16. मैं अब कायर नहीं हूँ

सबरीना, फ्रांस

जुलाई 2022 में मैं कलीसिया में नए विश्वासियों का सिंचन कर रही थी। लूसिया सिंचन उपयाजक थी, जो मेरे काम के लिए जिम्मेदार थी। कलीसिया अगुआ रूथी का लूसिया के बारे में अनुकूल दृष्टिकोण था, अक्सर वह हमारे सामने उसकी अच्छी काबिलियत और मजबूत कार्य क्षमता की प्रशंसा करती थी, उसे कलीसिया के सिंचन कार्य का स्तंभ बताती थी। इसलिए मैं भी लूसिया का बहुत सम्मान करती थी। लेकिन कुछ समय तक लूसिया के साथ बातचीत करने के बाद मैंने पाया कि वह मामले सँभालने के तरीके में सत्य सिद्धांत नहीं खोजती थी और मनमाने ढंग से कर्मियों में बदलाव करती थी। कई बार उसने जिन सिंचनकर्ताओं की व्यवस्था की, वे सिद्धांतों के अनुरूप नहीं थे और एक महीने से भी कम समय में उसने उन्हें बदल दिया। सिंचनकर्ताओं में बार-बार बदलाव से नए विश्वासियों का सिंचन कार्य बुरी तरह प्रभावित हुआ। इसके अलावा अपने काम में वह केवल नारेबाजी ही करती थी और हमारी असली कठिनाइयाँ हल किए बिना सतही कामों में लगी रहती थी। जब भी हमारे सिंचन के नतीजे अन्य कलीसियाओं की तुलना में अच्छे नहीं होते थे, तो वह बहुत नाराज हो जाती थी, हमें लगातार डाँटती रहती थी जैसे कोई वयस्क बच्चों को डाँटता है। भाई-बहन उससे लगातार बेबस होते जा रहे थे, उसे देखकर बोलने की हिम्मत नहीं कर पाते थे, वे दमन की तीव्र भावना महसूस कर रहे थे। अगुआ रूथी लूसिया के व्यवहार से अवगत थी, लेकिन उसने कभी भी संगति के जरिए उसकी समस्याओं को हल नहीं किया।

मई 2023 में एक सभा के दौरान उच्च-स्तरीय अगुआओं ने हमारे साथ मसीह-विरोधियों, नकली अगुआओं और बुरे लोगों का भेद पहचानने के बारे में सत्य पर संगति की और हमें सत्य का अभ्यास करने, मसीह-विरोधियों, नकली अगुआओं और बुरे लोगों के किसी भी व्यवहार और अभिव्यक्तियों को देखने पर उन्हें उजागर करने के लिए प्रोत्साहित किया। सभा के बाद भाई जैस्पर मेरे पास आए और कहा, “सिंचन उपयाजक लूसिया सिद्धांतों का पालन किए बिना लोगों के चुनाव और उनका उपयोग करने में लापरवाह है और अक्सर भाई-बहनों को फटकार लगाती है। मैंने उसके बारे में तुम्हारी बताई गई समस्याओं के बारे में सुना है। चूँकि तुम्हारा लूसिया से संपर्क ज्यादा है और तुम उसके व्यवहारों से अधिक परिचित हो, इसलिए मेरा सुझाव है कि तुम इन मुद्दों की रिपोर्ट कर दो। यह न्याय का कार्य है।” जैस्पर के शब्द सुनकर मुझे भी लगा कि लूसिया के मुद्दों की रिपोर्ट की जानी चाहिए और मैंने उसी दिन एक रिपोर्ट पत्र जमा करने के लिए सहमति जताई। मैं उसे लिखने ही वाली थी कि अचानक मुझे खयाल आया कि रूथी और लूसिया सीधे मेरे काम का पर्यवेक्षण करती हैं और अगर मैंने रिपोर्ट पत्र जमा किया, तो यह उनके हाथों से होकर गुजरेगा। लूसिया आमतौर पर काफी दबंग थी और अक्सर मुझ पर अपने कर्तव्य में गैर-जिम्मेदार होने और अपने काम में नतीजे प्राप्त करने पर ध्यान केंद्रित न करने का आरोप लगाती थी। अगर उसे पता चला कि मैंने उसकी रिपोर्ट की है, तो क्या वह मुझे दंडित करेगी, मेरे लिए जीवन कठिन बना देगी या यहाँ तक कि मुझे बरखास्त कर देगी या कोई और काम सौंप देगी? इन बातों ने मुझे बहुत डरा दिया और उलझन में डाल दिया और मैंने मन में सोचा, “बेहतर होगा कि मैं आँखें मूँदे रखूँ। उनके लिए परेशानी खड़ी करना अपने लिए ही परेशानी खड़ी करने जैसा होगा। मैं अपने कर्तव्य पूरे करने का अवसर नहीं खोना चाहती। खुद को बचाना अधिक जरूरी है।” इसके अलावा चूँकि उस दिन बहुत सी चीजों से निपटना था, इसलिए मैंने रिपोर्ट पत्र न लिखने का फैसला किया और व्यस्त होने का बहाना बना दिया। अगले दिन जैस्पर ने एक संदेश भेजा जिसमें पूछा गया कि क्या मैंने रिपोर्ट जमा कर दी है। जब मैंने संदेश देखा, तो मेरा चेहरा लाल हो गया और दिल में गहरी शर्मिंदगी महसूस हुई। मैंने जवाब में बस “नहीं” कहा। जैस्पर ने आगे कुछ नहीं कहा।

अगले कुछ दिन मुझे बहुत बेचैनी महसूस हुई और मैं अपराध-बोध से ग्रस्त रही। अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “अगर अपने जीवन में तुम अक्सर दोषारोपण करने की भावना रखते हो, अगर तुम्हारे हृदय को सुकून नहीं मिलता, अगर तुम शांति या आनंद से रहित हो, और अक्सर सभी प्रकार की चीजों के बारे में चिंता और घबराहट से घिरे रहते हो, तो यह क्या प्रदर्शित करता है? केवल यह कि तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते, परमेश्वर के प्रति अपनी गवाही में दृढ़ नहीं रहते। जब तुम शैतान के स्वभाव के बीच जीते हो, तो तुम्हारे अक्सर सत्य का अभ्यास करने में विफल होने, सत्य से विश्वासघात करने, स्वार्थी और नीच होने की संभावना है; तुम केवल अपनी छवि, अपना नाम और हैसियत, और अपने हित कायम रखते हो। हमेशा अपने लिए जीना तुम्हें बहुत दर्द देता है। तुम इतनी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं, उलझावों, बेड़ियों, गलतफहमियों और झंझटों में जकड़े हुए हो कि तुम्हें लेशमात्र भी शांति या आनंद नहीं मिलता। भ्रष्ट देह के लिए जीने का मतलब है अत्यधिक कष्ट उठाना(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन प्रवेश कर्तव्य निभाने से प्रारंभ होता है)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मुझे स्पष्ट रूप से एहसास हुआ कि मेरी असहजता और अपराध-बोध सत्य का अभ्यास करने के बजाय अपने हितों की रक्षा करने और खुद को बचाने के कारण थे। मैं अच्छी तरह से जानती थी कि नकली अगुआओं, मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों को उजागर करना और उनकी रिपोर्ट करना परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से हर एक की जिम्मेदारी है और सत्य का एक पहलू है जिसका अभ्यास किया जाना चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों द्वारा कलीसिया के कार्य को पहुँचाया गया नुकसान इतना बड़ा होता है कि अंतरात्मा और विवेक वाले किसी भी व्यक्ति को कलीसिया के कार्य की रक्षा के लिए उनकी रिपोर्ट करनी चाहिए और उन्हें उजागर करना चाहिए। फिर भी जब मुझे समस्याओं का पता चला, तब भी मेरे पास उन्हें रिपोर्ट करने का साहस नहीं था, मुझे डर था कि रूथी और लूसिया मेरी रिपोर्ट देखने के बाद मेरा दमन कर सकती हैं और पलटवार कर सकती हैं। मैंने कलीसिया के कार्य की रक्षा करने के बजाय चापलूस बनना पसंद किया और यह नहीं सोचा कि अपने कर्तव्य कैसे पूरे किए जाएँ और अपनी गवाही में अडिग कैसे रहा जाए। मैं बहुत स्वार्थी और नीच थी! यह महसूस करने के बाद मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं रिपोर्ट लिखने का साहस न कर पाने के कारण बहुत स्वार्थी और नीच हूँ। मुझे बहुत अपराध-बोध होता है। हे परमेश्वर, मुझे सत्य का अभ्यास करने के लिए आस्था और साहस प्रदान करो।”

आने वाले दिनों में मुझे लूसिया के साथ और भी अधिक समस्याएँ दिखीं। एक कार्य की रिपोर्ट में उसने कहा कि पाँच नए सदस्यों में सत्य की प्यास नहीं है या वे सभाओं में नियमित रूप से नहीं आते हैं और उसकी योजना उनका सिंचन और मदद बंद करने की है। लेकिन वास्तव में इनमें से कुछ नए सदस्य बीमार थे, कुछ काम में व्यस्त थे और अन्य के वास्तविक पारिवारिक मुद्दे थे जिन्हें हल करने की जरूरत थी, जिसके कारण वे कुछ समय के लिए सभाओं में नियमित रूप से नहीं आ पा रहे थे और नए सदस्य खुद भी इस बात से परेशान थे। चूँकि नए सदस्यों की अनियमित उपस्थिति ने लूसिया के काम के नतीजों को प्रभावित किया था, इसलिए उसने इन नए सदस्यों को छोड़ दिया जिन्हें सिंचन और सहायता की जरूरत थी। हमें लगा कि यह स्पष्ट रूप से सिद्धांतों का उल्लंघन है और गैर-जिम्मेदाराना है, इसलिए हमने लूसिया की रिपोर्ट के उस हिस्से को संशोधित किया जो तथ्यात्मक नहीं था। जब लूसिया ने ये बदलाव देखे, तो वह नाराज हो गई और उसने हमसे पूछा कि हमने ये बदलाव क्यों किए। जब मैंने कारण बताया, तो लूसिया और भी क्रोधित हो गई और मुझे डाँटते हुए बोली, “तुम हीरो की तरह क्यों काम कर रही हो? हर कोई सिद्धांत जानता है, केवल तुम हो जो उन्हें नहीं समझती। तुम आखिर कौन सा सिंचन कार्य कर रही हो?” मैं पूरी तरह से भ्रमित हो गई। सिद्धांतों के अनुसार वे पाँच नए सदस्य ऐसे लोग नहीं थे जिनमें सत्य की प्यास नहीं थी; वे ऐसे थे जिन्हें सिंचन और समर्थन की आवश्यकता थी और हमारे लिए उचित यह था कि हम ऐसी सामग्री में सुधार करें जो तथ्यों के अनुरूप नहीं है। तो लूसिया इतनी क्रोधित क्यों थी और मुझ पर हीरो बनने की कोशिश करने का आरोप क्यों लगा रही थी? मुझे लगा कि उसके साथ कुछ गड़बड़ तो है। वह सिंचन उपयाजक थी, इसलिए अगर वह सिद्धांतहीन होकर काम करती, तो सिंचन कार्य पर असर पड़ता और परिणाम भयानक हो सकते थे। मैंने सोचा कि पिछली बार रिपोर्ट पत्र लिखने का साहस मेरे पास कैसे नहीं था और कैसे मैंने सत्य का अभ्यास करने का अवसर गँवाया, जिससे मुझे ऋणी होने का भाव पैदा हुआ। इस बार मुझे उसकी समस्याओं के बारे में उच्च अगुआओं को बताना था। लेकिन मेरे दिमाग में एक विचार कौंधा, “अगर मैं लूसिया की समस्याएँ बताने सीधे अगुआ रूथी के पास जाती हूँ, तो क्या वह यह सोचेगी कि मैं लूसिया के लिए मुश्किलें खड़ी करने वाली हूँ?” मुझे याद आया कि कैसे एक साल पहले जब लूसिया पहली बार हमारी कलीसिया में आई तो रूथी बहुत खुश हुई थी, उसने कहा था कि लूसिया में अच्छी काबिलियत और मजबूत कार्य क्षमताएँ हैं और वह कलीसिया का स्तंभ है। इसके अलावा रूथी लूसिया के सिद्धांतहीन होकर काम करने और दूसरों को दबाने और उपदेश देने की उसकी प्रवृत्ति से अच्छी तरह वाकिफ थी, मगर उसने हमेशा लूसिया की समस्याओं को लेकर आँखें मूँदे रखी थीं। यह देखकर कि रूथी लूसिया को कितना सम्मान देती थी, क्या वह मेरी रिपोर्ट को गंभीरता से लेगी? क्या वह लूसिया का बचाव करेगी और मेरे लिए मुश्किलें खड़ी करेगी, मुझे मेरे कर्तव्य करने से रोकेगी? इन बातों के ध्यान में आने पर मैं चिंताओं से भर गई, यह तय नहीं कर पा रही थी कि मुझे लूसिया की समस्याएँ रूथी के सामने लानी चाहिए या नहीं। मुझे एहसास हुआ कि मैं एक बार फिर खुद को बचाने की कोशिश कर रही हूँ। इसलिए उस शाम मैंने अपनी दशा से जुड़े प्रासंगिक अनुभवजन्य गवाही लेख पढ़ने के लिए खोज निकाले। उनमें से एक में परमेश्वर के वचनों का एक अंश उद्धृत था जिसने मुझे वास्तव में प्रभावित किया। मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “तुम सभी कहते हो कि तुम परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील हो और कलीसिया की गवाही की रक्षा करोगे, लेकिन वास्तव में तुम में से कौन परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील रहा है? अपने आप से पूछो : क्या तुम उसके बोझ के प्रति विचारशील रहे हो? क्या तुम उसके लिए धार्मिकता का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुम मेरे लिए खड़े होकर बोल सकते हो? क्या तुम दृढ़ता से सत्य का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुममें शैतान के सभी दुष्कर्मों के विरुद्ध लड़ने का साहस है? क्या तुम अपनी भावनाओं को किनारे रखकर मेरे सत्य की खातिर शैतान का पर्दाफाश कर सकोगे? क्या तुम मेरे इरादों को स्वयं में संतुष्ट होने दोगे? सबसे महत्वपूर्ण क्षणों में क्या तुमने अपने दिल को समर्पित किया है? क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो मेरी इच्छा पर चलता है? स्वयं से ये सवाल पूछो और अक्सर इनके बारे में सोचो(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 13)। परमेश्वर के वचनों के सवालों ने मुझे गहरी शर्म और अपराध-बोध से भर दिया। मैंने साफ देखा कि लूसिया अपने कर्तव्य में सिद्धांतों का पालन नहीं कर रही थी, अक्सर अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार व्यवहार करती थी और भाई-बहनों को उपदेश देने में उतावलेपन से काम लेती थी। मुझे लूसिया की समस्याओं के भेद की कुछ पहचान थी और मैं उन्हें रूथी को बताना चाहती थी, लेकिन मुझे चिंता थी कि लूसिया पलटकर बदला ले सकती है और मेरे लिए चीजें मुश्किल बना सकती है और मुझे डर था कि रूथी लूसिया को बचा सकती है और मुझे दबा सकती है या दरकिनार कर सकती है। नतीजतन मैंने खुद को बचाया और समस्याओं की रिपोर्ट नहीं की। उस दौरान मेरा दिल हमेशा परमेश्वर के बोझ पर विचार किए बिना अपने हितों की रक्षा करने पर केंद्रित रहता था और मैं कलीसिया के कार्य की रक्षा करने में विफल रही। महत्वपूर्ण क्षणों में मैं बार-बार पीछे हट जाती थी, सत्य का अभ्यास नहीं करती थी या सिद्धांत कायम नहीं रखती थी। जब मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया, तो मुझे उसका इरादा समझ में आया और मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। इसलिए मैंने लूसिया की समस्याओं की रिपोर्ट रूथी को करने का साहस जुटाया।

अगले दिन रूथी ने मुझसे और कई अन्य टीम अगुआओं से लूसिया का मूल्यांकन लिखने के लिए कहा। मैंने उन सभी मुद्दों को यथासंभव विस्तार से लिखा जो मैंने देखे थे, लेकिन मुझे अभी भी कुछ चिंताएँ थीं क्योंकि मैं सोचती थी कि रूथी लूसिया को बचा सकती है और मुझे किनारे कर सकती है या दबा सकती है। इसलिए मैंने मूल्यांकन में एक पंक्ति जोड़कर खुद को कुछ राहत दे दी, “मैंने ये समस्याएँ पूरी तरह से स्पष्ट रूप से नहीं देखी हैं, इसलिए मैं उन्हें सभी के साथ मूल्यांकन करने के लिए रिपोर्ट कर रही हूँ।” मैंने सोचा था कि जब रूथी लूसिया के मूल्यांकन एकत्र कर लेगी, तो वह लूसिया को बरखास्त कर देगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और दिन बीतते चले गए। मैं फिर से यह सोचकर चिंतित होने लगी, “सभी ने लूसिया के बारे में अपने मूल्यांकन लिखे हैं और भले ही वह बरखास्तगी लायक न पाई जाए, उसे उजागर किया जाना चाहिए और उसकी समस्याएँ बताई जानी चाहिए ताकि वह अपनी समस्याएँ पहचान सके। लेकिन अभी भी किसी गतिविधि का संकेत नहीं मिला है। क्या ऐसा हो सकता है कि अगुआ को लगे कि मेरा मूल्यांकन गलत है? क्या वह मुझे बरखास्त करने वाली है?” कुछ दिन बाद लूसिया ने देखा कि दूसरे सिंचनकर्ता और मैं अभी भी उन नए सदस्यों के समर्थन में थे जो नियमित रूप से सभाओं में शामिल नहीं हो रहे थे और वह बहुत परेशान हो गई, हमसे इस बात पर सवाल पूछने लगी कि जो लोग सभाओं में नियमित रूप से शामिल नहीं हो रहे हैं, वे अभी भी कलीसिया में क्यों हैं और हम पर ऐसा जान-बूझकर करने का आरोप लगाया। एक सहकर्मी बैठक के दौरान उसने इस मुद्दे पर हमें फिर से फटकार लगाई और हम पर दबाव डाला कि हम उन नए सदस्यों का समर्थन करना छोड़ दें जो सभाओं में नियमित रूप से शामिल नहीं हो रहे हैं। मुझे लगा कि लूसिया की समस्याएँ काफी गंभीर थीं, लेकिन बाद में जब मैंने देखा कि न केवल उसे बरखास्त नहीं किया गया था, बल्कि उसे काम के एक महत्वपूर्ण हिस्से का पर्यवेक्षण करने के लिए पदोन्नत भी किया गया था, तो मुझे संदेह हुआ कि कहीं मैंने भेद न पहचान पाने के कारण गलत रिपोर्ट तो नहीं की थी। उस दौरान मैं बहुत दमित और हताश महसूस करती थी और मुझे समझ नहीं आता था कि ऐसी स्थिति का सामना कराने के पीछे परमेश्वर का वास्तव में क्या इरादा था और मुझे इसका अनुभव कैसे करना चाहिए। खास तौर पर तब जब लूसिया के पास ऊँचा पद था, अगर उसे सच में पता चलता कि मैंने उसकी समस्याओं की रिपोर्ट की है, तो वह मुझे कोई और कार्य सौंप सकती थी या बरखास्त कर सकती थी या मुझे कलीसिया से निकाल भी सकती थी। इन चीजों के बारे में सोचकर मैं बहुत चिंतित और भयभीत हो गई और मैं अब और लूसिया का भेद नहीं पहचानना चाहती थी।

जुलाई में एक दिन उच्च अगुआओं ने लूसिया की स्थिति का पता लगाने के लिए दो भाइयों को मेरे पास भेजा। तब जाकर मैंने जाना कि जब भाई जैस्पर को पता चला कि मैंने रिपोर्ट पत्र नहीं लिखा तो उसने अपनी इकट्ठा की गई जानकारी की रिपोर्ट उच्च अगुआओं को कर दी थी। मैंने लूसिया के सभी व्यवहारों के बारे में दोनों भाइयों को बता दिया। यह सुनकर वे बहुत हैरान हुए और कहा, “रूथी ने आप सभी से लूसिया का मूल्यांकन लिखने के लिए कहा था, तो लगभग एक महीने तक इस बारे में कुछ किया क्यों नहीं गया?” अंत में दोनों भाइयों ने मुझसे पूछा, “क्या तुम डर गई थीं इसलिए तुमने रिपोर्ट पत्र नहीं लिखा?” भाइयों के सवाल सुनकर मुझे बहुत शर्मिंदगी और अपराध-बोध हुआ। मुझे एहसास हुआ कि मैं कितनी स्वार्थी और नीच थी, हमेशा खुद को बचाने की कोशिश करती थी। मुझे बेहद कायरपन महसूस हुआ। स्थिति की रिपोर्ट करने और यह देखने के बाद कि लूसिया को न केवल बरखास्त नहीं किया गया बल्कि पदोन्नत भी किया गया, मेरे पास आगे कोई रिपोर्ट करने का साहस नहीं बचा था। वास्तव में मैं अच्छी तरह से जानती थी कि लूसिया में समस्याएँ हैं और उसके कई दृष्टिकोण और अभ्यास सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं। उसने अपने काम की प्रभावशीलता, प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर दूसरों को दबाया और डाँटा और उसने असली समस्याओं का समाधान नहीं किया। यहाँ तक कि उसने कई नए सदस्यों को छोड़ भी दिया जिन्हें सिंचन और समर्थन की जरूरत थी। जब मैंने उसकी समस्याओं के बारे में बताया, तो उसने मुझे फटकार भी लगाई, मुझ पर हीरो बनने की कोशिश करने का आरोप लगाया। लेकिन उसके रुतबे और ताकत से डरकर और दमित या दंडित किए जाने के डर से मैंने खुद को सत्य सिद्धांतों का पालन करने में असमर्थ पाया और उसे उजागर करने और रिपोर्ट करने का साहस नहीं किया। उस रात मैं बहुत देर तक नहीं सो पाई। मैंने सोचा कि मैं पिछले डेढ़ महीने से कैसे दमन, हताशा और आंतरिक संघर्ष की दशा में जी रही हूँ। मैंने समस्याएँ देखी थीं लेकिन बोलने से बहुत डरती थी और आखिरकार समस्याओं की रिपोर्ट करने के बाद मुझे दबाए जाने का डर था। यह दशा बार-बार आ रही थी। आखिर समस्या क्या थी? मैंने अपनी दशा से संबंधित परमेश्वर के वचनों की खोज की। उस समय मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “किसी अगुआ या कार्यकर्ता के साथ पेश आने के तरीके के संबंध में लोगों का क्या रवैया होना चाहिए? कोई अगुआ या कार्यकर्ता जो करता है, अगर वह सही और सत्य के अनुरूप हो, तो तुम उसका आज्ञा पालन कर सकते हो; अगर वह जो करता है वह गलत है और सत्य के अनुरूप नहीं है, तो तुम्हें उसका आज्ञा पालन नहीं करना चाहिए और तुम उसे उजागर कर सकते हो, उसका विरोध कर एक अलग राय रख सकते हो। अगर वह वास्तविक कार्य करने में असमर्थ हो या कलीसिया के कार्य में बाधा डालने वाले बुरे कार्य करता हो, और खुलासा हो जाता है कि वह एक नकली अगुआ, नकली कार्यकर्ता या मसीह-विरोधी है, तो तुम उसे पहचानकर उजागर कर सकते हो और उसकी रिपोर्ट कर सकते हो। लेकिन, परमेश्वर के कुछ चुने हुए लोग सत्य नहीं समझते और विशेष रूप से कायर होते हैं। वे नकली अगुआओं और मसीह-विरोधियों द्वारा दबाए और सताए जाने से डरते हैं, इसलिए वे सिद्धांत पर बने रहने की हिम्मत नहीं करते। वे कहते हैं, ‘अगर अगुआ मुझे निष्कासित कर दे, तो मैं खत्म हो जाऊँगा; अगर वह सभी लोगों से मुझे उजागर करवा दे या मेरा त्याग करवा दे, तो फिर मैं परमेश्वर में विश्वास नहीं कर पाऊँगा। अगर मुझे कलीसिया से निष्कासित कर दिया गया, तो फिर परमेश्वर मुझे नहीं चाहेगा और मुझे नहीं बचाएगा। और क्या मेरी आस्था व्यर्थ नहीं चली जाएगी?’ क्या ऐसी सोच हास्यास्पद नहीं है? क्या ऐसे लोगों की परमेश्वर में सच्ची आस्था होती है? कोई नकली अगुआ या मसीह-विरोधी जब तुम्हें निष्कासित कर देता है, तो क्या वह परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर रहा होता है? जब कोई नकली अगुआ या मसीह-विरोधी तुम्हें पीड़ा देकर निष्कासित कर देता है, तो यह शैतान का काम होता है और इसका परमेश्वर से कोई लेना-देना नहीं होता; जब लोगों को कलीसिया से निकाला या निष्कासित किया जाता है, तो यह परमेश्वर के इरादों के अनुरूप सिर्फ तभी होता है, जब यह कलीसिया और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच एक संयुक्त निर्णय होता है, और जब निकालना या निष्कासन पूरी तरह से परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं और परमेश्वर के वचनों के सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होता है। किसी नकली अगुआ या मसीह-विरोधी द्वारा निष्कासित किए जाने का यह अर्थ कैसे हो सकता है कि तुम्हें बचाया नहीं जा सकता? यह शैतान और मसीह-विरोधी द्वारा किया जाने वाला उत्पीड़न है, और इसका यह मतलब नहीं कि परमेश्वर द्वारा तुम्हें बचाया नहीं जाएगा। तुम्हें बचाया जा सकता है या नहीं, यह परमेश्वर पर निर्भर करता है। कोई इंसान यह निर्णय लेने के योग्य नहीं कि तुम्हें परमेश्वर द्वारा बचाया जा सकता है या नहीं। तुम्हें इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए। और नकली अगुआ और मसीह-विरोधी द्वारा तुम्हारे निष्कासन को परमेश्वर द्वारा किया गया निष्कासन मानना—क्या यह परमेश्वर की गलत व्याख्या करना नहीं है? बेशक है। और यह परमेश्वर की गलत व्याख्या करना ही नहीं है, बल्कि परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करना भी है। यह एक तरह से परमेश्वर की निंदा भी है। और क्या परमेश्वर की इस तरह गलत व्याख्या करना अज्ञानतापूर्ण और मूर्खता नहीं है? जब कोई नकली अगुआ या मसीह-विरोधी तुम्हें निष्कासित करता है, तो तुम सत्य क्यों नहीं खोजते? कुछ भेद की पहचान प्राप्त करने के लिए तुम किसी ऐसे व्यक्ति को क्यों नहीं खोजते, जो सत्य समझता हो? और तुम उच्च अधिकारियों को इसकी रिपोर्ट क्यों नहीं करते? यह साबित करता है कि तुम्हें इस बात पर विश्वास नहीं है कि परमेश्वर के घर में सत्य सर्वोच्च है, यह दर्शाता है कि तुम्हें परमेश्वर में सच्ची आस्था नहीं है, कि तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करता है। अगर तुम परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता पर भरोसा करते हो, तो तुम नकली अगुआ या मसीह-विरोधी के प्रतिशोध से क्यों डरते हो? क्या वे तुम्हारे भाग्य का निर्धारण कर सकते हैं? अगर तुम भली-भाँति भेद पहचानने और यह पता लगाने में सक्षम हो कि उनके कार्य सत्य के विपरीत हैं, तो परमेश्वर के उन चुने हुए लोगों के साथ संगति क्यों नहीं करते जो सत्य समझते हैं? तुम्हारे पास मुँह है, तो तुम बोलने की हिम्मत क्यों नहीं करते? तुम नकली अगुआ या मसीह-विरोधी से इतना क्यों डरते हो? यह साबित करता है कि तुम कायर, बेकार, शैतान के अनुचर हो(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद तीन : सत्य का अनुसरण करने वालों को वे निकाल देते हैं और उन पर आक्रमण करते हैं)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे एहसास कराया कि इस समय के दौरान लूसिया की रिपोर्ट करने के बारे में मेरी बार-बार की झिझक और कई चिंताएँ और प्रयोजन अगुआओं और कार्यकर्ताओं के प्रति मेरे गलत रवैये और दृष्टिकोण के कारण थे। मैं अगुआओं और कार्यकर्ताओं को बहुत सम्मान देती थी, यह मानती थी कि उनके पास रुतबा और शक्ति है और उन्हें नाराज करने से मेरे लिए मुसीबत खड़ी होगी और संभवतः मुझे अपने कर्तव्यों से हाथ धोना पड़ेगा या यहाँ तक कि कलीसिया से निकाल दिया जाएगा। उस स्थिति में मैं उद्धार का मौका खो दूँगी। इसलिए भले ही मैं लूसिया में साफ तौर पर समस्याएँ देखती थी और उनकी रिपोर्ट करना चाहती थी, मुझे अपने लिए मुश्किलें खड़ी होने, दबाए जाने या प्रतिकार का सामना करने से डर लगता था, इसलिए मैं हमेशा पीछे हट जाती थी और रिपोर्ट करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थी। यहाँ तक कि रूथी को लूसिया की समस्याओं की रिपोर्ट करते समय भी मेरे मन में कुछ शंकाएँ थीं और मैं धोखेबाज भी थी और मैंने अस्पष्ट रूप से बोला, कहा कि मैं लूसिया की समस्याएँ स्पष्ट रूप से नहीं देख पाई और हम सभी को मिलकर उसका मूल्यांकन करना चाहिए। खास तौर पर लूसिया की समस्याओं की रिपोर्ट करने के बाद जब मैंने देखा कि उसे न केवल बरखास्त नहीं किया गया बल्कि वास्तव में पदोन्नत किया गया और वह कुछ हद तक मुझे निशाना बना रही थी, तो मैं और अधिक डर गई। मैंने उसका भेद पहचानना और उसकी रिपोर्ट करना बंद करने का फैसला लिया। इस तरह मैं खुद को दबाए जाने से बच सकती थी और अपने कर्तव्य करती रह सकती थी। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के जरिए मुझे एहसास हुआ कि मैं कितनी अज्ञानी और मूर्ख थी। मेरा मानना था कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा बरखास्त किए जाने या दबाए जाने का मतलब उद्धार का अवसर गँवाना होगा। यह दृष्टिकोण बिल्कुल बेतुका है! मुझमें परमेश्वर में सच्ची आस्था की कमी थी और मुझे विश्वास नहीं था कि परमेश्वर के घर में सत्य का शासन है। मैं परमेश्वर में विश्वास करती थी लेकिन इस बात पर भरोसा नहीं था कि मेरा भाग्य उसके हाथों में है और मैंने यहाँ तक सोचा कि नकली अगुआ और मसीह-विरोधी मेरा भाग्य निर्धारित कर सकते हैं। मैं नकली अगुआओं और मसीह-विरोधियों को परमेश्वर से भी बड़ा मानती थी। यह वास्तव में परमेश्वर के खिलाफ ईशनिंदा थी!

बाद में मैंने लूसिया के बारे में जैस्पर से बात की और हम दोनों को लगा कि यह स्थिति हमारी कमियाँ दूर करने के लिए परमेश्वर की व्यवस्था थी और इसमें परमेश्वर का इरादा था। जैस्पर ने मेरे साथ परमेश्वर के वचनों का एक अंश साझा किया : “जब तरह-तरह के बुरे लोग और छद्म-विश्वासी बाहर आकर दानवों और शैतानों के रूप में तरह-तरह की भूमिकाएँ निभाने लगते हैं, कार्य व्यवस्थाओं के विरुद्ध जाकर कुछ बिल्कुल अलग ही करने लगते हैं, झूठ बोलकर परमेश्वर के घर को धोखा देते हैं; जब वे परमेश्वर के कार्य को बाधित कर उसमें गड़बड़ करते हैं, ऐसे काम करते हैं जिनसे परमेश्वर का नाम शर्मसार होता है और परमेश्वर का घर और कलीसिया कलंकित होते हैं, तो इसे देख कर तुम क्रोधित होने के सिवाय कुछ भी नहीं करते, फिर भी तुम न्याय बनाए रखने के लिए खड़े नहीं हो सकते, बुरे लोगों को उजागर कर, कलीसिया के कार्य को बनाए नहीं रख सकते, इन बुरे लोगों को संबोधित कर उन्हें संभालने और उन्हें कलीसिया कार्य को बाधित करने और परमेश्वर के घर और कलीसिया को कलंकित करने से रोक नहीं सकते। ये चीजें न करके तुम गवाही देने में विफल रहे हो। कुछ लोग कहते हैं, ‘मैं ये चीजें करने की हिम्मत नहीं करता, डरता हूँ कि अगर मैं बहुत सारे लोगों को संभालूँगा तो शायद वे मुझसे क्रोधित हो जाएँ, और अगर वे सब मुझे दंड देने और कार्यालय से निकाल देने के लिए मेरे खिलाफ एक हो जाएँ, तो मैं क्या करूँगा?’ मुझे बताओ, क्या वे कायर और दब्बू हैं, क्या उनके पास सत्य नहीं है, और वे लोगों में फर्क नहीं कर सकते या शैतान की बाधा को नहीं समझ सकते, या वे अपने कर्तव्य निर्वहन में निष्ठाहीन हैं, सिर्फ खुद को बचाने की कोशिश कर रहे हैं? यहाँ असली मसला क्या है? क्या तुमने कभी इस बारे में सोचा है? अगर तुम स्वभाव से ही दब्बू, नाजुक, कायर और डरपोक हो; फिर भी परमेश्वर में इतने वर्ष विश्वास रखने के बाद, कुछ तथ्यों की समझ के आधार पर तुम परमेश्वर में सच्ची आस्था का विकास कर लेते हो, तो क्या तुम अपनी कुछ इंसानी कमजोरियों, दब्बूपन और कोमलता को जीत नहीं सकते, और अब बुरे लोगों से डरे बिना नहीं रह सकते? (बिल्कुल रह सकते हैं।) तो फिर बुरे लोगों को संभालने और उन्हें संबोधित करने की तुम्हारी नाकाबिलियत की जड़ क्या है? क्या ऐसा है कि तुम्हारी मानवता सहज ही कायर, दब्बू और डरपोक है? यह न तो मूल कारण है, न ही समस्या का सार। समस्या का सार यह है कि लोग परमेश्वर के प्रति वफादार नहीं हैं; वे खुद की रक्षा करते हैं, अपनी निजी सुरक्षा, शोहरत, रुतबा और निकासी के मार्ग की रक्षा करते हैं। उनकी निष्ठाहीनता इस बात में अभिव्यक्त होती है कि वे हमेशा खुद की रक्षा कैसे करते हैं, किसी भी चीज से सामना होने पर, वे कैसे कछुए की तरह अपने कवच में घुस जाते हैं, और अपना सिर तब तक बाहर नहीं निकालते जब तक वह चीज गुजर न जाए। उनका चाहे जिस भी चीज से सामना हो, वे हमेशा बेहद सावधानी बरतते हैं, उनमें बहुत व्याकुलता, चिंता और आशंका होती है, और वे कलीसिया कार्य के बचाव में खड़े होने में असमर्थ होते हैं। यहाँ समस्या क्या है? क्या यह आस्था का अभाव नहीं है? परमेश्वर में तुम्हारी आस्था सच्ची है ही नहीं, तुम नहीं मानते कि परमेश्वर की संप्रभुता सभी चीजों पर है, नहीं मानते कि तुम्हारा जीवन और सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है। तुम परमेश्वर की इस बात पर विश्वास नहीं करते, ‘परमेश्वर की अनुमति के बिना शैतान तुम्हारे शरीर का एक रोआँ भी हिला नहीं सकता।’ तुम अपनी ही आँखों पर भरोसा कर तथ्य परखते हो, हमेशा अपनी रक्षा करते हुए अपने ही आकलन के आधार पर चीजों को परखते हो। तुम नहीं मानते कि व्यक्ति का भाग्य परमेश्वर के हाथों में होता है; तुम शैतान से डरते हो, बुरी ताकतों और बुरे लोगों से डरते हो। क्या यह परमेश्वर में सच्ची आस्था का अभाव नहीं है? (बिल्कुल है।) परमेश्वर में सच्ची आस्था क्यों नहीं है? क्या इसलिए कि लोगों के अनुभव बहुत उथले हैं, और वे इन चीजों को गहराई से नहीं समझ सकते, या फिर इसलिए कि वे बहुत कम सत्य समझते हैं? कारण क्या है? क्या इसका लोगों के भ्रष्ट स्वभावों से कुछ लेना-देना है? क्या ऐसा इसलिए है कि लोग बहुत कपटी हैं? (बिल्कुल।) वे चाहे जितनी भी चीजों का अनुभव कर लें, उनके सामने कितने भी तथ्य रख दिए जाएँ, वे नहीं मानते कि यह परमेश्वर का कार्य है, या व्यक्ति का भाग्य परमेश्वर के हाथों में है। यह एक पहलू है। एक और घातक मुद्दा यह है कि लोग खुद की बहुत ज्यादा परवाह करते हैं। वे परमेश्वर, उसके कार्य, परमेश्वर के घर के हितों, उसके नाम या महिमामंडन के लिए कोई कीमत नहीं चुकाना चाहते, कोई त्याग नहीं करना चाहते। वे ऐसा कुछ भी करने को तैयार नहीं हैं जिसमें जरा भी खतरा हो। लोग खुद की बहुत ज्यादा परवाह करते हैं! मृत्यु, अपमान, बुरे लोगों के जाल में फँसने और किसी भी प्रकार की दुविधा में पड़ने के अपने डर के कारण लोग अपनी देह को संरक्षित रखने के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं, किसी भी खतरनाक स्थिति में प्रवेश न करने की कोशिश करते हैं। ... तुम्हारा चाहे जैसे भी हालात या मामलों से सामना हो, तुम इन्हीं तरीकों, चालों और रणनीतियों के नजरिये से उन्हें देखते हो, और तुम परमेश्वर की अपनी गवाही में दृढ़ नहीं रह पाते। हालात चाहे जो हों, तुम एक योग्यताप्राप्त अगुआ या कार्यकर्ता बनने में असमर्थ हो, चरवाहे के गुण या कर्म दर्शाने में असमर्थ हो, और संपूर्ण निष्ठा प्रदर्शित करने में असमर्थ हो, और इस तरह तुम अपनी गवाही गंवा देते हो। तुम्हारा चाहे जितने भी मामलों से सामना हो, तुम वफादारी और अपनी जिम्मेदारी कार्यान्वित करने के लिए परमेश्वर में अपनी आस्था पर भरोसा नहीं कर पाते। नतीजतन, अंतिम परिणाम यह होता है कि तुम कुछ भी हासिल नहीं करते। परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए व्यवस्थित हर परिस्थिति में, और जब भी तुम शैतान से लड़ते हो, तुम्हारा चयन हमेशा पीछे हट कर भाग जाने का रहा है। तुम परमेश्वर द्वारा निर्दिष्ट या तुम्हारे अनुभव करने के लिए नियत किए गए पथ पर नहीं चले हो। इसलिए, इस युद्ध के बीच तुम उस सत्य, समझ और अनुभव से चूक जाते हो, जो तुम्हें हासिल करना चाहिए था(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (19))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे गहराई से प्रभावित किया। परमेश्वर ने जो उजागर किया, वह बिल्कुल मेरी दशा थी। विशेष रूप से परमेश्वर ने उजागर किया कि जब हम बुरे लोगों को बुराई करते देखते हैं, तो उन्हें उजागर करने की हिम्मत नहीं करते और कलीसिया के कार्य को बरकरार रखने में विफल हो जाते हैं। यह केवल कमजोरी या कायरता नहीं है; समस्या का सार यह है कि व्यक्ति परमेश्वर के प्रति वफादार नहीं है। इसलिए हम निरंतर खुद को बचाते हैं, अपने भविष्य और सुरक्षा को ध्यान में रखते हैं। इसके अतिरिक्त परमेश्वर ने उजागर किया कि ऐसे लोगों में परमेश्वर पर सच्ची आस्था की कमी होती है, वे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता पर विश्वास नहीं करते। वे चीजों का आकलन केवल चीजों को देखने और अपने फायदे-नुकसान के आधार पर करते हैं। बुरी ताकतों से सामना होने पर वे भागकर छिप जाते हैं, सोचते हैं कि परमेश्वर शायद उनकी रक्षा करने में सक्षम नहीं है और वह उनसे कम विश्वसनीय है, इसलिए उनमें खुद को परमेश्वर को सौंपने का साहस नहीं होता। लोगों के दिल फायदे-नुकसान के हिसाब और धोखे से भरे हुए हैं! दूसरा पहलू यह है कि लोग अपनी बहुत ज्यादा परवाह करते हैं और कलीसिया के कार्य की सुरक्षा के लिए कोई कीमत चुकाने या कोई त्याग करने को तैयार नहीं होते। ऐसे लोग पूरी तरह से स्वार्थी और घृणित होते हैं। यह मेरे अंदर की घातक खामी है। मैंने सोचा कि कैसे परमेश्वर ने हमें बचाने का कार्य करने के लिए धरती पर दो बार देहधारण किया, स्वेच्छा से बहुत अपमान सहा, कठोर प्रयास किए और अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। अपमान, बदनामी, उत्पीड़न और क्लेश के कारण परमेश्वर कभी पीछे नहीं हटा या मानवता को बचाने का अपना कार्य बंद नहीं किया। परमेश्वर ने हमेशा बिना किसी शिकायत के चुपचाप दिया ही है। परमेश्वर ने ये सब चीजें अपने लिए नहीं की हैं, न ही यह मनुष्य से कुछ प्राप्त करने के लिए है, बल्कि हम मनुष्यों को बचाने के लिए है, जिन्हें शैतान ने बहुत गहराई से भ्रष्ट कर दिया है। परमेश्वर का सार बहुत सुंदर और निस्वार्थ है! मुझे याद आया कि कैसे परमेश्वर ने मेरी आस्था के वर्षों के दौरान लगातार अपने वचनों से मेरा सिंचन किया था और आपूर्ति की थी और कैसे उसने मेरे अनुभव के लिए कई लोगों, घटनाओं, चीजों और स्थितियों की व्यवस्था की, मुझे सत्य समझने, वास्तविकता में प्रवेश करने, आचरण का तरीका सिखाने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के लिए मार्गदर्शन और अगुआई की। अब जबकि नकली अगुआ और बुरे लोग कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधा डाल रहे थे, तो यह मेरे लिए आगे बढ़ने और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने का ठीक समय था। फिर भी खुद को बचाने के लिए मैं परमेश्वर से अपने विचार छिपा रही थी और उसके साथ धोखेबाजी कर रही थी और सत्य का अभ्यास करने के लिए अपने हित छोड़ने के लिए तैयार नहीं थी। मैं वास्तव में बहुत धोखेबाज, बहुत स्वार्थी और नीच थी! मैंने चुपचाप परमेश्वर से प्रार्थना की और संकल्प लिया कि अब से मैं न्याय की भावना रखने वाला व्यक्ति बनने का प्रयास करूँगी जो सत्य का अभ्यास कर कलीसिया के कार्य की रक्षा कर सके।

कुछ दिन बाद कलीसिया ने लूसिया को पर्यवेक्षक के पद से बरखास्त कर दिया, लेकिन फिर भी उसे सिंचन उपयाजक के पद पर बरकरार रखा। सभा के दौरान मैंने पाया कि लूसिया को अपने बारे में बहुत कम जानकारी है। वह इस बात पर जोर देती रही कि उसे केवल कार्य अनुभव की कमी के कारण बरखास्त किया गया था। मैंने उसके पिछले व्यवहारों के बारे में सोचा और मुझे महसूस हुआ कि वह अब सिंचन उपयाजक बनी रहने के लिए उपयुक्त नहीं थी और वर्तमान व्यवस्था अनुचित थी। इस बार मैं पिछली बार की तरह खुद को नहीं बचाना चाहती थी। मैं लूसिया की समस्याओं की रिपोर्ट करने के लिए आगे बढ़ने को दृढ़ थी। इसलिए मैंने उन दो भाइयों से संपर्क किया जिन्होंने पहले मुझसे लूसिया के बारे में पूछा था और उन्हें उसकी स्थिति की रिपोर्ट की। इस बार अपने रिपोर्ट पत्र में मैंने स्पष्ट रूप से अपना दृष्टिकोण बताया : मेरा मानना है कि लूसिया मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही है, वह अगुआ या कार्यकर्ता होने लायक नहीं है और उसे बरखास्त कर दिया जाना चाहिए। साथ ही मैंने यह भी रिपोर्ट की कि कैसे अगुआ रूथी ने जान-बूझकर लूसिया की कमियों को छिपाया और उसकी रक्षा की। इस तरह से अभ्यास करने के बाद मुझे अपने दिल में शांति और आश्वासन की भावना महसूस हुई। बाद में लूसिया को अपने कर्तव्यों में लापरवाही से काम करने, अक्सर लोगों को ऊपर से भाषण देने, सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार न करने और यहाँ तक कि उसकी रिपोर्ट करने वालों को खुलेआम दबाने के निरंतर व्यवहार के आधार पर—सार रूप में उसके बुरे व्यक्ति होने के कारण उसे अलग-थलग कर दिया गया। रूथी को भी वास्तविक कार्य करने में विफल रहने और एक बुरे व्यक्ति को बचाने के कारण बरखास्त कर दिया गया।

पीछे मुड़कर देखने पर मैंने पाया कि मैं इन सब में बहुत कुछ झेल चुकी हूँ और मैंने बहुत कुछ प्रकट किया है। मैंने खुद को बचाने के कड़वे फल का स्वाद चखा और यह मेरे लिए एक बड़ा सबक था। साथ ही मैंने सचमुच परमेश्वर के पवित्र और धार्मिक स्वभाव का अनुभव किया और मैंने सचमुच देखा कि परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है और धोखेबाज लोगों से घृणा करता है और यह कि परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति के कार्य-कलापों और उसके चुने गए मार्ग के आधार पर उसका परिणाम निर्धारित करेगा। मुझे ये लाभ प्राप्त करने देने के लिए मैं परमेश्वर की आभारी हूँ!

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