12. माता-पिता की दयालुता से कैसे पेश आएँ

सु वेई, चीन

बचपन से ही मेरा परिवार अपेक्षाकृत गरीब था। रिश्तेदार और दोस्त हमें नीची नजरों से देखते थे और यहाँ तक कि मेरे दादा-दादी ने भी हमें ठुकरा दिया था। मेरी माँ अक्सर मुझे डांटते हुए कहती थी, “तुम्हें मन लगाकर पढ़ाई करनी है और परिवार का नाम रोशन करना है!” उसकी बातों ने मेरे दिल पर गहरा असर किया, मैंने पढ़ाई में कड़ी मेहनत की और लगातार अपनी कक्षा में शीर्ष स्थान पर रही। लेकिन बाद में, मेरे साथ एक कार दुर्घटना हुई और अन्य आपत्तियाँ भी आईं और मुझे तीन सर्जरी करानी पड़ीं। हर बार मेरी सर्जरी होने पर मेरा परिवार बहुत चिंतित होता और कभी-कभी मेरी माँ यह कहते हुए शिकायत करती कि अगर मेरी सर्जरी पर उन्होंने पैसा खर्च नहीं किया होता, तो हमारा परिवार इतनी गरीबी में नहीं होता। हाई स्कूल प्रवेश परीक्षा के बाद, मुझे सफलतापूर्वक एक प्रतिष्ठित हाई स्कूल में प्रवेश मिल गया। मैंने कई बार अपने परिवार का बोझ कम करने के लिए अपनी पढ़ाई छोड़ कर जल्दी काम शुरू कर के पैसे कमाने के बारे में सोचा, लेकिन मेरे माता-पिता इससे सहमत नहीं थे और उन्होंने मुझे अपनी पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रोत्साहित किया। इससे मैं बहुत प्रभावित हुई और मैंने बड़ी होने पर उनका कर्ज चुकाने का संकल्प लिया। बाद में, मेरा अकादमिक सफर सुचारू रूप से चलता रहा और कॉलेज की प्रवेश परीक्षा के बाद, मुझे आसानी से प्रथम श्रेणी के एक विश्वविद्यालय में प्रवेश मिल गया। उसके बाद, मैं ग्रेजुएट स्कूल के लिए एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में चली गई। उस समय, हमारे परिवार की वित्तीय स्थिति बहुत खराब थी, मेरे माता-पिता अक्सर बीमार रहते और भारी काम करने में असमर्थ थे और हमारा परिवार हमेशा कर्ज में डूबा रहता था। हर साल जब मैं चीनी नव वर्ष के लिए घर लौटती तो अपनी माँ से पूछती कि हम पर अभी भी अपने दोस्तों और रिश्तेदारों का कितना बकाया है। मैंने कभी-कभी अपनी माँ को यह कहते हुए भी सुना कि परिवार को संभालने और मेरी कॉलेज की शिक्षा का खर्च उठाने के लिए, मेरे पिताजी दो नौकरियाँ कर रहे थे, दोनों में ही कठिन परिश्रम करना था। हर रोज वह सूखे कपड़ों में काम पर जाते और गीले कपड़ों में वापस आते। वह मुझे परिवार को निराश न करने और कभी अकृतज्ञ न बनने को कहती। अपनी माँ को यह कहते हुए सुनकर, मैं आधी रात में कंबल के नीचे छिपकर रोती, मन ही मन सोचती, “एक बार जब मैं काम करना शुरू कर दूंगी, तो हर महीने अपने वेतन का एक हिस्सा अपने माता-पिता को दूंगी, ताकि वे एक अच्छा जीवन जी सकें।”

ग्रेजुएशन की पढ़ाई के बाद काम शुरू करने के दूसरे महीने में, मैंने अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य को स्वीकार कर लिया। परमेश्वर के वचनों के माध्यम से, मुझे समझ आया कि हमारे अंदर जीवन की सांस परमेश्वर से आती है और जीवित प्राणियों के रूप में, मनुष्यों को उसकी आराधना करनी चाहिए। जैसे-जैसे मैं परमेश्वर के वचनों से सींचित हुई, मुझे तेज़ी से यह महसूस होने लगा कि उसके वचनों को पढ़ने और सत्य का अनुसरण करने में मुझे ज्यादा समय समर्पित करना चाहिए। इसलिए, मैंने स्वेच्छा से अपनी नौकरी छोड़ दी और कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाने का फैसला किया। कभी-कभी, मैं अपने माता-पिता से मिलने उनके कार्यस्थल पर जाती थी। हर बार जब मैं उनके सफेद होते बाल देखती, तो मेरा दिल उनके लिए दुखता और मुझे यह सोचकर गहरा अपराधबोध महसूस होता कि मैंने उनको सहारा देने के लिए काम न करके और पैसे न कमा कर उन्हें निराश किया है। जब भी मैं उनसे मिलने जाती, तो उनके कर्ज तले दबे होने की अपने दिल की भावनाओं को दूर करने की कोशिश में उनके लिए कुछ सामान खरीद कर ले जाती। 2021 में, जिस कलीसिया से मैं जुड़ी हुई थी, वहाँ एक बड़ी कार्रवाई हुई और मुझे भी पुलिस ढूंढ़ रही थी। परमेश्वर की सुरक्षा के लिए धन्यवाद, मुझे गिरफ्तार नहीं किया गया, लेकिन मैं फिर अपने परिवार से संपर्क नहीं कर पाई। जब मैंने सोचा कि मुझ से संपर्क न हो पाने पर मेरे माता-पिता निश्चित रूप से कितने चिंतित होंगे, तो मुझे खास तौर से अपराधबोध महसूस हुआ, मैंने सोचा, “जब मैं छोटी थी तो मेरे साथ कई दुर्घटनाएँ हुईं और मेरे माता-पिता मेरी वजह से बहुत चिंतित रहते थे। उन्होंने मुझे इतना बड़ा करने के लिए बहुत मेहनत की है, जो बिल्कुल भी आसान नहीं था। अब, मैं उन्हें सहारा देने के लिए अच्छा पैसा तो कमा नहीं पा रही हूँ, बल्कि उन्हें मेरे लिए चिंतित और परेशान भी कर रही हूँ। मैं सच में संतानोचित नहीं हूँ!” अफ़सोस से मेरा दिल दुखता और हर बार अपने माता-पिता के बारे में सोचने पर मेरा रोने का मन करता था। मैं परमेश्वर के वचनों और अपने भाइयों और बहनों की संगति को आत्मसात नहीं कर पा रही थी। जब भी मैं अपने माता-पिता की उम्र के आसपास के भाइयों और बहनों को देखती, तो अपने माता-पिता के बारे में सोचती, “वे बूढ़े हो रहे हैं और उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं है। मुझे यह जानने की उत्सुकता होती कि वे अभी कैसे होंगे। अगर वे बीमार पड़ गए तो क्या उनके पास इलाज के लिए पैसे होंगे?” हालाँकि मैं अभी भी अपना कर्तव्य निभा रहा थी, मेरा दिल लगातार अपने माता-पिता के लिए चिंतित रहता, मैं सिर्फ कहने के लिए अपना कर्तव्य पूरा करने में व्यस्त थी और जब भी कोई चीज़ मेरी इच्छानुसार नहीं होती, तो मैं घर जाने के बारे में सोचती। लेकिन जब मैंने सोचा कि घर जाने पर मैं गिरफ्तार हो जाउंगी, तो मैंने वापस लौटने की हिम्मत नहीं की। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, कि वह मुझे मेरे स्नेह के आगे बेबस न होने दे।

एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े और अपनी समस्या की कुछ समझ प्राप्त की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “चीनी परंपरागत संस्कृति के अनुकूलन के कारण चीनी लोगों की परंपरागत धारणाओं में यह माना जाता है कि लोगों को अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखनी चाहिए। जो भी संतानोचित निष्ठा का पालन नहीं करता, वह कपूत होता है। ये विचार बचपन से ही लोगों के मन में बिठाए गए हैं, और ये लगभग हर घर में, साथ ही हर स्कूल में और बड़े पैमाने पर पूरे समाज में सिखाए जाते हैं। जब किसी व्यक्ति का दिमाग इस तरह की चीजों से भर जाता है, तो वह सोचता है, ‘संतानोचित निष्ठा किसी भी चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण है। अगर मैं इसका पालन नहीं करता तो मैं एक अच्छा इंसान नहीं हूँ—मैं कपूत हूँ और समाज मेरी निंदा करेगा। मैं ऐसा व्यक्ति बन जाता, जिसमें जमीर नहीं है।’ क्या यह नजरिया सही है? लोगों ने परमेश्वर द्वारा व्यक्त इतने अधिक सत्य देखे हैं—क्या परमेश्वर ने अपेक्षा की है कि व्यक्ति अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाए? क्या यह कोई ऐसा सत्य है, जिसे परमेश्वर के विश्वासियों को समझना ही चाहिए? नहीं, यह ऐसा सत्य नहीं है। परमेश्वर ने केवल कुछ सिद्धांतों पर संगति की है। परमेश्वर के वचन किस सिद्धांत द्वारा लोगों से दूसरों के साथ व्यवहार किए जाने की अपेक्षा करते हैं? परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो : यही वह सिद्धांत है, जिसका पालन किया जाना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्‍ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। “तुम अपने माता-पिता की अपेक्षाओं से कैसी शिक्षा पाते हो? (परीक्षा में बढ़िया उत्तर देने और सफल भविष्य बनाने की जरूरत।) तुम्हें भविष्य की सँभावना दिखानी होगी, तुम्हें अपनी माँ के प्यार, कड़ी मेहनत और त्याग की कसौटी पर खरा उतरना होगा, तुम्हें अपने माता-पिता की अपेक्षाएँ पूरी करनी होंगी, और उन्हें निराश नहीं करना होगा। वे तुमसे बहुत प्यार करते हैं, उन्होंने तुम्हें सब-कुछ दिया है, वे अपना जीवन लगा कर तुम्हारे लिए सब-कुछ करते हैं। तो उनके सारे त्याग, उनकी शिक्षा और उनका प्यार भी क्या बन गए हैं? वे ऐसी चीज बन गए हैं जो तुम्हें चुकाना है, और साथ ही वे तुम्हारा बोझ बन गए हैं। बोझ इसी तरह तैयार होता है। चाहे तुम्हारे माता-पिता ये चीजें सहजज्ञान से करते हों, प्यार के कारण करते हों, या सामाजिक जरूरतों के कारण, आखिर में तुम्हें शिक्षा देने और तुमसे बर्ताव करने के इन तरीकों का प्रयोग करने और तुम्हारे भीतर तरह-तरह के विचार बैठाने से भी तुम्हारी आत्मा को आजादी, मुक्ति, आराम या उल्लास नहीं मिलता। इनसे तुम्हें क्या मिलता है? जो मिलता है वह दबाव है, डर है, यह तुम्हारे जमीर की निंदा और बेचैनी है। इसके अलावा और क्या? (जंजीरें और बंधन।) जंजीरें और बंधन। इसके अलावा, अपने माता-पिता की ऐसी अपेक्षाओं के अधीन तुम उनकी आशाओं के लिए जीने के सिवाय कुछ नहीं कर सकते। उनकी अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए, उनकी अपेक्षाओं को अधूरा न छोड़ने के लिए तुम प्रत्येक विषय पूरी बारीकी और ईमानदारी से पढ़ते हो, और वह सब करते हो जो वे तुम्हें कहते हैं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (16))। परमेश्वर ने मेरी सही स्थिति उजागर की। बचपन से मेरी माँ ने मुझे सिखाया था कि मेरे माता-पिता ने मेरे लिए बहुत त्याग किया है और बड़े होने पर मुझे अकृतज्ञ नहीं होना चाहिए। रिश्तेदार और पड़ोसी भी अक्सर कहते थे कि हमारे परिवार की गरीबी के बावजूद भी, मेरे माता-पिता ने मेरी पढ़ाई जारी रखी और मुझे भविष्य में उचित रूप से उनका कर्ज चुकाना चाहिए और अपनी जड़ों को नहीं भूलना चाहिए। मैंने भी मेरे लिए किए गए अपने माता-पिता के बलिदानों को देखा था। बचपन में मेरे साथ कई दुर्घटनाएँ हुईं और मेरे माता-पिता ने मेरी सर्जरी के लिए पैसे जुटाने की चिंता में अपनी उम्र निकाल दी। मेरी पढ़ाई के लिए आवश्यक पैसा जुटाने के लिए भी वे हर जगह भटके। इसलिए मैंने बिना किसी हिचकिचाहट के अपने परिवार, रिश्तेदारों और दोस्तों से मिली शिक्षा और दीक्षा को पूरे दिल से स्वीकार कर लिया। मैंने कड़ी मेहनत से पढ़ाई करना, अपने परिवार की वित्तीय स्थिति में सुधार करना और यह सुनिश्चित करना अपना लक्ष्य बना लिया कि मेरे माता-पिता एक अच्छा जीवन जी सकें। इसे हासिल करने के लिए, मैंने उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए कड़ी मेहनत की और हर महीने अपने वेतन का एक हिस्सा अपने माता-पिता को देने की योजना बनाई, चाहे जीवन कैसा भी हो। लेकिन जब मैंने परमेश्वर को पाया और अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपनी नौकरी छोड़ने का फैसला किया, तो मुझे अपने माता-पिता को निराश करने के लिए अपराधबोध महसूस हुआ। बाद में, सीसीपी द्वारा किए गए उत्पीड़न और गिरफ्तारियों की वजह से, मैं अपने परिवार से संपर्क नहीं कर पाई, जिसने मुझे खुद की और भी ज्यादा निंदा करने और यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि में एक संतानोचित बेटी नहीं हूँ। जब मैंने सोचा कि मेरे माता-पिता ने मेरी पढ़ाई में किस तरह सहायता की और अब जब आखिरकार ग्रेजुएशन पूरा कर के भी, मैं उनका कर्ज चुकाने के लिए पैसे नहीं कमा रही थी और उन्हें चिंतित कर रही थी, तो मैं अपराधबोध और आत्मग्लानि से भर गई। जब मैं अपने माता-पिता की उम्र के लोगों को देखती, तो मुझे उनकी चिंता होने लगती और मेरा ध्यान अपने कर्तव्य से हट जाता। मैंने परमेश्वर को धोखा देने और घर जाने के लिए अपने कर्तव्य को त्यागने के बारे में भी सोचा। परिवार और समाज द्वारा मुझमें डाले गए पारंपरिक विचार, जैसे “संतानोचित धर्मनिष्ठा का गुण सबसे ऊपर रखना चाहिए,” और “जो व्यक्ति संतानोचित नहीं है, वह किसी पशु से बदतर है,” मेरे दिल में गहराई तक रच-बस गए थे। वे एक जाल की तरह थे जो मेरे चारों ओर कसकर और दर्दनाक ढंग से लिपटे हुए थे। मैं स्पष्ट रूप से जानती थी कि मानव जीवन परमेश्वर से आता है और परमेश्वर में विश्वास करना, उसकी आराधना करना और अपना कर्तव्य निभाना जीवन के सही मार्ग हैं और बिल्कुल स्वाभाविक और उचित हैं, लेकिन फिर भी मैं अपने कर्तव्य में सहज महसूस नहीं कर पा रही थी। मैं निरंतर यह महसूस करती थी कि अपने माता-पिता की अपेक्षाओं के खिलाफ जाने का मतलब मुझमें अंतरात्मा न होना है और मेरा अकृतज्ञ होना और संतानोचित न होना है।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जिससे मुझे मेरे माता-पिता द्वारा मेरे लिए किए गए बलिदानों से सही तरीके से पेश आने में मदद मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “आओ, चर्चा करें कि ‘तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं’ की व्याख्या कैसे की जाए। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं—क्या यह तथ्य नहीं है? (जरूर है।) चूँकि यह एक तथ्य है, इसलिए हमारे लिए इसमें निहित मुद्दों को स्पष्ट समझना उचित है। आओ तुम्हारे माता-पिता द्वारा तुम्हें जन्म देने के मामले पर गौर करें। यह किसने चुना कि वे तुम्हें जन्म दें : तुमने या तुम्हारे माता-पिता ने? किसने किसे चुना? अगर इस पर तुम परमेश्वर के दृष्टिकोण से गौर करो, तो जवाब है : तुममें से किसी ने भी नहीं। न तुमने और न ही तुम्हारे माता-पिता ने चुना कि वे तुम्हें जन्म दें। अगर तुम इस मामले की जड़ पर गौर करो, तो यह परमेश्वर द्वारा नियत था। इस विषय को फिलहाल हम अलग रख देंगे, क्योंकि लोगों के लिए यह मामला समझना आसान है। अपने नजरिये से, तुम निश्चेष्टा से, इस मामले में बिना किसी विकल्प के, अपने माता-पिता के यहाँ पैदा हुए। माता-पिता के नजरिये से, उन्होंने तुम्हें अपनी स्वतंत्र इच्छा से जन्म दिया, है ना? दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के विधान को अलग रखकर तुम्हें जन्म देने के मामले को देखें, तो ये तुम्हारे माता-पिता ही थे जिनके पास संपूर्ण शक्ति थी। उन्होंने चुना कि तुम्हें जन्म देना है और उन्होंने ही तमाम फैसले लिए। उनके लिए तुमने नहीं चुना कि वे तुम्हें जन्म दें, तुमने निश्चेष्टा से उनके यहाँ जन्म लिया, और इस मामले में तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं था। तो चूँकि तुम्हारे माता-पिता के पास संपूर्ण शक्ति थी और उन्होंने चुना कि तुम्हें जन्म देना है, तो यह उनका दायित्व और जिम्मेदारी है कि वे तुम्हें पालें-पोसें, बड़ा करें, शिक्षा दें, खाना, कपड़े और पैसे दें—यह उनकी जिम्मेदारी और दायित्व है, और यह उन्हें करना ही चाहिए। वे जब तुम्हें बड़ा कर रहे थे, तब तुम हमेशा निश्चेष्ट थे, तुम्हारे पास चुनने का हक नहीं था—तुम्हें उनके हाथों ही बड़ा होना था। चूँकि तुम छोटे थे, तुम्हारे पास खुद को पाल-पोस कर बड़ा करने की क्षमता नहीं थी, तुम्हारे पास निश्चेष्टा से अपने माता-पिता द्वारा पाल-पोस कर बड़ा किए जाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था। तुम उसी तरह बड़े हुए जैसे तुम्हारे माता-पिता ने चुना, अगर उन्होंने तुम्हें बढ़िया चीजें खाने-पीने को दीं, तो तुमने बढ़िया खाना खाया-पिया। अगर तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जीने का ऐसा माहौल दिया जहाँ तुम्हें भूसा और जंगली पौधे खाकर जिंदा रहना पड़ता, तो तुम भूसे और जंगली पौधों पर जिंदा रहते। किसी भी स्थिति में, अपने पालन-पोषण के समय तुम निश्चेष्ट थे, और तुम्हारे माता-पिता अपनी जिम्मेदारी निभा रहे थे। यह वैसी ही बात है जैसे कि तुम्हारे माता-पिता किसी फूल की देखभाल कर रहे हों। चूँकि वे फूल की देखभाल की चाह रखते हैं, इसलिए उन्हें उसे खाद देना चाहिए, सींचना चाहिए, और सुनिश्चित करना चाहिए कि उसे धूप मिले। तो लोगों की बात करें, तो तुम्हारे माता-पिता ने सावधानी से तुम्हारी देखभाल की हो या तुम्हारी बहुत परवाह की हो, किसी भी स्थिति में, वे बस अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभा रहे थे। ... चूँकि यह एक जिम्मेदारी और दायित्व है, इसलिए इसे मुफ्त होना चाहिए, और उन्हें इसकी भरपाई करने को नहीं कहना चाहिए। तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करके तुम्हारे माता-पिता बस अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभा रहे थे, और यह निःशुल्क होना चाहिए, इसमें लेनदेन नहीं होना चाहिए। इसलिए तुम्हें भरपाई करने के विचार के अनुसार न तो अपने माता-पिता से पेश आना चाहिए, न उनके साथ अपने रिश्ते को ऐसे सँभालना चाहिए। अगर तुम इस विचार के अनुसार अपने माता-पिता से पेश आते हो, उनका कर्ज चुकाते हो और उनके साथ अपने रिश्ते को सँभालते हो, तो यह अमानुषी है। साथ ही, हो सकता है इसके कारण तुम आसानी से अपनी दैहिक भावनाओं से नियंत्रित होकर उनसे बँध जाओ और फिर तुम्हारे लिए इन उलझनों से उबरना इस हद तक मुश्किल हो जाएगा कि शायद तुम अपनी राह से भटक जाओ। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं, इसलिए उनकी तमाम अपेक्षाएँ साकार करना तुम्हारा दायित्व नहीं है। उनकी अपेक्षाओं की कीमत चुकाना तुम्हारा दायित्व नहीं है। यानी उनकी अपनी अपेक्षाएँ हो सकती हैं। तुम्हारे अपने विकल्प हैं, तुम्हारा अपना जीवन पथ है और अपनी नियति है जो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए नियत किए हैं जिनसे तुम्हारे माता-पिता का कोई लेना-देना नहीं है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचनों पर विचार करने से, मुझे यह समझ आया कि माता-पिता अपने बच्चों के लेनदार नहीं होते और वे उनका पालन-पोषण स्वेच्छा से करते हैं और क्योंकि माता-पिता ऐसा करना चुनते हैं, इसलिए बच्चों को पालने की जिम्मेदारी और दायित्व उनका होता है। इस प्रक्रिया में माता-पिता चाहे कितना भी त्याग करें, यह माता-पिता के रूप में उनकी जिम्मेदारी और एक प्रकार का कानून है जिसे परमेश्वर ने सृजित प्राणियों के लिए नियत किया है। जैसे प्रकृति में अनेक जीव प्रजनन और अपने बच्चों का पालन-पोषण करते हुए, बस सृष्टिकर्ता द्वारा निर्धारित कानूनों और सिद्धांतों का पालन करते हैं। यही बात मनुष्यों पर भी लागू होती है। जो माता-पिता बच्चे चाहते हैं उन्हें उनकी परवरिश करनी चाहिए और उन्हें आजादी देनी चाहिए, जिससे वे अपने जीवन का मार्ग स्वयं चुन सकें। अगर माता-पिता सिर्फ लालन-पालन करने के एवज में अपने बच्चों से पैसा लौटाने या मुआवजा देने की माँग करते हैं या बेहतर जीवन की अपनी इच्छाएँ पूरी करने के लिए जीवन का मार्ग चुनने की अपने बच्चों की स्वतंत्रता का बलिदान करते हैं, तो यह वास्तव में अमानवीय है। ऐसे माता-पिता बहुत स्वार्थी होते हैं। इस बात पर विचार करते हुए कि मुझे अपने माता-पिता के प्रति अपने संतानोचित कर्तव्यों को पूरा करने के लिए पैसे नहीं कमाने पर अपराधबोध क्यों महसूस हुआ, मुझे एहसास हुआ की ऐसा इसलिए था क्योंकि मैंने उनके त्याग और देखभाल को दयालुता और उन्हें अपने लेनदारों के रूप में देखा था। मेरा मानना था कि एक बार जब मुझमें भविष्य में पैसा कमाने की क्षमता आ जाएगी, तो मुझे उचित तरीके से उनका कर्ज चुकाना होगा; वरना मैं अकृतज्ञ हो जाऊँगी और संतानोचित नहीं रहूँगी और मुझमें मानवता नहीं होगी। परमेश्वर के वचनों से, मैं समझ गई कि चीजों को लेकर मेरा नजरिया गलत था। मेरे माता-पिता का मेरा पालन-पोषण और मेरी देखभाल करना तो माता-पिता के रूप में उनकी जिम्मेदारी और दायित्व को पूरा करना था। मुझ पर उनका कोई कर्ज नहीं था, न ही मैं उनकी अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए बाध्य थी। मुझे यह चुनने का अधिकार है कि जीवन में मुझे किस प्रकार का मार्ग अपनाना चाहिए और इस तथाकथित दयालुता के आगे बेबस नहीं होना चाहिए, क्योंकि इससे मैं इस जीवन में अपनी आजादी और यहाँ तक कि सत्य का अनुसरण करने और खुद को बचाए जाने का मौका भी खो दूँगी। अपने जीवन के प्रत्येक चरण पर विचार करूँ तो बचपन में मैंने कई खतरनाक दुर्घटनाओं का अनुभव किया, फिर भी मैं चमत्कारिक रूप से सुरक्षित रही और परमेश्वर की सुरक्षा द्वारा बच गई। एक बार मुझे एक तेज रफ्तार कार ने टक्कर मार दी और मैं सड़क के दूसरी ओर गिर कर बेहोश हो गई, लेकिन जब मुझे होश आया तो मुझे केवल मामूली फ्रैक्चर हुए थे और कुछ सतही चोटें आई थीं। एक दूसरे मौके पर सिजोफ्रेनिया से पीड़ित एक व्यक्ति ने मुझे हिंसक तरीके से पीटा। यह एक बेहद खूनी और हिंसक घटना थी, लेकिन मेरा दिमाग को चोट नहीं लगी और चेहरा विकृत नहीं हुआ और मेरे सिर पर केवल कुछ टांके लगाने पड़े और केवल एक हड्डी टूटी थी, कोई अन्य गंभीर चोट नहीं आई। जो लोग मेरे बड़े होने के दौरान के इन अनुभवों के बारे में जानते थे, उन्होंने कहा कि मैं सचमुच भाग्यशाली थी। वास्तविकता में, इसका भाग्य से कोई लेना-देना नहीं था। यह सब परमेश्वर की सुरक्षा थी। अतीत के बारे में सोचने पर मैंने देखा कि मैं आज जहाँ हूँ वहाँ तक परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा में पहुँची हूँ। मेरे पास अपने जीवन के लिए एक रास्ता था जिसे परमेश्वर ने मेरे लिए निर्धारित किया था और एक उद्देश्य था जिसे पूरा करना था। मुझे सिर्फ अपने माता-पिता के लिए नहीं जीना चाहिए।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को लेकर तुम्हें कोई बोझ नहीं ढोना चाहिए। अगर तुम अपने माता-पिता के कहे अनुसार करोगे, तो भी तुम्हारा भाग्य वही रहेगा; अगर तुम अपने माता-पिता की अपेक्षाओं पर नहीं चलोगे, उन्हें निराश करोगे, तो भी तुम्हारा भाग्य वही रहेगा। तुम्हारे आगे के पथ को जैसा होना है वैसा ही होगा; यह परमेश्वर द्वारा पहले ही नियत किया जा चुका है। इसी तरह, अगर तुम अपने माता-पिता की अपेक्षाएँ पूरी करते हो, उन्हें संतुष्ट करते हो, उन्हें निराश नहीं करते, तो क्या इसका अर्थ है कि उन्हें बेहतर जीवन जीने को मिलेगा? क्या यह उनके कष्ट और दुर्व्यवहार के भाग्य को बदल सकता है? (नहीं।) कुछ लोग सोचते हैं कि उनके माता-पिता ने उन्हें पाल-पोसकर बड़ा करने में बहुत ज्यादा दयालुता दिखाई है, और उस दौरान उन्होंने बहुत दुख सहे हैं। इसलिए वे एक अच्छी नौकरी तलाशना चाहते हैं, फिर मुश्किलें झेलना, मेहनत-मशक्कत करना, ध्यान लगाकर कड़ी मेहनत से काम करना चाहते हैं ताकि ढेर सारा पैसा कमा कर संपन्न हो जाएँ। उनका लक्ष्य अपने माता-पिता को भविष्य में बहुत बढ़िया जीवन देना है, जिस जीवन में वे बंगले में रहें, शानदार गाड़ी चलाएँ, बढ़िया खाएँ और पिएँ। लेकिन बरसों पूरे जोश और जोर-शोर से काम करने के बाद, हालाँकि उनकी जीने की स्थितियाँ और हालात सुधरे हैं, मगर उनके माता-पिता उस समृद्धि के एक भी दिन का आनंद लिए बिना मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। इसके लिए कौन दोषी है? अगर तुम चीजों को अपने ढंग से चलने दो, परमेश्वर को आयोजित करने दो, और यह बोझ न ढोओ, तो फिर अपने माता-पिता की मृत्यु पर तुम्हें अपराध बोध नहीं होगा। लेकिन अगर तुम अपने माता-पिता का प्रतिदान करने और बेहतर जीवन जीने में उनकी मदद करने हेतु पैसे कमाने के लिए बहुत कड़ी मेहनत करो, मगर उनकी मृत्यु हो जाए, तो तुम्हें कैसा लगेगा? अगर तुमने अपना कर्तव्य निभाने और सत्य प्राप्त करने में देर की, तब भी क्या तुम अपना शेष जीवन आराम से जी सकोगे? (नहीं।) तुम्हारा जीवन प्रभावित होगा और तुम हमेशा शेष जीवन भर ‘अपने माता-पिता को निराश करने’ का बोझ ढोते रहोगे। ... माता-पिता को अपनी स्थिति और परमेश्वर द्वारा तैयार की गई स्थितियों और माहौल के अनुसार बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए। बच्चों को अपने माता-पिता के लिए जो करना चाहिए, वह भी उन स्थितियों पर निर्भर है जिसे वे हासिल कर सकते हैं और उस माहौल पर भी निर्भर है जिसमें वे जीते हैं; बस इतना ही। माता-पिता या बच्चे जो भी करते हैं, वह अपनी सामर्थ्य या स्वार्थी आकांक्षाओं के जरिए एक-दूसरे का भाग्य बदलने के प्रयोजन से नहीं होना चाहिए, ताकि दूसरा पक्ष उनके प्रयासों के कारण बेहतर, ज्यादा खुशहाल और ज्यादा आदर्श जीवन जी सके। माता-पिता हों या बच्चे, सभी को परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित माहौल में चीजों को अपने ढंग से होने देना चाहिए, बजाय इसके कि अपने प्रयासों या किन्हीं निजी संकल्पों के जरिये बदलने की कोशिश करें। तुम्हारे माता-पिता का भाग्य तुम्हारे उनके बारे में ऐसे विचार रखने के कारण नहीं बदलेगा—उनका भाग्य बहुत पहले ही परमेश्वर द्वारा नियत हो चुका है। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए उनके जीवन के दायरे में जीना, उनसे जन्म लेना, उनके द्वारा पाल-पोसकर बड़ा किया जाना और उनके साथ यह रिश्ता रखना नियत किया है। इसलिए उनके प्रति तुम्हारी जिम्मेदारी सिर्फ इतनी है कि तुम अपनी स्थितियों के अनुसार उनके साथ रहो और कुछ दायित्व निभाओ। जहाँ तक तुम्हारे माता-पिता की मौजूदा हालत को बदलने या उनके लिए बेहतर जीवन की तुम्हारी चाहतों की बात है, ये सब बेकार हैं। या अपने पड़ोसियों और रिश्तेदारों से प्रशंसा और आदर पाना, अपने माता-पिता को सम्मान दिलाना, परिवार में अपने माता-पिता के लिए प्रतिष्ठा अर्जित करना—यह और भी गैर-जरूरी है। कुछ एकल माताएँ और पिता भी हैं जिन्हें उनके जीवनसाथी ने छोड़ दिया था, और उन्होंने तुम्हें खुद बड़ा किया। तुम्हें और ज्यादा महसूस होता है कि उनके लिए यह कितना मुश्किल था और तुम अपना पूरा जीवन उनका कर्ज चुकाने और भरपाई करने में लगा देना चाहते हो, इस हद तक कि तुम उनकी हर बात मानना चाहते हो। वे तुमसे जो कहते हैं, जो अपेक्षा रखते हैं और तुम जो खुद करना चाहते हो, ये सब इस जीवन में तुम्हारे लिए बोझ बन जाते हैं—ऐसा नहीं होना चाहिए। सृष्टिकर्ता की मौजूदगी में, तुम एक सृजित प्राणी हो। तुम्हें इस जीवन में जो करना चाहिए वह सिर्फ अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना नहीं, बल्कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य निभाना भी है। तुम अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ सिर्फ परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के आधार पर पूरी कर सकते हो, अपनी भावनाओं या अपने जमीर की जरूरतों के आधार पर काम करके नहीं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (16))। मैंने बार-बार परमेश्वर के वचनों पर विचार किया और मुझे समझ आया कि किसी व्यक्ति का भाग्य सृष्टिकर्ता के हाथों में है। मेरे माता-पिता इस जीवन में कितना कष्ट सहेंगे और क्या वे एक अच्छा जीवन जी पाएंगे, यह परमेश्वर द्वारा पहले ही निर्धारित किया जा चुका था और इससे मेरा कोई लेना-देना नहीं था। ऐसा कुछ नहीं था कि मैं सिर्फ इसलिए उनकी किस्मत बदल सकती थी और उन्हें बेहतर जीवन दे सकती थी क्योंकि मेरे पास उच्च शिक्षा थी और मैं पैसे कमा सकती थी। मेरा भाग्य, जिसमें मेरा कॉलेज में दाखिला ले पाना या कोई निश्चित डिग्री प्राप्त कर पाना भी शामिल है, परमेश्वर द्वारा नियत किया गया था और इसका श्रेय मेरे माता-पिता को नहीं जाता है। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद अपने माता-पिता के प्रति अपने संतानोचित कर्तव्यों को पूरा करने के लिए काम करके पैसे नहीं कमाने के बारे में सोचने पर मुझे अपराधबोध होने की वजह यह थी कि मैंने इस तथ्य को नहीं समझा कि मनुष्य का भाग्य परमेश्वर के हाथों में है। मैं अभी भी “ज्ञान तुम्हारा भाग्य बदल सकता है” के शैतानी ज़हर के साथ जी रही थी, यह मानते हुए कि उच्च शिक्षा और अच्छी नौकरी मेरे माता-पिता का भाग्य बदल सकती है और उन्हें बेहतर जीवन दे सकती है। वास्तव में, क्या मैं सचमुच अपने माता-पिता का भाग्य बदल सकती थी? मैंने अपने चाचा के बारे में सोचा, जिन्होंने अपने बेटे को कॉलेज में दाखिला दिलाने के लिए जीवन भर कड़ी मेहनत की थी। अंत में, उनके बेटे ने कॉलेज में दाखिला लिया और शहर में एक घर खरीदा और जब ऐसा लगने लगा कि परिवार आखिरकार एक अच्छा जीवन जी सकता है, तो मेरे चाचा का अप्रत्याशित निधन हो गया। फिर मेरी एक चाची थीं, जिन्होनें मेरे चचेरे भाई को कॉलेज में दाखिला दिलाने के लिए कड़ी मेहनत की थी, इस उम्मीद से कि उसे एक अच्छी नौकरी मिलेगी। लेकिन मेरा चचेरा भाई अपने कार्य के प्रति प्रतिबद्ध नहीं था और न केवल वह ठीक से काम करने में असफल रहा बल्कि उसके साथ धोखेधड़ी भी हुई। उसने निवेश करने के लिए परिवार से एक लाख युआन से ज्यादा लिया, लेकिन पूरी मूल राशि खो दी। मेरे आसपास ऐसे कई उदाहरण थे, जो साबित करते थे कि न तो माता-पिता और न ही बच्चे एक-दूसरे का भाग्य बदल सकते हैं। किसी का जीवन अच्छा होगा या नहीं यह परमेश्वर द्वारा नियत है और कोई भी व्यक्तिगत प्रयास इसे बदल नहीं सकता। अगर मैं परमेश्वर में विश्वास नहीं करती, तो मैं भी इसी प्रकार संसार के चलन का अनुसरण करती, शादी करना, घर और कार खरीदना, बच्चे पैदा करना और घर व कार के लोन का भुगतान करना। तो अपने माता-पिता के प्रति अपने संतानोचित कर्तव्यों को पूरा करने के लिए मेरे पास कितनी ऊर्जा और अतिरिक्त पैसा होता? अगर मैं दैनिक जीवन के भारी दबावों में होती, तो मुझे सहारे के लिए अपने माता-पिता पर निर्भर रहना पड़ सकता था। मैंने सोचा कि अपने कर्तव्यों को पूरा करने और अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा का पालन करने के लिए काम करके पैसा न कमाने की वजह से, उनका जीवन अच्छा नहीं रहा। यह बेतुका है। मेरे माता-पिता के जीवन की परिस्थितियाँ, अपने पूरे जीवन में वे जिन परिवेशों का अनुभव करेंगे और जो कष्ट वे सहेंगे, सभी परमेश्वर द्वारा पूर्व-नियत हैं। उनका इससे कोई लेना-देना नहीं है कि मैं परमेश्वर में विश्वास करूँ या अपने कर्तव्यों का पालन करूँ। मुझे अब समाज और मेरे परिवार द्वारा मुझमें डाले गए गलत विचारों के अनुसार नहीं जीना चाहिए। अपने माता-पिता के बारे में अत्यधिक चिंता करना मूर्खतापूर्ण और बेमतलब है। एक सृजित प्राणी के रूप में, यह परमेश्वर ही है जिसने मुझे जीवन दिया और मुझे खूबियाँ और प्रतिभाएँ प्रदान कीं और मेरे अनुभव और ज्ञान को बढ़ाने के लिए विभिन्न परिस्थितियों की व्यवस्था की। आखिरकार, उसने मुझे सृष्टिकर्ता की वाणी सुनने और उसके वचनों के सिंचन और आपूर्ति का आनंद लेने की अनुमति दी। इसलिए, मुझे अपना समय और ऊर्जा सकारात्मक चीजों का अनुसरण करने और ज्यादा लोगों को परमेश्वर की वाणी सुनने और उनका उद्धार प्राप्त करने में मदद करने के लिए समर्पित करना चाहिए। केवल यही अर्थपूर्ण है और वह जिम्मेदारी और कर्तव्य है जिसे एक सृजित प्राणी के रूप में मुझे पूरा करना चाहिए।

मैंने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े : “पहले तो ज्यादातर लोग अपने कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ने को कुछ हद तक व्यापक वस्तुपरक हालात के कारण चुनते हैं जिससे उनका अपने माता-पिता को छोड़ना जरूरी हो जाता है; वे अपने माता-पिता की देखभाल के लिए उनके साथ नहीं रह सकते; ऐसा नहीं है कि वे स्वेच्छा से अपने माता-पिता को छोड़ना चुनते हैं; यह वस्तुपरक कारण है। दूसरी ओर, व्यक्तिपरक ढंग से कहें, तो तुम अपने कर्तव्य निभाने के लिए बाहर इसलिए नहीं जाते कि तुम अपने माता-पिता को छोड़ देना चाहते हो और अपनी जिम्मेदारियों से बचकर भागना चाहते हो, बल्कि परमेश्वर की बुलाहट की वजह से जाते हो। परमेश्वर के कार्य के साथ सहयोग करने, उसकी बुलाहट स्वीकार करने और एक सृजित प्राणी के कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हारे पास अपने माता-पिता को छोड़ने के सिवाय कोई चारा नहीं था; तुम उनकी देखभाल करने के लिए उनके साथ नहीं रह सकते थे। तुमने अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए उन्हें नहीं छोड़ा, सही है? अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए उन्हें छोड़ देना और परमेश्वर की बुलाहट का जवाब देने और अपने कर्तव्य निभाने के लिए उन्हें छोड़ना—क्या इन दोनों बातों की प्रकृतियाँ अलग नहीं हैं? (बिल्कुल।) तुम्हारे हृदय में तुम्हारे माता-पिता के प्रति भावनात्मक लगाव और विचार जरूर होते हैं; तुम्हारी भावनाएँ खोखली नहीं हैं। अगर वस्तुपरक हालात अनुमति दें, और तुम अपने कर्तव्य निभाते हुए भी उनके साथ रह पाओ, तो तुम उनके साथ रहने को तैयार होगे, नियमित रूप से उनकी देखभाल करोगे और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करोगे। लेकिन वस्तुपरक हालात के कारण तुम्हें उनको छोड़ना पड़ता है; तुम उनके साथ नहीं रह सकते। ऐसा नहीं है कि तुम उनके बच्चे के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते हो, बल्कि तुम नहीं निभा सकते हो। क्या इसकी प्रकृति अलग नहीं है? (बिल्कुल है।) अगर तुमने संतानोचित होने और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने से बचने के लिए घर छोड़ दिया था, तो यह असंतानोचित होना है और यह मानवता का अभाव दर्शाता है। तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा किया, लेकिन तुम अपने पंख फैलाकर जल्द-से-जल्द अपने रास्ते चले जाना चाहते हो। तुम अपने माता-पिता को नहीं देखना चाहते, और उनकी किसी भी मुश्किल के बारे में सुनकर तुम कोई ध्यान नहीं देते। तुम्हारे पास मदद करने के साधन होने पर भी तुम नहीं करते; तुम बस सुनाई न देने का बहाना कर लोगों को तुम्हारे बारे में जो चाहें कहने देते हो—तुम बस अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते। यह असंतानोचित होना है। लेकिन क्या स्थिति अभी ऐसी है? (नहीं।) बहुत-से लोगों ने अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपनी काउंटी, शहर, प्रांत और यहाँ तक कि अपने देश तक को छोड़ दिया है; वे पहले ही अपने गाँवों से बहुत दूर हैं। इसके अलावा, विभिन्न कारणों से उनके लिए अपने परिवारों के साथ संपर्क में रहना सुविधाजनक नहीं है। कभी-कभी वे अपने माता-पिता की मौजूदा दशा के बारे में उसी गाँव से आए लोगों से पूछ लेते हैं और यह सुन कर राहत महसूस करते हैं कि उनके माता-पिता अभी भी स्वस्थ हैं और ठीक गुजारा कर पा रहे हैं। दरअसल, तुम असंतानोचित नहीं हो; तुम मानवता न होने के उस मुकाम पर नहीं पहुँचे हो, जहाँ तुम अपने माता-पिता की परवाह भी नहीं करना चाहते, या उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते। यह विभिन्न वस्तुपरक कारणों से है कि तुम्हें यह चुनना पड़ा है, इसलिए तुम असंतानोचित नहीं हो(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (16))। “अगर तुम उन सत्य सिद्धांतों, विचारों और सोच का पालन करते हो जो सही हैं और परमेश्वर से आए हैं, तो तुम्हारा जीवन बहुत सुकून-भरा हो जाएगा। अब अपने माता-पिता से अपने रिश्तों को सँभालने में न जनमत रुकावट बनेगा, न तुम्हारे जमीर की जागरूकता, और न ही तुम्हारी भावनाओं का बोझ; इसके विपरीत, ये चीजें तुम्हें इस योग्य बना देंगी कि तुम इस रिश्ते का सही और तार्किक ढंग से सामना कर सको। अगर तुम परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दिए गए सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हो, तो भले ही लोग पीठ पीछे तुम्हारी आलोचना करें, तुम अपने दिल की गहराई में शांति और सुकून ही महसूस करोगे, और तुम पर उसका कोई असर नहीं होगा। कम-से-कम तुम खुद को एक लापरवाह अहसान-फरामोश होने पर नहीं धिक्कारोगे, या अपने दिल की गहराई में अब अपने जमीर का आरोप महसूस नहीं करोगे। यह इसलिए कि तुम यह जान लोगे कि तुम्हारे सारे कार्य परमेश्वर द्वारा तुम्हें सिखाए गए तरीकों के अनुसार किए जाते हैं, तुम परमेश्वर के वचनों को सुनते और उनके प्रति समर्पण करते हो, और उसके मार्ग का अनुसरण करते हो। परमेश्वर के वचनों को सुनना और उसके मार्ग का अनुसरण करना ही जमीर की वह समझ है जो लोगों में सबसे ज्यादा होनी चाहिए। ये चीजें कर सकने पर ही तुम एक सच्चे व्यक्ति बन पाओगे। अगर तुमने ये चीजें संपन्न नहीं की हैं, तो तुम एक लापरवाह अहसान-फरामोश हो(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचनों के इन दो अंशों को पढ़कर, मैं गहराई से प्रभावित हुई। मेरी आँखों से आँसू अनियंत्रित रूप से बहने लगे। परमेश्वर हमें बहुत अच्छी तरह समझता है। वह जानता है कि परिवार और समाज के अनेक दुष्ट और गलत विचारों द्वारा हमें गहराई से गुमराह किया और नुकसान पहुँचाया जा रहा है, जिससे हमारी आत्माएँ मुक्त नहीं हो पा रही हैं। इसलिए, वह हमें इन मामलों के सार को धीरे-धीरे समझने और उन्हें सही और तर्कसंगत दृष्टिकोण से देखने में मदद करने के लिए सत्य को व्यक्त करता है। मैंने सृष्टिकर्ता की वाणी सुनकर और ज्यादा लोगों को परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने की अनुमति देने के लिए सुसमाचार का प्रचार करना और अपने कर्तव्यों का पालन करना चुना। यह सबसे धार्मिक और अर्थपूर्ण कार्य है और यह मेरी जिम्मेदारी और उद्देश्य है। मुझे अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार न कर पाने के लिए खुद की निंदा नहीं करनी चाहिए, खास तौर से इसलिए कि मैं जानबूझकर एक बच्चे के रूप में अपनी जिम्मेदारियों को नजरअंदाज नहीं कर रही थी या उन परिस्थितियों में संतानोचित नहीं थी जहाँ मैं इन जिम्मेदारियों को पूरा कर सकती थी। यह समझने के बाद, मुझे फिर से अपराधबोध या आत्म-ग्लानि महसूस नहीं हुई। मैंने देखा कि केवल परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखने से ही कोई व्यक्ति पक्षपात और गलती से बच सकता है। मुझे अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों और एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी जिम्मेदारियों और उद्देश्य के साथ ही, मानव जीवन का सही मूल्य और अर्थ भी समझ आ गया है।

इस अनुभव से गुजरने के बाद, मुझे लगता है कि परमेश्वर के वचन सचमुच अद्भुत हैं। परमेश्वर के वचनों ने ही मुझे पारंपरिक संस्कृति से बाहर निकाल कर, मेरे दिल को राहत और आज़ादी की भावना महसूस करने की अनुमति दी है। अब मैं बहुत ज्यादा शांत महसूस करती हूँ। जब मेरे पास खाली समय होता है, तो मैं परमेश्वर के और ज्यादा वचनों पर विचार कर अपनी कमियों को जान पाती हूँ और मेरे विचार मेरे कर्तव्यों से संबंधित मामलों पर ज्यादा केंद्रित रहते हैं।

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