सत्य का अनुसरण कैसे करें (1)

हमने काफी लंबे समय तक इस विषय पर संगति की है कि सत्य का अनुसरण कैसे करें और हमने जिन चीजों पर संगति की है उन सभी में सत्य का अनुसरण करने के तरीके के संबंध में अभ्यास का एक पहलू शामिल है : त्याग देना। यानी, हमारी संगति की सारी विषय-वस्तु उन चीजों के बारे में रही है जिन्हें लोगों को परमेश्वर में विश्वास रखने और सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया में त्याग देना चाहिए, जो ऐसी चीजें भी हैं जिन्हें लोगों को अपने जीवन में और उस जीवन पथ पर त्याग देना चाहिए जिस पर वे चलते हैं। ये वास्तव में कुछ ऐसी चीजें हैं जो लोगों के सत्य के अनुसरण को प्रभावित करती हैं। तो त्याग देने पर हमारी विषय-वस्तु की पहली मद क्या थी? (लोगों की विभिन्न नकारात्मक भावनाओं को त्याग देना।) और दूसरी मद क्या थी? (लोगों के लक्ष्यों, आकांक्षाओं और इच्छाओं को त्याग देना।) त्याग देने पर हमारी विषय-वस्तु की पहली मद विभिन्न नकारात्मक भावनाओं को त्याग देना थी और दूसरी मद लोगों के लक्ष्यों, आकांक्षाओं और इच्छाओं को त्याग देना थी। हर मद में बहुत सारे उप-विषय और विवरण शामिल थे, है ना? (हाँ।) इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम किस विषय पर संगति कर रहे थे या इस विषय-वस्तु में कौन-सी श्रेणियाँ और मदें थीं और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कितनी सारी मिसालें दी गईं या कितनी सारी दशाएँ और समस्याओं के कितने सार उजागर किए गए, संक्षेप में, हमने जिस तमाम विषय-वस्तु पर संगति की, उस में उन विभिन्न समस्याओं का जिक्र किया गया जो लोगों के परमेश्वर में विश्वास रखने और सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया में या उनके वास्तविक जीवन में आती हैं, साथ ही, इन समस्याओं का सामना करने पर लोगों को अभ्यास के जो मार्ग चुनने चाहिए और जिन सत्य सिद्धांतों उन्हें पालन करना चाहिए, उनका भी उसमें जिक्र किया गया। इन समस्याओं से जुड़े विभिन्न पहलू खोखले नहीं हैं और ये सिर्फ लोगों के विचारों या आध्यात्मिक दुनियाओं में मौजूद नहीं होते हैं। बल्कि वे लोगों के वास्तविक जीवन में मौजूद होते हैं। इसलिए अगर तुम सत्य का अनुसरण करने को तैयार हो, तो चाहे तुम पर किसी भी तरह की समस्या क्यों न आए, मुझे उम्मीद है कि तुम सत्य की तलाश कर सकोगे और अपने आधार के रूप में लेने के लिए संगत सत्य सिद्धांत ढूँढ सकोगे, अभ्यास का मार्ग खोज सकोगे और इस प्रकार जब भी तुम पर ये समस्याएँ आएँगी, तुम्हारे पास अनुसरण करने का एक मार्ग होगा। इस तमाम विषय-वस्तु पर संगति करने का यह एक मूलभूत उद्देश्य है। हालाँकि हम इन सभी सत्यों पर संगति करना समाप्त कर चुके हैं, लेकिन लोगों को इन सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने में कुछ समय लगेगा। लोगों को इन सत्यों पर संगति करने से शुरुआत करनी चाहिए और उन्हें विभिन्न सत्य सिद्धांतों को अपने आधार के रूप में लेना चाहिए और साथ ही, सभी प्रकार की चीजों के प्रति अपने दृष्टिकोणों और अपने जीवन के प्रति रवैयों और अस्तित्व के साधनों को बदलना चाहिए। इस तरह, लोग परमेश्वर में विश्वास रखने या जीने और अस्तित्व में रहने की प्रक्रिया में इन सत्य सिद्धांतों को स्वीकार करके, पहले से मौजूद, पुराने और शैतान से निकले अपने विभिन्न भ्रामक विचारों, दृष्टिकोणों या रवैयों और अस्तित्व में रहने के साधनों को बिना महसूस किए बदलने में सफल होंगे और वे अपने भ्रष्ट स्वभावों को छोड़ने में सफल होंगे। इसलिए, ये शब्द जिन पर हमने पहले संगति की थी और वे शब्द जिन पर हम भविष्य में संगति करेंगे, किसी तरह का ज्ञान या किसी तरह का पांडित्य नहीं हैं और वे यकीनन कोई सिद्धांत नहीं हैं। बल्कि उनका उपयोग दैनिक जीवन में लोगों को आने वाली विभिन्न समस्याओं और कठिनाइयों को हल करने में उनका मार्गदर्शन करने, उन्हें निर्देशन देने और उनकी मदद करने के लिए किया जाता है। जब भी तुम्हारे सामने कोई समस्या आती है या जब भी तुम्हारा सामना किसी परिस्थिति, व्यक्ति, घटना या चीज से होता है, तो तुम हमारी संगति की विषय-वस्तु में उन सत्य कसौटियों को तलाश कर सकते हो जिनका तुम्हें पालन करना चाहिए और जिन्हें तुम्हें अभ्यास में लाना चाहिए ताकि तुम अपने भ्रष्ट स्वभावों और अपने पुराने, गलत दृष्टिकोणों के अनुसार अभ्यास करने के बजाय सत्य को अपने आधार और कसौटी के रूप में लेकर कार्य कर सको। परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोगों का उद्देश्य सत्य का अनुसरण करना होता है, लेकिन सत्य का अनुसरण करने का उद्देश्य लोगों के खाली जीवन को भरना या उनके खाली जीवन को बदलना या उनकी आध्यात्मिक दुनियाओं को समृद्ध करना नहीं है। सत्य का अनुसरण करने का उद्देश्य क्या है? लोगों के लिए यह उद्देश्य बचाए जाने के लिए अपने भ्रष्ट स्वभावों को छोड़ देना है; यकीनन, अपने भ्रष्ट स्वभावों को छोड़ देना परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के लिए भी है। लेकिन परमेश्वर के लिए लोगों द्वारा सत्य का अनुसरण करने के उद्देश्य और महत्व इतने साधारण नहीं हैं; यह सिर्फ किसी के बचाए जाने के बारे में नहीं है। बल्कि यह परमेश्वर द्वारा ऐसे व्यक्ति को प्राप्त करने के बारे में है जो अब शैतान के भ्रष्ट स्वभावों से बेवकूफ नहीं बनता है और यकीनन, यह इस प्रकार के व्यक्ति को प्राप्त करने के बारे में भी है जो परमेश्वर के साथ संगत हो सकता है; इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह परमेश्वर द्वारा सृजित मानवजाति में से ऐसे व्यक्ति को प्राप्त करने में समर्थ होने के बारे में है जिसे वह चाहता है, जो सभी चीजों का प्रबंधन कर सकता है और सभी चीजों के साथ हमेशा के लिए मौजूद रह सकता है। यह महत्व बस बचाए जाने जितना सरल नहीं है, जैसा कि यह लोगों के लिए है। इसलिए, चाहे यह लोगों के लिए हो या परमेश्वर के लिए, सत्य का अनुसरण करना बहुत महत्वपूर्ण है। चूँकि यह इतना महत्वपूर्ण है, इसलिए सत्य का अनुसरण करने के संबंध में अभ्यास के एक पहलू—यानी “त्याग देना”—की विषय-वस्तु हर उस व्यक्ति के लिए महत्वपूर्ण है जो उद्धार प्राप्ति का अनुसरण करना चाहता है। चूँकि “त्याग देने” का अभ्यास इतना महत्वपूर्ण है, इसलिए “त्याग देने” से संबंधित विभिन्न सत्य सिद्धांत और विभिन्न दशाएँ, भ्रष्ट स्वभावों के खुलासे और “त्याग देने” के अभ्यास से संबंधित भ्रष्ट विचार और दृष्टिकोण जिन्हें उजागर किया जा चुका है ऐसी चीजें हैं जिन्हें लोगों को अच्छी तरह से समझना चाहिए। जब लोग रोजमर्रा के जीवन में अक्सर प्रकट किए जाने वाले भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों और साथ ही, अपने भ्रष्ट स्वभावों और भ्रष्टता के खुलासों की जाँच करते हैं और उन्हें समझ लेते हैं और इस तरह से खुद को जानने लगते हैं और सत्य के एक पहलू को समझ और स्वीकार लेते हैं और फिर संगत सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करते हैं, सिर्फ तभी वे सत्य का अनुसरण करने का उद्देश्य हासिल करेंगे। हम इस समय मूल रूप से सत्य का अनुसरण कैसे करें के अंतर्गत “त्याग देने” की दो प्रमुख मदों पर अपनी संगति की समाप्ति पर आ गए हैं। पहली मद क्या थी? लोगों की विभिन्न नकारात्मक भावनाओं को त्याग देना। दूसरी मद क्या थी? लोगों के लक्ष्यों, आकांक्षाओं और इच्छाओं को त्याग देना। हालाँकि हमने इन दो मदों पर अपनी संगति में बहुत सारी विषय-वस्तु पर चर्चा कर ली है, लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हें इन विषयों से जुड़े हर विशिष्ट सत्य सिद्धांत को समझने की जरूरत है। जब लोग सत्य सिद्धांतों को समझते हैं, सिर्फ तभी वे अपने रोजमर्रा के जीवन में और अपने जीवन मार्ग पर इन सत्य सिद्धांतों के अनुसार आचरण और कार्य कर सकते हैं, धीरे-धीरे सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं और सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया में धीरे-धीरे सत्य समझने और प्राप्त करने के परिणाम हासिल कर सकते हैं।

इससे पहले हमने सत्य का अनुसरण कैसे करें के अंतर्गत “त्याग देने” का अभ्यास करने के जिन दो मदों पर संगति की, वे लोगों के भ्रष्ट स्वभावों, उनके विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों, और उनके रोजमर्रा के जीवन में आने वाली विभिन्न समस्याओं का जिक्र करती हैं। लेकिन “त्याग देने” में एक और ज्यादा महत्वपूर्ण या यह कह सकते हैं कि एक उससे भी बड़ी मद है जिस पर हमें वाकई संगति करनी चाहिए। वह मद क्या है? यह परमेश्वर के प्रति लोगों के रवैये, परमेश्वर के संबंध में उनके विचारों और दृष्टिकोणों और अपने रोजमर्रा के जीवन में परमेश्वर के साथ व्यवहार करने के सिद्धांतों से जुड़ी हुई है। कह सकते हैं कि यह मद पहले दो मदों से थोड़ी ज्यादा महत्वपूर्ण है। क्योंकि यह मद सीधे परमेश्वर के प्रति लोगों के रवैये, परमेश्वर के संबंध में उनके विचारों और दृष्टिकोणों, और लोगों और परमेश्वर के बीच रिश्ते से संबंधित है, इसलिए यह वह अंतिम मद है जिसके बारे में हम “त्याग देने” की इस मद के तहत बात करेंगे और यकीनन यह सबसे महत्वपूर्ण मद भी है। हमने पहले जिन दो मदों पर चर्चा की उनमें से कुछ विषय परमेश्वर के बारे में लोगों के विशेष रवैयों और दृष्टिकोणों से संबंधित हैं या लोगों और परमेश्वर के बीच रिश्ते से संबंधित हैं, लेकिन हमने अपनी संगति में जो नजरिया अपनाया, उसके लिहाज से हमने मूल रूप से लोगों की विभिन्न समस्याओं का मानवीय नजरिये से गहन-विश्लेषण किया—हमने लोगों की अलग-अलग प्रकार की समस्याओं के संदर्भ में उनके विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों या भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों का गहन-विश्लेषण किया। आज हम जिस विषय पर संगति करने जा रहे हैं, वह परमेश्वर के प्रति लोगों के रवैयों और परमेश्वर के संबंध में उनके विचारों और दृष्टिकोणों से संबंधित है। ये सबसे महत्वपूर्ण चीजें हैं जिन्हें लोगों को सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया में त्याग देना चाहिए। यह मद भी इतनी सरल नहीं है, क्योंकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे कौन हैं या वे किस प्रकार के व्यक्ति हैं, किसी का भी परमेश्वर के प्रति सिर्फ एक तरह का रवैया या परमेश्वर के बारे में सिर्फ एक तरह का विचार और दृष्टिकोण नहीं होता है और यकीनन, लोगों और परमेश्वर के बीच का रिश्ता सिर्फ एक तरह का रिश्ता नहीं होता है और इसमें सिर्फ एक तरह की मानवीय स्थिति ही शामिल नहीं होती है। परमेश्वर के प्रति लोगों के विभिन्न रवैयों के कारण और परमेश्वर की पहचान, रुतबे और छवि के प्रति लोगों के विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों के कारण और दूसरे कारणों से भी, लोगों और परमेश्वर के बीच विभिन्न प्रकार के संबंध बनते हैं। इसलिए आज हम इसी मद पर संगति करेंगे और देखेंगे कि लोगों और परमेश्वर के बीच अब भी कौन-सी गंभीर समस्याएँ या असमाधेय टकराव मौजूद हैं और लोगों को वास्तव में और क्या त्याग देने की जरूरत है। अगर तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो, तो इसे समझ लेने के बाद परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता बेहतर हो जाएगा और परमेश्वर के बारे में तुम्हारा दृष्टिकोण धीरे-धीरे सही, सकारात्मक या सत्य के साथ संगत होने के करीब आ जाएगा। त्याग देने की विषय-वस्तु की तीसरी मद अपने और परमेश्वर के बीच की बाधाओं और परमेश्वर के प्रति अपनी शत्रुता को त्याग देना होनी चाहिए—यह उन चीजों की तीसरी मद है जो लोगों को त्याग देनी चाहिए। इससे पहले कि हम इस विषय पर औपचारिक रूप से संगति करें, चलो पहले संक्षेप में इस पर चर्चा करें कि रोजमर्रा के जीवन की कौन-सी समस्याएँ लोगों और परमेश्वर के बीच की बाधाओं और परमेश्वर के प्रति लोगों की शत्रुता से जुड़ी हैं। खुद लोगों से संबंधित कुछ व्यक्तिपरक मुद्दों के अलावा, क्यालोगों के परमेश्वर में विश्वास रखने और सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया में उनके परमेश्वर के साथ व्यवहार करने के तरीके को लेकर कई तरह की समस्याएँ नहीं हैं? विभिन्न घटनाओं और चीजों के साथ पेश आने के तरीके को लेकर लोगों में सभी तरह के भ्रामक विचार, दृष्टिकोण और अभ्यास के गलत सिद्धांत हैं और इसी तरह, परमेश्वर के साथ पेश आने के तरीके को लेकर उनमें सभी तरह के भ्रामक विचार, दृष्टिकोण और अभ्यास के गलत सिद्धांत हैं। अगर तुम सभी प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों के साथ सत्य सिद्धांतों के आधार पर पेश आने और अभ्यास करने में समर्थ हो—यानी अगर तुम सभी प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों के बारे में अपने भ्रामक विचार और दृष्टिकोण जान लेते हो और साथ ही, इन भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों को सुधारते हो और त्याग देते हो, और फिर परमेश्वर द्वारा लोगों को बताए गए सही विचारों और दृष्टिकोणों के अनुसार विभिन्न समस्याओं का सामना करते हो और उन्हें हल करते हो—तो सभी प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों के साथ तुम्हारे पेश आने के अभ्यास के सिद्धांत सत्य सिद्धांतों के अपेक्षाकृत अनुरूप होंगे। क्या इसे इस बात का संकेत माना जा सकता है कि किसी को बचाया गया है? अभी इसे देखते हुए, नहीं, ऐसा नहीं माना जा सकता। अगर मैंने आज की संगति की विषय-वस्तु नहीं उठाई होती, तो लोग सोच सकते थे, “जब सभी प्रकार की चीजों की बात आती है, तो मैं उन्हें परमेश्वर के वचनों में सत्य सिद्धांतों के अनुसार देखने और अभ्यास करने में समर्थ हूँ, इसलिए मुझे लगता है कि मैं एक ऐसा व्यक्ति हूँ जो सत्य का अनुसरण करता है, एक ऐसा व्यक्ति हूँ जिसने सत्य के अनुसरण में परिणाम प्राप्त किए हैं और एक ऐसा व्यक्ति हूँ जिसे बचाया गया है।” आज मैंने जो विषय उठाया है—परमेश्वर के प्रति लोगों के विभिन्न रवैये—उसके आधार पर देखा जाए, तो क्या उनका यह विचार तथ्यों के अनुरूप है? (नहीं।) यह स्पष्ट रूप से तथ्यों के अनुरूप नहीं है। भले ही इस बारे में तुम्हारा एक विशिष्ट आधार और एक विशिष्ट सकारात्मक रवैया हो कि तुम सभी प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों के साथ कैसे पेश आते हो, लेकिन फिर भी तुम्हारे और परमेश्वर के बीच सभी प्रकार की बाधाएँ हैं और जब विभिन्न मुद्दों की बात आती है, तो परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया अब भी शत्रुतापूर्ण है। यह समस्या गंभीर है और सभी समस्याओं में से यह सबसे बड़ी समस्या है। जिस अवधि में तुम परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हो और अपना कर्तव्य कर रहे हो, उस दौरान सभी पहलुओं में तुम्हारा निर्वहन भले ही दूसरों को काफी अच्छा लगे और बाहरी तौर पर भले ही सत्य और सिद्धांतों के अनुरूप दिखाई दे। लेकिन तुम्हारे दिल में परमेश्वर के बारे में बहुत-सी धारणाएँ हैं और तुम्हारे और परमेश्वर के बीच बाधाएँ हैं और जब भी तुम्हें बहुत-सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है, तो अब भी तुम परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया रखते हो। ये मुद्दे बहुत गंभीर हैं। अगर ये मुद्दे तुम्हारे दिल में मौजूद हैं तो इससे यह साबित नहीं होता है कि तुम एक बचाए गए व्यक्ति हो। चूँकि अब भी तुम्हारे और परमेश्वर के बीच बहुत-सी बाधाएँ हैं और जब मुख्य, महत्वपूर्ण मुद्दों की बात आती है तो तुम अब भी परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया रखते हो, अतः न सिर्फ तुम बचाए गए व्यक्ति नहीं हो, बल्कि तुम खतरे में भी हो। अगर तुम यह मानते भी हो कि जब तुम्हारे जीवन में ढेरों समस्याएँ आती हैं तो तुम सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में समर्थ होते हो और तुम्हारे क्रियाकलाप सत्य के साथ अपेक्षाकृत संगत होते हैं, तो भी यह कहा जा सकता है कि यह सिर्फ एक बाहरी दिखावा है और यह इस बात को साबित नहीं कर सकता है कि तुम्हे बचा लिया गया है। वह इसलिए क्योंकि तुमने परमेश्वर के साथ अपने रिश्ते में अनुरूपता प्राप्त नहीं की है और तुम अब भी परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करते हो या उसका भय नहीं मानते हो। इसलिए, जब भी तुम्हारे साथ विभिन्न चीजें होती हैं, तो तुम्हारा बाहरी व्यवहार या तुम्हारे विचार और दृष्टिकोण सिर्फ यह दिखा पाते हैं कि तुमने सत्य सिद्धांतों का पालन करने के बजाय उन धर्म-सिद्धांतों, नारों और विनियमों का पालन किया है जिन्हें तुम इन मामलों में सही मानते हो। भले ही यहाँ यह कुछ हद तक अनुमिति का संबंध हो और भले ही यह जटिल हो, लेकिन जब हम अपने और परमेश्वर के बीच की बाधाओं और परमेश्वर के प्रति शत्रुता को त्याग देने की विशिष्ट विषय-वस्तु पर संगति कर लेंगे और लोग सावधानीपूर्वक जाँच में लग चुके होंगे, तो वे मेरे वचनों का अर्थ समझ जाएँगे।

इससे पहले कि हम अपने और परमेश्वर के बीच बाधाओं और परमेश्वर के प्रति शत्रुता को त्याग देने के विषय पर औपचारिक रूप से संगति करें, चलो पहले इस पर चर्चा करें कि लोगों और परमेश्वर के बीच क्या बाधाएँ मौजूद हैं। लोगों और परमेश्वर के बीच क्या बाधाएँ हैं और परमेश्वर के प्रति क्या शत्रुता है जिसका तुम अपने रोजमर्रा के जीवन में आभास कर पाते हो और जिसके बारे में जानते हो या जो दूसरे लोगों में होती हैं? ये अभिव्यक्तियाँ यकीनन मौजूद हैं। वे हर रोज लोगों के आसपास होती हैं और वे हर रोज तुम्हारे साथ होती हैं, इसलिए तुम्हें सोचने में बहुत ज्यादा ऊर्जा खपाने की जरूरत नहीं है—जब तुम अपना मुँह खोलोगे तो इन समस्याओं की एक सूची तुरंत बाहर आ जाएगी। क्या यही बात नही है? (हाँ।) लोगों और परमेश्वर के बीच किस तरह की बाधाएँ मौजूद हैं? आओ सबसे पहले इस बारे में बात करें कि “बाधा” शब्द में क्या शामिल है। इसमें टकराव, उद्दंडता, धारणाएँ, गलतफहमियाँ और इसी तरह की दूसरी चीजें शामिल हैं, है ना? मुझे और बताओ। (जब किसी व्यक्ति को उसका कर्तव्य करते समय बेनकाब किया जाता है या उसकी काट-छाँट की जाती है, तो उसे परमेश्वर के बारे में कुछ गलतफहमियाँ हो सकती हैं और वह परमेश्वर के प्रति सतर्क हो सकता है, यह सोच सकता है कि वह जितना ज्यादा महत्वपूर्ण कर्तव्य करेगा, उतनी ही तेजी से वह बेनकाब किया जाएगा। इसलिए, उसके दिल में उसके और परमेश्वर के बीच कुछ बाधाएँ होंगी और वह शुद्ध और खुले दिल से कुछ कर्तव्य और आदेश स्वीकार नहीं कर पाएगा।) यहाँ क्या बाधा है? (सतर्कता और गलतफहमियाँ।) सतर्कता और गलतफहमियाँ। यह एक प्रकार की बाधा है। और कौन इसमें जोड़ सकता है? क्या तुम बाकी लोगों और परमेश्वर के बीच कोई बाधा नहीं है? क्या तुम्हारे दिल स्वच्छ और पवित्र हो चुके हैं? क्या तुम्हारे मन में परमेश्वर के बारे में कभी कोई प्रतिकूल या नकारात्मक विचार नहीं आया है? (परमेश्वर, मैं इसमें कुछ जोड़ सकता हूँ। जब भी उन हालातों में चीजें सुचारू रूप से चल रही होती हैं जिनकी परमेश्वर मेरे लिए योजना बनाता है, तो मेरे और परमेश्वर के बीच रिश्ता अपेक्षाकृत सामान्य लगता है। लेकिन अगर कभी मुझे किसी मुसीबत या किसी ऐसी चीज का सामना करना पड़ता है जो मेरी धारणाओं के अनुरूप नहीं होती है, तो मैं इस बारे में अटकलें लगाना शुरू कर देता हूँ कि परमेश्वर क्या करेगा और आगे मुझ पर क्या बीतेगी और इसका परिणाम क्या होगा। मैं बहुत सोच-विचार करता हूँ और यहाँ तक कि मैं शिकायतें भी करता हूँ और अपने मन में परमेश्वर की आलोचना करता हूँ और उसे गलत समझता हूँ और तब मेरा दिल बंद हो जाता है। मैं एक ऐसी चीज के बारे में भी बात करना चाहता हूँ जो मैंने देखी है। कुछ लोग जब अप्रिय परिस्थितियों का सामना करते हैं, तो वे अपने दिलों में प्रतिरोध महसूस करते हैं और कहते हैं, “परमेश्वर मुझे इन परिस्थितियों में क्यों डाल रहा है? ये दूसरे लोगों पर क्यों नहीं आई?” वे उन परिस्थितियों के आगे समर्पण नहीं कर पाते हैं जो परमेश्वर उनके लिए व्यवस्थित करता है और उनके और परमेश्वर के बीच टकराव उत्पन्न हो जाता है।) तुमने जिस मुद्दे का जिक्र सबसे पहले किया वह यह था कि लोगों और परमेश्वर के बीच बाधाएँ हैं, कुछ परिस्थितियों के प्रति एक अनुकूलित प्रतिक्रिया के रूप में लोग अपने और परमेश्वर के बीच बाधाएँ, परमेश्वर के प्रति सतर्कता और परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ उत्पन्न कर लेते हैं। तुमने जिस दूसरे मुद्दे की बात की वह यह था कि लोग परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण हो जाते हैं क्योंकि वे आंतरिक रूप से उद्दंड होते हैं। कौन इसमें कुछ और जोड़ सकता है? (जब भी ऊपरवाला मेरी काट-छाँट करता है और मेरी खराब काबिलियत बेनकाब हो जाती है, तो मैं खुद पर ही फैसले देता हूँ और सोचता हूँ कि मुझे बचाया नहीं जा सकता और मेरे पास सत्य का अनुसरण करने की कोई प्रेरणा नहीं होती है, हालाँकि मैं यह करना चाहता हूँ। यह परमेश्वर के बारे में एक तरह की गलतफहमी है। इसके अलावा, जब कुछ भाई-बहन बीमार पड़ जाते हैं और उन्हें मृत्यु का सामना करना पड़ता है, तो वे सोचते हैं, “क्या परमेश्वर को मेरी वह सारी दौड़-धूप और खपाना याद नहीं है जो मैंने उसके लिए किया है?” अपने दिलों में वे परमेश्वर से बहस करते हैं, उसके खिलाफ शोर मचाते हैं और उसके खिलाफ लड़ते हैं। ऐसी दशा काफी आम है।) अपने और परमेश्वर के बीच की बाधाओं और परमेश्वर के प्रति शत्रुता के लिहाज से, ज्यादातर लोग जो समस्याएँ अभिव्यक्त करते हैं, वे कमोबेश सतर्कता और गलतफहमियाँ हैं और साथ ही, उद्दंडता और असंतोष भी हैं जिन्हें लोग कुछ चीजों का सामना करने पर प्रकट करते हैं, जो, दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के प्रति शत्रुता हैं। मूल रूप से यह बस इतना ही है। परमेश्वर के प्रति लोगों के आंतरिक रवैयों से जुड़ी विभिन्न समस्याएँ दरअसल उन मुद्दों के दायरे से परे बहुत दूर तक जाती हैं जिन पर तुम लोगों ने संगति की है। कुछ समस्याएँ ऐसी होती हैं जिनके बारे में तुम लोग नहीं जानते। एक लिहाज से, यह इसलिए है क्योंकि लोग जब भी विभिन्न परिस्थितियों का अनुभव करते हैं, तो वे यह नहीं जाँचते हैं कि खुद उनमें क्या समस्याएँ हैं। दूसरे लिहाज से, लोगों ने कभी भी ध्यान से इस पर विचार नहीं किया है कि परमेश्वर के साथ वास्तव में उनका रिश्ता कैसा है या वे सही रवैये और दृष्टिकोण क्या हैं जो लोगों को परमेश्वर के प्रति रखने चाहिए। इसलिए, लोगों की विभिन्न अभिव्यक्तियों और इन रुतबों के आधार पर जो फिलहाल लोगों में वाकई मौजूद हैं, हम आज विशेष रूप से लोगों और परमेश्वर के बीच की बाधाओं और परमेश्वर के प्रति लोगों की शत्रुता की विभिन्न अभिव्यक्तियों पर संगति करेंगे। इन विभिन्न अभिव्यक्तियों पर संगति करने का लक्ष्य लोगों को अपने और परमेश्वर के बीच की बाधाओं को और जब भी अपने रोजमर्रा के जीवन में उनमें ये चीजें उठती हैं तो वे परमेश्वर के प्रति जो शत्रुता रखते हैं उसे, सक्रियता से त्याग देने में, परमेश्वर के साथ एक सुसंगत रिश्ता बनाने में और अंत में, उसके साथ पूरी तरह से संगत होने में सक्षम बनाना है। इस तरह, वे अपने और परमेश्वर के बीच की बाधाओं और परमेश्वर के प्रति अपनी शत्रुता को पूरी तरह से हटा देंगे और परमेश्वर का भय मानने लगेंगे और सही मायने में उसके प्रति समर्पण करने लगेंगे। लोगों और परमेश्वर के बीच सिर्फ यही सामान्य रिश्ता है और सिर्फ ऐसे लोग ही सच्चे सृजित प्राणी हैं।

जब अपने और परमेश्वर के बीच की बाधाओं और परमेश्वर के प्रति अपनी शत्रुता को त्याग देने की बात आती है, तो सबसे पहले लोगों को अपनी धारणाएँ और कल्पनाएँ त्याग देनी चाहिए। यह बहुत ही महत्वपूर्ण विषय-वस्तु है, है ना? (हाँ।) क्या परमेश्वर के बारे में धारणाएँ और कल्पनाएँ हर व्यक्ति में मौजूद नहीं होती हैं? (हाँ, होती हैं।) कोई भी व्यक्ति शून्य में नहीं जीता है और कोई भी व्यक्ति मशीनी मानव नहीं है। हर व्यक्ति की स्वतंत्र इच्छा होती है और वह ऐसे विभिन्न विचार और दृष्टिकोण रखता है जो उसने बाहरी दुनिया से प्राप्त किए होते है; यकीनन, हर व्यक्ति में परमेश्वर के बारे में ऐसी विभिन्न धारणाएँ और कल्पनाएँ भी होती हैं जो उनकी अपनी जरूरतों, प्राथमिकताओं और चाहतों के आधार पर उनकी व्यक्तिपरक इच्छा के अधीन विकसित हुई होती हैं। यह तथ्य है कि उन्हें “धारणाएँ” और “कल्पनाएँ” कहा जाता है, इसका मतलब है कि वे यकीनन सत्य या तथ्यों के अनुरूप नहीं हैं; कम-से-कम, वे परमेश्वर के इरादों, परमेश्वर की पहचान और परमेश्वर के सार के अनुरूप नहीं हैं। इसलिए, ये धारणाएँ और कल्पनाएँ वे पहली बड़ी चीज हैं जो लोगों को त्याग देनी चाहिए। तो परमेश्वर के बारे में धारणाओं और कल्पनाओं से संबंधित विषय-वस्तु में मुख्य रूप से क्या शामिल है? एक लिहाज से, उसमें वे पहले से मौजूद धारणाएँ शामिल हैं जो परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने से पहले लोगों में उसके बारे में होती हैं। दूसरे लिहाज से, उनमें वे नई धारणाएँ शामिल हैं जो लोग परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद उसके बारे में बनाते हैं और ये नई धारणाएँ ज्यादा विशिष्ट और यथार्थवादी धारणाएँ और कल्पनाएँ होती हैं। परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने से पहले लोगों के दिल परमेश्वर के बारे में कल्पनाओं से भरे होते हैं और इन कल्पनाओं को ऐसी धारणाएँ भी कह सकते हैं जो सभी मनुष्यों में मौजूद होती हैं। यह वैसा ही है जैसे चीनी लोग परमेश्वर में विश्वास नहीं रखने के बावजूद उसे “आसमान में रहने वाला बूढ़ा आदमी” कहकर बुलाते हैं और पश्चिमी लोग—जिनमें से ज्यादातर लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं—उसे “प्रभु” कहकर बुलाते हैं। वैसे तो बहुत से लोग परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते हैं, लेकिन ज्यादातर लोग यह मानते हैं कि परमेश्वर है और वे उसके बारे में कल्पनाओं से भरे होते हैं, वे सोचते हैं कि परमेश्वर सभी चीजों के बीच मौजूद है और सभी चीजों से ऊँचा है और वह सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान है और उसके पास महान, अविश्वसनीय शक्तियाँ हैं। तो यह परमेश्वर वास्तव में कौन है? यह कोई नहीं जानता, लेकिन जो भी हो, वे जानते हैं कि परमेश्वर सबसे महान है और वह सब पर शासन करता है। तो फिर परमेश्वर की विशिष्ट छवि क्या है? हर व्यक्ति अपने मन में परमेश्वर के रंग-रूप और छवि के बारे में एक विचार रखता है जिसकी कल्पना और निर्धारण उसने किया है। हम पहले इन सार्वभौमिक मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं पर चर्चा कर चुके हैं और वे आज की संगति की मुख्य विषय-वस्तु नहीं हैं। आज हम जिन चीजों पर संगति करने जा रहे हैं, वे लोगों और परमेश्वर के बीच की बाधाओं और परमेश्वर के प्रति उनकी शत्रुता से संबंधित सभी अलग प्रकार की धारणाओं और कल्पनाओं में ऐसी विभिन्न प्रकार की धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं जो परमेश्वर का विरोध करती हैं और जो उसके सार के साथ असंगत हैं, और जिन्हें लोगों को त्याग देना चाहिए। हम उन खोखली, अवास्तविक और गूढ़ धारणाओं और कल्पनाओं के बारे में बात नहीं करेंगे। तुम्हारे मौजूदा आध्यात्मिक कद को देखते हुए यह कह सकते हैं कि वे चीजें मूल रूप से कोई समस्या नहीं हैं और वे तुम लोगों के सत्य के अनुसरण को प्रभावित नहीं करेंगी, तुम लोगों के परमेश्वर के अनुसरण को तो बिल्कुल भी प्रभावित नहीं करेंगी और अगर कुछ व्यक्तियों के मन में अब भी कुछ कपोल कल्पित कल्पनाएँ हैं, तो भी ये उनके परमेश्वर के अनुसरण को प्रभावित नहीं करेंगी और इसलिए ये कोई बड़ी समस्या नहीं हैं। जिन मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं पर हम संगति करने जा रहे हैं, वे लोगों के रोजमर्रा के जीवन में परमेश्वर के प्रति उनके रवैयों से और साथ ही, लोगों के कर्तव्यों के निर्वहन और लोगों द्वारा अपनाए जाने वाले मार्गों से संबंधित हैं और यकीनन, लोगों के लक्ष्यों से तो और भी ज्यादा संबंधित हैं। परमेश्वर के बारे में लोगों की विभिन्न धारणाओं और कल्पनाओं में, सबसे पहले, लोगों में उसके कार्य के बारे में बहुत सारी धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं, जो कि परमेश्वर के बारे में अविश्वासियों की विभिन्न कल्पनाओं की तुलना में बहुत ही ज्यादा यथार्थवादी हैं और न तो खोखली हैं और न ही गूढ़ हैं। वे ऐसी चीजें हैं जो परमेश्वर का अनुसरण करते समय हर व्यक्ति के मन में मौजूद होती हैं। दूसरे शब्दों में, लोग परमेश्वर के कार्य के बारे में बहुत-सी कपोल कल्पित और अवास्तविक धारणाओं और कल्पनाओं से भरे होते हैं। मिसाल के तौर पर, लोग कल्पना करते हैं कि उसका कार्य चमत्कारों से भरा है और ऐसी अद्भुत चीजों से भरा है जिन्हें मनुष्य पहले से नहीं जान सकता है या प्राप्त नहीं कर सकता है। यकीनन, इस संबंध में लोगों की सबसे बड़ी धारणाएँ और कल्पनाएँ ये हैं कि परमेश्वर का कार्य किसी व्यक्ति को तुरंत पूर्ण बनाने में समर्थ हो सकता है या परमेश्वर बस कुछ शब्द कहकर या कोई चमत्कार या आश्चर्य करके किसी व्यक्ति को एक ही क्षण में बदल सकता है और उसे ऐसा व्यक्ति बना सकता है जो देह के जीवन और देह की विभिन्न व्यावहारिक कठिनाइयों की कैद से आजाद हो चुका है। वे कल्पना करते हैं कि यह व्यक्ति खाता-पीता नहीं है और एक मशीनी मानव की तरह उसकी कोई शारीरिक जरूरतें नहीं होती हैं; इसके अलावा, वे मानते हैं कि यह व्यक्ति बिना किसी मतलबी विचार के शुद्ध तरीके से सोचता है और वह भीतर से बेहद पवित्र हो चुका होता है। वे कल्पना करते हैं कि इसे प्राप्त करने के लिए सत्य का अनुसरण करना या सत्य पर संगति करना या वर्षों तक लगातार काट-छाँट किए जाने को स्वीकारने की जरूरत नहीं है; परमेश्वर यह सब कुछ सिर्फ कुछ वचनों से प्राप्त कर सकता है क्योंकि परमेश्वर जो भी कहेगा वह पूरा होगा और जो आज्ञा वह देगा वह अटल रहेगी। विशेष रूप से, शुरुआत में जब लोगों ने परमेश्वर के कार्य के तीसरे चरण को अभी-अभी स्वीकार किया था, तो वे उसके कार्य के बारे में सभी प्रकार की धारणाओं और कल्पनाओं से और भी ज्यादा भरे हुए थे। जब कुछ लोगों ने सुना, “परमेश्वर का कार्य जल्द ही समाप्त हो जाएगा” तो वे नहीं जानते थे कि यह किस वर्ष, महीने या दिन समाप्त होगा और फिर भी वे चिंतित हो गए और यहाँ तक कि उन्होंने अपनी नौकरियाँ और परिवार भी छोड़ दिए। कुछ किसानों ने फसलें उगाना बंद कर दिया और दूसरे लोगों ने मवेशी और भेड़ें पालना बंद कर दिया। कुछ लोगों ने तो अपनी जायदाद और कारें भी बेच दीं, बैंक से अपनी सारी जमा पूँजी निकाल ली, अपनी संपत्ति इकट्ठा कर ली और अपना सोना, चाँदी और कीमती सामान अपने साथ लेकर चलना शुरू कर दिया, वे परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए तैयार थे। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि लोगों को लगा कि परमेश्वर का कार्य समाप्त हो रहा है और उन्हें अब अपना जीवन जीने की जरूरत नहीं है और वे मानते थे कि परमेश्वर ने परिवार और शादियाँ तोड़ दी हैं और उन्हें अपनी शादियाँ, नौकरियाँ और भविष्य छोड़ देने चाहिए और परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए सभी सांसारिक सुख त्याग देने चाहिए। अगर कोई उनसे पूछता, “तुम वह सूटकेस और अपने पीछे-पीछे अपने पूरे परिवार को लेकर कहाँ जा रहे हो?” तो वे कहते, “मैं स्वर्ग के राज्य में जा रहा हूँ।” अगर फिर उनसे पूछा जाता, “स्वर्ग का राज्य कहाँ है?” तो वे उत्तर देते, “मुझे अभी तक नहीं पता, परमेश्वर मुझे जहाँ भी ले जाएगा, मैं वहाँ चला जाऊँगा।” इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे आवेग में आकर कार्य कर रहे थे या उन्होंने इस बारे में अच्छी तरह से सोच-समझ लिया था, जो भी हो, ये अभिव्यक्तियाँ एक तथ्य प्रकट करती हैं, जो यह है कि लोगों में परमेश्वर के कार्य के बारे में बहुत सारी कल्पनाएँ हैं। उन्हें नहीं पता कि परमेश्वर उन्हें बचाने के लिए कैसे कार्य करेगा या उन्हें कैसा महसूस होगा या जब वह उन्हें बचा लेगा, तो उसके बाद वे किस तरह की दशा और परिवेश में रहेंगे। और जहाँ तक इस बात का प्रश्न है कि वास्तव में परमेश्वर के क्या इरादे हैं या परमेश्वर लोगों पर अपने कार्य के जरिये क्या परिणाम प्राप्त करना चाहता है, तो वे इस बारे में भी कुछ नहीं जानते। तो वे क्या जानते हैं? उन्हें बस एक वाक्य याद रहता है : परमेश्वर का दिन करीब है, आपदाएँ नीचे उतर आई हैं, परमेश्वर का कार्य जल्द ही समाप्त हो जाएगा और हमें सब कुछ छोड़ देना चाहिए और परमेश्वर का अनुसरण करना चाहिए। यही उनकी सभी धारणाओं और कल्पनाओं के बनने का स्रोत और आधार है और इन्हीं धारणाओं और कल्पनाओं के जरिये उन्होंने सभी प्रकार के चुनाव किए हैं और फैसले लिए हैं। उन्होंने क्या चुनाव किए हैं और फैसले लिए हैं? उन्होंने दुनिया छोड़ देने, अपनी पढ़ाई छोड़ देने, अपना करियर छोड़ देने, अपनी शादी छोड़ देने, अपना परिवार छोड़ देने और यहाँ तक कि दैहिक, पारिवारिक प्रेम, वगैरह भी छोड़ देना चुना है और इन सभी चीजों को त्याग देने के बाद, वे परमेश्वर का कार्य समाप्त होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। परमेश्वर का कार्य समाप्त होने की प्रतीक्षा करने में उनका क्या लक्ष्य है? उनका लक्ष्य आरोहण करना और परमेश्वर का अनुसरण करना है। वास्तव में कहाँ का आरोहण करना है? वे सोचते हैं कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे आरोहण करके कहाँ पहुँचते हैं या वास्तव में वे किस दिन आरोहण करने वाले हैं, जो भी हो, वे नरक में तो नहीं जाएँगे। वे मानते हैं कि अगर वह स्वर्ग न भी हो, तो भी वे किसी ऊँची जगह जा रहे हैं और अगर यह स्वर्ग या कोई भौतिक राज्य न भी हो, तो भी परमेश्वर का अनुसरण करके उनसे गलती नहीं हो सकती और वे आरोहण करके संभवतः वहीं पहुँचेंगे जहाँ परमेश्वर है। वैसे तो लोगों की ये धारणाएँ और कल्पनाएँ परिपूर्ण हैं, लेकिन क्या ये सच हो सकती हैं? वे जिसकी प्रतीक्षा कर रहे थे—परमेश्वर का कार्य समाप्त होने की—क्या वह क्षण आ गया है? (नहीं।) और चूँकि परमेश्वर का कार्य अभी समाप्त नहीं हुआ है, तो क्या लोग निराश या चिंतित हैं? क्या उन्हें पछतावा है? कुछ लोग निराश हैं, है ना? कुछ लोगों को जब अपना कर्तव्य करते समय कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, तो वे नकारात्मक हो जाते हैं या जब वे अपने घरेलू जीवन में क्लेश का अनुभव करते हैं या जब वे उत्पीड़न सहते हैं और उनके पास बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं होता है, तो उन्हें पछतावा होता है। यकीनन, कुछ लोगों के लिए मौजूदा क्षण तक सहन करना आसान नहीं रहा है, लेकिन अपने दिलों में वे वास्तव में बहुत चिंतित हैं। वे किस बारे में चिंतित हैं? वे सोचते हैं, “परमेश्वर का कार्य अभी तक समाप्त क्यों नहीं हुआ? परमेश्वर के कार्य में और कितना समय लगेगा? क्या मुझे घर चले जाना चाहिए और अपना जीवन जारी रखना चाहिए? क्या मुझे नौकरी पर वापस चले जाना चाहिए और दुनिया में अपने लिए भविष्य की तलाश करनी चाहिए? क्या मुझे अपना घर वापस खरीद लेना चाहिए? परमेश्वर हमें प्रतिक्रिया नहीं देता है या हमें इस बारे में कोई स्पष्ट उत्तर नहीं देता है! क्या हमें यह नहीं बताया जाना चाहिए कि परमेश्वर का कार्य कब समाप्त होगा और वह कौन-सा दूसरा कार्य करेगा ताकि हम तैयार रह सकें? परमेश्वर हमें ये बातें नहीं बताता है, वह सिर्फ सत्य व्यक्त करता रहता है, सत्यों की संगति करता रहता है और उद्धार के बारे में बात करता रहता है। वह बाद में आने वाली चीजों या भविष्य के बारे में या इस बारे में कभी भी बात नहीं करता है कि मानवजाति कब एक सुंदर गंतव्य में प्रवेश करेगी या देह का जीवन कब समाप्त होगा; वह बस हमें अनिश्चित काल तक प्रतीक्षा करवाता है।” लोगों को परमेश्वर के कार्य का ज्ञान नहीं है। और विशेष रूप से, वे इस बारे में स्पष्ट नहीं हैं कि परमेश्वर लोगों को कैसे बचाता है, लोगों को बचाने के लिए वह किन तरीकों का उपयोग करता है, परमेश्वर अपने सारे कार्य में कौन-सा विशिष्ट कार्य पूरा करता है ताकि वह लोगों को बचाए जाने में सक्षम बना सके, वगैरह-वगैरह। बल्कि वे हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में जीते हैं और परमेश्वर के कार्य को एक औपचारिकता या विलक्षण प्रकार का जादू मानते हैं। यह ऐसा है मानो उसका कार्य सिर्फ बयानबाजी हो और उसमें कोई विशिष्ट विषय-वस्तु न हो—परमेश्वर को सिर्फ कुछ वचन कहने हैं और वह जो भी कहेगा, वह पूरा हो जाएगा और वह जो भी आज्ञा देगा, वह अपनी अटल रहेगी और उसके बाद लोग बदल जाएँगे और प्रकाशित वाक्य की किताब में की गई भविष्यवाणी के अनुसार बन जाएँगे, संत बन जाएँगे और पवित्र हो जाएँगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों के क्या कपोल कल्पित और खोखले विचार हैं, चाहे वे विशिष्ट हों या गैर-विशिष्ट, संक्षेप में, लोग उसके कार्य के बारे में धारणाओं और कल्पनाओं से भरे हुए हैं और वे इस बारे में हमेशा खोखली धारणाओं और कल्पनाओं में जीते हैं कि वे परमेश्वर के कार्य को कैसे देखते हैं और वे मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले हर विशिष्ट कार्य और उसके द्वारा कही गई हर विशिष्ट बात को कैसे देखते हैं। यकीनन, ज्यादातर लोगों के पास परमेश्वर के कार्य के बारे में सिर्फ एक ही धारणा और कल्पना है, जो यह है कि जैसे ही परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाएगा, तो लोग अंत में इससे सफलतापूर्वक उबर आएँगे और अगर वे उसके कार्य के समाप्त होने की प्रतीक्षा कर सकते हैं और उस समय तक जीवित रह सकते हैं, तो वे जीत जाएँगे और उन्होंने जो कुछ भी छोड़ दिया है और अर्पित किया है और जो कठिनाइयाँ सही हैं और जो कीमतें चुकाई हैं, वह सब कुछ इसके लायक होगा। इस आधार पर देखा जाए तो, एक लिहाज से, लोग परमेश्वर के कार्य के बारे में सभी प्रकार की कल्पनाओं से भरे हुए हैं। दूसरे लिहाज से, लोग परमेश्वर में अपने विश्वास में सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे हैं; बल्कि उनकी आस्था में जुआ खेलने वाली गुणवत्ता है—वे अपना जीवन और अपनी सारी संपत्ति, अपना भविष्य, अपनी शादी और जो कुछ भी उनके पास है, उसे दाँव पर लगा रहे हैं और वे सोचते हैं कि उन्हें बस तब तक सहन करने की जरूरत है जब तक परमेश्वर का कार्य समाप्त नहीं हो जाता और अगर वे परमेश्वर द्वारा अपना कार्य समाप्त होने की घोषणा करने तक जीवित रहते हैं, तो उन्हें फायदा होगा और उन्होंने जो कुछ भुगतान किया है, वह सब कुछ उन्हें वापस मिल जाएगा। क्या लोग इसी तरीके से नहीं सोचते हैं? (हाँ।) अब जबकि हम इस बारे में इतना कुछ बोल चुके हैं, तो परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों की मुख्य धारणाएँ और कल्पनाएँ क्या हैं? (लोग मानते हैं कि परमेश्वर का कार्य चमत्कारों से भरा है और परमेश्वर बस कुछ वचनों से ही लोगों को स्वच्छ कर सकता है और वे बिना कोई कीमत चुकाए या सत्य का अनुसरण किए स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं।) परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों की यही धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं। दूसरी कौन-सी धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं? (लोग यह नहीं जानते हैं कि परमेश्वर लोगों पर अपने कार्य के जरिये वास्तव में क्या परिणाम प्राप्त करना चाहता है और वे सोचते हैं कि जब तक वे परमेश्वर का कार्य पूरा होने तक सहन कर सकते हैं, तब तक उनके पास स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने की उम्मीद होगी।) यह भी एक धारणा और कल्पना है—लोग सोचते हैं कि परमेश्वर का कार्य सिर्फ एक औपचारिकता और प्रक्रिया भर है। और क्या है? (लोग परमेश्वर में अपने विश्वास में सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे हैं, बल्कि उनकी आस्था में जुआ खेलने वाली गुणवत्ता है।) क्या यह एक धारणा और कल्पना है? यह परमेश्वर में लोगों के विश्वास का सार है और उनकी तलाश का सार है। इसमें दूसरी कौन-सी धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं? क्या लोग यह नहीं सोचते हैं कि जब तक वे सभी चीजें छोड़ देते हैं और परमेश्वर का अनुसरण करते हुए कोई कर्तव्य करते हैं, तब तक मानो जादू से वे बदल दिए जाएँगे? (हाँ।) लोगों के विचार बेहद खोखले हैं, अलौकिक चीजों से संबंधित हैं और कपोल कल्पित हैं। लोग सोचते हैं कि उन्हें ताड़ना, न्याय या काट-छाँट या परमेश्वर के वचनों का प्रावधान स्वीकारने की जरूरत नहीं है, उन्हें सिर्फ इस तरह से परमेश्वर का अनुसरण करने की जरूरत है, उनसे जो भी कर्तव्य करने को कहा जाए, उन्हें उसे करना चाहिए और जब तक वे अंत तक अनुसरण करते हैं, तब तक वे बदल दिए जाएँगे और परमेश्वर का कार्य समाप्त होने पर अंत में वे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करेंगे। क्या ये लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ नहीं हैं? (हाँ।)

लोग परमेश्वर के कार्य के बारे में सभी तरह की धारणाओं और कल्पनाओं से भरे हुए हैं। हमने अभी-अभी जो संगति की, वह परमेश्वर के कार्य के दिनों के बारे में लोगों की धारणाओं से संबंधित है। इन धारणाओं के अलावा एक और तरह की धारणा और कल्पना है। वह यह है कि जब भी लोगों के सामने कुछ वास्तविक कठिनाइयाँ आती हैं, तो वे अक्सर अपनी व्यक्तिपरक इच्छा में यह उम्मीद करते हैं कि उन्हें परमेश्वर से प्रेरणा की एक झलक मिलेगी और फिर उनके दिमाग में एक विचार कौंधेगा, इसके लिए उन्हें परमेश्वर का वचन खाने और पीने, खुद को सत्य से लैस करने या सामान्य दौर में सत्य सिद्धांतों को गहराई से समझने की जरूरत नहीं होगी और परमेश्वर उन्हें उनके रोजमर्रा के जीवन में आने वाली हर समस्या को हल करने में मदद कर सकता है, चाहे वह समस्या कितनी भी बड़ी या छोटी क्यों न हो। परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों की बूझ और समझ बेहद काल्पनिक और खोखली है और लोग मनुष्य को बचाने के परमेश्वर के तरीकों के बारे में भी धारणाओं और कल्पनाओं से भरे हुए हैं। लोग परमेश्वर के कार्य में विभिन्न सत्यों की तलाश नहीं करना चाहते हैं और हर मामले से सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यावहारिक तरीके से निपटना नहीं चाहते हैं। बल्कि वे उम्मीद करते हैं कि जब भी उनके सामने किसी भी तरह की समस्या आएगी, तो परमेश्वर उन्हें प्रकाश और प्रकाशन देगा, ठीक वैसे ही जैसे उसने नबियों को प्रकाशन दिए थे ताकि चाहे उनके वास्तविक जीवन में उन पर कुछ भी क्यों न बीते, उनके पास बुद्धि और क्षमता होगी और सभी तरह की समस्याओं से निपटने के तरीके होंगे, इसके लिए उन्हें परमेश्वर से प्रार्थना करने और सत्य की तलाश करने या परमेश्वर का वचन खाने और पीने की जरूरत नहीं पड़ेगी, जैसे कि वे किसी जादुई दुनिया में रह रहे हों। अपनी कल्पनाओं के अनुसार, लोगों को लगता है कि एक बार जब वे परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू कर देंगे तो वे होशियार और चतुर बन जाएँगे। कुछ लोग तो यह तक सोचते हैं कि एक बार जब वे परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू कर देंगे तो वे सुंदर बन जाएँगे और उन्हें देह की कोई भी कठिनाई और समस्या या भ्रष्ट स्वभावों की बाधा या अपने दैनिक जीवन में कोई भी वास्तविक कठिनाई नहीं रहेगी। वे मानते हैं कि जब तक उनमें परमेश्वर को संतुष्ट करने की इच्छा है, तब तक वह उन्हें शक्ति देगा और उनके लिए अच्छी और बेहतर परिस्थितियाँ बनाएगा, इन सबको एक वास्तविकता बनाएगा और उनकी सभी आकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी करेगा और खासकर जब उनके सामने ऐसी चीजें आती हैं जिन्हें हासिल करना उनकी काबिलियत और सहज ज्ञान की क्षमता से परे होता है, तो परमेश्वर उनकी और ज्यादा मदद करेगा ताकि वे चतुराई से या आसानी से वे चीजें कर सकें जो वे करना चाहते हैं। कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनकी काबिलियत खराब है और जिनमें हर तरह के पेशेवर कौशल की कमी है, जो सोचते हैं कि परमेश्वर को सिर्फ एक चमत्कार या आश्चर्य करने की जरूरत है और उनकी काबिलियत अचानक अच्छी हो जाएगी और वे अचानक होशियार बन जाएँगे। वे यह भी मानते हैं कि परमेश्वर के लिए कुछ भी हासिल करना कठिन नहीं है और परमेश्वर वे चीजें पूरी करने में उनकी मदद कर सकता है जिन्हें वे खुद पूरी नहीं कर सकते हैं और वे कठिन समस्याएँ हल करने में उनकी मदद कर सकता है जिन पर वे खुद काबू नहीं पा सकते हैं और जो उनकी क्षमताओं से परे होती हैं। कुल मिलाकर, परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों की बहुत-सी धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं। एक लिहाज से, वे परमेश्वर के कार्य की अवधि के बारे में विभिन्न कल्पनाओं से भरे हुए हैं और इस संबंध में उन्होंने विभिन्न क्रियाकलापों का निर्वहन भी किया है और विभिन्न कीमतें भी चुकाई हैं। साथ ही, लोग अपने सामने आने वाली विभिन्न कठिनाइयों और समस्याओं के बारे में और यहाँ तक कि अपने खुद के भ्रष्ट स्वभावों के बारे में भी सभी तरह की धारणाओं और कल्पनाओं से भरे हुए हैं। इनमें से ज्यादातर धारणाएँ और कल्पनाएँ खोखली, काल्पनिक और अवास्तविक हैं और इससे भी बड़ी बात यह है कि वे लोगों की काबिलियत और मन से बढ़कर हैं और उनके सहज ज्ञान के दायरे से परे हैं। लोग अक्सर उम्मीद करते हैं कि परमेश्वर उनकी वास्तविक कठिनाइयों के आधार पर या उनकी काबिलियत, मन और सहज प्रवृत्तियों के आधार पर कार्य नहीं करेगा, बल्कि वह उन्हें इन सबसे बढ़कर होने और कुछ चीजों को करने के लिए उन्हें उनकी सामान्य मानवता और उनकी काबिलियत और सहज ज्ञान से ऊपर उठने में सक्षम बनाएगा। लोग परमेश्वर के कार्य के बारे में धारणाओं और कल्पनाओं से भरे हुए हैं और उनकी कल्पनाओं की सामग्री बेहद अलौकिक है। ये धारणाएँ और कल्पनाएँ परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों के पूरी तरह से विपरीत हैं और उनके प्रति शत्रुतापूर्ण हैं। लोग अपने मन में यह नहीं सोचते हैं : अगर परमेश्वर ये अलौकिक चीजें करता है तो वह अब भी इतने सारे वचन क्यों बोलता है और लोगों को इतने सारे सत्य क्यों प्रदान करता है? उसे ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं है। परमेश्वर के कार्य के इतना व्यावहारिक होने का कारण यह है कि परमेश्वर अपने सभी वचन और सत्य लोगों को प्रदान करना चाहता है और उन्हें लोगों में कार्यान्वित करना चाहता है ताकि वे इन वचनों और इन सत्यों के अनुसार जी सकें। उसका इरादा लोगों को सामान्य मानवता या उनके सहज ज्ञान से ऊपर उठने में सक्षम बनाना नहीं है, बल्कि सामान्य मानवता के आधार पर उन्हें सत्य सिद्धांतों को पकड़कर रखने और उन कर्तव्यों और आदेशों को पकड़कर रखने में सक्षम बनाना है जो उसने उन्हें दिए हैं। लेकिन लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ परमेश्वर के कार्य के बिल्कुल विपरीत हैं और वे परमेश्वर के कार्य करने के तरीके के बिल्कुल भी अनुरूप नहीं हैं। परमेश्वर व्यावहारिक तरीके से कार्य करना चाहता है, जबकि परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों की कल्पनाएँ अलौकिक चीजों से जुड़ी हैं, खोखली हैं और अवास्तविक हैं। यकीनन, कुछ लोग उम्मीद करते हैं कि परमेश्वर उन्हें प्रकाशन देने, उनका भरण-पोषण करने, उन्हें सहारा देने और उनकी मदद करने और यहाँ तक कि उन्हें बदलने और उन्हें बचाए जाने में सक्षम बनाने के लिए भी कुछ और ज्यादा खास तरीकों का उपयोग करेगा। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों के सामने जब भी कोई समस्या आती है तो अक्सर वे परमेश्वर के वचनों में इसके समाधान या अभ्यास के मार्ग नहीं खोजते हैं, बल्कि घुटनों के बल बैठ जाते हैं, अपनी आँखें बंद कर लेते हैं और प्रार्थना करते हैं। वे प्रार्थना करते समय समस्या के बारे में सत्य की तलाश नहीं करते हैं, और फिर इसे हल करने के लिए परमेश्वर के संगत वचनों को नहीं खोजते हैं। बल्कि वे उम्मीद करते हैं कि परमेश्वर उनके दिलों में उन्हें बता सकेगा कि क्या करना है; या उन्हें एक वाक्य, एक विचार या एक छवि से प्रबुद्ध कर सकेगा; या उन्हें कुछ प्रकाश प्राप्त करने में सक्षम बना सकेगा और उन्हें कुछ प्रेरणा दे सकेगा—वे इस तरीके से सत्य समझना चाहते हैं। यकीनन, कुछ ऐसे लोग भी हैं जो और चरम दृष्टिकोण अपनाते हैं, जो यह है कि जब भी उनके सामने कोई समस्या आती है तो वे उम्मीद करते हैं कि परमेश्वर उन्हें सपने में अपने वचनों का एक अंश दिखा सकेगा, उन्हें बताएगा कि उन्हें फलां चीज करनी चाहिए या नहीं और अगर करनी चाहिए तो कैसे करनी चाहिए या उन्हें फलां जगह जाना चाहिए या नहीं या उन्हें फलां-फलां को सुसमाचार सुनाना चाहिए या नहीं। कुछ लोगों को जब बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है तो वे सपना दिखाए जाने या सपने में उत्तर पाने की उम्मीद करते हैं और यहाँ तक कि अपने भाई-बहनों या कलीसिया के अगुआओं के साथ अपने सपने का विश्लेषण और व्याख्या करने की उम्मीद भी करते हैं, वे सोचते हैं, “परमेश्वर ने मुझे जो सपना दिखाया है उसका क्या मतलब है? वह मुझसे क्या करवाना चाहता है? क्या वह मुझे जाने के लिए कह रहा है या नहीं?” वे मानते हैं कि परमेश्वर का कार्य लोगों को प्रकाशन देना, लोगों की अगुआई करना और इन विशेष साधनों का उपयोग करके लोगों का भरण-पोषण करना है और इस प्रकार उन्हें बचाए जाने के लिए सक्षम बनाना है। क्या यह एक धारणा और कल्पना नहीं है? (हाँ, है।) ऐसे भी लोग हैं जो किसी समस्या को आने पर नहीं जानते हैं कि उन्हें क्या करना है और प्रार्थना करने पर भी जब उन्हें परमेश्वर से उत्तर नहीं मिलता है, तो वे सिक्का उछालकर निर्णयलेते हैं। उदाहरण के लिए, जब सुसमाचार का प्रचार करने के लिए किसी जगह जाने की बात आती है, तो वे परमेश्वर से इस बारे में प्रार्थना करते हैं कि उन्हें जाना चाहिए या नहीं और उन्हें कोई उत्तर नहीं मिलता है, और फिर वे क्या करते हैं? यह तय करने के लिए कि उन्हें जाना चाहिए या नहीं, वे बस सिक्का उछालते हैं। वे सोचते हैं कि अगर नीचे गिरने पर यह चित आता है, तो यह साबित होता है कि परमेश्वर चाहता है कि वे जाएँ, जबकि अगर यह पट आता है, तो यह साबित होता है कि परमेश्वर नहीं चाहता है कि वे जाएँ। वे तीन बार सिक्का उछालते हैं और यह एक बार चित और दो बार पट आता है, इसलिए वे निष्कर्ष निकालते हैं, “यह दो बनाम एक है, जिसका मतलब है कि परमेश्वर नहीं चाहता है कि मैं जाऊँ,” और वे नहीं जाते हैं। यहाँ तक कि वे नहीं जाने के बारे में भी निश्चिंत रहते हैं, सोचते हैं कि यह परमेश्वर की इच्छा है और खुद से कहते हैं, “मुझे परमेश्वर के मार्गदर्शन का पालन करना चाहिए। यह परमेश्वर का फैसला है, मेरा नहीं। मुझे परमेश्वर के मार्गदर्शन के प्रति समर्पण करना चाहिए और नहीं जाना चाहिए।” तो क्या उन्हें वास्तव में जाना चाहिए या नहीं? क्या इस तरीके से परमेश्वर के इरादों की तलाश करने से सटीक उत्तर मिल सकता है? यह उत्तर बिल्कुल भी सटीक नहीं हो सकता है। ऐसी स्थिति का सामना करने पर तुम्हें सिद्धांतों के आधार पर और इस आधार पर फैसला लेना चाहिए कि क्या परिस्थितियाँ इसकी अनुमति देती हैं—सिर्फ यही तरीका सही है। सुसमाचार का प्रचार करना तुम्हारा कर्तव्य है, तुम्हारा कार्य है और ऐसा कार्य है जो तुम्हें आज करना चाहिए, इसलिए तुम्हें जाना चाहिए—सही सिर्फ यह है कि तुम जाओ। लेकिन अक्सर लोग ऐसे मामलों को इन वास्तविकताओं के आधार पर नहीं समझते हैं या नहीं संभालते हैं। बल्कि वे अक्सर उन्हें कुछ धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर देखते हैं और कुछ असामान्य साधनों और विधियों का उपयोग करके उनके बारे में राय बनाते हैं और अंत में कुछ बेतुके और विकृत फैसले लेते हैं। क्या यह उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के कारण नहीं है? (हाँ।) परमेश्वर के कार्य में जब परमेश्वर ऐसे स्पष्ट वचन प्रदान नहीं करता है जो लोगों को बताते हों कि हर चीज कैसे की जानी चाहिए या हर प्रकार के मुद्दे से निपटने में किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए, तो लोगों को पवित्र आत्मा के निर्देश का पालन करने और उस मार्गदर्शन का पालन करने की जरूरत है जो परमेश्वर उन्हें वास्तविक परिस्थितियों में प्रदान करता है। यकीनन, उन्हें अपने भाई-बहनों के साथ चर्चा करने या प्रार्थना करने और साथ मिलकर तलाश करने की और अंत में वास्तविक स्थिति के आधार पर यह तय करने की भी जरूरत है कि मौजूदा मुद्दे से कैसे निपटना है। लेकिन परमेश्वर के कार्य में जब परमेश्वर के पास ऐसे स्पष्ट वचन और स्पष्ट निर्देश होते हैं जो लोगों को विभिन्न मामलों के लिए अभ्यास के सिद्धांत बताते हैं, तो पहले अपनाई गई इन औपचारिकताओं को हटाया जा सकता है और लोगों को अब उनका पालन करने की जरूरत नहीं है। अगर वे उनका पालन करते रहे तो इससे सिर्फ चीजों में देरी होगी। उदाहरण के लिए, मान लो कि जब भी कुछ होता है और जाकर कार्यवाही करना जरूरी होता है, तब भी लोग अपने घुटनों के बल बैठ जाते हैं और प्रार्थना करते हैं, पूछते हैं, “परमेश्वर, मुझे जाना चाहिए या नहीं? अगर तुम नहीं चाहते कि मैं जाऊँ, तो मुझे रोकने के लिए कुछ परिस्थितियाँ बना दो या अगर तुम चाहते हो कि मैं जाऊँ, तो मेरे लिए सब कुछ सुचारू रूप से चला दो।” यह सख्ती से औपचारिकताओं का पालन करना है और यह वह नहीं है जिसकी परमेश्वर लोगों से अपेक्षा करता है। जब परमेश्वर के पास अपनी अपेक्षाओं और कसौटियों के संबंध में स्पष्ट वचन होते हैं, तो लोगों को तलाशने, प्रार्थना करने, छानबीन करने आदि जैसी किसी भी औपचारिकता से गुजरने की जरूरत नहीं होती है। बल्कि एक लिहाज से उन्हें वास्तविक स्थिति और वास्तविक परिस्थितियों के अनुसार कार्य करना चाहिए और दूसरे लिहाज से, सबसे बड़ी बात, उन्हें सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए—यह सही है। हर रोज चीजों को उचित क्रम में संभालो, जो भी तुम्हें करना चाहिए उसे करो और जो तुम्हें नहीं करना चाहिए उसे मत करो; जो भी जरूरी हो और जिससे निपटने की जरूरत हो उससे निपटो, जो कुछ भी फिलहाल छोड़ा जा सकता है उसे स्थगित कर दो और पहले जरूरी मामलों पर ध्यान दो। क्या ये सिद्धांत नहीं हैं? (हाँ, हैं।) वे सचमुच सिद्धांत हैं। तुम्हें यह याद रखना चाहिए : जब तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते हो और उसके इरादे गहराई से समझने का प्रयास करते हो, तो तुम्हें ऐसा उसके वचनों के आधार पर करना चाहिए; विशेष परिस्थितियों में, यानी जब परमेश्वर से निर्देश देने वाला कोई स्पष्ट वचन नहीं है, तब भी तुम्हें यह पता होना चाहिए कि उसके पास सभी प्रकार के मामलों के लिए स्पष्ट वचन और अभ्यास के सिद्धांत हैं और ऐसे मामलों में तुम्हें उन विभिन्न सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए जिनसे अतीत में परमेश्वर ने लोगों को धिक्कारा था। लेकिन लोगों ने अपने मन में परमेश्वर के कार्य के बारे में ऐसी कई धारणाएँ और कल्पनाएँ बना ली हैं जो बेहूदी हैं, बेतुकी हैं और अलौकिक चीजों से संबंधित हैं, जो परमेश्वर के वचनों और विभिन्न सत्य सिद्धांतों को सजावटी चीजों और खोखले सिद्धांतों में बदल देती हैं और ऐसा कर देती हैं कि जब लोगों पर समस्याएँ आती हैं, तो ये उनके लिए चीजें संभालने की कसौटियाँ या अभ्यास के मार्ग नहीं हो पाते हैं। यह शोचनीय बात है और यह पूरी तरह से इस तथ्य के कारण होती है कि लोगों ने परमेश्वर के कार्य के बारे में बहुत सारी धारणाएँ और कल्पनाएँ बना ली हैं।

परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों की कुछ दूसरी बेहूदी, बेतुकी और अजीब धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं, जो उनके रोजमर्रा के जीवन में व्याप्त हैं। उदाहरण के लिए, मान लो कि जैसे ही कोई व्यक्ति वह कार्य करने वाला होता है जो उसे सबसे ज्यादा करना चाहिए, तो कुछ ऐसा हो जाता है जो उसे लगता है कि नहीं होना चाहिए था, जैसे कि कार्य करने के लिए जाते समय उसका सेल फोन चोरी हो जाना या उसकी गाड़ी खराब हो जाना या उसका रास्ते में गिर पड़ना या कुछ और गड़बड़ी हो जाना। इसका क्या मतलब है? क्या इसका यह मतलब है कि परमेश्वर उसे यह कार्य करने से रोक रहा है? क्या इसका यह मतलब है कि यह कार्य करना परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं है? क्या इसका यह मतलब है कि यह कार्य नहीं करना चाहिए? क्या इसे इस तरह से समझा और बूझा जाना चाहिए? (नहीं।) अगर अपने कर्तव्य के निर्वहन में यह वह सबसे महत्वपूर्ण चीज है जो तुम्हें अभी करनी चाहिए और तुम जाकर इसे करते हो, तो अगर तुम्हारे रास्ते में कुछ रुकावटें और कठिनाइयाँ आती भी हों या यहाँ तक कि तुम्हारे सामने ऐसी चीजें होती भी हों जिनके बारे में लोगों को लगता है कि उन्हें नहीं होना चाहिए, तो भी यह नहीं कह सकते हैं कि यह कर्तव्य जिसका तुम निर्वहन कर रहे हो और यह कार्य जिसे तुम कर रहे हो, वे परमेश्वर को नाराज करते हैं या परमेश्वर तुम्हें ये चीजें करने से रोक रहा है—यह एक मानवीय धारणा और कल्पना है। अगर परमेश्वर तुम्हें रोकना चाहेगा, तो वह उन तरीकों का उपयोग नहीं करेगा। बल्कि वह सीधे एक परिस्थिति का आयोजन करेगा ताकि तुम्हें स्वाभाविक रूप से वहाँ जाने और उस कार्य को करने की जरूरत न पड़े। यानी परमेश्वर तुम्हारे मन में यह बहुत स्पष्ट कर देगा कि कुछ और महत्वपूर्ण चीज है जिसे तुम्हें आज करना चाहिए और नतीजन उस कार्य को तुम्हारी सूची में दूसरे या तीसरे स्थान पर नीचे धकेलना होगा और बाद में करने के लिए छोड़ देना होगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम अपनी गणना कैसे करते हो, तुम यही पाओगे कि वास्तविक स्थिति के आधार पर उस कार्य को आज पूरा करना संभव नहीं होगा। यह परमेश्वर द्वारा तुम्हे रोकना है। लेकिन चाहे तुम कुछ भी सोचो और चाहे उस कार्य को करने की प्रक्रिया में कोई भी बाधा या कठिनाई क्यों न आए, जो भी हो, अगर वह कार्य आज किया जाना चाहिए तो तुम्हें जाकर उसे करना चाहिए। अगर परमेश्वर तुम्हें रोकता है तो वह तुम्हें स्वाभाविक रूप से उस कार्य को छोड़ने के लिए सबसे उपयुक्त और उचित साधन का उपयोग करेगा—परमेश्वर इसी तरीके से कार्य करता है। परमेश्वर जिस तरीके से कार्य करता है, वह है लोगों को मानवता के सहज ज्ञान के दायरे में वह करने देना जो उन्हें करना चाहिए। एक लिहाज से, लोगों का यही रवैया होना चाहिए। दूसरे लिहाज से, वस्तुनिष्ठ परिस्थितियाँ भी एक कारक हैं—अगर परिस्थितियाँ वह कार्य करने की अनुमति देती हैं, तो उसे करना चाहिए; अगर परिस्थितियाँ इसकी अनुमति नहीं देती हैं, तो लोगों को इसे करने के लिए कुछ देर प्रतीक्षा करनी चाहिए। प्रतीक्षा करने का उद्देश्य क्या है? यह सही समय और उन परिस्थितियों की प्रतीक्षा करना है जो परमेश्वर व्यवस्थित करता है। अगर परिस्थितियाँ लगातार अनुपयुक्त हैं और इस कार्य का निर्वहन करने का प्रयास करते समय चीजें गलत होती रहती हैं, तो तुम्हें उसे नहीं करना चाहिए। क्या तुम समझ गए हो? (हाँ।) लोगों के रोजमर्रा के जीवन में उन्हें यह गहराई से समझने का प्रयास करने की कोई जरूरत नहीं है कि वे कार्य करते समय अपने आत्माओं में क्या महसूस कर रहे हैं, चाहे वे किसी भी प्रकार के कार्य क्यों न हों, वे बड़े मामले हों या छोटे या वे व्यक्तिगत मामले हों या कलीसियाई मामले। अगर तुम आज हताश महसूस कर रहे हो और अपने दिल में तुम किसी कार्य को नहीं करना चाहते, तो जो लोग तुम्हारे साथ इसका निर्वहन करने जा रहे हैं उनसे पूछो कि क्या वे हताश महसूस कर रहे हैं। अगर दूसरे लोग हताश महसूस नहीं कर रहे हैं और वे अपने दिलों में यह कार्य करने के इच्छुक हैं और फिर भी तुम तुम्हारी अपनी भावनाओं के आधार पर यही निष्कर्ष निकालते हो कि इसे नहीं किया जाना चाहिए तो क्या तुम इस बारे में थोड़ा ज्यादा ही व्यक्तिपरक नहीं हो रहे हो? (हाँ।) इसलिए, जब भी लोग किसी कार्य का निर्वहन करते हैं तो उन्हें कम-से-कम यह समझना चाहिए कि उन्हें अपनी भावनाओं को गहराई से समझने की कोशिश नहीं करनी चाहिए या अपनी भावनाओं के आधार पर कार्य नहीं करना चाहिए। मान लो कि तुम्हें किसी कार्य का निर्वहन करना है और तुम थोड़ा घबरा रहे हो, तुम्हारी आँख फड़के जा रही है और तुम्हारे कान झनझना रहे हैं और तुम कहते हो, “मेरी दाईं आँख फड़क रही है, क्या यह बुरी खबर का संकेत है? क्या मुझे यह कार्य करना चाहिए?” तब कोई कहता है, “बाईं आँख का फड़कना अच्छे भाग्य की भविष्यवाणी करता है, लेकिन दाईं आँख का फड़कना विपत्ति की भविष्यवाणी करता है” और यह सुनने के बाद तुम जाकर उस कार्य को करने की हिम्मत नहीं करते। चाहे तुम्हारी कोई भी आँख क्यों न फड़के, अगर यह कोई ऐसा कार्य है जिस पर इससे पहले सहमति हो गई थी और इस कार्य को करने के लिए सभी जरूरी कारक मौजूद हैं और समय और स्थान उपयुक्त हैं, तो तुम्हें इसे जाकर जरूर करना चाहिए। अगर तुम नहीं जाने का निर्णय सिर्फ इसलिए लेते हो क्योंकि एक व्यक्ति कहता है कि तुम्हारी दाईं आँख का फड़कना विपत्ति की भविष्यवाणी करता है, तो क्या यह उचित है? (नहीं, यह उचित नहीं है।) यह उचित क्यों नहीं है? अगर यह तुम्हारी जिम्मेदारी और तुम्हारा कर्तव्य है और आज वस्तुगत परिस्थितियाँ और सभी स्थितियाँ इसे करने की अनुमति देती हैं और इसके अलावा, इस कार्य को तत्काल करने की जरूरत है, तो तुम्हें जाकर इसे करना चाहिए। अगर तुम्हारी दाईं आँख फड़कती है, तो क्या हुआ? हो सकता है कि कुछ मामूली मुद्दे उठें और चीजें बहुत सुचारू रूप से न चलें, लेकिन फिर भी कार्य पूरा हो जाता है। सिर्फ तब तुम जाकर यह कार्य नहीं कर सकते जब परमेश्वर इसे रोकता है और परिस्थितियाँ इसकी अनुमति नहीं देती हैं। कोई कहता है, “जरूर कुछ गड़बड़ है, तभी तुम्हारी दाईं आँख फड़क रही है,” लेकिन कोई और कहता है, “इस कार्य पर इससे पहले सहमति हो चुकी थी, इसलिए हमें जाकर इसे करना चाहिए।” अंत में, तुम सभी इसे करने के लिए निकल पड़ते हो, लेकिन आधे रास्ते जाकर अचानक गाड़ी खराब हो जाती है। मुझे बताओ, अगर समूह के रवाना होते समय किसी की दाईं आँख फड़कती है, तो क्या ऐसे में उन्हें जाना चाहिए? मैं देखना चाहता हूँ कि क्या तुम लोग वास्तव में सत्य समझते हो या नहीं। तुम्हें क्या लगता है, क्या जाकर यह कार्य करना सही होगा? (हाँ, यह सही होगा।) इसमें कोई संदेह नहीं है। तुम इस आधार पर कि तुम्हारी दाईं आँख फड़क रही है या बाईं, यह फैसला नहीं ले सकते कि तुम्हें जाना चाहिए या नहीं। सबसे पहली बात, यह कार्य करने के लिए जाना सही है। तो वहाँ जाते समय गाड़ी क्यों खराब हो गई? क्या परमेश्वर ने इसकी अनुमति दी थी? यह समझाना कठिन है, है ना? (आधे रास्ते में गाड़ी का खराब हो जाना मानव लापरवाही के कारण हो सकता है, जैसे कि अगर गाड़ी का पहले से मुआयना नहीं किया गया हो कि उसमें कोई समस्या थी या नहीं।) यह एक संभव कारण है। अगर हम उस कारण को खारिज कर दें तो क्या गाड़ी का बीच सफर में खराब हो जाना सामान्य बात है? (हाँ।) अगर तुम कोई ऐसी पुरानी चीनी गाड़ी खरीदते हो जो शुरू से ही बहुत अच्छी गुणवत्ता वाली नहीं थी और तुम उसका रखरखाव नहीं करते हो या ठीक से उसकी मरम्मत नहीं करवाते हो और बस उसे चलाते रहते हो, तो वह गाड़ी बीच सफर में खराब हो जाएगी। अगर गाड़ी बीच सफर में खराब हो जाती है तो क्या इसका यह मतलब है कि कार्य को यकीनन पूरा नहीं किया जा सकता है? (ऐसा जरूरी नहीं है।) गाड़ी खराब हो जाती है और उसकी मरम्मत करवाने में एक या दो घंटे लगते हैं। जब तुम गंतव्य पर पहुँचते हो तो वहाँ के भाई-बहन कहते हैं, “यह खुशकिस्मती की बात है कि तुम लोग इस समय आए हो। निगरानी एजेंट बस अभी-अभी यहाँ से गए हैं। अगर तुम लोग दो घंटे पहले आए होते, तो तुम यकीनन बड़े लाल अजगर द्वारा पकड़ लिए जाते। बाल-बाल बच गए!” तो देखा तुमने, एक बुरी चीज अच्छी चीज साबित हुई। क्या जाकर कार्य करना सही था? (हाँ।) क्या गाड़ी के खराब होने में परमेश्वर का अच्छा इरादा था? (हाँ।) तो क्या तुम्हारी दाईं आँख का फड़कना बदकिस्मती का संकेत था या खुशकिस्मती का? (किसी का भी नहीं।) इसके नतीजे के तौर पर कुछ भी नहीं हुआ। अगर हम कहानी को उस बिंदु पर समाप्त कर देते हैं जब गाड़ी खराब हुई, तो फिर यह दावा कि “दाईं आँख का फड़कना विपत्ति की भविष्यवाणी करता है” काफी सटीक लगेगा। गाड़ी का खराब होना एक दुर्घटना थी, है ना? लेकिन अंतिम नतीजा देखा जाए तो गाड़ी का खराब होना एक अच्छी चीज साबित हुई। अगर गाड़ी खराब नहीं होती तो तुम सभी गंतव्य पर पहुँचने पर मुसीबत में पड़ जाते—न सिर्फ तुम कार्य पूरा करने में विफल हो जाते, बल्कि तुम्हें गिरफ्तार भी कर लिया जाता। हालाँकि, जैसा कि बाद में पता चला, रास्ते में गाड़ी खराब हो गई और उसे ठीक करने में दो घंटे लग गए, इसलिए जब तक तुम वहाँ पहुँचे, तब तक खतरा अभी-अभी टल चुका था और तुम सुरक्षित थे। यह परमेश्वर द्वारा तुम्हारी रक्षा करना था! जरा सोचो, अगर गाड़ी के खराब होने के परिप्रेक्ष्य से देखा जाए, तो ऐसा लगता है जैसे परमेश्वर तुम्हें जाने से रोक रहा था, लेकिन तुम्हें सिर्फ गाड़ी की मरम्मत होने और बिना किसी और घटना के तुम्हारे वहाँ पहुँचने के बाद ही वास्तव में पता चला कि क्या हुआ था। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान परमेश्वर के क्रियाकलापों के सिद्धांतों और तरीकों को तुम लोग कैसे देखते हो? लोगों को परमेश्वर के कार्य के बारे में किस तरह की समझ होनी चाहिए? इसे संक्षेप में प्रस्तुत करो, यहाँ कुछ सत्य हैं जिनकी तलाश की जा सकती है और मैं देखूँगा कि तुम उन्हें तलाशने में समर्थ हो या नहीं। (परमेश्वर, मेरी समझ यह है कि इससे फर्क नहीं पड़ता है कि लोगों के साथ अच्छी चीजें होती हैं या बुरी, इसमें परमेश्वर का अच्छा इरादा होता है।) यह एक पहलू है। (एक और पहलू है, जो यह है कि परमेश्वर का कार्य अलौकिक या काल्पनिक नहीं है, बल्कि बहुत व्यावहारिक है।) हाँ, यह अच्छी समझ है। परमेश्वर का कार्य व्यावहारिक है और यह काल्पनिक या अलौकिक नहीं है; सामान्य मानवता वाला कोई भी व्यक्ति इसे महसूस कर सकता है और अनुभव के जरिये इसे जान सकता है और यह कुछ ऐसा भी है जिसे लोग बूझने में समर्थ हैं। क्या यह वही समझ नहीं है जो लोगों को परमेश्वर के कार्य के बारे में होनी चाहिए? (हाँ।) इस समझ के अलावा लोगों को और क्या समझना चाहिए? उन्हें यह समझना चाहिए कि परमेश्वर हर चीज पर संप्रभु है। परमेश्वर अपने कार्य में जो भी विशिष्ट कार्य करता है, वह लोगों को यह देखने में सक्षम बनाता है कि उसके क्रियाकलाप अत्यंत व्यावहारिक हैं। शुरू में जब तुम्हारा समूह रवाना हो रहा था, तो तुम में से कुछ लोगों ने इस पर चर्चा की कि जाएँ या नहीं जाएँ। परमेश्वर ने तुम्हें नहीं रोका; उसने तुम्हें मतली जैसा महसूस नहीं करवाया या तुमसे उल्टी नहीं करवाई या तुम्हें दस्त नहीं लगवाए। उसने न तो तुम्हें रोका और न ही तुम्हें जाने के लिए प्रेरित किया। क्या यह बहुत व्यावहारिक नहीं है? उसने समूह को इस पर मिलकर बात करने की अनुमति दी। कुछ लोगों ने कहा कि उनकी दाईं आँख फड़क रही है, जबकि दूसरों ने कहा कि वे अंदर से असहज महसूस कर रहे हैं, लेकिन चाहे तुमने अपनी भावनाओं और मिजाज पर भरोसा किया हो या अलौकिक चीजों से संबंधित कल्पनाओं पर, अंत में तुम्हें वहाँ जाना चाहिए था जहाँ तुमसे जाने की अपेक्षा की गई थी, और परमेश्वर ने तुम्हें किसी भी तरीके से नहीं रोका। क्या परमेश्वर के लिए इस तरीके से कार्य करना बहुत व्यावहारिक नहीं है? (हाँ।) परमेश्वर के क्रियाकलाप रत्ती भर भी खोखले नहीं हैं; सभी तरह की मानवीय अभिव्यक्तियों की अनुमति है जिसमें कुछ लोगों की आँख फड़कना भी शामिल है। मुझे बताओ, क्या परमेश्वर लोगों की आँख फड़कना रोक सकता है या नियंत्रित कर सकता है? क्या परमेश्वर के लिए इसे नियंत्रित करना बहुत आसान नहीं होता? लेकिन क्या उसने ऐसा किया? (नहीं।) परमेश्वर ने ऐसा नहीं किया। उसने दखल नहीं दिया, उसने तुम्हें आजादी दी। तुम्हारी आँख वैसे ही फड़की जैसे उसे फड़कना था, लेकिन फिर भी अंत में समूह चल पड़ा—यह सब कुछ कितना व्यावहारिक था। लेकिन गंतव्य पर मुसीबत मौजूद थी और परमेश्वर ने इस खतरे से सिर्फ इसलिए छुटकारा नहीं पाया कि तुम लोग उधर जा रहे हो। परमेश्वर ने ऐसा नहीं किया और मुसीबत तब भी वैसे ही खड़ी हुई जैसे होनी चाहिए थी। फिर भी परमेश्वर ने एक चतुराई भरी चीज की : उसने तुम लोगों की गाड़ी बीच रास्ते में खराब कर दी जिससे जब तक गाड़ी की मरम्मत पूरी हुई और तुम सब गंतव्य पर पहुँचे, तब तक खतरा टल चुका था। यह परमेश्वर द्वारा तुम्हारी रक्षा करना था! देखा तुमने, इस समय अंतराल के कारण उसने चतुराई से तुम्हें खतरे से बचने में सक्षम बनाया। परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह कितना व्यावहारिक है, है ना? (हाँ।) तो यह तुम्हें बहुत ही व्यावहारिक तरीके से दिखाता है कि परमेश्वर जो करता है वह बिल्कुल भी खोखला या अलौकिक नहीं होता है और हर चीज का होना स्वाभाविक और अवश्यंभावी है, लेकिन इसमें परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता निहित है। पूरी घटना के दौरान, चाहे लोगों की कल्पनाएँ कुछ भी रही हों, चाहे उनकी कठिनाइयाँ, कमजोरियाँ और समस्याएँ कुछ भी रही हों, चाहे उन्होंने साथ मिलकर जिन दृष्टिकोणों पर चर्चा की वे सही या गलत रहे हों, इनमें से किसी ने भी अंत में जो हुआ उसे प्रभावित नहीं किया और न ही इसने घटना के अवश्यंभावी नतीजे को प्रभावित किया। हर एक चीज जो होनी चाहिए थी वह हुई, जो मुसीबत खड़ी होनी चाहिए थी वह खड़ी हुई, जो गाड़ी खराब होनी चाहिए थी वह खराब हुई, और लोगों के दृष्टिकोण भी बेनकाब कर दिए गए, लेकिन घटना का अंतिम नतीजा फिर भी उसी तरीके के अनुसार हुआ जिसे परमेश्वर ने तय किया था और उसी के अनुसार हुआ जैसा परमेश्वर ने पूर्वनिर्धारित किया था और जिस तरह से परमेश्वर ने घटना पर शासन किया था। यह परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता है, है ना? (हाँ।) यह सब कुछ कितना व्यावहारिक और सामान्य रूप से हुआ, ठीक वैसे ही जैसे लोगों के साथ उनके रोजमर्रा के जीवन में हर रोज होता है; यह स्वाभाविक रूप से हुआ और यह अलौकिक, काल्पनिक या खोखला नहीं था। इसलिए, इस मामले में लोगों को यह समझना चाहिए कि परमेश्वर का कार्य व्यावहारिक है और वह हर चीज पर संप्रभु है। लोगों को कैसे अभ्यास करना चाहिए? सबसे पहली बात, उन्हें यह समझना होगा कि उन्हें किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए, चाहे उन पर कुछ भी बीते। अगर वे सिर्फ मानवीय भावनाओं के अनुसार चलते हैं, तो यह भरोसेमंद नहीं है। उन्हें अलौकिक भावनाओं के अनुसार नहीं चलना चाहिए या खोखली कल्पनाओं के आधार पर बेबुनियाद अटकलें नहीं लगानी चाहिए। बल्कि उन्हें वास्तविक हालातों और उन्हें जो कर्तव्य करने चाहिए उनके आधार पर जाकर वही करना चाहिए जो उन्हें करना चाहिए। इसके अलावा, महत्वपूर्ण बात यह है कि वे जाकर वही करें जो उन्हें सत्य सिद्धांतों के आधार पर करना चाहिए। क्या तब यह ज्यादा आसान नहीं है? (हाँ।) इसलिए, चाहे तुम्हारे सामने कोई भी समस्या आए और चाहे परमेश्वर का कार्य किसी भी चरण तक पहुँच चुका हो, तुम्हें अपनी भावनाओं के अनुसार चलने की जरूरत नहीं है, तुम्हें यह देखने की जरूरत नहीं है कि कोई तारीख शुभ है या नहीं और विशेष रूप से यकीनन तुम्हें कोई खगोलीय परिघटना देखने या कोई भविष्यवाणी सुनने की जरूरत नहीं है—तुम बस वही करो जो तुम्हें करना चाहिए। कुछ लोग खगोलीय परिघटनाएँ देखना पसंद करते हैं या यह देखना चाहते हैं कि तारीखें शुभ हैं या नहीं, वे कहते हैं, “कल की तारीख अच्छी नहीं है, अगर मैं बाहर गया तो क्या सब कुछ गड़बड़ हो जाएगा? क्या महान लाल अजगर गिरफ्तारियाँ करेगा? आज सुबह जब मैं जल्दी उठा और बाहर गया, तो दरवाजे के पास कौआ काँव-काँव क्यों कर रहा था? मैंने सुना कि कल रात जब कुछ लोग बाहर गए थे, तो उन्होंने एक काली बिल्ली देखी थी। ये सब अशुभ संकेत हैं! मुझे क्या करना चाहिए? क्या कुछ खतरनाक होने वाला है?” अगर तुममें सामान्य मानवता और सामान्य मानवीय सोच है, तो तुम्हें यह फैसला लेने में समर्थ होना चाहिए कि किस तरह की परिस्थितियाँ खतरनाक हैं और किस तरह की परिस्थितियाँ अपेक्षाकृत सुरक्षित हैं और यह जानने में समर्थ होना चाहिए कि वास्तविक स्थिति के अनुसार उन्हें कैसे देखना है और उनसे कैसे निपटना है—तुम्हें उन दूसरी चीजों को देखने की जरूरत नहीं है। जहाँ तक इस बात का प्रश्न है कि तुम्हें हर रोज क्या करना चाहिए और क्या नहीं, एक लिहाज से, परमेश्वर के ऐसे स्पष्ट वचन हैं जो सत्य सिद्धांतों के रूप में कार्य करते हैं और दूसरे लिहाज से, तुम्हारे पास सामान्य मानवता, जमीर और विवेक है और जब तक तुम हर रोज वही करते हो जो तुम्हें वास्तविक परिस्थितियों की व्यवस्था और उनके द्वारा प्रदान की गई दिशा के आधार पर और सामान्य मानवता की वास्तविक जरूरतों और अपनी खुद की जिम्मेदारियों और दायित्वों के अनुसार करना चाहिए, तब तक यह ठीक है। अगर लोग अपने रोजमर्रा के जीवन को इस तरह से देखते हैं तो क्या चीजें और आसान नहीं हो जाएँगी? (हाँ।)

वैसे तो परमेश्वर का कार्य सर्वशक्तिमान और अद्भुत है और परमेश्वर के वचन सत्य और जीवन हैं, लेकिन फिर भी लोगों को रातों-रात पूर्ण बनाना या बदलना संभव नहीं है। कुछ लोग अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर अक्सर यह कहते हैं, “मैंने तो इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, फिर भी मैं क्यों नहीं बदला? मैंने अब भी पवित्रीकरण प्राप्त क्यों नहीं किया? अपने दिल में अब भी मुझे दुनिया से प्रेम क्यों है? मैं अब भी इतना घमंडी क्यों हूँ? अब भी मुझमें दुष्ट वासना क्यों है? पहले मुझे अविश्वासी दुनिया के कुछ वीडियो या मनोरंजन कार्यक्रम देखना पसंद था। मैं अब भी कभी-कभी उन्हें क्यों देखना चाहता हूँ, जबकि मैंने अब तक परमेश्वर में विश्वास रखा है, बहुत वर्षों से परमेश्वर के वचनों को खाया-पीया है, अपना कर्तव्य किया है, चीजों का त्याग किया है और बहुत वर्षों से खुद को खपाया है और मुझे लगता है कि मैं अपने दिल में उन चीजों को पहले ही छोड़ चुका हूँ?” लोग ऐसी ही धारणाएँ रखते हैं, हैं ना? विशेष रूप से, कुछ लोग परमेश्वर में अपने विश्वास में हमेशा ऐसी चीजों का पीछा करते हैं, जैसे कि अपने देह को वश में करना, दैहिक सुखों की लालसा नहीं करना, ज्यादा कष्ट सहना और कड़ी मेहनत करना और बहुत-से शारीरिक कष्टों पर विजय पाने में समर्थ होना। लेकिन उनके इस तरह से पीछा करते रहने के बावजूद उन्हें अब भी यही लगता है कि वे अक्सर देह की अत्यधिक इच्छाओं, सुख-सुविधाओं की लालसा और आलसीपन के वश में आ जाते हैं और इसलिए वे अक्सर नकारात्मक हो जाते हैं और परमेश्वर में आस्था खो देते हैं, वे सोचते हैं, “परमेश्वर का कार्य इस बिंदु तक पहुँच गया है, तो फिर मैं इतना निराशाजनक क्यों हूँ और अब भी अक्सर नकारात्मक क्यों हो जाता हूँ?” कभी-कभी जब वे किसी कार्य में कुछ परिणाम प्राप्त कर लेते हैं और सभी की स्वीकृति प्राप्त कर लेते हैं, तो वे सहज महसूस करते हैं और सोचते हैं, “मुझे अब भी बचाए जाने की उम्मीद है। परमेश्वर का कार्य और उसके वचन इतने अच्छे हैं। उसका कार्य वाकई लोगों को बदल सकता है।” लेकिन फिर कुछ समय बाद उन्हें लगता है कि उन्हें अब भी अपने प्रियजनों की याद आती है। विशेष रूप से, उन्हें कभी-कभी उन लोगों की बातें याद आती हैं जिनसे उन्हें कभी प्रेम था और वे उदासी से उस सांसारिक जीवन को याद करते हैं जिसे वे कभी जीते थे और उन्हें वाकई अपने उन गौरवशाली दिनों की याद आती है जब वे बाहर दुनिया में थे और इसलिए वे हैरान होते हैं, “मुझे अब भी उन चीजों की याद क्यों आती है? मैंने दैहिक सुखों को क्यों नहीं छोड़ा और खुद को पवित्र मानते हुए दुनिया से अलग क्यों नहीं किया? मैं अब तक क्यों नहीं बदला?” और वे एक बार फिर से परेशान हो जाते हैं। वे अक्सर इन विचारों और दृष्टिकोणों के बीच झूलते रहते हैं। उनकी स्थिति कभी अच्छी होती है और कभी बुरी, वे कुछ देर के लिए कमजोर हो जाते हैं और फिर कुछ देर के लिए मजबूत हो जाते हैं, वे कुछ देर के लिए नकारात्मक हो जाते हैं और फिर कुछ देर के लिए सकारात्मक हो जाते हैं। वे अक्सर रोजमर्रा के जीवन में अपनी अभिव्यक्तियों के आधार पर खुद पर फैसले देते हैं। अगर वे अच्छी स्थिति में होते हैं, तो सोचते हैं कि वे उद्धार के लिएलक्ष्य हैं; अगर वे बुरी स्थिति में होते हैं, तो उन्हें लगता है कि उनके बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं है और वे छुटकारे से परे हैं। वे या तो एक चरम पर होते हैं या फिर दूसरे चरम पर। जब वे अच्छी स्थिति में होते हैं तो उन्हें लगता है कि वे किसी संत जैसे हैं और परमेश्वर के बहुत करीब हैं, उनके और परमेश्वर के बीच कोई रुकावट नहीं है और उन्हें लगता है कि परमेश्वर उनके ठीक पास में है। जब वे बुरी स्थिति में होते हैं तो उन्हें लगता है कि वे नरक के अठारहवें स्तर में गिर गए हैं और परमेश्वर को देख या छू नहीं सकते हैं और उन्हें लगता है कि परमेश्वर उनसे बहुत दूर है। ऐसा क्यों है? उनमें ये स्थितियाँ क्यों होती हैं? क्या ये स्थितियाँ सामान्य हैं या असामान्य? (असामान्य।) जब वे अच्छी स्थिति में होते हैं तो वे वही करते हैं जिसे करने की व्यवस्था कलीसिया उनके लिए करती है और वे किसी भी कठिनाई पर विजय प्राप्त कर सकते हैं, कोई भी कष्ट सह सकते हैं और कोई भी कीमत चुका सकते हैं। उन्हें लगता है कि वे ही हैं जो परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सबसे ज्यादा सक्षम हैं, वे परमेश्वर के घर में सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हैं और कोई भी कठिनाई उन्हें मात नहीं दे सकती है। वे अपना कर्तव्य करने के लिए बहुत मेहनत करते हैं और वे प्रयास करने को तैयार रहते हैं। दूसरों के साथ संगति करते समय वे चाहे कितनी भी बातें क्यों न करें, उन्हें थकान महसूस नहीं होती, और उन्हें भोजन छोड़ देने या दो-तीन घंटों की नींद नहीं लेने से कोई आपत्ति नहीं है। वे परमेश्वर के लिए खुद को खपाने और अपना पूरा जीवन परमेश्वर को समर्पित करने के लिए तैयार रहते हैं। फलस्वरूप, उन्हें लगता है कि वे बदल गए हैं। वे अब अपने परिवार के बारे में नहीं सोचते हैं, वे अब उन लोगों को याद नहीं करते हैं जिनसे वे कभी प्रेम करते थे और वे अब अतीत की स्मृतियों में खोकर उस गौरव और सम्मान को याद नहीं करते जो दुनिया में उनके पास था। वे ये सब कुछ हवा में उड़ा देते हैं और परमेश्वर के लिए पूरे दिल से खुद को खपाते हैं, सिद्धांतों का पालन करते हैं, जो कोई भी बाधा या विघ्न डालता है उसकी काट-छाँट करते हैं, परमेश्वर के घर के लिए निष्पक्षता बनाए रखते हैं, दृढ़ता से न्याय के पक्ष में खड़े होते हैं, परमेश्वर के घर के हितों का बचाव करते हैं और एक सख्त और निष्पक्ष “न्यायाधीश” के रूप में अपनी छवि बनाते हैं। वे कुछ समय तक बहुत अच्छा प्रदर्शन करते हैं। लेकिन ऐसा समय भी आ सकता है जब वे अपने भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर दें या कोई गड़बड़ी कर दें, तो फिर वे नकारात्मक और कमजोर हो जाएँगे और सोचेंगे, “परमेश्वर ने मुझे बेनकाब कर दिया है, वह अब मुझसे प्रेम नहीं करता है।” उसके बाद से वे अपने पैरों पर वापस खड़े नहीं हो पाएँगे। उन्हें लगेगा कि वे कुछ भी नहीं हैं और वे कुछ भी करने में अक्षम हैं, अब भी उनके मन में स्वार्थी विचार और दुष्ट वासना है, वे अक्सर उन लोगों को याद करते हैं जिनसे वे कभी प्रेम करते थे और जिन्हें पसंद करते थे, वे अक्सर नकारात्मक और कमजोर हो जाते हैं, वे अब भी परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं, वे सत्य का अभ्यास करने में अक्षम हैं और इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखने के बावजूद वे नहीं बदले हैं और वे सोचेंगे, “क्या इसका मतलब यह नहीं है कि मैं तबाह हो गया हूँ?” वे सोचेंगे कि उनके पास बचाए जाने का कोई मौका नहीं है और उनके लिए बिल्कुल कोई उम्मीद नहीं है। जब वे खुश होते हैं, तो वे खुशी से फूले नहीं समाते हैं और जब वे दुखी होते हैं, तो वे अविश्वसनीय रूप से दुखी होते हैं। वे हमेशा इन दो चरम सीमाओं पर चले जाते हैं, अचानक एक सीमा से दूसरी सीमा पर पहुँच जाते हैं। ऐसा क्यों है? ये स्थितियाँ और अभिव्यक्तियाँ चाहे सकारात्मक हों या फिर मायूसी की, संक्षेप में, यह सब कुछ एक ही प्रकार की समस्या है, यानी परमेश्वर के कार्य के बारे में धारणाओं और कल्पनाओं से भरा होना और हमेशा अपने बारे में फैसले देना और अपने मिजाज के आधार पर और एक निश्चित अवधि के दौरान अपने खुलासों और अभिव्यक्तियों के आधार पर खुद को निरूपित करना, जबकि उसी समय परमेश्वर के कार्य पर, लोगों पर उसके कार्य से प्राप्त परिणामों पर और लोगों पर उसके कार्य से जो उद्देश्य और लक्ष्य हासिल होता है उस पर फैसले देना। क्या यही समस्या की जड़ है? (हाँ।) जब लोग सकारात्मक होते हैं तो वे परमेश्वर के सामने प्रार्थना करते हैं, बिलख-बिलखकर रोते हुए अपना संकल्प व्यक्त करते हैं, बदले में कुछ माँगे बिना अपना पूरा जीवन परमेश्वर को समर्पित करने को तैयार रहते हैं, परमेश्वर का अनुसरण करने और उसके लिए खुद को खपाने को तैयार रहते हैं। जब वे इस तरह से प्रार्थना करते हैं और संकल्प लेते हैं, तो उन्हें लगता है कि सभी कठिनाइयाँ अब कठिनाइयाँ नहीं रहीं। उनकी आँखें भर आती हैं और वे यह भी मानते हैं कि उन्हें पवित्र आत्मा ने ही भावुक किया है। वे सोचते हैं, “मुझे पवित्र आत्मा ने भावुक किया है। परमेश्वर मुझसे जरूर इतना प्यार करता है! परमेश्वर ने मुझे नहीं छोड़ा है!” वे डबडबाई आँखों से प्रार्थना करते हैं और कहते हैं कि उन्हें पवित्र आत्मा ने भावुक किया है—क्या यह भ्रम नहीं है? (हाँ।) दरअसल, तुम इस बात से भावुक हुए कि तुम्हें अपने बारे में इतना अच्छा महसूस हुआ; तुम पवित्र आत्मा के बजाय अपने खुद के संकल्प, आकांक्षाओं, इच्छाओं और अपने खुद के क्रियाकलापों के कारण भावुक हुए। मैं क्यों कहता हूँ कि तुमने खुद अपने आप को भावुक किया? परमेश्वर के कार्य के बारे में तुम्हारे मन में इतनी सारी धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं और वे इतनी विकृत हैं—क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर तुम्हें भावुक करेगा? जब तुम इस चरम स्थिति में हो, तब क्या परमेश्वर तुम्हें भावुक करेगा ताकि तुम और चरम स्थिति में पहुँच जाओ? अगर परमेश्वर ने तुम्हें भावुक किया होता तो यह केवल तुम्हें और भी चरम स्थिति में पहुँचा देता और तुम अपनी सराहना करने लगते और खुद को और भी भावुक कर लेते और तुम्हारी यह संकल्प लेने की इच्छा और भी बढ़ जाती : “मैं कम सोऊँगा और ज्यादा कष्ट सहूँगा, मैं खाना खाऊँगा, चाहे वह अच्छा हो या बुरा, मैं कुछ भी खाकर खुश रह लूँगा और इस बात की परवाह नहीं करूँगा कि यह मेरे शरीर के लिए अच्छा है या नहीं। मुझे अपने पुराने देह की पसंद पर काबू पाना होगा, मुझे विशेष रूप से अपने पुराने देह की कमियों को ठीक करना होगा और मुझे अपने देह को और कष्ट सहने पर मजबूर करना होगा और उसे आराम से रहने नहीं देना होगा। अगर इसे आराम महसूस हुआ, तो मैं परमेश्वर से प्रेम नहीं करूँगा; अगर इसे आराम महसूस हुआ, तो फिर मैं दैहिक सुख-सुविधाओं में लिप्त हो जाऊँगा और अपना कर्तव्य करने के लिए कड़ी मेहनत नहीं करूँगा।” अगर तुम्हें पवित्र आत्मा भावुक कर रहा होता, तो तुम बस इस चरम सीमा को लगातार बनाए रखते और इससे भी ज्यादा गलती से यह मान लेते कि तुम पहले ही देह पर विजय प्राप्त कर चुके हो और तुमने शैतान को हरा दिया है और तुम पहले ही बचाए जा चुके हो। इसलिए मैं कहता हूँ कि तुम्हें पवित्र आत्मा ने नहीं बल्कि खुद तुम्हीं ने भावुक किया। क्या तुम लोग अक्सर अपने आप को भावुक कर लेते हो? (हाँ।) तुम परमेश्वर के लिए खुद को खपाने और कष्ट सहने के अपने संकल्प के कारण भावुक होते हो और तुम परमेश्वर के लिए कष्ट सहने, किसी भी मात्रा में कष्ट सहने या यहाँ तक कि मरने के लिए भी इतने इच्छुक हो उठते हो कि तुम्हारी आँखों से आंसुओं की झड़ी लग जाती है। दरअसल, परमेश्वर तुम्हारे भावुक होने से भावुक नहीं होता है और न ही वह तुम्हारे संकल्प से भावुक होता है। तुम्हारा यह भावनाओं का प्रवाह बस एक क्षणिक आवेग है, तेज जुनून का एक क्षणिक ज्वार है। इस परिस्थिति में तुम उससे प्रार्थना भी कर सकते हो और कह सकते हो, “परमेश्वर, मैं तुम्हारे लिए मरने को तैयार हूँ! परमेश्वर, मैं आज अपना कर्तव्य करने में इतना व्यस्त था कि मैंने एक बार का भोजन छोड़ दिया। अगर मुझे 10 बार का भोजन भी छोड़ना पड़े तो भी मैं ऐसा करने को तैयार रहूँगा! लोग सिर्फ रोटी के निवालों पर नहीं बल्कि परमेश्वर के मुख से निकलने वाले वचनों पर जीते हैं। परमेश्वर, मैं तुमसे जीवन भर, हमेशा-हमेशा के लिए प्रेम करने को तैयार हूँ और तुम्हारे लिए मेरा प्रेम कभी नहीं बदलेगा!” तुम्हारे ये शानदार शब्द तुम्हें बिलख-बिलखकर रोने के लिए भावुक कर देते हैं, लेकिन परमेश्वर का तुम्हारे प्रति रवैया नहीं बदलता है। क्यों? वह इसलिए क्योंकि तुम एक क्षणिक आवेग के कारण भावुक हुए हो और तुम्हारे आँसू पश्चात्ताप के, कृतज्ञता के या खुद को सही मायने में जान पाने के आँसू नहीं हैं और ये सत्य का अभ्यास करने और सत्य सिद्धांतों को बनाए रखने की अपनी असमर्थता के लिए दुःख के आँसू तो बिल्कुल भी नहीं हैं। इसलिए, तुम्हारी यह भावना सिर्फ तुम्हें भावुक कर सकती है और शायद दूसरों को भी या तुम्हारे आस-पास के लोगों को भी भावुक कर सकती है, लेकिन परमेश्वर इससे भावुक नहीं होता है। इसलिए, तुम्हें पवित्र आत्मा भावुक नहीं करता है, बल्कि तुम खुद ही स्वयं को भावुक कर लेते हो। तुम्हारे आँसू इसलिए बहने लगे हैं क्योंकि तुमने खुद को भावुक कर लिया है। तुम्हारे आँसू, तुम्हारे भावुक शब्द और तुम्हारा तेज जुनून सिर्फ सतही घटनाएँ हैं, वे सिर्फ एक तरह का व्यवहार हैं। वे तुम्हारे सार और जीवन में कोई बदलाव नहीं हैं और न ही इस बात का प्रकाशन हैं कि सत्य तुम्हारा जीवन है। जब तुममें परमेश्वर के लिए खुद को खपाने और कष्ट सहने का जुनून और आवेग होता है और तुम विशेष रूप से अग्रसक्रिय होते हो, तो तुम्हें लगता है कि तुम्हें पवित्र आत्मा ही भावुक कर रहा है, तुम बदल गए हो और तुम उद्धार के लिए एक लक्ष्य हो—यह एक तरह की धारणा और कल्पना है जो तुम परमेश्वर के कार्य के बारे में रखते हो। जब तुम किसी अस्थायी असफलता और गिर पड़ने के कारण या तुम्हारी भ्रष्टता और कमियाँ बेनकाब किए जाने के कारण या फिर इसलिए नकारात्मक हो जाते हो क्योंकि तुम्हारी काट-छाँट कर दी गई और तुम्हें बेनकाब कर दिया गया, तो तुम उदास और दुखी महसूस करते हो और सोचते हो कि तुम नहीं बदले हो और तुम्हारे बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं है—यह परमेश्वर के कार्य के बारे में तुम्हारी एक और तरह की धारणा और कल्पना है। दरअसल, इससे फर्क नहीं पड़ता है कि परमेश्वर क्या देखता है—चाहे तुम नकारात्मक स्थिति में हो या सकारात्मक स्थिति में या तुम्हारी स्थिति चाहे जिस हद तक खराब हो चुकी हो और गिर गई हो—परमेश्वर तुम्हें पूरे समय किस तरह से देखता है? तुम्हारा आध्यात्मिक कद जो है सो है। परमेश्वर तुम्हारी वास्तविक स्थिति, तुम्हारी वास्तविक अभिव्यक्तियों और तुम्हारे वास्तविक आध्यात्मिक कद के आधार पर यह तय करेगा कि तुम कितने बदल चुके हो और तुम कितनी सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश कर चुके हो। अपने पैरों पर वापस खड़े होने की तुम्हारी मौजूदा असमर्थता और फिलहाल तुम्हारा पूरी तरह से निराशा में डूब जाना वे मानक नहीं हैं जिनसे परमेश्वर तुम्हें देखता है या तुम्हारा वास्तविक आध्यात्मिक कद तय करता है। इसलिए, इससे फर्क नहीं पड़ता है कि तुम सकारात्मक स्थिति में हो या नकारात्मक स्थिति में या तुम तेज जुनून से भरे हो या निराश महसूस कर रहे हो, यह परमेश्वर द्वारा तुम्हारे आकलन और निरूपण को प्रभावित नहीं करेगा। सिर्फ तुम्हीं एकमात्र ऐसे व्यक्ति हो जो तुम्हारे अस्थायी खुलासों और अभिव्यक्तियों के आधार पर तुम्हें गलत तरीके से—या तो किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में जो पहले से ही पतरस जैसा है या किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में जो छुटकारे से परे है—निरूपित करता है, क्योंकि परमेश्वर के कार्य के बारे में तुम्हारे पास बहुत सारी धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम किस तरह से फैसले देते हो, तुम किन अच्छी या बुरी भावनाओं का अनुभव करते हो, यह सब कुछ उन धारणाओं और कल्पनाओं के कारण होता है जो तुमने परमेश्वर के कार्य के बारे में बनाई हैं और ये धारणाएँ और कल्पनाएँ किसी व्यक्ति की परमेश्वर की सटीक और व्यावहारिक परिभाषा और उस व्यक्ति के बारे में परमेश्वर के सटीक और व्यावहारिक फैसले के अनुरूप नहीं हैं। क्या ऐसा नही है? (ऐसा है।) इसलिए, चाहे ये लोगों की अपनी अभिव्यक्तियाँ हों, उनका अपना सार हो या उनका अपना अंतिम निरूपण हो, वे अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर इन चीजों पर फैसले नहीं दे सकते हैं। इसके बजाय, उन्हें ये चीजें परमेश्वर के कार्य के सामान्य नियमों और उन वास्तविक परिणामों के आधार पर मापनी चाहिए जिन्हें परमेश्वर अपने कार्य में प्राप्त करना चाहता है या परमेश्वर के कार्य करने के तरीकों और लोगों के बारे में उसकी सटीक परिभाषाओं के आधार पर मापनी चाहिए। परमेश्वर के कार्य के बारे में यहाँ लोगों की मुख्य धारणाएँ और कल्पनाएँ क्या हैं? लोग मानते हैं कि उनका वास्तविक आध्यात्मिक कद उनकी अस्थायी अभिव्यक्तियों या एक निश्चित अवधि के दौरान उनकी अभिव्यक्तियों के आधार पर तय होता है : अगर इस अवधि के दौरान वे अच्छी स्थिति में हैं तो पवित्र आत्मा उन पर कार्य करेगा और वे बदल चुके होंगे, उनके पास जीवन होगा, उनका आध्यात्मिक कद बढ़ चुका होगा और वे उद्धार प्राप्त करने में समर्थ होंगे; अगर वे बुरी स्थिति में हैं और इस अवधि के दौरान उनकी परमेश्वर में सच्ची आस्था बिल्कुल नहीं है तो इसका मतलब है कि उनका कोई आध्यात्मिक कद नहीं है। क्या ये लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ नहीं हैं? (हाँ, हैं।) परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों की एक धारणा और कल्पना यह है कि यह लोगों पर लंबे समय तक और लगातार नहीं किया जाता है, बल्कि यह उन्हें क्षण भर के लिए थोड़ी-सी प्रबुद्धता देता है जिसके कारण वे ऊर्जा का विस्फोट और क्षणिक आवेग अभिव्यक्त करते हैं। दूसरा प्रकार यह है कि लोग मानते हैं कि परमेश्वर का कार्य अलौकिक है, परमेश्वर लोगों को सकारात्मक दृष्टिकोण रखने के लिए और कष्ट सहने और उसके लिए खुद को खपाने की इच्छा रखने के लिए प्रेरित करता है और फिर वे आध्यात्मिक कद प्राप्त करते हैं और ऐसे लोग बन जाते हैं जिनके पास अपने जीवन के रूप में परमेश्वर का सत्य होता है। वे मानते हैं कि अगर वे एक मुद्दे के कारण कमजोर हो जाते हैं, तो परमेश्वर यह तय करेगा कि वे असफल हो गए हैं और उन्हें बेनकाब कर दिया गया है और फिर परमेश्वर उनकी निंदा करेगा और उन्हें निकाल देगा और छोड़ देगा। क्या ये लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ नहीं हैं? (हाँ, हैं।)

लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ क्या हैं जिनके बारे में हमने अभी-अभी संगति की? (परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों की कई तरह की धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं। वे मानते हैं कि व्यक्ति का वास्तविक आध्यात्मिक कद एक निश्चित अवधि में उसकी अभिव्यक्तियों द्वारा या उसकी अस्थायी अभिव्यक्तियों द्वारा तय होता है और वे सोचते हैं कि लोगों पर परमेश्वर का कार्य लंबे समय तक और लगातार चलने के बजाय एक क्षण में हो जाता है। लोग यह भी मानते हैं कि परमेश्वर का कार्य बहुत ही अलौकिक है और परमेश्वर अक्सर लोगों को भावुक कर देता है। जब लोग पवित्र आत्मा के कारण क्षणिक रूप से भावुक हो जाते हैं तो उन्हें लगता है कि वे पूर्ण बनाए जाने वाले हैं या वे पतरस का मानक प्राप्त करने के नजदीक हैं और जब लोग असफल होते हैं और कमजोर हो जाते हैं तो वे तय कर लेते हैं कि उन्हें हटा दिया गया है।) इस संबंध में परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ क्या हैं? लोग मानते हैं कि उनकी अस्थायी अभिव्यक्तियाँ उनका वास्तविक आध्यात्मिक कद दर्शाती हैं और परमेश्वर लोगों की अस्थायी अभिव्यक्तियों के आधार पर उन पर फैसले देता है। लोग सोचते हैं कि परमेश्वर लोगों को कष्ट सहते हुए और कीमत चुकाते हुए देखना पसंद करता है, वह लोगों को अक्सर प्रार्थना करते हुए और संकल्प लेते हुए और इस हद तक भावुक होते हुए देखना पसंद करता है कि वे फूट-फूट कर रोने लगें और वह पसंद करता है कि लोग चीजें छोड़ देने, खुद को खपाने और लगन से कार्य करने में समर्थ हों और देह की विभिन्न कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने में समर्थ हों। वे सोचते हैं कि चाहे वे सिद्धांतों के अनुसार या सत्य के अनुरूप कार्य करें या न करें, जब तक वे अक्सर कीमत चुकाने में समर्थ हैं और अपने कर्तव्य के निर्वहन में अक्सर भोजन और नींद छोड़ देते हैं, सुबह जल्दी उठते हैं और रात को देर से सोते हैं और दिन-रात कार्य करते हैं, तब तक परमेश्वर इसे पसंद करेगा। इसका मतलब यह है कि इससे फर्क नहीं पड़ता है कि परमेश्वर क्या कार्य करता है या कितने वचन बोलता है, वह बस यही उम्मीद करता है कि सभी लोग उसके लिए कष्ट सहने और कीमत चुकाने में समर्थ हों, अच्छा भोजन न खाएँ या अच्छे कपड़े न पहनें और उनके पास खाली समय बिल्कुल न हो और उन्हें हर दिन अपने कर्तव्य करने या प्रार्थना करने में बिताना चाहिए और अक्सर संकल्प लेने चाहिए, अपना संकल्प व्यक्त करना चाहिए, मन दृढ़ करने चाहिए और शपथ लेनी चाहिए। कुछ लोग सोचते हैं कि परमेश्वर लोगों के दिलों और अंगों को सीमित करना पसंद करता है, वह लोगों को आजादी और मुक्ति नहीं देता है, इसके बजाय उन्हें दमित महसूस करवाता है ताकि उन्हें मुक्त न किया जा सके, और उन्हें सामान्य मानवता के जीवन की आजादी से वंचित करता है। लोग ऐसा सोचते हैं, है ना? (हाँ।) लोग और क्या सोचते हैं? यह कि परमेश्वर लोगों को असफल होने, कमजोरी या भ्रष्टता प्रकट करने या अपनी कमियाँ दिखाने की अनुमति नहीं देता है। लोग यह भी मानते हैं कि अगर वे उद्धार प्राप्त करना चाहते हैं और पूर्ण बनाए जाना चाहते हैं, तो अपना कर्तव्य करने की प्रक्रिया में वे बिल्कुल भी कमजोर नहीं हो सकते हैं या उनमें सामान्य मानवता की कोई भी जरूरत, कमी या दोष नहीं हो सकता है और उन्हें कोई भ्रष्ट स्वभाव प्रकट नहीं करना चाहिए। क्या ये लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ नहीं हैं? (हाँ।) लोग अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में सोचते हैं कि परमेश्वर के कार्य और मार्गदर्शन के तहत उन्हें दिल से जवान रहना चाहिए, जोशीले बने रहना चाहिए और अपने कार्य के प्रति जुनूनी होना चाहिए और गंभीर रवैया रखना चाहिए और साथ ही लगातार तनाव में रहना चाहिए और कभी भी आराम नहीं करना चाहिए। क्या लोग ऐसा ही नहीं सोचते हैं? क्या यह लोगों की धारणा और कल्पना है या यह परमेश्वर की लोगों से सच्ची अपेक्षा है? (यह लोगों की धारणा और कल्पना है।) लोग सोचते हैं कि अगर वे थोड़े-से नकारात्मक और कमजोर हैं या उन्हें थोड़ी-सी दैहिक कठिनाई है या उनकी मानवता में कुछ कमियाँ या दोष हैं या वे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं और कभी-कभी दैहिक सुख-सुविधाओं की लालसा करते हैं, तो परमेश्वर उन्हें नहीं चाहेगा, वह उनसे बात नहीं करेगा या उन पर कार्य नहीं करेगा और उन्हें निकाल दिया जाएगा और उनके पास बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं होगी। क्या वाकई यही बात है? (नहीं।) क्या ये लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ नहीं हैं? (हाँ।) लोग अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में एक लिहाज से यह मानते हैं कि परमेश्वर ऐसे लोगों को पसंद करता है जो अपने कार्य के प्रति हमेशा उत्साह और उग्र जुनून से भरे रहते हैं और दूसरे लिहाज से यह मानते हैं कि परमेश्वर लोगों की नकारात्मकता को पसंद नहीं करता है और उन्हें अपनी कमजोरियाँ दिखाने की अनुमति नहीं देता है। दूसरे शब्दों में, लोग सोचते हैं कि परमेश्वर सन्यासियों को पसंद करता है, है ना? वे सोचते हैं कि गरीबी में अपना पूरा जीवन जीना, बाहरी मामलों पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देना और दिन-ब-दिन ठंडे तेल के दीपक की मंद रोशनी में परमेश्वर के वचनों को पढ़ना जरूरी है; वे मानते हैं कि सुबह और शाम दोनों समय की प्रार्थना अनिवार्य है, उन्हें हर बार भोजन करने से पहले परमेश्वर को धन्यवाद देना चाहिए और उन्हें सामान्य मानवता की विभिन्न जरूरतों में से कोई भी जरूरत नहीं हो सकती है। वे मानते हैं कि सिर्फ तभी उन्हें परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से वफादार और अपने कार्य के प्रति पूरी तरह से ईमानदार माना जा सकता है और सिर्फ इस तरह का जुनून बनाए रखने से ही वे परमेश्वर को पसंद आ सकते हैं और ऐसे व्यक्ति बन सकते हैं जिसे परमेश्वर बचाना और पूर्ण बनाना चाहता है। क्योंकि लोगों की ये धारणाएँ और कल्पनाएँ होती हैं, इसलिए कुछ लोग जब कभी-कभी अपने परिवार को याद करते हैं तो वे अंदर से विशेष रूप से तिरस्कृत महसूस करते हैं और जब भी वे कभी-कभी थोड़ी देर के लिए गपशप करते हैं तो भी असहज महसूस करते हैं, यह सोचते हैं कि परमेश्वर उनका तिरस्कार करेगा। जब कुछ युवतियाँ कभी-कभी सजती-सँवरती हैं और थोड़े चमकीले और काफी फैशनेबल कपड़े पहनती हैं तो वे सिर से पैर तक असहज महसूस करती हैं और सोचती हैं, “क्या मेरा इस तरह की पोशाक पहनना थोड़ा-सा अश्लील नहीं है? क्या यह थोड़ा-सा अनैतिक नहीं है?” दरअसल, वे अनोखे कपड़े या उत्तेजक पोशाकें नहीं पहनती हैं, लेकिन वे सिर्फ अनैतिक महसूस करती हैं और सोचती हैं, “परमेश्वर अंदर से मेरा तिरस्कार कर रहा है। उसे मेरा ऐसा करना पसंद नहीं है।” अगर तुम्हें लगता है कि परमेश्वर को यह पसंद नहीं है तो तुम बौद्ध भिक्षु के लबादे या ताओवादियों का चोगा क्यों नहीं पहनती? वह कितना “सुंदर” और “सभ्य” होगा! वह तो अनैतिक नहीं होगा, है ना? कुछ लोग कभी-कभी थोड़ा-सा घमंड या दिखावा करते हैं और फिर अंदर से तिरस्कृत और असहज महसूस करते हैं और सोचते हैं, “परमेश्वर अब मुझे पसंद नहीं करता। वह अब मुझे नहीं चाहता।” यहाँ तक कि कुछ लोग ऐसे नियम भी बना लेते हैं कि उन्हें अपने बालों में कंघी करने, सौंदर्य-प्रसाधनों का उपयोग करने या शीशे में देखने की अनुमति नहीं है और वे सिर्फ महीने में एक बार या छह महीने में एक बार नहा सकते हैं और सोचते हैं कि अगर वे महीने में एक बार या छह महीने में एक से ज्यादा बार नहाए, तो परमेश्वर इसे नापसंद करेगा और वे यकीनन बचाए नहीं जाएँगे। वे यह नियम बना लेते हैं कि उन्हें सुबह पाँच बजे से पहले उठ जाना चाहिए और सोचते हैं कि अगर वे आधे घंटे देर से उठे तो इसका मतलब है कि वे सुख-सुविधाओं में लिप्त हो रहे हैं और परमेश्वर से प्रेम करने वाले लोग नहीं हैं; वे यह नियम बना लेते हैं कि उन्हें आधी रात के बाद सोने जाना चाहिए और सोचते हैं कि अगर वे आधी रात से पहले सोने चले गए तो इसका मतलब है कि वे निष्ठा से अपना कर्तव्य करने वाले व्यक्ति नहीं हैं। ये लोग अपने व्यवहार, दैनिक जीवन और जीवन की जरूरतों के लिए कई पक्के नियम बना लेते हैं। वे यह नहीं तलाशते हैं कि परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं और न ही वे यह समझने का प्रयास करते हैं कि इन मामलों के प्रति परमेश्वर के विचार और रवैये क्या हैं। बल्कि वे पूरी तरह से व्यक्तिपरक ढंग से यह मानते हैं कि परमेश्वर अपने कार्य में लोगों को ये अभिव्यक्तियाँ रखने की अनुमति नहीं देता है और अगर कभी उन्होंने ये अभिव्यक्तियाँ रखीं, तो इसका मतलब है कि वे पूरी तरह से विद्रोही बन रहे हैं और परमेश्वर उनसे नफरत करता है और इसलिए उन्हें बचाया नहीं जा सकता। अक्सर बस कुछ मामूली मामलों के कारण जो जिक्र करने लायक नहीं हैं, जैसे कि गलत चीज कह देना, गलत शब्द का उपयोग करना, थोड़ा-सा ज्यादा नाश्ता खा लेना या कभी-कभार कुछ मनोरंजक वीडियो देख लेना, लोग सोचते हैं, “मैं बर्बाद हो गया, मैं विद्रोहीपन पर उतर आया हूँ! मुझे नहीं पता था कि मुझमें ऐसे व्यवहार और ऐसी रुचियाँ हो सकती हैं—मुझे नहीं पता था कि मुझमें अब भी ये समस्याएँ हैं। यह भयानक है। मुझे गहराई से आत्म-चिंतन करना चाहिए, अपनी आत्मा की गहराइयों में अपना गहन-विश्लेषण करना चाहिए और जोरदार बदलाव लाना चाहिए। मैं इस बात को यूँ ही जाने नहीं दे सकता!” लोग ऐसे मामलों को बहुत महत्व देते हैं जिनका सत्य सिद्धांतों से कोई संबंध नहीं होता है। ये सभी लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं और परमेश्वर इनसे नफरत करता है। परमेश्वर लोगों को ये अभिव्यक्तियाँ प्रकट करते हुए देखना नहीं चाहता है। तो इस संबंध में लोगों को कौन-से सत्य समझने चाहिए? किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए? चूँकि ये चीजें लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं, इसलिए यकीनन ये वे सिद्धांत नहीं हैं जिनकी परमेश्वर लोगों से अपेक्षा करता है और यकीनन इनका परमेश्वर की लोगों से अपेक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं है। और चूँकि वे धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं, इसका मतलब है कि इनकी कल्पना मानव मन में की गई है और वहीं इन्हें एक साथ जोड़ा गया है—संक्षेप में, ये लोगों के मन से आती हैं और इनका उन सत्य वास्तविकताओं से कोई लेना-देना नहीं है जिनकी परमेश्वर लोगों में होने की अपेक्षा करता है। इससे फर्क नहीं पड़ता है कि लोग इन धारणाओं और कल्पनाओं का कैसे पालन करते हैं, जब तक सत्य से इनका कोई लेना-देना नहीं है, तब तक लोगों द्वारा इनका पालन किया जाना निरर्थक है। अगर तुम इनका पालन करते भी हो, तो भी तुम सत्य सिद्धांतों का पालन नहीं कर रहे हो और परमेश्वर इसे याद नहीं रखेगा। विशेष रूप से, कुछ लोग जब कभी-कभी अपनी पसंद या दैहिक आदतें प्रकट कर देते हैं तो वे अंदर से बहुत ही असहज और कड़ी फटकार महसूस करते हैं। यह असहजता और आत्म-फटकार कैसे आती है? क्या यह पवित्र आत्मा द्वारा उन्हें भावुक किए जाने का परिणाम है? (नहीं, लोगों की परमेश्वर के बारे में धारणाएँ और कल्पनाएँ होती हैं, इसलिए वे असहज महसूस करते हैं।) इन भावनाओं का आधार सत्य नहीं, बल्कि लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं। कुछ लोग बात-बात पर अंदर से तिरस्कृत और असहज महसूस करते हैं और वे दौड़कर प्रार्थना करने और अपने पाप कबूलने चले जाते हैं और जल्दी से पश्चात्ताप करते हैं। तुम्हें किस चीज के लिए पश्चात्ताप करना है? तुमने जो चीजें की हैं, वे दैनिक जीवन में आम व्यवहार हैं। वे पाप नहीं हैं और यकीनन वे बड़े अपराध नहीं हैं। ऐसी मामूली चीजों पर हंगामा मत करो! अगर तुम्हें लगता है कि ये चीजें गलत हैं तो तुम उन्हें नहीं करने का फैसला ले सकते हो। लेकिन उन्हें नहीं करने का मतलब यह नहीं है कि तुम सत्य सिद्धांतों का पालन कर रहे हो और असहज होने का मतलब यह नहीं है कि तुमने सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन किया है। तुम पश्चात्ताप क्यों कर रहे हो? तुम खुद को क्यों बदल रहे हो? क्या इसका कारण यह है कि तुम्हारी धारणाएँ और कल्पनाएँ तुम्हें यह गलत विश्वास दिला रही हैं कि तुम्हें ऐसे व्यवहार नहीं करने चाहिए या इसका कारण यह है कि तुम्हें लगता है कि तुम्हारे व्यवहार परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के खिलाफ जाते हैं? अगर वे सत्य सिद्धांतों के खिलाफ जाते हैं और तुम वाकई असहज महसूस करते हो तो तुम्हें जल्दी से अपना रास्ता बदल लेना चाहिए और परमेश्वर से पश्चात्ताप करना चाहिए। यह असहजता कम-से-कम मानवता के जमीर को फटकारना है। अगर तुम सिर्फ इसलिए असहज महसूस करते हो क्योंकि तुम अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के खिलाफ चले गए हो तो क्या तुम अनावश्यक भावनाओं में लिप्त नहीं हो रहे हो? (हाँ।) यह पूरी तरह से अनावश्यक भावनाओं में लिप्त होना है और यह बेकार है। ऐसा क्यों है कि जब तुम मसीह-विरोधियों का अनुसरण करते हो तो तुम असहज महसूस नहीं करते? तुम इसके लिए तिरस्कृत महसूस क्यों नहीं करते? जब तुम बुरे लोगों को कलीसिया के कार्य को अस्त-व्यस्त करते हुए और परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाते हुए देखते हो और तुम उन्हें रोकने के लिए उठ खड़े नहीं होते हो, तो क्या तुम असहज महसूस करते हो? जब तुम सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करते हुए और अपनी इच्छा के आधार पर बोलते और कार्य करते हो तो क्या तुम असहज महसूस करते हो? अगर तुमने इन मामलों में सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन किया है और फिर भी तुम इस बारे में कभी असहज महसूस नहीं करते हो तो फिर तुममें मानवता भी नहीं है और न ही तुम्हारे पास जमीर है। और अगर तुम्हारे पास जमीर नहीं है तो किन चीजों से तुम असहज महसूस करोगे? तुम्हारी असहजता सिर्फ तुम्हारी अनावश्यक भावनाओं में लिप्त होने के कारण है। यह तुम्हारी अपनी धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं जो तुम्हें तड़पा रही हैं और तुम्हें असहज महसूस करा रही हैं—इसका कोई फायदा नहीं है। अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में रहते हुए परमेश्वर में विश्वास रखने का तुम्हारा अंतिम परिणाम क्या होगा? तुम सिर्फ ज्यादा से ज्यादा पाखंडी और फरीसियों जैसे बनते जाओगे। तुम सिर्फ परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों से और भटकते चले जाओगे और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना तुम्हारे लिए असंभव हो जाएगा। तुम हमेशा अपने बारे में अच्छा महसूस करते हो, लेकिन वास्तव में तुम्हारे बारे में इतना अच्छा है ही क्या? तुम धारणाओं और कल्पनाओं से इतना भरे हुए हो और तुम जो कुछ भी महसूस करते हो उस सबका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। भावुक और तिरस्कृत होने की भावनाएँ, तुम जो कृतज्ञता और पश्चात्ताप महसूस करते हो, वह पश्चात्ताप जो तुम सोचते हो कि तुममें होना चाहिए और तुम जो शपथ और संकल्प लेते हो, यह सब कुछ तुम्हारी धारणाओं और कल्पनाओं से संबंधित है। ये चीजें सिर्फ तुम्हारी धारणाओं और कल्पनाओं पर आधारित हैं और इनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए, तुम जो कुछ भी करते हो—चाहे वह कष्ट सहना और कीमत चुकाना हो या चीजें अर्पित करना और खुद को खपाना और चाहे तुम कुछ भी खपाओ—अगर उसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है तो वह निरर्थक ही है। क्या तुम समझ गए हो? (हाँ।)

अब जबकि हमने परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों की इन धारणाओं और कल्पनाओं पर संगति कर ली है और उनका गहन-विश्लेषण कर लिया है, तो क्या तुम लोग इस बारे में थोड़ा-सा स्पष्ट हो गए हो कि ऐसे व्यवहारों को कैसे देखना है, जैसे कि लोग कष्ट सहते हैं या नहीं, वे कीमत चुकाते हैं या नहीं और अपने कर्तव्य करने में वे खुद को रोकते हैं या नहीं और उन्हें अच्छा भोजन करने और अच्छे कपड़े पहनने का शौक है या नहीं, वगैरह और साथ ही इस बारे में भी थोड़ा स्पष्ट हो गए हो कि परमेश्वर लोगों से किन सिद्धांतों की अपेक्षा करता है और परमेश्वर अपने कार्य से लोगों में वास्तव में क्या परिणाम प्राप्त करना चाहता है? परमेश्वर लोगों में जो परिणाम प्राप्त करना चाहता है वह यह नहीं है कि तुम हर समय अपने कार्य के प्रति अपना जुनून दिखाओ। यानी, परमेश्वर जो देखना चाहता है वह कष्ट सहने और कीमत चुकाने का तुम्हारा उत्साह या तुम्हारा संकल्प नहीं है। परमेश्वर की नजर में, अगर तुम सत्य नहीं समझते हो तो ये अभिव्यक्तियाँ सिर्फ एक क्षणिक आवेश भर हैं। दूसरे शब्दों में, वे सिर्फ तुम्हारा उत्साह हैं। उत्साह वास्तव में क्या होता है? यह तुम्हारी आवेगशीलता है या और विशिष्ट रूप से कहा जाए तो यह चीजों के प्रति एक भावनात्मक दृष्टिकोण है। परमेश्वर जो चाहता है वह लोगों का उत्साह, चीजों के प्रति उनका भावनात्मक दृष्टिकोण, उनका अस्थायी आवेश या इस तरह की जुनूनी हालत नहीं है। तो परमेश्वर क्या चाहता है? (वह चाहता है कि लोग सत्य समझने में समर्थ बनें।) कम-से-कम, वह चाहता है कि तुम सत्य से प्रेम करने और सत्य समझने में समर्थ बनो और विभिन्न मामलों से सामना होने पर किसी विनियम, औपचारिकता या व्यवहार का पालन करने के बजाय सत्य सिद्धांतों का पालन करो; वह यह भी चाहता है कि तुम अपने कर्तव्य में और हर चीज में सत्य सिद्धांतों की तलाश करने, सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने और परमेश्वर के वचनों और सत्य को अपनी वास्तविकता बनाने में समर्थ बनो—यह वह परिणाम है जिसे प्राप्त करना परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य है। जहाँ तक यह प्रश्न है कि अपने निजी जीवन में क्या तुम जल्दी सोना और जल्दी उठना चाहते हो या देर से सोना और देर से उठना चाहते हो या तुम्हारे पास किस तरह के गुण हैं या तुम कितने स्पष्टवादी हो, तो इनमें से कोई भी चीज परमेश्वर के लिए मायने नहीं रखती है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुममें कष्ट सहने का संकल्प है या नहीं या तुम कितनी कीमत चुकाते हो, परमेश्वर इन चीजों को महत्व नहीं देता है। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर में अपने विश्वास की खातिर मैंने कई वर्षों से अच्छे कपड़े नहीं खरीदे हैं और मैं दस वर्षों से भी ज्यादा समय से नाई के पास नहीं गया हूँ।” भले ही तुम अच्छा भोजन मत करो, अच्छे कपड़े मत पहनो और जीवनभर बहुत सारे कष्ट सहो, तो क्या हुआ? क्या परमेश्वर यही चाहता है? क्या परमेश्वर के उपदेश देने और संगति करने का अंतिम उद्देश्य लोगों को बहुत सारे सत्य प्रदान करना है ताकि बस तुम्हें सन्यासी बनया जा सके? क्या यह बस तुम्हें एक दयनीय बदकिस्मत व्यक्ति, भिखारी या एक गुस्सैल युवा में बदलने के लिए है? नहीं। परमेश्वर लोगों में अपने वचनों और सत्य सिद्धांतों को कार्यान्वित करना चाहता है। इसलिए, जब बहुत-से लोग मानते हैं कि परमेश्वर लोगों को ज्यादा कष्ट सहते हुए और ज्यादा कीमत चुकाते हुए देखना पसंद करता है और वह उन्हें अत्यंत मितव्ययी, कठोर और सरल जीवन जीते हुए, अत्यधिक संकल्प और आकांक्षाओं वाला व्यक्ति, अत्यधिक जुनूनी या अत्यधिक आत्म-संयमी व्यक्ति होते हुए और वाकई अपने स्थान पर रहते हुए और अच्छा व्यवहार करते हुए देखना पसंद करता है, तो ये परमेश्वर के कार्य के बारे में बस उनकी धारणाएँ और कल्पनाएँ भर हैं। मान लो कि तुम अपने जीवन के कई वर्षों तक दिन में सिर्फ एक बार भोजन करते हो और रात को तीन घंटे सोते हो और अच्छा भोजन करने या अच्छे कपड़े पहनने में समर्थ नहीं हो और तुम कई वर्षों तक वही करते हो जो तुम्हें लगता है कि तुम्हें करना चाहिए और तुमने अनगिनत कष्ट सहे हैं और अनगिनत संकल्प लिए हैं। तुम लोगों के अपने शब्दों में, तुम “अपनी मूल आकांक्षा के प्रति सच्चे रहते हो,” और तुम कष्ट सहते हो और खुद को परमेश्वर के लिए खपाते हो और अपना पूरा जीवन परमेश्वर को समर्पित कर देते हो। लेकिन इन सबके बावजूद अगर तुम कभी भी परमेश्वर के वचनों या सत्य पर मेहनत नहीं करते हो और अपने हर कार्य में सत्य सिद्धांतों की तलाश नहीं करते हो, तो तुम्हें छोड़ दिया जाना तय है। तुम कष्ट सहकर और कीमत चुकाकर और अपनी मूल आकांक्षा को कभी न बदलकर और जीवनभर परमेश्वर के लिए खुद को खपाकर और अपना सब कुछ उसे अर्पित करके उद्धार प्राप्त करना चाहते हो। यह बस एक सपना है—यह ख्याली पुलाव है। अगर तुम जीवनभर मकई का आटा और भाप से पकी मकई की रोटी खाते रहो और कभी अच्छा भोजन न खाओ या अच्छी चीजों का आनंद न लो, तो भी इसका कोई फायदा नहीं होगा। परमेश्वर कभी किसी व्यक्ति का व्यवहार नहीं देखता है और न ही वह यह देखता है कि व्यक्ति बाहर से किन नियमों का पालन करता है या वह बाहर से सरल और सादा जीवन जीता है या नहीं। परमेश्वर यह देखना चाहता है कि तुम किस मार्ग पर हो, तुम अपने सामने आने वाले हर मामले में किन सिद्धांतों का पालन करते हो और तुम समस्याओं से निपटने में सत्य सिद्धांतों का पालन करते हो या नहीं। अगर तुम सत्य सिद्धांतों का पालन नहीं करते हो, तो चाहे तुम उन निर्धारित शर्तों और नियमों का कितनी भी अच्छी तरह से पालन करो, इसका कोई फायदा नहीं होगा। इससे सिर्फ यह पता चलेगा कि तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जो धारणाओं और कल्पनाओं में जीता है, एक ऐसे व्यक्ति हो जो पूरी तरह से व्यक्तिपरक, सुखद इच्छाओं में जीता है, जिसका परमेश्वर के कार्य से बिल्कुल कोई लेना-देना नहीं है और ऐसे किसी तरीके से भी कोई लेना-देना नहीं है जिससे परमेश्वर लोगों पर उद्धार का कार्य करता है—तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर के कार्य से बहुत दूर है। इसलिए, अगर तुम परमेश्वर के कार्य से कुछ प्राप्त करना चाहते हो तो पहले तुम्हें सत्य पर कड़ी मेहनत करनी चाहिए; तुम्हें अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर कोई काम या प्रयास नहीं करना चाहिए—ऐसा करना बेकार है। कुछ लोग मुझसे पूछते हैं : “तुम्हें क्या लगता है, मैं लंबे बालों में ज्यादा सभ्य और ठीक दिखती हूँ या छोटे बालों में?” जवाब में मैं उनसे पूछता हूँ, “तुम्हें अपने बाल लंबे रखना पसंद है या छोटे?” वे कहती हैं, “मुझे अपने बाल लंबे रखना पसंद है। लेकिन मुझे लगता है कि लंबे बाल सभ्य और ठीक नहीं हैं और परमेश्वर को यह पसंद नहीं है।” और मेरा जवाब होता है, “परमेश्वर ने ऐसा कब कहा? क्या इसका सत्य से कोई लेना-देना है?” दूसरे लोग मुझसे पूछते हैं : “क्या मैं स्नैक्स खा सकता हूँ?” और मेरा जवाब होता है, “क्या स्नैक्स खाना सामान्य मानवता की जरूरत है? क्या परमेश्वर ने यह नियम किया है कि लोग उन्हें नहीं खा सकते हैं? क्या परमेश्वर इसकी निंदा करता है?” और वे कहते हैं, “मुझे लगता है कि परमेश्वर इसकी निंदा करता है क्योंकि स्नैक्स खाना अनैतिक है।” “अनैतिक” का क्या मतलब होता है? अगर तुम्हें लगता है कि स्नैक्स खाना अनैतिक है, तो क्या स्नैक्स नहीं खाने का मतलब यह है कि तुम अनैतिक नहीं हो? क्या स्नैक्स नहीं खाने का मतलब यह है कि तुम सत्य समझते हो और सत्य का अभ्यास करते हो? जब मैं इसे इस तरह से कहता हूँ तो तुम इसे समझ पाते हो, है ना? (हाँ।) धारणाएँ और कल्पनाएँ सत्य नहीं हैं और उनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। अगर तुम होशियार हो तो तुम्हें जल्दी से यह जाँच करनी चाहिए कि अब भी तुम्हारे पास कौन-सी धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं और अब भी तुम्हारे पास फरीसियों के कौन-से अभ्यास, विचार और नजरिये हैं और तुम्हें देरी किए बगैर उन्हें छोड़ देना चाहिए। इन चीजों को छोड़ देने का उद्देश्य तुम्हें अनैतिक और विलासी बनाना नहीं है, बल्कि तुम्हें सत्य सिद्धांतों की तलाश करने के लिए परमेश्वर के सामने आने और सत्य को अपने जीवन के रूप में प्राप्त करने के लिए प्रेरित करना है। परमेश्वर तुम्हें भिखारी बने हुए और सन्यासी का जीवन जीते हुए देखना नहीं चाहता है। कुछ लोग कहते हैं, “परेम्श्वर को लोगों का भिखारी होना पसंद नहीं है, तो क्या इसका मतलब यह है कि उसे उनका अमीर होना पसंद है?” परमेश्वर को लोगों का अमीर होना भी पसंद नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “यह एक मानवीय धारणा और कल्पना है कि परेम्श्वर को लोगों का शारीरिक कष्ट सहना पसंद है। तो अगर परमेश्वर को लोगों का कष्ट सहना पसंद नहीं है तो क्या इसका मतलब यह है कि उसे उनका आराम से रहना पसंद है?” गलत, यह भी तुम्हारी धारणा और कल्पना है। तो फिर, कार्य करने का सही तरीका क्या है? (परमेश्वर को यह पसंद है कि लोग उसके सामने आने और सत्य सिद्धांतों की तलाश करने में समर्थ हों, चाहे उन पर कुछ भी बीते।) चाहे कोई भी समय हो, सत्य सिद्धांतों को भुलाया नहीं जा सकता। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर को यह पसंद है कि लोग उसके सामने संकल्प लें और उनमें कष्ट सहने का संकल्प हो।” दूसरे लोग कहते हैं, “परमेश्वर ऐसे लोगों को पसंद नहीं करता है जो कष्ट सहने के इच्छुक नहीं होते हैं।” क्या ये चीजें कहना सही है या गलत? कौन-सा कथन सही है और कौन-सा गलत? (ये दोनों ही गलत हैं।) कुछ लोग हमेशा अपने रुतबे, शोहरत और फायदे के लिए कष्ट सहते हैं—उनमें कष्ट सहने का दृढ़ संकल्प होता है। क्या ये अभिव्यक्तियाँ परमेश्वर को खुश करती हैं? (नहीं।) जब व्यक्तिगत मामलों की बात आती है तो कुछ लोग कष्ट सहने को तैयार नहीं होते हैं, लेकिन वे अपना कर्तव्य करने और सत्य की खातिर कष्ट सहने को तैयार रहते हैं और सत्य-सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के लिए थोड़ा-सा कष्ट सहने को तैयार रहते हैं। इनमें से कौन-सी अभिव्यक्ति बेहतर है? (सत्य सिद्धांतों की खातिर कष्ट सहना।) इन चीजों से क्या देखा जा सकता है? यह कि सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना और सत्य का अभ्यास करना सही है। चाहे यह अपने कर्तव्य करने के मामलों के संबंध में हो या अपने व्यक्तिगत जीवन के मामलों के संबंध में, कोई व्यक्ति कष्ट सहता है या नहीं यह कोई मानक या सिद्धांत नहीं है। सिद्धांत क्या हैं? सिद्धांत परमेश्वर की अपेक्षाएँ, परमेश्वर के वचन और सत्य हैं। अगर तुम सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करते हो तो अगर तुम ऐसा करने में कष्ट नहीं भी सहते हो, तो भी तुम जो कर रहे हो वह सही है और परमेश्वर इसे पसंद करेगा; अगर तुम सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं करते हो तो भले ही तुम इस प्रक्रिया में बहुत कष्ट सहो या अपमान झेलो, यह व्यर्थ है और परमेश्वर तुम्हारे क्रियाकलाप पसंद नहीं करेगा। यह ठीक वैसा ही है जैसे कुछ लोग किसी मसीह-विरोधी से आदेश सुनते हैं और फिर वैसा ही करते हैं जैसा उन्हें कहा गया है, मसीह-विरोधी की पसंद के अनुसार कार्य कोकार्यान्वित करते हैं, बहुत सारी बातें करते हैं और कष्ट सहते हैं और खुद को बहुत व्यस्त रखते हैं, इस हद तक कि शारीरिक थकावट के कारण उनका शरीर झुक जाता है और टूट जाता है। क्या परमेश्वर इसकी अनुमति देता है? क्या परमेश्वर इसे याद रखेगा? (वह इसकी अनुमति नहीं देता है और वह इसे याद नहीं रखेगा।) तो परमेश्वर का रवैया क्या है? (परमेश्वर ऐसे लोगों से नफरत करता है।) परमेश्वर ने क्या कहा? “हे कुकर्म करनेवालों, मेरे पास से चले जाओ।” परमेश्वर का यही रवैया है, है ना? (हाँ।) चाहे तुमने कितना भी कष्ट सहा हो या कितनी भी बड़ी कीमत चुकाई हो, भले ही तुम अपने योगदानों की शेखी बघारने के लिए इनका उपयोग कर सकते हो, लेकिन परमेश्वर इन चीजों को नहीं देखता है। परमेश्वर सिर्फ यह देखता है कि तुमने ये चीजें सत्य सिद्धांतों के अनुसार की हैं या नहीं और क्या तुम परमेश्वर के वचनों का पालन कर रहे थे—तुम्हें मापने के लिए वह इसी सिद्धांत का उपयोग करता है। अगर तुम परमेश्वर के वचनों का पालन करने के बजाय अपने विचारों के अनुसार कार्य करते हो, तो चाहे तुम कितना भी कष्ट सहो या कितनी भी बड़ी कीमत चुकाओ, यह सब कुछ निरर्थक होगा। न सिर्फ परमेश्वर इसे याद नहीं रखेगा, बल्कि वह इसकी निंदा भी करेगा। यह तुम्हारा विनाश लेकर आएगा, है ना? (हाँ।) ऐसे लोगों को अंत में हटा दिया जाएगा—वे इसी लायक हैं, है ना? (हाँ।) परमेश्वर ने कई हजार वचन बोले हैं और तुम्हें सत्य सिद्धांत बताए हैं, लेकिन तुम तो सुनते ही नहीं। तुम्हारे पास हमेशा अपने विचार होते हैं और तुम सत्य को अपनी धारणाओं और कल्पनाओं से प्रतिस्थापित करने और इस तरह से परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने, राज्य में प्रवेश करने और धन्य होने और पुरस्कृत किए जाने के ख्याली पुलाव पकाते हो। क्या यह मौत को बुलावा देना नहीं है? क्या ऐसे लोग पौलुस जैसे नहीं हैं? (हाँ।) इसलिए, अगर लोग अपने और परमेश्वर के बीच के अवरोधों और परमेश्वर के प्रति अपनी शत्रुता को छोड़ना चाहते हैं, तो उन्हें परमेश्वर के कार्य की सटीक समझ होनी चाहिए। उन्हें परमेश्वर के बारे में अटकलें लगाना, उसके कार्य को मापना या अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर अपने व्यवहार और अभ्यासों को मापना और फिर इन धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर सब कुछ संभालना नहीं चाहिए। इस तरीके का अंतिम परिणाम यह होगा कि यह विफल हो जाएगा और गंभीर मामलों में, वे कलीसिया के कार्य को अस्त-व्यस्त कर देंगे, परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित करेंगे और दंडित किए जाएँगे। इसलिए, परमेश्वर के कार्य के संबंध में लोगों को परमेश्वर के बारे में अपनी विभिन्न धारणाएँ और कल्पनाएँ छोड़ देनी चाहिए। यानी उन्हें अपनी धारणाओं और कल्पनाओं की जाँच करनी चाहिए, उनका गहन-विश्लेषण करना चाहिए और फिर उन्हें छोड़ देना चाहिए, परमेश्वर के इरादों और सत्य की तलाश करनी चाहिए और अपनी धारणाओं, कल्पनाओं, गलत सिद्धांतों और अभ्यासों को बदलने के लिए सत्य सिद्धांतों का उपयोग करना चाहिए। सिर्फ इसी तरह से तुम उद्धार के मार्ग पर चलना शुरू कर सकते हो। नहीं तो तुम्हें बचाया जाना असंभव है, इसका तो प्रश्न ही नहीं उठता! यह एक तरह की धारणा और कल्पना है जो लोग परमेश्वर के कार्य के बारे में रखते हैं। तो चलो हम अपनी संगति यहीं समाप्त करें।

परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों की एक और तरह की धारणा और कल्पना है, जो यह है कि अपने रोजमर्रा के जीवन में जब वे कमजोर होते हैं, जब उनमें परमेश्वर के प्रति विभिन्न प्रकार के विद्रोहीपन जन्म लेने लगते हैं या जब उन्होंने ऐसी चीजें की होती हैं जो परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करती हैं और परमेश्वर का विरोध करती हैं, तो वे अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में यह मानते हैं कि उन्हें अनुशासित किया जाना चाहिए, उन्हें ताड़ना दी जानी चाहिए या यहाँ तक कि उन्हें दंडित, शापित, वगैरह भी किया जाना चाहिए। मिसाल के तौर पर, कभी-कभी लोग गलत चीज कह देते हैं या कुछ धारणाएँ प्रकट कर देते हैं या वे किसी चीज के बारे में कुछ राय और कुछ अवज्ञा रखते हैं और कुछ समय बाद सोचते हैं, “मैंने यह विद्रोहीपन और विश्वासघात प्रकट किया है, लेकिन मुझे इसके लिए अनुशासित क्यों नहीं किया गया है? मेरी जीभ पर छाले नहीं पड़े है, मुझे रात में बुरे सपने नहीं आते हैं और मैं दिल में असहज महसूस नहीं करता हूँ। ऐसा क्यों है? मैं पवित्र आत्मा का कार्य महसूस क्यों नहीं करता?” अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में वे मानते हैं कि चूँकि परमेश्वर उन्हें बचाने के लिए आया है और परमेश्वर के कार्य को उन्हें न सिर्फ जीत लेना चाहिए, बल्कि उन्हें बदल देना और शुद्ध भी करना चाहिए और उनके उन सभी प्रकार के विचारों और नजरियों को बदल देना चाहिए जो सत्य से असंगत हैं, तो अगर उनके विचारों में कुछ ऐसी बातें हैं जो सत्य से असंगत हैं या ऐसी चीजें हैं जो गंदी, मैली या दुष्ट हैं, तो उन्हें उनके लिए अनुशासित, तिरस्कृत या यहाँ तक कि दंडित भी किया जाना चाहिए और वे सोचते हैं, “अगर लोगों को अक्सर अनुशासित नहीं किया गया तो वे कैसे बदल सकते हैं और कैसे पवित्र हो सकते हैं?” यहाँ लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ क्या हैं? यानी, उन्हें अक्सर अनुशासित, तिरस्कृत, ताड़ित और दंडित किया जाना चाहिए और यहाँ तक कि उन्हें ताड़ना भी दी जानी चाहिए और उनकी आलोचना भी की जानी चाहिए और सिर्फ तभी वे स्वभावगत बदलाव प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन रोजमर्रा के जीवन में जब लोग गंदगी, दुष्टता और भ्रष्टता प्रकट करते हैं, तो वे ऐसा बहुत स्वाभाविक रूप से करते हैं, वे इसे महसूस कर सकते हैं और वे इस तरीके से जीवन जीने में शांति भी महसूस करते हैं और उन्हें यह आभास नहीं होता है कि उन्हें अनुशासित या दंडित किया जा रहा है और उन्हें यह असामान्य लगता है। लोग सोचते हैं कि अगर वे भ्रष्टता प्रकट करते हैं, तो उन्हें कम-से-कम तिरस्कृत महसूस करना चाहिए या बीमार पड़ जाना चाहिए या उनके मुँह में छाले पड़ जाने चाहिए या भोजन करते समय उनका खाना गले में फँस जाना चाहिए या उनकी जीभ दाँतों से कट जानी चाहिए और अगर वे कुछ ऐसा देखते हैं जो उन्हें नहीं देखना चाहिए तो उनकी आँखें लाल हो जानी चाहिए और सूज जानी चाहिए। मुझे बताओ, क्या परमेश्वर ये चीजें करता है? (नहीं।) क्या वह इन्हें बिल्कुल नहीं करता है? (जब लोग सत्य नहीं समझते हैं तो परमेश्वर उनके आध्यात्मिक कद के अनुसार उन्हें थोड़ा-सा अनुशासित और तिरस्कृत कर सकता है ताकि वे आत्म-चिंतन कर सकें और सत्य में प्रवेश कर सकें। लेकिन जब लोग सत्य समझते हैं और अपने दिलों में स्पष्ट रूप से यह जानते हैं कि उन्होंने जो किया है वह गलत है, तो ऐसे में परमेश्वर यकीनन उन्हें अनुशासित नहीं करेगा क्योंकि वह उम्मीद करता है कि वे सत्य की तलाश कर सकते हैं और उसके वचनों और सत्य का उपयोग अपने क्रियाकलापों और व्यवहार को मापने के लिए कर सकते हैं।) उस पर वाकई बहुत अच्छी तरह से संगति की गई थी। अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में लोग मानते हैं कि जब भी वे भ्रष्टता और विद्रोहीपन प्रकट करते हैं तो परमेश्वर को उन्हें अनुशासित करना चाहिए और विशेष रूप से, जब कुकर्मी बुराई करते हैं तो उन्हें तुरंत परमेश्वर का दंड मिलना चाहिए ताकि कुकर्मी निश्चित रूप से दंडित किए जा सकें। लेकिन वास्तविक जीवन में वे मुश्किल से ही कभी ये दंड दिए जाते हुए देखते हैं। एक लिहाज से, जब लोग भ्रष्टता और विद्रोहीपन के विभिन्न प्रकार प्रकट करते हैं तो उन्हें अनुशासित नहीं किया जाता है या उन्हें ताड़ना नहीं दी जाती है और दूसरे लिहाज से, जब कुकर्मी बुराई करते हैं तो उन्हें दंडित नहीं किया जाता है। इससे लोगों के दिलों की गहराइयों में परमेश्वर के कार्य के बारे में कुछ धारणाएँ जन्म ले लेती हैं और यहाँ तक कि कुछ लोग अपनी आस्था भी खो देते हैं और इन बाहरी चीजों के आधार पर परमेश्वर के कार्य को मापते हैं और उसके कार्य पर फैसले देते हैं। ये लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं, है ना? जब लोग भ्रष्टता और विद्रोहीपन प्रकट करते हैं, तो क्या परमेश्वर को उन्हें अनुशासित करना चाहिए या उन्हें ताड़ना देनी चाहिए और उनकी आलोचना करनी चाहिए? (नहीं।) कुछ लोग कहते हैं, “जब परमेश्वर लोगों को बचाता है तो उसे उन्हें पूरी तरह से बचाना चाहिए। परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य क्या है? क्या यह लोगों को शुद्ध करना नहीं है? इसलिए जब लोग भ्रष्टता और विद्रोहीपन प्रकट करते हैं तो परमेश्वर को उन्हें अनुशासित करना चाहिए और उनका तिरस्कार करना चाहिए—यह उनके प्रति जिम्मेदार होना है। नहीं तो इसका मतलब है कि वह लोगों की परवाह नहीं करता है और सही मायने में उनसे प्रेम नहीं करता है और उन पर दया नहीं करता है।” क्या लोग इसी तरीके से नहीं सोचते हैं? (हाँ।) यहाँ कौन-से सत्य समझे जाने चाहिए? क्या लोगों द्वारा सत्य समझने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए अनुशासित होना, ताड़ना दिया जाना और दंडित होना जरूरी प्रक्रियाएँ हैं? क्या ये लोगों को बचाने और उन्हें बदलने के लिए परमेश्वर के जरूरी साधन और तरीके हैं? कुछ लोग इसे समझ नहीं पाते हैं और सोचते हैं, “अगर वाकई परमेश्वर का अस्तित्व है और वह लोगों को बचाने के लिए अपना कार्य करता है तो जब लोग भ्रष्टता प्रकट करते हैं या उसके खिलाफ विद्रोह करते हैं तो वह उन्हें अनुशासित क्यों नहीं करता है? परमेश्वर कुकर्मियों को बुराई करने के लिए दंडित क्यों नहीं करता है?” जब परमेश्वर लोगों को अनुशासित नहीं करता है या जब कुकर्मियों को बुराई करने के लिए दंडित नहीं किया जाता है तो क्या इससे कुछ लोग परमेश्वर के अस्तित्व और उसके कार्य के परिणामों पर प्रश्न नहीं उठाएँगे? अगर बार-बार अनुशासित और दंडित करना लोगों द्वारा सत्य की खोज करने की जगह ले सकता या उन्हें सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम बना सकता तो अनुशासित और दंडित करना ही वह मुख्य तरीका होता जिससे परमेश्वर लोगों को बचाने के लिए कार्य करता है और ये ऐसा करने का एक जरूरी साधन भी होता। लेकिन लोगों की भ्रष्टता के वर्तमान स्तर को देखा जाए तो क्या परमेश्वर के अनुशासित और दंडित करने से उनकी शैतानी प्रकृति को तुरंत बदला जा सकता है? क्या लोग तुरंत सच्चा पश्चात्ताप करना शुरू कर सकते हैं? क्या वे तुरंत सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं? (नहीं, वे नहीं कर सकते हैं।) यह उनके बस की बात नहीं होगी। इसलिए, परमेश्वर के कार्य के इस चरण में जब परमेश्वर लोगों को जीवन प्रदान करने के लिए सत्य व्यक्त करता है तो उसी समय वह—पवित्र आत्मा द्वारा लोगों को प्रबुद्ध करने और उनका मार्गदर्शन करने के कार्य को छोड़कर—कुछ भी अलौकिक नहीं करता है और मुश्किल से ही कभी वह लोगों को ताड़ना देने, अनुशासित या दंडित करने जैसी चीजें करता है। लोगों को ताड़ना देना, अनुशासित और दंडित करना परमेश्वर के कार्य का मुख्य भाग नहीं है, लेकिन वह फिर भी ये चीजें करता है। यानी कुछ विशेष लोगों के मामले में या कुछ विशेष मामलों या कुछ विशेष परिवेशों में, कुछ विशेष परिणाम प्राप्त करने की खातिर या कुछ विशेष कारणों से, परमेश्वर लोगों को अनुशासित करने, ताड़ना देने या दंडित करने का कार्य करेगा। लेकिन कुल मिलाकर वह अपने कार्य के इस चरण में जिस मुख्य तरीके से कार्य करता है वह सत्य बोलना और व्यक्त करना है ताकि वह लोगों को वह चीज प्रदान कर सके जिसकी उन्हें सत्य का अनुसरण करने के अपने मार्ग पर जरूरत है, और इसका उद्देश्य उन्हें सत्य सिद्धांतों को समझने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम बनाना है। अब जबकि परमेश्वर ने बहुत सारे सत्य व्यक्त कर दिए हैं तो वह अनुशासित करने, ताड़ना देने और यहाँ तक कि दंडित करने का यह कार्य शायद ही कभी करता है जो उसने अतीत में किया था। इसलिए लोगों को इस बात पर कि क्या परमेश्वर उन्हें अनुशासित कर रहा है, बाधित कर रहा है या किसी दिए गए मामले में उनके लिए चीजें सुचारू रूप से चला रहा है, और ऐसे दूसरे तरीकों और अभ्यासों पर, ध्यान देने के बजाय उन विभिन्न सत्य सिद्धांतों पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए जिन्हें उन्हें रोजमर्रा के जीवन में मामलों का सामना करने पर अभ्यास में लाना चाहिए। चूँकि परमेश्वर कभी-कभी अनुशासित करने, ताड़ना देने और दंडित करने जैसे तरीकों का उपयोग करता है, इसलिए ऐसा नहीं है कि वह इनका उपयोग कभी नहीं करता है, वह बस इनका उपयोग कभी-कभार ही करता है। “इनका उपयोग कभी-कभार ही करंता है” से मेरा क्या मतलब है? जब-तब, कुछ विशेष हालातों में, वह—हल्के या प्रतिनिधिक और प्रतीकात्मक तरीके से—कुछ ऐसा कार्य करने के लिए जो लोगों को सत्य समझने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने में मदद करता है, अनुशासित करने, ताड़ना देने या दंडित करने के तरीकों का उपयोग करेगा। यानी, वह इन तरीकों का उपयोग लोगों को सत्य सिद्धांतों में प्रवेश करने में मदद करने के लिए करता है, लेकिन बस इतना ही। तो फिर परमेश्वर अपने कार्य में इन तरीकों का बहुत उपयोग क्यों नहीं करता है? वह मुख्य रूप से इन तरीकों से कार्य क्यों नहीं करता है? एक लिहाज से, वह इसलिए है क्योंकि अपने कार्य के इस चरण में उसने लोगों को पहले से ही विभिन्न सत्य बता दिए हैं और प्रदान कर दिए हैं जिन्हें उन्हें समझना चाहिए, और उन्होंने पहले से ही ये सत्य सुन लिए हैं और उनके पास पहले से ही अपनी समझ के दायरे में उनकी जानकारी और ज्ञान है। यह एक कारण है। दूसरा कारण लोगों के व्यक्तिपरक कारकों से संबंधित है। लोगों के पास सामान्य मानवता वाला जमीर होता है और इस जमीर के प्रभाव में वे यह मापेंगे कि उनके द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभाव या उनके अपने क्रियाकलाप, विचार और नजरिये सकारात्मक हैं या नकारात्मक। यह सब कुछ मापने के लिए लोगों में, कम-से-कम, जमीर का मानक होता है। अगर तुम किसी विशेष चीज को मापने के लिए अपने जमीर का उपयोग करते हो और तुम यह तय करते हो कि वह सकारात्मक है तो तुम्हें आगे बढ़ना चाहिए और इसे करना चाहिए और अगर इसे करने में तुम थोड़े धीमे हो या तुम देर कर देते हो तो तुम्हें अपना तिरस्कार करने की जरूरत नहीं है। अगर तुम उस चीज को मापने के लिए अपने जमीर का उपयोग करते हो और तुम यह तय करते हो कि वह नकारात्मक है और कुछ ऐसा है जो नहीं करना चाहिए, तो तुम्हें खुद को रोकना चाहिए और ऐसा कहना या करना नहीं चाहिए। लेकिन अगर तुम्हारे पास अपने जमीर और विवेक से प्रेरित भावनाएँ नहीं हैं तो तुम मनुष्य नहीं हो। अगर तुम्हारे पास जमीर और विवेक भी नहीं है तो तुम संभवतः यह नहीं माप सकते कि कोई चीज सही है या गलत, सकारात्मक है या नकारात्मक और इस प्रकार परमेश्वर के लिए तुम्हें अनुशासित और दंडित करना निरर्थक होगा। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर उन लोगों पर कार्य नहीं करता है जो जमीर के प्रभावों के अधीन नहीं हैं और वह ऐसे लोगों को नहीं बचाता है। “उन्हें नहीं बचाने” में क्या शामिल है? वह उन्हें अनुशासित करना चाहता ही नहीं है; वह उन्हें अनुशासित नहीं करता है या उन्हें ताड़ना नहीं देता है। कुछ लोग पूछते हैं, “अगर कोई बुराई करता है तो क्या परमेश्वर उसे दंडित करेगा?” परमेश्वर उसे सीधे दंडित नहीं करेगा क्योंकि कलीसिया के पास प्रशासनिक आदेश हैं। अगर वह कोई ऐसा बुरा व्यक्ति है जो बाधाएँ या विघ्न डाल रहा है, तो उसे बहिष्कृत या निष्कासित कर इस मामले को समाप्त कर दिया जाएगा। अगर वह बहिष्कृत या निष्कासित किए जाने की शर्तें पूरी नहीं करता है तो भी उसे ब समूह में भेज दिया जाएगा। अगर कोई परमेश्वर के चढ़ावे बर्बाद करता है तो यह ज्यादा गंभीर है और उससे जो भी देय है उसकी उसे प्रतिपूर्ति करनी चाहिए और उसके बाद उससे उचित तरीके से निपटा जाना चाहिए। परमेश्वर के कार्य का यही सिद्धांत है और यही वह सिद्धांत है जिसके द्वारा वह लोगों से पेश आता है। यह सरल है, है ना? (हाँ, है।) क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर का तुम्हें चुनने का यह मतलब है कि वह तुम्हें जरूर पूर्ण बनाएगा और जब तक वह ऐसा नहीं करता है, तब तक वह नहीं रुकेगा? ऐसा सिर्फ उन लोगों के लिए है जिनके पास जमीर और विवेक है और जो सत्य का अनुसरण करते हैं—ऐसा सिर्फ उन लोगों के लिए है जिन्हें बचाया जा सकता है। जहाँ तक उन लोगों की बात है जिनके पास जमीर की जागरूकता तक नहीं है, उनके साथ सिर्फ कलीसिया के प्रशासनिक आदेशों के अनुसार पेश आने और निपटने की जरूरत है—परमेश्वर उन्हें अनुशासित नहीं करेगा। उन्हें अनुशासित करने का क्या फायदा है? ऐसे लोगों को अनुशासित करना जिनमें सामान्य मानवता और जमीर नहीं है, मछली को जमीन पर रहने या सुअर को उड़ने के लिए मजबूर करने के समान है, यह सूअरों के आगे मोती डालने और अशुद्ध लोगों को खाने के लिए पवित्र चीजें देने जैसा है—परमेश्वर यकीनन ऐसा नहीं करता है। इसलिए, इस मामले में लोगों को यह नहीं सोचना चाहिए, “मुझे परमेश्वर ने चुना, मैं परमेश्वर की भेड़ों में से एक हूँ और अगर मैं गलतियाँ और बुराई करूँ, तो भी परमेश्वर मुझे नहीं छोड़ेगा।” इस बात में दम नहीं है—यह कहना मुश्किल है कि तुम भेड़ हो या भेड़िया। तुम यह कैसे मापते हो कि तुम परमेश्वर की भेड़ों में से एक हो या नहीं? यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या तुममें इस बारे में जागरूकता है और जब तुमने कुछ ऐसा किया है जो मानवता और जमीर के विरुद्ध जाता है तो क्या तुम्हारा जमीर तिरस्कृत और निंदित महसूस करता है। अगर यह निंदित महसूस करता है तो तुम अपने आप को बदल डालोगे और अगर तुम सत्य नहीं समझते हो, तो भी तुम जमीर के मानक के अनुसार कार्य करने में समर्थ होगे। कम-से-कम, तुम सामान्य मानवता के अनुसार कार्य करने में समर्थ होगे। अगर तुममें ये अभिव्यक्तियाँ हैं तो तुम परमेश्वर की भेड़ों में से एक हो। जब तुम्हारे सामने कोई ऐसी चीज आती है जो सामान्य मानवता वाले जमीर के खिलाफ जाती है और नैतिक न्याय का उल्लंघन करती है, तो अगर तुममें न्याय की रत्ती भर भी भावना नहीं होती है और तुम्हें अपनी की हुई बुराई के लिए या कुकर्मियों द्वारा डाले गए विघ्न के लिए नफरत महसूस नहीं होती है और अगर तुम्हारा जमीर बिल्कुल भी तिरस्कृत महसूस नहीं करता है तो तुम परमेश्वर की भेड़ों में से एक नहीं हो, तुम एक भेड़िये हो, तुम एक दरिंदे हो और तुम एक दानव हो। यह वह मानक है जिससे यह मापा जाता है कि तुम परमेश्वर की भेड़ों में से एक हो या भेड़िये हो। अगर तुम परमेश्वर की भेड़ों में से एक नहीं हो और फिर भी तुम विचारों, धारणाओं और कल्पनाओं, जैसे कि, “मैंने भ्रष्टता और विद्रोहीपन प्रकट किया है, फिर भी परमेश्वर ने मुझे अनुशासित नहीं किया है; परमेश्वर को मुझे अनुशासित करना चाहिए,” का उपयोग करके लगातार परमेश्वर का कार्य मापते हो तो तुम बेवकूफ हो। तुम परमेश्वर की भेड़ों में से एक बिल्कुल नहीं हो और परमेश्वर का तुम्हें बचाने का कोई इरादा नहीं है, तो क्या तुम परमेश्वर के कार्य को मापने और उसके बारे में राय बनाने के योग्य हो? अगर यह बेवकूफी नहीं है तो यह क्या है? तुम यह मामला माप सकते हो, है ना? (अब मैं माप सकता हूँ।)

जमीर होने का मानक क्या है? तुम्हें यह कैसे मापना चाहिए कि किसी व्यक्ति में जमीर है या नहीं? (यह इस बात पर निर्भर करता है कि जब वह कुकर्मियों को बुराई करते देखता है या परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाने वाली चीजें देखता है, तो क्या उसके दिल में न्याय की भावना होती है और क्या वह इन चीजों से नफरत करने में समर्थ होता है। अगर उसके दिल में बिल्कुल भी जागरूकता नहीं है तो इसका मतलब है कि उसमें जमीर नहीं है। साथ ही, अगर किसी के दिल में अपनी की हुई बुराई या उन चीजों के बारे में कोई जागरूकता नहीं है जो स्पष्ट रूप से सिद्धांतों का उल्लंघन करती हैं, तो ऐसे लोगों में भी जमीर नहीं होता है।) अगर तुममें जमीर नहीं है तो इसका मतलब है कि तुम मनुष्य नहीं हो। ऐसे में क्या परमेश्वर फिर भी तुम्हें बचाएगा? अगर परमेश्वर तुम्हें नहीं बचाएगा तो क्या वह फिर भी तुम्हें अनुशासित करेगा? अनुशासित करना और ताड़ना देना परमेश्वर के कार्य का एक न्यूनतम भाग हैं। जब मैं “न्यूनतम” कहता हूँ, तो मेरा मतलब है कि परमेश्वर इन तरीकों का कम उपयोग करता है, लेकिन फिर भी वे परमेश्वर के कार्य का भाग हैं। अगर तुममें जमीर या विवेक ही नहीं है तो क्या परमेश्वर का तुम्हें अनुशासित करने का कोई फायदा है? अगर तुममें न्याय की भावना नहीं है और तुम्हें सभी दुष्ट चीजों, सत्य के विरुद्ध जाने वाली सभी चीजों, नैतिक न्याय के विरुद्ध जाने वाली सभी चीजों और यहाँ तक कि अपने जमीर के विरुद्ध जाने वाली सभी चीजों के प्रति कुछ भी महसूस नहीं होता है और तुम ऐसी चीजों से नफरत नहीं करते हो और अगर तुम परमेश्वर के घर के हितों का बचाव करने के लिए परमेश्वर के पक्ष में खड़े नहीं हो पाते हो और तुम उठकर कलीसिया के कार्य के बचाव में एक चीज—एक निष्पक्ष बयान—तक नहीं कह पाते हो तो इसका मतलब है कि तुम मनुष्य नहीं हो। तुम मनुष्य नहीं हो और फिर भी तुम परमेश्वर से तुम्हें अनुशासित करने की अत्यधिक उम्मीद करते हो। तुम वाकई खुद को ऊपर उठा रहे हो और खुद को बाहरी व्यक्ति नहीं मान रहे हो! कुछ लोग कहते हैं, “अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर की भेड़ों में से नहीं बल्कि भेड़िया है, तो परमेश्वर उसे अनुशासित नहीं करेगा। इसलिए अगर वह परमेश्वर की भेड़ों में से हो, तो क्या परमेश्वर उसे अनुशासित करेगा?” विशेष हालातों में परमेश्वर कभी-कभार तुम्हें अनुशासित करेगा और तुम्हारी तरफ से जिम्मेदारी लेगा। अगर तुम सुन्न और बेखबर हो तो भी परमेश्वर तुम्हें प्रेरित करेगा, तुम्हें अनुशासित करेगा और तुम्हारा तिरस्कार करेगा। परमेश्वर का कार्य उचित सीमा तक किया जाता है और उसे वहीं छोड़ दिया जाता है। वह इस तरीके से कार्य क्यों करता है? क्योंकि अगर तुममें जमीर है तो जब परमेश्वर तुम्हें इस तरीके से तिरस्कृत करेगा, तो तुरंत तुम्हारे जमीर में जागरूकता आएगी और तुम खुद को दोषी ठहराओगे और उसके प्रति एहसानमंद महसूस करोगे; तुम पश्चात्ताप, दुख और पीड़ा महसूस करोगे और तुम खुद को बदलने में समर्थ होगे और अंत मे सत्य सिद्धांतों की तलाश करोगे और सत्य के अनुसार अभ्यास करोगे—परमेश्वर यही परिणाम चाहता है। अगर तुममें संवेदनशील जमीर है और तुम बहुत-से सत्य समझते हो, और भले ही परमेश्वर तुम्हें अनुशासित न करे, तुम्हें ताड़ना न दे या तुम्हें प्रेरित न करे, फिर भी तुम समस्या का एहसास करने में समर्थ हो और अब भी तुम्हारे जमीर में जागरूकता है और वह तिरस्कार और फटकार महसूस करता है, तो यह और भी बेहतर है और परमेश्वर के अनुशासन की जरूरत नहीं है। अगर परमेश्वर तुम्हें अनुशासित न भी करे तो भी तुम्हारा जमीर अत्यंत संवेदनशील होता है और फटकार महसूस करता है और तुम पश्चात्ताप, दुःख और परमेश्वर के प्रति एहसानमंद महसूस करते हो और यह महसूस करते हो कि तुमने उसके साथ गलत किया है, उसे निराश किया है और उसे असंतुष्ट छोड़ दिया है और तुम अग्रसक्रियता से सत्य सिद्धांतों की तलाश करने और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करने में समर्थ होते हो। सामान्य मानवता का जमीर लोगों पर यही प्रभाव डालता है और यह वह प्रभाव भी है जो उसे लोगों पर डालना चाहिए। इसलिए, कोई व्यक्ति परमेश्वर की भेड़ों में से एक है या नहीं और उसे बचाया जा सकता है या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसमें सामान्य मानवता और जमीर है या नहीं है। यह निर्णायक और महत्वपूर्ण है। अगर तुम कहते हो कि तुम बहुत सारे सत्य समझते ह तो जब तुम खुद विद्रोही होते हो या बुरा करने वाले कुकर्मी तुम्हारे सामने आते हैं, तो क्या तुम जो सत्य समझते हो वे लागू होते हैं? क्या वे तुम पर निगरानी रखने, तुम्हें प्रबुद्ध करने और तुम्हारे जमीर को तिरस्कृत महसूस करवाने का प्रभाव हासिल करते हैं और प्रभावी होते हैं? अगर तुममें जमीर के बारे में जागरूकता नहीं है तो तुममें जमीर और सामान्य मानवता की कमी है और जिसे तुम समझते हो वह सत्य नहीं बल्कि धर्म-सिद्धांत है। अगर तुम सिर्फ धर्म-सिद्धांत समझते हो तो तुम सत्य को अभ्यास में नहीं ला सकते और तुम उन लोगों में से नहीं हो जिन्हें बचाया जाएगा। तुम यह समझते हो, है ना? (हाँ।) इसलिए, परमेश्वर के कार्य में जब उसके कार्य करने के कुछ सबसे बुनियादी तरीकों की बात आती है तो लोगों को उन्हें अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर सीमित नहीं करना चाहिए। भले ही परमेश्वर ने तुम्हें अनुशासित किया हो, ताड़ना दी हो और दंडित किया हो या तुम्हें कभी भी अनुशासित नहीं किया हो, ताड़ना नहीं दी हो या दंडित नहीं किया हो, यह इस बात को नहीं दर्शाता है कि तुमने कितने सत्य सिद्धांत समझे हैं और न ही यह इस बात को दर्शाता है कि तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जिसे परमेश्वर ने चुना है। हो सकता है कि तुमने बहुत वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा हो और तुम्हें अनगिनत बार अनुशासित किया गया हो और ताड़ना दी गई हो, लेकिन तुमने कभी भी सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं किया है—ऐसे में, अंत में जब तुम बचाए नहीं जाओगे, तो यह पूरी तरह से तुम्हारी अपनी गलती होगी और ठीक वही होगा जिसके तुम लायक हो। यह भी हो सकता है कि तुम्हें परमेश्वर में अपने विश्वास में शायद ही कभी अनुशासित और दंडित किया गया हो, लेकिन अपने जमीर के कारण तुम अक्सर फटकार और तिरस्कार महसूस करते हो और जब तुम अपराध करते हो, तो तुम पश्चात्ताप महसूस करते हो और खुद को बदल लेते हो और तुम सत्य सिद्धांतों की तलाश करने, सत्य का अभ्यास करने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में समर्थ होते हो—ऐसे में तुम उन लोगों में से एक हो जिन्हें बचाया जाएगा। क्या तुम समझ गए हो? (हाँ।) मैंने दो परिस्थितियों का जिक्र किया। वे विशेष रूप से क्या हैं? (एक परिस्थिति वह है जिसमें लोगों को बहुत अनुशासित और दंडित किया गया है, लेकिन अंत में वे फिर भी सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं कर पाते हैं और उन्होंने सत्य प्राप्त नहीं किया होता है, और इसलिए उन्हें बचाया नहीं जाता है, और यह सब उनकी अपनी ही करनी है। दूसरी परिस्थिति वह है जिसमें कुछ लोग परमेश्वर द्वारा बहुत ज्यादा अनुशासित किए जाने या ताड़ना दिए जाने की जरूरत के बिना अपने जमीर का उपयोग खुद को रोकने के लिए करने में समर्थ होते हैं और वे जब भी सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं या विद्रोहीपन प्रकट करते हैं, तो अपने जमीर से फटकार महसूस करते हैं और अग्रसक्रिय रूप से सत्य की तलाश कर पाते हैं और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर पाते हैं और वे कम-से-कम कुछ सकारात्मक चीजें कर पाते हैं और इसलिए वे उन लोगों में से एक होते हैं जिन्हें बचाया जाएगा। परमेश्वर ने अभी-अभी इन्हीं दो परिस्थितियों के बारे में बात की।) वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकते हैं या नहीं, यही इन दो प्रकार के लोगों का मूल्यांकन करने का मानक है। कुछ लोग सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में असमर्थ होते हैं और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे कितना धर्म-सिद्धांत समझते हैं या उन्हें कितना अनुशासित और दंडित किया जाता है, वे उद्धार के लक्ष्य नहीं होते हैं। जबकि कुछ दूसरे लोगों को शायद ही कभी परमेश्वर द्वारा अनुशासित और दंडित किया जाता है या उसके द्वारा ताड़ना दी जाती है और तिरस्कृत किया जाता है, लेकिन वे अक्सर आत्म-चिंतन करने में समर्थ होते हैं और जब भी वे सिद्धांतों का उल्लंघन करते हुए कार्य करते हैं या विद्रोहीपन प्रकट करते हैं, तो वे अपने जमीर से फटकार और तिरस्कार महसूस कर पाते हैं और बाद में वे पश्चात्ताप महसूस करते हैं और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अग्रसक्रियता से अभ्यास कर पाते हैं। वैसे तो शायद ही कभी परमेश्वर द्वारा उन्हें अनुशासित किया जाता है या ताड़ना दी जाती हैं, फिर भी इस प्रकार के लोग उद्धार के लक्ष्य होते हैं। मैं यहाँ जिस अनुशासन और दंड का जिक्र कर रहा हूँ उसका परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना से कोई लेना-देना नहीं है, ये बस वही बाते हैं जिन्हें लोग अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में अनुशासन और दंड के रूप में सोचते हैं। लोग अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में मानते हैं कि अगर उन्हें अक्सर अनुशासित और दंडित किया जाता है, तो इसका मतलब है कि उनके पास अनुभवजन्य गवाही है और वे आध्यात्मिक लोग हैं। लोग अक्सर अनुशासित और दंडित किए जाने को पवित्र आत्मा के कार्य से जोड़ते हैं और मानते हैं कि वे पवित्र आत्मा की धारा से जुड़े हुए हैं। कुछ लोग अक्सर कहते हैं, “मैंने अपना कर्तव्य ठीक से नहीं किया और एक बार फिर मेरी काट-छाँट की गई। अब मेरे मुँह में छाले हैं और मैं बीमार पड़ गया हूँ—यह परमेश्वर का मुझे अनुशासित करना है।” बहुत-से लोग अक्सर इन अनुभवों के बारे में संगति करते हैं, लेकिन तुम्हें यह देखना चाहिए कि जब भी उनके साथ कोई मुद्दा होता है तो उनकी अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं—यह देखो कि क्या कुछ गलत करने पर वे अपने जमीर से फटकार महसूस करते हैं और जब उनके सामने कुकर्मी बुराई करते हैं या जब उनके सामने दुष्ट चीजें आती हैं तो क्या वे उठ खड़े होते हैं और सत्य सिद्धांतों को बनाए रखने और परमेश्वर के घर के हितों का बचाव करने में समर्थ होते हैं। अगर नहीं, तो इन लोगों में बिल्कुल जमीर नहीं है और वे मनुष्य नहीं हैं! वे सुखद शब्द बोलते हैं और अपनी बहुत-सी अनुभवजन्य गवाहियों के बारे में इतनी संपूर्णता से बोलते हैं—ऐसा लगता है मानो परमेश्वर ने उन पर बहुत ज्यादा अनुग्रह दिखाया हो और उन पर बहुत कार्य किया हो और उनसे बहुत सारे वचन कहे हों और इससे ऐसा लगता है मानो वे पहले ही उद्धार प्राप्त कर चुके हों। लेकिन अपने रोजमर्रा के जीवन में जब भी सिद्धांतों से संबंधित समस्याएँ उनके सामने आती हैं तो वे कभी भी सत्य सिद्धांतों को बनाए नहीं रखते हैं और हमेशा अपने खोल में छिपे हुए कछुए की तरह पीछे हट जाते हैं और मुद्दे को टाल देते हैं। और हर बार जब उनसे बोलने और अपने विचार और दृष्टिकोण व्यक्त करने के लिए कहा जाता है तो वे दूर रहते हैं, अनजान बनने का नाटक करते हैं और चुप रहते हैं। वे सत्य सिद्धांतों को बिल्कुल भी बनाए नहीं रखते हैं और न ही वे सत्य का अभ्यास करते हैं। ये कौन लोग हैं? ये पाखंडी हैं। दूसरों को सींचते और उनकी मदद करते समय वे बहुत व्यवस्थित और तर्कसंगत तरीके से आध्यात्मिक सिद्धांतों के बारे में बात करते हैं और वे कई-कई घंटों तक बोलते रहते हैं जिससे कुछ लोग भावुक होकर रोने लगते हैं और फिर भी वे अपने क्रियाकलापों में कभी भी सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं—ये लोग फरीसी हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे कितने छद्म-आध्यात्मिक अनुभवों और छद्म-आध्यात्मिक धर्म-सिद्धांतों की बात करते हैं या वे कितने खोखले शब्द और अतिशयोक्तिपूर्ण शब्द कहते हैं, उनका जमीर उन्हें तिरस्कृत नहीं करता है; और जब सही और गलत या सिद्धांत के किसी भी मुख्य मुद्दे की बात आती है तो वे सत्य के पक्ष में खड़े नहीं होते हैं या सत्य सिद्धांतों को बनाए नहीं रखते हैं और उनका जमीर उन्हें बिल्कुल भी तिरस्कृत नहीं करता है, लेकिन फिर भी बाद में वे बेशर्मी से इस बारे में शेखी बघार पाते हैं कि वे परमेश्वर के घर के हितों का बचाव कैसे करते हैं, और वे अब भी कई सुखद धर्म-सिद्धांतों को बड़बड़ा सकते हैं—यह पाखंडी होना और जमीर की जागरूकता नहीं होना है। वे बहुत बार सत्य का अभ्यास करने में विफल हो जाते हैं, वे बहुत बार सत्य का उल्लंघन करते हैं, वे बहुत बार लोगों को धोखा देते हैं और गुमराह करते हैं, फिर भी उनका जमीर उन्हें बिल्कुल भी तिरस्कृत नहीं करता है और वे अब भी बेशर्मी से अपना दिखावा कर पाते हैं—यह मानवता से रहित होना है! वे इसी तरह से अकड़कर इधर-उधर घूमते हैं और हर जगह झाँसा देते हैं और उन्हें शर्मिंदगी तक महसूस नहीं होती है; वे सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं और फिर भी वे यह डींग हाँकते हैं कि वे आध्यात्मिक लोग हैं, वे ऐसे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर ने बचा लिया है और पूर्ण बना दिया है और जो बाकी सभी से ज्यादा परमेश्वर से प्रेम करते हैं—यह जमीर की जागरूकता की कमी है और ये वे लोग नहीं हैं जिन्हें बचाया गया है। क्या बचाए गए लोगों में सामान्य मानवता और जमीर की जागरूकता की कमी हो सकती है? कुछ लोगों को लगता है कि उन्हें सत्य उतना पसंद नहीं है और जब भी सत्य सिद्धांतों या सही-गलत के मुख्य मुद्दों से जुड़ी समस्याएँ उनके सामने आती हैं तो वे चापलूस बन जाते हैं, बेपरवाही से कार्य करते हैं और कभी भी सत्य सिद्धांतों को बनाए नहीं रख पाते हैं और इसलिए वे अपने दिलों में तिरस्कृत महसूस करते हैं और अक्सर परमेश्वर के सामने प्रार्थना करते हैं और उसके प्रति एहसानमंद महसूस करते हैं। वैसे तो वे अक्सर कमजोर होते हैं और इस बैरियर को तोड़कर निकलने में असमर्थ होते हैं, फिर भी उन्हें अपने दिलों में पता होता है कि उन्होंने सत्य या न्याय को बनाए नहीं रखा है और वे परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में डटकर नहीं खड़े रहे हैं और वे सिर्फ चापलूस हैं, इसलिए उन्हें यह कहने में बहुत शर्मिंदगी महसूस होगी कि उनके पास कोई गवाही है। ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्होंने सत्य सिद्धांतों को बनाए नहीं रखा है और उनके पास कोई सच्ची अनुभवजन्य गवाही नहीं है और वे कंगाल और अंधे हैं और उन्होंने परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी नहीं की हैं; वे अपने दिलों में यह बात जानते हैं और इसके लिए अक्सर उनके जमीर फटकार महसूस करते हैं और उन्हें लगता है कि वे परमेश्वर के कर्जदार हैं और वे दुखी हो जाते हैं। अब भी इन लोगों के पास उद्धार पाने की उम्मीद और गुंजाइश है। इसके विपरीत, ऐसे लोग भी हैं जिन्हें देखकर लगता है कि वे बहुत अच्छी तरह से सत्य समझते हैं और लोगों को सींचने, उनका भरण-पोषण करने और उनकी मदद करने में समर्थ हैं, लेकिन जब उनके सामने ऐसी समस्याएँ आती हैं जिनमें सत्य सिद्धांत या सही-गलत के मुख्य मुद्दे शामिल होते हैं, तो वे कभी भी परमेश्वर के पक्ष में खड़े नहीं होते हैं और वे कभी भी सत्य सिद्धांतों को बनाए नहीं रखते हैं और फिर भी वे आध्यात्मिक लोग, परमेश्वर से प्रेम करने वाले लोग और परमेश्वर के प्रति वफादार लोग होने की डींग हाँकते हैं। इस तरह के लोग बहुत मुसीबत में होते हैं। वे वास्तविकता का सामना करने की हिम्मत नहीं करते हैं, वे वास्तविक समस्याएँ सुलझाने की हिम्मत नहीं करते हैं, वे मुख्य मुद्दों पर अपनी स्थिति घोषित करने की हिम्मत नहीं करते हैं और वे खुले और सीधे तरीके से सत्य सिद्धांतों को बनाए रखने की हिम्मत नहीं करते हैं, लेकिन इस तथ्य के बाद भी वे बेशर्मी से यह डींग हाँकते हैं कि वे आध्यात्मिक लोग हैं और कहते हैं कि सभी से ज्यादा वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं और परमेश्वर के इरादों को सबसे अच्छी तरह से समझ सकते हैं। इस तरह के लोगों में जमीर के बारे में बिल्कुल भी जागरूकता नहीं होती है। क्या कोई व्यक्ति जिसमें जमीर के बारे में जागरूकता नहीं है सत्य सिद्धांतों को बनाए रख सकता है? क्या वह कुकर्मियों से निपटने के लिए खुलेआम अपनी स्थिति घोषित करने और परमेश्वर के पक्ष में खड़े होने की हिम्मत कर सकता है? उसकी कोई संभावना नहीं है; ऐसे लोगों के लिए सत्य का अभ्यास करना बहुत मुश्किल है।

अगर किसी व्यक्ति में सामान्य मानवता वाला जमीर है तो वह अपने विचारों, शब्दों और कार्यों को विनियमित करेगा। “विनियमित करने” का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि जब तुम्हारे विचार और व्यवहार सामान्य मानवता के मानक से बाहर भटक जाते हैं, तो तुम्हारा जमीर यह फैसला लेता है कि उस तरीके से सोचना गलत है और वह चीज करना अच्छा नहीं है, और इसलिए तुम शर्मिंदा होते हो और असहज और तिरस्कृत महसूस करते हो। ये भावनाएँ उत्पन्न होने के बाद तुम्हारे विचार और व्यवहार एक निश्चित सीमा तक सीमित हो जाएँगे और संयम की यह निश्चित सीमा तुम्हारे व्यवहार को विनियमित करेगी और तुम्हें ऐसी चीजें करने से बचने में सक्षम बनाएगी जो स्पष्ट रूप से सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करती हैं और उन चीजों से भी बचने में सक्षम बनाएगी जो तुम्हारे जमीर और नैतिक न्याय के विरुद्ध जाती हैं। लेकिन अगर तुम्हारे पास जमीर का मानक नहीं है, तो जब तुम चीजें करोगे तो तुम्हारे पास अपने विचारों और व्यवहारों को विनियमित और सीमित करने की कोई कसौटी नहीं होगी और इसलिए तुम निरंकुश हो जाओगे, तुम्हारे दिमाग में जो भी आएगा, तुम जो भी चाहोगे और जो भी तुम्हारे अपने लिए फायदेमंद और उपकारी होगा, तुम वही करोगे। ऐसे हालातों में जब तुम में कोई संयम नहीं होगा, तो तुम्हारे विचार और व्यवहार बहुत ही ज्यादा बढ़ जाएँगे। “बहुत ही ज्यादा बढ़ जाएँगे” का क्या मतलब है? उन पर बिल्कुल कोई विनियम नहीं होगा। यह ठीक वैसा ही होगा जैसा तब होता है जब अविश्वासी दूसरे लोगों को धोखा देते हैं—उनमें जमीर के बारे में जागरूकता नहीं होती है और अगर वे तुमसे एक हजार रुपये ठग लेते हैं तो उन्हें बुरा नहीं लगता है और अगर वे तुम्हें इस हद तक ठग लेते हैं कि तुम्हारा परिवार बर्बाद हो जाता है तो भी उन्हें बुरा नहीं लगता है और अगर तुम घुटनों के बल बैठ जाते हो और उनसे मिन्नतें भी करते हो तो भी वे तुम पर ध्यान नहीं देते हैं। वे वाकई बेहद कुकर्मी हैं। वे इतनी बुराई क्यों कर पाते हैं? वह इसलिए क्योंकि उनके पास जमीर के बारे में या जमीर द्वारा प्रदान किए जाने वाले संयम के बारे में जागरूकता नहीं होती है और इसलिए वे इतने बुरे हो सकते हैं और घिनौने पापी बन सकते हैं। इसलिए, सामान्य मानवता वाला जमीर होना महत्वपूर्ण है। लोग सबसे पहले इसी शर्त के तहत सत्य सिद्धांतों को बनाए रखने में समर्थ होते हैं कि उनके पास जमीर के बारे में जागरूकता हो। जमीर के बारे में जागरूकता होना और शर्म की भावना होना ही तुम्हारे व्यवहार को विनियमित किए जाने में सक्षम बनाता है और तुम्हें सत्य की तलाश करने और सत्य का अभ्यास करने के मार्ग पर चलना शुरू करने का अवसर देता है। अगर तुम्हारे पास खुद को विनियमित करने के लिए जमीर के बारे में जागरूकता नहीं है, तो तुम्हारे पास सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू करने का अवसर नहीं होगा। इसलिए, यह सिर्फ जमीर के बारे में जागरूकता रखने की बुनियाद पर ही है कि लोगों को सत्य का अभ्यास करने और सत्य सिद्धांतों को बनाए रखने के मार्ग पर लेकर जाने का अवसर मिल सकता है—लेकिन फिर भी उनके पास सिर्फ यही अवसर है। मैं कहता हूँ कि उनके पास सिर्फ यही अवसर है क्योंकि अगर किसी व्यक्ति के विचार और व्यवहार जमीर के बारे में जागरूकता से विनियमित हों, तो भी वह सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन कर सकता है या उनके अनुसार कार्य नहीं कर सकता है, वह बीच का रास्ता अपना सकता है, वह सत्य सिद्धांतों को बनाए नहीं रखता है लेकिन कुकर्मियों के साथ गुट भी नहीं बनाता है। यानी, जमीर के प्रभाव में वे लोग जो कुछ हद तक अच्छे हैं, सत्य का अभ्यास कर सकते हैं और सत्य सिद्धांतों को बनाए रख सकते हैं, जबकि थोड़ी बदतर काबिलियत वाले लोग कम-से-कम कुकर्मियों द्वारा नियंत्रित होने या मजबूर किए जाने से बच सकते हैं और कुकर्म करने में उनका अनुसरण करने से बच सकते हैं—यह सिर्फ उस आधार रेखा तक पहुँचना है जो जमीर के मानक से आती है। भले ही तुमने सत्य का अभ्यास न किया हो, लेकिन तुमने कोई बुराई नहीं की है। इस तरह के व्यक्ति को कम-से-कम अब भी जमीर वाला व्यक्ति कहा जा सकता है और वैसे तो उसने सत्य का अभ्यास नहीं किया है, लेकिन यकीनन वह बुराई नहीं करेगा। यही वह प्रभाव है जो जमीर लोगों पर डालता है। जहाँ तक सत्य से प्रेम करने वाले लोगों की बात है, उनके लिए जमीर का सबसे फायदेमंद प्रभाव यह है कि इसमें उनके शब्दों और व्यवहारों को विनियमित करने का मौका है और यह उन्हें सत्य का अभ्यास करने और सत्य सिद्धांतों को बनाए रखने के मार्ग पर ले जा सकता है। इसलिए, लोगों के लिए जमीर उनकी मानवता का एक बहुत ही महत्वपूर्ण भाग है और यह कुछ ऐसा है जिसके बिना वे नहीं रह सकते हैं। तो “जमीर” का क्या मतलब है? इस बारे में हम बाद में अवसर मिलने पर विस्तार से बात करेंगे, लेकिन आओ आज हम इस बारे में बस संक्षेप में कुछ कहें। जमीर का मतलब व्यक्ति की दयालुता और न्याय की भावना है, जो दो सबसे बुनियादी गुण हैं। अगर तुममें ये दो गुण हैं, तो तुम जमीर वाले व्यक्ति हो; अगर तुममें इन दोनों में से कोई भी गुण नहीं है, तो इसका मतलब है कि तुममें जमीर नहीं है। जिन लोगों में जमीर नहीं होता है, उनमें सामान्य मानवता नहीं होती है और सामान्य मानवता नहीं होने का मतलब है कि उनमें न्याय की भावना नहीं होती है और वे दयालु नहीं होते हैं। “न्याय की भावना नहीं होने” का क्या मतलब है? इसका मतलब है चालबाज और दुष्ट होना। “दयालु नहीं होने” का क्या मतलब है? इसका मतलब है दुर्भावनापूर्ण, शातिर और दुष्ट होना। जिन लोगों में ये स्वभाव होते हैं, उनमें मानवता नहीं होती है और फलस्वरूप वे किसी भी तरह की बुरी चीज करने में सक्षम होते हैं क्योंकि उनमें सामान्य मानवता वाला जमीर नहीं होता है और न ही उनमें न्याय और दयालुता की भावना वाले वे दो सार होते हैं जो सामान्य मानवता वाले जमीर में निहित हैं। वे बेशर्म, बेहद कुटिल और विशेष रूप से शातिर और दुर्भावनापूर्ण होते हैं, इसलिए वे किसी भी तरह की बुरी चीज करने में सक्षम होते हैं। यानी, वे जो भी चीजें करते हैं वे चाहे कितनी भी दुष्ट और दुर्भावनापूर्ण क्यों न हों, उन्हें कुछ भी महसूस नहीं होता है—उन्हें बुरा नहीं लगता है और वे तिरस्कृत महसूस नहीं करते हैं। वे किसी भी तरह की बुराई करने में सक्षम क्यों होते हैं? वह इसलिए क्योंकि वे दयालु नहीं होते हैं और उनमें मानवता का सार नहीं होता है; इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे क्या बुराई करते हैं, उन्हें लगता है कि यह जायज है और उन्हें नहीं लगता है कि यह बुराई है। मिसाल के तौर पर, अगर तुम कोई ऐसे व्यक्ति हो जिसमें जमीर के बारे में जागरूकता है, तो जब तुम किसी दूसरे व्यक्ति को कोसने वाली या उस पर हमला करने वाली कोई बात कहते हो, तो तुम इसे सह नहीं पाओगे। तुम सोचोगे, “मैंने उसे कोसने के लिए कुछ बातें कही हैं और यह बहुत हुआ। लोगों को कोसने से वे वाकई परेशान हो जाते हैं! अगर मुझे कोई इस तरह से कोसे तो मैं भी परेशान हो जाऊँगा, इसलिए अब जब मैं उसे कोसने के लिए कुछ बातें कह चुका हूँ ताकि अपनी नफरत से राहत पा सकूँ और थोड़ा गुबार निकाल सकूँ, तो मैं इस बात को यहीं खत्म कर दूँगा।” और इसलिए तुम रुक जाओगे। लेकिन कुकर्मी इस तरीके से नहीं सोचते हैं। वे सोचते हैं, “तुम्हें कोसने का मतलब तुम्हें आसानी से छोड़ देना होगा। मैं तुम्हें पीटूँगा भी, तुम्हारे परिवार को भी बर्बाद करूँगा और तुम्हारे बच्चों को भी सताऊँगा! मैं तुम्हारे साथ जो भी बुराई या बुरी चीजें करता हूँ, वे जायज हैं। जब तक तुम्हें अपने किए की सजा मिलती है और मुझे अपनी नफरत से राहत पाने का मौका मिलता है, तब तक मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ!” वे शायद तुम्हें कोसे भी नहीं, बल्कि सीधे आगे बढ़ें और तुम्हारे साथ बुरी चीजें करें और तुमसे बदला लें—बुरा होने का यही मतलब है। जिन लोगों में जमीर के बारे में जागरूकता नहीं होती है, वे ऐसे ही होते हैं—वे सभी प्रकार की बुराई करने में सक्षम होते हैं।

परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों की विभिन्न धारणाओं और कल्पनाओं में से जिन धारणाओं के बारे में लोग जागरूक होते हैं, वे मुख्य रूप से वही धारणाएँ हैं जिनके बारे में वे अक्सर बात करते हैं जो कि अनुशासित करने, ताड़ना देने और दंडित करने से संबंधित हैं। एक लिहाज से, हमने उन धारणाओं और कल्पनाओं पर संगति की है जो परमेश्वर के कार्य में लोगों में उठती हैं; दूसरे लिहाज से, लोगों को यह भी पता होना चाहिए कि परमेश्वर लोगों पर बहुत सारे और विविध तरीकों से कार्य करता है। जिन अलग-अलग युगों में वह कार्य करता है उनके आधार पर, लोगों से वह जिन विभिन्न मानकों की अपेक्षा करता है उनके आधार पर, अपने कार्य के माध्यम से वह लोगों में जो अलग-अलग परिणाम प्राप्त करना चाहता है यकीनन उनके आधार पर और अपने कार्य के अलग-अलग लक्ष्यों और लोगों के अलग-अलग प्रकृति सारों के आधार पर भी परमेश्वर अलग-अलग विधियाँ अपनाता है और लोगों पर बहुत सारे और विविध तरीकों से कार्य करता है। अनुशासित करना, ताड़ना देना और दंडित करना उसके कार्य का सिर्फ एक छोटा-सा भाग हैं और ये वे मुख्य विधियाँ नहीं हैं जिनका वह अपने कार्य में उपयोग करता है। चूँकि परमेश्वर ने अपने कार्य के तीसरे चरण में लोगों का भरण-पोषण करने और उन्हें बचाने का परिणाम प्राप्त करने के लिए बहुत सारे सत्य व्यक्त किए हैं, इसलिए लोगों पर वह जो अनुशासित करने, ताड़ना देने और यहाँ तक कि दंडित करने का कार्य करता है उसकी मात्रा बहुत कम है। इसके अलावा, अपने कार्य के विभिन्न लक्ष्यों के आधार पर परमेश्वर इन चीजों को संगत सिद्धांतों के अनुसार भी करता है और उसके क्रियाकलाप लक्ष्यों और विभिन्न अलग-अलग हालातों के आधार पर अलग-अलग होते हैं। वैसे तो तुलनात्मक रूप से कहा जाए, तो वह शायद ही कभी लोगों को अनुशासित करता है, ताड़ना देता है या दंडित करता है। इसलिए, लोगों को परमेश्वर के कार्य के बारे में अपनी पिछली धारणाओं और कल्पनाओं को पकड़कर रखना बंद कर देना चाहिए और चूँकि परमेश्वर ने बहुत सारे वचन और बहुत सारे सत्य व्यक्त किए हैं, इसलिए उन्हें परमेश्वर द्वारा अनुशासित किए जाने, ताड़ना दिए जाने या दंडित किए जाने पर निर्भर रहना जारी नहीं रखना चाहिए, सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए निष्क्रियता से उसे उन्हें उकसाने नहीं देना चाहिए—यह विचार लोगों के मन में नहीं होना चाहिए। लोगों के मन में जो सही विचार होना चाहिए वह यह है कि उन्हें परमेश्वर के इरादे समझाने या उसके सामने आने के लिए उन्हें निष्क्रियता से परमेश्वर द्वारा अनुशासित किए जाने, ताड़ना दिए जाने या दंडित किए जाने पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, बल्कि उन्हें परमेश्वर के इरादों और सत्य सिद्धांतों की तलाश करने के लिए उसके सामने आने में ज्यादा सकारात्मक और सक्रिय होना चाहिए। चाहे कोई भी समय हो, परमेश्वर के वचन और सत्य सिद्धांत तुम्हारे दैनिक जीवन में या तुम्हारे अस्तित्व के मार्ग पर तुम्हारे लिए आगे बढ़ने की दिशा हैं और वही सिद्धांत और मार्ग हैं जिन्हें तुम्हें सबसे ज्यादा बनाए रखना चाहिए और जिनका सबसे ज्यादा अभ्यास करना चाहिए, जबकि परमेश्वर का अनुशासित करना, ताड़ना देना या दंडित करना सिर्फ कार्य करने के तरीके हैं जिन्हें वह कुछ विशेष परिस्थितियों में और उन हालातों में प्रदर्शित करता है जहाँ वह इसे जरूरी समझता है। लोगों को इसके होने की निष्क्रियता से प्रतीक्षा या निष्क्रियता से इसका अनुरोध नहीं करना चाहिए, यह नहीं सोचना चाहिए, “परमेश्वर को मुझे अनुशासित करना चाहिए, ताड़ना देनी चाहिए और दंडित करना चाहिए ताकि मैं सत्य से प्रेम करने लगूँ और सत्य सिद्धांतों में प्रवेश करने में समर्थ हो सकूँ।” यह एक भ्रामक विचार है और लोगों को ऐसा विचार नहीं रखना चाहिए। कुछ लोग सुनते हैं कि जिनके पास जमीर नहीं होता है वे दरिंदे होते हैं और उन्हें बचाया नहीं जा सकता है, इसलिए वे चिंतित हो जाते हैं और सोचते हैं, “अगर मुझे बचाया नहीं जा सका तो यह वाकई में परेशानी वाली बात होगी। चूँकि मेरे पास सामान्य मानवता वाले जमीर के बारे में जागरूकता नहीं है, इसलिए मैं यही पसंद करूँगा कि परमेश्वर सामान्य मानवता वाले जमीर के एवज में मुझे अनुशासित और दंडित करे।” क्या यह अच्छा विचार है? एक सृजित प्राणी और भ्रष्ट मानवजाति के एक साधारण सदस्य के रूप में, अगर तुम वाकई सोचते हो कि तुममें सामान्य मानवता नहीं है और तुममें सामान्य मानवता वाला जमीर नहीं है, तो तुम इस बात का दर्द गहराई से महसूस करते हो और तुम उम्मीद करते हो कि परमेश्वर का अनुशासन, ताड़ना और दंड तुम्हें नहीं छोड़ेगा, और वे तुम्हें बदलने और अंत में जीवित बचे रहने में सक्षम बनाएँगे—अगर तुममें वाकई इस तरह का संकल्प है तो यह एक अच्छी बात हो सकती है और यह तुम्हारे जीवित रहने की उम्मीद की एक किरण है। लेकिन अगर तुममें इस तरह का संकल्प नहीं है तो मैं तुमसे कहता हूँ : अगर तुममें सामान्य मानवता वाले जमीर के बारे में जागरूकता नहीं है तो तुम बहुत बड़े खतरे में हो। अगर तुम्हें कभी-कभी परमेश्वर का अनुशासन, ताड़ना और दंड भुगतना पड़ा है तो यह कुछ ऐसा है जिसे उसने तुम्हें प्रदान किया है। परमेश्वर ये चीजें करता है और इन तरीकों का उपयोग तुम्हें प्रेरित करने और तुम्हें चेतावनी देने के लिए करता है ताकि तुम कम बुराई करो और तुम्हें कम सजा मिले। परमेश्वर ने तुम्हारा अभिमान काफी बचाया है; तुम्हें परमेश्वर का आभारी होना चाहिए कि परमेश्वर ने यह नहीं जानने के बजाय कि तुम्हारे लिए क्या अच्छा है, तुम्हें यह अनुग्रह दिखाकर एक अपवाद बनाया है। सामान्य परिस्थितियों में परमेश्वर किसी ऐसे व्यक्ति पर कोई कार्य नहीं करेगा या कार्य करने के किसी भी तरीके का उपयोग नहीं करेगा जिसके पास मानवता वाला जमीर और विवेक नहीं है। अगर तुम्हें परमेश्वर से अनुशासन, ताड़ना या दंड प्राप्त हुआ है, चाहे यह इनमें से कोई भी चीज हो, चाहे यह हल्की हो या कुछ हद तक कड़ी, तो तुम्हें इन सब के लिए परमेश्वर का आभारी होना चाहिए। इसे मनुष्य की बोलचाल की भाषा में कहें, तो यह परमेश्वर का तुम्हारे प्रति कुछ बुनियादी सम्मान है और तुम्हें ऊपर उठाना है। परमेश्वर तुम्हें बिल्कुल भी शत्रुता की नजर से नहीं देखता है या तुम्हारी निंदा नहीं करता है, इसलिए तुम्हें परमेश्वर से इसे स्वीकार करना चाहिए। अगर तुम्हें सत्य के प्रावधान से परे परमेश्वर का अनुशासन, ताड़ना या दंड प्राप्त करने का वाकई मौका मिला है, तो इससे यह साबित होता है कि परमेश्वर अब भी तुम्हें एक सृजित प्राणी और भ्रष्ट मानवजाति का सदस्य मानता है। तुम्हें परमेश्वर का धन्यवाद करना चाहिए, इसे सही तरह से समझना चाहिए और परमेश्वर के अनुशासन, ताड़ना या दंड के प्रति समर्पण करना चाहिए। तुम्हें इसके कारण परमेश्वर के प्रति शत्रुता भरा रवैया नहीं रखना चाहिए और न ही तुम्हें इसके कारण परमेश्वर के खिलाफ और ज्यादा विद्रोह करना चाहिए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम्हें किस प्रकार का अनुशासन मिला है या तुम्हें कितनी कड़ी सजा मिली है, तुम्हें परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहिए और बिना देरी किए उसका धन्यवाद करना चाहिए, तुम्हें प्रेरित करने और चेतावनी देने के लिए और तुम्हें यह अवसर देने के लिए और तुम्हें उससे यह सब प्राप्त करने का अवसर देने के लिए उसका धन्यवाद करना चाहिए। इससे यह भी साबित होता है कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा अब भी रिश्ता है और यह बंधन पूरी तरह से टूटा नहीं है। परमेश्वर के मानवजाति-प्रबंधन कार्य में और उसका लोगों को बचाने की प्रक्रिया में परमेश्वर ने अब भी तुम्हें अपने दिल में रखा हुआ है; कम-से-कम, परमेश्वर अब भी तुम्हें देखता है—जब वह तुम्हारा विद्रोहीपन और तुम्हारी भ्रष्टता देखता है, तो वह अब भी तुम्हें अनुशासित करने, ताड़ना देने और दंडित करने को तैयार रहता है। इससे यह साबित होता है कि वह तुमसे पूरी तरह से निराश नहीं हुआ है; यह तुम्हारे लिए खुशकिस्मती की बात है और यह अच्छी खबर भी है। इसलिए, अगर तुम्हें थोड़ा दर्दनाक अनुशासन या ताड़ना भुगतनी पड़े, तो भी तुम्हें बिना देरी किए परमेश्वर के सामने आना चाहिए। परमेश्वर के सामने आने का उद्देश्य तुम्हारे लिए उसके सामने झुकना नहीं है और न ही यह तुम्हें यह महसूस करवाना है कि परमेश्वर डरावना या भयावह है। इसके बजाय तुम्हें यह समझना चाहिए कि परमेश्वर को खुश करने के लिए तुम्हें क्या करना चाहिए, तुम्हें ऐसा क्या करना चाहिए जिससे परमेश्वर अब तुमसे नाराज नहीं रहे और तुम्हें ऐसा क्या करना चाहिए जिससे उसका गुस्सा दूर हो जाए। कम-से-कम, तुम्हारी काबिलियत जो प्राप्त कर सकती है तुम्हें उसके दायरे में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए ताकि तुम परमेश्वर द्वारा तुम्हें बताए गए सत्य सिद्धांतों का अभ्यास कर सको, और तुम्हें परमेश्वर को अपने ऊपर फिर से क्रोधित नहीं करना चाहिए। अगर परमेश्वर बार-बार तुम पर गुस्सा होता है और तुम बेहद सुन्न बने रहते हो और तुम फिर भी अपनी गर्दन अकड़कर रखते हो और अड़ियल तरीके से परमेश्वर को शत्रुता भरी नजरों से देखते हो और अंत तक उसके खिलाफ लड़ते रहते हो, तो यह बिल्कुल तय है कि अंत में परमेश्वर तुमसे निराश हो जाएगा। जिस समय परमेश्वर तुम्हे अनुशासित करना, ताड़ना देना या दंडित करना बंद कर देता है, वही वह समय है जब परमेश्वर तुमसे निराश हो चुका होता है। और एक बार जब परमेश्वर तुमसे निराश हो जाएगा, तो वह तुम्हें प्रेरित करना बंद कर देगा और वह तुम्हें अपनी नजरों से हटा देगा, तुम्हें कलीसिया के बाहर किसी जगह भेज देगा, किसी ऐसी जगह जो उसके कार्य के केंद्र से दूर हो; कम-से-कम, वह ऐसी व्यवस्था करेगा कि अपने कार्य की अवधि के दौरान वह तुम्हें न देख पाए—परमेश्वर तुम्हें और नहीं देखना चाहेगा। अगर तुम इस हद तक बुराई करते हो और इस बिंदु तक पहुँच जाते हो तो तुम्हें बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं है। क्या तुम समझ गए हो? (हाँ।)

आज की संगति अपने और परमेश्वर के बीच की बाधाओं और परमेश्वर के प्रति अपनी शत्रुता छोड़ देने के विषय से संबंधित है। चाहे यह परमेश्वर के बारे में लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं को उजागर करना हो या परमेश्वर के प्रति उनके रवैयों को उजागर करना हो या इस बारे में संगति करना हो कि परमेश्वर लोगों पर अपना कार्य वास्तव में कैसे और किन तरीकों से करता है, जो भी हो, यह सब अंत में लोगों को यही बताता है कि : उन्हें परमेश्वर के कार्य के प्रति जो सही दृष्टिकोण सबसे ज्यादा रखना चाहिए वह है परमेश्वर से भटक जाने के बजाय उसके न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना और उसके प्रति समर्पण करना और उसके वचनों और उसके द्वारा प्रदान किए गए हर सत्य सिद्धांत को स्वीकार करना। वे जब भी कुछ करते हैं तो उन्हें अपने बाहरी व्यवहार में या बाहरी तौर पर कष्ट सहने और कीमत चुकाने में प्रयास करने के बजाय और यकीनन अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में फँसने और उन पर बहुत हंगामा मचाने के बजाय सत्य सिद्धांतों की तलाश करनी चाहिए और उनके अनुसार अभ्यास करना चाहिए और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने का प्रयास करना चाहिए। सभी पहलुओं पर विचार किया जाए तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर के बारे में तुम्हारी धारणाएँ और कल्पनाएँ क्या हैं, परमेश्वर का कार्य जो परिणाम प्राप्त करने का उद्देश्य रखता है, वह है लोगों में अपने वचन और सत्य शामिल करना और लोगों को इसमें सक्षम बनाना कि वे पालन करने के लिए सत्य सिद्धांत प्राप्त कर सकें और अपने दैनिक जीवन के दौरान और अस्तित्व के अपने मार्ग पर सामने आने वाली हर चीज में इन सत्य सिद्धांतों को बनाए रख सकें—परमेश्वर का कार्य यही परिणाम प्राप्त करना चाहता है। परमेश्वर का कार्य जो अंतिम परिणाम प्राप्त करता है वह यह है कि परमेश्वर द्वारा ये सब कुछ लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार पूरा किए जाने के बजाय सत्य लोगों की वास्तविकता और लोगों का जीवन बन जाता है। तुम यह समझते हो, है ना? हमने इन विषयों पर लगभग पर्याप्त संगति कर ली है, है ना? (हाँ।) तो आज के लिए हमारी संगति यहीं समाप्त होती है। अलविदा!

8 जुलाई 2023

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परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 8) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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