48. मार्गदर्शन और सहायता स्वीकारने से मुझे कैसे लाभ हुआ

झोऊ युन, चीन

सितंबर 2023 में मुझे प्रचारक के बतौर चुनकर कई कलीसियाओं के कार्य का प्रभारी बना दिया गया। इन कलीसियाओं में दो महीने से अधिक कार्य करने के बाद कलीसियाई जीवन और नवागंतुकों के सिंचन कार्य सभी में सुधार हुआ, इसलिए मेरे उच्च अगुआ ने मुझे अभ्यास के अच्छे मार्गों पर वैचारिक आदान-प्रदान करने के लिए बुलाया। मैं काफी खुश थी और मुझे लगा कि मैं कुछ वास्तविक कार्य पूरा करने में सक्षम हूँ। फिर भी नवंबर के अंत तक मैंने देखा कि सुसमाचार कार्य में बहुत कम प्रगति हुई थी, इसलिए मैंने कार्य की कुछ समस्याओं का सारांश तैयार किया और फिर उन समस्याओं के बारे में अपने विचार और सुझाव सुसमाचार टीम के कुछ अगुआओं के साथ साझा किए। मैंने उनके साथ परमेश्वर के इरादे पर भी संगति की ताकि वे उत्साहपूर्वक सुसमाचार का प्रचार कर सकें। काम सौंप देने के बाद मुझे लगा कि मैंने काफी अच्छा किया है और मैं विस्तृत कार्य कर रही हूँ, इसलिए मैं जल्द ही अन्य चीजों में व्यस्त हो गई। कई दिन बाद जब मैंने टीम के अगुआओं से सुसमाचार कार्य में उनकी प्रगति के बारे में पूछा, तो कुछ ने जवाब नहीं दिया, जबकि अन्य ने कहा कि उन्हें सुसमाचार कार्यकर्ताओं से मिलने में कुछ दिन लगेंगे। कुछ टीम अगुआओं को सहयोग करते हुए देखकर मैंने मामले में आगे पता लगाने और स्थिति की बारीकियों को समझने की जहमत नहीं उठाई। दस दिन से ज़्यादा समय बाद मेरे उच्च अगुआ ने पत्र लिखकर मुझसे सुसमाचार कार्य की प्रगति के बारे में पूछा कि यह अप्रभावी क्यों रहा है, सुसमाचार कार्यकर्ता कैसे सहयोग कर रहे हैं और मैंने किन वास्तविक मुद्दों को हल किया है। चूँकि मुझे टीम अगुआओं से पत्र नहीं मिले थे, तो मैं सुसमाचार कार्य की प्रगति के बारे में स्पष्ट नहीं थी, इसलिए मैंने उच्च अगुआ को जवाब दिया कि मैं टीम अगुआओं से पत्र मिलने के बाद पूरी रिपोर्ट दूँगी। उसके बाद मैंने टीम अगुआओं पर अपने नतीजों की रिपोर्ट देने के लिए दबाव डाला। हालाँकि कई बार दबाव डालने के बाद भी उन्होंने मुझे जवाब नहीं दिया और मैं क्रोधित हो गई, मुझे लगा कि वे अपने कर्तव्यों में बेहद गैर-जिम्मेदार हैं। मेरी अगुआ की ओर से एक के बाद एक कार्य की प्रगति के बारे में पूछने वाले पत्र आने लगे तो मैं और अधिक व्याकुल होती गई, लेकिन मुझे महसूस हुआ कि मैं कुछ नहीं कर सकती क्योंकि टीम अगुआ मेरे पत्रों का जवाब ही नहीं दे रहे हैं। मैंने अपनी अगुआ को बताया कि टीम अगुआ मेरे पत्रों का जवाब नहीं दे रहे हैं, ताकि उसे पता चले कि समस्या टीम अगुआओं में है, मुझमें नहीं।

मेरी अगुआ ने तुरंत मुझे जवाब दिया, पूछा कि क्या मैं टीम अगुआओं की असली समस्याएँ और कठिनाइयाँ समझती हूँ और मुझे बताया कि मेरे पत्र के माध्यम से मेरे काम की जाँच करके यह लगता है कि मैं अपने कर्तव्य में पर्याप्त विचार और प्रयास नहीं कर रही हूँ। जब हम अपने काम में नतीजे प्राप्त करने में विफल रहे, तो मैंने बस दूसरों को दोषी ठहरा दिया और अपने मुद्दों पर आत्म-चिंतन नहीं किया। उसने यह भी कहा कि यदि काम का जायजा लेते समय मैंने केवल नतीजे प्राप्त करने के लिए टीम अगुआओं से जल्दी कराई और असली समस्याओं की पहचान नहीं की और लोगों को उनकी समस्याओं से निपटने में मदद के लिए अभ्यास के विशिष्ट मार्ग नहीं दिए, तो हमारे पास अपने काम में नतीजे हासिल करने का कोई रास्ता ही नहीं था। उसका पत्र पढ़कर मैं थोड़ी प्रतिरोधी हो गई, सोचने लगी, “मैं काम को अच्छे से करना चाहती हूँ, मैंने सुसमाचार कार्य में भाग लिया है और टीम अगुआओं की दशाओं के बारे में पत्र लिखे हैं और उनके साथ संगति की है, कोई मुश्किल आने पर उनसे तुरंत संपर्क करने का आग्रह किया है। अगर वे मुझे नहीं बताते कि उनकी समस्याएँ क्या हैं, तो मैं क्या करूँ? सामूहिक गिरफ्तारियों के चलते पहले इन कलीसियाओं में कार्य रुका हुआ था, लेकिन मेरे आने के महज दो महीने बाद ही कार्य के सभी पहलुओं में सुधार हुआ है। मेरे विचार में यह दर्शाता है कि मैं पहले से ही बेहतर कर रही हूँ, पर तुम चाहती हो कि मैं आत्म-चिंतन करूँ? मैं ऐसी संगति को स्वीकार नहीं कर सकती।” उस समय मुझे लगा कि मेरे साथ अन्याय हुआ है, मैं अड़ियल बनकर तर्क करने लगी। जितना मैंने सोचा, उतनी ही अधिक नकारात्मक होती गई और लगा कि मैं बस वह कर्तव्य नहीं निभा पाऊँगी। मुझे एहसास हुआ कि मैं एक गलत दशा में थी, लेकिन मैं खुद को इससे बाहर नहीं निकाल पा रही थी और मुझे नहीं पता था कि मुझे उस स्थिति से क्या सीखना चाहिए। बाद में मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे अपने इरादे समझने के लिए मार्गदर्शन करने को कहा। मुझे एक अनुभवजन्य गवाही वीडियो में उल्लिखित परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला जो मेरी वर्तमान दशा के लिए बहुत प्रासंगिक था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ लोगों को अपना कर्तव्य निभाते हुए काट-छाँट का सामना करना पड़ता है तो वे कहते हैं : ‘अपनी सीमित क्षमताओं के साथ मैं आखिर कर ही कितना पाऊँगा? मैं ज्यादा कुछ नहीं समझता हूँ, इसलिए अगर मैं यह काम ठीक से करना चाहता हूँ तो क्या आगे मुझे सीखते रहना नहीं पड़ेगा? मेरे लिए क्या यह आसान होगा? परमेश्वर लोगों को बिल्कुल भी नहीं समझता है; क्या यह आसमान से तारे तोड़कर लाने को कहने जैसा नहीं है? जो मुझसे ज्यादा जानता है, उसे यह काम करने देना चाहिए। मैं तो इसे सिर्फ इसी तरह कर सकता हूँ—इससे ज्यादा नहीं कर सकता।’ लोग लगातार ऐसी चीजें कहते और सोचते हैं, है ना? (बिल्कुल।) हर कोई इसे स्वीकार सकता है। कोई भी इंसान पूर्ण नहीं है, कोई भी फरिश्ता नहीं होता है; लोग शून्य में नहीं रहते हैं। हर किसी के ऐसे विचार और भ्रष्ट खुलासे होते हैं। हर कोई ऐसी चीजें प्रकट करने और अक्सर ऐसी दशाओं में रहने में सक्षम है और वे ऐसा अपनी इच्छा से नहीं करते; वे इस तरह सोचने से खुद को रोक नहीं पाते। अपने साथ कुछ घटित होने से पहले लोग काफी सामान्य दशा में होते हैं, लेकिन उनके साथ कुछ घटित होने पर चीजें बदल जाती हैं—उनसे स्वाभाविक रूप से नकारात्मक दशा बड़ी आसानी से प्रकट हो जाती है, बिना किसी बाधा या रोक-टोक के, बिना दूसरों के बहकावे या उकसावे में आए हुए; उनके सामने आने वाली चीजें अगर उनकी इच्छा के अनुरूप नहीं होती हैं, तो ये भ्रष्ट स्वभाव हर घड़ी और हर जगह प्रकट होते रहते हैं। वे हर घड़ी और हर जगह क्यों प्रकट हो पाते हैं? इससे सिद्ध होता है कि इस प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव और भ्रष्ट प्रकृति लोगों के अंदर होती है। लोगों के भ्रष्ट स्वभाव उन पर दूसरों द्वारा नहीं थोपे जाते, न ही दूसरे लोग इसे उनके अंदर बैठाते हैं, न ही दूसरों द्वारा सिखाए, भड़काए या उकसाए जाते हैं; बल्कि लोग खुद इसे धारण करते हैं। अगर लोग इन भ्रष्ट स्वभावों का समाधान नहीं करते, तो वे सही और सकारात्मक दशाओं में नहीं जी सकते हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल अपना भ्रष्‍ट स्‍वभाव दूर करने से ही सच्चा बदलाव आ सकता है)। परमेश्वर कहता है कि जब लोगों का समस्याओं से सामना नहीं होता, तो उनकी दशा अक्सर सामान्य होती है, लेकिन जैसे ही चीजें उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होतीं, वे प्रतिरोध, अड़ियलपन और असंतोष की दशाएँ प्रकट करने से खुद को नहीं रोक पाते। लोगों की प्रकृति के साथ ये मुद्दे होते हैं। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैंने उन पर अपनी दशा के प्रकाश में विचार किया। जब मेरी अगुआ ने सुसमाचार कार्य में मेरे प्रयास, विचार की कमी और वास्तविक कार्य करने में मेरी विफलता के बारे में बताया, तो मुझे अपने साथ अन्याय महसूस हुआ, मैं प्रतिरोधी हो गई और सोचा कि मैं इतना ही कर सकती हूँ। मैंने कार्य में भाग लेकर टीम अगुआओं के साथ उनकी दशाओं पर संगति की थी और चूँकि उन्होंने अपनी वर्तमान स्थिति के बारे में नहीं बताया था तो मैं कुछ भी नहीं कर सकती थी। मुझे लगा कि मेरी अगुआ ने मेरी स्थिति बिल्कुल नहीं समझी। मैं अड़ियल होकर तर्क-वितर्क की दशा में जी रही थी, जिससे पता चलता था कि मैंने सत्य को स्वीकार नहीं किया है। अपनी समस्या की गंभीर प्रकृति देखते हुए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं जानती हूँ कि कोई भी मेरी काट-छाँट करके मुझे परेशान नहीं करना चाहता और यह तुम्हारी अनुमति से होता है। मुझे पता है कि ऐसी चीजें हैं जिन पर मुझे आत्म-चिंतन कर उनमें प्रवेश करना चाहिए, लेकिन मैं इस समय समझ नहीं पा रही हूँ कि वे क्या हैं। इस मामले में खुद को समझने और सबक सीखने के लिए मेरा प्रबोधन और मार्गदर्शन करो।”

उसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश देखा : “चाहे जिस किसी परिस्थिति के कारण किसी व्यक्ति की काट-छाँट की जाए, इसके प्रति सबसे महत्वपूर्ण रवैया क्या होना चाहिए? पहले तो तुम्हें काट-छाँट को स्वीकार करना चाहिए। इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारी काट-छाँट कौन कर रहा है, इसका कारण क्या है, चाहे वह कठोर लगे, लहजा और शब्द कैसे भी हों, तुम्हें इसे स्वीकार कर लेना चाहिए। फिर तुम्हें यह पहचानना चाहिए कि तुमने क्या गलत किया है, तुमने कौन-सा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया है और क्या तुमने सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य किया है। सबसे पहले तुम्हारा रवैया यही होना चाहिए। क्या मसीह-विरोधियों का रवैया ऐसा होता है? नहीं; शुरू से अंत तक, उनका रवैया प्रतिरोध और नफरत का होता है। क्या ऐसे रवैये के साथ, वे परमेश्वर के सामने शांत हो सकते हैं और नम्रता से काट-छाँट स्वीकार कर सकते हैं? नहीं, वे ऐसा नहीं कर सकते। तो फिर वे क्या करेंगे? सबसे पहले तो वे लोगों से सहानुभूति और माफी पाने की आशा में जोरदार बहस करेंगे और बहाने बनाएँगे, अपनी गलतियों और उजागर किए गए भ्रष्ट स्वभावों का बचाव करेंगे, उसके पक्ष में बहस करेंगे ताकि उन्हें कोई जिम्मेदारी न लेनी पड़े या उन वचनों को स्वीकार न करना पड़े जो उनकी काट-छाँट करते हैं। जब उनकी काट-छाँट की जाती है तो उनका क्या रवैया होता है? ‘मैंने पाप नहीं किया है। मैंने कुछ गलत नहीं किया है। अगर मुझसे कोई भूल हुई है, तो उसका कारण था; अगर मैंने कोई गलती की है, तो मैंने जानबूझकर ऐसा नहीं किया, तो मुझे इसकी जिम्मेदारी लेने की जरूरत नहीं है। थोड़ी-बहुत गलतियाँ कौन नहीं करता?’ वे इन कथनों और वाक्यांशों को पकड़ लेते हैं, लेकिन वे सत्य नहीं खोजते, न तो वे अपनी गलतियों को स्वीकारते हैं और न ही अपने प्रकट किए हुए भ्रष्ट स्वभावों को स्वीकारते हैं—और बुराई करने में उनका जो इरादा और मकसद होता है, उसे तो निश्चित रूप से नहीं स्वीकारते। ... तथ्य किसी भी प्रकार से उनके भ्रष्ट स्वभाव को बाहर ले आएँ, वे उसे स्वीकार नहीं करते, बल्कि अपना बचाव और प्रतिरोध करते रहते हैं। दूसरे लोग कुछ भी कहें, वे उसे स्वीकारते या मानते नहीं, बल्कि सोचते हैं, ‘देखते हैं कौन किसको बातों में हरा सकता है; देखते हैं कौन बेहतर वक्ता है।’ एक प्रकार का यह रवैया जिस तरह से मसीह-विरोधी अपनी काट-छाँट को लेते हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग आठ))। परमेश्वर के वचनों के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि काट-छाँट, मदद और सलाह के सामने चाहे वे मेरे साथ जैसा भी रवैया और लहजा अपनाएँ और चाहे वे ऐसा कुछ कहें जो मेरी धारणाओं के अनुरूप न हो, तो भी मुझे इसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारना और समर्पण करना चाहिए और अपने मुद्दों पर चिंतन-मनन करना चाहिए। लोगों में इसी तरह का रवैया होना चाहिए। मसीह-विरोधी प्रतिरोधी, तर्क-वितर्क करने वाले और अवज्ञाकारी होते हैं, यहाँ तक कि काट-छाँट, सलाह और मदद के सामने दूसरों पर दोष मढ़ देते हैं। उनके पास सत्य स्वीकार करने का रवैया बिल्कुल भी नहीं होता। अपने व्यवहार की रोशनी में इस पर चिंतन-मनन करूँ तो जब मेरी अगुआ ने मेरी समस्याएँ बताईं, मैं प्रतिरोधी होकर अपने दिल में लगातार तर्क-वितर्क कर रही थी, सोच रही थी कि मैंने कीमत चुकाई है और अगुआ स्थिति को समझे बिना ही मेरी काट-छाँट कर रही है। यह मुझे अपने साथ बहुत अन्याय लगा और मैंने सोचा कि मैं बस वही कर सकती थी जो मैंने किया है। मैं विरोधी और अड़ियल थी और सत्य से विमुख होने का स्वभाव प्रकट कर रही थी। मैंने सोचा कि कैसे पहले कुछ काम सौंपने के बावजूद मैं वास्तव में बाद में उसमें भाग लेने और कार्य का जायजा लेने में विफल रही, केवल लोगों को नतीजे हासिल करने के लिए जल्दबाजी कराती रही, सुसमाचार कार्यकर्ताओं की कठिनाइयों या दशाओं को समझने की जहमत नहीं उठाई। इस तरह अपने काम का कार्यान्वयन करते हुए मैं अपनी जिम्मेदारी पूरी करने में नाकाम रही। मैं असली मुद्दे भी हल नहीं कर पाई—यह वास्तविक कार्य करने में विफल होना था। अगुआ मेरी समस्याओं के लिए मेरी काट-छाँट कर रही थी, लेकिन मैंने काट-छाँट को स्वीकार नहीं किया और यहाँ तक कि प्रतिरोधी भी बनी रही, बहस की और जिम्मेदारी दूसरे लोगों पर डाल दी। संक्षेप में, मैं सत्य स्वीकार करने में विफल थी और परमेश्वर का विरोध कर रही थी। अगर मैं पश्चात्ताप न करती और अड़ियल स्वभाव में जीती रहती, तो मैं आखिर में परमेश्वर की घृणा का कारण बनती और हटा दी जाती।

बाद में मुझे परमेश्वर के वचनों का एक और अंश मिला : “कलीसिया में ऐसे लोग हैं जो सोचते हैं कि बड़ा प्रयास करने या कुछ जोखिम भरे काम करने का मतलब है कि उन्होंने योग्यता अर्जित कर ली है। तथ्यतः, अपने कार्यों के अनुसार वे वास्तव में प्रशंसा के योग्य हैं, लेकिन सत्य के प्रति उनका स्वभाव और रवैया घृणित और बिल्कुल अस्वीकार्य है। उन्हें सत्य से कोई प्रेम नहीं है, बल्कि वे सत्य से विमुख हैं। यही बात उन्हें घृणास्पद बना देती है। ऐसे लोग बेकार होते हैं। जब परमेश्वर देखता है कि लोग तुच्छ क्षमता के हैं, कि उनमें कुछ कमियाँ हैं, और उनमें भ्रष्ट स्वभाव या एक ऐसा सार है जो परमेश्वर का विरोध करता है, तो उसे उनसे कोई विकर्षण नही होता, और वह उन्हें अपने से दूर नहीं रखता। परमेश्वर का ऐसा इरादा नहीं है, और न ही यह इंसान के प्रति उसका दृष्टिकोण है। परमेश्वर लोगों की तुच्छ क्षमता को नापसंद नहीं करता, वह उनकी मूर्खता को नापसंद नहीं करता, और वह इस बात को भी नापसंद नहीं करता कि उनके स्वभाव भ्रष्ट हैं। लोगों में वह क्या चीज है, जिससे परमेश्वर सबसे ज्यादा नापसंद करता है? वह है उनका सत्य से विमुख होना। अगर तुम सत्य से विमुख हो, तो केवल इसी एक कारण से, परमेश्वर कभी भी तुमसे खुश नहीं होगा। यह बात पत्थर की लकीर है। अगर तुम सत्य से विमुख हो, अगर तुम सत्य से प्रेम नहीं करते, अगर सत्य के प्रति तुम्हारा रवैया परवाह न करने वाला, तिरस्कारपूर्ण और अहंकारी, यहाँ तक कि ठुकराने, प्रतिरोध करने और नकारने का है—अगर तुम इस तरह से व्यवहार करते हो, तो परमेश्वर तुमसे बिल्कुल निराश है, और तुम मृतप्राय हो और बचाए नहीं जाओगे। अगर तुम वास्तव में अपने दिल में सत्य से प्रेम करते हो, और बात सिर्फ इतनी है कि तुम कुछ हद तक कम काबिलियत वाले हो और तुममें अंतर्दृष्टि की कमी है, थोड़े मूर्ख हो और तुम अक्सर गलतियाँ करते हो, लेकिन तुम बुराई करने का इरादा नहीं रखते, और तुमने बस कुछ मूर्खतापूर्ण काम किए हैं; अगर तुम सत्य पर परमेश्वर की संगति सुनने के दिल से इच्छुक हो, और तुम सत्य के लिए दिल से लालायित हो; अगर तुम सत्य और परमेश्वर के वचनों के प्रति अपने व्यवहार में ईमानदारी और ललक भरा रवैया अपनाते हो, और तुम परमेश्वर के वचन बहुमूल्य समझकर सँजो सकते हो—तो यह काफी है। परमेश्वर ऐसे लोगों को पसंद करता है। भले ही तुम कभी-कभी थोड़ी मूर्खता करते हो, परमेश्वर तुम्हें फिर भी पसंद करता है। परमेश्वर तुम्हारे दिल से प्रेम करता है, जो सत्य के लिए तरसता है, और वह सत्य के प्रति तुम्हारे ईमानदार रवैये से प्रेम करता है। तो, तुम पर परमेश्वर की दया है और वह तुम पर हमेशा अनुग्रह कर रहा है। वह तुम्हारी खराब क्षमता या तुम्हारी मूर्खता पर विचार नहीं करता, न ही वह तुम्हारे अपराधों पर विचार करता है। चूँकि सत्य के प्रति तुम्हारा दृष्टिकोण सच्चा और उत्सुकता भरा है, और तुम्हारा हृदय सच्चा है, इसलिए तुम्हारे हृदय की सच्चाई और इस रवैये का ध्यान रखते हुए वह हमेशा तुम्हारे प्रति दयालु रहेगा—और पवित्र आत्मा तुम पर कार्य करेगा, और तुम्हें उद्धार की आशा होगी। दूसरी ओर, यदि तुम दिल से अड़ियल और असंयमी हो, अगर तुम सत्य से विमुख हो, और परमेश्वर के वचनों और सत्य से जुड़ी किसी भी चीज पर कभी ध्यान नहीं देते, और अपने दिल की गहराइयों से प्रतिपक्षी और तिरस्कारपूर्ण हो, तो फिर तुम्हारे प्रति परमेश्वर का रवैया कैसा होगा? सख्त नापसंदगी, विकर्षण, और निरंतर क्रोध का(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्‍य सही ढंग से पूरा करने के लिए सत्‍य को समझना सबसे महत्त्वपूर्ण है)। परमेश्वर कहता है कि वह सत्य के प्रति लोगों के रवैयों को बहुत गंभीरता से लेता है। कुछ लोग आमतौर पर ऐसे दिखते हैं जैसे वे कीमत चुकाने में सक्षम हैं और अपने कर्तव्यों में काफी प्रभावी हैं, लेकिन समस्याओं से सामना होने पर वे सत्य स्वीकार नहीं करते और यहाँ तक कि सत्य से विमुख होते हैं। परमेश्वर इससे घृणा करता है। मैंने पिछले दो महीनों के बारे में सोचा, जब मैंने कुछ कीमत चुकाई थी और अपने कर्तव्य में कुछ नतीजे हासिल किए थे, मुझे लगा कि मैं पहले से ही वास्तविक कार्य कर रही थी और इसलिए मेरी अगुआ को मेरी समस्याओं की ओर इशारा नहीं करना चाहिए। हालाँकि मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर केवल यह नहीं देखता कि किसी ने कितना कष्ट सहा है, उसने कितना काम किया है या उसने क्या नतीजे हासिल किए हैं, वह यह भी देखता है कि सत्य के प्रति उसका रवैया क्या है और क्या वह सत्य को स्वीकार करता है। अगर काट-छाँट का सामना करने पर मैं लगातार प्रतिरोधी बनी रहती और उसे स्वीकार न करती और परमेश्वर के विरोध में बहस की और क्रिया-कलाप करती, तो परमेश्वर मुझसे घृणा करता और मुझे पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त नहीं होता। मैंने देखा कि सत्य से विमुख होने के स्वभाव में जीना सचमुच बहुत खतरनाक है। सत्य तो यही था कि सुसमाचार कार्य वर्तमान में अप्रभावी हो गया था, इसलिए मुझे अपनी अगुआ की सलाह मान लेनी चाहिए और वास्तव में सुसमाचार कार्य में मौजूद समस्याएँ हल करनी चाहिए।

अपनी खोज के दौरान मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया और मैंने उसे खोजा। परमेश्वर कहता है : “वे किसी भी वास्तविक कार्य में भाग नहीं लेते, कोई खोज-खबर नहीं लेते या दिशा-निर्देश नहीं देते हैं और वे समस्याएँ सुलझाने के लिए खोज-बीन या शोध नहीं करते। क्या वे एक अगुआ की जिम्मेदारियाँ निभाते हैं? क्या कलीसिया का कार्य इस तरह से अच्छे से किया जा सकता है? जब ऊपरवाला उनसे पूछता है कि कार्य कैसा चल रहा है तो वे कहते हैं, ‘कलीसिया का सारा कार्य सामान्य है। कार्य की प्रत्येक मद को एक पर्यवेक्षक सँभाल रहा है।’ इस बारे में और अधिक प्रश्न करने पर कि कार्य में कोई समस्या तो नहीं है, वे जवाब देते हैं, ‘मुझे नहीं पता। शायद कोई समस्या नहीं है!’ नकली अगुआ का अपने कार्य के प्रति यही रवैया होता है। एक अगुआ के रूप में तुम खुद को सौंपे गए कार्य के प्रति पूरी गैर-जिम्मेदारी दिखाते हो; ये सब दूसरों को सौंप दिए जाते हैं और खुद तुम्हारी ओर से कोई खोज-खबर नहीं ली जाती, कोई पूछताछ नहीं होती और समस्याएँ सुलझाने में कोई सहायता नहीं दी जाती—तुम बस वहाँ हाथ झाड़कर काम कराने वाले मुखिया की तरह बैठे रहते हो। क्या तुम अपनी जिम्मेदारी की उपेक्षा नहीं करते? क्या तुम एक अधिकारी की तरह काम नहीं कर रहे हो? कोई विशेष कार्य न करना, कार्य की खोज-खबर न लेना, किसी भी वास्तविक समस्या को न सुलझाना—क्या ऐसे अगुआ महज सजावट की वस्तु नहीं हैं? क्या वे नकली अगुआ नहीं हैं? यह नकली अगुआ की बानगी है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (4))। परमेश्वर के वचनों ने मेरी वर्तमान दशा उजागर कर दी : सुसमाचार कार्य उन मुख्य कामों में से है, जिसका अगुआ जायजा लेते हैं और यह मेरी जिम्मेदारी थी, लेकिन काम सौंपने के बाद मुझे लगा कि सुसमाचार कार्य टीम के अगुआओं की जिम्मेदारी है। मुझे लगा कि मैं बस बैठ कर उनके नतीजे आने का इंतजार कर सकती हूँ और टीम के अगुआओं की दशाएँ समझने या उनके कर्तव्य निभाने में आ रही समस्याओं पर ध्यान केंद्रित नहीं किया। फिर भी जब मेरी अगुआ ने हमारे कार्य की प्रगति के बारे में पूछा, तो मैंने कहा कि टीम अगुआओं ने अभी तक मुझसे संपर्क नहीं किया है। साफ तौर पर मैं ही उस कार्य की प्रभारी थी, लेकिन मैंने कार्य की प्रगति की विस्तार से जाँच करने में खुद को नहीं लगाया और निष्क्रिय दृष्टिकोण अपनाया। क्या यह एक नकली अगुआ का व्यवहार नहीं था? उस बिंदु पर मैं आखिर अपने दिल में अगुआ की सलाह स्वीकार कर पाई। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा जिसमें कहा गया था : “पर्यवेक्षण का क्या अर्थ है? पर्यवेक्षण में निरीक्षण करना और निर्देश देना शामिल है। इसका अर्थ है कार्य के बारे में विस्तार से विशिष्ट रूप से पूछना, कार्य की प्रगति और कार्य की कमजोर कड़ियों के बारे में जानना और उन्हें अच्छी तरह से समझना, यह समझना कि कौन अपने कार्य में जिम्मेदार है और कौन नहीं, और कौन कार्य का निर्वहन करने में सक्षम है और कौन नहीं, वगैरह-वगैरह। पर्यवेक्षण के लिए कभी-कभी परिस्थिति के बारे में परामर्श करने, उसे समझने और उसके बारे में पूछताछ करने की जरूरत होती है। कभी-कभी इसके लिए आमने-सामने प्रश्न करने या सीधे निरीक्षण करने की जरूरत होती है। निस्संदेह, अक्सर इसमें प्रभारी लोगों के साथ सीधे संगति करना, कार्य के कार्यान्वयन, आने वाली कठिनाइयों और समस्याओं के बारे में पूछना, वगैरह शामिल होता है। पर्यवेक्षण करते समय, तुम यह पता लगा सकते हो कि कौन से लोग अपने कार्य में सिर्फ बाहरी तौर पर अपने काम में लगे रहते हैं और सिर्फ सतही तौर पर चीजें करते हैं, किन लोगों को यह नहीं पता है कि विशिष्ट कार्यों को कैसे कार्यान्वित करना है, किन लोगों को यह तो पता है कि उन्हें कैसे कार्यान्वित करना है लेकिन वे वास्तविक कार्य नहीं करते हैं, और इसी तरह की दूसरी समस्याओं का पता लगा सकते हो। अगर इन पता लगाई गई समस्याओं को समय पर सुलझाया जा सकता है, तो यह सबसे अच्छा है। पर्यवेक्षण का उद्देश्य क्या है? इसका उद्देश्य है कार्य-व्यवस्थाओं को बेहतर ढंग से कार्यान्वित करना, यह देखना कि क्या तुमने जो कार्य व्यवस्थित किया है वह उचित है, क्या इसमें कोई चूक हुई है या ऐसी कोई चीज है जिस पर तुमने विचार नहीं किया है, क्या ऐसा कोई क्षेत्र है जो सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, क्या इसमें कोई ऐसा विकृत पहलू या क्षेत्र है जिसमें गलतियाँ की गई हैं, वगैरह—पर्यवेक्षण करने की प्रक्रिया के दौरान इन सभी समस्याओँ का पता लगाया जा सकता है। लेकिन अगर तुम घर पर ही रहते हो और यह विशिष्ट कार्य नहीं करते हो, तो क्या तुम इन समस्याओं का पता लगा सकोगे? (नहीं।) कई समस्याएँ ऐसी होती हैं जिन्हें जानने और समझने के लिए कार्य स्थल पर जाकर उनके बारे में पूछना, उनकी जाँच-परख करना, और उन्हें गहराई से समझना जरूरी होता है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (10))। परमेश्वर के वचनों के माध्यम से मैंने जाना कि कार्य की देखरेख करने में केवल दूसरे लोगों को कार्य सौंप देना और फिर उनसे नतीजे पाने की प्रतीक्षा करना शामिल नहीं होता, बल्कि इसके बजाय असल में कार्य में भाग लेना और कार्य की प्रगति में मौजूद वास्तविक समस्याओं का पता लगाना होता है। क्या सौंपा गया कार्य लोगों के लिए उपयुक्त नहीं है, क्या भाई-बहन खराब दशा में हैं या क्या लोगों के अपने कर्तव्य करने के प्रति रवैये खराब हैं? अगुआओं को ये बातें विस्तार से जाननी और समझनी चाहिए और समय पर उनका समाधान करने के लिए सत्य पर संगति करनी चाहिए। वास्तविक कार्य करने में यही शामिल होता है। मैंने आत्म-चिंतन किया कि कैसे मैंने टीम अगुआओं को केवल कार्य सौंप दिए थे और फिर नतीजे पाने के लिए लगातार उन पर दबाव डाला था—मैंने एक अगुआ के रूप में अपनी जिम्मेदारी को जरा भी नहीं निभाया। मैं बड़े लाल अजगर के अधिकारियों से अलग नहीं थी जो केवल अपने रुतबे वाले पद पर बैठे रहते हैं लेकिन कभी कोई वास्तविक कार्य नहीं करते। कोई भी अधिकारी चाहे जो भी काम कर रहा हो, वह केवल नारे लगाता है, वरिष्ठों के निर्देश अधीनस्थों तक पहुँचाता है और ऐसा काम करता है जो उसे अच्छा दिखाता हो। मेरे अपने मामले में, मैं सिर्फ अपनी अगुआ को रिपोर्ट करने के लिए काम की जाँच कर रही थी, न कि सुसमाचार कार्य में मौजूद असल समस्याएँ और कठिनाइयाँ हल करने के लिए। परमेश्वर काम को लेकर इस तरह के रवैये से घृणा करता है। अगर मैंने अपना रवैया नहीं सुधारा, तो मैं कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाऊँगी और इस तरह अपने कर्तव्य में बुराई करूँगी। उसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों के अनुसार काम करना शुरू कर दिया और अपने भटकाव सुधारने के लिए तेजी से काम किया। असली समझ हासिल करने के जरिए मुझे पता चला कि कुछ कलीसियाओं में सुसमाचार कार्यकर्ताओं की कमी थी, कुछ टीम अगुआ पर्याप्त तेजी से काम नहीं सौंप रहे थे, जिसके कारण प्रगति धीमी थी और कुछ भाई-बहन सीसीपी की गिरफ्तारियों और निगरानी के कारण सामान्य रूप से अपना कर्तव्य करने में असमर्थ थे। इसके और कई अन्य मुद्दों के कारण सुसमाचार कार्य अप्रभावी हो गया था। फिर मैंने इन मुद्दों पर संगति की और एक-एक करके उनका समाधान किया। मैंने दूसरों पर जिम्मेदारियाँ डालने के बहाने ढूँढ़ना बंद कर दिया और इस बात पर ध्यान देना बंद कर दिया कि दूसरे लोग क्या कर रहे हैं और क्या नहीं, इसके बजाय मैंने सिद्धांत के अनुसार अपना कर्तव्य निभाने और अधिक वास्तविक कार्य करने पर ध्यान केंद्रित करना चुना। सहयोग की अवधि के बाद सुसमाचार कार्य बेहतर होने लगा। मैं बेहद खुश थी—मैंने कभी नहीं सोचा था कि अपनी दशा सुधारने और असल में काम करने के बाद मैं परमेश्वर के मार्गदर्शन की गवाह बनूँगी।

इस अनुभव के जरिए मैंने सीखा कि काट-छाँट, सलाह और मदद परमेश्वर से आती है और ये सकारात्मक चीजें हैं जो हमें अपने कर्तव्यों में आए भटकावों को सुधारने में मदद करती हैं और हमें अपने कर्तव्य मानक ढंग से करने देती हैं। वे हमें अपने भ्रष्ट स्वभाव जानने और हल करने में भी मदद करती हैं। इन सबके पीछे परमेश्वर के अच्छे इरादे होते हैं। इस अनुभव के परिणामस्वरूप मैंने सीधे तौर पर काट-छाँट, सलाह और मदद स्वीकार करने के लाभों के बारे में सीखा और यह भी जाना कि कार्य की जाँच कैसे करें और उसकी देखरेख कैसे करें। परमेश्वर के मार्गदर्शन के लिए उसका धन्यवाद!

पिछला:  47. झूठ बोलने के पीछे क्या छिपा है?

अगला:  49. क्या आशीष पाने के लिए त्याग करना और खपना सही है?

संबंधित सामग्री

10. हृदय की मुक्ति

झेंगशिन, अमेरिका2016 के अक्टूबर में, जब हम देश से बाहर थे, तब मेरे पति और मैंने अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य को स्वीकार किया था। कुछ...

1. न्याय स्वर्ग-राज्य की कुंजी है

झेंगलू, चीनमेरा जन्म एक ईसाई परिवार में हुआ था। मेरे पिता अक्सर कहते थे, "प्रभु में विश्वास करने से हमारे पाप क्षमा कर दिए जाते हैं और उसके...

23. गंभीर खतरे में होना

जांगहुई, चीन2005 में, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार करने के कुछ ही दिनों बाद, मैंने अपनी पुरानी कलीसिया के एक...

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 8) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

सेटिंग

  • इबारत
  • कथ्य

ठोस रंग

कथ्य

फ़ॉन्ट

फ़ॉन्ट आकार

लाइन स्पेस

लाइन स्पेस

पृष्ठ की चौड़ाई

विषय-वस्तु

खोज

  • यह पाठ चुनें
  • यह किताब चुनें

Connect with us on Messenger