60. बीमारी के बीच समर्पण करना सीखना
बचपन से ही मेरा शरीर कमजोर था और मैं हमेशा बीमार रहती थी, इससे मुझे शरीर स्वस्थ रखने की चाहत रहती थी। मार्च 2012 में मुझे अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकारने का सौभाग्य मिला। कुछ महीने बाद मैंने देखा कि मुझे पहले की तरह सर्दी या बुखार नहीं हो रहा था; यहाँ तक कि मेरे माइग्रेन और सर्वाइकल स्पोंडिलोसिस में भी सुधार हुआ था। मेरा दिल परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता से भर गया और मैं चीजों को त्यागने और खुद को खपाने में और भी अधिक प्रेरित हो गई। उस समय मैं कलीसिया अगुआ थी और कलीसिया का काम अच्छी तरह से करने के लिए मैंने अपने परिवार की रुकावटें और विरोध नजरअंदाज करके सुबह से शाम तक अपना कर्तव्य करने के लिए अथक परिश्रम करती थी।
मई 2020 में एक दिन मुझे अपनी गर्दन में कुछ परेशानी महसूस हुई। जब मैं इसे एक तरफ से दूसरी तरफ घुमाती तो यह अकड़ जाती थी और “चरमराहट” जैसी आवाज आती थी। थोड़ी देर बैठने के बाद मुझे चक्कर आने लगता था, मेरे दाहिने हाथ में दर्द रहने लगा और सुन्न होने लगा, जिससे आसानी से चीजें पकड़ना मुश्किल हो गया। शुरू में मैंने इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया, सोचा कि जब से मैंने परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू किया है, उसने न केवल मेरी पिछली बीमारियों को दूर किया है, बल्कि उसने मेरे पूरे शरीर को भी बेहतर बनाया है। चूँकि मैं अब अपने कर्तव्य के लिए पूरा समय दे रही थी, मुझे विश्वास था कि परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा और मेरी हालत और खराब नहीं होने देगा। मैंने सोचा कि अपनी सामान्य बैठने की मुद्रा ठीक करने और ठीक से व्यायाम करने से कोई बड़ी मुश्किल नहीं होगी। लेकिन मेरी उम्मीद के विपरीत, दो महीने बाद भी न केवल मेरी सर्वाइकल स्पोंडिलोसिस में सुधार नहीं हुआ बल्कि यह और भी खराब हो गई। मेरे सिर में अक्सर दर्द होता था और चक्कर आते थे, मेरी आँखें सूखी और असहज रहती थीं, मेरे दाहिने कंधे में दर्द रहता था और वह सुन्न पड़ जाता था, जिससे चॉपस्टिक इस्तेमाल करना भी मुश्किल हो जाता था। मुझे चिंता होने लगी कि कहीं मेरी हालत और खराब न हो जाए। अगर मेरे शरीर के एक हिस्से ने काम करना बंद कर दिया और लकवाग्रस्त हो गया, तो मैं अपना कर्तव्य कैसे निभाऊँगी? क्या इसका मतलब यह नहीं कि मैं परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने का अपना मौका गँवा दूँगी? फिर मैंने एक बहन के बारे में सोचा जिसके साथ मैं काम करती थी, जिसे अपना कर्तव्य करना छोड़कर इलाज के लिए घर लौटना पड़ा था क्योंकि उसका सर्वाइकल स्पोंडिलोसिस गंभीर हो गया था। लेकिन अपना कर्तव्य करने के लिए घर छोड़ने के कुछ ही समय बाद मुझे एक यहूदा ने धोखा दे दिया। अगर मेरी हालत इतनी गंभीर हो गई कि मैं अपना कर्तव्य न कर पाई, तो मैं क्या करूँगी क्योंकि मैं घर नहीं जा सकती और मुझमें इलाज के लिए अस्पताल जाने की हिम्मत नहीं है? मैंने इस बारे में जितना अधिक सोचा, मैं उतनी ही परेशान हुई और यह सोचकर इस बारे में बड़बड़ाना शुरू कर दिया, “पिछले कुछ वर्षों में जब से मैंने परमेश्वर में विश्वास रखा है, मैंने अपना कर्तव्य करने के लिए परिवार और करियर त्यागा है और काफी कठिनाइयाँ झेली हैं। परमेश्वर मेरी देखभाल और सुरक्षा क्यों नहीं करता? उसने मुझे फिर से बीमारी से पीड़ित क्यों होने दिया?” मैंने सोचा, “भले ही मैं इलाज के लिए अस्पताल नहीं जा सकती लेकिन मैं बस चुपचाप बैठकर अपनी हालत खराब नहीं होने दे सकती! मुझे अपना इलाज करने का कोई तरीका ढूँढ़ना होगा। अन्यथा जैसे-जैसे मेरी हालत खराब होती जाएगी, न केवल मुझे और अधिक पीड़ा होगी बल्कि मैं अपना कर्तव्य भी नहीं निभा पाऊँगी और फिर क्या होगा?” इसके बाद मैंने अपनी बीमारी के इलाज के विभिन्न तरीकों के बारे में सोचना शुरू किया। कपिंग[क], गुआ शा[ख] और मॉक्सीबस्टन[ग] के तरीके आजमाने के अलावा मैंने सर्वाइकल स्पोंडिलोसिस के इलाज के लिए हर जगह उपाय खोजे। उस दौरान मेरा मन पूरी तरह से इस बात पर केंद्रित था कि कैसे मैं अपनी बीमारी ठीक करूँ और मुझे अपने कर्तव्य के लिए कोई जिम्मेदारी महसूस नहीं होती थी। मैं कई कार्यों का जायजा लेने में विफल रही और जब काम ज्यादा था और देर रात तक जागकर काम करने की जरूरत थी, तो मैंने बाहरी तौर पर अपना कर्तव्य किया लेकिन अंदर से प्रतिरोध महसूस किया, मुझे डर था कि अधिक मेहनत करने से मेरी हालत खराब हो जाएगी।
मई 2022 में एक सुबह जब मैं नाश्ते के लिए सीढ़ियों से नीचे गई, तो मुझे अचानक अपने दाहिने पैर और दाहिने कंधे में एक अलग-सा भारीपन महसूस हुआ। मेरा दाहिना पैर इतना कमजोर लग रहा था कि मैं उसे मुश्किल से उठा पा रही थी और मुझे चलते समय उसे घसीटना पड़ रहा था। एक पल को मैं बेचैन हो गई, सोचने लगी कि क्या सच में मुझे एक तरफ का लकवा होने वाला है। मैं यह सोचकर बहुत डर गई कि “अगर मैं लकवाग्रस्त हो गई, तो मैं वाकई अपना कर्तव्य करने में असमर्थ हो जाऊँगी और फिर उद्धार और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने की मेरी उम्मीदों का क्या होगा? क्या मेरे वर्षों के त्याग और प्रयास व्यर्थ नहीं चले जाएँगे?” जितना मैंने इस बारे में सोचा, उतनी ही मैं दुखी हो गई। अपने आसपास कुछ भाई-बहनों की अच्छी सेहत देखकर मुझे विशेष रूप से ईर्ष्या और जलन महसूस हुई, मैंने सोचा, “इन बीते वर्षों में जब से मैंने परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू किया है, मैंने भी उतना ही त्याग किया और खुद को खपाया है, जितना उन्होंने किया है। परमेश्वर ने उन्हें तो स्वस्थ शरीर दिया है, लेकिन मुझे क्यों नहीं?” जितना मैंने इस तरह सोचा, उतना ही मैंने अपनी स्थिति के बारे में परेशान और बेचैन महसूस किया।
एक दिन मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “किसी की सेहत किस उम्र में कैसी रहेगी और क्या उसे कोई बड़ा रोग होगा, ये सब परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित हैं। गैर-विश्वासी परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते और वे हथेलियाँ, जन्मतिथियाँ और चेहरे दिखाकर ये बातें जानने के लिए किसी को ढूँढ़ते फिरते हैं, और वे इन बातों पर यकीन करते हैं। तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो और अक्सर सत्य पर धर्मोपदेश और संगतियाँ सुनते हो, फिर अगर तुम उनमें विश्वास न रखो, तो तुम एक छद्म-विश्वासी के सिवाय कुछ नहीं हो। अगर तुम सच में मानते हो कि सब-कुछ परमेश्वर के हाथ में है, तो तुम्हें विश्वास करना होगा कि ये चीजें—गंभीर रोग, बड़े रोग, मामूली रोग, और सेहत—सभी परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के अधीन हैं। किसी गंभीर रोग का आना और किसी खास उम्र में किसी की सेहत कैसी रहती है, ये संयोग से नहीं होते, और इसे समझना एक सकारात्मक और सही समझ रखना है। क्या यह सत्य के अनुरूप है? (हाँ।) यह सत्य के अनुरूप है, यही सत्य है, तुम्हें इसे स्वीकारना चाहिए, और इस मामले में तुम्हारा रवैया और सोच परिवर्तित होना चाहिए। इन चीजों के परिवर्तित हो जाने के बाद कौन-सी चीज दूर हो जाती है? क्या संताप, व्याकुलता और चिंता की तुम्हारी भावनाएँ दूर नहीं हो जातीं? कम-से-कम, रोग को लेकर संताप, व्याकुलता और चिंता की तुम्हारी नकारात्मक भावनाएँ सैद्धांतिक रूप से तो दूर हो ही जाती हैं। चूँकि तुम्हारी समझ ने तुम्हारे विचारों और सोच को परिवर्तित कर दिया है, इसलिए यह तुम्हारी नकारात्मक भावनाओं को दूर कर देता है। ... हम रोग के बारे में चर्चा कर रहे हैं; यह ऐसी चीज है जिसका ज्यादातर लोग अपने जीवन में अनुभव करेंगे। इसलिए, लोगों के शरीरों को कैसा रोग, किस वक्त, किस उम्र में पकड़ेगा, और उनकी सेहत कैसी होगी, ये सारी चीजें परमेश्वर व्यवस्थित करता है और लोग इन चीजों का फैसला खुद नहीं कर सकते; उसी तरह जैसे लोग अपने जन्म का समय स्वयं तय नहीं कर सकते। तो क्या जिन चीजों के बारे में तुम फैसला नहीं ले सकते, उनको लेकर तुम्हारा संतप्त, व्याकुल और चिंतित होना बेवकूफी नहीं है? (हाँ, है।) लोगों को उन चीजों को सुलझाने में लगना चाहिए जिन्हें वे खुद सुलझा सकें, और जो चीजें वे नहीं सुलझा सकते, उनके लिए उन्हें परमेश्वर की प्रतीक्षा करनी चाहिए; लोगों को चुपचाप समर्पण करना चाहिए, और परमेश्वर से उनकी रक्षा करने की विनती करनी चाहिए—लोगों की मनःस्थिति ऐसी ही होनी चाहिए। जब रोग सचमुच जकड़ ले और मृत्यु सचमुच करीब हो, तो लोगों को समर्पण कर देना चाहिए, परमेश्वर के विरुद्ध शिकायत या विद्रोह नहीं करना चाहिए, परमेश्वर की ईशनिंदा नहीं करनी चाहिए या उस पर हमला करने वाली बातें नहीं कहनी चाहिए। इसके बजाय, लोगों को सृजित प्राणियों की तरह परमेश्वर से आने वाली हर चीज का अनुभव कर उसकी सराहना करनी चाहिए—उन्हें अपने लिए चीजों को खुद चुनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। यह तुम्हारे जीवन को संपन्न करने वाला एक विशिष्ट अनुभव होना चाहिए, और यह अनिवार्य रूप से कोई बुरी चीज नहीं है, है ना? इसलिए रोग की बात आने पर, लोगों को पहले रोग के उद्गम से जुड़े अपने गलत विचारों और सोच को ठीक करना चाहिए, और तब उन्हें उसकी चिंता नहीं होगी; इसके अलावा लोगों को ज्ञात-अज्ञात चीजों का नियंत्रण करने का कोई हक नहीं है, न ही वे उन्हें नियंत्रित करने में सक्षम हैं, क्योंकि ये तमाम चीजें परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन हैं। लोगों के पास जो अभ्यास का सिद्धांत और रवैया होना चाहिए, वह प्रतीक्षा और समर्पण का है। समझने से लेकर अभ्यास करने तक, सब-कुछ सत्य सिद्धांतों के अनुरूप किया जाना चाहिए—यह सत्य का अनुसरण करना है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (4))। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि मेरी बीमारी बिगड़ेगी या मेरे लकवाग्रस्त होने का कारण बनेगी, यह सब परमेश्वर के हाथ में है और मुझे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए; यही बुद्धिमानी भरा विकल्प था। हालाँकि मैंने परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता को नहीं समझा था। मैंने अपनी बीमारी के इलाज में बहुत सारी ऊर्जा और चिंता लगा दी थी, हर समय इसके बारे में सोचती और व्यथित रहती थी, यहाँ तक कि परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ और शिकायतें पाले हुए थी। मैं सचमुच मूर्ख थी! मुझे अपनी बीमारी से सबक सीखने के लिए एक विनम्र रवैया अपनाना चाहिए और परमेश्वर पर सच्चा भरोसा रखना चाहिए। इसके अलावा अगर मैं अस्वस्थ महसूस करती थी, तो मुझे सामान्य उपचार और स्वास्थ्य की देखभाल करनी चाहिए और अपनी क्षमता के अनुसार अपना कर्तव्य करना चाहिए। इस तरह से अभ्यास करने से परमेश्वर की अपेक्षाओं से भटकाव नहीं होता और मुझे यही रवैया अपनाना चाहिए था। इस एहसास के साथ मेरी बेचैनी कुछ हद तक कम हो गई और मैं परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने के लिए तैयार थी।
तब से मैंने चीजों को उनके स्वाभाविक ढंग से होने दिया और उपचार और खुद की देखभाल के लिए अपने समय को उचित रूप से व्यवस्थित किया। कभी-कभी मैं शांत होकर सोचती, “जब मेरी बीमारी बिगड़ती है तो मैं शिकायत क्यों करती हूँ? आखिर वह कौन सा भ्रष्ट स्वभाव है जो ऐसा करने के लिए प्रेरित कर रहा है?” फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “जब लोग परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ करते हैं, तब उनमें से किसके पास अपने लक्ष्य, कारण, और महत्वाकांक्षाएँ नहीं होती हैं? उनका एक भाग भले ही परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास करता है और परमेश्वर के अस्तित्व को देख चुका होता है, फिर भी वे कारण परमेश्वर में उनके विश्वास में अब भी समाए होते हैं, और परमेश्वर में विश्वास करने में उनका अंतिम लक्ष्य उसके आशीष और अपनी मनचाही चीजें प्राप्त करना होता है। लोगों के जीवन अनुभवों में, वे प्रायः मन ही मन सोचते हैं : ‘मैंने परमेश्वर के लिए अपने परिवार और जीविका का त्याग कर दिया है, और उसने मुझे क्या दिया है? मुझे इसमें अवश्य जोड़ना, और इसकी पुष्टि करनी चाहिए—क्या मैंने हाल ही में कोई आशीष प्राप्त किया है? मैंने इस दौरान बहुत कुछ दिया है, मैं बहुत दौड़ा-भागा हूँ, मैंने बहुत अधिक सहा है—क्या परमेश्वर ने बदले में मुझे कोई प्रतिज्ञाएँ दी हैं? क्या उसने मेरे अच्छे कर्म याद रखे हैं? मेरा अंत क्या होगा? क्या मैं परमेश्वर के आशीष प्राप्त कर सकता हूँ? ...’ प्रत्येक व्यक्ति अपने हृदय में निरंतर ऐसा गुणा-भाग करता है, और वे परमेश्वर से माँगें करते हैं जिनमें उनके कारण, महत्वाकांक्षाएँ, तथा लेन-देन की मानसिकता होती है। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य अपने हृदय में लगातार परमेश्वर की परीक्षा लेता रहता है, परमेश्वर के बारे में लगातार मनसूबे बनाता रहता है, और अपने व्यक्तिगत परिणाम के लिए परमेश्वर के साथ तर्क-वितर्क करता रहता है, और परमेश्वर से कुछ न कुछ कहलवाने की कोशिश करता है, यह देखने के लिए कि परमेश्वर उसे वह दे सकता है या नहीं जो वह चाहता है। परमेश्वर का अनुसरण करने के साथ ही साथ, मनुष्य परमेश्वर से परमेश्वर के समान बर्ताव नहीं करता है। मनुष्य ने परमेश्वर के साथ हमेशा सौदेबाजी करने की कोशिश की है, उससे अनवरत माँगें की हैं, और यहाँ तक कि एक इंच देने के बाद एक मील लेने की कोशिश करते हुए, हर क़दम पर उस पर दबाव भी डाला है। परमेश्वर के साथ सौदबाजी करने की कोशिश करते हुए साथ ही साथ, मनुष्य उसके साथ तर्क-वितर्क भी करता है, और यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं जो, जब परीक्षाएँ उन पर पड़ती हैं या जब वे अपने आप को किन्हीं खास स्थितियों में पाते हैं, तो प्रायः कमजोर, नकारात्मक और अपने कार्य में सुस्त पड़ जाते हैं, और परमेश्वर के बारे में शिकायतों से भरे होते हैं। मनुष्य ने जब पहले-पहल परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ किया था, उसी समय से मनुष्य ने परमेश्वर को एक अक्षय पात्र, एक स्विस आर्मी चाकू माना है, और अपने आपको परमेश्वर का सबसे बड़ा साहूकार माना है, मानो परमेश्वर से आशीष और प्रतिज्ञाएँ प्राप्त करने की कोशिश करना उसका जन्मजात अधिकार और दायित्व है, जबकि परमेश्वर की जिम्मेदारी मनुष्य की रक्षा और देखभाल करना, और उसे भरण-पोषण देना है। ऐसी है ‘परमेश्वर में विश्वास’ की मूलभूत समझ, उन सब लोगों की जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और ऐसी है परमेश्वर में विश्वास की अवधारणा की उनकी गहनतम समझ। मनुष्य के प्रकृति सार से लेकर उसके व्यक्तिपरक अनुसरण तक, ऐसा कुछ भी नहीं है जो परमेश्वर के भय से संबंधित हो। परमेश्वर में विश्वास करने में मनुष्य के लक्ष्य का परमेश्वर की आराधना के साथ कोई लेना-देना संभवतः नहीं हो सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य ने न कभी यह विचार किया और न समझा कि परमेश्वर में विश्वास करने के लिए परमेश्वर का भय मानने और आराधना करने की आवश्यकता होती है। ऐसी स्थितियों के आलोक में, मनुष्य का सार स्पष्ट है। यह सार क्या है? यह सार यह है कि मनुष्य का हृदय द्वेषपूर्ण है, छल और कपट रखता है, निष्पक्षता, धार्मिकता और सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करता है, और यह तिरस्करणीय और लोभी है। मनुष्य का हृदय परमेश्वर के लिए और अधिक बंद नहीं हो सकता है; उसने इसे परमेश्वर को बिल्कुल भी नहीं दिया है। परमेश्वर ने मनुष्य का सच्चा हृदय कभी नहीं देखा है, न ही उसकी मनुष्य द्वारा कभी आराधना की गई है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। परमेश्वर के वचनों ने जो उजागर किया उसे पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद से मेरा यह दृष्टिकोण कि मुझे किस चीज का अनुसरण करना चाहिए, साथ ही मैं जिस दिशा में अनुसरण कर रही थी, वे शुरू से ही गलत थे। परमेश्वर पर विश्वास करना शुरू करने के कुछ समय बाद ही मैंने देखा कि मेरी बीमारी में सुधार हुआ है, इसलिए मैंने परमेश्वर को अपना उपचारक मानना शुरू कर दिया था। मैं चीजें त्यागने, खुद को खपाने और कीमत चुकाने के जरिए परमेश्वर का आशीष और सुरक्षा पाना चाहती थी; इस तरह मुझे अपनी बीमारी का कष्ट और नहीं सहना पड़ता। जब मुझे फिर से बीमारी हुई और स्थिति अनियंत्रित या राहत से परे रही, तो मैंने शिकायत की, अपने पिछले बाहरी प्रयासों और परिश्रमों का उपयोग परमेश्वर से तर्क करने के लिए पूँजी के रूप में किया। मैंने यहाँ तक सोचा कि अपनी बीमारी को ठीक करना सबसे महत्वपूर्ण बात है और मैंने अपने कर्तव्य को बिना किसी जिम्मेदारी के एहसास के देखा। जब मैंने देखा कि काम का कोई फल नहीं मिल रहा है, तो मैं चिंतित या उद्वेलित नहीं हुई, केवल इस बात पर ध्यान केंद्रित किया कि अपने शरीर का इलाज और उसकी देखभाल कैसे करूँ। यह देखकर कि मेरे आसपास के भाई-बहन पूरी तरह स्वस्थ थे जबकि मैं युवा होकर भी बीमारी के कारण पीड़ा में जी रही थी, मैंने मन ही मन परमेश्वर से शिकायत की उसने उन्हें आशीष दिए पर मेरी देखभाल या सुरक्षा नहीं की। मेरी स्थिति बिल्कुल वैसी ही थी जैसा परमेश्वर के वचन उजागर करते हैं : “जब मैं लोगों पर अपना क्रोध उतारता हूँ और कभी उनके पास रही सारी सुख-शांति छीन लेता हूँ, तो मनुष्य शंकालु हो जाता है। जब मैं मनुष्य को नरक का कष्ट देता हूँ और स्वर्ग के आशीष वापस ले लेता हूँ, वे क्रोध से भर जाते हैं। जब लोग मुझसे खुद को चंगा करने के लिए कहते हैं, और मैं उस पर ध्यान नहीं देता और उनके प्रति गहरी घृणा महसूस करता हूँ; तो लोग मुझे छोड़कर चले जाते हैं और बुरी दवाइयों तथा जादू-टोने का मार्ग खोजने लगते हैं। जब मैं मनुष्य द्वारा मुझसे माँगी गई सारी चीजें वापस ले लेता हूँ, तो वे बिना कोई निशान छोड़े गायब हो जाते हैं। इसलिए मैं कहता हूँ कि लोग मुझ पर इसलिए विश्वास करते हैं, क्योंकि मेरा अनुग्रह अत्यंत विपुल है, और क्योंकि बहुत अधिक लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम आस्था के बारे में क्या जानते हो?)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे दिल को गहराई से भेद दिया। कई साल तक मैंने घोषणा की थी कि मैं परमेश्वर के लिए खुद को खपाना चाहती हूँ, लेकिन मैंने कभी भी सचमुच परमेश्वर के रूप में परमेश्वर की आराधना और समर्पण नहीं किया था। मैं केवल परमेश्वर से आशीष चाहती थी, उम्मीद करती थी कि वह मुझे ठीक करेगा और मुझे बीमारी के कष्ट से मुक्ति दिला देगा। साफ तौर पर मैं परमेश्वर का उपयोग और उसके साथ सौदेबाजी करने की कोशिश कर रही थी, फिर भी बाहरी तौर पर मैं परमेश्वर के लिए खुद को खपाने का झंडा लहरा रही थी। क्या यह परमेश्वर के खिलाफ खुला धोखा और प्रतिरोध नहीं है? मैं सचमुच घृणित थी!
इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और अभ्यास का एक मार्ग पाया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब कोई व्यक्ति अपने शरीर के बारे में बहुत चिंता करता है और उसे सुपोषित, स्वस्थ और मजबूत रखता है, तो उसके लिए इसका क्या महत्व है? ऐसे जीने का क्या अर्थ है? व्यक्ति के जीवन का मूल्य क्या है? क्या यह केवल खाने, पीने और मनोरंजन जैसे शारीरिक सुखों में शामिल होने की खातिर है? ... जब कोई व्यक्ति इस संसार में आता है, तो यह केवल देह के आनंद के लिए नहीं होता, न ही यह केवल खाने, पीने और मौज-मस्ती करने के लिए होता है। व्यक्ति को उन चीजों के लिए नहीं जीना चाहिए; यह मानव जीवन का मूल्य नहीं है, न ही यह सही मार्ग है। मानव जीवन के मूल्य और अनुसरण के सही मार्ग में कुछ मूल्यवान हासिल करना या एक या अनेक मूल्यवान कार्य करना शामिल है। इसे करियर नहीं कहा जाता है; इसे सही मार्ग कहा जाता है और इसे उचित कार्य भी कहा जाता है। मुझे बताओ, क्या व्यक्ति के लिए किसी मूल्यवान कार्य को पूरा करना, सार्थक और मूल्यवान जीवन जीना और सत्य का अनुसरण करना और उसे प्राप्त करना इस योग्य है कि उसके लिए कीमत चुकाई जाए? यदि तुम वास्तव में सत्य का अनुसरण करने की समझ रखने, जीवन में सही मार्ग पर चलने, अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से पूरा करने, और एक मूल्यवान और सार्थक जीवन जीने की इच्छा रखते हो, तो तुम अपनी सारी ऊर्जा लगाने, सभी कीमतें चुकाने, अपना सारा समय और जीवन के बचे हुए दिन देने में संकोच नहीं करोगे। यदि तुम इस अवधि के दौरान थोड़ी बीमारी का अनुभव करते हो, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, इससे तुम टूट नहीं जाओगे। क्या यह जीवन भर आराम, आजादी और आलस्य के साथ जीने, शरीर को इस हद तक पोषित करने कि वह सुपोषित और स्वस्थ हो और अंत में दीर्घायु होने से ज्यादा बेहतर नहीं है? (हाँ।) इन दोनों विकल्पों में से कौन-सा एक मूल्यवान जीवन है? इनमें से कौन-सा विकल्प लोगों को अंत में मृत्यु का सामना करते हुए राहत दे सकता है, जिससे उन्हें कोई पछतावा नहीं होगा? (एक सार्थक जीवन जीना।) सार्थक जीवन जीना। इसका अर्थ है कि अपने दिल में तुम कुछ प्राप्त कर चुके होगे और सुकून महसूस करोगे। उन लोगों का क्या जो अच्छा खाना खाते हैं और जिनके चेहरे पर मृत्यु तक गुलाबी चमक बनी रहती है? वे सार्थक जीवन नहीं जीते हैं, तो मरने पर उन्हें कैसा महसूस होता है? (मानो उनका जीवन व्यर्थ रहा।) ये तीन शब्द चुभने वाले हैं—जीवन व्यर्थ रहना। ‘जीवन व्यर्थ रहने’ का क्या अर्थ है? (अपना जीवन बर्बाद करना।) जीवन व्यर्थ रहना, अपना जीवन बर्बाद करना—इन दो वाक्यांशों का आधार क्या है? (अपने जीवन के अंत में उन्हें पता चलता है कि उन्होंने कुछ भी हासिल नहीं किया है।) फिर व्यक्ति को क्या हासिल करना चाहिए? (उन्हें सत्य प्राप्त करना चाहिए या इस जीवन में मूल्यवान और सार्थक चीजें हासिल करनी चाहिए। एक सृजित प्राणी को जो चीजें करनी चाहिए वे उन्हें अच्छे से करनी चाहिए। यदि वे यह सब करने में विफल रहते हैं और केवल अपने शरीर के लिए जीते हैं, तो उन्हें लगेगा कि उनका जीवन व्यर्थ चला गया और बर्बाद हो गया।)” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (6))। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि परमेश्वर में विश्वास रखने में किस चीज का अनुसरण करना चाहिए, इस बारे में सही दृष्टिकोण सत्य को समझना और परमेश्वर के प्रति समर्पण हासिल करने की कोशिश करना है। परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेश की परवाह किए बिना गंभीर बीमारी और पीड़ा से जूझने पर भी मुझे परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्था के प्रति समर्पित होना चाहिए और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए। इस तरह का अनुसरण मूल्यवान और सार्थक होता है और परमेश्वर इसे याद रखेगा। लेकिन मैंने हमेशा दैहिक शांति, बीमारी या आपदा से मुक्त जीवन और स्वस्थ रहकर जीना चाहा था। जब मेरी बीमारी गंभीर हो गई, तो मैंने परमेश्वर से तर्क-वितर्क और शिकायत करना शुरू कर दिया, केवल उपचार और खुद की देखभाल पर ही ध्यान केंद्रित किया और यहाँ तक कि अपना कर्तव्य करने के लिए भी तैयार नहीं थी। इस तरह का अनुसरण निरर्थक था। मुझे एहसास हुआ कि भले ही मैं अपनी सेहत सुधार लूँ और एक शांतिपूर्ण, स्वस्थ जीवन जियूँ, अगर मैं एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य और जिम्मेदारी नहीं निभाती और अगर मैं अपना मिशन पूरा करने में विफल रहती हूँ, तो यह जीवन बरबाद चला जाएगा और इस दुनिया में मेरा अस्तित्व व्यर्थ हो जाएगा। इस बात को जानकर मेरा दिल रोशन हो गया। भले ही मेरी बीमारी बिगड़ जाए या मैं लकवाग्रस्त हो जाऊँ, सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि मैं अपना कर्तव्य पूरा करूँ। तब से मैंने अपना दिल अपने कर्तव्य के लिए समर्पित कर दिया और विभिन्न कार्यों का जायजा लेने लगी।
एक दिन जब मैं कंप्यूटर पर टाइप कर रही थी, मेरा दाहिना कंधा अचानक हिलना बंद हो गया और जब मैंने अपना दाहिना हाथ उठाया तो मुझे तेज दर्द महसूस हुआ। टाइप करना बहुत मुश्किल हो गया। मैं फिर से चिंतित होकर सोचने लगी, “अगर मेरा कंधा नहीं हिला, तो मैं अपना काम कैसे कर पाऊँगी?” मैंने सोचा, “मैं आराम करूँगी और शायद कल तक यह ठीक हो जाए।” लेकिन अगले दिन न केवल मेरा कंधा ठीक नहीं हुआ बल्कि दर्द और बढ़ गया। मेरे सिर और गर्दन में भी दर्द होने लगा; बैठने और यहाँ तक कि लेटने में भी दर्द होने लगा। अपना कर्तव्य करने से मेरा ध्यान पूरी तरह हट गया। बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “चाहे तुम बीमार हो या पीड़ा में, जब तक तुम्हारी एक भी साँस बाकी है, जब तक तुम जिंदा हो, जब तक तुम चल-फिर और बोल सकते हो, तब तक तुममें अपना कर्तव्य निभाने की ऊर्जा है, और तुम्हें विवेकशील होकर अपने कर्तव्य-निर्वाह में सुव्यवहार दिखाना चाहिए। तुम्हें एक सृजित प्राणी के कर्तव्य, या सृष्टिकर्ता द्वारा तुम्हें दी गई जिम्मेदारी का परित्याग नहीं करना चाहिए। जब तक तुम अभी मरे नहीं हो, तुम्हें अपना कर्तव्य पूर्ण करना चाहिए, और इसे अच्छे से निभाना चाहिए” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैंने उससे प्रार्थना की, कहा कि चाहे मेरी स्थिति में सुधार हो या न हो, मैं अब और इससे बँधी हुई या बेबस नहीं रहना चाहती। मैं बस परमेश्वर का इरादा खोजना, उसके प्रति समर्पित होना और अपने कर्तव्य पर कायम रहना चाहती थी। उसके बाद मैंने इस बारे में चिंता करना बंद कर दिया कि मेरी बीमारी कब ठीक होगी और इसके बजाय अपने कर्तव्य पर ध्यान केंद्रित किया, अपने खाली समय का उपयोग थोड़ा व्यायाम करने के लिए किया। चौथी सुबह मैंने अचानक देखा कि मेरे दाहिने कंधे का दर्द कम हो गया है और गर्दन में भी अब अकड़न नहीं है। भले ही मैं पूरी तरह से ठीक नहीं हुई थी, लेकिन धीरे-धीरे ठीक हो रही थी।
बीमारी के इन बार-बार पड़े दौरों ने मेरी आस्था के अनुसरण को लेकर मेरे गलत विचारों को पूरी तरह से बेनकाब कर दिया। केवल तभी मुझे वास्तव में अपने बारे में कुछ समझ आनी शुरू हुई। परमेश्वर के वचनों के माध्यम से मैंने यह भी सीखा कि बीमारी का सही ढंग से इलाज कैसे किया जाए और ऐसे समय में अपना कर्तव्य कैसे पूरा किया जाए। मैं परमेश्वर को उसके उद्धार के लिए धन्यवाद देती हूँ!
फुटनोट :
क. कपिंग : एक थेरेपी जिसमें त्वचा पर कांच या प्लास्टिक के कप रखे जाते हैं ताकि त्वचा में खिंचाव पैदा हो। यह रक्त प्रवाह को बेहतर बनाने और दर्द से राहत दिलाने में मदद करता है।
ख. गुआ शा : एक तकनीक जिसमें तनाव दूर करने, रक्त संचार बेहतर बनाने और मांसपेशियों का दर्द कम करने के लिए त्वचा पर एक चिकने उपकरण को रगड़ा जाता है।
ग. मॉक्सीबस्टन : एक विधि जिसमें सूखे हुए मगवर्ट (एक पौधा) को शरीर के विशिष्ट बिंदुओं के पास जलाया जाता है ताकि गर्मी मिले और उपचार हो।