59. क्या मिलजुल कर काम करने का मतलब सामंजस्यपूर्ण सहयोग है?
मैं 2022 की शुरुआत में कई कलीसियाओं के कार्य के लिए जिम्मेदार थी। एक दिन हम में से कुछ लोग काम के बारे में चर्चा कर रहे थे, तभी भाई माइकल ने बताया कि एक कलीसिया ने बहन क्लारा को अगुआ चुना है। यह नाम सुनते ही मेरा दिल धड़क उठा और मैंने सोचा, “जब वह पहले अगुआ थी, तो वह भाई-बहनों के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग नहीं कर पाती थी और हमेशा प्रसिद्धि और लाभ के लिए होड़ करती थी, यहाँ तक कि अलग विचारों वाले लोगों को बाहर भी कर देती थी, जिससे भाई-बहनों को कुछ नुकसान होता था और आखिरकार उसे मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलने की वजह से बरखास्त कर दिया गया था। क्या वह अपने पिछले अपराधों को पहचान पाई है? अगर उसने पश्चात्ताप नहीं किया है, तो उसे फिर से अगुआ चुनना उचित नहीं होगा।” लेकिन फिर मैंने सोचा, “यह कलीसिया मुख्य रूप से माइकल की जिम्मेदारी है। अगर मैंने अपनी चिंताएँ जताईं, तो क्या वह सोचेगा कि मैं उसके लिए चीजें मुश्किल बनाने की कोशिश कर रही हूँ? इससे भविष्य में सहयोग करना मुश्किल हो जाएगा। जाने दो, मैं वैसे भी क्लारा को उतनी अच्छी तरह से नहीं जानती और क्या माइकल को मुझसे बेहतर यह पता नहीं कि वह वास्तव में खुद को जानती है या नहीं? बेहतर होगा कि मैं इस बारे में बात ही न करूँ।” दूसरों को नाराज करने के डर से मैंने चुप रहना बेहतर समझा। हमारी टीम के कुछ अन्य भाई-बहनों ने भी कहा, “भले ही क्लारा के बारे में लोगों की राय कुछ हद तक औसत है, हम उसे कुछ समय प्रशिक्षित होने देकर देख सकते हैं कि चीजें कैसे आगे बढ़ती हैं और अगर वह उपयुक्त न हुई, तो हम उसे बरखास्त कर सकते हैं।” मैंने देखा कि सभी को लगता है कि क्लारा उपयुक्त है और मैं ही एकमात्र इंसान थी जिसकी राय अलग थी, इसलिए मैं कुछ नहीं कहना चाहती थी, मैंने सोचा, “मैं क्लारा की मौजूदा स्थिति से परिचित नहीं हूँ। अगर उसने वास्तव में पश्चात्ताप किया है, तो क्या सभी को लगेगा कि मैं बहुत जल्दी फैसले ले रही हूँ और मेरी मानवता खराब है? इसे भूल जाते हैं, बेहतर होगा कि मैं कुछ न बोलूँ।”
एक शाम एक बहन ने मुझसे पूछा, “क्या क्लारा ने अपने अपराध पहचान लिए हैं? क्या वह अगुआ बनने की शर्तें पूरी करती है? मुझे नहीं पता कि तुम उसे आँकने के लिए किन सिद्धांतों का उपयोग कर रही हो।” सवालों की बौछार ने मुझे चौंका दिया, लेकिन मुझे पता था कि निश्चित रूप से यह परमेश्वर का इरादा था। बहन बोलती गई, “पहले अगुआ होते हुए क्लारा प्रसिद्धि और लाभ के लिए होड़ करती थी, कलीसिया के काम को गंभीर रूप से अस्त-व्यस्त करती थी और सभाओं के दौरान उसकी संगति में कोई आत्म-चिंतन नहीं दिखता था। मुझे चिंता है कि अब जब वह फिर से अगुआ चुन ली गई है, तो कहीं उसकी पुरानी आदतें न लौट आएँ जो कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाएँगी। क्या हमें उसके व्यवहार पर करीब से नजर नहीं रखनी चाहिए?” बहन की चिंताएँ सुनकर मुझे बेचैनी महसूस हुई। सच तो यह था कि मुझे भी यही चिंताएँ थीं, लेकिन मुझे डर था कि माइकल को लगेगा कि मैं उसके लिए चीजें मुश्किल बनाने की कोशिश कर रही हूँ और चूँकि अन्य सभी भाई-बहन सहमत थे, तो मैं किसी को नाराज नहीं करना चाहती थी, इसलिए मैं अन्य सभी के साथ चली। मैं अगुआ के चुनाव जैसे महत्वपूर्ण मामले में बेहद लापरवाह और गैर-जिम्मेदार हो गई थी! इस विचार ने मुझे बहुत दोषी महसूस कराया। उस रात मैं करवटें बदलती रही और सो नहीं सकी। अगली सुबह मैंने इस मामले के बारे में अपनी टीम के कुछ भाई-बहनों से बात की। यह सुनकर माइकल ने किसी जानकार व्यक्ति के साथ हालात पर और विस्तार से तहकीकात की। अंत में सभी सहमत हुए कि क्लारा ने अपने अपराध नहीं पहचाने थे और चूँकि उसने सत्य स्वीकार नहीं किया था, तो वह अगुआ बनने के लिए उपयुक्त नहीं थी और इसलिए क्लारा को बरखास्त कर दिया गया। इसके बाद मुझे ऋणी और दोषी होने की और भी तीव्र भावना महसूस हुई, मैंने सोचा, “क्लारा के अगुआ होने के इस मामले में मेरी स्पष्ट रूप से एक अलग राय थी, लेकिन मैंने इसे व्यक्त नहीं किया था और बस बाकी सभी के साथ चली गई थी। मैं वास्तव में गैर-जिम्मेदार थी!” मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “कुछ लोग खुशामदी होते हैं जो दूसरों को बुरा काम करते हुए देखकर उनकी शिकायत नहीं करते या उन्हें उजागर नहीं करते हैं। उनके साथ मेलजोल करना आसान होता है और वे आसानी से प्रभावित हो जाते हैं। वे कलीसिया के कार्य में बाधा डालने वाले झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों की आज्ञा का पालन करते हैं, किसी को नाराज नहीं करते, और हमेशा मध्यम-मार्ग अपनाते हैं, न तो दाएँ झुकते हैं और न ही बाएँ। देखने में ऐसा लगता है कि उनमें मानवता है—वे बहुत दूर नहीं जाते और उनके पास थोड़ी सी अंतरात्मा और विवेक होता है—लेकिन ज्यादातर समय वे चुप ही रहते हैं और अपने विचारों को व्यक्त नहीं करते। तुम ऐसे लोगों के बारे में क्या कहोगे? क्या वे चापलूस और कपटी नहीं हैं? कपटी लोग ऐसे ही होते हैं। जब कुछ होता है, तो हो सकता है कि वे कुछ न बोलें या हलकेपन से कोई विचार व्यक्त न करें, बल्कि हमेशा चुप ही रहें। इसका यह मतलब नहीं कि ऐसे लोग सही हैं; इसके विपरीत, यह दर्शाता है कि वह भली-भाँति छद्मवेश धारण किए हुए है, कि उसने बातें छिपा रखी हैं, कि उसकी धूर्तता गहरी है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना हृदय परमेश्वर को देकर सत्य प्राप्त किया जा सकता है)। “अच्छी मानवता होने का कोई मानक अवश्य होना चाहिए। इसमें संयम का मार्ग अपनाना, सिद्धांतों से चिपके न रहना, किसी को भी नाराज न करने का प्रयत्न करना, जहाँ भी जाओ वहीं चापलूसी करके कृपापात्र बनना, जिससे भी मिलो उससे चिकनी-चुपड़ी बातें करना और सभी से अपने बारे में अच्छी बातें करवाना शामिल नहीं है। यह मानक नहीं है। तो मानक क्या है? यह परमेश्वर और सत्य के प्रति समर्पित होने में सक्षम होना है। यह अपने कर्तव्य को और सभी तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों को सिद्धांतों के साथ और जिम्मेदारी की भावना से लेना है। सब इसे स्पष्ट ढंग से देख सकते हैं; इसे लेकर सभी अपने हृदय में स्पष्ट हैं। इतना ही नहीं, परमेश्वर लोगों के हृदयों की जाँच-पड़ताल करता है और उनमें से हर एक की स्थिति जानता है; चाहे वे जो भी हों, परमेश्वर को कोई मूर्ख नहीं बना सकता। कुछ लोग हमेशा डींग हाँकते हैं कि वे अच्छी मानवता से युक्त हैं, कि वे कभी दूसरों के बारे में बुरा नहीं बोलते, कभी किसी और के हितों को नुकसान नहीं पहुँचाते, और वे यह दावा करते हैं कि उन्होंने कभी अन्य लोगों की संपत्ति की लालसा नहीं की। जब हितों को लेकर विवाद होता है, तब वे दूसरों का फायदा उठाने के बजाय नुकसान तक उठाना पसंद करते हैं, और बाकी सभी सोचते हैं कि वे अच्छे लोग हैं। परंतु, परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाते समय, वे कुटिल और चालाक होते हैं, हमेशा स्वयं अपने हित में षड्यंत्र करते हैं। वे कभी भी परमेश्वर के घर के हितों के बारे में नहीं सोचते, वे कभी उन चीजों को अत्यावश्यक नहीं मानते हैं जिन्हें परमेश्वर अत्यावश्यक मानता है या उस तरह नहीं सोचते हैं जिस तरह परमेश्वर सोचता है, और वे कभी अपने हितों को एक तरफ नहीं रख सकते ताकि अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकें। वे कभी अपने हितों का परित्याग नहीं करते। यहाँ तक कि जब वे बुरे लोगों को बुरे कर्म करते हुए देखते हैं, वे उन्हें उजागर नहीं करते; उनके रत्ती भर भी कोई सिद्धांत नहीं हैं। यह किस प्रकार की मानवता है? यह अच्छी मानवता नहीं है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना हृदय परमेश्वर को देकर सत्य प्राप्त किया जा सकता है)। जब मैंने परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में खुद को देखा तो मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई। परमेश्वर कहता है कि अच्छी मानवता का मानक परमेश्वर और दूसरों के प्रति ईमानदार दिल रखना, चीजें करने में जिम्मेदार होना और कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचते हुए देखकर उसे रोकने के लिए खड़े होने और बोलने का साहस रखना है। यही सच्ची मानवता और ईमानदार व्यवहार है। अगर कोई समस्या देखता है पर अपनी राय नहीं देता, चुप रहता है और किसी को नाराज नहीं करता, तो वह भले ही समझदार लगे, लेकिन वास्तव में वह ऐसा व्यक्ति है जो षडयंत्रों से भरा है, धूर्त और धोखेबाज है। क्लारा के मामले के बारे में आत्म-चिंतन करते हुए मेरे दिल में स्पष्ट रूप से सरोकार थे, मुझे चिंता थी कि उसने अपने पिछले अपराधों पर विचार नहीं किया या उन्हें पहचाना नहीं था और अब जब वह फिर से चुनी गई है, तो उसकी पुरानी आदतें फिर से लौट सकती हैं, जो कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश के लिए हानिकारक होगा, लेकिन मुझे लोगों को नाराज करने और अपने सहकर्मियों द्वारा गलत समझे जाने का डर था। मुझे यह भी चिंता थी कि अगर मेरी राय गलत हुई, तो हर कोई कहेगा कि मैं बहुत जल्दी निर्णय ले लेती हूँ और मेरी मानवता खराब है, इसलिए मैं कुछ नहीं बोली। लोगों के दिलों में अपनी अच्छी छवि बनाने और अपने सहकर्मियों के साथ सामंजस्यपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए मैंने चुप रहने और खुशामदी होने का विकल्प चुना, फिर चाहे इससे कलीसिया के कार्य को नुकसान ही क्यों न हो। मेरी मानवता सचमुच धोखेबाज और नीच है! मैंने इतना अच्छा दिखावा किया था कि मेरे आसपास भाई-बहनों को मेरे असली विचार पता ही नहीं चले, यहाँ तक कि वे सोचते थे कि मेरे साथ घुलना-मिलना आसान है, मैं कभी दूसरों से विवाद नहीं करती और मेरी मानवता अच्छी है। लेकिन जो कुछ मेरे दिल में है, परमेश्वर उसकी पड़ताल करता है। मैं कलीसिया के कार्य को कायम नहीं रख रही थी और इसके बजाय मैंने हमेशा दूसरों के साथ रिश्ते बनाए रखना पसंद किया। मैं किस तरह से सत्य का अभ्यास कर रही थी या अपना कर्तव्य कर रही थी? मैं परमेश्वर के लिए कितनी घृणित थी!
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “अगर परमेश्वर के साथ तुम्हारा सामान्य संबंध नहीं है, तो चाहे तुम दूसरों के साथ संबंध बनाए रखने के लिए कुछ भी कर लो, चाहे तुम जितनी भी मेहनत कर लो या जितनी भी ऊर्जा लगा दो, वह सब इंसानी सांसारिक आचरण के फलसफे से संबंधित ही होगा। तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार सामान्य पारस्परिक संबंध स्थापित करने के बजाय लोगों के बीच अपनी स्थिति सुरक्षित कर रहे होगे और इंसानी दृष्टिकोणों और इंसानी फलसफों के जरिये उनकी प्रशंसा प्राप्त कर रहे होगे। अगर तुम लोगों के साथ अपने संबंधों पर ध्यान केंद्रित नहीं करते, और इसके बजाय परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध बनाए रखते हो, अगर तुम अपना हृदय परमेश्वर को देने और उसके प्रति समर्पण करना सीखने के लिए तैयार हो, तो तुम्हारे पारस्परिक संबंध स्वाभाविक रूप से सामान्य हो जाएँगे। तब ये संबंध देह पर नहीं, बल्कि परमेश्वर के प्रेम की बुनियाद पर निर्मित होंगे। दूसरे लोगों के साथ तुम्हारे लगभग कोई दैहिक संपर्क नहीं होंगे, बल्कि तुम्हारे बीच आध्यात्मिक स्तर पर संगति और आपसी प्रेम, सुख और पोषण होगा। यह सब परमेश्वर को संतुष्ट करने की बुनियाद पर किया जाता है—ये संबंध इंसानी सांसारिक आचरण के फलसफों के जरिये नहीं बनाए रखे जाते, ये स्वाभाविक रूप से तब बनते हैं, जब व्यक्ति परमेश्वर के लिए दायित्व वहन करता है। उनके लिए तुम्हारी ओर से किसी कृत्रिम, इंसानी प्रयास की आवश्यकता नहीं होती, तुम्हें सिर्फ परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने की आवश्यकता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित करना बहुत महत्वपूर्ण है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि लोगों के साथ सामान्य संबंध रखने के लिए किसी इंसान को पहले परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित करना चाहिए। व्यक्ति को अपना हृदय परमेश्वर को समर्पित करना चाहिए, न कि सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफों के आधार पर दूसरों के साथ अपने दैहिक संबंध बनाए रखने चाहिए, न ही दूसरों के दिलों में अपने रुतबे या छवि को लेकर विचार करना चाहिए; उसे अपना कर्तव्य सच्चे दिल से करना चाहिए और सभी चीजों में सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। इस तरह भाई-बहनों के साथ व्यक्ति के संबंध स्वाभाविक रूप से सामान्य हो जाएँगे। सांसारिक आचरण के फलसफों पर निर्भर होकर बने संबंध सामान्य संबंध नहीं होते और वे परमेश्वर को घृणित लगते हैं। ऐसे संबंध आमतौर पर लंबे समय तक नहीं चलते। क्लारा के मामले पर विचार करते हुए मैंने गैर-जिम्मेदाराना तरीके से भीड़ का अनुसरण किया, “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है” और “दूसरों की भावनाओं और सूझ-बूझ का ध्यान रखते हुए अच्छी बातें कहो, क्योंकि निष्कपट होना दूसरों को खिझाता है” के शैतानी फलसफों के अनुसार जीती रही। मेरा मानना था कि इस तरह लोगों के साथ बातचीत करके मैं विवाद से बच सकती हूँ और संबंध बनाए रख सकती हूँ। मुझे लगा कि इससे सामंजस्यपूर्ण सहयोग हो सकता है। लेकिन वास्तव में सच इसके बिल्कुल उलट था। सांसारिक आचरण के इन फलसफों के अनुसार जीने में मैं लगातार धूर्त और धोखेबाज होती गई। जब चीजें घटित हुईं तो मेरी प्राथमिकता अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को बचाने और दूसरों के साथ अपने संबंध बनाए रखने की रही। जहाँ यह अस्थायी रूप से सद्भाव बनाए रख सकता है, वहीं इस प्रकार के सहयोग में कोई ईमानदारी नहीं होती और यह आपसी सहयोग और संयम हासिल करने में विफल रहता है। कलीसिया ने इस उम्मीद के साथ हमें अपने कर्तव्यों में सहयोग करने की व्यवस्था की थी कि हम एक-दूसरे का पर्यवेक्षण करेंगे और महत्वपूर्ण मामलों में एक-दूसरे पर नजर रखेंगे। लेकिन मैं गैर-जिम्मेदार थी, लोगों की चापलूसी कर रही थी, समस्याएँ देखकर भी उन्हें सामने नहीं ला रही थी और इस तरह कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचा रही थी। मैं बहुत ही गैर-जिम्मेदार थी!
बाद में मैं खोजती रही और खुद से पूछती रही, “वास्तव में सच्चा सामंजस्यपूर्ण सहयोग क्या है?” एक बहन ने मुझे परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश भेजे : “अगर तुम अच्छी तरह से अपने कर्तव्य निभाना और परमेश्वर के इरादे पूरे करना चाहते हो, तो तुम्हें पहले दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्वक कार्य करना सीखना चाहिए। अपने भाई-बहनों के साथ सहयोग करते समय तुम्हें निम्नलिखित बातों पर विचार करना चाहिए : ‘सामंजस्य क्या है? क्या मेरी वाणी उनके साथ सामंजस्यपूर्ण है? क्या मेरे विचार उनके साथ सामंजस्यपूर्ण हैं? मैं जिस तरह से काम करता हूँ, क्या वह उनके साथ सामंजस्यपूर्ण है?’ विचार करो कि सामंजस्यपूर्वक कैसे सहयोग करें। कई बार सामंजस्य का अर्थ धैर्य और सहनशीलता होता है, किंतु इसका अर्थ अपने विचारों पर दृढ़ और सिद्धांतों पर अडिग रहना भी होता है। सामंजस्य का अर्थ चीजें आसान बनाने के लिए सिद्धांतों से समझौता करना, या ‘खुशामदी’ बनने की कोशिश करना, या संतुलन के मार्ग पर टिके रहना नहीं है—और किसी की ठकुरसुहाती करना तो इसका अर्थ निश्चित रूप से नहीं है। ये सिद्धांत हैं। एक बार तुमने इन सिद्धांतों को अपना लिया, तो तुम अनजाने ही परमेश्वर के इरादे के अनुसार बोलोगे, कार्य करोगे और सत्य की वास्तविकता जिओगे, और इस तरह एकता प्राप्त करना आसान है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सामंजस्यपूर्ण सहयोग के बारे में)। “कुछ लोग कहेंगे : ‘तुम कहते हो कि मैं किसी के भी साथ सहयोग करने में सक्षम नहीं हूँ—अरे, मेरा एक साझेदार है! वह मेरे साथ अच्छा सहयोग करता है : मैं जहाँ भी जाता हूँ वह आता है; मैं जो भी करता हूँ वह भी वही करता है; वह वहीं जाता है जहाँ मैं उसे भेजता हूँ, वही करता है जो मैं उससे करवाता हूँ, जैसे भी करवाता हूँ।’ क्या सहयोग का अर्थ यही है? नहीं। इसे नौकर होना कहा जाता है। नौकर तुम्हारा कहा करता है—क्या यह सहयोग है? स्पष्ट तौर पर ऐसे लोग प्यादे होते हैं, उनकी अपनी राय होना तो दूर की बात है, उनके पास कोई विचार या दृष्टिकोण नहीं होते। और इससे भी आगे, उनकी सोच लोगों को खुश करने वाली होती है। वे अपने किसी भी काम में सतर्क नहीं रहते, बल्कि अनमने ढंग से खानापूर्ति करते रहते हैं, और वे परमेश्वर के घर के हितों का मान नहीं रखते हैं। इस प्रकार के सहयोग से कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होगा? वे जिनके भी साथ साझेदारी करते हैं, वे सिर्फ उनका कहा ही करते हैं, हमेशा प्यादे बने रहते हैं। वे दूसरों की बातों पर ध्यान देते हैं और दूसरे उनसे जो करने को कहें वही करते हैं। यह सहयोग नहीं है। सहयोग क्या होता है? तुम्हें एक-दूसरे के साथ चीजों पर विचार-विमर्श करने और अपने विचार और राय व्यक्त करने में सक्षम होना चाहिए; तुम्हें एक-दूसरे का पूरक बनना चाहिए, परस्पर निगरानी करनी चाहिए, एक-दूसरे से माँगना चाहिए, एक-दूसरे से पूछताछ करनी चाहिए, और एक-दूसरे को प्रोत्साहित करना चाहिए। सामंजस्य के साथ सहयोग करना यही होता है। उदहारण के लिए मान लो, तुमने अपनी इच्छा के अनुसार किसी चीज को सँभाला, और किसी ने कहा, ‘तुमने यह गलत किया, पूरी तरह से सिद्धांतों के विरुद्ध। तुमने सत्य को खोजे बिना, जैसे चाहे वैसे इसे क्यों सँभाला?’ जवाब में तुम कहते हो, ‘बिल्कुल सही—मुझे खुशी है कि तुमने मुझे सचेत किया! यदि तुमने नहीं चेताया होता, तो तबाही मच गई होती!’ यही है एक-दूसरे को प्रोत्साहित करना। तो फिर एक-दूसरे की निगरानी करना क्या होता है? सबका स्वभाव भ्रष्ट होता है, और हो सकता है कि वे परमेश्वर के घर के हितों की नहीं, बल्कि केवल अपने रुतबे और गौरव की सुरक्षा करते हुए अपना कर्तव्य निभाने में लापरवाह हो जाएँ। प्रत्येक व्यक्ति में ऐसी अवस्थाएँ होती हैं। यदि तुम यह जान जाते हो कि किसी व्यक्ति में कोई समस्या है, तो तुम्हें उसके साथ संगति करने की पहल करनी चाहिए, उसे सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाने की याद दिलानी चाहिए, और साथ ही इसे अपने लिए एक चेतावनी के रूप में लेना चाहिए। यही है पारस्परिक निगरानी। पारस्परिक निगरानी से कौन-सा कार्य सिद्ध होता है? इसका उद्देश्य परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना होता है, और साथ ही लोगों को गलत मार्ग पर कदम रखने से रोकना होता है। एक-दूसरे को प्रोत्साहन देने और एक-दूसरे की निगरानी करने के अलावा सहयोग का एक और कार्य होता है : एक-दूसरे से पूछताछ करना” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों ने मेरी सच्ची स्थिति को उजागर कर दिया। अक्सर भाई-बहनों के साथ सहयोग करते समय मैं एक कठपुतली की तरह थी, अपने विचार व्यक्त नहीं करती थी और पर्यवेक्षक की कोई भूमिका नहीं निभाती थी। सच्चे सहयोग में एक-दूसरे को अनुस्मारक देना और पर्यवेक्षण शामिल होता है। चूँकि हम सभी में कई भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, इसलिए हम अपनी मर्जी चलाने और अपने कर्तव्यों में मनमानी करने के लिए उत्तरदायी होते हैं। अगर हम एक-दूसरे के साथ अपने सहयोग में आपसी मार्गदर्शन, मदद या काट-छाँट कर सकते हैं, तो हम काम को नुकसान पहुँचाने और गलत रास्ते पर जाने से बच सकते हैं। इसके अलावा चूँकि हम सत्य को पूरी तरह से नहीं समझते और हम सभी में कई कमियाँ और खामियाँ होती हैं, इसलिए कई मुद्दों पर व्यापक रूप से विचार नहीं किया जा सकता; कभी-कभी भागीदारों या सहकर्मियों से मिले अनुस्मारक समय पर भटकावों को ठीक कर सकते हैं और काम में त्रुटियों को कम कर सकते हैं। आपसी पर्यवेक्षण और अनुस्मारक वाकई बहुत महत्वपूर्ण होते हैं! लेकिन मैंने हमेशा यही सोचा कि सामंजस्यपूर्ण सहयोग का मतलब है शांतिपूर्वक साथ चलना और मेरा मानना था कि दूसरों की कमियाँ बताना या सुझाव देना लोगों को नाराज करेगा। असल में चीजों को लेकर मेरा परिप्रेक्ष्य विकृत था! वास्तव में सामंजस्यपूर्ण सहयोग का मतलब यह नहीं है कि सभी लोग साथ मिलकर चलें और कोई नाराज न हो, न ही इसका मतलब यह है कि चीजों को नजरअंदाज किया जाए और लोगों की चापलूसी की जाए। इसका मतलब है सिद्धांतों पर टिके रहना, दृढ़ रहना और न्याय की भावना रखना। जब हम अपने साथी भाई-बहनों को सिद्धांतों का उल्लंघन करते देखते हैं, तो हमें उन्हें याद दिलाना चाहिए, उनकी मदद करनी चाहिए या उनकी काट-छाँट करनी चाहिए। इसका मतलब दूसरों के लिए चीजें मुश्किल बनाना या निजी शिकायतें करना नहीं होता, बल्कि सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य करना होता है और यह कलीसिया के कार्य को बनाए रखने के लिए किया जाने वाला न्याय का कार्य है। अपने भ्रामक विचारों के कारण मैंने समस्याएँ देखीं लेकिन उन्हें सामने नहीं लाई, उन्हें अनदेखा कर दिया। मेरे भाई-बहनों के साथ यह सामंजस्यपूर्ण सहयोग कैसे था? यह सिर्फ सांसारिक आचरण के फलसफों के अनुसार जीना और अपने कर्तव्यों में गैर-जिम्मेदार होना था। ऐसा सहयोग किसी भी तरह की पर्यवेक्षी भूमिका निभाने में विफल रहा। इसे ध्यान में रखते हुए मुझे खुद से थोड़ी घृणा महसूस होने लगी।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और परमेश्वर की अपेक्षाओं के बारे में कुछ समझ हासिल की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब तुम्हारे अभ्यास का मार्ग सही होगा, और तुम सही दिशा में आगे बढ़ोगे, तो तुम्हारा भविष्य सुंदर और उज्ज्वल होगा। इस तरह तुम अपने दिल में शांति के साथ रहोगे, तुम्हारी आत्मा को पोषण मिलेगा, और तुम पूर्ण और संतुष्ट महसूस करोगे। अगर तुम देह-सुख के बंधनों से मुक्त नहीं हो सकते, अगर तुम लगातार भावनाओं, व्यक्तिगत हितों और शैतानी फलसफों के आगे बेबस होते हो, गुप्त तरीके से बोलते और कार्य करते हो, और हमेशा परछाइयों में छिपते हो, तो तुम शैतान की शक्ति के अधीन रहते हो। लेकिन अगर तुम सत्य समझते हो, देह-सुख के बंधनों से मुक्त हो जाते हो और सत्य का अभ्यास करते हो, तो तुम धीरे-धीरे मानवीय समानता प्राप्त कर लोगे। तुम अपने वचनों और कर्मों में स्पष्ट और सीधे होगे, और तुम अपनी राय, विचार और अपने द्वारा की गई गलतियाँ प्रकट करने में सक्षम होगे, और सभी को उन्हें स्पष्ट रूप से देखने दोगे। अंत में लोग तुम्हें एक पारदर्शी व्यक्ति के रूप में पहचानेंगे। पारदर्शी व्यक्ति कौन होता है? यह वह व्यक्ति होता है, जो असाधारण ईमानदारी से बोलता है, जिसकी बातें सभी सच मानते हैं। अगर वे बेइरादा झूठ बोलते या कुछ गलत कहते भी हैं, तो भी लोग यह जानते हुए कि यह बेइरादा था, उन्हें माफ कर पाते हैं। अगर उन्हें एहसास होता है कि उन्होंने झूठ बोला है या कुछ गलत कहा है, तो वे माफी माँगकर गलती सुधार लेते हैं। यह होता है पारदर्शी व्यक्ति। ऐसे व्यक्ति को सभी लोग पसंद करते हैं और उस पर भरोसा करते हैं। परमेश्वर और दूसरों का भरोसा हासिल करने के लिए तुम्हें इस स्तर तक पहुँचने की आवश्यकता है। यह कोई आसान काम नहीं है—यह गरिमा का वह उच्चतम स्तर है, जो किसी व्यक्ति में हो सकता है। ऐसे व्यक्ति में आत्मसम्मान होता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। परमेश्वर चाहता है कि हम अपनी कथनी और करनी में बेबाक रहें और सीधी बात करें, दूसरों के साथ खुलकर अपनी सोच और विचारों को साझा करें, एक साथ मामलों पर चर्चा करें और ईमानदार लोग बनें। ऐसे लोगों से परमेश्वर प्रेम करता है और वे सम्मान के साथ जीते हैं। जब हमने अगली बार मामलों पर चर्चा की, तो मैंने सजगता से अपने विचारों और दृष्टिकोणों को उन भाई-बहनों के साथ खुलकर संगति करने के लिए सामने रखा, जिनके साथ मैं सहयोग कर रही थी। मैंने अब चीजों को नहीं छिपाया, उन्हें गुप्त नहीं रखा या लोगों की चापलूसी करने की कोशिश नहीं की। भले ही मेरे विचार पूरी तरह से तैयार न हुए हों, फिर भी मैं उन्हें आगे रखूँगी। अगर मेरे विचार गलत होंगे, तो मैं अपने अभिमान को अलग रखूँगी और दूसरों की राय स्वीकार करूँगी। इस तरह से अभ्यास करने से मेरे दिल को शांति और आश्वासन मिला।
एक दिन हम चर्चा कर रहे थे कि ऐनी नाम की एक बहन को वापस कलीसिया में लिया जाए या नहीं। ऐनी का स्वभाव अहंकारी था और उसने लगातार सत्य स्वीकारने से इनकार किया था। अगुआओं ने उसके साथ कई बार संगति की थी, पर उसने कभी आत्म-चिंतन नहीं किया या खुद को जानने की कोशिश नहीं की। इसके बजाय उसने भाई-बहनों के सामने अगुआओं की आलोचना करके कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त करके चीजों को और भी बदतर बनाया था। अंततः उसे आत्म-चिंतन करने के लिए अलग-थलग कर दिया गया। उसके बाद उसने अपना काम करना जारी रखा और हाल ही में वह सुसमाचार प्रचार में काफी प्रभावी रही थी। कई सहकर्मी ऐनी को वापस कलीसिया में स्वीकारने के लिए सहमत थे, लेकिन मैं यह सोचकर झिझक रही थी, “भले ही ऐनी को सुसमाचार प्रचार में कुछ सफलता मिली है, लेकिन उसका स्वभाव काफी दुर्भावनापूर्ण है और वह ऐसी इंसान नहीं है जो सत्य स्वीकारे। उसने अपने पिछले बुरे कर्मों को सही मायने में नहीं पहचाना है, न ही उसमें पश्चात्ताप के कोई स्पष्ट संकेत दिखे हैं। सुसमाचार प्रचार में उसकी क्षणिक सफलता के कारण उसे वापस कलीसिया में स्वीकारना उचित नहीं लगता।” लेकिन फिर मैंने सोचा, “कई सहकर्मी पहले ही सहमत हो चुके हैं और अगर मैं ही अकेली असहमत हूँ, तो हर कोई क्या सोचेगा? क्या वे सोचेंगे कि मेरी राय हमेशा अलग होती है और मेरे साथ तालमेल बिठाना बहुत मुश्किल है? चूँकि हर कोई सहमत है, इसलिए शायद मुझे कुछ नहीं कहना चाहिए।” लेकिन फिर मुझे अचानक क्लारा के साथ वाले हालात की याद आई, जहाँ मैं गैर-जिम्मेदाराना तरीके से भीड़ की मान गई थी और मुझमें सत्य सिद्धांतों के साथ खड़े होने का साहस नहीं था, जिसके परिणामस्वरूप कलीसिया के कार्य में देरी हुई। मुझे थोड़ा डर लगा, इसलिए मैंने जल्दी से परमेश्वर से प्रार्थना की और कहा, “परमेश्वर, सभी ने ऐनी को वापस कलीसिया में लेने पर सहमति जताई है, लेकिन मैं अभी भी इसके बारे में असहज महसूस कर रही हूँ। मैं इस बार स्पष्टता के बिना जल्दबाजी में कोई निर्णय नहीं लेना चाहती। मैं सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहती हूँ। मुझे प्रबुद्ध करो और मेरा मार्गदर्शन करो।” प्रार्थना करने के बाद मैंने लोगों को वापस कलीसिया में स्वीकार करने के सिद्धांतों को देखा और सिद्धांतों में कहा गया था : जो लोग लगातार अहंकारी, दंभी होते हैं और कलह के बीज बोते हैं, उन्हें बचाया नहीं जा सकता। बुरे लोग हमेशा बुरे ही रहेंगे और सच्चा पश्चात्ताप नहीं कर सकते। जो लोग कलीसिया में लौटते हैं, उन्हें कलीसिया में बिल्कुल भी बाधा नहीं डालनी चाहिए और उन्हें बहुमत के साथ मिलकर काम करना चाहिए। केवल ऐसे लोग ही कलीसिया में वापस लिए जाने के लिए उपयुक्त हैं। जो लोग कलीसिया के लिए हानिकारक और बेकार हैं, उन्हें वापस नहीं लिया जाना चाहिए। ऐनी के व्यवहार से इसकी तुलना करते हुए मैंने सोचा कि उसका स्वभाव कितना अहंकारी था, कैसे वह लगातार सत्य स्वीकारने से इनकार करती थी और चाहे भाई-बहन उसके साथ कितनी भी संगति क्यों न करें, वह न तो सोचती थी और न ही पश्चात्ताप करती थी। भले ही उसे सुसमाचार प्रचार में कुछ क्षणिक सफलता मिली हो, लेकिन वह सत्य स्वीकारने वाली इंसान नहीं थी और अगर कोई बात उसके हितों को प्रभावित करती, तो उसकी पुरानी आदतें लौट सकती थीं और कलीसिया के कार्य को लगातार बाधित कर सकती थीं। ऐसे व्यक्ति को कलीसिया में वापस लेना उपयुक्त नहीं था। इसके बाद मैंने अपने विचार व्यक्त कर दिए और कई सहकर्मी मेरी राय से सहमत हुए और अंत में ऐनी को कलीसिया में वापस स्वीकार नहीं किया गया। यह परिणाम देखकर मुझे शांति महसूस हुई और इस तरह से अपना कर्तव्य निभाने में मुझे भरोसा हुआ।
इस अनुभव ने मुझे यह समझने में मदद की कि अपने कर्तव्य में ईमानदार दिल रखना कितना अहम है। अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार रवैया रखने और दूसरों को नाराज करने से डरे बिना सत्य का अभ्यास करने से कलीसिया के कार्य की रक्षा होती है।