अपना हृदय परमेश्वर को देने में व्यक्ति सत्य प्राप्त कर सकता है

आज तुम लोग किन परीक्षणों को सहने में सक्षम हो? क्या तुममें यह कहने की हिम्मत है कि तुम्हारे पास एक नींव है, क्या तुम प्रलोभनों के सामने दृढ़ता से खड़े रहने में सक्षम हो? उदाहरण के लिए, क्या तुम लोग शैतान द्वारा पीछा किए जाने और सताए जाने के प्रलोभन या रुतबे और प्रतिष्ठा, विवाह या धन के प्रलोभनों पर विजय पाने में सक्षम हो? (हम इनमें से कुछ प्रलोभनों पर कमोबेश काबू पा सकते हैं।) प्रलोभन के कितने स्तर होते हैं? और तुम लोग किस स्तर पर काबू पा सकते हो? जैसे, यह सुनकर शायद तुम्हें डर न लगे कि किसी को परमेश्वर में विश्वास करने के कारण गिरफ्तार किया गया है और शायद दूसरों को गिरफ्तार होते और सताये जाते देखकर भी तुम्हें डर न लगे—लेकिन जब तुम गिरफ्तार किए जाते हो, जब तुम खुद को इस स्थिति में पाते हो तब क्या तुम दृढ़ता से खड़े होने में सक्षम हो? यह एक बड़ा प्रलोभन है, है न? उदाहरण के लिए, मान लो तुम किसी ऐसे व्यक्ति को जानते हो जो बहुत अच्छी मानवता वाला है, जो परमेश्वर में अपनी आस्था को लेकर उत्साही है, जिसने अपना कर्तव्य निभाने के लिए परिवार और आजीविका को त्याग दिया है और बहुत-सी कठिनाइयों का सामना किया है : एक दिन अचानक परमेश्वर में आस्था रखने के कारण उसे गिरफ्तार करके जेल की सजा सुनाई जाती है और तुम्हें पता चलता है कि बाद में उसे पीट-पीटकर मार दिया गया था। क्या यह तुम्हारे लिए प्रलोभन है? अगर तुम्हारे साथ ऐसा होता तो तुम क्या करते? तुम इसे कैसे अनुभव करते? क्या तुम सत्य खोजते? तुम सत्य कैसे खोजते? इस तरह के प्रलोभन के दौरान, तुम कैसे अपने आप को दृढ़ रख पाओगे, और परमेश्वर का इरादा कैसे समझोगे, और इससे सत्य कैसे प्राप्त करोगे? क्या तुमने कभी ऐसी बातों पर विचार किया है? क्या ऐसे प्रलोभनों पर काबू पाना आसान है? क्या ये कुछ असाधारण चीजें हैं? असाधारण और मानवीय धारणाओं व कल्पनाओं का खंडन करने वाली चीजों का अनुभव कैसे किया जाना चाहिए? अगर तुम्हारे पास कोई रास्ता नहीं है तो क्या तुम शिकायत कर सकते हो? क्या तुम परमेश्वर के वचनों में सत्य की खोज करने और समस्याओं का सार देखने में सक्षम हो? क्या तुम सत्य का उपयोग करके अभ्यास के सही सिद्धांतों का पता लगाने में सक्षम हो? क्या सत्य का अनुसरण करने वालों में यह गुण नहीं पाया जाना चाहिए? तुम परमेश्वर के कार्य को कैसे जान सकते हो? तुम्हें परमेश्वर के न्याय, शुद्धिकरण, उद्धार और पूर्णता का फल प्राप्त करने के लिए इसका अनुभव कैसे करना चाहिए? परमेश्वर के प्रति लोगों की असंख्य धारणाओं और शिकायतों को दूर करने के लिए किन सत्यों को समझना चाहिए? वे कौन-से सबसे उपयोगी सत्य हैं जिनसे तुम्हें खुद को सुसज्जित करना चाहिए, जो विभिन्न परीक्षणों के बीच दृढ़ता से डटे रहने में तुम्हारी मदद करेंगे? अभी तुम लोगों का आध्यात्मिक कद कितना बड़ा है? तुम किस स्तर के प्रलोभनों पर काबू पा लेते हो? क्या इस बारे में तुम्हारे दिल में कोई निश्चितता है? अगर नहीं है तो यह संदेहास्पद मामला है। तुम लोगों ने अभी-अभी कहा कि तुम “इनमें से कुछ प्रलोभनों पर कमोबेश काबू पा” सकते हो। ये भ्रमित शब्द हैं। तुम लोगों को अपने आध्यात्मिक कद के बारे में स्पष्ट जानकारी होनी चाहिए, तुम लोगों ने अभी तक खुद को कितने सत्यों से सुसज्जित किया है, तुम किन प्रलोभनों पर काबू पा सकते हो, किन परीक्षणों को स्वीकार कर सकते हो और किस परीक्षण में तुम्हारे पास कौन-सा सत्य, परमेश्वर के कार्य की कौन-सी जानकारी होनी चाहिए, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए कौन-सा मार्ग चुनना है—तुम्हें इन सबके बारे में अच्छी जानकारी होनी चाहिए। जब तुम्हारा सामना किसी ऐसी चीज से होता है जो तुम्हारी धारणाओं और कल्पनाओं से मेल नहीं खाती तो तुम उसका अनुभव कैसे करोगे? ऐसे मामलों में तुम्हें कौन-से सत्य—और सत्य के किन पहलुओं से—खुद को लैस करना चाहिए ताकि तुम न केवल अपनी धारणाओं का समाधान करते हुए, बल्कि परमेश्वर का सच्चा ज्ञान प्राप्त करते हुए सहज तरीके से पार पा सको—क्या तुम्हें इसी की खोज नहीं करनी चाहिए? तुम लोग आम तौर पर किस प्रकार के प्रलोभनों का अनुभव करते हो? (रुतबा, प्रसिद्धि, लाभ, धन, पुरुष-महिलाओं में संबंध।) ये मूल रूप से सामान्य प्रलोभन हैं। और आज तुम्हारे आध्यात्मिक कद को देखा जाए तो तुम किन प्रलोभनों पर खुद काबू पाने और दृढ़ता से खड़े रहने में सक्षम हो? क्या तुम लोगों के पास इन प्रलोभनों पर काबू पाने के लिए वास्तविक आध्यात्मिक कद है? क्या तुम लोग वाकई यकीन दिला सकते हो कि अपना कर्तव्य ठीक से निभाओगे और ऐसा कुछ भी नहीं करोगे जो सत्य के खिलाफ हो या जो विघ्न-बाधा डालने वाला हो या जो अवज्ञाकारी और विद्रोही हो या जो परमेश्वर के दिल को ठेस पहुँचाए? (नहीं।) तो अपना कर्तव्य ठीक से निभाने के लिए तुम्हें क्या करना चाहिए? पहली बात, तुम्हें सभी चीजों में खुद की जाँच करनी चाहिए जिससे यह पता लगे कि तुम्हारा कार्य सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं, कहीं तुम्हारा बर्ताव लापरवाह तो नहीं और कहीं तुममें विद्रोही या प्रतिरोधी तत्व तो नहीं हैं। अगर ऐसा है तो उन्हें हल करने के लिए तुम्हें सत्य खोजना चाहिए। इसके अलावा, अगर कुछ ऐसी बातें हैं जिन्हें तुम पहचान नहीं सकते हो तो उनका समाधान करने के लिए भी तुम्हें अवश्य ही सत्य खोजना चाहिए। अगर तुम्हारे साथ काट-छाँट होती है तो तुम्हें उसे स्वीकार करके समर्पण करना चाहिए। अगर लोग तथ्यों के अनुसार बात करते हैं तो तुम उनके साथ बिल्कुल भी बहस और कुतर्क नहीं कर सकते; केवल तभी तुम खुद को पहचानकर सच्चा पश्चात्ताप कर पाओगे। लोगों को इन दो पहलुओं की अपेक्षाओं को पूरा करना चाहिए और सच्चा प्रवेश करना चाहिए। इस तरह, वे सत्य की समझ प्राप्त कर सकते हैं और उसकी वास्तविकता में प्रवेश करके अपना कर्तव्य मानक तरीके से निभा सकते हैं।

कुछ लोगों का कहना है, “ज्यादातर समय जब मेरे साथ कुछ होता है तो मुझे नहीं पता होता कि सत्य की खोज कैसे करूँ और अगर सत्य की खोज करूँ तब भी मुझे कोई उत्तर नहीं मिलता। मैंने प्रार्थना की, सत्य खोजा और प्रतीक्षा की लेकिन कुछ हासिल नहीं हुआ। मुझे नहीं पता अब क्या करूँ। मैं इसे हल करने के लिए परमेश्वर के वचन खोजना चाहता हूँ लेकिन वे बहुत सारे हैं, मुझे नहीं पता कि परमेश्वर के वचनों का कौन-सा खंड पढ़ना उचित होगा जो इस समस्या को हल कर सके।” ऐसे में उन्हें क्या करना चाहिए? इसके लिए एक न्यूनतम मानक है : जब तुम्हारे साथ कुछ होता है और तुम नहीं जानते कि क्या करना है तो तुम्हें सबसे बुनियादी चीज जो करनी चाहिए वह है अपनी अंतरात्मा की बात सुनना; यह एक जीवनरेखा है, यह एक आधार रेखा है जिसे सबसे अधिक तरजीह दी जानी चाहिए, और यह अभ्यास का एक सिद्धांत भी है। तो प्रत्येक व्यक्ति में अंतरात्मा का कितना अहम स्थान होता है? जब कोई व्यक्ति सत्य को नहीं समझता, तो उसकी अंतरात्मा कितनी बड़ी भूमिका निभा सकती है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसमें किस प्रकार की मानवता है। अगर यह व्यक्ति सत्य को नहीं समझता और अपनी अंतरात्मा के अनुसार व्यवहार नहीं करता, और तुम न तो उसके कृत्यों के किसी पहलू में परमेश्वर के इरादों के प्रति कोई विचारशीलता देखते हो, और न ही उसमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय ही देख सकते हो—अगर तुम्हें इनमें से कुछ भी नहीं दिखता है, तो क्या इस व्यक्ति को अंतरात्मा और मानवता वाला व्यक्ति माना जा सकता है? (नहीं।) यह किस प्रकार का व्यक्ति है? इस तरह के व्यक्ति को ठीक ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया जाता है, जो मानवता से रहित है। वह न तो विवेक और न ही अंतरात्मा के आधार पर काम करता है, और अपने आचरण की आधार रेखा को पार कर जाता है। कुछ लोग बहुत-से सत्यों को नहीं समझते। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें सिद्धांतों को नहीं समझते, और समस्याओं से सामना होने पर वे उन्हें सँभालने का उचित तरीका नहीं जानते। इस स्थिति में उन्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? न्यूनतम मापदंड है अंतरात्मा के अनुसार कार्य करना—यह आधार-रेखा है। तुम्हें अंतरात्मा के अनुसार कार्य कैसे करना चाहिए? ईमानदारी से कार्य करो, और परमेश्वर की दया, परमेश्वर द्वारा दिए गए इस जीवन, और उद्धार पाने के इस परमेश्वर-प्रदत्त अवसर के योग्य बनो। क्या यह तुम्हारी अंतरात्मा का प्रभाव है? जब तुम यह न्यूनतम मापदंड पूरा कर लेते हो, तो तुम एक सुरक्षा प्राप्त कर लेते हो और तुम गंभीर त्रुटियां नहीं करोगे। फिर तुम इतनी आसानी से परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करने वाले काम नहीं करोगे या अपना कर्तव्य नहीं त्यागोगे, न ही तुम्हारे द्वारा अनमने ढंग से काम किए जाने की उतनी संभावना होगी। तुम अपने रुतबे, प्रसिद्धि, लाभ और भविष्य के लिए षड्यंत्र करने में भी इतने प्रवृत्त नहीं होगे। अंतरात्मा यही भूमिका निभाती है। अंतरात्मा और विवेक दोनों ही व्यक्ति की मानवता के घटक होने चाहिए। ये दोनों सबसे बुनियादी और सबसे महत्वपूर्ण चीजें हैं। वह किस तरह का व्यक्ति है जिसमें अंतरात्मा नहीं है और सामान्य मानवता का विवेक नहीं है? सीधे शब्दों में कहा जाए तो वे ऐसे व्यक्ति हैं जिनमें मानवता का अभाव है, वह बहुत ही खराब मानवता वाला व्यक्ति है। अधिक विस्तार में जाएँ तो ऐसा व्यक्ति मानवता के लुप्त होने की कौन-सी अभिव्यक्तियाँ दिखाता है? विश्लेषण करो कि ऐसे लोगों में कैसे लक्षण पाए जाते हैं और वे कौन-से ठोस प्रकटन दर्शाते हैं। (वे स्वार्थी और नीच होते हैं।) स्वार्थी और नीच लोग अपने कार्यकलापों में लापरवाह होते हैं और अपने को उन चीजों से अलग रखते हैं जो व्यक्तिगत रूप से उनसे संबंधित नहीं होती हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार नहीं करते हैं और परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील नहीं होते हैं। वे अपने कर्तव्य को करने या परमेश्वर की गवाही देने का कोई भार नहीं उठाते हैं, और उनमें उत्तरदायित्व की कोई भावना होती ही नहीं है। जब कभी वे कोई काम करते हैं तो किस बारे में सोचते हैं? उनका पहला विचार होता है, “अगर मैं यह काम करूँगा तो क्या परमेश्वर को पता चलेगा? क्या यह दूसरे लोगों को दिखाई देता है? अगर दूसरे लोग नहीं देखते कि मैं इतना ज्यादा प्रयास करता हूँ और मेहनत से काम करता हूँ, और अगर परमेश्वर भी यह न देखे, तो मेरे इतना ज़्यादा प्रयास करने या इसके लिए कष्ट सहने का कोई फायदा नहीं है।” क्या यह अत्यधिक स्वार्थपूर्ण नहीं है? यह एक नीच किस्म का इरादा है। जब वे ऐसी सोच के साथ कर्म करते हैं, तो क्या उनकी अंतरात्मा कोई भूमिका निभाती है? क्या इसमें उनकी अंतरात्मा पर दोषारोपण किया जाता है? नहीं, उनकी अंतरात्मा की कोई भूमिका नहीं है, न इस पर कोई दोषारोपण किया जाता है। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो चाहे कोई भी कर्तव्य निभाएँ पर कोई जिम्मेदारी नहीं लेते। वे पता चलने वाली समस्याओं की रिपोर्ट भी तुरंत अपने वरिष्ठों को नहीं करते। जब वे लोगों को गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा करते देखते हैं तो वे आँखें मूँद लेते हैं। जब वे बुरे लोगों को बुराई करते देखते हैं तो वे उन्हें रोकने की कोशिश नहीं करते। वे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, न ही इस बात पर विचार करते हैं कि उनका कर्तव्य और जिम्मेदारी क्या है। जब ऐसे लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो वे कोई वास्तविक कार्य नहीं करते; वे खुशामदी लोग हैं और आराम में लिप्त रहते हैं; वे केवल अपने घमंड, साख, रुतबे और हितों के लिए बोलते और कार्य करते हैं, और वे अपना समय और प्रयास ऐसी चीजों में लगाना चाहते हैं, जिनसे उन्हें लाभ मिलता है। ऐसे इंसान के क्रियाकलाप और इरादे हर किसी को स्पष्ट होते हैं : जब भी उन्हें अपनी इज्जत दिखाने या आशीष प्राप्त करने का कोई मौका मिलता है, ये उभर आते हैं। लेकिन जब उन्हें अपना रुतबा दिखाने का कोई मौका नहीं मिलता या जैसे ही कष्ट उठाने का समय आता है, वैसे ही वे उसी तरह नजरों से ओझल हो जाते हैं जैसे कछुआ अपना सिर खोल में छिपा लेता है। क्या इस तरह के इंसान में अंतरात्मा और विवेक होता है? (नहीं।) क्या अंतरात्मा और विवेक से रहित कोई व्यक्ति जो इस तरीके से पेश आता है, आत्म-निंदा का एहसास करता है? इस प्रकार के व्यक्ति में आत्म-निंदा की कोई भावना नहीं होती; इस प्रकार के इंसान की अंतरात्मा किसी काम की नहीं होती। उन्हें कभी भी अपनी अंतरात्मा से आत्म-निंदा का एहसास नहीं होता, तो क्या वे पवित्र आत्मा की निंदा या अनुशासन को महसूस कर सकते हैं? नहीं, वे नहीं कर सकते।

पवित्र आत्मा का कार्य सैद्धांतिक है और इसकी कुछ जरूरी शर्तें हैं। पवित्र आत्मा आम तौर पर किस प्रकार के व्यक्ति पर अपना कार्य करता है? पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करने के लिए किसी व्यक्ति को कौन-सी जरूरी शर्तें पूरी करनी चाहिए? जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं उन्हें यह तो समझना ही चाहिए कि पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करने के लिए उनके पास कम से कम क्या कुछ होना जरूरी है। उनके पास कम से कम अंतरात्मा और ईमानदार दिल होना चाहिए, और उनकी अंतरात्मा में ईमानदारी का एक तत्व होना चाहिए। तुम्हारा दिल ईमानदार और परमेश्वर की जाँच-पड़ताल को स्वीकारने वाला होना चाहिए। जो लोग परमेश्वर की जाँच-पड़ताल स्वीकारने का साहस नहीं करते वे ईमानदार लोग नहीं हैं और वे सच्चे मन से परमेश्वर में विश्वास नहीं करते। लोग हमेशा कहते हैं कि परमेश्वर लोगों के अंतरतम हृदय की जाँच-पड़ताल करता है, वह सब कुछ देखता है और मनुष्य बाहरी चीजों को देखता है जबकि परमेश्वर हृदय को देखता है, फिर भी लोग परमेश्वर की जाँच-पड़ताल को क्यों नहीं स्वीकार पाते? वे परमेश्वर के वचन क्यों नहीं सुन पाते और उसके प्रति समर्पित क्यों नहीं हो पाते? ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग केवल शब्द और धर्म-सिद्धांत को समझते हैं, पर सत्य से प्रेम नहीं करते। कुछ लोगों को कभी-भी पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त क्यों नहीं हो पाता है, वे हमेशा नकारात्मक, मायूस, नाखुश या अशांत अवस्था में क्यों रहते हैं? अगर तुम उनकी स्थितियों को ध्यान से देखो तो तुम्हें पता चलेगा कि उन्हें आम तौर पर अपनी अंतरात्मा के बारे में पता नहीं होता, उनका दिल ईमानदार नहीं होता, उनमें काबिलियत कम होती है, और वे सत्य खोजने की कोशिश नहीं करते, इसलिए उनकी स्थितियाँ शायद ही कभी सामान्य होती हैं। जो सत्य से प्रेम करते हैं वे अलग लोग होते हैं। वे हमेशा सत्य की ओर प्रयास करते हैं, जैसे-जैसे वे सत्य के अंश समझते जाते हैं उनकी दशा सुधरती जाती है और जैसे-जैसे वे सत्य के अंश समझते जाते हैं वे कुछ वास्तविक समस्याओं को हल कर लेते हैं, इसलिए उनकी दशाएँ लगातार सुधरती और सामान्य होती जाती हैं। चाहे उनके साथ कुछ भी हो जाए, वे शायद ही कभी निराश होते हैं और वे परमेश्वर की मौजूदगी में रहने में सक्षम होते हैं। अनुभव की किसी भी पूरी अवधि में, उनके पास हमेशा लाभ और ज्ञान होता है और अपना कर्तव्य निभाने में उन्हें हमेशा उपलब्धियाँ मिलती हैं। वे सुसमाचार का प्रचार कर लोगों को जीतने में सक्षम होते हैं और चाहे उनका कर्तव्य जो भी हो वे उसे सैद्धांतिक तरीके से करते हैं। ये लाभ कहाँ से आते हैं? ये परमेश्वर के वचनों को अक्सर पढ़ने और प्रबोधन, रोशनी, और सत्य की समझ प्राप्त करने के परिणाम हैं, ये पवित्र आत्मा के कार्य के माध्यम से प्राप्त किए गए परिणाम हैं। जब तुम्हारे पास एक ईमानदार दिल, अंतरात्मा और विवेक हो, जो मानवता के पास होना चाहिए, तभी पवित्र आत्मा तुम पर अपना कार्य कर सकता है। क्या तुम सभी को पवित्र आत्मा के कार्य के बारे में नियमों की समझ है? पवित्र आत्मा किस प्रकार के व्यक्ति पर अपना कार्य करता है? पवित्र आत्मा आम तौर पर अपना कार्य उन लोगों पर करता है जो दिल से ईमानदार होते हैं। वह लोगों पर तब कार्य करता है जब वे कठिनाइयों का सामना करते हैं और सत्य खोजते हैं। परमेश्वर उन लोगों पर कोई ध्यान नहीं देता जिनमें कोई मानवता नहीं होती, जिनके पास कोई अंतरात्मा या विवेक नहीं होता। अगर कोई ईमानदार है लेकिन उसका दिल अस्थायी रूप से परमेश्वर से दूर हो जाता है, वह बेहतर बनने की कोशिश नहीं करना चाहता, निराश स्थिति में फँसा रहता है, इन समस्याओं को हल करने के लिए न तो प्रार्थना करता है और न ही सत्य खोजता है, सहयोग करने को भी तैयार नहीं होता—तो अस्थायी अंधकार, अस्थायी अवनति की इस अवस्था में पवित्र आत्मा अपना कार्य नहीं करता है। वह किसी ऐसे व्यक्ति के लिए कितना कम कार्य करेगा जिसके पास बुनियादी तौर पर मानवता का कोई बोध नहीं है? वह निश्चित रूप से कार्य नहीं करेगा। परमेश्वर इस तरह के लोगों का क्या करता है जिनके पास न तो अंतरात्मा है और न ही विवेक, जो सत्य से बिल्कुल भी प्रेम नहीं करते? परमेश्वर उन पर कोई ध्यान नहीं देता। क्या इन लोगों के लिए कोई उम्मीद है? उनके लिए उम्मीद की बस एक ही डोर है। सच्चा पश्चात्ताप करना, ईमानदार बनना ही उनके लिए एकमात्र रास्ता है और केवल तभी उन्हें पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त हो सकता है। कोई ईमानदार व्यक्ति कैसे बनता है? सबसे पहले, तुम्हें अपना दिल परमेश्वर के सामने खोलकर रखना होगा और उससे सत्य खोजना होगा, और जब तुम सत्य समझ जाओ तो तुम्हें इसे अभ्यास में लाने और परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने में सक्षम होना होगा, जो परमेश्वर को अपना दिल देने के बराबर है। केवल तभी परमेश्वर तुम्हें स्वीकारेगा। तुम्हें पहले अपनी दैहिक इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह करना होगा; अपना घमंड, अभिमान त्यागना होगा, अपने हित त्यागने होंगे, तन और मन दोनों से अपने-आप को अपने कर्तव्य में झोंक देना होगा, विनम्र हृदय से अपना कर्तव्य निभाना होगा, और अपने हृदय में यह विश्वास रखना होगा कि जब तक तुम परमेश्वर को संतुष्ट रखते हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या कष्ट सह रहे हो। कठिनाइयों का सामना करते हुए अगर तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते हो और सत्य खोजते हो तो तुम देखो कि परमेश्वर कैसे तुम्हें मार्ग दिखाता है, और पता करो कि तुम्हारे हृदय में शांति और खुशी है या नहीं, तुम्हारे पास यह साक्ष्य है या नहीं। अगर तुम पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करना चाहते हो तो सबसे पहले तुम्हें सचमुच पश्चात्ताप करना होगा, अपने आपको परमेश्वर को सौंपना होगा, उसके सामने अपना दिल खोलकर रखना होगा और जिन बेकार की चीजों को तुम इतना सँजोते हो उनका त्याग करना होगा, जैसे कि प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा। अगर तुम इन चीजों के पीछे भागते रहते हो और फिर भी परमेश्वर से महान आशीषों की माँग करना चाहते हो तो क्या वह तुम्हें स्वीकारेगा? पवित्र आत्मा के कार्य की पूर्व शर्ते हैं। परमेश्वर ऐसा परमेश्वर है जो बुराई से बेइंतहा नफरत करता है, और वह पवित्र परमेश्वर है। अगर लोग हमेशा प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भागते रहे और शुरू से अंत तक वे इन चीजों को त्याग नहीं पाए, अगर उनके दिल परमेश्वर के लिए बंद रहते हैं, अगर वे उसके सामने अपना दिल खोलने की हिम्मत नहीं करते, अगर वे हमेशा उसके कार्य और मार्गदर्शन को ठुकराते हैं, तो वह कुछ नहीं करता। परमेश्वर को प्रत्येक व्यक्ति पर अपना कार्य करने और तुम्हें इधर-उधर के काम करने के लिए मजबूर करने की आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर तुम्हें बाध्य नहीं करता है। केवल दुष्ट आत्माएँ ही लोगों को इधर-उधर के काम करने के लिए बाध्य करती हैं, यहाँ तक कि किसी व्यक्ति को अपने वश में करने के लिए जबरन उन पर हावी हो जाती हैं। पवित्र आत्मा का कार्य विशेष रूप से सौम्य होता है, इस तरह कि जब वह तुम्हें स्पर्श करता है तो तुम्हें महसूस भी नहीं होता। तुम्हें लगेगा कि तुम अनजाने में समझ गए हो और जग गए हो। पवित्र आत्मा इसी तरह लोगों को प्रेरित करता है। इसलिए अगर कोई पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करना चाहता है तो उसे सचमुच पश्चात्ताप और सहयोग करना होगा।

तुम अपना दिल परमेश्वर को कैसे सौंपते हो? जब तुम्हारे साथ कुछ हो जाए तो तुम्हें परमेश्वर को यह बताना चाहिए कि तुम खुद पर निर्भर नहीं रहोगे। परमेश्वर को अपना दिल सौंपने का मतलब है उसे अपने घर का स्वामी बनाना। इसके साथ ही, तुम्हें उन चीजों का त्याग करना होगा जो तुम्हें सत्य का अभ्यास करने से रोकती हैं, जैसे प्रतिष्ठा, रुतबा, अहंकार और घमंड; परमेश्वर को अपनी अगुआई करने दो, अपने दिल को उसके प्रति समर्पित होने दो, उसे अपने दिल पर शासन करने दो और उसके वचनों के अनुसार कार्य करो। जब तुम उन चीजों को त्यागने में सक्षम हो जाते हो जो देह को पसंद हैं, और परमेश्वर देखता है कि अब तुम कोई बोझ नहीं ढो रहे हो, बल्कि उसके सामने एक विनम्र दिल लेकर आए हो, उसके वचनों को सुनना और उसकी व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पित होना चाहते हो, उसे कार्य करने देते हो, अगुआई करने देते हो—जब परमेश्वर देखता है कि तुम इतने ईमानदार हो तभी पवित्र आत्मा अपना कार्य करेगा। सबसे पहले, तुम्हें सचमुच पश्चात्ताप करना होगा, अपना दिल परमेश्वर की ओर मोड़ना होगा, उसके इरादों के प्रति विचारशीलता दिखानी होगी, और सत्य खोजने की कोशिश करनी होगी। तुम निराश या आलसी नहीं हो सकते, हठी तो बिल्कुल भी नहीं हो सकते। अगर तुम हमेशा प्रभारी बने रहना चाहते हो, अपने घर के मालिक बने रहना चाहते हो और अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार काम करना चाहते हो तो यह किस तरह का रवैया है? यह कैसी अवस्था है? यह विद्रोह और प्रतिरोध है। क्या तुम यह सोचते हो कि परमेश्वर को तुम्हें बचाना ही होगा, वह तुम्हारे बिना नहीं रह सकता? क्या ऐसी बात है? अंत के दिनों में परमेश्वर का कार्य अन्य-जाति राष्ट्रों की ओर क्यों मुड़ गया है? वह इस्राएल में कार्य क्यों नहीं कर रहा है? धार्मिक दुनिया में कार्य क्यों नहीं कर रहा है? ऐसा इसलिए है क्योंकि वे परमेश्वर के प्रति बहुत विद्रोही और प्रतिरोधी हो गए हैं, इसलिए उसने अपना कार्य अन्य-जाति राष्ट्रों की ओर मोड़ लिया है। परमेश्वर इस मामले को किस नजरिए से देखता है? परमेश्वर उन्हें बचाता है जो सत्य स्वीकारते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे धर्म के भीतर से परिवर्तित हैं या वे अविश्वासी हैं जो इस कार्य को स्वीकार करते हैं—परमेश्वर उन पर अनुग्रह करता है और उन्हें बचाता है जो सत्य को स्वीकारते हैं। क्या अब तुम लोगों को ये सारी बातें स्पष्ट हैं? परमेश्वर जो भी करता है वह अत्यंत सार्थक होता है, और उसमें परमेश्वर का स्वभाव और बुद्धि होती है। बेशक, परमेश्वर की इच्छाओं को समझने या उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने पर लोगों के पास डींगें हाँकने के लिए कुछ नहीं होता है। यह मत सोचो कि तुम चतुर हो या तुम सत्य से प्रेम करते हो या तुम अन्य लोगों से ज्यादा मजबूत हो। सिर्फ इसलिए कि तुम एक मामले में होशियार हो, इसका मतलब यह नहीं है कि तुम दूसरे मामलों में भी होशियार होगे, इसलिए तुम्हें अक्सर प्रार्थना करनी चाहिए और सभी चीजों में सत्य खोजना चाहिए। तुम्हें यह देखने के लिए अपने सभी कार्यों की जाँच करनी चाहिए कि तुममें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है या नहीं, तुम्हारे कार्य सत्य के अनुरूप हैं या नहीं, और वे परमेश्वर के इरादों को पूरा करने में सक्षम हैं या नहीं।

चाहे तुम लोगों की मानवता मानक के अनुरूप हो या नहीं या चाहे वह सामान्य जमीर और विवेक के मानदंड तक पहुँचती हो या नहीं, परमेश्वर केवल उन लोगों से प्रसन्न होता है जो सत्य का अनुसरण करते हैं। सत्य का अनुसरण और जीवन प्रवेश का कोई अंत नहीं है। अगर किसी के पास केवल अंतरात्मा है और वह अपनी अंतरात्मा के अनुसार कार्य करता है तो यह सिद्धांत सत्य के स्तर के अनुरूप नहीं है। उसे सत्य खोजने की कोशिश करने के लिए कीमत भी चुकानी होगी, परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार आचरण करना होगा और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार अच्छी तरह अपना कर्तव्य निभाना होगा। केवल इस तरह से अनुसरण करके ही वह जीवन प्रवेश प्राप्त कर सकता है, सत्य को समझ और हासिल कर सकता है, और परमेश्वर के इरादों को पूरा कर सकता है। ऐसे लोग भी हैं जिनमें थोड़ी मानवता होती है, जिनके पास थोड़ी अंतरात्मा और विवेक होता है, और इसलिए वे सोचते हैं : “अपनी अंतरात्मा के अनुसार कर्तव्य निभाना परमेश्वर के योग्य होगा।” क्या यह सही है? क्या अंतरात्मा का स्तर सत्य का स्थान ले सकता है? क्या तुम अपनी अंतरात्मा के अनुसार कार्य करके परमेश्वर को समर्पित हो सकते हो? क्या तुम परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चल सकते हो? क्या तुम शैतान से घृणा कर उसके खिलाफ विद्रोह कर सकते हो? क्या तुम सच में परमेश्वर से प्रेम कर सकते हो? क्या तुम शैतान को शर्मिंदा कर सकते हो? क्या अपनी अंतरात्मा के अनुसार कार्य करना सच्ची गवाही है? इसमें से कुछ भी प्राप्त करने योग्य नहीं है। अंतरात्मा का मानक क्या होता है? अंतरात्मा किसी व्यक्ति के हृदय की एक भावना है, दिल का निर्णय है, और यह सामान्य मानवता की प्राथमिकताओं को दर्शाता है। अक्सर, कानून के कई लेख और नैतिकता की धारणाएँ अंतरात्मा की भावनाओं पर आधारित होती हैं, और इस प्रकार अंतरात्मा की भावनाएँ कानून के लेखों और नैतिकता की धारणाओं को आसानी से एक मानक के रूप में उपयोग करती हैं। इसलिए, अंतरात्मा की भावनाएँ सत्य के मानक से बहुत पीछे रह जाती हैं; इतना ही नहीं, वे भावनात्मक बाधाओं के अधीन होती हैं, या उन्हें चिकनी-चुपड़ी बातों से धोखा दिया और गुमराह किया जा सकता है, जिससे कई विचलन उत्पन्न हो जाते हैं। अगर लोग सत्य को नहीं समझते हैं तो वे दानवों से धोखा खा सकते हैं और शैतान को अपना फायदा उठाने देते हैं। इसलिए, अपनी अंतरात्मा के अनुसार कार्य करना परमेश्वर की अपेक्षाओं से बहुत कम है। तुम्हें सत्य खोजने की भी कोशिश करनी चाहिए। जब तुम सत्य समझते हो और सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाते हो तभी तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा कर सकते हो। सत्य का मानक अंतरात्मा के मानक से कहीं अधिक है। अगर तुम केवल अपनी अंतरात्मा के अनुसार कर्तव्य निभाते हो, तो क्या तुम परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर पाओगे? नहीं कर पाओगे। क्योंकि अंतरात्मा सत्य का स्थान नहीं ले सकती, परमेश्वर की अपेक्षाओं का तो बिल्कुल भी नहीं, इसलिए तुम अपनी अंतरात्मा के अनुसार अपना कर्तव्य निभाकर संतुष्ट नहीं हो सकते। इससे तुम्हें परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिल सकती।

सत्य का अनुसरण करने के लिए तुम्हें हर चीज में खुद की जाँच करनी चाहिए ताकि यह देख सको कि तुममें कौन-से सत्यों की कमी है जो तुम्हें पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पित होने, उसका भय मानने और बुराई से दूर रहने, और समर्पित भाव से अपना कर्तव्य निभाने से रोकते हैं। फिर तुम्हें जल्द ही खुद को उन सत्यों से सुसज्जित करना चाहिए जिनकी तुममें कमी है ताकि न केवल तुम मानक के अनुरूप तरीके से आचरण करो बल्कि साथ ही मानक के अनुरूप बिंदु तक अपना कर्तव्य भी निभाओ। कुछ लोग खुशामदी होते हैं जो दूसरों को बुरा काम करते हुए देखकर उनकी शिकायत नहीं करते या उन्हें उजागर नहीं करते हैं। वे मित्रवत होते हैं और आसानी से प्रभावित हो जाते हैं। वे कलीसिया के कार्य में बाधा डालने वाले झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों की आज्ञा का पालन करते हैं, किसी को नाराज नहीं करते, और हमेशा मध्यम-मार्ग अपनाते हैं, न तो दाएँ झुकते हैं और न ही बाएँ। देखने में ऐसा लगता है कि उनमें मानवता है—वे बहुत दूर नहीं जाते और उनके पास थोड़ी-सी अंतरात्मा और विवेक होता है—लेकिन ज्यादातर समय वे चुप ही रहते हैं और अपने विचारों को व्यक्त नहीं करते। तुम ऐसे लोगों के बारे में क्या कहोगे? क्या वे धूर्त और कपटी नहीं हैं? कपटी लोग ऐसे ही होते हैं। जब कुछ होता है, तो वे कुछ नहीं बोलते या हलकेपन से कोई विचार व्यक्त नहीं करते, बल्कि हमेशा चुप ही रहते हैं। इसका यह मतलब नहीं कि ऐसे लोग विवेकशील हैं; इसके विपरीत, यह दर्शाता है कि वह भली-भाँति छद्मवेश धारण किए हुए है, कि उसने बातें छिपा रखी हैं, कि उसकी धूर्तता गहरी है। अगर तुम किसी और के सामने नहीं खुलते, तो क्या परमेश्वर के सामने खुल सकते हो? और अगर तुम परमेश्वर के साथ भी सच्चे नहीं हो, और उसके सामने खुल नहीं सकते, तो क्या तुम अपना दिल उसे दे सकते हो? निश्चित रूप से नहीं। तुम परमेश्वर के साथ दिल से एक नहीं हो सकते, बल्कि अपने दिल को उससे अलग रख रहे हो! क्या तुम लोग दूसरों के साथ संगति करते समय खुलकर वह कह पाते हो, जो वास्तव में तुम्हारे दिल में होता है? अगर कोई हमेशा वही कहता है जो वास्तव में उसके दिल में होता है, अगर वह ईमानदारी से बात करता है, अगर वह सरलता से बोलता है, अगर वह ईमानदार है, अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए बिल्कुल भी लापरवाह नहीं होता और अगर वह उस सत्य का अभ्यास कर सकता है जिसे वह समझता है, तो इस व्यक्ति के पास सत्य प्राप्त करने की आशा है। अगर व्यक्ति हमेशा अपने आपको ढक लेता है और अपने दिल की बात छिपा लेता है ताकि कोई उसे स्पष्ट रूप से न देख सके, अगर वह दूसरों को धोखा देने के लिए झूठी छवि बनाता है, तो वह गंभीर खतरे में है, वह बहुत परेशानी में है, उसके लिए सत्य प्राप्त करना बहुत मुश्किल होगा। तुम व्यक्ति के दैनिक जीवन और उसकी बातों और कामों से देख सकते हो कि उसकी संभावनाएँ क्या हैं। अगर यह व्यक्ति हमेशा दिखावा करता है, खुद को दूसरों से बेहतर दिखाता है, तो यह कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो सत्य को स्वीकार करता है, और उसे देर-सवेर बेनकाब करके हटा दिया जाएगा। तुम लोग किस मार्ग पर चल रहे हो? एक ईमानदार व्यक्ति के मार्ग पर चलना कभी गलत नहीं होता है! कुछ लोग कह सकते हैं : “भाई-बहनों के साथ सत्य के बारे में संगति करते समय तुम उन्हें अपने दिल की बातें क्यों बताते हो? क्या यह बेवकूफी नहीं है?” या, “बुरे लोगों और छद्म-विश्वासियों को उजागर करके क्या तुम लोगों को नाराज नहीं कर रहे हो? परमेश्वर में विश्वास करने वाले इतने मूर्ख नहीं हो सकते!” इन शब्दों को सुनकर तुम्हें कैसा लगता है? तुम्हें कहना चाहिए : “एक ईमानदार व्यक्ति होना, सच बोलना और सिद्धांतों का पालन करना बुद्धिमानी है, यह मूर्खता तो बिल्कुल नहीं है। यही वह सत्य है जिसका परमेश्वर के पास आने वालों को अभ्यास करना चाहिए। परमेश्वर में विश्वास करने वालों को सभी चीजों में परमेश्वर के प्रति समर्पित होना चाहिए और उसे संतुष्ट करना चाहिए। सत्य के बारे में संगति करना और अपना हृदय खोल देना सही है। सत्य के बारे में संगति करते समय तुम्हें अपनी वास्तविक मनोदशा के बारे में बोलना चाहिए। यह दूसरों के लिए रचनात्मक और तुम्हारे लिए लाभकारी होगा। बुरे लोगों और छद्म-विश्वासियों को उजागर करना परमेश्वर के चुने हुए लोगों की जिम्मेदारी है। अगर तुम दूसरों को नाराज करने से डरते हो, तो क्या अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा पाओगे? परमेश्वर के चुने हुए लोगों को सत्य सिद्धांत का पालन करना चाहिए, बुरे लोगों और छद्म-विश्वासियों को उजागर करना चाहिए। एक ईमानदार व्यक्ति होने का मतलब सत्य का अभ्यास करना और सिद्धांतों का पालन करना है। जो सत्य का अभ्यास नहीं करते वे ईमानदार लोग नहीं हैं, न ही वे लोग ईमानदार हैं जो सिद्धांतों का पालन नहीं करते हैं।” इस खंडन के बारे में तुम क्या सोचते हो? दूसरे लोग चाहे कुछ भी सोचें, परमेश्वर के विश्वासी एक ईमानदार व्यक्ति बनने या सत्य का अनुसरण करने के मार्ग से नहीं हट सकते। वे झूठे अगुआओं, मसीह-विरोधियों या छद्म-विश्वासियों से प्रभावित या उनके आगे बेबस नहीं हो सकते। हर समय उन्हें परमेश्वर का अनुसरण करना चाहिए और उसके वचनों को सुनना चाहिए, और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार एक ईमानदार व्यक्ति बनना चाहिए। यही सही है। एक ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए लोगों को किस प्रकार अभ्यास करना चाहिए? उन्हें अक्सर आत्म-चिंतन करना चाहिए, ताकि यह देख सकें कि किन मामलों में वे अब भी अपने झूठ, धोखे, कपटी स्वभाव को प्रकट कर सकते हैं। केवल खुद को, अपने झूठे इरादों को, और अपने कपटी, भ्रष्ट स्वभाव को जानकर ही वे देह के खिलाफ विद्रोह कर सकते हैं और धीरे-धीरे एक ईमानदार व्यक्ति बन सकते है। जो लोग कभी अपने दिलों को नहीं खोलते, जो हमेशा चीजों को छिपाने और परदा डालने की कोशिश करते हैं, जो यह दिखाते हैं कि वे आदरणीय हैं, जो चाहते हैं कि लोग उनके बारे में अच्छी राय रखें, जो दूसरों को अपनी पूरी थाह नहीं लेने देते, और जो चाहते हैं कि लोग उनकी प्रशंसा करें—क्या वे लोग मूर्ख नहीं हैं? ऐसे लोग सबसे बड़े मूर्ख होते हैं! इसका कारण यह है कि लोगों के बारे में सच्चाई देर-सबेर उजागर हो ही जाती है। इस तरह से आचरण करके वे किस मार्ग पर चलते हैं? यह तो फरीसियों का मार्ग है। ये पाखंडी खतरे में हैं या नहीं? ये वे लोग हैं जिनसे परमेश्वर सबसे अधिक घृणा करता है, तो तुम्हें क्या लगता है, वे खतरे में हैं या नहीं? वे सब जो फरीसी हैं, विनाश के मार्ग पर चलते हैं!

जब पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध करने के लिए कार्य करता है ताकि तुम कोई बात समझ सको, तो कभी-कभी ऐसा बहुत जल्दी होता है, जबकि अन्य समय में इसे धीरे-धीरे समझने देने से पहले पवित्र आत्मा तुम्हें कुछ समय के लिए किसी अनुभव से गुजारता है। ऐसा नहीं है कि तुम्हें इसका अनुभव करने की जरूरत नहीं है या तुम्हें शब्द और धर्म-सिद्धांत समझने देने के बाद पवित्र आत्मा का काम पूरा हो जाता है। पवित्र आत्मा किन सिद्धांतों के अनुसार काम करता है? पवित्र आत्मा तुम्हारा परिवेश स्थापित करके और लोग, घटनाएँ और चीजें स्थापित करके कार्य करता है ताकि तुम उनके माध्यम से परिपक्व हो सको और धीरे-धीरे उनके माध्यम से और इन अनुभवों के माध्यम से सत्य समझ सको। जब वह तुम्हें प्रेरित या प्रबुद्ध करने के लिए कुछ सरल वचन देता है, या तुम्हें थोड़ी रोशनी देता है तो इससे उसका काम पूरा नहीं हो जाता है। बल्कि वह तुम्हें सबक सीखने देता है; सभी मामलों, विभिन्न परिवेशों और विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों के अनुभव के माध्यम से वह धीरे-धीरे तुम्हें विकसित होने देता है, ताकि तुम धीरे-धीरे सत्य की समझ हासिल कर सको और वास्तविकता में प्रवेश कर सको। इसलिए, पवित्र आत्मा एक बहुत ही प्राकृतिक सिद्धांत के अनुसार काम करता है; वह बिना किसी तरह का दबाव डाले, पूर्ण रूप से मानव विकास के प्राकृतिक ढाँचे के अनुसार ही काम करता है। पवित्र आत्मा के कार्य के सिद्धांत और दायरे के अनुसार, अगर किसी व्यक्ति के पास न्यूनतम अपेक्षित मानवीय विवेक और अंतरात्मा भी नहीं है, तो क्या वह पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर सकता है? क्या उसे परमेश्वर का मार्गदर्शन और प्रबोधन मिल सकता है? बिल्कुल नहीं। मेरे यह कहने का क्या अर्थ है? लोग हमेशा कहते हैं कि वे सत्य का अनुसरण करते हैं, कि उन्हें सत्य को बेहतर ढंग से समझना चाहिए, लेकिन उन्होंने एक चीज की अनदेखी कर दी है और वह यह है कि उन्हें अपना दिल परमेश्वर को सौंप देना चाहिए। वे सोचते हैं : “मेरी मानवता चाहे जैसी भी हो, मुझमें अंतरात्मा हो या न हो, मैं अपना हृदय परमेश्वर को समर्पित करूँ या न करूँ, मैं बस सत्य का और अधिक अनुसरण करूँगा, धर्मोपदेशों को और अधिक सुनूँगा, परमेश्वर के वचनों को और अधिक पढ़ूँगा, और अक्सर सत्य के बारे में संगति करूँगा। फिर अपना कर्तव्य निभाते समय मैं और अधिक मेहनत करूँगा, और अधिक कष्ट उठाऊँगा और तब सब ठीक हो जाएगा।” लेकिन ऐसे व्यक्ति को सबसे बुनियादी बातों का न तो एहसास है, न ही ज्ञान है। अब क्या तुम लोग समझते हो कि अगर कोई व्यक्ति सत्य को समझना और प्राप्त करना चाहता है तो उसके पास कम-से-कम क्या होना चाहिए? (अंतरात्मा और विवेक।) सीधे शब्दों में कहें, तो कम-से-कम उस व्यक्ति के पास एक ईमानदार हृदय होना चाहिए। केवल वही लोग सत्य को स्वीकार सकते हैं जिनके पास एक ईमानदार दिल है, वे ही परमेश्वर की योजनाओं के प्रति समर्पण कर सकते हैं, और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य निभा सकते हैं। अगर तुम्हारे पास एक ईमानदार हृदय नहीं है, तो तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर सकते, न ही तुम एक सृजित प्राणी के कर्तव्य को अच्छी तरह से निभा सकते हो। यदि तुम्हारे पास ईमानदार हृदय नहीं है, तो तुम किस प्रकार के प्राणी हो? इसका मतलब है कि तुममें मानवता नहीं है—तुम दानव हो। एक ईमानदार दिल होने की अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? कम से कम, व्यक्ति के पास अच्छी मानवता होनी चाहिए। जब किसी व्यक्ति में अच्छी मानवता, एक सच्चा दिल, अंतरात्मा और विवेक होता है, तो ये कोई खोखली या अस्पष्ट चीजें नहीं होतीं, जिन्हें देखा या छुआ न जा सके, बल्कि ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें दैनिक जीवन में कहीं भी खोजा जा सकता है, ये सभी वास्तविक चीजें हैं। मान लो, कोई व्यक्ति महान और परिपूर्ण है : क्या तुम ऐसा कुछ देख सकते हो? तुम यह देख, छू या कल्पना भी नहीं कर सकते कि परिपूर्ण या महान होना क्या होता है। लेकिन अगर तुम कहते हो कि कोई स्वार्थी है, तो क्या तुम उस व्यक्ति के कृत्य देख सकते हो—और क्या वह वर्णन से मेल खाता है? अगर किसी व्यक्ति को ईमानदार और सच्चे दिल वाला कहा जाता है, तो क्या तुम इस व्यवहार को देख सकते हो? अगर किसी को धोखेबाज, कुटिल और नीच कहा जाता है, तो क्या तुम इन चीजों को देख सकते हो? अगर तुम अपनी आँखें भी बंद कर लो, तब भी तुम उसकी कथनी-करनी से यह महसूस कर सकते हो कि उस व्यक्ति की मानवता सामान्य है या घृणित। इसलिए “अच्छी या बुरी मानवता” कोई खोखला वाक्यांश नहीं है। उदाहरण के लिए, स्वार्थपरता और नीचता, कुटिलता और धूर्तता, अहंकार और आत्म-तुष्टि वे सब चीजें हैं, जिन्हें तुम जीवन में किसी व्यक्ति के संपर्क में आने पर अच्छे से महसूस कर सकते हो; ये मानवता के नकारात्मक तत्व हैं। इसी तरह, क्या मानवता के वे सकारात्मक तत्व, जो लोगों में होने चाहिए—जैसे कि ईमानदारी और सत्य से प्रेम—दैनिक जीवन में महसूस किए जा सकते हैं? किसी के पास पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता है या नहीं; वह परमेश्वर का मार्गदर्शन प्राप्त कर सकता है या नहीं; पवित्र आत्मा ने उस पर कार्य किया है या नहीं—क्या तुम इन चीजों को देख सकते हो? क्या तुम इन सबका भेद पहचान सकते हो? वे कौन-सी स्थितियाँ हैं, जो पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता प्राप्त करने, परमेश्वर का मार्गदर्शन हासिल करने, और सभी चीजों में सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के लिए व्यक्ति में होनी चाहिए? उसके पास ईमानदार दिल होना चाहिए, उसे सत्य से प्रेम करना चाहिए, सभी चीजों में सत्य की तलाश करनी चाहिए, और सत्य समझने के बाद उस पर अमल करने में सक्षम होना चाहिए। इन स्थितियों के होने का अर्थ है पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता का होना, परमेश्वर के वचन समझने और सत्य को आसानी से अभ्यास में लाने में सक्षम होना। यदि कोई व्यक्ति ईमानदार नहीं है और अपने हृदय में सत्य से प्रेम नहीं करता, तो उसे पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा, और अगर तुम उसके साथ सत्य पर संगति करते भी हो, तो उससे कुछ हासिल नहीं होगा। तुम कैसे बता सकते हो कि कोई व्यक्ति ईमानदार है या नहीं? तुम्हें केवल इतना ही नहीं देखना चाहिए कि वह झूठ बोलता और धोखा देता है या नहीं, बल्कि सबसे महत्वपूर्ण यह है कि वह सत्य को स्वीकारने और उसे अभ्यास में लाने में सक्षम है या नहीं। यही सबसे महत्वपूर्ण है। परमेश्वर का घर हमेशा लोगों को हटाता रहा है, और अब तक बहुतों को पहले ही हटाया जा चुका है। वे लोग ईमानदार नहीं थे, वे सब धोखेबाज थे। उन्हें अधार्मिक चीजों से प्रेम था, सत्य से वे बिल्कुल भी प्रेम नहीं करते थे। परमेश्वर में विश्वास करते हुए उन्हें चाहे कितने भी वर्ष हो गए हों, वे सत्य नहीं समझ सके या वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाए। ऐसे लोग वास्तविक बदलाव कर पाने में तो बिल्कुल भी सक्षम नहीं थे। इसलिए उनका हटाया जाना अपरिहार्य था। जब तुम किसी व्यक्ति के संपर्क में आते हो, तो सबसे पहले क्या देखते हो? देखो कि क्या वह अपनी कथनी-करनी में ईमानदार है, क्या वह सत्य से प्रेम करता है और क्या वह सत्य को स्वीकार सकता है। ये महत्वपूर्ण हैं। अगर तुम यह निर्धारित कर पाओ कि कोई व्यक्ति ईमानदार है या नहीं, वह सत्य को स्वीकारने और उसे अभ्यास में लाने में सक्षम है या नहीं, तो तुम मूल रूप से उसके सार को देख सकते हो। अगर कोई व्यक्ति बेहद चिकनी-चुपड़ी बातें करता है, पर कुछ भी वास्तविक नहीं करता—जब कुछ वास्तविक करने का समय आता है तो वह सिर्फ अपने बारे में सोचता है और दूसरों के बारे में कभी नहीं सोचता—तो यह किस तरह की मानवता है? (स्वार्थ और नीचता की। उसमें कोई मानवता नहीं है।) क्या मानवता से रहित व्यक्ति के लिए सत्य को प्राप्त करना आसान है? यह उसके लिए मुश्किल है। जब उससे पीड़ा सहने या कोई कीमत चुकाने की माँग की जाती है तो वह सोचता है, “पहले तुम लोग आगे जाओ और ये सब कष्ट झेलो और मूल्य चुकाओ, और जब काफी हद तक परिणाम हासिल किए जा चुके होंगे तो मैं तुम लोगों के साथ रहूँगा।” यह किस तरह की मानवता है? इस तरह के व्यवहारों को सामूहिक रूप से “मानवता नहीं होने” के रूप में जाना जाता है। हर किसी में भ्रष्ट स्वभाव होता है, पर कोई समस्या सामने आने पर कुछ लोगों की अंतरात्मा काम करने लगती है और वे खुद को धिक्कारने लगते हैं, इसलिए वे अपनी अंतरात्मा के अनुसार कार्य कर पाते हैं। भले ही वे ऐसा न कहें, “मैं सत्य का अनुसरण कर रहा हूँ और मुझे एक अच्छा व्यक्ति होना चाहिए,” पर वे सक्रिय अंतरात्मा के साथ शुरू करते हैं और अपनी अंतरात्मा पर भरोसा करके कह सकते हैं, “मुझे परमेश्वर के अनुग्रह और चयन के योग्य होना चाहिए।” तो जब उनकी अंतरात्मा पर असर पड़ता है, तब क्या वे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होते हैं? जरूरी नहीं, लेकिन अगर उनके पास कम से कम यह इच्छा है, तो उनके लिए सत्य का अभ्यास करना आसान हो जाता है, जो कि लोगों के लिए सत्य प्राप्त करने का सबसे बुनियादी आधार है। जब खतरे का सामना होता है, तो कुछ लोग केवल छिपने की परवाह करते हैं। कुछ दूसरों की रक्षा करते हैं और अपनी परवाह नहीं करते। जब उनके साथ कुछ होता है, तो कुछ लोग उसे सह जाते हैं, और कुछ लड़ते हैं। ये मानवता में अंतर हैं। तो किस प्रकार के व्यक्ति के सत्य प्राप्त करने की संभावना है? बहुत-से लोगों ने परमेश्वर के समक्ष दृढ़ संकल्प किए हैं और उसे अपना पूरा जीवन सौंप देने, अपने आपको उसके लिए खपाने, और बदले में कुछ न माँगने की शपथें ली हैं। हालाँकि, बुरी मानवता वाले लोग हमेशा फायदे के लिए लड़ते हैं, वे न तो झुकते हैं, न ही सहनशील होते हैं और कभी भी अंतरात्मा के अनुसार कार्य नहीं करते। क्या ऐसे लोगों के लिए सत्य प्राप्त करना आसान है? क्या ऐसे लोगों के लिए परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाया जाना आसान है? (नहीं।) किस तरह के व्यक्ति के लिए परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाया जाना और सत्य प्राप्त करना आसान है? (अच्छी मानवता वाले लोगों के लिए।) अच्छी मानवता होने का कोई मानक अवश्य होना चाहिए। इसमें संयम का मार्ग अपनाना, सिद्धांतों से चिपके न रहना, किसी को भी नाराज न करने का प्रयत्न करना, जहाँ भी जाओ वहीं चापलूसी करके कृपापात्र बनना, जिससे भी मिलो उससे चिकनी-चुपड़ी बातें करना और सभी से अपने बारे में अच्छी बातें करवाना शामिल नहीं है। यह मानक नहीं है। तो मानक क्या है? यह परमेश्वर और सत्य के प्रति समर्पित होने में सक्षम होना है। यह अपने कर्तव्य को और सभी तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों को सिद्धांतों के साथ और जिम्मेदारी की भावना से लेना है। सब इसे स्पष्ट ढंग से देख सकते हैं; इसे लेकर सभी अपने हृदय में स्पष्ट हैं। यही नहीं, परमेश्वर लोगों के हृदयों की पड़ताल करता है और उनमें से हर एक-एक की स्थिति जानता है; वे चाहे जो भी हों, कोई भी परमेश्वर को मूर्ख नहीं बना सकता है। कुछ लोग हमेशा डींग हाँकते हैं कि वे अच्छी मानवता से युक्त हैं, कि वे कभी दूसरों के बारे में बुरा नहीं बोलते, कभी किसी और के हितों को नुकसान नहीं पहुँचाते, और वे यह दावा करते हैं कि उन्होंने कभी अन्य लोगों की संपत्ति की लालसा नहीं की। जब हितों को लेकर विवाद होता है, तब वे दूसरों का फायदा उठाने के बजाय नुकसान तक उठाना पसंद करते हैं, और बाकी सभी सोचते हैं कि वे अच्छे लोग हैं। परंतु, परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाते समय, वे कुटिल और धूर्त होते हैं, हमेशा स्वयं अपने हित में षड्यंत्र करते हैं। वे कभी भी परमेश्वर के घर के हितों के बारे में नहीं सोचते, वे कभी उन चीजों को अत्यावश्यक नहीं मानते हैं जिन्हें परमेश्वर अत्यावश्यक मानता है या उस तरह नहीं सोचते हैं जिस तरह परमेश्वर सोचता है, और वे कभी अपने हितों को एक तरफ नहीं रख सकते ताकि अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकें। वे कभी अपने हितों का परित्याग नहीं करते। यहाँ तक कि जब वे बुरे लोगों को बुरे कर्म करते हुए देखते हैं, वे उन्हें उजागर नहीं करते; उनके रत्ती भर भी कोई सिद्धांत नहीं हैं। यह किस प्रकार की मानवता है? यह अच्छी मानवता नहीं है। ऐसे व्यक्तियों की बातों पर बिल्कुल ध्यान न दो; तुम्हें देखना चाहिए कि वे किसके अनुसार जीते हैं, क्या प्रकट करते हैं, और अपने कर्तव्य निभाते समय उनका रवैया कैसा होता है, साथ ही उनकी अंदरूनी दशा कैसी है और उन्हें किससे प्रेम है। अगर अपनी शोहरत और फायदे के प्रति उनका प्रेम परमेश्वर के प्रति उनकी निष्ठा से बढ़कर है, अगर अपनी शोहरत और फायदे के प्रति उनका प्रेम परमेश्वर के घर के हितों से बढ़कर है, या अगर अपनी शोहरत और फायदे के प्रति उनका प्रेम उस विचारशीलता से बढ़कर है जो वे परमेश्वर के प्रति दर्शाते हैं, तो क्या ऐसे लोगों में मानवता है? वे मानवता वाले लोग नहीं हैं। उनका व्यवहार दूसरों के द्वारा और परमेश्वर द्वारा देखा जा सकता है। ऐसे लोगों के लिए सत्य को हासिल करना बहुत कठिन होता है।

अभी, क्या तुम लोग समझते हो कि किस प्रकार के लोग सत्य प्राप्त करने में सक्षम होते हैं? हर कोई सत्य का अनुसरण करना चाहता है, सभी परमेश्वर में विश्वास करते हैं, सभाएँ करते हैं और धर्मोपदेश सुनते हैं, अपने कर्तव्य निभाते हैं और सत्य पर संगति करते हैं लेकिन ऐसा क्यों है कि कुछ वर्षों के बाद कुछ लोग अपनी अनुभवजन्य गवाहियों के बारे में बात करने और परमेश्वर की गवाही देने में सक्षम होते हैं, जबकि कुछ लोगों के पास कोई भी अनुभवजन्य गवाही नहीं होती, न ही वे कोई कर्तव्य ठीक से निभा पाते हैं? अंतर क्या है? दरअसल, अंतर उनकी मानवता में फर्क का है। कुछ लोगों के पास अंतरात्मा और विवेक होते हैं जबकि कुछ लोगों के पास नहीं होते; कुछ लोग सत्य से प्रेम करते हैं, जबकि कुछ लोग नहीं करते। तो किस तरह का व्यक्ति आसानी से सत्य प्राप्त कर सकता है? (वे लोग जो परमेश्वर के प्रति सच्चे हैं, जो ईमानदार हैं, जिनमें मानवता है और जिनके पास अंतरात्मा और विवेक हैं।) यह बहुत ही महत्वपूर्ण है। अब जब तुम यह समझ चुके हो तो तुम सबको इस पर विचार करना चाहिए : क्या सत्य समझने का और उसे प्राप्त करने का लोगों के रंग-रूप, काबिलियत, शिक्षा के स्तर, जन्म की पृष्ठभूमि, आयु, पारिवारिक माहौल या क्षमताओं से कोई लेना-देना है या उस पेशेवर कौशल से कोई लेना-देना है जिस में उन्होंने महारत पाई है? तुम कह सकते हो कि इनका एक-दूसरे से कोई लेना-देना नहीं है। कुछ लोगों में काबिलियत खराब होती है लेकिन वे खुद बहुत ही व्यावहारिक होते हैं। वे अपनी सारी ऊर्जा का इस्तेमाल करते हैं, धूर्त और धोखेबाज नहीं होते, कर्तव्यनिष्ठ होते हैं और चीजों की जिम्मेदारी लेते हैं। गलतियाँ करने पर वे सत्य को स्वीकार करके सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने में सक्षम होते हैं; जब उन्हें कठिनाइयाँ होती हैं तो वे सत्य की खोज करने में सक्षम होते हैं। उनके कर्तव्य निभाने के नतीजे निरंतर बेहतर होते जाते हैं और भले ही गुणवान लोग उन्हें नीची नजरों से देखें, परमेश्वर ऐसे लोगों को पसंद करता है। जब परमेश्वर लोगों पर अनुग्रह करता है और उन्हें सत्य समझने की अनुमति देता है तो वह उनके रूप-रंग, उनकी शिक्षा के स्तर, उनकी काबिलियत या वाक्पटुता को नहीं देखता—परमेश्वर इनमें से किसी भी चीज को नहीं देखता। कुछ लोग कहते हैं : “मैं धीरे-धीरे बोलता हूँ, लेकिन मैंने कई ऐसे लोग देखे हैं जो बहुत अच्छा बोलते हैं। मैं लंबा नहीं हूँ, न ही मैं दूसरों से अलग दिखता हूँ। मैं अनपढ़ हूँ, मेरी काबिलियत भी बहुत अच्छी नहीं है। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि मेरा तो काम तमाम हो गया?” यह कैसी सोच है? क्या यह परमेश्वर के बारे में गलतफहमी नहीं है? क्या इसका मतलब यह नहीं है कि तुम परमेश्वर के इरादों को नहीं समझते? (बिल्कुल, इसका यही मतलब है।) जिनके पास यह दृष्टिकोण है, क्या वे विद्रोही नहीं हैं? वे परमेश्वर के इरादे बिल्कुल नहीं समझते। उन्हें लगता है कि जिन लोगों को परमेश्वर बचाता है और पूर्ण करता है या जिन्हें वह प्रबुद्ध बनाकर मार्गदर्शन करता है, वे सभी गुणवान होते हैं या वे बहुत अच्छी तरह बोल सकते हैं या उन्होंने बहुत पढ़ाई की है और ज्ञान प्राप्त किया है या वे सभी प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं; वे सोचते हैं कि परमेश्वर ऐसे ही लोगों को पसंद करता है। क्या यह परमेश्वर की बदनामी नहीं है? वे परमेश्वर के हृदय को बिल्कुल भी नहीं समझते! लोग हमेशा कहते हैं कि परमेश्वर धार्मिक है और वह मनुष्यों के अंतरतम हृदयों का निरीक्षण करता है, लेकिन जब उनके साथ कुछ घटित होता है तो लोग परमेश्वर को गलत समझते हैं। क्या तुम अब थोड़ा बेहतर समझ पा रहे हो? जब परमेश्वर लोगों को देखता है तो वह मुख्य रूप से क्या देखता है? वह उनके दिलों को देखता है। लोग जो कुछ भी कहते हैं और करते हैं वह उनके दिल से नियंत्रित होता है। अगर तुम्हारा दिल ईमानदार है तो तुममें अच्छी मानवता होगी। तुम धीरे-धीरे सत्य समझने में सक्षम हो जाओगे, तुम कुछ हद तक परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा कर पाओगे, और तुम परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता दिखाने में सक्षम हो सकोगे। अगर तुम्हारा दिल बहुत कपटी, अपने आप तक ही सीमित और हठी है, अगर तुम स्वार्थी और स्वार्थसाधक हो, तुममें अच्छी मानवता नहीं है, और तुम हमेशा धारणाओं में अटके रहते हो, कल्पना करते हो कि परमेश्वर को इस तरह या उस तरह काम करना चाहिए, अगर किसी ऐसी चीज का सामना होने पर जो तुम्हारी धारणाओं से मेल नहीं खाती तुम परमेश्वर को गलत समझ बैठते हो और कभी उसके इरादों को नहीं समझते तो क्या तुम सत्य प्राप्त कर पाओगे? नहीं, तुम ऐसा नहीं कर पाओगे। अंत में जब तुम सत्य प्राप्त नहीं कर पाओगे तो क्या खुद को दोष दोगे, दूसरों को दोष दोगे या परमेश्वर की शिकायत करोगे और कहोगे कि परमेश्वर ने तुम्हारे साथ गलत किया? (हम खुद को दोष देंगे।) बिल्कुल सही, तुम खुद को दोष दोगे। तो ऐसे लोगों को सत्य प्राप्त करने के लिए क्या करना चाहिए? उन्हें सत्य की खोज करके उसे अभ्यास में लाना चाहिए, और उन्हें विशिष्ट तरीकों से व्यवहार और अभ्यास करना चाहिए। अगर वे अभ्यास किए बिना ही समझ जाते हैं, तब भी सत्य को प्राप्त नहीं कर सकेंगे। जब तुममें स्वार्थ और अपने फायदे के लिए साजिशें प्रकट हों, और तुम्हें इसका एहसास हो जाए, तो तुम्हें इसे हल करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करके सत्य को खोजना चाहिए। पहली बात जो तुम्हें पता होनी चाहिए वह यह है कि अपने सार में इस तरह का व्यवहार सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन है, कलीसिया के काम के लिए नुकसानदायक है, यह स्वार्थी और घृणित व्यवहार है, यह ऐसा व्यवहार नहीं है जो अंतरात्मा और विवेक वाले लोगों को करना चाहिए। तुम्हें अपने निजी हितों और स्वार्थ को एक तरफ रखकर कलीसिया के काम के बारे में सोचना चाहिए—यह परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है। प्रार्थना और आत्मचिंतन करने के बाद, अगर तुम्हें सच में यह एहसास होता है कि इस तरह का व्यवहार स्वार्थी और घृणित है, तो अपने स्वार्थ को दरकिनार करना आसान हो जाएगा। जब तुम अपने स्वार्थ और फायदे के लिए साजिशें रचने को एक तरफ रख दोगे, तो तुम खुद को स्थिर महसूस करोगे, और तुम्हें सुख-शांति का एहसास होगा, लगेगा कि अंतरात्मा और विवेक वाले व्यक्ति को कलीसिया के काम के बारे में सोचना चाहिए, उन्हें अपने निजी हितों पर ध्यान गड़ाए नहीं रहना चाहिए, जो कि स्वार्थी, घृणित और अंतरात्मा या विवेक से रहित होना कहलाएगा। निस्वार्थ होना और अपने कार्य-कलापों में कलीसिया के कार्य के बारे में विचारशील होना और केवल परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए काम करना सम्माननीय और सदाचारी है और इससे तुम्हारे अस्तित्व का महत्व होगा। पृथ्वी पर इस तरह का जीवन जीते हुए तुम ईमानदार और स्पष्ट रहते हो, सामान्य मानवता जीते हो और वास्तविक व्यक्ति के समान जीते हो, और न सिर्फ तुम्हारी अंतरात्मा साफ रहती है बल्कि तुम परमेश्वर द्वारा दी गई सभी चीजों के योग्य भी ठहरते हो। तुम जितना ज्यादा इस तरह जीते हो, खुद को उतना ही स्थिर महसूस करते हो, उतनी ही सुख-शांति और उतना ही उज्जवल महसूस करते हो। इस तरह, क्या तुम परमेश्वर में अपनी आस्था के सही रास्ते पर कदम नहीं रख चुके होगे?

स्वार्थ, नीचता, कपट और झूठ से भरे, लोगों के भ्रष्ट स्वभाव ठीक किए जा सकते हैं या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वे सत्य को स्वीकारने में सक्षम हैं या नहीं। जो सत्य को स्वीकार पाते हैं, वे सभी अपने भ्रष्ट स्वभावों से घृणा करते हैं, वे स्वार्थ और नीचता और अपने छल-कपट और झूठ से घृणा करते हैं। वे इन चीजों से खुद को दूषित या बाधित होने देना चाहते नहीं हैं। अगर सत्य से प्रेम करने वाले अपने भ्रष्ट स्वभावों को पहचान जाते हैं तो उनके लिए इस नकारात्मक कचरे और कूड़े-करकट को त्याग देना आसान हो जाता है। जो सत्य से प्रेम नहीं करते वे इन नकारात्मक चीजों को खजाने की तरह मानते हैं। वे अपने फायदे से बहुत अधिक प्रेम करते हैं, वे देह के खिलाफ विद्रोह नहीं करना चाहते, और बहुत हठी होते हैं। इस कारण वे न कभी परमेश्वर के इरादे समझ पाते हैं और न ही उसके प्रति कभी समर्पित हो पाते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग सत्य से न तो प्रेम करते हैं और न ही उसे स्वीकारते हैं, इसी कारण वे इतने वर्षों से परमेश्वर में इतने भ्रमित तरीके से विश्वास कर रहे हैं। जब उनका गवाही देने का समय आता है तो उनकी जबान सिल जाती है और वे कुछ बोल नहीं पाते। लोगों ने कई वर्षों से सत्य के बारे में धर्मोपदेश सुने हैं और परमेश्वर के स्वभाव से उन्हें हमेशा अवगत कराया जाता है, इसलिए सत्य का अनुसरण करने वालों को इसे पहले ही समझ लेना चाहिए, लेकिन जो सत्य से प्रेम नहीं करते वे परमेश्वर के सामने खुद को खोलना नहीं चाहते हैं। उनका दिल देह को त्यागना नहीं चाहता, इसलिए वे परमेश्वर के सामने खुद को खोलने का अभ्यास करने की भी हिम्मत नहीं कर पाते। वे केवल उस अनुग्रह का खुलकर उपभोग करना चाहते हैं जो परमेश्वर मनुष्य को देता है, लेकिन वे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सत्य का अभ्यास नहीं करना चाहते। परमेश्वर कहता है : “अगर तुम मेरा अनुग्रह प्राप्त करना चाहते हो, अगर तुम इन सत्यों को प्राप्त करना चाहते हो, तो केवल एक ही शर्त है—तुम्हें अपने फायदे को त्यागना होगा और मुझे अपना सच्चा दिल सौंपना होगा।” लोग इस एक शर्त को भी पूरा नहीं कर पाते हैं, और फिर भी वे परमेश्वर के अनुग्रह की माँग, शांति और खुशी की माँग करना चाहते हैं और सत्य प्राप्त करना चाहते हैं; मगर वे अपना सच्चा दिल परमेश्वर को नहीं देना चाहते, तो वे किस तरह के इंसान हैं? क्या वे शैतान की तरह के लोग नहीं हैं? क्या वे दोनों चीजें एक साथ कर सकते हैं? असल में, वे ऐसा नहीं कर सकते। चाहे तुम परमेश्वर के इरादे समझते हो या नहीं, उसका स्वभाव हमेशा खुले तौर पर लोगों के सामने प्रकट किया जाता है। अगर कोई व्यक्ति सत्य को कभी स्वीकार नहीं करता या वह सत्य को अभ्यास में लाए बिना उसे समझता है तो ऐसा इसलिए है क्योंकि वह बहुत हठी है और उसने परमेश्वर को अपना दिल नहीं सौंपा है। इस प्रकार, वह सत्य को प्राप्त करने में कभी सक्षम नहीं होता है, न ही वह परमेश्वर के स्वभाव को जान पाता है। ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि परमेश्वर लोगों के साथ गलत व्यवहार करता है। लोग अक्सर यह कहकर परमेश्वर का हवाला देते हैं : “परमेश्वर जिस पर अनुग्रह करना चाहे उस पर अनुग्रह करता है,” लेकिन वे इस वाक्यांश का अर्थ नहीं समझते हैं। इसके उलट, वे परमेश्वर को गलत समझते हैं। वे सोचते हैं कि अनुग्रह परमेश्वर से आता है, वह जिसे चाहता है उसे अनुग्रह देता है और जो उसे पसंद है उसके साथ अच्छा व्यवहार करता है। क्या यही मामला है? क्या यह मानवीय धारणाएँ और कल्पनाएँ नहीं हैं? परमेश्वर लोगों से उनके सार के आधार पर व्यवहार करता है। जब लोग परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होने और सत्य को स्वीकारने में सक्षम होते हैं तो परमेश्वर उन्हें आशीष देता है। अगर लोग सत्य को नहीं स्वीकारते और परमेश्वर का विरोध करते हैं तो परिणाम अलग होता है। वास्तव में, परमेश्वर सभी के प्रति निष्पक्ष है और उनके साथ सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करता है, बात बस इतनी है कि मानवजाति का एक ऐसा हिस्सा है जिनके दिल बहुत कठोर हैं, इसलिए परमेश्वर को उनके साथ अलग व्यवहार करना होता है। परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति के साथ जो कार्य करता है वह भिन्न होता है, इससे पता चलता है कि वह सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता है। परमेश्वर हर व्यक्ति के प्रति धार्मिक है। उदाहरण के लिए, ऐसे कई लोग हैं जो सत्य की खोज करने के लिए परमेश्वर के समक्ष नहीं आते हैं। वे अपने लिए एक अच्छा जीवन और भविष्य बनाने के लिए केवल अपनी मेहनत पर भरोसा करना चाहते हैं। वे अपनी किस्मत और भविष्य खुद लिखना चाहते हैं और वे सोचते हैं कि उनकी किस्मत उनके अपने हाथों में है। वे परमेश्वर की संप्रभुता या योजनाओं को स्वीकार नहीं करते, न ही उसके प्रति समर्पित होते हैं और वे चाहते हैं कि परमेश्वर उन्हें संतुष्ट करे। ठोकर खाकर असफल होने पर वे शिकायत करते हैं कि परमेश्वर अन्यायी है। क्या यह उचित है? वे बहुत अज्ञानी और हठी होते हैं। मगर उन्हें हमेशा यही लगता है कि वे बुद्धिमान हैं। वे सोचते हैं : “कुछ लोग अपने परिवार त्याग देते हैं और वे कुछ नहीं माँगते। वे अपना सारा समय कर्तव्य निभाने में, अपना सच्चा दिल परमेश्वर को देने में लगा देते हैं और बदले में उन्हें क्या मिलता है? वे नहीं जानते कि परमेश्वर भविष्य में क्या करेगा, लेकिन वे अपना सब कुछ न्योछावर कर देते हैं, अपने लिए कोई रास्ता नहीं छोड़ते। ये लोग कितने मूर्ख हैं! देखो, मैं कितना बुद्धिमान हूँ, मैं इस राह पर चलता हूँ : मैं दोनों तरफ पाँव जमाए रखता हूँ। मुझे कुछ त्यागना नहीं पड़ता है, न ही किसी चीज में देरी करनी पड़ती है और अंत में मुझे भी बचा लिया जाएगा।” ऐसे लोग बुद्धिमान हैं या मूर्ख? (वे मूर्ख हैं।) वे निश्चित रूप से मूर्ख हैं। जब एक दूसरे से तुलना की जाती है तो बुद्धिमान लोग और अज्ञानी, हठी लोग अपनी मानवता में भिन्न होते हैं। बुद्धिमान लोगों में अच्छी मानवता होती है, जबकि अज्ञानी, हठी लोगों में बुरी मानवता होती है। बुद्धिमान लोग सत्य स्वीकारते हैं, जबकि अज्ञानी, हठी लोग ऐसा नहीं करते हैं, और उनके अंतिम परिणाम अलग होंगे।

जो लोग कर्तव्य निभाते हैं, वे मुख्यतः दो प्रकार की श्रेणियों में आते हैं। एक वे जो सच्चे मन से खुद को परमेश्वर के लिए खपाते हैं जबकि दूसरे वे जो हमेशा अपने लिए एक रास्ता बनाकर चलते हैं। तुम लोगों को क्या लगता है, परमेश्वर किस प्रकार के लोगों का अनुमोदन करेगा और किन्हें बचाएगा? (वे जो सच्चे मन से खुद को परमेश्वर के लिए खपाते हैं।) परमेश्वर उन लोगों को प्राप्त करना चाहता है जो सच्चे मन से खुद को उसके लिए खपाते हैं। वास्तव में, परमेश्वर लोगों से बहुत-सारी अपेक्षाएँ नहीं रखता है। वह केवल इतना चाहता है कि लोग सच्चे मन से अपना कर्तव्य निभाएँ; वह तुम्हारे निजी फायदे को छीनना नहीं चाहता है। परमेश्वर ने तुम सभी को कर्तव्य निभाने में प्रशिक्षित होने और सभी प्रकार की प्रतिभाओं का उपयोग करने के अवसर दिए हैं, और वह बस लोगों की सच्चाई चाहता है। चाहे तुम कहीं भी अपना कर्तव्य निभाओ या चाहे तुम्हारा कर्तव्य कुछ भी हो, परमेश्वर ने तुम्हें अपनी प्रतिभाओं और कौशलों का उपयोग करने के लिए अधिक से अधिक संभव अवसर दिए हैं और अंत में, परमेश्वर यही चाहता है कि तुम हर माहौल में हर कर्तव्य में सत्य प्राप्त कर पाओ, उसके इरादे समझो और एक मनुष्य की तरह जीवन जियो। यही परमेश्वर का इरादा है। परमेश्वर तुमसे सब कुछ छीनना नहीं चाहता, बल्कि तुम्हारे लिए सब कुछ पूरा करना चाहता है—वह तुम्हें सब कुछ देना चाहता है। कुछ लोग हमेशा संकीर्ण सोच रखते हैं; उन्होंने सांसारिक जीवन में कुछ पेशेवर ज्ञान की पढ़ाई की है, वे सोचते हैं कि अगर वे अपना कर्तव्य निभाएँगे तो यह उनके सारे पेशेवर ज्ञान की उपेक्षा होगी। अगर यह ज्ञान अनुपयोगी हो जाता है तो क्या इससे वास्तव में नुकसान होगा? अभी अपना कर्तव्य निभा कर तुम सत्य और जीवन प्राप्त करोगे। तुलना करने पर अधिक कीमती क्या है : थोड़ा-सा अनुपयोगी, उपेक्षित ज्ञान या सत्य और जीवन? तो यह कहना ही क्या, तुमने जो वास्तव में उपयोगी चीजें सीखी हैं उन्हें अपना कर्तव्य निभाते समय प्रस्तुत किया जा सकता है और उनका उपयोग किया जा सकता है। अगर अपना कर्तव्य निभाने के लिए तुमने इनका उपयोग किया तो क्या इन चीजों के बारे में तुम्हारी याददाश्त अधिक मजबूत नहीं होगी? जिन चीजों को तुम इस्तेमाल नहीं करते हो उन्हें याद रखना एक परेशानी और असुविधा है, इसलिए उन्हें अनुपयोगी होने देना शायद ही दुर्भाग्यपूर्ण है। अभी, जैसे-जैसे तुम लोग अपना कर्तव्य निभाते हो, वैसे-वैसे तुम लोग अपने शौक और कौशलों का उपयोग करते हो। साथ ही, इस दौरान तुम लोग एक सृजित प्राणी के रूप में कर्तव्य निभाते हो, सत्य समझने में सक्षम होते हो और जीवन के सही मार्ग पर प्रवेश करते हो। कितनी सुखद घटना है, यह कितना बड़ा आशीष है! चाहे जैसे भी देखो, यह नुकसान नहीं है। जब तुम लोग परमेश्वर का अनुसरण करते हो, स्वयं को पाप के स्थानों से दूर करते हो और दुष्ट लोगों के समूहों से दूरी बनाते हो, तो कम से कम तुम्हारे विचार और दिल शैतान की भ्रष्टता और रौंदने का शिकार नहीं होंगे। तुम एक शुद्ध भूमि पर आए हो, परमेश्वर के समक्ष आए हो। क्या यह एक बहुत बड़ा आशीष नहीं है? लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी, वर्तमान समय तक, पुनर्जन्म लेते हैं और उन्हें ऐसे कितने मौके मिलते हैं? क्या यह मौका केवल उन लोगों को नहीं मिला है जो अंत के दिनों में पैदा हुए हैं? यह कितनी अच्छी बात है! यह नुकसान की बात नहीं है, यह सबसे बड़ा आशीष है। तुम्हें बेहद खुश होना चाहिए! समस्त सृष्टि के बीच सृजित प्राणियों के रूप में, पृथ्वी पर कई अरब लोगों के बीच ऐसे कितने लोग हैं जिन्हें सृजित प्राणियों के रूप में अपनी पहचान के साथ सृष्टिकर्ता के कर्मों की गवाही देने और परमेश्वर के कार्य में अपने कर्तव्य और जिम्मेदारी निभाने का अवसर मिला है? किसके पास ऐसा अवसर है? क्या ऐसे बहुत-से लोग हैं? ऐसे लोग बहुत कम हैं! इसका अनुपात क्या है? दस हजार में एक? नहीं, इससे भी कम! विशेष रूप से तुम सभी जो अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपने सीखे हुए कौशल और ज्ञान का उपयोग कर सकते हो, क्या तुम बहुत धन्य नहीं हो? तुम किसी आदमी की गवाही नहीं देते हो और जो तुम करते हो वह कोई आजीविका नहीं है—जिसकी तुम सेवा करते हो वह सृष्टिकर्ता है। यह सबसे सुंदर और कीमती चीज है! क्या तुम सबको गर्व महसूस नहीं करना चाहिए? (हमें करना चाहिए।) अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हें परमेश्वर का सिंचन और पोषण प्राप्त होता है। इतने अच्छे माहौल और अवसर के साथ, अगर तुम कुछ भी वास्तविक प्राप्त नहीं करते हो, अगर तुम सत्य प्राप्त नहीं करते हो, तो क्या तुम्हें जीवन भर पछतावा नहीं होगा? इसलिए तुम्हें अपने कर्तव्य निभाने के अवसर का लाभ उठाना चाहिए और इसे हाथ से जाने नहीं देना चाहिए; अपना कर्तव्य निभाते हुए ईमानदारी से सत्य का अनुसरण करो और उसे प्राप्त करो। यह सबसे मूल्यवान चीज है जो तुम कर सकते हो, यही सबसे सार्थक जीवन है! सभी सृजित प्राणियों में कोई भी व्यक्ति या लोगों का समूह ऐसा नहीं है जो तुम सबसे अधिक धन्य हो। अविश्वासी किस चीज के लिए जीते हैं? वे पुनर्जन्म लेने के लिए और दुनिया का आनंद लेने के लिए जीते हैं। तुम सभी किस चीज के लिए जीते हो? तुम सभी एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने के लिए जीते हो। ऐसे जीवन का मूल्य कितना अधिक है! इसलिए, तुम लोगों को अपने कर्तव्य को नीची नजर से नहीं देखना चाहिए, और उस कर्तव्य का परित्याग तो बिल्कुल नहीं करना चाहिए। अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना और परमेश्वर के आदेश को पूरा करना—केवल यही सबसे मूल्यवान और सार्थक चीज है।

29 जून 2015

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परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 8) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 9) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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