43. अपने बेटे की मौत के साए से उबरना

ली लान, चीन

इन वर्षों में एक विश्वासी के रूप में मैं हमेशा से सैद्धांतिक तौर पर तो जानती थी कि हमारा भाग्य और हमारा जन्म-मरण सब परमेश्वर के हाथों में है लेकिन वास्तव में मुझे परमेश्वर की सच्ची समझ नहीं थी। जब परमेश्वर ने ऐसी स्थिति का आयोजन किया जो मेरी धारणाओं के अनुरूप नहीं थी, जब एक मोटरसाइकिल दुर्घटना में मेरे बेटे की अचानक मौत हो गई तो मैंने शिकायतें कीं, मुझे गलतफहमी हुई और मैंने बहस की, मैं पूरी तरह बेनकाब हो गई थी। तब जाकर मुझे अपने वास्तविक आध्यात्मिक कद का पता चला। इसके अलावा मुझे विश्वास के जरिए आशीष प्राप्त करने के बारे में अपने गलत विचारों की भी कुछ समझ मिली।

जुलाई 2017 की बात है मेरा पति और मैं स्थानीय स्तर पर विश्वासियों के रूप में अपेक्षाकृत इतने प्रसिद्ध थे कि पुलिस कई बार हमारी जाँच करने के लिए हमारे घर आ चुकी थी। हमें अपने बेटे को छोड़कर अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर से दूर जाना पड़ा। बाद में पुलिस हमारे बारे में पूछताछ करती रही और इसलिए पिछले सात सालों से मैं और मेरा पति कभी घर वापस नहीं जा सके। कभी-कभी जब मैं दूसरे बच्चों को “माँ” कहकर पुकारते हुए सुनती तो मुझे एकदम दुख होने लगता। मैं बस यही उम्मीद करती कि किसी दिन मैं भी घर जाकर अपने बेटे से मिल पाऊँगी, लेकिन हमारी स्थिति ऐसी थी कि हम घर लौटने की हिम्मत नहीं कर सकते थे और हम अपने बेटे के बारे में केवल अपने गाँव के भाई-बहनों से ही जानकारी प्राप्त कर पाते थे। जब भी मुझे खबर मिलती कि मेरा बेटा स्वस्थ और सुरक्षित है तो मैं परमेश्वर को उसकी देखभाल और सुरक्षा के लिए धन्यवाद देती और मैं निश्चिंत होकर अपना कर्तव्य निभा सकती थी।

अगस्त 2023 की एक दोपहर मुझे अपने पर्यवेक्षक से एक संदेश मिला, मुझे बताया गया कि एक मोटरसाइकिल दुर्घटना में वांग काई के बेटे की मृत्यु हो गई है। वांग काई मेरा पति है। वे कह रहे थे कि मेरे बेटे की मौत हो गई है। ऐसा संभव नहीं लग रहा था और मैंने सोचा कि शायद पर्यवेक्षक से कोई गलती हुई है। मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा था कि मेरा बेटा मर गया। मैंने अपनी आँखें मसलीं और संदेश को ध्यान से पढ़ा, लेकिन इससे ज्यादा साफ तौर पर नहीं लिखा जा सकता था। मैं फर्श पर गिर पड़ी और दहाड़ें मारकर रोने लगी। मेरे परिवार के साथ ऐसा कैसे हो सकता है? मेरा मन हुआ कि काश मेरे पंख उग आएँ और मैं उड़कर घर जा सकूँ और अपने बेटे को आखिरी बार देख सकूँ, लेकिन मेरा पति और मैं दोनों पुलिस के निशाने पर थे और घर जाना सुरक्षित नहीं था। जब मैंने सोचा कि हम अपने मृत बेटे तक को देखने घर नहीं जा सकते तो सीने में ऐसा दर्द हुआ जैसे छुरा घोंप दिया गया हो। मैं परमेश्वर को गलत समझने और उसे दोष देने लगी, “हे परमेश्वर! तुमने मेरे बेटे की रक्षा क्यों नहीं की? जब से आस्था में प्रवेश किया है मैं और मेरा पति हमेशा कर्तव्य निभाते आए हैं। बड़े लाल अजगर के उत्पीड़न और निशाना बनाए जाने का सामना करते हुए हमने अपना घर छोड़ा और अपने बेटे का त्याग किया ताकि आज तक अपना कर्तव्य निभा सकें। कलीसिया ने हमें जो भी कर्तव्य सौंपा हमने कभी इनकार नहीं किया। हमारा बेटा सिर्फ 30 साल का था; वह एक युवा ही तो था। मुझे अपने ही बेटे को दफनाना पड़ेगा! एक माँ के रूप में मेरा बेटा मेरी एकमात्र आशा था और अब मेरे पास कुछ नहीं बचा है और मैं उसकी मौत से पहले उससे एक बार मिल भी नहीं पाई। काश हम दोनों की मौत भी एक साथ हो जाए और मैं परलोक में अपने बेटे के साथ रह सकूँ।” मुझे एहसास हुआ कि मैं अपनी सोच में भटक गई हूँ, परमेश्वर को दोष दे रही हूँ और उसे गलत समझ रही हूँ, इसलिए मैं तुरंत मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना करने लगी, “हे परमेश्वर! जब मैंने सुना कि एक मोटरसाइकिल दुर्घटना में मेरे बेटे की मृत्यु हो गई है तो मैं इसे तुरंत स्वीकार नहीं कर सकी, लेकिन मुझे तुम्हें दोष नहीं देना चाहिए था और गलत नहीं समझना चाहिए था। हे परमेश्वर! मेरे हृदय की रक्षा करो और मुझे अपने सामने शांत रहने की अनुमति दो।” मैंने बार-बार मदद के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की और धीरे-धीरे मैं शांत होने लगी। हालाँकि जब मैंने सोचा कि मेरा बेटा मर चुका है और मैं उसे फिर कभी नहीं देख पाऊँगी तो मैं अभी भी काफी पीड़ाग्रस्त और कमजोर महसूस कर रही थी। मैं बिस्तर पर लेटी रही, कुछ भी खाने-पीने का मन नहीं हो रहा था और रात भर सो नहीं पाई थी। मैंने अपने मन में अपने बेटे का चेहरा बनाया और दिल में उसका नाम पुकारा, आँसुओं ने मेरी दृष्टि को धुंधला कर दिया।

अगले कुछ दिनों तक मैं अपने बेटे की दर्दनाक यादों में डूबी रही और कुछ भी करने का मन नहीं करता था। मेरे अंदर सुसमाचार कार्य की जाँच करने का भी कोई उत्साह नहीं था और कार्य में देरी हो गई। मैं जानती थी कि मैं उस मनोदशा में नहीं रह सकती क्योंकि मैं सुसमाचार कार्य की प्रभारी थी। मेरा बेटा मर गया था लेकिन मुझे जीना था और अपना कर्तव्य ठीक से निभाना था! मैंने अपने आँसू पोंछे और परमेश्वर के सामने घुटने टेक कर प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मैं इस निराशाजनक मनोदशा में नहीं रहना चाहती। इस स्थिति से सीखने और इस दुख से मुक्त होने में मेरा मार्गदर्शन करो।” प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जो मेरे अगुआ ने मुझे भेजा था : “कुछ अनाड़ी माता-पिता जीवन या नियति को समझ नहीं पाते, परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं पहचानते, और अपने बच्चों के विषय में अज्ञानता के काम करते हैं। मिसाल के तौर पर, बच्चों के अपने पैरों पर खड़े हो जाने के बाद, उनका सामना कुछ खास हालात, मुश्किलों या बड़ी घटनाओं से हो सकता है, कुछ बच्चे बीमार पड़ जाते हैं, कुछ कानूनी मुकदमों में फँस जाते हैं, कुछ का तलाक हो जाता है, कुछ धोखे या जालसाजी का शिकार हो जाते हैं, कुछ अगवा हो जाते हैं, उन्हें हानि होती है, उनकी जबरदस्त पिटाई होती है या वे मृत्यु के कगार पर होते हैं। कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो नशेड़ी बन जाते हैं, वगैरह-वगैरह। इन खास और अहम हालात में माता-पिता को क्या करना चाहिए? ज्यादातर माता-पिता की ठेठ प्रतिक्रिया क्या होती है? क्या वे वही करते हैं, जो माता-पिता की पहचान वाले सृजित प्राणियों को करना चाहिए? माता-पिता विरले ही ऐसी खबर सुन कर वैसी प्रतिक्रिया दिखाते हैं जैसी वे किसी अजनबी के साथ ऐसा होने पर दिखाएँगे। ज्यादातर माता-पिता रात-रात भर जागे रहते हैं जब तक उनके बाल सफेद न हो जाएँ, रात-ब-रात उन्हें नींद नहीं आती, दिन भर उन्हें भूख नहीं लगती, वे दिमाग के घोड़े दौड़ाते रहते हैं, और कुछ तो तब तक फूट-फूट कर रोते हैं जब तक उनकी आँखें लाल न हो जाएँ और आँसू सूख न जाएँ। वे दिल से परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, विनती करते हैं कि परमेश्वर उनकी आस्था को ध्यान में रखकर उनके बच्चों की रक्षा करे, उन पर दया करे, उन्हें आशीष दे, कृपा करे और उनका जीवन बख्श दे। ऐसी हालत में, माता-पिता के रूप में अपने बच्चों के प्रति उनकी तमाम इंसानी कमजोरियाँ, अतिसंवेदनशीलताएँ और भावनाएँ उजागर हो जाती हैं। इसके अलावा और क्या प्रकट होता है? परमेश्वर के विरुद्ध उनकी विद्रोहशीलता। वे परमेश्वर से विनती कर उससे प्रार्थना करते हैं, उससे अपने बच्चों को विपत्ति से दूर रखने की विनती करते हैं। कोई विपत्ति आ जाए, तो भी वे प्रार्थना करते हैं कि उनके बच्चे न मरें, खतरे से बच जाएँ, उन्हें बुरे लोग नुकसान न पहुँचाएँ, उनकी बीमारियाँ ज्यादा गंभीर न हों, वे ठीक होने लगें, वगैरह-वगैरह। वे सच में किस लिए प्रार्थना कर रहे हैं? (हे परमेश्वर, इन प्रार्थनाओं से वे परमेश्वर के समक्ष शिकायती भावना रखते हुए माँगें रख रहे हैं।) एक ओर, वे अपने बच्चों की दुर्दशा से बेहद असंतुष्ट हैं, शिकायत कर रहे हैं कि परमेश्वर को उनके बच्चों के साथ ऐसा नहीं होने देना चाहिए था। उनका असंतोष शिकायत में मिश्रित है, और वे परमेश्वर को अपना मन बदलने, ऐसा न करने और उनके बच्चों को खतरे से बाहर निकालने, उन्हें सुरक्षित रखने, उनकी बीमारी ठीक करने, उन्हें कानूनी मुकदमों से बचाने, कोई विपत्ति आने पर उससे उन्हें बचाने, वगैरह के लिए कह रहे हैं—संक्षेप में, हर चीज को सुचारु रूप से होने देने का आग्रह कर रहे हैं। इस तरह प्रार्थना करके एक ओर वे परमेश्वर से शिकायत कर रहे हैं, और दूसरी ओर वे उससे माँगें कर रहे हैं। क्या यह विद्रोहशीलता की अभिव्यक्ति नहीं है? (जरूर है।) निहितार्थ में वे कह रहे हैं कि परमेश्वर जो कर रहा है वह सही या अच्छा नहीं है, उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। चूँकि वे उनके बच्चे हैं और वे स्वयं विश्वासी हैं, इसलिए वे सोचते हैं कि परमेश्वर को उनके बच्चों के साथ ऐसा नहीं होने देना चाहिए। उनके बच्चे दूसरों से अलग हैं; परमेश्वर को आशीष देते समय उन्हें प्राथमिकता देनी चाहिए। चूँकि वे परमेश्वर में आस्था रखते हैं, इसलिए उसे उनके बच्चों को आशीष देने चाहिए, और अगर वह न दे तो वे संतप्त हो जाते हैं, रोते हैं, गुस्सा दिखाते हैं, और फिर परमेश्वर का अनुसरण नहीं करना चाहते। अगर उनका बच्चा मर जाए तो उन्हें लगता है कि अब वे भी नहीं जी सकते। क्या उनके मन में यही भावना है? (हाँ।) क्या यह परमेश्वर के विरुद्ध एक प्रकार का विरोध नहीं है? (जरूर है।) यह परमेश्वर के विरुद्ध विरोध करना है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (19))। परमेश्वर के वचनों ने मेरी वर्तमान मनोदशा को पूरी तरह उजागर कर दिया। जब मुझे मोटरसाइकिल दुर्घटना में अपने बेटे की मौत के बारे में पता चला तो मैंने न कुछ खाया, न पिया और मैंने अनुचित रूप से परमेश्वर से बहस की, उसका प्रतिरोध किया, उसे दोषी ठहराया और उसे गलत समझा। मैंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि अपनी आस्था के बारे में मेरा दृष्टिकोण गलत था। मेरे पति और मैंने अपने परिवार और काम को त्याग दिया था और कठिनाइयों के बारे में थोड़ी सी भी शिकायत किए बिना अपने कर्तव्यों का पालन किया था, यहाँ तक कि हमने अपने कर्तव्यों का पालन करना जारी रखा, जबकि हमारे रिश्तेदारों और पड़ोसियों ने हमारा मजाक उड़ाया और पुलिस ने हमारा पीछा किया और हमें सताया। मैंने सोचा कि अगर मैं चीजों का त्याग करती हूँ, खुद को खपाती हूँ और अपने कर्तव्य में अधिक कष्ट उठाती हूँ और अधिक कीमत चुकाती हूँ तो परमेश्वर निश्चित रूप से मेरे बेटे को बीमारी और दुर्घटना से बचाएगा और उसे अच्छा स्वास्थ्य देगा। जब मैंने सुना कि एक मोटरसाइकिल दुर्घटना में मेरे बेटे की मृत्यु हो गई है तो मैंने परमेश्वर से बहस करना और उसका प्रतिरोध करना शुरू कर दिया, मैंने जो कुछ त्यागा और खुद को खपाया था मैं उसे परमेश्वर से बहस करने के लिए पूंजी के रूप में इस्तेमाल कर रही थी और मेरे बेटे की रक्षा न करने के लिए परमेश्वर को दोषी ठहरा रही थी। मैंने यह भी सोचा कि चूँकि मेरा बेटा मर चुका है मेरे जीने का अब कोई मतलब नहीं है और मेरे लिए यही बेहतर होगा कि मैं परलोक में अपने बेटे के साथ रहूँ! अपने व्यवहार पर विचार करने पर मैंने देखा कि मैं परमेश्वर द्वारा आयोजित स्थिति को लेकर प्रतिरोधी और असंतुष्ट थी। मैं परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह और शोर मचा रही थी; यह परमेश्वर का विरोध था! मेरे बेटे की मृत्यु ने मेरा असली आध्यात्मिक कद प्रकट कर दिया। मैंने स्पष्ट रूप से देखा कि मेरी आस्था का दीर्घकालिक अभ्यास, परिवार और करियर को त्यागना, कष्ट सहना और कीमत चुकाना, सब बस एक एक लेनदेन था जो मैं परमेश्वर के साथ अनुग्रह और आशीष के बदले में करना चाहती थी। मैंने अय्यूब के द्वारा झेले गए अविश्वसनीय परीक्षण के बारे में सोचा, उसने अपनी सारी संपत्ति और अपने बच्चों को खो दिया था और उसके पूरे शरीर पर फोड़े निकल आए थे, लेकिन उसने बिना शर्त परमेश्वर के सामने समर्पण किया और उसके नाम की स्तुति भी की और परमेश्‍वर के प्रति अपनी गवाही में दृढ़ रहा। अपने व्यवहार की तुलना अय्यूब के व्यवहार से करने पर मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई। मुझे परमेश्वर को दोष देना बंद करना था। मुझे अपनी गवाही में दृढ़ रहकर उस पर भरोसा करना था और शैतान को नीचा दिखाना था!

इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों को पढ़ना जारी रखा और आस्था के बारे में अपने गलत दृष्टिकोण को समझना शुरू कर दिया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “क्या ‘प्रभु में एक व्यक्ति का विश्वास पूरे परिवार के लिए आशीष लाता है’ वाला युग बहुत समय पहले ही गुजर नहीं गया? (हाँ, गुजर गया है।) तो फिर लोग अभी भी क्यों इस तरह उपवास और प्रार्थना करते हैं, परमेश्वर से अपने बच्चों की रक्षा कर उन्हें आशीष देने की बेशर्मी से विनती करते हैं? वे अभी भी यह कहकर परमेश्वर के विरुद्ध विरोध और संघर्ष करने की हिम्मत क्यों करते हैं, ‘अगर तुम ऐसा नहीं करोगे, तो मैं प्रार्थना करता रहूँगा; मैं उपवास रखूँगा!’ उपवास रखने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है भूख हड़ताल पर जाना, जो एक दूसरे अर्थ में बेशर्मी से काम करना और नखरे दिखाना है। जब लोग दूसरों के प्रति बेशर्मी से कुछ करते हैं, तो वे जमीन पर पैर पटकते हुए कह सकते हैं, ‘अरे, मेरा बच्चा गुजर गया; मैं अब जिंदा नहीं रहना चाहता, मैं जी नहीं सकता!’ परमेश्वर के समक्ष होने पर वे ऐसा नहीं करते; वे बड़े कायदे से बोलते हैं, कहते हैं, ‘हे परमेश्वर, मैं तुमसे अपने बच्चे की रक्षा करने और उसकी बीमारी ठीक करने की भीख माँगता हूँ। हे परमेश्वर, तुम लोगों को बचाने वाले महान चिकित्सक हो—तुम सब-कुछ कर सकते हो। मैं तुमसे उसकी निगरानी और रक्षा करने की विनती करता हूँ। तुम्हारा आत्मा हर जगह है, तुम धार्मिक हो, तुम वह परमेश्वर हो जो लोगों पर कृपा करता है। तुम उनकी देखभाल करते हो, उन्हें सँजोते हो।’ इसके क्या मायने हैं? उनकी कोई भी बात गलत नहीं है, बस यह ऐसी बातें कहने का सही समय नहीं है। निहितार्थ यह है कि अगर परमेश्वर तुम्हारे बच्चे को बचा कर उसकी रक्षा नहीं करता, अगर वह तुम्हारी कामनाएँ पूरी नहीं करता, तो वह प्रेमपूर्ण परमेश्वर नहीं है, वह प्रेम से रिक्त है, वह कृपालु परमेश्वर नहीं है, और वह परमेश्वर नहीं है। क्या मामला यह नहीं है? क्या यह बेशर्मी दिखाना नहीं है? (बिल्कुल।) क्या बेशर्मी दिखाने वाले लोग परमेश्वर को महान मानकर उसका सम्मान करते हैं? क्या उनमें परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है? (नहीं।) बेशर्मी दिखाने वाले लोग बदमाशों जैसे होते हैं—उनमें परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (19))। “मनुष्य का परमेश्वर के साथ संबंध केवल एक नग्न स्वार्थ है। यह आशीष लेने वाले और देने वाले के मध्य का संबंध है। स्पष्ट रूप से कहें तो, यह एक कर्मचारी और एक नियोक्ता के मध्य का संबंध है। कर्मचारी केवल नियोक्ता द्वारा दिए जाने वाले प्रतिफल प्राप्त करने के लिए कठिन परिश्रम करता है। इस प्रकार के हित-आधारित संबंध में कोई स्नेह नहीं होता, केवल एक लेन-देन होता है। प्रेम करने या प्रेम पाने जैसी कोई बात नहीं होती, केवल दान और दया होती है। कोई समझ नहीं होती, केवल असहाय दबा हुआ आक्रोश और धोखा होता है। कोई अंतरंगता नहीं होती, केवल एक अगम खाई होती है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 3: मनुष्य को केवल परमेश्वर के प्रबंधन के बीच ही बचाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मुझे समझ आया कि वह युग बहुत पहले बीत चुका है जब परमेश्वर ने कहा था, “प्रभु में एक व्यक्ति का विश्वास पूरे परिवार के लिए आशीष लाता है।” फिर भी मैंने अपने विश्वास में इस दृष्टिकोण को कायम रखा। आस्था में बिताए अपने कई वर्षों पर विचार करते हुए मैंने देखा, बाहरी तौर पर ऐसा लगा होगा कि मैंने अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपने परिवार और करियर को त्याग दिया है, लेकिन वास्तव में मैं सिर्फ परमेश्वर से अनुग्रह प्राप्त करना चाहती थी। जब मैं सुनती कि मेरा बेटा ठीक है, स्वस्थ और सुरक्षित है तो मुझे जो भी कार्य सौंपा जाता मैं उसे कर्तव्यनिष्ठा से करती। जब मैंने अपने बेटे की मौत की भयानक खबर सुनी तो मैंने परमेश्वर से बहस करना और उसका प्रतिरोध करना शुरू कर दिया और अपना कर्तव्य निभाने के लिए मुझमें कोई उत्साह नहीं बचा था। मैं अपने बेटे के साथ रहने के लिए आत्महत्या करने तक की सोच रही थी और मेरे मन में परमेश्वर के प्रति गलतफहमियाँ और शिकायतें भरी हुई थीं। जब मैंने परमेश्वर के वचनों से अपनी तुलना की तो पता चला कि मैं एक बेशर्म इंसान हूँ जो गुस्से में बेकाबू हो रहा था। मैं वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास करती रही थी, उसके बहुत सारे वचन खाए और पिए थे, लेकिन मेरे दिल में उसके प्रति थोड़ा-सा भी समर्पण या भय नहीं था। मैंने केवल आशीष प्राप्त करने के लिए इतने बरस कष्ट सहने और खुद को खपाने में बिताए थे, मैं केवल परमेश्वर के साथ लेन-देन कर रही थी और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य बिल्कुल नहीं निभा रही थी। जब मुझे परमेश्वर का अनुग्रह और आशीष नहीं मिला तो मैंने उसके विरुद्ध शोर मचाना और उससे बहस करना शुरू कर दिया। मुझमें थोड़ी सी भी मानवता या विवेक नहीं था!

बाद में मैंने एक और अंश पढ़ा जिससे मुझे यह समझने में मदद मिली कि “प्रभु में एक व्यक्ति का विश्वास पूरे परिवार के लिए आशीष लाता है” एक गलत दृष्टिकोण है। परमेश्वर कहता है : “प्रत्येक के पास एक उचित गंतव्य है जिसका निर्धारण प्रत्येक व्यक्ति के सार के अनुसार किया जाता हैं और इसका दूसरे लोगों से कोई लेना-देना नहीं होता। किसी बच्चे का बुरा व्यवहार उसके माता-पिता को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता और न ही किसी बच्चे की धार्मिकता उसके माता-पिता के साथ बाँटी जा सकती है। माता-पिता का बुरा आचरण उनकी संतानों को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता, न ही माता-पिता की धार्मिकता उनके बच्चों के साथ साझा की जा सकती है। हर कोई अपने-अपने पाप ढोता है और हर कोई अपने-अपने आशीषों का आनंद लेता है। कोई भी दूसरे का स्थान नहीं ले सकता; यही धार्मिकता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। परमेश्वर के वचनों से मुझे यह समझ आया कि परमेश्वर लोगों के सार और समग्र व्यवहार के अनुसार उनके परिणाम निर्धारित करता है। एक विश्वासी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना मेरी जिम्मेदारी थी और इसका मेरे बेटे के भाग्य और गंतव्य से कोई लेना-देना नहीं था। मेरे बेटे का भाग्य सिर्फ इसलिए नहीं बदलेगा क्योंकि मैं परमेश्वर में विश्वास करती हूँ। परमेश्वर सभी के भाग्य का फैसला करता है फिर चाहे वे विश्वासी हों या अविश्वासी। परमेश्वर की व्यवस्थाएँ हमेशा धार्मिक होती हैं और इसलिए मुझे उसके सामने समर्पित हो जाना चाहिए, ऐसा करना ही उचित है। फिर भी मैं इस गलत दृष्टिकोण के साथ चलती रही कि “प्रभु में एक व्यक्ति का विश्वास पूरे परिवार के लिए आशीष लाता है,” यह सोचती रही कि चूँकि मैंने सब कुछ त्याग दिया है, खुद को खपाया है और अपना कर्तव्य निभाया है, इसलिए परमेश्वर को मेरे बेटे की रक्षा करनी चाहिए। यह दृष्टिकोण मेरी अपनी धारणाओं और कल्पनाओं से निकला था और सत्य से बिल्कुल मेल नहीं खाता था।

परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने से मुझे विश्वास के जरिए आशीष पाने के बारे में अपने गलत दृष्टिकोण की समझ प्राप्त हुई। मुझे लगा कि मैं अंततः अपने बेटे की मौत से उबर गई हूँ, लेकिन जब परमेश्वर ने मेरे लिए एक और स्थिति का आयोजन कर दिया और जब मुझे अपने बेटे की मौत का कारण पता चला तो मैंने फिर से शिकायत करना शुरू कर दिया। 14 अगस्त को मेरी मुलाकात मेरी भाभी से हुई जो खुद भी विश्वासी थी, उसने बताया कि दुर्घटना के समय ऐसा लग रहा था कि मेरे बेटे को ज्यादा चोट नहीं आई है। उसे एक्स-रे के लिए अस्पताल ले जाया गया और बाद में घर पर आराम करने के लिए छुट्टी दे दी गई। घर पहुँचने के बाद उसे सांस लेने में तकलीफ होने लगी, इसलिए फिर से अस्पताल में जाँच कराई, लेकिन उसकी हालत में कोई सुधार नहीं आया बल्कि हालत और बिगड़ गई, इसलिए उसने दूसरे अस्पताल में जाना चाहा लेकिन डॉक्टर ने इनकार कर दिया। बाद में मेरे बेटे को सांस लेने में और ज्यादा तकलीफ होने लगी और आखिरकार डॉक्टर उसे दूसरे अस्पताल भेजने के लिए सहमत हो गया, लेकिन अस्पताल ले जाते समय रास्ते में ही उसने दम तोड़ दिया। शव-परीक्षा से पता चला कि टूटी हुई पसली के कारण उसके फेफड़े में चोट आई थी और संक्रमण हो गया था। अगर समय रहते ऑपरेशन हो गया होता तो शायद उसकी मौत न होती। अस्पताल के गलत निदान के कारण उसकी मृत्यु हुई। जब मैंने ये विवरण सुने तो मैं एकदम स्तब्ध रह गई और लगभग बेहोश ही हो गई। इतना गहरा सदमा लगा मानो किसी ने सीने में छुरा घोंप दिया हो। मैं अपनी भाभी से लिपटकर फूट-फूट कर रोने लगी। मैंने मन ही मन सोचा, “अगर मैं और मेरा पति समय रहते उसे दूसरे अस्पताल ले जाने का आग्रह करते तो कभी उसकी मौत न होती।” मेरी भाभी ने मुझे सांत्वना देने की कोशिश की और कहा, “इस अनुभव में परमेश्वर का इरादा है; इसे परमेश्वर से स्वीकारने की कोशिश करो। मेरी भाभी की बात से मुझे अचानक एहसास हुआ कि मैं एक बार फिर शिकायत कर रही थी। मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मेरे दिल की रक्षा करे और अपनी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने में मेरी सहायता करे। तभी मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया जो मैंने कुछ दिन पहले पढ़ा था : “परमेश्वर की संप्रभुता उसके द्वारा नियत और नियोजित है। क्या तुम्हारा उसे बदलने की चाह रखना ठीक है? (नहीं, ठीक नहीं है।) यह ठीक नहीं है। इसलिए, लोगों को मूर्खतापूर्ण या अनुचित चीजें नहीं करनी चाहिए(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (19))। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मुझे एहसास हुआ कि मनुष्य का जीवन और मृत्यु परमेश्वर द्वारा निर्धारित होता है। भले ही हम घर पर होते और डॉक्टर को जल्दी ऑपरेशन करने को कहते, लेकिन अगर उसका समय आ ही गया था तो भी उसका मरना तय था और हम कुछ न कर पाते। मेरा परमेश्वर से शिकायत करना एकदम अनुचित था। यह एहसास होने पर मुझे बहुत अधिक राहत महसूस हुई। मैं परमेश्वर की संप्रभुता को समर्पित होने और शांति से अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए तैयार थी।

बाद में मुझे एक वीडियो में परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला, इससे मुझे अपनी आस्था में आशीष पाने के गलत दृष्टिकोण के बारे में कुछ अंतर्दृष्टि मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “मनुष्य के कर्तव्य और उसे आशीष का प्राप्त होना या दुर्भाग्य सहना, इन दोनों के बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। आशीष प्राप्त होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। दुर्भाग्य सहना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें आशीष प्राप्त होते हैं या दुर्भाग्य सहना पड़ता है, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल आशीष प्राप्त करने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें दुर्भाग्य सहने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। परमेश्वर के वचनों पर विचार कर मुझे एहसास हुआ कि अपना कर्तव्य निभाना और आशीष या शाप पाना, दोनों का आपस में कोई संबंध नहीं है। कर्तव्य परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दिए गए आदेश हैं और ये हमारी अनिवार्य जिम्मेदारियाँ हैं जिन्हें हम सभी को स्वाभाविक तौर पर और न्यायोचित रूप से पूरा करना चाहिए। मैं एक सृजित प्राणी हूँ और परमेश्वर ने मुझे जीवन दिया है, इसलिए मुझे अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए और मुझे अपनी त्यागी हुई चीजों और खुद को खपाने को परमेश्वर के अनुग्रह और आशीषों के बदले सौदेबाजी करने के लिए पूंजी के रूप में उपयोग नहीं करना चाहिए। चाहे विश्वासी हो या अविश्वासी, हर इंसान का भाग्य परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और शासित होता है। जन्म, बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु सभी प्राकृतिक घटनाएँ हैं और मुझे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो जाना चाहिए।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा। “तुम अपने बच्चों से प्रेम कर उनकी रक्षा करते हो, तुममें अपने बच्चों के प्रति स्नेह है, तुम उन्हें त्याग नहीं सकते, और इसलिए तुम परमेश्वर को कुछ भी नहीं करने देते। क्या इसका कोई अर्थ है? क्या यह सत्य, नैतिकता या मानवता के अनुरूप है? यह किसी भी चीज के अनुरूप नहीं है, नैतिकता के भी नहीं, क्या यह सही नहीं है? तुम अपने बच्चों को नहीं सँजोते, तुम उन्हें बचा रहे हो—तुम अपने स्नेह के प्रभाव के अधीन हो। तुम यह भी कहते हो कि अगर तुम्हारा बच्चा मर गया, तो तुम जिंदा नहीं रहोगे। चूँकि तुम अपने खुद के जीवन के प्रति इतने गैर-जिम्मेदार हो, और परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिया गया जीवन सँजोते नहीं हो, तो अगर तुम अपने बच्चों के लिए ही जीना चाहते हो, तो जाओ उन्हीं के साथ जाकर मर जाओ। क्या ऐसा करना आसान नहीं है? मरने के बाद जब तुम आध्यात्मिक क्षेत्र में पहुँचते हो, तो तुम जाँच सकते हो और देख सकते हो : क्या तुम और तुम्हारा बच्चा एक ही तरह की आत्माएँ हैं? क्या तुम्हारे बीच अब भी वही शारीरिक संबंध है? क्या अब भी तुम्हारा एक दूसरे के प्रति स्नेह है? जब तुम दूसरे संसार में लौट जाओगे, तो बदल जाओगे। क्या यह सच नहीं है? (बिल्कुल।) ... अपनी मृत्यु के बाद वे कहाँ जाएँगे? मरते ही, उनका शरीर आखिरी साँस लेता है, उनकी आत्मा दूर चली जाती है, और वे तुमसे पूरी तरह से विदा हो जाते हैं। वे अब तुम्हें नहीं पहचानेंगे, एक पल के लिए भी नहीं रुकेंगे, बस एक दूसरे संसार में लौट जाएँगे। उनके दूसरे संसार लौट जाने पर तुम रोते हो, उन्हें याद करते हो, और यह कहकर बेहद दुखी और संतप्त महसूस करते हो, ‘आह, मेरा बच्चा चला गया, मैं अब उसे कभी नहीं देख पाऊँगा!’ क्या मृत व्यक्ति में कोई चेतना होती है? उन्हें तुम्हारे बारे में कोई जागरूकता नहीं होती, वे तुम्हें जरा भी याद नहीं करते। अपना शरीर छोड़ते ही वे तुरंत तीसरा पक्ष बन जाते हैं, फिर उनका तुमसे कोई रिश्ता नहीं होता। वे तुम्हें किस दृष्टि से देखते हैं? वे कहते हैं, ‘वह बूढ़ी महिला, वह बूढ़ा आदमी—वे किसके लिए रो रहे हैं? ओह, वे तो एक शरीर के लिए रो रहे हैं। मुझे लगता है मैं अभी-अभी उस शरीर से अलग हुआ हूँ : मैं अब उतना भारी नहीं हूँ, अब मुझे बीमारी का दर्द नहीं है—मैं आजाद हूँ।’ वे बस यही महसूस करते हैं। मरने और अपना शरीर छोड़ देने के बाद उनका अस्तित्व एक दूसरे संसार में जारी रहता है, वे एक दूसरे रूप में प्रकट होते हैं, और अब उनका तुम्हारे साथ कोई रिश्ता नहीं होता। तुम यहाँ उनके लिए रोते और तरसते हो, उनकी खातिर कष्ट सहते हो, मगर उन्हें कुछ भी महसूस नहीं होता, वे कुछ भी नहीं जानते। कई साल बाद, हो सकता है भाग्य या संयोग से वे तुम्हारे सहकर्मी या सह-देशवासी बन जाएँ, या तुमसे कहीं बहुत दूर रहें। एक ही संसार में रह कर भी तुम दो अलग लोग होगे जिनका आपस में कोई संबंध नहीं है। भले ही कुछ लोग किन्हीं खास हालात या कही गई किसी खास बात से यह जान लें कि पिछले जीवन में वे अमुक लोग थे, फिर भी जब वे तुम्हें देखते हैं, तो वे कुछ भी महसूस नहीं करते और उन्हें देख कर तुम्हें भी कुछ महसूस नहीं होता। भले ही पिछले जन्म में वह तुम्हारा बच्चा रहा हो, तुम अब उसके लिए कुछ महसूस नहीं करते—तुम बस अपने मृत बच्चे के बारे में ही सोचते हो। वह भी तुम्हारे लिए कुछ महसूस नहीं करता : उसके अपने माता-पिता हैं, उसका अपना परिवार है, उसका वंशनाम भी अलग है—उसका तुमसे कोई रिश्ता नहीं है। लेकिन तुम अब भी वहीं हो, उसे याद करते हो—तुम क्या याद कर रहे हो? तुम सिर्फ एक भौतिक शरीर और उस नाम को याद कर रहे हो, जिसका कभी तुमसे रक्त संबंध था; यह बस एक छवि है, एक प्रतिच्छाया है जो तुम्हारे विचारों या मन में बसी हुई है—इसका कोई वास्तविक मूल्य नहीं है। वह पुनर्जन्म ले चुका है, एक मनुष्य या किसी दूसरे जीवित प्राणी के रूप में बदल चुका है—उसका तुमसे कोई रिश्ता नहीं है। इसलिए, जब कुछ माता-पिता कहते हैं, ‘अगर मेरा बच्चा मर गया, तो मैं भी जिंदा नहीं रहूँगा!’—यह निरी अज्ञानता है! उसके जीवन काल का अंत हो चुका है, मगर तुम्हें जीवित क्यों नहीं रहना चाहिए? तुम इतनी गैर-जिम्मेदारी से कैसे बोलते हो? उसके जीवनकाल का अंत हो गया है, परमेश्वर ने उसकी डोर काट दी है, और उसे कोई दूसरा कर्म करना है—इसका तुमसे क्या लेना-देना है? अगर तुम्हारे लिए कोई दूसरा कर्म नियत है तो परमेश्वर तुम्हारी भी डोर काट देगा; लेकिन अभी तुम्हारे लिए नियत नहीं हुआ है, इसलिए तुम्हें जीते रहना होगा। अगर परमेश्वर तुम्हें जीवित रखना चाहता है तो तुम मर नहीं सकते। चाहे यह व्यक्ति के जीवन में उसके माता-पिता, बच्चों या रक्त द्वारा संबंधित किसी अन्य रिश्तेदार या लोगों से संबंधित हो, स्नेह के विषय में लोगों को ऐसा दृष्टिकोण और समझ रखनी चाहिए : रक्त द्वारा संबंधित लोगों के बीच जो स्नेह होता है, उसके विषय में अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर लेना काफी है। जिम्मेदारियाँ पूरी करने के अलावा लोगों का कुछ भी बदलने का दायित्व नहीं होता, न ही उनमें यह काबिलियत होती है। इसलिए, माता-पिता का यह कहना गैर-जिम्मेदारी है, ‘अगर हमारे बच्चे गुजर जाएँ, अगर बतौर माता-पिता हमें अपने बच्चों के शवों को दफनाना पड़े, तो हम जिंदा नहीं रहेंगे।’ अगर बच्चों के शवों को सचमुच माता-पिता दफनाएँ, तो बस यही कहा जा सकता है कि इस संसार में उनका समय बस इतना ही था, उन्हें जाना ही था। लेकिन उनके माता-पिता अभी यहीं हैं, इसलिए उन्हें अच्छे ढंग से जीते रहना चाहिए। बेशक अपनी मानवता के अनुसार लोगों का अपने बच्चों के बारे में सोचना सामान्य है, लेकिन उन्हें अपने मृत बच्चों को याद करके अपना शेष समय व्यर्थ नहीं करना चाहिए। यह बेवकूफी है। इसलिए इस मामले से निपटते समय, एक ओर लोगों को अपने जीवन की जिम्मेदारी उठानी चाहिए, और दूसरी ओर उन्हें पारिवारिक रिश्तों को पूरी तरह से समझना चाहिए। लोगों के बीच सचमुच में जो रिश्ता होता है, वह देह और रक्त के बंधनों पर आधारित नहीं होता, बल्कि यह रिश्ता परमेश्वर द्वारा रचे गए दो जीवित प्राणियों के बीच होता है। इस प्रकार के रिश्ते में देह और रक्त के बंधन नहीं होते; यह केवल दो स्वतंत्र सृजित प्राणियों के बीच होता है। अगर तुम इस बारे में इस दृष्टि से सोचो, तो बतौर माता-पिता जब तुम्हारे बच्चे दुर्भाग्यवश बीमार पड़ जाएँ या उनका जीवन खतरे में हो, तो तुम्हें ये मामले सही ढंग से झेलने चाहिए। अपने बच्चों के दुर्भाग्य या गुजर जाने के कारण तुम्हें अपना शेष समय, जिस पथ पर तुम्हें चलना चाहिए, और जो जिम्मेदारियाँ और दायित्व तुम्हें पूरे करने हैं, उन्हें छोड़ना नहीं चाहिए—तुम्हें यह मामला सही ढंग से झेलना चाहिए। अगर तुम्हारे विचार और नजरिये सही हैं और तुम इन चीजों की असलियत समझ सकते हो, तो तुम मायूसी, वेदना और लालसा पर जल्द काबू पा सकते हो। लेकिन अगर तुम इसकी असलियत नहीं समझ सके तो क्या होगा? तो हो सकता है यह जीवन भर, मृत्यु के दिन तक तुम्हें परेशान करता रहे(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (19))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे बहुत स्पष्टता महसूस हुई। जब मेरा बेटा जीवित था तो हम माँ-बेटे थे और हमारे बीच खून का रिश्ता था। उसे जन्म देने और वयस्क होने तक पालने के बाद मेरी जिम्मेदारी पूरी हो गई थी। जहाँ तक उसके भाग्य का सवाल है, उसे कब मरना था, कैसे मरना था और उसका परिणाम और गंतव्य क्या होना था, यह सब परमेश्वर द्वारा शासित और व्यवस्थित था। उसका समय पूरा हो चुका था और परमेश्वर ने उसकी सांसें छीन लीं। वह जैसे ही मरा, उसकी आत्मा ने उसका शरीर छोड़ दिया, उसके बाद मेरा उससे कोई सम्बन्ध नहीं रहा और अब हम एक दूसरे को जानते भी नहीं थे। मैं कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करती आ रही थी, उसके बहुत से वचन पढ़े थे और बहुत से कर्तव्य निभाए थे, परमेश्वर ने ही मुझे जीवन में सही मार्ग दिखाया था और मुझे सत्य प्राप्त करने और बचाए जाने का अवसर दिया था। फिर भी जब मुझे अपने बेटे की मौत का सामना करना पड़ा, तो मैं बस उसके साथ ही मर जाना चाहती थी और अपना कर्तव्य और उद्धार पाने का अवसर त्याग देना चाहती थी। मैंने देखा कि मुझमें रत्ती भर भी जमीर और विवेक नहीं था। मुझे पता था कि मुझे अपने बेटे की मौत के गम से उबरना होगा, खुद को संभालना होगा और अपने बचे हुए दिनों का उपयोग अपने कर्तव्य को ठीक से करने, परमेश्वर के राज्य के सुसमाचार का प्रचार करने और अधिक सच्चे विश्वासियों को परमेश्वर के सामने लाने में करना होगा।

बाद में जब कभी मैं अपने बेटे के बारे में सोचती तो परमेश्वर से प्रार्थना करती और परमेश्वर के वचनों का भजन गाती “पूर्ण कैसे किए जाएँ” : “जब तुम कष्टों का सामना करते हो, तो तुम्हें देह की चिंता छोड़ने और परमेश्वर के विरुद्ध शिकायतें न करने में समर्थ होना चाहिए। जब परमेश्वर तुमसे अपने आप को छिपाता है, तो उसका अनुसरण करने के लिए तुम्हें अपने पिछले प्रेम को डिगने या मिटने न देते हुए उसे बनाए रखने के लिए विश्वास रखने में समर्थ होना चाहिए। परमेश्वर चाहे कुछ भी करे, तुम्हें वह जैसे चाहे वैसे आयोजन करने देना चाहिए, और उसके विरुद्ध शिकायतें करने के बजाय अपनी देह को धिक्कारने के लिए तैयार रहना चाहिए। जब परीक्षणों से तुम्हारा सामना हो, तो तुम जिन चीजों से प्रेम करते हो, उन्हें त्यागने का दर्द सहने के लिए का इच्छुक होना चाहिए और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए फूट-फूटकर रोने का इच्छुक होना चाहिए। केवल यही सच्चा प्यार और विश्वास है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। परमेश्वर के वचनों का वह भजन गाना मुझे अंदर तक छू गया। परमेश्वर का इरादा परीक्षणों के जरिए मेरे संकल्प को मजबूत करना था ताकि मैं उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित रहूँ और अपने कर्तव्य का पालन करूँ। परमेश्वर का इरादा समझने के बाद मैंने ग्लानि और ऋणग्रस्तता के आँसू बहाए, अब मैं अपने बेटे की मौत पर शोक में डूबे नहीं रहना चाहती थी। भले ही मैंने अपना बेटा खो दिया हो लेकिन मेरे पास अभी भी परमेश्वर था जो मेरा सबसे बड़ा सहारा था।

इस अविस्मरणीय अनुभव के दौरान मुझे कुछ हद तक कष्ट जरूर हुआ लेकिन मुझे परमेश्वर की संप्रभुता के बारे में बेहतर समझ मिली और मैंने विश्वास को लेकर गलत दृष्टिकोण को पहचान लिया। अगर इस अनुभव के जरिए मुझे बेनकाब न किया गया होता तो मैं कभी भी अपना वास्तविक आध्यात्मिक कद, भ्रष्टता और अशुद्धियों को न पहचान पाती। मैंने यह सब परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से प्राप्त किया। मैं दिल की गहराइयों से परमेश्वर को धन्यवाद देती हूँ!

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