61. अब मैं दूसरों के साथ मिलकर काम करने का तरीका जान गया हूँ

मैं कुछ वर्षों से कलीसिया में डिजाइन कार्य कर रहा था और अपना कर्तव्य निर्वहन करते हुए मैंने धीरे-धीरे ग्राफिक डिजाइन के कुछ सिद्धांतों में महारत हासिल कर ली थी और कुछ अनुभव भी प्राप्त कर लिया था। अधिकांश लोगों ने कहा कि मैं अपने कर्तव्य के प्रति बहुत मेहनती हूँ, यह सुनकर मुझे बहुत अच्छा महसूस हुआ। फरवरी 2022 में कार्य की आवश्यकताओं के कारण कलीसिया ने बहन वैलेरी को डिजाइन कार्य में सहयोग के लिए मेरे साथ जोड़ दिया। कुछ समय बाद मैंने देखा कि वह अपने कर्तव्य के प्रति लापरवाह सी है और सिद्धांतों को अच्छे से नहीं समझती है और कभी-कभी कुछ बहुत ही गंभीर गलतियाँ भी कर देती है जिसके कारण कुछ डिजाइनों पर फिर से कार्य करना और उन्हें संशोधित करना पड़ता है। मैं यह सोचकर उसे नीची नजर से देखने लगा कि उसके कर्तव्य में कई समस्याएँ हैं, वह न तो मेरी तरह सावधान रहती है और न ही सिद्धांतों को लचीले ढंग से लागू करने में कुशल है। इसके अलावा कार्यस्थल पर मेरे द्वारा दिए गए अधिकांश सुझावों को वह बिना किसी असहमति के मान लेती है जिससे मुझे अपने बारे में और भी अच्छा लगता। बाद में जब भी ऐसे मसले आते जिन पर चर्चा करना जरूरी होता सलाह के लिए उसके पास जाने की इच्छा न होती। हालाँकि वह कभी-कभी अपने विचार साझा करती थी लेकिन मैं सुनता ही नहीं था और बस इसी बात पर जोर देता रहता कि मेरा दृष्टिकोण सही है और उसे मेरी अगुआई का अनुसरण करना चाहिए।

मुझे याद है एक बार डिजाइन की अवधारणा को लेकर वैलेरी और मेरी राय अलग-अलग थी। मुझे लगा कि उसकी अवधारणा काफी साधारण है और लोगों का ध्यान नहीं खींच पाएगी और हमें मेरी अवधारणा के साथ चलना चाहिए। मैं बार-बार समझाता रहा कि मेरा विचार एकदम अभिनव है कोई घिसा-पिटा विचार नहीं है और उसका परिप्रेक्ष्य उपयुक्त नहीं है। जब उसने अपना तर्क समझाने की कोशिश की तो मैंने मन ही मन सोचा, “मैंने तुमसे अधिक डिजाइन किए हैं और सिद्धांतों को बेहतर ढंग से समझता हूँ, इसलिए मेरे तरीके से कार्य करना अधिक सटीक होगा।” इसलिए मैंने उसे बीच में रोका और अपनी बात को ही आगे बढ़ाता रहा। लेकिन वह अभी भी मेरे सुझाव से सहमत नहीं थी और कहने लगी कि वह दूसरे भाई-बहनों से परामर्श करना चाहती है। मेरा धैर्य जवाब दे गया और मैं सोचने लगा, “इसमें परामर्श वाली क्या बात है? यह कोई कठिन मसला नहीं है; तुम मेरा सुझाव स्वीकार कर सकती हो, है न?” लेकिन मुझे आश्चर्य हुआ कि दूसरों से परामर्श करने के बाद उनमें से अधिकांश ने सिद्धांतों के अनुसार मामले का फैसला किया और महसूस किया कि वैलेरी की अवधारणा और परिप्रेक्ष्य अधिक उपयुक्त है। हालाँकि वे उतने अभिनव नहीं थे फिर भी वे विषय के अधिक अनुरूप थे। यह सुनकर मुझे थोड़ी शर्म आई और मुझे यकीन नहीं हुआ कि उसकी अवधारणा वास्तव में मेरी अवधारणा से बेहतर है। एक अन्य अवसर पर मैंने वैलेरी से एक डिजाइन में रंग समायोजन में मदद माँगी और मैंने उसे बताया कि समायोजन कैसे करना है। बाद में मैंने देखा कि उसने मेरी सिखाई हुई पद्धति का पालन नहीं किया। इसके बजाय उसने वह तरीका अपनाया जो उसे बेहतर लगा। जब मैंने यह देखा तो मुझे बहुत गुस्सा आया और उससे सख्त लहजे में पूछा, “तुमने मेरी पद्धति क्यों नहीं अपनाई? हमने हमेशा रंग समायोजन के लिए इसी पद्धति का उपयोग किया है, अगर तुम्हारे समायोजन में कोई समस्या हुई तो क्या करेंगे?” उसने तुरंत जवाब दिया, “तुमने जो तरीका बताया है उसमें मैं बहुत अच्छी नहीं हूँ, इसलिए मैंने वह तरीका अपनाया जिसे मैं अच्छे से जानती हूँ।” मेरी इच्छा हुई कि उसकी आलोचना करता रहूँ, लेकिन मुझे एहसास हुआ कि मैं गुस्से में बोल रहा हूँ इसलिए मैंने बोलना बंद कर दिया।

एक दिन उसने अपनी हाल की मनोदशा बताई और कहा, “मैं तुम्हारे साथ कर्तव्य निभाते समय हमेशा हीनता महसूस करती हूँ और लगातार डर लगा रहता है कि अगर मैं तुम्हारे तरीके से कार्य नहीं करूँगी तो तुम मेरी आलोचना करोगे। जैसे पिछली बार जब मैंने अपने तरीके से रंग समायोजन किया था ताकि चीजें तेजी से और आसान हो जाएँ और जब तुमने मुझसे सवाल-जवाब किए तो मैं सचमुच बहुत डर गई थी।” जब मैंने यह सुना तो मुझे बहुत दुःख हुआ। मैंने कभी सोचा नहीं था कि वह वाकई मेरे साथ काम करने से डरेगी। बाद में मैंने यह भी देखा कि अक्सर ऐसे मसले होते थे जिन्हें वह आसानी से खुद ही सुलझा सकती थी लेकिन फिर भी वह पहले मुझसे पूछती थी और मेरी स्वीकृति के बाद ही चीजों को संभालने का साहस करती थी। मुझे एहसास हुआ कि हमारे सहयोग में कोई समस्या है इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे प्रबुद्ध करे ताकि मैं खुद को जान सकूँ। बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “‘सहयोग’ शब्द की व्याख्या और उसका अभ्यास कैसे किया जाए? (चीजें सामने आने पर उन पर विचार-विमर्श करके।) हाँ, इसका अभ्यास करने का यह एक तरीका है। इसके अलावा क्या? (अपनी कमजोरियों की दूसरों की खूबियों से पूर्ति करना, एक-दूसरे की निगरानी करना।) यह पूरी तरह से सटीक है; इस तरह से अभ्यास करना सामंजस्य में सहयोग करना है। क्या और भी कुछ है? चीजों के घटित होने पर दूसरे की राय माँगना—क्या यह सहयोग नहीं है? (बिल्कुल है।) यदि एक व्यक्ति अपनी, और दूसरा व्यक्ति अपनी संगति करता है, और फिर अंत में, वे बस पहले व्यक्ति की संगति को मान लेते हैं, तो फिर खानापूर्ति क्यों करनी? यह सहयोग नहीं है—यह सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, और इससे सहयोग के नतीजे नहीं मिलते। यदि तुम मशीन गन की तरह धड़ाधड़ बोलते ही जाते हो, और जो दूसरे बोलना चाहते हैं उन्हें मौका नहीं देते, और अपने सभी विचार बता देने के बाद भी दूसरों की बातें नहीं सुनते हो, तो क्या यह विचार-विमर्श है? क्या यह संगति है? यह खानापूर्ति करना है—यह सहयोग नहीं है। तो फिर सहयोग क्या है? यह तब होता है जब अपने विचार और फैसले बताने के बाद तुम दूसरों की राय और विचार पूछ सको, फिर अपने और उनके वक्तव्यों और दृष्टिकोणों की परस्पर तुलना कर सको, कुछ लोग मिलकर इनके भेद की पहचान कर सकें और सिद्धांत खोज पाएँ और इस तरह से एक सामान्य समझ पर पहुँचकर अभ्यास का सही मार्ग तय कर सकें। विचार-विमर्श करने और संगति करने का यही अर्थ होता है—‘सहयोग’ का यही अर्थ होता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे समझ आया कि सच्चे सहयोग का अर्थ है एक साथ मामलों पर चर्चा कर पाना, एक दूसरे की क्षमताओं और कमजोरियों को पूरा करना, मिलकर सत्य-सिद्धांतों की खोज करना और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना। यही वास्तविक सहयोग है। तब तक साथ बिताए समय पर विचार करते हुए मैंने देखा हालाँकि वैलेरी और मैंने अपने कर्तव्यों का निर्वहन एक साथ किया था, लेकिन मैंने वास्तव में उसके साथ सहयोग नहीं किया था। मुझे लगता था कि मैं जिस ढंग से चीजें करता हूँ, मैं उससे अधिक मेहनती हूँ और मुझे उससे बेहतर समझ है, इसलिए मैं हमेशा उसे नीची नजरों से देखता था और मेरी कथनी और करनी में उसके प्रति एक तिरस्कार का भाव होता था। जब हम मसलों पर चर्चा करते थे तो मैं शायद ही कभी उससे सलाह लेने की पहल करता था और जब मैं ऐसा करता भी था तो बस औपचारिकताएँ पूरी करता था, मैं पहले ही तय कर चुका होता था कि मैं सही हूँ और उसके विचारों को पूरी तरह अस्वीकार कर देता था। मैं विवेक-बुद्धि खो बैठता था और उसे बीच में ही टोक देता था और सख्त लहजे में उसकी आलोचना करता था, मैं बस चाहता था वह मेरी अगुआई का अनुसरण करे। मैं अपने कर्तव्य में हमेशा आत्म-केंद्रित और दबंग बना रहता था; वैलेरी के साथ मैं कभी कोई आपसी चर्चा न करता या पूरक बनकर कार्य न करता और सब कुछ हमेशा मेरे तरीके से ही किया जाता। नतीजतन कुछ समय तक साथ काम करने के बाद वह मुझसे इतनी बेबस हो गई कि वह अपनी समस्याओं को अकेले संभालने की हिम्मत न कर पाती और हमेशा डरती रहती कि अगर वह मेरे तरीके से काम नहीं करेगी तो मैं उसे डाँटूँगा। मैंने देखा कि उसके और मेरे बीच कोई सामंजस्यपूर्ण सहयोग नहीं था, मैंने केवल उसे बेबस किया और नुकसान पहुँचाया। मुझे बहुत ग्लानि हुई और मैंने अपनी समस्या का समाधान ढूँढ़ने की कोशिश की।

एक दिन भक्ति के दौरान मैंने कुछ अंश पढ़े जिनमें परमेश्वर मसीह-विरोधियों को उजागर करता है और मुझे अपनी मनोदशा की थोड़ी समझ हासिल हुई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “ऊपर से लग सकता है जैसे कुछ मसीह-विरोधियों के सहायक या साझेदार होते हैं, लेकिन तथ्य यह है कि कुछ घटित होने पर दूसरे लोग चाहे जितने भी सही हों, मसीह-विरोधी उनकी बात कभी नहीं सुनते। उस बारे में चर्चा करना या उस पर संगति करना तो दूर, वे उस पर विचार भी नहीं करते। वे बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते हैं मानो दूसरे वहाँ हों ही नहीं। जब मसीह-विरोधी दूसरों की बातें सुनते हैं, तो वे महज खानापूर्ति कर रहे होते हैं, या दूसरों के दिखाने के लिए नाटक कर रहे होते हैं। लेकिन अंततः जब अंतिम निर्णय का समय आता है, तो फैसले मसीह-विरोधी ही लेते हैं; किसी दूसरे व्यक्ति के कथन व्यर्थ होते हैं, उनके बिल्कुल भी कोई मायने नहीं होते। उदाहरण के लिए, जब दो लोग किसी काम के लिए जिम्मेदार होते हैं, और उनमें से एक में मसीह-विरोधी सार होता है, तो उस व्यक्ति में क्या प्रदर्शित होता है? चाहे कोई भी काम हो, वह और सिर्फ वह है जो उसकी शुरुआत करता है, जो सवाल पूछता है, जो चीजें सुलझाता है, और जो समाधान सुझाता है। और ज्यादातर समय वह अपने साथी को पूरी तरह से अँधेरे में रखता है। उसकी नजर में उसका साथी क्या होता है? उसका सहायक नहीं, बल्कि सिर्फ सजावट का सामान। मसीह-विरोधी की नजर में, उनका साझेदार होता ही नहीं। जब भी कोई समस्या आती है, तो मसीह-विरोधी उस पर विचार करता है, और जब वह तय कर लेता कि कार्य कैसे करना है, तो बाकी सभी को सूचित कर देता है कि उसे कैसे करना है, और किसी को उस पर सवाल नहीं उठाने दिया जाता। दूसरों के साथ उनके सहयोग का सार क्या होता है? मूल रूप से अंतिम निर्णय खुद लेना, समस्याओं पर किसी और के साथ चर्चा न करना, काम की अकेले जिम्मेदारी लेना और अपने सहयोगियों को सजावटी सामान में बदलना है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। “मसीह-विरोधियों की दूसरों से सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं, केवल अपने प्रति समर्पण करवाने को लेकर पहली अभिव्यक्ति यह है कि वे किसी के भी साथ सहयोग करने में सक्षम नहीं होते। कुछ लोग कह सकते हैं, ‘किसी के भी साथ सहयोग न कर पाना केवल अपने प्रति समर्पण करवाने के समान नहीं होता।’ किसी के भी साथ सहयोग न कर पाने का अर्थ है कि वे किसी की बातों पर ध्यान नहीं देते या किसी से भी सुझाव नहीं माँगते—वे परमेश्वर के इरादे या सत्य सिद्धांत भी नहीं खोजते हैं। वे सिर्फ अपनी मर्जी से कार्य करते और व्यवहार करते हैं। इसमें क्या निहित है? वे खुद ही अपने काम पर काबू करते हैं, सत्य, या परमेश्वर नहीं। इसलिए उनके काम का सिद्धांत दूसरों को यों बनाना है कि उन लोगों का ध्यान इनकी बातों पर जाए और वे उसे सत्य और परमेश्वर के रूप में लें(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई। मसीह-विरोधी अपने हाथों में शक्ति रखने के सिद्धांत से कार्य करते हैं, दूसरों को अपने अधीन करते हैं, वे परमेश्वर और सत्य सिद्धांतों के प्रति समर्पित नहीं होते। वैलेरी के साथ अपने सहयोग पर विचार करते हुए मुझे एहसास हुआ कि मैं भी वही स्वभाव प्रकट कर रहा था। ऊपर से तो ऐसा लगता था कि वैलेरी और मैं अपने कर्तव्यों में एक साथ सहयोग कर रहे हैं, लेकिन वास्तव में मन ही मन मैं उसे केवल एक अनुयायी मानता था। मैं उसे अपने सभी निर्णयों का पालन करने और अपने विचारों के अनुरूप ढलने के लिए मजबूर करता था मानो वह मेरे लिए अपना कर्तव्य निभा रही हो। जब वह कोई सुझाव देती तो मैं यह समझने की कोशिश भी नहीं करता था कि क्या उसके सुझाव सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हैं या उनमें कोई दम है; मैं बस इसी बात पर जोर देता कि मेरे विचार सही हैं। जब वह प्रासंगिक सिद्धांतों के लिए दूसरों से परामर्श करना चाहती तो मैं अपना धैर्य खो बैठता और सोचता कि यह एकदम अनावश्यक है। एक विश्वासी को परमेश्वर को महान मानकर उसका आदर करना चाहिए, सभी चीजों में उसके इरादे खोजने चाहिए, उसके वचनों और सत्य सिद्धांतों के प्रति समर्पित हो जाना चाहिए। लेकिन मैं बहुत घमंडी और आत्म-तुष्ट था। मामलों का सामना करते समय मैं न केवल सत्य सिद्धांत खोजने में विफल रहा, बल्कि मैंने हमेशा यही चाहा कि दूसरे लोग मेरी आज्ञा मानें और मेरी अगुआई का अनुसरण करें। मैंने अपने विचारों को दूसरों के अनुसरण और आज्ञापालन के लिए सत्य सिद्धांत माना और यह मसीह-विरोधी का मार्ग है! जब भाई-बहन अपने कर्तव्यों में सहयोग करते हैं तो यह एक दूसरे की सहायता करने और एक दूसरे का पूरक होने के लिए होता है, साथ ही एक दूसरे का पर्यवेक्षण करने और अंकुश रखने के लिए होता है ताकि कर्तव्यों में विचलनों को यथासंभव न्यूनतम किया जा सके जिससे कि हम सभी सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करें और कलीसिया कार्य के लिए सर्वोत्तम नतीजे प्राप्त करें। लेकिन मैंने दूसरों के साथ सहयोग नहीं किया। इससे न केवल कर्तव्यों का निर्वहन खराब तरीके से हुआ बल्कि इसने मुझे सिद्धांतों का उल्लंघन करने, कार्य में गड़बड़ी करने और बाधा डालने के लिए भी प्रवृत्त कर दिया। मैंने कुछ मसीह-विरोधियों के बारे में सोचा जिन्हें अहंकारी, दंभी होने और मनमाने ढंग से कार्य करने के कारण कलीसिया से निष्कासित कर दिया गया था, वे हमेशा दूसरों से यह माँग करते थे कि वे सत्य खोजने और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने के बजाय उनके प्रति समर्पित हो जाएँ। नतीजतन उन्होंने कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी की और उसे बाधित किया, भाई-बहनों को बहुत नुकसान पहुँचाया और बेबस किया और अंत में पश्चात्ताप करने से पूरी तरह इनकार करने के कारण उन्हें निष्कासित कर हटा दिया गया। अगर मैंने अब भी पश्चात्ताप नहीं किया तो मेरा अंतिम परिणाम उन मसीह-विरोधियों के समान ही होगा—हटाया और दंडित किया जाना। इन विचारों ने मुझे डरा दिया और मैं इस गलत रास्ते पर आगे नहीं बढ़ना चाहता था इसलिए मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की कि मेरा मार्गदर्शन करे ताकि मैं खुद को समझ सकूँ। मैं परमेश्वर से पश्चात्ताप करना चाहता था।

अगले कुछ दिनों तक मैं यही सोचता रहा, “मैं दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग क्यों नहीं कर पाता? इस समस्या की जड़ क्या है?” एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और मुझे अपने मसलों की कुछ समझ प्राप्त हुई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अगर, अपने हृदय में, तुम वास्तव में सत्य को समझते हो, तो तुम्हें पता होगा कि सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के प्रति समर्पण कैसे करना है, तुम स्वाभाविक रूप से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू कर दोगे। अगर तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह सही है, और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है, तो पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा—ऐसी स्थिति में तुम्हारे परमेश्वर को धोखा देने की संभावना कम से कम होगी। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जान-बूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, उनके कारण तुम खुद को ऊँचा उठाओगे, निरंतर खुद का दिखावा करोगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हारे दिल से परमेश्वर का स्थान छीन लेंगे, और अंततः तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुमसे अपने ही विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजा करवाएँगे। लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन इतनी बुराई करते हैं!(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं समझ गया कि वैलेरी के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग न कर पाने का मूल कारण मुख्यतः मेरा अति अहंकारी स्वभाव है। मैं शैतान के इस जहर के अनुसार जी रहा था कि “सारे ब्रह्मांड का सर्वोच्च शासक बस मैं ही हूँ” और मैं हमेशा अपने आपको श्रेष्ठ समझता था। जब मेरा कर्तव्य कुछ नतीजे देने लगा तो मैंने खुद को विशेष समझना शुरू कर दिया और उसे हर तरह से नीची नजर से देखने लगा मानो कोई और मुझसे अच्छा है ही नहीं। इस प्रकार के स्वभाव के साथ अपना कर्तव्य निभाते हुए मैं सचमुच आत्मविश्वासी हो गया, यहाँ तक कि मैं मानने लगा कि मेरी हर राय सही होती है और मैं अक्सर अपने कर्तव्य को अपने इर्द-गिर्द केंद्रित करने लगा, परमेश्वर के इरादे जाने बिना मनमाने ढंग से कार्य करने लगा। वैलेरी के साथ मसलों पर चर्चा करते समय मैं हमेशा चाहता था कि वह मेरे तरीके से कार्य करे और जब उसने ऐसा नहीं किया तो मैं अपना आपा खो देना चाहता था, उसे डाँटना चाहता था, नीचा दिखाना चाहता था और अपनी बात मनवाने के लिए मजबूर करना चाहता था जिसकी वजह से वह मेरे द्वारा बेबस हो गई और मेरे साथ सहयोग करने से डरने लगी। जितना अधिक मैंने इसके बारे में सोचा, यह मुझे उतना ही अधिक डरावना लगने लगा और अंततः मुझे एहसास हुआ कि अपने अहंकारी स्वभाव के कारण मैं अपनी मानवता, विवेक और परमेश्वर का भय मानने वाला अपना हृदय खो बैठा हूँ, मेरे अहंकारी स्वभाव ने मुझे दुष्ट बना दिया है। अनजाने में ही इससे कलीसिया के कार्य पर भी असर पड़ा और अगर मैंने इस अहंकारी स्वभाव को दूर नहीं किया तो मैं वाकई खतरे में पड़ जाऊँगा। उस वक्त मुझे एहसास हुआ कि मेरा अहंकार मेरे हमेशा यह मानने से पैदा हुआ है कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ। लेकिन क्या मैं सचमुच इतना महान था? परमेश्वर कहता है : “अपने कर्तव्य के समुचित निर्वहन के लिए यह मायने नहीं रखता कि तुमने कितने वर्ष परमेश्वर में विश्वास किया है, तुमने कितने कर्तव्य निभाए या तुमने परमेश्वर के घर में कितना योगदान दिया, तुम अपने कर्तव्य में कितने अनुभवी हो यह मायने रखना तो दूर की बात है। परमेश्वर मुख्यतः यह देखता है उस व्यक्ति ने कौन-सा मार्ग पकड़ा है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर यह देखता है कि सत्य और सिद्धांतों के प्रति व्यक्ति का रवैया क्या है और उसके कार्यों की दिशा, उत्पत्ति और प्रारंभिक बिंदु क्या है। परमेश्वर इन बातों पर ध्यान केंद्रित करता है; यही बातें तुम्हारे मार्ग का निर्धारण करती हैं। ... तुम्हारा गुण या विशेषता जिस भी क्षेत्र में हो या जिसका भी तुम्हें कुछ व्यावसायिक ज्ञान हो, कर्तव्य निर्वहन में इन चीजों का उपयोग करना सबसे उचित है—अच्छी तरह से अपना कर्तव्य निभाने का यही एकमात्र तरीका है। एक तरफ तुम्हें अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए जमीर और विवेक पर भरोसा करना चाहिए तो दूसरी तरफ अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए सत्य खोजना चाहिए। इस तरह अपना कर्तव्य निभाते हुए व्यक्ति जीवन प्रवेश प्राप्त करता है और अपना कर्तव्य इस तरीके से से निभाने में सक्षम हो जाता है जो मानक स्तर का हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?)। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि किसी व्यक्ति का कर्तव्य निर्वहन मानक के अनुरूप है या नहीं, यह इस बात पर निर्भर नहीं करता कि वह कितने समय से अपना कर्तव्य निभाता आ रहा है या उसके पास कितना अनुभव है, सबसे अहम बात यह है कि व्यक्ति सही मार्ग पर हो, अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने के लिए सत्य की खोज करे और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करे। मैं हमेशा वैलेरी को नीची नजर से देखता था और उसके साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग नहीं कर पाता था, मुख्यतः इसलिए कि मुझे लगता था कि मैं कार्य को उससे बेहतर समझता हूँ, मेरे पास उससे अधिक अनुभव है और अपने कर्तव्य के प्रति अधिक सतर्क हूँ। ये दरअसल एक हद तक मेरे कर्तव्य की प्रभावशीलता में सुधार करने में सक्षम थे, लेकिन ये बातें सत्य नहीं हैं। इसके अलावा विभिन्न संदर्भों में मेरे पास जो तकनीकी ज्ञान और अनुभव है वह हमेशा कारगर नहीं हो सकता। मिसाल के तौर पर जब मैं वैलेरी के साथ कार्य कर रहा था तो कभी-कभी मैं अपने अनुभव के आधार पर निर्णय ले लेता था कि चीजों को कैसे संभालना है, लेकिन चूँकि मैं अहंकारी, आत्म-तुष्ट था और सत्य सिद्धांत नहीं खोजता था इसलिए मैंने जो किया वह उचित नहीं था। हालाँकि उसमें कमियाँ थीं, लेकिन सिद्धांत खोजकर वह अभी भी समस्याओं की पहचान कर सकती थी। तब मुझे एहसास हुआ कि मैं कोई दूसरों से बेहतर नहीं हूँ और मेरा पिछला अहंकार और दंभ वाकई अनुचित था! अब मैं समझ गया कि एक दूसरे के सहयोगी और पूरक बनकर, एक साथ सत्य खोजकर और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करके ही हम अपने कर्तव्यों को अच्छे से निभा सकते हैं।

बाद में जब मैं वैलेरी के साथ फिर से एक डिजाइन पर काम कर रहा था तो मैंने पहले जानबूझकर उसकी राय पूछी और जब उसने अपने विचार रखे तो मैं ध्यान से सुन रहा था। कुछ समय बाद मैंने देखा कि मैं वैलेरी में क्षमताएँ हैं जिनसे मैं सीख सकता हूँ और वह भी दूसरों के सुझाव स्वीकारती है और सत्य खोजने पर ध्यान देती है जबकि ये गुण मेरे अंदर नहीं थे। इस मुकाम पर मुझे एहसास हुआ कि ऐसे सहयोगी का साथ होना वाकई बहुत अच्छी बात है जो मेरे कर्तव्य में मेरी कमियों को पूरा कर सके। साथ ही मैंने वैलेरी की कमियों को भी ठीक से संभालना सीखा, मैं संगति करने और उन सिद्धांतों को समझने में मदद करने की कोशिश करता जो उसे समझ में न आते। मैं उसे वो तरीके भी बताता जो मैंने खोजे थे और जिनसे कार्य की प्रभावशीलता में सुधार हो सकता था। हमारा सहयोग धीरे-धीरे बेहतर होता गया और हमारे कर्तव्यों की प्रभावशीलता में भी कुल मिलाकर सुधार हुआ। बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “इस सामंजस्यपूर्ण सहयोग का क्या परिणाम होगा? परिणाम बहुत बड़ा है। तुम वे चीजें प्राप्त करोगे जो तुम्हारे पास पहले कभी नहीं थीं, जो सत्य की रोशनी और जीवन की वास्तविकताएँ हैं; तुम्हें दूसरों की योग्यताओं का पता लगेगा और तुम उनकी खूबियों से सीखोगे। कुछ और भी है : तुम दूसरे लोगों को मूर्ख, मंदबुद्धि, नासमझ, अपने से कमतर समझते हो, लेकिन जब तुम उनकी राय सुनोगे, या दूसरे लोग तुमसे खुलकर बात करेंगे, तो अनजाने ही तुम्हें पता चलेगा कि कोई भी उतना साधारण नहीं है जितना तुम समझते हो, कि हर व्यक्ति भिन्न विचार और मत पेश कर सकता है, और सबकी अपनी खूबियाँ होती हैं। अगर तुम सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग करना सीखते हो, तो दूसरों की खूबियों से सीखने में मदद करने के अलावा, यह तुम्हारे अहंकार और आत्म-तुष्टि को प्रकट कर सकता है, और तुम्हें यह कल्पना करने से रोक सकता है कि तुम चतुर हो। जब तुम खुद को बाकी सबसे ज्यादा होशियार और बेहतर नहीं मानते, तो तुम इस आत्म-मुग्धता और आत्म-प्रशंसा की अवस्था में रहना बंद कर दोगे। और यह तुम्हारी रक्षा करेगा, है न? दूसरों के साथ सहयोग करने से तुम्हें ऐसा सबक सीखना और यह लाभ प्राप्त करना चाहिए(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों को मैंने जितना अधिक पढ़ा, उतना ही अधिक मुझे एहसास हुआ कि वे कितने व्यावहारिक हैं। अपने कर्तव्यों में दूसरों के साथ सहयोग करना सीखने से न केवल कार्य में बेहतर नतीजे प्राप्त करने और अपनी कमियों की भरपाई करने में भी मदद मिलती है बल्कि मुझे अपनी क्षमताओं को अधिक सटीकता से पहचानने में भी मदद मिलती है, ऐसा करके मैं अपने ही विचारों पर कार्य करने से बचता हूँ और कलीसिया के कार्य को भी नुकसान नहीं पहुँचता। यह कलीसिया के कार्य और मेरे दोनों के हित में था।

बाद में एक समय ऐसा आया जब मैंने एक पूरा डिजाइन समीक्षा के लिए भाई कैमडेन को भेजा। मुझे आश्चर्य हुआ जब उसने कहा कि पूरा डिजाइन ही थोड़ा अंधकारमय लग रहा है और इसलिए मैंने उससे अपने विचारों के बारे में बात की। लेकिन उसने मेरे विचार को स्वीकार नहीं किया और यही कहा कि पूरा डिजाइन बहुत अंधकारमय है, यहाँ तक सुझाव दिया कि मैं फिर से सिद्धांतों के अनुसार इसका मूल्यांकन करूँ या अन्य भाई-बहनों से पूछूँ कि क्या उन्हें भी यही समस्या दिख रही है। मैंने मन ही मन सोचा, “मैं यहाँ डिजाइन विशेषज्ञ हूँ, तो कौन बेहतर जानता है, तुम या मैं? मैंने पहले ही सिद्धांतों के अनुसार इसका मूल्यांकन कर लिया है तो फिर इसमें समस्या कैसे हो सकती है? और मुझसे दूसरों से सलाह लेने को कह रहे हो? मुझे वाकई नहीं लगता कि इसकी कोई जरूरत है!” मैं वास्तव में उसका खंडन करना चाहता था। लेकिन फिर मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से अपना अहंकारी स्वभाव प्रकट कर रहा हूँ, इसलिए मैंने तुरंत मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे फिर से अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार कार्य करने से रोके, मैं खुद को दर-किनार कर सत्य सिद्धांत खोजने को तैयार हूँ। प्रार्थना करने के बाद अचानक मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : “अगर कोई सुझाव दे, तो पहले तुम्हें उसे स्वीकार कर लेना चाहिए, और तब सभी को अभ्यास के सही मार्ग की पुष्टि करने देना चाहिए। अगर उनमें से किसी को कोई समस्या न हो, तब तुम कर्म करने का सबसे उपयुक्त तरीका तय कर कर्म कर सकते हो। कोई समस्या नजर आने पर तुम्हें सबकी राय माँगनी चाहिए और तुम सबको साथ मिलकर एक साथ सत्य खोजकर उस पर एक साथ संगति करनी चाहिए, और इस तरह तुम लोग पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता पा सकोगे। जब तुम्हारे दिल प्रकाशित हों, और तुम्हारे सामने बेहतर मार्ग हो, तो तुम्हें प्राप्त होने वाले नतीजे पहले से बेहतर होंगे। क्या यह परमेश्वर का मार्गदर्शन नहीं है? यह अद्भुत चीज है! अगर तुम दंभी होने से बच सको, अपनी कल्पनाएँ और विचार त्याग सको, और दूसरों के सही विचार सुन सको, तो तुम पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता पा सकोगे। तुम्हारा दिल प्रकाशित हो जाएगा और तुम सही मार्ग पा सकोगे। तुम्हें आगे का रास्ता मिलेगा, और जब इस पर अमल करोगे, तो यह यकीनन सत्य के अनुरूप होगा। ऐसे अभ्यास और अनुभव के जरिए तुम सीख सकोगे कि सत्य पर अमल कैसे करें, और साथ ही काम के उस क्षेत्र के बारे में तुम कुछ नया सीख सकोगे। क्या यह अच्छी बात नहीं है?(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करके मुझे अभ्यास का एक स्पष्ट मार्ग प्राप्त हुआ। चीजें घटित होने पर मैं पूरी तरह से आत्म-विश्वासी नहीं हो सकता, मुझे दूसरों के सुझावों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए, सत्य सिद्धांत खोजने चाहिए और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करना चाहिए। तभी मैं अपना कर्तव्य अच्छे से निभा पाऊँगा। भले ही सुझाव देने वाला व्यक्ति कोई विशेषज्ञ न हो, फिर भी मुझे इस बात पर विचार करना चाहिए कि क्या उसमें कोई मसला है, न कि मुझे उसका विरोध करना और उसे नकारना चाहिए। इसलिए मैंने तुरंत पर्यवेक्षक से परामर्श किया। खोज करने और बातचीत के जरिए अंततः मुझे एहसास हुआ कि मैंने विषय-वस्तु को गलत समझा था और उसमें वाकई कैमडेन द्वारा उठाया गया मसला था।

इस अनुभव के बाद मुझे एहसास हुआ कि कर्तव्य निर्वहन में सामंजस्यपूर्ण सहयोग अनिवार्य है और दूसरों के सुझावों को अधिक सुनने से न केवल कलीसिया के कार्य को लाभ होता है बल्कि इससे अपने कर्तव्य में मेरी अपनी कमियों की पूर्ति भी होती है। हर किसी में क्षमताएँ और कमजोरियाँ होती हैं और केवल एक दूसरे की क्षमताओं के पूरक बनकर और सामंजस्यपूर्ण सहयोग करके ही हम अच्छे से अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकते हैं। जैसा कि परमेश्वर कहता है : “भाई-बहनों के बीच सहयोग एक की कमजोरियों की भरपाई दूसरे की खूबियों से करने की प्रक्रिया है। तुम दूसरों की कमियों की भरपाई करने के लिए अपनी खूबियों का उपयोग करते हो और दूसरे तुम्हारी कमियों की भरपाई करने के लिए अपनी खूबियों का उपयोग करते हैं। दूसरों की खूबियों से अपनी कमजोरियों की भरपाई करने और सामंजस्यपूर्वक सहयोग करने का यही अर्थ है। अगर लोग सामंजस्यपूर्वक सहयोग करेंगे, केवल तभी वे परमेश्वर के समक्ष धन्य हो सकते हैं, और वे चीजों का जितना अधिक अनुभव करते हैं उनके पास उतनी ही अधिक वास्तविकता होती है, और वे अपने मार्ग पर जितना अधिक चलते हैं यह उतना ही अधिक रोशन होता जाता है और वे और भी अधिक सहज महसूस करते हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सामंजस्‍यपूर्ण सहयोग के बारे में)

पिछला:  60. बीमारी के बीच समर्पण करना सीखना

अगला:  62. दूसरों को विकसित करने से मैं बेनकाब हुआ

संबंधित सामग्री

18. परमेश्वर का वचन जालों से निकलने में मेरी अगुवाई करता है

टिआँ'ना, हांगकांगपरमेश्वर के वचनों के लेख "क्या तुम जानते हो? परमेश्वर ने मनुष्यों के बीच एक बहुत बड़ा काम किया है" के पन्ने पलटते हुए, मुझे...

13. यह आवाज़ कहाँ से आती है?

लेखिका: शियीन, चीनमेरा जन्म एक ईसाई परिवार में हुआ था। मेरे बहुत से सगे-संबंधी प्रचारक हैं। मैं बचपन से ही अपने माता-पिता के साथ प्रभु में...

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 8) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

सेटिंग

  • इबारत
  • कथ्य

ठोस रंग

कथ्य

फ़ॉन्ट

फ़ॉन्ट आकार

लाइन स्पेस

लाइन स्पेस

पृष्ठ की चौड़ाई

विषय-वस्तु

खोज

  • यह पाठ चुनें
  • यह किताब चुनें

Connect with us on Messenger