57. जिम्मेदारी से कर्तव्य निभाने से ही व्यक्ति के पास अंतरात्मा होती है
जून 2023 के मध्य में मैं कलीसिया अगुआ चुनी गई। कुछ दिन तक कार्य से परिचित होने के बाद मैंने और मेरी साझीदार बहन यांग शिन ने कलीसियाई कार्य की अपनी जिम्मेदारियों को आपस में बाँट लिया। मैं मुख्य रूप से सुसमाचार और स्वच्छता कार्य के लिए जिम्मेदार थी। मुझे याद आया कि कुछ समय पहले ही सुसमाचार कार्य के लिए जिम्मेदार कुछ अगुआओं और कार्यकर्ताओं को वास्तविक कार्य न करने पर बर्खास्त कर दिया गया था। उनके द्वारा किये गए कुछ कार्य दुर्भावनापूर्ण प्रकृति के थे, वे कार्य व्यवस्था के विरुद्ध जाकर अपने ही तरीके से कार्य करते थे, अपने से ऊपर के लोगों को भी धोखा देते थे और अपने से नीचे वालों को भी, कलीसिया के कार्य में गंभीर गड़बड़ी और व्यवधान पैदा करने के कारण अंततः उन्हें निष्कासित कर दिया गया। मुझे चिंता होने लगी कि अगर मैंने सुसमाचार का कार्य ठीक से नहीं किया तो मुझे भी एक नकली अगुआ के तौर पर बेनकाब कर दिया जाएगा। अगर मैंने कार्य को नुकसान पहुँचाया और बहुत अधिक अपराध किए तो शायद मुझे कोई सकारात्मक परिणाम और गंतव्य नहीं मिलेगा। इस बात को ध्यान में रखते हुए मैं अब सुसमाचार कार्य के लिए जिम्मेदार नहीं बनना चाहती थी। लेकिन मुझे यह भी लगा कि ऐसी सोच परमेश्वर के इरादे के अनुरूप नहीं है, इसलिए इच्छा न होते हुए भी मैंने जिम्मेदारी स्वीकार ली।
कुछ दिनों बाद एक उच्च-स्तरीय अगुआ ने यांग शिन की काट-छाँट करते हुए एक पत्र भेजा जिसमें लिखा था कि पहले जब वह सुसमाचार के कार्य के लिए जिम्मेदार थी तो उसने अपने कर्तव्यों का निर्वहन सुस्ती से किया था और सुसमाचार कार्यकर्ताओं के साथ सामंजस्यपूर्ण तरीके से कार्य नहीं किया था जिससे सुसमाचार के कार्य में देरी हुई। यांग शिन ने जब पत्र देखा तो वह इतनी दुखी हुई कि रो पड़ी। मैंने उससे संगति की कि उसे स्थिति से सही तरीके से निपटना चाहिए, लेकिन अंदर ही अंदर मैं भी बहुत परेशान हो गई और सोचने लगी, “अब मैं सुसमाचार कार्य की प्रभारी हूँ। क्या मैं इसे अच्छे से कर सकती हूँ? अगर मैं कार्य में देरी करूँगी तो अगली काट-छाँट मेरी ही की जाएगी। मुझमें कार्यक्षमता की कमी है और जब संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं की धारणाओं और कठिनाइयों को हल करने की बात आती है तो मुझमें भी कमियाँ हैं। अगर मैंने सुसमाचार कार्य में देरी की तो यह एक कुकर्म होगा और अगर उच्च-स्तरीय अगुआओं ने मुझे जवाबदेह ठहराया तो न केवल मेरी काट-छाँट की जाएगी, बल्कि मुझे बर्खास्त भी किया जा सकता है। अगर मैं अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए अच्छे कर्मों के बजाय बुरे कर्मों का संचय करती हूँ तो क्या तब भी मैं परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त कर पाऊँगी?” मुझे लगने लगा कि एक अगुआ के कर्तव्यों का निर्वहन करना आसान नहीं है और मैंने योजना बनाई कि जैसे ही मेरी जगह कोई उपयुक्त व्यक्ति मिल जाएगा, मैं इस्तीफा दे दूँगी। इसके बाद मैं अपने कर्तव्यों के प्रति बहुत निष्क्रिय हो गई। यांग शिन ने मुझे चेताया कि जो सुसमाचार कार्यकर्ता उपयुक्त नहीं हैं, उन्हें मुझे किसी और कार्य में लगा देना चाहिए और यह भी चेताया कि सुसमाचार के कार्य का जायजा कैसे लिया जाए और उसे कैसे लागू किया जाए, लेकिन बहुत ज्यादा ध्यान दिए बिना मैं सिर्फ उसकी बात सुनती रही। एक दिन अचानक मेरा चेहरा लाल हो गया और सूज गया और दो दिन बाद भी सूजन कम नहीं हुई। मैं मन ही मन सोचने लगी, “कहीं यह मुझ पर परमेश्वर के अनुशासन की मार तो नहीं है? परमेश्वर ने मुझे अगुआ बनने का प्रशिक्षण पाने का अवसर प्रदान किया है, फिर भी मैं कायर बनकर अपने कर्तव्य को अस्वीकार करना चाहती हूँ। क्या यह परमेश्वर के साथ विश्वासघात नहीं है?” फिर मैंने अपनी वर्तमान दशा को परमेश्वर से प्रार्थना की और उसे खोजा।
खोज करते समय मुझे परमेश्वर के ये वचन मिले : “कुछ लोग अपना कर्तव्य निभाते हुए जिम्मेदारी लेने से डरते हैं। यदि कलीसिया उन्हें कोई काम देती है, तो वे पहले इस बात पर विचार करेंगे कि इस कार्य के लिए उन्हें कहीं उत्तरदायित्व तो नहीं लेना पड़ेगा, और यदि लेना पड़ेगा, तो वे उस कार्य को स्वीकार नहीं करेंगे। किसी काम को करने के लिए उनकी शर्तें होती हैं, जैसे सबसे पहले, वह काम ऐसा होना चाहिए जिसमें मेहनत न हो; दूसरा, वह व्यस्त रखने या थका देने वाला न हो; और तीसरा, चाहे वे कुछ भी करें, वे कोई जिम्मेदारी नहीं लेंगे। इन शर्तों के साथ वे कोई काम हाथ में लेते हैं। ऐसा व्यक्ति किस प्रकार का होता है? क्या ऐसा व्यक्ति धूर्त और कपटी नहीं होता? वह छोटी से छोटी जिम्मेदारी भी नहीं उठाना चाहता। उन्हें यहाँ तक डर लगता है कि पेड़ों से झड़ते हुए पत्ते कहीं उनकी खोपड़ी न तोड़ दें। ऐसा व्यक्ति क्या कर्तव्य कर सकता है? परमेश्वर के घर में उनका क्या उपयोग हो सकता है? परमेश्वर के घर का कार्य शैतान से युद्ध करने के कार्य के साथ-साथ राज्य के सुसमाचार फैलाने से भी जुड़ा होता है। ऐसा कौन-सा काम है जिसमें उत्तरदायित्व न हो? क्या तुम लोग कहोगे कि अगुआ होना जिम्मेदारी का काम है? क्या उनकी जिम्मेदारियाँ भी बड़ी नहीं होतीं, और क्या उन्हें और ज्यादा जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए? चाहे तुम सुसमाचार फैलाते हो, गवाही देते हो, वीडियो बनाते हो, या कुछ और करते हो—इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या करते हो—जब तक इसका संबंध सत्य सिद्धांतों से है, तब तक उसमें उत्तरदायित्व होंगे। यदि तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में कोई सिद्धांत नहीं हैं, तो उसका असर परमेश्वर के घर के कार्य पर पड़ेगा, और यदि तुम जिम्मेदारी लेने से डरते हो, तो तुम कोई काम नहीं कर सकते। अगर किसी को कर्तव्य निर्वहन में जिम्मेदारी लेने से डर लगता है तो क्या वह कायर है या उसके स्वभाव में कोई समस्या है? तुम्हें अंतर बताने में समर्थ होना चाहिए। दरअसल, यह कायरता का मुद्दा नहीं है। यदि वह व्यक्ति धन के पीछे भाग रहा है, या वह अपने हित में कुछ कर रहा है, तो वह इतना बहादुर कैसे हो सकता है? वह कोई भी जोखिम उठा लेगा। लेकिन जब वह कलीसिया के लिए, परमेश्वर के घर के लिए काम करता है, तो वह कोई जोखिम नहीं उठाता। ऐसे लोग स्वार्थी, नीच और बेहद कपटी होते हैं। कर्तव्य निर्वहन में जिम्मेदारी न उठाने वाला व्यक्ति परमेश्वर के प्रति जरा भी ईमानदार नहीं होता, उसकी वफादारी की क्या बात करना। किस तरह का व्यक्ति जिम्मेदारी उठाने की हिम्मत करता है? किस प्रकार के इंसान में भारी बोझ वहन करने का साहस है? जो व्यक्ति अगुआई करते हुए परमेश्वर के घर के काम के सबसे महत्वपूर्ण पलों में बहादुरी से आगे बढ़ता है, जो अहम और अति महत्वपूर्ण कार्य देखकर बड़ी जिम्मेदारी उठाने और मुश्किलें सहने से नहीं डरता। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के प्रति वफादार होता है, मसीह का अच्छा सैनिक होता है। क्या बात ऐसी है कि लोग कर्तव्य की जिम्मेदारी लेने से इसलिए डरते हैं, क्योंकि उन्हें सत्य की समझ नहीं होती? नहीं; समस्या उनकी मानवता में होती है। उनमें न्याय या जिम्मेदारी की भावना नहीं होती, वे स्वार्थी और नीच लोग होते हैं, वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी नहीं होते, और वे सत्य जरा भी नहीं स्वीकारते। इन कारणों से उन्हें बचाया नहीं जा सकता” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचन बहुत स्पष्ट हैं : जो लोग जिम्मेदारी उठाने से डरते हैं वे केवल अपने हितों के बारे में ही सोचते हैं। वे अपने कर्तव्यों के निर्वहन में कष्ट सहने या त्याग करने को तैयार नहीं होते। ऐसे लोग स्वार्थी, नीच और बेहद धूर्त होते हैं। लेकिन जो लोग परमेश्वर के प्रति वफादार हैं उनमें भारी बोझ उठाने का साहस होता है और वे महत्वपूर्ण समय में आगे बढ़कर परमेश्वर के घर का कार्य करने में सक्षम होते हैं। मैंने आत्मचिंतन किया और जब मैंने सुना कि मुझे अगुआ चुन लिया गया है और सुसमाचार कार्य की जिम्मेदारी दी गई है तो मैं मन में इस निर्णय पर बार-बार विचार करती रही, यह सोचती रही कि क्या यह कर्तव्य मेरे लिए लाभदायक होगा, मुझे इस बात की चिंता थी कि अगर मैंने कार्य में गड़बड़ी की और बाधा डाली तो हो सकता है कि मुझे बर्खास्त कर दिया जाए या हटा दिया जाए। इस वजह से मैं यह कर्तव्य स्वीकारने में झिझक रही थी। बाद में हालाँकि मैंने अनिच्छा से स्वीकार तो कर लिया, लेकिन मेरे दिन एक भयभीत परिंदे की तरह गुजर रहे थे, मैं कार्य को खराब तरीके से करने की जिम्मेदारी लेने से डर रही थी, यहाँ तक कि मैं इस्तीफा देने के बारे में भी सोच रही थी। मेरे कर्तव्य की एक सरल व्यवस्था मुझे लगातार मामलों पर विचार करने और हिसाब-किताब करने के लिए उकसा रही थी। मैं सचमुच कपटी थी! मुझे यह भी एहसास हुआ कि परमेश्वर के घर में कोई भी कर्तव्य क्यों न किया जाए, लेकिन वह कर्तव्य अच्छे से करने के लिए सत्य सिद्धांतों का पालन किया जाना चाहिए। अगर कोई व्यक्ति लापरवाही से और सिद्धांतहीन तरीके से कार्य करता है और ऐसा करने से कार्य में देरी होती है तो उसे उसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए। यह बात न केवल एक अगुआ के कर्तव्य पर लागू होती है बल्कि किसी व्यक्ति द्वारा निभाए जाने वाले हर कर्तव्य पर लागू होती है। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, अपनी अगुआई के कर्तव्य से बचने की मेरी निरंतर इच्छा तुम्हारे इरादों के अनुरूप नहीं है। मैं अब जिम्मेदारी से नहीं बचना चाहती। मैं तुमसे प्रार्थना करती हूँ कि मुझे यह कर्तव्य निभाने के लिए आवश्यक आस्था और शक्ति प्रदान करो।” उसके बाद मैं अपने कर्तव्यों के प्रति और अधिक सक्रिय हो गई, सुसमाचार कार्य में सक्रिय रूप से भाग लेने लगी, कार्य के विवरण से परिचित होने लगी और मामलों का जायजा और पर्यवेक्षण करने लगी। कुछ समय तक इस तरह से कार्य करने के बाद सुसमाचार कार्य में कुछ प्रगति होने लगी।
जुलाई 2023 में सीसीपी द्वारा कलीसिया में गिरफ्तारियाँ होने लगीं और कई भाई-बहनों को गिरफ्तार कर लिया गया। उनमें से एक यहूदा था जिसने 32 लोगों के नाम बता दिए, यहाँ तक कि पुलिस को इन भाई-बहनों के घर भी दिखा दिए। मैं बहुत गुस्से में थी। जब मैंने बाद के हालात में किए जाने वाले कार्य के बारे में सोचा तो मुझे थोड़ी चिंता हुई और सोचा, “इतने सारे भाई-बहनों को धोखा दिया गया है, मैं बाद के हालात को कैसे संभालूँगी? अगर मैंने इसे अच्छे से नहीं संभाला और परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों को नुकसान पहुँचा या और भाई-बहन गिरफ्तार हो गए तो यह एक गंभीर अपराध होगा!” इन बातों पर सोचकर मैं बहुत तनाव में आ गई और मुझे लगा कि एक अगुआ को जो जोखिम उठाना पड़ता है वह सचमुच बहुत बड़ा होता है। सौभाग्य से यांग शिन मेरे साथ मिलकर बाद के हालात का कार्य संभाल रही थी। वह मुझसे अधिक समय से अपना कर्तव्य निभा रही थी और उसके अगुआई करने से मुझ पर दबाव थोड़ा कम हो गया था। लेकिन मुझे हैरानी तब हुई जब कुछ दिन बाद ही अचानक यांग शिन के पास कोई मामला आ गया और उसे वहाँ से जाना पड़ा। मैं यह सोचकर घबरा गई, “मैं यह सारा कार्य अकेले कैसे संभाल पाऊँगी? अगर मैं इसे ठीक से नहीं संभाल पाई और नुकसान हो गया तो सारा दोष मुझ पर आएगा!” मेरे दिल में पश्चात्ताप की भावना भर गई और मैंने सोचा, “अगर मैंने यह कर्तव्य न लिया होता तो मुझे इतनी भारी जिम्मेदारी नहीं उठानी पड़ती।” लेकिन अब बाद के हालात का कार्य संभालने के लिए कोई और नहीं था और मैं कार्य को ऐसे ही नहीं छोड़ सकती थी। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मेरे हृदय की रक्षा करे और उसे शांत रखे, “हे परमेश्वर, मैं इस कार्य को अनदेखा नहीं कर सकती, मुझे इसे आगे बढ़ाने के लिए जी-जान लगाना होगा। मैं तुमसे विनती करती हूँ कि मेरे अंदर का डर दूर करो और मुझे आस्था दो।”
इसके बाद मैं इस मनोस्थिति में गिरती चली गई। एक ओर तो मैं अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहती थी, लेकिन दूसरी ओर मुझे डर था कि अगर मैंने चीजों को खराब तरीके से संभाला तो कार्य को नुकसान पहुँचेगा और यह एक अपराध होगा जिसकी जिम्मेदारी मेरे सिर पर होगी। मैं बहुत दुखी थी, इसलिए मैंने पढ़ने के लिए परमेश्वर के वचन खोजे और एक अंश ने मुझे सचमुच प्रभावित किया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “यह कोई संयोग नहीं है कि मसीह-विरोधी अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम हैं—वे निश्चित रूप से अपने इरादों और मकसद के साथ और आशीष पाने की इच्छा के साथ अपना कर्तव्य निभाते हैं। वे जो भी कर्तव्य करते हैं, उनका मकसद और रवैया बेशक आशीष पाने, अच्छी मंजिल पाने और अच्छी संभावनाएँ और नियति से जुड़ा होता है जिसके बारे में वे दिन-रात सोचते हैं और चिंतित रहते हैं। वे उन कारोबारियों की तरह हैं जो अपने काम के अलावा किसी और चीज के बारे में बात नहीं करते। मसीह-विरोधी जो कुछ भी करते हैं वह सब शोहरत, लाभ और रुतबे से जुड़ा होता है—यह सब आशीष पाने और संभावनाओं और नियति से जुड़ा होता है। उनके दिल अंदर तक ऐसी चीजों से भरे हुए हैं; यही मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार है। ठीक इसी तरह के प्रकृति सार के कारण दूसरे लोग स्पष्ट रूप से यह देख पाते हैं कि उनका अंतिम परिणाम हटा दिया जाना ही है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि मसीह-विरोधी परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते समय हमेशा अपने हितों के बारे में सोचते हैं। वे अपने परिणाम और गंतव्य को बहुत महत्व देते हैं। जब भी इन्हें किसी चीज से खतरा होता है, वे हमेशा अपने हितों की रक्षा को प्राथमिकता देते हैं और अपने निकलने के लिए रास्ता खुला रखते हैं, उनमें अपने कर्तव्य के प्रति कोई निष्ठा नहीं होती। मैं भी बिल्कुल एक मसीह-विरोधी की तरह व्यवहार कर रही थी। मैं लगातार यही सोचती रहती थी कि कैसे जिम्मेदारी लेने से बचूँ और अपने लिए एक अच्छा परिणाम और गंतव्य सुनिश्चित करूँ न कि कलीसिया के कार्य के बारे में सोचूँ। जब कलीसिया में सीसीपी द्वारा गिरफ्तारियाँ की जा रही थीं तो मुझे डर था कि अगर बाद के कार्य को खराब तरीके से संभाला गया तो मुझे जवाबदेह ठहराया जाएगा और अगर मेरी वजह से कोई बड़ा नुकसान पहुँचा तो मेरा परिणाम अच्छा नहीं होगा। नतीजतन मैं पीछे हट गई। जब मैंने देखा कि यांग शिन जा चुकी है और इस कार्य को करने वाली एकमात्र मैं ही बची हूँ तो मैं और भी चिंतित हो गई, क्योंकि मुझे लगा अगर मैंने चीजों को ठीक से नहीं संभाला तो सारा दोष मुझ पर आ जाएगा और इसलिए मुझे इस अगुआई का दायित्व लेने पर अफसोस हुआ। मैं अच्छी तरह जानती थी कि एक कलीसिया अगुआ के रूप में इस महत्वपूर्ण समय में बाद के कार्य को संभालना जरूरी है, लेकिन मैं अभी भी लगातार अपने ही हितों को प्राथमिकता दे रही थी और फायदे और नुकसान का आकलन कर रही थी। जैसे ही मैंने देखा कि मेरा परिणाम और गंतव्य खतरे में हो सकते हैं तो मैंने अपने लिए एक बच निकलने का रास्ता बनाना चाहा। मैंने देखा कि मैं कितनी स्वार्थी और नीच हूँ और मेरा स्वभाव बिल्कुल मसीह-विरोधी जैसा है। मैं जानती थी अगर मैंने पश्चात्ताप न किया और खुद को न बदला तो अंततः परमेश्वर मुझे बेनकाब कर देगा और हटा देगा। तब मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं अब अपने हितों पर ध्यान नहीं देना चाहती। मैं यह बोझ उठाने को तैयार हूँ।”
इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “कुछ लोग यह नहीं मानते कि परमेश्वर का घर लोगों के साथ उचित व्यवहार कर सकता है। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर के घर में परमेश्वर का और सत्य का शासन चलता है। उनका मानना है कि व्यक्ति चाहे कोई भी कर्तव्य निभाए, अगर उसमें कोई समस्या उत्पन्न होती है, तो परमेश्वर का घर तुरंत उस व्यक्ति से निपटेगा, उससे उस कर्तव्य को निभाने का अधिकार छीनकर उसे दूर भेज देगा या फिर उसे कलीसिया से ही निकाल देगा। क्या वाकई इस ढंग से काम होता है? निश्चित रूप से नहीं। परमेश्वर का घर हर व्यक्ति के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करता है। परमेश्वर सभी के साथ धार्मिकता से व्यवहार करता है। वह केवल यह नहीं देखता कि व्यक्ति ने किसी परिस्थिति-विशेष में कैसा व्यवहार किया है; वह उस व्यक्ति की प्रकृति सार, उसके इरादे, उसका रवैया देखता है, खास तौर से वह यह देखता है कि क्या वह व्यक्ति गलती करने पर आत्मचिंतन कर सकता है, क्या वह पश्चात्ताप करता है और क्या वह उसके वचनों के आधार पर समस्या के सार को समझ सकता है ताकि वह सत्य समझ ले और अपने आपसे घृणा करने लगे और सच में पश्चात्ताप करे। यदि किसी में इस सही रवैये का अभाव है, और उसमें पूरी तरह से व्यक्तिगत इरादों की मिलावट है, यदि वह चालाकी भरी योजनाओं और भ्रष्ट स्वभावों के प्रकाशनों से भरा है, और जब समस्याएँ आती हैं, तो वह दिखावे, कुतर्क और खुद को सही ठहराने का सहारा लेता है, और हठपूर्वक अपने कार्यों को स्वीकार करने से इनकार कर देता है, तो ऐसे व्यक्ति को बचाया नहीं जा सकता। वह सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता और पूरी तरह से प्रकट हो चुका है। जो लोग सही नहीं हैं, और जो सत्य को जरा भी स्वीकार नहीं कर सकते, वे मूलतः छद्म-विश्वासी होते हैं और उन्हें केवल हटाया जा सकता है। ... अच्छा बताओ, अगर किसी व्यक्ति ने कोई गलती की है लेकिन वह सच्ची समझ हासिल कर पश्चात्ताप करने को तैयार हो, तो क्या परमेश्वर का घर उसे एक अवसर नहीं देगा? जैसे-जैसे परमेश्वर की छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना समापन की ओर बढ़ रही है, ऐसे बहुत-से कर्तव्य हैं जिन्हें पूरा करना है। लेकिन अगर तुम में अंतरात्मा और विवेक नहीं है और तुम अपने उचित काम पर ध्यान नहीं देते, अगर तुम्हें कर्तव्य निभाने का अवसर मिलता है, लेकिन तुम उसे सँजोकर रखना नहीं जानते, सत्य का जरा भी अनुसरण नहीं करते और सबसे अनुकूल समय अपने हाथ से निकल जाने देते हो, तो तुम्हारा खुलासा किया जाएगा। अगर तुम अपने कर्तव्य निभाने में लगातार अनमने रहते हो, और काट-छाँट के समय जरा भी समर्पण-भाव नहीं रखते, तो क्या परमेश्वर का घर तब भी किसी कर्तव्य के निर्वाह के लिए तुम्हारा उपयोग करेगा? परमेश्वर के घर में सत्य का शासन चलता है, शैतान का नहीं। हर चीज में परमेश्वर की बात ही अंतिम होती है। वही इंसानों को बचाने का कार्य कर रहा है, वही सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है। क्या सही है और क्या गलत, तुम्हें इसका विश्लेषण करने की कोई जरूरत नहीं है; तुम्हें बस सुनना और समर्पण करना है। जब तुम्हारी काट-छाँट हो, तो तुम्हें सत्य स्वीकार कर अपनी गलतियाँ सुधारनी चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे, तो परमेश्वर का घर तुमसे तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन का अधिकार नहीं छीनेगा। अगर तुम हमेशा हटाए जाने से डरते रहोगे, बहानेबाजी करते रहोगे, खुद को सही ठहराते रहोगे, तो फिर समस्या पैदा होगी। अगर तुम लोगों को यह दिखाओगे कि तुम जरा भी सत्य नहीं स्वीकारते, और यह कि तर्क का तुम पर कोई असर नहीं होता, तो तुम मुसीबत में हो। कलीसिया तुमसे निपटने को बाध्य हो जाएगी। अगर तुम अपने कर्तव्य पालन में थोड़ा भी सत्य नहीं स्वीकारते, हमेशा प्रकट किए और हटाए जाने के भय में रहते हो, तो तुम्हारा यह भय मानवीय इरादे, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव, संदेह, सतर्कता और गलतफहमी से दूषित है। व्यक्ति में इनमें से कोई भी रवैया नहीं होना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे समझ आया कि परमेश्वर सभी के प्रति धार्मिक है और परमेश्वर का घर भी सभी के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करता है। एक गलती के कारण किसी को तिरस्कृत या हटाया नहीं जाता। मुझे याद आया कि जब मैं पहले स्वच्छता कार्य करती थी तो मैं अपने अहंकारी स्वभाव के आधार पर पेश आती थी और सिद्धांतों का पालन किए बिना किसी के बारे में भी गलत राय बना लेती थी। बाद में मुझे अपनी गलती का एहसास और बेहद पछतावा हुआ, लेकिन कलीसिया ने मुझे सिर्फ इसलिए बर्खास्त नहीं कर दिया या हटा दिया क्योंकि मैंने वह एक गलती कर दी थी। मैंने देखा कि गलतियाँ करना अपने आप में डरावना नहीं है बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि क्या वह व्यक्ति सत्य स्वीकार सकता है और गलती करने के बाद सच में पश्चात्ताप कर सकता है। कुछ लोगों को मसीह-विरोधी महज इसलिए बेनकाब नहीं कर दिया जाता कि उन्होंने कोई गलती कर दी है बल्कि इसलिए किया जाता है कि वे अपने कर्तव्यों का पालन करते समय परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं या सिद्धांतों का पालन नहीं करते और लापरवाही से कार्य करते हैं। संगति और सहायता प्राप्त करने के बाद भी वे न केवल खुद को बदलने में नाकाम रहते हैं, बल्कि तार्किक बात भी सुनना पसंद नहीं करते और अपने ही तरीके पर अड़े रहते हैं, इससे कलीसिया के कार्य में भयंकर गड़बड़ी और बाधा पैदा हो जाती है। जब वे पश्चात्ताप करने से पूरी तरह इनकार कर देते हैं तभी उन्हें निष्कासित किया जाता है। कुछ भाई-बहन अपराध तो करते हैं, लेकिन वे सत्य खोजने और परमेश्वर के प्रति अपने प्रतिरोध का मूल कारण खोजने में सक्षम होते हैं, सच्चा पश्चात्ताप कर खुद को बदल लेते हैं और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हैं। परमेश्वर का घर फिर भी ऐसे लोगों को बढ़ावा देता है और उनका उपयोग करता है। मैंने देखा कि परमेश्वर हर किसी को पश्चात्ताप करने के भरपूर मौके देता है और परमेश्वर का सार धार्मिक और विश्वासनीय है। मैं जानती थी कि अब मैं परमेश्वर से सतर्क या अपने कर्तव्य टाल नहीं सकती थी।
बाद में अपने कर्तव्यों के प्रति मेरी मानसिकता में सुधार हुआ और कलीसिया ने मेरे साथ सहयोग करने के लिए किसी और बहन को चुना। कुछ समय बाद ही मुझे पता चल गया कि बीस या उससे अधिक भाई-बहनों को गिरफ्तार कर लिया गया है और पुलिस उन्हें चेतावनी देने आई थी और उन्हें “तीन कथन” पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया। जब मैंने यह समाचार सुना तो मैं फिर से डर गई और इस बात की चिंता होने लगी कि अगर बाद के कार्य को अच्छे से नहीं संभाला गया तो मुझे जवाबदेह ठहराया जाएगा। जब मेरे मन में ये विचार आए तो मुझे एहसास हुआ कि मैं सही मनोदशा में नहीं हूँ, इसलिए मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की। मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : “लोग जो हासिल कर सकते हैं, उसे पूरा करने के लिए उन्हें अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए; बाकी सब परमेश्वर के हाथों में है कि वह अपनी संप्रभुता का प्रयोग करे, उसे आयोजित करे और उसका मार्गदर्शन करे। हमें इस बारे में सबसे कम चिंता करनी है। हमारे पीछे परमेश्वर है। न केवल हमारे दिलों में परमेश्वर है, बल्कि हमारे पास सच्ची आस्था भी है। यह कोई आध्यात्मिक सहारा नहीं है; वास्तव में, परमेश्वर दिखाई नहीं देता लेकिन वह लोगों के साथ है और सदा उनके साथ मौजूद रहता है। जब भी लोग कुछ करते हैं या कोई कर्तव्य निभाते हैं, तो वह देख रहा होता है; वह किसी भी समय और स्थान पर तुम्हारी मदद करने, तुम्हारी रक्षा करने और तुम्हें बचाने के लिए मौजूद होता है। लोगों को बस इतना करना चाहिए कि उन्हें जो करना चाहिए उसे पूरा करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करें। अगर तुम परमेश्वर के वचनों से अवगत हो जाते हो, उन्हें अपने दिल में महसूस करते हो और उन्हें समझते हो, तुम्हारे आस-पास के लोग तुम्हें याद दिलाते हैं या परमेश्वर द्वारा तुम्हें कोई संकेत या शकुन दिया जाता है जो तुम्हें जानकारी प्रदान करता है—यह कुछ ऐसा है जो तुम्हें करना चाहिए, यह परमेश्वर का तुम्हें दिया गया आदेश है—तो तुम्हें अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए और निष्क्रिय होकर नहीं बैठना चाहिए या किनारे खड़े होकर इसे नहीं देखना चाहिए। तुम रोबोट नहीं हो; तुम्हारे पास दिमाग और विचार हैं। जब कुछ होता है, तो तुम्हें बिल्कुल पता होता है कि तुम्हें क्या करना चाहिए और तुम्हारे पास निश्चित रूप से भावनाएँ और जागरूकता होती है। इसलिए इन भावनाओं और जागरूकता को वास्तविक स्थितियों पर लागू करो, उन्हें जियो और उन्हें अपने क्रियाकलापों में तब्दील करो, और इस तरह तुमने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली होगी। जिन चीजों के बारे में तुम जान सकते हो, उनके लिए तुम्हें उन सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए जिन्हें तुम समझते हो। इस तरह, तुम अपना सर्वश्रेष्ठ कर रहे हो और अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास कर रहे हो” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (21))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे आस्था और शक्ति दी। सबसे पहले तो मुझे अपनी जिम्मेदारियाँ उठानी थीं, पूरी तरह से परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करनी थी और भाई-बहनों को बचाना था और नुकसान को यथासंभव कम करना था। यह सब मेरी जिम्मेदारी थी। मैं अब इतनी स्वार्थी और नीच नहीं हो सकती थी कि सिर्फ अपने भविष्य और गंतव्य पर ही ध्यान दूँ। यह सोचकर कि कैसे मैंने हमेशा खुद को बचाने और जिम्मेदारी से बचने की कोशिश की, मुझे एहसास हुआ कि इस बार मुझे सत्य का अभ्यास करना होगा और जिम्मेदारी लेने की हिम्मत दिखानी होगी। भले ही इस प्रक्रिया में मुझसे कुछ विचलन हो जाए, जो जिम्मेदारियाँ मेरी थीं वे मुझे ही उठानी थीं। कुछ जटिल मामलों में जहाँ मैं उचित कार्रवाई करने को लेकर अनिश्चित थी वहाँ मैं उच्च अगुआओं से सहायता माँग सकती थी और अगर मेरे कार्य में कोई गलतियाँ या कमी रह जातीं तो मुझे उनका सारांश तैयार कर समय रहते उनमें सुधार करना था। बाद में मैंने बहन के साथ मिलकर बाद के कार्य को संभाला और हमने भाई-बहनों के साथ परमेश्वर के इरादों पर संगति की और इस कठिन समय में अपने कर्तव्यों को कैसे अच्छे से पूरा किया जाए इस पर चर्चा की। भाई-बहनों ने सक्रिय रूप से सहयोग किया और बाद का कार्य शीघ्रता से पूरा कर लिया गया।
अब मैं अपने हितों, परिणाम और गंतव्य के बारे में नहीं सोचती जैसा कि मैं पहले सोचती थी। इसके बजाय मैं जी-जान से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करती हूँ और मेरा हृदय बहुत अधिक शांति महसूस करता है। इस प्रकाशन का अनुभव किए बिना मैं अपने शैतानी स्वभाव या अनुसरण के प्रति अपने गलत विचारों को नहीं पहचान पाती। परमेश्वर के मार्गदर्शन से मैं ये सबक सीख पाई, उसके लिए परमेश्वर को धन्यवाद देती हूँ!