56. मैं अब अपनी खराब काबिलियत को लेकर शिकायत नहीं करती
प्राथमिक विद्यालय में मुझे खराब अंक मिलते थे, पर मैं छोटी थी, इसलिए मुझे शर्मिंदगी नहीं होती थी। लेकिन माध्यमिक विद्यालय में जब मैंने यह गौर करना शुरू किया कि मेरे टीचर और सहपाठी अच्छे अंक पाने वाले छात्रों का सम्मान और उनकी प्रशंसा करते हैं तो मुझे ईर्ष्या होने लगी। मैं भी पढ़ाई में बेहतर करना चाहती थी ताकि सबकी प्रशंसा पा सकूँ, लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद मैं अपने अंक नहीं बढ़ा सकी। मैंने खुद को दोषी मानते हुए कहा, “मैं इतनी मूर्ख कैसे हो सकती हूँ? कितनी शर्मनाक बात है!” इसलिए मैंने स्कूल ही छोड़ दिया। जब मैंने काम की तलाश शुरू की तो मुझे केवल शारीरिक श्रम वाली नौकरियाँ ही मिल पाती थीं क्योंकि मुझमें शिक्षा और कौशल की कमी थी। जब मैंने देखा कि कैसे होशियार, शिक्षित लोग बिना शारीरिक श्रम किए अधिक धन कमा सकते हैं तो मैंने एक बार फिर खुद को मूर्ख होने के लिए दोषी ठहराया और बहुत हताश महसूस किया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार करने के बाद मैंने देखा कि कलीसिया अगुआ चीजों को त्यागने, खुद को खपाने, कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम हैं और परमेश्वर के वचनों पर संगति के जरिए भाई-बहनों की कठिनाइयों को हल कर सकते हैं। सभी उनकी प्रशंसा और सम्मान करते थे और परिणामस्वरूप मुझे उनसे बहुत ईर्ष्या होने लगी। मैं उस दिन का इंतजार करती जब मैं भी कलीसिया अगुआ बन सकूँगी। मैंने कभी नहीं सोचा था कि दो ही साल बाद मुझे कलीसिया अगुआ चुन लिया जाएगा। मैंने उत्साहपूर्वक चीजों का त्याग किया, खुद को खपाया और जिस कार्य की व्यवस्था और क्रियान्वयन की आवश्यकता होती मैं उसमें सक्रिय रूप से सहयोग करती। चाहे काम कितना भी कठिन या थकाऊ क्यों न हो, मैं कभी शिकायत न करती। मैं उन सभी लोगों की यथासंभव मदद करने की कोशिश करती जिन्हें समस्या होती। सभी भाई-बहन मेरी कष्ट सहने की क्षमता और मेरे प्रेमपूर्ण रवैये की सराहना करते। लेकिन कलीसिया के कार्य में कभी सुधार के संकेत न दिखते क्योंकि मैं बस कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत दोहराती और वास्तविक मुद्दों को हल करने के लिए सत्य का उपयोग न कर पाती। आखिरकार मैं इस कार्य के लिए उपयुक्त नहीं थी और मुझे बरखास्त कर दिया गया। इससे मैं बहुत निराश और नकारात्मक हो गई। मुझे लगा अगर भाई-बहनों को पता चला कि मुझमें काबिलियत की कमी है तो वे मुझे नीची नजर से देखेंगे और फिर तो मुझे नजर में आने का मौका और भी कम मिलेगा। मैं परमेश्वर के खिलाफ शिकायत करने लगी : मेरी काबिलियत इतनी खराब क्यों है जबकि बाकी लोगों की काबिलियत इतनी अच्छी है? बाद में कलीसिया अगुआ ने मुझे सामान्य मामलों के कर्तव्य में लगा दिया। जब भी मैं सोचती कि मैं केवल शारीरिक श्रम ही कर सकती हूँ क्योंकि मुझमें काबिलियत की कमी है और मैं दूसरों से सम्मान नहीं पा सकती तो मुझे थोड़ा नकारात्मक महसूस होता और अपने कर्तव्य के प्रति मेरा उत्साह चला जाता। इसके बाद अगुआ ने मुझे कलीसिया की संपत्ति की सुरक्षा का काम सौंप दिया। सुरक्षा कारणों से मैं केवल एक अन्य भाई से ही बातचीत कर सकती थी। मैंने मन ही मन सोचा, “अपनी खराब काबिलियत के चलते मैं केवल इन पर्दे के पीछे के कामों को ही कर सकती हूँ।” यह सोचकर अपने कर्तव्य के प्रति मेरा उत्साह खत्म हो गया। जो विचलन या मुद्दे पैदा हुए थे मैंने उन्हें सारांशित नहीं किया और उनके समाधान के लिए सत्य की खोज तो बिल्कुल नहीं की।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसने मुझे थोड़ा-बहुत जगाया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर द्वारा बचाए जाने वालों में से ज्यादातर लोग दुनिया में या समाज के लोगों के बीच ऊँचे पदों पर नहीं होते हैं। चूँकि उनकी काबिलियत और क्षमताएँ औसत या यहाँ तक कि कमहोती हैं और वे दुनिया में लोकप्रियता या सफलता पाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं, उन्हें हमेशा लगता है कि दुनिया बेरंग और अन्यायी है, इसलिए उन्हें आस्था की जरूरत होती है और अंत में वे परमेश्वर के सामने आते हैं और परमेश्वर के घर में प्रवेश करते हैं। लोगों को चुनते समय परमेश्वर की यह एक बुनियादी शर्त है। तुममें सिर्फ इसी जरूरत के साथ परमेश्वर का उद्धार स्वीकारने की इच्छा हो सकती है। अगर हर दृष्टि से तुम्हारी स्थितियाँ बहुत अच्छी हैं और दुनिया में उद्यम करने के लिए उपयुक्त हैं और तुम हमेशा अपने लिए नाम कमाना चाहते हो तो तुममें परमेश्वर का उद्धार स्वीकार करने की इच्छा नहीं होगी और न ही तुम्हारे पास परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने का अवसर होगा। भले ही तुम्हारी काबिलियत औसत या खराब हो, फिर भी तुम अविश्वासियों की तुलना में कहीं ज्यादा धन्य हो क्योंकि तुम्हारे पास परमेश्वर द्वारा बचाए जाने का अवसर है। इसलिए खराब काबिलियत होना तुम्हारा दोष नहीं है और न ही यह भ्रष्ट स्वभाव छोड़ने और उद्धार प्राप्त करने में कोई रुकावट है। अंतिम विश्लेषण में, तुम्हें यह काबिलियत परमेश्वर ने ही दी है। तुम्हारे पास बस उतना ही है जितना परमेश्वर ने तुम्हें दिया है। अगर परमेश्वर तुम्हें अच्छी काबिलियत देता है तो तुम्हारे पास अच्छी काबिलियत होती है। अगर परमेश्वर तुम्हें औसत काबिलियत देता है तो तुम्हारी काबिलियत औसत होती है। अगर परमेश्वर तुम्हें खराब काबिलियत देता है तो तुम्हारी काबिलियत खराब होती है। जब तुम यह बात समझ जाते हो तो तुम्हें इसे परमेश्वर से स्वीकार लेना चाहिए और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने में समर्थ हो जाना चाहिए। कौन-सा सत्य समर्पण करने का आधार बनता है? यह सत्य कि परमेश्वर द्वारा की गई ऐसी व्यवस्थाओं में परमेश्वर के अच्छे इरादे निहित होते हैं; परमेश्वर श्रमसाध्य रूप से विचारशील है और लोगों को परमेश्वर के दिल के बारे में शिकायत नहीं करनी चाहिए या उसे गलत नहीं समझना चाहिए। परमेश्वर तुम्हारी अच्छी काबिलियत के कारण तुम्हारा सम्मान नहीं करेगा और न ही वह तुम्हारी खराब काबिलियत के कारण तुम्हारा तिरस्कार करेगा या तुमसे नफरत करेगा। परमेश्वर किस चीज से नफरत करता है? परमेश्वर जिस चीज से नफरत करता है वह है लोगों का सत्य से प्रेम न करनाया इसे स्वीकार न करना, लोगों का सत्य समझना लेकिन उसका अभ्यास न करना, वह कार्य न करना जिसे करने में वे सक्षम हैं, अपने कर्तव्यों में अपना सर्वस्व न दे पाना, फिर भी हमेशा असंयत इच्छाएँ रखना, हमेशा रुतबे की चाहत रखना, पद के लिए होड़ करना और हमेशा परमेश्वर से माँगें करते रहना। यही बात परमेश्वर को खराब और घिनौनी लगती है” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (7))। जब मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया तो मैं बेहद प्रभावित हुई। मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर ने पहले ही तय कर दिया है कि मेरी काबिलियत खराब होगी और इसके पीछे उसकी सद्भावना है। मुझमें प्रतिष्ठा और रुतबे की गहरी चाहत थी और बचपन से ही मैंने अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश की थी। अगर मुझमें अच्छी काबिलियत और अच्छी योग्यता होती और मैंने दुनिया में ऊँचा रुतबा हासिल किया होता, सम्मान और प्रशंसा पाई होती तो मैं कभी भी परमेश्वर के सामने नहीं आती और शैतान के विध्वंस के अधीन रहते हुए पाप के सुखों का आनंद उठाते हुए जीती रहती। मुझे एहसास हुआ कि मेरी खराब काबिलियत ने ही मुझे परमेश्वर की सुरक्षा पाने में मदद की थी और यही मुझे परमेश्वर के सामने लाई थी। यह परमेश्वर का उद्धार था। चूँकि मुझमें काबिलियत की कमी थी, इसलिए कलीसिया ने मुझे सामान्य मामलों का कार्य सौंपा था और यह कर्तव्य मेरे लिए बिल्कुल उपयुक्त था। अगर मैंने इसमें कुछ प्रयास किया होता तो मैं अच्छा कर सकती थी, लेकिन इसके बजाय मैंने शिकायत की क्योंकि यह कर्तव्य मुझे अपनी पहचान बनाने और लोगों की नजर में आने का मौका नहीं दे रहा था। यहाँ तक कि मैं लापरवाह थी और अपना कर्तव्य अनमने ढंग से निभा रही थी। यह देखकर कि मैंने अपनी भूमिका अदा नहीं की है, मुझे एहसास हुआ कि मैं कितनी अहंकारी और अविवेकी हूँ!
तभी मुझे परमेश्वर के वचनों का एक और अंश मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “खराब काबिलियत वाले लोगों की अभिनव क्षमता के लिहाज से उनकी विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ ये हैं कि उन्हें नहीं पता कि मूलतत्वों और सिद्धांतों को विशिष्ट, वास्तविक कार्य में कैसे लागू करना है; वे सिर्फ शब्दों को तोते की तरह रटने, धर्म-सिद्धांतों को सीखने और विनियमों को याद करने में समर्थ होते हैं। सिर्फ धर्म-सिद्धांतों और विनियमों को याद करना बेकार है और इससे यह प्रकट नहीं होता है कि तुममें अभिनव क्षमता है। तुममें अभिनव क्षमता है या नहीं, यह इस बात से जाहिर होती है कि क्या तुम मूलतत्वों, सिद्धांतों और विनियमों को वास्तविक जीवन में लागू कर पाते हो, क्या इन मूलतत्वों और सिद्धांतों से संबंधित कार्य को अच्छी तरह से कर पाते हो ताकि ये मूलतत्व और सिद्धांत शब्द और धर्म-सिद्धांत, विनियम और सूत्र ही न रह जाएँ, बल्कि लोगों के जीवन में कार्यान्वित किए जाएँ और लोगों पर लागू किए जाएँ, जिससे लोग उनका उपयोग कर सकें और उनसे फायदे और सहायता प्राप्त कर सकें, वे जीवन में अभ्यास का एक मार्ग बनें या जीने के लिए एक मार्गदर्शक, दिशा और लक्ष्य बनें। अगर किसी व्यक्ति में यह अभिनव क्षमता नहीं होती है और वह सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को बघारना और नारे लगाना जानता है और अपना कर्तव्य करने का समय आने पर इन सिद्धांतों और मूलतत्वों को उपयोग में लाने में असमर्थ होता है तो ऐसे अगुआ या पर्यवेक्षक का अनुसरण करने वाले लोग सत्य के इस पहलू में अभ्यास के सिद्धांत प्राप्त नहीं करेंगे। ऐसे अगुआ या पर्यवेक्षक खराब क्षमता वाले, कार्य करने में असमर्थ लोग होते हैं और जैसे ही उनकी पहचान हो जाती है, उनकी रिपोर्ट कर देनी चाहिए और उन्हें हटा देना चाहिए। … इसलिए एक अगुआ या कार्यकर्ता या पर्यवेक्षक के लिए अभिनव क्षमता एक महत्वपूर्ण क्षमता है। अगर तुममें कार्य करने की बुनियादी काबिलियत और क्षमता नहीं है तो तुम्हें जरूर बिल्कुल सतर्क रहना चाहिए और जोश में आकर बस अँधाधुँध आगे नहीं बढ़ना चाहिए, हमेशा अलग से दिखाई देने की चाह नहीं रखनी चाहिए, हमेशा अगुआ या पर्यवेक्षक बनने की चाह नहीं रखनी चाहिए। ऐसा करने से न सिर्फ तुम अपने लिए अड़चन डालते हो, बल्कि दूसरों के उद्धार प्राप्त करने में भी अड़चन डालते हो। अगर तुम सिर्फ अपने लिए अड़चन डालते हो तो तुम बस अपनी मौत का कारण बनते हो, लेकिन अगर तुम भाई-बहनों के लिए अड़चन डालते हो तो क्या तुम कई लोगों को नुकसान नहीं पहुँचा रहे हो? हो सकता है कि तुम्हें अपनी जान की परवाह न हो, लेकिन दूसरों को तो अपनी जान की परवाह होती है। इसके अलावा, अपने दैनिक जीवन या आर्थिक सफलता में अड़चन डालना कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन कलीसिया के कार्य में अड़चन डालना कोई छोटी बात नहीं है। क्या तुम ऐसी जिम्मेदारी उठा सकते हो? अगर तुम सही मायने में जमीर वाले व्यक्ति हो और यह महसूस करते हो कि इस मामले में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी शामिल है, कि कलीसिया के कार्य में अड़चन डालना कोई ऐसी चीज नहीं है जिसके लिए तुम जवाबदेह हो सकते हो तो तुम्हें अगुआई के लिए दिखावा और होड़ करने के किसी भी हथकंडे का सहारा बिल्कुल नहीं लेना चाहिए। अगर तुममें काबिलियत और आध्यात्मिक कद नहीं है तो हमेशा अलग दिखाई देने का प्रयास मत करो। अधिकार की अपनी लालसा को संतुष्ट करने मात्र के लिए कलीसिया के कार्य में अड़चन मत डालो या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सत्य में प्रवेश करने और एक अच्छा गंतव्य प्राप्त करने में अड़चन मत डालो—यह अधर्म है! तुममें कुछ आत्म-जागरूकता होनी चाहिए। तुम जो करने में सक्षम हो, वही करो और हमेशा अगुआ बनने की आकांक्षा मत रखो। अगुआ बनने के अलावा भी ऐसे बहुत से दूसरे कर्तव्य हैं जो तुम कर सकते हो। अगुआ होना तुम्हारा विशिष्ट अधिकार नहीं है, न ही यह तुम्हारा लक्ष्य होना चाहिए। अगर तुममें अगुआ बनने की काबिलियत और आध्यात्मिक कद है और तुममें बोझ की भावना भी है तो बेहतर यह है कि तुम खुद को दूसरों को चुनने दो। इस अभ्यास से कलीसिया के कार्य और इसमें शामिल सभी लोगों को फायदा पहुँचता है। अगर तुममें अगुआ बनने की काबिलियत नहीं है तो तुम्हें कुछ दयालुता दिखानी चाहिए और दूसरों के भविष्यों के लिए कुछ जिम्मेदारी लेनी चाहिए। हमेशा अगुआ बनने की होड़ मत करो और दूसरों के लिए अड़चन मत डालो। खराब काबिलियत होने के बावजूद अगुआ बनने और कलीसिया के कार्य का प्रभारी बनने की चाह विवेक की कमी दर्शाता है। अगर तुममें काबिलियत और आध्यात्मिक कद की कमी है तो बस अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाओ। सही मायने में अपने कर्तव्य पूरे करना दिखाता है कि तुम्हारे पास कुछ विवेक है। तुम अपनी क्षमता के अनुसार जो भी कार्य कर सकते हो, करो; महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ मत पालो। कलीसिया के कार्य के प्रति लापरवाह होते हुए सिर्फ अपनी व्यक्तिगत इच्छाएँ पूरी करने का प्रयास मत करो क्योंकि इससे तुम्हें और कलीसिया दोनों को नुकसान पहुँचता है। अभिनव क्षमता के लिहाज से खराब काबिलियत वाले लोगों की यही अभिव्यक्ति होती है” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (7))। परमेश्वर ने ठीक मेरे व्यवहार को उजागर किया। मुझमें काबिलियत और रचनात्मकता की कमी थी और केवल कुछ धर्म-सैद्धांतिक ज्ञान की ही समझ थी और मैं अपने कर्तव्य में कुछ विनियमों का पालन कर पाती थी, लेकिन मैं वास्तविक समस्याओं को हल करने में असमर्थ थी, इसलिए मैं अगुआ के रूप में सेवा करने के उपयुक्त नहीं थी। अगुआ चुने जाने के बाद मैंने उत्साह के साथ सेवा की, खुद को खपाया, प्रेरित रही और कुछ सामान्य मामलों के कार्य भी कर पाई, लेकिन चूँकि मुझमें काबिलियत की कमी थी, मैं केवल विनियमों का पालन करते हुए सब कुछ नियमों के दायरे में रहकर ही कर सकती थी। मैं कार्य में आने वाली वास्तविक समस्याओं को समझ नहीं पाती थी और उनका समाधान करने में असमर्थ थी और अंततः मुझे बरखास्त कर दिया गया क्योंकि मैं वास्तविक कार्य करने में असमर्थ थी। कुछ ऐसे सिद्धांत हैं जिनके आधार पर हम यह निर्धारित कर सकते हैं कि कोई व्यक्ति अगुआ बनने के उपयुक्त है या नहीं। कम से कम उसमें अच्छी मानवता और औसत काबिलियत तो होनी ही चाहिए और उसे वास्तविक मुद्दों को सुलझाने में सक्षम होना चाहिए। जहाँ तक मेरी बात है मुझमें अगुआई करने की काबिलियत नहीं थी और अगर मैं उस भूमिका में सेवा करना जारी रखती तो मैं कलीसिया के कार्य में बाधा डाल रही होती और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में देरी कर रही होती। यह तो बहुत बड़ा अपराध होता! अगुआ का मुझे दूसरा काम सौंपना सही था क्योंकि मुझमें काबिलियत की कमी थी और मैं कलीसिया का कार्य करने योग्य नहीं थी। इससे न केवल मेरी सुरक्षा हुई, बल्कि यह कलीसिया के कार्य के लिए जिम्मेदारी की बात भी थी। लेकिन मुझमें रत्ती भर भी आत्म-ज्ञान नहीं था। काबिलियत की कमी के बावजूद मुझमें रुतबे और प्रतिष्ठा की तीव्र इच्छा थी, मैं हमेशा अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में सेवा करके अपनी एक अलग पहचान बनाना चाहती थी। मैं कितनी अविवेकी थी! मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा, “प्रिय परमेश्वर, तुम्हारा बहुत-बहुत धन्यवाद। तुमने मुझे समय रहते बरखास्त करके बुरे रास्ते पर चलने से रोक दिया। तुमने अपने वचनों के प्रकाशन के जरिए मुझे मेरी दशा समझने में भी मदद की। अब मैं पूरी तरह स्वीकार करती हूँ कि मुझे मेरी खराब काबिलियत के कारण दूसरे काम में लगाया गया था। हे परमेश्वर, मैं पश्चात्ताप करने को तैयार हूँ और अब अपनी खराब काबिलियत को लेकर कोई शिकायत नहीं करूँगी। मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने के लिए सत्य खोजना चाहती हूँ और अपनी काबिलियत के बारे में सही रवैया रखना चाहती हूँ।”
मैंने लगातार इस बात पर विचार करना और खोजना जारी रखा कि मैं हमेशा अपनी खराब काबिलियत के बारे में शिकायत क्यों करती थी। बाद में परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़कर मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा में ही कोई समस्या थी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के प्रति मसीह-विरोधियों का चाव सामान्य लोगों से कहीं ज्यादा होता है, और यह एक ऐसी चीज है जो उनके स्वभाव सार के भीतर होती है; यह कोई अस्थायी रुचि या उनके परिवेश का क्षणिक प्रभाव नहीं होता—यह उनके जीवन, उनकी हड्डियों में समायी हुई चीज है, और इसलिए यह उनका सार है। कहने का तात्पर्य यह है कि मसीह-विरोधी लोग जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार उनकी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे का होता है, और कुछ नहीं। मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा ही उनका जीवन और उनके जीवन भर का लक्ष्य होता है। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार यही होता है : ‘मेरे रुतबे का क्या होगा? और मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? क्या ऐसा करने से मुझे अच्छी प्रतिष्ठा मिलेगी? क्या इससे लोगों के मन में मेरा रुतबा बढ़ेगा?’ यही वह पहली चीज है जिसके बारे में वे सोचते हैं, जो इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि उनमें मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार है; इसलिए वे चीजों को इस तरह से देखते हैं। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा कोई अतिरिक्त आवश्यकता नहीं है, ये कोई बाहरी चीज तो बिल्कुल भी नहीं है जिसके बिना उनका काम चल सकता हो। ये मसीह-विरोधियों की प्रकृति का हिस्सा हैं, ये उनकी हड्डियों में हैं, उनके खून में हैं, ये उनमें जन्मजात हैं। मसीह-विरोधी इस बात के प्रति उदासीन नहीं होते कि उनके पास प्रतिष्ठा और रुतबा है या नहीं; यह उनका रवैया नहीं होता। फिर उनका रवैया क्या होता है? प्रतिष्ठा और रुतबा उनके दैनिक जीवन से, उनकी दैनिक स्थिति से, जिस चीज का वे रोजाना अनुसरण करते हैं उससे, घनिष्ठ रूप से जुड़ा होता है। और इसलिए मसीह-विरोधियों के लिए रुतबा और प्रतिष्ठा उनका जीवन हैं। चाहे वे कैसे भी जीते हों, चाहे वे किसी भी परिवेश में रहते हों, चाहे वे कोई भी काम करते हों, चाहे वे किसी भी चीज का अनुसरण करते हों, उनके कोई भी लक्ष्य हों, उनके जीवन की कोई भी दिशा हो, यह सब अच्छी प्रतिष्ठा और ऊँचा रुतबा पाने के इर्द-गिर्द घूमता है। और यह लक्ष्य बदलता नहीं; वे कभी ऐसी चीजों को दरकिनार नहीं कर सकते” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर यह उजागर करता है कि चाहे मसीह-विरोधी कुछ भी कर रहे हों, वे हमेशा पहले अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को ध्यान में रखते हैं। सभी चीजों में वे अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को पूरा करने का प्रयास करते हैं। हो सकता है कि मुझमें काबिलियत की कमी रही हो, लेकिन मैंने जो स्वभाव प्रकट किया वह बिल्कुल मसीह-विरोधी जैसा था। अपने कर्तव्य में मैं लोगों का सम्मान पाना और हमेशा उनकी नजर में आना चाहती थी। जब मुझे दूसरा काम सौंपा गया तो मैंने अपनी कमियों पर विचार नहीं किया; इसके बजाय मैंने अविवेकपूर्ण ढंग से व्यवहार किया, परमेश्वर के बारे में शिकायत की कि उसने मुझे खराब काबिलियत दी है और मैं नकारात्मक होकर काम में ढिलाई बरतने लगी। मैंने देखा कि बरसों आस्था रखने और परमेश्वर के वचनों के सिंचन और आपूर्ति का इतना आनंद लेने के बावजूद मेरा जीवन स्वभाव बिलकुल नहीं बदला था और मैं प्रतिष्ठा और रुतबे को अपने जीवन की तरह संजोकर रखती थी। यह सचमुच खतरनाक था! मैंने अपनी पिछली साथी यांग जिंग के बारे में सोचा। उसमें कुछ काबिलियत और क्षमता थी, लेकिन वह अहंकारी और स्वेच्छाचारी थी, रुतबे को लेकर जुनूनी थी। लोगों का सम्मान पाने के लिए वह जब भी संभव होता अपने कर्तव्य का दिखावा करती और ऐसे कार्य करती जिनसे कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी और बाधा पैदा होती थी। हमारी अगुआ ने कई बार उसे उजागर कर उसकी काट-छाँट की, लेकिन वह पश्चात्ताप न करती। आखिरकार उसे मसीह-विरोधी के तौर पर उजागर कर निष्कासित कर दिया गया। मैं हमेशा रुतबे, शोहरत और लाभ के पीछे भागती थी, इसलिए अगर मुझमें अच्छी काबिलियत होती तो जैसे ही मुझे प्रतिष्ठा और लोगों का सम्मान मिलता मैं यकीनन यांग जिंग के मार्ग पर चल पड़ती। मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं शैतान द्वारा बहुत अधिक भ्रष्ट कर दी गई हूँ, पद, प्रसिद्धि और लाभ के प्रति बहुत अधिक आसक्त हो गई हूँ। अगर तुम्हारे वचनों का न्याय और प्रकाशन न होता तो मैंने जो मसीह-विरोधी स्वभाव प्रकट किया है मैं उससे पूरी तरह अनभिज्ञ होती। मैं कितनी सुन्न और मंदबुद्धि रही हूँ! हे परमेश्वर, तुम्हारे वचनों के जरिए मुझे जो प्रबोधन और मार्गदर्शन मिला है, उसके लिए तुम्हारा धन्यवाद करती हूँ। मैं पश्चात्ताप कर सत्य का अनुसरण करने और अपनी काबिलियत के अनुसार यथासंभव अपना कर्तव्य पूरा करने को तैयार हूँ।”
भक्ति के दौरान मुझे कुछ और अंश मिले जिनसे मुझे यह समझने में मदद मिली कि मुझे अपनी काबिलियत के बारे में कैसे सोचना चाहिए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अपनी काबिलियत के अनुसार तुम सिर्फ कुछ श्रमसाध्य कार्य ही कर सकते हो, ऐसे कार्य जो दिखाई नहीं देते हैं, जिन्हें नीची नजर से देखा जाता है और जिन्हें लोग याद नहीं रखते हैं—अगर तुम्हारी यह स्थिति है तो तुम्हें इसे परमेश्वर से स्वीकार कर लेना चाहिए और शिकायतें नहीं रखनी चाहिए और यकीनन तुम्हें अपनी इच्छाओं के आधार पर अपने कर्तव्य नहीं चुनने चाहिए। परमेश्वर का घर तुम्हारे लिए जो भी व्यवस्था करता है, उसे करो और जब तक यह तुम्हारी काबिलियत में है, तुम्हें उसे अच्छी तरह से करना चाहिए। ... भले ही तुम कोई और कार्य न कर सको, भले ही तुम कलीसिया के कार्य में कोई मुख्य और निर्णायक भूमिका न निभा सको और तुम्हारा कोई बड़ा योगदान न हो, लेकिन अगर तुम किसी ऐसे कार्य में अपना पूरा प्रयास और निष्ठा लगा पाते हो जिस पर किसी का ध्यान नहीं जाता है और सिर्फ परमेश्वर को संतुष्ट करने का प्रयास करते हो, तो यह काफी है। परमेश्वर ने तुम्हारा जो उन्नयन किया है, यह उसे विफल करना नहीं है। कामों को लेकर इस आधार पर नखरे मत करो कि वे गंदे या थकाऊ हैं या नहीं, कि दूसरे लोग तुम्हें उन्हें करते देखते हैं या नहीं, कि लोग तुम्हारी तारीफ करते हैं या नहीं, या उन्हें करने के लिए वे तुम्हें नीची नजर से देखते हैं या नहीं। इन चीजों के बारे में मत सोचो; बस इसे परमेश्वर से स्वीकार करने, समर्पण करने और तुम्हें जो कर्तव्य पूरे करने चाहिए उन्हें करने का प्रयास करो” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (7))। “अलग-अलग काबिलियत वाले लोगों की विभिन्न अभिव्यक्तियों का भेद पहचानने और ये विशिष्ट उदाहरण प्रदान करने का उद्देश्य यह है कि तुम्हें उनके साथ खुद को जोड़कर देखने में मदद मिले ताकि तुम अपनी स्थिति को सही ढंग से पहचान सको, अपनी काबिलियत और विभिन्न स्थितियों को तर्कसंगत रूप से देख सको और परमेश्वर के प्रकाशन, न्याय और तुम्हारी काट-छाँट या तुम्हारे लिए व्यवस्थित कार्य के प्रति तर्कसंगत रुख अपना सको और तुम प्रतिरोध और विकर्षण दिखाने के बजाय अपने दिल की गहराइयों से समर्पण कर सको और आभारी हो सको। जब लोग अपनी काबिलियत के प्रति तर्कसंगत रुख अपना पाते हैं और फिर अपनी स्थिति को सटीकता से पहचान पाते हैं, ऐसे सृजित प्राणियों के रूप में व्यावहारिक तरीके से कार्य करते हैं जिन्हें परमेश्वर चाहता है, अपनी अंतर्निहित काबिलियत के आधार पर उन्हें जो करना चाहिए वह उचित रूप से करते हैं और अपनी निष्ठा और अपना सारा प्रयास समर्पित करते हैं तो वे परमेश्वर की संतुष्टि प्राप्त करते हैं” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (7))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिया। मेरी खराब काबिलियत के बावजूद परमेश्वर ने मेरे साथ बुरा व्यवहार नहीं किया। कलीसिया की संपत्ति की सुरक्षा के लिए जिम्मेदारी और बारीकी से ध्यान देने की आवश्यकता होती है। मुझे नियमित रूप से संपत्ति की जाँच और रखरखाव करना था। अगर मैं निष्ठापूर्वक कार्य करती तो मैं ये चीजें कर सकती थी और यह कर्तव्य मेरे लिए उपयुक्त था। मुझे अपनी जगह मालूम होनी चाहिए और अपनी पूरी क्षमता से निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा जो कहते हैं : “कार्य समान नहीं हैं। एक शरीर है। प्रत्येक अपना कर्तव्य करता है, प्रत्येक अपनी जगह पर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करता है—प्रत्येक चिंगारी के लिए प्रकाश की एक चमक है—और जीवन में परिपक्वता की तलाश करता है। इस प्रकार मैं संतुष्ट हूँगा” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 21)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे बहुत प्रोत्साहित किया और मन ही मन मैं इस कर्तव्य को सँजोना चाहती थी। बाद में संपत्ति की सुरक्षा का कर्तव्य निभाते हुए मैं लगातार अपनी गलतियों और दोषों की समीक्षा करती रही, यह पता लगाती रही कि मैंने कहाँ सिद्धांतों का उल्लंघन किया है और अपनी समस्याओं की पहचान कर तुरंत उन्हें ठीक करती। अगर मैं खुद न पहचान पाती तो परमेश्वर से प्रार्थना करती और उससे उन्हें प्रकट करने को कहती। मैं अपने कार्य के लिए जो भी आवश्यक होता वह करने की पूरी कोशिश करती। मैंने जो यह समझ और परिवर्तन प्राप्त किया है वह सब परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन के कारण है। परमेश्वर का धन्यवाद!