही बड़ी इच्छा के साथ एक बहते झरने से चुकाया जाना चाहिए, न कि इसे भुला देना चाहिए। पानी की एक बूँद की दयालुता की कीमत चुकाने में इतना सब कुछ लगता है, और यदि तुम इसकी कीमत इससे कुछ कम देकर चुकाते हो, तो इसका मतलब तुम्हारे पास अंतरात्मा नहीं है। इस तर्क के अनुसार, क्या दयालुता दिखाने वाला व्यक्ति ही अंत में गलत फायदा उठाने वाला व्यक्ति भी नहीं है? यह परोपकारी व्यक्ति यकीनन अपनी दयालुता का बखूबी फायदा उठाता है! वह पानी की एक बूँद देकर दया दिखाता है और बदले में उसे एक झरना मिलता है। यह एक बहुत ही मुनाफेदार सौदा है और दूसरों की कीमत पर अच्छा-खासा लाभ उठाने का तरीका है। यही बात है न? इस जीवन में हर व्यक्ति पानी की एक बूँद की दयालुता प्राप्त करता है। यदि उन सभी को इसका बदला बहुत बड़ी कीमत यानी झरना देकर चुकाना होगा, तो इसका बदला चुकाने में उनका पूरा जीवन ही खप जाएगा, जिससे वे अपने किसी भी पारिवारिक और सामाजिक उत्तरदायित्व को पूरा करने में असमर्थ रहेंगे, और जीवन में अपने मार्ग पर विचार करना तो दूर की बात है। यदि तुम पानी की एक बूँद की दयालुता का आनंद लेते हो, पर झरना देकर इसका बदला चुकाने में असफल रहते हो, तो तुम्हारी अंतरात्मा तुम्हें धिक्कारेगी और समाज तुम्हारी निंदा करेगा, और तुम्हें विद्रोही, खलनायक और एहसानफरामोश मानेगा, और मनुष्य नहीं मानेगा। लेकिन अगर कोई इस दयालुता का बदला एक झरने से चुका सके तो क्या होगा? तो वह कहेगा, “मुझसे अधिक कर्तव्यनिष्ठ कोई नहीं है, क्योंकि मैं ‘एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुका सकता हूँ’। इस तरह जिस व्यक्ति ने कभी मेरी मदद की थी और मुझ पर दया दिखाई थी, देख सकेगा कि मैं किस प्रकार का इंसान हूँ और मेरी मदद करके उसने कोई नुकसान उठाया है या नहीं और क्या मेरी मदद करना उसके लिए मूल्यवान रहा या नहीं। इस तरह वह इसे कभी नहीं भूलेगा और शर्मिंदा भी महसूस करेगा। इतना ही नहीं, मैं उसकी दयालुता का बदला चुकाता रहूँगा। चूँकि मैं ‘एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुका सकता हूँ’, तो क्या मैं उत्तम नैतिक आचरण और चरित्र वाला व्यक्ति नहीं हूँ? क्या मैं सज्जन नहीं हूँ? क्या मैं एक महान व्यक्ति नहीं हूँ? क्या मैं प्रशंसा के योग्य नहीं हूँ?” हर कोई उसकी प्रशंसा करता है और उसकी सराहना करता है, और यह उसकी भावनाओं में हलचल मचा देता है, इसलिए वह कहता है, “चूँकि तुम लोग एक दयालु व्यक्ति, एक महान चरित्र वाले व्यक्ति, लोगों के बीच एक मिसाल और मनुष्य की नैतिकता का एक प्रतिमान मानकर मेरी प्रशंसा करते हो, तो मेरी मृत्यु के बाद तुम्हें मेरे लिए एक स्मारक बनवाना चाहिए और उस पर यह स्मृति-लेख लिखना चाहिए, ‘यह व्यक्ति इस आदर्श की मिसाल था, “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए,” और इसे मनुष्य की नैतिकता की मिसाल कहा जा सकता है।’” लेकिन स्मारक स्थापित होने के बाद भी, वह सोचता है कि उन्हें उसकी मिट्टी की मूरत बनाकर उसे मंदिर में रखना चाहिए और उस पर उसका विशेष नाम लिखना चाहिए : “फलाने परमेश्वर का पवित्र स्थल” और उसके नीचे एक धूपवेदी बनानी चाहिए, जहाँ हर व्यक्ति उसके लिए धूप-अगरबत्ती चढ़ाएँ ताकि यह उसके लाभ के लिए लगातार जलती रहे। यही नहीं, लोगों को अपने घरों में उसकी प्रतिमा रखनी चाहिए, उसके सामने अगरबत्ती जलानी चाहिए, दिन में तीन बार उसे प्रणाम करना चाहिए, अपने बच्चों और पोते-पोतियों और युवा पीढ़ी को उसके जैसा बनने के लिए शिक्षित करना चाहिए, और अपने बेटे-बेटियों को उसके जैसे किसी ऐसे व्यक्ति से शादी करने को कहना चाहिए जो उसकी तरह “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुका सके”—जो मनुष्य की नैतिकता का आदर्श और प्रतिमान है। चीनी लोगों का अपने बच्चों को शिक्षा देने का पारंपरिक दृष्टिकोण उन्हें एक नेक इंसान बनना सिखाना है, और दया को स्वीकारने और उसका बदला चुकाने की कोशिश करने पर जोर देता है। यदि तुम पानी की एक बूँद की दयालुता प्राप्त करते हो, तो तुम्हें इसका बदला कड़ी मेहनत भरे जीवन से, यानी झरने से चुकाना होगा। जब बच्चे बड़े हो जाते हैं, तो वे अगली पीढ़ियों को भी उसी तरह सिखाते हैं और इसी तरह यह सिलसिला एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चलता रहता है। जब ऐसा व्यक्ति “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाने” में सक्षम हो जाता है, तो उसने अपना अंतिम लक्ष्य भी प्राप्त कर लिया होता है। उसने कौन सा लक्ष्य प्राप्त किया है? सांसारिक लोगों और समाज द्वारा पहचाने और स्वीकारे जाने का लक्ष्य। बेशक, यह गौण है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लोग अपनी दीवारों पर उसकी तस्वीर लटकाते हैं, उसकी प्रतिमा पर प्रसाद चढ़ाते हैं, और वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस दुनिया में जलती हुई धूपबत्ती का आनंद ले सकता है, और उसकी भावना और विचारों को दुनिया में प्रसारित किया जा सकता है और आने वाली पीढ़ियों में भी लोग उसकी प्रसंशा करते रहेंगे। अंत में, इस संसार की जलती हुई धूपबत्ती में खुद को झोंकने के बाद वह क्या बन जाता है? वह एक शैतान राजा बन जाता है और आखिरकार उसका लक्ष्य पूरा हो जाता है। यह शैतान द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट किए जाने का अंतिम परिणाम है। शुरुआत में लोग नैतिक आचरण के बारे में परंपरागत संस्कृति में परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता जैसे केवल एक विचार को स्वीकारते हैं। बाद में वे इस विचार की शर्तों का पालन करते हैं, इस विचार और इस शर्त को कठोरता से व्यवहार में लाकर और उनका पालन करके दूसरों के लिए एक मिसाल कायम करते हैं, और बाकी मानवता के लिए नैतिकता का एक प्रतिमान और आदर्श बनने का लक्ष्य हासिल करते हैं। फिर मरने के बाद वे अपने पीछे अपनी शोहरत छोड़ जाते हैं जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है। आखिरकार वे जो चाहते थे वह उन्हें मिल जाता है, जो इस दुनिया की जलती हुई अगरबत्ती को बहुत सारे वर्षों तक सांस के साथ अंदर लेना और राक्षसों का राजा बनना है। क्या यह अच्छी चीज है? (नहीं।) यह अच्छी चीज क्यों नहीं है? यही वह अंतिम लक्ष्य है जिसकी आकांक्षा एक अविश्वासी व्यक्ति अपने जीवन में करता है। ऐसे लोग एक खास नैतिक आचरण के विचारों को मंजूरी देते हैं, फिर मिसाल के साथ आगे बढ़ते हैं, इस नैतिक आचरण की शर्तों को लागू करने की कोशिश करते हैं, जब तक कि आखिरकार उस बिंदु तक नहीं पहुँच जाते जहाँ हर कोई एक नेक, दयालु, प्रतिष्ठित व्यक्ति और एक आदर्श चरित्र के व्यक्ति के रूप में उनकी प्रशंसा करता है। उनके व्यवहार और कर्मों की चर्चा पूरी मानवता में फैल जाती है, उनके व्यवहार और कर्मों का पीढ़ियों तक लोग अध्ययन करते हैं और उनका सम्मान करते हैं, आखिर में वह व्यक्ति पूरी पीढ़ी के लिए आदर्श और यकीनन पूरी पीढ़ी के लिए राक्षसों का राजा बन जाता है। क्या सांसारिक लोग इसी मार्ग पर नहीं चलते हैं? क्या यही वह परिणाम नहीं है जिसकी सांसारिक लोग आकांक्षा करते हैं? क्या इसका सत्य से कोई संबंध है? परमेश्वर के उद्धार से कोई संबंध है? किसी भी तरह का कोई संबंध नहीं है। नैतिक आचरण की कहावतों का लोगों के लिए यही अंतिम परिणाम होता है। यदि कोई व्यक्ति परंपरागत संस्कृति के सभी विभिन्न विचारों को पूरी तरह से स्वीकार लेता है और उनका पूरी तरह से पालन करता है, तो वह जिस मार्ग पर चलता है वह निस्संदेह राक्षसों का मार्ग है। अगर तुम हमेशा-हमेशा के लिए पूरी तरह राक्षसों की राह पर चल पड़े हो तो फिर लोगों को बचाने के परमेश्वर के कार्य से तुम्हारा कोई संबंध नहीं है और तुम्हारा उद्धार से बिल्कुल भी लेना-देना नहीं है। इसलिए सत्य को समझने की बुनियाद पर यदि तुम अभी भी परंपरागत संस्कृति के विचारों से सीमित और प्रभावित हो, और साथ ही इन विचारों के प्रभाव में हो, इन नियमों, शर्तों और कहावतों का पालन कर रहे हो, तुम उनके खिलाफ विद्रोह करने या उन्हें छोड़ पाने में असमर्थ हो, और परमेश्वर की अपेक्षाओं को स्वीकार नहीं सकते हो, तो तुम आखिर में राक्षसों के मार्ग पर चल पड़ोगे और राक्षसों के राजा बन जाओगे। तुम्हें यह बात समझ आती है? दुनिया का कोई भी सिद्धांत या कहावत परमेश्वर द्वारा मानवजाति को दिए गए उद्धार के मार्ग की जगह नहीं ले सकता, यहाँ तक कि दुनिया के उच्चतम नैतिक मानक भी नहीं। यदि लोग सही मार्ग पर चलना चाहते हैं, जो उद्धार का मार्ग है, तो केवल परमेश्वर के सामने आकर, विनम्रता और दृढ़ता से परमेश्वर के वचनों को स्वीकार कर, उसके सभी विभिन्न दावों और अपेक्षाओं को स्वीकार कर, और परमेश्वर के वचनों को मानक मानकर आचरण और कार्य करने से ही वे परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हैं। वरना लोगों के पास जीवन में सही मार्ग पर चलने का कोई रास्ता नहीं है, और वे केवल विनाश के रास्ते पर शैतान के फलसफों का अनुसरण कर सकते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “क्या कोई बीच का मार्ग भी है?” नहीं, तुम या तो परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करते हो या शैतान के राक्षसी मार्ग का। केवल दो ही मार्ग हैं। यदि तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं करते, तो निस्संदेह तुम शैतान के बताए विभिन्न विचारों और ऐसे विचारों से उत्पन्न विभिन्न शैतानी तरीकों का पालन करोगे। यदि तुम बीच का मार्ग या कोई तीसरा मार्ग अपनाकर समझौता करना चाहते हो, तो यह नामुमकिन है। क्या यह बात समझ आई? (बिल्कुल।) मैं अब आगे “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए” कहावत के बारे में अधिक विस्तार से नहीं बताऊँगा क्योंकि यह कमोबेश इसी कहावत के समान है, “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,” जिस पर हमने पहले संगति की थी। इन दोनों कहावतों का सार काफी हद तक एक ही है, इसलिए इस पर अधिक विस्तार से चर्चा करने की जरूरत नहीं है।
ठ. “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” का गहन-विश्लेषण
अब नैतिक आचरण पर अगली कहावत के बारे में बात करते हैं—दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते। इसका भेद पहचानना तो बहुत आसान होना चाहिए, है ना? नैतिक आचरण की जिन कहावतों पर हमने पहले बात की थी उनकी अपेक्षाओं से तुलना करने पर यह कहावत भी स्पष्ट रूप से एक जड़ नियम है जो लोगों को बांधता है। भले ही कागज पर यह शानदार और प्रभावशाली दिखता है, इसमें कुछ गलत भी नहीं लगता और लोगों के साथ व्यवहार के लिए यह एक सरल सिद्धांत प्रतीत होता है, लेकिन जब आचरण करने के तरीके या लोगों से पेश आने के तरीके की बात हो तो इस सरल सिद्धांत का कोई अर्थ नहीं निकलता और इससे किसी व्यक्ति के आचरण या जीवन की खोज में कोई मदद नहीं मिलती। यह एक ऐसा सिद्धांत नहीं है जिसका लोगों को अपने आचरण और व्यवहार में पालन करना चाहिए, न ही यह जीवन में सही दिशा और लक्ष्य का अनुसरण करने का सिद्धांत है। यदि तुम इस अपेक्षा का पालन करते भी हो तो यह बस लोगों के साथ व्यवहार करते समय तुम्हें कुछ भी अनुचित करने से रोकती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे पास लोगों के लिए वास्तविक प्रेम है या तुम वास्तव में उनकी मदद करते हो, और इससे यह तो बिल्कुल भी साबित नहीं होता कि तुम जीवन में सही मार्ग पर हो। शाब्दिक अर्थ में, “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” का अर्थ है कि अगर तुम कोई चीज पसंद नहीं करते, या कोई चीज करना पसंद नहीं करते, तो तुम्हें उसे अन्य लोगों पर भी नहीं थोपना चाहिए। यह चतुराई भरा और उचित लगता है, लेकिन अगर तुम हर स्थिति सँभालने के लिए यह शैतानी फलसफा इस्तेमाल करोगे, तो तुम कई गलतियाँ करोगे। इस बात की संभावना है कि तुम लोगों को चोट पहुँचाओगे, गुमराह करोगे, यहाँ तक कि लोगों को नुकसान भी पहुँचा दोगे। ठीक वैसे ही जैसे कुछ माता-पिताओं को अध्ययन का शौक नहीं होता लेकिन वे अपने बच्चों को पढ़ाना पसंद करते हैं और हमेशा उन्हें समझाने की कोशिश करते हैं, उनसे कड़ी मेहनत से पढ़ने का आग्रह करते हैं। अगर यहाँ “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” की अपेक्षा लागू की जाए तो इन माता-पिताओं को अपने बच्चों को अध्ययन नहीं कराना चाहिए, क्योंकि इसमें खुद उन्हें आनंद नहीं आता। कुछ लोग हैं जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करते; फिर भी वे अपने हृदय में जानते हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करना ही जीवन का सही मार्ग है। अगर वे देखते हैं कि उनके बच्चे परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते और सही रास्ते पर नहीं हैं, तो वे उनसे परमेश्वर पर विश्वास करने का आग्रह करते हैं। भले ही वे खुद सत्य का अनुसरण नहीं करते, फिर भी वे चाहते हैं कि उनके बच्चे सत्य का अनुसरण करें और आशीष पाएँ। इस स्थिति में अगर उन्होंने “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” की कहावत का पालन किया तो इन माता-पिताओं को अपने बच्चों से परमेश्वर में विश्वास नहीं कराना चाहिए। यह इस शैतानी फलसफे के अनुरूप तो होता, लेकिन यह उनके बच्चों के उद्धार का अवसर भी चौपट कर चुका होता। इस परिणाम के लिए कौन जिम्मेदार है? क्या नैतिक आचरण की परंपरागत कहावत “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” लोगों को नुकसान नहीं पहुँचाती? एक और उदाहरण लेते हैं। कुछ माता-पिता कर्तव्यनिष्ठ और नियमों का पालन करने वाला जीवन जीने से संतुष्ट नहीं होते। वे अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए खेत में मेहनत करने या काम पर जाने को तैयार नहीं होते। बल्कि वे बेईमानी से धन-दौलत अर्जित करने के लिए अधर्मी तरीकों का इस्तेमाल करके धोखा देना, ठगी करना या जुआ खेलना पसंद करते हैं ताकि तब वे आलीशान जीवन जी सकें, मौज-मस्ती कर सकें और दैहिक सुखों का मजा ले सकें। इन्हें ईमानदारी से काम करना या सही मार्ग पर चलना पसंद नहीं होता। यही तो वे नहीं चाहते, है ना? उनका दिल जानता है कि यह अच्छा नहीं है। ऐसी स्थिति में उन्हें अपने बच्चों को कैसी शिक्षा देनी चाहिए? सामान्य लोग अपने बच्चों को यह सिखाएंगे कि वे कड़ी मेहनत से पढ़कर किसी कौशल में महारत हासिल करें ताकि वे भविष्य में एक अच्छी नौकरी पा सकें और सही मार्ग पर चलें। माता-पिता के रूप में अपनी जिम्मेदारी निभाना यही है, है ना? (हाँ, बिल्कुल।) यह सही है। लेकिन अगर वे इस कहावत का पालन करते हैं “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते,” तो वे कहेंगे, “बेटा, मुझे देखो। मैं जीवन में हर तरह की चीजें कर सकता हूँ, जैसे कि अच्छा खाना-पीना, अक्सर वेश्याओं के पास जाना और जुआ खेलना। मैं जीवन में बिना पढ़ाई किए या कोई कौशल सीखे भी काम चला लेता हूँ। तुम भविष्य में मेरे साथ सब कुछ सीख जाओगे। तुम्हें स्कूल जाकर कड़ी मेहनत से पढ़ने की जरूरत नहीं है। चोरी करना, धोखा देना और जुआ खेलना सीखो। तुम इससे भी अपने जीवन के बाकी दिनों में आरामदायक जिंदगी जी सकते हो!” क्या ऐसा करना सही है? क्या किसी ने अपने बच्चों को इस तरह सिखाया है? (नहीं।) “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” का उदाहरण यही तो है, है न? क्या इन उदाहरणों ने इस कहावत का पूरी तरह से खंडन नहीं कर दिया? इसमें कुछ भी सही नहीं है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग सत्य से प्रेम नहीं करते; वे दैहिक सुखों के लिए लालायित रहते हैं, और अपना कर्तव्य निभाते समय ढीले पड़ने के तरीके ढूँढ़ते हैं। वे कष्ट उठाने या कीमत चुकाने के लिए तैयार नहीं हैं। वे सोचते हैं कि “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” कहावत अच्छी तरह से बात को कहती है, और वे लोगों को बताते हैं, “तुम लोगों को सीखना चाहिए कि आनंद कैसे लिया जाए। तुम्हें अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने या कठिनाई झेलने या कोई कीमत चुकाने की आवश्यकता नहीं है। अगर तुम ढीले पड़ सकते हो, तो ढीले पड़ जाओ; अगर तुम कोई चीज जैसे-तैसे निपटा सकते हो, तो निपटा दो। अपने लिए चीजें इतनी कठिन मत बनाओ। देखो, मैं इसी तरह जीता हूँ—क्या यह बहुत अच्छा नहीं है? मेरा जीवन एकदम उत्तम है! तुम लोग उस तरह जीकर खुद को थका रहे हो! तुम लोगों को मुझसे सीखना चाहिए।” क्या यह “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” की अपेक्षा पूरी नहीं करता? अगर तुम इस तरह से कार्य करते हो, तो क्या तुम जमीर और विवेक वाले व्यक्ति हो? (नहीं।) अगर व्यक्ति अपना जमीर और विवेक खो देता है, तो क्या उसमें सद्गुण की कमी नहीं है? इसे ही सद्गुण की कमी कहा जाता है। हम इसे ऐसा क्यों कहते हैं? क्योंकि वह आराम की लालसा रखता है, अपना कर्तव्य जैसे-तैसे निपटाता है, और दूसरों को अनमना होने और आराम की लालसा रखने में अपने साथ शामिल होने के लिए उकसाता और प्रभावित करता है। इसमें क्या समस्या है? अपने कर्तव्य में अनमना और गैर-जिम्मेदार होना चालाकी बरतने और परमेश्वर का विरोध करने का कार्य है। अगर तुम अनमने बने रहते हो और पश्चात्ताप नहीं करते, तो तुम उजागर कर बाहर निकाल दिए जाओगे। कलीसिया में कई लोगों को इसी तरह से हटा दिया जाता है। क्या यह सच नहीं है? (हाँ, सच है।) तो इस कहावत का पालन करना और हर किसी को उनके जैसा बनने के लिए उकसाना, ताकि लोग निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्यों को न निभाएं, बल्कि परमेश्वर को ठगें और धोखा दें, तो क्या यह लोगों को नुकसान पहुँचाना और उन्हें बर्बादी की ओर धकेलना नहीं हुआ? वे खुद तो आलसी और कामचोर हैं ही, दूसरों के कर्तव्य पालन में भी रोड़े अटकाते हैं। क्या यह कलीसिया के कार्य में बाधा डालना और गड़बड़ी पैदा करना नहीं है? क्या यह परमेश्वर से दुश्मनी मोल लेना नहीं है? क्या परमेश्वर का घर ऐसे लोगों को रख सकता है? मान लो कि अविश्वासियों के साथ काम करने वाला कोई व्यक्ति अन्य कर्मचारियों को अपना काम ठीक से न करने के लिए उकसाता है। अगर उसकी बॉस को पता चला तो क्या वह उसे नौकरी से नहीं निकाल देगी? वह उसे जरूर बाहर निकाल देगी। तो यदि वह परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाते हुए भी ऐसा कर सकता है, तो क्या वह परमेश्वर में विश्वास रखने वाला व्यक्ति है? यह एक बुरा और छद्म-विश्वासी व्यक्ति है जिसने परमेश्वर के घर में घुसपैठ कर ली है। उसे बहिष्कृत कर हटा देना चाहिए! ये उदाहरण सुनकर क्या तुम लोग नैतिक आचरण की इस कहावत “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” का सार पहचान पाए हो? (हाँ, हम पहचान पाए हैं।) तुमने अंतिम निष्कर्ष क्या निकाला है? क्या यह अपेक्षा एक सत्य सिद्धांत है? (नहीं।) बिल्कुल भी नहीं है। तो यह क्या है? यह बस एक भ्रमित कहावत है जो सतही तौर पर अच्छी लगती है, पर वास्तव में इसका कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं है।
क्या तुम नैतिक आचरण की इस कहावत के समर्थक हो, “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते”? अगर कोई इस कहावत का समर्थक हो, तो क्या तुम लोग सोचोगे कि वह महान और सज्जन है? कुछ लोग हैं जो कहेंगे, “देखो, वह चीजें थोपता नहीं, वह दूसरों के लिए चीजें मुश्किल नहीं बनाता, न ही उन्हें कठिन स्थितियों में रखता है। क्या वह अद्भुत नहीं है? वह हमेशा अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु रहता है; वह कभी किसी को ऐसा कुछ करने के लिए नहीं कहता, जो वह खुद नहीं करता। वह दूसरों को बहुत ज्यादा स्वतंत्रता देता है, और उन्हें भरपूर गर्मजोशी और स्वीकार्यता का एहसास कराता है। क्या महान व्यक्ति है!” क्या वाकई यही मामला है? “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” कहावत का निहितार्थ यह है कि तुम्हें दूसरों को सिर्फ वही चीजें देनी या उन्हीं चीजों की आपूर्ति करनी चाहिए, जिन्हें तुम पसंद करते हो और जिनमें तुम आनंद लेते हो। लेकिन भ्रष्ट लोग कौन-सी चीजें पसंद करते और उनमें आनंद लेते हैं? दूषित चीजें, बेतुकी चीजें और फालतू इच्छाएँ। अगर तुम लोगों को ये नकारात्मक चीजें देते और उनकी आपूर्ति करते हो, तो क्या समस्त मानवजाति ज्यादा से ज्यादा भ्रष्ट नहीं हो जाएगी? सकारात्मक चीजें कम से कम होंगी। क्या यह तथ्य नहीं है? यह एक तथ्य है कि मानवजाति गहराई से भ्रष्ट हो चुकी है। भ्रष्ट मनुष्य प्रसिद्धि, लाभ, हैसियत और दैहिक सुख के पीछे भागना पसंद करते हैं; वे मशहूर हस्ती बनना चाहते हैं, पराक्रमी और अतिमानव बनना चाहते हैं। वे एक आरामदायक जीवन चाहते हैं और कड़ी मेहनत के विरुद्ध हैं; वे चाहते हैं कि सब-कुछ उन्हें सौंप दिया जाए। उनमें से बहुत कम लोग सत्य या सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं। अगर लोग दूसरों को अपनी भ्रष्टता और अभिरुचियाँ देते हैं और उनकी आपूर्ति करते हैं, तो क्या होगा? वही, जिसकी तुम कल्पना करते हो : मानवजाति ज्यादा से ज्यादा भ्रष्ट होती जाएगी। जो लोग, “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते,” इस विचार के समर्थक हैं, वे चाहते हैं कि लोग दूसरों को अपनी भ्रष्टता, अभिरुचियाँ और फालतू इच्छाएँ दें और उनकी आपूर्ति करें, जिससे दूसरे लोग बुराई, आराम, धन और उन्नति की तलाश करें। क्या यह जीवन का सही मार्ग है? यह स्पष्ट दिखाई देता है कि “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” एक बहुत ही समस्यात्मक कहावत है। इसमें कमियाँ और खामियाँ बिल्कुल स्पष्ट हैं; यह गहन-विश्लेषण करने और भेद पहचानने लायक भी नहीं है। जरा-सी जाँच करने पर ही इसकी त्रुटियाँ और हास्यास्पदता स्पष्ट दिखाई दे जाती है। लेकिन, तुम्हारे बीच बहुत से ऐसे हैं जो इस कहावत से आसानी से कायल और प्रभावित हो जाते हैं और बिना भेद पहचाने इसे स्वीकार लेते हैं। दूसरों के साथ मिलते-जुलते हुए तुम अक्सर इस कहावत का उपयोग खुद को चेताने और दूसरों को नसीहत देने के लिए करते हो। ऐसा करने से, तुम सोचते हो कि तुम्हारा चरित्र विशेष रूप से श्रेष्ठ है, और तुम्हारा व्यवहार बहुत तर्कसंगत है। लेकिन अनजाने ही इन शब्दों ने उस सिद्धांत को, जिसके अनुसार तुम जीते हो, और मुद्दों पर तुम्हारे रुख को प्रकट कर दिया है। इसी के साथ, तुमने दूसरों को गुमराह कर गलत राह पर डाल दिया है जिससे लोगों और परिस्थितियों के प्रति उनके विचार और रुख भी तुम्हारे जैसे हो गए हैं। तुमने एक पक्के तमाशबीन की तरह काम किया है और पूरी तरह से बीच का रास्ता अपना लिया है। तुम कहते हो, “मामला चाहे जो भी हो, इसे गंभीरता से लेने की कोई जरूरत नहीं। अपने या दूसरों के लिए चीजें कठिन मत बनाओ। अगर तुम दूसरे लोगों के लिए चीजें कठिन बनाते हो, तो तुम उन्हें अपने लिए कठिन बना रहे हो। दूसरों के प्रति दयालु होना खुद के प्रति दयालु होना है। अगर तुम दूसरे लोगों के प्रति कठोर हो, तो तुम अपने प्रति कठोर होते हो। खुद को कठिन स्थिति में क्यों डाला जाए? दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते, यह सबसे अच्छी बात है जो तुम अपने लिए कर सकते हो, और सबसे ज्यादा विचारशील भी।” यह रवैया स्पष्ट रूप से किसी भी चीज में तह में न उतरने का है। तुम्हारा किसी भी मुद्दे पर कोई सही रुख या दृष्टिकोण नहीं होता; हर चीज के बारे में तुम्हारा दृष्टिकोण उलझा हुआ होता है। तुम तह में नहीं उतरते हो और चीजों को नजरंदाज करते हो। जब तुम अंततः परमेश्वर के सामने खड़े होगे और अपना हिसाब दोगे, तो यह एक बड़ी उलझन होगी। ऐसा क्यों है? क्योंकि तुम हमेशा कहते हो कि तुम्हें दूसरों पर वह नहीं थोपना चाहिए जो तुम अपने लिए नहीं चाहते। यह तुम्हें बहुत सूकून और सुख देता है, लेकिन साथ ही यह तुम्हारे लिए बहुत बड़ी परेशानी का कारण बनेगा, जिससे ऐसा हो जाएगा कि तुम कई मामलों में स्पष्ट दृष्टिकोण या रुख नहीं रख पाओगे। बेशक, यह तुम्हें स्पष्ट रूप से यह समझने में असमर्थ भी बनाता है कि इन परिस्थितियों का सामना करने की हालत में तुम्हारे लिए परमेश्वर की अपेक्षाएँ और मानक क्या हैं, या तुम्हें क्या परिणाम प्राप्त करना चाहिए। ये चीजें इसलिए होती हैं क्योंकि तुम किसी भी चीज की तह में नहीं उतरते; वे तुम्हारे उलझे हुए रवैये और सोच के कारण होती हैं। क्या “दूसरों पर वह नहीं थोपना जो तुम अपने लिए नहीं चाहते,” सहिष्णु रवैया है, जो तुम्हारा लोगों और चीजों के प्रति होना चाहिए? नहीं, यह वह रवैया नहीं है। यह सिर्फ एक सिद्धांत है, जो बाहर से सही, महान और दयालु दिखता है, लेकिन वास्तव में यह पूरी तरह से नकारात्मक चीज है। स्पष्ट रूप से, यह वो सत्य सिद्धांत तो बिल्कुल भी नहीं है, जिसका लोगों को पालन करना चाहिए। परमेश्वर यह अपेक्षा नहीं करता कि लोग दूसरों पर वह नहीं थोपें जो वे अपने लिए नहीं चाहते, इसके बजाय वह लोगों से उन सिद्धांतों पर स्पष्ट होने के लिए कहता है, जिनका पालन उन्हें विभिन्न स्थितियाँ सँभालते समय करना चाहिए। अगर यह सही है और परमेश्वर के वचनों के सत्य के अनुरूप है, तो तुम्हें इस पर दृढ़ रहना चाहिए। और न केवल तुम्हें इस पर दृढ़ रहना चाहिए, बल्कि तुम्हें दूसरों को सावधान करना, मनाना और उनके साथ संगति करनी चाहिए, ताकि वे समझ सकें कि परमेश्वर के इरादे असल में क्या हैं और सत्य सिद्धांत क्या हैं। यह तुम्हारी जिम्मेदारी और दायित्व है। परमेश्वर तुमसे बीच का रास्ता अपनाने के लिए नहीं कहता, और यह दिखाने के लिए तो बिल्कुल नहीं कहता कि तुम्हारा दिल कितना बड़ा है। तुम्हें उन बातों पर दृढ़ रहना चाहिए, जिनके बारे में परमेश्वर ने तुम्हें चेताया है और जो तुम्हें सिखाई हैं, और जिनके बारे में परमेश्वर अपने वचनों में बात करता है : अपेक्षाएँ, कसौटी और सत्य सिद्धांत जिनका लोगों को पालन करना चाहिए। न केवल तुम्हें उनसे चिपके रहना चाहिए, और उन पर हमेशा के लिए कायम रहना चाहिए, बल्कि तुम्हें एक मिसाल बनकर इन सत्य सिद्धांतों पर अमल भी करना चाहिए; साथ ही साथ, तुम्हें अपनी ही तरह दूसरों को इनसे चिपके रहने, इनका पालन करने और अभ्यास करने के लिए समझाना, उनकी निगरानी करना, उनकी मदद करना और उनका मार्गदर्शन करना चाहिए। परमेश्वर अपेक्षा करता है कि तुम ऐसा करो—वह यही काम तुम्हें सौंपता है। तुम केवल दूसरों को अनदेखा करके खुद से अपेक्षाएँ नहीं रख सकते। परमेश्वर अपेक्षा करता है कि तुम मुद्दों पर सही रुख अपनाओ, सही कसौटी से चिपके रहो, और ठीक-ठीक जान लो कि परमेश्वर के वचनों में क्या कसौटी है, और ठीक-ठीक समझ लो कि सत्य सिद्धांत क्या हैं। अगर तुम इसे पूरा न भी कर पाओ, अगर तुम अनिच्छुक ही हो, अगर तुम्हें यह पसंद न हो, अगर तुममें धारणाएँ हों या अगर तुम इसका प्रतिरोध करते हो तो भी तुम्हें इसे अपनी जिम्मेदारी, अपना दायित्व मानना चाहिए। तुम्हें लोगों के साथ उन सकारात्मक चीजों पर संगति करनी चाहिए जो परमेश्वर से आती हैं, उन चीजों पर जो सही और सटीक हैं, और उनका उपयोग दूसरों की मदद करने, उन्हें प्रभावित करने और उनका मार्गदर्शन करने के लिए करो, ताकि लोग उनसे लाभान्वित और शिक्षित हो सकें, और जीवन में सही मार्ग पर चल सकें। यह तुम्हारी जिम्मेदारी है, और तुम्हें हठपूर्वक “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” के विचार से नहीं चिपकना चाहिए, जिसे शैतान ने तुम्हारे दिमाग में डाल दिया है। परमेश्वर की दृष्टि में, यह कहावत सिर्फ सांसारिक आचरण का एक फलसफा है; यह एक ऐसी सोच है जिसमें शैतान की चाल निहित है; यह सही मार्ग तो बिल्कुल नहीं है, न ही यह कोई सकारात्मक चीज है। परमेश्वर तुमसे केवल इतना चाहता है कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति बनो, जो स्पष्ट रूप से समझता हो कि उसे क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए। वह तुमसे चापलूस या तमाशबीन बनने के लिए नहीं कहता; उसने तुम्हें बीच का रास्ता अपनाने के लिए नहीं कहा है। जब कोई मामला सत्य सिद्धांतों से संबंधित हो, तो तुम्हें वह कहना चाहिए जो कहने की आवश्यकता है, और वह समझना चाहिए जो समझने की आवश्यकता है। अगर कोई व्यक्ति कोई चीज नहीं समझता लेकिन तुम समझते हो, और तुम संकेत देकर उसकी मदद कर सकते हो, तो तुम्हें निश्चित रूप से यह जिम्मेदारी और दायित्व पूरा करना चाहिए। तुम्हें एक किनारे खड़े होकर देखना भर नहीं चाहिए, और तुम्हें उन फलसफों से तो बिल्कुल भी नहीं चिपकना चाहिए जो शैतान ने तुम्हारे दिमाग में बैठा दिए हैं, जैसे कि दूसरों पर वह नहीं थोपना जो तुम अपने लिए नहीं चाहते। क्या तुम समझ रहे हो? (हाँ।) जो सही और सकारात्मक है वह तब भी वैसा ही होगा जब तुम्हें यह पसंद न हो, तुम इसे करना न चाहो, इसे करने और हासिल करने में सक्षम न हो, इसके प्रतिरोधी हो और इसके विरुद्ध धारणाएँ रखते हो। परमेश्वर के वचनों और सत्य का सार सिर्फ इसलिए नहीं बदलेगा क्योंकि मानवजाति का स्वभाव भ्रष्ट है और उसमें कुछ भावनाएँ, एहसास, इच्छाएँ और धारणाएँ हैं। परमेश्वर के वचनों और सत्य का सार कभी भी नहीं बदलेगा। जैसे ही तुम परमेश्वर के वचनों और सत्य को जानते हो, समझते हो, अनुभव करते और प्राप्त करते हो, यह तुम्हारा दायित्व बन जाता है कि तुम अपनी अनुभवजन्य गवाहियों के बारे में दूसरों के साथ संगति करो। इससे और अधिक लोगों को परमेश्वर के इरादे समझने, सत्य को समझने और प्राप्त करने, परमेश्वर की अपेक्षाओं और मानकों को समझने और सत्य सिद्धांतों को समझने में मदद मिलेगी। ऐसा करने से, जब ये लोग अपने दैनिक जीवन में समस्याओं का सामना करेंगे तो उन्हें अभ्यास का मार्ग प्राप्त होगा और वे शैतान के विभिन्न विचारों और नजरिये से भ्रमित नहीं होंगे या बंधन में नहीं फँसेंगे। नैतिक आचरण के बारे में यह कहावत “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” वास्तव में लोगों के मन पर काबू पाने की शैतान की कुटिल योजना है। अगर तुम हमेशा इसे कायम रखते हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो शैतानी फलसफों के अनुसार जीता है; ऐसा व्यक्ति जो पूरी तरह से शैतानी स्वभाव में रहता है। अगर तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं करते, तो तुम सत्य से प्रेम या उसका अनुसरण नहीं करते। चाहे कुछ भी हो जाए, तुम्हें जिस सिद्धांत का पालन करना चाहिए और सबसे महत्वपूर्ण चीज जो तुम्हें करनी चाहिए, वह है जितना हो सके लोगों की मदद करना। तुम्हें वैसा अभ्यास नहीं करना चाहिए जैसा शैतान कहता है, यानी “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” और एक “चतुर” खुशामदी इंसान बनना। जितना हो सके लोगों की मदद करने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करना। जैसे ही तुम देखो कि कोई चीज तुम्हारी जिम्मेदारियों और दायित्वों का हिस्सा है, तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों और सत्य पर संगति करनी चाहिए। अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने का यही अर्थ है। क्या इस संगति ने मूल रूप से नैतिक आचरण के बारे में इस कहावत को स्पष्ट किया है “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते”? क्या तुम लोगों ने इसे समझ लिया है? (हाँ।) इस कहावत का भेद पहचानना अपेक्षाकृत आसान है, और तुम बहुत अधिक विचार-विमर्श किए बिना पहचान सकते हो कि इसमें क्या गलत है। यह बिल्कुल बेतुकी है, इसलिए इस पर अधिक विस्तार से संगति करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
ड. “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा” का गहन-विश्लेषण
आओ अब नैतिक आचरण के बारे में अगली कहावत पर संगति करें—मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा। यह एक शानदार कथन प्रतीत होता है, जो मानवजाति के बीच बहुत ही व्यापक रूप से फैला हुआ है। विशेष रूप से, जो लोग भावनाओं और भाईचारे को अहमियत देते हैं वे इस कहावत को बहुत सारे दोस्त बनाने के लिए अपनाते हैं। जिस किसी भी युग या जातीय समूह में इसका उपयोग किया जाता है, नैतिक आचरण की यह कहावत “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा” बहुत सटीक बैठती है। कहने का तात्पर्य है कि यह मनुष्य की अंतरात्मा और विवेक के साथ अपेक्षाकृत अच्छी तरह मेल खाती है। और भी सटीक होकर कहें, तो यह कहावत “भाईचारे” की अवधारणा से मेल खाती है जिसका लोग अपनी अंतरात्मा में पालन करते हैं। जो लोग भाईचारे को अहमियत देते हैं वे दोस्त के लिए गोली खाने को तैयार होंगे। चाहे उनका दोस्त कितनी भी कठिन और खतरनाक स्थिति में क्यों न हो, वे आगे बढ़कर उसके लिए गोली खा लेंगे। यह दूसरों की खातिर अपने हित त्याग करने की भावना है। “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा”—नैतिक आचरण की यह कहावत लोगों के मन जो चीज बैठाती है वह है मूलतः भाईचारे को महत्व देना। इसके अनुसार मानवता से जिस मानक को बनाए रखने की अपेक्षा की जाती है वह यह है कि व्यक्ति को भाईचारे को अहमियत देनी चाहिए : यही इस कहावत का सार है। इस “भाईचारा” शब्द का क्या अर्थ है? भाईचारे का मानक क्या है? यह किसी दोस्त के लिए अपने हितों का त्याग करने और उसे संतुष्ट करने के लिए सब कुछ करने में सक्षम होना है। तुम्हारे दोस्त को जिस किसी चीज की जरूरत है, तुम उसे पूरा करने के लिए हर जरूरी मदद करने को बाध्य हो, भले ही इसके लिए अपनी जान जोखिम में क्यों न डालनी पड़े। सच्चा दोस्त बनने का यही मतलब है और केवल इसे ही सच्चा भाईचारा माना जा सकता है। भाईचारे की एक अन्य व्याख्या जीने-मरने की परवाह किए बिना दोस्त के लिए अपने जीवन को जोखिम में डालने, अपने जीवन का बलिदान देने या जीवन दांव पर लगाने में सक्षम होना है। यह ऐसी दोस्ती है जो जीवन के लिए संकट बनने वाली परीक्षाओं में भी कायम रहती है, एक जीने-मरने वाली दोस्ती, और यही सच्चा भाईचारा है। नैतिक आचरण की अपेक्षाओं में एक दोस्त की यही परिभाषा है। एक सच्चा दोस्त माने जाने के लिए तुम्हें अवश्य ही अपने दोस्तों के लिए गोली खाने को तैयार रहना होगा; अपने दोस्तों के साथ व्यवहार में व्यक्ति को नैतिक आचरण की इस कसौटी पर खरा उतरना ही होगा, और जब दोस्त बनाने की बात आती है, तो यही लोगों के नैतिक आचरण की अपेक्षा रहती है। नैतिक आचरण के बारे में यह कहावत “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा” विशेष रूप से वीरतापूर्ण और उचित लगती है; यह खासकर महान और उत्कृष्ट मालूम पड़ती है, और लोगों से प्रशंसा और स्वीकृति दिलाती है, और उन्हें यह महसूस कराती है कि जो लोग ऐसा कर सकते हैं वे पारलौकिक अनश्वर लोगों जैसे हैं जो चट्टानों की दरारों से उपजते हैं, और उन्हें यह सोचने पर मजबूर कराती है कि ये लोग शूरवीरों या तलवारबाजों की तरह विशेष रूप से न्यायपूर्ण हैं। इसीलिए ऐसे सरल और स्पष्ट विचारों और दृष्टिकोणों को लोग आसानी से स्वीकार लेते हैं और ये आसानी से उनके दिलों में गहराई तक उतर जाते हैं। क्या तुम लोगों के मन में भी इस कहावत “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा” को लेकर ऐसी ही भावनाएँ हैं? (हाँ।) हालाँकि आज के समय और युग में ऐसे बहुत से लोग नहीं हैं जो अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लेंगे, ज्यादातर लोग उम्मीद करते हैं कि उनके दोस्त उनके लिए गोली खाने को तैयार होंगे, कि वे वफादार लोग हैं, जिगरी यार हैं, मुसीबत के समय में उनके दोस्त बिना दुबारा सोचे और शर्त रखे मदद के लिए अपने हाथ बढ़ा देंगे, और यह कि उनके दोस्त सभी कठिनाइयों को चुनौती देते हुए और खतरे से निडर होकर उनके लिए कुछ भी कर देंगे। यदि तुम अपने दोस्तों से यही अपेक्षाएं रखते हो, तो क्या इससे यह पता नहीं चलता है कि तुम अभी भी अपने दोस्त के लिए गोली खाने के विचार से प्रभावित और बंधे हुए हो? क्या तुम मानोगे कि तुम अभी भी इस पुरानी, पारंपरिक सोच के साथ जीते हो? (हाँ।) इन दिनों लोग अक्सर यह विलाप करते हैं कि “आजकल लोगों की नैतिकता में गिरावट आ रही है, लोगों की मानसिकता अपने पुरखों जैसी नहीं रही, वक्त बदल गया है, दोस्त अब पहले जैसे नहीं रहे, लोग अब भाईचारे को अहमियत नहीं देते, लोग मानवीय स्नेह खो चुके हैं, और आपसी संबंधों में अधिक से अधिक दूरी बनती जा रही है।” भले ही आजकल बहुत कम लोग दोस्तों में भाईचारे को अहमियत देते हैं, फिर भी लोग दोस्त के लिए जान देने को तैयार रहने वाले पुराने जमाने के शूरवीर और दयावान लोगों को बहुत प्यार से याद करते हैं और उनकी शैली को पूजते हैं। उदाहरण के लिए, पुराने जमाने में अपने दोस्त के लिए जान देने के बारे में इतिहास में पीढ़ी-दर-पीढ़ी बताई जा रहीं कुछ लोगों की कहानियों को लेते हैं, खास तौर पर युद्ध कला की दुनिया में भाईचारा कायम रखने वाले लोगों की कहानियाँ। आज भी लोग जब इन कहानियों को फिल्मों और टेलीविजन नाटकों में देखते हैं, तो वे अपने दिलों में भावनाओं की लहर उठती महसूस करते हैं, और मानवीय स्नेह से भरे उस युग में लौटने की आशा रखते हैं जब लोग भाईचारे को अहमियत देते थे। ये बातें क्या दर्शाती हैं? क्या वे यह दर्शाती हैं कि अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लेने के इस विचार का लोग एक सकारात्मक चीज के रूप में सम्मान करते हैं, और यह उन लोगों के लिए एक उच्च नैतिक मानक बन गया है जो अच्छे इंसान बनना चाहते हैं? (हाँ।) हालाँकि आजकल लोग खुद से ऐसी किसी चीज की अपेक्षा रखने की हिम्मत नहीं करते, और खुद भी ऐसा नहीं कर सकते, फिर भी वे अपने समुदाय में ऐसे लोगों से मिलने, उनके साथ जुड़ने और उनसे दोस्ती करने की उम्मीद करते हैं, ताकि जब उन्हें खुद किसी कठिनाई का सामना करना पड़े तो उनका दोस्त उनके लिए गोली भी खा लेगा। इस नैतिक आचरण की कहावत के बारे में लोगों के रवैये और विचार देखने से यह स्पष्ट होता है कि लोग ऐसे विचारों और नजरिये से गहराई से प्रभावित हैं जो भाईचारे को अहमियत देते हैं। यह देखते हुए कि लोग ऐसे विचारों और नजरिये से प्रभावित होते हैं जो उन्हें भाईचारे की भावना की आकांक्षा रखने और उसका पालन करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, जाहिर है कि वे भी इन विचारों के अनुसार ही जीवन जीते होंगे। नतीजतन, लोग ऐसे विचारों और नजरिये से नियंत्रित और वश में होने को प्रवृत्त होते हैं, और संभावना है कि वे इन्हीं विचारों और नजरिये के अनुसार लोगों और चीजों को देखेंगे और आचरण और कार्य करेंगे, और साथ ही वे ऐसे विचारों और नजरिये का उपयोग लोगों को आँकने के लिए प्रवृत्त होते हैं, खुद से यह पूछकर कि “क्या यह व्यक्ति भाईचारे को अहमियत देता है? यदि वह भाईचारे को अहमियत देता है तो अच्छा इंसान है; जबकि अगर वह अहमियत नहीं देता है तो वह उसके साथ जुड़ने लायक नहीं है और वह अच्छा इंसान भी नहीं है।” बेशक, तुम भी अपने व्यवहार को नियंत्रित करने के मामले में और अपने व्यवहार पर अंकुश लगाने और उसकी आलोचना करने के मामले में भाईचारे के इन विचारों से प्रभावित होने को प्रवृत्त होते हो और दूसरों के साथ मेलजोल करने के लिए इन्हें कसौटी और दिशा के रूप में लेते हो। उदाहरण के लिए, ऐसे विचारों और नजरिये के गहरे प्रभाव में, जब तुम भाई-बहनों के साथ जुड़ते हो, तो तुम अपने हर काम को आँकने के लिए अपनी अंतरात्मा का उपयोग करते हो। इस “अंतरात्मा” शब्द का क्या अर्थ है? सच तो यह है कि लोगों के दिलों की गहराई में इसका मतलब भाईचारे के अलावा और कुछ नहीं है। कभी-कभी लोग भाईचारे के कारण अपने भाई-बहनों की मदद करते हैं, कभी-कभी वे भाईचारे के कारण ही उनसे सहानुभूति भी रखते हैं। कभी-कभी, अपना कर्तव्य निभाना और परमेश्वर के परिवार में थोड़ी मेहनत करना या खुद को खपाना या कोई क्षणिक संकल्प लेना, यह सब वास्तव में ऐसे विचारों के नियंत्रण में आता है जो भाईचारे को अहमियत देते हैं। क्या ये घटनाएँ स्पष्ट और निर्विवाद रूप से यह नहीं दिखाती हैं कि लोग ऐसे विचारों और दृष्टिकोणों से गहराई से प्रभावित हैं, और पहले ही उनसे बंधे हुए हैं और उन्हें आत्मसात कर चुके हैं? यहाँ “बंधे हुए” और “आत्मसात” से मेरा क्या मतलब है? क्या यह कहा जा सकता है कि भाईचारे को अहमियत देने वाले विचार और दृष्टिकोण न केवल लोगों के व्यवहार को नियंत्रित करने में सक्षम हैं, बल्कि इसके अलावा वे पहले ही लोगों के अस्तित्व का फलसफा और उनका जीवन बन चुके हैं, और लोग उनसे बंधे रहते हैं और उन्हें सकारात्मक चीजें मानते हैं? मैं यह क्यों कहता हूँ कि वे उन्हें सकारात्मक चीजें मानते हैं? इसका मतलब यह है कि जब लोग परमेश्वर के वचन सुनते हैं, उसके वचनों को अभ्यास में लाते हैं और उसके प्रति समर्पण करते हैं, लापरवाह और अनमने हुए बिना कर्तव्य निभाते हैं, अधिक कीमत चुकाते हैं और परमेश्वर के प्रति वफादार होते हैं, तो यह सब व्यवहार काफी हद तक भाईचारे के विचार से नियंत्रित होता है, और इसमें इस भाईचारे के तत्व की मिलावट होती है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग कहते हैं : “हमें अपने आचरण में कर्तव्यनिष्ठ होना चाहिए, हम अपने कर्तव्य में अनमने नहीं हो सकते हैं! परमेश्वर ने हम पर बहुत अनुग्रह किया है। ऐसे खतरनाक माहौल में, जो बड़े लाल अजगर के इस सारे बेलगाम दमन और उत्पीड़न से युक्त है, परमेश्वर हमारी रक्षा करता है और हमें शैतान के प्रभाव से बचाता है। हमें अपना जमीर नहीं खोना चाहिए, हमें परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए अपना कर्तव्य ठीक से निभाना चाहिए! हमारा जीवन परमेश्वर की देन है, इसलिए उसके प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए हमें उसके प्रति वफादार रहना चाहिए। हम एहसानफरामोश नहीं हो सकते!” ऐसे लोग भी हैं जो जोखिम उठाने और कीमत चुकाने वाला कर्तव्य सामने आने पर कहते हैं : “यदि कोई और आगे नहीं बढ़ेगा, तो मैं आगे जाऊँगा। मैं खतरे से नहीं डरता!” लोग उनसे पूछते हैं, “तुम खतरे से क्यों नहीं डरते?” तो वे जवाब देते हैं, “क्या तुम्हारे आचरण में थोड़ी-सी भी नैतिक ईमानदारी नहीं है? परमेश्वर का परिवार मेरे साथ अच्छा व्यवहार करता है, और परमेश्वर मुझसे अच्छी तरह पेश आता है। चूँकि मैंने उसका अनुसरण करने का संकल्प लिया है, तो मुझे अपना योगदान देना चाहिए और ये जोखिम उठाने चाहिए। मुझमें भाईचारे की यह भावना होनी चाहिए और मुझे इसे अहमियत देनी चाहिए।” वे ऐसी ही बहुत सी बातें करते हैं। क्या ये घटनाएँ और लोगों के ये खुलासे कुछ हद तक ऐसे विचारों और नजरिये से नियंत्रित हैं जो भाईचारे को अहमियत देते हैं? ऐसे विचारों और दृष्टिकोणों के प्रभाव में लोगों के किए गए फैसलों, चुने गए विकल्पों और अधिकांश समय दिखाए गए कुछ व्यवहारों का सत्य के अभ्यास से कोई लेना-देना नहीं है। वे महज क्षणिक आवेग हैं, एक अस्थायी मनःस्थिति या क्षणिक इच्छा है। लोगों के बीच यह भाईचारा क्योंकि सत्य सिद्धांतों का पालन करना नहीं होता, यह किसी व्यक्ति की अपना कर्तव्य निभाने की व्यक्तिपरक इच्छा से उत्पन्न नहीं होता, और यह सत्य और सकारात्मक चीजों के प्रति प्रेम से नहीं किया जाता है, इसलिए यह भाईचारा अक्सर कायम नहीं रह सकता, यह कुछ बार से अधिक नहीं टिक सकता, न ही बहुत लंबे समय तक चल सकता है। कुछ समय के बाद लोगों का जोश इस तरह ठंडा पड़ जाता है, जैसे गेंद से सारी हवा निकल गई हो। कुछ लोग कहते हैं, “मैं पहले इतना जोशीला कैसे रहता था? परमेश्वर के घर के लिए ऐसे खतरनाक काम करने को तैयार क्यों रहता था? वह सारा जोश अब क्यों खत्म हो गया?” उस समय यह तुम्हारी ओर से केवल एक क्षणिक आवेग, इच्छा या संकल्प था और इसमें अपरिहार्य रूप से भाईचारे के तत्व की मिलावट थी। इस बारे में बात करें, तो “भाईचारे” का वास्तव में क्या अर्थ है? सरल शब्दों में कहें, तो यह लोगों की एक अस्थायी मनोदशा या मनःस्थिति है, यानी ऐसी मनोदशा जो विशेष माहौल और स्थितियों में विकसित होती है। ऐसी मनोदशा बहुत उत्साही, बहुत जोशीली और बहुत सकारात्मक होती है, जो तुम्हें सकारात्मक निर्णय लेने और विकल्प चुनने या कोई शानदार बात कहने के लिए प्रेरित करती है, और कड़ी मेहनत करने की इच्छा पैदा करती है, लेकिन इस तरह की इच्छा सत्य से प्रेम करने, सत्य को समझने या सत्य का अभ्यास करने के लिए वास्तविक स्थिति नहीं है। यह केवल ऐसे विचारों और दृष्टिकोणों के अधीन उत्पन्न एक मनोदशा है जो भाईचारे को अहमियत देती है। सरल शब्दों में इसका यही अर्थ है। गहराई में जाएँ तो मेरे दृष्टिकोण से भाईचारा वास्तव में उतावलेपन का उफान है। “उतावलेपन के उफान” से मेरा क्या तात्पर्य है? उदाहरण के लिए, जब लोग पल भर के लिए खुश होते हैं, तो वे पूरे दिन और पूरी रात बिना कुछ खाए-सोए रह सकते हैं, फिर भी उन्हें भूख या थकान नहीं लगती है। क्या यह सामान्य बात है? सामान्य परिस्थिति में अगर लोग खाना नहीं खाते हैं तो उन्हें भूख लगेगी और अगर वे पूरी रात अच्छी तरह नहीं सोएंगे तो वे सुस्त और थके-माँदे रहेंगे। लेकिन अगर पल भर में वे प्रफुल्लित मनोदशा में हों उन्हें और भूख, नींद या थकान महसूस न हो तो क्या यह असामान्य नहीं है? (हाँ, बिल्कुल है।) क्या यह जीवन स्वभाव का स्वाभाविक प्रकाशन है? (नहीं।) यदि यह सामान्य प्रकाशन नहीं है तो फिर क्या है? यह उतावलापन है। उतावलेपन का और क्या मतलब है? इसका मतलब है कि पल भर की खुशी या क्रोध जैसी असामान्य भावनाओं के कारण लोग बेतुकी मनोदशा में कुछ चरम व्यवहार प्रदर्शित करते हैं। ये चरम व्यवहार क्या हैं? कभी-कभी जब लोग खुश होते हैं तो अपने घर की सबसे कीमती चीजें दूसरों को दे देते हैं या कभी-कभी गुस्से में आकर चाकू से किसी की हत्या कर देते हैं। क्या यह उतावलापन नहीं है? ये अतिवादी व्यवहार हैं जो तब प्रदर्शित होते हैं जब लोग तर्कहीन स्थिति में होते हैं : यह उतावलापन है। कुछ लोग विशेष रूप से पहली बार अपना कर्तव्य निभाना शुरू करने पर खुश होते हैं। ऐसे में जब खाने का समय होता है तो उन्हें भूख नहीं लगती और जब आराम करने का समय होता है तो उन्हें नींद नहीं आती। इसके बजाय वे चिल्लाते हैं, “परमेश्वर के लिए खुद को खपाओ, परमेश्वर के लिए कीमत चुकाओ, और किसी भी कठिनाई को सहन करो!” जब कभी वे दुखी होते हैं तो वे कुछ नहीं करना चाहते, वे जिसे भी देखते हैं उसके लिए उनमें नापसंदगी पैदा हो जाती है और यहाँ तक कि वे अब और आस्था न रखने के बारे में भी सोचते हैं। यह सब उतावलापन है। यह उतावलापन कैसे आया? क्या यह लोगों के भ्रष्ट स्वभाव के कारण आया? इसकी जड़ है, लोगों का सत्य को समझने और सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ होना। जब लोग सत्य को नहीं समझते तो वे विभिन्न विकृत विचारों से प्रभावित हो जाते हैं। विभिन्न विकृत और नकारात्मक विचारों के प्रभाव में उनमें तमाम बेतुकी और असामान्य मनोदशाएँ विकसित हो जाती हैं। इन मनोदशाओं में रहते हुए वे सभी प्रकार के उग्र निर्णय लेते हैं और ऐसा व्यवहार प्रदर्शित करते हैं। ऐसा ही होता है, है ना? इस वैचारिक दृष्टिकोण का सार क्या है, “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा?” (यह उतावलापन है।) सही कहा, यह उतावलापन है। तो क्या इस कहावत “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा” में कोई तार्किकता है? क्या यह सिद्धांतों के अनुरूप है? क्या यह कोई सकारात्मक बात है जिसका लोगों को पालन करना चाहिए? बिल्कुल भी नहीं। अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लेना अतार्किक बात है, इसमें आवेग और उतावलापन है। इस बात को तर्क के साथ देखना चाहिए। अगर तुम भाईचारे को इतनी भी अहमियत नहीं देते कि अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लो, तो क्या यह बात ठीक है? क्या सिर्फ अपनी क्षमता के दायरे में रहकर अपने दोस्तों की मदद करना ठीक है? चीजों को सही तरीके से कैसे करें? मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा जैसे विचार और नजरिये जो विशेष रूप से भाईचारे को अहमियत देते हैं, गलत क्यों हैं? उनमें गलत क्या है? इस बात को स्पष्ट करना जरूरी है। एक बार यह बात स्पष्ट हो जाए तो लोग ऐसे विचारों और नजरिये को पूरी तरह से त्याग देंगे। सच तो यह है कि यह बात बहुत आसान है। क्या तुम लोग इसे स्पष्ट रूप से समझा सकते हो? तुम लोगों का इस मामले में कोई विचार नहीं है, कहने को कुछ नहीं है। इससे एक चीज की पुष्टि होती है कि जब मैंने इस कहावत “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा” का गहन-विश्लेषण किया तो उससे पहले तुम सब इस कहावत का पालन करते थे या इसे खासकर पूजते थे, और तुम सब ऐसे लोगों को सराहते थे जो अपने दोस्त के लिए गोली भी खा सकते हैं, और तुम ऐसे लोगों के प्रति भी सराहना रखते थे जो उनके जैसे लोगों के साथ दोस्ती कर सकते हैं, और तुम्हें यह भी लगता था कि ऐसे दोस्त होना खुशी और सम्मान की बात है। यही बात है ना? तुम लोग इसे किस नजरिये से देखते हो? (मुझे लगता है कि “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा” वाली कहावत के अनुसार लोगों के साथ व्यवहार करना सिद्धांतों के बिना व्यवहार करना है और यह सत्य के अनुरूप नहीं है।) इस जवाब के बारे में तुम्हारा क्या कहना है? क्या यह उन बंधनों और बेड़ियों को तोड़ सकता है जो ऐसे विचार और नजरिये तुम पर थोपते हैं? क्या यह उन तरीकों और सिद्धांतों को बदल सकता है जिनका उपयोग करके तुम ऐसे मामलों से निपटते हो? क्या यह ऐसे मामलों के बारे में तुम्हारे भ्रामक विचारों को सुधार सकता है? यदि नहीं सुधार सकता तो यह जवाब क्या है? (धर्म-सिद्धांत।) धर्म-सिद्धांत की बातें बोलने का क्या मतलब है? धर्म-सिद्धांत के बारे में मत बोलो। धर्म-सिद्धांत कहाँ से आता है? इसका मतलब यह है कि तुम ऐसे विचारों और नजरिये के सार को स्पष्ट रूप से नहीं देखते, लोगों और चीजों को देखने के संबंध में और अपने आचरण और कार्य के मामले में तुम ऐसे विचारों और नजरिये के नकारात्मक प्रभाव और नुकसान को पूरी तरह से नहीं समझते हो। तुम नहीं जानते कि उनमें क्या गलत है, इसलिए तुम बस उथले धर्म-सिद्धांतों का उपयोग करके इस समस्या का उत्तर और हल निकालने की कोशिश करते हो। अंतिम परिणाम यही निकलता है कि धर्म-सिद्धांत तुम्हारी समस्या हल नहीं कर सकते, और तुम अभी भी ऐसे विचारों और नजरिये के नियंत्रण और प्रभाव में जीते हो।
“अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लेना” जैसे विचारों और नजरिये में क्या गलत है? यह सवाल वास्तव में मुश्किल नहीं है, बल्कि बहुत आसान है। संसार में रहने वाला कोई भी व्यक्ति पत्थरों की दरारों से निकलकर नहीं आता। सभी के माता-पिता और बच्चे होते हैं, सभी के रिश्तेदार होते हैं, इस मानव संसार में कोई भी अपने आप में स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में नहीं आता। इससे मेरा क्या मतलब है? मेरा मतलब है कि तुम इस मानव संसार में रहते हो और तुम्हारे पास अपने उत्तरदायित्व हैं जो तुम्हें पूरे करने हैं। सबसे पहले तुम्हें अपने माता-पिता का सहारा बनना होगा, और दूसरा, तुम्हें अपने बच्चों का पालन-पोषण करना होगा। परिवार में ये तुम्हारी जिम्मेदारियाँ हैं। समाज में भी तुम्हें सामाजिक जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभाने होते हैं। समाज में तुम्हें श्रमिक, किसान, व्यवसायी, छात्र या बुद्धिजीवी जैसी भूमिका निभानी होती है। परिवार से लेकर समाज तक कई जिम्मेदारियाँ और दायित्व हैं जो तुम्हें पूरे करने चाहिए। यानी, अपने खाने, कपड़े, घर और गाड़ी का इंतजाम करने के अलावा तुम्हें कई और चीजें करनी होंगी; साथ ही तुम्हें और भी कई चीजें करनी चाहिए और कई दायित्व भी पूरे करने चाहिए। परमेश्वर में विश्वास के इस सही मार्ग को छोड़कर, जिस मार्ग पर लोग चलते हैं, एक व्यक्ति के रूप में तुम्हें कई पारिवारिक जिम्मेदारियाँ और सामाजिक दायित्व पूरे करने होते हैं। तुम्हारा अस्तित्व स्वतंत्र नहीं है। तुम्हारे कंधों पर जिम्मेदारी सिर्फ दोस्त बनाने और अच्छा समय बिताने या किसी ऐसे व्यक्ति को ढूँढ़ने की नहीं है जिससे तुम बात कर सको या जो तुम्हारी मदद कर सके। तुम्हारी ज्यादातर जिम्मेदारियाँ—और सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ—तुम्हारे परिवार और समाज से जुड़ी हैं। यदि तुम अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों और सामाजिक दायित्वों को अच्छी तरह से पूरा करते हो, तभी एक व्यक्ति के रूप में तुम्हारा जीवन पूर्ण और उत्तम माना जाएगा। तो, परिवार में तुम्हें कौन-सी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए? एक बच्चे के रूप में तुम्हें अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित कर्तव्य निभाते हुए उनका पालन-पोषण और सहारा देना चाहिए। जब भी तुम्हारे माता-पिता बीमार हों या कठिनाई में हों, तो तुम्हें अपनी पूरी सामर्थ्य के अनुसार उनकी देखभाल और सहायता करनी चाहिए। माता-पिता होने के नाते तुम्हें पूरे परिवार का भरण-पोषण करने के लिए पसीना बहाना, मेहनत करना, कठिनाइयाँ सहना, माता-पिता होने की भारी जिम्मेदारी उठाना, अपने बच्चों का पालन-पोषण करना, उन्हें सही मार्ग पर चलने के लिए शिक्षित करना और उन्हें आचरण के सिद्धांत समझाना होता है। इस प्रकार, परिवार में तुम्हारी बहुत-सी जिम्मेदारियाँ होती हैं। तुम्हें अपने माता-पिता का भरण-पोषण करना चाहिए और अपने बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी उठानी चाहिए। ऐसे बहुत से काम हैं जो करने चाहिए। और समाज में तुम्हारी क्या जिम्मेदारियाँ हैं? तुम्हें नियम-कानूनों का पालन करना चाहिए, सिद्धांतों के अनुसार दूसरों के साथ व्यवहार करना चाहिए, काम में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना चाहिए और अपना करियर अच्छी तरह सँभालना चाहिए। तुम्हारा अस्सी-नब्बे प्रतिशत समय और ऊर्जा इन्हीं चीजों पर खर्च होनी चाहिए। कहने का मतलब है कि परिवार या समाज में चाहे तुम्हारी जो कोई भी भूमिका हो, तुम चाहे जिस किसी मार्ग पर चलो, तुम्हारे चाहे जो भी अनुसरण और ललक हों, हरेक व्यक्ति को ऐसी जिम्मेदारियाँ उठानी होती हैं जो व्यक्तिगत रूप से उसके लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं और जिसमें उसका लगभग सारा समय और ऊर्जा लग जाती है। पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियों के नजरिये से एक व्यक्ति के नाते इस मानव संसार में आने की तुम्हारी और तुम्हारे जीवन की क्या अहमियत है? यह स्वर्ग से तुम्हें दी गई जिम्मेदारियों और लक्ष्यों को पूरा करना है। तुम्हारा जीवन केवल तुम्हारा नहीं है, और यह दूसरों का तो बिल्कुल भी नहीं है। तुम्हारा जीवन तुम्हारे लक्ष्यों और जिम्मेदारियों के लिए, और उन जिम्मेदारियों, दायित्वों और उद्देश्यों के लिए है जो तुम्हें इस मानव संसार में पूरे करने चाहिए। तुम्हारा जीवन न तो तुम्हारे माता-पिता का है, न ही तुम्हारी पत्नी (पति) का है, और हाँ यह तुम्हारे बच्चों का भी नहीं है। यह तुम्हारे वंशजों का तो कतई नहीं है। तो तुम्हारा जीवन किसका है? संसार के एक व्यक्ति के दृष्टिकोण से कहें तो तुम्हारा जीवन तुम्हें परमेश्वर से प्राप्त जिम्मेदारियों और लक्ष्यों को पूरा करने के लिए है। लेकिन एक विश्वासी के दृष्टिकोण से, तुम्हारा जीवन परमेश्वर का होना चाहिए, क्योंकि एक वही है जो तुम्हारे लिए हर चीज की व्यवस्था करता है और तुम्हारी हर चीज पर उसकी संप्रभुता है। इसलिए एक व्यक्ति के नाते दुनिया में रहते हुए तुम्हें मनमाने ढंग से दूसरों को अपना जीवन सौंप देने का वादा नहीं करना चाहिए, और तुम्हें भाईचारे की खातिर मनमाने ढंग से किसी के लिए भी अपना जीवन नहीं त्यागना चाहिए। कहने का मतलब है कि तुम्हें अपने जीवन को छोटा नहीं समझना चाहिए। तुम्हारा जीवन किसी और के लिए, विशेष रूप से शैतान के लिए, इस समाज के लिए और इस भ्रष्ट मानवजाति के लिए मूल्यहीन है, लेकिन तुम्हारे माता-पिता और रिश्तेदारों के लिए तुम्हारा जीवन बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि तुम्हारी जिम्मेदारियों और उनके अस्तित्व के बीच एक अटूट संबंध है। बेशक, इससे भी जरूरी बात यह है कि तुम्हारे जीवन और इस तथ्य के बीच एक अटूट संबंध है कि परमेश्वर सभी चीजों और संपूर्ण मानवजाति का संप्रभु है। तुम्हारा जीवन उन अनेक जिंदगियों में अत्यावश्यक है जिन पर परमेश्वर की संप्रभुता है। शायद तुम अपने जीवन को इतना अधिक महत्व नहीं देते हो, और शायद तुम्हें अपने जीवन को इतना अधिक महत्व देना भी नहीं चाहिए, लेकिन सच तो यह है कि तुम्हारा जीवन तुम्हारे माता-पिता और रिश्तेदारों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, जिनके साथ तुम्हारे गहरे और अटूट संबंध हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि उनके प्रति तुम्हारी जिम्मेदारियाँ हैं, उनकी भी तुम्हारे प्रति जिम्मेदारियाँ हैं, इस समाज के प्रति तुम्हारी जिम्मेदारियाँ हैं, और समाज के प्रति तुम्हारी जिम्मेदारियाँ इस समाज में तुम्हारी भूमिका से संबंधित हैं। हरेक व्यक्ति की भूमिका और हरेक जीवित प्राणी परमेश्वर के लिए अत्यावश्यक है, और ये सभी मानवजाति पर, इस संसार पर, इस पृथ्वी और इस ब्रह्मांड पर परमेश्वर की संप्रभुता के अत्यावश्यक तत्व हैं। परमेश्वर की नजरों में हरेक जीवन रेत के एक कण से भी अधिक महत्वहीन है, एक चींटी से भी अधिक तुच्छ है; फिर भी चूँकि हरेक व्यक्ति एक जीवन है, एक सजीव और सांस लेने वाला जीवन है, इसलिए परमेश्वर की संप्रभुता में भले ही उस व्यक्ति की भूमिका निर्णायक न हो, पर वह भी अत्यावश्यक है। तो इन पहलुओं से देखने पर, यदि कोई व्यक्ति अपने दोस्त के लिए बिना झिझक के गोली खाने को भी तैयार है—और न सिर्फ ऐसा सोचता है, बल्कि किसी भी पल ऐसा करने को पूरी तरह तैयार रहता है, अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों, सामाजिक जिम्मेदारियों, और यहाँ तक कि परमेश्वर से मिले लक्ष्यों और कर्तव्यों की परवाह किए बिना अपनी जान दे देता है—तो क्या यह गलत नहीं है? (बिल्कुल है।) यह विश्वासघात है! परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दी गई सबसे कीमती चीज यह सांस है, जिसे जीवन कहते हैं। यदि तुम लापरवाही से किसी ऐसे मित्र के लिए अपना जीवन समर्पित करने का वादा करते हो, जिस पर तुम्हें लगता है कि तुम भरोसा कर सकते हो, तो क्या यह परमेश्वर के साथ विश्वासघात नहीं है? क्या यह जीवन का अनादर नहीं है? क्या यह परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह वाला कृत्य नहीं है? क्या यह परमेश्वर के प्रति विश्वासघात वाला कृत्य नहीं है? (है।) यह साफ तौर पर उन जिम्मेदारियों से भागना है जो तुम्हें अपने परिवार और समाज में पूरी करनी चाहिए, और यह उन लक्ष्यों से दूर भागना है जो परमेश्वर ने तुम्हें दिए हैं। यह विश्वासघात है। किसी व्यक्ति के जीवन में सबसे महत्वपूर्ण चीजें उन जिम्मेदारियों से ज्यादा कुछ नहीं हैं जो उसे इस जीवन में पूरी करनी चाहिए—पारिवारिक जिम्मेदारियाँ, सामाजिक जिम्मेदारियाँ और वे लक्ष्य जो परमेश्वर ने तुम्हें दिए हैं। सबसे महत्वपूर्ण चीजें ये जिम्मेदारियाँ और लक्ष्य हैं। यदि तुम अपना जीवन खो देते हो, और वह भी किसी और के लिए, पल भर के भाईचारे की भावना या क्षणिक उतावलेपन के चलते लापरवाही से, तो क्या तुम्हारी जिम्मेदारियाँ तब भी मौजूद रहेंगी? फिर तुम लक्ष्य की बात कैसे कर सकते हो? जाहिर है कि तुम परमेश्वर द्वारा दिए गए जीवन को सबसे कीमती चीज मानकर उसका मोल नहीं रखते, बल्कि लापरवाही से किसी और को यह जीवन समर्पित करने का वादा करते हो, दूसरों के लिए इसे त्याग देते हो, और अपने परिवार व समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों की पूरी तरह उपेक्षा या उन्हें छोड़ देते हो, जो अनैतिक और अनुचित है। तो, मैं तुम सबको क्या बताना चाह रहा हूँ? लापरवाही से अपना जीवन मत त्यागो और न ही किसी और को इसे समर्पित करने का वादा करो। कुछ लोग कहते हैं, “क्या मैं अपने माता-पिता को अपना जीवन देने का वादा कर सकता हूँ? अपने प्रेमी से इसका वादा करने के बारे में क्या खयाल है, क्या यह ठीक है?” यह ठीक नहीं है। यह ठीक क्यों नहीं है? परमेश्वर तुम्हें जीवन देता है और उसे आगे बढ़ने देता है ताकि तुम अपने परिवार और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभा सको और परमेश्वर के सौंपे हुए कार्यों को पूरा कर सको। तुम अपने जीवन को मजाक समझकर लापरवाही से उसे दूसरों को देने का वादा नहीं कर सकते, उसे दूसरों को नहीं सौंप सकते, उनके लिए उसे नहीं खपा सकते, और उन्हें समर्पित भी नहीं कर सकते। यदि कोई व्यक्ति अपना जीवन खो दे तो क्या वह फिर भी अपनी पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियाँ और अपने लक्ष्य पूरे कर सकता है? क्या यह तब भी मुमकिन है? (नहीं।) और जब किसी व्यक्ति की पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियाँ खत्म हो जाती हैं, तो क्या उसके द्वारा निभाई गई सामाजिक भूमिकाएँ अभी भी मौजूद रहती हैं? (नहीं।) जब किसी व्यक्ति द्वारा निभाई गई सामाजिक भूमिकाएँ समाप्त हो जाती हैं, तो क्या उस व्यक्ति के लक्ष्य अभी भी मौजूद होते हैं? नहीं, वे मौजूद नहीं होते। जब किसी व्यक्ति के लक्ष्य और सामाजिक भूमिकाएँ नहीं रह जाती हैं, तो जिस चीज पर परमेश्वर का प्रभुत्व है, क्या वह अभी भी अस्तित्व में रहती है? परमेश्वर जीवित चीजों और जीवन वाले इंसानों पर प्रभुत्व रखता है, और जब उनकी सामाजिक जिम्मेदारियाँ और जीवन समाप्त हो जाते हैं, और उनकी सामाजिक भूमिकाएँ शून्य में लौट जाती हैं, तो क्या यह परमेश्वर की उस मानवजाति और उसकी प्रबंधन योजना को शून्य में लौटाने का प्रयास नहीं है, जिस पर वह प्रभुत्व रखता है? क्या तुम्हारा ऐसा करना विश्वासघात नहीं है? (हाँ।) यह वास्तव में विश्वासघात है। तुम्हारा जीवन केवल तुम्हारी जिम्मेदारियों और लक्ष्यों के लिए मौजूद है, और तुम्हारे जीवन का मूल्य केवल तुम्हारी जिम्मेदारियों और लक्ष्यों में दिख सकता है। यही नहीं, अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लेना तुम्हारी जिम्मेदारी और लक्ष्य नहीं है। परमेश्वर से मिला जीवन प्राप्त व्यक्ति होने के नाते, तुम्हें उसकी दी हुई जिम्मेदारियों और लक्ष्यों को पूरा करना ही चाहिए। वहीं, अपने दोस्त के लिए गोली खा लेना कोई ऐसी जिम्मेदारी या लक्ष्य नहीं है जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया हो। बल्कि, यह भाईचारे की भावना, अपनी मनमानी सोच, जीवन के बारे में गैर-जिम्मेदार सोच के अनुसार कार्य करना है, और बेशक यह एक ऐसी सोच भी है जिसे शैतान लोगों के जीवन को तिरस्कृत करने और उन्हें रौंदने के लिए उनके भीतर भरता है। इसलिए, समय जब भी आए, चाहे तुम्हारा कितना भी जिगरी दोस्त क्यों न हो, भले ही तुम्हारी दोस्ती ने जानलेवा परिस्थितियाँ झेली हों, उसके लिए गोली खाने का वादा मनमाने ढंग से मत करो, और ऐसे विचारों को हल्के में भी मत आने दो। अपने पूरे जीवन, अपने अस्तित्व को उसके लिए समर्पित करने की न सोचो। उसके प्रति तुम्हारी कोई जिम्मेदारी या दायित्व नहीं है। यदि तुम्हारी रुचियाँ समान हैं, व्यक्तित्व मिलते-जुलते हैं और तुम एक ही मार्ग पर चलते हो, तो तुम एक-दूसरे की मदद कर सकते हो, एक-दूसरे से मनचाही बातें कर सकते हो और करीबी दोस्त बन सकते हो। लेकिन यह करीबी दोस्ती न तो एक-दूसरे के लिए गोली खाने की नींव पर टिकी है, और न ही भाईचारे को सर्वोपरि मानने पर आधारित है। तुम्हें उनके लिए गोली खाने की, उनके लिए अपनी जान देने की या उनके लिए एक बूँद खून बहाने की कोई जरूरत नहीं है। कुछ लोग कहते हैं : “तो मेरी भाईचारे की भावना किस काम की? अपनी मानवता में और अपने दिल से मैं हमेशा भाईचारा दिखाना चाहता हूँ, तो मुझे क्या करना चाहिए?” यदि तुम वास्तव में भाईचारा दिखाना चाहते हो तो तुम्हें दूसरे व्यक्ति को वे सत्य बताने चाहिए जो तुम समझ चुके हो। जब तुम्हें दूसरा व्यक्ति कमजोर दिखे तो उसकी मदद करो। कोने में खड़े होकर देखते मत रहो; जब वह गलत मार्ग पर जाए तो उसे चेताओ और सलाह देकर उसकी मदद करो। जब तुम्हें दूसरे व्यक्ति की समस्याएँ दिखें, तो उसकी मदद करना तुम्हारा दायित्व है, लेकिन तुम्हें उसके लिए गोली खाने की, या उसके लिए अपना जीवन लापरवाही से अर्पित करने की कोई जरूरत नहीं है। उसके प्रति तुम्हारी जिम्मेदारियाँ केवल मदद करना, उसका समर्थन करना, उसे चेताना, सलाह देना या कभी-कभी थोड़ी माफी और सहनशीलता दिखाना है, लेकिन उसके लिए अपना जीवन देना बिल्कुल नहीं है, उसके प्रति तथाकथित भाईचारे की भावना दिखाना तो दूर की बात है। मेरे लिए तो भाईचारा सिर्फ उतावलापन है और इसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं। परमेश्वर जो जीवन लोगों को देता है, उसकी तुलना में लोगों के बीच का भाईचारा सिर्फ कचरा है। यह एक ऐसा उतावलापन है जिसे शैतान ने जानबूझकर लोगों के मन में भरा है, एक कपटी साजिश, जो लोगों को भाईचारे की खातिर आवेग में आकर ऐसे कई काम करने के लिए उकसाती है जिन्हें वे जीवनभर भूल नहीं पाते और जिन पर उन्हें जीवनभर पछताना पड़ता है। यह उचित नहीं है। इसलिए बेहतर होगा कि तुम भाईचारे के इस विचार को त्याग दो। भाईचारे के अनुसार मत जियो, बल्कि सत्य और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जियो। कम से कम तुम्हें अपनी मानवता, अंतरात्मा और विवेक के अनुसार जीना चाहिए, हर व्यक्ति और हर चीज के साथ तर्कपूर्ण व्यवहार करना चाहिए, और हर काम अपनी अंतरात्मा और विवेक के अनुसार ठीक से करना चाहिए।
जिम्मेदारी और जीवन से संबंधित इतनी सारी कहावतों और विचारों पर संगति करने के बाद, क्या अब तुम लोग दोस्त के लिए गोली खाने जैसी इस नैतिक अपेक्षा का भेद पहचान पाए हो? अब जब तुमने पहचान लिया है तो क्या तुम्हारे पास ऐसी चीज से निपटने के लिए सही सिद्धांत हैं? (हाँ।) यदि कोई तुमसे वाकई कहे कि तुम उसके लिए गोली खाओ, तो तुम क्या करोगे? तुम क्या जवाब दोगे? तुम कहोगे, “अगर तुम चाहते हो कि मैं तुम्हारे लिए गोली खा लूँ, तो इसका मतलब है कि तुम ही मेरी जान लेना चाहते हो। यदि तुम मेरी जान लेना चाहते हो, यदि मुझसे ऐसी चीज की मांग करते हो, तो तुम मुझे अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों और अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को पूरा करने के अधिकार से वंचित कर रहे हो। यह मुझे मेरे मानवाधिकारों से वंचित करना, और इससे भी बढ़कर यह मुझे परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति समर्पित होने और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने के अवसर से भी वंचित करना हुआ। तुम्हारा इस तरह मुझे मेरे मानवाधिकारों से वंचित करना मेरा अंत होगा! तुम मुझे बहुत सारे अधिकारों से वंचित कर तुम्हारे लिए अपना जीवन त्यागने पर मजबूर कर रहे हो। तुम और कितने स्वार्थी और नीच बनोगे? और तुम अब भी मेरे दोस्त हो? जाहिर है कि तुम मेरे दोस्त नहीं, दुश्मन हो।” क्या ऐसा कहना सही है? (हाँ।) वास्तव में यही कहना सही है। क्या तुममें यह कहने का साहस है? क्या तुम सचमुच इसे समझते हो? यदि तुम्हारा कोई दोस्त बार-बार तुमसे यह कहता है कि तुम उसके लिए गोली खा लो और अपनी जान दे दो, तो तुम्हें पहले ही मौके पर उससे दूर हो जाना चाहिए, क्योंकि वह एक अच्छा इंसान नहीं है। यह मत सोचो कि वे तुम्हारे लिए गोली खा सकते हैं, इसलिए उन्हें तुम्हारा दोस्त होना चाहिए। तुम कहते हो : “मैंने तुम्हें मेरे लिए गोली खाने को नहीं कहा था, यह तो तुम खुद ही करना चाहते थे।” चाहे तुम मेरे लिए गोली खा लो, पर मुझे तुम्हारे लिए गोली खाने के लिए कहने के बारे में सोचना भी मत। तुममें तर्क-शक्ति नहीं है, पर मैं सत्य समझता हूँ, मुझमें तर्क-शक्ति है, और मैं इस मामले को अपनी तर्क-शक्ति से देखूंगा। चाहे तुमने मेरे लिए कितनी ही बार जान जोखिम में डाली हो, मैं आवेग में आकर तुम्हारे लिए अपनी जान जोखिम में नहीं डालूँगा। यदि तुम कठिनाई में हो तो मैं तुम्हारी मदद करने की पूरी कोशिश करूँगा, लेकिन सिर्फ तुम्हारी खातिर जीने के लिए, इस जीवन में परमेश्वर से मिली जिम्मेदारियों और लक्ष्यों को मैं हरगिज नहीं त्यागूँगा। मेरी दुनिया में जिम्मेदारियों, दायित्वों और लक्ष्यों के अलावा कुछ भी नहीं है। यदि तुम मुझसे दोस्ती करना चाहते हो, तो मैं तुमसे यह अनुरोध करूँगा कि तुम मेरी मदद करो, मेरी जिम्मेदारियों को निभाने और अपने लक्ष्यों को पूरा करने में मेरी सहायता करो। तभी तुम मेरे सच्चे दोस्त होगे। अगर तुम बार-बार मुझसे यह कहते रहो कि मैं तुम्हारे लिए गोली खा लूँ, और मुझसे इस तरह का वादा करवाते रहो कि मैं तुम्हारे लिए अपना जीवन त्याग दूँ, या तुम्हें अपना जीवन समर्पित कर दूँ, तो तुम्हें तुरंत मुझसे दूर हो जाना चाहिए। तुम मेरे दोस्त नहीं हो, मैं तुम्हारे जैसे किसी व्यक्ति से दोस्ती नहीं करना चाहता, और तुम्हारे जैसे इंसान का दोस्त भी नहीं बनना चाहता।” कुछ ऐसा कहने के बारे में तुम्हारा क्या खयाल है? (यह अच्छा है।) यह अच्छा कैसे है? ऐसा दोस्त न होने से तुम दबाव, चिंता और विचारों के किसी भी बोझ से मुक्त हो जाते हो, और भाईचारे को महत्व देने जैसे विचारों से बंधे नहीं रहते। यदि कोई वास्तव में यह कहता है, “तुम जैसे लोग जो अपने दोस्त के लिए गोली नहीं खाते, न तो किसी के साथ संबंध रखने के योग्य हैं और न ही किसी के दोस्त बन सकते हैं,” तो क्या यह सुनकर तुम्हें दुख होगा? क्या तुम इन शब्दों से प्रभावित होगे? क्या तुम लोगों द्वारा त्यागे जाने से उदास और नकारात्मक महसूस करोगे, तुम्हें अपने अस्तित्व का एहसास और जीवन की कोई उम्मीद नहीं होगी? यह संभव है, लेकिन जब तुम सत्य समझोगे, तो तुम इस बात को अच्छी तरह से समझ पाओगे, और इन शब्दों से बेबस नहीं होगे। आज से ही, तुम्हें ऐसे बोझ को उठाए बिना, परंपरागत संस्कृति की इन चीजों को छोड़ना सीखना होगा। केवल इसी तरह से तुम जीवन में सही मार्ग पर चल सकते हो। क्या तुम इसे अभ्यास में लाओगे? (हाँ।) बेशक, इसे इतनी जल्दी नहीं छोड़ा जा सकता है। लोगों को पहले अपना मन बनाना चाहिए, थोड़ा-थोड़ा करके चिंतन करना चाहिए, सत्य खोजना चाहिए, सत्य को समझना चाहिए और फिर सत्य सिद्धांतों के अनुसार इसे थोड़ा-थोड़ा करके अभ्यास में लाना चाहिए। यह लोगों के साथ संबंधों और उनके साथ जुड़ाव से निपटने और उन्हें संभालने के लिए सत्य सिद्धांतों का उपयोग करना है। सारांश के तौर पर, मैं तुम लोगों से कुछ अंतिम शब्द कहना चाहूंगा : अपने जीवन और अपनी जिम्मेदारियों को संजोओ; उस अवसर को संजोओ जो परमेश्वर ने अपना कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हें दिया है, और उन लक्ष्यों को संजोओ जो परमेश्वर ने तुम्हें दिए हैं। तुम समझ रहे हो, है ना? (हाँ।) क्या यह खुशी की बात नहीं है कि तुमने इस बात को अच्छी तरह समझ लिया है? (हाँ।) यदि तुम इन भ्रामक विचारों और नजरिये से बाधित और बंधे नहीं हुए, तो तुम सहज महसूस करोगे। लेकिन अभी तुम वास्तव में सहज नहीं हो। केवल तब जब तुम भविष्य में सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलोगे और आइंदा इन चीजों से परेशान नहीं होओगे, तुम वास्तव में सहज होओगे। वे लोग जो वास्तव में पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और बातों को देखते हैं, व्यवहार करते हैं और कार्य करते हैं, केवल वही वास्तव में निश्चिंत और सहज रहते हैं, जिनके पास शांति और आनंद होता है, जो सत्य के अनुसार जीते और आचरण करते हैं, और जिन्हें कभी पछताना नहीं पड़ता। आज की संगति को यहीं विराम देते हैं।
7 मई 2022
फुटनोट :
क. कोंग रोंग एक प्रसिद्ध चीनी कहानी का पात्र है, जिसके जरिये परंपरागत रूप से बच्चों को शिष्टाचार और भाइयों के प्रेम के मूल्यों की शिक्षा दी जाती है। कहानी यह है कि जब चार-वर्षीय कोंग रोंग के परिवार को नाशपातियों की टोकरी मिली, तो कैसे उसने अपने बड़े भाइयों को बड़ी-बड़ी नाशपातियाँ दीं और खुद सबसे छोटी नाशपाती ली।