सत्य की खोज और इसका अभ्यास करने के बारे में वचन

अंश 10

ऐसे बहुत लोग हैं, जो अपने कर्तव्य में व्यस्त होते ही अनुभव करने में असमर्थ हो जाते हैं और सामान्य स्थिति बनाए नहीं रख पाते, और नतीजतन, लगातार सभा आयोजित कर अपने साथ सत्य की संगति किए जाने की माँग करते रहते हैं। यहाँ क्या चल रहा है? वे सत्य नहीं समझते, वे सच्चे मार्ग में नींव नहीं जमा पाए हैं, ऐसे लोग अपना कर्तव्य निभाते समय जोश से प्रेरित होते हैं, और लंबे समय तक नहीं टिक सकते हैं। जब लोग सत्य नहीं समझते, तो वे जो कुछ भी करते हैं उसमें कोई सिद्धांत नहीं होता। अगर उनके लिए कुछ करने की व्यवस्था की जाती है, तो वे उसमें गड़बड़ी कर देते हैं, वे जो करते हैं उसमें लापरवाह होते हैं, वे सिद्धांतों की तलाश नहीं करते हैं, और उनके दिलों में कोई आज्ञाकारिता नहीं होती है—जो यह साबित करता है कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने में असमर्थ हैं। चाहे तुम कुछ भी करो, तुम्हें सबसे पहले यह समझ लेना चाहिए कि तुम इसे क्यों कर रहे हो, वह कौन-सी मंशा है जो तुम्हें ऐसा करने के लिए निर्देशित करती है, तुम्हारे ऐसा करने का क्या महत्व है, मामले की प्रकृति क्या है, और क्या तुम जो कर रहे हो वह कोई सकारात्मक चीज़ है या कोई नकारात्मक चीज़ है। तुम्हें इन सब मामलों की एक स्पष्ट समझ अवश्य होनी चाहिए; तुम्हारे लिए यह नितांत आवश्यक है कि तुम सिद्धांत के साथ कार्य कर सको। अगर तुम कुछ कर रहे हो जिसे तुम्हारा कर्तव्य माना जा सकता है, तो तुम्हें यह विचार करना चाहिए : मुझे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे करना चाहिए, ताकि मैं इसे बस लापरवाही से न करूँ? इस मामले में तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उसके निकट आना चाहिए। परमेश्वर से प्रार्थना करना इसलिए है कि हम सत्य को खोजें, अभ्यास करने का तरीका खोजें, परमेश्वर की इच्छाएँ खोजें, और परमेश्वर को संतुष्ट करने का तरीका खोजें। प्रार्थना इन प्रभावों को प्राप्त करने के लिए होती है। परमेश्वर से प्रार्थना करना, परमेश्वर के निकट आना और परमेश्वर के वचन पढ़ना धार्मिक अनुष्ठान या बाहरी कर्म नहीं हैं। यह परमेश्वर के इरादों को खोजने के बाद सत्य के अनुसार अभ्यास करने के उद्देश्य से किया जाता है। अगर तुम कार्य करने से पहले हमेशा “परमेश्वर को धन्यवाद,” कहते हो और तुम बहुत आध्यात्मिक और गहरी अंतर्दृष्टि वाले लग सकते हो, लेकिन अगर कार्य करने का समय आने पर तुम जैसा चाहते हो वैसा ही करते हो, सत्य की तलाश बिल्कुल नहीं करते, तो यह “परमेश्वर को धन्यवाद” एक मंत्र से ज्यादा कुछ नहीं है, यह झूठी आध्यात्मिकता है। अपना कर्तव्य करते समय तुम्हें हमेशा सोचना चाहिए : “मुझे यह कर्तव्य कैसे करना चाहिए? परमेश्वर की इच्छा क्या है?” अपने कार्यों के लिए सिद्धांत और सत्य खोजने हेतु परमेश्वर से प्रार्थना करना और उसके करीब जाना, अपने दिल में परमेश्वर की इच्छाओं की तलाश करना, और जो भी तुम करते हो उसमें परमेश्वर के वचनों या सत्य सिद्धांतों से न भटकना—केवल ऐसा करने वाला इंसान ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करता है; यह सब उन लोगों के लिए अप्राप्य है जो सत्य से प्रेम नहीं करते। ऐसे बहुत-से लोग हैं, जो चाहे कुछ भी करें, अपने ही विचारों का पालन करते हैं, और चीजों को अत्यधिक सरलीकृत ढंग से समझते हैं, और सत्य की तलाश भी नहीं करते। वहाँ सिद्धांत का पूर्ण अभाव रहता है, और अपने दिल में वे इस पर कोई विचार नहीं करते कि परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार या उस तरीके से कैसे कार्य करें जो परमेश्वर को संतुष्ट करता है, और केवल हठपूर्वक अपनी ही इच्छा का पालन करना जानते हैं। ऐसे लोगों के दिल में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं होता। कुछ लोग कहते हैं, “मैं परमेश्वर से सिर्फ कठिनाई आने पर ही प्रार्थना करता हूँ, लेकिन फिर भी ऐसा नहीं लगता कि इसका कोई प्रभाव होता है—इसलिए आम तौर पर अब जब मेरे साथ कुछ घटता है, तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करता, क्योंकि परमेश्वर से प्रार्थना करना बेकार है।” ऐसे लोगों के दिलों से परमेश्वर बिल्कुल नदारद होता है। वे सामान्य समय में चाहे जो भी कर रहे हों, सत्य की तलाश नहीं करते; वे केवल अपने विचारों का ही पालन करते हैं। तो क्या उनके कार्यों के सिद्धांत हैं? निश्चित रूप से नहीं। वे सब कुछ अत्यधिक सरलीकृत ढंग से देखते हैं। यहाँ तक कि जब लोग उनके साथ सत्य सिद्धांतों की संगति करते हैं, तो वे उन्हें स्वीकार नहीं कर पाते, क्योंकि उनके कार्यों में कभी कोई सिद्धांत नहीं रहा होता, उनके हृदय में परमेश्वर का कोई स्थान नहीं होता, और उनके हृदय में उनके सिवा कोई नहीं होता। उन्हें लगता है कि उनके इरादे नेक हैं, कि वे बुराई नहीं कर रहे, कि उनके इरादों को सत्य का उल्लंघन करने वाला नहीं माना जा सकता, उन्हें लगता है कि अपने इरादों के अनुसार कार्य करना सत्य का अभ्यास करना होना चाहिए, कि इस प्रकार कार्य करना परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता करना है। वस्तुतः, इस मामले में वे वास्तव में परमेश्वर की तलाश या उससे प्रार्थना नहीं कर रहे, बल्कि आवेग पर कार्य करते हुए, अपने ही जोशीले इरादों के अनुसार, वे उस तरह अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे जिस तरह परमेश्वर कहता है, उनमें परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता का हृदय नहीं है, उनमें यह इच्छा अनुपस्थित रहती है। लोगों के अभ्यास में यह सबसे बड़ी गलती होती है। अगर तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो और फिर भी वह तुम्हारे दिल में नहीं है, तो क्या तुम परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश नहीं कर रहे? और परमेश्वर पर ऐसी आस्था का क्या परिणाम हो सकता है? आखिर तुम इससे क्या हासिल कर लोगे? और परमेश्वर पर ऐसी आस्था का क्या प्रयोजन है?

अगर तुमने कुछ ऐसा किया है, जो सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन कर परमेश्वर को अप्रसन्न करता है, तो तुम्हें आत्मचिंतन कैसे करना चाहिए और खुद को जानने की कोशिश कैसे करनी चाहिए? जब तुम उसे करने जा रहे थे, तब क्या तुमने उससे प्रार्थना की थी? क्या तुमने कभी यह विचार किया, “क्या चीजें इस तरह से करना सत्य के अनुरूप है? अगर यह बात परमेश्वर के सामने लाई जाएगी, तो परमेश्वर इसे कैसे देखेगा? अगर उसे इसका पता चलेगा, तो वह खुश होगा या नाराज? वह इससे घृणा करेगा या घिन करेगा?” तुमने इसकी खोज नहीं की, है ना? यहाँ तक कि अगर दूसरे लोगों ने तुम्हें याद भी दिलाया, तो तुम तब भी यही सोचोगे कि यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है, और यह किसी भी सिद्धांत के खिलाफ नहीं जाता और न ही कोई पाप है। नतीजतन, तुमने परमेश्वर के स्वभाव का अपमान किया और उसे क्रोध करने के लिए उकसाया, इस हद तक कि उसे तुमसे नफरत हो जाए। यह लोगों के विद्रोहीपन से उत्पन्न होता है। इसलिए, तुम्हें सभी चीजों में सत्य खोजना चाहिए। तुम्हें इसी का पालन करना चाहिए। अगर तुम पहले से प्रार्थना करने के लिए गंभीरता से परमेश्वर के सामने आ सको, और फिर परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य की तलाश कर सको, तो तुम्हारा मार्ग गलत नहीं होगा। सत्य के तुम्हारे अभ्यास में कुछ विचलन हो सकते हैं, लेकिन इससे बचना कठिन है, और कुछ अनुभव प्राप्त करने के बाद तुम सही ढंग से अभ्यास करने में सक्षम होगे। लेकिन अगर तुम जानते हो कि सत्य के अनुसार कैसे कार्य करना है, फिर भी इसका अभ्यास नहीं करते, तो समस्या सत्य के प्रति तुम्हारी नापसंदगी है। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे उसे कभी नहीं खोजेंगे, चाहे उनके साथ कुछ भी हो जाए। केवल सत्य से प्रेम करने वालों के पास ही परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है, और जब ऐसी चीजें होती हैं जो उन्हें समझ नहीं आतीं, तो वे सत्य की खोज करने में सक्षम होते हैं। अगर तुम परमेश्वर के इरादे नहीं समझ सकते और अभ्यास करना नहीं जानते, तो तुम्हें सत्य समझने वाले कुछ लोगों के साथ संगति करनी चाहिए। अगर तुम्हें सत्य समझने वाले लोग न मिल पाएँ, तो तुम्हें शुद्ध समझ वाले कुछ लोगों को ढूँढ़कर एकचित्त होकर एक-साथ परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, परमेश्वर से खोजना चाहिए, परमेश्वर के समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए, और परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए एक रास्ता खोले जाने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। अगर तुम सभी सत्य के लिए तरसते हो, सत्य की खोज करते हो, और सत्य पर एक-साथ संगति करते हो, तो संभव है कि एक समय आए जब तुममें से किसी को कोई अच्छा समाधान सूझ जाए। अगर तुम सभी को वह समाधान उपयुक्त लगता है और वह एक अच्छा उपाय है, तो यह पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी के कारण हो सकता है। फिर अगर तुम अभ्यास का और भी सटीक मार्ग निकालने के लिए एक-साथ संगति करते हो, तो यह निश्चित रूप से सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होगा। अपने अभ्यास में, अगर तुम पाते हो कि तुम्हारे अभ्यास का तरीका अभी भी कुछ ठीक नहीं है, तो तुम्हें उसे जल्दी से सही करने की आवश्यकता है। अगर तुम थोड़ी गलती करते हो, तो परमेश्वर तुम्हें दोषी नहीं ठहराएगा, क्योंकि तुम जो करते हो उसमें तुम्हारे इरादे सही हैं, और तुम सत्य के अनुसार अभ्यास कर रहे हो। तुम बस सिद्धांतों के बारे में थोड़े भ्रमित हो और तुमने अपने अभ्यास में एक त्रुटि कर दी है, जो क्षम्य है। लेकिन जब ज्यादातर लोग चीजें करते हैं, तो वे इसे किए जाने के तरीके को लेकर अपनी कल्पना के आधार पर इसे करते हैं। सत्य के अनुसार अभ्यास कैसे करें या परमेश्वर की स्वीकृति कैसे प्राप्त करें, इस पर विचार करने के लिए वे परमेश्वर के वचनों को आधार नहीं बनाते। इसके बजाय, वे केवल इस बारे में सोचते हैं कि कैसे स्वयं को लाभ पहुँचाया जाए, कैसे दूसरों से अपना आदर करवाया जाए, और कैसे दूसरों से अपनी प्रशंसा करवाई जाए। वे चीजें पूरी तरह से अपने विचारों के आधार पर और विशुद्ध रूप से खुद को संतुष्ट करने के लिए करते हैं, जो परेशानी भरा है। ऐसे लोग कभी सत्य के अनुसार कार्य नहीं करेंगे, और परमेश्वर हमेशा उनसे घृणा करेगा। अगर वास्तव में तुम्हारे पास अंतरात्मा और विवेक है, तो चाहे कुछ भी हो जाए, तुम्हें प्रार्थना करने और खोजने के लिए परमेश्वर के सामने आने में सक्षम होना चाहिए, अपने कामों में उद्देश्यों और मिलावट की गंभीरता से जाँच करने में सक्षम होना चाहिए, यह तय करने में सक्षम होना चाहिए कि परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार क्या करना उचित है, और बार-बार तोलना और विचारना चाहिए कि कौन-से कार्य परमेश्वर को प्रसन्न करते हैं, कौन-से कार्य परमेश्वर में घृणा उत्पन्न करते हैं, और कौन-से कार्य परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करते हैं। तुम्हें मन में इन मामलों पर तब तक बार-बार विचार करना चाहिए, जब तक तुम उन्हें स्पष्ट रूप से समझ नहीं लेते। अगर तुम जान जाते हो कि कुछ करने के पीछे तुम्हारे अपने उद्देश्य हैं, तो तुम्हें इस पर चिंतन करना चाहिए कि तुम्हारे उद्देश्य क्या हैं, वे खुद को संतुष्ट करने के लिए हैं या परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए, वे तुम्हारे लिए फायदेमंद हैं या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए, और उनके क्या परिणाम होंगे...। अगर तुम अपनी प्रार्थनाओं में इस तरह से और अधिक खोज और चिंतन करते हो और सत्य खोजने के लिए खुद से और अधिक प्रश्न पूछते हो तो तुम्हारे क्रियाकलापों में विचलन छोटे से छोटे होते जाएँगे। इस तरह से सत्य खोज सकने वाले लोग ही परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहकर उसका भय मानते हैं, क्योंकि ऐसे में तुम परमेश्वर के वचनों की अपेक्षाओं के अनुसार और आज्ञाकारी हृदय से खोजते हो, और इस तरह खोजने से तुम जिन निष्कर्षों पर पहुँचते हो, वे सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होंगे।

अगर किसी विश्वासी के कर्म सत्य के अनुरूप नहीं हैं, तो वह किसी अविश्वासी के समान ही है। वह उस तरह का इंसान है, जिसके दिल में परमेश्वर नहीं होता, और जो परमेश्वर से भटक जाता है, और ऐसा इंसान परमेश्वर के घर में काम पर रखे गए उस कर्मचारी की तरह होता है, जो अपने मालिक के लिए कोई छोटे-मोटे कार्य कर देता है, कुछ मुआवजा पाता है और फिर चला जाता है। यह ऐसा इंसान बिल्कुल नहीं है, जो परमेश्वर पर विश्वास करता है। परमेश्वर से मान्यता प्राप्त करने के लिए क्या करना है, यह वह पहली चीज है जिसकी, काम करते समय तुम्हें जाँच करनी चाहिए और जिस पर काम करना चाहिए; यह तुम्हारे क्रियाकलापों का सिद्धांत और दायरा होना चाहिए। तुम जो कर रहे हो वह सत्य के अनुरूप है या नहीं, इसका निश्चय तुम्हें इसलिए करना चाहिए, क्योंकि अगर वह सत्य के अनुरूप है, तो वह निश्चित रूप से परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है। ऐसा नहीं है कि तुम्हें यह मापना चाहिए कि यह बात सही है या गलत है, या क्या यह हर किसी की रुचि के अनुरूप है, या क्या यह तुम्हारी अपनी इच्छाओं के अनुसार है; बल्कि तुम्हें यह निश्चित करना चाहिए कि यह सत्य के अनुरूप है या नहीं, और यह कलीसिया के काम और हितों को लाभ पहुँचाता है या नहीं। अगर तुम इन बातों पर विचार करते हो, तो तुम चीज़ों को करते समय परमेश्वर के इरादों के अधिकाधिक अनुरूप होते जाओगे। अगर तुम इन पहलुओं पर विचार नहीं करते, और चीज़ों को करते समय केवल अपनी इच्छा पर निर्भर रहते हो, तो तुम्हारा उन्हें गलत तरीके से करना गारंटीशुदा है, क्योंकि मनुष्य की इच्छा सत्य नहीं है और निश्चित रूप से, वह परमेश्वर के साथ असंगत होती है। अगर तुम परमेश्वर द्वारा मान्य होने की इच्छा रखते हो, तो तुम्हें सत्य के अनुसार अभ्यास करना चाहिए, न कि अपनी इच्छा के अनुसार। कुछ लोग अपने कर्तव्य करने के नाम पर कुछ निजी मामलों में संलग्न रहते हैं। उनके भाई और बहन इसे अनुचित मानते हैं और इसके लिए उन्हें टोकते हैं, लेकिन ये लोग दोष स्वीकार नहीं करते। उन्हें लगता है कि यह एक व्यक्तिगत मामला है, जिसमें कलीसिया का कार्य, वित्त या उसके लोग शामिल नहीं हैं, और यह कोई बुरा काम नहीं है, इसलिए लोगों को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। कुछ चीजें तुम्हें निजी मामले लग सकती हैं, जिन पर कोई सिद्धांत या सत्य लागू नहीं होता। किंतु तुम्हारे द्वारा किए गए कार्य को देखते हुए, तुम बहुत स्वार्थी रहे। तुमने कलीसिया के कार्य या परमेश्वर के घर के हितों पर कोई ध्यान नहीं दिया, न ही इस बात पर ध्यान दिया कि क्या यह परमेश्वर के लिए संतोषजनक होगा; तुम केवल अपने फायदे पर विचार करते रहे। इसमें पहले ही संतों का उचित आचरण और साथ ही इंसान की मानवता शामिल हैं। भले ही तुम जो कर रहे थे, उससे चर्च के हित नहीं जुड़े थे, न ही उसमें सत्य शामिल था, फिर भी अपने कर्तव्य के पालन करने का दावा करते हुए एक निजी मामले में संलग्न होना सत्य के अनुरूप नहीं है। चाहे तुम कुछ भी कर रहे हो, चाहे मामला कितना भी बड़ा या छोटा हो, और चाहे वह परमेश्वर के परिवार में तुम्हारा कर्तव्य हो या तुम्हारा निजी मामला, तुम्हें इस बात पर विचार करना ही चाहिए कि जो तुम कर रहे हो वह परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है या नहीं, साथ ही क्या यह ऐसा कुछ है जो किसी मानवता युक्त इंसान को करना चाहिए। अगर तुम जो भी करते हो उसमें उस तरह सत्य की तलाश करते हो तो तुम ऐसे इंसान हो जो वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करता है। अगर तुम हर बात और हर सत्य को इस तरह गंभीरता से लेते हो, तो तुम अपने स्वभाव में बदलाव हासिल करने में सक्षम होगे। ऐसे लोग हैं, जो सोचते हैं, “जब मैं अपना कर्तव्य करता हूँ, तब मेरा सत्य का अभ्यास करना तो ठीक है, लेकिन जब मैं अपने निजी कार्य कर रहा होता हूँ, तो मुझे परवाह नहीं कि सत्य क्या कहता है—मैं वही करूँगा जो मुझे पसंद है, जो कुछ भी मुझे अपने फायदे के लिए करना पड़े।” इन शब्दों से तुम देख सकते हो कि वे सत्य के प्रेमी नहीं हैं। वे जो कुछ करते हैं, उसमें कोई सिद्धांत नहीं होता। इस बात पर विचार तक किए बिना कि परमेश्वर के घर पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, वे जो कुछ भी उनके लिए फायदेमंद होगा, करेंगे। नतीजतन, जब वे कुछ कर लेते हैं, तो परमेश्वर उनमें मौजूद नहीं होता, और वे महसूस करते हैं कि वे अंधकार में हैं और परेशान हैं, और नहीं जानते कि क्या हो रहा है। क्या यह उनके लिए समुचित दंड नहीं हैं? अगर तुम अपने कार्यों में सत्य का अभ्यास नहीं करते और परमेश्वर का अपमान करते हो, तो तुम उसके खिलाफ पाप कर रहे हो। अगर कोई इंसान सत्य से प्रेम नहीं करता और अक्सर अपनी इच्छा के अनुसार काम करता है, तो वह अक्सर परमेश्वर का अपमान करेगा। परमेश्वर उसका तिरस्कार करके उसे ठुकरा देगा और एक किनारे कर देगा। ऐसा इंसान जो कुछ करता है, वह अक्सर परमेश्वर की मान्यता पाने में विफल हो जाता है, और अगर उसमें पश्चात्ताप नहीं है, तो दंड उससे दूर नहीं है।

अंश 11

कोई भी काम ठीक से करने के लिए सत्‍य सिद्धांतों का पता लगाना जरूरी है। तुम्हें इस बारे में एकाग्रता के साथ विचार करना चाहिए कि किसी काम को करते हुए उसे ठीक तरह से कैसे किया जाए, और परमेश्वर के समक्ष प्रार्थना और खोज करते हुए खुद को शांत रखना जरूरी है। कुछ भी करने से पहले दूसरों के साथ संगति करनी आवश्‍यक है और अगर संगति के लिए कोई उपलब्‍ध न हो तो तुम्हें खुद ही चिंतन करना चाहिए और प्रार्थना करनी चाहिए और इस चीज को अच्छे से करने का तरीका खोजना चाहिए। परमेश्वर के समक्ष स्‍वयं को शांत करना यही है। खुद को परमेश्वर के समक्ष शांत करने का अर्थ किसी भी चीज के बारे में नहीं सोचना नहीं है; तुम्‍हें अपने हृदय में खोज और प्रतीक्षा के रवैये के साथ, इस मसले को सँभालने के उपयुक्त तरीके़ की खोज करते हुए कार्य और चिंतन-मनन करना भी अनिवार्य है। अगर तुम्‍हें उस मसले की जरा सी भी बुनियादी समझ नहीं है तो उसके बारे में जानने और पूछताछ करने के लिए किसी को खोजो। पूछताछ करने की इस अवधि में तुम्‍हारा रवैया कैसा होना चाहिए? दरअसल तुम्‍हें खोज और प्रतीक्षा करते हुए यह देखना चाहिए कि परमेश्वर किस तरह काम करता है। पवित्र आत्‍मा तुम्‍हारा प्रबोधन और मार्गदर्शन इस तरह नहीं करता जैसे वह कोई रोशनी जलाकर तुम्हारे दिल को अचानक रोशन कर देता हो। परमेश्वर अक्सर तुम्हें संकेत देने और समझाने के लिए किसी व्‍यक्ति या किसी घटना का इस्‍तेमाल करता है। प्रार्थना करते हुए गंभीर भाव से घुटने टेकने और घंटों तक उसी मुद्रा में बने रहने से परे भी खोज करने के बहुत-से तरीके हैं; घुटने टेककर बैठे रहने से दूसरे काम लटके रहते हैं। कभी-कभी, कोई व्‍यक्ति चलते हुए भी किसी मसले पर सोच-विचार कर सकता है; कभी-कभी कोई मसला पैदा होने पर कोई सामूहिक संगति करने के लिए उतावला हो सकता है; कभी कोई ऊपरवाले से खोज सकता है; कभी कोई खुद ही परमेश्वर के वचनों को पढ़ सकता है; अगर मामला तात्‍कालिक हो, तो तुम स्थिति की वास्‍तविकता को समझने के लिए भाग सकते हो, और सत्य की खोज कर सकते हो फिर सिद्धांतों के मुताबिक मसले से निपट सकते हो और अपने हृदय में प्रार्थना और खोज करते रह सकते हो। तुम्हें इस तरीके से चीजों को कर पाना चाहिए—फिर यह परिपक्वता है! कुछ भी अप्रत्‍याशित घटित होने पर, यदि तुम परेशान हो जाते हो, घबरा जाते हो, और अभिभूत हो जाते हो, तो यह दिखाता है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और तुमने पहले ज्यादा चीजों का अनुभव नहीं किया है, और अपने आध्यात्मिक कद को बढ़ाने के लिए तुम्हें चीजों को अनुभव करना होगा और खुद को प्रशिक्षित करना होगा। तुम लोगों को खोज करने के कई तरीके सीखने चाहिए : जब तुम अपने कर्तव्‍य में व्‍यस्‍त हो, तो अपनी व्‍यस्‍तता के साथ तालमेल बनाकर खोज करो; जब तुम्‍हारे पास समय हो, तो समय की उपलब्‍धता के अनुरूप खोज और प्रतीक्षा करो। बहुत-से अलग-अलग तरीके़ हैं। अगर प्रतीक्षा के लिए पर्याप्‍त समय है, तो कुछ देर प्रतीक्षा करो। बड़े मामलों में तुम हड़बड़ी नहीं कर सकते। अगर तुम काम करने को दौड़ पड़ते हो और गलती कर बैठते हो, तो परिणाम अकल्‍पनीय हो सकते हैं। सर्वश्रेष्‍ठ नतीजे हासिल करने के लिए तुम्हें यह देखने के लिए प्रतीक्षा करनी चाहिए कि आगे क्‍या होता है या क्या तुम्हें कोई ऐसा व्यक्ति संकेत देगा जिसे उस स्थिति का ज्ञान है। ये सब खोजने के तरीके हैं। परमेश्वर लोगों को प्रबुद्ध करने के लिए किसी एक तरीके का इस्‍तेमाल नहीं करता है; न तो वह मात्र अपने वचनों से तुम्‍हें प्रबुद्ध करता है, न ही वह तुम्‍हारे आस-पास मौजूद लोगों से तुम्‍हें हमेशा मार्गदर्शन मुहैया कराता है। परमेश्वर तुम्‍हें तुम्‍हारी दक्षता के दायरे में न आने वाले मसलों के बारे में, ऐसी चीजों के बारे में जिनसे तुम्‍हारा सामना कभी नहीं हुआ है, किस तरह प्रबुद्ध करता है? कभी-कभी, वह तुम्हें बस विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों के माध्यम से प्रबुद्ध करता है, इस मामले में तुम्हें किसी विशेषज्ञ की खोज करने या ऐसे व्यक्ति की सलाह लेने की जरूरत है जो इस क्षेत्र को समझता है। जो भी व्यक्ति इस क्षेत्र को समझता है उसे ढूंढ़ने के लिए तुम्हें जल्दी करनी चाहिए, उनसे कुछ संकेतक लेने चाहिए, फिर सिद्धांतों के अनुसार चीजें करनी चाहिए और जब तुम ऐसा करते हो उस दौरान परमेश्वर तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा। फिर भी तुम्हें पेशे के बारे में या उपलब्ध विशेषज्ञता के बारे में थोड़ा समझना चाहिए, और इसके बारे में तुम्हारी कुछ अवधारणा होनी चाहिए; तुम्हें क्या करना चाहिए इसके बारे में परमेश्वर तुम्हें इसी आधार पर प्रबुद्ध करेगा।

व्यक्ति जो कुछ भी करता है, उसका संभाव्य पथ निर्धारित करने के लिए सोच सकता है, रूपरेखा बना सकता है, योजनाएँ बना सकता है, सलाह ले सकता है, और विभिन्न स्रोतों से इसके बारे में पूछताछ कर सकता है, लेकिन सफलता फिर भी परमेश्वर पर ही निर्भर है। एक कहावत है जो ऐसी है, “मनुष्य प्रस्ताव रखता है, लेकिन निपटारा तो परमेश्वर ही करता है” यह कहावत सही है। यह कोई छोटा मामला नहीं है कि अविश्वासी लोगों ने अनुभव के माध्यम से इस कहावत बनाई है, और यदि परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग इसकी असलियत नहीं जान सकते हैं, तो वे बहुत अज्ञानी हैं और वे किसी भी सत्य को समझते नहीं हैं। लोगों को अपने हृदय में दृढ़ विश्वास रखना चाहिए कि परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है, और लोग जो करना चाहते हैं, यदि वह परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है तो उसे परमेश्वर का आशीष मिलेगा। यह नियम तुम्हारे हृदय में मौजूद होना चाहिए, तुम्हें पता होना चाहिए कि परमेश्वर सभी पर संप्रभुता रखता है, और यह कि अंतिम निर्णय मनुष्य के हाथों में नहीं है। इसलिए तुम्हारी मंशा चाहे जो भी करने की हो, तुम्हें पहले यह देखने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि क्या तुम्हारे हृदय में हलचल हुई है, फिर यह देखने के लिए सत्य खोजना चाहिए कि क्या वह कार्रवाई सत्य के अनुसार है और क्या यह संभाव्य है। यदि यह तुरंत निर्धारित नहीं किया जा सकता है तो तुम्हें प्रतीक्षा करनी चाहिए। कार्य करने के लिए जल्दबाजी मत करो। तब तक प्रतीक्षा करो जब तक कि तुम मसले को ठीक से समझ नहीं जाते, जब तक तुम यह महसूस नहीं करते कि सही समय आ गया है, अब और प्रतीक्षा करने की कोई आवश्यकता नहीं है और तुम्हें इसे करना ही चाहिए, और तुम्हारे हृदय में पर्याप्त आश्वासन है कि तुम इसे कर सकते हो—तब तुम यह कार्य कर सकते हो। यदि मामले को पूरी तरह से समझने में तुम सक्षम नहीं हो, कुछ दिनों तक प्रतीक्षा करने के बाद तुम इसमें रुचि खो देते हो, और तुम निश्चित नहीं हो कि यह कार्य सफल होगा, तो इससे यह साबित होता है कि यह मामला व्यक्ति की इच्छा से उत्पन्न हुआ है, और परमेश्वर ने इसके लिए अनुमति नहीं दी है, इसलिए तुम्हें इसे जल्दी से त्याग देना चाहिए। जब परमेश्वर से कुछ आता है तो तुम हमेशा इसमें आस्था रखोगे और चाहे कोई भी स्थिति उत्पन्न हो, यह आस्था धूमिल नहीं होगी। अंततः, तुम्हारे हृदय में और अधिक स्पष्टता आएगी, मानो तुमने इस मसले को स्पष्ट रूप से देखा हो। ऐसा ही होता है जब परमेश्वर की ओर से कुछ आया हो। परमेश्वर लोगों से प्रतीक्षा करने को कहता है, और इसका मतलब है परमेश्वर द्वारा तुम पर चीजों को प्रकट करने की प्रतीक्षा करना, जिसके बाद तुम्हारे लिए सब कुछ स्पष्ट हो जाता है, इसलिए यह प्रतीक्षा आवश्यक है। हालाँकि, जब इसकी बात आती है कि किन चीजों से तुम्हें सहयोग करना चाहिए उनके संबंध में, तुम्हें कार्य करना चाहिए और पूछताछ करनी चाहिए, और इस पूछताछ की प्रक्रिया में, परमेश्वर किसी व्यक्ति या घटना के माध्यम से तुम्हें तथ्य बता सकता है। यदि तुम पूछताछ नहीं करते हो, और तुम्हारे हृदय में उलझन और अनिश्चितता है, तो तुम नहीं जान पाओगे कि तथ्य क्या हैं। लेकिन यदि तुम पूछताछ करते हो, तो तुम तथ्यों की खोज कर पाओगे, और परमेश्वर तुम्हें यह जान पाने में सक्षम बनाता है। क्या परमेश्वर के कार्य व्यावहारिक नहीं हैं? परमेश्वर लोगों, घटनाओं और चीजों के माध्यम से तुम्हारा मार्गदर्शन करता है और तुम्हें प्रबुद्ध करता है, और वह तुम्हें अपने अनुभव की प्रक्रिया में मामलों को समझने और अंतर्दृष्टि प्राप्त करने का निर्देश देता है, तुम्हें बताता है कि कैसे कार्य करना है। परमेश्वर तुम्हें कोई कथन, कोई विचार या कोई ख्याल ऐसे ही हवा में नहीं दे देता, परमेश्वर ऐसा नहीं करता है। जब तुमने पूछताछ कर ली है और स्थिति के बारे में सभी तथ्य तुम्हारे सामने आ गए हैं, तो तुम्हें पता चल जाएगा कि तुम्हारे मन में पहले ऐसे विचार और भावनाएँ क्यों थीं, तुम इसे अपने मन में समझोगे। क्या यह परिणाम तुम्हारे पूछताछ समाप्त करते ही नहीं आता? जब यह बात आती है कि तुम्हें कार्य कैसे करना चाहिए, तो परमेश्वर इसमें शामिल नहीं होगा; तुम्हें पहले से ही पता होगा कि कार्य कैसे करना है। इसी तरह से परमेश्वर कार्य करता है और लोगों का मार्गदर्शन करता है जो चमत्कारिक और व्यावहारिक दोनों है, जो कि जरा भी अलौकिक नहीं है। आलसी लोग हमेशा चाहते हैं कि यह अलौकिक तरीकों से हो, वे चाहते हैं कि परमेश्वर उन्हें सीधे-सीधे बताए कि उन्हें क्या करना है, वे सबसे छोटा रास्ता अपनाना चाहते हैं और यह कार्य वे परमेश्वर से करवाना चाहते हैं। वे सक्रिय रूप से खोजबीन नहीं करते हैं, और बिल्कुल भी सहयोग नहीं करते हैं, इसलिए उनकी इच्छाएँ असफल हो जाती हैं। धर्मनिष्ठ लोग, सत्य से प्रेम करने वाले लोग, सभी चीजों में परमेश्वर के समक्ष रहते हैं और परमेश्वर के समक्ष अपने हृदय को शांत रखते हैं। जब उनके साथ कोई चीज घटित होती है और वे नहीं जानते कि क्या करना है तो वे परमेश्वर से प्रार्थना करने और परमेश्वर से खोजने और यह देखने में सक्षम होते हैं कि परमेश्वर की क्या मंशा है। उनके पास खोजी हृदय है, और इसलिए परमेश्वर इस मामले में उनका मार्गदर्शन करता है। और जब अंत में परिणाम आता है, तब वे परमेश्वर के हाथ के आयोजनों को देख सकते हैं, और वे देख पाते हैं कि यह खोखला वाक्यांश नहीं है कि परमेश्वर की संप्रभुता सभी चीजों पर कायम है। इसलिए ऐसे मामलों का अधिक अनुभव करके तुम जानने लगोगे कि परमेश्वर कोई गल्प या मिथक नहीं है, न ही वह खोखला है, बल्कि वह यहाँ बिल्कुल तुम्हारी बगल में है; तुम उसके अस्तित्व को महसूस कर पाओगे, उसके मार्गदर्शन को महसूस कर पाओगे, और उसके हाथ के आयोजनों और व्यवस्थाओं को महसूस कर पाओगे। इस तरह, तुम परमेश्वर की वास्तविकता और व्यावहारिकता को और अधिक महसूस करोगे। हालाँकि, यदि तुम इस तरह से अनुभव करने में असमर्थ हो, तो तुम कभी भी इन चीजों को महसूस नहीं कर पाओगे। तुम सोचोगे, “परमेश्वर है कि नहीं? कहाँ है वह? मैंने इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है और हर कोई कहता है कि वह अस्तित्व में है, लेकिन मैं उसे क्यों नहीं देख पाया? वे सभी कहते हैं कि परमेश्वर मनुष्य को बचाता है और इस बारे में बात करते हैं कि कैसे वह मनुष्य पर काम करता है, लेकिन मुझे यह महसूस कैसे नहीं हुआ?” तुम इन चीजों को कभी महसूस नहीं करोगे, इसलिए तुम अपने हृदय में कभी भी सहजता महसूस नहीं करोगे। केवल स्वयं महसूस करके ही तुम यह सत्यापित कर पाओगे कि दूसरे जो कहते हैं और अनुभव करते हैं वह परमेश्वर द्वारा पूरा किया जाता है। परमेश्वर के कार्य के तरीके चमत्कारी हैं और इनकी थाह पाना कठिन है, फिर भी वे व्यावहारिक हैं; तुम्हें इन दो पहलुओं को अवश्य समझना चाहिए। उनके चमत्कारी होने और थाह पाने में कठिन होने का मतलब यह है कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह बुद्धिमतापूर्ण है, और मनुष्य के लिए अप्राप्य है; यह परमेश्वर की पहचान और उसके सार से निर्धारित होता है। फिर भी एक और पहलू है, जो यह है कि परमेश्वर के कार्य अविश्वसनीय रूप से व्यावहारिक हैं। यहाँ “व्यावहारिक” का क्या अर्थ है? इसका मतलब यह है कि मनुष्य परमेश्वर के क्रियाकलापों की अच्छी तरह समझ सकता है, कि मनुष्य की सोच, मन, विचार, बुद्धि के साथ ही मनुष्य की सहज-प्रवृत्तियाँ और काबिलियत परमेश्वर के क्रियाकलापों को अच्छे से समझ सकते हैं जो अलौकिक या खोखले नहीं हैं। जब तुम कुछ सही ढंग से करते हो, तो परमेश्वर तुम्हें बताएगा कि यह सही है, और तुम इसकी पुष्टि कर पाओगे; जब तुम कुछ गलत करते हो तो परमेश्वर धीरे-धीरे तुम्हें समझाएगा, वह तुम्हें प्रबुद्ध करेगा और तुम्हें यह जानने देगा कि तुमने यह गलत किया है और यह जानने देगा कि यह तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का प्रकटीकरण है और तब तुम परमेश्वर के प्रति ऋणी महसूस करोगे। यहाँ “व्यावहारिक” का यही अर्थ है।

अंश 12

मामलों का सामना करते समय सत्य खोजना बहुत महत्वपूर्ण है। अगर तुम सत्य खोजते हो तो तुम न केवल समस्या हल करने में सक्षम होगे, बल्कि सत्य का अभ्यास कर उसे प्राप्त करने में भी सक्षम होगे। अगर तुम सत्य नहीं खोजते, बल्कि अपने तर्क पर जोर देते हो और हमेशा अपनी राय के अनुसार काम करते हो, तो तुम न केवल अपनी भ्रष्टता की समस्या हल करने में असफल होगे, बल्कि जानबूझकर पाप भी करोगे, और यह परमेश्वर का विरोध करने का मार्ग है। उदाहरण के लिए, मान लो अपने कर्तव्य निभाने में तुम्हारी काट-छाँट की जाती है, और तुम सत्य नहीं खोजते, बल्कि हठपूर्वक अपने तर्क पर जोर देते हो। तुम सोच सकते हो, “मैंने अपना काम किया है, और मैंने साफ तौर पर कुछ बुरा नहीं किया है, लेकिन सिर्फ कुछ गलतियों के लिए न केवल मेरी काट-छाँट की जाती है, बल्कि मुझे उजागर कर अपमानित भी किया जाता है, जो मेरे प्रति नापसंदगी दर्शाता है। परमेश्वर का प्रेम कहाँ है? मैं उसे क्यों नहीं देख सकता? कहा जाता है कि परमेश्वर लोगों से प्रेम करता है, तो ऐसा कैसे है कि परमेश्वर दूसरों से प्रेम करता है लेकिन मुझसे नहीं करता?” सारी शिकायतें उड़ेल दी जाती हैं। क्या ऐसी दशा में लोग सत्य प्राप्त कर सकते हैं? नहीं कर सकते। जब परमेश्वर के साथ तुम्हारे रिश्ते में समस्याएँ उत्पन्न होती हैं, और उन्हें हल करने, वापस लौटने और अपने भ्रामक दृष्टिकोण और कट्टर विचार छोड़ने के बजाय तुम हठपूर्वक परमेश्वर का विरोध करते हो, तो इसका परिणाम केवल यह हो सकता है कि परमेश्वर तुम्हें छोड़ देगा, और तुम भी उससे मुँह मोड़ लोगे। तुम परमेश्वर के प्रति शिकायतों से भरे होगे, उसकी संप्रभुता पर संदेह कर उसे नकार दोगे और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने को तैयार नहीं होगे। इससे भी बदतर, तुम इस बात से इनकार करोगे कि परमेश्वर सत्य और धार्मिकता है, और यह परमेश्वर का विरोध करने का सबसे गंभीर रूप है। लेकिन अगर तुम सभी चीजों में सत्य खोजते हो, तो तुम परमेश्वर के इरादे समझ चुके होगे और तुम्हें वह मार्ग मिल चुका होगा जिस पर तुम चल सकते हो। ऐसा करके तुम न केवल इस बात की पुष्टि करोगे कि जिस परमेश्वर पर तुम विश्वास करते हो, वह सत्य, मार्ग, जीवन और प्रेम है; बल्कि तुम इस बात की पुष्टि भी करोगे कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है सही करता है, उसके द्वारा मनुष्य के परीक्षण और शोधन सही हैं और मनुष्य के उद्धार और शुद्धिकरण के उद्देश्य के लिए हैं। तुम परमेश्वर की धार्मिकता और पवित्रता का ज्ञान प्राप्त कर लोगे, और साथ ही तुम परमेश्वर के कार्य को भी जान लोगे और उसके प्रेम की महानता देखोगे। यह कितना बड़ा इनाम है! क्या तुम सत्य खोजे बिना, परमेश्वर और उसके कार्य के साथ हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर पेश आकर ऐसा पुरस्कार प्राप्त कर सकते हो? निश्चित रूप से नहीं। चूँकि मनुष्य शैतान द्वारा बहुत गहराई से भ्रष्ट कर दिया गया है, इसलिए उसके तमाम क्रियाकलाप और कर्म और वह सब जो वह प्रकट करता है, शैतान के स्वभाव के हैं, और वे सब सत्य के विपरीत और परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण हैं। मनुष्य परमेश्वर के महान प्रेम का आनंद लेने के योग्य नहीं है। फिर भी परमेश्वर मनुष्य के प्रति इतना चिंतित होता है, उसे हर दिन अनुग्रह प्रदान करता है उसका शोधन करने और उसका परीक्षण करने के लिए उसके लिए तमाम तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों का इंतजाम करता है ताकि उसमें बदलाव आ सके। परमेश्वर हर तरह के परिवेश के जरिये मनुष्य का खुलासा करता है, उसे आत्मचिंतन कर खुद को जानने, सत्य समझने और जीवन प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है। परमेश्वर मनुष्य से बहुत प्रेम करता है, और उसका प्रेम इतना वास्तविक है कि मनुष्य उसे देख और छू सकता है। अगर तुमने यह सब अनुभव किया है, तो तुम महसूस कर सकते हो कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है, मनुष्य के उद्धार की खातिर करता है, और यह सबसे सच्चा प्रेम है। अगर परमेश्वर ऐसा व्यावहारिक कार्य न करता, तो कोई न कह सकता कि मनुष्य कितना गिर गया है! फिर भी ऐसे बहुत लोग हैं जो परमेश्वर का सच्चा प्रेम नहीं देखते, जो अभी भी प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं, जो बाकी लोगों से ऊँचा दिखने की खोज करते हैं, जो हमेशा दूसरों को फँसाने और नियंत्रित करने की इच्छा रखते हैं। क्या वे खुद को परमेश्वर के साथ होड़ में नहीं रख रहे? अगर वे ऐसा ही करते रहे, तो परिणाम अकल्पनीय होंगे! अपने न्याय के कार्य से परमेश्वर मनुष्य की भ्रष्टता उजागर करता है, ताकि वह उसे जान सके। वह मनुष्य के गलत अनुसरणों पर रोक लगाता है। परमेश्वर उत्कृष्ट कार्य करता है! भले ही परमेश्वर जो करता है, वह मनुष्य को प्रकट कर उसका न्याय करता है, लेकिन उसे बचाता भी है। यही सच्चा प्रेम है। जब तुम खुद इसका अनुभव कर लोगे तो क्या तब तुम सत्य के इस पहलू को हासिल नहीं कर चुके होगे? जब कोई व्यक्ति खुद इसका अनुभव कर लेता है और यह समझ प्राप्त कर लेता है और जब वह ये सत्य समझ लेता है तो क्या उसे फिर भी परमेश्वर के प्रति शिकायतें होती हैं? नहीं—वे सब खत्म हो जाती हैं। फिर वह स्वेच्छा और दृढ़ता से परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो सकता है। अगली बार जब कोई परीक्षण या शोधन होता है, या उसकी काट-छाँट की जाती है, तो उसे तुरंत एहसास हो जाता है कि परमेश्वर जो कर रहा है वह सही है, और परमेश्वर उसे प्रकट कर बचा रहा है। वह जल्दी ही अपने तर्क पर जोर न देकर, धारणाओं और शिकायतों से मुक्त होकर, परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हुए उसे स्वीकारने और समर्पण करने में सक्षम हो जाता है। अगर लोग इस हद तक समर्पित हो सकते हैं, तो यह कई शोधनों का अनुभव करने के जरिये, पवित्र आत्मा के कार्य द्वारा पूर्ण किए जाने से होता है।

अंश 13

अब ऐसे बहुत लोग हैं जो सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं और जब उन पर बातें घटित होती हैं तो सत्य की खोज करने में सक्षम होते हैं। अगर तुम अपने भीतर के गलत उद्देश्य और असामान्य अवस्थाएँ सुलझाना चाहते हो, तो ऐसा करने के लिए तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए। सर्वप्रथम, तुम्हें परमेश्वर के वचनों के आधार पर संगति में अपने बारे में खुलकर बोलना सीखना चाहिए। बेशक, तुम्हें खुली संगति के लिए सही पात्र का चयन करना चाहिए—कम से कम, तुम्हें कोई ऐसा व्यक्ति चुनना चाहिए जो सत्य से प्रेम करता हो और उसे स्वीकार करता हो, जिसकी मानवता अपेक्षाकृत बेहतर हो, जो अपेक्षाकृत ईमानदार और सत्यनिष्ठ हो। निस्संदेह यह बेहतर होगा कि तुम कोई ऐसा व्यक्ति चुनो जो सत्य समझता हो, जिसकी संगति से तुम्हें वास्तव में मदद मिले। इस तरह का व्यक्ति ढूँढ़ना, जिसके साथ संगति में तुम्हें खुलना है और अपनी कठिनाइयाँ हल करनी हैं, कारगर हो सकता है। अगर तुम किसी ऐसे व्यक्ति को चुनते हो, जो सही व्यक्ति नहीं है, ऐसा व्यक्ति जो सत्य से प्रेम नहीं करता बल्कि जिसमें सिर्फ कोई गुण या प्रतिभा है, तो वह तुम्हारा मजाक उड़ाएगा, तुम्हारा तिरस्कार करेगा और तुम्हें नीचा दिखाएगा। यह तुम्हारे लिए लाभदायक नहीं होगा। एक लिहाज से, खुद को खोलना और प्रकट करना वह दृष्टिकोण है, जिसे व्यक्ति को परमेश्वर के सामने आने और उससे प्रार्थना करने के लिए अपनाना चाहिए; यही तरीका है जिससे व्यक्ति को सत्य के बारे में दूसरों के साथ संगति करनी चाहिए। यह सोचकर बातें मन में दबाए न रखो, “मेरे मकसद और कठिनाइयाँ हैं। मेरी आंतरिक अवस्था अच्छी नहीं है—वह नकारात्मक है। मैं किसी को नहीं बताऊँगा। मैं बस इसे छिपाकर रखूँगा।” अगर तुम हमेशा चीजें हल न करके उन्हें छिपाकर रखते हो, तो तुम और ज्यादा नकारात्मक हो जाओगे, और तुम्हारी अवस्था और भी खराब हो जाएगी। तुम परमेश्वर से प्रार्थना करने को तैयार नहीं होगे। इसे उलटना मुश्किल काम है। और इसलिए, तुम्‍हारी अवस्था कैसी भी क्‍यों न हो, चाहे तुम नकारात्‍मक हो, या मुश्किल में हो, तुम्‍हारे उद्देश्‍य या योजनाएँ चाहे जो भी हों, जाँच के माध्यम से तुमने जो कुछ भी क्‍यों न जाना या समझा हो, तुम्हें खुलकर बात कहना और संगति करना सीखना ही होगा, और जब तुम संगति करते हो, पवित्र आत्मा काम करता है। और पवित्र आत्‍मा अपना काम कैसे करता है? वह तुम्‍हें प्रबुद्ध और रोशन करता है और समस्‍या की गंभीरता समझने देता है, वह तुम्‍हें समस्‍या की जड़ और सार से अवगत कराता है, फिर तुम्हें थोड़ा-थोड़ा करके सत्य और अपने इरादे समझाता है, और तुम्हें अभ्यास का मार्ग देखने और सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने देता है। जब व्यक्ति खुलकर संगति कर सकता है, तो इसका मतलब है कि उसका सत्य के प्रति ईमानदार रवैया है। कोई व्यक्ति ईमानदार है या नहीं, यह सत्य के प्रति उसके रवैये से मापा जाता है। जब कोई ईमानदार व्यक्ति कठिनाइयों का सामना करता है, तो चाहे वह कितना भी नकारात्मक या कमजोर क्यों न हो, वह हमेशा परमेश्वर से प्रार्थना करेगा और संगति करने के लिए दूसरों की तलाश करेगा, समाधान ढूँढ़ने की कोशिश करेगा, और यह खोजेगा कि अपनी समस्या या कठिनाई कैसे दूर की जाए, ताकि वह परमेश्वर के इरादों को पूरा कर सके। वह किसी आंतरिक परेशानी के कारण शिकायत करने के लिए किसी को नहीं तलाशता : वह तो सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने की कठिनाई का समाधान और उस कठिनाई से निकलने का रास्ता खोजता है। अपने दिल में अनसुलझी नकारात्मक चीजें छिपाने से अपना कर्तव्य-निर्वाह और जीवन प्रवेश सीधे तौर पर प्रभावित होगा। परमेश्वर के प्रति शुद्ध और खुला न रहना, बल्कि अपने दिल में हमेशा कपट पाले रखना बहुत खतरनाक है। कपटी लोग मुखौटा लगाने में माहिर होते हैं, चाहे उन पर कुछ भी घटित हो, और चाहे वे जो भी धारणाएँ या असंतोष महसूस करें, वे संगति नहीं करेंगे। बाहर से वे सामान्य दिखते हैं, लेकिन वास्तव में उनके दिल नकारात्मक भावों से इतने ज्यादा भरे होते हैं कि वे लगभग उठ भी नहीं पाते। और तुम बता नहीं पाओगे। अगर तुम उनके साथ संगति करते भी हो, तो वे तुम्हें सच नहीं बताएँगे। वे किसी को नहीं बताएँगे कि वे कितनी शिकायतों, गलतफहमियों और धारणाओं से भरे हुए हैं; वे इस डर से चीजों पर हमेशा बहुत अधिक नियंत्रण रखते हैं कि अगर दूसरे लोग उनके बारे में जान गए तो वे उनके बारे में बुरा सोचेंगे और उन्हें अस्वीकार कर देंगे। भले ही वे अपने कर्तव्य निभाते हैं, फिर भी उनके पास जीवन प्रवेश नहीं होता और जो कुछ भी करते हैं, उसमें सत्य-सिद्धांत नहीं खोजते; बाहर से वे शिथिल प्रतीत होते हैं, उनमें न तो आगे बढ़ने की शक्ति होती है और न ही पीछे छूटने की, और यह संकट का लक्षण है। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनके दिल में एक बीमारी होती है; बीमारी उनके दिलों में होती है, और वे प्रकाश में आने से डरते हैं। वे हर चीज को कसकर लपेटे रखते हैं, कभी दूसरों के सामने खुलने की हिम्मत नहीं करते; उनमें जीवन का संचार नहीं होता। जिससे उनके दिल में मौजूद बीमारी एक घातक ट्यूमर बन जाती है, और इस तरह वे संकट में पड़ जाते हैं। अगर लोग सत्य स्वीकारने में शुद्ध और खुले नहीं हो सकते, और अगर वे सत्य पर संगति के माध्यम से अपनी समस्याएँ हल नहीं कर सकते, तो ऐसे लोग अपने कर्तव्य ठीक से नहीं निभा सकते, और देर-सबेर उन्हें बेनकाब करके हटा दिया जाना चाहिए।

अंश 14

कोई भी समस्या पैदा होने पर, चाहे वह कैसी भी हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें किसी भी तरीके से छद्म व्यवहार नहीं करना चाहिए या दूसरों के सामने नकली चेहरा नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारी कमियाँ हों, खामियाँ हों, गलतियाँ हों, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हों—तुम्हें उनके बारे में कुछ छिपाना नहीं चाहिए और उन सभी के बारे में संगति करनी चाहिए। उन्हें अपने अंदर न रखो। अपनी बात खुलकर कैसे रखें, यह सीखना जीवन प्रवेश का सबसे पहला कदम है और यही वह पहली बाधा है जिसे पार करना सबसे मुश्किल है। एक बार तुमने इसे पार कर लिया तो सत्य में प्रवेश करना आसान हो जाता है। यह कदम उठाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम अपना हृदय खोल रहे हो और वह सब कुछ दिखा रहे हो जो तुम्हारे पास है, अच्छा या बुरा, सकारात्मक या नकारात्मक; दूसरों और परमेश्वर के देखने के लिए खुद को खोलना; परमेश्वर से कुछ न छिपाना, कुछ गुप्त न रखना, कोई स्वांग न करना, धोखेबाजी और चालबाजी से मुक्त रहना, और इसी तरह दूसरे लोगों के साथ खुला और ईमानदार रहना। इस तरह, तुम प्रकाश में रहते हो, और न सिर्फ परमेश्वर तुम्हारी पड़ताल करेगा बल्कि अन्य लोग यह देख पाएँगे कि तुम सिद्धांत से और एक हद तक पारदर्शिता से काम करते हो। तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा, छवि और रुतबे की रक्षा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, न ही तुम्हें अपनी गलतियाँ ढकने या छिपाने की आवश्यकता है। तुम्हें इन बेकार के प्रयासों में लगने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम इन चीजों को छोड़ पाओ, तो तुम बहुत आराम से रहोगे, तुम बिना बाधित हुए या पीड़ा के जियोगे, और पूरी तरह से प्रकाश में जियोगे। संगति करते समय कैसे खुलना है, यह सीखना जीवन प्रवेश की ओर पहला कदम है। इसके बाद, तुम्हें अपने विचारों और कार्यों का गहन-विश्लेषण करना सीखना होगा, ताकि यह देख सको कि उनमें से कौन-से गलत हैं और किन्हें परमेश्वर पसंद नहीं करता, और तुम्हें उन्हें तुरंत उलटने और सुधारने की आवश्यकता है। इन्हें सुधारने का मकसद क्या है? यह सत्य को स्वीकार और आत्मसात करना, साथ ही अपने भीतर की शैतान की चीजों से पीछा छुड़ाना और उन्हें सत्य से बदलना है। पहले, तुम हर काम अपने कपटी स्वभाव के अनुसार करते थे, जो कि झूठ और कपट है; तुम्हें लगता था कि तुम झूठ बोले बिना कुछ नहीं कर सकते। अब जब तुम सत्य समझने लगे हो, और शैतान के काम करने के ढंग से नफरत करते हो, तो तुमने उस तरह काम करना बंद कर दिया है; अब तुम ईमानदारी, शुद्धता और समर्पण की मानसिकता के साथ कार्य करते हो। यदि तुम अपने मन में कुछ भी नहीं रखते, दिखावा नहीं करते, ढोंग नहीं करते, चीजें नहीं छिपाते, यदि तुम भाई-बहनों के सामने अपने आपको खोल देते हो, अपने अंतरतम विचारों और सोच को छिपाते नहीं, बल्कि दूसरों को अपना ईमानदार रवैया दिखा देते हो, तो फिर धीरे-धीरे सत्य तुम्हारे अंदर जड़ें जमाने लगेगा, यह खिल उठेगा और फलदायी होगा, धीरे-धीरे तुम्हें इसके परिणाम दिखाई देने लगेंगे। यदि तुम्हारा दिल ईमानदार होता जाएगा, परमेश्वर की ओर उन्मुख होता जाएगा और यदि तुम अपने कर्तव्य का पालन करते समय परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना जानते हो, और इन हितों की रक्षा न कर पाने पर जब तुम्हारी अंतरात्मा परेशान हो जाए, तो यह इस बात का प्रमाण है कि तुम पर सत्य का प्रभाव पड़ा है और वह तुम्हारा जीवन बन गया है। एक बार जब सत्य तुम्हारा जीवन बन जाता है, तो जब तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जो ईशनिंदा करता है, परमेश्वर का भय नहीं मानता, कर्तव्य निभाते समय अनमना रहता है या कलीसिया के काम में गड़बड़ी कर बाधा डालता है, तो तुम सत्य-सिद्धांतों के अनुसार प्रतिक्रिया दोगे, तुम आवश्यकतानुसार उसे पहचानकर उजागर कर पाओगे। अगर सत्य तुम्हारा जीवन नहीं बना है और तुम अभी भी अपने शैतानी स्वभाव के भीतर रहते हो, तो जब तुम्हें उन बुरे लोगों और दानवों का पता चलता है जो कलीसिया के कार्य में गड़बड़ियाँ और विघ्न-बाधाएँ पैदा करते हैं, तुम उन पर ध्यान नहीं दोगे और उन्हें अनसुना कर दोगे; अपने विवेक द्वारा धिक्कारे बिना, तुम उन्हें नज़रअंदाज कर दोगे। तुम यह भी सोचोगे कि कलीसिया के कार्य में कोई भी बाधाएँ डाले तो इससे तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है। कलीसिया के काम और परमेश्वर के घर के हितों को चाहे कितना भी नुकसान पहुँचे, तुम परवाह नहीं करते, हस्तक्षेप नहीं करते, या दोषी महसूस नहीं करते—जो तुम्हें एक ऐसा व्यक्ति बनाता है जिसमें जमीर और विवेक नहीं है, एक छद्म-विश्वासी बनाता है, मजदूर बनाता है। तुम जो खाते हो वह परमेश्वर का है, तुम जो पीते हो वह परमेश्वर का है, और तुम परमेश्वर से आने वाली हर चीज का आनंद लेते हो, फिर भी तुम महसूस करते हो कि परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान तुमसे संबंधित नहीं है—जो तुम्हें गद्दार बनाता है, जो उसी हाथ को काटता है जो उसे भोजन देता है। अगर तुम परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, तो क्या तुम इंसान भी हो? यह एक दानव है, जिसने कलीसिया में पैठ बना ली है। तुम परमेश्वर में विश्वास का दिखावा करते हो, परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक होने का दिखावा करते हो और तुम परमेश्वर के घर में मुफ्तखोरी करना चाहते हो। तुम एक इंसान का जीवन नहीं जी रहे, इंसान से ज्यादा राक्षस जैसे हो, और स्पष्ट रूप से छद्म-विश्वासियों में से एक हो। अगर तुम्हें परमेश्वर में सच्चा विश्वास है, तब यदि तुमने सत्य और जीवन नहीं भी प्राप्त किया है, तो भी तुम कम से कम परमेश्वर के पक्ष में बोलोगे और कार्य करोगे; कम से कम, जब परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाया जा रहा हो, तो तुम उस समय खड़े होकर तमाशा नहीं देखोगे। यदि तुम अनदेखी करना चाहोगे, तो तुम्हारा मन कचोटेगा, तुम असहज हो जाओगे और मन ही मन सोचोगे, “मैं चुपचाप बैठकर तमाशा नहीं देख सकता, मुझे दृढ़ रहकर कुछ कहना होगा, मुझे जिम्मेदारी लेनी होगी, इस बुरे बर्ताव को उजागर करना होगा, इसे रोकना होगा, ताकि परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान न पहुँचे और कलीसियाई जीवन अस्त-व्यस्त न हो।” यदि सत्य तुम्हारा जीवन बन चुका है, तो न केवल तुममें यह साहस और संकल्प होगा, और तुम इस मामले को पूरी तरह से समझने में सक्षम होगे, बल्कि तुम परमेश्वर के कार्य और उसके घर के हितों के लिए भी उस जिम्मेदारी को पूरा करोगे जो तुम्हें उठानी चाहिए, और उससे तुम्हारे कर्तव्य की पूर्ति हो जाएगी। यदि तुम अपने कर्तव्य को अपनी जिम्मेदारी, अपना दायित्व और परमेश्वर का आदेश समझ सको, और यह महसूस करो कि परमेश्वर और अपनी अंतरात्मा का सामना करने के लिए यह आवश्यक है, तो क्या फिर तुम सामान्य मानवता की सत्यनिष्ठा और गरिमा को नहीं जी रहे होगे? तुम्हारा कर्म और व्यवहार “परमेश्वर का भय मानो और बुराई से दूर रहो” होगा, जिसके बारे में वह बोलता है। तुम इन वचनों के सार का पालन कर रहे होगे और उनकी वास्तविकता को जी रहे होगे। जब सत्य किसी व्यक्ति का जीवन बन जाता है, तब वह इस वास्तविकता को जीने में सक्षम होता है। लेकिन अगर तुमने अभी तक इस वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, तो जब तुम धोखेबाजी, कपट या स्वांग प्रकट करते हो या जब तुम मसीह-विरोधियों की बुरी शक्तियों को परमेश्वर के घर के कार्य में गड़बड़ी और विघ्न डालते देखते हो, तो तुम्हें कुछ भी महसूस नहीं होता और कुछ भी भान नहीं होता। चाहे ये चीजें ठीक तुम्हारे सामने हो रही हों, तुम फिर भी हँस पाते हो और सहज अंतरात्मा के साथ खा और सो पाते हो, और तुम्हें जरा-सा भी आत्मभर्त्सना का अनुभव नहीं होता। इन दोनों जीवन में से तुम लोग कौन-सा चुनते हो? क्या यह स्वतः सिद्ध नहीं है कि सच्चा मानव के समान, सकारात्मक चीजों की वास्तविकता क्या है, और नकारात्मक चीजों की दुष्ट दानवी प्रकृति क्या है? जब सत्य लोगों का जीवन नहीं बना होता, तो वे काफी दयनीय और दुखद जीवन जीते हैं। चाहकर भी सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ होना; चाहकर भी परमेश्वर से प्रेम करने में असमर्थ होना; और लालायित होकर भी परमेश्वर के लिए खुद को खपाने में अशक्त होना—वे प्रभारी बनने में असमर्थ रहते हैं—यह भ्रष्ट मनुष्यों की दयनीयता और दुःख है। यह समस्या हल करने के लिए व्यक्ति को सत्य स्वीकार कर उसका अनुसरण करना चाहिए; नया जीवन पाने के लिए उसे अपने दिल में सत्य का स्वागत करना चाहिए। चाहे वे खुद कुछ भी करें या सोचें, जो लोग सत्य स्वीकारने में असमर्थ होते हैं, वे सत्य का अभ्यास करने में भी असमर्थ होते हैं, और भले ही बाहरी तौर पर वे अच्छा करते हों, यह फिर भी दिखावा और धोखा ही होता है—यह फिर भी पाखंड ही होता है। इसलिए, अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो तुम जीवन प्राप्त नहीं करोगे, और यही समस्या की जड़ है।

ज़्यादातर लोग सत्य का अनुसरण और अभ्यास करना चाहते हैं, लेकिन अधिकतर समय उनके पास ऐसा करने का केवल संकल्प और इच्छा ही होती है; सत्य उनका जीवन नहीं बना है। इसके परिणामस्वरूप जब लोगों का बुरी शक्तियों से वास्ता पड़ता है या ऐसे कुकर्मियों या बुरे लोगों से उनका सामना होता है जो बुरे कामों को अंजाम देते हैं, या जब ऐसे नकली अगुआओं और मसीह-विरोधियों से उनका सामना होता है जो अपना काम इस तरह से करते हैं जिससे सिद्धांतों का उल्लंघन होता है—इस तरह कलीसिया के कार्य में बाधा पड़ती है, और परमेश्वर के चुने लोगों को हानि पहुँचती है—वे डटे रहने और खुलकर बोलने का साहस खो देते हैं। जब तुम्हारे अंदर कोई साहस नहीं होता, इसका क्या अर्थ है? क्या इसका अर्थ यह है कि तुम डरपोक हो या अपनी बात स्पष्ट रूप से व्यक्त करने में असमर्थ हो? या फिर यह कि तुम अच्छी तरह नहीं समझते और इसलिए तुम में अपनी बात रखने का आत्मविश्वास नहीं है? दोनों में से कुछ नहीं; यह मुख्य रूप से भ्रष्ट स्वभावों द्वारा बेबस होने का परिणाम है। तुम्हारे द्वारा प्रदर्शित किए जाने वाले भ्रष्ट स्वभावों में से एक है कपटी स्वभाव; जब तुम्हारे साथ कुछ होता है, तो पहली चीज जो तुम सोचते हो वह है तुम्हारे हित, पहली चीज जिस पर तुम विचार करते हो वह है नतीजे, कि यह तुम्हारे लिए फायदेमंद होगा या नहीं। यह एक कपटी स्वभाव है, है न? दूसरा है स्वार्थी और नीच स्वभाव। तुम सोचते हो, “परमेश्वर के घर के हितों के नुकसान से मेरा क्या लेना-देना? मैं कोई अगुआ नहीं हूँ, तो मुझे इसकी परवाह क्यों करनी चाहिए? इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। यह मेरी जिम्मेदारी नहीं है।” ऐसे विचार और शब्द तुम सचेतन रूप से नहीं सोचते, बल्कि ये तुम्हारे अवचेतन द्वारा उत्पन्न किए जाते हैं—जो वह भ्रष्ट स्वभाव है जो तब दिखता है जब लोग किसी समस्या का सामना करते हैं। ऐसे भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारे सोचने के तरीके को नियंत्रित करते हैं, वे तुम्हारे हाथ-पैर बाँध देते हैं और तुम जो कहते हो उसे नियंत्रित करते हैं। अपने दिल में, तुम खड़े होकर बोलना चाहते हो, लेकिन तुम्हें आशंकाएँ होती हैं, और जब तुम बोलते भी हो, तो बात को घुमाते हो और बात बदलने की गुंजाइश छोड़ देते हो, या फिर टाल-मटोल करते हो और सत्य नहीं बताते। स्पष्टदर्शी लोग इसे देख सकते हैं; वास्तव में, तुम अपने दिल में जानते हो कि तुमने वह सब नहीं कहा जो तुम्हें कहना चाहिए था, कि तुमने जो कहा उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा, कि तुम सिर्फ औपचारिकता निभा रहे थे, और समस्या हल नहीं हुई है। तुमने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई है, फिर भी तुम खुल्लमखुल्ला कहते हो कि तुमने अपनी जिम्मेदारी निभा दी है, या जो कुछ हो रहा था वह तुम्हारे लिए अस्पष्ट था। क्या यह सच है? और क्या तुम सचमुच यही सोचते हो? क्या तब तुम पूरी तरह से अपने शैतानी स्वभाव के नियंत्रण में नहीं हो? भले ही तुम जो कुछ कहते हो उसका कुछ हिस्सा तथ्यों के अनुरूप हो, लेकिन मुख्य स्थानों और महत्वपूर्ण मुद्दों पर तुम झूठ बोलते हो और लोगों को धोखा देते हो, जो साबित करता है कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो झूठ बोलता है, और जो अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार जीता है। तुम जो कुछ भी कहते और सोचते हो, वह तुम्हारे मस्तिष्क द्वारा संसाधित किया गया होता है, जिससे तुम्हारा हर कथन नकली, खोखला, झूठा हो जाता है; वास्तव में, तुम जो कुछ भी कहते हो वह तथ्यों के विपरीत, खुद को सही ठहराने की खातिर, अपने फायदे के लिए होता है, और तुम्हें लगता है कि जब तुम लोगों को गुमराह करते हो और उन्हें विश्वास दिला देते हो, तो तुम अपने लक्ष्य हासिल कर लेते हो। ऐसा है तुम्हारे बोलने का तरीका; यह तुम्हारा स्वभाव भी दर्शाता है। तुम पूरी तरह से अपने शैतानी स्वभाव से नियंत्रित हो। तुम जो कहते और करते हो, उस पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं होता। यहाँ तक कि अगर तुम चाहते भी, तो भी तुम सच न बता पाते या वह न कह पाते जो तुम वास्तव में सोचते हो; चाहकर भी तुम सत्य का अभ्यास न कर पाते; चाहकर भी तुम अपनी जिम्मेदारियाँ न निभा पाते। तुम जो कुछ भी कहते, करते हो और जिसका भी अभ्यास करते हो, वह सब झूठ है, और तुम सिर्फ अनमने हो। तुम पूरी तरह से अपने शैतानी स्वभाव की बेड़ियों में जकड़े हुए और उससे नियंत्रित हो। हो सकता है कि तुम सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास करना चाहो, लेकिन यह तुम पर निर्भर नहीं है। जब तुम्हारे शैतानी स्वभाव तुम्हें नियंत्रित करते हैं, तो तुम वही कहते और करते हो जो तुम्हारा शैतानी स्वभाव तुमसे करने को कहता है। तुम भ्रष्ट देह की कठपुतली के अलावा और कुछ नहीं हो, तुम शैतान का एक औजार बन गए हो। बाद में तुम्हें एक बार फिर भ्रष्ट देह का अनुसरण करने पर और इस बात पर पछतावा महसूस होता है कि तुम सत्य का अभ्यास करने में विफल कैसे हो सकते हो। तुम मन ही मन सोचते हो, “मैं अपने दम पर देह पर विजय नहीं पा सकता और मुझे परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। मैं उन लोगों को रोकने के लिए खड़ा नहीं हुआ जो कलीसिया के काम में बाधा डाल रहे थे और मेरा जमीर मुझे कचोट रहा है। मैंने एक संकल्प लिया है कि जब दोबारा ऐसा होगा तो मुझे उनका डटकर मुकाबला करना होगा और उनकी काट-छाँट करनी होगी जो अपने कर्तव्यों के निर्वाह में निरंकुश होकर कुकर्म कर रहे हैं और कलीसिया के काम में बाधा डाल रहे हैं ताकि वे अच्छा व्यवहार करें और उद्दंडता से काम करना बंद कर दें।” अंततः बोलने का साहस जुटाने के बाद जैसे ही दूसरा व्यक्ति क्रोधित होता है और मेज पर हाथ पटकता है, तुम डरकर पीछे हट जाते हो। क्या तुम प्रभारी बनने में सक्षम हो? दृढ़ता और संकल्प किस काम के? दोनों ही बेकार हैं। तुम लोगों ने ऐसी कई घटनाओं का सामना किया होगा : जब तुम कठिनाइयों में पड़ जाते हो तो तुम हार मान लेते हो, तुम्हें लगता है कि तुम कुछ नहीं कर सकते और निराश होकर हार मान लेते हो; तुम निराशा में डूब जाते हो और ठान लेते हो कि तुम्हारे लिए कोई आशा नहीं है, और इस बार तुम्हें पूरी तरह से निकाल दिया गया है। तुम मानते हो कि तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो फिर पश्चात्ताप क्यों नहीं करते? क्या तुमने सत्य का अभ्यास किया है? निश्चित रूप से तुम कई वर्षों तक धर्मोपदेशों में भाग लेने के बाद भी कुछ नहीं समझ पाए होगे। तुम बिल्कुल भी सत्य का अभ्यास क्यों नहीं करते? तुम कभी सत्य नहीं खोजते, उसका अभ्यास करना तो दूर की बात है। तुम सिर्फ लगातार प्रार्थना कर रहे हो, अपना दृढ़ निश्चय व्यक्त कर रहे हो, संकल्प कर रहे हो, और अपने दिल में प्रतिज्ञा कर रहे हो। और नतीजा क्या होता है? तुम खुशामदी बने रहते हो, तुम अपने सामने आने वाली समस्याओं के बारे में स्पष्टवादी नहीं होते, तुम बुरे लोगों को देखकर उन पर ध्यान नहीं देते, जब कोई बुराई या गड़बड़ी करता है तो तुम प्रतिक्रिया नहीं देते, और अगर तुम व्यक्तिगत रूप से प्रभावित नहीं होते तो तुम अलग रहते हो। तुम सोचते हो, “मैं ऐसी किसी चीज के बारे में बात नहीं करता, जिसका मुझसे कोई सरोकार नहीं है। अगर वह मेरे हितों, मेरी शान या मेरी छवि को ठेस नहीं पहुँचाती, तो मैं बिना किसी अपवाद के हर चीज की उपेक्षा करता हूँ। मुझे बहुत सावधान रहना होगा, क्योंकि जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है। मैं कोई बेवकूफी नहीं करूँगा!” तुम पूरी तरह से और अटूट रूप से दुष्टता, कपट, कठोरता और सत्य से विमुखता के अपने भ्रष्ट स्वभावों से नियंत्रित हो। इन्हें सहना तुम्हारे लिए वानर राजा द्वारा पहने गए उस सुनहरे सरबंद[क] से ज्यादा मुश्किल हो गया है जो असहनीय ढंग से कसता जाता था। भ्रष्ट स्वभावों के नियंत्रण में रहना बहुत थकाऊ और कष्टदायी है! तुम लोग इस बारे में क्या कहते हो : अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो क्या अपनी भ्रष्टता छोड़ना आसान है? क्या यह समस्या सुलझाई जा सकती है? मैं तुम लोगों को बताता हूँ : अगर तुम लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते और अपने विश्वास में भ्रमित रहते हो, अगर तुम सत्य का अभ्यास किए बिना वर्षों तक उपदेश सुनते रहते हो, अगर तुम अंत तक विश्वास करते रहते हो मगर फिर भी केवल कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलकर दूसरों को धोखा दे सकते हो, तो तुम पूरी तरह से एक धार्मिक धोखेबाज, एक पाखंडी फरीसी हो, और इस तरह से तुम्हारा अंत हो जाएगा। तुम लोगों का यही परिणाम होगा। अगर तुम इससे भी बदतर हो, तो एक ऐसी स्थिति आ सकती है जिसमें तुम प्रलोभन में पड़ जाओगे, अपना कर्तव्य छोड़ दोगे, और ऐसे व्यक्ति बन जाओगे जो परमेश्वर को धोखा देता है—उस स्थिति में तुम पिछड़ जाओगे और निकाल दिए जाओगे। यह हमेशा संकट के कगार पर रहना है! इसलिए, किसी भी स्थिति में सत्य का अनुसरण करने से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ नहीं है। सत्य का अभ्यास करने से बेहतर कुछ नहीं है।

फुटनोट :

क. वानर राजा का सुनहरा सरबंद एक महत्वपूर्ण वस्तु है, जो उत्कृष्ट चीनी उपन्यास “पश्चिम की यात्रा” में दिखाई देती है। इस कहानी में वानर राजा के अनियंत्रित व्यवहार की प्रतिक्रिया में उसकी खोपड़ी के चारों ओर दर्दनाक तरीके से कसकर उसके विचारों और कार्यों को नियंत्रित करने के लिए सुनहरे सरबंद का उपयोग किया गया था।


अंश 15

अगर लोगों के पास सत्य से प्रेम करने वाला दिल होगा, तो उनमें सत्य का अनुसरण करने की शक्ति होगी, और वे सत्य का अभ्यास करने के लिए कड़ी मेहनत कर सकते हैं। वे उसे छोड़ सकते हैं जिसे छोड़ना चाहिए, और उसे जाने दे सकते हैं जिसे जाने देना चाहिए। विशेष रूप से, जो चीजें तुम्हारी प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे से संबंधित हैं, उन्हें छोड़ देना चाहिए। अगर तुम उन्हें नहीं छोड़ते, तो इसका मतलब है कि तुम सत्य से प्रेम नहीं करते और तुममें सत्य का अनुसरण करने की शक्ति नहीं है। जब तुम्हारे साथ घटनाएँ घटें, तो तुम्हें सत्य खोजकर इसका अभ्यास करना चाहिए। अगर तुम्हारे मन में, ऐसे समय में जब तुम्हें सत्य का अभ्यास करने की आवश्यकता होती है, हमेशा स्वार्थी विचार आते हैं और तुम अपना स्वार्थ नहीं छोड़ सकते, तो तुम सत्य पर अमल नहीं कर पाओगे। अगर तुम किसी भी परिस्थिति में सत्य की तलाश या उसका अभ्यास नहीं करते, तो तुम सत्य से प्रेम करने वाले व्यक्ति नहीं हो। चाहे तुमने कितने भी वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास किया हो, तुम सत्य प्राप्त नहीं करोगे। कुछ लोग हमेशा प्रसिद्धि, लाभ और स्वार्थ के पीछे दौड़ते रहते हैं। कलीसिया उनके लिए जिस भी कार्य की व्यवस्था करे, वे हमेशा यह सोचते हुए उसके बारे में विचार करते हैं, “क्या इससे मुझे लाभ होगा? अगर होगा, तो मैं इसे करूँगा; अगर नहीं होगा, तो मैं नहीं करूँगा।” ऐसा व्यक्ति सत्य का अभ्यास नहीं करता—तो क्या वह अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकता है? निश्चित रूप से नहीं निभा सकता। भले ही तुमने कोई बुराई न की हो, फिर भी तुम सत्य का अभ्यास करने वाले व्यक्ति नहीं हो। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करते, और कुछ भी तुम पर आ पड़े, तुम सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे, अपने स्वार्थ और जो तुम्हारे लिए अच्छा है, उसकी परवाह करते हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो केवल स्वार्थ से प्रेरित होता है और स्वार्थी और नीच है। इस तरह का व्यक्ति अपने लिए कुछ अच्छा या लाभदायक पाने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करता है, सत्य या परमेश्वर का उद्धार पाने के लिए नहीं। इसलिए इस प्रकार के लोग छद्म-विश्वासी होते हैं। जो लोग वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, वे सत्य की खोज और अभ्यास कर सकते हैं, क्योंकि वे अपने हृदय में जानते हैं कि मसीह सत्य है, और उन्हें परमेश्वर के वचन सुनने चाहिए और परमेश्वर पर उसकी अपेक्षा के अनुसार विश्वास करना चाहिए। अगर तुम अपने साथ कुछ होने पर सत्य का अभ्यास करना चाहते हो, लेकिन अपनी प्रतिष्ठा, रुतबे और इज्जत पर विचार करते हो, तो ऐसा करना कठिन होगा। इस तरह की स्थिति में प्रार्थना, खोज और आत्मचिंतन करके और आत्म-जागरूक होने से सत्य से प्रेम करने वाले लोग अपने ही स्वार्थ या भले की चीजें छोड़ पाएँगे, और सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने में सक्षम होंगे। ऐसे लोग वे होते हैं, जो वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास और सत्य से प्रेम करते हैं। और जब लोग हमेशा अपने स्वार्थ के बारे में सोचते हैं, जब वे हमेशा अपने गौरव और अहंकार की रक्षा करने की कोशिश करते हैं, जब वे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं लेकिन उसे ठीक करने के लिए सत्य की तलाश नहीं करते, तो इसका क्या परिणाम होता है? यही कि वे जीवन प्रवेश नहीं कर पाते हैं, और उनके पास सच्ची अनुभवजन्य गवाही की कमी है। और यह खतरनाक है, है न? अगर तुम कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, अगर तुम्हारे पास कोई अनुभवजन्य गवाही नहीं है, तो समय आने पर तुम्हें बेनकाब कर निकाल दिया जाएगा। अनुभवजन्य गवाही से रहित लोगों का परमेश्वर के घर में क्या उपयोग है? वे कोई भी कर्तव्य खराब तरीके से निभाने और कुछ भी ठीक से न कर पाने के लिए बाध्य हैं। क्या वे सिर्फ कचरा नहीं हैं? वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी अगर लोग कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, तो वे छद्म-विश्वासी हैं; वे बुरे लोग हैं। अगर तुम कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, अगर तुम्हारे अपराध बहुत अधिक बढ़ जाते हैं, तो तुम्हारा परिणाम निश्चित है। यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि तुम्हारे सभी अपराध, वह गलत मार्ग जिस पर तुम चलते हो, और पश्चात्ताप करने से तुम्हारा इनकार—ये सभी मिलकर बुरे कर्मों का ढेर बन जाते हैं; और इसलिए तुम्हारा परिणाम यह है कि तुम नरक में जाओगे—तुम्हें दंडित किया जाएगा। क्या तुम लोग सोचते हो कि यह कोई साधारण मामला है? अगर तुम्हें दंडित नहीं किया गया है, तो तुम्हें इस बात का कोई अंदाजा नहीं होगा कि यह कितना भयानक है। जब वह दिन आएगा जब तुम वास्तव में विपदा का सामना करोगे, और तुम्हारा सामना मृत्यु से होगा, तो पछताने के लिए बहुत देर हो चुकी होगी। अगर परमेश्वर पर अपनी आस्था में तुम सत्य नहीं स्वीकारते, अगर तुम वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास करते हो लेकिन तुममें कोई बदलाव नहीं आया, तो अंतिम परिणाम यह होगा कि तुम्हें निकालकर त्याग दिया जाएगा। अपराध हर किसी से होते हैं। मुख्य बात है उन अपराधों को ठीक करने के लिए सत्य खोजने में सक्षम होना, और इससे यह सुनिश्चित होगा कि ये अपराध कम से कम हों। यदि तुम कभी भी, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कब, अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हो, और तुम हमेशा परमेश्वर से प्रार्थना करने और उस पर भरोसा करने में सक्षम हो, इसे ठीक करने के लिए सत्य की तलाश करते हो, और अपने भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध करते हो, तो तुमने कोई दुष्ट काम नहीं किया होगा। इसी तरीके से विश्वासी लोगों को भ्रष्ट स्वभाव की समस्या ठीक करनी चाहिए, और इसी तरह से परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना चाहिए। जब तुम्हारे साथ कुछ घटित होता है तब यदि तुम कभी भी परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते हो और कभी सत्य की खोज नहीं करते हो, या यदि तुम सत्य को समझते हो लेकिन इसे अभ्यास में नहीं लाते हो, तो अंतिम परिणाम क्या होगा? यह स्वतः स्पष्ट है। तुम कितने भी चालाक और चिकनी-चुपड़ी बातें करने वाले हो, क्या तुम परमेश्वर की आँख की जाँच-पड़ताल से बच सकते हो? क्या तुम परमेश्वर के हाथ के आयोजनों से बच सकते हो? यह असंभव है। बुद्धिमान लोगों को परमेश्वर के सामने आना चाहिए और पश्चात्ताप करना चाहिए, उसकी ओर देखना चाहिए, उस पर भरोसा करना चाहिए, अपने भ्रष्ट स्वभावों को ठीक करना चाहिए और सत्य का अभ्यास करना चाहिए। तब तुम देह पर विजय प्राप्त कर लोगे, और शैतान के प्रलोभनों पर विजय पा लोगे। भले ही तुम कई बार विफल रहो, तुम्हें दृढ़ रहना चाहिए। जब तुम सभी बाधाओं के बावजूद दृढ़ रहोगे, तो एक समय आएगा जब तुम सफल हो जाओगे, और तुम परमेश्वर का अनुग्रह, उसकी दया और उसका आशीष प्राप्त करोगे, और तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलने में सक्षम होगे, अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभा सकोगे, और परमेश्वर को संतुष्ट कर पाओगे।

जब तुम लोगों के साथ घटनाएँ घटती हैं, तो तुम कितनी बार सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के कार्य को बनाए रखने का विकल्प चुनते हो? (अक्सर नहीं। ज्यादातर समय मैं अपनी छवि या अपने हित को बनाए रखना चुनता हूँ, और मुझे बाद में इसका एहसास होता है, लेकिन अपने प्रति विद्रोह करना आसान नहीं है। अगर कोई मेरे साथ सत्य पर संगति करता है तो इससे मुझे कुछ शक्ति मिलती है और मैं कुछ हद तक अपने प्रति विद्रोह कर सकता हूँ। लेकिन जब सत्य के बारे में मेरे साथ संगति करने वाला कोई नहीं होता है, तो मैं परमेश्वर से दूर हो जाता हूँ और हमेशा इसी स्थिति में रहता हूँ।) देह के प्रति विद्रोह करना कठिन है, सत्य का अभ्यास करना और भी कठिन है, क्योंकि तुम्हारे पास एक शैतानी प्रकृति है जो तुम्हें रोकती है, और एक भ्रष्ट स्वभाव है जो तुम्हें परेशान करता है, और इन्हें सत्य को समझे बिना ठीक नहीं किया जा सकता है। तुम लोग परमेश्वर की उपस्थिति में प्रतिदिन कितना समय चुपचाप बिता सकते हो? आध्यात्मिक रूप से सूखा महसूस करने से पहले तुम कितने दिनों तक परमेश्वर के वचन पढ़े बिना रह सकते हो? (मुझे लगता है कि मैं परमेश्वर के वचन पढ़े बिना एक दिन भी नहीं रह सकता। मुझे सुबह परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ना होता है और फिर उस पर ध्यान लगाना होता है। इससे मुझे परमेश्वर के करीब होने का एहसास होता है। अगर कोई ऐसा दिन हो, जहाँ मैं व्यस्तता से काम करने में इधर-उधर भाग रहा हूँ, न तो परमेश्वर के वचनों को खा-पी रहा हूँ, न ही बहुत अधिक प्रार्थना कर रहा हूँ, तो मैं खुद को परमेश्वर से बहुत दूर महसूस करता हूँ।) यदि तुम लोग यह भाँप लेते हो कि परमेश्वर से दूर रहने से तुम्हारा काम नहीं चलेगा तो फिर अभी भी तुम्हारे लिए आशा बची है। यदि तुम विश्वासी हो और सत्य प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम निष्क्रिय नहीं रह सकते और अपने साथ सत्य पर संगति करने के लिए हमेशा किसी की राह ताकते नहीं रह सकते हो। तुम्हें सक्रिय रूप से परमेश्वर के वचनों को खाना-पीना, परमेश्वर से प्रार्थना करना और सत्य की खोज करना सीखना चाहिए। यदि तुम तब तक प्रतीक्षा करते हो जब तक तुम्हारी आत्मा अंधकारमय न हो जाए और तुम परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और उससे प्रार्थना करने से पहले उसे महसूस नहीं कर सकते, तो तुम केवल यथास्थिति बनाए रख सकते हो। नाममात्र की “आस्था” बनाए रख पाना भी बहुत होगा, लेकिन इससे तुम्हारे जीवन में कोई विकास नहीं होगा, और जब तुम्हारी आत्मा झुलस और सुन्न हो जाएगी, और तुम परमेश्वर से बहुत दूर हो चुके होगे, तो तुम खतरे में होगे। एक प्रलोभन तुम्हें मिलता है, और तुम लड़खड़ा जाते हो; तुम सब लोग शैतान द्वारा बहुत आसानी से बंदी बना लिए जाते हो। यदि तुम्हारे पास कोई अनुभव नहीं है, तुम कोई सत्य नहीं समझते हो, न तो परमेश्वर के वचन पढ़ने पर और न ही उपदेश सुनने पर ध्यान केंद्रित करते हो, और तुममें सामान्य आध्यात्मिक जीवन का अभाव है, तो तुम्हारे लिए आध्यात्मिक कद बढ़ाना मुश्किल होगा, और तुम्हारी प्रगति निश्चित रूप से बहुत धीमी होगी। इस धीमी प्रगति के क्या कारण हैं? इसके क्या दुष्परिणाम हैं? तुम्हें इन बातों के बारे में स्पष्ट होना चाहिए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर लोगों की भ्रष्टता किस प्रकार उजागर करता है, उन्हें उसके प्रति समर्पण कर उसे स्वीकारना चाहिए। उन्हें आत्म-चिंतन करना चाहिए और खुद को परमेश्वर के वचनों की कसौटी पर कसना चाहिए, ताकि वे आत्म-ज्ञान प्राप्त कर सकें और धीरे-धीरे सत्य को समझ सकें। यही वह चीज है जो परमेश्वर को सबसे अधिक प्रसन्न करती है, और पवित्र आत्मा निश्चित रूप से उनमें कार्य करेगा, और खुद वे निश्चित रूप से परमेश्वर के इरादों को समझेंगे। तुम्हें हर समय परमेश्वर के वचनों और सत्य को अपने हृदय में रखना चाहिए, ताकि जब तुम वास्तविक जीवन में किसी समस्या का सामना करो, तो तुम उसे परमेश्वर के वचनों और सत्य से जोड़ सको और तुलना कर सको। फिर, समस्या का समाधान आसान हो जाएगा। उदाहरण के लिए, हर कोई निरोगी और स्वस्थ शरीर चाहता है; हर कोई यह तमन्ना करता है, लेकिन तुम्हें अपने दैनिक जीवन में इसका अभ्यास कैसे करना चाहिए? सबसे पहले, तुम्हें नियमित दिनचर्या बनानी चाहिए, अस्वास्थ्यकर या वर्जित चीजें नहीं खानी चाहिए और उचित मात्रा में व्यायाम करना चाहिए। जब तुम ये तरीके एक साथ आजमाते हो, और जो कुछ भी अभ्यास करते हो वह शारीरिक स्वास्थ्य के लक्ष्य के आसपास घूमता है, तो इसके परिणाम धीरे-धीरे तुम्हारे सामने होंगे। कुछ वर्षों के बाद, तुम दूसरों की तुलना में ज्यादा स्वस्थ होगे, और अच्छे परिणाम प्राप्त करोगे। तुम्हें ये परिणाम कैसे मिले? ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम्हारे कार्य और लक्ष्य एक सीध में थे, और तुम्हारा अभ्यास और सिद्धांत एक सीध में थे। परमेश्वर में विश्वास करना भी ऐसा ही है। यदि तुम ऐसा व्यक्ति बनना चाहते हो जो सत्य से प्रेम करता है और सत्य का अभ्यास करता है, और बदले हुए स्वभाव का व्यक्ति बनना चाहता है, तो जब तुम्हारे साथ कुछ घटनाएँ घटती हैं, तो तुम्हें उन लक्ष्यों से, जिनका तुम अनुसरण कर रहे हो, और इसमें शामिल सच्चाइयों से उन्हें जोड़ना होगा। तुम चाहे जो भी लक्ष्य अपनाओ, जब तक वे वही हैं जो परमेश्वर मनुष्य से चाहता है, तो ये वे दिशा और लक्ष्य हैं जिनका एक विश्वासी के रूप में अनुसरण किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, परमेश्वर के मार्ग पर चलना : परमेश्वर का भय मानना और दुष्टता से दूर रहना। जब एक बार तुम्हें यह दिशा, यह लक्ष्य मिल जाए, तो तुरंत इसे अभ्यास में लाने का कोई तरीका तुम्हारे पास होना चाहिए। जब मैं कहता हूँ “परमेश्वर के मार्ग पर चलना,” तो “परमेश्वर के मार्ग” का क्या अर्थ है? परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना। और परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना क्या है? उदाहरण के लिए जब तुम किसी का मूल्यांकन करते हो—यह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने से संबंधित है। तुम उसका मूल्यांकन कैसे करते हो? (हमें ईमानदार, न्यायपूर्ण और निष्पक्ष होना चाहिए और हमारे शब्द हमारी भावनाओं पर आधारित नहीं होने चाहिए।) जब तुम ठीक वही कहते हो जो तुम सोचते हो और जो तुमने देखा है, तो तुम ईमानदार होते हो। सबसे पहले, ईमानदार होने का अभ्यास और परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण एक सीध में होते हैं। परमेश्वर लोगों को यही सिखाता है; यह परमेश्वर का मार्ग है। परमेश्वर का मार्ग क्या है? परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना। क्या ईमानदार होना परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का अंग नहीं है? और क्या यह परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करना नहीं है? (हाँ, बिल्कुल है।) अगर तुम ईमानदार नहीं हो, तो तुमने जो देखा है और जो तुम सोचते हो, वह वो नहीं होता जो तुम्हारे मुँह से निकलता है। कोई तुमसे पूछता है, “उस व्यक्ति के बारे में तुम्हारी क्या राय है? क्या वह कलीसिया के कार्य में जिम्मेदार है?” और तुम उत्तर देते हो, “वह बहुत अच्छा है, वह मुझसे भी अधिक जिम्मेदार है, मुझसे भी ज्यादा काबिल है, उसकी मानवता भी अच्छी है। वह परिपक्व और स्थिर है।” लेकिन तुम अपने दिल में क्या यही सोच रहे होते हो? तुम वास्तव में यह देखते हो कि भले ही वह व्यक्ति काबिल है, लेकिन वह भरोसेमंद नहीं, बल्कि कपटी और बहुत मतलबी है। अपने मन में तुम वास्तव में यही सोच रहे होते हो, लेकिन बोलने की बारी आने पर तुम्हारे मन में आता है कि “मैं सच नहीं बोल सकता, मुझे किसी को ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए,” इसलिए तुम जल्दी से कुछ और कह देते हो, तुम उसके बारे में कहने के लिए अच्छी बातें चुनते हो, और तुम जो कुछ भी कहते हो, वह वास्तव में वह नहीं होता जो तुम सोचते हो, वह सब झूठ और फर्जीवाड़ा होता है। क्या यह दर्शाता है कि तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करते हो? नहीं। तुमने शैतान का मार्ग अपनाया है, राक्षसों का मार्ग अपनाया है। परमेश्वर का मार्ग क्या है? यह सत्य है, यह वह आधार है जिसके अनुसार लोगों को व्यवहार करना चाहिए, और यह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग है। भले ही तुम किसी अन्य व्यक्ति से बात कर रहे हो, लेकिन परमेश्वर भी सुनता है, वह तुम्हारा दिल देख रहा है, और तुम्हारे दिल की जाँच-पड़ताल करता है। लोग वह सुनते हैं जो तुम कहते हो, पर परमेश्वर तुम्हारा दिल जाँचता है। क्या लोग इंसान के दिल की जाँच-पड़ताल करने में सक्षम हैं? ज्यादा से ज्यादा, लोग यह देख सकते हैं कि तुम सच नहीं बोल रहे; वे वही देख सकते हैं, जो सतह पर होता है; लेकिन परमेश्वर ही तुम्हारे दिल की गहराई में देख सकता है। केवल परमेश्वर ही देख सकता है कि तुम क्या सोच रहे हो, क्या योजना बना रहे हो, तुम्हारे दिल में कौन-सी छोटी योजनाएँ, कौन-से कपटी तरीके, कौन-से सक्रिय विचार हैं। यह देखकर कि तुम सच नहीं बोल रहे, परमेश्वर तुम्हारे बारे में क्या राय बनाता है, वह तुम्हारा क्या मूल्यांकन करता है? यही कि इस मामले में तुमने परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं किया, क्योंकि तुमने सच नहीं बोला। यदि तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास कर रहे थे, तो तुम्हें सत्य बोलना चाहिए था : “वह काबिल तो है, लेकिन भरोसेमंद नहीं है।” तुम्हारा मूल्यांकन चाहे सटीक होता या नहीं, यह ईमानदार और दिल से आया होता और तुम्हें अपना यही दृष्टिकोण और स्थिति जाहिर करनी चाहिए थी। लेकिन तुमने ऐसा नहीं किया—तो क्या तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण कर रहे थे? (नहीं।) यदि तुम सच नहीं बोलते, तो क्या तुम्हारे इस बात पर जोर देने का कोई मतलब है कि तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण कर उसे संतुष्ट कर रहे हो? क्या तुम्हारे नारों पर परमेश्वर ध्यान देगा? क्या परमेश्वर इस बात पर ध्यान देगा कि तुम कैसे चिल्लाते हो, कितना जोर से चिल्लाते हो या तुम्हारा संकल्प कितना प्रबल है? क्या वह इस बात पर ध्यान देगा कि तुम कितनी बार चिल्लाते हो? वह इन चीजों को नहीं देखता। परमेश्वर यह देखता है कि तुम सत्य का अभ्यास करते हो या नहीं, जब तुम्हारे साथ कोई घटना हो जाती है तो तुम क्या विकल्प चुनते हो और कैसे सत्य का अभ्यास करते हो। यदि तुम संबंध बनाए रखना पसंद करते हो, अपना हित और अपनी छवि बनाए रखना पसंद करते हो और सब कुछ अपने संरक्षण के लिए करते हो, और परमेश्वर देख लेता है कि कोई बात होने पर यही तुम्हारा दृष्टिकोण और रवैया होता है, तो वह तुम्हारा मूल्यांकन करेगा : वह कहेगा कि तुम उसके मार्ग का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो। तुम कहते हो कि तुम सत्य का अनुसरण करना चाहते हो और परमेश्वर के मार्ग पर चलना चाहते हो, तो जब कुछ घटनाएँ तुम्हारे साथ घटती हैं, तुम इसे तब अभ्यास में क्यों नहीं लाते? तुम जो शब्द बोलते हो वह हृदय से निकले हो सकते हैं, और वे तुम्हारे संकल्प और आकांक्षाएँ व्यक्त कर सकते हैं, या यह भी हो सकता है कि तुम्हारा हृदय द्रवित हो गया हो, और फूट-फूट कर रोते हुए तुम ईमानदार शब्द कह रहे हो, लेकिन ईमानदारी से बोलने का मतलब क्या यह है कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो? क्या इसका मतलब यह है कि तुम्हारे पास सच्ची गवाही है? ऐसा जरूरी नहीं है। यदि तुम सत्य के अनुयायी हो, तो तुम सत्य का अभ्यास कर लोगे; यदि तुम सत्य के प्रेमी नहीं हो, तो तुम केवल वही बातें कहोगे जो सुनने में अच्छी लगें, और बात वहीं समाप्त हो जाएगी। फरीसी लोग धर्म-सिद्धांत का प्रचार करने और नारे लगाने में सर्वश्रेष्ठ थे। वे अक्सर नुक्कड़ों पर खड़े होकर चिल्लाते थे, “हे शक्तिशाली परमेश्वर!” या “पूज्य परमेश्वर!” दूसरों को वे विशेष रूप से पवित्र लगते थे, उन्होंने कानून के विरुद्ध कुछ भी नहीं किया था, लेकिन क्या परमेश्वर ने उनका अनुमोदन किया? नहीं किया। उसने उनकी निंदा कैसे की? उन्हें पाखंडी फरीसी की उपाधि देकर। पहले जमाने में फरीसी इस्रायल में एक सम्मानित वर्ग होता था, तो यह नाम अब एक बिल्ला क्यों बन गया है? ऐसा इसलिए है क्योंकि फरीसी लोग एक खास किस्म के व्यक्ति के परिचायक बन गये हैं। इस प्रकार के व्यक्ति की क्या विशेषताएँ होती हैं? वे झूठ बोलने में, बनने-ठनने में और दिखावा करने में कुशल हैं; वे महान कुलीनता, पवित्रता, ईमानदारी और पारदर्शी शालीनता का दिखावा करते हैं, और वे जो नारे लगाते हैं वे अच्छे तो लगते हैं, लेकिन पता चलता है, वे बिल्कुल भी सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं। उनका क्या अच्छा व्यवहार है? वे धर्मग्रंथ पढ़ते हैं और उपदेश देते हैं; वे दूसरों को कानून और नियमों का पालन करना और परमेश्वर का विरोध न करना सिखाते हैं। यह सब अच्छा व्यवहार है। वे जो कुछ भी कहते हैं वह अच्छा लगता है, लेकिन, दूसरे लोगों के पीछे मुड़ते ही, वे चुपचाप चढ़ावा चुरा लेते हैं। प्रभु यीशु ने कहा कि वे “मच्छर को तो छान डालते हो, परन्तु ऊँट को निगल जाते हो” (मत्ती 23:24)। इसका मतलब यह है कि उनका सारा व्यवहार सतही तौर पर अच्छा लगता है—वे दिखावटी नारे लगाते हैं, वे ऊँचे-ऊँचे सिद्धांत बघारते हैं, और उनकी बातें सुखद लगती हैं, लेकिन उनके कर्म गड्ड-मड्ड हैं और पूरी तरह से परमेश्वर के प्रतिरोधी हैं। उनका बाहरी व्यवहार सब दिखावा है, सब कपटपूर्ण है; उनके हृदय में न तो सत्य के लिए, न ही सकारात्मक चीजों के लिए जरा भी प्यार है। वे सत्य, सकारात्मक चीजों और जो कुछ भी परमेश्वर से आता है उससे विमुख रहते हैं। उन्हें क्या पसंद है? क्या उन्हें निष्पक्षता और धार्मिकता पसंद है? (नहीं।) तुम कैसे बता सकते हो कि उन्हें ये चीजें पसंद नहीं हैं? (प्रभु यीशु ने स्वर्ग के राज्य का सुसमाचार फैलाया, जिसे उन्होंने स्वीकारने से ही मना नहीं किया, बल्कि इसकी निंदा भी की।) यदि वे इसकी निंदा न करते, तो क्या यह बताना संभव होता? नहीं। प्रभु यीशु के प्रकटन और कार्य ने सभी फरीसियों को प्रकट कर दिया, और प्रभु यीशु की निंदा और प्रतिरोध करने के कारण ही अन्य लोग उनके पाखंड को देख पाए। यदि प्रभु यीशु का प्रकटन और कार्य न होता, तो फरीसियों को कोई नहीं समझ पाता, और फरीसियों के सिर्फ बाहरी आचरण को देखकर तो लोगों को ईर्ष्या भी होती। लोगों का विश्वास जीतने के लिए फरीसियों का झूठे सद्व्यवहार का सहारा लेना क्या बेईमानी और मक्कारी नहीं थी? क्या ऐसे मक्कार लोग सत्य से प्रेम कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं कर सकते। अच्छा आचरण दिखाने के पीछे उनका क्या उद्देश्य था? एक उद्देश्य तो लोगों को ठगना ही था। दूसरा, लोगों को गुमराह कर उनका दिल जीतना था, ताकि लोग उनके बारे में अच्छा सोचें और उनका आदर करें। और अंततः, वे पुरस्कृत होना चाहते थे। यह कैसा घोटाला था! क्या ये कुशल चालें थीं? क्या ऐसे लोगों को निष्पक्षता और धार्मिकता पसंद थी? बिल्कुल भी नहीं। उन्हें सिर्फ पद, प्रसिद्धि और लाभ से प्यार था, और वे सिर्फ पुरस्कार और ताज चाहते थे। उन्होंने कभी भी उन वचनों का अभ्यास नहीं किया जो परमेश्वर ने लोगों को सिखाए थे, और उन्होंने कभी भी सत्य वास्तविकताओं को थोड़ा-सा भी नहीं जिया। उनका सारा ध्यान अच्छे आचरण के जरिये छद्मवेश धारण करने और अपने पाखंडी तरीकों से लोगों को धोखा देकर और उनके दिल जीतकर अपनी पद-प्रतिष्ठा बचाने पर था, जिसका उपयोग वे फिर पूँजी जुटाने और रोजी-रोटी कमाने के लिए करते थे। क्या यह घिनौना नहीं है? उनके इस आचरण से तुम समझ सकते हो कि वे अपने सार रूप में सत्य से प्रेम नहीं करते थे, क्योंकि उन्होंने कभी इसका अभ्यास नहीं किया। कौन-सी चीज ये दर्शाती है कि वे सत्य का अभ्यास नहीं करते थे? सबसे बड़ी बात है : प्रभु यीशु छुटकारे का कार्य करने आया, और प्रभु यीशु के सभी वचन सत्य हैं और उनमें अधिकार है। फरीसियों ने इस पर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त की? भले ही उन्होंने माना कि प्रभु यीशु के वचनों में अधिकार और सामर्थ्य है, लेकिन उन्होंने इन्हें स्वीकार करना तो दूर रहा, इनकी निंदा और भर्त्सना की। ऐसा क्यों किया? ऐसा इसलिए किया क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते थे, और अपने हृदय में वे सत्य से विमुख थे और उससे घृणा करते थे। उन्होंने स्वीकार किया कि प्रभु यीशु ने जो कुछ भी कहा वह सही था, कि उसके शब्दों में अधिकार और सामर्थ्य था, कि वह किसी भी तरह से गलत नहीं था, और उनके पास ऐसा कुछ भी नहीं था जिसका वे उसके विरुद्ध प्रयोग कर सकें। परन्तु वे प्रभु यीशु की निंदा करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने मिलकर चर्चा की और षड्यंत्र रचकर कहा, “उसे सलीब पर चढ़ा दो। वह रहेगा या हम,” और इस तरह फरीसी प्रभु यीशु के विरुद्ध खड़े हो गए। उस समय न कोई सत्य को समझ पाया, और न ही कोई प्रभु यीशु को देहधारी परमेश्वर के रूप में पहचान सकता था। हालाँकि, एक मनुष्य के दृष्टिकोण से, प्रभु यीशु ने कई सत्य व्यक्त किए, राक्षसों को बाहर निकाला और रोगियों को ठीक किया। उसने कई चमत्कार किए, पाँच रोटियों और दो मछलियों से 5,000 लोगों का पेट भरा, कई सारी अच्छी चीजें कीं और लोगों पर इतना अधिक अनुग्रह बरसाया। ऐसे नेक और धार्मिक लोग बहुत ही कम हैं, तो फरीसी प्रभु यीशु की निंदा क्यों करना चाहते थे? वे उसे सलीब पर चढ़ाने के लिए इतने आमादा क्यों थे? उन्होंने प्रभु यीशु के बजाय एक अपराधी को रिहा करना पसंद किया, यह दर्शाता है कि धार्मिक दुनिया के फरीसी कितने दुष्ट और दुर्भावनाग्रस्त थे। वे बहुत दुष्ट थे! फरीसियों के दुष्ट विश्वासघाती चेहरे और उनके दिखावटी, बाहरी परोपकारी चेहरे के बीच इतना बड़ा अंतर था कि बहुत-से लोग यह समझ नहीं पाए कि कौन-सा असली है और कौन-सा नकली, लेकिन प्रभु यीशु के प्रकटन और कार्य ने उन सबको प्रकट कर दिया। फरीसी आम तौर पर खुद को इतनी अच्छी तरह छिपाते थे और बाहर से इतने धर्मात्मा लगते थे कि किसी ने भी कल्पना नहीं की होगी कि वे इतनी क्रूरता से प्रभु यीशु का विरोध और उत्पीड़न कर सकते हैं। यदि तथ्य प्रकट न हुए होते, तो कोई भी उनकी असलियत नहीं जान पाता। देहधारी परमेश्वर की सत्य की अभिव्यक्ति मनुष्य के बारे में इतना खुलासा करती है!

अंश 16

लोगों के सत्य समझने और उसका अभ्यास करने का उद्देश्य है कि वे सत्य को जीएँ, मनुष्य के समान जीवन जीएँ और जो सत्य वे समझते हैं और अभ्यास में ला सकते हैं, उन्हें अपना जीवन बना लें। उन्हें अपना जीवन बनाने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि वे व्यक्ति के क्रियाकलापों, रहन-सहन, आचरण और अस्तित्व का आधार और स्रोत बन जाएँ—वे उसके जीने का तरीका बदल दें। पहले लोग किसके सहारे जीते थे? चाहे उनमें आस्था थी या नहीं, वे शैतानी स्वभावों के अनुसार जीते थे, परमेश्वर के वचनों या सत्य के अनुसार नहीं जीते थे। क्या किसी सृजित प्राणी को ऐसा ही होना चाहिए? (नहीं।) परमेश्वर मनुष्य से क्या अपेक्षा करता है? (कि मनुष्य उसके वचनों के अनुसार जिएँ।) परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना—क्या यह वह लक्ष्य नहीं है जो परमेश्वर में सच्चा विश्वास करने वाले लोगों का होना चाहिए? (हाँ।) एक सृजित प्राणी को परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने वाला होना चाहिए। परमेश्वर की नजरों में ऐसे लोग ही सच्चे सृजित प्राणी हैं। इसलिए, अपने दैनिक जीवन में तुम लोगों को इस पर मनन करना चाहिए कि तुम्हारे कौन-से शब्द, क्रियाकलाप, आचरण के सिद्धांत, अस्तित्व के लक्ष्य और दुनिया से व्यवहार करने के तरीके सत्य सिद्धांतों के अनुरूप—अर्थात परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप हैं—और उनमें से किन चीजों का उसके वचनों और अपेक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं है। यदि तुम अक्सर इन बातों पर मनन करते हो तो तुम धीरे-धीरे प्रवेश पा लोगे। यदि तुम इन बातों पर मनन नहीं करते हो और केवल सतही प्रयास करते हो, तो इसका कोई फायदा नहीं है; बेमन से काम करने, विनियमों का पालन करने और औपचारिकताओं में शामिल होने से तुम्हें अंततः कुछ भी हासिल नहीं होगा। तो फिर परमेश्वर में आस्था क्या है? परमेश्वर में आस्था वास्तव में परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने की प्रक्रिया है और साथ ही यह शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए एक इंसान से परमेश्वर की नजरों में एक सच्चे सृजित प्राणी में बदलने की प्रक्रिया है। यदि कोई व्यक्ति लगातार अपने शैतानी स्वभाव और प्रकृति के अनुसार जीता है तो परमेश्वर की नजरों में क्या वह एक मानक स्तर का सृजित प्राणी है? (नहीं।) तुम परमेश्वर में विश्वास रखने का दावा करते हो, तुम परमेश्वर को स्वीकारते हो, तुम परमेश्वर की संप्रभुता स्वीकारते हो और यह स्वीकारते हो कि परमेश्वर तुम्हें सब कुछ देता है, लेकिन क्या तुम परमेश्वर के वचनों को जीते हो? क्या तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार जीते हो? क्या तुम परमेश्वर के मार्ग पर चलते हो? क्या तुम्हारे जैसा कोई सृजित प्राणी परमेश्वर के सामने आ सकता है? क्या तुम परमेश्वर के साथ रह सकते हो? क्या तुम्हारे अंदर परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है? जो तुम जीते हो और जिस मार्ग पर तुम चलते हो, क्या वे परमेश्वर के अनुरूप हैं? (नहीं।) तो परमेश्वर में तुम्हारी आस्था का क्या अर्थ है? क्या तुमने सही मार्ग पर प्रवेश किया है? परमेश्वर में तुम्हारी आस्था केवल रूप और शब्दों में है। तुम परमेश्वर के नाम में विश्वास करते हो और उसे स्वीकारते हो और तुम यह स्वीकारते हो कि परमेश्वर तुम्हारा सृष्टिकर्ता है और संप्रभु है, लेकिन तुमने सार रूप में परमेश्वर की संप्रभुता या परमेश्वर के आयोजनों को स्वीकार नहीं किया है और तुम पूरी तरह से परमेश्वर के अनुरूप नहीं हो सकते। यानी, परमेश्वर में तुम्हारी आस्था का अर्थ पूरी तरह से साकार नहीं हुआ है। यद्यपि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, तुमने अपनी भ्रष्टता दूर नहीं की है और उद्धार प्राप्त नहीं किया है और तुमने उस सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है जिसमें तुम्हें परमेश्वर में तुम्हारी आस्था के अंतर्गत प्रवेश करना चाहिए था। यह वास्तव में तुम्हारी गलती है। इस तरह से देखने पर, परमेश्वर में आस्था रखना कोई सरल बात नहीं है।

अब, क्या तुम लोग अपने दिलों में यह महसूस करते हो कि परमेश्वर के वचन को समझना और सत्य का अभ्यास करना महत्वपूर्ण है? (करते हैं।) तुम जानते हो कि सत्य का अभ्यास करना महत्वपूर्ण है, फिर भी ऐसा करना कोई सरल बात नहीं है—इसमें कई कठिनाइयाँ होना लाजमी है। इनका समाधान कैसे हो सकता है? हर बार जब तुम कठिनाइयों का सामना करते हो, तुम्हें प्रार्थना में परमेश्वर के सामने आना चाहिए और तुम्हें परमेश्वर के वचनों में सत्य की खोज करनी चाहिए, ताकि तुम अपनी कठिनाइयों, अपनी कमजोरियों और विभिन्न बाहरी चुनौतियों का समाधान कर सको और सत्य को अभ्यास में लाने का लक्ष्य हासिल कर सको। इसका अनुभव करने पर, तुम्हें परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने की आशा होगी। केवल अधिक सत्य समझकर और सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होकर ही तुम परमेश्वर के मार्ग पर चलने वाले बन सकते हो और ऐसा करने से तुम्हारी आस्था को परमेश्वर की स्वीकृति मिलेगी। यदि तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर के नाम को स्वीकारते हो और तुम मानते हो कि वह सभी चीजों पर संप्रभु है और वह सृष्टिकर्ता है, लेकिन तुम्हारे जीवन में एक भी ऐसा पहलू नहीं है जो सत्य से, परमेश्वर की अपेक्षाओं से या एक सृजित प्राणी को जो करना चाहिए उससे संबंधित हो, तो क्या अंत में तुम्हारा परिणाम संकटपूर्ण नहीं होगा? क्या वह व्यक्ति जिसके जीवन का इन बातों से कोई लेना-देना नहीं है, परमेश्वर के सामने आ सकता है? तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर के सामने आ सकते हो, लेकिन क्या परमेश्वर तुम्हारी जैसी आस्था को स्वीकृति देता है? वह नहीं देता और इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि परमेश्वर तुम्हारे जैसे सृजित प्राणी को न तो स्वीकारता है और न ही उसे उसकी जरूरत है। यदि परमेश्वर तुम्हारी आस्था को स्वीकार नहीं करता और उसे स्वीकृति नहीं देता, तो क्या वह तुम्हें स्वीकृति दे सकता है? (नहीं दे सकता।) अब तुम्हारा कुछ नहीं होगा। परमेश्वर तुम्हें नहीं बचाएगा और तुम्हारा परिणाम तय हो चुका होगा! क्या यह वह परिणाम है जो तुम लोग अपने लिए चाहते हो? (नहीं।) तुम लोग कैसा परिणाम चाहते हो? (परमेश्वर की स्वीकृति पाना।) परमेश्वर से स्वीकृति पाने के लिए, तुम्हें सबसे पहले क्या समझना चाहिए? तुम्हें सबसे पहले किसमें प्रवेश करना चाहिए? सबसे पहले तुम्हें यह जानना चाहिए कि परमेश्वर लोगों के क्या करने को पसंद करता है और क्या करने को नापसंद करता है। पहले इन बातों का सार निकालो ताकि तुम्हें उनकी स्पष्ट समझ हो; और फिर कोई काम करते हुए तुम आश्वस्त महसूस करोगे। इसे शब्दों में बयाँ करना इतना ही सरल है। क्या ऐसी बातों का सार निकालना आसान है? यह बहुत आसान है। अतीत में जिन लोगों ने बुरे कर्म किए और हटा दिए गए, उनके उन कर्मों का सार निकालो जिनसे परमेश्वर बेइंतहा नफरत करता है, उनकी असफलताओं से सीखे सबकों का सार निकालो और उन बुरे कर्मों में से कोई भी मत करो। फिर, उन लोगों की अच्छी अभिव्यक्तियों का सार निकालो जिन्हें परमेश्वर ने स्वीकृति दी और उन चीजों को अधिक करो। इस तरह, तुम परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकोगे। तुम्हें यह विचार करना होगा कि परमेश्वर के इरादों के सर्वाधिक अनुरूप होने के लिए कैसे व्यवहार करना है और कैसे अभ्यास करना है और तुम्हें अपने दिल में यह समझना होगा कि परमेश्वर किन लोगों और चीजों से सबसे अधिक घृणा करता है और किन लोगों और चीजों से सबसे अधिक प्रसन्न होता है। तुम्हें इनका भेद पहचानना आना चाहिए और सबसे अच्छा यह है कि उन्हें वर्गीकृत और सारांशित कर लिया जाए ताकि उनके बारे में तुम्हारे दिल में सब स्पष्ट हो जाए। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हारे दिल में यह मानक और सीमा हो। इस सिद्धांत, इस मानक, इस सीमा के साथ तुम्हारे पास काम करने के लिए सिद्धांत होंगे और तुम सिद्धांतों के अनुसार काम कर पाओगे। यदि तुम्हारे पास यह सिद्धांत और मानक नहीं है तो तुम्हारे क्रियाकलाप अप्रत्याशित होंगे—यह कहना मुश्किल होगा कि कब तुम बुरे काम करोगे और कब अच्छे काम करोगे। हो सकता है तुम्हें लगे कि कोई चीज बुरी नहीं है लेकिन परमेश्वर की नजरों में वह बुरी हो; या हो सकता है तुम्हें लगे कि कोई चीज अच्छी है जबकि परमेश्वर की नजरों में वह बुरी हो। यदि तुम इसी तरह से सब काम करते हो तो क्या यह परेशानी की बात नहीं है? यदि तुम वे काम करने पर जोर देते हो जिन्हें परमेश्वर स्वीकृति नहीं देता और तुम कभी रुकते हुए नहीं दिखते हो, तुम बमुश्किल कोई ऐसा काम करते हो जिसे परमेश्वर स्वीकृति देता है और फिर भी सोचते हो कि तुमने बहुत कुछ किया है, तो क्या तुम भ्रमित नहीं हो रहे हो? यदि तुम्हारे अधिकांश काम परमेश्वर की नजरों में बुरे माने जाते हैं तो क्या वह तुम्हें फिर भी स्वीकृति दे सकता है? (नहीं दे सकता।) यह जानते हुए कि परमेश्वर उन चीजों को स्वीकृति नहीं देता, तुम्हें आखिर उन्हें करना चाहिए या नहीं? (हमें नहीं करना चाहिए।) यदि तुम उन्हें करते हो, तो वे बुरे कर्म हैं या अच्छे कर्म? (बुरे कर्म।) अगर तुम पहचान जाते हो कि वे बुरे कर्म हैं, तो तुम्हें उन्हें फिर कभी नहीं करना चाहिए। इसे क्या कहते हैं? अपने हाथों की हिंसा को त्यागना—यह सच्चे पश्चात्ताप की अभिव्यक्ति है। यदि तुम जानते हो कि तुमने बुराई की है और निश्चित हो कि परमेश्वर इसे स्वीकृति नहीं देता, तो तुम्हारे अंदर पश्चात्ताप का भाव होना चाहिए। यदि तुम आत्म-चिंतन नहीं करते और इसके बजाय अपने कुकर्म का बचाव करते हो और उसे सही ठहराते हो, तो तुम मुसीबत में हो : तुम्हें निश्चित रूप से हटा दिया जाएगा और तुम कर्तव्य निभाने के योग्य नहीं रहोगे। तो अपना कर्तव्य निभाने में किस सिद्धांत पर महारत हासिल करनी है और कौन-सा मार्ग अपनाना है? परमेश्वर की स्वीकृति पाने के लिए व्यक्ति को किस तरह की मंशा के साथ इसे करना चाहिए? (सभी चीजों में सत्य की खोज करने और परमेश्वर के इरादों पर पकड़ बनाने के इरादे के साथ।) यह हर कोई जानता है, लेकिन क्या इसे जानने का अर्थ यह है कि तुम इसे अभ्यास में ला सकते हो? क्या इसे समझने का अर्थ यह है कि तुम इसे अभ्यास में ला सकते हो? (नहीं।) तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उस पर निर्भर रहना चाहिए, तुम्हें सत्य के लिए कष्ट सहना चाहिए और अपनी महत्वाकांक्षाओं, इच्छाओं, मंशाओं और देह के आराम को त्याग देना चाहिए। यदि तुम इन्हें नहीं त्यागते लेकिन फिर भी सत्य प्राप्त करना चाहते हो, तो क्या तुम ख्याली पुलाव नहीं पका रहे हो? कुछ लोग सत्य समझना, सत्य प्राप्त करना और परमेश्वर के लिए खुद को खपाना भी चाहते हैं, लेकिन वे कुछ भी नहीं त्याग सकते। वे अपनी संभावनाओं को नहीं त्याग सकते, वे दैहिक आराम को, अपनी पारिवारिक एकता, अपने बच्चों और माता-पिता को नहीं त्याग सकते, न ही वे अपनी मंशाओं, लक्ष्यों या इच्छाओं को त्याग सकते हैं। चाहे कोई भी परिस्थिति हो, वे हमेशा खुद को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं। वे अपने मामलों को और अपनी स्वार्थी इच्छाओं को पहले रखते हैं और सत्य को आखिर में रखते हैं; अपने दैहिक हितों को और अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभावों को संतुष्ट करना उनके लिए सबसे पहले आता है, जबकि परमेश्वर के वचन का अभ्यास करना और परमेश्वर को संतुष्ट करना गौण रहता है और सबसे आखिर में आता है। क्या ऐसे लोग परमेश्वर की स्वीकृति पा सकते हैं? इस तरीके से वे कब सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं? कब वे परमेश्वर के इरादों को पूरा कर सकते हैं? (कभी नहीं।) यदि बाहर से तो तुमने अपना कर्तव्य निभाया है और तुम निष्क्रिय नहीं रहे हो, लेकिन तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का बिल्कुल भी समाधान नहीं हुआ है, तो क्या इसे परमेश्वर के मार्ग पर चलना कहा जा सकता है? (नहीं।) तुम लोग ये सब बातें समझते हो, लेकिन जब सत्य को अभ्यास में लाने की बात आती है, तो तुम्हें यह कठिन लगता है। तुम्हें अपने कष्टों और त्याग को सत्य का अभ्यास करने में लगाना चाहिए, न कि विनियमों का पालन करने और बेमन से काम करने पर। तुम सत्य के लिए कितना भी कष्ट सहो, यह सार्थक है। परमेश्वर के इरादों को पूरा करने के लिए सत्य का अभ्यास करने की खातिर जो कष्ट तुम सहते हो, वह उसे स्वीकार्य है और उसके द्वारा स्वीकृत है।

अब तुम लोगों के सामने क्या समस्याएँ हैं? एक तो यह है कि तुम लोग बहुत-से सत्यों की बारीकियाँ नहीं समझते और तुम्हारे दिलों में उनमें भेद करने का कोई मानक नहीं है; इसके अलावा, जो सत्य तुम समझते हो, उन्हें अभ्यास में लाना तुम्हारे लिए मुश्किल होता है। मान लेते हैं कि जिस अवधि के दौरान तुम सत्य का अभ्यास करने का प्रयास करते हो, शुरू में यह मुश्किल होता है, लेकिन जितना अधिक तुम इसका अभ्यास करते हो, यह उतना ही आसान होता जाता है; जितना अधिक तुम इसका अभ्यास करते हो, तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव उतना ही कम हावी होता है; सत्य उतना ही अधिक हावी होता जाता है और सत्य का अभ्यास का तुम्हारा संकल्प भी प्रबल होता जाता है; तुम्हारी दशा लगातार सामान्य होती जाती है और तुम्हारी देह की स्वार्थी इच्छाएँ और तुम्हारे इंसानी विचार कम से कम हावी होते जाते हैं। यह सामान्य है और आशा है कि तुम्हें परमेश्वर की स्वीकृति मिल जाएगी। लेकिन मान लो कि तुम लंबे समय से सत्य का अभ्यास कर रहे हो, फिर भी तुम्हारे व्यक्तिगत हित, स्वार्थी इच्छाएँ, मंशाएँ और भ्रष्ट स्वभाव अभी भी तुम्हारे जीवन के हर पहलू और हर बारीकी में मुख्य भूमिका निभाते हैं और उन पर हावी होते हैं। सत्य का अभ्यास करना तुम्हारे लिए पहले जितना ही कठिन लगता है और भले ही तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो, फिर भी तुम जो कुछ कर रहे हो उसका अधिकांश हिस्सा सत्य के अभ्यास से असंबंधित है। क्या यह परेशानी की ओर नहीं ले जाएगा? यह निश्चित रूप से परेशानी की ओर ले जाएगा! तुम चाहे जिस भी कलीसिया में हो, तुम्हारा परिवेश जैसा भी है, ये बातें महत्वपूर्ण नहीं हैं। महत्वपूर्ण यह है कि क्या सत्य का अनुसरण करने की तुम्हारी दशा बेहतर हो रही है, क्या परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता लगातार सामान्य हो रहा है, क्या तुम्हारा जमीर, विवेक और मानवता और अधिक सामान्य हो रहे हैं और क्या परमेश्वर के प्रति तुम्हारी वफादारी और समर्पण बढ़ रहा है। यदि तुम्हारे अंदर सकारात्मक चीजें बढ़ रही हैं और प्रबल हो रही हैं, तो आशा है कि तुम सत्य प्राप्त कर लोगे। यदि तुम्हारे अंदर इन सकारात्मक चीजों का कभी कोई संकेत नहीं मिला है, तो तुमने जरा भी प्रगति नहीं की है और तुम्हारा स्वभाव ज़रा भी नहीं बदला है। यदि तुम सत्य का बिल्कुल भी अभ्यास नहीं करते तो तुम्हें जीवन प्रवेश कैसे मिल सकता है? कुछ लोग कहते हैं, “मैंने इसका अभ्यास किया है और खुद को खपाया है। ऐसा कैसे है कि मुझे कोई नतीजे नहीं दिखते?” नतीजे नहीं आने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुमने सत्य का अभ्यास नहीं किया है। चाहे तुमने कितनी ही बार इसका अभ्यास करने की कोशिश की हो, अंतिम परिणाम यह है कि तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव और शैतानी प्रकृति अभी भी सबसे ऊपर आती है, जिसका अर्थ है कि तुम अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभाव पर विजय पाने के लिए सत्य की वास्तविकता और परमेश्वर के वचन का उपयोग करने में विफल रहे हो। क्या यह कहना उचित है? (हाँ।) तो तुम एक विजेता हो या एक असफल व्यक्ति? (एक असफल व्यक्ति।) तुम एक असफल व्यक्ति हो, विजेता नहीं। जब तुम सत्य का अभ्यास करते हो, तब तुम्हारे दिल में एक संघर्ष चल रहा होता है। तुम अपनी मंशाओं को नहीं त्याग सकते, लेकिन तुम समझते हो कि सत्य क्या कहता है और परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं। जब लड़ाई लड़ी जाती है, तुम सत्य को त्याग देते हो; तुम इसका अभ्यास नहीं करते। अंततः, तुम अभी भी अपनी स्वार्थी इच्छाओं को पूरा करते हो, अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हो और जो तुम जीते हो वह सत्य का अभ्यास किए बिना, अभी भी तुम्हारी शैतानी प्रकृति होती है। अंतिम परिणाम क्या होता है? (असफलता।) मान लो कि अंत में तुम इस लड़ाई को जीतने में विफल रहते हो और तुम पहले की तरह अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार जीते रहते हो। तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास नहीं करने का चुनाव करते हो, तुम्हारे व्यक्तिगत हित पहले आते हैं, तुम अपनी इच्छाएँ और स्वार्थी इरादे पूरे करते हो लेकिन परमेश्वर को संतुष्ट नहीं करते और तुम सत्य के पक्ष में खड़े नहीं होते। इसका मतलब है कि तुम पूरी तरह से एक असफल व्यक्ति हो और यह लड़ाई एक तरह से इस प्रकार खत्म हो सकती है। दूसरी तरह से यह किस प्रकार खत्म हो सकती है? जब लोगों के साथ घटनाएँ घटती हैं, तो वे आंतरिक संघर्ष का भी अनुभव करते हैं। वे संताप में, दर्द में और कमजोर महसूस करते हैं; यहाँ तक कि उनकी गरिमा और आत्म-सम्मान को भी चुनौती दी जाती है और उनका अहंकार संतुष्ट नहीं हो पाता। इसके अलावा, उन्हें काट-छाँट का सामना करना पड़ सकता है या उन्हें दूसरों द्वारा नीची नजर से देखा जा सकता है या उन्हें अपमानित किया जा सकता है, जिससे वे अपनी गरिमा और आत्म-सम्मान दोनों खो देते हैं। लेकिन जब इस तरह की स्थिति का सामना करना पड़ता है, तब वे परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं और ऐसा करने के बाद, उनके दिलों को मजबूती मिलती है और वे सत्य की खोज करके इन बातों की असलियत देख सकते हैं। वे अपने संकल्प में दृढ़ होकर, असाधारण शक्ति के साथ सत्य का अभ्यास करेंगे : “मुझे अपने आत्म-सम्मान की परवाह नहीं है, न मैं रुतबा चाहता हूँ और न ही अपने अहंकार को संतुष्ट करना चाहता हूँ। भले ही मुझे दूसरों द्वारा नीची नजर से देखा जाए और गलत समझा जाए, इस समय मैं परमेश्वर को संतुष्ट करने का और सत्य का अभ्यास करने का चुनाव करता हूँ, ताकि परमेश्वर मुझे स्वीकृति दे और इस मामले में मुझसे प्रसन्न हो, और ताकि मैं परमेश्वर के दिल को चोट न पहुँचाऊँ।” वे अंततः अपने आत्म-सम्मान और अहंकार, अपनी मंशाओं, अपनी महत्वाकांक्षाओं और स्वार्थी इरादों को त्याग देंगे और फिर परमेश्वर, सत्य और न्याय के पक्ष में खड़े होंगे। सत्य का अभ्यास करने के बाद, उनके दिल काफी संतुष्ट और सच में शांत हो जाते हैं और आनंद से भर जाते हैं। वे परमेश्वर का आशीष महसूस करते हैं और महसूस करते हैं कि सत्य का अभ्यास करना बहुत अच्छा है। सत्य का अभ्यास करने से उनके दिलों को संतुष्टि और पोषण मिलता है और उन्हें लगता है कि वे अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभावों द्वारा नियंत्रित किए जाने और बंदी बनाए जाने के बजाय, मानव के समान जीवन जी रहे हैं और इस मामले में उन्होंने परमेश्वर की गवाही दी है और उस गवाही और स्थिति में दृढ़ रहे हैं जो एक सृजित प्राणी की होनी चाहिए। वे मन में शांति, आनंद और अपने दिलों में खुशी महसूस करते हैं। यह एक और तरीका है जिसमें यह संघर्ष खत्म हो सकता है। इस तरह के अंत के बारे में तुम क्या सोचते हो? (यह अच्छा है।) लेकिन क्या यह “अच्छा” परिणाम आसानी से हासिल किया जा सकता है? (नहीं।) इस “अच्छे” परिणाम को संघर्ष के माध्यम से जीतना पड़ता है; यह संभव है कि लोग एक या दो बार संघर्षों में शामिल हों और असफल हो जाएँ, लेकिन असफलता सबक लेकर आती है। यह लोगों को सत्य का अभ्यास नहीं करने पर उनके जमीर पर दोषी होने का भाव महसूस कराती है, जिससे वे परमेश्वर के प्रति ऋणी महसूस करते हैं और यह उनके लिए आंतरिक यातना और पीड़ा लेकर आती है। बाद में जब ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है तब इसका एहसास किए बिना ही लोग अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभावों पर विजय पाने में बेहतर से बेहतर होते जाते हैं; धीरे-धीरे, वे परमेश्वर के दिल को संतुष्ट करने के लिए सत्य का अभ्यास करने का चुनाव निश्चित रूप से करेंगे। यह भ्रष्ट शैतानी स्वभाव पर विजय पाने और परमेश्वर के इरादों को पूरा करने के लिए सत्य का अभ्यास करने की सामान्य प्रक्रिया है।

क्या अब तुम लोगों को सत्य का अभ्यास करना मुश्किल लगता है? या सत्य का अभ्यास नहीं करते हुए अपनी इच्छा के अनुसार चलना मुश्किल लगता है? (सत्य का अभ्यास करना मुश्किल है।) अपनी इच्छा के अनुसार चलने के बारे में क्या कहोगे? (वह आसान है।) यह तुम लोगों के वास्तविक आध्यात्मिक कद को प्रकट करता है : तुम लोग जरा भी नहीं बदले हो और तुम अभी भी सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ हो। ऐसा आध्यात्मिक कद कितना दयनीय है! तुम सब लोग महसूस करते हो कि सत्य का अभ्यास करना कठिन है और अपनी इच्छा के अनुसार चलना आसान है, जो यह साबित करता है कि तुम लोग अभी भी सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ हो। अपनी दैहिक प्राथमिकताओं के पीछे भागना तुम लोगों की दूसरी प्रकृति बन गई है; तुम लोग इसके इतने आदी हो गए हो कि यह व्यावहारिक रूप से एक नियम बन गया है। इसलिए तुम लोगों को लगता है कि सत्य का अभ्यास करना बहुत मुश्किल है। तुम लोग लगातार अपने आत्म-सम्मान और रुतबे को नुकसान पहुँचने के डर में रहते हो, इसलिए तुम लोग सत्य का अभ्यास नहीं करते, बल्कि अपने विचारों के अनुसार कार्य करते हो। एक ही विचार से व्यक्ति कायर बन जाता है, अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभाव द्वारा बंदी बनाया गया एक असफल व्यक्ति बन जाता है और अपनी गवाही और परमेश्वर की स्वीकृति खो देता है। यह इतना आसान है। लेकिन क्या सत्य का अभ्यास करने वाला और परमेश्वर की गवाही देने वाला बनना भी उतना ही आसान है? इसके लिए एक प्रक्रिया की आवश्यकता है। जब कोई व्यक्ति सत्य स्वीकारना शुरू करता है, तब उसके मन में हमेशा एक संघर्ष चलता रहता है, जिसमें चीजें विभिन्न दिशाओं में खिंचते हुए आगे-पीछे होने लगती हैं। एक निरंतर आंतरिक संघर्ष चलता है, लेकिन अंत में धुंध छंट जाती है : जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं वे उसका अभ्यास करते हैं, गवाही देते हैं और विजेता बन जाते हैं, वहीं जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, जो बहुत मनमौजी होते हैं, जिनमें मानवता की बहुत कमी होती है, जो चरित्रहीन और नीच होते हैं वे अपनी स्वार्थी मंशाओं और इच्छाओं को पूरा करने का चुनाव करते हैं और पूरी तरह से अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभाव द्वारा नियंत्रित होते हैं। जब तुम लोगों के दैनिक जीवन में घटनाएँ घटती हैं, तब क्या तुम लोग अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभाव पर विजय प्राप्त करते हो? या तुम लोग उसके द्वारा बंदी बना लिए जाते हो और नियंत्रित होते हो? अधिकांश समय, तुम लोग किस तरह की दशा में होते हो? इस आधार पर यह आँका जा सकता है कि तुम सत्य का अभ्यास करने वाले व्यक्ति हो या नहीं। यदि तुम अधिकांश समय अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभाव पर विजय पा सकते हो और गवाही देने वाले बन सकते हो, तो तुम सत्य का अभ्यास करने वाले और उससे प्रेम करने वाले हो। यदि अधिकांश समय तुम अपनी स्वार्थी इच्छाओं को पूरा करते हो और तुम अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभाव पर विजय पाने और सत्य के पक्ष में खड़े होने, सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने में असमर्थ हो, तो तुम न तो सत्य का अभ्यास करने वाले हो और न ही तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है। जिनके पास सत्य वास्तविकता नहीं है, वे ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास तो करते हैं लेकिन उनके पास कोई जीवन प्रवेश नहीं है—यह बात स्पष्ट है। तो खुद को जाँचो : क्या तुम लोग अधिकांश समय देह के पक्ष में खड़े होते हो या तुम लोग सत्य के पक्ष में खड़े होते हो? छोटी-छोटी बातें जिनमें सत्य शामिल नहीं है, वे मायने नहीं रखतीं, लेकिन जब बड़ी घटनाएँ घटती हैं जिनमें तुम्हें चुनाव करने की आवश्यकता होती है, तब क्या तुम सत्य के पक्ष में खड़े होते हो या तुम देह के पक्ष में खड़े होते हो? (पहले तो, हम देह के पक्ष में खड़े होते हैं; लेकिन एक संघर्ष के बाद, प्रार्थना और खोज के माध्यम से हम कुछ सत्य समझ जाते हैं और फिर हम सत्य के पक्ष में खड़े होते हैं।) यह कहना सही है कि एक बार सत्य समझ लेने पर तुम सत्य के पक्ष में खड़े हो सकते हो, लेकिन देह के खिलाफ विद्रोह करने का आवश्यक रूप से यह मतलब नहीं है कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो। ऐसा नहीं है कि देह के खिलाफ विद्रोह करना और अपनी इच्छा के अनुसार न चलना सत्य का अभ्यास करने के बराबर है; बल्कि, केवल सत्य के सिद्धांतों का पालन करके और उनका अभ्यास करके ही तुम वास्तव में सत्य का अभ्यास कर रहे होते हो। तो, तुम लोगों के लिए यह आम तौर पर कैसा होता है? (जिसे हम देह के खिलाफ विद्रोह करना कहते हैं, वह वास्तव में सत्य का अभ्यास करना नहीं है; वह वास्तव में आत्म-संयम बरतना है।) ऐसा लगता है कि अधिकांश लोगों के लिए यही स्थिति है, है ना? (यही स्थिति है।) तो अभी तुम लोग किस दशा में हो? तुम लोगों ने अभी तक सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, क्या कहते हो? (हमने प्रवेश नहीं किया है।) बिना जीवन प्रवेश के परमेश्वर में विश्वास करने का मतलब है कि तुम्हारा सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना अभी तक बाकी है; तुम इसी दशा में हो, इसलिए तुम लोग बहुत-सी बातों का भेद नहीं पहचान पाते। साफ-साफ भेद न पहचान पाने का कारण क्या है? इसका कारण यही है कि तुम लोग केवल शब्द और धर्म-सिद्धांत समझते हो, सचमुच सत्य को नहीं समझते। यह साबित करता है कि तुम लोगों ने अभी तक सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है। कई परिस्थितियों का सामना करते हुए भी तुम लोग नहीं जानते कि उनका अनुभव कैसे करें या सत्य की खोज कैसे करें, इसलिए तुम लोग चीज़ों की असलियत नहीं देख पाते और सत्य पर संगति करना चाहकर भी उसे साफ-साफ व्यक्त नहीं कर पाते। बात ऐसी ही है। चाहे कुछ भी हो, तुम्हें इसे स्वयं अनुभव करना होगा और इसका अनुभव करने के बाद, तुम जान जाओगे कि बारीकियाँ क्या हैं। तुम्हारी भावनाओं, विचारों और तुम्हारे अनुभव की प्रक्रिया में बारीकियाँ होंगी और ये बारीकियाँ व्यावहारिक चीजें हैं। अगर तुम्हारे पास ये चीजें नहीं हैं और केवल सतही-स्तर का ज्ञान है, तो तुम बस तोते की तरह शब्दों को रटते हो। सतही-स्तर के ज्ञान का मतलब है कि तुम एक शाब्दिक समझ पर रुक गए हो; तुमने अभी तक इसे अपना नहीं बनाया है और तुम अभी भी सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने से बहुत दूर हो। क्या यह कहना उचित है? (हाँ।) तुम लोगों को आज की संगति के अनुसार अभ्यास करना चाहिए और तुम लोगों को मनन करना सीखना चाहिए। सत्य का अभ्यास करने के लिए, तुम्हें मनन भी करना चाहिए और अभ्यास करते समय मनन करने और मनन करते समय अभ्यास करने से, तुम सत्य की बारीकियाँ अधिकाधिक समझोगे, सत्य का तुम्हारा ज्ञान गहरा और गहरा होता जाएगा और इस तरह, तुम वास्तव में अनुभव कर सकते हो कि सत्य वास्तविकता क्या है। केवल एक बार जब तुम इसका अनुभव कर लोगे, तभी तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता हो सकती है।

अंश 17

हर कोई सोचता है कि सत्य का अभ्यास करना काफी मुश्किल है, लेकिन फिर कुछ लोग इसका अभ्यास क्यों कर पाते हैं? अहम बात यह है कि व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है या नहीं। कुछ लोग कहते हैं कि जो लोग सत्य का अभ्यास करते हैं, उन सभी में अच्छी मानवता होती है। यह कहना सही है। कुछ लोगों में अच्छी मानवता होती है और वे कुछ सत्य को अभ्यास में ला पाते हैं। लेकिन, कुछ लोगों की मानवता अपेक्षाकृत कमजोर होती है और उनके लिए सत्य का अभ्यास करना मुश्किल होता है, जिसका मतलब है कि ऐसा करने के लिए उन्हें कुछ हद तक कष्ट उठाना पड़ता है। तुम ही बताओ, जो व्यक्ति सत्य का अभ्यास नहीं करता, क्या वह अपने कामों में सत्य खोजता है? वह बिल्कुल भी नहीं खोजता। जब वह अपने खुद के विचार बना लेता है और उसे लगता है कि ऐसा करना अच्छा और खुद के लिए फायदेमंद है, तो वह आगे बढ़कर अपने उन्हीं विचारों के अनुसार काम करता है। वह सत्य इसलिए नहीं खोजता क्योंकि उसके दिल में कुछ गड़बड़ है—उसका दिल सही नहीं है। वह न तो खोजता है, न जाँच-पड़ताल करता है और न ही प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आता है; वह बस हठपूर्वक अपने ही विचारों के अनुसार काम करता है। इस तरह का व्यक्ति बस सत्य से प्रेम नहीं करता है। भले ही वह सत्य से प्रेम नहीं करता, फिर भी कुछ चीजें जो वह करता है वे सिद्धांतों के अनुरूप होती हैं और उनका उल्लंघन नहीं करतीं। हालाँकि, सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं करने का यह मतलब नहीं है कि उसने परमेश्वर की इच्छाएँ खोजी हैं—इसे महज एक संयोग ही कहा जा सकता है। कुछ लोग बिना खोजे भ्रमित तरीके से काम करते हैं, लेकिन बाद में वे खुद की जाँच करने में समर्थ होते हैं। अगर उन्हें पता चलता है कि इस तरह से काम करना सत्य के अनुरूप नहीं है, तो वे अगली बार उसे उस तरह से नहीं करेंगे। यह माना जा सकता है कि उनमें कुछ हद तक सत्य से प्रेम है। ऐसा व्यक्ति कुछ हद तक बदल सकता है। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे न तो उस समय खोजते हैं और न ही बाद में खुद की जाँच करते हैं; वे कभी इस बात की जाँच-पड़ताल नहीं करते कि जो चीजें वे करते हैं, वे असल में सही हैं या नहीं, और इसलिए वे हमेशा सिद्धांतों और सत्य का उल्लंघन करते हैं। भले ही कुछ चीजें जो वे करते हैं वे सिद्धांतों का उल्लंघन न करें, फिर भी वे सत्य के अनुरूप नहीं होतीं और यह तथाकथित “सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं करना” बस पेश आने के तरीके का मामला है। तो जब इस तरह का व्यक्ति अपने विचारों के अनुसार काम करता है तो वह किस तरह की स्थिति में होता है? वह स्पष्टता के बिना काम नहीं कर रहा होता; ऐसा नहीं है कि वह इस बारे में असमंजस में है कि इस तरह से काम करना सत्य के अनुरूप है या नहीं। वह इस दशा में नहीं होता; बल्कि वह हठपूर्वक अपने ही विचारों के अनुसार काम करने में लगा रहता है। उसने उसी तरह से काम करने का मन बना लिया है, सत्य खोजने का उसका बिल्कुल कोई इरादा नहीं है। अगर वे सच में परमेश्वर की इच्छाएँ खोजते, तो परमेश्वर की इच्छाएँ पूरी तरह से समझने से पहले, वे इस तरह से विचार करते : “मैं पहले इसे इसी तरह करके देखता हूँ। अगर यह सत्य के अनुरूप हुआ, तो मैं इसे इसी तरह करता रहूँगा; अगर नहीं हुआ, तो मैं तुरंत इसे सुधारूँगा और इस तरह से काम करना बंद कर दूँगा।” अगर वे इस तरह से खोज पाते, तो वे भविष्य में बदल पाते। इस दिल के बिना, वे बदल नहीं पाएँगे। दिल वाला व्यक्ति किसी मामले में केवल एक बार गलती करेगा, ज्यादा से ज्यादा दो बार—बस एक या दो बार, तीन या चार बार नहीं; यह सामान्य विवेक है। अगर कोई व्यक्ति एक ही गलती तीन या चार बार करता है, तो इससे यह साबित होता है कि उसे सत्य से प्रेम नहीं है, न ही वह सत्य खोजता है। ऐसे व्यक्ति में निश्चित रूप से मानवता नहीं होती। अगर एक या दो बार गलती करने के बाद, उसके दिल में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, उसके जमीर में कोई एहसास नहीं होता, तो वह इसे तीसरी और चौथी बार भी करने में समर्थ होगा। इस तरह के लोग बस बदल नहीं सकते। वे बस इसी तरह के व्यक्ति होते हैं; उनका कुछ नहीं हो सकता। अगर एक बार गलती करने के बाद, उन्हें लगता है कि उन्होंने जो किया वह गलत था और वे उसके लिए खुद से नफरत करते हैं और अंदर से दोषी महसूस करते हैं—अगर उनकी दशा ऐसी है—तो वे वही चीज दोबारा करते समय बेहतर काम करेंगे और धीरे-धीरे वे वही गलती करना बंद कर देंगे; भले ही वह विचार उनके दिल में फिर भी आए, वे उस पर अमल नहीं करेंगे। यह बदलाव का एक पहलू है। शायद तुम कहोगे : “मेरा भ्रष्ट स्वभाव बदल नहीं सकता।” क्या यह सच है कि यह बदल नहीं सकता? बात बस इतनी है कि तुम बदलना नहीं चाहते। अगर तुम सत्य का अभ्यास करने के इच्छुक होते, तो क्या तुम तब भी नहीं बदल पाते? जो लोग ऐसा कहते हैं उनमें कोई संकल्प नहीं होता। वे सब बिना रीढ़ के कायर हैं, ऐसे लोग जो कष्ट उठाने को तैयार नहीं हैं। वे सत्य का अभ्यास करने के अनिच्छुक हैं और उलटा यह कहते हैं कि सत्य उन्हें बदल नहीं सकता। क्या ऐसे लोग बहुत ज्यादा धोखेबाज नहीं हैं? वे ही हैं जो सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते, उनकी मानवता में ही समस्या है, फिर भी वे कभी अपनी प्रकृति को नहीं जान पाते और यहाँ तक कि अक्सर इस बात पर शक करते हैं कि परमेश्वर का कार्य लोगों को पूर्ण बना सकता है या नहीं। ऐसे व्यक्ति ने कभी अपना दिल परमेश्वर को देने का इरादा नहीं किया, कभी कष्ट उठाने का इरादा नहीं किया। उसके यहाँ रुकने का एकमात्र कारण बस यह उम्मीद है कि किस्मत से भविष्य के आशीष मिल जाएँगे। इस तरह का व्यक्ति मानवता से रहित होता है। अगर किसी में मानवता है, तो भले ही पवित्रात्मा उस पर स्पष्ट रूप से काम न कर रहा हो और वह ज्यादा सत्य न समझता हो, तो क्या वह बुरी चीजें करेगा? जिस व्यक्ति में मानवता होती है, वह बुरी चीजें नहीं करेगा, चाहे पवित्रात्मा उस पर काम कर रहा हो या नहीं। कुछ लोग जिनमें मानवता नहीं होती, वे केवल तभी कुछ अच्छी चीजें कर सकते हैं जब पवित्रात्मा उन पर काम कर रहा हो। जब पवित्रात्मा उन पर काम नहीं कर रहा होता, तो उनकी प्रकृति उजागर हो जाती है। भला पवित्रात्मा हमेशा किस पर काम कर सकता है? अविश्वासियों में से कुछ लोगों में अच्छी मानवता होती है; उन पर पवित्रात्मा काम नहीं कर रहा होता, फिर भी वे कोई खास अनैतिक काम नहीं करते। तो फिर परमेश्वर के एक विश्वासी होने के नाते, तुम अनैतिक काम कैसे कर सकते हो? यह दिखाता है कि यह प्रकृति का मामला है। जब पवित्रात्मा लोगों पर काम नहीं कर रहा होता, तब उनकी प्रकृति उजागर हो जाती है। जब पवित्रात्मा उन पर काम कर रहा होता है, तब पवित्रात्मा उन्हें प्रेरित करता है, उन्हें रोशनी और प्रबुद्धता देता है, उनमें शक्ति का संचार करता है, इसलिए वे कुछ अच्छे काम कर पाते हैं। जब वे ऐसा करते हैं, तब यह इसलिए नहीं होता कि उनकी प्रकृति अच्छी है; बल्कि, यह पवित्रात्मा के कार्य द्वारा हासिल किया गया परिणाम होता है। लेकिन जब पवित्रात्मा उन पर काम नहीं कर रहा होता, तब वे अपने विचारों पर चलना पसंद करते हैं, जिसके कारण वे अनजाने में कुछ बुरी चीजें कर बैठते हैं। केवल यही उनकी प्रकृति का सच्चा खुलासा है।

लोग अपनी प्रकृति का समाधान कैसे कर सकते हैं? सबसे पहले, लोगों को अपनी प्रकृति के सार का ज्ञान प्राप्त करना होगा; उन्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार उसका गहन-विश्लेषण करना होगा, यह देखने के लिए कि वह सकारात्मक है या नकारात्मक और यह परमेश्वर का प्रतिरोध कर रहा है या उसके प्रति समर्पण कर रहा है। उन्हें ऐसा तब तक करते रहना होगा, जब तक कि वे अपने प्रकृति सार की असलियत न जान लें, और तब वे सच में खुद से नफरत कर सकते हैं और अपने देह से विद्रोह कर सकते हैं। इसके अलावा, उन्हें परमेश्वर के इरादों और परमेश्वर की अपेक्षाओं को समझना होगा। सत्य की खोज में तुम्हारा लक्ष्य क्या है? तुम्हें अपने जीवन स्वभाव में बदलाव लाना होगा। एक बार जब तुम्हारा स्वभाव बदल जाएगा, तो तुम सत्य को पा लोगे। तुम लोगों के मौजूदा आध्यात्मिक कद को देखते हुए, तुम खुद पर कैसे काबू पा सकते हो ताकि तुम बुराई न करो, परमेश्वर का प्रतिरोध न करो, या ऐसी चीजें न करो जो सत्य का उल्लंघन करती हों? अगर तुम बदलना चाहते हो तो तुम्हें इन मामलों पर विचार करना होगा। जहाँ तक खराब प्रकृति की समस्या का सवाल है, तुम्हें यह ठीक से समझना होगा कि तुम्हारे कौन-से भ्रष्ट स्वभाव हैं और तुम क्या-क्या कर सकने में सक्षम हो। तुम्हें यह ठीक से समझना होगा कि अपने भ्रष्ट स्वभावों पर काबू पाने के लिए कौन-से उपाय करने हैं और कैसे अभ्यास करना है। ये मुख्य मुद्दे हैं। जब तुम्हारे दिल में उलझन हो और तुम्हारे आत्मा में अंधकार हो, तब तुम्हें यह पता होना चाहिए कि इसे सुलझाने के लिए सत्य कैसे खोजना है, अपने कर्तव्य कैसे पूरे करने हैं और सही मार्ग पर कैसे चलना है। तुम्हें अपने लिए एक सिद्धांत बनाना होगा। यह व्यक्ति के संकल्प पर और इस बात पर निर्भर करता है कि वह परमेश्वर को चाहने वाला व्यक्ति है या नहीं। एक बार एक व्यक्ति था जिसे बहुत गुस्सा आता था। उसने एक तख्ती बनाई और उस पर लिखा, “अपने गुस्से पर काबू रखो।” फिर, उसने खुद पर संयम रखने और खुद को चेतावनी देने के लिए उसे अपने अध्ययन कक्ष की दीवार पर लटका दिया। शायद इसका कुछ फायदा हुआ हो, लेकिन क्या इससे समस्या पूरी तरह से हल हो सकी? बिल्कुल नहीं। इसके बावजूद, लोगों को खुद पर संयम रखना चाहिए। सबसे जरूरी है अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या का समाधान करना। अपनी प्रकृति से जुड़ी समस्याएँ हल करने के लिए, लोगों को खुद को जानने से शुरुआत करनी होगी। केवल अपने भ्रष्ट स्वभाव के सार की असलियत जानकर ही वे खुद से नफरत कर सकते हैं और देह से विद्रोह कर सकते हैं। देह से विद्रोह करने के लिए भी सिद्धांतों का होना जरूरी है। अगर कोई इंसान भ्रमित हो तो क्या वह देह से विद्रोह कर सकता है? जैसे ही उसके सामने कोई समस्या आती है, वह देह के आगे झुक जाता है। तुम में से कुछ लोग किसी सुंदर स्त्री को देखकर वहीं ठिठक सकते हो। ऐसे में तुम्हें अपने लिए एक उसूल बना लेना चाहिए। जब कोई सुंदर स्त्री तुम्हारे पास आए, तो क्या तुम्हें चले जाना चाहिए या तुम क्या करोगे? अगर वह तुम्हारा हाथ पकड़ने के लिए आगे बढ़े तो तुम्हें क्या करना चाहिए? अगर तुम्हारे कोई सिद्धांत नहीं हैं, तो तुम ऐसी स्थिति में ठोकर खाओगे। अगर तुम पैसे को देखकर लालच में पड़ जाते हो तो तुम्हें इसे कैसे हल करना चाहिए? तुम्हें विशिष्ट रूप से इस समस्या पर विचार करना चाहिए और इसे हल करने के लिए खुद को प्रशिक्षित करने पर ध्यान देना चाहिए। समय के साथ, तुम धीरे-धीरे देह से विद्रोह करने में समर्थ हो जाओगे। अपनी भ्रष्ट प्रकृति का समाधान करने के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण सिद्धांत यह है कि तुम्हें परमेश्वर के सामने आना चाहिए और सभी बातों में खुद की जाँच करनी चाहिए। इसके अलावा, हर शाम, तुम्हें उस दिन की अपनी स्थितियों को जाँचना चाहिए और अपने व्यवहार का निरीक्षण करना चाहिए : कौन-सी चीजें सत्य के अनुसार की गईं और किनसे सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ? यह भी एक सिद्धांत है। ये दो सिद्धांत सबसे महत्वपूर्ण हैं। पहला यह कि जब तुम्हारी भ्रष्टता का खुलासा हो, तो तुम्हें आत्म-चिंतन करना चाहिए। दूसरा यह है कि तुम्हें घटना के बाद आत्म-चिंतन करना चाहिए और सत्य खोजना चाहिए। तीसरा यह है कि तुम्हें यह पता करना होगा और इस पर स्पष्टता हासिल करनी होगी कि सत्य का अभ्यास करने और सिद्धांत के साथ काम करने का क्या मतलब है। अगर तुम इन मामलों को सच में समझ सकते हो, तो तुम चीजों को सही ढंग से कर सकते हो। अगर तुम इन तीन सिद्धांतों पर टिके रहते हो, तो तुम खुद पर संयम रख सकते हो और अपनी भ्रष्ट प्रकृति को प्रकट करने या उसके अनुसार काम करने से बच सकते हो। ये तुम्हारी प्रकृति का समाधान करने के बुनियादी सिद्धांत हैं। इन सिद्धांतों के साथ, अगर उस समय जब पवित्रात्मा तुम पर काम नहीं कर रहा हो या जब लंबे समय तक तुम्हें संगति न मिले, तब भी तुम सत्य के लिए प्रयास करके एक सामान्य दशा में बने रह सकते हो, तो तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य से प्रेम करता है और देह से विद्रोह करता है। जो लोग सत्य की संगति पाने और अपनी काट-छाँट के लिए हमेशा दूसरों पर निर्भर रहते हैं, वे गुलाम हैं। ऐसे लोग अपाहिज होते हैं और स्वतंत्र रूप से नहीं जी सकते। जो लोग बिना सिद्धांतों के काम करते हैं, वे बिना सोचे-विचारे और मनमाने ढंग से काम करेंगे और अगर कुछ समय तक उनकी काट-छाँट या उनके साथ संगति न की जाए तो वे खुद पर से नियंत्रण खो देंगे। ऐसे लोगों के साथ परमेश्वर कैसे सहज हो सकता है? इसलिए, प्रकृति की समस्या का समाधान करने के लिए तुम्हें इन तीन सिद्धांतों का पालन करना होगा। यह तुम्हें बड़े अपराध करने से बचाएगा और यह सुनिश्चित करेगा कि तुम परमेश्वर का प्रतिरोध या उसके साथ विश्वासघात नहीं करोगे।

अंश 18

बहुत-से लोगों ने एक समान समस्या का उल्लेख किया है : ऊपरवाले द्वारा दी गई संगति सुनने के बाद वे स्पष्टता महसूस करते हैं, प्रेरित हो जाते हैं और अब नकारात्मक नहीं रहते लेकिन उनकी यह हालत केवल दसेक दिन तक कायम रहती है और उसके बाद यह फिर से असामान्य हो जाती है—वे प्रेरणा खो देते हैं और यह नहीं जानते कि आगे कैसे बढ़ते रहना है और क्या करना है। यह क्या समस्या है? इसकी जड़ क्या है? क्या तुम लोगों ने कभी इस बारे में सोचा है? कुछ लोग कहते हैं कि इसका मूल कारण यह है कि लोग सत्य पर ध्यान केंद्रित नहीं करते हैं। तो फिर संगति सुनने के बाद तुम्हारी दशा सामान्य कैसे हो जाती है? ऐसा क्यों है कि सत्य सुनने के बाद तुम विशेष रूप से खुश और मुक्त महसूस करते हो? कुछ लोग कहते हैं कि यह पवित्र आत्मा के कार्य के कारण होता है। तो फिर दसेक दिनों के बाद पवित्र आत्मा अब आगे कार्य क्यों नहीं करता? कुछ लोग कहते हैं कि ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग अब और प्रगति करने के जतन नहीं कर रहे हैं और आलसी हो गए हैं। तो फिर पवित्र आत्मा अभी भी उन लोगों पर कार्य क्यों नहीं करता जो प्रगति करने का जतन करते हैं? क्या तुम भी प्रगति करने का जतन नहीं कर रहे हो? पवित्र आत्मा कार्य क्यों नहीं करता है? लोग जो भी कारण बताते हैं उनमें से एक भी वास्तविकता से मेल नहीं खाता है। समस्या यहीं निहित है : चाहे पवित्र आत्मा कार्य करे या न करे, मनुष्य के सहयोग की अनदेखी नहीं की जा सकती है। जब सत्य से प्रेम करने वाला कोई व्यक्ति सत्य को स्पष्ट रूप से समझ जाता है तो वह हमेशा एक सामान्य मनोदशा बनाए रखेगा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह वह अवधि है जिसमें पवित्र आत्मा कार्य कर रहा है कि नहीं। लेकिन किसी ऐसे व्यक्ति के मामले में जो सत्य से प्रेम नहीं करता है, वह चाहे सत्य को विशेष रूप से स्पष्ट होकर समझता हो और चाहे पवित्र आत्मा पूर्णता से कार्य कर रहा हो, वह जिस सत्य का अभ्यास कर सकता है वह अभी भी सीमित ही होगा। वह सत्य का मामूली सा अभ्यास उसी थोड़े से समय में कर पाएगा जिसमें वह खुश होता है। अधिकांश समय वह अभी भी अपनी व्यक्तिगत पसंद के अनुसार कार्य करेगा और अक्सर अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करेगा। इसलिए किसी व्यक्ति की स्थिति सामान्य है कि नहीं और वह सत्य का अभ्यास कर सकता है कि नहीं, यह पवित्र आत्मा के कार्य पर पूरी तरह निर्भर नहीं करता है। यह इस बात पर भी पूरी तरह निर्भर नहीं है कि उस व्यक्ति को सत्य स्पष्ट है कि नहीं। बल्कि, यह इस पर निर्भर करता है कि क्या वह व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है और क्या वह सत्य का अभ्यास करने का इच्छुक है। आम तौर पर धर्मोपदेश और संगति सुनने के बाद किसी व्यक्ति की दशा कुछ समय के लिए बिल्कुल सामान्य होती है। यह सत्य को समझ जाने का नतीजा है; सत्य तुम्हें अपनी भ्रष्ट प्रकृति का ज्ञान हासिल कराता है, तुम खुश और मुक्त महसूस करते हो और तुम्हारी हालत बेहतर होने की ओर मुड़ जाती है। लेकिन कुछ समय के बाद तुम्हारा आमना-सामना अचानक किसी असामान्य चीज से होता है और तुम नहीं जानते कि इसे कैसे अनुभव करना है और तुम्हारा हृदय पहले जितना रोशन नहीं रहता है और तुम अनजाने में सत्य को अपने दिमाग के पिछवाड़े धकेल देते हो; तुम अपने क्रियाकलापों में परमेश्वर के इरादे खोजने की कोशिश नहीं करते हो, तुम हर चीज में मनमाने ढंग से कार्य करते हो और सत्य का अभ्यास करने का तुम्हारा कतई कोई इरादा नहीं होता है। जैसे-जैसे समय बीतता है, तुम उस सत्य को खो देते हो जिसे तुम पहले कभी समझते थे। तुम अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करना भी जारी रखते हो। जब तुम्हारा सामना चीजों से होता है, तुम परमेश्वर के इरादे नहीं खोजते हो—जब तुम परमेश्वर के करीब होते हो, तब भी तुम बस खानापूरी करते हो। जिस पल तुम्हें यह एहसास होता है, तुम्हारा दिल पहले ही परमेश्वर से भटककर दूर हो चुका होता है और तुम पहले ही बहुत सी ऐसी चीजें कर चुके होते हो जो परमेश्वर का प्रतिरोध करती हैं और यहाँ तक कि तुम परमेश्वर के खिलाफ कुछ ईशनिंदा की बातें भी कह चुके होते हो। यह परेशानी की बात है। अगर परिस्थितियाँ अपेक्षाकृत हल्की हों तो लोगों को अब भी बचाया जा सकता है, लेकिन अगर परिस्थितियाँ गंभीर हों—यदि वे इतने आगे बढ़ जाएँ कि परमेश्वर की ईशनिंदा करें, उससे श्रेष्ठता की होड़ करने का प्रयास करें और उससे रुतबे के लिए, भोजन और वस्त्रों के लिए प्रतिस्पर्धा करें—तो फिर उन्हें बचाया नहीं जा सकता है। सत्य की स्पष्ट रूप से संगति करने का उद्देश्य लोगों को सत्य को समझने और उसका अभ्यास करने और अपने स्वभाव में बदलाव हासिल करने में सक्षम बनाना है। यह सत्य को समझने के बाद उनके दिलों में रोशनी और थोड़ी-सी खुशी लाना भर नहीं है। अगर तुम सत्य को समझते हो लेकिन सत्य का अभ्यास नहीं करते हो तो सत्य के बारे में संगति करने और उसे समझने की सार्थकता खो जाती है। जब लोग सत्य को समझते हैं लेकिन इसे अभ्यास में नहीं लाते तो क्या समस्या है? यह इस बात का प्रमाण है कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, कि वे अपने हृदय में सत्य को स्वीकार नहीं करते, ऐसे में वे परमेश्वर के आशीषों से और उद्धार के अवसर से चूक जाएँगे। जब यह बात आती है कि क्या लोग उद्धार हासिल करने में सक्षम हैं तो इसमें यह महत्वपूर्ण है कि क्या वे सत्य को स्वीकार और उसका अभ्यास करने में सक्षम हैं। अगर तुम उन सत्यों को अभ्यास में लाते हो जिन्हें तुम समझते हो तो तुम पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता, रोशनी और मार्गदर्शन प्राप्त करोगे और तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लोगे, सत्य की गहरी समझ प्राप्त कर लोगे और आखिरकार सत्य और परमेश्वर का उद्धार हासिल कर लोगे। कुछ लोग सत्य का अभ्यास करने में अक्षम होते हैं, वे हमेशा शिकायत करते हैं कि पवित्र आत्मा उन्हें प्रबुद्ध या रोशन नहीं करता, कि परमेश्वर उन्हें शक्ति नहीं देता। यह गलत है; यह परमेश्वर को गलत समझना है। पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी लोगों के सहयोग की नींव पर निर्मित होती है। लोगों के पास एक सच्चा दिल होना चाहिए और उन्हें सत्य का अभ्यास करने का इच्छुक होना चाहिए, और चाहे उनकी समझ गहरी हो या सतही, उन्हें सत्य को अभ्यास में लाने में अवश्य ही सक्षम होना चाहिए। तभी वे पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध और रोशन किए जाएँगे। अगर लोग सत्य को समझते हैं लेकिन उसे अभ्यास में नहीं लाते और केवल यह प्रतीक्षा करते हैं कि पवित्र आत्मा कार्य करे और उन्हें ऐसा करने के लिए बाध्य करे तो क्या वे अत्यधिक निष्क्रिय नहीं हो रहे हैं? परमेश्वर लोगों को कुछ करने के लिए कभी बाध्य नहीं करता। अगर लोग सत्य को समझते हैं लेकिन उसे अभ्यास में लाने के इच्छुक नहीं हैं तो यह दर्शाता है कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते या उनकी दशा असामान्य है और उन्हें कोई चीज बाधित कर रही है। लेकिन अगर लोग परमेश्वर से प्रार्थना कर पाते हैं तो परमेश्वर भी कार्य करेगा; असली चिंता यह है कि अगर वे सत्य का अभ्यास करने के अनिच्छुक हैं और परमेश्वर से प्रार्थना भी नहीं करते हैं तो पवित्र आत्मा के पास उनमें कार्य करने का कोई उपाय नहीं होता है। वास्तव में, लोगों को चाहे किसी भी प्रकार की कठिनाई हो, इसका हमेशा समाधान किया जा सकता है; मुख्य बात यही है कि वे सत्य के अनुसार अभ्यास करने में सक्षम हैं कि नहीं। अब तुम लोगों में भ्रष्टता की समस्याएँ कैंसर नहीं हैं, वे लाइलाज बीमारियाँ नहीं हैं। अगर तुम लोग सत्य का अभ्यास करने का संकल्प ले सकते हो तो तुम पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करोगे और इन भ्रष्ट स्वभावों को बदलना संभव होगा। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि क्या तुम सत्य का अभ्यास करने का संकल्प ले सकते हो—यही मुख्य बात है। अगर तुम सत्य का अभ्यास करते हो और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हो तो तब तुम पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर लोगे और निश्चित रूप से बचाए जा सकते हो। अगर तुम जिस मार्ग पर चलते हो वह गलत है तो तुम पवित्र आत्मा का कार्य खो दोगे; एक गलत कदम दूसरे गलत कदम की ओर ले जाएगा और तुम्हारे लिए सब खत्म हो जाएगा और चाहे तुम कितने ही वर्षों तक विश्वास करते रहो, तुम उद्धार प्राप्त नहीं कर पाओगे। उदाहरण के लिए, कुछ लोग जब काम कर रहे होते हैं तो वे इस बारे में कभी नहीं सोचते कि काम उस तरह कैसे किया जाए जिससे परमेश्वर के घर के कार्य को लाभ हो और जो परमेश्वर के इरादों के अनुरूप हो। नतीजतन वे बहुत सी ऐसी चीजें करते हैं जो स्वार्थपूर्ण और नीचतापूर्ण होती हैं, वे परमेश्वर का विकर्षण और घृणा प्राप्त करते हैं और इसलिए वे प्रकट कर दिए और हटा दिए जाते हैं। अगर लोग सभी चीजों में सत्य खोजने और सत्य के अनुसार अभ्यास करने में सक्षम हो जाते हैं तो फिर उन्होंने पहले ही परमेश्वर पर आस्था के सही मार्ग पर प्रवेश लिया होता है और इसलिए उनके पास परमेश्वर के इरादों के अनुरूप इंसान बनने की आशा होती है। कुछ लोग सत्य को समझते हैं लेकिन इसे अभ्यास में नहीं लाते हैं। इसके बजाय, वे मानते हैं कि सत्य कोई बड़ी चीज नहीं है और यह उनकी अपनी मरजी और भ्रष्ट स्वभावों की समस्या का समाधान करने में असमर्थ है। क्या ऐसे लोग वास्तव में हँसी के पात्र नहीं हैं? क्या वे अत्यंत बेहूदे नहीं होते हैं? क्या वे खुद को बहुत ही चतुर नहीं समझते? अगर लोग सत्य के अनुसार अभ्यास करने में सक्षम हैं तो तब उनके भ्रष्ट स्वभाव बदल सकते हैं। अगर परमेश्वर के प्रति उनका विश्वास और सेवा उनके अपने स्वाभाविक व्यक्तित्व के अनुसार है तो उनमें से एक भी अपने स्वभाव में बदलाव हासिल करने में सक्षम नहीं होगा। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपनी गलत पसंदगियों के कारण होने वाली चिंता में दिन भर फँसे रहते हैं। आसानी से उपलब्ध सत्य उन्हें दिया जाता है तो वे उसकी जाँच नहीं करते या उसे अभ्यास में लाने का प्रयास नहीं करते, बल्कि अपना ही रास्ता चुनने पर जोर देते हैं। यह कार्य करने का कैसा बेहूदा तरीका है! वे सचमुच यह नहीं जानते कि उनके पास जो आशीषें हैं उनका आनंद कैसे लिया जाए; वे पीड़ा सहने के लिए ही जन्मे हैं। सत्य का अभ्यास करना इतना सरल है; तुम अभ्यास करते हो या नहीं, बस यही मायने रखता है। अगर तुम कोई ऐसे इंसान हो जिसके पास सत्य का अभ्यास करने का संकल्प है तो फिर तुम्हारी नकारात्मकता, कमजोरी और भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे हल हो जाएँगे और बदल जाएँगे; यह इस पर निर्भर करता है कि तुम्हारा हृदय सत्य से प्रेम करता है कि नहीं, तुम सत्य को स्वीकार करने में सक्षम हो कि नहीं, सत्य हासिल करने के लिए तुम पीड़ा सह और कीमत चुका सकते हो कि नहीं। अगर तुम सत्य से सचमुच प्रेम करते हो तो इसे हासिल करने के लिए तमाम तरह की पीड़ा सहने में सक्षम होगे—यानी चाहे लोग बदनाम करें, आलोचना करें या अस्वीकार करें, तुम्हें यह सब धैर्य और सहनशीलता के साथ सहन करना चाहिए। परमेश्वर तुम्हें आशीष देगा और तुम्हारी रक्षा करेगा, वह तुम्हें त्यागेगा नहीं या तुम्हारी उपेक्षा नहीं करेगा—यह पक्का है। अगर तुम परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय से परमेश्वर से प्रार्थना करते हो, परमेश्वर पर निर्भर रहते हो और परमेश्वर की ओर देखते हो तो ऐसी कोई कठिनाई नहीं है जिससे तुम पार न पा सको। हो सकता है तुममें भ्रष्ट स्वभाव हो और तुम अपराध कर बैठो लेकिन अगर तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है और अगर तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर सावधानी से चलते हो तो तुम निर्विवाद रूप से अडिग रहने में सक्षम होगे और निर्विवाद रूप से परमेश्वर द्वारा तुम्हारी अगुआई और सुरक्षा की जाएगी।

कुछ लोग ऐसे होते हैं जो केवल कार्य करने और उपदेश देने, दूसरों का प्रावधान करने के लिए खुद को सत्य से लैस करते हैं, न कि अपनी समस्याएँ हल करने के लिए, इन्हें अभ्यास में लाने की बात तो भूल ही जाओ। उनकी संगति शुद्ध समझ की और सत्य के अनुरूप हो सकती है, लेकिन वे खुद को इससे नहीं जोड़ते, न ही वे इसका अभ्यास या अनुभव करते हैं। यहाँ क्या समस्या है? क्या उन्होंने वाकई सत्य को अपने जीवन के रूप में स्वीकार किया है? नहीं, उन्होंने ऐसा नहीं किया है। व्यक्ति जिस धर्म-सिद्धांत का प्रचार करता है वह चाहे कितना ही शुद्ध क्यों न हो, इसका अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति के पास सत्य वास्तविकता है। खुद को सत्य से लैस करने के लिए व्यक्ति को अवश्य ही पहले खुद उसमें प्रवेश करना चाहिए और जब वह सत्य को समझ जाए तो इसे अवश्य ही अभ्यास में लाना चाहिए। अगर व्यक्ति अपने ही प्रवेश पर ध्यान केंद्रित नहीं करता, बल्कि दिखावा करने के उद्देश्य से दूसरों के सामने सत्य का प्रचार करता है तो उसका इरादा गलत है। बहुत-से नकली अगुआ हैं जो इस तरह काम करते हैं, वे जो सत्य समझते हैं उस पर अनवरत दूसरों के साथ संगति करते हैं, नए विश्वासियों को पोषण प्रदान करते हैं, लोगों को सत्य का अभ्यास करने, अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने और नकारात्मक न होने की शिक्षा देते हैं। ये तमाम शब्द ठीक और अच्छे हैं और ये नकली अगुआ प्रेमालु भी माने जा सकते हैं, लेकिन वे खुद सत्य का अभ्यास या जीवन प्रवेश क्यों नहीं करते हैं? यहाँ वास्तव में क्या चल रहा है? क्या ऐसा व्यक्ति वास्तव में सत्य से प्रेम करता है? कहना मुश्किल है। इस्राएल के फरीसियों ने दूसरों के सामने बाइबल की व्याख्या इसी तरह की थी, फिर भी वे खुद परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन नहीं कर पाए। जब प्रभु यीशु प्रकट हुआ और उसने कार्य किया तो उन्होंने परमेश्वर की वाणी सुनी लेकिन प्रभु का प्रतिरोध किया। उन्होंने प्रभु यीशु को सूली पर चढ़ाया और परमेश्वर ने उन्हें शाप दिया। इसलिए जो लोग सत्य नहीं स्वीकारते या उसका अभ्यास नहीं करते, उन सबकी परमेश्वर द्वारा निंदा की जाएगी। वे कितने अभागे हैं! चूँकि उनके द्वारा प्रचारित शब्द और धर्म-सिद्धांत दूसरों की मदद कर सकते हैं तो ये खुद उनकी मदद क्यों नहीं कर सकते हैं? हम किसी ऐसे व्यक्ति को पाखंडी कह सकते हैं जिसमें कोई वास्तविकता नहीं है। वे दूसरों को सत्य के शब्द प्रदान करते हैं और दूसरों से उसका अभ्यास करवाते हैं, लेकिन वे खुद इसका लेशमात्र भी अभ्यास नहीं करते हैं। क्या ऐसा कोई व्यक्ति बेशर्म नहीं है? उसमें सत्य वास्तविकता नहीं होती, फिर भी वह दूसरों को शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के उपदेश देकर यह दिखावा करता है कि उसके पास सत्य वास्तविकता है। क्या यह लोगों को जानबूझकर गुमराह करना और नुकसान पहुँचाना नहीं है? अगर ऐसा कोई व्यक्ति प्रकट कर दिया और हटा दिया जाता है तो इसके लिए केवल वह खुद ही दोषी होगा। वह दया का पात्र नहीं होगा। क्या कोई ऐसा व्यक्ति जो केवल शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करता है लेकिन सत्य का अभ्यास नहीं करता है, सच्चा परिवर्तन हासिल कर सकता है? क्या ऐसे लोग दूसरों को धोखा नहीं दे रहे हैं और खुद को नुकसान नहीं पहुँचा रहे हैं? सत्य का अनुसरण करने की कुंजी इसे अभ्यास में लाने में निहित है। सत्य का अभ्यास करने का उद्देश्य अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करना और सच्चे मानव के समान जीना है, लेकिन वे अपने भ्रष्ट स्वभावों को बिल्कुल भी नहीं पहचानते हैं, न ही वे यह जानते हैं कि अपनी कठिनाइयों का समाधान करने के लिए सत्य का उपयोग कैसे करना है। इसलिए वे दूसरों को चाहे जैसे सींचते हैं, उनका भरण-पोषण करते हैं या उन्हें सहारा देते हैं, वे कभी भी वास्तविक नतीजे हासिल नहीं करेंगे क्योंकि उनके पास जीवन प्रवेश करने या अपना स्वभाव बदलने का कोई मार्ग नहीं है। यदि सत्य के बारे में संगति करने से वे लोगों की कठिनाइयों या समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते हैं तो क्या वे जो चीजें कहते हैं वे बस ऐसे शब्द और धर्म-सिद्धांत नहीं हैं जो कर्णप्रिय लेकिन अव्यावहारिक हैं? यदि तुम अपने स्वभाव में बदलाव हासिल करना चाहते हो तो तुम्हें सबसे पहले परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने और उन्हें अनुभव करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। तुम सत्य के चाहे जो भी पहलू समझते हो, तुम्हें उन्हें अभ्यास में लाने पर ध्यान केंद्रित करना होगा। सत्य के अपने अभ्यास और अनुभव में ही तुम्हें समस्याओं का पता चलेगा और खासकर तुम यह पहचान लोगे कि तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव कब प्रकट होते हैं। यदि तुम इन समस्याओं को हल करने के लिए सत्य खोज सकते हो तो तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश करोगे और तुम्हारा जीवन स्वभाव बदल जाएगा। जब तुम सत्य का अभ्यास करने पर चर्चा करोगे तो तुम्हारे पास एक रास्ता होगा और जब तुम सत्य के बारे में संगति करोगे तो तुम समस्याएँ हल कर लोगे। यह दर्शाता है कि यदि तुम सत्य का अभ्यास करने के इच्छुक हो तो तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता होगी और यदि तुम सत्य का अभ्यास करने के इच्छुक हो तो तुम दूसरों के लिए प्रावधान करने के लिए योग्य होओगे। नतीजतन परमेश्वर तुम्हें स्वीकृति देगा और लोग तुम्हारी प्रशंसा करेंगे।

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