77. क्या “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” का दृष्टिकोण सही है?
2017 की शुरुआत में मेरी पड़ोसन ली लान ने मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का सुसमाचार सुनाया। कुछ समय तक जाँच करने के बाद मैंने परमेश्वर के कार्य की पुष्टि की और मैं कुछ सत्य समझ पाई। खासकर जब मैंने देखा कि अंत के दिनों में देहधारी परमेश्वर लोगों के भ्रष्ट स्वभावों को शुद्ध करने के लिए कार्य करता है और अगर लोग वास्तव में सत्य का अनुसरण करते हैं तो वे बचाए जा सकते हैं और अनंत जीवन प्राप्त कर सकते हैं तो मुझे बहुत खुशी और उत्साह महसूस हुआ। मुझे एहसास हुआ कि यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे पैसे या भौतिक वस्तुओं से खरीदा जा सके और मैं सचमुच दिल की गहराइयों से ली लान की आभारी थी। मुझे याद है जब मैंने पहली बार अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य को स्वीकार किया था तो मेरे सभा में जाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था क्योंकि मेरा पति मुझे सताता था और मेरी दशा बहुत नकारात्मक थी, यह ली लान का प्यार और धैर्य ही था जिसने मुझे बार-बार मदद और सहारा दिया और मुझे गिरने से बचाया। धीरे-धीरे मुझे कुछ सत्य समझ में आए और मुझमें आस्था पैदा हुई। अब मैं अपने पति से बेबस नहीं थी और सामान्य रूप से सभा में भाग लेकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकती थी। जब मैं अपने कर्तव्यों के लिए जाती तो ली लान मेरे बच्चों की देखभाल और घरेलू कामों में मदद करती थी। मैं अक्सर सोचती, “मेरा परमेश्वर में विश्वास कर पाना और अपने पति से बाधित हुए बिना आसानी से अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर पाना ली लान के कारण संभव हुआ है। ली लान का मुझ पर बहुत उपकार है और वह एकमात्र व्यक्ति है जिसे मैं कभी नहीं भूलूंगी। मुझे भविष्य में उसका ऋण चुकाने का अवसर अवश्य ढूंढ़ना चाहिए।”
अक्टूबर 2021 में एक दिन अगुआ ने मुझसे कहा, “ली लान सभाओं में केवल घरेलू मामलों के बारे में बात करती है, इससे भाई-बहनों को परेशानी होती है और वे परमेश्वर के वचनों पर चिंतन और संगति में ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते। हमने उसके साथ संगति की है और कई बार उसके व्यवहार के बारे में बताया भी है और उसने इस बात को माना भी है, लेकिन अगली सभा में वह फिर से बिल्कुल वही हरकत करती है। एक छद्म-विश्वासी के रूप में उसका व्यवहार काफी गंभीर है और कलीसिया उसके बारे में भाई-बहनों से मूल्यांकन ले रही है। चूंकि तुम्हारे घर पास-पास हैं और कई वर्षों से उससे परस्पर बातचीत भी होती है इसलिए तुम भी उसका मूल्यांकन लिखो।” अगुआ की बात सुनकर मुझे दिल में एक जकड़न सी महसूस हुई। मैं ली लान की स्थिति अच्छी तरह जानती थी, हमारे घर पास-पास थे और वह अक्सर मेरे घर आती-जाती रहती थी। जब हम परमेश्वर के वचन पढ़ते और अपनी दशाओं के बारे में संगति करते थे तो मैंने देखा कि उसके विचार परमेश्वर के वचनों पर बिल्कुल नहीं टिकते और वह अक्सर तुच्छ किस्म की पारिवारिक बातें करती थी, एक पल वह यह बात करती कि उसका पति उसकी परवाह नहीं करता और फिर अगले ही पल वह यह बात करने लगती कि उसका बेटा उसकी नहीं सुनता। मैं उसके साथ संगति करती कि वह इसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारे और सबक सीखने के लिए सत्य की खोज करे, लेकिन उसने कभी इन बातों पर ध्यान नहीं दिया और जब हम दोबारा मिलते तब भी वह इन्हीं सब चीजों के बारे में बात करती और यह बात मुझे बहुत परेशान करती थी। इसके अलावा वह कभी भी अपने कर्तव्यों में मन नहीं लगाती थी और सामान्य मामलों के कार्य में हमेशा लापरवाह बरतती थी। मैंने कई बार उसके कर्तव्यों के प्रदर्शन के संबंध में उसे उजागर कर सुधारा था, वह बातचीत के दौरान तो मान जाती थी लेकिन फिर उसी राह पर चल पड़ती। अब वह भाई-बहनों को भी परेशान करने लगी थी जिसकी वजह से वे शांतिपूर्ण ढंग से सभा नहीं कर पा रहे थे और अनेक सुझावों और मदद के बावजूद वह अभी भी इस सलाह को नहीं मान पा रही थी। मैंने देखा कि ली लान ने सत्य बिल्कुल नहीं स्वीकारा था और लगातार कलीसियाई जीवन को बाधित और गड़बड़ी पैदा कर रही थी और यह बात साफ हो चुकी थी कि वह कलीसिया में रहने लायक नहीं है। लेकिन मैंने सोचा अगर मैंने उसके व्यवहार को उजागर कर दिया तो ली लान को छद्म-विश्वासी के रूप में बाहर कर दिया जाएगा और यह सोचकर मैं बहुत बेचैन हो रही थी। मैंने इस तथ्य पर विचार किया कि अगर मैं अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य को स्वीकार कर पाई थी और मुझे सत्य का अनुसरण करने और बचाए जाने का अवसर मिला था तो इसका श्रेय ली लान को जाता है जिसने मुझे सुसमाचार सुनाया था। और मेरी नकारात्मकता और कमजोरी के दिनों में ली लान ही थी जिसने लगातार मेरी मदद की थी और मुझे समर्थन दिया था। इसके अलावा जब मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए बाहर रहती थी तो ली लान ही अक्सर मेरे बच्चों की देखभाल और घरेलू कामों में मेरी मदद करती थी। जैसे कि कहावत है, “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए,” और इसके अलावा ली लान ने मेरी बहुत मदद की थी, इसलिए अगर मैंने एक छद्म-विश्वासी के रूप में उसके व्यवहार को उजागर किया तो क्या इससे यह जाहिर नहीं होगा कि मुझमें जमीर नहीं है? इस बात को ध्यान में रखकर मैंने अगुआ से चतुराई से कहा, “पिछले दो वर्षों से मैं ली लान के साथ सभा नहीं कर पा रही हूँ, इसलिए मैं उसे अच्छे से नहीं जानती।” मैंने यह कहकर ली लान का बचाव भी किया, “ली लान उत्साही है, भले ही उसका परिवार उसे सताता है फिर भी वह वाकई अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहती है।” अगुआ ने कहा, “एक बहन जिसने दो अवसरों पर ली लान के साथ बातचीत की है, उसका कहना है कि वह कलीसिया के जीवन को बाधित करती है और वह बहन उसका भेद पहचान गई है। वैसे तो तुम्हें उसके बारे में बेहतर पता होना चाहिए, क्या वाकई तुम उसका भेद नहीं पहचानती?” यह एहसास होने पर कि मेरा झूठ उजागर हो गया है, मुझे थोड़ी शर्मिंदगी हुई, लेकिन जब मैंने सोचा कि ली लान मेरे प्रति कितनी अच्छी है तब भी मैं उसका मूल्यांकन नहीं लिखना चाहती थी। अगुआ के जाने के बाद मुझे बेचैनी महसूस हुई मानो मेरे दिल पर कोई भारी बोझ रखा हो। एक दिन मेरी बेटी एक सभा से वापस आई और मुझसे बोली, “सभा के दौरान ली लान घरेलू मामलों के बारे में ही बात करती रही और हमारे लिए ठीक से एक सभा भी करना नामुमकिन हो गया। भाई-बहनों द्वारा उसके साथ संगति करने और कई बार उसे उजागर करने के बावजूद वह सुधरने को तैयार नहीं है। सबने यही कहा कि वे अब उसके साथ सभा नहीं करना चाहते।” अपनी बेटी की बातें सुनकर मैं समझ गई कि ली लान अभी भी कलीसिया के जीवन को बाधित कर रही है और मुझे वाकई अपराध-बोध हुआ; मैंने सोचा, “अगर मैं ली लान के व्यवहार को उजागर करूँ तो शायद ली लान को कलीसिया से जल्दी ही बाहर निकाल दिया जाए और भाई-बहनों की परेशानी कम हो जाए। लेकिन अगर मैं अगुआ को उसकी रिपोर्ट कर दूँ और ली लान को इसका पता चल जाए तो कहीं वह मुझ पर कृतघ्न और जमीर न होने का आरोप तो नहीं लगाएगी? फिर मैं उसका सामना कैसे करूँगी?” मन में इन विचारों के आने पर मैं बहुत उलझन में पड़ गई और अंत में मैंने ली लान का मूल्यांकन न देने का निर्णय लिया।
कुछ समय बाद एक बहन जो सफाई का कार्य करती थी हमारे साथ एक सभा में आई और अचानक मुझसे पूछा कि क्या मैं ली लान को जानती हूँ। मेरे दिल की धड़कन जैसे रुक गई और मैंने सोचा, “यह बहन अचानक ली लान के बारे में क्यों पूछ रही है? मुझे क्या जवाब देना चाहिए? अगर मैं कहूँ कि मैं उसे जानती हूँ तो बहन मुझसे ली लान के व्यवहार के बारे में विस्तार से पूछेगी और अगर मैं ईमानदारी से बोलूँ तो बहुत संभव है कि ली लान को बाहर कर दिया जाए। मैं बस इतना ही कह सकती थी कि मैं नहीं जानती, लेकिन एक झूठ मैं पहले ही बोल चुकी थी। अगर मैं फिर से झूठ बोलूँगी तो क्या मैं सचमुच बेशर्म झूठी नहीं बन जाऊँगी?” मैं बहुत दुविधा में थी इसलिए मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! इस बहन के सवाल को जरूर तुम्हारी अनुमति मिली होगी, मुझे सत्य का अभ्यास करने की शक्ति प्रदान करो।” प्रार्थना करने के बाद मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “तुम सभी कहते हो कि तुम परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील हो और कलीसिया की गवाही की रक्षा करोगे, लेकिन वास्तव में तुम में से कौन परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील रहा है? अपने आप से पूछो : क्या तुम उसके बोझ के प्रति विचारशील रहे हो? क्या तुम उसके लिए धार्मिकता का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुम मेरे लिए खड़े होकर बोल सकते हो? क्या तुम दृढ़ता से सत्य का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुममें शैतान के सभी दुष्कर्मों के विरुद्ध लड़ने का साहस है? क्या तुम अपनी भावनाओं को किनारे रखकर मेरे सत्य की खातिर शैतान का पर्दाफाश कर सकोगे? क्या तुम मेरे इरादों को स्वयं में संतुष्ट होने दोगे? सबसे महत्वपूर्ण क्षणों में क्या तुमने अपने दिल को समर्पित किया है? क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो मेरी इच्छा पर चलता है? स्वयं से ये सवाल पूछो और अक्सर इनके बारे में सोचो” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 13)। परमेश्वर के हर सवाल ने मेरे दिल को छेद दिया। परमेश्वर चाहता है कि मैं उसके बोझ पर विचार कर कलीसिया के हितों की रक्षा करूँ और मैं किसी भी ऐसे व्यक्ति को तुरंत उजागर कर रिपोर्ट करूँ जो कलीसियाई जीवन में गड़बड़ी पैदा कर रहा है। मैं लगातार ली लान के संपर्क में थी और उसकी गतिविधियों के बारे में मुझे पूरी जानकारी थी। वह लगातार सत्य स्वीकारने से इनकार करती रही और सभाओं के दौरान वह पारिवारिक मामलों को उठाती और लोगों को शांतिपूर्वक परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने से रोकती रही। कई दौर की संगति और सुधार के बावजूद उसने अभी भी पश्चात्ताप नहीं किया था और इससे कलीसियाई जीवन बुरी तरह से बाधित हुआ था। मुझे कलीसिया के हितों की रक्षा के लिए सत्य का अभ्यास करना चाहिए, उस स्थिति का विवरण सच्चाई से मुहैया कराना चाहिए जिसकी पूरी ईमानदारी से मुझे समझ है और समय रहते ली लान को कलीसिया से निकाल देना चाहिए ताकि भाई-बहनों को कलीसियाई जीवन जीने के लिए शांतिपूर्ण वातावरण मिल सके। यह परमेश्वर के इरादे और उसके बोझ के प्रति विचारशील होना है। इसलिए मैंने बहन को ली लान के लगातार एक से व्यवहार के बारे में सच-सच बता दिया और जो कुछ मैंने उसे बताया बहन ने उसे एक-एक करके नोट कर लिया। उसे ये बातें बताने के बाद मुझे अपने दिल में शांति और सुकून महसूस हुआ। कुछ ही समय बाद ली लान को कलीसिया से निकाल दिया गया और भाई-बहन अब सभाओं के दौरान बाधित नहीं होते थे।
लेकिन इसके बाद भी मैं ली लान के प्रति ऋणी महसूस करती रही। बाद में जब मैंने एक बहन से इस बारे में बात की तो उसने मुझसे संगति की, “ली लान के प्रति तुम्हारी निरंतर ऋणी महसूस करने की भावना मुख्य रूप से इस दृष्टिकोण के प्रभाव के कारण है कि जो दयालुता हमें मिली है उसे साभार चुकाना चाहिए।” बहन ने मुझे परमेश्वर के वचनों के दो अंश उपलब्ध कराये : “यह विचार कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए, पारंपरिक चीनी संस्कृति में यह आँकने के लिए एक प्रारूपिक कसौटी है कि किसी व्यक्ति का आचरण नैतिक है या अनैतिक। किसी व्यक्ति की मानवता अच्छी है या बुरी, और उसका आचरण कितना नैतिक है, इसका आकलन करने का एक मापदंड यह है कि क्या वह किसी के एहसान या मदद का बदला चुकाने की कोशिश करता है—क्या वह ऐसा व्यक्ति है जो दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाता है या नहीं। पारंपरिक चीनी संस्कृति में, और मानवजाति की पारंपरिक संस्कृति में, लोग इसे नैतिक आचरण के एक अहम पैमाने के रूप में देखते हैं। अगर कोई यह नहीं समझता है कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए, और वह कृतज्ञता नहीं दिखाता है, तो ऐसा माना जाता है कि उसमें जमीर का अभाव है, वह मेलजोल के लिए अयोग्य है और ऐसे व्यक्ति से सभी लोगों को घृणा करनी चाहिए, उसका तिरस्कार करना चाहिए या उसे ठुकरा देना चाहिए। दूसरी तरफ, अगर कोई व्यक्ति यह समझता है कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए—अगर वह कृतज्ञ है और उपलब्ध सभी साधनों का इस्तेमाल करके खुद पर किए गए एहसान या मदद का बदला चुकाता है—तो उसे जमीर और मानवता युक्त इंसान माना जाता है। अगर कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से लाभ या मदद लेता है, पर इसका बदला नहीं चुकाता, या सिर्फ जरा-सा ‘शुक्रिया’ कहकर आभार जता देता है, और इसके अलावा कुछ नहीं करता, तो दूसरा व्यक्ति क्या सोचेगा? शायद उसे यह असहज लगेगा? शायद वह सोचेगा, ‘यह इंसान मदद किए जाने के योग्य नहीं है। यह अच्छा व्यक्ति नहीं है। मैंने उसकी इतनी मदद की, अगर इस पर उसकी यही प्रतिक्रिया है, तो उसमें जमीर और इंसानियत नाम की चीज नहीं है, और इस योग्य नहीं है कि उससे संबंध रखा जाए।’ अगर उसे दोबारा कोई ऐसा व्यक्ति मिले, क्या वह तब भी उसकी मदद करेगा? कम-से-कम वह ऐसा करना तो नहीं चाहेगा” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (7))। “प्राचीन समय से लेकर आज तक अनगिनत लोग दयालुता का बदला चुकाने के संबंध में नैतिक आचरण के इस विचार, दृष्टिकोण और कसौटी से प्रभावित हुए हैं। यहाँ तक कि जब उन पर दया दिखाने वाला व्यक्ति दुष्ट या बुरा इंसान हो और उन्हें घृणित कृत्य और बुरे कर्म करने के लिए मजबूर करता हो, तब भी वे अपने जमीर और विवेक के खिलाफ जाकर उसकी दयालुता का बदला चुकाने के लिए बिना सोचे-विचारे उसकी बात मानते हैं, जिसके विध्वंसक परिणाम होते हैं। यह कहा जा सकता है कि बहुत से लोग, नैतिक आचरण की इस कसौटी से बाधित, बेबस और बंधे होने के कारण बिना सोचे-विचारे और गलती से दयालुता का बदला चुकाने के इस दृष्टिकोण पर कायम रहते हैं, और बुरे लोगों की मदद और सहयोग तक कर सकते हैं। अब जबकि तुम लोगों ने मेरी संगति सुन ली है, तुम्हारे पास इन हालात की साफ तस्वीर मौजूद है और तुम तय कर सकते हो कि यह मूर्खतापूर्ण वफादारी है, और ऐसा व्यवहार कोई सीमा तय किए बिना आचरण करना और बिना किसी समझदारी के बेपरवाही से दयालुता का बदला चुकाना कहलाता है, और इसमें अर्थ और मूल्य का सर्वथा अभाव होता है। चूँकि लोग जनमत के जरिए तिरस्कृत या दूसरों के द्वारा निंदित होने से डरते हैं, इसलिए वे न चाहकर भी दूसरों की दयालुता का बदला चुकाने में अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, यहाँ तक कि इस प्रक्रिया में अपना जीवन बलिदान कर देते हैं, जो चीजों से निपटने का एक भ्रामक और मूर्खतापूर्ण तरीका है। पारंपरिक संस्कृति की इस कहावत ने केवल लोगों की सोच को ही बाधित नहीं किया है, बल्कि उनके जीवन पर एक अनावश्यक भार और असुविधा का बोझ डाल दिया है, और उनके परिवारों को अतिरिक्त पीड़ा और बोझ तले दबा दिया है। बहुत से लोगों ने दयालुता का बदला चुकाने के लिए बहुत बड़ी कीमतें चुकाई हैं—वे दयालुता का बदला चुकाने को एक सामाजिक जिम्मेदारी या अपना कर्तव्य मानते हैं, और बहुत से लोगों ने तो दूसरों की दयालुता का बदला चुकाने के लिए अपना पूरा जीवन न्योछावर कर दिया है। उनका मानना है कि ऐसा करना बिल्कुल स्वाभाविक और उचित है, यह ऐसा कर्तव्य है जिससे बचा नहीं जा सकता है। क्या यह दृष्टिकोण और चीजों को करने का तरीका मूर्खतापूर्ण और बेतुका नहीं है? इससे साफ पता चलता है कि लोग कितने अज्ञानी और अबोध हैं। किसी भी स्थिति में, नैतिक आचरण की यह कहावत कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए, भले ही लोगों की धारणाओं के अनुरूप हो, लेकिन यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप बिल्कुल नहीं है। यह परमेश्वर के वचनों के अनुरूप भी नहीं है और यह चीजों को करने का गलत दृष्टिकोण और तरीका है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (7))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि ली लान के व्यवहार के बारे में विवरण देने में मेरी अनिच्छा कृतज्ञ होने और दयालुता का प्रतिदान देने के दृष्टिकोण के बंधन और विवशताओं के कारण थी। बचपन से ही मेरे माता-पिता ने मुझे कृतज्ञ होना और दूसरों की दयालुता का बदला चुकाना सिखाया था। मैं मानने लगी थी कि अगर किसी ने मुझ पर उपकार किया है तो मुझे उसका बदला चुकाने का कोई रास्ता ढूँढ़ना चाहिए और अगर मैं ऐसा नहीं कर पाई तो लोग पीठ पीछे मेरी आलोचना करेंगे और मुझे कृतघ्न कहेंगे। इसलिए मैंने कृतज्ञता व्यक्त करने और दयालुता का प्रतिदान देने को अपने आचरण का सिद्धांत बना लिया था। मैंने यही रवैया दुनिया के साथ अपनाया, अगर कोई मुझ पर दया करेगा तो मैं उसका दुगुना प्रतिफल दूँगी और मेरे सभी पड़ोसी मुझसे बातचीत करना पसंद करते थे जिससे मेरा यह विश्वास और भी दृढ़ हो गया कि इस तरह का कार्य करने से मैं एक जमीर रखने वाली और मानवीय व्यक्ति बन गई हूँ। परमेश्वर को पाने के बाद भी मैं इन्हीं पारंपरिक विचारों के अनुसार जीती रही और चूँकि ली लान ने मुझे अंत के दिनों का परमेश्वर का सुसमाचार सुनाया था, जब मैं कमजोर और नकारात्मक थी तब उसने मेरा साथ दिया था और मेरी मदद की थी और मेरे बच्चों और घर के कामों का भी ध्यान रखा था, इसलिए मैं वाकई ली लान की आभारी थी। मुझे लगा कि अब तक मैं जो सामान्य रूप से अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर पा रही थी उसकी वजह ली लान की संगति और मदद थी। मुझे लगा वह एकमात्र व्यक्ति है जिसे मैं कभी नहीं भूल सकती। असल में ली लान के साथ मेरी नियमित बातचीत से मुझे पहले ही पता चल गया था कि वह हमेशा लोगों और घटनाओं पर ही ध्यान केंद्रित करती है, उसने परमेश्वर से कुछ भी स्वीकार नहीं किया था या कोई सबक नहीं सीखा था और वह अपने कर्तव्यों में जी-जान से नहीं जुटी थी। उसके साथ परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते समय वह केवल तुच्छ पारिवारिक मामलों के बारे में ही बात करती थी और इससे हर कोई परेशान और विचलित महसूस करने लगा था। उसके व्यवहार से पता चलता था कि वह छद्म-विश्वासी है और सिद्धांतों के अनुसार उसे निकाल दिया जाना था। मुझे तुरंत ली लान के व्यवहार की रिपोर्ट अगुआओं को करनी चाहिए थी और उसे कलीसिया से निकाल देना चाहिए था। लेकिन ली लान की दयालुता का बदला चुकाने और कृतघ्न कहलाने से बचने के लिए मैं न केवल उसके व्यवहार की रिपोर्ट करने में विफल रही बल्कि उसे आश्रय और बढ़ावा भी दिया क्योंकि मैं चाहती थी कि वह कलीसिया में ही रहे। क्या मैं एक छद्म-विश्वासी की रक्षा नहीं कर रही थी? मैं कुकर्म और परमेश्वर का विरोध कर रही थी! कलीसिया वह जगह है जहाँ परमेश्वर के चुने हुए लोग उसकी आराधना करते हैं और यह भाई-बहनों के लिए परमेश्वर के वचनों की संगति करने का स्थान है। लेकिन ली लान की बाधाओं के कारण भाई-बहन परमेश्वर के वचनों पर शांति से विचार नहीं कर पाते थे। और ली लान की मेरे प्रति तथाकथित दयालुता का बदला चुकाने के लिए मैंने उसे उजागर नहीं किया था। मुझमें जमीर या मानवता कहाँ बची थी? मैं सचमुच अच्छाई और बुराई, सही और गलत में अंतर नहीं कर पाई थी। मैंने सचमुच परमेश्वर की घृणा की पात्र बन गई थी! यह एहसास होने पर मैं पश्चात्ताप और अपराध-बोध से भर गई, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं देख रही हूँ कि मैं कृतज्ञता व्यक्त करने और दयालुता का बदला चुकाने के इस पारंपरिक दृष्टिकोण से बहुत मजबूती से बँधी हुई हूँ और मैं सही-गलत या अच्छाई-बुराई में अंतर करने में असमर्थ हूँ। हे परमेश्वर! मैं तुमसे पश्चात्ताप करना चाहती हूँ।”
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “‘दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,’ इस पारंपरिक अवधारणा को ठीक-से समझने की जरूरत है। इसका सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा ‘दयालुता’ शब्द है—तुम्हें इस दयालुता को किस तरह देखना चाहिए? इसमें दयालुता के किस पहलू और प्रकृति की बात की गई है? ‘दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए’ का क्या महत्व है? लोगों को इन प्रश्नों के उत्तर खोजने चाहिए और किसी भी परिस्थिति में दयालुता का बदला चुकाने के इस विचार से बेबस नहीं होना चाहिए—जो व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है उसके लिए तो यह एकदम अनिवार्य है। मानवीय धारणाओं के अनुसार ‘दयालुता’ क्या है? एक छोटे स्तर पर, दयालुता का मतलब है, मुसीबत में किसी व्यक्ति का तुम्हारी मदद करना। उदाहरण के लिए, जब तुम भूख से बेहाल हो तो कोई तुम्हें चावल का कटोरा दे देता है, या जब तुम प्यास से तड़प रहे हो तो कोई तुम्हें पानी की बोतल दे देता है। या तुम गिर पड़ते हो और उठ नहीं पाते हो तो कोई तुम्हें हाथ पकड़कर उठा देता है। ये सभी दयालुता के काम हैं। दयालुता का बड़ा कर्म, किसी का तुम्हें उस समय बचा लेना है जब तुम बहुत ही कठिन परिस्थिति में फंस गए हो—यह जान बचाने वाली दयालुता है। जब तुम जान के खतरे में हो और कोई मौत से बचने में तुम्हारी मदद करता है, तो वह मूल रूप से तुम्हारी जान बचाता है। ये कुछ ऐसे काम हैं जिन्हें लोग ‘दयालुता’ के रूप में देखते हैं। इस तरह की दयालुता किसी भी तरह के छोटे-मोटे, भौतिक एहसान से बहुत ऊपर है—यह महान दयालुता है, जिसे पैसे या भौतिक वस्तुओं से नहीं तोला जा सकता। जिन्हें इस तरह की दयालुता मिलती है, वे कृतज्ञता की ऐसी भावना महसूस करते हैं जिसे धन्यवाद के कुछ शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। पर क्या दयालुता को इस तरह से नापना सही है? (नहीं।) तुम ऐसा क्यों कहते हो कि यह सही नहीं है? (क्योंकि यह माप पारंपरिक संस्कृति के मापदंड पर आधारित है।) यह उत्तर परिकल्पना और धर्म-सिद्धांत पर आधारित है, और भले ही यह सही प्रतीत हो, यह मामले के मर्म को नहीं छूता। तो हम इसे व्यावहारिक तौर पर कैसे समझा सकते हैं? इस पर ध्यान से विचार करो। कुछ समय पहले, मैंने एक ऑनलाइन वीडियो के बारे में सुना, जिसमें एक आदमी का पर्स गिर जाता है और उसे पता नहीं चलता। एक छोटा-सा कुत्ता उस पर्स को उठाकर उस आदमी के पीछे भागता है, जब वह आदमी उसे देखता है तो पर्स चुराने के लिए कुत्ते को मारने लगता है। बेहूदी बात, है ना? आदमी में कुत्ते से कम नैतिकता है! कुत्ते की हरकत मनुष्य के नैतिक मापदंडों के अनुरूप थी। कोई मनुष्य होता तो कहता, ‘आपका पर्स गिर गया है!’ पर क्योंकि कुत्ता बोल नहीं सकता, इसलिए वह चुपचाप पर्स उठाकर आदमी के पीछे दौड़ पड़ा। तो अगर कुत्ता भी पारंपरिक संस्कृति द्वारा प्रोत्साहित अच्छे व्यवहार दिखा सकता है तो यह मनुष्यों के बारे में क्या बताता है? मनुष्य जमीर और विवेक के साथ पैदा होते हैं, इसलिए वे यह सब करने में ज्यादा सक्षम हैं। अगर किसी में अपने जमीर की समझ है, तो वह इस तरह की जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभा सकता है। इसके लिए कोई कड़ी मेहनत करने या कोई कीमत चुकाने की जरूरत नहीं है, बस थोड़े-से प्रयास की जरूरत होती है, और कुल मिलाकर कोई ऐसा काम करना होता है जिससे दूसरों की मदद हो और उनका भला हो। लेकिन क्या इस तरह के काम की प्रकृति सचमुच ‘दयालुता’ है? क्या यह दयालुता के एक कर्म के स्तर तक पहुँचती है? (नहीं पहुँचती।) तो फिर, क्या लोगों को इसका बदला चुकाने की बात करने की जरूरत है? इसकी कोई जरूरत नहीं है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (7))। “कई बार, परमेश्वर लोगों की मदद करने के लिए शैतान की सेवाओं का उपयोग करता है, लेकिन ऐसे मामलों में हमें परमेश्वर का धन्यवाद जरूर करना चाहिए और शैतान को दयालुता का बदला नहीं चुकाना चाहिए—यह सिद्धांत का प्रश्न है। जब प्रलोभन किसी बुरे आदमी की दयालुता के रूप में सामने आता है, तो तुम्हें यह साफ तौर पर पता होना चाहिए कि तुम्हारी मदद और सहायता कौन कर रहा है, तुम्हारे हालात क्या हैं, और क्या तुम कोई और रास्ता चुन सकते हो। तुम्हें ऐसे मामलों से लचीले ढंग से पेश आना चाहिए। अगर परमेश्वर तुम्हें बचाना चाहता है, तो चाहे वह ऐसा करने के लिए किसी की भी सेवाओं का उपयोग करे, तुम्हें पहले परमेश्वर को धन्यवाद देना चाहिए और इसे परमेश्वर से स्वीकारना चाहिए। तुम्हें अपनी कृतज्ञता सिर्फ लोगों के प्रति निर्देशित नहीं करनी चाहिए, कृतज्ञता में किसी को अपना जीवन अर्पित करने की तो बात ही छोड़ दो। यह एक गंभीर भूल है। महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हारा हृदय परमेश्वर का आभारी हो, और तुम इसे परमेश्वर की ओर से स्वीकारो” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (7))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि लोगों की दयालुता को किस नजर से देखना चाहिए। कलीसिया में जब लोग नकारात्मक, कमजोर होते हैं या कठिनाइयों का सामना करते हैं तो भाई-बहन एक-दूसरे की मदद और समर्थन करने के लिए सत्य की संगति करते हैं। यह परमेश्वर के सभी चुने हुए लोगों की जिम्मेदारी है और यह परमेश्वर की अपने चुने हुए लोगों से अपेक्षा है। जब मुझे मेरे पति द्वारा सताया गया तो ली लान ने सत्य पर संगति कर मेरी मदद की थी। यह उसकी जिम्मेदारी थी और इसे दयालुता नहीं माना जा सकता। मैं यह भी समझ गई कि परमेश्वर की वाणी सुनने और अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकार कर पाने के संबंध में ऐसा लगा कि ली लान ने मुझे सुसमाचार सुनाया लेकिन इसके पीछे परमेश्वर की संप्रभुता और विधान था, इसलिए मुझे परमेश्वर को उसके अनुग्रह के लिए धन्यवाद देना चाहिए था। परमेश्वर को पाने के बाद मैं अपने पति के उत्पीड़न के कारण लड़खड़ाई नहीं, इसके बावजूद मैं अपने कर्तव्यों में दृढ़ रही। यह किसी व्यक्ति की उपलब्धि नहीं थी बल्कि यह परमेश्वर के वचनों के सिंचन और पोषण का परिणाम था। लेकिन मैंने न तो इसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारा और न ही उसे धन्यवाद दिया बल्कि एक व्यक्ति के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की। मैं बहुत कृतघ्न थी और परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह कर रही थी!
अपनी खोज में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा जिसने मुझे यह सिखाया कि मुझे उन लोगों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए जिन्होंने मेरी मदद की है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “इस स्थिति पर भी विचार करो : अतीत में किसी ने तुम्हारी मदद की थी, कुछ खास तरीकों से तुम पर दया दिखाई थी और तुम्हारे जीवन या किसी बड़ी घटना पर उसने काफी प्रभाव डाला था, मगर उसकी मानवता और जिस मार्ग पर वह चल रहा है, वह तुम्हारे मार्ग और जो तुम खोजते हो उसके अनुरूप नहीं है। तुम लोगों की भाषा अलग है, तुम इस व्यक्ति को पसंद नहीं करते और, शायद कुछ हद तक यह कहा जा सकता है कि तुम्हारी रुचियाँ और जिस चीज की तुम्हें तलाश है वे बिल्कुल अलग हैं। जीवन में तुम्हारे मार्ग, संसार को देखने के तुम्हारे दृष्टिकोण और जीवन के प्रति तुम्हारे नजरिये, सभी अलग-अलग हैं—तुम दोनों एक दूसरे से पूरी तरह अलग हो। तो, अतीत में उसने तुम्हारी जो मदद की थी उसके प्रति तुम्हारा रवैया कैसा होना चाहिए और तुम्हें उस मदद की कीमत कैसे चुकानी चाहिए? क्या वास्तव में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है? (बिल्कुल।) तो, तुम्हें क्या करना चाहिए? इस स्थिति से भी निपटना काफी आसान है। यह देखते हुए कि तुम दोनों अलग-अलग राह पर चल रहे हो, तो अपने साधनों के अनुसार तुम उसे जो भी आर्थिक प्रतिपूर्ति कर सकते हो वह करने के बाद, तुम्हें पता चलता है कि तुम्हारी मान्यताएँ बहुत भिन्न हैं, तुम दोनों एक ही मार्ग पर नहीं चल सकते, यहाँ तक कि दोस्त भी नहीं रह सकते और न ही मेलजोल कर सकते हो। अब जब तुम दोनों मेलजोल नहीं कर सकते, तो तुम्हें आगे क्या करना चाहिए? उससे दूरी बनाए रखो। मुमकिन है कि अतीत में उसने तुम पर दया दिखाई हो, लेकिन वह समाज में धोखाधड़ी और चालबाजी करता है, सभी प्रकार के घृणित कर्म करता है और तुम्हें यह व्यक्ति पसंद नहीं है, इसलिए तुम्हारा उससे दूरी बनाए रखना बिल्कुल सही है। कुछ लोग कह सकते हैं, ‘क्या इस तरह से व्यवहार करना अंतरात्मा का अभाव नहीं दर्शाता?’ यह अंतरात्मा का अभाव नहीं है—अगर उसे वाकई जीवन में किसी कठिनाई का सामना करना पड़ता है, तो तुम अभी भी उसकी मदद कर सकते हो, पर तुम उसके आगे बेबस नहीं हो सकते और न ही बुरे और अविवेकपूर्ण कर्मों में उसका साथ दे सकते हो। सिर्फ इसलिए कि अतीत में उसने तुम्हारी मदद की थी या तुम पर कोई बड़ा एहसान किया था, तो तुम्हें उसकी गुलामी करने की भी कोई जरूरत नहीं है—यह तुम्हारा दायित्व नहीं है और न ही वह ऐसे व्यवहार के लायक है। तुम उन लोगों के साथ मेलजोल करने, समय बिताने और यहाँ तक कि उनके साथ दोस्ती करने के भी हकदार हो जिन्हें तुम पसंद करते हो और जिनके साथ तुम्हारी बनती है, और जो सही लोग हैं। तुम इस व्यक्ति के प्रति अपनी जिम्मेदारी और दायित्व को पूरा कर सकते हो, यह तुम्हारा अधिकार है। बेशक, तुम उन लोगों से दोस्ती करने और उनसे मेलजोल करने से इनकार भी कर सकते हो जिन्हें तुम पसंद नहीं करते, और तुम्हें उनके प्रति किसी भी दायित्व या जिम्मेदारी को पूरा करने की कोई जरूरत नहीं है—यह भी तुम्हारा अधिकार है। अगर तुम इस व्यक्ति को त्यागने का फैसला करते हो और उसके साथ मेलजोल करने या उसके प्रति किसी भी जिम्मेदारी या दायित्व को पूरा करने से इनकार करते हो, तब भी यह गलत नहीं होगा। तुम्हें अपने आचरण के तरीके पर कुछ सीमाएँ निर्धारित करनी होंगी और अलग-अलग लोगों के साथ अलग-अलग तरीकों से पेश आना होगा। तुम्हें बुरे लोगों से नहीं जुड़ना चाहिए या उनके बुरे उदाहरण पर नहीं चलना चाहिए, यही बुद्धिमानी है। कृतज्ञता, भावनाओं और जनमत जैसे विभिन्न कारकों से प्रभावित मत हो—यह एक रुख अपनाना और सिद्धांत पर चलना है, और तुम्हें यही करना चाहिए” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (7))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मेरा हृदय बहुत रोशन हो गया। हर इंसान को अपने आचरण में एक दृष्टिकोण और सिद्धांत रखना चाहिए और हमें विचार करना चाहिए कि जिन लोगों ने हमारी मदद की है वे किस मार्ग पर हैं। अगर वे सही मार्ग पर हैं तो जब उनके क्रिया-कलाप सत्य-सिद्धांतों के अनुरूप न हों तो हमें सहनशील और धैर्यवान होना चाहिए और सत्य की संगति करके उनकी मदद करनी चाहिए। लेकिन अगर वे परमेश्वर का प्रतिरोध करने के मार्ग पर हैं तो हमें उन्हें उजागर कर उनकी रिपोर्ट करनी चाहिए और अगर वे पश्चात्ताप नहीं करते तो हमें उनसे दूरी बना लेनी चाहिए और उन्हें अस्वीकार कर देना चाहिए। जैसे ली लान ने कभी मेरी मदद की थी, अगर उसे जीवन में कठिनाइयाँ आईंं तो मैं निश्चित रूप से उसे कुछ भौतिक सहायता प्रदान कर सकती हूँ, लेकिन अब जबकि वह कलीसिया के जीवन को बाधित कर रही थी और परमेश्वर का प्रतिरोध करने के मार्ग पर चल रही थी तो मैं उसके गलत कामों में उसका साथ नहीं दे सकती थी। मुझे उसे उजागर कर कलीसिया के हितों की रक्षा करनी थी। यह सही और गलत में अंतर करना और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना है।
यह परमेश्वर के वचनों का न्याय और प्रकाशन ही है जिसने मुझे अपने गलत विचारों को तुरंत सुधारने दिया और अब मैं उस पारंपरिक दृष्टिकोण से बाधित नहीं थी कि जो दयालुता मिली है उसका कृतज्ञतापूर्वक प्रतिदान किया जाना चाहिए और यह समझने दिया कि केवल लोगों और चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखकर ही हम उसके इरादों के अनुरूप हो सकते हैं। परमेश्वर का धन्यवाद!