13. मैं अब खुद की बड़ाई और दिखावा नहीं करती
2021 में, मैं सुसमाचार कार्य की सुपरवाइजर बनी। चूँकि मुझे पहले सुसमाचार प्रचार करने का थोड़ा अनुभव था और मैंने उसमें कुछ नतीजे भी हासिल किए थे, मुझे लगा कि मैं इस कार्य के लिए काफी उपयुक्त रहूँगी। मैंने कुछ भाई-बहनों को देखा जिन्होंने अभी सुसमाचार प्रचार का प्रशिक्षण लेना शुरू ही किया था, तो मैंने उन्हें मार्गदर्शन और सहायता दी। मुझे हैरानी हुई कि जब मैंने कुछ धार्मिक धारणाओं पर प्रासंगिक सत्य के बारे में संगति की तो भाई-बहन मेरी प्रशंसा करने लगे, उन्होंने कहा कि मैं स्पष्ट और सरलता से बोलती हूँ। मैंने मन ही मन में सोचा, “मैंने तो ज्यादा कुछ कहा भी नहीं है और तुम्हें पहले ही लगने लगा है कि तुमने बहुत कुछ पा लिया है। अगर मैंने तुम्हारे साथ और ज्यादा संगति की तो तुम लोग मुझसे और भी ज्यादा प्रभावित हो जाओगे।” बाद में अगुआ ने भी मुझसे सुसमाचार प्रचार के अपने अनुभवों पर चर्चा करने के लिए कहा और सुसमाचार प्रचार पर मेरे द्वारा लिखे गए उपदेश संदर्भ के लिए भाई-बहनों को भी दिए। इससे मुझे लगा कि मैं और भी ज्यादा असाधारण हूँ, अनजाने में ही मेरा अभिमान मेरे काबू से बाहर गया और मैं सोचने लगी कि मैं वाकई अन्य भाई-बहनों से बेहतर हूँ। कभी-कभी, भाई-बहनों को यह दिखाने के लिए कि मैं ज्यादा जानती हूँ मैं जानबूझकर कठिन सवाल पूछती थी और जब वे जवाब नहीं दे पाते तो मैं और अधिक संगति करती, इस तरह वे मेरी और अधिक प्रशंसा करते।
एक बार एक सभा के दौरान झांग जिये ने कहा, “कुछ संप्रदायों के लोगों में बहुत सारी धारणाएँ हैं और मुझे नहीं पता कि उन पर संगति कैसे करें।” एक अन्य भाई ने कहा, “कुछ धार्मिक लोग निराधार अफवाहों पर आँख मूँदकर विश्वास करते हैं और भले ही हम उनमें से कुछ अफवाहों का खंडन कर सकते हैं मगर फिर भी हम चीजों पर स्पष्ट रूप से संगति नहीं कर पाते हैं।” भाई-बहनों को कठिनाई में देखकर मैंने मन ही मन में सोचा, “तुम लोग सच में कुछ नहीं समझते। अगर धारणाएँ हैं तो उन पर संगति करो और अगर निराधार अफवाहें हैं तो उनका खंडन करो। इसमें इतना कठिन क्या है? लगता है कि मुझे सुसमाचार प्रचार के अपने अनुभवों पर तुम्हारे साथ संगति करनी होगी ताकि तुम्हें सब कुछ सही से समझा सकूँ।” इसलिए मैंने उनसे कहा, “सुसमाचार प्रचार में कठिनाइयों का सामना करना ही हमें प्रशिक्षित करता है। यह हमें न केवल सत्य से युक्त होने के लिए प्रेरित करता है बल्कि हमें यह भी सिखाता है कि विभिन्न धार्मिक धारणाओं को हल करने के लिए सत्य का उपयोग कैसे किया जाए। इसके अलावा, सुसमाचार प्रचार के लिए हममें कष्ट सहने की इच्छा होनी चाहिए; अगर हम कष्ट नहीं उठाएँगे तो परमेश्वर के आशीष कैसे देख पाएँगे? जैसे कि एक बार जब मैं सुसमाचार प्रचार कर रही थी, मैंने पहले से पता लगा लिया कि संभावित सुसमाचार पाने वालों की क्या धारणाएँ हैं, फिर परमेश्वर के प्रासंगिक वचनों को खोजा और उन पर विचार किया और वास्तव में कष्ट सहकर और कीमत चुकाकर करीब एक महीने में ही हमने सैकड़ों लोगों का मत-परिवर्तन किया। मैंने सचमुच देखा कि यह परमेश्वर का आशीष था और मुझे बहुत खुशी हुई। हम नए वर्ष के दिन भी सभाएँ कर रहे थे और संभावित सुसमाचार पाने वालों के साथ संगति कर रहे थे। बाद में जब उन सांप्रदायिक अगुआओं ने हर जगह बाधाएँ पैदा करनी शुरू कर दी तो हमने सत्य पर संगति की, संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता का सिंचन और सहयोग किया। जब हम इन सांप्रदायिक अगुआओं से मिले तो हम डरे नहीं और उनके साथ बहस की, यहाँ तक कि अंततः वे अपनी हार मानकर चले गए और संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य के प्रति और अधिक आश्वस्त हो गए।” मैंने देखा कि सभी भाई-बहन हैरान आँखों से ध्यानपूर्वक सुन रहे थे, कुछ ने मेरी प्रशंसा करते हुए कहा, “एक महीने में ही इतने सारे लोगों का मत-परिवर्तन करना अद्भुत है!” भाई-बहन मेरा और अधिक सम्मान करें और मुझे सचमुच असाधारण मानें, इसके लिए मैंने फिर से दिखावा करना शुरू कर दिया, मैंने कहा, “एक बार मैंने एक मेयर के सचिव का भी मत-परिवर्तन किया था। शुरुआत में मैंने सोचा, उसका रुतबा काफी ऊँचा है, क्या वह मेरी बात सुनेगा? लेकिन जब मैंने उसे सुसमाचार सुनाया, तो मुझे पता चला कि भले ही उसका रुतबा ऊँचा था, उसके पास सत्य की कमी थी, और उसने मेरी कही हर बात की प्रशंसा की। बाद में उसने और उसकी कलीसिया के दर्जनों सदस्यों ने सुसमाचार को स्वीकार कर लिया!” सभी भाई-बहन स्वीकृति भरी नजरों से मेरी ओर देख रहे थे और कुछ ने कहा, “तुम वाकई कमाल हो! तुमने तो एक मेयर के सचिव का भी मत-परिवर्तन कर दिया! हम तो ऐसा कभी नहीं कर सकते; हम तुमसे बहुत पीछे हैं!” कुछ ने यह भी कहा, “हम कब तुम्हारी तरह सुसमाचार का प्रचार करने में सक्षम होंगे?” कुछ समय बाद, मैंने देखा कि कुछ भाई-बहन सुसमाचार प्रचार करने से अब नहीं डरते थे, उनमें विभिन्न संप्रदायों के संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं के बीच सुसमाचार प्रचार करने का साहस भी था। मुझे बहुत खुश हुई और एक बड़ी उपलब्धि का एहसास हुआ।
उसके बाद, जब भी भाई-बहन सुसमाचार प्रचार में किसी समस्या या कठिनाई का सामना करते तो वे मेरे पास आते और मैं एक-एक करके उनकी समस्या सुलझाती। धीरे-धीरे, भाई-बहन मुझ पर बहुत अधिक निर्भर रहने लगे। मुझे याद है, एक बार भाई-बहनों का सामना एक संप्रदाय के प्रचारक से हुआ लेकिन वे डर गए कि वे प्रचारक की कई धारणाओं को उचित रूप से हल नहीं कर पाएँगे और उन्होंने अपनी हिम्मत खो दी। उनमें से कुछ तो मुझे खोजने के लिए कार से भी आए और मुझसे उनके साथ चलने के लिए कहा। मैंने मन ही मन सोचा, “वे इतनी दूर सिर्फ मुझे खोजने के लिए आए, इसका मतलब है कि उनके दिलों में मेरा रुतबा काफी असाधारण है। क्या यह अच्छा है या बुरा?” मुझे थोड़ी असहजता महसूस हुई, मैंने सोचा, “क्या वे मेरी आराधना कर रहे हैं और मेरा आदर कर रहे हैं? अगर यह जारी रहा तो क्या मैं सभी भाई-बहनों को अपने सामने नहीं ले आऊँगी? अगर ऐसा हुआ, तो यह परमेश्वर के स्वभाव का अपमान होगा!” लेकिन फिर मैंने सोचा, “अगर मैं सुसमाचार प्रचार में भाई-बहनों की अगुआई नहीं करूँगी, तो वे यह काम खुद से नहीं कर पाएँगे, क्या यह सुसमाचार कार्य के लिए लाभदायक नहीं है?” ऐसा सोचने पर, मेरे दिल की असहजता जल्दी ही गायब हो गई इसलिए मैं भाई-बहनों के साथ उस प्रचारक को सुसमाचार सुनाने चली गई। मगर हमें हैरानी हुई कि पूरे दिन इधर-उधर भाग-दौड़ करने के बाद भी हमें वह प्रचारक कहीं नहीं मिला। हमने इतने लोग और संसाधन लगाए मगर कोई नतीजा नहीं निकला। उस दौरान सुसमाचार कार्य में कोई स्पष्ट नतीजा नहीं दिख रहा था और मैं काफी नकारात्मक महसूस कर रही थी, मुझे चिंता होने लगी कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे। क्या वे कहेंगे कि मेरे पास केवल सुपरवाइजर का पद है लेकिन उसका सार नहीं? लेकिन मुझे यह समझ नहीं आ रहा था कि समस्या की जड़ क्या है, इसलिए मैं किसी से बात करना चाहती थी, लेकिन फिर मैंने सोचा, “मैं एक सुपरवाइजर हूँ; अगर मैंने अपनी स्थिति के बारे में भाई-बहनों के साथ संगति की तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे नहीं कहेंगे कि मेरे पास आध्यात्मिक कद नहीं है? अगर मैं भी नकारात्मक हो गई तो मैं उनके कार्यों का जायजा कैसे ले पाऊँगी? चलो छोड़ो, कुछ न कहना ही बेहतर होगा, मैं परमेश्वर से प्रार्थना करूँगी और इसे खुद हल कर लूँगी।” इसलिए, मैंने अपने दिल की घुटन को दबा लिया और भाई-बहनों के सामने बहादुर बनने का दिखावा किया और मैं उनके सामने बड़ी-बड़ी बातें करती रही।
एक दिन, एक बहन ने कहा कि वह एक संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता से मिली है और उसने मुझसे उसके पास जाकर सुसमाचार प्रचार करने के लिए कहा। एक अन्य बहन ने भी कहा कि वह जिस संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता को जानती है, वह भी अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य की जाँच करने के लिए तैयार है और उसने पूछा कि मैं कब जाकर उसे सुसमाचार प्रचार कर सकती हूँ। यह सुनकर मैं बहुत खुश हुई, मैंने सोचा कि अगर मैं इन सभी संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं का मत-परिवर्तन कर पाई तो सुसमाचार कार्य में सुधार दिखेगा। लेकिन जैसे ही मैं बड़ा कदम उठाने वाली थी, जो बहन मेरी मेजबानी कर रही थी उसे अचानक पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और मैं पकड़े जाने से बाल-बाल बची। उस समय, मेरे पास केवल घर पर छिपने और सुसमाचार प्रचार के लिए बाहर न जाने का विकल्प था। रात को मैं बिस्तर पर करवटें बदलती रही, सो नहीं पाई और मन ही मन सोचने लगी, “यह परिस्थिति परमेश्वर की अनुमति से आई है; क्या मैंने किसी तरह से परमेश्वर के स्वभाव का अपमान किया है? अब जब सभी भाई-बहन मेरा आदर और मेरी प्रशंसा करते हैं तो क्या मैंने उन्हें सच में अपने सामने ला दिया है?” लेकिन इससे पहले कि मैं चिंतन कर पाती, पाठ-आधारित कर्तव्य के लिए मेरा तबादला कर दिया गया। एक दिन जब मैंने मसीह-विरोधियों के निष्कासन से जुड़े दो दस्तावेज पढ़े और देखा कि उनके कई व्यवहार मेरे जैसे ही थे, तब मुझे समस्या की गंभीरता का एहसास हुआ। मैंने तुरंत परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “परमेश्वर, इन मसीह-विरोधियों का निष्कासन मेरे लिए एक चेतावनी है, मुझे अच्छी तरह से आत्मचिंतन करना चाहिए। कृपया मुझे प्रबुद्ध कर और मेरा मार्गदर्शन कर, ताकि मैं सच में खुद को जान सकूँ और समय पर सुधार कर सकूँ।” प्रार्थना करने के बाद, मैंने परमेश्वर के उन वचनों को ढूँढ़ना शुरू किया जो यह उजागर करते हैं कि कैसे लोग खुद की प्रशंसा करते हैं और अपनी गवाही देते हैं।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “लोग सामान्यतः कैसे अपनी बड़ाई करते हैं और अपनी गवाही देते हैं? वे दूसरों की अपने बारे में बहुत अच्छी राय बनवाने और उनसे अपनी आराधना करवाने के इस लक्ष्य को कैसे हासिल करते हैं? वे इस बात की गवाही देते हैं कि उन्होंने कितना कार्य किया है, कितना अधिक दुःख भोगा है, स्वयं को कितना अधिक खपाया है, और क्या कीमत चुकाई है। वे अपनी पूँजी के बारे में बातें करके अपनी बड़ाई करते हैं, जो उन्हें लोगों के मन में अधिक ऊँचा, अधिक मजबूत, अधिक सुरक्षित स्थान देता है, ताकि अधिक से अधिक लोग उनकी सराहना करें, उन्हें मान दें, उनकी प्रशंसा करें और यहाँ तक कि उनकी आराधना करें, उनका आदर करें और उनका अनुसरण करें। यह लक्ष्य हासिल करने के लिए लोग कई ऐसे काम करते हैं, जो ऊपरी तौर पर तो परमेश्वर की गवाही देते हैं, लेकिन वास्तव में वे अपनी बड़ाई करते हैं और अपनी गवाही देते हैं। क्या इस तरह पेश आना उचित है? वे तार्किकता के दायरे से परे हैं और उन्हें कोई शर्म नहीं है, अर्थात, वे निर्लज्ज ढंग से गवाही देते हैं कि उन्होंने परमेश्वर के लिए क्या-क्या किया है और उसके लिए कितना अधिक दुःख झेला है। वे तो अपनी योग्यताओं, प्रतिभाओं, अनुभव, विशेष कौशलों पर, सांसारिक आचरण की चतुर तकनीकों पर, लोगों के साथ खिलवाड़ के लिए प्रयुक्त अपने तौर-तरीकों पर इतराते तक हैं। अपनी बड़ाई करने और अपनी गवाही देने का उनका तरीका स्वयं पर इतराने और दूसरों को नीचा दिखाने के लिए है। वे छद्मावरणों और पाखंड का सहारा भी लेते हैं, जिनके द्वारा वे लोगों से अपनी कमजोरियाँ, कमियाँ और त्रुटियाँ छिपाते हैं, ताकि लोग हमेशा सिर्फ उनकी चमक-दमक ही देखें। जब वे नकारात्मक महसूस करते हैं तब भी दूसरे लोगों को बताने का साहस तक नहीं करते; उनमें लोगों के साथ खुलने और संगति करने का साहस नहीं होता, और जब वे कुछ गलत करते हैं, तो वे उसे छिपाने और उस पर लीपा-पोती करने में अपनी जी-जान लगा देते हैं। अपना कर्तव्य निभाने के दौरान उन्होंने कलीसिया के कार्य को जो नुकसान पहुँचाया होता है उसका तो वे जिक्र तक नहीं करते। जब उन्होंने कोई छोटा-मोटा योगदान किया होता है या कोई छोटी-सी कामयाबी हासिल की होती है, तो वे उसका दिखावा करने को तत्पर रहते हैं। वे सारी दुनिया को यह जानने देने का इंतजार नहीं कर सकते कि वे कितने समर्थ हैं, उनमें कितनी अधिक क्षमता है, वे कितने असाधारण हैं, और सामान्य लोगों से कितने बेहतर हैं। क्या यह अपनी बड़ाई करने और अपनी गवाही देने का ही तरीका नहीं है?” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद चार : वे अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं)। “लोगों को गुमराह और नियंत्रित करने के लिए मसीह-विरोधी जिस एक और तरीके का उपयोग करता है वह है लगातार अपना दिखावा करना, सभी को अपने बारे में अवगत कराना और ज्यादा लोगों को परमेश्वर के घर में अपने योगदानों के बारे में बताना। मिसाल के तौर पर, वह कह सकता है, ‘इससे पहले मैंने सुसमाचार फैलाने के लिए कुछ तरीके पेश किए थे और उससे सुसमाचार फैलाने की प्रभावशीलता में सुधार हुआ है। आजकल, कुछ दूसरी कलीसियाएँ भी इन तरीकों को अपना रही हैं।’ दरअसल, अलग-अलग कलीसियाओं ने सुसमाचार फैलाने का काफी अनुभव इकट्ठा कर लिया है, लेकिन मसीह-विरोधी लगातार अपने सही फैसलों और उपलब्धियों के बारे में डींगें हाँकता रहता है, लोगों को उनके बारे में बताता रहता है, उन पर जोर देता रहता है और जहाँ भी जाता है उन्हें तब तक दोहराता रहता है जब तक सभी को उनके बारे में पता नहीं चल जाता है। उसका क्या लक्ष्य है? अपनी खुद की छवि और प्रतिष्ठा का निर्माण करना, ज्यादा लोगों से तारीफ, समर्थन और आदर इकट्ठा करना और लोगों को हर चीज के लिए उससे मदद माँगने के लिए मजबूर करना। क्या इससे मसीह-विरोधी का लोगों को गुमराह और नियंत्रित करने का लक्ष्य हासिल नहीं हो जाता है? ज्यादातर मसीह-विरोधी इसी तरह से कार्य करते हैं और लोगों को गुमराह करने, फँसाने और नियंत्रित करने की भूमिकाओं को स्वीकार करते हैं। कलीसिया, सामाजिक समूह या कार्य-व्यवस्था चाहे कोई भी हो, जब भी कोई मसीह-विरोधी प्रकट होता है तो ज्यादातर लोग अनजाने में ही उसकी आराधना करना और उसका आदर करना शुरू कर देते हैं। जब भी वे ऐसी मुश्किलों का सामना करते हैं, जहाँ वे भ्रमित महसूस करते हैं और उन्हें मार्गदर्शन देने के लिए किसी व्यक्ति की जरूरत पड़ती है, खासतौर पर, जब उन महत्वपूर्ण परिस्थितियों में कोई फैसला लेना होता है तो वे प्रतिभाशाली मसीह-विरोधी को याद करते हैं। वे अपने दिलों में यह मानते हैं कि ‘काश अगर वह यहाँ होता तो सब ठीक हो जाता। सिर्फ एक वही है जो इस मुश्किल को पार करने में हमारी मदद करने के लिए सलाह और सुझाव दे सकता है; उसके पास सबसे ज्यादा विचार और हल हैं, उसके अनुभव सबसे समृद्ध हैं और उसका दिमाग सबसे फुर्तीला है।’ क्या यह सच्चाई कि ये लोग मसीह-विरोधी की इस हद तक आराधना कर सकते हैं, सीधे उसके दिखावा करने, प्रदर्शन करने और घूम-घूमकर अपनी नुमाइश करने के आम तरीके से संबंधित नहीं है? ... चाहे कुछ भी हो जाए, मसीह-विरोधियों के पास लोगों को नियंत्रित करने के कई तरीके होते हैं, वे लोगों के दिलों में अपने रुतबे और अपनी छवि को प्रबंधित करने में समय और ऊर्जा लगाने से नहीं हिचकिचाते हैं और इस सबका अंतिम लक्ष्य उन पर नियंत्रण हासिल करना होता है। इस लक्ष्य को हासिल करने से पहले मसीह-विरोधी क्या करता है? रुतबे के प्रति उसका क्या रवैया होता है? यह कोई सामान्य लगाव या ईर्ष्या नहीं है; यह एक लंबे समय की योजना है, इसे हासिल करने का एक सोचा-समझा इरादा है। वह सत्ता और रुतबे को खास महत्व देता है, लोगों को गुमराह और नियंत्रित करने का लक्ष्य हासिल करने के लिए रुतबे को पहली आवश्यकता के रूप में देखता है। एक बार जब वह रुतबा हासिल कर लेता है तो इसके सभी फायदों का आनंद लेना सामान्य बात है। इसलिए, लोगों को गुमराह और नियंत्रित करने की मसीह-विरोधी की क्षमता लगन से किए गए प्रबंधन का परिणाम है। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि वह संयोग से यह मार्ग अपनाता है; वह जो भी करता है, वह उद्देश्यपूर्ण, पहले से सोचा-समझा गया और ध्यान से हिसाब लगाया हुआ होता है। मसीह-विरोधियों के लिए, सत्ता हासिल करना और लोगों को नियंत्रित करने का अपना लक्ष्य हासिल करना ही पुरस्कार है—यही वह परिणाम है जिसकी उन्हें सबसे ज्यादा लालसा रहती है। सत्ता और रुतबे की उनकी खोज प्रेरित, उद्देश्यपूर्ण, जानबूझकर की गई और बहुत मेहनत से प्रबंधित होती है; यानी, जब वे बोलते या कार्य करते हैं तो उनमें उद्देश्य और इरादे की एक मजबूत भावना होती है और उनका लक्ष्य खासतौर से परिभाषित होता है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद पाँच : वे लोगों को गुमराह करने, फुसलाने, धमकाने और नियंत्रित करने का काम करते हैं)। परमेश्वर यह उजागर करता है कि मसीह-विरोधी विभिन्न तरीकों का उपयोग करके अपनी प्रशंसा करते हैं और अपनी गवाही देते हैं ताकि लोग उनकी आराधना और प्रशंसा करें; साथ ही, वे लोगों को गुमराह और नियंत्रित करने के अपने लक्ष्यों को हासिल कर सकें। जब मैंने अपने व्यवहार की तुलना मसीह-विरोधियों के व्यवहार से की, तो मुझे एहसास हुआ कि मेरा व्यवहार भी वैसा ही था। भाई-बहनों के बीच अपनी प्रतिष्ठा और अच्छी छवि बनाने के लिए और उनसे अपनी प्रशंसा और आदर करवाने के लिए मैंने भी हर अवसर का उपयोग सुसमाचार प्रचार से जुड़े अपने गुणों और उपलब्धियों का दिखावा करने के लिए किया। मैं चाहती थी कि भाई-बहन देखें कि सुसमाचार प्रचार में मैंने कितना कष्ट सहा है, मैं कितनी अनुभवी और सक्षम हूँ और मैंने कलीसिया के कार्य में कितना योगदान दिया है। जब मैं भाई-बहनों के साथ संगति में होती थी तो यह दिखाने के लिए कि मैं कितनी समझदार हूँ मैं कठिन सवाल पूछती थी और जब वे जवाब नहीं दे पाते थे तो मैं सत्य के बारे में अपनी समझ दिखाने के लिए संगति करती थी और उन्हें मेरा आदर करने पर मजबूर करती थी; जब भाई-बहन कठिनाइयों का सामना करते थे तो मैं दिखावा करती थी कि मैंने कैसे कष्ट सहा और कीमत चुकाई, मैंने सुसमाचार प्रचार में कितने लोगों का मत-परिवर्तन किया, मैंने विभिन्न संप्रदायों के अगुआओं के साथ कैसे बहस की और मैं उन महत्वपूर्ण लोगों के बारे में भी डींग मारती थी जिनका मैंने मत-परिवर्तन किया था। इसके जरिए मैं चाहती थी कि भाई-बहन यह महसूस करें कि मैंने सुसमाचार कार्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया है ताकि वे मेरी और भी अधिक आराधना करें। मैंने अपने अनुभवों का उपयोग करके भाई-बहनों को निर्देश दिए कि क्या करना है और इसका नतीजा यह हुआ कि जब भी उन्हें कोई समस्या या कठिनाई होती, वे मेरे पास आते। वे मुझसे सुसमाचार प्रचार करने के लिए कहते और यहाँ तक कि लंबी दूरी तय करके मुझे खोजने आते, मानो मेरे बिना कोई सुसमाचार प्रचार नहीं कर सकता। अगर यह जारी रहता तो क्या मैं लोगों को अपने ही सामने नहीं ला रही होती? क्या यह वही नहीं था जो मसीह-विरोधी करते हैं? कोई आश्चर्य नहीं कि सुसमाचार कार्य में कोई नतीजा नहीं मिल रहा था, मैं तो पहले ही गलत मार्ग पर चल पड़ी थी और परमेश्वर के खिलाफ जा रही थी। परमेश्वर मुझे क्यों आशीष या मार्गदर्शन देगा? परमेश्वर को पहले ही मुझसे घृणा हो चुकी थी! इस स्थिति में होने के बावजूद, मैंने आत्मचिंतन करने के बारे में नहीं सोचा, यहाँ तक कि जब मैं नकारात्मक और दमित महसूस कर रही थी तब भी मुझे यह साहस नहीं हुआ कि मैं भाई-बहनों के सामने अपनी स्थिति के बारे में खुलकर बता सकूँ क्योंकि मुझे भय था कि इससे उनके मन में बनी मेरी अच्छी छवि खराब हो जाएगी। मैं खुद को यह दिखाने के लिए मजबूर करती रही कि मैं कितनी अच्छी हूँ और अपनी कमजोरियाँ छिपाती रही। मैं कितनी पाखंडी थी! जितना मैंने इसके बारे में सोचा, उतना ही मैं डर गई, मैं बिना समझे मसीह-विरोधियों के मार्ग पर कैसे चल पड़ी? किस तरह के स्वभाव ने मुझसे ऐसा करवाया? इसलिए मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, उससे प्रबुद्धता और मार्गदर्शन माँगा ताकि मैं अपने प्रकृति सार को समझ सकूँ।
बाद में, मैंने एक अनुभवजन्य गवाही वीडियो देखा और उसमें उद्धृत परमेश्वर के वचनों के एक अंश ने मुझे मेरी भ्रष्ट प्रकृति के बारे में कुछ अंतर्दृष्टि दी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “शैतान द्वारा मनुष्यों को भ्रष्ट किए जाने के बाद से उनकी प्रकृति बिगड़नी शुरू हो गई है और उन्होंने धीरे-धीरे सामान्य लोगों में मौजूद समझ को खो दिया है। मनुष्य होते हुए भी लोगों ने मनुष्य की तरह बरताव करना बंद कर दिया है; बल्कि, वे जंगली आकांक्षाओं से भरे हुए हैं; वे मनुष्य की स्थिति पार कर चुके हैं, फिर भी, वे और भी ऊँचे जाने की लालसा रखते हैं। यह ‘और भी ऊँचे’ क्या दर्शाता है? वे परमेश्वर से बढ़कर होना चाहते हैं, स्वर्ग से बढ़कर होना चाहते हैं, और बाकी सभी से बढ़कर होना चाहते हैं। लोगों के ऐसे स्वभाव प्रकट करने का मूल कारण क्या है? कुल मिलाकर यही नतीजा निकलता है कि मनुष्य की प्रकृति बहुत अधिक अहंकारी है। ... जब लोग अपनी प्रकृति और सार में अहंकारी हो जाते हैं, तो वे परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह और उसका विरोध कर सकते हैं, उसके वचनों पर ध्यान नहीं देते, उसके बारे में धारणाएं उत्पन्न करते हैं, उसे धोखा देने वाले, अपना उत्कर्ष करने वाले और अपनी ही गवाही देने वाले काम करते हैं। तुम्हारा कहना है कि तुम अहंकारी नहीं हो, लेकिन मान लो कि तुम्हें कलीसिया चलाने और उसकी अगुआई करने की जिम्मेदारी दे दी जाती है; मान लो कि मैंने तुम्हारे साथ काट-छाँट नहीं की, और परमेश्वर के परिवार के किसी सदस्य ने तुम्हारी आलोचना या सहायता नहीं की है : कुछ समय तक उसकी अगुआई करने के बाद, तुम लोगों को अपने पैरों पर गिरा लोगे और उनसे अपनी आज्ञा मनवा लोगे कि वे तुम्हारी प्रशंसा और आदर करने लगें। और तुम ऐसा क्यों करोगे? यह तुम्हारी प्रकृति द्वारा निर्धारित होगा; यह स्वाभाविक प्रकटीकरण के अलावा और कुछ नहीं होगा। तुम्हें इसे दूसरों से सीखने की आवश्यकता नहीं है, और न ही दूसरों को तुम्हें यह सिखाने की आवश्यकता है। तुम्हें दूसरों की आवश्यकता नहीं है कि वे तुम्हें निर्देश दें या उसे करने के लिए तुम्हें विवश करें; इस तरह की स्थिति स्वाभाविक रूप से आती है। तुम जो भी करते हो, वह इसलिए होता है कि लोग तुम्हारी बड़ाई करें, तुम्हारी प्रशंसा करें, तुम्हारी आराधना करे, तुम्हारी आज्ञा मानें और हर बात में तुम्हारी सुनें। जब तुम अगुआ बनने की कोशिश करते हो, तो स्वाभाविक रूप से इस तरह की स्थिति पैदा होती है और इसे बदला नहीं जा सकता। यह स्थिति कैसे पैदा होती है? ये मनुष्य की अहंकारी प्रकृति से निर्धारित होती है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध की जड़ में अहंकारी स्वभाव है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि लोग अपनी बड़ाई करने, खुद की गवाही देने और परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाली चीजें करने में सक्षम है और यह सब एक अहंकारी प्रकृति से प्रेरित होता है। अपने क्रियाकलापों और व्यवहार पर विचार करते हुए मैंने देखा कि सुसमाचार प्रचार में पहले जो थोड़ा-बहुत अनुभव मेरे पास था और जो बाइबल का ज्ञान मुझे कुछ भाई-बहनों से थोड़ा अधिक था, उस पर निर्भर करते हुए, मैंने अपनी क्षमताओं को अत्यधिक बढ़ा-चढ़ाकर समझ लिया था, मैंने खुद को विशेष मान लिया था, जिससे मुझे खुद पर इतराने और दिखावा करने की इच्छा होने लगी थी। सुसमाचार प्रचार में कुछ नतीजे मिलने और कुछ लोगों को हासिल करने के बाद, मैं इतनी घमंडी हो गई कि मैंने अपनी समझ ही पूरी तरह से खो दी, मैं हर किसी के सामने डींग मारती रही और चाहती थी कि मेरी उपलब्धियों के बारे में पूरी दुनिया जाने। मैं इतनी घमंडी और विवेकहीन कैसे हो सकती थी? सत्य परमेश्वर के वचनों में व्यक्त होता है और भले ही मैंने भाई-बहनों के साथ सभाएँ और परमेश्वर के वचनों पर संगति करते हुए थोड़ा प्रकाश डाला हो, वह प्रकाश परमेश्वर की प्रबुद्धता के कारण था। अगर मुझे सुसमाचार प्रचार में कुछ अनुभव था भी तो यह परमेश्वर के कारण था जिसने मुझे पहले से प्रशिक्षित करने और वह अनुभव अर्जित करने की परिस्थितियाँ बनाईं। यह मेरी किसी विशेष क्षमता या कौशल के कारण नहीं था। इसके अलावा, क्या मेरी बुद्धिमत्ता और वाक्पटुता भी परमेश्वर की देन नहीं थी? लेकिन मैंने परमेश्वर के कार्य से प्राप्त नतीजों को अपनी उपलब्धियाँ मान लिया और हर जगह उनके बारे में डींग मारती रही, लोगों को अपनी आराधना करने और आदर करने पर मजबूर किया। मैं वाकई बेशर्म और आत्म-जागरूकता से पूरी तरह रहित थी! मैंने सोचा कि परमेश्वर के अनुग्रह से ही मैं सुपरवाइजर बनी थी और इसका उद्देश्य यह था कि मैं भाई-बहनों को सिखा सकूँ कि धार्मिक धारणाओं को हल करने के लिए सत्य की संगति कैसे करें, अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य की गवाही कैसे दें और सत्य से प्रेम करने वाले अधिक लोगों को परमेश्वर के सामने कैसे लाएँ। लेकिन मैंने अपने कर्तव्य का उपयोग अपनी बड़ाई और दिखावा करने के लिए किया, जिससे लोग मेरी आराधना और आदर करने लगे, जिससे सुसमाचार कार्य में गंभीर गड़बड़ी और बाधा पैदा हुई। मेरे क्रियाकलाप और व्यवहार सचमुच परमेश्वर के शाप और दंड के पात्र थे! वे मसीह-विरोधी जिन्हें निष्कासित किया गया, उन्होंने लगातार अपनी बड़ाई की और खुद की गवाही दी, अपने राज्य बनाने की कोशिश की और परमेश्वर के स्वभाव का गंभीर रूप से अपमान किया, जिसके कारण उन्हें कलीसिया से निष्कासित कर दिया गया। अगर मैंने पश्चात्ताप नहीं किया तो मेरा भी अंत उन मसीह-विरोधियों जैसा ही होता, क्योंकि यह एक ऐसा मार्ग है जो विनाश, परमेश्वर की निंदा और शाप की ओर ले जाता है। यह महसूस करते हुए, मुझे खुद से और अधिक घृणा होने लगी और मैं खुद से नफरत करने लगी।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “परमेश्वर की पहचान, सार और स्वभाव उदात्त और आदरणीय हैं, लेकिन वह कभी दिखावा नहीं करता। परमेश्वर विनम्र और छिपा हुआ है, इसलिए लोगों को नहीं दिखता कि उसने क्या किया है, लेकिन जब वह ऐसी गुमनामी में कार्य करता है, तो लोगों को निरंतर समर्थन, पोषण और मार्गदर्शन मिलता है—और इन सब चीजों की व्यवस्था परमेश्वर करता है। क्या यह प्रच्छन्नता और विनम्रता नहीं है कि परमेश्वर इन बातों को कभी घोषित नहीं करता, कभी इनका उल्लेख नहीं करता? परमेश्वर विनम्र ठीक इसलिए है, क्योंकि वह ये चीजें करने में सक्षम है लेकिन कभी इनका उल्लेख या घोषणा नहीं करता, और लोगों के साथ इनके बारे में बहस नहीं करता। तुम्हें विनम्रता के बारे में बोलने का क्या अधिकार है, जब तुम ऐसी चीजें करने में असमर्थ हो? तुमने इनमें से कोई चीज नहीं की है, फिर भी इनका श्रेय लेने पर जोर देते हो—इसे बेशर्म होना कहा जाता है। मानव-जाति का मार्गदर्शन करते हुए परमेश्वर ऐसा महान कार्य करता है, और वह पूरे ब्रह्मांड का संचालन करता है। उसका अधिकार और सामर्थ्य बहुत व्यापक है, फिर भी उसने कभी नहीं कहा, ‘मेरा सामर्थ्य असाधारण है।’ वह सभी चीजों के बीच छिपा रहता है, हर चीज का संचालन करता है, और मानव-जाति का भरण-पोषण करता है, जिससे पूरी मानव-जाति का अस्तित्व पीढ़ी-दर-पीढ़ी बना रहता है। उदाहरण के लिए, हवा और धूप को या पृथ्वी पर मानव-अस्तित्व के लिए आवश्यक सभी भौतिक वस्तुओं को लो—ये सब लगातार बहती रहती हैं। परमेश्वर मनुष्य का पोषण करता है, यह असंदिग्ध है। अगर शैतान कुछ अच्छा करे, तो क्या वह चुप रहेगा, और एक गुमनाम नायक बना रहेगा? कभी नहीं। वह वैसा ही है, जैसे कलीसिया में कुछ मसीह-विरोधी हैं, जिन्होंने पहले जोखिम भरा काम किया, जिन्होंने चीजें त्याग दीं और कष्ट सहे, जो शायद जेल भी गए हों; ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने कभी परमेश्वर के घर के कार्य के एक पहलू में योगदान दिया था। वे ये चीजें कभी नहीं भूलते, उन्हें लगता है कि इन कामों के लिए वे आजीवन श्रेय के पात्र हैं, वे सोचते हैं कि ये उनकी जीवन भर की पूँजी हैं—जो दर्शाता है कि लोग कितने ओछे हैं! लोग सच में ओछे हैं, और शैतान बेशर्म है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग दो))। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद, मैंने गहरी शर्म महसूस की। देहधारी परमेश्वर विनम्रता से खुद को भ्रष्ट मनुष्यों के बीच छुपाए रहता है, चुपचाप मानवजाति को बचाने का कार्य करता है, हमें उन सभी सत्यों का सिंचन और आपूर्ति करता है जिनकी हमें आवश्यकता होती है, लेकिन परमेश्वर कभी भी मानवता के सामने इसका ऐलान नहीं करता और न ही अपने कार्यों का श्रेय लेता है। लेकिन जहाँ तक मेरी बात है, मैं कुछ भी नहीं हूँ, फिर भी सुसमाचार प्रचार करके कुछ लोगों का मत-परिवर्तन करने, सुसमाचार कार्य में थोड़ा अनुभव पाने और कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को रटने में सक्षम होने के बाद मैंने सोचा कि मैं बहुत बड़ी चीज हूँ और मैंने इन सबको जीवन भर की पूंजी और उपलब्धियाँ मान लिया और मैं जहाँ भी जाती इनका बखान करती थी और चाहती कि दुनिया भर के लोग इनके बारे में जानें। मैं सचमुच बहुत विवेकहीन और बेशर्म थी!
बाद में मैंने सोचा, “मैं अपनी बड़ाई करने और खुद की गवाही देने से कैसे बच सकती हूँ?” अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “तो कार्य करने का कौन-सा तरीका खुद को ऊँचा उठाना और अपने बारे में गवाही देना नहीं है? अगर तुम किसी मामले के संबंध में दिखावा करते और अपने बारे में गवाही देते हो, तो तुम यह परिणाम प्राप्त करोगे कि, कुछ लोग तुम्हारे बारे में ऊँची राय बनाएँगे और तुम्हारी पूजा करेंगे। लेकिन अगर तुम उसी मामले के संबंध में खुद को उजागर कर देते हो, और अपने आत्मज्ञान को साझा करते हो, तो उसकी प्रकृति अलग होती है। क्या यह सच नहीं है? अपने आत्मज्ञान के बारे में बात करने के लिए खुद को पूरी तरह उजागर कर देना, कुछ ऐसा है जो साधारण मानवता में होनी चाहिए। यह एक सकारात्मक चीज है। अगर तुम वास्तव में खुद को जानते हो और अपनी अवस्था के बारे में सही, वास्तविक और सटीक ढंग से बोलते हो; अगर तुम उस ज्ञान के बारे में बोलते हो जो पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों पर आधारित है; अगर तुम्हें सुनने वाले इससे सीखते और लाभान्वित होते हैं; और अगर तुम परमेश्वर के कार्य की गवाही देते हो और उसे महिमामंडित करते हो, तो यह परमेश्वर के बारे में गवाही देना है। अगर खुद को पूरी तरह उजागर करने के माध्यम से, तुम अपनी खूबियों के बारे में खूब बोलते हो और इस बारे में कि तुमने कैसे कष्ट उठाया, और कैसे कीमत चुकाई और अपनी गवाही में कैसे दृढ़ता से खड़े रहे, और इसके परिणामस्वरूप लोग तुम्हारे बारे में ऊँची राय रखते हैं और तुम्हारी पूजा करते हैं, तो यह अपने बारे में गवाही देना है। तुम्हें इन दो व्यवहारों के बीच अंतर बता पाने में समर्थ होना चाहिए। उदाहरण के लिए, यह बताना परमेश्वर की बड़ाई करना और उसके बारे में गवाही देना है कि परीक्षणों का सामना करते समय तुम कितने कमजोर और नकारात्मक थे, और कैसे प्रार्थना करने और सत्य खोजने के बाद तुमने अंततः परमेश्वर का इरादा समझा, आस्था प्राप्त की और अपनी गवाही में दृढ़ रहे। यह दिखावा करना और अपने बारे में गवाही देना बिल्कुल नहीं है। इसलिए, तुम दिखावा कर रहे हो और अपने बारे में गवाही दे रहे हो या नहीं, यह मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि तुम अपने वास्तविक अनुभवों के बारे में बात कर रहे हो या नहीं, और इस पर भी कि क्या तुम परमेश्वर के बारे में गवाही देने का परिणाम हासिल करते हो; यह भी देखना आवश्यक है कि जब तुम अपनी अनुभवात्मक गवाही के बारे में बात करते हो, तो तुम्हारे इरादे और उद्देश्य क्या हैं। ऐसा करने से यह पहचानना आसान हो जाएगा कि तुम किस प्रकार के व्यवहार में लिप्त हो” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद चार : वे अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं)। “जब तुम परमेश्वर के लिए गवाही देते हो, तो तुमको मुख्य रूप से इस बारे में बात करनी चाहिए कि परमेश्वर कैसे न्याय करता है और कैसे लोगों को ताड़ना देता है, लोगों का शोधन करने और उनके स्वभाव में परिवर्तन लाने के लिए किन परीक्षणों का उपयोग करता है। तुम लोगों को इस बारे में भी बात करनी चाहिए कि तुम्हारे अनुभव में कितनी भ्रष्टता उजागर हुई, तुमने कितना कष्ट सहा, परमेश्वर का विरोध करने के लिए तुमने कितनी चीजें कीं, और आखिरकार परमेश्वर ने कैसे तुम लोगों को जीता; इस बारे में भी बात करो कि परमेश्वर के कार्य का कितना वास्तविक ज्ञान तुम्हारे पास है और तुम्हें परमेश्वर के लिए कैसे गवाही देनी चाहिए और कैसे परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाना चाहिए। तुम्हें इन बातों को सरलता से प्रस्तुत करते हुए, इस प्रकार की भाषा में सत्व डालना चाहिए। खोखले सिद्धांतों की बातें मत करो। वास्तविक बातें अधिक किया करो; दिल से बातें किया करो। तुम्हें इसी प्रकार चीजों का अनुभव करना चाहिए। अपने आपको बहुत ऊँचा दिखाने की कोशिश मत करो, दिखावा करने के लिए खोखले सिद्धांतों की बात मत करो; ऐसा करने से तुम्हें बहुत घमंडी और तर्कहीन माना जाएगा। तुम्हें अपने वास्तविक अनुभव की असली, सच्ची और दिल से निकली बातों पर ज्यादा बोलना चाहिए; यह दूसरों के लिए सबसे अधिक लाभकारी होगा और उनके समझने के लिए सबसे उचित होगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि अपनी बड़ाई करने और खुद की गवाही देने से बचने के लिए व्यक्ति को अधिक खुलकर बात करनी चाहिए, अपने असली चेहरे को सबके सामने बेनकाब करना चाहिए, और अपने द्वारा प्रकट की गई भ्रष्टता और कमजोरियों, अपने बारे में खुद की समझ और अंततः, समस्याएँ हल करने के लिए सत्य का अभ्यास करने के अपने तरीकों के बारे में ईमानदारी से संगति करनी चाहिए। उन्हें इन सभी चीजों पर खुल कर संगति करनी चाहिए और कुछ भी छुपाना नहीं चाहिए। इस बात को समझने के बाद मैंने भाई-बहनों के सामने खुलकर बात की और कहा, “जब हम साथ में अपने कर्तव्यों को निभा रहे थे, तब मैं हमेशा अपनी बड़ाई करने और खुद को ऊँचा दिखाने की कोशिश करती थी और इस बारे में बात करती थी कि मैंने सुसमाचार प्रचार करके कितने लोगों को हासिल किया है और सुसमाचार कार्य में मैंने क्या योगदान दिए हैं, मुझे उम्मीद थी कि तुम सभी लोग मेरी आराधना और प्रशंसा करोगे। अब मैंने देखा कि मैं वास्तव में अपना कर्तव्य बिल्कुल भी नहीं निभा रही थी; मैं बुराई कर रही थी! सत्य परमेश्वर के वचनों में व्यक्त होता है। मैं तो केवल अपनी थोड़ी-सी समझ-बूझ पर संगति कर रही थी, तो फिर मुझे किस बात का घमंड था? लेकिन फिर भी मैंने लोगों को मेरा आदर और मेरी प्रशंसा करने के लिए मजबूर किया। मैं रुतबे को लेकर पूरी तरह से जुनूनी थी और सच में घमंडी थी!” यह सुनकर एक बहन ने कहा, “हाँ, हम वाकई तुम्हारा आदर करते थे।” मेरे साथ पहले काम कर चुके एक भाई ने भी कहा, “उस दौरान बहुत से लोग तुम्हारी प्रशंसा करते थे और मुझे लगता था कि मैं कुछ भी नहीं हूँ।” मैं थोड़ी बेचैन हो गई और मैंने कहा, “मैं कितनी बड़ी पाखंडी थी, हमेशा अपनी अच्छी छवि दिखाती थी और सच तो यह है कि जब कार्य का कोई नतीजा नहीं आता था तो मैं काफी नकारात्मक हो जाती थी, लेकिन मैंने कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं की, क्योंकि मुझे डर था कि तुम सब मुझे तुच्छ समझोगे।” हमने काफी देर तक बात की और बात करने के बाद मुझे अपने दिल में मुक्ति की भावना महसूस हुई। उसके बाद से जब भी मैंने भाई-बहनों के साथ बातचीत की, मैंने अपने इरादों और खुलासों की जाँच पर ध्यान केंद्रित करके शुरुआत की, जब भी मुझे दिखावा करने की इच्छा होती तो मैं तुरंत उसके खिलाफ विरोध करती और खुद को ठीक कर लेती और सजगता से परमेश्वर की बड़ाई करने और उसकी गवाही देने का अभ्यास करती। जब भी मैं सभाओं में संगति करती तो मैं चीजों को छुपाती नहीं थी और अपने असली चेहरे को सबके सामने बेनकाब करती थी। जब भाई-बहन समस्याओं का सामना करते तो मैं परमेश्वर के वचनों को ढूँढ़कर संगति करने पर ध्यान केंद्रित करती थी, उन्हें परमेश्वर की और अधिक प्रार्थना करने और उस पर निर्भर रहने के लिए प्रोत्साहित करती थी। जब मैंने इस तरह अभ्यास किया तो भाई-बहनों को इससे लाभ हुआ और वे शिक्षित हुए और मैंने अपने दिल में शांति और आश्वासन महसूस किया।
अब जब पीछे मुड़कर देखती हूँ तो ऐसा लगता है कि अगर मैंने मसीह-विरोधियों को निष्कासित करने के बारे में सामग्री नहीं पढ़ी होती तो मुझे आत्मचिंतन करने और खुद को जानने के बारे में पता ही नहीं चल पाता। ये परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिस्थितियाँ ही थीं जिन्होंने बुराई की ओर बढ़ते मेरे कदमों को सही समय पर रोक दिया था। भविष्य में, मैं सभी चीजों में परमेश्वर की प्रशंसा करने और उसकी गवाही देने का अभ्यास करूँगी, सत्य का अनुसरण करने और आत्मचिंतन करने पर ध्यान दूँगी और निष्ठापूर्वक एक सृजित प्राणी की स्थिति में खड़ी रहकर अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाऊँगी।