31. दिखावा करने पर चिंतन
6 मार्च 2023 को अगुआ ने हम कई सहकर्मियों के साथ एक सभा बुलाई। मैं आमतौर पर इन सभाओं का इंतजार करती थी, सोचती थी कि हम सभी परमेश्वर के वचनों की अपनी समझ-बूझ पर संगति कर सकते हैं, अनुभवों का आदान-प्रदान कर सकते हैं और अपने काम में आने वाली विभिन्न समस्याओं और मुश्किलों पर चर्चा कर सकते हैं, अपनी कमियाँ दूर करने के लिए एक-दूसरे की खूबियों से सीख सकते हैं—जो बहुत बढ़िया है। लेकिन इस बार मुझे थोड़ी चिंता हुई। मैंने सोचा कि कैसे पिछले दो महीनों में अगुआ ने मेरे काम में कई मसले बताए थे, जैसे सुसमाचार कार्य की प्रगति धीमी है, मैं उन लोगों को तुरंत विकसित करने में विफल रही हूँ जिनकी पहचान प्रतिभाशाली लोगों के रूप में की गई थी और यहाँ तक कि सभाओं में अपनी संगति में मैं अपनी बड़ाई और दिखावा करती हूँ और मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही हूँ। मैंने सोचा, “अगर अगुआ इस सभा में मुझसे पूछे कि हाल ही में चीजों का मेरा अनुभव कैसा रहा है और मैंने इन विचलनों को कैसे सुधारा और सत्य का अभ्यास और उसमें प्रवेश कैसे किया है और अगर मैं कोई जवाब ही नहीं दे पाई, तो क्या वह सोचेगी कि मैं अपना काम ठीक से नहीं कर रही हूँ और मेरा जीवन प्रवेश खराब है? फिर वह और मेरे सहकर्मी मुझे कैसे देखेंगे?” यह सोचकर मैं बहुत घबरा गई, इसलिए मैं सोचने लगी कि मैंने किन कार्यों का जायजा नहीं लिया है या किन पर मेरा नियंत्रण नहीं है। मैंने सोचा कि सभा से पहले मुझे जल्दी से स्पष्ट समझ पाने की जरूरत है। साथ ही पिछली बार अगुआ ने अपनी बड़ाई और दिखावा करने के मेरे मसले की ओर इशारा किया था। भले ही मैंने बाद में परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े, लेकिन मैंने आत्म-चिंतन और प्रवेश पर ध्यान केंद्रित नहीं किया। मैंने सोचा, “अगर मैं वास्तविक समझ साझा नहीं कर सकती, तो क्या अगुआ यह कहेगी कि काट-छाँट का सामना होने पर भी मैं आत्म-चिंतन पर ध्यान केंद्रित नहीं करती और मैं सत्य का अनुसरण करने वाली इंसान नहीं हूँ? मुझे पहले पढ़े गए परमेश्वर के वचनों के अंशों पर एक बार फिर से नजर डालनी चाहिए और उन पर विचार करना चाहिए और कुछ गहरी अंतर्दृष्टि व्यक्त कर पाने में सक्षम होने का प्रयास करना चाहिए। इस तरह अगुआ देख सकेगी कि भले ही मेरे कर्तव्य प्रदर्शन में कई समस्याएँ हैं और मैं भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करती हूँ, इसके बावजूद मैं कुछ हद तक सत्य की खोज और अभ्यास कर सकती हूँ और उसमें प्रवेश कर सकती हूँ। इस तरह मैं अगुआ की नजरों में फिर से अपनी छवि बनाने में सक्षम हो जाऊँगी।”
सभा वाले दिन अगुआ ने हमेशा की तरह हमारे साथ हमारी अवस्थाओं के बारे में बातचीत करके शुरुआत की। मैंने मन ही मन सोचा, “पहले सहकर्मियों को बोलने दो ताकि मैं सुन सकूँ कि उन्होंने क्या अनुभव और समझ हासिल की है। मैं उनकी संगति से कुछ रोशनी पा सकती हूँ और इस अवसर का इस्तेमाल अपने स्वयं के अनुभव और समझ पर अधिक विचार करने के लिए भी कर सकती हूँ।” यह सुनकर कि मेरे सहकर्मियों की संगति कितनी व्यावहारिक है, मैं थोड़ा घबरा गई, सोचने लगी, “अगर मैं अच्छी तरह से संगति नहीं करूँगी तो अगुआ की मेरे बारे में धारणा और भी खराब हो जाएगी।” इस विचार के कारण मेरे लिए शांत होना मुश्किल हो गया और मैं सोचने लगी कि मैं अपनी संगति के दौरान खुद को और अधिक स्पष्ट और गहराई से कैसे व्यक्त कर सकती हूँ। लेकिन चाहे मैंने इस पर कितना भी विचार किया हो, मेरी समझ पहले की तरह ही उथली रही, जिससे मैं थोड़ी निराश हो गई : “इसे भूल जाओ। मैं जो कुछ भी समझती हूँ, उसे साझा करूँगी।” लेकिन फिर मैंने सोचा, “मैंने पहले ही अगुआ पर बुरा प्रभाव छोड़ा है। अगर वह सुनती है कि मेरी समझ कितनी उथली है तो क्या वह सोचेगी कि मैं अपना काम ठीक से नहीं कर रही हूँ और मेरे पास कोई जीवन प्रवेश नहीं है और मेरी निगरानी करने या यहाँ तक कि मुझे बर्खास्त करने के बारे में सोचेगी? अगर मुझे बर्खास्त कर दिया जाता है तो भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? नहीं, मुझे खुद को बेहतर तरीके से दिखाना होगा।” जब अपनी अवस्था और समझ साझा करने की बारी आई तो मैं गहरी समझ प्रस्तुत करना चाहती थी, लेकिन जितना मैं आगे बढ़ती गई, उतनी ही उलझन में बोलती गई। जब मैंने अपनी बात खत्म की तो अगुआ ने कहा, “तुमने जो कुछ भी साझा किया है, उसे सुनने के बाद भी मैं यह नहीं बता सकती कि तुम्हारी मुख्य अवस्था क्या है।” एक सहकर्मी ने भी कहा, “तुम थोड़ी नकारात्मक लग रही हो। अगर तुम्हारे पास वाकई समझ और प्रवेश है तो तुम्हें नकारात्मक नहीं होना चाहिए।” उस पल मेरा चेहरा लाल हो गया और मैं चाहती थी कि मैं कहीं छिप जाऊँ। मैंने मन ही मन सोचा, “बहुत बढ़िया, न केवल मैं अच्छा प्रभाव डालने में नाकाम रही, बल्कि मैंने खुद को और भी शर्मिंदा कर लिया।” जितना मैंने इसके बारे में सोचा, उतना ही मैं असहज महसूस करने लगी। मैं बस यही चाह रही थी कि सभा जल्दी खत्म हो जाए। फिर अगुआ ने मेरी अवस्था के बारे में पूछना बंद कर दिया और यह पूछने लगी कि मैंने रिपोर्ट पत्र को कैसे सँभाला। मैंने मन ही मन सोचा, “मैं इस रिपोर्ट पत्र की स्थिति से काफी परिचित हूँ, इसलिए मैं खुद को थोड़ा दिखाने के लिए इस मामले के बारे में बात कर सकती हूँ। लेकिन चूँकि मेरी साझेदार बहन भी इसमें शामिल है, अगर वह पहले बोलती है तो क्या अगुआ यह सोचेगी कि क्या उसी ने स्थिति पर संगति की और इसे सँभाला है? नहीं, मुझे पहले बोलना होगा। मैंने पहले ही खुद को शर्मिंदा कर लिया है, इसलिए मुझे इस बार कुछ लाज बचाने की जरूरत है।” यह सोचकर मैं जवाब देने के लिए कूद पड़ी। लेकिन खुद को अच्छा दिखाने की उत्सुकता में मैं अपनी बात स्पष्टता से व्यक्त नहीं कर पाई। यह तो मेरी साथी बहन थी जिसने कुछ अतिरिक्त संगति के साथ चीजों को स्पष्ट किया। उस पल मुझे बहुत बुरा लगा—मैं अगुआई करना चाहती थी और खुद को दिखाना चाहती थी, लेकिन मैं खुद को और भी शर्मिंदा कर बैठी। उसी शाम को जब मैंने दिनभर की घटनाओं पर विचार किया, मैं अपना मन शांत नहीं कर पाई, चाहे मैं कितनी भी कोशिश की हो। मैं न चाहते हुए भी अपना खोया हुआ आत्मसम्मान वापस पाने के बारे में सोचने लगी। लेकिन जितना अधिक मैंने इस पर ध्यान केंद्रित किया, उतनी ही मैं परेशान हो गई और मेरा दिमाग उलझ गया।
अगली सुबह अपने भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “क्या तुम लोग काम करते समय और अपने कर्तव्य निभाते समय अपने व्यवहार और इरादों की बार-बार जाँच करते हो? (शायद ही कभी।) यदि तुम शायद ही कभी अपनी जाँच करते हो, तो क्या तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव पहचान सकते हो? क्या तुम अपनी वास्तविक स्थिति को समझ सकते हो?” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं अपनी जाँच करने लगी और पाया कि इस सभा के लिए मेरे इरादे सही नहीं थे। मैं अपने अनुभव और समझ के बारे में अपनी संगति का उपयोग खुद को दिखाने और दूसरों पर प्रभाव डालने के लिए करना चाहती थी। जितना अधिक मैंने अपने इरादों और व्यवहार पर विचार किया, उतना ही अधिक मुझे लगा कि सभा के दौरान मेरे व्यवहार में कपटी तत्व थे और मैं धोखेबाजी में लगी हुई थी। इसकी जाँच करने पर मैं दुविधा में पड़ गई। “क्या मुझे आज की सभा में अगुआ को अपनी कल की मनोदशा के बारे में बताना चाहिए?” मैंने सोचा। “अगर मैं ऐसा करती हूँ तो वह और मेरे सहकर्मी मुझे कैसे देखेंगे, यह जानते हुए कि सभा के दौरान मेरे इतने घृणित इरादे थे? लेकिन अगर मैं ऐसा नहीं करती हूँ तो परमेश्वर मुझे कैसे देखेगा?” बहुत विचार-विमर्श के बाद मैंने अगुआ को एक दिन पहले की अपनी वास्तविक अवस्था के बारे में बताने का फैसला किया। लेकिन मैंने उस समय उससे अकेले में बात की, क्योंकि मैं इतनी शर्मिंदा थी कि अपने सहकर्मियों के सामने इस पर चर्चा नहीं कर सकती थी।
बाद में जब मैंने सभा के दौरान जो कुछ भी प्रकट किया था, उस पर और विचार किया, मैंने सोचा कि परमेश्वर कैसे फरीसियों का पाखंड उजागर करता है और मुझे परमेश्वर के ये वचन मिले : “फरीसियों का वर्णन कैसे किया जाता है? वे ऐसे लोग होते हैं जो पाखंडी हैं, जो पूरी तरह से नकली हैं और अपने हर कार्य में नाटक करते हैं। वे क्या नाटक करते हैं? वे अच्छे, दयालु और सकारात्मक होने का ढोंग करते हैं। क्या वे वास्तव में ऐसे होते हैं? बिल्कुल नहीं। चूँकि वे पाखंडी होते हैं, इसलिए उनमें जो कुछ भी व्यक्त और प्रकट होता है, वह झूठ होता है; वह सब ढोंग होता है—यह उनका असली चेहरा नहीं होता। उनका असली चेहरा कहाँ छिपा होता है? वह उनके दिल की गहराई में छिपा होता है, दूसरे उसे कभी नहीं देख सकते। बाहर सब नाटक होता है, सब नकली होता है, लेकिन वे केवल लोगों को मूर्ख बना सकते हैं; वे परमेश्वर को मूर्ख नहीं बना सकते। अगर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, अगर वे परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव नहीं करते, तो वे वास्तव में सत्य नहीं समझ सकते, इसलिए उनके शब्द कितने भी अच्छे क्यों न हों, वे शब्द सत्य वास्तविकता नहीं होते, बल्कि शब्द और धर्म-सिद्धांत होते हैं। कुछ लोग केवल शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को रटने पर ही ध्यान देते हैं, जो भी उच्चतम उपदेश देता है वे उसकी नकल करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप कुछ ही वर्षों में उनका शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का पाठ निरंतर उन्नत होता जाता है, और वे बहुत-से लोगों द्वारा सराहे और पूजे जाते हैं, जिसके बाद वे खुद को छद्मावरण द्वारा छिपाने लगते हैं, अपनी कथनी-करनी पर बहुत ध्यान देते हैं, और स्वयं को खास तौर पर पवित्र और आध्यात्मिक दिखाते हैं। वे इन तथाकथित आध्यात्मिक सिद्धांतों का प्रयोग खुद को छद्मावरण से छिपाने के लिए करते हैं। वे जहाँ कहीं जाते हैं, बस इन्हीं चीजों के बारे में बात करते हैं, ऊपर से आकर्षक लगने वाली चीजें जो लोगों की धारणाओं के अनुकूल तो होती हैं, लेकिन जिनमें कोई सत्य वास्तविकता नहीं होती। और इन चीजों का प्रचार करके—जो लोगों की धारणाओं और रुचियों के अनुरूप होती हैं—वे बहुत लोगों को गुमराह करते हैं। दूसरों को ऐसे लोग बहुत ही धर्मपरायण और विनम्र लगते हैं, लेकिन वास्तव में यह नकली होता है; वे सहिष्णु, धैर्यवान और प्रेमपूर्ण लगते हैं परंतु यह सब वास्तव में ढोंग होता है; वे कहते हैं कि वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं, लेकिन वास्तव में यह एक नाटक होता है। दूसरे लोग ऐसे लोगों को पवित्र समझते हैं, लेकिन असल में यह झूठ होता है। सच्चा पवित्र व्यक्ति कहाँ मिल सकता है? मनुष्य की सारी पवित्रता नकली होती है, वह सब एक नाटक, एक ढोंग होता है। बाहर से वे परमेश्वर के प्रति वफादार प्रतीत होते हैं, लेकिन वे वास्तव में केवल दूसरों को दिखाने के लिए ऐसा कर रहे होते हैं। जब कोई नहीं देख रहा होता है, तो वे जरा से भी वफादार नहीं होते हैं, और वे जो कुछ भी करते हैं, वह लापरवाही से किया गया होता है। सतह पर वे खुद को परमेश्वर के लिए खपाते हैं और उन्होंने अपने परिवारों और अपनी आजीविकाओं को छोड़ दिया है। लेकिन वे गुप्त रूप से क्या कर रहे हैं? वे परमेश्वर के लिए काम करने के नाम पर कलीसिया का फायदा उठाते हुए और चुपके से चढ़ावे चुराते हुए कलीसिया में अपना उद्यम और अपना कार्य व्यापार चला रहे हैं...। ये लोग आधुनिक पाखंडी फरीसी हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन संवृद्धि के छह संकेतक)। परमेश्वर के वचन उजागर करते हैं कि फरीसी पाखंडी होते हैं, खुद को छिपाने में माहिर होते हैं। उनकी कथनी और करनी गुप्त उद्देश्यों और प्रयोजनों से प्रेरित होती है। वे परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं करते, बल्कि खुद को दिखाने के लिए वचनों और धर्म-सिद्धांतों उपदेश देते हैं। वे खुद को सजाने और प्रस्तुत करने के लिए बाहरी तौर पर अच्छे व्यवहार का इस्तेमाल करते हैं और इस तरह दूसरों के साथ विनम्र, प्रेमपूर्ण और धैर्यवान दिखते हैं। वे सड़क के कोनों पर खड़े होकर प्रार्थना भी करते हैं ताकि दूसरे उनकी धर्मनिष्ठा देख सकें और उन्हें परमेश्वर से प्रेम करने वाले लोग मान सकें। फरीसियों ने दूसरों को गुमराह करने, लोगों से आदर और समर्थन पाने के इरादे और उद्देश्य से खुद को छिपाया और सजाया और यह सब अपना रुतबा बनाए रखने के लिए किया। मैंने जो खुलासा किया था, उस पर विचार करते हुए मुझे एहसास हुआ कि मैं फरीसियों के समान थी। पिछली सभा में अगुआ ने मेरे काम में समस्याएँ बताईं। अगुआ के अपने प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण से चिंतित होकर मैं उसकी नजरों में अपनी छवि फिर से स्थापित करने के लिए इस सभा में बेहतर प्रदर्शन करना चाहती थी। मैंने कुछ कार्य ठीक से नहीं सँभाले थे और विवरण नहीं समझे थे। इस डर से कि अगुआ इसकी असलियत जान लेगी, मैंने जल्दी से विवरण देखने के लिए कदम उठाए और अपने काम और सभाओं में सामान्य से अधिक मेहनत की। मेरा उद्देश्य अगुआ को यह महसूस कराना था कि मैं अभी भी कुछ वास्तविक काम कर सकती हूँ। मैंने देखा कि मुद्दों को हल करने के लिए काम और संगति का अनुसरण करने के मेरे मेहनती प्रयास मेरे कर्तव्य को अच्छी तरह से करने और परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होने के लिए नहीं थे, बल्कि अगुआ की नजर में अपनी छवि बहाल करने और अपने सहकर्मियों से आदर पाने के लिए थे। मैं वाकई स्वार्थी और धोखेबाज थी! अपने कर्तव्य करने में अपनी अभिव्यक्तियों पर विचार करते हुए मुझे एहसास हुआ कि कई बार मैंने अपने मान की रक्षा करने और दूसरों के सामने खुद को अच्छी तरह से पेश करने के लिए काम किया था। ऐसे भी मौके आए थे जब अगुआ ने काम के बारे में पता लगाने के लिए जायजा लिया था और कुछ काम थे जो मैंने अभी तक नहीं किए थे, लेकिन इस बात से चिंतित होकर कि शायद वह कहे कि मैं अक्षम हूँ, मैंने झूठ बोला और कहा कि मैं पहले से ही जायजा ले रही हूँ और उसके बाद मैंने जल्दी से काम किया। मैंने जो कुछ भी प्रकट किया था और सभा के दौरान अपने प्रदर्शन पर विचार करते हुए, मैं काफी परेशान थी। मैं अपने मान की रक्षा के लिए खुद को छिपा और बचा रही थी और पाखंडी बन रही थी। मुझमें और फरीसियों के बीच क्या अंतर था?
बाद में मैंने अपनी अवस्था से संबंधित परमेश्वर के वचनों से कुछ अंश देखे और एक विशेष अंश ने मुझे गहराई तक प्रभावित किया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब बात दूसरों के बीच अपनी हैसियत की हो तो मसीह-विरोधी बहुत संवेदनशील हो जाते हैं। समूह में होने पर, उनका मानना है कि उनकी उम्र कोई मायने नहीं रखती, उनका शारीरिक स्वास्थ्य कोई मायने नहीं रखता। मायने यह रखता है कि अधिकांश लोग उन्हें कैसे देखते हैं, अधिकांश लोग उन्हें समय देते हैं या नहीं और अपने भाषणों तथा क्रियाकलापों में उन्हें स्थान देते हैं या नहीं, अधिकांश लोगों के दिलों में उनकी हैसियत और उनका स्थान ऊँचा है या साधारण, अधिकांश लोग उन्हें बड़ा आदमी मानते हैं या साधारण या उन्हें कुछ खास नहीं मानते, आदि; अधिकांश लोग उनकी परमेश्वर में आस्था रखने की योग्यता को कैसे देखते हैं, लोगों में उनकी बातों का वजन कितना है, अर्थात् कितने लोग उनकी बातों का अनुमोदन करते हैं, कितने लोग उनकी प्रशंसा करते हैं, उन्हें समर्थन देते हैं, उन्हें ध्यान से सुनते हैं और वे जो कुछ कहते हैं उसे आत्मसात करते हैं; इसके अतिरिक्त, अधिकांश लोगों की नजर में, उनकी आस्था बहुत ज्यादा है या बहुत कम, पीड़ा सहन करने का उनका दृढ़ निश्चय कैसा है, वे कितना त्याग करते हैं और कितना खपते हैं, परमेश्वर के घर में उनका योगदान कितना है, परमेश्वर के घर में उनका पद उच्च है या निम्न, अतीत में उन्होंने कौन-सी पीड़ा झेली है और उन्होंने कौन-से महत्वपूर्ण काम किए हैं—यही वे चीजें हैं, जिनके बारे में वे सबसे ज्यादा चिंतित रहते हैं। ... मसीह-विरोधी मुख्य रूप से उपदेश देने और परमेश्वर के वचनों की इस तरह से व्याख्या करने के लिए कोशिश करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जिससे उनकी प्रतिभा का प्रदर्शन हो और दूसरे लोग उन्हें सम्मान दें। जब वे ऐसा प्रयास कर रहे होते हैं, तब वे यह जानने का प्रयास नहीं करते कि सत्य को कैसे समझें या सत्य वास्तविकता में कैसे प्रवेश करें, बल्कि इसकी जगह वे यह सोच रहे होते हैं कि इन शब्दों को कैसे याद किया जाए, वे और ज्यादा लोगों के सामने कैसे अपने गुणों का प्रदर्शन कर सकते हैं जिससे कि और ज्यादा लोग जान सकें कि वे वाकई कुछ हैं, कि वे महज साधारण लोग नहीं हैं बल्कि वे सक्षम हैं और यह कि वे साधारण लोगों से ऊँची श्रेणी में हैं। इस तरह के विचारों, इरादों और मतों को प्रश्रय देते हुए, मसीह-विरोधी लोगों के बीच रहते हैं और सब तरह की अलग-अलग चीजें करते रहते हैं। चूँकि यह उनकी राय है और चूँकि उनके ये लक्ष्य और महत्वाकाक्षांएँ हैं, वे अच्छे व्यवहार, सही कथन और छोटे-बड़े सभी प्रकार के अच्छे क्रियाकलाप करने के अलावा कुछ नहीं कर सकते” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग दस))। परमेश्वर के वचन उजागर करते हैं कि मसीह-विरोधी अपने कर्तव्यों का पालन केवल लोगों के बीच ऊँचा रुतबा पाने के लिए करते हैं, अपनी कथनी और करनी के माध्यम से उनसे अनुमोदन और आदर पाने का लक्ष्य रखते हैं। अपना रुतबा सुरक्षित रखने के लिए वे चीजों को त्याग देते हैं और खुद को खपा देते हैं, कष्ट सहते हैं और कीमत चुकाते हैं, कई अच्छे काम करते हैं। वे परमेश्वर के वचनों में भी प्रयास करते हैं, खुद को वचनों और धर्म-सिद्धांतों से सुसज्जित करते हैं ताकि वे दूसरों के सामने उनका उपदेश दे सकें। अपनी तुलना उनसे करने पर मुझे एहसास हुआ कि मैं भी वैसी ही हूँ। मैंने अपने आत्मसम्मान और रुतबे को हर चीज से ऊपर रखा था। एक बार जब मेरे कर्तव्य करने में मेरी खामियाँ और समस्याएँ उजागर हो गईं, मैंने अपनी स्थिति को फिर से पाने के लिए सभी तरह के तरीके आजमाए। मैंने खुद की बड़ाई करने और दिखावा करने के मुद्दे पर चिंतन करने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया था, न ही मेरे पास सच्ची समझ थी, लेकिन मैंने फिर भी भाई-बहनों को धोखा देते हुए खुद को आकर्षक दिखाने और सजाने की कोशिश की थी। मैंने देखा कि मैं कितनी धोखेबाज थी। इस तरह से काम करना वाकई परमेश्वर को धोखा देना था, जो परमेश्वर द्वारा घृणित और निंदनीय चीज है। यह सोचकर मुझे थोड़ा डर लगा, एहसास हुआ कि अगर मैंने अपनी अवस्था नहीं बदली तो परमेश्वर मुझे ठुकरा देगा।
बाद में मैंने इस बात पर विचार किया कि मैं हमेशा लोगों की नजरों में एक अच्छी छवि बनाए रखना चाहती थी और एहसास हुआ कि मैं शैतानी जहर से नियंत्रित थी कि “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,” और “एक व्यक्ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है।” मुझे याद आया कि हाल ही में परमेश्वर ने सत्य के इस पहलू के बारे में संगति की थी, इसलिए मैंने परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए प्रासंगिक अंश ढूँढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “‘जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,’ इस कहावत का उद्देश्य यह है कि लोग उज्ज्वल और रंगीन जीवन जिएँ और ऐसे काम ज्यादा करें जिनसे उनकी छवि बेहतर होती है—उन्हें बुरे या अपमानजनक काम या ऐसे काम नहीं करने चाहिए जिनसे उनका कुरूप चेहरा उजागर हो—और वे आत्मसम्मान या गरिमा के साथ न जी पाएँ। अपनी प्रतिष्ठा की खातिर, अपने गौरव और सम्मान की खातिर, व्यक्ति को अपने बारे में सब कुछ नहीं बताना चाहिए, और दूसरों को अपने अँधेरे पक्ष और शर्मनाक पहलुओं के बारे में तो कतई नहीं बताना चाहिए, क्योंकि व्यक्ति को आत्मसम्मान और गरिमा के साथ जीना चाहिए। गरिमावान होने के लिए अच्छी प्रतिष्ठा होना जरूरी है, और अच्छी प्रतिष्ठा पाने के लिए व्यक्ति को मुखौटा लगाना और अच्छे कपड़े पहनकर दिखाना होता है। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करने के विरुद्ध नहीं है? (हाँ।) जब तुम ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करते हो, तो तुम जो भी करते हो वह इस कहावत से बिल्कुल अलग होता है, ‘जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है।’ अगर तुम ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करना चाहते हो, तो आत्मसम्मान को अहमियत मत दो; व्यक्ति के आत्मसम्मान की कीमत दो कौड़ी की भी नहीं है। सत्य से सामना होने पर, व्यक्ति को मुखौटा लगाने या झूठी छवि बनाए रखने के बजाय, खुद को उजागर कर देना चाहिए। व्यक्ति को अपने सच्चे विचारों, अपनी गलतियों, सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाले पहलुओं वगैरह को परमेश्वर के सामने प्रकट कर देना चाहिए, और अपने भाई-बहनों के सामने भी इनका खुलासा करना चाहिए। यह अपनी प्रतिष्ठा की खातिर जीने का मामला नहीं, बल्कि एक ईमानदार व्यक्ति की तरह आचरण करने, सत्य का अनुसरण करने, एक सच्चा सृजित प्राणी बनने और परमेश्वर को संतुष्ट करने और बचाए जाने की खातिर जीने का मामला है। लेकिन जब तुम यह सत्य और परमेश्वर के इरादे नहीं समझते हो, तो तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हें सिखाई गई चीजें तुम पर हावी हो जाती हैं। इसलिए, जब तुम कुछ गलत करते हो, तो उस पर पर्दा डालकर यह सोचते हुए दिखावा करते हो, ‘मैं इस बारे में कुछ नहीं कहूँगा, और अगर कोई इस बारे में जानता है मैं उसे भी कुछ नहीं कहने दूँगा। अगर तुममें से किसी ने कुछ भी कहा, तो मैं तुम्हें आसानी से नहीं छोडूँगा। मेरी प्रतिष्ठा सबसे ज्यादा जरूरी है। जीने का मतलब तभी है जब हम अपनी प्रतिष्ठा की खातिर जिएँ, क्योंकि यह किसी भी चीज से ज्यादा जरूरी है। यदि कोई व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा खो देता है, तो वह अपनी सारी गरिमा खो देता है। तो तुम जो सच है वह नहीं बता सकते, तुम्हें झूठ का सहारा लेना होगा और चीजों को छुपाना होगा, वरना तुम अपनी प्रतिष्ठा और गरिमा खो बैठोगे, और तुम्हारा जीवन निरर्थक हो जाएगा। अगर कोई तुम्हारा सम्मान नहीं करता है, तो तुम एकदम बेकार हो, सिर्फ रास्ते का कचरा हो।’ क्या इस तरह अभ्यास करके ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करना मुमकिन है? क्या पूरी तरह खुलकर बोलना और अपना विश्लेषण करना मुमकिन है? (नहीं, मुमकिन नहीं है।) बेशक, ऐसा करके तुम इस कहावत का पालन कर रहे हो, ‘जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,’ जैसा तुम्हारे परिवार ने तुम्हें सिखाया है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (12))। “परिवार लोगों को बस एक या दो कहावतों से नहीं, बल्कि बहुत सारे मशहूर उद्धरणों और सूक्तियों से सिखाता है। उदाहरण के लिए, क्या तुम्हारे परिवार के बुजुर्ग और माँ-बाप अक्सर इस कहावत का उल्लेख करते हैं, ‘एक व्यक्ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवज करता जाता है’? (हाँ।) इससे उनका मतलब होता है : ‘लोगों को अपनी प्रतिष्ठा की खातिर जीना चाहिए। लोग अपने जीवनकाल में दूसरों के बीच अच्छी प्रतिष्ठा कायम करने और अच्छा प्रभाव डालने के अलावा और कुछ नहीं चाहते हैं। तुम जहाँ भी जाओ, वहाँ अधिक उदारता के साथ सबका अभिवादन करो, खुशियाँ बाँटो, तारीफें करो, और कई अच्छी-अच्छी बातें कहो। लोगों को नाराज मत करो, बल्कि अधिक अच्छे और परोपकारी कर्म करो।’ परिवार द्वारा दी गई इस विशेष शिक्षा के प्रभाव का लोगों के व्यवहार या आचरण के सिद्धांतों पर विशेष प्रभाव पड़ता है, जिसका नतीजा यह होता है कि वे शोहरत और लाभ को ज्यादा अहमियत देते हैं। यानी, वे अपनी प्रतिष्ठा, साख, लोगों के मन में बनाई अपनी छवि, और वे जो कुछ भी करते हैं और जो भी राय व्यक्त करते हैं उसके बारे में दूसरों के अनुमान को बहुत महत्व देते हैं। शोहरत और लाभ को ज्यादा अहमियत देकर, तुम अनजाने में इस बात को कम महत्व देते हो कि तुम जो कर्तव्य निभा रहे हो वह सत्य और सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं, क्या तुम परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हो, और क्या तुम पर्याप्त मात्रा में अपना कर्तव्य निभा रहे हो। तुम इन चीजों को कम महत्वपूर्ण और कम प्राथमिकता वाली चीजें मानते हो, जबकि तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हें सिखाई इस कहावत को कि ‘एक व्यक्ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवज करता जाता है,’ तुम बहुत महत्वपूर्ण मान लेते हो। ... तुम जो कुछ भी करते हो वह सत्य का अभ्यास करने की खातिर नहीं है, न ही यह परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए है, बल्कि यह सब तुम्हारी प्रतिष्ठा की खातिर है। इस तरह, तुमने जो कुछ भी किया वह प्रभावी रूप से क्या बन जाता है? यह प्रभावी रूप से एक धार्मिक कार्य बन जाता है। तुम्हारे सार को क्या होता है? तुम बिल्कुल फरीसियों जैसे बन गए हो। तुम्हारे मार्ग को क्या होता है? यह मसीह-विरोधियों का मार्ग बन गया है। परमेश्वर इसी तरह इसे परिभाषित करता है। तो, तुम जो भी करते हो उसका सार दूषित हो गया है, यह अब पहले जैसा नहीं रहा; तुम सत्य का अभ्यास या उसका अनुसरण नहीं कर रहे, बल्कि तुम शोहरत और लाभ के पीछे भाग रहे हो। जहाँ तक परमेश्वर का संबंध है, तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन—एक शब्द में—अपर्याप्त है। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए क्योंकि तुम परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपे गए कार्य या एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित होने के बजाय बस अपनी प्रतिष्ठा के प्रति समर्पित हो” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (12))। परमेश्वर के वचनों ने मेरी वास्तविक अवस्था उजागर कर दी। मैं हमेशा से ही शैतानी दर्शन और नियमों के अनुसार जी रही थी कि “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है” और “एक व्यक्ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है।” जब मैं छोटी थी तो मेरे माता-पिता अक्सर कहा करते थे, “लोग अपने आत्मसम्मान के लिए जीते हैं” और अक्सर ऐसी बातें कहते थे, “अमुक बच्चे को देखो, अपने माता-पिता को बदनाम कर रहा है।” तब से मैं अपना आत्मसम्मान बचाने और अच्छी प्रतिष्ठा रखने के महत्व को समझने लगी। मैंने सीखा था कि दूसरों के साथ बातचीत करते समय मुझे उनके हाव-भाव और मनोदशा को समझना चाहिए और अपनी कथनी और करनी को उनकी पसंद के अनुसार ढालना चाहिए। जब ऐसा करने से मुझे अपने आस-पास के लोगों से प्रशंसा पाने और अच्छी प्रतिष्ठा स्थापित करने में मदद मिली, मैं इन शैतानी फलसफों और नियमों से और भी अधिक जुड़ गई, मानती रही कि इस तरह से जीने से सम्मान मिलता है। परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी मैं अक्सर अपने मान की रक्षा के लिए बोलती और काम करती थी, अपने भाई-बहनों के दिलों में अच्छी छवि स्थापित करने और उनसे आदर पाने की लगातार चाहत रखती थी। पिछली सभा में अगुआ ने मेरी कई समस्याएँ बताई थीं। अपना मान फिर पाने और अगुआ को यह दिखाने के लिए कि मैं बदल गई हूँ, मैं सभा के दौरान दिखावा करती रही और खुद को छिपाती रही, अपनी असली अवस्था और अपने काम में कमियों को उजागर करने के लिए तैयार नहीं हुई। भले ही मेरी समस्याएँ उजागर हो गई थीं और मेरी सच्चाई सामने आ गई थी, फिर भी मैंने अपना खोया हुआ सम्मान वापस पाने के तरीके खोजने की कोशिश की। मान और रुतबे के पीछे भागने से मैं और अधिक पाखंडी और धोखेबाज बन गई थी। मैंने हर काम में अपना मान और रुतबा बनाए रखने पर ध्यान केंद्रित किया, परमेश्वर के घर के हितों पर विचार नहीं किया। मैंने सत्य सिद्धांतों में भी प्रयास नहीं किया, मुझमें अपने कर्तव्यों के प्रति दायित्व और जिम्मेदारी की भावना की कमी थी। जैसे मैंने इस सभा में किया था वैसे ही मैंने अपनी असली अवस्था और अपने काम में कमियों को छिपाया। अगुआ मेरी समस्याएँ पहचान नहीं पाई, इसलिए वह मेरी मदद नहीं कर पाई और मेरे काम में विचलन और कमियों को समय पर संबोधित नहीं किया जा सका। तब मुझे एहसास हुआ कि इन शैतानी जहरों के अनुसार जीना और मान और रुतबे के पीछे भागना सही रास्ता नहीं है; यह केवल लोगों को परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने, उसका प्रतिरोध करने और आखिरकार उसके द्वारा निकाले जाने की ओर ले जाता है। इसका एहसास होने पर मैं नहीं चाहती थी कि शैतान मुझे भ्रष्ट करता और मेरा इस्तेमाल करता रहे, यह सत्य पाने और बचाए जाने के मेरे अवसर को बर्बाद कर देगा। मैं अपना आत्मसम्मान और रुतबा एक तरफ रखना चाहती थी और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार ईमानदार व्यक्ति बनना चाहती थी।
इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “कोई भी समस्या पैदा होने पर, चाहे वह कैसी भी हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें किसी भी तरीके से छद्म व्यवहार नहीं करना चाहिए या दूसरों के सामने नकली चेहरा नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारी कमियाँ हों, खामियाँ हों, गलतियाँ हों, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हों—तुम्हें उनके बारे में कुछ छिपाना नहीं चाहिए और उन सभी के बारे में संगति करनी चाहिए। उन्हें अपने अंदर न रखो। अपनी बात खुलकर कैसे रखें, यह सीखना जीवन-प्रवेश करने की दिशा में सबसे पहला कदम है और यही वह पहली बाधा है जिसे पार करना सबसे मुश्किल है। एक बार तुमने इसे पार कर लिया तो सत्य में प्रवेश करना आसान हो जाता है। यह कदम उठाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम अपना हृदय खोल रहे हो और वह सब कुछ दिखा रहे हो जो तुम्हारे पास है, अच्छा या बुरा, सकारात्मक या नकारात्मक; दूसरों और परमेश्वर के देखने के लिए खुद को खोलना; परमेश्वर से कुछ न छिपाना, कुछ गुप्त न रखना, कोई स्वांग न करना, धोखे और चालबाजी से मुक्त रहना, और इसी तरह दूसरे लोगों के साथ खुला और ईमानदार रहना। इस तरह, तुम प्रकाश में रहते हो, और न सिर्फ परमेश्वर तुम्हारी जाँच करेगा बल्कि अन्य लोग यह देख पाएँगे कि तुम सिद्धांत से और एक हद तक पारदर्शिता से काम करते हो। तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा, छवि और हैसियत की रक्षा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, न ही तुम्हें अपनी गलतियाँ ढकने या छिपाने की आवश्यकता है। तुम्हें इन बेकार के प्रयासों में लगने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम इन चीजों को छोड़ पाओ, तो तुम बहुत आराम से रहोगे, तुम बिना बाधाओं या पीड़ा के जियोगे, और पूरी तरह से प्रकाश में जियोगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गई कि मान और रुतबे को छोड़ने का मार्ग एक ईमानदार व्यक्ति होने से शुरू होता है। इसका मतलब है अपनी कमियाँ और भ्रष्टता छिपाना नहीं, बल्कि उन्हें सुलझाने के लिए खुलना और सत्य खोजना है। केवल इसी तरह से मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव उतार फेंकने, अनुसरण के बारे में अपने गलत विचारों को सुधारने और परमेश्वर के घर के हितों को बनाए रखने के लिए अपने कर्तव्यों को निभाने का अवसर मिल सकता है।
अगस्त 2023 में अपने कर्तव्य बदले जाने के कारण मैंने एक कलीसिया की जिम्मेदारी लेने के लिए बहन झांग किन के साथ सहयोग करना शुरू कर दिया। चूँकि मैं कार्यभार सँभालने के बाद कुछ कामों से अपरिचित थी, इसलिए मैं वाकई झांग किन से मदद माँगना चाहती थी। लेकिन मुझे चिंता थी कि उससे पूछने पर मेरी कमियाँ उजागर हो जाएँगी और मुझे लगा कि शायद वह कहे, “तुम पहले भी एक कलीसिया अगुआ रह चुकी हो; ऐसा क्यों लगता है कि तुम्हें कुछ भी नहीं पता? यह वाकई बहुत खराब है।” जब मैंने ये विचार प्रकट किए तो मैंने इस मुद्दे को दबा लिया और सोचा, “इसे भूल जाओ। मैं इसे खुद ही सुलझा लूँगी।” कुछ दिन बीत गए और काम के कुछ पहलू अभी भी मुझे समझ नहीं आए। मुझे बेचैनी होने लगी, और तब मुझे एहसास हुआ कि झांग किन से पूछने में मेरी अनिच्छा मेरे मान की रक्षा करने और दिखावा करने का एक और तरीका था। मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “तुम्हें पहले परमेश्वर के घर के हितों के बारे में सोचना चाहिए, परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना चाहिए, और कलीसिया के कार्य का ध्यान रखना चाहिए। इन चीजों को पहले स्थान पर रखना चाहिए; उसके बाद ही तुम अपनी हैसियत की स्थिरता या दूसरे लोग तुम्हारे बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता कर सकते हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। मैंने चुपचाप प्रार्थना की, अब मैं अपने मान के लिए जीना नहीं चाहती थी। जिन पहलुओं को मैं नहीं समझती थी या जिन मुद्दों को समझने में मुझे मुश्किल होती थी, उनके बारे में मैंने झांग किन से पूछा। उसकी संगति के माध्यम से मुझे आगे बढ़ने का रास्ता मिला। बाद के सहयोग के दौरान ऐसे समय भी आए जब मैं कुछ पहलुओं को नहीं समझती थी या मेरे काम में विचलन था और मैं कभी-कभी अपने आत्मसम्मान की खातिर कुछ कहना या अपनी कमियाँ छिपाना चाहती थी। लेकिन यह याद करते हुए कि परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है और धोखेबाज लोगों से घृणा करता है, मुझे एहसास हुआ कि मुझे सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार एक ईमानदार व्यक्ति बनने की जरूरत है। केवल ऐसा करके ही मैं ढोंग और पाखंड के भ्रष्ट स्वभाव को छोड़ सकती हूँ। इस बात को ध्यान में रखते हुए मैं अपने खिलाफ विद्रोह करने, अपनी कमियों और भ्रष्टताओं के बारे में खुलकर बात करने के लिए तैयार थी और अब मैं अपने आत्मसम्मान की रक्षा करने की चिंताओं से इतनी बेबस या बंधी हुई नहीं थी। परमेश्वर का धन्यवाद!