49. क्या आशीष पाने के लिए त्याग करना और खपना सही है?
मुझे उच्च रक्तचाप है, जो मेरे परिवार में वंशानुगत है। 2013 में मुझे हर एक-दो दिन में भयंकर सिरदर्द भी होने लगा। जब दर्द होता तो मैं कुछ भी नहीं कर पाता; मुझे हर जगह कमजोरी महसूस होती, मैं खड़ा भी नहीं रह पाता और सिरदर्द के साथ-साथ दाँत दर्द और मतली होने लगती। बड़े अस्पतालों में जाने के बाद भी वजह पता नहीं चल सकी। कभी-कभी दर्द इतना तेज होता था कि मुझे लगता कि मैं अपना सिर दीवार पर दे मारूँ, सोचता काश मैं मर जाऊँ, लेकिन अपनी पत्नी और नवजात बच्चे को देखकर मैं रुक जाता था। बाद में मेरी माँ ने मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों के सुसमाचार सुनाया और मैंने परमेश्वर में अपनी आशा जताई, सोचा चूँकि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, अगर मैं पूरे दिल से उसमें विश्वास करता हूँ तो शायद वह मुझे आशीष दे दे और मेरी बीमारी ठीक कर दे। जब मैं परमेश्वर में विश्वास करने लगा तो मेरी स्थिति कुछ हद तक ठीक हो गई। एक दिन मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “जो ईमानदारी से मेरे लिए स्वयं को खपाता है, मैं निश्चित रूप से तुझे बहुत आशीष दूँगा” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 55)। मैं बहुत खुश था और मुझे और भी यकीन हो गया कि अगर मैं परमेश्वर के लिए खुद को खपाने का प्रयास करता रहा तो भविष्य में मुझे परमेश्वर का आशीष मिलेगा। बाद में मैंने अपना पूरा समय कर्तव्य करने में लगाने के लिए अच्छे वेतन वाली अपनी नौकरी छोड़ दी और चाहे मुझे कितने भी कष्ट या कठिनाई क्यों न सहनी पड़ी हो, मैं ऐसा करने के लिए तैयार और खुश रहता था। उन वर्षों के दौरान मेरे सिरदर्द में काफी सुधार हुआ और दौरे पड़ने काफी कम हो गए। कुछ साल बाद जब मैं घर से दूर अपना कर्तव्य कर रहा था तो मेरी मुलाकात एक बहन से हुई जो डॉक्टर थी। उसने मुझे बताया कि मेरे सिरदर्द का कारण ट्राइजेमिनल न्यूरलजिया है और उसने कुछ दवाएँ लिखीं, जिनकी कीमत बस दस युआन से थोड़ी ज्यादा थी। मुझे हैरानी हुई कि दो महीने तक दवा लेने के बाद मेरा ट्राइजेमिनल न्यूरलजिया चमत्कारिक रूप से गायब हो गया। जिस पुरानी बीमारी से मैं सालों से पीड़ित था, वह दूर हो गई और मैं बहुत खुश था। मैं जानता था कि सतही तौर पर ऐसा लग रहा है कि मुझे इलाज ने ठीक कर दिया है, लेकिन असल में मुझ पर परमेश्वर का अनुग्रह हुआ था। ऐसा लगा मानो परमेश्वर के लिए खुद को खपाने से वाकई पुरस्कार मिलते हैं, इसलिए मैं अपने कर्तव्य करने के लिए और भी अधिक समर्पित हो गया।
जुलाई 2023 में मैं लगातार निढाल रहने लगा और कभी-कभी मुझे सिरदर्द और चक्कर भी आने लगे। पहले तो मैंने इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया, मुझे लगा कि चूँकि मुझे उच्च रक्तचाप है, इसलिए कभी-कभी चक्कर आना सामान्य बात है। लेकिन लगभग एक महीने बाद भी कोई सुधार नहीं हुआ, लक्षण इस हद तक बिगड़ गए कि मैं अपना कर्तव्य सिर्फ सुबह ही निभा पाता था। दोपहर और शाम होने तक मेरा सिर घूमने और दुखने लगता था और बायाँ हाथ सुन्न हो जाता था। जब चक्कर आना गंभीर हो जाते तो मैं आराम करने के लिए थोड़ी देर लेट जाता। एक दिन बाथरूम से निकलने के बाद मुझे ऐसे चक्कर आया कि मुझे जल्दी से दीवार के सहारे टिकना पड़ा और मेरी आँखें बंद हो गईं, लेकिन थोड़ी देर बाद मैं अप्रत्याशित रूप से बेहोश हो गया। जब मैं होश में आया, मुझे अपने सिर के पिछले हिस्से में तेज दर्द महसूस हुआ और मुझे एहसास हुआ कि मैं सीमेंट के फर्श पर लेटा हुआ हूँ। मेरे भाई ने उठने में मेरी मदद की, मैंने देखा कि मेरे गिरने की वजह से दरवाजे की चौखट टूट गई है और मेरे सिर के पीछे एक बड़ा गूमड़ा बन गया है। मैंने मन ही मन सोचा, “अच्छा हुआ कि मैं पहले दरवाजे की चौखट से टकराया; अगर मेरे सिर का पिछला हिस्सा सीधे जमीन से टकराता तो अंजाम अकल्पनीय होते!” इसलिए मैं जाँच के लिए अस्पताल गया तो पता लगा कि मेरे दिमाग के एक हिस्से में खून का प्रवाह रुक चुका है। मैं चौंक गया और डॉक्टर से पूछा, “इतनी कम उम्र में मुझे दिमाग में खून का प्रवाह रुकने की बीमारी कैसे हो सकती है? क्या यह बुढ़ापे की बीमारी नहीं है? कोई गलती तो नहीं हुई है?” डॉक्टर ने बार-बार पुष्टि की कि यह दिमाग के एक हिस्से में खून का प्रवाह रुकने की बीमारी है और उसने मुझे अस्पताल में भर्ती करने की व्यवस्था कर दी। उसने कहा कि इतनी कम उम्र में किसी की छोटी रक्त वाहिकाओं के अवरुद्ध होने पर अगर तुरंत इलाज नहीं किया गया तो इससे मुख्य वाहिकाओं में रुकावट आ सकती है, जिससे परेशानी बढ़ सकती है। डॉक्टर की बातों ने मेरे दिल पर पत्थर की तरह भारी बोझ डाल दिया। मैंने दिमाग के एक हिस्से में खून का प्रवाह रुकने से पीड़ित कई बूढ़े लोगों को देखा था—कुछ का शरीर के एक तरफ से बुरी तरह लकवा मार गया था, उनकी जुबान लड़खड़ाती थी, मुँह टेढ़ा हो गया था और आँखें तिरछी थीं और मानसिक क्षमताएँ कमजोर हो गई थीं। मैं उनके जैसा होने से डर गया, सोचने लगा, “अगर मैं भी ऐसा हो गया तो मैं परमेश्वर के वचनों को कैसे खा और पी पाऊँगा और अपना कर्तव्य कैसे कर पाऊँगा? अपना कर्तव्य किए बिना मैं उद्धार कैसे पा सकता हूँ?” इन विचारों ने मुझे बेचैन कर दिया और लगा कि मेरे साथ नाइंसाफी हुई है और मैं शिकायत करने लगा, “इतने सालों में मैंने अपने परिवार और करियर को पीछे छोड़ दिया है। भले ही मेरे रिश्तेदारों और दोस्तों ने मेरा मजाक उड़ाया और मुझे बदनाम किया, लेकिन मैंने कभी भी परमेश्वर में अपनी आस्था नहीं छोड़ी। मैंने अपना कर्तव्य निभाने में इतना मुश्किल वक्त देखा है तो परमेश्वर ने मेरी रक्षा क्यों नहीं की? उसने मुझे यह बीमारी क्यों होने दी? अगर मैं बीमार न पड़ता तो क्या अपना कर्तव्य और भी बेहतर तरीके से निभाने में सक्षम न होता?” खास तौर पर अस्पताल में रहने के दौरान लगभग सौ मरीजों में मैं सबसे युवा था और जब मेरे आस-पास के मरीजों को पता चला कि मुझे यह बीमारी है तो वे चौंक गए और बोले, “बुढ़ापे में यह बीमारी होना तो समझ में आता है, लेकिन तुम जैसे युवा को दिमाग में रक्त प्रवाह रुकने की बीमारी कैसे हो सकती है?” यह सुनकर मुझे और भी बुरा लगा। मैंने अचानक दिमाग में रक्त प्रवाह रुकने से बेहोश हुए कई मरीजों को आईसीयू में देखा, उन्हें ऑक्सीजन की नलियाँ लगी हुई थीं और वे बार-बार बेहोश हो रहे थे, मुझे चिंता हुई कि अगर मैं फिर से बेहोश हो गया तो क्या मेरा भी यही हाल होगा। मैंने सोचा, “मैं इतना बदकिस्मत कैसे हो सकता हूँ कि मुझे ऐसी बीमारी हो गई?” मैं चिंतित और बेचैन हो गया। कुछ समय के इलाज के बाद मेरी स्थिति नियंत्रण में आ गई। घर लौटने के बाद मैंने अपनी सेहत की देखभाल पर ध्यान केंद्रित किया, खुद को अधिक थकाने से डर गया और मैंने अपने कर्तव्य के बारे में फिर नहीं सोचा।
एक रात जब मैं बिस्तर पर लेटा था, मैंने विचार किया कि पिछले कुछ दिनों में मैं अपने कर्तव्यों के प्रति उतना चौकस नहीं रहा हूँ, क्योंकि मैं अपनी सेहत की देखभाल करने पर ध्यान केंद्रित कर रहा हूँ और मुझे थोड़ा अपराध बोध हुआ। अगले दिन मैंने परमेश्वर के सामने प्रार्थना की, “सर्वशक्तिमान परमेश्वर, जब से मुझे पता चला है कि मेरे दिमाग में रक्त प्रवाह रुका है, मैं लगातार इसके दोबारा होने और फिर से बेहोश होने के बारे में चिंतित रहता हूँ। मुझे डर है कि अगर मैं गंभीर रूप से गिर गया और मेरी जान को खतरा हो गया तो मैं उद्धार प्राप्त नहीं कर पाऊँगा। नतीजतन अपना कर्तव्य निभाने के लिए मेरी दशा ठीक नहीं रही है और मैं अपनी सेहत ठीक रखने के बारे में अधिक चिंतित रहा हूँ। परमेश्वर, मेरी विनती है कि तुम मुझे आस्था दो और मेरी दशा सुलझाने के लिए सत्य खोजने में मेरा मार्गदर्शन करो।” प्रार्थना करने के बाद मुझे परमेश्वर के वे वचन याद आए जो अस्पताल में भर्ती होने से पहले मुझे एक बहन ने भेजे थे : “हर व्यक्ति का जीवन-काल परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित किया गया है। चिकित्सीय दृष्टिकोण से कोई बीमारी प्राणांतक हो सकती है, लेकिन परमेश्वर के नजरिये से अगर तुम्हारा जीवन अभी बाकी है और तुम्हारा समय अभी नहीं आया है, तो तुम चाहकर भी नहीं मर सकते। अगर परमेश्वर ने तुम्हें कोई आदेश दिया है, और तुम्हारा मिशन अभी तक पूरा नहीं हुआ है, तो तुम उस बीमारी से भी नहीं मरोगे जो प्राणघातक है—परमेश्वर अभी तुम्हें मरने नहीं देगा। भले ही तुम प्रार्थना न करो, सत्य की तलाश न करो या अपनी बीमारी का इलाज न कराओ—या भले ही तुम अपना इलाज स्थगित कर दो—फिर भी तुम मरोगे नहीं। यह खास तौर से उन लोगों पर लागू होता है जिन्होंने परमेश्वर से एक आदेश प्राप्त किया है : जब तक उनका मिशन पूरा नहीं होता, उन्हें चाहे कोई भी बीमारी हो जाए, वे तुरंत नहीं मरेंगे; वे तब तक जियेँगे जब तक कि उनका मिशन पूरा नहीं हो जाता। क्या तुम्हें यह आस्था है? यदि तुम ऐसा नहीं करते हो, तो तुम परमेश्वर से केवल कुछ दिखावटी प्रार्थनाएँकरोगे और कहोगे, ‘परमेश्वर! मुझे तुम्हारा आदेश पूरा करना है। मैं अपने अंतिम दिन तुम्हारे प्रति वफादारी में बिताना चाहता हूँ, ताकि मुझे कोई पछतावा न रहे। तुम्हें मेरी रक्षा करनी होगी!’ यद्यपि तुम इस तरह से प्रार्थना करते हो, लेकिन यदि तुम सत्य पाने के लिए पहल नहीं करते हो, तो तुम्हारे पास अपनी निष्ठा निभाने की इच्छाशक्ति और ताकत नहीं होगी। चूँकि वास्तविक कीमत चुकाने की तुम्हारी इच्छा नहीं है, इसलिए तुम अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करने और उसके साथ मोलभाव करने के लिए इस तरह के बहाने और तरीके आजमाते हो—क्या यह व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है? यदि तुम्हारी बीमारी ठीक हो जाए, तो क्या तुम वास्तव में अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा पाओगे? जरूरी नहीं। सच तो यह है कि चाहे तुम्हारी सौदेबाजी अपनी बीमारी ठीक करने और खुद को मरने से बचाने के लिए हो, या इसमें तुम्हारा कोई और इरादा या लक्ष्य हो, परमेश्वर के नजरिये से, अगर तुम अपना कर्तव्य निभा सकते हो और अभी भी काम के हो, अगर परमेश्वर ने तय किया है कि वह तुम्हारा इस्तेमाल करेगा, तो तुम नहीं मरोगे। अगर तुम मरना भी चाहो तो नहीं मर सकते। लेकिन अगर तुम कोई परेशानी खड़ी करते हो, तमाम तरह के बुरे काम कर परमेश्वर के स्वभाव को भड़काते हो तो तुम तुरंत मर जाओगे; तुम्हारा जीवन घट जाएगा। दुनिया को बनाने से पहले ही परमेश्वर ने सभी की जीवन अवधि तय कर दी थी। यदि लोग परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों के आगे समर्पण कर पाते हैं, तो फिर चाहे बीमारी आए या न आए, उनका स्वास्थ्य अच्छा हो या खराब हो, वे उतने वर्ष तो जियेँगे ही जितने परमेश्वर ने पहले ही तय किए हैं। क्या तुम्हें यह आस्था है? यदि तुम इसे केवल धर्म-सिद्धांत के मायने में स्वीकार करते हो, तो तुम्हें सच्ची आस्था नहीं है, और कानों को अच्छे लगने वाले शब्द कहना बेकार है; यदि तुम अपने हृदय की गहराई से पुष्टि करते हो कि परमेश्वर ऐसा करेगा, तो तुम्हारा दृष्टिकोण और अभ्यास करने का तरीका स्वाभाविक रूप से बदल जाएगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे समझ आया कि किसी व्यक्ति का जीवन और मृत्यु, साथ ही साथ उसका जीवन-काल, सब परमेश्वर द्वारा निर्धारित किया जाता है। जब किसी व्यक्ति का मिशन पृथ्वी पर पूरा हो जाता है तो उसका जीवन-काल समाप्त हो जाता है, तभी उसका जीवन खत्म होता है। अगर किसी व्यक्ति का मिशन अभी तक पूरा नहीं हुआ है तो चाहे उसे कितनी ही गंभीर बीमारी क्यों न हो, उसका जीवन खत्म नहीं होगा। मुझे एहसास हुआ कि किसी व्यक्ति की मृत्यु के समय का उसकी बीमारी से कोई लेना-देना नहीं है, बल्कि यह परमेश्वर के आदेश द्वारा निर्धारित होता है। मुझे कुछ भाई-बहनों का ख्याल आया जिनमें बहुत गंभीर बीमारियाँ निकली थीं और डॉक्टरों ने घोषणा कर दी थी कि उनके पास जीने के लिए लंबा समय नहीं बचा है, फिर भी अंत में उनकी बीमारियाँ चमत्कारिक रूप से ठीक हो गईं। मैंने एक ऐसे मामले के बारे में भी सुना था जहाँ एक छोटा लड़का सिर्फ सर्दी के कारण मर गया। इससे मुझे पता चला कि किसी व्यक्ति के जीवन और मृत्यु का उसकी बीमारी की गंभीरता से कोई लेना-देना नहीं है, बल्कि यह परमेश्वर के आदेश द्वारा निर्धारित होता है। लेकिन मैंने इस मामले को स्पष्ट नहीं देखा था। जब मुझे पता चला था कि मुझे दिमाग में रक्त प्रवाह रुकने की बीमारी लगी है, मैं भय और चिंता में जीने लगा, डरता था कि मेरी हालत बिगड़ सकती है, मैं फिर से बेहोश हो सकता हूँ और गंभीर रूप से गिरने पर मेरा जीवन खतरे में पड़ सकता है, जिससे मैं उद्धार पाने का अवसर खो सकता हूँ। मैंने यहाँ तक शिकायत की थी कि परमेश्वर ने मेरी रक्षा क्यों नहीं की और मुझे ऐसी बीमारी क्यों होने दी। लिहाजा अपना कर्तव्य निभाने के लिए मेरा उत्साह कम हो गया और मेरा ध्यान पूरी तरह से अपनी सेहत ठीक रखने पर केंद्रित हो गया, जिससे खुलासा हुआ कि मुझे परमेश्वर में सच्ची आस्था नहीं है। अब मुझे समझ आया कि मुझे अपने दिल को शांत करना है, अपने कर्तव्य को पूरी लगन से निभाना है और अपने जीवन और मृत्यु को परमेश्वर को सौंपना है, उसे सब कुछ आयोजित करने देना है। जब मैंने इस तरह से सोचा तो मुझे पहले की तरह दुख और चिंता नहीं हुई और मेरा दिल अपने कर्तव्य करने में लग गया।
बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “कुछ लोग सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखने से शांति और आनंद की प्राप्ति होनी चाहिए और अगर वे मुश्किल परिस्थितियों का सामना करते हैं, तो उन्हें सिर्फ परमेश्वर से प्रार्थना करने की जरूरत है और परमेश्वर उन पर ध्यान देगा, उन्हें अनुग्रह और आशीषें देगा और यह सुनिश्चित करेगा कि उनके लिए सब कुछ शांतिपूर्वक और सुचारू रूप से चले। परमेश्वर में विश्वास रखने का उनका उद्देश्य अनुग्रह माँगना, आशीषें प्राप्त करना और शांति और खुशी का आनंद लेना है। इन दृष्टिकोणों के कारण ही वे परमेश्वर की खातिर खुद को खपाने के लिए अपने परिवारों का त्याग कर देते हैं या अपनी नौकरी छोड़ देते हैं और कष्ट सहन कर सकते हैं और कीमत चुका सकते हैं। उनका मानना है कि जब तक वे चीजों का त्याग करेंगे, परमेश्वर के लिए खुद को खपाएँगे, कष्ट सहन करेंगे और लगन से कार्य करेंगे, असाधारण व्यवहार प्रदर्शित करेंगे, तब तक वे परमेश्वर के आशीष और अनुग्रह प्राप्त करेंगे और कि चाहे वे कैसी भी मुश्किलों का सामना क्यों न करें, जब तक वे परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे, वह उन्हें सुलझाएगा और हर चीज में उनके लिए एक मार्ग खोल देगा। परमेश्वर में विश्वास रखने वाले अधिकाँश लोगों का यही नजरिया होता है। लोगों को लगता है कि यह नजरिया जायज और सही है। कई लोगों की वर्षों तक बिना अपनी आस्था छोड़े परमेश्वर में अपनी आस्था बनाए रखने की क्षमता सीधे इस नजरिये से संबंधित है। वे सोचते हैं, ‘मैंने परमेश्वर के लिए इतना कुछ खपाया है, मेरा व्यवहार इतना अच्छा रहा है और मैंने कोई बुरे कर्म नहीं किए हैं; परमेश्वर यकीनन मुझे आशीष देगा। चूँकि मैंने बहुत कष्ट सहे हैं और हर कार्य के लिए एक बड़ी कीमत चुकाई है, बिना कोई गलती किए परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार सबकुछ किया है, इसलिए परमेश्वर को मुझे आशीष देना चाहिए; उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मेरे लिए सब कुछ सुचारू रूप से चले और यह कि मैं अक्सर अपने दिल में शांति और खुशी का अनुभव करूँ और परमेश्वर की मौजूदगी का आनंद लूँ।’ क्या यह एक मानवीय धारणा और कल्पना नहीं है? मानवीय परिप्रेक्ष्य से देखें, तो लोग परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेते हैं और फायदे प्राप्त करते हैं, इसलिए इसके लिए थोड़ा कष्ट सहना समझ में आता है और इस कष्ट के बदले में परमेश्वर की आशीषें प्राप्त करना सार्थक है। यह परमेश्वर के साथ सौदा करने की मानसिकता है। लेकिन सत्य के परिप्रेक्ष्य से और परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से यह मूल रूप से न तो परमेश्वर के कार्य के सिद्धांतों के और न ही उन मानकों के अनुरूप है जिनकी परमेश्वर लोगों से अपेक्षा करता है। यह पूरी तरह से ख्याली पुलाव है, परमेश्वर में विश्वास रखने के बारे में सिर्फ एक मानवीय धारणा और कल्पना है। चाहे इसमें परमेश्वर से सौदे करना या उससे चीजों की माँग करना शामिल हो या नहीं हो, या इसमें मानवीय धारणाएँ और कल्पनाएँ शामिल हों या नहीं हों, किसी भी हालत में इनमें से कुछ भी परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है, न ही यह लोगों को आशीष देने के लिए परमेश्वर के सिद्धांतों और मानकों को पूरा करता है। खास तौर से यह लेन-देन वाला विचार और नजरिया परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करता है, लेकिन लोगों को इसका एहसास नहीं होता है। जब परमेश्वर जो करता है वह लोगों की धारणाओं के अनुरूप नहीं होता है, तो जल्द ही उनके दिलों में उसके बारे में शिकायतें और गलतफहमियाँ उत्पन्न होने लगती हैं। उन्हें यह भी लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है और फिर वे परमेश्वर से बहस करना शुरू कर देते हैं और यहाँ तक कि वे उसकी आलोचना और निंदा भी कर सकते हैं। लोग चाहे जो भी धारणाएँ और गलतफहमियाँ बना लें, परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से वह कभी भी मानवीय धारणाओं या इच्छाओं के अनुसार न तो कार्य करता है और न ही किसी के साथ व्यवहार करता है। परमेश्वर हमेशा वही करता है जो उसकी इच्छा होती है, वह हमेशा अपने खुद के तरीके से और अपने स्वभाव सार के आधार पर कार्य करता है। परमेश्वर के पास हर व्यक्ति के साथ व्यवहार करने के सिद्धांत हैं; वह हर व्यक्ति के साथ जो भी करता है उसमें से कुछ भी मानवीय धारणाओं, कल्पनाओं या प्राथमिकताओं पर आधारित नहीं होता—परमेश्वर के कार्य का यही पहलू मानवीय धारणाओं से सबसे ज्यादा असंगत है। जब परमेश्वर लोगों के लिए एक ऐसे परिवेश की व्यवस्था करता है जो उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के पूरी तरह विपरीत होता है, तो वे अपने दिलों में परमेश्वर के खिलाफ धारणाएँ, राय और निंदाएँ बना लेते हैं और यहाँ तक कि उसे अस्वीकार भी कर सकते हैं। फिर क्या परमेश्वर उनकी जरूरतों को पूरा कर सकता है? बिल्कुल नहीं। परमेश्वर कभी भी मानवीय धारणाओं के अनुसार अपने कार्य करने के तरीके और अपनी इच्छाओं को नहीं बदलेगा। तो फिर किसे बदलने की जरूरत है? लोगों को बदलने की जरूरत है। लोगों को अपनी धारणाएँ छोड़ देनी चाहिए, परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेश स्वीकारने चाहिए, उनके प्रति समर्पण करना चाहिए और उनका अनुभव करना चाहिए और अपनी धारणाओं को सुलझाने के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए, न कि परमेश्वर जो करता है उसे अपनी धारणाओं की कसौटी पर मापना चाहिए ताकि देख सकें कि क्या वह सही है। जब लोग अपनी धारणाओं से जकड़े रहते हैं, तो उनमें परमेश्वर के खिलाफ प्रतिरोध उत्पन्न होता है—यह स्वाभाविक रूप से होता है। प्रतिरोध की जड़ें कहाँ होती हैं? यह इस तथ्य में निहित है कि आम तौर पर लोगों के दिलों में जो कुछ होता है, वह निस्संदेह उनकी धारणाएँ और कल्पनाएँ होती हैं, सत्य नहीं होता है। इसलिए जब लोग देखते हैं कि परमेश्वर का कार्य मानवीय धारणाओं के अनुरूप नहीं है, तो वे परमेश्वर की अवहेलना कर सकते हैं और उसके खिलाफ राय बना सकते हैं। इससे साबित होता है कि मूल रूप से लोगों में परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला दिल नहीं होता है, उनका भ्रष्ट स्वभाव स्वच्छ किए जाने से दूर है और वे वास्तव में अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीवन जीते हैं। वे अब भी उद्धार प्राप्त करने से बहुत ही ज्यादा दूर हैं” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (16))। “कुछ लोग चाहे जिस भी परिवेश का सामना करें, सत्य नहीं खोजते। इसके बजाय वे परमेश्वर द्वारा आयोजित सभी परिवेशों का मूल्यांकन अपनी धारणाओं, कल्पनाओं और इस बात के आधार पर करते हैं कि उनसे उन्हें लाभ होता है या नहीं। उनके विचार हमेशा उनके हितों के इर्द-गिर्द घूमते हैं; वे हमेशा इस बात की परवाह करते हैं कि वे कितना बड़ा लाभ प्राप्त कर सकते हैं, भौतिक चीजों, धन और दैहिक आनंद की दृष्टि से उनके कितने हित पूरे हो सकते हैं; और वे हमेशा इन्हीं कारकों के आधार पर निर्णय करते हैं और इन्हीं के आधार पर परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित हर चीज को लेते हैं। और अंततः अपना दिमाग खपाने के बाद वे परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेश के प्रति समर्पण करने के बजाय उससे बचकर भागने और उससे परहेज करने का चुनाव करते हैं। अपने प्रतिरोध, अस्वीकृति और परहेज के कारण वे परमेश्वर के वचनों से दूर हो जाते हैं, जीवन के अनुभव से वंचित रह जाते हैं और नुकसान उठाते हैं, जिससे उनके दिलों में दर्द और पीड़ा होती है। जितना ज्यादा वे ऐसे परिवेशों का विरोध करते हैं, उतना ही ज्यादा और उतना ही बड़ा दुख वे सहते हैं। जब ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है तो परमेश्वर में उनकी जो थोड़ी-बहुत आस्था होती है, वह भी अंततः चूर-चूर हो जाती है। इस समय उनके दिलों पर हावी होने वाली धारणाएँ एक साथ उमड़ पड़ती हैं : ‘मैंने इतने लंबे समय तक परमेश्वर के लिए खुद को खपाया है, फिर भी मुझे उम्मीद नहीं थी कि परमेश्वर मेरे साथ ऐसे पेश आएगा। परमेश्वर अन्यायी है, वह लोगों से प्रेम नहीं करता! परमेश्वर ने कहा था कि जो लोग ईमानदारी से उसके लिए खुद को खपाते हैं, वे निश्चित रूप से बहुत आशीष प्राप्त करेंगे। मैंने ईमानदारी से खुद को परमेश्वर के लिए खपाया है, मैंने अपना परिवार और करियर त्याग दिया है, कठिनाइयाँ सही हैं और कड़ी मेहनत की है—परमेश्वर ने मुझे बहुत आशीष क्यों नहीं दिए? परमेश्वर के आशीष कहाँ हैं? मैं उन्हें महसूस क्यों नहीं कर सकता या देख क्यों नहीं सकता? परमेश्वर लोगों के साथ अन्याय क्यों करता है? परमेश्वर अपने वचन पर कायम क्यों नहीं रहता? लोग कहते हैं कि परमेश्वर वफादार है लेकिन मैं इसे क्यों महसूस नहीं कर सकता? बाकी हर चीज को दरकिनार करते हुए सिर्फ इस परिवेश में मुझे कभी नहीं लगा कि परमेश्वर वफादार है!’ चूँकि लोग धारणाएँ रखते हैं, इसलिए वे आसानी से उनसे धोखा खा जाते हैं और गुमराह हो जाते हैं। यहाँ तक कि जब परमेश्वर लोगों के स्वभाव में बदलाव और उनके जीवन विकास के लिए परिवेशों की व्यवस्था करता है, तो भी उन्हें उसे स्वीकारना मुश्किल लगता है और वे परमेश्वर को गलत समझते हैं। उन्हें लगता है कि यह परमेश्वर का आशीष नहीं है और परमेश्वर उन्हें पसंद नहीं करता। वे मानते हैं कि उन्होंने ईमानदारी से परमेश्वर के लिए खुद को खपाया है लेकिन परमेश्वर ने अपने वादे पूरे नहीं किए हैं। ये लोग जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, किसी मामूली परिवेश के एक ही परीक्षण से इतनी आसानी से बेनकाब हो जाते हैं” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (16))। परमेश्वर उजागर करता है कि लोग उस पर विश्वास करते हुए उसके प्रति एक निश्चित धारणा रखते हैं : वे सोचते हैं कि जब तक वे चीजों को त्यागते हैं और परमेश्वर के लिए खुद को खपाते हैं और उसके लिए कष्ट सहते हैं और बलिदान देते हैं, तब तक परमेश्वर उन्हें आशीष देगा, उनकी देखभाल करेगा और उनकी रक्षा करेगा और उन्हें मन की शांति और आनंद प्रदान करेगा। जब परमेश्वर उन्हें उनकी धारणाओं के अनुसार संतुष्ट नहीं करता है तो वे उससे बहस करते हैं, उसे गलत समझते हैं और उसके बारे में शिकायत करते हैं। यही मैंने किया था। जब मैं पहली बार परमेश्वर में विश्वास करने लगा था, मैंने सोचा था कि जब तक मैं पूरे दिल से परमेश्वर पर विश्वास करता हूँ और अपने कर्तव्य करने में कठिनाई सहने और कीमत चुकाने के लिए तैयार हूँ, तब तक परमेश्वर मुझे आशीष देगा, जिससे मेरा स्वास्थ्य बेहतर होगा। इस दृष्टिकोण से प्रेरित होकर मैंने अपने कर्तव्य निभाने के लिए वर्षों तक अपने परिवार और करियर को त्याग दिया था और यहाँ तक कि जब ट्राइजेमिनल न्यूरलजिया के कारण मुझे भयंकर सिरदर्द होता था या जब उच्च रक्तचाप के चलते मुझे चक्कर आना, उल्टी और पूरे शरीर में कमजोरी होती थी, मैंने कभी भी अपने कर्तव्य में देरी नहीं की थी। मैं अक्सर खुद को इस विचार से सांत्वना देता था कि परमेश्वर मेरे दुख और खपने पर विचार करेगा और मेरी देखभाल और रक्षा करेगा और भविष्य में वह मुझ पर बहुत आशीष बरसाएगा। लेकिन जब मुझे पता चला कि मेरे दिमाग के एक हिस्से में रक्त प्रवाह रुक गया है तो मुझे लगा कि मेरे साथ अन्याय हुआ है। मैंने सोचा था कि परमेश्वर ने मुझे अच्छे स्वास्थ्य का आशीष नहीं दिया है; इसके विपरीत उसने मुझे यह बीमारी होने दी है और आशीष पाने के बजाय मुझे दुर्भाग्य का सामना करना पड़ा है। इसने मुझे परमेश्वर के प्रति गलतफहमियों और शिकायतों से भर दिया था और मैंने उससे बहस भी की थी, “अगर मेरा स्वास्थ्य अच्छा होता तो क्या मैं अपना कर्तव्य और भी बेहतर तरीके से नहीं निभा पाता?” मुझे एहसास हुआ कि इतने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने के दौरान मैं बस परमेश्वर से सौदेबाजी करने और उससे चीजें माँगने की कोशिश कर रहा था। जब परमेश्वर ने मेरी बीमारी को ठीक किया था तो मैं अपने कर्तव्य में उत्साही और मेहनती था, लेकिन जब परमेश्वर ने मुझे संतुष्ट नहीं किया तो अपना कर्तव्य करने और उसके लिए खुद को खपाने की मेरी प्रेरणा कम हो गई थी। मैं एक घृणित व्यक्ति के सिवाय कुछ नहीं था, जो केवल अपने लाभ के लिए तत्पर था, कठिनाइयों से बचते हुए बेसब्री से आशीषों के पीछे भाग रहा था। मैं वाकई बहुत स्वार्थी था! मेरे प्रयास स्पष्ट रूप से मेरे लिए और आशीष पाने के लिए थे, फिर भी मैंने यह आडंबरपूर्ण दावा किया था कि वे प्रयास परमेश्वर को संतुष्ट करने और अपना कर्तव्य निभाने के लिए हैं। यह कितनी बेशर्मी की बात थी!
बाद में मैंने एक अंश पढ़ा जिसमें परमेश्वर उन लोगों की दशा उजागर करता है और उसका गहन-विश्लेषण करता है जो केवल आशीष पाने के उद्देश्य से उस पर विश्वास रखते हैं। परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर के साथ उनके रिश्ते में सबसे बड़ा मुद्दा क्या है? वह यह है कि उन्होंने कभी खुद को सृजित प्राणी नहीं माना और परमेश्वर को आराधना करने के लिए बिल्कुल भी सृष्टिकर्ता माना ही नहीं। परमेश्वर में अपने विश्वास की शुरुआत से ही उन्होंने परमेश्वर को पैसों का पेड़, एक गुप्त खजाना समझा; उसे दुख और आपदा से छुटकारा दिलाने वाला बोधिसत्व और खुद को इस बोधिसत्व, इस मूर्ति का अनुयायी माना। उन्हें लगा कि परमेश्वर में विश्वास करना बुद्ध में विश्वास करने जैसा है, जहाँ सिर्फ शाकाहारी खाना खाने, शास्त्रों का पाठ करने और अक्सर धूपबत्ती जलाकर प्रणाम करने से वे जो चाहें प्राप्त कर सकते हैं। इस तरह उनके परमेश्वर में विश्वास करने के बाद विकसित हुई सभी कहानियाँ उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के दायरे में घटित हुईं। उन्होंने सृष्टिकर्ता से सत्य स्वीकारने वाले सृजित प्राणी की कोई अभिव्यक्ति नहीं दिखाई, न ही उन्होंने सृष्टिकर्ता के प्रति सृजित प्राणी में होने वाला समर्पण प्रदर्शित किया; सिर्फ निरंतर माँगें, निरंतर हिसाब-किताब और सतत अनुरोध करते रहे। यह सब अंततः परमेश्वर के साथ उनके रिश्ते के टूटने का कारण बना। ऐसा रिश्ता लेन-देन वाला होता है और कभी स्थिर नहीं रह सकता; ऐसे लोगों का जल्दी ही बेनकाब होना निश्चित है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (16))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई। परमेश्वर ने जो वर्णन किया है ठीक वही मेरा दृष्टिकोण और अनुसरण था। जो लोग बुद्ध या गुआनयिन बोधिसत्व की पूजा करते हैं वे उन्हें धन और सुरक्षा का स्रोत मानते हैं। तरक्की पाने, अमीर बनने और अपने परिवार को स्वस्थ रखने के लिए वे अपनी इच्छाओं के बदले में पूजा-अर्चना करते हैं, धूप जलाते हैं, शाकाहारी बन जाते हैं और बौद्ध धर्मग्रंथों का पाठ करते हैं। उनका अनुसरण पूरी तरह से व्यक्तिगत लाभ के लिए होता है। इसी तरह परमेश्वर में विश्वास करने के बाद मैंने गलती से सोचा था कि जब तक लोग परमेश्वर में विश्वास करने के लिए खुद को खपाते हैं और त्याग करते हैं, उन्हें पुरस्कृत किया जाएगा, इस अर्थ में कि परमेश्वर उनकी रक्षा करेगा और उन पर अनंत अनुग्रह बरसाएगा। मैंने परमेश्वर को एक ताबीज, अनुग्रह और मन की शांति देने वाला माना था। जब मुझे अपने दिमाग के एक हिस्से में रक्त प्रवाह रुकने का पता चला था तो मैंने शिकायत की थी कि परमेश्वर ने मेरी रखवाली या रक्षा नहीं की। मैंने तर्क-वितर्क किया और माँगें कीं, परमेश्वर के प्रति जरा भी समर्पण नहीं दिखाया और इस तरह उसे परमेश्वर मानने में पूरी तरह नाकाम रहा। विश्वास के बारे में मेरे दृष्टिकोण और बुद्ध या गुआनयिन की पूजा करने वालों के दृष्टिकोण में क्या अंतर है? अंत के दिनों में परमेश्वर का मुख्य कार्य लोगों का न्याय करने और उन्हें ताड़ना देने के लिए सत्य व्यक्त करना है, ताकि उन्हें शुद्ध किया जा सके और बचाया जा सके। मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया था, बल्कि परमेश्वर के साथ बुद्ध या गुआनयिन की तरह व्यवहार किया था, मैं यह मानता रहा कि वह लोगों को उनके बाहरी योगदान और प्रयासों के आधार पर लाभ देगा। यह स्पष्ट रूप से छद्म-विश्वासियों का दृष्टिकोण दर्शाता है और इससे भी अधिक यह परमेश्वर के विरुद्ध ईशनिंदा का एक रूप है! मुझे बाइबल में 5,000 लोगों का वृत्तांत भी याद आया, जिन्होंने पहाड़ पर प्रभु यीशु का अनुसरण किया था। वे उनकी शिक्षाओं को सुनने की कोशिश नहीं कर रहे थे, बल्कि आशीष और अनुग्रह की तलाश में थे। वे प्रभु को केवल उपकारकर्ता के रूप में देखते थे, वे लोग पेटभर रोटियाँ खाना चाहते थे और प्रभु यीशु ऐसे लोगों की आस्था नहीं स्वीकारता था। परमेश्वर में मेरा विश्वास भी उससे लाभ पाने के उद्देश्य से था। यह सच्ची आस्था नहीं है, बल्कि एक छद्म-विश्वासी का दृष्टिकोण है, जो पेटभर रोटियाँ खाना चाहता है और आखिरकार मुझे भी निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा ठुकराकर निकाल दिया जाता। मुझे अपने दिल में डर लगा और मैं परमेश्वर के सामने प्रार्थना करने आया, “हे परमेश्वर, इतने सालों में मैंने तुम पर विश्वास किया है, मैंने तुम्हें अनुग्रह देने वाले के रूप में माना है, बुद्ध और गुआनयिन की पूजा करने वालों के समान दृष्टिकोण से तुम पर विश्वास करते हुए तुमसे अनुग्रह और आशीष की माँग की है। यह दृष्टिकोण गलत है और मैं पश्चात्ताप करने और अपना रास्ता बदलने के लिए तैयार हूँ।”
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “परमेश्वर कहता है, ‘तुममें से जो ईमानदारी से मेरे लिए स्वयं को खपाता है, मैं निश्चित रूप से उसे बहुत आशीष दूँगा’—क्या ये वचन सत्य नहीं हैं? ये वचन सौ प्रतिशत सत्य हैं। इनमें कोई आवेगशीलता या धोखा नहीं है। ये झूठ या भव्य लगने वाले विचार नहीं हैं, किसी तरह का आध्यात्मिक सिद्धांत तो ये बिलकुल भी नहीं हैं—ये सत्य हैं। सत्य के इन वचनों का सार क्या है? यही कि परमेश्वर के लिए खुद को खपाते समय तुम्हें ईमानदार होना चाहिए। ‘ईमानदार’ का क्या अर्थ है? इच्छुक और अशुद्धियों से रहित होना; पैसे या प्रसिद्धि से प्रेरित होकर नहीं और अपने इरादों, इच्छाओं और लक्ष्यों के लिए तो निश्चित रूप से नहीं। तुम खुद को इसलिए नहीं खपाते क्योंकि तुम्हें मजबूर किया जाता है या तुम्हें उकसाया, बहलाया या अपने साथ खींचा जाता है, बल्कि यह तुम्हारे भीतर से, स्वेच्छा से आता है; यह जमीर और विवेक से उत्पन्न होता है। ईमानदार होने का यही अर्थ है। परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की इच्छा के संदर्भ में ईमानदार होने का यही अर्थ है। तो जब तुम परमेश्वर के लिए खुद को खपाते हो तो व्यावहारिक दृष्टि से ईमानदार होना कैसे अभिव्यक्त होता है? तुम झूठ या धोखाधड़ी में शामिल नहीं होते, कार्य से बचने के लिए चालाकी का सहारा नहीं लेते और चीजें बेमन से नहीं करते; तुम जो कुछ कर सकते हो उसे करते हुए उसमें अपना पूरा दिलो-दिमाग समर्पित कर देते हो, इत्यादि—यहाँ बताने के लिए बहुत सारे विवरण हैं! संक्षेप में, ईमानदार होने में सत्य सिद्धांत शामिल हैं। मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं के पीछे एक मानक और सिद्धांत है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (16))। परमेश्वर के वचनों से मैंने इन वचनों का सही अर्थ समझा “जो लोग ईमानदारी से मेरे लिए खुद को खपाते हैं, मैं निश्चित रूप से उन्हें बहुत आशीष दूँगा।” यह कथन उन लोगों के लिए है जो सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्यों को अच्छे से पूरा करने के लिए समर्पित हैं। वे व्यक्तिगत लाभ की तलाश नहीं करते या विपत्तियों का सामना करने पर परमेश्वर के बारे में गलत नहीं समझते और शिकायत नहीं करते हैं। वे स्वेच्छा से चीजों को त्याग सकते हैं और परमेश्वर के लिए खुद को खपा सकते हैं और ऐसे लोगों से परमेश्वर प्रसन्न होता है और वे निश्चित रूप से भविष्य में उसका आशीष पाएँगे। अय्यूब का उदाहरण लो : उसने हमेशा परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण किया, अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना की और बलिदान किए। यहाँ तक कि जब उसकी संपत्ति और बच्चे छीन लिए गए और उसे दर्दनाक घाव हो गए, अय्यूब ने परमेश्वर को दोष नहीं दिया। इसके बजाय उसने कहा, “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” (अय्यूब 1:26)। अय्यूब सचमुच परमेश्वर की आराधना करता था। वह परमेश्वर को माँग की वस्तु नहीं मानता था, आराधना और बलिदानों के अपने नियमित क्रियाकलापों को अनुग्रह और आशीष पाने की पूँजी के रूप में देखना तो और भी दूर की बात है। जब उसने सब कुछ खो दिया, तब भी उसने परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं की। उसकी सच्ची आस्था और समर्पण ने आखिरकार परमेश्वर का आशीष पाया। जब मैंने खुद को देखा, तो मुझे एहसास हुआ कि मैंने परमेश्वर के वचनों को सही ढंग से नहीं समझा। मैंने गलती से यह मान लिया था कि जब तक मैं चीजों को त्याग सकता हूँ, खुद को खपा सकता हूँ, दुख सह सकता हूँ और अपनी आस्था की कीमत चुका सकता हूँ, मुझे आखिरकार आशीष, शांति और स्वास्थ्य मिलेगा। मेरे अनुसरण का तरीका अय्यूब के ठीक विपरीत है। मैंने अपने बलिदानों और खपने का इस्तेमाल परमेश्वर से अनुग्रह और आशीष माँगने के साधन के रूप में किया, केवल अपनी स्वार्थी इच्छाओं और व्यक्तिगत लाभ के लिए उस पर विश्वास किया। जब बीमारी का सामना करना पड़ा तो मैंने परमेश्वर के बारे में शिकायत भी की। मैं वाकई शर्मिंदा था, क्योंकि मैं अय्यूब से तुलना करने लायक बिल्कुल भी नहीं था। अब मुझे समझ आया कि एक सृजित प्राणी के रूप में मुझे परमेश्वर पर विश्वास रखना चाहिए और उसकी आराधना करनी चाहिए। अपना कर्तव्य निभाना मेरी जिम्मेदारी है, यह पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायसंगत है और इसका आशीष पाने या दुर्भाग्य सहने से कोई लेना-देना नहीं है। विपत्तियों और बीमारी का सामना होने पर भी मुझे परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहिए और अपनी गवाही में अडिग रहना चाहिए।
मार्च 2024 में मुझे फिर से दिमाग के एक हिस्से में खून का प्रवाह रुकने की समस्या हो गई। मेरा बायाँ हाथ सुन्न हो गया और मुझे लगातार चक्कर आ रहे थे। मुझे चिंता थी कि अगर मैं फिर से गिर गया और यह गंभीर हुआ तो मैं अपना कर्तव्य नहीं कर पाऊँगा—फिर मैं उद्धार कैसे पा सकूँगा? अपने आस-पास के भाइयों का बेहतर स्वास्थ्य देखकर मुझे ईर्ष्या हुई, मैंने सोचा, “हर किसी की तरह मेरा शरीर स्वस्थ क्यों नहीं हो सकता?” जब मेरे मन में ये विचार आए तो मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से शिकायत कर रहा हूँ और मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “आशीष, अनुग्रह, पुरस्कार, मुकुट—ये सभी चीजें कैसे और किसे दी जाती हैं, यह परमेश्वर पर निर्भर करता है। यह परमेश्वर पर क्यों निर्भर करता है? ये चीजें परमेश्वर की हैं; ये मनुष्य और परमेश्वर के साझे स्वामित्व वाली ऐसी संपत्तियाँ नहीं हैं कि इन्हें उनमें समान रूप से बाँटा जा सके। ये परमेश्वर की हैं और परमेश्वर जिन लोगों को इन्हें देने का वादा करता है, उन्हें ही ये चीजें देता है। यदि परमेश्वर ये चीजें तुम्हें देने का वादा नहीं करता तो भी तुम्हें उसके प्रति समर्पण करना चाहिए। यदि तुम इस कारण परमेश्वर पर विश्वास करना बंद कर देते हो तो इससे कौन-सी समस्याएँ हल होंगी? क्या तुम एक सृजित प्राणी होना बंद कर दोगे? क्या तुम परमेश्वर की संप्रभुता से बच सकते हो? परमेश्वर अभी भी सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है और यह एक अपरिवर्तनीय तथ्य है। परमेश्वर की पहचान, स्थिति और सार को कभी भी मनुष्य की पहचान, स्थिति और सार के बराबर नहीं माना जा सकता, न ही इन चीजों में कभी कोई बदलाव होगा—परमेश्वर हमेशा परमेश्वर रहेगा और मनुष्य हमेशा मनुष्य रहेगा। यदि कोई व्यक्ति इसे समझने में सक्षम है तो फिर उसे क्या करना चाहिए? उसे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए—यह चीजों को करने का सबसे तर्कसंगत तरीका है, और इसके अलावा कोई अन्य रास्ता नहीं है जिसे चुना जा सकता हो” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समय रहते जगा दिया। मुझे अपनी पहचान और रुतबा साफ देखना चाहिए। मैं केवल एक सृजित प्राणी हूँ, जबकि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है। फिर भी मैं यह तय करना चाहता था कि परमेश्वर को मेरे साथ कैसे पेश आना चाहिए और क्या करना चाहिए— यह विवेकहीन होना था। मुझे डर था कि अगर मेरे दिमाग के एक हिस्से में खून का प्रवाह फिर से रुक गया और मैं अपना कर्तव्य न निभा पाया तो मैं उद्धार पाने का मौका खो बैठूँगा, इसलिए मैंने यह माँग की थी कि परमेश्वर मुझे अन्य भाइयों के समान ही अच्छा स्वास्थ्य प्रदान करे। यह भी समर्पण की कमी थी! मुझे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए, अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए—मेरे पास यही विवेक होना चाहिए था। इसलिए मैं परमेश्वर के सामने प्रार्थना करने आया, “हे परमेश्वर, मेरे दिमाग में फिर से रक्त प्रवाह रुकने की घटनाएँ चाहे कितनी ही गंभीर क्यों न हो, तुम मुझे शिकायत करने से रोकना ताकि मैं अपने कर्तव्य पर अडिग रह सकूँ।” कुछ दिनों बाद मैं जाँच के लिए अस्पताल गया। डॉक्टर ने कहा कि मेरी हालत काफी हद तक नियंत्रित है और मुझे बस अपनी दवा सामान्य रूप से लेने की जरूरत है। यह खबर सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई। यह सोचकर कि मेरे पिछले उपचार को सात महीने से ज्यादा हो गए हैं और मैं अभी भी अपने कर्तव्यों को सामान्य रूप से करने में सक्षम हूँ—यह सब परमेश्वर के अनुग्रह के कारण था और मैं परमेश्वर की दया के लिए वाकई आभारी हूँ।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब परमेश्वर किसी को छोटी या बड़ी बीमारी देने की व्यवस्था करता है, तो ऐसा करने के पीछे उसका उद्देश्य तुम्हें बीमार होने के पूरे विवरण, बीमारी से तुम्हें होने वाली हानि, बीमारी से तुम्हें होने वाली असुविधाओं और मुश्किलों और तुम्हारे मन में उठने वाली विभिन्न भावनाओं को समझने देना नहीं है—उसका प्रयोजन यह नहीं है कि तुम बीमार होकर बीमारी को समझो। इसके बजाय उसका प्रयोजन यह है कि बीमारी से तुम सबक सीखो, सीखो कि परमेश्वर के इरादों को कैसे पकड़ें, अपने द्वारा प्रदर्शित भ्रष्ट स्वभावों और बीमार होने पर परमेश्वर के प्रति अपनाए गए अपने गलत रवैयों को जानो, और सीखो कि परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति कैसे समर्पित हों, ताकि तुम परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण प्राप्त कर सको, और अपनी गवाही में डटे रह सको—यह बिल्कुल अहम है। परमेश्वर बीमारी के जरिए तुम्हें बचाना और स्वच्छ करना चाहता है। वह तुम्हारी किस चीज को स्वच्छ करना चाहता है? वह परमेश्वर से तुम्हारी तमाम अत्यधिक आकांक्षाओं और माँगों, और यहाँ तक कि हर कीमत पर जीवित रहने और जीने की तुम्हारे अलग-अलग हिसाबों, फैसलों और योजनाओं को स्वच्छ करना चाहता है। परमेश्वर तुमसे नहीं कहता कि योजनाएँ बनाओ, वह तुमसे नहीं कहता कि न्याय करो, और उससे अत्यधिक आकांक्षाएँ रखो; उसकी बस इतनी अपेक्षा होती है कि तुम उसके प्रति समर्पित रहो, और समर्पण करने के अपने अभ्यास और अनुभव में, तुम बीमारी के प्रति अपने रवैये को जान लो, और उसके द्वारा तुम्हें दी गई शारीरिक स्थितियों के प्रति अपने रवैये को और साथ ही अपनी निजी कामनाओं को जान लो। जब तुम इन चीजों को जान लेते हो, तब तुम समझ सकते हो कि तुम्हारे लिए यह कितना फायदेमंद है कि परमेश्वर ने तुम्हारे लिए बीमारी की परिस्थितियों की व्यवस्था की है, या उसने तुम्हें ये शारीरिक दशाएँ दी हैं; और तुम समझ सकते हो कि तुम्हारा स्वभाव बदलने, तुम्हारे उद्धार हासिल करने, और तुम्हारे जीवन-प्रवेश में ये कितनी मददगार हैं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। मैंने परमेश्वर के वचनों के इस अंश को बार-बार पढ़ा और महसूस किया कि इस बीमारी में परमेश्वर का हार्दिक इरादा निहित है। परमेश्वर का इरादा मुझे बचाना और मुझे खुद को समझने में मदद करना है, जिससे मेरे स्वभाव में बदलाव आए। जब मैंने पहली बार परमेश्वर में विश्वास किया तो मेरा इरादा आशीष पाने का था। सालों से मुझे आशीष पाने के अपने इरादे के बारे में कोई वास्तविक समझ नहीं थी। चूँकि परमेश्वर पवित्र है, इसलिए अगर परमेश्वर के कार्य का अंत होने तक मेरे भ्रष्ट स्वभाव का समाधान न हुआ तो यह मुझे बचाए जाने से रोक देगा। इस बीमारी ने आशीष के लिए मेरी इच्छा और परमेश्वर के प्रति मेरी माँगों और धारणाओं को प्रकट कर दिया, जिसने मुझे सत्य खोजने, पश्चात्ताप करने और बदलने के लिए प्रेरित किया। यह मेरे लिए परमेश्वर का उद्धार था। लेकिन मैं परमेश्वर का इरादा नहीं समझ पाया और मैंने उसके खिलाफ गलतफहमियाँ और शिकायतें पाल लीं। यह एक बच्चे की तरह है जो अपराध के रास्ते पर चलता है। जब माता-पिता बच्चे को उसके तौर-तरीके सुधारने में मदद करने के लिए कठोर उपाय करते हैं तो उनके इरादे बच्चे की भलाई के लिए होते हैं। लेकिन अगर बच्चा माता-पिता के दिलों को नहीं समझता और महसूस करता है कि उसके माता-पिता उसकी परवाह नहीं करते तो वह बच्चा माता-पिता के लिए अविवेकपूर्ण और निराशाजनक है। क्या मैं सिर्फ वह बच्चा नहीं हूँ जो अज्ञानी है और सही-गलत का भेद पहचानने में असमर्थ है? मेरी गलतफहमियों और शिकायतों के बावजूद परमेश्वर ने चुपचाप अपने वचनों से मेरा मार्गदर्शन किया, मेरी नकारात्मक और विद्रोही दशा से जागने में मेरी मदद की। जितना मैंने इसके बारे में सोचा, मुझे उतनी ही शर्मिंदगी और ग्लानि हुई। अब से चाहे मेरी बीमारी सुधरे या बिगड़ जाए, भले ही इससे मेरी जान को खतरा हो, मैं अब यह नहीं चाहता कि परमेश्वर के बारे में गलतफहमी रखूँ या शिकायत करूँ। मैं परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पण करने को तैयार हूँ।
इस बीमारी का अनुभव करने के बाद मुझे आशीष खोजने के अपने इरादे की कुछ समझ मिली और लोगों को बचाने के लिए परमेश्वर के गंभीर प्रयासों की सच्ची समझ मिल गई। मैं परमेश्वर के मार्गदर्शन के लिए आभारी हूँ जिसने मुझे इन लाभों तक पहुँचाया!