30. अब मैं हिम्मत से अपनी समस्याओं का सामना करती हूँ

यु शुन, चीन

सितम्बर 2023 में एक दिन मुझे उच्च-स्तरीय अगुआओं से एक पत्र मिला जिसमें लिखा था कि हमारी कलीसिया के कार्य की विभिन्न मदें खराब नतीजे दे रही हैं और उन्होंने पूछा कि हम कार्य का जायजा कैसे ले रहे हैं और सुसमाचार कार्य, शुद्धिकरण कार्य और पाठ-आधारित कार्य जैसे क्षेत्रों में हमने किन समस्याओं की पहचान की है। उन्होंने यह भी पूछा कि हमने इन मुद्दों को किस प्रकार हल किया है तथा आगे के लिए हमारी क्या योजनाएँ हैं। पत्र में पूछे गए प्रश्नों को पढ़कर मैंने सोचा, “अगुआ जिन कार्यों के बारे में पूछ रहे हैं, उनमें से कुछ के लिए मुख्य रूप से मैं जिम्मेदार हूँ, लेकिन मैं आराम की मनोदशा में जीती रही हूँ। जब भी मैं विस्तृत कार्य करने या वास्तविक समस्याओं को सुलझाने के बारे में सोचती हूँ और यह सोचती हूँ कि इसके लिए मुझे सत्य कैसे खोजना होगा और कैसे प्रयास और विचार करना होगा और इसके लिए कितनी दिमागी शक्ति की आवश्यकता होगी तो इन चीजों को हल करने के लिए प्रयास और ऊर्जा खपाने की मेरी इच्छा नहीं होती। मैं बस कार्य की विभिन्न मदों की प्रगति का जायजा लेने और प्रेरित करने से ही संतुष्ट हो जाती हूँ और शायद ही कभी विस्तृत कार्य का जायजा लेती हूँ। लेकिन अगर मैं अगुआओं को दिए गए फीडबैक में यह कहती हूँ और वे देखते हैं कि मैं जिस फ्लाँ-फ्लाँ कार्य का पर्यवेक्षण कर रही हूँ उसके बारे में मुझे कोई समझ नहीं है या मैंने फ्लाँ कार्य को क्रियान्वित नहीं किया है तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? वे निश्चित रूप से सोचेंगे कि मुझमें अपने कर्तव्यों के प्रति दायित्व-बोध नहीं है और मैं वास्तविक कार्य नहीं कर रही हूँ और वे मुझे बर्खास्त भी कर सकते हैं। अगर भाई-बहनों को पता चल गया तो मैं बहुत अपमानित हो जाऊँगी! नहीं, मैं बस उस कार्य के बारे में बात करूँगी जिसकी मुझे जानकारी है, ताकि अगुआ यह देखेँ कि हालाँकि हमारे कार्य के नतीजे खराब हैं फिर भी हमने कुछ तो किया है। तब मुझे बर्खास्त किये जाने की चिंता नहीं रहेगी।” लेकिन फिर मैंने सोचा, “कुछ कार्य अधूरे रह गए हैं और ऐसा ही हुआ।” अगर मैं सिर्फ अच्छे कार्य का ही जिक्र करूँ और बुरे का नहीं तो क्या मैं कपटी नहीं बन रही हूँ? नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकती। मुझे बहुत उलझन महसूस हुई जैसे मेरे सीने पर कोई भारी पत्थर रखा हो। मैंने खुद से पूछा, “मुझे इस पत्र का जवाब कैसे देना चाहिए?” तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, अगुआओं ने पत्र लिखकर पूछा है कि मेरा कार्य कैसा चल रहा है। मैंने वास्तविक कार्य नहीं किया है और मुझे चिंता है कि अगर अगुआओं को पता चल गया तो वे मुझे बर्खास्त कर देंगे। मैं अपने गौरव और रुतबे को लेकर चिंतित हूँ और यही वजह है कि मैं सच बोलने में झिझक रही हूँ। मैं नहीं जानती कि मुझे कैसे अभ्यास करना चाहिए। मुझे प्रबुद्ध कर मेरा मार्गदर्शन करो।”

अगली सुबह मुझे परमेश्वर की संगति का एक अंश याद आया जिसमें अगुआओं द्वारा कार्य का पर्यवेक्षण करने और उसका जायजा लेने के बारे में बताया गया था, इसलिए मैंने इसे ढूँढ़ा और पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अगर तुम परमेश्वर के घर द्वारा तुम्हारी निगरानी, अवलोकन और तुम्हें समझने का प्रयास करना स्वीकार कर सकते हो, तो यह एक अद्भुत बात है। यह तुम्हारा कर्तव्य निभाने में, संतोषजनक तरीके से तुम्हारा कर्तव्य कर पाने में और परमेश्वर के इरादे पूरे करने में तुम्हारे लिए मददगार है। यह बिना किसी भी नकारात्मक पक्ष के तुम्हें फायदा पहुँचाता है और तुम्हारी मदद करता है। एक बार जब तुम इस सिद्धांत को समझ गए हो, तो क्या तुममें अब अपने अगुआओं, कार्यकर्ताओं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की निगरानी के खिलाफ प्रतिरोध या सतर्कता की कोई भावना होनी चाहिए? भले ही कभी-कभी कोई तुम्हें समझने का प्रयास करता हो, तुम्हारा अवलोकन करता हो, और तुम्हारे कार्य की निगरानी करता हो, यह व्यक्तिगत रूप से लेने वाली बात नहीं है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि जो कार्य अब तुम्हारे हैं, जो कर्तव्य तुम निभाते हो, और कोई भी कार्य जो तुम करते हो, वे किसी एक व्यक्ति के निजी मामले या व्यक्तिगत कार्य नहीं हैं; वे परमेश्वर के घर के कार्य को स्पर्श करते हैं और परमेश्वर के कार्य के एक भाग से संबंध रखते हैं। इसलिए, जब कोई तुम्हारी पर्यवेक्षण या प्रेक्षण करने में थोड़ा समय लगाता है या तुम्हें गहराई से समझने लगता है, तुम्हारे साथ खुले दिल से बातचीत करने और यह पता लगाने की कोशिश करता है कि इस दौरान तुम्हारी स्थिति कैसी रही है, यहाँ तक कि कभी-कभी जब उसका रवैया थोड़ा कठोर होता है, और तुम्हारी थोड़ी काट-छाँट करता है, अनुशासित करता और धिक्कारता है, तो वह यह सब इसलिए करता है क्योंकि उसका परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति एक ईमानदार और जिम्मेदारी भरा रवैया होता है। तुम्हें इसके प्रति कोई नकारात्मक विचार या भावनाएँ नहीं रखनी चाहिए(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (7))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि भले ही हम अपने कर्तव्य करते हैं, लेकिन हमारे भ्रष्ट स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया है। हम अक्सर अपने कर्तव्यों को लापरवाही से करते हैं और अपनी इच्छानुसार चीजें करते हैं। कार्य का पर्यवेक्षण और जायजा लेना और समय पर समस्याओं का पता लगाकर उनका समाधान करना अगुआओं की जिम्मेदारी होती है और इसका उद्देश्य पूरी तरह से कलीसिया के कार्य की रक्षा करना होता है। मैं अपने कर्तव्यों के प्रति असावधान और लापरवाह रही थी। अगुआओं ने हमारे कार्य का पर्यवेक्षण और जायजा लिया और हमसे हमारे विचलनों का सारांश देने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य करने को कहा जो हमारे कर्तव्यों के लिए हितकारी था। लेकिन मैं इसे सही ढंग से नहीं ले पाई और सतर्क बनी रही। मुझे लगा अगुआओं का मेरे कार्य की जाँच करने का उद्देश्य मेरी समस्याओं को ढूँढ़कर मुझे बर्खास्त करना है। अपने सम्मान और रुतबे की रक्षा के लिए मैंने चालाकी का सहारा लिया, मैं केवल उस कार्य का उल्लेख करना चाहती थी जो मैंने किया था और जो मैंने नहीं किया था उसके बारे में कम लिखना चाहती थी ताकि इस तथ्य को छुपाया जा सके कि मैंने वास्तविक कार्य नहीं किया है। मैं सचमुच कपटी थी! मैं ऐसा नहीं कर सकती थी। मुझे यह स्पष्ट करना था कि वर्तमान में मेरी जिम्मेदारियों के कौन से पहलू मेरे नियंत्रण में हैं और कौन से ऐसी हैं जिन्हें मैं समझ नहीं पाई थी या जिनका जायजा नहीं लिया था। मुझे वास्तविक स्थिति के आधार पर अगुआओं को फीडबैक देना था ताकि अगुआ हमारे विचलनों से संबंधित संगति और मार्गदर्शन प्रदान कर सकें। इससे मुझे अपने कर्तव्यों में मदद मिलती। इसलिए मैंने अपने जायजा लेने के कार्य की स्थिति की रिपोर्ट ईमानदारी से की और उस कार्य के लिए अपनी योजनाओं के बारे में भी बताया जिसका हमने जायजा नहीं लिया था। फिर मैंने उस कार्य के विवरण की जाँच की और जायजा लिया जिसका मैंने पहले जायजा नहीं लिया था। बातचीत के जरिये कुछ भाई-बहनों ने भी अपने कर्तव्यों में विचलन और कमियों पर विचार किया और बदलाव लाने और प्रवेश के लिए प्रयास करने को तैयार हो गए। अगुआओं द्वारा मेरे कार्य का जायजा लेने और जाँच करने से मुझे अपनी कुछ समस्याओं का पता चला। मुझे अपने कर्तव्यों के लिए कुछ दिशा और लक्ष्य प्राप्त हुए और अपने कर्तव्यों में मेरी दक्षता में सुधार हुआ।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े और मुझे अगुआओं द्वारा मेरे कार्य का पर्यवेक्षण किए जाने के डर के बारे में कुछ समझ प्राप्त हुई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अगर तुम लोग अगुआ या कार्यकर्ता हो, तो क्या तुम परमेश्वर के घर द्वारा अपने काम के बारे में पूछताछ किए जाने और उसका निरीक्षण किए जाने से डरते हो? क्या तुम डरते हो कि परमेश्वर का घर तुम लोगों के काम में खामियों और गलतियों का पता लगाएगा और तुम लोगों की काट-छाँट करेगा? क्या तुम डरते हो कि जब ऊपर वाले को तुम लोगों की वास्तविक क्षमता और आध्यात्मिक कद का पता चलेगा, तो वह तुम लोगों को अलग तरह से देखेगा और तुम्हें प्रोन्नति के लायक नहीं समझेगा? अगर तुममें यह डर है, तो यह साबित करता है कि तुम्हारी अभिप्रेरणाएँ कलीसिया के काम के लिए नहीं हैं, तुम प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए काम कर रहे हो, जिससे साबित होता है कि तुममें मसीह-विरोधी का स्वभाव है। अगर तुममें मसीह-विरोधी का स्वभाव है, तो तुम्हारे मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने और मसीह-विरोधियों द्वारा गढ़ी गई तमाम बुराइयाँ करने की संभावना है। अगर, तुम्हारे दिल में, परमेश्वर के घर द्वारा तुम्हारे काम की निगरानी करने का डर नहीं है, और तुम बिना कुछ छिपाए ऊपर वाले के सवालों और पूछताछ के वास्तविक उत्तर देने में सक्षम हो, और जितना तुम जानते हो उतना कह सकते हो, तो फिर चाहे तुम जो कहते हो वह सही हो या गलत, चाहे तुम जितनी भी भ्रष्टता प्रकट करो—भले ही तुम एक मसीह-विरोधी का स्वभाव प्रकट करो—तुम्हें बिल्कुल भी एक मसीह-विरोधी के रूप में परिभाषित नहीं किया जाएगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या तुम मसीह-विरोधी के अपने स्वभाव को जानने में सक्षम हो, और क्या तुम यह समस्या हल करने के लिए सत्य खोजने में सक्षम हो। अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य स्वीकारता है, तो मसीह-विरोधी वाला तुम्हारा स्वभाव ठीक किया जा सकता है। अगर तुम अच्छी तरह से जानते हो कि तुममें एक मसीह-विरोधी स्वभाव है और फिर भी उसे हल करने के लिए सत्य नहीं खोजते, अगर तुम सामने आने वाली समस्याओं को छिपाने या उनके बारे में झूठ बोलने की कोशिश करते हो और जिम्मेदारी से जी चुराते हो, और अगर तुम काट-छाँट किए जाने पर सत्य नहीं स्वीकारते, तो यह एक गंभीर समस्या है, और तुम मसीह-विरोधी से अलग नहीं हो। यह जानते हुए भी कि तुम्हारा स्वभाव मसीह-विरोधी है, तुम उसका सामना करने की हिम्मत क्यों नहीं करते? तुम उसे स्पष्ट देखकर क्यों नहीं कह पाते, ‘अगर ऊपर वाला मेरे काम के बारे में पूछताछ करता है, तो मैं वह सब बताऊँगा जो मैं जानता हूँ, और भले ही मेरे द्वारा किए गए बुरे काम प्रकाश में आ जाएँ, और पता चलने पर ऊपरवाला अब मेरा उपयोग न करे, और मेरा रुतबा खो जाए, मैं फिर भी स्पष्ट रूप से वही कहूँगा जो मुझे कहना है’? परमेश्वर के घर द्वारा तुम्हारे काम का निरीक्षण और उसके बारे में पूछताछ किए जाने का तुम्हारा डर यह साबित करता है कि तुम सत्य से ज्यादा अपने रुतबे को संजोते हो। क्या यह मसीह-विरोधी वाला स्वभाव नहीं है? रुतबे को सबसे अधिक सँजोना मसीह-विरोधी का स्वभाव है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग दो))। परमेश्वर कहता है कि लोग अपनी कमियों और समस्याओं को उजागर करने से डरते हैं इसलिए वे ऊपरवाले से पर्यवेक्षण स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं और अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर यहाँ तक कि वे अपनी समस्याओं को छिपाते भी हैं, अपनी कमियों को ढकते हैं, और परमेश्वर के घर को धोखा देने की कोशिश करते हैं। यह एक मसीह-विरोधी स्वभाव को प्रकट करता है। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि अगुआओं के पर्यवेक्षण और कार्य का जायजा लेने के प्रति मेरी सतर्कता अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को लेकर मेरी अत्यधिक चिंता के कारण थी। मुझे चिंता थी कि अगर अगुआओं को पता चल गया कि मैंने वास्तविक कार्य नहीं किया है और मुझमें अपने कर्तव्यों के प्रति कोई दायित्व-बोध नहीं है तो वे मुझे बर्खास्त कर देंगे और मुझे इस बात की भी चिंता थी कि भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे। अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा के लिए मैंने इस तथ्य को छुपाने की पूरी कोशिश की कि मैंने वास्तविक कार्य नहीं किया है और इसे छुपाने के लिए झूठ और छल का सहारा लेने पर भी विचार किया, मैंने यह सब अगुआओं की नजरों में अपनी छवि बचाने के लिए किया। मैंने सोचा कि कैसे ईमानदार लोग सरल और खुले मन के हो सकते हैं और यह भी सोचा कि वे कैसे अपने कर्तव्यों में किसी विचलन या कमियों को सच्चाई से व्यक्त करने में सक्षम होते हैं और अगुआओं के पर्यवेक्षण को स्वीकारते हैं और अगर अगुआओं को उनकी समस्याओं के बारे में पता चल भी जाए और उनकी काट-छाँट की जाए तो भी अगर कलीसिया का कार्य सुचारु रूप से चल रहा है तो उन्हें इससे कोई समस्या नहीं होती। लेकिन मैं कलीसिया के कार्य के बारे में नहीं सोच रही थी। मैं तो सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के बारे में सोच रही थी। मैं सचमुच स्वार्थी और नीच थी! मैंने अपने कार्य की रिपोर्ट ईमानदारी से नहीं दी और न ही अगुआओं से सच बोला और भले ही मुझे फिलहाल बर्खास्त न किया गया हो और मैं उन्हें धोखा देने में कामयाब रही होऊँ, परमेश्वर लोगों के अंतरतम हृदय की पड़ताल करता है, कोई भी परमेश्वर को धोखा नहीं दे सकता और जो कार्य लोग गुप्त रूप से करते हैं वे किसी न किसी समय अवश्य ही उजागर हो जाते हैं। ठीक उन मसीह-विरोधियों की तरह जो अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा के लिए केवल अच्छी खबरों की रिपोर्ट करते हैं, बुरी खबरों की नहीं, वे कभी अपने कर्तव्यों में विचलन और समस्याओं का उल्लेख नहीं करते और यहाँ तक कि वे झूठ बोलते और छल करते हैं जिससे कार्य को गंभीर नुकसान पहुँचता है। अंततः उनका खुलासा हो जाता है और उन्हें हटा दिया जाता है। मैं आराम की स्थिति में जी रही थी, मैं अपने कर्तव्यों में कष्ट सहने या कीमत चुकाने को तैयार नहीं थी और केवल दिखावे के लिए कार्य कर रही थी जिससे कार्य में देरी हो रही थी। मुझे अपने कर्तव्यों की वास्तविक स्थिति अगुआओं को बता देनी चाहिए थी, लेकिन अपने रुतबे की रक्षा के लिए मैं झूठ बोलना और धोखा देना चाहती थी। मैं सचमुच धोखेबाज थी! अगर मैं पश्चात्ताप न करती और खुद को न बदलती तो आखिरकार मेरा खुलासा हो जाता और मुझे हटा दिया जाता।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “कुछ लोग यह नहीं मानते कि परमेश्वर का घर लोगों के साथ उचित व्यवहार कर सकता है। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर के घर में परमेश्वर का और सत्य का शासन चलता है। उनका मानना है कि व्यक्ति चाहे कोई भी कर्तव्य निभाए, अगर उसमें कोई समस्या उत्पन्न होती है, तो परमेश्वर का घर तुरंत उस व्यक्ति से निपटेगा, उससे उस कर्तव्य को निभाने का अधिकार छीनकर उसे दूर भेज देगा या फिर उसे कलीसिया से ही निकाल देगा। क्या वाकई इस ढंग से काम होता है? निश्चित रूप से नहीं। परमेश्वर का घर हर व्यक्ति के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करता है। परमेश्वर सभी के साथ धार्मिकता से व्यवहार करता है। वह केवल यह नहीं देखता कि व्यक्ति ने किसी परिस्थिति-विशेष में कैसा व्यवहार किया है; वह उस व्यक्ति की प्रकृति सार, उसके इरादे, उसका रवैया देखता है, खास तौर से वह यह देखता है कि क्या वह व्यक्ति गलती करने पर आत्मचिंतन कर सकता है, क्या वह पश्चात्ताप करता है और क्या वह उसके वचनों के आधार पर समस्या के सार को समझ सकता है ताकि वह सत्य समझ ले और अपने आपसे घृणा करने लगे और सच में पश्चात्ताप करे। यदि किसी में इस सही रवैये का अभाव है, और उसमें पूरी तरह से व्यक्तिगत इरादों की मिलावट है, यदि वह चालाकी भरी योजनाओं और भ्रष्ट स्वभावों के प्रकाशनों से भरा है, और जब समस्याएँ आती हैं, तो वह दिखावे, कुतर्क और खुद को सही ठहराने का सहारा लेता है, और हठपूर्वक अपने कार्यों को स्वीकार करने से इनकार कर देता है, तो ऐसे व्यक्ति को बचाया नहीं जा सकता। वह सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता और पूरी तरह से प्रकट हो चुका है। जो लोग सही नहीं हैं, और जो सत्य को जरा भी स्वीकार नहीं कर सकते, वे मूलतः छद्म-विश्वासी होते हैं और उन्हें केवल हटाया जा सकता है। ... अच्छा बताओ, अगर किसी व्यक्ति ने कोई गलती की है लेकिन वह सच्ची समझ हासिल कर पश्चात्ताप करने को तैयार हो, तो क्या परमेश्वर का घर उसे एक अवसर नहीं देगा? जैसे-जैसे परमेश्वर की छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना समापन की ओर बढ़ रही है, ऐसे बहुत-से कर्तव्य हैं जिन्हें पूरा करना है। लेकिन अगर तुम में अंतरात्मा और विवेक नहीं है और तुम अपने उचित काम पर ध्यान नहीं देते, अगर तुम्हें कर्तव्य निभाने का अवसर मिलता है, लेकिन तुम उसे सँजोकर रखना नहीं जानते, सत्य का जरा भी अनुसरण नहीं करते और सबसे अनुकूल समय अपने हाथ से निकल जाने देते हो, तो तुम्हारा खुलासा किया जाएगा। अगर तुम अपने कर्तव्य निभाने में लगातार अनमने रहते हो, और काट-छाँट के समय जरा भी समर्पण-भाव नहीं रखते, तो क्या परमेश्वर का घर तब भी किसी कर्तव्य के निर्वाह के लिए तुम्हारा उपयोग करेगा? परमेश्वर के घर में सत्य का शासन चलता है, शैतान का नहीं। हर चीज में परमेश्वर की बात ही अंतिम होती है। वही इंसानों को बचाने का कार्य कर रहा है, वही सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है। क्या सही है और क्या गलत, तुम्हें इसका विश्लेषण करने की कोई जरूरत नहीं है; तुम्हें बस सुनना और समर्पण करना है। जब तुम्हारी काट-छाँट हो, तो तुम्हें सत्य स्वीकार कर अपनी गलतियाँ सुधारनी चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे, तो परमेश्वर का घर तुमसे तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन का अधिकार नहीं छीनेगा। अगर तुम हमेशा हटाए जाने से डरते रहोगे, बहानेबाजी करते रहोगे, खुद को सही ठहराते रहोगे, तो फिर समस्या पैदा होगी। अगर तुम लोगों को यह दिखाओगे कि तुम जरा भी सत्य नहीं स्वीकारते, और यह कि तर्क का तुम पर कोई असर नहीं होता, तो तुम मुसीबत में हो। कलीसिया तुमसे निपटने को बाध्य हो जाएगी। अगर तुम अपने कर्तव्य पालन में थोड़ा भी सत्य नहीं स्वीकारते, हमेशा प्रकट किए और हटाए जाने के भय में रहते हो, तो तुम्हारा यह भय मानवीय इरादे, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव, संदेह, सतर्कता और गलतफहमी से दूषित है। व्यक्ति में इनमें से कोई भी रवैया नहीं होना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि मैं बर्खास्त किये जाने से क्यों डरती थी। क्योंकि मुझे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की समझ नहीं थी। परमेश्‍वर के घर पर सत्य का बोलबाला होता है। परमेश्‍वर लोगों का न्याय केवल एक मामले में उनके प्रदर्शन के आधार पर नहीं करता बल्कि सत्य के प्रति उनके सतत रवैये और उनके द्वारा अपनाए गए मार्ग पर विचार करता है और यह भी देखता है कि जब वे गलतियाँ करते हैं तो क्या उन्हें सच्चा पश्चात्ताप होता है। अगर कोई व्यक्ति स्वयं से घृणा कर पाता है और पश्चात्ताप करने को तैयार होता है तो परमेश्वर का घर उसे पश्चात्ताप करने के अवसर भी देता है। मैंने वास्तविक कार्य नहीं किया था और अपनी कमियों को छिपाने के लिए चालाकी करना चाहती थी, लेकिन जब मैं आत्मचिंतन करने और खुद को जानने में सक्षम हो गई और बदलाव के लिए तैयार हो गई तो परमेश्वर के घर ने फिर भी मुझे पश्चात्ताप करने का मौका दिया और अगुआओं ने यह नहीं कहा कि वे मुझे बर्खास्त कर देंगे। इसके विपरीत अगर कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण बिल्कुल नहीं करता और पश्चात्ताप किए बिना बाधा और गड़बड़ी पैदा करता है तो वह अंततः अपने कर्तव्य करने का अवसर खो बैठता है। मेरे एक परिचित भाई की तरह। वह अपने कर्तव्य अनमने ढंग और लापरवाही से करता था और अपने कर्तव्यों का पालन मनमर्जी से करता था। अगुआओं और कार्यकर्ताओं ने कई बार उसके साथ संगति कर उसकी मदद की, हालाँकि उसने वादा किया और कहा कि वह पश्चात्ताप करने को तैयार है फिर भी वह उसी तरह अपना कर्तव्य निभाता रहा और अंत में उसे बर्खास्त कर दिया गया। कुछ भाई-बहन भी जब अपने कर्तव्य करते हैं तो उनमें विचलन हो सकते हैं, लेकिन जब अगुआ मुद्दे बताते हैं तो वे उन्हें स्वीकार कर सत्य खोज सकते हैं और सचेत रहकर सुधार करते और इन मुद्दों को हल करते हैं। इन लोगों को बर्खास्त नहीं किया जाता। मैंने देखा कि गलतियाँ करना डरावना नहीं होता बल्कि भ्रष्ट स्वभाव में जीना और पश्चात्ताप न करना सचमुच भयावह होता है। मैंने सोचा कि कैसे ईमानदार लोग सरल और खुले मन के होते हैं और सत्य स्वीकारते हैं और कैसे वे परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिस्थितियों के प्रति समर्पित होकर उनसे सबक ले सकते हैं और इस प्रकार लाभ अर्जित कर प्रगति कर सकते हैं। फिर मैंने अपने आप को देखा और जाना कि मसलों का सामना करते समय मेरे पास एक सरल और समर्पित हृदय नहीं था, बल्कि संदेह और शंकाओं से भरी हुई थी और मेरे अपने चालाकीपूर्ण तरीके थे और इससे मेरे लिए सत्य हासिल करना बहुत कठिन हो गया था।

बाद में मैंने इस दौरान अपने कर्तव्यों में आए मसलों पर विचार करने का प्रयास किया और परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “व्यक्ति को अपने कर्तव्य के प्रदर्शन में अपना दिल लगाना सीखना चाहिए, और जमीर वाला व्यक्ति इसे कर सकता है। अगर कोई अपने कर्तव्य-प्रदर्शन में कभी अपना दिल नहीं लगाता, तो इसका मतलब है कि उसके पास जमीर नहीं है, और जिसके पास जमीर नहीं है, वह सत्य प्राप्त नहीं कर सकता। मैं क्यों कहता हूँ कि वह सत्य प्राप्त नहीं कर सकता? वह नहीं जानता कि परमेश्वर से प्रार्थना कैसे की जाए और पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता कैसे खोजी जाए, न यह कि परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता कैसे दिखाई जाए, और न यह कि परमेश्वर के वचनों पर विचार करने में अपना दिल कैसे लगाया जाए, न ही वह यह जानता है कि सत्य कैसे खोजा जाए, परमेश्वर की अपेक्षाएँ और उसकी आकांक्षाओं समझने का प्रयास कैसे किया जाए। सत्य न खोज पाना यही है। क्या तुम लोग ऐसी अवस्थाओं का अनुभव करते हो, जिनमें चाहे कुछ भी हो जाए, या चाहे तुम जिस भी प्रकार का कर्तव्य निभाओ, तुम अक्सर परमेश्वर के सामने शांत रह पाते हो, और उसके वचनों पर विचार करने, सत्य की खोज करने और इस बात पर विचार करने में अपना दिल लगा पाते हो कि परमेश्वर के इरादों के अनुरूप तुम्हें वह कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए और वह कर्तव्य संतोषजनक ढंग से निभाने के लिए तुम्हारे पास कौन-से सत्य होने चाहिए? क्या ऐसे कई अवसर होते हैं, जिनमें तुम इस तरह सत्य खोजते हो? (नहीं।) अपना कर्तव्य दिल लगाकर करने और इसकी जिम्मेदारी लेने के लिए तुम्हें पीड़ा सहने और एक कीमत चुकाने की ज़रूरत है—इन चीजों के बारे में बात करना ही काफी नहीं है। यदि तुम अपना कर्तव्य दिल लगाकर नहीं करते, बल्कि हमेशा कड़ी मेहनत करना चाहते हो, तो तुम्हारा कर्तव्य निश्चित ही अच्छी तरह नहीं निभेगा। तुम बस बेमन से काम करते रहोगे, और कुछ नहीं, और तुम्हें पता नहीं चलेगा कि तुमने अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाया है या नहीं। यदि तुम दिल लगाकर काम करोगे, तो तुम धीरे-धीरे सत्य को समझोगे; लेकिन अगर तुम ऐसा नहीं करोगे, तो तुम नहीं समझोगे। जब तुम दिल लगाकर अपना कर्तव्य निभाते हो और सत्य का पालन करते हो, तो तुम धीरे-धीरे परमेश्वर के इरादे समझने, अपनी भ्रष्टता और कमियों का पता लगाने और अपनी सभी विभिन्न अवस्थाओं में महारत हासिल करने में सक्षम हो जाओगे। जब तुम्हारा ध्यान केवल प्रयास करने पर ही केंद्रित होता है, और तुम अपना दिल आत्मचिंतन करने पर नहीं लगाते, तो तुम अपने दिल की वास्तविक अवस्थाओं और विभिन्न परिवेशों में अपनी असंख्य प्रतिक्रियाओं और भ्रष्टता के प्रकाशनों का पता लगाने में असमर्थ होगे। अगर तुम नहीं जानते कि समस्याएँ अनसुलझी रहने पर क्या परिणाम होंगे, तो तुम बहुत परेशानी में हो। यही कारण है कि भ्रमित तरीके से परमेश्वर में विश्वास करना अच्छा नहीं है। तुम्हें हर समय, हर जगह परमेश्वर के सामने रहना चाहिए; तुम पर जो कुछ भी आ पड़े, तुम्हें हमेशा सत्य की खोज करनी चाहिए, और ऐसा करते हुए तुम्हें आत्मचिंतन करना चाहिए और जानना चाहिए कि तुम्हारी अवस्था में क्या समस्याएँ हैं, और उन्हें हल करने के लिए फौरन सत्य की तलाश करनी चाहिए। केवल इसी तरह तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हो और कार्य में देरी करने से बच सकते हो। तुम न सिर्फ अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा पाओगे, बल्कि सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हारे पास जीवन-प्रवेश भी होगा और तुम अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करने में सक्षम होगे। केवल इसी तरह से तुम सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि जिम्मेदार लोग अपने कर्तव्य पूरे दिल से कर सकते हैं और हर कार्य के प्रति मेहनती, जिम्मेदार रवैया रख सकते हैं, जबकि जिम्मेदारी की भावना से रहित व्यक्ति अपने कर्तव्य आधे मन से केवल औपचारिकता पूरी करते हुए पूरा करता है। वह अपने कर्तव्यों के लिए कष्ट उठाने या कीमत चुकाने को तैयार नहीं होता और अंत में वह न केवल जीवन प्रवेश पाने में असफल रहता है बल्कि कलीसिया के कार्य में भी देरी करता है। अपने कर्तव्यों के प्रति मेरा रवैया भी बिल्कुल वैसा ही था जैसा परमेश्वर ने उजागर किया है। मुझे लगा भाई-बहनों की समस्याओं को सुलझाने के लिए गहन विचार-विमर्श और समाधान तलाशने के लिए सत्य खोजने की आवश्यकता होगी जो बहुत ज्यादा परेशानी और प्रयास की तरह लग रहा था इसलिए मैं कीमत नहीं चुकाना चाहती थी और मैं बस सतही तौर पर प्रगति का जायजा लेने और कुछ सरल कार्य करने से संतुष्ट थी और जब मेरे सामने समस्याएँ आतीं तो मैं उनके बारे में सोचना या उनका समाधान नहीं ढूँढ़ना चाहती थी। न ही मैं अपने विचलनों या कमियों का सार निकालती थी जिससे कार्य में देरी होती थी। मैं “ज़िंदगी छोटी है, तो जब तक है मौज करो” और “अपने प्रति दयालु होना सीखो” जैसे शैतानी जहर के अनुसार जी रही थी। मैं दैहिक आनंद में लिप्त होने को बहुत महत्वपूर्ण मानती थी और जो कुछ भी मैं करती पहले यह विचार करती कि क्या इससे मुझे शारीरिक कष्ट या थकान तो नहीं होगी। मैं हमेशा अपने कर्तव्य बेमन से करती, अपनी जिम्मेदारियों, दायित्वों या कलीसिया के कार्य पर विचार न करती और हर दिन मैं अपने कर्तव्य बिना होश के बस जैसे-तैसे कर देती थी, यहाँ तक कि अपेक्षित प्रयास भी न करती, सच्ची लगन की तो बात ही छोड़िए। परमेश्वर मेरी कमियाँ जानता था और मेरी भ्रष्टता उजागर करने के लिए उसने अगुआ के पर्यवेक्षण का उपयोग किया, मुझे अपने कर्तव्यों के प्रति लापरवाह और आरामतलबी में लिप्त होने की मनोदशा को दूर करने के लिए सत्य खोजने को प्रेरित किया ताकि मैं कर्तव्यनिष्ठ रहकर अपने कर्तव्यों के विवरण पर ध्यान दे सकूँ। इसमें परमेश्वर के श्रमसाध्य इरादे थे और यह मेरे लिए उसका उद्धार था।

बाद में परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे अगुआओं के पर्यवेक्षण कार्य की महत्ता के बारे में थोड़ी और समझ मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जो लोग दूसरों की निगरानी, जाँच और निरीक्षण को स्वीकार कर सकते हैं, वे सबसे समझदार लोग होते हैं, उनमें सहिष्णुता और सामान्य मानवता होती है। जब तुम्हें पता चलता है कि तुम कुछ गलत कर रहे हो, या भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर रहे हो, तो अगर तुम दूसरे लोगों के साथ खुलकर बात करने में सक्षम होते हो, तो इससे तुम्हारे आसपास के लोगों को तुम पर नजर रखने में आसानी होगी। पर्यवेक्षण को स्वीकार करना निश्चित रूप से आवश्यक है, लेकिन मुख्य बात है परमेश्वर से प्रार्थना करना, उस पर भरोसा करना और खुद को निरंतर जाँच के अधीन रखना। खासकर जब तुम गलत मार्ग पर चल पड़े हो, कुछ गलत कर दिया हो या जब तुम कोई काम मनमाने और एकतरफा ढंग से करने वाले हो और आस-पास का कोई व्यक्ति इस बात का उल्लेख कर तुम्हें सचेत कर दे, तो तुम्हें इसे स्वीकार कर तुरंत आत्मचिंतन करना चाहिए और अपनी गलती को स्वीकार कर उसे सुधारना चाहिए। इससे तुम मसीह-विरोधी मार्ग पर चलने से बच जाओगे। अगर कोई इस तरह तुम्हारी मदद कर तुम्हें सचेत कर रहा है, तो क्या तुम्हारे जाने बगैर ही तुम्हें सुरक्षित नहीं रखा जा रहा है? हाँ, यह सही है—यही तुम्हारी सुरक्षा है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि सामान्य मानवता वाला व्यक्ति दूसरों के पर्यवेक्षण और परीक्षण को स्वीकार कर सकता है और जब उसे पता चलता है कि उसने गलतियाँ की हैं या अपने कर्तव्यों में भ्रष्टता प्रकट की है तो वह दिल खोलकर सबके साथ संगति कर सकता है। वास्तव में सभी के पर्यवेक्षण को स्वीकार कर पाना अपने कर्तव्यों में हमारे लिए फायदेमंद होता है क्योंकि यह हमें गलत रास्ते पर जाने से बचाता है और हमारी रक्षा करता है। पहले मैं अगुआओं के पर्यवेक्षण कार्य की महत्ता नहीं समझती थी और हमेशा सतर्कता और गलतफहमी की मनोदशा में रहती थी, लेकिन अब मैं इसे सही ढंग से ले पाती हूँ। अगुआओं द्वारा कार्य का पर्यवेक्षण और जायजा लेने से मुझे अपने कर्तव्यों में सुधार लाने को लेकर कुछ दिशा-निर्देश प्राप्त हुए और मैं जायज लेने के कार्य पर अधिक व्यापक रूप से विचार कर पाई और साथ ही भाई-बहनों की कठिनाइयों और मनोदशा को समझ पाई ताकि वास्तविक समस्याओं के समाधान के लिए संगति की जा सके। इस तरह से कार्य का वास्तव में जायजा लेने से अपने कर्तव्यों में मेरी दक्षता में सुधार हुआ और मुझे बहुत अधिक सहजता महसूस हुई। अब मुझे अगुआओं द्वारा कार्य का पर्यवेक्षण और जायजा लेने को लेकर पहले जितनी चिंता नहीं रहती और किसी ऐसे कार्य के लिए जो मैंने नहीं किया है या किसी कार्य में कोई विचलन है तो मैं ईमानदारी से उनकी रिपोर्ट कर पाती हूँ और उन्हें सही ढंग से ले पाती हूँ। जब अगुआ मेरे कर्तव्यों में विचलन और कमियाँ बताते हैं तो मैं समर्पित हो जाती हूँ, उन बातों को मानती हूँ, स्वीकारती हूँ और सचेत रहकर खुद में बदलाव लाने और अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने का प्रयास करती हूँ। जब से मैंने इस तरह अभ्यास करना शुरू किया है मैं बहुत अधिक सहज महसूस करती हूँ। परमेश्वर का धन्यवाद!

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