88. खुशामदी होने से मिले कड़वे सबक

फैन यी, चीन

मैं और वांग हुआ दोनों ही फरवरी 2021 में कलीसिया अगुआ चुने गए। चूँकि वांग हुआ को पहले से ही अगुआ होने का अनुभव था और वह सुसमाचार प्रचार में भी अनुभवी थी, इसलिए वह मुख्य रूप से सुसमाचार कार्य के लिए जिम्मेदार थी, जबकि मैं अन्य काम सँभालता था। जब मेरे काम में समस्याएँ या मुश्किलें आतीं तो मैं उससे मदद माँगता था और वह हमेशा मेरे साथ संगति करने और मेरी मदद करने के लिए तैयार रहती थी। हम दोनों की काफी सामंजस्यपूर्ण ढंग से बनती थी। कुछ समय बाद मैंने देखा कि वांग हुआ में मनमर्जी की भावना बहुत प्रबल है, खासकर लोगों को चुनने और उनका उपयोग करने के मामले में। वह हमेशा सत्य सिद्धांतों की तलाश किए बिना अपने नजरिए पर निर्भर रहती थी और दूसरों के सुझावों पर विचार करने की कोई इच्छा नहीं दिखाती थी। एक दिन सुसमाचार उपयाजक ने बताया कि टीम अगुआ ली झी अपने कर्तव्यों में लगातार अनमना रहा है, उसमें जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं है और कई दौर की संगति के बावजूद उसने अपना व्यवहार नहीं सुधारा है। उसने व्यक्तिगत मामलों के कारण एक हफ्ते तक अपने कर्तव्यों को पूरी तरह से नजरअंदाज किया। यह सुनने के बाद मुझे बहुत गुस्सा आया और लगा कि ली झी टीम अगुआ बने रहने लायक नहीं है और सिद्धांतों के अनुसार उसे बरखास्त कर दिया जाना चाहिए और दूसरा काम सौंप देना चाहिए। मैंने वांग हुआ के साथ अपना दृष्टिकोण साझा किया, लेकिन मुझे हैरानी हुई कि उसने न सिर्फ सुनने से इनकार कर दिया, बल्कि कड़ाई से मेरी आलोचना भी की, कहा कि मेरी सोच अपरिपक्व है और मैं दूसरों से बहुत अधिक अपेक्षा रखती हूँ। उसने यहाँ तक कहा कि जब ली झी की मनोदशा अच्छी थी, वह सुसमाचार का प्रचार करके लोगों को हासिल कर सकता था और उसे अधिक संगति और मदद की जरूरत है। मैंने कहा, “टीम अगुआ होने के लिए किसी में दायित्व और जिम्मेदारी की भावना होनी चाहिए। अपने कर्तव्यों में ली झी के निरंतर व्यवहार के आधार पर देखें तो वह टीम अगुआ के ओहदे के लिए बिल्कुल भी उपयुक्त नहीं है। फिर भी तुम उसे उस भूमिका में बनाए रखने पर जोर दे रही हो। यह सिद्धांतों के खिलाफ जाना है!” लेकिन वांग हुआ फिर भी नहीं मानी और बोली, “अगर हम ली झी को बरखास्त करते हैं और उसकी जगह लेने के लिए तुरंत कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं ढूँढ़ पाते हैं तो काम के नतीजे खराब हो सकते हैं और अगर अगुआ इसके बारे में पूछते हैं तो हम संतोषजनक स्पष्टीकरण नहीं दे पाएँगे। किसी को ओहदे पर बनाए रखना किसी के न होने से बेहतर है।” उसे यह कहते हुए सुनकर मैं देख सकता था कि वह सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे पर ध्यान केंद्रित कर रही है और कलीसिया के काम पर बिल्कुल भी विचार नहीं कर रही है। इसलिए मैं उसके इस तरह पेश आने की प्रकृति और दुष्परिणामों को उजागर करना चाहता था। लेकिन उसका गुस्सैल चेहरा देखकर मुझे चिंता हुई, मैं सोचने लगा “आमतौर पर जब मैं उसके काम से जुड़े मसलों का संक्षेप में उल्लेख करता हूँ, तब भी वह अधीर हो जाती है। अगर मैं बहुत स्पष्ट और बेबाकी से बात करता हूँ तो मैं उसे गुस्सा दिला दूँगा और वह मेरे प्रति उदासीन हो जाएगी। अगर इससे हमारे रिश्ते में तनाव आता है तो हम भविष्य में कैसे सहयोग करेंगे? अगर मेरे काम में मुश्किलें आईं और उसने मेरी मदद नहीं की तो क्या होगा? शायद इस बारे में बात न करना ही बेहतर है। वह इतने सालों से अपने कर्तव्यों का पालन कर रही है और लोगों को दूसरे काम सौंपने के सिद्धांतों को मुझसे बेहतर समझती है। शायद उसकी अपनी योजनाएँ हैं। इस बारे में ज्यादा चिंता न करना ही बेहतर है।” इसलिए मैंने बस उसे याद दिलाया कि लोगों का उपयोग करते समय इसके फायदों और नुकसानों पर विचार करना चाहिए और दोबारा इस मामले को नहीं उठाया।

कुछ ही समय बाद वांग हुआ ने मुझे बताया कि बहन शुशिन का दिमाग तेज है और वह लोगों से बातचीत करने में अच्छी है और उसने उसे सुसमाचार के प्रचार के लिए विकसित करने की योजना बनाई है। यह सुनकर मैंने सोचा, “मैं शुशिन से परिचित हूँ। वह हमेशा अपने कर्तव्यों में गैर-जिम्मेदार, स्वार्थी और धोखेबाज रही है। जब उसे पहले नवागंतुकों को सिंचन करने के लिए विकसित किया जा रहा था, उसे यह परेशानी भरा लगता था और नवागंतुकों के चले जाने के डर से वह जिम्मेदारी लेने से डरती थी। सिंचन करने के सिर्फ बीस दिन बाद उसने जाना बंद कर दिया और यहाँ तक कि झूठा दावा भी किया कि उसका पति उसे अपने कर्तव्य करने से रोक रहा है।” इसलिए जो भी मुझे पता था, मैंने वांग हुआ को बताया और उसे याद दिलाया कि शुशिन जैसी इंसान विकसित किए जाने के लिए उपयुक्त नहीं है। वांग हुआ ने मेरी सलाह बिल्कुल नहीं मानी। उसने कहा कि सिर्फ एक बातचीत से किसी की वास्तविक प्रकृति को पूरी तरह से आंकना संभव नहीं है और हमें उसे प्रगतिशील नजरिए से देखना चाहिए। मुझे लगा कि यह अनुचित है और मैं उसे रोकना चाहता था। लेकिन फिर मैंने सोचा, “उसने पहले ही शुशिन को विकसित करने के बारे में सबको बता दिया है, इसलिए अगर मैं असहमति जताता हूँ तो यह जरूर उसे शर्मिंदा करेगा। क्या वह सोचेगी कि मैं घमंडी हूँ और टाँग अड़ा रहा हूँ? अगर इससे हमारे रिश्ते में तनाव पैदा हुआ तो क्या होगा? इससे भविष्य में मिलकर काम करना मुश्किल हो जाएगा।” यह सोचकर मैंने आगे जोर देने का आत्मविश्वास खो दिया और बस यह सोचकर खुद को आश्वस्त किया, “कम से कम मैंने अच्छी तरह से सचेत कर दिया है। अगर भविष्य में कोई समस्या आती है तो यह मेरी जिम्मेदारी नहीं होगी।”

बाद में मुझे पता चला कि ली झी अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन बनी रही और इससे भाई-बहनों की मनोदशा प्रभावित हुई, जिससे काम की प्रभावशीलता में भारी गिरावट आई। इसके अलावा शुशिन ने सुसमाचार प्रचार के लिए जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं दिखाई और जब भी वह घर पर व्यस्त रहती तो अपने कर्तव्य छोड़ देती और उसके कर्तव्यों से बहुत कम नतीजे मिले। अगुआओं ने हमारे सुसमाचार कार्य में भटकावों और समस्याओं के बारे में बताते हुए एक पत्र भेजा और हमारे साथ संगति की और हमारी काट-छाँट की। लेकिन वांग हुआ ने बिल्कुल भी अपराध बोध नहीं दिखाया। इसके बजाय उसने बहस की और खुद को सही ठहराने की कोशिश की, कहा कि भाई-बहनों में अपने कर्तव्यों के लिए जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं है। मैं वाकई उसकी समस्याएँ उजागर करना और उसका गहन-विश्लेषण करना चाहता था, लेकिन मुझे यह भी डर था कि वह कहेगी कि मैं खुद को नहीं जानता और सिर्फ उसकी काट-छाँट कर रहा हूँ, इसलिए मैंने उसे आत्म-चिंतन करने और परमेश्वर से पश्चात्ताप करने के लिए थोड़ा सा सचेत किया। बाद में मैंने देखा कि वांग हुआ को खुद के बारे में कुछ भी नहीं पता था। भाई-बहनों ने रिपोर्ट किया था कि वह सिर्फ उनके काम पर ध्यान देती है और सभाओं के दौरान उन्हें फटकार लगाती है, वह वास्तविक मुद्दों को हल नहीं करती है और हर कोई उससे बेबस होता था। मुझे एहसास हुआ कि वांग हुआ शायद एक झूठी अगुआ है, इसलिए मैं इस बात की रिपोर्ट उच्च अगुआओं को करना चाहता था। लेकिन फिर मैंने सोचा, “अगर उसे पता चला कि मैंने उसकी समस्याओं की रिपोर्ट की है तो क्या वह मुझसे बैर नहीं रखेगी? आखिर उसने मेरे कर्तव्यों में मेरी मदद की है...।” मैं इस बारे में सोचता रहा, लेकिन आखिर तक भी मैं उसके बारे में कुछ भी लिखने का साहस नहीं जुटा पाया। बाद में उच्च अगुआ काम की जाँच करने आए। उन्होंने पाया कि वांग हुआ घमंडी और आत्म-तुष्ट है, बिना किसी सिद्धांत के काम करती है, वह दूसरों के सुझाव नहीं मानती है, वह बिना कोई वास्तविक काम किए सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों की बात करती है, इसलिए उसे झूठे अगुआ के रूप में पहचाना गया और बरखास्त कर दिया गया। साथ ही क्योंकि मैं खुशामदी की तरह पेश आ रहा था और कलीसिया के काम को बनाए रखने में नाकाम रहा था, इसलिए मुझे भी बरखास्त कर दिया गया। इसके तुरंत बाद ली झी और शुशिन को भी बरखास्त कर दिया गया। इस तरह से निपटाए जाने के बाद मुझे डर लगा और मुझे पता था कि मैंने बुराई की है। खासकर जब मैंने अगुआओं द्वारा मुझसे पूछे गए सवालों के बारे में सोचा, “जब तुमने वांग हुआ को सिद्धांतों के खिलाफ काम करते देखा और तुम उसे रोक नहीं पाए तो तुमने उसकी रिपोर्ट क्यों नहीं की? तुम उसके साथ अपने रिश्ते को बचाने की कोशिश क्यों करते रहे? तुम अपने कर्तव्यों के प्रति बहुत गैर-जिम्मेदार हो!” मेरे दिल में वाकई बहुत तीव्र पीड़ा हुई। वांग हुआ के साथ अपना रिश्ता बनाए रखने के लिए मैंने कलीसिया के काम पर विचार नहीं किया। मैंने देखा कि उसने कलीसिया के काम में बाधा डाली और गड़बड़ी पैदा की, लेकिन मैंने उसे नहीं रोका। मैं इस झूठे अगुआ की बुरी हरकतों को बढ़ावा दे रहा था और उसके साथी के रूप में काम कर रहा था! मेरी बरखास्तगी के बाद के महीनों में मैं बहुत हताश हो गया और मैं पूरी तरह से निराशा की मनोदशा में जीने लगा और अपने बारे में नकारात्मक हो गया।

मुझे बुरी मनोदशा में देखकर भाई-बहनों ने मेरी मदद करने के लिए मेरे साथ परमेश्वर के वचन साझा किए। एक ऐसा अंश था जिसने मुझ पर गहरी छाप छोड़ी। परमेश्वर कहता है : “जीवन के विकास की प्रक्रिया के दौरान और मानव उद्धार के दौर में, लोग कभी-कभी गलत मार्ग अपना सकते हैं, भटक सकते हैं, या कभी-कभी वे जीवन में अपरिपक्वता की स्थितियाँ और व्यवहार दिखा सकते हैं। कभी-कभी वे कमजोर और नकारात्मक हो सकते हैं, गलत बातें कह सकते हैं, लड़खड़ा सकते हैं या नाकामयाब हो सकते हैं। परमेश्वर की दृष्टि में ये सब सामान्य बातें हैं। वह इन्हें उनके खिलाफ नहीं रखता। कुछ लोग सोचते हैं कि उनकी भ्रष्टता बहुत गहरी है, और वे कभी भी परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर सकेंगे, इसलिए वे दुखी महसूस कर खुद से घृणा करते हैं। जिन लोगों के हृदय में पश्चात्ताप है, परमेश्वर उन्हें ही बचाता है। दूसरी ओर, जो लोग मानते हैं कि उन्हें परमेश्वर के उद्धार की आवश्यकता नहीं है, जो सोचते हैं कि वे अच्छे लोग हैं और उनके साथ कुछ भी गलत नहीं है, आम तौर पर परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता है। मैं यहाँ तुम्हें क्या बता रहा हूँ? जो कोई भी समझता है, वह बोल दे। (हमें अपनी भ्रष्टता के प्रकाशनों को उचित रूप से संभालना होगा और सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित करना होगा, और फिर हमें परमेश्वर का उद्धार प्राप्त होगा। अगर हम लगातार परमेश्वर को गलत समझते रहे, तो हम आसानी से निराशा से समझौता कर लेंगे।) तुम्हें आस्था रखनी चाहिए और कहना चाहिए, ‘भले ही मैं अभी कमजोर हूँ, मैंने ठोकर खाई है और नाकामयाब हुआ हूँ। मैं आगे बढ़ूंगा, और एक दिन सत्य को समझूँगा और परमेश्वर को संतुष्ट करके उद्धार प्राप्त करूँगा।’ तुम्हारे पास यह संकल्प होना चाहिए। चाहे तुम्हें कैसी भी रुकावटों, कठिनाइयों, नाकामियों या लड़खड़ाहटों का सामना करना पड़े, तुम्हें निराश नहीं होना चाहिए। तुम्हें यह पता होना चाहिए कि परमेश्वर किस प्रकार के लोगों को बचाता है। इसके अलावा, यदि तुम्हें लगता है कि तुम अभी तक परमेश्वर द्वारा बचाए जाने के योग्य नहीं हो, या ऐसे अवसर हों जब तुम्हारी अवस्थाओं से परमेश्वर घृणा करे और नाखुश हो, या ऐसे मौके हों जब तुम बुरा व्यवहार करते हो, और परमेश्वर तुम्हें नहीं स्वीकारता, तुम्हें ठुकरा देता है, तो कोई फर्क नहीं पड़ता। अब तुम जान गए हो, और अभी भी देर नहीं हुई है। यदि तुम पश्चात्ताप करोगे, तो परमेश्वर तुम्हें एक मौका जरूर देगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सबसे महत्वपूर्ण उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव करना है)। परमेश्वर के वचनों पर मनन करते हुए मैंने उसका प्रेम महसूस किया और देखा कि लोगों को बचाने के लिए परमेश्वर का हृदय कभी नहीं बदला है। परमेश्वर ने मुझे सिर्फ इसलिए बचाना बंद नहीं किया क्योंकि मैं खुशामदी था और कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचाता था। इसके बजाय उसे उम्मीद थी कि इस नाकामी के जरिए मैं अपने मुद्दों पर चिंतन करूँगा और उन्हें जानूँगा, सबक सीखूँगा, पश्चात्ताप करूँगा और बदलूँगा। मुझे खुद को सँभालने, अपनी नाकामी के कारणों पर चिंतन करने और ईमानदारी से पश्चात्ताप करने की जरूरत थी। इसलिए, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मैं जानता हूँ कि मैं अपने कर्तव्यों में लापरवाह रहा हूँ और मुझे तुम्हारा सामना करने में शर्म आती है। लेकिन मैं इस हताश मनोदशा में नहीं जीना चाहता। तुम मुझे अपने मसले जानने के लिए प्रबुद्ध करो और मार्गदर्शन दो।”

एक दिन मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “जब तुम्हें सत्य का अभ्यास करना होता है और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करनी होती है, तो क्या तुम लोग अपने भ्रष्ट स्वभावों की बाधा को दूर करने और सत्य के पक्ष में खड़े होने में सक्षम होते हो? उदाहरण के लिए, कलीसिया को शुद्ध करने का कार्य अंजाम देने के लिए तुम्हारा किसी के साथ जोड़ा बनाया जाता है, लेकिन वे हमेशा भाई-बहनों से यह संगति करते हैं कि परमेश्वर लोगों को यथासंभव अधिकतम सीमा तक बचाता है, और हमें लोगों के साथ प्रेम से पेश आना चाहिए और उन्हें पश्चात्ताप करने के अवसर प्रदान करने चाहिए। तुम्हें पता चलता है कि उनकी संगति में कुछ गड़बड़ है, और हालाँकि वे जो शब्द बोलते हैं वे बिल्कुल सही लगते हैं, लेकिन विस्तृत विश्लेषण करने पर तुम्हें पता चलता है कि वे इरादे और लक्ष्य पाल रहे हैं, किसी को नाराज नहीं करना चाहते, और कार्य व्यवस्थाओं को पूरा नहीं करना चाहते। जब वे इस तरह से संगति करते हैं, तो छोटे आध्यात्मिक कद वाले और विवेकहीन लोग उनसे बाधित हो जाएँगे, वे बेपरवाही से सिद्धांतहीन तरीके से प्रेम दिखाएँगे, दूसरों के प्रति विवेकशील होने की तरफ ध्यान नहीं देंगे, और मसीह-विरोधियों, कुकर्मियों और छद्म-विश्वासियों को उजागर नहीं करेंगे या उनकी सूचना नहीं देंगे। यह कलीसिया को शुद्ध करने के कार्य में बाधा है। यदि मसीह-विरोधियों, कुकर्मियों और छद्म-विश्वासियों को समय रहते निकाला नहीं जा सका, तो यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के उसके वचनों को सामान्य रूप से खाने-पीने और उनके कर्तव्यों के सामान्य निर्वहन को प्रभावित करेगा, और विशेष रूप से परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाते हुए कलीसिया के काम को अस्त-व्यस्त करेगा। ऐसे समय में तुम्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? जब तुम्हें समस्या का पता चले, तो तुम्हें सामने आकर इस व्यक्ति को उजागर करना चाहिए; तुम्हें उन्हें रोकना चाहिए और कलीसिया के कार्य की रक्षा करनी चाहिए। तुम सोच सकते हो : ‘हम सहकर्मी हैं। अगर मैंने उन्हें सीधे उजागर किया और उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया, तो क्या हमारे बीच मनमुटाव नहीं होगा? नहीं, मैं बस यूँ ही नहीं बोल सकता, मुझे थोड़ा और व्‍यवहार-कुशल होना पड़ेगा।’ इसलिए तुम उन्हें एक सरल सा अनुस्मारक देते हुए उन्हें कुछ उपदेश देते हो। तुम्हारी बात सुनने के बाद वे इसे स्वीकार नहीं करते, और तुम्हें गलत ठहराने के लिए कई कारण गिना देते हैं। यदि वे इसे स्वीकार नहीं करते तो परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान पहुँचेगा। तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम परमेश्वर से प्रार्थना करोगे, कहोगे : ‘परमेश्वर, कृपया इसे व्यवस्थित करो और इसकी योजना बनाओ। उन्हें अनुशासित करो—मैं कुछ नहीं कर सकता।’ तुम सोचते हो कि तुम उन्हें रोक नहीं सकते और इसलिए तुम उन्हें बिना रोक-टोक के जाने देते हो। क्या यह जिम्मेदाराना व्यवहार है? क्या तुम सत्य का अभ्यास करते हो? यदि तुम उन्हें रोक नहीं सकते, तो तुम अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इसकी सूचना क्यों नहीं देते? तुम इस मामले को किसी सभा में क्यों नहीं उठाते ताकि सभी इस पर संगति और चर्चा कर सकें? यदि तुम ऐसा नहीं करते, तो क्या तुम बाद में वास्तव में खुद को दोषी नहीं ठहराओगे? यदि तुम कहते हो, ‘मैं इसे प्रबंधित नहीं कर सकता, इसलिए मैं इसे अनदेखा कर दूँगा। मेरी अंतरात्मा साफ है,’ तो फिर तुम्हारे पास किस प्रकार का दिल है? क्या यह दिल वास्तव में प्यार करने वाला है या दूसरों को नुकसान पहुँचाने वाला है? तुम्हारा दिल बहुत ही दुष्ट है, क्योंकि जब तुम्हारे साथ कुछ होता है, तो तुम लोगों को नाराज करने से डरते हो और सिद्धांतों का पालन नहीं करते। दरअसल तुम अच्छी तरह जानते हो कि इस व्यक्ति का इस तरह से काम करने का अपना उद्देश्य है और तुम इस मामले में उसकी बात नहीं सुन सकते। हालाँकि तुम सिद्धांतों का पालन करने और उन्हें दूसरों को गुमराह करने से रोकने में असमर्थ हो, और यह अंततः परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाता है। क्या तुम इसके बाद खुद को दोषी ठहराओगे? (मैं ऐसा करूँगा।) क्या खुद को दोषी ठहराने से तुम नुकसान को वापस ला पाओगे? उसकी भरपाई नहीं हो सकती। इसके बाद तुम फिर से विचार करते हो : ‘मैंने वैसे भी अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर ली हैं, और परमेश्वर यह जानता है। परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराई तक पड़ताल करता है।’ ये किस तरह के शब्द हैं? ये छल-कपट वाले, शैतानी शब्द हैं जो मनुष्य और परमेश्वर दोनों को धोखा देते हैं। तुमने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं की हैं, और फिर भी उनसे बचने के लिए कारण और बहाने ढूँढ़ते हो। यह धोखेबाजी और अड़ियलपन है। क्या इस तरह के व्यक्ति में परमेश्वर के प्रति कोई ईमानदारी होती है? क्या उसमें न्याय की भावना होती है? (उसमें नहीं होती।) यह ऐसा व्यक्ति है जो जरा-भी सत्य स्वीकार नहीं करता, यह शैतान की किस्म का व्यक्ति है। जब तुम्हारे साथ कुछ घटित होता है, तो तुम सांसारिक आचरण के फलसफों के अनुसार जीते हो और सत्य का अभ्यास नहीं करते। तुम हमेशा दूसरों को नाराज करने से डरते हो, लेकिन परमेश्वर को नाराज करने से नहीं डरते, यहाँ तक कि अपने पारस्परिक संबंधों की रक्षा के लिए परमेश्वर के घर के हित भी त्याग दोगे। इस तरह कार्य करने के क्या दुष्परिणाम होते हैं? तुम अपने पारस्परिक संबंध तो अच्छी तरह से सुरक्षित कर लोगे, लेकिन परमेश्वर को नाराज कर दोगे, और वह तुम्हें ठुकरा देगा, और तुमसे गुस्सा हो जाएगा। संतुलन के लिहाज से इनमें से कौन-सी चीज बेहतर है? अगर तुम नहीं बता सकते, तो तुम पूरी तरह से भ्रमित हो; यह साबित करता है कि तुम्हें सत्य की थोड़ी-सी भी समझ नहीं है। अगर तुम इसी तरह चलते रहे और कभी समस्या को लेकर जागरूक नहीं हुए, तो वास्तव में खतरा बहुत बड़ा है और अगर अंत में तुम सत्य प्राप्त करने में असमर्थ रहे, तो नुकसान तुम्हारा ही होगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी वास्तविक मनोदशा उजागर कर दी। मैंने देखा कि मैं सिर्फ स्वार्थी और कपटी खुशामदी था, जिसमें कलीसिया के काम के प्रति जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं थी। मैंने साफ तौर पर देखा कि वांग हुआ मनमर्जी से काम कर रही है और सिद्धांतों की तलाश नहीं कर रही है और मैं यह भी जानता था कि मुझे सिद्धांतों को बनाए रखना चाहिए और कलीसिया के काम की रक्षा के लिए उसे उजागर करना और रोकना चाहिए। लेकिन जब मैंने उसकी समस्याएँ बताईं और उसने उन्हें नहीं स्वीकारा तो मुझे डर था कि वह नाराज हो जाएगी और कर्तव्यों में हमारे सहयोग को नुकसान पहुँचेगा। उसके साथ अपना रिश्ता बनाए रखने के लिए मैंने हमेशा उसके मसलों को कम करके आंका और मैंने कभी उसकी समस्याओं का सार उजागर नहीं किया। मैंने उसके मुद्दों की रिपोर्ट हमारे अगुआओं को भी नहीं की। इससे आखिरकार सुसमाचार कार्य को नुकसान पहुँचा। लेकिन जब ऐसा हुआ, तब भी मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया और इसके बजाय खुद को समायोजित करने के लिए बहाने बनाने लगा। मैंने सोचा कि चूँकि मैंने उसे पहले ही सचेत कर दिया है और उसने इसे स्वीकार नहीं किया, इसलिए मैं और कुछ नहीं कर सकता। लेकिन अंदर ही अंदर मैं अच्छी तरह से जानता था कि मैंने अपनी जिम्मेदारियों को बिल्कुल भी पूरा नहीं किया है। मैंने सिर्फ सतही बातें कहीं, कोई वास्तविक प्रभाव नहीं पाया। मैं बस खुद को और दूसरों को धोखा दे रहा था! यहाँ तक कि जब मैंने झूठी अगुआ के रूप में उसका भेद पहचाना, तब भी मैंने उसे उजागर नहीं किया या उसकी रिपोर्ट नहीं की, मैंने उसे तब भी माफ कर दिया जब उसने कलीसिया के काम में बाधा डाली और गड़बड़ी पैदा की। मैं व्यक्तिगत संबंधों को बचाने के लिए कलीसिया के हितों का त्याग कर रहा था, झूठी अगुआ को बचा रहा था और उसे माफ कर रहा था जबकि उसने बुरे काम किए और कलीसिया के काम को बाधित किया। मैं वाकई स्वार्थी और नीच था!

मैंने तब परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को समझ नहीं लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। उस प्रकृति में विशिष्ट रूप से क्या शामिल होता है? उदाहरण के लिए, तुम स्वार्थी क्यों हो? तुम अपने पद की रक्षा क्यों करते हो? तुम्हारी भावनाएँ इतनी प्रबल क्यों हैं? तुम उन अधार्मिक चीजों से प्यार क्यों करते हो? ऐसी बुरी चीजें तुम्हें अच्छी क्यों लगती हैं? ऐसी चीजों को पसंद करने का आधार क्या है? ये चीजें कहाँ से आती हैं? तुम इन्हें स्वीकार कर इतने खुश क्यों हो? अब तक, तुम सब लोगों ने समझ लिया है कि इन सभी चीजों के पीछे मुख्य कारण यह है कि मनुष्य के भीतर शैतान का जहर है। तो शैतान का जहर क्या है? इसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, यदि तुम पूछते हो, ‘लोगों को कैसे जीना चाहिए? लोगों को किसके लिए जीना चाहिए?’ तो लोग जवाब देंगे, ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।’ यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का फलसफा और तर्क लोगों का जीवन बन गए हैं। लोग चाहे जिसका भी अनुसरण करें, वे ऐसा बस अपने लिए करते हैं, और इसलिए वे केवल अपने लिए जीते हैं। ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए’—यही मनुष्य का जीवन-दर्शन है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। ये शब्द पहले ही भ्रष्ट इंसान की प्रकृति बन गए हैं, और वे भ्रष्ट इंसान की शैतानी प्रकृति की सच्ची तस्वीर हैं। यह शैतानी प्रकृति पहले ही भ्रष्ट इंसान के अस्तित्व का आधार बन चुकी है। कई हजार सालों से वर्तमान दिन तक भ्रष्ट इंसान शैतान के इस जहर से जिया है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करने पर मुझे एहसास हुआ कि खुशामदी होने की मेरी प्रवृत्ति का मूल कारण यह था कि मैंने शैतानी जहरों जैसे कि “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है,” “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है” और “एक और मित्र का अर्थ है एक और मार्ग” को जीवन के नियमों के रूप में अपना लिया था। मेरा मानना था कि इस दुनिया में जीने और दूसरों के साथ बातचीत करने में व्यक्ति को व्यापक सामाजिक संबंध और अच्छे रिश्ते बनाने की जरूरत होती है; वरना वह समाज में अडिग नहीं रह सकता, एक और व्यक्ति को नाराज करने का मतलब एक और दुश्मन बनाना होगा। कलीसिया में कर्तव्य करते हुए भी मैं इन शैतानी फलसफों के अनुसार जीता रहा, दूसरों के साथ संबंधों को बहुत महत्व देता था और अपने कर्तव्यों में किसी भी सिद्धांत या रुख की कमी रखता था। परमेश्वर ने मुझे एक अगुआ के रूप में प्रशिक्षित करने का अवसर देकर मुझ पर अनुग्रह दिखाया। मुझे सभी चीजों में कलीसिया के काम को प्राथमिकता देनी चाहिए थी। जब मैंने अपनी साथी बहन को सिद्धांतों के खिलाफ काम करते देखा तो मुझे तुरंत इस बारे में बताना चाहिए था और उसकी मदद करनी चाहिए थी, और अगर वह अपने तरीकों पर अड़ी रहती तो मुझे उसे उजागर करना और उसे रोकना चाहिए था या फिर मैं कलीसिया के काम को होने वाले किसी भी नुकसान को रोकने के लिए समय रहते हमारे अगुआओं को इस मुद्दे की रिपोर्ट भी कर सकता था। लेकिन इसके बजाय अपना आत्मसम्मान और रुतबा बचाने के लिए मैं खुशामदी की तरह पेश आया और सत्य का अभ्यास नहीं किया। मैं उसके काम का पर्यवेक्षण करने में नाकाम रहा और मैंने उसके बुरे कामों को बढ़ावा दिया। मैंने कलीसिया के काम पर कोई विचार नहीं किया और मुझमें न्याय की भावना का अभाव था। वांग हुआ ने लापरवाही से गलत काम किए और वह घृणित थी और मैं अच्छी तरह से जानता था कि वह बुरे काम कर रही है और गड़बड़ी पैदा कर रही है, फिर भी मैंने समय रहते उसे उजागर नहीं किया या उसे नहीं रोका, जिससे वह कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचाने लगी। मेरे व्यवहार की प्रकृति और भी अधिक गंभीर और शर्मनाक थी! अगर मैंने वांग हुआ के मसलों के बारे में पहले ही रिपोर्ट कर दी होती तो अगुआ उन्हें जल्दी सँभाल लेते और हल कर लेते और चीजें इस हद तक नहीं बिगड़तीं। शैतान के फलसफों के अनुसार जीने से मैं वाकई स्वार्थी और धोखेबाज बन गया। मैंने दूसरों में जो समस्याएँ देखीं, उन्हें बताने की हिम्मत नहीं की और मुझमें दूसरों के लिए ईमानदारी और सच्चे प्रेम की कमी थी। मेरे पास अपने कर्तव्यों के प्रति जिम्मेदारी की भावना भी नहीं थी। मैंने जो कुछ भी किया, उससे कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचा। परमेश्वर ने जो कुछ भी मुझे दिया था मैंने उसे खाया और पीया, उसका आनंद लिया, लेकिन उसके इरादों पर बिल्कुल भी विचार नहीं किया। मैंने बार-बार झूठे अगुआ का पक्ष लिया, जिससे कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचा। मैं एक कृतघ्न विश्वासघाती के अलावा कुछ नहीं था, जिसमें मानवता या विवेक की कोई भावना नहीं थी! मेरे जैसा कोई व्यक्ति अगुआ बनने के बिल्कुल भी योग्य नहीं था, परमेश्वर के सामने रहना तो दूर की बात है। कलीसिया द्वारा मुझे मेरे पद से बरखास्त करना परमेश्वर की धार्मिकता की अभिव्यक्ति थी और मेरे क्रियाकलापों का दुष्परिणाम था। यह पहचानते हुए मैं पश्चात्ताप और अपराध बोध से भर गया।

उसके बाद मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, अपने भ्रष्ट स्वभाव को सुलझाने का मार्ग खोजने की कोशिश की। एक दिन मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “अगर तुम अच्छी तरह से अपने कर्तव्य निभाना और परमेश्वर के इरादे पूरे करना चाहते हो, तो तुम्हें पहले दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्वक कार्य करना सीखना चाहिए। अपने भाई-बहनों के साथ सहयोग करते समय तुम्हें निम्नलिखित बातों पर विचार करना चाहिए : ‘सामंजस्य क्या है? क्या मेरी वाणी उनके साथ सामंजस्यपूर्ण है? क्या मेरे विचार उनके साथ सामंजस्यपूर्ण हैं? मैं जिस तरह से काम करता हूँ, क्या वह उनके साथ सामंजस्यपूर्ण है?’ विचार करो कि सामंजस्यपूर्वक कैसे सहयोग करें। कई बार सामंजस्य का अर्थ धैर्य और सहनशीलता होता है, किंतु इसका अर्थ अपने विचारों पर दृढ़ और सिद्धांतों पर अडिग रहना भी होता है। सामंजस्य का अर्थ चीजें आसान बनाने के लिए सिद्धांतों से समझौता करना, या ‘खुशामदी’ बनने की कोशिश करना, या संतुलन के मार्ग पर टिके रहना नहीं है—और किसी की ठकुरसुहाती करना तो इसका अर्थ निश्चित रूप से नहीं है। ये सिद्धांत हैं। एक बार तुमने इन सिद्धांतों को अपना लिया, तो तुम अनजाने ही परमेश्वर के इरादे के अनुसार बोलोगे, कार्य करोगे और सत्य की वास्तविकता जिओगे, और इस तरह एकता प्राप्त करना आसान है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सामंजस्‍यपूर्ण सहयोग के बारे में)। “सहयोग क्या होता है? तुम्हें एक-दूसरे के साथ चीजों पर विचार-विमर्श करने और अपने विचार और राय व्यक्त करने में सक्षम होना चाहिए; तुम्हें एक-दूसरे का पूरक बनना चाहिए, परस्पर निगरानी करनी चाहिए, एक-दूसरे से माँगना चाहिए, एक-दूसरे से पूछताछ करनी चाहिए, और एक-दूसरे को स्मरण कराना चाहिए। सामंजस्य के साथ सहयोग करना यही होता है। उदहारण के लिए मान लो, तुमने अपनी इच्छा के अनुसार किसी चीज को सँभाला, और किसी ने कहा, ‘तुमने यह गलत किया, पूरी तरह से सिद्धांतों के विरुद्ध। तुमने सत्य को खोजे बिना, जैसे चाहे वैसे इसे क्यों सँभाला?’ जवाब में तुम कहते हो, ‘बिल्कुल सही—मुझे खुशी है कि तुमने मुझे सचेत किया! यदि तुमने न चेताया होता, तो तबाही मच गई होती!’ यही है एक-दूसरे को स्मरण कराना। तो फिर एक-दूसरे की निगरानी करना क्या होता है? सबका स्वभाव भ्रष्ट होता है, और हो सकता है कि वे परमेश्वर के घर के हितों की नहीं, बल्कि केवल अपने रुतबे और गौरव की सुरक्षा करते हुए अपना कर्तव्य निभाने में लापरवाह हो जाएँ। प्रत्येक व्यक्ति में ऐसी अवस्थाएँ होती हैं। यदि तुम यह जान जाते हो कि किसी व्यक्ति में कोई समस्या है, तो तुम्हें उसके साथ संगति करने की पहल करनी चाहिए, उसे सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाने की याद दिलानी चाहिए, और साथ ही इसे अपने लिए एक चेतावनी के रूप में लेना चाहिए। यही है पारस्परिक निगरानी। पारस्परिक निगरानी से कौन-सा कार्य सिद्ध होता है? इसका उद्देश्य परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना होता है, और साथ ही लोगों को गलत मार्ग पर कदम रखने से रोकना होता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि हर किसी में भ्रष्ट स्वभाव होता है, साथ ही कमियाँ और खामियाँ भी होती हैं। कलीसिया के लिए यह सार्थक है कि वह अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उनके कर्तव्यों में सहयोग करने की व्यवस्था करे। इसका उद्देश्य है कि वे एक-दूसरे का पर्यवेक्षण करें, याद दिलाएँ और एक-दूसरे के पूरक बनें, आपसी संयम प्रदान करें, अपने भ्रष्ट स्वभावों पर आधारित क्रियाकलापों के कारण कलीसिया के काम में बाधाओं और गड़बड़ियों को रोकें। सहयोग में कर्तव्य करने में सिद्धांत भी होने चाहिए। जिन मामलों में सत्य सिद्धांत शामिल नहीं हैं, उनमें हम सहनशीलता और धैर्य का अभ्यास कर सकते हैं। लेकिन जब सत्य सिद्धांत और कलीसिया के हितों से जुड़े मामलों की बात आती है, हमें समझौता या समायोजन नहीं करना है। हमें सिद्धांतों को बनाए रखना और अडिग रहना है। यह कलीसिया के हितों की रक्षा करना और काम के लिए जिम्मेदार होना है। दूसरों से संकेत और मदद मिलने पर जो लोग वाकई सत्य को स्वीकार सकते हैं, वे उन्हें परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारने, आत्म-चिंतन करने और खुद को जानने में सक्षम होते हैं और समस्याओं और भटकावों को तुरंत ठीक करते हैं। न सिर्फ वे दूसरों से नाराज नहीं होते, बल्कि वे अपने दिल में आभारी भी होते हैं। लेकिन मैंने बेतुके ढंग से यह मान लिया कि किसी की समस्याएँ बताने से रिश्ते खराब हो जाएँगे और वे नाराज हो जाएँगे। इसलिए मैंने उनकी समस्याएँ उजागर किए बिना या उनकी रिपोर्ट किए बिना बस उन्हें खुश रखा और उनका समर्थन किया। नतीजतन कलीसिया का काम विलंबित हो गया और मेरे पास बस अपराध रह गए। मुझे एहसास हुआ कि खुशामदी होना वाकई दूसरों के साथ ही मुझे भी नुकसान पहुँचाता है!

बाद में मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “अगर तुम्हारे पास एक चापलूस का इरादा और दृष्टिकोण है तो तब तुम सभी मामलों में सत्य का अभ्यास नहीं करोगे या सिद्धांतों को कायम नहीं रखोगे और तुम हमेशा असफल होओगे और नीचे गिरोगे। यदि तुम जागरूक नहीं होते और कभी सत्य नहीं खोजते तो तुम छद्म-विश्वासी हो और तुम कभी सत्य और जीवन हासिल नहीं करोगे। तब तुम्हें क्या करना चाहिए? इस तरह की चीजों से सामना होने पर तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी ही चाहिए और उसे पुकारना चाहिए, उससे उद्धार के लिए विनती करनी चाहिए और यह माँगना चाहिए कि वह तुम्हें आस्था और शक्ति दे और सिद्धांतों को कायम रखने में तुम्हें समर्थ बनाए, वो करो जो तुम्हें करना चाहिए, चीजों को सिद्धांतों के अनुसार सँभालो, उस स्थिति में मजबूती से खड़े रहो जहाँ तुम्हें होना चाहिए, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करो और परमेश्वर के घर के कार्य को होने वाले किसी भी नुकसान को रोको। अगर तुम अपने स्वार्थों, अपने अभिमान और एक चापलूस होने के अपने दृष्टिकोण के खिलाफ विद्रोह करने में सक्षम हो और अगर तुम एक ईमानदार, अविभाजित हृदय के साथ वह करते हो जो तुम्हें करना चाहिए तो तुम शैतान को हरा चुके होगे और सत्य के इस पहलू को प्राप्त कर चुके होगे। यदि तुम हमेशा शैतान के फलसफे के अनुसार जीने, दूसरों के साथ अपने संबंध सुरक्षित रखने, कभी भी सत्य का अभ्यास न करने, और सिद्धांतों का पालन न करने की हिम्मत करने पर अड़े रहते हो, तो क्या तुम अन्य मामलों में सत्य का अभ्यास कर पाओगे? तुम्हारे पास अभी भी आस्था या शक्ति नहीं होगी। यदि तुम सत्य नहीं खोजते या स्वीकार नहीं करते, तो क्या परमेश्वर में ऐसी आस्था से तुम सत्य प्राप्त कर पाओगे? (नहीं।) और यदि तुम सत्य प्राप्त नहीं कर सकते, तो क्या तुम बचाए जा सकते हो? नहीं बचाए जा सकते। यदि तुम हमेशा शैतान के फलसफे के अनुसार जीते हो, सत्य वास्तविकता से पूरी तरह वंचित रहते हो, तो तुम कभी भी नहीं बचाए जा सकते(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिया। जब मैं ऐसी स्थिति का सामना करता हूँ जहाँ मैं फिर से खुशामदी बनना चाहता हूँ तो मुझे तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उससे ताकत माँगनी चाहिए ताकि मैं अपने हितों को अलग रख सकूँ और सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकूँ, यह सुनिश्चित करते हुए कि कलीसिया का काम प्रभावित न हो। यह वही जिम्मेदारी है, जिसे एक सृजित प्राणी के रूप में व्यक्ति को अच्छे से पूरा करना चाहिए। अगर मैं लगातार खुशामदी होने की मानसिकता से चिपका रहूँगा और लगातार दूसरों के साथ अपने रिश्तों को बचाने की कोशिश करूँगा तो खुशामदी होने का मेरा शैतानी स्वभाव कभी नहीं बदलेगा और आखिरकार मैं कभी भी सत्य को प्राप्त नहीं कर पाऊँगा, परमेश्वर का उद्धार पाना तो दूर की बात है। इसलिए मैंने अपने दिल में संकल्प लिया, “भविष्य में चाहे मैं किसी भी तरह के लोगों, घटनाओं या चीजों का सामना करूँ, मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव के आगे बेबस नहीं होना है। मुझे कलीसिया के काम की रक्षा करने और एक जिम्मेदार व्यक्ति बनने के लिए सिद्धांतों को बनाए रखना है।”

कुछ महीने बाद मुझे फिर से कलीसिया अगुआ चुना गया। मैंने देखा कि सामान्य मामलों की उपयाजक झांग जी का स्वभाव काफी अहंकारी है। वह अपने कर्तव्यों में मनमानी और तानाशाही करती है, हर काम खुद करने की कोशिश करती रहती है और दूसरों के साथ सहयोग नहीं करती है। इसलिए मैं उसके साथ संगति करना चाहता था ताकि इस रवैये की प्रकृति और दुष्परिणामों को उजागर कर सकूँ। लेकिन जब मैंने सोचा कि मैं अभी-अभी इस कलीसिया में आया हूँ और मुझे कई कार्यों के लिए उसकी सहायता और सहयोग की आवश्यकता है, मुझे चिंता हुई कि अगर मैं बहुत कठोरता से बात करूँ और वह इसे स्वीकार न कर पाए तो मैं क्या करूँगा। मैंने सोचा कि उसे नाराज न करके बस कुछ संक्षिप्त शब्द कहना ही बेहतर होगा। उसी पल मुझे याद आया कि कैसे मैं पहले खुशामदी के रूप में काम करने के कारण नाकाम रहा हूँ और मुझे अपराध बोध की तीव्र भावना महसूस हुई और मैंने सोचा, “चूँकि मैंने झांग जी की समस्याओं को पहचान लिया है, इसलिए मुझे उसे सुधारना चाहिए और उसकी मदद करनी चाहिए। वह एक कार्यकर्ता है और अगर वह दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से काम नहीं कर सकती है, तो यह निश्चित रूप से काम को प्रभावित करेगा।” इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उनसे सत्य का अभ्यास करने और कलीसिया के काम की रक्षा करने के लिए मेरा मार्गदर्शन करने के लिए कहा। प्रार्थना करने के बाद मुझे ताकत मिली। मैंने झांग जी के साथ संगति करने और उसके मुद्दों का गहन-विश्लेषण करने के लिए परमेश्वर के वचनों का सहारा लिया और मैंने उसकी मदद करने के लिए अपने खुद के अनुभवों का भी सहारा लिया। झांग जी ने मेरे मार्गदर्शन और मदद को स्वीकार किया, आत्म-चिंतन किया, खुद को जाना और बाद में वह दूसरों के साथ सामान्य रूप से सहयोग करने में सक्षम हो गई। यह नतीजा देखकर मुझे बहुत खुशी हुई। जब मैंने सत्य का अभ्यास किया और खुशामदी की तरह काम नहीं किया तो मैंने दूसरों को नाराज नहीं किया जैसा कि मैंने सोचा था। इस तरह से अभ्यास करने से न सिर्फ भाई-बहनों के जीवन को लाभ हुआ बल्कि कलीसिया के काम की भी सुरक्षा हुई। मैंने देखा कि सिर्फ परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करके और सिद्धांतों के अनुसार मामलों को सँभालकर ही कोई व्यक्ति अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से कर सकता है। परमेश्वर का धन्यवाद!

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