सत्य का अनुसरण कैसे करें (2)

हम पिछले कुछ समय से सत्य का अनुसरण करने के तरीके के अभ्यास में पहली मुख्य मद पर चर्चा कर रहे हैं, जो कि “त्याग देना” है। पिछली बार हमने “त्याग देना” से संबंधित तीसरी मद—अपने और परमेश्वर के बीच की बाधाओं और परमेश्वर के प्रति अपनी शत्रुता को त्याग देना—के बारे में संगति की थी, जो कि बिल्कुल नई विषय-वस्तु थी। इस विषय-वस्तु का सिर्फ एक ही पहलू नहीं है; इसमें कई मद और ढेरों विषय-वस्तुएँ शामिल हैं। ये विषय-वस्तुएँ वे हैं जो लोग परमेश्वर के कार्य की प्रक्रिया में अनुभव करते हैं और वे लोगों के जीवन और लक्ष्यों से सीधे संबंधित हैं, इसलिए जिस पहले पहलू पर हमें वाकई संगति करनी चाहिए, वह परमेश्वर के बारे में लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं। यह एक ऐसा विषय है जिससे लोग परमेश्वर में विश्वास रखने के मार्ग पर चलने की प्रक्रिया में बच नहीं सकते हैं। मैंने पिछली बार इस विषय-वस्तु के एक भाग पर संगति की थी। कोई हमें यह बताए कि मैंने विशेष रूप से किस चीज पर संगति की थी। (पिछली बार परमेश्वर ने व्यक्ति के अपने और परमेश्वर के बीच की बाधाओं और परमेश्वर के प्रति अपनी शत्रुता को त्याग देने के बारे में संगति की थी। परमेश्वर ने सबसे पहले अपने कार्य के बारे में हमारी धारणाओं और कल्पनाओं को उजागर किया था। उदाहरण के लिए, परमेश्वर के दिन के बारे में हमारी धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं और हम यह भी मानते हैं कि परमेश्वर का कार्य बहुत ही अलौकिक है और जब तक पवित्र आत्मा कार्य करता है और लोगों को प्रेरित करता है, तब तक लोग किसी भी समस्या को हल करने में समर्थ होंगे और उनके भ्रष्ट स्वभाव परिवर्तित हो जाएँगे। इन धारणाओं और कल्पनाओं को उजागर करते समय परमेश्वर ने हमें बताया था कि वह अपने कार्य में जो परिणाम प्राप्त करने का इरादा रखता है, वह है अपने वचनों को हमारे भीतर शामिल करना ताकि जब हमारे रोजमर्रा के जीवन में हमारे साथ चीजें हों तो हम परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने में समर्थ हों—हममें से हरेक के लिए परमेश्वर की यह अपेक्षा है।) और कौन इसमें कुछ और जोड़ सकता है? (पिछली बार परमेश्वर ने इस सच्चाई पर भी संगति की थी कि लोग मानते हैं कि परमेश्वर उनके अस्थायी अभिव्यक्तियों के आधार पर उन पर फैसला सुनाता है और वे यह भी सोचते हैं कि बाहरी विनियमों और बाहरी रूप से अच्छे व्यवहारों का पालन करके वे परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हैं और वे उद्धार प्राप्त कर सकते हैं—ये सभी लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं। साथ ही, जब लोग कमजोर होते हैं या विद्रोहीपन और भ्रष्टता प्रकट करते हैं तो वे मानते हैं कि परमेश्वर उन्हें अनुशासित करेगा और सजा देगा—यह भी एक धारणा और कल्पना है। परमेश्वर द्वारा लोगों की इन धारणाओं और कल्पनाओं के प्रकाशन से हम समझ गए हैं कि परमेश्वर हमारा बाहरी रूप से अच्छा व्यवहार नहीं चाहता है और न ही वह यह चाहता है कि हम कुछ बाहरी अभ्यासों और विनियमों का पालन करें। बल्कि वह उम्मीद करता है कि जब हमारे साथ चीजें हों तो हम सत्य सिद्धांतों की तलाश करने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में समर्थ हों।) ये धारणाएँ और कल्पनाएँ अलग-अलग मात्राओं में हर किसी में होती हैं, है ना? (हाँ।) लोग सत्य का अनुसरण करना शुरू करने से पहले या जब वे सत्य नहीं समझते हैं और उन्होंने अभी तक सत्य प्राप्त नहीं किया है तो वे इन धारणाओं और कल्पनाओं का उपयोग इस बारे में अनुमान लगाने के लिए करते हैं कि परमेश्वर कैसे कार्य करता है या इस बारे में निष्कर्षों तक पहुँचने के लिए करते हैं कि परमेश्वर कैसे कार्य करेगा। साथ ही, वे इन अनुमानों का उपयोग खुद अपने पर, अपने खुद के परिणाम पर और इस पर फैसला सुनाने के लिए भी करते हैं कि क्या भविष्य में वे धन्य किए जाएँगे या उन्हें बदकिस्मती सहनी पड़ेगी। इसलिए, लोगों द्वारा सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया में ये धारणाएँ और कल्पनाएँ लोगों द्वारा परमेश्वर का कार्य स्वीकारने में, उनके सत्य के अनुसरण में और उनके द्वारा सत्य की प्राप्ति में काफी हद तक बाधाएँ बन गई हैं। कहने का मतलब यह है कि अगर लोग इन धारणाओं और कल्पनाओं को त्याग नहीं पाते हैं और वे हमेशा उन्हें परमेश्वर में विश्वास रखने और उसका अनुसरण करने के लिए अपनी प्रेरणा और मूल कारण मानते हैं तो ये धारणाएँ और कल्पनाएँ सत्य का अनुसरण करने और उसे प्राप्त करने में बहुत हद तक उनके लिए बाधा बनेंगी। और अंत में वे अपनी धारणाओं और कल्पनाओं का उपयोग सिर्फ परमेश्वर के सामने अपनी खुद की कीमत, पहचान और रुतबा निर्धारित करने और यह निर्धारित करने के लिए कर सकेंगे कि वे परमेश्वर के घर में किस तरह का व्यवहार प्राप्त करने में समर्थ होंगे, उनका गंतव्य क्या होगा और भविष्य में उन्हें कौन-सी आशीषें प्राप्त होंगी, उनके पास कितना अधिकार होगा और वे कितने शहरों पर राज करेंगे और वे स्वर्ग में एक स्तंभ होंगे या मुख्याधार होंगे या वे इस जीवन में कितना प्राप्त कर सकेंगे और आने वाली दुनिया में कितना प्राप्त कर सकेंगे। क्योंकि ये धारणाएँ और कल्पनाएँ लोगों के जीवन और लक्ष्यों को शामिल करती हैं, इसलिए वे उन मार्गों को प्रभावित करती हैं जिन्हें लोग अपनाते हैं और यकीनन वे लोगों के अंतिम परिणाम और गंतव्य को भी प्रभावित करती हैं। लोग अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के बीच जीते हैं; इस प्रकार वे अनिवार्यतः इन्हीं धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर सभी चीजों को देखते हैं और सभी चीजों के बारे में राय बनाते हैं और दृढ़ फैसले लेते हैं। इसलिए, परमेश्वर चाहे जैसे सत्य प्रदान कर ले और लोगों को बताए कि उन्हें क्या विचार रखने चाहिए और कौन-सा मार्ग अपनाना चाहिए, जब तक लोग अपनी धारणाओं और कल्पनाओं को नहीं छोड़ेंगे, वे उन्हीं के अनुसार जीते रहेंगे और स्वाभाविक रूप से ये धारणाएँ और कल्पनाएँ लोगों का जीवन और उनके जीवित रहने के नियम बन जाएँगी और अनिवार्यतः वे तरीके और पद्धतियाँ बन जाएँगी जिनके द्वारा लोग सभी तरह की घटनाओं और चीजों से निपटते हैं। एक बार जब लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ वे सिद्धांत और कसौटियाँ बन जाती हैं जिनके द्वारा वे लोगों और चीजों को देखते हैं, आचरण और कार्य करते हैं तो चाहे वे परमेश्वर में कैसे भी विश्वास क्यों न रखें या कैसे भी अनुसरण क्यों न करें और चाहे वे कितना भी कष्ट क्यों न सहें या कितनी भी कीमत क्यों न चुकाएँ, यह सब कुछ निष्फल ही होगा। अगर कोई व्यक्ति अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार जीता है तो वह परमेश्वर का प्रतिरोध कर रहा होता है और उसके प्रति विरोधपूर्ण होता है; उसमें परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेशों या उसकी अपेक्षाओं के प्रति सच्चा समर्पण नहीं होता है। फिर अंत में उसका परिणाम बहुत दुखद होगा। अगर तुमने बहुत सारे वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है और उसके लिए खुद को खपाया है, हर तरफ दौड़-धूप की है और एक बड़ी कीमत चुकाई है, लेकिन तुम्हारे हर कार्य का प्रारंभिक बिंदु और स्रोत तुम्हारी अपनी धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं तो तुम परमेश्वर को सही मायने में स्वीकार नहीं करते हो और उसके प्रति समर्पण नहीं करते हो। चाहे ये धारणाएँ और कल्पनाएँ किताबों से आएँ, समाज से आएँ या तुम्हारी व्यक्तिगत इच्छाओं और रुचियों से आएँ, संक्षेप में, जब तक वे धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं, तब तक वे सत्य नहीं हैं; और जब तक वे सत्य नहीं हैं, तब तक वे सत्य के प्रति विरोधपूर्ण हैं, लोगों द्वारा सत्य स्वीकारने में बाधा हैं और परमेश्वर और सत्य की दुश्मन हैं। इसलिए, जब तक तुम अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार जीते हो, तब तक तुम सभी चीजों को इन धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार मापोगे और देखोगे और उनके कारण तुम अंत में निश्चित रूप से उन परिवेशों के खिलाफ विद्रोह करोगे जिनकी परमेश्वर तुम्हारे लिए व्यवस्था करता है और परमेश्वर के तुम्हारे मार्गदर्शन या उसकी तुम पर संप्रभुता के खिलाफ विद्रोह करोगे। संक्षेप में, यहाँ कोई सच्ची स्वीकृति और समर्पण नहीं है। ऐसा क्यों है? क्योंकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम कितनी कठिनाइयाँ सहते हो या कितनी कीमत चुकाते हो, जब तक तुम अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार जीते हो, तुम्हारे द्वारा सही जाने वाली कठिनाइयाँ और चुकाई जाने वाली कीमत सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं होती हैं और उनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता है; तब तक यह कहा जा सकता है कि तुम्हारे द्वारा सही जाने वाली कठिनाइयाँ और चुकाई जाने वाली कीमत मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं और तुम्हारी प्राथमिकताओं पर आधारित हैं और तुम्हारी दैहिक इच्छाएँ तुष्ट करने और तुम्हारे कुछ लक्ष्य संतुष्ट करने के उद्देश्य से हैं। यह ठीक वैसा ही है जैसा पौलुस ने अभिव्यक्त किया था : उसने बहुत सारा कार्य किया और बहुत दौड़-धूप की, यूरोप के एक बड़े हिस्से में सुसमाचार प्रचार किया, लेकिन चाहे उसने कितना भी कष्ट क्यों न सहा हो और कितनी भी कीमत क्यों न चुकाई हो या उसने कितनी भी दौड़-धूप क्यों न की हो, उसके पास कभी भी ऐसे विचार और दृष्टिकोण नहीं थे जो सत्य के अनुरूप हों, उसने कभी भी सत्य स्वीकार नहीं किया और उसके पास कभी भी परमेश्वर के प्रति समर्पण का रवैया और वास्तविक अनुभव नहीं था—वह हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में जीता था। उसकी विशिष्ट धारणा और कल्पना क्या थी? वह यह थी कि जब वह वह अपनी दौड़ पूरी कर लेगा और अच्छी लड़ाई लड़ लेगा तो धार्मिकता का एक मुकुट उसका इंतजार कर रहा होगा—यही पौलुस की धारणा और कल्पना थी। उसकी धारणा और कल्पना का विशिष्ट सैद्धांतिक आधार क्या था? वह यह था कि परमेश्वर किसी व्यक्ति का परिणाम इस आधार पर तय करेगा कि उसने कितनी दौड़-धूप की है, कितनी कीमत चुकाई है और कितना कष्ट सहा है। सिर्फ ऐसी धारणा और कल्पना के सैद्धांतिक आधार पर ही पौलुस अनजाने में मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चल पड़ा। नतीजन, जब वह रास्ते के अंत तक पहुँचा तो उसे अपने व्यवहार और परमेश्वर का प्रतिरोध करने की अभिव्यक्तियों या परमेश्वर का प्रतिरोध करने के अपने सार के बारे में बिल्कुल कोई समझ नहीं थी, फिर पश्चात्ताप होना तो दूर की बात है। वह परमेश्वर में विश्वास रखते हुए अब भी अपनी मूल धारणा और कल्पना में जकड़ा हुआ था और न सिर्फ उसके पास परमेश्वर के प्रति रत्ती भर भी सच्चा समर्पण नहीं था, बल्कि वह यह मानता था कि बदले में वह परमेश्वर से एक अच्छा परिणाम और गंतव्य प्राप्त करने का और भी ज्यादा हकदार है। “बदले में” इस बात को कहने का एक सुखद, सभ्य तरीका है, लेकिन दरअसल यह कोई विनिमय या लेन-देन भी नहीं था—वह परमेश्वर से सीधे इन चीजों के लिए बोल रहा था, परमेश्वर से सीधे इनकी माँग कर रहा था। उसने परमेश्वर से इनकी माँग कैसे की? जैसे कि उसने कहा, “मैंने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं अच्छी लड़ाई लड़ चुका हूँ—महिमा का मुकुट अब मेरा है। मैं इसी का हकदार हूँ और परमेश्वर को न्यायपूर्वक इसे मुझे दे देना चाहिए।” पौलुस ने जो मार्ग अपनाया वह परमेश्वर के प्रति प्रतिरोध का मार्ग था, जो उसके विनाश का कारण बना और अंतिम परिणाम के रूप में उसे सजा दी गई। इसे परमेश्वर के बारे में उसकी धारणा और कल्पना से अलग करना असंभव था। उसने हमेशा अपनी धारणा और कल्पना को लगातार जकड़े रखा; उसने परमेश्वर की कही बातों को, परमेश्वर द्वारा लोगों को दिए गए सत्यों—जीवन का मार्ग—को एक तरफ रख दिया और उसे अनदेखा कर दिया, उसने तिरस्कार और नफरत का रवैया भी अपना लिया और यहाँ तक कि उसने यह सच्चाई भी नहीं मानी या उसे नहीं स्वीकारा कि यीशु मसीह परमेश्वर का देहधारण था। मार्ग के अंत तक पहुँचकर भी वह पहले की तरह अपनी धारणा और कल्पना से चिपका रहा और खुद को परमेश्वर के मुकाबले खड़ा करता रहा जो अंत में उसे विनाश के अवश्यंभावी परिणाम की तरफ ले गया। इसलिए, परमेश्वर में विश्वास रखने की प्रक्रिया में अगर लोग अपनी सभी विभिन्न नकारात्मक भावनाएँ त्याग देने में समर्थ हो जाते हैं और वास्तविक जीवन में कुछ ऐसी चीजें त्याग देने में समर्थ हो जाते हैं जो सत्य का अनुसरण करने में उनके लिए बाधा बनती हैं, लेकिन वे अपने और परमेश्वर के बीच की बाधाओं और परमेश्वर के प्रति अपनी शत्रुता को त्याग न दे पाते हैं तो यह एक बहुत ही खेदजनक और दुखद बात होगी और अंत में लोग वैसे ही दंडित होने का परिणाम भुगतेंगे जैसा पौलुस ने भुगता था। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह बात निश्चित है। इसलिए, “त्याग देने” के अभ्यास में “अपने और परमेश्वर के बीच की बाधाओं और परमेश्वर के प्रति अपनी शत्रुता को त्याग देना” की मद सबसे निर्णायक और महत्वपूर्ण मद है और इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। तुम्हें इसी चीज की अक्सर जाँच करनी चाहिए : परमेश्वर के साथ अपने रिश्ते में और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने की प्रक्रिया में अब भी तुम्हारे पास कौन-सी धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं जो सत्य, परमेश्वर की इच्छाओं या परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं हैं और जो तुम्हारे और परमेश्वर के बीच खड़ी हैं। तुम्हें इनकी जाँच करनी चाहिए, परमेश्वर के वचनों से उनकी तुलना करनी चाहिए और फिर उन्हें त्याग देना चाहिए। त्याग देने का उद्देश्य किसी प्रक्रिया से गुजरना नहीं है, बल्कि सत्य स्वीकार करना है, इस संबंध में उन सत्य सिद्धांतों को स्वीकार करना है जिन्हें परमेश्वर ने लोगों के सामने रखा है और इन सत्य सिद्धांतों का उपयोग अपनी धारणाओं और कल्पनाओं को बदलने के लिए करना है और अपने अनुसरण के पीछे के परिप्रेक्ष्य और अपने अनुसरण की दिशा को बदलना है ताकि तुम अपने जीवन में और परमेश्वर का अनुसरण करने की प्रक्रिया में अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप होने के बजाय परमेश्वर के अनुरूप हो सको। परमेश्वर का कार्य लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं को हल करना है और वह लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ हल करने के लिए उन्हें सत्य भी प्रदान करता है। परमेश्वर लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ हल करके उन्हें उसके द्वारा निर्धारित हर परिवेश को देखने के लिए और जीवन में उनके सामने आने वाले हर मामले को सँभालने के लिए सही विचार, दृष्टिकोण, परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण रखने में सक्षम बनाता है। परमेश्वर अपना कार्य करता है और अपने वचनों के जरिये लोगों को सत्य प्रदान इसलिए नहीं करता है ताकि वह उनकी धारणाएँ और कल्पनाएँ पूरी कर सके, बल्कि इसलिए करता है ताकि वह उनकी धारणाओं और कल्पनाओं का विरोध कर सके और अंत में उन्हें अपनी धारणाएँ और कल्पनाएँ त्याग देने और परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम बना सके।

इससे पहले हम परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों की कुछ धारणाओं और कल्पनाओं पर संगति कर चुके हैं। लोगों के पास इन धारणाओं और कल्पनाओं के अलावा परमेश्वर के कार्य के बारे में कुछ दूसरी धारणाएँ और कल्पनाएँ भी हैं जो उन्हें सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया में त्याग देनी चाहिए। उदाहरण के लिए, लोग यह मानते हैं कि परमेश्वर का कार्य स्वीकार करने के बाद अगर वे सत्य का अनुसरण करने में समर्थ होते हैं तो वे पूरी तरह से नए बना दिए जाएँगे और जब उनके पास अपने जीवन के रूप में परमेश्वर के वचन होंगे तो उनके पास एक पूरी तरह से नया जीवन होगा और वे एक नए व्यक्ति के रूप में पुनर्जन्म लेंगे। वे मानते हैं कि उनकी काबिलियत बेहतर हो चुकी होगी और उनकी सहज प्रवृत्तियाँ भी कुछ हद तक बदल चुकी होंगी और इसलिए उनके साथ अक्सर ऐसी चीजें होंगी जिनकी उन्होंने कभी उम्मीद नहीं की होगी। यानी वे न सिर्फ ऐसी चीजें करने में समर्थ होंगे जो उनकी अपनी काबिलियत और सहज प्रवृत्तियों से परे हैं, बल्कि वे उन्हें अत्यंत सहज और सुचारू रूप से करने में भी समर्थ होंगे। सिर्फ यही नहीं, परमेश्वर में विश्वास रखने की प्रक्रिया में कुछ लोग अक्सर यह भी महसूस करते हैं कि जब से उन्होंने सत्य का अनुसरण करना शुरू किया है, तब से उनके व्यक्तित्व और स्वभाव में सुधार हुआ है, उनकी आँखें पहले से ज्यादा चमकदार हो गई हैं और उनकी सुनने की शक्ति पहले से बेहतर हो गई है। समय-समय पर वे आईने में देखते हैं और महसूस करते हैं कि वे ज्यादा-से-ज्यादा फरिश्तों की तरह बनते जा रहे हैं; उन्हें लगता है कि वे ज्यादा-से-ज्यादा सुंदर और पहले से कहीं ज्यादा चुस्त दिखने लगे हैं। कुछ लोगों को यह भी लगता है कि उनके जीवन की कुछ आदतें बदल गई हैं और उनके जीने के ढंग अलग हो गए हैं—पहले अगर वे बहुत देर से सोते थे तो लगातार जम्हाई लेते रहते थे, लेकिन जब से उन्होंने सत्य का अनुसरण करना शुरू किया है, तब से ये प्रतिक्रियाएँ गायब हो गई हैं और उन्हें यह विशेष रूप से चमत्कारी लगता है। लोग अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में यह मानते हैं कि जब वे सत्य का अनुसरण करना शुरू करेंगे तो परमेश्वर उन पर कुछ कार्य करेगा ताकि वे अप्रत्याशित परिवर्तनों से गुजरें। इसमें रातों-रात उनकी काबिलियत में सुधार होना शामिल है—वे औसत दर्जे या बहुत ही खराब काबिलियत वाले व्यक्ति से अत्यंत चतुर, सक्षम और अनुभवी व्यक्ति बन जाएँगे, काबिलियत और बुद्धि वाला व्यक्ति बन जाएँगे और उनकी सोच का क्षेत्र भी उन्नत हो जाएगा। जब लोग पहली बार परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करते हैं और सत्य का अनुसरण करने का फैसला करते हैं तो उनमें सत्य के अनुसरण के बारे में अत्यधिक बढ़ी-चढ़ी और अवास्तविक कल्पनाएँ होती हैं, संक्षेप में, इनमें से कोई भी कल्पना वाकई वास्तविकता के अनुरूप नहीं होती है। लोग मानते हैं कि जब तक वे सत्य का अनुसरण करेंगे, तब तक उनके बारे में कई पहलू उन्नत हो जाएँगे और आगे बढ़ेंगे और कुछ क्षेत्रों में तो वे साधारण लोगों से भी आगे निकल जाएँगे। इसलिए, कुछ लोग अपना नाम ल्यू चाओ रख लेते हैं, कुछ लोग मा चाओ रख लेते हैं और दूसरे लोग निउ चाओ रख लेते हैं। इन नामों का मतलब क्रमशः गधों, घोड़ों और बैलों से आगे निकलना है—यानी घोड़े से तेज दौड़ने में समर्थ होना और अपने पास गधे या बैल से ज्यादा शक्ति होना। आमतौर पर गधे चीजें खींचने में बहुत मजबूत होते हैं, घोड़ों के पैर बहुत ताकतवर होते हैं और बैलों में बहुत सहनशक्ति होती है, इसलिए ये लोग खुद को ल्यू चाओ, मा चाओ और निउ चाओ कहते हैं। देखा तुमने, वे जो भी नाम चुनते हैं उस पर विशेष सोच-विचार करते हैं। लोग अपने लिए जो नाम चुनते हैं उससे यह देखा जा सकता है कि लोगों में परमेश्वर के कार्य के बारे में अपनी खुद की समझ होती है; बदकिस्मती से यह समझ सत्य के अनुरूप नहीं होती है और सकारात्मक नहीं होती है—यह लोगों की एक धारणा और कल्पना है। चाहे यह धारणा और कल्पना विकृत हो या चरम, संक्षेप में, यह तथ्यों और सत्य के साथ असंगत है; यह बहुत खोखली है और अलौकिक चीजों से संबंधित है। परमेश्वर लोगों पर जिस सिद्धांत के अनुसार कार्य करता है वह यह है : इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि लोगों में कैसी काबिलियत है या उनके पास किस तरह की कार्य क्षमता है या चीजों से निपटने की किस तरह की योग्यता है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उनकी जन्मजात प्रवृत्तियाँ क्या हैं और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उनका व्यक्तित्व, आदतें, जीने के ढंग, रुचियाँ और शौक क्या हैं या यहाँ तक कि उनका लिंग क्या है, संक्षेप में, परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य लोगों को उनकी अंतर्निहित काबिलियत, सहज प्रवृत्तियों, व्यक्तित्व, आदतों, उनके जीने के सही ढंगों और साथ ही उनकी जायज रुचियों और शौक, वगैरह के आधार पर सत्य समझने, सत्य स्वीकार करने, सत्य के प्रति समर्पण करने और फिर सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम बनाने का परिणाम प्राप्त करना है। तो यह परिणाम किस आधार पर प्राप्त किया जाता है? यह लोगों में सत्य समझने और बूझने की क्षमता होने के आधार पर और उनमें सामान्य मानवता होने के आधार पर प्राप्त किया जाता है। यह तथाकथित उन्नत मानवता के आधार पर प्राप्त नहीं किया जाता है और न ही यह अलौकिक मानवता के आधार पर प्राप्त किया जाता है। इसलिए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि हम सत्य के किन पहलुओं पर संगति करते हैं, यह सब कुछ तुम्हें इस आधार पर उनमें प्रवेश करने में सक्षम बनाने के लिए है कि तुममें सामान्य मानवता और सत्य को बूझने की क्षमता है। लेकिन लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ इसके बिल्कुल विपरीत हैं। लोग मानते हैं कि परमेश्वर के कार्य और सत्य की उसकी अभिव्यक्ति द्वारा लोगों में प्राप्त परिणाम उनकी अंतर्निहित काबिलियत और सहज प्रवृत्तियों के खिलाफ जाता है और यह उनके व्यक्तित्व, आदतों, रुचियों और शौक के भी खिलाफ जाता है। लोग व्यावहारिक तरीके से सत्य की तलाश करने का प्रयास करने के बजाय अक्सर यह उम्मीद करते हैं कि उनके साथ कोई चमत्कार होगा, उनके साथ कुछ अलौकिक या कुछ ऐसा होगा जो अप्रत्याशित है और उनकी अपनी काबिलियत और सहज प्रवृत्तियों से परे है। इस तथ्य से क्या साबित होता है? क्या ऐसा नहीं है कि लोग सत्य के अनुसरण को कुछ विशेष रूप से अलौकिक और खोखली चीज के रूप में देखते हैं? क्या ऐसा नहीं है कि वे परमेश्वर द्वारा लोगों पर कार्य करने के तरीकों को विशेष रूप से अलौकिक और खोखला मानते हैं? (हाँ।) लोग अक्सर यह उम्मीद करते हैं कि वे जितना ज्यादा सत्य का अनुसरण करेंगे, उनकी काबिलियत उतनी ही ज्यादा ऊँची होगी या कि ढेरों धर्मोपदेश सुनने और सत्य स्वीकार करने और समझने के बाद उनकी काबिलियत पहले से ऊँची हो जाएगी। यह एक धारणा और कल्पना है, है ना? (हाँ।) उदाहरण के लिए, कोई पेशा सीखने की बात ले लो : जब तुम स्कूल में पढ़ते थे, तब अगर तुम किसी पेशे में महारत हासिल करना चाहते तो तुम्हें उस पेशे के ज्ञान को रटकर याद करना पड़ता और सुबह से लेकर शाम तक पढ़ाई करनी पड़ती और अपना खाली समय उसे सीखने का प्रयास करने में लगाना पड़ता। जब से तुमने परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू किया है, तब से तुम सोचने लगे हो कि जब तक पवित्र आत्मा कार्य करता है, तब तक लोगों की काबिलियत में सुधार होगा, वे परिवर्तित होंगे और वे पहले से अलग बन जाएँगे। इसलिए, तुम तय करते हो कि परमेश्वर चाहे कैसे भी कार्य क्यों न करे, व्यक्ति को बस सहयोग करना है और सत्य का अनुसरण करने और पेशेवर ज्ञान सीखने का प्रयास करने की कोई जरूरत नहीं है; व्यक्ति के लिए अपना कर्तव्य करना ही पर्याप्त है—इस तरह से परमेश्वर में विश्वास रखकर भी व्यक्ति प्रगति कर लेगा। क्या लोग इसी तरीके से इसकी कल्पना नहीं करते हैं? (हाँ।) मुझे बताओ, क्या यह अनुसरण करने का सही तरीका है? क्या इस तरीके से अनुसरण करने से सच्चा परिवर्तन आ सकता है? (नहीं आ सकता।) परिवर्तन नहीं आ सकता। उदाहरण के लिए, कुछ लोग सोचते हैं कि अच्छा गाने के लिए उन्हें सुबह से शाम तक अभ्यास करना होगा, दूसरों की शैलियाँ चुरानी होंगी और दूसरे लोगों के गुणों से सीखने के लिए सभी तरह के गाने सुनने होंगे और सिर्फ इसी तरीके से वे उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकते हैं। इसके विपरीत, कुछ लोग मानते हैं कि गायन प्रतिभा पर निर्भर करता है; उन्हें लगता है कि अगर किसी व्यक्ति में गायन का गुण है और वह गायन पसंद करता है तो वह अच्छा गाने में समर्थ होगा और अगर किसी में गायन का गुण नहीं है या उसे गायन से लगाव नहीं है तो उसे अच्छा गाने के लिए, भावना के साथ गाने के लिए पवित्र आत्मा द्वारा प्रेरित किए जाने पर निर्भर रहना होगा ताकि उसका गायन सुनकर दूसरों को खुशी मिले। नतीजतन, ज्यादातर लोग हमेशा इस तरह का भ्रम रखते हैं; वे खुद को प्रेरित करने के लिए पवित्र आत्मा पर भरोसा करते हैं, नहीं तो वे गाना गाने के लिए अपना मुँह नहीं खोलते हैं। यह एक धारणा और कल्पना है, है ना? कुछ लोग सोचते हैं कि पेशेवर ज्ञान सीखने में इतना प्रयास करने की जरूरत नहीं है और जब तक लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, तब तक परमेश्वर कार्य करेगा और लोगों द्वारा वे बलिदान करना बेकार और निष्फल है। वे सोचते हैं कि जैसे ही परमेश्वर कार्य करता है, यह लोगों द्वारा किसी भी मात्रा में किए जाने वाले प्रयास से ज्यादा उपयोगी होता है, इसलिए जब तक लोग सच्चाई से अपने कर्तव्य करते हैं और अपने दिल परमेश्वर को समर्पित करने के लिए तैयार रहते हैं, तब तक पवित्र आत्मा उनमें कार्य करेगा और उनकी काबिलियत और क्षमताएँ सामान्य मानवता के दायरे से परे उन्नत हो जाएँगी—वे उन चीजों को समझने में समर्थ हो जाएँगे जो पहले उनके लिए बेमतलब थीं और वैसे तो इससे पहले वे एक बार में पाठ की दो पंक्तियाँ भी नहीं पढ़ पाते थे, लेकिन परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद वे एक बार में दस पंक्तियाँ पढ़ने और उन्हें अच्छी तरह से याद करने में समर्थ हो जाएँगे। लेकिन चाहे वे कितना भी प्रशिक्षण क्यों न ले लें, वे अब भी इसे प्राप्त नहीं कर पाते हैं, इसलिए वे सोचते हैं, “क्या परमेश्वर मुझे अनुग्रह नहीं दे रहा है? क्या मैं अपना कर्तव्य करने में पर्याप्त मेहनती और ईमानदार नहीं हूँ?” क्या यही बात है? (नहीं।) तुम्हें लगता है कि तुम जितना ज्यादा ऐसी चीजें प्राप्त करने में समर्थ होते हो जो अलौकिक हों, तुम्हारी अपनी ही काबिलियत और क्षमताओं की सीमा से परे हों, उससे उतना ही ज्यादा यह साबित होता है कि यह परमेश्वर का कार्य है; कि अगर तुम्हारी ईमानदारी और सहयोग करने की तुम्हारी इच्छा लगातार बढ़ती जाती है तो परमेश्वर तुममें ज्यादा से ज्यादा कार्य करेगा और तुम्हारी काबिलियत और क्षमताएँ लगातार बढ़ती रहेंगी। क्या लोगों की यही धारणा और कल्पना नहीं होती है? (हाँ।) क्या तुम लोगों की विशेष रूप से इस तरह से सोचने की प्रवृत्ति है? (है।) इस तरह से सोचने का क्या नतीजा होता है? क्या यह हमेशा विफलता और कार्यान्वयन का अभाव नहीं होता है? कुछ लोग तो नकारात्मक भी हो जाते हैं और कहते हैं, “मैंने परमेश्वर को अपनी भरपूर निष्ठा दी है—परमेश्वर मुझे अच्छी काबिलियत क्यों नहीं देता है? परमेश्वर मुझे अलौकिक क्षमताएँ क्यों नहीं देता है? मैं अब भी हमेशा कमजोर क्यों हूँ? मेरी काबिलियत में कोई सुधार नहीं हुआ है, मैं कुछ भी स्पष्ट रूप से नहीं देख पाता हूँ और पेचीदा मामलों का सामना करने पर घबरा जाता हूँ। पहले भी ऐसा ही था, अब भी ऐसा ही क्यों है? इसके अलावा, मैं अपने कर्तव्य के निर्वहन और समस्याओं से निपटने में कभी भी अपने देह से ऊपर क्यों नहीं उठ पाता हूँ? मैं कुछ धर्म-सिद्धांत समझता हूँ, फिर भी मैं चीजें स्पष्ट रूप से नहीं देख पाता हूँ और जब मामलों से निपटने की बात आती है तो मैं ढुलमुल बना रहता हूँ और मैं अब भी अच्छी काबिलियत वाले लोगों जितना अच्छा नहीं हूँ। मेरी कार्य क्षमता भी खराब है और मेरे कर्तव्य का निर्वहन अकुशल है। मेरी काबिलियत में बिल्कुल भी सुधार नहीं हुआ है! यह क्या हो रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि परमेश्वर के प्रति मेरी ईमानदारी अपर्याप्त है? या परमेश्वर मुझे पसंद नहीं करता है? मुझमें कहाँ कमी है?” कुछ लोग विभिन्न कारण तलाशते हैं और इस सच्चाई को बदलने के लिए कई तरीके आजमा चुके हैं, जैसे कि ज्यादा धर्मोपदेश सुनना, परमेश्वर के ज्यादा वचन याद करना, ज्यादा आध्यात्मिक भक्ति टिप्पणियाँ लिखना, साथ ही लोगों को सत्य की ज्यादा संगति करते हुए सुनना और ज्यादा तलाश करना, लेकिन अंतिम नतीजा अब भी निराशाजनक ही होता है। उनकी काबिलियत और कार्य क्षमता पहले जैसी ही बनी रहती है, तीन से पाँच वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी उनमें कोई सुधार नहीं होता है। फिर वे अपने व्यक्तित्व पर एक नजर डालते हैं और पाते हैं कि वे अब भी पहले की तरह बुजदिल हैं, बूढ़ी गाय की तरह सुस्त हैं या वे अब भी बेसब्र व्यक्तित्व वाले हैं और हर चीज को उत्तेजित ढंग से सँभालते हैं—कोई परिवर्तन नहीं आया है! दूसरे लोग देखते हैं कि ऐसा लगता है कि हाल ही में उनकी रुचियाँ और शौक नहीं बदले हैं और उनके कुछ दोष, आदतें और कमियाँ भी नहीं बदली हैं। और दूसरे लोग जो देर से सोना और देर से उठना पसंद करते हैं, वे देखते हैं कि जीवन की ये आदतें भी बिना बदले रह गई हैं। इसलिए वे सभी सोचते हैं, “क्या चल रहा है? क्या ऐसा हो सकता है कि पवित्र आत्मा मुझ पर कार्य नहीं कर रहा है? क्या परमेश्वर ने मुझे छोड़ दिया है? क्या परमेश्वर मुझसे खुश नहीं है? क्या मैं गलत मार्ग अपना रहा हूँ? क्या मैं गलत तरीके से अनुसरण कर रहा हूँ? क्या मैंने अपना कर्तव्य करने में पर्याप्त रूप से अपना दिल नहीं लगाया है? क्या मैंने पर्याप्त कीमत नहीं चुकाई है?” वे सभी तरह के कारणों की तलाश करते हैं, लेकिन फिर भी उन्हें कोई नतीजा नहीं मिलता है। उनके पास नतीजे नहीं होने का क्या कारण है? (इसका कारण यह है कि वे हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में जीते रहे हैं। वे सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद जब तक वे उसके प्रति ईमानदार रहेंगे, तब तक जैसे ही परमेश्वर कार्य करेगा, उनकी काबिलियत और कार्य क्षमता में सुधार होगा—उनके ऐसे विचार उनकी धारणाओं और कल्पनाओं से जन्म लेते हैं।) लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ उनके अनुसरण के लक्ष्यों और तरीकों को, उनके द्वारा अपनाए जाने वाले मार्गों को और अंत में उनके फायदों और परिणामों को तय करती हैं। अगर लोगों के पास ऐसी धारणाएँ और कल्पनाएँ हों तो वे क्या प्राप्त करेंगे? क्या वे सत्य प्राप्त करेंगे? क्या वे परमेश्वर में सच्ची आस्था और परमेश्वर के लिए सच्चा प्रेम प्राप्त करेंगे? क्या वे परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण प्राप्त करेंगे? (नहीं।) वे इनमें से कुछ भी प्राप्त नहीं करेंगे।

परमेश्वर में विश्वास रखने में व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि परमेश्वर का कार्य लोगों के बारे में वास्तव में क्या बदलने के लिए है, परमेश्वर लोगों की भ्रष्टता की समस्या को कैसे हल करता है और वह लोगों में क्या प्राप्त करने का इरादा रखता है—ये ऐसे मुद्दे हैं जिन पर स्पष्ट रूप से संगति की जानी चाहिए, है ना? कुल मिलाकर, व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि परमेश्वर अपने कार्य से लोगों में वास्तव में क्या प्रभाव प्राप्त करने का इरादा रखता है। सबसे पहले, परमेश्वर के कार्य के इस चरण में वह सत्य व्यक्त कर रहा है और जीवन प्रदान कर रहा है। लोगों को सत्य प्रदान करने का कार्य उन सत्य सिद्धांतों की स्पष्ट रूप से संगति करना है जिनका लोगों को वास्तविक जीवन में उस समय पालन करना चाहिए जब उनके सामने सभी तरह के लोग, घटनाएँ और चीजें आती हैं ताकि उन्हें समझ लेने के बाद वे इन सत्य सिद्धांतों के आधार पर लोगों और चीजों को देख सकें और आचरण और कार्य कर सकें और इस आधार पर उनके भ्रष्ट स्वभाव हल हो जाएँ और वे ये भ्रष्ट स्वभाव छोड़ देने और सही मायने में और पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम हो जाएँ। यकीनन यह बचाए जाने का भी संकेत है और यह बचाए जाने की सच्ची अभिव्यक्ति है जिसे अंत में लोगों में देखा जा सकता है। परमेश्वर द्वारा लोगों को सत्य प्रदान करने की पूरी प्रक्रिया में वे मुख्य मुद्दे क्या हैं जिन्हें हल करने की जरूरत है? हल करने के लिए मुख्य रूप से दो प्रकार के मुद्दे हैं। हल करने के लिए पहले प्रकार का मुद्दा लोगों की धारणाएँ हैं। लोगों के विभिन्न प्रकार के भ्रामक, विकृत और कसकर जकड़े हुए विचार और नजरिये जो शैतान से आते हैं उन्हें सामूहिक रूप से लोगों की धारणाएँ कहा जाता है। ये गलत विचार और नजरिये लोगों के विचारों और व्यवहारों को नियंत्रित करते हैं और ये पहले से ही विचार का वह मूलभूत सिद्धांत बन चुके हैं जिसके द्वारा वे लोगों और चीजों को देखते हैं और आचरण और कार्य करते हैं और इसलिए उन्हें पूरी तरह से हल किया जाना चाहिए। यह लोगों के विचारों से संबंधित मुद्दा है जिसे हल किए जाने की जरूरत है। हल किए जाने के लिए दूसरे प्रकार का मुद्दा लोगों के भ्रष्ट स्वभाव हैं। भ्रष्ट स्वभाव ऐसा विषय है जिस पर कलीसियाई जीवन में अक्सर संगति और चर्चा की जाती है और जिसका गहन-विश्लेषण किया जाता है। कुछ भ्रष्ट स्वभाव लोगों के भ्रामक विचारों और नजरियों के कारण होते हैं, जबकि दूसरे भ्रष्ट स्वभाव पूरी तरह से शैतानी स्वभाव होते हैं। परमेश्वर अपने कार्य और वचनों के जरिये लोगों में जिन दो चीजों को हल करने का इरादा रखता है वे उनकी धारणाएँ और उनके भ्रष्ट स्वभाव हैं। पहली चीज इससे संबंधित है कि व्यक्ति लोगों और चीजों को कैसे देखता है, जबकि दूसरी चीज इससे संबंधित है कि व्यक्ति किस तरह से आचरण और कार्य करता है। जब ये दोनों चीजें हल हो जाती हैं और लोग सत्य प्राप्त कर लेते हैं और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उसके अनुरूप होने में समर्थ हो जाते हैं तो परमेश्वर का कार्य अपना प्रभाव प्राप्त कर लेता है और परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाता है। लेकिन परमेश्वर के कार्य की पूरी प्रक्रिया में—चाहे वह परमेश्वर के कार्य करने का तरीका हो, उसके कार्य के विशिष्ट चरण हों या उसके द्वारा व्यक्त हर सत्य हो—इनमें से कोई भी चीज लोगों के व्यक्तित्वों, काबिलियतों, क्षमताओं, सहज प्रवृत्तियों, जीवन की आदतों और जीने के ढंगों या उनकी रुचियों और शौक जैसे पहलुओं पर लक्षित नहीं होती है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य, प्रयोजन और महत्व लोगों की अंतर्निहित काबिलियतों और क्षमताओं, सहज प्रवृत्तियों, व्यक्तित्वों, वगैरह को बदलना नहीं है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम्हारे पास क्या काबिलियत और कार्य क्षमता है या तुम्हारा जन्मजात व्यक्तित्व, जीवन की आदतें, सहज प्रवृत्तियाँ और दूसरे विभिन्न पहलू कैसे हैं, परमेश्वर इनमें से किसी भी चीज को नहीं देखता है। वह सिर्फ यह देखता है कि क्या तुम सामान्य मानवता वाले व्यक्ति हो और फिर इस आधार पर वह तुम्हें सत्य प्रदान करता है और तुम पर कार्य करता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि परमेश्वर तुम्हें सत्य के कौन से पहलू प्रदान करता है या वह तुम पर किस प्रकार का कार्य करता है, अंत में यह तुम्हारी अंतर्निहित काबिलियत और सहज प्रवृत्तियों को बदलने के लिए नहीं है, यह तुम्हारी काबिलियत या सहज प्रवृत्तियों को उन्नत करने और उन्हें बेहतर बनाने के लिए या उन्हें विशेष रूप से अलौकिक बनाने के लिए नहीं है—इनमें से कोई भी पहलू ऐसा लक्ष्य नहीं है जिसे परमेश्वर अपने कार्य से बदलना चाहता है। इसलिए, चाहे तुमने कितने भी वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा हो या तुमने कितने भी धर्मोपदेश सुने हो या तुमने परमेश्वर के वचनों में कितना भी प्रयास किया हो, तुम्हारी अंतर्निहित काबिलियत वही की वही रहेगी और नहीं बदलेगी। यह बस इसलिए नहीं बदल जाएगी क्योंकि तुमने बहुत सारे वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, बहुत सारे वर्षों से धर्मोपदेश सुने हैं और बहुत सारे वर्षों से दौड़-धूप की है और खुद को खपाया है। यकीनन यही बात तुम्हारे व्यक्तित्व, सहज प्रवृत्तियों, जीवन की आदतों, रुचियों, शौक, वगैरह पर भी लागू होती है; ये बस इसलिए नहीं बदल जाएँगे क्योंकि तुमने बहुत सारे वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है और बहुत सारे वर्षों से अपना कर्तव्य किया है। लोगों की धारणाओं में निश्चित रूप से इस बदलाव का मतलब नीचे लाना नहीं है, बल्कि उन्नत करना है—इन चीजों को पहले से ऊँचा और बेहतर बनाना है। यानी, भले ही परमेश्वर का कार्य किसी भी चरण में क्यों न हो या वह इसे करने के लिए किसी भी पद्धति का उपयोग क्यों न करे, उसका कार्य लोगों की अंतर्निहित काबिलियतों, कार्य क्षमताओं, सहज प्रवृत्तियों, व्यक्तित्वों, वगैरह को नहीं बदलता है। इसलिए, अगर तुम्हारी काबिलियत खराब है और फिलहाल तुममें अगुआ या कार्यकर्ता बनने या कार्य की किसी खास मद के लिए पर्यवेक्षक बनने की काबिलियत नहीं है तो तुममें 20 या 30 वर्ष बाद भी यह काबिलियत नहीं होगी; और भले ही सत्य का अनुसरण करने के कारण अंत में तुम्हें बचा भी लिया जाए, तो भी तुममें यह काबिलियत नहीं होगी। तुम्हारी काबिलियत नहीं बदलेगी। तो क्या तुम्हारी सहज प्रवृत्तियाँ बदल जाएँगी? हर व्यक्ति जन्म, बूढ़ा होने, बीमारी और मृत्यु का अनुभव करता है और बड़ी घटनाओं का सामना करने पर वह घबरा जाता है, डर जाता है, आतंकित हो जाता है, वगैरह-वगैरह—ये सहज प्रवृत्तियाँ भी नहीं बदलेंगी। उदाहरण के लिए, जब लोग कोई विशेष रूप से तेज शोर सुनते हैं तो वे सभी अपने सिर ढक लेते हैं और किसी सुरक्षित जगह छिप जाते हैं—यह सहज प्रवृत्ति है। जब तुम्हारा हाथ लौ या किसी दूसरी गर्म चीज को छू लेता है तो तुम सहज बोध से उसे हटा लेते हो या जब तुम कोई खेदजनक खबर सुनते हो तो तुम सहज बोध से अंदर से काँप उठते हो और आतंकित हो जाते हो। जब तुम खतरे का सामना करते हो तो सहज बोध से तुम्हारा पहला विचार होता है, “क्या मैं सुरक्षित हूँ? क्या यह खतरा मेरी तरफ आ रहा है?” यह सहज प्रवृत्ति है। साथ ही, जब कोई तुम्हें मारने के लिए तुम्हारी तरफ बढ़ता है तो तुम सहज बोध से खुद को बचाने के लिए झटके से हट जाते हो; जब धूल या पानी तुम्हारी आँखों में चला जाता है तो तुम सहज बोध से उन्हें बंद कर लेते हो; और जब तुम्हारे दाँत में दर्द होता है तो तुम अपने हाथ से बार-बार अपना दाँत छूते रहते हो। तुम्हारे पास सहज बोध से प्राकृतिक प्रतिवर्त होगा, एक निश्चित अभिव्यक्ति होगी या तुम सहज क्रिया करोगे। लोग ये सहज प्रतिक्रियाएँ लेकर पैदा होते हैं। कोई भी उन्हें छीन नहीं सकता है और परमेश्वर भी उन्हें नहीं बदलेगा। ये सहज प्रतिक्रियाएँ परमेश्वर द्वारा लोगों के लिए तब स्थापित की गईं जब उसने उन्हें बनाया और वे लोगों की रक्षा करने के लिए हैं। ये कुछ ऐसी चीजें हैं जो सृजित मनुष्य में होनी चाहिए। परमेश्वर इन सहज प्रवृत्तियों को नहीं छीन लेगा और सत्य के अपने अनुसरण के कारण तुम भी उन्हें नहीं खोओगे। मेरा ऐसा कहने का क्या मतलब है? मेरा मतलब यह है कि ऐसा नहीं है कि जब आग लगेगी तो तुम्हें डर नहीं लगेगा या जब तुम अपना हाथ गर्म तेल की कड़ाही में डालोगे तो तुम अपने हाथ का जलना महसूस नहीं करोगे क्योंकि तुम सत्य का अनुसरण करते हो, तुमने बहुत सारे सत्य समझे हैं और तुममें परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण है—यह असंभव है। अगर कोई ऐसी गवाही दे तो तुम क्या सोचोगे? क्या तुम उससे ईर्ष्या करोगे और उसकी सराहना करोगे? तुम इसका किस प्रकार का आकलन और निरूपण करोगे? कम-से-कम, यह एक अलौकिक परिघटना है और परमेश्वर इसका निर्वहन नहीं करेगा। जहाँ तक उन सहज प्रवृत्तियों की बात है जो परमेश्वर ने मानवजाति के लिए बनाई हैं, परमेश्वर तुम्हारी ये सहज प्रवृत्तियाँ इसलिए नहीं छीन लेगा क्योंकि तुम सत्य का अनुसरण करते हो और न ही वह इन सहज प्रवृत्तियों को अलौकिक शक्तियों में परिवर्तित करेगा। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम किसी अँधेरी जगह पर हो और तुम कुछ भी देख नहीं पा रहे हो; तुम अपने आस-पास टटोलने के लिए सहज बोध से अपने हाथ आगे बढ़ाते हो और अपने आस-पास की आवाजें पहचानने के लिए बड़े ध्यान से अपने कानों से सुनते हो, सहज बोध से महसूस करते हुए आगे बढ़ते हो। तुम देह से परे नहीं जाओगे क्योंकि तुम सत्य का अनुसरण करते हो—ऐसा नहीं होगा कि अँधेरा जितना गहरा होता जाएगा, तुम्हारी आँखें उतनी ही चमकदार महसूस होने लगेंगी और तुम चीजों को उतना ही स्पष्ट रूप से देख पाओगे और तुम्हारे लिए अपनी नई परिस्थिति को समझना उतना ही आसान हो जाएगा—यह अलौकिक है और यह कुछ ऐसा है जो परमेश्वर नहीं करता है। भले ही तुमने बहुत सारे सत्य समझ लिए हों और तुम सत्य के प्रति समर्पण करने और सत्य को व्यवहार में लाने में समर्थ हो, लेकिन अगर इस संबंध में तुम्हारी सहज प्रवृत्तियाँ वैसी की वैसी बनी रह सकती हैं और पीछे नहीं हटती हैं तो यह पहले से ही बहुत बढ़िया है और फिर भी तुम चाहते हो कि वे अलौकिक बन जाएँ—यह असंभव है! इसके अलावा, किसी व्यक्ति की चीजों को देखने और उन्हें सँभालने की क्षमता और समस्याएँ हल करने की उसकी क्षमता वे चीजें नहीं हैं जिन्हें परमेश्वर अपने कार्य से बदलने का इरादा रखता है। किसी व्यक्ति की चीजें सँभालने की क्षमता एक लिहाज से उसकी काबिलियत पर और दूसरे लिहाज से उसके जन्मजात बुद्धिमत्ता-स्तर पर निर्भर करती है और उसके बुद्धिमत्ता-स्तर में उसके गुण शामिल होते हैं। कुछ लोग बाहरी मामले सँभालने के लिए विशेष रूप से कुछ क्षमताएँ और गुण लेकर पैदा होते हैं, यानी वे सोचने और लोगों से घुलने-मिलने में अच्छे होते हैं, वे एक विशेष सामाजिक क्षमता लेकर पैदा होते हैं और उन्हें पता होता है कि लोगों से कैसे बातचीत करनी है, चीजों को कैसे देखना है और कुछ मामलों को कैसे सँभालना है। जब सभी तरह की चीजों की बात आती है तो उनके मन में विचारों की विशेष रूप से स्पष्ट श्रृंखलाएँ होती हैं, जो बहुत तर्कसंगत भी होती हैं। जब वे किसी चीज को देखते हैं तो वे किसी भटकाव या बेतुकेपन के बिना मामले के सार को गहराई से समझ सकते हैं और समस्याओं को अपेक्षाकृत सटीक ढंग से सँभाल सकते हैं। इस प्रकार के व्यक्ति में मामलों को सँभालने की क्षमता होती है। कुछ लोग यह क्षमता लेकर पैदा नहीं होते हैं और उन्हें बस किताबें पढ़ना, फूल उगाना, घास लगाना, पक्षी पालना और इसी तरह की चीजें पसंद होती हैं। इसे क्या कहते हैं? इसे परिष्कृत और इत्मीनान भरी जीवन-शैली का होना कहा जाता है। ये वे लोग हैं जो सुरुचि और परिष्करण का अनुसरण करते हैं। वे लोगों से घुलने-मिलने या बाहरी मामले सँभालने में अच्छे नहीं होते हैं, उनमें यह क्षमता नहीं होती है। जब उन्हें बाहर जाकर मामले सँभालने, वकील से सलाह-लेने या किसी व्यक्ति से बातचीत करने की जरूरत होती है तो वे पूरी तरह से दब्बू बन जाते हैं और डरने लगते हैं और उस व्यक्ति की आँखों में देखने की हिम्मत नहीं करते हैं और जब उनसे प्रश्न पूछे जाते हैं, तो वे हिचकिचाते रहते हैं और उन्हें पता नहीं होता है कि क्या कहना है। वे निकम्मे हैं, है ना? जब इस तरह के व्यक्ति को किसी मुद्दे का सामना नहीं करना पड़ता है तो वह डींग मारने में बहुत अच्छा होता है, वह कहता है, “मैंने अमुक चीजें कीं, मेरा अमुक शानदार अतीत रहा है, मैंने एक बार अमुक लोगों से बातचीत की और मैं अमुक मशहूर हस्तियों को जानता हूँ...।” लेकिन जब उसे वास्तव में कुछ सँभालने के लिए भेजा जाता है तो वह बिना किसी नामोनिशान के गायब हो जाता है। यह बात पता चलती है कि वह सिर्फ डींग मारने में सक्षम है और उसके पास कोई वास्तविक प्रतिभा या ज्ञान नहीं है और मामले सँभालने की कोई क्षमता नहीं है। क्या किसी व्यक्ति द्वारा सत्य का अनुसरण करके यह तथ्य बदला जा सकता है कि वह मामले सँभालने में बुरा है? बदकिस्मती से, नहीं, इसे नहीं बदला जा सकता। उन व्यक्तियों को देखो जो अंतर्मुखी व्यक्तित्व वाले हैं और बचपन से दूसरे लोगों का सामना करने से डरते हैं। जब वे बीस या तीस वर्ष के हो जाते हैं, तब भी वे लोगों से बात करते समय या ऐसे मामले सँभालते समय बहुत घबराते हैं जिनमें लोगों से बातचीत करना शामिल होता है। जब वे अधेड़ उम्र के हो जाते हैं, तब भी वे भीड़ के सामने बोलते समय शरमाते और झेंपते हैं। ऐसे लोग जब तक जिंदा रहेंगे तब तक वे व्यापक दुनिया का सामना नहीं कर पाएँगे। दूसरे लोग अलग हैं क्योंकि उन्हें किशोरावस्था से ही लोगों से गपशप करना और बातचीत करना पसंद है। चाहे वे किसी भी व्यक्ति से बातचीत क्यों न करें, उन्हें डर नहीं लगेगा और चाहे वे कुछ भी कर रहे हों, वे चिंतित या आतंकित नहीं होंगे। उनमें बुद्धि है और इसलिए उनमें मंच पर आने का भय नहीं होता है। जितने ज्यादा लोग होंते हैं, उतना ही ज्यादा वे खुश और जोश से भरे होते हैं और उतना ही ज्यादा वे प्रदर्शन करना चाहते हैं। क्या किसी व्यक्ति द्वारा परमेश्वर के कार्य के अनुभव के जरिये उसके व्यक्तित्व और मामले सँभालने की क्षमता को बदला जा सकता है? (नहीं।) परमेश्वर लोगों के बारे में इन चीजों को नहीं बदलता है। कुछ लोगों को पता है कि मामले सँभालने की उनकी खराब क्षमता उनकी मानवता में एक दोष है, इसलिए वे इस पर काबू पाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं। यह हो सकता है कि जब वे अधेड़ उम्र के या बूढ़े हो जाएँगे तो कई दशकों तक तपतपाए जाने और व्यापक अनुभव इकट्ठा करने के बाद वे मुश्किल से कुछ तात्कालिक मामलों से निपटने में कामयाब हो जाएँगे; लेकिन फिर भी उनमें महत्वपूर्ण, जीवन-मरण के मामले सँभालने की क्षमता नहीं होगी। विशेष रूप से, ऐसे कुछ लोग हैं जो बुढ़ापे तक पहुँचने पर खुद कुछ भी नहीं सँभाल पाते हैं; वे जो भी सँभालने का प्रयास करते हैं, उसे पूरी तरह से गड़बड़ कर देते हैं—वे बस इसकी जिम्मेदारी उठा ही नहीं पाते हैं—और यहाँ तक कि वे अपने पारिवारिक मामले सँभालने का बोझ भी नहीं उठा पाते हैं। और वे क्या करते हैं? कुछ स्थितियों में उनके बच्चों में मामले सँभालने की क्षमता होती है, इसलिए ये लोग अपने बच्चों को उनकी मदद करने देते हैं जबकि वे उन चीजों का आनंद लेते रहते हैं जो उनके लिए पहले से ही की जा चुकी हैं। वे सोचते हैं, “मैंने योगदान दिया है, मेरे पास मामले सँभालने की क्षमता है,” लेकिन वास्तव में उनके पास यह क्षमता नहीं होती है। उनके बच्चों ने, जो अब बड़े हो गए हैं और जिम्मेदारी सँभालने में सक्षम हैं, इन मामलों का सामना किया। हो सकता है कि ये लोग अब चीजों से निपटने के बारे में उतने घबराए हुए और भयभीत नहीं हैं जितना कि वे छोटी उम्र में थे, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि मामले सँभालने की उनकी क्षमता बदल गई है या सुधर गई है। इसका क्या मतलब है? इसका यह मतलब है कि वे बड़े हो गए हैं, उन्होंने अनुभव प्राप्त किया है और अब उन्हें चीजों से डर नहीं लगता है। “अब उन्हें चीजों से डर नहीं लगता है” का क्या मतलब है? इसका यह मतलब है कि वे मामलों को ज्यादा खुले दिमाग से देखने में समर्थ हैं क्योंकि उन्होंने ढेर सारी चीजों का अनुभव किया है और चीजों के ढंगों को समझ लिया है और इसलिए अगर वे वाकई थोड़े-से खतरे में पड़ जाते हैं तो उन्हें डर नहीं लगेगा और वे सोचेंगे : “देखो, मेरी यह स्थिति है। अगर तुम्हें पैसे चाहिए तो मेरे पास वह बिल्कुल नहीं है; अगर तुम्हें मेरा जीवन चाहिए तो वह मेरे पास है—तुम्हें जो भी अच्छा लगे वह करो!” क्या ऐसे लोगों ने कोई प्रगति की है? उन्होंने बिल्कुल भी प्रगति नहीं की है—जब चीजें सँभालने की बात आती है तो वे अब भी काफी लापरवाह और भ्रमित हैं। वे पहले की तरह ही जल्दबाज और बेसब्र हैं। वे पहले भी चीजें पूरी करने में विफल रहे और वे अब भी रत्ती भर भी नहीं बदले हैं। वे बस ऐसे ही हैं। मुझे बताओ, क्या चीजें वाकई ऐसी ही नहीं हैं? (हाँ।)

तुम लोगों के बीच हर उम्र के लोग हैं। अब तक क्या तुमने कभी किसी विशेष चीज का अनुभव किया है—सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया में क्या तुम्हारी काबिलियत पूरी तरह से बदल गई है और पहले से बहुत बेहतर हो गई है या क्या तुम्हारी सहज प्रवृत्तियाँ बदल गई हैं? क्या तुम्हें कभी ऐसा अनुभव हुआ है? (नहीं।) अच्छा तो क्या कभी किसी ने यह कहा है, “मैं पहले बहुत निकम्मा था। मैं वाक्पटु नहीं था, मेरे पास कोई क्षमता या कौशल नहीं था और मेरे पास कोई सामाजिक क्षमता नहीं थी। अब जब मैंने परमेश्वर का कार्य स्वीकार कर लिया है तो मैं वाक्पटुता से बोलने में समर्थ हूँ, मेरे पास सामाजिक क्षमताएँ हैं और जब चीजें सँभालने की बात आती है तो मैं बुद्धिमान हूँ और मेरे पास हुनर है और मुझे पता है कि चीजों से कैसे निपटना है”? क्या किसी को इस प्रकार का अनुभव हुआ है? (नहीं।) कुछ लोग कहते हैं, “वैसे तो मेरे साथ ऐसी चीजें नहीं हुई हैं, लेकिन परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने की प्रक्रिया में मुझे लगता है कि मेरा व्यक्तित्व बदल गया है। पहले मैं धीरे-धीरे बोलता था और हर कोई मुझे ‘मालगाड़ी’ बुलाता था। मेरा एक और उपनाम भी था, जो कि ‘कछुआ’ था। जब से मैंने परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू किया है, तब से मेरी प्रतिक्रियाएँ पहले से ज्यादा तेज हो गई हैं और मैं तेजी से बोलता और कार्य करता हूँ। मैं चीजें भी ज्यादा तेजी और कुशलता से सँभालता हूँ।” क्या ऐसी चीजें होती हैं? (नहीं।) एक स्थिति में यह संभव हो सकता है। उदाहरण के लिए, जब कुछ लोग कोई विदेशी भाषा सीखते हैं और पहले उसे बोलने का अभ्यास करते हैं तो वे बहुत धीरे-धीरे बोलते हैं, एक बार में एक शब्द बोलते हैं। दूसरों को लगता है कि ये लोग शायद इसलिए धीरे-धीरे बोलते हैं क्योंकि वे धीमा मिजाज लेकर पैदा हुए हैं। तीन या पाँच साल बाद, क्योंकि ये लोग वह विदेशी भाषा बोलने वालों के साथ लगातार संपर्क में रहे हैं, वे आखिरकार इसे बहुत फर्राटे से बोलने लगते हैं, उतनी ही तेजी से बोलने लगते हैं जितनी कि वे अपनी मूल भाषा बोलते हैं और दूसरे लोग जो नासमझ हैं, वे सोचते हैं, “उस व्यक्ति का व्यक्तित्व बदल गया है। पहले वे धीरे-धीरे बोलते थे और लोग उन्हें सुनते समय बेसब्र हो जाते थे, लेकिन अब वे बहुत फर्राटे से बोलते हैं—वे एक तेजतर्रार व्यक्ति बन गए हैं। वे जिस बेबाक और स्पष्ट तरीके से बोलते हैं उससे तुम बता सकते हो कि वे मामलों को फुर्ती से सँभालते हैं और वे अच्छे व्यक्तित्व वाले हैं।” ऐसे में क्या उनके व्यक्तित्व में कोई बदलाव आया है? (नहीं।) दरअसल, यह एक सामान्य ढंग है। यह कोई पेशा सीखने में सामान्य प्रगति की प्रक्रिया है—यह व्यक्तित्व बदलने की प्रक्रिया नहीं है। चाहे यह काबिलियत, क्षमता और सहज प्रवृतियाँ हों या व्यक्तित्व, आदतें, रुचियाँ और शौक हों, इनमें से कोई भी पहलू ऐसी चीजें नहीं है जिसे परमेश्वर अपने कार्य के जरिये बदलना चाहता है। अगर तुम हमेशा यही मानते हो कि परमेश्वर के कार्य करने और लोगों को सत्य प्रदान करने के लिए बोलने का उद्देश्य मनुष्यों के इन सभी जन्मजात गुणों को बदलना है और सोचते हो कि सिर्फ तभी व्यक्ति को पूरी तरह से फिर से जन्मा, सही मायने में वैसा नया व्यक्ति माना जा सकता है जैसा परमेश्वर ने कहा है, तो तुम्हारा सोचना बहुत ही गलत है। यह एक मानवीय धारणा और कल्पना है। इसे समझ लेने के बाद तुम्हें ऐसी धारणाएँ, कल्पनाएँ, अनुमान या भावनाएँ छोड़ देनी चाहिए। यानी सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया में तुम्हें ऐसी चीजों का निचोड़ निकालने के लिए हमेशा भावनाओं या अटकलों पर भरोसा नहीं करना चाहिए, जैसे : “क्या मेरी काबिलियत में सुधार हुआ है? क्या मेरी सहज प्रवृत्ति बदल गई है? क्या मेरा व्यक्तित्व अब भी पहले जैसा ही खराब है? क्या मेरे जीने का ढब बदल गया है?” इन पर सोच-विचार मत करो; ऐसा सोच-विचार करना निष्फल है क्योंकि परमेश्वर का इरादा इन पहलुओं को बदलना नहीं है और परमेश्वर के वचनों और कार्यों ने कभी भी इन चीजों को लक्ष्य नहीं बनाया है। परमेश्वर के कार्य का लक्ष्य कभी भी लोगों की काबिलियत, सहज प्रवृत्तियों, व्यक्तित्व, वगैरह को बदलना नहीं रहा है और न ही परमेश्वर ने कभी लोगों के इन पहलुओं को बदलने के उद्देश्य से बात की है। मतलब यह है कि परमेश्वर का कार्य लोगों को उनकी जन्मजात स्थितियों के आधार पर सत्य प्रदान करता है, जिसका लक्ष्य पहले लोगों को सत्य समझाना और फिर उनसे सत्य स्वीकार करने और उसके प्रति समर्पण करने के लिए प्रेरित करना है। दूसरे शब्दों में, चाहे तुम्हारी काबिलियत कैसी भी हो और चाहे तुम्हारा व्यक्तित्व और सहज प्रवृत्तियाँ कैसी भी हों, परमेश्वर तुम्हारी जन्मजात काबिलियत, सहज प्रवृत्तियों और तुम्हारे व्यक्तित्व को बदलने के बजाय तुममें सत्य ढालना है और तुम्हारी पुरानी धारणाएँ और भ्रष्ट स्वभाव बदलना चाहता है। अब तुम समझ गए हो, है ना? परमेश्वर का कार्य क्या बदलने का लक्ष्य रखता है? (परमेश्वर का कार्य लोगों में निहित पुरानी धारणाओं और भ्रष्ट स्वभावों को बदलने का लक्ष्य रखता है।) अब जब तुम यह सत्य समझ गए हो, तो तुम्हें वे कल्पनाएँ और धारणाएँ छोड़ देनी चाहिए जो अवास्तविक हैं और अलौकिक चीजों से संबंधित हैं और तुम्हें इन धारणाओं और कल्पनाओं का उपयोग खुद को मापने या खुद से माँगें करने के लिए नहीं करना चाहिए। इसके बजाय तुम्हें परमेश्वर द्वारा तुम्हें दी गई विभिन्न जन्मजात स्थितियों के आधार पर सत्य खोजना और स्वीकारना चाहिए। इसमें अंतिम लक्ष्य क्या है? वह यह है कि तुम अपनी जन्मजात स्थितियों के आधार पर सत्य सिद्धांतों को समझो, हर उस सत्य सिद्धांत को समझो जिसका तुम्हें विभिन्न स्थितियों का सामना करने पर अभ्यास करना चाहिए और इन्हीं सत्य सिद्धांतों के अनुसार तुम लोगों और चीजों को देख सकते हो और आचरण और कार्य कर सकते हो। ऐसा करने से परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी होती हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर के वचनों और कार्य का उद्देश्य लोगों को अतिमानव या अलौकिक शक्तियों वाले लोगों में बदल देने के बजाय उनमें सत्य शामिल करना है ताकि वे उनके लिए अभ्यास के सिद्धांत और कसौटियाँ बन जाएँ और ताकि वे ऐसे आधार बन जाएँ जिनके अनुसार वे लोगों और चीजों को देखते हैं और आचरण और कार्य करते हैं और ताकि वे उनका जीवन बन जाएँ। “अतिमानव” और “अलौकिक शक्तियों वाले लोग” से मेरा क्या मतलब है? अपनी सहज प्रवृत्तियों से परे जाने में, अपनी क्षमता के दायरे से परे जाने में, अपनी काबिलियत से परे जाने में और यहाँ तक कि अपने लिंग से परे जाने में समर्थ होना और अपने लिंग से परे जीने में समर्थ होना—क्या ये अलौकिक शक्तियाँ नहीं हैं? (हाँ।) उदाहरण के लिए, कुछ लोग विशेषीकृत भाषा अध्ययनों में शामिल हुए बिना ही कई या दस से भी ज्यादा भाषाएँ बोल सकते हैं। क्या यह अलौकिक है? (हाँ।) यह अलौकिकता मानवीय काबिलियत, क्षमता और सहज प्रवृत्ति से परे जाती है, है ना? (हाँ।) इतना ही नहीं, विभिन्न भाषाएँ बोलते समय वे लचीले ढंग से अलग-अलग पुरुषों और महिलाओं की आवाजों में भी बोल सकते हैं। क्या यह और भी अलौकिक नहीं है? (हाँ।) चाहे वे कितनी भी भाषाएँ क्यों न बोलें, वे उनकी खिचड़ी नहीं बनाते हैं और चाहे वे कितनी भी देर तक क्यों न बोलते रहें, उन्हें थकान महसूस नहीं होती है और अगर वे थोड़ा-सा पानी न भी पीयें तो भी उन्हें प्यास नहीं लगती है। इसके अलावा, वे जितना ज्यादा बोलते हैं, उनकी आँखें उतनी ही चमकदार होती जाती हैं, उनका चेहरा उतना ही उज्जवल होता जाता है और वे ऊपर से नीचे तक चमकने लगते हैं। क्या यह अलौकिक नहीं है? (हाँ।) अगर बात करते समय उन्हें गोली भी लग जाए तो भी वे ठीक रहते हैं और बस बात करते रहते हैं। यह तो और भी अलौकिक है, है ना? (हाँ।) जब उन्हें गोली नजर आती है तो वे उससे बचने का प्रयास भी नहीं करते हैं, बल्कि सीधे उसका सामना करते हैं। गोली उनकी छाती के आर-पार निकल जाती है, लेकिन वे डटे रहते हैं और डगमगाते नहीं हैं। वे किसी भी तरह से प्रभावित नहीं होते हैं और उनके सिर का एक भी बाल बाँका नहीं होता है। यह सहज प्रवृत्ति से परे जाना है, है ना? (हाँ।) ये सभी परिघटनाएँ मानवीय सहज प्रवृत्ति से परे हैं। इन सबमें सबसे गंभीर बात यह है कि वे एक विचित्र व्यक्ति बन गए हैं, यानी एक ऐसा व्यक्ति बन गए हैं जो साधारण लोगों से अलग है, जो सामान्य लोगों की काबिलियत और क्षमताओं से परे है और जो सामान्य लोगों की सहज प्रवृत्तियों से भी परे है। सभी पहलुओं में उनकी अभिव्यक्तियाँ साधारण लोगों से अलग होती हैं और विशेष रूप से अलौकिक होती हैं। यह मुसीबत का संकेत है। क्या वे अब भी एक सामान्य व्यक्ति हैं? (नहीं।) तो वे क्या हैं? (बुरी आत्मा हैं।) वे एक बुरी आत्मा हैं। क्या तुम लोग इसका अनुसरण करना चाहते हो? (नहीं।) तुम लोगों में से कोई भी यह नहीं चाहता है, तो क्या तुम सोचते हो कि परमेश्वर का कार्य लोगों को उस हद तक बदल देगा? क्या परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य व्यक्तियों को विचित्र लोगों में बदलना है? (नहीं।) यह तुम पर है कि तुम सत्य स्वीकार करो और परमेश्वर द्वारा सामान्य मानवता के दायरे में व्यवस्थित परिवेशों का अनुभव करो ताकि इससे तुम उन श्रमसाध्य इरादों को समझ सको जिनसे परमेश्वर अपना कार्य करता है या अपनी खुद की अपर्याप्तताओं और कमियों या अपने खुद के भ्रष्ट स्वभावों को समझ सको और फिर इस समझ के आधार पर सत्य की तलाश कर सको और उसे अभ्यास में ला सको और प्रगतिशील रूप से सत्य में प्रवेश कर सको—यह प्रक्रिया धीमी है और बिल्कुल भी अलौकिक नहीं है। जब कुछ लोग नकारात्मक हो रहे होते हैं तो वे यह कहना पसंद करते हैं : “मैंने इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखने से क्या प्राप्त किया है?” तुम कहते हो कि तुमने कुछ भी प्राप्त नहीं किया है, लेकिन तुम्हें निम्नलिखित के बारे में ध्यान से सोचना चाहिए। इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद क्या अब तुम्हारे पास बहुत-सी चीजों के बारे में एक स्पष्ट नजरिया है? क्या ऐसा है कि जितना ज्यादा समय तुम विश्वास रखते हो, उतना ही ज्यादा तुम शांत और व्यावहारिक महसूस करते हो और उतना ही ज्यादा तुम्हें लगता है कि जीवन में यही सही मार्ग है? अगर तुम्हें ऐसा बिल्कुल महसूस होता है तो इसका यह मतलब है कि तुमने सचमुच कुछ प्राप्त किया है। वैसे तो तुमने कोई भौतिक वस्तु प्राप्त नहीं की है, तुमने पैसा, रुतबा, शोहरत, लाभ—ऐसी चीजें जिन्हें तुम अपने हाथ में पकड़ सकते हो या अपनी आँखों से देख सकते हो—प्राप्त नहीं की हैं, फिर भी तुमने अपने दिल में कुछ सत्य समझ लिए हैं। तुमने परमेश्वर के वास्तविक अस्तित्व और हर चीज पर उसकी संप्रभुता की कुछ समझ प्राप्त की है। इसके अलावा, तुम परमेश्वर के इरादों और लोगों के लिए उसकी अपेक्षाओं को भी समझ गए हो और तुम्हें पता है कि सृजित प्राणी क्या है और तुम्हें क्या कर्तव्य करना चाहिए। और अगर अभी तुम्हें कोई कर्तव्य करने की अनुमति नहीं दी जाए तो तुम दुखी हो जाओगे और तुम्हें लगेगा कि तुम्हारा जीवन खाली है। क्या इस सबसे यह प्रकट नहीं होता है कि तुमने परमेश्वर में विश्वास रखकर पहले ही लाभ अर्जित कर लिए हैं? तुमने जो अर्जित किया है, उसकी कीमत किसी भी भौतिक चीज से ज्यादा है। परमेश्वर का कार्य लोगों में ये प्रभाव प्राप्त करता है। वह लोगों को ऐसे कुछ अलौकिक, अवास्तविक बदलावों से गुजरने में सक्षम बनाने का इरादा नहीं रखता है जो मानवता, मानवीय सहज प्रवृत्तियों या देह की सामान्य जरूरतों और सामान्य अभिव्यक्तियों से परे हों। बल्कि वह लोगों को सामान्य मानवता के दायरे में सभी प्रकार के परिवेशों का अनुभव करने और इस प्रक्रिया में प्रगतिशील रूप से और धीरे-धीरे सभी प्रकार की समझ और अनुभव प्राप्त करने में सक्षम बनाने का इरादा रखता है। संक्षेप में, इस प्रगतिशील और धीमी प्रक्रिया के दौरान धीरे-धीरे लोगों के विचार और धारणाएँ बदल जाती हैं, वे जिन परिप्रेक्ष्य से लोगों और चीजों को देखते हैं वे बदल जाते हैं, सभी प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों बारे में उनके नजरिये और उनसे निपटने के तरीके बदल जाते हैं, उनके कुछ भ्रष्ट स्वभाव अब उतने स्पष्ट नहीं रहते हैं जितना कि वे पहले थे और उनके जमीर और विवेक कुछ हद तक बहाल हो जाते हैं। वे उन अवास्तविक, भ्रामक, व्यर्थ, खोखली या यहाँ तक कि अलौकिक चीजों के बजाय ये वास्तविक लाभ प्राप्त करते हैं।

परमेश्वर मानवजाति को बचाने का कार्य उत्तरोत्तर ढंग से करता है और यकीनन एक और ज्यादा प्राथमिक सिद्धांत है, जो यह है कि परमेश्वर अपना कार्य करने में चीजों को उनके अपने ढंग से आगे बढ़ने देता है। “चीजों को उनके अपने ढंग से आगे बढ़ने देने” का यह सिद्धांत लोगों के लिए समझना थोड़ा कठिन हो सकता है। चीजों को उनके अपने ढंग से आगे बढ़ने देने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि चाहे परमेश्वर लोगों पर कार्य कर रहा हो या उनसे बात कर रहा हो, वह कभी भी किसी को भी चीजें करने के लिए मजबूर नहीं करता है। परमेश्वर ठीक उसी तरह से तुम्हारे लिए परिवेशों की व्यवस्था करता है और तुम्हें सत्य प्रदान करता है जैसे वह दूसरे लोगों के लिए करता है। तुम्हें उसके द्वारा व्यवस्थित परिवेशों को कैसे देखना और समझना चाहिए और तुम्हें किस दृष्टिकोण और रवैये से उनका उपयोग करना चाहिए, इस बारे में परमेश्वर के पास स्पष्ट वचन हैं और उसने तुम्हें स्पष्ट सत्य सिद्धांत बता दिए हैं। जहाँ तक यह प्रश्न है कि तुम उनका कैसे उपयोग करते हो, यह तुम्हारा अपना स्वतंत्र चयन है। तुम सत्य स्वीकार करना और खुद को जानना चुन सकते हो या तुम सत्य अस्वीकार करना चुन सकते हो; तुम उन परिवेशों द्वारा तुम्हारा प्रकाशन स्वीकार करना चुन सकते हो जिनका परमेश्वर आयोजन करता है या तुम परमेश्वर का कार्य अनदेखा करना चुन सकते हो—तुम्हारे पास चुनने की आजादी है, तुम चुनने के लिए आजाद हो। उदाहरण के लिए, जब उस कर्तव्य की बात आती है जो तुम्हें करना चाहिए तो तुम उसे अपने पूरे दिल और पूरी शक्ति से करना चुन सकते हो या तुम उसे लापरवाह रवैये से करना चुन सकते हो। यह पूरी तरह से तुम्हारे व्यक्तिगत चयन पर आधारित है और यकीनन यह तुम्हारी अपनी काबिलियत, क्षमताओं, सहज प्रवृत्तियों, वगैरह पर भी आधारित है। परमेश्वर अतिरिक्त कार्य नहीं करता है—यानी, सामान्य हालातों में परमेश्वर किसी को प्रेरित करने या दबाव डालने का कोई अतिरिक्त कार्य नहीं करता है। इसका क्या मतलब है? इसका यह मतलब है कि परमेश्वर तुम्हारे लिए परिवेशों की व्यवस्था करता है—यह ठीक ऐसा है मानो उसने तुम्हारे लिए एक भोज की व्यवस्था की हो जिसमें गर्म और ठंडे पकवान, चावल और शोरबा, फल, पेय, वगैरह हैं और जब तुम्हारे द्वारा चुनने की बात आती है, तो परमेश्वर तुम्हें आजादी देता है—चाहे तुम कुछ भी चुनो, तुम्हे ऐसा करने की आजादी है और परमेश्वर इसमें दखल नहीं देता है, वह सिर्फ लोगों को प्रदान करने के लिए सत्य व्यक्त करने पर ध्यान केंद्रित करता है। कुछ लोग भोज पर सिर्फ एक सरसरी निगाह डालते हैं, बिना खुद यह चखे कि वास्तव में उसके स्वादिष्ट पकवान कैसे हैं। वे सिर्फ भोज पर टिप्पणी करते हैं, कुछ धर्म-सिद्धांत बोलते हैं और फिर चले जाते हैं। दूसरे लोग सिर्फ भोज को देखना चुनते हैं, उसके स्वादिष्ट खाने-पीने की चीजों को अनदेखा कर देते हैं और बिना किसी रवैये या राय के चले जाते हैं। ऐसे दूसरे लोग हैं जिन्होंने व्यक्तिगत रूप से उसके स्वादिष्ट पकवान चखे हैं और उनका अनुभव किया है और उनमें से कोई एक स्वादिष्ट भोजन पकाने का तरीका भी सीखा है। परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेश में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम्हारा क्या रवैया है—चाहे यह उसे स्वीकार करना हो या उसे अस्वीकार करना हो और नकारना हो या उससे नफरत करना हो और उसके प्रति शत्रुतापूर्ण होना हो, वगैरह-वगैरह, जहाँ तक परमेश्वर का प्रश्न है, उसके लिए ये सभी रवैये हैं। परमेश्वर लोगों के विभिन्न रवैयों को कैसे देखता है और उनसे कैसे निपटता है? लोगों को बहुत सारे सत्य प्रदान करने के बाद परमेश्वर उनके प्रति सिर्फ निगरानी करने और रिकॉर्ड रखना का रवैया रखता है। जहाँ तक यह प्रश्न है कि लोग क्या चुनते हैं या उनका क्या रवैया है तो परमेश्वर इसमें दखल नहीं देता है—इस मामले का परमेश्वर से कोई लेना-देना नहीं है। तो फिर इस मामले का किससे लेना-देना है? इसका लेना-देना इस बात से है कि तुम कौन-सा मार्ग चुनते हो, अंत में तुम्हें क्या मिलता है और तुम्हारा अपना अंतिम परिणाम क्या होगा। इस मामले में परमेश्वर कोई अतिरिक्त, सहायक कार्य नहीं करता है, वह सिर्फ उन्हीं जिम्मेदारियों और दायित्वों को पूरा करता है जो उसे पूरे करने चाहिए। जब वह तुम्हें सत्य प्रदान कर देता है और तुम्हें सभी प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों से निपटने के सिद्धांत बता देता है, तो उसके बाद वह तुम्हारे लिए परिवेशों की व्यवस्था भी कर सकता है। लेकिन परमेश्वर इस चीज में दखल नहीं देता है कि तुम कौन-से अंतिम चयन करते हो या तुम किस तरह का मार्ग अपनाते हो—वह तुम्हें खुद के लिए चुनने देता है। उदाहरण के लिए, अगर तुम्हें अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में चुना जाता है तो तुम सत्य सिद्धांतों और परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं के अनुसार कार्य करना चुन सकते हो या अपनी खुद की पसंद के अनुसार मनमाने तरीके से और लापरवाही से कार्य करना चुन सकते हो। अगर तुम सत्य सिद्धांतों के अनुसार सब कुछ सँभालना और कार्य-व्यवस्थाओं के अनुसार अपना कर्तव्य करना चुनते हो तो परमेश्वर इसे देखेगा और इसका रिकॉर्ड रखेगा और अंत में तुम सत्य प्राप्त कर चुके होगे और परमेश्वर के प्रति समर्पण कर चुके होगे—यह एक परिणाम है। अगर तुम अपनी इच्छानुसार चीजें करते हो और मनमाने तरीके से और लापरवाही से कार्य करते हो, परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं और सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करते हो तो यह भी एक चयन है और यह उस मार्ग को दर्शाता है जिस पर तुम चल रहे हो और परमेश्वर भी इसी तरह से उसे देखेगा और उसका रिकॉर्ड रखेगा और यकीनन यह बताने की जरूरत नहीं है कि तुम्हारा परिणाम क्या होगा। अगर तुमने सत्य और जीवन प्राप्त कर लिया है तो यह तुम्हें परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने और अपने लिए एक अच्छा गंतव्य सुनिश्चित करने में भी सक्षम बनाएगा।

लोग मानते हैं कि परमेश्वर के कार्य में उसके आयोजन और व्यवस्थाएँ शामिल हैं। तो लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं में परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाएँ क्या हैं? वे एक तरह की चालाकी हैं, यानी, परमेश्वर गुप्त रूप से लोगों को एक बड़े जाल में ढक रहा है, उनके सभी व्यवहारों और वे जिन परिवेशों में हैं उनमें हेरा-फेरी कर रहा है और वे जो कुछ भी करते हैं उस सबकी निगरानी कर रहा है। लोगों में यही धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं, है ना? (हाँ।) नतीजतन, लोग अपने दिलों में परमेश्वर से चौकस रहना और डरना शुरू कर देते हैं और यह परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के बारे में उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के कारण होता है। उनका इस तरीके से डरना और चौकस रहना परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण और उसका भय मानना नहीं है, बल्कि विद्रोहीपन और प्रतिरोध का एक रूप है। लोग सोचते हैं कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है और चाहे वे कुछ भी करें, यह सच है कि “जब मनुष्य काम करता है, तो स्वर्ग देख रहा होता है।” वे सोचते हैं कि परमेश्वर उनके दिलों, उनके हाथ-पैरों को सीमित करने के उद्देश्य से लगातार उनकी निगरानी कर रहा है और उन पर नजर रख रहा है, उन्हें चुनने की आजादी नहीं दे रहा है और उन्हें सत्य का अभ्यास करने के लिए मजबूर कर रहा है, उन्हें अपने विचार और नजरिये बदलने के लिए मजबूर कर रहा है और उन्हें परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चीजें करने के लिए मजबूर कर रहा है। ये सभी मानवीय धारणाएँ हैं। सच पूछो तो यह परमेश्वर के खिलाफ एक प्रकार की ईशनिंदा है। दरअसल, परमेश्वर ने कभी भी लोगों को मजबूर करने, बाँधने या बहकाने का इरादा नहीं किया है। परमेश्वर कभी भी लोगों को बाधित नहीं करता है या उन पर दबाव नहीं डालता है और वह लोगों को मजबूर तो बिल्कुल नहीं करता है। परमेश्वर लोगों को भरपूर आजादी देता है—वह लोगों को वह मार्ग चुनने की अनुमति देता है जिस पर उन्हें चलना चाहिए। भले ही तुम परमेश्वर के घर में हो और भले ही तुम परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित और चुने गए हो, फिर भी तुम आजाद हो। तुम परमेश्वर की विभिन्न अपेक्षाओं और व्यवस्थाओं को अस्वीकार करना चुन सकते हो या तुम उन्हें स्वीकार करना चुन सकते हो; परमेश्वर तुम्हें मुक्त भाव से चुनने का अवसर देता है। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम क्या चुनते हो या तुम किस तरह से कार्य करते हो या तुम जिस मामले का सामना करते हो उसे सँभालने में तुम्हारा दृष्टिकोण क्या है या उसे हल करने के लिए अंत में तुम किन साधनों और पद्धतियों का उपयोग करते हो, तुम्हें अपने क्रियाकलापों के लिए जवाबदेही लेनी चाहिए। तुम्हारा अंतिम परिणाम तुम्हारे व्यक्तिगत फैसलों और परिभाषाओं पर आधारित नहीं है, बल्कि परमेश्वर तुम पर रिकॉर्ड रख रहा है। जब परमेश्वर बहुत सारे सत्य व्यक्त कर लेगा और जब लोग ये बहुत सारे सत्य सुन लेंगे, तो उसके बाद परमेश्वर हर व्यक्ति के सही और गलत को सख्ती से मापेगा और परमेश्वर ने जो कहा है, वह जो अपेक्षा करता है और उसने लोगों के लिए जो सिद्धांत तैयार किए हैं उनके आधार पर वह हर व्यक्ति का अंतिम परिणाम निर्धारित करेगा। इस मामले में परमेश्वर की जाँच-पड़ताल और परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाएँ परमेश्वर द्वारा लोगों को बहकाना या उसके द्वारा लोगों को बाँधना नहीं है—तुम आजाद हो। तुम्हें परमेश्वर से चौकस रहने की जरूरत नहीं है और न ही तुम्हें डरने या बेचैन होने की जरूरत है। तुम शुरू से आखिर तक एक आजाद व्यक्ति हो। परमेश्वर तुम्हें एक स्वतंत्र परिवेश, स्वतंत्र चयन करने की इच्छा और मुक्त भाव से चुनने की जगह देता है, वह तुम्हें अपने लिए चुनने की अनुमति देता है और अंत में तुम जो भी परिणाम प्राप्त करते हो वह पूरी तरह से तुम्हारे द्वारा चुने गए मार्ग से निर्धारित होता है। यह उचित है, है ना? (हाँ।) अगर अंत में तुम्हें बचा लिया जाता है और तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है और परमेश्वर के अनुरूप है और तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसे परमेश्वर द्वारा स्वीकार किया जाता है, तो यह वही है जो तुम्हें अपने सही चयनों के कारण मिलता है; अगर अंत में तुम्हें नहीं बचाया जाता है और तुम परमेश्वर के अनुकूल होने में समर्थ नहीं हो और तुम परमेश्वर द्वारा प्राप्त नहीं किए जाते हो और तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो जिसे परमेश्वर द्वारा स्वीकार किया जाता है तो वह भी तुम्हारे अपने चयनों के कारण ही है। इसलिए, परमेश्वर अपने कार्य में लोगों को चुनने के लिए बहुत सारी जगह देता है और वह लोगों को पूरी आजादी भी देता है। वह इसलिए क्योंकि परमेश्वर सभी लोगों, घटनाओं और चीजों को मापने के लिए सत्य का उपयोग करता है जिसमें लोगों के परिणाम और गंतव्य शामिल हैं। लोगों के परिणाम और गंतव्य भी सत्य का उपयोग करके इसी तरह से निर्धारित किए जाते हैं—यह परमेश्वर के कार्य का सिद्धांत है जो कभी भी नहीं बदलता। परमेश्वर तुम्हें स्वीकार नहीं करेगा, तुम्हें अनुग्रह नहीं दिखाएगा और तुम्हें बचाए जाने की अनुमति नहीं देगा क्योंकि तुम उससे डरते हो, उससे चौकस रहते हो और डरते-डरते और विनम्रता से चलते हुए सड़क के आखिर तक जाते हो; न ही परमेश्वर तुम्हारे द्वारा किए गए किसी भी योगदान के लिए अंत में तुम्हें बचाए जाने की अनुमति देगा। दूसरे शब्दों में, ऐसा कोई अपवाद नहीं होगा जहाँ किसी व्यक्ति को ऐसा परिणाम या अच्छा गंतव्य मिलता है जिसका वह हकदार न हो—हर व्यक्ति का अंत में जो भी परिणाम होगा वह उसके द्वारा चुने गए मार्ग द्वारा निर्धारित होगा। मैं तुम्हें एक उदाहरण दूँगा। मान लो कि परमेश्वर तुम्हारे लिए किसी परिवेश की व्यवस्था करता है और इस परिवेश में तुम्हें अपने खुद के अपराधों पर चिंतन करना और उन्हें जानना चाहिए और अपने भ्रष्ट स्वभावों, भ्रामक विचारों, नजरियों, कमियों और अपर्याप्तताओं या परमेश्वर के बारे में अपनी कुछ गलतफहमियों और शिकायतों को जानना शुरू करना चाहिए। तुम्हें खुद को बचाने के लिए बहाने बनाना और चालाकी भरी दलीलें देना भी बंद कर देना चाहिए और समर्पण करने, अपनी मौजूदा स्थिति को बदलने के लिए संगत सत्य की तलाश करने और सत्य को अपने अंदर स्वीकार करने में समर्थ होना चाहिए और फिर सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। ऐसा करने से तुम इच्छित प्रभाव प्राप्त करोगे। जब तुम्हारे साथ इसी तरह की चीजें फिर से होंगी, तो तुम स्वाभाविक रूप से सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करोगे और परमेश्वर को तुम्हारी सहायता करने के लिए विशेष परिवेशों की व्यवस्था करने की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी। यह कुछ ऐसी चीज है जिसे लोग प्राप्त कर सकते हैं और अगर वे इसे प्राप्त कर पाए तो परमेश्वर कोई अनावश्यक कार्य नहीं करेगा। लेकिन जब उन लोगों की बात आती है जो सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, तो परमेश्वर का रवैया अलग होता है। कुछ लोग सत्य की तलाश नहीं करते हैं या जब उन पर कुछ बीतती है, तो वे खुद पर चिंतन नहीं करते हैं, बल्कि वे बस नकारात्मक बने रहते हैं और नाराजगी व्यक्त करते रहते हैं, परमेश्वर और दूसरे लोगों के बारे में शिकायत करते रहते हैं। वे न सिर्फ परमेश्वर के बारे में धारणाएँ बना लेते हैं, बल्कि वे उस पर फैसले भी सुनाते हैं। अगर कोई उनकी काट-छाँट करे और उन्हें उजागर कर दे, तो वे खुद को सही ठहराने के बहाने ढूँढ़ लेंगे और वे निष्क्रिय भी हो सकते हैं और अपने कार्य में कामचोरी भी कर सकते हैं या यहाँ तक कि चीजों को कमजोर भी कर सकते हैं। ऐसे लोग उद्धार से परे हैं और ये वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर ठुकरा देता है। अगर परमेश्वर में विश्वास करते हुए तुम्हारी सत्य में कुछ रुचि है और तुम धर्मोपदेश सुनने और सत्य की तरफ प्रयास करने को तैयार हो और तुम थोड़ा-सा सकारात्मक रवैया रखते हो तो परमेश्वर तुम्हारे दिल की जाँच-पड़ताल करेगा और जब तुम सत्य की तलाश करोगे, तो वह तुम्हें थोड़ा-सा प्रेरित करेगा और फिर वह यह जाँच-पड़ताल करेगा कि क्या तुम सत्य का अभ्यास करने में समर्थ हो। लेकिन अगर तुम नकारात्मक होने और अपने कार्य में कामचोरी करने, बहाने बनाने और खुद को सही ठहराने और पूरी जगह पर हंगामा खड़ा करना चुनते हो और खुद को जानना या पश्चात्ताप करना नहीं चुनते हो तो परमेश्वर क्या करेगा और वह तुमसे कैसे निपटेगा? परमेश्वर बस चुपचाप यह देखेगा कि क्या बदलाव होते हैं। परमेश्वर तुम्हें प्रेरित नहीं करेगा और न ही वह तुम पर उसके वचनों को पढ़ने और सत्य की तलाश करने का दबाव डालेगा। परमेश्वर इसमें शामिल नहीं होगा या दखल नहीं देगा—वह तुम्हें जी भरकर तमाशा करने देगा। जब तुम्हारा जमीर जागता है और तुम सोचते हो, “मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था” या तुम कभी-कभी कोई ऐसी अनुभवजन्य गवाही सुन लेते हो जो तुम्हारी मौजूदा स्थिति से मिलती-जुलती है और तुम मालूम कर लेते हो कि उस व्यक्ति ने कैसे कार्य किया और फिर अचानक तुम्हें महसूस होता है कि तुमने जो किया वह अनुचित, वाहियात और अशिष्ट था और तुम्हारे दिल में एक हल्का-सा दर्द होता है, तो उस क्षण से फिर तुम नकारात्मक या कमजोर नहीं होगे और तुम्हें खुद को सही ठहराने के लिए अपना मुँह खोलने में शर्मिंदगी होगी और तुम्हारे जो विचार या क्रियाकलाप चीजों में बाधा डालते हैं और उन्हें कमजोर करते हैं, उनकी तादाद लगातार कम होती जाएगी और वे लगातार कम गंभीर होते जाएँगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि अंत में यह आगे कितनी दूर तक जाती है, जो भी हो, यह सब तुम्हारा अपना व्यवहार है। परमेश्वर बस गुप्त रूप से और चुपचाप निगरानी कर रहा है जिसका उद्देश्य वह प्रमाण ढूँढना है जिसके द्वारा वह अंत में तुम्हारा आकलन करेगा। ठीक वैसे ही जैसे जब नीनवे का शहर नष्ट होने वाला था, तो परमेश्वर ने नीनवे के निवासियों को संदेश देने के लिए सिर्फ योना को भेज दिया। परमेश्वर ने उन्हें अपने पाप कबूल करने, पश्चात्ताप करने या अपनी समस्याएँ समझने के लिए प्रेरित नहीं किया—उसने ये चीजें नहीं कीं। परमेश्वर ने संदेश देने के लिए सिफ योना को भेज दिया और साथ ही यह मालूम करने के लिए गुप्त रूप से देखा कि यह सूचना सुनने पर उन्होंने प्रतिक्रियाओं और क्रियाकलापों की कौन-सी श्रृंखला शुरू की और ऊपर से नीचे तक सभी विभिन्न लोगों की क्या योजनाएँ थीं और परमेश्वर की इस सूचना के प्रति उनका क्या रवैया था। उसने सिर्फ गुप्त रूप से देखा। “देखने” का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि परमेश्वर एक दर्शक की तरह चीजों के आगे बढ़ने की प्रक्रिया और वह दिशा देख रहा है जिसमें चीजें बदलती हैं और वह किसी भी तरह से दखल नहीं देता। योना से वे कुछ वाक्य कहलवाने के अलावा परमेश्वर ने कोई अतिरिक्त कार्य नहीं किया और न ही उसने लोगों को प्रोत्साहित करने का कोई कार्य किया और इससे भी बढ़कर यह कि कहलवाने के लिए कोई अतिरिक्त वचन नहीं थे, सिर्फ वही कुछ वाक्य थे जो योना के मुँह से निकले थे। यकीनन आज के लोगों पर परमेश्वर के कार्य के सिद्धांत अपरिवर्तित रहते हैं—वह अब भी इसी तरह से कार्य करता है और शुरू से अंत तक मानवजाति के प्रति परमेश्वर का यही रवैया है। चाहे वह किसी को बदलना चाहता हो या किसी व्यक्ति में कुछ पूरा करना चाहता हो, अपने कार्य में परमेश्वर का रवैया, सिद्धांत और पद्धतियाँ नहीं बदलती हैं। ऐसा क्यों है? परमेश्वर ने जीवित लोग बनाए, स्वतंत्र इच्छा वाले मनुष्य बनाए, मशीनें या कठपुतलियाँ नहीं बनाईं। जब परमेश्वर सत्य व्यक्त करता है या कोई चीज पूरी करना चाहता है, तो वह अक्सर सबसे पहले लोगों को उसके इरादे गहराई से समझने में सक्षम बनाने के लिए एक परिवेश की व्यवस्था करता है और कभी-कभी वह लोगों को सीधे यह बता देता है कि उसके इरादे और अपेक्षाएँ क्या हैं; बाकी सब कुछ लोगों पर निर्भर करता है जो अपनी स्वतंत्र इच्छा और अपनी विभिन्न स्थितियों के आधार पर फैसले लेते हैं। नीनवे के निवासियों के प्रति परमेश्वर का यही रवैया था और वह अब जिन लोगों को बचाना चाहता है उनके प्रति उसका रवैया अपरिवर्तित है। परमेश्वर के कार्य के सिद्धांत नहीं बदले हैं; परमेश्वर हमेशा इसी तरह से कार्य करता है और उसके द्वारा बनाए गए मनुष्यों पर उसके कार्य के सिद्धांत हमेशा ऐसे ही होते हैं। जब योना ने नीनवे के निवासियों को सूचना दे दी, तो उसके बाद वह शांत होने के लिए एक जगह की तलाश करने चला गया और उसने यह मालूम करने के लिए दूर से शहर के लोगों पर नजर रखी कि जब परमेश्वर का संदेश शहर के ऊपर से नीचे तक पहुँचा दिया गया है और सभी को यह खबर हो गई है कि परमेश्वर नीनवे को नष्ट करने जा रहा है, तो नीनवे के निवासियों में किस तरह की सदमे की लहरें और गतिविधि की हलचल शुरू हो जाएगी—वह सिर्फ देखता रहा। यकीनन इस निगरानी में समय लगा और इस प्रक्रिया के दौरान परमेश्वर इन सभी चीजों में होने वाले बदलाव देख रहा था। अगर चीजें अच्छी दिशा में आगे बढ़ीं तो यकीनन परमेश्वर खुश होगा; अगर चीजें बुरी दिशा में आगे बढ़ीं तो हो सकता है वह शोक करे, लेकिन यह स्थिति पर निर्भर करेगा। परमेश्वर शोक करेगा क्योंकि मनुष्य परमेश्वर द्वारा बनाए गए थे और जब मनुष्य विनाश का सामना कर रहा होता है या जब कोई जीवन खो जाने वाला होता है, तो परमेश्वर शोक करता है। लेकिन जब परमेश्वर का सामना ऐसे भ्रष्ट लोगों से होता है जो इतने सुन्न और मंदबुद्धि हैं और इतने विद्रोही हैं, तो परमेश्वर शोक नहीं करता है। परमेश्वर वह करेगा जो उसे अपनी मूल योजना के अनुसार, अपने कार्य करने के तरीकों के अनुसार और उन तरीकों और सिद्धांतों के अनुसार करना चाहिए जिनसे वह सृजित प्राणियों से निपटता है। यहाँ कोई मानवीय भावना या मनोभाव नहीं है, सिर्फ चीजें करने में सृष्टिकर्ता के सिद्धांत और कसौटियाँ हैं। इसलिए, इस संबंध में लोगों को परमेश्वर के विचारों और राय के बारे में अनुमान और अटकलें लगाने के लिए सृजित मनुष्यों के ओछेपन का उपयोग करने के बजाय अपनी खुद की धारणाएँ त्याग देनी चाहिए और लोगों से पेश आने के लिए परमेश्वर के रवैये और पद्धतियों को सटीकता से समझना चाहिए। परमेश्वर तुम पर कार्य करता है, तुम्हारे लिए परिवेशों की व्यवस्था करता है और तुम्हें प्रशिक्षित करने के लिए और तुम्हें अभ्यास करने में सक्षम बनाने के लिए लोगों, घटनाओं और चीजों को व्यवस्थित करता है और वह तुममें सत्य शामिल करना चाहता है—इस तरह से कार्य करने के पीछे परमेश्वर का मूल इरादा किस पर आधारित है? यह जीवन का सम्मान करने और उसे संजोने के सिद्धांत पर आधारित है। यह कोई भावना नहीं है जो सृष्टिकर्ता का सृजित मनुष्यों के प्रति है—परमेश्वर में कोई भावना नहीं है। इस मूल इरादे का सिद्धांत मानवीय दैहिक रिश्तेदारी की भावनाओं से परे जाता है और यकीनन यह किसी प्रकार का स्नेह भी नहीं है—यह जीवन को संजोने और उसका सम्मान करने के सिद्धांत के कारण उत्पन्न होता है। कुछ लोग कहते हैं : “क्या यह परमेश्वर के मन की चौड़ाई है? क्या यह उसके अस्तित्व का ऊँचा स्तर है?” क्या तुम लोग सोचते हो कि यही बात है? (नहीं।) तुम लोगों का वर्णन करने के लिए “अस्तित्व का स्तर” और “मन की चौड़ाई” जैसे शब्दों का उपयोग कर सकते हो, लेकिन उन्हें परमेश्वर पर लागू मत करो। यह न तो मन की चौड़ाई है और न ही अस्तित्व का स्तर है। एक लिहाज से इसे सृष्टिकर्ता की सुंदरता कहा जा सकता है और दूसरे लिहाज से यह भी कहा जा सकता है कि यह परमेश्वर की पहचान और सार का प्रकाशन है। परमेश्वर किसी भी सृजित प्राणी के जीवन को संजोता है और उसका सम्मान करता है, लेकिन इस संजोने और सम्मान करने के आधार पर परमेश्वर अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं करता और ये सिद्धांत भावनाओं के या देह के नहीं हैं। ये किसके हैं? ये सत्य के सिद्धांत हैं, जो सिर्फ परमेश्वर के हैं। इस बारे में सोचो, अगर लोगों के बच्चे हों तो वे उनसे अत्यधिक लाड़ करते हैं और उनके लिए उनमें बहुत गहरी भावनाएँ होती हैं। यहाँ तक कि वे यह भी चाहते हैं कि काश वे दिन भर अपने बच्चों को अपनी बाहों में झुला पाते और उनके साथ रह पाते। मनुष्यों के प्रति परमेश्वर में ऐसी कोई भावना या स्नेह नहीं है। लोग अपने खून के रिश्तों के कारण अपने बच्चों के प्रति उस प्रकार की भावनाएँ पैदा करते हैं और उस प्रकार की भावनाओं के कारण लोग अपना विवेक और सिद्धांत खो बैठेंगे। ये सामान्य मानवता के प्राकृतिक या सामान्य प्रकाशन नहीं हैं और न ही ये प्रेम की अभिव्यक्ति हैं। ये पूरी तरह से भावनाएँ और उग्रता हैं—ये भावनाएँ हैं जो खून के रिश्तों से उत्पन्न होती हैं। भावनाएँ सत्य नहीं हैं और ये वे नहीं हैं जो सामान्य मानवता में होनी चाहिए; ये नकारात्मक चीजें हैं। परमेश्वर मानवजाति से लाड़ नहीं करता है या उसे बिगाड़ता नहीं है। मानवजाति के प्रति परमेश्वर का क्या रवैया है? परमेश्वर ने तुम्हें चुना और वह तुम्हारे लिए जिम्मेदार है और तुम पर कार्य करता है और कीमत चुकाता है और तुमको सत्य और जीवन प्रदान करने के लिए वचन बोलता है, जो सृजित मनुष्यों का जीवन संजोने और जीवन का सम्मान करने के सिद्धांत पर आधारित है। लेकिन परमेश्वर जिस तरीके से कार्य करता है वह लोगों की कल्पना जैसा नहीं है, यानी, वह तुम्हें कसकर पकड़कर या बोलचाल की भाषा का उपयोग करें तो तुम्हें झिंझोड़कर कार्य नहीं करता है। यह ऐसा नहीं है। परमेश्वर लोगों को नहीं झिंझोड़ता; वह कभी भी कोई भी चीज करने के लिए लोगों पर दबाव नहीं डालता है। आशीषें प्राप्त करने के लिए लोग परमेश्वर में अपने विश्वास में हमेशा परमेश्वर को झिंझोड़ना चाहते हैं और हमेशा परमेश्वर को उन्हें आशीषें देने के लिए मजबूर करना चाहते हैं और परमेश्वर से चिपटना और उसे झिंझोड़ना भी चाहते हैं ताकि वह उन्हें स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने दे। क्या यही बात नही है? (हाँ।) परमेश्वर तुम्हें झिंझोड़ता नहीं है। बोलचाल की भाषा का यह वाक्यांश “तुम्हें झिंझोड़ता है” का उपयोग करना अच्छा नहीं है, लेकिन यह कुछ हद तक स्पष्ट है और लोगों के लिए इसे समझना आसान है। परमेश्वर तुम्हें कसकर नहीं पकड़े हुए है—तुम आजाद हो। अगर तुम यह सारा कार्य संजोते हो जो परमेश्वर तुम पर करता है क्योंकि वह तुम्हारे जीवन का सम्मान करता है, उसे संजोता है और उसे कीमती मानता है, तो जब परमेश्वर तुम्हारे लिए किसी भी परिवेश का आयोजन करता है और उसे व्यवस्थित करता है तो तुम्हें परमेश्वर से चौकस रहना, उसके बारे में गलतफहमियाँ रखना, उसके प्रति प्रतिरोध महसूस करना या उसे अस्वीकार करना नहीं चुनना चाहिए। बल्कि तुम्हें वह करना चाहिए जो एक सृजित प्राणी को करना चाहिए और वह रवैया दिखाना चाहिए जो एक सृजित प्राणी को सृष्टिकर्ता के प्रति रखना चाहिए—समर्पण और स्वीकृति। क्या यह ऐसा नहीं है? (हाँ।) इस पहलू की अब स्पष्ट रूप से संगति हो चुकी है।

लोग जिस तरह से परमेश्वर के कार्य को देखते हैं उससे पहले ही उनकी एक धारणा और कल्पना उजागर हो चुकी है। यह धारणा और कल्पना क्या है? लोग परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं की व्याख्या इस रूप में करते हैं कि वह उन्हें बहकाता है और नियंत्रित करता है। क्या परमेश्वर इसी तरह से कार्य करता है? (नहीं।) लोग अपने दिलों की गहराई में परमेश्वर से अस्पष्ट रूप से डरे हुए हैं। परमेश्वर का जिक्र होते ही उन्हें लगता है कि वह डरावना है और सुंदर नहीं है। वे मानते हैं कि अगर तुम परमेश्वर के वचन नहीं सुनते हो और उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण नहीं करते हो तो वह तुमसे तब तक नाराज रहेगा जब तक तुम उसके वचन नहीं सुनते और उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण नहीं करते और जब तक वह तुम्हें पूरा नहीं कर देता है, तब तक वह हार नहीं मानेगा। क्या लोगों की यह धारणा नहीं है? लोग परमेश्वर के क्या होने की कल्पना करते हैं? क्या वे यह कल्पना नहीं करते हैं कि वह तानाशाह है? वे सोचते हैं कि तुम्हें उसका शासन स्वीकार करना चाहिए, उसकी नीतियाँ स्वीकार करनी चाहिए और उसके प्रति लिहाजभरा होना चाहिए और वह तुम्हें जो कुछ भी करने के लिए कहता है, वह तुम्हें करना चाहिए और तुम उसकी पीठ पीछे उसके बारे में बात नहीं कर सकते और तुम्हें उन सारे परिवेशों को स्वीकार करना होगा जिनकी वह तुम्हारे लिए व्यवस्था करता है और अगर तुम स्वीकार नहीं करते हो तो तुम्हें सजा दी जाएगी और तुम्हें बदला भुगतना पड़ेगा। क्या परमेश्वर वाकई इस तरह से चीजें करता है? (नहीं।) परमेश्वर तुम्हारा सम्मान करता है और तुम्हारे लिए जवाबदेही लेता है। परमेश्वर सृजित मनुष्यों का जीवन संजोता है। लोगों को यह पहचानने में विफल नहीं होना चाहिए कि उनके लिए क्या अच्छा है या उसकी दयालुता की बेकद्री नहीं करनी चाहिए। अगर तुम परमेश्वर की दयालुता की सराहना करते हो तो तुम्हें उन परिवेशों को स्वीकार करना चाहिए जिनकी वह तुम्हारे लिए व्यवस्था करता है और उन्हें उससे स्वीकार करना चाहिए। भले ही तुम उनमें सत्यों को स्वीकार न करो, उनमें सत्य सिद्धांतों को न समझो और यह न समझो कि तुम्हें क्या अभ्यास करना चाहिए या क्या बदलना चाहिए, लेकिन कम-से-कम तुम्हें परमेश्वर से चौकस नहीं रहना चाहिए या उसे गलत नहीं समझना चाहिए—तुम्हें यही चीज प्राप्त करनी चाहिए। भले ही तुम इन परिवेशों से कुछ भी प्राप्त न करो, लेकिन परमेश्वर की इच्छाओं को गलत मत समझो। परमेश्वर तुमसे कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा नहीं कर रहा है। तुम तो बस एक छोटे-से सृजित प्राणी हो, परमेश्वर तुमसे क्या प्राप्त करने की इच्छा कर सकता है? तुम्हारा जीवन और वह सब कुछ जिसका तुम आज आनंद लेते हो, वह तुम्हें परमेश्वर ने दिया है और जो थोड़ा-सा सिद्धांत तुम समझते हो वह भी उसी ने दिया है। तुम्हारी स्वतंत्र इच्छा, तुम्हारी काबिलियत, तुम्हारे गुण और तुम्हारी क्षमताएँ और कौशल, चाहे बड़े हों या छोटे, सब कुछ तुम्हें परमेश्वर ने दिया है। ऐसा क्या है जो परमेश्वर तुमसे प्राप्त करने की इच्छा करेगा? अगर परमेश्वर तुममें सत्य शामिल करने के बाद महिमा प्राप्त करता है जिससे तुम उसके प्रति समर्पण करने और उसका भय मानने पर विवश हो जाते हो और तुम सोचते हो कि परमेश्वर तुमसे यही प्राप्त करने की इच्छा करता है, तो क्या तुम अपने खुद के घिनौने मानकों से उसके बारे में राय नहीं बना रहे हो? यह परमेश्वर के खिलाफ ईशनिंदा है, है ना? (हाँ।) परमेश्वर लोगों से क्या महिमा प्राप्त कर सकता है? अंत में लोगों को ही मूर्त लाभ प्राप्त होते हैं। अपना कार्य पूरा होने से पहले ही परमेश्वर महिमा प्राप्त कर चुका है क्योंकि परमेश्वर खुद महिमावान है—उसका सत्य और अधिकार शैतान की हार का प्रमाण है और वे सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता हैं। परमेश्वर खुद महिमावान है, तो क्या अब भी उसे तुम जैसे छोटे-से सृजित प्राणी से जरा-सी महिमा प्राप्त करने की जरूरत है? परमेश्वर लोगों से कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा नहीं करता है। अगर वह कुछ प्राप्त करने की इच्छा करता है तो वह अंत में लोगों को उसकी प्रबंधन योजना के अनुसार उसकी अपेक्षाएँ पूरी करने में सक्षम बनाना है और एक बार जब लोग उद्धार प्राप्त कर लेंगे और परमेश्वर के अनुरूप होने में समर्थ हो जाएँगे, तो फिर वह आराम करेगा—मानवजाति के उद्धार के कारण बदले में परमेश्वर को आराम करने का अवसर मिलेगा—परमेश्वर यही प्राप्त करने की इच्छा करता है। तो क्या अंत में लोग ही मूर्त लाभ प्राप्त नहीं करते हैं? लोग सत्य प्राप्त कर चुके होंगे, वे अब जीवन में निराश महसूस नहीं करेंगे—उनके पास एक दिशा और एक मार्ग होगा—और वे परमेश्वर के अनुरूप होंगे और अब उसके खिलाफ विद्रोह नहीं करेंगे, वे अब किसी भी बुरी शक्ति द्वारा कैदी नहीं बनाए जाएँगे, वे सच्चे सृजित प्राणी होंगे और अब वे मृत्यु का सामना नहीं करेंगे—यह कितना बड़ा सम्मान है! मनुष्य ही सबसे ज्यादा मूर्त लाभ प्राप्त करते हैं, ये वे हैं जो परमेश्वर का कार्य और परमेश्वर का उद्धार स्वीकार करते हैं। क्या इस पहलू की स्पष्ट रूप से संगति हो चुकी है? इसमें लोगों की धारणा और कल्पना क्या है? (वे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं की व्याख्या इस रूप में करते हैं कि वह लोगों को बहकाता है और नियंत्रित करता है।) अगर हम इस बारे में संगति नहीं करते तो लोगों के मन में हमेशा कुछ विचार और नजरिये होते जिन्हें वे व्यक्त नहीं कर पाते या जो व्यवस्थित सिद्धांत नहीं बने होते। वैसे तो ये चीजें उन्हें अपने कर्तव्य करने में बाधित नहीं करती हैं या उनके दैनिक जीवन को स्पष्ट तरीके से प्रभावित नहीं करती हैं, लेकिन फिर भी वे सत्य के उनके अनुसरण को, परमेश्वर के प्रति उनके रवैये को और परमेश्वर के साथ उनके रिश्ते को गंभीर रूप से प्रभावित करती हैं। इसलिए, लोगों को ये चीजें त्याग देनी चाहिए। एक बार जब यह समस्या हल हो जाएगी, तो तुम अपने और परमेश्वर के बीच की बाधा को त्याग चुके होगे और सत्य का अनुसरण करने के तुम्हारे मार्ग पर एक प्रकार की रुकावट हटा दी जा चुकी होगी जिससे तुम्हारे लिए सत्य का अनुसरण करना और आसान हो जाएगा। जब वास्तविक कठिनाइयाँ हल हो जाएँगी, तो तुम्हारे और परमेश्वर के बीच की बाधाएँ और रुकावटें कम हो जाएँगी, इसलिए तुम और ज्यादा आसानी से अपना कर्तव्य करने और सत्य का अभ्यास करने में समर्थ होगे। यह ठीक जंग के मैदान में जाने जैसा है—क्या तुम लोगों को लगता है कि जब तुम जंग में जाते हो, तब हल्का बोझ लेकर जाना बेहतर है या भारी बोझ लेकर जाना? कौन सा ज्यादा आरामदेह है? (हल्का बोझ लेकर जंग में जाना।) हल्के बोझ के साथ जंग में जाने के लिए अपनी पीठ पर सिर्फ एक हथियार लेकर चलना ही काफी है—इस तरीके से यह आसान होता है। अगर इसके अलावा तुम बर्तन और सामान या सौंदर्य-प्रसाधन और कसरत के उपकरण लेकर चलोगे, तो बोझ बहुत ज्यादा भारी हो जाएगा; जंग में इतनी सारी चीजें लेकर चलना दर्दनाक होगा और लड़ना असुविधाजनक होगा। ये धारणाएँ और कल्पनाएँ अलग-अलग तरह के बोझ की तरह हैं जिन्हें लोग उठाए फिरते हैं और वे जहाँ कहीं भी जाते हैं ये उनके लिए मुसीबतें और बाधाएँ बन जाती हैं। संक्षेप में, समय-समय पर ये चीजें तुम्हें प्रभावित करेंगी और सत्य का अनुसरण करने और उसका अभ्यास करने में बाधा डालेंगी। जब कोई गंभीर मुद्दा नहीं होगा, तो ऐसा लगेगा जैसे तुम्हें कोई बड़ी समस्या नहीं है। लेकिन एक बार जब सिद्धांत की गंभीर समस्याएँ खड़ी होंगी, तो तुम्हारे पास इन चीजों की एक बाधा होगी जो तुम्हें परमेश्वर से अलग कर देगी। जब ये चीजें सामने आएँगी, तो तुम्हें लगेगा कि परमेश्वर के साथ तुम्हारे रिश्ते में कोई समस्या है, तुम्हारे और परमेश्वर के बीच कोई टकराव है; परमेश्वर में विश्वास का तुम्हारा दिल अब उतना शुद्ध नहीं रहेगा और तुम्हें कई कठिनाइयाँ होंगी। लेकिन जब तुम ये चीजें त्याग दोगे, तो तुम बढ़िया महसूस करोगे, तुम्हारा दिल शांत और मुक्त हो जाएगा और अब विवश या बँधा हुआ नहीं रहेगा। वैसे तो समय-समय पर ये चीजें तुम्हारे अवचेतन मन या तुम्हारे विचारों में कौंध उठेंगी, लेकिन तुम पहले से ही उन्हें मूल रूप से हल कर चुके होगे और जब तुम फिर से चीजें करोगे, तो तुम उन्हें करने में ज्यादा निश्चिंत महसूस करोगे और ऐसा ज्यादा आसानी से करोगे। वैसे तो अब भी तुम्हारे मन की गहराइयों में ये धारणाएँ और कल्पनाएँ हल्का प्रभाव डाल सकती हैं, लेकिन कम-से-कम तुम अपनी व्यक्तिपरक इच्छा में स्पष्ट रूप से यह भेद पहचान चुके होगे कि वे सकारात्मक चीजें नहीं हैं, इसलिए व्यक्तिपरक रूप से तुम उन्हें त्याग दोगे और उनसे प्रभावित नहीं होगे। इस तरह से तुम अपने और परमेश्वर के बीच की इस बाधा को मूल रूप से त्याग चुके होगे और हल कर चुके होगे।

हम सत्य का अनुसरण करने के विषय पर अक्सर इस तरह से संगति करते हैं। क्या तुम लोग सत्य का अनुसरण करने के महत्व को महसूस कर सकते हो? जब तुमने अपने आस-पास के परिचित लोगों को कलीसिया द्वारा निपटे जाते और यहाँ तक कि कुछ को बहिष्कृत या निष्कासित भी किए जाते देखा, तो क्या तुम लोगों को इस बारे में कोई विचार आया? क्या तुमने इससे कोई अनुभव या सबक लिया? जिन लोगों को ब समूहों में भेज दिया गया और जिन्हें बाहर निकाल दिया गया उनके साथ मुख्य समस्याएँ क्या हैं? (जब मैंने अपने आस-पास के कुछ परिचित लोगों को ब समूहों में भेजे जाते या बाहर निकाले जाते देखा, तो इससे मेरे दिल और मन में हलचल पैदा हुई। वैसे तो उन्होंने कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, लेकिन वे वाकई सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं और अगर मैं भी सत्य का अनुसरण नहीं करता हूँ और जब भी मुझ पर कुछ बीतती है, तब मैं भी सत्य की खोज नहीं करता हूँ तो अंत में मुझे भी उन्हीं की तरह निकाल दिया जाएगा।) क्या तुम्हें पता है कि इन लोगों से निपटने के लिए परमेश्वर के घर के सिद्धांत क्या थे? क्या परमेश्वर के घर ने उन्हें बस इसलिए बाहर निकाल दिया क्योंकि वे खराब मानवता वाले हैं और सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं और क्योंकि वह उन्हें नापसंद करता है? (नहीं।) तो फिर क्या यह बात है कि जिन सभी लोगों से नहीं निपटा गया उनकी मानवता के साथ कोई समस्या नहीं है, वे सभी सत्य से प्रेम करते हैं, सत्य का अनुसरण करते हैं और सत्य के प्रति समर्पण कर सकते हैं और परमेश्वर से प्रेम कर सकते हैं और उसका भय मान सकते हैं? क्या यही बात है? (नहीं।) क्या उन लोगों को सिर्फ इसलिए परमेश्वर के घर से बाहर निकाल दिया गया या ब समूहों में भेज दिया गया क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते हैं और उससे विमुख हैं? क्या उनसे इसलिए निपटा गया क्योंकि वे खराब मानवता वाले हैं और सत्य को स्वीकार करने से पूरी तरह इनकार करते हैं या इसका कारण उनका खराब रंग-रूप या कोई अस्थायी अपराध है? क्या यही वह सिद्धांत है जिसके द्वारा परमेश्वर का घर लोगों से निपटता है? (नहीं।) क्या किसी व्यक्ति द्वारा सत्य का अनुसरण नहीं करने के कारण परमेश्वर का घर उससे निपटता है, उसे कर्तव्य करने के लिए अयोग्य ठहराता है और उसे विदा कर देता है? (नहीं।) तो वह इन लोगों से क्यों निपटा और क्यों इन्हें विदा कर दिया? (क्योंकि उन्होंने सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं किया और उन्होंने कलीसिया के कार्य में गड़बड़ की और बाधा डाली जिसके कारण परमेश्वर के घर के कार्य को गंभीर नुकसान हुए।) क्या यही मुख्य कारण था? (हाँ।) दूसरे क्या कारण थे? क्या कभी किसी को लगातार झूठ बोलने के कारण विदा किया गया है? (नहीं।) क्या कभी किसी को इसलिए विदा किया गया है क्योंकि वह सत्य से प्रेम नहीं करता है और सत्य से विमुख है? क्या कभी किसी को इसलिए विदा किया गया है क्योंकि वह अपने कर्तव्य करने में निष्ठाहीन है? (नहीं।) क्या तुम्हें लगता है कि यह अफसोस की बात है कि इन लोगों को विदा कर दिया गया? क्या इनमें से किसी के साथ अन्याय किया जा रहा था? (नहीं।) इनमें से किसी के साथ भी अन्याय नहीं किया जा रहा था। इन लोगों द्वारा किए गए बुरे कर्मों के अनुसार जब वे आध्यात्मिक क्षेत्र में जाते हैं, तो वे अठारह बार मरने के लायक हैं और इन सभी को दंडित किया जाना चाहिए—मरना और फिर वापस जिंदा होना और फिर से दंडित किया जाना और फिर से मरना और फिर से वापस जिंदा होना और फिर से दंडित किया जाना और फिर से मरना—वे कुल मिलाकर अठारह बार मरने के लायक हैं। उन्होंने बहुत सारे बुरे कर्म किए हैं और उनके पाप जघन्य हैं! तो फिर इन लोगों से क्यों निपटा गया और इन्हें निष्कासित किया गया? वह इसलिए क्योंकि उनसे नहीं निपटना कोई विकल्प नहीं था—वे अपने कर्तव्य नहीं कर रहे थे, वे गड़बड़ियाँ और बाधाएँ उत्पन्न कर रहे थे और वे चीजों को तोड़-फोड़ रहे थे! कुछ लोग तो यह तक सोचते हैं कि इन लोगों से इसलिए निपटा गया क्योंकि वे झूठ बोलना पसंद करते हैं और खराब मानवता वाले हैं या क्योंकि वे रुतबे और शक्ति के लिए होड़ करते हैं और अपने कर्तव्य करने में निष्ठाहीन हैं; दूसरे भ्रमित लोग कहते हैं कि ऐसा इसलिए है क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते हैं और सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं। तो क्या तुम लोग सत्य से प्रेम करते हो? क्या जिन लोगों को विदा नहीं किया गया है वे सभी सत्य से प्रेम करते हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं? (नहीं।) इनमें से कोई भी बात सच्चाई नहीं है। दरअसल इन लोगों से इसलिए निपटा गया और इन्हें निष्कासित किया गया क्योंकि इन लोगों ने अपने कर्तव्य करने की प्रक्रिया में गड़बड़ियाँ और बाधाएँ उत्पन्न करने और चीजों की तोड़-फोड़ करने की भूमिका निभाई, उन्होंने वे चीजें कीं जो शैतान, दानव और बड़ा लाल अजगर करना चाहते हैं लेकिन करने में असमर्थ हैं, परमेश्वर के घर के प्रशासनिक आदेशों का घोर उल्लंघन किया और परमेश्वर को बुरी तरह से गुस्सा दिलाया। उन्हें सिर्फ इसलिए विदा किया गया क्योंकि उन्हें विदा न करने का बस विकल्प ही नहीं था। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर का घर लोगों से प्रेम नहीं करता है और उनके प्रति कठोर है और ऐसा नहीं है कि परमेश्वर लोगों को मौके नहीं देता है। बल्कि ऐसा है कि इन लोगों ने अपने क्रियाकलापों में हदें पार कर दीं जिससे गड़बड़ियाँ और बाधाएँ उत्पन्न हुईं और उन्होंने कलीसिया के कार्य को जो नुकसान पहुँचाए वे बहुत ही बड़े थे। वे अपने कर्तव्य नहीं कर रहे थे और वे तो श्रम भी नहीं कर रहे थे; वे गड़बड़ियाँ और बाधाएँ उत्पन्न कर रहे थे और बुराई कर रहे थे। परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से कोई भी कलीसिया में ऐसे लोगों का होना पसंद नहीं करता है। अगर तुम कलीसिया में ताना देते हुए कुछ कहते हो या झूठ बोलते हो तो यह सिर्फ तुम्हारा व्यक्तिगत व्यवहार है, यह सिर्फ इतना ही है कि तुम सत्य से प्रेम नहीं करते और सत्य का अनुसरण नहीं करते और जब तक इससे गड़बड़ी या बाधा उत्पन्न नहीं होती है तब तक कोई भी तुमसे नहीं निपटेगा; अगर कभी-कभी तुम अपना कर्तव्य करने में कुछ हद तक लापरवाह होते हो, लेकिन ज्यादातर समय तुम सफल होते हो, तो जब तक तुम कोई गड़बड़ी या बाधा उत्पन्न नहीं करते, तब तक परमेश्वर का घर तुम्हें रहने और कर्तव्य करने का अवसर देगा, तुम्हारे साथ सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करेगा। लेकिन इन लोगों ने गड़बड़ियाँ और बाधाएँ उत्पन्न कीं। उन्होंने बेतहाशा गलत कर्म किए और हर तरह से सिद्धांतों का उल्लंघन किया जिससे बहुत उथल-पुथल मची; कलीसिया के कार्य के सभी पहलू बिगड़ गए और कई भाई-बहनों द्वारा किए गए कर्तव्यों के फल पूरी तरह से व्यर्थ हो गए। उनकी गड़बड़ियों और बाधाओं के नतीजे बहुत ही गंभीर हैं और उन्हें सुधारने में अनगिनत लोगों को अनगिनत घंटे लगेंगे, इसलिए इन लोगों को विदा करना ही पड़ा! सिर्फ इसी तरह से भाई-बहनों की रक्षा करना संभव था ताकि वे सामान्य रूप से अपने कर्तव्य कर सकें और अच्छे नतीजे प्राप्त कर सकें। सिर्फ इन कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों को हटाकर ही भाई-बहनों के लिए कार्य करने और रहने का उपयुक्त परिवेश बनाना संभव था। अगर ये कुकर्मी और मसीह-विरोधी कलीसिया में रह जाते तो वे सिर्फ आफत ही होते और वे जहाँ भी जाते वहाँ गंदा और पंकिल माहौल बनता और अराजकता होती। उनकी की हुई किसी भी चीज ने श्रम करने का मानक भी पूरा नहीं किया। उन्होंने सिर्फ बाधा डाली, तोड़-फोड़ की और तबाह किया। उन्होंने जो कुछ भी किया वह कलीसिया के कार्य और कलीसियाई जीवन में गड़बड़ करने और बाधा डालने के लिए था। क्या वे शैतान के सेवक नहीं हैं? क्या ऐसे लोग कलीसिया में रह सकते हैं? वे साधारण भ्रष्ट मनुष्य नहीं हैं, बल्कि शैतान के सेवक हैं! इन लोगों ने क्या किया? उन्होंने परमेश्वर के चढ़ावे बरबाद किए और बिना किसी शर्त के उन्हें अविश्वासियों को दे दिया—वे अविश्वासियों को पैसे देने में बेहद उदार थे, उन्हें तब भी जबरदस्ती पैसे थमा दिए जब उन्होंने माँगे भी नहीं थे। जब उन्होंने अविश्वासियों से कुछ कार्य करने के लिए कहा और अविश्वासियों ने कहा कि सौ डॉलर काफी होंगे, तो वे तीन सौ डॉलर देने पर अड़ गए और जब अविश्वासियों ने तीन सौ डॉलर माँगे, तो वे पाँच सौ डॉलर देने पर अड़ गए, यहाँ तक कि उन्होंने अविश्वासियों की मजदूरी का भुगतान करने के बाद उन्हें अतिरिक्त बोनस भी दिया। चाहे कितने भी चढ़ावे खर्च किए जाने वाले हों, वे इस बारे में ऊपरवाले से नहीं पूछते थे, बल्कि बस खुद ही फैसले ले लेते थे। चाहे उन्होंने कोई भी कार्य क्यों न किया हो, उन्होंने इसे परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं के अनुसार या परमेश्वर के घर द्वारा दिए गए सिद्धांतों के अनुसार नहीं किया और यकीनन उन्होंने इसका सत्य सिद्धांतों के अनुसार निर्वहन नहीं किया। उन्होंने बस अपनी इच्छाओं का अनुसरण किया और इसे जैसे चाहा वैसे किया, परमेश्वर के घर के हितों की बिल्कुल भी रक्षा नहीं की। वे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने के बजाय गैर-विश्वासियों की रक्षा करना ज्यादा पसंद करते और उन्होंने हर जगह परमेश्वर के चढ़ावे बरबाद किए। क्या वह पैसा उन्होंने कमाया था? जब अविश्वासियों को बोनस और उपहार देने की बात आई, तो उन्होंने खुद को बिल्कुल नहीं रोका और किसी को भी उनसे असहमत होने की अनुमति नहीं थी और जो कोई भी उनसे असहमत हुआ, उसे उन्होंने फटकार दिया। क्या तुम सोचते हो कि इस तरह के लोग परमेश्वर में विश्वास करने वाले और उसका अनुसरण करने वाले लोग हैं? वे कचरा हैं, है ना? क्या इस तरह के लोगों को बाहर निकाल देना चाहिए? (हाँ।) इन लोगों ने दूसरी कौन-सी बुराइयाँ कीं? सुसमाचार का प्रचार करने में उन्होंने परमेश्वर के घर को धोखा देने के लिए झूठी संख्याओं की सूचना दी और जिस किसी ने भी झूठी संख्याओं की सूचना नहीं दी उसे उन्होंने बेरहमी से सताया और कुचल दिया। उन्होंने दूसरों को झूठी संख्याओं की सूचना देने के लिए मजबूर किया जिससे उनके पास ऐसा करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं रहा। ये किस ढंग के लोग हैं? क्या ये लोग भी हैं? अगर तुम कहते हो कि वे सिर्फ खराब मानवता वाले हैं, सत्य से प्रेम नहीं करते हैं और सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं तो क्या इस कथन में दम है? क्या यह बकवास नहीं है? (हाँ।) न सिर्फ वे सत्य से प्रेम नहीं करते हैं और सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, बल्कि उनमें सामान्य मानवता भी नहीं है, फिर सत्य से प्रेम करने और उसका अनुसरण करने की बात तो छोड़ ही दो—वे और कुछ नहीं बस दानव हैं! अब यह तुम्हें स्पष्ट रूप से दिख रहा है, है ना? (हाँ।) इन लोगों की प्रकृति क्या है? (दानवों की प्रकृति है।) उनकी प्रकृति दानवों की प्रकृति है। बाहर निकाले जाने के बाद ये लोग उद्दंड हो गए और उन्हें यह भी लगा कि उनके साथ अन्याय हुआ है, उन्होंने कहा “मैं बेकसूर हूँ, मैंने वह नहीं किया!” सच्चाई ठीक उनकी आँखों के सामने थी, लेकिन उन्होंने जवाबदेही लेने से इनकार कर दिया और यहाँ तक कि वे अपने बहानों से चिपके रहे और अंत तक उद्दंड बने रहे; क्या यह साबित नहीं करता है कि उन्हें बाहर निकाल देना सही था? अगर इस तरह के लोगों को बाहर नहीं निकाला गया तो क्या नतीजे होंगे? क्या वे पश्चात्ताप करेंगे? अगर तुम उन्हें कर्तव्य करते रहने का अवसर देते भी हो और सिर्फ उनकी काट-छाँट भी करते हो तो भी क्या वे पश्चात्ताप कर सकते हैं और बेहतर बन सकते हैं? (नहीं, वे नहीं बन सकते।) ऐसा कोई तरीका बिल्कुल भी नहीं है जिससे वे पश्चात्ताप कर सकते थे। यह कौन सा प्रकृति सार है? किस तरह के लोग पश्चात्ताप नहीं कर सकते हैं और तथ्यों का सामना करने पर भी पश्चात्ताप नहीं करते हैं? (दानव।) दानव, शैतान के सार वाले लोग, बुरी आत्माएँ और गंदे राक्षस पश्चात्ताप नहीं करेंगे; इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम सत्य पर कैसे संगति करते हो, वे पश्चात्ताप नहीं करेंगे। वे तो अपने कुकर्मों के तथ्यों को भी नहीं मानते हैं, तो क्या वे सत्य स्वीकार कर सकते हैं और खुद को जानने लग सकते हैं? वे ऐसा बिल्कुल भी नहीं करेंगे! अगर वे अपने कुकर्मों के तथ्यों को मान सकते तो उनके पास सत्य स्वीकार करने का मौका होता, लेकिन वे तो तथ्यों को भी नहीं मानते हैं और अपने कर्मों की प्रकृति को नहीं मानते हैं या स्वीकार नहीं करते हैं—ऐसे लोग पश्चात्ताप नहीं कर सकते हैं। वे बिल्कुल सदोमियों की तरह हैं—अगर तुम सदोमियों से कहते, “अगर तुम पश्चात्ताप नहीं करोगे, तो परमेश्वर इस शहर को नष्ट कर देगा” तो क्या वे इसे स्वीकार करते? ये शब्द सुनने के बाद उनका रवैया क्या होता? वे ऐसे व्यवहार करते मानो उन्होंने वे शब्द सुने ही न हों और अपनी पसंद के अनुसार चीजें करते रहते, बिल्कुल भी पश्चात्ताप किए बिना जो भी अच्छा लगता वही करते। इसलिए, उनका अंतिम परिणाम नष्ट किया जाना था। जहाँ तक इन लोगों की बात है जिन्होंने कलीसिया में गड़बड़ियाँ और बाधाएँ उत्पन्न कीं, परमेश्वर ने उन्हें अवसर दिए और फिर भी उन्होंने उन्हें नहीं संजोया या पश्चात्ताप नहीं किया और अंत तक वे परमेश्वर का विरोध करने पर अड़े रहे। इन लोगों के पास जमीर या विवेक नहीं है—क्या वे दया के लायक है? (नहीं, वे नहीं हैं।) क्या ऐसा कोई है जिसने इन लोगों का बचाव किया है जो दया के लायक नहीं हैं? क्या ऐसा कोई है जो उनके गुण गाता है, यह महसूस करता है कि उन्होंने कई वर्षों से कष्ट सहे हैं और कीमत चुकाई है और उन्होंने बेहद मेहनत से और बेहद लगन से कार्य किया है और उनमें से कुछ लोगों के पास बहुत अच्छी काबिलियत है और उनके पास शानदार कार्य क्षमता और अगुआई कौशल हैं और यह अफसोस की बात है कि उन्हें विदा कर दिया गया? क्या यह अफसोस की बात है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) यह अफसोस की बात नहीं है जिसका मतलब है कि उन्हें विदा कर देना सही था। बस देखो और मालूम करो कि क्या ये लोग सत्य स्वीकार कर सकते हैं और वे किस मार्ग पर चल रहे हैं। अगर लोग अपने कर्तव्य करते समय भी गड़बड़ियाँ या बाधाएँ उत्पन्न करते हैं तो वे मानवजाति के कचरे हैं! यह सिर्फ सही है कि सृजित प्राणी अपने कर्तव्य करें और चाहे वह कर्तव्य कुछ भी हो, उन्हें अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए। भले ही उनके कर्तव्य का निर्वहन मानक-स्तर तक नहीं पहुँचता हो, कम-से-कम उन्हें गड़बड़ियाँ और बाधाएँ उत्पन्न नहीं करनी चाहिए! गड़बड़ियाँ और बाधाएँ कुछ ऐसी चीज है जिसे शैतान उत्पन्न करता है; यह कुछ ऐसी चीज नहीं होनी चाहिए जो भ्रष्ट मनुष्य करते हैं। भ्रष्ट मनुष्य शैतान द्वारा भ्रष्ट हो चुके हैं और वे परमेश्वर का प्रतिरोध करने से खुद को नहीं रोक पाते हैं; लेकिन सामान्य मानवता, जमीर और विवेक वाले लोग अपने कर्तव्य करते समय जानबूझकर गड़बड़ियाँ और बाधाएँ उत्पन्न नहीं करेंगे। वह इसलिए क्योंकि उनका जमीर और विवेक उन्हें रोक देता है और इसलिए वे अपने कर्तव्य करने की प्रक्रिया में परमेश्वर के घर के कार्य को गड़बड़ नहीं करेंगे, अस्त-व्यस्त नहीं करेंगे या नुकसान नहीं पहुँचाएँगे। भले ही कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य इस तरीके से न कर पाए जो मानक-स्तर का हो, लेकिन उसे औसत मानक तक करना स्वीकार्य है और यह कम-से-कम जमीर और विवेक का मानक तो पूरा करता ही है। लेकिन ये लोग इस मानक तक भी नहीं पहुँच पाते हैं, इसलिए अंत में वे सिर्फ इसी बिंदु तक पहुँच पाते हैं—अपने बहुत सारे कुकर्मों के कारण परमेश्वर के घर से वे बहिष्कृत या निष्कासित कर दिए जाते हैं। ये मानवजाति के कचरे हैं!

इसके बाद आओ हम “अपने और परमेश्वर के बीच की बाधाओं और परमेश्वर के प्रति अपनी शत्रुता को त्याग देना” में धारणाओं और कल्पनाओं की समस्याओं के बारे में बात करें जो सत्य का अनुसरण कैसे करना है के अभ्यास में “त्याग देने” में तीसरी मद है। हमने अभी-अभी परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों की कुछ धारणाओं और कल्पनाओं के बारे में बात की। अब इसे देखा जाए तो क्या परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों की कुछ दूसरी धारणाएँ और कल्पनाएँ नहीं हैं? क्या ये धारणाएँ और कल्पनाएँ इस बात को प्रभावित करेंगी कि लोग परमेश्वर के कार्य के साथ कैसे पेश आते हैं, वे परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे करते हैं और वे परमेश्वर के कार्य को कैसे समझते हैं और जानते हैं? कलीसिया में दिखाई देने वाले विभिन्न प्रकार के लोगों में से एक प्रकार कुकर्मी और मसीह-विरोधी लोग हैं। चाहे उन्होंने ऐसी कोई भी बुराई की हो जिसके कारण उनसे निपटा गया और चाहे किसी भी मामले के कारण कलीसिया ने उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित किया हो, ऐसे कुछ लोग हमेशा होते हैं जिनकी परमेश्वर के घर द्वारा छद्म-विश्वासियों, कुकर्मियों और मसीह विरोधियों को दूर करने के बारे में कुछ धारणाएँ होती हैं और ये धारणाएँ और कल्पनाएँ इस सच्चाई के कारण होती हैं कि उन्हें परमेश्वर के कार्य या परमेश्वर की संप्रभुता की बिल्कुल कोई समझ नहीं है। लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं में कलीसिया ही वह जगह है जहाँ परमेश्वर धरती पर कार्य करता है, इसलिए कलीसिया लोगों के लिए परमेश्वर की संप्रभुता को देखने की सबसे प्रत्यक्ष जगह है और यह भी कहा जा सकता है कि यह वह सबसे प्रत्यक्ष और स्पष्ट जगह है जहाँ परमेश्वर की संप्रभुता अभिव्यक्त होती है। लेकिन इस जगह लोगों को अक्सर कुछ ऐसे लोग, घटनाएँ और चीजें दिख जाती हैं जो उनकी धारणाओं के साथ असंगत हैं। लोग अपनी धारणाओं में सोचते हैं कि चूँकि कलीसिया परमेश्वर के कार्य से जुड़ी जगह है, इसलिए इसे दोस्ती, शांति, प्रेम, सहिष्णुता, आनंद और आराम से भरी शांत और खामोश जगह होनी चाहिए। वे मानते हैं कि कलीसिया में कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों जैसे व्यक्ति कभी भी दिखाई नहीं देने चाहिए और कुकर्मियों द्वारा बुराई करने की घटनाएँ नहीं होनी चाहिए। और वे सोचते हैं कि परमेश्वर की संप्रभुता के तहत यकीनन कलीसिया में सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन किए जाने की कोई घटना नहीं होनी चाहिए और किसी भी प्रकार के अराजक लोग या अराजक चीजें नहीं होनी चाहिए या ऐसी चीजें तो बिल्कुल भी नहीं होनी चाहिए जो मानवीय इच्छा, मानवीय भावनाओं और मानवता के साथ असंगत हों। वे मानते हैं कि कलीसिया में सब कुछ बहुत शांतिपूर्ण, खामोश, सुखद, सकारात्मक, आशावादी और प्रेरक होना चाहिए और यहाँ तक कि ऐसी कोई लड़ाई या कोई घिनौनी या भद्दी चीज भी नहीं होनी चाहिए जो मानवता की जरूरतों के साथ असंगत हों। ये सभी लोगों की धारणाएँ हैं। लेकिन तथ्य लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के साथ असंगत हैं। चाहे कोई भी अवधि या कार्य चरण हो, कलीसिया में हमेशा कुछ कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों द्वारा कलीसिया के कार्य में बाधा डालने और गड़बड़ करने की घटनाएँ होती रहती हैं जिसके कारण परमेश्वर के घर के कार्य के कुछ पहलुओं को नुकसान पहुँचता है, कलीसिया के कार्य का क्रम बिगड़ जाता है और ऐसी ही दूसरी चीजें होती हैं। जब ये चीजें होती हैं, तो लोगों को लगता है कि इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती और उनके दिल लाचारी, घबराहट और उलझन से भर जाते हैं और वे हैरान होते हैं, “क्या वाकई परमेश्वर का अस्तित्व है? परमेश्वर वास्तव मे मानवजाति पर कैसे संप्रभु है और अपनी कलीसिया, अपने घर पर कैसे शासन करता है? क्या परमेश्वर वाकई इसे लेकर फिक्र करता है या नहीं? परमेश्वर कहाँ है? ऐसा क्यों है कि जब ये अराजक चीजें होती हैं और जब कुकर्मी दिखाई देते हैं और बाधाएँ उत्पन्न करते हैं, तो कोई भी उन्हें रोकने के लिए आगे नहीं आता है और परमेश्वर भी आगे आकर उन्हें नहीं रोकता है? यहाँ वास्तव में क्या हो रहा है? क्या कलीसिया परमेश्वर का घर नहीं है? क्या परमेश्वर का अनुसरण करने वाले लोग उसके चुने हुए लोग नहीं हैं? परमेश्वर अपने घर का ध्यान क्यों नहीं रखता है या उसकी रक्षा क्यों नहीं करता है? परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों की रक्षा क्यों नहीं करता है ताकि वे एक सुरक्षा कवच में, एक आश्रय में शांति से रह सकें?” लोगों के संदेह और यह समझने की विफलता उनकी विभिन्न धारणाओं के कारण है, है ना? (हाँ।) तो, ये धारणाएँ मुख्य रूप से किस बारे में हैं? क्या वे परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर की संप्रभुता के बारे में नहीं हैं? क्योंकि कुकर्मियों द्वारा बुराई करना और गड़बड़ियाँ और बाधाएँ उत्पन्न करना जैसे मामले कलीसिया में होते हैं और क्योंकि लोग इन मामलों को नहीं समझते हैं, इसलिए उनके लिए इन मामलों के मूल की और उनका अंतिम परिणाम क्या होगा इसकी असलियत देखना कठिन है। क्योंकि लोग इन चीजों की असलियत नहीं देख पाते हैं, इसलिए वे परमेश्वर के बारे में सभी प्रकार के विचार और धारणाएँ बना लेते हैं। कुछ लोग सोचते हैं, “परमेश्वर के घर को कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों के प्रति प्रेम दिखाना चाहिए। अगर परमेश्वर का घर उनसे प्रेम नहीं दर्शाता है तो क्या यह समाज के जैसा व्यवहार नहीं होगा? समाज में हमेशा ऐसे लोगों का एक समूह होता है जो दूसरे समूह के लोगों को सताते हैं, सत्ता और प्रभाव की खातिर होड़ करते हैं। कुकर्मियों को बहिष्कृत और निष्कासित करके क्या परमेश्वर का घर भी उसी तरह लोगों को नहीं सता रहा है? परमेश्वर के घर में रहना उतना सुरक्षित नहीं है! अगर तुम्हारे सामने वाकई कोई अशांत परिस्थिति आती है तो तुम्हारे साथ अन्याय हो सकता है और तुम्हें बाहर निकाल दिया जा सकता है और कोई भी तुम्हारी रक्षा नहीं करेगा! परमेश्वर वास्तव में कहाँ है? परमेश्वर क्यों सामने नहीं आता है और क्यों कुछ कहता या करता नहीं है? हमें तुम्हारा अस्तित्व देखने दो, हमें तुम्हारी सर्वशक्तिमत्ता देखने दो, हमें अपनी आँखों से तुम्हारी संप्रभुता देखने दो, इस तरह से हम निश्चिंत हो जाएँगे, है ना?” कलीसिया में जब भी लोग कुछ ऐसी घटनाओं का अनुभव करते हैं जो उन्हें अपनी समझ से परे लगती हैं, तो उनमें से कुछ लोगों में बेचैनी और संदेह जैसी भावनाएँ जन्म लेती हैं और कुछ लोग तो इन घटनाओं से बचना भी चाहते हैं और दूसरे लोग नकारात्मकता में पड़ जाते हैं; विशेष रूप से कुछ लोग मसीह-विरोधियों द्वारा गुमराह किए और बेवकूफ बनाए जाने के कारण खुद पर से भरोसा खो देते हैं और कुछ लोग मसीह-विरोधियों द्वारा गुमराह और शोषित किए जाने और उनके साथी बन जाने के कारण कलीसिया द्वारा आत्म-चिंतन के लिए अलग-थलग कर दिए जाते हैं या बाहर निकाल दिए जाते हैं। इन सभी चीजों को समझ से परे पाने के साथ-साथ लोग परमेश्वर के अस्तित्व पर भी संदेह करने लगते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि बहुत से लोगों की परमेश्वर में आस्था का मुख्य स्रोत उनका यह विश्वास है कि परमेश्वर सभी चीजों पर, हर चीज पर संप्रभु है। यानी, बहुत सारे लोग यह मानते हैं कि परमेश्वर हर चीज पर, सभी चीजों पर और मानवजाति की किस्मत पर संप्रभु हो सकता है और इसलिए वे परमेश्वर के अस्तित्व और परमेश्वर की पहचान और सार पर विश्वास करते हैं। लेकिन उनके आस-पास होने वाली इन चीजों के कारण वे परमेश्वर की संप्रभुता में अपने विश्वास पर संदेह करते हैं और डगमगा जाते हैं और फिर वे इस सच्चाई पर संदेह करना शुरू कर देते हैं कि परमेश्वर हर चीज पर संप्रभु है और इसके बाद परमेश्वर में उनकी आस्था भी डगमगाने लगती है और इसलिए समस्याओं की यह पूरी श्रृंखला उत्पन्न होती है। परमेश्वर की संप्रभुता के बारे में लोगों की सभी तरह की धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं और ये धारणाएँ और कल्पनाएँ निश्चित रूप से सत्य या तथ्यों के साथ संगत नहीं हैं, बल्कि लोगों की भ्रामक व्याख्याएँ या गलतफहमियाँ हैं। तो आगे हम इस बात पर संगति करेंगे कि परमेश्वर तुम्हारे आस-पास के उन सभी लोगों, घटनाओं और चीजों पर कैसे संप्रभु है जिन्हें तुम देख और महसूस कर सकते हो, इन सब पर परमेश्वर की संप्रभुता के लिए क्या सिद्धांत हैं और वह क्या उद्देश्य प्राप्त करना चाहता है।

“परमेश्वर की संप्रभुता” वाक्यांश में विषय-वस्तु की एक व्यापक श्रेणी शामिल है। व्यापक परिवेश को एक तरफ रख दिया जाए, तो जब कलीसिया की बात आती है, तो यह सच्चाई कि परमेश्वर हर चीज पर संप्रभु है वास्तविक है। परमेश्वर की संप्रभुता कोई खोखला वाक्यांश नहीं है और न ही यह सिर्फ एक परिघटना है, बल्कि इसके वास्तविक उदाहरण और वास्तविक नतीजे मौजूद हैं। तो कलीसिया में परमेश्वर की संप्रभुता के क्या सिद्धांत हैं? आओ पहले इस बारे में सोचें : क्या परमेश्वर इस पर संप्रभु है और यह व्यवस्था करता है कि कलीसिया में किन लोगों को स्वीकार किया जाता है? (हाँ, वह करता है।) यह खोखला नहीं है। परमेश्वर का सुसमाचार और परमेश्वर के वचन किन लोगों तक आते हैं और कौन-से लोग परमेश्वर का कार्य स्वीकार करने में समर्थ हैं और कौन-से लोग कलीसिया में प्रवेश कर सकते हैं—यह सब कुछ परमेश्वर द्वारा नियत किया जाता है। आओ अभी के लिए हम इन लोगों की मानवता और इसके बारे में बात न करें कि क्या वे कुकर्मी हैं; वे कलीसिया में प्रवेश करने में समर्थ हैं, इसका मतलब है कि परमेश्वर ने इसे नियत किया। क्या परमेश्वर का नियत करना परमेश्वर की संप्रभुता का एक पहलू है? (हाँ।) सबसे पहले, एक बात के बारे में हम निश्चित हो सकते हैं कि कलीसिया में हर व्यक्ति का प्रवेश परमेश्वर द्वारा नियत किया जाता है। “परमेश्वर का नियत करना” वाक्यांश सुनने में थोड़ा अमूर्त लगता है, इसलिए चलो हम बस इतना ही कहें कि “अंतिम फैसला परमेश्वर का होता है, परमेश्वर द्वार की रखवाली करता है।” परमेश्वर राज्य का द्वार है और वह कलीसिया का द्वार भी है। जब यह बात आती है कि किस तरह के लोग आधिकारिक तौर पर कलीसिया के, परमेश्वर के घर के सदस्य बन सकते हैं, तो परमेश्वर द्वार की रखवाली करता है। चाहे वे छद्म-विश्वासी हों या ऐसे कुकर्मी हों जो कलीसिया में आने में कामयाब हो गए हैं या ऐसे अच्छे लोग हों जो परमेश्वर में विश्वास रखने में रुचि रखते हैं या जो सत्य स्वीकार करने और परमेश्वर का अनुसरण करने में समर्थ हैं, अगर वे कलीसिया में शामिल होते हैं और कलीसिया के सदस्य बनते हैं तो यह ऐसा कुछ नहीं है जिसे कोई भी व्यक्ति तय कर सकता है, यह परमेश्वर की संप्रभुता, व्यवस्थाओं और नियत करने के कारण होता है। चाहे परमेश्वर में विश्वास रखने में वे कुछ गुप्त उद्देश्य या लक्ष्य रखते हों या उनकी मानवता कैसी भी हो या उनकी शिक्षा का स्तर और सामाजिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो, परमेश्वर ही यह तय करता है कि वे कलीसिया में शामिल हो सकते हैं और उसके सामने आ सकते हैं—परमेश्वर ही द्वार की रखवाली करता है। क्या लोग उचित रूप से द्वार की रखवाली कर सकते हैं? (नहीं, वे नहीं कर सकते।) लोग इस मामले का फैसला नहीं कर सकते, यह लोगों की इच्छा पर निर्भर नहीं करता है। उदाहरण के लिए, जब तुम देखते हो कि कोई व्यक्ति चालाक है और समाज में उसका रुतबा है, तो तुम सोचते हो, “बहुत अच्छा होगा अगर यह व्यक्ति कलीसियाई अगुआ बनने के लिए परमेश्वर के घर आ सके। हमारी कलीसिया में ऐसे लोगों की कमी है।” लेकिन परमेश्वर उन्हें नहीं चाहता है; वह उन्हें प्रेरित नहीं करता है। जब दूसरे लोग उन्हें सुसमाचार का उपदेश देते हैं और उनके साथ परमेश्वर के वचनों की संगति करते हैं, तो उन्हें समझ नहीं आता है कि उन्होंने क्या सुना है। जब वे कुछ और चीज सुनते हैं, तो वे उसे गहराई से समझ पाते हैं; सिर्फ जब वे परमेश्वर के वचन सुनते हैं, तो वे समझ नहीं पाते हैं और बेवकूफों की तरह होते हैं—क्या फिर भी ऐसे लोग कलीसिया में प्रवेश कर सकते हैं? वैसे तो आशीषें प्राप्त करने में उन्हें दिलचस्पी होती है, लेकिन वे अपने दिलों को शांत नहीं कर पाते हैं और परमेश्वर के वचन और सत्य पर संगति सुनते समय शांत नहीं बैठ पाते हैं और दो या तीन धर्मोपदेश सुनने के बाद वे आना बंद कर देते हैं। ऐसे लोगों में कोई वास्तविक आस्था नहीं होती है, तो क्या उनके प्रति तुम्हारे अच्छे इरादों का कोई प्रभाव पड़ेगा? क्या तुम उन्हें कलीसिया में ला पाओगे? नहीं। इस पर अंतिम फैसला परमेश्वर का होता है। परमेश्वर कहता है कि उसे ऐसे लोग नहीं चाहिए और चाहे यह सेवा करने के लिए हो या कोई भूमिका निभाने के लिए, उसे वे लोग नहीं चाहिए। इसलिए, अगर तुम अच्छे इरादों से उन्हें अपने साथ घसीटकर ले भी आओ तो भी यह बेकार ही होगा और अंत में फिर भी उन्हें चले जाना पड़ेगा। वे कलीसिया के सदस्य नहीं बन सकते; चाहे कोई भी उन्हें अपने साथ घसीटकर ले आए, यह बेकार ही होगा। इस मामले का फैसला लोग नहीं कर सकते हैं; यह परमेश्वर द्वारा नियत किया गया है और परमेश्वर द्वार की रखवाली करता है। कुछ लोगों के पास सामाजिक रुतबा नहीं होता है, वे महत्वपूर्ण हस्तियाँ नहीं होते हैं और वे औसत काबिलियत वाले होते हैं और साधारण दिखते हैं, लेकिन वे काफी सादे और स्पष्टवादी होते हैं और उन्हें परमेश्वर में विश्वास के मामलों में दिलचस्पी होती है। चाहे उन्हें कितनी भी कठिनाइयाँ क्यों ना हों, उन्हें परमेश्वर से अलग नहीं किया जा सकता और उनमें बहुत ज्यादा जोश होता है—यह जोशीली ऊर्जा कुछ ऐसी है जिसे देखकर भाई-बहन खुश होते हैं और परमेश्वर भी इसे देखकर आनंदित होता है—और दरअसल परमेश्वर के आत्मा से प्रेरित होने के कारण ही वे इतने जोशभरे होते हैं। जब वे कलीसिया में प्रवेश करते हैं और देखते हैं कि कलीसिया में सभी लोग अच्छे लोग हैं, परमेश्वर के वचन को खाते और पीते हैं और हर रोज सत्य पर संगति करते हैं, तो वे इससे बेहद प्रोत्साहित होते हैं और महसूस करते हैं कि यही जीवन का सही मार्ग है, इसलिए वे सुसमाचार का उपदेश देना और अपने कर्तव्य करना शुरू कर देते हैं और परमेश्वर के अनुयायी बन जाते हैं। यह कौन तय करता है कि वे परमेश्वर में विश्वास रख सकते हैं? (परमेश्वर तय करता है।) यह परमेश्वर ही तय करता है। वे परमेश्वर में सिर्फ इसलिए विश्वास रख सकते हैं क्योंकि परमेश्वर उन्हें कलीसिया में प्रवेश करने की अनुमति देता है। अगर परमेश्वर कार्य न करे और उन्हें प्रेरित न करे तो वे परमेश्वर में विश्वास नहीं रख पाएँगे और अगर उन्हें जबरन कलीसिया में घसीटकर लाया गया तो उन्हें देर-सवेर वहाँ से चले जाना पड़ेगा। लोगों के जन्मजात गुणों में सत्य स्वीकार करने की कोई योग्यता नहीं होती है; यह सच्चाई कि वे सत्य से प्रेम कर सकते हैं और सत्य स्वीकार कर सकते हैं यह साबित करता है कि परमेश्वर उन पर कार्य करता है। अगर परमेश्वर उन पर कार्य करता है तो वे कलीसिया के सदस्य बन सकते हैं—यह सभी प्रकार के लोगों के कलीसिया में प्रवेश करने की पहली शर्त है, यह पहली शर्त यह है कि परमेश्वर उन्हें चाहता हो। चाहे वे कलीसिया में कोई भी भूमिका क्यों न निभाएँ, जो भी हो, परमेश्वर अपने घर के द्वार की रखवाली करता है। अगर वह उन्हें अंदर आने की अनुमति नहीं देता है तो वे द्वार के बाहर होते हैं; अगर वह उन्हें अंदर आने की अनुमति देता है तो वे द्वार के अंदर होते हैं। इसलिए, कलीसिया का सदस्य बनना कोई इतना आसान मामला नहीं है। जब यह प्रश्न आता है कि परमेश्वर द्वारा लोगों को स्वीकार करने के लिए विशेष रूप से कौन-से सिद्धांत आधार के रूप में कार्य करते हैं, तो यकीनन परमेश्वर के अपने खुद के सिद्धांत हैं। हम इस बात पर संगति नहीं करेंगे कि परमेश्वर किस प्रकार का व्यक्ति चाहता है और किस प्रकार का व्यक्ति नहीं चाहता है—यह बहुत ही पेचीदा है। मैं क्यों कहता हूँ कि यह पेचीदा है? परमेश्वर के पास इसके लिए एक योजना है कि कलीसिया में कौन प्रवेश करता है, वह किस अवधि के दौरान क्या भूमिका निभाता है और वह किस अवधि के दौरान कौन-सा कर्तव्य करता है या किस महत्वपूर्ण कार्य की जिम्मेदारी उठाता है और वह किस अवधि में परमेश्वर के घर की कार्य-जरूरतों और उसके कर्मचारियों की जरूरतों के अनुरूप है। परमेश्वर सिर्फ मौजूदा पल में कार्य करने के बजाय एक स्थूल और समग्र स्तर पर विनियमित और नियंत्रित करता है—यह बहुत ही पेचीदा मामला है और इसे थोड़े-से शब्दों में स्पष्ट रूप से नहीं समझाया जा सकता, इसलिए हम विवरणों में नहीं जाएँगे। संक्षेप में, कोई व्यक्ति परमेश्वर के घर के द्वार से प्रवेश कर सकता है या नहीं, इसका फैसला कोई व्यक्ति नहीं करता है; परमेश्वर इस पर संप्रभु है और वही इसकी व्यवस्था करता है। परमेश्वर के घर में प्रवेश करने के बाद सभी प्रकार के लोग सभी प्रकार के कर्तव्य करते हैं, सभी प्रकार की भूमिकाएँ निभाते हैं और सभी प्रकार के मार्गों पर चलते हैं। इन सभी विभिन्न तरह के लोगों में सभी तरह की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ होती हैं, चाहे वे अच्छी हों या बुरी, सकारात्मक हों या नकारात्मक, सक्रिय हों या निष्क्रिय—यह सब कुछ परमेश्वर की संप्रभुता और शासन के अधीन है।

परमेश्वर की संप्रभुता का मतलब है कि उसके शासन के तहत हर चीज अपने स्वाभाविक ढर्रे के अनुसार घटित होती है; कोई भी घटना संयोग से नहीं होती है और हर घटना जिन गतिविधियों और बदलावों से गुजरती है वे किसी व्यक्ति द्वारा शुरू या तय नहीं किए जाते हैं—परमेश्वर इन सब पर संप्रभु है। यकीनन किसी भी घटना का अंतिम नतीजा और निरूपण भी उस प्रकार की घटना के सार और उसमें शामिल लोगों के प्रकार के सार पर आधारित होता है और घटना के निरूपण के लिए आधार पूरी तरह से परमेश्वर के वचन और परमेश्वर के अपेक्षित सिद्धांत हैं। किसी भी प्रकार की घटना संयोग से नहीं होती है और किसी भी प्रकार की घटना का अंतिम नतीजा लोगों द्वारा तय नहीं किया जाता है। दरअसल किसी भी प्रकार की घटना की शुरुआत परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित होती है और उत्पन्न की जाती है। जब परमेश्वर किसी प्रकार की घटना को उत्पन्न करता है, तो वह उसमें कार्य करने के लिए एक प्रकार के व्यक्ति की व्यवस्था करता है और उस प्रकार का व्यक्ति सेवाकर्मी या विषमता की भूमिका निभा सकता है, हो सकता है कि वह नकारात्मक भूमिका निभाए या वह सकारात्मक भूमिका निभाए। लेकिन चाहे वह कोई भी भूमिका क्यों न निभाए, इन सभी चीजों की शुरुआत परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित होती है। इस संबंध में परमेश्वर द्वारा व्यवस्थाएँ की जाने के दो स्पष्टीकरण हैं। एक स्पष्टीकरण यह है कि परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से कुछ सकारात्मक व्यवस्थाएँ करता है और कुछ सकारात्मक निर्देश और पर्यवेक्षण देता है और कुछ सकारात्मक व्यक्तियों से घटना की शुरुआत करवाता है—यह “परमेश्वर की व्यवस्थाओं” का एक स्पष्टीकरण है। दूसरा स्पष्टीकरण यह है कि परमेश्वर कुछ चीजें करने के लिए एक प्रकार की आत्मा को भेजता है। लोगों की नजर में ये चीजें नकारात्मक और दुष्ट हैं और इसलिए ये नकारात्मक और दुष्ट चरित्र निश्चित रूप से नकारात्मक व्यक्ति हैं, यानी, ऐसे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर शुरू से ही अपने घर में विषमताओं और नकारात्मक शिक्षण सामग्रियों के रूप में प्रवेश करने के लिए नियत करता है। परमेश्वर उन्हें ये भूमिकाएँ निभाने के लिए कहता है क्योंकि वे अपने प्रकृति सार से सिर्फ यही भूमिकाएँ निभा सकते हैं और वह उन्हें जी भरकर निर्वहन करने देता है और उन्हें जी भरकर वह करने देता है जो उन्हें विषमताओं के रूप में करना चाहिए। पूरी प्रक्रिया के दौरान, चाहे यह सकारात्मक व्यक्तियों की अभिव्यक्तियाँ हों या नकारात्मक व्यक्तियों की, इन सभी मामलों को देखने और उन्हें सँभालने में परमेश्वर का सिद्धांत उन्हें उनके स्वाभाविक ढर्रे पर आगे बढ़ने देता है। इन मामलों को देखने और उनसे निपटने में सकारात्मक व्यक्तियों के कुछ सकारात्मक दृष्टिकोण होते हैं और कुछ ऐसे दृष्टिकोण होते हैं जो मानवता के साथ और जमीर के मानक के अनुरूप होते हैं। भले ही उनमें से कुछ लोग कुछ भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हों—उनमें खुशामदी होने की कुछ अभिव्यक्तियाँ होती हैं या वे कुछ दूसरे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं—कम-से-कम वे मानवता के जमीर और विवेक को पकड़े रहते हैं, यानी, वे आचरण करने के लिए मूलभूत आधाररेखा को पकड़े रहते हैं। और जब नकारात्मक व्यक्तियों की बात आती है, तो वे जो भी चीज करते हैं उसमें परमेश्वर दखल नहीं देता है या उसका मार्गदर्शन नहीं करता है, बल्कि वह उन्हें उनके प्राकृतिक ढर्रे का अनुसरण करने देता है; वे भी जी भरकर निर्वहन करते हैं और अपने घिनौनेपन को उजागर करते हैं और जी भरकर कुछ चीजें करते हैं। वे सफलतापूर्वक उन नकारात्मक व्यक्तियों, यानी, कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों की भूमिकाएँ निभाते हैं जिन्हें परमेश्वर उजागर करता है जिससे दूसरे लोग वास्तविक जीवन में स्पष्ट रूप से यह देखने में सक्षम बन जाते हैं कि किस तरह के लोग दानव हैं, किस तरह के लोग कुकर्मी हैं, किस तरह के लोग मसीह-विरोधी हैं और वास्तव में उन मसीह-विरोधियों, कुकर्मियों, शैतानों और दानवों के घिनौने चेहरे कैसे होते हैं जिन्हें परमेश्वर उजागर करता है। अगर इन नकारात्मक व्यक्तियों को वास्तविक जीवन में जीती-जागती शिक्षण सामग्रियों के रूप में उपयोग नहीं किया जाता, तो तुम्हारे मन में दानव और शैतान हमेशा के लिए अमूर्त बने रह जाते और हमेशा के लिए सिर्फ एक अटकल या तस्वीर बने रह जाते। लेकिन अब ये जीते-जागते उदाहरण तुम्हारी आँखों के ठीक सामने रखे गए हैं और मानव खाल पहने ये दानव तुम्हारी अपनी आँखों के सामने स्पष्ट रूप से जी रहे हैं और उनकी बातें और आचरण, उनका हर शब्द और क्रियाकलाप, उनके चेहरे की अभिव्यक्तियाँ और यहाँ तक कि उनकी आवाज का लहजा, सब कुछ तुम्हारे जीवन में स्पष्ट रूप से ठीक तुम्हारे सामने दिखाई देते हैं और तुम्हारे मन में अंकित हो जाते हैं। यह तुम्हारे लिए कोई बुरी चीज नहीं है। इस तरह की चीज कलीसिया में बार-बार होती है। पहली बार ऐसा होने पर तुम बेचैन हो जाते हो और सोचते हो कि तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करने की जरूरत है। दूसरी बार ऐसा होने पर तुम सोचते हो, “मुझे अपनी रक्षा करने के लिए सत्य का उपयोग करना सीखना होगा और अगली बार जब मेरे सामने इस तरह का व्यक्ति आए, तो मुझे उससे बचना होगा,” और तुम यह सोचना शुरू कर देते हो कि अपने आप को कैसे बचाना है और कुकर्मियों से कैसे दूर रहना है। तीसरी बार जब इस तरह का व्यक्ति दिखाई देता है, तो तुम सोचते हो, “ये लोग बिल्कुल बड़े लाल अजगर की तरह, शैतान की तरह क्यों बोलते हैं? क्या वे जो चीजें कहते हैं वे गुमराह करने वाली नहीं हैं? क्या वे कुकर्मी नहीं हैं? ऐसा लगता है कि परमेश्वर के वचनों ने कहा है कि ये अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करने वाले लोग मसीह-विरोधी होते हैं। मुझे उनका भेद पहचानना चाहिए और उन्हें उजागर करना चाहिए, मैं उनके द्वारा गुमराह नहीं हो सकता और मुझे उनसे दूर रहना चाहिए।” इस तरह की चीजें बार-बार अनुभव करके तुम मसीह-विरोधियों, कुकर्मियों, शैतानों और दानवों का भेद पहचानने की और गड़बड़ियाँ और बाधाएँ क्या होती हैं इसकी ज्यादा स्पष्ट और ज्यादा गहन समझ प्राप्त करते हो। तुम्हारी समझ अब शब्दों और धर्म-सिद्धांतों पर नहीं रुक जाती है और छवियों पर तो बिल्कुल भी नहीं रुकती। बल्कि तुम वास्तविक जीवन में इन चीजों को पहचान लेने में ज्यादा-से-ज्यादा समर्थ होते जा रहे हो और साथ ही, तुम सत्य का उपयोग करते हुए इन लोगों को देख पा रहे हो और ये जो चीजें हुई हैं उन्हें सत्य का उपयोग करते हुए हल कर पा रहे हो। यकीनन जब ये चीजें होती हैं, तो तुम भी लगातार अपने विचारों और दृष्टिकोणों को सही कर रहे होते हो, यह सोचते हो कि इन लोगों के प्रति तुम्हें कौन-सा दृष्टिकोण अपनाना चाहिए, तुम्हें उन्हें किस परिप्रेक्ष्य से देखना चाहिए और तुम्हें उनके साथ किस तरह का रिश्ता बनाए रखना चाहिए। जब तुम इन चीजों का सामना करोगे, तो तुम अनजाने में इन मुद्दों पर चिंतन करोगे, उत्तर ढूँढ़ने और निष्कर्ष निकालने के लिए लगातार सत्य की तलाश करोगे और अंत में कुछ प्राप्त करोगे। इस प्रक्रिया के दौरान परमेश्वर बस लोगों को सत्य प्रदान करता है और उन्हें सत्य समझने में सक्षम बनाता है, चाहे यह सत्य पर संगति करना हो या लोगों को उन चीजों में सत्य समझने में सक्षम बनाना हो जो उनके साथ होती हैं—कुल मिलाकर, परमेश्वर इस परिस्थिति के उत्पन्न होते ही इसे तुरंत समाप्त नहीं कर देता है। अगर यह चीज जरूर घटित होनी चाहिए और यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश और कलीसिया के कार्य के लिए फायदेमंद है, तो परमेश्वर इसे लोगों के साथ घटित होने देगा और वह इसे नहीं रोकेगा, बल्कि इसे इसके प्राकृतिक ढर्रे के अनुसार आगे बढ़ने देगा। इस तरीके से कार्य करने में परमेश्वर का उद्देश्य एक लिहाज से लोगों को हटाना है और दूसरे लिहाज से लोगों को पूर्ण बनाना है। यकीनन लोगों को हटाने में वह निश्चित रूप से उन लोगों को लक्षित करता है जो विषमताओं के रूप में कार्य करते हैं और सेवा करने के लायक भी नहीं हैं, जबकि लोगों को पूर्ण बनाने में वह अपने चुने हुए लोगों को लक्षित करता है—उनमें से वे जो सत्य का अनुसरण करने को तैयार हैं। इसका दोहरा महत्व है। एक महत्व यह है कि वे जो तमाशा दिखाते हैं उसके जरिये कुकर्मी बेनकाब किए जाते हैं, हटाए जाते हैं और कलीसिया से बाहर निकाल दिए जाते हैं। दूसरा महत्व यह है कि इन कुकर्मियों द्वारा धीरे-धीरे तमाशा दिखाने और विषमताओं के रूप में कार्य करने की प्रक्रिया में परमेश्वर के चुने हुए लोग भेद पहचानने में और परमेश्वर के वचनों में सत्य समझने में सक्षम बनते हैं; इस तरह से परमेश्वर व्यावहारिक तरीके से लोगों में सत्य शामिल करता है—यानी, परमेश्वर जिन सभी प्रकार के कुकर्मियों, मसीह विरोधियों, शैतानों और दानवों को उजागर करता है वह उनके दुष्ट सार की सभी विभिन्न अभिव्यक्तियों को लोगों के वास्तविक जीवन में प्रदर्शित होने की अनुमति देता है और यह लोगों को विभिन्न प्रकार के दुष्ट, घिनौने और नकारात्मक व्यक्तियों, घटनाओं और चीजों की स्पष्ट समझ और ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम बनाता है। उदाहरण के लिए, मान लो कि परमेश्वर तुमसे कहता है, “तुम अपने हाथों से जलते कोयले नहीं छू सकते; तुम्हारी उंगलियाँ जल जाएँगी और उनमें दर्द होगा।” तुम्हें नहीं पता कि जलते कोयले कैसे दिखते हैं, तुम्हें नहीं पता कि उन्हें छूने पर कैसा महसूस होता है और जब वह तुम्हें यह बताता है, तो तुम जो समझते हो वह एक धर्म-सिद्धांत है। फिर कुछ लोग कल्पना करते हैं कि जलता कोयला एक गेंद या एक लंबी पट्टी है। और जलते कोयलों का रंग कैसा होता है? उन्हें छूने पर कैसा महसूस होता है? उन्हें छूने का दर्द कैसा होगा? तुम्हें नहीं पता। जलते कोयलों के बारे में तुम्हारा विचार सिर्फ उसी चीज की एक तस्वीर है जो तुम्हारा मन कल्पना करने में समर्थ है और इसका वास्तविक चीज से कभी भी कोई लेना-देना नहीं होगा। इसलिए, एक दिन जब परमेश्वर जलते कोयलों की एक ट्रे बाहर निकालता है और उसे तुम्हारे सामने रखता है, तो तुम उन्हें नहीं पहचानते हो और तुम्हें बस महसूस होता है कि वे बहुत गर्म लगते हैं। तुम यह मालूम करने के लिए डरते-डरते अपना हाथ उनकी तरफ बढ़ाते हो कि क्या उन्हें छूने पर तुम्हारी उँगलियों को गर्म लगेगा। परमेश्वर कहता है, “तुम यह करके देख सकते हो, लेकिन उन्हें बहुत ज्यादा देर तक मत छूना, नहीं तो उनसे तुम्हारी चमड़ी जल जाएगी।” कुछ लोग बेवकूफ हैं—वे अपनी पाँचों उंगलियाँ फैलाते हैं और एक कोयला पकड़ लेते हैं और उनका पूरा हाथ जल जाता है और उस पर छाले पड़ जाते हैं। दूसरे लोग होशियार और सावधान हैं—वे बस एक उँगली बढ़ाते हैं और कोयले को हल्के से छूते हैं और एक सेकंड पूरा होने से पहले ही पीछे हट जाते हैं, वे कहते हैं, “ओह, यह बहुत ही गर्म है! यह तो वाकई जल रहा है!” चाहे इसे छूने के लिए तुम पाँच उँगलियों का उपयोग करो या एक उँगली का, कुछ भी हो, तुम जो छूते हो वह कोई छवि या शब्दों के बजाय एक वास्तविक चीज है और तुम जीवन भर जलते कोयले छूने की भावना, अनुभव और इस बात को कभी नहीं भूलोगे कि तुम्हारे लिए जलते कोयलों का क्या मतलब है। जब तुम फिर से जलते कोयले देखोगे, तो तुम दूसरों से कहोगे : “तुम गर्माहट पाने, कपड़े सुखाने और पावरोटी सेंकने के लिए उनका उपयोग कर सकते हो, लेकिन तुम्हें उन्हें अपने हाथों से कभी नहीं छूना चाहिए। अगर तुमने उन्हें छुआ तो तुम जल जाओगे और तुम्हारे हाथों पर छाले पड़ जाएँगे।” लोग कह सकते हैं : “तो अगर मैं जल गया और मेरे हाथों पर छाले पड़ गए तो क्या होगा?” और तुम जवाब दोगे : “कम-से-कम तुम अपने हाथों से चीजें नहीं पकड़ पाओगे और तुम्हारे लिए खाना खाना भी असुविधाजनक होगा और शारीरिक कार्य करना तो और भी असुविधाजनक हो जाएगा।” यह अनुभव से बोलना है, है ना? उस गहन अनुभव के बाद गर्म कोयलों की जलन तुम्हारी याददाश्त में गहराई से अंकित हो जाएगी और इसलिए तुम फिर कभी जलते कोयले आसानी से नहीं छूओगे। परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभु है और लोगों के साथ सभी प्रकार की चीजें होने की व्यवस्था करता है ताकि वे उनसे सबक सीख सकें और फायदे प्राप्त कर सकें और ताकि वह लोगों को जो सत्य और वचन प्रदान करता है उन्हें सही मायने में उनमें शामिल किया जा सके और इस प्रकार परमेश्वर के वचन और सत्य अब लोगों के दिलों में धर्म-सिद्धांत, नारे या विनियम बनकर नहीं रहते हैं, बल्कि उनका जीवन बन जाते हैं और ऐसे सिद्धांत और कसौटी बन जाते हैं जिन पर वे जीवित रहने के लिए निर्भर करते हैं और जो उनके जीवन का एक हिस्सा होते हैं—इस तरह से परमेश्वर का कार्य अपना प्रभाव प्राप्त कर चुका होगा।

जब परमेश्वर की संप्रभुता के मामले की बात आती है, तो लोगों को यह देखना चाहिए कि परमेश्वर किसी घटना की शुरुआत की व्यवस्था करता है, फिर उसके आगे बढ़ने के ढर्रे का मार्गदर्शन और अगुआई करता है; जहाँ तक यह बात है कि अंत में इस घटना का क्या नतीजा होता है, सत्य का अनुसरण करने वाले लोग इससे क्या प्राप्त करते हैं और कितना प्राप्त करते हैं, यह घटना और इसमें शामिल लोग और चीजें अंत में कहाँ पहुँचती हैं और अंत में उन्हें कैसे व्यवस्थित किया जाता है, तो यकीनन ये भी परमेश्वर द्वारा ही निर्धारित किए जाते हैं—यह सभी चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता का सिद्धांत है। परमेश्वर हर घटना की सिर्फ शुरुआत, प्रक्रिया और नतीजा पूर्वनिर्धारित करता है और वह पूरी घटना को उस दिशा में मुक्त भाव से आगे बढ़ने देता है जिसे उसने निर्धारित किया है, इसका उद्देश्य हर चीज को प्राकृतिक ढर्रों के अनुरूप बनाना या हर चीज को किसी विकृति या प्रसंस्करण से गुजारे बिना अपना कार्य करने देना है ताकि वह प्रभाव प्राप्त हो जिसे परमेश्वर प्राप्त करने का इरादा रखता है। क्या यह ऐसा नहीं है? (हाँ।) उदाहरण के लिए, जब परमेश्वर किसी घटना के शुरू होने और घटित होने की व्यवस्था करता है, तो वह यह देखना शुरू कर देता है कि इस घटना के संपर्क में आने वाले लोगों के रवैये क्या हैं और इसके प्रति उनके नजरिये क्या हैं—चाहे वे इसे बड़े ध्यान से देखें या इस पर ध्यान देने में उन्हें दिलचस्पी न हो और चाहे वे इसमें अपने दिल से शामिल हों या इसे अस्वीकार कर दें, इसका प्रतिरोध करें और इससे बचें—परमेश्वर विभिन्न प्रकार के लोगों की अभिव्यक्तियाँ देख रहा है। तो क्या परमेश्वर विभिन्न प्रकार के लोगों की अभिव्यक्तियों में दखल देता है? परमेश्वर दखल नहीं देता है। परमेश्वर तुम्हें मुक्त भाव से चुनने का अधिकार देता है। तुम इस घटना को बहुत महत्वपूर्ण मान सकते हो और इस बारे में बहुत उत्साही हो सकते हो या तुम इसे नजरअंदाज करने और इसके प्रति बेपरवाह होने का रवैया अपना सकते हो और यकीनन तुम इससे दूर रहने, इससे बचने और इसमें हिस्सा नहीं लेने का रवैया भी अपना सकते हो—परमेश्वर बस चुपचाप देखता है। लेकिन पूरी घटना का प्रकट होना और घटित होना परमेश्वर द्वारा शुरू किया जाता है। यह किसी घटना पर परमेश्वर की संप्रभुता का शुरुआती चरण है। जब यह घटना आगे बढ़ने लगती है, तो जहाँ तक यह बात है कि इसमें कौन-से लोग हिस्सा लेते हैं, इसमें कौन-से लोग शामिल होते हैं और एक बार जब वे इसमें शामिल हो जाते हैं, तो उसके बाद यह घटना किस दिशा में आगे बढ़ती है, तो यकीनन परमेश्वर ही इन सभी लोगों को चलाता है और व्यवस्थित करता है ताकि यह घटना उस दिशा में और उस प्रभाव के साथ आगे बढ़े जो परमेश्वर चाहता है। उसी तरह से जब यह घटना सबके सामने आती है और पूरा मामला चरम सीमा तक पहुँच जाता है, तब भी परमेश्वर विभिन्न प्रकार के लोगों के रवैयों, अभिव्यक्तियों, राय और नजरियों को देख रहा होता है। वह देख रहा होता है कि क्या तुम इस घटना से वाकई बहुत ज्यादा प्रभावित होते हो, क्या तुम इस घटना के बारे में अत्यधिक गंभीर, कठोर और उत्साही हो या तुम इसके प्रति उदासीन हो, इसे नजरंदाज करते हो और इसके प्रति बहुत ही ज्यादा सुन्न हो या इसके प्रति टालमटोल और नफरत का रवैया अपनाते हो। वह यह मालूम करने के लिए देख रहा है कि क्या तुम सत्य से प्रेम करने वाले व्यक्ति हो और क्या तुम कोई ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर के वचनों, परमेश्वर की अपेक्षाओं और सत्य की बात आने पर उत्साही होता है। पूरी घटना के आगे बढ़ने की प्रक्रिया में तुम्हारा रवैया ज्यादा-से-ज्यादा स्पष्ट होता जाता है और परमेश्वर सत्य के प्रति तुम्हारे रवैये और उसके द्वारा व्यवस्थित परिवेशों के प्रति तुम्हारे रवैये को ज्यादा स्पष्टता से देखता है और वह सत्य का अनुसरण करने के प्रति तुम्हारे रवैये को भी स्पष्ट रूप से देखता है। जब पूरी घटना आगे बढ़कर अपनी समाप्ति तक पहुँचती है और उसका अवश्यंभावी नतीजा आ जाता है, तब भी परमेश्वर देख रहा होता है कि तुमने पूरी घटना से क्या प्राप्त किया है, तुम अपने मन में क्या सोच रहे हो और तुम क्या हिसाब लगा रहे हो। वह यह अच्छी तरह से देख रहा होता है कि क्या तुम इस घटना से सिर्फ अनुभव प्राप्त करने और सबक सीखने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हो ताकि अपनी रक्षा कर सको—क्योंकि तुम खुशामदी हो—या क्या तुम सत्य सिद्धांतों के अनुसार चीजें करते हो और अब उस तरह से उलझन में नहीं हो जैसे पहले थे। परमेश्वर यह भी अच्छी तरह से देखेगा कि इस घटना के प्रति तुम्हारा क्या रवैया है, क्या तुम चुप रहते हो और कोई नजरिया व्यक्त नहीं करते, ऐसी हर चीज से अलग-थलग रहते हो जो तुम्हें व्यक्तिगत रूप से प्रभावित नहीं करती है या क्या इस घटना से सामना होने में तुममें न सिर्फ स्पष्ट समझ की कमी है, बल्कि परमेश्वर के बारे में तुम्हारी गलतफहमियाँ और शिकायतें भी ज्यादा गंभीर हो गई हैं और तुमने उसके बारे में और भी ज्यादा धारणाएँ और कल्पनाएँ बना ली हैं, यहाँ तक कि तुम इससे बचने की चाह भी रखने लगे हो। जब सभी प्रकार की घटनाएँ घटती हैं, तो विभिन्न प्रकार के लोगों के अलग-अलग विचार और नजरिये होते हैं और परमेश्वर उन सभी को देख रहा और रिकॉर्ड कर रहा होता है। किसी भी वर्ष में, किसी भी दिन और किसी भी घंटे, मिनट या सेकंड तुम क्या सोच रहे हो, तुम क्या कह रहे हो, तुम क्या हिसाब लगा रहे हो, तुम क्या योजना बना रहे हो, तुम सत्यों का कौन-सा पहलू समझते हो, जब कोई व्यक्ति सत्य के किसी पहलू के बारे में संगति करता है, तो तुम्हारा क्या रवैया होता है, क्या तुम इसका प्रतिरोध करते हो और इसके प्रति विमुख हो और इसे सुनना नहीं चाहते या अपने भाग निकलने की योजना बनाते हो—परमेश्वर इन सभी चीजों की पड़ताल करता है। कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनका कलीसिया में, परमेश्वर के घर में या अपने आस-पास दिखाई देने वाले लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति कभी कोई रवैया नहीं होता है, जो बेवकूफों की तरह सुन्न और मंदबुद्धि होते हैं। वे बस अपने नजरियों से चिपके रहते हैं, सोचते हैं : “जब तक मैं बुराई नहीं करता और गड़बड़ियाँ और बाधाएँ उत्पन्न नहीं करता या दूसरों के बारे में राय नहीं बनाता और मैं किसी व्यक्ति, घटना या चीज से सामना होने पर कोई टिप्पणी नहीं करता या कोई रवैया या नजरिया नहीं रखता और मैं बस एक मशीनी मानव की तरह कार्य करता हूँ और अच्छी तरह से अपना कर्तव्य करता हूँ और नियमों का पालन करते हुए अच्छी तरह से श्रम करता हूँ, तो यह पर्याप्त है।” यह भी एक तरह का विचार और नजरिया है। यकीनन परमेश्वर इस तरह के विचार और नजरिये को देखेगा और रिकॉर्ड करेगा। सभी चीजों और घटनाओं पर और लोगों के आस-पास होने वाली हर विशेष चीज पर परमेश्वर की संप्रभुता का उद्देश्य लोगों के लिए परिवेश बनाना और उन्हें जीती-जागती शिक्षण सामग्री प्रदान करना है ताकि सभी तरह की चीजों का सामना करते समय विभिन्न प्रकार के लोग अपना सबसे सच्चा पक्ष दिखाएँ और अपने सबसे सच्चे विचार और नजरिये दिखाएँ और परमेश्वर और सत्य के प्रति अपना सबसे सच्चा रवैया दिखाएँ। लोगों के ये रवैये पूरी तरह से आजादी और प्रतिबंधों से मुक्ति की स्थिति में अभिव्यक्त होते हैं। परमेश्वर कभी बीच में नहीं आता है, दखल नहीं देता है या हेरा फेरी नहीं करता है, वह बस विभिन्न प्रकार के लोगों को जी भरकर और अपने प्राकृतिक ढर्रे के अनुसार अपने विचारों, नजरियों और रवैयों को व्यक्त करने की अनुमति देता है और अंत में विभिन्न प्रकार के लोगों को उनकी अभिव्यक्तियों के अनुसार बेनकाब करता है और उनके साथ पेश आता है। “विभिन्न प्रकार के लोगों” में कौन शामिल है? परमेश्वर विभिन्न प्रकार के लोगों के लिए क्या व्यवस्थाएँ करता है? परमेश्वर सत्य से प्रेम करने वालों को सत्य प्राप्त करने में सक्षम बनाता है; वह उन लोगों को सक्षम बनाता है जिन्हें सत्य में दिलचस्पी तो नहीं है लेकिन वे ऐसा करने पर पूरा ध्यान देने के लिए श्रम करने को तैयार हैं; जहाँ तक उन लोगों की बात है जो सत्य से नफरत करते हैं और उससे विमुख हैं, परमेश्वर सत्य से विमुख होने के उनके रवैये को बेनकाब करता है, लेकिन अगर वे सेवा करने पर पूरा ध्यान दे सकते हैं या सेवा करने के लिए उपयुक्त हैं, तो परमेश्वर इन बेहतर लोगों को चुनेगा और उन्हें सेवा करने का हकदार बनाएगा, जबकि अगर वे सेवा करने के लिए उपयुक्त नहीं हैं या वे इस हद तक सत्य से विमुख हैं कि वे गड़बड़ियाँ और बाधाएँ उत्पन्न कर सकते हैं, तो जब समय और अवसर सही होगा, तब परमेश्वर उन्हें बाहर निकाल देगा। परमेश्वर द्वारा किया जाने वाला यह सारा कार्य लोगों की धारणाओं के साथ असंगत है, है ना? (हाँ।) क्या लोग इस सब में परमेश्वर की सहनशीलता और सुंदरता देख पाते हैं? (इन चीजों से हम देख सकते हैं कि इस व्यावहारिक कार्य के जरिये परमेश्वर लोगों को अनुभव करने की तरफ ले जाता है और इस सारे कार्य के पीछे मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम है।) इस कार्य में परमेश्वर के श्रमसाध्य इरादे, उसके कार्य की बुद्धिमत्ता और उन मनुष्यों के प्रति उसका जिम्मेदार रवैया है जिन्हें वह बचाना चाहता है। एक दूसरा पहलू यह है कि परमेश्वर की वस्तुएँ और अस्तित्व ऐसी चीजें नहीं हैं जो मनुष्यों के पास हैं। परमेश्वर जो भी चीज करता है उसमें अत्यधिक कठोर और उत्साही है और कभी भी लापरवाह नहीं होता है। विशेष रूप से जब लोगों द्वारा सत्य प्राप्त करने के मामले की बात आती है, तो वह अत्यधिक कठोर और उत्साही होता है; लोगों के जीवन और उनके परिणामों की जिम्मेदारी लेने के लिए परमेश्वर को इस तरह से कार्य करना ही चाहिए। यकीनन परमेश्वर के लिए यह ठीक वैसा ही है जैसा उसका सार और उसकी वस्तुएँ और उसका अस्तित्व है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि अपने जीवन के प्रति, अपने परिणाम और गंतव्य के प्रति तुम्हारा क्या रवैया है, चाहे यह गंभीर और कठोर रवैया हो या लापरवाह रवैया हो, कुछ भी हो, परमेश्वर के लिए, चूँकि उसने तुम्हें चुना है और चूँकि वह तुम्हें सत्य प्रदान करता है और तुम्हें बचाना चाहता है, वह हर चीज में तुम्हारे हर शब्द और क्रियाकलाप को और तुम्हारे रवैयों को पूरी तरह से गहराई से समझेगा और अंत में तुम्हारे सभी रवैयों के आधार पर तुम्हारा परिणाम निर्धारित करेगा। और तुम्हारे सभी रवैयों के आधार पर वह यह ध्यान से देखेगा कि क्या अंत में तुम सत्य प्राप्त करने वाले व्यक्ति बनोगे और एक ऐसे व्यक्ति बनोगे जो परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उसके साथ संगत होने में समर्थ होगा। हो सकता है कि तुम कभी भी परमेश्वर द्वारा लोगों को बचाने के मामले को लेकर उत्साही नहीं रहे हो, इस पर कभी ध्यान से चिंतन नहीं किया हो और यह नहीं जानते कि परमेश्वर लोगों को कैसे बचाता है। लेकिन ऐसे सृष्टिकर्ता के रूप में जो सृजित मनुष्यों पर संप्रभु है, वह मनुष्यों की तरह भ्रमित और उलझन में फँसा हुआ नहीं है; वह मानवजाति को बचाने का कार्य गंभीर ढंग से करता है। उसने तुम्हें बनाया और तुम्हें चुना। उसने लोगों से वादा किया कि वह उन्हें पूरी तरह से बचाएगा, इसलिए वह यह कार्य पूरा करेगा और अंत तक जिम्मेदार रहेगा। इसलिए, परमेश्वर द्वारा अपने कार्य को पूरा करने और अंत तक जिम्मेदारी लेने में वास्तविक अभिव्यक्तियाँ और वास्तविक कार्य विषय-वस्तु हैं। परमेश्वर इसी तरह से कार्य करता है और यह उसका ईमानदार और उत्साही रवैया है। परमेश्वर तुम्हारे प्रति लापरवाह नहीं होगा या किसी नारे से तुम्हें टालेगा नहीं और विशेष रूप से परमेश्वर का कार्य लोगों को बचाने के लिए परमेश्वर द्वारा चुकाई जाने वाली वास्तविक कीमत को और लोगों के प्रति उसके जिम्मेदार रवैये को बेहतर ढंग से दर्शाता है।

एक बार जब लोग परमेश्वर द्वारा लोगों के उद्धार के सिद्धांतों और उद्देश्य को और हर चीज पर परमेश्वर की संप्रभुता को समझ जाएँगे, तो क्या इस संबंध में परमेश्वर के बारे में उनकी धारणाएँ और कल्पनाएँ कुछ हद तक हल नहीं हो जाएँगी? (हाँ।) लोगों को इस संबंध में क्या समझना चाहिए? वह यह कि चाहे ऐसा सभी प्रकार के मामलों में हो या एक विशिष्ट मामले में कि परमेश्वर संप्रभुता रखता है, लोगों का सहयोग 80 या 90 प्रतिशत के लिए जिम्मेदार है और परमेश्वर की नजर में उनके विचार और नजरिये और संबंधित मामले के प्रति उनके रवैये बहुत महत्वपूर्ण हैं। यह मत सोचो कि अगर तुम कुछ नहीं कहते हो और जब तुम्हारे साथ चीजें होती हैं तो तुम अपना रुख नहीं दिखाते हो, तो परमेश्वर तुम पर कोई ध्यान नहीं देगा और तुम्हें नजरंदाज कर देगा। अगर तुम चाहते हो कि परमेश्वर तुम्हे नजरअंदाज करे, तो तुम्हारे लिए परमेश्वर में विश्वास नहीं रखना ही बेहतर होगा। चूँकि तुम परमेश्वर के घर में हो और चूँकि परमेश्वर ने तुम्हें चुना है, इसलिए परमेश्वर तुम्हें बिल्कुल भी नजरंदाज नहीं करेगा। परमेश्वर की नजर में सभी चीजों की पड़ताल की जाती है, तुम्हारी तो और भी ज्यादा, जो एक छोटा-सा व्यक्ति है। अगर तुम चींटी भी होते, तो भी अगर तुम्हें परमेश्वर ने चुना होता, तो परमेश्वर तब भी लगातार तुम्हारी पड़ताल करता रहता और तुम्हारी अगुआई करता रहता। चूँकि परमेश्वर तुम्हारी पड़ताल करता है, इसलिए तुम्हें उन चीजों को बस स्वीकार कर लेना होगा जो तुम्हारे साथ होती हैं। उनसे मत बचो—बचना बुद्धिमानी भरा चयन नहीं है। तुम्हें उनका सामना करना चाहिए। सिर्फ जब तुम उनका सामना करोगे और एक स्पष्ट रवैया रखोगे, तभी तुम्हें उसके द्वारा तुम्हारे लिए व्यवस्थित परिवेशों में वे सत्य प्राप्त करने का अवसर मिलेगा जिन्हें परमेश्वर तुम्हें समझने देता है, जबकि उनसे बचने से तुम अपनी चुप्पी में सत्य समझने में सक्षम नहीं बनोगे। दर्शनों से संबंधित सत्यों के अलावा दूसरे सत्य—यानी मानव जीवन और अस्तित्व से संबंधित सभी प्रकार के सत्य—किसी परिवेश के जरिये या निर्वहन कर रहे एक प्रकार के व्यक्ति के व्यवहार के संदर्भ के जरिये व्यक्त किए जाते हैं। लोग इन सत्यों की वास्तविकताओं को सही मायने में सिर्फ तभी समझ पाते हैं जब वे वास्तविक अनुभव और समझ प्राप्त कर लेते हैं। ज्यादातर लोग इस बिंदु को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते हैं और विभिन्न प्रकार के सत्यों के प्रति उनका रवैया उदासीन होता है और वे लगातार इन परिवेशों से बचना भी चाहते हैं और वे वास्तविक समस्याओं के बारे में सत्य की तलाश नहीं करना चाहते हैं। वे न तो सत्य के आधार पर विभिन्न प्रकार के लोगों और घटनाओं का भेद पहचानना सीखते हैं और न ही वे विभिन्न समस्याओं को हल करने के लिए सत्य को लागू करने का प्रशिक्षण लेते हैं। चाहे उन पर कुछ भी क्यों न बीते, उनका कोई रवैया या नजरिया नहीं होता है और वे संगति और चर्चाओं में हिस्सा नहीं लेते हैं। वे सिर्फ परमेश्वर से प्रार्थना करने, परमेश्वर के वचनों को पढ़ने, भजन सीखने, हर रोज अपने कर्तव्य पूरे करने और बस इतने से ही संतुष्ट हो जाते हैं। मैं तुम लोगों को एक बात बताऊँगा, जो यह है कि मजदूर की विशेषताएँ यह होती हैं कि वह सिर्फ प्रयास करने को तैयार रहता है और उसे सत्य के किसी भी पहलू में कोई दिलचस्पी नहीं होती है या वह सत्य के किसी भी पहलू के बारे में उत्साही होने को तैयार नहीं रहता है और ऐसा करना उसे परेशानी वाली बात लगती है—यह मजदूर है। अगर तुम शैतान के सेवक नहीं हो या कुकर्मी या मसीह-विरोधी नहीं हो, तो ज्यादा-से-ज्यादा तुम सिर्फ मजदूर हो सकते हो। लेकिन यह परमेश्वर के लोगों के लिए अलग है जो उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। वे सिर्फ श्रम करने और थोड़ा-सा प्रयास करने से संतुष्ट नहीं होते हैं, बल्कि सभी प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों में विभिन्न सत्य सीखते और समझते हैं और फिर इन सत्यों के आधार पर विभिन्न प्रकार के लोगों और घटनाओं को देखते हैं और उनसे निपटते हैं। इस तरह से विभिन्न सत्य धीरे-धीरे उनमें शामिल हो जाते हैं और वे धीरे-धीरे उनका जीवन बन जाते हैं और उनके क्रियाकलापों और आचरण के लिए सिद्धांत बन जाते हैं। सिर्फ जब सत्य तुम्हारा जीवन बन जाएगा, तभी तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में समर्थ होगे; नहीं तो यह प्रभाव प्राप्त नहीं किया जा सकता है। चीजों का अनुभव करने से मत डरो और लोगों का भेद पहचानने से मत डरो। यह कोई बुरी बात नहीं है कि सभी प्रकार की घटनाएँ घटित होती हैं और इस पर परमेश्वर संप्रभु है। जब परमेश्वर संप्रभु है और वह व्यवस्थाएँ करता है, तो तुम्हें किस बात का भय है? जब परमेश्वर संप्रभु है और वह व्यवस्थाएँ करता है, तो तुम्हारे लिए किसी घटना का घटित होना कम-से-कम दुर्भावनापूर्ण या प्रलोभन तो नहीं है। बल्कि, इसका यह उद्देश्य है कि तुम सबक सीखो, उन्नत बनाए जाओ और तुम्हें फायदा हो और यह उद्देश्य है कि तुम्हें पूर्ण बनाया जाए। अगर तुम परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर पाते हो, तुम्हारे साथ जो कुछ भी होता है उसे सकारात्मक शिक्षण सामग्रियों के रूप में देख पाते हो और सत्य की तलाश कर पाते हो और वे सबक सीख पाते हो जो तुम्हें सीखने चाहिए, तो सत्य स्वाभाविक रूप से और अलक्षित रूप से तुममें शामिल हो जाएगा और तुम्हारा जीवन बन जाएगा। इसलिए, ज्यादातर लोगों के लिए बेपरवाही, टालमटोल, हिस्सा नहीं लेने और दिलचस्पी नहीं लेने का रवैया अपनाना और विभिन्न घटनाओं का सामना करने पर नजरिये व्यक्त नहीं करना या संगति नहीं करना गलत है—यह अनुचित है। मैं क्यों कहता हूँ कि यह गलत और अनुचित है? यह रवैया परमेश्वर को दिखाता है कि तुम्हें उसके उद्धार या उसके अच्छे इरादों में दिलचस्पी नहीं है और तुम्हें परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने में दिलचस्पी नहीं है और तुम इस पर कोई ध्यान नहीं देते हो और इसे अस्वीकार करते हो। जब परमेश्वर यह देखता है कि तुम्हारा यह रवैया है, तो क्या वह फिर भी तुम्हें बचाना चाहेगा? और अगर परमेश्वर तुम्हें बचाना भी चाहे, तो भी वह तुम्हें कैसे बचा सकता है अगर तुम सहयोग न करो? जैसा कि कहावत है, “इस मामले में सुधार की कोई उम्मीद नहीं है,” और यह कहावत ठीक इसी प्रकार के व्यक्ति की बात करती है।

परमेश्वर की पूरी प्रबंधन योजना में, विशेष रूप से उसके कार्य के इस अंतिम चरण में उसने बहुत बड़ी तादाद में सत्य व्यक्त किए हैं और तुम उन सभी को सुन चुके हो। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुमने उनमें से कितनों का अनुभव किया है या कितनों को समझा है, कम-से-कम तुम उन्हें जानते हो, इसलिए परमेश्वर दखल देने और आसान बनाने का कोई अतिरिक्त कार्य नहीं करेगा। परमेश्वर बस तुम्हारे रवैये की और तुम्हारे साथ होने वाली हर चीज में तुम्हारे सहयोग की प्रतीक्षा करता है—वह तुम्हारा रवैया, तुम्हारे विचार, तुम्हारे लक्ष्य और तुम्हारे द्वारा अपनाया गया मार्ग देखना चाहता है। अगर हर बार जब तुम लोगों, घटनाओं या चीजों का सामना करते हो, तब परमेश्वर यह दर्ज करता है कि तुम्हारा कोई रवैया और कोई विचार नहीं है और तुम्हारे पास कहने के लिए हमेशा कुछ नहीं होता है, तो मुझे बताओ, क्या तुम बेवकूफ नहीं हो? किन लोगों के पास कहने के लिए हमेशा कुछ नहीं होता है? क्या ये वही लोग नहीं हैं जो बहरे, गूँगे, मंदबुद्धि या बेवकूफ हैं? परमेश्वर यह दर्ज करता है कि तुम्हारा कोई रवैया नहीं है, इसलिए जब अंत में वह तुम्हें अंक देगा, तो तुम्हें शून्य अंक ही मिलेंगे। जब तुम्हारे साथ कोई चीज होती है, तो परमेश्वर पूछता है, “क्या तुम कीमत चुकाने को तैयार हो?” और तुम कहते हो, “हाँ, मैं तैयार हूँ!” और वह पूछता है, “क्या तुम्हारे पास संकल्प है? क्या तुमने कोई शपथ ली है?” और तुम जवाब देते हो, “हाँ!” अगर तुम्हारे पास सिर्फ यह संकल्प है, लेकिन जब तुमसे पूछा जाता है कि इस परिवेश का अनुभव करके तुमने क्या प्राप्त किया है, तो तुम्हारे पास कहने के लिए कुछ नहीं होता है और तुमने अपने द्वारा अनुभव किए हर परिवेश से कुछ भी प्राप्त नहीं किया है, तो जब अंत में परमेश्वर तुम्हें अंक देगा, तो यह सिर्फ दो अंक ही होंगे। दो अंक क्यों? तुम्हारे उस जरा-से संकल्प के कारण तुम्हें दो अंक प्राप्त हुए हैं। मुझे बताओ, क्या तब तुम तबाह नहीं हो जाओगे? क्या तब भी तुम्हें उद्धार की उम्मीद होगी? उद्धार की उम्मीद तुम्हें खुद प्रयास करने से प्राप्त होती है। यह वह फल है जो तुम्हें सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलने का चयन करने के बदले में मिलता है। इसलिए चाहे तुम्हारे साथ कुछ भी क्यों न हो, उससे डरो मत या उससे बचो मत और अपने हाथों से अपना सिर छिपाकर कछुए की तरह अपने खोल में वापस मत लौट जाओ—बल्कि उसका सकारात्मक और सक्रिय रूप से सामना करो। अगर तुम डरपोक हो और चीजों से डरते हो और इस डर से तुम किसी भी चीज का आकलन देने की हिम्मत नहीं करते—चाहे वह किसी से भी संबंधित क्यों न हो—कि अगर तुमने कुछ गलत कह दिया तो दूसरे लोग तुम्हें उजागर कर देंगे और वे तुम्हारी असलियत देख लेंगे और तुम हमेशा डरते रहते हो और कभी हिस्सा नहीं लेते, तो इसका मतलब है कि तुम अपना मौका खो रहे हो! हो सकता है कि तुमने अपना कर्तव्य करने में बहुत सारी ऊर्जा लगाई हो, लेकिन सच्चाई यह है कि तुम बहुत पहले ही अपना परिणाम निर्धारित कर चुके हो। अंत में तुम्हें सिर्फ दो अंक ही मिलेंगे, तो क्या तुम दो अंकों वाले बेवकूफ नहीं हो? क्या दो अंक प्राप्त करना दो अंकों वाला बेवकूफ होने के बराबर नहीं है? और चूँकि तुम्हें सिर्फ दो अंक ही मिलेंगे, तो फिर क्या इस जीवनकाल के दौरान परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास व्यर्थ नहीं जाएगा? यह परमेश्वर के कार्य का अंतिम चरण है, अगर इस बार तुम्हारी आस्था व्यर्थ गई तो तुम्हारा परिणाम तय हो जाएगा। परमेश्वर फिर कभी मनुष्यों को बचाने का कार्य नहीं करेगा। यही आखिरी मौका है—अगर तुम अब भी इसके लिए प्रयास नहीं करते हो, इसे गँवा देते हो और तुम उद्धार प्राप्त नहीं कर पाते हो, तो यह कितना दुखद होगा! इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुमने कितने वर्ष परमेश्वर के कार्य का अनुभव किया है, तुम्हें कम-से-कम उत्तीर्ण होने लायक अंक तो प्राप्त करने ही होंगे, तब फिर भी तुम्हारे जिंदा बचने की उम्मीद रहेगी। अगर तुम्हारा श्रम मानक-स्तर का नहीं है और तुमने बहुत सारी गड़बड़ियाँ और बाधाएँ भी उत्पन्न की हैं तो तुमने बिल्कुल भी कोई फल प्राप्त नहीं किया होगा और तुम्हारे उद्धार प्राप्त करने की उम्मीद शून्य हो चुकी होगी। परमेश्वर जिस भी परिवेश की व्यवस्था करता है उसमें दर्शक मत बनो; प्रतिभागी बनो, उसका एक हिस्सा बनो। लेकिन एक सिद्धांत है जिसका कम-से-कम तुम्हें पालन करना चाहिए : बाधाएँ उत्पन्न मत करो। तुम भाग ले सकते हो और अपनी राय और आकलन व्यक्त कर सकते हो और भले ही तुम एक आम आदमी की तरह बोलते हो और सिर्फ शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन तुम्हें हर मामले में सत्य की तलाश करने, सत्य का अभ्यास करने और सत्य के प्रति समर्पण करने के सिद्धांत और इरादे से भाग लेना चाहिए—सिर्फ तभी तुम्हारे उद्धार की उम्मीद है। उद्धार की उम्मीद किस आधार पर स्थापित की जाती है? यह तुम्हारे द्वारा सत्य की तरफ प्रयास करने, सत्य पर सोच-विचार करने और हर मामला होने पर सत्य में मेहनत करने में समर्थ होने के आधार पर स्थापित की जाती है। तुम सिर्फ इसी आधार पर सत्य समझ सकते हो, सत्य का अभ्यास कर सकते हो और उद्धार प्राप्त कर सकते हो। लेकिन अगर मामले होने पर तुम हमेशा दर्शक बने रहते हो—कोई आकलन या विवरण प्रदान नहीं करते हो और कोई व्यक्तिगत राय व्यक्त नहीं करते हो—और किसी भी चीज पर तुम्हारा कोई विचार नहीं होता है या अगर कुछ विचार भी हों तो भी तुम उन्हें व्यक्त नहीं करते हो और तुम्हें पता नहीं होता है कि वे सही हैं या गलत हैं, तुम बस उन्हें अपने मन में तालाबंद करके रखते हो और उनके बारे में सोचते रहते हो, तो अंत में तुम सत्य प्राप्त किए बिना ही रह जाओगे। इस बारे में सोचो, यह तो एक बड़े भोज में बैठकर भूखे रहने जैसा है। क्या तुम दयनीय नहीं हो? अगर तुमने दस वर्षों से परमेश्वर के कार्य में विश्वास रखा है और इस पूरे समय में तुम दर्शक बने रहे हो या तुमने 20 या 30 वर्षों से विश्वास रखा है और इस पूरे समय में तुम दर्शक बने रहे हो तो अंत में जब तुम्हारे परिणाम निर्धारण का समय आएगा, तो परमेश्वर तुम्हारे रिकॉर्ड को दो अंक देगा और इसलिए तुम दो अंकों वाले बेवकूफ होगे और सत्य प्राप्त करने का अपना अवसर और बचाए जाने की अपनी उम्मीद खुद ही पूरी तरह से बर्बाद कर चुके होगे। अंत में तुम पर दो अंकों वाले बेवकूफ का ठप्पा लग जाएगा और तुम इसी के लायक होगे, है ना? (हाँ।) दो अंकों वाला बेवकूफ न होने के पीछे क्या राज़ है? (इसका राज़ है दर्शक न बनना।) दर्शक मत बनो। तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, तो फिर तुम्हें सत्य प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना चाहिए। कुछ लोग पूछ सकते हैं, “तो, क्या तुम मुझे हर चीज में भाग लेने के लिए कह रहे हो? लेकिन लोग तो कहते हैं, ‘दूसरे के फटे में टांग मत अड़ाओ।’” तुम्हें भाग लेने के लिए कहने का मतलब यह है कि तुमसे सत्य खोजने और उन चीजों से सबक सीखने के लिए कहा जा रहा है जिनका तुम सामना करते हो। मिसाल के तौर पर, जब तुम एक विशेष प्रकार के व्यक्ति से मिलते हो, तो तुम्हें उसकी अभिव्यक्तियों और उसकी की हुई चीजों के जरिए सूझ-बूझ प्राप्त करनी चाहिए। अगर वह सत्य का उल्लंघन करता है तो तुम्हें यह भेद पहचानना चाहिए कि उसने ऐसा क्या किया जो सत्य का उल्लंघन करता है। अगर दूसरे लोग कहते हैं कि यह व्यक्ति कुकर्मी है तो तुम्हें यह भेद पहचानना चाहिए कि उसने ऐसा क्या कहा और किया और उसके पास बुरे कर्मों की ऐसी कौन-सी अभिव्यक्तियाँ हैं जिनके कारण उसे बुरे व्यक्ति के रूप में निरूपित किया गया है। अगर दूसरे लोग कहते हैं कि यह व्यक्ति परमेश्वर के घर के हितों का बचाव नहीं करता है और इसकी कीमत पर बाहर के लोगों की मदद करता है तो तुम्हें इस बारे में पूछताछ करनी चाहिए कि यह व्यक्ति क्या कर रहा है। और पूछताछ करने के बाद सिर्फ इन बातों को जान लेना ही काफी नहीं है। तुम्हें यह भी सोचना पड़ेगा : “क्या मैं ऐसा कर सकता हूँ? अगर कोई मुझे याद न दिलाए तो शायद मैं भी यही चीजें कर सकता हूँ और तब क्या मेरा परिणाम भी उस व्यक्ति जैसा ही नहीं होगा? क्या यह खतरनाक नहीं होगा? खुशकिस्मती से परमेश्वर ने मुझे सावधान करने के लिए यह परिवेश तैयार किया है, जो मेरे लिए सबसे बड़ी सुरक्षा है!” इस पर सोच-विचार करने के बाद तुम्हें एक बात का एहसास होता है : तुम उस मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकते जिसका अनुसरण उस प्रकार का व्यक्ति कर रहा है, तुम उस प्रकार के व्यक्ति नहीं बन सकते और तुम्हें खुद को चेताना होगा। तुम चाहे जिन चीजों का भी सामना करो, तुम्हें उनसे सबक जरूर सीखना चाहिए। अगर ऐसी चीजें हैं जिन्हें तुम पूरी तरह से नहीं समझते हो और जो तुम्हें अपने दिल में अजीब-सी लगती हैं तो तुम्हें उनके बारे में प्रश्न पूछने चाहिए, उनके बारे में जानकारी हासिल करनी चाहिए और सत्य खोजकर मामलों की सही स्थिति का पता लगाना चाहिए। यह जिज्ञासा नहीं है; यह गंभीर होना है। गंभीर होने का मतलब औपचारिकताएँ पूरी करना या भीड़ के पीछे-पीछे चलना नहीं है—यह तो जिम्मेदारी लेने का रवैया है। समस्याओं के बारे में स्पष्टता प्राप्त करके और फिर उन्हें हल करने के लिए सत्य खोजकर ही भविष्य में उसी तरह की परिस्थिति का सामना करने पर तुम्हारे पास अभ्यास का एक मार्ग होगा, तुम सटीकता से अभ्यास करने में समर्थ होगे और तुममें शांत और सहज होने का एहसास होगा। तुम सभी मामलों में दूसरे लोगों का अनुसरण करने और हवा के रुख के साथ चलने के बजाय तथ्यों की सच्ची स्थिति को समझने का प्रयास करने, उनसे सत्य प्राप्त करने और लोगों और चीजों को देखने का तरीका सीखने के सिद्धांत के आधार पर गंभीर हो रहे हो। सिर्फ अपने क्रियाकलापों में गंभीर होकर ही तुम सत्य का अभ्यास करना और सिद्धांतों के आधार पर कार्य करना शुरू कर सकते हो। जो लोग गंभीर नहीं हैं, उनके दूसरे लोगों का अनुसरण करने और हवा के रुख के साथ चलने की संभावना है और इस तरह से उनके सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करने की संभावना रहती है। उदाहरण के लिए, मान लो कि कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य लगातार लापरवाह तरीके से करता है और इसलिए उसे उसका कर्तव्य करने के अयोग्य ठहरा दिया जाता है। तुम कहते हो, “वह ऊपरी तौर पर ठीक लगता था। मैंने यह कैसे नहीं देखा कि वह लापरवाह हो रहा है? क्या उसने मुझे गुमराह कर दिया था? वह किन तरीकों से कामचलाऊ ढंग से अपना कर्तव्य कर रहा था? उसने कौन-सी चीजें लापरवाह तरीके से कीं?” जब कोई और व्यक्ति तुम्हें उन कुछ तरीकों के बारे में बताता है जिनसे उस व्यक्ति ने लापरवाह ढंग से व्यवहार किया, तो तुम कहते हो, “वह व्यक्ति ढोंग करने में वाकई अच्छा है! वह ऊपरी तौर पर ठीक लग रहा था और उसने वाकई अच्छी चीजें कहीं। उसने कहा, ‘परमेश्वर ने हमें इतना सारा अनुग्रह दिया है—हम जमीर के बिना नहीं रह सकते, हमें अपने कर्तव्य ठीक से करने चाहिए!’ जब मैंने उसे यह कहते सुना, तो मैंने सोचा कि वह अपना कर्तव्य निष्ठा से कर रहा है; मैंने कभी भी यह कल्पना तक नहीं की कि वह इतना लापरवाह है! क्या मुझे गुमराह नहीं किया गया है? मुझमें लोगों का भेद पहचानने की क्षमता नहीं थी, मैंने सत्य सिद्धांतों के आधार पर लोगों और चीजों को नहीं देखा या उनके साथ पेश आया। मैं सिर्फ इसके अनुसार चला कि वह व्यक्ति कितनी अच्छी तरह से बोलता है, मैंने यह नहीं देखा कि उसने अपने कर्तव्य में क्या नतीजे प्राप्त किए हैं या उसका विशिष्ट व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ क्या हैं या उसका सार क्या है—मैंने इस मामले में गलती कर दी। यह पता चला है कि जो लोग बाहरी तौर पर अच्छे दिखते हैं वे जरूरी नहीं कि सही मायने में अच्छे ही हों और वैसे तो वे सुखद बातें कहते हैं, लेकिन हो सकता है कि वे जो कहते हैं, उसे वाकई न करें और जरूरी नहीं कि वे जमीर और मानवता वाले लोग ही हों। अब से मुझे लोगों को परमेश्वर के वचनों के आधार पर देखना चाहिए और लोगों का भेद पहचानना सीखना चाहिए। मैं फिर से बेवकूफ नहीं बन सकता!” देखा तुमने, चाहे कुछ भी हो जाए, जब तक तुम कुछ हद तक गंभीर हो और सत्य की तलाश करते हो और फिर निष्कर्ष निकालते हो, तब तक तुम कुछ न कुछ प्राप्त करोगे। अगर तुम ये लाभ प्राप्त करते हो, तो क्या यह अच्छी बात नहीं है? (हाँ।) तुम लोगों का भेद पहचानने के मामले में कुछ सीख चुके होगे और तुम्हें कुछ हद तक लाभ हो चुका होगा—सत्य के संबंध में गंभीर होने और भरसक प्रयास करने से तुम यह प्राप्त करते हो। मान लो कि तुम इस तरह से गंभीर नहीं हो। जब तुम सुनते हो कि किसी को इसलिए विदा कर दिया गया है क्योंकि वह अपना कर्तव्य करने में हमेशा लापरवाह रहता था, तो तुम यह नहीं पूछते, “वह लापरवाह क्यों रहता था? उसे क्यों विदा कर दिया गया?” इसके बजाय तुम बस मन ही मन सोचते हो, “लापरवाह होने में क्या बड़ी बात है? कुछ भी हो, मुझे तो विदा नहीं किया गया है, इसलिए सब कुछ ठीक है।” ऐसे में क्या तुम्हें इस मामले से थोड़ी चेतावनी मिली होगी, तुमने थोड़ा सबक सीखा होगा या थोड़ी सूझ-बूझ प्राप्त की होगी? नहीं। तुमने ऐसा क्यों नहीं किया होगा? क्योंकि तुम्हें ऐसी चीजों में दिलचस्पी नहीं है या तुम उनके बारे में गंभीर नहीं हो और तुम अपने जीवन प्रवेश के लिए या सत्य के अनुसरण के लिए बिल्कुल कोई दायित्व नहीं उठाते हो और तुम्हें सत्य का अनुसरण करने में और जीवन प्रवेश के मामलों पर दूसरे लोगों की संगति में दिलचस्पी नहीं है और तुम उसमें भाग नहीं लेते हो और ज्यादा-से-ज्यादा, तुम बस अनमने ढंग से सहमति के कुछ शब्द बोल देते हो, बस और कुछ नहीं करते। क्या इस प्रकार के बहुत सारे लोग हैं? जब उनके साथ कोई चीज होती है, तो वे विशेष रूप से लापरवाह होना पसंद करते हैं, औपचारिकताएँ पूरी करते हैं और अपने जीवन प्रवेश के लिए या सत्य का अनुसरण करने के लिए बिल्कुल भी कोई दायित्व नहीं उठाते हैं। दूसरों से बातचीत करते समय थोड़ी गपशप करना पसंद करने के अलावा उन्हें इस तरह की चीजों में बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं है जैसे कि वे चीजें जो जीवन प्रवेश में शामिल हैं या वे सबक जो लोगों को परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेशों में सीखने चाहिए। जब वे अपना फिलहाल चल रहा छोटा-सा कार्य पूरा कर लेते हैं, तो उसके बाद वे वहीं बैठकर शून्य में ताकते रहते हैं, वे बस थोड़ी देर के लिए झपकी लेना या आराम करना चाहते हैं और वे अपने जीवन प्रवेश के लिए कोई दायित्व नहीं उठाते हैं। थोड़े-से संकल्प और अपनी कुछ इच्छाओं के अलावा ये लोग अंत में कोई सत्य प्राप्त नहीं करेंगे और अंत में उनका कुल अंक सिर्फ दो हो सकता है, वे अपनी दो अंकों वाली बेवकूफी से छुटकारा नहीं पा सकेंगे और इसलिए वे इस जीवनकाल में खत्म हो जाएँगे। अगर तुम इस बार खत्म हो गए, तो तुम वाकई खत्म हो जाओगे और तुम्हारे बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं रहेगी क्योंकि तुम्हारा परिणाम तय हो चुका होगा। एक सृजित प्राणी अंत में जो अंक प्राप्त करता है, वह सीधे उसके परिणाम से जुड़ा होता है। अगर तुम पास होने लायक अंक प्राप्त करते हो, तो तुम्हारा परिणाम यह होगा कि तुम बच गए हो। अगर तुम पास होने लायक अंक प्राप्त नहीं करते हो, तो तुम्हें अच्छा परिणाम नहीं मिलेगा। यह वह समय है जब अंत में लोगों के परिणाम निर्धारित होते हैं और एक बार जब परिणाम निर्धारित हो जाता है, तो वह स्थायी होता है और वह नहीं बदलेगा। अच्छे परिणाम के लिए प्रयास करने का कोई दूसरा मौका नहीं होगा और इसे बदलने का कोई मौका नहीं होगा—तुम्हारी किस्मत हमेशा-हमेशा के लिए निर्धारित हो जाएगी। क्या तुम समझ गए हो? क्या यह तुम्हें डराने के लिए है? (नहीं।) इसके बारे में सोचो—परमेश्वर मानवजाति को प्रबंधित करने और उसका बचाव करने का कार्य कर रहा है और वह लोगों को वे विभिन्न सत्य प्रदान कर रहा है जो उनके पास होने चाहिए—परमेश्वर इस तरह का कार्य कितनी बार कर सकता है? (सिर्फ इसी बार।) यह पहले कभी नहीं किया गया है और यह फिर कभी नहीं किया जाएगा। सिर्फ यही एक समय है और एक बार जब यह पूरा हो जाएगा, तो परमेश्वर का महान कार्य पूरी तरह से संपन्न हो जाएगा। “पूरी तरह से संपन्न होने” का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि वह दोबारा ऐसा नहीं करेगा और उसकी ऐसा करने की कोई योजना नहीं है। इसलिए इस बार लोगों के अंतिम परिणाम जो भी होंगे, उन्हें अंतिम रूप दे दिया जाएगा और वे नहीं बदलेंगे। परमेश्वर लोगों को फिर से निर्वहन करने या अपने जीवन जीने का अवसर नहीं देगा। जो समय गुजर चुका है वह कभी वापस नहीं आएगा और कोई भी बदलाव नहीं होगा। इसलिए अगर तुमने इस अवसर का फायदा नहीं उठाया, तो तुम बचाए जाने का मौका खो दोगे। अगर तुम परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित विभिन्न परिवेशों और विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों को अनदेखा करते हो, जब उनकी बात आती है, तो तुम सुन्न और मंदबुद्धि बन जाते हो और उनके साथ बेपरवाही से पेश आते हो, तो तुम दो अंकों वाले बेवकूफ हो। यहाँ तक कि तुम भी अपने परिणाम और गंतव्य को गंभीरता से नहीं लेते हो, तो तुम पर कौन ध्यान देगा? तुम्हें यह चीज इतनी बार बताई गई है लेकिन तुम इसे गंभीरता से नहीं लेते हो, तो अगर तुम दो अंकों वाले बेवकूफ नहीं हो तो फिर क्या हो? बचाए जाने के मामले जितना महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं है। क्या यही बात नहीं है? (हाँ।) यकीनन जैसा कि मैंने अभी कहा, व्यक्ति का अंतिम परिणाम उन विभिन्न परिवेशों में उसकी कुल अभिव्यक्तियों द्वारा निर्धारित होता है जिन पर परमेश्वर संप्रभु है, इसलिए लोगों को दैनिक जीवन में अपनी कुल अभिव्यक्तियों पर ध्यान देना चाहिए। यहाँ इरादा तुम्हें गपशप करने और विवादों में उलझने के लिए कहना नहीं है, बल्कि परमेश्वर का कार्य समाप्त होने से पहले तुम्हारे मौजूदा परिवेश और अवस्थाओं के आधार पर और यथासंभव ज्यादा से ज्यादा हद तक तुम्हें सत्य समझने लगने, सत्य में प्रवेश करने, सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू करने और “त्याग देने” की जिन तीन मदों पर हमने संगति की है उनमें कमोबेश प्रवेश करने का प्रयास करने के लिए कहना है—तब तुम 60 या उससे ज्यादा अंकों से पास हो चुके होगे और तुम एक बचाए गए व्यक्ति होगे। लेकिन इन तीनों मदों में से किसी की भी बात आने पर अगर तुम करीब भी नहीं पहुँचते हो या अगर तुम इनमें से किसी में भी पास नहीं होते हो और अगर तुम्हारे पास इनमें से किसी में भी कोई वास्तविक प्रवेश नहीं है तो तुम्हें पास होने लायक अंक नहीं मिलेंगे और तुम उद्धार की वस्तु नहीं होगे। क्या तुम समझ गए हो? (हाँ।)

अब तुम सभी को किस बात पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए? परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेशों में सत्य की तलाश करने और सबक सीखने पर। अगर तुम हर रोज बिल्कुल भी सत्य का अनुसरण किए बिना सिर्फ प्रयास करने और कार्य का निर्वहन करने से संतुष्ट रहते हो, तो तुम सिर्फ एक मजदूर हो। अगर तुमने प्रयास किया है, परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित विभिन्न परिवेशों का अनुभव किया है और कुछ सत्य समझे हैं; और इस बात की परवाह किए बगैर कि तुमने कितने सत्य प्राप्त किए हैं, अंत में तुमने लाभ प्राप्त किए हैं, चाहे वे बड़े हों या छोटे, बहुत सारे हों या थोड़े-से; और भले ही तुम्हें ये चीजें प्राप्त करने में बहुत लंबा समय लगा हो और तुम्हारी प्रगति धीमी रही हो, कम-से-कम तुम परमेश्वर के कार्य की धारा में हो और तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जिसने लाभ प्राप्त किया है; तो तुम्हारे पास बचाए जाने का एक मौका होगा। अब तुम लोगों को सबसे बुनियादी चीज क्या करनी चाहिए? तुम्हें सभी विभिन्न प्रकार के जटिल और निरर्थक मामलों से बाहर निकलकर सत्य का अनुसरण करने में अपना दिल लगाना चाहिए; तुम्हें एक छोटी अवधि में अपनी विभिन्न अवस्थाओं को समझना और उन्हें नियंत्रित करना चाहिए, अपनी घातक कमजोरी, अपने ऐबों और अपनी समस्याओं को जानना शुरू करने और फिर उन्हें हल करने के लिए सत्य की तलाश करने का प्रयास करना चाहिए ताकि तुम्हारे पास चलने के लिए एक मार्ग हो और अनुसरण करने के लिए एक लक्ष्य हो और तुम जो कर्तव्य करते हो उसका पालन करने के लिए स्पष्ट सत्य सिद्धांत हों। तुम्हें सिरकटी मुर्गी की तरह चारों तरफ दौड़-भाग करने और तुम्हारी टाँगें जहाँ भी तुम्हें ले जाएँ वहाँ बिना सोचे-विचारे पहुँच जाने, जो कि खतरनाक है, के बजाय तुम्हारे पास अपनी कमियों, अपने कर्तव्यों और अपने परिवेश के संबंध में अनुसरण करने के लिए एक स्पष्ट लक्ष्य और दिशा होनी चाहिए। तुम्हें अपने जीवन की उस अवस्था और वर्तमान परिस्थिति से छुटकारा पाना होगा जिसमें तुम सिर्फ प्रयास करते हो लेकिन सत्य प्राप्त नहीं करते। दर्शक मत बनो और सभी प्रकार के विवादों में मत उलझो। अगर तुम उनमें उलझना नहीं चाहते हो तो तुम्हें सत्य सिद्धांतों में प्रयास करना सीखना होगा। अगर तुम हर सत्य सिद्धांत समझते हो तो तुम इस प्रकार के विवादों से बच निकलने में समर्थ होगे। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? सिर्फ जब तुम विभिन्न सत्य समझ जाते हो, तभी तुम उनमें प्रवेश कर सकते हो और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने की उम्मीद रख सकते हो। फिर जब तुम विभिन्न चीजों में भाग लोगे, तो तुम्हारे पास सिद्धांत होंगे और तुम्हें इन चीजों का सामना करने का तरीका मालूम होगा। अगर तुम बस दर्शक बनना बंद कर देते हो, लेकिन हर सत्य के बारे में पूरी तरह से भ्रमित रहते हो और कोई भी सत्य नहीं समझते हो और तुम जो सब कुछ समझते हो वे धर्म-सिद्धांत और कुछ शब्द हैं और तुम्हें विभिन्न प्रकार के लोगों का भेद पहचानना नहीं आता है और जब तुम्हारे सामने मुद्दे आते हैं, तो तुम सिर्फ घटनाक्रम के बारे में बात करते हो और इस आधार पर फैसला लेते हो कि कौन सही है और कौन गलत, इससे ज्यादा कुछ नहीं और अंत में तुम सत्य प्राप्त नहीं करते हो तो किसी भी मामले में तुम्हारी सहभागिता बेकार है। इस तरह की सहभागिता किसमें बदल जाती है? यह विवादों को भड़काने में बदल जाती है। इसलिए तुम्हें सत्य सिद्धांतों में प्रयास करना सीखना चाहिए और एक बार जब तुम उन्हें लागू करने में ज्यादा से ज्यादा स्पष्ट हो जाओगे—और ऐसा तुम बढ़ती सटीकता के साथ करोगे—तो तुम्हारे पास सत्य में प्रवेश करने की उम्मीद होगी और फिर तुम्हारे पास बचाए जाने की भी उम्मीद होगी।

इस संबंध में कि लोग परमेश्वर द्वारा उनके लिए व्यवस्थित परिवेशों में सत्य कैसे प्राप्त कर सकते हैं, अभी-अभी हमने अभ्यास के कुल कितने सिद्धांतों पर संगति की? एक है दर्शक मत बनो, और क्या है? (सिर्फ प्रयास मत करो।) उस प्रकार की अवस्था से छुटकारा पाओ जिसमें तुम बस प्रयास करके संतुष्ट रहते हो लेकिन सत्य का अनुसरण करने के अनिच्छुक होते हो। और क्या है? (सभी प्रकार के विवादों में मत उलझो।) सभी प्रकार के विवादों में मत उलझो, सभी प्रकार के जटिल मामलों में मत उलझो—सत्य सिद्धांतों का पालन करने को इन चीजों से मत बदलो। तुम लोगों को इन सभी सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। अगर तुम उन्हें मजबूती से पकड़कर रखते हो तो तुम सत्य का अनुसरण करने से दूर नहीं रहोगे और जल्द ही सत्य का अनुसरण करने की वास्तविकता में प्रवेश करने में समर्थ हो जाओगे। क्या इसे अभ्यास में लाना आसान है? मैंने इतने सारे वर्षों से कलीसिया में लोगों से बातचीत की है, लेकिन बहुत ही कम लोग मुझसे जीवन प्रवेश या सत्य सिद्धांतों से जुड़े प्रश्न पूछते हैं और बहुत ही कम लोग अपनी व्यक्तिगत अवस्थाओं के बारे में बात करते हैं और फिर अभ्यास के मार्ग तलाशते हैं। बल्कि कुछ लोग ऐसे प्रश्न पूछते हैं जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता है और वे “तलाश” जैसे शब्दों का भी उपयोग करते हैं। जब मैं “तलाश” शब्द सुनता हूँ, तो मैं बहुत ध्यान से और गंभीरता से सुनता हूँ, उन पर अपना पूरा ध्यान देता हूँ, लेकिन जब पता चलता है कि वे किसी मामूली बाहरी मामले के बारे में पूछ रहे हैं, तो मुझे घिन आती है। मैं कहता हूँ, “तुम जिस मामले के बारे में पूछ रहे हो उसका कलीसिया के कार्य या जीवन प्रवेश से कोई लेना-देना नहीं है। ‘तलाश’ शब्द का उपयोग मत करो। तुम ‘तलाश’ शब्द का अपमान कर रहे हो।” क्या “तलाश” शब्द का अनुचित ढंग से उपयोग किया जा सकता है? (नहीं।) किसी ने तो मुझसे यह तक पूछा, “मेरे बच्चे की पीठ पर तिल है। कुछ लोग कहते हैं कि इस तिल का मतलब है कि वह बदकिस्मत है और दूसरे लोग कहते हैं कि जिस जगह पर तिल बढ़ रहा है वहाँ बीमारी के जोखिम की संभावना हो सकती है। बहरहाल, मुझे परवाह नहीं है कि वह बदकिस्मत है या नहीं, लेकिन अगर यह वाकई उसकी सेहत के लिए नुकसानदेह है तो क्या तुम्हें लगता है कि इस तिल को हटवा देना चाहिए?” अगर तुम लोगों से यह पूछा जाए तो तुम लोग इसका कैसे उत्तर दोगे? क्या तुम लोगों को लगता है कि इसका संबंध सत्य से है? क्या इसका संबंध कलीसिया के कार्य से है? (नहीं।) इसका संबंध इनमें से किसी भी चीज से नहीं है, तो क्या मैं इस मामले में दिलचस्पी लेने के लिए बाध्य हूँ? (नहीं।) मेरी ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। इसलिए मैंने कहा, “तुम्हारे बेटे के शरीर पर तिल होने की बात का सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। इसके बारे में मुझसे मत पूछो, जाओ किसी डॉक्टर से पूछो। मैं तुम्हारा पारिवारिक डॉक्टर नहीं हूँ।” क्या तुम लोगों को लगता है कि मुझे इस मामले में दिलचस्पी लेनी चाहिए? (नहीं, तुम्हें नहीं लेनी चाहिए।) चाहे तुम किसी से भी पूछो, कोई भी इस मामले में दिलचस्पी लेने को तैयार नहीं होगा। ऐसा नहीं है कि वे जिम्मेदारी लेने से डरते हैं। बल्कि बात यह है कि उनकी ऐसी चीजों में दिलचस्पी लेने की कोई बाध्यता नहीं है। क्या तुम्हारे बेटे का तिल हटाने या नहीं हटाने से कलीसिया का कार्य प्रभावित होगा? क्या यह तुम्हारे अपने कर्तव्य-निर्वहन को प्रभावित करेगा? इस मामले का मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। मुझसे इसके बारे में मत पूछो, यह एक व्यर्थ मामला है। इसका सत्य से बिल्कुल भी कोई लेना-देना नहीं है और फिर भी तुम “तलाश” शब्द का उपयोग करते हो। तुम लोग “तलाश” शब्द को अपवित्र करते हो—यह घिनौना है! किसी ने यह भी पूछा : “मेरे अहाते में एक कछुआ घुस आया है, मुझे उसे पकड़ना चाहिए या नहीं? मैं तुमसे तलाश करना चाहता हूँ।” उसने मुझसे उत्तर की तलाश करने के लिए यह प्रश्न पूछा—क्या तुम्हें लगता है कि मुझे उसे उत्तर देना चाहिए? (नहीं।) उसने कहा, “अगर उसे पकड़कर मैं कानून तोड़ रहा हूँ तो क्या होगा? अगर मैं कानून तोड़ रहा हूँ और तुमने मुझे नहीं रोका तो तुम जिम्मेदार होगे!” तुम क्या कहोगे? (तुमने अपनी स्वतंत्र इच्छा से उसे पकड़ने का फैसला किया है—तुम्हारे कानून तोड़ने का मुझसे कोई लेना-देना नहीं है।) तुम कानून तोड़ते हो या नहीं, यह तुम्हारा मामला है और इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। तुम मुझसे कलीसिया के कार्य के सिद्धांतों और सत्य सिद्धांतों जैसी चीजों के बारे में प्रश्न पूछ सकते हो, लेकिन जब कानूनी मामलों की बात आती है, तो जाकर कोई वकील ढूँढ़ो—तुम जिस भी देश में रहते हो वहाँ के वकील की सलाह लो। मैं वकील नहीं हूँ, इसलिए मुझसे ऐसे मामलों के बारे में मत पूछो। मैं यहाँ सत्य व्यक्त करने और मानवजाति को बचाने का कार्य करने के लिए हूँ। मैं सिर्फ सत्य प्रदान करता हूँ और सिद्धांतों पर संगति करता हूँ। जहाँ तक यह प्रश्न है कि तुम बचाए जा सकते हो या नहीं, तो इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है; यह तुम्हारा अपना मामला है। और इसका मतलब है कि तुम्हारे अपने जीवन के निजी मामलों के बारे में तो कुछ भी नहीं कहना है—तुम्हें तो और भी ज्यादा मुझसे उनके बारे में नहीं पूछना चाहिए और मैं तुम्हें उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं हूँ। यह ऐसा ही है, है ना? (हाँ।)

परमेश्वर के कार्य से संबंधित यह विषय लोगों के अंतिम परिणामों से अटूट रूप से जुड़ा हुआ है, इसलिए जब लोग परमेश्वर का कार्य स्वीकार करते हैं और उसका अनुभव करते हैं, तो वे अपने साथ धारणाएँ और कल्पनाएँ लेकर नहीं चल सकते; उन्हें इन धारणाओं और कल्पनाओं को मूल से ही छोड़ देना चाहिए और उन्हें अपने और परमेश्वर के बीच नहीं रहने देना चाहिए। सिर्फ सही विचारों, नजरियों और रवैयों से परमेश्वर का कार्य देखकर ही लोगों को सत्य समझने और उसे प्राप्त करने का अवसर मिल सकता है; सिर्फ सही रवैयों, सही विचारों और नजरियों से परमेश्वर का कार्य देखकर ही लोग सही मायने में परमेश्वर का कार्य समझ सकते हैं और उसका अनुभव कर सकते हैं और अंत में परमेश्वर के कार्य में से वे उन सत्यों को प्राप्त कर सकते हैं जो उन्हें प्राप्त करने चाहिए। इसलिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या त्याग देते हो, संक्षेप में, यह सब कुछ तुम्हें सही रास्ते पर लाने में और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू करने में सक्षम बनाने के लिए है, इसका अंतिम परिणाम और उद्देश्य और कुछ नहीं बल्कि तुम्हें सत्य सिद्धांत समझने और सत्य प्राप्त करने में सक्षम बनाना है। इस विषय-वस्तु पर हमारी संगति का यही अंतिम उद्देश्य है। हमने जिस पर भी संगति की है, उसका अंतिम उद्देश्य लोगों को सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम बनाना है। अगर तुम सत्य समझते हो और तुम्हारे पास कई मामलों में आधार के रूप में सत्य सिद्धांत हैं और तुम अब दिशाहीन, लक्ष्यहीन नहीं हो या चीजें करने में डूबे हुए हो तो इसका यह मतलब नहीं है कि तुम्हारी काबिलियत सुधर गई है, बल्कि यह है कि अपने क्रियाकलापों और अपने आचरण के लिए कसौटियों के रूप में तुम्हारे पास परमेश्वर का सत्य, परमेश्वर के वचन हैं। यानी, अपनी अंतर्निहित काबिलियत, क्षमताओं और प्रतिभाओं के आधार पर तुमने सत्य समझ लिया है और तुम्हारे पास अपने आचरण के लिए कसौटियाँ हैं और इसलिए तुम एक सृजित मनुष्य हो जो इस दुनिया में और सभी चीजों के बीच स्वतंत्र रूप से रह सकता है। सिर्फ ऐसा मनुष्य ही सृजित मनुष्य के रूप में सही मायने में मानक-स्तर का है—यह एक मानक सृजित मनुष्य है। क्या तुम समझ गए हो? (हाँ।) तो आज के लिए हमारी संगति यहीं समाप्त होती है। अलविदा!

15 जुलाई 2023

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परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 8) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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