17. क्या यह कहना सही है “व्यक्ति को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा खुद को सुरक्षित रखना चाहिए”?
जब मैं छोटी थी तो मेरी माँ अक्सर मुझसे कहा करती थी, “दूसरों के साथ बातचीत करते समय तुम्हें बहुत सतर्क रहना होगा; मूर्खों की तरह जो भी मन में आए मत बोल देना। इससे लोग तुम्हें आसानी से नुकसान पहुँचाएँगे और धोखा देंगे।” उस समय मुझे इन बातों का कोई अनुभव तो था नहीं, इसलिए बस सहमति में सिर हिला देती। बाद में जब मैं समाज में लोगों से मिलने-जुलने लगी तो मैंने देखा कि मेरे आस-पास के लोग अपने हितों की खातिर एक-दूसरे के खिलाफ षडयंत्र रचते हैं और नुकसान पहुँचाते हैं। अगर कोई व्यक्ति गलत बात बोल देता तो लोग उस पर आरोप लगाते। मैंने मन ही मन सोचती, “इंसानी मन को समझना मुश्किल है; भविष्य में लोगों के साथ बातचीत करते समय मुझे सतर्क रहना होगा। जब तक मेरा इरादा दूसरों को नुकसान पहुँचाने का नहीं है तब तक सब ठीक रहेगा, लेकिन मुझे उनसे सावधान रहना होगा वरना वो लोग मेरा फायदा उठाएँगे।” इसलिए मैं दोस्तों या पड़ोसियों के साथ बातचीत करते वक्त हमेशा सतर्क रहती थी। मैं अपने मन की बात कहने की हिम्मत नहीं कर पाती थी, मुझे डर होता कि अगर मैंने कुछ गलत बोल दिया तो सामने वाला नाराज हो जाएगा और मैं मुसीबत मोल ले लूँगी। मैं कई वर्षों से कार्य के सिलसिले में घर से दूर रही थी और मेरा कोई करीबी दोस्त भी नहीं था। परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करने के बाद मैं भाई-बहनों के संपर्क में आई और मैंने देखा कि जब वे सभा कर अपनी अनुभवजन्य समझ पर संगति करते हैं तो खुल कर अपने मन की बात कहते हैं। वे कुछ भी छिपाते नहीं थे और एकदम मुक्त और स्वतंत्र थे। धीरे-धीरे बिना किसी संदेह के मैंने भी दिल खोलकर उनके साथ संगति करना सीख लिया और मुझे लगा कि परमेश्वर में विश्वास करना सचमुच बहुत बड़ी बात है। लेकिन मैं अपने हितों से जुड़े मामलों में सांसारिक आचरण के इस नियम के अनुसार जीने से खुद को रोक न सकी, “किसी व्यक्ति को दूसरे को हानि पहुँचाने का इरादा नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए।”
मार्च 2023 की बात है। चूँकि हमारी कलीसिया के पाठ आधारित कार्य के परिणाम खराब थे तो अगुआ ने कई पत्र भेजकर इसका कारण पूछा और जानना चाहा कि हम आगे चलकर इस स्थिति को कैसे सुधारेंगे। मैं शिनजिंग नाम की जिस बहन के साथ कार्य करती थी उसने इस बात का प्रतिरोध किया और उसने समूह अगुआ लिन शियाओ और मुझसे कहा, “हम हर दिन इतने व्यस्त रहते हैं कि हमारे पास खाली समय होता ही नहीं और अगुआ हमारे कार्य का बहुत बारीकी से पर्यवेक्षण और जाँच करती है। यह कर्तव्य निभाना बहुत तनावपूर्ण है!” उस समय तो मुझे लगा उसने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि उसकी मनोदशा खराब है और हम सबके जीवन में ऐसा समय आता है जब हम नकारात्मक होते हैं और भ्रष्टता प्रकट करते हैं। इसके अलावा मेरी मनोदशा भी उसके जैसी हो चुकी थी और मैं उस बारे में बोल नहीं पाई थी। इसलिए मैंने शिनजिंग की बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। समूह अगुआ ने शिनजिंग के साथ संगति की, अगुआ के पर्यवेक्षण के प्रति उसके इतने प्रतिरोधी होने के पीछे के कारण का गहन विश्लेषण किया। उसने कहा कि इसका मूल कारण अपने कर्तव्य के दौरान दैहिक सुखों में लिप्त रहना, कष्ट सहना और कीमत चुकाने की इच्छा का न होना है और उसने कार्य का पर्यवेक्षण करने वाले अगुआओं की महत्ता पर भी चर्चा की। समूह अगुआ की संगति सुनकर शिनजिंग ने जाना कि वह काफी आलसी है और अगर अगुआ जाँच और पर्यवेक्षण न करती तो वह अपने कर्तव्य के प्रति उदासीनता बरतती और निश्चित रूप से कार्य में देरी होती। लेकिन बाद में सभा और अध्ययन करते समय शिनजिंग अभी भी अगुआ द्वारा कार्य के पर्यवेक्षण के प्रति प्रतिरोध की भावना व्यक्त करती थी। उस समय मैंने मन ही मन सोचा, “वह शायद ये बातें केवल इसलिए कह रही है क्योंकि हाल ही में उसके कार्य से अच्छे नतीजे नहीं मिले हैं जिससे उसकी अवस्था प्रभावित हुई है। सभा और संगति की सहायता से शायद वह इसके बाद अपना रास्ता बदल ले।” इसलिए मैंने इसे गंभीरता से नहीं लिया।
मई में एक दिन अगुआ हमारे साथ सभा करने आई। उसने कहा कि किसी ने उसे बताया है कि शिनजिंग को नकारात्मकता फैलाना पसंद है और वह कार्य का पर्यवेक्षण करने वाले अगुआओं के प्रति बहुत प्रतिरोधी है। अगुआ ने शिनजिंग की कथनी और करनी की प्रकृति और परिणामों पर संगति करने और उनका गहन विश्लेषण करने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग भी किया। अचानक यह सब सुनकर मैं दंग रह गई। मेरा अनुमान था कि यह रिपोर्ट समूह की अगुआ लिन शियाओ की थी, चूँकि केवल हम दोनों ही जानते थे कि शिनजिंग ने क्या कहा है। मैंने तो की नहीं इसलिए लिन शियाओ ने ही उसकी रिपोर्ट की होगी। यह सोचकर मेरे मन में एक विचार कौंधा : “इसके बाद मुझे बोलते समय और अधिक सावधान रहना होगा। एक भी शब्द गलत बोलने से आसानी से मुसीबत खड़ी हो सकती है।” लेकिन जब मेरे मन में यह विचार आया तो मैंने इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और इसे भूल गई। दस दिनों से अधिक का समय हो गया था, अगुआ ने देखा कि शिनजिंग का अपने कर्तव्य के प्रति रवैया नहीं बदला है और उसने उसे बरखास्त कर दिया। यह खबर सुनकर मैं हैरान रह गई और सोचने लगी, “उसने केवल सभाओं के दौरान अपनी अवस्था खोलकर रखी थी और उसे नकारात्मकता फैलाने वाला मानकर बरखास्त कर दिया गया। मुझे भविष्य में किसी भी सभा में बोलते समय और अधिक सावधान रहना होगा। मैं कुछ गलत कहकर बरखास्त नहीं होना चाहती।” बाद में लिन शियाओ ने बताया कि उसी ने शिनजिंग की समस्या की रिपोर्ट की थी। मुझे गुस्सा आ रहा था और मैं सोचने लगी, “यह वाकई ऐसा मामला है ‘किसी व्यक्ति को जानने में तुम उसका चेहरा तो जान सकते हो लेकिन उसका दिल नहीं।’ वह ऊपर से तो बहुत अच्छी लगती है लेकिन उसने पीठ पीछे किसी की समस्याओं की रिपोर्ट कर दी। मुझे भविष्य में उससे सतर्क रहना होगा; मैं मूर्ख बनकर जो भी मन में आए नहीं बोल सकती।” बाद में लिन शियाओ ने मुझसे पूछा कि हाल ही में मेरे कार्य के नतीजे खराब क्यों रहे हैं और लोगों को विकसित करने के लिए मेरी योजना क्या है। मुझे पता था कि मैंने यह कार्य अच्छे से नहीं किया है। लेकिन मुझे डर था कि अगर मैंने यह बात बता दी तो वह मेरी पीठ पीछे मेरे खिलाफ रिपोर्ट कर देगी और फिर अगुआ मुझे बरखास्त कर देगी; मैं अपमानित हो जाऊँगी! जैसी कि कहावत है, “व्यक्ति को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा खुद को सुरक्षित रखना चाहिए” और “जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है।” मुझे कार्य स्थिति के बारे में बस कुछ सरल शब्द बोल देने चाहिए और बाकी बातों पर नहीं जाना चाहिए। यह सोचते हुए मैंने लिन शियाओ की पूछताछ पर अपना रुख ठंडा रखा, वह मेरे कारण बेबस महसूस कर रही थी और मेरे कार्य के बारे में पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। मुझे भी इस बात से दुख तो हुआ और मैं उससे अपनी मनोदशा के बारे में खुलकर बताना चाहती थी। लेकिन मुझे याद आया कि कैसे हाल ही में जब शिनजिंग ने अपनी मनोदशा के बारे में बात की थी और सब कुछ बताया था तो लिन शियाओ ने बिना कुछ कहे अगुआ को उसकी रिपोर्ट कर दी थी और नतीजतन शिनजिंग को बरखास्त कर दिया गया। अगर मैंने लिन शियाओ को बता दिया कि मेरी मनोदशा खराब है और हमारे बीच एक अवरोध है और फिर उसने अगुआ को मेरी रिपोर्ट कर दी और मुझे बरखास्त कर दिया गया तो मैं क्या करूँगी? नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकती! मैं उसे अपनी असली मनोदशा के बारे में नहीं बता सकती थी। मुझे सावधानी से बोलना था; मैं बस सब-कुछ उगल नहीं सकती थी। उस दौरान हमारे बीच चीजें काफी अजीब थीं और ऐसा लग रहा था जैसे हम अजनबी हों। वह मेरे कारण बेबस महसूस करती थी और मेरे कार्य की जाँच करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थी।
एक दिन अगुआ कार्य की स्थिति के बारे में जानने के लिए आई और मुझसे उस दौरान मेरी मनोदशा के बारे में पूछा। मैंने मन ही मन सोचा, “शिनजिंग को बरखास्त किए जाने के बाद सारा पाठ-आधारित कार्य अचानक मुझ पर थोप दिया गया और अब मैं बहुत तनाव महसूस कर रही हूँ। मैंने लिन शियाओ और मेरे बीच के अवरोध को भी दूर नहीं किया है। ये सारी चीजें मुझे इतना परेशान कर रही हैं कि ऐसा लगता है जैसे मैं साँस नहीं ले पा रही हूँ।” मैं वास्तव में अगुआ के साथ खुलकर इस विषय पर चर्चा करना चाहती थी। लेकिन मैंने इस पर और अधिक विचार किया और सोचा, “वह अगुआ है; अगर मैं उसे यह सब बता दूँ और उसे मेरी असली मनोदशा के बारे में पता चले तो क्या वह यह नहीं कहेगी कि मैं सत्य का अनुसरण नहीं करती और जब मेरे साथ कुछ घटित होता है तो मैं सबक नहीं सीखती और फिर उसने मुझे बरखास्त कर दिया तो?” इसलिए मैंने अगुआ को अपनी मनोदशा के बारे में नहीं बताया। चूँकि मैं दूसरों से सावधान रहती थी, ईमानदारी से बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थी और अपने कर्तव्य के कारण तनाव में रहती थी, मैं इस परिवेश से बचना चाहती थी और यह कर्तव्य नहीं करना चाहती थी। कार्य से जुड़ी कठिनाइयों और मेरे और दूसरों के बीच अवरोधों का सामना करते हुए मैं परेशानी और पीड़ा में थी और मैं दमित भावनाओं में जी रही थी।
एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और अंत में मुझे अपनी मनोदशा के बारे में कुछ समझ प्राप्त हुई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “‘किसी व्यक्ति को दूसरे को हानि पहुँचाने का इरादा नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए,’ और ‘एक बाघ का चित्र बनाते समय तुम उसकी खाल दिखाते हो, उसकी हड्डियाँ नहीं; इंसान को जानने में, तुम उसकी शक्ल-सूरत को जान सकते हो, लेकिन उसके दिल को नहीं’ दुनिया से निपटने के वे सबसे बुनियादी सिद्धांत हैं, और साथ ही लोगों को देखने और उनसे सुरक्षित रहने के सबसे बुनियादी मानदंड हैं, जो माता-पिता तुम्हारे भीतर बैठाते हैं। माता-पिता का प्राथमिक उद्देश्य तुम्हें बचाना और अपनी रक्षा करने में तुम्हारी मदद करना है। लेकिन एक दूसरी दृष्टि से इन वचनों, विचारों और नजरियों से तुम्हें और भी ज्यादा महसूस हो सकता है कि दुनिया खतरनाक है और लोग भरोसेमंद नहीं हैं, जिस कारण तुम्हारे मन में दूसरों के प्रति सकारात्मक भावना बिल्कुल नहीं होती। लेकिन तुम वास्तव में दूसरों को कैसे पहचान और देख सकते हो? किन लोगों के साथ तुम्हारी बन सकती है और लोगों के बीच उचित रिश्ता क्या होना चाहिए? किसी व्यक्ति को दूसरों के साथ सिद्धांतों के आधार पर कैसे मिलना-जुलना चाहिए, और कोई दूसरों के साथ कैसे उचित और सद्भावनापूर्ण ढंग से मिल-जुल सकता है? माता-पिता इन चीजों के बारे में कुछ भी नहीं जानते। वे लोगों से सुरक्षित रहने के लिए दुनिया से निपटने के विविध खेलों के नियमों, चालों, साजिशों का इस्तेमाल करना ही जानते हैं और वे खुद दूसरों को चाहे जितनी भी हानि पहुँचाएँ, लेकिन उनसे खुद को हानि से बचाने के लिए उनका फायदा उठाना और उन्हें नियंत्रित करना जानते हैं। अपने बच्चों को ये विचार और नजरिये सिखाते समय माता-पिता उनके भीतर जो चीजें बिठाते हैं वे महज दुनिया से निपटने की कुछ रणनीतियाँ ही होती हैं। ये रणनीतियों से अधिक कुछ नहीं हैं। इन रणनीतियों में क्या शामिल होता है? हर तरह की चालें, खेल नियम, दूसरों को कैसे खुश करें, अपने हितों की रक्षा कैसे करें और निजी फायदा कैसे खूब बढ़ाएँ। क्या ये सिद्धांत ही सत्य हैं? (नहीं, ये सत्य नहीं हैं।) क्या ये लोगों के पालन करने के सही पथ हैं? (नहीं।) इनमें से कोई भी सही पथ नहीं है। तो माता-पिता द्वारा तुम्हारे भीतर बैठाए गए इन विचारों का सार क्या है? ये सत्य के अनुरूप नहीं हैं, ये सही पथ नहीं हैं, और ये सकारात्मक चीजें नहीं हैं। तो फिर ये क्या हैं? (ये पूरी तरह से शैतान का वह फलसफा हैं जो हमें भ्रष्ट करता है।) नतीजे देखें तो ये लोगों को भ्रष्ट करते हैं। तो इन विचारों का सार क्या है? जैसे, ‘किसी व्यक्ति को दूसरे को हानि पहुँचाने का इरादा नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए’—क्या यह दूसरों से मिलने-जुलने का सही सिद्धांत है? (नहीं, ये पूरी तरह से नकारात्मक चीजें हैं जो शैतान से आती हैं।) ये नकारात्मक चीजें हैं जो शैतान से आती हैं—तो उनका सार और उनकी प्रकृति क्या है? क्या ये चालें नहीं हैं? क्या ये रणनीतियाँ नहीं हैं? क्या ये दूसरों को जीतने की युक्तियाँ नहीं हैं? (बिल्कुल।) ये सत्य में प्रवेश करने के अभ्यास सिद्धांत या सकारात्मक सिद्धांत और दिशाएँ नहीं है जिनसे परमेश्वर लोगों को सिखाता है कि अपना आचरण कैसे करें; ये दुनिया से निपटने की रणनीतियाँ हैं, ये चालें हैं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (14))। परमेश्वर ने जिस मनोदशा को उजागर किया था उस पर विचार करते हुए अंततः मुझे समझ आया कि मैं हमेशा इन शैतानी नियमों के अनुसार जीती आई हूँ, “किसी व्यक्ति को दूसरे को हानि पहुँचाने का इरादा नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए,” और “एक बाघ का चित्र बनाते समय तुम उसकी खाल दिखाते हो, उसकी हड्डियाँ नहीं; इंसान को जानने में, तुम उसकी शक्ल-सूरत को जान सकते हो, लेकिन उसके दिल को नहीं।” मैंने सोचा कि खुद को नुकसान और धोखे से बचाने के लिए मुझे हर किसी के प्रति सावधान और सतर्क रहना होगा। इस प्रकार मैं जिस किसी के साथ भी बातचीत कर रही होती तो मैं अपनी बातचीत और व्यवहार में बहुत सतर्क रहती थी। मैं आमतौर पर लोगों को अपने असली विचार नहीं बताती थी और अधिकतर समय मैं चुप ही रहती थी। इस तरह मुझे न तो नुकसान उठाना पड़ता और न ही मैं लोगों को नाराज करती। विशेषकर इस बार जब लिन शियाओ ने शिनजिंग की समस्या की रिपोर्ट कर दी और शिनजिंग ने कोई पश्चात्ताप नहीं किया और फिर उसे बरखास्त कर दिया गया तो मैं सतर्क रहने की मनोदशा में जीने लगी, दूसरों के सामने अपनी असली मनोदशा उजागर करने का साहस नहीं कर पाती थी, मुझे डर रहता कि कहीं किसी दिन मुझे भी बरखास्त न कर दिया जाए। जब मैं कलीसिया और समूह अगुआओं से बात करती तो बहुत सतर्क रहती और अपना दिल खोलने की हिम्मत न जुटा पाती। अधिकांश समय मैं अपनी बात खत्म करने के लिए कुछ सरल से वाक्यांश बोल देती थी। मैं शैतान के जहर से मजबूती से बंधी हुई थी, जब मैं संगति करने के लिए लोगों के पास जाती थी तो भी मैं आशंकाओं से भरी रहती थी और खुलकर अपनी बात कहने का साहस नहीं जुटा पाती थी। मैं पीड़ा और यातना में जी रही थी। ये शैतानी नियम ऐसे लगते हैं मानो ये लोगों के हितों की रक्षा कर सकते हैं लेकिन ये लोगों को सतर्क रहने और किसी के साथ बातचीत करते समय अपने मन की बात न कहने की शिक्षा देते हैं और यह कि उन्हें हमेशा दूसरों के सामने संयमित रहना चाहिए। इस तरह जब दो लोग आपस में बातचीत कर रहे होते हैं तो एक हमेशा सतर्क रहता है जबकि दूसरा अनुमान लगाता रहता है और उनमें से कोई भी दूसरे पर भरोसा नहीं करता। वे एक-दूसरे के प्रति चौकस और शत्रुतापूर्ण बने रहते हैं और उनका आचरण पाखंडपूर्ण होता है। इससे लोग अधिकाधिक धोखेबाज बनते जाते हैं और उनमें मानवता कम होती जाती है। तब जाकर मुझे यह स्पष्ट रूप से समझ आया कि “किसी व्यक्ति को दूसरे को हानि पहुँचाने का इरादा नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए” यह वह सिद्धांत बिल्कुल नहीं है जो किसी के आचरण का मार्गदर्शन करे। यह पूरी तरह से शैतान ही है जो लोगों को नुकसान पहुँचा रहा है और अपनी धूर्त साजिशों से उनके साथ छल कर रहा है, इससे भी बढ़कर यह शैतान द्वारा लोगों को भ्रष्ट करने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला साधन है। ऐसी कहावत के अनुसार जीने से लोग अपनी सामान्य मानवता खो सकते हैं।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों को पढ़ना जारी रखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “बहुत संभव है कि परिवार से मिली शिक्षा में दुनिया से व्यवहार करने और निपटने के खेल के और भी बहुत-से नियम शामिल हों। मिसाल के तौर पर, माता-पिता अक्सर कहते हैं, ‘किसी व्यक्ति को दूसरे को हानि पहुँचाने का इरादा नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए; तुम अत्यंत मूर्ख और भोले हो।’ ... ये विचार तुम्हारे दुनिया से निपटने के तरीके के सिद्धांत और आधार बन जाते हैं। जब तुम सहपाठियों, सहयोगियों, सहकर्मियों, वरिष्ठ अधिकारियों और समाज के हर प्रकार के व्यक्ति, जीवन के हर वर्ग के लोगों से मिलते-जुलते हो, तो तुम्हारे भीतर तुम्हारे माता-पिता द्वारा बैठाए गए रक्षात्मक विचार अनजाने ही तुम्हारे परस्पर रिश्तों से जुड़े मामलों को संभालते समय तुम्हारा सबसे बुनियादी जंतर और सिद्धांत बन जाते हैं। यह कौन-सा सिद्धांत है? यह है : मैं तुम्हें हानि नहीं पहुँचाऊँगा, लेकिन मुझे हमेशा सतर्क रहना होगा ताकि मैं तुम्हारे छल-कपट से बच सकूँ, मुश्किलों या कानूनी मुकदमों में फँसने से बच सकूँ, अपने पारिवारिक धन-दौलत को डूबने से बचा सकूँ, अपने परिवार के लोगों का अंत होने और खुद को जेल जाने से बचा सकूँ। ऐसे विचारों और नजरियों के नियंत्रण में जीते हुए, दुनिया से निपटने के ऐसे रवैये वाले सामाजिक समूह में जीते हुए तुम सिर्फ ज्यादा उदास ही हो सकते हो, ज्यादा थक सकते हो, तन-मन दोनों से थक कर चूर हो सकते हो। आगे चलकर तुम इस दुनिया और मानवता के प्रति और ज्यादा प्रतिरोधी और विरक्त हो जाते हो, और उनसे ज्यादा घृणा कर सकते हो। दूसरों से घृणा करते हुए तुम खुद को कम आँकने लगते हो, ऐसा महसूस करते हो कि तुम एक इंसान जैसे नहीं जी रहे हो, बल्कि एक थका-हारा, उदासी भरा जीवन जी रहे हो। दूसरों से होने वाली हानि से बचने के लिए तुम्हें निरंतर सतर्क रहना होता है, और अपनी इच्छा के विरुद्ध काम करना पड़ता है, बातें कहनी पड़ती हैं। अपने हितों की रक्षा और निजी सुरक्षा के प्रयास में तुम अपने जीवन के हर पहलू में एक नकली मुखौटा पहन लेते हो, छद्मवेश में आ जाते हो, और कभी भी सत्य वचन कहने की हिम्मत नहीं करते। इस स्थिति में, जीवित रहने के इन हालात में, तुम्हारी अंतरात्मा को मुक्ति या आजादी नहीं मिल पाती। तुम्हें अक्सर किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत पड़ती है जिससे तुम्हें कोई हानि न हो, जो कभी तुम्हारे हितों के लिए खतरा न बने, जिसके साथ तुम अपने अंतर्मन के विचार साझा कर सको और अपनी बातों की कोई जिम्मेदारी लिए बिना, किसी के मखौल, हँसी, मजाक उड़ाए बिना या कोई नतीजा भुगते बिना अपनी भड़ास निकाल सको। ऐसी स्थिति में जहाँ ‘किसी व्यक्ति को दूसरे को हानि पहुँचाने का इरादा नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए’ का विचार और नजरिया दुनिया से निपटने का तुम्हारा सिद्धांत हो, वहाँ तुम्हारा अंतरतम भय और असुरक्षा से भर जाता है। स्वाभाविक रूप से तुम उदास रहते हो, इससे मुक्ति नहीं पाते और तुम्हें किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत पड़ती है जो तुम्हें सांत्वना दे, जिससे तुम अपने मन की बात कह सको। इसलिए, इन पहलुओं से परखें तो दुनिया से निपटने का तुम्हारे माता-पिता का सिखाया सिद्धांत ‘किसी व्यक्ति को दूसरे को हानि पहुँचाने का इरादा नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए,’ भले ही तुम्हारी रक्षा करने में सफल हो सकता है, मगर यह एक दुधारी तलवार है। वैसे तो यह तुम्हारे भौतिक हितों और निजी सुरक्षा की किसी हद तक रक्षा करता है, पर यह साथ ही तुम्हें उदास और दुखी बना देता है, तुम मुक्ति नहीं पाते, और यह तुम्हें इस दुनिया और मानवता से और भी ज्यादा विरक्त कर देता है। साथ ही, भीतर गहरे तुम हल्के-से उकताने भी लगते हो कि ऐसे बुरे युग में, ऐसे बुरे लोगों के समूह में तुम्हारा जन्म हुआ। तुम नहीं समझ पाते कि लोगों को जीना क्यों चाहिए, जीवन इतना थकाऊ क्यों है, उन्हें हर जगह मुखौटा पहनकर खुद को छद्मवेश में क्यों रखना पड़ता है, या तुम्हें अपने हितों की खातिर हमेशा दूसरों से सतर्क क्यों रहना पड़ता है। तुम चाहते हो कि सच बोल सको, मगर इसके नतीजों के कारण तुम नहीं बोल सकते। तुम एक असली इंसान बनना चाहते हो, खुलकर बोलना और आचरण करना चाहते हो, और एक नीच व्यक्ति बनने या चोरी-छिपे दुष्ट और शर्मनाक काम करने, पूरी तरह अंधकार में जीने से बचना चाहते हो, मगर तुम इनमें से कुछ भी नहीं कर सकते” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (14))। परमेश्वर के वचनों ने मेरे दिल की गहराई को छू लिया। करीब पिछले बीस वर्षों के बारे में सोचा तो देखा कि मैं हमेशा शैतानी जहर के सहारे जीती आई हूँ जैसे, “किसी व्यक्ति को दूसरे को हानि पहुँचाने का इरादा नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए,” और “जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है।” मैं धूर्त और धोखेबाज बन गई थी, हर किसी के प्रति सावधान और सतर्क रहती, लोगों से कभी ईमानदारी से बात नहीं करती थी। इसका नतीजा यह हुआ कि कई वर्षों तक घर से बाहर रहकर कार्य करने के दौरान मेरा कोई करीबी दोस्त नहीं बना और मैं बेहद अकेली पड़ गई। परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी मैं इन्हीं शैतानी जहर के अनुसार जी रही थी। जब लिन शियाओ ने शिनजिंग की समस्या की रिपोर्ट की तो वह वास्तव में सिर्फ एक तथ्य की रिपोर्ट कर रही थी और यह कलीसिया के कार्य की सुरक्षा के लिए था; यह परमेश्वर के इरादे के अनुरूप था। लेकिन मैंने इसे किसी की पीठ पीछे शिकायत करने की तरह देखा और मुझे डर था कि भविष्य में वह मेरे बारे में भी अगुआ से शिकायत कर देगी जिससे मुझे बरखास्त कर दिया जाएगा। इसी वजह से मैं उससे सावधान रहती थी। इसके बाद हालाँकि मेरा जमीर बेचैन रहता था, मैंने खुलकर बात करने की हिम्मत नहीं की, मैं बेहद भयभीत रहती थी कि अगर मैंने कोई गलत शब्द बोला या अपनी असली मनोदशा के बारे में बात की तो इससे मैं मुसीबत में पड़ जाऊँगी और इसलिए मैं पीड़ा और यातना में रहती थी। मैंने विचार किया कि मैंने इतना कष्टकारी और थकावट भरा जीवन इसलिए जिया क्योंकि बचपन से ही मेरे माता-पिता की शिक्षाओं और समाज का मुझ पर प्रभाव रहा। इन शैतानी जहर ने मुझे धूर्त और धोखेबाज बना दिया और मैं लोगों के साथ सामान्य ढंग से बातचीत नहीं कर पाती थी। अगर मैंने यह समस्या पहले ही सुलझा ली होती तो मैंने कलीसिया को नुकसान न पहुँचाया होता या लिन शियाओ को बेबस न किया होता। यह जानकर मुझे बहुत पछतावा हुआ। मैंने संकल्प लिया कि आगे से मैं अपने कर्तव्य में भाई-बहनों के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग करूँगी और एक साफ दिल और खुले मन वाली इंसान बनूँगी।
बाद में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “कुछ लोग यह नहीं मानते कि परमेश्वर का घर लोगों के साथ उचित व्यवहार कर सकता है। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर के घर में परमेश्वर का और सत्य का शासन चलता है। उनका मानना है कि व्यक्ति चाहे कोई भी कर्तव्य निभाए, अगर उसमें कोई समस्या उत्पन्न होती है, तो परमेश्वर का घर तुरंत उस व्यक्ति से निपटेगा, उससे उस कर्तव्य को निभाने का अधिकार छीनकर उसे दूर भेज देगा या फिर उसे कलीसिया से ही निकाल देगा। क्या वाकई इस ढंग से काम होता है? निश्चित रूप से नहीं। परमेश्वर का घर हर व्यक्ति के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करता है। परमेश्वर सभी के साथ धार्मिकता से व्यवहार करता है। वह केवल यह नहीं देखता कि व्यक्ति ने किसी परिस्थिति-विशेष में कैसा व्यवहार किया है; वह उस व्यक्ति की प्रकृति सार, उसके इरादे, उसका रवैया देखता है, खास तौर से वह यह देखता है कि क्या वह व्यक्ति गलती करने पर आत्मचिंतन कर सकता है, क्या वह पश्चात्ताप करता है और क्या वह उसके वचनों के आधार पर समस्या के सार को समझ सकता है ताकि वह सत्य समझ ले और अपने आपसे घृणा करने लगे और सच में पश्चात्ताप करे। ... अच्छा बताओ, अगर किसी व्यक्ति ने कोई गलती की है लेकिन वह सच्ची समझ हासिल कर पश्चात्ताप करने को तैयार हो, तो क्या परमेश्वर का घर उसे एक अवसर नहीं देगा? जैसे-जैसे परमेश्वर की छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना समापन की ओर बढ़ रही है, ऐसे बहुत-से कर्तव्य हैं जिन्हें पूरा करना है। लेकिन अगर तुम में अंतरात्मा और विवेक नहीं है और तुम अपने उचित काम पर ध्यान नहीं देते, अगर तुम्हें कर्तव्य निभाने का अवसर मिलता है, लेकिन तुम उसे सँजोकर रखना नहीं जानते, सत्य का जरा भी अनुसरण नहीं करते और सबसे अनुकूल समय अपने हाथ से निकल जाने देते हो, तो तुम्हारा खुलासा किया जाएगा। अगर तुम अपने कर्तव्य निभाने में लगातार अनमने रहते हो, और काट-छाँट के समय जरा भी समर्पण-भाव नहीं रखते, तो क्या परमेश्वर का घर तब भी किसी कर्तव्य के निर्वाह के लिए तुम्हारा उपयोग करेगा? परमेश्वर के घर में सत्य का शासन चलता है, शैतान का नहीं। हर चीज में परमेश्वर की बात ही अंतिम होती है। वही इंसानों को बचाने का कार्य कर रहा है, वही सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है। क्या सही है और क्या गलत, तुम्हें इसका विश्लेषण करने की कोई जरूरत नहीं है; तुम्हें बस सुनना और समर्पण करना है। जब तुम्हारी काट-छाँट हो, तो तुम्हें सत्य स्वीकार कर अपनी गलतियाँ सुधारनी चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे, तो परमेश्वर का घर तुमसे तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन का अधिकार नहीं छीनेगा। अगर तुम हमेशा हटाए जाने से डरते रहोगे, बहानेबाजी करते रहोगे, खुद को सही ठहराते रहोगे, तो फिर समस्या पैदा होगी। अगर तुम लोगों को यह दिखाओगे कि तुम जरा भी सत्य नहीं स्वीकारते, और यह कि तर्क का तुम पर कोई असर नहीं होता, तो तुम मुसीबत में हो। कलीसिया तुमसे निपटने को बाध्य हो जाएगी। अगर तुम अपने कर्तव्य पालन में थोड़ा भी सत्य नहीं स्वीकारते, हमेशा प्रकट किए और हटाए जाने के भय में रहते हो, तो तुम्हारा यह भय मानवीय इरादे, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव, संदेह, सतर्कता और गलतफहमी से दूषित है। व्यक्ति में इनमें से कोई भी रवैया नहीं होना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि मैं बरखास्त होने से इसलिए डरती थी कि क्योंकि मैं परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को नहीं जानती थी या लोगों को बरखास्त करने के परमेश्वर के घर के सिद्धांतों को नहीं समझती थी। असल में जब परमेश्वर का घर किसी व्यक्ति को बरखास्त करता और हटाता है तो यह उस व्यक्ति के अस्थायी व्यवहार या उसके द्वारा की गई किसी गलती के आधार पर यूँ ही नहीं किया जाता। बल्कि उस व्यक्ति को यथासंभव अधिकतम सीमा तक पश्चात्ताप करने का मौका दिया जाता है और उसे केवल तभी बरखास्त किया जाता है जब वह व्यक्ति किसी भी तरह अपना रास्ता न बदले और कार्य को नुकसान पहुँचाए। इस बीच कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो थोड़ी भ्रष्टता प्रकट करते हैं लेकिन भाई-बहनों की संगति और मदद से वे परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप कर अपने विचलनों को दूर कर लेते हैं। ऐसे लोगों को बरखास्त करके हटाया नहीं जाता। शिनजिंग दैहिक सुखों में लिप्त हो गई थी और उसे अपने कर्तव्य में कोई दायित्व-बोध नहीं होता था। वह अगुआ द्वारा कार्य के पर्यवेक्षण और जाँच किए जाने के प्रति प्रतिरोध महसूस करती थी और यहाँ तक कि सभाओं में भी नकारात्मकता फैलाती थी। लिन शियाओ ने उसे उसकी समस्या बताई और कई बार उसकी मदद की लेकिन शिनजिंग ने कोई पश्चात्तापपूर्ण व्यवहार नहीं दिखाया। तब जाकर लिन शियाओ ने शिनजिंग की समस्या की रिपोर्ट की। शिनजिंग को बरखास्त करना सिद्धांतों का अनुपालन था और यह परमेश्वर की धार्मिकता थी। लेकिन मैंने उसका भेद नहीं पहचाना, न ही मैंने परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को जाना मैं सतर्कता और गलतफहमी की मनोदशा में जीती रही। मुझे लगता था कि मेरे मन में भी तो अगुआ के पर्यवेक्षण के प्रति प्रतिरोध की भावना है और इसलिए मुझे चिंता रहती थी कि अगर मैंने अपनी असली मनोदशा के बारे में बात की तो मुझे बरखास्त कर दिया जाएगा। इसी वजह से मुझे डर था कि लिन शियाओ और अगुआ मेरी मनोदशा के बारे में जान जाएँगे। दरअसल परमेश्वर के वचन अनेक बार कहते हैं कि परमेश्वर भ्रष्ट मानवजाति को बचाता है। लोगों द्वारा भ्रष्टता प्रकट करना और उनके कार्य में भटकाव होना सामान्य बात है। महत्वपूर्ण यह है कि वे परमेश्वर के सामने आत्मचिंतन और पश्चात्ताप कर सकते हैं या नहीं। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसा परमेश्वर ने कहा है : “परमेश्वर की करुणा और सहनशीलता दुर्लभ नहीं है—बल्कि मनुष्य का सच्चा पश्चात्ताप दुर्लभ है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II)। इसके अलावा जब लिन शियाओ को उसकी समस्या का पता चला तो उसने शिनजिंग के साथ संगति की और बार-बार उसकी मदद की। लेकिन शिनजिंग ने फिर भी अपना रास्ता नहीं बदला, इसलिए सिद्धांतों के अनुसार उसे तुरंत रिपोर्ट किया जाना था। यह वह जिम्मेदारी है जिसे परमेश्वर के चुने हुए हर व्यक्ति को पूरा करना चाहिए और ऐसा कलीसिया के कार्य की सुरक्षा के लिए किया गया था। लेकिन मैंने यह भी शिकायत की कि लिन शियाओ ने बिना कुछ कहे शिनजिंग की समस्या की रिपोर्ट अगुआ को कर दी और उसके प्रति सतर्क हो गई और उसे गलत समझा। अब जाकर मैंने देखा कि न केवल मेरा स्वभाव कपटपूर्ण था बल्कि मेरी समझ भी काफी विकृत थी।
जब शिनजिंग को बरखास्त किया गया तो मेरे मन में एक और भ्रामक नजरिया बैठ गया। मुझे लगने लगा कि अगर मैंने किसी सभा के दौरान अपनी असली मनोदशा के बारे में खुलकर बता दिया तो उसे नकारात्मकता फैलाना मान लिया जाएगा और इसलिए मैं अपने मन की बात कहने की हिम्मत नहीं की। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जो एक अनुभवजन्य गवाही लेख में उद्धृत किया गया था और अखिरकार समझ आया कि यह दृष्टिकोण सत्य के अनुरूप नहीं है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “मूल रूप से, ये उन लोगों की विभिन्न अवस्थाएँ और अभिव्यक्तियाँ होती हैं जो नकारात्मकता प्रकट करते हैं। जब रुतबा, शोहरत और लाभ पाने की उनकी इच्छा पूरी नहीं होती है, जब परमेश्वर ऐसी चीजें करता है जो उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के उलट होती हैं, ऐसी चीजें जिनमें उनके हित शामिल होते हैं, तो वे अवज्ञा और असंतोष की भावनाओं में उलझ जाते हैं। और जब उनमें ऐसी भावनाएँ होती हैं, तो उनके मन में बहाने, युक्तियाँ, खुद को सही ठहराने, अपना बचाव के तरीके और शिकायत करने के अन्य विचार पैदा होने लगते हैं। इस समय, वे परमेश्वर का गुणगान नहीं करते या उसके प्रति समर्पण नहीं करते, और खुद को जानने के लिए सत्य खोजने की कोशिश तो बिल्कुल नहीं करते; इसके बजाय, वे अपनी धारणाओं, कल्पनाओं, सोच और दृष्टिकोणों या उग्रता का प्रयोग करके परमेश्वर के खिलाफ लड़ने लगते हैं। वे परमेश्वर के खिलाफ कैसे लड़ते हैं? वे अवज्ञा और असंतोष की अपनी भावनाएँ फैलाने लगते हैं, और इस तरीके से अपनी सोच और दृष्टिकोण परमेश्वर के सामने स्पष्ट कर देते हैं; वे परमेश्वर को अपनी मर्जी और माँगों के हिसाब से चलाकर अपनी इच्छाएँ पूरी करवाने की कोशिश करते हैं, इसके बाद ही उनकी भावनाएँ तृप्त होती हैं। परमेश्वर, खास तौर पर लोगों के न्याय और ताड़ना के लिए, उनके भ्रष्ट स्वभाव के शुद्धिकरण के लिए, उन्हें शैतान के प्रभाव से बचाने के लिए, बहुत-से सत्य प्रकट किए हैं, और किसे पता है कि इन सत्यों ने कितने लोगों के आशीष प्राप्त करने के सपनों को चकनाचूर किया है, कितने लोगों की स्वर्ग के राज्य में उठाए जाने की उस फंतासी को ध्वस्त किया है जिसकी वे रात-दिन उम्मीद करते रहे। वे चीजों को ठीक करने के लिए वह सब कुछ करने के लिए तैयार हैं जो वे कर सकते हैं—पर वे शक्तिहीन हैं, वे नकारात्मकता और असंतोष के साथ सिर्फ बर्बादी के गर्त में जा सकते हैं। वे उन सभी चीजों के प्रति अवज्ञाकारी हैं जिन्हें परमेश्वर ने व्यवस्थित किया है, क्योंकि परमेश्वर जो करता है वह उनकी धारणाओं, हितों और विचारों के विरुद्ध होता है। खासतौर से, जब कलीसिया शोधन का काम करती है और बहुत-से लोगों को हटा देती है, तो ये लोग सोचते हैं कि परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता, परमेश्वर ने उन्हें ठुकरा दिया है, उनके साथ अन्याय हो रहा है, और इसलिए वे परमेश्वर की अवहेलना करने में एकजुट होंगे; वे इस बात को नकारेंगे कि परमेश्वर ही सत्य है, परमेश्वर की पहचान और सार को नकारते हैं, और परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को नकारते हैं। निश्चित ही, वे सभी चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता को भी नकारेंगे। और वे किन साधनों से इन सबको नकारते हैं? अवहेलना और प्रतिरोध से। इसका तात्पर्य यह होता है, ‘परमेश्वर जो करता है, वह मेरी धारणाओं से मेल नहीं खाता, इसलिए मैं समर्पण नहीं करता, मैं नहीं मानता कि तुम सत्य हो, मैं तुम्हारे खिलाफ शोर मचाऊँगा, और ये चीजें कलीसिया में और लोगों के बीच फैलाऊंगा! जो भी जी में आए मैं वह कहूँगा, और मुझे इसके परिणामों की परवाह नहीं है। मुझे बोलने की आजादी है; तुम मेरा मुँह बंद नहीं करवा सकते—मैं जो चाहे कहूँगा। तुम क्या कर सकते हो?’ जब ये लोग अपनी गलत सोच और दृष्टिकोणों को जाहिर करने पर जोर देते हैं, तो क्या वे अपनी खुद की समझ के बारे में बात कर रहे होते हैं? क्या वे सत्य के बारे में संगति कर रहे होते हैं? बिल्कुल भी नहीं। वे नकारात्मकता फैला रहे होते हैं; वे पाखंडों और भ्रांतियों को जाहिर कर रहे होते हैं। वे अपनी खुद की भ्रष्टता को जानने या उसे उजागर करने की कोशिश नहीं कर रहे होते हैं; वे उन चीजों को उजागर नहीं करते हैं जो उन्होंने किए हैं और जो सत्य से मेल नहीं खाते हैं, न ही अपनी गलतियों को उजागर करते हैं। इसके बजाय, वे अपनी गलतियों के लिए तर्क देने की, उनका बचाव करने की भरसक कोशिश कर रहे होते हैं ताकि ये साबित करें कि वे सही हैं, और इसके साथ ही वे एक बेतुका निष्कर्ष भी निकालते हैं, और विपरीत और विकृत दृष्टिकोणों, और तोड़-मरोड़कर पेश किए गए तर्कों और पाखंडों को सामने रखते हैं। कलीसिया में परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर इसका प्रभाव उन्हें गुमराह और बाधित करने वाला होता है; इससे लोग नकारात्मक अवस्था और उलझन के शिकार भी हो सकते हैं। ये सभी नकारात्मकता प्रकट करने वाले लोगों द्वारा पैदा किए गए प्रतिकूल प्रभाव और गड़बड़ियाँ हैं” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (17))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि जो लोग नकारात्मकता फैलाते हैं, जब कुछ ऐसा होता है जो उन्हें पसंद नहीं होता या उसमें उनकी प्रतिष्ठा, रुतबा या दैहिक हित शामिल होता है तो वे सत्य नहीं खोजते या परमेश्वर के इरादे पर विचार करने की कोशिश नहीं करते बल्कि अवज्ञा, असंतोष और विरोध का रुख अपना लेते हैं, अपनी धारणाएँ और कल्पनाएँ या भ्रामक विचार फैलाने लगते हैं। नकारात्मकता फैलाने का यही अर्थ है। जब कोई व्यक्ति जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करता है, उसे किसी ऐसी चीज का सामना करना पड़ता है जो उसकी पसंद के अनुसार नहीं होती, हालाँकि वह भ्रष्टता प्रकट करता है और उसमें धारणाएँ और गलतफहमियाँ होती हैं लेकिन उसका दिल परमेश्वर का भय मानने वाला होता है, वह सत्य खोज सकता है और जो मामले उसकी समझ से परे हों उन पर वह लापरवाही से बात नहीं करता। अगर वह अपनी मनोदशा के बारे में भाई-बहनों को खुलकर बताता है तो उसका उद्देश्य सत्य खोजना, अपनी भ्रष्टताओं का समाधान करना होता है और वह सच्चा पश्चात्ताप कर खुद में बदलाव लाता है। इस बीच जो लोग नकारात्मकता और धारणाएँ फैलाते हैं वे वैसे तो अपनी मनोदशा के बारे में खुलकर बताते हुए प्रतीत होते हैं लेकिन वे सत्य खोजने और अपनी समस्याओं का समाधान करने के लिए ऐसा नहीं कर रहे होते हैं बल्कि वे अपनी अवज्ञा और असंतोष जाहिर करने के लिए अपनी मनोदशा के बारे में खुलकर बताने का तरीका अपना रहे होते हैं। जो लोग यह नहीं समझते कि चीजें वास्तव में कैसी हैं या सत्य नहीं समझते उनका गुमराह होना आसान होता है, वे उनका पक्ष लेते हैं और परमेश्वर या परमेश्वर के घर के कार्य के बारे में धारणाएँ और गलतफहमियाँ पाल लेते हैं। शिनजिंग ने देखा कि अगुआ कार्य की बारीकी से जाँच कर रही है जिसका मतलब था कि उसे दैहिक कष्ट सहना होगा और कीमत चुकानी होगी और इसलिए वह अनिच्छुक हो गई थी, बार-बार धारणाएँ फैला रही थी और सभाओं के दौरान अपनी असंतुष्ट मनोदशा व्यक्त कर रही थी। लिन शियाओ ने कई बार उसके साथ संगति की और उसकी मदद की लेकिन उसने कभी अपना रास्ता नहीं बदला। जब उसने अपनी मनोदशा के बारे में खुलकर बताया तो यह सत्य खोजने या अपनी समस्याएँ हल करने के लिए नहीं था; वह तो बस अगुआ के प्रति अपना असंतोष जाहिर कर रही थी। इन व्यवहारों से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि शिनजिंग नकारात्मकता फैला रही थी। इस बीच मैंने गलती से यह मान लिया कि सभाओं के दौरान अपनी भ्रष्ट अवस्था के बारे में बात करने का मतलब है कि मैं नकारात्मकता को हवा दे रही हूँ और इसलिए मैंने अपने मन की बात कहने की हिम्मत नहीं की। मेरी समझ सचमुच बहुत विकृत थी। यह जानकर मैंने पश्चात्तापपूर्वक परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं इतने वर्षों से तुम पर विश्वास करती आई हूँ लेकिन जब मेरे साथ कुछ घटित हुआ है तो मैंने सत्य की खोज नहीं की। बल्कि मैं धोखेबाजी, संदेह और दूसरों से सावधान रहने की अवस्था में रही हूँ। परमेश्वर, मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मैं अभ्यास का सही मार्ग खोजकर इन गलत विचारों से उबर सकूँ।”
बाद में जब मैं यह खोज रही थी कि मैं अपनी समस्या का समाधान कैसे कर सकती हूँ तो मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “तुम्हारा परिवार अक्सर तुमसे कहता है, ‘किसी व्यक्ति को दूसरे को हानि पहुँचाने का इरादा नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए।’ वास्तविकता में, इस विचार को त्याग देने का अभ्यास सरल है : बस उन सिद्धांतों के अनुसार कर्म करो, जो परमेश्वर लोगों को बताता है। ‘सिद्धांत जो परमेश्वर लोगों को बताता है’—यह वाक्यांश बहुत व्यापक है। इसका विशिष्ट रूप से अभ्यास कैसे किया जाता है? तुम्हें यह विश्लेषण करने की जरूरत नहीं है कि क्या तुम दूसरों को हानि पहुँचाने का इरादा रखते हो, न ही तुम्हें खुद को दूसरों से सुरक्षित रखने की जरूरत है। तो तुम्हें क्या करना चाहिए? एक ओर तुम्हें दूसरों के साथ उचित रूप से सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखने में समर्थ होना चाहिए; दूसरी ओर विभिन्न लोगों से निपटते समय तुम्हें उनकी असलियत जानने के लिए आधार के रूप में परमेश्वर के वचनों का और कसौटी के रूप में सत्य का उपयोग करना चाहिए, और फिर संबंधित सिद्धांतों के आधार पर उनसे पेश आना चाहिए। यह इतना सरल है। अगर वे भाई-बहन हैं, तो उनसे वैसे ही पेश आओ; अगर वे अपने अनुसरण में सच्चे हैं, त्याग करते हैं, खुद को खपाते हैं, तो फिर उनसे ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाने वाले भाई-बहनों की तरह पेश आओ। अगर वे छद्म-विश्वासी हैं, अपना कर्तव्य निभाने के अनिच्छुक हैं, बस अपना जीवन जीना चाहते हैं, तो तुम्हें उनसे भाई-बहनों की तरह नहीं, बल्कि गैर-विश्वासियों की तरह पेश आना चाहिए। लोगों को देखते समय तुम्हें गौर करना चाहिए कि वे किस प्रकार के व्यक्ति हैं, उनका स्वभाव कैसा है, उनकी मानवता कैसी है, और परमेश्वर और सत्य के प्रति उनका रवैया क्या है। अगर वे सत्य को स्वीकार कर उसका अभ्यास करने को तैयार हैं, तो उनसे सच्चे भाई-बहन, एक परिवार की तरह पेश आओ। अगर उनकी मानवता खराब है, और वे स्वेच्छा से सत्य का अभ्यास करने का सिर्फ दिखावा करते हैं, उनमें सिद्धांत की चर्चा करने की काबिलियत है मगर वे कभी भी सत्य का अभ्यास नहीं करते, तो उनसे महज मजदूरों की तरह पेश आओ, परिवार के रूप में नहीं। ये सिद्धांत तुम्हें क्या बताते हैं? ये तुम्हें वह सिद्धांत बताते हैं जिससे विभिन्न प्रकार के लोगों से पेश आना चाहिए—यह वह सिद्धांत है जिसकी हमने अक्सर चर्चा की है, यानी लोगों से बुद्धिमत्ता से पेश आना। बुद्धिमत्ता एक सामान्य शब्द है, लेकिन विशेष रूप से इसका अर्थ विभिन्न प्रकार के लोगों से निपटने के स्पष्ट तरीके और सिद्धांत जानना है—जो सब कुछ सत्य पर आधारित हो, निजी भावनाओं, निजी पसंद-नापसंद, निजी नजरियों, उनसे होने वाले लाभ-हानियों और उनकी उम्र पर नहीं, बल्कि पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों पर आधारित हो। इसलिए, लोगों से निपटते समय तुम्हें यह जाँचने की जरूरत नहीं है कि क्या तुम दूसरों को हानि पहुँचाने या खुद को दूसरों से बचाने का इरादा रखते हो। अगर तुम लोगों के साथ परमेश्वर के दिए सिद्धांतों और तरीकों से पेश आते हो, तो तमाम प्रलोभनों से बच जाओगे और तुम किसी प्रलोभन या संघर्ष में नहीं फँसोगे। यह इतना सरल है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (14))। परमेश्वर के वचनों से मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। सबसे पहले व्यक्ति को सत्य सिद्धांतों के आधार पर विभिन्न प्रकार के लोगों का भेद पहचानना चाहिए। अगर कोई व्यक्ति ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करता है और सत्य से प्रेम करता है तो उसके साथ भाई-बहन जैसा व्यवहार किया जाना चाहिए और व्यक्ति उनके सामने पूरी तरह से खुल सकता है। अगुआ और लिन शियाओ दोनों बहनें थीं जो ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास और सत्य का अनुसरण करती थीं। वे हमारे कार्य की प्रभारी थीं और अगर कोई समस्या हो या मुझे कार्य में कठिनाई आए या हमारे बीच कोई अवरोध पैदा हो जाए तो मुझे उनके सामने पूरी तरह खुल जाना चाहिए, संगति खोजनी चाहिए। इस तरह वे मेरी मनोदशा को समझकर तुरंत उसका समाधान करने में मेरी मदद कर सकेंगी, जो मेरे जीवन प्रवेश के लिए और साथ ही कलीसिया के कार्य के लिए भी लाभदायक है। इसके विपरीत अगर मैं कभी खुलकर बात न करूँ, हमेशा गलत मनोदशा में जीती रहूँ तो इससे न केवल मेरे जीवन को नुकसान होगा बल्कि कार्य में भी देरी होगी। अब जबकि मैं परमेश्वर के इरादे और उसकी माँगों को समझ गई थी तो आगे बढ़कर भाई-बहनों के साथ बातचीत करने के लिए मुझे ईमानदार, निर्मल और खुले मन का होना था।
बाद में सु रुई नामक एक बहन को हमारे कार्य का प्रभारी बना दिया गया। उस समय मेरे कार्य के नतीजे खराब थे और मेरी मनोदशा भी थोड़ी-बहुत नकारात्मक थी। जब सु रुई हमारे साथ सभा करने आई तो उसने मुझसे पूछा कि मेरी मनोदशा कैसी है और इन दिनों मेरा कार्य कैसा चल रहा है। मैंने मन ही मन सोचा, “मेरी मनोदशा अभी भी पूरी तरह से बदली नहीं है और मेरे कार्य में अभी भी कुछ भटकाव हैं। अगर मैं अपनी असली मनोदशा के बारे में बात करूँ तो कहीं सु रुई मेरी समस्या की रिपोर्ट अगुआ को करके मुझे बरखास्त तो नहीं करवा देगी?” मैं अपनी असली मनोदशा के बारे में बात नहीं करना चाहती थी। लेकिन फिर मैंने सोचा कि अगर मैं इस समस्या के बारे में नहीं बोलूँगी तो इसका समाधान कभी नहीं हो पाएगा और मैं काफी उलझन में थी। फिर सु रुई ने मेरी साझीदार बहन से उसकी हाल की मनोदशा के बारे में पूछा और मैंने देखा कि वह इस बारे में पूरी स्पष्टता से बात कर पा रही है। यह सोचकर मुझे उससे बहुत ईर्ष्या हो रही थी कि “मैं खुलकर बात करने की हिम्मत क्यों नहीं कर पाती?” इसके बाद मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “विचार चाहे जो भी हो, अगर वह गलत है, और सत्य के विरुद्ध है, तो एकमात्र सही पथ जो तुम्हें चुनना चाहिए वह इसे त्याग देने का है। त्याग देने का सही अभ्यास यह है : जिन कसौटियों या आधार पर तुम इस मामले को देखते, करते या सँभालते हो, वे अब तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हारे भीतर बिठाए गए गलत विचार नहीं होने चाहिए, बल्कि इसके बजाय परमेश्वर के वचनों पर आधारित होने चाहिए। भले ही इस प्रक्रिया में तुम्हें शायद थोड़ी कीमत चुकानी पड़े और तुम्हें लगे कि तुम अपनी इच्छा के विरुद्ध कार्य कर रहे हो, अपनी नाक कटा रहे हो, और इससे शायद तुम्हारे दैहिक हितों को नुकसान भी पहुँचे, फिर भी तुम चाहे किसी भी चीज का सामना करो, तुम्हें लगातार अपने अभ्यास को परमेश्वर के बताए वचनों और सिद्धांतों के अनुरूप करना चाहिए, और छोड़ना नहीं चाहिए। इस परिवर्तन की प्रक्रिया यकीनन चुनौतीपूर्ण होगी, यह आसान नहीं होगी। यह आसान क्यों नहीं होगी? यह नकारात्मक और सकारात्मक चीजों के बीच का संघर्ष है, शैतान के बुरे विचारों और सत्य के बीच का संघर्ष है, और सत्य को स्वीकार करने की तुम्हारी इच्छा, आकांक्षा और सकारात्मक चीजों का तुम्हारे दिल में बैठे गलत विचारों और नजरियों से संघर्ष है। चूँकि एक संघर्ष चल रहा है, इसलिए व्यक्ति को कष्ट सहकर कीमत चुकानी पड़ सकती है—तुम्हें यही करना चाहिए” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (14))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे सत्य का अभ्यास करने का साहस दिया। अगर मुझे इन भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों को छोड़ना था तो मुझे अपने देह-सुख के विरुद्ध विद्रोह करना था, अपनी रुचियों को त्यागना था और सत्य के सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना था। सु रुई मेरे कार्य की प्रभारी थी; मुझे अपनी असली मनोदशा और कार्य में अपने भटकावों के बारे में उसके सामने खुल कर बताना चाहिए। अगर मैं अब भी धोखेबाजी, चालाकी करती और उससे सावधान रहती तो मेरी समस्याओं का समाधान जल्द से जल्द नहीं हो पाता और मैं अपने कार्य में हुए विचलनों को तुरंत ठीक नहीं कर पाती। इसलिए मैंने उससे अपनी अवस्था और इन विचलनों के बारे में बात की उसने मेरे साथ संगति करने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग किया जिससे मुझे अपनी मनोदशा को बदलने में थोड़ी मदद मिली। इसका अनुभव करके मुझे प्रत्यक्ष रूप से समझ आ गया कि जब कोई शैतान के भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों के अनुसार जीता है इससे न केवल उसे कोई लाभ नहीं मिलता बल्कि इससे उसे सामान्य मानवता-विहीन होकर जीना पड़ता है। जब कोई व्यक्ति लोगों और चीजों को देखता है, सही आचरण करता है और परमेश्वर के वचनों के आधार पर कार्य करता है, तभी वह मन की शांति और अपने हृदय में मुक्ति पा सकता है।