सत्य और परमेश्वर तक पहुँचने के उपायों के बारे में वचन

अंश 1

कुछ लोग जब यह देखते हैं कि परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए वचन वाकई सत्य हैं तो वे परमेश्वर में विश्वास करने लगते हैं। लेकिन जब वे परमेश्वर के घर पहुँचते हैं और देखते हैं कि परमेश्वर एक मामूली इंसान है तो वे अपने दिलों में धारणाएँ पाल लेते हैं। उनकी कथनी-करनी असंयमित हो जाती है, वे लम्पट बन जाते हैं, गैर-जिम्मेदारी से बोलते हैं और जैसा चाहते हैं उस तरह आलोचना और बदनामी करते हैं। ऐसे बुरे लोग इसी तरह प्रकट होते हैं। ये बिना मानवता वाले प्राणी अक्सर बुराई करते हैं और कलीसिया के कार्य में बाधा डालते हैं, और उनका कभी भला नहीं होगा! वे खुलेआम परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं, खुलेआम उसे बदनाम करते हैं, खुलेआम उसकी आलोचना और उसे कलंकित करते हैं और इस तरह खुलेआम उसकी ईशनिंदा करते हैं और खुद को उसके विरोध में खड़ा कर देते हैं। ऐसे लोगों को कठोर दंड का पात्र होना है। कुछ लोग नकली अगुआ होते हैं और बर्खास्त किए जाने के बाद वे परमेश्वर के प्रति लगातार नाराजगी महसूस करते हैं। वे अथक रूप से अपनी धारणाएँ फैलाने और अपनी शिकवे-शिकायतें जाहिर करने के लिए संगतियों का फायदा उठाते हैं; यहाँ तक कि वे कोई भी कठोर बात कह सकते हैं या ऐसी बातें कह सकते हैं जो उनकी घृणा को व्यक्त करती हों। क्या ऐसे लोग राक्षस नहीं हैं? परमेश्वर के घर से बाहर निकाल दिए जाने के बाद उन्हें पश्चात्ताप महसूस होता है और वे दावा करते हैं कि मूर्खता के क्षण में उन्होंने कुछ गलत कह दिया। कुछ लोग उनका भेद पहचानने से चूक जाते हैं और कहते हैं, “वे बहुत दयनीय हैं और उन्हें दिल से पश्चात्ताप है। वे यह भी कहते हैं कि वे परमेश्वर के ऋणी हैं और उसे नहीं जानते, इसलिए कृपया उन्हें माफ कर दें।” क्या माफी इतनी आसानी से दी जा सकती है? लोगों की भी अपनी गरिमा होती है, परमेश्वर की तो बात ही छोड़ दो! जब ये लोग परमेश्वर की ईशनिंदा और उसे बदनाम कर चुके होते हैं, उसके बाद कुछ व्यक्ति इन्हें पश्चात्ताप करते देखकर चाहते हैं कि इन्हें माफ कर दिया जाए और कहते हैं कि इन्होंने मूर्खता के क्षण में ऐसी हरकत की—लेकिन क्या यह मूर्खता का क्षण था? वे हमेशा किसी प्रकार के इरादे के साथ बोलते हैं और वे परमेश्वर की आलोचना करने की जुर्रत तक कर डालते हैं। जब परमेश्वर का घर उन्हें बर्खास्त कर देता है, वे अपने रुतबे के फायदे खो बैठते हैं और इस बात से डर जाते हैं कि उन्हें हटा दिया जाएगा, इसलिए वे बहुत सारी शिकायतें करते हैं। वे बाद में पश्चात्ताप महसूस करते हैं और फूट-फूट कर रोते हैं। क्या इससे कुछ फायदा होता है? एक बार मुँह से निकले शब्द जमीन पर बिखरे पानी के समान होते हैं जिसे वापस नहीं बटोरा जा सकता। क्या परमेश्वर यह बर्दाश्त कर सकता है कि लोग चाहे जब ठान लें तब उसका विरोध करते रहें, उसकी आलोचना और ईशनिंदा करते रहें और वह बस इसे अनदेखा कर दे? अगर ऐसा हुआ तो परमेश्वर की कोई गरिमा ही नहीं रहेगी। कुछ लोग प्रतिरोध के बाद कहते हैं, “हे परमेश्वर, तुम्हारे अनमोल खून ने मुझे बचाया है। तुम हमसे लोगों को सत्तर गुना सात बार माफ करवाते हो—तुम्हें मुझको भी माफ कर देना चाहिए!” कितनी बेशर्मी है! कुछ लोग परमेश्वर के बारे में बेबुनियाद अफवाहें फैलाते हैं और उसे बदनाम करने के बाद डरने लगते हैं। दंड पाने के डर से वे फौरन घुटनों के बल बैठ जाते हैं और प्रार्थना करते हैं : “परमेश्वर! मुझे छोड़ना मत, मुझे दंड मत देना। मैं कबूल करता हूँ, मुझे पश्चात्ताप है, मैं तुम्हारा ऋणी हूँ, मैंने गलत किया।” मुझे बताओ, क्या ऐसे लोगों को माफ किया जा सकता है? नहीं! क्यों नहीं? उन्होंने जो किया उससे पवित्र आत्मा नाराज होती है और पवित्र आत्मा की ईशनिंदा के पाप को कभी माफ नहीं किया जाएगा, न इस जीवन में और न आने वाली दुनिया में! परमेश्वर अपने वचनों पर कायम रहता है। उसमें गरिमा है, क्रोध है और एक धार्मिक स्वभाव है। क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर बिल्कुल मनुष्य जैसा है, अगर कोई उससे जरा-सा अच्छा व्यवहार करे तो वह उनके पिछले अपराधों को अनदेखा कर देगा? ऐसा कुछ नहीं है! अगर तुम परमेश्वर का प्रतिरोध करोगे तो क्या तुम्हारे लिए चीजें अच्छी हो जाएँगी? अगर तुम मूर्खता के क्षण में कुछ गलत कर देते हो या कभी-कभार थोड़ा-सा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर देते हो तो यह क्षम्य है। लेकिन अगर तुम सीधे-सीधे परमेश्वर का प्रतिरोध करोगे, उससे विद्रोह करोगे और खुद को उसके विरुद्ध खड़ा करोगे और अगर तुम उसे बदनाम करोगे, उसकी ईशनिंदा करोगे और उसके बारे में बेबुनियाद अफवाहें फैलाओगे तो तुम्हारी पूरी तरह बर्बादी तय है। ऐसे लोगों को अब और प्रार्थना करने की कोई जरूरत नहीं है; उन्हें बस सजा मिलने का इंतजार करना चाहिए। वे अक्षम्य हैं! जब वह समय आए तो बेशर्मी से यह मत कहना, “परमेश्वर, कृपया मुझे माफ कर दो!” चाहे तुम कैसे भी विनती क्यों न कर लो, मुझे लगता है यह व्यर्थ है। थोड़ा-सा भी सत्य समझ लेने के बाद अगर लोग जानबूझकर अपराध करते हैं तो उन्हें माफ नहीं किया जा सकता। इससे पहले यह कहा जा चुका है कि परमेश्वर व्यक्ति के अपराध याद नहीं रखता। इसका संदर्भ उन छोटे अपराधों से है जिनमें परमेश्वर के प्रशासनिक आदेश शामिल नहीं हैं और जो परमेश्वर के स्वभाव को नाराज नहीं करते हैं। इनमें परमेश्वर की ईशनिंदा और बदनामी शामिल नहीं है। लेकिन अगर तुमने एक बार भी परमेश्वर की ईशनिंदा, आलोचना या बदनामी की तो यह एक पक्का दाग बन जाएगा जिसे कभी मिटाया नहीं जा सकता। लोग तो यहाँ तक चाहते हैं कि वे जब चाहें तब परमेश्वर की ईशनिंदा कर लें और उसे गालियाँ दे लें और फिर आशीष पाने के लिए उसका दोहन भी कर लें। दुनिया में कुछ भी इतनी आसानी से हाथ नहीं आता है! लोग हमेशा यही सोचते हैं कि परमेश्वर दयालु और प्रेमालु है, परोपकारी है, उसका दिल विशाल और असीम है, वह लोगों के अपराध याद नहीं रखता और लोगों के पिछले अपराध और कर्म भुलाकर उन्हें माफ कर देता है। छोटे-मोटे मामलों में पुरानी बातें भूलकर माफी दी जा सकती है। परमेश्वर ऐसे लोगों को कभी माफ नहीं करेगा जो खुलेआम उसका प्रतिरोध और ईशनिंदा करते हैं।

यूँ तो कलीसिया में अधिकतर लोग परमेश्वर में सचमुच विश्वास करते हैं, लेकिन उनमें परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता। इससे दिखता है कि अधिकतर लोगों को परमेश्वर के स्वभाव का सच्चा ज्ञान नहीं है, इसलिए उनके लिए परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना मुश्किल होता है। परमेश्वर में अपने विश्वास में लोग उसका भय नहीं मानते हैं या उससे खौफ नहीं खाते हैं; जब परमेश्वर का कार्य उनके हितों को प्रभावित करता है तो वे जो चाहे वो बोलते हैं। जब वे बोलना खत्म करेंगे तो क्या मामला यहीं खत्म हो जाएगा? उसके बाद उनको अपनी कही बातों की कीमत जरूर चुकानी पड़ेगी और यह कोई साधारण मामला नहीं है! जब कुछ लोग परमेश्वर की ईशनिंदा करते हैं, उसकी आलोचना करते हैं तो क्या उनका दिल जानता है कि वे क्या कह रहे हैं? ऐसी बातें कहने वाले सभी लोगों का दिल जानता है कि वे क्या कह रहे हैं। जिन लोगों पर बुरी आत्माओं का साया है और जो असामान्य विवेक के हैं उन्हें छोड़कर बाकी सभी सामान्य लोगों का दिल जानता है कि वे क्या कह रहे हैं। अगर वे यह कहते हैं कि वे नहीं जानते तो वे झूठ बोल रहे हैं। जब वे बोलते हैं तो यह सोचते हैं : “मुझे पता है कि तुम परमेश्वर हो। मैं कह रहा हूँ कि तुम जो कर रहे हो वह सही नहीं है तुम मेरा क्या कर लोगे? मेरी बात खत्म होने पर तुम क्या करोगे?” वे ऐसा थोड़ा-बहुत जानबूझकर कर रहे हैं—जानबूझकर दूसरों को परेशान कर रहे हैं, दूसरों को अपने पाले में खींच रहे हैं और दूसरों से भी उसी तरह कहलवा और करवा रहे हैं। वे जानते हैं कि वे जो कहते हैं वो परमेश्वर का खुला प्रतिरोध है, यह खुद को परमेश्वर के खिलाफ करना है और परमेश्वर की ईशनिंदा करना है। इस बारे में सोच-विचार कर लेने के बाद उन्हें एहसास होता है कि कुछ गलत है : “मैं क्या कह रहा था? यह एक आवेग का क्षण था और इसका मुझे वाकई अफसोस है!” उनके अफसोस से साबित हो जाता है कि वे यह जानते थे कि वे उस समय वास्तव में क्या कर रहे थे; ऐसा नहीं है कि उन्हें पता ही नहीं था। अगर तुम्हें लगता है कि वे क्षणिक रूप से मूर्ख और भ्रमित थे, कि उन्होंने चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देखा था तो यह पूरी तरह सही नहीं है। भले ही लोगों ने चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देखा था लेकिन उनमें न्यूनतम सामान्य ज्ञान तो होना ही चाहिए। परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोगों को उससे खौफ खाना चाहिए और उसका भय मानना चाहिए। वे जैसे चाहें वैसे परमेश्वर की ईशनिंदा या आलोचना या बदनामी नहीं कर सकते। क्या तुम जानते हो कि “आलोचना करने,” “ईशनिंदा करने” और “बदनाम करने” का मतलब क्या है? क्या तुम यह नहीं जानते कि तुम जो शब्द कहते हो वे परमेश्वर की आलोचना कर रहे हैं? कुछ लोग हमेशा इस तथ्य के बारे में बात करते रहते हैं कि उन्होंने परमेश्वर की मेजबानी की है, वे अक्सर परमेश्वर को देखते हैं और उन्होंने परमेश्वर के आमने-सामने की संगति सुनी है। वे जिससे भी मिलते हैं उससे इन चीजों के बारे में बात करते हैं, बाहरी चीजों के बारे में बातें करते जाते हैं; उनके पास बिल्कुल भी सच्चा ज्ञान नहीं होता है। हो सकता है कि ऐसी बातें करते समय उनका कोई बुरा इरादा न होता हो। हो सकता है कि वे भाई-बहनों के लिए अच्छा सोचते हों और सबको प्रेरित करना चाहते हों। लेकिन वे बातें करने के लिए इन चीजों को क्यों चुनते हैं? अगर वे अपनी ओर से सक्रिय होकर ये चीजें उठाते हैं तो इसका मतलब है कि उनका कोई इरादा तो जरूर होता है : मुख्य रूप से दिखावा करना और लोगों से अपना आदर कराना। अगर वे लोगों से आस्था रखवाना चाहते हैं और परमेश्वर में विश्वास में उन्हें प्रेरित करना चाहते हैं तो वे लोगों के लिए परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़ सकते हैं, जो कि सत्य हैं। तो फिर वे ऐसी बाहरी चीजों के बारे में बात करने पर क्यों जोर देते हैं? उनके ऐसी चीजें कहने के मूल में यह निहित है कि उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल नहीं है। वे परमेश्वर से नहीं डरते। लोग परमेश्वर के आगे बुरा बर्ताव करते हुए अपनी बकवास कैसे कर सकते हैं? परमेश्वर की गरिमा होती है! अगर उन्हें इसका एहसास होता तो क्या वे तब भी ऐसी बातें कहते? लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं है। वे अपने मकसदों के लिए मनमाने ढंग से बताते हैं कि परमेश्वर कैसा और परमेश्वर किस चीज जैसा है ताकि वे दूसरों से उच्च सम्मान पाने का व्यक्तिगत उद्देश्य साध सकें। यह बस परमेश्वर की आलोचना और ईशनिंदा करना है। ऐसे लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाले दिल का लेशमात्र भी अंश नहीं होता है। ये सभी ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर का प्रतिरोध और उसकी ईशनिंदा करते हैं। ये सभी बुरी आत्माएँ और राक्षस हैं। कुछ लोग कुछ सालों से परमेश्वर में विश्वास करते आए हैं, लेकिन बड़े लाल अजगर द्वारा पकड़े जाने के बाद वे यहूदा बन जाते हैं और परमेश्वर की ईशनिंदा में बड़े लाल अजगर का अनुसरण तक करते हैं। कुछ लोग सुसमाचार का उपदेश देते हुए परमेश्वर के कार्य की आलोचना करने और परमेश्वर की निंदा करने में धर्मावलंबी लोगों की बातें दोहराते हैं। उन्हें अच्छी तरह पता है कि ये बातें कहना परमेश्वर का प्रतिरोध और उसकी ईशनिंदा है, लेकिन वे परवाह नहीं करते। तुम्हारे मकसद चाहे कुछ भी हों, ये चीजें कहना अनुचित है। क्या तुम कुछ और नहीं कह सकते? तुम्हें ये चीजें क्यों कहनी होती हैं? क्या यह परमेश्वर की ईशनिंदा नहीं है? अगर तुम्हारे मुँह से ऐसी बातें निकलती हैं तो तुम परमेश्वर की ईशनिंदा कर रहे हो। तुम्हारा ऐसी चीजें कहना अधर्म है, चाहे तुम ऐसा जानबूझकर कहते हो या अनजाने में। तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल भी नहीं है। तुम दूसरों का साथ देते हो और ईशनिंदात्मक बातें करते हो ताकि दूसरों को खुश कर सको और उन्हें हासिल कर सको। तुम कितने अधर्मी हो! तुम इन दानवों के साथ गंदगी में लोटते हो! क्या तुम मनमाने ढंग से परमेश्वर के साथ खिलवाड़ कर सकते हो, उसकी आलोचना कर सकते हो, उसे सीमित कर सकते हो और उसकी ईशनिंदा कर सकते हो? ऐसा करना भयानक है! अगर तुम कुछ गलत कहते हो और इससे परमेश्वर का स्वभाव नाराज होता है तो फिर तुम्हारी बर्बादी तय है। यह एक घातक मामला है! कुछ लोग सोचते हैं, “धर्म में लोग पादरियों और एल्डरों द्वारा गुमराह किए जाते हैं और उनमें से अधिकतर ने ऐसी चीजें कही हैं जो परमेश्वर की ईशनिंदा करती हैं और उसके कार्य की आलोचना और निंदा करती हैं। उनमें से कुछ लोगों ने अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकार कर लिया है और पश्चात्ताप कर लिया है। तो क्या परमेश्वर उन्हें सचमुच बचा लेगा? अगर परमेश्वर उन सभी को त्याग देता तो ऐसे लोग बहुत कम होते जिन्हें बचाया जाएगा; शायद ही कोई बचाया जाएगा।” तुम इस मामले को स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते हो, है न? परमेश्वर का स्वभाव धार्मिकता है और वह सबके प्रति धार्मिक है। नूह के समय में नौका पर सिर्फ आठ लोग चढ़े थे और बचा लिए गए थे; बाकी सब नष्ट हो गए थे। क्या तुम यह कहने की हिम्मत करते हो कि परमेश्वर अधार्मिक है? मानवजाति गहराई तक भ्रष्ट है। वे सभी लोग शैतान के हैं; वे परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं और वे सभी नीच और निकम्मे हैं। अगर वे परमेश्वर का कार्य स्वीकार नहीं कर सकते तो वे भी उसी तरह नष्ट हो जाएँगे। कुछ लोग मन ही मन सोच सकते हैं : “अगर हम में से किसी को भी परमेश्वर द्वारा न बचाया जा सके तो क्या उसका कार्य व्यर्थ नहीं हो जाएगा? जैसा कि मुझे दिखाई देता है, परमेश्वर का मानवजाति के उद्धार में लोगों के बिना काम नहीं चल सकता; मनुष्य के बिना परमेश्वर का प्रबंधन खत्म हो जाएगा।” तुम गलत हो। अगर एक भी व्यक्ति न हो तो भी परमेश्वर अपनी प्रबंधन योजना बिल्कुल वैसे ही जारी रखेगा। लोग अपने आप को जरूरत से ज्यादा आँकते हैं। परमेश्वर का भय मानने वाले दिल के बिना लोग परमेश्वर के आगे बिल्कुल भी धर्मनिष्ठ नहीं होते हैं और वे शिष्टता से पेश नहीं आते हैं। क्योंकि लोग शैतान की शक्ति के अधीन रहते हैं और शैतान के होते हैं, इसलिए यह खतरा है कि वे कहीं भी और कभी भी परमेश्वर की आलोचना और उसकी ईशनिंदा कर सकते हैं। यह भयानक चीज है—परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करना है!

अंश 2

परमेश्वर के विश्वासियों को कुछ महत्वपूर्ण चीजें आत्मसात कर लेनी चाहिए। कम से कम, उन्हें अपने दिल में यह पता होना चाहिए कि परमेश्वर में विश्वास रखने का क्या अर्थ है; परमेश्वर में विश्वास रखने वालों को कौन-से सत्यों को समझना चाहिए; किसी को परमेश्वर के समक्ष समर्पण का अभ्यास कैसे करना चाहिए; साथ ही, परमेश्वर के समक्ष समर्पण में व्यक्ति को किन सत्यों को और परमेश्वर के किन वचनों को समझना चाहिए और उसमें कौन-सी वास्तविकताएँ होनी चाहिए, जिससे परमेश्वर को संतुष्ट किया जा सके। अगर तुम में ऐसी आस्था और ऐसा संकल्प है, तो भले ही कभी-कभी तुम्हारी कुछ धारणाएँ हों या कुछ करने के इरादे हों, तुम्हारे लिए उन्हें त्याग पाना आसान रहेगा। जिन लोगों में ऐसी आस्था नहीं है, वे हमेशा समर्पण के मामले में चुनाव करते रहते हैं। कभी-कभी वे मीन-मेख निकालने लगेंगे, विवादास्पद बन जाएँगे, मन में नाराजगी रखेंगे, खीजकर शिकायत करेंगे...। समय-समय पर उनमें हर तरह का विद्रोही व्यवहार दिखाई देगा! यह बस कभी-कभार एक या दो बार होने वाली घटना नहीं होती है, न ही यह कोई क्षणिक विचार होता है, बल्कि विद्रोहपूर्ण वचन बोलने और विद्रोहपूर्ण कार्य करने की क्षमता होती है। यह खास तौर से अत्यधिक विद्रोही स्वभाव को दर्शाता है। लोग भ्रष्ट स्वभाव वाले होते हैं और भले ही उन्होंने परमेश्वर के समक्ष समर्पण का संकल्प लिया हो, उनका समर्पण सीमित होता है; सापेक्ष होता है और यह आकस्मिक, क्षणिक और परिस्थितिगत भी होता है। यह संपूर्ण नहीं होता। भ्रष्ट स्वभाव के साथ उनका विद्रोहीपन बहुत ही अधिक होता है। वे परमेश्वर को स्वीकारते हैं, लेकिन उसके समक्ष समर्पण नहीं कर सकते, और वे उसके वचनों को सुनने के इच्छुक तो होते हैं, लेकिन उनके प्रति समर्पित नहीं हो सकते। वे जानते हैं कि परमेश्वर नेक है और वे उससे प्रेम करना चाहते हैं, लेकिन नहीं कर सकते। वे परमेश्वर के वचनों को पूरी तरह नहीं सुन सकते, उसे हर चीज का आयोजन करने नहीं दे सकते, और अभी भी अपनी पसंद-नापसंद रखते हैं, अपने इरादे और मंशाएँ रखते हैं, और उनकी अपनी अलग योजनाएँ, विचार और काम करने के अपने तरीके होते हैं। वे अपने तरीके, अपनी पद्धतियों से काम करना चाहते हैं, अर्थात् वे किसी भी तरह से परमेश्वर के समक्ष समर्पण नहीं कर सकते। वे केवल अपने विचारों के अनुसार कार्य कर सकते हैं और परमेश्वर के प्रति विद्रोह करते हैं। विद्रोही लोग ऐसे होते हैं! इसलिए मनुष्य की प्रकृति न केवल सतही आत्मतुष्टता, आत्म-महत्व, अभिमान या परमेश्वर के प्रति यदा-कदा झूठ और कपट जैसे साधारण भ्रष्ट स्वभावों वाली है; बल्कि मनुष्य का सार पहले ही शैतान का सार बन चुका है। तब प्रधान स्वर्गदूत ने परमेश्वर को कैसे धोखा दिया था? और आजकल के लोगों की दशा क्या है? स्पष्ट कहें तो तुम इसे स्वीकार करो या न करो, आजकल लोग न केवल शैतान की तरह परमेश्वर को धोखा दे रहे हैं, बल्कि मन से, अपनी सोच और विचारधारा से परमेश्वर के सीधे विरोधी हुए जा रहे हैं। यह मानवजाति को दानव बनाने की शैतान की भ्रष्टता है; मनुष्य सचमुच शैतान की संतान बन चुका है। शायद तुम लोग कहोगे : “हम परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण नहीं हैं। परमेश्वर जो भी कहता है, उसे हम सुनते हैं।” यह सतही बात है; ऐसा लगता है कि परमेश्वर जो भी कहता है, उसे तुम सिर्फ सुनते हो। असल में, जब मैं औपचारिक रूप से सहभागिता करता और बोलता हूँ, तब अधिकांश लोगों की कोई धारणा नहीं होती; वे अच्छा व्यवहार करते और आज्ञाकारी होते हैं, लेकिन जब मैं सामान्य मानवता में बोलता और कार्य करता हूँ या सामान्य मानवता से जीवन जीता और कार्य करता हूँ, तो उनमें धारणाएँ उत्पन्न होती हैं। वे अपने दिलों में मेरे लिए जगह बनाना चाहने के बावजूद मुझे स्वीकार नहीं कर सकते और सत्य की चाहे जैसे भी संगति कर ली जाए, वे अपनी धारणाएँ नहीं त्याग सकते हैं। यह दिखाता है कि मनुष्य परमेश्वर के सामने केवल तुलनात्मक रूप से समर्पण करता है, पूरी तरह से नहीं। तुम जानते हो कि वह परमेश्वर है और यह भी जानते हो कि देहधारी परमेश्वर में सामान्य मानवता होनी ही चाहिए, तो फिर तुम परमेश्वर के समक्ष पूरी तरह समर्पण क्यों नहीं कर सकते? देहधारी परमेश्वर मसीह है, मनुष्य का पुत्र; उसमें दिव्यता और सामान्य मानवता दोनों हैं। बाहर से उसमें सामान्य मानवता है, लेकिन उसकी दिव्यता इस सामान्य मानवता के भीतर रहती और कार्य करती है। अब, परमेश्वर ने मसीह के रूप में देहधारण कर लिया है, जिसमें दिव्यता और मानवता है। फिर भी कुछ लोग उसके कुछ दिव्य वचनों और कार्यों के प्रति ही समर्पण कर पाते हैं, केवल उसके दिव्य वचनों और गंभीर भाषा को ही परमेश्वर के वचन मान पाते हैं, जबकि उसके द्वारा सामान्य मानवता में बोले गए वचनों और किए गए कार्यों की अवहेलना कर देते हैं। कुछ लोगों के दिलों में अपने कुछ विचार और धारणाएँ भी होती हैं और वे मानते हैं कि केवल उसकी दिव्य भाषा ही परमेश्वर के वचन हैं और उसकी मानवीय भाषा परमेश्वर के वचन नहीं हैं। क्या ऐसे लोग परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए सभी सत्यों को स्वीकार कर सकते हैं? क्या वे परमेश्वर द्वारा शुद्ध और पूर्ण बनाए जा सकते हैं? नहीं बनाए जा सकते हैं, क्योंकि ऐसे लोग एक बेतुके ढंग से समझते हैं और सत्य हासिल नहीं कर सकते। संक्षेप में कहें तो मनुष्य के भीतर की दुनिया बहुत ही जटिल है और ये विद्रोही मामले खास तौर से पेचीदे होते हैं—इस पर विस्तार से बात करने की जरूरत नहीं है। लोग परमेश्वर की दिव्यता के प्रति समर्पण कर सकते हैं, लेकिन उसके सामान्य मानवता में किए गए कुछ कार्यों और बोले गए वचनों के प्रति समर्पण नहीं कर सकते, जो दिखाता है कि उन्होंने सही अर्थों में परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं किया है। परमेश्वर के प्रति लोगों का समर्पण हमेशा सशर्त रहता है; वे वही सुनते हैं, जिसे वे सही और उचित मानते हैं, और वे जिन बातों को गलत और अनुचित मानते हैं, उन्हें नहीं सुनना चाहते। वे जिन बातों को नहीं सुनना चाहते या वे जिन कार्यों को नहीं कर सकते, उनके प्रति समर्पण नहीं करते। क्या इसे सच्चा समर्पण कहा जा सकता है? बिल्कुल नहीं। यह दिखाता है कि लोगों के स्वभाव ठीक नहीं हैं, उनका स्वभाव खास तौर से नीचतापूर्ण और खराब है—यह बहुत महत्वपूर्ण बात है! यानी, जब लोग परमेश्वर के समक्ष कुछ हद तक समर्पण करते भी हैं, तो भी यह हमेशा चुनिंदा विषयों पर और सशर्त समर्पण होता है और कभी भी परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण नहीं होता। अगर यह कहा जाता है कि कोई व्यक्ति परमेश्वर को सुनकर उसके प्रति समर्पण करता है, तो यह केवल तुलनात्मक कथन होता है, क्योंकि तुमने उन लोगों के हितों को नहीं छुआ है या सच में उनकी काट-छाँट नहीं की है, तुमने सीधे तौर पर और बेबाकी से उनकी काट-छाँट नहीं की है। जब तुम सच में उनकी काट-छाँट करते हो, तो वे तुम्हारे विरोध में आ जाएँगे और पूरे दिन नाराज रहेंगे। अगर तुम उन्हें कुछ पूछोगे तो वे जवाब नहीं देंगे और अगर तुम उन्हें कुछ करने के लिए कहोगे तो वे उसे नहीं करना चाहेंगे। अगर तुम उन्हें कुछ ऐसा करने के लिए कहोगे जो वे करना नहीं चाहते तो वे चीजों को तोड़ना-फोड़ना शुरू कर देंगे और तुम्हारे सामने अपनी जिद नहीं छोड़ेंगे। किसी व्यक्ति का स्वभाव कितना खराब हो सकता है! यह जानते हुए भी कि वह परमेश्वर है, तुम उससे इस तरह का व्यवहार क्यों करते हो? यह तब के फरीसियों और पौलुस से अलग नहीं है। क्या पौलुस जानता था कि यीशु परमेश्वर है? उसने यीशु के शिष्यों को क्यों सताया? उसने उनमें से कई को गिरफ्तार क्यों किया? अंत में यीशु ने देखा कि पौलुस उत्पीड़न करने में बहुत कठोरता कर रहा है और उसने दमिश्क जाने वाली सड़क पर पौलुस पर प्रहार कर दिया। उसके चारों तरफ एक प्रकाश फैल गया और पौलुस जमीन पर गिर गया। गिरने के बाद उसने यीशु से पूछा : “हे प्रभु, तू कौन है?” यीशु ने उससे कहा : “मैं यीशु हूँ, जिसे तू सताता है” (प्रेरितों 9:5)। तब से पौलुस और अधिक आज्ञाकारी हो गया। अगर यीशु ने पौलुस को “रोशन” और उस पर प्रहार न किया होता तो वह यीशु को स्वीकार तक नहीं करता, उसके लिए प्रचार करना तो दूर की बात है। इससे क्या साबित होता है? इससे साबित होता है कि लोगों की प्रकृति जितनी ज्यादा से ज्यादा खराब हो सकती है, उतनी खराब है।

लोग अक्सर कहते हैं : “हम सभी मनुष्यों में भ्रष्ट स्वभाव है; हममें से कोई भी परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर सकता है” और “मनुष्य बहुत आत्मतुष्ट और खुदगर्ज होते हैं। वे हमेशा यही मानते हैं कि वे अच्छे हैं और दूसरों से बेहतर हैं!” वास्तव में यह बिल्कुल सतही समझ है; यह भ्रष्ट स्वभाव का केवल एक छोटा-सा पहलू है। तुम परमेश्वर से विद्रोह करने और उसका प्रतिरोध करने के उन विचारों और इरादों की चर्चा क्यों नहीं करते जो तुम्हारी अपनी ही प्रकृति में हैं? परमेश्वर यह माँग करता है कि तुम कोई चीज इस तरीके से करो और तुम इसे दूसरे तरीके से करने पर अड़ जाते हो। परमेश्वर एक तरीके से काम करता है और तुम यह माँग करने पर तुले रहते हो कि वह दूसरे तरीके से काम करे। क्या यह परमेश्वर से विवाद करना नहीं है? हर व्यक्ति में इस तरह का स्वभाव है; इससे कोई बच नहीं सकता। बहुत सारे लोगों के ये अनुभव हैं; खासकर अगुआ और कार्यकर्ता कोई कम संख्या में नहीं हटाए गए हैं। लिहाजा, कुछ लोग ऐसे विचार फैलाते हैं, “चाहे तुम जो भी करो, परमेश्वर के संपर्क में मत आओ। एक बार उसके संपर्क में आ जाओगे तो तय है कि तुम उसके बारे में धारणाएँ रखोगे और तुम्हारा प्रकट होना तय है।” यहाँ क्या समस्या है? क्या ऐसा हो सकता है कि परमेश्वर के साथ मिलना-जुलना कठिन है? परमेश्वर लोगों की निंदा हल्के में नहीं करता है। अगर लोगों के पास अंतरात्मा और विवेक होता है तो कुछ गलत बोलने या करने पर परमेश्वर उनकी निंदा नहीं करेगा। परमेश्वर बस लोगों के स्वभावों का गहन-विश्लेषण करता है ताकि वे खुद को जान सकें; वह लोगों को यथासंभव सीमा तक बचाता है। यूँ तो अगुआ और कार्यकर्ता के रूप में कार्यरत रहते हुए कुछ लोगों की प्रायः काट-छाँट की जाती रही है, फिर भी वे सत्य स्वीकार कर लेते हैं और अब अडिग रह सकते हैं और परमेश्वर की गवाही दे सकते हैं। तो ये लोग अडिग होने में क्यों सक्षम हैं? इसका यह कारण नहीं है कि उनमें भ्रष्ट स्वभाव नहीं हैं; बल्कि इसका कारण यह है कि वे अपनी काट-छाँट होना स्वीकार करते हैं, वे न्याय और ताड़ना स्वीकार कर सकते हैं और इस प्रकार उन्होंने परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर ली है। तो क्या परमेश्वर के घर में बहुत-से लोग प्रकट किए और हटाए जा चुके हैं? हाँ, काफी सारे। यह इस बात को साबित करने के लिए काफी है कि आजकल लोगों में न केवल भ्रष्ट स्वभाव है—उनकी प्रकृति भी भ्रष्ट हो चुकी है। उनकी सामान्य मानवता पहले ही इतनी भ्रष्ट हो चुकी है कि यह पूरी तरह चकनाचूर और खत्म हो चुकी है—यानी लोगों में अब सामान्य मानवता नहीं है। देहधारी परमेश्वर में सामान्य मानवता है, लेकिन सारे लोगों में भ्रष्ट स्वभाव है और सामान्य मानवता ज्यादा नहीं है, इसलिए उनके लिए परमेश्वर के अनुरूप होना असंभव है। बहुत सारे मामलों में तय है कि परमेश्वर के साथ उनके मतभेद और विवाद होंगे और यहाँ तक कि वे परमेश्वर के खिलाफ शत्रुतापूर्ण हो जाएँगे। ऐसा इसलिए, क्योंकि लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल या परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला दिल नहीं है। व्यक्ति लोगों से यह माँग नहीं कर सकता कि “चूँकि तुम मानते हो कि वह परमेश्वर है, इसलिए वह चाहे कुछ भी कहता हो तुम्हें अवश्य ही उसके प्रति समर्पण करना चाहिए,” यह माँग करना तो दूर की बात है कि वह हर मामले में परमेश्वर के आगे झुक जाए। यह झुक जाने या समर्पण करने का मामला नहीं है; लोग सृजित प्राणी हैं, और आखिरकार परमेश्वर परमेश्वर है और मनुष्य मनुष्य है—उनके बीच एक सीमा तो होनी ही चाहिए। व्यवस्था के युग में अब्राहम के नौकर ने यहोवा परमेश्वर से कैसे प्रार्थना की? “हे मेरे स्वामी अब्राहम के परमेश्वर यहोवा” (उत्पत्ति 24:12)। उसने दोनों के पदों में बहुत स्पष्ट भेद किया, जबकि आजकल के लोग मानते हैं : “परमेश्वर हमसे बहुत अलग नहीं है। उसमें भी सामान्य मानवता है और उसकी अपनी आवश्यकताएँ हैं, सभी तरह की भावनाएँ हैं, जीवन है और सामान्य मानवीय गतिविधियाँ हैं। भले ही वह दिव्य कर्म करता है, लेकिन उसमें सामान्य मानवता तो होनी ही है!” जैसे ही लोग अपने भीतर “सामान्य मानवता” का यह मोटा विचार रख लेंगे, वैसे ही वे परमेश्वर के कार्यों, उसके वचनों और उसके स्वभाव को मनुष्य की सामान्य मानवता के रूप में परिभाषित करने लगेंगे, वे उसके दिव्य सार को अस्वीकार करने लगेंगे। यह एक बहुत बड़ी गलती है; इससे परमेश्वर को जानना असंभव हो जाता है, है न? तुम लोग परमेश्वर के संपर्क में नहीं आए हो; तुम लोगों में से कौन यह कहने की हिम्मत रखता है, “अगर मैं एक वर्ष तक परमेश्वर के संपर्क में रहूँ तो मैं गारंटी देता हूँ कि मैं विद्रोही बिल्कुल नहीं होऊँगा”? कोई भी इतना आश्वस्त नहीं हो सकता। अधिकांश लोग परमेश्वर में 10 या 20 वर्षों से अधिक समय से विश्वास करते आए हैं, मगर कोई भी उसके प्रति सच्चा समर्पण हासिल नहीं कर सकता है। यह बात यह दिखाने के लिए पर्याप्त है कि लोग बहुत गहराई तक शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जा चुके हैं और शैतान का स्वभाव पहले ही लोगों के दिलों में घर बना चुका है; कुछ ऐसी भ्रष्ट चीजें हैं जिन्हें तुम लोग अपने दम पर खोद भी नहीं सकते। मैंने कई बातें कहीं, बहुत-से सत्य व्यक्त किए, फिर भी शायद ही कोई व्यक्ति सचमुच सत्य को समझ सकता है। लोग अब हठपूर्वक गलत सोच वाले हैं; वे बेहद सुन्न और जड़मति वाले हैं। ऐसा नहीं है कि वे बस थोड़े से अज्ञानी हैं—उनकी विद्रोही प्रकृति पहले ही आकार ले चुकी है, लेकिन तुम लोगों ने अभी भी इसे स्पष्ट रूप से नहीं देखा है।

कुछ लोग मसीह से एक या दो दिन सामना होने के बाद ही उसे अपरिचित पाते हैं और थोड़ा-सा असहज महसूस करते हैं : “यह परमेश्वर है!” उनके दिलों में यह विचार होता है, लेकिन उसके साथ 10 दिन या दो हफ्तों के संपर्क के बाद जैसे-जैसे वे धीरे-धीरे उससे और अधिक परिचित होने लगते हैं और उसके अधिकाधिक निकट आने लगते हैं तो वे अपने दिल में उच्छृंखल हो जाते हैं और वे अब अपने और परमेश्वर के दर्जे के बीच अंतर नहीं करते। ऐसा लगता है मानो दोनों में बिल्कुल समानता हो, कोई पदानुक्रम नहीं हो; वे सोचते हैं कि परमेश्वर को अपने जीवन और आनंद को उनसे बाँटना चाहिए। कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि ये लोग ऐसा कैसे हो सकते हैं? अगर मुझे हमेशा उनकी काट-छाँट करना और उन्हें उपदेश देना होता तो वे जरूर शिष्ट और समर्पित होते। कभी-कभी जब मैं किसी से बराबरी में बात करता हूँ, वे सोचते हैं : “देखो, परमेश्वर मेरे लिए कितना अच्छा है!” तुम्हारे लिए अच्छा होना यह सिद्ध नहीं करता कि तुम्हारा स्वभाव विद्रोही नहीं है या तुम्हारा प्रकृति सार अच्छा है। क्या ऐसा नहीं है? कुछ लोगों के साथ जब मैं थोड़े बेहतर तरीके से पेश आता हूँ और उन्हें देखकर थोड़ा मुस्कुरा देता हूँ, तो वे ब्रह्मांड में अपनी जगह ही भूल जाते हैं, भूल जाते हैं कि वे कहाँ से आए हैं, उनकी पहचान और सार क्या है—वे यह सब भूल जाते हैं। लोगों की प्रकृति बेहद खराब होती है; उनके पास कोई विवेक नहीं होता है! अगर कुछ लोगों को लगता है कि वे काफी अच्छे हैं तो आगे बढ़ो और कुछ समय तक परमेश्वर के साथ मिलो-जुलो और देखो कि कैसे तुम्हारे भीतर का सारा विद्रोहीपन और प्रतिरोध उजागर हो जाता है। कुछ समय तक परमेश्वर के साथ जुड़े रहो—मैं तुम्हें याद नहीं दिलाऊँगा, न डाँट-फटकार या काट-छाँट करूँगा, और कोई व्यक्ति तुमसे सहभागिता भी नहीं करेगा; तुम खुद ही अनुभव करोगे और हम देखेंगे कि तुम्हें किस हद तक अनुभव होता है। सत्य को प्राप्त किए बिना, तुम निश्चित रूप से बुरी तरह विफल रहोगे, जिसका परिणाम सोचा भी नहीं जा सकता। लोगों के विद्रोही स्वभाव बहुत गंभीर हैं; उनके दिलों में दूसरों के लिए जगह नहीं बन पाती! तुम्हारा विद्रोही स्वभाव, शैतानी प्रकृति और अहंकारी दिल दूसरे लोगों के लिए जगह नहीं बना सकते हैं। शायद कुछ लोगों में, कुछ समय तक मेरे संपर्क में रहने के बाद कुछ गलत सोच पनपने लगे; अगर इनका समाधान नहीं हुआ, और वे धारणाओं या आलोचनाओं का रूप ले लें, तो वे खुद को खतरे में पाएँगे। कुछ लोग कहते हैं : “ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि तुम बिल्कुल साधारण और सामान्य हो। मैं प्रभु यीशु में अपने विश्वास के लिहाज से ऐसा नहीं हूँ।” यीशु में तुम्हारे विश्वास के मामले में भी ऐसा ही है। अगर तुम लोग यीशु के युग में होते तो तुम फरीसियों से बेहतर नहीं होते, तुम्हारे मन में धारणाएँ भरी होतीं। यह मत सोचो कि तुम यहूदा से बेहतर होते। वह प्रभु के साथ गद्दारी कर गया और उसका धन अपने उपयोग के लिए चुरा ले गया; हो सकता है तुम उससे गद्दारी न करो या कलीसिया का धन अंधाधुंध खर्च न करो, लेकिन तुम ऐसे व्यक्ति नहीं होओगे जो प्रभु के प्रति समर्पण करे और तुम निश्चित रूप से धारणाओं, विद्रोहीपन और प्रतिरोध से भरे होओगे। प्रभु यीशु के वचन और कार्य परमेश्वर का प्रकटन और कार्य थे। तो यहूदा ने प्रभु का प्रतिरोध क्यों किया? उसकी प्रकृति बहुत ही खराब थी; वह मसीह के प्रति सहिष्णु नहीं बन पाया और उसके प्रति शत्रुतापूर्ण बने रहने पर अड़ा रहा और यही कारण था कि उसने दंड पाया और शाप प्राप्त किए। क्या परमेश्वर का अनुसरण करते हुए पतरस ने भी बहुत अधिक पीड़ा नहीं सही थी? किंतु उसमें अंतरात्मा और विवेक था और वह परमेश्वर के प्रति प्रेम का अनुसरण भी कर सकता था, इसलिए वह अंततः परमेश्वर द्वारा पूर्ण बना दिया गया। उस समय उसमें यीशु के बारे में कुछ धारणाएँ भी थीं और उसने कुछ ऐसी चीजें कहीं जो गलत थीं, लेकिन प्रभु के प्रति प्रेम का अनुसरण करने के कारण उसने अंत में प्रभु यीशु के बारे में कुछ ज्ञान प्राप्त कर लिया। इसलिए लोगों को बड़ी-बड़ी बातों में लिप्त नहीं होना चाहिए। जब उन चीजों की बात आती है जिनका तुमने अनुभव नहीं किया है तो यह गारंटी मत दो कि तुम सफल हो सकते हो या उत्तम काम कर सकते हो—ऐसे शब्द सत्यतायुक्त या यथार्थपरक नहीं होते हैं। अपने ज्ञान और अपनी अंतदृष्टियों के बारे में बात करने से पहले तुम्हें इन चीजों का अनुभव अवश्य कर लेना चाहिए—तभी तुम व्यावहारिक बनोगे। यह मत कहो : “परमेश्वर, मेरे घर आओ, मैं वादा करता हूँ कि मैं दूसरों की तरह तुम्हें नाराज नहीं करूँगा। मैं वादा करता हूँ कि मैं दूसरों की तरह अमानवीय व्यवहार नहीं करूँगा।” यह निश्चित नहीं है, क्योंकि लोगों के भीतर की सामान्य मानवता पहले ही नष्ट हो चुकी है; उनकी सामान्य मानवता खत्म हो चुकी है, और उसी तरह उनकी अंतरात्मा और विवेक भी—जो सामान्य मानवता की सामान्य समझ है, सरलता और ईमानदारी से बोलना और ध्यान देकर सुन पाना, समर्पण कर पाना, ये सभी सकारात्मक चीजें लोगों के भीतर से पहले ही खत्म हो चुकी हैं। इसलिए जीवन जीने और अपने लक्ष्यों के संबंध में लोगों के सिद्धांत पहले ही बदल चुके हैं; वे सभी शैतानी फलसफे मानने लगे हैं और उन पर शैतानी प्रकृति हावी है। उनकी बातें धूर्तता और कपट से भरी हुई हैं, वे हवा का रुख देखकर बढ़ते हैं और मीठी-मीठी बातें करने में माहिर हैं—वे मानते हैं कि इस तरह जीना बहुत बढ़िया है। ऐसा क्यों कहा जाता है कि मनुष्य बहुत अधिक भ्रष्ट हैं? इतने भ्रष्ट होने पर क्या लोगों के पास अभी भी कोई सामान्य मानवता है? तुम मानते हो कि तुममें भ्रष्ट स्वभाव है, जिसे तुम केवल थोड़े अहंकारी, आत्मतुष्ट और घमंडी होना, बातचीत में कुछ हद तक कपटपूर्ण होना या अपने कर्तव्यों के निर्वहन में कुछ हद तक अनमना होना मानते हो—बस, और कुछ नहीं। लेकिन यह ज्ञान बहुत उथला है; बिल्कुल सतही है। मुख्य बात यह है कि मनुष्य प्रकृति से बुरा है, लोग बुराई के प्रति श्रद्धा रखते हैं और परमेश्वर को अस्वीकार और उसका प्रतिरोध कर रहे हैं, उनकी सामान्य मानवता पृथ्वी से पहले ही विलुप्त हो चुकी है। क्या ऐसा ही नहीं है? तो लोगों को सृजित प्राणी होने के मानक पर खरा उतरने के लिए क्या करना चाहिए? मुख्य बात यह है कि परमेश्वर के वचनों से अभ्यास का रास्ता खोजा जाए, उन्हें अभ्यास में लाने का उपयुक्त तरीका खोजा जाए। तुम सभी लोग जानते हो कि मानवजाति में कोई भी असाधारण रूप से बहुत अच्छा व्यक्ति नहीं है, तो अब यह क्यों कहा जाता है कि कुछ लोगों में मानवता है और दूसरे लोगों में नहीं है? क्या जिन लोगों में मानवता है, वे सचमुच इन सत्यों को अभ्यास में ला सकते हैं? वे भी इन्हें अभ्यास में नहीं ला सकते; केवल तुलनात्मक रूप से यह कहा जा सकता है कि वे लोग दिल से थोड़े अधिक दयालु और सौम्य हैं और अपने काम में थोड़े ज्यादा जिम्मेदार हैं—लेकिन यह सब सापेक्ष है, निरपेक्ष नहीं। अगर तुम किसी का मूल्यांकन करते हो और कहते हो कि यह व्यक्ति पूरी तरह अच्छा है और इसमें कोई दोष या विद्रोहशीलता नहीं है, यह सभी बातों का पूरी तरह पालन करता है और समर्पित है और अपने कर्तव्यों के निर्वहन में बिल्कुल भी अनमना नहीं है तो क्या यह अतिशयोक्ति नहीं होगी? क्या यह तथ्यों के अनुरूप है? क्या सचमुच ऐसा कोई व्यक्ति है? अगर तुम लोगों की चीजों की समझ ऐसी है तो यह विकृत समझ है। लेकिन अगर तुम लोग यह मानते हो कि, “हम मनुष्य खत्म हो चुके हैं। हममें से कोई भी अच्छा नहीं है, तो परमेश्वर में विश्वास रखने का फायदा क्या है? मैं बस विश्वास करना बंद कर दूँगा और अपनी मृत्यु का इंतजार करूँगा!” यह भी बेतुका है। तुम लोग हमेशा अतियों पर पहुँच जाते हो, मानो तुम्हें मानव भाषा समझ ही नहीं आती है; तुम हमेशा या तो इस तरफ झुके रहते हो या उस तरफ। अगर मैं और अधिक कोमलता और नरमी से बोलूँ तो तुम लोग खुद को जानने में नाकाम रहोगे, लेकिन अगर मैं बहुत रुखाई और सख्ती से कहूँ तो तुम लोगों के मुँह लटक जाएँगे, तुम नकारात्मक हो जाओगे और खुद से उम्मीद खो बैठोगे। जब कुछ लोग परमेश्वर के न्याय और निंदा के वचन सुनते हैं, वे तुरंत पंगु हो जाते हैं और मानते हैं कि वे खत्म हो चुके हैं, कि उनके पास बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं है। ये लोग वही हैं, जिन्हें बचाना सबसे मुश्किल होता है, क्योंकि उन्हें मानव भाषा समझ नहीं आती है! अब, जब परमेश्वर लोगों से बात करता और उन्हें उजागर करता है, तो यह मनुष्य की भ्रष्ट प्रकृति के मूल कारणों को समझाने और यह समझाने के लिए होता है कि मनुष्य परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह क्यों करता है। इन चीजों को उजागर करना लोगों के लिए फायदेमंद है। अगर इन चीजें उजागर न की जाएँ तो तुम अंत तक खुद को कभी जाने बिना विश्वास करते रहोगे, हमेशा यही कहोगे कि प्रधान स्वर्गदूत अहंकार से भरा हुआ है या कहोगे कि यह व्यक्ति अहंकारी है और वह व्यक्ति विद्रोही है। अपने बारे में क्या ख्याल है? ऐसे लोग भी हैं जो हमेशा यह कहते हैं, “हम वाकई परमेश्वर के प्रति विद्रोही हैं,” लेकिन फिर भी वे अपने विद्रोहीपन का मूल कारण नहीं जानते और उन दशाओं के सार की असलियत नहीं देखते या उन्हें समझते नहीं हैं। इसका अर्थ यह है कि वे बदल नहीं सकते और उनको बचाया नहीं जा सकता। क्या तुम लोग इन वचनों को समझ पाते हो? (हाँ।)

मैंने अभी-अभी जो सहभागिता की उसके दो प्राथमिक पहलू हैं। एक पहलू यह है कि परमेश्वर में विश्वास रखने के मामले में व्यक्ति को सच्चा समर्पण प्राप्त करना चाहिए, सृजित प्राणी होने के मानक पर पूरी तरह खरा उतरना चाहिए। दूसरा है लोगों के भीतर की विद्रोहशीलता को उजागर करना और उनकी प्रकृति को उजागर करना, जिससे वे खुद को जान सकें। अगर उन्हें इस तरह उजागर नहीं किया जाता है और उन्हें आत्म-ज्ञान नहीं कराया जाता है तो सभी कहेंगे कि वे अच्छे हैं और दूसरों से बेहतर हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग कहते हैं, “मैं भी बहुत ज्यादा भ्रष्ट हूँ,” लेकिन जब वे कुछ समय तक दूसरों से मिलते-जुलते हैं तो मानते हैं कि वे अभी भी दूसरों से बेहतर हैं, वे सोचते हैं : “मैं कोई अच्छा नहीं हूँ; मैं देखता हूँ कि तुम भी बेहतर नहीं हो और वास्तव में मुझसे भी बदतर हो!” यह मत सोचो कि तुम दूसरों से बेहतर हो। तुम किसी भी सूरत में दूसरों से बेहतर नहीं हो; लोगों की विद्रोही प्रकृतियाँ बिल्कुल एक जैसी होती हैं। क्या यह बात स्पष्ट समझ में आई? अब जबकि हमने इस बारे में सहभागिता पूरी कर ली है, तो तुम सब क्या सोचते हो? तुम लोग क्या यह सोच रहे हो : “मैं कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखता आया हूँ, और मुझे लगता था कि मैं परमेश्वर के प्रति समर्पित था। आज जब परमेश्वर ने संगति पूरी कर ली है तो मुझे अंततः यह एहसास हुआ कि मुझमें परमेश्वर के प्रति समर्पण सच्चा नहीं है और मैं अभी भी उसे परमेश्वर मानकर पेश नहीं आता हूँ। मैं परमेश्वर के प्रति समर्पण तक नहीं कर पाता—मैं बिल्कुल विवेक रहित हूँ और मेरी आस्था बहुत ही अस्पष्ट है!” अगर तुम्हें सचमुच इस प्रकार का ज्ञान है तो फिर तुम्हारे लिए परमेश्वर में विश्वास करने के सही मार्ग पर प्रवेश करने और उसके प्रति समर्पण करने वाला बनने की उम्मीद है; केवल तभी तुम उद्धार हासिल कर सकते हो।

अंश 3

काफी संख्या में विश्वासी लोग जीवन स्वभाव में परिवर्तन को महत्व देने में विफल रहते हैं और इसके बजाय वे इस पर ध्यान केंद्रित करते हैं और इसकी चिंता करते हैं कि परमेश्वर का उनके प्रति रवैया क्या है और परमेश्वर के हृदय में उनके लिए स्थान है या नहीं। वे हमेशा इस बात का अनुमान लगाने का प्रयास करते रहते हैं कि वे परमेश्वर की नजर में कैसे दिखते हैं और क्या परमेश्वर के हृदय में उनका कोई स्थान है। बहुत-से लोगों के मन में इस प्रकार के विचार होते हैं और यदि वे परमेश्वर के सामने आ जाएँ तो हमेशा इस पर नजर रखते हैं कि उनसे बात करते हुए वह खुश है या नाराज। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो हमेशा दूसरों से पूछते रहते हैं, “क्या परमेश्वर ने मेरी कठिनाइयों का जिक्र किया? वह मेरे बारे में क्या सोचता है? क्या वह मेरी चिंता करता है?” कुछ लोगों के पास अधिक गंभीर मुद्दे होते हैं—अगर परमेश्वर उनकी तरफ देखता भर है, तो ऐसा लगता है जैसे उन्हें नई समस्या का पता लग गया है : “अरे नहीं, परमेश्वर ने बस मेरी तरफ देखा और उसकी आँखों में कोई खुशी नहीं दिखी, यह अच्छा संकेत नहीं है।” लोग इस प्रकार की बातों को बहुत महत्व देते हैं। कुछ लोग कहते हैं : “जिस परमेश्वर में हम विश्वास करते हैं वे देहधारी हैं, इसलिए यदि वे हमारी तरफ ध्यान नहीं देते हैं, तो क्या इसका अर्थ हमारा अंत नहीं है?” यह कहने से उनका तात्पर्य यह है, “यदि परमेश्वर के हृदय में हमारा स्थान नहीं है, तो हम उस पर विश्वास क्यों करें? हमें विश्वास करना ही बंद कर देना चाहिए!” क्या यह समझ का अभाव नहीं है? क्या तुम जानते हो लोगों को परमेश्वर पर विश्वास क्यों करना चाहिए? लोग कभी इस बात पर विचार नहीं करते कि क्या उनके हृदय में परमेश्वर का स्थान है, और फिर भी वे परमेश्वर के हृदय में स्थान पाना चाहते हैं। वे कितने अहंकारी और दंभी हैं! उनके इस भाग में तर्क की सबसे अधिक कमी है। यहाँ तक कि कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनमें तर्क की इतनी कमी होती है कि जब परमेश्वर किसी और का हालचाल पूछता है और उनका नाम नहीं लेता या उनके बजाय दूसरों की चिंता करता है और परवाह दिखाता है, तो वे असंतुष्ट महसूस करते हैं और परमेश्वर के बारे में बड़बड़ाना और शिकायत करना शुरू कर देते हैं, कहते हैं कि वह अधार्मिक है और निष्पक्ष और उचित भी नहीं है। ऐसे लोगों में समझ की कमी होती है और वे मनोवैज्ञानिक रूप से भी कुछ असामान्य होते हैं। सामान्य परिस्थितियों में लोग हमेशा दावा करते हैं कि वे परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पित हो जाएँगे, परमेश्वर चाहे उनके साथ जो भी बर्ताव करे वे कभी भी शिकायत नहीं करेंगे और वे कहते हैं कि उन्हें परमेश्वर के उनकी काट-छाँट करने या उनका न्याय करने और उन्हें ताड़ना देने से कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन जब वास्तव में उनका ऐसी बातों से सामना होता है तो ये बातें उनको स्वीकार नहीं होतीं। क्या लोगों के पास विवेक है? लोग अपने बारे में इतना ऊँचा सोचते हैं और स्वयं को इतना महत्वपूर्ण समझते हैं कि यदि उनको लगता है कि उनको परमेश्वर ने गलत दृष्टि से देखा है, तो वे महसूस करते हैं कि उनके उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है; अगर परमेश्वर उनके साथ वास्तव में उनकी काट-छाँट करे तब की तो बात ही छोड़ो। या यदि परमेश्वर उनसे कठोर स्वर में बात करता है और उसके शब्द लोगों के हृदय में चुभ जाते हैं तो वे नकारात्मक हो जाते हैं और सोचने लगते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करना निरर्थक है। वे सोचते हैं, “अगर परमेश्वर मेरी अनदेखी करता है तो मैं उसमें विश्वास कैसे करता रह सकता हूँ?” कुछ लोगों में इस प्रकार के व्यक्ति को लेकर विवेकशीलता का अभाव होता है और उन्हें यहाँ तक लगता है, “वे इतने चौकस हैं! वे परमेश्वर की एक नजर का अर्थ तक भाँप सकते हैं। देख लो, वे पृथ्वी के परमेश्वर के बारे में सचमुच सुनिश्चित हो चुके हैं और परमेश्वर को सचमुच परमेश्वर मानकर उससे पेश आते हैं।” क्या बात सचमुच ऐसी है? ये लोग अत्यधिक भ्रमित हैं और कुछ भी स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते! लोगों का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और वे वास्तव में सभी प्रकार की कुरूपता प्रकट करते हैं। उनमें ऐसा कमजोर विवेक होता है—वे परमेश्वर से बहुत अधिक अपेक्षाएँ रखते हैं, उससे बहुत कुछ माँगते रहते हैं, उनके पास थोड़ा सा भी विवेक नहीं होता। लोग हमेशा अपेक्षाएँ करते रहते हैं कि परमेश्वर यह करे या वह करे, और स्वयं उसके प्रति पूरी तरह समर्पित नहीं हो पाते या उसकी आराधना नहीं कर पाते। इसके बजाय वे खुद की प्राथमिकताओं के अनुसार परमेश्वर से अनुचित अपेक्षाएँ करते रहते हैं, और चाहते हैं कि परमेश्वर बेहद उदार हो और किसी भी बात पर क्रोधित न हो, और वह जब भी लोगों से मिले, वह हमेशा मुस्कुराता रहे, उनसे बात करता रहे, और उन्हें सत्य प्रदान करे और उनके साथ सत्य पर संगति करता रहे। वे यह भी अपेक्षा रखते हैं कि परमेश्वर हमेशा धैर्यवान बना रहे और उनके सामने हँसमुख भाव बनाए रखे। लोगों की अपेक्षाएँ बहुत ज्यादा हैं; वे बेहद मीन-मेख निकालने वाले होते हैं! तुम लोगों को इन बातों की जाँच करनी चाहिए। मानवीय विवेक काफी तुच्छ होता है, है न? न केवल लोग पूरी तरह से परमेश्वर के आयोजनों और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने में अक्षम होते हैं या जो कुछ भी परमेश्वर से आता है उसे स्वीकार नहीं कर पाते, बल्कि इसके उलट वे परमेश्वर पर अतिरिक्त अपेक्षाएँ थोपते रहते हैं। परमेश्वर से इस प्रकार की अपेक्षाएँ रखने वाले लोग उसके प्रति निष्ठावान कैसे हो सकते हैं? वे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कैसे कर सकते हैं? वे परमेश्वर से प्रेम कैसे कर सकते हैं? सभी लोगों की ये अपेक्षाएँ होती हैं कि परमेश्वर लोगों से किस तरह प्रेम करे, किस तरह उन्हें बर्दाश्त करे, उनकी निगरानी करे, उनकी रक्षा करे और उनकी देखभाल करे, लेकिन उनमें से कोई यह अपेक्षाएँ नहीं रखता कि वे स्वयं परमेश्वर को किस प्रकार प्रेम करें, किस प्रकार परमेश्वर के बारे में सोचें, किस प्रकार परमेश्वर के प्रति विचारशील हों, किस तरह परमेश्वर को संतुष्ट करें, किस तरह परमेश्वर के लिए अपने हृदय में स्थान बनाएँ और किस तरह परमेश्वर की आराधना करें। क्या लोगों के दिल में ये बातें होती हैं? ये वे चीजें हैं जिन्हें लोगों को हासिल करना चाहिए; तो वे इन चीजों को पाने के लिए कर्मठता से आगे क्यों नहीं बढ़ते? कुछ लोग थोड़े समय के लिए उत्साही हो सकते हैं और कुछ हद तक चीजों का त्याग भी करते हैं और खुद को खपाते भी हैं, लेकिन यह लंबे समय तक नहीं चलता; थोड़ी सी कठिनाई आने पर उनका उत्साह कम हो सकता है, उम्मीद खत्म हो सकती है, और वे शिकायत करने लग सकते हैं। लोगों को बहुत सारी कठिनाइयाँ आती हैं और ऐसे बहुत ही कम लोग होते हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं, परमेश्वर को प्रेम करने और उसे संतुष्ट करने का प्रयास करते हैं। इंसानों में विवेक की बेहद कमी होती है, वे गलत स्थान पर खड़े होते हैं और अपने आपको विशिष्ट रूप से महत्वपूर्ण मानते हैं। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो कहते हैं : “परमेश्वर हमें अपनी आँख का तारा मानता है। उसने मानवजाति को छुटकारा दिलाने के लिए बिना हिचकिचाए अपने इकलौते पुत्र को सूली पर चढ़ने दिया। हमें वापस पाने के लिए परमेश्वर ने ऊँची कीमत चुकाई है—हम बेहद कीमती हैं और हमारा परमेश्वर के दिल में खास स्थान है। हम लोगों का एक खास समूह हैं और हमारा रुतबा गैर-विश्वासियों से कहीं अधिक ऊँचा है—हम स्वर्ग के राज्य के लोग हैं।” वे अपने आप को काफी ऊँचा और महान समझते हैं। अतीत में बहुत-से अगुआओं की यही मानसिकता थी, वे मानते थे कि पदोन्नत होने के बाद परमेश्वर के घर में उनका एक निश्चित रुतबा और प्रतिष्ठा है। वे सोचते थे, “परमेश्वर मुझे बहुत मानता है और मेरे बारे में अच्छा सोचता है, और उसने मुझे अगुआ के रूप में सेवा करने की अनुमति दी है। मुझे उसके लिए जितना हो सके भाग-दौड़ और काम करना चाहिए।” वे अपने आप से बेहद संतुष्ट थे। हालाँकि एक समय के बाद उन्होंने कुछ बुरा किया और उनका असली चेहरा सामने आ गया, फिर उन्हें बर्खास्त कर दिया गया और वे निरुत्साहित हो गए और उनके सिर झुक गए। जब उनका अनुचित व्यवहार उजागर हो गया और उनकी काट-छाँट की गई, तब वे और निराश हो गए और आगे परमेश्वर पर विश्वास रखने में सक्षम नहीं रहे। उन्होंने सोचा, “परमेश्वर को मेरी भावनाओं की कोई कदर नहीं है, उसे मेरा स्वाभिमान बचाने की बिल्कुल परवाह नहीं है। लोग कहते हैं कि परमेश्वर इंसान की कमजोरियों के प्रति सहानुभूति रखता है, तो कुछ छोटे से अपराधों के कारण मुझे बर्खास्त क्यों कर दिया गया?” फिर वे निरुत्साहित हो गए और उन्होंने अपनी आस्था छोड़नी चाही। क्या ऐसे लोगों की परमेश्वर में सच्ची आस्था होती है? अगर वे काट-छाँट तक को स्वीकार नहीं कर पाते, तो उनका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, और यह अनिश्चित है कि वे भविष्य में सत्य को स्वीकार कर भी पाएँगे या नहीं। ऐसे लोग खतरे में हैं।

लोग स्वयं से तो बहुत ऊँची अपेक्षाएँ नहीं रखते, लेकिन उन्हें परमेश्वर से बहुत ऊँची अपेक्षाएँ होती हैं। वे परमेश्वर से उन पर विशेष दया दिखाने, उनके प्रति धैर्यवान और सहनशील होने, उन्हें सँजोने, उनका पोषण करने और उनकी तरफ मुस्कुराकर देखने, उनके प्रति सहिष्णु होने, उन्हें छूट देने और कई तरीकों से उनकी देखभाल करने के लिए कहते हैं। वे अपेक्षा रखते हैं कि वह उनके प्रति बिल्कुल भी सख्त न हो, या ऐसा कुछ भी न करे जिससे उन्हें जरा-सी भी परेशानी हो, और वे केवल तभी संतुष्ट होते हैं यदि वह हर दिन उनसे मीठी-मीठी बातें करता रहे। मनुष्य में विवेक की कितनी कमी होती है! उनके मन में यह स्पष्ट नहीं होता कि खुद उन्हें क्या करना चाहिए, क्या हासिल करना चाहिए, उनके दृष्टिकोण क्या होने चाहिए, परमेश्वर की सेवा में उन्हें क्या रुख अपनाना चाहिए, और उन्हें खुद को किस स्थान पर खड़ा करना चाहिए। लोग छोटा-मोटा रुतबा हासिल करने के बाद खुद को बहुत बड़ा मानने लगते हैं और जिन लोगों के पास कोई रुतबा नहीं होता वो भी खुद को काफी ऊँचा समझते हैं। मनुष्य खुद को कभी नहीं जान पाते। तुम्हें परमेश्वर में अपने विश्वास के एक ऐसे बिंदु पर आना होगा जहाँ वह तुमसे जैसे चाहे बात करे, चाहे तुमसे जितना भी सख्त हो, और चाहे तुम्हारी कितनी भी अनदेखी करे, तुम बिना शिकायत किए उस पर विश्वास करना जारी रख सको, और सामान्य रूप से अपने कर्तव्य करते रहो। तब तुम एक परिपक्व और अनुभवी व्यक्ति होगे, और तुम्हारे पास वास्तव में कुछ आध्यात्मिक कद होगा और एक सामान्य व्यक्ति की कुछ समझ होगी। तुम परमेश्वर से अपेक्षाएँ नहीं करोगे, तुम्हारे अंदर असाधारण इच्छाएँ नहीं होंगी और तुम अपनी पसंद-नापसंद के आधार पर दूसरों से या परमेश्वर से उनके लिए अनुरोध नहीं करोगे। इससे यह पता चलेगा कि तुम कुछ हद तक एक मनुष्य के समान हो। वर्तमान में तुम लोगों की अपेक्षाएँ बहुत सारी हैं, ये अपेक्षाएँ सीमा से काफी परे हैं और तुम में बहुत अधिक मानवीय इरादे हैं। इससे साबित होता है कि तुम सही जगह पर नहीं खड़े हो; तुम जिस जगह खड़े हो वह बहुत ऊँची है, और तुमने खुद को अत्यधिक सम्माननीय मान लिया है—मानो तुम परमेश्वर से बहुत नीचे नहीं हो। इसलिए तुमसे निपटना मुश्किल है, और यह बिल्कुल शैतान की प्रकृति है। यदि ऐसी दशाएँ तुम्हारे भीतर मौजूद हैं, तुम निश्चित रूप से अक्सर नकारात्मक होगे और कम ही सामान्य होगे, इसलिए तुम्हारे जीवन की प्रगति धीमी होगी। इसके विपरीत, जो लोग हृदय से शुद्ध होते हैं और कम नकचढ़े होते हैं, वे सत्य को आसानी से स्वीकार कर तेजी से प्रगति करेंगे। शुद्ध हृदय वाले लोगों को उतनी पीड़ा का अनुभव नहीं होता, लेकिन तुम में बहुत तीव्र भावनाएँ हैं, तुम बहुत नकचढ़े हो, और तुम हमेशा परमेश्वर से माँग करते रहते हो, इसलिए तुम्हें सत्य स्वीकारने में बड़ी बाधाओं का सामना करना पड़ता है, और तुम्हारी जीवन प्रगति धीरे-धीरे होती है। कुछ लोग इसी तरह अनुसरण करते हैं, भले ही दूसरे लोग उन पर कैसे भी हमला करें और उन्हें बाहर कर दें, और वे इससे जरा भी प्रभावित नहीं होते। इस तरह के लोग उदार होते हैं, तो उन्हें थोड़ा कम कष्ट सहना पड़ता है, और अपने जीवन प्रवेश में थोड़ी कम बाधाओं का सामना करना पड़ता है। तुम नकचढ़े हो और हमेशा किसी न किसी चीज से प्रभावित होते रहते हो—किसने तुम्हें गलत ढंग से देखा, किसने तुम्हें नीची दृष्टि से देखा, किसने तुम्हारी अनदेखी की, या परमेश्वर ने क्या कहा जिससे तुम भड़के, या उसने कौन से कठोर वचन कहे जो तुम्हारे दिल को चुभ गए और तुम्हारे आत्मसम्मान को ठेस पहुँची, या उसने कौन-सी अच्छी चीज तुमको नहीं बल्कि किसी और को दे दी—और फिर तुम निराश हो जाते हो और परमेश्वर को गलत समझने लगते हो। इस तरह के लोग नकचढ़े होते हैं और उनमें जरा-सा भी विवेक नहीं होता। भले ही कोई उनके साथ सत्य पर कैसे भी संगति करे, वे बस इसे स्वीकार नहीं करेंगे और उनकी समस्याएँ अनसुलझी ही रहेंगी। इन लोगों से निपटना सबसे कठिन होता है।

मैं अक्सर तुम लोगों को इस तरह से संगति करते हुए सुनता हूँ : “मैं कुछ करते समय लड़खड़ा गया और बाद में कुछ कष्ट सहने के बाद मुझे थोड़ी समझ आई।” अधिकांश लोगों को इस प्रकार का अनुभव हुआ है—यह अनुभव बहुत सतही है। हो सकता है कि यह थोड़ी सी समझ वर्षों के अनुभवों के बाद आई हो, और इस थोड़ी सी समझ और परिवर्तन को हासिल करने के लिए ही लोगों ने बहुत सारी पीड़ाओं का अनुभव किया हो और उन्हें भयानक मुश्किलों से गुजरना पड़ा हो। यह कितना दयनीय है! लोगों की आस्था में बहुत सारी अशुद्धियाँ होती हैं, उनके लिए परमेश्वर पर विश्वास करना बहुत कठिन होता है! आज भी प्रत्येक व्यक्ति के भीतर कई अशुद्धियाँ बाकी हैं, और वे अभी भी परमेश्वर से कई माँगें करते रहते हैं—ये सभी मनुष्य की अशुद्धियाँ हैं। ऐसी अशुद्धियों का होना इस बात का प्रमाण है कि उसकी मानवता में कोई समस्या है, और यह उसके भ्रष्ट स्वभावों का खुलासा है। मनुष्य द्वारा परमेश्वर से की गई उचित और अनुचित माँगों के बीच अंतर होता है—इसका भेद स्पष्ट रूप से पहचान लेना चाहिए। व्यक्ति को यह स्पष्ट होना चाहिए कि मनुष्य को क्या जगह लेनी चाहिए और उसके पास क्या समझ होनी चाहिए। मैंने देखा है कि कुछ लोग हमेशा इस बात पर ध्यान केंद्रित करते हैं कि लोगों को लेकर मेरी मुख-मुद्रा कैसी है और वे हमेशा इस बात का अध्ययन करते रहते हैं कि परमेश्वर किसके साथ अच्छा व्यवहार करता है और किसके साथ बुरा व्यवहार करता है। यदि वे देखते हैं कि परमेश्वर उन्हें नकारात्मक भाव से देख रहा है, या उन्हें उजागर करते या उनकी निंदा करते सुनते हैं, तो वे इसे भुला नहीं पाते—चाहे तुम उनके साथ कितनी भी संगति करो, इससे काम नहीं चलता, और चाहे कितना भी समय बीत जाए, वे इससे पलट नहीं पाते। वे अपने बारे में फैसला सुनाते रहते हैं, उस एक वाक्यांश को पकड़े रहते हैं और उसका उपयोग यह निर्धारित करने के लिए करते हैं कि उनके प्रति परमेश्वर का रवैया कैसा है। वे नकारात्मकता में डूबे रहते हैं, और चाहे कोई उनके साथ सत्य पर कितनी भी संगति कर ले, वे इसे स्वीकारने को तैयार नहीं होते। यह बिल्कुल समझ से परे है। यह स्पष्ट है कि मनुष्य को परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के बारे में थोड़ी सी भी जानकारी नहीं है, और वह इसे बिल्कुल भी नहीं समझता। जब लोग पश्चात्ताप करने और बदलने में सक्षम होंगे, उनके प्रति परमेश्वर का रवैया भी बदलेगा। यदि परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया नहीं बदलता, तो क्या तुम्हारे प्रति परमेश्वर का रवैया बदल सकता है? यदि तुम बदलते हो, तो परमेश्वर का तुम्हारे साथ व्यवहार करने का तरीका बदलेगा, लेकिन यदि तुम नहीं बदलते, तो तुम्हारे प्रति परमेश्वर का व्यवहार भी नहीं बदलेगा। कुछ लोगों को अभी भी इस बात का कोई ज्ञान नहीं है कि परमेश्वर किस चीज से नफरत करता है, उसे क्या पसंद है, उसका आनंद, क्रोध, दुख और खुशी, उसकी सर्वशक्तिमत्ता और उसकी बुद्धि क्या है, और वे कुछ बोधात्मक ज्ञान के बारे में भी बात नहीं कर सकते—यही वह चीज है जो मनुष्य को सँभालना इतना कठिन बना देती है। मनुष्य उन सभी अच्छे अर्थ वाले वचनों को भूल जाता है जो परमेश्वर ने उससे कहे थे, लेकिन यदि वह केवल एक कठोर टिप्पणी कर देता है या काट-छाँट या न्याय का एक वाक्य भी बोलता है, तो यह मनुष्य के हृदय को भेद देता है। लोग सकारात्मक मार्गदर्शन के वचनों को गंभीरता से क्यों नहीं लेते, जबकि न्याय, काट-छाँट के वचन सुनकर परेशान, नकारात्मक और उनसे उबरने में असमर्थ हो जाते हैं? अंततः उन्हें वापस लौटने में चिंतन की लंबी अवधि लग सकती है, और वे इसे परमेश्वर के कुछ सांत्वनादायी वचनों के साथ जोड़ने के बाद ही जागेंगे। इन सांत्वनादायी वचनों के बिना वे अपनी नकारात्मकता से बाहर नहीं निकल पाएँगे। जब लोग अभी-अभी परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना शुरू कर रहे हैं, तो उनमें परमेश्वर के बारे में बहुत सारा गलत ज्ञान और गलतफहमियाँ हैं। वे हमेशा मानते हैं कि वे सही हैं, हमेशा अपने विचारों से चिपके रहते हैं, और वे उन बातों पर ध्यान नहीं देते जो दूसरे लोग कहते हैं। तीन से पाँच साल का अनुभव प्राप्त करने के बाद ही वे धीरे-धीरे समझना शुरू करते हैं, अंतर्दृष्टि प्राप्त करते हैं, पहचानते हैं कि वे गलत थे, और महसूस करते हैं कि उनसे निपटना कितना कठिन रहा है। ऐसा लगता है मानो वे तभी बड़े हुए हों। जैसे-जैसे वे अधिक अनुभव प्राप्त करते जाते हैं, वे परमेश्वर को समझने लगते हैं, और परमेश्वर के बारे में उनकी गलतफहमियाँ कम होती जाती हैं, वे अब शिकायत नहीं करते, और वे परमेश्वर में सामान्य आस्था रखनी शुरू कर देते हैं। अतीत की तुलना में उनका आध्यात्मिक कद एक वयस्क जैसा ज्यादा दिखता है। वे बच्चों की तरह हुआ करते थे—नाराज हो जाते थे, निराश हो जाते थे और कई बार खुद को परमेश्वर से दूर कर लेते थे। कुछ मामलों का सामना होने पर उन्होंने शिकायत की होगी, परमेश्वर के कुछ वचन उनकी नवीनतम धारणा का विषय बने होंगे, और उन्होंने कई बार परमेश्वर पर संदेह करना शुरू किया होगा—ऐसा तब होता है जब किसी का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा होता है। अब जब उन्होंने इतना कुछ अनुभव कर लिया है, और कई वर्षों तक परमेश्वर के वचनों को पढ़ा है, उन्होंने प्रगति की है, और वे पहले की तुलना में कहीं अधिक स्थिर हो गए हैं। यह सब सत्य को समझने का परिणाम है—यह उनके भीतर प्रभावी होने वाला सत्य है। इसलिए जब तक लोग सत्य को समझते हैं और उसे स्वीकार करने में सक्षम होते हैं, ऐसी कोई मुश्किल नहीं जिसे वे हल न कर सकें, और वे हमेशा कुछ न कुछ प्राप्त करेंगे, चाहे वे कितने भी लंबे समय तक अनुभव करें। बेशक यदि वे लंबे समय तक अनुभव नहीं करते तो ऐसा नहीं होगा, लेकिन जब तक वे अपने हर अनुभव से लाभ प्राप्त करते रहेंगे, वे जीवन में तेजी से आगे बढ़ेंगे।

यह तथ्य कि अब तुम लोगों को अगुआ, कार्यकर्ता या सुपरवाइजर बनने या महत्वपूर्ण कर्तव्य निभाने के लिए विकसित किया जा रहा है, यह साबित नहीं करता कि तुम लोगों का आध्यात्मिक कद ज्यादा बड़ा है। इसका मतलब बस इतना है कि तुम लोग औसत व्यक्ति की तुलना में थोड़ी बेहतर काबिलियत वाले हो, तुम अपने अनुसरण में थोड़े अधिक कर्मठ हो और तुम्हें विकसित करना थोड़ा अधिक मूल्यवान है। निश्चित रूप से इसका मतलब यह नहीं है कि तुम लोग परमेश्वर को समर्पित होने में सक्षम हो या खुद को परमेश्वर के आयोजनों की दया पर छोड़ सकते हो, और इसका मतलब यह नहीं है कि तुम लोगों ने अपनी संभावनाओं और आशाओं को एक तरफ कर दिया है। लोगों के पास अभी तक इस तरह की कोई समझ नहीं है। जब तुम काम कर रहे होते हो तब भी तुम लोग कुछ नकारात्मकता, आशीष प्राप्त करने के लिए इरादे और आकांक्षाएँ, और यहाँ तक कि मनुष्य की धारणाएँ और कल्पनाएँ साथ लेकर चलते हो। साथ ही, तुम अपना काम करते समय कुछ बोझ लिए चलते हो, मानो तुम ऐसा खुशी-खुशी नहीं करते बल्कि साख संचित करके पिछले पापों का प्रायश्चित्त कर रहे हो। तुम भी उस बिंदु तक नहीं पहुँचे हो जहाँ चाहे परमेश्वर तुम्हारे साथ कैसा भी व्यवहार करे, तुम केवल उसके इरादों और अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करने की चिंता करते रहो। क्या तुम लोग इसे हासिल कर सकते हो? लोगों के पास यह समझ नहीं है। वे सभी परमेश्वर का मन पढ़ना चाहते हैं, सोचते हैं : “असल में परमेश्वर का मेरे प्रति किस प्रकार का रवैया है? क्या वह मुझे सेवा प्रदान करने या मुझे बचाने और पूर्ण बनाने के लिए उपयोग कर रहा है?” वे सभी जानना चाहते हैं, बस कहने की हिम्मत नहीं कर पाते। यह तथ्य कि वे यह कहने की हिम्मत नहीं करते, साबित करता है कि अभी भी एक विचार उन पर हावी है : “इसके बारे में बात करने का कोई मतलब नहीं है—यह सिर्फ मेरी प्रकृति है और इसे बदलना संभव नहीं है। जब तक मैं खुद को कुछ भी बुरा करने से रोकता रहता हूँ, तब तक यह काफी है—मैं खुद से बहुत ज्यादा अपेक्षा नहीं करता।” वे स्वयं को न्यूनतम संभव स्थिति तक सीमित रखते हैं और अंततः कोई प्रगति नहीं कर पाते, साथ ही अपने कर्तव्यों का पालन करते समय अनमनी सोच रखते हैं। कुछ बार संगति करने के बाद ही तुम लोग सत्य को थोड़ा-बहुत समझने लगते हो और सत्य की वास्तविकता को थोड़ा-बहुत जानने लगते हो। तुम्हारा उपयोग किया जा रहा है या नहीं, या तुम्हारे प्रति परमेश्वर का रवैया क्या है—ये बातें महत्वपूर्ण नहीं हैं। कुंजी तुम्हारे व्यक्तिपरक प्रयासों में निहित है, तुम जो रास्ता चुनते हो और तुम आखिर बदलने में सक्षम हो या नहीं—ये सबसे अहम बिंदु हैं। भले ही परमेश्वर का तुम्हारे प्रति कितना भी अच्छा रवैया हो, यदि तुम नहीं बदलते तो यह काम नहीं करेगा। यदि कभी तुम्हारे साथ कुछ घटने पर तुम लड़खड़ा जाओ और तुम में थोड़ी सी भी वफादारी न हो, तो चाहे तुम्हारे प्रति परमेश्वर का रवैया कितना भी अच्छा क्यों न हो, इसका कोई फायदा नहीं होगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम चलने के लिए कौन सा रास्ता चुनते हो। हो सकता है कि अतीत में परमेश्वर ने तुम को शाप दिया हो और तुम्हारे प्रति नफरत और जुगुप्सा के शब्द कहे हों, लेकिन यदि तुम अब बदल गए हो, तो तुम्हारे प्रति परमेश्वर का रवैया भी बदल जाएगा। लोग हमेशा भयभीत, बेचैन रहते हैं और उनमें सच्ची आस्था की कमी होती है, जो दर्शाता है कि वे परमेश्वर के इरादों को नहीं समझते। अब जबकि तुम लोगों में थोड़ी समझ आ गई है, तो क्या भविष्य में जब तुम्हारे साथ कुछ घटित होगा तो क्या तुम तब भी नकारात्मक और कमजोर होगे? क्या तुम सत्य का अभ्यास करने और अपनी गवाही पर दृढ़ रहने में सक्षम होगे? क्या तुम सचमुच परमेश्वर के प्रति समर्पित हो पाओगे? यदि तुम ये चीजें हासिल कर सकते हो, तो तुम्हारे पास सामान्य मानवता की समझ होगी। अब तुम लोगों को मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों और परमेश्वर के उद्धार और इरादों का कुछ ज्ञान है, है न? तुम्हारे पास कम से कम एक मोटा-मोटा अंदाजा तो है। जब एक दिन तुम सत्य के सभी पहलुओं की कुछ वास्तविकताओं में प्रवेश करने में सक्षम होगे, तो तुम पूरी तरह से सामान्य मानवता को जी रहे होगे।

अंश 4

सत्य का अनुसरण करने का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा परमेश्वर के वचन पढ़ने पर ध्यान केंद्रित करना है। परमेश्वर के वचन पढ़कर कोई व्यक्ति कितना लाभ पा सकता है, यह उसके समझने की क्षमता पर निर्भर है। यूँ तो परमेश्वर के वचन हरेक पढ़ता है, मगर कुछ लोग उनका सच्चा अर्थ अच्छे से समझ पाते हैं और उनमें रोशनी खोज पाते हैं और अगर वे परमेश्वर के वचन पढ़ेंगे तो कुछ हासिल करेंगे। हालाँकि दूसरे लोग ऐसे नहीं हैं। वे परमेश्वर के वचनों को पढ़ते समय सिर्फ धर्म-सिद्धांतों को समझने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि वर्षों तक परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद वे कई धर्म-सिद्धांत समझते हैं और फिर भी जब वे समस्याओं का अनुभव करते हैं, तो उनका समाधान नहीं कर पाते; उन्होंने जो सीखा है, वह किसी काम का नहीं होता। यहाँ क्या चल रहा है? भले ही सभी लोग परमेश्वर के वचनों को पढ़ रहे हैं, मगर परिणाम अलग-अलग हैं। जो सत्य से प्रेम करते हैं वे इसे स्वीकारने में सक्षम हैं, जबकि जो सत्य से प्रेम नहीं करते वे परमेश्वर के वचन पढ़कर भी इसे स्वीकारने में अनिच्छुक हैं। वे परमेश्वर के वचनों में सत्य नहीं खोजेंगे, फिर चाहे वे किसी भी समस्या का सामना करें। थोड़े से अनुभव वाले लोग जब परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हैं, तो कुछ व्यावहारिक चीजों के बारे में चर्चा कर पाते हैं और सत्य के अपने व्यावहारिक ज्ञान के बारे में बात कर सकते हैं—सत्य को समझना यही है। जिनके पास अनुभव नहीं है, वे परमेश्वर के वचनों का सिर्फ शाब्दिक अर्थ ही समझते हैं, और उनमें रत्ती भर भी अनुभवजन्य ज्ञान नहीं होता है—इसे सत्य को समझना नहीं माना जा सकता। कुछ अगुआ अक्सर दूसरों को बताते हैं कि वे विशेष रूप से सत्य प्रदान करने के लिए कलीसिया जाते हैं। क्या यह कथन सही है? ये वचन “सत्य प्रदान करना” हल्के में नहीं बोलने चाहिए। सत्य किसके पास है? कौन यह कहने की हिम्मत करता है कि वह सत्य की आपूर्ति करता है? क्या यह दावा बहुत बड़ा नहीं है? जब तुम लोग परमेश्वर में विश्वास करते हो और उसका अनुसरण करते हो, तुम बस एक ऐसे व्यक्ति होते हो, जो सत्य को स्वीकारता और उसका अनुसरण करता है। अगर तुम यह कर सकते हो, यह पहले ही बहुत अच्छा है। भले ही कोई व्यक्ति कुछ सत्य समझ सकता है और सत्य के कुछ अनुभवजन्य ज्ञान के बारे में बोल सकता है, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि वह व्यक्ति सत्य की आपूर्ति करता है क्योंकि किसी भी व्यक्ति के पास सत्य नहीं है। कुछ अनुभवजन्य ज्ञान के बारे में बात करने को सत्य की आपूर्ति करना कैसे कहा जा सकता है? इसलिए अगुआ और कार्यकर्ताओं को सिर्फ सिंचन कार्य करने वालों और कलीसिया में भाई-बहनों के जीवन प्रवेश के लिए विशेष रूप से जिम्मेदार होने के रूप में ही वर्णित किया जा सकता है। उन्हें सत्य की आपूर्ति करने वाला नहीं कहा जा सकता। भले ही किसी व्यक्ति के पास थोड़ा आध्यात्मिक कद हो, उसे भी दूसरों को सत्य की आपूर्ति करने वाला नहीं कहा जा सकता। ऐसा बिल्कुल नहीं कहा जा सकता। कितने लोग सत्य समझते हैं? क्या किसी व्यक्ति का आध्यात्मिक कद उसे सत्य की आपूर्ति करने के योग्य बनाता है? भले ही किसी के पास सत्य का ज्ञान और कुछ अनुभव हो, तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि वह सत्य की आपूर्ति कर सकता है। ऐसा बिल्कुल नहीं कहा जा सकता, इसमें सूझ-बूझ की बहुत कमी है। कुछ लोग कलीसिया का सिंचन करने और सत्य की आपूर्ति करने में बहुत गर्व महसूस करते हैं, जैसे कि वे सत्य को बहुत ज्यादा समझते हैं। हालाँकि वे झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों का भेद पहचानने में अक्षम होते हैं। क्या यह विरोधाभासी नहीं है? अगर कोई तुमसे पूछता है कि सत्य क्या है, और तुम उत्तर देते हो, “परमेश्वर का वचन सत्य है; सत्य परमेश्वर का वचन है,” क्या तुम सत्य समझते हो? तुम सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को बोल सकते हो, और सत्य क्या है, तुम्हारे पास इसके अनुभवजन्य ज्ञान की कमी है, इसलिए तुम दूसरों को इसकी आपूर्ति करने के योग्य नहीं हो। अभी इस समय जो अगुआ के रूप में कार्यरत हैं, उन सभी में अनुभव की कमी है; उनमें सिर्फ थोड़ी सी काबिलियत है, और सत्य का अनुसरण करने की इच्छा है। वे विकसित और प्रशिक्षित किए जाने के लिए उपयुक्त हैं और वे कर्तव्य निभाने में अगुआई कर सकते हैं। भले ही वे किसी ज्ञान के बारे में संगति कर लेते हों, यह कैसे कहा जा सकता है कि वे सत्य की आपूर्ति करते हैं? बहुत-से अगुआ और कार्यकर्ता कुछ ज्ञान के बारे में बोल सकते हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि उनके पास सत्य वास्तविकता है। आखिरकार उन्होंने बहुत वर्षों तक धर्म उपदेश सुने हैं और उनके पास थोड़ा सा सतही ज्ञान है; वे सत्य पर संगति करने के इच्छुक हैं और दूसरों के लिए कुछ मददगार हो सकते हैं, लेकिन उन्हें सत्य की आपूर्ति करने वाला नहीं कहा जा सकता। क्या अगुआ और कार्यकर्ता सत्य की आपूर्ति करने में सक्षम हैं? बिल्कुल नहीं। अगुआ और कार्यकर्ता उपदेश देते हैं और कलीसिया का सिंचन करते हैं; सबसे महत्वपूर्ण बात, उन्हें व्यावहारिक समस्याओं को सुलझाने में सक्षम होना चाहिए, यही एक तरीका है कि वे वास्तव में कलीसिया का सिंचन कर सकते हैं। फिलहाल बहुत-से अगुआ और कार्यकर्ता अभी भी बहुत सी व्यावहारिक समस्याएँ सुलझाने में अक्षम हैं। भले ही वे सत्य के किसी ज्ञान पर संगति कर सकते हों, मगर वे जो कहते हैं उनमें से ज्यादातर अभी भी सिर्फ शब्द और धर्म-सिद्धांत ही होते हैं। वे सत्य की वास्तविकता पर स्पष्टता से संगति नहीं कर सकते, तो क्या वे वास्तव में समस्याएँ सुलझा सकते हैं? बहुत-से अगुआओं और कार्यकर्ताओं में सिर्फ थोड़ी सी समझने की क्षमता है, और उनके पास अभी भी बहुत ज्यादा व्यावहारिक अनुभव नहीं है। क्या यह कहा जा सकता है कि वे ज्यादा सत्य समझते हैं, और उनके पास दूसरों से ज्यादा सत्य वास्तविकता है? यह नहीं कहा जा सकता, वे मानक पूरा नहीं करते। कुछ अगुआओं और कार्यकर्ताओं को केवल विकसित किए जाने के उद्देश्य से प्रोन्नत किया जाता है; उन्हें अभ्यास करने की अनुमति दी जाती है क्योंकि उनमें थोड़ी सी काबिलियत होती है, और उनके पास थोड़ी सी समझने की क्षमता होती है, और उनका पारिवारिक माहौल अनुकूल होता है। इसका यह मतलब नहीं है कि अगर किसी को प्रोन्नत किया जाता है तो उसके पास सत्य वास्तविकता है और वह सत्य की आपूर्ति कर सकता है। बात सिर्फ इतनी है कि जो सत्य का अनुसरण करते हैं, वे दूसरों से पहले प्रबुद्धता और प्रकाश प्राप्त करते हैं, लेकिन यह थोड़ा सा प्रकाश सत्य के सामने छोटा पड़ जाता है, यह सत्य का हिस्सा नहीं है, यह सिर्फ सत्य के अनुरूप है। परमेश्वर जो सीधे व्यक्त करता है, सिर्फ वही सत्य है। पवित्र आत्मा का प्रबोधन केवल सत्य के अनुरूप है, क्योंकि पवित्र आत्मा लोगों को उनके आध्यात्मिक कद के अनुसार प्रबुद्ध करता है। वह लोगों से सीधे सत्य नहीं बोलता है। इसके बजाय, वह उन्हें प्रकाश देता है जिसे वे प्राप्त कर सकें। तुम्हें यह समझना होगा। अगर किसी व्यक्ति के पास परमेश्वर के वचनों पर कुछ अंतर्दृष्टि है और कुछ अनुभवजन्य ज्ञान है, तो क्या इसे सत्य माना जा सकता है? नहीं। ज्यादा से ज्यादा उसके पास सत्य की कुछ समझ है। पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता के वचन परमेश्वर के वचनों का प्रतिनिधित्व नहीं करते, सत्य का प्रतिनिधित्व नहीं करते, और वे सत्य नहीं हैं। ज्यादा से ज्यादा उस व्यक्ति के पास सत्य की कुछ समझ है, और उसे पवित्र आत्मा ने थोड़ा सा प्रबुद्ध बनाया है। अगर कोई व्यक्ति सत्य की कुछ समझ प्राप्त कर लेता है और फिर इसे दूसरों को प्रदान करता है, तो वह सिर्फ अपना अनुभवजन्य ज्ञान दूसरों को प्रदान कर रहा होता है। तुम यह नहीं कह सकते कि वह दूसरों तक सत्य की आपूर्ति कर रहा है। अगर तुम कहते हो कि वे सत्य पर संगति कर रहे हैं तो यह ठीक है; यह उचित वर्णन है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि तुम सत्य की अपनी समझ पर संगति करते हो; यह अपने आप में सत्य नहीं है। इसलिए तुम सिर्फ यह बोल सकते हो कि तुम कुछ अनुभवजन्य समझ पर संगति कर रहे हो; तुम यह कैसे कह सकते हो कि तुम सत्य की आपूर्ति कर रहे हो? सत्य की आपूर्ति करना कोई आसान बात नहीं है। यह वाक्य बोलने के योग्य कौन है? सिर्फ परमेश्वर ही लोगों तक सत्य की आपूर्ति करने में सक्षम है। क्या लोग सक्षम हैं? इसलिए तुम्हें इस मामले को स्पष्टता से देखना होगा। यह सिर्फ गलत वचनों के प्रयोग का मुद्दा नहीं है, सार यह है कि तुम तथ्यों के विरोध में जा रहे हो और उन्हें तोड़-मरोड़ रहे हो। जो तुम दावा कर रहे हो, वह बढ़ा-चढ़ाकर बोली गई बात है। लोगों में परमेश्वर के वचनों की कुछ अनुभवजन्य समझ हो सकती है, लेकिन तुम यह नहीं कह सकते कि उनके पास सत्य है, या कि वे सत्य के हैं। तुम ऐसा बिल्कुल नहीं कह सकते। चाहे लोग सत्य से कितनी भी समझ प्राप्त कर लें, तुम यह नहीं कह सकते कि उनके पास सत्य का जीवन है, यह कहना तो छोड़ ही दो कि वे सत्य के हैं। तुम ऐसा बिल्कुल नहीं कह सकते। लोग सिर्फ थोड़ा सा सत्य समझते हैं और उनके पास थोड़ा सा प्रकाश और अभ्यास के कुछ तरीके होते हैं। उनके पास सिर्फ समर्पण की कुछ वास्तविकता, और कुछ सच्चे परिवर्तन होते हैं। लेकिन तुम यह नहीं कह सकते कि उन्होंने सत्य प्राप्त कर लिया है। परमेश्वर सत्य व्यक्त करके लोगों को जीवन प्रदान करता है। परमेश्वर की यह भी अपेक्षा है कि लोग उसकी सेवा करने और उसे संतुष्ट करने के लिए सत्य समझें और सत्य प्राप्त करें। भले ही ऐसा दिन भी आए जब लोग परमेश्वर के कार्य का इस हद तक अनुभव कर लें कि वे वास्तव में सत्य प्राप्त कर चुके हों, तुम तब भी नहीं कह सकते कि लोग सत्य के हैं, यह कहना तो छोड़ ही दो कि लोगों के पास सत्य है। ऐसा इसलिए है क्योंकि भले ही लोगों के पास वर्षों का अनुभव हो, तो भी उनकी सत्य प्राप्त करने की एक सीमा होगी और यह बहुत सतही है। सत्य बेहद गहरी और रहस्यमय चीज है; यह जो परमेश्वर के पास है और जो वह स्वयं है। भले ही लोग पूरे जीवनकाल भर सत्य का अनुभव कर लें, जो उन्हें प्राप्त होगा वह बहुत सीमित होगा। लोग कभी भी पूर्ण सत्य प्राप्त करने, उसे पूरी तरह से समझने, या उसे पूरी तरह से जीने में सक्षम नहीं होंगे। परमेश्वर का यही मतलब है, जब वह कहता है कि लोग उसकी उपस्थिति में हमेशा बच्चे ही रहेंगे।

कुछ लोग मानते हैं कि जब एक बार वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्य का ज्ञान और अनुभव प्राप्त कर लेंगे और सत्य के हर पहलू की पूरी समझ प्राप्त कर लेंगे और सत्य के अनुसार कार्य करने लगेंगे, तो वे सत्य को व्यक्त करने में सक्षम हो जाएँगे। वे सोचते हैं कि ऐसा करने पर वे मसीह के रूप में जी रहे होंगे, ठीक जैसा पौलुस ने कहा, “मेरे लिये जीवित रहना मसीह है” (फिलिप्पियों 1:21)। क्या यह दृष्टिकोण सही है? क्या यह “परमेश्वर-पुरुष” दलील का एक और समर्थन नहीं है? यह बिल्कुल गलत है! लोगों को एक चीज समझनी होगी : चाहे तुम्हारे पास सत्य का कितना भी ज्ञान और अनुभव हो, या भले ही तुमने सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लिया हो, और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं को समर्पण करने में सक्षम हो, और परमेश्वर को समर्पण कर सकते हो और परमेश्वर के लिए गवाही दे सकते हो, चाहे तुम्हारा जीवन प्रवेश कितना भी ऊँचा या गहरा हो जाए, तुम्हारा जीवन अभी भी मनुष्य जीवन है, और एक मनुष्य कभी भी परमेश्वर नहीं बन सकता। यह एक पूर्ण तथ्य है जिसे लोगों को समझना होगा। भले ही अंत में तुम्हारे पास सत्य के हर पहलू का अनुभव और समझ हो और तुम परमेश्वर को तुम्हारा आयोजन करने दो और एक पूर्ण किए गए व्यक्ति बन जाओ, यह तब भी नहीं कहा जा सकता कि तुम सत्य की श्रेणी से संबंधित हो। भले ही तुम सच्ची अनुभवजन्य गवाही पर बोल सको, इसका यह मतलब नहीं है कि तुम सत्य व्यक्त कर सकते हो। अतीत में धार्मिक समूहों में यह कहना सामान्य बात थी कि किसी के “अंदर मसीह का जीवन” है। यह गलत और अस्पष्ट कथन है। हालाँकि लोग अब ऐसा नहीं कहते, इस मामले में उनकी समझ अस्पष्ट ही है। कुछ लोग सोचते हैं, “चूँकि हमने सत्य प्राप्त कर लिया है और सत्य हमारे अंदर है, सत्य हमारे पास है और हमारे हृदयों में सत्य है और हम भी इसे व्यक्त कर सकते हैं।” क्या यह भी गलत नहीं है? लोग अक्सर बात करते हैं कि उनके पास सत्य है या नहीं, जिसका मुख्य रूप से संदर्भ होता है कि क्या उनके पास सत्य का अनुभव और ज्ञान है, और क्या वे सत्य के अनुसार अभ्यास कर सकते हैं या नहीं। सभी सत्य का अनुभव करते हैं, हर व्यक्ति के अनुभव करने की दशा अलग होती है। हर व्यक्ति जो सत्य से प्राप्त करता है वह भी अलग होता है। अगर तुम सभी लोगों की अनुभवजन्य समझ को मिला भी दो, तो भी यह पूरी तरह से सत्य के सार के स्तर तक नहीं पहुँचेगी। सत्य इतना गहरा और रहस्यमय होता है! मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि जो भी तुमने प्राप्त किया है और जो भी तुमने समझा है, वह सत्य की जगह नहीं ले सकता? जब लोग तुम्हारी कुछ अनुभवजन्य समझ पर तुम्हारी संगति सुनेंगे तो वे इसे समझ जाएँगे, और इसे पूरी तरह से समझने और प्राप्त करने के लिए उन्हें लंबे समय तक अनुभव लेने की आवश्यकता नहीं होगी। भले ही यह कुछ ज्यादा गहरा हो, उन्हें कई वर्षों के अनुभव की जरूरत नहीं होगी। लेकिन जहाँ तक सत्य की बात है, लोग अपने पूरे जीवनकाल में इसका पूरा अनुभव नहीं कर सकेंगे। भले ही तुम सभी को एक साथ जोड़ दो, वे भी इसे पूरा अनुभव नहीं कर सकेंगे। जैसे कि तुम देख सकते हो, सत्य बहुत गहरा और रहस्यमय होता है। सत्य की गहराई से व्याख्या करने में वचन अक्षम हैं। मनुष्य की भाषा में कहें तो सत्य ही मनुष्यों के लिए सार तत्व है। मनुष्य कभी भी इसे पूरी तरह से अनुभव करने में सक्षम नहीं होंगे और वे कभी भी सत्य को पूरी तरह जीने में सक्षम नहीं होंगे। ऐसा इसलिए कि भले ही लोग कई हजार वर्ष भी खपा दें, वे सत्य के एक तत्व का भी पूरी तरह अनुभव नहीं कर पाएँगे। चाहे लोगों के पास कितने ही वर्षों का अनुभव हो, जो सत्य वे समझेंगे और प्राप्त करेंगे वह सीमित होगा। यह कहा जा सकता है कि सत्य मानवता के जीवन का अनंत झरना है। परमेश्वर सत्य का स्रोत है, और सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करना ऐसा कार्य है जिसका कोई अंत नहीं है।

सत्य स्वयं परमेश्वर का जीवन है; यह उसके स्वभाव, सार और जो परमेश्वर के पास है और जो वह स्वयं है, का प्रतिनिधित्व करता है। अगर तुम कहते हो कि कुछ अनुभवजन्य ज्ञान होने से तुमने सत्य पा लिया है, तो क्या तुमने पवित्रता प्राप्त कर ली है? तुम अभी भी भ्रष्टता प्रकट क्यों करते हो? तुम विभिन्न प्रकार के लोगों के बीच अंतर क्यों नहीं कर पाते? तुम परमेश्वर की गवाही क्यों नहीं दे पाते? अगर तुम कुछ सत्य समझते भी हो, तो भी क्या तुम परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकते हो? क्या तुम परमेश्वर के स्वभाव को जी सकते हो? तुम्हारे पास एक सत्य के किसी निश्चित पहलू के बारे में कुछ अनुभवजन्य ज्ञान हो सकता है, और तुम अपने भाषण में उस पर थोड़ा प्रकाश डालने में सक्षम हो सकते हो, लेकिन तुम लोगों को जो प्रदान कर सकते हो, वह बेहद सीमित है और लंबे समय तक नहीं टिक सकता। ऐसा इसलिए है, क्योंकि तुम्हारी समझ और तुम्हारे द्वारा प्राप्त किया गया प्रकाश सत्य के सार का प्रतिनिधित्व नहीं करते, और वे सत्य की संपूर्णता का प्रतिनिधित्व भी नहीं करते। वे सत्य के केवल एक पक्ष या एक छोटे-से पहलू का प्रतिनिधित्व करते हैं, वे केवल एक स्तर हैं जिसे मनुष्य द्वारा प्राप्त किया जा सकता है और जो अभी भी सत्य के सार से दूर है। यह थोड़ा-सा प्रकाश, प्रबुद्धता, अनुभवजन्य ज्ञान कभी सत्य का स्थान नहीं ले सकता। भले ही सभी लोगों ने सत्य का अनुभव कर कुछ परिणाम प्राप्त किए हों और उनके समस्त अनुभवजन्य ज्ञान को एक साथ रख दिया जाए, फिर भी वह उस सत्य की एक भी पंक्ति की संपूर्णता और सार तक नहीं पहुँच पाएगा। अतीत में कहा गया है, “मैं इसे मानव-संसार के लिए एक सूक्ति के साथ सारांशित करता हूँ : मनुष्यों में, कोई भी ऐसा नहीं है जो मुझे प्रेम करता है।” यह वाक्य सत्य, जीवन का सच्चा सार, सबसे गहन चीज, और स्वयं परमेश्वर की अभिव्यक्ति है। तुम अनुभवों से गुजरते हो और तीन वर्षों के अनुभव के बाद तुम्हें थोड़ी सतही समझ हो सकती है, और सात-आठ वर्षों के बाद तुम्हें थोड़ी और समझ हो सकती है, लेकिन यह समझ कभी सत्य की इस पंक्ति की जगह नहीं ले सकती। दो साल के बाद किसी और को थोड़ी समझ हो सकती है या दस साल बाद कुछ अधिक समझ हो सकती है या एक जीवनकाल के बाद अपेक्षाकृत ऊँची समझ हो सकती है, लेकिन तुम दोनों की साझा समझ सत्य की इस पँक्ति का स्थान नहीं ले सकती है। तुम दोनों के पास कितनी भी अंतर्दृष्टि, प्रकाश, अनुभव या ज्ञान हो, वे सत्य की इस पंक्ति की जगह कभी नहीं ले सकते। कहने का तात्पर्य यह है कि मानव-जीवन हमेशा मानव-जीवन होता है, और तुम्हारा ज्ञान कैसे भी सत्य, परमेश्वर के इरादों या परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप हो, वह सत्य का स्थान कभी नहीं ले सकता। लोगों के पास सत्य है, यह कहने का अर्थ यह होता है कि लोग वास्तव में सत्य को समझते हैं, परमेश्वर के वचनों की कुछ वास्तविकताओं को जीते हैं, परमेश्वर के बारे में कुछ वास्तविक ज्ञान रखते हैं, और परमेश्वर का उत्कर्ष कर उसकी गवाही दे सकते हैं। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि लोगों के पास पहले से ही सत्य है, क्योंकि सत्य बहुत गहन है। परमेश्वर के वचनों की सिर्फ एक पंक्ति का अनुभव करने में भी लोगों का पूरा जीवन लग सकता है, और कई जन्मों या हजारों वर्षों के अनुभव के बाद भी परमेश्वर के वचनों की एक भी पंक्ति का पूरी तरह से अनुभव नहीं किया जा सकता। यह स्पष्ट है कि सत्य को समझने और परमेश्वर को जानने की प्रक्रिया वास्तव में अंतहीन है, और इस बात की एक सीमा है कि लोग जीवन भर के अनुभव में कितना सत्य समझ सकते हैं। परमेश्वर के वचनों का शाब्दिक अर्थ समझते ही कुछ लोग कहते हैं कि सत्य उनके हाथ आ गया है। क्या यह बकवास नहीं है? प्रकाश और ज्ञान दोनों के संदर्भ में, बात गहराई की है। जीवन भर विश्वास रखकर जिन सत्य वास्तविकताओं में इंसान प्रवेश कर सकता है, वे सीमित हैं। इसलिए, तुम्हारे पास कुछ ज्ञान और प्रकाश होने का यह मतलब नहीं कि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकताएँ हैं। मुख्य बात जो तुम्हें देखनी चाहिए, यह है कि वह प्रकाश और ज्ञान सत्य के सार को छूता है या नहीं। यह सबसे महत्वपूर्ण बात है। कुछ लोगों को लगता है कि चूँकि वे प्रकाश डाल सकते हैं या उसकी थोड़ी सतही समझ प्रदान कर सकते हैं, इसलिए उनके पास सत्य है। इससे वे खुश हो जाते हैं, इसलिए वे दंभी और अहंकारी हो जाते हैं। वास्तव में वे अभी भी सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने से बहुत दूर होते हैं। लोगों के पास क्या सत्य है? जिन लोगों के पास सत्य है, क्या वे कभी और कहीं भी गिर सकते हैं? जब लोगों के पास सत्य है, तो वे तब भी परमेश्वर का प्रतिरोध कैसे कर सकते हैं और कैसे उसे धोखा दे सकते हैं? अगर तुम दावा करते हो कि तुम्हारे पास सत्य है तो यह साबित करता है कि तुम्हारे भीतर मसीह का जीवन है—यह चौंकाने वाली बात है! तुम प्रभु बन गए, तुम मसीह बन गए? यह एक बेतुका कथन है और यह पूरी तरह से लोगों द्वारा निकाला हुआ निष्कर्ष है; यह मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं से संबंधित है और परमेश्वर के साथ एक निभने योग्य स्थिति नहीं है।

जब लोगों के सत्य समझने, और अपने जीवन के रूप में इसके साथ जीने की बात करते हैं, तो इस “जीवन” का क्या तात्पर्य है? इसका अर्थ है कि सत्य का ही उनके हृदय में सर्वोच्च शासन है, इसका तात्पर्य है कि वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीवनयापन करते हैं और इसका अर्थ है कि उन्हें परमेश्वर के वचनों का सच्चा ज्ञान है और सत्य की समझ है। जब लोगों के अंदर यह नया जीवन होता है, तो यह पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के अभ्यास और अनुभव से हासिल होता है। यह परमेश्वर के वचनों के सत्य की बुनियाद पर बना होता है, और इसे सत्य के दायरे में रहते हुए हासिल किया जाता है; लोगों के जीवन में जो कुछ भी होता है, वह उनका सत्य का ज्ञान और अनुभव होता है। वह इसका आधार है, और यह उस दायरे से बाहर नहीं जाता; सत्य और जीवन प्राप्त करने की बात करते समय, इसी जीवन की चर्चा की जा रही है। परमेश्वर के वचनों के सत्य के अनुसार जी पाने का मतलब यह नहीं है कि सत्य का जीवन लोगों के अंदर है, न ही यह है कि अगर उनमें सत्य अपने जीवन के रूप में है तो वे सत्य बन जाते हैं और उनका आंतरिक जीवन सत्य का जीवन बन जाता है; यह तो छोड़ ही दो कि वे सत्य और जीवन हैं। आखिरकार, उनका जीवन इंसान का जीवन ही है। अगर तुम परमेश्वर के वचनों पर निर्भर रहकर जी सको और सत्य का ज्ञान रख सको, अगर यह ज्ञान तुम्हारे अंदर जड़ें जमा सके और तुम्हारा जीवन बन जाए और अनुभव से जो सत्य तुमने पाया है, वह तुम्हारे अस्तित्व का आधार बन जाए, अगर तुम परमेश्वर के इन वचनों के अनुसार जियो, तो कोई इस स्थिति को नहीं बदल सकता, शैतान तुम्हें गुमराह या भ्रष्ट नहीं कर सकता, तब तुम सत्य और जीवन पा लोगे। यानी तुम्हारे जीवन में केवल सत्य होगा, इसका मतलब सत्य की तुम्हारी समझ, अनुभव और अंतर्दृष्टि होगी और तुम चाहे कुछ भी करो, तुम इन्हीं चीजों के अनुसार जियोगे, तुम उनके दायरे से बाहर नहीं जाओगे। सत्य वास्तविकता होने का यही अर्थ है, और अंत में परमेश्वर अपने कार्य से ऐसे ही लोगों को प्राप्त करना चाहता है। लेकिन लोग सत्य को चाहे जितनी अच्छी तरह से समझ लें, उनका सार तो फिर भी इंसान का सार ही होता है, इसकी तुलना परमेश्वर के सार से बिल्कुल नहीं की जा सकती। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे कभी संपूर्ण सत्य का अनुभव नहीं कर सकते, और उनके लिए सत्य को पूरी तरह से जी पाना असंभव है, वे केवल उसी बेहद सीमित सत्य को ही जी सकते हैं जो मनुष्यों के लिए प्राप्य है। तो, फिर वे परमेश्वर कैसे बन सकते हैं? अगर परमेश्वर ने व्यक्तिगत रूप से लोगों को बड़े परमेश्वरों और छोटे परमेश्वरों के रूप में पूर्ण बनाया होता, तो क्या अराजकता नहीं फैल जाती? साथ ही, ऐसी कोई चीज असंभव और बेतुकी है—यह मनुष्य का हास्यास्पद विचार है। परमेश्वर ने स्वर्ग और पृथ्वी और सभी चीजें सृजित की हैं, और फिर उसने मनुष्य को सृजित किया, ताकि मनुष्य उसके प्रति समर्पित हो और उसकी आराधना करे। परमेश्वर द्वारा मनुष्य का सृजन करना सबसे सार्थक कार्य था। परमेश्वर ने सिर्फ मनुष्य का सृजन किया; उसने परमेश्वरों का सृजन नहीं किया। परमेश्वर देहधारण के रूप में कार्य करता है, लेकिन यह उसके द्वारा परमेश्वर का सृजन करने के समान नहीं है। परमेश्वर ने अपना सृजन नहीं किया; उसके पास उसका अपना सार है, और यह अपरिवर्तनीय है। लोग परमेश्वर को नहीं जानते, इसलिए उन्हें अधिक से अधिक परमेश्वर के वचन पढ़ने चाहिए; लोग केवल तभी सत्य समझ सकते हैं, जब वे अक्सर इसकी खोज करते रहें। लोगों को अपनी कल्पना के आधार पर बकवास नहीं करनी चाहिए। अगर तुम्हें परमेश्वर के वचनों का थोड़ा-बहुत अनुभव है, और तुम सत्य के सच्चे अनुभवजन्य ज्ञान के अनुसार जी रहे हो, तब परमेश्वर के वचन धीरे-धीरे तुम्हारा जीवन बन जाते हैं। फिर भी, तुम यह नहीं कह सकते कि सत्य तुम्हारा जीवन है या तुम जो व्यक्त करते हो, वह सत्य है; अगर तुम्हारा यह विचार है, तो तुम गलत हो। यदि तुम्हारे पास केवल सत्य के किसी एक खास पहलू के अनुसार कुछ अनुभव है, तो क्या यह इस बात का प्रतिनिधित्व कर सकता है कि तुम्हारे पास सत्य है? क्या इसे सत्य प्राप्त करना कहा जा सकता है? क्या तुम सत्य की पूरी व्याख्या कर सकते हो? क्या तुम सत्य से परमेश्वर के स्वभाव का और जो परमेश्वर के पास है और जो वह स्वयं है, उसका पता लगा सकते हो? अगर ये परिणाम नहीं प्राप्त किए जाते, तो इससे साबित होता है कि केवल सत्य के किसी पहलू का अनुभव पा लेने को वास्तव में सत्य की समझ हासिल कर लेना या परमेश्वर को जान लेना नहीं माना जा सकता, इसे सत्य प्राप्त कर लेना तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक व्यक्ति को सत्य के सिर्फ एक पहलू और दायरे का ही अनुभव होता है; वे इसे उसके सीमित दायरे में अनुभव करते हैं और सत्य के अनगिनत पहलुओं को नहीं छू पाते। क्या लोग सत्य के मूल अर्थ को जी सकते हैं? तुम्हारा ज़रा-सा अनुभव किसके बराबर है? समुद्र तट पर रेत के एक कण के बराबर; महासागर में पानी की एक बूँद के बराबर। इसलिए, भले ही तुम्हारे अनुभव से प्राप्त समझ और अनुभूतियां कितनी भी अनमोल हों, फिर भी उन्हें सत्य नहीं माना जा सकता। उन्हें केवल सत्य के अनुरूप ही माना जा सकता है। सत्य परमेश्वर से आता है, और सत्य के आंतरिक अर्थ और वास्तविकताओं का दायरा बहुत व्यापक है और न कोई थाह पा सकता है और न ही खंडन कर सकता है। अगर तुम्हें सत्य और परमेश्वर की वास्तविक समझ है, तुम थोड़े-बहुत सत्य समझ लोगे, कोई भी इस वास्तविक समझ का खंडन नहीं कर पाएगा और सत्य वास्तविकताओं वाली गवाहियाँ हमेशा अडिग होती हैं। परमेश्वर उनका अनुमोदन करता है, जिनके पास सत्य वास्तविकताएं होती हैं। अगर तुम्हारा परिवेश चाहे जैसा भी हो, तुम सत्य का अनुसरण करते हो, परमेश्वर के वचनों का अनुभव करने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करते हो और सत्य को अपने जीवन के रूप में स्वीकार कर सकते हो, तो तुम्हारे पास एक मार्ग होगा, तुम जीवित रह पाओगे और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करोगे। भले ही लोग जो थोड़ा-बहुत प्राप्त करते हैं वह सत्य के अनुरूप होता है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि यह सत्य है, यह तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने सत्य प्राप्त कर लिया है। लोगों ने जो थोड़ा सा प्रकाश प्राप्त किया है वह केवल एक निश्चित दायरे में खुद के लिए या कुछ अन्य लोगों के लिए ही उपयुक्त है, वो एक अलग दायरे में उपयुक्त नहीं है। किसी व्यक्ति का अनुभव कितना भी गहन हो, लेकिन वो होता बहुत ही सीमित है, किसी व्यक्ति का अनुभव सत्य की गहराई तक कभी नहीं पहुँच सकता। किसी व्यक्ति के प्रकाश और उसकी समझ की तुलना सत्य से कभी नहीं की जा सकती।

जब लोगों को परमेश्वर के वचनों का कुछ अनुभव हो जाता है, वे कुछ सत्य और परमेश्वर के थोड़े-से इरादे समझ लेते हैं, जब उनके पास परमेश्वर का कुछ ज्ञान हो जाता है और जब उनका स्वभाव थोड़े से परिवर्तन से गुजरकर शुद्ध हो चुका होता है, तब भी यही कहा जा सकता है कि वे व्यक्ति हैं और एक सृजित प्राणी हैं, लेकिन वे ठीक इसी तरह के सामान्य व्यक्ति हैं जिन्हें परमेश्वर प्राप्त करना चाहता है। तो तुम किस तरह के व्यक्ति हो? कुछ लोग कहते हैं, “मैं एक ऐसा व्यक्ति हूँ जिसके पास सत्य है।” ऐसा कहना उचित नहीं होगा। तुम सिर्फ कह सकते हो, “मैं एक ऐसा व्यक्ति हूँ जिसे शैतान द्वारा भ्रष्ट किया जा चुका है, और जिसने परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना का अनुभव किया है। मैं अंततः सत्य समझ चुका हूँ और मेरा भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध हो चुका है। मैं एक व्यक्ति मात्र हूँ जिसे परमेश्वर द्वारा बचाया गया है।” अगर तुम कहते, “मैं एक ऐसा व्यक्ति हूँ जिसके पास सत्य है। मैंने परमेश्वर के सभी वचनों का अनुभव कर लिया है और उन सभी को समझ लिया है। मैं उस सब का अर्थ जानता हूँ जो परमेश्वर कहता है, और संदर्भ और परिस्थितियाँ जानता हूँ जिनमें वे वचन बोले गए हैं। मैं यह सब जानता हूँ। क्या इसका यह मतलब नहीं कि मेरे पास सत्य है?” तो तुम फिर से गलत होते। परमेश्वर के वचनों का कुछ अनुभव करने और उनसे कुछ प्रकाश प्राप्त करने से तुम ऐसे व्यक्ति नहीं बन जाते जिसके पास सत्य है। जो कुछ धर्म-सिद्धांतों को सिर्फ समझ सकते हैं और उन पर चर्चा कर सकते हैं, वे ऐसा दावा करने के लिए तो और भी कम योग्य हैं। लोगों को स्पष्टता से समझना होगा कि एक व्यक्ति को परमेश्वर के सामने और सत्य के सामने कौन सा रुख अपनाना चाहिए, लोग क्या हैं, मनुष्य के अंदर जीवन क्या है और परमेश्वर का जीवन क्या है। लोगों को समझना होगा कि मनुष्य का सार क्या है। कुछ दिनों के लिए परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के बाद और कुछ वचन और धर्म-सिद्धांत समझने के बाद कुछ लोग महसूस करने लगते हैं कि उनके पास सत्य है। ये सबसे अहंकारी लोग हैं और सूझ-बूझ से विहीन हैं। इस मामले का गहन-विश्लेषण जरूर करना चाहिए ताकि लोग वास्तव में खुद को समझ सकें और मानवजाति को जान सकें, और ताकि वे समझ सकें कि भ्रष्ट मानवजाति क्या है, अंततः पूर्ण होने के बाद लोग किस स्तर को प्राप्त कर सकते हैं और उन्हें संबोधित करने और नाम देने का उचित तरीका क्या है। लोगों को इन चीजों को जानना चाहिए, और कल्पना की उड़ानों में नहीं फँसना चाहिए। लोगों के लिए यह बेहतर है कि वे अपने आचरण में अधिक यथार्थवादी रहें, उस तरह वे थोड़े और जमीन से जुड़े रहेंगे। कुछ लोग जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वे हमेशा अपने सपनों के पीछे भागते रहते हैं और हमेशा परमेश्वर के जीवन और छवि को जीने की इच्छा रखते हैं। क्या यह वास्तविक है? लोग हमेशा परमेश्वर का जीवन पाना चाहते हैं—क्या यह खतरनाक चीज नहीं है? यह मनुष्यों की अहंकारी महत्वाकांक्षा है, और यह शैतान की अहंकारी महत्वाकांक्षा की तरह है। कुछ लोग कलीसिया में कुछ समय तक काम करने के बाद सोचने लगते हैं, “बड़े लाल अजगर के पतन के बाद क्या हमें राजा बनना चाहिए और सत्ता चलानी चाहिए? हम में से प्रत्येक को कितने शहरों पर नियंत्रण करना चाहिए?” अगर व्यक्ति ऐसी चीजें प्रकट कर सकता है, तो यह भयानक है। जिन लोगों के पास कोई अनुभव नहीं है वे धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात करना और कल्पनाओं में फँसना पसंद करते हैं। और जब वे ऐसा करते हैं तो वे चालाक महसूस तक करते हैं, मानो उन्होंने परमेश्वर में अपनी आस्था में सफलता हासिल कर ली हो, मानो वे मसीह और परमेश्वर के रूप में जी रहे हों। वे सब पौलुस के अनुयायी हैं, और वे पौलुस के मार्ग पर चल रहे हैं। अगर ये निरंतर हठपूर्वक मृत्युपर्यंत पश्चात्ताप नहीं करते, तो ये सभी लोग मसीह-विरोधी बन जाएँगे और गंभीर दंड भुगतेंगे।

अंश 5

परमेश्वर द्वारा कहे गए इन वचनों के संबंध में जब तुम लोग इन्हें सुनते हो, तो क्या तुम उनकी तुलना अपने आप से करते हो, या बस उन्हें धर्म-सिद्धांत के रूप में सुनते हो, इन पर अपने मन में सरसरी तौर पर सोचते हो ताकि तुम उनका अर्थ समझ लो और बस इतना काफी होता है? सुनते समय तुम लोगों का रवैया और इरादे किस प्रकार के होते हैं? अगर तुम लोग वाकई समझते हो जो परमेश्वर ने कहा है कि जो लोग सत्य का अभ्यास नहीं करते उन्हें बाहर निकाल दिया जाएगा; कि जो लोग सत्य का अभ्यास नहीं करते, वे परमेश्वर की दृष्टि में अच्छे नहीं बल्कि बुरे लोग हैं—तो तुम्हें आत्म-चिंतन करना चाहिए और देखना चाहिए कि तुम्हारे कौन से कार्य सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे हैं, और तुम्हारे कौन से अभ्यास और रवैये परमेश्वर द्वारा सत्य का अभ्यास न करने की अभिव्यक्तियों के रूप में देखे जाते हैं। क्या तुम लोगों ने कभी इन मामलों पर मंथन करने की कोशिश की है? क्या तुमने आत्म-चिंतन किया है? बस सरसरी नजर से परमेश्वर के वचन पढ़ना पर्याप्त नहीं है; तुम्हें जानना चाहिए कि उन पर मंथन और आत्म-चिंतन कैसे करें और अपने विचारों और कार्यों की तुलना परमेश्वर के प्रकाशन के वचनों से करनी चाहिए और आत्म-ज्ञान प्राप्त करना चाहिए—केवल इसी तरह से तुम सच्चा पश्चात्ताप और परिवर्तन प्राप्त कर सकते हो। यदि तुम परमेश्वर के वचन पढ़ते हो, लेकिन यह नहीं जानते कि उन पर मंथन या आत्म-चिंतन कैसे करें, इसके बजाय केवल धर्म-सिद्धांत समझने पर ध्यान केंद्रित करते हो, तो परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास के जरिए तुम्हें कोई जीवन प्रवेश नहीं मिलेगा, न ही तुम किसी वास्तविक परिवर्तन से गुजरोगे। इसलिए परमेश्वर के वचन पढ़ते समय मंथन करना, सत्य की खोज करना और आत्म-चिंतन करना अत्यंत आवश्यक है। परमेश्वर के वचन क्या हैं? वे सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता हैं, वे सत्य हैं, वे मार्ग हैं, वे मनुष्यों को परमेश्वर द्वारा दिया गया जीवन हैं। परमेश्वर के वचन धर्म-सिद्धांत नहीं हैं, वे नारे नहीं हैं, वे किसी प्रकार की सैद्धांतिकी और शिक्षण नहीं हैं, न ही वे फलसफाई ज्ञान हैं; बल्कि वे सत्य हैं जिन्हें लोगों को समझना और प्राप्त करना चाहिए और वे वह जीवन हैं जिसे उन्हें प्राप्त करना चाहिए। इसलिए परमेश्वर के वचन लोगों के जीवन से और उनके जीवन से, जिस मार्ग पर उन्हें चलना चाहिए उस मार्ग से और उनके परिणाम और गंतव्य से गहराई से संबंधित हैं। यदि कोई वास्तव में सत्य समझता है और उसने सत्य प्राप्त कर लिया है, तो उसके बारे में सब कुछ तदनुसार बदल जाएगा। यदि कोई कभी भी सत्य नहीं समझ सकता या परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं जी सकता, तो वह संभवतः वास्तविक परिवर्तन प्राप्त नहीं कर सकता या परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त नहीं कर सकता। उस व्यक्ति का परिणाम और गंतव्य केवल नरक का दुख भोगना और नष्ट हो जाना ही हो सकते हैं। परमेश्वर के वचन और उसके द्वारा व्यक्त सत्य लोगों के लिए इतने महत्वपूर्ण होते हैं। यदि तुम परमेश्वर के वचन पढ़ते हो, लेकिन नहीं जानते कि उन पर मंथन कैसे करें, आत्म-चिंतन नहीं करते हो, या उन्हें अपनी वास्तविक समस्याओं और कठिनाइयों से नहीं जोड़ते हो, तो तुम जो कुछ भी समझने में सक्षम हो वह बहुत सतही है और तुम संभवतः सत्य को नहीं समझ सकते हो या परमेश्वर के इरादों को नहीं पकड़ सकते हो। इसलिए तुम्हें सत्य को समझने के लिए परमेश्वर के वचनों पर मंथन करना सीखना होगा। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। परमेश्वर के वचनों पर मंथन करने के बहुत-से तरीके हैं : तुम उन्हें मौन रहकर पढ़ सकते हो और दिल में प्रार्थना कर सकते हो, पवित्र आत्मा से प्रबुद्धता और रोशनी खोज सकते हो; जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, उनकी संगति में तुम सहभागिता भी कर सकते हो और प्रार्थना-पाठ कर सकते हो; और यकीनन तुम परमेश्वर के वचनों की अपनी समझ और अंतदृष्टि को गहनतर बनाने के लिए अपने मंथन में संगतियों और धर्मोपदेशों को जोड़ सकते हो। तरीके अनेक और विविध हैं। संक्षेप में, यदि परमेश्वर के वचन पढ़ने में तुम उन वचनों की समझ हासिल करना चाहते हो तो यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि परमेश्वर के वचनों पर मंथन किया जाए और उनका प्रार्थना-पाठ किया जाए। परमेश्वर के वचनों का प्रार्थना-पाठ करने का उद्देश्य यह नहीं है कि तुम उन्हें याद कर सकते हो या उन्हें कंठस्थ कर सकते हो; बल्कि तुम उन वचनों का प्रार्थना-पाठ करने और उन पर मंथन करने के बाद उनकी एक सटीक समझ प्राप्त कर सको और ताकि तुम परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए इन वचनों के अर्थ और साथ ही उसके इरादों को जान सको। यह इसलिए ताकि तुम उनमें अभ्यास का मार्ग खोज सको और अपने ही मार्ग की ओर मुड़ने से रोक सको। साथ ही, यह इसलिए ताकि तुम परमेश्वर के वचनों में उजागर की गई सभी तरह की दशाओं और लोगों के बारे में भेद पहचान पाओ और हर तरह के व्यक्ति के साथ सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार कर सको, साथ ही यह भटकने से बचना है। एक बार जब तुम यह सीख लेते हो कि परमेश्वर के वचनों का प्रार्थना-पाठ कैसे करना है और उन पर मंथन कैसे करना है और इसे प्रायः करते हो, तो केवल तभी परमेश्वर के वचन तुम्हारे दिल में जड़ें जमा सकेंगे और तुम्हारा जीवन बन सकेंगे।

अंश 6

अंत के दिनों में सृष्टिकर्ता ने सार्वजनिक रूप से इतने अधिक वचन व्यक्त किए हैं, इस तरह तमाम तरह के लोगों का खुलासा किया है। अब, जब विभिन्न प्रकार के लोग सत्य, सच्चे मार्ग और सृष्टिकर्ता के कथनों का सामना करते हैं, तो हर तरह की आवाजें और विचार प्रकट होते हैं। कुछ ऐसे हैं जिनके विचार और दृष्टिकोण विकृत हैं, कुछ आत्मतुष्ट और घमंडी हैं और कुछ रूढ़िवादी हैं जो पारंपरिक संस्कृति से चिपके रहते हैं और संकीर्ण सोच रखते हैं। कई ऐसे भी हैं जो मूर्ख और अज्ञानी हैं। यहाँ तक कि कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सत्य से नफरत करते हैं और उसके प्रति शत्रुता रखते हैं, जो पागल कुत्तों की तरह उन्माद में हमला करते हैं और सत्य और सकारात्मक चीजों की लापरवाही से आलोचना करते हैं और मनमाने ढंग से निंदा करते हैं। वे किसी भी सकारात्मक चीज और सत्य की किसी भी अभिव्यक्ति की मनमाने ढंग से आलोचना और निंदा करते हैं और यह पहचानने का कोई प्रयास नहीं करते कि वह सही है या गलत, या उसमें सत्य है भी या नहीं। ये लोग जानवर और दानव हैं। जब मनुष्यों का सामना सत्य और सच्चे मार्ग से होता है, तो उनके कई अलग-अलग विचार होते हैं जो उनकी संकीर्ण मानसिकता, जिद, हठ और घमंड की शैतानी कुरूपता को प्रकट और उजागर कर देते हैं। तुम लोगों को इससे भेद पहचानना सीखना चाहिए और इससे अंतर्दृष्टि प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए, साथ ही इसके माध्यम से कुछ सत्य की खोज भी करनी चाहिए। यदि इन बातों का खुलासा उन लोगों में होता है जो विश्वास नहीं करते और जिन्होंने अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य को स्वीकार नहीं किया है, तो क्या तुम लोग स्वयं इन चीजों का प्रदर्शन करते हो? कभी-कभी तुम लोगों का इन चीजों का प्रदर्शन करने का तरीका अलग होता है और जो चीजें तुम लोग कहते हो वे अलग होती हैं, लेकिन वास्तव में तुम लोग भी उन्हीं के जैसे स्वभाव प्रकट करते हो। यह ठीक वैसा ही है जैसे कुछ लोग जब प्रभु यीशु को स्वीकार लेते हैं, तो वे मानते हैं कि दुनिया में हर कोई जो प्रभु यीशु को स्वीकार नहीं करता, वह निम्नतर है। वे मानते हैं कि चूँकि उन्होंने प्रभु यीशु के क्रूस के उद्धार को स्वीकार लिया है, इसलिए वे श्रेष्ठ व्यक्ति हैं और वे सभी को नीची नजरों से देखते हैं। यह किस प्रकार का स्वभाव है? उनमें अंतर्दृष्टि की कमी होती है। वे बहुत संकीर्ण सोच वाले होते हैं और वे विशेष रूप से घमंडी और आत्मतुष्ट होते हैं। वे देखते हैं कि दूसरे लोग भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर रहे हैं, लेकिन वे यह नहीं देख पाते कि वे स्वयं भी वैसे ही भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर रहे हैं। तो, क्या तुम लोग ये बातें प्रकट करते हो? तुम लोग निश्चित रूप से करते हो। मनुष्य के सभी भ्रष्ट स्वभाव बिल्कुल एक जैसे हैं और अंतर केवल इतना है कि परमेश्वर के कार्य और उद्धार, उसके कार्य की जरूरतों, या उसके विधान के कारण, हर प्रकार के व्यक्ति के प्रकृति सारों, अनुसरणों और आकांक्षाओं में भिन्नता होती है। कुछ लोगों में कोई दिल या आत्मा नहीं होता। वे मुर्दा लोग और जानवर हैं जिन्हें आस्था समझ में नहीं आती। ये लोग समस्त मानवजाति में सबसे निम्न हैं और इनकी गिनती मानवों में नहीं की जा सकती। जो लोग परमेश्वर का नया कार्य स्वीकारते हैं, वे ज्यादा सत्य समझते हैं, उनकी अंतर्दृष्टि और परमेश्वर के बारे में उनकी समझ अधिक होती है और उनके सिद्धांत और विचार एक स्तर ऊँचे होते हैं। जिस प्रकार जो लोग ईसाई धर्म में विश्वास करते हैं उनकी परमेश्वर के बारे में समझ और सृष्टिकर्ता की रचनाओं और कार्य के बारे में उनकी अंतर्दृष्टि उन लोगों से अधिक होती है जो यहोवा में विश्वास करते हैं और व्यवस्था का पालन करते हैं, ठीक उसी प्रकार जो लोग कार्य का तीसरा चरण स्वीकारते हैं, उनकी परमेश्वर के बारे में समझ ईसाई धर्म के विश्वासियों से अधिक होती है। चूँकि परमेश्वर के कार्य का प्रत्येक चरण पिछले से ऊँचा है, इसलिए यह स्वाभाविक है कि लोगों की समझ भी निश्चित रूप से बढ़ती जाएगी। लेकिन, यदि तुम इसे दूसरे तरीके से देखो तो इस चरण का कार्य स्वीकारने के बाद तुम लोग जो भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हो, वे सार में उन भ्रष्ट स्वभावों के समान ही हैं जो धर्म के लोग प्रकट करते हैं। अंतर केवल यह है कि तुम लोगों ने इस चरण का कार्य पहले ही स्वीकार लिया है, कई उपदेश सुने हैं, कई सत्य समझे हैं, अपने प्रकृति सार की सच्ची समझ प्राप्त की है और सत्य स्वीकार करके और उसका अभ्यास करके कुछ मायनों में वास्तव में बदल गए हो। इसलिए जब तुम लोग धर्म के लोगों के व्यवहार को फिर से देखते हो, तब तुम लोग सोचते हो कि वे तुमसे अधिक भ्रष्ट हैं। लेकिन वास्तव में, अगर तुम लोगों को उनके साथ खड़ा कर दिया जाए तो परमेश्वर और सत्य के प्रति तुम लोगों का रवैया भी उन्हीं के जैसा होगा। तुम सब अपनी धारणाओं और कल्पनाओं और अपनी पसंद के अनुसार काम करते हो और तुम लोगों के भ्रष्ट स्वभाव एक जैसे हैं। अगर उन्होंने कार्य का यह चरण स्वीकार लिया होता, ये उपदेश सुने होते और ये सत्य समझ लिए होते, तो तुम लोगों में और उनमें ज्यादा अंतर नहीं होता। इस बात से तुम लोग क्या समझ सकते हो? तुम लोग समझ सकते हो कि सत्य लोगों में बदलाव लाता है, ये वचन जो परमेश्वर कहता है और ये उपदेश जो वह देता है, वे समस्त मानवजाति के लिए उद्धार हैं और ऐसी चीजें हैं जिनकी समस्त मानवजाति को जरूरत है। उनका उद्देश्य केवल किसी विशेष समूह, संजातीयता, वर्ग या रंग के लोगों को संतुष्ट करना नहीं है। समस्त मानवजाति को शैतान ने भ्रष्ट कर दिया है और उसमें शैतानी स्वभाव है। उनके भ्रष्ट सार में कोई बड़ा अंतर नहीं है; केवल उनकी त्वचा का रंग, संजातीयता और वह परिवेश और सामाजिक व्यवस्था जिसमें वे बड़े हुए हैं, एक जैसे नहीं हैं, या उनकी पारंपरिक संस्कृति, पृष्ठभूमि और उन्हें मिली शिक्षा में थोड़ा-बहुत अंतर है। लेकिन ये तो केवल बाहरी रूप हैं—समस्त मानवजाति को एक ही शैतान ने भ्रष्ट किया है और सभी मानवों का भ्रष्ट प्रकृति सार एक ही है। इसलिए ये वचन जो परमेश्वर कहता है और यह कार्य जो वह करता है, वे किसी विशेष जातीय समूह या देश के लोगों के लिए नहीं हैं, बल्कि समस्त मानवजाति के लिए हैं। भले ही विभिन्न जातियों की संस्कृति और पृष्ठभूमि में अंतर हों, या उनकी शिक्षा में अंतर हों, परमेश्वर की नजरों में उनके भ्रष्ट स्वभाव बिल्कुल एक जैसे हैं। तो, भले ही उसके कार्य का एक चरण पहले केवल एक ही स्थान पर किया जाता है ताकि उसके कार्य को अन्य स्थानों पर फैलाने के लिए यह एक नमूना बन सके, फिर भी यह समस्त मानवजाति पर लागू होता है और यह समस्त मानवजाति को बचा सकता है और उसका भरण-पोषण कर सकता है। कुछ लोग कहते हैं, “यूरोपीय और अन्य देशों के लोग बड़े लाल अजगर के वंशज नहीं हैं, तो क्या परमेश्वर का यह कहना अनुचित नहीं है कि समस्त मानवजाति बहुत गहराई तक भ्रष्ट है?” क्या ये बातें सही हैं? (नहीं, ये सही नहीं हैं। समस्त मानवजाति का प्रकृति सार एक ही है जिसे शैतान ने भ्रष्ट कर दिया है।) सही कहा—“बड़े लाल अजगर के वंशज” केवल एक संजातीयता के लोगों का नाम है; इसका यह मतलब नहीं है कि जिन लोगों का यह नाम है और जिन लोगों का यह नाम नहीं है, उनके सार अलग-अलग हैं। वास्तव में, उनके सार फिर भी एक ही हैं। समस्त मानवजाति उस दुष्ट के वश में है; वे सभी शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जा चुके हैं और उनके भ्रष्ट प्रकृति सार बिल्कुल एक जैसे हैं। अब, जब चीनी लोग परमेश्वर के इन वचनों को सुनते हैं, तब वे विद्रोह और प्रतिरोध करते हैं और उनमें धारणाएँ और कल्पनाएँ होती हैं; ये वे बातें हैं जो वे प्रदर्शित करते हैं। जब यही वचन किसी दूसरी संजातीयता के लोगों से कहे जाते हैं, तब वे भी कल्पनाएँ, धारणाएँ, विद्रोहीपन, घमंड, आत्मतुष्टता और यहाँ तक कि प्रतिरोध भी प्रदर्शित करते हैं—यह बिल्कुल एक जैसा है। समस्त मानवजाति, चाहे उसकी संजातीयता और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो, भ्रष्ट इंसानों की उन अभिव्यक्तियों के अलावा और कुछ भी प्रदर्शित नहीं करती जिन्हें परमेश्वर उजागर करता है।

भ्रष्ट स्वभाव समस्त मानवजाति में आम हैं; वे सब एक जैसे हैं, उनमें भिन्नताओं से अधिक समानताएँ हैं और कोई स्पष्ट अंतर नहीं हैं। ये वचन जो परमेश्वर कहता है और जो सत्य वह व्यक्त करता है, वे केवल एक संजातीयता, एक देश या लोगों के एक समूह को नहीं बचाते—परमेश्वर समस्त मानवजाति को बचाता है। इससे तुम लोगों को क्या पता चलता है? क्या मानवजाति में कोई ऐसा है जो शैतान की भ्रष्टता से न गुजरा हो और जो लोगों की किसी भिन्न श्रेणी या वर्ग का हो? क्या कोई ऐसा है जो परमेश्वर की संप्रभुता का पात्र न हो? (नहीं, ऐसा कोई नहीं है।) मेरे इन वचनों का क्या अर्थ है? परमेश्वर समस्त मानवजाति पर संप्रभु है और समस्त मानवजाति को एक ही परमेश्वर ने बनाया है। वे चाहे किसी भी जातीय समूह से हों, किसी भी प्रकार के इंसान हों, या कितने भी सक्षम हों, वे सभी परमेश्वर द्वारा बनाए गए थे। मनुष्य की नजरों में कुछ लोग दूसरों से अलग और श्रेष्ठ होते हैं, लेकिन परमेश्वर की नजरों में वे सब एक जैसे हैं; हर इंसान परमेश्वर की नजरों में एक जैसा है। तुम यह कहाँ देखते हो? त्वचा के रंग और भाषा में अंतर केवल बाहरी रूप हैं, लेकिन लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और उनके प्रकृति सार एक जैसे हैं; मामले की सच्चाई यही है। शैतानी भ्रष्ट स्वभावों वाले सभी इंसानों के लिए, परमेश्वर के वचन नतीजे हासिल कर सकते हैं; उसके वचन उनके भ्रष्ट स्वभावों पर लक्षित हैं और उनके सभी भ्रष्ट स्वभावों का समाधान कर सकते हैं। यह दिखाता है कि परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं, वे मानवजाति का भरण-पोषण कर सकते हैं, उसे शुद्ध कर सकते हैं और उसे बचा सकते हैं; यह अखंडनीय है। अब, अंत के दिनों में परमेश्वर जो वचन व्यक्त करता है, वे पहले ही दुनिया के सभी देशों और जातीय समूहों में फैल चुके हैं—यह एक तथ्य है! और मानवजाति की प्रतिक्रिया क्या रही है? (हर तरह की प्रतिक्रियाएँ हुई हैं।) और ये सभी प्रकार की प्रतिक्रियाएँ आज की मानवजाति के सार के बारे में क्या दर्शाती या प्रतिबिंबित करती हैं? वे दिखाती हैं कि मानवजाति का प्रकृति सार एक ही है, आज के लोगों की प्रतिक्रियाएँ वैसी ही हैं जैसी प्रभु यीशु के कार्य करने के समय फरीसियों और यहूदियों की थीं और यह कि मानवजाति सत्य से विमुख है, परमेश्वर के बारे में कल्पनाओं और धारणाओं से भरी है और भ्रामक कल्पनाओं और धारणाओं में रहते हुए उसमें विश्वास करती है। समग्र मानवजाति परमेश्वर को नहीं जानती और उसका प्रतिरोध करती है। परमेश्वर के वचन सुनने पर, उसकी पहली प्रतिक्रिया, या उसके प्रकृति सार में जो चीजें प्राकृतिक रूप से प्रकट होती हैं, वे परमेश्वर के प्रति प्रतिरोध और शत्रुता हैं; यह कुछ ऐसा है जो समग्र मानवजाति में समान है। परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए सत्यों का सामना करते समय उनकी सभी नकारात्मक आवाजें और विचार भ्रष्ट मानवजाति के प्रकृति सार से उत्पन्न होते हैं और इस मानवजाति का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी धारणाएँ और कल्पनाएँ वैसी ही हैं जैसी प्रभु यीशु के आने पर महायाजकों, शास्त्रियों और फरीसियों की परमेश्वर के बारे में थीं; वे बदले नहीं हैं। धर्म के लोगों ने 2,000 वर्षों तक क्रूस ढोया है, लेकिन वे अभी भी वैसे ही पुराने ढर्रे पर हैं, जरा भी नहीं बदले हैं। जब लोगों ने सत्य प्राप्त नहीं किया होता, तो ये वे चीजें हैं जो वे प्राकृतिक रूप से प्रकट करते हैं और जो उनके भीतर से सहज रूप से निकलती हैं और परमेश्वर के प्रति उनका यही रवैया होता है। तो, यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास करता है लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करता, तो क्या उसका भ्रष्ट स्वभाव दूर हो सकता है? (नहीं, नहीं हो सकता।) चाहे उसने कितने भी समय तक विश्वास किया हो, यदि वह सत्य का अनुसरण नहीं करता तो वह अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या का समाधान नहीं कर पाएगा। दो हजार साल पहले, फरीसियों ने उन्मत्त होकर प्रभु यीशु का प्रतिरोध किया और उसे दोषी ठहराया, और उसे क्रूस पर चढ़ाया। अब, धार्मिक दुनिया में पादरी, एल्डर, फ़ादर और बिशप अभी भी उन्मत्त होकर देहधारी परमेश्वर का प्रतिरोध और निंदा करते हैं, ठीक वैसे ही जैसे फरीसियों ने किया था। यदि कोई उनके बीच जाकर यह गवाही दे कि परमेश्वर देहधारी हुआ है, तो हो सकता है उसे पकड़ा और मार डाला जाए, और यदि देहधारी परमेश्वर प्रत्येक प्रमुख धर्म के पूजा स्थलों पर उपदेश देने जाए, तो वे निश्चित रूप से उसे फिर से क्रूस पर चढ़ा देंगे या उसे सत्ता में बैठे लोगों को सौंप देंगे। वे उस पर बिल्कुल भी नरमी नहीं बरतेंगे, क्योंकि भ्रष्ट इंसानों का प्रकृति सार एक जैसा होता है। क्या इन वचनों को सुनकर तुम लोगों के अंदर कोई प्रतिक्रिया होती है? क्या तुम लोगों को लगता है कि जो लोग कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते हैं लेकिन जिन्होंने किसी भी हद तक सत्य का अनुसरण नहीं किया है, वे काफी भयावह हैं? (कुछ-कुछ।) यह एक बहुत ही भयावह बात है! बाइबल और क्रूस को धारण करना, व्यवस्था पर निर्भर रहना, फरीसियों के कपड़े या याजकों के वस्त्र पहनना और मंदिरों में सार्वजनिक रूप से परमेश्वर का प्रतिरोध और निंदा करना—क्या ये सब वे चीजें नहीं हैं जो परमेश्वर के विश्वासी दिन के उजाले में करते हैं? परमेश्वर की निंदा और प्रतिरोध करने वाले लोग कहाँ हैं? दूर देखने की जरूरत नहीं है। उसके विश्वासियों में से कोई भी जो सत्य स्वीकार नहीं करता और सत्य से विमुख है, वह परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाला, एक मसीह-विरोधी और एक फरीसी है।

अगर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते और सत्य प्राप्त नहीं कर सकते तो वे परमेश्वर को कभी नहीं जानेंगे। यदि लोग परमेश्वर को नहीं जानते, तो वे हमेशा उसके प्रति शत्रुतापूर्ण बने रहेंगे, और उनके लिए उसके अनुरूप होना संभव नहीं है। तुम्हारा दिल व्यक्तिपरक रूप से चाहे कितना भी परमेश्वर से प्रेम करना चाहे और उसका प्रतिरोध न करना चाहे, यह व्यर्थ है। केवल इच्छा रखना, या खुद को संयमित करने की चाह रखना व्यर्थ है। यह एक अनैच्छिक मामला है जो व्यक्ति की प्रकृति द्वारा तय होता है। इसलिए, तुम्हें सत्य वाला व्यक्ति बनने का, सत्य का अभ्यास करने का, अपना भ्रष्ट स्वभाव त्यागने का, सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने का और परमेश्वर के साथ अनुरूपता प्राप्त करने का अनुसरण करना चाहिए; यही सही मार्ग है। तुम लोगों को अपने दिलों में यह जानना चाहिए कि परमेश्वर में विश्वास करने का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा सत्य का अनुसरण करना है। तुम लोगों को व्यावहारिक चीजें अच्छी तरह समझने में सक्षम होना चाहिए, जैसे कि सत्य का अनुसरण करते समय तुम्हें किन पहलुओं से शुरुआत करनी चाहिए और क्या करने की जरूरत है, अपने कर्तव्यों के प्रति कैसे पेश आना है, अपने आसपास के हर प्रकार के व्यक्ति के प्रति कैसे पेश आना है, हर तरह की चीजों के प्रति कैसे पेश आना है, उनसे पेश आते समय तुम्हें कौन-सा दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और कौन सा तरीका सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। अगर तुम सत्य की खोज नहीं करते या सत्य सिद्धांत नहीं समझते और केवल विनियमों को लागू करने और उनके अनुसार, साथ ही तर्क, धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार चीजों को सीमांकित करने में ही सक्षम हो, तो तुम्हारे अभ्यास का तरीका गलत है और यह साबित करता है कि परमेश्वर में विश्वास के अपने वर्षों में, तुमने केवल विनियमों का अक्षरशः पालन किया है, लेकिन सत्य नहीं समझा है और तुममें वास्तविकता नहीं है। विनियमों का पालन करना और धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार जीना तुम्हारे लिए थकाऊ और श्रमसाध्य है, लेकिन यह सब व्यर्थ प्रयास है और परमेश्वर इसका बिल्कुल भी अनुमोदन नहीं करेगा। भले ही तुम थकान से मर जाओ, तुम इसी लायक हो! अगर तुम में आध्यात्मिक समझ है और जब तुम परमेश्वर के वचन पढ़ते हो या उपदेश और संगति सुनते हो तब तुम्हें शुद्ध समझ होती है, तो तुम जितना अधिक अनुभव करोगे, उतना ही अधिक समझोगे और प्राप्त करोगे और जो चीजें तुम समझोगे वे सभी व्यावहारिक और सत्य के अनुसार होंगी। तब, तुमने सत्य और जीवन प्राप्त कर लिया होगा। अगर कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद जो चीजें तुमने प्राप्त की हैं और समझी हैं, वे अभी भी सिद्धांत और विनियमों की बातें हैं, अभी भी धारणाओं और कल्पनाओं की बातें हैं और ऐसे नियम और विनियम हैं जो तुम्हें बाँधते हैं, तो तुम्हारा पूरी तरह से काम तमाम हो गया है। यह साबित करता है कि तुमने सत्य प्राप्त नहीं किया है और तुममें जीवन नहीं है। चाहे तुमने कितने भी वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया हो और चाहे तुम कितने भी शब्द और धर्म-सिद्धांत सुना सकते हो, तुम अभी भी एक बेतुके और भ्रमित इंसान हो। हालाँकि इसे इस तरह से कहना अच्छा नहीं लगता, लेकिन यह एक तथ्य है। ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है, लेकिन वे यह नहीं देखते कि परमेश्वर के घर में सत्य और मसीह का अधिकार है, और यह कि पवित्र आत्मा सब पर संप्रभु है। ऐसे लोगों में चीजों को समझने की बिल्कुल भी क्षमता नहीं होती और वे अंधे के समान हैं। कुछ लोग परमेश्वर को लोगों का न्याय और ताड़ना करते, लोगों के एक समूह को पूर्ण बनाते, लेकिन कई अन्य को हटाते हुए देखते हैं और इसलिए वे परमेश्वर के प्रेम और यहाँ तक कि उसकी धार्मिकता पर भी संदेह करते हैं। क्या ऐसे लोगों में समझने की क्षमता होती है? क्या उनमें चीजों पर पकड़ बनाने की कोई क्षमता है? यह कहना उचित है कि वे बेतुके लोग हैं जिनमें चीजों पर पकड़ बनाने की बिल्कुल भी क्षमता नहीं है। बेहूदा लोग हमेशा चीजों को विवेक विरोधी दृष्टि से देखते हैं; जो सत्य को समझते हैं, वे ही लोग चीजों को सटीक ढंग से और तथ्यों के अनुसार देख सकते हैं।

अंश 7

कुछ लोग जो सुसमाचार का प्रचार करते हैं, जो परमेश्वर के कार्य का प्रसार करते हैं और उसके लिए गवाही देते हैं, एक गंभीर गलती करते हैं—वे परमेश्वर के वे वचन हटा देते हैं जिनके जवाब में धार्मिक लोगों में धारणाएँ विकसित होने की संभावना सबसे प्रबल होती है, जिससे संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं को परमेश्वर के वचनों का एक संक्षिप्त और लघु संस्करण मिलता है। उनका बहाना यह होता है कि वे लोगों में धारणाएँ और गलतफहमियाँ पनपने से रोकने के लिए ऐसा करते हैं, लेकिन क्या यह सही है? परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं। चाहे लोगों के पास धारणाएँ हों या नहीं, वे ये वचन स्वीकारें या नहीं, पसंद करें या नहीं, सत्य तो सत्य है; जो इसे स्वीकारते हैं वे बचाए जा सकते हैं, जबकि जो इसे नकारते हैं वे नष्ट हो जाएँगे। जो कोई भी सत्य को नकारता है वह मरने और नष्ट होने का पात्र है। इसका उन लोगों से क्या लेना-देना है जो सुसमाचार का प्रचार करते हैं? जो लोग सुसमाचार का प्रचार करते हैं, उन्हें लोगों को परमेश्वर के मूल वचन पढ़ने देने चाहिए न कि उन वचनों को इस डर से संक्षिप्त कर देना चाहिए कि लोगों में धारणाएँ पैदा होंगी। जब लोग सच्चे मार्ग की जाँच-पड़ताल करते हैं, तो वे देखना चाहते हैं कि परमेश्वर के मूल वचन कैसे बोले गए हैं, उनमें किस तरह की सामग्री अंतर्निहित है, और कुछ खास मामलों के बारे में परमेश्वर के सबसे मौलिक कथन क्या हैं। लोग जानना चाहते हैं : “तुम लोग कहते हो कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, तो वे कौन से वचन हैं जो वह बोलता है? बोलने की उसकी शैली क्या है?” तुम लोग परमेश्वर के उन वचनों को बदलने पर जोर देते हो जो मानवीय धारणाओं से मेल नहीं खाते हैं, जैसे कि जब धार्मिक लोग बाइबल की व्याख्या करते हैं तो वे जो कुछ भी कहते हैं वह मानवीय धारणाओं के अनुरूप होता है; तुम परमेश्वर के वचनों का वह संस्करण दिखाने पर जोर देते हो जिसके साथ छेड़छाड़ की गई है और लोगों को परमेश्वर के वचन उनके मूल रूप में नहीं देखने देते। यह सब क्या है? क्या तुम लोग भी परमेश्वर के इन वचनों के बारे में धारणाएँ रखते हो? क्या धार्मिक लोगों की तरह तुम लोग भी मानते हो कि उसके वे वचन जो मानवीय धारणाओं से मेल नहीं खाते हैं, सत्य नहीं हैं, कि सत्य केवल वे ही वचन हैं जो मानवीय धारणाओं से मेल खाते हैं? यदि हाँ, तो यह मानवीय भूल है। परमेश्वर के वचन भले ही कैसे भी बोले गए हों और भले ही वे मनुष्य की धारणाओं से मेल खाते हों या नहीं, वे सत्य होते हैं। ऐसा केवल इसलिए है क्योंकि भ्रष्ट मनुष्यों के पास न तो सत्य है और न ही वे उसे जानते हैं कि वे परमेश्वर के वचनों के बारे में धारणाएँ विकसित कर लेते हैं—यह मनुष्य की मूर्खता और अज्ञानता है। तुम लोग यह स्पष्ट नहीं देख पाते हो कि परमेश्वर के वचन एक विशिष्ट प्रभाव के लिए विशेष रूप से व्यावहारिक और ठोस हैं, तुम यह और भी कम जानते हो कि मनुष्य की काबिलियत कितनी कमजोर है, और लोगों के लिए यह समझना कितना मुश्किल होता है जब परमेश्वर के वचन जरूरत से ज्यादा संक्षिप्त और सैद्धांतिक होते हैं। याद करो कि जब प्रभु यीशु कार्य करने के लिए प्रकट हुआ, तो कई शिष्य उसके वचन समझ नहीं पाए और उन्हें उनका अर्थ समझने के लिए उससे उदाहरण देने और दृष्टांत बताने के लिए कहना पड़ा। क्या ऐसा नहीं है? आज जब मैं बहुत अधिक विस्तार और विशिष्टता के साथ बोलता हूँ, तो तुम लोग शिकायत करते हो कि मैं बहुत घुमा-फिराकर बोलता हूँ। जब मैं गहन बातें बोलता हूँ तो तुम लोग समझ नहीं पाते हो, लेकिन जब मैं इसका सामान्यीकरण और सैद्धांतीकरण करता हूँ तो तुम लोग इसे धर्म-सिद्धांत के रूप में ले लेते हो। इस मामले में इंसान बहुत जटिल होते हैं। परमेश्वर के वचनों में अब दिव्य भाषा के साथ-साथ मानवीय भाषा भी होती है, संक्षिप्तता और विशिष्टता दोनों होते हैं, और ऐसे कई उदाहरण होते हैं जो लोगों की विभिन्न अवस्थाओं को उजागर करते हैं। कुछ वचन उन लोगों को बहुत विस्तृत लगते हैं जो पहले से ही सत्य समझते हैं, लेकिन नए विश्वासियों को वे बस सही लगते हैं, और इस स्तर के विवरण और विशिष्टता के बिना परिणाम प्राप्त करना मुश्किल होगा। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे माता-पिता बच्चों का पालन-पोषण करते हैं; जब बच्चे छोटे होते हैं, तो माता-पिता को कई काम विस्तार से करने की जरूरत होती है, लेकिन जब बच्चे समझदार हो जाते हैं और अपना ध्यान रखना शुरू कर देते हैं, तो वे उन्हें करना बंद कर सकते हैं। यह बात लोगों की समझ में आती है, तो वे परमेश्वर का कार्य क्यों नहीं समझ पाते? नए विश्वासियों को ऐसे वचन अवश्य पढ़ने चाहिए जो कम गहरे हों और उदाहरणों के साथ समझाए गए हों, ऐसे वचन जो तुलनात्मक रूप से विस्तृत और सूक्ष्म हों। जो लोग वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते हैं और कुछ सत्य समझते हैं, उन्हें ऐसे वचन पढ़ने चाहिए जो तुलनात्मक रूप से गहरे हों और जिन्हें वे समझ सकें। चाहे परमेश्वर कैसे भी बोले, इसका उद्देश्य लोगों को सत्य समझने देना, उनके भ्रष्ट स्वभावों को छोड़ने देना और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने देना होता है। वह ऐसे परिणाम प्राप्त करने के लिए बोलता है। चाहे उसके वचन गहरे हों या उथले, चाहे लोग उन तक पहुँच सकें या नहीं, सत्य समझना और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना आसान नहीं होता। ऐसा मत सोचो कि चूँकि तुम्हारी काबिलियत अच्छी है और तुम गहरे सत्य समझ सकते हो, इसलिए तुम्हारे पास पहले से ही उथले सत्य हैं और वास्तविकता है। क्या यही मामला है? एक ईमानदार व्यक्ति होने का सत्य ही जीवन भर के अनुभव के लिए पर्याप्त होता है। भले ही परमेश्वर के वचन कितने भी उथले हों, भले ही वह कितने भी उदाहरण दे, हो सकता है तुम आठ-दस साल के अनुभव के बाद भी वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाओ। इसलिए परमेश्वर के वचनों के करीब आते समय उनकी गहराई देखना गलत है। यह दृष्टिकोण गलत है। किसी भी व्यक्ति के लिए वास्तविकता पर करीब से ध्यान देना सबसे अच्छा होता है; ऐसा नहीं है कि चूँकि तुम्हारे पास समझने की क्षमता है और तुम सत्य समझ सकते हो, इसलिए तुम्हारे पास वास्तविकता है। यदि तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते, तो सबसे अच्छी समझ भी तुम्हारे लिए खोखले धर्म-सिद्धांत बनकर रह जाएगी। तुम्हें सत्य को अभ्यास में लाना चाहिए, तुम्हारे पास अनुभवजन्य ज्ञान होना चाहिए—केवल यही वास्तविकता है। हर कोई जो यह शिकायत करता है कि परमेश्वर के वचन बहुत विस्तृत या क्षुद्र हैं, वह व्यक्ति अहंकारी और आत्मतुष्ट है और उसके पास कोई सत्य वास्तविकता नहीं है। क्या मनुष्य परमेश्वर के वचनों और उसके विचारों की बुद्धि को समझ सकता है? परमेश्वर के वचनों के प्रति बहुत-से लोगों का रवैया बहुत अहंकारी और अनभिज्ञतापूर्ण होता है, वे ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे कि उनके पास बहुत अधिक सत्य वास्तविकता हो, जबकि वास्तव में वे सत्य का अभ्यास नहीं करते और कोई भी वास्तविक गवाही नहीं दे सकते। वे केवल खोखले सैद्धांतिक शब्द ही बोल सकते हैं; वे सिद्धांतवादी और धोखेबाज हैं। जो लोग वास्तव में सत्य का अनुसरण करते हैं उन्हें परमेश्वर के वचन कैसे पढ़ने चाहिए? उन्हें सत्य की खोज करनी चाहिए। सत्य की खोज में कई चीजें शामिल हैं, तो क्या इसके बारे में बिना विस्तार में जाए बात की जा सकती है? क्या विशिष्ट और व्यापक रूप से बोले बिना परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं? क्या लोग अनेक उदाहरणों की सहायता के बिना सचमुच समझ सकते हैं? बहुत-से लोग सोचते हैं कि परमेश्वर के कुछ वचन बहुत छिछले हैं—तो फिर तुमने इनमें से कितने छिछले वचनों में प्रवेश किया है? तुम कौन-सी अनुभवजन्य गवाही साझा कर सकते हो? यदि तुमने अभी तक इन छिछले वचनों में प्रवेश नहीं किया है, तो क्या तुम गहरे वचन समझ सकते हो? क्या तुम वास्तव में उन्हें समझ सकते हो? अपने आप को चतुर मत समझो, अहंकारी और आत्मतुष्ट मत बनो!

आओ परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ के मुद्दे पर वापस आते हैं। परमेश्वर के घर ने “वचन देह में प्रकट होता है” का मानकीकृत संस्करण प्रकाशित किया है, और इसमें किसी को भी जरा सा भी परिवर्तन करने की अनुमति नहीं है। परमेश्वर के वचनों के मानक संस्करण को कोई भी नहीं बदल सकता है, और यदि कोई उसे बदलता है तो इसे परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ माना जाएगा। जो लोग उसके वचनों के साथ छेड़छाड़ करते हैं, उन्हें उन लोगों की अभिलाषा की थोड़ी भी समझ नहीं है जो सत्य की लालसा रखते हैं और परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए उत्सुक हैं। ये लोग उसके वचनों का सटीक, मानक संस्करण पढ़ना चाहते हैं, जो परमेश्वर के मूल वचन हैं, जो परमेश्वर के मूल अर्थ और इरादे की अभिव्यक्तियाँ हैं। सत्य से प्रेम करने वाले सभी लोग ऐसे ही होते हैं। लोग यह सब कार्य करने और ये सभी वचन बोलने के पीछे परमेश्वर के मूल इरादे, उद्देश्य और अर्थ को नहीं समझते हैं, और न ही वे यह समझते हैं कि वह इतने विस्तार से क्यों बोलता है। लोग समझते नहीं हैं, फिर भी वे अपने दिमाग से इसका विश्लेषण और सारांशीकरण करते हैं, और अंततः परमेश्वर के उन मूल वचनों के साथ छेड़छाड़ करते हैं जो मानवीय धारणाओं से मेल नहीं खाते। फलस्वरूप, जब अन्य लोग परमेश्वर के वे वचन पढ़ना समाप्त करते हैं जिनके साथ छेड़छाड़ की गई है, तो उनके लिए उन वचनों का मूल अर्थ समझ पाना मुश्किल हो जाता है। क्या यह सत्य की उनकी समझ को और उनके जीवन प्रवेश को प्रभावित नहीं करता है? यहाँ समस्या क्या है? समस्या यह है कि जो लोग परमेश्वर के वचन बदलते हैं उनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता है। उनका तरीका छद्म-विश्वासियों का तरीका होता है; जैसे ही वे कार्य करते हैं, उनका शैतानी स्वभाव स्वयं उजागर हो जाता है। परमेश्वर ने जो किया है और जो कहा है, उसके बारे में हमेशा उनकी कुछ राय और विचार होते हैं, वे हमेशा इन चीजों को सँभालना और संसाधित करना चाहते हैं, और अपने काले शैतानी पंजों से परमेश्वर के वचनों तक पहुँचकर वे उनको अपने कथनों में बदलना चाहते हैं। यह शैतान की प्रकृति है—अहंकार। जब परमेश्वर कुछ वास्तविक वचन, कुछ रोजमर्रा के वचन बोलता है जो मानवता के करीब होते हैं, तो लोग उन्हें हिकारत और हेय दृष्टि से देखते हैं, उनके प्रति तिरस्कारपूर्ण रवैया रखते हैं। वे हमेशा मानवीय ज्ञान और कल्पना का उपयोग करके इनमें कुछ संशोधन करना चाहते हैं और इनकी शैली बदलना चाहते हैं। क्या यह घृणित नहीं है? (यह घृणित है।) किसी भी तरह से तुम लोगों को ऐसा नहीं करना चाहिए। तुम लोगों को कर्तव्यनिष्ठा से कार्य करना चाहिए। परमेश्वर के वचन परमेश्वर के वचन हैं, और चाहे वह कैसे भी बोले, उनका अपना मूल स्वरूप बनाए रखा जाना चाहिए और उन्हें बदला नहीं जाना चाहिए। केवल लाइव उपदेश ही थोड़े-बहुत पुनर्व्यवस्थित किए जा सकते हैं, जब तक कि यह परिवर्तन मामूली सुधार हो और मूल अर्थ को नहीं बदलता हो। मूल अर्थ को बिल्कुल भी नहीं बदला जाना चाहिए। यदि तुम्हारे पास सत्य नहीं है तो मत बदलो; जो कोई भी इन्हें बदलेगा उसे जिम्मेदारी लेनी होगी। उपदेश और संगति आयोजित करने के लिए परमेश्वर का घर कई लोगों को निर्दिष्ट करता है, लेकिन उन लोगों को चाहिए कि वे इन्हें सिद्धांतों के अनुसार आयोजित करें और किसी भी चीज से कतई छेड़छाड़ न करें। जिनके पास आध्यात्मिक समझ नहीं है और जो सत्य नहीं समझते हैं, उन्हें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, अन्यथा उन्हें दंड भुगतना पड़ेगा। चूँकि तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक हो, इसलिए तुम्हें उसके वचनों को लगन से पढ़ना चाहिए, सत्य समझने और वास्तविकता में प्रवेश करने पर ध्यान देना चाहिए, और परमेश्वर के वचनों या सत्य पर संदेह नहीं करना चाहिए। सबसे बढ़कर, परमेश्वर के वचनों की जाँच-पड़ताल करने के लिए अपने मन और ज्ञान का उपयोग मत करो। हमेशा कुकर्मों में लगे रहना अच्छी बात नहीं है; एक बार यदि तुम परमेश्वर के स्वभाव को नाराज कर देते हो, तो यह तुम्हारे लिए बहुत तकलीफदेह होगा। कुछ लोग थोड़ा-बहुत बाइबल का ज्ञान समझते हैं; वे कुछ दिन धर्मशास्त्र का अध्ययन करके और कुछ किताबें पढ़कर सोचते हैं कि वे सत्य समझते हैं, अपना विषय जानते हैं और सक्षम हैं। लेकिन तुम्हारी थोड़ी सी क्षमता का क्या फायदा? क्या तुम परमेश्वर की गवाही दे सकते हो? क्या तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है? क्या तुम लोगों को परमेश्वर की उपस्थिति में ला सकते हो? तुम्हारा थोड़ा-सा सैद्धांतिक ज्ञान और पांडित्य, सत्य का रत्ती भर भी प्रतिनिधित्व नहीं करता। परमेश्वर अपनी मानवता में कुछ ऐसे वचन बोलता है जिससे लोग अर्थ ग्रहण कर सकें, कुछ ऐसे वचन बोलता है जो मानवजाति के लिए समझना आसान होते हैं, लेकिन लोग हमेशा आश्वस्त नहीं होते, और वे उसके वचन बदलना चाहते हैं। वे उसके वचनों को अपनी धारणाओं के अनुरूप, अपने स्वाद और इच्छाओं के अनुरूप, सुनने में आरामदायक और आँखों और दिल के लिए आसान बनाना चाहते हैं। यह किस प्रकार का स्वभाव है? यह एक अहंकारी स्वभाव है। बिल्कुल किसी सत्य सिद्धांत के बिना काम करना और शैतान के तरीकों के अनुसार काम करना परमेश्वर के घर के काम में आसानी से बाधा और व्यवधान डाल देगा। यह बहुत खतरनाक मामला है! यदि तुमने एक बार परमेश्वर के स्वभाव को नाराज कर दिया तो यह काफी तकलीफदेह होगा, और तुम्हें निकाले जाने का भी खतरा है।

कुछ लोग विरक्ति महसूस करते हैं जब वे देखते हैं कि परमेश्वर के वचन जीवन प्रवेश के लिए अभ्यास के मार्ग के बारे में बहुत विस्तार से बताते हैं। उस स्थिति में यदि वे पुराने नियम में परमेश्वर द्वारा घोषित उन सभी विधियों, आदेशों और विधानों को देखते, तो क्या वे और भी अधिक विरक्ति महसूस नहीं करते? और यदि वे बाइबल की मूल आज्ञाओं के और भी अधिक विस्तृत वचन पढ़ने लगें, तो क्या उनमें धारणाएँ नहीं पनपेंगी? वे सोचेंगे : “ये वचन बहुत तुच्छ हैं। जो बात एक वाक्य में स्पष्ट रूप से कही जा सकती है उसे तीन-चार वाक्यों तक खींच दिया गया है। ये वचन अधिक संक्षिप्त और सरल होने चाहिए, ताकि लोग एक नजर में सब कुछ देख सकें और केवल एक वाक्य सुनकर समझ सकें। कितना अच्छा होता अगर वे इतने लंबे-चौड़े न होते, बल्कि समझने और अभ्यास के लिए सरल और आसान होते। क्या ऐसे वचन अधिक प्रभावी ढंग से परमेश्वर की गवाही नहीं देते और उसकी महिमा नहीं करते?” यह विचार सही लगता है, लेकिन क्या तुम सोचते हो कि परमेश्वर के वचन पढ़ना एक उपन्यास पढ़ने जैसा होना चाहिए, जिसे जितना सहजता से पढ़ा जा सके उतना बेहतर है? परमेश्वर के वचन सत्य हैं; उन पर चिंतन की आवश्यकता होती है, और सत्य समझने और प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को उनका अभ्यास और अनुभव करना चाहिए। परमेश्वर के वचन मानवीय धारणाओं से जितना कम मेल खाते हैं, उनमें उतना ही अधिक सत्य होता है। वास्तव में सत्य का कोई भी पहलू मानवीय धारणाओं के अनुरूप नहीं होता; वह ऐसी कोई चीज नहीं है जिसे लोगों ने पहले देखा या अनुभव किया हो, बल्कि एकदम नए वचन होते हैं। हालाँकि कई वर्षों तक उन्हें पढ़ने और अनुभव करने के बाद तुम्हें पता चल जाएगा कि परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं। कुछ लोगों के मन में हमेशा परमेश्वर के वचनों के बारे में धारणाएँ होती हैं। यह समस्या कहाँ से उत्पन्न होती है? वे कहाँ गलती कर रहे हैं? यह समस्या दर्शाती है कि लोग परमेश्वर के कार्य या उसका स्वभाव नहीं जानते। हर एक वाक्य जो वह बोलता है वह व्यावहारिक और तथ्यात्मक होता है, वह सैद्धांतिक या ज्ञानगर्भित भाषा का सहारा लिए बिना मनुष्यों की रोजमर्रा की भाषा में बोलता है। सत्य के बारे में लोगों की समझ के लिए यह सबसे अधिक लाभदायक है। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो इस मामले को स्पष्ट रूप से समझ सके—केवल परमेश्वर का कार्य और उसके वचन ही सबसे व्यावहारिक और यथार्थपरक हैं। लोग मौखिक रूप से स्वीकार करते हैं : “परमेश्वर के सभी वचन सही हैं। उसके वचन लोगों के लिए फायदेमंद हैं, लेकिन लोग परमेश्वर को नहीं समझते हैं। वह सबसे बेहतर जानता है कि लोगों की जरूरतें क्या हैं, और वह जानता है कि कैसे बोलना है ताकि लोग समझें। लोगों को चेतावनी देने और बताने का उसका तरीका स्वीकारना आसान है। परमेश्वर लोगों की आंतरिक संरचना और उनके विचारों और अवधारणाओं को जानता है, और वह और भी बेहतर जानता है कि लोगों को किस चीज की सबसे अधिक आवश्यकता है, जबकि लोगों को स्वयं इसका कोई अंदाजा नहीं होता।” लेकिन जब तुम परमेश्वर के वचन देखते हो, तो तुम उन्हें सरल बनाना चाहते हो और उन्हें मनुष्य की धारणाओं और रुचियों के अनुरूप बनाना चाहते हो। क्या तब भी परमेश्वर के वचन सत्य हो सकते हैं? क्या तब भी वे उसके वचन हो सकते हैं? क्या वे मनुष्य के शब्द नहीं बन जाएँगे? क्या इस प्रकार की सोच अत्यधिक अहंकारी और आत्मतुष्ट सोच नहीं है? परमेश्वर के वचन सत्य हैं, भले ही वे मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के साथ मेल खाते हों या नहीं। चाहे वह कितने भी वचन बोले और वे कितने भी विस्तृत हों, परमेश्वर के वचन व्यर्थ नहीं बोले जाते हैं। यदि वह एक वाक्य जोड़ता है तो यह लोगों को बेहतर समझने में मदद करने के लिए है, जो उनके लिए फायदेमंद है। यदि वह एक वाक्य भी छोड़ दे, तो लोग इतनी अच्छी तरह समझ नहीं पाएँगे, और शैतान के लिए इस स्थिति का फायदा उठाना आसान हो जाएगा। अधिकांश लोगों की काबिलियत कमजोर होती है, और वे तब तक समझ नहीं पाते हैं जब तक कि परमेश्वर उन वचनों को विस्तार से नहीं बताता और बोलता है। सभी लोग सुन्न और मंदबुद्धि होते हैं, इसलिए एक भी वाक्य छूटना नहीं चाहिए; यदि किसी पहलू पर पूरी तरह से बात नहीं की गई, तो लोग वह पहलू नहीं समझेंगे—तुम उसे समझ सकते हो, लेकिन कोई और नहीं समझेगा; तुम लोगों में से एक समूह उसे समझ सकता है, लेकिन दूसरा समूह नहीं समझ सकता। हमेशा ऐसे लोग होंगे जो उसे नहीं समझेंगे। परमेश्वर अकेले तुमसे बात नहीं करता; वह समस्त मानवजाति से बात करता है, उन सभी से जिनके पास कान हैं और परमेश्वर जो कहता है उसे समझने में सक्षम हैं। क्या तुम्हारा दृष्टिकोण बहुत संकीर्ण है? लोग केवल वही देख सकते हैं जो उनके सामने है, वे सोचते हैं : “मैं इस वाक्य को समझता हूँ; परमेश्वर को अब भी इसे इतने विस्तार से समझाने की आवश्यकता क्यों है?” यदि यह बहुत सरल है, तो अच्छी काबिलियत वाले इसे समझ लेंगे, लेकिन औसत काबिलियत वाले इसे नहीं समझ पाएँगे; यदि परमेश्वर औसत काबिलियत वाले लोगों के लिए कुछ वाक्य विस्तार से बताता है, तो तुम आपत्ति जताते हो। क्या इसका मतलब यह है कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य को स्वीकारता है? तुम्हारी ये आपत्तियाँ कहाँ से आती हैं? क्या यह शैतान का अहंकारी स्वभाव नहीं है? जब परमेश्वर कुछ ऐसा करता है जो तुम्हारी धारणाओं से थोड़ा-सा भी भिन्न होता है, जब वह जो कुछ उसके पास है और जो वह स्वयं है उसका थोड़ा-सा भाग—लोगों को सँजोना, समझना, उनका खयाल रखना, उनके बारे में चिंतित होना और व्यापक रूप से उनकी देखभाल करना—प्रकट करता है, तो तुम सोचते हो कि परमेश्वर लंबी-चौड़ी बातें कर रहा है, कि वह बहुत अधिक कह रहा है, छोटी-छोटी बातों पर समय बर्बाद कर रहा है, कि उसे ऐसा नहीं करना चाहिए; तुम अपनी धारणाओं में ठीक इसी तरह विश्वास करते हो। यह परमेश्वर के बारे में तुम्हारी धारणा है, उसके बारे में तुम्हारा ज्ञान है, तुम उसे इसी तरह देखते हो। तो क्या तुम्हारा यह विश्वास कि “परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही है, परमेश्वर मनुष्य को सबसे ज्यादा समझता है” सिर्फ सिद्धांत है? तुम्हारे लिए यह सिद्धांत बन गया है; परमेश्वर के बारे में तुम्हारा ज्ञान उसके द्वारा प्रकट की गई बातों से मेल नहीं खाता, इनका आपस में कोई संबंध नहीं है। इसके अलावा तुम परमेश्वर के प्रति उस तरह व्यवहार नहीं करते हो; तुम उसके वचनों और कार्य के साथ अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार, अपने अहंकारी स्वभाव के अनुसार व्यवहार करते हो। क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य स्वीकारता है? तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो सत्य स्वीकारता है, न ही तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है। परमेश्वर के वचनों और कार्यों से सामना होने पर तुम न्याय करने, शिकायत करने, अटकलें लगाने, संदेह करने, इनकार करने, विरोध करने और विकल्प चुनने में सक्षम होते हो। क्या तुम परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हो? यदि तुम परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण नहीं कर सकते, तो क्या तुम सत्य प्राप्त कर सकते हो? यदि तुम परमेश्वर के वचनों के साथ, उसके कार्य के साथ, सत्य के साथ, उसके पास जो कुछ भी है और वह जो स्वयं है, और जो कुछ भी उससे आता है उसके साथ ऐसा ही व्यवहार करते हो, तो क्या तुम उसका उद्धार प्राप्त कर सकते हो? यदि तुम सत्य प्राप्त नहीं कर सकते, तो तुम दंड के भागी होओगे।

परमेश्वर के वचनों के प्रति अपने रवैये में उनका विश्लेषण या जाँच-पड़ताल मत करो, चालाक मत बनो, संदेह मत करो, और अपने दिमाग पर जोर मत डालो। उनके साथ वैसा ही व्यवहार करो जैसा तुम सत्य के साथ करते हो—यह सबसे बुद्धिमतापूर्ण रवैया है। तुम जो भी करो, अपने आप से यह मत कहो : “मैं एक आधुनिक व्यक्ति हूँ, मैं सुविज्ञ और सुशिक्षित हूँ, मैं व्याकरण जानता हूँ, मैंने फलाँ फलाँ प्रमुख विषय का अध्ययन किया है, मैं अमुक कौशल या पेशे में निपुण हूँ। मैं समझता हूँ, मुझे इसकी समझ है। परमेश्वर नहीं जानता। हालाँकि परमेश्वर पूरी मानवजाति को समझता है, लेकिन उसके पास सत्य के अलावा कुछ भी नहीं है, वह पेशेवर मामले नहीं समझता है, ऐसा कुछ भी नहीं है जिसमें वह अच्छा हो, वह केवल सत्य व्यक्त करना जानता है।” यह सही है। परमेश्वर केवल सत्य व्यक्त कर सकता है और वह सभी चीजों की असलियत देख सकता है क्योंकि वह सत्य है। वह मानवजाति के भाग्य का संप्रभु है, और वह तुम्हारा भाग्य नियंत्रित करता है। कोई भी परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था से नहीं बच सकता। परमेश्वर के वचनों के प्रति लोगों का रवैया कैसा होना चाहिए? सुनना, समर्पण करना, स्वीकारना और अत्यंत अनुपालना के साथ अभ्यास करना—ऐसा ही रवैया लोगों का होना चाहिए। तुम जो भी करो, जाँच-पड़ताल मत करो। मैंने तुम लोगों से कई वचन कहे हैं, लेकिन तुम लोग उनमें से केवल एक हिस्से को ही स्वीकार सकते हो। तुम लोग कोई भी ऐसा वचन नहीं स्वीकारते हो जो मानवीय धारणाओं के अनुरूप न हो—तुम अपने दिल में उनका विरोध और खंडन भी करते हो। तुम लोग केवल वे ही वचन स्वीकारते हो जो मानवीय धारणाओं के अनुरूप हैं और जो मानवीय धारणाओं के अनुरूप नहीं हैं उन्हें अस्वीकार कर देते हो। क्या तुम इस तरह सत्य प्राप्त कर सकते हो? क्या वे वचन जो मानवीय धारणाओं के अनुरूप नहीं हैं, वास्तव में सत्य नहीं हैं? क्या तुममें इस बारे में सुनिश्चित होने का साहस है? तो फिर मुझे तुमसे अवश्य पूछना चाहिए कि तुम सत्य को कितना समझते हो? तुम्हारे पास कौन से सत्य हैं? तो फिर उन सभी सत्यों की गवाही साझा करो जिन्हें तुम समझते हो, और सभी को यह निर्णय लेने दो कि वे सत्य हैं या नहीं। यदि तुम स्वीकार सकते हो कि तुम्हारे पास सत्य नहीं है, तो इसका मतलब है कि तुम्हारे पास विवेक है। यदि तुम्हारे पास वास्तव में विवेक है, तो क्या तुममें अभी भी यह निष्कर्ष निकालने का साहस है कि जो वचन मानवीय धारणाओं के अनुरूप नहीं हैं, वे सत्य नहीं हैं? क्या तुममें अभी भी परमेश्वर के साथ जुआ खेलने का साहस है? एक सृजित व्यक्ति के रूप में बहुत अधिक अहंकारी और आत्मतुष्ट मत बनो, अपने बारे में इतना ऊँचा मत सोचो। तुम सत्य कतई नहीं जानते हो; तुम अपने जीवन-काल में परमेश्वर के वचनों में से एक भी वाक्य का पूरी तरह अनुभव नहीं कर पाओगे, न ही तुम अपने जीवन-काल में उन्हें समझ पाओगे या जी पाओगे। यदि तुम उनका एक हिस्सा भी समझ सको और उसे अभ्यास में ला सको, तो यह भी अच्छी बात है। मनुष्य बहुत दरिद्र और दयनीय हैं—यही इस मामले की सच्चाई है। चूँकि वे इतने दरिद्र और दयनीय हैं, तो वे इतने अहंकारी और आत्मतुष्ट क्यों हैं? यही चीज उन्हें दयनीय और घृणित दोनों बनाती है। मैं लोगों को सलाह देता हूँ कि वे परमेश्वर के वचन आज्ञाकारिता से पढ़ें, अपनी धारणाओं को उत्पन्न होते ही त्याग दें, और परमेश्वर के वचनों को सत्य मानें और उन पर विचार करने और फिर उनका अनुभव करने की पूरी कोशिश करें; शायद तब वे समझ पाएँगे कि सत्य क्या है। इस बात की परवाह मत करो कि परमेश्वर के वचन कितने विस्तृत और लंबे-चौड़े हैं। यदि तुम उन्हें समझ सकते हो और अनुभव कर सकते हो, और फिर उनके लिए गवाही दे सकते हो, केवल तभी तुम्हें सक्षम माना जा सकता है। यह उसी तरह है जैसे लोग हमेशा खाने में नखरे करते हैं, यह सोचते हुए कि कुछ खाद्य पदार्थ स्वादिष्ट हैं और अन्य नहीं हैं। और इससे क्या होता है? जरूरी नहीं कि स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ पोषक-तत्वों से भरपूर हों, और जो खाद्य पदार्थ तुम्हें नापसंद हैं उनमें जरूरी नहीं कि कम पोषक-तत्व हों; उनमें अधिक और बेहतर पोषक-तत्व भी हो सकते हैं। लोगों को यह भेद करने में कठिनाई होती है कि क्या सत्य है और क्या सत्य नहीं है, क्या परमेश्वर से आता है और क्या मनुष्य से आता है। सत्य समझने के बाद ही वे उसमें से कुछ भेद पहचान सकते हैं; जो लोग सत्य नहीं समझते वे किसी भी चीज की असलियत नहीं जान सकते। यदि तुम जानते हो कि तुममें समझ की कमी है, तो तुम्हें विनम्र और सादा रहना चाहिए और सत्य की अधिक खोज करनी चाहिए। एक बुद्धिमान व्यक्ति यही करता है। यदि तुम किसी भी चीज की असलियत नहीं जान सकते हो, फिर भी अंधे अहंकार में डूबे रहते हो, हर बात पर न्याय करने का साहस करते हो और जो भी बोलता है उसकी आलोचना करते हो, तो तुम पूरी तरह से अविवेकी हो। क्या तुम लोग सहमत नहीं हो कि यह ऐसा ही है? कोई कुछ भी करे, उसे सत्य के सामने अपने नुकीले दाँत नहीं दिखाने चाहिए। उसे परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय रखना चाहिए और सभी चीजों में सत्य की तलाश करनी चाहिए—वास्तव में मेधावी और बुद्धिमान व्यक्ति केवल वही है।

अंश 8

परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ करने की समस्या की प्रकृति कैसी है? यदि तुम परमेश्वर के कथनों को बदलते हो और उसके वचनों के साथ छेड़छाड़ करते हो तो यह परमेश्वर का सबसे संगीन विरोध व परमेश्वर की निंदा करना है। केवल शैतान की किस्म के लोग ही ऐसे दुष्ट कार्य कर सकते हैं, और वे लोग वैसे ही हैं जैसा कि प्रधान स्वर्गदूत है। प्रधान स्वर्गदूत ने कहा : “हे परमेश्वर, तुम स्वर्ग, पृथ्वी और सारी चीजें बना सकते हो, संकेत दिखा सकते हो और चमत्कार कर सकते हो—मैं भी यह सब कर सकता हूँ। तुम सिंहासन पर आरूढ़ हो गए हो, और मैं भी वैसा ही करूँगा। तुम बेशुमार राष्ट्रों पर शासन करते हो, और मैं भी करता हूँ। तुमने मनुष्यों को बनाया है, और मैं उनका प्रबंधन करता हूँ!” इससे पता चलता है कि प्रधान स्वर्गदूत कितना घमंडी है; उसके पास कोई भी विवेक नहीं है। परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ करने की प्रकृति प्रधान स्वर्गदूत के क्रियाकलापों के समान ही है, इसलिए परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ करना परमेश्वर का सीधा विरोध करना और परमेश्वर के खिलाफ ईश-निंदा है। जो लोग परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ करते हैं वे ही उसका सबसे अधिक विरोध करते हैं और वे सीधे तौर पर उसके स्वभाव को नाराज करते हैं। परमेश्वर उन लोगों से ज्यादा नफरत किसी से नहीं करता, जो उसके वचनों के साथ छेड़छाड़ करते हैं। यह कहा जा सकता है कि परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ करना परमेश्वर और पवित्र आत्मा की निंदा करना है, और यह एक अक्षम्य पाप है। लोगों द्वारा परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ करने के अलावा कोई और चीज भी है जो परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करती है, वह यह है कि जब लोग कार्य व्यवस्थाओं में बिना सोचे-समझे बदलाव करने का दुःसाहस करते हैं और फिर इन्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों को गुमराह करने के लिए कलीसिया में जारी कर देते हैं और कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी और बाधा पहुँचाते हैं। यह भी परमेश्वर के सीधे विरोध की अभिव्यक्ति है और इससे परमेश्वर का स्वभाव नाराज होता है। कुछ लोगों के हृदय बिल्कुल भी परमेश्वर का भय नहीं मानते हैं। उनका मानना है कि कार्य व्यवस्थाएँ मनुष्य ने लिखी हैं, वे मनुष्य से आती हैं, और जहाँ भी वे व्यवस्थाएँ इन लोगों की धारणाओं के अनुरूप नहीं होती, वे उन्हें जैसा चाहें वैसे बदल देते हैं। क्या तुम्हें पता है कि यह परमेश्वर के किस प्रशासनिक आदेश का उल्लंघन है? (7. “कलीसिया के कार्यों और मामलों में परमेश्वर के प्रति समर्पण के अलावा, उस व्यक्ति के निर्देशों का पालन करो जिसे पवित्र आत्मा हर चीज में उपयोग करता है। जरा-सा भी उल्लंघन अस्वीकार्य है। अपने अनुपालन में एकदम पक्के रहो और सही या गलत का विश्लेषण न करो; क्या सही या गलत है, इससे तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं। तुम्हें केवल संपूर्ण समर्पण की चिंता करनी चाहिए” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, दस प्रशासनिक आदेश जो राज्य के युग में परमेश्वर के चुने लोगों द्वारा पालन किए जाने चाहिए)।) जो चीजें प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करती हैं वे परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करती हैं। क्या तुम इसे स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते? कुछ लोग ऊपरवाले की कार्य व्यवस्थाओं के प्रति अपने रवैये में अत्यधिक ढीठ होते हैं। उनका मानना है, “ऊपरवाला कार्य व्यवस्था बनाता है, और कलीसिया में हम कार्य करते हैं। कुछ वचनों और मामलों को लागू करने में ढिलाई बरती जा सकती है। विशेष रूप से, उन्हें करना कैसे है यह हम पर निर्भर करता है। ऊपरवाला सिर्फ बोलता है और कार्य-व्यवस्थाएँ बनाता है; व्यावहारिक कार्रवाई करने वाले तो हम ही हैं। इसलिए, जब ऊपरवाला हमें कार्य सौंप देता है उसके बाद इसे हम जैसे चाहें वैसे कर सकते हैं। यह कैसे भी हो जाए, ठीक है। किसी को भी इसमें दखलअंदाजी का अधिकार नहीं है।” वे जिन सिद्धांतों पर कार्य करते हैं वे इस प्रकार हैं : अगर उन्हें लगता है कि कोई चीज सही है या अगर उन्हें वह पसंद आती है तो वे उसे स्वीकार कर लेते हैं; अगर उन्हें लगता है कि कोई चीज गलत है या वे उसे नापसंद करते हैं तो भले ही वह सत्य सिद्धांतों के तालमेल में हो, फिर भी वे उसे स्वीकार नहीं करते। उनके सिद्धांत और मानक वही होते हैं जो भी वे मानते हैं। अगर कोई चीज उनकी इच्छा के हिसाब से नहीं होती, तो वे उसे गलत मान लेते हैं। वे न केवल उसे स्वीकार करने से इनकार करते हैं, बल्कि उसका विरोध भी करते हैं और कट्टर रूप से दूसरों के विरोध में हो जाते हैं। अगर ऊपरवाले के वचन या व्यवस्थाएँ उनकी इच्छा के अनुरूप नहीं होती हैं तो वे उन्हें बदलना चाहते हैं और उन्हें तभी नीचे के लोगों तक आगे बढ़ाते हैं जब वे उनकी सहमति के अनुरूप होती हैं। उनकी सहमति के बिना कोई भी उन्हें आगे नहीं सौंप सकता। हालाँकि अन्य क्षेत्रों में ऊपरवाले की कार्य व्यवस्थाओं को वे जैसी हैं वैसी ही नीचे बता दी जाती हैं, जबकि ये लोग अपने प्रभार के अधीन कलीसियाओं को कार्य व्यवस्थाओं के अपने संशोधित संस्करण सौंपते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर को हमेशा हाशिए पर रखना चाहते हैं; वे इस बात के लिए उतावले रहते हैं कि हर कोई उन पर विश्वास करे, उनका अनुसरण करे, और उनके प्रति समर्पित हो। उनके मन में कुछ ऐसे पहलू हैं जिनमें परमेश्वर उनके योग्य नहीं है, उन्हें स्वयं परमेश्वर होना चाहिए, और दूसरों को उन पर विश्वास करना चाहिए। यही इस मामले की प्रकृति है। यदि तुम लोग इसे समझ गए तो जब उन्हें बर्खास्त किया जाएगा, क्या तब भी तुम रोओगे? क्या तुम तब भी उनके लिए अफसोस करोगे? क्या तब भी तुम सोचोगे, “ऊपरवाले ने ठीक नहीं किया। वे लोगों के साथ बेजा व्यवहार करते हैं। वे किसी ऐसे व्यक्ति को कैसे बर्खास्त कर सकते हैं जिसने इतना कष्ट सहा है?” जो लोग ऐसा कहते हैं उनमें विवेकशीलता नहीं होती है। वे किसकी खातिर कष्ट सह रहे हैं? परमेश्वर के लिए? कलीसिया के काम के लिए? वे अपने रुतबे को मजबूत करने के लिए कष्ट सहते हैं; वे स्वतंत्र राज्य स्थापित करने के लिए कष्ट सहते हैं। क्या वे परमेश्वर की सेवा कर रहे हैं? क्या वे अपने कर्तव्य निभा रहे हैं? क्या वे परमेश्वर के प्रति निष्ठावान और समर्पित हैं? वे पूरी तरह से शैतान के सेवक हैं, और जब वे काम करते हैं तो दानव राज करते हैं। वे परमेश्वर की प्रबंधन योजना को क्षति पहुँचाते हैं और परमेश्वर के कार्य में विघ्न डालते हैं। वे प्रामाणिक मसीह-विरोधी हैं! कुछ लोग कहते हैं : “उन्होंने बहुत कष्ट सहे हैं। वे कलीसियाओं को जो चीजें सौंपते हैं, उन्हें लिखने में काफी मेहनत लगती है।” तो फिर मैं तुम लोगों से पूछता हूँ, वे जो चीजें लिखते हैं क्या वे लोगों के लिए उन्नतिप्रद हैं? आखिर वह ध्येय क्या है जिसे वे प्राप्त करना चाहते हैं? क्या तुम इन मामलों का भेद पहचान सकते हो? यदि तुम उनके द्वारा गुमराह कर दिए गए तो नतीजे क्या होंगे? क्या तुमने इस बारे में विचार किया है? कुछ लोग ऐसे लोगों पर दया दिखाते हुए कहते हैं : “उन्होंने बहुत अधिक सहा है और ये सब चीजें लिखना आसान नहीं है, इसलिए उन्होंने जो लिखा है अगर उसमें कुछ विचलन या विकृत चीजें हैं तो परमेश्वर के घर को उन्हें क्षमा कर देना चाहिए।” उनके ऐसा कहने में क्या समस्या है? क्या कोई सिर्फ बहुत कष्ट सहकर सच में परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकता है? वे लोग किसकी खातिर कष्ट सह रहे हैं? अगर वे परमेश्वर को संतुष्ट करने और उसे महिमा दिलाने के लिए नहीं बल्कि रुतबा हासिल करने के लिए कष्ट सह रहे हैं तो चाहे वे कितना भी कष्ट क्यों न सहें, क्या इसका कोई महत्व या मूल्य है? इस तरह का कष्ट स्वार्थी और नीच है, दुष्टता और बेशर्मी है! यदि ऐसे मसीह-विरोधी को बर्खास्त नहीं किया गया तो नतीजे क्या होंगे? लोग अपनी मर्जी से कलीसिया के काम में विघ्न डालेंगे और इससे पहले कि उन्हें इसका एहसास हो वे परमेश्वर-विरोधी बन जाएँगे। क्या यह परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ी करना और बाधा डालना नहीं है? वे लोग अपने खुद के लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अपने कार्य में कुछ कष्ट सहते हैं, लेकिन क्या इससे उन्हें परमेश्वर का विरोध करने का अधिकार मिल जाता है? तो क्या उन्हें उसका विरोध करना चाहिए और उसके विरुद्ध विद्रोह करना चाहिए? क्या उन्हें स्वेच्छाचारी और लापरवाह होना चाहिए और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने से मना करना चाहिए? क्या वे अपनी मर्जी से कुछ भी कर सकते हैं? उनके पास सत्य नहीं होता, फिर भी वे परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करते हैं, और यह मानकर कि वे जो कुछ भी करते हैं वह तर्कसंगत और सही है, और आँख मूँदकर कार्य करना चाहते हैं। वे पूरे दानव हैं और वे सच में शैतान के सेवक हैं जो कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी करने और बाधा डालने आते हैं! यदि तुम न केवल ऐसे लोगों का भेद नहीं पहचान पाते, बल्कि उनसे हमदर्दी भी रखते हो, उनके लिए आँसू बहाते हो और उनका बचाव करने आते हो तो तुम रीढ़विहीन भी हो, तुम एक भ्रमित और मंदबुद्धि व्यक्ति हो। तुम सोच सकते हो : “ऊपरवाला उनकी भावनाओं के प्रति विचारशील नहीं हो रहा है। उन्होंने इतने कष्ट सहे और ऊपरवाले ने उन्हें बस यों ही बर्खास्त कर दिया।” यदि तुम ऐसा कहते हो, तो तुम भी शैतान के सेवक हो और तुम दानव हो। बहुत लोग हैं जो शैतानी फलसफे के अनुसार जीते हैं, कभी भी झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को उजागर या उनकी रिपोर्ट नहीं करते हैं, जब तक कि किसी दिन कोई मसीह-विरोधी कुछ अनर्थ न कर दे और अंततः उन्हें एहसास होता है कि यह वास्तव में एक मसीह-विरोधी द्वारा लोगों को गुमराह किए जाने का मामला था। कुछ लोगों में इसके बारे में धारणाएँ भी होती हैं और सोचते हैं : “परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, इसलिए देहधारी परमेश्वर को यह पता होना चाहिए कि कलीसिया में कितने मसीह-विरोधी हैं। क्या हमें उनकी रिपोर्ट करने की कोई जरूरत है?” क्या ऐसा कहने वाले लोग बेतुके नहीं हैं? अभी परमेश्वर मानवता में कार्य कर रहा है, और परमेश्वर द्वारा उपयोग किया गया मनुष्य एक सामान्य मनुष्य है, इसलिए अगर वह कलीसिया के मामलों के सीधे संपर्क में नहीं आया तो वह इन चीजों के बारे में कैसे जान सकता है? कई बार जब मसीह-विरोधियों से जुड़ी घटनाएं घटीं, तो कुछ लोगों द्वारा उनकी रिपोर्ट करने और उन्हें उजागर करने के बाद ही समस्याओं का समाधान हुआ और फिर ऊपरवाले ने जाँच का आदेश दिया। सामान्य मानवता में परमेश्वर का कार्य और लोगों का मार्गदर्शन बिल्कुल भी अलौकिक नहीं है—यह अत्यंत व्यावहारिक है—लेकिन वह शैतान पर विजय प्राप्त करता है, उसे हराता है और अपमानित करता है। केवल इसी तरीके से उसकी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धिमत्ता प्रकट हो सकती है। परमेश्वर का कार्य कितना व्यावहारिक है इसका इसी से पता चलता है; वह इन सभी लोगों, घटनाओं और चीजों का बंदोबस्त करता है ताकि उसके चुने हुए लोग सबक सीख सकें और भेद पहचानने की क्षमता और अंतर्दृष्टि प्राप्त कर सकें। जब उसके चुने हुए लोगों को सूझ-बूझ हासिल हो जाएगी, तो झूठे अगुआ, मसीह-विरोधी और दुष्ट लोग “कानून के लंबे हाथों” से बच नहीं पाएँगे। परमेश्वर उन्हें प्रकट करने के लिए तथ्यों का उपयोग करेगा और अपने सभी चुने हुए लोगों को स्पष्ट रूप से देखने और समझने में समर्थ बनाएगा। अतीत में क्या कई दुष्ट लोगों और मसीह-विरोधियों को प्रकट कर हटा नहीं दिया गया था? क्या अभी भी तुम यह मामला स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते? फिर तो तुम बहुत ही भ्रमित हो!

यद्यपि कुछ लोग परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्था के कुछ हिस्सों को नहीं समझते हैं, फिर भी वे यह कहते हुए समर्पण करने में समर्थ हैं : “परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही है और उसका अभिप्राय है। यदि हम उसकी कार्य व्यवस्थाओं को पूरी तरह से नहीं समझ पाते हैं, तो हमें पहले उनके प्रति समर्पण करना चाहिए। हम परमेश्वर की आलोचना नहीं कर सकते! हमें अभी भी कार्य व्यवस्थाओं की आज्ञा माननी चाहिए भले ही वे हमारी धारणाओं से मेल न खाती हों, क्योंकि हम मनुष्य हैं और मनुष्य का मन क्या समझ सकता है? हमें बस परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए; वह दिन आएगा जब हम उन्हें समझ पाएँगे। वह दिन आने पर भी चाहे हम उन्हें पूरी तरह से समझ न सकें, तो भी हमें स्वेच्छा से उनके प्रति समर्पण करना चाहिए। हम मनुष्य हैं, इसलिए हमें परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहिए। यही है जो हमें करना चाहिए।” परन्तु कुछ लोग अलग तरह के हैं, और जब वे परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाएँ देखते हैं, तो पहले उनका अध्ययन करेंगे, और कहेंगे : “यह वह है जो परमेश्वर कहता है, और ये उसकी माँगें हैं। पहली मद ठीक लगती है, लेकिन दूसरी मद ज्यादा उपयुक्त नहीं है। मैं इसे बदल देता हूँ।” क्या ऐसे लोगों का हृदय परमेश्वर का भय मानता है? तुम अपनी मर्जी से कार्य व्यवस्थाएँ बदलते हो, तो इस समस्या की प्रकृति कैसी है? क्या यह परमेश्वर के घर के कार्य में गड़बड़ी करनी और बाधा डालना नहीं है? क्या तुम्हारे पास जो चीजें हैं वे सत्य हैं? यदि तुम्हारे पास वास्तव में सत्य है, तो तुम इसे व्यक्त क्यों नहीं करते? तुम परमेश्वर के वचनों को क्यों बदलते हो? ऐसा करके तुम अपने किस स्वभाव को प्रकट करते हो? यह अहंकार और आत्मतुष्टता है और किसी के भी प्रति समर्पण करने से इनकार करना है। यहाँ तक कि जब परमेश्वर की व्यवस्थाओं की बात आती है तब तुम छाँटने और चुनने की हिम्मत भी करते हो। इससे पता चलता है कि तुम्हारी मानसिकता और स्वभाव में बहुत बड़ी गड़बड़ है। परमेश्वर के चुने हुए लोगों के पास इस तरह के लोगों के बारे में विवेकशीलता होनी चाहिए। पहली बात, ऐसे लोग समस्याओं का समाधान करने के लिए सत्य पर संगति नहीं कर सकते, फिर भी वे मानते हैं कि वे सत्य को समझते हैं और वे किसी की आज्ञा नहीं मानेंगे। दूसरी बात, जब वे कार्य व्यवस्थाओं के बारे में धारणाएँ रखते हैं, तो वे उनका उल्लेख परमेश्वर के घर में नहीं करते हैं, बल्कि वे बस उन्हें चारों ओर फैला देते हैं। तीसरी बात, जब उनके मन में परमेश्वर और परमेश्वर के घर के कार्य के बारे में धारणाएँ होती हैं, तो वे उनका समाधान नहीं करते हैं, इतना ही नहीं बल्कि वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उसके बारे में धारणाएँ विकसित करने, और परमेश्वर के विरुद्ध खड़े होने और लड़ने के लिए उकसाने का प्रयास भी करते हैं, ताकि परमेश्वर को अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने के लिए और अंततः उसे हार मानने के लिए विवश कर दें। इन तीन व्यवहारों के आधार पर यह निश्चित किया जा सकता है कि ये लोग किस तरह के प्राणी हैं। क्या ये लोग सत्य की खोज करने वाले और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाले लोग हैं? कतई नहीं। वे सत्य की जरा-सी भी खोज नहीं करते है और वे परमेश्वर के प्रति नाराजगी भी महसूस करते हैं। वे परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखते हैं, और इन धारणाओं को फैलाते हैं, जिससे हर कोई उसके बारे में धारणाएँ बनाता है और उसके खिलाफ लड़ने और उसका विरोध करने के लिए खड़ा हो जाता है। इस आधार पर उन्हें प्रामाणिक और मुकम्मल मसीह-विरोधी निरूपित किया जा सकता है। ऐसे लोगों से कैसे निपटना चाहिए? क्या प्रेम के कारण उनकी सहायता की जानी चाहिए? यह फालतू है, क्योंकि वे सत्य नहीं स्वीकारते। उनकी काट-छाँट करना कैसा रहेगा? यह भी फालतू है, क्योंकि वे सत्य नहीं स्वीकारते। यदि परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग सत्य को स्वीकार नहीं सकते, तो यह एक गंभीर समस्या और खतरनाक बात है! तुम यदि इस मामले को बहुत हलके में लेते हो और मानते हो कि यह कोई बड़ी बात नहीं है तो एक दिन आएगा जब तुम परमेश्वर को नाराज कर बैठोगे। मैंने ऐसे कुछ लोगों को देखा है, और भले ही उन्हें अभी तक बाहर नहीं निकाल दिया गया हो, उनका परिणाम पहले ही निर्धारित हो चुका है : उन्हें हटा दिया जाएगा।

जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उनके पास कम से कम परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय तो होने चाहिए। और परमेश्वर का भय मानने का क्या अभिप्राय है? लोगों को परमेश्वर से डरना चाहिए; उन्हें हर काम सावधानी और सतर्कता से करना चाहिए, अपने लिए कुछ गुंजाइश छोड़नी चाहिए और मनमानी नहीं करनी चाहिए। मिसाल के तौर पर, जब परमेश्वर का घर कुछ झूठे अगुआओं को बर्खास्त करता है, तो कुछ लोग कहते हैं : “मैं इस मामले में आश्वस्त नहीं हूँ। हमें नहीं पता कि उन्होंने वास्तव में किया क्या है, और यदि हमें पता होता भी तो हम उनके किए कार्यों की प्रकृति पूरी तरह से समझ नहीं पाते। परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही होता है, और एक दिन ऐसा आएगा जब वह चीजों को स्पष्ट करेगा और हमें अपने इरादे समझने देगा।” यदि तुम यह नहीं समझते हो कि परमेश्वर का घर इस तरह से कार्य क्यों करता है, लेकिन तुम तब भी समर्पण कर सकते हो, तो तुम एक काफी धर्मनिष्ठ व्यक्ति हो और यह कहा जा सकता है कि तुम्हारे पास कुछ हद तक परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है। अगर तुम नहीं समझते हो और यहाँ तक कि खुद को परमेश्वर के खिलाफ खड़ा भी करते हो और कलीसिया के कार्य में बाधा डालते हो, तो तुम मुसीबत में हो। जब भी कलीसिया कुछ नकली अगुआओं को बर्खास्त कर देती है और कुछ मसीह-विरोधियों को निष्कासित कर देती है, तो उनके ऐसे कुछ कट्टर अनुयायी हमेशा होते हैं जो खड़े हो जाते हैं और उनके बचाव में आते हैं, वे इसके कारण सार्वजनिक रूप से परमेश्वर की आलोचना करते हैं, कहते हैं कि वह अधर्मी है और पवित्र आत्मा से तथ्यों को प्रकट करने के लिए कहते हैं। ऐसे लोगों के लिए, सुसमाचार का प्रचार करने और अपने कर्तव्य करने में उनका योगदान चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, यह सबकुछ बेकार है। एक धोखा हमेशा-हमेशा के लिए तुम्हारी किस्मत का निर्धारण कर देगा। तुम्हें धोखे का सार स्पष्ट रूप से देखना चाहिए; ऐसा मत सोचो कि यह कोई बड़ी बात नहीं है। यह कहा जा सकता है कि तुम सभी लोगों ने परमेश्वर का विरोध किया है, तुम सभी ने अपराध किया है। हालाँकि, जिस विषय पर मैंने अभी बात की है उसकी प्रकृति भिन्न है। यह बहुत संगीन है और परमेश्वर की सार्वजनिक आलोचना और विरोध इसमें शामिल है। कुछ लोगों को हमेशा चीजें और पत्र लिखने का शौक होता है और वे उन्हें चर्च में बेतहाशा वितरित करते रहते हैं। क्या यह सिद्धांतों के अनुरूप है? क्या वे जो कुछ लिखते हैं वे सत्य गवाहियाँ हैं? क्या वे जीवन अनुभव हैं? क्या वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए शिक्षाप्रद हैं? यदि ऐसा नहीं हैं, तो भी ये लोग कलीसिया में उनका बेतहाशा वितरण करते हैं, तो वे लोगों को गुमराह कर रहे हैं, अधर्म और भ्रांतियाँ फैला रहे हैं, तथ्यों को तोड़-मरोड़ रहे हैं, काले को सफेद में बदल रहे हैं, और पूरी तरह से बकवास कर रहे हैं। कुछ लोग तो अपनी पुस्तक भी लिखना चाहते हैं, फिर उसे कलीसिया में भेजकर प्रसिद्ध होना चाहते हैं। क्या लोगों ने पौलुस की मिसाल से कोई गंभीर सबक नहीं सीखा? तुम अभी भी कोई पुस्तक लिखना चाहते हो, एक “सेलिब्रिटी की आत्मकथा” लिखना चाहते हो और “सत्य का सारांश” कलमबद्ध करना चाहते हो। तुम्हारे पास कोई भी विवेक नहीं है! अगर तुम सक्षम हो तो अनुभवात्मक गवाहियों के कुछ अंश लिखो। क्या इन कुछ वर्षों में परमेश्वर में विश्वास रखते हुए तुम पर्याप्त न्याय और कष्ट से नहीं गुजरे हो? क्या तुम अभी भी इस मामले को स्पष्ट रूप से नहीं देख पा रहे हो? लोग क्या समझते हैं? तुम्हारे बोले गए शब्द और धर्म-सिद्धांत तुम्हारी खुद की समस्याओं को भी हल नहीं कर सकते हैं और फिर भी तुम उन्हें दूसरों को देना चाहते हो। तुममें कोई आत्म-जागरूकता नहीं है! परमेश्वर का घर पुस्तकों को एक समान ढंग से क्यों छापता और बाँटता है? क्योंकि इनमें से ज्यादातर पुस्तकें परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें हैं और बाकी परमेश्वर के चुने हुए लोगों की सच्ची अनुभवजन्य गवाहियों की पुस्तकें हैं। ये सभी सकारात्मक चीजें हैं जिनकी परमेश्वर के चुने हुए लोगों को आवश्यकता है और इसलिए परमेश्वर का घर एक समान ढंग से जो पुस्तकें जारी करता है वे सब कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश के लिए आवश्यक हैं। यह भी पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन में किया जाता है। तुम सभी लोग स्पष्ट रूप से देख सकते हो कि परमेश्वर के घर से जारी की गई एक ही जैसी पुस्तकें अत्यंत मूल्यवान और आवश्यक हैं। तुम लोग यह भी अच्छी तरह से जानते हो कि धर्मोपदेश सुनने से तुम्हें क्या लाभ मिल सकते हैं। इसलिए यदि तुम में नकली अगुआओं और मसीह-विरोधियों द्वारा फैलाई गई चीजों के बारे में विवेकशीलता है तो तुम नकली अगुआओं और मसीह-विरोधियों का भेद सचमुच पहचान लोगे। लेकिन तुम्हारे वर्तमान आध्यात्मिक कद के साथ, तुम लोग केवल परमेश्वर में विश्वास के बारे में कई धर्म-सिद्धांत समझते हो, लेकिन सत्य अभी भी तुम्हारे लिए स्पष्ट नहीं है। कुछ महत्वपूर्ण मामले हैं जिन्हें तुम अभी भी पूर्णतः नहीं समझ पाते हो, वे तुम्हें अस्पष्ट और धुंधले प्रतीत होते हैं। इसलिए तुम्हारे पास अभी भी कोई सत्य वास्तविकता नहीं है और तुम अभी भी बहुत ज्यादा विवेकशील नहीं हो। चाहे कलीसिया में कोई कैसे भी व्यवहार करे या बोले, तुम्हें इसके बारे में स्पष्ट विवेकशीलता नहीं है। कुछ लोगों का मानना है कि जो लोग वाक्पटुता से बोल सकते हैं, वे ही परमेश्वर की गवाही दे सकते हैं, और जो लोग वाक्पटुता से नहीं बोल सकते हैं उनके पास अनुभवात्मक गवाही हो तो भी वे इसके बारे में बात नहीं कर सकते। क्या वे इस मामले में सही हैं? वे एकदम गलत हैं। अगर किसी के पास अनुभवजन्य गवाही है तो वह जो कुछ भी कहता है वह व्यावहारिक होता है, और अगर किसी के पास अनुभवजन्य गवाही नहीं है, तो वह जो कुछ भी कहता है, वह व्यावहारिक नहीं होता, चाहे वह कितनी भी अच्छी तरह से धर्म-सिद्धांत क्यों न बोल सकता हो। ऐसा क्यों है? शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को बोलने का यह अभिप्राय नहीं है कि उस व्यक्ति के पास सत्य वास्तविकता है, और भले ही वे थोड़ा सा सत्य समझते हों, यह समझ अभी भी काफी सतही और सीमित है, और वे अनुभवात्मक गवाही के बारे में बिल्कुल भी नहीं लिख सकते हैं। यदि किसी के पास अनुभवात्मक गवाही नहीं है, तब भी वे बेशर्मी से शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते हैं और लोगों को व्याख्यान देते हैं, तो वे पाखंडी फरीसी बन गए हैं। वे लोगों को गुमराह करने के लिए केवल झूठी गवाही गढ़ सकते हैं। यह परमेश्वर द्वारा शापित है। कोई सच्ची गवाही दे सकता है या नहीं, यह इस पर निर्भर नहीं करता कि क्या वह वाक्पटु है या नहीं। यह देखो कि पतरस के पास कितनी सारी अनुभवजन्य गवाही थी, लेकिन उसने कितने पत्र लिखे? उसने गवाही के कितने लेख लिखे? हो सकता है कि ये केवल गिनती के ही रहे हों, लेकिन परमेश्वर ने पतरस का ऐसे व्यक्ति के रूप में अनुमोदन किया, जो उसे सबसे अच्छी तरह से जानता था और जो वास्तव में उससे प्यार करता था। यदि तुम्हारे पास वास्तव में अनुभवजन्य गवाही है तो तुम निश्चित रूप से बदल चुके होगे और तुम और भी अधिक सदाचारी व्यक्ति बन चुके होगे। अब तुम वे उत्साहपूर्ण कार्य नहीं करोगे, जिन्हें तुम पहले अच्छा समझते थे। जब तुम पहचान लोगे कि मनुष्य कितना महत्वहीन, दरिद्र और दयनीय है, तो तुम अपनी मर्जी से कार्य करने, पुस्तक या आत्मकथा लिखने का दुःसाहस नहीं करोगे। जो लोग पुस्तकें या आत्मकथाएँ लिखना चाहते हैं या किसी प्रकार का योगदान देने के नाम पर अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाना चाहते हैं, वे सब ऐसे अहंकारी, दंभी और महत्वाकांक्षी लोग हैं जो अपनी क्षमताओं को बढ़ा-चढ़ाकर आँकते हैं। उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता और वे अपने क्रियाकलापों में अपनी खुद की इच्छा का पालन करना पसंद करते हैं। जो लोग सच में सत्य का अनुसरण करते हैं, वे सभी अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से करने, सत्य को समझने और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने को महत्व देते हैं। वे सोचते हैं कि अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से करना, स्वभाव में परिवर्तन लाना, सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना और सच्ची अनुभवात्मक गवाही देना अन्य किसी भी चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। जो लोग इस तरह से अनुसरण कर सकते हैं वे सबसे बुद्धिमान और तर्कसंगत लोग हैं।

अंश 9

बाइबल के पुराने नियम में दर्ज नूह, अब्राहम और अय्यूब में मानवता के क्या गुण थे? उनमें सामान्य मानवता की ऐसी क्या विशेषताएँ थीं, जिनकी वजह से परमेश्वर ने उन्हें स्वीकार करने लायक पाया? (विशेष रूप से वे अंतरात्मा और विवेक से संपन्न थे।) यह पूरी तरह से सही है। अय्यूब ने लंबा जीवन जिया जबकि इस दौरान परमेश्वर ने व्यक्तिगत रूप से कभी उससे बात नहीं की और न ही व्यक्तिगत रूप से उसके सामने प्रकट हुआ। फिर भी अय्यूब वह सब समझ और महसूस कर सका, जो परमेश्वर ने किया। अंत में उसने एक बयान के साथ समापन किया जो परमेश्वर पर उसके ज्ञान को दर्शाता है : “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” (अय्यूब 1:21)। इन शब्दों का क्या अर्थ है? इनका अर्थ है : “यहोवा परमेश्वर है, वह सृष्टि का निर्माता है, वह मेरा परमेश्वर है, और जब वह बोलता है, तब अगर मैं उसका आधा भी समझ सकूँ जो उसने कहा है तो भी मुझे इसे अवश्य सुनना चाहिए और इसका अक्षरशः पालन करना चाहिए।” परमेश्वर ने अय्यूब को तभी स्वीकार किया, जब उसके बारे में अय्यूब का ज्ञान इस स्तर पर पहुँच चुका था। अय्यूब के पास ऐसे अनुभव थे और वह उन परीक्षणों को स्वीकार करने के साथ उनके लिए खुद को समर्पित कर सकता था, जिनके अधीन परमेश्वर ने उसे रखा था-ये सब चीजें उसने सामान्य मानवता पर अपनी अंतरात्मा और विवेक के आधार पर ही प्राप्त की थीं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि चाहे उसने परमेश्वर को देखा हो या न देखा हो, परमेश्वर ने उसके साथ चाहे जो भी किया हो और चाहे परमेश्वर ने उसका परीक्षण किया हो या नहीं या उसके सामने प्रकट हुआ हो, उसने हमेशा विश्वास किया कि : “यहोवा मेरा परमेश्वर है और परमेश्वर का जो निर्देश है और जिसमें परमेश्वर की खुशी है, मुझे उसका पालन करना है, फिर चाहे मुझे वह बात समझ आए या नहीं। मुझे उसके मार्ग का अनुसरण करना है। मुझे उसकी बात सुननी है और उसके प्रति समर्पित होना है।” अय्यूब की पुस्तक में यह दर्ज है कि अय्यूब के बच्चे अक्सर बड़े भोज करते थे और अय्यूब उनमें कभी हिस्सा नहीं लेता था। इसके बजाय वह प्रार्थना करता था और उसके लिए होमबलि देता था। अय्यूब अक्सर ऐसा करता था और इससे साबित होता है कि वह अपने दिल में जानता था कि मनुष्यों के खाने-पीने, मौज-मस्ती और मानवजाति के भोज उड़ाने की जिंदगी से परमेश्वर घृणा करता है। अय्यूब मन ही मन यह समझता था कि यही सच है, हालाँकि उसने कभी सीधे परमेश्वर को यह कहते हुए नहीं सुना था, वह मन ही मन में जानता था कि परमेश्वर यही चाहता है। जब अय्यूब जान गया कि परमेश्वर क्या चाहता है, वह उसकी बात सुनने और उनके प्रति समर्पित होने में समर्थ था। वह इस पर हर समय टिका रहा और खाने-पीने और दावतों का कभी हिस्सा नहीं बना। क्या अय्यूब सत्य समझता था? नहीं, वह नहीं समझता था। वह ऐसा कर पाया क्योंकि उसके पास सामान्य मानवता की अंतरात्मा और विवेक था। विवेक और तर्क के अलावा, सबसे महत्वपूर्ण बात यही थी कि परमेश्वर में उसकी सच्ची आस्था थी। यानी वह अपने दिल की गहराइयों से मानता था कि सृष्टि को बनाने वाला परमेश्वर ही है और जो सृष्टिकर्ता कहता है, वही परमेश्वर की इच्छा है। आज के संदर्भ में यही सत्य है, यही सबसे बड़ा निर्देश है, यही वह है जिसका इंसान को पालन करना चाहिए। इससे फर्क नहीं पड़ता कि यह परमेश्वर की कोई इच्छा है जिसे मनुष्य समझ पा रहा है, या चाहे परमेश्वर के कहे कुछ वचन, मनुष्य को उन्हें स्वीकार करना और उसका पालन करना चाहिए। यही वह विवेक है जो मनुष्य के पास होना चाहिए। जब मनुष्य इस विवेक को हासिल कर लेता है, तब उसके लिए परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पित होना, उसके वचनों को अभ्यास में लाना और उसके वचनों का अनुसरण करना कहीं अधिक आसान हो जाता है। ऐसा करने में कोई कठिनाई या कष्ट नहीं होगा, और तो और इसमें कोई रुकावट भी नहीं आएगी। क्या अय्यूब काफी हद तक सत्य समझ गया था? क्या वह परमेश्वर को जानता था? क्या उसे जो परमेश्वर के पास है और जो वह स्वयं है या उसके स्वभाव-सार का ज्ञान था? आज के लोगों की तुलना में वह परमेश्वर को नहीं जानता था और वह बहुत कम समझता था। लेकिन उसके पास एक चीज थी : वह जो कुछ भी समझता था, उसका अभ्यास करता था। कोई बात समझ जाने के बाद वह आज्ञा मानकर उसका पालन करता था। यही उसकी मानवता का श्रेष्ठ पहलू था, लेकिन इसी चीज को लोग सबसे ज्यादा खारिज करते थे। लोग सोचते थे, “क्या अय्यूब बस दावतों से दूर नहीं रहता? क्या वह बस परमेश्वर को अक्सर होमबलि नहीं चढ़ाता है? आज के समय के अनुसार देखें तो, क्या वह बस शारीरिक सुखों को भोगने से बच नहीं रहा है?” ये तो केवल बाहरी रूप में अभिव्यक्त चीजें हैं, लेकिन इन चीजों के पीछे का अय्यूब का स्वभाव सार और मानवता देखोगे तो तुम समझ जाओगे कि ये सामान्य मामले नहीं हैं, और ना ही इन्हें हासिल कर पाना आसान है। अगर एक आम व्यक्ति को पैसे बचाने के लिए दावत करने से बचना हो तो ऐसा करना बहुत आसान होगा। लेकिन अय्यूब उस समय धनी व्यक्ति था। कौन अमीर आदमी दावत नहीं देना चाहेगा? फिर अय्यूब दावतों से दूर कैसे रह पाया? (वह जानता था कि परमेश्वर इससे नफरत करता है। वह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम था।) निःसंदेह। परमेश्वर से डरने और बुराई से दूर रहते हुए अय्यूब ने विशेष रूप से किसका अभ्यास किया? वह जानता था कि परमेश्वर जिन चीजों से नफरत करता है, वे सब बुरी हैं, इसलिए उसने परमेश्वर के वचनों का पालन किया, और वह ऐसा कुछ नहीं करता था, जिससे परमेश्वर को नफरत थी। वह किसी भी सूरत में ऐसी चीजें न करता, चाहे कोई कुछ भी कहे। इसका मतलब अय्यूब परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता था। अय्यूब परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में क्यों सक्षम हुआ? वह अपने मन में क्या सोच रहा था? वह इन बुरे कार्यों को करने से कैसे बचा? उसके हृदय में परमेश्वर का डर था। परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि अपने हृदय में वह परमेश्वर का भय मानता था और परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर कर सकता था, और उसके हृदय में परमेश्वर के लिए जगह थी। वह बुराई से दूर था तो इसलिए नहीं कि वह इस बात से डरता था कि परमेश्वर इसे देख लेगा या इस पर परमेश्वर क्रोधित होगा। इसके बजाय वह परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर करता था, उसे संतुष्ट करने को तैयार था और परमेश्वर के वचनों पर अडिग रहने की इच्छा रखता था। इसी वजह से वह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम हो पाया। वैसे तो हर कोई यह वाक्यांश कह सकता है कि “परमेश्वर का भय मानो और बुराई से दूर रहो,” फिर भी वे नहीं जानते कि अय्यूब ने यह किया कैसे। वास्तव में अय्यूब ने “परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने” को परमेश्वर में विश्वास करने के लिए सबसे आधारभूत और महत्वपूर्ण चीज माना। इसीलिए वह इन वचनों पर अडिग रह पाया, जैसे कि वह किसी धर्मादेश का पालन कर रहा हो। उसने परमेश्वर के वचन सुने क्योंकि वह अपने हृदय में परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर करता था। मनुष्य की नजर में परमेश्वर के वचन चाहे कितने ही साधारण लगें, भले ही वे वचन बहुत साधारण थे, लेकिन अय्यूब के हृदय में वे सर्वोच्च परमेश्वर के वचन थे; वे सबसे महान, सबसे महत्वपूर्ण वचन थे। चाहे उन वचनों को लोग हेय दृष्टि से देखें, अगर वे परमेश्वर के वचन हैं, तो लोगों को इनका पालन करना चाहिए। भले ही उनका मजाक उड़ाया जाए या बदनामी हो, उन्हें उसके वचनों का पालन करना चाहिए। भले ही उन्हें क्लेश का सामना करना पड़े या यातना झेलनी पड़े, तब भी उन्हें अंत तक परमेश्वर के वचनों पर टिके रहना चाहिए और वे इनसे पीछे नहीं हट सकते। परमेश्वर का भय मानने का यही मतलब है। तुम्हें उस हर एक वचन पर टिके रहना है, जिसकी अपेक्षा परमेश्वर एक इंसान से करता है। जहाँ तक उन चीजों की बात है, जिन्हें परमेश्वर मना करता है या जिनसे परमेश्वर नफरत करता है, यदि तुम उन चीजों के बारे में नहीं जानते तो चलेगा, लेकिन अगर एक बार तुम उन चीजों को जान जाते हो तो तुम्हें वे चीजें बिल्कुल नहीं करनी चाहिए। तुम्हें अडिग रहने में सक्षम होना चाहिए, भले ही तुम्हारा परिवार तुम्हें अस्वीकार कर दे, अविश्वासी तुम्हारा मजाक उड़ाएँ, या तुम्हारे करीबी लोग तुम्हारा तिरस्कार करें या तुम्हारा मजाक उड़ाएँ। तुम्हें अडिग रहने की क्या जरूरत है? तुम्हारी प्रेरणा क्या है? तुम्हारे सिद्धांत क्या हैं? यह है, “मुझे परमेश्वर के वचनों पर टिके रहना है और उसकी इच्छाओं के अनुसार ही काम करना है। मैं उन चीजों पर अडिग रहूँगा, जो परमेश्वर को पसंद हैं और उन चीजों को त्यागने के लिए संकल्पित रहूँगा, जिनसे परमेश्वर को नफरत है। अगर मैं परमेश्वर का इरादा नहीं जानता तो चलेगा, लेकिन अगर मैं उसके इरादे को जानता और समझता हूँ तो मैं दृढ़ता से उसके वचन सुनूँगा और इनके आगे समर्पण करूँगा। मुझे इससे डिगाने में कोई भी सक्षम नहीं होगा, यहाँ तक कि समय खत्म होने तक भी मैं नहीं डगमगाऊँगा।” परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का यही मतलब है।

लोगों के बुराई से दूर रहने में सक्षम होने के लिए पहली शर्त यह है कि उनके हृदय में परमेश्वर का भय हो। परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय कैसे बनता है? परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर करने से। परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर करने का क्या मतलब है? इसका मतलब है व्यक्ति हर बात का मूल्याँकन परमेश्वर के वचनों से कर सके और उन्हीं को अपना मापदंड और कसौटी माने क्योंकि वह जानता है कि सभी चीजों पर परमेश्वर की सर्वोच्च सत्ता है और उसके हृदय में परमेश्वर का भय है। परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर करने का यही मतलब है। साधारण शब्दों में कहें तो परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर करने का मतलब है परमेश्वर का हृदय में होना, परमेश्वर को मन में रखना, कुछ करते समय नियंत्रण न खो देना, और स्वयं निर्णय लेने का प्रयास न करना, बल्कि परमेश्वर को सब कुछ तय करने देना। हर चीज में तुम सोचते हो, “मैं परमेश्वर में विश्वास करता हूँ और परमेश्वर का अनुसरण करता हूँ। मैं छोटा-सा सृजित प्राणी हूँ, जिसे परमेश्वर ने चुना है। मुझे अपनी इच्छा से आने वाले विचारों, सुझावों और फैसलों को छोड़ देना चाहिए और परमेश्वर को जिम्मा लेने देना चाहिए। परमेश्वर मेरा प्रभु, मेरी चट्टान और मेरा उज्ज्वल प्रकाश है, जो हर काम में मुझे राह दिखाता है। मुझे उसके वचनों और इच्छाओं के अनुसार कार्य करने चाहिए और खुद को पहले नहीं रखना चाहिए।” परमेश्वर को अपने मन में रखने का यही मतलब है। जब तुम कुछ करना चाहते हो, तो आवेग या लापरवाही से पेश मत आओ। पहले सोचो, परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं, क्या परमेश्वर को तुम्हारे काम से नफरत होगी, क्या तुम्हारे काम परमेश्वर के इरादों के अनुसार हैं। अपने हृदय में, पहले खुद से पूछो, सोचो और विचार करो; हड़बड़ी ना करो। हड़बड़ी करना आवेगी होना है, और चिड़चिड़ेपन और मनुष्य की इच्छा से प्रेरित होना है। अगर तुम हमेशा उतावले और आवेगी होते हो, तो इससे पता चलता है कि तुम्हारे हृदय में परमेश्वर नहीं है। जब तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर करते हो, तो क्या ये सिर्फ खोखले शब्द नहीं हैं? तुम्हारी वास्तविकता कहाँ है? तुम्हारे पास कोई वास्तविकता नहीं है और तुम परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर नहीं कर सकते। तुम खुद ही सभी मामलों का जिम्मा लेते हो, हर बार अपनी मर्जी से काम करते हो। फिर तुम कैसे कह सकते हो कि तुम्हारे दिल में परमेश्वर का भय है, क्या यह बकवास नहीं है? तुम इन शब्दों से लोगों को बरगला रहे हो। किसी व्यक्ति के पास परमेश्वर का भय मानने वाले दिल की ठोस अभिव्यक्ति क्या होती है? यह परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर करना होता है। परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर करने की ठोस अभिव्यक्ति होती है, व्यक्ति के हृदय में परमेश्वर के लिए जगह होना—सबसे महत्वपूर्ण जगह होना। वे अपने हृदय में परमेश्वर को अपना मालिक बनकर शासन करने देते हैं। इसलिए जब कुछ होता है, तो उनके पास परमेश्वर के प्रति समर्पित होने वाला दिल होता है। वे लापरवाह नहीं होते, न ही उतावले होते हैं और वे चिड़चिड़ेपन में कुछ नहीं करते; इसके बजाय वे इसका सामना शांति से कर सकते हैं, और परमेश्वर के सामने सत्य सिद्धांतों को खोजने के लिए स्वयं को शांत कर सकते हैं। तुम चीजें परमेश्वर के वचनों के अनुसार करते हो या अपनी इच्छा से, तुम अपनी मर्जी चलने देते हो या परमेश्वर के वचनों की, यह इसी पर निर्भर करता है कि क्या परमेश्वर तुम्हारे हृदय में है। तुम कहते हो कि परमेश्वर तुम्हारे हृदय में है, लेकिन जब कुछ होता है तो तुम आँखें बंद करके काम करते हो और परमेश्वर को दरकिनार करते हुए खुद ही आखिरी फैसला लेते हो। क्या यह तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के होने की अभिव्यक्ति है? कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कुछ होने पर परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, लेकिन प्रार्थना करने के बाद लगातार विचार करते हैं, वे सोचते हैं, “मुझे लगता है कि मुझे ऐसा करना चाहिए। मुझे लगता है कि मुझे वैसा करना चाहिए।” तुम हमेशा अपनी इच्छा से चलते हो और किसी की नहीं सुनते फिर चाहे जो भी तुम्हारे साथ संगति करे। क्या यह परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय के न होने की अभिव्यक्ति नहीं है? क्योंकि तुम सत्य सिद्धांतों को नहीं खोजते और सत्य का अभ्यास नहीं करते, तो यह कहना कि तुम परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर करते हो और तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है तो ये बस खोखले शब्द हैं। जिन लोगों के पास परमेश्वर नहीं है और जो परमेश्वर को महान मानकर अपने हृदयों में उसका आदर नहीं कर सकते, उन लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं है। जो लोग कुछ होने पर सत्य नहीं खोज पाते, और जिनका हृदय परमेश्वर के प्रति समर्पित नहीं है, उन लोगों के पास अंतरात्मा और विवेक नहीं होता। अगर किसी के पास वास्तव में अंतरात्मा और विवेक है, तो जब कुछ होगा, वे स्वाभाविक रूप से सत्य खोज सकेंगे। उन्हें पहले सोचना चाहिए, “मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ। मैं परमेश्वर के उद्धार का अनुसरण करने के लिए आया हूँ। चूँकि मेरा स्वभाव भ्रष्ट है और मैं जो भी करता हूँ उसमें हमेशा खुद को ही एकमात्र प्राधिकारी मानता हूँ और मैं हमेशा परमेश्वर के इरादों के खिलाफ जाता हूँ, तो मुझे पश्चात्ताप करना होगा। मैं इस तरह से परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करता नहीं रह सकता। मुझे परमेश्वर के प्रति समर्पित होना सीखना होगा। मुझे खोजना होगा कि परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं, और सत्य सिद्धांत क्या हैं।” यही वे विचार और संकल्प हैं जो सामान्य मानवता के विवेक से उत्पन्न होते हैं। तुम्हें इन्हीं सिद्धांतों और रवैये के साथ चीजें करनी चाहिए। जब तुम सामान्य मानवता का विवेक हासिल कर लेते हो, तो तुम्हारा रवैया ऐसा हो जाता है; जब तुम्हारे पास सामान्य मानवता का विवेक नहीं होता, तो तुम्हारा रवैया ऐसा नहीं होता। इसीलिए सामान्य मानवता का विवेक हासिल करना अतिआवश्यक और बेहद महत्वपूर्ण है। यह सीधे तौर पर लोगों के सत्य समझने और उद्धार पाने से जुड़ा है।

पिछला:  “प्रेम के कारण” भजन के बारे में संगति
(भजन मंडली के साथ संगति)

अगला:  सत्य की खोज और इसका अभ्यास करने के बारे में वचन

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 8) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 9) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

सेटिंग

  • इबारत
  • कथ्य

ठोस रंग

कथ्य

फ़ॉन्ट

फ़ॉन्ट आकार

लाइन स्पेस

लाइन स्पेस

पृष्ठ की चौड़ाई

विषय-वस्तु

खोज

  • यह पाठ चुनें
  • यह किताब चुनें

Connect with us on Messenger